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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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जिनस्तोत्र संग्रह
समीक्षक-डॉ० जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर
| जिनस्तोत्र
संग्रह
भारतीय चिन्तनधारा मौलिक रूप में अध्यात्मवादी रही है। फलतः भारतीय मनीषा ने काव्य को केवल आनन्द या उपदेश का साधन न मानकर परम पुरुषार्थ मोक्ष का भी साधन स्वीकार किया है। भारतीय दृष्टि से काव्य का प्रयोजन भौतिकवादी पाश्चात्य विचारकों के समान केवल प्रेय एवं लौकिक ही नहीं, श्रेय एवं आमुष्मिक भी है। पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा प्रणीत स्तोत्रों में उभयविध प्रयोजन समाहित हैं। धर्मनिष्ठ साहित्य होने से जहाँ एक ओर ये स्तोत्र प्रत्यक्ष रूप से धर्म, सत्य, अहिंसा, सदाचार, भक्ति आदि के माध्यम से श्रेय के साधक हैं; वहाँ दूसरी ओर काव्यसरणि का अवलम्बन लेने से प्रेय अर्थात् सद्यः आनन्द प्राप्ति में भी सहायक हैं। धार्मिक साहित्य में तो इनकी स्थिति प्रथम श्रेणी की है ही, इनका काव्यात्मक वैभव
भी अन्यून है। गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
'स्तोत्र' शब्द अदादिगण की उभयपदी स्तु धातु से 'ष्ट्रन्' प्रत्यय का निष्पन्न रूप है, जिसका अर्थ गुणसंकीर्तन है। स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त 'स्तुति' शब्द 'स्तोत्र' का ही पर्यायवाची है। गुणसंकीर्तन आराधक द्वारा
आराध्य की भक्ति का एक प्रकार है और यह भक्ति विशुद्ध भावना होने पर भवनाशिनी होती है। वादीभसिंहसूरि ने क्षत्रचूड़ामणि नीतिमहाकाव्य के मङ्गलाचरण में भक्ति को मुक्तिकन्या के पाणिग्रहण में शुल्क रूप कहा है। इससे स्पष्ट है कि भक्ति का लौकिक फल शिवेतरक्षति एवं सद्यः पर निवृत्ति के साथ आमुष्मिक फल परम्परा या मुक्ति है।
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर (मेरठ) उ०प्र० द्वारा जून १९९२ ई० में प्रकाशित जिनस्तोत्रसंग्रह एक विशाल ग्रन्थ है, जो छह खण्डों में विभक्त है। पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा संकलित इस ग्रन्थ के द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ खण्डों में उनके स्वयंरचित हिन्दी एवं संस्कृतभाषा के स्तोत्रों की समाहिति है। इनकी संख्या अर्द्धशतक को भी पार कर गई है। द्वितीय खण्ड के अन्त में कन्नड़ भाषा में लिखित 'बारह भावना' है। पूज्य माताजी की मातृभाषा हिन्दी है, किन्तु ज्ञान के अतिशय क्षयोपशम से उनका अनेक भाषाओं पर अप्रतिम अधिकार जान पड़ता है। यद्यपि मुझे कन्नड़ भाषा का प्रारंभिक ज्ञान भी नहीं है, तथापि 'बारहभावना' की श्रुतिमधुरता एवं सुकुमार शब्दों की चित्ताकर्षक लड़ी कोमल कान्त पदावली का भव्य निदर्शन है। साथ में दिया गया हिन्दी अनुवाद उसकी भावगरिमा को अभिव्यक्त करने में पूर्णतया समर्थ है। यहाँ पर पूज्य माताजी द्वारा चरित स्तोत्रों विशेष रूप से संस्कृत भाषा के स्तोत्रों की सावधान तथ्यनिष्ठापूर्ण संक्षिप्त समीक्षा ही प्रकृति लेख का विषय है। हिन्दी भाषा के स्तोत्रों की मात्र चर्चा की जा रही है, उनकी समीक्षा तो हिन्दी भाषा के अधिकारी भावकों से ही अपेक्षित है।
वर्ण्य क्षेत्र की-दृष्टि से माताजी द्वारा रचित स्तोत्र बहुआयामी हैं। इनमें जैन धर्म मान्य वर्तमान चौबीसी की समष्टि रूप से तथा व्यष्टिरूप से स्तुति के साथ भगवान् बाहुबलि, तीर्थङ्करों की दिव्य ध्वनि के धारक गणधर, सिद्धप्रभु, सिद्धक्षेत्र, जिनधर्म, जैनसिद्धान्त तीनों लोकों के समस्त चैत्य, षोडशकारण भावना, दशधर्म, पञ्चमेरु, जम्बूद्वीप, जिनशास्त्र तथा वर्तमान में जैन धर्म के प्रभावक दिगम्बर आचार्यों की स्तुति की गई है। तीसरे खण्ड के उपान्त्य में कनड़ की बारहभावना के पूर्व चतुर्थ काल की प्रथम गणिनी आर्यिका ब्राह्मी माताजी की संस्कृत भाषा में रचित स्तुति है। मुनिवरों की स्तुति के बाद आर्यिका माताजी की भी स्तुति लिखकर श्री ज्ञानमती माताजी ने पूज्यताक्रम का शास्त्रानुमोदित परिपालन किया है। विपुल साहित्य सपर्या की दृष्टि से पूज्य माताजी का बीसवीं शताब्दी के साहित्यकारों में तो शीर्षस्थ स्थान है ही, वैविध्यपूर्ण साहित्य संरचना में भी वे अग्रणी हैं । सम्पूर्ण संस्कृत-हिन्दी वाङ्मय में एक व्यक्ति द्वारा रचित इतने स्तोत्रों की उपलब्धि तो दूर सूचना भी प्राप्त नहीं है। उनके द्वारा प्रणीत देव-शास्त्र-गुरुओं की ये स्तुतियाँ न केवल रचनाक: पूज्य माताजी को अपितु श्रद्धालु पाठकों को भी भवसागर को पार करने में तरणि रूप हैं।
जिनस्तोत्रसंग्रह के द्वितीय खण्ड में सर्वप्रथम माताजी द्वारा हिन्दी में रचित उषा वन्दना है। २५ चौबोल छन्दों में रचित इस वन्दना में सिद्ध क्षेत्रों की वन्दना की गई है तथा अन्तिम छन्द में भव्यों को उषाकाल में तीर्थवन्दना को पूर्वजन्मों के पापों को हरने वाली कहा है। इसके बाद आठ वसन्ततिलका तथा एक अनुष्टुप् में सुप्रभातस्तोत्र है। प्रत्येक वसन्ततिलका के अन्तिम पाद में माताजी ने “उत्तिष्ठ भव्य! भुवि विस्फुरितं प्रभातम्' कहकर भव्यों को प्रभात की प्रकाशमय वेला में जाग्रत होने का सन्देश दिया है। आलंकारिक शैली में लिखित यह स्तोत्र आकार में छोटा होने पर भी भावगाम्भीर्य की दृष्टि से बेजोड़ है। उपमा और अंलकारों का बड़ा ही मनोरम प्रयोग हुआ है। उपमा और रूपक की उन्नत छटा में एक श्लोक द्रष्टव्य है, जिसमें कहा गया है कि स्याद्वाद रूपी सूर्य के उदित हो जाने पर कुवादिगण वैसे ही निष्प्रभ हो गये हैं, जैसे शशि-द्रोही सूर्य के उदित हो जाने पर तारागण निष्प्रभ हो जाते हैं१. 'श्रीपतिर्भगवान्पुष्याद भक्तानां वः समीहितम्।
यदभक्तिः शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे ।।'
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