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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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श्रीतीर्थंकर स्तवन है। काव्यत्व की दृष्टि से इस खण्ड का महत्त्व भले ही नगण्य कहा जाये, किन्तु भक्तों के लिए तो उसका असीम माहात्म्य है। क्योंकि जिनसहस्रनाम, तीन चौबीसी नामावली एवं विदेह क्षेत्रस्थ बीस तीर्थंकरों के नामों के स्मरण से उन्हें तद्रूप होने की प्रेरणा मिलती है। आराध्य के नामों का स्मरण आराधना का ही एक प्रकार है, जो आराध्य की स्तुति, भक्ति या पूजा ही है और मनोवांछित की सफलता का निमित्त होता है। तीर्थंकर की माता के सोलह स्वप्न और उनका फल जानने के लिए हिन्दी का 'श्रीतीर्थंकरस्तवन' जिज्ञासुओं को विशेष रूप से पठनीय है।
जिनस्तोत्रसंग्रह के चतुर्थ खण्ड का न केवल जैन स्तोत्र साहित्य में, अपितु सम्पूर्ण विश्व के स्तोत्र वाङ्मय में अप्रतिम सर्वातिशायी महत्त्व है। । यद्यपि इसमें कल्याणकल्पतरु नामक एक संस्कृत भाषा के एवं एक हिन्दी भाषा की कुल दो स्तोत्र ही संकलित हैं, किन्तु उनका आकार विशाल है। संस्कृत के कल्याणकल्पतरु स्तोत्र में २१२ पद्य और हिन्दी के कल्याणकल्पतरु स्तोत्र में १३२ पद्य हैं। दोनों स्तोत्र मौलिक हैं और दोनों में ही ऋषभदेव से लेकर महावीरपर्यन्त २४ तीर्थकरों की स्तुति की गई है। छन्द शास्त्र की दृष्टि से संस्कृत के इस स्तोत्र का महनीय योगदान है। इसमें एक अक्षर वाले छन्द से लेकर सत्ताईस अक्षर वाले छन्द तक के १४३ पद्य तथा तीस अक्षर वाले एक अर्णोदण्डक छन्द का प्रयोग हुआ है। ऐसी स्थिति संस्कृत के स्तोत्रसाहित्य में कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुई है। इस स्तोत्र की यह अपनी अप्रतिम विशेषता है। छन्दों के इस उपवन में माताजी ने अध्यात्म, दर्शन एवं इतिहास के पुष्प गुंफित करके भारत की विद्वत्परम्परा में अपनी अगाध पैठ बनाई है। चौबीस तीर्थंकरों की स्तुतिपरक इस कल्याणकल्पतरु में तीर्थंकरों के पञ्चकल्याणक की तिथियाँ, माता-पिता, जन्म स्थान आदि के नाम, शरीर का वर्ण अवगाहना एवं आयु भगवज्जिनसेनकृत महापुराण (आदिपुराण) और गुणभद्राचार्यकृत उत्तरपुराण के अनुसार हैं। टिप्पणियों में यथास्थान मतान्तर देकर शोधार्थियों के मार्ग को प्रशस्त बना दिया गया है। इसकी अलंकार योजना भी प्रशस्य है। एकमात्र इस स्तोत्र के समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन से सभी शास्त्रों का ज्ञान हो सकता है।
गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने भाषा को संगीतमय, भावों को सशक्त एवं हार्द की अभिव्यंजना के लिए वर्ण्यविषयानुसार १४४ छन्दों का प्रयोग किया है। अन्य स्तोत्रों में जिन छन्दों का प्रयोग हुआ है, वे सब कल्याणकल्पतरु में प्रयुक्त हैं। अद्यावधि उपलब्ध संस्कृत वाङ्मय में एकाक्षरी छन्द का प्रयोग मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुआ है। माताजी ने इस स्तोत्र का प्रारम्भ श्रीनामक एकाक्षरी छन्द से किया है,जो उनकी विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है। भगवान् ऋषभदेव की स्तुति में एकाक्षरी 'श्री' छन्द का प्रयोग द्रष्टव्य है
"ऊँ, माम् । सोऽव्यात्॥" माताजी ने दो अक्षर वाला छन्द स्त्री; तीन अक्षर वाले छन्दों में केसा, मृगी एवं नारी; चार अक्षर वाले छन्दों में कन्या, व्रीडा, लासिनी, सुमुखी, सुमति एवं समृद्धि; पाँच अक्षर वाले छन्दों में पंक्ति, प्रीति, सती एवं मन्दा; छह अक्षर वाले वृत्तों में शशिवदना, तनुमध्या, सावित्री, नदी, मुकुला, मालिनी, रमणी, वसुमती एवं सोमराजी; सप्ताक्षरी वृत्तों में मदलेखा, कुमारललिता, मधुमती, हंसमाला एवं चूड़ामणि; अष्टाक्षर छन्दों में अनुष्टुप, प्रमाणिका, चित्रपदा, विधुन्माला, माणवक, हंसरुत, नागरक, नाराचिका, समानिका एवं वितान; नवाक्षर वृत्तों में हलमुखी एवं भुजंगशिशुभृता; शाक्षरी छन्दों में शुद्धविराट्, पणव, मयूरसारिणी, रुक्मवती, मत्ता, मनोरमा, मेघवितान, मणिराग, चम्पकमाला एवं त्वरितगति; एकादशाक्षरी वृत्तों में दोधक, उपस्थिता, एकरूप, इन्द्रवज्रा उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, सुमुखी, शालिनी, वातोर्मि, भ्रमरविलसित, स्त्री (श्री), रथोद्धता, स्वागता, पृथ्वी (वृत्ता), सुभद्रिका (चन्द्रिका), वैतिका (श्येनिका) एवं मौक्तिकमाला; बारह अक्षर वाले छन्दों में चन्द्रवर्त्म, वंशस्थ, इन्द्रवंशा, द्रुतविलम्बित, पुट, तोटक, प्रमुदितवदना, उज्ज्वला वैश्वदेवी, कुसुमविचित्रा, जलधरमाला, नवमालिनी, प्रभा, मालती, भुजंगप्रयात, तामरस, स्रग्विणी, मणिमाला, प्रमिताक्षरा, जलोद्धतगति, प्रियवंदा एवं ललिता; तेरह अक्षर वाले छन्दों में क्षमा, प्रहर्षिणी, अतिरुचिरा, चंचरीकावली, मंजुभाषिणी, मत्तमयूर एवं चन्द्रिका, चतुर्दशाक्षर वृत्तों में वसन्ततिलका, अलोला, इन्दुवदना, प्रहरणकलिका, अपराजिता एवं असंबाधा; पञ्चदशाक्षर छन्दों में मालिनी, शशिकला, चन्द्रलेखा, प्रभद्रक, सक्, मणिगुणनिकर, कामक्रीडा एवं एला (अतिरेखा); सोलह अक्षर वाले छन्दों में ऋषभगजविलसित एवं वाणिनी; सत्तरह अक्षर वाले वृत्तों में शिखरिणी, पृथ्वी, मन्दाकान्ता, वंशपत्रपतित एवं हरिणी; अठारह अक्षर वाले छन्दों में कुसुमलतावेल्लिता, सिंहविक्रीडित, तत्कुटक, कोकिलक एवं हरनर्तक; उन्नीस अक्षरों वाले छन्दों में शार्दूलविक्रीडित एवं मेघविस्फूर्जित; बीस अक्षर वाले वृत्तों में मत्तेभविक्रीडित, सुवदना, वृत्त एवं प्रमदानन; इक्कीस अक्षर वाले छन्दों में स्रग्धरा एवं मत्तविलासिनी; बाईस अक्षर वाला वृत्त प्रभद्रक; तेईस अक्षर वाले वृत्तों में अश्वललित, मत्ताक्रीडा एवं मयूरगति; चौबीस अक्षर वाला छन्द तन्वी; पच्चीस अक्षर वाला वृत्त क्रौञ्चपदा; छब्बीस अक्षर वाले वृत्तों मे अपवाह एवं भुजङ्गविजृम्भित; सत्ताईस अक्षर वाले चण्डवृष्टिप्रयातदण्डक एवं प्रचितकदण्डक और तीस अक्षरों वाले अर्णोदण्डक का कल्याणकल्पतरु स्तोत्र में प्रयोग किया है। संस्कृत साहित्य में इतने अधिक छन्दों वाले स्तोत्र तो क्या कदाचित् मेरी निगाह में कोई महाकाव्य भी नहीं है। इस दृष्टि से पूज्य माताजी का यह महनीय अवदान है। कल्याणकल्पतरु नामक हिन्दी स्तोत्र भी अत्यन्त रोचक और वर्ण्यविषय की दृष्टि से संस्कृत के कल्याणकल्पतरुस्तोत्र के ही समान है।
उपर्युक्त स्तोत्रों के पर्यालोचन को एक लघु निबन्ध में प्रस्तुत करना सर्वथा दुष्कर है। ग्रन्थ प्रकाशन की अत्यन्त त्वरा से इसका यथेष्ट अध्ययन भी न हो सका। "भविष्य में किसी भी को माताजी के संस्कृत स्तोत्रों पर पी-एच०डी० हेतु शोध कराने की भावना है। यदि यह कार्य सुसम्पन्न करा सका तो मैं अपना गारव समझूगा।" इन स्तोत्रों पर डाली गई विहंगम दृष्टि से स्पष्ट हो जाता है कि पूज्य माताजी प्रतिभाशालिनी, विविध प्रकार की घटनाओं के वर्णन करने में दक्ष, सर्वथा लोकहितकारिणी, सर्वशास्त्रों के अवेक्षण से कुशाग्रबुद्धि को प्राप्त तथा व्याकरण-न्याय आदि
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