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________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला का हो जाता है, ऐसे टूढ रूप में आरूढ़ प्रभू की वंदना को सुरगण धरती पर आकर अपना गौरव समझते हैं। वे उनका वेष्टित रूप देखकर मोहित हैं 'शालिधान अकुंर राम सुंदर रूप अहो! बाहुबल ईश योग लीन में लता और सर्पों से वेष्टित प्रीति सहित । एक वर्ष की इस साधना से उनमें अलौकिक अनुपम ज्ञान प्रकट हुआ। प्रकृति भी अपनी श्रद्धा को झूम-झूमकर व्यक्त करने लगी "आप ध्यान से हर्षित वन के षट् ऋतु के तरु बेल सभी । पुष्प फलों से सहित भार से नत हो मानो झुकें सभी ॥ पुष्पों से वर्षा तव ऊपर फल से पूजा भक्ति करें। इनके भार से प्रणमन करते शोभें मानो भक्ति भरें ॥" 1 केवलज्ञान प्राप्त भगवान अष्ट प्रातिहार्यों से शोभित हो रहे हैं। उनकी दिव्यध्वनि सच्चे धर्म को व्यक्त करके सन्मार्ग प्रशस्त करती है। कवयित्री भक्ति में इतनी लीन है, आराध्य के चरणों में इतनी रम गई है कि बस अब तो वे उनकी वह कृपादृष्टि चाहती है जिससे वे मुक्ति पथ पर निर्विघ्न अवसर हो सकें. "कृपा सिंधू हे कृपा करो झट मेरी भी रक्षा कीजे । हो प्रसन्न अब मुझ पर भगवन्! अनंत शांति को दीजे ॥ वे इसी भक्ति प्रवाह में संसार के विषचक्र का स्मरण करती हैं और पुनः पुनः उससे छूटने का प्रयास करती हैं। यह भवभ्रमण तो प्रभू के वाम्बु में ही छूट सकता है। क्योंकि तुम्हारा आश्रय ही मुक्तिदाता है Jain Educationa International "जो जन दृढ़ भक्ति से निर्भर तेरा आश्रम लेते हैं। त्रिभुवन जन को आश्रय देने में समरथ होते हैं। बाहुबली की स्तुति ध्यान वंदन ही तो कल्मषता को धोयेंगे। भ बाहुबली की महिना व दर्शन से कटने वाले पाप, प्राप्त होने वाली मुक्ति का उन्होंने पुनःपुनः वर्णन किया है। इन पुनरुक्ति में उनके हृदय की भक्ति की ही उत्कृष्टता है। भक्त को कहाँ ध्यान रहता है कि वह आराध्य के किन गुणों को गा रहा है। भक्ति में बेभान हो जाना ही भक्ति का आनंद है। कवयित्री इस आनन्द को पा सकी हैं अतः यह पुनरुक्ति होना स्वाभाविक है । पूरे स्तोत्र पर मानतुङ्गाचार्य के भक्तामर की झलक है। इसका अर्थ मानतुंगाचार्य की नकल नहीं, पर उसी कोटि का यह काव्य बन सका है। इन श्लोकों में कवयित्री की भक्ति के साथ उनका साहित्यिक पहलू भी स्पष्ट हुआ है। विविध अलंकारों रूपकों ही छटा द्रष्टव्य है। मुझे तो भक्ति ओर साहित्य का यह उत्कृष्ट काव्य लगा। ऐसे काव्य ही साहित्य की श्री वृद्धि करते हैं। साध्वीजी की भक्ति, आराध्य के प्रति समर्पण, गुणकथन, अतिशय एवं प्रभावना आदि के भाव प्रत्येक पद का लालित्य प्रकट करते हैं For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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