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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
साहित्य का निर्माण किया है। आगम वर्णित जम्बूद्वीप की रचना को मूर्तरूप प्रदान कर अकृत्रिम चैत्य-चैत्यालयों के प्रति भक्तों के हृदय में श्रद्धा का भाव जाग्रत किया है। इस महाविभूति के आशीर्वाद से जैन संस्कृति का इतिहास अनन्तकाल तक गौरवान्वित रहेगा।
. इस प्रकार परम पूजनीया गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा विरचित 'तीस चौबीसी विधान' समग्र जैन संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इसके प्रणयन से जैन पूजन-विधान साहित्य भाण्डार की अक्षय्य श्री वृद्धि हुई है। वैदर्भी रीति और माधुर्य तथा प्रसाद गुण में उपन्यस्त यह ग्रन्थ भारतीय काव्य-साहित्य की एक विशष्टि कृति के रूप में समादरणीय है तथा इस महनीय योगदान के लिए सम्पूर्ण साहित्य संसार पूज्य माताजी का चिर कृतज्ञ रहेगा।
पंचपरमेष्ठी विधान
समीक्षक - पं० नाथूराम डोंगरीय - सुदामानगर, इन्दौर जिनशासन में अरहंतसिद्ध आचार्यउपाध्याय एवं निग्रंथ साधुओं का पद सर्वोत्कृष्ट माना गया है। जैन दर्शन में प्रत्येक भव्यात्मा परमात्मा बन सकता है। इस सिद्धान्त का प्रमुखता के साथ प्रतिपादन किया गया है। अतः
अपने लक्ष्य की पूर्ति हेतु इन वीतराग और वीतरागता के उपासक परमेष्ठियों की आदर्श के रूप में आराधना परमेण्टी
करने के लिए दर्शन पूजन वंदन गुणस्मरण आदि विधाओं द्वारा उपासना करने की श्रमणों और श्रावकों को
प्रेरणा दी गई है। यहाँ तक कि परमेष्ठियों की वंदना व स्मरण हेतु पंचनमस्कार मंत्र युगों से जपाजाकर मानव विधान
के पापों के विनाश का सर्वोत्तम माध्यम भी बना हुआ है।
प्रस्तुत पंचपरमेष्ठी विधान की रचना परमेष्ठियों की भक्ति में विभोर होकर पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने की है। इस रचना में अरहंत भगवतों के छियालीस, सिद्ध भगवंतों के आठ, आचार्यों के ३६, उपाध्यायों के २५ एवं निग्रंथ साधुओं के २८ मूल गुणों की पृथक्-पृथक् पूजा का निर्माण किया गया है। इसके पूर्व नवदेवता पूजन भी मुद्रित है। जिसमें उल्लिखित पंचपरमेष्ठियों के सिवाय जिनवाणी, जिनधर्म,
जिनप्रतिमा एवं जिनमंदिर को भी आत्मोत्थान में सहायक होने से देव के समान ही पूज्य मानकर पूजा लिखी गई है। पूज्य गणिनी माताजी ने स्वपर कल्याण हेतु इस विधान की रचना का जो पुनीत कार्य किया है वह निश्चय ही भाव भक्ति निरत साधुओं की आत्मसाधना व आराधना का माध्यम बन गया है एवं चिरकाल तक बना रहेगा। ___ यह सच है कि प्रत्येक प्राणी सुखी बनना चाहता है, किंतु मोहमाया के भ्रमजाल में फंसे होने से न तो उसे स्वयं के ज्ञानानंद स्वरूप का भान है और न भौतिक इन्द्रियाँ विषयों के स्वाद में उलझे रहने के कारण इस ओर उसका ध्यान ही जा पाता है। मोह जाल में फंसे हुए प्राणियों को रागद्वेष से मुक्ति पाने के लिए वीतरागता की उपासना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। इसके लिए पंचपरमेष्ठियों की शरण लेकर उनकी और उनमें वीतरागता की पूजन-वंदन, गुणस्मरणादि द्वारा आराधना करने से स्वरूपानुभूति प्राप्तकर वीतरागता को आत्मसात् करना सरल हो जाता है। अतः जैन दर्शन में इनकी उपासना करने का विधान किया है।
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पूज्य गणिनी माताजी ने प्रस्तुत रचना में इसी पवित्र उद्देश्य को लेकर पंच परमेष्ठियों के गुणगान द्वारा अपनी श्रद्धा और पवित्र भावना को अभिव्यक्त करते हुए अन्य जनों के लिए भी उसे उपासना का माध्यम बनाया है। रचना में उन्होंने गीता, कुसुमलता, शंभु, दोहा, सोरठा, अडिल्ल, नाराच आदि विविध छंदों का प्रयोग किया है। इससे भक्तजनों को पूजा करते समय संगीत में विविध लय, ताल, स्वरों आदि के परिवर्तन द्वारा राग-रागनियों के माध्यम से भक्ति में तल्लीन होने की सुविधा भी प्राप्त है।
उपमा आदि अलंकारों से अलंकृत पद्यों से माताजी की निसर्गज काव्यकला का सहज ही आभास होता है। रचना की भाषा बोलचाल की हिन्दी है तथा प्राचीन पूजाओं में विद्यमान भावाभिव्यक्ति की समानता भी दिखाई देती है। पूजन करते समय छंदों का गायन किन स्वरों और चाल में करना चाहिए इसका संकेत भी प्रचलित स्तुतियों [हे दीन बंधु आदि] की ओर संकेत कर दिया गया है, जिससे गायक को पाठ पढ़ने में चाल संबंधी असमञ्जस में न पड़ना पड़े।
जैन साहित्य में प्रायः सभी पूजाओं, विधानों, भजनों, प्रार्थनाओं या स्तुतियों का निर्माण कवि वृन्दों ने गद्य में न कर पद्यों के माध्यम से ही किया है।पद्यों मे होने से भक्तों व उपासकों को संगीत के माध्यम से गा-बजाकर भक्ति भाव में विभोर हो जाना भी सहज हो जाता है और इससे जो अलौकिक
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