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________________ ४२०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "तारागणा अपि विलोक्य विधोः सपक्षं खे निष्प्रभं विमतयोऽपि च यान्ति नाशम्। स्याद्वादभास्वदुदये त्यज मोहनिद्रां उत्तिष्ठ भव्य! भुवि विस्फुरितं प्रभातम्॥" सुप्रभातस्तोत्र, ५ अन्तिम अनुष्टुप में तो गागर में सागर भरने की उक्ति चरितार्थ प्रतीत होती है। इसमें कहा गया है कि जिनमन्दिर की घण्टाध्वनि से प्रतिवादी तिमिर समान नाश को प्राप्त हो जाते हैं 'जिनस्य भवने घण्टानादेन प्रतिवादिनः । तमोनिभाः प्रणष्टा हि, ते जिनाः सन्तु नः श्रियै ।। सुप्रभातस्तोत्र ९, सुप्रभात स्तोत्र का हिन्दी पद्यानुवाद हार्द को स्पष्ट करने में पूर्ण समर्थ है तथा मौलिक रूप से स्तोत्र भी है। इसके बाद एक नवपद्यात्मक वन्दना है। एक शार्दूलविक्रीडित एवं आठ अनुष्टुप् छन्दों में निबद्ध इस वन्दना में तीन लोक के सभी जिनचैत्यों की वन्दना की गई है। तदनन्तर नव स्तोत्र तीर्थङ्करपरक हैं, जिनमें दो में चौबीस तीर्थङ्करों की समष्टि रूप से, एक-एक में चन्द्रप्रभ एवं शान्तिनाथ की, दो में पार्श्वनाथ एवं तीन में महावीर की व्यष्टि रूप से स्तुति की गई है। ये सभी संस्कृतभाषा में निबद्ध हैं, जिनमें पांच स्तोत्रों का हिन्दी पद्यानुवाद भी दिया गया है। शान्तिजिनस्तुति में पद्यानुवाद के साथ अर्थ भी दिया गया है। हिन्दी पद्यानुवाद एवं अर्थ संस्कृत के हार्द को समझाने में पर्याप्त सहायक है। चतुर्विंशतिजिनस्तोत्रों में २४ उपजाति छन्दों में चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन है। अन्त में एक अनुष्टुप् में ग्रन्थकर्जी ने नित्य स्वात्मलक्ष्मी की याचना की है। इस स्तोत्र में अनुप्रास, उपमा, रूपक आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। मल्लिनाथ भगवान् की स्तुति में अनुप्रास की छटा द्रष्टव्य है 'यः कर्ममल्लं प्रतिमल्ल एव, श्रीमल्लिनाथो भुवनैकनाथः । संसारवल्लिं च लुनीहि मे त्वं, मनः प्रसक्तिं कुरु मे समन्तात् ।।१९।।।' अठारहवें श्लोक में अरनाथभगवान् की स्तुति करते हुए जैनधर्म के स्वारस्यभूत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। कहा गया है कि हे भगवान् आप स्तुति से संतुष्ट होकर न तो सुख देते हैं और न द्वेष से दुःख प्रदान करते हैं। आप तो वीतराग हैं। यतः आप अचिन्त्य माहात्म्य हैं, अतः मैं आपकी स्तुति करता हूँ। चन्द्रप्रभस्तुति में १७ भुजंगप्रयात, ११ द्रुतविलम्बित, ३ पृथ्वी, १ शिखरिणी और १ शार्दूलविक्रीडित कुल ३३ पद्य हैं। इस स्तोत्र में स्याद्वाद, अनीश्ववाद, ईश्वरकर्तृत्वनिषेध, नयसापेक्षत्व, भेदविज्ञान आदि सिद्धान्तों का सरल, किन्तु सयुक्तिक विवेचन किया गया है। बाईसवें पद्य में सांख्यदर्शनमान्य प्रकृति-पुरुष के भेदज्ञानजन्य मुक्ति का निषेध करते हुए कहा गया है कि यदि ऐसे ही मुक्ति प्राप्त हो जाये तो फिर रत्नत्रय को कौन धारण करेगा? दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन होने पर भी इस स्तोत्र की भाषा सरल एवं प्रसादगुण समन्वित है। शान्तिजिनस्तुति में ३४ पृथ्वी छन्द हैं। पूज्य माताजी ने उनकी स्तुति में अपनी अशक्ति प्रकट करते हुए कहा है कि क्या कोई वृक्ष पर चढ़कर अनन्त गगन को पा सकता है। प्रसाद, माधुर्य, सौकुमार्य, कान्ति का एकत्र प्रस्तुतिकरण द्रष्टव्य है अनन्तगुणसागर! त्रिभुवनैकनाथस्य ते ___ चिकीर्षति विभो! स्तवं विगतबुद्धितः कोऽपिचेत् । नभोऽन्तमपि गन्तुमंघिशिरः समारोहति अशक्तिकतनं ततोऽस्तु तव शान्तिनाथ स्तुतिः ।।२ ।।।" यहाँ प्रतिवस्तुपमा अलंकार की छटा भी अनोखी है। इस स्तोत्र के प्रथम श्लोक में सन्देह, चतुर्थ में काव्यलिङ्ग, नवम में उदात्त, दशम में अर्थान्तरन्यास एवं द्वादश श्लोक में उत्प्रेक्षा आदि अर्थालंकार सहज ही सामाजिकों के हृदय को आकृष्ट कर लेते हैं। बीसवें श्लोक में सुन्दर भावसंयोजन द्रष्टव्य है। जैसे ध्वनिक्षेपणयन्त्र से शब्द सुदूर पहुँच जाता है वैसे ही भक्ति से स्तोत्र के शब्द सिद्धाशिला तक भगवान् तक पहुँच जाते हैं तथा पतनशील स्वभाव से वापिस आकर अभीष्ट फल प्रदान करते हैं सुभक्तिवरयन्त्रः स्फुटरवाध्वनिक्षेपकात् सुदूरजिनपार्श्वगा भगवतः स्पृशान्ति क्षणात्। पुनः पतनशीलतोऽवपतिता नु ते स्पर्शनात् भवन्त्यभिमतार्थदा स्तुतिफलं ततश्चाप्यते ॥२०॥' पार्श्वनाथविषयक दो स्तोत्र में प्रथम उपसर्गविजयि श्री पार्श्वनाथ जिनस्तुति है। इसमें २३ उपजाति छन्द तथा १ शार्दूलविक्रीडित छन्द है। द्वितीय Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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