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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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माताजी से उनके बातचीत के समय पर ही बात करने का प्रयास करें। क्योंकि उनकी यह तन्मयता जहाँ उनके स्वयं के लिए हितकारी है, वहीं लाखों लोगों को ज्ञान और भक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करती है। यही तन्मयता उन्हें चिन्मयता प्रदान करती है। तपस्विनी की पिच्छिका से घाव ठीक हुआअभी जून, १९९२ में सरधना से एक महिला हस्तिनापुर पधारी। उन्होंने यहाँ आकर दर्शन करते ही गद्गद स्वर में कहना शुरू किया कि माताजी की पिच्छी में तो जादू भरा है, असाध्य रोग भी इनकी पिच्छिका स्पर्श से ठीक हो जाते हैं।
अनेक स्थानों से पधारे तीर्थयात्री एवं भक्तगण उत्सुकतावश जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से उनकी ओर देखने लगे कि ये माताजी की पिच्छिका का कौन-सा अतिशय बताने जा रही हैं। वे महिला आगे कहने लगीं-"मेरे ससुर बाबूरामजी शुगर के मरीज हैं। उनके पैर में तीन वर्ष से एक बड़ा घाव था। न जाने कितनी दवाइयाँ करने पर भी यह घाव भर नहीं रहा था, जिससे वे बड़े परेशान रहते थे। घर में ही चौबीस घंटे लेटे-लेटे दुःखी थे। एक दिन उनका कुछ पुण्योदय हुआ। पूज्य माताजी आहारचर्या के बाद वापस आ रही थीं, तभी मालियान मोहल्ले में स्थित हमारे घर के सामने से निकलीं। पिताजी ने उन्हें नमोऽस्तु किया और हमने माताजी से उनकी तकलीफ बताई, तब पूज्य माताजी ने मंत्र पढ़कर मस्तक पर पिच्छी लगाई तथा उनसे णमोकार मंत्र की माला फेरने को कहा।
आश्चर्य क्या महान् अतिशय ही नजर तब आया, जब २-३ माह के अंदर ही बिना किसी दवाई के घाव बिल्कुल सूख गया और अब पिताजी स्वस्थ हैं, प्रतिदिन माताजी को याद कर परोक्ष में ही उनकी भक्तिपूर्वक वंदना करते हैं।
गुर्दे के रोगी ठीक हुएइसी प्रकार एक दिन मेरठ-सदर निवासी जीवन बीमा निगम के एजेंट श्री विजय कुमार जैन सपत्नीक हस्तिनापुर पधारे, साथ में उनकी सुपुत्री कु. प्रियांगना थी। वे बड़ी श्रद्धापूर्वक दर्शन करके माताजी से कहने लगे कि क्या आपने मुझे पहचाना नहीं? पूज्य माताजी द्वारा उन्हें पहचानने के लिए मस्तिष्क पर जोर डालने पर वे महानुभाव स्वयं अपना परिचय बताने लगे।
मैं सन् १९८७ में अपनी बेटी को आपसे आशीर्वाद दिलवाने लाया था। १२ वर्ष से इसे गुर्दे की बीमारी थी। डाक्टर ने १५ अगस्त सन् १९७५ को पूरा चेकअप करके घोषित किया कि इसे गुर्दे की बीमारी है। उसके बाद हमने किसी डॉक्टर का कोई इलाज बाकी नहीं छोड़ा, किन्तु सन् १९८७ में इसके दोनों गुर्दे बिल्कुल खराब हो गए। मैं बहुत परेशान था, तभी एक दिन अमरचंदजी होमब्रेड वालों की प्रेरणा से मैं लड़की को लेकर उन्हीं के साथ आपके पास आया।
आपने छोटा-सा मंत्र पढ़कर इसे प्रतिदिन पानी देने को कहा और अपनी पिच्छी से आशीर्वाद दिया, तब से मेरी लड़की बिल्कुल स्वस्थ है। पुनः चेकअप कराने पर अब इसके कोई बीमारी नहीं निकली।
उन्होंने कहा मेरी और मेरे परिवार की आपके प्रति अगाध श्रद्धा है, हम लोग तो प्रायः आपके दर्शनार्थ आते ही रहते हैं।
माताजी मुस्कराईं और उन लोगों को, कु. प्रियांगना को खूब-खूब आशीर्वाद दिया तथा अपनी पहचानने में स्मरण शक्ति कमजोर कहकर खेद व्यक्त किया। वैसे उन्हें शास्त्रीय बातें तो ५० वर्ष पूर्व की भी याद हैं। जो कभी किसी ग्रंथ में पढ़ी थीं, उन्हें दीर्घकाल के बाद भी ज्यों की त्यों बता देती हैं। पूज्य माताजी कभी-कभी मितभाषा में कहा करती हैं कि "जिससे मेरा आत्महित होता है, मैं उसी को याद रखती हूँ, शेष सब कुछ मुझे अनावश्यक प्रतीत होता है, इसीलिए मेरा मस्तिष्क उन्हें याद नहीं रखता है।"
आशीर्वादवश काल से बाल-बाल बचेअभी चंद दिन पूर्व दिनांक ६ जुलाई, १९९२ को मेरठ से प्रेमचंद जैन तेल वाले सपत्नीक हस्तिनापुर पधारे, उनके साथ उनके भतीजे सुभाष जैन भी सपत्नीक तथा और भी कुछ महिलाएं थीं। ये लोग पूज्य माताजी के सानिध्य में आज शांतिविधान करने आए थे। थोड़ी देर बातचीत के दौरान बताने लगे कि माताजी! आपके आशीर्वाद से सुभाष एवं उसकी बहू मत्यु के मुंह से बच गए।
कैसे, क्या हुआ? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि अभी पिछले सप्ताह ही दो बार की गंभीर चोटों के बाद कुछ स्वस्थ होकर आपके दर्शनार्थ आया था। आपने इसे गले में पहनने के लिए यंत्र दिया और अपने सामने ही चाँदी की डिब्बी में वह यंत्र डलवाकर पहनवाया था। पुनः ये लोग आपका आशीर्वाद लेकर मेरठ के लिए वापस चले तो रास्ते में एक बस से इनकी गाड़ी में तेज टक्कर लगी। बस, पता नहीं यंत्र और पुण्य सामने आ गया और ये लोग बच गए, जबकि उस गम्भीर एक्सीडेंट में इन लोगों को अपने बचने की कोई उम्मीद नहीं थी। किसी तरह घर तक पहुँचकर ये हम लोगों से चिपक कर खूब रोए और अपने गले का यंत्र दिखाकर बार-बार यही कहने लगे कि आज तो हमें माताजी के इसी आशीर्वाद ने बचाया है, वरना हम घर तक वापस नहीं आ सकते थे। इस तेज टक्कर के बाद भी किसी को खरोंच तक न आई, मात्र
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