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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ मंगल आशीर्वाद - छठे पट्टाचार्य १०८ श्री अभिनन्दनसागरजी महाराज समय-समय पर इस पृथ्वी पर जिन धर्म को चलाने के लिए कोई न कोई बुद्धिजीवी पैदा होते रहे हैं। ऐसे ही बुद्धिजीवियों में से चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ आ० श्री शान्तिसागरजी महाराज, आ० श्री वीरसागरजी, आ० श्री शिवसागरजी, आ० श्री धर्मसागरजी, आ० श्री अजितसागरजी, आ० श्री श्रेयांससागरजी हुए तथा इसी परम्परा में आ० श्री वीरसागरजी की सुशिष्या अनेक उपाधियों से अलंकृत अनेक मुनियों को, आर्यिकाओं को, ब्रह्मचारी वर्गों को, गृहस्थों को शिक्षा, दीक्षा, समाधि के लिए प्रेरित करने वाली प्रेरणास्त्रोत आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का भी नाम सुवर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है। जिन्होंने नारी होकर भी नरवत् कार्य किया। स्व-पर कल्याण हेतु, धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु अनेक ग्रन्थों की रचना की, अनेक ग्रन्थों का अनुवाद किया, हिन्दी पद्यानुवाद किया, संयम धारण किया, भव्यों को संयम धारण कराया, देश, देशान्तरों में भ्रमण करके धर्मोपदेश किया, अनेक निर्माण कार्य कराए, उनमें से मुख्य जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर की रचना है, जो देश-विदेश में प्रसिद्ध हो गयी है। उससे लोगों को जैन भूगोल का भी ज्ञान होता है। माताजी के मुखारविन्द से मुझे भी न्याय, व्याकरण एवं सिद्धान्त ग्रन्थों को पढ़ने का अवसर मिला है। आगे मेरा तो यही आशीर्वाद है कि माताजी का जीवन चिरायु रहे। उनका बाल्यकाल से अभी तक का सम्पूर्ण जीवन-चरित्र शिक्षाप्रद है। आप लोग उनका जीवन चरित्र पढ़ो, मनन करो, मानो, गृहण करो, कोटि-कोटि आशीर्वाद । समाधिर्भवतु, खाँदूकालोनी-बाँसवाड़ा ८ मार्च १९९२ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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