SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४३७ बेस प्रमाणों द्वारा आपने भू-भ्रमण का खंडन किया है तथा वैज्ञानिक (चार्वाक) सम्मत पृथ्वी में आकर्षण शक्ति के हेतुत्व का खंडन बड़ी बखूबी के साथ किया है और अंत में चार्ट से विविध गणितीय मान दिग्दर्शित किए हैं। तथैव अंतमंगल "जंबूद्वीपस्तुति" नाम से किया है। प्रस्तुत ग्रंथ की विशेषताएं: १. आपने वर्तमान रैखिक भाव से आगमिक माप की तुलना करके स्थूलतः साम्य की सिद्धि की है। (देखिए पृ. ९) २. आज के अनुसंधानप्रिय विद्वानों को आज के बाल की मोटाई के हिसाब से आगे के अंगुल, पाद, हाथ आदि बनाकर योजन के हिसाब को समझने के लिए आगाह किया है। (देखिए पृ. ९) । ३. प्रायः हर एक स्थल (जंबूवृक्ष हो कांचन गिरि, कूट हो या पर्वत, नदी हो या पाताल) चित्र बनाकर समझाया है, जो आपके अपार श्रम का सूचक है-विद्वान्नेव विजानाति विद्वज्जपरिश्रमम् । न हि वंध्या विजानाति पुत्रप्रसववेदनाम्॥ ४. "आज का सारा विश्व आर्य खंड में है। हम और आप सभी इस आर्यखंड में ही भारतवर्ष में रहते हैं। अयोध्या से दक्षिण की ओर ४७६०० मील जाने पर लवण समुद्र आता है।" इत्यादि वर्तमान बसे स्थलों का आगमानुसारी स्थलों से परिचय-संबंध बताया है। (देखिए पृ. ५३ आदि) ५. सम्पूर्ण जंबूद्वीप की इतने छोटे में सचित्र किसी ने भी इससे पूर्व प्रस्तुति नहीं की। जंबूद्वीप समीक्षक-डॉ. अनुपम जैन, अध्यक्ष गणित विभाग, शासकीय महाविद्यालय, सारंगपुर परम्परित एवं प्रामाणिक कृति वर्तमान में उपलब्ध प्राचीन धर्म ग्रंथों के उल्लेखों एवं सभ्यता के प्रारंभिक युग के अवशेषों से यह स्पष्टतः LAMBO CHIP AND HASTINAPUR प्रमाणित हो चुका है कि जैन धर्म विश्व का प्राचीनतम धर्म है। इस प्राचीन धर्म के विशाल वाङ्मय, द्वादशांग जम्बूद्वीप वाणी के दृष्टिवाद अंग के अंतर्गत परिकर्म एवं "पूर्व साहित्य" में लोक के स्वरूप एवं विस्तार की व्यापक रूप से चर्चा है। 'करणानुयोग' संस्थान विचय नामक धर्मध्यान का प्रमुख अंग होने के कारण जैनाचार्यों ने इसे अपने अध्ययन में प्रमुख स्थान दिया। वस्तुतः कर्मों की क्रमिक निर्जरा के उपरांत आत्मा की स्थिति, सिद्ध परमेष्ठियों के वर्तमान निवास स्थान, बीच तीर्थंकरों के समवशरणों की स्थिति एवं तीर्थंकरों की जन्मकालीन घटनाओं को समीचीन रूप से हृदयंगम करने हेतु लोक संरचना का ज्ञान अपरिहार्य रूप से आवश्यक है। काल परिवर्तन के साथ ही जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत एतद् विषयक ग्रंथों की भाषा एवं शैली में तो परिवर्तन हुआ है। तथापि ग्रंथों की विषयवस्तु एवं विचारों की एकरूपता इतर समाजों द्वारा अपने विचारों में अनेकशः परिवर्तनों के बावजूद अक्षुण्ण रही है। लोक के स्वरूप एवं विस्तार के अध्ययन की दृष्टि से तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी आ. पूज्यपाद, आचार्य अकलंक एवं आचार्य विद्यानंद कृत टीकायें, लोक विभाग, तिलोयपण्णति, जंबूद्वीप पण्णतिसंग्रहों, तिलोयसार आदि दिगंबर परम्परा के ग्रंथ विशेष रूप से पठनीय हैं। जम्बूद्वीप लोक का एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। इसके बिना मध्यलोक का अध्ययन असंभव है। इस आवश्यकता का अनुभव कर जन सामान्य एवं प्रबुद्ध शोधकों की सुविधा हेतु वर्तमान सदी की सर्वप्रमुख, परमविदुषी, बहुश्रुत आर्यिका, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी ने उपर्युक्त ग्रंथों का आडोलन विडोलन कर जम्बूद्वीप विषयक विवेचनों का संकलन किया है। समीक्ष्य कृति, जम्बूद्वीप में इन विवेचनों को सरल, सुबोध एवं प्रवाहपूर्ण भाषा में प्रामाणिक रूप में संकलित किया गया है। ५६ पृष्ठों में जम्बूद्वीप के छह कुलाचलों, छह सरोवरों, सात क्षेत्रों के विस्तृत विवेचन के उपरांत षट्काल परिवर्तन तथा लवण समुद्र का भी परिचय दिया गया है। एक स्वतंत्र शीर्षक के अंतर्गत भूभ्रमण की वर्तमान मान्यता का तार्किक आधार पर खंडन किया । वस्तुतः इस शीर्षक में शंका समाधान की प्राचीन शैली में संकलित विचार पं. माणिकचन्द्रजी, न्यायाचार्य द्वारा लिखित तत्वार्थ श्लोक वार्तिक की टीका में भी उपलब्ध है। सम्प्रति यह विषय आधुनिक वैज्ञानिकों के मध्य पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुका है। इसका कारण स्पष्ट है कि पृथ्वी के संदर्भ में वैज्ञानिकों के मंतव्य प्रारंभ से परिवर्तनशील रहे हैं। पाइथागोरस (छठी श.ई.पू.) ने पृथ्वी को गोल माना तो अरिस्टोरस (तीसरी श.ई.पू.) ने भ्रमणशील एवं सूर्य के चतुर्दिक चलने वाली, टालेमी एवं अरस्तु ने स्थिर तो गैलीलियो ने भ्रमणशील। गैलीलियो की मान्यता का ईसाई पादरियों द्वारा घोर विरोध हुआ था। आज भी वैज्ञानिक समुदाय में कई ऐसे विद्वान् हैं, जो Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy