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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
हुई। वह कटोरी आज भी विद्यमान है उसी से प्रतिदिन माताजी को आहार दिया जाता है और लीवर को सही रखने के लिए कासनी के बीज की ठंडाई पिछले ७ वर्षों से लगातार आज भी दी जाती है, आवश्यकता पड़ने पर मेरठ के प्रसिद्ध हकीम भूतपूर्व राष्ट्रपति चिकित्सक हकीम सैफुद्दीन सेफ को बुला लिया जाता है इसी उपर्युक्त दवाई में कुछ परिवर्तन करते रहते हैं। हम जब उस नाजुक समय को कभी याद करते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हम तो भगवान से कामना करते हैं कि ऐसे नाजुक समय में भी जिस प्रकार धैर्य एवं दृढ़ता का अवलम्बन पूज्य माताजी ने लिया उसी प्रकार सभी साधुओं को आवश्यकता पड़ने पर लेना चाहिए।
यह तो हुआ एक अनुभव शरीर सम्बंधी एवं चारित्रिक दृढ़ता का। एक अनुभव यहां और बताना चाहता हूँ जैसे एक कहावत प्रचलित है "जल ते भिन्न कमलवत्" जल में रहकर भी कमल जल से भिन्न रहता है। ऐसा जीवन मैंने आर्यिका ज्ञानमती माताजी का देखा है। लोग समझते होंगे कि माताजी जम्बूद्वीप निर्माण करा रही हैं तो उसमें लिप्त हैं लेकिन पाठकों की जानकारी के लिए इस संबंध में पूज्य माताजी की निस्पृहता की थोड़ी-सी बात यहां दे रहा हूँ। पूज्य माताजी जम्बूद्वीप से कितनी निर्लिप्त हैं इसे तो प्रत्यक्ष रूप से हम लोग ही जानते हैं। जो लगातार २० वर्ष से उनके साथ हैं। पूज्य माताजी प्रतिदिन अपना लेखन-कार्य करती हैं। प्रतिदिन समय पर सामायिक प्रतिक्रमण स्वाध्याय व नित्य क्रिया से बचा हुआ समय यात्रियों के लिए प्रवचन या ग्रंथों के पूजन के लेखन में निकलता है। जब हम लोगों को आवश्यकता पड़ती है तब नक्शे पर मार्गदर्शन पूज्य माताजी से ले लेते हैं आशीर्वाद ले लेते हैं। बाकी सामान खरीदना, रुपयों का इंतजाम करना, निर्माण कराना, हिसाब रखवाना,, ठेकेदार की व्यवस्था करना यह सब काम तो हम लोगों का है। पूज्य माताजी ने आज तक इस काम में न समय दिया न रुचि ली। माताजी को तो यह भी आज तक पता नहीं है कि कहां से कितना रुपया आता है, कौन-सी चीज कहां से आती है, कितना किस चीज में लगता है। माताजी कभी भी रुपयों-पैसों के हिसाब में नहीं पड़ीं। ऐसी पूर्ण निस्पृहता होना बड़े आश्चर्य का ही विषय है। और पाठक सोच भी सकते हैं कि अगर माताजी ऐसा न करतीं तो ये इन्द्रध्वज मण्डल विधान, कल्पद्रुम विधान, सर्वतोभद्र मंडल विधान आदि १५० ग्रंथ कैसे पूज्य माताजी लिखती- बहुत ही एकाग्रचित्त होने पर यह लेखन कार्य हो पाता है। कभी-कभी तो लेखन में माताजी के ऐसी एकाग्रता रहती है कि यात्री आता है-मोस्तु-वंदामि करके चला जाता है और माताजी को कुछ पता ही नहीं रहता है।
यही हाल है आहार के संबंध में। भले ही पिछले कुछ वर्ष अस्वस्थता के कारण पूज्य माताजी के इस हस्तिनापुर जंगल में निकल गये लेकिन कभी भी माताजी आहार के संबंध में चर्चा नहीं करती हैं कि अमुक चीज चौके में होना चाहिए।
इतना पूज्य माताजी ने अवश्य हस्तिनापुर रहने से पहले हमसे व मोतीचंदजी से कह दिया था कि संस्थान का एक भी पैसा चौके में, आहार में मत लगाना- आहार की व्यवस्था तुम लोग कर सको तो ही हमें हस्तिनापुर रखना- जब व्यवस्था न हो सके तो हमसे बता देना हम विहार कर देंगे। यह परंपरा आज तक बराबर चल रही है। वैसे समय-समय पर विहार होता रहता है लेकिन जम्बूद्वीप स्थल पर चाहे पूज्य माताजी विराजें या अन्य अनेक साधुगणों का आगमन भी हुआ और आगे भी होगा- लेकिन संस्थान से आहार के संबंध में कभी भी कोई खर्च नहीं किया गया। व्यक्तिगत रूप से ही व्यवस्था करके आहारदान की व्यवस्था यहां की जाती है।
इस प्रकार चर्या में अत्यन्त दृढ़ता, रुपये-पैसों से पूर्ण निस्पृहता एवं शारीरिक सहनशीलता, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग आदि दुर्लभ गुण जो पूज्य माताजी में हमें दिखते हैं वे हम सब लोगों के लिए अनुकरणीय एवं आदर्श स्वरूप हैं। कुछ लोग पूज्य माताजी को सरस्वती का अवतार कहते हैं और पत्रों में लिखते हैं। माताजी ने हस्तिनापुर को स्वर्ग बना दिया- कोई निंदा भी करता है, लेकिन इन प्रशंसाओं से न तो माताजी प्रसन्न होती हैं और न निन्दा करने वालों से रुष्ट होती हैं।
शिष्यों के सम्बंध में भी अनभव पूज्य माताजी के जीवन से मिला है
पूज्य माताजी ने अनेक शिष्य-शिष्याओं को घर से निकालकर उन्हें अध्ययन कराया- मोक्ष मार्ग में लगाया है। शिष्य-शिष्याओं की प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न रूप से होती है ऐसा हमने देखा है।
__ पूज्य माताजी के मुखारविंद से अनेक अनुभव आचार्य श्री शांतिसागरजी से लेकर इस आचार्य परंपरा के संबंध में हमने सुने हैं तथा माताजी के जीवन में देखे हैं उनमें से बानगी रूप में ही यहां प्रस्तुत कर सका हूँ।
अंत में मैं अधिक कुछ न लिखकर इतना ही कहूंगा कि मुझे भी इस मार्ग में लगाने में निमित्त पूज्य माताजी ही हैं जिससे पिछले २० वर्ष तक मुझे उनकी सेवा करने का एवं पूज्य रत्नमती माताजी की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हो सका तथा संस्थान के निर्माण एवं संस्थान की प्रत्येक गतिविधियों के संचालन में अपना तन मन धन लगा सका।
कई वर्षों से अनेक विद्वान्गण हमसे बार-बार कह रहे थे-कि माताजी के सम्मान में एक अभिवंदन ग्रंथ निकलना चाहिए। अन्ततोगत्वा ग्रंथ निकालने का निर्णय लेना पड़ा। यह बात जब पूज्य माताजी को ज्ञात हुई तो उन्होंने मना भी किया, लेकिन इस आज्ञा का पालन हम लोग न कर सके।
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