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________________ ४२२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला भवव्याधिशान्त्यै सुपीयूषवाक् सा। सरित्सप्तभङ्गयात्मका मां पुनातु, सुवाणी च कुर्यात्सदा मङ्गल मे ॥२॥" उक्त मंगल स्तवनों के पश्चात् पूज्य माताजी के द्वारा रचित प्राकृत भाषा में लिखित अंचलिकाओं के साथ संस्कृत में प्रणीत सोलहकारण भक्ति, दशलक्षणभक्ति, पञ्चमेरुभक्ति, जम्बूद्वीपभक्ति तथा सुदर्शनमेरुभक्ति है। सोलहकारण भक्ति में १७ उपजाति छन्द तथा १ अनुष्टप है। नरेन्द्र छन्द में प्रणीत हिन्दी पद्यानुवाद भी मनोरम है। इसमें दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का अच्छा चित्रण हुआ है। दशलक्षणभक्ति में १० वसन्ततिलका एवं अन्त में दो अनुष्टुप् हैं। इनका शंभु छन्द में हिन्दी पद्यानुवाद है। दशलक्षण धर्म का कम शब्दों में स्वरूप समझने के लिए इस भक्ति का अप्रतिम महत्त्व है। पञ्चमेरुभक्ति में ३५ पद्य हैं, जिनमें १४ पृथ्वी, ९० अनुष्टप, ५ भुजंगप्रयात, ३ उपजाति, २ आर्यास्कन्ध तथा १ शार्दूलविक्रीडित छन्द है। इस भक्ति का चौबोल छन्द में पूज्य माताजी द्वारा विरचित हिन्दी पद्यानुवाद की मौलिकता भक्तों को भक्ति में लीन करने में सक्षम है। जम्बूद्वीपभक्ति में ७ उपजाति, ५ अनुष्टुप् तथा २-२ पृथ्वी, तोटक, मन्दाक्रान्ता और आर्या वृत्त हैं। इस भक्ति का भी हिन्दी पद्यानुवाद किया गया है। सुदर्शनमेरु भक्ति में ५ वसन्ततिलका छन्द हैं। इसका पद्यानुवाद नहीं है। अन्य भक्तियों की तरह इसका भी पद्यानुवाद होता तो समीचीन रहता तथा प्रक्रमभंग न होता। इन पाँचों भक्तियों के अन्त में प्राकृत अंचलिका है। आगे ९ पद्यों की एक हिन्दी भाषा की सुमेरुवन्दना है। उपर्युक्त पाँचों भक्तियों की कदाचित् सर्वप्रथम पूज्य माताजी ने ही प्राकृत अंचलिका के साथ रचना की है। इससे माताजी की अकृत्रिम चैत्यालयों के प्रति विशेष भक्ति ज्ञात होती है। इसके आगे ४१ अनुष्टुप् वृत्तों में गणधरवलयस्तुति, ४१ हिन्दी चौबोल छन्द एवं १ दोहा में गणधरवलय मन्त्रस्तुति है। तत्पश्चात् ८ मालिनी एवं १ अनुष्टुप् में जम्बू स्वामी स्तुति है। जम्बूस्वामीस्तुति में भरतक्षेत्र के अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामी का सुरुचिपूर्ण स्तवन है। ५१ अनुष्टुप् वृत्तों में गुम्फित निरंजनस्तुति में सिद्ध परमेष्ठी की आराधना की गई है। तदनन्तर हिन्दी भाषा में प्रणीत ३३ पद्यात्मक निरंजनस्तुति एवं ४५ पद्यात्मक अध्यात्मपीयूष (शुद्धात्मभावना) के बाद पुनः संस्कृत की स्तुतियों का क्रम आता है। अष्टसहस्री ग्रन्थ के प्रणयन हेतु एवं रचनास्थान के विवेचनपूर्वक १८ अनुष्टुप, २-२ उपजाति एवं मन्दाक्रान्ता तथा १-१ आर्या एवं वसन्ततिलका छन्दों में ग्रन्थराज अष्टसहस्री की वन्दना और १० अनुष्टुप् एवं १ मन्दाक्रान्ता में समयसार की वन्दना है। समयसारवन्दना में पूज्य माताजी ने समवसार का सार उद्घाटित करके अपनी आत्मा को समयसार रूप बनाने की मङ्गलकामना की है। तत्पश्चात् पूज्य माताजी ने बीसवीं शताब्दी के प्रथम आचार्य चारित्रचक्रवर्ती १०८ श्री शान्तिसागर महाराज, उनके प्रथम पट्टाधीश तथा अपने दीक्षागुरु आचार्य की श्रीवीरसागर महाराज और इसी निर्मल परम्परा के आचार्य शिवसागर महाराज, आचार्य धर्मसागर महाराज एवं आचार्य श्री देशभूषण महाराज की स्तुति की है। ये स्तुतियाँ माताजी की गुरुभक्ति की निदर्शन हैं। अथ च चतुर्थ काल की प्रथम गणिनी आर्यिका ब्राह्मी माता की स्तुति के माध्यम से उन्होंने मुनियों के साथ आर्यिकाओं की पूज्यता की प्रतिष्ठा की है। चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्रीशान्तिसागर स्तुति में ६ भुजंगप्रयात, १ पृथ्वी और १ अनुष्टुप् है। इसके प्रथम श्लोक में ही अनुप्रास की शोभा पाठकों के हृदय में अलौकिक आनन्द का संवर्धन करती है "सुरत्नत्रयैः सद्वतै जमानः, चतुःसंघनाथो गणीन्द्रो मुनीन्द्रः। महामोहमल्लैकजेता यतीन्द्रः, स्तुवे तं सुचारित्रचक्रोशसूरिम्॥" आचार्यवीरसागरस्तुति प्रथम १० पद्यात्मक तथा द्वितीय छह पद्यात्मक है। प्रथम में उपजाति तथा द्वितीय में वसन्ततिलका छन्द प्रयुक्त है। दोनों के अन्तिम पद्य में अनुष्टुप् है। आचार्य शिवसागरस्तुति १० वसन्ततिलका एवं १ अनुष्टुप् परिमाण है। आचार्य श्री धर्मसागर की दो स्तुतियाँ हैं। प्रथम में ८ वसन्ततिलका और द्वितीय में १० उपजाति, १ पृथ्वी एवं १ अनुष्टुप् है। द्वितीय स्तुति का हिन्दी पद्यानुवाद भी दिया गया है। आचार्यश्री देशभूषण स्तुति में ८ अनुष्टुप्, १ वसन्ततिलका एवं १ पृथ्वी छन्द का प्रयोग हुआ है। ब्राह्मी माताजी स्तुति में १० अनुष्टुप् हैं। इन सभी स्तुतियों में शब्दालंकारों की झंकृति एवं चमत्कृति से जहाँ माताजी के अगाध पाण्डित्य का पता चलता है, वहाँ अर्थालंकारों के समुचित प्रयोग से वर्ण्य भावों की मंजुल अभिव्यंजना होती है। इस खण्ड के अन्त में हिन्दी अर्थ के साथ कन्नड़ की बारहभावना है। इसकी चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। जिनस्तोत्रसंग्रह के इस द्वितीय खण्ड में माताजी द्वारा विरचित कुल ४४ स्तोत्र हैं, जिनमें ३७ संस्कृति, ६ हिन्दी और १ कनडभाषा में प्रणीत है। जिनस्तोत्रसंग्रह के तृतीय खण्ड में माताजी द्वारा विरचित सात स्तोत्र हैं। इसका प्रारंभ जिनेन्द्र भगवान् की पावन भक्ति में प्रणीत एक हजार आठ नाम मन्त्रों से हुआ है। आगे तीस चौबीसी नाममन्त्र एवं तीस चौबीसी नामावली स्तोत्र हैं। इस स्तोत्र में कुल १२९ अनुष्टुप् हैं। तदनन्तर हिन्दी का तीस चौबीसी स्तोत्र है, जिसमें ५९ शंभु छन्द और अन्तिम प्रशस्ति में ३ दोहे हैं। तदनन्तर १४ अनुष्टुप् प्रमाण संस्कृत की बीस तीर्थंकर नाम स्तुति तथा हिन्दी की ७ पद्यात्मक बीस तीर्थंकर नाम स्तुति है। अन्त में हिन्दी भाषा में ही निबद्ध माता के सोलह स्वप्नों के साथ १ सोरठा और ८ शंभु छन्दों में रचित Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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