SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 772
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७०४] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला डा. श्रेयांसमाताजी पुनः प्रेरणा की। ब्रह्मचारी जी का स्वयं विकल्प था ही। वे तो इसीलिए ब्यावर पहुंचे थे। साथ में और एक प्रशस्त विकल्प था कि यदि संस्था संचालन होते हुए क्षुल्लक प्रतिमा का दान आचार्यश्री देने को तैयार हों तो हमारी लेने की तैयारी है।" इस प्रकार अपना हार्दिक आशय ब्रह्मचारी जी ने प्रगट किया। 5-6 दिन तक उपस्थित पंडितों में काफी बहस हुई। पंडितो का कहना था कि क्षुल्लक प्रतिमा के व्रतधारी संस्था संचालन नहीं कर सकते। आचार्य श्री का कहना था कि पूर्व में मुनि संघ में ऐसे मुनि भी रहा करते थे जो जिम्मेवारी के साथ छात्रों का प्रबन्ध करते थे और ज्ञानदानादि देते थे। यह तो क्षुल्लक प्रतिमा के व्रत श्रावक के व्रत हैं। अन्त में आचार्य महाराज ने शास्त्राधारों के आधार से अपना निर्णय सिद्ध किया। फलतः श्री ब्र० देवचन्द जी ने क्षुल्लक पद के व्रतों को पूर्ण उत्साह के साथ स्वीकार किया। आचार्य श्री ने स्वयं अपनी आन्तरिक भावनाओं को प्रगट करते हुए दीक्षा के समय “समंतभद्र" इस भव्य नाम से क्षुल्लकजी को नामांकित किया और पूर्व के समंतभद्र आचार्य की तरह आपके द्वारा धर्म की व्यापक प्रभावना हो इस प्रकार के शुभाशीर्वादों की वर्षा की। कहाँ तो बाल की खाल निकालकर छोटी-छोटी सी बातों की जटिल समस्या बनाने की प्रवृत्ति और कहाँ आचार्यश्री की प्रहरी के समान सजग दिव्य दूर-दृष्टिता? मुनियों के संघ और आर्यिकाओं के संघ यदि अलग-अलग रहें, अच्छी व्यवस्था है, इसमें आपका क्या अभिप्राय है? ऐसा एकांत नहीं है। मूलाचार ग्रंथ में आर्यिकाओं का आचार्य कैसा हो? अच्छा वर्णन किया है अर्थात् वे चारित्र में, ज्ञान में, तप में और उम्र में भी प्रौढ़ हो तभी वे आर्यिकाओं को प्रायश्चित आदि देने के अधिकारी हो सकते हैं। जैसाकि आपने आचार्यश्री वीरसागरजी आदि को देखा है, सुना है। मूलाचार में तो मुनि को एकलविहारी होने का पूर्ण विरोध किया है। ऐसे छोटी उम्र में मुनि-आर्यिका का एक साथ रहना भी लोक विरुद्ध है। ___ सच पूछा जाय तो आर्यिकाओं के संघ अलग रहें और प्रधान आर्यिकायें ही आर्यिका दीक्षा देवें। यह परंपरा आगम सम्मत भी हैं, बहुत ही स्वस्थ है। मैंने जो चालीस वर्ष में अनुभव किया है उसके अनुसार आज इसे ही अच्छा समझती हूँ। वर्तमान में कई साधु वर्गों में शिथिलाचार देखा जाता है उसका क्या कारण है? कुछ विद्वान् या श्रावक वर्तमान के सभी मुनियों को शिथिलाचारी कह देते हैं। यह भी गलत है, रही बात किन्हीं साधु में कुछ कमी की, तो इस विषय को उन साधु को एकांत में समझाना चाहिये। या उनके गुरु को जाकर कहना चाहिये। बात यह है आचार्यों को ही साधुसाध्वियों पर अनशासन करने का अधिकार है। आप एक छोटी सी साधु संहिता बना दें जिससे साधु संघों में सुधार का मार्ग प्रशस्त हो जाय? सन् १९६६ में श्री भंवरीलाल जी बाकलीवाल महासभा के अध्यक्ष ने दो तीन बार यह विषय मेरे सामने रखा था। और भी अनेक विद्वानों ने यह बात कही किंतु मैं समझती हूँ कि मूलाचार में श्रीकुंदकुंददेव ने जो कुछ भी लिखा है वही तो "मुनिसंहिता" है उसी के अनुसार हम सभी की प्रवृत्ति होनी चाहिये। पुनः मैंने इन मुनियों के चरणानुयोग संबंधी अनेक ग्रंथों के उद्धरण देकर मूलाचार ग्रंथ के आधार से "आराधना", दिगंबर मुनि" और "आर्यिका" पुस्तकें लिखी हैं ये भी मुनि-आर्यिकाओं के लिये विधान ग्रंथ हैं। तीसरी बात-चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने जो मुनि परंपरा को पुनजीवित करके जो भी चर्या स्वयं पाली है और जो भी चर्या अपने संघस्थ मुनि-आर्यिकाओं से पालन करायी हैं। उन्हीं को आधार बनाना चाहिये। हम सभी विद्वान व श्रावकों के लिये आपका क्या आदेश है? जिनवाणी के स्वाध्याय को बढ़ाना, जन-जन में उसका प्रचार करना और अपने जीवन में कम से कम भी पंच अणुव्रत अवश्य धारण करना । देवपूजा, गुरुभक्ति, गुरुओं को आहारदान आदि देना। यही आप विद्वानों का कर्तव्य है। दान-पूजन के बिना विद्वानों की विद्वत्ता कोरा शब्दज्ञान ही है। यही श्रीमंतों का कर्तव्य है। आज पंचमकाल में जिनेंद्रदेव की भक्ति और गुरुभक्ति ही मोक्ष के लिये कारण है। इन्हीं कर्तव्यों के पालन से गृहस्थों का जीवन और धन सफल है। वंदामि, माताजी! डा. अनुपममाताजी श्रेयांसकुमारमाताजी संपादकमाताजी संपादक मंडल १- आचार्य श्री शांतिसागरजी जन्म शताब्दी स्मृति ग्रंथ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy