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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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कल्पद्रुम भक्ति काव्य में इन सभी तथ्यों की साकारता समाई हुई है। इस काव्य के पाठन में दृश्य काव्य जैसी सुखानुभूति प्रत्येक पाठक या श्रोता को समुपलब्ध होती है। जिससे पूजा आराधना के परिप्रेक्ष्य में इसकी वृहत्तर लोकप्रियता बढ़ी है तथा जिनागम पद्धति के अनुसार इसका व्यापक प्रभावना के साथ पाठ किया जाता है। हमारे पूर्वाचार्यों ने श्रावक के दैनिक कर्तव्यों के सन्दर्भ में लिखा है:
देव पूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥ श्री बनारसीदास जी ने समयसार नाटक में पूजा की महत्ता दर्शाते हुए कहा है:
लोपे दुरित हरै दुःख संकट आपे रोग रहित नितदेह। पुण्य भण्डार भरै यश प्रकटै मुकति पंथ सो करै सनेह ॥ रचै सुहाग देय शोभा जग परभव पहुंचावत सुरगेह ।
कुगति बंध दलमलहि 'बनारसि' वीतराग पूजा फल ऐह ।। लोक में चतुर्निकाय के जीवों में मनुष्य और देव ही जिनेन्द्र की भक्ति करके उत्तम सुख रूप, मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त करते हैं। मनुष्यों को जिनेन्द्र भक्ति के विषय में हमारे पूर्वाचार्यों ने अनुग्रहपूर्वक पंचविंशति तथा अमित गति श्रावकाचार नाम के ग्रंथों में कहा है:
ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न । निष्फलं जीवितं तेषांधिक् च गृहाश्रमम्॥ अपूजयित्वा यो देवान् मुनीननुपचर्य च। यो भुञ्जीत गृहस्थः सन् न भुञ्जीत परं तपः ॥
अर्थात् जो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान का न दर्शन करते हैं न पूजन करते हैं और न ही स्तुति करते हैं उनका जीवन निष्फल है तथा उनके गृहस्थ को धिक्कार है। जो गृहस्थ जिनदेव की पूजा और मुनियों की उपचर्या किए बिना अन्न का भक्षण करता है वह सातवें नरक के कुम्भीपाल बिल में दुःख को भोगता है।
पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्य ने महान्ग्रंथराज धवला में कहा है जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय देखा जाता है। अहंत नमस्कार तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा का कारण है। जो भव्य भक्तिपूर्वक जिन भगवान की पूजा-दर्शन स्तुति करते हैं वह तीनों लोकों में स्वयं ही दर्शन-पूजन और स्तुति के योग्य हो जाते हैं। वर्तमान काल में मुनिराजों के चलते-फिरते अहेत की संज्ञा से अभिभूत कर उनकी उपासना करने की आज्ञा आगम में है। आज एकान्त मिथ्याभाषी जन मुनिराजों की अवज्ञा कर अहंत मुद्रा की अवज्ञा करते देखे जाते हैं ऐसे अधम जनों को धवला महान् ग्रंथ में आचार्यों ने कहा है कि-सकल जिनों के समान देशजिनों (मुनिराजों) को नमस्कार करने से सबकों का क्षय होता है। क्योंकि ज्ञान दर्शन और चरित्र के संबंध में उत्पन्न हुई समानता उनमें पाई जाती है और असमानों का कार्य असमान ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण अग्नि के द्वारा किया जाने वाला दाह कार्य उसके अवयव में भी पाया जाता है। अतः धवला में देवशास्त्र और मुनिराजों का अष्ट द्रव्य जल, चन्दन, अक्षत, नैवेद्य, दीप, धूप, फलों से अपनी भक्ति प्रकाशित करने की आज्ञा दी है। वसुनन्दि आचार्य ने लिखा हैजल से पूजन करने से पाप रूपी मैल का संशोधन होता है। चन्दन चढ़ाने से मनुष्य सौभाग्य से सम्पन्न होता है, अक्षत चढ़ाने से अक्षयनिधि रूप मोक्ष को प्राप्त करता है, वह चक्रवर्ती होता है और सदा अक्षोभ रोग शोक रहित निर्भय रहते हुए अक्षीण लब्धि से युक्त होता है। पुष्प से पूजन करने वाला कामदेव के समान समर्चित देह वाला होता है। नैवेद्य चढ़ाने से मनुष्य शक्ति, कान्ति और तेज से सम्पन्न होता है, दीप से पूजन करने वाला केवलज्ञानी होता है, धूप से पूजन करने से त्रैलोक्यव्यापी यशवाला होता है तथा फलों से पूजन करने वाला परम निर्वाण सुखरूप फल को पाने वाला होता है। .
तिल्लोयपण्णत्ति ग्रन्थ में नंदीश्वर एवं पंचमेरु स्थित अकृत्रिम जिनालयों में स्थित जिन भगवन्तों की स्तुति का वर्णन आचार्यों ने किया है। जिसमें कहा गया है कि नंदीश्वर द्वीप स्थित जिनमंदिरों की यात्रा में बहुत भक्ति से युक्त कल्पवासी देव पूर्व दिशा में भवनवासी देव दक्षिण दिशा में व्यंतर देव पश्चिम में और ज्योतिष देव उत्तर दिशा में मुख से बहुत स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए अपनी-अपनी विभूति के योग महिमा को करते हैं। यह सभी देव कार्तिक, आषाढ़, फाल्गुन माह की अष्टमी से पूर्णिमा तक पूर्वाह्न अपराह्न पूर्व रात्रि और पश्चिम रात्रि में दो दोपहर तक उत्तर भक्तिपूर्वक प्रदक्षिण क्रम से जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं की विविध प्रकार से पूजा करते हैं।
श्रावक के षट् कर्तव्यों में प्रथम कर्त्तव्य देव पूजा ही है। आगम में पूजा के पाँच अंग कहे हैं १- आह्वानन २- स्थापना ३- संनिधीकरण ४- पूजन ५- विसर्जन इन्हीं पाँच अंग रूप पूजन करने का विधान आगम में कहा गया है। भगवान जिनेन्द्र देव की पूजन असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा का कारण
करते है।
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