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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
रंगी को नारंगी कहें, कहें तत्त्व को खोया। चलती को गाड़ी कहें, देख कबीरा रोया ।
अर्थात् सार्थक नामधारी ज्ञानमती माताजी को यदि कबीरदासजी देख लेते तो शायद उनके रोने की नौबत न आती।
आचार्य श्री ने अपनी नवदीक्षित शिष्या को अधिक शिक्षाएं देने की आवश्यकता भी नहीं समझी। उनकी एक वाक्य की लघु शिक्षा ने ही ज्ञानमती माताजी के अन्दर पूर्ण आलोक भर दिया-ज्ञानमतीजी! मैंने जो तुम्हारा नाम रखा है, उसका सदैव ध्यान रखना । बस, इसी शब्द ने आज माताजी को श्रुतज्ञान के उच्चतम शिखर पर पहुँचा दिया है। जहाँ आध्यात्मिक आनन्द के समक्ष शारीरिक अस्वस्थता भी नगण्य प्रतीत होने लगी है।
नये गुरुदेव और अपने नये नाम के साथ आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का नवजीवन प्रारंभ हुआ। आचार्य संघ पुनः विहार करता हुआ कुछ दिनों के बाद जयपुर खानियां में ही आ गया, वहीं सन् १९५६ का वर्षायोग सम्पन्न हुआ। अपनी शारीरिक शिथिलता के कारण आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने उसके पश्चात् जयपुर शहर के सिवाय विहार कहीं नहीं किया। वे मितभाषी एवं स्वाध्याय प्रेमी थे। शाम को प्रतिक्रमण के पश्चात् शिष्यों के सुख दुःख सुनकर किञ्चित् मुस्कराहट में उन सबका दुःख दूर कर दिया करते थे। वे कभी-कभी कहा करते-मुझे दो रोग सताते हैं। शिष्यगण उत्सुकतावश गुरुवर के दुःख जानने को आतुर होते, तभी उनकी मुस्कराहट बिखरती और वे कहते-एक तो नींद आती है
और दूसरी भूख लगती है। इन दो रोगों से तो सभी संसारी प्राणी ग्रस्त हैं, अतः उनकी बात पर शिष्यों को हँसी आ जाती और वे अपना भी दुःख-दर्द भूल जाते।
सच, गुरु के लिए तो यह पंक्तियाँ सार्थक ही सिद्ध होती हैं
त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥
आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज की छत्रछाया में उनकी नई शिष्या आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को भी माता-पिता एवं गुरु का स्नेह प्राप्त हो रहा था। गुरुदेव की शिथिलता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी, अतः सन् १९५७ का चातुर्मास भी जयपुर खानियां में ही रहा। पूज्य ज्ञानमती माताजी कई बार अपने गुरुवर के प्रति असीम श्रद्धा व्यक्त करती हुई बताती हैं कि महाराज, हमेशा धवला की पुस्तकों का स्वाध्याय किया करते थे और कहा करते थे कि भले ही इसमें कुछ विषय समझ में नहीं आते हैं, किन्तु पढ़ते रहने से अगले भवों में अवश्य ही ज्ञान का फल प्राप्त होगा।
चातुर्मास चल रहा था, तभी आश्विन कृ. अमावस्या को आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज मध्याह्न के लगभग ११ बजे समाधि लगाकर पद्मासन में बैठ गए और उनकी आत्मा इस जीर्ण शरीर से निकलकर देवलोक चली गई।
गुरुवियोग से दुःखी चतुर्विध संघ ने वहीं पर अपना नया संघनायक चुना। संघ के सर्ववरिष्ठ मुनिराज श्री शिवसागरजी महाराज इस परंपरा के द्वितीय पट्टाचार्य बने और संघ का कुशलतापूर्वक संचालन किया। गुरुता से लघुता भलीआर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी गुरुदेव के मरणोपरान्त भी आचार्य श्री शिवसागर महाराज के संघ में रहीं और उनकी आज्ञा से कई मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक आदिकों को विविध धर्मग्रंथों का अध्ययन कराया। किन्तु उन्होंने अपनी इस गुरुता को कभी प्रकट नहीं किया। किसी मुनि के द्वारा यह कहने पर कि "ज्ञानमती माताजी मेरी शिक्षा गुरु हैं" वे बड़ा दुःख महसूस करतीं और कहतीं कि महाराज! मैं तो आप सबके साथ स्वाध्याय करती हूँ, न कि पढ़ाती हूँ। यह उनके हृदय की महानता ही थी, वे हमेशा कहा करती हैं कि गुरुता के भार से व्यक्ति दबता जाता है और लघुता से तराजू के खाली पलड़े की भाँति ऊपर उठता जाता है।
धन्य है उनका व्यक्तित्व जिन्होंने गुरु बनकर भी गुरुता स्वीकार नहीं की, इसीलिए आज उन्होंने सम्पूर्ण भारतीय जैन समाज में सर्वोच्च विदुषी पद को प्राप्त कर लिया है। उनकी अध्यापन शैली भी इतनी सरल और रोचक है कि हर जनमानस बिना कठिन परिश्रम किए हर विषय समझ सकता हैं। अध्ययनकाल में शिष्यों को शास्त्रीय विषय के माध्यम से उनके द्वारा न जाने कितनी अमूल्य व्यावहारिक शिक्षाएं भी प्राप्त हो जाती हैं, यह उनके वैदुष्य का सबल प्रमाण है।
सन् १९५७ से सन् १९६२ तक माताजी इसी आचार्य संघ में रहीं। इस मध्य अपनी आर्यिका पद्मावतीजी, आर्यिका जिनमतीजी, आर्यिका
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