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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
संसार विनिवृत्ति का मार्ग मुनि लिंग ही है। इसके बिना रत्नत्रय की उत्कृष्ट आराधना संभव नहीं है। यद्यपि मुनिलिंग वाह्य वेश है तथापि अंतरंग शुद्धि के लिए उसका ग्रहण करना आवश्यक है। दिगम्बर मुनि की चर्या खड्गधार पर चलने के समान कठिन है। इसे वही धारण कर सकता है, जो संसार शरीर और भोगों से अत्यंत निर्विण्य हो साथ ही प्रबल शक्ति का धारक हो । आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने "दिगम्बर मुनि" नामक ३०४ पृष्ठ का महान् ग्रंथ लिखकर यह स्पष्ट किया है कि दीक्षा कौन ले सकता है? दीक्षा लेने की पात्रता किसे है? कैसे गुरु के पास जाकर दीक्षा लेनी चाहिए? दीक्षा लेते समय क्या-क्या विधि होती है? तथा साधु के क्या-क्या मूल गुण हैं? यह सब विस्तार से इस ग्रंथ में स्पष्ट किया गया है।
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समयसार
मूर्धि
"दिगम्बर मुनि' ग्रंथ में तीन अवान्तर भाग हैं। इन भागों में माताजी ने मुनिधर्म से संबंध रखने वाले प्रत्येक विषय की स्पष्ट चर्चा की है। मुनियों के कितने भेद हैं? उनका क्या स्वरूप है और उनकी क्या-क्या आचार विधि है? इसका सांगोपांग निरूपण किया है। जिनकल्पी और स्थविरकल्पी तथा पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक इन सबका स्पष्ट विवरण संकलित है
अंतिम खंड में ख. डॉ. नेमीचंदजी शास्त्री द्वारा लिखित और अ. भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् के द्वारा प्रकाशित तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा के चार भागों के आधार पर मुनियों का ऐतिहासिक वर्णन दिया है, जो सर्वमान्य है। स्वनाम धन्य आचार्य शांतिसागर से लेकर आचार्य धर्मसागर तक के आचार्यों का परिचय दिया है। ग्रंथ की रचना में ६५ ग्रंथों का सूक्ष्मावलोकन किया गया है तथा उनके संदर्भानुसार प्रमाण पाद टिप्पणी में दिये गये हैं। वस्तुतः यह ग्रंथ मुनिचर्या पर प्रकाश डालने वाला अद्वितीय ग्रंथ है।
इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का सृजन कर आपने विद्वानों पर बहुत उपकार किया है। ग्रंथ संग्रहणीय है ।
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समयसार (पूर्वार्द्ध)
समीक्षक- आर्यिका चन्दनामतीजी, संघस्थ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती जी
किया है, जो "वीरज्ञानोदयग्रंथमाला" हस्तिनापुर का ११५ व पुष्प है।
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प्रथम सर्वांगीण समयसार
जैन जगत् के उपलब्ध विशाल साहित्य के अन्तर्गत श्री कुन्दकुन्दाचार्य की अनमोल कृति समयसार ने विशेष लोकप्रियता प्राप्त की है। इस आध्यात्मिक ग्रंथ पर वर्तमान शताब्दी में अनेकों मनीषियों ने अपनी-अपनी रचनाएं प्रस्तुत की हैं, अतः एक ही आगम पर सैकड़ों कृतियाँ उपलब्ध हैं ।
इन समस्त उपलब्ध कृतियों के अवलोकन से पता चलता है कि किसी ने आचार्य श्री अमृतचन्द्रजी की टीका को अधिक महत्त्व दिया है, किसी ने श्री जयसेनाचार्य की सरल टीका को प्रधानता दी है। इसी प्रकार कोई समयसार के कलश-काव्यों पर अनुसंधान कर रहे हैं तो कोई उनके पद्यानुवादों से जनमानस को ज्ञानामृत का रसपान कराना चाहते हैं तथा कुन्दकुन्दस्वामी की मूलगाथाओं पर भी अनेकों पद्य रचनाएं देखी जा रही है।
इसी श्रृंखला में पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से भी वह महानुकृति अछूती न रही, उन्होंने पहले अपने दीक्षित जीवन के लगभग चालीस वर्षों में पच्चीसों बार समयसार का सूक्ष्म अध्ययन किया, पुनः अन्तस्तल तक पहुँचाने वाले सिद्धान्त रहस्य को उद्घाटित करने वाली "ज्ञानज्योति” हिन्दी टीका का सृजन
आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। आज हमारी समाज को दोनों आचार्यों की संस्कृत टीकाओं का शब्दार्थ हिन्दी अनुवाद एवं गुणस्थान प्रकरण से युक्त समयसार की अत्यंत आवश्यकता थी। जब से पू. ज्ञानमती माताजी ने अष्टसहस्त्री की हिन्दी टीका एवं नियमसार ग्रंथ की "स्याद्वादचन्द्रिका " संस्कृत टीका रची है, तभी से विद्वानों की दृष्टि प्रत्येक जटिल कार्य के लिए आर्यिका श्री के प्रति केन्द्रित रहती है। समयसार को भी आगम के परिप्रेक्ष्य में सर्वांगीण उपयोगी बनाने हेतु माताजी की बहुत दिनों से इच्छा थी, शायद उसी के प्रतिफलस्वरूप समयसार का नवीन पूर्वार्द्ध संस्करण मई, १९९० में सुन्दर मुद्रण एवं बाइंडिंग के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हुआ है।
इस ग्रंथ के सृजन में टीकाकर्त्री का मूल अभिप्राय यही है कि कुन्दकुन्द स्वामी की प्रत्येक गाथा के साथ ही दोनों टीकाओं का यदि अध्ययन किया जाए तो कभी भी एकान्तपक्ष का दुराग्रह नहीं रहेगा। बात यह है कि समय और शिष्यों की ग्राहक शक्ति के अनुरूप ही आचार्यगण संक्षेप और विस्तार
कथन करते थे। आचार्य श्री अमृतचन्द्रजी विद्वानों के मतानुसार ईसवी सन् की १०वीं शताब्दी में हुए हैं और श्रीजयसेनाचार्य ने ईसवी सन् की १२वीं शताब्दी में समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी है, जबकि गाथासूत्र कुन्दकुन्दाचार्य ने २००० वर्ष पूर्व लिखे हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि उनके समय में तो लोग सूत्ररूप में कही गई वाणी को अवधारण करने में सक्षम थे और १००० वर्षों के पश्चात् जब मात्र गाथाओं से अर्थ समझना कठिन
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