________________
गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
क्षुल्लिका विशालमतीजी से इनका परिचय सुनकर वे करुणा के सागर आचार्य श्री बहुत प्रसन्न हुए और 'उत्तर की अम्मा' कहकर इन्हें कुछ संबोधन प्रदान किए। क्षुल्लिका वीरमतीजी तो मानो यहाँ साक्षात् तीर्थङ्कर भगवान महावीर की छत्रछाया पाकर कृतार्थ ही हो गई थीं। बार-बार गुरुदेव की पदरज मस्तक पर चढ़ाती हुई उनकी गुरुभक्ति अन्तर्हृदय की पावनता दर्शा रही थी। कुछ देर की मूकभक्ति के पश्चात् वेदना की शब्दावलियाँ फूटती हैं, जो गुरुवर्य से चिरकालीन भवभ्रमण कथा कह देना चाहती है, किन्तु वीरमतीजी उन्हें अपने एक वाक्य में समेट कर व्यक्त करती हैं'हे संसार तारक प्रभो! मैं आपके करकमलों से आर्यिका दीक्षा लेना चाहती हूँ।
अनुकम्पा की साक्षात्मूर्ति आचार्य श्री की देशना मिली
अम्मा! मैंने अब दीक्षा देने का त्याग कर दिया है, मैं समाधि ग्रहण करने कुथलगिरी जा रहा हूँ। तुम मेरे शिष्य मुनि वीरसागरजी के पास जाकर आर्यिका दीक्षा प्राप्त करो, मेरा तुम्हें पूर्ण आशीर्वाद है।
आशा की किरणावलियां फूटीं वीरमतीजी के हृदयांगन में और उन्होंने आर्थिकादीक्षा से पूर्व महामना उपसर्गविजयी चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री का पंडितमरण देखने का निर्णय किया। अतः सन् १९५५ का चातुर्मास क्षुल्लिका विशालमतीजी के साथ महाराष्ट्र प्रान्त के " म्हसवड़" नगर में किया
-
दो अविस्मरणीय उपलब्धियाँ
२० वर्षीय क्षुल्लिका वीरमतीजी से जहाँ म्हसवड़ की आम जनता अतिशय प्रभावित रही, वहीं यहाँ उन्हें दो शिष्याओं का लाभ मिला कु. प्रभावती जो वर्तमान में आर्यिका श्री जिनमतीजी हैं और सौ. सोनूबाई जिन्होंने आर्यिका पद्मावती बनकर मासोपवास करके सन् १९७१ में उत्तम समाधिमरण प्राप्त किया। यह तो रही शिष्यों की प्रथम उपलब्धि और दूसरी उपलब्धि उनके ज्ञान सूर्य की प्रथम किरण यहीं प्रस्फुटित हुई। उन्होंने अपने व्याकरण ज्ञान का प्रयोगात्मक उपयोग यहाँ "जिनसहस्रनाममंत्र" की रचना से किया भगवान् के एक हजार नामों में चतुर्थी विभक्ति लगाकर नमः शब्द के साथ उनकी ज्ञानप्रतिभा एकदम निखर उठी ।
Jain Educationa International
क्षुल्लिका विशालमतीजी ने तत्काल ही व्रत विधि सहित उन मंत्रों को लघु पुस्तक रूप में प्रकाशित कराया। आज ज्ञानमती माताजी की प्रथम साहित्यिक कृति 'जिनसहस्रनाम मंत्र' का नाम लेते ही मेरे मन में अमिट विश्वास जम गया है कि जिस लेखनी का शुभारम्भ ही श्री जिनेन्द्र के एक हजार आठ नामों से हुआ हो, उसके द्वारा डेढ़-दो सौ ग्रंथ लिखा जाना कोई विशेष बात नहीं है। यदि माताजी के पास उत्तम स्वास्थ्य और साधुक्रियाओं में व्यतीत होने वाला समय और अधिक मिल जाता तो निश्चित ही ग्रंथों की संख्या हजार तक पहुँचने में देर न लगती ।
वीरमती से ज्ञानमती
म्हसवड़ चातुर्मास के मध्य ही जब उन्होंने सुना कि आचार्य श्री ने कुंथलगिरि में यम सल्लेखना ले ली है, तब वे क्षुल्लिका विशालमतीजी के साथ वहाँ अन्तिम दर्शन करने और समाधि देखने पहुँच गईं। द्वितीय भादों शुक्ला दूज को आचार्य श्री ने बड़े ही शांतिपूर्वक “ॐ सिद्धाय नमः" मंत्रध्वनि बोलते एवं सुनते हुए अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। उस समय पूरे एक माह तक क्षुल्लिका वीरमतीजी को वहाँ रहने का सौभाग्य मिला। इस मध्य गुरुदेव के मुख से दो-चार लघु अनमोल शिक्षाएं भी प्राप्त हुईं।
पुनः म्हसवड़ का चातुर्मास सम्पन्न करके वीरमतीजी अपनी उभय शिष्याओं के साथ जयपुर (खानियां) में विराजमान आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के संघ में पहुँची। गौरवर्णी, लम्बेकद और प्रतिभा सम्पन्न लघुवयस्क व्यक्तित्व को देखकर आचार्य श्री एवं समस्त साधु-साध्वी आश्चर्यचकित थे । मूलाचार ग्रंथानुसार पहले तो सब तरफ से गुप्त रीत्या क्षुल्लिका वीरमतीजी की परीक्षाएं हुईं, किन्तु साधु-साध्वी, ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणी सभी तो एक स्वर से इन्हें प्रथम श्रेणी का प्रमाण पत्र देते हुए यही कह रहे थे-अरे! यह तो साक्षात् सरस्वती ही प्रतीत हो रही है। प्रातः ३ बजे से उठकर रात्रि के १० बजे तक यह न तो पुस्तकों का पीछा छोड़ती है और न ही अपनी शिष्याओं को चैन लेने देती है हर वक्त उन्हें ज्ञानाराधना में व्यस्त रखती हैं। इसके साथ ही सामायिक प्रतिक्रमण और स्वाध्याय आदि समस्त क्रियाएं शास्त्रोक्त समयानुसार करती हैं। किसी भी पाठ के लिए इन्हें पुस्तक देखने की भी तो जरूरत नहीं है। पूरा दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण आदि भी कंठस्थ है। आखिर इसे पूर्व जन्म का संस्कार माना जाय या इस जन्म की तपस्या एवं सतत ज्ञानाराधना का फल ।
कुछ भी हो, आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने एक कुशल जौहरी की भाँति इस हीरे को परखा और शीघ्र ही इन्हें आर्यिका दीक्षा प्रदान करने का निर्णय लिया। संघ अब जयपुर से विहार करके राजस्थान के "माधोराजपुरा नगर में पहुँचा, तब वहीं वि.सं. २०१३ (सन् १९५६ ) में वैशाख वदी दूज के शुभ मुहूर्त में क्षुल्लिका वीरमतीजी को आचार्य श्रीवीरसागरजी महाराज ने आर्यिका दीक्षा प्रदान कर "शानमती" नाम से संबोधित किया। इस प्रकार बीसवीं शताब्दी की प्रथम ज्ञानमती को जन्म दिया आचार्य श्री वीरसागरजी ने। जो नाम कबीरदासजी के निम्न दोहे को असत्य साबित कर रहा है
-
[२५१
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org