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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१७७ बढ़ती ही जा रही थी। कदाचित् ऐसे अवसर भी आते थे जो उन्हें विचलित कर सकते थे, किन्तु दृढ़ निश्चयी मैना अपने निश्चय पर अडिग रही। सन् १९५३ में परम पवित्र तीर्थ क्षेत्र श्री महावीरजी में आचार्य श्री देशभूषणजी के पदकमलों में मैना ने प्रार्थना कर क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की और "वीरमती" नाम को प्राप्त किया। अब मैना, मैना न रहकर पूज्यक्षुल्लिका "वीरमती" बन चुकी थी, जो अपने आत्मोत्थान के लिए सदा सद्साहित्य के मननचिन्तन में लगी रहती थीं। धीरे-धीरे समय बीतता जा रहा था, चातुर्मास के समय जब आपको पता चला कि मुनि परम्परा को जीवित रखने वाले परम पूज्य आचार्य सम्राट् चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तिसागर जी महाराज कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर समाधिस्थ हैं तो आप पूज्य क्षुल्लिका विशालमती माताजी के साथ कुंथलगिरि आ गईं। कुंथलगिरि में आचार्य श्री से प्रभावित होकर उनसे आर्यिका दीक्षा लेने हेतु निवेदन किया, परन्तु आचार्य श्री सल्लेखनारत थे; अतः उन्होंने कहा कि मैं अपने शिष्य वीरसागर को आचार्य पट प्रदान कर चुका हूँ; अतः अब आप उन्हीं से आर्यिका दीक्षा लेना। सन् १९५६ में माधोराजपुरा (राज.) में वीरमतीजी के निवेदन करने पर तथा इनके त्यागमयी जीवन, विलक्षण ज्ञान और वैराग्य से परिपूरित होने के कारण श्री वीरसागरजी ने इन्हें आर्यिका दीक्षा प्रदान की और उन्हें वीरमती से "आर्यिका ज्ञानमती" नाम प्रदान किया। स्नेह की प्रतिमूर्तिः स्नेह की प्रतिमूर्ति होने के नाते परिवार के सदस्य भी इनके स्नेह को पाकर हर्षित होने लगे। और उन्होंने भी त्याग की ओर मुख करना प्रारम्भ कर दिया, जिसमें इनकी माता मोहिनी देवी (आर्यिका रत्नमतीजी) बहिन मनोवती (आर्यिका अभयमती) बहिन माधुरी (आर्यिका चंदनामतीजी) बहिन मालती शास्त्री एवं भाई बाल ब्र० श्री रवीन्द्र कुमार आज अपने स्नेह एवं आध्यात्मिक प्रवचनों से देश एवं जैन समाज को एक नयी दिशा प्रदान कर रहे हैं। परमपूज्य माताजी के अभिवन्दन ग्रंथ हेतु -प्रभात जैन, चित्राजैन - फरीदाबाद परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का सर्वप्रथम सानिध्य १९८२ में प्राप्त हुआ। जब पू० माताजी मोरीगेट दिल्ली में थीं सबसे पहले १२-४-८२ को मोरीगेट मन्दिरजी की धर्मशाला में शान्ति विधान किया था। मुझे आज भी याद है कि पूज्य माताजी ने कितनी शुद्धताई से वह पाठ करवाया था। मांडले पर बादाम चढ़ाना व शान्तिधारा करना मेरे लिये एक बिल्कुल नया अनुभव था। शान्तिधारा यदि श्री शान्तिनाथ भगवान के मस्तक पर की जाये तो उसका महत्त्व और भी ज्यादा बढ़ जाता है। यह बात मेरे मन में बैठ गई। मैं श्री शान्तिनाथजी की ओर आकर्षित होता गया। दि०६-३-८८ को सबसे पहले हमने पूज्य माताजी द्वारा रचित शान्ति विधान फरीदाबाद के मन्दिरजी में किया। हमें विधान के बारे में कोई विधि मालूम नहीं थी। हम दोनों ने पूज्य ज्ञानमती माताजी का नाम लेकर शान्ति विधान शुरू कर दिया। बादाम सब थाली में ही चढ़ाये। विधान निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। उस समय आया संकट भी टल गया। गुरु के नाम की महिमा का कितना प्रभाव है, पहली बार मालूम हुआ। उस दिन से अब तक हर महीने में एक बार शान्ति विधान कर लेते हैं। फरीदाबाद मन्दिरजी में श्री शान्तिनाथजी की बड़ी पाषाण की प्रतिमा है। धातु की कोई प्रतिमा नहीं थी। पूज्य माताजी के आशीर्वाद से हमारी मनोकामना श्री शान्तिनाथ भगवान के मस्तक पर शान्तिधारा करने की थी, जो मई १९९१ में पूर्ण हुई। ९ इंच की सफेद धातु की प्रतिमा जयपुर से मंगवाकर गुला वाटिका के पंचकल्याणक में प्रतिष्ठित कराकर फरीदाबाद मन्दिर जी में नीचे वाली वेदी में विराजमान हुई। आज भी उस प्रतिमा पर शान्तिधारा करने से एक अद्भुत सुख की अनुभूति होती है। ४ जून १९८२ को जब ज्ञानज्योति का शुभ प्रवर्तन देहली लालकिले के मैदान से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा हुआ, उस समय सारा कार्यक्रम देखा। देहली के बाद सबसे पहले हरियाणा में फरीदाबाद नगर में ज्ञानज्योति का आगमन हुआ ९ जून १९८२ को। उसका अपने शहर फरीदाबाद में स्वागत करने से मन में बहुत हर्ष हुआ। १६ जून १९८२ को तिजारे में ज्ञानज्योति का पूरा कार्यक्रम देखा। जम्बूद्वीप के मॉडल का साकर रूप आज जब हस्तिनापुर में देखते हैं, तब लगता है कि छोटी से छोटी आकृतियों का सुन्दर निर्माण जम्बूद्वीप स्थल पर देखकर लगता है कि हम सुदर्शन मेरु पर पहुँच कर वहाँ चैत्यालयों की वन्दना कर रहे हैं। पूज्य माताजी द्वारा रचित जम्बूद्वीप विधान को पढ़कर तो सब कुछ बहुत ही स्पष्ट रूप से वहाँ का ज्ञान हो जाता है। सन् १९८८ में पूज्य माताजी के विधानों की ओर मन आकर्षित हुआ। साथ में संगीत का भी प्रभाव पड़ा। मैंने इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम, तीनलोक, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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