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गणिनी आयिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ
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अभिवंदन ग्रंथ के सम्पादक मण्डल एवं संघस्थ साधुओं द्वारा गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से "मूलाचार" ग्रंथ के संबंध में हुई एक चर्चा (दिनांक १४ मई, १९९२)
लेखक-डा. श्रेयांस जैन, बड़ौत
संपादक
माताजी! वंदामि, वंदामि, वंदामि। माताजी
सद्धर्मवृद्धिरस्तु। चंदनामती
पूज्य माताजी! आपने मूलाचार ग्रंथ का हिंदी अनुवाद किया है, उसमें आपको क्या-क्या विशेषतायें अनुभव में आई हैं? माताजी
इसमें बहुत सी विशेषतायें हैं। यह तो साधुओं का संहिताग्रंथ है। मुनियों और आर्यिकाओं की जीवनचर्या इसी ग्रंथ के आधार
से होनी चाहिए। डा. श्रेयांस
कुछ विशेष बातें हम आपसे सुनना चाहते हैं? माताजी
हां हां, क्यों नहीं, मैंने “मूलाचार" में बहुत सारे विशेष प्रकरण देखे हैं। इसमें पहले अधिकार में अठारह मूलगुणों का वर्णन है। चौथे अधिकार में साधुओं की समाचार चर्या है-इसके औधिक और पदविभागी ऐसे दो भेद किये गये हैं। इसमें द्वितीय पदविभागी समाचारी चर्या का वर्णन करते हुए कहा है कि उत्तम तीन संहनन के धारी, तप और श्रुत आदि में कुशल ऐसे मुनि ही एकल बिहारी हो सकते हैं। आगे कहा है कि जो स्वच्छंद गमनागमन आदि प्रवृत्ति करने वाले हैं, ऐसे साधु मेरे
शत्रु भी एकाकी विहार न करें अर्थात् संघ में ही रहें। चंदनामती
माताजी! आर्यिकाओं की चर्या का मूलाचार में क्या उल्लेख आता है? माताजी
इसी मूलाचार के चतुर्थ अधिकार में आचार्य के लक्षण बतलाकर यह स्पष्ट किया है कि आर्यिकाओं को प्रायश्चित्त आदि देने वाले आचार्य प्रौढ़ होवें, इत्यादि । पुनः कहा है
एसो अजाणंपि असामाचारो जहक्खिओ पुव्वं ।
सव्वह्मि अहोरत्ते विभासिदव्यो जधाजोगं ॥ १८७ ॥ अर्थात् पूर्व में इस ग्रंथ में जैसा समाचार मुनियों के लिए कहा गया है, आर्यिकाओं को अहोरात्र यथायोग्य-अपने अनुरूप-वृक्षमूल, आतापन, अभावकाश आदि योगों से रहित वही संपूर्ण समाचार विधि आचरित करनी चाहिए। यहाँ गाथा में जो "जहाजोगं" पद है, उसमें टीकाकार ने कहा है"जहाजोग-यथायोग्य आत्मानुरूपो वृक्षमूलादिरहितः।" इससे बहुत ही स्पष्ट हो जाता है कि सारी मुनि की चर्या ही आर्यिका की चर्या है मात्र आतापन योग आदि का निषेध है।
आर्यिकाओं की दीक्षाविधि भी अलग से नहीं है मुनि की दीक्षा विधि से ही दीक्षा दी जाती है। अतः आर्यिकाओं के २८ मूलगुण माने गये हैं। दो साड़ी रखना और बैठकर करपात्र में आहार लेना ये उनके मूलगुण ही हैं।
प्रायश्चित्त ग्रंथ में भी मुनि और आर्यिकाओं के लिए एक समान ही प्रायश्चित्त हैं, क्षुल्लकों, क्षुल्लिकाओं के लिए इससे
आधा है और ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणियों के लिए इससे भी आधा है। इत्यादि। डा. श्रेयांस
आहार में क्या आर्यिकाओं की नवधाभक्ति होती है? माताजी
हां, चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी की आज्ञा से उनकी परंपरा में सभी आर्यिकाओं के पाद प्रक्षालन, अष्टद्रव्य
से पूजा आदि नवधाभक्ति होती आ रही है। डा. अनुपम
क्या कहीं आर्यिका की पूजा के प्रमाण भी मिलते हैं? माताजी
हां, पद्मपुराण में लिखा है कि श्रीरामचंद्र जी ने सीता के साथ जाकर एक मंदिर जी में विराजमान गणिनी आर्यिका श्री "वरधर्मा" जी की पूजा की थी। यथा
वरधर्मापि सर्वेण, संघेन सहितापरम्।
राघवेण ससीतेन, नीता तुष्टेन पूजनम् ॥ १. मूलाचार गाथा १४९ । २. मूलाचार गाथा १५०
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