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________________ १६६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला भाई- (i) श्री कैलाशचन्द्र जी (ii) श्री प्रकाशचन्द्र जी (iii) श्री सुभाषचन्द्र जी (iv) बाल ब्रह्मचारी श्री रवीन्द्र कुमारजी बहनें - (i) मैना देवी (आर्यिका ज्ञानमती जी) (ii) १०५ आर्यिका अभयमती माताजी (iii) १०५ आर्यिका चंदनामती माताजी (iv) बालब्रह्मचारिणी कु. मालती बहन जी (v) शांति जैन (लखनऊ) (vi) श्रीमती जैन (बहराइच) (vii) कुमुदनी जैन (लखनऊ) (viii) कामनी जैन (दरियाबाद) (ix) त्रिशला .जैन (लखनऊ) घर में मैना देवी सबसे बड़ी थीं। इन्हें पिताजी तथा माताजी का बहुत स्नेह प्राप्त हुआ। मैना के बड़ी हो जाने पर माता-पिता को शादी की फिक्र हुई, मगर मैना का मन उस तरफ नहीं था। उदासीन-सी मैनादेवी ने १८ वर्ष की आयु में सन् १९५२ को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत तथा सप्तम प्रतिमा के व्रत १०८ आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज, जो बाराबंकी में आये हुए थे, उनसे ग्रहण किये। कुछ समय बाद विहार करके संघ महावीरजी आ गया। माताजी संघ में साथ थीं। चैतवदी १ सन् १९५३ में क्षुल्लिका दीक्षा आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के द्वारा प्राप्त की तथा दीक्षा का नाम "वीरमती" रखा गया। श्री महावीरजी से संघ का विहार टिकैतगनर के लिए हुआ। वहाँ पर वीरमतीजी क्षुल्लिका विशालमती जी मिलीं, उनका स्नेह प्राप्त हुआ। एक बार क्षुल्लिका वीरमती व विशालमतीजी को मालूम हुआ कि कुंथलगिरि पर आचार्यवर शांतिसागर महाराज जी सल्लेखना धारण कर रहे हैं, वीरमतीजी गुरु श्री आचार्य देशभूषणजी महाराज से आज्ञा लेकर आचार्य श्री के दर्शन हेतु विशालमतीजी के साथ कुंथलगिरि पहुँची। वहाँ से वापस म्हसवड़ पहुँची। चौमासा म्हसवड़ में हुआ। बीच में मालूम हुआ कि महाराज यम सल्लेखना ले रहे हैं। वीरमतीजी विशालमतीजी के साथ कुंथलगिरि पहुँचीं। आचार्य महाराज के दर्शन किये तथा १०८ आचार्य शांतिसागरजा से आर्यिका दीक्षा लेने की चर्चा की। आचार्य महाराज ने उत्तर दिया कि आप आर्यिका दीक्षा श्री वीरसागरजी महाराज से लेना तथा आशीर्वाद दिया। उस समय वीरसागर महाराज जयपुर खानियां में विराजमान थे। चातुर्मास समाप्त हेने पर क्षुल्लिका वीरमतीजी, क्षुल्लिका विशालमतीजी विहार करके जयपुर आ गईं। (संघ में) जयपुर में वीरमतीजी ने आचार्य श्री १०८ वीरसागरजी से आर्यिका दीक्षा के लिए कहा। महाराजजी द्वारा दीक्षा शुभ मुहूर्त वैशाख वदी २ सन् १९५६ में माधोराजपुर में आर्यिका दीक्षा हुई तथा नाम आर्यिका ज्ञानमतीजी रखा गया । जो आज समाज व भारतवर्ष में १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के नाम से विख्यात हैं। __ पूज्य माताजी ने अजमेर शहर में आकर आचार्य १०८ धर्मसागरजी महाराज से माता मोहिनी देवी को आर्यिका दीक्षा दिलवायी। उनका नाम श्री रत्नमती माताजी रखा गया था। बाद में वे माताजी के साथ विहार करती रहीं तथा २५००वें निर्वाण महोत्सव पर लगभग समस्त दिगम्बर जैन साधु संघ देहली में एकत्रित हुए। माताजी सन् १९७२ में ही विहार करके देहली आ गई थीं। ___ देहली से पू० माताजी ने यू०पी० प्रान्त की तरफ विहार किया। माताजी की इच्छा जंबूद्वीप बनाने की थी; अतः माताजी ने हस्तिनापुर क्षेत्र पर यह रचना अपने पावन संदेश से बनवाई। जो पूरे भारतवर्ष में ही नहीं, विश्व में प्रसिद्ध हो गई। भारत के कोने-कोने से जैन-अजैन यात्री इसे देखने आते हैं तथा पुण्य कमाते हैं। जम्बूद्वीप में ८४ फुट ऊँचा सुमेरु पर्वत तथा उसके चारों ओर सुंदर रचना है। श्री महावीर मंदिर [कमल मंदिर में] १०८ आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज के द्वारा खड्गासन मूर्ति के नीचे अचलयंत्र विराजमान किया गया था तथा सूरिमंत्र भी आचार्य श्री के द्वारा दिया गया था। उसके बाद रत्नत्रय निलय, त्रिमूर्ति मन्दिर, आदि माताजी की प्रेरणा से बने हैं। इसमें श्री मोतीचंदजी सर्राफ, जो बाल ब्रह्मचारी रहे, अब १०५ क्षुल्लक मोतीसागरजी के नाम से विख्यात हैं तथा ब्रह्मचारी रवीन्द्र कुमारजी दोनों युवकों ने दिन-रात मेहनत करके यह निर्माण हमारे आपके सामने प्रस्तुत कर दिया, यह सब माताजी की ही देन है। माताजी हमेशा शास्त्रों का स्वाध्याय एवं पढ़ना-लिखना करती रहती हैं। माताजी ने अपनी कलम से करीब १५० ग्रन्थ लिख डाले हैं। जो उनके जीवन की महान् उपलब्धि हैं। आज जैन-अजैन सभी कहते हैं कि माताजी के ज्ञान का क्षयोपशम बहुत अच्छा है। अन्त में मैं शान्ति-कुन्थु-अरहनाथ भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि पूज्य माताजी का स्वास्थ्य रत्नत्रय सहित सकुशल रहे, जिससे धर्म की प्रभावना होती रहे तथा मानवमात्र को माताजी मार्गदर्शन देती रहें। सूर्य के समान तेजस्वी माँ को मेरा शत-शत वंदन -संजय कुमार जैन, विजय कुमार जैन, कानपुर सर्वप्रथम मैं माँ ज्ञानमती माताजी को नतमस्तक करता हूँ। सब बड़े-बड़े विद्वानों एवं पण्डितों के आगे तो मैं माताजी जैसी महान् साध्वी के गुणों का क्या बखान करूँ, लेकिन फिर भी कुछ शब्द रूपी फूल माँ ज्ञानमतीजी के चरणों में श्रद्धांजलि रूप में अर्पित करता हूँ। माताजी का यह साध्वी जीवन, या यों कह सकते हैं कि संघर्षमयी जीवन हम सभी के लिए एक सीख का विषय है : माजी ने इतने कटोर परिश्रम के बाद दीक्षा पाई, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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