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________________ ६३६] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ कब से मैं तुझे देखने को तरसी थी पर तू ना आई। क्या अपनी मातृभूमि के प्रति सब ममता तूने बिसराई ॥ सुन रक्खा है बेटी मैंने तू तो अब जग की माता है। तेरा अपनी इस मातृभूमि से रहा न कोई नाता है॥ ८ ॥ क्या करूँ किन्तु यह मोह मेरा जब कभी उमड़ ही पड़ता है। अपनी पुत्री जगमाता के दर्शन का भाव उमड़ता है। जननी और जन्मभूमि अपनी बेटी तुम कभी न बिसराना। कर्तव्य भूल यदि जाऊँ मैं तो याद दिलाने आ जाना ॥ ९ ॥ नगरी की मौन किन्तु मुखरित वाणी ही मानो कहती थी। तुमने तो मेरा नाम अमर कर दिया ज्ञानमती माताजी ॥ अब मैं गौरव से कह सकती मैंने भी दी इक माता हैं। जिसने कलियुग को दिखा दिया सतयुग सी ब्राह्मी माता है ॥ १० ॥ मैं पहले तेरी माता थी पर तू अब मेरी माता है। मोहिनि माता ने भी जब तुझको स्वयं नमाया माथा है। उनको भि बनाकर रत्नमती आर्यिका नाम साकार किया। माता पुत्री की जगह शिष्य गुरु का नाता स्वीकार किया ॥ ११ ॥ माँ रत्नमती की कर्मभूमि का भाग्योदय हो आया था। श्री ज्ञानमती की जन्मभूमि में ज्ञानज्योति रथ आया था। आर्यिका अभयमतिजी की कुछ स्मतियाँ ताजी हो आईं। सबकी जय जय के साथ यहाँ मानो अगणित खुशियाँ छाई ॥ १२ ॥ आबाल वृद्ध सब भक्ति पुष्प ले स्वागत करने उमड़ पड़े। माँ ज्ञानमती की ज्ञानज्योति के दर्शन करने निकल पड़े। यहाँ पर भी एक बार हम सबके संगम का अवसर आया। हस्तिनापुरी से ज्ञानमती माता ने सबको भिजवाया ॥ १३ ॥ इक आवश्यक संस्मरण यहाँ बतलाना भी आवश्यक है। गुरुमुख से मुझको ज्ञात हुआ सुनने में भी रोमांचक है। जिस समय टिकैतनगर में ज्योती का हो रहा प्रवर्तन था। हस्तिनापुरी में नियमसार टीका का हुआ समापन था ॥ १४ ॥ यह घटना कुछ इस तरह सुनो माँ ज्ञानमती की साहित्यिक । श्री कुन्दकुन्द के नियमसार की संस्कृत टीका लेखन की। स्याद्वादचन्द्रिका टीका की अन्तिम प्रशस्ति लेखन क्रम था। माँ रत्नमती के साथ हस्तिनापुर में ज्ञानमती संघ था॥ १५ ॥ उस ग्रंथ प्रशस्ती में माताजी संस्कृत में यह लिखती हैं। मैं हूँ प्रसन्न जब मेरी जन्मभूमि पर ज्योती जलती है। इस सुखद सुहानी बेला में मैंने यह ग्रंथ प्रशस्ति लिखी। श्री रत्नमती माताजी के मुख पर प्रसन्नता लहर दिखी॥ १६ ॥ संयोग सुखद कैसा बैठा लेखन औ ज्योति प्रवर्तन का। जब जन्मभूमि पर ज्योति जली तब कर्मभूमि पर लेखन था। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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