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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ ४ि४१ विवरण क्रमांक दिशाएं ईशान आग्नेय नैऋत्य वायव्य शिलाएं पांडुक शिला पांडुक कंबला रक्ता रक्ता कंबला भरत क्षेत्र के २४ तीर्थंकर के जन्माभिषेक का स्थान । पश्चिम विदेह क्षेत्र के दस तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का स्थान पूर्व विदेह क्षेत्र के दस तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का स्थान । ऐरावत क्षेत्र के २४ तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का स्थान। "न्यायसार" समीक्षक- डॉ० दरबारीलाल कोठिया, बीना, सागर "यह ग्रन्थ न्याय की कुंजी है" न्याय-विद्या- अन्य विद्याओं की तरह न्याय-विद्या भी एक विद्या है। इसे हेतुविद्या, हेतुवाद, आनवीक्षिकी, तर्कशास्त्र और न्यायशास्त्र भी कहा गया है। आचार्य माणिक्यनंदि ने तो इस विद्या को “परीक्षा-मुख" तत्त्व और अतत्त्व को जानने वाला प्रवेशद्वार कहा है। बौद्ध-विद्वान् दिङ्नाग ने भी "न्यायमुख" कहकर उसका महत्त्व प्रकट किया है। लघु अनन्तवीर्य परीक्षामुख की व्याख्या प्रमेयरत्नमाला का आरम्भ करते न्यायसार हुए उसे "न्यायविद्यामृत' बतलाते हैं। तात्पर्य यह है कि न्याय-विद्या वह विद्या है जिसके द्वारा पदार्थों का निर्णय किया जाता है। यही कारण है कि आचार्य गृद्धपिच्छ ने प्रमाण और नय इन दो को न्याय कहा है, क्योंकि उनके द्वारा पदार्थों का निश्चय किया जाता है। न्याय-सार-उसी दिशा में प्रस्तुत "न्यायसार" की रचना की गई है। न्याय और न्याय-विद्या से सम्बन्धित मार्थिवाजावानी उसके सभी उपकरणों का इसमें वन्दनीय गणिनी आर्यिका माता ज्ञानमतीजी ने विवेचन किया है। प्रमाण क्या है, उसके भेद कितने और कौन से हैं? उनका क्या स्वरूप है? प्रमाण का विषय क्या है? और वह कैसा है? क्या सामान्यरूप है? क्या विशेष रूप है? अथवा निरपेक्ष उभयरूप है? चूंकि प्रमेय अनेकान्तरूप हैं, इसलिए प्रमाण एकान्त को विषय न करके अनेकान्त को विषय करता है। भले ही ज्ञाता अन्य को गौण करके विवक्षित एक को जीने या वक्ता अन्य सबको गौण करके किसी एक विवक्षित को कहे। पर वस्तु का स्वरूप अनेकान्त रहेगा- जानने या कहने में गौण हए वे सभी धर्म उसमें विद्यमान रहेंगे-उसके अनेकान्त स्वरूप का कभी विघटन नहीं होगा। अनुमान प्रमाण का विशाल परिवार है। इन सबका इसमें बड़ी सरलता से प्रतिपादन किया गया है। इतर दर्शनों में अभिमत प्रमाण के स्वरूपों की भी मीमांसा इसमें समाहित है। इसकी एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता है। वह यह है कि संक्षेप में चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसा, वेदान्तदर्शनों की मान्यताओं को देकर जैन दर्शन को भी प्रस्तुत किया है। सब मिलाकर पुस्तक प्रमाण सामान्य समीक्षा इन चार प्रकरणों (परिच्छेदों) में समाप्त हुई है। न्यायशास्त्र में प्रवेशेच्छुक छात्र, छात्राओं और सामान्यजनों के लिए निश्चय ही उपादेय है। पूज्य माताजी ने इस ग्रंथ के सृजन में न्यायदीपिका, परीक्षामुख, प्रमेय रत्नमाला आदि ग्रन्थों के मूल सूत्रों को ग्रहण कर उनका सार प्रस्तुत किया है वस्तुतः इस ग्रंथ में इन समस्त ग्रन्थों का मंथन कर अमृत रूप विषय संकलित है। यह माताजी का स्तुत्य प्रयत्न है, जो उन्होंने न्याय जैसे दुष्कर एवं रूक्ष विषय को सुबोध एवं सहजगम्य बना दिया है। १. ल.सू. १-६ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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