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________________ १४८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के दुःख-सुख ने मेरी धार्मिक प्रवृत्ति पर जैसे धूल-सी बिखेर दी थी। यह धूल तभी उँटी जब मैं सन् १९७६ में प्रातः स्मरणीया पूज्य ज्ञानमती माताजी के निकट आया। उनका पधारना इस वर्ष खतौली में हुआ था। उनके प्रथम दर्शन मात्र से मेरे मन के अँधेरे प्रकाश में बदल गये। माताजी के प्रभा मंडल में मैं इसी प्रकार खिंचता चला गया, जैसे लोहकण को चुम्बक खींच लेता है। ज्ञानमतीजी के ज्ञान की किरणों को पाकर मुझमें जैसे पावनता भर गयी। मैं ज्ञान गंगा में स्नान करने लगा। मेरे मुख और आत्मा से मातश्री धन्य हो, मातश्री धन्य हो उच्चारित होने लगा। मेरी आत्मा की वीणा के तारों में सोये स्वर झंकृत हो उठे। खतौली में माताजी ने "श्री इन्द्रध्वज महामंडल विधान" की रचना अपने चार्तुमास के दिनों में की थी। दस-दस घंटे तक वे निरन्तर साहित्य साधना में लगी रहती थीं। उनकी लेखनी कागज पर फिसलती रहती थी और मैं विस्फारित नेत्रों से टकटकी लगाकर उन्हें देखा करता था। एक महान् साध्वी की महान् साधना के उन पलों और क्षणों की स्मृति आज भी मुझे प्रेरणा से भर देती है। खतौली में माताजी द्वारा आयोजित आध्यात्मिक-शिक्षण शिविर ने तो सम्पूर्ण नगर को ही धार्मिक रंग में रंग दिया था। मुझे भी इसमें योगदान देने का अवसर माताजी की कृपा से मिल गया था। यह शिविर और इसकी उपलब्धियाँ आज भी जनता में चर्चा का विषय बनी हुई हैं। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना का शुभ आरम्भ तो माताजी की महान् उपलब्धियों में सर्वोपरि है। माताजी जैन साहित्य में वर्णित जम्बूद्वीप को प्रायः अपने सपनों में देखा करती थीं और उसके प्रारूप में अपनी कल्पनाओं के रंग भरा करती थीं। यह उनकी दृढ़-संकल्प शक्ति का ही चमत्कार है कि उनका सपना धरती पर साकार हुआ है। जम्बूद्वीप के निर्माण का अभी तो प्रथम चरण है। मंजिल दूर है, किन्तु माताजी की साधना भी अटूट है। वह दिन दूर नहीं जब मंजिल स्वयं चल कर आयेगी और माताजी के चरण स्पर्श करेगी। माताजी का जीवन धर्म, संस्कृति और राष्ट्र के लिए अर्पित है। मैं उनके दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। चिरस्मरणीय माताजी के उपकार -प्रकाशचन्द्र जैन पांड्या, प्रकाशदीप, कोटा सिद्धान्त वाचस्पति, न्याय प्रभाकर, वात्सल्यमूर्ति पूज्या १०५ श्री गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का सम्पूर्ण जीवन ही अभिनन्दनीय है। हस्तिनापुर में त्रिलोक शोध संस्थान तथा उसमें विशाल जम्बूद्वीप की रचना पूज्या माताजी की सूझ-बूझ से ही हो सकी है तथा उसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा माताजी के सानिध्य में होकर जो धर्म की प्रभावना हुई है तथा चारों अनुयोगों की १५० से अधिक ग्रंथों की रचना व टीकाएँ करके स्वाध्याय प्रेमियों का जो उपकार किया है वह भुलाया नहीं जा सकेगा। पूज्या माताजी ने चिर स्मरणीय ऐसे अनेक उपकार किये हैं। माताजी चिरकाल तक स्वस्थ रहें, इनका वरदहस्त अपने ऊपर चिरकाल तक रहे इसी भावना से प्रार्थना करता हूँ। पूज्या माताजी के चरणों में मैं शत-शत नमन व प्रणामाञ्जलि अर्पित करता हूँ। "पावन सानिध्य का सौभाग्य" - राकेश कुमार जैन, मवाना सन् १९८५ में जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठा की जब बहुत जोरदार तैयारी चल रही थी तब मैं उन दिनों न्यू बैंक ऑफ इण्डिया की मवाना शाखा में कार्यरत था। एक दिन हमारे प्रादेशिक प्रबन्धक श्री वी०पी० गुप्ताजी मवाना आये, उन्होंने जम्बूद्वीप मेले में यात्रियों की सुविधा के लिए एक काउण्टर खोलने का विचार रखा; इसी सन्दर्भ में मुझे जम्बूद्वीप पर आने का मौका मिला। ब्र० श्री रवीन्द्र कुमारजी [अध्यक्ष] से काउण्टर की स्वीकृति प्राप्त होने पर मेले में मुझे अपने साथी श्री आर०के० जैन मेरठ के साथ ही काउण्टर खोलने हेतु जम्बूद्वीप पर भेजा गया। मेले में मुझे परम पूज्य माताजी को पास से देखने का मौका मिला। इसके पश्चात् सन् १९८६ में आषाढ़ की अष्टाह्निका में हमारे जीजाजी श्री आनन्द प्रकाशजी लों के साथ इन्द्रध्वज विधान में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रतिदिन माताजी के प्रवचन सुनकर जीवन धन्य हो जाता था। माताजी प्रतिदिन नई-नई बातों का ज्ञान अपने प्रवचनों द्वारा कराती थीं। इससे मेरे जीवन पर बहुत असर हुआ तथा अब मेरा जीवन बिल्कुल बदल गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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