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________________ ***] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "गुरु गुण लिखें न जायें कलम से " - सौ० शोभा एवं शरदचन्द पहाड़े, श्रीरामपुर [महाराष्ट्र ] - जम्बूद्वीप निर्माण की पावन प्रेरिका, प्रातः स्मरणीय परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में शत शत बार नमोस्तु । आपके दिव्य व्यक्तित्व में एक अद्वितीय प्रभावोत्पादक शक्ति है, जिसका अनुभव आपके सम्पर्क में आने पर ही होता है। करीब दो-तीन साल में हमारा पूज्य माताजी से निकट संबंध आया, जिसमें हमें यह अनुभव हुआ। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी महाराज की परम्परा को निर्दोष चलाने के लिए आपने बहुत संघर्ष झेले, किन्तु निष्कलंक परंपरा का ही अनुमोदन किया। आपकी विद्वत्ता, निष्पक्षता, निलभता, वात्सल्य आदि गुणों से आकर्षित होकर ज्ञानी जन एवं सामान्य जन भी आकर धर्मलाभ उठाते हैं। आप में वैसे तो अनेकानेक गुण हैं। जम्बूद्वीप की महान् रचना तो विश्व-विख्यात हो गई। उसी प्रकार आपका साहित्य भी अंधकार में भटके हुए प्राणियों को दीपक के समान राह दिखाता है। वात्सल्य गुण की अपरिमित विशेषता आप में ही है। एक कवि ने कहा है सब धरती का कागद करूँ, लेखनी सब वनराय, सात समुन्दर की मसि करूँ, पर गुरु गुण लिखा न जाय ॥ वर्णन कर सकते हैं ? ऐसी माताजी के हम क्या गुण देवाधिदेव १००८ श्री श्रेयांसनाथ भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि आपका जीवन सुख शांतिमय व्यतीत हो, आप चिरायु हों, आपके पवित्र चरणों का सानिध्य हमें सदैव उपलब्ध रहे, यही मंगलकामनारूपी "विनयांजलि" अर्पित करते हैं। पुनः आपके पुनीत चरणकमलों में कोटिशः नमोस्तु ! नमोस्तु ! नमोस्तु ! Jain Educationa International चारित्रमूर्ति ज्ञानमती माताजी अरविन्द कुमार पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का जहाँ लोग ज्ञान की मूर्ति कहते हैं वहीं मैं उन्हें चारित्रमूर्ति मानकर सदैव पूजता रहता हूँ। साधुओं के प्रति मेरी आस्था इनके दर्शन और सानिध्य से जितनी बलवती हुई है उसका वर्णन मेरी जिह्वा नहीं कर सकती। अपने एवं संघस्थ शिष्यों के संयम में रंचमात्र भी शिथिलता नहीं आने देना उनकी सहज प्रवृत्ति है। मैंने ४ बार इन्द्रध्वज विधान एवं अनेक बार कई लघु विधान उनके पास जाकर किये हैं, उनके प्रवचनों में भी सदा चारित्रिक दृढ़ता का सन्देश होता है। पूज्य माताजी के ये शब्द मुझे हमेशा प्रेरणा देते रहते हैं कि "शरीर का पोषण तो हमने भव भव में किया है अब आत्मा के पोषण पर भी ध्यान देना हमारा परम कर्त्तव्य है । अतः शरीर के लिए संयम में कभी बाधा नहीं आने देना चाहिये।" " सन् १९८५ में उनकी बीमारी के समय जब हम लोग मेरठ से डॉ० ए०पी० अग्रवाल को उनका चेकअप कराने के लिए ले जाते थे, तब डॉक्टर साहब भी उनकी दृढ़ता के समक्ष आचर्यचकित हो जाया करते थे; क्योंकि जैन साधुओं की कठोर चर्चा से वे प्रथम बार परिचित हुए थे। जैसा मैं पूज्य माताजी की चारित्रिक ऊँचाइयों को प्रत्यक्ष में देखा करता हूँ, तदनुरूप ही स्वप्न में भी मैंने उससे भी अधिक ऊँचा पाया । कोई दिसम्बर १९९१ की एक रात को मैंने स्वप्न देखा मैं मेरठ से हस्तिनापुर पहुँचा हूँ और जम्बूद्वीप के प्रमुख द्वार में प्रवेश करते ही मुझे आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी और क्षुल्लक मोतीसागरजी के दर्शन हुए। उसके बाद मुझे आकाश में अपूर्व रोशनी फैलाता हुआ एक सुंदर विमान नजर आया, उसके बारे में पूछते ही चन्दनामती माताजी ने कहाक्या तुम्हें मालूम नहीं है ? इस विमान से ज्ञानमती माताजी विदेह क्षेत्र में सीमंधर स्वामी के दर्शन करने गई थीं, वे अब वहाँ से वापस आ रही हैं। मैंने माताजी की जय-जयकार के साथ ही आँखें खोल दीं। जैन, होम ब्रेड, मेरठ असीम प्रसन्नता के साथ मन अपनी दैनिक चर्या पूर्ण की और प्रातः ९ बजे ही मैं हस्तिनापुर की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर चन्दनामती माताजी को जब अपना स्वप्न बताया तो वे मुस्कराने लगीं। बार-बार स्वप्न फल पूछने पर वे बोलीं- गुरु की महिमा ही अपरम्पार है, उनकी ऊँचाइयों को भला शिष्य कैसे माप सकता है ? खैर ! जो भी हो, मुझे पूर्ण विश्वास है कि पूज्य ज्ञानमती माताजी एक न एक दिन स्वयं तीर्थंकर भगवान् जैसी श्रेणी प्राप्त करके सिद्ध अवस्था भी प्राप्त करेंगी। मैं माताजी सरीखे गुरु को पाकर गौरव का अनुभव करता हूँ। उनके श्रीचरणों में मैं शत-शत वन्दन करता हूँ । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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