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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कहते हैं। सोलह भावनाओं की एकाकारता इसी तीर्थंकरत्व रूप परमात्म स्थिति को पाने का अनुपम साधन है। जैसे स्वाति नक्षत्र का जल यथा निमित्त पाकर तथा रूप हो जाता है वैसे ही ये भावनायें व्यक्ति को तीर्थकर बना देती हैं।
इन भावनाओं में दर्शन विशुद्धि प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन है। इसका सम्बन्ध सम्यग्दर्शन की उपलब्धि से है जो समत्व की साधना पर अवलम्बित है। साधक इस साधना से पूर्ण निरमय और निःशंक हो जाता है। उसमें किसी प्रकार का मंद नहीं रहता । वह वास्तविक देव-शास्त्र गुरु को पहचानता है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य जैसी मार्मिक भावनाओं का पारंगत हो जाता है। सम्यक्त्व की पहचान इसी पारंगतता से हो पाती है। माताजी ने पौराणिक उदाहरणों द्वारा इसी सम्यक्त्व की सुन्दर मीमांसा की है।
साधना की प्रबलता और विशुद्धता व्यक्ति में विनम्रता को जन्म देती है जिससे साधक कषायों से निर्मुक्त होकर दूसरों का आदर-सत्कार करता है। उसका दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप मद का कारण नहीं बनते । इस प्रसंग में माताजी ने मूलाचार को उद्धृत किया है और उसे आचार्य कुन्दकुन्द कृत बताया है (पृ. १२) आगे बहुश्रुत भक्ति के प्रसंग में उन्होंने उनका समय द्वितीय शती माना है। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने मूलाचार का अनुवाद भी किया है जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ से हो चुका है।
___पंच महाव्रतों का निरतिचारपूर्वक पालन शील कहलाता है अथवा २८ मूलगुणों का पालन और कषायों से विरमण होना शील है। शील की यह व्याख्या बौद्धधर्म में आये शील को स्मृति पथ पर ला देती है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का सम्बन्ध सतत स्वाध्याय से है। संवेग वैराग्य का दूसरा नाम है। संसार और शरीर के स्वरूप पर विचार करने से संवेग भाव का जन्म होता है। यह तथ्य सनत्कुमार और वज्रदन्त चक्रवर्ती के उदाहरण देकर पुष्ट किया गया है और साथ ही आचार्य शान्तिसागरजी की परम्परा में रहने वाले वर्तमान साधुओं की आचरण की प्रशंसा की गई है और मुनि निन्दकों की अच्छी खबर ली गई है।
शक्ति, त्याग का सम्बन्ध दान के चार प्रकारों से है-आहार, ज्ञान, औषधि और अभय दान । इनमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम का उदाहरण देकर आहारदान की महत्ता को अधिक सिद्ध किया गया है। शक्तितस्तपो भावना की व्याख्या करते हुए रोहिणी व्रत के माहात्म्य का वर्णन किया है। आचार्य समन्तभद्र का उदाहरण देकर यह भी कहना चाहा है कि अतिथि संविभाग व्रत की अपेक्षा दुःखियों की वैयावृत्ति करना अधिक अच्छा है। अर्हद् भक्ति में जिनबिम्बदर्शन की महिमा को माताजी ने मेंढक का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। इसके बाद आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, स्वसमय-परसमय के ज्ञाता उपाध्यायों की भक्ति, प्रवचनभक्ति (जिनोपदिष्ट प्रवचन में अनुराग करना) आदि भावनाओं पर प्रकाश डाला गया है।
समूची पुस्तक सोलह भावनाओं पर प्रवचन का आकार लिए पौराणिक जैन कथाओं को प्रस्तुत करती है। अतः अपने उद्देश्य की पृष्ठभूमि में पुस्तक अपनी सार्थकता और उपयोगिता लिये हुए है।
जैन भारती
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समीक्षक-गणेशीलाल रानीवाला, कोटा जैन धर्म को एक ही स्थान पर सम्पूर्ण रूप से संक्षेप में समझाने का प्रयास "जैन भारती" ग्रन्थ की रचना के रूप में सुफलित हुआ है। सुप्रसिद्ध लेखिका, महान् विचारिका एवं गहन साधिका परम विदुषी पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्रीज्ञानमती माताजी की यह रचना हर दृष्टि से प्रामाणिक एवं पूर्ण है।
जैन दर्शन को सर्वांगीण समझने के लिए चार अनुयोगों को माध्यम बनाना आवश्यक है। भगवान् जिनेन्द्र देव की वाणी बारह अंगों में विभाजित है। पूर्वाचार्यों ने इसे ही चार अनुयोगों में अनुबद्ध किया है। इन अनुयोगों की वेद संज्ञा दी गई है तथा इस वेद के प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ऐसे चार भेद माने गये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में इन चारों अनुयोगों को ही संक्षेप में, किन्तु स्पष्ट एवं प्रामाणिक विवरण के साथ दिया गया है।
प्रथमानुयोग में सृष्टि का क्रम बताया गया है तथा महापुरुषों के चरितों और पुराणों का प्रतिपादन किया गया है।
अवसर्पिणी - उत्सर्पिणी काल के दो विभाग होते हैं। अवसर्पिणी काल के ६ भेद हैं तथा उत्सर्पिणी काल के भी ६ भेद हैं कि उत्सर्पिणी काल के ६ भेदों के विपरीत हैं। उदाहरण के लिए अवसर्पिणी काल का प्रथम भेद है सुषमा-सुषमा जबकि उत्सर्पिणी काल का प्रथम भेट दुषमा-दुषमा है। इसके पश्चात् ग्रन्थ के इन छह-छह भेदों के लक्षणों एवं चिह्नों का वर्णन है।
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