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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१३५ है, जो आज तक कहीं भी देखने को नहीं मिला। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जगह-जगह इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान एक बार नहीं, कई-कई बार हो रहे हैं। साक्षात् करुणा की मूर्ति पूज्या ज्ञानमती माताजी ने अपने भक्तों को कभी निराश नहीं होने दिया। पुत्र-पौत्र, धन-धान्य, लड़ाई-झगड़ा, मुकदमे-व्यापार आदि से दुःखी व्यक्तियों को सम्यक्त्ववर्द्धक यंत्र-मंत्र देकर उनकी इच्छा पूर्ण की। मंत्र फलित होने पर भक्तजन जय-जयकार करते हुए आकर बताते हैं, माताजी आपके यंत्र-मंत्र के प्रभाव से अपनी इच्छित मनोकामना पूर्ण हुई। इस कल्पवृक्ष से जब जिसने जो चाहा सो पाया। जब पूज्या माताजी ने दीक्षा ली थी मैं बहुत छोटा था। अपनी जीजी (पूज्य ज्ञानमती माताजी) के पास ही सोता था, उनके उठते ही उनकी उँगली पकड़कर उठ जाता था। बचपन में मुझे चेचक की भयंकर बीमारी हो गई थी, मरणासन्न स्थिति थी। उस समय यह मैना जीजी हमें रूई के फाहों से उठाती थीं, गाँव में शीतला माता देवी (मिथ्यात्व) की पूजा का रिवाज था। मैना जीजी यह सब मिथ्यात्व न करके भगवान् शीतलनाथ का अभिषेक करके मंदिर से जल लाकर छिड़कतीं, पिलातीं, दवा देतीं, पर मिथ्यात्व को पनपने नहीं दिया। बचपन से ऐसी दृढ़ आस्था थी धर्म पर। इन्होंने ही मुझे जीवनदान दिया। क्या पता था यह मेरी जीजी के रूप में जगन्माता स्वयं मेरी सेवा कर रही थीं? कितना सौभाग्यशाली हूँ मैं ? उस समय किसी परिवार में कोई कुमारी कन्या इस तरह से बाल ब्रह्मचारिणी बनकर दीक्षा ग्रहण किये हो, ऐसा नहीं था। मुझे जहाँ तक याद है इस प्रकार की दीक्षा का परिजन, पुरजनों द्वारा काफी विरोध किया गया था, परन्तु आपकी दृढ़ता के आगे किसी की नहीं चली। आज वही परिजन, पुरजन तो क्या, नगर निवासी क्या, पूरा अवध प्रान्त पूज्या माताजी के गुणों का गान करते हुए नहीं अघाता। आज सभी का मस्तक गर्व से ऊँचा है। सन् १९५८, अजमेर नगरी का वह मनोरम दृश्य, आचार्यश्री शिवसागरजी महाराज का वर्षायोग सम्पन्न हो रहा था, इसी संघ में पूज्या ज्ञानमती माताजी भी थीं। साक्षात् चतुर्थकाल का दृश्य था, पचासों पिच्छीधारी साधुओं के दर्शनों का सौभाग्य मिला। उस समय सरसेठ भागचंदजी सोनी माताजी के उपदेश से इतना प्रभावित थे कि आचार्य महाराज से निवेदन करते कि महाराज पूज्या ज्ञानमती माताजी का उपदेश सार्वजनिक स्थान पर होना चाहिये और ऐसा कई बार हुआ। मैंने देखा पूज्या माताजी की दैनिक चर्या को। प्रातः से ही ८-१० दिगंबर साधु पंक्तिबद्ध बैठते, पूज्यामाताजी उन सबको पढ़ाती थीं। पश्चात दुपहर में पूज्य श्री श्रुतसागरजी महाराज के पास माताजी के सानिध्य में ब्र० बाबा लाड़मलजी, कजोडमलजी, ब्र० राजमलजी (पूज्य श्री अजितसागरजी) बाबा श्रीलालजी आदि सभी बैठते, तत्त्व चर्चाएं होतीं। वह विषय तो हमारे पल्ले नहीं पड़ता था, परन्तु अच्छा खूब लगता था। उस समय मुझे पूज्यामाताजी के चरण सानिध्य में रहने का ६ महीने सौभाग्य मिला। एक बार पुनः १९६२ में पूज्या माताजी का चरण सानिध्य प्राप्त हुआ। पूज्या माताजी आचार्यश्री की आज्ञा से ५ आर्यिका माताओं के साथ श्री सम्मेद शिखर जी की यात्रा को निकली थीं। मुझे मालूम हुआ कि पू० माताजी अपने संघ सहित चौरासी मथुरा में विराजमान हैं। मुझे मथुराजी से श्री सम्मेदशिखर तक पूज्या माताजी की पदयात्रा में लगभग ६ माह रहने का अवसर मिला। प्रतिदिन विहार, आहार, पड़ाव का क्रम जारी था। पूज्या सभी माताजी पैदल चलती थीं। चौके आदि का आवश्यक सामान बैलगाड़ी में चलता था। कितना सुन्दर दृश्य था, सुबह की प्राकृतिक सुन्दरता, गाँव-गाँव के लोगों से मिलना। चौके की व्यवस्था, पुनः विहार, शाम को पड़ाव बड़ा ही मनोरम दृश्य था। रास्ते में कितनी अनोखी घटनाएँ घटती थीं, जो माताजी की निर्भीकता का परिचय देती थीं। उनमें से एक घटना का विवरण बताना चाहूँगा। संघ विहार करते-करते लगभग बिहार प्रान्त में पहुँच चुका था। एक दिन हम लोगों को रात्रि-विश्राम की व्यवस्था एक जंगल के पुराने खण्डहर में करनी पड़ी। चूँकि गाँव अभी दूर थे, रात्रि होने वाली थी, आगे नहीं जाया जा सकता था। ऐसे निर्जन स्थान पर सड़क के किनारे रात्रि में हम अकेलं खड़ अपनी बैलगाड़ी के आने का इंतजार कर रहे थे कि कुछ राह चलते पथिक रुके, पूछा आप कौन हैं ? यहाँ क्यों खड़े हैं ? हमने उन्हें अपनी यात्रा सम्बन्धी बात बताई। राहगीरों ने बताया कि आप लोग यहाँ से तुरन्त भाग चलें, यह डाकुओं का अड्डा है। बड़े भयंकर डाकू रहते हैं, ६-७ बजे के बाद इधर का आवागमन पूरा बन्द सा हा जाता है। मैं उनकी बात सुनकर घबड़ा गया। माताजी सामायिक पर बैठ चुकी थीं। सामायिक समाप्त होने पर हमने माताजी को प्राप्त जानकारी दी। माताजी मुस्कराईं, रात्रि में मौन होने के कारण सिलेट पर लिखकर बताया "घबड़ाओ नहीं कुछ नहीं होगा"। पुनः गाड़ी के इतजार में सड़क के किनारे खड़े थे, बियावान् जंगल, रात्रि के ९-१० बजे का समय, मन को भयभीत करने के लिए इतना ही वातावरण काफी था कि आठ-दस लोग घोड़े से आ गए। एक आदमी ने गरज कर पूछा कौन हो तुम? यहाँ कैसे आए ? ऐसी कड़कदार रोबीली आवाज सुनकर में काँप उठा, मुझे समझते देर नहीं लगी कि यह लोग डाकू ही मालूम पड़ते हैं। मैंने अन्तरंग में डरते-डरते जैन साधु की पदयात्रा, रात्रि पड़ाव, इनके त्याग के विषय में संक्षिप्त रूप में बताया तो वे लोग शान्त हुए। पुनः बोलेकहाँ हैं तुम्हारे साधु ? उनसे बात करनी है, हमने बताया हमारे साधुओं का रात्रि में मौन रहता है। सुबह बात कर सकते हैं। उनमें से एक आदमी खण्डहर के अंदर गया, सभी पूज्या माताजी विश्राम कर रही थीं, देखकर बाहर निकला, बोला- यह लेडीज हैं या जेण्ट्स । हमने एक ही उत्तर दिया यह जैन साधु हैं, बोले ठीक है। हम सुबह बात करंग, कहकर चले गए। हम डरते-डरते गाड़ी का इंतजार करते रहे। थोड़ देर बाद गाड़ी आई, सबको हाल बताया गया, सभी डरे-डरे सहमे-सहमे थे, कब क्या हो जाय ? परन्तु वहाँ कोई नहीं आया। सुवह ४ बजे उनमें से एक आदमी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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