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________________ ५०४] अर तीर्थंकर पूजा में भी एक पंक्ति है, जो आप देखिए - ५२ पृ. पर: दोहा हस्तिनापुर एक ऐसा महान् तीर्थक्षेत्र है, जहाँ पर शांति, कुंधु, अरनाथ तीर्थंकर के चार-चार कल्याणक हुए हैं। ऐसे ही महावीर भगवान्, जिनके पाँच नाम हैं, आप लोगों ने भी सुना होगा – सन्मति, महावीर, वीर, अतिवीर, वर्धमान। ये महावीर प्रभु गुणों के सागर हैं और इनकी माता का नाम त्रिशला है। इनके गुणों का व्याख्यान आप लोगों ने सुना होगा और पढ़ा भी होगा। अब आप देखिए कि इस पुस्तक की आखिरी पूजा है। वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला निर्वाण क्षेत्र पूजा, इसकी जयमाला में चार लाइन ऐसी हैं कि जिसको यह नहीं मालूम हो कि कौन से तीर्थंकर भगवान् कहाँ से मोक्ष गये हैं, वे भी इस पूजा को करके जरूर बता देंगे - देखिए पृ. ७२ पर चौबीस शांति कुंथु अरनाथ के गर्भ जन्म तप ज्ञान । हस्तिनागपुर में हुए, चार कल्याण महान् । Ade अर्थात् पहले आदिनाथ भगवान् कैलाश पर्वत से मोक्ष गये हैं। नेमिनाथ गिरनार से वासुपूज्य चंपापुर से और महावीर भगवान पावापुर से मोक्ष गये हैं। और बाकी के तीर्थकर सम्मेदशिखर से मोक्ष गये हैं उन सबको मेरा कोटि-कोटि नमन इस पूजा के बाद कुछ भगवानों के अर्घ्य है, फिर पुस्तक के अन्त में पूजा अन्त्य विधि है, इसको करने से प्रातः काल की सामायिक हो जाती है। नित्यप्रति जिनेंद्रदेव के अभिषेक पूजन हेतु यह पुस्तक अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 1 इसमें जो अभिषेक से पूर्व पूजामुखविधि एवं पूजा अन्त्य विधि दी गई है, ये दोनों विधि पूज्यपाद स्वामी रचित अभिषेक पाठ के प्रारंभ और अंत में दिये गये अभिप्राय अनुसार ही हैं। यह पूजामुखविधि और अन्त्यविधि श्रीनेमिचन्द्र कृत प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में भी इसी प्रकार से पाई जाती है। अतः यह विधि शास्त्रसम्मत प्रामाणिक है। पूजा के आदि अंत में इसे अवश्य करना चाहिए प्रतिदिन पूजा करने वाले श्रावक-श्राविकाओं के लिए यह अत्यंत उपयोगी पुस्तक है, जंबूद्वीप हस्तिनापुर से मंगाकर आप इससे लाभ प्राप्त करें, यही मेरी मंगल प्रेरणा है। चौबीस तीर्थंकर नमो ऋषभ कैलाश पहारं, नेमिनाथ गिरनार निहार, वासुपूज्य चंपापुर बंदी, सन्मति पावापुर अभिनंदी। Jain Educationa International समीक्षक डॉ. प्रेमचंद रांवका, जयपुर भारतीय धर्म-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान और कला-संस्कृति की दो प्रमुख विचारधाराएं हमें आदिकाल से मिलती हैं। एक विचारधारा ब्रह्मवादी रही तो दूसरी पुरुषार्थवादी - श्रमणधारा रही, जिसमें आत्मोत्थान हेतु शुद्धाचरण को प्रमुखता दी गयी। ये दोनों वैदिक एवं श्रमण विचारधाराएं इस राष्ट्र के सांस्कृतिक विकास में अति प्राचीन काल से निरंतर प्रवाहमान रही हैं। इस राष्ट्र के बौद्धिक स्तर को बनाए रखने में इन दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर ने 'संस्कृति' के चार अध्याय में लिखा है कि बौद्धधर्म की अपेक्षा जैन धर्म बहुत अधिक प्राचीन है, बल्कि यह उतना ही पुराना है, जितना वैदिक धर्म जैन धर्म की परंपरा अत्यन्त प्राचीन है। भगवान महावीर तो अंतिम तीर्थंकर थे, जिनकी ऐतिहासिकता निर्विवाद है। इनसे पूर्व तेतीस तीर्थकर और हो चुके हैं। इनमें ऋषभ प्रथम तीर्थंकर थे जिन्हें आदिनाथ भी कहा जा सकता है। 1 1 जैन आगमों के अनुसार मनु चौदह हुए हैं, उनमें अंतिम मनु नाभिराय थे, उन्हीं के पुत्र ऋषभदेव हुए जिन्होंने कर्म की महत्ता प्रतिपादित की। भारतीय कलाओं में उनका अंकन घोर तपश्चर्या की मुद्रा में मिलता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, महाभारत एवं पुराणों में अनेक प्रसंगों पर इनका उल्लेख मिलता है। भागवत् में तो विस्तार से ऋषभदेव के चरित्र के साथ उनके शतपुत्रों में ज्येष्ठ भरत तथा उनके नाम पर भारत देश का उल्लेख है 1 ऋषभदेव के पश्चादवर्ती तीर्थकरों में भगवान नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान महावीर तो भारतीय इतिहास में बहुश्रुत है, परन्तु मध्यवर्ती तीर्थकरों के विषय में जैनेतर इतिहास मौन है। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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