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________________ ४६६ ] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला इस अनुयोग में कुलकरों की उत्पत्ति और उनके द्वारा दी गई समस्त व्यवस्था का वर्णन है। तिरेसठ शलाका पुरुषों की उत्पत्ति तथा उनके विभिन्न रूपों का वर्णन है, जो २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण, ९ प्रति नारायण नामों से प्रसिद्ध है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का जन्म अन्तिम कुलकर महाराजा नाभिराय की महारानी मरुदेवी से हुआ। प्रजा को असि, मषि, कृषि आदि आजीविका के छह उपाय बतलाने से भगवान प्रजापति कहलाए। आपने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नाम से तीन वर्णों का स्थापना की। चतुर्थ वर्ण • ब्राह्मण वर्ण की स्थापना उनक पुत्र सम्राट् भरत ने की ग्रन्थ की पुरोवाक् के विद्वान् लेखक ने अनेक प्रमाणों के आधार पर महादेव शिव को ही भगवान ऋषभदेव बताया है। इस अनुयोग में भगवान ऋषभदेव का जीवनवृत अंकित है। भगवान का गर्भावतार, माता के सोलह स्वप्न भगवान का जन्म, इन्द्र का आगमन, भगवान की बाल्यावस्था, विवाह, सन्तानोत्पत्ति, वैराग्य, दीक्षा, तपश्चर्या, केवलज्ञान का उदय आदि का वर्णन है। तदन्तर भगवान महावीर के जन्म से पूर्व का प्रसंग, जन्म तथा उनके जीवन की विविध प्रेरक घटनाओं का विस्तृत वर्णन है। प्रथमानुयोग के अंत में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र का जीवन वृत्त है। इस प्रकार प्रथमानुयोग में पुराण एवं इतिहास से लिये गये उद्धरणों और दृष्टान्तों से जीव के वस्तुरूप को समझाया गया है। महापुरुषों के जीवन चरित्र से वस्तु के स्वरूप को समझने में सुगमता रहती है क्योंकि उनके अनुभव व्यवहार की कसौटी पर कसे हुये होते हैं। अतः प्रथमानुयोग साधक को व्यावहारिक ज्ञान का प्रामाणिक लाभ प्रदान करता है। - द्वितीय अनुयोग — करणानुयोग में लोक और अलोक का विभाग, युगों का परिवर्तन, चारों गतियों आदि के स्वरूप का निरूपण हुआ है। इसी से सम्पूर्ण विश्व रचना का ज्ञान किया जाता है। इस अनुयोग का प्रारम्भ सामान्य लोक की ऊंचाई, चौड़ाई घनत्व आदि के वर्णन से प्रारम्भ होता है। फिर इसके विभिन्न भागों के नाम तथा उसकी व्यवस्था का विवरण है। मध्य लोक तथा उसके बीचोंबीच स्थित जम्बूद्वीप तथा सुमेरु पर्वत का संक्षिप्त तथा सम्पूर्ण वर्णन इस अनुयोग में प्राप्त है। मध्यलोक के चैत्यालय, देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकीय के भेद, जन्म, आकार, निवास स्थान, आहार, अवधिज्ञान, शक्ति और विक्रिया इत्यादि का विस्तृत ज्ञान है। इसके पश्चात् जीव के पंच परिवर्तन का विवरण है। इस अनुयोग में आर्यखण्ड में नाना भेदों से संयुक्त जो काल प्रवर्तता है उसके स्वरूप का वर्णन है। विशेष रूप से यहाँ व्यवहार काल जिसमें घड़ी, घण्टा, दिन, वर्ष आदि आते हैं, का वर्णन है। अंतिम दो पाठों में स्थान विस्तार एवं काल विस्तार तथा सिद्ध जीवों के निवास स्थानों का विवरण है। इस प्रकार इस अनुयोग में लोक, पंच परिवर्तन, पल्य सागर आदि का तथा सिद्ध लोक का वर्णन है। जब तक व्यक्ति को संसार की स्थिति का ज्ञान नहीं होगा तथा यह सृष्टि किस प्रकार की है, यह ज्ञान नहीं होगा तब तक उसे अपनी वास्तविक स्थिति का ज्ञान नहीं हो सकता। उसे इस सृष्टि में अप अस्तित्व के उद्देश्य की प्राप्ति के लिये इस सृष्टि की रचना का ज्ञान होना आवश्यक है। अतः इस अनुयोग को उसके जीवन के उद्देश्य के प्रति सजग कर उसका उचित मार्ग दर्शन करता है। तृतीय अनुयोग चरणानुयोग में सम्यक्त्व का वर्णन धर्म के भेद, श्रावक एवं साधक के भेद, आश्रमों का कथन, श्रावकों की षट् आवश्यक क्रियाओं का विवरण तथा ग्यारह प्रतिभाओं का संक्षिप्त दिशा निर्देश है दश धर्म तथा सोलह कारण भावनायें इसी अनुयोग में वर्णित है। साथ ही गृह तथा मुनियाँ के चरित्र की उत्पत्ति, वृद्धि, रक्षा के उपायों का वर्णन किया गया है। इस अनुयोग में कहे गये धर्मों का आचरण करने वाला व्यक्ति भी क्रम से चरण-चरण चरित्र का विकास करता हुआ तथा आगे बढ़ता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है। इसी कारण इस अनुयोग को चरणानुयोग नाम दिया गया है । सूतक - पातक का वर्णन, तीन प्रकार की क्रियाओं- गर्भान्वय, आधान, दीक्षान्वय का वर्णन, बारह अनुप्रेक्षा, मुनिधर्म, पिंड शुद्धि, समाचार का वर्णन, साधु की दिनचर्या, ऋद्धियों का वर्णन, सल्लेखना, पांच प्रकार के मुनियों का वर्णन इस अनुयोग में संक्षेप में किया गया है। इस प्रकार यह अनुयोग व्यक्ति को उचित कर्म में प्रवृत्त होने की दृष्टि देता है, यदि व्यक्ति को उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं होगा तो वह पथ भ्रष्ट हो जायेगा तथा अपने जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकेगा। अंतिम अनुयोग अर्थात् द्रव्यानुयोग में सर्वप्रथम छहों द्रव्यों का नाम दिया गया है। छह द्रव्यों-जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल का प्रमुचित ज्ञान है। जीव के अतिरिक्त शेष पांच द्रव्य-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अजीव द्रव्य कहे गये हैं। इनमें पुद्गल द्रव्य मातक है तथा शेष चार अमूर्तिक हैं। आगे प्रमाण और नय का वर्णन किया गया है जिनके द्वारा जीवादि पदार्थों का बोध होता है। प्रमाण के भेदों-प्रभेदों का पहले सिद्धांत ग्रन्थों तत्पश्चात् न्याय ग्रन्थों के आधार पर वर्णन किया गया है। नयों के नव प्रकारों का वर्णन करते हुए उनके अनेक भेदों व उपनयों का वर्णन है। स्याद्वाद को सिद्ध करते हुये सप्त भंगी का सुन्दर और सुबोध विवेचन है। तदन्तर विदुषी लेखिका ने विभिन्न भारतीय दर्शनों का विवरण दिया है। ये दो प्रकार के दिये गये हैं- वैदिक एवं अवैदिक वैदिक दर्शन में मुख्यतः सांख्य, वेदांत, मीमांसा, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन लिये जाते है । अवैदिक दर्शन में जैन, बौद्ध और चार्वाक् माने गये हैं। जैन दर्शन के अनुसार जैन धर्म अनादिनिधन है। इसकी स्थापना किसी ने नहीं की है। इस सिद्धांत में सात तल, नव पदार्थ, छह द्रव्य और पांच अस्तिकाय माने गये हैं। स्याद्वाद, अहिंसा, अपरिग्रह आदि इसके मौलिक सिद्धान्त है। सम्यग्दर्शन, मन्यक्ज्ञान, सम्यकचरित्र की एकता ही मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है। 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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