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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
तब बड़े प्यार से माता ने, कन्या का मैना नाम रखा ॥ २४ ॥ श्री छोटेलाल जैन के घर, तेरह इस तरह प्रभात हुए ; नौ हुई पुत्रियाँ, चार पुत्र, जीवन में उन्हें प्राप्त हुए । अब सुनिये मूल कथा, जिससे रखना हम सबको नाता है; पत्री मैना का बालकाल, प्रियवर दर्शाया जाता है ॥ २५ ॥
बाल्य-काल
जब बालकाल देखा सबने, मैना का बड़ा निराला है; उस नगरी में इस बाला-सा, कोई न प्रतिभा वाला है। प्रारंभिक बेसिक शिक्षा पर, थी ऐसी कड़ी नजर डाली; कुल आठ बरस में मैना ने, यह शिक्षा पूरी कर डाली ॥ २६ ॥ था आगे और नहीं साधन, पर साध न पूरी हो पाई ; फिर गई जैनशाला पढ़ने, मच गई वहाँ हलचल भाई । मैंना इस तरह वहाँ जाकर, मेधा को और निखार चली; जो आगे पढ़ने वाली थी, हर बाला इससे हार चली ॥ २७ ॥ उस शाला में इस बाला का, पढ़ने का अलग तरीका था; तोता-मैना की तरह न इस, मैंना ने रटना सीखा था । जो उसको सबक मिला करता, आचरणों से कर दिखलाया; लग उठा युधिष्ठिर सत्यम् वद्, जैसा पढ़ने का युग आया ॥ २८ ॥ माया के चक्कर में मैंनामैं-ना, मैं-ना बतलाती थी ; बचपन में पचपन वय जैसी, गंभीर धीरता लाती थी। जब लगा ग्यारहवाँ वर्ष "सरस" मैंना ने यों अंगड़ाई ली; वह राग न पूरा पा पाई, पर वीतराग दिखलाई दी ॥ २९ ॥ चाहे बचपन हो, यौवन हो, या सजे बुढ़ापा झाँकी है; जो होनहार होते उनको, थोड़ा निमित्त ही काफी है । कर दिया प्रभावित था किसने, क्यों ऐसी खिंची हृदय रेखा? अकलंक और निकलंक वीर, मैना ने था नाटक देखा ॥ ३० ॥ नाटक का अति चित्ताकर्षक, जब एक सीन ऐसा आया; अकलंक करो शादी जल्दी, था उन्हें पिता ने समझाया । कीचड़ में पग रख के धोना, यह काम पिता न सच्चा है; इससे तो बेहतर कीचड़ में, पग ही न रखू यह अच्छा है ॥ ३१ ॥ बस, इसी वाक्य ने मैना के, मन को मक्खन-सा मथ डाला; उसने अकलंक समान तभी, दृढ़ होकर निश्चय कर डाला । बोली परिणय के बाद, दीक्षा सफल नहीं हो पायेगी; अब मैना कुँवारी दीक्षित हो, जिनमत का अलख जगायेगी ॥ ३२ ॥ जब पता चला यह माता को, उसने समझा यह बचपन है; सब ठीक-ठाक हो जायेगा, आने तो दो नवयौवन है । जब आँखों में होगा खुमार, यौवन अपना रंग लायेगा ; तब यह भोलापन बालापन, बाला वाला भग जायेगा ॥ ३३ ॥
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