Book Title: Siddh Hemchandra Vyakaranam Part 01
Author(s): Darshanratnavijay, Vimalratnavijay
Publisher: Jain Shravika Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CA COM VE OS S TEGA ES CS Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यविरचितम् श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासनम् (स्वोपज्ञलघुवृत्ति - गुण रत्नावृत्ति - संवलितम् ) ( सार्धद्वयाध्यायात्मकम् ) . - गुणरत्नावृत्तिकार परमपूज्य मुनिराज श्रीकमलरत्न विजयजी महाराजा साहेब के शिष्यरत्न "मुनिश्री दर्शन रत्नविजयजी म. मुनिश्री विमलरत्नविजयजी म. - प्रकाशक श्री जैन श्राविका संघ पो. पिण्डवाडा [ राजस्थान ] स्टे. सिरोही रोड (वे. रेल्वे ) पिन - ३०७०२२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्य ग्रन्थस्य पुनर्मुद्रणाधिकारः प्रकाशकेन स्वायत्तीकृतः । प्रकाशन तिथि वि. सं. पोष सुद १३ को परमपूज्य कलिकालकल्पतरु अनेकान्ताभासमितिरतरणि, सुविशालगच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीविजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के सुदीर्घ दीक्षा तिथि की उजवणी के दिन । मूल्य ४५) प्रथमावृत्ति - ११११ प्राप्ति स्थान सेठ कल्याणजी सोभागचन्दजी जैन पेढ़ी पो. पिण्डवाडा ( राज. ) पिन - ३०७०२२ इस ग्रन्थ के आधार भूत ग्रन्थ १. श्री सिद्ध हे मलघुवृत्त्याः अवचुरिः २|| अध्याय २. श्री सिद्ध हेम शब्दानुशासन वृहद्वृत्तिः ३. श्री सिद्ध हेमशब्दानुशासनबृहन्न्यासः ४. श्री सिद्ध हेमशब्दानुशासनलघुन्यासः ५. अभिधान चिन्तामणिस्वोपज्ञः ६. श्री सिद्ध हेमशब्दानुशासन मध्यमवृत्तिः मध्यमवृत्त्याः अवचूरिश्च ७. श्री हेमप्रकाशः ८ न्यायसंग्रह इत्यादि अनुक्रमणिका - प्रथम भाग में - १ से १० पाद द्वितीय भाग में - ११ से २० पाद तृतीय भाग में - छठा व सातवां अध्याय चतुर्थ भाग में - सूत्रानुक्रम, शुद्धिपत्रक, न्याय, धातुपाठ आदि परमपूज्य मुनिराज श्री कमल रत्नविजयजी म. सा. के वि. सं. २०४३ के भव्य चातुर्मास में जो श्रीसिद्ध हेमशब्दानुशासन (लघुवृत्ति एवं अभिनव गुणरत्नावृत्ति के साथ) जो प्रकाशित हुई उसमें श्रीदान म रामचन्द्रसूरिजी आराधना भवन ट्रस्ट, पोरवाड वास, रतलाम (म. प्र. ) ज्ञान खाते की आय में से ११११ रुपये का लाभ लिया है। उसकी हम अनुमोदना करते हैं। लि. प्रकाशक मुद्रण कार्य - हँसमुखलाल जैन लक्ष्मी प्रेस, १४ नागरिक विश्राम गृह, कॉलेज रोड, रतलाम Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डवाडा के श्री प्रेमसूरिजी परमपूज्य सिद्धान्तमहोदधि आचार्यदेव श्रीविजय मसूरीश्वरंजी. महाराज के गुणों की हमें आवश्यकता है । मानो गुण न पा सके तो भी उन गुणों को पाने की इच्छा है। आपके पिता का नाम भगवानजी, माता का नाम श्रीमती कंकूबाई आपश्री का नाम प्रेमचन्दजी। राजस्थान में पिण्डवाडा के हमारे गाँव के वतनी। बचपन में ही वैराग्य उत्पन्न हुआ और चारित्र लेने की भावना हुई । कुटुम्बिजन सीधी रीति से दीक्षा देवे वैसे अनुकूल नहीं थे, :, फिर भी दो बार तो घर से भागकर गये, परन्तु मोहाधीन कुटुम्बी आपको वापिस ले आये। तीसरी बार रात को घर से निकले, एक रात्रि में ५७ किलोमीटर चलकर स्टेशन गये। गाड़ी में बैठकर पालिताना गये । संयम लेने का कितना दृढ़ निश्चय एवं उसके लिये चाहे जितना कष्ट सहन करना ऐसे दृढ निर्धार के बिना यह नहीं बन सकता। दीक्षा लेने के बाद मुनिश्री प्रेमविजयजी बने । स्वाध्याय तो अजब-गजव था कि जिसके परिणाम स्वरूप कर्म के गहन विषय में पारंगत बने । गुरु श्री सकलाग मरहस्वदी, परम पूज्य आचार्यदेव श्री विजय दानसूरीश्वरजी महाराज ने तृतीय पद पर प्रतिष्ठित किया तब प० पू० आ० श्रीविजय प्रेमसूरिजी बने । आचार्य पद लेने की इच्छा नहीं थी परन्तु लेनी पड़ी थी। तिथि का सत्य निर्णण लाने के लिये आपने आपही के पट्टधर व्याख्यान-वाचस्पति आचार्यदेव श्रीविजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म० एवं आगमप्रज्ञ आचार्यदेव श्रीविजय जम्बसरिजी महाराज को आगे किये एवं . उसका निर्णय भी लाया। इतना ही नहीं आराधक जीवों का अनेक प्रयत्नों से उद्धार किया। आपको एक सुश्रावक ने प्रश्न पूछाये उसका कितना स्पष्ट जवाब दिया कि “(१) ग्रहण के समय' · · · · दर्शन पूजन का तथा उपदेश आदि का भी निषेध तो हमने कहीं जाना नहीं है एवं आचरा भी नही है। (२) तिथिचर्चा का निर्णय · · · · 'प्रोफेसर वैद्य जैसे मध्यस्थ को लाकर श्रीजनशासन के आज्ञा मुजब का निर्णय करा देने में सुश्रावक कस्तुरभाई ने श्रीजैन शासन की अनुपम सेवा की है। · · · · 'इस निर्णण Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) मुताबिक चलने से हरेक तिथि की आराधना आज्ञा मुजब होती है और महत्त्व के पर्व की विराधना से भी अच्छी तरह बच सकती है।" __ आप महापुरुष मरुधर देश में जहाँ घास भी दुर्लभ हो वहाँ केवर की उत्पत्ति की तरह जन्मे। - आप ही के पट्टधर परम पूज्य कलिकाल-कल्पतरु, अनेकान्ताभासतिमिर-तरणि, व्याख्यान-वाचस्पति आचार्यदेव श्रीविजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के करकमलों में यह ग्रन्थ समर्पण करके हम क्रतार्थ बन रहे है। इस गुणरत्ना वृत्ति के मार्गदर्शक परमपूज्य वर्धमान-तपोनिधि आचार्यदेव श्रीविजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज के विद्वान शिष्यरत्न परमपूज्य पन्यासप्रवर श्रीजितेन्द्रविजयजी गणिवर्य के शिष्य रत्न व्याकरण-विशारद परमपूज्य गणिवर्य श्री गुणरत्नविजयजी गणिवर्य हैं। इस गुणरत्ना वृत्ति के जन्मदाता परम पूज्य महातपस्वी मुनिराज श्री कमलरत्नविजयजी महाराज के शिष्य रत्न परमपूज्य मुनिराज श्री दर्शनरत्नविजयजी म० एवं परम पूज्य मुनिराज श्रीविमल रत्न विजयजी महाराज हैं। (१) इस पुस्तक के दो भागों का प्रकाशन श्री पिन्डवाडा संघ ने ज्ञान खाते से लाभ लिया है। अतः साधु-साध्वी एवं ज्ञानभण्डारों को भेंट दी जायगी । दूसरे कीमत से खरीद कर पढ़गे तो ही ज्ञान खाने के भक्षण के दोष से बच सकेंगे। . (२) इस पुस्तक के एक भाग का प्रकाशन का लाभ पिन्डवाडा जैन संघ की बहिनों ने ज्ञान खाते की आय में से लिया है । (३) इस पुस्तक का एक भाग का शा पुखराजजी, अशोक, तरुण, भरत, पारस किस्तुरचंदजी हंसाजी पिन्डवाडा वालों ने लाभ लिया है। जो परमपूज्य मुनिराज श्री कमलरत्नविजयजी महाराज के सांसारिक भाई हैं। अतः शा पुखराजजी किस्तुरचन्दजी हंसाजी परिवार, का एवं जैन श्राविका संघ का भी हम का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में माणकलालजी कटारिया रतलाम वालों ने हरेक भाग की सो-सो पुस्तकों का कागज व बाइडिंग का लाभ लिया Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । वेद लालचन्दजी महात्मा राजाजी के करहा वालों में पांच सौ रुपये की उदार भेंट की है एवं साध्वीजी किरण प्रज्ञा श्रीजी के सदुपदेश से नीलकमल एपार्टमेण्ट साबरमती की बाराधक बहिनों ने शान खाते की आय से २२०० रुपये की उदार भेंट की है इन सबका भी हम हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। सुश्रावक जेठालाल भारमल शा तथा सुश्रावक माणेकलाल भाई पण्डितों ने इसका साङ्गोपाङ्ग अवलोकन किया एवं पण्डित तृष्ति नारायण झा ने इसका सम्पूर्ण निरीक्षण करके इसका स्वागत किया है। सुश्रावक लालचन्दजी छगनलालजी पिन्डवाडा वालों को हम नहीं भूल सकते जिन्होंने बार-बार इसके शीघ्र प्रकाशन के लिये प्रयत्न किया। श्री हँसमुखलालजी जैन (लक्ष्मी प्रेस ) रतलाम वालों ने इसे दो महीने में प्रकाशित करके दिया अतः वे भी इस प्रसंग पर भूले नहीं जा सकते। ___इस प्रकाशन में कलिकाल-सर्वज्ञ आचार्यदेव श्रीविजय हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा के आशय-विरुद्ध कुछ भी प्रकाशन हो गया हो तो उसका मिच्छामि-दुक्कडं देने के साथ प्रुफ संशोधन की त्रुटि, स दोष या अन्य कारण से जो त्रुटि रह गई हो उसकी क्षमा याजना पूर्वक सुज्ञ वाचकों को सुधारकर पढ़ने की विनती है। विनीत-- श्री जैन संघ पिण्डवाडा के वती. सेठ-कल्याणजी सोभागचन्दजी जैन पेडी ट्रस्ट पिण्डवाडा गुणरत्नावृत्ति का पण्डितवों ने स्वागत किया .. वृत्ति बहुत ही सुन्दर हुई है बन सके तो जल्दी से छपाने की कृपा करना जी। ऐसे महान् ग्रन्थ के पीछे मेहनत खब ही चाहिये और तैयार हए ऐसे महान् ग्रन्थ जल्दी से छप जाय यह बहुत ही इन्छनीय है। भविष्य में सिद्ध-हेम-व्याकरण पढ़ने वालों के लिये यह वृत्ति बहुत ही उपयोगी होगी। जेठालाल भाई भारमल शा : बी-वेलाणी एस्टेट दुकान नं. ७ .. मलाड पूर्व बम्बई-७ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपश्री ने बहुत परिश्रम करके लघुवृत्ति व्याकरण के ऊपर बहुत अच्छा व्याकरण किया है। यह आनन्द का विषय है, लघुवृत्ति के अभ्यासकों को लघुवृत्ति के अभ्यास में रुचि उत्पन्न करने के साथ लघुवृत्ति करने के लिये इससे प्रेरणा, एवं प्रोत्साहन मिलेगा। पण्डित श्री माणेकलालजी देसाई वास राधनपुर, (गुजरात) प्रिय वाचक वर्ग! . व्याख्यान वाचस्पति पूज्यपाद श्री के भवनिर्वेदोत्पादकमोक्षाभिलाषजनक प्रवचनों को हिन्दी भाषा में प्रकाशित करने वाला जैन प्रवचन [हिन्दी मासिक के आज ही सदस्य बनें वार्षिक चन्दा २५ रु० आजीवन चन्दा २५१ रु० परदेश ५५ रु० लिखो या मिलो आजीवन सदस्य बनने श्री जैन प्रवचन प्रकाशन संस्थान वालों को २५ रुपये की . फोन नं० ३२०१२०.. सम्यग्दर्शन पुस्तक भेंट ६ धनजी स्ट्रीट, ३ रा माला, दी जाती है। बम्बई-४००००३ व्याख्यान वाचस्पति पूज्यपाद श्री के भवनिर्वेदोत्पादक मोक्षाभिलाषजनक-प्रवचनों को गुजराती भाषा में प्रकाशित करने वाले जिनवागी (पाक्षिक) के आज ही सदस्य बनें वार्षिक चन्दा २१ रु० आजीवन चन्दा २०१ रु० -लिखो या मिलोश्री जिनवाणी प्रचारक ट्रस्ट श्री जिनयाणी प्रकाशन कार्यालय ५८ बैंक ऑफ इण्डिया बिल्डिंग . वढवान शहर (गुजरात) १८५ शेखमेमण स्ट्रीट . . पिन-३६३०३० Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीशङ्खश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनलघुवृत्तिः श्रीरामचन्द्रसूरीश्वर गुरुप्रसादप्रकाशित गुणरत्नावृत्ति समेता प्रणम्य परमात्मानं, श्रेयः शब्दानुशासनम् । आचार्यहेमचन्द्रण स्मृत्वा किञ्चित्प्रकाश्यते ॥ १ ॥ श्रीरामचन्द्रसूरीश्वर गुरुप्रसादप्रकाशिला गुणरत्नावृत्तिः नो वह्निननरगेन्द्राः, न च विषमविषं शाकिनी नातिचण्डा | नो मन्त्रा नैव तन्त्रा न च सकलरिपुर्विग्रहो नो पिशाचाः । नो व्याघ्रो नैव सिंहः, प्रभवति पुरुष व्याधि-रेकोपि नो तम् । श्रीमच्छङ्खश्वरस्थं भुवनपतितं यः स्मरेत्पार्श्वनाथम् ॥ १ ॥ " मिथ्यात्वक्षणदागभस्ति सदृशो भव्यालिपद्मायितः । हृप्यभिकुवादि-वादि-धुक मिहिरी, सावर्थिसन्दर्शकः ॥ पट्ट्टीपावन शेमुषी सुविभवाद्, दीव्यन् सदा गीपतिम् । निर्ग्रन्थेश्वररामचन्द्रविजयो जीयात्तु सूरीश्वरः ॥ २ ॥ इति मङ्गलं कृत्वा श्रीरामचन्द्रसूरीश्वर गुरुप्रसादात् गुणरत्नावृत्तिः प्रकाश्यते । परमात्मानं श्रीअर्हतं प्रणम्य श्रेयः प्रशस्यं प्रधानं शब्दानुशासनं व्याकरणम् आचार्य-हेमचन्द्र ेण किञ्चिद् पाणिन्यादिकमुपयुज्य अथवा किञ्चिद् गुर्वाम्नायतत्त्वं ध्यात्वा किञ्चिद् अल्पं वा प्रकाश्यते शिष्याणां प्रदर्श्यते इति भाव: । 'णमं प्रहवत्वे' 'पाठे धात्वादेर्णो नः | २|३|१७| इत्यनेन नम् । प्र: पूर्वम् । प्रणमनं पूर्व प्रणम्य प्राक्काले | ५|४|४७ | इत्यनेन क्त्वा, 'अनञः क्त्वो यप्' | ३ |२| १२४ । इत्यनेन क्त्वास्थाने यप्, 'अदुरुप सगन्ति रो० | २|३|७७ | इति नस्य णः, ततः प्रथमासिः अव्ययस्य' | ३|२|| इति सेर्लोपः प्रणम्य । पृ शु पालनपूरणयोः पृ. स् पृणोति पूरयति तान् २ भावान् इति परमः 'नामिनो गुणो० | ४ | ३ |१| इति गुणः । 'अत सातत्यगमने' अतति सातत्येन गच्छति तान् तान् पर्यायानिति आत्मा । परमश्वासावात्मा च परमात्मा, तम । द्वितीयाऽम् नि दीर्घः | ११४१८५१ लो Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) मुमो व्यन्जने स्वो |१| ३ | १४ | इति म् इत्यस्यानुस्वारः परमात्मानम् । अतिशयेन प्रशस्यं श्र ेयः अन्यव्याकरणेभ्यः प्रधानत्वात् 'गुणाङ्गाद्वेष्ठेयस् |७|३|९| इतीयस् प्रशस्यस्य श्र: ' | ७| ४ | ३४ | इत्यनेन श्र आदेश: । 'अवर्णस्येवर्णादिनै०' | १|२|६| इत्यनेन ईता सह एकार: । 'अनतो लुप्' | १ | ४|५९ | इति सेलुप् 'सो रु' | २|१|७२ | इति सस्य रः, 'रः पदान्ते० ' | १|३| ५३ | इति रस्य विसर्गः, श्रेयः, अनुशिष्यन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा अनेनेत्यनुशासनं 'करणाधारे' |५|३|१२९ । इत्यनट् । शब्दानामनुशासनं शब्दानुशासनं, प्रथमासि: । 'अतः स्यमोऽम्' | १|४|५७ | इति सेरम् । 'समानादमोतः | १|४|४६ । इत्यमोऽस्य लोपः । चर् आचर्यते सेव्यते विनयार्थं विद्याग्रहणार्थं वा शिष्यैरित्याचार्य: । 'ऋवर्णव्यञ्जनाद् ध्यण्' | ५|१|१७| आचार्यश्चासौ हेमचन्द्रश्च आचार्य - हेमचन्द्रः । तेन टा । 'टाड्सोरिनस्यो' |१|४|५| इति टास्थाने इन, 'रवर्णा० | २|३|६३ | इति नस्य णः आचार्यहेमचन्द्रेण । स्मरण पूर्व स्मृत्वा किमल्पमपि चिनोति क्विप् हस्वस्य तः पित्कृति' | ४|४|११३ । इति तोन्तः 'अप्रयोगीत्' | १|१|३७| इति क्विप्लोपः 'तो' | १|३ | १४ | इति किञ्चित् । किञ्चिदति क्रियाविशेषणमतो द्वितीयाऽम्, 'अनतो लुप्' | १|४|५९ | इति अम् लोपः । किञ्चिदित्यखण्डमव्ययं वा प्रथमासिः ‘अव्ययस्य' |३|२|७| इति लोपः । काशृङ् दीप्त प्रकाश्यते शब्दानुशासनं कर्तृ, तत्प्रकाश्यमानं शब्दानुशासनमाचार्यहेमचन्द्र ेण प्रयुज्यते प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' | ३ | ४ | २०८ इति णिग्, वर्तमानाते 'क्यः शिति' | ३|४|७० | इति क्य: 'णेरनिटि' | ४ | ३|८३ | इति णिगो लोपे प्रकाश्यते । अर्हं । १।१।१ ' अर्हमित्येतदक्षरं परमेश्वरस्य परमेष्ठिनो वाचकपू, म. गलार्थ शास्त्रस्याssaौ प्रणिदध्महे ॥ १ ॥ रा० गु० अर्ह - मह पूजायाम् अर्हति अष्टप्रातिहार्यपूजामित्यर्ह: अर्हमिति सानुनासिको अथवा मान्तोऽप्यस्ति अव्ययम् । अर्ह इति अक्षर अर्थात् अव्ययं परमेश्वरस्य अर्हद - भगवत एव परमेष्ठिनो वाचकम् मङ्गलार्थ शास्त्रस्यादौ प्रणिदध्महे व्यायामः इति भावः । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) - सिद्धिः स्याद्वादात् । १।१।२। स्याद्वादात् अनेकान्तवादात् प्रकृतानां शब्दानां सिद्धि-निष्पत्तिः ज्ञप्तिश्च वेदितव्या। रा० गु० सिद्धिः- षिधू गत्यां 'षः सोऽष्यैष्ठि० ।२।३।९८। सेधनं सिद्धिः 'स्त्रियां क्तिः' ।५।३।९१। 'अप्रयोगीत्' ।१।११३७। तिः, 'अधश्चतुर्थातथोर्ध.'।२।१७९। इति तकारस्य धः 'तृतीयस्तृतीय०।१।३।४९। इति धस्य दः । शब्दार्थसम्बन्धसिद्धिश्च स्याद्वांदाधीना इत्यतः उक्तं स्याद्वादात् स्यात् इति विभक्त्यन्त-प्रतिरुपक मव्ययम् अनेकान्त द्योतकम् यस्यैव वर्णस्य हस्वत्वं विधीयते तस्यैव दीर्घत्वादि. तस्य च सर्वात्मना नित्यत्वे पूर्वधर्मनिवृत्तिपूर्वकस्य हस्वादिविधेर संभवः एवमनित्यत्वेऽपि जन्मानन्तरमेव विनाशात् कस्य ह्रस्वादिविधिरिति वर्णरुप - सामान्याऽऽत्मना नित्यो ह्रस्वादिधर्मात्मना. त्वनित्य इति स्याद्वाद: यथा आत्मा आत्मस्वरुपेण नित्यः मनुष्यादि-पर्यायरुपेण त्वनित्यः । अमति गच्छति धमिणमिति दम्यमि० । उणा २००] इति तेऽन्तो धर्मः, न एकोऽनेकः अनेकोऽन्तो यस्यासावनेकान्तः । प्रकृतानामर्थात् प्रस्तुतानाम् । . दशधा सूत्राणि संज्ञा- परिभाषा-ऽधिकार-विधि-प्रतिषेध-नियमविकल्प-समूच्चयाऽ-तिदेशाऽ-नूवादरुपाणि तत्र "औदन्ताः स्वराः ।१।१।४।, प्रत्यय: प्रकृत्यादेः, १७४।११५१, धुटि" ।१।४।६८। नाम्यन्तस्थाकवर्गात्० ।२।३।१५। नस्तं मत्यर्थ' ।१।१।२३। नाम सिदयव्यजने० ।११।२१। इति सौ नवेतौ ।।२।३८१, शसोऽना.” १।४।४९। इदितो वा ८।४।१। तयोः समूहवच्च बहुषु ।७३।३। इत्यादीनि प्रत्यकोद'हरणानि, एतेषां मध्ये अधिकारसूत्रमिदमा शास्त्रपरिसमाप्तेः । लोकात् ।१।१।३। - अनुक्तानां संज्ञानां न्यायानां च लोकाद् वैयाकरणादेः सिद्धिः ज्ञप्तिश्च वेदितव्या, वर्णसमाम्नायस्य च । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) 2. रा० गु० लोक्यते अवलोक्यते निर्णयार्थमिति घञि लोक ते पश्यति सम्यक् पदार्थान् इति अचि वा लोकः । अनुक्तानामिति उक्ताभ्यः स्वरादिसंज्ञाभ्योऽतिरिक्तानां क्रियागुणद्रव्यजातिकाललिङ्गस्वाङ्ग-सङ्ख्यापरिमाणापत्यवीप्सालुग-वर्णादीनां संज्ञानाम् । साध्यरुपा पूर्वापरीभूतावयवा किया विशेषणं गुणः, 'सत्त्वे निविशतेऽपैति' इत्यादिलक्षणो वा, विशेष्यं द्रव्यम् । 'आकृतिग्रहणा जातिलिङ्गानां च न सर्वभाक् सकृदाख्यातनिर्गाह्या, गोत्रं च चरणैः सह् ॥ इत्यादि लक्षणलक्षिता जातिः, त्रुटयादि: काल:स्वस्थे नरे समासीने स्पन्दते वामलोचनम् । तस्य त्रिंशत्तमो भागस्त्रुटिरित्यभिधीयते ॥ लिङ्ग पुंस्त्रीनपुसकरुपम्, अविकारोऽद्रव मूर्त प्राणिस्थं स्वाङ्गमुच्यते । च्युतं च प्राणिनस्तत् तन्निभं च प्रतिमादिषु ॥ इत्यादिलक्षणं स्वाङ्गम्, एकाद्य भिधानप्रत्यय हेतुः सङ्ख्या ऊर्ध्वमानं किलोन्मानं, परिमाणं तु सर्वतः, आयामस्तु प्रमाणं स्यात्, सङ्ख्या बाह्या तु सर्वतः || इति लक्षणेन सर्वतो मानं परिमाणं, क्रियागुणद्रव्यादिभिः प्रयोक्तुर्युगपत् व्याप्तुमिच्छा वीप्सा परः | ७|४|११८ | इति न्याय: तस्मात् वनानीत्यत्र शसोडता | १|४| ४९ | इति बाधित्वा परत्वात् 'नपुंसकस्य शिः | १|४|५२५ | इत्येव भवति । परान्नित्यमिति परत्वादपि नित्यं बलवत् यथा स्योन इत्यत्र परमपि गुणं बाधित्वा नित्यत्वादृट् । 'अनुनासिके चच्छवः शुट | ४|१ | १०८ । त्या धा० । उणा० २५८ । इति ने गुणात्पूर्वं नित्यत्वादृटि कृते पश्चात् गुणे प्राप्त परादन्तरङ्गमिति न्यायात् अन्तरङ्गत्वात् ते बाधित्वा यत्वे स्थान इति । वर्णसमाम्नायस्य मातृकापाठस्य लोकात् अर्थात् मातृकापाठो लोकरुढो ज्ञेयः । तत्र औदन्ताः स्वराः । १।१।४। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) - औकारावसाना वर्णाः स्वरसंज्ञाः स्युः । अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ। राग० औत् अन्तेऽन्तो वा येषां ते । अत्रान्तशब्दोऽवयववाची अवयवस्य चावश्यं समुदाय रूपेऽन्तपदार्थऽन्तर्भाव: अत एवात्र तद्गुणसंविज्ञानबहुव्रीहिः यथा लम्बभूज: न त्वद्गुणसंविज्ञान-बहुव्रीहिः यथा दृष्टसागर इति ज्ञापकं चात्र-अष्ट औ जस्शसोः।१।४।५३। आतो णव: औ' ।४।२।१२०॥ उत औविति व्यञ्जनेऽ द्वः।४।३।५९। इत्यादि औकारस्य हि स्वरत्वाभावे 'अष्ट औ० ।१।४।५३। इत्यादिसूत्रेषु 'स्वरे वा ।१।३।२४। इत्यनेन यलोपो न स्यात् । तकार: उच्चारणार्थ स्वरूपपरिग्रहार्थ इत्यर्थः तपरत्वान्निर्देशस्य 'औत् इत्युक्ते औकारस्वरुपं प्रतीयते, तकाराभावे तु आवन्ता इति कृते कष्टा प्रतीति भवेदिति भावः । स्वयं राजन्ते शोभन्ते इति स्वराः 'क्वचित् · ।५।१।१७१। इति डः, 'डित्यन्त्यस्वरादे: ।।१।११४। पृषोदरादयः ।।२।१५५। इति स्वयशब्दस्य स्वभावः । एकावित्रिमात्राः हस्वदीर्घप्लुताः । १।१।५। मात्रा कालविशेषः । एकद्वित्रयुच्चारणमात्रा औदन्ता वर्णा यथासङ्घयं ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत-संज्ञाः स्युः । रा० गु० एका व कैच तिस्रश्च एकद्वितिस्त्र: । एकद्वितिस्त्रः मात्रा येषां ते एकद्वित्रिमात्राः 'सर्वादयोऽस्यादौ ।३।२६॥ इन्यनेन एके___ त्यत्र पुवद्भावः । मात्रेत्यत्र 'गोश्चान्ते ह्रस्वो० ॥२।४।९६॥ इति स्वः । एकमात्रो भवेद्बस्वो, द्विमात्रो दीर्घ उच्यते। प्लुतः स्वरस्त्रिमात्रः स्याद्वयञ्जनं चाद्घमात्रकम् ।। स्वरस्यात्यन्तापकृष्टो निमेंपोन्मेषक्रियापरिच्छिन्नः उच्चारणकालो मात्रा। अनवर्णा नामी । १।१।६। अवर्णवर्जा औदन्ता वर्णा नामिसंज्ञाः स्युः । इ ई उ ऊ ऋ ऋ. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल ल ए ऐ ओ औ रा० गु० अविद्यमानोऽव) येषु तेऽनवर्णाः 'अन् स्वरे ।३।२।१२९। नस्य अन् । नमनं नामः, नामोऽस्यास्तीति नामी 'अतोऽनेकस्वरात् ।७।२।६। इति इन्, 'अवर्णवर्णस्य' ।७।४।६८। इत्यकारलोपः, इन्हन्पूषा०।१।४।८७। इति दीर्घः, दोघङ याब ०।१।४।४५। इति सिलोपः, नाम्नी नोहनः ।।१।९१ । इति नलोपः । अनवर्णा नामीत्यत्र वचनभेदेऽपि वेदाः प्रमाणमितिवत् विशे.. षणविशेष्य-भावस्तु घटते परन्तु संजिसाभानाधिकरण्येन संज्ञानिर्देशे सति औदन्ता स्वराः ।१।१।४। इतिवन्नामिन इति बहुवचनेन निदशो युनः तत्कथं नामीत्येकवचन निदेश: ? सत्यम-वचन भेदेन संज्ञां कुर्वन्नेवं ज्ञापयति यत्र नामिनः कार्य क्रियते तत्र कार्याद् यदि कार्यो स्वरो न्यूनो भवति तत्रैव नामिसंज्ञाप्रवृत्ति न्यथा तेन ग्लायति, म्लायतीत्यादौ न गुणः । अत्रोत्तरत्र च बहुवचन प्लुतसंग्रहार्थम् । ल दन्ताः समानाः । १।१।७। ल कारावसाना वर्णा समाना स्यु अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल. रा० गु० ल कार अवसानं येषां ते ल कारावसाना । समानं मानं येषां ते समाना: 'समानस्य धर्मादिषु ३२१४६।' इति समानस्य सः । ए ऐ ओ औ सन्ध्य क्षरम् । १।१।८। ए ऐ ओ औ इत्येते सन्ध्यक्षराणि स्युः। रा० गु० एश्च ऐश्च ओश्च औश्च जस् सूत्रत्वाल्लोप: । डुधांगक धारणे सन्धान सन्धिः, उपसर्गादः कि: ।५।३।८७। इडेत्पुसि चातो लुक ।४।३।९४। अर्थमश्नुते व्याप्नोतीति 'मी-ज्यजि-मा-मद्यशौ [उणा० ४३९] इति सरे अक्षरम् पदं वाक्यं वर्णं च अत्र तु वर्णार्थ एव | सन्धी सत्यक्षरं सन्ध्यक्षरम् अवर्णस्येवणेन सह सन्धावेकारः,अवर्णस्यैकारकाराभ्यामकार:, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) अवर्णस्योवर्णेनौकार:, अवर्णस्य ओकारौकाराभ्यामौकारः। अं अः अनुस्वार-विसर्गौ।१।१।९। अकारौ उच्चारणार्थो 'अ' इति नासिक्यो वर्णः । अः इति च कण्ठय एतौ यथासङ्घयम् अनुस्वार-विसौं स्याताम् । - रा० गु० अनुस्वर्यते संलीनमुच्चार्यते इत्यनुस्वारः । नामिनोऽ कलिहलेः ।४।३।२१। इंति वृद्धिः । विसय॑ते विरम्यते विरतिभूतोऽर्थः प्रतीयते, घन, क्तेऽनिटश्च जो: कगौ घिति 1४1१1१११] इति जस्य गः, लघोरुपान्त्यस्य 1४1३1४1 गुण: 1 येन विना यदुच्चारयितुं न शक्यते तत् तस्योच्चारणम्, न शक्यते च बिन्दु-बिन्दुद्वयरुपौ वर्णावकारमन्तरेणोच्चारयितुमित्यकारावुच्चारणाथी गहीतौ । - कादिव्यंजनम् । १।१।१०। कादिवर्णो हपर्यन्तो व्यञ्जनं स्यात् । क ख ग घ ङ, च छ ज झ स, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म, य र ल व, श पसह। . रा गु० व्यज्यते प्रकटी क्रियतेऽर्थोऽनेन 'करणाधारे ।५।३।१२९॥ इत्यनटि व्यञ्जनम्, स्वराणामर्थप्रकाशने उपकारकम्, यथा सूपादीन्योदनस्या डुदांग्क् दाने आङ पूर्वम्, आदीयते गृह्यतेऽर्थोऽस्मादिति उपसर्गाद्दः किः ।।३।८७। इति किप्रत्यये आदि: 'इडेत्पूसि चातो लुक' ।४।३।९४। इत्याकारलोप: । आदिशब्द: सामीप्य-व्यवस्था-प्रकाराऽ--वयववाची, सामीप्यवाची यथा ग्रामादौ घोषः, ग्राम समीपे घोषः । बाह्मणादयो वर्णा इत्यत्र व्यवस्थावाची तेनात्रादिशब्देन वैश्यक्षत्रिय शूद्रा एव गृह्यन्ते । आढया यज्ञदत्तात्य इति प्रकारे यज्ञदत्त सहशा इत्यर्थः, स्तम्भादयो ग्रहा इत्यवयवे स्तम्भावयवा इत्यर्थः । सामीप्यार्थवृत्त्यादिशब्दग्रहणे ककारस्य व्यञ्जनसञ्ज्ञा न स्यात्, उपलक्षणस्य कार्यऽनुपयोगात् यथा चित्रगुरा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) नीयतामित्युक्ते चित्रगवोपलक्षितः पुमानेवाऽऽनीयते न तु चित्रा गौरिति । व्यवस्थार्थोऽपि न घटते वर्णसमाम्नायस्य व्यवस्थितत्वेनाव्यभिचारात् 'सभवे व्यभिचारे च स्याद् विशेषणमर्थवद्' इति न्यायः । कादीनां परस्परमत्यन्तवैसदृश्यात् प्रकारार्थोऽपि न युक्तिसंगतः । अवयवार्थवृत्तिस्तु युक्तिसंगतः, ककार आदिरवयवो यस्य वर्णसमुदायस्य स कादि: अत एवेह तद्गुणसंविज्ञान - बहुव्रीहिः समुदायस्यावयवेषु समवेतत्वात् स्यग्भूतावयवत्वेन समुदायस्य प्राधान्यादेकवचनम् । कस्यादिः कादिरिति व्याख्याने ' व्यवस्था वाच्यप्यादिशब्द:, तेन स्वराणां न व्यञ्जनसञ्ज्ञा, अनुस्वारविसर्गयोस्तु भवति ततोऽनुस्वारस्य व्यञ्जनसंज्ञायां संस्कर्तत्यत्रानुस्वाररुपव्यञ्जनात् परस्यसस्य ‘घुटो घुटि स्वे वा |१| ३ | ४८ । इत्यनेन लुक् सिद्धः । विसर्गस्य तु व्यत्वे सुपूर्वस्य दुःखयतेः विवपि णिलुकि, सेश्च लुकिं 'पदस्य | २|११८९ । इति विसर्गरुपसंयोगान्तस्थस्य खस्य लुक् सिद्ध:, 'विसर्गस्य च कस्या दिरिति व्युत्पत्त्या 'अपञ्चमान्तस्थ० | १|१|११| इति धुवं च घुटस्तृतीयः | २|१२|७६ | इति स्थान्यासन्ने गत्वे सति सुदुगिति सिद्धम् । अपञ्चमान्तस्थो घुट् । १।१।११। वर्गपञ्चमान्तस्थावर्जः कादिर्वर्णो भुटू स्यात् । क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड ढ त थ द ध प फ ब भ श ष स ह 1 7 रा० गु० पञ्चमाश्चान्तस्थाश्च पञ्चमान्तस्थ न विद्यते पञ्चमान्तस्थं यस्य वर्णसमुदायस्य सोऽपञ्चमान्तस्थः ' नञत् । ३ । २ । १२५ । इति अः पञ्चानां पूरणाः नो मट् | ७|१|१५९ । इति मटि पञ्चमाः । पञ्चको वर्गः । १ । १ । १२ । कादिषु वर्णेषु यो यः पञ्चसङ्ख्यापरिमाणो वर्णः स स वर्गः स्यात् क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध - न प फ ब भ म । रा० गु० पञ्च सङ्ख्या मानमस्य सङ्ख्याडतेश्चाशतिष्टेः कः Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) ।६।४।१३०। इति कः, नाम्नो नोऽनह नः ।२।१।९१। वृजीक वर्जने वृज्यते पृथविक्रयते विजातीयेभ्य इति वर्गः, घञ्, 'क्तेऽनिटश्च जोःकगौ घिति ।४।१।१११॥ ईति गः ॥ १२ ॥ आद्य-द्वितीय शषसा अघोषाः । १।१।१३। बर्गाणाम् आद्यद्वितीया वर्णाः शषसाश्च अघोषाः स्युः। क ख, च छ,टठ, तथ, पफ, श ष स ॥१३॥ आदो भव: आरः दिगादिदेहांशाधः ।३।३।१२४। इति यः, 'अव: णवर्णस्य' ७४।६८। इलोपः । द्वयोः पुरण: द्वितीय: 'द्विस्तीयः' ।७।१।१६५। अविद्यमानो घोषो येषां यथा अनुदरा कन्येति बहुव्रीहिणा गतत्वान्म मतुः । ननु ‘मात्रालाघवमप्यूत्सवाय मन्यन्ते वैयाकरणाः' तथापि अहवचनं कथमिति चेत्सत्यम् अर्थगौरवाय बहुवचननिर्देशः । बहुवचनं सर्ववर्गाणामाचद्वितीयपरिग्रहार्थम अन्यथा श-ष-स साहचर्यात् कखयोः केवलयोरेध ग्रहः स्यात् । अव्यभिचारिणा व्यभिचारी यत्र नियम्यते तत् साहचर्यम् ।।१३।। अन्यो घोषवान् ।।१।१४। अघोषभ्योऽन्यः कादिवर्णो घोषवान् स्यात् । ग घ ङ, ज झ ञ, 3 ढण, द ध न, ब भ म य र ल वह॥१४॥ घोषो ध्वनिविद्यते यस्य स अघोषापेक्षया येषामतिशायो घोषस्ते • घोषवन्तः तदम्यास्त्य० ।७।२।१॥ इति मतुप्रत्ययः, 'मावर्णान्तःपा० ।।१३९४१ इति मस्य वः सिः, ऋदुदित: ।१।४।७०। इति न 'अम्वादेर० ।१।४।९०। इति दीर्घ: 'दीर्घङ याब०।१।४।४५। इति सिलुक 'पदस्य।२।११८९॥इति लोपः । अनिति जीवति परार्थोऽनेनेति अन्यः स्थाछामासासुमन्यः' ।३५७ इत्युगादिसूत्रण यः ।।१४।। यरलवा अन्तस्थाः ।१।१।१५। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) . एते अन्तस्थाः स्युः ॥ १५ ॥ स्वस्य स्वस्य स्थानस्यान्ते तिष्ठन्तीति, स्थापास्नात्रः कः॥१४२॥ इति के ' इत्पुस | ४ | ३ |९४ । इत्याकारलोपे 'आत् | २४|१८| इत्यापि च अन्तस्था: । ष्ठां गतिनिवृतौ 'षः सोऽष्ट्येष्ठिवष्वष्क: २३९८ इतिस्ठा 'निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याऽप्यभावः इति स्था । अन्त: पूर्वः । वर्गविशेषणमपि अन्तस्थाशब्दः स्वाभावात् स्त्रीलिङ्गो बहुवचनान्तश्च । रेफरहिता यलवा सानुनासिकनिरनुनासिक - भेदेन द्विविधा | द्विविध-भेदपरिग्रहायात्र बहुवचननिर्देशः ||१५|| अं अः -> क )( प-श-ष-साः शिट् । १ । १ । १६ । अ-क-पा उच्चारणार्थः, अनुस्वारविसग बन्त्र-गजकुम्भाकृती च aff --सारच शिटः स्युः ॥ १६ ॥ वज्रस्याऽऽकृतिरिवाऽऽकृतियस्य स गज कुम्भयोराकृतिरिवाऽऽकृति- र्यस्य स । ककारपकारी परदेशस्थावेवोच्चारणाथ पठ्येते न तु अनुस्वारवत् पूर्वदेशस्थौ । रेफादेशत्वात् कखपफसंनिधावेवानयोः प्रयोगादल्पविषयत्वम् अतः सत्यपि संज्ञिसामानाधिकरण्येऽल्पीयस्त्वज्ञापनाय शिडित्येकवचनेन निर्देशः कृतः । रेफादेशत्वादनयोर्वर्णेष्वपठितयोरपि वर्णत्वज्ञापनार्थं बहुवच नम् । न च वर्णादेशत्वेन लोपस्यापि वर्णत्वमाशङ्कनीयम् तस्याभावरुप वात्, न चाभावो भावस्पाऽऽग्रयो भवितुमर्हति अतिव्याप्तेः । अनयो रेफादेशत्वाद् व्यञ्जनसञ्ज्ञापि ज्ञातव्या ॥ १६ ॥ तुल्य स्थानास्यप्रयत्नः स्वः । १ । १ । १७ । स्थानं कण्ठादि । अष्टौ स्थानानि वर्णाना-मुरः कण्ठः शिरस्तथा । जिह, वामूलं च दन्ताच, नासिकौष्ठो च तालु च ॥ १ ॥ आस्ये प्रयत्नः आस्यप्रयत्नः स्पृष्टतादिः, तुल्यौ वर्णान्तरेण सदृशौ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) स्थानारयप्रयत्नौ यस्य य वर्णम्तं प्रति स्व: स्यात् । तत्र त्रयोऽकारा उदात्तानुदात्तस्वरिताः प्रत्येक सानुनासिकनिरनुनासिक-भेदात् षट् एवं दीर्घप्लुताः इत्यष्टादशभेदा अवर्णस्य, ते सर्व कण्ठस्थाना. विवृतकरणा: परस्परं स्वा। एवमिवर्णास्तावन्तस्तालव्याः विवृतकरणा: परस्परं स्वाः, उवर्णा ओष्ठ्या विवृतकरणा: स्वाः, ऋवर्णा मूर्धन्या विवृतकरणा: परस्परं स्वाः । लुबर्णा दन्त्या: विव्रतकरणाः परस्परं स्वाः । सन्ध्यक्ष राणां हस्वा न सन्ति इति तानि प्रत्येक द्वादशभेदानि । तत्र एकारास्तालव्या: विवृततराः परस्परं स्वाः । ऐकारास्तालच्या अति विवृततराः परस्परं स्वाः । ओकार। ओष्ठया अतिविवृततरा परस्परं स्वाः, वाः पञ्च पञ्च परस्परं स्वाः, यलबानामनुनासिको निग्नुनासिकश्त्र हो भेदो परस्परं स्बौ ।।१७।। यत्र पुद्गलस्कन्धस्य वर्णभावापत्तिस्तत्स्थानं कष्ठादि । तिष्ठन्ति वर्णा अस्मिन् इति 'करुणाधारे १५।३।१२९। इत्यनटि स्थानम् । प्रयत्तः उत्साहः । स्पृश्यन्ते स्म स्पृष्टा वर्णाः तेषां भावः स्पृष्टता, वर्णानां प्रवृत्तिनिमित्तम्, स्पृष्ट नाहेतुत्वात्प्रयत्नोपि स्पृष्टता 'अभ्रादिभ्यः ।७।२।४६। इत्यप्रत्यये वा संज्ञाशब्दत्वात् स्त्रीत्वम् । विनियन्ते स्म वित्ता वर्णास्तेषां भाव: । नाभिप्रदेशात्प्रयत्नप्रेरितः.प्राजो नाम वायूः ऊध्वंमाकामन्नुर:-प्रभतीनां स्थानानामन्यतमस्मिन स्थाने प्रयत्नेन विधार्यते, स विधार्यमानः स्थानमभिहन्ति, तस्मात् स्थानाभिधाताद् भवनिरुत्पद्यते आकाशे सा वर्णश्रुतिः; स वणस्याऽऽत्मलाभः । तत्र वर्णध्वनावत्पद्यमाने यदा स्थानक रणप्रयत्नाः परस्परं स्पृशन्ति सा स्पष्टता यदेषत्स्पृशनि तदेतत्स्पृष्टता। दूरेण यदा स्पृशन्ति सा विवृतता एषोऽन्तः-प्रयत्नः कण्ठे भवः कण्ठ्यः तालुनि भवः तालव्यः । अवर्णहविसर्गकवर्गाः कण्ठया: । इवर्णचवर्गयशास्तालव्याः। ऋवर्णटंवर्गरषा: मूर्धन्या । उवर्ण-पवर्गो पध्मानीया ओष्ठ्यः । ल वर्णतगलसा दन्त्याः । नासिकामनुगतो यो बर्ण-धर्मः स अनुनासिकः स धर्मोऽस्यास्तीति अभ्रादित्वात् अ: । निर्गतोऽनुनासिकात् य स निग्नुनासिक; । अनुनासिकेन सह वतते स सानुनासिकः । रफोरमणा तु अतुल्यस्थान'ऽऽप्यप्रयत्नत्वात् स्वा न भवन्ति । अन्यवणपिक्षया तेषां स्वत्वाभावः, रेफस्य तु रेफः स्वो भवत्येव । यदा सर्वाङ्गानुसारो प्रयत्नस्तोत्रो भवति तदा गात्रस्य विग्रहः कण्ठबिलस्य चाणुत्वं स्वरस्य च वायोस्तीव्र गतित्वात् रोक्ष्यं भवति तमुदात्तमाचक्षते । यदा तु मन्दः प्रयत्नो भवति तदा गात्रस्य स्रसनं कण्ठबिलस्य त्र महत्त्व स्वरस्य च वायोर्मन्दगतित्वात् स्निग्धता भवति तमनुदा तमाचक्षते । उदाताऽनुदात्त Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरसंनिपातात् स्वरितः इत्येषः सर्वो बाह्यप्रयत्न इति । स्वर: संजातो येषां ते स्वरिताः । तारकादित्वादितच ॥१७॥ . . - स्यौजसअमौशम. टाभ्यां भिस् डेभ्यां-भ्यस्, ङसिभ्या-भ्यस्, ङसोसाम् ङयोस्सुपां त्रयी नमी प्रश. मादिः । १।१।१८। स्यादीनां प्रत्ययानां त्रयी त्रयी यथासङ्घयं प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी स्यात् ॥१८॥ ... त्रयोऽवयवा यस्या: सा त्रयी .'द्वित्रिभ्यामयड् वा ।७।१।१५२॥ इति अयट 'अणजेये० ।२।४।२०। इति छी:, 'अस्य छयां बुक' ।।४।८६। 'इति अलोप:' दीर्घङ याब० ॥१।४।४५। इति सेर्लोप: 'वीप्सायाम्।७।४१८०। इत्यनेन द्वित्वे त्रयी त्रयी। बहुवचनं स्याद्यादेशानामपि प्रथमादिसंज्ञाप्रतिपत्त्यर्थम् । प्रकृतेरादेश: प्रकृतिवद् भवति इति न्यायात् साध्यसिद्धिर्भविष्यति किं बहुवचनेन ? बहुवचनं महती शक्तिर्यया परिभाषां न्यायांश्च विनाऽपि साध्यते इति ज्ञापितम् ॥१८॥ - - स्त्यादिविभक्तिः । १।१।१९। 'स्' इति च 'ति' इति च उत्सृष्टानुबन्धस्य सेः तिवाच ग्रहणम् । स्यादयः तिवादयश्च सुपस्यामहिपर्यन्ता विभक्तः स्युः ॥ १९ ॥ विभज्यन्ते प्रकटीक्रियन्ते कतृकर्मादयोऽर्था अनयेति 'नयादिभ्य ।५।३।९२॥ इति क्तिः । आदिशब्दो व्यवस्थावाची तेन ये यदनुबन्धा यावन्तो विभक्तिसंज्ञायां पूर्वाचायैर्व्यवस्थापितास्त एव तदनुबन्धा एव तावन्तं एवाऽत्र गह्यन्ते इति । उत्सृष्ट: त्यक्त: अनुबन्धो मेन स तस्य । अनुबध्यले कार्यार्थमुपदिश्यते स अनुबन्धः ।।१९ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) तदन्तं पदम् ।१।१।२० । स्थाद्यन्तं त्याद्यन्तं च पदं स्यात्, धर्मो वः स्वं ददाति, नः शास्त्रम् ॥ २०॥ सा विभक्ति रन्ते यस्य तत् तदन्तम्, पदिच गती, पद्यते गम्यते कारकसंपष्टोऽर्थोऽनेनेति पदम् । ननु 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ।७।७।११५॥ इति परिभाषासूत्रेण तदन्तविधेाभात् 'सा पद' मित्येव सूत्रं कर्तव्यं, न तु तदन्तं पद' मिति शङ्कायामाह- धर्मो वः स्वं ददाति, नः शास्त्रमिति । अयं भावः यदि उक्तपरिभाषया तदन्तस्य लाभस्तहि 'स्त्यादिविभक्तिः' इत्यत्रापि तदन्तलाभेन स्त्याद्यान्तस्य विभक्तिसञ्ज्ञा प्रात्नोति, तथा च सति धर्मः ददाति इत्य । दोनों स्त्याद्यन्तानां विभक्ति संज्ञकतया पदसज्ञाऽभावाद्य ष्मदस्म-दोः ‘पदाद्य ०' ।२।१।२१। इति वस्नसादेशौ न स्याताम् , अत: अन्तग्रहणं कृतम्, तथा च संज्ञाविधौ प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहण नास्तीति सूचितम् । एवञ्च संज्ञोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं न तदन्तस्य' इति न्यायस्यान्तपदेन सूचन भवति । फलं च स्त्यादिविभक्तिरित्यादावन्तग्रहणाभावः । डुदांगक दाने ।११३८। धातोः 'हवः शिति' ।४।१।४२। द्विरुक्ती "हस्वः” ।४।१।३९ इति द्वित्वे पूर्वस्य ह्रस्वे च ददाति ॥२०॥ नाम सिदव्यजने । १।१।२१। · · सिति प्रत्यये यवर्जव्यञ्जनादौ च परे पूर्व नाम पदं स्यात्, भवदीयः, पयोभ्याम् । अयिति किम् ? वाच्यति । नमति गच्छत्यर्थं प्रति इति नाम 'सात्मन्नात्मन्निति' निपातनम् । इत् अनुबन्धो यस्यासौ सित्, न य् अय, अय् च तद्व्यञ्जन च अयव्यञ्जन, सिच्च अयव्यजनं च सिदयव्यजनं तस्मिन्, पदमित्यूनवर्तते । भवतोऽयं भवदीय:, भवतोरिकणीयसौ ।६।३।३०। इतीयस् अनेन पदत्वात् 'धुटस्तृतीयः' १२११७६। इति तस्य दः । अत्र भवत: इति विग्रहान्तर्गतषष्ठीविभक्तिमादाय भवच्छब्दस्य पदत्वे सिद्ध सिद्ग्रहणं व्यर्थं सन्नियमति, सकारानुबन्धप्रत्यये परे एव पदसंज्ञा, न तु प्रत्ययान्तरे इति, अतः भगवतः इदं भागवतमित्यादा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) वण्-प्रत्यये परे न पदसंज्ञा । पयस्भ्याम् . पापाने पोयते तृषातैरिति पय:, पय् पयते याति स्वभावान्निम्नप्रदेशमिति पय: 'सो रु:' ।२।१।७२। सूत्रात्सस्य रूत्वं घोषवति' ।।३।२। उकार:, 'अवर्णस्ये०' ११२१६। सूत्रादोत्वम् । ननु 'नाम सिदय्व्यञ्जने इत्येव' सूत्र्यतां, किमित्ययग्रहणमिति शङ्कायामाहवाच्यतीति-वाचमिच्छति वाच्यति 'अमाव्ययात्क्यन्' ।३।४।२३। 'कर्तर्यनद्भ्यः ।३।४।७१। शवोऽनाकाङक्षायामपि 'पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्तिः' इति न्यायेन शव । अत्र यकारे परे वाच: पदत्वप्राप्त्या चकारस्य कः स्यात्, तव्यावृत्त्यर्थः यवर्जनम् । यद्यपि राजीयतीत्यादौ 'नाम सिदयव्यजने' ।१।१।२१॥ इति पदत्वप्राप्त्या 'नं क्ये' इति सूत्रं व्यर्थं सत् क्यप्रत्यये परे नकारान्त मेव नाम पदसंज्ञं भवतीति नियमयति तथा च वाच्यतीत्यादौ न पदसंज्ञा प्राप्नोतीति यवर्जनं व्यर्थं, तथापि सत्सु साधु सत्यमित्यादौ पदसंज्ञाव्यावृत्तये यवर्जन कृतम् ॥२१॥ नं क्ये।१।१।२२।। 'क्ये' इति क्यन्क्यङ क्यङर्षा ग्रहणप, नान्तं नाम क्ये परे पर्द स्यात् । राजोति, राजायते, चर्मायति ॥ २२ ॥ नं क्ये ॥ क्यन्क्या क्यङषां ग्रहणमिति, नात्र, क्यक्यपोर्ग्रहणं नामाधिकारत्वात् । राजानमिच्छति राजीयति 'अमाव्ययात् क्यन् ।।४।२३। पदत्वात् क्यनि ईकार: । राजेवाऽऽचरति राजायते, क्यङ ।३।४।२६। इति क्यङि 'दीर्घश्च्वियङ' ।४।३।१०८। दीर्घः । चर भक्षणे ल 'मन्' ।९११। इत्यु.. णादिमन्प्रत्यये चर्म इति । अचर्म चर्म भवति चर्मायति, अत्र चर्मन् शब्दश्च.. मवदर्थकः, चर्मण: प्रागतत्त्वासम्भवेन व्याघटनात्, पदत्वान्नकारलोप: 'डाच् लोहिता०' ।३।४।३०। इति क्यङष, अयिति प्रतिषेधात्पूर्वेणाप्राप्ते वचनम् ॥२२॥ न स्तं मत्वर्थे ।१।१।२३। सान्तं तान्तं च नाम मत्वर्थे परे पदं न स्यात्, यशस्वी, तडित्वान् । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) स च तश्च स्तं, मतोरर्थः मत्वर्थः मतरर्थोऽस्त्यस्येति मत्वर्थस्तस्मिन् । यशोऽस्यास्तीति यशस्वी, 'अस्तपोमायामेधास्रजो विन् ।७।२।४७। सूत्रात् विन्, 'इन् हुन् पूषा०' ।११४१८७। इति दीर्घः, तडित् विद्यते यस्यासी 'तदस्या०' ७।२।१॥ इति मतुप । 'मावर्णान्तो०' ।२।१।९४। इति मस्य वः, अत्र पदत्वनिषेधाद्र फदकारौ न भवतः । तथा मतोरपि मत्वर्थाऽव्यभिचारान्मत्वर्थशब्देन ग्रहणम् । 'नाम सिदय० ॥१।१।२१ इति प्राप्तौ प्रतिषेधोऽयम् । अत्र विचार:- मतशब्दो मत्वर्थ लाक्षणिक: 'शक्यसम्बन्धो लक्षणा' मतश्च स्वार्थेन सप्तम्याधारतया षष्ठ्यर्थसम्बन्धेन वाऽव्यवभिचारात् अव्यभिचारित्वलक्षणो सम्बन्धः तेन मतुशब्द: सप्तम्यर्थाधारतापरः षष्ठ्यर्थसम्बन्धपरो वा तदर्थका: प्रत्यया अपि मत्वर्था भवन्ति यथा उष्ट्रमुख शब्दे: उष्ट्र: स्वस्य मुखं भवितु नाईतीति उष्ट्रस्य उष्ट्रमुख लक्षणा उष्ट्रमुखमपि प्राण्यन्तरस्य मुखं भवितु नाहतीति उष्ट्रमुखस्य उष्ट्रमुखसदृशे लक्षणा इयं लक्षितलक्षणोच्यते-लक्षितस्य लक्षणा लक्षितलक्षणा । यथा नैयायिका द्विरेफशब्दस्य द्विरेफविशिष्टे भ्रमरशब्दे लक्षणां मन्यन्ते भ्रमरशब्दस्य च भ्रमरशब्दवाच्ये लक्षणां कुवन्ति ॥२३॥ . मनुनभोऽङ्गिरोवति ।१।१।२४ । एतानि वति परे पदं न स्युः । मनुष्वत् नभस्वत्, अङ्गिरस्वत् । ॥ २४॥ मनुश्च नभश्च अङ्गिगश्च मनुर्नभोऽङ्गिर: वति सप्तमी । मनुरिव मनुष्यवत्, नभ इव नभस्वत्, अङ्गिरा इव अङ्गिरस्वत् । अङ्गिरा नाम ऋषि: 'स्यादिरिवे' ।७।१।१२। इति वत् 'नाम्यन्तस्था०' ।२।३।१५॥ इति षकार: । अत्र पदत्वाभावात् न 'सो रु:'।२।१।७२१, पदमध्यत्वात् मनुष्वदित्यत्र षकार: ॥२४॥ वृत्तयन्तोऽसले । १।१।२५ । परार्थाभिधायो समासादिर्वृत्तिः, तस्या अन्तः अवसानं पदं न स्यात्, असषे-सस्य तु षत्वे पदमेव । परमदिवौ, बहुदण्डिनौ । असष इति Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) किम् ? दधिसेक् ॥ २५ ॥ . वृतूङ, वर्तने, वर्तनं वृत्तिः, स्त्रियां ति: ।५।३।९१। वर्तनं तु अवयवार्थाऽपेक्षया परस्य समुदायार्थस्य प्रतिपादनम् । वर्तनात्मिकाया: क्रियाया अन्तो भवितू नाहतीति लक्षणया वत्तिशब्द: वतिमदबोधकः । यद्वा वर्तन्ते स्वार्थापरित्यागेन पदान्यत्रेति आधारे तो वृत्तिः पदसमुदायादिरुपा । सा त्रिधा समासवत्तिः, तद्धितान्तवतिः, नामधातुवत्तिश्चति । यथा राजपुरुषः, औपगवः, पुत्रकाम्यतीत्यादि । वत्तेन्त: वत्त्यन्तः, सस्य षः सषः, न संष असषः तस्मिन् । परार्थाभिधायोति- अवयवार्थापेक्षयाऽन्यस्य समुदायार्थस्याभिधायकम् , तद्धटकैः परितरार्थान्वितस्वार्थस्यवोपस्थान सा वत्तिरिति यावत् । परमदिवाविति- परमा द्यौर्ययोस्तौ अब परमदिव औ, इति दशा.. याम् औ-विभक्तेर्वृत्त्यघटकत्वेन परमदिव् इत्यस्य वृन्यन्तत्वं बोध्यम् । 'परत: स्त्री पुवत् ।३।२।४९। इति पूवद्भावः दण्डाः सन्त्येषामिति दण्डिनः । बहवो दण्डिनो ययोस्तो, यद्वा ईषदनौ दण्डिनी बहदण्डिनौ, नाम्नः प्राग्बहा' ।७।३।१२। सूत्रात्पूर्वं बहुप्रत्ययः किंचीत् क्षरणे, सिञ्चतीति सेक्, दध्न: सेक दधिसेक । अत्र षत्वे कर्तव्येऽनेन सूत्रेण पदसंज्ञायां सकारस्य पदादित्वेन 'नाम्यन्तस्था० १२।३।१५। इत्यनेन षत्वाभावः सिध्यति । अन्तर्वतिन्या विभ. क्तयाः स्थानिपभावेन पदत्वं प्राप्तमनेन निषिध्यते । बत्ति ग्रहणं किम्-मंत्रस्य कर्म । अन्त ग्रहणं किम् ? राजवाक् । वाक्वक्स च इति त्रयाणां वृत्तौ न द्वयोः पृथग्वत्तिरिति मध्यमस्य निषेधो न भवति । अथ वाक्त्वमित्यत्र समासान्ते अप्रत्यये सति व त्यन्तत्वाभावात्पदत्व प्राप्नोति, तथा च कत्वं स्यात्, उच्यते समासान्तरं समासान्तप्रत्ययस्य विधानेन त्वचो व त्त्यन्तत्वान्न कत्वम समासान्तप्रत्ययश्च वत्तबहिभूत इति । नत्यन्तशब्दात् से; ओकारनिदेश: 'अन्त. रङ्ग बहिरङ्गात्' 'न स्वरान्ततये' इति ज्यायो सूचयति । वृत्त्यन्त +उ+ असषे इति स्थिते 'इवर्णादेः ।१।२।२१॥ इति वत्त्वे वृत्त्यन्तवसषे' इति करणापत्तिरिति चेत् 'अन्तरङ्ग बहिरङ्गातः इति न्यायात एकपदाश्रितत्वेनान्तरङ्गत्वात 'अवर्णस्ये १०।६। इति पूर्वेण सहौत्वमेव भवति न तू 'इवर्णादे.' ।१।१।२१॥ इति वत्वं पदद्वयाश्रितत्वेन बहिरङ्गत्वात । नन्वसिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग इति न्यायाद 'अतोऽति रो रुः ।१।३।२०। इत्यनेन कृतस्यात्त्वस्थ्य पदान्तस्थाकारसापेक्षत्वेन बहिरङ्गस्य 'अवर्णस्ये' ।१२।६। इति प्राक्स्थिा . ताकारेण सहोत्त्वे एकपदाश्रितत्वेनान्तरङ्ग कर्तव्येऽसिद्धत्वात् 'वृत्त्यन्तो इति निर्देशोऽसङ्गत इति चेत्सत्यमत्र 'वृत्त्यन्तो.' इति निर्देशो ज्ञापयति यत् 'न Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) स्वरानन्तर्ये' इत्यपि न्यायोऽस्ति, 'स्वरयोरव्यवधाने सति बहिरङ्गमन्तरङ्ग कर्तव्येऽसि न भवतीत्यर्थः ॥२५॥ सविशेषणमारख्यातं वाक्यम् । १।१।२६ । प्रयुज्यमानरप्रयुज्यमानैर्वा विशेषण सहितं प्रयुज्यमानमप्रयुज्यमानं वा आख्यातं वाक्यं स्यात् । धर्मों वो रक्षतु, लुनीहि ३, पृथुकांश्च खाद, शोलं ते स्वम् ॥ २६ ॥ ... विशिष्यते व्यवच्छिद्यते विशेष्यमनेनेति करणेऽनट, सह विशेषणवंतते यत्तत्सविशेषणम् 'सहस्य सोऽन्यार्थे ।३।२।१४३। ख्यांक प्रकथने, साध्यार्थाभिधायितया आख्यायते कथ्यते इत्याख्यातम्, वचंक भाषणे उच्यते इति वाक्यम् । प्रयुज्यमानैरित्यादि क्रियाविशेषणस्य तत्साधनस्य वाऽव्यवधानेनातद् पध्यवच्छेदकं परम्पराविशेषणमुच्यते, विशेषणान्तरद्वारेण च व्यवच्छेदक परम्परा-विशेषणमुच्यते, उभयविधैरपि विशेषणैः प्रयुज्यमानैरप्रयुज्यमानैर्वा सहित तथाविध विशेष्यमाख्यातं वाक्यं स्यादित्यर्थः । आख्यातपदेन क्रियावाचकपदस्य ग्रहणं न तु त्याद्यन्तमात्रस्य, तेन चैत्रेण शयितव्यमित्याद्यपि वाक्यं भवति । धर्मो वो रक्षतु पदाध ग०' ।२।१।२१॥ इति वस् । दुर्गतिपतन्तं जन्तुसंतानं धरति स धर्मः । रक्ष पालने, पञ्चमी तुन् । इदं प्रयुज्यमानविशेषणं, लुनीहि ३ 'क्षियाशी:०' ।७।४।९२। इति प्रैषार्थे इकार: प्लुत: एतदप्रयुज्यमानविशेषणम् । प्रयुज्यमानाख्यातकं यथा-पृथुकांश्च खाद, शील ते स्वमित्यप्रयुज्यमानाख्यातकम् । शब्दप्रयोगोऽर्थबोधोपायः, • शब्दप्रयोगाभावेऽपि अर्थात् अप्रयुज्यमानेऽपि पदे विशेष्य विशेषण-भावे अतिप्रसङ्गः स्याद्,अन्यस्यापि तत्प्राप्तेः, अप्रयुज्यमानत्वात्सर्वं सर्वस्य विशेषण विशेष्यं च स्यान्नियामकाभावात्, क्वचित्तयोः प्रयोगस्य व्यथता च स्यादिति न च वाच्यम्-लोकात् प्रकरणाद्वा विशेष्यविशेषणयोनियतयोः प्राप्त्या तयोरप्रयोगात् । ननु लोकादेव वाक्यसिद्धिः कथमेतत्सूत्रारम्भ इति चेन्मेवम् लोको हि साकाङक्षत्वे सति आख्यात भेदेऽपि एकवाक्यत्वं स्वीकरोतीति वाक्यभेदार्थं वचनम् ॥२६॥ - अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम ।१।१।२७ । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) धातुविभक्त्यन्तवाक्यवजंमर्थवच्छ स्वरुपं नाम स्यात् । वृक्षः, स्वः, धवश्च । अधातुविभक्तिवाक्यमिति किम् ? अहन, वृक्षान्, साधुधर्म बूते ।। २७ ।। " धांग धारणे च दधाति क्रियालक्षणमर्थमिति धातु:, धातुश्च विभत्तिश्च वाक्यं च धातुविभक्तिवाक्यं ततो नञ्समासः । अर्थ्यते इति ऋक् गत अर्थते गम्यते पुरुषरितिवाऽर्थः । अभिधेयद्योत्यलक्षणोऽर्थोऽस्यास्तीत्यर्थवन्नाम । विभक्तयन्तेति 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः | ७|४|११५ । सूत्रात् विभक्त्यन्तस्य लाभ: । अर्थवच्छउदरूपमति अर्थवदिति विशेषणत्वेन स्वानुगुणं विशेष्यमध्याहृतमित्याह शब्दरुपम् । अर्थश्च द्व ेधा, अभिधेयरुपः, द्योत्यरूपश्च । अभिधेयश्च स्वार्थद्रव्यलिङ्गसङ्ख्याशक्तिभेदात्पञ्चधा, द्योत्यश्च समुच्चयादिः एतौ द्वौ शब्दे वाच्यतया स्तः इत्यर्थत्रच्छन्दरूपं ज्ञेयम् । औव्रश्चात् छेदने वृदच्यते काष्ठाथिभिरिति वृक्षः । स्व:, स्वर्ग इत्यर्थेऽव्ययम्, घुनातीति धवः वृक्षविशेषः हन हिंसागत्योः, ह्यस्तनी दिव्, 'अधातो:' | ४|४|२९| इत्यडागमः, 'व्यञ्जनादेः' | ४|३|७८ । इति दिलोप: । अत्र नामत्वाभावात् 'नाम्नो०' | २|१|११| इति नलोपो ना भूत् । न च अहन्नित्यस्य विभक्त्यन्तत्वात् नामत्वाभावात् 'नाम्नो० | २|१|११| इति नलोपो न भवेदिति धातुवर्जने प्रयाजनाभाव इति वाच्यम्-हन्तीत्यत्र विभक्तेः परत्वे हनो नामत्वे 'नाम सिदय्०' | १|१| २१ | इति पदत्वे नलोपः स्यात्तद्व्यावृत्तये धातुवर्जनमिति । वृक्षानिति अत्र नामत्वे 'नलोपः स्यात् न च वृक्षानित्यत्र 'शसोना सच | १|४|४९ । इति नकारविधानसामर्थ्यान्नलोपो न भवेदिति विभक्त्यन्तवर्जनं व्यर्थमिति वाच्यम् कांस्कानित्यादौ न विधानस्य चरितार्थत्वान्नलोपः स्यादिति । विभक्त्यन्तवर्जनाच्च 'आबादिप्रत्ययान्तानां नामसंज्ञा स्यादेव । साधं संसिद्धौ उत्तमक्षमादिभिः तपोविशेषैर्भावितात्मा साध्नोति रत्नत्रयीमिति साधुः । बूं' ग्क् व्यक्तायां वाचि साधुर्धर्मं ब्रूते, इत्यादिवाक्यस्य यद्यपि विभक्त्यन्तत्वान्न नामसंज्ञति शङ्का सम्भवति तथापि ब्रूते इत्यस्यैव विभक्तयन्त्वात् 'साधु धर्मं ब्रूते इति समुदायस्य च विभक्त्यन्तत्वाभावात् नामसंज्ञाप्राप्तौ स्यादिः स्यादतो वाक्यवर्जनम् । अर्थवदिति विशेषणत्वेन स्वानुगुणं विशेष्यं शब्द-रूपं निर्दिशतीति वाक्यस्य नामसञ्ज्ञाप्राप्तिरेव नास्तीति वाक्यवर्जनम् किमर्थमिति चेन्मैवं समासादेः समुदायस्य नामसंज्ञा भवतीति ज्ञापनार्थम् ॥ २७॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिद ।१।१।२८॥ जस्शसादेशः शिघुट् स्यात् । पद्मानि तिष्ठन्ति पश्य वा ॥२८॥ - पद्म + जस् 'नपुसकस्य० ॥१॥४॥५५॥ सूत्रात् शिरादेशः । 'स्वराच्छौ' ।१।४।६५। इति नोन्त: 'शिघुट्' ।१।१।२८। इत्यस्मात्सूत्रात् घुट्-. त्वात् 'नि दीर्घः' ।१।४५८५। इति दीर्घः । ष्ठा गतिनिवृत्ती 'षः सोऽ.' १२।३।९८० इति सत्वे 'निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः' इति न्यायात ठस्य थत्वे 'स्था+अन्ति' इति स्थिते 'श्रौतिकृ००' ।४।२।१०८॥ इति तिष्ठादेशे, 'लुगस्या०' ।२।१।११३॥ अलोपे च तिष्ठन्ति । दृश पेक्षणे पञ्चमीहिप्रत्यये पश्यादेशे 'अतः प्रत्यया०' ।४।२१८५। इति हिलोपे च पश्य । जस्शसादेश इति अत्र जस्साहचर्यत् स्यादेरेव शसो ग्रहणं न तु तद्धितशसः, तेन एकशो ददातीत्यादौ 'सङ्ख्यका० ।७।२।१५१॥ इति शसो न घुटसंज्ञा ॥२८॥ पुस्त्रियोः स्योमौजस् । १।१।२९।। स्यादयो पुंस्त्रीलिङ्गयोः घुटः स्युः । राजा, राजानौ, राजानः, राजानम्, राजानी, सीमा, सीमानौ, सीमानः, सीमानम् ॥ २९ ॥ मांश्च स्त्री च स्त्रियौ तयोः । अलोकिकोऽयं निर्देशोऽन्यथाऽ. य॑त्वात्स्त्रीशब्दस्य प्राग्निर्देशे 'स्त्रियाः पुसो०१७।३।९६। सूत्रेण समासान्ते च स्त्रीपू सयोरिति स्यात् औश्च औश्च आवो, सिश्च अम च आवो च जसू च स्थमौजस, स्यमौजसिति व्युत्क्रमाभिधानमौकारद्वयस्य ग्रहणाय। राजन+सिं • 'नि दीर्घः ॥११४१८५। दीर्घङ याब० ॥१।४।४५। 'नाम्नो नो० ॥२॥१.९११ स्यति सन्देहमिति सीमा इदं स्त्रीलिङ्गस्योदाहरणम् ॥२९॥ स्वरादयोऽव्ययम् । १।१।३० । स्वरादयोऽव्ययानि स्युः । स्वर, अन्तर्, प्रातरित्यादि ॥ ३०॥ स्वर् आदिदिर्येषां ते स्वरादयः । विपूर्वः इण्क गतौ न व्येति, - न क्षयं यातीत्यव्ययम्, लिहादिभ्योऽच्' ।५।१।५०। इत्यच् । ... . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) सदृशं त्रिषु लिङ्गषु, सर्वासु च विभक्तिषु । वचनेषु च सर्वेषु, यन्न व्येति तदव्ययम् ॥ स्वरिति- स्वर्गे परलोके च । अन्तरिति-मध्ये । प्रातरिति प्रभाते। बहुवचनमाकृतिगणार्थम्-एवं प्रकाराः स्वरादयो नत्वेतावन्त इति ॥३०!! चादयोs सत्वे । १।१।३१। । अद्रव्ये वर्तमानाश्चादयोऽव्ययानि स्युः । वृक्षश्चेत्यादि ॥ ३१॥ __ चादिर्येषां ते 'जस्येदोत' ।।४।२२। 'सो रुः ।२।१।७२। अतोऽति रोरु: ।।३।२०। 'अवर्णस्ये' ।।२।६। 'एदोत:०' ११।२।२७। सीदतोऽस्मिन् लिङ्गसङ्खये इति सत्त्वम्, लिङ्गसंख्याद्याश्रयो द्रव्यं सत्त्वम्, इदं-तदित्यादिसर्वनामव्यपदेशभागिति यावत् असत्त्वे कोऽर्थः यत्र सत्त्वरुपेऽनुकार्यादावर्थे एषां प्रवृत्तिस्तदा चादीनामव्ययसंज्ञा न भवति तथा च: समुच्चये । 'वृक्षस+ च' 'चटते सद्वितोये' ।१।३।७। बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥३१॥ अधण्तस्वाद्याः शसः । १।१।३२।, धग्वस्तिस्वादयः शस्पर्यन्ता ये प्रत्ययास्तदन्तं नामाव्ययं स्यात् देवा अर्जुनतोऽभवन्, ततः, तत्र, बहुशः । अधणिति किम् ? पथिद्वधानि ॥ ३२ ॥ न धण अधण्, 'नत्रत्' ।३।२।१२५। तसुरादिर्येषां ते तस्वादय: अधण च तत् तस्वादि च अधण्तस्वादि, शस् आऽभिविधि येषां ते आशसः । पञ्चमी । अर्जुनतः अर्जुनस्य पक्षे इत्यर्थः 'व्याश्रये तसः' ।७।२।८१॥ इति तसुः । अव्ययम् । भू सत्तायाम् , शस्तनी अन् 'अधातो:०' ।४।४।२८। इत्यडागम: कर्तरि शव, 'नामिनो गुणोऽ०' ।४।३१। इति गृण: 'ओदौतोऽवाव' ।१।२।२४। इत्यभवन् । तनूयी विस्तारे तनोति परोक्षप्रतीतिमिति तद, तस्मादिति ततः 'किमद्वयादिसर्वाप्र०' ७२१८९। तस्प्रत्ययः । तस्मिन् तत्र 'सप्तम्याः' ।७।२।९४। इति त्रप् । बहुभिः क्रीतौ बहुश: 'बह; वल्पार्थाः' Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (२१) ७।२।१५०। इति शस् । द्वौ प्रकारौ एषां तानि द्वधानि तद्वति०' ७।२।१०८ इति घण् पथां द्वैधानि पथिद्वैधानि । अत्र नाव्ययसंज्ञा । ३२॥ विभक्तिथमन्ततसा-द्याभाः ।१।१।३३ । विभक्त यन्ताभाः थमवसान-तसादि प्रत्ययान्ताभाश्चाव्ययानि स्युः। अहंयुः, अस्तिक्षीरा गौः, कथम्, कृतः ॥ ३३॥ थम अन्ते येषां ते थमन्ताः। तस आदिर्येषां ते तसादयः थमन्ताश्च ते तसादयश्च विभक्तयश्च थमन्ततसादयश्च विभक्तिथमन्ततसादयः, तेषामामा सादृश्यं येषां ते । उष्ट्रमुखादित्वाद् बहुव्रीहिः । विभक्त्यागमनस्यानु नाम्नो धातोर्वा यद्र पं तद्र पतुल्यं यदन्यद्र पं तद् विभक्तयन्ताभम् तच्चाव्ययम् एवं तसादिथमन्तप्रत्ययेभ्यो यद् पं निष्पद्यते तद् पतुल्यं यद् पं तदपि अव्ययम् । विभक्तयो द्वधा स्यादय: त्यादयश्च । अह स्वतन्त्रं पदम् अहं विद्यतेऽस्येति 'ऊर्णाहं०' १७२।१७। सूत्रात् युस् । अहमस्मच्छब्दस्य प्रथमाविभक्तयन्ततुल्यरुपमिति अव्ययम् अहंयू-शब्दोऽव्ययं नास्ति । विभक्तिप्रतिरुपकस्याव्ययत्वे न किमपि प्रयोजनमिति नाशङ्कनीयम् विभक्त्यन्तरानुस्पत्तौ ‘ऐकायें' ।३।२।८। सूत्राद् विभक्तेलु पि अहं पुत्रोऽस्या 'त्वमौ०' - १२।१।११। सूत्रात् मत्पुत्र इत्यादि वैरुप्यमापद्यत। . अस्ति विद्यमानं क्षीरं यस्याः सा अस्तिक्षीरा दुग्धवती गौरित्यर्थः त्यादिविभक्त्यन्ताभस्योदाहरणमिदम् । अत्रास्तिशब्दस्याव्ययत्वात् एकार्थ.' ।३।१।२२। सूत्रात्समासः । नामत्वाभावे अस्तेः क्षीरेण सह समासो न स्यात् । कथम्-केन प्रकारेणेत्यर्थः 'कथमित्थम्'।७।२।१०३।कुतः कस्मादित्यर्थः 'किमद्वयादि० ।७।२।८९। अहं, शुभम् , कृतम्, पर्याप्तम् , येन, तेन, चिरेण, अन्तरेण, ते, मे, चिराय, अह नाय, चिरात्, अकस्मात्, चिरस्य, अन्योन्यस्य, मम, एकपदे, अग्रे, प्रगे, प्राह वे, हेतो, रात्रौ, वेलायाम, मात्रायाम एते प्रथमादि-विभक्त्यन्तप्रतिरुपका: । अस्ति, नास्ति, असि, अस्मि, विद्यते, भवति, एहि, ब्रूहि, मन्ये, शङ्क, अस्तु, भवतु, पूर्यते, स्यात्, आस, आह, वर्तते, नवर्तते, याति, नयाति, पश्य, पश्यत, आदह, आदङ्क, आतङ्कः इति तिवादि-विभवत्यन्तप्रतिरुपका: ॥३३॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) वत्तस्याम् ।१।१।३४ । वत्-तसि-आम्प्रत्ययान्तमव्ययं स्यात् । मुनिवद् वृत्तम्, उरस्तः, उच्चस्तराम् ॥ ३४॥ वच्च तसिश्च आम च वत्तस्याऽम 'अनतो' ।४५९॥ इति लोप: मन्यते संसारासारतामिति मुनि: । मुनेरहं मुनिवद्, 'तस्या' ७।१५१॥ . वत् । उरसा एकदिक उरस्त: 'यश्चोरस०' ।६।३।२१२। तस् । इदमनयोर्मध्येऽतिशयेनोच्चरित्यच्चस्तराम् 'द्वयोविभज्ये०' ।७।३।६। तरप् 'किन्दयाद्य'।७।३।८। इति आम् । वत्तसिसाहचर्यात् 'साहचर्यात्सहशस्यैव ग्रहणम्' इति न्यायात् वत्तसी अविभक्ती त्वंअविभक्तेरेवामो ग्रहणं, तेन 'कित्याद्य० ।।३।८। विहितस्य 'धातोरनेक० ।३।४।४६॥ तत्र क्वसु०' ।।२।२। इति क्वसुकानस्थाननिष्दन्नस्य चामो ग्रहणं न तु षष्ठीबहुवचनस्य । क्वसुकानस्थाननिष्पन्नस्यामो ग्रहणादेव पाचयांचऋषेत्यत्र टालोपे पदत्वाद. नुस्वारसिद्धिः, उच्चस्तरामित्यत्राव्ययत्वात् स्यालुप पाचयांचऋषेत्यादावामन्तस्याव्ययत्वेऽपि 'अव्ययस्य को द् च' ।७।३।३१। इति अक् तु न भवति अपरिसमाप्तार्थत्वेनामन्तस्य कुत्सिताद्यर्थासम्भवात् ॥३४॥ क्त्वातुमम् । १।१।३५। . कत्वातुम्-अम् प्रत्ययान्तमव्ययं स्यात् । कृत्वा, कर्तुम् यावज्जीव. मदात् ॥ ३५॥ ....... क्त्वा च तुम् च अम् च क्त्वातुमम् 'अनतो०' ।१।४१५९॥ इति लोप: अमिति 'निरनुबन्धग्रहणे सामान्येन' इति न्यायात् णमणमोरुत्सष्टानुबन्धयो: ग्रहणम् ह्यम्तन्यद्य नीद्वितीयैकवचनानाम 'साहचर्यात्सदृशस्यव ग्रहणम् इति न्यायेन व्यावृत्तः । द्वितीयैकवचनस्याप्यव्ययत्वे तु अव्ययस्य को द्च' ७।३।३१॥ इत्यक् स्यात्एवं देवस्य दर्शनं कुर्वित्यत्र 'तृन्नुदन्ताव्यया० ।२।२।९०। इति षष्ठी प्रतिषिध्येत । डुकुग करणे, करणं पूर्वं कृत्वा 'प्राक्काले' ।५।४।४७। इति क्त्वा । करणायेति कर्तुं क्रियायां क्रियार्थायां० ।५।३।१३' इति तुम् । जीव प्राणधारणे 'यावतो विन्दजीव०' ।।४।५५॥ इति णमि यावज्जीवम् जीवनः Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) : पर्यन्तमित्यर्थः । अदात् बुदांग्क् अद्यतनीदि 'सिजद्यतन्याम्' | ३ | ४|५३ | सूत्रांत् सिच् । पि तिदा० | ४ | ३ |६६ | सूत्रात् सिचो लुप् । 'अड्धातोरादि० | ४|४|१९| सूत्रादडागमः ॥ ३ ॥ गतिः । १।१ । ३६ । 19 19 गतिसंज्ञमव्ययं स्यात् । अदः कृत्य । “अतः कृकमि" । इत्यादिना रः सो न स्यात् ॥ ३६ ॥ गम् गतौ गमनं गतिः, 'स्त्रियां क्तिः ' | ५|३|११| 'यमिरमिनमि० ' | ४ २ ५५ ॥ इति मूलोप: । अदः करणं पूर्वम् अदः कृत्यं एतत्कृत्वेत्यर्थः, अत्र क्षदः इत्यस्य ‘अग्रहा०' |३|१|५| सूत्रेण गतिसंज्ञा । अदस्कृत्य न भवति अनेन सूत्रेणाव्ययसंज्ञा । अव्ययस्य रस्य सो निषिध्यते । 'अननः क्त्वों यप् ।३।२।१५४) 'ह्रस्वस्य तः । ४|४|११३ । इति तागमः 'अतः कृकमिकंस ० ' | २|३|५| इति सकाराभाव: । 'ऊर्जा | ३ | १|२| सूत्रात् जीविकौ० | ३ | १|१७| सूत्रं यावदुगतिसञ्ज्ञा ।। ३६ ।। अप्रयोगीत् । १।१।३७ । इह शास्त्रे उपदिश्यमानो वर्णस्तत्समुदायो वा प्रयोगेऽदृश्यमान इत् स्यात् । एधते, यजते, चित्रीयते ॥ २७ ॥ युज पी योगे प्रयोजनं प्रयोग: 'भावाकर्घञ् ||३ | १८| इति घन् । प्रयोगोऽर्थात् शब्दस्योच्चारणम् । प्रयोगोऽस्यास्तीति प्रयोगी । 'अतोऽनेकस्वरात्' | ७|२६| इनीन् । न प्रयोगी अप्रयोगीति संज्ञी । इण्क् गतौ एनि गच्छतीति इत् क्विप् | ५|१| १४८ । इति विवप् इदिति संज्ञा । अप्रयोगीत्वानुवादेनेत्सञ्ज्ञा विधानाच्चास्य प्रयोगाभावः सिद्धः । वर्णस्तत्समुदायो वेति'कस्मैचित् कायार्थमुच्चार्यमाणं एकवर्णो वा द्वित्र्यादिवर्णसमुदायो वा प्रयोगकालेऽदृश्यमान इत्संज्ञो भवतीत्यर्थः । एधि वृद्धौ इत्यत्र इकारः एक इत् । 'इङित कर्तरि |३|३|२२| इत्यात्मनेपदार्थः । यजी देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) ईकारानुस्वारौ इतौ 'ईकारः; ईगितः ।३।३।९५॥ सूत्रात्फलवत्यात्मनेपदार्थः । अनुस्वार: ‘एकस्वरा०' ।४।४।५६। इत्यनिटत्वार्थः । चित्रङ आश्चर्य चित्रमाश्चयं करोति 'नमो वरि०' ।३।४।२७। क्यनि ई: ङित्त्वादात्मनेपदम्। . वर्णो वर्णसमूहो वा, पाठे समुपलभ्यते । न दृश्यते प्रयोगे यः, स इत्संज्ञक उस्यते ॥३७।। अनन्तः पञ्चम्या प्रत्ययः । १।११३८ । पञ्चम्यर्थाद् विहितोऽन्तशब्दाऽनिर्दिष्टः प्रत्ययः स्यात् । "नाम्नः प्रथमैकाद्विबहौ" । वृक्षः । अनन्त इति किम् ? आगमः प्रत्ययो मा भूत ॥ ३८॥ न विद्यते अन्त:- अन्तशब्दो वाचकोऽभिधायको यस्य स अनन्तः । "अन् ।३।२।१२९। सूत्रादनादेशः । पञ्चम्याः , 'स्त्रीदतः ।।४।२९। सूत्रात् दासादेश: प्रति इंणक गतौ प्रतीयतेऽर्थों येनासो प्रत्ययः । सूत्रे पञ्चमीति प्रत्ययोऽभिधीयते, स च प्रत्ययः न प्रकृतिमन्तरेणेति येन विना यन्न भवति तत्तेनाऽऽक्षिप्यते । तथा चार्थाविनाभाविदत्वादर्थ आक्षिप्यते इति-प्रकृते राक्षेपादाह पञ्चम्यर्थादिति पञ्चम्यन्ता.. द्विहित इत्यर्थः । 'नाम्नः प्रथमैक दिव०।२।२।३। सूत्रात नाम्नः परा सिऔजस लक्षणा प्रथमा विधीयते इति नामशब्दात्पञ्चमी, पञ्चम्यन्तात्प्रथमा विहिता अन्तशब्दाऽनिर्दिष्टश्च अत प्रथमाया: प्रत्ययत्वम्। आगमः प्रत्ययो मा भूदितआगमस्य प्रत्ययत्वे हि अनन्दत् इत्यादौ 'उदितः० ।४।४।९८॥ इत्यादिना नागमेन धातो: खण्डितत्वात् नन्दधातो: प्राक 'अधातो०।४।४।२९। सूत्रादडागमो न स्यात् । अरुणद् इत्यत्र 'रुधां स्वराच्छनो नलुक् च' ।३।४१८२। सूत्रात् श्नप्रत्ययवत् 'तन्मध्यपतितस्तद्गहणेन गृह्यते इति न्यायाद् नागमविशिष्टस्यापि धातुत्वमक्षतमिति चेत् उच्यते तथा सति इदमेवान्तग्रहणं एतन्न्यायस्यानित्यत्वं ज्ञापयति अत एव यका सका इत्यादी' 'इच्चापुसोऽनित्क्याप्परे' ।।४।१०७। इति सूत्रेण इकारप्राप्त्या 'अस्यायत०' ।।४।१११॥ इत्यनेन इत्वप्रतिषेधः सार्थक: अन्यथा ककारस्य प्रकृत्यवयवत्वे-तु इत्वप्राप्ति.. रेव न स्यात् । मा भूदित्यत्र 'माङ यद्यतनी ।५।४।३९१ इत्यद्यतनी । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) इत्यतु संख्यावत् ।१।१।३९ । डत्यन्तमस्वन्तं च संख्याकार्यभाक् स्यात् । कतिकः, यावत्कः ॥ ३९ ॥ इतिश्च अतुश्च उत्यतु समाहारद्वन्द्वः अथवा इति अतु ध्यस्तमेव सौत्रत्वाद् विभक्तेर्लोपः । डतो डकारोऽनुबन्धः औणादिकातिप्रत्ययमादायातिप्रसङ्गनिरासार्थः 'अतु' इत्यत्रोकारानुबन्धविरहे 'पञ्चद्दशद्वर्गे वा' १६।४।१७५। इत्यत्प्रत्ययस्य ग्रहणं स्यात् । शत्रादीनां ग्रहणं तु साहचर्यादेव निरस्तम् । अथवा उकारानुबन्धाभावे तकारस्योच्चारणार्थत्वे 'अप्रत्ययान्तं . नाम सङ्ख्यावद्भवतीत्यर्थः स्यादत. उकारोऽनुबन्धः पठितः । सङ्खयेव सङ्खयावत् 'स्यादिरिवे' ७।११५२। सूत्रात् धत् । संपूर्वात् ख्याते: 'उपसर्गादातः' ।५।३।११०॥ इति 'बत्तस्याम्' १११११३४। इत्यव्ययसंज्ञा 'अव्ययस्य' ।३।२।७। इति विभक्तिलोपः । एकद्वयादिका लोकप्रसिद्धा सङ्ख्या, तत्कार्य भजते इत्यर्थः । डत्यत्वोः केवलयोः सङ्ख्यावद्विधाने फलाभावात् 'संज्ञाविधौ प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणं नास्तीति परिभाषामुपेक्ष्य तदन्तविधेरङ्गीकारेणाह डत्यन्तमत्वन्तमिति । संख्यावाचकाः शब्दा: अन्यूनानतिरिक्तपरिमाणबोधकाः भवन्ति यथा शतशब्दात् न कश्चिदेकाधिकशतम् एकोनशतं वा बोधति एवमेवैकादिशब्दादपि अन्यूनानतिरिक्तपरिमाणावच्छिन्नं परिमाणं बुध्यते कसमासेऽध्यधः।१।२४१॥ इत्यत्राध्यर्धशब्दो न नियतपरिमाणावच्छिन्नबोधक: अतो न सङ्घयावाची। तथा डत्यन्तादयः शब्दा: अनियतपरिमाणावच्छिन्नबोधकत्वेन न संख्यावाचिनः तेषां संख्याकार्यलाभाय 'डत्यतु संख्यावत्' इत्येवमादीनी सूत्राणि । एकद्वित्रीत्यादयो दशान्ताः शब्दाः परिमाणावच्छिन्न. वाचका एव एकोनविशंत्यादयः शब्दास्तु परिमाणावच्छिन्नवाचका: परिमाणवाचकाश्च यथा- एकोनविंशतिर्जना, जनानामेकोनविंशतिरति । ननु संज्ञाप्रकरणत्वात् 'डत्यतु संख्या' इत्याकारकसंज्ञासूत्रमेवास्तु किं वदित्यनेनेतिचन्मैवं सहयेत्यनेन 'कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे' इति न्यायात् डत्यन्तात्वन्तानामेव ग्रहणापत्तिः तस्मात् एकादिकाया लोकप्रसिद्धायाः संख्यायास्तु अकृ. त्रिमत्वाद् ग्रहणं न स्यादित्यापत्तिभयः । न च 'परार्थे प्रयुज्यमानः शब्दो वतं विनाऽपि वदर्थं गमयति' इति न्यायात् 'डत्यतु संख्या' इत्याकारकमेवातिदेशसूत्रं कर्तव्यमिति वाच्यम् अत्र वत्करणस्य स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थत्वात् । अन्यत्र प्रसिद्धस्यार्थस्यान्यत्र कथनमति देश: । ननु इतिप्रत्ययान्तेऽतिदेश विनाऽपि Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) 'संख्याडतेश्चा०'।६।४।१३०। सूत्रे सङ्खयाग्रहणपार्थक्येन डसिग्रहणादेव कतिक इत्यत्र कप्रत्ययः सेत्स्यतीति चेद् अत्रोच्यतेऽत्र डतिग्रहणं संख्या ग्रहणेन ग्रहणाहस्यापि कतिशब्दस्य त्वन्तत्वेन 'अशत्तिष्टे.' इति प्रतिषेधः स्यादिति तदुपजीवनाय डते:पृथग्ग्रहणम् । न चाशत्तिष्ठेः कः इत्यत्रार्थवत एव तेहणेन डतिघटकस्य तेरनर्थकतया 'अर्थवद्गहणे नानर्थकस्य' इति न्यायात् डतिप्रत्ययान्तस्य न निषेध इति वाच्यम्- 'अर्थवद्ग्रहणे०' इति न्यायस्यां नित्यताज्ञापनार्थत्वात् । अनित्यताज्ञापनस्य फलं तु एकसप्ततीत्यादावपि त्यन्तत्वेन कप्रत्ययस्य प्रतिषेधसाधनम् । नित्यत्वे त्वर्थवान् तिशब्द एव गृह्येत स च प्रत्यय एवेति प्रत्ययत्वेन 'प्रत्यय: प्रकृत्यादेः' १७।४।११५। इति तदन्तविधावूनाधिक ग्रहणाभावेन 'सप्तति' इत्यादा वेव कप्रत्ययनिषेध: 'एकसप्तति' इत्यादौ तु न स्यात् । अनित्यत्वे तु 'ति' इत्यस्य प्रत्ययभिन्नस्यापि ग्रहण-: सम्भवे नैषाऽऽपत्ति: । का सङ्ख्या मानमेषां 'यत्तत्किमः सख्याया ऽतिर्वा' ७।१।१५०। सूत्रात् डति: कतिभिः क्रीत: कतिक: 'सङ्गयाऽतेश्चा०'१६।४।१३०॥ इति कः । सङ्घयावत्त्वात् 'संख्याया धा1७२।१०४।धा-प्रत्ययाद्यपि । या संख्या मानमेषां यत्परिमाण मेषां वा ते यावन्त: 'यत्तदेतदो डावादिः' ।४।१।१४९॥ सूत्रात् यावन्त: यावद्भिः क्रीत: यावत्क: सङ्ख्यावत्त्वात्क: । 'बहुगणं भेदे' । १।१।४० । बहुगणशब्दो भेदवृत्ती सङ्घयावत् स्याताम् । बहुकः, गणकः । भेद इति किम् ? वैपुल्ये सङ्घ च मा भूत् ॥ ४० ॥ बहुश्च गणश्च बहुगणं । भेदो नानात्वमेकत्वप्रतियोगी । बहुभि: क्रीत: बहुकः । गणैः क्रीतो गणक: ‘संख्याडतेश्चा० ।६।४।१३०। इति कः । बहुगणौ न नियतविषयपरिच्छेदाभिधायकाविति संख्याप्रसिद्ध रभावाद्वचनम् । यत्र बहुशब्दो वैपुल्ये महति वर्तते गणश्च सङ्घ समूहे तत्र संख्यावन्न भवति यथा रजोगणः रजसघात इत्यर्थः ॥४०॥ कसमासेयदः ।१।१।४१। अध्यद्ध शब्दः के प्रत्यये समासे च विधेये संख्यावत्स्यात् । अध्यक्षु Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) कम्, अध्यर्द्ध शूर्पम् ॥४१॥ __कश्च समासश्च कसमासम् तस्मिन् । अल्पस्वरत्वात् 'क' इत्यस्य प्राग्निपात: । समसनं पदयो: पदानां वैकीकरणं समासः । यद्यपि 'इवर्णादे: ।१।२।२१। इतिवदत्रापि प्रथमं निमित्ती पश्चान्निमित्तमितिः रचनाक्रम: तथा सति 'अध्यद्ध : कसमासे' इति सूत्रं कर्तव्यम् तथापि मात्रालाघवमपि पुत्रोत्सवाय मन्यन्ते वैयाकरणाः' इति न्यायात् 'कसमासेऽध्यर्द्ध:' इति कृतम् । यद्वा निमित्तिपदं पूर्वमेव प्रयुज्यते इति भ्रमात्मक संस्कारस्य समूलोच्छेदनाय । अयं प्रयागः प्रचुरप्रयोगे निमित्तिपदं पूर्वमेव प्रयुज्यते तथापि व्युत्त्रमेण प्रयोगेऽसाधुत्वं. न भवतीति ज्ञापनार्थम् । अधिकमधू यस्यासौ अध्यर्धः 'एकाधं चानेकंच०' ।३।१।२२। इति बहुव्रीहिः । अध्यद्धन क्रीतम् अध्यर्द्ध कम्, यस्मिन्नर्धमधिक मेतादृशमेकमित्यर्थः । 'संख्याडतेश्चा०' ।६।४।१३०। सूत्रात्कः । यस्मिन्नधं शूर्पमधिकमर्थात् अर्धा धकशूर्पम् अध्यर्धेण शूर्पण धान्यादिनिष्वपनभाण्डेन क्रीतमध्यर्धशूर्पम् । 'मूल्यैः क्रीते' ।६।४।१५०। इतीकण् 'अनाम्यन्यद्विः' ।६।४।१४१॥ इति तस्य लोप: । अत्र 'सख्या समाहारे च०' ।३१।१९। इति द्विगु: । ननु यथा एको द्वौ त्रयश्च इत्यादि.गण्यते तथैव एकोऽध्य? द्वौ अधंत्रय: इत्याद्यपि इति अतिदेशानपेक्षमेव कप्रत्ययादिकार्य द्विकमित्यादाविव अय॑धकमित्यादावपि सेत्स्यतीति किमनेन सूत्रगेति चेन्मैवम् धाकृत्वसादि प्रत्ययानुत्पत्यर्थं कसमासे इति नियम आवश्यकः । तथा सति नियमसूत्रमिदं विध्यर्थत्वं त्वस्य दुरुपपादमिति चेन्मैव • अर्धशब्दो भागद्वयेन विभज्यमानस्य वस्तुनो द्वितीयं सममंशं वाच्यत्वेन निवेदयति स चांशोऽवयवभूत इत्येक देशादिशब्दवद् अर्धशब्दोऽप्यवयववाच्येवेति नास्य सूत्रस्य नियमार्थता ।।४।। अर्धपूर्वपदः पूरणः । १।१।४२ । अर्द्ध पूर्वपदः पूरणप्रत्ययान्तः के प्रत्यये समामे च कार्य संख्यावत् स्यात् । अर्द्ध पञ्चमकम्, अर्द्ध पञ्चमशूर्पम् ॥ ४२ ॥ अर्धशब्द: पूर्वपदं यस्य स । पूग्यतीति पूरण: 'नन्द्यादिभ्योऽनः' ।५।११५२। इति न: । पूर्यतेऽनेन वेति पूरणः, तदर्थप्रत्ययोऽपि पूरणः । अध्यर्ध Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) .. पूर्वपद इति- समासावयभूते पदे पूर्व भागे पूर्वपदम् उत्तरभागे चोत्तरपदमिति प्रसिद्धिः । अर्धपञ्चमः क्रोतमपञ्चमकम्, अर्धपञ्चमः रूपैः क्रीतम् अर्धपञ्चमशूर्पम् । 'मूल्यः क ते' ।६।४।१५०। इतीकण 'अनाम्न्यहि:०' १६।१११४१॥ इति प्लुप् ॥४२॥ इति प्रथमः पादः - - अथ द्वितीयः पादः समानानां तेन दीपः । १।२।१। समानानां तेन समानेन परेण सह दीर्घः स्यात् । दण्डानम्, दधीदम्, नदीन्द्रः ॥१॥ समानं तुल्यं मानं परिमाणं येषां ते समानांस्तेषाम् । तेन दीर्घः तच्छन्देन समानस्य परामर्शः तच्छब्दस्य बुद्धिस्थत्वोपलक्षितधर्मावच्छिन्ने शक्तिः । इवर्णचवर्गयशांस्तालव्या दधि शीतमित्यत्र न दीर्घः, शकारस्याऽऽस्यप्रयत्नभेदेन समानत्वाभावात्, परेण सहेति अत्र पुत्रेण सह स्थूल इतिवन्न द्वयोः पृथक पृथग्दीर्घता, किन्तु अजाक्षीरेण सहौषध पिबेदितिवद् द्वयोरेक एव दीर्घः । 'आसन्न: ।७।४।१२०। इति न्यायादवर्णस्याऽऽकार एव दीर्घः, न त्वीकारः,एवमिवर्णादेरपि ज्ञेयम् । समानानामित्यत्र बहुवचनं व्याप्त्यर्थं तेनोत्तरसूत्रेण ल ऋतोरपि ऋलति ह्रस्वो भवति । क्ल ऋषभः, होतृ लकार: । अन्यथा ऋ स्तयो:' ।१।२।। इति परत्वात् ऋ. इत्येव स्यात् । समानानामिति निर्देशात्' अपेक्षातोऽधिकार' इति न्यायो निश्चीयते । तथाहि 'ह्रस्वापश्च' ।२।४।३२॥ इति सूत्रेण आमो नाम् कृतः । स च तदेव सिध्येत् यदा 'आमोनाम्वा' ।१४।३१। इति पूर्वसूत्रात् 'आम: नाम् इति च पदे तत्रानुवर्तेताम् । दण्डस्याग्रम्- दधि दुग्धविकृतिविशेष: इदम्-प्रत्यक्षसन्निकृष्ट नर्देशकशब्द: दधीदमित्यसमस्तम् अथवा दध्न इदम् दधीदमिति षष्ठीतत्पुरुषसमासः। णद अव्यक्ते शब्दे नदति इति 'अच्' ।५।११४९। इत्यचि गौरादित्वात् डांच नदी, नधा इन्द्रः नदीन्द्रः । स्याद्वादादिति सर्वत्र स्याद्वादाश्रयणे प्रसक्तेऽपि क्वचिदेव तदाश्रयो Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९) न तु सर्वत्रेति ख्यापनार्थः 'सर्व वाक्यं सावधारणम्' इति न्यायः । एतेन न्यायेनैवस्याप्रयोगेऽपि 'समानानाम् ०' | १|२|| इत्यत्र दीर्घः स्यादेवेति वाक्यस्यावधारणाद्दण्डाग्रमित्यत्र दीर्घोऽभूदेव । नन्ववर्णात्परे णावर्णेतर समानेन देवेन्द्र' इत्यादावपि दीर्घो भविष्यतीति नाशङ्कनीयम् 'येन नाप्राप्ते० ' इति न्यायात् 'अवर्णस्ये० ' |१| २|६ इति सूत्रेण 'समानानाम् ० ' | १||१| इत्यस्य बाधात् । एवमिर्णादेः परेण इवर्णेतरसमानेन 'दध्यत्र' इत्यादौ दीर्घो भविष्यतीति न च वाच्यम् । नद्येषा इत्यादौ 'इवर्णादे: ' | १|२|१| इत्यस्य सावकाशत्व देवं दण्डाग्रमित्यादी 'समानानां०' | १|२| १ | इत्यस्य सावकाशाद् 'दध्यत्र' इन्यादौ द्वय: स्पर्धासत्त्वात् 'स्पर्द्ध' | ७|४|११९ । इति परिभाषया परत्वात् 'इवर्णादे: ० ' | १|२|२१| इत्येव प्रवर्तते ॥१॥ 'ऋलृति हस्वो वा' १ ।। २ । २ । ल ऋति लृति च परे समानानां ह्रस्वो वा स्यात् । बाल ऋश्यः, ऋषभः, होतृ लृकारः । पक्षे बालः ॥ २ ॥ 1 ऋश्च. लुच्च ऋलृत् तस्मिन् समानानामित्यनुवर्तते । 'ह्रस्वोऽपदे वा' | १|२|२२| इत्येव सिद्धाववर्णाथ पदार्थं च वचनम् । वल प्राणनधान्यावरोधयोः बलति प्राणिति मातुस्स्तन्येनेति बाल: 'वा ज्वलादिः ० ' | ५|१६२ | इति णः । ऋश्यो हरिण : बालश्चासौ ऋश्यश्च बाल ऋश्यः हरवकरणसामर्थ्यात् कार्यान्तर न भवति । अत एव ह्रस्वस्यापि ह्रस्वः क्रियते । 'पर्जन्यवल्लक्षण प्रवृत्ति:' इति न्यायात् । पक्षे 'अवर्णस्ये० ' | १ | २|६| इत्यर्, ल ऋषभः ऌ ऋषभः । लृशब्दाङ्कित ऋषभ इत्यर्थ । होतुः लकारः होतृ लकार: अत्र लेख्यलेखकभावसम्बन्धे उच्चार्योच्चारक भावसम्बन्धे वा 'शेषे' | २|२|८११ इति षष्ठी । बाल इत्यत्र जलतुम्बिकान्यायेन रेफस्य उर्ध्वं गमनम् । अत्र कग्रहणं 'सर्वं वाक्यं सावधारणम्' इति न्यायं सूचयति अन्यथा तु 'सिद्धि:. स्याद्वादाद्' इत्यनेनेव सिध्येत अत्रेदं विचार्यते ननु ऋलृति' | १|१|२| सूत्रस्य निष्पत्स्यमानत्वात् एतेन सूत्रेण एतत्सूत्रे कथं ह्रस्वः ? इति चेदत्रोच्यते-उदेष्यन्नपि मार्तण्डः किं तमो न नाशयति ? तथा अत्रापि उदेष्यत्यपि सूत्रे ह्रस्वः । यदि तु 'सुशिक्षितोऽपि नटः स्वस्कन्धं नारोहतीति न्यायाश्रयणे स्वस्मिन् स्वक्रियाया अभाव : अनिष्पन्नेन कार्यकरणे यदि अतिप्रसङ्गः तदा तु 'लोकान्' Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) ।१।१।३। सूत्रात् समाधेयम् । 'ऋलति' इत्यत्र तकारः उच्चारणार्थः स्वरुपपरिग्रहार्थः इति यावत् । अन्यथा ल+इ इति सन्धी सति सन्देहः स्यात् किमयं लकार: उत वा लकार इति । 'ऋकारापदिष्टं कार्य लकारस्यापि' इति न्यायस्यानित्यताख्यापनार्थमत्र लुका र ग्रहणम् ॥२॥ - 'लतः रल ऋलभ्यां वा' । १।२।३। लत ता लता च सह यथासंख्यं र ल इत्येतो वा स्याताम् । ऋता रकारः, पक्षे ल ऋकारः ऋ कारः । लता लकारः, पक्षे ललकारः, ल कारः ॥ ३॥ लतः षष्ठी, रश्च लश्च रल सौत्रत्वाद्विभक्तेलृप । ऋ च ल च ऋलुनी ताभ्याम् वा । ल+ऋकार: अत्र,ल इत्येतस्य ऋता सह रकार: पक्षे ह्रस्वत्वेन लकार: । 'ऋ स्तयो:' ।१।२।५। इत्युत्तरेण च ऋ कारः । लता, ल लकार, लकार:, पक्षे प्राग्वत् । र ल इति स्वरसमुदायः स्वरव्यञ्जनसमुदाये वर्णान्तरं वा । अत्रायं विचार: ‘सौ नवेतौ' ।१।२।३८। इत्यत्र वाग्रहणेन भगवानाचार्यो ज्ञापयति, यत्र नवाशब्दोपादानं तत्रानुवृत्तिः, यत्र वा शब्दोपादानं तत्र नानुवर्ततेऽनो वाशब्दोपादानम् । बहवचनस्थले ग्रन्थकृत किमपि फलं दर्शयति द्विवचनस्थले तु पृथक्पृथमवयवभेदविवक्षव, अन्यत्फल । तु नव दृष्टिपथमायाति ॥३॥ ऋतो वा तौ च । १।२।४। ऋत अलभ्यां यथासंख्यं र ल इत्येतो वा स्याताम् । तौ व ऋकारलकारौ अलभ्यां सह वा स्याताम् ऋता पित-रषभः, पाले पितृ षभः पितृ षभः । लता-होल्लू कारः, पक्षे होतृलकारः, होत - कारः । तौ च पितृषभः, होत्लुकारः, पक्षे पूर्ववत् ॥ ४ ॥ ... . .ऋत: षष्ठी, वा, तौ प्रथमा च । ऋलभ्यामित्यनुवर्तते । तच्छब्देन Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) ऋकारल कारयोः परामर्शः । पितुः ऋषभः अनेन विजातीय र इत्यादेशे पितृ.षभः, पितृषभः, पक्षे पितृ ऋषभः । 'समानानां०' ।१।२।१॥ इति दीर्घ, पितृ षभः । होतुः ल कारः, होत् लकार:, पक्षे । पूर्ववदिति, ह्रस्वत्वं दीर्घत्वं च ॥४॥ ऋ स्तयोः । १।।२।५। तयोः पूर्वस्थानिनोल कार ऋ- कारयोर्यथासंख्यम् ऋल भ्यांसह 'ऋ'. इति दीर्घः स्यात् । ऋषभः, होत कारः ॥ ५ ॥ ऋ: प्रथमा, तयोः षष्ठी। ऋलभ्यामित्यनुवर्तते । अनेन लुकारऋकारयोः, ऋकारलकारयोश्च ऋकारो भवति यथा ल+ऋषभः=ऋषभः, पूर्वोक्तविजातीयादेशह्रस्वत्वयोरभाबपक्षेऽनेन द्विमात्रिक ऋकारः । ल इति कस्यचिन्नाम । होतुल कारः होत कारः पूर्वोक्तविजातीयादेशे होत्ल कारः ह्रस्वत्वाभावपक्षे चानेन द्विमात्रिक ऋकारः । अब षष्ठीसमासः होतृसम्बन्धी, होत्रा लिखित: उच्चारितः लकार इति बार्थः । . अत्रेदम् ननु 'ऋकारापदिष्टं कार्य लकारस्यापि' इति न्यायात् ऋकारलकारयोः सजातीयत्वेन 'समानानां तेन दीर्घः' ।१।२।१॥ इत्यनेनैव ऋता लतः, लता च ऋत:, ऋकारो दीर्घः स्यादितीदं सूत्रं व्यर्थमिति चेन्न क्ल ऋषभं इत्यादौ द्वयोः स्थानित्ववदत्रापि ऋकार मेव स्थानिनमादाय ऋ कार; प्रत्यासत्त्या स्यात् एव । एवमेव लकारस्थानिनमादाय ल कार इति दोधः स्यात् तन्निराकरणायैतत्सूत्रमावश्यकम् अथवै सन्न्यायस्यानित्यत्वं ऋलति ।१।२।१। इत्यत्र प्रदर्शितमेवेत्येतत्सूत्रारम्भ आबश्यकः । ____ अत्र ऋ रिति वर्ण समाम्नाये पठितोऽष्टमस्थरो न तु विजातीयः । . नन्वयमागमः आदेशो वा ? नास्त्ययमागमः यत आगमा: अवयविना सह सह भावतो वर्तन्ते अर्थात स्वावयविनं दूरीकृत्य स्वस्थिति न कुर्वन्ति । आदेश: स्वावयविनं दूरीकृत्य तिष्ठति उक्तं च 'मित्रवदागमाः' 'शत्रुबदा देशा: । ल ऋषभ इत्यत्र लकारकरौि दूरीकृत्य ऋ: स्वस्थिति करोति यतोऽयमा. देशः ।।५।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवर्णस्येवर्णा दिनैदोदरल् । १।२।६। अवर्णस्य इउल वर्णैः सह यथासंख्यम् एत् ओत् अर् अल इत्येते स्युः । देवेन्द्रः, तवेहा, मालेयम्, सेक्षते, तवोदकम्, तवोढा, तषिः, तवर्कारः, महषिः, सर्कारः, तवल्कारः, सल्कारेण ॥६॥ ___ अश्चासी वर्णश्चा वर्णस्तस्य, इवर्ण आदि-र्यस्य स इवर्णादि: तेन, एच्च ओच्च अर् च अल च एदोदरल 'सर्वोऽपि द्वन्द्वो विभाषया एकवद्भवति' । 'सम्बन्धविशेषेऽनिर्धारिता षष्ठी स्थानेयोगा भवति' इत्यनेनेवर्णादिना सहितस्यावर्णस्य स्थाने एकारादयो भवन्तीति सूत्रार्थः । 'यथासंङ्खयमनुदेश: समानाम्' इति न्यायात् समसम्बन्धी विधिः यथासङ्घयमिति । दीवूच् क्रीडादौ दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवा:, इदु परमेश्वर्ये इ.दतीति इन्द्रः देवानामिन्द्रः देवेन्द्रः ।, अत्र 'वर्णग्रहणे जातिग्रहणम्' इति न्यायेनावणेवर्णादिपदेन अत्वेत्वादिजात्यवच्छिन्नानां यथायोगमष्टादशभेदानां ग्रहणमित्याशयेनोदाहृतं तवेहा. मालेयमित्यादि । युष्मच्छन्दस्य 'तव मम ङसा' ।२।१।१५। इति तवादेशः, ईहि चेष्टायाम- ईहनमीहा क्तेटो गुरोर्व्यजनाद ५।३।१०६। इत्य:, आप च । मांक माने मान्ति पुष्पाण्यस्यामिति शा-मा-श्या०' उणा० ४६२ इति ले माला यद्वा मल्लि धारणे मल्ल्यते धार्यते इति कर्मणि त्रि माला। इदमिति प्रत्यक्षनिर्देशे। सा, ईक्षि दर्शने वर्तमानाते । तव उदकम् । तव, वहीं प्रापणे उह्यते परिणीयते स्म इति ऊढा कलत्रम , अत्र 'तत्साप्या०' ।३।३।२१॥ सूत्रात्कर्मणि 'क्तक्तवतू' ।५।१।१७४१ सूत्रात् क्ते 'यजा-दि०' ।४।१७९। सूत्राद् य्वृति 'हो धुट' ।२।१२८२। सूत्रात् ढकारे 'अधश्चतुर्थातथोर्धः' ।२।१।७९। सूत्रात् प्रत्ययस्य धत्वे 'तवर्गस्य० ॥१॥३॥६०। सूत्रात् ढकारे 'ढस्तड्डे ।१।३।४२। सूत्रात्पूर्वढकारलोपे दीर्घत्वे च 'आत्' ।२।४।१८। सूत्रादाप । तव+ऋषिः, ऋषत् गतौ 'गत्यर्था ज्ञानार्थाः इति न्यायात् ऋषति जानाति तत्त्वमिति ऋषिः । ह्रस्वविकल्पपक्षेऽनेनार्। तव+ऋकारः । महत् पूजायाम् 'द्रु हि-वृहि-महि उणा० ८८४ इति किदतृप्रत्यये 'ऋदुदितः ।१।४।७०। सूत्रात् नागमे 'पदस्थ ।।११।८९। सूत्रात्संयोगान्तलुकि 'नि दीर्घः' ।१।४।८५। सूत्रात् दीर्वं च महां चासौ ऋषिश्च महर्षिः 'सन्महत्० ॥३।१।१०९। सूत्रा. कर्मधारयः । सा+ऋकारः । 'हीदहस्वरस्यानु नवः ।१।६।३१। इति ककार: द्विर्वा भवति । तव+लकारः । सा प्रस्तुता वर्णयङिक्त लकारेण सहितेत्यर्थः। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्चासौ वर्णश्वावर्णः अत्र कर्मधारयः कर्मधारयेन विशेष्ये संकोचो जायते यथा नीलोत्पलमान येन्यत्र नीलत्वेन संकोच्यमानः उत्पलोऽर्थः नीलकमल-मात्रे एव तिष्ठति न तूत्पलत्वेन पीतशुक्लाद्य त्वलेष्वपि, तथावदत्रापि वर्णत्वेन वर्णोऽर्थः इवर्णादिषु वर्तमानेपि अत्वेन संकोच्यमानः वर्णोऽर्थः अत्त्वावच्छिन्न एव तिष्ठति न त्वत्वावच्छिन्नभिन्ने । ननु जलाहरणसाधनो घट, इत्यादिषु घटप देन घटत्वाबाच्छिन्नस्य यथा बोधो भवति तथावदत्रापि वर्णपदानुपादानेपि अष्टादशाकाराणां ग्रहणे सिद्ध सति वर्ण ग्रहणमनर्थकमिति चेन्न वर्णग्रहणं व्यर्थ सज्ञापयति यद् वर्णग्रहणाभावस्थलेष्टादशप्रकाराणां ग्रहणं न कर्त्तव्यम् परन्तु केवलमकारादौनामेव ग्रहणं कर्तव्यम् ॥६॥ ऋणे प्रदशावसनकम्बलक्त्सरवत्सतरस्यार ।१।२। । प्रादीनामवर्णस्य ऋणे परे ऋता सह आर् स्यात् । प्राणम्, दशार्णम्, ऋणार्णम्, वसनार्ण, कम्बलार्ण, वत्सरार्णम्, वत्सतरार्णम् ॥७॥ . प्रश्च दश च 'प्रकृतिवदनुकरणम्'. एत न्यायस्यानित्यत्वाश्रयणे दशाच 'दशशब्दम्यानुकरमे दशश्च ऋणञ्च वसनञ्च कम्बलव वत्सरश्च वत्सतरश्चेति समाहारद्वन्द्वस्तस्याषयधावयविभावसम्बन्धे षष्ठी आर् । प्रकृष्टम् ऋगम्, प्रगतमृणं वा प्रार्णम् 'प्रात्यव०।३।११४७. सूत्रात्समासः, ऋणं देयमित्यथः', दशानामृणम् दशार्णम् । ऋणस्यावयवतया तस्सम्बन्धि ऋणम् ऋणार्णम् । केचित्तु 'अपनयनाय इत्याध्याहार्य ऋणस्यापनयनाय यदन्यदृणं क्रियते तहणार्णमिति वदन्ति । वस्यतेऽनेनेति करणेऽनटि वसनम् वस्त्रमित्यर्थः । वसनस्य कम्बलस्य वत्स रस्य वत्सतरस्य वा ऋणम् । कम्बल: ऊर्णापट:, वत्सर: संवत्सर इत्यर्थः । वत्सतर दम्य इति पर्याय: । समानानामिति बहुवचनस्य व्याप्त्यर्थत्वेनेहोत्तरत्र पूर्वत्र च हस्वोपि भवति । तेण प्र ऋणम्, दश ऋणम्, इत्याद्यपि । पक्षे अर् प्राप्तावनेनाऽऽर् । अर एवायं बाधकः 'येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्यैव बाधक इति न्या. यात् । पूर्वसूत्रादवर्णम्येत्यनुवृत्तम् नन्वत्र 'अवर्णस्य' इत्यनुवृत्ति विनापि Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) ‘षष्ठ्याऽन्त्यस्य' ।७।४।१०६ । इति सेत्स्व नीति चैन्मंत्रम् 'अनेकवर्णः सर्वस्य '' |७|४|१०७ । इति सर्वादेशबाघनार्थत्वात् । अत्रेदं विचर्यते ऋणशब्दाव्यव हित पूर्वत्वविशिष्टप्रादीनामवर्णत्वं प्रकृतसूत्रस्योद्देश्यतावच्छेदकमिवर्णाद्यव्यवहितपूर्व स्वविशिष्टा वर्णत्वरुपोद्देश्यतावच्छेदकस्य व्याप्यम् । इवर्णाद्यव्यवहित पूर्वत्व विशिष्टावर्णत्व 'अवर्णस्य ० ' | १२|६| इति सूत्रीय दृश्यतावच्छेदकम् 'ऋ' ० | १ | २|७| सूत्रस्य ऋणशब्दाव्यवहितपूर्वत्वविशिष्टादीनामवर्णत्वरूपोद्देश्यतावच्छेदकस्य व्यापकम् अतः व्याप्योद्देश्यतावच्छेदकशास्त्रेण व्याप कोद्देश्यतावच्छेदकस्य 'अवर्णस्य ' ० | १२|६| इत्यस्य वाधोजायतेऽतः प्रार्णमित्यादिषु आरेव भवति ॥ ७॥ - ऋते तृतीयासमासे । १।२।८। अवर्णस्य ऋते परे तृतीयासमासे ऋता. सह आर् स्यात् । शीतार्तः । तृतीयासमास इति किम् ? परमर्तः । समास इति किम् ? दुःखेनर्तः ॥ ८ ॥ समसनं समासः तृतीयया समास:,. तस्मिन । धाराप्रवाहन्यायेनावर्णस्येत्यनुवर्तते आरिति चानुवर्तते । अनुवर्तनं नाम पूर्वतः परस्रिन् सम्बन्धः । शीतेन ऋतः शीतार्तः शीतेन व्याप्तः पुरुषादिरित्यर्थः । शीत ऋत इति ह्रस्वोऽपि । परमश्चासौ ऋतश्च परमर्तः अत्र तृतीयासमासाभावादवर्णस्येत्यनेनारेव भवति । दुःखेनर्त इत्यत्र तु समास एव न, अतो नार् किन्तु अरेव । अत एवायमपवादः ॥ ८॥ ऋत्यारुपसर्गस्य । १ ।२।९। उपसगंस्थस्यावर्णस्य ऋकारादो धातो परे ऋता सह आर् स्यात् । प्राच्छंति, पराच्छंति ॥ ९ ॥ ऋति सप्तमी आर् उपसृजति धात्वर्थविशेषम् उपसर्जनमिति वोपसर्गस्तस्य । अवर्णस्येत्यनुवर्तते, एवमग्रेऽपि । यथा पीनोऽयं देवदत्तः Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) ८ दिवा न भुङ्को अत्र पीनत्वं भोजनं विनाऽनुपपन्नं दिवाभोजनबाधाच्च रात्रिभोजनमाक्षिप्यते तथाऽत्रापि क्रियायोग एवं सर्गत्वादुपसर्गग्रहणबलेन धातोराक्षेपाद् सप्तम्या ' ० | ७|४|११४ इति परिभाषाबलाच्चाह ऋकारादी भ्राताविति । प्र ऋच्छति ऋद्ध गो अग्र गच्छतीत्यर्थः परोपसर्गस्त्वनभिमुख्यार्थद्योतकः पराच्छति अनभि रूयं गच्छतीत्यर्थः । येन धातुना युक्ताः प्रादयस्तं प्रत्येवोपमर्ग सञ्ज्ञा' तेन प्रगता ऋच्छका यस्मात्स प्रच्छेको देश इत्यत्रारादेशो न भवति अत्र गत इत्यनेन प्रस्य सम्बन्धः न तु ऋच्छधातुना । अस्यार्थस्य ज्ञापकस्तु एतादृशो निर्देश एव । अन्यथा उपसर्गस्येति त्यक्त्वा ॠत्यार्, प्रादेरित्येव सूत्यताम् । आरिति वर्तमाने पुनराग्र हणमारेव स्यादित्येवमर्थम् तेनोहेत्तरत्र च सूत्रयोर्हस्वो बाध्यते । सर्वापवादोयम् । ननु प्राच्छतीत्यादाव कार्र कारोभयस्थान निष्पन्नत्वात् 'उभयस्थान निष्पन्नोऽन्यतरव्यपदेशभाक्' इति न्यायात् अकारादेशभजनेकारस्य पदान्तत्वादारादेशस्यापि पदान्तत्वात् नद्घटकस्य रस्य 'र: पदान्ते ० | १|३|५३ | इति विसर्गः प्राप्नोतीति चेत्सत्यम 'असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग' इति न्यायेनावर्णान्तोपसर्गं कीरादिभ्रात्वादि बहुनिमित्तकत्वेन बहिरङ्ग कार्यमिति अल्पनिमित्तत्वादन्तरङ्ग विसर्गे कर्तव्येऽसिद्धत्वाद्विसर्गो न भवति ॥९॥ नाम्नि वा । १२ । १० । उपसर्गस्यस्यावर्णस्य ऋॠकारादौ नामावयवे धातौ परे ऋता सह आर् वा स्यात् । प्रार्षभीयति, प्रर्षभीयति ॥ १० ॥ नाम्नि वा - पूर्वसूत्रं सम्बध्यते । ऋकारादिधातोर्नाम्ना सह समानाधिकरण्येन विशेषणसम्भवादवयवद्वारेणाह ऋकारादी नामक्यवे धातो परे इति । ऋषभमिच्छति ऋषभीयति 'अमाव्ययात्' | ३|४| २३ | क्यनि | ४ | ३ | ११२ ॥ इति । प्र + ऋषभीयति, अनेनाऽऽर्, पक्षे 'अवर्णस्ये० ' | १|२|६| इति अर् | ह्रस्वमपि केचिदिन्छन्ति तन्मते प्र ऋषभोयति । नन्वत्र पूर्वसूत्रे आदित्यनुवर्तमानेऽप आर्ग्रहणेन ह्रस्वबाधा, परन्त्वत्र हस्वकरणे का बाघेति चेत्'नहि गोधा सर्पन्ती सर्पणादहिर्भवति' इति पूर्वसूत्रादेवानुवृत्त आरादेश आत्मीयं बाधसामर्थ्यं कुत्र न्यस्य ह्रस्वत्वं न बाघेत अर्थादवश्यमेव बाधेतेत्यर्थः ॥ १० ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) लृत्याल वा । १।२।११। उपसर्गस्यावर्णस्य लुकारादौ नामावयवे धातो परे कृता सह आल वा स्यात् । उपाल्कारयति, उपत्कारीयति ॥ ११ ॥ लृ ति सप्तमी, आलू वा । उपसर्गस्य नाम्नि इति पदद्वयमनुवर्तते । लृकार मिच्छति लृकारीयति, उप ऌकारीयति उपात्कारीयति । पक्षेल केषाञ्चिन्मते ह्रस्वश्च । अलोऽपवादोऽयम् । 'दूरादा० १७|४| ९९ | सूत्रात् ज्ञापितात् 'ऋकारापदिष्टं कार्यं लृकारस्यापि ' इति न्यायात्पूर्वसूत्रेणैव सिद्धऽप्य। देशबाधनार्थम् । ऐदौत्सन्ध्यक्षरैः । १ । २ । १२ । अवर्णस्य सन्ध्यक्षरः परः सह ऐ औ इत्येतौ स्थाताम् । तवेषा, खट्वेषा, तवेन्द्री, सैन्द्री, तवौदनः, तवौपगवः ॥ १२ ॥ ऐच्च औच्च ऐदौत् सन्धिना कृतान्यक्षराणि सन्ध्यक्षराणि तैः सन्ध्यक्षरैः । अ इ इत्यनयोर्मेलनेन ए ऐ इतीमा अ इ इत्यनयोर्मेलनेन ओ ओ saint निष्पद्यन्ते । ऐ इत्यस्य अ इ वर्णाभ्यां निष्पत्तावपि अर्धमात्रेणावर्णेन अध्यर्धमात्रेण इवर्णेन च निष्पत्तिस्वीकार: औ इत्यस्य च अध्यर्धमात्रेणावर्णेनाध्यर्द्ध मात्रणावर्णेन विलक्षणीभूतेन निष्पत्तिस्वीकारः अन्यथा समानावयवमिष्पन्नत्वेन 'ए ऐ' अत्र ओ ओ अत्र च वैलक्षण्यं न स्यात् अथवा सन्धेरक्षराणि सन्ध्यक्षराणि सम्पाद्यसम्पादकभावसम्बन्धे षष्ठी । तव एषा‘ॠत्यारुपसर्गस्य' ।१|२|९| सूत्रेण उपसर्गस्येति नानुवर्तते 'अपेक्षातोऽधिकार इति न्यायात् सन्ध्यक्षरैरित्येत्वनिर्देशाच्च । गुणापवादोऽयम् । अत्रावर्णस्य सन्ध्यक्षरैः परैः सह 'आसन्न' | ७|४|१२० | इति परिभाषयाऽऽसन्नविधिरेव कर्तव्या । आसन्नत्वं सादृश्यं च स्थानकृतं ए ऐ इत्यनयो: तालुस्थानजन्यस्वम्, ओ ओ इत्यनयोश्च स्थानजन्यत्वम् । नात्र यथासङ्ख्यपरिभाषया निर्वाह: स्थानिभूतसन्ध्यक्षराणां चतुःसंख्याकत्वात् आदेशद्वित्वेन समत्वाभावात् । खट्वा एषा = खट्वैषा । इन्द्रो देवताऽस्याः सा ऐन्द्री 'देवता' | ६ २ १०२ । इत्यण् 'वृद्धिः स्वरेष्वादे० ' | ७|४|१| 'अणञेये ० | २|४| २० | अस्य Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) ङयां लुक्' | २|४| ६ | सूत्रादलोषः । तव + ओदनः, भक्तम् । उप समीपे गावो यस्य स उपगुः, 'गोश्चान्ते० ' |२| ४ | ९६ | सूत्रा ब:, 'ङसोऽपत्ये' |६|१|२८| इणि वृद्धि:, 'अस्वयम्भुवोऽव्' | ७|४|७० ।। १२ ।। ऊटा । १।२ । १३ । अवर्णस्य परेण ऊटा सह औः स्यात् । धौतः, धौतवान् ॥ १३ ॥ || ऊटा तृतीया ॥ एदोतोरित्यनुवृत्तावपि 'आसन्नः | ७|४|१२० सूत्रकार एव भवत्यत आह औरिति । 'अवणस्ये० | १ | २|६| इति गुणापवादोऽयम् । धावृग् गतिशुद्धयोः, धाव्यते स्म धौत: शोधित इत्यर्थः । |५|१|२१| 'तत्साप्या० |३|३|२१| धावति स्म धौतवान् 'क्तक्तवतू' |५|१|१७४| 'कर्तरि' | ५|१|३| इति सूत्रात् कर्तरि क्तवतु 'अनुनासिके ० | ४|१|१०८ | 'अभ्वादेरत्वसः । १।४।९० । सूत्रात् दीर्घः, ऋदुदितः | १|४/७० | सूत्रात् नागमः 'दीर्घङ ्याब्० ।१।४।४५। सूत्रात्सिलोपः 'पदस्य' । २।१।८९। सूत्रात्तलोपः ||१३|| प्रस्येषैष्योढोढ्यूहे . स्वरेण । १।२।१४ । प्रावर्णस्य एषादिषु परेषु परेण स्वरेण सह ऐ औ स्याताम् । प्रेषः, प्रष्यः, प्रौढ, प्रौढिः, प्रोहः ॥ १४ ॥ ॥ प्रस्य षष्ठी ॥ एषश्च एष्यश्च ऊढश्च ऊढिश्च ऊहश्चेति समाहार द्वन्द्व : तरिमन् स्वरेण । प्रस्येत्यत्रावयवावयविभावसम्बन्धे षष्ठी, प्रावर्णस्येति प्रशब्दावयवस्यावर्णस्येत्यर्थः । औपश्लेषिकाधिकरणे सप्तमी अत आहएषादिषु परेष्विति ऐदीदित्यनुवर्तते । प्र इषत् इच्छायाम् एषणमेष:, प्र एषः, प्रेषः, प्रेषणं प्रेषः 'भावाकर्त्रीः | ५|२|१८ | घञ् 'घञोरुपान्त्यस्य' |४|३|४| सूत्रादुपान्त्यगुणः सत्कारपूर्विका प्रेरणेत्यर्थः । एष्यते इति एष्यः ॠवर्ण ०' |५|१| १७| सूत्राद्यण् प्रकर्षेण नियोक्तुं शक्य इत्यर्थः । प्र वहति स्म प्रौढः, क्तः 'यजादिवचेः किति | ४|१|७९ । 'हो घुट्पदान्ते' | २११८२॥ अधश्चतुर्थात्त० |२|१|७९। तकारस्य धकार: । ' तवर्गस्य० | १|३|६०| सूत्रात् ढकारः, 'ढस्तङ्के' । १।३।४३। पूर्वढकारलोपः दीर्घश्च प्रकर्षेण ऊढ: प्रौढ, प्रतिभान्वितः, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) प्रवृद्धो वा । प्रवहणं प्रौढि: 'स्त्रियां क्तिः' ।।३।९१॥ उत्साह इत्यर्थः । ऊहि वितर्के, पोहणं प्रौहः. पत्र, प्रकृष्ट: तर्क इत्यर्थः । ऊहे नेच्छन्त्येके तन्मते प्रोहः । अत्र एष-एष्य-ऊढादय: 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' इति न्यायात् सार्थका ग्राह्या:, तेन प्रेषते प्रेष्यते प्रोढवानित्यादयो न गृह्यन्ते । ऊढिरपि ऊढसाहचर्यात्स्याद्यन्त एव ग्राह्यः न तु ण्यन्तस्तेन प्रोढयतीत्यत्र न औत् । 'येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्य बाधको भवती' ति न्यायेन 'उपसर्गस्यानिणेधेदोति' ।।२।१९। इत्यस्य बाध:, न तु 'ओमाङि।१।२।१८। इत्यस्य तेन आ+इष्य: एध्य, प्र+एष्य: प्रेष्यः इत्यत्राङादेशत्वे ऐदादेशो न भवति । एतेषाम् उभयस्थाननिष्पन्नेन 'उभयस्थाननिष्पन्नोऽन्यतरव्यपदेश भाक इति न्यायेन यदाऽऽङादेशत्वम्, तदा 'ओमाडि' १२।१८। इत्यलुकि प्रेष्य इति भवति यदा धात्वादेशत्वं तदा 'उपसर्गस्या०' ।२।१९। इति बाधित्वा विशेषविहितत्वादनेन सूत्रेण ऐत्वे कृते प्रेष्य इति भवति । नन्वेषादिषु परेषु 'उपसर्गस्या०' ।१।२।१९। सूत्रप्रवृत्तर्न सम्भवति तेषां धातुत्वाभावादितिघेन्मेवं 'क्विबन्ता: धातुत्वं नोज्झन्ती' ति न्यायात क्विन्तवद् घञ्-ध्यणन्तानामपि धातुत्वात् ॥१४॥ स्वैरस्वैर्यक्षौहिण्याम् । १।२।१५। स्वरादिष्ववर्णस्य परेण स्वरेण सह ऐ औ स्याताम् । स्बरः, स्वरी, अक्षौहिणी सेना ॥ १५॥ . __ स्वरश्च स्वैरी च अक्षौहिणी तस्याम् । इतरेतरयोगः, सौत्रत्वादेकवचनम् अथवा समाहारे सौत्रत्वात् नपुसकत्वाभावः 'स्व' आत्मा-रमीयशातिधनार्थकः, ईरिक गतिकम्पनयो: 'भावाकों: ।।३।१८। सूत्रात् पञ् यद्वा ईरण क्षेपे धातोः धनि ईरः, स्वस्य ईर: स्वर: । स्वयमीरति ईतषा स्वरः 'नाम्युपान्त्यः' ।।१।५४। सूत्रात्कप्रत्ययः । स्वयमीरितुं शीलमस्येति स्वरी स्वच्छन्दचारीत्यर्थ: 'अजातेः शोले' ।।११५४। स्वरशब्दान्मत्वर्थीयेनैव इना सिद्ध स्वैरिन्ग्रहणं ताच्छीलिकेऽ पि स्वैरिन्शब्दे ऐत्वार्थम् । स्वरीति नामग्रहणात् 'नाम ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इति न्यायेन नाममात्र. निर्देश स्त्रीत्वादिलिङ्गविशिष्टमपि नाम ग्राह्यमित्यर्थकेन स्वैरिणीत्यपि । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) म्वच्छन्दचारिणी स्त्री पुश्चलीत्यर्थः । अक्षाणामिन्द्रियाणां रथानां वा ऊहः समूहो रचनाऽस्त्यस्यां सा अक्षौहिणी 'अतोऽनेकस्वरात् ।७।२।६। इतीन, स्त्रियां हो, परिमाणविशेषविशिष्टा सेनेत्यर्थः, 'पूर्वपदस्या० २।३६४॥ इति ण: । ऊहशब्दात्पूर्वमिन्प्रत्ययः पश्चादक्षशब्देन समासः, अक्षशब्दस्य ऊहशब्देन समास कृत्वा इन्प्रत्यये अक्षोहिणीत्येव सिध्यति, न त्वौत् । अक्षौहिणीसेनायां गजा:, २१८७० रथा: २१८७० रथाश्वजिता अश्वाः ६५६१० पत्तयः १०९३५० सर्वे २१८७०० भवन्ति यदाहु: स्यात्सेनाक्षौहिणी नाम खाऽगाष्टकद्विकर्गः । . रथैश्चभ्यो हयैस्त्रिध्न: पञ्चध्नैश्च पदातिभिः । केचित्तु स्वरस्वैर्यक्षौहिण्यामित्यत्र तदभिन्नाभिन्न तदभिन्नमिति न्यायेन कर्मधारयसमासं कुर्वन्ति तेषामभिप्रायस्त्वित्थं 'सममात्रौषधनिष्पन्नश्चूर्णो यथा सम इति व्यपदिश्यते तथावदत्रापि स्वैरावयवत्वात् स्वैरस्वैर्यक्षौहिण्यात्मकसमुदायोपि स्वरः एवं स्वैर्यवयवत्वात् अक्षौहिण्यवयवत्वाच्च, व्यपदेशे सति स्वैराभिन्न एतत्समुदाय:, एतत्समुदायाभिन्नः स्वैरिशब्दः, अतः तदभिन्नाभिन्नं तदभिन्न मिति न्यायेन स्व राभिन्नः स्वैरिशब्दः एवं स्वर्यभिन्न अक्षौहिणीशब्दः । एतत्समासे प्रमाणं तु ईषदर्थे क्रियायोगे, मर्यादाभिविधौ चयः एतमातं हितं विद्याद् वाक्यस्मरणयोरङित् ।। इत्यत्र मर्यादाभिविधौ इति निर्देशः तदभिन्नाभिन्नं तदभिन्नमिति भ्यायेन । मर्यादाभिविधावित्यत्र मर्यादावयवत्वात् समुदाये मर्यादात्वम्, अभिविध्यवयवत्वादभिविधित्वम् इति युक्त्या कर्मधारयः । मर्यादायाम! - भिविधौ चार्थे य: 'आ' एतं हितं विद्यात् इत्यर्थः इतरेतरद्वन्द्वकरणे द्विवचनस्य समाहारद्वन्द्वकरणे तु नपुंसकत्वापत्तेः । अन्ये तु मर्यादासहितोऽभिविधिरिति मध्यमपदलोपिसमासमिच्छन्ति तन्मतेऽत्रापि स्वरसहितः स्वैरी स्वैरीस्वरी तत्सहिता अक्षौहिणीति मध्यमपदलोपिसमासः ।।१५।। अनियोगे लगेवे । १।२।१६ । अनियोगोऽनवधारणं तद्विषये एवे परेऽवर्णस्य लुक् स्यात् । इहेब Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) तिष्ठ, अद्य व गच्छ । नियोगे तु, इहव तिष्ठ मा गाः ॥ १६ ॥ . नि, यूज पी योगः, नियोजनं नियोगः; घन नियोगः निश्चयोऽ. धारणमिति पर्यायः न नियोगोऽनियोगस्तस्मिन् अनिश्चय इत्यर्थः लुग्. एवे सप्तमी । एवेत्य-स्वाव्ययत्वेऽपि अनुकरणेनानुकार्येणार्थेन भेदविवक्षया च नामत्वात् स्यादिः । इहेव तिष्ठेति । ष्ठां गतिनिवृत्तौ, पञ्चमी हि, इहैव तिष्ठ, अन्यत्र वा गच्छ कामचार: स्वेच्छावृत्तिः, यथेच्छम् कुरु इत्यनवधारणमत्र प्रतीयते । इहैव तिष्ठेत्युतौ त्वन्यत्र मा गाः इत्यवस्थानस्य निर्धारणं प्रतीयते । अत्रैतद्देशस्थितिप्रकारकं युष्मदर्थमिशेष्यकमवधारणं प्रतीयते । अस्मिन्नहनि अद्य एव। गम्, पञ्चमी हि, मा पूर्वम् इणक् गतो 'माङद्यतनौ' ।५।४।३९। 'इणिकोई।४।४।२३। 'पिबति ।४।४।६६। अद्य वाऽपरेधुर्वा गच्छ · नात्र मामकं किमपि नियन्त्रणमिति वक्तुरभिप्रायप्रतीतिः ।।१६।।... वौष्ठगतौ समासे । १।२।१७।। ओष्ठौत्वोः परयोः समासेऽवर्णस्य लुग्वा स्यात् । निम्बोष्ठी, बिम्बौष्ठी, स्थूलोतुः, स्थूलौतुः । समास इति किम् ? हे पुत्रौष्ठं पश्य ॥१७॥ ... वा, ओष्ठश्च ओतुश्च ओष्ठौतुः तस्मिन् समासे 'चार्थे द्वन्द्वः०' ॥३।१।११७। इत्यनेन न्यग्भूतावयवभेदविवक्षण समाहार द्वन्द्वः पुस्त्वं तु सौत्रत्वात् नपुंसककत्वे तु 'ओष्ठौतुनि' स्यात् । लुगिति वर्तते, एवमग्रेऽपि । एकवचनादेकस्मिन्नेव समासे, न ससासान्तरे अत एव वृषलौष्ठवण: इत्यादौ नाकारलोपः अत्र ओष्ठव्रणशब्देन सहकायें सत्यपि ओष्ठशब्देन सहैकार्थ्याभावात् । नचात्र सूत्रे 'ओष्ठौतौ' इत्युत्र कथं नावर्णस्य लुगिति वाच्य मस्य लुको वैकल्पिकतया औत्वेकृते 'ओष्ठौतु' इति भवतीति । दन्त्योष्ठ्य इत्यत्र तु काकवद्देवदत्तस्य गृमिति प्राक्स्थितोष्ठघटकत्वमादायाथवा 'एकदेशविकृतमनन्यवदिति न्या यात्। बिम्ब्या: फलं बिम्बम् बिम्बमिव रक्तौ ओष्ठौ यस्याः सा बिम्बोष्ठी उष्ट्रमुखादित्वात् समासः । बिम्बी लताविशेष: 'हेमादिभ्योऽञ् ।६।।४।। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (४१) इति । स्थूलश्चासो ओतुश्च पृथुलबिडाल इत्यर्थः । हे पुत्रेति-पुत्रादयः ।४५५ उणादिसूत्रान्निपातने पुत्रः । केचित्त पुन्नाम्नो नरकाद् यस्मात्, पितरं त्रायते सुतः ।। । तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः, स्वयमेव स्वयम्भुवः ।।(मनु०अ०९-१३८) । इति व्युत्पत्तौ तु पुत् पूर्वात् वेड् पालने धातो: 'स्थापास्नात्रः कः' १५।१।१४२। सूत्रात् के पुत्रः इत्याहुः रत्रास्माकमरुचिः, अरुचिकारणं मृग्यम् । व्युत्पत्तिस्तु शब्दानामनेकधा भवति । पश्येति दृशप्रेक्षणेधातोः पञ्चमी हिः 'धौतिकृवु०' ।४।२।१०८। अत: प्रत्ययात० ।४।२।८। शूत्रात् हेर्लक् ।।१७।। ओमाडि । १।२।१८। अवर्णस्य ओमि आडादेशे च परे लुक स्यात् । अद्योम्, भोम्, आ ऊढा ओढा, अद्योढा, सोढा ॥१८॥ . ओम् च आङ् च तस्मिन् । अद्य+ओम् लिखित उच्चारित वेति कियाध्याहारेण अस्मिन् दिने ओम् शब्दो लिखित उच्चारित वेत्यर्थः । सा+ओम् सा प्रस्तुता स्त्री ओमिति स्वीकरोमीत्येवं कञ्चित्प्रति कथ्यते । अकार।ऽऽकारयोरूदाहरणद्वयम् । आ ऊढा इति प्रथम प्रसाध्य ओढेति 'गतिक्वन्य०' ३३११४२॥ इति समासः ततः अद्य ओढा, सा ओढा, इत्याङादेशस्योदाहरणद्वयम् आङ आभिमूख्यार्थे अर्हणाधर्थे वा ऊढा परिणीता। अस्मिन्दिने आभिमुख्येन सत्कारेण बा परिणीता नारीति वाक्यार्थः । एवं सा परिणीता नारीत्यर्थः । नन्वाङि परे 'समानानां.' ॥१॥२॥१॥ इति दीर्घत्वे सिद्ध लुग्विधान. मनर्थ कमिति नाशङ्कनीयं लक्ष्यानुरोधाद् आङादेशो गृह्यते । अयंभावः-धातूपसर्गयो: कार्यमन्तरङ्गमिति न्यायात् पूर्व धातोरूपसर्गेण योजनात् अद्य+ ओढा इति स्थितौ सत्याम् ऐदोत्।१।२।१२। इत्योत्वापत्तिदुरुद्धरा तन्निवा. रणार्थ लुग्विधानम् । 'उभयस्थान०' इति न्यायात् उभयस्थाननिष्पन्नेऽपि अङादेशेन व्यपदेशः । ङ कारोपादानाभावेपि 'वादिः स्वरोऽनाइ' ।२।३६ इति सन्धिप्रतिषेधात पारिशेष्यात आङ एव ग्रहणं भविष्यति, वर्णवाचक आकारस्तु 'साहचर्यात्सदृशस्यैव ग्रहणमिति न्यायादेव निवृत्तस्तथा सति 'ओमाति' इति निर्देशो निदुष्टस्तथापि सुखावबोधाय ङ कारसहितो निर्देश: ॥१८॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) उपसर्गस्यानिषेधे दोति । १ । २ । १९ । उपसर्गावर्णस्य इणेधिवर्जे एदादावोदादौ च धातौ परे लुक् स्यात् । प्रलयति, परेलयति, प्रोषति, परोषति । अनिषेधिति किम् ? उपति, 1 प्रधते ॥ १९ ॥ उपसर्गस्य इण् च एध् च इणेध्, न इणेघ् अनिर्णध्. एच्च ओच्च एदोत्, अनिषेध चासौ एदोच्च तस्मिन् । अनिणेधित्यत्र घुटम्तृतीयः | २|१|७६ । इति दत्त्वं तु संदेह भयात्सौत्रत्वान्न कुतम् । प्र, परा, इलण् प्रेरणे 'चुरादिभ्यो णिच् । ३।४।१७। णिच्, प्र एलयति, परा एलयति, अत्र वृद्धि बाधित्वाऽ नेनावर्णलोप: प्रकर्षेण प्रेरयतीत्यर्थः । पराशब्दोऽनभिमुखादौ वर्तते । प्र, परा, उषू दाहे,तिव्, शब् । उष इंण्क्, ति । एधि वृद्धौ प्र एधते, अत्र 'ऐदोद्' सन्ध्यक्षरे' |२| १|१२| सूत्राद्व द्धि: । अत्रेदम्- 'येन विना यन्न भवति तत्तेनाक्षिप्यते ' इति न्यायादुपसर्गसञ्ज्ञा धातुसम्बन्धं विनाऽसम्भवेन धातोराक्षेपः 'अर्थवश । द्विभक्तिविपरिणाम:' इति न्यायादुक्तं धाताविति । सप्तम्या आदि: |७|४|११४। सूत्रादाह एदादावित्यादि । नन्वुपसर्गस्येति कथनाभावेऽपि पर्युदासनाश्रयणे इणेधिवजितधातोरेव ग्रहणं भविष्यतीति उपसर्गग्रहणं न कर्तव्यमथवा धातुसंबन्धे उपसर्गसञ्ज्ञायाः सिद्धत्वात् प्रादेरित्येवोच्यताम् मात्रालाघवं भविष्यतीति चेन्मैवम् प्रगता एलका यस्मात्स प्रेलको देश इत्यत्रोपसर्गपदोपादानाभावे 'येन धातुना०' इति न्यायेनेल्धातुना सम्बन्धादुपसर्गसञ्ज्ञाऽभावेप्यकारस्य लुक् स्यात् तन्निवारणार्थम् ||१९|| वा नाम्नि । १ । २ । २० । नामावयवे एदादावोदादौ च धातो परे उपसर्गावर्णस्य लुग्वा स्यात् । उपेकीयति, उपेकीयति, प्रोषधीयति, प्रौषधीयति ॥ २० ॥ वा, नामन् तस्मिन् । उपसर्गस्य, अवर्णस्य, एदोति लुगिति च पदचतुष्टयमनुवर्तते । 'नाम्नि' इत्यस्य सामानाधिकरण्यासंभवादवयवद्वारेणाह नाम इति । उप एक-मिच्छति 'अमाव्यया ० ' | ३ | ४ | ३ ३ | 'क्यनि' | ४ | ३ | ११२ । . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) 'क्रिपार्थो धातुः | ३ | ३ | ३१ इति धातुसंज्ञा । उपेत्यत्रावर्णलोपे उपित्यस्य पदत्वात् 'घुटस्तु नमः | २|१|७६ | इति पस्य बत्वं प्राप्नोति तत् 'असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग' इति न्यायेन न भवति वा नाम्नि' इत्यस्य बह वपेक्षेण बहिरङ्गत्वात् । प्र ओषधिमिच्छति क्यनि प्रोषधी पति 'दीर्घ श्च्व ० ' | ४ | ३ | १०८ इति दीर्घः । पक्षे 'ऐदौत्सन्ध्यक्षरैः' ।१ २ ।१ । इति धस्य दत्वाशङ्का प्राग्वन्निरसनीया । प्रकर्षण अधिमिच्छतीत्यर्थः । न च स्याजीवावर्णविधा ७ ४ । १०९ । इति स्थानिवद्भावादेव पस्य बत्त्वाशङ्का निरस्ता किमसिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग इति न्यायाश्रय इति वाच्यम् 'न सन्धि: ० ' । ७ । ४ । १११ । इत्यनेन निषेधात् । ननु न ० | ७|४|११| सूत्रे सन्धिग्रहणेनैव स्थानिवद्भावनिषेधे सिद्धेऽपि द्विग्रहणमेतन्न्यायबाधनार्थत्वादत्रापि एतन्न्यायबाधो भविष्यतीति वाच्यं द्विग्रहणेन द्वित्वविषये एतन्न्यायबाधस्य चरितार्थत्वादत्रैतन्न्यायस्य बाधकरणे द्विग्रहणस्यासामर्थ्यादेतन्न्याय त्रवृत्तिः ||२०|| 'इवर्णादिरस्ते स्वरे यवरलम् । १ । २ । २१ । इ उ ऋ लृ वर्णानामस्वे स्वरे परे यथासंख्यं य व र ल इत्येते स्युः । दध्यत्र, नद्योषा, मध्वत्र, वध्वासनं, पित्रर्थः, क्रादिः, लित्, लाकृतिः ॥ २१ ॥ इवर्ण आदिर्यस्य स इवर्णादिः, तरय इ उ ऋ लृ बहुत्वेऽपि जातिविवक्षया इवर्णादेरिति एकवचनेन निर्देश: । न स्व: अस्वः तस्मिन्, स्वरे यश्च वश्च रश्च लश्च यवरलम् । इवर्णादेरित्युक्तत्वाद- वर्णस्येति निवृत्तम् | अस्वे स्वरे इत्यसमस्ताभिधानमुत्तरसूत्रेषु केवल स्वर इत्यस्यैवानुवृत्त्यर्थमन्यथा सन्नियोगशिष्टानां सह प्रवृत्तिः स्यात् । 'अस्वस्वरे' इत्यनुवृत्त्या तु' रायैन्द्रीत्यत्र आयादेशो न स्यात् अस्वस्वरा भावात् । अस्व इति विशेषणं तु ह्रस्वोऽपदे वा । १ । २ । २२ । इत्यत्राऽऽवश्यकतयाऽत्र तु स्पष्टप्रतिपत्तयेऽभिहितं न तु दधि इदमित्यत्र यत्वप्रसङ्ग- वारणाथम्, 'समानानां तेन दीर्घः' । १ । २ । १ । इत्यनेन बाधनात् । इवर्णादेरिति सामान्यनिर्देश:, एवं यवरलमित्यपि । अत एवं यथासंख्योपपत्तिः, व्यक्त्या निर्देशे तु इवर्णादेरित्यनेन द्वासप्ततेः यवरलमित्यनेन च सप्तानामुपस्थित्या यथा " Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) सङ ख्यता न स्यात् । 'आसन्नः'।७।४ । १२० । इति परिभाषाश्रयणे तु जातिव्यक्त्युभयपक्षयोरपि भविष्यति तदा द्विर्बद्ध सबद्धं भवति" इति न्या. येन स्वीकारेऽ दोषः । 'सप्तम्या पूर्वस्य' १७।४। १०५ । इति न्यायात् अव्यवहितस्यैव पूर्वस्य यकारादिर्भवति न तु केनापि वर्णन व्यवहितस्य । नदी एषा, मधु अत्र, वधू + आसनम्, पितुरर्थः षष्ठीसमासो वा पित्रेऽयमिति पित्रर्थ: 'तदर्थार्थेन । ३।१।७२ । लिङ्गानुशासनात् अर्थशब्द:विशेष्यस्य समासलिङो भवति, ऊर्थो वाच्यवत् इति । लिङ्गानुशासने ४०१)पित +अर्थः कृत् विक्षेपे कृ गश् हिंसायाम् वा धातोरनुकरणे कृ. आदिर्यस्य स क्रादि: लु इत्अनुबन्धो यस्य स लित, ल वदाकृतियस्य सः ल कारस्याऽऽ कृतिरिवाऽऽ कृतिर्यस्य स लाकृतिः उष्ट्रमुखादित्वाद् बहुव्रीहिः यद्वा ल कारस्याऽऽकृति: लाकृतिरिति षष्ठीसमासः । 'इवर्णादे' रित्यत्र केचित्पञ्चमी व्याख्यानयन्ति तन्मते दधियत्र, मधुवत्र, भूवादय इति भवति । अत्र किञ्चिद् विचार्यते-इवर्ण आदिर्यस्य स इवर्णादिरियत्र तद्गुणसंविज्ञानबहुव्रीहिः, न तु दृष्टसागर इति वदतद्गुणसंविज्ञानबहुव्रीहिः, अत्रादिशब्दो व्यवस्थावाची । ननु इवर्णादेरित्यत्राऽऽदिशब्देन यथा इकारादयः स्वरा गृह यन्ते तथा इन्द्रादिशब्दा अपि किं न गृह यन्ते तथा सति इन्द्रस्याऽऽगनम-इन्द्र+आगमन इत्यत्र यकारादिविधानरुपं सन्धिकार्य भविष्यतीति चेन्मैवमिद सन्धिप्रकरणम् सन्धिस्त्रिधा स्वरसन्धि: व्यञ्जनसन्धिः गोबलीवर्दन्यायात् विसर्गसन्धिश्च । 'इवर्णादे.' ।१।२।२१ । इति सूत्रं स्वरसन्धिप्रकरणस्थम्, इन्द्रादिशब्दास्तावन्न स्वरा अतोत्र इवर्णादिशब्देन इकारादयो वर्णा एव ग्राह या न तु इन्द्रादिशब्दाः । गोबलोवर्दधायश्चेत्थं गावश्चरन्ति गोमध्ये बलोवर्दोऽपि समायातस्तथापि गवान्तरापेक्षया बलीवर्दस्य विशेषताशालित्वात्वात्पृथक उपादीयते । अत्र व्यञ्जनान्ततित्वेपि विसर्गस्य विशेषताशालित्वात्सृथगुपन्यासः । इवर्णादीनां द्वसप्ततिः भेदाः ह्रस्वोदात्त: दीर्घोदात्त: प्लुतोदात्त: प्रत्येकं सानुनासिकनिरनुनासिको एवमनुदात्तस्वरितेषु सर्वमष्टादशभेद इवर्ण: एवमुवर्णवर्णल वर्णाः सर्वं मिलित्वा द्वासप्ततिः यरलवानां सप्तभेदा: ___ यलवाः सानुनासिका निरनुनासिकाश्च रकारो निरनुनासिक एव अस्वे इत्यस्य 'तुल्यस्थानास्य०' । १ । १ १७ । इति विहितस्वसंज्ञकभिन्न Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यर्थः । नत्रों द्वधा नत्रों द्वौ समाख्यातो, पर्युदासप्रसज्यको । पर्युदास: सदृग्ग्राही. प्रसज्यस्तु निषेधकृत् ।। प! दासः स विज्ञय: यत्रोत्तरपदेन नज् । प्रसज्यप्रतिषेधोऽसौ क्रियया सह यत्र नञ् । पर्युदासोदाहरणं तु 'अब्राह्मणमानय' इत्युनो ब्राह मणभिन्नो मनुष्यत्वेन सदृश एवानीयते न तु गर्दभादिः । प्रसज्योदाहरणं तु अगमनमित्युत्तो गमनाभाव: प्रतीयते । प्रसज्यप्रतिषेधेऽसमर्थसमासकल्पना, वाक्यभेद:, क्रियाध्याहारश्च । पर्युदासे लाघवेऽपि यत्र तत्कल्पनेऽतिप्रसङ्गः तत्र प्रसज्योपि आश्रीयते 'अस्वे' इत्यत्र पर्युदास एवाश्रयणीयः । ननु तथासति स्वरत्वेन सादृश्यग्रहणे 'स्वरे' इत्युपादानं व्यर्थं स्यादिति चेन्न पर्युदासाश्रयणे हि केन धर्मेण सादृश्याश्रयणं ? वर्णत्वेन सादृश्यग्रहणे मधु पिबतीत्यत्रापि वकार: स्यात्तनिराकरणार्थम् । यद्वा 'नक्तं तत्सादृश्ये' इति न्यायस्यानित्यत्वेन व्य जनेप्यस्य प्रवृत्तौ मधु पिबतीत्यत्रापि वकारः स्यातन्निराकरणार्थ 'स्वर' इत्यस्यावश्यकर्ता। दध्यत्रेत्यस्य चतुः- पञ्चाशद्र पाणि। ततोऽस्या: । १।३ । ३४ । सूत्रात् वर्जवर्गात्परस्या अन्तस्थाया द्व रुपे भवत इति यकारस्य वा द्वित्वम् । केषाञ्चिन्मते संयुन व्यञ्जनपरेऽपि द्वित्वमिति पुनर्वस्य द्वित्वे त्रिधं रुपम् । (१) एकधं एकयम् (२) एकधं द्वियम्, (३) द्विधमेकयम् (४) द्विध द्वयम् (५) विधमे कयम् (६) विधं द्वयम् (७) यागमे दधियोति (८) न सन्धिः । १ । ३ । ५२ । इत्यसन्धौ दधि अत्र (९) 'अ इ उवर्णस्या० ॥१२॥४१॥ सूत्रादिकारस्य सानुनासिकत्वे दधिं अत्र एवं नवरूपाणि । अत्रेत्यत्र तद्विवे द्वितानि नव, पुनस्तद्वित्वे त्रितानि नव एवं सप्तविंशतिः । अन्तस्याकारस्यानुनासिकत्वे पुन: सप्तविंशतिरेव चतु:पञ्चाशद्र पाणि। धुटो धुटि स्वे वा।१।३ । ४८ । विकल्पेन धकारलोपे तथा 'व्यजनातः । १।३ । ४७ । सूत्राद्विकल्पेन यकारलोपे रूपाणि भवन्ति तानि तु पूर्वोक्तरुपेभ्यो न भिद्यन्तेऽतो पृथग्न दर्शितानि ॥२१॥ - हस्वोऽपदे वा।१।२।२२ । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) इवर्णादीमस्वे स्वरे परे ह्रस्वो वा स्यात् । न चेत्तौ निमित्तनिमिमित्तिनावेकत्र पवे स्याताम् । नदि एषा-नद्यषा । मधु अत्रमध्वत्र । अपद इति किम् ? नद्यौ, नद्यर्थः । २२। हस्वः ॥ न पदं अपदं तस्मिन् वा । इवर्णादेरस्वे स्वरे इत्यनुवर्त. न्ते । नदी एषा, अनेन ह्रस्वत्वम्, पक्षे यत्वम् । यद्यपि एकारैकारयोस्ता लव्यत्वादिवर्णस्य अस्वस्वरपरत्वं नास्तीति ह्रस्वयत्वे न स्याताम् . तथापि 'एदेत': कण्ठतालु, ओदौतो: कण्ठोष्ठमिति मतान्तरमाश्रित्य ते विज्ञेये । मधु अत्र ह्रस्वस्यापि ह्रस्वः, ननु ह्रस्वस्य ह्रस्वकरण न युक्त 'नहि भुक्तवान्पुनभुङ क्ते' भोजनविशेषात्तु तत्र प्रवृत्तिर्दश्यतेऽत्र ह्रस्वस्य ह्रस्वकरणे का हेतुः 'अकृतकारी खल्वपि शास्त्रमग्निवत् यद्दग्धं न दहतीति चेत्सत्यं पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्तिरिति न्यायेन ह्रस्वस्यापि ह्रस्वः क्रियते, पर्जन्यो मेघो ऊन पूर्ण वानपेक्षमाणः सर्वत्र वर्षति यद्यपि जलपूर्ण वर्षत: तत्कालं फलं नास्त्येव, कालान्तरे तू ओषधिनिष्पत्तिरसाऽऽधिक्यादिकं फलमस्त्येवेति हस्वविधानसामर्थ्यात अत्रापि यत्वादिकार्यान्तरं न भवति । ह्रग्वविधानं निरवकाशं सत् 'निरवकाशस्य सर्वतो बलीयस्त्वात्' इति बलीयः सत् यादेशं बाधते इत्यर्थः । अग्निदग्धं न दहति तत्र तु अयोग्यता बीजम् । नद्या अर्थ: नद्यर्थः, हितादित्वाच्चतुर्थीसमासः । अत्रान्ततिन्या विभक्तेरपेक्षया पदभेदेपि समासे सति ऐकपद्यमिति युगपत्पदत्वमपदत्वं च, तत्र पदभेदाश्रयेण विधीयमानो ह्रस्वो गौणः, अपदे इत्यत्र प्रसज्यप्रतिषेधाश्रये निषेधस्य प्राधान्यम् अर्थात् एकपदाश्रयेण निषेध: प्रधानम, तस्मात् 'गौणमुख्ययोमख्ये कार्यसम्प्रत्ययः' इति न्यायेन प्रधानाश्रितमेव कार्य भवतीति न ह्रस्वः । अपदे इति- अविभक्तिकानां प्रयोगानहत्वात् सविभक्तिकानां च पदत्वात् सर्वत्र पदस्यैव सद्भावे अपदे निमित्तनिमित्तिनो न सम्भवत: इति पदशब्देन एकपदमिह विवक्षितम् एकवचनमप्येतदर्थ पुष्णाति तच्चैकपदं नद्यौ इत्यपि, नद्यर्थ इत्येवं समासोपि । अत्र किञ्चित्- 'सर्वं वाक्यं सावधारणमिति न्यायात् भिन्नपदे एव ह्रस्वो भवति नद्यर्थ इत्यत्र तु एकपदेपि वर्तमानत्वात् ह स्वो न भवति ॥२२॥ एदेतोऽयाय् । १।२।२३। एदेतोः स्वरे परे यथासंख्यं अय् आय् इत्येतौ स्याताम् । नयनम्, Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) - वृक्षयेब, नायकः, रामेन्द्री ॥२३॥ एच्च॥ ऐच्च दैत् तस्य अय च आय च अयाय । स्वरे इत्यनुवर्तते, इवर्णादिसम्बद्धस्याऽम्याऽससे इत्यस्य तन्निवृत्तौ निवृत्तेः, तन्निवृत्तिश्च एदेत इत्युक्त्ते. । तेनेह स्वसज्ञकेपि भवति । णींग प्रापणे, नोयतेनेनेति नयनम्, 'करणाधारेऽन'।५।३।१२९। सूत्रादनद 'नामिनो गुणोऽ०।४।३१। ने अयनम, अनेन अयकरपे प्रापणसाधनम् आधारे प्रापणाधिकरणम् 'अनट्' ।५।३।१२४। इति भावे तु प्रापणमित्यर्थः । वृक्षे एव स्वे स्वरे परेऽप्यत्र अय् 'स्वरे वा ॥१॥३॥२४॥ सूत्रात् यकारलोपे वृक्ष एव इत्यपि भवति । नयतीति नायक: ‘णकतचौ १५।१।४८ णक: 'नामिनोऽकलिहलेः ।४।।५।। इति नै अकः, नायकः प्रापयितेत्यर्थ । रांक दाने रायते महामनोभिरिति 'राते: । उणा ८६६ । इति डिति ऐप्रत्यये रै इति राय:सुवर्णस्य ऐन्द्री इन्द्रसम्बन्धिनी प्रतिमेत्यर्थः ॥२३॥ - आदौतोऽवाव् ।१।२।२४॥ ओदौतोः स्वरे परे यथासंख्यं अब आठ इत्येतौ स्याताम् । लवन, पटवोतुः, लावकः गावौ ॥२४॥ ॥ ओच्च औच्च ओदौत् तस्य, अब् च आष् च अवान् । स्वरे इत्यनुवर्तते । औषश्लेषिकाधिकरणे सप्तमी इति 'परे' इत्यर्षलाभ । यथासङ्खयमनुदेश: समानामिति समसङ्ख्यात्वाव यथासङ्ख्यमन्वयः । ठूयतेनेनेति लवनम् अनन् प्रत्यय: 'ना मनो गुणो ।४।३।१॥ लो अनम्, अनेनाम् । छेदन, छेदनसाधनं, छेदनाधिकरणमित्यर्थः । पटु हस्वस्य गुणः' । १।४४१। सूत्रात् पटो ओतुः हे दक्ष । बिडालास्तीत्यर्थः । लुनातीति लावकः णकतृचौ । ५।१।४८ 'नामिनोऽकलि.' ॥४॥३॥५१॥ लौ अकः । गौ भी - द्वौ वृषभावित्यर्थः । 'आत औः ।१।४।७४। ॥२४॥ - य्यक्ये ।१।२।२५। ओदौतोः क्यवर्जे यादौ प्रत्यये परे यथासंख्यमा आवो स्याताम् । गव्यति, गव्यते, नाव्यति, मान्यते, लव्यम्, लाव्यम्, अक्य इति Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) किम् ? उपोयते, औयत ॥ २५ ॥ · सप्तमी, न क्य अक्यः तस्मिन् । ओदौतोऽवावित्यनुवर्तते । अक्य इत्यत्र पयु दासनम् क्यभिने क्यसदृशे च यि इत्यन्वये सादृश्यस्य प्रत्ययत्वेन ग्रहणात् क्यभिने यि प्रत्यये इति । प्राप्ते य् इत्येतावन्मात्रस्य कस्यापि प्रत्ययस्याभावात् तस्यावयवार्थे पर्यवसानात् 'अभेदोनोक्तोऽवयवो विशेषणम् इति प्रत्ययविशेषणत्व प्राप्ते 'सप्तम्या आदिः | ७ | ४ | ११४ | सूत्रात् तदादित्वलाभः । 'एकानुब वग्रहणे न द्व्यनुबन्धकस्य' इति न्यायेनैकानुबन्धस्य क्यस्य वर्जनात् द्व्यनुबन्धके क्यनि क्यङि च अवावौ स्यातामेवेत्यत आह- गव्यतीत्यादि । गामिच्छति गव्यति 'अमाव्ययात् क्यन्' | ३ | ४ | २३ | वर्तमानातिव् शव् अनेन अव्, 'शेषात्परस्मै | ३|३|१००| गौः वृषभ इवाचरति 'वयङ । ३।४।२३। वर्तमानाते, 'इङि ० ' | ३|३| २२ | सूत्रात् । नावमिच्छति नाव्यति, नौरिवाचरति नाव्यते क्यङ । लुते लवितुं योग्यमिति लव्यम् 'य एच्चातः | ५|१|२८| नामिनो गुणो० | ४ | ३ |१| अवश्यं लूयते इति लाव्यम् ' उवर्णादावश्यके | ५|१|१९| ध्यण् 'नामिनोऽकलिहले: | ४ | ३ ५१ | नजुवतं तत्सदृशे' इति न्यायेन क्यवर्जनात् यादिप्रत्यय एव गृह्यते तेन गवां यूति: गोयूतिः, गोयानमित्यत्रावादेशो न भवति । गव्यूतिरिति त्वव्युत्पन्नः सज्ञाशब्दः उक्तं च सञ्ज्ञाशब्दास्त्वव्युत्पन्नाः, प्रकृति-प्रत्यय विभाग विकला । त्युत्पत्तिपक्षे तु पृषोदरादित्वादवादेशः । गव्यूतिः क्रोशद्वयम् । उप वेंग् तन्तुसन्ताने, वर्तमानातें ' क्यः शिति' | ३ | ४ |७०। इति क्यप्रत्ययः, 'यजादिवचे: किति' ।४१।७९ | व: उ:, दीर्घश्च्वि ० | ४ | ३ | १०८ इति दीर्घः । उप ऊयते ' अवर्णस्ये ० | १२|६| इत्योत्वम्, क्यवर्जनान्नात्राव् । अत्र धातूपसर्गकार्यस्य गुणस्य बहिरङ्गत्वेन 'य्यक्ये' इत्यवादेशे कर्तव्येऽसिद्धत्वेन नात्राव् प्राप्नोतीत्यरुचेरुदाहरणान्तरं दर्शयति औयते इति । वेंग् तन्तुसन्ताने 'आत्सन्ध्यक्षरस्य' | ४|२| १ | इत्यात्वे ह्यस्तनीतप्रत्ययः 'क्यः शिति ।३।४.७०। 'यजादिवचे:' । ४|१|७९ |' 'स्वरादेस्तासु' | ११२.१२ । इति वृद्धिः । ।।२५।। ऋतो रस्तद्धिते ।१।२।२६। ऋकारस्य यादौ तद्धिते परे रः स्यात् । पित्यम् । तद्धित इति किम् ? कार्यम् ॥२६॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (४९) ऋतुषष्ठो, र: प्रथमा तस्मै लौकिकवैदिकशब्दसन्दर्भाय हितः तद्धितः तस्मिन् तद्धिते । यि इत्यनुवर्तते । पितरि साधु पिश्यम् 'तत्र साधौ' (७।१।१।१५। साधादर्थे यप्रत्यय: रादेशश्चानेन । डुकृग् करणे क्रियते इति कार्यम्, 'ऋवर्णव्यञ्ज ना ध्यण' ।।१।१७। 'नामिनोऽकलि०।४।३।५१ सूत्राद् वृद्धिः । यद्यप्यत्रारत्वाद् वृद्धिखे भविष्यति तद्धितग्रहणेनालमिति चेन्न तद्धितग्रहणाभावे जागृयात् इययात् इत्यादौ ऋकारस्य रत्वधारणाय तदग्रहणं सार्थकम् । न च तद्धितग्रहणाभावे ‘परिसर्या' इत्यत्रापि रत्वं प्रसज्येतेति वाच्यम् 'आस्यटि० ॥५॥३॥९७। इति क्यपोऽनुवृत्त्या सिद्ध परेः सृचरेयः । ।५।३।१०३। इति यग्रहणस्य गुणार्थत्वात् ॥२६॥ एदोतः पदान्तेऽस्य लक ।१।२।२७। एदोभ्यां पदान्तस्थाभ्यां परस्याकारस्य लुक् स्यात् । तेऽत्र, पटोऽत्र । पदान्त इति किम् ? नयनम् ॥ २७ ॥ ॥ एच्च ॥ ओच्च एत् तस्मात्, पक्ष्स्यान्त: पदान्तस्तस्मिन्, अस्य, लुक् । एदोत् इत्यत्र 'प्रभूत्यन्यार्थ० ।२।२।७५॥ इति दिग्योगलक्षणा पञ्चमी दिग्योगस्य पूर्वापर साधारणत्वेऽपि 'पञ्चम्या०' ७४११०४। इति सूत्रबलात्परस्यैव भवति । तकारावुच्चारणार्थों । ननु पदान्ते' इति व्यधिकरणविशेषणम् ‘एदोत' इत्यस्याथवा'अस्य' इत्यस्येति चेत्सयम् एदोत' एव कर्तव्यमन्यथाऽनन्तरं वक्ष्यमाणः गोरोतोऽक्षे परे संज्ञायामलोपबाधनार्थमवादेशविधानं न स्यात् अपदान्तस्थत्वात् अकारलोपस्य प्राप्त्यभावाच्च । पदस्यान्तोऽवसान पदान्तः तत्रेति अधिकरणसप्तमी । अयवोरपवाद: । 'तद्' जस् “आदरः ।२।११४१। सूत्राद्दस्याकातेरे 'लुगस्या०' ।२।१।११३॥ पूर्वाकारलोपे 'जस इ.' ।१।४।९। इति । ते अत्र अनेनाकारस्य लोप: । पटु सम्बोधने "ह्रस्वस्य गुण: ।१।४।४१णींग प्रापणे ने अनम्, अत्र पदान्त त्वाभावान्नानेनाकारलोप: किन्त्वयादेशः । ।।२७।। गोनम्न्यिवोक्षे । १।२।२८ । गोरोतः पदान्तस्थस्य अक्षे परे संज्ञायाम् अव इति स्यात् । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) गवाक्षः । नाम्नीति किम् ? गोऽक्षाणि ॥२८॥ गोः अवयवावयविभावसम्बन्धे षष्ठी नाम्नि सप्तमी, अवः प्रथमा, अक्षे सप्तमी । एदोत इत्यस्मात् ओत:, पदान्ते इत्यनुवर्तेते, न तु एद्, असम्भवात् । 'कृत्रिमाकृत्रिमयो: कृत्रिमे' इतिन्यायात् 'अधातु० ॥१।१२७। इति कृत्रिमनाम्नो ग्रहणे प्रसक्तेपि गो अक्ष शब्दयो मत्वाव्यभिचारात 'सभवे व्यभिचारे च स्याद्विशेषणमर्थवदितिन्यायात नाम्नीत्यस्य लौकिकनाम्नीत्यर्थः . . संज्ञायामिति यावत् । एदोत: इति स्थानिपदस्य 'अर्थवशादविभक्तिविपरिणामः' इति न्यायात् षष्ठ्यन्तत्वेन परिणामः । ननु षठ्याऽन्त्यस्य ।७।४।१०६। इति सूत्रेण व सिद्धौ ‘एदोत' इत्यस्यानुवृत्त्यालमिति चेन्न'अनेकवर्णः सर्वस्य। १७।४।१०७। इति प्रवृत्तावनिष्टं स्यात्। व्याप्त्यर्थकाशौटिघातो: 'पुषिप्लुषि. उणा.७०७ इति कित्सिप्रत्थये 'यजसज.' ।२।११८७। 'षढो: क:सि ।२।११६२ इति शस्य षत्वे कत्वे च 'नाम्यन्तस्था. ।२।३।१५। इति प्रत्ययसस्य षत्वे च अक्षिशब्दो व्युत्पन्नः। अक्षिशब्दोऽक्षीवेत्यर्थे. लाक्षणिक: । गो:धेनोरक्षीव विवराकारादिना नेत्रमिवेत्युपमा । केचित्तु गवां किरणानाम्, अक्षि नेत्रमिव गवाक्षद्वारा किरणा गेहान्तर्गत वस्तु पश्यन्तीत्युपेक्षेति वदन्ति । 'अक्ष्णाऽप्राण्यङ्ग।७।३।८५। सूत्रात्समासान्तेति 'अवर्णेवर्णस्य ।७।४।६८। इतीकारले पेनेनावादेशे च गवाक्षः वातायन इत्यर्थः । अक्षशब्दस्तु व्याप्त्यर्थकाशौटिधातोः 'मावावद्य. । उणा. ५६४ इति से सिद्धः । गवामक्षाणि इन्द्रियाणि गोऽक्षाणि पूर्वसूत्रेणास्य लुक् । 'वात्यसन्धिः ।११।३१॥ इति विकल्पेनाऽसन्धौ गोअक्षाणित्यपि ॥२८॥ - स्वरे वाऽनो ।१।२।२९ । गोरोतः पदान्तस्थस्य स्वरे परे अब इति वा स्यात्, स चेत्स्वरोऽक्षस्थो न स्यात् । गवाग्रम्, गोऽग्नम् । गवेशः, गवीशः । अनक्ष इति किम् ? गोऽक्षम् । ओत इति किम् ? चित्रग्वर्थः ॥ २९ ॥ ॥स्वरे ॥ सप्तमी, वा, न अक्ष: अनक्षस्तस्मिन । गो: ओतः, पदान्ते, अव इति वर्तन्ते, एवमग्रोपि। गवामनगवान वैकल्पिकोवादेशः, 'वात्यसन्धिः ।।२।३१॥ इत्यसन्नी गौ अग्रमित्यपि । गवामीश: गवेश: विकल्प Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) पक्षे 'ओदौतोडवाव् |१| २|२४ गोऽक्षमित्यत्राक्षशब्द एवास्ति, न च संज्ञा गंम्यते, अत: 'एदोतः. ।१।२।२७। इति लोपः । गौधेनुवृर्षभो वा । चित्रा चित्रवर्णाः गावो यस्य स चित्रगुः 'गोश्चान्ते.' | २|४| ९६ । चित्रगोरर्थः वा चित्रगवेऽयमित्यर्थे तदर्थार्थत'।३।१।७२। इति नतु चित्रगुरित्यत्र गोशब्दो नास्ति तस्मादेव नाव देशापत्तिरिति चेन्न 'एकदेशविकृतमनन्यवद्' इति न्यायाद् भविष्यति तन्निवारणार्थ मोत इव्यस्यावश्यकता । एवम् ओत इत्यस्याभावे 'अनेकवर्ण : सर्वस्व' | ७|४|१०७ । इति सम्पूर्ण गोशब्दस्यादेशः स्यादित्योत इत्यवश्यमुपादेयम् । 'चित्रगो उदकम् ' अत्र चित्रगुशब्दस्य सम्बोधने तु 'लक्षणप्रतिपदोक्तयोरिति न्यायान्न भवति । प्रसज्ये निषेधस्य प्राधान्यात् ' गवाक्षसंघात ' इत्यनिष्टरूपं न भवत्यन्यथा पर्युदासाश्रये तु गो अक्षशब्दो न अक्षसंघातशब्द इति अवादेशापत्तिः स्यात् । प्रसज्याश्रये तु गौऽक्षसघात इतीष्टं सिध्यति । प्रसज्योऽत्यन्ताभाव-, पर्यु दासोऽन्योन्याभाव इति सामान्यार्थः ||२९|| इन्द्र । १ । २ । ३० । गोरोतः पदान्तस्थस्य इन्द्रस्थे स्वरे परे अव इति स्यात् । गवेन्द्रः 1:11 30 11. ॥ इदु परमेश्वर्ये इन्द्र ॥ स्वरे इति वर्तते, गवामिन्द्रः गवेन्द्रः । पूर्वेण विकल्पे प्राप्ते नित्यार्थं वचनम् । अत्र 'सप्तम्या आदि' | ७|४|११४। इति परिभाषया द्वन्द्वादौ शब्दे परे इत्यर्थः तथा च इन्द्रयज्ञादिशब्दे परे एव गोरोतोऽवादेशः प्राप्नोति, न तु गवेन्द्र इत्यत्रापि, परन्तु, आद्यन्तवदेकस्मिन् इति न्यायेन गवेन्द्र इत्यत्रापि इन्द्रादित्वकल्पनादवादेशः सिध्यतिः । गोषु वृषभेषु इन्द्र इवेति 'सिंहाद्यैः पूजायाम् | ३|१|१८९ | सूत्रात्समासः । गवेन्द्रः वृषभराज इत्यर्थः ॥ ३०॥ वात्य सन्धिः । १ । २ । ३१ । गोरोतः पदान्तस्थस्याकारे परेऽसन्धिभावो वा स्यात् । गो अग्रम्, गवाग्रम्, गोऽग्रम् । अतीति किम् ? गवेङ्गितम् ॥ ३१ ॥ अलि सप्तमी, न सन्धिरसन्धिः सन्धिर्नाम वर्णद्वयजातो विकार Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) विशेषस्तस्याभाव: । वर्णयोः प्रकृत्या स्वरूपेणावस्थितिर्भवतीत्यर्थः । गोः पदान्ते इत्यनुवर्तते । गवामग्रम्, गो अग्रम् गवामिङ्गितं चेष्टितम् स्वरे वा. ।१।२।२९। इत्यवादेशः ||३१|| प्लुतोऽनिटौ । १ । २ । ३२। इतिवजें स्वरे परे प्लुतः सन्धिभाग्न स्यात् । देवदत्त ३ अत्र वसि । अनिताविति किम् ? सुश्लोकेति ॥ ३२ ॥ ॥ प्लुतः ॥ न इति अनिति तस्मिन् । असन्धिः स्वरे इत्यनुवर्तेते । देव एनं देयादित्याशीविषये 'तिक्कृती नाम्नि | ५ | १|७१। सूत्रात् क्तः 'दूरादामन्त्र्य । ७४ ।९९ । इति प्लुतः । अत्र नु असि वितर्कार्थ नु इति अव्ययम् शोभनः श्लोकः कीर्तिर्यस्य स सुश्लोकः, तस्य सम्बोधनं, हे सुश्लोक इति, अत्र गुणः ||३२| इ ३वा । १ । २ । ३३ इस्थानः प्लुतः स्वरे परेsसन्धिर्वा स्यात् । लुनीहि ३ इति, लुनीहोति ॥ ३३ ॥ 1 ॥ इ ३ ।। सूत्रत्वात्सिलोपः, वां । रे स्वरे, असन्धिः इत्यनुवर्तेते, विकल्पस्त्रेधा प्राप्तविषयको प्राप्तविषयकः, प्राप्ताप्राप्तविषयकश्च । प्राप्तविषयको यथाॠत्यारुपसगस्थ |१| २|९| इति प्राप्तस्यारादेशस्य 'नाम्नि वा' | १२|१०| इति विकल्प: अप्राप्तविषयको यथा 'वात्यसन्धिः | १२|३१ । इत्यत्र केनापि सूत्रेणाप्राप्तस्यासन्धविकल्पः प्राप्ताप्राप्तविषयकं तु इदमेव सूत्रम् 'लुतोऽनित | १|२|३२| सूत्रेण लुनीहि ३ इदमित्यादो इतिवर्जे स्वरे परे प्राप्तस्य इतो परेऽप्राप्तस्यासन्धविकल्पः । छेदनार्थकः क्रयादिधातुः 'प्रषानुज्ञा० | ५|४|२९| सूत्रात्पञ्चमीहिः, 'क्रयादेः' | ३|४|७८ | इन प्रत्यय: 'प्यादे - ह्रस्वः |४ |२| १०५ | ' क्षियाऽऽशी | ७|४|१२| इति प्लुतः, लुनीहि ३ इति । यद्वा किं मया कर्तव्यमिति पृष्टः प्राह- लुनीहि ३ इति ' विधिनिमन्त्रणा मन्त्र ||४|२८| सूत्रात्पञ्चमी' है: प्रश्नाख्याने ७/४/९७ | सूत्रात्प्लुतः अनेन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) 'समानानां तेन दीर्घः ।१।२।१। सूत्रात्प्राप्तसन्धिनिषेधः ॥३३॥ ईदूदेव्दिवचनम् । १।२।३४। ई ऊ ए इत्येवमन्तं द्विवचनान्तं स्वरे परेऽसन्धिः स्यात् । मुनी इह, साधू एतो, माले इमे, पचेते इति । ईदूदेदिति किम् ? वृक्षावत्र । द्विवचन मिति किम् ? कुमार्यत्र ॥ ३४॥ ॥ ईच्च ॥ उच्च एच्च ईदूदेत्, द्वावौं वक्तौति द्विवचनम् । स्वरे, असन्धिरित्यनुवर्तते । 'विशेषणमन्तः ।७।४।११३। अभेदोक्तोवयवो विशेषणम् तद्विष्यस्य समुदायस्यान्त: स्यात् । तथा च द्विवचनरूपं यदीदूदेत् तदन्त: सन्धिन प्राप्नोतीत्यर्थकरणे 'उभयस्थान• इति न्यायेन माले इत्यत्रासन्धेः प्राप्तावपि पचेते इत्यादौ न स्यात्, आते इति द्विवचनस्यैतदन्तत्वेऽप्येकाररूपत्वाभावात् । ईदूदेदन्तं द्विवचनमित्युक्तौ तु पचेते इत्यत्रासन्धे:प्राप्तावपि माले इत्यादौ न भवेत, तत्र ईकारादेद्विवचनत्वेऽपि ईदन्त द्विवचनाभावादिरयुभयत्र दोषादाह-ई ऊ ए इत्येवमन्तं द्विवचनान्तमिति समुदायोऽत्र विशेष्यम् । य: समुदाय ईदू- देवन्तः, अथ च द्विवचनान्तः सन्धि न लभते इत्यर्थः तथा च माले पचेते इत्यादौ न दोषः, तादृशसमुदायस्य द्विवचनान्तत्वादीदू देवन्तत्वाच्च । मुनी इह,साधू एतो, माले इमे, पचेते इति अत्र सर्वत्रासन्धि: मन्यते जगत्तत्त्वं सस मुनिः, उत्तमक्षमादिभिस्तपोविशेषेर्भावितात्मा सानोति, सम्यग्दर्शना दिभिः परमपरं साधयति वेति उभयलोकफलं साधयति वेति साधु "कृवापा. उणा: १ इत्युण्प्रत्ययः । कुमायत्रेत्यत्र तु इवर्णादे:० ।।२।२१॥ इत्यनेन यकार: ॥३४॥ अदो मुमी ।१।२।३५। अदसः सम्बन्धिनौ मुमी इत्येतौ स्वरे परेऽसन्धी स्याताम् । अमुमु ईचा । अमी अश्वाः ॥ ३५॥ ॥ मुश्च ॥ मीश्च मुमी, अदसो मुमी अदोमुमी । न तु अमुष्य Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) . मुमीति विग्रहः, अत्रादस्शब्दस्य शब्दपरत्वेन स्वार्थानभिधायकत्वात्, अदस्शब्दनिमित्तकविधषु विप्रकृष्ट वतिज्ञातपदार्थार्थकस्यैव अदसो ग्रहणम् । मुश्च मीश्च मुमी समाहार द्वन्द्वाश्रयणे सौत्रत्व द्धस्वाभावः, इतरेतरद्वन्द्वाश्रयणे सौत्रत्वादौलोपः। अदसः अग्रे अञ्चू गतौ च अमुमञ्चतीती 'क्विप् ।५।१।१४८। सूत्राक्विप् ' स्युक्त कृता' ।३।१।४९। सूत्रात्समासः, ऐकायें 1३।२।८। 'अञ्चोऽनर्चायाम् ।४।२।४६। 'सर्वादिविश्वग्देवा.। ।२।१२२ सूत्राददस: पर: डद्रिप्रत्ययः 'डित्यन्त्यस्वरादे: ।२।१।११४। इत्यदसोऽस्लोपे. अदद्रि+अच् इति स्थिते टाप्रत्यये 'अच्च प्राग्दीर्घश्च' ।२।१।१०४। सूत्रात् 'अच्' इत्यस्य 'च्' इत्यादेशे पूर्वस्वरस्य दीर्घत्वे 'अदद्रीच आ' इति स्थिते 'वाऽद्रौ' ।२।१।४६। सूत्राद् द्वयोर्दकारयोर्मकारे 'मादुवर्णोऽनु' ।।१।४७। सूत्रादकारस्य रस्य चोत्वेऽनेनासन्धौ ‘इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम् ।१।२।२१। सूत्राप्रवृत्तौ 'अमुम ईचा' इति । अमी अश्वा:-अदम् ‘जस इ' ।१।४।९। आ द्वरः ।२।११४१। लुगस्यादेत्यपदे ।२।१।११३। 'मोऽवर्णस्य'।२।१।४५॥ इति दस्य मकार: 'जस इ'।१।४।९। 'अवणे ॥११२।६। इति ए: । 'बहुष्वेरीः' ।२।११४९। इति एकारस्य ई: ॥३॥ चादिः स्वरोऽनाङ् । १।२।३६ । आङ वर्जश्चादिः स्वरः स्वरे परेऽसन्धिः स्यात् । अ अपेहि, इ इन्द्रं पश्य, उ उत्तिष्ठ, आ एवं किल मन्यसे, आ एवं नु तत् । अनाङिति किम् ? आ इहि आहि । ॥च आदिर्यस्य स चादिः स्वरः, न आङ अनाङ्॥ स्वरे, असन्धिरिति चानुवर्तते । स्वर इत्यस्य 'चादिः' इत्यस्य विशेषणत्वे 'विशेष. णमन्तः'।७।४।१५३ सूत्रात्तदन्तलाभे स्वरान्तश्चादिरित्यर्थों भवितुमर्हति तथा सति आङ वर्जनेन आङ:स्वरान्तत्वाभावात्तद्वर्जनं विफलं स्यादत अनाङिति पर्युदासाश्रयणेन पर्युदासस्य च सदृशग्रहणरूपत्वात्, आङि भन्नाङ सदृशस्यैव स्वरस्य ग्राह्यतया न तदन्तविधिः, उत्तरसूत्रेऽन्तग्रहणेनात्र केवलस्येव . सम्मतत्वाद्वाह-आङ्ग वर्जश्चादिः स्वर इति । अ अपेहीति, अपपूर्वकाद् इंण्क गताविति धातो: पञ्चमीहिप्रत्यये गुणे च अपेहीति, अनेन चाकारेण समानानां' ।२।१। इति सन्ध्यभावः । अ इति निर्भत्सने, अ अपेहि, अपसर, Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुरीभवेत्यर्थः । 'अ' पूरणभर्त्सनाऽऽमन्त्रण निषेधार्थकश्चादिः । इ इति चादिगणपठितमव्ययं सम्बोधने विस्म येवा इ इन्द्रपश्य-इन्द्रदर्शनेन विस्मितस्सनयमीन्द्रदर्शनाय अनेन वाक्येन प्रेरयति । उ इति चादिगणपठितमव्ययं जुगुप्सासन्ताप न्वर्थाप्यर्थेषु । कस्यचित्सामीप्येन संतप्न: सन् निजसामीप्यान् तमपसारयन्नित्यवदत् । आ एवं किल मन्यसे-पूर्वप्रकान्तस्थ वाक्यार्थस्यान्यथात्वद्योतकमा इत्यत्ययम् पूर्वमित्थ नाऽमस्था:, इदानीं त्वेवं मन्यसे इत्यर्थः, वृद्धी प्राप्तायामसन्धिः । आ एवं नु तत्, विस्मतस्य स्मरणद्योतकोऽयमाकार:, उभयत्राकारः आङ भिन्नः। . ईषदर्थे क्रियायोगे, मर्यादाभिविधौ च यः । एतमासं ङितं विद्यात्, वाक्यस्मरणयोरङित् ।। इत्याकारस्याङ नानाङ त्वदर्शक: श्लोकः । आ इहि एहि, अत्र आ इति अङपसर्गः, अत्र तु गुणः ॥३६॥ ओदन्तः । १।२ । ३७॥ ओदन्तश्चादिः श्वरे परेऽसन्धिः श्यात् । अहो अत्र ॥ ३७॥ ॥ ओत् अन्ते यस्य स ओदन्तः । चादिः स्वरे, असन्धिरित्यनुवर्तन्ते । अहा इत्यादयो अखण्ड श्चादय इति पृथग्योगः, पूर्वसूत्रेऽनाङिति पर्युदासादेकस्वररूपचादेरेव ग्रहणस्येष्टतया बा पथग्योगः । 'एदोत: पदोन्तेस्य लुक्' ।१।२।२७। सूत्रादकारलोपे प्राप्तेऽनेनासन्धिः । अहो इति शोके धिगर्थे विषादे दयाया सम्बाधने विस्मये प्रशसायां वितर्केऽसूयायां च ॥३७॥ सौ नवेतौ।१।२।३८ । सिनिमित्त ओदन्त इतौ परे सन्धिर्वा स्यात् । पटो इति, पटबिति ॥ ३८॥ - ॥ सौ सप्तमी, न वा, इतौ सप्तमी । ओदन्त असन्धि: इप्यनुवर्तते । सिश्च आमव्यविहितो ग्राह्यः अन्येन स्वरस्य व्यवधानादोकारस्यासम्भवाच्च प्राप्त्यभावात्प्रतिषेधो पर्थःस्यात् । पदुशब्दात् सम्बोधनकवचने Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) सौ 'ह्रस्वस्य गुणः ।१।४।४१। सूत्रादोकारे पटो ! इति अनेनासन्धिः 'ओदौतोऽवाव ।१।२।२४। इत्यवादेशाभावः वैकल्पिकत्वात अवादेशोपि 'स्वरे वां ।१।३।२४। पट इत्यपि। वेत्येव सिद्धौ नवेति ग्रहणमुत्तरत्रानुबत्त्यर्थम् । त्रिसूत्रेषु तु अनुवृत्तिनवा इत्यस्य दृश्यते एव ॥३८॥ ऊँ चोञ् । १।२।३९ । उञ् चादिरितो परेऽसन्धिर्वा श्यात् । असन्धौ च उञ् ॐ इति दीर्घोऽनुनासिको वा श्यात् । उ इति, ॐ इति, विति ॥ ३९॥ ॐ सूत्रत्वाद्विभक्तिलोप: । चउ । चादिः, इतौनवेत्यनुवर्तन्ते । पक्षे ओदौतोऽवाव् ११३०२४। उन शब्दो भत्सनार्थकः । ननु नो त्रिकरणं किमर्थमिति चेत्सत्यं जिकरणं स्वरुपपरिग्रहार्थम् तेन विकृतस्य त्रितो न भवति । अयं भावः द्वावुकारी निरनुबन्ध: सानुबन्धश्चः । तत्र यो निरनुबन्धस्तस्याहो इत्यत्रौकारादेश: इष्यते नापरस्य, अतोऽहो इत्यत्राजित एव कृतादेशत्वादिदं सूत्रं न प्रवर्तते । अत एव जान्वस्य रुजतीत्यत्रोत्तरसूत्रेण वत्वं भवति, उजा सह जानोरुकारस्य दीर्धीभूतत्वात्, अथवाऽत्र सूत्रे उकारप्रश्लेषात् उ उ ऊ इत्युकारेण उनो विशेषणात् उकाररुपस्य उमओ ग्रहणात् अहो इत्यादौ न भवति उत्तरत्र तु जात्याश्रयणात् दीर्धीभूतस्यापि जान्वस्य रुजतीत्यादौ वत्वं भवति । न च ऊँ इत्येव चादिषु पठ्यता किमादेशेनेति वाच्यं, तथा सति तस्यानितावपि प्रयोग: स्यात् स तु नेष्ट इति, यथा अह+उ, अत्र 'अवर्णस्ये० ॥१२।६। इत्यनेनोत्वे अहो, पश्चादोदन्त इत्यसन्धौ अहो इति । उ इति असन्धौ ॐ इति दीर्घानुनासिकाभ्यां विति च असन्ध्यभावे इति त्रैरुप्यम् ॥३९॥ - अन्वर्गात् स्वरे वोऽसन् । १।२।४०। अवर्जवर्गेभ्यः परः उञ् स्वरे परे वो वा स्यात्, स चासन् । . क्रुङ ङवास्ते, क्रुङ ङ आस्ते । असत्त्वाद् द्वित्वः ॥ ४० ॥ ॥ न अञ् चासौ वर्गश्च, तस्मात्, स्वरे, वः, अस्तीति Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) - 1 सन् न सन् असन्, ऊँञ इत्यनुवर्तते । ननु 'असन्' इत्यस्य स्वरूपेणाभाव इत्यर्थः तथा सति कि वकारविधानेनेति चेत्सत्यमसन्नित्यस्य मुख्यार्ष परित्यागेन गौणः असिचवत् अभूतवदित्यर्थः कर्तव्यः तथा सति वैयर्थ्याशङ्का नैव तिष्टति, तथा च स्थान्याश्रयं कार्यं सिद्ध भवति । अन - वर्गादित्यत्र जात्यपेक्षयेकवचनेन निर्देशेपि स्पष्टप्रतिपत्तये व्यक्त्यपेक्षणादाह - जवर्जवर्गेभ्य इति । 'पञ्चको वर्गः | १|१|१२| इतिपत्र व समुदायस्य वर्गत्वेपि युगपत्समुदायासम्भवात् प्रत्येकं वर्गशब्देन वर्ग्यः प्रतीयते । 'स्वरे वाइन' || २|२३| सूत्रात् धाराप्रवाहम्यायेन, मण्डुकप्लुतिभ्यायेन वाऽनुवृत्तिसम्भवेपि 'स्वरे' इति पुनः कथनमुत्तरानुवृत्त्यभावार्थम् । कुञ्च मतो कौटिल्याल्पीभावयोश्च' क्रुञ्चतीति क्विपि 'युजञ्च चोनोड: 1२1१1७१ ॥ सूत्रे विवयन्तस्यापि क्रुञ्च् इति निर्देशात् 'नो व्यञ्जनस्यानुदितः । ४ २ ४५१ सूत्रात् लोपाभावे ऋञ्च् + सि इति स्थिते सिलोपे 'पदस्य' |२| ११८९१ इति चकार लोपे निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभाव:' इति पुनः नकारसद्भावे 'युजञ्चक्रुञ्चो नो ङ.' ।२।१।३१॥ सूत्रात् ङकारे क्रुङ, इति कुटिलं गन्ता क्रौञ्चपक्षी वेत्यर्थः । आते उपविशतीत्यथः । उ इति सम्बोधने । कोपबचने अनुकम्पाविस्मयनियोगेषु च । क्रु, उ आस्ते अनेन उकारस्य वकारे कृतेऽप्यसत्त्वात् 'हस्वाद् ङगन' द्व े ।१।३१२७ । सूत्रात् ङकारस्य द्वित्वम् । नन्वसद्भावमन्तरेणापि क्रुङ उ आस्ते इत्यवस्थायां प्रथमं द्वित्वे कृते, पश्चाद वत्वे ऋङ ड्वास्ने इति सिध्यति किमनेनासद्भावनेतिचेन्न. 'हस्व न्ङ जनो द्व े |१| ३ |२७| इति सूत्रं यद्यपि परं तथापि वत्वस्य कृतेऽकृतेऽपि च भावात् नित्यत्वेन 'पगन्नित्यम्' इति न्यायेन द्वित्व बाधत्वा वत्त्वस्य भावात् पश्चात्स्वराभावेन द्वित्वं न स्यादतोऽसद्भावः कृतः । असन्निति पदमुत्तरसूत्रं मुक्त्वा 'तृतीयस्य पञ्चमे ' |१|३|१| 'प्रत्यये च' | १|३|२| इति सूत्रयोः सम्बध्यते 'अपेक्षातकार' इति न्यायात् ॥ ४० ॥ ' } अइउवर्णस्यान्तेऽनुनासिको नीद देः । १।२।४१। अ इ उ वर्णानामन्ते विरामेनुनासिको वा स्यात् न चेदेते 'ईदृद्धिवचनम्' इत्यादि सूत्रसम्बन्धिनः स्युः । सामँ, साम, खाँ, खट्वा, दधिं दधि । कुमारी कुमारी मधे मधु । 'अनीदादेरिति किम् ? अग्नी, अमी, किमु ॥ , Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) ॥ अश्च इश्च उश्च अ - इ - ऊनां वर्णः तस्य, अन्ते, अनु पश्चान्नासिकास्थानमुच्चारणीयं यस्यासावनुनासिकः, ईत् आदिर्यस्य स ईदादिः, न ईदादिरनोदादिस्तस्य । देशदेशिनोः कथञ्चिद् भेदाद्देशग्रहणे देशिनोऽपि ग्रहणादत्र ईद्' इत्येकदेशग्रहणेन 'ईदूदेद्विवचनम्'।१।२।३४। इति सूत्रं प्रगृह्याह न चेदेते इत्यादि । अनीदादेरित्यत्रादिशब्देन 'अदो मुमी' ।१।२॥३५॥ सूत्रादारभ्य 'अत्र वर्गात्स्वरे वोऽसन्' ।१।२।४०। सूत्रषट्कस्य ग्रहणे प्रसक्तेपि 'ओदन्त:' ।१।२।३७। 'सो नवेतौ ।१।२।३८। सूत्रद्वय न गृह्यते तत्राइउवर्णाभावेन प्रकृतानुपयोगित्वात् । अनोदादेरित्यत्र विषयविषयिभावसम्बन्धे 'शेषे' ।।२८१। सूत्रात् षष्ठी। अनीदादेरित्यत्र प्रसज्यवृत्तिनत्र । सामन् सात्वनमित्यर्थः, 'अनतो लुप् ।१।४।५८। 'नाम्नो नोऽनह न:' ।२।११९१। इति नकारलोपेऽनेन विकल्पेनानुनासिकत्वम् । एवं खट वादिष्वपि । अग्निशब्दस्य प्रथमाया द्वितीयाया वा द्विवचने 'ईदू देत् ।१।२।३४। सूत्रविषय ईकारः । अदस्शब्दस्य प्रथमाबहुवचने 'अदोमुमी' ।।१।२॥३५॥ सूत्रविषय .. ईकारः। किम् + उ +इति अत्र उकार: इतिशब्दे परे ॐ चोज ।।२।३८ सूत्रविषय उकारः, इतिवजिते स्वरे परे 'अञ्वर्गात् ॥१॥२४०। सूत्रविषयः । अस्य वैकल्पिकत्वादेतदभावपक्षे 'चादिः स्वरोऽनाङ १।२।३६। सूत्रविषयः एषु ईददिसम्बन्धित्वान्नानेनानुनासिकः । 'एदोत:०' ।१२।८७। सूत्रात्पदान्ते इत्यस्यानुवृत्तिसम्भवेप्यन्त ग्रहणं किमर्थमिति चेत्सत्यमन्तग्रहण विरामग्रहणं विरामप्रतिपत्त्यर्थम् स च विरामे भवन् पदस्यान्ते भवति। केवलमुपसर्गस्य समासान्ततिनश्च न भवति । तेन राजपुरुष इत्यत्र राजशब्दस्थान्त्याकारस्यानुनासिक आदेशो न भवति। वर्णान्तरप्रतियोगिकप्रागभावानंधिकरणकालोऽन्तशब्दवाच्य:,विरामशब्दवाच्य इति यावत् । केचित्त समुदायघटकोपान्त्यवर्णप्रतियोगिकध्वंसाधिकरणकाल: अन्तशब्दार्थ इति कथयन्ति तन्नचारु राजपुरुषसमुदायघटक राजशब्दान्त्याकारस्यापि विरामत्वप्रसङ्गात् । "अइउवर्ण०" ।१।२।४१॥ इति सूत्रे अविकृतस्वरूपलाभाय सन्ध्यभावः समासे सति नित्यसन्धिः स्यात् । 'द्वन्द्वान्ले०' इति न्यायात्प्रत्येकं वर्णशब्दस्य सम्बन्धः ।।४१॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः तृतीयस्य पञ्चमे। १।३।१। वेति, पदान्त इति, अनुनासिक इति चानुवर्तते । वर्गतृतीयस्य पदान्तस्थस्य, पञ्चमे परे अनुनासिको वा स्यात् । वाङ डवते, वाग्डवते, ककुम्मण्डलम् ककुमण्डलम् ॥१॥ त्रयाणां पूरणस्तृतीयः, तस्य, पञ्चानां पूरणः पञ्चमः, तस्मिन्, “सौ नवेतौ' ।१।२।३८। सूत्रात् वेति ‘एदोतः० ।१।२।२७। सूत्रात् पदान्त इति 'अइ उवर्णस्यान्तेऽनुनासिकोऽनोदादे:'।१।२।४२। सूत्रात् अनुनासिक इति एते पादान्तरस्थिता अपि 'अपेक्षातोऽधिकार' इति न्यायेन पादान्तरस्थिता अपि अनुवर्तन्ते । तृतीयत्वस्य वर्गघटकवर्णमात्रवृत्तित्वे आचार्यामिप्रायादाहवर्गतृतीयस्येति । ननु तृतीयस्य इति कथं कृतं 'वर्गस्य' इति करणेऽपि काप्यापत्तिर्न दृश्यते इति चेत्सत्यं 'ततीयस्य' इत्युत्तरार्थम अन्यथा प्राङ हसतीति न सिध्येत्, प्राङ धसतीत्यापद्येत स तु नेष्ट: । वाच+ङवते सेर्लोपः, चस्य - ककार: 'धुटस्तृतीय: ।२।१।७६। सूत्रात् ककारस्य तृतीय: तृतीयस्यानेनानुनानिकादेशः । ननु ककुभां दिशां मण्डलम् 'धुटस्तृतीयः'। ।२।१।७६। इति बत्वेनेनानुनासिकत्वे 'तौ मुमौ० ॥१।३।१४। इत्यनुस्वारः कथ न भवतीति नाशङ्कनीयम् 'अञ्वर्गात्स्वरे० ।१२।४०। सूत्रादसन्नित्यधिकारस्य प्रयोजनवशादिष्टत्वात् अथवा 'असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग' इति न्यायात् मस्य बहिरङ्गस्यान्तरङ्ग ऽनुस्वारे कर्तव्येऽसिद्धत्वात् । यत्त घटस्ततीयः । १७६ इति विहितस्य तृतीयस्य बस्यासत्त्वेन तत्स्थानस्य मस्यापि असत्त्वान्न भवति तत्तुच्छ म् परविधेः स्यादिविधेश्चाभावात् ॥१॥ प्रत्यये च।१।३२। पदान्तस्थस्य तृतीयस्य प्रत्यये पञ्चमे परेऽनुनासिको नित्यं स्यात.. वाङ्मयम्, षण्णाम् । 'च' उत्तरत्र वा अनुवृत्त्यर्थः ॥२॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) ॥ प्रतीयते ऽर्थोनेन स प्रत्ययस्तस्मिन् च। पदान्ते अनुनासिक इत्यनुवर्तते । चकार: पूर्वयोगस्यैव णेषतां प्रतिपादयन्नात्मनि वेत्यस्य सम्बधाभावं वानुवृत्तेश्चोत्तरत्राव्यवधानं सूचयति । वाचां विकारोऽवयवो वा 'एकस्वरात् ।६।२।४८। इति मयट् । वाच आमतम् 'नृहेतुम्यो रुप्यमयटौ। १६।३।१५६। इति वा मयट । षष् आम् 'संख्यानां र्णाम् ।१।४३३। 'घुटस्त. तीयः ।२।११७६। तवर्गस्य०११।३।६०। इति नस्य णःषणाम्, अनेन डस्य णः । 'अनाम्नगरीनवतेः' इति पर्यु दासान्न टवनिषेधः । असदधिकारोऽप्यत्र वर्तते । तेन तन्नयनमित्यादी न लोपो न भवति । ततो हश्चतुर्थः।१।३।३। पदान्तस्थात् ततः तृतीयात्परस्य हस्य पूर्वसवर्गश्चतुर्थो वा स्यात् । वाग्धीनः, वाग्होनः । ककुब्भासः, ककुब्हासः॥ ॥ ततः ॥ तस्मात् हः षष्ठी, चतुर्णा पूरण: चतुर्थः । पदान्त इति वर्तते, तच्छब्दस्य पूर्वपरामशित्वात् तच्छब्देन तृतीयस्य परामर्शः । ननु 'तृतीयस्य' इत्यनुवृत्तौ 'अर्थवशाद विभक्तिविपरिणामः' न्यायेन पञ्चम्यन्तखेन परिणमनसम्भवेपि तत इति ग्रहणं कथमिति चेदत्रोच्यते-'तृतीयस्य इत्यनुवृत्तौ हकारात्परस्य तृतीयस्येति शङ्का स्यादतः ततो ग्रहणम । न च पदान्तस्य हकारस्यासम्भवः 'घुटस्तृतीय: ।२।११७६३ इति प्रवर्तनादिति वाच्यं भूतपूर्वन्यायेन सम्भवात् । ननु हस्य कठ्यतया तस्यासन्नो घकार एक भविष्यति न झढधमा इति हेत: हो घ: 'इत्येव सूल्यतां कि गुरुतरचतुर्थशब्दग्रहणेनेति चेन्न 'चतुर्थ' इति गुरुत्तरग्रहणेन पूर्ववर्गस्य चतुर्थो भवति इत्यर्थलाभः । वाचा हीन:, वाग्धीनः, विकल्पपक्षे वाम्हीनः । कुभां हासः ककुछभासः, विकल्पपक्षे ककुब्हासः । हसनं हासः घञ् । प्रथमादधुटि शश्छः ।१।३। ४ । पदान्तस्थात् प्रथमात्परस्य शस्याधुटि परे छो वा स्यात् । वाकछूरः, वाक्शूरः । त्रिष्टुप्छ तप, त्रिष्टुप्श्रुतम् । अधुटीति किम् ? वापरच्योतति । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) ॥ प्रथमात्, न घुट् अघुट् तस्मिन् शः षष्ठी, छः प्रथमा, पदान्ते इति वर्तते एवमग्रपि । ननु पूर्वसूत्रेण तत इत्यनुवृत्त्या वाचा शूरः, वाच् शूरः 'घुटस्तृतीयः' | २|१|७६ । चजः कगम्' |२| ११८६ | इति वाग् शूरः इति जाते पदान्ततृतीयात् गकारात्परस्य शस्य छकारे कृते 'अघोषे प्रथमोऽ०' | १|३|५०१. इति स्य करे वाक् छू इति सिद्धौ किं प्रथमादित्यभिधानेनेति चेन्मैवं 'तृतीयाच्छे कृते ततस्तृतीयस्य प्रथमत्वाभावप्रसङ्गात् यथा षट् सीदन्तीत्यत्र 'डुणः सः त्सोश्चः । १।३।१८। इति त्से कृते षड्त्सीदन्तीति जाते पुनः डकारस्य प्रथमों न भवति विधानसामर्थ्यात् तथा च वाक् छूर इति न सिध्येदतः प्रथमादित्युक्तम् । पाणिनीयास्तु षट्त्सीदन्तीति प्रथममिच्छन्ति । अथवा. प्राक् छेते, सुगण्ट् छेते इत्यादी तृतीयात्परस्य शस्याभावाच्छादेशो न भवति । वाक्श्च्योततीत्यत्र तु प्रथमात्परस्य शकारस्य सत्त्वेपि ततः परमधुट् नास्तीत्यतो न छकारः । अधुटीति पर्युदासात् स्वरान्तस्थाऽनुनासिकपरः यस्मात् तस्य शस्य छो भवति तेन वाक्श् इत्यत्र छो न भवति || ४ || 1 रः कखपफंयोः ← क )( पौ । १ । ३ । ५ । पदान्तस्थस्य रस्य कखे पफे च परे यथासंख्यं ) ( पौवा स्याताम् । ककरोति, कः करोति । कखनति कःखनति क ) ( पचति कः पचति । क ) ( फलति कः फलति । , २ः, कश्च खश्च कखम् पश्च फश्च पफम्, कखं च पर्फ च कखपफे, तयो:, - कश्च ) ( पश्च क ) ( पौ, द्वयोर्द्वयोर्द्वन्द्व विधाय पुनर्द्वन्द्वकरणाद् यथासङ् ख्यलाभ: । अत एव वृत्तौ कखे पफे इत्युक्तम् । - क ) ( पे-यत्र ककारपकाराकारा उच्चारणार्थः । अत्र - क इति जिह, वामूलीय, ) ( प इति उपध्मानीयः ननु निरनुबन्धग्रहणे न सानुबंधकस्य इति न्यायेन तिरनुबन्धस्य ग्रहर्णेन सानुबन्धस्य रो: क ) ( पौ न भविष्यत: तथा सति करोतीत्यादि न सिध्येदिति चेत्सत्यं 'र: पदान्ते विसर्गस्तयोः ' इति निरनुबन्धग्रहणे तस्यैवानुवृत्त्या 'अरा: सुपि रः ||३|५७ | अत्र सानुबन्धस्य रा रत्वाप्राप्तावरोरिति स्वर्जनाभिधान व्यर्थ सज्ज्ञापयति 'निरनुबन्धग्रहणे सामान्यग्रहणमिति न्यायमस्ति ततश्च सामान्यस्य रकारस्य ग्रह Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) णादत्र- क )( पादेशौ भवतः । क: करोतीत्यादि 'किम: कस्तसादौ च ।२।१।४०'सो रुः ।२।१।७२॥ इति खनूग विदारणे, डुपची पाके,फल निष्पत्री ॥५॥ शषसे शषसं वा।१।३।६। पदान्तस्थस्य रस्य शषसेषु परेषु यथासंख्यं शषसा वा स्युः । करशेते, कःशेते । कष्षण्ढः, कः षण्ढः । कस्साधुः, कः साधुः ॥६॥ शश्च षश्च सश्च शषसं तस्मिन् वा ॥ र: इति वर्तते । नवाधिकारे वाग्रहणमुत्तरत्र विकल्पनिवृत्त्यर्थम् । ननु शषसे सो वा इत्येवं सूल्यता सकारस्य च 'सस्य शषौ" ॥१॥३॥६१॥ इति कृते कश्शेते, कष्षण्ढः इत्यादौ शकारषकारौ सिध्यतः एवमुत्तरत्रापि 'कश्चरः, इत्यादी शषो सेत्स्यत इत्युत्तरार्थमित्यपि न वक्तव्यम्, तथा कश्शेते इत्यादौ 'धुटस्तृतीयः ।२।११७६। इत्यस्मिन्कर्तव्ये रुत्वस्य, 'अन्तश्शेते' इत्यादौ 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ' इति न्यायेन शत्वस्यासिद्धत्वे तृतीयत्वमपि न प्रवस्य॑ति, तत् कि शषयो: पृथविधानेनेति चेत्सत्यम-'असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग इति न्यायस्यानित्यत्वज्ञापनार्थम् किञ्च शषसग्रहणं व्यक्त्यर्थम् तेनैतेषु कृतेष्वेतद्विलक्षणं कार्यान्तरं न भवति, ततश्चान्तश्शेते इत्यादी 'धुटस्तृतीयः' ।२।१७६। इति जत्वादिकं न भवति, कश्शेते इत्यादौ तु तृतीयाभावः रो: परेऽसत्त्वादपि सिध्यतीति । कथ 'तहि सपिष्षु' इत्यादी षकार: ? सत्यम्-शषसविलक्षणं तृतीयत्वादिकं न भवति, शषसरुपं तु भवत्येवेति दिक् ॥६॥ चटते सद्वितीये।१।३।७। पदान्तस्य रस्य चटतेषु सद्वितोयेषु परेषु यथासङख्यं शषसा नित्यं स्युः । कश्चरः, कश्छन्नः, कष्टः, कष्ठः । कस्तः कस्थः ॥७॥ ॥ चश्च टश्च तश्च चटतं तस्मिन् सह द्वितीयेन वर्तते यः स सद्वितीयस्तस्मिन् । 'सहस्य सोऽन्यार्थे' ।३।२।१४३। सूत्रात्सहस्य सः । नन्वत्र स्व. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) mature रुपेणासन्देहाथं चछटठतथेति सूत्रं कर्तुं शक्यं तथापि 'यथासङख्यमनुदेशः समानाम्' इति यथासङ्खयार्थ मेष निर्देश: अन्यथा निमित्तबहुत्वे यथासंख्यं न स्यात् । न च सद्वितीय ग्रहणे सति यत्र चकाराकान्तश्छकारः, टकाराकान्तष्ठकार:, तकाराकान्तस्थकार तत्रैव कार्य प्राप्नोतीति नाशङ क्यम-'उदश्चरः साप्यात् ।३३३३३११ 'चरेष्ट:' ।।१।१३८। 'व्रीह्यादिभ्यस्तौ' ।७।२१५॥ इव्यादि. ज्ञापकात केवलेष्वेव भवतीति । चर भक्षणे च, चरतीति चर: छदण् अपवारणे, छाद्यतेस्म-छन्न: णौ दान्तशान्तपूर्णः" ।४।४।७४। इति छन्न इति निपातनम् । कष्ट:-ट: ध्वनौ, कष्ठः-ठः ध्वनी कस्तः-तः तस्करे, कस्थ:-थः पर्वते। नोऽप्रशानोऽनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्याधुपरे ।१।३।८। पदान्तस्थस्य प्रशान्वर्जशब्दसम्बन्धिनो नस्य चटतेषु सद्वितीयेषु अधुटपरेषु शषसा यथासंख्यं स्युः, अनुस्वारानुनासिको चागमादेशौ पूर्वस्य क्रमणे स्याताम् । भवांश्चरः, भवाँश्चरः । भवाश्छ्यति, भवांश्छ्यति । भवाष्टङ्कः, भवाष्टङ्कः, । भवांष्ठकारः, भवाष्ठकारः । भवांस्तनु, भवांस्तनुः । भवांस्थुडति भवास्थुडमि । अप्रशानिति किम् ? प्रशान्चरः । अधुट्पर इति किम् ? भगवानसरुकः ॥८॥ ॥नः षष्ठी, 'शमू दमू उपशमे च' शम् । प्र। प्रशाम्यतीति प्रशान् 'क्विप्' ।५।१।१४।। 'अहन्पञ्चमस्थ०।४।१।१०५। इति दीर्घः, मो नो श्वश्च' ।२।११६७। इति. मस्य न । न धुट अधुट । अधुट्परो यस्मात चढतात सोऽधुट्परस्तस्मिन् इति । धुट्पगे यस्मादिति कृत्वा पश्चान्ना योगो न कार्यः तथा सति प्रसज्यशङ्कया वर्णाभावेपि भवाम् त् इत्यादावादेशस्यात् । परं न धुट अधुट अधुट्परो यस्मादिति विग्रहः कार्यः । अनुस्वार आगम अननासिकश्चादेश उच्यते। 'मित्रवदागमाः, शत्रुवदादेशा: । आगमः मित्रमिव सह वर्तते, आदेशस्तु शत्रुवद पूर्वस्य स्थाने तमुन्मूल्य वर्तते । भांक दोप्तो' Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) 'भातीति भातेर्डवतु' भवत् सि:, 'ऋदुदितः | १|४|७० । इत्यनेन त् उपरि न् न्त् । 'अभ्वादेरत्वस: सौ | १|४|८०| इति दीर्घः, दीर्घङ या ० | १ |४| ४५ | इति सेर्लोपः, ‘पदस्य' ।२।१।८९ । इति लुक् । प्रशाञ्चर इत्यत्र 'तवर्गस्य श्चवर्ग ० |१|३|६० | सूत्रेण । अधुटीत्युक्त्तौ चटते परतो योऽधुट् तस्मिन्परे नकारस्यैते भवन्तीति विपरीतार्थवारणाय अधुट्पर इत्युक्तम् । अत्र लक्षणप्रतिपदोक्तयोरिति न्यायात् नकारो लाक्षणिको न गृह्यते तेन त्वन् तत्र इत्यादी नस्य सो न भवति । अयं नकारो 'तो मुमी० ' | १| ३ | १४ | इत्यनेनानुनासिकशब्देन सामान्येन विहितत्वात् लाक्षणिकः । भवानित्यादौ तु नकारो नोन्त इत्यनेन नामग्राहं विहितत्वात् प्रतिपदोक्तः ||८|| पुमोsशिट्यघोषेऽख्यानि रः । १।३।९। 'म्' इति पुंसः संयोगलुक्यनुकरणम्, अधुट्परे अघोषे शिट्खयागिवर्जे परे 'पुम्' इत्येतस्य रः स्यात्, अनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य । पुंस्कामा पुस्कामा | अशिटीति किम् ? पुं शिरः । अघोषे इति किम् ? पुरंदासः । अख्यागीति किम् ? पुंख्यातः । अधुट्पर इत्येव क्षारः ॥ ९ ॥ ॥ पुमः षष्ठी पुमिति पुंसः संयोगान्तलोपस्यानुकरणम् । कमूङ कान्तौ 'कमेणिङ' | ३|४|२| 'णिति' | ४ | ३ |५० | इति वृद्धिः पुमांस कामयते इत्येवंशीला पुरस्कामा 'शीलिकामिभक्ष्या० | ५ | १|७३ । इति, अणपवादो णः, 'णेरनिटि | ४ | ३ |८३ | र्लोपः, 'आत्' | २|४| १८ | इत्याप्, 'पदस्य' | २|१|८९ । पुम्सः सलोपः, अनेन मः रः पूर्वस्य चानुस्वारानुनासिको । 'र: कखपफयो: ०' | २|३|५| इति प्राप्तौ पुस्' इति, रस्य सः । पांक् रक्षणे पाति पुरुषार्थमिति पुमान् 'पातेडुम्सु (१००२) 'पुम्स्', पुसः शिरः पुंशिरः, सलोपः शिड्ढेनुस्वारः | १| ३ | ४० । इति । पुंसो दास: 'पदस्य' । २११९८ । इति सलोपः । ख्याग्वजेनात् ख्यां धातोः पुख्यातः । पुंख्यात भवत्येव । पुंसः क्षारः 'वा ज्वलादि ०|५|१|६२ | सूत्रात् णः, अत्र घुट्परत्वाद् न रः । " Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न नः येषु वा ३१।३३१०। न निति शसन्तस्यानुकरणम्, न नः पे परे रो वा स्यात्, अनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य । न.) (पाहि, न.) (पाहि न पाहि, न.. पाहि ॥१०॥ न न: षष्ठी, पेषु वा । न न इति शसन्तस्यानुकरणम् अनुकार्यानुकरणयोर्भेदस्य विवक्षितत्वात्स्यादि: । पेषु इत्यत्र बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् ज्याप्ति माधुटपरे धुपरे च षकारमात्रेऽस्य प्रवृत्तिः तेन अधुटपर इति निवृत्तम् । तेन न )(प्सातीत्यायति सिध्यति । न न पाहि 'शसोता सश्च न पूसि ॥४॥४९। अनेन रत्त्वे, विकल्पेन रस्य (पादेश पूर्वस्यानुम्बारानूनासिकाभ्यां,न (पाहिन (पाहि,)(पादेशाभावे विसर्ने च न पाहि न पाहि इति भवति रादेशाभावे न न पाहीति पञ्च रूपाणि । रेफस्योपध्मानीये पक्ष विसर्गे पूर्वस्यानुस्वारानुनासिकाभ्यां चत्वारि रूपाणि एकपकाराणि ततः 'शिट: प्रथमद्वितीयस्य' ।१।३३३५॥ सूत्रात् शिट: परस्य षकारस्य द्व रूपे इति द्वित्वे चत्वारि रूपाणि, नकारस्य रस्वाभावे एकमेवं नव । अन्त्यस्यानुनासिकत्वेपि नवत्यष्टादश रूपाणि २) न न पाहि-हि (४) न : पाहि-हि. (६ न.) पाहि, हिं .(८) न (पाहि-हि (१० नृ' : पाहि, हिं (१२) न)(पाहि-हि (१४) न: पाहि-हिं (१६) न. )( पाहि-हिं (१८) नृ: पाहि-हि । दिः कानः कानि सः। १।३।११। 'कानः' किमः शसन्तस्यानुकरण, द्विरुक्तस्य कानः कानि परे सः स्यात्, अनुस्वारानुनासिको च पूर्वस्य । कांस्कान, काँस्कान् । द्विरिति किम् ? कान्कान् पश्यति ॥११॥ ॥द्वौ वारावस्य द्विः, अयमव्ययम् द्वित्रिचतुरः सुच्' ।२।२।११०। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेन सुच् ‘अप्रयोगीत्' ।१।१।३७। सूत्रेण स् । सिः'अव्ययस्य'।३।२।७।'सो रुः' ।।१।७२। 'र: पदान्ते० ।१।३।५३। इति विसर्गः । कान् 'वीप्सायाम्' ७।४।८०। इत्येन कान् इति द्विरुच्यते कान् कान् । 'षष्ठयान्त्यस्य' ।७।४।१०६। इत्यन्त्यस्यादेशो भवति । नन्वनुस्वारस्य पदत्वात् 'पदस्य' ।२।११८९। इति लोपः स्यादिति चेन्न "गौणमुख्ययोमख्ये कार्यसम्प्रत्ययः' इति न्यायात् अत्र लोपो न भवति अनुस्वारस्य सामर्थ्य प्रापितत्वेन गौणत्वात् । कान्कानित्यत्र एकः प्रश्नेऽन्यस्तु क्षेपे । ननु सकारस्य 'सो रुः' ।।२।१।७२। इति रुत्वं कथं ने भवति इति चेदत्रोच्यते रस्याधिकारेणैव सिद्ध सविधानं रुत्वबाधनार्थम् । स्सटि समः। १।३ । १२। समः स्सटि परे सः स्यात्, अनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य । संस्स्कर्ता, सँस्स्कर्ता । स्सटीति किम् ? संकृतिः। , .. सकारेणोपलक्षितः सट् स्सट् तस्मिन्, समित्युपसर्ग एव ग्राह्यः न तु षम वैक्लव्ये क्विबन्तस्सम् 'संस्कृते भक्ष्ये' ।६।२।१४०। इति प्रयोगात् । संस्करोतीति संस्स्कर्ता ‘णकतृचौ' ।५।१।४८। 'नामिनो० ॥४॥३॥१॥ इति गुणः, 'संपरेः कृगः स्सट्' ।४।४।९१। इति कृग आदिः स्सट् । तदनन्तरं 'स्सटि समः' ।१।३।१२। इत्यनेन मकारस्य सकारः पूर्वस्यानुस्वारानुनासिकौ च । अनुस्वारस्य पञ्जनत्वात्, 'धुटो धुटि स्वे वा' ।१।३।४८। इति सकारलोपे एकसकारं पक्षेदिसकारं संस्कर्ता, संस्स्कर्तेति रुपद्वयम् । संकृतिः- कृधातुः सम्पूर्वः । संस्क्रियादित्याशास्यमान इत्याशीविषये 'तिक्कृतौ नाम्नि' ।५।१।७१। अनेन तिक्प्रत्ययः । संस्करणं वा संकृति अत्र 'संपरेः कृगः०' ।४।४।९१। सूत्रेण स्सट् तु न भवति गर्गादिषु सकाररहितस्य पाठात् । 'गर्गादेर्यत्र' ।६।१।४२। सूत्रे गर्गादिगणः । सञ्चस्कारेत्यत्र समः सः कथं न भवति।। व्यवधानात् । ननुतर्हि पूर्वमेव सकारः क्रियताम् ? तदपि न, यतः परत्वात् नित्यत्वात् धातुमात्राश्रयत्वेन, अन्तरङ्गत्वाच्च प्रथममेव णव । ननु तहि सम्+कृग् इत्येतयोः व्यवधानात् स्सट: निवृत्तिर्य विष्पति निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभाव 'इति न्यायात, नैवम स्वाङ्गमव्यवधायि' इति न्यायेन आगमस्याव्यवधायकत्वात् । संचस्कार इत्यत्र पूर्वं स्सट् पश्चात् परोक्षाणव् सम् स्कृ स्व इति स्थिते 'अघोषे Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) " - शिटः । ४ । १ । ४५ इति शिटो लोपे पुनः स्सट् 'यं विधिं प्रत्युपदेशोनर्थक इति न्यायान्न भवति । अत्र किञ्चित् - ननु "स्थानीवावणौ ” |७|४|१०८ । न्यायात् स्थानिवद्भावात् संचस्कार इत्यत्र द्विरुक्त र्व्यवधानाभावात् समः सकारो भविष्यतीति चेन्मैवं अवर्ण विधौ स्थानिवद्भावनिषेधात् न च नायं वर्णविधिः डिति वर्ण समुदायाश्रयणादिति वाच्यं स्सट् इति सकारादिः स्सट्इति कृते वर्णविधित्वात् । लुक । १ । ३ । १३ । समः स्सटि परे लुक् स्यात् सस्कर्ता ॥ 1 लुञ्चधातो: ' कुत्संपदादिभ्यः | ५ | ३|११४ | इति क्विपि नलोपे च लुक् । ननु पूर्वसूत्रं 'स्सटि समो लुक् च एतादृशं क्रियतां किं पृथगारम्भेन ? नचैव करणे लुक्पक्षेपि अनुस्वारानुनासिकयोरपि निवृत्तिरिति चेन्मैवमनुस्वारानुनासिकौ हि कार्य सन्नियोगशिष्टी लुचोऽपि कार्यत्वात् तत्पक्षेऽप्यनुस्वारानुनासिको स्वातामतस्तदभावार्थं पृथग्योगारम्भ । पृथक्सूत्रकरणादनुस्वारानुनासिको च पूर्वस्य' इति निवृत्तम । तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ । १ । ३ । १४ । मोर्वागमस्य पदान्तस्थस्य च मस्य, व्यञ्जने परे तस्यैय स्वौ, तावनुस्वारानुनासिको क्रमेण स्याताम् । चंक्रम्यते, चङ कम्यते । भ्यते, वैव्वम्यते । त्वं करोषि त्वङ्करोषि कंवः, कॅव्वः । 7 ॥ तौ, मुश्च स् च मुम् तस्य । मुमयोरनुस्वारानुनासिकाभ्यां समसंख्यत्वेपि वचननिर्देशेन समत्वाभावान्न यथासङ्ख्य मन्त्रयः, ताविति द्विवचनम्, मुम इति चैकवचनम् । अत्र तच्छब्देनानुस्वारानुनासिकयोः परामर्शः । पद्यपि स्वौ इत्वेवोक्तावपि विशेष्यरूपतयाऽधिकारतो बुद्धिस्थावनुस्वारानुनासिको Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) प्राप्नुतः तथापि तौग्रहणमवधारणार्थम् । अनुस्वारानुमासिकावेत भवतः न तु लुक् पूर्वस्यानुस्वारानुनासिको चेति । एतदभिप्रायेणैव तावनुस्वारानुनासि कावि युक्तम् । अन्यथा अनन्तरोक्ता लुग् अनुवर्तत पूर्वस्य चेति ततश्च मुमोलुंग भवति पूर्वस्य चानुस्वारः, चंक्रम्यते इत्यादी पूर्वस्याकारादेः स्थानेऽनु नासिककरणे चङ्कम्यते इत्यनिष्टमापद्येत । म् ग्रहणेनैव सिद्ध मुग्रहणमपदान्तार्थमत एव मस्यैव पदान्तस्थस्येति विशेषणम् । स्वेत्यनुनासिकस्य विशेष - णम्, नाऽनुस्वारस्यासम्भवात्, अनुनासिकस्तु स्वोऽस्वोपि भवत्यतः सम्भवि - ' त्वाद् व्यभि वारित्वाच्च तस्यैव विशेषणं स्वः । स्वावित्यु भयोद्विवचनेन निर्देशेऽपि 'सम्भवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवदिति न्यायेनानु सिकस्यैव विशेषणम्, इदमेव द्विवचनमेतन्न्यायस्य ज्ञापकम् । ननु तच्छन्दस्य पूर्वपरामशित्वात् सकारलुचोरेव ग्रहणं कथं न भवतीति चेत्सत्यं सकारलुचोः स्वत्वासंभवात् अनुनासिकस्य च सम्भवादनुनासिकस्यैव ग्रहणं द्विवचनबलेन तत्सन्नियोगशिष्टा नुस्वारस्य च ग्रहणम् । क्रमू पादविक्षेपे भृशं पुनः पुनः वा क्रामति 'व्यञ्जनादेरेकस्वरा० |३|४|९| सूत्राद् यङ । 'सन्यङश्च' | ४|१|३| अनेन द्विः, क्रक्रम् 'व्यञ्जनस्थानादेर्लु' क्' | ४|१| ४४ | अनेन द्विरुक्तः व्यञ्जने आद्यं व्यञ्जनं स्थाप्यते, शेषं सर्वं लुप्यते । 'कश्चन | |४|११४६॥ अनेन कस्य चत्वम् । 'मुरतोऽनुनासिकस्य' | ४|१| ५१ | द्विरुक्तमध्ये मुरागमः तेत अनुस्वारानुनासिको भृशं पुनःपुनर्वा वमतीति । कम् सुखं ज्ञानं जलं वाऽस्यास्तीति 'कंशम्यां०' ७|२| १८| इत्यनेन वः । रंरग्यते इत्यादी स्वग्रहणादनुस्वार एव भवति । स्वग्रहणाभावेऽनुनासिकानुस्वारविधानेत्र निमित्तप्रत्यासत्त्या णकारादिर्भवेत् । 'ऋवरषाः मूर्धन्याः' | णकारादिवारणार्थं स्वविधानम् । न च रेफोष्मणां रेफोष्माणस्तु स्वा भवन्त्येव तदा रेफोष्माण एव कुर्यादिति वाच्यं तेषामनुनासिकत्वाभावात् । मनयलवपरे हे । ३ । ३ । १५ । मनयवलपरे हे पदान्तस्थस्य मस्यानुस्वारानुनासिको स्वोकमात्रयाताम् । कालयति किम्ालयति । कि ह, नुते, किह, नुते किह्यः, किया, किलयति, किंव्लयति, किह्लादयते, किं ह्लादयते । । ॥ १५ ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - • ॥मश्च नश्च यश्च वश्च लश्च मनयवला: । मनयवला: परे यस्मात् हकारात् स मनयवलपरः तस्मिन् । हकारस्य स्वौ नास्तीति हकारव्यवहितम नयवलानामपेक्षया स्वोऽनुनासिको भवन् मकारादिरूपेण भवतीत्यर्थः ननु 'मनयवले हे' इत्युक्तावपि मपरेभ्यो हकारः तस्मिन् इत्याद्यर्थलाभे कि परग्रहणेने त चेन्मैवं परग्रहणाभावे विनिगमकाभावेन एकतरपक्षपातिप्रमाणाभावेन हकारपरे योग इत्याद्यर्थलाभे किं नह्यति, कि याहि किं वहसि, कि लिह्यते इत्यादावेतत्सूत्रप्रवृत्तिः स्यात् न तु किं ालयतीत्यादौ । न चाकारादिना व्यवधानादत्र न भविष्यतीति वाच्य 'येन नाव्यवधानं तेनं०' इति न्यायाद् भविष्यति, न च प्रथमपक्षे कि मलयतीत्यादौ सूत्रस्य चरितार्थत्वाद् व्यवधानाश्रयणं न युक्तमिति वाच्यं येन प्रतिपादकेन हकारपरे मकारादावित्येषसूत्रार्थः स्वोकृतस्तं प्रति पक्षान्तरस्याभावात तस्माद विपर्ययप्रतीतिनिराकरणार्थ परग्रहणं कर्तव्यमेव । न च विपर्यय प्रतीतो हि वचनस्य वंयर्थ्यमेव स्यात्, 'तो मुमो व्यञ्जने स्त्रौ ।१।३।१४। इत्येव रूपद्वयस्य सिद्धत्वात्, सत्यम-तर्हि नियमार्थमेतत् स्यात् ततो मकासदी हकारपरे एव स्यात् नान्यत्र, ततश्च स्वं मन्यसे' इत्यादौ पूर्वेणापि न स्यादिति परग्रहणम् । मस्य पदान्ते वर्तमानस्येति व्याप्त्यर्थम् यावताभदान्तेऽपि म्वागमे पूर्वसूत्रोपात्तानुवृत्ते लकारस्य सानुनामिकत्वेऽ झोक्रियमाणे जंझलंयंते, जम्मल यते, जब हवल्यते, जंह वलेयते 'इत्याद्यपि भवति । ह्रङ क अपनयने ह्रते, ह्य इति अव्ययम् । हवलाल चलने ह वलति मलति कश्चित्तमन्यः प्रयुङ्क प्रयोक्त व्यापारे णिग्' ।३।४।२०। णिति ।४।३।५०। वृद्धिः । 'ज्वलह वलमल० ।४।३।२२। इति ह्रस्व: । ह्रादैङ, सुखे च ह लादयते । सम्राट् । १।३।१६। समो मस्य राजौ क्विबन्तेनुस्वाराभावः स्यात् । सम्राट्, समाजौ । ॥१६॥ - ॥ सम्-राजग दीप्ती, सम्यगराजते शोभते इति सम्राट. क्विप् 'यजसृजमृजराजभ्राज०।२।११८७। इति षः, 'धुटस्तृतीय:' ।२६११७६। इति ड् 'विरामे वा' ।१।३।२१। ट् । रेफस्य स्वत्वाभावादनुनासिकप्राप्तिरेव नास्ती Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) - स्याह-अनुस्वाराभावः इति एतन्निपातनम् । एकवचनस्यातन्त्रवाद्दिवचना: दावपि । हुणोः कटावन्तौ शिटि नवा ।१।३।१७। पदान्तस्थयोः इणयोः शिटि परे यथासङ ख्यं कटावन्तौ वा स्याताम् । प्राङ्क छेते, प्राङ्क शेते, प्राङ शेते। सुगण्ट्छेते, सुगण्ट्रोते, सुगणशेते ॥१७॥ इच ण च कुणी तयोः कश्च टश्च कटौ। अत्रान्तशब्द आगमबोधकः, । प्राङ्क ते 'अञ्चू गती च' अञ्च् प्रपूर्वः । प्राञ्चतीति प्राङ, 'क्विप्' ।५।१३१४८। 'अञ्चोऽनर्चायाम्' ।।४।२।४६। सूत्रेण नस्य लोपः । 'अप्रयोगीत् ।।१।३७। विवप्लोपः । सिः । 'अच:' ।१।४।६९। सूत्रेण चकारात् प्राक् नोन्तो भवति । 'दीर्घङयाब ०।१।४।४५ इति सिलोप:। 'पदस्य'।२।११८९। इति चलोपः । 'युजञ्चक्रुञ्चो नो ङ२।१।७१। सूत्रेण नकारस्य ङकारे प्राङ, इति । शेते । अत्र शीङक स्वप्ने वर्तमानाते 'शाङ ए: शिति ।४।३।१०४। अनेन गुणः । गुणण सख्याने 'चुरादिभ्यो णिच्' ।३।४।१७। 'यन्त्यस्वरादे:' १७।४।४३। सुगणयतीति क्विा सुगण् । कटयोंविधानसामर्थ्यात् 'घुटस्त्तीय: १२।१७६॥ इति न प्रवर्तते । प्राइक छोते इत्यत्र 'प्रथमादधुटि शश्छः ।१।३।४। इति शकारस्य छत्व भवति । "ड्नः सात्सोऽश्चः। १।३।१८। पदान्तस्थाभ्यां उनाभ्यां परस्थ, सस्य 'त्स' इति तादिः सो वा स्यात् । अश्चः चावयवश्चेत् शो न स्यात् । षड्त्सीदन्ति, षट्सीदन्ति भवान्त्साधुः, भवान्साधुः । अश्च इति किम् ? षट्श्च्योतन्ति । . ॥१८॥ उश्च नश्च इन तस्मात्, तादीनां द्रवद्रव्यत्वात् केवलानामान Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) यनासम्भवात् यथा पात्रे आनीयते तथाऽत्र ड्नोः केवलयोरुच्चारणासंभवादुच्चारणं स्वरेण सह कृतम् । स्च्युत, क्षरणे स्च्यु तेर्दन्त्यसकारोपदेशत्वात् श्चवर्जनात् 'सकारापदिष्ट कार्य तदादेशस्य शकारस्यापीति न्यायं ज्ञापयति अन्यथा सस्वप्राप्तिरेव नास्तीति तर्जनं व्यर्थ स्यात् । षष् जस् 'उतिष्णः सङ्घयाया लुप् ।११४१५४॥ सूत्रेण जस्लोपः, 'धुटस्तृतीयः ।२।११७६। सूत्रात् षस्य डः । सीदन्ति "श्रौनिकृवु०' ।४२।१०८। इत्यनेन । सूत्रे इन इति कर. णात् टत्वं न भवति "अघोषे प्रथमोऽशिट: १३५०1 सूत्रात् । पाणिनीये तु भवति । सादेशाभावे तु डस्य टो भवति । रच्योतति-'सस्य शषौ ।।३।६१। सूत्रात् शकारः । ननु 'त्स' इत्यत्र सकारविधानस्य निष्प्रयोजनत्वमिति चेत्सत्यं सस्य सविधानं तदवयवप्रतिपत्त्यर्थः । तदवयवप्रतिपतिश्च सकारा. नुवादं विनाऽशक्यं प्रकारान्तरेण गौरवापत्तेश्च । 'तवर्गस्थ०' ११।३१६०। सूत्रात् डात्परस्य तकारस्य न टकार: ‘पदान्ताट्टवर्गात्' ।११३३६३। इति निषेधात् । - 'नः शिञ्च् । १।३। १९ । पदान्तस्थस्य नस्य शे परे ञ्च वा स्यात, अश्चः । भवाञ्छूरः, भवाञ्चशूरः । अश्च इत्येव ? भवाश्योतति ॥१९॥ . नः षष्ठी । अश्च इति पदं सप्तम्यन्ततया विपरिणय्यानुवर्तमीयम, तच्च शीत्यस्य विशेषणम् । श्चघटकभिन्ने शकारे इत्यर्थः । उचादेशविधानसामर्थ्यात् चस्य कस्वं 'पदस्य' ।२।११८९॥ इति च न भवति । 'घुटो धुटि स्वे वा' ।१।३।४८॥ इति तु भवत्येव, तेन भवाञ्छूर इत्यपि भवति । भवान् शूर: 'प्रथमादधुटि शश्छः ।१।३।४। 'तवर्गस्य० ॥१॥३॥६०। सूत्रण नस्य । राजा. शेते इत्यत्र तु अन्यत्र लब्धावकाशयोः शास्त्रयोयुगपत्प्राप्तौ पर. त्वात् 'नाम्नो नोऽनह नः' ।२।११९१॥ इत्यनेन न लोपो भवति । अतोऽति रोरु।।१।३ । २० । आत्परस्य पदान्तस्थस्य रोरति परे उनित्यं स्यात् । कोऽर्थः ॥२०॥ ॥ अतः पञ्चमी । सूत्रेषु सामान्येन प्रथमं कार्यो, ततो निमित्तं तत! Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) कार्यमिति निर्देशक्रमः अत्र तु कार्यिणः पूर्व निमित्तोपादानेन निर्देशातिक्रमः नवेत्यधिकारनिवृत्ति सूचयति । किम् स्, किमः कादेशः सकारस्य 'सो रु :' |२१|१२|कर + अर्थ: 'रोर्यः | १ | ३ | २६ | सूत्र बाधित्वानेन रोरुत्वम्' रोर्य:' : । १।३।२६। इत्यस्यापवादत्वात् 'सर्वत्रापि विशेषेण सामान्य बाध्यते 'ब्राह्मकौडिन्यन्यायेन । क उ अर्थ: अवर्णस्ये० | १२|६| सूत्रादोकार : 'एदोत: ० ' |१| २|२७| इति अकारलोपः ननु । सन्निपातलक्षणां विधिरनिमित्तं तद्विघातस्येति न्यायात् क + उ + अर्थ इति जाते 'अवर्णस्ये० | १२|६| सूत्र नव प्रवर्तते ति चेन्न 'अतोऽति० | १।३ २० । इति न्यायस्यात्र प्रवृत्तेः । नच क + उ + अर्थ इत्यत्र 'इर्णादेः' | १|२| २१ | इति वकारः प्राप्नोति कथमोकार इति वाच्यमन्तरङ्ग बहिरङ्गात्' । इति न्यायेनैकपदाश्रितत्वेनान्तरण कार्य पूर्व भवति इति कोऽर्थः इति सिद्धम् । 'अतोऽति' | १३ | २० | इति निर्देशात् सानुबन्धस्य रोरेव ग्रहणम् तेन तरु अयनम् इत्यत्र न भवति एतत्सूत्रानुवृत्तरो: 'अवर्णभोभगोso ' |१| ३| २२ | सूत्रे पदान्तेऽसम्भवात् सानुबन्धस्य रोग्र हणम् । सानुबन्धग्रहणात् न निरनुबन्धस्य' इति न्यायात् प्रातर् + अत्र इत्यत्र न रस्य उकारः । t घोषवति । १ । ३ । २१ । आपस्य पदान्तस्थस्य रोर्घोषवति परे उः स्यात् । धर्मो जेता । ॥ २१ ॥ ॥ घोषोऽस्यास्तीति घोषवत् तस्मिन् अघोष पक्षेयाऽतिशायिघोषक्तवात् । अघोषे तु 'अनुदरा कन्येति न्यायात् घोषाभावः । निमित्तान्तस्योपादानात्पूर्वसूत्रात् 'अति' इति नानुवर्तते । ननु पूर्वसूत्र एवं घोषग्रहणं कर्तव्यमर्थस्य समानत्वात् किं पृथग्योगेनेति चेत्सत्यं पृथग्योगो हि 'घोषवति' इत्यस्यैवोत्तरानुवृत्त्यर्थमन्यथा एकयोगनिर्दिष्टत्वात् अतीत्यप्पनुवर्तेत । ननु धर्मो जेतेत्यादि स्थले 'अवर्णभोभगोधो० ' | १|३|२२| इति घोषवति' | १|३|२१| इत्युभयप्राप्ती लुगेव स्यादिति चेन्मैवं लुचः प्रवर्तने घोषवति | १ | ३ | २१ | सूत्रं निरवकाशं स्यात् 'निखकाशं सावकाशादू बलवद् इति न्यायेनापरादत्वादुत्वमेव भवति । न च अवर्णग्रहणादकारं प्रति लोपस्यापि निरवकाशत्वमिति वाच्यमवणं ग्रहणस्योत्तरार्थत्वात् । जयती जेता 'णकतृचौ | ५ | ११४८ | सूत्रात् तृच् । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (७३ अवभिीभगोऽधोल मिसन्धिः । १।३ । २२ । अवर्णाद भोमगीअघोभ्यश्च परस्य पदान्तस्थस्य रो?षधति परे लुकं स्यात्, स च न संन्धिहेतुः देवा यान्ति, भो यासि, भगो हस । अघो वर ॥२२॥ अवर्णश्च मोश्च भगोश्च अघोश्च तस्मात 'अध्ययस्य' शराज सूत्रादू ङसेल क् । भोस् भगोस् अघोम् इति त्रयोऽपि सकारान्ता अव्ययाः सम्बोधनेर्थे। भो भंगोअधोइति कृतसलोपानामनुकरणम् । अत्र सूत्रे अवर्ण इत्युक्तावप्याकार एव ग्राह्यः । ननु लुकोऽभावरूपत्वात् सन्धिरूप एव भवितुं नाहतीति तत्प्रतिषेधर्वयर्थ्य मितिचेन्न सन्धिशब्द उपचारासन्धिहेतुरित्यर्थकः । देवा यानि 'सो रुः ।२।११७२ अनेन लुक. । हस हसने पञ्चमीहि। वद व्यक्तायां वाचि पञ्चमीहि । न चात्र लगन्तरं कस्यापि सन्धेरप्राप्तेः असन्धिग्रहणं व्यर्थ मिति वाच्यम् असन्धिग्रहणस्योतरार्थकत्वात् ।। न च 'स्वरे वा' इत्यत्रैव असन्धिग्रहण क्रियतामितिवाच्यं लुग्सम्नियागशिष्टत्वज्ञा: पनार्थमत्रोपादानं तेन यत्र लुगधिकारः तत्रैवासन्धिरित्यविकारः । किञ्च 'असन्धिः स्वरे वा' इति सूत्रकरणे स्वरे परेऽसन्धिर्वी भवतीति संदेहः स्थात् तथा सति दण्ड अग्रमित्याद्यनिष्टरूपं जाये तेति ॥२२॥ व्योः ।१।३ । २३ । अवर्णात्परयोः पदन्तिस्थयोवंययो?षवति परे लुक् स्वाती सेवा सन्धिः । वृक्षवश्चमव्ययञ्चाउचक्षाणो वृक्षव, अव्यय, पक्ष याति अव्य याति ॥ २३ ॥ छ च य च व्यो तय: । औद्रश्चीत् च्छेदने बस्छ । वृश्च्यते छिचते कुठारादिभिः स वृक्षः । 'सस्य शसौ' |१६३६६१। इति श 'ऋजिरिषि (५६७) उणादिकित्संप्रत्ययः 'हवश्चभ्रस्जप्रच्छ०' ४१२८४) सूत्राद् बृत् 'संयोगस्यादी स्कोलक' १२२११८४॥ इति शकारलुक् । 'यजसज०' ।२।११८७इति चकारस्य ककारः, 'नाम्यन्तयाकवर्गात २३१५६ सकारस्य वकार | Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओव्रश्चौत् छेदने 'सस्य शषौ ।१।३।६१। वृक्षं वृश्चति 'मन्वन्क्वनिप्० ॥५॥१॥ १४७। ग्रहवश्च०।४।१।८४। इति वृत् । वक्षवश्चमाचष्टे इति वाक्ये णिज्बहल नाम्नः० ॥३॥१॥४२॥ इति णिच्, व्यन्यस्वरादेः ।७।४।४३॥ अनेनान्त्यस्वरमादौ कृत्वा सर्वव्यञ्जनलोप: तत: वृक्षव् इति रूपम् । अव्ययमाचष्टे इति वाक्ये "णिज्बल ३१४१४२। इति णिच् 'ज्यन्त्यस्वरादे:'।७।४।४३। इत्यन्त्यस्वरादिलोय: अव्ययतीति 'क्विप'।५।१११४८। णिलोपे अव्यय इति शब्दः । न च वक्षव करोतीत्यत्र पदान्तत्वं नास्ति णिलोपस्य 'स्वरस्य' ।७।४।११० इति स्थानि'वत्त्वादिति वाच्यं 'न सन्धि० ७।४।१५१॥ इति निषेधः । वृक्षवृश्चमाचष्टे इत्यत्र क्विप् प्रत्ययो न कार्यः परन्तु विच, कथं ? विवपि तु 'अनुनासिके च्छवः शूट' ।४।१।१०८। इत्यूट स्यात् । ननु अव्ययमाचष्टे इत्यव्यय इत्यत्र, 'य्वो: प्वयव्यञ्जने०।४।४।१०८। सूत्रेण यस्य लोपः प्राप्नोतीति चेत सत्यं 'क्वौ ।४।४।११८। इति पथक्सूत्रकरणेन ज्ञापितात 'क्विपि व्यञ्जनकार्यमनित्यमिति न्यायात यकारलोपो न मवति । विवि मये तु 'स्वरस्थ०1४1 ११०। इति स्थानिवत्त्वादेवाप्राप्ते: क्विपि तु 'न सन्धि १७:४।१११॥ इति सूत्रे 'क्वि' इत्यनेन स्थानिवत्त्वनिषेधः ॥२३॥ स्वरे वा।१।३।२४।.. अवर्णभोभगोअघोभ्यः परयोः पदान्तस्थयोर्वययोः स्वरे परे लुग्वा स्यात्, स चासन्धिः पट इह, पटविह। वृक्षा इह वृक्षाविह । त आहुः, तयाहुः । तस्मा इदम्, तस्मायिदम् । भो अत्र, भोयत्र । भगो अत्र, भगोयत्र । अघो अत्र, अघोयत्र ॥२४॥ ....... ....पशब्दो निपूणार्थकः, पटू आमन्त्र्यसिः।"हस्वस्य गुण: ।१४१४१॥ 'ओदौतोऽवाव्' ।१।२।२४। इति पटव । वृक्षा इह 'ओदौतोऽवात् ।१।२।२४। इति आह:-'ब्रक व्यक्तायां वाचि' वतमानान्ति 'ब्र ग: पञ्चानां पञ्चाहश्च' १४।२।११८॥ सूत्र शान्तिस्थाने उस् । ब्रूगः स्थाने आहः । ते. आहुः ‘एदैतोयाय ।१।२।२३। तस्मै इदम्, भोस् अत्र इत्यादी अत्रः ‘सो रुः । ।१।७२। 'होय:' ।१३।२६। इति स्वरे वा' १३१२४। इति यलोपः । पश्चादसन्धिः । त, आहु इत्यत्र 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्ग । इति न्यायात् यस्यासिद्धस्यात् 'अतः स्यादौ ।१।४।१। सूत्राद् दीर्घो न भवति ।।२४।। ... Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (७५) अस्पष्टावणत्तिवनुनि वा।१।३ । २५ । अवर्णभोभगोअघोभ्यः परयोः पदान्तस्थयोर्वययोरपृष्टावीषत्स्पृष्टतरौ वयो स्वरे परे स्याताम्, अवर्णात्त परयोोरुञ्वजे स्वरेस्पष्टौ वा स्याताम् । पटवू, असावें, कयु, देवायु, भोयेंत्र, भगोपत्र, अघोयेंत्र, पटविह, पटविह. असाविन्दुः असाविन्दुः तयिह तयिह, तस्मायिदम् तस्मार्थिदम् ॥ २५ ॥ ........ • ॥न स्पष्टौ अस्पष्टो रपशेणिजन्तात् क्तप्रत्यये ‘णो दान्तशान्त० ।४।४।७४। इति निपातनम् । भिन्नावयवत्वप्रतिपादनाय तूशब्दः । ईषत्स्पृष्टतरौ-उच्चारणे मन्दतरप्रयत्नौ। शिथिलस्थानकरणपरिस्पन्दावित्यर्थः । शिथिलाभ्यां स्थानकरणाभ्यामुच्चार्यमाणो वकारयकारी अस्पष्टाविति । अस्पष्टावित्येको योगः, अवर्णात्त्वनुनि वेत्यपरो योगः, प्रथमे योगे वेति न सम्बध्यते अत एव नित्यमस्पष्ट-विधानम् । सर्वमिदमवर्णपदोत्तर तुशब्दात्सूवितम् । पटों उन , अवादेशः । उत्तरयोगेनावर्णात्परयो: यवयोः उवर्जस्वरे परे एव विकल्पतः अस्पष्टवययोविधानात् उपरे नित्यं तौ भवतः । असौ उ, 'अदसो द: सेस्तु डौ ।२।१।४३। इत्यदसो दस्य सः, कस् उ सो रु: ।२।१। ७२। 'रोर्य' ।१।३।२६। अस्पष्टो यः, देवास् उ, भोस् अत्र इत्यादी। पटो इह, अवादेश:, विकल्पेन अस्पष्टो वः, स्वरे वा ।१।३।२४। इति लोपो वा, पट इह, पक्षे पटविह एवमग्रेऽपि ॥२५॥.... रोयः।१।३ । २६ । अवर्णभोभर्गोअघोभ्यः परस्य पदान्तस्थस्य रोः स्वरे परे यः स्यात् । कयास्ते, देवायास्ते, भोयत्र, भगोयत्र, अघोयत्र ॥२६॥ ॥ रोः षष्ठी, यः प्रथमा। रकारमात्रस्य यत्वविधाने पुनरत्रेत्यादावपि यत्वं प्रसज्येतेति रोहणम् । अत्रानन्तरोऽपि अवर्णादिति नानवर्तते भो इत्यादिभ्यो यकारस्यास्पष्टयकारविज्ञानात् इति व्यवहितोऽपि अवर्णभो. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) भगोअघोभ्यः एवानुवर्तते । कस् आस्ते सो रुः।२।१।७२। अनेन म:। स्पाविविधी रोरसत्त्वात् 'अत: आः स्यादी० ॥१॥४१॥ इति ये परे न दीर्धः । देवायासते . मासिक उपवेशने वर्तमानात्मनेपदमन्तेप्रत्ययः, 'अनतोमतोदात्मने ।४।१।११४ सवादन्तेर्नकारस्य लोपः । ननु तरोरयनं तर्वयनम् इत्यादावेद'रोर्यः ।१।३।२६। इति प्राप्नोति नैवम् एवंकृते भो:प्रभृतिभ्यो यकारासम्भवात् 'स्वरे वा ।।३।। २१॥ इत्यादीनि सूत्राणि निरर्थकानि स्युः ॥२६॥ हस्वान् नो ब्दे । १।।।१७। ह्रस्वात्परेषां पदान्तस्थानां हु नां स्वरे परे द्वे रुपे स्याताम् । कुछ छाने, सुगविणहू कृषलास्ते ॥ २५ ॥ ॥ह स्वातु, श्च णश्च नश्च ङ,नम् तस्य, द्वे+प्रथमा । द्वि प्रथमाद्विवचन, ओ। नपुसकलिङ्गे औरो: ।।४।५६) अनेन औस्थाने ईः । आ द्वरः।२।१।४१। इत्यनेनान्तस्य अकारः । 'अवर्णस्ये० ।१।२।६। सूत्रादेकारः क्रुञ्चतीति ऋड विवप्, सि 'पदस्य'।२।११८९। इति चलुक् 'युजञ्चकुञ्चो० ।।१२७१॥ इति नस्य ङकारे क्रूड, आस्ते अनेन द्वित्वम् । सुष्छु गणयतीति विवपि सुगण इह . कृषीत् विलेखने, कृषतीति कृषन् आस्ते, कृषन्नास्ते इत्यत्र बहिरङ्गस्य द्वित्वस्यासिद्धवात् 'रषवर्णान्नो' ।।३।६३। सूत्रात् णत्वं न भवति । ननु 'उणादयः ।।२।९३। सूत्रे 'अनाङमाङो दीर्घात् वाच्छः ।।३। २८॥ इति सूत्रे द्वित्वं कथं न भवतीति चेन्मेवं 'उणादयः ।।२।९३॥ इति स्व. रूपनिर्देशात् अनाड माडो० इत्यत्र 'अन् स्वरे' ॥३।२।१२९॥ इति अनादेशविधानबलान्न भवति ॥२७॥ - अनाङ्माङो दीघाि छः।१।३।२८। आङमाङ वर्जदीर्घात्पदान्तस्थात् परस्य छस्य द्वे रुपे वा स्याताम् । कन्याछत्रम्, कन्याछनम् । अनाङ माहिति किम् ? आच्छाया, पापि ॥२८॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (७७) ॥ आङ च माङ, च न आङमाङ अनाङमाङ तस्मात् कन्यायाश्छत्रं कन्याच्छत्रम् छस्य द्वित्वे कृते 'अघ षे प्रथमाऽशिट: ।१।३।५। सूत्रेण एकछस्य चकार: । आ ईषत् छाया आच्छाया अत्र ईषदर्थ आङ शब्दः अत्र 'स्वरेभ्यः' ।१।३।३०। इति नित्यं द्वः रूपे। माच्छिदत् 'छिदव्यी द्वे धोकरणे 'माङ यद्यतनी ।५।४।३९। इति वचनाद्वर्तमानेऽप्यद्यतनीदि, ऋदिच्छि व।३।४। ६५॥ इति अङ्ग ‘स्रेभ्यः (१।३।३०। इति प्रवर्तते । आङ साहूचर्येणाव्ययस्य माडो ग्रहणात् प्रमाच्छात्र, प्रमाछात्र इत्यत्र विकल्प एव । अत्र हि माधातु न त्वव्ययः । पदान्ते इति दीर्घस्य विशेषण न छस्य असंभवात्, पदान्ते हितस्य विकारेण भाव्यम् । शब्दप्राट् 'अंनुना०।४।१।१०८। इति ननु पर्युदासातु आङ् माङ् वर्जनादेव दीर्घात् इति लब्धे किमर्थं दीर्घादित्यनेने चेत्सत्यम् आङ, माङ् अव्ययमिति तदन्यस्याप्यव्ययात् दीर्घादित्यपि प्रसङ्गः स्यादिति ॥२८॥ प्लुताद्वा । १।३ । २९ । पदान्तस्थाद् दीर्घात्प्लुतात् परस्य छस्य २ रुपे वा स्याताम् । मागच्छ भो ! इन्द्रभूते ३ च्छत्रमानय, पक्षे छत्रमानय ॥ २९ ॥ . दीर्घस्तु द्विमात्रः, प्लुतस्तु त्रिमात्रः इति सामानाधिकरण्यासंभवात् मना: क्रोशन्तीत्यादिवत् स्थानोपचारात् दीर्घस्थात्प्लुतादित्यर्थो बोध्य: अथवा दीर्घोऽस्यास्तीति स्थानित्वेनेति अभ्रादिभ्यः । ७/१४६॥ इत्यप्रत्यये दीर्घस्थानात्प्लुतादित्यर्थो बोध्यः । भो इन्द्रभूते, दूरादामन्यस्य ०५७।४।९९। इति प्लुत:, छत्रम्-अनेन विकल्पेन छस्य द्वित्वम् । भूतपूर्व दीर्घमाश्रित्य पूर्वसूत्रेणैव सिद्धाविद्र पृथक्सूत्रकरणं ह्रस्वदीर्घापदिष्टं कार्य न प्लुतस्य' इति न्यायमापनार्थम् । एवमेव हे राज ३ निह, इत्यादौ परत्वान्तित्यत्वाच्च 'दूरादा' ।।४।९९। इति जकारोत्तरवर्त्यकारस्य प्लुतत्वे कृते 'भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः' इति न्यायेन ह्रस्वोपचारावास्य'हस्कान्ङ ना०।१।३।२७। सूत्राद्वित्वमुक्तन्यायात् । तथा हेलो ३ त्रात इत्यत्र अदीर्घाद् ॥१॥३॥३२॥ सूत्रे दीर्घवर्जनेऽप्युक्तन्यायेन प्लवावर्जनाद् दा द्वित्वम् । परे तु 'ह्रस्वदीर्घापदिष्टं कार्य न प्लुतस्य इति न्यायोऽनाश्रयणीयः तेषामाभिप्रायस्त्वित्थम् दीर्घो द्विमात्रः, प्लुतस्त्रिमात्र:, ह्रस्व Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) एकमात्र इति स्वाभाविक एव भेद अतः हस्कादीर्घापदिष्टं कार्य प्लुतस्य नैव भविष्यतीति । न च भूतपूर्वकन्यायेन भविष्यतीति वाच्यं भूतपूर्वकन्यायो हि शास्त्रप्रवृत्त्यभावे सत्य नष्टकारणायाश्रीयते न त्वनिष्टसंपादनार्थमिति अन्यथा रामानिह इत्यत्र सोडता० | १|४| ४९ ॥ इति जातस्य दीर्घस्य भूतपूर्वकन्यायेन ह्रस्वत्वात् 'हस्वान्ङ ण्नो द्व' रूपे प्रसज्येयाताम् ||२९|| स्वरेभ्यः 7:19 13 13 0 ! स्वरात्परस्य छस्य द्व े रुपे स्याताम् । इच्छति गच्छति ॥ ३० ॥ 7 ॥ स्वरैभ्यः ॥ द्वे छः इत्यनुवर्तते । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् तेन पदान्ते इति निवृत्तम् इच्छति, पदान्तेऽपि भवति तेन वृक्षच्छाया । इष . इच्छायाम् ' गमिषद्यमरः । ४ १२ १०६ । इति छत्वेऽनेन द्वित्वे 'अघोषे प्रथमोशिट : ' | १|३|५० | इति प्रथमः ॥३०॥ हीद र्हस्वरस्यामु नवा । १ । ३ । ३१ । स्वरात्परार्ध्ना रहा परस्य रहस्वरवर्जस्य वर्णस्य द्व रुपे वा स्याताम् । अनु कार्यान्तरात्पश्चात् । अर्कः, अर्कः । ब्रहम्म ब्रह्म । अर्हष्वरस्येति किम् ? पद्महहः, अर्हः, करः । स्वरेभ्य इत्येव-अनयते । अभिवति किम् ? प्रोणुं नाव ॥ ३१ ॥ • ॥ रश्च हश्च है: तस्मात् होत् । रश्च हश्च स्वरश्च र्हस्वर: । न विद्यते र्हस्वरा यत्र वर्णे सोऽर्हस्वरः, तस्य । अर्च्यते स्तूयते इत्यर्कः, चस्य कः अनेन सूत्रेण विकल्पेन कस्य द्वित्वम् । ब्रह्म-मस्य द्वित्वम् । पद्मश्चासो हृदश्चेति । अत्र हकारपरी रकारः । अर्हति रकारपरो हकारः । अर्हतीति अच् अर्हः क्रियतेऽनेनेति कर:, 'पु'नाम्नि' |५|१|१३० । अत्र स्वरपरः रकारः । अभ्रयते अत्र व्यञ्जनात्परो रेफः। प्रोणु नावेति- प्रोपसर्गात् ऊर्णु आच्छादने धातोः । परोक्षाणवू । ऊर नु इति कृत्वा पश्चात् स्वरादेद्वितीयः |४|१|४ | 'अयि रः |४|१|६| 'णषमसत्परे० | २|१|६| सूत्रात् णस्यासत्त्वात् नु इत्यस्य Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९) द्विर्वचनम्, ननु प्रथमनु इत्यस्य णत्वे कृते 'हदिर्ह ० ११।३३३१० सूत्रेण णस्य 'द्वित्वे 'ण' विकल्पपक्षे तु द्वित्वाभाव: । 'नामिनोऽकलिहले० ' १४३३५१७ सूत्राद् वृद्धि: । अत्र अनु इत्यस्याभावे अन्त रङ्गत्वादनेन द्वित्कृते - पश्चाद् बहिरङ्ग परोक्षानिमित्तं द्विर्वचनं स्यात् ततश्च प्रोर्णुन्नावेत्यनिष्टं रूपं स्यात्, अतः प्रथमं प्रोर्णुनावेति प्रसाध्य ततोऽनेन णस्य faraम् । नतु 'निमित्ताभावे नमित्तिकस्याध्यभावः इति न्यायात् द्वित्वं निवत्स्यति कृतमनुग्रहणेनेति चेन्मैवमयमेवानुग्रहणं 'निमित्ताभावे० ' इति न्यायस्यानित्यतां दर्शयति । अथवा लोकप्रसिद्ध वास्यानित्यता- लोके कुम्भकारस्य बिनाशेपि घटस्य दर्शनात् । ननु पद्मह्रद इत्यत्र रत्व-द्वित्वे कृतेऽपि 'रो रे लुग्० |११३।४११ इति लुचि पद्मद इति भविष्यतीति न किङिचद् विनष्टमिति चेत्सत्यं ययंत्र वर्जनं न स्यात्तदोत्तरसूत्रेपि वर्जनाभावे अर्हः इत्यत्रोत्तरेण द्वित्वे आर्हः इत्यनिष्टं रूपं स्यात् । ननु कर इत्यत्र 'लुगस्थान | २१११११३ इत्यनेव रस्य लुग्भविष्यति कि स्वरवर्जनेनेति चेत्सत्यं चारु, दारु वारि इत्यादी चारू दारू वारी इत्याद्यनिष्टं रूपं स्यात् । अर्च्यते स्तूयते इति अंक : न्यं कूद |४| १|११२ ॥ सूत्रेण न्यङ क्वादित्वात्ककारः । ॥३१॥ अदीर्घाद् विरामैकव्यञ्जने । १ । ३ । ३२ । दीर्घास्वरात्परस्यरहस्वरवर्जस्य वर्णस्य विरामे असंयुक्तव्यञ्जने च परेऽनु द्वे रुपे वा स्याताम् । त्वक्क्, स्वक्, बद्धध्यक्ष, दध्यत्र, गो ३ त्रात, गो ३ त्रात अर्हस्वरस्येत्येव ? वर्मा, बहू, पं, तितज ॥ ३२ ॥ ॥ न दीर्घः अदीर्घः तस्मात् एक च तद् व्यजनं च विरामश्च एव व्यंजन च तस्निन् । अदीर्घादिति पर्युदासादनुवृतस्य स्वरस्य विशेषणम् । त्वक्कति अनेन द्वित्वम्, पुनश्चानेन एकव्यजने परे यावत्सम्भव: तावद्विधिरिति न्यायात् द्वित्वं न भवति किञ्चित्फलाभावात् अन्यथाऽनवस्थादोषप्रसङ्गात् क्रियानुपरमप्रसङ्गादित्यर्थः । अन्यत्र द्वित्वस्य चरितार्थत्वेपि 'व्यक्ति: पदार्थ:' इति न्यायेन अर्हस्वरमात्रस्य द्वित्वविधानसामर्थ्यात् Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20) 'पदस्य' | २|१|८९ | 'संयोगस्यादी० | २|११८८ । इति वा न प्रवर्तते । दध्यत्रेत्यत्रानेन धकारस्य द्वित्वे 'तृतीयस्तृतीय० १ १ ३२४९ | सूत्राद् धस्य दत्वम् । ननु धस्य द्वित्वें कृते 'स्वरस्य परे प्राविधी | ७|४|११० सूत्रेण स्थानिवद्भावाद धस्य द्वित्वं न भविष्यतीति चेन्मैवम् 'न सन्धि | ७|४|१११ | सूत्रेण सन्धिविधी स्थानिवत्त्वनिषेधः । ननु दद्ध्यत्रेत्यत्र यकारस्य पदान्तत्वात् 'पदस्य [२२११८९ इति लोपः प्राप्नातीति चेन्न 'असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग इति न्यायेनान्तरङ्ग यकारलोपे कर्तव्ये बहिरङ्गस्य यकारस्यासिद्धत्वात् । न च बहिरङ्गस्य यकारस्यासिद्धत्वात् द्वित्वमेव न प्राप्नोति इति वाच्यं संन्धिग्रहणेनैव स्थानिवद्भावनिषेधसिद्ध पि द्विग्रहणस्यै तन्न्यायबाधनार्थत्वात् 'न्याया: स्थविरयष्टिप्राया: । अन्वित्यधिकारात् कत्वगत्वादिषु कृतेषु पश्चाद् द्वित्वं भवति अन्यथा प्रथममनेन विकल्पेन द्वित्वे 'चजः कगम् | २|११८६ | इति कत्वे कृते पश्चात् स्तृतीयः | २|१|७६ | इति तृतीये स्वच्ग इति स्वच्क् इति अनिष्टरुपपत्तिः स्यात् । गो ३ र त्रातेति 'दूरादामंत्र्य० ७|४|११ ॥ इति प्लुतः अनेन तस्य द्वित्वम् । वृङ श् संभत्तौ व्रियते इति वर्या वर्योपसर्या ||१|३२| अनेन यप्रत्ययः । वहीं प्रापणे उह्यतेऽनेनेति वह्य शकटम् 'वह्य ं करणे | ५|१|३४| सूत्रेण यप्रत्ययः । अत्र स्वरात् परो हकारः । तनूयी विस्तारे तनोतीति 'तने उ: । ७४८ ) स च सन्वद् भवति । द्विर्वचनम् 'सन्यस्य' |४|१|५९ | सूत्रेण इत्वम् । अत्र स्वरात्परः उकारः तित उश्चालनिकेत्यर्थः । ॥३२॥ अस्वर्गस्यान्तस्थातः । १ । ३ । ३३ । अन्तस्थातः परस्य जवर्जवर्गस्य अनु द्व े रुपे वा स्याताम् । उत्क्का, उल्का । अञिति किम् ? हल्ञौ । ।। नञ् अञ्, 'नञत् ३२ । १२५ । अम् चासौ वर्गश्च अञ्वर्ग: तस्य, अन्तस्थाया इति अन्तस्थात: 'आद्यादिभ्यः | ७२८४ इति तस् । 'ऐकार्थे' ||राटा इति पञ्चमीलुप् । उल्क्का, अत्र लकारात् परस्य ककारस्य द्वित्वम्ं aircare कवलधातो: 'निष्क-तरु०' उणा० २६ इति निपातः । परमते - नस्य हल्सञ्ज्ञा, हल चासौ ञश्च हल्ञी, अत्र त्रस्य द्वित्वप्रतिषेधः ||३३|| Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) ततोऽस्याः ।१।३॥ ३४॥ ततोऽऽवर्गात्परस्या अस्या अन्तस्थाया दुरूपे वा स्याताम् । दध्यत्र, दध्यत्र ॥ ३४॥ तस्मात् ततः, अस्याः षष्ठी । तच्छन्देनाञ्वर्गस्य परामर्शः, इदंशब्देन चान्तस्थाशब्दस्य । दध्येत्यत्रानेन सूत्रेण धकारात्परस्य यस्य द्वित्वम् तथा च धकारयकारयोद्वित्वविकल्पादेकधयकारात्मकमेकं रुपम् ? द्विध द्वियघटितमेकं रुपम् २ । द्विधैकयघटितमपरं रुपम् ३ एकधद्वियघटितं चान्यत् ४ । इति सामान्यत चत्वारि रूपाणि । अस्याः । इदम् षष्ठीङस् 'आ द्वरः १२।१॥४१॥ इति मस्य अ: । 'आत्' ।२१४११८॥ इति आप्, 'आपो ङितां ये यास् यास् याम् ।१।४।१७३ सूत्रात् उसस्थाने यास् । 'अनक' २१११३६। । सूत्रेण यासः पूर्व डस् । 'डित्यन्त्यस्वरा० ।२।११११४। इत्यन्त्यस्वरादिलोपः। ॥३४॥ शिटः प्रथमद्वितीयस्य । १।३।३५ । शिटः परयोः प्रथम द्वितीययोढे ये वा स्याताम् । त्वंकरोषि । स्वं करोषि । त्वंक्खनसि, त्वं खनसि ॥ ३५॥ ॥शिटः पञ्चमी, प्रथमश्च द्वितोयश्च प्रथमद्वितीयं तस्य । 'अं अः क ) ( प शषसाः शिट् ।१।१।१३। सूत्रात् शिट्संज्ञा। त्वं करोषि. . 'तो मुमो० ॥१॥३॥१४॥ सूत्रादनुस्वारः, अत्रानुस्वाररुपशिट: परस्य कस्य द्वित्वम् । त्वं क्खनसि- अत्र द्वित्वे 'अघोषे प्रथमोऽशिट: ।१।३।५०। इति खकारस्य ककारः ॥३५॥ ततः शिटः।१।३।३६ । । ततः प्रथमद्वितोयाभ्यां परस्य शिटो दे रूपे वा स्याताम् । तम्शेते, तशेते ॥ ३६॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) ॥ ताभ्यां ततः, शिटः षष्ठी । तत्पदेन प्रथमद्वितीययोः परामर्शः । तच्शेते, तद् सि 'अनतो लुप् । १।४ । ५९ । 'अघोषे प्रथमोऽशिट: । १ । ३ । ५० । इति दस्य त्, 'तवर्गस्य श्चवर्गं ० | १|३|६० । इति तस्य च् ॥३६॥ न रात्स्वरे । १ । ३ । ३७ ॥ रापस्य शिटः स्वरे परे द्व रूपे न स्याताम् । दर्शनम् । ॥ ३७ ॥ ॥न, रात् पञ्चमी | प्रेक्षणे अतः करणे वाऽनटि दर्शनम् । 'हीर्हस्वरस्य० | १1३।३१ । इति द्वित्वे विकल्पे प्राप्ते निषेधः ||३७|| पुत्रस्याssदिन्पुत्रादिन्याक्रोशे । १ । ३ । ३८ । आदिनि पुत्रादिनि च परे पुत्रस्थस्य तस्य आकोशविषये द्व े रूपे न स्थाताम् । पुत्रादिनी त्वमसि पापे, पुत्रपुत्रादिनो भव । आकोश इति किम् ? पुत्त्रादिनी शिशुमारी, पुत्रादिनीति वा । पुत्रपुत्रादिनी नागी, पुत्रपुत्रादिनीति वा ॥ ३८ ॥ आदिन् च पुत्रादिन् आदिन्पुत्रादिन्, तस्मिन्, 'अदक् भक्षणं' अद् । अभीक्ष्णं पुनः पुनो वा पुत्रं पुत्रपुत्रं वातीति ' व्रताभीक्ष्ण्ये' ।' २।१।१५७| सूत्रेण णिन् । 'ति' | ४ | ३ |५० | सूत्रात् वृद्धिः, 'स्त्रियां नृतोऽ | २|४|१| सूत्रात् ङीः, सिः पुत्रादिनी, पुत्रपुत्रादिनी । 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणमिति न्यायेन स्त्रियामुदाहृतं प्रायेण तत्रैवाक्रोशसम्भवात् । अध्यारोपेण हि निन्दा आक्रोश:, तत्त्वाख्याने त्वसौ प्रतिषेधो नास्ति 'अदीर्घाद्विरामैकव्यञ्जने' | १|३|३२| इति विकल्पेन प्राप्तेऽनेन परत्वात् प्रतिषेधः । शिशुं पुत्रं मारयतीति शिशुमारी 'कर्मणोऽण्' | ५|१|७२ | 'गौरादिभ्यो मुख्यान्ङीः ' | २ |४| १९| शिशुमारी मत्सीविशेष उच्यते । न गच्छतीति नगः 'नगादय: ।३।२।१२८ । निपातनम् नगे भवा भवे । ६ । ३ । १२३ । इत्यण् ञ्णिति | ४ | ३ |५० | 'जातेरयान्त०' ० ' | २|४|५४ | इति ङीः || ३८ || Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... (८३) म्नां छुड्वर्ग नव्योऽपदान्ते ।१।३।३९ । अपदान्तस्थानां मनानां धुटि वगै परे निमित्तस्यैवान्त्योऽनु स्यात् गन्ता, शङ्किता, कम्पिता । धुडिति किम् ? आहन्महे । धुड्वर्ग इति किम् ? गम्यते । अपदान्त इति किम् ? भवान करोति ॥३९॥ - म् च न च म्नः तेषाम्, धुट् चासौ वर्गश्च, तस्मिन् , अन्ते भवोऽत्य: 'दिगादिदेहांशाद्यः' ।६।३।१२४। सूत्राद् यः । गच्छतीति गन्ता 'आसन्न.' ७।४।१२०। सूत्रेण मकारस्य पञ्चमो नकारः । तृच्, शकुङ, शङ्कायाम् शङकिता, कपुङ, चलने कम्पिता 'स्ताद्य०।४।४।३२। इतीट् 'आङो यमहन० ।३।३।८६। सूत्रेणात्मनेपदे । आहन्महे, अत्र मकारस्य वर्गत्वेपि धुटत्वाभावान्न नकारस्य पञ्चमः मकारः । गम्यते इत्यत्र तु यकारस्य धुत्वेपि धुड्वर्गत्वाभावान्न मस्य स्थाने यस्यान्त्यो रः । 'क्यः शिति' ।३।४।७०। म्नामिति बहुवचनं वर्णान्तरबाधनार्थ तेन कुर्वन्ति, कृषन्तीत्यादौ 'रवर्णान्नो० ।२।३।६३। इति णत्वं बाधित्वाऽनेन वर्गान्त्य एव भवति, शङ्कितेत्यादी 'अदीर्घा० ॥१॥३॥३२॥ इत्यादिभिद्वित्वादिकार्यान्तराणि न भवन्ति । धुड्वर्गे इत्यत्र बर्गग्रहणं व्यवस्थार्थम् वर्गग्रहणाभावे तु गन्तेत्यादौ तकारापेक्षया थकारस्यापि अन्त्यत्वात् ‘गल्ता' इत्याद्यनिष्टं स्यात् । अन्वित्यस्यानुवृत्तिस्तेन विपूद् िअङ्ग्धातोर्तुमि व्यङक्तुमित्यादौ 'चजः कगम् ।२।११८६। इति गत्वे कृते पश्चात् 'अघोषे प्रथमोऽशिट: ।१।३।५०। इति कत्वे कृतेऽनेन निमित्तस्यान्यौ डकार कृतः अन्यथा अन्तरङ्गत्वापूर्व प्रकारे कृतेऽनिष्टयपत्तिः स्यात्ः ॥३९॥ शिट्हेऽनुस्वारः।१।३।४० । अपदान्तस्थानां म्नां शिटि हे च परेऽनुस्वारोऽनु स्यात् । पुसि, वंशः, वहणम् ॥ ४० ॥ ॥ शिट् च हश्च शिड्हं तस्मिन्, 'धुटस्तृतीयः ।२।१।७६। सूत्रात् टस्य डत्वम् । पुम्स् इ, अत्रानेन सूत्रेण शिटि परे मकारस्यानुस्वारः, दंश Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) दशने दशनं दंश:, पत्र । बहु शब्दे ‘उदितः स्वरान्नोन्त:' ।४।४।९८। णत्वे च इति नोन्ते दृहणम् । नामिति बहुवचनात् बहणमित्यत्र णत्त्वं दंश इत्यत्र । .'तवर्गस्य' ।१०।६०॥ इति बत्वं च बाधित्वाऽनेनानुस्वार एव भवति । अन्विस्यधिकारात् पिण्ढि इत्यादौ पिंष्यातोहौं तस्य धित्वे षस्य डत्वे म्नां० ११:३९। इति नस्य णे च शिडभावात् श्ननकारस्यानुस्वारो न भवति । अत्र सन्धिविधित्वात् श्नस्याकारलुचः स्थानिवद्भावादव्यवधानम् । ननु हस्य 'शिट्संज्ञां कृत्वा 'शिट्यनुस्वारः' इत्येव सूत्र्यतामिति चेत्सत्यं यदि हस्य. . शिट्संज्ञां कृत्वेह हग्रहणं न क्रियते तदा वह धातोस्तप्रत्यये ऊठमाख्यत् औजढत् इत्यत्र 'अघोषे शिटः' ।४।१॥४५॥ इति हलोपेऽनिष्टं रूपं स्यादिति । ऊठ' इत्यत्रोकार: 'दस्तड्डे' ।११३६४२। इति च दीर्घः ॥४०॥ 'रो रे लुगदीश्वादिदुतः'।१।३।११। रस्य रे परेऽन लुक् स्यात् अइऊनाञ्च दीर्घः । पुना रात्रिः, अग्नी रथेन, पटू राजा । अनु इत्येव ? अहोरूपम् ॥४१॥ ॥ रः षष्ठी, अच्च इच्च उच्च अदिदुत तस्य ।, अत्रेकारात्परम्य रेफम्य रेफेऽपदान्ते सम्भवो नास्ति, अत: इग्रहणादपदान्त इति नानुवर्तते, भिन्नस्थानिभिन्ननिमित्तभणनाद् वा अपदान्ते इति नानुवर्तते । ननु रोरिति कि सानुबन्धस्य रोग्रहणं, उन वा निरनुबन्धस्य । आद्ये पुना रमते इ यादि न सिंध्येत्, द्वितीये चाग्नी रथेन इ.यादि न सिध्येदितिचेन्त र इति सामान्यनिदेशेन 'निरनुबन्नग्रहणे सामान्यग्रहणमिति न्यायेनोभयोग्रहणम्, आ एव वृत्तौ रस्येत्युक्तम् । 'सप्तम्याः पूर्वम्य' १७१४११०५॥ इति परिभाषया रे इत्युपश्लेषसप्तम्य श्रयणादव्यवहितपूर्वाणाम् अदिदुतां दीर्घो भवति । पुनर् + रात्रिः अनेनात्र रम्य लुक्, पूर्व य चाकारस्य दीर्घः निरनुबन्धरेफस्योदाहरणमिदम्, अनी रथेने यादि तु रोरुदाहरणम् । अहो रूपमित्यत्र 'अह नः' १२।७४। इति रुत्वे कृते परत्वात् 'रो रे लुग्दीघ ० ११३॥४१॥ इति रेफम्य लापा दीघ३च 'लुग्दीर्घयोरेकनिमित्तत्वात् 'सर्वेभ्यो लोपो बलीयान्' इति वा प्राप्नं कि परन्तु अन्वित्यधिकारात् अत्र पूर्वमेव रो: अतोऽति०' ।१३।२०। इत्युत्त्वे कृते रेफाभावाल्लुग्दीर्घा न भवतः अन्यथा अहा रूपमित्यानेष्टरूपं स्यात् ।।४।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (८५) 'ढस्तड्ढे'।१।३।४२। तन्निमित्त हे परे ढस्यानु लुक् स्यात्, दीर्घश्चादिदुतः । मादिः, लोढम्, गूढम् । तड्ढ इति किम् ? मधुलिड ढोकते ॥४२॥ . ॥ः षष्ठी, तन्निमित्तो ढस्तड्ढः, तस्मिन् 'तवर्गस्य०' ।१।३।६० इति दस्य ड: । इदं सूत्रं पदान्ते 'धुटस्तृतीयः ।२।१७६। इत्यस्य, अपदान्ते तु 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे ।२।३।४८ इत्यस्य बाधकम् ततोऽन्वित्यधिकारः एतयोः सूत्रयोविषयं मुक्त्वा ज्ञातव्यः, अत एव मधुलिड ढोकते इत्यत्र पूर्व तृतीयत्वाभावे सति न दत्यङ्गविकलता । मह पूजायाम् महनं माढि: 'स्त्रियां क्ति' १५॥३३९१। 'हो धुट्पदान्ते' ।२।१।१२। इति हस्य ढः, 'अधश्चतुर्थात्त०' ।२।१। ७९। इति न स्तस्य धः, तवर्गस्य०।१।३।६०। इति धस्य ढः, ततश्चानेन सूत्रेण ढलोपो दीर्घश्च । लिहीक आस्वादने, गुहौग सवरणे' लेहनं लीढम् गृहनं गूढम् 'क्लीबे क्तः ।५।३।१२३। सूत्रेण क्तः । मधु लेढीति मधुलिट. 'क्विप्' ।५।१।१४८। सूत्रात् क्विप्, तते: सिः । अत्रोत्तरढकारस्य पूर्वढनिमित्तत्वाभावाल्लुग्न । अन्विंत्य धिकारात लेढा इत्यादी गुणे कृते ढलापोऽन्यथा प्रथममनेन ढलोपे दीर्घ च लोढा इत्याद्यानिष्टं स्यात् ॥४॥ सहिवरोच्चावर्णस्य ।१।३।४३। सहिवह्योर्डस्य तड्ढे परे ऽ नु लुक् स्यात्, ओच्चावर्णस्य । सोढा, वोढा, उपयोढाम्॥४३॥ ॥ सहिश्च वहिश्च तस्य, 'पहि मर्षणे' षह 'षः सोऽष्ट्य० ।२।३। ९८। इति सह, वहीं प्रापणे वह । सहते इति सोढा । वहतीति वढा । तृच्, 'हो धुट्पदान्ते' ।२।१२८२। इ'त हस्य ढः, 'अधश्चतुर्था० ।२।१७९। इति तस्य ध:, 'तवर्गस्य० १॥३॥६०॥ इति धस्य ढः, तत एतत्सूत्र प्रवर्तते । उदवोढामिति वह, उत्पूर्व मद्यतनीताम, सिजद्यतन्याम्' ।३।४।५३। इति सिच 'व्यजनानामनिटि ।४।३।४५॥ इति वृद्धिः, वाह , धुडह्रस्वाल्लुग०।४।३।७०। इति सिचो लुक् 'हो धुट्पदान्ते' ।२।१२८२। अधश्चतुर्थात्त० ।२।१७९। 'तवर्गस्य०' ।१।३।६०। ततो प्रकृतसूत्रेण ओत्वं ढलोपश्च ॥४३॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) उदः स्थास्तम्भः सः।१।३।४४ । उदः परयोः स्थास्तम्भोः सस्य लुक स्वात, उत्थाता, उत्तम्भिता । ॥४४॥ ॥ उदः पञ्चमी 'पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य ७४।१०४॥ इति परिभाषालम्यमर्थमाह उद: परयोरिति । ष्ठां गतिनिवृत्ती, ष: स: 'निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः' इति न्यायेन स्था, उत्तिष्ठतीति तच, उद स्थाता, सलुक्, स्तम्भू इति सौत्री धातुः उत्तभ्नातीति तृचि उत्तम्भिता । उद इति स्थासम्भाविशेषणस्यैव ग्रहणम, तेन ऊर्व स्थानमस्येति उत्स्थान:, अत्र न सलुक, उद: स्थानस्य विणेषणत्वात न तु तिष्ठतेः । नन उदस्थादित्यत्र सकारलोपापत्ति:, न चाडागमेन व्यवधानमस्तीति वाच्य, तस्य स्थाधात्वङ्ग. स्वेन 'स्वाङ्गमव्यवधायी'- ति न्यायेनात्यवधायकत्वादिति चेन्न उदस्थात्, उदस्तम्भ इत्यनयो: सिद्ध्यर्थम् आवृत्य उद इति पदं स्थास्तम्भः, सकारस्य च योज्यम् । ननु उदस्थादित्यादी अडागमायूर्व भविष्यतीति चेन्नान्वित्यधिकारात्, अडागमे च सति 'पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य' १७:४११०४। तच्चा'नन्तरस्यैवेति व्यवहितस्य न भवति ।।४४।। स 'तदा से स्वरे पादार्था।। तदः परस्य सेः स्वरे परे लुक् स्यात् । सा चेत्पादपूरणी स्यात् । संष दाशरथी रामः संघ राजा युधिष्ठिरः । पादाति किम् ? स एष भरतो राजा ॥४५॥ ॥ तदः पञ्चमी, पादाय इयं पादार्था । लुचो विशेषणम् । 'उऽर्थों वाच्यवत् परलिङ्गप्रकरणम् श्लोक १ इति । तदित्यनेन तदादेशस्य सस्य ग्रहणम्, अन्यथा व्यञ्जनात्परस्य से: 'दीघंङयाब० ॥१॥४॥४५॥ इत्यनेन लकुसिख एव । 'पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य [७।४।१०४। इति वर्तते । 'प्रकृतिवदनकरणम्' इति न्यायस्यानित्यत्वात् तद इत्यत्र एतन्यायस्याप्रवृत्तिः, अन्यथा अनुकरणभूतस्य तदः प्रकृतिवस्वाङ्गीकारे तस्मादिति भवेत् । सैष दाशरथी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) रामः इत्यादी सस् एष इति स्थिते 'सो रु' ।२।११७२। 'रोय:' ।११३।२६ तस्य लुक असन्धिश्च न भवति, अन्यथा स एष दाशरथी राम इति स्यात् एव. चाष्टवर्णात्मकत्वलक्षणपादस्य हानि: स्यात्, ततोऽनेन सूत्रेण सलोपः सन्धिश्च । दशरथस्यापत्यं दाशरथिः' अतः इव्' ।६।१।३१। 'रो रे लुम् ।।३।४। इति । स एष भरतो राजा इत्यत्र तु रुत्वयत्वलोपासन्धीनां प्रवृत्तावपि न पादहानिरिति न प्रकृतसूत्र प्रवर्तते, । एवं 'सोऽहं तथापि तवेत्यत्र भक्तामरस्तोत्रेऽपि भाव्यम् ॥४५॥ एतदश्च व्यञ्जनेनग्नञ् समासे।।।३।४६ । एतदस्तदश्च परस्य' सेर्पजने परे लुक् स्यात्, अकि, नसमासे न । एष दत्त, स लाति । अनग्नसमास इति किम् ? एषकःकृती, सको याति, अनेषो याति, असो लाति ॥४६॥ एतदः पञ्चमी, अक च नत्र सभासश्च अनग्नन समास: तस्मिन् । चशब्देन तदोऽनुवर्षः । कुत्सितोऽल्पोऽज्ञातो वा एष एषक:, एवं सकः । 'त्या. दिसर्वादे: स्वरेष्वन्त्यात् ।७।३.९। इत्यनेनाऽत:पूर्वोऽक् । 'तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते, इति न्यायेन साकोऽपि प्राप्त प्रतिषेधः ।।४।। व्यञ्जनात्पञ्चमान्तस्थायाः सरुपे वा।१।३।४७। व्यञ्जनात्परस्य पञ्चमस्यान्तस्थायाश्च सरूपे वर्णे परे लुग वा स्यात् । कञ्चो हुडो, कुछ डौ, ङ ङ डौ । आदित्यो देवताऽस्य आदित्यः, आदित्ययः । सरूप इति किम् ? वर्ण्यते ॥ ४७ ॥ व्यञ्जनात्, पञ्चमश्चान्तस्था च तस्याः, समाहारद्वन्द्वत्वेऽपि सौत्रत्वान्नपुंसकत्वाभावः । समानं तुल्यं रूपं यस्य स सरूप: तस्मिन् । कुॐ. . चतीति क्रुङ, ङ च ङ च ङ ङौ, कुॐवो ङ ङौ ङ ङी, 'पदस्य'।२।११८९। सूत्रात् चलोपः, 'युजनकुञ्चो नो ङः ।२।११।७१। सूत्रात् नस्य ङः, अनेन सूत्रेण Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) ङस्य लग्वा । अदितेरयमादित्यः, आदित्यो देवताऽस्य 'अनिदम्यणपवादे.' ।६।१।१५। इति यप्रत्यय:, अलोपः, अनेनैकयलोप: । वर्णण वर्णक्रियाविस्तारगुणवचनेषु वण्यते, अत्र पञ्चमस्य णस्य सरूमो यकारो नास्तीति णलग्न भवति ॥४७॥ ध्रुटो धुटि स्वे वा।१।३। ४८। व्यञ्जनात्परस्य धुटो धुटि स्वे परे लुग्वा स्यात् । शिण्ढि, शिण्ड्ढि स्व इति किम् ? तप्र्ता, दर्ता ॥४८॥ धुटः षष्ठी शिष्ल प् विशेषणे, शिष धातोः पञ्चम्यां हो परे रुधां स्वराच्छ नोल' ।३।४।८२। इति श्नाप्रत्यये 'श्नास्त्योलु ग्' ।४।२।९०। इत्यकाग्लापे हुधुटो०।४।२।८३। इति हे धिः,'तृतीयस्तृतीय०:१।३।४९।'तवर्गस्य०' ।१।३।६०। इति प्रत्ययधस्य ढत्वम् 'म्नां धुड्वर्ग' ।१।३।३०॥ सूत्रात् णकार:, अनेन सूत्रेग विकल्पेन डकार लोपः । तृपौच प्रोतो तृचि प्रत्यये तप्र्ता-अत्र पकारस्य लोपो न भवति स्वारत्वाभावात् ॥४८॥ तृतीयरतृतीयचतुर्थे । १।३।४९।। तृतीये चतुर्थं च परे धुटस्तृतीयः स्यात् मजति, दोग्धा ॥४९॥ तृतीयः तृतीयश्च चतुर्थश्च तस्मिन् । टुमस्जोत् शुद्धो, मस्ज, वर्तमानेतिव्, 'तुदादे: शः ।३ ४१८१॥ सूत्रात् श: 'शस्य शषौ' ।।३।६१॥ इति सकारस्य शकारः, अनेन शकारस्यासन्नः तृतीयो जकारः। दुहीक क्षरणे, श्वस्तन्यां ता 'लघा रूपान्त्यस्य' ।।३।४। इत्युपान्त्यगुणः, 'भ्वादेदिर्घः' ।२।१८३। इति हस्य घ:, 'अधश्चतुर्थात्तथोधः' ।२।११७९। इति तस्य धः, 'धुटस्तृतीयः ।२।१।१६। सूत्रेण तु पदान्ते तृतीयत्वं भवति। अनेन तु अपदान्ते, वर्तमानस्य तृतीयत्वं भवतीति विशेषः ॥४९।। अघोघे प्रथमोऽशिटः । १।३।५०।. .. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९) $ 1 } अघोषे परे शिजवर्जस्य घटः प्रथमः स्यात् । वाक्पूता । अशिट इति किम् ? पयस्सु ॥५०॥ वाक्पूता- 'चजः कंगम्' (२०११८१ । इति 'चस्य कः 'धुरस्तृतीयः | २|१|७६ | इति कस्य गकारः । अनेन प्रथमः कः पूयते स्मेति पूतांवाचा पूनां वाक्पूता । पयस्सु, अत्र न सकारस्यै प्रथमः शिड्रू धुवात् । यद्यपि पयस्वित्यत्र 'शष से शषस वर्ष ५।१।३३६ । इति विधानबलादपि प्रथ मता न स्यादिति किमशिट इत्युपादानेनेति चेन्न रच्योततीत्यादी शकारस्य चकारे परे प्रथमतापत्तिः स्यादिति शिड्वर्जनम् । एवं अस्ति, आस्ते इत्यादौ सकारस्यासन्न तकारः, विसर्गस्यापि कस्यादिरिति व्याख्यया 'अपञ्चमान्न स्थो ० ' | १|१|११| इति घुट्संज्ञया च 'अवर्णहकवर्ग्याः कण्ठ्याः इति विसर्ग-RSS सन्नः ककारः स्यात् । शकारस्याऽऽसन्नश्चकारः, षकारस्याऽऽसन्नः टकारः, सकारस्याऽऽसन्तः तकारः अस्ति || 201 4 'विरामे वा' । १ । ३ । ५१ । विरामस्थस्याऽशिटो घुटः प्रथमो वा स्यात् । वाक्, वाग् ॥५१॥ विरामे - अत्र वैषयिकमधिकरणम् । वक्तीति वाच् घुटस्तृतीयः । |२| १ | ७६ । 'चजः कगम्' । २ १८६। 'विरामे वा ॥ ५१ ॥ न सन्धिः । १ । ३ । ५२ । उक्तो वक्ष्यमाणश्च सन्धिविरामे न स्यात् । दधि अत्र, तद् लुनाति । 114211 न, सन्धानं सन्धिः, कार्यिनिमित्तयोर्यदाऽतिशयित सन्निधिविवक्ष्यते तदैव सन्धि भवति, पदधातूपसर्गसमामानां नियमेनैकप्रयत्नाच्चार्यत्वान्नित्यसमुदितत्वाच्च विरामाभावान्नित्यं सन्धिभवति वाक्ये तु सन्धिः विवक्षाधनः एकप्रयत्नोच्चार्यत्वस्यानियमात् वक्तुरिच्छाधीनः । विरामविवक्षया न सन्ध: अविरामविवक्षया च सन्धिरित्यर्थः । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संहितैकपदे नित्या. नित्या धातूपसर्गयोः । नित्या समासे वाक्ये तु सा विवक्षामपेक्षते ॥ (९०) रः पदान्ते विसर्गस्तयोः । १ । ३ । ५३ । पदान्तस्थस्य रस्य तपोविरामाघोषयोबिसर्गः स्यात् । वृक्षः स्वः, कः कृली । पदान्त इति किम् ? ईलें ।। ५३ ।। रुः षष्ठी, पदान्ते विसर्गः, तयोः सप्तमी । तत्पदेन विरामाघोषयोपरामर्शो विरामविषयेऽघाषे वा परतः इत्यर्थः । र इत्यनेन 'निरनुबभ्धग्रहणे सामान्येनेति न्यायात् रो: रेफस्य च ग्रहणम् । वृक्ष इति विरामविषये रोरुदाहरणम् स्व इति विरामविषये रेकस्योदाहरणम् । कः कृतीयघोषे परे रोरुदाहरणम् । ईरिक् गतिकम्पनयो:, वर्तमानाते, 'अब रेफस्यापदान्तत्वात् न विसर्गः । विरामाषोषयोरिति विरामविषये अघोषे च परत इत्यर्थः । अर्थवशादेव सप्तमी द्विधा भिद्यते, एका सप्तमी वैषयिकेऽधिकरणे, अपण औपश् लेषिकेऽधिकरणे । यदा स्वभावोऽपि बुद्ध. युल्लिखिताकारेण गृह्यमाणो वस्तुरूपतां प्राप्नोति तदोपश्लेक्सम्भवे विरामे परतः इत्यप्यर्षो भवति । ननु नृपतेरपत्यं 'अनिदमय० | ६ | १ | १५ | इति ये अत्र प्रकृतसूत्रेण विसर्ग: कथं न भवतीति चेत्सत्यम् 'असिद्ध' बहिरङ्गमन्तरङ्ग' इति न्यायेनास्तरङ्ग' विसर्गे कर्तव्ये प्रत्ययाश्रितत्वेन बहुस्थान्याश्रितत्वेन च बहिरङ्गस्वारादेशस्यासिद्धत्वात् विसर्गो न भवति एव 'रः कख ० ' | १|३|| इति क ) ( पावपि न भवतः । अन्वित्यधिकारात् गीः, धूः, सजूः षु. आशीषु इत्यादिषु पूर्व दीर्घत्वं पश्चाद्विसर्गः अन्यथा पूर्व विसर्गे कृते इरुरारभावात् 'पदान्ते' २|१| ६४ । इति दीर्घो न स्यात् ॥ ५३ ॥ रख्या गि । १ । ३ । ५४ । पदान्तस्थस्य रस्य ख्याति परे विसर्ग एव स्यात् । कः ख्यातः, नमः ख्यात्रे ॥ ५४ ॥ यागि- पूर्वेणैव सिद्ध नियमार्थमिदम् तेन जिह्वामूलीयो न Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति, ख्याग्येव विसर्गनियमात् 'ख्यांक प्रकथने १०७१ इत्यस्मिन् जिह वामूलीयोऽपि । चक्षो वाचि०।४।४।४। सूत्रात् चक्षिक व्यक्तायां वाचि ११२२ धातो: ख्यांगादेशः ।।५४॥ शिट्यघोषात् । १।३।५५ । अघोषात्परे शिटि परतः पदान्तस्थस्य रस्य विसर्म एव स्यात् । पुरुषः सरुकः, सप्पिः प्साति, वासःक्षोमम्, अभिःप्सातम् ॥४५॥ शिटि, अघोषात् । अघोषादिति शिटो विशेषणम्, न तु रेफस्य अघोषात्परस्य पदान्ने वर्तमानस्य रेफस्यासम्भवात् । अत एवोक्तमघोषात्परे शिटीति । अघोषात्परे शिटि इदमपि नियमार्थं तेन त्सरी कुशलः सरुक: को5श्मादेः ।६।३।९७। इति कप्रत्ययः, पुरुष: त्सरुक: इत्यत्र 'चटते सद्वितीये' ।१।३।७। इति सत्वं न भवति, सपि: प्सातीस्यत्र 'वेसुसोऽपेक्षायाम् ।।२।३।११। .. इति षत्वं न भवति, वासः क्षोमम् , अद्भिः प्सातम् इत्यत्र च 'र: कखपफयो: ।१।३३५॥ इतिक )( पो न भवतः ।।५।। - व्यत्यये लग्वा।१।३ । ५६ । . शिटः परोऽयोष इति व्यत्ययस्तस्मिन्सति पदान्तस्पस्य रस्य लुग्वा स्यात् । चक्षुः श्च्योतति, चक्षुश्श्च्योतति, चक्षुःश्च्योतति ॥५६॥ ... व्यत्यये लुग् वा ।। व्यत्यय:- वैपरोत्यम्, कथितनिमित्तयो: पूर्वपरभावविपर्ययो व्यत्यय इत्यर्थः । शिट: परोऽघोष इति पूर्वसूत्रे तु अघोषात्परे शिटोत्युक्तम् । चक्षम श्च्योततीत्यादीसो रु: ।।१७२॥ इति कृतस्य रीरनेनं लोप:, पक्षे तु 'शषसे शषसं वा ।१।३।६। इति सस्य श:, पक्षे विसर्गः ॥५६॥ - अरो सुपि र।।१।३।५७ । .. रोरन्यस्य रस्य सुपि परे र एव स्यात् । गोधू, धूषु, अरोरिति Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२) किम् ? पयस्सु ॥५७॥ न रुः अरुः तस्य, सुपि, र:प्रथया । नियमार्थत्वेन कार्यान्तरबाधनार्थमिदं सूत्रम् तेन गीर्षु धूर्षु इत्यत्र 'र: पदान्ते०' ।१।३।५३। इति विसर्गे प्राप्तेऽनेन रकार एव भवति । अत्र 'अरोरिति रुवर्जनं 'निरनुबन्धग्रहणे सामान्येन' इति न्याय सूचयति यतः 'रः पदान्ते ॥१॥३॥५३॥ इत्यत्र रशब्दात् उभयस्य प्राप्तौ सत्यामेव प्रतिषेधः सार्थकः स्यात् । ननु पयस्सु' इत्यत्र ‘सो रुः'. . ।२।१७२। इति कृते 'नाग्यन्तस्था०' ।।३।११। सूत्रेण रकारस्यान्तस्थत्वात्तरर: षकार: कथं न भवतीति चेत्सत्यम् 'र: पदान्ते ।।३।५३। इत्यस्य नित्यत्वात् 'परान्नित्यम्' इति न्यायेन बाघनात् ॥५॥ वाहर्पत्यादयः।१।३।५८ । अहर्पत्यादयो यथायोगमकृतविसर्गाः कृतोत्वाभावाश्च वा स्युः । अहर्पतिः, अहः पतिः । गीपतिः, गी:पति । प्रचेता राजन्, प्रचेतो राजन् ॥५॥ वार्हपत्येति निपातनात् पदान्ताधिकारी निवृत्तस्तेनोत्तरसूत्रे पदाताधिकारो न याति । तेन रषोरमित्यादि सिद्धम् अहर्पतिरादियेषां ते अह. पत्यादयः । अह नां पतिः अहर्पति: 'रो लुप्यरि' ।२।११७५। सूत्रेण नस्य र: । गिरां पतिः गीपतिः, उभयत्र विसर्गप्राप्तौ वा निपातितः । प्रकृष्ट चेता यस्य राज्ञ:=प्रचेता ‘रो रे लुग्दीर्घ० ॥१॥३॥४१॥ इत्यत्रोत्वाभावो निपातितः । विशेषज्ञापनाय सम्बोधने उदाहृतम् सम्बोधनादन्यत्र समास एवोदाहार्य: समासभिन्नस्थले तु 'अभ्वादेरत्वस:०' ॥१॥४.९०। सूत्रेण दीर्घत्वे विशेषाभावात बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । आकृतिः-सादृश्यं तत्प्रधानो गण: समुदायः आकृ. तिगणः, यद्वा आकृतिशब्द: जातिचाची सा च समस्तव्यक्ति व्याप्ता । य: प्रचुरशब्दविषयं व्याप्नोति स गण: जातिसादृश्यादाकृतिगण: ॥१८॥ शिट्याद्यस्य दितीयो वा। १।३ । ५९ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३) प्रथमस्य शिटि परे द्वितीयो वा स्यात् । ख्षीरम्, क्षीरम् । अपसगः, अप्सराः ॥५९॥ शिटि, आद्यस्य, द्वितीय: वा । क्षीरमित्यत्र वर्गादिभूतस्य ककारस्य शिट्परत्वाद् वा खकार : एव अफ्सरा इत्यत्रापि । अत्राद्यत्वं वर्गपत्रचकस्य प्रथमाक्षरापेक्षम्, तदपेक्ष च द्वितीयत्वम् ।। ५९ ।। 1 तवर्गस्य श्ववर्गष्टवगभ्यिां योगे चटवर्गौ । १ । ३ । ६० । तवर्गस्य श्चवर्गाभ्यां षटवर्गाभ्यां च योगे यथासङ्ख्यं चवर्गटवगौ स्थाताम् । तच्शेते, भवाशेते, तच्चारु, तज्जकारेण, पेष्टा, पूड.:, तट्टकारः, तण्णकारेण, ईट्टे ॥ ६० ॥ " तवर्गस्य, श् च चवर्गश्च श्चवर्गम्, व् च टवर्गश्च ष्टवर्गम् । श्च वर्गं च ष्टवर्ग च श्चष्टवर्गे, ताभ्यां योगे चवर्गश्च टवर्गश्च चटवर्गी | समुदायद्व्यापेक्षया यथासङ् ख्यार्थ तृतीयाद्विवचनम् । योगग्रहणं विना सहार्थतता यायाम 'अवर्ण० | १२|६| सूत्रवत् श्चवर्गादेरपि स्थानित्वाशङका स्वात् इति स्थानित्वाशङ्कानिरासार्थ पूर्वापरभावानियमार्थं च योगग्रहणम् । पञ्चम्यांनिर्दिष्टे परस्य ' | ७|४|१०४ | सूत्रात् परस्यैव तवर्गस्य स्थानित्व स्यात् न तु पूर्वस्य तवर्गस्येति योगग्रहणम् । योगोऽत्र पूर्वतः परतो वा तत्र परत ' इत्यस्योदाहरणं तत् शेते, भाव शेते, तच्चारु, तज्जकारेण तट्ट्कार:, तण्णकारेण, पूर्वत इत्यस्योदः हरणं पेष्टा, पूष्णः, ईट्टे । ननु तवर्गेण वर्गसमुदायस्याभिधानात् एकैकस्य स्थानित्वाभावात् तत् शेते इत्यादिषु तकारस्य चकारो न स्यात् अत्रोत्तरम् -समुदायैकदेशस्यापि समुदायात्मकत्वात् तकाररूपतवर्गस्यानेन चकारो भवति यथा ग्रामे वसति, गृहे वसति देवदत्तो न ग्रामं गृहं वा व्याप्य वसति परन्तु तदेकदेश एव वसति स एवैकदेशो ग्रामं गृहं चोच्यते तद्वदत्रापि । ननु तच्शेते इत्यत्र 'चजः कगम्' | २|११८६ | इति कत्वं कथं न भवतीति चेत्सत्यम् 'उभयाश्रितत्वेन बहिरङ्गश्चकारः अन्तरङ्ग ककारेऽसिद्ध इति । भवान् शेते इत्यत्र नस्य ञः, तत् चारु अत्र तस्य चः, तद्जकारेण Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र दकारस्य जकारः । पेष् ती अत्रं तस्य :, पूष्णः अत्र नस्य ण: तट्टकार: अत्र तकारस्य टकारः, तण्णकारेण अत्र नकारस्य णकार:, ईट्टे अत्र तकारस्य टकारः॥६०॥ सस्य शषौ ।१।३।६१।। सस्य श्चवर्गष्टवर्गाभ्यां योगे यथासङ्ख्यं राषो स्याताम् । चवर्गण.. रच्योतति, वृश्चति, षेण, दोष्षु । टवर्गण-पापवि ॥६१॥ सस्य, शश्च षश्च शो। श्च्योततीत्यत्र धातोरादिभूतः सकारों जयः। स च्योतति, श+च्योततिश्च्योतति । वृस+चति-वृन+चति= वृश्चति । अत्र सकारचवर्गयोर्योग: । दोष+सुदाष+षु-अनेन दोसः सः पः। दोसः सकारस्य पदान्तत्वात 'नाम्य' १२१३॥१५॥ इति षकाराप्राप्तिः, दोषु-हस्तेष्वित्यर्थः, अत्र सकारषकारयोंर्योगः । अट पट मतो,कुटिलं पटसि पापट् +सि-पापटिप अभीक्ष्णं गच्छतीत्यर्थः । अत्र संकारटवर्गयोर्योगः । नन् सकारापदिष्टं कार्य कारस्यापि इति न्यायात वृश्चतीत्यत्र पत्वं कथं न भवतीति चेत्सत्यं 'नाम्यन्ता०।२३।१५। सूत्रे पाठकाले यो सकास्स्तस्य कृतत्वादिति ॥६॥ म शात् ।।३।१२। सात्परस्य तवर्गस्य चवर्गों न स्यात् । सानाति, प्रश्नः ॥ ६२॥ न, शात् ॥ अनन्तरोऽपि 'सस्य' इति असम्भवान्नानुवर्तते परं तवमस्येत्यवर्तते । अश्नाति अशा भोजने वर्तमानाति: 'यादेः' ।३।४।७९। सूत्रात् स्नाप्रत्ययः । १३४७ प्रछंत् जीप्सायाम् 'यजिस्वपि० ॥३८॥ सूत्रान्नप्रत्यये 'अनुनासिके.' ।४।१।१०८। सूत्रात् शत्वं च प्रश्न इति ।।६२।। पदान्तावादिनाम्नवरीनवते।।१।३।६३ । पदान्ताट्टवर्गात्परस्य नाम्नवरीनवतिवर्जस्य तवर्गस्य सस्य च Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) स्वर्गषो न स्याताम् । षटतयं वण्नयाः, षटसु । अनाम्नगरीनवतेरिति । किम् ? षण्णान, षण्णगरी, षष्णवतिः ॥ ६३ ॥ पदान्तात् ॥षड अवयवा यस्य तत् षट्तयम्, 'अवयवात्त०' ७११ ११५१। सूत्रात् तयद् । षष् तयम् 'धुटस्तृतीयः ।२।१७६। सूत्रात् षस्य डत्वम् 'अघोषे प्रथमो० ॥१॥३॥५०॥ सूत्रात् टकार. 'तवर्गस्य०' ।१।३३६०॥ सूत्रात् तस्य टत्वे प्राप्तेऽनेन प्रतिषेधः । षट् च ते नयाश्च षण्नयाः, ष नया, धुटस्तृतीयः ।२।११७६। इति षस्य डः। 'तृतीयस्य पञ्चमे' ।१।३१। सूत्रात् भकार: 'तवर्गस्य०' ।११३१६०। सूत्राण्णत्वं प्राप्तमनेन निषिद्धम् । षस्वितिषष्शब्दात् सुप्प्रत्ययः, षस्य डत्वं प्रथमश्च 'सस्य शो' १११३६१॥ इति षत्व निषिद्धा । नामिति आमादेशभूतो नाम् गह्मते । षष्+आम् 'संख्यानांणाम् प्राप्तिरनेन ।१।४॥३३॥ सूत्रादामो नाम् षष् +नाम्, 'नामो वर्जनात्तवर्गस्य०' ११।३।६०॥ इति णत्वमेवम् षण्णां नगरीणां समाहारः द्विगो.०' ।२।४।२२॥ सूत्रात्-ड्यां षण्णगरी षड्भिरधिका नवतिः, षण्णवतिः । 'प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव इति न्यायात् नामन्निति अन्नन्तस्य घनन्तस्य च नमतेः प्रतिषेधो भवत्येव ॥६॥ षि तवर्गस्य । १।३ । ६४ । पदान्तस्थस्य तवर्गस्य थे परे टवर्गों न स्यात् । तीर्थकृत्योडशः शान्तिः ॥६४॥ ... ॥षि ॥ तीर्थ करोतीति क्विपि 'हस्वात्त:०।४।४।११३॥ सूत्रात्तागमे च तीर्थकृत् । षड्मिरधिका दश षोडश,षोडशानां पूरण: षोडशः 'एकादश षोडशः ३४२१९११ 'सं व्यापूरणे डट् १७११११५। 'अत्र 'सवर्गस्य० ॥११३६० सूत्रात्तवर्गस्य ढकारे प्राप्तेऽनेन निषेधः ॥६४॥ लि लो।१।३। ६५ । पवान्तस्थस्य तवर्गस्य ले परे लो स्यातम् । तल्लुनम् भवाल्लुनाति ॥६५॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) ॥लि ॥ लश्च लश्च लौ स्यादा०।३।१९। इत्येकलकारस्य लोपः । लकारद्वयोक्त्यानुनासिकाननुनासिको लौ । तत् लू नम्, अनेन सूत्रेण तकारस्य निरनुनासिको ल: । भवान् लुनाति,अत्र च नकारस्य सानुनासिको लकारः । ननु 'आसन्नः' ।७।४।१२०। इत्यनेनैव सिद्ध द्विवचनमनर्थ कमिति चेन्न द्विवचनमन्यत्रानुनासिकस्यापि अननुनासिक आदेशो भवतीति ज्ञापनार्थ तेन वाष्टनः आः स्यादौ ।१।४।२२। इत्यनेनानुनासिकस्याप्यननुनासिक आंदेशः सिद्धः । प्रायिकं चैतत् तेन समानानां तेन दीर्घः" ।१।२।१॥ इति सूत्रेणासन्न एव दीर्घः सिद्धः । निरनुनासिकस्य सानुनासिक इति विपरीतनियमस्तु 'हृदयस्य हल्लास०' ।३।२।४४। इति सूत्रे हल्लासेति निर्देशान्न भवति ॥६५॥ .. - ॥ इति प्रथमाध्याये तृतीय पादः॥ .... * प्रकाश की किरणे * आप मारकर कहां जायेगें ? मरण का महोत्सव होता है। मरण का दिन यानी मंगलदिन । क्योंकि ? जगत को छोड़ने का दिन और उसी कारण ही अपूर्व दिन । मरना यानी पेढी, घर, पैसा, रिश्तेदार और इस शरीर को भी छोड़कर जाना । यह सब मृत्यु से स्वाभाविक छूटता है। प. पू. व्याख्यान-वाचस्पति आचार्यदेव श्रीविजय रामचन्द्रसूरिश्वरजी महाराना Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्थः पादः ॥ अत आः स्यादौ जस्भ्याम्ये |१|४|१| स्यादौ जसि भ्यामि ये च परेऽकारस्य आः स्यात् । देवाः, आभ्याम्, सुखाय । स्यादाविति किम् ? बाणात् जस्यनीति क्विप्बाणजः 191 1 || अतः षष्ठी, आः सिगदिर्यस्य स तस्मिन्, जस् च भ्यां च यश्च तस्मिन् । देवेत्यस्य नावे 'अघातुविभति०' | १|१|२७ इत्यनेन नामस्वे 'नाम्नः प्रथमैक०' । २।२।३१: सूत्रात् देवशब्दाज्जसि 'समानानां तेन दीर्घः' |१| २|१| इति दीर्घ बाधित्वा 'लुगस्या०' | २|१|१|११३ ॥ इति प्रथमाकारस्थ लुक्प्राप्तौ अनेनाऽकारः । इदम् + भ्याम् 'अनक्' | २१६६| सूत्राकारादेशे प्रकृतसूत्रणा च । अथवानीति 'क्वचिद्' | ५|१|१४७। इति डेऽ प्रकृतेः रूपम् । सुखायेति-सुख +ङ इति स्थिते ' हो० | १|४|६| इति येsनेनाकारे च । न च सन्निगत-लक्षणो विश्विरनिमित्तं तद्विघातस्य' इति न्यायेन यादेशोऽकारस्य विधाताय न प्रभवेदिति वाच्य ग्रहण वैयर्थ्याप्रत्तः । यादेवास्य 'स्थानोवा' ॥७४|१०९ । इति परिभाषया स्यानित्वं ज्ञयम् बाणन इति - अत्र जस: ( कसूत्र मोक्षणे १२२३ ) इत्यस्य सम्बन्धित्वात्स्यादित्वाभावान्नाकारः । मनु' प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव " इति न्यायेन स्यात्रिग्रहणाभावेऽपि जसादिप्रत्ययस्यैव प्राप्स्या बाणज इत्यादी जस्प्रत्ययाभावानाकार: प्राप्नोति, तत्र जस्भ्यां प्रत्ययौ स्यादावेव वर्तते तारयत्र जस्भ्यांसाहचर्याद् यप्रत्ययोऽपि स्यादेरेव गृहीष्यति । तेन बने साधुः तत्र साधी । ७|१|१५| इति प्रत्यये वन्य इत्यत्रापि 'अवर्णवर्णस्य' | ७|४/६५ इति बाधित्वाऽऽक! रो न स्यात् स्यादित्वाभावात् । तथापि अधिकारार्थं स्यादावित्युक्त तेन शुचिशब्दात् स्त्रीलिङ्ग) ङीप्रत्यये कृते 'ङित्यदिति' | १|४|२३| सूत्रण नैकार: प्रत्ययस्य स्यादित्वाभावात् |१| Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) भिस ऐस् । १॥४॥२॥ आत्परस्य स्थादेभिस ऐस् स्यात् । देवः। ऐस्करणाद् अतिमरसः ।। आस्परस्येति - " अर्थवशाद्विभक्तिविपरिणामः" इति न्यायेन षष्ठ्यन्तमनुवर्तमानमपि 'अतः' इति पद पञ्चम्यन्त त्वेन परिणमति । एसा. देशेनैव सिद्ध ऐस्करणम 'सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्त तद्विघातस्य' इति न्यायस्यानित्यताख्यापनार्थं तेनातिजरसरित्यपि सिद्धम् । अन्ये तु अतिजरैरि. स्येठेच्छन्ति । न च एसादेशकरणे 'लुगस्या०' १२१११११३ इति प्रवर्ततेति वाच्यं विधानसामर्थ्यात् अन्यथा देवेरित्यभिष्टं स्यात्तदा 'इस्' इति कुर्यात् । एकदेशविकृतमनह न्यवदिति न्यायात् कृतस्वोऽपि जराशम्द एवेति । 'जराया। जरस् वा ।२१३। इति सूत्रण अतिजरसरित्यत्रापि जरसादेश: सिध्यति ॥२॥ इदमदसोऽक्येव ।।४।३। इदमवसोरक्येव सति आस्परस्य मिस ऐस् स्यात् । इमकः, मसुकः। मस्येवेति । किम् ? एभिः, अमोभिः ॥३॥ . पूर्वेभव सिनियमार्थसिदम् । एवकारस्त्विष्टावधारणार्थः । तेन अकि इदमदसोरेवेति नियमाभावे यकैः सर्वकः इत्यपि सिबम् । इम: - 'मा-दरः ।।११४१। 'लुगस्यादेत्यपदे' ।२।१।११३, 'त्यादिसर्वादे:० १७।३।२९ 'दो मः स्यादी ।२।१।३९। 'मोऽवर्णस्य ।२।१॥४५॥ ममुकः- पूर्ववत् विशेषस्तु 'मादुवर्णोऽनु।।१।४६। इति । एभिः - 'अनक्' ।२।११३६ 'एबहुस्भोसि' अमोभिः - 'आर' २०४१। 'मोऽवर्णस्य' ।२।१॥४५॥ एबहुस्भोसि ॥१॥४४। 'बहुवेरी:' ।२।०४९। इति ॥३॥ - एदबहरभोसि ॥४॥ बहर्ष स्थानो सादो भादो ओसि च परे मत एत् स्यात् । एष, एमिः, देवयोः ॥४॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषु- 'अनक्' ।२।१॥३६॥ 'एबहुस्भासि ।१।४।४। 'नाम्यन्तस्था०' २॥३॥१५॥ देवयोः - अनेन एकार: ‘एदतोऽयाय ।१।२।२३। ॥इत्यय ॥४॥ - टाङसोरिनस्यो ।१।४।५। आत्परयोष्टाङसोर्यथासङख्यं इनस्यो स्याताम् । तेन । तस्य ॥५॥ अतिजरसा, अतिजरस इत्यत्र परत्वात् अर्थात् 'रामेण, रामस्य' इत्यादो- 'टाङसोः० । १।४।५ इत्यस्य जरसौ इत्यादी 'जराया: जरस् वा ।२।१३। इत्यस्य द्वयोरपि चरितार्थत्वात् स्पद्ध सति कृताकृतप्रसङ्गिरोन नित्यत्वाच्च प्रागेव जरसादेश: पश्चादकारान्तत्वाभावादेतत्सूत्रप्रवृत्त्यभावः । अन्ये तु प्रागेवेनादेशं 'सन्निपातलक्षणो: । न्यायस्यानित्यत्वाश्रयणात् पश्चाज्जरसादेशं चेच्छन्तोऽतिजरसिनेत्यपि मन्यन्ते ॥५॥ हेडस्योर्यातौ ।१।४६। मात्परस्य ईसेश्च यथासंख्यं च आश्च स्यानाम् । देवाय । देवात् ॥६॥ न च 'अत्' इत्येव कुर्यात्तथापि देवादित्यादिपसिद्धि: स्यादिति वाच्यं न च 'लुगस्यादे० ॥२।१।११३ इति प्राप्नोतीति वाच्यम् 'अत्' इति विधानसामर्थ्याद् लुगभावात् अन्यथा 'त्' इत्येव कृर्यादति । केचित्तु 'सन्निपातलक्षण.' न्यायस्यानित्यत्वाश्रयणात् अतिजरसादित्यपि मन्यन्ते तन्मतसङ्गहाय दीर्घकरणम्, दीर्घकरणाच्च स्वमतेऽपि सम्मतम् ॥६।। - . . सवदिः स्मैस्माती १४१७। सर्वादेरदन्तस्य सम्बन्धिनोइस्योर्यथासङ्खयं स्मैस्मातौ स्याताम् । सर्वस्मै, सर्वस्मात् । सर्व विश्व उभ उभयद् अन्य अन्यतर इतर उत्तर उतम त्व त्वत् नेम । समासिमौ सर्वार्थो । पूर्वपरावर Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) अन्तरम्बहिर्योगोपसंव्यानयोपुरि । त्यद् स्वमज्ञातिधनाख्यायाम् । दक्षिणोत्तरापराधराणि व्यवस्थायाम् । तद् यद् अदस् इदम् एतद् एक द्वि युष्मद् अस्मद् भवतु किन इत्यसंज्ञायां सर्वादिः ॥७॥ सर्व आदिर्यस्य स सर्वादिस्तस्य अत्र तद्गुणस विज्ञानबहुव्रीहिः । तस्यान्यपदार्थस्य गुणा: उपलक्षणानि क्रियान्वयित्वेन यस्मिन् स तद्गुणसं - विज्ञानबहुव्रीहिः, तद्भिन्नः तिरोहितावयवभेदः समुदायोऽतद् गुणसंविज्ञानबहुव्रीहिः । अत्र तद्गुणसविज्ञानबहुव्रीहिः कार्य अन्यथा सर्वशब्दस्य सर्वादित्वं न स्यात् । आदिशब्दो व्यवस्थावाची तेन गणपाठव्यवस्थिताः सर्व विश्व इत्यादया गृह्यन्ते । स्याद्यधिकारान्नाम्नः आक्षेपेण विशेषणमन्तः | ७|४|११३ ॥ इति तदन्तविधेलोभात् 'न सर्वादि:' | १|४|१२| इति द्वन्द्व निषेधाद् वा 'ग्रहणवता] नाम्ना न तदन्तविधि:' इति न्यायस्यानुपस्थितेः परमसर्वस्मै इत्यायो भवन्ति । सर्वस्मै इत्यादिसिद्धिस्तु 'आद्यन्तवदेकस्मिन्' इति न्यायेन भवति । ननु सर्वस्य बुद्धिस्थानेकार्थवाचकत्वेन बहुवचनमेव स्यान्न त्वेकवचनमिति चेन्न यदाऽनुद्भूतावयवभेदस्तदेकवचनं भविष्यति यदा तु समुदाय - द्वित्वादिविवक्षा तदा द्विवचनादि । उद्भूतावयवविवक्षायां तु बहुबचनमेव सर्वे पटा इति । यत्तत्किमन्यात् ॥ ७३॥५३॥ इत्यादिसूत्रविहितडतर ग्रहणेनैव सिद्ध ेऽन्यतरग्रहणमन्यतमस्य सर्वादित्वनिषेधार्थम् । एके त्वाहुः नायं उतरप्रत्ययान्तोऽन्यतरशब्दः किन्तु अव्युत्पन्न स्तरोत्तरपदः तरबन्तो वा तन्मते उतमान्तस्याप्यन्यशब्दस्य सर्वादित्वम् अन्यतमस्मै अन्यतमस्मात् । प्रकृतिग्रहणे स्वार्थिकप्रत्ययान्तामपि ग्रहणम्' इति न्यायेन प्रकृतिग्रहणेनैव उतरडतमप्रत्ययान्तानामपि ग्रहणे लब्धे पृथगुपादानमन्यस्वार्थिकप्रत्ययान्तामग्रहणाथंम् 'पञ्चतोऽन्यादे० ' |१| ४ | ५८ | इति सूत्रविहितान्यादि - लक्षणदार्थं च । सर्वेत्यादि - सर्वशब्दसाहचर्यात्समस्तार्थस्य विश्वशब्दस्य ग्रहणं न तु जगदर्थस्थ, त्वशब्दोऽन्यार्थः, त्वच्छब्दः समुच्चयवाचकः । नेमशब्दोऽर्धार्थः, सर्वासमसिमोहणात्समाय देशायेत्यादौ न भवति, अविषमयेत्यथः । पूर्वे - त्यादि- स्वाभिधेयापेक्षोऽवधि नियमो व्यवस्था तस्यां गम्यमानायाम् अवधिर्मर्यादा तस्य नियमोऽवश्यंभाव:, स्वपदग्राह्याः पूर्वादिशब्दास्तेषामभिधेयोऽर्थः दिग्देशकालस्वभावोऽर्थः । बहिरित्यादि - बहिर्भावेन बाह्य ेन वा योगे उपसंव्याने उपसंवीयमाने चार्थे वर्तमानोऽन्तरशब्दः, न चेद् बहियोंगेंऽपि पुरि वर्तते, अन्तरस्मै गृहाय नगरबाह्याय चाण्डालादिगृहायेत्यर्थः, चाण्डालादि Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) गृहयुक्ताय वा नगराभ्यन्तरगृहायेत्यर्थः, अन्तरस्मै षटाय, पटचतुष्टये तृतीयाय चतुर्थाय वेत्यथः, प्रथम द्वितीययोबहिय गेनैव सिद्धत्वात्, पुरि तु न भवति- अन्नराये पुरे कुप्यति चाण्डादिपुर्य इत्यर्थः, बहिर्योगोपसंध्यानादेरन्यत्र तु न भवति-अयमनयोमियोरन्तगत्तापस आयात: मध्यादित्यर्थः । स्यत्तदच्छब्दो पूर्वोक्तपरामशंको, यच्छब्द उद्देश्यपरामर्शकः, 'अदम' व्यवहितनिर्देशे 'एतद' प्रत्यक्षसमीपे, 'एक' एकत्वसंख्यायाम्, 'द्वि' द्वित्वे, 'युष्मत्' प्रत्यक्षवचन:, अस्मद् प्रत्यात्मवचनः, भवतु परोक्षवचन:, किं प्रश्ने क्षपे च 1 न चोभद्विशन्दयो नित्य द्वित्वविषयत्वाद् युष्मदस्मद्भवत्वादीनामदन्तत्वाभावात्स्मायाद्यादेशाभावे सर्वादिगणे एषां पाठो व्यर्थ इति वाच्यम्' सर्वादः सर्वाः । २।२।११९, त्यदादिः ।३।१।१२०। विशेषण. ११४१५०। सदियो १३।२।६१। 'सर्वादि०।३।१।१२२। वृद्धाद्दोनवा ।६।१।११०। इत्यादिसूत्र भ्यः सर्वविभक्त्येकणेष-पूर्व निपातवद्भाव-डद्र यागम-आयनित्रादिप्रयोजनत्वात् । दुसंज्ञा च 'त्यदादिः ६११६। सूत्रण भवति । सर्वादेरिति षष्ठीनिर्देशेन तत्सम्बन्धिविज्ञानात प्रियसीयेत्यादौ बहव्रीहिसमासे न भवति । अथवा सर्व मादीयते गृह्यतेऽनेनेत्यन्वर्थाश्रयणात्सर्वेषां यानि नामानि तानि सर्वादीनि । संज्ञोपसर्जनयोस्तु विशेषेऽवस्थानात्सर्वादिसंज्ञा न भवति ।।७। D स्मिन् ।१४८ सर्वादेरदन्तस्य : स्मिन् स्यात् । सर्गस्मिन् ॥४॥ .. _ सर्वादित्वाभावे कस्यचिन्नाम्नि तु 'सर्वे' भवति, अत्र सर्वो कस्यचिन्नाम ॥८॥ जस इ. १।४।९। सर्वादेरदन्तस्य जस इः स्यात्, सर्वे ॥९॥ ___ अत्र 'इ' इत्येकवर्णादेशोपि 'प्रत्ययस्य' ७।४।१०८॥ इति सर्वस्य स्थाने भवति । 'नाम ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणमिति न्यायांत प्राप्ते. ऽपि 'सर्वाणि कुलानि' इत्यत्र तु परत्वान्नपुसके शिरेव भवति नपुंसकस्य Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२। शि: । १।४।५५ सूत्रात् ॥९॥ नेमाब्द प्रथमचरमतयायाल्पकतिपयस्य वा 1१।४।२०॥ नेमादीनि नामानि तयायौ प्रत्ययो तेषामदातानां जस इर्वा स्यात् । नेमे नेमाः । अर्द्ध, अर्दाः । प्रथमे, प्रथमाः। चरमे, चरमा, । द्वितये, द्वितयाः । त्रये, त्रयाः । अल्पे, अल्पाः । कतिपये, कतिपयाः ॥१०॥ - नेमेत्यादि- समाहारद्वन्द्व एषः । 'तयि रक्षणे च', अयि गो' माभ्यामचि तयायो शब्दावपि भवतः परं व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्ति:' इति न्यायात् अत्र तयायो प्रत्ययौ ग्राह्यो पश्चात् 'प्रत्ययः प्रकत्यादेः । 1७।४।११५।' विशेषणमन्त: ।७।४।११३॥ इति तदन्तप्रतिपत्तिः । द्वावययवो येषां ते द्वितये 'अवयवात्त पट्' ।७।१।१५१ इति तयट् 'द्वित्रिभ्यां०' ।७।१।१५२। इत्ययः । तयट्साहचर्यात् साहचर्यात्सदृशस्यैव ग्रहणम्' इति न्यायात् 'अय' इति तद्धितस्य ग्रहणं न तु 'गय-हृदय.' उणा ३७० । इति विहितस्य । म. स्य 'जस इ.' ।।४।९। इत्यनेन प्राप्तौ, अर्धादीनामप्राप्तो विकल्पः । उभयद. शब्दस्य स्वयट्प्रत्ययरहितस्याखण्डस्य सर्वादी पाठात् पूर्वेण नित्यमेवेत्वं भवति-उभये । स्वाथिकप्रत्ययान्ताग्रहणात् अर्धका इत्यत्र न भवति । व्यव. स्थितविभाषाविज्ञानाद् अर्धादीनामपि संज्ञायां न भवति-अर्धा नाम केचित् । व्यवस्थितं मर्यादानतिक्रान्तं प्रयोगजातं विशेषेण भाषते या सा व्यवस्थितविभाषा । नामेत्यदन्तमव्ययम्, नाम नाम्ना मंजया वेति नामशब्द. स्यार्थः ॥१०॥ द्वन्द्वे वा ॥१॥४॥११॥ बन्दसमासस्थस्यादन्तस्य सवादेस इर्वा स्यात् । पूर्वोत्तरे। पूर्वो तराः ॥११॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३) उत्तरेण निषेधे प्रति प्रसवार्थोऽयं योगः ॥११॥ न सर्वादिः ।१।४।१२॥ द्वन्द्व सर्वादिः सर्वादिनं स्यात् । पूर्वापराय । पूर्वापरात् । पूर्वापरे । कतरकतमानाम् । कतरकतमकाः ॥१२॥ 'सर्वादे:० ॥१॥४७॥ इति पूर्वसूत्रादनुवृतस्य सर्वादरित्यस्यात्र अर्थवशाद विभक्ति-वि-परिणमनादाह- सर्वादिः सर्वाचिर्न स्यादिति । कतरकतमानाम-सर्वादित्वाभावात् 'अवर्णस्याम: माम' ।।४।१५। इति न भवति । कतरकतमकाः - अत्र सर्वादित्वनिषेधादक्प्रत्ययाभावे कप्प्रत्यये सति स्वाथिकप्रत्ययान्ताग्रहणाद 'द्वन्द्व वा ।।४।११। इति जस इन भवति । 'सर्वादय ऽस्यादो' ३।२।६१ इति पुंवद्भावस्तु यथासंभवं भवत्येव, तत्र भूतपूर्वस्यापि स्यादेग्रहणात् ॥१२॥ तुतीयान्तात्पूधिरं योगे १४ तृतीयान्तात्परो पूर्वावरी योगे सम्बन्धे सति सादी न स्याताम् । 'मासेन पूर्वा य, मासपूर्वाय । दिनेनावराव, दिनावराय । दिनेनावराः, दिनावराः । तृतीयान्तादिति किम् ? पूर्वस्मै मासेन ॥१३॥ .. मासपूर्वायेत्यत्र तृतीयान्तात्परत्वं कथमिति चेत्सत्यम्-योगः सम्बन्धो द्वघा एकार्थीभावो व्यपेक्षा च 'ऊनार्थ० ॥३॥११६७। इति समासे 'ऐकायें ।३।२।८। इति विभक्त लुपि 'लुप्यय्व ल्लेनत्' ।७।४।११२ इत्यनेन पूर्वकार्यनिषेधादत्र निषेधा भावात् स्थानीवा०।७४।१०९।इत्यनेन स्थानिवद्भावात्तृतीयान्तान्परत्वम् । ननु योगग्रहणं निरर्थक भाति तृतीयान्तादित्यनेनैव सिद्धत्वात् न च यास्यति चैत्रो मासेन, पूर्वस्मै दीयतां कम्बल:' इत्यत्र सर्वादित्वनिषेधः स्यादिति वाच्यं 'समर्थः पक्षविधिः ।७।४।१२० न्यायेन न निषेधः इति । येस्सस्यम् अपरे तृतीयान्तेन योगमात्र निषेधमिच्छन्ति तन्मतसङ्गहार्थं योगग्रहणं तन्मते पूर्व दिग्योगलक्षणां पञ्चमीमाश्रित्य 'पूर्वाय मासेम' इत्यपि भवति Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) ॥१३॥ तीयं ङित्कारों वा ।१।१४। तीयान्तं नाम सि-स्-डीनां कायें सर्वावी न स्याताम् । द्वितीयस्मै, द्वितीयाय । द्वितीयस्य द्वितीयाय । डिस्कार्य इति किम् ? द्वितीयकाय ॥१४॥ 'प्रत्यय: प्रकृत्यादेः ।७।४।११५॥ इति प्रकृतेराक्षेपात्तीयस्य विशेषणात् 'विशेषणमन्तः ।७।४।११३॥ इत्यन्तलाभे तीयान्तमिति । द्वितीयस्यै'सर्वादेर्डस्पूर्वाः ।१।४।१८। द्वितीयकाय- ङित्कार्ये एव सर्वादित्वादक न भवति । कप्प्रत्ययान्तस्य सर्वादित्वं तु डतरड़तम ग्रहणेनैव निषिद्धम् ॥१४॥ : TE अवर्णस्यामः साम् ।१।४।१५। अवन्तिस्य सर्वादेरामः साम् स्यात् । सर्वेषाम् । विश्वासाम् ॥१५॥ ........ _ 'विशेषणमन्तः ।७।४।११३॥ इति परिभाषाप्रवर्तनादाह- अवर्णान्तस्येति । परस्सरा०।१२।१। इति आमः सामादेशे कर्तव्ये तदा प्रक्रियालाघवातत्रं व सामादेश उच्येत आमादेशं कृत्वा सामादेशकरणे प्रयोजनाभावात्, परोक्षादेशस्तु आम् धात विधीयमान: सर्वादेर्न संभवति 'कर्तु: क्विप्० ।३।४।२५। सूत्रन क्विबन्तस्य सर्वादस्तु सभवेऽपि स्यादेरित्यधिकारान्निरासे पारिशेषात् षष्ठीबहवचनस्येवामो ग्रहणम् । सर्वेषाम- सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्त तद्विघातस्य' इति न्यायस्यानित्यवात् 'एद् बहुस्भोसि ।१।४।४। इत्येत्वं सिद्धम् । विश्वासाम्- विश्वशब्दादापि अनेन सामादेशः ॥१५॥ नवभ्यः पूर्वेभ्यः इस्मात्रिमन्वा ।१।४।१६॥ पूर्वा विभ्यो नवभ्यो ये इस्मास्मिनौ यथास्थानमुक्तास्ते वा. स्युः । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१०५) पूर्वे, पूर्वाः । पूर्वस्मात. पूर्वात् पूर्वस्मिन्, पूर्वे । इत्यादि । नवभ्य इति किम् ? त्ये ॥१६॥ नवभ्य इत्यत्र 'एबहुम्भोसि' ।१ ४४। इति कथं न प्रवर्तते इति चेत्सत्यं ‘णषमसत्परे०।२।१।६०। इति सूत्रादसदविकारात् 'नाम्नो नोऽनह नः । १२।१।९१। इति नलोपस्यासत्त्वात् । 'पूर्वेभ्य ' इत बहुवचनं पूर्वादिग्रहणार्थम् । पूर्व-पर-अपर-दक्षिण, उत्तर, अपर-अधर-स्व-अन्तर इति सर्वादिगणपठिता: नव पूर्वादयः । त्ये इति-त्यद् ‘आ द्वरः' ।२।१।४१। 'लुगस्या' ।२।१।११३। 'जस इ.' ।१।४।९। अवर्णस्य० ।१।२।६। इत्येत्वम् ॥१६॥ आपो डितां टो-यास्-याम् ॥१॥४॥१७॥ आवन्तस्य ङितां ङ ङसिङस्ङीनां यथासंख्य ये यास् यामः स्युः । खट्वाय । खट्वायाः । खवायाः खटवायाम् ।१७। ... .. ... पूर्वसूत्रषु सर्वादेव्यभिचारेऽपि उत्तरसूत्र सर्वादिग्रहणादिह सामा-- न्यमवगम्यते । आ सम्बन्धि विज्ञानात् 'बहुखट्वाय पुरुषाय' इत्यत्र न भवति ॥१७॥ - सदिड पूर्वाः ।।४।१८॥ • सर्वादेराबन्तस्य ङिताम् य-यास्यास्यामस्ते इस्पूर्वाः स्युः । सर्वस्य, सर्वस्याः, सर्वस्य :, सर्वस्याम् ॥१८॥ - ‘डियन्त्यस्वरादेः ।२।१।११४। इत्यन्यस्वरादिलोपे 'सर्वस्यै इत्यादि ॥१८॥ .... टौरटौत् ।१।४।१९। आवन्तस्य टोसोः परयोरेकार: स्यात् । बहुराजया, बहुराजयोः Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) ।१९। ____तकारोऽसन्देहार्थोऽन्यथा तकारमन्तरेण एरित्युच्यमाने एकार आदेशो भवत्यथवा टौसोः परयोरिकारस्य पूर्वे आदेशा इति सन्देहः स्यात् ॥१९॥ औता ।१।४।२०॥ आवन्तस्य औता सहकारः स्यात् । माले स्तः पश्य वा ।२०। ___आवन्तस्य औता सह - एकस्या अपि षष्ठ्या। अर्थवशाद द्विधा भेदात् आबन्तस्य औता सह एकारः स्यादिति भावः । पूर्व षष्ठ्याः सम्बन्धितया भेदः पश्चात् स्थानितया । नन्वेकस्या अपि षष्ठ्या द्विधा भेदः कथमिति चेत्तथ्यमेकारस्याऽऽदेशत्वात्स्थानमन्तरेणासम्भवात्प्रत्यासत्तेराबन्तस्यैव स्थानित्वम् । स्तः पश्य वा - क्रियापदद्वयम् प्रथमाद्वितीयाद्विवचनयोरभिव्य- . क्त्यर्थः ॥२०॥ इदुतोऽस्नरीदूत् ।१॥४॥२१॥ स्त्ररन्यस्येदन्तस्योदन्तस्य च औता सह यथासंख्यम् ईदूतो स्याताए । मुनी, साधू । अस्त्रेरिति किम् ? अतिस्त्रियो नरौ ।२१। . ___ स्त्रीवर्जनात् षष्ठी न तत्सम्बन्धिनी । इदमेव स्त्रीवर्जनं ज्ञापकं यत्परेणापि 'स्त्रियाः' ।२।१५४। सूत्रण इयादेशेन ईत्कार्य न बाध्यते तेन अतिस्त्रयः, अतिस्त्रये, अतिस्त्र: २, अतिस्त्रौ अतिस्त्रीणाम् इत्यादि सिद्धम् ॥२१॥ जस्येदोत् ।१।४।२२॥ इदुदन्तयोजसि परे यथासंख्य मेदोतो स्याताम् । मुनयः । साधवः Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ।२२। ‘यथासङ्खयमनुदेशः समानाम्' इति न्यायात् 'आसन्नः ॥७।४।१२० । इति वेकारस्यैकारः, उकारस्यौकारः ॥२२॥ (१०७) ङित्यदिति |१|४|२३| अदिति ङिति स्यादौ परे इदुदन्तयोर्यथासंख्य मेदोतौ स्याताम् । अतिस्त्रये । साधवे । अतिस्त्र: साधोरागतं स्वं वा । अदितीति किम् ? बुद्ध गाः, धेन्वाः । स्वादावित्येव शुची स्त्री ॥ २३ ॥ ननु दायाद्यादेशानां स्त्रीत्वविशिष्टेकारोकारापेक्षत्वेन बहिरङ्गवम् इकारोकारमात्रापेक्षत्वेनान्तरङ्गत्वात्पूर्वमेव एदोती आदेश पश्चादिदुन्तत्वाभावात् वर्णविधित्वाच्च स्थानित्वाभावात् न च तदन्तादेशविधानादवर्णवधित्वम्, अप्रधानेऽपि वर्णविधि प्रतिषेधात्, एवं तर्हि निखकाशप्वाद् पूर्वमेवदायाद्यादेशाः अतः अदितीति वर्जनम् । न च 'सन्निपालक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य' इति न्यायाद् इदुत्सन्निपातेन जायमानत्वात्तद्विघाताय न प्रभवेदिति वाच्यं तथा सति यत्वमपि न स्याद् अतः एतदेव 'अदिति' इति वर्जनं ज्ञापयति वर्णविधावयं न्यायो नोपतिष्ठते इति तेन दायाद्यादेशेषु कृतेषु दोती न भवतः यत्वं तु भवत्येव । आगतं स्वं वेति - पञ्चमी षष्ठ्येकवचनाभिव्यक्त्यर्थमेतदुपादानम् । बुद्ध याः 'स्त्रियां ङितां वा ० | १|४|२८| इति ॥२३॥ टः पुंसि ना | १|४|२४| इदुदन्तात्परस्याः पुं विषयायाष्टाया ना स्यात् । अतिस्त्रिणा, अमुना । पुंसीति किम् ? बुद्ध याः ॥ २४ ॥ अमुनेति ननु 'मादुवर्णोऽनु | २|१|४७॥ इत्युत्त्वं तु 'अनु' इति वचनात्पश्चाद् भविष्यतीति उदन्तत्वाभावात्कथं नादेश: 'टाङसोरिनस्यो । W Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) ।१।४।५। इतीनादेशेन भाव्यमिति चेन्न 'प्रागिनात्' ।२।१।४८। इति वचनात्पू- . व मेवो वं पश्चान्नादेश इति ॥२४॥ डिडौँ ।१।४।२५ इदुदन्तात्परो ङिडौ: स्यात् । मुनौ । धेनौ । अदिदित्येव । बुद्ध : याम् ॥२५॥ ... डिडौं रित्यभेदनिर्देशश्चतुर्थंकवचनशङ्कानिरासार्थः । डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः ॥२५॥ केवलसरिखपतरोः ।।४।२६ . केवलसखिपतिभ्यामिदन्ताभ्यां परो डिरौः स्यात् । सख्यो । पत्यौ। इत इत्येव-सखायमिच्छति । सख्यि, पत्यि । केवलेति किम् ? प्रियसखौ, नरपतौ ॥२६॥ केवलग्रहणेन 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः' इति न्यायस्यानित्यताज्ञापिताऽन्यथा केवलग्रहणं व्यर्थ स्यात् । सख्यि-नन्वत्र 'स्थानीवा०।७।४।१०९। इति न्यायात् क्विप: स्थानित्वे सति 'प्वो: प्वय० ।४।४।१२१॥ इति यलोपः कस्मान्न भवति ? 'असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग' इत्यन्तरङ्ग विबाश्रिते कार्ये कर्तव्ये बहिरङ्गस्य यत्वस्यासिद्धत्वात् ॥१२६॥ न ना डिदेत् ।१।४।२७ केवलसखिपतेर्यष्टाया ना डिति परे एच्चोंक्तः स न स्यात् । सख्या।. पत्या। सख्ये । पत्ये । सख्युः, पत्युः आगतम् स्वम् वा । सख्यो पत्यौ । डिदिति किम् ? पतयः ।२७। .. . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०९) सखिपतेर्ना-डिदेता सह न यथासंख्यं 'खि-ति-खी-ती.' ।।४।३६॥ इति सूत्र खिग्रहणात् ‘सख्युरित ०' ।१४१८३। इति निर्देशाद् वा ॥२७॥ स्त्रिया ङितां वा दै दास् दास् दाम् ११४।२८ स्त्रीलिङ्गादिदुइन्तात्परेषां डितां ङ ङसिङस्ङोनां यथासंख्यं देवास दास्दामो वा स्युः । बुद्ध ये बुद्धये । बुद्ध याः, बुद्धः आगतम् स्वम् वा । बुद्ध याम्, बुद्धौ । धन्वै, धेनवे । धेन्वाः, धेनोः, धेन्वाम् धेनौ । प्रियबुद्धय, प्रिय बुद्ध ये पुंसे स्त्रिय वा ।२८। ... ___'पत्युनः' ।२।४।४८ इति निर्देशात् सखि-पती नानुवर्तते । 'स्त्रिया' इति विशेषणस्य वष्यसापेक्ष वात्सखिपतिभ्यां परेषां डितां 'खि तिखीतीय ।१।४।३६। इति विशेषविधिभिराघ्र तत्वात्, दित्करणस्य तु प्रयोजनवत्त्वात् सामान्यमिदन्त वमधिक्रियते इत्याह - इदुदन्तादिति । अत्र षष्ठ्य-भावात् इदुदन्तसम्बन्धिनामर.न्यन्धिनां ङितां ग्रहणात् प्रियबुद्ध्य इ.यादयः सिध्यन्ति . ॥२८॥ . स्त्रीदूतः ।१।४।२९। नित्यं स्त्रोलिङ्गादोदूदन्ताच्च परेषां स्यादेहिता यथासङख्यं दै दास्· दास-दामो वा स्युः । नछ । नद्याः । नयाः । नद्याम् । कुर्व । कुर्वाः, कुर्वाः, कुर्वाम् । अतिलक्ष्म्य पुसे स्त्रियं वा । स्त्रीति किम ? प्रामण्ये । खलप्वे पुसे स्त्रियो ।२९।। कुई - कुरोरपत्यं स्त्री 'दुनादि०।६।१।११८। इति विहितस्य ध्यस्य 'कुरोर्वा ।६।१।१२। इति लुपि 'गोत्र च चरणैः सह' इति जातित्वादूङ् । ग्रामण्ये - ग्रामण खलपूप्रभृतिशब्दानां क्रियाशब्दत्वात् त्रिलिङ्गत्वात् स्त्रिया- . मपि वर्तमात्वान्नित्यत्यस्त्रीविषयो नास्तीत्यादेशाभावः । स्त्रिया इत्यनुवर्तमानेऽपि पुनः स्त्रीग्रहणं नित्यस्त्रीत्वार्थम् ।।२९॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) वेयुवोऽस्त्रियाः ११४॥३०॥ इयुवस्थानिनौ यो स्त्रोदूतौ तदन्तात् स्त्रीवर्जात्परेषां स्यादेङिताम् यथासंख्यं दै-दाम-दास -दामो वा स्युः । श्रियं , श्रिये । श्रियाः, श्रियः २। श्रियाम् श्रियि । अतिश्रिय, अतिश्रिये पुसे स्त्रियं वा । प्रवे. घवे । म्र वाः प्र वः । प्रवाः भवः । भ्र वाम् भ्रवि । अति भवे, अतिभ घे पुंसे स्त्रियं वा । इयुव इति किम् ? आध्ये । अस्त्रिया इति किम् ? स्त्रिये ॥३०॥ ननु स्त्रिय इत्यत्र असत्यपि अनेन विकल्पे कथं पूर्वेण नित्यमादेशः भविष्यति ? यतः परत्वादियुवादिभाषादोदन्तत्वाभावादप्रवृत्तरेव भविष्य- . तीति चेन्मेवम् अस्त्रिया इति निर्देशात् परादपि इयुव-यत्वादिकार्यात्प्रागेव स्त्रीदूदाश्रितं कार्य भवति तेन स्त्रिय, स्त्रीणाम्, भ्रूणाम्; आध्यं' इत्यादि सिद्धम् ॥३०॥ ..... आमो नाम्वा ।१४॥३१॥ इयुवोः स्थानिभ्यां स्त्रोदूदन्ताभ्यां परस्य आमो नाम्वा स्यात् । न तु स्त्रियाः । श्रीणाम्, श्रियाम् । भणाम्, भवाम् । अतिश्री. णाम्, अतिश्रियाम् । अतिभ णाम, अतिभ वाम् नृणां स्त्रीगां वा। इयुव इत्येव-प्रधीनाम् ॥३१॥ स्थिानस्य दामः सानुबन्धत्वात् 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य' इति ग्यायेन निषेधात्, अपरस्य चासम्भवात् स्याद्यधिकाराच्च षष्ठीबहुवचन. स्वामी ग्रहणम् । प्रध्यायति इत्येवं शोल: प्रधी: सासां प्रधीनाम् । स्त्रीश. ब्दातूतरेण नित्यमेवादेशः ॥३१॥ हस्वापश्च ।१।४३२॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११) हस्वान्तादाबन्तात् स्त्रीद्वदन्ताच्च परस्यामो नाम् स्यात् । देवानाम्, मालानाम्, स्त्रीणाम्, वधूनाम् ॥३२॥ चकारेण 'स्त्रीदूतः' इत्यनुकृष्यते । चानुकृष्टत्वात् 'चानुकृष्टं नानुवर्तते' इति न्यायान्नोत्तरानुवर्तते । देवानाम् 'सन्निपातलक्षणो विधि' इति न्यायस्यानित्यत्वात् 'दीर्घो नाम्य०' | १|४ | ४७ । इति दीर्घ । ननु स्त्रीशब्दात् ङित्ययस्य स्त्रोत : ' | १|४|२९| इत्यामादेशे सत्यनेन सूत्रण नामादेशः कथं न भवतीति चेत्सत्यं 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य' इति न्यायान्न भवति । स्त्रीशब्दवजित योरियु वादेशसम्बन्धिनो: स्त्रीदूतोः पूर्वेण विकल्प एव ||३२|| 4 संख्यानां ष्र्णाम् ||४|३३| रणनान्तानाम् संख्याया चिनामामो नाम् स्यात् । चतुर्णाम् । षण्णाम् । पञ्चानाम् । अष्टानाम् |३३| 1 र् च ष् च न् च तेषां णाम् 'रष्वर्णान्नो० | २|३|६३ | इति त्वं भिन्नपदत्वात् 'वोत्तरपदान्त०' |२| ॥७५॥ इत्यपि न, षस्य पूर्वपदस्थत्वाभावात् मध्यमपदस्थत्वात् न च रस्य पूर्वपदस्थत्वात् णत्वं भविष्यतीति वाच्यं 'पदेऽन्तरेऽनाङ ० | २|३|९३ | इति निषेधातु, परन्तु तवर्गस्य ० ' | १|३|६० । इति णत्वम् । ननु सङ्ख्या एकत्वादिरर्थः णामिति च शब्दनिदेश: कथं तर्हि शब्दार्थयोः सामानाधिकरण्यं सङ्गच्छते इति चेत्सत्यमुपचारात्सङ्ख्याशब्देन सङख्यार्थाः शब्दा एव च्यन्ते । यद्वा सङ्ख्यायते आभिरिति 'करणाधारे' ||३|१२९| इति परमप्यनटं बाधित्वा 'उपसर्गादातः ' |५|३|११०। इत्यङि सङख्याशब्देन संख्यार्थाः शब्दा एवाच्यन्ते । षष्ठ्यास्तम्बन्धिविज्ञानात्प्रियचतुरां प्रियषषां प्रियपञ्चामित्यादो न भवति । चतुर्णाम् - 'हीद० | १|३|३१| इति णस्य द्वित्वम्, षण्णाम् 'माम सिद+ व्यञ्जने' | १|१|२१| इति पदत्वात् 'घुटस्तृतीयः' | २|१|७६ । इति षस्य डकार : 'पदान्तावर्गाद० | १|३|६३॥ इति प्रतिषेघाभावात् 'तवर्गस्य०' १६६०१ इति णत्वं डकारस्य 'प्रत्यये' | १| ३ |२| इति णत्वं च । पञ्चानाम् 'दीर्घो नाम्यति० १० | १|४|४७ | इति दीर्घः, 'नाम्नो नो नहतः | २|११९११ इति - Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) षरवर्जनेन ज्ञापितं नकारव्यवधानेऽपि दी? भवति, अन्यवर्णेन तु व्यवधानासम्भव एव । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् तेन भूतपूर्वनान्ताया अपि अष्टानाम्, परमाष्टामित्यत्र परत्वात् पूर्वमेव' वाष्टन:०' १।४।५२ इत्यादेशेऽपि अष्टा. नां परमाष्टामित्यत्र नामादेशो भवति । ननु भूतपूर्वकस्तद्वदुः इति न्यायादेव सेत्स्यतीति कि बहुवचनाश्रयणेनेति चेत्सत्य बहुवचनमस्य न्यायस्यानित्यताज्ञापकम् ॥३३॥ स्त्रयः ॥१४॥३४॥ आम सम्बन्धिनस्त्रेस्त्रयः स्यात् । त्रयाणाम्, परमत्रयाणाम् ३४॥ आमः सम्बन्धिविज्ञानात् प्रियत्रीणामित्यत्र न भवति । स्त्रियां तु परत्वात् 'त्रिचतुर० ।२।१।१॥ इति 'तिसृ' आदेशो भवति यथा तिसृणाम् ॥३४॥ एदोद्भ्यो इसिङसो २ः ॥१॥४॥३५॥ , एदोभ्यां परयोः प्रत्येकं सिङसोः रः स्यात् । मुनेः, मुने, धेनोः, घेनोः, गोः, गोः, द्योः, द्योः ॥३५॥ वचनभेद: यथासङ ख्यनिवृत्त्यर्थः । तकार: स्वरुपपरि-ग्रहार्थस्तेन लाक्षणि-कयोरप्येदोतो: ग्रहणात् मुनेः इत्यादि सिद्धम् । रकारे अकार उच्चारणार्थः ॥३५॥ रिवतिखीतीय उर् ।१।४॥३६॥ खिति-खोतीसम्बन्धिनो त्पिरयोङसिङसोरुर् स्यात् । सख्यः । सरव्यः । पत्य:, पत्यः । सखाय पति चेच्छतः सरव्यु : २ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (११३) पत्य : २ । य इति किम् ? अतिसखेः, अधिपतेः ३६। सख्युः - इवर्णादेर० ।१।२।२१॥ इति यत्वम् । सखायं पति वेच्छतोति 'अमाव्यव्यात् क्यन च ३।४।२३। इति क्यनि दीर्घ श्च्वयङ ० ।४।३।१०८। इति दीर्घत्वे सखीयतीति क्विपि 'क्विबन्ता धातूत्व नोञ्झन्ति शब्दत्वं च प्रतिपद्यन्ते' इति न्यायात 'योऽनेकस्वरस्य' ।।११५६। इति यत्वे च । अतिसखेरित्यादि - सखायमतिक्रान्तो य सोऽतिसखा 'ऋदूशन' ।१।४।८४। सूत्रान्निष्पन्नः, अधिकं पति अधिपतिः । 'न ना-डि देत् ॥१॥४॥२६॥ इत्यत्र केवलसखिपतिशब्दयोरेत्व-निषेधादत्र न निषेधः ॥३६॥ ऋतो डर १।४।३७।। ऋतः परयोः ङसिङसोईर् । स्यात् । पितुः पितुः ।३७। . - 'ऋकारापदिष्टं कार्य ल कारस्य' इति न्यायात् लकारादपि परयोः उसिङपोर्दुर्-आप्ल इत्येतस्मात् षष्ठयाम् आपुल 'ऋफिडादीनां डरल: ।२।३।१०४। इति लत्वम् ॥३७॥ . . तु-स्वस-नस्तु-नेष्टु-त्वष्ट-क्षतु - होतु - पोत- प्रशास्त्रो छुदयाचार 1१।४॥३८॥ तृस्तृन्नन्तस्य स्वस्रादीनां च ऋतो धुटि परे आर् स्यात् । कारम, कर्तारी, कर्तारः । स्वसारम्, नप्तारम्, नेष्टारम्, त्वष्टारम, आत्तारम, होतारम्, पोतारम्, प्रशास्तारम् । घुटोति किम् ? कर्तृकुलं पश्य ।३८॥ ननु तृ"..."प्रशास्त्र: इत्यत्र नागमेन भाव्यमिति चेत् 'सूत्र. त्वात् नागमो न भवति' । यद्वा सूत्र प्रशास्तृ णामृ प्रशास्तृः तस्येति ऋकारोपादानाद् वा न भवति । 'निग्नुबन्धग्रहणे सामान्येन' इति न्यायाद् ‘णकतृचौ' ।।१।४८॥ इति 'तृन्शीलधर्म० ।।२।२७। इति तृच्तृनोर्ग्रहणादाह - तृच्तृन्नमस्येति । तृशब्दस्यार्थवतो ग्रहणेन प्रत्ययग्रहणः त्रा-दीनामव्युत्प Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) न्नानां संज्ञाशब्दानां तृशब्दस्य ग्रहणं न भवतीति तेषां पृथगुपादानम् इदमेव ज्ञापकम् 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ग्रहणं भवति' इति, उणादीनामपि व्यु - त्पत्तिपक्ष तु तृग्रहणेनैव सिद्ध नप्त्रादिग्रहणं नियमार्थम्, तेनान्येषामौणादिकानां न भवति पितरौ भ्रातरी, मातरी, जामातगे । तृच्तृन्म्रत्ययान्तस्य स्वस्रादीनां च सम्बन्धिनः ऋकारस्य स्थाने तत्सम्बन्धन्यसम्बन्धिनि वा घुट परे आर्, भवतीति सूत्रार्थस्तेनाति कर्तारमित्याद्यपि भवति । नन्वत्र शो घुटि निमित्त कथं नोदाहृनम् । न च शौ वुटे 'स्वराच्छौ | ११४६५ इति नागमेन व्यवधानान्न प्राप्नोतीति वाच्यं 'स्वाङ्गमव्यवधा 'य' इति न्यायाद् व्यवधानं न भविष्यतीति चेत्सत्यमवयवेनावयवयवस्य ॠल्लक्षणस्यं व्यवधानं भवतीति न प्रदर्शितम् ॥३८॥ अर्डों च |१|४|३९| ऋतो ङौ घुटि च परे अर् स्यात् । नरि । नरम् १३९ । 'चकारो यस्मात्परस्तत्सजातीयमेव समुच्चिनीति' इति न्यायाचचकारो ङिसजातीयं प्रत्यायत्त रनन्तरोक्तं निमित्तमेव समुच्चिनोत्यत आह ङो घुटि चेति । ननु कर्ता णि कुले, कतृ ' णि कुलानि' इत्यत्र घटि शो परे अर भवति नवेति चेन्न भवति 'नरि, कुण्डानीत्यत्रो भयो: सावकाशत्वेन परवानागम एव भवति, तस्मिन् सति व्यवधानान्न भवति ||३९|| :C मातुर्मातः पुत्रे ऽहें सिनामन्तये | १|४|४०| मातुरामध्ये पुत्र वर्तमानस्य सिना सह मातः स्यात् । अहें प्रशं सायाम् । हे गार्गीमात । पुत्र इति किम् ? हे मातः, हे गार्गीमातृके वत्से । अहं इति किम् ? अरे गार्गीमातृकः |४०| सामर्थ्याद्बहुव्रीहिसमासे भवत्यन्यथा मातृशब्दस्य पुत्रे वर्तमानवाभावात् । बहुव्रीहौ तु ऋन्नित्य | ७|३|२७१ | इति कच्प्राप्तः परन्तु विशेपविहितत्वादपवादत्वादयं प्रवर्तते । गार्गीमात- श्लाध्यया मात्रा पुत्रः उलाघ्यते 1 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५) गर्गस्यापत्यं वृद्ध स्त्री 'गर्गार्दर्यम् | ६ | १|४२ | 'वृद्धिः स्वरेष्वा० ७|४|१| अववर्णस्य ||७|४|६८ | 'यत्रो डायन् च वा | २|४|६७ | 'अस्य ङयां लुक् |२|४| ८६ ‘व्यञ्जनात्तद्धितस्य' | २|४|८८ | इति । अरे गार्गीमातृक-अज्ञातपितृकत्वेनाने पिकत्वेन वा विगुणः पुत्रो निन्द्यते इति ॥ ४० ॥ 1 हस्वस्य गुणः 1१।४।४१। आमन्त्र्यार्थवृत्त र्हस्वान्तस्य सिता सह गुणाः स्यात् । हे पितः । हे मुने ।४१। ह. स्वान्तस्य अधिकृतस्य नाम्नो विशेषणत्वेन तदन्तविधिः । 'श्रुतानुमितयोः श्रीतो विधिर्बलीयानू ' इति न्यायाच्छ रू तस्य ह्रस्वस्यैव गुणो भवति न त्वनुमितस्य ह्रस्वान्तस्य ॥४१॥ एदापः | १|४|४२| आमन्त्र्यार्थवृत्त राबन्तस्य सिना सहकारः रहात् । हे झाले । हे बहुराजे |४२| बहवो राजानो यस्यां सा (ताभ्यां वाप् डित् | २|४| १५ | इति डापि बहुराजा तत्सम्बोधने बहुराजे । आश्चासावाप् चेति आकारप्रश्लेषात् हे प्रियखट्व । इत्यत्र 'गोश्चान्ते ० | २|४|८६ । इति ह्रस्वत्वे 'एकदेशविकृत ०' इति न्यायात्प्राप्तोऽप्येकार | देशो न भवति ॥ ४२ ॥ नित्यदिदिदस्वराम्बार्थस्य ह्रस्वः | १|४|४३| नित्यं दिद्द े दासदास - दामादेशा येभ्यस्तेषां द्विस्वराम्बार्थानां चाबन्तामामवृत्तीनां सिना सह ह्रस्वः स्यात् । हे स्त्रि । हे लक्ष्मि । हे श्वध । हे वधु । हे अम्ब । हे अक्क । वित्यविदिति किम् ? हे Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुहूः । द्विस्वरेति किम् । हे अम्बाडे । आप इत्येव । हे मातः ॥४३॥ पृषोदशदित्वात् जहातेस्प्रत्यये द्विवचनादौ च हूहूः ॥४३॥ अदेतः स्यमोलुक ।१॥४॥४४॥ अदन्ताच्च आमन्त्र्यवृत्तेः परस्य सेरमश्च लुक स्यात् । हे देव । उपकुम्भ । हे अतिहे ॥४४॥ - स्यादेशत्वेनैवामोऽपि लुचि सिद्धायां पृथग्वचनमन्यस्याऽदेशस्य लुगभावार्थम् । तेन 'पञ्चतोऽन्यादे०।१।४।५८॥ इत्यादेशे सति हे कतरद् इत्यादौ लुग् न भवति । कुम्भस्य समीपम् उपकुम्भम् 'अमव्ययीभावस्यातो.' १३।२।२। इत्यम्, अनेन लोपः। हिनोतीति विचि हेः हयमतिक्रान्तः अतिहे: तत्सम्बोधने अतिहे ॥४४॥ .. दीघड्याव्यञ्जनात्सेः ।१।४।४५। , दीर्घङ याबन्ताभ्यां व्यञ्जनाच्च परस्य सेलुक स्यात् । नदी। माला । राजा । दोघेति किम् ? निकौशाम्बिः । अतिखट्वः ॥४५॥ व्यञ्जनाच्च 'विशेषणमन्त:' ।७।४।११३। सूत्रात् व्यञ्जनान्ताच्चेति भावः । 'पदस्य' ।२।१।८९। इति सिद्ध व्यञ्जन ग्रहणं 'राजा' इत्यादौ सिलो. पार्थम् अन्यथा 'नाम्नो नोऽनह नः ।२।१९१। इति परकार्ये कर्तव्ये 'पदस्य' ।२।१।८९। इत्यस्यासत्त्वात् पूर्व नलोपे संयोगान्तत्वा - भावात् 'पदस्य' १२।१२८९। इत्यस्याप्रवृत्त: सेर्लोपो न स्यात् ॥४५॥ समानादमो तः ।१।४।४६। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (११७) समानात्परस्यामोऽस्य लुक् स्यात् । देवम् । मालाम् । मुनिन् । नदीम् । साधुम् । वधूम ।४६। देवमित्यत्र 'लुगस्यादेत्य० ॥२।१११२॥ इत्यनेन लुम् सिद्धः, परन्तु 'पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्त.' इति न्यायेनाप्रापि सूत्र प्रवर्तते, एवं मालामित्यअपि 'समानानां तेन दीर्घ ।१।२।२॥ इति सिद्धऽपि अनेन लुक्सिद्धः । पितरम् इत्यादिषु विशेषविधानात्प्रथममेवा ।।४।। दी? नाम्यतिसूचतसपः ।१।४।४७॥ तिसृचतसृषरान्तबर्जस्य समानस्य नामि परे दीर्घः स्यात् । वनानाम् मुनीनाम् । साधूनाम । पितृ णाम् । अतिसृचतसृषः इति किम् ? तिसृणाम् । चतसृणाम् । षण्णाम् । चतुर्णाम् ॥४७॥ . बनानाम् - 'सन्निपातलक्षणो विधिः' इति न्यायस्यानित्यवाद्दीर्घ स्वम् । ननु षकार - रेफाभ्यां व्यवधानादेव न भविष्यति किं षवर्जनेन ? अष इति प्रतिषेधेन नकारेण व्यवहितेपि नामि दी! ज्ञाप्यते सेन पञ्चानामिति सिद्धम् ॥४७॥ - नुर्वा ।१।४।४८॥ नुः समानस्य नामि परे दो? वा स्यात् । नगाम, न गाम ॥४८॥ नृ + डुर् %3 नुः ॥४८॥ - शसोडता सश्च नः पुसि ।१।४.४९। शसोऽता सह पूर्वसमानस्य दीर्घः स्यात् । तत्सन्नियोगे च पुसि रासः सो नः । देवान , मुनीन् । वातप्रमोन । साधून् । हूहून् । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) पितन् । पुंसीति किम् ? शाला: ४९| पूर्वसमानस्य - 'गौणमुख्यययोः ०' इति न्यायात् 'मुनीन्' इत्यादी मुरुस्थानिन एव आसन्नो दीर्घः ईकार: न त्वाकार: । 'नान्वावीयमाननिवृत्ती प्रधानस्य' इति न्यायात्, बुद्धी: इत्यादी गौणस्य नस्य निवृत्त वपि मुख्यं न निवर्तते । 'सन्नियोगशिष्टानामेकापाये० ' इति न्यायाद 'एतान्गा: पश्य' इत्यत्र दार्घत्वस्या - भावे नकारस्याप्यभाव: । 'आ अम्शसोना: ११।४।७५॥ इत्याकारः । वातप्रमीन् वातं प्रमीमते 'वातात्प्रमः कितु 'उणाः ७१३ इति ईप्रत्यये, वातप्रमीः वेगवान् मृगः इत्यर्थ. ॥४९॥ संख्यासायवेरह,नस्याहन् ङौ वां |१| ४|५० संख्यावाचिभ्यः सायवियां च परस्याह नस्य ङो परेऽहन्या स्यात् । द्वयहनि, द्वयहिन, द्वयहने । साधाहनि, सायाहिन, सायाहने । व्यहनि, व्यहिन व्यहने ॥५०॥ द्वयोर होर्भव: 'भवे' |६|३|१२३ । इत्यविषये' संख्या समाहारे० । ३ । १ । ९९ । इति द्विगुसमास: 'सर्वाश ० ' । ७ । ३ । ११८ 1 इत्पट् अह नादेशश्च द्विगारनपत्ये ६ ११२४ । इत्यणो लोप:, ङावनेन विकल्पेन अहन्नादेशे ईङौ वा |२| १ | १६९ | इति विकल्पेनाकारलोपे द्वयहनि, यहनद्वयह, नेइति सिद्धा: । सांयाहनीत्यादि- सायम् अह नःः सायाह नादयः | ३|१|५३| इति समासः 'सर्वाश |७|३|११८ । इत्यह नादेश: शेष पूर्ववत् अत एव निर्देशात् सायं शब्दस्य मकारलोपः सायेत्यकारान्तो वा । व्यहनि प्रात्यवपरि० ३ | १|४७ | इति समासः ||५० || निय आम् ||४|५१० नियः परस्य राम् स्यात् । नियाम् । ग्रामण्याम् ॥५१॥ ङ इति 'अर्थवशाद् विभक्तिविपरिणाम:' इति न्यायेन षष्ठ्यन्तत्वेन Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११९) • परिणम्यानुवर्ततेऽत आह के रामिति । ननु ग्रामण्यामित्यत्र 'नी' नास्ति किन्तु 'गी' इत्यमो न प्राप्तिः, सत्यम् 'नवमसत्वरे' | २|११६० इति स्यादिविधौ णत्वमसद् भवति । ननु 'एकदेशविकृत ०' इति न्यायेन नपुंसकेपि प्राप्ति - रिति चेन्न 'निय ई' नी इतीकारप्रश्लेषात् नपुंसके 'निनि, ग्रामणिनि इत्येव भवति 'अनाम्स्वरे० ' | १|४| ६४ | इति नोऽन्तः । नियामित्यत्र 'धातोरिवन० | २ ||५० । इतीय् ग्रामण्यामित्यत्र तु 'क्विब्वृत्तेर० |२| १ | १८| इति यत्वम् | नीशब्दस्यामो नामादेशस्तु 'आमो नाम्बा' |१| ४ | ३१ । इति सूत्रेण । ग्रामणीशदस्यामो नामादेशस्तु 'ह्रस्वापश्च' | १|४|३२| इति सूत्रेण तत्र नित्यस्त्रीतोरधिकृतत्वान्न भवति ॥ ५१ ॥ वाष्टन आः स्यादौ 1१1४|५२ | I अष्टनः स्यादौ परे आ वा स्यात् । अष्टाभिः, अष्टभिः । प्रियाष्टाः प्रियाष्टा ५२ ननु स्याद्यधिकारे सत्यपि स्यादिग्रहणं कथम् ? पूर्वसूत्राद् ग्नु वृत्तिर्मा भूदिति स्यादिग्रहणम् । षष्ठ्याऽन्त्यस्य | ७|४|१०६ । इत्यन्त्यस्यादेशः अनुशब्द सम्बन्धिन्यसम्बन्धिनि वा स्यादौ परे इत्यथः । तेन प्रिया अष्टो यस्य स प्रष्टाः । त्वाभावपक्षे तु निदर्घः | १|४|८५ इति दीर्घत्म, " दीर्घङ याब्” | १|४|४५ । इति सिलोपः नाम्नो नोऽनह नः | २|१|९१ । इति नलोपश्च ॥५२॥ अष्ट और्जस्शसोः | १|४|५३ ॥ अष्टनः कृतात्वस्य जस्शसौरौः स्थात् । अष्टौ । अष्टौ ।५३| आत्वाभावपक्षे 'डतिष्णः ० | १|४|५४ | इति जस्शसोलु पि "नाम्नो नोऽनह नः | २|१|११| इति नलुकि अष्ट २ इति रूपं भवाति ॥ ५३ ॥ इतिष्णः संख्याता लुप् |१|४|५४ | Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) डति बनान्तानाम् संख्यानां जस्शसोलुप् स्यात् । कति । कति । षट् । षट् । पञ्च । पञ्च ॥५४॥ ष्ण इत्यत्र तवर्गस्य० | १।३। ६० । इतिणः । षड् - शब्दात् जस्शसोलु पि पदत्वात् 'घुटस्तृतीयः | २|१ | ७६। इति उत्वं, 'विरामे व' | १|३|५१ | इति टत्वम् ।।५४।। नपुंसकस्य शिः | १|४|५५ ॥ पुंसकस्य जस्सोः शिः स्यात् । कुण्डानि । पयांसि ५५॥ नपुंसकस्येति - स्त्री च पुमान् च इति स्त्रीपुःसौ 'स्त्रियाः पुंसो० ' |७|३|९६। इति समासान्तः । न स्त्रीपु सौ नखादित्वात् नखादयः | ३ |२| १२८| इति नमोऽभावः, पृषोदरादित्वात् स्त्रीषुः सशब्दस्य पुंरंसक आदेश: । कुण्डानिकुण्डशब्दाज्जस्शसो: स्थाने शि:, 'स्वराच्छौ | १|४१६५ | 'नि दीर्घः | १|४| ८ | पयांसि पयस्शब्दात् जस्शसो: स्थाने शिरादेश: 'घुटां प्राक्' | १|४|६६ | 'महतो: | १|४) ८६ इति ॥ ५५ ॥ औरीः ।१|४|५६| नपुंसकस्य ओरी: स्यात् । कुण्डे । पयसी । ५६ । आदेशदेशिनोरभेदनिर्देश: सर्वादेशार्थः अन्यया ' षष्ठ्याऽन्त्यस्य' |७|४|१०६ । इति न्यायाद् अन्त्यस्य स्यात् । अ ओ इति प्रकृती' ऐदौत्सन्ध्क्षरे: |१२|१२| इत्यनेन औकारो निष्पन्नः || ५६ || अतः स्यमोहम् |9|४|५७ | अवरतस्य नपुंसकस्य स्यमोरम् स्यात् । कुण्डम् । हे कुण्ड ॥५७॥ नन्त्रादेशमध्येऽमो कारोच्चारणं कथम् ? समानादमोऽतः | १|४ | Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) ४६। इति लपे विशेषाभावात् न । चामोऽकारोच्चारणं सर्वादेशार्थमिति वाच्यं 'प्रधयस्य' ।७।४।१०८ इत्येव सिद्धत्वादिति चेत्सत्यममोऽकारोच्चारणं जम्मादेशार्थं तेन । जरामतिक्रान्तं कुलम् अतिजरसमिति सिद्धम् । हे कुण्ड - "अदेतः स्यमालुक् ।१।४।४४। इत्यमो लुक् ॥५७।। पञ्चतोऽन्यादेरनेकतरस्यः दः।१।४।५८॥ पञ्चपरिमाणस्य नपुंसकस्यान्यादेः स्यमोदः स्यात् । एकतरवर्जम् । अन्यत् । अन्यतरत् । इतरत् । कतरत् । कतमत् । अनेकतरस्येति किम् ? एकतरम् ।५८१ . पञ्च सई या परिमाणमस्य “पञ्चद्दशद्वर्गे वा ।६।४।१७५॥ इति डत्यत्ययः । सर्वाद्यन्तर्गतान्यादयः पञ्च "अन्य अन्यतर, इनर, डतर डतम इति । अस्मिन् तिस्रः प्रकृतयः, द्वौ प्रत्ययो ‘प्रत्ययः प्रकृत्यादे: ।७।४।११५॥ इति प्रत्ययग्रहणेन तदन्त विज्ञानाद् कतरकतमादेग्रहणं भवति । द इत्यत्र अकार उच्चारणार्थः ।।५८॥ अनतो लुप् ।१।४।५९। अनकारान्तस्य नपुंसकस्य स्यमोलुप स्यात् । कर्तृ । पयः ।५९।. - अत्र वत' इति स्वरान्तस्य स्यमोलुप: उदाहरणं 'पयः' इति व्यजनान्तस्य स्यमालुप उदाहरणम् । ननु 'अनत:' इति कथं ? न च 'अनत:' 'इत्यस्याभावे 'कुण्डम्' इत्यत्रापि लोप: स्यादिति वाच्यम् 'अत: स्यमाऽम्' ।।४।५। इति बाधकादिति चेत्सत्यम् 'अनत:' इत्यस्याभावे पूवसूत्राद् 'अन्यादेरित्यनुवर्तेत । ननु अन्यादेः' इत्यस्याभीष्टौ पूर्वसूत्रेणकयोगमेव कुर्यात् इति चेन्मैवं पूर्व मेकतरजितस्यात्र तु एकतरस्यापोति पृथग्योगस्य 'साफल्यात् । हे कर्तृ इत्यत्र परत्वात् प्रथम सेलोपे 'ह्रस्वस्य गुण: ।१।४।४११ इति गुणः कस्मान्न भवनोति चेत्सत्यम् लुचमकृत्या लुप्करणं स्यमोः 'स्थानी०।७।४।१०९। सूत्रात्, स्थानिवद्भावेन यत्कार्यं तस्य ‘लुप्यम्वृ० ।। ४।११३॥ इति प्रतिषेधार्थं तेन यत्, तत् इत् पत्र 'श्रा द्वरः ।२।१।४१॥ इति त्यदाद्यत्वं न भवति ॥ ५९॥ . , . . . . . . Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२) जरसो वा | १|४|६० जरसन्तस्य नपुंसकस्य स्यमोलुब्वा स्यात् । अतिजरः । अतिजर सम् । ६० । अतिजरसम्- 'जराया जरस् वा | २|१|३| सूत्रेण "एकदेशविकृत -. मनन्यवद्' इति न्यायेन जरसादेश: ॥ ६० ॥ नानिमो लुग्वा । १।४।६१। नाम्यन्तस्य नपुंसकस्य स्यमोर्लुग्वा स्यात् । हे वारे । हे वारि । प्रियति । प्रियत्रि कुलम् ६१० हे वारे - 'अनतो लुप् । ११४१५९ । इति लुपैव सिद्ध े लुग्वचनं स्थानिवद्भावार्थ तेन पक्षे लुप्यय्नृ ० ७ ४ । १२२ । इति स्थानिवद्भावानिषेधे हरवस्य गुणः | १|४ |४| इति गुणः ' त्रिचतुरस्तिसृ० | १|१| इति तिस्रादेशश्च भवति । प्रियति कुलमित्यत्र से: स्थानित्वेपि ऋदुशन सू० ११०४॥८४॥ इश्य घुट: सेर्ग्रहणाद् अत्र 'पु ंस्त्रियोः स्यमौजस् | १|१|२९| इति नपुंसकस्य घुट्स्वाभावात् डा: न भवति । समासघटकीभूतस्य त्रिशब्दस्य "भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः" इति न्यायेन स्त्रियां वर्तमानत्वात् तिस्रादेशः, 'परतः स्त्रो०' | ३|२| ४९ | इति पुंवद्भावः ॥ ६१॥ वान्यतः पुमांष्टादौ स्वरे । ११४ ६ २ ० अन्यतो विशेष्यवशान्नपुंसको नाम्यन्तष्टादौ स्वरे परे पुंवद्भावः स्यात् । ग्रामण्या ग्रामणिना कुलेन । कर्त्रीः कर्तृणोः कुलयोः अन्यत इति किम् ? पीलुने फलाय । टादाविति किम् ? शुचिनी कुले नपुंसक इत्येव - कल्याण्यं स्त्रिये ॥ ६२ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) नामिन इति नपुंसकस्य विशेषणं तथा 'अन्यत' इत्यपि 'अर्थव 'शाद्विभक्तिविपरिणाम:' इति न्यायेन प्रथमान्ततयाऽनुवर्तते नाम्यन्त इति पुति - परार्थे प्रयुज्यमानः शब्दो वतं विनाऽपि वदर्थ गमयति' इति न्यायेन परार्थे नपुंसके प्रयुज्यमानः पुमान् शब्दः । यथा पुंसि "अनाम्स्वरे० " | १|४६४ | इति क्लीवे' | २|४| ९७| इति नागमहत्वौ न भवतस्तथात्रापि न भवतः इत्यर्थः । ग्रामण्या- ग्रामणोशब्दशत् पुंवद्भावान्नाग महस्वाभावें 'क्विवृत्ते' | २|१|५८ | इति यत्वम् । पुंवद्भावाभावपक्षे तु ह्रस्वत्वं नाग'मश्च । ननु 'ग्रामजिना' इत्यत्र पूर्व' 'क्विन्नृत्ते सुधियस्तो | २|११५८ | इति यत्वं कथं न भवतीति चेत्सत्यम् इदुनोऽस्त्रे दूत् | १|४| २१ | इत्यत्र स्त्रीवर्जनेन परमपि इयुव-यत्वादिकार्यम् इदुवाश्रितेन बाध्यते इति ज्ञापित्वात् यद्वा 'आदेशादागमः इति न्यायाद् यत्व बाधित्वा नागमः । अन्यत इति द्विधा लिङ्गव्यवस्था केषांचिच्छन्दानां स्वत एव लिङ्गम् यथा दविमध्यादिजातिशब्दानाम् केषां चिदन्यतो विशेष्यात् यथा गुणक्रिपाद्रव्यसम्बन्धनिमित्तानां पट्वादिशब्दानाम् पटुः पुमान्, पट्वी स्त्री, पटु कुलमिति एषां स्वतो लिङ्ग नास्ति परन्तु विशेष्यवशादेवं । पीलुशब्दस्य जातिशब्दत्वान्न विशेष्यवशानपुंसकत्वमिति पुंवद्भावो न भवति पीलुवृक्षः पोलो फलम् " प्राण्यो० ।६।२।३१। इत्यण् ‘फले’ ।६।२।५८। इत्यण्लोपः ।।६२।। दध्यस्थिसक्थ्यक्ष्णोऽन्तस्यान् (१।४।६३| एषां नपुंसकानां नाम्यन्तानामन्तस्य टादौ स्वरे परे अन् स्यात् asar | अतिदध्ना | अस्थमा । अत्यस्थता । सक्थ्ना । अतिसक्थना । अक्ष्णा अत्यक्ष्णा ६३ 'दध्यस्थिसक्थ्यक्ष्णः' इत्यन्तस्य स्थानिनो विशेषणमतः सामान्यं परत्वमात्रविज्ञानात्तत्सम्बन्धिन्यसम्बन्धिनि वा टादौ स्वरे परेऽनादेशभावात् अतिदध्नेत्यादि सिद्धम् । नपुंसकार्थ विशिष्टैर्दध्यादिभिः स्याद्याक्षिप्तं नाम विशिष्यते तेन दध्याद्यन्तस्य नाम्नोऽन् भवति केवलस्य तु व्यपदेशिवद्भावात् । 'श्रुतानुमितयोः श्रौतो विधिर्बलीयान् ' इति न्यायेन श्रुतत्वात् 'नपुं'सकस्य' इत्यनेन दध्यादय एव विशिष्यन्ते तेन तदन्तानामनपुरं सकेऽपि वर्त Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) मान'नां ग्रहणं भवति । तेन दधिमतिक्रान्तस्तेनातिदध्ना, अनोऽस्य ।।१। १०८। इत्यल्लोपः । "दना अतिदधना" इत्यादौ परमपि नागममनादेशो बाधते ॥६३॥ अनाम्स्वरे नोन्तः ।१।४।६४। नाम्यन्तस्य नपुंसकस्याम्वर्जे स्यादौ स्वरे परे नोऽन्तः स्यात् । बारिणी । वारिणः । कर्तृणी । कर्त णः । प्रियतिसृणः । अनामिति किम् ? वारीणाम् । स्वर इति किम् ? हे वारे । स्यादावित्येवतौम्बु चूर्णम् ।६४। ____ अनाम् चासो स्वरश्च अनाम्स्वर: तस्मिन् । अथाम्वर्जनात् पर्युदासात्स्वरे लब्धे स्वरग्रहणं टादावित्यधिकारनिवृत्यर्थम्। ... प्रियतिसणः- अत्र परत्वास्तिनादेशे सति नोऽतः । ननु पूर्व नागमेऽपि 'स्वाङ्गमव्यवधापि' इति न्यायेन तिस्रादेशः स्यादिति चेत्सत्यम् अवयवेनावयवस्य व्यवधानं भवति न त्ववयवेन अवयविनः यथा देवदत्तस्य श्मश्रु. न दृष्टं हस्तेन व्यवहितत्वात्, न तु कोऽपीत्थं वदति 'देवदत्तो न दृष्ट: हस्तेन व्यवहितत्वात् तथावदत्रापि तिस्रादेशस्त्रिशब्दस्यावयवस्य कर्तव्य: न तु प्रियत्रिशब्दस्यावयविनोऽतः व्यवघानात्तिस्रादेशो न स्यादिति । वारीणाम - नागमा भावोऽत्र । 'दीर्घो नाम्यति ।१।४।४७। इति दीर्घः । तौम्बुखं चूर्णम्तुम्बुरुणो वृक्षस्य विकार: 'प्राप्यौषधि० ।६।२।३१। इत्यण् तस्य लुप् विकारे पुनरण, अथवा तुम्बुरुणो वृक्षस्य विकारश्चूर्णम् एक स्मिन्नणि वा 'अस्वयम्भु. वाऽव् ७४।७०। इति पुस्त्रयोः सावकाशत्वात् नपुसके विशेषविधानादिद प्राप्नोतीति स्यादावित्यधिकारानिवृत्तम् ।६४। - स्वराच्छो ।१।४।६५। शौ परे स्वरान्तान्नपुंसकात्परो नोन्तः स्यात् । कुण्डानि ।. स्वरादिति किम् ? चत्वारि ।६५। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) कान्तस्य तु न सके हस्वविधानात्स्थिति रेव नास्तीति 'अतः इत्येव सिद्ध े स्वरग्रहणमुत्तरार्थम् । कुण्डानि - 'अनाम्बरे० | १ |४| ६४ | इति शौ नागमः । चत्वारि - चतुर्· शब्दाच्छो 'वाः शेषे | १|४|८२ । इति वादेश: ॥६५॥ छुटां प्राक् (१।४।६६ । स्वरात्परा या धुड्जातिस्तदन्तस्य नपुंसकस्य शो परे धुड़भ्य एव प्राग् नोऽन्तः स्यात् । पयांसि । अतिजरांसि । कष्टतङिक्ष । स्वरादित्येव - गोमन्ति ॥ ६६॥ 1 घुटा मिति - प्रामित्यनेन सम्बन्धाभावात् ' प्रभृत्यन्यार्थ० ।२।२।७५। इति न पञ्चमी । घुड़भ्य एव प्रागिति प्रागित्यस्य दिक्शब्दत्वात्तद्द्यां गे पञ्चमीविज्ञानादन्यस्यासम्भवात् घुट एव विज्ञायते । पयांसि पयस् 'नपु' - सकस्य शिः | १|४|५५ । इति जसः शिरादेशोऽनेन नागमः 'न्स्महतोः | १|४|८६ इति दीर्घत्वम् ' शिड्ढेऽनुस्वारः । | १|३|४०| इत्यनुस्वारः । अतिजरांसि - अतिक्रान्ता जरा येस्तानि जराया जरस् वा | २|१|३| सूत्राद् 'एकदेश विकृतमनन्यवत्' इति न्यायेन जरसादेशः, शिः, अनेन नोन्तः, 'न्स्महतोः | ११४८६। इति दीर्घः । घुटामिति बहुवचनं जातिपरिग्रहार्थं तेन काष्टतङिक्ष - अत्र क् ष् इति अनेकघुट्सद्भावेऽपि जातिपरिग्रहालोन्तः, 'म्नां 'धुड्वर्गेο' | १|३|३९| इति ङकारः । ननु बहुवचनोपादानाभावेपि वर्णग्रहणे जातिग्रहणमिति न्यायात्सेत्स्यतीति बहुवचनोपादानं व्यर्थमिति चेत्सत्यं जातिव्यक्तिपक्षाभ्यां शास्त्र प्रवर्तते तत्र व्यक्तिपक्षा श्रयणेन प्राप्तस्यैकघुद्ग्रहण् स्य बाधनायात्र जातिपक्ष एव आश्रयितव्य इति ज्ञापनार्थम् । गोमन्ति - गाव: सन्ति येषु तानि गोमन्ति कुलानि 'तदस्या० । ७ । २ । २१ । इति मतुः 'ऋदुदिन : | १/४/७० इत परत्वान्नागमः पश्चात् 'गोमन्त् इ' इति स्थिते स्वगत्तरत्वाभावानं न्त' न भवति, तकारस्तु न स्वरात्परः यस्तु स्व- रात्परः स न घुट् इति अनेन नोन्सो न भवति ||६६ || S ल वा |१|४|६७ · Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) रलाभ्यां परा या धुटजातिस्तदन्तस्य नपुंसकस्य शो परे धुड्भ्य एव प्राक् नोन्तो वा स्यात् । बहूजि, बहूजि । सुवलिङ्ग, सुवल्गि। लं इति किम् ? काष्टतङि क्ष । धुटामित्येव-सुफुल्लि ।६७॥ बहूजि-ऊर्जयन्तीति 'दियुद्दज्ज० ।५।२।८३। इति भ्राजादित्वात्क्विप् 'म्ना धुड्वर्गे० ।१।३।३९। इति अकार: । सुवल्ङ्गि- सुष्ठु वल्गन्तीति । काष्टतङ क्षि-अत्र तु पूर्वेण नित्यमेव । सुफुल्लि • सुष्ठु फुल्लन्तीति विवप् ॥६॥ धुटि ।१।४।६८॥ निमित्तविशेषोषादानं विना आपादपरिसमाप्तेर्यत्कार्य वक्ष्यते तद् घुटि वेदितत्यम् ।६८१ .अधिकारसूत्रमिदम् । आपादपरि-समाप्ते: - पादपरिसमाप्ति यावदित्यर्थः ॥६८॥ अचः ।।४/६९ अञ्चतेर्धातोः धुडन्तस्य धुटः प्राक् नोन्तो घुटि स्यात् । प्राङ । अतिबाङ । प्राञ्चौ । प्राञ्चि कुलानि ।६९। . घटीति - तत्सम्बन्धिन्यसम्बन्धिनि वा घुटि परे इत्यर्थः । प्राञ्च. तीति क्विपि 'अञ्चोऽनर्चायाम्' ।४।२।४६॥ इति नलोपे 'दीर्घङ याब्० ॥१॥४॥४५॥ इति सिलोपेऽनेन नागमे 'पदस्य' ।२।११८९। इति चलोपे 'युजञ्चकुञ्चो०।२।१७१॥ इति कारे च प्राङिति । स्याद्याक्षिप्तस्य नाम्नोऽच इति विशेषणाद विशेषणे च तदन्तविधेर्भावात्समासेऽपि प्राप्तेराह - अतिप्राङ इति प्राञ्चमतिकान्त: अतिप्राङ् । 'युनोऽसमासे ।।३।७१। इति.सूत्र 'असमासे' इति वर्जनादत्र प्रकरणे तदन्त-विधिर्शापितः, अन्यथा 'ग्रहणवता नाम्ना Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) विधिरिति निषेधः स्यात् ॥ ६९ ॥ ऋदुदितः | १|४|७०। ऋदुदितो धुडन्तस्य घुटि परे घुटः प्राक् स्वरात्परो नोन्तः स्यात् । कुर्वन् । विद्वात् । गोमान् । धुटीत्येव - गोमता । ७० 'उदित: स्वरान्नन्तः । ४|४|९८ । इति सूत्र ेणैव धात्वधिकारादुदितो धातोर्मोन्तस्य सिद्धत्वात् 'उदितः' इति कथनम् अस्वादेः परिग्रहार्थम् तत्साहचर्यात् ऋदितोऽप अभ्वादेरेवेति सूत्रमिदं स्वादिव्युदासार्थं विज्ञयम् तेन सम्राट् इत्यादी न भवति । करोतीति विग्रहे 'शत्रानशा० | १|२| २० | इति शतरि 'कृग्तनादेः । १।४।८३। इत्युप्रत्यये 'नामिनो गुणो० | ४ | ३ | १ | इति गुणे 'अतः शित्युत् |४| २|८९ । इत्युत्वम्' इवर्णादेः | १ | २|२१| इति वत्वेऽनेन नागमे 'दो घंङ या ० | १|४| ४५ इति सिलौपे पदस्य | २|१|८९ | इति तल 'हदिर्हस्वरस्या' | १|३|३१| इति वस्य द्वित्वे च कुर्वन्निति । वेतीति 'वा वेत्तेः क्वसुः | ५|२| २२ | इति क्वसो "स्महतो:' | १|४|८६ । इति दीर्घत्वे च विद्वान् ॥ ७० ॥ युजोऽसमासे |१|४|७१। युज म्पी योगे इत्यस्यासमासे धुङन्तस्य धुटः प्राक् नोन्तः स्यात् । | युङ । युञ्जौ । युञ्जि कुलानि । बहुयुङ । असमास इति किम् ? अश्वयुक् । बुज्न इति किम् ? सुजिञ्च समाधौ -युजमापन्ना मुनयः ॥७१॥ स्याद्याक्षिप्तस्य नाम्नो युज्ञ इति विशेषणात् तस्मिन्सति तदन्तविधेर्भावात् समासेऽपि प्राप्तिरिति असमासग्रहणम्, इदमेव ज्ञापत्रति अन प्रकरणे तदन्तविधिरस्तीति । युनक्तीति क्विपि, सिलोषेऽनेन नागमे 'पदस्थ ' | २|१|८९ | इति संयोगान्तलोपे 'युजञ्च चो० | २|१/७१ | इति ङकारे च Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८) युडिति । ईषदपसमाप्तो युङ 'नाम्नः प्राग्बहु ।७।३।१२। इति बहुप्रत्यये च बहुयुङ् । अश्वान् युनत्ती त क्वि'प 'उस्युक्त कृता ।३।१।४९। इति समासे च अश्वयुक । ऋकारानुबन्धनिर्देशात् युजिच् समाधौ इत्यस्य न भवति युजमापना मुनयःसमाधि प्राप्ता इयर्थः 'कुत्संपदा० ।५।३।११४। इति क्विप् ॥७॥ अनड़हः सौ ।१।४७२। भनडहो धुडन्तस्य धुटः प्राक् सौ परे नोन्तः स्यात् । अनड़ वान् । प्रियानड्वान् ७० । 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इति न्यायेन 'अनडुहो' इत्यत्रापि प्राप्तिरस्ति तथापि धुडन्तत्वाभावान्नं भवति । ननु 'अनड्वान्' इत्यत्र 'संस्-ध्वस्-क्वस्स० ।२।११६८। सूत्रण दकार: कथं न,भवति ? सत्यम्प्राप्नोति परं नका-विधानसामर्थ्यान्न भवति । अनः शकटं वह ति 'अनसो वहेः' उणा० १००६ इति क्विपि सस्य डकारे 'यजादिवचे:०।४।११७९। इति वृति सौ तल्लुचि 'वा: शेषे ।१,४१८२॥ इति वाऽदेशेऽनेन नागमे 'पदस्य ।२।१।८९। इति संयोगान्तलोपे चानड्वान् । प्रिया अनड़ वाहो यस्य स प्रियानड्वान् 'पुमनडुनौ० १७।३।१७३। सूत्रादेकत्वे कच्प्रसङ्गाद् बहुत्वेऽर्थे । विग्रहः कृतः ॥७२॥ मुसो घुमन्स् ।१।४।७३। सोः, पुमन्स् धुटि स्यात् । पुमान् । पुमांसो । पुमांसः । प्रियपुमान् । प्रियप मांसि ॥७३॥ पुसोदित्वात् प्रियपुसितरा, प्रियस्तरा, प्रियसीत्यादौ प्रिया:. पुमासो यस्या इति आधातूदितः ।२।४।२। इति डी, सैव प्रकृष्टा 'द्वयोविभज्ये० ७।३।६। इति तरप्यापि च 'ऋदित्तरतम० ३।२।६३। इति- हस्वत्वं पुद्विकल्पश्च भवति । ननु 'पातेईम्सुः । उणा० १००२ । इत्युदनुबन्धकर Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२९) करणादेव ङोर्हस्वत्वं पुद्विकल्पश्च भविष्यति किमत्रोदनुबन्धपठनेनेति चेत् सत्यमत्रोदनुबन्धपठनमव्युत्पत्तिपक्षार्थम्, यथा “भातेर्डवतुः' उणा० ८८६ इत्यनुबन्धोऽस्त्येव तथापि पुन: सर्वादी उदनुबन्ध पठनमव्युत्पत्तिपक्षार्थ तथावस्त्रपि । प्रियपुमानिति-बहुत्वेन विग्रहः कार्योऽन्यथा पुमन डुन्नौ० ७१३६१७३। इति कच् स्यात् ।।७३॥ . . ओत औः ।१४७४। ओतो धुटि परे औः स्यात् । गौः । गावो । द्यौः । चावी । प्रियद्यावो । ओत इति किम् ? चित्रगुः १७४। चित्रगुः - अत्र परत्वात्पूर्व 'गोश्चान्ते० ।२।४।९६॥ इति इस्वत्वे पश्चादकाराभावादौन भवति, वर्णविधित्वाच्च स्थानिवद्भावो नास्ति । ननु हे चित्रगो ! इत्यत्र चित्रगुशब्दस्य सम्बोधने ओकारे सत्यपि उभयस्थाननिप्पन्नोऽन्यतरव्यपदेशभाग्' इति न्यायेन सेर्व्यपदेशे सति प्राप्नोति परं कथं न भवतीति चेत्सत्यं यदौकारव्यपदेशस्तदा सेरभावान्न भवति । यदा सेर्व्यपदेश: तदा लाक्षणिकत्वात् 'लक्षण प्रतिपदोक्तयो:० इति न्यायान भवति ।।७४॥ . आ अम्शसोऽता १।४।७५। ओतोऽम्शसोरता सह आः स्यात् । गौः, गावो । द्यौः, द्यायो । प्रियद्यावी । औत इति किम् ? चित्रगुः ७५। । नन्वत्र 'अता' इति कथं ? एतस्मादृतेऽपि समानानां तेन.' : २२॥१॥ इति दोर्घत्वे कृते सर्व सेत्स तंति चेत्सत्यम् 'अता' इत्यस्याभावे पुल्लिङ्ग 'शसोऽता०' ।१।४।४९। इति स्त्रीलिङ्ग 'लुगातोऽनापः ।२।१।१०७। इत्यनयोः प्रवर्तनात् 'गान् ग: 'इत्यादयनिष्टं स्यात् । 'अता' इति कृते तु 'सन्नियोगशिष्टानामेकापाये.' इति सन्नियोगशिष्टत्वादेकस्याकारस्याभावे 'शसोऽता० ॥११४।४९। इति नकारो न भवति । एवं स्त्री लिङ्ग 'लुगातोऽनाप: Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) २२१६१०७इत्यपि न भवति ॥७॥ पथिन्मथिनुभुक्षा सौ १।४७६॥ एषां नान्तामामन्तस्य सौ परे आः स्यात् । पन्थाः । हे पन्थाः । मन्थाः । हे मन्थाः ऋिभुक्षाः । हे ऋभुक्षाः । नान्तनिर्देशाविह न स्यात्- पन्थानमैच्छत् पथीः ७६। S 'धुटि' इति अनुवर्तनात् 'सौ' इति श्लिष्टनिर्देशेऽपि सुप् न गृह्यते । पन्था इति - पथिन्शब्दस्थनकारस्याकारादेश; 'लि लौ ।१॥३॥६५॥ इत्यत्र द्विवचनेन ज्ञापितत्वात्सानुनासिकस्यापि स्थाने निरनुनासिक एवादेशो भवति । 'ए:' ।१।४।४७। इतं कार-स्याकारः, 'समानानां तेन० ॥१॥२॥१॥ इति. दीर्घ', 'थोन्थ्' ।१।४७८। इति न्थादेशः । पन्थानमैच्छत पषी:-'अमाव्ययास्क्यन् च ।।४।२३॥ इति क्यान नलोपे 'दीर्घश्च्वि ' ।४।३।१०८। इति दीर्घत्वे 'अतः । ।३।८२॥ इत्यल्लोपे 'प्वोः प्वव्यजने' ।४॥११॥ इति ‘यलापे च । ननु 'पन्थानमैच्छत्' इति क्यान दीर्घत्वे कर्तव्ये नाम्नो नोऽनह नः १२१९१० इति नलोपोऽ-साथ भवतीति रसत्यम् - णषमसस्परे०१२।१६ इति सूत्रात् 'असत्पर' इत्यधिकारस्य ‘र.सः ।२।११९०। इत्यतः प्रागेव भावात् अयं तु पर इति ।।७६|| ए: ११४७७॥ पथादोनां नान्तानामितो घुटि परे आ स्यात् । पन्थाः । पन्थानौ । पन्थानः । पन्थानम् । सुपन्थानि कुलानि । मन्थाः । ऋक्षाः । नान्तनिर्देशादिह न स्यात् । पथ्यौ । पभ्यः ७७। - पथ्यादीनामकारस्यासम्भवादाह-इत: इकारस्येत्यर्थः । सुपन्थानिशोभन: पन्थाः येषु तानि "पूजास्वत:" प्राक्टात्" ।७।३।७२। इति समासान तनिषेधः ॥७७॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१) थो न्थ् ।१।४।७८॥ पथिन्मथिनोनन्तियोस्थस्य घुटि परे न्य् स्यात् । तथैवोदाहृतम् ॥७८ न्थ् इत्यनेकवर्णत्वात् 'अनेकवर्णः सर्वस्य' ।७।४।१०७। इति सर्वस्य प्राप्तौ स्थानिविशेषार्थम्, ऋभुक्षिनिवृत्त्यर्थ च 'थ' इति स्थानिन उपदानम् । ॥७८॥ . ... इन् डीस्वरे लुक।१।४७९। पथ्यादीनां नान्तानां यामघुट् स्वरादौ च स्याती परे इन लुक स्यात् । सुपथी स्त्री कुले वा । पथः । सुमथी स्त्री कुले वा। मथः अनुभुक्षी सेना कुले वा । ऋभुक्षः ॥७९॥ अघुट्स्वरादौ चेति, छीसाहचर्यात् 'अबुष्टि' इति विशेषणं ज्ञ यम् । स्याधिकारस्तु अस्त्येव । ङीग्रहण यर्थ्यप्रसङ्गाच्चा यामपि । निमित्तविशेषानुपादाने 'घुटि' इत्यधिकारः अत्र तु 'स्वर' इति निमित्तविशेषोपादानात् घुटि तु पथ्यादीनामिनो विशेषविध्याकान्तत्वात् अघुट्स्वर इति निश्चीयते। इन् लुक् चेति अभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः । अन्यथा षष्ठ्याऽन्त्यस्य ७४।१०६ इति परिभाषा प्रवर्तेत । अनियमे नियमकारिणी परिभाषा, . उक्त च-एकदेशे स्थिता, शास्त्रभवने याति दीपताम् । . परितो व्यापृतां भाषा, परिभाषां प्रचक्षते ॥ सुपथीत्यादि-शोभनः पन्थाः यस्या ययोर्वा 'ऋक्पू:पथ्य' • ७।३७६। इति समासान्तः 'पूजास्वते:०।७।३।७२। इति प्रतिषेधात् न भवति । 'उणादयोऽ व्युत्पन्नानि नामानि' इत्यव्युत्पत्तिपक्षाश्रयणे इन्नन्तत्वाभावात् 'इनः कच् ।७। ३।१७०। इत्यपि न भवति । व्युत्पत्तिपक्षे 'सुभ्र वादिभ्यः ।७।३।१८२ इति निषेधान्न भवति । नान्तत्वात् 'स्त्रियां नृतो० ॥२॥४१॥ इति ङीप्रत्ययः, कुलविशेषणत्वे 'औरीः।१।४।५६। इतीकारेवाऽनेनेनो लुक् एवं सुमथीत्यादावपि ज्ञेयम्, न विद्यते ऋभुक्षाः इन्द्रो यस्याः ययोर्वा १७९ : . Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२) वोशनसो नश्चामन्त्रये सौ।१।४।८। आमन्त्र्यवृत्त रुशनसो न-लुको सौ परे वा स्याताम् । हे उशनन, हे उशन, हे उशनः । आमन्त्र्य इति किम् ? उशना ८०। - उशनन इत्यादि-प्रकृतसूत्रेण वा नलोपयोः कृतयोः 'दीर्घङ याब्० ।१।४।४५। इत 'अदेतः स्यमोलुक् ।१।४।४४। इति लुकि तदभावपक्षे सिलो- ' परुत्वादौ च त्रैरुप्यं सिद्धम् । “सर्वेभ्यो लोपो बलीयान्' इति न्यायाश्रयणे तु सेलुचि स्थानिवद्भावेन वा नलुकोः कृतयोः हे उशन हे उशन हे उशनः इति त्रैरूप्यम् । उशना- आमन्त्र्याभावे तु 'ऋदु०।११४१८४। सूत्रण सेर्डाः ॥८॥ उतोऽनइच्चतुरो वा ।१४।८१॥ .. आमन्यार्थवृत्त्योरनडुच्चतुरोरुतः सौ परे वः स्यात् । हे अनड्वन् हे प्रियचत्वः । हे अतिचत्वः ।।१।। .'वाः शेषे' ।१।४१८२। इत्युत्तरसूत्रे शेषग्रहणादामन्त्र्यसिरेवानुवर्तते न तु निमित्तविशेषोपादानाभावाद् 'घुटि' इति । 'नामंग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणण्' इति न्यायेन स्त्रीलिङ्गविशिष्टस्य ग्रहणे प्राप्तेऽपि हे अनडुहि । इत्यत्र "गौरादिभ्यः मुख्यान्डीः ।२।४।१९। इति गौरादिनिपातनात् वत्वाभावः ‘एवमुत्तरसूत्रेऽपि । हे अनड्वन्नित्यादि-अनडुहः सौ ।१।४।७२। इति नोऽन्तः, 'प्रियः ।३।१।१५७। इति पूर्वनिपातः, अन्यत्र तु 'विशेषण-सर्वादिसङख्यं । ।३।१।१५०। इति चतुःशब्दस्य पूर्व निपातो भवति । चतुःशब्दस्यार्थप्रधानत्वादेकस्यामन्त्रणासम्भवे समासे उपसर्जनीभूतः उदाहृतः ।।८१॥ वाः शेषे ।१।४।८२॥ आमन्त्र्यविहितात्सेरन्यो घुटशेषस्त-स्मिन्परे अनडुच्चतुरोरुतो वाः स्यात् । अनड्वान् । अनड्वाही । प्रियचत्वाः । प्रियचत्वारी । शेष इति किम् ? हे अनड्वन् । हे प्रियचत्वः ॥८२॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इह शेषे घुटि वादेश विधानात् पूर्वत्रामन्त्र्ये साविति सम्बध्यते । ॥८२॥ सरुयुरितोऽशावैत् ।१।४।८३॥ सख्युरिदन्तस्य शिवजें शेष घुटि परे ऐत् स्यात । सखायौ । सखायः सखायम् । इति इति किम ? सख्यो स्त्रियौ । अशाविति किम ? अतिसखीनि । शेष इत्येघ । हे सखे ।८३। ननु कृतम् ‘इतः' इति ग्रहणेन तदन्तरेणापि सखिशब्दनिर्देशात् सखीशब्दस्य ङीप्रत्ययान्तस्य सखीशब्दस्य क्यन्क्विबन्तस्य चोभयोरपि प्राप्यभावादिति चेत् अत्रोच्यते इदमेव व्यर्थ सत् 'नामंग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इति ‘एकदेशविकृतमनन्यवदिति न्यायौ सूचयति । न च 'स्पद्ध' १७।४।११९। इति परत्वात्पूर्व मेकारादेशे पश्चात् 'क्लिबे' ।२।४।९२। इति ह्रस्वत्वे ततो मागमे दीर्घत्वे च न कश्चिद्दोष इति किमर्थ शिवर्जनमिति वाच्यम् 'असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग' इति न्यायात् घुििनमित्तैकारस्य बहिरङ्ग वात् ह्रस्वत्वे कर्तव्येऽसिद्धत्वात् । ननु कृताकृतप्रसङ्गित्वेन नित्यत्वात् 'परान्नित्यम्' इत्यथवा 'आदेशादागमः' इति न्यायात्पूर्व नागमः पश्चाद् व्यवधानादैकारो न भविष्यतीति किं शिवर्जनेनेति चेत्सत्यं 'स्वाङ्गमव्यवधायि' इति प्रकृतिभक्तत्वेनाव्यवधायकत्वादकारोगि निरय इति द्वयोनित्ययोः परत्वादैकार: स्यादिति शिवर्जनम् ॥८३।। ऋदुशनस्पुरुदंशोsनेहसश्चः सः ।१।४।८४। ऋदन्तादुशनसादेः सख्युरितश्च परस्य शेषस्य सेंडः स्यात् । पिता, अतिपिता । कर्ता । उशना । पुरुर्दशी । अहा । सखा ।४। ऋदन्तादित्यादि- ऋकारान्तस्य 'अौं च' ।१।४।३९। इत्यरि प्राप्ते 'तृस्वस०' ।१।४।३८॥ इत्यारि च प्राप्ते त्रयाणामुशनसादिशब्दाना "दीर्घङयाब ०" ११४१३५। इति सिलोपे, अश्वादेरत्वसः सौ ।१।४।९०। इति दीर्घत्वे प्राप्ते 'सो रुः ।२।११७२। इति रुत्वे च प्राप्ते 'डा' आदेशः ॥८४॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) नि दीर्घी १४८५ शेषे घुटि परे यो नस्तस्मिन्परे स्वरस्य दीर्घः स्यात् । राजा । राजानो । राजानः । राजानम् । वनानि । व तृणि। शेष इत्येव । हे राजन् ॥८५॥ राजेति - स्यादिविधौ कर्तव्ये न लोपस्यासत्त्वात्पूर्वं 'नाम्नो नोनह नः | २|१|९१ | इति न प्रवर्तते । 'स्वरस्य हस्वदीर्घप्लुता:' इति न्यायादाह स्वरस्येति ॥ ८५ ॥ 9 ठस्महतोः । १।४।८६ । सन्तस्य महतश्च स्वरस्य शेषे घुटि परे दीर्घः स्यातृ । श्रयान् । श्र यांसी । महान् । महान्तौ ॥८६॥ अपरे तु अत्र औणादिको 'द्र हिवृहि० । उणा० ८८४ । इत्यनेन कतृप्रत्ययान्तो व्युत्पन्नोऽव्युत्पन्नो वा महच्छब्दो ग्राह्यः यस्तु' शत्रानशा १५/२/२०१ इति शत्रन्तस्तस्य महन्नित्येव, न त्वनेन दीर्घः' 'लक्षणप्रतिपदोक्तयो: ०' इति न्यायात् लाक्षणिकस्य शतृप्रत्ययान्तस्य ग्रहणं न भवति इत्याहुः ॥८६॥ इन्हपूषार्यम्ण शिस्योः | १|४|८७ | इन्नन्तस्य हनादेश्च स्वरस्य शिस्योरेव परयोर्दीर्घः स्यात् । इण्डोनि । स्रग्वीणि । दण्डी । स्रग्वी । भ्रूणहानि । भ्रूणहा । बहुपूवाणि । पूषा । स्वर्यमाणि । अर्यमा । शिस्योरेवेति किम् ? दण्डि - नौ, वृत्रहणी, पूषणौ । अर्थमणौ ॥ ८७॥ नि दीर्घः | १|४|८| इति सिद्ध े नियमार्थं वचनम् एषां शि-स्योरेव Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) यथा स्यात् नान्यत्र दण्डिनो, दण्डिनः, दण्डिनमित्यादी । एषामेव शिस्यो - रिनि विपरीत नियमस्तु न कार्यः वंश्यज्यायो | ६ | १|३ | इत्यत्र युवेति 'पराणि काना० | ३ | ३ | २० | इत्यत्र पराणीति निर्देशात् । 'अनिनस्मिन्ग्रहणान्यर्थ'वताऽनर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति' इति न्यायाद् दण्डोऽ स्यास्तीति 'अतोऽनेकस्वरात्' | ७|६| इति सार्थके इनि दण्डी, तपोऽस्यास्तीति' अस्तपोमायामेधा० | ७|२| ४७ | इति विनि तपस्वी, उभयत्रापि 'इन्हन्पूषा ० |१|४|८७ | इति दीर्घः । स्रग्वीनि 'अस्तपोमाया० | ७ | २|४७ | इति विन् । हानि - इत्युदाहरणं हन्तेः केवलस्य क्विबन्तस्य दर्शनाभावात् । बहुपुषाणि स्वप्रधानायां वृत्तो शेरभावात् उपसर्जन भूतमुदाहृतम् एव स्वर्य - माणि । वृत्रहणी - सञ्ज्ञायां पूर्वपदस्थान्ना० | २|३| ६४ | इत्यनेनासंज्ञायां तु 'कवगै कस्वरवत' | २|३|७६ । इति णत्वम् ॥ ८७॥ अप: 1१1४1८८1 अपः स्वरस्य शेषे घुटि परे दीर्घः स्यात् । आपः । स्वापो । ८८ । अपशब्दस्य बह वर्थवाचित्वादेकवचन द्विवचनासम्भवे बहुवचनमुदाहृतम् । स्वापो - शोभना आपो ययोस्तौ स्वापी ॥८८॥ नि वा १४८९४ अपः स्वरस्य नागमे सति घुटि परे दीर्घो वा स्यात् । स्वाम्पि | 'स्वाम्पि । बह वापि । बह वम्पि ।८९ | हापि - 'नपुंसकस्य शिः | १|४|५५ ॥ समासान्तागमज्ञापकगणननिदिष्टान्य नित्या नि' इति समासान्तविधेरनित्यत्वात् ऋक्पथ्यपो०' |७|३|७६ । इति समासान्तो न भवति ||२९|| 'घुटां प्राक्' | १|४|६६ | इति नागम:, 'म्नां धुड्वर्गे० | १|३|३९| इति मकारोऽनेन पक्ष े दीर्घत्वम् ॥८९॥ अभ्वादेरत्वसः सौ |१|४|१०| Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) अत्यन्तस्यासन्तस्य च भ्वादिवर्जस्य शेषे सौ परे दीर्घः स्यात् । भवान् । यबमात् । अप्सराः । गोमन्तं स्थूलशिरसं वेच्छन् गोमान् स्थूलशिराः । अभ्वादेरिति किम् पिण्डः ॥९० । 'अग्र:' इत्युकारानुवन्ध निर्देशाद् ऋदितः पचं चरनित्यत्र न दीर्घः । भवान् - भातेडंवतुः । उणा० ८८६ इति डवतुः 'स्वाङ्गमव्यवधायि' इति न्यायेन 'ऋदुर्दितः | १|४|७० । इति नागमे सत्यप्यव्यवधानाद् दीर्घो भवत्येवं नकारेण व्यवधानात् नि दीर्घः | १|४|८४ । इत्यप्राप्तम् । अप्सरस्शब्द: सर्ववचनान्त केचिद् बहुवचनान्नमेव मन्यन्ते । अधातोः इत्यकृत्वा 'अभ्वादे:' करणं वादीनामेव व्युदासार्थं तेन गोमन्तमिच्छतीति क्यनि क्विपि गोमानित्वादिसिद्धम् । पिण्डग्र: - पिण्डं ग्रसते इति । ननु 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' इति न्यायेनैव न भविष्यतीति किमभ्वादेरिति वर्जनेनेति चेत्सत्यम्इदमेव ' अभ्वादेः' इति भ्वादिवर्जनम् 'अनिनस्मिन्ग्रहणा० इति न्यायं ज्ञापयति तेन खरस्येव नासिकाऽस्य 'खरखुराना सिकायाः नस् | ७|३|१०| इति खरण : इत्यत्रापि अनेन दीर्घः सिद्धः |१०| क्र. शस्तुनस्तृच् पुंसि | १|४|११| ऋशो यस्तुन् तस्य शेषे घुटि परे तृच् स्यात् पुंसि । क्रोष्टा । क्रोष्टारौ । पुंसीति किम् ? कृश- क्रोष्टुनि वनानि ॥९१॥ लाघवार्थं 'कोष्टोः क्रोष्ट्ट पुंसि' इत्यकृत्वा पृच्वचनं वृस्वस्रादि • सूत्र'णाऽऽरर्थम् । प्रत्ययस्य' | ७|४|१०८ । इति सर्वस्यादेशः । पुंसि इति पुल्लिङ्गविषये इत्यर्थः । समासेऽपि यदि पुल्लिङ्गविषय एव तदैव भवति तेन कृशाः क्रोष्टारः येष्विति 'क्रुशक्रोष्टूनि वनानि' इत्यत्र न भवति ॥ ९१ ॥ । टादो स्वरे वा १।४।९२। टादौ स्वरादौ परे ऋशस्तुनस्तृज् वा स्यात् पुंसि । क्रोष्टा । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (१३७) कोष्टुना । क्रोष्ट्रोः क्रोष्ट्वोः ।९२॥ क्रोष्टूनामित्यत्र तु नित्यत्वात् पूर्वं नामादेशे स्वराभावान्न भवति । यद्यपि तृच्प्रत्ययान्तः शृगालवाची स्यात तथापि प्रयोगनियमो दुविज्ञान इति आदेशः कृत: । अयं भाव: - ‘णकतृ चौ ।५।१।४८। इति तृच्प्रत्यये एवमुणादितुन्प्रत्यये साध्यसिद्धिर्भविष्यतीत्यल त जादेश-विधानेन । तृन्प्रत्ययान्तस्य रुढ्या शगालवाचित्वं तजादेशविधानाभावे तु तच्प्रत्ययान्तस्य क्रियाशब्द. त्वाद्विशेषस्य वाचक: स्यादिति वाच्यं भीरु रमणात्यादिशब्दा यद्यपि क्रियाशब्दास्तथापि नारीवाचका भवन्ति तथाऽत्रापि तच्प्रत्ययान्तस्य रुढ या शृगाल - वाचित्वं स्यादिति चेन्मेवं तृजादेविधानाभावे क्रोष्टभ्याम्, क्रोष्ट्रभिः, क्रोष्टषु इत्यादि क्रोष्टशब्दस्य शगालवाचित्वे पूर्वण शेषे घुट्येव तृच अनेन टादौ स्वरादौ प्रत्यये एव तृच् अन्यत्र तुन्नेव । तुनः स्थानप्रवृत्तन तृचा ज्ञाप्यते यत्र तुनस्ताचादेशविधानं तत्र व शृगालवाचित्वम् तेन शृगाल. बाचित्वे सत क्रोष्टभ्यामित्यादिर्न भवति । क्रियाशब्दस्य तु सर्वथा तृच्छत्ययो भवत्येव ॥९॥ स्त्रियाम् ।१।४।९३।। ऋशः परस्य तुनः स्त्रीवृत्त स्तृच स्यात् । निनिमित्त एव । क्रोष्ट्री। कोष्ट्यो । क्रोष्ट्रीभ्याम् । पञ्चक्रोष्टभी रचः ॥१३॥ शस्तुनस्तृच पुसि स्त्रियां च' इत्येकयोगाकरणात् 'घुटि' इति . नानुवर्तते । न चैकयोगकरणे 'स्त्रियाम्' इत्यस्योत्तर-सूत्र'ऽनुवृत्तिर्न स्यादिति वाच्यम् असमस्तनिर्देशात्स्यादेव अन्यथा 'पुस्त्रियोः' इति कुर्यात् । पञ्चक्रोष्टभी रथरिति - 'सो रू: ।२।११७२। 'रो रे लुग्दी०' ।१।३।४११ इति पञ्चभिः क्रोष्ट भि: क्रीता: पञ्चक्रोष्टारस्तः 'मूल्यैः क्रीते' ।।४।१५०॥ इतीकण् 'अनाम्न्यद्वि:०' ।६।४।१।१॥ इतीकण्लुपि ङ यादेगौर्णस्या० ।२।४।९५। इति निवृत्तावपि निनिमित्तत्वादेशस्य निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः' इति न्यायेन निवत्तिनं भवति । निनिमित्तादेशविधानादेव' क्यङमानिपित्तद्धिते' ।३।२०५०। इति पु वद्भावो न भवत्यन्यथा पुवद्भावे हि आदेशोनिवर्तेत । ननु 'बुटि' इति नानुवर्तते परं 'स्यादौ' इत्यस्यानुवृत्ति Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८) रपि न भवति चेन्सत्यम् स्यादी' इत्यस्यानुवृत्तौ हि कोष्टी भक्तिरस्य कोष्टीभक्तिशी नि न सिध्यति । 'लुन्तरङ्ग ेभ्यः' इति न्यायात्पूर्वमेव ऐका | ३|२८| इति विभक्तेलुं पि लुप्यय्वृल्लेनत् ।७।१।११२ ॥ इति स्थानिवबुभाव निषेधादादेशा भावात् । यद्वा त्रिचतु स्ति० | २|१|१| इत्यत्र 'स्थादी' इति भणनात् ॥९३॥ उत्तर ॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥ प्रश्न - ( १ ) क्रिश्चियन, मिशनरी खोलकर प्रतिवर्ष नयेक्रिश्चियन बनाते हैं तो नये जैन बनाने के लिये वैसा करने की क्या जरुरत नहीं है ? क्रिश्चियन, नये क्रिश्चियन बनाने के लिये माया, प्रपंच, झूठ आदि अनेक पप करते है । लोगों को भ्रमित कर ईसाई बनाते है । ऐसे ऐसे प्रचार करते है जिसका वर्णन नहीं हो सकता । पाप करके बनाये हुए नये लोग अपने माता पिता को भी भूल जाते हैं । धर्म में जोड़ने हेतु क्या पाप करने की छूट है? विषय कषाय के रागी बने हुए क्या धर्म करते धर्म तो समझा समझाकर देने का है इस कार्य को तो हम करते ही हैं । श्रीअहित परमात्मा भी संसार कैसा है धर्म कैसा है मोक्ष कैसा हैं यह समझाते हैं । यदि लांच रिश्वत से धर्म दिया जाता होता तो अरिहंत परमात्मा में ताकत नहीं थी वैसा था क्या ? इन्द्रादि देवता जिनके सेवक थे मनुष्य कितने हैं ? जबकि इन्द्रादि देव तो असंख्य हैं । जो भगवान के पीछे पीछे घूमते है, यदि इन्द्रादिदेवों को कहा होता कि हरेक को लाख लाख रुपये देकर धर्मी बना दो तो क्या अशक्य था ? धर्म तो समझाकर ही दियां जाता हैं । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ द्वितीयाध्याये प्रथमः पादः ॥ त्रिचतुरस्तिस- चतसृ-स्यादौ ।२।१।१। स्त्रियामिति वर्तते, स्यादौ परे स्त्रीवृत्त्योस्त्रिचतुरोर्ययासंख्यं तिसृ चतृस इत्येतो स्याताम् । तिनः चतस्रः । तिसृषु, जलसषु । प्रियतिसा, प्रिय-चतसा ना । प्रियतिस कुलम्, प्रियत्रि कुलम् । स्यादाविति किम् ? प्रियत्रिकः, प्रियचतुष्कः ॥१॥ त्रयश्च चत्वारश्च त्रिचतुर्, तस्य । तिसा च चतसा च तिसचतस । सिरादिर्यस्य तस्मिन् । तिस्रः, चतस्रः- अत्र जसि ‘अनेकवर्णः सर्वस्य ७।४।१०७। सूत्रात् त्रिचतुरो: तिसचतस्रादेशी, तत: 'अङ च ।१।४।३९। सूत्रादाप्तो, 'ऋतोर: स्वरेऽनि ।२।१२। सूत्र द्र: । शसि तु 'शसोऽता सश्च० १॥४॥४९॥ सूत्राद् दीर्घ प्राप्ते 'ऋतो र:०।२।१।२। सूत्राद् र: । प्रिया. स्तिस्रश्चतस्रो वा यस्य पुरुषस्य कुलस्य वा लुबन्तरङ्ग भ्यः' इति न्ययेन पूर्व विभक्तिलोपे तत: समासाद् या विभक्तिस्तस्यां परत: निर्दिश्यमानस्यैवादेशा भवन्तीति न्यायेन तिस्रादेशः, पूर्वस्य पात: स्त्री० ।३।२।४९। सूत्रात पुवद्भावः, जहत्स्वाथ - वृतिपक्ष' 'भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः' इति न्यायेन स्त्रियांवर्तमानता।'असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग इति न्यायादन्तरङ्ग कचिकर्तव्ये विभक्ति नमित्तकत्वेन बहिरङ्गत्वात् तिसचतस्रादेशस्यासिद्धत्वान्न ऋ.. नित्य०।७।३१७१। सूत्रान्न ऋदन्तलक्षण: कच् 'ऋदु० ।१।४।८४। सूत्रण सेमः, कल बे. 'नामिनो लुग्वा ।१।४।६। सूत्रात् सेलुचि तस्य च स्थानिवद्भ वात् तिस्रादेशः, 'अनत:०।१।४।५९। सूत्रात् लुप स्थानिवद्भावाभावान तिस्रादेश: । प्रियास्तिस्रश्चतस्रो वा यस्यासी प्रियत्रिकः, प्रियचतुष्कः, 'शेषाद वा ।७।३।१७५। सूत्रात् कच् तेन व्यवहितत्वान्न आदेश: । अदेमवधेयम् - 'त्रिचतुरः' इत्यनेन स्याद्याक्षिप्त नाम विशष्यते तेन तदन्त विधिः, केवलयोस्तु 'आद्यनावदेकस्मिन्' इति न्यायात् भवति । इदं सून्नं तत्सम्बन्धिन्य Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) सम्बन्धिनि वा स्यादौ परे प्रवर्तते एवमग्रऽपि । स्त्रियामिति. श्र तत्वात् 'त्रिचतुरः' इत्यस्यैव विशेषणम् अन्यथाऽन्यसम्बन्धिनि अपि स्यादौ परे समु- . दायस्य स्त्रियां वर्तमानत्व भावादादेशो न स्यात् ॥१॥ ऋतो र स्वरेऽनि ।२।१।२ तिसृचतसृस्थस्य ऋतः स्वरादौ स्याो परे र: स्यात् । अनि,' ' नविषयादन्यत्र । तिस्रः, चतस्त्र, प्रियतिसो, प्रियचतसौ। स्वर इति किम् ? तिसृभिः, चतसृभिः । अनीति किम् ? तिसृणाम्, चतसजाम् ॥२॥ _ 'शसोऽता०।१।४।४९। 'अौं च ।२।४।३९। ऋतो डुर् ।१।४।३७। इति प्राप्तानां समानदार्घत्वाई रामपवादः । ननु 'ऋत:' इति कथनेन किम् ? तदभावेपि 'षष्ठ्यान्त्यस्य ।७।४।१०६। इति न्यायात् साध्यसिद्धिर्भविष्यतोति चेन्मैवम् 'ऋतः' इति कथनाभावे पूर्वसूत्रात्कायितया प्रतिपन्नस्य 'त्रिचतुरः' इत्यस्यानुवृत्तौ पूर्वसूत्रस्यापवाद: स्णत् । 'ऋत' इति कथने तु त्रिचतुर्मध्ये ऋकाराभावाद् 'तिसृचतसृ' इत्यादेशयोः सम्बन्धः । अनीति नकारः प्रत्ययरुप आगमरुपश्च ग्राह्यः । सामान्यनिर्देशेन आगमविषयस्यापि वर्जनं वेदितव्यं तेन 'प्रियतिसृणि' इत्यादावपि रत्वं न भवति । इदमेव 'अनि' इति नकारमात्रस्य वर्जनम् 'आगमात्सर्वादेशः' इति न्यायं ज्ञापयति । यद्ययं न्यायो न स्यात्तदा स्वरादौ स्यादौ परे 'अ देशादागमः' इति न्यायेन पूर्व नागमस्यैव भवनात्तद व्यवधाने च तिस्राद्यादेशाभवनात् रकारादेशप्राप्तिरेव नास्तीति । तिस्र इत्यादौ विधानसामर्थ्यान्न षत्वम् । तिसणामिति - दो| नाम्य० ॥१।४।४ । सूत्र तिसृचतसृवर्जनान्न दोघः ॥२॥ जराया जरस् वा ।२।१।३। स्वरावौ स्यादौ परे जराया जरस्वा स्यात् । जरसौ । जरसः । जरे जराः । अतिजरसौ अतिजरौ । अतिजरसम्, अतिज म् कुलम् ।। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१) ___अतिजरसाविति - 'सकंदेशविकृतमनन्यवत्' इति न्यायेन अतिजरसावित्यादी जरशब्दस्यापि जरसादेशः । अतिजरसमित्यादी 'अतः स्वमोम्' ।१।४।५७। इत्यम्भाव:, 'जरसो वा' ।१।४।६०। इति विकल्पवचनान्द 'अतिजरसम्' इत्यत्र विभक्त लुब्नाभवत् । शौ तु 'स्पर्द्ध७।४।११९। इति परत्वाज्जरसादेशः, पश्च नागमः । ननु पूर्व नागमेपि सनागमस्यादेशे 'घुटां प्राक्' ।१।४।६६। इति पुनर्नागमे अति जरांसि, अति जराणि इति रूपद्धयसिद्धौ कि परत्वचिन्तयेति चेन्मैव पूर्वं नागमे 'स्वाङ्गमव्यवधायि' इति न्यायेन प्रकृते. रेवाव्यवधायको नागमः । अवयवस्य तु जरशब्दस्य व्यवधायकत्वादादेशो न स्याप् । स्त्रियां तु 'गोश्चान्ते हस्वो०' ।२।४१९६। इति इस्वत्वे 'आप' १२।४।१८। इत्यापि आरा व्यवधानाज्जरसादेशाभारे 'अतिजरया' इत्याद्य व भवति ॥३॥ अपोछे ।२।१॥४॥ भादौ स्यादौ परे अपो अद् स्यात् । अद्भिः । स्वद्भ याम् । भ इति किम् । अप्सु ।।। . . भ इत्यत्राकार उच्चारणार्थः । अपशब्दस्य केवलस्य बह वर्थविषयत्वाबहुवचनेनोदाहृतम् अभिरिति । स्वयामिति - बहुव्रीहिसमासे तु एकत्वद्वित्वबहुत्वसम्भवे द्विवचनमुदाहृतम् । 'पूजास्वते: प्राक् टात् १७।३७२। इति कनिषेध: निर्दिश्यमान-स्यैवादेशा भवन्ति' इति न्यायादप एवादेशः ॥४॥ आ रायो व्यजने ।२।१५। व्यञ्जना स्यादौ परे रशब्दस्य आः स्यात् । राः। रासु । अतिराभ्याम् कुलाभ्याम् । व्यञ्जन इति किम् । रायः ५। ...... :: - 'स्भि' इत्येव सिद्ध व्यञ्जन ग्रहणमुत्तरार्थम् ननु तमु सन्देहार्थमुतरसूत्र एव क्रियतामिति चेत्सत्यं केचित् रायमतिकान्तानि यानि तेषां Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) 'क्लीबे' ।२।४।९७। इति हेस्वत्वे 'संनिपातलक्षण:०' इति न्यायस्यानित्यतामाश्रित्य 'अतिराणाम्' इत्यपीच्छन्ति तन्मतसङ ग्रहाथमिहार्थमपि तेन स्वम. तेपि सम्म्तम् । षष्ठ यान्त्यस्य'७४।१०६। इति न्यायाद् रैशब्दान्तस्यादेशो भवति । एकदेश विकृतमनन्यवः' इति न्यायाह अतिराभ्यामिति । रायमतिकानानि यानि तेषामतिरोणामित्यत्र स्वापश्च' ।१।४।३२। इत्यामो नामादेशे 'सन्निपातलक्षणः' इति न्यायेन 'आ गया व्यञ्जने ।२ १२५॥ इति सूत्र न प्रवतो । ननु तहि दो! नान्यतिपृ०' ।१।४।४७। इत्यपि न प्रवर्तेतेति चेन्मैवं तदाऽ स्य न्यायस्यानित्यत्वाद भवत्येव न्यायाः स्थविरष्टि. प्राया: १४०' इति । अयं भावः यथा स्थविरो गमनागमनकालेषु कार्यवशादेव यष्टिमवलम्बते नान्यथा तया शिष्टप्रयोगसिद्ध यर्थमेव न्यायानामाश्रयणं तद्बावे तु न्यायानामनाश्रयण मेव ।।५।। युष्मदस्मदोः २।१६ . व्यञ्जनार्दो स्यादौ परे युष्मदष्मदोरा: स्यात् । त्वाम् । माम् । अतित्वाम् । अतिमाम् । युष्मासु । अस्मासु ॥६॥ अविवक्षिताश्रययोयुष्मदर - मदोरेतावनुकरणे इति 'त्यदादिः' ३।१।१२। इत्येक शेष: 'टाड्यासिं०' ।२।१७। इत्यादिना युष्मदस्मदोः कार्य यत्वादि च न भवतः । ननु व्यजने' इत्यस्यानुवृत्त्यभावेऽप्यनेनाऽऽत्त्वे कृते 'लुगातोऽनापः' ।२।१।१०७ इत्याकारलोपे सर्व सेत्स्यतीति किं व्यञ्जन इत्यस्यानुवृत्त्येति चेत्सत्यं भूत्रस्य व्यक्तया प्रवर्तनादात्त्वे कृते लुबादिकं नं प्रवर्ततेव्यजनग्रहणम् तथा च व्यजन ग्रहणाभावे मूष्मभ्यं युषभ्यमित्यादावनेना.. त्वमेव स्यात् न तु 'मोर्वा । २।१।९। इति विकल्पेन मकारलोपः । त्वामिस्यादि- युष्मद् 'अमौ मः' ।२।१।१६। इत्यम्प्रत्ययस्य मादेशे 'त्वमौ प्रत्ययोत्तर०' ।२।१।१२। इति मान्तावयवस्य त्वादेशे स्व अद् म् इति. स्थिते 'लुगस्यादेत्य० ।२।१।११३॥ इत्यकारलोगेऽनेनाऽऽत्त्वे दीर्घत्वे च त्वामिति सिद्धः एवमन्येऽपि । व्यञ्जन इत्येव-युष्मभ्यम् अस्मभ्यम् । नन्वन्तरोक्तस्थले 'लुगस्या देत्यपदे ।२।११११३॥ इत्यकारलोपे 'मोर्वा' ।२।१।९। इति कथ लुग्नेति चेत्सत्य स्वरस्य स्थानिवद्भ वात् । न च तहि युष्मयतें: विवपि युष्म्शब्दस्तस्माद्भयसोऽभ्यमादेशे 'मोर्वा' ।२।१।९ इति न प्रवर्तेत स्वरस्य स्था Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) निवद्भावादिति वाच्यं प्रत्यासत्तिन्यायेन यस्मिन् प्रत्यये लुग्भवति तस्मिन्नेव प्रत्यये यत्कार्यमुक्तं तदा स्थानिवद्भावात्तन्न भवति अत्र तु 'त्रन्त्यस्वरादेः' 1७४;४३॥ इति सूत्रण णिचि लुक्, कार्य त्वभ्यमि प्रत्यय इति स्थानिवदभावाभाव त् । मोर्वा' ।२।१९। इति सूत्रस्यानवकाशत्वादवा स्थानिवत्त्वाभावात् । युष्मयतेरस्मयतेश्च सिद्धिस्त्वीदृशी युवा युष्मा वाऽऽचष्टे, आवामस्मान्वाऽऽचष्ट इति त्वां मां वाऽऽचष्ट इति तु न कार्य तथा सति णिचि त्वमौ०' (२।१।११। इति त्वमौ स्याताम् । युष्मयतेरस्मयतेश्च क्विपि युष्म अष्म अनयोरमीभ्यांसु परत्वात्त्व-माद्यादेशे कृते पश्चादात्त्वं त्वां, माँ, युवा; आवो युवाभ्याम् आवाभ्याम् । अयं भावः - 'स्पर्द्ध।७।४।११९॥ इति परत्वात् पूर्व त्वमाद्या-देश 'पगन्नत्यम्' इत्यपि न शब्दान्तरप्राप्त्याऽनित्यत्वात्, प्रथममा. त्त्वे तु मन्तत्वाभावात्त्वमादयो न स्युः । णिज्वाक्यावस्थादि बहुवचन विववृत्तो गौणमभवदिति त्वमादयो भवन्त्येव ॥६॥ १.... टाइयोसि यः ॥१७ टाङ योस्सु परेषु युष्मदस्मदोर्यः स्यात् । त्वया। मया । अतियुक्या। अत्यावया। त्वयि । मयि । युवयोः । आवयोः । टाङयोसीति किम् । त्वत् । मत् । ___ओश्च ओश्च - ओसौ 'स्यादावसङ्खयेयः' ।३।११४१९। इत्येकशेष: टाश्च डिश्च ओसौ च इति कार्यमन्यथा डिसाहचर्यात्सप्तम्या एंव औसौ ग्रहणं स्यात् । नन्वोस्ग्रहणाभावेपि 'शेषे लुक् ।२।१८॥ इति दलोपे 'एबहुस्भोसि' १।४।४४। इत्येत्त्वे युवयोरित्यादि सिध्यदिति चेत्सत्यं ओस्ग्रहणाभावे णिच्यन्त्यस्वरादिलोपे 'मन्तस्य युवावी०' ।२।१।१७। इति युवाऽऽवादेशे 'शेषे लुक्' ।।१।८। इत्यल्लोपे 'युव्यो' इत्यादि न सिध्ये दित्योस्ग्रहणम् । त्वदिति 'अत्राङसेश्चाद्' ।२।१।१९। इति सिंप्रत्ययस्यादादेश एवं मदित्यत्रापि ॥७i शेरे लुक् ।।१८। यस्मिन्नायौ कृतौ ततोऽन्यः शेषः तस्मिन् स्यादौ पैरें Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) युष्मदस्मदोलुक् स्यात् । युष्मभ्यम् । अस्मभ्यम् । अतित्वत् । अतिमत् । शेष इति किम् । त्वयि । मयि ।। .. शेषग्रहणाभावे 'टाङ्य सि' इत्यनुवर्तेत । न च यदि 'टाय सि' इत्यस्यानुवृत्ति भिप्रेता स्यात्तदा 'टाङ्य सि यलुकौ' इत्येकयोग एव कुर्यादिति वाच्ममुत्तरार्थ लुक्' इति पृथक्करणं कर्तव्यमेवान्थथा 'टायोसि यलुकौ' इत्युत्तरसूत्र नुवर्तेतेति । ननु युष्मदस्मदोरन्तस्य शेषे स्यादावनेन लोपे 'नन्ता सङ्ख्या ' [ अलिङ्ग १] 'आप' ।२।४।१८। इत्याप न भवति । ननु केवलयोयुष्मदस्मदोरलिङ्गत्वभगनात् बहुव्रोही तत्पुरुषे चान्यपदार्थादिप्रधानत्वेन युष्मदस्मदोस्स्त्रोलिङ्गत्वे सत्य प् कथ न भवतीति चेत्सत्यं 'सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तदिववातस्य' इति न्यायेनाव्यवधानलक्षणो दलो. पविधिरभ्यम्प्रत्ययस्मा विधानभङ्ग निमित्त न भवतं त्याप न भवति । ननु तहि केवलयोरपि युष्मदस्मदोरनेन न्यायेनैवाप न भवष्यतीति कि लिङ्गानशासनेऽलिङ्गतया पाठेने त चेत्सत्यं 'न्यायाः स्थविरयष्टिप्रायाः' इति न्यायेन न्यायप्रवृत्ति न विश्वसनीया । युष्मभ्यमिति - परत्वात् विशेषवि. हितत्वेन प्रकृष्टत्वादित्यर्थः न तु 'स'।७।४।११९। इति परत्वम् अभ्यम्यसः' ।२।२।१८। इत्यभ्यम देशेनेन दकारलोपे 'लुगस्यादेत्य०' ।२।१।११३। इत्यल्लोपे च सिद्धम् । त्वयीति - 'टाङयोसि यः' ।२।१७। इति यत्त्वम् ॥८॥ मोर्वा २।१९। शेषे स्यादौ परे युष्मदस्मदोर्मोलुंग वा स्यात् । युवाम् युष्मान्वा आवाम् अस्मान्वा आचक्षाणेभ्यो णिचि विवपि च लुकि च । युष्मभ्यम् । युषभ्यम् । अस्मभ्यम् । असभ्यम् ।९। शेषे इत्यादि - शेषे स्वसम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा स्यादौ परे युष्मदस्मदोर्मकारान्तयोः मकारस्य लुग्वा भवतीत्यर्थः । युवामित्यादि - युवां युष्मान्वाऽऽचष्ट आवामस्मान्वाऽऽचष्ट इति णिचि क्विपि.च युष्म् अस्म् इति मान्तत्वम् न तु त्वां मां वाऽऽचष्ट इति तथा सति णिचि 'त्वमौ० Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) १२।१।११। इति त्वमो स्यातामिति । ननु युवामावां वाऽचष्टे इति वाक्ये 'णिज्बहुलं' ।३।४।४२॥ इति णिचि क्विपि स्यादो परे युवाऽऽदेशौ कथं न भवत इति चेत्सत्य यदा युष्मदस्मदी द्वित्वे तदा न स्यादिः, यदा तु स्यादिस्तदा न द्वित्वे इति युवाऽऽवादेशी न भवनः । टाङ्यासि नित्यत्वात् त्वमाद्यादेशेभ्य: पूर्वमेव 'टाङयोसि'०।२।१७। इति मस्य यत्वे यष्या, अस्या, युष्यि, अस्यि, यष्योः, अस्योः । यदि पूर्व मकारस्य पश्चादकारस्याथवा पूर्व युष्मित्यादि-प्रकृतेः पश्चात्त्वेत्यादिप्रकृतेः प्राप्त्या यत्त्वस्यानित्यत्वमित्याश्रीयते तदा परत्वात्पूर्वं त्वमाद्यादेशेऽकारस्य यत्त्वे व्या, म्या, व्यि, म्यि, युट्योः, आव्योः । यदि 'सकृद गते । स्पद्ध यद्बाधितं.' इति न्याय आश्रीयते तदा त्वेन, मेन, युवयोः, आवयोः, त्वे, मे अत्राचष्टेरेव प्राधान्याधु . हमदो: सञोपर्सजनोभूतयो: सर्वादित्त्वस्यानिष्टत्वात्सर्वादिसम्बन्धित्वाभावाद्. 'ङस्मिन् ।१४।८। इति स्मिन्नादेशो न भवति । यदि 'क्विबथं प्रकृतिरेवाह' इति न्यायस्याश्रयणं तदा सर्वादिसम्बन्धित्वास्मिन्नादेशो भवत्येव । सन्निरात। लक्षणन्यायस्यानित्यताश्रयणेन त्वास्मिन् मास्मिन्नित्यपि । अत्र दे चिन्त्यते-प्रथमपक्ष एव ग्रन्थ कारस्याभिमतत्वं सूचित तत्र यदि शब्दा. नुपादानात् शेषेष सर्वत्र यदिशब्दप्रय गेण ग्रन्थकाररयानभिमतत्व चितमनन्तरोक्तस्मिन्नादेशे तु ' सादेः 'स्मैस्मातो' ।।४।७। इत्यस्य बृहद वृत्ती 'द्वियुष्मभवत्वस्मदा स्मायादयो न भवन्तीति सर्बविभक्त यादयः प्रयोजनम्' इत्युक्तत्वात्सुतरामनभितत्वम् । सिजस्ङङस् प्रत्यये तु परत्त्वात्त्वमहमाद्यादेशा एव भवन्ति । अनेन प्रक्रियागौरवं परिहतमन्यथाऽनेन मकारलोपेपि सिप्रत्ययादिना सहादेशे सर्वे पि प्रयोगास्सिध्येरनिति ।।९।। मन्तस्य युवावो व्दयोः २।१।१०। अर्थवृत्त्योहमदमदोर्मान्तावयवस्य स्यायौ परे यथासंख्यं युव आव इत्येतौ स्याताम् । युवाम् । आवाम् । अतियुवाम् । अत्यावाम् । अतियुवासु । अत्यावासु । मन्तस्येतिकिम । युवयोः । आवयो रित्यत्र दस्य यत्वम् यथा स्यात् । स्थाावित्येव । युवयोःपुत्रो युष्मत्पुत्रः ॥१०॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६) पर इति तत्सम्बन्धिन्यन्य सम्बन्धिनि वेत्यर्थः द्वयोरिति द्रव्यवाचित्वात् अयं युष्मदस्मदर्थमेव विशिनष्टि स्यादिविशेषणत्वे तु स्यादेर्गुणाभिधायित्वात् 'द्वित्वे ' ।२।१।२२। इतिवद्भावप्रत्ययान्तेन निर्दिश्येत । युवाऽऽत्रा देश योरकारन्तत्वेन युष्मदस्मद्भ्यां णिचि क्विपि तल्लोपे च 'युव्योः अव्योः' इत्यादि सिद्धम् । अतिक्रान्ती युवामावां वा अतियुवाम् अस्यावाम् । अतिक्रान्तं युवा मावा अतियवां अत्यावाम् । अतिक्रान्तो युवामावां वा अतियुवाम् अत्यावां पश्य एवं अतियुवान् अत्यावान् अतियुवया, अत्यावया, अतियुवाभ्याम्, अत्यावाभ्याम् अतियुवाभिः अत्यावाभिः अतियुवाभ्याम् अत्यावाभ्याम् अतियुवभ्यस्, अत्यावभ्यम्, अतियुवत्, अत्यावत् अतियुवाभ्याम् अत्यावाभ्याम्, अतियुवत्, अत्यावदागतम्, अतियुवयोः अत्यावयोः, अतिवाकम् अत्यवाकं स्वम्, अतियुवयावयि, अतियुवयोः अत्या वयोः अतियुवासु अत्यावसु । सिजङ ङस् त्यये तु पत्त्रात्त्वमहमादयः एवअतित्वम् इत्यदि । द्वयोरित्यस्य युष्मदम्मद विशेषणत्वेन युष्मानस्मान ततिऋान्तौ अतियुष्माम् अत्यस्माम् २ अतियुष्माभ्यम् अत्यस्माभ्याम् ३ अतियुष्मयोः अत्यस्मयोः २ अत्र समास एव द्वित्व व शष्टेर्थे वर्तते न तु युष्मदस्मदी इति युवावो न भवतः । मन्तस्येति भणनात् युवकाभ्याम् आवकाभ्यामित्यत्रा तिः । दस्य यत्त्वमिति - 'टङयो सि० ' 1 - 1१1७ ॥ इति सूत्रेण । युष्मत्पुत्र इति - 'लुबन्तरङ्गेभ्यः' इति न्यायात्पूर्वं विभक्त ेर्लोपे 'लुप्य्य्वृल्लेनत्' | ७|४|११२ | इति स्थानिवद्भावनिषेधात्स्यादिपरत्वाभावादादेशो न भवति ॥ १०॥ ' त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन् | २|१|११| स्यादौ प्रत्ययोत्तरपदयोःच परयोरेकार्थवृत्त्योयु हदस्मदस्मदोर्मान्तावयवस्य यथासंख्यं त्वम इत्येतौ स्याताम् । त्वाम् । माम् । अतित्वाम् । अतिमाम् । अतित्वासु । अतिमासु । त्वदीयः । मदीयः । त्वत्पुत्रः । मत्पुत्रः । प्रत्ययोत्तरपदे चेति किम् । अधियुष्मद् । अध्यस्मद् । एकस्मिशिति किम् । युष्माकम् । अस्माकम् ॥११॥ . • Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७) प्रत्ययोत्तरपदयोश्चेति ननु स्यादावित्येव सिद्ध' प्रत्ययोत्तरपदग्रहणमनर्थकम् न च त्वदीयः पुत्रः इत्यादौ परत्वानित्वाद्वा ऐका |३|२८| इति विभक्त र्लोपः स्याद् लोपे च कृते ' प्रत्ययले पेपि प्रत्ययलक्षणं कार्य विज्ञायते इति न्यायेन स्थानिवद्भावस्य निषेधा सार्थकमिति याच्यं 'अमिद्ध ं बहिरङ्गमन्तरङगे' इति न्यायान्नित्यादप्यन्तरङ्गस्य बलीयस्वात् विभक्तिमाश्रित्य वर्तमानयोरत्वमादेशयोः कर्तव्ययोः प्रवृतिप्रत्ययपूर्वोत्तरप द श्रितत्वादैकार्थ्यस्य बहिरङ गत्वात्तदाश्रितलोपस्यापि बहिरङ गत्वाद् बहिरङ गस्य कृताकृत सङि गत्वेन नित्यस्यापि लोपस्यासिद्धत्वादिति चेत्सत्यमिदमेव प्रत्ययोत्तरपदग्रहण व्यर्थं सत् 'लुवन्न रङगेभ्य' इति न्यायं ज्ञापयति तेन तद्, यद् इत्यादावन्तरङ गत्यदाद्यत्वादिकार्यात्पूर्वमेव विभक्तेर्लोपे स्थानिवद्भावनिषेधात्त्यदाद्यत्वादि न भवति । प्रत्ययग्रहणेनैव सिद्ध स्यादावित्युत्तरार्थमनुवर्तते । एकार्थवृत्त्योरिति एकार्थ वृत्तित्वेन युष्मदस्मदोविशे हि न भवति अतिक्रान्त युष्मान् अस्मान्वा अतियुष्माम् अत्यस्याम् । अतित्वमित्यादि - त्वां मां वाऽतिक्रान्तासु इति कार्यमन्यथा युष्मदस्मदोरेकार्थ वित्त्वाभावान्नादेशौस्याताम् । त्वमादेशयो र कान्तत्वेन युष्मदस्म - घां णिचि क्विपि तल्लोपे च टाङ यं सियः | २ | १|७ | इति यत्वे 'व्य यि' इत्यादि सिद्धम् । त्वदय इत्यादि - तवायं ममायमिति 'दानीयः ।६।३।३२। इतीयप्रत्ययः । त्वत्पुत्र इति तव पुत्रः इति तत्पुरुषो बहुव्रीहिर्वा अत्र नवीनं किञ्चित्प्रस्तुयते त्वां मां वाऽऽचष्ट इति त्वदयति मदयतीत्यत्र 'परान्नित्यम्' ५२ इति न्यायात् ' त्रन्त्यस्वरादेः ' | ७|४|४३| इति सूत्ररेणान्त् यस्वरादिलोपात्प्रागेव त्वमादेशौ । पश्चादपि 'लोपात्स्वरादेश:' इति न्यायात् 'लु स्वादेत्यपदे' २।१।११३ । इति प्रवर्तते न त्वन्त्यस्वरादिलोपः तत्पश्चादपि 'नैकस्वरस्य' ।७|४|४४॥ इति निषेध | दन्त्यस्वरादिलोपो न भवति । अधातु'वाच्च णिति' | ४ | ३ |५० इति वृद्धिरपि न भवति । अधियुष्मदित्यादि - त्वय्यधि, मय्यधि इति 'विभक्तिसमीप ० ' | ३|१|३९| इति समासः 'प्रथमोक्त' प्राक्' | | १|१४८ । इति अधिशब्दस्य पूर्वनिपातः 'अनतो लुप्' |३२|६| इति सेर्लोपे 'लुप्य्य्वल्लेनद' | ७|४|११२ । इति स्थानिवत्त्वनिषेधात्त्वमादेशो न भवतः मन्तस्येत्यनुवृत्त स्त्वकं कर्ताऽस्य त्वत्कर्तृकः इत्यत्राक् ति भवति ।' ॥११॥ - त्वमहं सिमा प्राक्चाकः | २|१|१२| Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) सिना सह युष्मदस्मदोर्यथासंख्यं त्वमहमो स्याताम् । तौ चाक्प्रसङ्गकः प्रागेव । त्वम् । अहम् । अतित्वम् । अत्यहम् । प्राक्चाक इति किम् । त्वकम् । अहकम् ।१२। सिनेति - ननु साविति कृतेपि "दीर्घङ याब्' ।१।४।४। इति सेलुकि सर्वेऽपि प्रयोगास्तिध्ये रमिति । न च साविति कृते 'युष्मदस्मदा:' ।२।१।६। इति मकारस्यात्त्व स्पादिति वाच्यमादेश विधानसामर्थ्यान्न स्यादिति चेत्सत्यं 'युष्मदस्मदोः ।२।१।६। इत्यस्य प्रवृत्त्यभावेऽस्य से: शेषत्वात् 'मोर्वा ।२।१९। इति वालप: स्यात्पक्षे च सूत्रस्य चरितार्थता स्यादिति । अतिक्रान्तस्त्वां युवां युष्मान् इति अतित्वमेवमत्यहमिति । 'प्राप्यवपरि० ।३।१।४५१। इति समासः । त्वमयुवावादेशानां त्वां मां युवां आवामित्यादी सावकाशत्वात् त्वमहमादेशयोः अतिक्रान्तो युष्मानस्मान् वा अतित्वमत्यहमित्यत्र सावकाशत्वात् अतिक्रमो युवाम् 'अतिक्रान्त आवामतित्वमत्यहमित्यत्र 'स्पर्द्ध' ।७।४।११९। 'इति परत्वात् 'त्वमौ०' ।।१।११। 'मन्तस्य युवाको०' ।२।११। इति त्वम युवावादेशान्बाधित्वा त्व-महमादेशा एव भवन्ति । सिलुपि त्वं पुत्रोऽ स्य त्वत्पुत्र इत्यादौ न भवति । प्राक्चाक इति'प्राक्चाकः' इति वचनात्तु अन्तरङ्गमप्यकं बाधित्वा पूर्वं त्वमहमादेशी 'प्राक्चाकः' इति वचनाभावे निरपेक्षत्वेनान्तरङ्गत्वात् 'युष्मदस्मदो.' ।७।३।३०। इति कुत्सिताद्यर्थे पूर्वमकि 'तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते' इति न्यायेन साकोरप्यादेशस्यात्तदा ऽश्रुतिनं स्यात् । अत्रेदं चिन्त्यते – 'तन्ममध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते' इति न्यायस्य ज्ञापक तु 'प्राक्चाकः' इति ववनं तथाहि युष्मदस्मदोरक्सहितयोरादेशवारणार्थ 'प्राकचाकः' इति भणितम् तत्तु अकि सति अक्सहितयोयुष्मदस्मदोरकरहितयोयुष्मदस्मद्भिन त्वेन ग्रहणात्स्वत एवाक्सहितयुष्मदस्मद स्त्वमहमादेशावप्राप्त विति व्यर्थ 'प्राकचाकः' इति वचनम् । व्यर्थं सन्न्यायमिमं ज्ञापयति । न्याये ज्ञापिते चासहित. योरादेशवारणार्थं प्राक्चाक:' इति कथन सार्थकमेव । अनु 'अहंकार: 'अहंप्रत्ययग्राह्य आत्मा' इत्यादौ सेल पि उत्तरपदे परे 'त्वमौ०' ।।१।११। इति मादेशेन भाव्यमिति चेत्सत्यं 'ऊर्णाह-शुभमो युस्।७।२।१७। इति वचनादन्य एवाहं शब्दः इति न दोषः । पाणिन्यादयस्तु त्वां मां वाऽऽचष्ट इति- गौ त्वमा. देशे वृद्धौ क्विपि मन्तयोरेव त्वाऽऽहादेश विधानात् सौ त्वाम् माम् इति धातोरेव वृद्धिरिति मते त्वम् मम् इत्येव च भवताति मन्यन्ते ते हि 'तुभ्य Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४९) मझौ हथि०' । पा०1७२।९५। 'यूय वयो जसि०' । पा०1७।२।९३। 'त्वाs हो सौ०' । पा० ७।२।१४। इति सूत्रेभ्य: विभक्तिर हितस्य प्रकृतिमात्रस्यादेशानिच्छन्ति एवं हु जस-सीना 'ङ प्रथमयोरम्' पा० । १७।१।२८। इत्यमादेशम्, ङमस्तु 'युष्मदस्मद्भयां इस ऽश् [पा० ७॥२७॥ इत्यकारं चेच्छन्ति । स्वमते तु समहभिरेव भवति ॥१२॥ यूयं वयं जसा ।२।१।१३। जसा सह युष्मदस्मदोर्यथा संख्यं यूयम्वयम्लो स्याताम् । यूयम् । वयम् । प्रिययूयम् । प्रियवयम् । प्राक्चाक इत्येव । यूयकम् । वयकम् ॥१३॥ प्रिययूयमित्यादि-प्रियरत्वं येषां प्रियो युवां येषामित्यादि-वाक्ये एकत्व द्वित्व वैशिष्टयोयुष्मदस्मदोर्वतमानत्वात् वमो०' ।२।१।११। इति 'मन्तस्य युवावोः' ।२।१।१०। इति च त्वमाद्यादेशानन्यत्र सावकाशान्बाधित्वा यूयं वयमित्यत्र सावकाशो यूयंवयंमादेशावेव परत्वाद्भवतः । यूयकमित्यादी 'युष्मदस्मदो:०' ।७।३।३०। इति कुत्सिताद्यर्थेऽक् एवमुत्तरत्रापि ॥१३॥ तुभ्यं माया ।२।१।१४॥ ज्या सह युष्मदस्मदोर्यथासंख्यं तुभ्यम् मह्यमी स्यालाम् । तुभ्यम् । मह्यम् । प्रियतुभ्यम् । प्रियमह्यम् । प्राक्चाक इत्येव । तुभ्यकम । माकम् ॥१४॥ प्रियतुभ्यमित्यादि-यित्वं प्रियौ युवां रिया यूयं वा यस्य तस्मै प्रियतुभ्यमेवं प्रियमह्यमित्यपि । प्रियस्त्वं प्रियौ युवां यस्येत्यः दिवाक्ये पूर्ववरपरत्व त्तुभ्यमह्यमादेशावेव भवतः एवमुत्तरसूत्रेपि ॥१४॥ ततम इसा ।।१।१५। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) इसा सह युष्मदस्मदोर्यथासंख्यं तवममा स्याताम् । तव । मम । प्रियतव । प्रियमम । प्राक्चाक इत्येव । तवक । ममक ।१५। : ननु कथं तवता ममता, तवायितम् मम यिनम् ? इति चेत्सत्यम् एतानि स्याद्यन्तप्रतिरूपकाणि अव्यय नि ततः शब्दान्तरत्वात्सिद्धम् ॥१५॥ 'अमौ मः।२।१॥१६॥ युष्मदस्मद्भ्याम परयोरम औ इत्येतयोम इति स्यात् । त्वाम । माम । आतत्वाम । अतिमाम । युवाम । आधाम । अतियु. वाम् । अत्यावाम ॥१६॥ - युष्मदस्मद्भ्यामिति विभक्ति-विपरिणामेन युष्मदस्मदोरित्यनुवर्तते परयोरिति तत्सम्बन्धिनोरन्यमम्बन्धिनोवेत्यर्थ एवमोरि । अम् औ इत्येतयोरिति- औश्च औरच आवी "स्याद वसख्येय." ॥३।१।११९। इत्येक शेष: सूत्रे विशेषनिर्देशाभाव स्पथमाद्वितीयाद्विवचनयोरुभयोरपि ग्रहणम् पश्चात् अम् च आवौ च अमौ तस्य "अमौ" इति षष्ठ्येकवचनस्य सौत्रत्वालोपः । एकशेषाभावे तु अम्साहचर्याद् द्वितीयाया एक औप्रत्ययस्य ग्रहणं स्य त् युष्मच्छब्दादम्प्रत्यये त्वादेशे "शेषे लुक् ।२।१।८। इति दस्य लुकि "समानादमतः" ॥१॥४॥४६॥ इत्यमोऽकारलुकि ; युष्मदस्मदो:" ।२।१६। इत्य त्वे च त्वामित्यादि सेत्स्यतीति कृतमम्ग्रहणेनेति चेत्सत्यं "असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग" इति न्य यादन्तरङ्ग आत्त्वे कर्तव्ये बहिरङ्गस्य "समानादमोतः ।१।१॥४६॥ इत्यकारलोपस्यासिद्धत्वात् "युष्मदस्मदः" ।२।१६। इत्य त्वं न स्यादिति । म इति- अकार उच्चारणार्थः अकारमन्तरेण व्यञ्जनोच्चारण. मसुकरमिति । 'म्' इत्येकवर्णादेशत्वेपि “प्रत्ययस्य" ।७।४।१०८॥ इति न्यायादम: सर्वस्यापि भवति तेन व्यञ्जनादित्वात् "युष्मदस्मदौः" ।२।१६। इत्याकार: सिध्यति ॥१६॥ शसो नः ।२।११७॥ युष्मदस्मद्भ्यां परस्य शसो न इति स्यात् । युष्मान् । अस्मान् । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१) प्रियत्वान् । प्रियमान् ॥१७॥ न इति अकार उच्चारणार्थः । युष्मानित्यादि- एका 'शेष' | २|१| ८। इति कः प्राप्तिः द्वितीया त्वनेन सूत्रेण नादेश गप्तिः नकारे वृते शेषवाभ वाल्लोपस्याभवनात् लोपोऽनित्यः नादेशस्तु कृताकृत सङ्गित्वेन नित्यः इति नादेश एवं पूर्व भवति । ननु 'शस ता सश्च नः' | १|४| ४९ । इत्यनेनंव सिद्धत्वान्न देश विधानमतिरिव्यत इति चेन्मंत्र " अलिङ्ग युष्मदस्मदा” इति अलिङ्गभस्त्व-भावान्नकारो न स्याद् बहुव्रीह्यादौ अभ्युपगमे वा लिङ्गस्य स्त्रीपु सकार्थम् तेन प्रियत्वन् ब्राह्मणी: त्रियत्वान् कुलानीत्यि तिद्धम् ॥१७॥ अभ्यम् भ्यसः | २|१|१८| युष्मदस्मद्भ्यां परस्य चतुर्थीभ्यसोऽभ्यं स्यात् । युष्मभ्यम्, अस्मभ्यम । अतियवभ्यम् । अत्यावभ्यम् 1१८1 · कायिण: पूर्व निर्देशे प्राप्ते कार्यस्य पूर्वमुपादानं प्रत्यासत्तिसूचनार्थ तेन पाठापेक्षया प्रत्यासन्नस्य चतुर्थीभ्यस एव देशः । ' भ्यसोभ्यम्' इति का: पूर्व निर्देशे व्यञ्जनादि ति सन्देहः स्यादित्यरुचेराह - यद्वा- "ङसेइचाद्” | २|१|१९| इत्यत्र चकारो भ्यसोऽनुकर्षणार्थ: तंत्र च ङसिसाहचर्यात् पञ्चमीभ्यस एव ग्रहणमिति पारिशेष्य दत्र चतुर्थीभ्यस एव देश इत्याहचतुर्थीभ्यस इति - ननु "भ्यम्" इति व्यञ्जनादिरेवादेशः क्रियतां 'लुगस्वा०' ।२।१।११३। इत्यल्ल'पस्या प्रसङगे प्रक्रियालाघवं स्यादिति चेन्न व्यञ्जना देश करणे तु 'युष्मदस्मदोः | २|१|६| इत्यात्त्वप्रसङ्गः स्यात् णिचि च युष् मम्मस्मभ्यमिति न सिध्येदित्य कारादिरादेशः वृतः ॥ १८ ॥ ङसेश्चाद् | २|१|१९| युष्मदस्मद्भ्यां परस्य इसे पञ्चमीभ्यसश्च अद् इति स्यात् । स्वद् मद् । अतियुवद् । युष्मद् । अस्मद् । अतित्वद् । अतिमद् 1. ॥१९॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) - "साहचर्यात्सदृशस्यैव ग्रहणम्" इति न्यायादाह-पञ्चमीभ्यस इति चकारेण भ्यसोनुकर्षणेपि भ्यसो ङसेश्चकवचनान्तनिर्देशन द्विवचनान्तनिदिष्टाभ्यां युष्मस्मभ्यः सह व वनवैषम्यान्न यथ सङख्यम् । नन्वत्र “साहचर्यात्सदृशस्यंव "६३" ग्रहणम्' इति न्य य त्सदृशस्य पञ्चमीभ्यसो ग्रहणं भवति पन्त पर्वत्र पञ्चम भ्यसो ग्रहणादभ्यमादेशः कथं न भवति. न च पञ्चम भ्यस अ.देशेनापतित्वादिति वाच्य पूर्वसूत्रस्य व्यत या प्रवर्तनात्प:'चमीभ्यस प्रत्यभ्यन देशस्य चरितार्थत्वेन पञ्चमीभ्यस प्रत्यग्यमादेशस्यान-. र्थक्यं स्यामिति । न च पूर्व सूत्रे पञ्चम भ्यसोऽ ग्रहणमिति वाच्यमत्रानुवृत्तिरेव न स्य त् “नहि गोधा सपन्तो सर्पणादभिवति' इति महि चतुर्थीम्यस् अनुवतंगसञ्चमीभ्यस् भवत्यतः पूर्वसूत्रे पञ्चमीभ्यसपि न ह्य इति तस्याप्यभ्यमादेशेन भाया-ति चेन पूवसूत्र जाती प्रवृत्तज तिश्च सकृल्लक्ष्ये प्रवृत्ता सतो प्रवृत्तवेत्यवादेनाद देशेन बाधितत्व दभ्यम देशो न भवत ति । अतिस्व. दिति- स्वा युवा युष्मान्व.ऽतिक्रान्तादित्यर्थः ॥१॥ आम आक्म ।२।१२० सुष्मदस्मद भ्यां परस्य आम आकं स्यात् । युमाकम् । अस्माकम् अतियुवाकम् । अत्यावाकम् । युष्मानस्मान् वाऽचक्षाणानां युमाकम् । अस्माकम् ॥२०॥ ... ननु 'आमः कमिति कृते "युष्मदस्मदोः" ।२।१।६। इत्यात्त्वे सर्व सिध्यत ति कि"आकम" इत्यत्राकारकरणेनेति चेत् सम् आकारकरण ण्यन्ताथं तेन युष्मानस्मान्वाऽऽचक्षाणानां णिचि विपि च युष्माकमस्मानित यादि सिद्धम् । युवामावा वाति कान्तानामतियुवाकमित्य दि॥ ॥ पदा विभक्त्यैकवाक्ये वस्नसौ बहुत्वे ।२।१।२१॥ बहुत्वविषयया समविभक्त्या सह पदात् परयोयुष्मदस्मदोर्यभासंख्यं बस्नसो वा स्याताम् । तत्वेदपदं युष्मदस्मदो चैकस्मिान् वाक्ये स्तः । अन्वादेशे नित्यं विधानादिह विकल्पः । एवमुत्तरसूत्र Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३) प्रयेपि । धर्मों वो रक्षतु । धर्मो नो रक्षतु । धर्मों युष्मान रक्षतु । धर्मोऽस्मान् रक्षतु । एवं चतुर्थोषष्ठीभ्यामपि । पदादिति किम् । युष्मान् पातु । युग्विभक्त्येतिकिम् । तीथें यूयं यात । एकवाक्य इति किम् । अतियुष्मान् पश्य ओदनं पचत युष्माकं भविष्यति ॥२१॥ पद्यते गम्यते कर्तृ कर्मादिविशिष्टोर्थोनेनेति पदं स्याद्यन्नम् । युग्विभकिरविषम विर्भा: द्वित याचतुर्थीरूपा । न्व देश इत्थ दि- "नित्यमन्व देशे" १२॥१॥३१॥ इति सूत्रेण व देशे नित्यं विधानादिह विकल्प: । धर्मो घो रक्षत्वित्यादि- “शसों नः" ।।१।१७। “शेषे लुक्" ।।१८। इत्य द नि सूत्राणि बाधि वा नित्यत्व दनवकाशत्वाच्च वस्नसादय एव भवति । अतियुष्मानिति'एकव क्य' इति स वधारणं वचन तेन एव वाक्य एव सति वस्नसौ अत्र तु एकपदेपोति न भवतः । एकञ्च तद्वाक्यं चेति 'पूर्वकालैक." ।३।१।१७। इति समासः। स्याद्यधिकारे विभक्ति ग्रहणं युक्स्यादिवचननिवृत्त्यर्थं तेन ज्ञाने युवा तिष्ठतः शील आवां तिष्ठावः इत्यत्रोत्तरसूत्रेण वाम्नावादेशी न भवनः । ननु 'समर्थः पदविधिः" 1७।४।१२२। इति न्यायेन वाक्थान्तरस्थात्पदात्परयोयुमदस्मदोः सामर्थ्याभावादेव वसनसादयो न स्युरिति किमेकवाक्यग्रहणेनेति चेत्सत्यं युन युक्तादपि पदादसमर्थत्वान्न प्राप्नुवन्ति-इति स्म न: पिता कथ. यति इति वः श्रेयसी ब्रवीमि, इति मे शालीनां ते ओदन दास्यामि । अत्र हि युष्मदस्मदी पित्रादिभियुक्त न तु पित्रादिभियुक्त : स्मादिभिरिति बस्नसादयो न स्युरिति पारम्पयेणापि यादेकवाक्यस्थात् पदापरयोयुष्मदस्म• दोर्वस्नसादयस्स्युरित्येकवाक्यग्रहणमर्थवत् ।।२१।। दिवत्वे वाम्नी (२।१।२२॥ पदात् परयोयुष्मदस्मदोद्वित्वविषयया युग्विभक्त्या सह यथासंख्य बाम्नी इत्येतौ वा स्याताम् । एकवाक्ये । धर्मों वां पातु । धर्मो युवां पातु । धम्मो नौ पातु । धर्म आवां पातु । एवं । चतुर्थोषष्ठीभ्यामपि ।२२। . Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) द्वित्व इति भावप्रत्ययान्तेन सङ्ख्या निर्दिश्यते सङ्ख्यायां च विभनिवर्ततेऽतो द्वित्व इति विभक्त रेव विशेषण न तु युष्मदस्मदोस्तयोः द्रव्यवृत्तित्वादत आह- द्विस्वविषययेति-॥२२॥ 'डेडसा ते मे ।२।१।२३। सभ्यां सह पदात् परयोयुष्मदस्मदोर्यथासंख्यं ते मे इत्येतो वा स्याताम् । एकवाक्ये । धर्मस्तेदीयते धर्मस्तुभ्यं दीयते । धम्मों मे बीयते । धर्मों मह्यं दीयते । धम्मस्ते स्वम् । धर्मस्तव स्वम् । धों मे स्वम् । धर्मो मम स्वम् ।।२३। . . तेमे इति लुप्तद्विवचनान्तं पदम् एवमुत्तरसूत्रप । ङसेत्येकवचनं स्थानिभ्याम देशाभ्यां च यथासङ्खयनिवृत्त्यर्थम् ॥२३॥ अमा त्वामा ।।१।२४। अमा सह पदात् परयोयुष्मदस्मदोर्यथासंख्यं त्वामा इत्येतो वा स्याताम् । एकवाक्ये । धर्मस्त्वा पातु । धर्मस्त्वां पातु । धर्मो मा पातु । धर्मो मां पातु ॥२४॥ यद्यपि "अम्" अनेकप्रकारोऽस्ति तथाहि एक: "अतः स्यमोम्" ।१।४।५७। इति, द्वितीय: "अमव्ययीभावस्यातो." ।३।२॥३॥ इति तृतीयः आख्यातविभक्त : "अम्व् अम्" इति तयापि युष्मदस्मद्भ्यामन्यस्यासंभवाद् द्वितीयकवचनमेव गृह्यते ॥२४॥ . अदिवामन्त्रयं पूर्वम् ।२।१।२५। . Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५) . आमन्त्र्यार्थ पदं युष्मदस्मद्भ्यां पूर्वमसदिव स्यात् । जना युष्मान् पातुधः । साधू युवां पातु धर्मः । साधो त्वां पातु तपः । पूर्वमिति किम् । मयेतत्सवमाख्यातं युष्माकं मुनिपुङ्गवाः ॥ २५ ॥ । 1 आमन्त्रयते यः स्वेन धर्मेण प्रसिद्धो धर्मान्तरसम्बन्धं प्रत्यभिमुखी - क्रियते स आमन्त्र्यः यथा देवदत्ता देवदत्तत्वेन प्रसिद्ध धर्मान्तरसम्बन्ध प्रत्यभिमुखो क्रियते यथा देवदत्तो पठ भुङ्क्ष्वेति । अर्थे कार्यासम्भवादुपचारादामन्याभिधायि पदं विज्ञायत इति । असदिव- अविद्यमानमिव सति तस्मिन् यत्कार्यं तन्न भवति असति यत्तद्भवतीत्यर्थः । इवकरणाभावे प्रयोगनिवृत्तिः स्यात् । इवकरणात्तन्निमित्तककार्याभाव एव न तु प्रयोगाभाव: । 'ननु' "नित्यमन्वादेशे” | २|१|३१| इत्यत्र नित्यग्रहणादिह विकल्पः कथ न भवतीति चेत्सत्यम् "अन्वादेशे नित्य विधानादिति" इति भणनात् यत्रैव वस्नसादिविधानं तत्रैव विकल्पो न तु निषेध इति विकल्पो न भवति । अथवा यद्यत्र सूत्रे विकल्पः स्यात्तदा किमेतत्सूत्रकरणेन "पदाद्यग्विभक्त्यैक० " | २|१|२१| इत्यनेनैव वस्तसादोनां विकल्पस्य सिद्धत्वात् । जना ! युष्मान्पातु धर्मः इलादावामन्त्र्यस्यासत्त्वाद्वस्नसादयो न भवन्ति । युष्माकमित्यादि मुनिपुङ्गवा इति परस्य पदस्याद्वत्त्वे नियतपरिमाणमात्राक्षर पिण्डलक्षणपादस्याभावात् पादादित्वाभावात् "पादाद्यो: " | २|१|२८| इति पादादिलक्षणप्रतिषेधाभावाद जायेतेति - 'मुनिपुङ्गवा इति- 'सिहाद्यैः पूजायाम्' | ३|१|८९ | इति समासः । ननु चैत्र ! धर्मो वो थो रक्षतु, चैत्र ! धर्मो नोथो रक्षतु इत्यादी प्रत्यासत्तं व्यवहितस्य।सत्त्वादामन्त्र्यशब्दस्याव्यवहितपूर्वत्वाभावादसत्त्वाभावात् 'सपूर्वात्त्र०' | २|१|३२| इति विकल्प सङ्ग इति चेन्न मथुराया: पूर्व पाटलिपुत्रमित्यादो व्यवहितेपि पूर्वं शब्दस्य वृत्तेः व्यवहितस्यापि चैत्रशब्दस्याविद्यमानवद्भावात् चैत्र ! धर्मो वोथो रक्षतु, चैत्र! धर्मो नोथो रक्षतु" इत्यादी "सपूर्वात्प्रथ." | २|१|३२| इति विकल्प न भवति । अयं भावः यद्यत्यवहितस्यैव पूर्वस्यासद्वद्भावोऽभिप्रेत स्यात्तदा पूर्वग्रहणमकृत्वा "असदिवा मन्त्र्याद्" इत्येव क्रियेत, पूर्वस्यासद्वद्भावे वस्नस द्यभावः हेतु स तु इत्यमपि कृते सिध्यति एवमेतदानुगुण्येन उत्तरसूत्रमपि 'जस्विशेष्याद्' इत्येव क्रियेतेति ॥ २५ ॥ जस्विशेष्यं वामध्ये १२|१|२६| Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६) · युष्मदस्मद्भयां पूर्व जसन्तमामन्यार्थ विशेष्यवाच्यामध्ये पदे sर्थात् तदिवशेषणे परेऽसदिव वा स्यात् । जिनाः शरण्या युष्मान् शरणं प्रपद्य े । जिनाः शरण्या वः शरणं प्रपद्ये । जिना शरण्या अस्मात् रक्षत । जिनाः शरण्या नो रक्षत । जसिति किम् । साधो सुविहित वोथो शरणं प्रपद्ये । साथै सुविहित नोथो रक्ष । विशेव्यमिति किम् । शरण्याः साधवो युष्मान् शरणम् प्रपद्ये । आम इति किम् । आचार्या युष्मान् श ण्याः शरणं प्रपद्य े । अर्थात् तद्विशेषणभूत इति किम् । आचार्या उपाध्याया युष्मान् शरणं प्रपद्ये ।२६। तच्छायोगात् समुदायोपि तद् इत्यादि कृत्वा कर्मधारयकरणाद् 'नैकशेषः तच्चातच्च तस्तदो द्वन्द्वे 'न सर्वादिः | १|४ | १२ | इति निषेधात् 'आ द्व ेर:' । ।२।१।४१ । इत्यस्याप्रवृत्तिः । तदतद्विषयं विशेष्य तस्य व्यवच्छेदकं विशेषणम् यथा नीलमुत्पल नीलं रक्त व ते विषयेऽस्य तदत द्विषयमुल तद्विषयं तस्य व्यवच्छेदकं भेदान्तराद् बुद्ध व्यविर्तकं नीलमिति विशेषणम् । विशेष्यस्य विशेषणाकाङि क्षणः एकवाक्योपासत्वेन सामर्थ्यात् सन्निहितत्वात् 'विशेष्यत्वनिमित्तमेव 'आमन्त्र्य' इति विशेषणं विज्ञायतें इत्याह तद्विशेषण इति । पूर्वेण व्यवः तस्याप्यसद्वद् भावात् पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्प: । जिना इति व्यावर्त्य विशेष्यम्. शरण्या इति व्यावतकत्वेन विशेषणम् तदित्थम् रागादिजयज्जिना रागादिजयश्च क्षयोपशमभेदादद्विधा तत्रोपशमनरूपे जये कदाचित्पुनप्रादुभावात्कदाचिद्श रण्यत्वमपि शरण्यम् इति व्यवर्तकम् साधो ! सुविहित ! वो थो इत्यादि अत्र 'अस दिवामन्तयं ० ' २|१|२५| इति द्वयरपिपदयो २ सद्वत्त्वे प्राप्ने 'नान्यत्' | २|१|२७| इति साधो' इत्यस्यासद्वत्वनिषेधात् 'नित्यमन्वादेशे' २।१।३१ | इति नित्यं वस्तसो । शरण्या इत्यादि : - अत्र द्वयोरपि पदयोः 'असदिवा०' | २|१|२५| इति सूत्र ेणासद्वद्भावः । आचार्या युष्मानित्यादि - अत्रामन्त्रयविशेषणस्य व्यवहितत्वात्परत्वाभावादसवद्भाव विकल्पो न भवति । आचार्या उपाध्याया इत्यादि - भिन्ना - Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७) धिकरणयोः पदयोन पूर्व विशेष्यम-परं विशेषणमित्यसद्वद्भाव वकल्पो न भवति ॥२६॥ नान्यत् ।२।१।२७। युष्मदस्मद्भयाम् पूर्व जसन्तादन्यदामन्त्र्यं विशेष्यमामध्ये तद्विशेषणे परेऽसदिव न स्यात् । साधो सुविहित त्वा शरणम् प्रपद्ये । साधो सुविहित मा रक्ष ।२७। जस् विशेष्यमित्यस्य प्रधानतया अन्यदिति सम्बध्यत इत्याह - जसन्तादन्यदिति । साधो सुविहित्यादि . अत्र सूविहित ! इत्यस्य 'असदिवामय।२।।२५॥ इत्यस स्वतापि 'सधो' इत्यस्मा सद्वत्वनिषेधात्तदाश्रितो त्वामादेशौ । ननु आमन्त्र्य पदं अभिमुखीभवेति क्रियान्तरमध्याहार्य वाक्यान्तरत्वादेवादेशाभाव सिद्धः किमनेनेति चेत्सत्यं अत एवाऽऽरम्भाद् वाक्य भेदो नाश्रीयते तेन साधो ! सुविहितेत्यादावेकवाक्यत्वादादेशा: सिद्धाः ॥२७॥ पादाद्योः ॥२१॥२८॥ नियतपरिमाणमात्राक्षरपिण्डः पादः । पदात् परयोः पादस्यादिस्थयो यमदस्मदो-नस्नसादिन स्यात् । वीरो विश्वेश्वरो देवो युष्माकं कुलदेवता ।। स एवनाथो भगवानस्माकं पापनाशनः ॥१॥ पादाद्योरिति किम् । पान्तु वो देशनाकाले, जैनेन्द्रा दशनांशवः । भवकूपपतज्जन्तु-जातोद्धरणरज्जवः ॥२॥॥२८॥ मात्राश्च अक्षराणि च मात्राक्षराणि नियतपरिमाणानि च तानि मात्राक्षराण नियतपरिमाणमात्राक्षराणि । पादाद्योरिति द्विवचनं युष्मदस्मदोरभिसम्बन्धार्थम्, 'पादादौ' इति ह्य च्यमाने आमन्त्र्याभिसम्बन्धः " स्यात् तदा . Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८० जिनेश त्वां नमस्कृत्य, यन्नरो मुनिमिच्छति । अतो नरसुराधीश तुन्यस्तोत्र त्वमर्हसि ॥ इत्यत्रामन्त्र्यस्य: सत्त्वात्त्वादेश: स्यादिति द्विवचनोपादानम् । पापनाशन इति पापं नाशयत ति 'रम्यादिभ्यः कर्तरि' ।।३।१२६। इत्यनटप्रत्यय देशनाकाल इति-देशन देशम्त करोतात 'णिज्बहुलं' ।।४।४। इति णिच् देश्यत इति देशना 'णिवेत्त्यास०' ।।३।१११। इत्यनप्रत्ययः । जिनेन्द्राणामिमे. जैनेन्द्रा: 'तस्येदम्' ।६३।१६०। इत्यप्रत्ययः । देशनाकाले-उपदेशसमये भवः संसार: स एव कूपः तत्र पतत् यत् जन्तु जातम् - जन्तुनिचयः तस्य उद्धरणे रज्जव: रज्जुसन्निभा: जैनेन्द्रा जिनेन्द्राणामिमे दशनाशव: दन्तकिरणाः वः युष्मान् पान्तु रक्षन्तु इ त श्लोकार्थः ॥२८॥ चाहहवैवयोगे ,२।१।२९। । एमियों गे पदात् परयोयुष्मदस्मदोर्वस्नसादिर्न स्यात् । ज्ञानं युष्मांश्च रक्षतु । एवं अहहवाएवर युदाहार्यम् । योग इति किम् । ज्ञानञ्च शोलञ्च ते स्वम् ।२९। ज्ञानञ्चेत्यादि - अत्र चेन ज्ञानशोलयो-योग: न तु युष्मदस्मदोरिति युष्मदस्मदोर्योगाभावादत्र न प्रतिषेधः । ननु 'गोणात् समया०' १२१२१३२॥ इत्यादिवत् 'चाहहवेवः' इत्येव सिद्ध योगग्रहमति घेत्सत्यं योगग्रहणं साक्षाद्योपप्रतिपत्त्यर्थं तेनार्थात्प्रकरणाद्वा चादिषु गम्यमानेषु न भवति । अहंशब्दोऽथार्थे । हशब्दो वाक्यालङ्कारे स्पष्टार्थे है इत्यर्थे वा ज्ञातव्यः 'वा एव' इत्येतो तु स्पष्टावेव ॥२९॥ -- दृश्यथै श्चिम्तायाम् ।२।११३०॥ दृशिना समानामैं श्चिन्तार्धातुभियों गे युष्मदस्मदोर्वस्नसादिनस्यात् । जनी युष्मान् सन्दृश्यागतः । जनोऽस्मान् सन्दृश्यागतः । जनो युवा समीक्ष्यागतः । जन आवां समीक्ष्यागतः । जनस्त्वाम Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५९) पेक्षते । जनो मामरेक्षते । सर्वत्र मनसा चिन्तनं दृश्यर्थानामर्थः । दृश्यर्थे रिति किम् । जनो वो मन्यते । चिन्तायामिति किम् । जनो वः पश्यति ॥३०॥ दृशिना समानार्था: दृश्यर्थाः । अयं भावः अत्र 'इकिस्तिव स्व. रुपार्थे ' ।५।३।१३८। इति सूत्रण स्वरूपेऽथे वा कि: यन स्वरुपे तदा दृशेरर्थो दर्शनमालोचनं येषान्तै: व्यधिकरणबहुव्रीहिप्रसङ्गग्य प्रायेणानिष्टत्वाद्, यदाथै किस्तदा दृशिरों येषान्तेः । जनो युष्मानित्यादि-सर्ववावये सन्हश्येत्यादौ मनोवृत्तिरुपा चिन्ता दृश्यर्थः इत्यादेशप्रतिषेधः । आगत इतिआगच्छति स्मेति । 'गत्यार्थक०' ।।१।११। इति क्तप्रत्ययः, यभिरमि०' ।४।२।०५। इय॑न्त्यस्य लुक् । जनो वो मन्यत इति • नायं दृश्यथुः, श्यों नाम चक्षुःसाधने विज्ञाने वर्ततेतो न निषेध इति । जनो वः पश्यतीति - चक्षषा पश्यताति - अयं भाव: - चिन्तायामिति विषयसप्तमीयम् विषयार्थश्चानन्यत्र भाव: अतश्चक्षषा यत्र दर्शनं तत्र निषधाभाव दादेश इति ॥३०॥ - नित्यमन्वादेशे १२१३१॥ किञ्चिद्विधातुं कथितस्य पुनरन्यद्विधातु कथनमन्वादेशः । तस्मिन् विषये पदात् परयोयुष्मदस्मदोर्वस्नसादिनित्यं स्यात् । यूयं विनीतास्तद्वो गुरवो मानयन्ति । वयं विनीतास्तन्नो गुरवो मानयन्ति । धनवांस्त्वमथो त्वा लोको मानयति । धनवानहमथोमा लोको मानयति ॥३१॥ ननु निषेधाधिकारे कथमिदं विधानसूत्रमिति चेत्सत्यं नित्यनिषे. धाधिकारे यन्नित्यग्रहणं तदेव वोधयति इदं विधानसूत्रमिति । न च नित्यग्रहणाभावे ‘पदाद्युग्वि०' ।२।१।२१। सूत्रे कथं विकल्प इति वाच्यं तम तव 'नवा इति कुर्यादिति । किञ्चिदित्यादि - पुन: शब्दोपादानात्तस्यैव यदि भवेत्तदैवान्वादेशः अन्यस्य कथने तु पुनश्शब्दार्थो न घटत इति तेन यद्यन्यस्य कथनं तदा नान्वादेशः तेन जिनदत्तमध्यापय एवं च गुरुदत्तमित्यत्र तस्यैव Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) जिनदत्तस्य पुन: कथनाभा वादन्वादेशाभावात् 'त्यदामेतदे०' ।।१।१३३। इत्येनद देशो न भवति । अनु पश्चात्कथनम वादेश: कथितानुकथनमित यावत् । यूगं विनीता इति – अन्वादेशदर्शनार्थ वाक्यमिदं दर्शित न तूत्तरपदसम्बद्धमिदश् तेन तद्' इत्यस्य सपूर्वपरत्वाभावादुत्तरेण न विकल्पः । तदित्यय तस्मादित्यथें ॥३१॥ सपूर्वात् प्रथमान्ताव्दा ।२।१॥३२॥ विद्यमानपूर्वपदात् प्रथमान्तात् पदात् परयोयुष्मदस्मदोरन्वादेशे वस्नसादिर्वा स्यात् । यूयं विनीतास्तद्गुरवो वो मानयन्ति । तद . गुरवो युभमान मानयन्ति । वयं विनीतास्तद गुरवो नो मानयन्ति । तद्गुरवो-ऽस्मान् मानयन्ति । युवां सुशोलौ तज्ज्ञानं युवाभ्यां 'दीयते । आवां सुशीली तज्ज्ञानं नौ दीयते तज्ज्ञान-मावाभ्यां दीयते ॥३२॥ पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पार्थमिदम् । सह पूर्वेण वर्तते स सपूर्वः । तस्मात्सपूर्वात् 'सहस्तेन' ।३।१।२४। इति समासः, यद्वा सहशब्दो विद्यमानवचन:०, पूर्वशब्दो व्यवस्थार्थः सह विद्यमान पूर्व यस्मात् सःसपूर्वः तस्मात् 'एकार्थं च नेकं च ।३।१।२२। इति समासः 'सहस्य सोऽन्यार्थे ।३।२।१४३। इति सभावः । प्रथमान्तादेति - 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ।४।११५। इत्यन्तस्य लाभेप्यन्तग्रहणं न्यायानुवादकम् । गम्येऽप्यन्वादेशे भवति यथा ग्रामे कम्बलो वः स्वमथो, ग्रामे कम्बलो युष्माकं स्वमथो इत्यादि इत्यत्र 'यूयं धनवन्तः' इत्यादि साक्षात्पदोपादानाभावः केवलम् 'अथो' इति द्योतकमात्रोपादानमेवेत्यत्र गम्य एवान्वादेशः ॥३२॥ त्यदामेनदेतदो दितीयाटौस्यवृच्यन्ते ।२।१॥३३॥ त्यवादीनामेतदो द्वितीयायां टायामोसि च परेऽन्वादेशे एनद् Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (१६१) स्यात् । ननु वृत्त्यन्ते । उद्दिष्टमेतदध्ययनमयो एनदनुजानीत । एतकं साधुमावश्यकमध्यापय अथो एनमेव सूत्राणि । अत्र साकः । एतेन रात्रिरीता अथो एनेनाहरप्यधीतम् । एतयोः शोभनं शोलमयो एनयोर्महतो कोत्तिः । त्यदामिति किम् । संज्ञायामेतदं संगृहाण अथो एतदमध्यापय । अवृत्त्यन्त इति किम् । अथो परमैतम् पश्य ॥३३॥ त्यच्च त्यदश्चेति त्यदः 'त्यद दि. १३६१३१२०1 इत्येकोषः, 'आदरः' १२।११४१॥ इति तु · सूत्रत्वान्न भवति शब्द र्थ योर्भेदविवक्षायां निरर्थकत्वेन त्यद द्रित्वाभावाद्वा । द निति बहवचनेन त्यदादीना ग्रहण ज्ञायते । साक . इति - अत्रावसहितस्यैतद एमदादेश इत्यर्थः । एतेन रात्रिरधीतेति - अविचक्षितकर्मण इङ क अध्ययने ११०४ इङ धातोः रात्रि-लक्षणस्याधारस्य 'कालाध्व०' १२।।२३। इत कालस्य कर्मो क्तप्रत्यये कर्मण उक्तत्वाद्राविश'ब्द प्रथमा। अथवोपचाराद्रात्रिसहचरितमध्ययनमपि रात्रिशब्देनोच्यतेऽत साऽधीतेति ॥३३॥ इदमः ।२।११३४॥ त्यदादेरिदमो द्वितीयाटोसि परेऽन्वादेश एनद् स्यात् । अवृत्त्यन्ते । उदिष्टमिदमध्ययनमथो एनदनुजानीत । अनेन रात्रि रधोता अथो एनेनाहरप्यधीतम् । अनयोः शोभनं शीलं अथो एनयोमहती कीतिः ॥३४॥ 'टौस्यनः ।२।१।३७। इत 'दो मः' ।२।१।३९॥ इति च प्राप्तेऽयमपवादः । योगविभाग उत्तरार्थः अन्यथा त्वदामेत दिदमीः द्वितीयाटौस्यवृत्त्यन्ते' इत्येकयोगे क्रियमाणे उभयोरप्युत्तरत्रानुवृत्तिस्स्यात् । अत्रापि स कआदेशो भवति ॥३४॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) अव्यजने |२||३५| त्वदादेरिदो व्यञ्जनादौ स्यादौ परेऽन्वादेशे अः स्यात् । अवृत्स्यन्ते । इमकाभ्यां शैक्षकाभ्यां रात्रिरधीता । अथो आध्याम - हरत्यधीतम् । इमकेषु अथो एषु । अनगिति वक्ष्यमाणादिह साको-प विधिः ॥ ३५ ॥ तकार उच्चारणार्थोऽन्यया 'सो रु' | २|१|७२ | 'अतं ति०' ||३|०| इत्यदि वृते 'ओ' इत्यनिष्ट रूपं स्यात् । इदमिति कार्यो निमित्त कार्यमिति निदेशक्रमे प्राप्ते कार्यस्य पूर्वमुपादानात् यद्वातरसूत्र 'अनक' |२|| ३६ | इति प्रथमान्त विशेषणोपादाणाद्वा । इदमः इति षष्ठयन्नमपि सर्वादेशार्थं प्रथमान्तयेह विपरिणम्यते । अन्वादेशे सौ अयमाद्या देश: सावकाशः विभक्तयन्तरे त्वन्वादेशेऽदादेश: सावकाश: अन्वादेशे सौ तु परत्वादयमाद्या देश: अयोऽयं शीलवान् । शैक्षकाभ्यामिति शिक्षि विद्य पदाने शिक्ष. ते इति 'णकतृचौ ' ५।१।४८ । इति णकः ततः स्वार्थे 'प्रज्ञादिभ्यो' ॥७।२।१२५॥ इत्यण् यद्वा-शिक्षणं शिक्षा 'क्त'टो गुरोव्यञ्जनात्' ५।३ । १०६ । इत्यप्रत्ययः ततः शिक्षा वित्तोऽधीयाते वा पदक्रम शिक्षा ० ' | ६ |२| १२६ | इत्यकः ततः शिक्षकावेव शैक्षको प्रज्ञादित्वात्स्वार्थे ण् ' यद्वा - शिक्षायां भवी 'शिक्षादेश्चाण्' |६|३ | १४८ । इत्यण् तत्तो 'यावादिभ्यः कः ७|३|१५| इति स्वार्थे कः ||३५|| अनक |२|१|३६| स्यदादेव्यंजनादौ स्याटौ परेऽश्वजं इदम् अः स्यात् । आभ्याम् । आभिः । एषु । आसु । अनगिति किम् । इमकाभ्याम् । त्ययामित्येव । अती भ्याम् (३६ ॥ पृथग्योग रम्भाद् 'अन्वादेशे' इति निवृत्तमन्यथा साकोऽनकोऽप्यन्वादेशे पूर्व सूत्र णैवादेशस्य सिद्धत्वात्सूत्रारम्भवैयथ्यं स्यात् । अन्वादेशनि Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६३) 'वृत्तो तत्सम्बद्ध 'अवृत्त्यन्त' इत्यपि निवृत्तम् । तन्मध्यपतित तद्ग्रहणेन गृह्यत इति न्यायेन साकोपि प्राप्तिरतः प्रतिषेधः । अभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः । आभ्यामिति 'पुल्लिङ्ग अत: आ:०' ।१।४।१॥ इति स्त्रीलिङ्ग 'आत्' ।२।४।१८। इत्याप् - आभिरिति 'आत् ।२।४।१८। इत्याप् । एष्विति - 'एबहु' ।४।४। इत्येकार:। आस्विति • 'आत्' ।।४।१८ इत्याप् । त्यदादिसम्बन्धिविज्ञानात् अतिदंभ्यामित्यत्र न भवत्येवमुत्तरसूत्र ष्वपि । इ. तु भवति पराभ्याम्, परमैभि: परमभ्यः इत्यत्र पूर्व पूर्वोत्तरपदय': कार्य कार्य पश्चात्सन्धिकार्यम्' इत न्यायेन पूर्वमुत्तरपदस्य क य कृते पश्चात्सन्धिकार्य कृतमन्यथा स्पद्य त्यत्तिसापेक्षत्वेन बहिरङ्गत्वात्सरादप्यदादेशासूर्वमेवान्तरङ्गत्व त् 'अवर्णस्ये०' ।।२।२६॥ इत्येकारः स्यात् । पश्चादिदंरूपाभावादादेशाभावः स्यादिति । किञ्च 'उभयस्थाननिष्पन्नऽन्यतरव्यपदेशभाक' इति न्याया दुभयस्थाननिष्पन्नस्यकारस्य यद दंशब्दसम्बन्धिता तदा परमैभिः' इत्यत्र पूर्वस्य व्यञ्जनान्ततायाम् 'एकदेशविकृत०' इति . त्यायाद्यदादेश: स्यात्तदा परम + अ+ भिस् एबहुस्भासि' ।।४।४। इत्येकारे परमेभिरित्याद्यनिष्टं स्यादिति । यदेकारस्य परमशब्दसम्वन्धिता तदा दम्भावस्यादा-देशे परमयेभिरित्याद्यनिष्ट स्यादिति । अयं न्याय: 'आतो नेन्द्रवरुणस्य' ।७।४।२९। इत्यत्र ज्ञापयिष्यते ॥३६॥ दौस्यनः ।२।१।३७ त्यदांटायामोसि च परेऽनक इदमोऽनः स्यात् । अनेन । अनया । अनयोः २ । त्यवामित्येव । प्रियेदमा। अनक इत्येव । इमकेन १३७ अनेनेति - 'टाङसोरिन०' ।४।५। इतना - देशः । अनयेति - 'टोस्येत्' ।१।४।१९। इत्येत्वम् । अनयोरित्यादि - 'एबहुस्भोसि ॥११४।४। इति । स्त्रियां त्वनादेशादापि 'टौस्येत् । १।४।१९। इति ॥३७॥ अयमियम पुस्त्रियोः सौ ।।१३८ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) त्यदां सौ परे इनः पुंसियोर्यथासंख्यमयमियमौ स्याताम् । अयं मा। इयं स्त्रो । त्यदामित्येन्झ । अतीद ना स्त्री वा ।३८॥ अयमियमिति- लुप्तप्रथा द्ववचनान्तमपदम् । अनेकव र्णत्वात्सर्वस्याटेशः "आ व २:" ।।१।४१॥ इति मस्यात्त्व तु विधानसामर्थ्यान्न भवति । 'दर्घङ याब" ।२।४।४५। इति सिलोपः । स्त्रियोरिति- ननु नपुंसके तु नित्यत्वात्प्रथम सेलु पि स्थानिवद्भावनिषेधादिदमित्यस्यैव भवनात्पु स्त्रियोरेवादेशो भविष्यत ति किमर्थं पुस्त्रियं रिति कथनेनेति चेत्सत्यम् । पुस्त्रि. यो ति कथनाभ वेऽनयमेन द्वय रपि लिङ्गयो योरप्यादेशभवनात्पुसि इयम् स्त्रियामयनिति भवन दनिष्टापत्तिस्यादिति । "अपेक्षातोऽधिकार:" '१२' इति न्यायेन 'अनक" इत्यस्थात्र सम्बन्धाभ वाद साकोप्यादेशः । केषा. ञ्चिन्मते अकारान्त आदेश:, से: स्थाने म् । अन्ये तु उभयोनित्यत्वात्परत्वाभाबादपवादत्व दयमिति चादेशे कृते पश्चादकि सेरभावात्पुनरादेशाभावे अय- : कमियकमितिच्छन्ति ॥३८॥ . दो मा स्यादौ ।२।१।३९। त्यदा स्या परे इद मो दो मः स्यात् । इमो। परमेमो। इमकाभ्याम । त्यदामित्येव प्रियेदमौ ॥३९॥ ___ स्याद्यधिकारेण स्थादिग्रहणेन स्यादिरेवानुवर्तते न किञ्चित्तद्विशेषामित्याह- स्यादौ पर इति ॥३९॥ किमः कस्तसादौच ।२।१।४।० त्यहाँ स्यादौ तसादी व प्रत्यये परे किसः कः स्यात् । कः । साकोगि । कः । कदा । कहि । तसादी चेति किम् । किं पश्य, किन्तराम् । त्यद्वामित्येव । प्रियकिमौ ॥४०॥ न चेदं सूत्रमनार्थम् उत्तरसूत्र “आदरः तसादौ चेसश्च". इति Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५) 4 क्रियमाणे सर्व सेत्स्यतीति वाच्यं तथा सति साकस्यानिष्टं रूपं स्यात् ककः art इष्यते तु साकोप्यनेन देशे कः काविति । ननु " तसादों" इति किमर्थं तस तु इततः कुतः " 1७ २९० इति निपातन वक्ष्यत इति चेत्सत्यमुत्तगमिदम् अथवा थमन्तार्थं तसादिग्रहणमन्यथा निरवधिक स्वात् । कदेत्यादिकस्मिन् काले इति कदा | अहियत्तत्सवै ० ७ २९५॥ इति दाप्रत्ययः कस्ि मन्नद्यतने काल इति "अनद्यतने हिः" | ७|२|१०१। हिप्रत्ययश्च । तपादी चेत्यत्र चकारः समुच्चयार्थोऽत " द्वरः " |२||४११ इत्यत्र स्यादावित्यस्यानुवृत्तिरन्यथा चानुकृष्टत्वात् ' चानुकृष्टं नानुत्रतते" इति न्यायादुत्तरश्राननुवृतिः स्वादिति । तसादावित्यत्रादिशब्दस्य व्यवस्थावाचित्वात् थवमसाना एव तसादयो ग्राह्यास्तेन कितरामित्यादी तदुत्तरेषु न भवति । कोऽनयोः प्रकृष्टः किंतर: " द्वयं विज्ये च तरप् ॥७३।६। इतितरपि 'कि याद्येव्ययाद” |७|३।८। इत्यामि च कितरामिति सिद्धम्: 118011 आवेरः । २।१।४१। द्विशब्दमभिव्याप्यत्यदां स्यादौ तसादौ च परे अः स्यात् । स्यः । त्यौ । द्वौ । ततः । त्यदामित्येव । अतितदो ॥४१॥ ! ढो "आङावधौ |२| २|७०१ इत्यवधी पञ्चमी अवधिश्चाभिव्याप्तिरत आह् द्विशब्दम भव्याप्य इति । स्य इति - अनेनान्त्यस्याकारः "लुगस्यादेत्यपदे० " | २|१|११३ । इति पूर्वस्थ लुक् "तः सौ सः" | २|१|४२॥ इति तस्य सत्वम् । द्वाविच्छति "अमाव्ययात्त्रयन्" | ३|४| २४| इति क्वनि विपि क्विप: 'लोपे त्यदादिसम्बन्धिस्याद्यभावात् द्वीरित्येव भवति न त्वनेने कारस्थात्वम् । एकः इत्यत्रान्त्यस्याकार करणे न किञ्चित्फल तथापि "पर्जन्यवल्लक्षण प्रवृत्तिः " १३४ इति न्यायेनात्वस्याप्यत्वं भवति ॥४१॥ तः सौ सः | २|१|४२ ० आस्त्यां सौ परे तः सः स्यात् । स्यः । स्या । सः । सा । एषा त्यवामित्येव । प्रियत्यत् १४२ | Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणमिति न्यायेन प्राप्तावपि 'भवी' इत्यत्र तस्य सत्वं 'आ द्वः' इति वचनान्न भवति । नपुंसके तु सेरभावात्पुल्लिङ्ग तु से: स्थानित्वेन सत्वे कृतेऽपि "पदस्य" ।२।१३८९। इति सलोपे विशेषाभावः ॥४२॥ अदसो दः सेस्तु डौ।२।१४३॥ । त्यदा सौ परे अबसो दः सः स्यात् । सेस्तु औ। असो । असको । हे असौ । हे असको । त्यवामित्येव । अत्यदाः ॥४३॥ असविति-प्रत्रियालाघवार्थं "आवर." ॥२१॥४१॥ इति न प्रवर्तते किन्तु 'डित्यन्त्यस्वगः'।२।१।११४। इत्येव प्रवर्तते । हे असो, हे असको इति "अदेन: स्यमोलुक्" ॥१॥४॥४४॥ इत्यत्र स्यादेशत्वेनैवामोऽपि लोपे सिद्ध यदम्ग्रहणं तदन्यस्य स्यादेशस्याग्रहणार्थत्वात्तेनात्र "तदादेशास्तद्वद्भवन्ति' इति न्यायेन सेः स्थानित्वेपि "डौ" इत्यस्य लोपो न भवति । डित्करणमन्त्यस्वरादिलोपार्थम् वेन "औता" ।।४।२०। “एदाप:" ॥१॥४॥४२॥ दीर्घड्याडध्यञ्जनात्से:' ।१।४।४५। "अस्यायत्तत्क्षिपका." ।।४।१११॥ इति कार्याणि न भवन्ति अन्यथा सेस्त्वोरिति क्रियेत । एतानि कार्याणि स्त्रियां प्राप्नुवन्ति । अयं भाव:-अदसशब्दात्सावनेन औकारे "आ देरः" ॥२॥१॥४१॥ इत्यत्त्वे "आ. द”।२।४।१८। इत्यापि औव्यपदेशे "औता" ।१।४।२०। इति सिव्यपदेशे तु आमन्ध्ये "एदापः" ॥१४॥४२॥ इति अनामध्ये 'दीपंड्य ब० ॥१४॥४५॥ इति अकि तु "अस्यायत्तत्क्षि."|४|११॥ इति प्राप्नुवन्ति । अत्यवा इति "अम्बा." ११४९०। इति दीर्घः ॥४३॥ असुको वाकि ।।१।४४॥ त्यदां सौ परे अरसोऽकि सत्यसको वा स्यात् । असुकः । असको.। हे असुक । हे असको ४४॥ अनेन दस्य सः सात्परस्याकारस्योकार: सेस्तु डौत्वाभावी वा निपा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६७) त्यन्ते । असुकः इति- परत्वान्नित्यत्व च्च "अम्बादे०" ।१।४।९०। इति बाधित्वा 'आ द्वरः" ।२।१।४२। “लुगस्या०" ।२।११११३। इत्यल्लोप: “सो रुः" ।।११७२। इति सस्य रुः । हे असुक । इत्यत्र "अदेतः स्यमोलुंक्" ।१।४। ४४। इति सिलुक् ॥४४॥ मोऽवर्णस्य ।२।१॥४५॥ अवर्णान्तस्य त्यवामदसो दो मः स्यात् । अमू नरौ स्त्रियो कुले वा अमी । अमूदृशः ( अवर्णस्येति किम् । अदः कुलम् ॥४५॥ "अवर्णस्य" इत्यदसो विशेषणं तेन तदन्तविधिः । अमू नराविति अदस्+औ 'आ द्वरः" ।२।११४१। “लुगस्यादेत्यददे" ।२।१।११३। 'मोवर्णस्य' १२।१॥४५॥ "ऐदोत्सन्ध्यक्षरै"।१२।१२। "मादुवर्णोनु" ।२।१।४७। आसन्नरवाददिव मात्रिकस्योकारस्य द्विमात्रिक ऊकारः। एव स्त्रियामपि नसके त "औरीः" ॥१॥४०५६। “अवर्णस्य०" ।१।२।६। शेष पूर्ववत् । अमीत्यत्र-त्यदाद्यत्वम् मत्त्वम् ‘जस इ.' ।।४।९। इतीत्त्वम् “अवर्णस्ये." ।१२।६। इत्येत्त्वम् 'बहुष्वेरी:'।२।११४९इतीत्वं च । अमूदृश इति असाविव दृश्यत इति त्यदाद्यन्यसमाना०" ५।१२१५२॥ इति टक् स्याद्यमावात्त्यदाद्यत्वाभावे "अन्यत्यदादेराः ।३।२।१५२ इत्याकार: पश्चादवर्णान्तत्वान्मकारादेशः । अदः कुलमिति"अनतो लुप्" ।१।४।५९। इति सेलुपि स्थानिवद्भावनिषेधात् व्यद द्यत्त्वाभावेऽवर्णान्तत्वाभावान्मकारादेशो न भवति । नच अद: कुलमिच्छतीत्य स्मन्वाक्ये अदस्शब्दात् नपुसकादमो लुपि “सो रु:” ।२।१।७२। इति रुत्त्वे "रोर्यः" ।१।३।२६। इति यत्त्वे "स्वरे वा" ॥१॥३॥२४॥ इति यलोपेऽवर्णान्तत्वान्मत्व स्यादिति वाच्यं पदान्तरापेक्षत्वेन बहिरङ्गस्य यलोपस्य तदनपेक्षत्वे. नान्तरङ्गे मवविधौ कर्तव्ये "असिद्ध बहिरङ्गः" इति लोपस्यासिद्धत्वान्मत्वाभावः ॥४५॥ वाद्रौ ।।१४६॥ अवसोऽद्रावन्ते सति बोर्वा स्यात् । अदमुयङ, अमुद्रघा अमुमुया, Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदद्रङ १४६ | : द्रावित 'सर्वादि विष्वग्देवा०' | ३|१|१२२ । इति उद्यन्तस्यादस इकारान्तत्वादवर्णान्तत्व-भावादप्राप्ते ऽयमारम्भः । द्वावत्र दकारौअतोविकल्पे सति चतूरूप्यं भवति । चत्वारि रूपाण्येव भेषजादिभ्यः | ७|२| १६४| इति स्वार्थे य ण अथवा चतूर्णा रूपाणां भावः " पति राजान्त० " | ७|१|३०| इत्यनेन व्यणि वेदं सिद्धम् तदाह (१६८) परत: केचिदिच्छन्ति केचिदिच्छन्ति पूर्वतः । उभयोः केचिदिच्छन्ति केचिदिच्छन्ति नोभयोः ॥ , , अदमुयङि इत्यादि - 'समुदाये प्रवृत्ता शब्दा अवयवेपि वर्तन्ते इति मात्र शब्दोऽधमात्रायामपि । इनि अदमुयङि ङत्यादावर्धमात्रिकस्यापि रस्य स्थाने एकम त्रिक: उकारादेशः सिद्धः अत्र वा वाशब्दो व्यवस्थितविभाषार्थः न तु विकल्पार्थः । यदि विकल्पार्थः स्यात्तदा प्रथममेव प्रयोगद्वयं स्यात् तावतैन विकल्पस्य चरितार्थत्वात् । साधनिका स्वित्थम् अदोञ्चतीति क्विप् "सर्वा"दिविष्वग्देवाडद्रिः" ३।२।१२२ । इति उद्यागमः, अवोऽनर्थायाम् ॥४२॥ ४६। इति नलोप: ‘अत्र:' | १|४| ६९ | इति नागमः, पदस्येत्यन्तलोपः 'युज चक्रु०' | २|१|७१ | इति नः ङ, अनेन परस्य पूर्वस्य उभयोश्च क्रमणे मकारे चातुरूप्यमिदम् । आगमस्यावयवत्वात्तद्ग्रहणेन ग्रहणाददसोऽद्रश्च दो मो भवति । न च द: इत्येकवचनान्तत्वादेकस्यैव दस्य मकारः प्राप्नोतीति वाच्यं दत्वजात्याश्रयणात् ॥४६॥ मादुवर्णोऽनु |२||४७ अदसो मः परस्य वर्णस्य उवर्णः स्यात् । अनु पश्चात्कार्यान्तरेभ्यः अम् । अमू । अमुमुयङ । अन्विति किम् । अनुष्मं । अमुष्मिन् ॥४७॥ ननु पञ्चम्या निर्देशाद्' उवर्णः प्रत्ययः कथं न भवतीति चेत्सत्यं अदो - मुमी | १ |२| ३५इति सूत्रनिर्देशाद् वर्णमात्रस्य स्थानित्वं प्राप्तमिति आसन्नत्वाद् मात्रिकस्य स्थाने मात्रिकः, द्विमात्रस्य द्विमस्वः, त्रिमात्रस्य त्रिमात्र आदेशो भवति । प्लुतोदाहरणं तु अमू ३ इति प्रश्ने च प्रतिपदम् |७|४|९८ । इति प्लुतः । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६९) अमुम्,अमू इति- अदस्शब्दादम् औकारश्च 'आ द्वरः'।२।११४१' 'लुगस्यादे० १२।१।११३। 'मोवर्णस्य' ।।१।४। 'समानादमोऽतः ।।४।४६। 'ऐदोत्स०' ।।२।१२। 'मादुवर्णोऽनु' ।२।१।४७। कार्यस्य विधेयतया प्राधान्यात् अनुशब्दस्य पश्चादयस्य तद्विशेषण व तत्पजातीय कार्यान्तगपेक्षयव पश्चानित्याहअनु पश्चात्कार्यान्तरेभ्य इति । अनुना सह कार्यान्तरेभ्य: इत्यस्य पूर्व सम् बन्धः तस्य च पश्चादर्यत्वात् 'प्रभूत्यन्चार्यः' ।२।२।७५३. इसी दिग्योगलक्षणा पञ्चमी पश्चादिस्यनेन पूर्व सम्बन्धे तु रिरिष्टात्' ।।८२॥ इति षष्ठी स्यात्, पश्चादित्यखण्डमव्ययं वा । अमुष्मै इत्यादि अन्वित्यस्यानुपादाने परस्वा न्नित्यत्वाद्वा पूर्व मुकारादेशेऽदन्तत्वाभावात् स्मैस्मिन्लादेशो न स्यातामिति । नन्वत्र 'अन्वित्यनुपादाने 'प्रागिनात् ।२।१।४८। इत्युत्तरसूत्रम्य नियमार्थता स्यान्नियमश्चेमिनादेशादेव प्रागुवर्णोऽन्येन तु पश्चादेवेति किमन्वित्यस्योपादानेनेति चेत्सत्यमे-वमपि नियमः स्यात् इनादेश: प्रत्ययादेशोऽतो ऽन्यस्मास्त्रत्ययादेशात् पश्चादेवोवर्णः प्रकृत्यादेशात्तु पूर्व मेव भवेदिति अमुया अमुयो. रित्यादो पूर्वमेवोत्त्वे आबन्सत्व'वरहेण 'टौस्येत्' ।१।४।१९। इत्यस्याप्रवर्तन अमुया अमुयोरित्यादिर्न सिध्ये दिति। ननु 'अमुष्मै' इत्यत्र 'डिस्यदिति' ११।४।२३। इत्योत्त्वं कथं न भवतीति चेत्सत्यम् 'अदिति' इत्यत्र पर्युदासन तेन साक्षात्स्व रादिर्जनात् पर्युदासस्य सहग्ग्राहित्वात् साक्षात्स्वरादिप्रत्यये एवैकारोकाराविति, अब तु स्थानितेन स्वगदित्वात्साक्षात्स्वरादित्वाभावान भवति कश्चित् । तयाऽदितोति विषयसप्तम्यां दकारादेत्युत्पद्यते यस्तद्विषयवर्जनादत्र मकारः तदादेशत्वेन दकार एव । अत एवं 'देद स् इत्यत्र ऐदिति न कृतमिति ॥४७॥ .. .......... पागिनात् ।२।१।४८॥ अबसो मः परस्य वर्णस्येनादेशात् प्राक उवर्णः स्यात् । अमुना।" इनादिति किम् । अमुया ॥४८॥ . अन्वित्यस्यापवाद ऽयम् । इनादित्यत्र प्राशब्दस्य दिवशब्दत्वात् 'प्रभूत्यन्यार्थ' ७५॥ इति पञ्चमी। अदशब्दा टाप्रत्यये त्यदाद्यत्वे भवे उस्वे व 'ट: पुसि ना' 1१।४।२४। इति नादेशे नपुंसके तु 'अनाम्स्वरे' ।२।४४॥ इति नागमे च अमुनेति । व्यदायत्वे आपि अदन्तस्वाभावादिना Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७०) देशाभावात् 'टौस्येत्' ।१।४।१९। इत्येत्वे पश्चादुत्वेन च अमुयेति ॥४८॥ बहुष्वेरी ।२।१।४९॥ वह वर्थवृत्त दरसो मः परस्य एत ई: स्यात् । अमी । अमीषु । एरिति किम् । अमूः स्त्रियः । मादित्येव । अमुके ॥४९॥ सम्भवे व्यभिचारे०' ११४ इति न्यायाद् 'बहुषु' इत्यदसो विशेषणं न तु मादित्यस्येत्याह - बह वर्थवृत्तेरिति-अमीति - अदम् + जस्, त्यदाधत्त्वादि, 'जस इ:' ।१।४।९। 'अवर्णस्ये.' ।१।४।६। इत्येत्वमनेनेत्त्वम् । अमोष्विति - 'एद् बहुस्भोसि' ।१।४।४। इत्येत्त्वमनेनेत्वम् । अमूः स्त्रिय इति. अदश्शब्दाज्जसि त्यदाद्यत्वादौ 'अत: आ:०' ।१।४।१॥ इत्याकारे 'मादुवर्णोनु' २।१।४७। इत्याकारस्योकारे 'सो रू:' ।१।१।७२। इति रूत्त्वम् 'रः पदान्ते विसर्गस्तयो:' ।१।३।५३। इति विसर्गः । अमुक इति • अत्र 'तन्मध्यपतित. स्तद्ग्रहणेन.' इति न्यायेन ग्रहणे-प्युकारेण व्यवधानाद त्वं न भवति ॥४९॥ घातोरिवर्णोवर्णस्येयुत् रखरे प्रत्यये ।२।११५॥ धातोरिवर्णोवर्णयोः स्वरादौ प्रत्यये परे यथासंख्यमियुवा स्याताम् । नियो । लुवो । अधीयते । लुलुवुः । प्रत्यये इति किम् । न्यर्थः । स्वर्थः । नयनम् । नायकः । इत्यादौ परत्वाद् गुणवृद्धी ॥५०॥ युवर्णस्येति कर्तव्ये यदिव!वर्णस्येति कृतं तद् विचित्रा सूत्रकृतिः' इति दर्शनार्थम् । ननु 'प्रत्ययाप्रत्यययो: प्रत्ययस्यैव ग्रहणम्' इति न्यायेन प्रत्ययस्यैव भविष्यति किं 'प्रत्यये' इत्येनेनेति चेत् सत्यं 'न्यायाः स्थविर यष्टिप्रायाः' इति न्यायानां प्रवत्तिरअविश्वसनीया इति । नियो लुवा - विति 'विवबन्त.नां धातुत्वं नोज्झन्ति शब्दत्वं च प्रतिपद्यन्त' इति न्या. यादत्रापीयुवो भवतः । ननु क्विबन्तानां शब्दत्वस्य प्राधान्याद् धातुत्वस्य गौणत्वात् गौणमुख्य:०' २२ इतिन्यायेन मुख्यस्यैव धातोः इयुवौ प्राप्नुतः इति चेत्सत्यं 'स्यादौ: वः' ।२।११५७। इति सूत्रस्यैतदपवादत्वाद् गौणस्यापीयुवादेशी Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७१) भवतः । न्यर्थ इति - नियोऽर्थः" षष्ठीसमास: । नियो लुवा वित्यादावस्य विधे: सावकाशत्वात् करणं कारक इत्यादौ तु गुणवृद्धयोः सावकाशत्वात् नयन नायक इत्यादावुभयप्राप्तौ परत्वादगुणवद्धी । अघीयत इति अधिपू. त् ि 'इंङक अध्ययने' इति धात': वर्तमानाया अन्तेप्रत्यये 'अनतोऽन्त दास्मने' ।४।२।११४। इत्यद देशोनेनेयादेशश्च । स्त्र मिच्छतीति क्यनि विवपि यत्र क्विवन्तः स्त्रीशब्दस्तत्रानेनैवयादेशो भवति न तु 'स्त्रियाः ।२।११५४१, इत्यनेन तेन क्विबन्तस्य धातो: 'वाम्शास' ।२।११५५। इति विकल्पो बाध्यते नाम्नस्तु भवत्येव ।।५०॥ इणः ।२।१५१॥ इणो धातोः स्वरादी प्रत्यये परे इय् स्यात् । यापवादः । ईययुः । ईयुः ॥५१॥ . अत्र व्यभिचाराभावेपि 'धातो' इत्युत्तरार्थमनुवर्तते । 'योऽनेकस्वरस्य' ।२।२५६। इति विहितयत्त्वापवादः । यन्ति, यन्तु इत्यत्र तु 'हि.व. गोरप्विति व्यौ' ।४।३।१५॥ इति यत्वं परत्वाद्भवति • ननु द्वयोविध्योरन्यत्र सावकाशत्वाभावादिति चेन्न परत्वादित्यस्य विशेषविहितत्वेन प्रकृष्टत्वादित्यर्थः । ईयतुरिति-द्वित्वे कृते ' वात्प्राकृतं बलवत्' इति न्यायेन पूर्वमियादेशस्तदनन्तरं दीर्घः । अस्यापवादत्वादेतद्विषयकसर्वशास्त्रबाधे प्राप्ते 'पूर्वेपघादा अनन्तरान्विधीन्बाधन्ते नोत्तरान्' इति न्यायेन यत्त्वस्यैव बाधो भवति न तु गुणवृखयोस्तेन अयनम्, आयक इत्यादौ परत्वाद्गुणवृद्धी एव भवतः ॥५१॥ संयोगात् ।२।१५२॥ धातोरिवर्णोवर्णयोः संयोगात्परयोः स्वरादौ प्रत्यये परे इयुवी स्याताम् । यवक्रियो । कटप्र वो । शिश्रियुः ॥५२॥ ..धातुसम्बन्धिनः इवर्णस्योवर्णस्य च धातुसम्बन्धिन एव संयोगा Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२) स्परयोः स्वरादी प्रत्यये परे यथासङ्ख्यमियुवी स्यातामित्यर्थः । तेन उन्न्यो, उन्यः, सकृल्लवी सकृल्लव: इत्यत्र धातुसम्बन्धिसंयोगाभावादियुवो ने भवतः । एतावियुवी . 'किवृत्ते सुधिय०' ।२।११५८० 'योऽनेक स्वरस्य' २२१०२८। इति विहितयोः य्वौ रपव दाविति बोध्यम् । यवक्रियावित्यादि - यवान्क्रोणाते इति कटेन प्रवेत इति । दिद्य इज्ज०' ।५।२१८३॥ इति क्विपि । भ्रश्नोः ।२।१॥५३॥ प्रश्नोरुवर्णस्य संयोगात् परस्य स्वरादौ प्रत्यये परे उव् स्यात् । भ्रवौ । आप्नुवन्ति । संयोगादित्येव । चिन्वन्ति ५३॥ " संयोगात्परस्येति विशेषणं श्न नं तु भ्रशब्दस्याव्यभिचारात् । क्यन्क्विबन्तस्य तु धातुत्वात् 'धातोरिवर्णोवर्ण' ।२।११५०। इत्यादिनवोवादेशः । आप्नुवन्तीति • आप्लट् व्याप्तो 'स्वादेः' ।३।४।७०। इति श्नुप्रत्यय: ॥२३॥ स्त्रियाः ।।१५४॥ स्त्रिया इवर्णस्य स्वरादी प्रत्यये परे इयु स्यात् । स्त्रियो । अतिस्त्रियौ ॥५४॥ स्त्रिया इति - स्त्रियावित्यादि-स्त्यायतेः सूतेर्वा 'स्त्री' (उणा ४५०) इति निपातनाद् त्रट । स्त्रियामतिक्रास्ताविति 'गोश्चान्ते'१२।४।९६॥ इति हस्वत्वे एकदेशविकृतस्यानन्यत्वादत्रापि भवति 'इदुतोऽ - स्त्ररीदूत' ।१।४।२१। स्त्रंशब्दवर्जनात् परेणापयादेशनेत्कार्य न बाध्यते' इत्यस्य शापितत्वात् अतिस्त्रयः, अतिस्त्रिणा, अतिस्त्रये, अतिस्त्र: २, अतिस्त्री इत्य यादेशो न भवति । 'स्त्रियाम्' इत्यत्र 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य' इति न्यायात् नाम्न भवति । 'वेयुवी० ॥१४॥३०॥ इत्यत्र 'अस्त्रियाः' इति निर्देशात् परादपि इयुवयत्त्वादिकार्यात्प्रागेव स्त्रोदानितं कार्य भवतीत्यस्य शापितत्वात् स्त्रोणामित्यत्र तु प्रागेव नाम् । 'वेयुवो०' ।१।४।३०। इत्यत्र Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) 'अस्त्रियाः' इति निर्देशात् अथवा स्वरादिप्रत्ययेन प्रकृतेराक्षेपाद स्त्रिया: . इति तस्य विशेषणात्तदन्तविधिः । तर्हि शस्त्र शब्दस्यापि स्त्र्यन्तत्वादियादेशः प्राप्नोतीति न च वाच्यम् शस्त्रीशब्दघटकस्त्रीशब्दस्य त्वनर्थकत्वान्न भवति । पृथग्योगः उत्तरार्थः । अयं भवः उत्तरत्र स्त्रीशब्दस्यैव केवलस्यानुवृत्तिः स्यादित्येवमर्थः ॥ ५४ ॥ वाम्शसि । २1१1५५॥ ferer saर्णस्याशसो: परियोरिय् वा स्यात् । स्त्रियं स्त्रीम् । स्त्रियः स्त्रीः ॥५५॥ , - सोनु अत्र तुल्यायामपि संहितायां षष्ठीबहुवचनस्वेन नामविषयत्वेन स्वरादित्वाभावात् शसाहचर्याच्च द्वितीयैकवचनस्यैव ग्रहणम् स्त्रीशब्दस्य कार्थत्वाभावाद् 'सङ्घ येकार्थाद्वीप्सायां शस् ७ २ १५१ । इति तद्धिसङ्घयेकार्थत्वयां गादुत्पत्ती वा स्वरादित्वाभावात् द्वितीयाया शंस एवं ग्रहणम् । क्यन्नाद्यन्तस्य धातुरूपस्य भवति परन्तु 'धातोरिवर्णोः' | २|१|५०। इत्यनेनैवेयादेशः यतः स्त्रियाः । २।१।५४१ वारदातोरेज स्त्रीशब्दस्य ग्रहणं स एवानुवर्तते 'नहि गोधा सर्पती अर्पणादहिर्भवतीति 'अनुवर्तमानस्यान्यथास्वं न भवति ||१५|| योsनेकस्वरस्य | २|१|५६| अनेकस्वरस्य धातोरिवर्णस्य स्वरादो प्रत्यये परे यः स्यात् त्रिच्युः । निन्युः । पतिमिच्छति पतिय ॥५६॥ 'इवर्णस्वेति' 'आसन्न ||४|१२०/- इत परिभवस्येक य देशो भवतीत्याह इवर्णस्येति । विशेषातिदिष्टः प्रकृताधिकार न बाधते' इति न्यायाद् इय्बाधकमिदम् । न तु वातान्तः धातोरित्यनुवर्तते । पत्योति पर्त यतीति क्विपि पत: सप्तम्यां पतिय ॥ ५६ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७४) स्यादौ वा ॥१५॥ अनेकस्वरस्य धातोरुवर्णस्य स्वरादौ स्यादौ परे वः स्यात् । वसुमिच्छन्तौ वस्वो । स्यादाविति किम् । लुलुवुः ।५७। - वसुमिच्छन्तौ - देवमग्निं राजानं वेत्यर्थः द्रव्यवृत्तस्तु नपुसकत्व त् । यवोः प्वय्०' ४।४।१२१॥ इति यलुक् ॥१७॥ क्विनवृत्त रसुधियस्तो ।२।१।५८॥ विवबन्तेनैव या वृत्तिः समासस्तस्याः सुधीशब्दादन्यस्याः सम्बन्धिनो धातोरिवर्णोवर्णस्य स्वरादौ स्यादौ परे तो य व इत्येतो स्याताम् । उन्न्यो । ग्रामण्यो । सुल्वः । खलप्वः । क्विबितिः किम् । परमो नियो परम-नियो । वृतरिति किम् । नियो कुलस्य । असुधिय इति किम सुधियः ॥५४॥ ..... - क्विबन्तेनैवेति - नन्वत्राधारणं कुतो लब्धमिति चेत् सत्यम् वृत्तिस्थधातो: केवलस्यासम्भवावृतिग्रहणेनैव क्विपि लब्धे क्विग्रहणमवधारणार्थम्, उन्न्यावित्यादि-उन्नयतः ग्राम नयति, सुलुन त खल पुनन्ति इति, . विविप गतिकारकङस्युक्तानाम्' इति न्यायेन स्याद्य त्पत्त: प्रागेव समासः । परमनियाविति - अत्र स्याद्यन्तेन समास: न तु क्विबन्तेनेति न भवति । असुधिय इति किमिदि-सुष्ठु ध्यायति दवाति वा सुधीः 'दियुद्ददृज्जग.' ।५।२।८३॥ इति क्विप् सुपूर्वस्यैव वर्जनादिह प्रध्यौ, आध्यो, उडयो ॥२८॥ हन्पुनवर्षाका भुवः ।।११५९॥ दनादिभिः सह या क्विम्वृतिस्तत्सम्बन्धिन एव भुवो धातोरुवर्णस्य Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७५) स्वरादौ स्यादौ परे वः स्यात् । दन वो । पुनवौं । वर्षाभ्वः । कारभवः । दृनादिभिरिति किम् । प्रतिभुवो ५९। दृन्भ्वावित्यादि 'दृहु वृद्धो 'उदितः स्वरा०' ।४।४।९८॥ इति नागमे विवपि 'पदस्य' ।२।१।०९। इत्यन्तलोपे 'दृन्' इति । दृन् हिसन् भवतीति दृन्भूः, दृनम्वौ सविष: कीटविशेषः । 'धातवाऽनेकार्थाः इति न्यायादेनकार्थत्वादत्र हिंसा गम्यते । पुनवों, पुनरुढे स्त्रियौ । वर्षन्तीत्यचि वर्षाः तासु भवनीति वर्षाभ्वः । वर्षाभूः औषधिविशेषः दईरश्च । कारभ्व इति - क्रियत इति कारः राजलभ्यो भागः कारे कारेण वा भवन्तीति कारभ्वः । प्रतिभवाविति - पूर्वेण सिद्ध नियमार्थमिदम् एतरेव भुवो नान्य रिति । एतैः भुव एव नान्यस्य धातोरिति नियम: अस्वयम्भुवोव्' ।७।४७०। इति सूत्रनिदे शान्न भव'त अन्यथा अन्यधातोरेव वत्त्वप्र'तषेधात् भुवस्तु प्रतिषेधाभ वाद्वत्त्वं स्यादिति ॥१९॥ .. . " णषमसत्यरे स्यादिविधौ च ।२।१।६०॥ इसः सूत्रादारभ्य यत्परं कार्य विधास्यते तस्मिन् स्याधिकारविहिते व पूर्वस्मिन्नपि कर्तव्ये णत्वं षत्वं चासदसिद्ध स्यात् । एतत्सूत्रनिर्दिष्टयोश्च प्रषयोः परे षे गोऽसन् । पूष्णः । तक्ष्णः । पिपठीः । अर्वाणौ । सो पि । असत्पर इत्यधिकारो रात्स इति यावत् । स्वादिविधौ चेति तु नोयादिभ्य इति ।६०॥ . पूर्वस्मिन्निति - परस्थ स्यादिविधेरभावात्सम्भवे वा परग्रहणेनैव सिद्धत्वादाह - पूर्वास्मिन्निति-णत्त्वं षत्वं चेति । णो विधेयत्वेन एष्वस्तीति 'अभ्रादिभ्यः' ।७।२।४६। इत्यप्रत्यये णशब्देन णत्व वधायक-सूत्राण्युच्यन्ते एवं षशब्देनापि षत्त्वविधायकसूत्राणि णषशब्देन णविधायक शास्त्रयोरभिधानेपिशास्त्रस्य कार्यसम्पादनाय प्रवृत्तत्वात् कार्यस्यैव प्राधान्यं दर्शयति । असद्विधौ पक्षद्वयम् कार्यासिद्धत्वपक्षः शास्त्रासिध्दत्वपक्षश्च तत्र शास्त्रस्यैवा'सद्धत्व युक्त कार्यासिद्धत्वाश्रयणे हि यथा देवदत्तस्य हन्तरि हते न देवदत्तस्य पुन: प्रादु. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७६) र्भावो भवति तथा पूष्ण: इत्यत्रासिद्धत्वमापादितेपि नकारप्रादुर्भावाभावानान्तप्रकृतेरभ वात् 'अनोऽस्म'।२।१।१०८। इत्यकारलोषो न स्यात् । शास्त्रासिद्धत्वपक्षाश्रयणे तु अकारलोपे शास्त्र' कर्तव्ये णवश स्त्रस्यवासिद्धत्वादकारलोपशास्त्रमेव पूर्व प्रवर्तते न णत्वशास्त्रमिति पूष्ण इत्यादिरूपसिद्धिनिराबाधा । पूष्ण इत्यादि - पूष्ण तक्ष्ण इत्यत्र णत्वस्यासिद्धत्वादनोऽकारलोपो भवति । पिपठीषतीति क्विरि पिपठी: अत्र षत्त्वासत्त्वात् सो रूभवति । पठितुमिच्छत ति 'तुमर्हादि०' ।३।४।२१। इति सनि स्त्याद्यशित:' १४।४।३२। इतीटि 'सन्यङश्च' ।४।१।३। इति द्विवंचने 'व्यञ्जनस्या०' 1४।११४४। इत्यनादिलोपे 'सन्यस्य' ।४।१।१९। इत त्त्वे 'नाम्यन्तस्था०' २२३९५। इति षत्वे क्विपि 'अत:' ।४।३।८२। इत्यलोपे 'अप्रयोगीत' ११.११३७। इति निवब्लोपे 'दीर्घङयाब्०।१।४।४५' ।१।४।४५। इति सिलोपे षत्त्वस्यासत्त्वात् 'सो रू: ।२।११७२। इति रूत्त्वे 'पदान्ते' ।२।१।६४।. इति दीर्घत्वे 'रः पदान्ते०' ।१॥३॥५३॥ इति विसर्गे च पिपठोरिति । स्यादिविधौ च अर्वाणी सी षि इत्यत्र णत्त्वषत्त्वयोरसिद्धत्वात् 'नि दीर्घः' ।११४१८५। स्महताः।१।४।८६। इत्युपान्त्यदोर्घत्वं सिद्धम् । एतत्सूत्रनिर्दिष्टयोरित्यादि . प्रनष्ट इत्यत्र 'यजसृज० ।२।११८७। इति बरखे कर्तव्ये गावस्यासिदत्वात् षत्त्वे कृते च ‘एकदेशविकृत०' इति प्राप्तमपि 'नश: शः' ।२।३१७८। इति प्रारवं शः' इति व्यावृत्त्या न भवति । सप्तपादोसाकमेण 'षणः' इत्युच्या माणे 'उपसर्गात् ।२।३।३९। इति षत्त्वस्य जत्वे कृर्तव्ये सत्वात् 'रषवर्णान०' ।२।३।६३॥ इति षकारात् विधीयमानं गत्वं अभिषुणोतीत्यादौ न स्यात् ॥६०॥ क्तादेशोषि ।।१।६१॥ केनोपलक्षितस्य तस्यादेशः पादयस्मिन् परे पूर्वस्मिश्च स्यादि. विधावसन स्यात् । क्षामिमान् । लन्युः । अषीति किम् । वृषणः । केनोपलक्षितस्येति व्युत्पत्तिकरणात् क्तत वतूक्तिक्त वानां ग्रहणं सिद्धम् । पर इति-परत्वमेतत्सूत्रापेक्षा न तु क्तादेश विधायकसूत्रापेक्षयाऽयथा 'यजसज०१२।११८७। इति सूत्रात्परत्वाभावात् अपि'इति व्यर्थ स्यात् । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७) क्षामिमानिति- क्षामस्यापत्यम् 'अत इन' ।६।१।३१। इती न क्षामिः, ततो 'तदस्था० १७१२११। इति मतुः । यद्वा- क्षामोऽस्थ स्त ति 'अतोऽनेकस्वरात्' '७२।६। इतीनि क्षामो ततः क्षाम्यस्यास्तं ति क्षामिमान 'शुचिपच ' ।४।७८॥ इति मकारादेशस्यासत्वात 'मावर्गा०' ।२।११९४॥इति वत्वं न भर्वा । लन्युरिति- लून मिच्छतीति क्यन् 'क्यान': ।४।६।११२। इतीकारः, . क्विप ततो ङस् 'विति वीतीय उर्' ।११४॥३६॥ इत्युरादेशे 'योऽनेकस्व स्य' १२।११५६। इति यत्वे लू न्युरिति यद्वा लवनं लूनिस्तामिच्छतं ति क्यनि क्विपि : सि लू युः । वृक्ण इति- अत्र ओवश्वौत् छेदने १३४१ इति धातो: क्तप्रत्ययः । 'सस्प शो' 1१।३१६॥ इति शपषः, अवश्च०' 111८४॥ इति घृत, 'सूयत्याद्य दिन'।४।२।७०। इति तस्य नः । वृच् +1 इति स्थिती अष ति बचना-तकारादेशस्य नकारस्थासत्त्वाभावाद्ध टपरत्व भाव दु 'यजसज.' १२।१६८७इति षत्वं न भवति 'चन: कगम्' ।२।१॥८६॥ इति करने कतव्ये तु नस्यासत्त्वाद् द्ध टपरत्वात् कत्वं भवति ॥६॥ षढोः कारसं२।१।६२॥ से परे बढोः कः स्यात् । पेक्ष्यति । लेक्ष्यति (६२॥ - 'पिल प् संचूर्णने, लिहीक आस्वादने- अत: भविष्यन्त्या: स्यतौं 'एकस्वरा०' ४।४।५६। इतीनिषेधे 'लघोरूपान्त्यस्य ४:४। इति गुणे, 'हो धुटपदान्ते' ।२।१।८२॥ इति ढत्वेऽनेन क्त्वे 'नाम्यन्तस्था०' ।२।३।१५। इति षत्वे च पेक्षति, लेक्ष्यति । 'असत्सरे' इत्यधिकारात निघाक्ष्यत त्वत्र ढकारादेशस्य नित्यस्यापि कस्य परेऽ सत्वात् 'गडदबादे.' १७॥ इति चतुर्थान्तलक्षण: आदेश्चतुर्थस्मिद्धः । श स्त्रासिदत्वाक्षे तु परे शास्त्रे कर्तव्ये ककारशास्त्रस्यैव सिदत्वापूर्व 'गडदबादेः' ।२।१।७७। इत्येव प्रवतते। कश्चच्छासेरपि सौ विकल्पेन कका मिच्छति तन्मते श क्षि, श स्पि ॥६॥ भवादेन मिनो दी? वोठयजने ।२।१।६३। । भ्वादेर्धातोयौ रवौ तयोः परयोस्तस्यैव नामिनो .दोघः स्यात् Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७८) व्यञ्जने । हूर्छा । आस्तीर्णन् । दीव्यति । भ्वादेरिति किम् । कुकुरोयति, दीव्यति ।६३॥ हुर्छा कौटिल्ये 'भिद दय:' ।।३।१०८। इत्यङि आप्यनेन दीर्घत्वे 'हीदह ॥१॥३॥३१॥ इति द्वित्त्वे 'अघोषे प्रथमो०' ।१।।२०। इत प्रथमे चकारे च हू→ त स्तृग श-आच्छादने ।१५२१। आङपूर्वात् स्तृणातेः 'ऋतां क्ङिनोर्' ।४।४।११६। इतारादेशे ‘रदादमूर्छ.' ।४।२।६९। क्ततकारस्य नत्वेनेन द घत्व गत्वे च आस्त मिति कुरिमिच्छनीति क्यनि कुकुरीयति दिवूच् क्रोडा-जयेच्छा-पणि द्युति-स्तुति-गतिषु ११४४ दिवमिच्छ. तीति-दिव्यति ॥६॥ पदान्ते ।२।११६४। पदान्तस्थयोवदिवोः परयो दि मिनो दीर्घः स्यात् । गीः । गोरर्थः । पदान्त इति किम् । गिरः । लुवः ॥३४॥ - गीरिति-गिरतेः क्विप् 'ऋतां विडत र्' ।४।४।११६। इतीरादेशः सि:, तल्लुक दर्घत्वं च । गिरः इति बहुव्र हिस्तत्पुरुषो वा ॥६४॥ - न यि तब्दिते।२।१६५। यात्रै तद्धिते परे यो वा तयोः परयो मिनो दीर्घो न स्यात् । धुर्यः । योति किम् । गोर्वत् । तद्धित इति किम् । गीतिः। गीर्यते ॥६५॥ 'धुरो येयण'. ।१॥३इति ये धुर्यः । गीरिव 'स्य दे वे ७।१।५१ इति वति पदने ।२।११६४। इति दीर्घत्वे च गोवदिति । 'अमाव्ययात्' ।३।४। २३। इति क्यनि-गीर्यति । 'क्यङ'।३।४।२६। इति क्याङि गीर्यते । ननु पुर्या किोरित्यत्र कथं न भवतीति चेत्सत्यम् असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग २०' इति न्यायाद् बहिरङ्गलक्षणस्य यत्वस्यान्तरङ्ग द घत्वे कर्तव्येऽसिद्धत्वान्न भवति ।।६।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७९) कुरुच्छुरः |२| |६६ । कुरुच्छुरोर्नामिनो रे परे दोघों न स्यात् । कुर्यात् । टुर्यात् । कुव्वित्युकारः किम् । कुरत् शब्दे - कुर्यात् । ६६ । कुर्यादिति - डुकु गु करणे ८८८ इति धातोः सप्तमीयात्प्रत्ययः, 'कृग्तनादेरू:' | ३|४|८३| 'नामिनो०' | ४ | ३ |१| 'अतः शित्युत्' | ४१२८९ | इत्युकारः, कृगो यि च' | ४|२|८| इत्युकारलोप: (भ्वादे० ' | २|१|६३ | इति दीघत्वे प्राप्तेऽनेन निषेधः ॥ ६६ ॥ मो नो वोश्च |२| १६७ मन्तस्य धातोरन्तस्य पदान्तस्थस्य स्वोश्चपरयोनंः स्यात् । प्रज्ञान् । प्रशान्भ्याम् । जङ्गन्मि । जङ्गन्वः । ६७' प्रशानिति ननु 'नाम्नो नोऽनह नः | २|१|११| इति नलोपः स्यादिति न च विधान सामर्थ्यान्न स्यादिति वाच्यं स्वयोः परयोविधानस्य चरितार्थत्वादिति चेत्सत्यं नकारस्यसत्त्वान्नलोपो न भवति । अत्र प्रशाम्यतीति क्विपि 'अह पञ्चमस्य० ' |४|१|१०५ ॥ इति दीर्घत्वम् । जड गन्मोतिकुटिलं गच्छामीति गत्यर्थात्कुटिले | ३|४|११| इति यङि द्वित्वे न्नादिव्यञ्जनलोपे 'गहोर्ज:' |४|१|४०| इति जकारे 'मुरतो ० ' |४| १ | ५१ ॥ इति स्वागमे 'तौ मुमो०' |१| ३ | १४ | इति वर्गान्त 'बहुलं लुप्' | ३ | ४ | १५ | इति यङो लुपि वर्तमान सिप्रत्ययेऽनेन नकारे च सिद्धम् ||६७ || - संस्ध्वंस्क्वस्सनडुहो दः | २|१|६८ त्रध्वंसोः क्वस्प्रत्ययान्तस्य च सन्तस्य अनडुहश्च पदान्तस्थस्य दः स्यात् । उखास्रद् । पर्णध्वद् । विद्वत् कुलम् । स्वनडुद् । क्वसिति दिवसकारपाठादिह माभूत् विद्वान् ॥६८॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) ९५३ स्रसूङ अवस्र सने उखया स्रसत इति क्विपि उखानदिति । पर्णानि ध्वंसत इति क्विपि पर्णध्वदिति 'नो व्यञ्जनस्या०' ।४।२।४५। इति विरामे वा' ॥१॥३॥५१॥ इति प्रथमत्वे उखास्रत् इत्यपि भवति । विद्वानिति - अत्र 'ऋदितः ।।४।७०। इति नागमे सकारस्य 'पदस्य' ।२।११८९। इति लोपे सकारस्याभाव द् द्विसकारपाठात्सकारान्तस्य ग्रहणा. दिह न भवति । ननु तकारे कृतेपि 'घुटस्तृतीयः' ।२।११७६। इति दकारो भविष्यतीति चेन्मेवं तकारे कृते 'धूटस्तृतीयः' ।।११७६। इति परकायें कर्तव्येऽसत्त्वात् दकागे न स्यादिति दकारकरणम् अनेड वानित्यत्र तु 'अनडुदः सौ' ।०४७२। इति नकाविधानसामर्थ्यात् नकारस्य दकारो न भवति । अनद-शब्दे हो धुट ०' ।२।११८२। इति ढत्वस्य प्राप्तिः शेषेषु रूत्वस्य प्राप्तावयम् 'येन नाप्राप्ते०' इति न्यायात्' रूत्वढत्वयोः बाधकः न तु 'पदस्य' ।।१।९९। इति संयोगान्तलोपस्य तस्य क्लीबे विद्वत् कुलमित्यादिष्वप्राप्तौ पुस्त्वे विद्वानित्यादौ प्राप्तौ च प्राप्ताप्राप्तत्वात् ॥६८॥ . ऋत्विदिश हश स्पृश सज्दधाष्णिहो गः ।२।१।६९। एषां पदान्तस्थानां गः स्यात् । ऋत्विग् । दिग् । दृग् । अन्यादृग् । घृतस्पृग् । लम् । दधृग् । उष्णिम् ।६९। ऋतुम् ऋतौ ऋतवे ऋतुना हेतुभूतेन व यजते स ऋत्विग् 'यजादिवचे:' ।४।११७९। इति यवृत् । दिश्यत इति दिग्, पश्यत दर्शनं वा दग अन्य एव श्रत इति 'त्यदायन्यत्' ।।१।१५२॥ इति क्विपि 'अन्यतदादेश: ।३।२।१५२। इत्यात्त्व अन्यागिति । घृतं स्पृशतोति घृतस्मृग, सृज्यत इति 'क्रुध्संपदादिभ्यः' ।५।१११४४। इति क्विपि अत एव निर्देशात् ऋतो रत्त्वे च । सगतो' इत्यस्य वा सर त मस्तकादिकमिति 'ऋवियि०' । उणा ८७४) 'इति बहुववनात् कनि च स्रगिति । निधृषाट् भागलम्ये धृष्णोतोति दधृष् । अत एव निपातनाद दि वत्वम् । ऊर्ध्व स्निह्यति नह्यति वा अत: एव निर्देश त् उदो दकारस्य लोपः सस्य षत्वं च । नहे-नवारस्य च ष्णिरादेशे उष्णिग् ॥६९॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८९) नशो वा ॥२॥१७॥ नशः पदान्ते ग् वा स्यात् । नोवनन् । जीवनड ७०॥ . जीवतीति जीवः जीवस्य नशनं भ्यादिभ्यो वा' ।।३।११५॥ इति क्विपि अनेन गत्वे जीवनगिति - 'यजम ज०' १२१११८७१ इति षत्वे 'घुटस्तृतीयः' ।२।११७६। इति तृतीयत्त्वे जीवनडिति ॥७०।। युजञ्चक्र चो नो ङः ।२।१७१० एषां नस्य पदान्ते इ स्यात् । युङ । प्राङ । कुङ ७१। । युज पी योगे युनत्तीति विपि 'युजः०' ११४४१७०। नागमेऽनेन नस्य इत्वे युडिति । अञ्चू गतौ च अञ्चत ति क्विपि अनायाम् 'अञ्चोऽनर्चायाम्' ।४।२।४६॥ इति नलोपे 'अच:' ।१।४।६९। इति नागमे अर्चायां तु नलोपाभाव प्राङिति । कुञ्चेस्त्वत एव निर्देशान्नले पाभाने क्रु डिति । ननु न इति किमर्थं 'षष्टय ऽन्त्यस्य' ७४११०६॥ इति सर्वेषामन्तस्य नस्यैव भव. व्यतीति चेत्सत्यम् 'न' इत्यनुपादाने 'युजिच् समाधौ' इत्यस्यापि पदान्ते युडिति रुप स्याद् ।।७१॥ सो रुः १२११७२० पदान्ते सो रूः स्यात् । आशोः । वायुः ॥७२॥ 'आङः' ।४।४।१२०॥ इतीरादेशे आशी: इति । उकार: 'अरो: सुपि रः'।१।३६५७इत्यत्र विशेषणार्थः ।।७२।। सजुषः ।२।१७३॥ पवान्ले सजुषो रुः स्यात् । सः । सर्वत् ॥७३॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- (१८२) सह जुषत इति क्विपि अत एव निर्देशात सस्य सभावे सर.. पद न्ते.' ।१।३१५३। इत्यत्रादित्यधिकागत् दघवे पश्च द्विसर्गे च सन. रिति । सरिष - 'स्यादेरि' ७।१॥५२॥ इति वति सजवंदित ॥७३॥ . अह नः ।२।१७४१. अह नः पदान्तरूः स्यात् । हे टीर्घाहो निदाघ । दीर्घाहा निदाघः १७४। हे दीर्घाहो निदाघः इति- अत्र शेषधुट्परत्व भावान्न नि दीर्घः ।१।४।८ । इति दीर्घः दोहा निदाघः इत्यत्र तु रूत्वस्यासत्त्वात् 'नि दीर्घः ।१।४।८५॥ इति नान्तलक्षनो दी? भवति । कश्चितु द घत्वं नेच्छति तन्मते दीर्धाहो निदाघः । अहन शत्रुमित्यत्र तु त्याद्यन्नपदस्य लाक्षणिकत्वान्न भवति । अयं भाव: 'उणादयोऽव्युत्पन्नान नामानि' इति ध्यायेन प्रतिपदोक्तस्य सम्भवाल्लाक्षणिको न गृह्यते । त्युत्पत्तिपक्षस्विह नाश्रितः ॥७४॥ रोलप्यार ।।१७५॥ अरेफे परे पदान्ते अह नो लुपि सत्यां रः स्यात् । अहरधीते । अहबते । लुपीति किम् । हे दो_होऽत्र । अरीति किम् । अहोरूपम् लपि सत्यामिति - विभक्त लुपि सत्य मित्यर्थः अह नः इत्येव सिद्ध बहनशब्दस्य रेफादन्यस्मिन्परे 'अतोऽति रोरू:' ।१।३।२०। इत्यादिना उत्वं मा भूदिति । पूर्वसूत्रस्यापवादोऽयम् । अहरधीत इति - 'कालाध्व०' १२।२१४२॥ इति द्वितीया 'अनतो लुप्' ।११४१५९॥ इति लुप्. रविधानात् 'अतोभी रो० ॥१॥३।२०। इति उन भवति । हे दोर्धाहोऽत्र ति - यद्यप्यत्र 'ऐका. ध्ये ३३२२८॥ इति विभक्त लुंबस्ति परन्वत्र यदपेक्षया लुप तदपेक्षयव यदि पदत्वं तदा रो भवतीति प्रत्यासत्तिव्याख्यानादत्र न भवति । अत्र तु वाक्यविभक्त्यपेक्षया लुप् साक्षाद्विभक्त.घपेक्षया तु पदत्वमिति रो न भवति । नच Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८३) वाक्यविभ= यपेक्षयापि पदत्वमस्तीति वाच्यं 'वृत्त्यन्तोऽसषे' | १|१| २५ | इति प्रतिषेषात् । अहोरूपमिति अह न रूपम् इति समासे अह रूपम् प्रकृष्टमहः य देश्च प्रशस्ते रुपप्' | ७|३|१२| इति रुपनि वा ॥७५॥ · छुटर तृतीयः | २|१|७६| पदान्ते धुटां तृतीयः स्यात् । वाग् । वाग्भिः अज्भिः ॥ ७६ ॥ 1 ब्रूतेति वा 'विद्' । २८३ । इति क्विपि दीर्घत्वे सिलुकि "चजः कगम्' |२| ११८६ | इति कलेऽनेन तृतीयत्वे व गिति । अभिरिति सञ्जाशब्दत्वात् 'चजः कगम्' | २|११८६ | इति न प्रवर्तने तथ्य प्रवतु विवक्षिताप्रतीतिर्न स्यात् । केचित्तु विसर्ग - जिह वामूलं य-योरलाक्षणिक नेतृतव गत्वमिच्छन्ति तन्मते सुपूर्वाद् दुःख तेदु खयते विवपि 'कस्यादि' कादरित्यावृत्तिव्याख्यानात् एव जिहि वामूलीयस्य 'अ' अञ्ः' ।१।१.१६। इति साहचर्यात् क इत्यस्यापि व्यञ्जनत्वे, व्यञ्जन र संयोग इत 'पदस्य' | २|१२|८९ । इति संयोगान्तलोपे सुदुग, सुदुग्भ्या मित्यादि सिद्धम् । कण्ठघत्वाच स्थान्यासन्नो गकारो भवति । न च ) ( प इत्यनेन साहचर्यात् - क इत्यस्य व्यञ्जनत्वाभाव इति वाच्यमन्यथा 'अ अ: ० ' | १|१| १६ | इति सूत्र े ) ( प क इति कुर्यादिति । कश्चरति, कष्टकते, कस्तरतीत्यादी तु रूत्वस्य परेऽसत्त्वान्न प्राप्नोति मातश्चरती रतीत्यादी त्वादेविधानसामर्थ्यान्न भवति । अन्यथा शषसान् विहाय सकारमेव विदध्यातावतैव 'सस्य शष' | १|३ | ६१ | इति कृते शषी सेत्स्यत इति । 'षट्कतिकतिपयात् थट्' इति थटि ' षष्ठः' इत्यत्र तु 'षष्ठो ० ' | २||१०८। इति निर्देशात्ततीयत्वं न भवति ॥ ७६ ॥ गडदबादेश्चतुर्थान्तिस्यैकस्वरस्यादेश्चतुर्थी स्वोश्चप्रत्यये ।२।१७७ | गडद | देश्चतुर्थान्तस्यैकस्वरस्य धातुरूपशब्दावयवस्या देश्चतुर्थः स्यात् । पदान्ते सादी ध्वादौ च प्रत्यये । पर्णघुट् । तुण्डिभमाच Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८४) क्षाणः तुण्ढिय् । एवं गर्द्धप । धर्मभुत् । निघोक्ष्यते । न्यघूढ्वम् । धोक्ष्यते । अा ग्ध्वम् । भोत्स्यते । अभुवम् । गडदबादेरिति किम् । अजञ्ज । एकस्वरस्येति किम् । दामलिट् ७७। धातुरूपशग्दावयवस्येति- अत्र समासद्वयं पर्णधुडित्यादिसिद्धयय धातुरूपशब्दश्वासावव वश्चेति घातुरूपशब्दावयवो गृह. अव वा अवयव्यपेक्षयाभिधीयते इति पर्णगृह, अवयवी । तुण्ढिब इत्यादिसिद्धयर्थ तु धातु. रूपशब्दस्यांवयव. इति षष्ठीसमासः धातुरूपशब्दः तुण्डिम् तम्यावयव: डिभ् इत्यादि । यद्वा धातुरूपस्थावयवः इति षष्ठीसमासस्तदा तुग्ढिब् इत्यादि 'आद्यन्तवदेकस्मिन्' इति न्यायानपेक्षया सिध्यति । पणघुडित्यादं नि तु यायापेक्षया सिध्यन्ति रूपशब्दस्तु भ्वाद्यभ्वादिधातुमात्रपरिग्रह र्थः । धातुरूपशब्दावयवो गुहौग संवरणे गुह, पर्णानि गृहतं ति क्विप् इ त प्रथमत्व च पर्णघुट् । 'हो धुट्पदान्ते' ।२।११८२॥ इति ढत्वेऽनेनादिगस्य धकारे 'विरामे वा' १॥३॥५१॥ तुडुङ तोडने 'उदितः स्वरान्नोन्तः'।४।४।९८। इति नागमे "किलिपिलि.' उणा. ६०८। इति इप्रत्यये तुण्डि: सास्यास्तीति 'वलिवस्तुण्डेर्भः' ७।२।१६। इति भेच तुण्डिपिति गर्दभमाचष्टे इति णो क्विप्यनेनादिचतु. र्थत्वे 'हीदहस्वरस्या०' ॥१॥३॥३१॥ इति धस्य द्वित्वे 'तृतीयस्तृतीय०' ।१।३। ४९। इति तृतीयत्वे च गई प् । बुधिच ज्ञाने धर्म बुध्यते इति क्विपि धर्मभूत् । गुहधातो: स्यतेप्रत्यये उपान्त्य गुणे ‘हो धुट्पान्ते' ।२।११८२। इति ढत्त्वे अनेनादिगस्य धत्त्वे 'षढो: कस्सि' ।२।१६२। इति को षत्वे च निघक्ष्यते । गुह धातोरद्यतनीध्वमि प्रत्यये 'हशिटो नाम्यु०॥३॥४॥५५॥ इति सकि'दुहदिह०' ।४।३। ४। इति लुचि 'अड्धातो.' ।४।४।२९। इत्यडागमे 'हो धुट्पदान्ते' ।२।१२८२। इति ढत्त्वेऽनेनादिचतुर्थत्वे 'तवर्गस्य० ।१।३।६०। इति धस्य ढत्त्वे 'ढस्नड्ढे' ।।३।४। इति ढलोपे दीर्घत्वे च न्यबूढ्वम् । अधुग्ध्वम् दुह + ध्वम् । अडागम: सक सक्लोरश्व'वादेदादेर्घः'।२।११८३। इति हस्य घ:, अनेन दम्य धः । भोरप्यते- बुध+स्यते अघोषे प्रथमोऽशिट:' ।१३।१०। अभृद्धवम्बुध +धम्। अट् सिजद्यतन्याम्'।३।४।५३। इति सिच् सो धि वा ।४।३।७२। इति सिज्लोप: । अजञ्जप- जभड् गात्रविनामे गहितं जम्भते ‘ग लप०' ।३।४।१२। इति यङ, बहुलं लुप्'।२।४।१४। इति लुप्, द्वित्वम्,अ नादिव्यञ्जन.. लोप: 'जपजभ०।४।१।१२। इति म्वागमः ' व्यजनाद्दे।' ४।३।७८। इति दिवो लुप्, अडागम: । दामलिट्- दामलिहमि - च्छतीति 'अमाव्ययात् कयन् च ३-४-२३ क्यन् क्विप् अलोपः यलोप: सिश्च । ननु 'त्ययाप्रत्यययोः' इति Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८५) न्यायेनैव प्रत्ययग्रहणे लब्धे प्रत्ययग्रहणम तरिच्यत इति चेन्न- डुधांग धारणे च ११३९ धाधात: वसि 'हवः शिति ।४।१।१२। इति द्वित्वे पूर्वस्य ह्रस्वत्वे 'द्वितीयतूर्य यो:०१४।१।४२॥ इति दत्त्व 'इनश्चातः' ।४।२।९६॥ इत्याकारलोपे 'अदोर्धाद्वि०' १३:२। इति धस्य द्वित्वे दधध्वः इति स्थिते प्रकृतिप्रत्ययोभयस्थानजन्यत्वेन 'उभयस्थाननिष्पन्नो' १०६ इति प्रत्ययव्यपदेशे आदेशचतुर्थः स्यात् । प्रत्ययग्रहणे तु प्रत्ययग्रहणसामर्थ्यात् न्यायनिरपेक्षो य: प्रत्ययस्तास्मन्परे एव स्यादिति नोत्त दोषः । वस्तुतस्तु ध्वस्योभयस्थाननिष्पन्नत्वं नास्ति नायं प्रकृत्यवयवस्य प्रत्ययस्य च आदिश्यत इति परन्तु प्रकृत्यवय. वस्य प्रत्ययस्य च मेलनेन प्रतीयते इति प्रधाने व्यपदेशा भवन्ति मल्लग्रामाविदिति लोकप्रसिद्धन्यायादत्र प्रत्ययभागप्राधान्यात प्रत्ययत्यपदेशे आदेश्चतुर्थत्व न स्यादित्येवमर्थ प्रत्यय ग्रहणम् । अबुद्ध अबुद्धा: इत्यत्र तु ते थाति च अटि ‘सजद्यतन्याम्' ।।४।५३॥ इति सिचि 'धुड्ह्रस्वाल्लु०' ।४।३।७०। इति सिज्लुकि वर्ण विधित्वेन, वर्णे सकाररूपे परतो विधिः, स्थानिवद्भाव. निषेधान्न भवति । ननु सिच्लुक: पूर्वमेव चतुर्थत्व कथं न भवतीति चेत्सत्य सिच्लोपरूपे परकार्ये कर्तव्ये चतुथत्वस्यासदाधिकारविहितत्वेनासत्त्वान्न भवति ॥१७॥ धागस्तथोश्च ।२।१७८ गाचतुर्थान्तस्य वादेरादेर्दस्य तथोः सध्वोत्र प्रत्यययोः परयो श्चतुर्थः स्यात् । अतः । धरथः । धत्से । धदम्वे । तयोश्चेति किम् । बध्वः । चतुर्थान्तस्येत्येव । दधानि ७८॥ धाधातो: 'हवः शिति' ।।१।१६। इति द्वित्वे, 'ह्रस्वः' ।४।१।३ । इति द्वित्वे, पूर्वस्य ह्रस्वत्वे, 'द्वित यतुर्पयो:०' ।४।११४२॥ इति दकारे 'श्नर. चातः ।।४।२।९६। इत्यालोपेऽनेन धत्व 'अघोषेप्रथमोऽशिट:' ।१।३।१८। इति तकारे 'तृतीयस्ततीय०' ।।३।१९। इति दकारे च धत: इत्यादि । अत्रासदवि. धित्वाद्न सन्धिः ॥७॥१११॥इति असद्विधौ स्थानिवद्भावनिषेधात्,अत एव वचनाद्वा आल्लोपस्य स्वगदेशव स्थानिबद्भावो न भवति । ननु चकारकरणं कथं स्ध्वो: प्रत्यययो परयोः पूर्वेणैव सिद्धत्वादिति चेत्सत्यं यंङलुपि 'क्रियाव्यतिहारे०' ।३।३।२। इत्यात्मनेपदे से व्यतिधात्से इति स्यात् चका Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६। रकरणे तु तिवा शव नबन्धेन, निदिष्टं यग्दणेन च । एक स्वनिमित्तं च, पञ्चतानि न यङ लुपि ॥१८॥ इति न्यायाद् व्यतिदात्से इत्येव न त्वादेश्चतुर्थः । धाग इत्यत्र गकारोपादानातु दधे पाने इनिधयते: यङलुपि दातः दात्थ इति चतुर्थो न भवति एवं दवादेरप्यनुबन्धनिर्देशात् यङलुपि दात्त दात्थ इति चतुर्थो न भवति । भृशं पुन: . पुनर्वा धयति दधाति वा व्यञ्जनादे रेकस्वराद् भृशाऽभ क्ष्ण्ये यङ् वा ३-४७ इति यङि तल्लुक द्विस्त्रादौ 'आगुणा०' ।४।२।४८॥ इत्यात्त्वे तसि थसि 'श्नश्चातः ।४।२।९६॥ इत्याकारलापे च दात्त: दात्थः ।।७८॥ अधश्चतुर्थात् तथोधः ।२।१७९। . चतुर्थात्परयोर्धारूपवर्जाद्धातोविहितयोस्तथोध : स्यात् । अदुग्ध । अदुग्धाः । अलब्ध । अलब्धाः । अध इति किम् । धत्तः। धत्थः । विहिततिशेषणं किम् । ज्ञानभुत्त्वम् ।७९। ___ पूर्वसूत्रे निमित्तत्त्वेनोपादानादिह तथेत्यिस्य पुनरूपादानं स्थानित्वार्थम् । ननु 'गडदबादेः'० ।२।११७७। इति सूत्रात् 'चतुर्थान्तस्य' इत्यनुवृ. तेस्तस्य अर्थवशाद्विभक्ति०' '१३' इति न्यायेन पञ्चम्यन्तत्वेनपरिणामे सर्व सिध्यतीतिचेत्सत्यमिदं सुखार्थमन्यथा क्लिष्ट तिपत्ति: स्यात् । दुक् क्षरणे दुधात': अद्यतनीतप्रत्यये थासि च 'हशिटो.' ।३।४।५५॥ इति सकि 'दुहदिह०' ।४।३।७४। इति तस्य लुकि 'म्वादेर्दादेघः' ।२।११८३। इति घवेऽनेन धत्वे तृतीयस्तुतीय०१२।३।४९। इति तृतीयत्वे अदुग्ध अदुग्धाः। डुलभिष प्राप्तो ७८६ लभधातो: ते थासि च सिचो 'धुडह्रस्वाल्ल०' ।४।३।७०। इति लुचि अनेन प्रत्ययतथो: धत्वे तृतीयत्वे च अलब्ध अलब्धाः । अध इति वर्ज. नात् यङल बन्तवयतेरपि न भवति-दात्तः दात्थः । केचित्तु यङलुबन्तस्यापीच्छन्ति-दादः, दाखः । ज्ञानभुत्त्वमिति- बुधिच ज्ञाने ज्ञान बुध्यत इति ज्ञानभुत् तस्य भावः 'भावे स्वतल्' ।७।११५५॥ इति त्वे ज्ञानभुत्त्वमत्र नाम्नो विहितस्तवप्रत्ययः न तु धातो: 'क्विबन्ता धातू०' १०५ इति न्यायाश्रयणे. ऽपि 'अधः' इति वर्जनात्पर्यु दुमाच्छुद्धवाता रेव ग्रहणान्न भवति ॥७९॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८७) नम्यिन्तात् परोक्षायतन्याशिषो धो ढः ।।१८। रान्तानाम्यन्ताश्च धातोः परासां परोज्ञाधतन्याशिषां धो ढः स्यात्। तुष्टुढ्वे । अतोढ्वम् । । चेषीढ्वम् । तोर्षीढ्वम् । नाम्यन्तादिति किम् । अपरध्वम् । आसिध्वम् ।८०॥ आक्षिप्तधातोर्नामोति विशेषणात्तदन्तविधेर्लाभेष्यन्तग्रहणं सुखार्थम् । ष्टुग्क् स्तुती ११२४ स्तुधात': परोक्षाया ध्वेपत्यये द्वित्व 'अघोषे शिट:' ।।१।४५॥ इत्याद्यसलोपे षत्वे 'तवर्गस्य०।१३।६०। इति टत्वे 'इन्ध्य० ।४।३।२१॥ इति कित्त्व द्गुणाभावेऽनेन धस्य ढत्वे च तुष्टढवे । तुष्ट्रढवे इत्यस्य अतं द्वम् ते षीद्वमित्येतयोः पश्चादुपादाने प्राप्ते पूर्व मुपादानमापाततः । तृ. प्लवनतरणयोः तृ धातोरद्यतन्यां ध्वमि 'ऋवर्णात्' ।४।३।३६ इति सिच: कित्त्वाद् ऋतां विङतार ।४।४।११। इतीरादेशे भ्वादे० ।।१ ६३॥ इति दर्घत्वे 'सो विवा।।३।७२। इति सिचा लुचि अनेन ढत्त्वे अतोदवम् । परत्वात्पूर्व मेवेरादेशे 'नाम्यन्त दित्यनेनैव न सिध्यतः ति रग्रहणम् तो!दवमिति-त ध तोगशिषि.रूपम् । अदिवमिति-'इश्च स्थादः'।४।३।४१ इत्यनेन इत्त्वं सिच: कित्त्वं च । ननु तत्र इत्त्वविधानादेव गुणो न भविष्यति कि कित्करणेने त चेत्सत्यं इत्त्वविधानस्य 'अदित' इत्यादौ 'धुड्ह्रस्वालुगनिट०' ।४।३७०। इति सूत्रेण सिच्चलोपे चरितार्थत्वाद गुणः स्यादिति गुणबाधकं किकरणम् । चेषोढ्वमिति-चिंगट् चयने १२९० चिधातोराशिषि सीध्वभि रूपम् । अपग्ध्वमिति- डुपचीष् पाके ८९२ पच्धातो र्वमि 'चज: कगम्' ।२।१।८६। इति कत्त्वं 'धुटस्तृतीयः' ।२।११७६। इति गत्त्वम् । आसिध्वमिति- आसिक् उपवेशने १११९ इत्यस्मादद्यतन्या ध्वमि सिंचि इटि 'सो धि वा ।४३७२। इति सिच्लुकि च सिद्धम् । अत्र इट: प्रत्ययावयवत्वात् धात्वयवत्वाभावात् नाम्यन्तधातोरभावान्न भवति ॥८॥ हान्तस्थानीभ्यां वा ।२।१।८१। हावन्तस्थायाश्च परारिटश्च परासां पराक्षाद्यतन्याशिषां धो द वा स्यात् । अग्राहिढ्वम् । अग्राहिध्वम् । ग्राहिषीढ्वम्, ग्राहिषी Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) ध्वम् । अनादित्रम् । अनायिध्वम् । वायिषीद्धवम् नायिषीध्वम् अकारिढ वम् अकारिध्वम् । अलाविद वम् । अलाविध्वम् । जगृहिवे । जगृहिध्वे । आविद वम् | आयिध्वम् । हान्तस्थादिति किञ् । घानिषोध्वम् । आसिषीध्वम् ॥८१॥ वचनभेदो यथासङ्ख्या भावार्थ: । लिटः स्वतन्त्रत्वादिस्तु प्रत्ययावयवत्वेन प्रत्ययत्वाद्धातोर्नाम्यत्वाभावात्पूर्वेणाप्ते विभाषेयम् । अग्राहि'वमिति - अत्र 'स्वरग्रह ०' | ३ | ४ | ६९ | इति विहितो मिट्, ' ' | ४ | ३ |५० | 'इति वृद्धि:, 'सोधि व ', ४।३।७२ | इति सिचो लुक् अनेन वा ढत्त्वम् । ग्राहिषीवम् पूर्ववत् ञि आशिषः सीध्वम् । एवम् अकारिवमित्यादिपरोक्षायां जिने सम्भवतीति नोदाहृतः । ग्रही उपादाने १५१ जगृहिवे इत्यादि इट: परस्य दाहरणम् । आयिवमिति- 'अयि गतौ' अद्यतन्या ध्वम्प्रत्ययेः सिचि, "स्ताद्य ०' | ४|४ | ३२ । इतीटि 'सांधिवा' | ४१३ ॥ ७२ ॥ इति सिज्लुकि 'स्वरादेरत यु० |४| ४ | ३१ इति वृद्धौ च सिद्धम् । घानिषीध्वविति- हनक् हिसा• गत्याः ११०० हन्तेः, आशिषः सीध्वम् ' स्वरग्रह ० ' | ३ | ४ | ६९ | इति ञिर् 'गिवि ० ' | ४ | ३ | १०१ । इति घनादेशः 'णिति' | ४ | ३ |५० | इति वृद्धिः | असिध्वम् अत्र आसिक् उपवेशने आस् धातोः १९११९ अ शिषः सीध्वम्प्रत्ययः 'स्ताद्य०’।४।३।३२। इतीट् च । 'एकानुबन्धग्रहणेन. ३३ द्वयनुबन्धकस्य' इति न्यायज्ञापनार्थं त्रिग्रहणम् ॥८१॥ हो पदान्ते २१८२ | 'धुटि प्रत्यये पदान्ते च हो ढ स्यात् । लेढा । मधु लिट् । गुडलिमान् । धुपदान्त इति किम् । मधुलिहौ । ८२ । लेढेति - लिड्रांक आस्वादने ११२९ लिह धातास्तृच्यनेन हस्य ढः | 'अधश्चतुर्था०' |२| १|७९ | इति तस्य धत्त्वम् 'तवर्गस्य ० ' | १|३|६० | इति 'ढत्वं 'उस्तड्ढ े ०' | १|३|४२ । इति पूर्वढस्य लोपः । मधुलि डिति - मधु लेदीति मधुढि पदान्तवाद हस्य ढः, 'विरामे वा | १|३|५१ | इति । गुडलिमा 1 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८९) निति - गुड लेढीति गुइलिट सोऽस्यास्तं ति मुडलिण्मान् अत्र ढत्वतृतीययो सत्त्वात् 'मावर्णान्तो' १२।१।९४॥ इति वकारो न भवति । मधुलिहावितिमधु लीट: इति मधुलिहौ गितकारकङस्यु' इति विभक्तयुत्पत्तेः प्रागेव समासे पदान्तत्वाभाव द हो ढो न भवति । यदि तु लंढः इति लिहौ मधुनो लिही मधुलिहाविति क्रियते तया 'वृत्त्यन्तोऽसषे' १११११२५॥ इति पदत्वाभावान्न भवति ।।८२॥ भव.देदेदिघः ।२।१८३॥ भ्वादेर्धातोर्यो दादिरवयवस्तस्य हो हुटि प्रत्यये परे पदान्ते च घः स्यात् । दोग्धाः । धोक्ष्यति । अधोक । गोधुक् । भ्वादेरिति किम् । दामलित् ।८३।। म्वादेरित्यस्य दादे िति विशेषणमत आह भ्वादेधातोर्यो दादिरवयव इति समानाधिकरणविशेषणे तु दुहीक क्षरणे ११२७ दुह, धातो: अदुग्धेत्यादाच डागमे कृते न सिध्येदिति । ढस्यापधादो. ऽयम् । तृच्प्रत्यये धुट्परत्वादनेन हस्य घे पश्चात्प्रत्ययतस्य स 'तृतीयस्तृतीय०' ।११३६४९। इति तृतीयत्वे च दोग्धति । दुह + स्यति - अनेन घकारे करवे षत्वे 'गडदबादे' ।२।१९७७। इति धकारे च धोक्ष्यतीति - अत्र व्यपदेशवद्भावाद् धातोरवयवस्य दादित्व एवं दुहेह्य स्तन्या दिव सिवि वा 'लधोरूपान्त्यस्य' ।।१३।४। इति गुणे 'व्यञ्जनाद्दे०।४।३।७८। इति दिवः लोपे 'से: स्धां०' ।४।३१७९। इति सिव्लोपे 'अनेन घ कारे आदिधकारे व अधोगिति । गां दोग्घीति गोधुक् । दामलिहमिच्छतीति अमा. व्ययात् क्यन् च ।३।४।२३। क्वनि विवपि च दामलिट् अय नामधातु न भ्वादिरिति न भवति । नन्वत्र सर्वेष प्रयोगेष धस्य व स्वगत्वे क्रियत इति ककारगकारयोरन्यतरविधानेनापि सर्वे प्रयोगास्मिध्ये गलति किं घत्व विधानेनेति चेत्सत्यं ककारगकारयोरभ्यतरविधाने चतुर्थान्तत्वाभावात् धोक्ष्यतीत्यादी 'गडदबादे०१२।११७७। इति चतुर्थत्व न स्यादिति ॥८३।। मुहद् हष्णुहष्णिहो वा (२।११८४। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०) एषां हो धुटि प्रत्यये पदान्ते च छ वा स्यात् । मोग्या, मोटा । उन्मुक्, उन्मुट् । द्रोग्धा, द्रोढा, मित्रधुक, मित्रधुट् । स्नोग्या, स्नोडा। उत्स्नुट, उत्स्नुक । स्नग्धा, स्नेढा । चेलस्निक, चेलस्निट ८॥ द्र हो नित्यं प्राप्तेऽन्येषामप्राप्ते विभाषा । मुहीच वैचित्त्ये अवं मुह्यत ति विपि उन्मुक । चेल स्निह्यतीति । विवप् सिञ्चतीत्यर्थः । ननु मुहार्दो त्येव क्रियतां कि धातुगणनेनेति । न चाधिकानां प्रमङ्गः स्यादिति वाच्य तदनन्तरं वृत्करणात् । तद्धि पुष्यादिपरिसमाप्त्यर्थमपि भविष्यतीति चेत्सत्यं मुहादेरिति गनिदेशमकृत्वा धातुपरिगणनं यङ लुप्यपि विध्यर्थम् तेन मोम ग्धि, मोमोढि, द्रु हौच जिघांसायाम् १२:९ द्रुह-धातोः दोद्रोग्धि, द्रोद्रोढि । अथ बोभवीति इत्यादयो नियता एव यङलुबन्ता लोके प्रजुज्यते तोषां प्रयोगो न स्यादिति चेत् तहि स्पष्टार्थः : पाठः ॥८४॥ महाहोद्धती ।२।११८५। महेब स्थानाहश्र धातोहों -धुटि प्रत्यये पदान्ते च यथासंख्यं धतो स्थाताम् ॥ नडा । उपानदयाम, आस्थ ८५। आहोऽन्यस्यासम्भवाद् 'गः पञ्चाना० ।४।२।११४॥ इति विहितस्याहस्य ग्रहणमत आह ब्रूस्थानाहश्चेति । यथासङ्ख,यमनुदेश:०' इत्याह यथासङ्गीमति । ननु आहेरपि धकारादेशकरणे 'अघोषे प्रथमो.' ।१२३५०॥ इति प्रथमत्वे 'आत्थ इति रुपं सेस्यतोति किमादेशान्तकरणेने-ति चेत्सत्यमादेशान्तरकरणम् 'अधश्चतुर्थात्त.'।२।१७९। इति थस्य धत्वनिवृस्यर्थमिति । न च 'ब्रूगः पञ्चानां०' ।४।२।११८॥ इति सूत्रण सिवस्थवि. धादेव धत्व न भविष्यत्यन्यथा धत्वमेव विदध्यादिति वाच्यं 'सिको धः' इति सूत्रान्तकरणे गौरवात् । उपानयामिति - उपनातीति क्विपि 'गतिकारक०' ।३।२।८५॥ इति दीर्घत्वम् । आत्थेति - आहेनियतविषयत्वात् पदान्तस्वाभावः इति पदान्ते उदाहरणं नोपदर्शितम् ॥८५।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९१) चज कगम् ।२।११८६॥ धुटि प्रत्यये पदान्ते च चजोः कगो स्याताम् । वक्ता । वाक् । त्यता। अर्धभाक् ॥८६॥ __ 'प्रागिनात्' ।२।१।४८। स्त्य दिविभक्तिः' ।१।१।१९। इति सूत्र निदिष्टकत्वगत्वरूपज्ञापकात् 'धुट पदान्ते' इत्यस्य चजाभ्यां कगाभ्यां प्रत्येकमभिसम्बन्ध द्यथासङ्खयाभावः । वचननिर्देशस्य तुल्यत्वात् चजय': क्गाभ्यां सह यथासङ्घय ग्न्वयः ननूभयविधानेन किमन्यतर विधानेनापीष्ट सिद्धरिति चेत्सत्यं केवलगविधाने पक्वादयः केवलकविधाने लग्नादयः न सिध्येयुरित्युभयविधानम् । अर्द्ध भजतीति भजो विण्' ।५।१।१४६॥ इति विण । कथ तच्चति.? उच्यते दस्य 'धुटस्तृतीयः' ।।१७ । इति तृत यत्वे पश्चाद् 'तवर्गस्य० ॥३॥६०। इति जत्वे पश्चात् 'अघषे प्रथमो० ॥१॥३॥५०॥ इति चत्वे दकारस्य परे कार्ये कर्तव्येऽसत्त्वात्तत्स्थाननिष्पन्नयो: चजयोग्प्यमत्त्वात् कत्वगत्वयोरभाव इति अच्च हल च अज्झलावित्यत्र सज्ञाशब्दत्वान्न भवति ॥८६॥ यजसृजमृजराजधाजभ्रस्जवश्वपरिवाजः शः षः ।२।१२८७ यजादीनां धातूनां चजोः शस्य च धुटि प्रत्यये पदान्ते च षः स्यात् । यष्टा । देवेट् । स्रष्टा । तीर्थसृट् । मार्टा । कंसपरिमृट् । राष्टिः । सम्राट् । म्राष्टिः । विभ्राट् । भ्रष्टा । धानाभूट । व्रष्टा । मूलवृट । परिवाट । लेष्टा । प्रष्टा । शब्दप्राट । यजाविसाहचर्याच्छोपि धातोरेव स्यात् । इह मा भूत् । निजभ्याम्। चज इत्येव । वृक्षवृश्चमाचष्टे वृक्ष ।८७। . देवेडिति - यजी देवपूजा • सङ गति-करण - दानेषु । देवान्यजयते इति क्विपि 'यजादिवचे: किति' ।४।१७९। इति वृच्च । सृजत् विसर्ग Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९२) स्रष्टेति - 'अः सृजिशोऽ० ।४।४।१११॥ इत्यदागमः । मृजौक् शुद्धौ कंसं परिमार्टीति कसपरिमृट् । राजग टुभ्राजि दाप्तौ राष्टि: म्राष्टिरित्वत्र तु ते ग्रहदिभ्यः' ।४।४।३। इति नियमात् क्तिरेव धुड् अन्यस्य विटा व्यवधान भवति । नन्वनय र्यङ लुबन्तयोन्यापि तिव दिट सम्भवति तत्कथं क्तिरेव धूडिति चेत्सत्यं यङ लुबन्तयोरन योरन्येषां मत .5 - प्रयोगः, इत्सुक किरेव धुडिति । भ्रस्जोंत् पाके धाना भृज्जत ति क्विपि धानाभृट् । ओ-बस्त्रोत् छेक्ने १३४१ मूलं व श्चतीति मूलवृट् । परिव्रजतोत्येवं शील: 'दिद्यद्ददज्जगज' ।।२।८। इत्यादिना विवबन्तस्यैव निपातनाद्धट्यसम्भवान्नद हृतम् । शकागन्तस्यो दाहरणम् लिशं गतौ लिश् धातोः लेष्टा प्रछत् जीप्सायाम प्रच्छनीति अनुनासिके०।४।१।१०८। इति शस्यानेन षः । शब्द पृच्छतीति दिधृद्दज्जा ' ।।२।८ः। इति क्विपि शब्दप्राट् । राजिसाहचर्यात् भ्राजेग्रहणाद् ‘एजङ भ्रङ भ्राजि दप्तौ' इत्यस्य गत्वमेव विभ्राक् विभ्राग्भ्याम् । अतः एव भ्राजेगत्मनेपदिनोऽपि राजग दुभ्राजि दप्तौ इत्यु उभयपदष पुनः पाठः साहचर्यार्थम् । न च 'आत्मनेपदमनित्यम्' इति न्यायेन भ्राजे रात्मनेपदिनोप्युभयपदिषु पुन: पाठः द्विर्बद्ध सुबद्ध भवति' इति न्यायेनात्मनेपदाव्यभिचाराथमिति भवता साहचर्यार्थमिति कथन न युक्तिसङ्गतमिति वाच्य तर्हि आत्मनेपदिष्वेव पुनः पठ्योति । नन्वेकस्य ट वनुबन्धत्वात् 'टि वतोऽथुः' ।।३।८३। इत्यन्यस्य नेति वाच्यं 'असरुपो.' ।५।१।१६। इत्युत्सर्गस्य प्रवर्तने एकेनापि धातुनाऽर्था भेदेने प्रयोगद्वय सेत्स्यति परं साहचर्याय द्विः पाठः इति । निशाशब्दस्य 'मासनिशा० ।२।१।१००। इति लुचि 'धुटस्तृतीय०' ।२।१७६। इति जकारे निजभ्यामित्यत्र जकारस्यासत्त्वात् 'चजः कगम' ।२।११८६। इति गत्वं न भवति । वृक्षवित्यत्र वकारस्य न भवति । कथं असृजिति । न च नञ्-पूर्वस्य सृजेः क्विबन्तस्य षत्वे भाव्यमिति वाच्यं न सृज्य त इति 'रुधि पृथि०' । उणा० ८७४ । इति किदजि रुपमिदम् ॥८॥ - संयोगस्यादौ स्कोलुक ।२।११८८ धु टः पदान्ते संयोगादिस्थयोः स्कोलुक् स्यात् । लग्नः । साध . लक् । वृक्णः । मूलवृट । तष्टः । काष्ठतट ८८ . Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३) यूज पो यो जे १४७६ संयुज्यते वर्णा अति व्यजनाद्धन्' १५।२१३२॥ इति घब सयोग: वैयाकरजसम्प्रदायाव्यञ्जनेरनन्तर्घ संयोगः। ओलस्बैति ब्रीडे ।१४७०। क्तप्रत्ययेऽनेन सलुच 'चमः कगम्' १२१११८६॥ इति कत्वे 'सूयत्याद्योदितः ४७०इति तस्य नत्वे च लग्न इति । साधु लज्जत इति चिपि साधुलक् 'सकारापदिष्टं कार्य तदादेशस्य शकारस्यापि' इति. न्यायात् वृषण: इत्यादी शस्यापि लुक् भवति । काष्टं तक्ष्णोर्त ति काष्टतड्। न च स्कोलुचि कृते तस्य परस्मिन्नसत्त्वात् 'पदस्य ।।१८९४ इति संयोग न्तस्य लपः स्यादति वाच्य स्को: पदास्ते लुचो विधानादसत्त्वाभावः । अन्यथा समुदायस्य लाप वास्यर्थ मिस्यत्र तु बहिरङ्गस्य विदध्यादिति । यत्त्वस्य अन्तरङ्ग स्कोलुंचि कर्तव्येऽसिद्धत्वात् संयोगादित्वे सस्यप्पनेनादेरुत्तरेब चान्तस्य लुग्न भवति । ननु मास पिपक्षतीति स्विपि, बचो विवक्षतीति क्विपि मामपिपक वचोश्विक इत्यत्र कत्वस्य लुक् कथं न भवति न च 'स्वरस्य०१७।४।११०॥ इत्यल्लोपस्य स्थानिवद्भावेन सयोगास्याभावास्न प्राप्नोतीति वाच्य न चासद्विधो स्थानिबदभाव निषेध इति वाच्यं 'अस्वलुकि' इति वचनाद नििन दिष्टमनित्यम्' इति न्यायेन 'अस्वलुकि' इति निषेधस्थ प्रायिकत्वेन स्थानित्वाभावात्प्राप्नोतीति चेत्सत्यं 'चजः कगम्' ।२।१।४।। इति कत्त्वस्य परस्मिन् ‘सयोयरया० ।।१८८। इति लोपे कर्तब्येऽसत्त्वान्न भवति ।।८८॥ पदस्य।२।१८९॥ पदस्य सयोगान्तस्य लुक् स्यात् । पुमान् । पुभिः महान् । पदस्येति किम् । स्कन्वा ।।९। । . . पदस्थेति विशेष्यं संयोगस्येति विशेषणम् 'विशेषणमन्तः' ७n ११३॥ इति परिभाषोस्थित्याऽऽह पदस्प संयोगान्सस्पेति षष्ठयाऽन्त्यस्य'। 1७४।१०६। इस्यन्त्यस्यः लुग्भवति । पुभिरित्यत्र सकारलोपः, महानित्यत्र लकारलोप: महानित्यत्र संयोगान्त लोपस्य परका सस्वाद'नाम्नो नोऽनह नः १२।११९१॥ इति नलोपो न भवति । एवं 'स्महतो:' ।१।४१८६॥ इति स्यादिविधी संयोगान्तलोपस्यासत्त्वाद्दीक़ भवति । पदान्ते संयोगान्तस्य लुक भंवत'त्युच्यमानेपि संयोगान्तस्य पदस्यैव लोपस्य सिद्धत्वात्पदस्येति वचन पदा Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) ससम्बनधुनिवृत्यमिति तेन सागतिशोषणयो: इति ३१९ स्कन्त्वेत्यादी बुटि परे लोपो न भवति । नच 'नाम सिदय० ॥१२१॥ इति पदत्वाल्लोपो भविष्यतीति वाच्य तेन नाम्न: पदत्वं विधीयते न तुधातारिति भवाञ्च शेते इत्यत्र तु विधानसामर्थ्यात् चलोपो न भवति ॥८९॥ - रात्स २०१९ पदस्य संयोगान्तस्य यो रस्ततः परस्य सस्यैव लुक् स्यात् । चिकी: कटचिकीः । स एवेति किम । उक: । न्यमा ९०॥ .. सस्येवेति- पूर्वेण सिद्ध सति नियमार्थोऽयमुपतिष्ठते । रादेव सस्यति विपरीतनियमस्तु 'पुवकर्मधारये' ३२१५७५ इत्यत्र कृतसंयोगान्तलोपस्य पुम्सशब्दस्य निर्देशान्न भवति । नन्वेवं तहिं अबिभः, अजाग: इर. 'यादौ 'बिभते नांगतश्च ह.यस्तन्या दिवि 'हव' ५११. इति द्वित्वेऽत्त्वे "पृ.भमा०' ।४।११५८॥ इतीत्त्वे 'द्वितीय० ॥४॥१॥४२॥ इति बरवे गुणे च नियभात् 'व्यञ्जनाद्दे० ॥४॥३॥७८॥ इति लोपो न प्राप्नोतीति चेत्सत्यं प्रकरणारपूर्वसूत्रविहितस्यैवायं न तूत्तरसूत्रविहितस्येति लोपो भवत्येव । चिकीर्षतीति विवपि.चिकी: षत्वस्य परेऽसत्त्वात्सस्य लुक । ऊर्जण बलप्रागनयो: १५८२ ऊर्जयनीति ऊ । मृजोक शुद्धौ १०९७ न्युपसगंपूर्वस्य मृजधातोहस्तनीदिवि उपान्त्यगुणे 'मजोऽस्य० ॥४॥३॥४२॥ इति वृद्धी दिलोपे अडागमे 'यज. सूज.' ।।१।८७। इति षत्वे तृतीयस्वे प्रथमत्वे च न्यमा ॥९०॥ नाम्मोनोऽमहः।२।१९१० 'पदान्ते नाम्नो नस्य लुक स्यात् । स चेदह नो म स्यात् । रामा। राजपुरुषः । अनहान इति किम् । अरेति ।९११ स्यादिविधावसन्नित्यनुवर्तते पर इति निवृत्तम् । स्यादिविधाक्सत्वात् "राजभ्याम्, राजभिः, राजसु इत्यत्र दीर्घत्वैस्त्वत्वान्यदन्तस्वाभावान्न भवन्ति अहरेतीति- अत्र 'रो लुप्यरि' ।२।१७५॥ इति रेफस्य परेऽसत्वान्नलोपप्रा Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९५) प्तिर त अहन्वर्जनेन प्रतिषेधः । न च निस्वम्मशत्वात् 'रो लुप्यरि' | २|१|७| इत्येव स्यादिति चेत्सत्यम् हे अहः इत्यामन्त्रये 'नामन्त्र्ये' । २।१।९२ ॥ इति नलोपप्रतिषेधात् एवत्सावकाश परे इत्यस्य निवृत्तत्वात् 'दोघंश्चि ० ' | ४ | ३ | १०८ | इति पर कार्ये कर्तव्येऽसत्त्व सावात् राजायते इत्यादौ दीर्घः सिद्धः । ननु वृत्रहभिरित्यत्र नल पेपरेऽसत्त्वाभावात् 'ह्रस्वस्य तः ० ' | ४|४|११४ । इत तोन्तः कथं न भवतीति सेत्सत्यम् 'असिद्ध बहिरङ्ग-मन्तरङ्ग' इति धातुमात्राश्रितनारङ्गतोन्ते कर्तव्ये स्याद्यपेक्षमा बहिरङ्गस्य नलोपस्यासिद्धत्व न्य भवति । ननु तन्नयनमित्यत्र पदान्तस्थस्य तस्य लोपः कथं न भवति इति चेत्सत्यं घुटस्तु यः । २।१।७६) सूत्र विहिततस्यासत्वात्तस्थानस्य नस्याप्यसत्वालोपो न भवति ॥ ९१ ॥ नामन्त्रये ।२।१९२। आमन्त्र्यार्थस्य नाम्नो नस्य लुक न स्यात् । से राजन् १९२ · ननु सिलुचः स्थानिवद्भावेन 'अधातुविभक्ति०' | ११२७| इति नामत्वाभावाल्लोपत्राप्तिरेव नास्ति किं प्रतिषेधेनेति चेत्सस्यमिदमेव प्रतिषेधवचन ज्ञापक 'अधातु०' ११११२७॥ इति नामसञ्ज्ञाप्रतिषेधो न भवतीति ॥९२॥ क्लीबे वा | २|१|९३० 'आमन्त्र्यार्थस्य नाम्नः क्लोबे नस्य लुग्वा स्यात् । हे बाम । हे दामन् ।९३। 'नाम्नो नोऽनलः | २|१|११| इति प्राप्तः 'नामध्ये' | २|११९२० इत्यनेन प्रतिषिद्धः, अनेन पुनः प्रसूतः ॥९३॥ मावर्णान्तोपान्तापञ्चम वर्मान् मतोम Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६) मावों प्रत्येकमन्तोपान्तो यस्य तस्मात् पञ्चमवर्जवर्गान्ताच्च नाम्नः परस्य मतोर्मो वः स्यात् । किंवान् । शमोवान् । वृक्षवान् । मालावान् । अहर्वान् । भास्वान् । मरुत्वान् १९४। __ मकारावर्णयोरन्योपान्त्याभ्यां सह यथासङ्ख्यमन्वयस्तु 'नोादिभ्यः' ।२।१०९९। इति निषेधान्न भवति अन्यथा ऊमिमानित्यत्र मकारान्तः त्वाभावात् आदिपदग्राह्य यवमानित्यत्र अवर्णोपान्त्यत्वाभावाच्च प्राप्तेभावात्प्रतिषेधोऽनर्थक: स्यादिति । अथवा 'भोगवद गोरिमत' ।३२।६५॥ इतनदेशाद्वा । मतोर्म इति- अवयवाव विभावसम्बन्धे षष्ठी मतोरवयवस्य मकारस्येत्यर्थः । मः इत्यनुपादाने 'षष्ठयाऽन्त्यस्य' ७।४।१०६। इत्यत्यस्य तस्य स्यादथवा 'प्रत्ययस्य' ७।४।१०८। इति सर्वस्य स्यादिति । किवानिति-केऽस्य सन्तीति- 'तदस्यास्त्य०७।२।१॥ इति मतावनेन वत्वे 'तो मुमो०' ।१।३।१४। इत्यनुस्वारे। तत: सिलुकि 'ऋदुदितः' ।१।४।७। इति नागमे 'अभ्वादे०' ।२।१८३॥ इति दीर्घत्वे 'थदस्य' ।२।११८९। इत्यन्तलोपे च सिद्धम् । मकारान्तस्योदाहरणमिदम् । शमीवानिति- शम्यस्त्यस्मि. निति शमीवान् मकारोपान्त्यस्योबाहरणमिदम् । मालावानिदमाकारान्तस्योदाहरणम् । अहोऽत्रास्तीति-अहर्वान् ‘रो लुप्यरि'।२।११७५। इति रत्वं अकारोपान्त्यस्योदाहरणमिदम् । 'भास्वानिदमाकारोपान्त्यस्योदाहरणम् । मरुत्वानिदं पञ्चमवर्जवर्गान्तस्योदाहरणम् 'न स्तं मत्वर्थे' ।।१।२३॥ इति निषेधात् भास्वानित्यत्र रुत्वं मरुत्वानित्यत्र दत्वं च न भवतः ॥१४॥ मामिन ।२।१९५। संज्ञायां मतोर्मों वः स्यात् । अहोवती मुनीवती नद्यौ ।९५। नाम द्वधा लौकिकं शास्त्रीयं च निरुढलक्षणाकं यज्ञदत्तादि, यत् 'सञ्जा' इति प्रसिद्धम् । शास्त्रीयं 'अधातुविभक्ति०' ।१।१।२७। इति विहितं तत्र प्रत्यासत्या शास्त्रीयस्य ग्रहणे प्रसने नामाधिकारेणव नाम्नि लब्धे नामग्रहणमतिरिच्यमानं ज्ञापयति यदत्र लौकिकं नाम ग्राम्ह्ममत आह सम्मायामिति- गणिनीयास्तु नाम्नः प्रातिपदिकमिति संज्ञति ब्रुवन्ति । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७) अहोचती मुनीवतीति- 'नयाँ मतुः' १६२७॥ इति चातुरविको मतुः 'अनजिरा० ॥३३३७८ इ ते दीर्घत्वमेवनामानौ नद्यो । ९.॥ चर्मण्वत्यष्ठीवच्चक्रीवत्कक्षीवद् मण्वत् ।२१९६॥ एते मत्वन्ताः संज्ञायां निपात्यन्ते । चर्मण्यती नाम नदी । अष्ठी. वान् जानुः । चक्रोवान् खरः । कक्षीवान् ऋषिः । रुमवान् गिरिः चर्मन्शनस्य नलोपाभावो णत्वं च निपास्यते । अस्थिशब्दस्याष्ठोभावः चक्रशब्दस्य चक्रीभाव: खर: गदभः रासम इति यावत् कक्ष भवा कक्षाय हिता कक्षे साधुर्वा 'दिगा द०।६।३.१२४॥ इत्यादिभिर्ये कक्ष्या कक्ष्या. शब्दस्यानेन कक्षीभावः लग्श् छेदने १५१९ लुवाति बैरस्यमिति 'नन्द्यादिभ्योऽनः' ।।११। इत्यनेऽ त एघ गण गठाण्णत्वे च लवणम् लवणशब्दस्य रुमभव: मनाया अभावे तु चर्मवती, अस्थिवान्, चक्रवान्, कक्ष्यावान, लवणवानि त अये त्व हुः रुमन्निीि प्रकृत्यन्तरमस्ति तस्यैतन्निपातन नलोपाभावार्ष षत्वार्य च, वत्त्वं तु यथायोगमस्त्येव । संज्ञाया अभावे लवणवान् ॥९॥ उदन्वानन्धौ च २०१९७ अग्धौ जलाधारे नाम्नि च मतो उदयान्निपात्यते । उदस्वान् घटः • उदन्वान् समुद्रम अधिः आश्रमश्च ।९७: . आफो धीयन्तेऽस्मिन्नति 'व्याप्यादाधारे' ।५।३।८८॥ इति को अब्धिः । उदकस्योदभावो निपात्यते उदन्भावसामन्निलोपो न भवत्यन्यका उदभाको निपास्येतेति । नाम्न्युदाहियते ऋषिरामश्चेति- उदन्वान् नाम ऋषि: उदन्वान्नांमाश्रमश्चति ॥९॥ . . - 'राजन्वान् सुराज्ञि१५९८॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) सुराजकेर्थे राजन्वान् मतौ निपात्यते । राजन्वान् देशः । राजन्य त्यः प्रजाः १९८० सुराशीति- शोभनो राजा यस्य तस्मिन्नभिधेये इत्यर्थः । राजन्वान्देश इति - शोभनो राजाऽस्यास्मिन् वास्तीति लिङ्गवचनयोरतन्त्रत्वादाहराजन्वन्त्यः प्रजा इति । राजसत्तासम्बन्धमात्रे विवक्षिते तु राजवानित्येव भवति ॥९८॥ नोम्र्म्यादिभ्यः । २।१।९९ । कर्म्यादिभ्यो मातोर्मोवो न स्यात् । ऊम्मिमान् । ६ल्मिमान् इत्यादि ९९| ऊर्मिमान् दल्मिनानित्यत्र मोपान्त्यत्वात्प्राप्ते प्रतिषेधः । बहुवचनमाकृतिगणार्थं तेन यस्य सति निमित्ते वत्त्वं न दृश्यते स ऊर्म्यादिषु द्रष्टव्यः । असदधिकारोऽ व निवृत्तः ॥ ९९ ॥ मासनिशासनस्य शसादौ लुग्वा | २|१|१०००, शसादौ स्यादावेषां लुग्वा स्यात् । मासः मासान् । निशः निकाः । आसन आसने ।१०० 'षष्ठयाऽन्त्यस्य' |७|४|१०६ । इत्यन्त्यस्य लुग्भवति । स्यादिभिन्नः शसादिनं सम्भवतीति स्यादावित्युक्तम् । यद्यपि सङ्घार्था०' |७|२|१५१ इति विहितः शस् सभवति तथापि 'सङ्ख्यादे० ' | ७| २।१५२। इत्यकलादोनामसम्भवेनादिग्रहणस्यानर्थक्यप्रसङ्गादित्युक्तम् । यद्वा मण्डुकप्लुतिन्यायेन स्यादिरनुवर्तनीयः अथवाऽऽदिशब्दस्य व्यवस्थावाचित्वाद्वा स्यादिरेव लभ्यत इति । मासशब्दस्य भ्याम्यनेनान्तलोपे 'असिद्ध' बहिरङ्गमन्तरङ्ग" इति न्या. याकारस्यासिद्धत्वेन 'सो रु' | २|११७२ ॥ इति रुत्वाभावे 'घुटस्तृतोय:' । |२||७६ | इति कर्तव्ये तु न्यायस्यानित्यत्वाद् माद्भ्यामिति केचित् मन्यन्ते । अन्ये तु माभ्यामिति स्वमते तुभयमपि भवति । निशुशब्दे सत्यपि 1 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९९) निशाग्रहणं निज्म्यामित्यस्य सिद्धयर्थमन्यथा निशशब्दस्य भ्यामि विवबन्तस्वाद् धातुत्वे 'यजसृज०' ।२।११८७। इति षत्वे निड्भ्यामित्येवस्यात् सुपि तु त्वनेनान्तलोपे 'धुटस्तृ०।२।११७६। इति तृतीये, जकारे, जकारस्य प्रथमत्वे 'सस्य शषौ' ।१।३।६१॥ इति सुपः सस्य शत्वे 'प्रथमादधुटि.' ।३।४। इति छत्वे निच्छु । जकारस्य तु परे गत्वेऽसत्त्व द् गत्वं न भवति ॥१०॥ .. . दन्तपादनासिकाहृदयास्ग्यूषोदकदोयकृच्छकृतो दत्पन्नस्हृदसन्यूषन्नुदनदोषन्यकञ्छकन् वा ।२।१।१०१॥ शसादौ स्यादौ दन्तादीनां यथासंख्यं दत् इत्यादयो वा स्युः । दतः, दन्तान् । पदः, पादान् । नसा, नासिकया। हृदि, हृदये । अस्ना, असृजा । यूष्णा, यूषेण । उद ना, उदकेन । दोष्णा, दोषा। याना, यकृता । शक ना शकृता ।१०१॥ . 'यथासङ्ख्यमनुदेश: समानाम्' इति न्यायादाह यथासङ्खयमिति ॥१०॥ यस्वरे पादः पणिक्याटि ।२।१।१०२।। णिक्यघुट :वर्जे यादौ स्वरादौ च प्रत्यये पादन्तस्य पद स्यात् । वयाघ्रपद्यः । द्विपदः पश्य । पादयतेः क्विपि । पाद् । पदी कुले। यस्वर इति किम् । द्विपाद्भपाम् । अणिक्यघुटीति किम् । पाव. यति । व्याघ्रपाद्यति । द्विपादौ ।१०२॥ नाम्नः इत्यस्य विशेषणात्तदन्तविधेराह-पादन्तस्येति । 'निदिश्यमानस्यवादेशा' भवन्ति' इति पाच्छब्दस्यवाऽऽदेश: न तु तदन्तस्य सर्वस्य । बयाघ्रपद्य इति व्वाघस्येवि पादावस्येति-व्याघ्रपाद् 'पात्पादस्य०' ७।३।१४८। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०० ) इति पाद्भावः । तस्यापत्यं वृद्ध वैयाघ्रपद्यः 'गर्गादिर्यञ्' | ६ | १|४२ । इति यन् 'स्त्र: पदान्तात्प्रागे० ' | ७|४|५ । इत्येकारागमः । द्वौ पादावेषान्ते द्विपादः तान् द्विपद: 'सुसङ्ख्यात्' ।७।३।१५० इति पादादेशेऽनेन पदादेशः । पदी कुले इति - 'ओगे : ' | १|४१५६ | इतीकारः अत्र व्यपदेशिवद्भावेन पादन्तत्वम् । पादयतीत्यादि पादमाचष्टे अत्र व्यञ्जनान्तः पाच्छन्दोऽस्ति न तु स्वरान्तः तस्य स्वरान्तत्वे वल्लोपस्य स्वरस्य ० ' ।७।४।१०० । इति स्थानिवद्भावेन द्वङ्गविकलता स्यात् । ननु तर्हि पादयतेः क्विपि पाद पदी कुले इति कथं तदाप्यल्लोपस्य स्थानिवद्भावः स्यादिति चेन्मैवं प्रत्यासत्तिन्यायाद् यस्मि न्प्रत्यये लुक् तस्मिन यद्यादेशः प्राप्नोति तदा स्थानिवद्भावः । अत्र तु गावकारल ेप ईप्रत्यये त्वादेशः इति न स्थः निवद्भाव इति । यदा व्यञ्जनान्ताणिज् ता तु नःस्वरस्य' | ७|४|४४ | इति निषेधान्नान्त्यस्वर दिलोपः । व्याघ्रपादमिच्छतितीति क्यनि व्याघ्रपाद्यति । द्विपाद वित्यत्र 'पु स्त्रियोः स्यमौजस् | २|१|५९ | इति घुट, संज्ञत्वात् पद्भावो न भवति । जिक्यधुटां प्रत्ययत्वात् तत्पर्युदासेन प्रत्ययस्य प्राप्ती 'सप्तम्यां आदि |७|४|११४ | इति यादी स्वरादौ च प्रत्यये इति लब्धम् तथा च सति रेकस्वरत्वात् णिवर्जन व्यर्थं सत् :आद्यन्तवदेकस्मिन्निति न्यायां देशस्यादिवत्कार्यस्य ज्ञापकमि दम् । अन्तवत्कार्याशे ज्ञापकं तु 'हि वणोरप्विति०' | ४ | ३ | १५ | इति सूत्रण यत्त्वविधानम् ततु 'धातं वि० ' | २|१|५० । इतीयबाधनार्थम् एतदिय् तु इवन्तिस्य विधीयत इति तस्यैकवर्णस्येवर्णान्तत्वा-भावादनेन प्राप्त्यभावात् :इबर्णादे० ' |१| २|२१| इति यत्वं सिद्धमेव तथापि यत्वविधानं व्यर्थ सदेक"स्मिन, अन्तवत्कार्यं ज्ञापयति ॥ १०२ ॥ " , - उदच उदीच् | २|१|१०३॥ अणिक्य: यस्वरे उदच उदीच् स्यात् । उदीच्यः, उदोची । अणिक्यघुटीत्येव । उदयति । उदच्यति । उदञ्चः । उदच इति किम् । नि मा भूत् । उदञ्चा ! उदञ्चे ।१०३॥ उदयतीति विवपि 'अञ्चोऽनचयाम्' | ४|२|४६ | इति नलोप 'तत्र साधी' | ७|५| १५ | इति यप्रत्यये उदीचि भवः 'द्य प्रागुदक्प्रतीचो यः' १६ | ३|८| इति ये वाऽनेन उदीचादेशे उदीच्य इति । स्त्रियां 'अञ्चः' | २|४|३१ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) ति वां उदीचीति । उदञ्चमाचष्टे उदयति । उदञ्चमिच्छत्तीति - उदः . च्यति । उदञ्चः इत्यत्र 'अचः' ।११४१६२॥ इति नागम: । लुप्तनकारस्याञ्चे निर्दे शाक्विप्यचार्या नलोपाभावे उदञ्चा उदञ्चे इस्येव भवति न तूही. " चादेशः । ननु गिवर्ज न किम् तदभावेप्यनेनादेशे कृते श्यन्त्यस्वरादे: 1७४॥४३॥ इत्यन्त्यस्वरादिलोपे उदयनीति सेत्स्यतं ति चेन्मेवम् अस्य 'सकृ गते.' इति न्यायशापनार्थत्वात् सस्यस्मिन्न्याये विशेषविहितत्वात् लुवं च वित्वा प्रथममादे पश्वाद 'सकृद् गते स्पर्द्ध यबाधितं तद्बाधित मेव' इति न्यायान्न भवति न णिवजन सार्थकम् ।।१०।। अच्च् प्राग दीर्घश्च ।२।१।१०४॥ मणिक्यघुटि यस्वरादी प्रत्यययेऽच् च स्यात् प्राक स्वरस्य दीर्घः । प्राध्यः । दधीचा । अणिक्यघुटीत्येव । बध्ययति । बध्यच्यति । ध्यञ्चः । अचिति किम् । निमा भूत । साध्वध्या1१०४॥ प्रावि भवः प्राध्यः दध्यञ्चतीति क्विपि तेन दघोचा। दध्यञ्चमाचष्ट इति दध्ययतन्यच परस्वातु 'समानानांक' ११२२०३३ इति दीर्घत्वं बाधिस्वा गुणः । तथाऽत्र 'स्वरग्यजनयोरभेदम्यायेन 'स्वरस्य०७४।११०॥ इत्यचः स्थानित्वा दधीकारवृडियभावः इति । बध्यकचमिच्छतीति बध्य. ध्यति 'पुस्त्रियोः स्यमौजस्' ।।१।२९। इति घुट प्रत्यले दध्ययः । षदम चसीति विपि दृषच्चा दृषच्चे इत्यत्र यद्यपि दकारस्यासन्नो ल कारः दो प्राप्नोति पर 'स्वरस्य हस्वदीर्घप्लुताः' इति. म्यायाद्दोषों न भवति । न च व्यवहितस्याकारस्य दीर्षः स्यादिति वाच्यं प्रावशब्दस्यानन्तरामस्वादन एव पूकाहगमकृत्वा प्राग्ग्रहणं कृतमिति । नान्याचीयमाननिवृत्तौ प्रधानस्य' इति न्यायाद् दीर्घत्वनिवृत्तावपि चकारस्तु भवयेस्व । लुप्तनकारस्याम्चेनिर्देशात् साध्वञ्चः पश्य साध्वञ्चा,साध्वञ्चे इत्यत्र न भवति ॥१०४॥ क्वसुमतौ च ॥२११११०५॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) अणिक्यधुटि यस्वरे मतौ च प्रत्यये क्वस उष् स्यात् । विदुष्यः। . विदुषा । विदुष्मान् । अणिक्यघुटात्येव । विद्वयति । विद्वस्यति । विद्वांसः ॥१०॥ . विदुख्य इति- वेत्तीति विद्वान् ‘वा वेत्त: क्वसुः ५।२।२२॥ विषि साधुः तत्र साधौ' ।।१।१५॥ इति यप्रत्ययः । विद्वान्सः सन्त्यत्र स.. विदुष्मान् । विद्वांसमाचष्टे विद्वयति । विद्वांसमिच्छनीति विद्वस्यति । पेचुषि साधुः पेचुष्यः पेचुषा पेसुष्मा नित्यत्र 'घसेकस्वरात: क्वस:४४८२। इती"ट सहितस्यापि क्वसो: 'आगमा यद्गुणोभूतास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते' । इति न्यायाहिट सहितस्यापि क्वसोरूषादेश: । उषित्वत्र षकारकरण 'नाभ्यन्त. स्था०' १२।३।१५। इत्येव सिद्ध प्रक्रियालाघवार्थम् ॥१०॥ . . एवनावन्मघोनो डोस्याद्यप्युट स्वरे व 3. ।२।११०६॥ इयां स्याद्यघुट स्वरे च श्वनादीनां व उः स्यात् । शुनी शुनः। अतियूनी । यूनः । मघोनो । मघोनः। डीस्थाह घुट स्वरः इति किम् । शौवनम् । यौवनम् । माघवनम् ।१०६।। .: श्वा च युवा मधवा च तस्य । शुनीति - स्त्रियां नृतो. ॥२॥४१॥ इति डीः । युवानमतिक्रान्ता अतियूनी समासाद् 'स्त्रियां नृतो.'।२।४ाश इति डीः । मधोनीति - धवाद्योगादपालका०' ।२।४।१९। इति डी: । शौवनमिस्यादि - शुन इदं 'तस्येदम्' ।६।३।१६। इत्यण, शुन: विकारः इति तु न कार्य तथा सति 'एकस्वरात्' ।६।२।४८॥ इति मयट स्यात् । युनो भाव: कर्म वा 'युवादेग्ण' ७४९।६७। इत्यण । मधोनः इदं तस्येदम्' 12१६०। इत्यण् । एषु सर्वत्र 'अणि ७४॥५२॥ इति निषेधादन्त्यस्वरादिलोपाभाव: । नका. ‘रान्त-निर्देशात् गोष्ठश्वेन युवतीः पश्य मधवतः पश्येत्यत्र न भवति । गोष्ठे श्वेति 'सप्तमी शोण्डाद्य:'।३।११८८। इति समास: गोष्ठाते:०' १७३।१०। इत्यट् । 'युनस्ति:' ।२।४१७७॥ इति तो शसि च युवती गिति । मघो ज्ञानं सुखं वास्यास्तीति मघवान् तस्यान चसमासान्तः समासस्यावयवो भवतीति गोष्ठ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३) श्वेनेत्यत्र अधुर स्वरादिप्रत्ययस्य व्यवधानादेव न प्राप्तिरिति किं नकागनिर्देशादिति कथनेनेति वाच्यं समासान्तः समासस्यावयवो भवति तथोतरपदावयव पीष्यत इति ततश्च श्वशब्दावयवत्वादव्यवधानेन प्राप्तिरिति ॥१०६ ॥ लुगातोऽजाप | २|१|१०७ आपवर्जस्पातो ङीस्याद्यघुट स्वरे लुक, स्यात् । कीलालपः । हाहे देहि | अनाप इति किम् । शालाः ॥१०७॥ अत्रासम्भवेयुत्तरार्थं ङी रित्यनुवर्तते । कीलाल पिवतीति विवपि विचि वा कीलालपाः तान् कीलालप: । 'ओहाङ्क, गतौ' हाशब्दं जिहीते गीतका कर्तव्यतया आप्नोतीति विचि हाहा: तस्मै हाहे । देहीति 'हो दः' |४|१|३१ । इ'त क्त्वाटाशब्दयोः केचिदस्त्रीत्वं केचित्स्त्रत्व चेच्छनीति- ततः स्त्रत्वेनाप इति वचनादनेन लुगभावे क्त्वायाः टाया इत्येव भवति अस्त्रीबे त्वनेन लुचि क्त्वः, टः इत्याद्य ेव भवति ।। १०७ ।। अनोsस्य |२||१०८1 ङीस्याद्यघुट - स्वरेऽनोऽस्य लुक् स्यात् । राज्ञी । राज्ञः । १०९ । 'राज्ञीति : स्त्रियां नृतो० ' | २|४|१| इति ङ े, 'तवर्गस्य ' - || १ | ३ |६० | इति नस्य वः । न च 'स्वरस्य ० ' | ७|४|११० । इत्यत्र प्राचो विधि: प्राग्विधिरिति पञ्चमीसमासस्यापोष्टतया ञत्वे कर्तव्ये स्वरादेशस्य स्थानिवद्भावात्-क - कथं त्वमिति वाच्यं 'न सन्धि ० ' |७|४|१११ । इति सन्धिविघौ स्थानिवद्भाव निषेधाद् ॥ १०८॥ ईडौ वाः | २|१|१०९ । ईकारे ङौ च परेऽनोऽस्य लुग्वा स्यात् । साम्नी सामनी राशि Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४ ) राजनि ॥१०९॥ fsargasterरोपि विभक्तिरुप एव ग्राह्यस्नेन ' औरी : ' । । १।४।५६। इत्यौकार स्थाननिष्पन्न एव गृह्य ते तेन ङी प्रत्यये तु पूर्वेण नित्यमेव 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य' इति न्यायाद्वा ॥ १०९ ॥ षादिहन्धुतराज्ञोऽण | २|१|११० | पावेरनो हनो धृतराज्ञश्चातोऽणिप्रत्यये लुक् स्यात् । औक्षणः । ताक्ष्णः । श्रौणघ्नः । घातं राज्ञः ॥११०॥ 'S उयस्य मिति 'ङ' पत्ये' | ६ | १|२८| इत्यण् । तक्ष्णोऽपत्रमिति 'सेनान्त०' । ६ । ११६० । इत कारूद्वारा प्राप्त रस्य बाधकः "शिवादेरण् । ६ । १ । ६० । इत्यण् । भ्रूणं हतवा - निति 'ब्रह वभ्रूणवृत्रात् क्विप्' | ५ | १ | १६ | इति विर्वापि भ्रूणघ्नोपत्यमिति 'ङसोपत्ये' | ६|१|२८| इत्यण्यनेनाल्लीपे 'हनो हमो घ्नः' २११२ ॥ इति ध्वादेशे भ्रौणघ्नः इति । धृता सजानो येन तस्यापत्यमित्यणि ध राज्ञः ॥ ११०॥ न वमन्तसंयोगात् । २।१।१११| वान्तान्मान्ताञ्च संयोगात्परस्यानोऽस्य लुग्न स्यात् । पर्वणा । कर्मणी 1999 1 वमयोः संयोगविशेषणत्वेन 'विशेषणमन्तः' | ७|४|११३ | इत्यन्तत्वे लब्धेऽन्तग्रहणं स्पष्टार्थम् । अन्यथा 'वमसंयोगात्' इति समस्तनिर्दे शेऽनयोरेव संयोगात् इत्याशङ्का स्यात् । 'वमः संयोगाद्' इति व्यस्तनिदेशे वकारमका - राभ्यां परो यः संयोगस्तस्मा - दित्यपि प्रतीयेतेति । पर्वणेति 'अनोऽस्य' | २|१|१०८ । इति प्राप्ते वान्तसंयोगात् परत्वाद - नेन प्रतिषेधः एवमग्रेपि ||२१|१११। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५। हनो ह नो हनः ।२।१।११२॥ हन्तेह नौ घ्नः स्यात् । भ्रूणघ्नी । घ्नन्ति । हुन इति किम् । वृत्रहणौ ।११२॥ . . . . .. भ्रूण हतवतीति 'ब्रह्म भ्रूण० ।५।१६१६१॥ इति विवपि 'न वा. शणादे:' ।२।४।३१। इति ड्या 'अनोऽस्य' ।२।१।१०८। इत्यकारलापे - नेन ध्न देशे च भ्र णनीति । 'गमहनखन. ४२१४४॥ इत्यकारलोपेऽनेन घ्नादेशे च नन्त ति । वृत्र हतबतौ पूर्ववत्ववपि वृत्रहणौ ॥११२॥ ... लुगस्यादेत्यपदे ।२।११११३॥ अपदादावकारे एकारे च परेऽस्य लुक स्यात् । सः । पचन्ति । पचे । अपर इति किम् । दण्डानम् ।११३॥ अपरे इति 'अदेति' · इत्यस्य विशेषणमतः 'सप्तम्या आदिः' १७।४।११४। इ.याह - अपदादाविति - आदिशब्दोवयववाची अतः अपदाघवयवभूतेकारे एकारे च परत इत्यर्थः । 'सप्तम्या पूर्वस्य' ।७।४।१०५॥ इत्यव्यवहितपूर्वस्यैव लुग्भवत त्यर्थः । पचधातो: वर्तमानाया एप्रत्यये 'कर्तर्यन' ।३।४।७१॥ इति शव्यनेनाकारलोपे च पच इति । दण्डामिति - ननु 'वत्त्यन्तो० ॥१२॥२५॥ इत्यग्रशब्दस्य पदत्वाभावात अकारस्य लुक कथं न भवतीति चेत्सत्यं 'पदे एव' इति सावधारणब्याख्यानान्न भवति अत्र तु वृत्तः पूर्व पदत्वमप्यासीदिति । ननु तहि प्रायणमित्यत्र गतिकारक०' । इति, न्यायादिवभक्तयत्पत्त: प्रागेव समासेऽपदत्वादकाग्लोपः कथं न भवतीति चेत्सत्यं वेदूतोऽनव्यय० ॥२।४।९८॥ इतिवत् 'अपदे' इत्युत्तरपदमपि गृह्यते 'ते लुग् वा १३५२।१०८। इत्युत्तरशब्दलोपादिति ।।११३॥ डित्यन्त्यस्वरादेः ।२।१।११४॥ स्वराणां योऽन्त्यस्वरस्तदादेः शब्दस्य डिति परे लुक स्यात् । मुनो। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६) साधो । पितुः ॥११४॥ सति यस्मिन्यस्मत्पूर्वमस्ति परं नास्ति सोऽन्तः तत्र भवः अन्त्यः । मनावित्यादि - 'डिडौं : | १|४|२५॥ इति 'ऋतो हुर्' ३७ इति अनेन आद्यन्तवदेकस्मिन्निति व्यपदेशिवद्भावेनान्त्यस्वरादेर्लुक् । महत्या कर: महाकरः इत्यत्र 'स्त्रियाम् |३|२|३९| इति डादेशेऽद्र पस्थ लुक् ॥ ११४॥ अवर्णादिश्नोऽन्तो वास्तुरीडयोः । २।१।११५॥ श्नावर्जादवर्षात् परस्यातुः स्यानेऽन्तो वा स्यात् । ईडयोः । तुद म्ती तुदती कुले स्त्री वा । एवम् भान्ती भाती । अवर्णाविति किम् । अदती । अश्न इति किम् । लुनती ॥११५॥ अवर्णादिति - नान्तवर्जितादवणन्तिः त्परस्येत्यर्थः अथवा श्नावजितात् नाप्रत्ययावयवो यो न भवति तस्मादवर्णात्परस्येत्यर्थः । नाशब्देन श्नाप्रत्ययसम्बन्ध्य वर्ण उच्यते इति भावः । अत एवं अश्न इति प्रतिषेधो युज्यते तुदीत् व्यथने 'शत्रानशा० १५२२०१ इति शतृप्रत्यये 'तुदादेः शः | ३४१८१ इति शप्रत्यये 'अधातू २४२॥ इति यां 'औ' | १४|५६ | इंतीस्त्रे वाऽनेन वाऽन्तादेशे 'लुगस्यां०' | २|१|११३ ॥ इत्यल्लोपे च तुदन्ती तुवतीति । 'अदं भक्षणे' शतृप्रत्यये अदतं ति । लुग्श् छेदने शतृप्रत्यये' ऋयादेः | ३ | ४ ४७९ । इति नाप्रत्यये 'इनश्चातः ॥४२॥९६॥ इत्यातो सुचि च लुनर्तति । अवर्णादिति विशेषणाद् अश्न इति प्रतिषेधाच्च सुदन्ती । भांक् दीप्तो भारतीत्यादी 'लुगस्या०' |२| १|११३ | 'समानानां०' ||२|| इति लोपदीर्घाभ्यां पूर्वमेवान्तादेशोऽन्यथा ईड्योरनपेक्षत्वेन वर्णमात्राश्रयत्वेनान्तरङ्गत्वात्पूर्वं लोपदीर्घत्वयोः कृतयो - वर्णासरत्वाभावात् शतृप्रत्ययस्यान्तादेशो न स्यादिति यद्वा भूतपूर्वतया पश्चादन्तादेशः । 'वर्णात्प्रकृतं बलीयः' इति तु नेहोपतिष्ठते भिन्नकालत्वात् तथा हि ईङयोः सद्भावेऽन्तादेशः प्राप्नोति लोपदीघौं तु ततः प्रामेवेति ॥ ११५ ॥ - श्यशवः | २|१|११६० Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७) श्याच्छवश्च परस्याऽतुरोङयोः परयोरगत इत्यादेशः स्यात् । वीव्यन्ती । पचन्ती ।११६८ पूर्वेणैव सिद्ध नित्यार्थमिदम् । दिध्यतीति - दिवूच क्रीडादी ११४४ 'दिवादे श्यः' ।३।४।७२। इति श्यः । दिव औः सो ।२।१।११७॥ दिवः सौ परे औः स्यात् । चौः।११७॥ निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य' इति न्यायात्सानुबन्धस्य दिवूचधातोः अक्ष दिव्यतीति क्विपि ऊटि कृते 'एकदेशविकृ०' इति न्यायात्प्रा. प्तावपि न भवति । अत्राव्युत्यन्नस्य दिवो नाम्नो ग्रहण व्युपत्तिपक्षेपि 'दिवेडिव्' उणा० ९४९ । इत्यवयवानां सानुबन्धत्वं न तु नाम्न इति । धौरिति - अत्र 'उ: पदान्तेऽनूत्' ।२।१।१०८। इति प्राप्तेप्यनवकाशस्वादनेन औरेव प्रवर्तते न तुकारः । दिवः औकारेण सम्बन्धात् से: परत्वमात्रविज्ञानात् प्रिया धो: यस्य स प्रियद्योरित्यत्रापि भवति ॥११७॥ - उः पदान्तेऽभूत् ।२।१।११८॥ पदान्तस्थस्य दिव उः स्यात् अनूत् । स तु बी? न स्यात् । भ्याम् । युषु । पदान्त इति किम् । दिवि । अनूदिति किम् । न्युभवति ॥११९॥ . भवतीति - अद्यौद्यौं भवतीति 'कृम्वस्तिभ्यां.' ७।२।१२६॥ इति विः, 'नपयोगीत् ११११३७। इति तस्य लोप: 'ऊर्याद्य०' ६१२। इति गति सज्ञा गतिः' ॥११॥३६॥ इत्यव्ययसञ्ज्ञा अत्रानूदिति वचनात् 'दीर्घश्च्वियङ०' ।४।३।१०८। सूत्रात् दीर्घत्व न भवति । ऊकारस्य निषेधात् धु कामस्यापत्य धोकामिरित्यादो वृद्धिस्तु भवत्येव । ननु 'दिवौकसः' इत्यबान्तवर्तिनीं विभक्तिमाश्रित्य पदादावुकारेण भाव्यमिति चेत्सत्यं पृषोदरादित्वात् अकारागमो भवति अथवा वृत्तिविषये अकारान्तो दिवशब्दोऽस्ति । वृत्तिविषये एव प्रयुज्यते केवलस्तु न प्रयुज्यते इत्यर्थः ॥११८॥ . इति द्वितीयाध्याये प्रथमः पादः ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयाध्याये द्वितीयः पादः क्रियाहेतुः कारकम् ।२।२।१।।... क्रियाया निमित्त कादि कारकं स्यात् । करोतीति कारकमिति. अन्वर्थाश्रयणाच्च निमित्तत्वमात्रेण हेत्वाः कारकसंज्ञा न स्यात् ।१। कारकं द्रव्याणां स्वपराश्रयसमवेतक्रिया नवर्तकं सामर्थ्य शक्तिः । क्रिया त्रेधा स्वाश्रिता, पगमिता, उभयाश्रिता च । चैत्र आस्ते इति स्वाश्रिता । घटं कर तीति परापिता । अन्योन्यमाश्लिष्यतः मित्रे इत्युभयाश्रिता तस्यास्त्रिविध क्रियाया विर्तकं निष्पादकं सामर्थ्य शक्ति: कारक मित्युच्यते । द्रव्यस्य कारकत्वे तु प्रतिबन्ध कमन्त्रादिसन्निधानासन्निधानाभ्यां दहनादेर्दाहोत्पत्त्यनुत्पत्तो न स्याताम् । द्रव्यस्वरूपस्य सर्वथैव विद्यमानत्वादुत्पत्तिरेव स्यात्तस्माच्छ करेव कारकम् । चैत्रादेस्तु कारकत्वं शक्तिशक्तिमतोर भेदनयेन । अन्वर्थाश्रयणाच्चेति- चकार' त्रैवकारार्थेऽ-वधारणे वर्तते । हेत्वादेरितितेन विद्ययोषित इत्यत्र विद्याशब्दस्य कारकत्व भावान्न 'कारक कृता ।३।१॥ ६८॥ सूत्रासमासः । तृतीया तुहेतु० ।२।२।४४। सूत्रेण कृता । आदिशब्दात्सम्बन्धस्य सहार्थस्य चाकारकत्वम् तेन बहूनामिद वस्त्रमित्यादौ 'बह वल्पार्थात्कारका०।७।२।१५०। सूत्रेण शस् न भवति । पुत्रेणागत इत्यादौ च 'कारकं कृता ।३।१।६८। सूत्रात्समासो न भवति । षोढा कारकाणि-कर्तृ कर्मकरणसम्पदानापादानाधिकरणरूपाणि । ब्राह्मणस्य पुत्रं पन्थान पच्छतो. त्यादो ब्राह्मणस्य पुत्रेणा न्यथा सिद्धया न कारकत्वम् । डुकृग् करणे-क्रियते इति 'कृगः शः च वा ।।३।१००। सूत्रात् शे 'क्यः शिति ।३।४।७०। सूत्रात् क्ये 'रि: श- क्याशीर्ये ।४।३।११०॥ सूत्रात् रोच क्रियेति । क्रियायाः हेतुः= क्रियाहेतुः । क्रियाशब्दस्य भावकर्मणारिय व्युत्पत्तिः यदाऽपादानादौ श-प्रत्ययस्तदा क्यो न भवति, तदेयादेशः ॥१॥ स्वतन्त्रः कर्ता ।२२। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०९) क्रियाहेतुः क्रियासिद्धौ स्वप्रधानो यः स कर्ता स्यात् । मंत्रेण कृतः ॥२॥ स्वशब्द आत्मववन: तन्त्रशब्दः प्रधानार्थ स्वम् आत्मा प्रधानमस्य स स्वतन्त्र: अत्म-धान इत्यर्थः । मैत्रम कृतः- 'हेतु कर्तृ० १२१२१४४॥ सूत्रास्कर्त र तृतीया । 'उक्तार्थानामप्रयोगः' इत न्यायात् कर्मणि क्तप्रत्ययस्य सरवात् कर्तुरनुक्तत्वात् कर्तरि ततोया भवति, कर्तुरूतस्वे तु सामान्यलक्षणा प्रथमा भवति । सौकर्यादविवक्षिते कर्तव्यापारे कर्मादीनां स्वातन्त्र्यविवक्षायां कत्तत्वं भवति । यथा बोदनः पच्यते स्व मेव, असिश्छिनत्ति, अधि-: करणरूपायाः स्थ ल्याः स्वातन्त्र्य विवक्षायां स्थाली पचतीति ॥२॥..... कत्तु व्याप्य कर्म ।।२।३१ का क्रियया यद्विशेषेणाप्तुमिष्यते तत्कारकं व्याप्यं कर्म च स्यात् । तत् प्रधा । निर्वर्त्य, विकार्य प्राप्यं च । कटं करोति । काष्ठं दहति । ग्रामं याति ॥३॥ कर्म क्रियया यद्विशेषेणाप्तुमिष्यते तदव्याप्यं कर्मसझं भवति । प्रसिद्धस्यानुवादेनाप्रसिद्धस्य विधान लक्षणार्थः तेन यस्कर्म कत्रां क्यिते तद् ख्याप्यसञ्ज भवत त्यपि-रात्रस्यार्थः । अत्र प्रथमव्याख्याने 'ज्याप्येत्यस्य कृतप्रत्ययान्तस्य योगे 'कृत्यस्प वा' २२८८। इति कर्तरि षष्ठी द्वितीयध्याख्याने 'कृच्छेषा उणादयः' इत्युणादिप्रत्ययस्यापि कृदन्तत्व त् 'तस्य योगे 'कर्तरि' ।।८६॥ इति षष्ठी । निवर्त्यमित्यादि- यदसज्जायते (असत्कार्यबादमतेन) जन्मना [सत्कार्यवादिमतेन] वा प्रकाश्यते तन्निवत्यम् यथा कटं, करोति प्रकृत्युच्छेदेन गुणानराधानेन वा यद्विकृतिमापचते सद्विकार्य यथा काष्ठ दहति । यत्र तु क्रियाजनित: विशेषा नास्ति तस्प्राप्य यथा ग्राम याति। त्रिविधमपि पुनस्त्रिविधम् इष्टम् अनिष्टम् अनुभव च यदवाप्तु क्रियाऽऽरभ्यते तदिष्ट कटादि, यद्-विष्ट प्राप्यते तदनिष्टं यथा विष भक्षयति, अहिं लषयति । यत्र नेच्छा न च षरतदनुभयम् । यथा ग्राम गम्छन् तृणं स्पृशतीति पुन एतत्कर्म प्रधानेतरभेदाद्वि वधम् दुह- भिक्षि-रुधि- प्रच्छिचिग व ग शास्वर्थेषु याचि जयति, प्रभृतिषु च द्विकर्मकेषु द्विविधं भवति । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१०) - दुहादीनामप्रधाने कर्मणि कर्मजः प्रत्ययो भवति नी-प्रतिषु च द्विकर्मकेषुतिविध भवति । गां दोग्धि पयः, भिक्षते गां धनिकं इत्यादि । अविनात याचते विनयम् याचिरिहानुनयार्थः तेन भिक्ष्यर्थाद् भेदः । यदर्थं क्रियारम्यते तत्पप्रधान कर्म यथा पय इत्यादि तत्सद्धये यदन्यक्रियया व्याप्यते तप्रधानम् यथा गवादि । दुहादोनाम्प्रधाने कर्मगि कर्मज: प्रत्यया भवति गौ ह्यने पयः मंत्रेण । नीवहिहरति गत्यर्शनामकर्मणां च णिगतानां प्रधाने एंव कर्मणि कर्मजः प्रत्ययो भवति प्रभसीनां तु प्रध ने कर्मणि कर्मजः प्रत्ययो भवति । यथा-अना ग्रामं नीयन्ते । गम चैत्रं ग्रम, गम्यते मंत्रो ग्रामंचत्रेणा आसयति मासं चैत्रम्०,आस्य ते मासं मैत्र चैत्रेण । अन्यस्त्वप्रधा. नेगीच्छनि-गम्यते मैत्रं ग्रामश्चरेगास्थने मासो मत्रं चत्रेग ।बोधाऽऽहारार्थशब्दकर्मणां च मिगन्तानामुभयत्र-बोधयति शिष्यं धर्मम् बोध्यते शिष्यो धर्मम् बाध्यते शिष्यं धर्म इति वा । कम-व्याप्यादेशाः कर्मणोण्' ।।१।७२ व्याप्याच्चेवात् १५४४७१। इत्यादयः ॥३॥ . वाकर्मणामणिक्का वौ।२।२४। अविवक्षितकर्मणां धातूनां गिगः प्राग यः कसिगिमि सति कर्म वा स्यात् । पचति चैत्रः । पाचयति चैत्रं चश्रेण वा,४॥ उत्तरसूत्र नित्यग्रहणादाह अविवक्षितकर्ममामिति कि करोतीति व्यापारमात्र-जिज्ञासायां चैत्र: पचतीति प्रयोगदर्शनादविवक्षितकर्मता। न वोदनं पचतीति प्रयोगदर्शनारकथमविवक्षितकर्मतेति चेत्सत्य शब्दस्य पराथ. त्वेन यावती परस्य जिज्ञासा तावत एव शब्दप्रयोगस्वावश्यकत्वादिति । नन्वेवं तहिं गत्यादीनामविवक्षितकर्मणामनेनैव विकल्पः प्राप्नोतीति चेन्मैवं पाचयति चैत्र चैत्रण वा, गमर्यात ग्राममित्यादौ द्वय: सावकाशत्वात परत्वानित्य एव विधिरिति । चैत्रो गच्छति, चैत्रं गमयति ॥४॥ - गतिबोधाहारार्थशब्दकर्म नित्याकर्मणाममीरवा.. द्यदिहवाशब्दायक्रन्दाम् ।।२।५॥ गतिर्देशान्तरप्राप्तिः । शब्दः कर्मक्रिया व्याप्यञ्च येषां ते शब्द. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२११) - कर्माणः । नित्यं न विद्यते कर्म येषां ते नित्याकाणः । गत्यर्थबोधार्याहारार्थानां शब्दकमंगां नित्यकर्मणां च नोखाधदिह्वाशलदायऋन्दिवर्जानां धातूनार्माणकर्ता स णौ सति कर्म स्यात् । गमयति चैत्रं ग्रामम् । बोधर्यात शिष्यं धर्मम् । भोजयति बटुमोदनम् । जल्पयति मैत्रं द्रव्यम् । अध्यापयति बटुं वेदम् । शाययति मंत्रं चैत्रः । गत्यर्थादीनामिति किम् । पाचयत्योदनं चत्रेण मैत्रः। न्याविवर्जनं किम् । नाययति भारं चत्रेण । खादयत्यपूपं मैत्रेण । आदयत्योदनं सुतेन । ह्वाययति चैत्रं मैत्रेण । शब्दाययति बटु मैत्रेण । क्रन्दयति मैत्रं चत्रण ।५। । जल्पयति मैत्रं द्रव्यमिति-शब्दक्रियस्योदाहरणमिदम् । अध्यापयति बटु वेदमिति- शब्दव्याप्यस्योदाहरणमिदम् कर्मशब्दस्य क्रियाव्याप्ययो चकत्वादुभयोरुदाहरणं दत्तम् । नयतेः प्र.पणापसर्जनप्राप्त्यर्थत्वेन गत्यर्थत्वात् खाद्यद्यो-हारार्थत्वात् ह वाशब्दायक्रन्दा च शब्दकर्मकत्वात्प्राप्तावनेन प्रतिषियने। .. . प्रापग'-'णिवेत्त्यास०५।३।१११॥ इत्यनः प्राप्तो प्रयुक्तिरित्यर्थः तत्र गुणीभूता प्राप्तिरस्त्येवेति । सा च गतिरिति नयतेर्गत्यर्थता । प्रेषणाऽध्येषणादिना प्रयोजकव्यापारेण गिणन्तवाच्येनाणिक्काप्यत्वात्कर्मसञ्ज्ञायां सिद्धायां पुविधानं निर्यमार्थं तेन प्रयोजकव्यापारेण व्याप्यमानस्य गत्यर्थादिसम्बन्धिा एव प्रयोज्यकर्व: कर्मसंज्ञा भवति तेनान्यध तुसम्बन्धिन: कर्तृत्वमेव भवति । फलतावच्छेदक-सम्बन्धेन फलव्यधिकरणव्यापारार्थकत्वं सकर्मकत्वम् यत्र फलं व्यापारश्चकत्र न वर्तते तद्वाचको धातु: सकर्मकः यथा चैत्रस्तण्डुल पचति अत्र बिक्लित्त्यनुकूलव्यापारश्चत्रे विक्लितिरुपफलं तण्डुल इति । फलत वच्छेदकसम्बन्धेन फलाधिकरणवृत्तिव्यापारार्थव त्वमकर्मकत्वम् । ..यथा चैत्रश्शेते अब स्वापतदनुकूलव्यापारयोरेकत्र चैत्र एव वृत्तेरकर्मकत्वम् । - ॥५॥ - भक्षेहिंसायाम् ।२।२।६। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) भहिपार्थस्त्राणिकर्ता णो कर्म्म स्थात् । भक्षयति सस्यं बलीवर्दान् मंत्रः । हिंसायामिति किम् । भक्षयति पिण्डों शिशुना | ६ अत्र भन े : 'चुरादिभ्य०' | ३|४|१७| इति स्वार्थिकणि जन्तस्य ग्रहणम् । अणिगवस्थानां यः कर्ता स णिगि सति कर्म स्याद् अत्र तु 'चुरादिभ्यः ' | ३ | ४ | १७ | इति गिजवस्थायां कर्ता न तु णिगवस्थाय मिति भवति । आहा रार्थत्वत्पूर्वेण प्राप्ने नियमार्थं वचन तेन भक्ष हसायामेव भवति । भक्षयति सस्यमित्यादि - वनस्पतीनां प्रसव प्ररोह - वृद्धयादिमत्त्वेन चेतनत्वात्प्राणविय गरूपा हिसा परकीयसस्य-भक्षणे स्वाम्युपधाताद्वा हिंसाऽत्र बोध्या । भक्षयति पिण्डों शिशुनेति - पिण्डया अप्र णित्वान्नात्र हिंसेति न भवति कर्मसञ्ज्ञां ॥ ६॥ · वहेः प्रवेयः ||२७| वणिक्कर्त्ता प्रवेो णौ कर्म्म स्यात् । वाहयति भारं बलीवर्द्दन् मैत्रः । प्रवेय इति किम् । वाहयति भारं मंत्रेण ॥७॥ प्रवीयते प्राजनक्रियया व्याप्यते यः स पवेयः कर्मणि यप्रत्यये ‘अघञ्क्य०’ ।४।४।२। इत्यजेर्वोभावे च रुपमिदम् । वाह यति भारं मैत्रणअत्र मैत्री वलीवर्दवन्न प्रवेयः । प्राप्त्यर्थस्य प्रापणार्थस्य च वहेर्गत्यर्थत्वात् तस्य निश्याकर्मकस्य च पूर्वेण सिद्ध नियमार्थमिदम् । अविवक्षितकर्मकस्य तु पक्ष विध्यर्थं चेदम् । प्राप्त्यर्थो यथा वहन्ति बलीवर्दाः देशान्तरं प्राप्नुवधातूनामनेकाथत्वादत्र प्राप्त्यर्थः । प्रापणमिति - अणिगन्तरूपानटि प्राप्तिरित्यर्थः ' णिगन्तस्यानप्रत्यये तु प्राप्तौ प्रयुक्तिरित्यर्थः, यथा ग्राम भारं वहति, बलवर्द : ग्रामं प्रापयतीत्यर्थः । अत्र प्रापणे गुणीभूता प्राप्तिरस्त्येवेति गत्यर्थत्वम् अकर्मको यथा नदी वहति स्यदन्त इत्यर्थः धातूनामनेकार्थत्वात् स्यन्द्यर्थः ॥ ३ ॥ तं कोर्नवा राराटा कोरणिक्कर्ता जो कर्म्म वा स्यात् । विहारयति देशं गुरु गुरुणा Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१३) enwermerammer वा । आहारमशेद बाल बानाका कार यति कटं चैत्र चैत्रण वारा प्राप्त प्राप्ते चायं विल: । इग हरणे दुग करणे हसाहचर्यात् करोतेरेव कादेरेव ग्रहस्तेन 'कृत् विक्षेपे' 'कृगट् हिसायाम्' इत्यनयोर्न ग्रहः । विहार यस्पाहा- रयतीत्यादी गत्यर्थवादाहागर्थत्वाच्च प्राप्ते विभाषा कारयतीत्यादो चाप्राप्ते विभाषा । हति द्रव्य मंत्र:, हारयति द्रव्यं मैत्र मैत्रेण वेत्यत्र हरतिश्वौयार्थ इत्य-प्राप्तौ विभाषा एवं प्रापणार्थस्य च प्राप्तो विभाषा । वि कुरुते स्वर कोष्टा, विकारयति स्वरं कोष्टार का टुना देत्यत्र शब्दकर्मकत्वात्माप्तो विभाषेत्यूह्मन् ।। ८५६ AMRuuuNA mommewsnADEvenimunes दृश्यश्विदोरात्मने ।२।२।९६ दृश्याभिवदोरात्मनेपदविषयेऽणिकर्ता गौ कर्म वा स्यात् । दर्श: यते राजा भृत्यार भत्यैर्वा । अभिवादयते गुरुः शिष्यं शिष्येण वा। मात्मन इति किन् । दर्शयति रूपत रूपम् ।९। 1 . आत्मन इति आत्मार्थ पदम् परात्मभ्यां ङ' ।३।२।१७। इत्यलुप्समासः 'ते लुग्वा' ।३।२।१०८इत्युत्त पदलोपः । शप्रेक्षणे-दर्शयते राजे स्यादि-पश्यन्ति राजान भत्याः, गजा अनुकू लाचरणेन तान् प्रयुङत इतिदर्शयते राजा भृत्यान् मृत्यैवा 'अगिककर्मः' । ३।३३८८॥ इत्यात्मनेपदम् । बद व्यक्तायां व चि. अभिवदति गुरु शिष्यः गुरुस्त पश्यतात्यभिवादयते गुरुः शिष्यं शिष्येण वा, पूर्व वदात्मनेपदम् । र जनकार्षापण दिपरोक्षको रुपतक उच्यते । रुपतर्को रुपं पश्यति अन्यम्त प्रयुङ इति अन्यो रुपतक रूप दर्शयति । नात्राणिकमणिक्कर्तृक इति नात्मनेपदविषय इति न भवति दोधा. त्वेन नित्य कर्मले प्राप्ते अभिवदेस्तु प्रणामाई नाप्राप्ते विकल्पः ।।९।। ..... eemw wwwwm - नाथः ।२।२११०॥ आत्मनेपदविषयस्य नाथो ध्याय कर्म वा स्यात् । सप्पिषों Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४) नाथते। सविनयते । आत्मन इत्येव । पुत्रमुपनायति पाठाय 1901 पृथtयोगाद् 'अणिक्कर्ता नाविति निवृत्तम् 'कर्तुं व्र्व्याप्यं' |२| २|३| इति नित्यं कर्मत्वे प्राप्ते विकल्पः । ७१६ नाशृङ उपतापैश्वर्याशीर्याचनेषु इत्यचतुष्टये वर्तमानत्वेभ्यस्य 'आशिषि नाथः ' | ३|३३६ । इत्याशरर्थे एवात्मतेपदम् इदं कत्रापेक्षयोक्त भावकर्मणोस्तु सर्वधातूनामात्मनेपदं तत्साध्या०' ३॥३॥२१॥ इति सूत्रेणास्त्येव । सर्पिषो नाथते, सविनाथते सरि मे भूयादित्याशास्ते आशंसा करोतीत्यर्थः । सर्पिषो नाथंत इत्यत्र कमभावाक्षे 'शेषे' २२८१ इत्यनेन षष्ठी। पुत्रमुपनाथति पाठाय उपचायत इत्यर्थः ॥ १०॥ स्मृत्यर्थदयेशः || २|११. स्मृत्यर्थानां दयेशोश्च व्याप्यं कर्म वा स्यात् । मातुः स्मरति । मातरं स्मरति । मातुः स्मयंते । माता स्मयंते । सप्पियो सन्धिर्वा बयते । लोकानामोष्टे । लोकानीष्टे |११| अर्थग्रहणात् मातुययति मातरं ध्यायतं. त्यादयोऽ पि गृह्यन्ते । दयत इति दयि दानादौ । लोकानामोष्ट इति व्यापारेषु नियुङ क े स्वायत्तीकरोतीत्यर्थः । ननु 'विवक्षातः कारकाणि' इति न्यायात् कर्माविवक्षायां 'माषाणामश्नीयाद' इत्यादिवच्छेषे षष्ठी सिद्ध वेत्यलं विधानेनेति चेत्सत्यं 'षष्ठ्ययत्नाच्छेषे' | ३|१|७६ ) इत्यत्रायत्नजे शेषे षष्ठ्याः समासो वक्ष्यते ततोऽत्र यत्नजायाः षष्ठीसमासो न भवेदित्यर्थं नियमार्थं च तेनेषां धातूनां कर्मव शेषत्वेन विवक्ष्यते न कारकान्तरं तेन 'मात्रा स्मृतम् मनसा स्मृतमिल या कर्तृ करणयोः शेषविवक्षाभावात्षष्ठी न भवति ॥११॥ कृग प्रतियत् । २।२।१२। पुनर्यत्नः प्रतियत्नस्तद्वत्तेः कृगो व्याप्यं कर्म वा स्यात् । एधोद Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१५) कस्यधोदकं वोपस्कुरुते ॥१२॥ पुनर्यत्न इति- प्रतिशब्द: पुनरर्थेऽव्ययम् 'अव्ययं प्रवृद्धादिभिः' १३॥१॥४८॥ इति समासः । प्रथममर्थलाभाय यत्नः क्रियते । लब्धात्मनो विशेषान्तरमुत्पादयितु परिपूर्णगुणस्य तादवस्थ्यरक्षणार्थ वा यत्नः क्रियते स पुनर्यत्नः । एधोदकस्येति - एधाश्च उदकानि च 'अप्राणिपश्वादेः' ।३।१११३६। इत्येक त्वम् । उपस्कुरुत इति - उपपूर्वस्यैव करते: प्रतियत्नविषयत्वात् उपपूर्वस्यैव करोते: 'गाधना'० ॥३॥३।७६॥ इत्यात्मनेपदमत एवोदाहरणमुपपूर्वस्यैव दर्शितम् । 'उपाद्भूषा०' ।४।४।९२। इति स्सट् ॥१२॥ रुजाश्र्थस्याऽज्वरिसन्तापेर्भावे कतरि ।।२।१३। रुजा पीडा तदर्थस्य ज्वरिसन्तापिवर्जस्य धातोार्य कर्म वा स्यात् । भावश्चेद्र जायाः कर्ता । चौरस्य चौरं वा रुजति रोगः। अज्वरिसन्तापेरिति किम् । आध नं ज्वरयति सन्तापयति वा। भाव इति किम् । मैत्रं रुजति श्लेष्मा ।१३।। 'हजोत् भङ्ग' इत्यस्मात् 'भिदादयः' ।।३।१०८॥ इत्याङ रुजा। भावश्चेदिति- अत्र सामान्योऽपि भावशब्दः सिद्धरुपे भावे वर्तते साध्यरुपस्य भावस्य कर्तृत्वानुप पत्तेः । चौरस्येत्यादि-चौरस्य रुजति रोगः, चौरं रुर्जात रोग: कर्मवैकल्पिकत्वादुदाहरणद्वये । चूरण स्तेये इतिधातारणिजन्तस्य भिदादित्वाद ङ चुरा,सा: शीलमस्येति 'अङस्थाच्छत्रादेरञ्'।६।४।६०। इत्यति वृद्धौ च चौर इति । रुजतोति पदरुज०१५।३।१६। इति पनि रोग: । श्लेष्मेतिश्लिष्यतेर्मन् श्लेष्मेति द्रव्यं न तु भावः । रोगो व्याधिरामयः इत्यादयो भावरुपाः कर्तारः । आद्य नं ज्वरयति- औदरिकं अत्यधिकबुभुक्षितं पीडयतीत्यर्थः ॥१३॥ जासनाटकापिषोहिंसायाम् ।२।२।१४। . Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) हिंसार्थानामेषां व्याप्यं कर्भ वा स्यात् । चौरस्य चौरं वोज्जासति । चौरस्य चौरं वोन्नाटयति । चौरस्य चौरं वोत्त्रार्थयति । चौरस्य चौरं वा पिनष्टि । हिंसायामिति किम । चौरं बन्धनाज्जासयति |१४| जमण् हिंसायाम् (१७१३) जसण् ताडने ( १७५८ ) इति चुरादी गृह्यते न तु जसूच् मोक्षणे ( १२२३) इति दिवादिस्तस्याहिसार्थत्वात् एवं नटण् अवस्यन्दने (१५९३ ) इत्यस्य ग्रहणं न तु णट नृत्तौ ( १८७ । इत्यस्य तस्याहिसार्थत्वात् अवस्यन्दनं हिसाभेद: ऋथ ( १०४५ | इति घटादि: याजादिकस्य तु क्रयो ग्रहण केचित् मतें नेष्यते, अस्माक मते तु यजादिकस्यप ग्रहणमिष्यते पिलप्सचूर्णने १४९३ ननु । धातपाठे जसनिवर्तते तत्कथं जासनाटकाथेति निर्देशः । न च ण्यन्तानां निर्देश इति वाच्यं तर्हि जासिनाटिकाथ ति पठयेतेति चेत्सत्यं कृताकारनिर्देशो यत्राSSकार तिस्तव स्यादित्येवमर्थं तेन 'उपान्त्यस्या' |४| २|३५| इति हस्वत्वे दस्यु मुदजीजसद् दस्युम नीनटत्, दस्युम चित्रथ दित्यत्र न भवति (जसनटयोश्चुरादित्वात्तत. णिच्, उत्क्रयति तमन्यः प्रयुङन े इति प्रयोक्तुव्यापारे जिग् ञ्णिति' ३५ इति वृद्धि:, ततोऽद्यन्तयादिः 'for-foto' | ३ | ४१८८ । इति डः, ततः उपान्त्यस्या० |४ |२| ३५॥ इति हस्व:, ततः द्विर्वचनादि) ननु कथधातुर्घटादिरतः 'घटादे ह स्वः ० ' | ४|२| २४| इति सूत्र ेण चौरस्योत्काययतीत्यत्र हस्वत्वेन भाव्यमिति चेन्नात एवं निर्देशात् ऋणिगि सत्याकारस्य भावः, ननु तर्हि घटादित्वेन पाठो व्यर्थ इति चेन्न कर्मसञ्ज्ञाप्रतिषेधपक्ष एव न हस्व: कर्मणि तु हस्वत्वमेवात एवाह चौरस्यो- त्काययति, चौरमुत्कथयतीति । ननु तर्हि दस्युं मुदजीजस दित्यादावपि 'उपान्त्यस्या०' | ४ | ३ | ३५ | इत्यस्य पक्ष किं न निषेध इति चेत्सत्यं 'येन नाप्राप्तेο' इति न्यायाद् 'घटादे: ० ' | ४|२| २४ | इत्यस्यैव निषेध इति । ननु हिंसाया रुजारुपत्वात् 'रूजार्थस्या०' |२|२| १३ | इत्यनेनैव कर्मविकल्पा भविष्यति किमनेन । न च जासनाटकाथेत्याकारश्रवणार्थमिदं वचनमिति पूर्वेण भावे - कर्तरि विधीयतेऽत्र तु चौरस्योज्जासयति यज्ञदत्त इत्यभावेऽपि कर्तरि स्वादित्येवमर्थमिति ||१४|| 6 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१७) निप्रेभ्यो हनः ।२।२।१५। समस्तव्यस्तविपर्यस्ताभ्यां निप्राभ्यां परस्य हिसार्थस्य हन्तेयाप्यं कर्म वा स्यात । चौरस्य चौरं वा निप्रहन्ति । हिंसायामित्येव । रागादोन्निहन्ति ।१५। . बहुववन समस्तव्यस्त विपर्यस्तसङ्गहार्थम् निप्रो द्वावपि मलितो समस्त'' इत्युच्यते निः पृथक् प्र पृथक् इति व्यस्त इत्युच्यते पूर्व प्र: पश्चात् नि: इति विपरीतत्व विर्यम्त मत्युच्यते । चौरस्य चौर वा निहन्ति, चौरस्य चौरं वा प्रहन्तीति व्यस्त दा. रणम् चौरय चौर वा प्रणिहन्तीति विपर्यस्तोद हरणम् । रागादीन्निहत्तीति- रागादीनामचेतनत्वात्प्राण - व्यपरोपणलक्षणहिंसाया अभ वात् कर्म विकल्पो न भवति ॥१५॥.. .. विनिमेयद्य नपणं पणिव्यवह रोः ।२।२॥१६॥ विनिमेयः क्रयविक्रयोऽर्थः, धूतपणो धू तजेयं तो पणिव्यव ह रोाप्यो वा कर्म स्याताम् । शतस्य शतं वा पणायति । दशानों दश वा व्यवहरति । विनिमेयधू तपणमिति किम् । साधून पणायति वचनभेदो यथासङ्ख्यनिवृत्त्यर्थः । क्रयविक्रयोर्थ इति । य आत्मना . ग्राह्यः स केयः; यो देय स विक्रय इत्यर्थः शतस्य शतं वा पणायतीति - क्रयविक्रये द्य तपणत्वे वा तद्विनियुङक इत्यथः । एवमग्रेपि । 'प्रकृतिग्रहणे स्वार्थिकप्रत्ययान्तामपि ग्रहणम्' इति न्यायात् पणायतेरिहं ग्रहः । आत्मनेपद तु प्रत्ययं न्याय: 'कमेणिङ' ।३।४।२ इत्यत्र इकारानुबन्धस्य" पिछः उपादानादनित्यः इति । साधू न पणायति - स्तोतीत्यर्थः ॥१६॥ -l उपसर्गादिवः ।२।२।१७॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१८) उपसर्गात् परस्य दिवो व्याप्यो विनिमेयद्यूतपणौ वा कर्म स्याताम् । शतस्य शतं वा प्रदीव्यति । उपसर्गादिति किम् । शतस्य दीव्यति ॥१७॥ शतस्य दीव्यत त्यत्र 'न' ।२।२।१८। इत्युत्तरसूत्रण कर्मसञ्ज्ञाप्रतिषेधः ॥१७॥ . न ।२।२।१८० अनुपसर्गस्य विवो व्याप्यो विनमेयद्यूतपणो कर्म न स्याताम् । शतस्य दोग्यति १८॥ - उपसर्गपूर्वस्य पूर्वेण विकल्पविधानादनुपसर्गस्यायं निषेधः । कर्मसज्ञानिषेधे सति ‘शेषे' ।२।२१८१॥ इति षष्ठी भवति ॥१८॥ . . करणं च ।२।२११९.... विवः करगं कर्म करणं - युगपत् स्यात् । अक्षान् दीव्यति । असं दीव्यति । अक्ष देवयते मैत्रश्चंत्रण ।१९। : दिव: करणं कर्म चकारात्करणं च युगपत् स्यात् चकारादन्यस्थ समुच्चेतव्यस्याभावात् करणमेव प्रतीयते । कर्मसज्ञायामप्राप्तायां कर्मसज्ञाविधानात् निर्वादयो धर्मा न चिन्त्या अभावात् । अक्षान्दोव्यतीत्यत्र कर्मत्वे द्वितीया, अक्षदर्दीव्यतीत्यत्र करणत्वे तृतीया सिद्धा, करणं वेत्येव सिद्ध चकारो युगपत्सनादयसमावेशार्थस्तेनाक्ष देवयते मंत्रश्चत्र त्यत्र करणत्वात्तृतीया भवति कर्मत्वाच्च गतिबोधा० ॥२॥२६५॥ इति सूत्रण. नित्या.. कर्मकलक्षणाणिक्कतुः कर्मत्वं न भवति देवयतेश्च 'अणिगि प्राणि०' ।३।३।१०॥ इति परस्मैपदं च न भवति । नन्वक्ष देवयते मंत्रश्चत्रणेत्यत्र युगपत्कर्मकरणसज्ञाया सावकाशत्वात् अक्षान्दोव्यतीत्यत्र परत्वात्करणत्व Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१९) हेतुका तृतीयैव स्यादिति चेत्सत्यम् अस्मिन् सूत्र यद्यपि युगपत्यज्ञाद्वयस्य वि. धानमस्ति नथापिअक्षानदेर्वा दीव्यतोति यत्ययोगद्वयं दृश्यते तत्सत्ययं द्विधा सूत्र भिद्यते - दिवः करणं वर्म स्यात् । दिव: करणं करणं स्यादिति सूत्रद्वयारोपणे तु स्पर्धाभावेन स्वम्वविषय उभयोरपि सावकाशत्वाद्वितीयतृतीये उभेऽपि पर्यायेण भवतः । अन्यथा कर्मसञ्जाविधायकसूत्रस्यानवकाशत्व स्याद् ॥१९॥ अधेः शीस्थास आधारः ।२।२।२०। अधेः संबद्धानां शीड स्थासामाधारः कर्म स्यात् । प्राममधिशेते । अधितिष्ठति अध्यास्ते वा ।२०।। अकर्मका अपि धातवः सोपसर्गा: सकर्मका भवन्तीति सिद्धमेव सकर्मकत्वमाघारबाधनार्थ तु वचनम् । अधिशेत इत्यादि - शीङक स्वप्ने तेप्रत्यय: 'शोङः ए: शिति' ।४।३।१०४। इत्येकार: । ष्ठां गतिनिवृत्तौ तिव् 'नौति०' ।४।२।१०८॥ इति तिष्ठादेशः । आसिक् उपवेशने तेप्रत्ययः ॥२०॥ - - उपान्वध्यावसः ।२।२॥२१. उपादिविशिष्टस्य वसेतराधारः कर्म स्यात् । ग्राममुपवसति । 'अनुवसति । अधिवसति । आवसति ॥२१॥ उपश्चानुश्चाधिश्चाङ चेति द्वन्द्वं कृत्वा ते पूर्वे यस्मात् स उपाविध्याङ पूर्वः स चासो वसिति विशेषणसमास:, मयूरव्यंसकादित्वात्पूर्वस्य लोपः, एभ्य: परो वसिति वा समासः । शब्दशक्तिस्वाभाव्यादन्वादिपूर्वो वसतिः स्थानार्थः तत्साहचर्यादुपपूर्वस्यापि वसतेः स्थानार्थस्यव ग्रहणं न तु भोजननिवृत्तिवचनस्य तेन उपवसति भोजननिवृतिमुपवासं करोतीत्यत्र न भवति । 'अदाधनदाद्योरनदादेरेव' इति न्यायाददादिवस्तग्रहणं न भवति परन्तु भ्वादिवसते हणं भवति ॥२१॥ . Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२०) वाऽभिनिविशः ।२।२२२॥ अभिनिभ्यामुत्सृष्टस्य विशेराधारः कर्म वा स्यात् । ग्राममभिनिविशते । कल्याणे अभिनिविशते ॥२२॥ अभिःपूर्वो यस्मात्सऽभिपूर्ण: स चासो निश्च अभिनिः ततः परोः विट तस्य मयूरव्यंसकादित्व त्पूर्वपरयोर्लोप: । अभिनिनोपसर्गसमुदायेन' विशिष्टस्य विशेराधार: कर्म वा भवतीत्यर्थः । अभिश्च निश्चेत्येव रूपे द्वन्द्व कृते 'उपान्व०।२।२।२॥ इतिवत्प्रत्येक्रमभिसम्बन्धः स्यात् । प्राममभिनिवि. शत इत्यादि - वाशब्दा व्यवस्थितविभाषार्थः तस्मात् प्रयोगव्यवस्थया क्वचित्कर्मसजव भवति क्वचिदाधारसझंव च भवति । व्यवस्थितं प्रयोगंजातं विशेषेण भावत इति व्यवस्थितविभाषा ॥६॥ . कालावभावदेश वाऽकर्म चाकर्मणाम् २२२॥२३॥ कालाविराधारोऽकर्मणां धातूनां योगे कर्माकर्म च युगपद्वा स्वात् । मासमास्ते। क्रोशं शेते । गोदोहमास्ते । कुरूनास्ते । पो। मासे आस्ते इत्यादि । अकम चेति । किन्। मासमास्यते । अकमणामिति किम् । राबावुद्द शोधीतः ॥२३॥ कालो मुहूर्तादि, अध्वा-मन्तको क्रोशादि, तेनाध्वशब्दाभिधे-: यस्याध्वनः कर्मसज्ञा न भवति तस्याध्वविशेषक्रोशयोजनादिवत् गमनानहत्वात् । यदवाऽर्थप्रधानोऽय निर्देशस्तेन कालावभावदेशानां साक्षात्प्रयोगे मभवति किन्तु तदर्शप्रतिपादकशब्दप्रयोगे एवं भवति । भावः क्रिया-गोदो- . हादिः सा घमादिवाच्या सिक्त ख्या:न सु साध्यमानाः । देशो जनपदग्राम: नदोपति वियुगप्रवेति-यत्रापि पक्ष कर्मसंशासाअकर्म सज्ञापि वा भवतीत्यर्थः। गोबोहमारते इति-सामीप्यक आधारः यदा तु गोदोहविशिष्ट: कालो। विवक्ष्यते तदा नैमितिकोपि । मासमास्यत' इति - अत्राकर्मसज्ञात्वात्। 'तत्साप्या' ।३।३।२९। इति सूत्रण भावे आत्मनेपद सिद्धम् । कर्मसम्झा Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२१) त्वाच्च कर्मणि द्वितीया सिद्धा । न च कर्मण्येवात्मनेपदं भविष्यतीति किमर्थ भावे आत्मनेपदव थनेनेति वाच्य कर्मण्यात्मनेपदे तु तेनैव कर्मणोभिहितत्वात् कर्मणि द्वितीया न स्यादिति ॥२३॥ . . साधकतमं करणम् राशर४। क्रियायो प्रकृष्टोपकारकं करणं स्यात् । वामेन भोगामाप्नोति २४॥ सिध्यतेणिगि 'सिध्यते-ज्ञाने' ।४।११। इत्यात्वे णके तमपि च साधकतम प्रकृष्टोपकारकमिति - प्रकर्षणं प्रकृष्ट तेनोपकारकं या प्रकृष्यते स्म प्रकृष्टम् । प्रकृष्टं च तदुपुकारकं चेति प्रकृष्टोपकारकम् । प्रकृष्टोकाकं अव्यवधानस्वरुपमस्ति । अन्येष कारगेष मिलितेष्वपि भोगप्रापयादिरूपक्रियाया दामादिक विनाऽनुपन्नमत कर्ताऽध्यवहित दानार्षिकरण। मपेक्ष्यत इति तस्य प्रकृष्टत्वम् । नच हि कर्तु पि प्रक्रष्टोपकारकत्वात्तः दप करण स्यादिति वाच्यं तस्य स्वातन्त्र्यलक्षणसद्भावाद् । वस्तुतस्तु दानेन भोगानाप्ने त त्यत्र पुण्य रूपोऽबान्तरच्यापारः तथापि विवक्षया दानस्य प्रकृष्टोपकारकृत्वम् ॥२४॥ कम्माभिप्रेयः संप्रदानम् ।।२।२५। . कर्मणा व्याप्येन क्रियया वा यमभिप्रयते स. सम्प्रादानं स्यात् । देवाय बलि रते। राज कार्यमाचष्टे । पत्ये शेतं ॥२५॥ .... कर्माभिनय इत्यादि - ईडच गतो (१२५२) 'य: एच्यात:' 1५१।२८। इति ये गुणे "उपसर्गस्या" ।२।१९। इत्यल्लोपे अभिप्रेयः, कर्मगाभिय:, 'कारक कृता' ३३१६८५ इति समासः । वृतौ यमभिनयत इति स्वर्थकथनमेव, सम्प्रदीयते ऽस्मा इति बाहुलकावनट । अभिप्रेयते श्रद्धानु। बहकादिकाम्यया धमभिसम्बध्नातीत्यर्थः ॥२५॥ ! Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) स्पृहव्याप्यं वा ।२।२।२६।। स्पृहेाणं वा संप्रदान स्यात् । पुष्पेभ्यः पुष्पाणि वा स्पृह यति ।२६॥ . स्पृहण ईप्सायाम् स्मृहयतीत्यत्र 'स्वरस्य १७।४।११०॥ इत्यकारलोपस्य स्थानिवद्वाभावादकारस्योपान्त्यत्वाभावात् 'लघारुपान्त्यस्य' ।। ॥४॥ इति गुणाभावः । संप्रदानसज्ञापक्षे धातोरकर्मव त्वाद्भावे आत्मनेपदं भवति । पुष्पेभ्यः स्मृह, यते ॥२६॥ कद् हेष्यसूिर्यार्थ य प्रति कोपः ।२।२।२७॥ ऋधायथैर्धातुभिर्योगे गं प्रति कोपरतत् सम्प्रदान स्यात् । मैत्राय ऋध्यति, ब्रह्मति, ईगति, असूयति वा । गं प्रतीति किम । मनसा कध्यति । कोप इति किम । शिष्यस्य कुष्यति विनयार्थम ।२७॥ - क्रोधोऽमर्षः, दोहोऽपचिकीर्षा अपकमिच्छेत्यर्थः ईर्ष्या परसम्पत्ती कालुष्यम्, गुणेषु दोषाविष्करणमसूया । क्रुष्यतोत्यादि. ऋधंच, छहौच जिघासायाम, सूक्ष्यं, ईक्ष्य ईष्य ईर्ष्यार्थाः, असूयेति कण्डवादिर्यगन्तः । शब्द. शक्तिस्वभावास्कुघ्द्र होरकर्मकत्वात्सम्बन्धषष्ठयां प्राप्तायां तदपवाद. सम्प्र. दानत्वम् । मनसा कुष्यतीति-नेह मनस उपरि क्रधः कित्तु तेन करणोनान्यस्य पुरुष देरुपरि क्रोधः इति करणस्य न भवति । शिष्यस्येत्यादि- नात्र शिष्यस्योपरि क्रोधोपितु तस्याविनयस्योपरि अत्रेदं विचार्यते-ननु क्रोधाद्रोहादयो भिन्नस्वभावा उक्ता तत्कथ यं प्रति कोप इति विशेषणं घटते, यं प्रति द्रोहः, यं प्रतोा , यंप्रत्यसूयेति वक्तव्यमिति चेत्सत्यं द्रोहादयो द्विप्रकारा: केचित् कोपहेतुकाः केचित् वस्त्वन्तरहेतुका । अत्र तु कोपहेतुका एव ग्राहा इत्येवमर्थ य प्रति कोष इति सामान्येन विशेषणो - पादानमन्यथाऽ व्यभिचारा दिदमनुपादेयं स्यादिति । प्रतीत्यनुपादाने यस्मिन्नित्युच्यमाने कर्तुरपि । न व विषयसप्तम्यां यं प्रति.कोपस्तस्यैव सम्प्रदानत्वमिति वाच्यं आधारमात्ररवेन कर्तुरपि स्यादिति । प्रतिशब्दयागे 'भागिनि च प्रति०' ।।२।३७॥ इति Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२३) द्वित या ॥२७॥ मोपसमति क गुहा ।२।२।२८॥ सोपसर्गाभ्यां कद्र हिभ्यां योगे गं प्रति कोपस्तत्संप्रदान न स्यात् । मैत्रमभिकध्यति, अभिद्र यति । उपसर्गादिति किम । मैत्राय कध्यति, द्र.ह्यति ॥२८॥ मंत्रमभिक ध्यतीत्यादि- 'अकर्मका अपि धातव सोपसर्गाः सकमका भवन्तीति कर्मणि' ।२।२।४०। इति द्वितीया । ननु मैत्र देर्लक्षणाद्यर्थेनाभिना योगस्तदा धादेरुपसर्गपरत्वाभावात् निषेधाप्रवृत्ती 'लक्षण' ।२।२। ३६। इति द्वितं या वा स्यात् सम्प्रदानचतुर्थी वेति चेत्सत्यं वृक्षमि मैत्राय क्रुध्यत त्यादौ द्वयोः सावकाशत्वासरत्वात् सम्प्रदानचतुर्थ्या एव भावातू मंत्राय भिक्रुध्यतीत्येव भवति ।।२८॥ अपायेऽवधिरपादानम् ।२।२।२९। अपाये विश्लेषे योऽवधिस्तदपादानं स्यात् । बलात् पर्णः पतति । ध्याघ्राद्धिमेति । अधर्माज्जुगुप्सते विरमति वा । धर्मात्प्रमा यति । चौरेभ्यस्त्रायते । मध्ययनात् पराजयते । यवेभ्यो गां रक्षति । उपाध्यायादन्तद्धत। शृङगाच्छरो जायते । हिमवतो गङगा प्रभवति । वलभ्याः श्रीश जयः षड् योजनानि । कात्ति. क्या आग्रहायणी मासे । चैत्रान् मैत्रः पटुः । माथुराः पाटलिपुत्रकेभ्य आढयतराः ।२९। अपायनं अपायः इंण्क्गतौ इंधातोः'युवर्ण०' ।३।२८। इत्यल् । यद्वा अयि गतो अयिधातोः भावाकों: ।५।३।१८। इति घन् । विश्लेषः विभाम Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) इत्यर्थः । अवधं यने मर्याद क्रियये बुद्धयेत्यवध: 'उपसर्गाः कि:' ।५।१८७। इति किः। अप दानं त्रिधा- निर्दिष्-विषयम् उपात्तविषयमपेक्षिन क्रियं च। यत्र धातु नापायलक्ष गो विषय निर्दिष्ट स्तम्निर्दिष्ट विषयम, यथा वृक्षात्पर्ण पतति. यत्र तु ध तु-धत्वन्तरार्थाङ्ग (धात्वन्तरार्थोङ्ग विशेषण यस्यं तत् धात्वन्तरार्थस्य वाङ्गम्। स्व थमाह तदुपात्तविषयम् यथा बलाहकाद्विद्योतते विद्युत् बलाहकान्सृित्य विद्योतते इत्यर्थः,अत्र नि:सरणाङ्ग विद्योतने विद्यु. तिवर्तते ।। यत्र क्रियाव विपद न श्रूयते स्वयमेव क्रिया प्रतीयते तदपेक्षित. क्रियम् यथा मायुग: पाटलिपुत्रकेभ्यअ ढयतरा: । अत्र निद्धार्यन्त इति क्रिया प्रसीयते । अप यश्च कायससर्गपूर्व को बुद्धिससर्गपूर्वको वा विभाग उच्यते । व्याघ्रादिबभेतीति- अत्र व श्चिद्धीमान् वधकारिण बुद्धया ज्ञात्वा ततो निवतते इति । अधर्माज्जुगप्सते विग्मति वा धर्मात्माद्यत त्यत्र कश्चिमेधावी दुःखहेतुकमधर्म कु द्धयः प्र प्यापि नानेन कार्य मिति ततो निवतो, नास्ति. कस्तु पूर्वपुण्येन धर्म प्रप नैनं करिष्यामीति ततो निवर्तत इति निवृत्त्यङ्ग जुगुप्साविरामप्रमादेष्वेते धातवो वर्तन्त इति बुद्धिसंसगपूर्वकोऽपाय: । ननु कायसंसर्गपूर्वको विभागा मुख्यः, बुद्धिसंसर्गपूबको विश्लेष: गौणः इति 'गौणमुख्ययो:०' २२ इनि न्यायान्मुख्यस्यैव परिग्रहात् 'माथुरा: पाटलिपुत्रकेभ्यः आढयतग इत्यादौ अपादानसज्ञाभावे कारकणेषत्वात् षष्ठी प्राप्नोतीति चेत्सत्यं 'साधकतमं करणम्' १२।२।२४। इत्यत्र तमग्रहणेना-न्यत्र तरतमगत. प्रकर्षाभावस्य ज्ञापितत्व'दुभयरूपस्याप्यपायस्य परिग्रहः इति । चौरेभ्यः बायत इत्यत्रापि कश्चिन्मेधावी यदीम चौरा: पश्येयुनूनमस्य धनमपहरेयु रिति बुद्धया उपायेन तेभ्यो निवर्तयतीत्यत्रापि बुद्धिससगंपूर्वकोऽपाय: । बैङ पालने+शव+ते अध्ययनात्पराजयत. इत्यत्राप्यध्ययनमसहमानस्ततो निवसंत इत्यपाय एव । यवेभ्यो गां रक्षतीत्यत्रापि गवादेयंवादिसम्पर्क बुद्धधा दृष्ट्वाऽन्यतरस्य विनाशं पश्यन् गां यवेभ्यो निवर्तयतीत्यपाय एव । उपाध्यायादन्तद्धत्ते इति-मा मामुपाध्यायोऽद्राक्षीदिति तिरोभवतीत्यपाय एव । दुधागा धारणे च । अन्नर+धाधातुः, वर्तमानाते हवः शिति'।४।१।१२इति द्वित्वम् इनश्चातः' ।४।२।९६॥ इत्याकारलोपः, 'धागस्तथोश्च' ।२।१७८० इति आदिदस्य धकारः । शृङ्गाच्छरों जायत इति- जनैचि प्रादुर्भावे 'जाज्ञाजनो०।४।२।१०४। इति दिवादि जनैचि-धातो: जादेशः । शङ्गाच्छरो निष्क्रामतीति प्रकट एव कायसंसर्गपूर्वकोऽपायः । यदुक्तम् - · गोलोमाज्जायते दूर्वा, गोमयाद् वृश्चिकः स्मृतः । गोदोहाद् गोरसं प्राहुर्गोशङ्गादुच्यते शरः ।।१।। ... Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२५) हिमवतो गङ्गा प्रभवतीत्यत्राऽऽपः सङ्कामतीत्यपायोऽस्ति । वलभ्या श्रीशत्रुजय: षड्योजनानि वलभ्या निःसृत्य गतानि योजनानि भवतीत्यर्थः । अत्र गते गम्ये ० | २|२| १०७ । इत सामानाधिकरण्यम् । कार्तिवया आग्रहायणी मासे ततः प्रभृति मासे ते भवत्यर्थः । उभयत्राप्यपायः प्रतीयते- कृत्तिकाभिश्चन्द्रयु भयुक्त पौर्णमासी कार्तिकी । 'चन्द्रयुक्तात्० |६| २|६| इत्यण् ङश्च । अग्र हायनस्य 'पूर्वपदस्था० ' |२| ३ |४| इति णत्वम् अग्रहायणेन मृगशिरया चन्द्रोपेतेन युक्ता पोर्णमासी ( आग्रहायणी), 'चन्द्रयुक्तात् ० ' | ६| २|६| इत्यण्, चैत्रन्त्रः पटुः, माथुरा पाटलिपुत्रकेभ्य आढयत रा इत्यत्र मंत्र माथुराः पुरुस्व. दिन (संसृष्टाः पटुत्वादिभ्रमण ततो विभक्ताः प्रतीयन्त इति सर्वत्राप्यपायवित्रक्षा वेदितव्या । वित्रान्तरे त्वपादानत्वाभावे यथायोगमन्या विभः क्यो भवन्ति - अधर्मं अधर्मेण जुगुप्सते, इत्यादि ॥ २९ ॥ क्रियाश्रयस्याधारोधिकरणम् ||२|३०| क्रियाश्रयस्य कर्तुः कर्म्मणो वाऽऽधारोऽधिकरणं स्यात् । कटे आस्ते । स्थाल्यां तण्डुलान् पचति |३०| अत्रापि प्रसिद्धस्यानुव देनाप्रसिद्धस्य विधानमिति लक्षणार्थस्तेन क्रियाश्रयस्याधिकरणं तदाधारसञ्ज्ञ भवतीत्यपि सूत्रार्थः । अधिकरणं षोढाकिम् औपश्लेषिकम्, अभिव्यापकं, सामीप्यकम्, नैमित्तिकम, औपचारिकञ्च । अनन्यत्र भावो विषयस्तस्मै प्रभवति 'तस्मे योग दे: ०' | ६|४|९४८ इतीणि वैषयिकम यथा दिवि देवाः, नभसि तारका इत्यादि । देवादीनामन्यत्र प्रवृत्त्यभावाद्दिवादयो विषयाः । एकदेशमात्र संयोग उपश्लेषः तत्र भवम् 'अध्यात्मादिभ्य इकण्' | ६ | ३ ७८ । इतीकणि औपश्ले षकम् यथा कटे आस्ते इत्यादि । यस्याधेयेन समस्त वयवसंयोगस्तदभिव्यापकम् आधेयेनाभिव्याप्यते अधेयं व'sभिव्याप्नोतीति 'बहुलम्' | ५|१|२| इति कर्मण्यपि णकः । तिनेषु तैलम्, दहिन सर्पिः, गवि गोत्वम्, तन्तुषु पटः । यद् आधेयसन्निधि-: मात्रेण क्रिया हेतुस्तत्सामीप्यकम् (भेषजादिट चणन्तात्यावादित्वात् स्वार्थे कः ) गङ्गायां घोष:, कुपेषु गर्गकुलम्, गुरौ वसति । नन्वाधारोऽधिकरण भवतिआधारश्च संयोगसमवायाभ्यां भवति । न हि घोषादीनां गङ्गादेः संय गसमवायो स्त इति कथमधिकरणसञ्ज्ञ ेति चेन्मैवं यदायत्ता । यस्य स्थितिस्तत् 1 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयोगसमवायाभ्यां विनाप्यधिकरणसज्ञ भवति यथा लोकेपि राजपुरुष इत्-. यत्र राज्ञा सह पुरुषेन सह संयोगसमवाययोरभवेपि तदधीन स्थितत्वात् राजाश्रयः पुरुष इति व्यवह्रियते । एवं गङ्गाद्यायत्ता घोष द ना स्थितिरिति सन्निधिमात्रेण क्रियाहेतुत्वादयुक्तमधिकरणत्व । यदा तूपचाराद् गङ्गादिशब्देन तत्समीपो देश एवोच्यते तदोपरनेषिक एवाधारः । निमित्तमेव 'विनयादिभ्यः' ।७।२।१६९। इतीकणि नैमित्तिकम्, युद्ध े सन्नह्यते, अतो वलाम्यति, छायायमाश्वसिति । अन्यत्रावस्थितस्यान्यत्राध्यारोप उपचार स्तंत्र भव'अध्यात्मादिभ्यः इग्' ६।३।७ ८ इतीकणि औपचारिकम् अङ्ग, ल्यग्र करिशतमास्ते, स मे मुष्टिमध्ये तिष्टनि यो यस्य द्व ेष्यः स तस्याक्ष्णोः प्रतिवसति यथाऽक्षिस्थित तृणादि दुःखकारि तथा द्व ेष्योप त्यर्थः, यो यस्य यः स तस् यहृदये वसति अत्र शतादीनामन्यत्रावस्थितानां केनापि प्रयोजन दिनां - ङ्गल्यप्रदा वध्यारोप्यमाणानामङ्ग ल्यग्र दिरौपचारिक आधार उच्यते । यदा स्वङ्गल्ययप्रादिशब्देनोपचारादाधेयाधिष्ठितो. देश उच्यते तदौपश्लेषिक एवा 5 C ( २२६) धारः । उक्तं च आधारस्त्रिविधो ज्ञ ेयः कटाकाशतिलादिषु । औपश्लेषिको वैषयिकोऽभिव्यापक एव च ॥ अभीयते इति भूयदल' | ५|३ | २३ | इत्यलि आश्रयः क्रियाया आश्रय क्रियाश्रयः क्रियासम्पादक इत्यर्थः आघ्रियेते अवतिष्ठेते क्रियाश्रयो कतृकर्मणी यति आधार: 'न्यायावाय० | ५|३|१३४ | इति घञ् अश्विकरणाधारसञ्ज्ञाप्रय जनस्थान नि- 'सप्तम्यधिकरणे' | २२|९५ ' अद्यर्थाच्चाधारे' १११२ इत्यादयः ||३०|| नाम्नः प्रथमैकदिब हौ | २२|३१| एक द्विबहावर्थमात्र वर्तमानान्नाम्नः परा यथासंख्यं सिओजस्लक्षणा प्रथमा स्यात् । डित्थः । गौः । शुक्लः । कारकः । दण्डी ॥३१॥ कर्मादिशक्तिषु द्वितीया दिविभक्तीनां विधास्यमानत्वादत्र विशेषा'नभिधानाच्च परिशिष्टेऽथमात्र प्रथमा भवति । अर्थमात्र चोपचरितमध्यारोपितमपि भवति साहचर्यस्थानतादर्थ्य वृत्त मान-धरण सामीप्य-योग - Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) साधनाऽऽधिपत्येभ्यः अतद्भावेपि तद्वदुपचार: । यथा साहचर्यात् कुन्ताः प्रविशन्ति, स्थानात् - मञ्चाः क्रोशन्ति, तादर्थ्यात् इन्द्रः स्थूणा, वृत्तात् यमोSय राजा, मानात् प्रस्थो व्रीहिः धरणात्तुला चन्दनम, सामीप्यात् गङ्गातटं गङ्गा, योगाद्रक्तः कम्बलः, साधनात् अन्नं प्राणाः, विपत्यात् ग्रामाधिपति• ग्रमः ||३१|| आमन्त्रये ।२।२३२४ आमन्त्र्यार्थ वृत्त र्नाम्नः प्रथमा स्यात् । हे देव । आमन्त्र्य इति किम् । राजा भव । ३२। प्रतिसम्बन्धस्य किमप्याख्यातुमभिमुखीकरण मामत्रणमतद्विषय आमध्यः प्रसिद्धतस्म्बन्धः कः ?- देवदतत्वादिना प्रवृत्तिनिनित्तेत सम्ब न्ध: अथवा तेनामन्त्यवाविना देवदत्तादिशब्देन सम्बन्धः वाच्यवाचकभावः प्रसिद्धस्तत्सम्बन्धो यस्य तस्य देवदत्तादेति येत निरवधान आत्मा साथधानः क्रियते तदामन्त्रणमिति स्पष्टार्थः । राजा भवेत्यत्र राजाऽत्र नामन्त्रयः किन्तु स एव विधीयते इति पूर्वेणैव प्रथमा । ननु पूर्वेणैव सिद्ध: किमनेनेति वाच्यम्- आमन्त्र्यामन्त्रणभावसम्बन्धे विषयविषयिभावसम्बन्धे वा प्रथमापवाद: 'शेषे' ।२।२।९१। इ त षष्ठी प्राप्नोति तद्बाधनार्थं वचनम् ||३२|| गौणात्समयानिकषाहाधिगन्तरान्तरेणातियेन तेनैदितीया ।२।२।३३० T समयादिभिर्युक्ताद् गोणान्नाम्न एकद्विबहौ यथासंख्यममोश सिति द्वितीया स्यात् । समया ग्रामम् । निकषा गिरि नदी । हा मैत्र व्याधिः । धिग्जात्मम् । अन्तरान्तरेण च निषधं नीलं च विदेहाः । अन्तरेण धर्म्म सुखां न स्यात् । अतिवृद्ध कुरुन महद्बलम् । येनपश्चिमां गतः । तेन पश्चिमां नोतः |३३| Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) - आख्यातपदेनासमानाधिकरणं गौणत्वम् । सम्बन्ध-षष्ठयाः अपवादोऽयम् । समया ग्राममित्यादि - ग्रामसमीपवृत्तिनदी, गिरिसमीपवृत्तिनदीत्यर्थः, हाशब्देन मोत्वस्य शोच्यता द्योत्यते,धिक जाल्ममत्र जाल्मस्य निन्द्यता। अन्तरा निषध नील च विदेहा । निषेधनीलयोर्मध्ये इत्यर्थः । अन्तरेण धर्ममिति धर्म विनेत्यर्थः । अतिवृद्ध कुरूनिति- कुरूणामतिक्रमेण पाण्डवानां महद् बृहद् बल वर्तत इत्यर्थः । येनेति - येनतेनौ लक्ष्यलक्षण-भावं द्योतयतः पश्चिमां प्रति लक्ष्यीकृत्य गत इत्यर्थः । अयं गतः कां प्रति पश्चिमा प्रति । पश्चिमया लक्षणेन देवदत्तस्याप्रसिद्ध लक्षणं लक्ष्यते । बहुवचनादन्ये. नापि युक्ताद्भवति यथा न बुभुक्षित प्रति भाति किञ्चित् । धातुसम्बद्धोऽत्र प्रतिस्तेन 'भ गिनि च०' ।२।२।३७। इति न सिध्यतीति । गौणादिति किम् - अन्तरा गार्हपत्यमाहवनीयं च वेदिः, अत्र प्रधानादिशब्दान्न भवति ॥३३॥ ब्दित्वेधोध्युपरिभिः ।२।२३४। . द्विरुक्तरेभियुक्तानाम्नो द्वितीया स्यात् । अधोऽधो ग्रामम् । अध्यsधि ग्रामम् । उपयुंपरि ग्रामं ग्रामाः । द्वित्व इति किम् । अधो गृहस्य ॥३४॥ . बहुवचनमेकद्विबहाविति यथासङ्खयनिवृत्त्यर्थम्, 'सामीप्येऽधोध्युपरि०' १७।४।७९। इति द्वित्वम् । षष्ठ्यपवादः यस्य सामीप्यं तस्माद्ग्रामादेः सम्बन्धे षष्ठयां प्राप्तायामिदं वचनम । अषो गहस्येति • अत्रौत्तगधर्यमात्र विवक्षितं न सामीप्यमिति द्वित्वाभावः ॥३४॥ . सर्वोभयाभिपरिणा तसा ।।२॥३५॥ सर्वादिभिस्तसन्तयुक्तानाम्नो द्वितीया स्यात् । सर्वतः । उभयतः । अभितः । परितो वा ग्रामं वनानि ॥३५॥ - षष्ठयपवादः। तसेति सर्वादिविशेषणात्तदन्तयिधिः । सर्वत: उभयत इत्यत्र 'आद्यादिभ्यः' ।२।२।८४। इति तसुः अभिपरिशब्दाभ्यां 'पर्यभे:०' ७।२।८३॥ इति तसुः ॥३५॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२९) लक्षणवीप्स्येत्थम्भूतेष्व भना।२।२॥३६॥ लक्षणं चिन्ह नम । वोप्साकम्म वीप्स्यम् । इत्यम्भूतः किञ्चित्प्रकार मापन्नः । एषुपर्तमानादभिनायुक्ताद्वितीया स्यात् । वृक्षमभि विचुत । वृक्षं वृक्षमभिसेकः । साधुमैत्रो मातरमभि । लक्षणादिविति किम् । यदत्र ममाभि स्यासदीयताम् ॥३६॥ लक्ष्यने दर्शाते येन तल्लक्षणं चिह नम , अवयवशः समुदायस्य क्रियादिना साकल्ये प्रप्त च्छा व त्सा. तत्कर्म वीप्स्यम, विपूर्वादाप्नोते. सति यप्रत्यये च रुपमिदा के विविवक्षितेन 'विशेषेण भावः इत्थंभाव:, तदिवषय इत्थंभूत इत्थं भवति स्म स्मिन्निति २०१२। इति क्तः, यदवी इत्थ भवन 'क्लीबे' ।। १२ । इति क्त इत्यभूत तस्त्रास्त ति 'अभ्र दिभ्य:' ७।२।४६। 'अव्ययं प्रव.' ।३।११४८। इति समासः । बक्षमभीति - विद्योतते इति शेषः अत्र वश्व: लक्षणम्, विद्य तमाना विद्युल्लक्ष्यं, तयोर्लक्ष्यलक्षणभ वसम्बन्ध ऽभना द्योत्यते । वृक्ष वृक्षभि इति - एकैकस्य वृक्षस्य सेक इत्यर्थः 'वोप्सायाम ' ७।४।८६। इति द्वित्वम । अनामिना साध्यसाधनभा वन्धो धोत्यते । साधुरिति - मातृविषये साधुत्व कारमापन्न इत्यर्थः । अत्राभिना विषयविषयिभावसम्बन्धो द्योत्यते ५ यवत्र ति - योऽत्र मम भाग: स्वात्तद्दीयताम , अत्राभिना भागसम्बन्धो बोत्यते । अत्रापि बहुवचनं एक द्विबहाविति यथासङ्खयाभावार्थम । एवमुत्तरत्र ॥३६ भागिनि च प्रतिपर्यनुभिः ।२।२॥३७॥ स्वीकार्यो ऽशो भागस्तत्स्वामो भागी तत्र लक्षणादिषु च वर्तमानातू प्रत्यादिभियुक्ताद्वितीया स्यात् । यदन मां प्रति मा परि मामनु स्यातद्दीयताम् । वृक्षं प्रति परि अनु वा विद्य त् । वृक्षवृक्षं प्रति परि मनु वा सेकः । साधुमत्रो मातरं प्रति परि अनु मा । एते. विवति किम् । अनु बनस्याऽनिर्गता 1३७. ... ... ......। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) ___स्वीकार्य इति - अस्वीक यमाणेप्यशे भागशनः प्रयुज्यते यथा नगरस्य भाग: स तु स्वीक्रियमाणाभागसादृश्यत् । चकारेणानन्तरोक्त लक्षणवं प्स्येत्यम्भते ध्वत्यनुकृष्यतेत आह • लक्षणादिषुचेति यदत्रमा प्रतीरयादि- योऽत्र मम भाग: स्यात् तद्दीयताम् इत्यर्थः, अनु वनस्याशनिर्गतेति‘समीप इत्यर्थः । अत्र वनस्य समीपं भाव इति वीप्सादिभावाभावः ॥३७॥ हेतुसहार्थेऽनुना ।२।२॥३८॥ हेतुर्जनकः । सहाथस्तुल्ययोगो विद्यमानता च । तद्विषयोप्युपचारात् । तयोर्वर्तमानादनुना युक्ताद्वितीया स्यात् । जिनजन्मोत्सवमन्वागच्छन सुराः । गिरिमन्वासिता सेना ॥३८॥ हेतुद्धिविध: जनको ज्ञापकश्च । ज्ञापकस्य तु लक्षगत्वात् पूर्वसूत्रेणैव द्वितीया सिद्धान आह- हेतुजनक इति । सहार्य इति-- तुल्यः साधारण: गौणस्य मुख्येन क्रियादिना यः सम्बन्धः स तुल्ययोगः । विद्यमानता सत्ता ननु तुल्ययागे सहादय एव शब्दा उच्यते न तु गिर्या दशब्दा इति कथं ततो द्वितीयेत्याह तद्विषय इति- तात्रय: गिर्यादिरप्युपचारात्सहार्थ इत्यर्थः । जिनजन्मोत्सवमिति- तेन हेतुनेत्यथः । गिरिमन्ववसितेति-गिरिणा सह सम्बद्ध त्यथः । विद्यमानतदाहरण अनु कर्माणि ससारीति ज्ञातव्यम् । 'हेतु०' ।२।२।४४॥ इति तृतीयापवादा योगः ॥३८॥ . उत्कृष्टेऽभूपेन ।२।२।३९। उत्कृष्टार्थादनूपाभ्यां युक्ताद्वितीया स्यात् । अनुसिद्धसेनं कबधः । उपोमास्वाति सगृहीतारः ॥३९॥ . स्वयमेव उत्कृष्यते स्म कर्मकतरिक्तः,उत्कृष्ट शब्दो हीनापेक्षस्तेन होनोत्कृष्टसम्बन्धोऽनुना द्योत्यते । अनु सिद्धसेनं कवयः इत्यादि-तस्मादन्ये हीना इत्यर्थः । उमा कीर्तिमंतर्त ति पादच्चाहनिभ्याम्' [उणा. ६२०] इति इ: णित् यद्वा उमा कीर्तिः स्वातिरिज्ज्वला यस्य, यद्वा उमा माता स्वाति: पिता Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३१) तयोजातत्व सुत्रोप्युमारवातिः । गृह पन्त सड्गडीतार: ‘णकतृवो' ५।१।४८। 'स्ताशित०' ।४।४।३२। 'गृह णोऽ०' ।४।४।३४। इति दीर्घः । ॥३९॥ कर्मणि २२॥४०॥ नाम्नः कर्मणि द्वितीया स्यात् । कटं करोति । तण्डुलान् पचति । रवि पश्यति । अजां नयति ग्रामम् । गां दोग्धि पयः ॥४०॥ क्रियते कट इत्यत्र कर्मण्यात्मनेपदे कर्मण उक्तत्वाद् 'उक्तार्थानामप्रयोगः' इति न्यायाहि वतीया न भवति । अर्थप्रत्यायनार्थ शब्दा: प्रयुज्यन्ते सोऽर्थो यदि शब्दानरेणोक्तस्तदा प्रयोजनाभावात् शब्दान्तर योगो न कतव्य इति । ननु कटं करोति भष्ममदारं दर्शनीयमित्यत्र कटस्यैव कर्मत्वेन कटशब्दादेव द्वितीया स्याद् भीष्मादिभ्यो न स्यादिति चेन्मैव यथा कट: कर्म तथा भीष्मादयोपि तथाहि स कटं करोति तथा तद्गतगुणानपि करोत्येव कर तिना यद्यद्व्याप्तुमिष्टं तत्सर्वं द्रव्य गुणश्च कर्मेति सर्वेभ्योपि द्वितीया भवति पश्वातु गौणमुख्यभावे विशेष णविरो' यभावः । यद्वा 'न केवला प्रकृतिः प्रयोक्त व्या' इति न्यायादविभक्तिकानां प्रयोगानहत्वात्तम नविभक्तिमृते सामानाधिकरण्य विशेषणत्वायोगात् यथा ईश्वरसुहृदा स्वय निर्धनत्वेपि नदकयोगक्षेमत्वात्तद्धनेनैव फलभक्त वं भवति एव नकर्म गाम प कटकमत्वेनैव द्वित या सिद्धा। कृतः कटो भीष्मः उदारो दर्शनीय इत्यत्र तु कृगः त प्रत्ययः। यस्य यस्य ता क्रियया सम्बन्धस्तस्य तस्य साकल्येन कर्मत्वमभिदधात ति • 'क्वचिदपि द्वितीया न भवति।नन कथ कृतं पश्यात्र क्तप्रत्ययेन कर्मण उत्तर वात्त्रथमया भ व्यमिति चेत्सत्यं कर्मतियुक्त द्रव्यमेव क्तप्रत्यया तेनाभिधीयते इति स्वरूप- कालभिन्नायां कियाया सव्यापारतया कर्मरूपतेति तदभिधानाय द्वितीया भवतीति ।।४०। क्रियाविशेषणात् ।२॥२॥४१॥ क्रियाया यद्विशेषणं तद्वाधिनो द्वितीया स्यात् । स्तोकं पचति । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३३) सुखी स्थाता ४११ . द्वित यार्थं वचनं न कम मज्ञार्थं तेन सुख स्थातत्यादौ कृद्योगे कर्म- .. निमित्ता षष्ठी न भर्वा ॥४१॥ कालावनोग्यप्तिौ ।२।२।४२॥ व्याप्तिरत्यन्तसंयोगः । व्याप्ती धोत्यायां कालाध्ववाचिभ्यां द्वितीया स्यात् । मासं गुडधानाः, कल्याणी अधोते वा । कोशं गिरिः कुटिला नदि क्रोशमधीते वा । व्याप्तापिति किम् । मासस्य मासे वा द्वयहं गुडधानाः । कोशस्य कोशे वा एकरी कुटिला नदी ।४२॥ व्याप्ति-ति-स्वेन सम्बन्धिना द्रव्यगुणक्रियारूपेण कास्येन सम्बन्धो व्याप्तिरत्यन्तसंयोग इति यावत् । मासं गुडधाना इत्यादि-मास गुडधानाः, कल्याणा, मासमधीते, केशं गिरिः, क्रोशं कुटिला नदो, क्रोशमधीत इति बोध्यम् । द्रव्य मुणकमणीयथासङ्खधमुदाहरणानि । सम्बन्धविवक्षायां षष्ठी, आधारविक्षायां तु सप्तमो । यह इति-द्वयोरह नो: समाहार इति 'विगारह नों' १७३९९। इत्यटि द्वयहम् । अत्रं दैव्याहशब्दादनेन द्वितीया, मासशब्दात्त व्यापतेः रभावान । वैकदेश- अंकदेशशब्दात् व्याप्तेः सम्भवेपि अव्वनाऽभावनानेन द्वितीया कालाऽवभाव-देश' ।२.२।२३। इलि कमसजीभावाक्षे षष्ठया: सप्तम्या वाऽपवावीयम् तेन मांसमधीते क्रोशमबीते इत्यकर्मकत्व उदाहरणमिदम । कर्मत्वे 'कर्मणि' ।२२१४० इत्येव द्वितीया सिता । ग्रन्थ दिकर्मणा इङ धातुः सकर्मकस्तथापि अविवक्षितकर्मकत्वेनाकर्मकत्वात् 'कालाध्व०' ।सं।२३॥ इति प्राप्तेरकमेपक्ष एवानन द्वितीया कर्मरक्षे तु 'कर्मणि' ।२।२।४०। इत्येव सिद्धा ॥४२॥ सिध्दौ तृतीया ।२।२।४३।।.. सिद्धो कलमिपती धोत्यायो कालाध्यवाचिभ्यां टाभ्याभिलक्षणा Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३३) तृतीया यथासंख्यमेकद्विषहौ स्यात् । मासेन मासाभ्यां मासर्वा आव. श्यकमधोतम् । कोशेन क्रोशाभ्या शैर्वा प्राभृतमधीतम् । सिद्धाविति किम् । मासमधीत आचारो नानेन गृहीतः ॥४३॥ . व्या तो गम्यायामिति तु 'एकद्विवहौ स्यात्' इत्यनन्तरं ज्ञयम् । द्वितीयापवाने यागः । यद्यपि याति स्त्रप्रकारा स्वेन सम्बन्धिना द्रव्यगुणक्रियारूपेण क त्स्येन सम्बन्धरूपा तथाष्यत्र क्रिया- व्याप्तेरेव, सिद्धाविति विशेषणं युज्यते यस्य ह्यारम्भस्तस्यैव सिद्धिः द्रव्यु गुणयोस्तु सिद्धरूपयो: शब्देनाप्रतिपादन ल ताव भ्येते नापि निष्पद्यते इति । आवश्यकमिति, आवश्यकं नामाध्ययनविशेष:-। अधीतमिति- यदर्थमध्ययन तत्फलनिष्पत्तिरत्र गम्यते । मासमधीत इति । अत्र व्याप्तिमात्रं गम्यते न तु सिद्धिरिति पूर्वेण द्वितीयाऽभूत् ॥४३॥ हेतुकतु करणेत्थम्भूतलक्षणे ।२।२४४॥ फलसाधनयोग्यो हेतुः किञ्चित्प्रकारमापन्नस्य चिहनं इत्थम्भूतलक्षणं हेत्वामिवृत्त र्नाम्नस्तृतीया स्यात् । धनेन कुलम् । चत्रेष कृतम् । दात्रेण लुनाति । अपि त्वं कमण्डलुना छात्रमद्राक्षोः ॥४४॥ ____ फलसाधनयोग्य इति- फलं कार्यं तस्य साधनं निष्पादन करणमिति तत्र योग्या सामान्यतो दृष्टसामर्थ्यः । योग्यग्रहणमृते फलसाधन इत्युच्. यमाने यः फलं साधयति क्रियाविष्टस्तस्य प्रतिपत्तिः स्यात् यायग्रहणे तु ' अकुर्वी योग्यतया तद्वतुः । योग्योत्र तिप्पारो गृह्यते सव्यापारे तु कर्तृ। त्वमेव धनेन कृलमित्रत्र कुलमकुर्वयि योग्यतामात्रेण तवतुत ग तृतीया भवति । अन्नेन वसतीत्यत्र यद्यपि क्रिया दृश्यते तथापि योग्यताम अविवक्षवेति हेतांवेव तृतीया। प्रकृष्यमाणब्यापारविवक्षायां तु करणे तृतीयेति । द्रव्यादिसाधारणं हेतुत्व करणत्वं तु क्रियानिरूपितं ब्यापारनियत चेति हेतु, 'करणयाविशेषः । इम कंञ्चित् प्रकारं भूत आपन्न इत्यम्भूतः लक्ष्यते येन से लक्षण: करणेऽनट इत्यभूतस्य लक्षण इत्यम्भूतलक्षणः । कमण्डलनेति- छात्र Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४) स्वादिकं प्रकार मापन्नस्य कमण्डलुर्लक्षणम् ॥४४॥ सहार्थे |२२|४५ ॥ सहायें तुल्ययोगे विद्यमानतायां च गम्यमाने नाम्नस्तृतीया स्यात् । पुत्रेण सहागतः । स्थूलो गोमान् ब्राह्मणो वा । एकेनापि सुपुत्रेण सिंहो स्वपिति निर्भयम् । सहैव दशभिः पुत्रैर्भारं वहति गर्दभी ॥ i ४५ तुल्यः साधारणो गौणस्य मुख्येन क्रिय दिना य: सम्बन्ध: स तुल्ययोग:, विद्यमानता सत्ता । ननु विद्यमानतायामपि तुल्ययोगोऽस्त्येव : सत्तया समुभयोः सन्धात् तथाहि सहैव दशभिः पुत्रैः भारं वहति गर्दभीत्यत्र सहैव दशभिः पुत्रः सशक् तिपादयितुमिति कि तुल्ययोग पृथग् विद्यमानता निर्दिश्यते इति चेत् सत्य सहैव दशभिः पुत्रैरित्यत्रं गर्दभ्या एव बहनं विवक्षितं न तु तत्पुत्राणाम् । पुत्रेण संहागत इत्यत्र तूभयीरेवागमनं विवक्षितमित तुल्ययोगाद्विद्यमानता भिल्ला पुत्रेणेत्यादि- पुत्रेण सहाSSगतः क्रियया पितापुत्रयोस्तुल्ययोगः पुत्रेण सह स्थूल इत्यत्र स्थल गुणेन तुल्ययोगः पुत्रेण सह गोमानित्यत्र गोरूाद्रव्येण । ब्राह्मण इति अत्र ब्राह्मणत्वजात्या सहैवेति एतद्विद्यमानते दा हरणम् अत्र पुत्राणां सत्तामात्र विवक्षितं न तु वहनम् । गम्यमानेनि सहार्थे भवत पुत्रेणागत् सुवेनास्ते इत्यादि । क्रियाविशेषत्वविविक्षायां तु सुखमास्त इत्यपि । गौणादिव्यधिकारात् सहोभौ चरतों धममित्यत्र न भवति ॥४५॥ - . यभेदैस्तद्वदाख्या | २२|४६॥ वस्य भेदिनो भेदः प्रकारस्तद्वतोर्थस्याख्या निर्देशः स्यात् । तद्वाचिन'स्तृतीया स्यात् । अक्ष्णा काणः । पादेन खञ्जः । प्रकृत्या दर्शनीयः तद्वद् । ग्रहणं किम् अक्षिकाणं पश्य । आख्येति प्रसिद्धिपरिग्रहा Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (२३५) थम् । तेनाक्ष्णा दीर्घ इति न स्यात् ।४६। यस्य भेदिनश्चक्षुग-ने: भेदैः काणत्वादिभिः प्रकारैः तद्वतो चक्षुगदिमतः पुरुषादेगख्या निर्देशा भवति तद्वाचिनश्चक्षुरादिवाचिनस्तृतीया भवति । अक्षणा काण इति-अक्षि काणमकाणं च भवतीति काणत्वभेदेन पचारात्तद्वान् चत्रादिलक्ष्यते भेदग्रहणमते 'येन तद्वदाख्या' इत्युच्यमाने यष्टी: प्रवेशयेत्यत्रैव स्यात् । अत्र यष्टिशब्देनोपचारात्तद्वानुच्यते न तु अक्ष्णा काण इत्यत्र । अब न क्षिशब्देन तदनुच्यत इति । अक्षि काणं पश्येति- अत्र काणशदेना. क्षिभेदेनाक्ष्युच्यते न तु तद्वान् चत्रादिरित्यत्र न भवति । अक्ष्णा दीर्घः-लक एतादृशं प्रयोग न कुरुते. कायेन देघ इति तु भवत्येव । कृतभवत्य दिक्रियाध्याहारेण तृतीया सिद्ध व अवयवावयविभावसम्बन्धे षष्ठीप्राप्तौ वचनम् । ॥४६॥ कृताय ।२।२।४७। कृताद्य निषेधार्थयुक्तात तुतीया स्यात् । कृतं तेन । कि गतेन ॥४७॥ . बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। कृत। कृतम् । भवतु । अलम् । किम् । एवंकारा कृतादयः । कृतादीनां निषेधार्थवृतित्वं धातूनामनेकार्थत्वात् लक्षणातो वा ज्ञयम् ॥४७॥ . काले भान्नवाधारे ।२।२।४८॥ कालवृत्तेनक्षत्रार्थादाधारे तृतीया वा स्यात् । पुष्येण पुष्ये वा पायसमधनीयात् । काल इति किम् । पुष्येऽर्कः । भादिति किम् । सिल पुण्येषु यरक्षोरम् । आधार इति किम् । अध पुष्यं विद्धि ॥४८॥ पुष्येणेति-पुष्येण चन्द्रपेतेन युक्तःकाल: इति 'चन्द्रयुक्तात्काले ।६।।६। इत्यणि 'लुप्त्वप्रयुक्त' इति लुपि पुष्यशब्दो नक्षत्रवाची काले वर्तते । स्व थिकप्रत्ययाः प्रकृतिलिङ्गवचनानि नातिवर्तन्त इति कालतिरपि नक्षत्र"मी नक्षत्रलिङ्गसङ्खय एव । पायसमिति पयसि संस्कृतं सक्ष्यं 'संस्कृत Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३३) भक्ष्ये ।६।२।१४०। इत्यण् । पयसा संस्कृतमिति तु कृते संस्कृते'।६।४।३। इती: कण स्यात् । अश्नीयादिति- अशश भोजने, सप्तमीयात् 'क्रयादे:'।३।४।७९। इति श्नाः, 'एषाम य॑जने' ।४।२।४७। इतीकारः । तिलपुष्पेष्विति-तिल, पुष्पशब्दः यस्मिन् काले तिला पुष्यन्ति तस्मिन्काले वर्तते न तु नक्षत्रे इति न भवति । स्थाल्या पच्यते इत्यादिवदाधारस्य करणविवक्षायां तृतीया सिद्ध व परन्तु सम्बन्ध ववक्षाया षष्ठी मा भूदिति वचनम् ॥४८॥ प्रसितोत्सुकावबन्द।।२।२।४९। . एतयुक्तादाधारवृत्तेस्तृतीया वा स्यात् । केशः केशेषु वा प्रसितः । गृहेण गृहे वा उत्सुकः । केशैः केशेषु वाऽवबद्धः ।४९। .. - यद्यपि प्रसितशब्द: एक: प्रकृष्टः सित: शुक्लः इति शुक्लगुणवचन: द्वितीयः सिनोते त प्रत्यये प्रकर्षण सितः बद्धः नित्यप्रसक्त इत्यर्थः क्रियावचन: तथापि अवबद्ध त्सुकसाहचर्यात् क्रियावचन एव गृह्यते । पूर्ववद् आधारस्य करणविवक्षायां तृतीया सिद्धव षष्ठीबाधनाथं वचनम् । बहुवचनमेकद्विबहाविति यथासङ्खयनिवृत्यर्थम् ॥४९॥ 11 व्याप्ये द्विद्रोणादिभ्यो वीप्सायाम् ।।२।५०। व्याप्यवृत्तिभ्यो द्विद्रोणादिभ्यो वीप्सायां तृतीया वा स्यात् । द्विद्रो. णेन, द्विद्रोणं द्विद्रोणं वा धान्यं क्रोणाति । पञ्चकेन पञ्चकं पञ्चक वा पशून क्रोणाति ५०॥ द्विद्रोणादयः- आदिशब्दस्य प्रकाराथत्वात् यत्र वीप्सायां तृतीया दृश्यते ते द्विद्रोणादयः न तु गर्गादिवत् सन्निविष्टा इति । द्विद्रोणेनेति- वी. 'सायां तृतीया विहितेति तृतोयान्तस्य पदस्य द्विवचनं न भवति । द्वितीया तु . कर्मणि विहिनेति कोप्साया अनुक्तत्वाद्दि व वनं भवत्येव । द्वौ द्रोणो मानमस्य धान्यस्य 'मानम्' ।६।४।१६९। इतोकण तस्य 'अनाम्न्यद्वि: प्लुप्' ।। १४१॥ इति लुप् । धान्यादिकर्मणः विशेषणत्वात् द्वितीयायां प्राप्तायां तृती Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७) याविधिः । पञ्च पङ्खया मानमस्य सङ्ख्यायाः सङ्घसूत्रपाठे | ६ । ४ । १७१ । इति यथाविहितः 'सङ्खच डतेश्च ० ' १६ |४| १३० ॥ इति कः । पञ्चकं पञ्चकं सङ्घ पशून क्रीणातात्यथः । पशुमामाना धे करण्येपि पञ्चकशब्दात् ब्राह्मणः सब इतिवदेकवचनम् ||५०|| समो ज्ञोऽमृतो वा । २२२५१४ अस्मृत्यर्थस्य सञ्जानातेर्यद्वयाप्यं तद्वत्तेस्तृतीया वा स्यात् । मात्रा मातरं वा सञ्जानीते । अस्मृताविति किम् । मातरं सञ्जानाति ॥५१॥ सजानीते इति सपूर्वः ज्ञांश् अवबोधने १५४० 'संप्रने० ' | ६ | ११ ६९॥ इत्यात्मनेपदम् च दित्वात् श्नाप्रत्ययः, 'जा ज्ञाजनो० ' | ४|२| १०४ | इति जादेश: 'एष म ० ' । २९७ इतीत्वम् । मातरमिति - 'स्मृत्यर्थ ०' | २२|११| इति पाक्षिके कमत्वे कमणि द्वितीया । सजानातीति- स्मरती - त्यर्थः । नवाधिकारे व ग्रहणमुत्तरत्र नवाधिकार- निबृस्यथः । कर्मणः करविवक्षायां तृतीयायाः सिद्धावपि धात्वन्तरस्य अम्योपसर्गपूर्वस्य निरुपसर्गस्य स्मृत्यर्थस्य च सम्पूर्वस्य जानाते स्तद्विवक्षायुदासार्थोऽयं पाक्षिकतृतीयारम्भ इति ।। ५१ ।। दामः संप्रदानेऽधर्म्ये आत्मने च । २२२५ २ सम्पूर्वस्य दामः सम्प्रदानेऽधम्र्ये वर्तमानात्तृतीया स्यात् । तत्सन्नियोगे च दाम आत्मनेपदम् । दास्या संप्रयच्छते कामुकः । अधर्म्य इति किम् | पत्न्यं संप्रयच्छति ॥५२॥ दास्या इति कामुकः सन् दास्यं द्रव्यं ददातीत्यर्थः, । पत्न्यै सम्प्रयछतीति- पत्ये दानं नाधर्म इति न भवति । 'डुदांग दाने' तिवि चालेनाहमनेपदम् । ननु सम इत्यत्र परदिग्योगलक्षणा पञ्चमीति पञ्चम्याः ० ॥७॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३८) ११०४॥ तच्चान्तरस्यैवेति प्रशब्दव्यवधाने न प्राप्नोत त चेन्मैवमत्र सम्पूवैस्य. दाम: प्रशब्दव्यवधानमन्तरेण प्रयोगाभव त 'येन नाव्यवं०' इति न्यायाव्यवधानेपि भवति । यद्वा पञ्चम्यन्तमपोह विभक्तिपरिणामेनानुवर्तनाषष्ठय-तविज्ञानात्ततः व्यवधानेपि समा द्योतमानार्थत्व दामः सम्बन्धो. पपत्तं भवत्येव विधिः ॥५२॥ चतुर्थी ।२।२।५३॥ संप्रदाने वर्तमानादेकदिबही यथासंख्यं उभ्याभ्यस्लक्षणा चतुर्थी स्यात् । द्विजाय गां दत्त । पत्ये शेते ॥५३॥ दत्त इति- डुदांगक दामे ११३८ + वर्तमानाते 'हव: शिति' ।४।१॥ १२॥ इति द्वित्वम् 'ह्रस्व:' ।४।११३९। 'श्नश्चीत:०' ।४।२।९६। इति धातोराकारलोपः, अघोषे प्रथमो० ॥१॥३॥५०॥ इति दस्य तकारः । शेत इति-'शीकू स्वप्ने' 'शीङः ए: शिति' ।४।३।१०४। इत्येकार: ॥५३॥ तादध्ये ।२।२।५४॥ तस्मा इदं तदर्थम् । तद्भावे. सम्बन्ध विशेषे द्योत्ये चतुर्थी स्यात् । यूपाय दारु । रन्धनाय स्थाली ।५४॥ किञ्चिद्वस्तु संपायितुं यत्प्रवृत्तं तसदर्थ तादर्थ्य सम्बन्धविणेषे घोत्ये गौणान्नाम्नः चतुर्थी भवतीति सूत्रार्थः । तादर्थ्य सम्बन्धविशेष: । सम्बन्धस्य द्विष्ठत्वपि गौणादित्यधिकारांद् गौणानाम्नश्चतुर्थी भवतीति । यूपाय दाविति- यूपादिहेतुभूतस्य दावदिहेतुतते या तु न भव'त अगौणत्वात् । कार्यकारणभावसम्बन्धे षष्ठोप्राप्तौ तद्वाधनोऽय योगः ॥५४॥ . रुचिकृष्यर्थधारिभिः प्रेयविकारोतमणेषु ॥२॥२॥५५॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३९) - रुच्यर्थः कृप्यर्थ धारिणा च योगे यथासंख्यं प्रेयविकारोत्तमर्णवृत्तेश्चतुर्थी स्यात् । मैत्राय रोचते धर्मः । मूत्राय कल्पते यवागूः । चैत्राय शतं धारयति ।५५॥ रुविश्च कृपिश्च रुचि कृषी 'इ कस्तिक' १३८. इत्दर्थे किः । तावों येषान्ते रुचिकृप्यर्थाः 'द्वन्द्वान्ते श्रयमाणं पद०' इति न्यायादर्थशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धः । वचने सम्येन यथं सङ्खयान्वय: इत्याह- यथासङ्खचमिति । बहुवचन मेकद्विवहा वति यथासङ्ख्य भावार्थम् । प्रगविकोरात्तमर्णवत्तीतिप्रेय: प्रीयमाण: प्रीणाते: 'य एच्चातः' ।।१।२८। इति वर्मण यप्रत्यये रूपमिदम् । रुच अभिनीत्यां च ९३८ मैत्राय रोचते धर्म-इति-तस्या-भिलाषमुत्पदतीत्यर्थः । प्रेयसम्बन्धाद भलाषकरणार्थप रुचेग्रहणादिह न भवति । सर्व षामेतद्रोचते तव कथ ? रोचते प्रतिभाति किं तव विचार इत्यर्थः । कथं रोचते मम घृतमिति अत्र सत्यपि प्रेयत्वे प्रेयत्वाविवक्षा सम्बन्ध-मात्र विवक्षायां षष्ठी। मूत्राय-कल्पते यवागूः- मूत्ररूपविकारमापद्यत इत्यर्थः । कृपौङ सामध्ये 'लय रूपा०' ४३४ गुणः 'ऋरलल कृपो' १२ ३९९ इति रेफस्य लकार: । गोमयाश्चिकः प्रभवति, शृङ्गाच्छरो जायत इत्य दौ सरयपि कृप्यर्थ गौणादित्यधिकारान्न भवति । विकारवत्ति-ग्रहणात चैत्रस्य कल. पते धनमित्यत्र न भवत्यत्र धनस्य स्वामी चैत्र में विकारः इति । यो धवं प्रयुङक्त स ल के उतनवे प्रसिद्धः । यो घा गडणाति सोऽधमत्वेन प्रसिद्ध । उत्तमावमाभ्यां सम्बद्धमणमपि तथैव ध्यादेष्टव्य मिति उत्तममण यम्य स उत्तमणः दायकः । अधर्मणी ग्राहक इति । धारयतीति-धड ते स्थाने ध्रियते तिष्ठति स्वरूपाग्न प्रच्यवते शतं कर्तृ सद् ध्रियमाणं प्रयुङ क्ते इति णिम् अपरपठितचुरादिर्वा ॥५५॥ प्रत्याहुः शुवार्थिनि ।२।२५६॥ प्रत्याङ भ्यां परेण श्रुवा युक्तादयिभिलाषुके वर्तमानाच्चतुर्थों " स्यात् । द्विजाय गांप्रतिशृणोति, आशृणोति वा ॥५६॥ . 'अर्थणि उपायाचने' अर्थयत इति इत्यर्थी। द्विजाय गां प्रतिशणोति, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४०) आशणोति वेति- याचितोऽयाचितो वा द्विजनिमित्तं गोदानं ओमिति स्वीकरोत त्यर्थः । श्रृंट् श्रवणे-प्रति - पूर्व: आपूर्वश्च,तिव'स्वादेः श्नुः' ।३।४।७५॥ इति श्नुः, 'श्रौ -कृवु०' ।४।२।१०८। इति श्रु वःशुभ व. ॥५६॥ . प्रत्यनोगुणाऽख्यातरि ।२।२।५७७ .. प्रत्यनुभ्यां परेण गृणा योगे आख्यातृवृत्तेश्चतुर्थी स्यात् । गुरवे प्रति-गृणाति । अनुगुणाति ।५७। . गृश् शब्दे १५३८ गुरवे प्रतिगृणाति, गुरवे अनुगृणाति वा गुरूक्तमनुवदति, प्रशंसन्तं वा प्रोत्साहयतीत्यर्थ ॥५७॥ यद्वीक्ष्ये राधीक्षी ।२।२।५८॥ . वोक्ष्यं विमतिपूर्वकं निरूप्यं तद्विषया क्रियापि । यस्य वीक्ष्ये राधीक्षी वत्तेते तद्वत्तेश्चतुर्थी स्यात् । मैत्राय राध्यति ईक्षते वा । ईक्षितव्यं परस्त्रीभ्यः । वीक्ष्य इति किम् । मैत्रमोसते ५८।। विमतिः सन्देहजनं तत्पूर्वकं निरूप्यं निरूपणीयमिति यावत् तच्चादृष्टमिष्टानिष्टफलं पुण्यपापरूपम् अप्रत्यक्षं पराभिप्रायादिकम् । राधं च वृद्धो ईक्षि दर्शने मैत्राय राध्यति ईक्षते वेति- तस्य देवं पर्यालोचयतीत्यर्थः ईक्षितव्यं परस्त्रीभ्य इति- ... ईक्षितव्यं परस्त्रीभ्यः, स्वधर्मो रक्षसामयम् । . .. संक्रुध्यसि मृषा किं त्वं, दिदृक्षु मां मृगेक्षणे ॥१॥ परस्त्रीणामाभिपाये यत्सन्देहादीक्षितव्यं निरूपयितव्यं किमेवं करोषि नवेति तद्रक्षसां कुलधर्मो न तु दोष इति । मैत्रमीक्षत इति-अत्र मैत्रविषय एवेक्षतिः न तु तद्वीक्ष्यविषय इति वीक्ष्यग्रहणान्न भवति ॥५॥ उत्पातेन ज्ञाप्ये ।२।२।५९।। ...... ... Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४१) उत्पात आकस्मिक निमित्तम् । तेन ज्ञाप्ये वर्तमानाच्चतुर्थी स्वात् । वाताय कपिला विद्युत् आतपायातिलोहिनी । पीता वर्षाय विज्ञया दुभिक्षाय सिता भवेत ॥१॥ उत्पातेनेति किम् । राज्ञ इदं छत्रमायान्तं विद्धि राजानम् ।५९। ___ उत्तम्प प्रसिद्ध निमित्त पततं ति बाहुलकात् 'वा ज्वलादि०' ।५।१।६। इति सोपसर्गादपि णः । न च क पलादिविद्य त:वातादिका निका इति तादर्थ्य एव चतुर्थी भविष्यतीति व च्य वातादयः स्वकारणेभ्य एव त्पधन्ते विद्युत्त ज्ञापिकवेति तादर्थ्य नास्तीति । निमित्त द्वधा जनकं ज्ञापक च । यत्र त दथ्य तत्र जन एव हेतुः यथा न्धनाय स्थाली, अत्र तादर्थ्याभावाज्जनक एव हेतुः । जाप्यज्ञापकभावसम्बन्ध विवक्षायां षष्ठयां प्राप्तायां तदपवादश्चतुर्थे । राज्ञ इदं छत्रमित्यादि- अत्र छत्रेणागच्छन् राजा ज्ञाप्यते तथापि छत्रस्यास्मिनिमित्तत्वाभाव मात्र ज्ञाप्यराजन्-शब्द च्चतुर्थी । उत्पातो हि शुभाशुभ सूचक : कादाचित्को महाभूतपरिणाम उच्यते इति ।।५९॥ श्लाघह नुस्थाशपा प्रयोज्ये ।२।२।६०। श्लाघादिभिर्द्धातुभिर्युक्तात् ज्ञाप्ये प्रयोज्ये वर्तमानाच्चतुर्थो स्यात् । मैत्राय श्लाघते । ह नुते । तिष्ठते । शपते । प्रयोज्य इति किम् । . मंत्रायात्मानं श्लाघते । आत्मनो मा भूत् ।६०। . 'युजण संपर्चने' प्रयोज्यत इति य एच्चातः' ।५।१।२८। इति ये प्रयोज्यः अथवा प्रय क्तुं शक्यः 'शक्तार्हे कृत्याश्च' ।।४।३५। इति ध्यणि निप्राद युज: शक्ये' ।४१।११६। इति गत्वाभावे प्रयोज्य इति । द्विीयाप्राप्ती वचनम । मंत्राय श्लाघत इत्यादि- मैत्रायात्मानं परं वा श्लाघ्यं कथयतीति, ह. नोतव्यं किञ्चिन्मैत्र ज्ञापयति, स्थित्वात्मानं ज्ञापयति, प्रकाशयतीति शपते-वाचा मात्रादिशरीरस्पशनेन नाहं जाने न मया कृतमिति मैत्रं ज्ञापयतीत्यर्थः । श्लाघा-ह नव-स्थान-शपथान् कुर्वाणम् आत्मानं परं वा ज्ञाप्यं जानन्तं मैत्र प्रयोजयतीत्यर्थः स्पष्टार्थः । श्लाघङ कत्थने, ह नुङ्क अपनयने Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४२। ङित्व दात्मनेपदम्, ष्ठां गतिनिवृत्तौ ज्ञीप्सास्थे ये' ।३।३।६४। इत्यात्मनेपदम् । 'शपी आक्र शे' 'शप उपलम्भने' ।३।३५॥ इत्याम पदम् । श्लाघादयोप्यत्र विषये नयत्यादिवद्विकमंकाः । अत एव जानातेः कर्तृभूत- ज्ञाप्यस्य ग्रहणार्थं प्रयोज्य इत्युच्यते। ॥६०॥ तुमोथै भाववचनात् ।२।२।६११ क्रियायां क्रियार्थायामुपपदे तु वक्ष्यते तस्याथे ये भाववाचिनो घनादयस्तदन्तात् स्वार्थे चतुर्थो स्यात् । पाकाय इज्याय वा व्रजति । तुमोर्थ इति किम् । पाकस्य । भाववचनादिति किम् । पक्ष्यतीति . पाचकस्य व्रज्या ।६१॥ . भवनं भाव: 'भ वाकों:' ।५।३।१८ः इति पञ् । वक्तीति ब्रवीतीति ‘वा 'रम्य दिभ्यः' ।।३।१२६॥ इति कतर्थनट, भावस्य वचन: भाववचनस्तर मात् । तुम वक्ष्यत इति क्रियायां ॥१३॥ इति सूत्रेणेति । पाकायेत्यादि पक्त यष्ट वा बजतीति- 'भाववचना:' ।।३।१५॥ इति सूत्रेण घञ् इज्ये: यत्र 'आस्यटिवजयजः' ।।३।९७। इति क्यप् च । त दयस्य प्रत्ययेनैवोक्तरव त् चतुर्थी न प्राप्नोतीति शेषषष्ठी व्रतिक्रिय या हेतुमत्त्वात् पाकस्य च हेतुत्वात् हेतुहेतुमद्मावविवक्षायां हेतृतृतीया वा स्यादिति चतुर्थ्यर्थ वचनम् । पाकस्येति- नात्र क्रियाया क्रियार्थायां वितिः किन्तु भावमात्रे 'भावा कों': ।५।३।१८। इति घञ्प्रत्ययः । पक्ष्यतीति पाचकस्य व्रज्येति- जिकि. : याया: भविष्यत्पचनादिक्रियाया उपपदत्वे कतीर णको विहितः इति भाववचनग्रहणादत्र न चतुर्थीति । व्रज्येति- 'अ स्यटिवज० ।५।३।९७॥ इति भावे क्यप् गमनमित्यथः । तुम इति व्यस्तनिर्देश उत्तरार्थः । अन्यथा 'मात्राला. घवमप्युत्सवाय मन्यन्ते वैयाकरणा' इति न्यायात् तुमर्थः इति एकमात्रालाघवकृतः समासनिर्देश एव ज्यायान् स्यात् ॥६१॥ गम्यस्याप्पे।।२।६। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४३) 'यस्यार्थो गम्यते नचासौ प्रयुज्यते स गम्यः । गम्यस्य तुमोव्याप्ये वर्त्त मानाच्चतुर्थी स्यात् । एधभ्यः फलेभ्यो वा व्रजति । गम्यस्येति किम् । एधानाह याति । ६२ शब्द प्रयुज्यमानोऽप्रयुज्यमानश्च भवति, अप्रयुज्यमानश्चार्थ प्रकरणशान्तरसन्निधानैः प्रतीयमानार्थः, स च गम्य इत्युच्यते । एभ्यः फलेभ्यो वा व्रजतोति- एधान् फलं नि चाहर्तुं व्रजत त्यर्थ । तुमन्तस्य पंधानां फलानां च कर्मश्वद्वते याप्राप्तौ तदपवादश्चतुर्थीयम् । न च धार्थं फलार्थं वा व्रजतीति तादध्य एव चतुर्थी भविष्यति किमनेनेति वाच्यं नाफा व जनक्रिया अपि त्वाहरणार्थेति न सिध्यतीति ॥ ६२ ॥ गर्नवानाप्ते ||२२६३ ॥ 1 गतिः पादविहरणं तस्या अनाप्ते वर्तमानात् चतुर्थी वा स्यात ग्रामं ग्रामात्र वा याति । विप्रनष्टः पन्थानं पथे वा याति । गते - रिति किम् । स्त्रियं गच्छति । मनसा मेरु गच्छति । अनाप्त इति किम् । संप्राप्त े माभूत् । पन्थानं याति ॥ ६३ ॥ गतिशब्दस्य ज्ञानाद्यर्थत्वेप्यनाप्त इति वचनादिह पादविहरणरूपत्र गतिर्गृह्यते, ज्ञानादिव्याप्यस्यानाप्तत्व सम्भवादत एवन्तं गतिः पादविहरणमिति । स्त्रियं गच्छतीति भजनार्थोऽत्र गमिर्न तु गत्यर्थः । मनसेत्यादिज्ञानार्थो गमिः । पन्थानं यातीति- अनाप्ते सम्प्राप्ते चतुर्थी अत्र तु पन्थानं सम्प्राप्तः इति न भवति । कृद्यागे तु परत्वात् षष्ठ्येव ग्रामस्य गन्ता ॥ ६३ ॥ मन्यस्यानावादिभ्योऽतिकुत्सने || २६४ अतीव कुत्स्यते येन तदर्तिकुत्सनं तस्मिन् । मन्यतेर्ष्याप्ये वर्तमानानावादिवर्जाच्चतुर्थी वा स्यात् । न त्वा तृणाय तृणं वा मन्ये । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४४) मन्यस्येति किम् । न त्वा तृणं मन्वे । अनावादिभ्य इति किम् । न त्वा नावं,अन्नं, शुकं,शगालं काकं वा मन्ये । कुत्सन इति किम् । न त्वा रत्न मन्ये । करणाश्रयणं किम् । न त्वा तृणाय मन्ये । युष्मदोमाभूत् । अतीति किम् । त्वां तृगं मन्ये ।६४। नौरा दियेषान्ते न वाट्यस्ते यः । एषां वर्जनम् । न त्वा तृणायेत्यादि-तृणमपि न मन्ये तृणादपि निकृष्ट तुच्छं मन्य इति कुत्सयते । न त्वा तृणं मन्व इति-श्यनिर्देशेन मनिच् ज्ञाने इति दिवादे: ग्रहणात् मनूयि बोधने' इत्यस्य ग्रहणं न भवति । न त्वा नावमन्नमिति न च नावन्नयोग्त्युपकारकत्वात्कथमतिकुत्सनत्वमितिवाच्य नावन्नय पिराधोनप्रवृत्त्य-नाय स च्छेद्यतादि भगतिकु. त्सनत्वंगम्यते इति । शुकमिति- शुक: पाठितो भणति त्व तदपि नेत्यतिकुत्सा गम्यते । बहुव वनस्य कृतिगणार्थत्वात् नावादयः यथादर्शन ज्ञानव्याः । न त्वा रत्नं मन्य इति- रत्नादपि त्वामधिकं मन्य इति प्रशंसा । यतो रत्न: पाषाण : इति । करणाश्रयणमिति. कुत्स्यतेऽनेनेति अत्र मन्यते ा यस्य युष्. मदो न भवति । त्वां तृणं मन्य इति- अत्र नत्र प्रयोगाभावे साम्यमात्र प्रती. यते न त्व तात्मेति । न त्वा तृणस्य मन्तेत्यत्र कृद्योगे परत्वात् षष्ठी । अयं भाव: 'कर्मणि कृतः ।।२।८३१ इत्यनेन तृणशब्दात् नित्यं षष्ठी युष्मच्छ दात्त 'वैकत्र द्वभोः' ।।१८५॥ इति षष्ठीविकल्पाहि वनीया। यदा तु युष्मच्छब्दात् 'कर्मणि कृतः' ।२।२।८। इत्यनेन नित्य षष्ठी तदा तगशशत् विकल्पेन षष्ठी पक्षे चतुर्थ्यपि न तव तृणाय मन्ता, तृणस्य मन्त।, तृण मनतेति वा । उक्त कर्मणि न त्वं तृणं मन्यसे मया, न त्वं श्वा मन्यसे मयेत्यादौ विशेषण-विशेष्य भावेनोभयमपि कर्म उक्त मिति उभयत्र प्रथमा भवति ।।६४।। हितसुखाभ्याम् ।२।२।६५। आभ्यां युक्तात्चतुर्थी वा स्यात् । आमयाविने आमयाविनो वा . हितम् । चैत्राय चैत्रस्य वा सुखम् ।६५। ..... सम्बन्धलक्षणा षष्ठी सिद्ध वेति पक्षे चतुर्थ्यथं ववनम् । आमीना. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२४५) 'तीत्यमामयः, आमयोऽम्य स्तीति 'आमयाद्दोर्षश्च' १२।४८॥ इति विनि ईर्घत्वे च आमयावो । ६५।। तद्भद्रायुष्यक्षमार्थनाशिधि ।२।२।६६॥ तदिति हितसुखयोः परामर्शः । हिताधयुक्तादाशिषि गम्यायां चतुर्थी वा स्यात् । हितं पथ्यं वा जीवेभ्यो जोवानां वा भूयात् । सुख शं शर्म वा प्रजाभ्यः प्रजानां वा भूयात् । भद्रमस्नु श्रीजिनशासनाय श्रीजिनशासनस्य वा । आयुष्यमऽस्तु चैत्राय चैत्रस्य वा। क्षेमं भूयात कुरालं निरामयं वा श्रीसंधाय श्रासङ्घस्य वा। अर्थः कार्य प्रयोजनं वा भूगन्मत्राय मैत्रस्य वा ॥६६॥ अर्थशब्दः प्रत्येकभिसम्बध्यते । हितसुखशब्दाम्या पूर्वेण विकल्प: सिद्धः एव तदर्थार्थ त वचनम्, नच पूर्वसूत्र एवाथग्रहण क्रियतामिति वाच्यं तदर्थानामाशिषि नियमार्थमिदमिति । आयु: प्रयोज् नस्पति ‘स्वर्मस्वस्तिवाचना०' १६।४११२३॥ इति ये आयुष्यं धृतादि । नच दीर्घमायुस्स्तु मैत्रायेत्यादी - चतुर्थीसिद्धिर्न स्व दिति वाच्य- मुषचाराद युरषि धृतमुच्यते इति अथवा 'आयुरेवायुप्यम् 'भेषजादिभ्यः' ।७।२२१६४। इति स्वार्थे टचणिति । क्षेमभद्रार्थयो: कशे एकार्थत्वेपि क्षेममापदोऽभावः,भद्र सम्पदुत्कर्ष इत्येषभेदाद्वयोः पृथगपादानम् । निगमयमिति आमयस्याभाव: निर्गमयः 'विभक्तिसमोप०' ३१॥३९॥ इति समासः, आशोरभावे आयुष्य प्राणिना तमित्यादी तत्त्वाख्याने न भवति ।।६।। - परिक्रय ।२।२०६७॥ परिक्रोयते नियतकालं स्वीक्रियत येत तस्मिन् वर्तमानात् चतुर्थी वा स्यात । शताय शतेन वा परिक्रीतः ।६७ '. परक्स्वादिकं कियत्कालं द्रव्यदानेन स्वामीतकरण परिक्रम इत्यु. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४६) च्यते सर्वथा-स्वीकारस्तु क्रय उच्यते 'परिसहस्रा गाव:' सहस्रप्रत्यासन्ना गाव . इत्यर्थः । अत्र यथा परिशब्दो प्रत्यासत्ति द्योतयति तथाऽत्राप्येव क्रयप्रत्यासन्न ऽल्पकालं वेतनादिना स्वीकार: पक्रिय इत्युच्यते । तत्र करणेऽनटि वेतना. दिक परिक्रयणशब्देन च्यन्ते । वेतन मूल्य आदिशब्दाद् भाटकादिपरिग्रहः । नियतकालस्तोकं कालमित्यर्थः सर्वथास्वीकारस्तु ऋय: । क्रयस्य करणे तशतेन क्रीणाति' इत्यत्र न भवति ॥६७॥ - शक्तार्थवषड्नमः-स्वस्तिरवाहास्वधाभिः ।२।२।६८॥ शक्ता” षडादिभिश्वयुक्तात् चतुर्थी नित्यं स्यात् । शक्तः प्रभु मल्लो मल्लाय । वषडग्नये। नमोहद्भ्यः । स्वस्ति प्रजाभ्यः ।.. स्वाहेन्द्राय । स्वधा पित भ्यः ॥६८॥ पृथग्योगाढति निवृत्तम् । अयं भात्र:- पृथग्योगो द्वधा क्वचित्सामत्स्त्येन, क्वचिदेव देशेन तथ हि 'हितसुखाभ्याम्' ।२।२।६५॥ इत्यनेन स्व. स्तिशब्दस्यैकयोगाकरणादेकयोगे च कृतेऽन शिषि 'तिसुखस्वस्ति भ.' इत्यनेन अशिषि तु तद्भद्रा०' ।२।२।६६। इत्यनेन स्वस्तिशब्दस्य क्षेमार्थत्वात् क्षेमद्वारेण वा विकल्पस्सियत ति। तदकरणाद्वैतनिवृत्तम् । ननु कथमेकदेशेन पृथग्योगो न तु सामस्त्येनेति चेत्सत्यं तद्भद्रा० २।२।६६। इत्यत्रार्थपरो निर्देशः अत्र तु शब्दपर इति 'तद्भद्रा०' ।२।२।६६। इत्यत्र तदित्यनेन 'हितसुखाम्य म्' ।२।६५॥ इत्यत्र सर्वेषामुपादानात् सर्वेषां परामर्शाद्व्यभिचारः स्यादिति । 'परिक्रयणे' ।२।२।६७ इत्यनेनै कयोगस्तु न सम्भवति तत्र तु परिऋयणे वर्तमानान्नाम्न इत्युक्तमनेन त्वेकयोगे वषडादिवत्परिक्रयणशब्दस्वरूपपरिग्रहः स्यादिति । शक्तः इत्यत्राकर्मक वात् 'गत्यर्थ '५११११॥ इति कर्तरिक्तः । शतार्थ इति- नात्र प्रत्ययार्थो विवक्षितः किन्तु प्रकृत्यर्थमात्रम्, तेन अलं मल्लो मल्लायेत्यत्राप्यनेन चतुर्थी, अन्यथा अलमित्यस्या-सत्त्ववाचित्वेन सामर्थ्य मात्रद्योतकत्वात् कर्तु: प्रत्ययार्थत्वाभावादत्र न स्यादिति । स्वस्ति. शब्दः क्षेमार्थः, स्वस्ति जाल्मायेति जात्मत्वादाशीरभावात् तत्त्वाख्यानमिदमित्यनाशिषि स्वस्तिचतुझं अवकाशः, क्षेमं भूयात् संघायेत्यत्र क्षेमचतुर्थ्या अवकाशः, स्वस्ति प्रजाभ्यो भूयादित्यत्रोभयप्राप्तो परत्वादाशिष्यप्यनेन नित्यं चतुर्थी भवति तमस्पति देवानित्यत्र न नमःशब्देन योगो अपितु नमस्यधा Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४७) तुनेति चतुर्थीन भवति। अथवाऽयवग्द्गहणन्यायान्नमःशब्दस्यानर्थ कत्वान्न भवति 'उपपविभकारक विभक्तिर्बल यसीति न्यायाद्वा कारकविभक्त बलवत्वाद्वित या । नमः करोत ति नमस्यति 'नमो वा वश्चित्रको०।।४।३७। नामसिदय० ॥११॥२१॥ इत्यत्र अयति प्रतिषेधात् सो रूत्त्वं न भवति । स्वयभूवे नमस्कृत्येत्यत्र तु नमस्कारक्रिययाऽभिप्रेयमाणत्वात्सम्प्रदानरव च्चतर्थी स्वयंभुव नमस्कृत्येत्यत्र तु त्रिय भिप्रेयत्वाविवक्षाया कत्तुंाप्यत्वात्कर्मत्वाद्दिवताया । बहुवचनमसन्देहार्थम् ।।६८।। पञ्चम्यपादाने १२।२।६९। अपादाने एकदिवबहौ यथासंख्यं ङसिभ्याभ्यस्लक्षणा पञ्चमी स्यात । ग्रामाद् गोदोहाभ्यां वनेम्पो वा आगच्छति ॥६९॥ ग्रामादित्यादि - 'अपाक्ष विधिरपादानम्' ।२।२।२९। इत्यपादानत्वादनेन पञ्चमी ॥६९॥ . . आङावधौ ॥२॥२७॥ अवधिर्मयादा अभिविधिश्च तवृत्त राडा युक्तात पञ्चमी स्यात । आपाटलिपुत्राद् वृष्टो मेघः ॥७०॥ अभिविधिश्चेति - अभिविधिरपि अवधिविशेष इति तस्यापि ग्रहणम् । प्रवृत्तस्य यत्र निरोध: सा मर्यादा । मर्यादाभूतमेव क्रियया- व्याप्यते तदाऽभिविधिः । आ पाटलिपुत्रा ष्टो मेध इति - पाटलिपुत्रमवधीकृत्य तद्व्याप्या व्याप्य वा वृष्टो मेघ इत्यर्थः । पर्यपाभ्यां वये ।२।२।७१। वज्ये वर्जनीयेऽर्थे वर्तमानात पर्यपाभ्यां युक्त्तात पञ्चमी स्यात् । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४८) परि अप वा पाटलिपुत्राद् वृष्टो मेघः । वा इति किम् । अपशब्दो मैत्रस्य ॥७१॥ · युक्तादिति-युक्ताद्गौणानाम्नः इति भावः । परि अप वा पाटलि. पुत्रावृष्टोमेघः इति - परि पाटलिपुत्राद्वृष्टो मेघः अप पाटलिपुत्रावृष्टो मेघः इति स्पष्ट: पाटलिपुत्र वर्जयित्वेत्यर्थः । वयंवर्जकभावसम्बन्धः द्योत्यते तत्र । पर्यगाभ्यां युका वर्जनीयात् सम्बन्धषष्ठयां प्राप्त यां पञ्चमम्यनेन विधायने । अपशब्दो मैत्रस्येति - अपशब्दः दुष्टशब्द इत्यर्थः, तत्पुरुषस्य पूर्वपदप्रध नत्वात् पूर्वपदेन सह मंत्रशब्दस्य योगोस्त ति न वज्य इति व्यावृत यङ्ग विकलता। अत्र मैत्रशब्दान्मा भूत् ॥७१॥ . .. यतः प्रतिनिधिप्रतिदाने प्रतिना ।२।२।७२। प्रतिनिधिमुख्यसदृशोर्थः । प्रतिदानं गृहीतस्य विशोधनम् ते यतः स्यातां तद्वाचिनः प्रतिना योगे पञ्चमो स्यात् । प्रद्य म्नो वासुदेंवात् प्रति । तिलेभ्यः प्रतिमाषानस्मै प्रयच्छति ॥७२॥ यस्मादिति 'किमयादि०' ।७।२।८९। इति उस्यन्त त् तस् 'आ द्वरः' ।२।१॥४१॥ इति । गम्ययप: कर्माधारे' ।।।७४। इति पञ्चमी यमपेक्ष्य प्रतिनिधि-प्रतिदाने ततः पञ्चमोत्यर्थः । यदा यस्य यतस्तदा 'आद्यादिभ्यः' 1७।२।८४। इति तसुः पृषोदरा०' ।३।२।१५५॥ इति दलोपः । प्रतिनिघोयते प्रतोतः सन् मुख्यस्थाने निधोयते आरोप्यते सदृशः क्रियते स प्रतिनिधिः । प्रतिदान तुल्यजातीयेनातुल्यजातीयेन वा गृहीतस्य प्रत्यर्पणम् । प्रतिनिधिश्च प्रतिद न च प्रतिनिधिप्रतिदाने 'औरी:' ।१।४।१६। इतीत्त्वम् । प्रद्युम्नो बासुदेवात्प्रति - सदृश इत्यर्थः । प्रकृष्टं द्युम्न पराक्रमो यस्य स प्रद्युम्नः । प्रद्युम्नस्य वासुदेवप्रतिनिधित्वाद् वासुदेवात्पञ्चमी। तिलभ्य प्रति मासानस्मै प्रयच्छति - कान् प्रयच्छति ? माषान्, कथं भूतान् ? प्रति-प्रतिदानभूतान केषां ? तिलानामिति प्रति शब्दाद्वितीयैकवचनम् । तिलान्गृहीत्वा मासान् ददातीत्यर्थः ।।७।। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४९) आख्यातयुपियोगे ।२।२।७३। आख्याता प्रतिपादयिता तद्वाचिनः पञ्चमी स्यात् । उपयोगे नियमपूर्वकविद्याग्रहणविषये । उपाध्यायावधीते आगमयति वा । उपयोग इति किम् । नटस्य शृणोति ॥७३॥ नियमपूर्वकविद्याग्रहणविषय इति - नियमो विद्याग्रहण र्थ गुरूशुश्रुषादिक शिष्यवृत्तमाख्यायते न तूपयोगमात्रम् उपयोगमात्रस्य तु नटादपि भावाद् नटादपि पञ्चमी स्यानिति । आगमयतीति • आमम्यत 'युवर्णवृद०' ।।३।२८। इत्यालि आगम:, सिद्धान्तः इति यावत् अगमं गृह णात ति णिजबहुल०' ।३।४।४२। इति णिज्, 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' । ४४३३ नटस्य शृणोतीति - कथं नटाद्भा तं शृणोतीति नटादेर्भाग्तशास्त्रादिक मा. स्मसात्कतु काम शृणोति तदा उपयोगविवक्षाभाव त् पञ्चमी भवत्येव । अपाद नत्वेनैव सिद्ध उपयोग एव यथा स्यादित्येवमर्थं वचनम् ॥७३॥ गम्ययपः कमधिारे ।२।२।७४। गम्यस्याप्रयुज्यमानस्य यबन्तस्य कर्मा पारवाचिनः पञ्चमी स्यात् । प्रासादादासनाद्वा प्रेक्षते । गम्यग्रहणं किम् । प्रासादमारुह्य ते । आसने उपविश्य भुङ क्ते ।७४। प्रासादादित्यादि-प्रासादमारुह्य भासने च पविश्य प्रेक्षते इत्यर्थः । ॥७॥ प्रभूत्यत्यार्थ दिक्शन्दबहिरादि-तरैः ।२।२।७५। प्रभृत्यर्थे रन्यादिकशब्दबहिरादिभिश्च युक्तात् पञ्चमी स्यात् । ततः प्रभृति । ग्रीष्मादारभ्य । अन्यो भिन्नो वा मैत्रात् । ग्रामात् Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) पूर्वस्यां दिशि वसति । उत्तरो विन्ध्यात् पारियात्रः । पश्चिमो ... रामाद् युधिष्ठिरः । बहिरारादितरो वा ग्रामात् ।७५। - अर्थशब्द: प्रभृत्यन्याभ्यां प्रत्येकमभिसम्बध्यते इत्याह - प्रभृत्यर्थरित्यादि । दिशां शब्दा: निक्ष, वर्तमाना इत्यर्थ । दिशि दृष्टाः शब्दा वा तदा ‘मयूर - व्यसके०' ।३। ।। ११६ । . इति दृष्ट शब्दलोपः, दिर्दाश ये व चकत्वेन दृष्टास्त इह दिवशब्दा उच्यन्ते न तु दिशि वर्तमाना एव तेन देशाला दिवृत्त योगेपि पञ्चमी भवति । अदिशब्दाद् भावे द्रव्ये च वृत्तावपि तद्यं गे पञ्चमी भवति । अत एव शब्दशब्दापादानम् । ग्रीष्मादारभ्ये यत्रा भ्येति वत्व ननम् अक्त्व न्तमत्ययं वा, परियातुग्यं तस्येदम्' ।६।३।१६०। इत् ण् यद्वा परिगता यात्रा यस्यासौपा य त्रः। परियात्र एव पारियात्र: स्वाथण। पापियात्रः पर्वतः, पर्वतसमीपो वा आरादित्यव्यय दूरसमीपवाचि तेन तद्यागे वक्ष्यमाणस्य 'आरादर्थ ।।२१७८ा इति विकल्पस्यापवादोऽयम । इतर शब्दो द्वयोरुपलक्षिनयोरन्यतरवचनः तेनान्यार्था भद्यते । इतरो ग्रामाद् तस्य द्वितं यो नगरानिमत्यर्थः ॥७५॥ ऋणाद्धेतोः ।२।२७६॥ हेतुभूतऋणवाचिनः पञ्चमो स्यात् । शताद् बद्धः । हेतोरिति किम् । शतेन बद्धः ७६॥ । फलसाधनयोग्य: पदार्थों हेतुः । तृतीयापक दोऽयं योग: । शतेन बद्धः इति - अत्र शतं कर्तृ बन्धकत्वेन विवक्षितमिति कर्तरि तृतीया । हेतुर्हि फलसाधनयोग्यः पदार्थः कादिभ्योऽन्यः ॥७६॥ गुणास्त्रियां नवा ।२।२७७। अस्त्रीवृत्तेहेतुभूतगुणवाचिनः पञ्चमी वा स्यात् । जाडयाज्जाड'पेन वा बद्धः । ज्ञानात् जानेन वा मुक्तः । अस्त्रियामिति किम् । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५१) बुद्ध्या मुक्तः ।७७। जडस्य भावः 'वर्णदृढादिभ्यष्ट्यण च वा' ।७।११५९। इति दृढादि. त्वाट्टयण् । वहिनधूमादिति - नात्रवह नेधू मो हेतुः किन्तु वह निज्ञानस्य । पञ्चमी तु गम्ययप०' ।२।।७४। इति सूत्रण भवति । धूममुपलभ्य वह नि: प्रतिपत्तव्य इत्यर्थः । ज्ञानहेतुत्वविवक्षायां तु धूमेना ग्न: प्रतिपत्तव्य इति ।।७७॥ आरादथैः ।२।२१७८० आराह रमन्तिकं च तदर्थे युक्तात् पञ्चमी वा स्यात् । दूरं विप्रकृष्टं वा लामाद् ग्रामस्य वा । अन्तिकमभ्यास या ग्रामाद ग्रामस्य वा. ७८॥ आगच्छब्दः दूरसमीप योर्वाचक इत्याह दूरमन्तिकं चेति । आरातशब्दय गे तु प्रभृत्यन्या०' ।२।२।७५॥ इति नित्य पञ्चमी ॥७८॥ स्तोकाल्पकृच्छकतिपयादसत्त्वे करणे ।२।२॥७९॥ यतो दव्ये शब्दप्रवृत्तिः स गुणोऽसत्त्वं तेनैव वा रूपेणाभिधीयमानं व्यादि तस्मिन् करणे वर्तमानेभ्यः स्तोकादिभ्यः पञ्चमी वा स्यात् । स्तोकात् स्तोकेन वा । अल्पावल्पेन वा । कृच्छात् कृच्छ ण वा । कतिपयात्कतिपयेन वा मुक्तः । असत्त्व इति किन । स्तोकेन विषेण हतः ७९॥ स्तोकादय शब्दा यत्र सामानाधिक रण्यमगनुभवन्ति ।स्तोकं धनमिति तद् द्रव्यम् । साहन्ति अस्मिन् गुणादर इति व्युत्पत्त्या सत्त्वमुच्यते । न सत्त्वमसत्वम् । यत इति - यतः स्तकित्वादेनिमित्ताद् द्रव्ये विशेष्ये स्तोकादिशब्दप्रवृत्ति स गुणोऽ सत्त्वम् शब्दस्य प्रवृत्तिनिभित्तमित्यर्थः । तेनैवेति - असत्त्व Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५२) रुपेणैवेति, अयमर्थ:-तिरोहितधनादि विशेष्यं स्तोकादिरूपेणव सामान्यात्मन भिध यमान धन दिरूपव्यावत्त स्नोकादिरूपापन्न द्रव्य गुणः क्रिया वा यदा पन यते तदा द्रव्याद्यसत्त्वमुच्यते इति । अत्र स्त'कादीनामसत्त्वव चित्त्वाहि वववहत्व सम्भवे एकवचन मेव । एकत्व नबन्धनै । वचनस्याप्यसम्भवे औसर्गिकमेकवचन-ति । पक्ष 'हेतुकर्तृ' ।२।२।४४। इति करणे तृतीया । स्तोकेन विषयोति · विषद्रव्यस म न। ध करण्यादत्र सत्ववृत्तिता । करण इति वचनात् क्रियाविशेषणात्तु द्वितीयव - स्तःक चलति ।।७९॥ .. अज्ञाने ज्ञः षष्ठी ।२।२।८०। अज्ञानार्थस्य जो यत्करणं तद्वाचिनः एकद्विवही यथासंख्यां कुसोसांलक्षणा षष्ठी नित्यं स्यात् । सपिषः, सप्पिषोः सप्पिषां बा जानीते । अज्ञान इति किम् । स्वरेण पुत्र जानाति । करण इत्येव । तैलं सपियो जानाति ८॥ __अनेकार्थत्वाद्धातूनां ज्ञ'ध तोरज्ञानेप्यवबोधन दन्यत्र र्थेऽपि वृत्तिरिति । भिन्न विभक्तिविध नादवेति निवत्तम । सपिषो जानीत इति - सपिषा करणभूतेन प्रवर्तते इत्यर्थः, प्रवृत्तरत्र ज्ञाध तो र्थः । एवं सपिषोर्जानीते, सपिषा जानीत इति । अथवा सपिषि रक्तो विरक्तो वा चित्तभ्रान्त्या सर्वमेबोदकादि सीरूपेण प्रतिपद्यत इति मिथ्याज्ञानवचनोऽत्र जानाति: मिथ्याज्ञानं चाज्ञानमेव भवति, ज्ञान कार्याकारणात् ज्ञानरुपतयान गह्यत इति। अत्र 'ज्ञ.'1३।३।८२॥ इत्यात्मनेपदम्।सपिषामिति-आजगव्यमहिषाना घताना मित्यर्थः, तेलं सपिषो जानातीति-अत्र तैलाकर्मणो न भवति सर्पिषस्तु करणत्व द्भवह्येव । यद्यप्य-त्र करणस्य सम्बन्धिरूपविवक्षायां षष्ठी सिध्यति तह पि करणविवक्षायां तृतीया मा भूदि त तृतीयापवादोऽयं योगः ॥८॥ शेषे ।२२८। कादिभ्योऽन्यस्तदविवक्षारुपः स्वस्वामिभावादिसम्बन्धः विशेषः Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५३) शेषस्तत्र षष्ठी स्यात् । राज्ञः पुरुषः । उपगोरपत्यम् । माषाणामश्नीयात् ।८१॥ __तति - तत्र गौणानाम्नः इति । गज्ञः पुरुष इत्यादौ सम्बन्धस्य द्विष्टत्वेपि गौणादित्यविकारात्प्रधानपुरुष-शब्दात् षष्ठी न भवति, गौणत्वं नामाख्य तपदेनास मानाधिकरण्यम । ज्ञः पुरुषःअत्र स्वस्व भिभावसम्बन्धः, उपगोरपत्यम,अत्र जन्यजनकभावसम्बन्धः,माषाणामश्नीयादत्र आश्याशन भावसम्बन्धः । सम्ब विशेषः श्रू यमाणक्रियोऽधू यमाणक्रियश्चेति द्वधा राज्ञः पुरुष इत्यश्र यमाणक्रियः माषाणामश्नीयादित्यश्रयमाणत्रियः । माषाण म. श्नीयादित्यत्र श्रू यमाणक्रियत्वे सत्यप कर्मत्वस्याविवक्षितत्वाद विशेषण विशेष्यभाव एव प्रतिपाद्यते माससम्बन्ध्यशनमिति । अत्र कर्मादीनां सत मपि 'अनुदरा कन्या' इत्य दिव-दविवक्षा । सम्बन्ध: विशेष इति कारकसम्बन्धाभिद्यमानः सम्बन्धः सम्बन्धविशेष इत्युच्यते । यद्यपि सम्बन्ध इत्युक्त पि सर्व सिध्यति तथापि विशेषस्थापन येदमुनम् । प्रथमापवादोऽयं योंगः । अयं भावः- 'नाम्नः प्रथमै०' ।२।२।३१। इति सूत्रण 'एकद्विबहाविति सङ्ख्यामात्रमुपाद य गोण न्मुख्याच्च नाम्न: सामन्येन प्रथमा विधीयतेऽनेन तू गौणान्नाम्नः इति विशेषविधित्वातदपवादा भवति ॥८१॥ रिरिष्टात्स्तादस्तादसतसाता ।।२।८२॥ एतत्प्रत्ययान्तयुक्तात् षष्ठी स्यात् । उपरि ग्रामस्य । उपरिष्टात । परस्तात । पुरस्तात् । पुरः । दक्षिणतः । उत्तराद्वा ग्रामस्य ।८२॥ । रि-रिष्टात्-स्तात् अस्ताद्-अस्-अतस्-आत्-प्रत्ययान्तैयु ताद गौणान्नाम्नः षष्ठी भवति । उपरीत्यादि - 'ऊर्ध्वाद् रिरिष्टाती०' ७।२।११४। . इति । परस्तादित्यादि पर:परा वा प्रकृतिः 'परावरात् स्तात्।७।२।११६। इति पूर्वावराधरेभ्यासस्तातो.' ।।२।११५॥ इति । 'दक्षिणोत्तराच्चातस्' 1७।२।११७। इति 'अधरापराच्चात्' ।७।२।११८। इति । ननु 'शेषे ।२।२१८१॥ इत्यनेनैव सिध्यति किमनेनेति चेत्सत्यं रिप्रभृतयः प्रत्ययाः स्वार्थिका दिक् Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५४) शब्देभ्यो विधीयन्ते, अतस्तद ता अपि दिकशब्दा एवेनि 'शेषे' ।२।२।८। । इत् स्थापवाद: 'प्रभूत्यन्माथ०१२।७४। इ त पञ्चमी, तस्या अपवादोऽयम्। अत एव दक्षिणा ग्रामाद्रमणीयम् दक्षिणाहि ग्रामाद्रमणीयमिति 'आही दर' ।७। ।१२०। इ।ि प्रत्ययद्वयय गे षष्ठा न भवति ।।८।। कर्मणि कृतः २।२।८३॥ कृदतनस्य कर्मणि षष्ठी स्यात् । अपां स्रष्टा । गवां दोहः । कर्मणोति किम् । शस्त्रण भेत्ता । स्तोकं पता । कृत इति किम् । भुक्तपूर्वी ओदनम् ।८३॥ . 'कगि'।२।२।४०। इत्यनेन प्राप्ताया हितीयायाअसव दोऽयं योगः । स्तोकं पक्तेति - किया वशेण णान्नान षठो । ननु वम कारकं तच्च क्रियामन्तरे ण न सम्भवति, क्रिया च प्रत्ययसहितं धातुमा क्षपति धातोश्च द्वौ व प्रत्यया विध यन्ते । त्यादयः कृतश्च तत्र तदवेत्त्यध ते' ।६।४।११७। इत्य दिप्रयोगे द्वितीया विधानात् कृत्प्रयं गे एव षष्ठी भविष्। त कि कृद्ग्रहणेनेति चेत्सत्यं कृद्ग्रहणमन्तरेण तद्धित प्रयोगेपि यत्कर्म तत्र षष्ठी स्यादिति तन्निषेधार्थ कृद्ग्रहणमिति । भक्तपूर्वो ओदनमिति - तद्धितस्य कमणि षष्ठो न भवति । भुक्त पूर्व मनेनेति 'पूर्वमनेन०१७ १।१६७। इतीन्प्र. त्यये भुत्त पूर्वी पूर्व भुक्तव नित्यर्थः । यथा चित्र त्यादी बहुव्र हिणा स्वामिसामान्योतिमि विशेषाभिध नाय चैत्र इत्यादिः प्रयुज्यते तथाऽत्र पि तन सामाण्यकर्मण्यभिहितेपि विशेषकर्माभिधानाय द्वितं या भवति । सामान्येन व्यवहारासंभवाद्विशेषेणावश्य निर्वाहः कार्य इति । ननु कथ अर्थस्य त्यागी, सुखस्य भोग ति' अत्र त्यागोऽस्वास्ताति तद्धितेन त्यये अर्थस्य सुखस्येति कर्माण षष्ठी न प्राप्नोतीति चेत्सत्यं त्यजतीत्येव-शील इत्यादिविग्रहे 'युज०' भुज० ।५।२।२०। इति घिनण् भवति ॥८३।। ब्दिषो वाऽतृशः ।२।२।८४॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) अतृशन्तस्य द्विषः कर्मणि षष्ठी वा स्यात् । चौरस्य चौरं वा द्विषन् ।८।। द्विषन्निति - द्विषींक अप्रीतौ' इत्यत: 'सुगद्विषाहः' ।५।२२६॥ इत्यतृश् । 'तृन्नु०' ।२।२।९०। इति सूत्रण प्रतधे प्राप्ते विकल्पायम् ॥८४॥ वैकपदवयोः ।२।२।८५। द्विकनकेषु धातुषु कृत्प्रत्ययान्तेषु द्वयोः कर्मणोरेकतरस्मिन षष्ठी वा स्यात् । अजाया नेता न घ्नं सध्नस्य वा । अथवा अजा अजाया वा नेता सुघ्नस्य ।।५।। द्व कर्मणि द्विकर्मकेषु धातुष्वेव सम्भवतीत्याह - द्विकर्मकेष्विति । कर्मणीत्यनुवर्तमान द्वयोरिति विशेषणसामर्थ्यात् द्विवचनान्त-त्वेनेह परिणमतं त्याह - द्वया कर्मणोरिति । ननु कृतः इत्यस्यैव द्वयोरिति विशेषणं व स्मान्न क्रियते ? तत्रापि द्वयोः कृदन्तयोरेक यत्कर्म तत्र षष्ठो वा भवत ति सूत्रार्थे अपां स्रष्टा भेत्तत्यादावेव विकल्प: स्यादिति चेत्सत्यं कर्मणि कृता द्वय श्चं वा' इत्येकयोगकरणे एकस्य कृतः कर्मणि नित्यं षष्ठो भवति द्वयोः कृदन्तयोस्तु वा भवतीति सूत्रार्थः स्यात् तस्मात्पृथग्योगात् कर्मण एव विशेषणं न तु कृत इति । एकतरस्मिन् षष्ठी वा स्यादिति - अन्यस्मिन् कर्मणि तु 'कर्मणि कृतः ।२।२।८८। सूत्रण नित्यमेव षष्ठी, 'कर्मणि कृतः ।।२।८८ सूत्रण द्वयोरपि कर्मणो: षष्टी प्राप्ताऽनेन निषिध्यते । ननु वर्मणीत्यस्यानुवर्तनात् एकशब्दस्य द्वितीयसापेक्षत्वात् एकत्रत्युक्तपि द्वयोः कर्मणोरेकतरस्मिन्निति गम्यत एव किः द्वयं रित्यस्योपादानेनेति चेन्मैवम् एव सरि गौणमुख्ययोः मुख्य एव कार्यसम्प्रत्ययः' इतन्यागत् मुख्ये एव कर्मणि स्यात् यद्वा गौणादित्यधिकार त् कम पेक्षया गौण एव कमणि स्यादिति द्वयोरपि कर्मण: पर्यायेण षष्ठीविकल्पार्थ वचनम् । अन्ये तु नीवह्यादीनां गौणे कर्मणि, दुहादीनां तु मुख्य विकल्पमिच्छन्ति, उभयंत्रांपि नित्यमेवेत्यन्ये ।।८।। AL . Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तरि |२||८६ | कृदन्तस्य कर्त्तरि षष्ठी स्यात् । भवत आसिका । कर्त्तरीति किम् । गृहे शायिका ।८६ | (२५६) 'हेतु कर्तृकरणे ०' | २२|०४ । इति तृतीयापवादः षष्ठीयम् | आसिकेति आसितुं पर्याय: 'पर्यायार्हण त्पत्तौ च णकः | ५|३|१२० । इति णके - अ सिका । 'आत्' । २।४।१८। इत्याप् । अस्यायत्तत् ० ' | २|४|१११ । इत कारः । शायिकेति शयितु पर्यायः शायिका पूर्ववत्सर्वं ज्ञ ेयम् ॥ ८६ ॥ - द्विहेतोर स्त्र्यणकस्य वा । २२८७ स्वरधिकार विहिताभ्यामणकाभ्यामन्यस्य द्वयोः कर्तृकर्मषष्ठघो हैतोः कृतः कत्तं रि षष्ठी वा स्यात् । विचित्रा सूत्राणां कृतिराचार्गस्य आचार्येण वा । द्विहेतोरित्येकवचनं किम् । आश्चर्यमोदन - स्य पाकोऽतिथीनां च प्रादुर्भावः । अस्त्र्यणकस्येति किम् । चिकीर्षा मंत्रस्य काव्यानाम् । भेदिका चैत्रस्य काष्ठानाम् ॥८७॥ अश्च णकरचाणकं स्त्रियामणकं स्त्र्यणकं न स्त्रयणकं अस्त्र्यणकं तस्य । 'त्रर्तरि' ।२।२।८६ । इत्यनेन नित्यं षष्ठीप्राप्ते विभाषेयम् । विचित्र - त्यादि - 'स्त्रियां क्ति: 1५1३1९१| इति भावे क्तिः । अस्य कृदन्तस्य सूत्र कर्म आचार्यः कर्ता उभयत्र षष्ठीप्राप्ते कर्तरि विकल्पोऽयम् । आश्चर्यमित्यादि अत्र पाक इत्यपेक्षया ओदनकर्मणः षष्ठी, प्रादुर्भाव इत्यपेक्षयाऽति थिकर्तुः षष्ठीति भिन्नकृतो: कर्तृ क मंषष्ठी हेतुत्वमिति न भवति चिकीर्णेति अत्र करोतेः तुमह०' | ३|४|२१| इति सन् 'स्वरहन०' | ४ | १ | १०४ । इति दीर्घः 'सन्यङश्च' |४|१|३| इति द्वित्वम् हस्वः' |४|१|३९| ऋतोऽत्, कङश्चञ् - |४|११४६। ‘ऋ तां०’|४|४|१११ | इतीर् चिकीर्षणं चिकीर्षा 'शंसिप्रत्ययात् ' ।५।३।१०५। इत्यप्रत्यय: 'आप्' |२| ४ ११८ | इत्याप् 'कर्मणि कृतः ' | २|२|८३| इति 'कर्तरि' | २२८६ । इति । भेदिकेति अत्र 'भावे' | ५|३|१२२ । इति भावे • Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (२५७) कः अथवा 'पर्यायाहणो० ।५।३।१२०॥ इति णक: 'अस्यायत्तत्' ।२।३१११॥ इतीकारश्च । अन्ये तु धजल प्रत्यययोद्विहेतोः कर्मण्येव षष्ठी-मिच्छन्ति न तु कर्तर • आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालकेन, आश्चर्य इन्द्रियाणां जयो यूना। पालयतीति णकः गवां पालकः 'अकेन क्रीडाजीवे' २१८१॥ इति समासः ।।८७॥ कृत्यस्य वा ।२।२।८८। कृत्यस्य कर्तरि षष्ठी वा स्यात् । त्वया तव वा कुत्यः कट: ।८८। । कृत्यसज्ञा ते कृत्या: ।५।११४७। इति सूत्रण बोध्याः । कृत्य इसि 'कृ-वृषि' ।।१।४२। . इ त क्यप्प्रत्ययः । कर्तरीत्यनुबत्त्या गेयः । श्रावकः सूत्राणामित्यत्र कर्मणि षष्ठी विकल्पो न भवति । श्रावकात तु अंगीणत्वात् प्राप्तिरेव न स्ति । गायतीति गेय: 'भव्यगेय०' ।।१७। इति कर्तरि निपातनम् ।।८८॥ . नोभयोर्हेतोः ।२।२।८९।। उभयोः कर्तृकर्मणोः षष्ठीहेतोः कृत्यस्योभयोरेव षष्ठी न स्यात् । नेतन्या ग्राममजा मंत्रेण ।८९। - नच द्विकर्मकेषु धातुष्वयं प्रतिषेधस्तत्रं वो • भयप्राप्तिभाव त् तत्र मुख्यकर्मणः कृत्यप्रत्ययेनैवाभिहितत्वात् षष्ठयविषयत्वात् गौणकर्मणस्तु .. 'गौणमुख्ययो:०' इति न्यायात् गौणादप्यप्रसङ्गात्कर्तये व निषेधो वक्तव्य इत्युभयग्रहणमंतिरिच्यत इति वाच्यं द्वितोयाबाधिका षष्ठी विधीयते यथा द्वितीया गौणादपि भवति तथा षष्ठयपि गौणादपि भवेदिति प्रतिषेधः इति । न च 'दुहादीनामप्रधाने कर्मणि तिवादयः' इति अनेन प्रधाने कर्मणि षष्ठीनिषेधादुभयग्रहणं नातिरिक्त-मिति वाच्यं तत्रापि पूर्व प्रवृत्तिविषयत्वेनान्तरङ्गत्वाद् गवादेरेव प्राधान्य, व्यवहारापेक्षया तु पयःप्रभृतेरिति ॥८९॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भु (२१८) तृम्बुदन्ताव्ययक्वस्वानातृश शतृङिणकच्खल थस्य । २२९०१. नादीनां कृत कर्मत्रः षष्ठी न स्थात् । तन् । वदिता जनापवादान् । उदन्तः । कन्यामलङ्करिष्णुः । श्रद्धालुस्तत्त्वम् । अव्ययम् । कटं कृत्वा । ओदनं भोक्त ं व्रजति । क्वसुः । ओदनं पेचि - वान् । आनः । कटौं चत्राणः मलयं पवमानः ओदनं पचमानः चैत्र पच्यमानः | असृश् । अधीयंस्तत्त्वार्थम् । शतृ । कट कुर्वन् । ङि । परिषहान सासहिः । णकच् । कटं कारको वृजति । खलर्थ:-ईषत्करः कटो भवती । सुज्ञानं तत्त्वं त्वया । ९० 'कर्मणि कृतः ' | २|२|८३ | इति 'कर्तरि ' | २२८६) इति च प्राप्ताया षष्ठ्या अपव द्रः । तृन्नित्यादि - तृन् शील-धर्म साधुषु ५२२७॥ इति तृनि वदिता । 'भ्राज्यलङ्क ग्०' |५|२|२८| इतीष्णो अलङ्करिणुः । शीङश्रद्धा०' |५|२|३७| इत्यालो श्रद्धालुः । प्राक्काले' |५|४|४७ | इति क्वाप्रत्यये कृत्वा । भुजैः क्रियायां । ५।३।१३ । इति तुमि भक्त म अत्र हेतुहेतुमद्भावे तृतीया 'तुमोऽर्थे० ' | २२|६१ | इत्यनेन चतुर्थी वा सम्बन्धविवक्षायां षष्ठी । पचेः क्वसुकानौ० ।५।२।२। इति क्वसो 'अनादे० ' |४|११२४१, इत्येवे द्वित्वाभावे 'घ पेक्रस्वं रात ०१४४८२। इतीटि पेचि वान् । आनेति प्रयोगोपयोगिस्वरुपनिर्देशात् अनुबन्धवतामपि कान-शानानशां सर्वेषां ग्रहणम् । 'तत्र क्वसुकानी०' ||२| इति काने द्वित्वादौ चं चक्राणः । पवतेः 'पूङ यजः० | ५|२| २३ | इति शाने पवमानः । पचतीति शत्रानशा०' |५|२| २० | इति कर्तर्यानशि पचमान इति । पच्यते इति 'तत्साप्या०' १३।३।२१॥ इति कर्सण्यानशि च पच्यमान इति 'धारीङ्गोऽकृच्छे० ' |५|२|२५ इत्यतृशि - अधीयन् । परिषह्यन्त इति 'स्थादिभ्यः कः ॥ ५७३३८२ । इति के 'अस ङसि ० ' . | २|३|४८ा इति षत्वे घञप०' । ३ । २ । ८६ । इति बहुलत्व दत्र न दीर्घः । सासह्यतेः 'झौ सासहि०' |५|२|३८| इति हो सासहिः करिष्यतीति व्रजतीति क्रियायां०' १५३॥५३॥ इति णकचि कारकः । च्विनिर्देशात् 'णकतृचौ' | ५|१२|४८| इति णके वर्धशत 4 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५९) स्य पूरक इत्यादौ निषेधो न भवति । 'दुःस्वं षतः' ।५।३।१३९। इति खलि ईषत्कर इति । 'शासू • युधि०' ।।३।१४१॥ इत्यने सुज्ञानमिति ।।९०॥ . क्तयोरसदाधारे ।२।२।९१॥ सतो वर्तमानादाधाराच्चान्यत्रार्थे यो क्तक्वतू तयोः कर्मकोंः षष्ठी न स्यात् । कटः कृतो मैत्रेण । ग्रामं गतवान् । असदाधार इति किम् । राज्ञां पूजितः । इदं सक्तूनां पीतम्. १९१। ननु सन् धात्वर्थः तत्र ध तुरेव वर्तते कृत्प्रत्ययस्तु 'कर्तरि' ।५॥१॥३॥ इत्य दिना कर्तरि भावे कर्मणि च विधोयन्ते इति प्रत्ययस्य सति कदापि वतमानत्वमेवनास्तीति कथमुक्त ‘सतोऽन्यत्राथें' इति चेत्सत्यं 'सदर्थसहचारो प्रत्ययार्थोपि सन्नित्युच्यते । यद्वा धात्वर्थोपि सन्निति प्रत्ययत एव विज्ञायते धातुतस्तु भूतो भवन भविष्यन् वा न ज्ञातु शक्यः, धातुस्तु क्रियामात्रमाह न त्वमु विशेषमिति सदर्थस्-तु प्रत्ययादव विज्ञायत इति कादिकारकवृत्तिरपि सतं ति विज्ञायत इति । क्तावयवयोगात् क्तवतुरपि क्तः । क्तश्च क्तश्च क्तों तयाः क्रियते स्मेति कृतः 'तत्माप्या' ।।३।२१॥ इति कैमौणि 'तक्तवतूं ।५।१।१७४। इति क्त: गच्छति स्मेति गतवान् । 'कतरि' ।५।१।३। इति तरि 'तक्तवतू' ।५।१।७४! इति क्तवतुः गतवानित्यत्र 'यमिरमिनमिगमि०' : ।४।२॥५५॥ इत्यन्त्यमकारस्य लोपः । राज्ञां पूजित इति 'ज्ञानेच्छाचार्थ'. ।५।२।९२। इति सूत्रण वर्तमाने क्तप्रत्ययः । इदं सक्तूनां पीतमिति - पीयतेऽस्मिन्निति ‘अद्यर्थाच्चाधारे' ।५।१।१ला इत्याधारे क्त: । ननु शीलितो मैत्रण, रक्षितश्चंत्रणेति कथम् ? 'ज्ञानेच्छा०।५।२।९२॥ इति सत्यर्थे क्तप्रत्ययेऽनेन प्रतिषेधाभावात् केन षष्टी-निषेध: इति चेत्सत्यमत्र भूते क्त: वर्तमान ताप्रत निस्तू प्रकरणादिनेति । आदिशब्दादा-शब्दान्तरसान्निध्यादिपरिग्रहः। नन्वयं भूते क्तस्तदा वर्तमानताप्रतीतिः कथमिति चेत्सत्यं वर्तमानमध्ये भूतो भविष्यतः च कालोस्तीति भूते क्तः यथा कट. करोतीत्यत्र केचिदवयवा निप्पन्नाः तदपेक्षयाऽतीतत्वं ये निष्पद्यन्ते तदपेक्षया वर्तमानत्वम् ये निष्पत्स्य Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६०) न्ते तदपेक्षया भविष्यत्वमिति । अन्ये तु तत्र कौण्डिन्यन्यायेन ज्ञानेच्छाचार्थ - बच्छील्यादिभ्यो भूते तस्य बाधनात् सदर्शक्त ेन च योगे कर्तरि षष्ठीविधानादपशब्दाचेताविति मन्यन्ते । तत्र देयमस्मै स तक्रदेयः स चासो कौण्डिन्यश्च तक्रकौण्डिन्यः मयूरव्यंसकादित्व द् देयशब्दलोपः तता न्यायशब्देन समानाधिकरण समासः न्यायो दृष्टान्तः इत्यर्थः सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो दधि देय त कौडिन्याय इत्युक्त े ब्राह्मणेषु सामान्येन कौण्डिन्योपि समायातः इति पूर्णवाक्येन प्राप्तमपि दधिदान परवाक्योक्त ेन विशेषतो तत्रदानेन बाध्यते यद्यपि दधदानं त्तरं ततः पूर्ण वा दधिदान शक्यते तथा सत्यपि संभवे सामान्येन विशेषस्य बाधः इति तंत्रकौडिन्यस्यार्थः । इति ॥ ९१ ॥ वा क्लीबे | २२|९२ । क्लोबे विहितस्य क्तस्य कर्त्तरि षष्ठी वा न स्यात् । मयूरस्य मयूरेण वा नृत्तम् ॥९२॥ 'क्लीबे क्तः ' |५|३|१२३ । इति सूत्र ेण 'भावे' इत्यनुवृत्या भावे क्तो विहितः । नृत्तमिति - नर्तनमित्यर्थः । क्लीब इत्यस्यानुपादाने चैत्रेण कृतमित्यादावपि षष्ठी स्याद् यतोऽत्रापि 'क्तक्तवतू' | ५ | १|७४ | इति सूत्रेण 'तत् साप्या' | ३|३|२१| इति भावे क्तः इति । 'कर्तरि' | २२|८६ | इति षष्ठीप्राप्तिः तस्याः तयोरसदाधारे' | २|२| ११ | इति निषेधे प्राप्ते विकल्पोऽयम् ॥९२॥ अकमेरुकस्य |२| २|१३| कमरेन्यस्योकप्रत्ययान्तस्य कर्म्मणि षष्ठी वा स्यात् । भोगानऽभिलाषुकः । अकमेरितिकिम् । दास्याः कामुकः । ९३ । अभिलाषुक इति 'लषी कान्तो ( ९२७) अभिपूर्वः अभिलषतीत्येवं शीलः 'लषपतपद:' ।५।२।४१। इत्युकण् । कामुक इति - कमूङ, कान्ती Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६१) (७८९ ) 'कमेणिङ' ।३।४।२। कामयत इत्येवं शील: 'शकमगम० ।५।२।४०॥ इत्युकण् ।।९३॥ एष्यहणेजः ।।२।९४॥ एष्यत्यर्थे ऋणे च विहितस्येनः कर्मणि षष्ठी न स्यात् । ग्राम गमी आगामी पा । शतं दायो । एष्यदृणेति किम् । साधुदायी वित्तस्य ।९४॥ एष्यच्च ऋणं च एष्यदृणे तयोरिन्, एष्यदृगेन्, तस्य एष्यदृणेनः । .. इन इति इन् - णिनोहणम् । इन इति स्वरुपनिर्देशान्निरनुबन्धस्येनः, निरनु न्धस्य च ऋणेऽसम्भवाद्ऋगग्रहणात् सानुव धस्य णिनो ग्रहण ति। ' प्रामं गमीति - वय॑ति गम्यादि.' ।।३।१॥ इति वचनाद 'गमेरिन्' (उणा. ९११) इति भविष्यति इन् एव 'आङश्च णित्' । उणा० ९२० । इति णिति इनि आगामी त । शतं दायोति - शतं धारयन् ददातीति 'णिन् चावश्यका० ।५।४।३६॥ इति णिन् 'आत ऐः वृङौं' ।४॥३॥५३॥ इत्येत्वमायादेशश्च । साधुदायोति - साधु ददातीति 'साधौ' ।५।२१५५॥ इति णिन् ॥१४॥ सप्तम्यधिकरणे ।२।२।९५। । । . अधिकरणे एकदिबही यथासंख्यं योस्सुप्पा सप्तमो स्यात् । कटे अरस्ते । दिवि देवाः । तिलेषु तैलम् ॥१५॥ - 'अधिकरणे' इत्यत्र सत्यर्थे वैषयिके वा सप्तमी। कटे आस्ते, दिवि देवाः, तिलेषु तैलमेतानियथाक्रम औपश्लेषिकवैषयिकाभिव्यापकाधिकरणोदाहरणानि ॥९५॥ मवा सुजथै काले ।२।२९६। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६२) 'सुचोऽर्थो वारो येषां तत्प्रत्ययान्तं तात् कालेऽधिकरणे वर्तमा नात् सप्तमी वा स्यात् । द्विरहिन अह नो वा भुङ्क्त े । पञ्चकृत्वो मासे मासस्य वा भुङ क्त्तं । काल इति किम् । द्विः कांस्यपायां भुङ क्ते ॥९६॥ 1 - सुचोऽर्थः सु इत्युपचारात् तेन सुजय येषामिति बहुव्रीहिः, एत`च्च बहुवचनादेव ज्ञायते । अन्य पदार्थस्य बहुत्वाद्बहुत्वोपपत्तेः अन्यथा तत्पुरुषाश्रयणे 'सुज काले' इति अर्थस्यैकत्वात् सहार्थे' । ।२।४५॥ इतिवदे-कवचनमेव स्यात् । वार: क्रियाभ्यावृत्तिरिति यावत् । स चायः प्रत्ययानामेव, 'प्रत्ययानां च कैवलानां प्रयोगाभावाद ह- तत्प्रत्ययान्तरिति । काल इत्यधिकृ'तस्याधिकरणस्य विशेषणमित्याह- कालेऽधिकरण इति द्विरिति द्वौ वारा'वस्यैति 'द्वि-त्रि- चतुर: ० ७ २ ११० इति सुच् । पञ्चकृत्वः इति पञ्च "वारा अस्येति 'वारे कृत्वस्' | ७|२| १०९ । इति वृखस् । सप्तम्यभावपक्षे 'शेषे' २२॥८१॥ इति षष्ठी । कांस्यपात्र्या-मिति- कंसायेद 'परिणामिनि तदर्थे' ७१/४४ । इतीयः, ततः कंसीयस्य विकार: 'कसीयाञ्यः' | ६ |२|४१ | इति ज्ने यलुकि च कास्यम् आधारस्याऽऽधारत्वाविवक्षायां पक्षे 'शेष' | २२|८| इति षष्ठी सिद्ध व नियमार्थं तु वचनम् । नियमश्चेत्थम्- सुज रेव योगे काले सप्तमी वा भवति, सुजथैर्योगे काल एव वा सप्तमी -ति । उभयथापि नियमात् अहि न भुङ्क्त े इत्यादो काले सत्यपि सुजथैर्योगाभावात् न शैषिकी षष्ठी, द्वि: कांस्यपात्र्यां भुक्त इत्यादी सुजी : योगे सत्यपि कालाभावात् न शैषिको षष्ठी । सुत्रोऽर्थो येषामिति बहुव्रीह्याश्रयणेन सुजर्थप्रत्ययस्याप्रयोगे गम्यमाने तदर्थे न भवति बहुव्रीहिकृते शब्दप्रधाने निर्देशे तवी : शब्दयु कादेव भवतीति षष्ठीतत्पुरुषाश्रयणे तु 'सुजर्थे काले' इत्युक्तौ स्वयंप्रधाने निर्देगे अहि न भुङ्क्त" इत्यत्र द्वित्रिति प्रतीयते तदापि स्यादिति ॥ ९६ ॥ कुशलायुक्ते नासेवायाम् । २२९७ आभ्यां युक्तादाधारवाचिनः सप्तमी वा स्यात्, आसेवायां तात्पयें। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६३) कुशलो विद्यायां विद्याया वा । आयुक्तस्तपसि तपसो वा । आसेवावामिति किम् । कुशलनिश्चत्रे नतु करोति । आयुक्तो गीः शकटे, आकृष्य युक्त इत्यर्थः ।९७। कुशलो निपुण: युजं पी ये गे' अङ पूर्वः आयुक्त स्म 'युजिच् समाधौ' आयुज्यते स्मेति कर्तरि क्त । आसेवायामित्यस्य पर्यायमाह तात्पर्ये इति- तत्परः आसक्तस्तस्य भावः तात्पर्य तत्परतेति यावत् आयुक्त: व्यापृतः इत्यर्थः । विद्याया इति- पक्षेऽधिकरणाविवक्षायां शेषषष्ठी। चित्रे इति'सप्तम्यधिकरणे' ।२।२।९५। इति नित्यमेव सप्तमी । पक्षे आधारस्याऽविवक्षायां विकल्पे सिद्धनासेवायामाधारा विवक्षानिवृत्त्यर्थं वचनम् ॥९७॥: - स्वामीश्वराधिपतिदायादसाक्षिप्रतिभूपसूतैः . २।२।९८॥ एभियुक्तात् सप्तमी वा स्यात् । गोषु गवां वा स्वामी । ईश्वरः। अधिपतिः । दायाद्रः । साक्षी । प्रतिभूः । प्रसूतो वा ।९८॥ - गवामिति-पक्षे शेषषष्ठी स्वामीत्यादि- 'स्वान्मिन्नीशे' ।।२। ४९। इति मिन् दीर्घत्व च । इष्टे स्थेशभास.' ।५।२।८१॥ इति वरे ईश्वरः । अधिरुढ: पतिमिति 'प्रात्यव०' ।३.११४७। इत समासे, अधिकश्चासौ पतिश्चेति वा समासे अधिपतिः । दायमादत्ते इति 'दश्चाङः ।। 1७८। इति डप्रत्यये, दायमत्तीत्यदेर्वाणि दायादः । प्रसत इति-प्रसूते स्मेति 'गत्यर्था०' ॥५॥१॥११॥ इति क्तः । स्वामीश्वराधिपतोति पर्यायोपादानात् पयार्यान्तरोगे षष्ठयेव भवति । ग्रामस्य राजा, ग्रामस्य पतिरिति । स्वाम्यादीनां गवादिसम्बन्धित्वमित्यस्त्येव षष्ठी, सप्तमी तु क्रियाप्रतीत्यभावात् नास्तीति सप्तमीप्रापणार्थ वचन ॥९८॥ . - व्याप्ये क्त-जः ।२।२।९९॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६४) ताइन् तदन्तस्य व्याप्ये सप्तमी नित्यं स्यात् । अधोतमनेन अधीती व्याकरणे । इष्टी यज्ञे । क्तेनेति किम् । कृतपूर्वी कटम् ॥९९॥ पृथंग्योगात् वेति निवृत्तम् । अधीतीत्यादि- 'इष्टादेः' ।७।१।१६८। इतीन् कृते गौणभूतक्रियया सम्मानं व्याकरणमनभिहित कर्मेति कृतपूर्वी. कटमित्यादिवद्दि वत यायां प्राप्ताया तश्पवादश्चतुर्थी ॥९९॥ . तद्य क्ते. हेतौ ।२।२।१००। तेन व्याप्येन युक्ते हेतौ वर्तमानात् सप्तमी स्यात् । चर्मणि द्वोपिनं हन्ति । दन्तयोर्हन्ति कुञ्जरम् ॥ केशेषु चमरी हन्ति । सीम्नि पुष्कलको हतः ॥ १॥ तद्य क्त इति किम् । वेतनेन धान्यं लुनाति १०॥ युज्यते स्मेति युक्तम् तेन व्याप्येन युक्तं तबु क्तम् । हेतुतृतीयापवादो योगः । ननु दात्रेण धान्यं लुनातीत्यत्रापि दाशब्दात् सप्तमी स्यात् तद्य क्तहेतौ वर्तमानत्वादिति चेन्मैवं हेतुशब्दादत्र विशिष्ट एव हेतुरभिप्रेतः यदयं क्रियारम्भः स एव हेतुरिह गृह्यते नात्र दात्रार्या लवणक्रियेत्यत्र न भवति सप्तमीति । न च 'उपपदविभक्त: कारकविभक्तिर्बलीयसी' इति न भविष्यतीति वाच्यं कर्तृ करणय स्तृतीया विहितेति तृतीयायाः कारकविभक्तित्वम् तथा सानन्यानी पाप्ये युक्तः' इति कारकत्या कारकविभ. क्तित्वम् ‘सा ह्य परदविभक्तिर्यत्र कारकगन्धोपि नास्ति यथा शक्तार्थवषडादिभिर्योगे चतुर्थी ति तस्माद्ध'तुशब्दाद् यदर्थ क्रियारम्भः स एव विशिष्टहेतुर्गु. ह्यत इति । द्वीपिनमिति- द्विधा गता आपो यत्रेलि 'ऋक्पू०' ।७।३।७६। इत्यति 'द्वयन्तरनवर्ण०' ।३।२।१०९। इतोपादेशे द्वीपमस्यास्तीति मत्त्वर्थीये ...इनि हेपिन अब कोपिबधे चर्म हेतुः एवमपि । कुञ्जो दन्तावस्येति 'मध्वा दिभ्यः रः' ।७।२।२६। इति रे कुञ्जर: । पुष्पं लातोति. 'आतरे डोऽह वावामः' ।।११७६। इति सूत्रेण डप्रत्यये पुष्पल: अज्ञाताद्यर्थ विवक्षायां 'कुत्सि Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६५) ताल्पाज्ञाते' ।७।३।३३। इति कपि पुष्पलकः, पुष्पकल: गन्धमृगः, सीमा अण्डकोशः । वेतनेन धान्य लुनातीति- नात्र वेतन धान्येन संयुक्तमिति ॥१०॥ अप्रत्यादावसाचना ।।२।१०१। प्रत्यादेरप्रयोगे असाधुशब्देन युक्तात् सप्तमी स्यात् । असाधुमत्रो मातरि । अप्रत्यादाविति किम् । असाधुर्मी मातरं प्रति परिअनु अभि वा ।१०१। ___ इादिशब्दस्य व्यवस्थावाचित्वेन प्रति परि अनु अभि इत्येते एव अप्रत्यादावित्यत्रादिशब्दग्राह्या: । ननु साधुशब्देन सदाचार उच्यते आचरण च क्रियाविषयमिति मातृशब्देन तत्स्था परिचर्यादिक्रिया उच्यते इति मातृपरिचरणादिक्रियाणां सम्धगाचरिता मातरि साधुरुच्यते तद परीत्येनासाधु. तिरीति ततश्चासाधुमै त्रो मातरीति मातृविषयस्य साधुत्वस्य निषेधात् प्रथम मात्रा साधोर्योगादुत्तरेणैव सप्तमी सिद्धा किमनेनेति चेत्सत्यं पदान्तरसम्बन्धादेकपदवतित्वेन नञ्मम्बन्धस्यान्तरङ्गत्वातू 'असूर्यापाद् दशः' ।।१। १२६। इत्यत्र असूर्य इति किं हि वचनान्न भवति' इति न्यायात् '१३९' सूर्यशब्दस्य नत्रा सह समास इति असमथनब समासस्य च नियतविषयत्वात् प्रथमं न समासे कृते ततो मातु सम्बन्ध 'अब्राह्मणमानयेत्यादिवत् नतु साधुने- इत्युत्तरेण न सिध्यतीति वचनम् । नन्वभियोगे'लक्षणवीप्स्येत्थम्भूते.' ।२।२॥३६॥ इत्यनेन प्रत्यादियोगे तु 'भगिनि च' ।।२।३७॥ इत्यनेन द्विती'या या विशेषविधानात् सप्तमी न भविष्यतीति किम त्यादावित्यनेनेति चेत्सत्यं असाधुशब्दाभ वे द्वितीय याश्चरितार्थत्वेन प्रत्यादियोगे असाधुशब्दसमभिव्याहारे सप्तमी स्यादिति ।।१०१।। साधुना ।२।२।१०२॥ अप्रत्यादौ साधुशब्देन युक्तात् सप्तमी स्यात् । साधुम नो मातरि। अप्रत्यादावित्येव । साधर्मातरं प्रति परि अनुः अमि वा ।१०२॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) उत्तरत्राचार्या विधानाद् अनेन तत्त्वकथनम त्रे सप्तमी । कथ तहि साधु त्यो राजः इति अत्रापि तत्त्वकथनस्य विद्यमानत्वात् सप्तम्या भाव्यमिति चेत्-भत्याप्रक्षाऽत्र षष्ठी न तु साध्वपेक्षया, साध्वपेक्षायां तु सप्तमी स्यादिति । अयमर्थः यो राज्ञो भत्यः स साधुणवा नति । यदा तु साधुनवा. भि मुख्येन सम्बन्धस्तदा सप्तम्यैव भवति यथा राजनि स धुनि ॥१०॥ निपुणेज चाचयिाम् ।२।२।१०३१ निपुणसाधुशब्दाभ्यां युक्तादऽप्रत्यादौ सप्तमी स्यात, अर्घायाम् । मातरि निपुणः साधुर्वा । अायानिति किम् । निपुणो मैत्रो मातुः । मातवैनं निपुणं मन्यत इत्यर्थः । अप्रत्यादावित्येव । निपुणो मैत्रो मातरं प्रति परि अनु अभि वा ।१०३। - अर्चिण पूजायाम् (१९५४) 'भीषि भूष०' ।।३।१०९। इति बहुवचनादङि सप्तम्येकवचने च अयामिति । मातरि निपुण इति-अत्र मातर "सुष्ठु वर्तत इति मंत्रादेः प्रशंसा गम्यते । षष्ठ्यपवादो योगः ॥१०३।। - - स्वेशे धिमा ।।२।१०४॥ स्वे ईशितव्ये ईशे च वर्तमानादधिना युक्तात् सप्तमी स्यात् । अधिमगधेष श्रेणिकः । अधिश्रोणिके मगधाः ।१०४। ईशितव्ये-यथेष्ट विनियोज्ये । ईशे स्वामिनि च वर्तमानाधिनायुक्ताद्गोणान्नाम्नः सप्तमी भवतीति अधेरूपरिभावस्वस्वामिसम्बन्धयोोतकरवेपि 'स्वेशे' इति वचनादत्र स्वस्वामिसम्बन्धद्योतो गुह्यते । न च सम्बन्धस्योभयनिष्ठत्वेन युगपदुभयत्र सप्तमी स्यादित वाच्यं तत्र सम्बन्धस्य भयनिष्ठत्वेपि. यद्गौणत्वेन विवक्ष्यते ततो भवतीति । स्वे- उदाहरणमाह अधि मंगधेषु षणिक इति भगधानामोशः श्रेणिक इत्यर्थ: । ईश- उदाहरणमाहअधि श्रोणिके मगध्रा इति श्रोणिकस्य ईशितव्या मगधा इत्यर्थः । नचाधि Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६७) मगधेष्वित्यादिषु 'विभतिसमीप० ।३।१।३९। इति नित्यसमासे सति वाक्यनिवृत्तिः स्यादति वचनमिदमनर्थकं स्यात् नच 'सप्तम्या वा' ।३।२।। इत्यभावे सप्तमी चरितार्थेति वाच्य वतिपदसप्तमीलोपात् समाससप्तम्या हि स विकल्प इति वाच्यं यतो विभक्तिविभक्तयर्थः कारकमिति अत्र च षष्ठयपवाद: सप्तमीति न विभन घर्थ वमिति न 'विभक्ति ग१३९/समास । नन्वत्र क्रमेण परसरमाधाराधेयभावविवक्षायां पयायेण सप्तमी भविष्यति किमनेनेति चेत्सत्यं सम्बन्धविवक्षायां षष्ठान स्यादतः षष्ठीबाधनार्थोऽयं योग इति ॥१४॥ उपेनाधिकिमि ।।२।१०५॥ उपेन युक्तादधिकिनि वाचिनः सप्तमी स्यात् । उपखार्या द्रोणः । १०५। 'अतोनेकस्वरात्' ।७।२।६। इतं नि अधिकीति । उपखार्या द्रोण:द्रणोऽधिक खार्या इत्यर्थः । अत्रा- प्याधार विवक्षायां सप्तमी सिद्ध व परं पूर्ववद् विभक्तयन्तरबाधनार्थ वचन- मिति ॥१०५॥ 1. यद्भावो भावलक्षणम् ।।२।१०६। • 'भावः क्रिया । यस्य भावेन अन्यो भावों लक्ष्यते तद्वाधिनः सप्तमी स्यात् । गोषु दुीमानासु गतः ।१०६॥ __ लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम् भावस्य लक्षणम् भावलक्षणम् । गोषु दुह्यमानासु गतः इति- अत्र कालत: प्रसिद्धन गवां दहेन भावनान्यस्य गम· नमप्रसिद्ध लक्ष्यते । दुहे: कर्मण्यानश् क्य: शिति' ।३।४।७।। इति क्ये 'अतो म आने' ।४।४।११४। इंति मागमः । गमे: गच्छति स्मेति गत्यर्थत्वात् कतरि क्तः । ‘हेतु र्तृकरणेत्यम्भूतलक्षणे' ॥३॥२॥४४॥इति सूत्रेण इत्थंभूतलक्षणेथे तृतीय प्राप्तौ तदपवादोऽयं योगः ॥१०॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६८) गते गम्येहवनेन्तेनैकाप्टय वा ।२।२।१०७। कुतश्चिदवविवक्षितस्याध्वनो-ऽवसानमन्तः यद्भावो भावलक्षणं तस्याध्वनो-ऽध्वन एवान्तेनान्तवाचिना सहकार्य समानाधिकरण्यं वा स्यात्, तद्विभक्तिस्तस्मात् स्यादित्यर्थः । गते गम्ये ऽप्रयुज्यमाने । गवीधुमतः सांकाश्यं चत्वारि योजनानि चतुर्ष वा योजनेषु । गत इति किम् । दग्धेषु लुप्तेष्विति वा प्रतीतो मा भूत् । गम्य इति किम् । गतप्रयोगे भाभूत् । अध्वन इति किम् । कार्तिक्या आग्रहायणी मासे । अन्तेनेति किम् । अद्य नश्चतुषु गव्यूतेषु भोजनम् ।१०७) कुतश्चिदवधेरिति-गव धुमतः इत्यादिलक्षणात् । विवक्षितस्येतिइयत्तापरिच्छेदाय-पात्तस्याध्वनाऽवसानं साङ्क श्याद्यन्तः । यद्भाव इतियस्याध्वनश्चतुर्योजनरूपस्य भावेन गमनरूपेण अन्यो भावः साङ्काश्यभवनरूपो लक्ष्यते तस्येति एकोऽर्थो द्रव्यमनेक-भेदाधिष्ठानमस्य स एकार्थः । तस्य भावः ऐकार्थ्यम् । गवीधुमत इत्पादि- गवामी: श्री: तां दधातीति 'पृ.काहृषि०' । उणा. ७२९ । इति किदुः । सोऽ त्रास्तीति मतुः अव्युत्पन्नो वा गवीधुमच्छब्दः ततः पञ्चम ङसिः । संकाशशब्दात् 'सुपन्थ्यादेर्यः' ।६।२।८४। इति चातुरथिके ज्ये सांकाश्यम् देशनाम । चत्वारि योजनानीति- चतुर्दा । योजनेषु गतेषु भवतोत्यर्थः, पक्षे पूर्वेण सप्तम्यां चतुर्यु योजनेष्विति । गतेविति गम्यते। गम्यं प्रतीयमानार्थमप्रयुज्यमानमुच्यत इति । प्रतीताविति. प्रकरणादेरिति शेषः । गतप्रयोगे इति- गवीधूमत: साङ्काश्यं चतुर्यु योजनेषु गतेषु भवतीत्यत्र गतशब्दप्रयोगादेकार्थ्यं न भवति सप्तमी तू पूर्वेण नित्य भवतीति । कार्तिक्या आग्रहायणी मासे-कातिया:प्रभृति मासे गते आग्रहा. यणीत्यर्थः । अत्राप्यकार्थ्याभावे पूर्वेण नित्यं सप्तमी । अद्य नश्चतुषु गत्यूतेषु भोजनमिति- भोजन क्रिया भोक्त धर्मः नावनोऽन्तः इति पूर्ववत् सप्तम्येव । -गव्यूतिरत्रास्ति विषयतयाऽ ववितया वा 'अभ्र दिभ्यः' ।७।२४६। इत्यप्र. स्यये गव्यूतं क्रोश एकः । नन्वन्तेने सहाध्वनोऽभेदोचारात् सिद्धमेवैकार्थ्य किमनेनेति चेत्सत्यं कालेप्येवं मा भूदिति वचनम् ॥१०७॥ . Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६९) षष्ठी वा अनादरे |२| २|१०८ | यद्भावो भावलक्षणं तद्व तोरनादरे षष्ठी वा स्यात् । रुदतो लो C कस्य, रुबति लोके वा प्राव्राजीत् । १०८ । शब्दोपादन पक्ष पूर्वेण सप्तमी भवत्यन्यथा वाशब्द विना षष्ठाऽपवादतया सप्तमी बध्येतेति । रुदतो लोकस्येति रुदन्त लोक-मनादृत्य प्रावाजी दित्यर्थः । प्राव्राजीदिति प्रपूर्वक - व्रजधातोः 'सिजद्यतन्या' | ३ | ४|५३ | इति सिच्, 'स: सिजस्ते ० ' | ४ | ३ |६५॥ इतीत्. 'स्ताशित:' | ४|४|३२| इति इट - 'ब्रद व्रज-लू ' | ४ | ३ |४८ | इति वृद्धि:, 'इटः इति' |४|३|७१| इति सिचो लुच्, अड्० |४| ४|२९| इत्यडागमश्च ॥ १०८ ॥ सप्तमी चाविभागे निर्धारणे । २२१०९ । जातिगुणक्रियादिभिः समुदायादेकदेशस्य बुद्ध घा पृथक्करणं निर्द्धारणम् । तस्मिन् गम्ये षष्ठीसप्तम्यौ स्याताम् । अविभागो निर्द्धामाणकदेशस्य समुदायेन सह कथञ्चिर्दक्ये शब्दाद्गम्यमाने । क्षत्रियो नृणां नृषु वा शूरः । कृष्णा गवां गोषु वा बहुक्षोरा । धावन्तो यातां यात्सु वा शीघ्रतमाः । युधिष्ठिरः श्र ेष्ठतमः कुरुणां कुरुषु वा । अविभाग इति किम् । मैत्रश्चैत्रात् पटुः । १०९ । षष्ठी - सप्तम्यौ स्यातामिति गोणान्नाम्न इति शेषः । निर् र्वाद धारयतेर्भावेनटि निर्द्धारणम् विपूर्वाद्भजेर्भावे धनि विभागों भेदः, न विभागः अविभागः । क्षतात् त्रायते 'स्था-पा०' |५|१|१४२ । इति कः पृषोदरादित्वादलोपे क्षेत्र तस्यापत्यं क्षत्रादिय:' | ६ | १ | ९३ । इतीये क्षत्रिय: । नणामित्यादिषु क्षत्रियत्वजात्या कृष्णत्वगुणेन, घावनक्रियया आदिशब्दाद युधिष्ठिरप्रभृतिसञ्ज्ञया व निर्धारणम् । अविभाग इति सर्वस्यैव निर्द्धारणस्य विभागरूपत्वेनाविभागपूर्वकत्वादविभाग ग्रहणस्यानर्थक्या दविभागग्रहण साम यदवधारणमा श्रीयते अविभागे निर्द्धार्यमाणैकदेशस्य समुदायेन सह कथ abor Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७०) ञ्चिच्छन्दादज्ये गम्यमाने एवं षष्ठी - सप्तम्याविति यथा क्षत्रियो नॄणां नृ वा शूर इत्यत्र निर्द्धार्यमाणस्य क्षत्रियस्य नृत्वेनाविभागप्रतीतिरिति तेन । मंत्रचैत्रात्पटुरित्यत्र न भवति नात्र केनचित्प्रकारेण मंत्रस्य चैत्रविभागः शब्दाप्रतीयते न. न. हि. मंत्र चैत्रः, नाभि प रिति वाक्याद् भेद एव प्रतीयत इति । कृष्णा गवां गोषु वा बहुक्षीरेत्यत्र विभज्यमाना गौगत्वेनाविभक्ता arora तु विभक्तति एवमग्रपि । निर्धारणस्य विभागरूपत्वात् यस्य यो विभागस्तस्यावधिरुपत्वादपादानत्वात् 'पञ्चम्यपादाने' - १२/२/३९ | इति पञ्चमीप्राप्ती तद्द्बाधनार्थोऽयं योगः ॥१०९ ॥ बाण क्रियामध्येध्वकाले पञ्चमी च २ २ ११०॥ क्रिययोर्मध्ये याध्वकालौ तद्वाचिभ्यां पञ्चमीसप्तम्यौ स्याताम् । इहस्थोग्रमिष्वासः क्रोशात् क्रोशे वा लक्ष्यं विध्यति । अद्य भुक्त्वा मुनि हात् द्वहे वा भोक्ता | ११० " इहस्थोऽयमित्यादि ननु इष्वास इति धनुरूच्यते यदाह - धनुश्चापोऽस्त्रमिष्वासः धनुश्च व्यधने करणं कर्ता तु चैत्रादिरिति कथक्तम्: 'इष्वासः विध्यतीति चेत्सत्यम् इष्वास इति क्रियाशब्दोऽयं इषूनस्यति क्षिपति स चैत्रादिरित्युच्यते । यत्वा करणस्य स्वातन्त्र्यविवक्षायाम् इष्वासो विध्यतीति स्थालीकरणस्य कर्तृ विवक्षायां स्थाली पचतीतिवत् । अत्र धानुष्कावस्थानमिषमोक्षो का क्रिया, लक्ष्यत्र्यधरच द्वितीया । तयोमध्ये कोशोऽध्वा । व्यधंच ताडने 'दिवादेः श्य १३४ ७२ ॥ इति श्यप्रत्यये 'शिव' |४३|२०| इति सूत्रेण ङिद्वद्भावे, 'ज्याव्यधः ० |४|११८११ इत्यनेन स्वृति, इकारे च विध्यतीति । अद्य भुक्त्वेति ननु इहस्थोऽयमिष्वास इत्यादि क्रियातु भेदाद् युक्तमुदाहरणं किन्तु इदं त्वयुक्त अद्य भुक्त्वा मुनि द्वं यहाद् व्यहे वा भोक्त ति भुजिक्रियाया एकत्वादिति चेन्न भुजिक्रियाया एकत्वेपि कालभेदाद् भेद: सिद्ध इति युक्तमुदाहरणमिति । द्वयोः रहनोः समाहारः द्वयहः 'द्विगोरनह नोट्' ।७।३।९९ । इत्यट् समासान्तः 'नोऽपदस्य तद्धिते' १७।४।६११ इत्य : न्त्यस्वरादिलोप:, अत्र द्वयोर्भोजनक्रिययोर्मध्ये द्वयहः कालः, द्वय हे पूर्ण दिन द्वये व्यतीते सति भुङ क्ते इत्यर्थः । न च क्रोशे स्थितं लक्ष्यं विध्यति, हे पूर्ण भुङ क्त इति क्रोशैकदेशस्याधिकरणत्वात् कोशेऽप्यधिकरणत्वस्य वक्त - Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७१) शक्यत्वादेवं कालादपि यहे पुणे इति पूर्णद्वयहस्य र दुर'लष्टमहस्तत्र भो. तत्यर्थावमायाद धकरणस्वादोपश्लेषिकी सप्तमी सिद्धव एव क्रोशा निर्गच्छद्भिः शरैर्लक्ष्य विध्यतं त्यर्थावगमाद् यथा शरनिर्गमनस्य धनुग्पादानं भवति तथाऽत्र श निर्गमनस्यावधित्वात् क्रोशस्याप्यपाद नत्वात् अथवा क्रोशस्य धनुरूपचारात् मञ्चा क्रोशन्तीतिवत् कोशशब्देनोच्यते इत्यप दानत्वात् पञ्चमी, कालात्त यहा तिक्रम्य भक्त्तेत्यर्शप्रतीते: 'गम्ययप० ।२।२।७४। इति पञ्चमी सिद्ध वेति किमनेनेति वाच्य अस्यपादानस्थाधारस्य च यदा क्रियाकारक जन्यं शेषसम्बन्धित्वं विवक्ष्यते तदा ‘शेषे' ।।२।८१॥ इति सूत्रेण क्रोशस्य लक्ष्यं विध्यति, यहस्य भुङ क्त्त इति क्रियाम ये षष्ठी मा भूदिति वचन मिति । किञ्च द्वय ! - क्रोशशब्दौ यह शविषयावेव न तदेकदेशविपयाविति नाऽपायो नाण्याघान्तेति षष्ठी प्राप्नोति' केश वाहयित्वा वि- , ध्यति, यह वाह त्वा भङ क्त्त इति वा प्रत तेः द्वितीयापि प्राप्नोत ति द्वितीयाया अपि बाधनार्थ विज्ञ यमिति ॥११०॥ अधिकेन भूयसस्ते ।२।२।१:१॥ अधिकेनाऽल्पीयोवाचिना योगे भूयोवाचिनस्ते सप्तमीपञ्चम्यौ स्याताम् । अधिको द्रोणः खार्या खार्यां वा ।११२॥ ____ आरूढः इत्यर्थे वर्तमानादधिशब्दात् 'अधेगरूढे' ।७।१।१८७। इति स्वार्थे कप्रत्यये अधिक्शब्दः सिद्धः । आरूढ इत्यत्र कतरि कर्मणि च क्तप्र. त्वयो भवति तत्र आरोहति स्मेति तरि क्तप्रत्ययस्तदा अधिक इत्यनेनाल्पीयानुच्यते यदा आरूह्यते स्मेति कर्मणि क्त प्रत्ययस्तदा भयानुच्यते । अत्र तू "भूयसः' इत्युयादानात् अल्पीयानेवोच्यते । अत्राधिकाधि कभावसम्बन्धे षष्ठी प्राप्नोति, कर्तृ साधनारूढार्थत्वात् 'कर्मणि' ।२,२।४०। इति द्वितीया च प्राप्नोति अतस्तयोर्बाधिके द्वितीया-सप्तम्यावनेन विधीयते ॥१११॥ तृतीयाल्पीयसः ।।२।११२।.... अधिकेन भूयोवाचिना योगे - ऽल्पोयोवाधिनस्तृतीया स्यात् । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७२) धिका खारी द्रोणेन ।११२१ अल्पीयस: इत्युपादानात् कर्मसाधनो भूयोऽर्थोऽधिकशब्द: स्वीकर्तव्य इत्याह - भूयोवाचिनेति - कर्तरि तृतीया सिद्ध व षष्ठीबाधनार्थ तु वचनम् ॥११२॥ . . . .. ... . पृथग्-नाना पञ्चमी च ।२।२।११३॥ आभ्यां युक्तात् पञ्चमो तृतीया च स्यात् । पृथग मंत्रात् मैत्रण वा । नाना चैत्राच्चत्रण वा ११३। . . यदा पृथग्नानाशब्दावन्यार्थी तदा 'प्रभूत्यन्यार्थ०' ।२।२१७५॥ इति पञ्चमी सिद्ध व। तृतीयवानेन विधीयते,परत्वाद् विशेषविहितत्वाच्च तृतीया पञ्चमी बाधेतेति पञ्चम्यनेनानूद्यते इति । विशेषस्यानुपादानादुभयार्थयोरपि पृथग्नानाशब्दयोग्रहणाद्यदाऽसहायाथों पृथग्नानाशब्दो तदा पञ्चमीविधानार्थमपीदमिति । अन्ये तु द्वितीयामपीच्छन्ति ॥११३॥ . ते द्वितीया च ।२।२।११४। ऋते-शब्देन युक्ताद् द्वितीया पञ्चमी च स्यात् । ऋते धर्मात् कुतः सुखम् ॥११॥ ऋते इत्यतो विनादिव्ययादनुकार्यानुकरणयोरभेदविवक्षातः उत्पन्नस्य टाप्रत्ययस्य 'अव्ययस्य'।३।२।७। इति लुप्। चकारेणानन्तरोक्तासमुच्चीयत इत्याह - द्वितीया पञ्चमी चेति । पाणिन्यादिभिः ऋते-शब्देन योगे द्वितीया नोक्ता तथापि शिष्टः प्रयुज्यते ऽतोऽत्र द्वितीयाप्युक्ता, तथाहि--... चित्रं यथाश्रयमृते स्थाण्वादिभ्यो विना यथा च्छाया । तद्वविना विशेषेर्न तिष्ठति न निराश्रमं लिङ्गम् ॥ . ॥११४॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७३) विना ते तृतीया च ।१।२।११५। विना शब्देन युक्तात्ते द्वितीयापञ्चम्यो तृतीया च स्यात् । विना वातं वातात् वातेन वा ।११५। विनेत्यव्ययं वर्जनार्थे । तच्छब्दस्य पूर्ववस्तुपरामशित्वातदनन्तरोक्त द्वितीयापञ्चम्यौ परामृश्येते इत्याह - ते द्वितीयापञ्चम्याविति । द्वितीयां नेच्छन्त्यन्ये ॥११॥ तुल्याथै स्तृतीया-षष्ठ्यौ ।२।२।११६॥ तुल्या युक्तात् तृतीयाषष्ठयो स्यांताम् । मात्रा मातुर्वा तुल्या समो वा ॥११॥ ___ तुलया अर्थग्रहणं पर्यायार्थम् । तुल्यः सदृर्शोऽर्थो येषान्ते तुल्यार्थाः तः । सम्मितःतुल्यसह गुपचारात् हृद्यपद्य०।७।१।११। इति ये तुल्यः। नन्वनन्तरात् पूर्वसूत्रात् तृत याऽनुवर्तते इति 'तुल्यायैर्वा । इति तद्विकल्पे कृते शेष।२।२।८१! इति पक्ष षष्ठी सिद्ध वेति किमर्थं षष्ठीविधानमिति चेत्सत्यं तृतीयामविकल्प्य षष्ठीविधान सप्तमीबाधनार्थं तेन गवां तुल्यः स्वामी, गोभिस्तुल्यः स्वामीत्यत्र 'स्वामीश्वग०' २।२।९८। इति सूत्रेण सप्तमी न भवति । यदात्वत्रास्मत्-स्वामी गवां तुल्यः इत्यर्थो विवक्ष्यते तदा तु गोशब्दस्य स्वामिशब्बेनायोगात् सप्तमीप्राप्तिरेव नास्तीति । उपमा नास्ति कृष्णस्य तुला नास्ति सनस्कुमारस्येत्यादावुपमादयो न तुल्यार्था इति न भवति तुल्यादयो हि धर्मिवाचका उपमादयस्तु धर्मवाचका इति न तुल्यार्था इति । गौणाधिकाराच्च गोरिव गवयः, यथा गौस्तथा गवय इत्यादौ प्रधानाद्गोशब्दान्. न भवति । कीदृग् गवय इत्येवं पृष्टो नागरिकर्यदा ॥ वदत्यारण्यको वार्ता, यथा 'गोर्गवयस्तथा ॥११॥ व्दितीयाषष्ठड्यावेनेनानञ्चे ।२।२।११७॥ एनप्रत्ययान्तेन युक्ताहि वतीयाषष्ठपो स्याताम् । मवेत्सोम्बे Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४ ) परः स्यात् । पूर्वेण ग्रामं ग्रामस्य वा । अनञ्चेरिति किम् । प्रागु 1 ग्रामात् ॥११७॥ पूर्वेण ग्राममिति - ग्रामाददूर पूर्वा दिगिनि अदूरे एनः | ७|२| १२२ | इति एनप्रत्ययः । प्रान्ग्रामादिति प्राञ्चतति विवप् अञ्चोऽ - न०' १४।२।४६ । इति नलोपः 'अञ्चः ' | १|४|३ | इति ङीत्ययः, ग्राम त्याच्यामदूरवतिन्यां दिशि वासः इति 'अदूरे एन:' | ७|२| १२२ । इत्येनस्य 'लुव:' |७|- |१२३ | इति लोप: । 'ङय देर्गो णस्या' 1२1४1९५ इति ङीनिवृत्ति: ,अधण्तस्वःद्याः ।१।१।३२। इत्यव्ययसञ्ज्ञा, अव्ययस्य' | ३|२|७| इति सेलुं प् । धाद्वितीयाषष्ठ्यार भावात् प्रभृत्यन्यार्थ० | २२॥७५॥ इति सूत्रेण ग्रामात् पञ्चमी ॥ ११७ ॥ 7 - हेत्वर्थैस्तृतीयाद्याः २ २ ११८ हेतुर्निमित्तं तद्वाचिभियुक्तात् तृतीयाद्याः स्युः । धनेन हेतुना । धनाय हेतवे । घनाद्ध ेतोः । धनस्य हेतोः । धने हेतौ वा वसति । एवं निमित्तदिभिरपि ११८| 'तो तृतीयायाम ऋण दुधेतोः | २२|७६ | 'गुणादस्त्रियां न वा ।२।२।७७॥ इति पञ्चम्यां च प्राप्तायामिदं सूत्रम् । हेत्वर्थशब्देन युक्तात् प्रत्यासत्त ेः सामानाधिकरण्यमपेक्षितम्, असामानाधिकरण्येन हेत्वर्थशब्दसम्बन्धे त्वन्नस्य हेतुरित्यादो षष्ठ्येव । अग्रिमसूत्रेण हेत्वयं युक्तात्सर्वादि: सर्वविभक्त विधानादत्रा सर्वादेस्तृतीयाद्या विभक्तयो बोध्याः । अन्ये तु हेत्वशब्दयोगे नेच्छन्ति हेतुशब्दयोगे तु षष्ठी मेवेच्छन्ति ॥ ११८ ॥ सव्वदेव || २|११९८ हेत्वर्थे युक्तात् सर्वादेः सर्वा विभक्तयः स्युः । को हेतुः । कं हेतुम केन हेतुना । कस्को हेतवे । कस्माद देतोः । कस्य त । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७५ कस्मिन् हेतौ वा याति ।११९। हेत्वा युक्तात्प्रत्यासत्तर सामानाधिकरण्यात् सर्वादेः गौणान्नाग्नः सर्वा विभक्तयो भवन्तीत्यर्थो पूर्ववज्ञयः । सामानाधि करण्याभावे तु कस्य हेतु त्येव भवति । प्रथमां नेच्छन्त्येके । प्रिया : सर्वे यस्येनि बहुव्रीही हे वयोगेऽपि सर्वादगौणत्व त् 'गौण मुख्यया: मुख्य कार्यसम्प्रत्ययः' इति न सर्वा विभक्तयः । कमधारये तु परमसन हेतु वसतीत्यादि भवति । 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः' इति त्वत्र नोपतिष्ठते ।।११९॥ असत्त्वारादट्टिाङसिङ यम् ।२।२।१२०। असत्त्ववाचिनो दूरादन्तिकार्थाच्चटाङसिङयमः स्युः । गौणादिति निवृत्तम् । दूरेण दूरात् दूरे दूरं वा ग्रामस्य ग्रामाद्वा वसति । एवं विप्रकृष्टेनेत्यादि । अन्तिकेन अन्तिकात् अन्तिके अन्तिकं वा ग्रामस्य ग्रामाद्वा वसति । एवमभ्यासेनेत्यादि । असत्त्व इति किम् । दूरोऽन्तिको वा पन्थाः ।१२०१ ५ . सत्त्वं द्रव्यम् न. सत्त्वमसत्त्वम् । लिङ्गसंख्यावद् द्रव्यम् इदंतदिः त्यादिपर्दर्यद् व्यपदिश्यते तत् द्रव्यम्, एतय लक्षणेन गुणजात्यादिकं सवं. पारिभाषिक द्रव्यमुच्यते । आर दित्यत्ययं दूरान्तिकवाचि। विभक्त्ति-सम्ब. द्धत्वात तन्निवृत्तौ गौणादिति निवत्तम । ग्रामस्य ग्रामाद वेति. - ग्रामश. ब्दात्"आरादौ ।२।२१७८। सूत्रात् विकल्पेन पञ्चम्या प्राप्तायां पक्ष. 'शेषे ।२।२१८१॥ सूत्रात् षष्ठी । विप्रकृष्टं दूरमित्यर्थः, अभ्यास: समीपमित्यर्थः ॥१२०॥ जात्यारुयायां नवैको संख्यो बहुवत् १२१२१२१९ जातेराख्याभिधा तस्वामेको संख्या संख्यावाधि-विशेषणारहितो बहुक्दवा स्यात् । संपना स्वावलो यवः । जालोति लिन् । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७६) चैत्रः । आख्यायामिति किम् । काश्यपप्रतिकृतिः काश्यपः । असंख्य इति किम् । एको ब्रीहिः संपन्नः सुभिक्षं करोति ।१२१॥ जायतेऽनया भिन्नेष्वभिन्नावभिधान • प्रत्ययाविति जांति: गौरय . गौरयमित्या दसदृशाभिधानज्ञानहेतुः जातेराख्यायामिति वैषयिकेऽधिकरणे सप्तमी, निमित्तसप्तमी वा । जातेरेकत्व देकवचने एव प्राप्ते पक्ष बहुवच. नार्थ बहुवद्भावः क्रियते । सम्पन्ना यवा इति जात्यर्थस्य बहुवद्भावात् सम्पन्नादि विशेषणानामपि सामानाधिकरण्याद् यवादिशब्दोपात्त जात्यर्थे वर्तमानत्वात् तेषा-मपि बहुवद्भावः । तथा चोभयव विभ्ये पि बहुवचनम्, जातिशब्दस्य बहुवद्भावे तु यवशब्दादेव जातिश. ब्दादबहुवचन स्यात् न तु तद्विशेषणभूताद्यवशब्दादिति । चैत्र इति • नायं जातियच्छ शब्दत्वात् जातिहि गोगों रित्याद्यनुवृत्तप्रत्ययकारणम् । यदिच बालकुमारादिभेदेष्वनुवर्तमानं चैत्रादिक जातिरुच्येत तदा सर्वेषां जातिशब्दत्वात् जानिग्रहणमनर्थक स्याद तस्मात् सादृश्यसामान्यमिह जातिः न स्वरुपसामान्यमिति । काश्यप इति 'बिदादेव द्ध'।६।१॥४१॥ इत्यान काश्यपः । यद्यप्यं गौत्राभिधायकत्वात् 'गोत्रं च चरणः सह' इति लक्षणेन जातिशब्दस्तथापि नानेन जातिरभिधीयतेऽपि तु प्रतिकृतिरिति । आख्याग्रहणात् प्राधान्येन जातावभिधेयायां भवति इह तु तद्विशिष्टा प्रतिकृतिरिति न भवति । एक इति वचनात् द्वयोर्जात्योर्यत्राख्या तत्र न भवति - संपन्नी व हि. यवाविति । एको व्रीहिः संपत्नः सुभिक्ष करोतीत्यत्र विशेषणभूतसख्याप्रयोगात् एके व्रीहयः संपन्नाः सुभिक्ष करोतीति न भवति । ननु एक इति संख्याशब्दः प्रयुज्यमानः स्वत: एकत्वमुद्भावयति बहुत्वं तु तद्विरुद्धमिति बहुवदतिदेशो न भविष्यतीति 'असंख्यः' इत्युपादानेनेति चेत्सत्यम् अस्यैवार्थस्यानुवादा मित्यदोषः ॥१२॥ अविशेषणे द्वौ चास्मदः ।२।२।१२२॥ भस्मदो द्वावेकश्चाओं बहुवद्वा स्यात्,अविशेषणे न चेत्तस्य विशेषणं स्यात् । आवां वः । वर्ग बमः । अहं ब्रवीमि, वगं ब्रूमः । अवि. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७७) शेषण इति किम् । आवां गाग्यों ब वः । अहं चैत्रो ब्रवीमि ।१२२॥ अस्मद इति- अनुकरणत्वादस्मच्छब्दकार्याप्रवृत्तिः । अविशेषणे इत्यत्र विशेषणस्वाभावः तस्मिन्निति प्रसज्यनञ् । यद्यत्र न विशेषणमविशेषणं तस्मिन्निति पर्यु दास: स्यात्तदा विशेषणे नापि विधिः, नापि प्रतिषेधः, विशेषणादन्यस्मिन् तु प्रयुज्यमाने स्यादित्यर्थः ततश्चाहं चैत्रो ब्रवोमीत्यत्र मिवन्तस्य विशेष्यस्य भावात् मैत्र इति विशेषणे सत्यपि स्यादित्याहन चेत्तस्येति । आवां ब्रवः इति- अत्र द्वयोर्मध्ये एकस्य वक्तत्वेपि अय में द्वितीय अत्मा, अहमेव वाऽ । यमित्युपचाराद् त्वं चाहं चेत्येकेशेषे वाऽस्मदर्थस्य द्विवचनमिति । नन्वेकोऽप्यात्मा यथैकत्वेनानुभूयते तथाऽनेकस्वभाववत्त्वेन द्रष्टा, श्रोता, मन्तेत्यादि नानात्वेनापि । तत्र यौकत्वेन विवक्षिते एक वचनं द्वित्वेन विवक्षिते द्विवचनं तथा बहुत्वेन विवक्षिते बहुवचनर्माप सिद्धमेवेति किमनेनेति चेत्सत्यं विशेषणप्रतिषेधार्थ वचनभिति ॥१२२॥ फल्गुनीप्रोष्ठपदस्यभे ।२।२।१२३। फल्गुनीप्रोष्ठपदयो) नक्षत्रे वर्तमानयोञवथों बहुवद्वा स्याताम् । कदा पूर्वे फल्गुन्यो । कदा पूर्वाः फल्गुन्यः । कदा पूर्वे प्रोष्ठपदे । कदा पूर्वाः प्रोष्ठपदाः । भ इति किम् । फल्गुनीषु जाते काल्गुन्यो कन्ये ।१२३॥ - फल्गुनी च प्रोष्ठपदा चेति- फल्गुनीप्रोष्ठपदम्, तस्य द्वयर्थे भवति एकस्मिन् ज्योतिषि 'दृश्यते फल्गुनी' इत्यत्र न भवति । एकस्याः तारायां फल्गुनीप्रोष्ठपदयोः प्रयागो नास्ति इत्यन्ये । फल्गुनी-पूर्वा उत्तरा अ, प्रोष्ठपदा-पूर्व भाद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा च । फल्गुन्यों कन्ये- ‘फल्गुन्यास्ट: ।६।३। १०६। सूत्रात् टप्रत्ययः, ‘अवर्णेवर्णस्य ।७।४।६८।. सूत्रादिकारलोप, टित्त्वात् 'अणजे २१४२०। सूत्रात् ङोः ।।१२३॥ गुरावेकश्च ।२।२।१२४॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७८) गुरो गौरवाहें वर्तमानस्य द्वावेकाश्चर्थो बहुवद्वा स्यात् । युवां गुरू। यूयं गुरवः । एष मे पिता । एते मे पितरः।१२४॥ . . एक एव शब्द: एलिङ्ग, द्विलिङ्ग, त्रिलिङ्ग वा भजते, एक एव शब्दः एकवचनं, द्विवचनं, बहुवचनं वा भजते, लिङ्गव्यत्ययोऽपि भवति । यथा आप एकस्यां जलकणिकायापि वहुवचनान्तः, दारशब्दः गृहिणीवाच: कोपि पुल्लिङ्ग इत्यादि । इद सूत्र तु गौरवाहे बहुवचनं विदधाति ॥१२४॥ ॥ इति दिवतीयाध्यायस्य दिवतीय पादः ॥ प्रश्न- धर्मी आज अल्प हो रहे हैं तो रचनात्मक 1 करने की क्या जरूरत नहीं है? ] उत्तर- धर्मी हमेशा अल्प ही रहने वाले है, पांचवे ] - [.. आरे में तो धर्मी दिन प्रतिदिन घटने वाले ) ।: ही है, परन्तु भगवान का शासन पांचवे ] [ . आरे के अंत तक रहने वाला है वह थोड़ों ] .............से ही चलने वाला हैं, टोले से नहीं, टोलों ] [ से ज्यादा कार्य नहीं होता ! ..] بما تماس با ما با سا نان با ساااا Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (२७९) आत्मा शरीर में सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु वह शरीर से भिन्न है । महापुरुषों ने इस आयंदेश की जो प्रधानता गाई है, वह इस आर्यदेश की अध्यात्मप्रधानता को लेकर ही है। 'महापुरुषों ने आर्यदेश की महत्ता ममत्व के अधीन बनकर गाई है'- ऐसा कहकर अपने को अपनी तुच्छता का ।.. . आरोपण, कभी भी, महापुरुषों पर नहीं करना चाहिये ।' आत्मा के हित के उद्देश्य से जो विचार किया जाय, बात की जाय अथवा तो वर्तन किया जाय इन सब का समावेश 'अध्यात्म में होता है। - - - -लेखकपू. परम शासन-प्रभावक, व्याख्यान-वाचस्पति आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८० ) **** आप खुद को ही पहचानने का स्वयं प्रयत्न करो । मनुष्य स्वयं ही अपना भावी बनाता है । कोई किसी के भावी को बना नहीं सकता । इस जन्म में मुख्यतया पूर्वजन्मों के पुण्यों का और पापों का फल भोगा जाता है । ऐसा मानने की भूल मत करना कि- 'आप जो कुछ भी प्रवृत्ति करते हैं, उसका जो तत्काल प्रत्यक्ष परिणाम आता हैं, उसके सिवाय का उसका परिणाम हैं ही नहीं ।' 'प्राप्त करना वहीं और पुण्य किये बिना रहना नहीं' - इतना भी निर्णय नहीं करते हुए, मनुष्य बहुतया गतानुगतिक रीति से ही जोते हैं। -लेखक परम शासनप्रभावक, व्याख्यान वाचस्पति आचार्गदेव' श्रीमद विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथः द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पाद ॥ . . नमस्पुरसो गतेः कस्खफि र संः ।२।३॥१॥ गतिसंज्ञयोनमस्पुरसोः कखपफि रः सः स्यात् । नमस्कृत्य, पुरस्कत्य । गतेरिति किम् ? नमः कृत्वा, तिस्रः मुगः करोति ।। __ नमस्पुरसः कखपफैःसह संमानवचत निर्देशेषि संख्यया सल्यत्वाभावान्न यथा-सख्यम् । 'यथासंख्यः' इति न्याये सख्या वचनरुपा गणना. रुपा च गृह्यते । नमस्कृत्य - अनमो नमः करणं पूर्व 'साक्षादादिश्च्व्यर्थ ।३।१।१४॥ सूत्रात् गतिसंज्ञा, 'प्रायकाले' १५।४।४७। सूत्रात क्त्वा, गवि . म्यस्तरसरुष: 1३।११४१ सूत्रात समासः, “अनः क्त्वो यप २११५४॥ सूत्राद् यब देश: । अत्र 'सो रु: ।२।१७२। सूत्रात्कृतस्य रस्य 'र: कखपफयो: १११३१५॥ इत्यादि-बधिनार्थ मेन सकारविधानम् । सादेशे अकार उच्चारणार्थः । पुरस्कृत्य-'पुर स्तमव्ययम्' ।३।१७। सूत्रीद गतिसंज्ञा । पूर्वपर्यायोऽग्र -पर्यायो वा पुरस्शन्दः । नमः कृत्वा-साक्षादादिश्च्यणे ।।१। . सूत्राद विकल्पेन गतिसज्ञा विधीयते, गतिसंज्ञाया अभावपक्षे 'गति - क्व० ।३।११४२। सूत्रण समासो न भवति, 'अननः क्त्वो या ।।११५४। सूत्राद यबादेशश्च न भवति । तिस्रः पुरः करोति-पुर् नगरम् नैतैर्दव्ययमिति न गति संज्ञा ॥१॥ तिरसो वा ।२।३।२। गते-स्तिरसो रस्य कखपफि स् वा स्यात् । ति स्कृत्य, तिरः कृत्य । गतेरित्येव-तिरःकृत्वा काष्ठं गतः ।२। ... तिरस्कृत्य-कृगो नवा' ।।१।१० सूत्रान्त धावडं विकल्पैन Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८२) गतिसंज्ञा । अनेन विकल्पेन सकारः। पक्षे विसर्ग: । व्यवधानं कृत्वेत्यर्थः । अन्तब युपचाराद अवज्ञाप्यन्तधेिरिति पराभव कृत्वेत्यर्थों वा । तिरः कृत्वा-ऊध्वं स्थित काळं तिर्यक्कृत्वेत्यर्थः 'अन्तर्धारि 'कृगो निवा ।३।१११० सूत्राद् विकल्पेन गति-संज्ञा, गतिसज्ञाभावाच्च समासयबादेशाभावः । निरसशब्द: वाचकत्वसम्बन्धेन अन्तद्वय-वज्ञातिर्यग्भ वेषु वर्तते अथवा तिरसशब्द एषामर्थानां वाचकः ॥२॥ मुंसः ॥२॥३॥३॥ पुंसः सम्बन्धिनो रस्य कखपफि स् स्वात् । पुम्कोकिलः, पुंस्थातः, पुस्पाका, पुस्फलम् ॥३॥ पुमाश्चासौ कोकिलश्च पुम्सशब्द 'परस्य ।२।११८८। सूत्रात्सकारलोपः' 'पुमोऽशिटय० ।।३।९। सूत्रात् मकारस्य रकार: अनुस्वारपूर्वक:, पुस इत्यनेन रेफस्य सकारः । एव पुस्खात इत्याद्यपि । ननु 'पुमोऽशिटय०' ३१।३।९। सूत्र रत्वमपहाय सकार एव 'वधीयतां कि शिरोवेष्टनेन नासिकास्पर्शानुधानेनेति चेत् न रत्वविधानाभावे पुश्चरः, पुष्टिटिभः इत्यादयो न सिध्यन्तीति । न च 'सो रु: ।२।११७२। सूत्राद् त्वे तस्य शकारषकारादिः भविष्यतीति वाच्यं विधानसामर्सेन रूत्वाभावात् ॥३॥ शिरोऽधसः पदे समासैक्ये ।।३।४। अनयो रेफस्य परशम्वे परे स् स्यात्, समासक्ये । शिरम्पदम्, अधस्पदम् । समासेति किम् ? शिरः पदम् । ऐक्य इति किम् ? परमशिर:-पदम् ।। ... ननु कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृषिमे कार्यसम्प्रत्ययः इति न्यायात् 'तदन्तं पदम् ।।१।२०। सूत्रण परिभाषितस्य ग्रहणं प्राप्नति तथापि समास इति । वचनादुत्तरपदमृते समासस्यासम्भवात् पदग्रहणानर्थक्यप्रसङ्गात् पद इति शब्दस्वरूपस्य ग्रहणादाह-पदशन्दे इति । ननु समास इति भणने एकवच Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८३) १ नादेकसमासे एवं भविष्यतीति 'उक्तार्थानामप्रयोगः' इति न्याय दैवयशब्दस्याप्रयोगः प्राप्नोतीति चेन्मैव स्पष्टार्थत्वात् द्विर्बद्ध सुबद्ध भवति' इति न्या याद वा । शिरसि पदम् सप्तमी शोण्डाद्यः | ३|११८८। सूत्रात् सप्तमीसमासे, . शिरसः पदमिति षष्ठीसमासे वा शिरस्पदम् । अधः पदम् इत्येव विग्रहे 'अव्ययं प्रवृद्धादिभिः | ३ | १|४८ | सूत्रात् नित्यं समासे प्राप्तेऽपि बाहुलकात् ससासाभावे अधः पदमित्यत्रापि समासे' इत्युपादानस्य फल ज्ञ ेयम् । परम च तत् शिरश्च परमशिरः । तस्मिन् तस्य वा पपम् - तत्पदम् । परमशिरश्च तत्पद चेति परमशिरः - पदमित्यत्र शिरः शब्दस्य समासद्वयसम्बन्धित्वादय इति वचनान्न भवति ॥४॥ अत कृक्रमिकं सकुम्भकुशाकर्णीपात्रेऽनव्ययस्य ।२।३।५। आत्परस्यानव्ययस्य रस्य क्रादिस्थे कखपफि स् स्यात् । समासेक्ये । अयस्कृत, यशस्कामः, पयस्कंसः अयस्कुम्भः, अयस्कुशा, अयस्कर्णी, अयस्पात्रम्, अत इति किम् ? वा:- पात्रम् | अनव्ययस्येति किम् ? स्वःकार । समासंक्य इत्येव - उपयःकारः १५। अयः करोतीति क्विपि तागमे 'ङम्युक्त कृता' |३|२|७२ | इति समासे 'सो रू' | २|५|७२ । इति सस्य फै तस्यानेन' सकारे अयस्कृदिति । यशः कामयते स यशस्कामः 'कर्मणो ण्' | ५|१|७२ । इत्यण् । पयसः कस: पानभाजनम् पयस्कसः । कम्ङ कान्तो 'मावावद्य०' । उणा ५६४ । इति सः पुल्लिङ्गाश्रयेणैव दृश्यते इति स्त्रियां नोदाहार्यम् । अयसः कृम्भः - अयस्कुम्भः विकारविकारिभावसम्बन्धे षष्ठीसमासः 'भोर गोण० ' | २|४|३०| इति सूत्रोणायोविकारस्याविवक्षितत्वान्न ङीः किन्तु 'आत्' | २|४|१८ | इत्याप् । अयः प्रधानं यस्या सा अयः प्रधाना सा चासो कुशा चेति कर्मधारयः । 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इति न्याये नाम ग्रहणे इत्युक्त या यत्र लिङगविशिष्टस्य ग्रहणं न तत्र नामग्रहणं भवती त । अत्र सूत्रे 'कृश' इत्यविकृतस्य , Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नाम्नो ग्रहणाभावे 'अय: कुश:' इत्यत्र ग्स्य सो न भवति । अयस्कर्णीतिअयइव कप यस्याः सा अयस्कर्णी 'न सिका ० ' | २|४|३९| इति वैकल्पिको ङीः, समुदायस्य तु जातिवावित्वे 'पाककर्ण ०' | २४ ९५ । इति नित्यं ङीः । · अयसः पात्रम् अयस्पात्रम् । नामग्रहणे लिङग ०' इति न्यायात् अयस्कुम्भी, • अयस्पात्रीति कुम्भशब्दाद् गौरादित्वाद् ङो पात्रशब्दात् पातेः पिबतेर्वा नीदावशसू०' ||२८| इति त्रन्तत्वात् टित्वात् ङोः । वा:पात्रमिति -- वार: . पात्रमिति षष्ठी- -समास: जलपात्रमित्यर्थः । उपपमः - कारः इति पयसः समीपमु.. पपयः करोतीति उपपयः -- कारः । अत्र पयः · शब्दस्य समासद्वयसम्बन्धित्वात् सकारो न भवति । केवलयोः कृकम्योः समासो न भवतीति क्विन्ता धातुत्व नोज्झतं ति क्विन्तयोर्ग्रहणम् । केवलयोः क्विन्तयोर्ग्रहणं तु न २ ०२८५ इत्यत्र विग्रहणात् नह्यन्यप्रत्ययान्त दन्तानां धातू - दानामग्रहणेवि प्रहणमथवद् सव त । कमिग्रहणादत्र कामयतेर्ग्रहणं न भवति पयः कामयते पयः कामा 'शीलि – कामि - भक्ष्याचरि०' | ५|१|७३ | इति ण : गेरनिटि' | ४ | ३ |८३ | इति णिलोपः अप् च गिङो वैकल्पिकत्वात् णिङभावे कमेरणि पयस्कामीति । कमिग्रहणं नैव कंसग्रहणे लब्धे पृथक् कंसग्रहणम् 'उणादयोऽव्युत्पत्नानि नापानि' इति न्यायस्य ज्ञापकम् । तथा चादयुत्पन्न एवायं कंसशब्दः न तु कमिना व्युत्पन्न इति ॥ ५॥ 1 I प्रत्यये ||३६| अनव्ययस्य रस्य प्रत्ययविषये कखपफ स् स्यातृ । पयस्याशम् । पस्कल्पम् । पयस्कम् । अनव्ययस्येत्येव । स्वः पाशम् |६| 1. (२८४) पयस्पाशमिति - निन्द्यः पयः इति निन्द्य पाश' | ७|३|४| इति - पासप । पयस्कल्पमिति - ईषदपरिसमाप्तं पयः इति 'अतमबादेः ० ' | ७|३|११| इति कल्पप् । पयस्कमिति कुत्सिताद्यर्थे 'कुत्सिताल्पाज्ञाते' | ७|३|३३| इति कप् । अत्र पाश - कल्प का एव ग्राह्याः काम्ये विशेषविधानादन्यस्य चाभावात् ॥६॥ · 1 रोः काम्ये ||३७| Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८५) अनव्ययस्य रस्य रोरेव काम्ये प्रत्यये स् स्यात् । पयस्काम्यति । रोरिति किम । अहः काम्यति ।७। - रति रेफस्य षष्ठ्यन्तं विशेषणमित्याह रस्य रोरिति । पयस्काम्यतीति पय: इच्छत ति द्वितीयाया: काम्यः' ।३।४।२२। इति काम्यप्रत्ययः, 'नाम सिदव्य जने' ।११।२१। इति पदत्वे :सो हः' ।२।१।७२॥ इति रेफे कृतेऽनेन सकारस्त स्तिव दि:। अहः काभ्यतीति रो लुप्यरि' ।।१७५॥ इति रः । पूर्वेण सिद्ध रोरेवेति नियमार्थ मदम । रोः काम्यप्रत्यये एवेति विपरीतनियमस्तु 'वर्चस्का०' ।३।२०४८। इति निर्देशात् 'प्रत्यये रीः काम्य चेत्ये योगाभावाद्वा न ॥ ॥ . नामिनस्तयोः षः ।२।३॥८॥ तयोः प्रत्ययस्थे. कखपफ रोरेव काम्ये नामिनः परस्य रस्य ष स्यात् । सपिष्पाशम् । धनुष्कल्पम् । धानुष्कः । सस्पिष्काम्यति । नामिन-इति किम् । अयस्कल्पम् । रोःकाम्य इत्येव । गो-काम्यति । तपरिति-प्रत्ययसूत्रसंगृहीतानां पाश - कल्प - कानां, रो काम्ये इति निर्दिष्टस्य काम्यस्य च ग्रहणम्, अत्र अनब्ययस्येति वतंते यतः पूर्वसूत्र. योरपवादोऽय ष इति, तेन उच्चैष्क इत्यादि उच्चष्काम्यतीत्यादि च न भवति । धानुष्क इति-धनुः प्रहरणमस्येति 'प्रहरणम्' ।६।४।६२। इतीकण 'ऋवर्णोवर्ण ० १७१४१७१। इतीकणः इकारलोपः । प्रत्यये इति सूत्र पाशकल्पका इत्युपलक्षणं तेन कणापि ग्रहणम् अथवा इकारे लुप्तेऽयमपि क इत्यत्रापि षत्वम् । रोरेवेति नियमाद गी.काम्यत त्यत्र न भवति ॥८॥-: : .. निदुबै हिराविष्प्रादुश्चतुराम् ।२।३।९। निरादीनां रस्य कखपफि ष स्यात् । निष्कृतम् । दुष्कृतम् । बहिः Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८६) पोतम् । आविष्कृतम् । प्रादुष्कृतम् । चतुष्पात्रम् ।। - बहुवचनं निसदुस निई रोश्च संग्रहार्थम् । नितरां क्रियत इति 'क्लीबे क्तः ॥५।३।१२६॥ इति क्त निष्कृतमित्यादि । चतुष्मात्रमितिबहुव्रीहिः समाहा द्विगुर्वा समाहारद्विगावपि पात्रादित्व स्त्रीत्वप्रतिषेधात् स्त्रीत्वाभावः । पात्र दिवजितादन्तोत्तरपदसमाहारे । द्विगुग्न्नावन्तान्तो वान्य:. स्तु सर्वो नपुंसकलिङ गानुशासन-स्त्रीलिङ ग-प्रकरणस्य पञ्चमः श्लोकः। पात्रादयः शिष्टप्रयोगगम्याः । निष्पीतम्, दुष्पीतम्, बहिस्कृत, अविष्पीतम्, चतुष्कण्टकम् इत्यादयो दृष्टान्ता अपि बोध्या: । प्रादुः-पीतमित्यादयस्तु न प्रादुःशब्दस्य कुम्वस्तिविषय एवोपलम्भादिति ॥९॥ सुचो वा ।२।३।१०। सुजन्तस्थस्य रस्य कखपफि ष, वा स्यात् । द्विष्करोति । दिकरोति, द्विःकरोति चतुष्फलति, चतु फलति चतुःफलति । कक्षपफोति किम् ? विश्चरति ॥१०॥ सुच इति न रेफस्य विशेषणं तथा च सति सुच: स्थाने यो रेफस्तस्येति स्यात्तदा चतुष्फलतीत्यत्र 'रात् सः' ।२।१।१०। इति सुचो लोपे सुचोऽभावाद्र फो न स्यादिति सुचित प्रकृतेविशेषणमित्याह- सुजन्तस्थस्येति- एवं कृते सुची लोपेपि स्थानिवद्भावात् प्रकृतेः सुजन्तत्वात् चतु. फलतीत्यत्र षत्वं भवत्येव नच हि त्रिकरोतीत्यत्रापि त्रिशब्दस्थस्य रेफस्य सुजन्तस्थत्वात् तस्यापि षत्वेन भाव्यमिति वाच्यमनन्तरे कृतार्थत्वादिति । द्विष्करोतीत्यावि-द्वौ वारो करोतोत्याद्यर्थे 'द्वित्रिचतुरः०' ।७।२।११७॥ इति सुच् सिः अव्ययस्य' ।३।२।७। इति लुप् षत्वपक्षे 'रःकखपफयो:' ।१।३।५। इति जिह. वामूलीयोपध्मानीयौ विसर्गश्च । सुचन्तस्य चतुरः परहवादनेन नित्यो विधिः न तु 'निदुबहिराविष्प्रादुश्चतुराम्' ।२।३।९। इति पूर्वेण विकल्पः ॥१०॥ वेसुसोऽपेक्षायाम् ।।३।११ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८७) इसुस्प्रत्ययान्तस्य रस्य कखपफ षं वा स्यात् । स्थानिनिमित्तयोरपेक्षा चेत् । सविष्करोति । सर्पि करोति । धनुष खादति । धनु - खादति । अपेक्षायामिति किम् । परमसपि 1 । 1 कुण्डम् 1991 - ' प्रत्यया प्रत्यययो: ० ' 'लक्षणप्रतिपद े० ' 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' इति वा न्यायात् इमुसोः प्रत्यययोग - हणात् मुनिः करांति, नदीभिः क्रियते मुहुः पठति, भिन्द्यः पापानि इत्यत्र न भवति । मुहुरित्यव्युत्पन्नमव्ययम् । इसा साहचर्यादुस औणादिकस्य ग्रहणाद् चक्रुः कुलानीत्यत्र न भवति । अत्र करोतेः परोक्षाया उस्प्रत्ययः । परमसपि कुण्डमिति - एकार्थीभावे न भवति । सामर्थ्य द्वेधा व्यपेक्षा, एकार्थीभावश्च, अपेक्षाया भिन्नपदार्थगोचरत्वद् वाक्ये अपेक्षारूपसामर्थ्यं भवत, वृत्तौ तु एकार्थीभावरूप सामथ्र्यं भवति ॥ ११ ॥ नैकार्थे ऽक्रिये २।३।१२। न विद्यते क्रिया प्रवृत्तिनिमित्तं यस्य तस्मिनेकार्थे तुल्याधिकरणे • 1 पदे यत् कखपफं तस्मिन् परे इसुस्प्रत्ययान्तस्य रस्य ष न स्यात् सप्पि — कालकम् । यजु ) ( पीतकम् । एकार्थ इति किम् । सर्पिकुम्भे, सपि कुम्भे । अक्रिय इति किम् ? सपिष्क्रियते, क्रियते |१२| एकार्थे इति - एकशब्दः समानार्थः एकोऽर्थो यस्येत्येकार्थः समाना: धिकरणमित्यर्थः। वेसुसोऽपेक्षायाम् | २|३|११ । इत्यस्यायं प्रतिषेधः नान्यस्य । सर्पिः कालकमिति - काल एक कालकम् 'कालात्' | ७|३|१९| इति सूत्रेण कप्रत्ययः । यजुः पीतकमिति पीतमेव पीतकम् 'यावादित्वात् स्वार्थे कः यद्वा पीतेन रक्तमिति 'नीलपीतादकम् ' | ६ | २|४| इति कः । कालकं पीतकमिति गुणवचनमक्रियावाचि समानाधिकरणं पदमतः प्रतिषेधः ॥ १२ ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८८) समासेऽसमस्तस्य ।२।३।१३। पूर्वतासमस्तस्य इसुस्प्रत्ययान्तस्य रस्य कखपफि ष स्यात् निमि. त्तनिमित्तिनौ चेदेकत्र समासे स्तः। सपिष्कुम्भः। धनुष्फलम् । समास इति किम् । तिष्ठतु सप्पिः पिब त्वमुदकम् । असमस्तस्येति किम् । परमपिः कुण्डम् ॥१३॥ .. सपिषकुम्भइत्यादि- सर्पिषः कुम्भः, धनुष: फमिति षष्ठीसमास: परमसपि कुण्डमिति- पूर्वेण परमशब्देन सपिष्शब्दस्य समस्तत्वान्न भवति, सुसोऽपेक्षायाम्' ।२।३।११। इत्यनेनापि न भवति समासे सत्यपेक्षाया अभावात् । ननु 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ।७।४।११५॥ इति परिभाषया परमपिः-कण्डमित्यत्र पूर्वेण समस्तस्य षो न भविष्यति इस्प्रत्ययान्तत्वाभावादिति चेत्सत्यम् इदमेवासमस्तस्येति वचनम् इसुसो: प्रत्ययः प्रकृत्यादे:' ।७।४।११५॥ इत्ययं नियमो न भवती-त्यस्य ज्ञापकं तेन परमसपिष्करोति परमसपि:कगेती. त्यत्र 'वेसुसोऽपेक्षायाम्' ।२।३।११। इत्यनेनाधिकस्यापि विकल्पो भवति । यद्यपि परमं च तत्सपि: परमसपि: करोतीत्यत्र तत्पुरुषस्योत्तरपदप्रधान. त्वात् प्रधानापेक्षाया षत्व सिध्यति तथापि परम सपिर्यस्य सपिषः समोपम सपिष: निष्क्रान्तम्-परमसपिष्करोति, उपसपिष्करोति, नि:-सर्पिष्करोतीत्यत्र त्वं न सिध्यति सपि:-शब्दस्य कगेतिक्रियायाश्च व्यपेक्षाभावादित्येवमथ. मिद ज्ञापक-मिति भावः । ईषदपरिसमाप्तं सपि बहुपि: तस्य कुण्डम् नाम्न. प्रागबहुर्वा' ७।३।१२। इति बही बहुसपिः, तस्य कुण्डमित्यत्र तु बहुप्रत्ययादेः असमस्तत्वादनेन नित्यं षत्वं भवति ॥१३॥ भ्रातृष्पुत्रकस्कादयः ।२।३।१४। भ्रातुष्पुत्रादयः कस्कादयश्च कखपफि रस्य यथासंख्यं कृतषत्वसत्वाः साधवः स्युः । धातुष्पुत्रः । परमयजुष्पात्रम्,कस्कः । कौत- . स्कुतः ॥१४॥ भातुष्पुत्रः कस्क इत्यत्र विसर्गात्पूर्व यदकारान्तं रूपं तदनुक्रियते, Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८९) आदिशब्दश्च प्रत्ये कमपिस बध्यतेइत्याह- भातुष्पुत्रादक इत्यादि- जिह वामू. लोययोध्मानीययोः प्राय यस्यमपवादः । तत्र नामिन: परस्य रेफग्य षकार: अन्यस्य तु सकार: भवतीत्याह. यथासङ्खयं कृतपस्वसत्वा इति । म तुष्पुत्र इति- ऋता विद्याय निसम्बन्धे' ।३।२।३७। इति षष्ठचा अलुप् । परमयजुष्पात्रमिति- यजुष्मात्रस्य पूर्वेण षत्वे सिद्धपि समस्तार्थमिह पाठः । कस्कः इति किम: कस्तसादी च' १४०। इनि 'वोप्सायाम' ७१४८०। इति द्वित्वम् । कौतस्कुत इति- कुत: कुत 'वीप्सायाम्' ।७।४८०। इति द्वित्वम् कुतः कुतः आगतः इति तत: आगते' ।६।३।४२॥ इति गणपाठसामर्थ्यादण अन्यथा 'क्वेहामात्रतस०.१६।३।१६। इति त्यच् स्यात् यत: तसन्तस्य प्रथमान्तत्वात् 'तत: अगते' ।६।३।१५०॥ इति पञ्चम्यन्ताद्विधीयमानों में प्राप्नोंतीति । ननु द्वित्वे एकपदव भाव त्कथं 'ततः आगते' ।६।३।१४९। इत्यण् ? सत्यम् भूतपूर्वमन्य याद् भवति ॥१४॥ नाम्यन्तस्थाकवर्गात् पदान्तः कृतस्य सः शिड्नान्तरेपि ।।३।१५। एभ्यः परस्य पदस्यान्तर्मः ये कृतस्य कृतस्थस्य वा सस्य ष स्थात् । शिदा नकारेण चान्सरेपि । आशिषा। मयी । कायुः । धूम्। पितृषु । एषा । मोफु,नौ । सिमेना गोधून हल्षु । शल्यति । कर षु। शिडनान्तरेगि। समिःषु । यषि। पान्तगिनिकिम् । वधिसेक । कृतस्येतिकिम बिसम् ।१५। नामी च अन्तस्था च कवर्गश्च तस्मात् । कृतस्य कृतस्थस्य वेतिकेनचित्सूत्रेण कृतस्य कृतसम्बन्धिनो वेत्यर्थः । आशिषा- आङ -उपसर्गात् शास्धातो: क्विपि 'इसास:०।४।४।११८। सूत्रेणे-सि, टायामनेन षः, कृतसम्ब. धिन उदाहरणमिदम् । सिषेचपर्यन्त नामिनः परस्योदाह ग्याम् । नदीषु इत्यादि कृतसम्बन्धिनः । एषेति कृतस्य । गीर्षु हल्षु इत्यन्तस्थाया: परस्य । हल्नाम परमते व्यजनसज्ञा । शक्ष्यति, क्रुङ षु-इति वर्गापरस्य । सपिःषु- अत्र सस्य रत्वे, विसर्गे च तस्य शिट्त्वात् तद्व्यवधानेऽपि षत्वम् । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९० ) यजूंषीत्यत्र - 'शि० | १|३|४० । इति नित्यत्वादन्तरङंगत्त्रात् च कृते षकारः । नकारस्याऽवश्यमनु-वारस्य भावात् अनुस्वारस्य च शिवेन शिट्ग्रहणेनैव सिद्ध मस्थानिकानुस्वारव्यावर्तनाय नकारोप दानम् तेन पुंसीत्यादौ न परवम् । दधिसेक्- अत्र वत्तेरन्ते वर्तमानस्य षभिन्न कार्यविधान एव वृत्त्य |१|१| २५ | सूत्रेण पदत्र षेधात् सेक् इत्यस्य पदत्वेन सकारो न पदमध्यगतः किन्तु पदादिस्थ एव । बिसमिति- 'उणादयं व्युत्पन्नानि नामानि इति अभ्युत्प नोऽयमतः सकारो न केनचित्कृतः ||१५|| समासेनेः स्तुतः | २|३|१६| अग्नेः परस्य स्तुतः सस्य समासे वा स्यात् । अग्निष्टुत् |१६| - अग्नि स्तोतीति- अग्निष्टुत् । अत्र 'धः सो० |२| ३९८ सूत्रेण सकारः कृतः । षत्वे व तंव्ये उत्तरस्य पदत्वात् पूर्वसूत्रेणाप्राप्तौ सत्यां वचनम् ॥१६॥ ज्योतिरायुर्थ्यां च स्तोमस्य |२|३|१७| • 'आभ्यामग्नेश्च परस्य स्तोमस्य सस्य समासे न स्यात् । ज्योतिषटोमः | आयुष्टोमः । अग्निष्टोमः । समासइत्येव । ज्योतिः स्तोमं याति ॥१७॥ चशब्देनाग्निशब्दस्य समुच्चयः । ज्योतिषां स्तोमः = ज्योतिष्टोमः, एवमग्र | ज्योतिः स्तोमं याति- प्रदीपः समूहं प्रापयतीत्यर्थः । अकृतत्वात् पदादित्वाच्चाप्राप्ते विधीयते ॥१७॥ मातृपितुः स्वसुः | २|३|१८| आभ्यां परस्य स्वसुः सस्य समासे ष स्यात् । मातृष्वसा । पितृ · BWS IS ES Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९१) मातुः स्वसा= मातृष्वसा। 'स्त्रसृ० ।३।२।३८। सूत्रेण षष्ठ्या: वा लुए ॥१८॥ अलुधि वा ॥२॥३॥१९॥ मातृपितुः परस्य स्वसुः सस्यालुपि समासे वा ष स्यात् । मातुः5. वसा, मातुः-स्वसा। पितुः-ध्वसा, पितुः-स्वसा ।१९। . पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पः ॥१९॥ निनद्याः स्नातेः कौशले ।२।३।२०। आभ्यां परस्य स्नातेः सस्य समासे ष स्यात्, कौशले गम्यमाने । निष्णो निष्णातो वा पाके । नदीष्णो नदीष्णातो वा प्रतरणे । कौशलइति किम् । निस्नातः । नदीस्नः । यः श्रोतसा ह्रियते ॥२०॥ निश्च नदी च निनद तस्याः । कुशले भवम्-कौशलम् 'भवे'।६।३। १२३॥ सूत्रणाण् । यद्वा कुशलस्य भावः कर्म वा युवादे०७।१६७। इत्यण। निष्णाताति निष्णः, निष्णाति स्मेति निष्णातः, एव नद्यां स्नाति स्म= . नदीष्णातः ॥२०॥ प्रतेः स्नातस्य सूत्रे ।।३।२१। प्रते परस्य स्नातस्य सः समासे ष स्यात् सूत्रे वाच्ये । प्रतिष्णात सूत्रम् । प्रत्ययान्तोपादानं किम् । प्रतिस्नातृ सूत्रम् ।२१। . प्रतिष्णातं सूत्रम्- विशेषानुपादानात् सूत्रपदेन ऊणादेः व्याकरणा Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९२) देश्च सूत्र गृह्यते, ऊणादिमूत्र क्षालनेन शुद्धम्, व्याकरणादिमूत्र तु अतिव्याप्य दिदषाभावेन शुद्धमित्यर्थः । अन्यत्यनिवृत्त्यर्थं क्तप्रत्ययान्त पादानम् । तेन प्रतिस्नातृ मूत्रमित्यत्र तृप्रत्ययान्तस्य षो न भवति ॥ २१ ॥ स्नानस्य नाम्नि २।३।२२ प्रतेः परस्य स्नानस्य सः समासे ष स्यात्, सूत्रविषये नाम्नि । प्रतिष्णान सूत्रमित्यर्थः । २२। प्रतिस्नातं ति प्रतिष्णानम्, 'नन्द्या० | ५|१|५२ । इत्यनः ॥२२॥ वेः स्रः ।२।३।२३। बेः परस्य स्तृसस्य समासे व स्थात्, नाम्नि । बिष्टरो वृक्षः । विष्टरं पीठम् ॥ २३॥ विस्तीर्यते इति विष्टरः । 'युव० [ ३|२८| सूत्रेणा । विस्तृणाति उपविष्टुः सुखमिति विष्टरम् ||२३|| अभिनिःष्टानः | २३ २४ अभिनिस्तानः समासे कृतषत्वो निपात्यते नाम्नि । अनिमि: ...ष्टानो वर्णः ॥ २४० एषा विसर्गस्य संज्ञा । वर्णमात्रस्येत्यन्ये ॥२४॥ गवियुधिः स्थिरस्यः २२२५ आभ्यां परस्य स्थिरस्य सः समासे व् स्यात् नान्य गविष्ठिरः । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिरः ॥२५॥ गविश्च युधिश्चेति समाहारद्वन्द्वः, सप्तम्यन्तयोग्नुकरणयोरेवि स्थाधातोः 'शुषीषि०'( उणा०४१६ ) इति किति इरे स्थिर: ।ततः सप्तम्यन्तस्य गविशब्दस्य स्थिर इत्यनेन 'नाम्नि' ।३।१९४। इति समासः, व्युत्पतिमात्रमेतद् सज्ञाशब्देषु सर्वत्र अवयवार्थाभ व त् । योधन युत् ऋ त्. 1५1१.४। इति धादित्वाविवपि पूर्ववत् थिरशब्देन समासः । विष्ठिर इत्र गवियुधेः स्थिरस्य' इति निर्देशात् सप्तम्या अलुप् यदि हि गोशब्दाद् ग्लुब् न स्य हि कथ गवेरुत स्य स्थिरसकारस्य षत्वं विदधातेति न । च विधानसामर्थ्यात वाक्ये तथाभावो भविष्यत ति वाच्यं 'नाम्नि' ।३।११७४। इत्यनेन नित्यसमाम एव विधेरारम्भ दिति अथवा 'दिादेवद्ध' ।६।१।४१॥ इति बिदादिगणप'ठसामर्थ्याद् । युधिष्ठिर इत्यत्र च 'अव्यञ्जनात् ।३।२।१८। इति सूत्रण सप्तम्या 3 लुप् । ननु गविष्ठिर इत्यत्रावा-देशे कृते : 'अव्यञ्जनात्' ।३।२।१८ इति सूत्रणा ऽलुबिति कथं नोक्तमिति चेत्सत्यं 'लुबन्तरङ्ग भ्यः' इति न्यायात्पूर्वमेव ल पेऽवादेशा - भावे व्यञ्जनान्तत्वा भावादिति । युधिष्ठिर इत्यत्र तु व्यजनान्तत्वात्तेन लुपपद्यत एवेति ॥२५॥ - एत्यकः ।२।३।२६॥ कवर्जान्नाम्यादेः परस्य स एति परे समासे ष स्यात् नाम्नि । हरिषेणः । श्रीषेणः । अक इति किम् । विष्वक्सेनः ।२६। .. हरिहरयो वा सेनायामस्येति हरिषेण: । 'गोश्चान्ते' ।२।४।९६इति ह ग्यत्वम् । 'विषु' इत्यव्ययं नानात्वे वर्तते विष अञ्चती क्विपि 'अञ्चोऽनर्वायाम् ॥४॥२॥४६॥ इति नलोपः 'अञ्च: ।२।४।३। इति डोः, 'अच्च् प्राग्दीर्घश्च' ।२।१।१०४ा इत्यकारलोप: पूर्वस्य, दीघत्वम्, विषुची सेनाऽस्येति 'परतः स्त्रो' ।३।२।४९॥ इति पुबद्भावः 'चजः कगम्' ।२।१८६॥ इति ककारः, 'धुटस्तृतीयः'।२।१७६। इति गकारः, ततो नित्यत्वादन्तरङ्गत्वाच्च पूर्व 'अघोषे प्रथमो० ॥१॥३५०। इति कत्व तत: 'अकः' इति षतिधात षत्वं न भवति । अथवा विश्वगित्यव्ययं सामस्त्ये वर्तते विश्वक Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९४) सेनाऽस्य स विष्वक्सेनः ॥२६॥ भादितो वा ॥२॥३॥२७॥ नक्षत्रवादिन इदन्तात् परस्य स एति परे समासे ए वा स्वात, मास्नि । रोहिणिषेणः । रोहिणिसेनः । इतइति किम् । पुनर्वसुषेणः १२७ रोहतेः 'द्रह-वृहि-दक्षिभ्यः' ( उणा. १९४ ) इति बहुवचनादिणे रोहिणः । ततः 'रेवंतर'हिण झे' ।२।४।२६। इति डी:, 'अस्य इयां लुक्' ।२।४१८६॥ इत्यकारलोपः। रोहिण्य इव कल्याणिनी सेनायस्य 'ड्यापो बहल नाम्नि' ।२।४।९८। इति सूत्रण ईकारस्य हस्वत्वम् पक्षऽनेन षत्वं 'स्व र्णा' ।२।३।६३॥ इति णत्वं च । रोहिणिषेण एवं नामा राजा। पूनर्वसुषेण इति - पुनर्वसुषेण इत्यत्र पूर्वेण नित्यमेव षत्वम् ॥२७॥ विक्रशमिपरेः स्थलस्य ।।३।२८ । एभ्यः परस्य स्थलस्य सः समासे स्यात् । विष्ठलम् । कुष्ठ• लम् । शमिष्ठलम् । परिष्ठलम् ॥२८॥ विष्ठलादिशब्दः संज्ञाया अप्रतीते: नाम्नीति नानुवर्तते। तिष्ठस्यत्र सिकतादिमिति 'स्थो वा' । उणा० ४७३ । इल्यले स्थलम्, विगतं स्थलम् अथवा बोनां पक्षिणां स्थलं विष्ठलम् कुत्सितं स्थलम् अथवा कोः • पृथ्व्या स्थलम् कुष्ठलम् विकुशधावण्ययानव्ययाविति अव्ययपक्षे 'गति - क्वन्य० ॥१॥४२॥ इति 'प्रास्यवः ।।१।४७। इति च समासोऽन्यत्र षष्ठोसमास: शमिशब्दात् 'इतोऽक्तयर्थाद' '२।४।३२॥ इति ज्यां शमशब्दात गौरादित्वाद ङ्यां शमीशब्दः, शमीनां स्थलम् शमिष्ठलम्, 'ड्यापो बहुल नाम्नि २९९॥ इति ह रस्वः, सूत्र हस्वस्य शमिशब्दस्योचारणाद् भन्नि भवति - शमीस्थलम् बाहुलकान हरस्वत्वं न भवति यदुक्तम् Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९५) क्वचित् प्रवृत्तिः, क्वचिदम्वृत्तः, क्वचिद्वभाषा, क्वचिदन्यदेव। . विधेविधानं बहुधा समीक्ष्य, चतुर्विध बाहुलकं वदन्ति ॥ परिगतं स्थलम् परिष्ऽलम् ॥२८॥ कपेो ।२।३।२९। कपेः परस्य स्थलस्य सः समासे ष् स्यात् । गोत्र वाच्ये । कपिष्ठल: ऋषिः ।२९। __गोत्रमिह लौकिकं ग्राह्य न तु 'बाह वादिभ्यो गोत्र ।६।१२३२॥ इति सूत्रोक्त स्वपित्यसन्तानस्येत्यादि लक्षणं शास्त्रीयम् लोके येऽपत्य सन्ततेः वर्तयितार: यन्नाम्नोऽपत्यसततिव्यपदिश्यते तेऽभिधीयन्ते । कपीनां स्थलमिव स्थलमस्य स कपिष्ठल: ऋषिः । गोत्रवाच्यत्वाभावे तु कपीनां स्थलम्कपिस्थल-भिति ॥२९॥ गोऽम्बाऽऽम्बसव्यापन्दिनिभूम्यग्निशे शङकुक्वपारिजपुजिहिः परमेदिवेः स्थस्य ।२३३०. एभ्यः परस्य स्थस्य सः समासे ष स्यात् । गोष्ठम् । अम्बष्ठः। आम्बष्ठः । सव्यष्ठः । अपष्ठः । विष्ठः । विष्ठः। भूमिष्ठः । अग्निष्ठः । शेकुष्ठः । शङ कुष्ठः । कुष्ठः । अङ गुष्ठः । मञ्जिष्ठः। पुञ्जिष्ठः । बहिष्ठः । परमेष्ठः । दिविष्ठः ।३०। अम्बा, आम्ब, सव्य - अप इत्येतेभ्योऽनाम्यन्तत्वादप्राप्तं षस्वं विधीयते इतरेभ्य: पदादित्वात्प्रतिषिद्ध पुनविधीयते, बहि:शब्दस्य शिडन्तत्वात्प्राप्तम् । गोऽम्बादीनां दिविपर्यन्तानां प्रायोगिकाणामनुकरणम् । परमदिवि शब्दो सप्तम्यन्तौ। स्थस्येति तिष्ठतेः स्थ इति रूपस्यानुकरणम् गोम्बेति • अम्बष्ठः 'ड्यापो बहुलं नाम्नि' ।२१४९९॥ इति हस्वम् एक Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६ ) . ष्ट निर्देशात् अम्बष्ठः इत्यपि भवति । अम्बायां भव: आम्बः, आम्बे तिष्ठतिति आम्बष्ठः । परमेष्ठः, विष्ठि इत्यत्र सूत्रनिर्देशादेव सप्तम्या अलुप् 'तत्पुरुषे कृति' | ३ |२| २० | इति तु न ' ने सिद्धस्थे' | ३ |२| २९ । इति निषेधत् । शेकुरुद्भिविशेष । सर्वत्र स्थापना० | ५ | १ | १४२ । इति कः 'इडेत्पुसि ० ' - ।४।३।९४। इत्याकारलोपः' अपनिष्ठनीप्यत्र तु 'उपसर्गादतो.' | ५ | १|५६ | इति ङः, अधिकरणे तु गावस्तिष्ठन्त्यस्मिन्निति 'स्थादिभ्यः कः' | ५|३|८२ इति के गोष्ठम् ||३२|| निदुस्सोः सेधसन्धिसाम्नाम् | २|३|३१| एभ्यः परेषां सेधादीनां सः समासे ष् स्यात् । निःषेधः । दुःषेधः सुषेषः । निःषन्धिः । दुःषन्धिः । सुषन्धिः । निःषाम । दुःषाम । सुषाम |३१| वचन-भेदाद्यथासङ्ख्याभावः । निषेध इत्यादि सेधनं सेधः 'भावाकर्त्री' | |३ | १८| इति धञ, निर्गतः सेधः, दुर्गत. सेध: । अत्र गमि वाच्यक्रियाया विशेषको न तु सेधतेरिति येन धातुना युक्ता प्रादयस्तम्' इति न्यायाद सेधि प्रत्युपसर्गत्वाभावात् 'स्था सेति०' |२| ३ |४०| इति सूत्रण षत्वं न प्राप्नोति यद्वा गतावयं सेधतिरिति गतौ सेधः । । ३ । ६१ । इति प्रतिषेधात् षत्वं न प्राप्नोतीति वचनम् । शंभनः सेधः 'सुः पूजायाम्' |३|१|४४ । इति समासः, 'धातोः पूजार्थ ० ' | ३ | १|१ | इत्युपसर्गश्त्व भावादनेन षत्वम् । संधानं संधि: 'उपसर्गाद्दः किः | ५|३|८७ | इति कि:, निर्नष्ट: सन्धिः, दुष्ट: सन्धिः 'प्रात्यव०' | ३ |१| ४७॥ इति 'दुनि० ' | ३ | १|४३| इति च समास: निर्गत दुष्टं शोभनं वा सामेति । अत्र शषसे शषसं वा' | १|३ | ६ | इति रेफस्य विकल्पेन सत्त्वेऽनेन शिडन्तरत्वात् परसकारस्य षत्वे पूवस्य च 'सस्य ||३|६१ | इति षत्वे निष्षेधादयः इत्यपि ॥ ३१ ॥ प्रष्ठोऽग्रणे | २|३|३२| - Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९७. Ouos प्रात् स्थस्य सः ष स्यात् अग्रगामिन्यर्थे । प्रष्ठो-ऽग्रगः ॥३२॥ प्रतिष्ठते इति 'उपसर्गादानो ड ऽश्यः' ।।१।२६। इति ड न तु . 'स्था-पा० ।५।१११४२। इति क: 'नामग्रहणे प्रायेण पसर्गस्य न ग्रहणम्' इति न्यायात् । अग्रगे - अग्रे गच्छत त्येव शल: अज तेः शोले' ।।१।१५४। इति णिन् । अग्रगामित्यर्थाभावे तु प्रस्थ इत ।।३२।। भीरुष्ठानादयः ।२।३।३३। एते समामे कृतषावाः साधवः स्युः । भोरूष्ठानम् । अङगलिषङ्गः ॥३३॥ भीरूणां स्थान भरुष्ठानम् अङगुलीनां सङ्गः अष्टगुलिषङ गः । समासाभावे तुभाग: स्थानमित्यादि ।।३३।। ह रस्वान्नाम्नस्ति ।२।३३४॥ नाम्नो विहिते तादौ प्रत्यये हरस्वान्नामिनः परस्य सः । स्यात् । सप्पिष्टा । वपुष्टमम् । नामिन इत्येव । तेजस्ता ॥३४॥ - सपिषो भावः ‘भावे त्वतल' ।७११५५॥ इति तल । अमीषां प्रकृष्ट वपुरिति । 'प्रकृष्टे.' १७१३।५इति तमपि वपुष्टमम् 'तवर्गस्य.' इति टत्वम् ।।३४॥ निसस्तपेऽ-नामेवायाम् ॥२॥३॥३५॥ निसः सस्तादो तपतौ परे ष स्यात्, पुनः पुनः करणाभावे । निष्ट. पति स्वर्ण सकृदग्नि स्पर्शयतीत्यर्थः । तीत्येव निरतपत् ।३५।। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९८) अन्त्यत्वादप्राप्ते वचनम् । पुन: पुन: करणमासेवा तदभावोऽनासेवा। तपे इति शन्निर्देशो तपं धुप संतापे इति वादि-परिग्रहार्थः, तेन देवादिकतपिच्ऐश्वर्ये वा धातुर्न ग्राह्म: यङलुनिवृत्त्यर्थश्च तेन निस्ताप्ति, निस्तात गेतीति । भृशमत्यन्त तपत ति व्यञ्जनादे० ३।४।९। इ'त यङ न तु आभीक्षण्ये यङ ,अनासेवायामिति निषेधात् 'बहुलं लुप्' ।३।४।१४। इति यङ-लुप् "सन्यङश्च' ।४।१।३। इति द्वित्वम्, 'आगुणा०' ।४।१।४८। इत्यात्वम्, 'यङ तु. रुस्तो०' ।४।३।६४। इति विकल्पेन ईत् ॥३५॥ घस्वसः।२।३।३६॥ नाम्यादेः परस्य घस्वसोः सः स्यात् । जक्षुः । उषितः ।३६। घस्ल अदने (५४४) इति प्रकृत्यन्तरमैव ग्राह्य परोक्षायां न वा' ।४।४।१८। इत्यदादेशस्य घसेस्तु कृतत्वेनैव षत्वस्य सिद्धत्वात्, 'शुदधातूनामकृत्रिम रूपमितिः'ध तुपाठपठिता धातवः शुद्धधातवस्तेषां कृतत्वाभावादकृत. सकारार्थ वचनम्, । वसिक आच्छादने इत्यदादिकस्य वृदभावेन नामिन:सस्यासम्भवात् स्वादिकस्यैव 'वसं निवासे' इत्यस्य ग्रहणम्, 'अदाधनदाद्यो०' इति न्यायाद्वा । घस्ल अदने परोक्षाया उसि द्वित्वे 'द्वितीयतुर्ययो:.'।४। १॥४२॥ इति घस्य गत्वे 'गहोज:' ।४।०४।। इति गस्य जत्वे 'गमहनजन' १४१२॥४४॥ इति घसोऽकारलोपेऽनेन सस्य षत्वे 'अघोषे प्रथमो० ॥१॥३॥५॥ इति घस्य कत्वे च जक्षरिति । वसं निवासे ।९९९। उष्यते स्म वसति स्मेति तप्रत्यये 'क्षुधवस० ॥४॥४॥४३॥ इतोटि 'यजादिवचे:०' ।४।१।७२॥ इति स्व. त्यनेन षत्वे च उषितः ॥ ३६॥ - णिस्तोरेवास्वदस्विदसहः पणि ।२।३।३७॥ स्वदाविवर्जानां ज्यन्तानां स्तोरेव च सो नाम्यादेः परस्य षत्वमूते सनि ष स्यात् । सिषेवयिषति । तुष्ट्रपति । स्वदादिवर्जनं किम् । सिस्वादयिषति । सिस्वेदयिषति । सिसाहयिषति । एवेति किम् । सुसूषति । षणोति किम् । सिषेय । षत्वं किम् । सुषुप्सति ॥३७॥ - Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९९) - म्त जिसाहचर्यात्स्वदादिपयुदासेन सदृशग्रहणाच्च ण्यन्त नामपि षोपदेशानामेव ग्रहणम्, तथा च कृतत्वात् 'नाम्यन्तस्थाकवर्गात्' ।२।३।१।। इत्येव सिद्ध नियमार्थमिदम् । णिस्तोरेव षणि षत्वं न न्यस्य इति नियमाद् सुसूषति इत्यत्र 'नाम्यन्तस्था०' ।२।३।१५॥ इतिसूत्रेण षत्व न भवति । एवकारो णिस्ता: षण्येवेति विपरीतनियमवारणार्थ: तेन असं षिचद् तुष्टावेत्यत्र षत्वं भवत्येव सिञ्चतेणिगि,गुणे,अद्यतन्या दिप्रत्यये,'णि-श्रि-दु-०' ।३।४।५८। इति हु, द्वित्वे ह्रस्वत्व 'उपान्त्यस्या' ।४।२।३५॥ इत्युपान्त्य हस्वत्वे 'लघोदीर्घो०' ।४।१।६४। इति पूर्वस्य दीर्घत्वे णिलोपे एवकारोपादाने. 'यत एवकारस्ततोऽवधारणम्' इति न्यायाद्विपरीतनिवृत्ते-र्ण्यन्तधातुसस्य षत्वे च असीषिचदिति । एवं स्तोतेर्ण विद्वित्वादी च तुष्टावेति । सिषेवयिषंतीति-सीव्यति तमन्यः प्रयुङक्त इति णिगि उपान्त्यगुणे सेवयितुमिच्छतीति सनि गुणे 'सन्यङश्च' ।४।१।३। इति द्वित्वे, ह्रस्वत्वे 'नाम्यन्तस्था०' ।२।३।१५। इति सन: सस्य षत्वेऽनेन ध तुसस्य षत्वे च सिद्धम् । तुष्टषतीति-स्त तुमिच्छतीति सनि स्वरहन०' ।४।१।१०४॥ इति दीर्घत्वे द्वित्वे 'अघोषे शिट:' ।४।१।४५। पूर्वस्य लुचि प्रकृतिप्रत्यययोः पूर्ववत् षत्वे 'तवर्गस्य०' ।१।३।६०। इति टत्वे रूपमिदम् । सिस्वादयिषतीत्यादि- 'स्वादि आस्वादने' १७३१। निष्विदाङ् मोचने च (९४६) 'षहि मर्षणे (९९०) स्वादमान स्वेदमानं सहमान प्रयुङक्त इति णिगि स्वादयितु साहयितुमिच्छतीति सनि 'सन्यस्य' ।।१।५९। इति सूत्रेणाभ्यासे इत्वे च सर्व सिद्धम् । सुसूषतीति-घुगट अभिषवे सोतुमिच्छतीति सनि ‘स्वरहनगम:०' ।४।१।१०४। इति दीर्घत्वे चेदं निष्पन्नम् । सुषुप्सतीति- कृतषकारस्य सन उपादानादत्र षत्वभूतसनोऽभावात् नियमाभावात् 'नाम्यन्तस्था०' ।२।३।१५। इति षत्वं भवति । स्वप्तुमिच्छतीति सन् 'स्वपेर्यङ,च।४।१।८०। इति य्वृत् द्वित्वादिश्च ॥३७॥ सजेर्वा ।।३।३८; ....... ण्यन्तस्य सजे म्यादेः परस्य सः षणि ष वा स्यात् । सिषजयिषति, सिसञ्जयिषती ।३८ ...' इकारान्तनिर्देशात् सञ्जिरिह ण्यन्तो गृह्यतेऽत एवात्र प्रकरणे इकार उच्चारणार्थो न कुत्रापि विहितः सञ्जेणिगि सजायितुमिच्छतीति Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३००) - सनि द्वित्वादौ वाऽनेन षलो च सिषयिषत त्यादि ॥३८॥ उपसर्गात् सुगसुवसोस्तुस्तुभोऽट्यप्यन्दित्वे ।२।३।३९। द्वयुक्ताभावे सुनोत्यादेः स उपसर्गस्थानाम्यादेः परस्य ष स्यात् अडव्यवधानेपि । सुग् । अभिषुणोतो। नीःषुणोति, पर्यषुणोत् । सुव । अभि- षुवति । पर्यषुवत् । सो । अभिष्यति । पर्यष्यत् । स्तु । अभिष्टौति । दुष्टवम् । पर्यष्टोत् । स्तुभ् । अभीष्टोभते । पर्यष्टोभत । अद्वित्व इति कीम् । अभिसुसूषषि ।३९। ___ सुगि ते गकारोपादानात् घुगट् अभिषवे इति ग्रह यस्तेन 'बुक प्रसवैश्वर्यय : इत्यदादेः, सुप्रसवैश्वयोः इति ग्वादेग्रहणाभावात् अभिसोति अभिसवतं त्यत्र न भवति । सुवेति-शनिर्देशात् षत् प्रेरण इति । षूडौंक् प्राण. गर्भ-विमोचने' षङो • च प्राणिप्रसवे इत्यनय न भवति अभिसूते अभि. सूयत इति । निःषुणोतीति- शिड्नान्तरेपीत्यधिकारात् । अभिष्यतीति'ओतः श्ये' ।४।२।१०३। इत्योकारलोपः । अभिष्टौतीति- 'उत । औविति०' ।४।२।५९। इत्यौकारः । पदादौ प्रतिषेधे प्राप्त वचनम् । अतिसुसूषतोतिसुनोते. अद्वित्व इति वचनात् उपसर्गात् परस्य सस्य षत्वमनेन व्यावय॑ते मूलधातुसकारस्य तु णिस्तोरेवेति नियमाव्यावृत्तिः । कथम् अभिपुण्वन्त प्रयुङक्त इति अभिषावथति ? अत्रोपसर्गसम्बन्धे सति णि: ण्यन्ताना धातूनां धात्वन्तरत्वात्त भ्य पसर्ग-संबन्धे सति न भवति यथा अभिसावयतीति । कथं सुस्तुतम्, अतिस्तुतमिति ? पूजाया सो: पूजातिकमयोश्चातरूपसर्गत्वाभावादिति । अत्र अट्यपोति भणनात् 'आगमा यद्गुणो०' इति न्यायस्यानित्यता ज्ञापिता । ज्ञापिते चास्या नित्यत्वे अटयपोति साथकमिति । वस्तुतस्तु उपसर्गात्परस्येति विशेषणं न सुनोत्यादेः धाता: किन्तु सकारस्य इ त नानेन 'आगमा यद्गुणी०' इति न्यायस्यानित्यता ज्ञापयितुं शक्या तथा ह्यात्राटि कृतेऽकारेण व्यवधानात् सकारस्याव्यवहित नास्ताति अट घपीति वचनम् ।... अत्र 'कृतेऽन्यस्मिन् धातु प्रत्ययकार्ये पश्चाद्वृद्धिस्तद्बाध्योऽट् च' इति न्यायनापि सिद्धौ अटयपीति वचनमस्य न्यायस्यांशस्यानित्यतां ज्ञापयति । ततश्चास्यानित्यतया कदाचित्परत्वादिभिर्हेतुभिरडपि पूर्व प्रवर्तेत तदापि षत्वं .. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०१ ) निध्ये दत्येतदर्थं अटयपीति सार्थकमेव ।। ३९ ।। स्थासेनिसिधसिचसां द्वित्वेपि | २३ | ४० उपसर्गस्थानाम्यादः परेषां स्थानां सः ष् स्यात् द्वित्वेप्यपि । अधीष्ठाष्यति । अधितष्ठौ । अध्यष्ठात् । अभिषेणयति । अभिविषेणयिषति । अभ्यषेणयत् । प्रतिषेधति । प्रतिषिषेधिपति । प्रत्यषेधत् । अभिविवति । अभिषिषिक्षति । अभ्यषिञ्चत् । अभिषजति अभिषषञ्ज, अभ्यषजत् |४०| सेनया अभियातीति णिज्बहुलं | ३ |४| ४२ | इति णिचि त्र्यन्त्य स्वरादेः | ७|४|४३| इत्यन्त स्वग्लोपे अभिना योगे तिवादावनेन षत्वे च । अभिषेणयतीति- अभषेण वितुमिच्छतं ति अभिषिषेण षति अभ्यषेणयत्ह्यस्तनी दिव् । षिचींत् क्षरणे 'मुचादि तृफ-दृफ०' | ४|४|१९९ । इति नोऽन्ते 'नां धुवज्योपपन्ते । १ । ३ । ३९ । इति सकारे च । अभिषिञ्चतीति-अभिषेक्त मिच्छत ति सनि 'चजः कगम्' | २|११८६ | इति करवे 'नाम्यन्तस्था ० ' | २३ | १५ | इति सनः सस्य षत्वे द्वित्वेति वचनादनेन द्वयो- सकारयोः षत्वे च ॥ अभिषिषिक्षति - 'षञ्ज सङ्ग' दंशसञ्जः ० | ४ | ३ | ४९ । इति शबि नलोपे च । अभिषजति - सेने देशार्थं स्थासजोरवर्णान्तव्यवधानेऽपि विध्यर्थं सिच्सञ्ज-सेधां षणि नियमबाधनार्थं सर्वेषामव्यवधाने पदादौ च षत्त्वार्थ वचनम् । सेधेति कृत गुणस्त्र निर्देशः सिध्यतिनिवृत्त्यर्थः तेन अभिसिध्यति इत्यत्र न भवति । अकारस्तुच्चारणार्थः न तु शव निर्देश: तेन यङ लुप्यपि भवति प्रतिषिधीति । 'शिनान्तरेपि' इति वचनादन्यव्यवधानस्यानिष्टत्वात् द्वित्वव्यवधान निषिद्ध तथापि 'स्वाङ गमव्यवधायि' इति न्यायेन पुनः प्रसूत तथ वि न्यायानामनित्यत्वात् प्रवृत्तेविश्व सः कर्तुं मयोग्य इति सूरिणा द्वित्वे पि' इति भणितमिति 'द्वित्वेपि' इति वचनादनित्यताऽस्य ज्ञापिते । वस्तुतस्तु उपसर्गात्परत्वं न धाताविशेषणं किन्तु सस्येति द्वित्वेन व्यवधानात्प्रा र भावादुक्तं द्वित्वेपीति । नाऽनेन न्यायस्यानित्यत्याश्रयणं युक्तम् । कथं सुस्थितः दुस्थित इति ? उपसर्गसदृशा निषाता एवेत्युपसर्गत्वा - भावात् न पत्वम् ॥४०॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०.) अङप्रतिस्वनिस्तब्धे स्तम्भः ॥२॥३४१॥ उपसर्गानाम्यादेः परस्य स्तम्भस्सो द्वित्वेप्यस्यपि ष् स्यात् । न चेत् स्तम्भि.प्रतिस्तन्धनिस्तब्धयोश्च स्यात् । विष्टभ्नाति । वितष्टम्भ । प्रत्यष्टभ्नात् । डादिदर्जनं किम् । व्यतस्तम्भत् । प्रतिस्तब्धः । निस्तब्धः ॥४१॥ नचेदित्यादि- न चेदसौ ? विषये प्रतिस्तब्धनिस्तब्धयश्च विषययो: गदिति- अत्राश्रयः आधारमात्रं न तु अनन्यत्रभावलक्षणस्तद्विशेषस्त स्मन्निति । विष्टभ्नाती त्यादि-स्तम्भू गेधने' इति सौत्रात् 'स्तम्भूस्तुमभू०' ।३।४।७८। इति श्ना शिदवित्' ।४।३।२०। इति उद्वद्भाव त् . 'नो व्यञ्जनस्या ०।४।२।४५॥ इति नलोपश्च'। उपलक्षणत्वात् ष्टभृङ स्तम्भे ७८१ विष्टम्भते इत्याद्यपि ज्ञेयम् । ष्टभङ इत्यस्य लाक्षणिकत्वात न ग्रहणमित्यपरे । पागयणकारैस्तु अस्यापि षत्वं कृतमेवमुत्तरसूत्रेरि ज्ञेयम् । व्यतस्तम्भदिति । स्त-भूध तो: णिगि दिप्रत्यये णिश्रिद्र श्रु०' ।३। ४१५८। इति के द्वित्वा दो विषयत्वात्षत्व भावे च सिद्धम् । प्रतिस्तब्ध इत्यावि- प्रतिपूर्वान्निपूर्वाच्च स्तम्भूधातोः क्तप्रत्यये 'नो व्यञ्जनस्या.' ॥४॥२॥४५॥ इति मलापे 'अधश्चतुर्थात्तयोधः' ।२।११७९। इति तस्य धत्वे तृतीयस्तृतीय० ॥१॥३॥४९॥ इति भस्य तृतीयत्वे च सिद्धम् ॥४१॥ अवाच्वाश्रयोर्जा विदूरे ।२।३।४२॥ अवादुपसर्गात् परस्य स्तम्भः स आश्रयादिषु गम्यमानेषु द्वित्वेप्यटयपि ष् स्यात् । विषयश्चेत् स्तम्भिर्न स्यात् । आश्रय आलम्बनम् । दुर्गमवष्टभ्नाति । अवतष्टम्भ । अवाष्टभ्नाद्वा । ऊर्ज औजित्यम् । अहो वृषभस्यावष्टम्भः । अविदूरमासन्नमदूरासन्नं च अवष्टब्धा शरत् । अवष्टब्धा सेना। चोऽनुक्तसमुच्चये । तेन उपष्टम्भः । अङ इत्येव । अवातस्तम्भत् ॥४२॥ . Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०३) • समुदाय यामुवृत्तावपि व्यभिचागद् 3 ङः इत्यस्यैव ग्रहणमत आहविषयश्चेदित्यादि । दुःखेन गग्योऽस्मिन्निति दुग: पन्थ : 'सुगदुर्गमाधारे' ।१।१३२। इति सिद्धिः । अत्र व च्यलिङ्ग कर्मव्युत्पत्तौ तु खेल भमति । दुर्ग नगगदि अत्र क्लिबत्वम् । ऊर्जग बलप्राणनयो: १५८२ । ऊर्ज नित्यं सूबल. त्वमिति यावत् । अविदूरमिति- विशिष्ट दूर विदूर प्रादसमासे, नं विर अवमिति तदन्य-प्रहाणात तत सदृशं ग्रहणाच्च तदन्यासन्न संसहम चासन्नमिति यच्च नास-न नापि दू मित्यर्थ अवष्टब्धा शरदिति- नातिदरेत्यर्थः । चोऽनुक्तसमुच्चय इति- तेनो-प दपि भवति उपावादित्यकृत्वा चकारेणानित्यार्थ तेन उपस्तब्ध इत्यपि भवति । ननु तर्हि वोपादित्यत: सूत्रात्पथगेव क्थन कृतमिति चेत् सत्यम विचित्रा सूत्रकृतिरिति । उपलक्षणत्वाच्चकारोऽ-ङ इत्यस्यानुवृत्त्यर्थोपि । आश्रय दिष्वि'त भणनात् अवष्टब्ध वषलःशीते. नेत्यत्र न भवति शं तेनादित: सङ कुचिता जात इत्यर्थः ॥४२॥ व्यवात् स्वनोऽशने ।२।३।४३। वेरवाच्चोपसर्गात् परस्य स्वनः सोऽशने भोजने द्वित्वेप्यट्यपि धू स्यात् । विष्वणति । अवष्वति । विषष्वाण । अवषष्वाण । व्यएवणत् । अवाष्त्रणत् । व्यषिष्यणत् । अवषिष्वणत् । अशन इति किम् । विस्वनति मृदङ्ग ः।४३। वे: परस्य स्वनतिसस्याकृतत्वात्पदादित्वादप्राप्तेऽव त्पुनरनाम्यलत्वाच्चेदम रम्यते । पूर्वसूत्रे चानुकृष्टत्व दि ङः इति नानु मत्तते । अशने भोजन इति- 'स्वन शब्दे', इत्युक्तावप्यनेकार्थत्व'द्ध तूनां विशिष्टोपसर्ग स्वनिरेवाशने वर्तते। विष्वणति-, अवष्वगतोति. भूङक्त इत्यर्थः । विषष्वाणणव्, 'ञ्णिति' ।४।३।५०। इत वृद्धिः । व्यषिवणदिति-स्वनेणिगन्ताद् अद्य. तन्या दिप्रत्यये 'णिश्रिद्र' ।।४५८। इतेः 'उपान्त्यस्या०' ।४।२।३५॥ इति ह्रस्वत्वे 'आद्योऽश:०' ।४।१।२। इत द्वित्वेऽनाविध्यञ्जनलोपे 'असमानलोपे सन्वद्' ।४।१।६३, इति पूर्वस्येत्त्वे च सिद्धम् । विस्वनति मृदङ्गइति-विविधं शब्द करोतीत्यर्थः ।।४३।। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०४) सदोsपतेः परोक्षायां त्वादेः | २|३|४४ 1 - प्रतिवर्जोपसर्गस्थानाम्यादेः परस्य सदः सो द्वित्वेप्यट्यपि ष् स्यात् । परोक्षायां तु द्वघुक्तौ सत्यामादेः पूर्वस्यैव । निषीदति । विधाषद्यते व्यषीदत् । परोक्षायां त्वादेरेव । निषसाद । अप्रतेरिति किम् । प्रतिसीदति ।४४| उपसर्गादित्यनुवर्तते । व्यवादित्यस्य नुवृत्तौ प्रतिवर्जनानर्थक्यं । स्यात् । निषीदतीति-बदल विशरणादी, पदत् अवसादने इत्युभयोर्ग्रहणम् । श्रौतिकुंकु०' | ४|२| १०८ । इति सीदादेशः, स्थानिवद्भावात्सत्त्वम् । विषाषद्यत इतिगत वर्ष त ति गृ - लुप०' | ३ | ४ | १२ | इति यङ, द्वित्वम्' आगुणाव० ' |४| १।४८। इत्यात्त्वम् । व्यषीषददिति - णौ अद्यतन्या दौङ ह्रस्वे द्वित्वे 'असमान० ' | ४|१| ६३ | उनि पूर्वस्येत्वे 'लघोर्दीर्धोο' |४|१|६४ | इति दीर्घ वे च सिद्धम् । तुविशेषार्थः परोक्षायामेष विशेषोऽन्यत्र तूभयत्र पि भवति ॥ ४४ ॥ स्वजश्च | २|३|४५ । उपसर्गस्थान्नाम्यादेः परस्य स्वञ्जः सो द्वित्वेप्यट्यपि ष् स्यात् । परोक्षायां त्वादेरेव । अभिष्वजते । अभिषिष्वङ क्षते । प्रत्यध्वजत । परिषस्वजे ॥४५॥ अभिष्वजत इति - ' वञ्जित् सङ्ग' तुदादित्वाच्छ, 'शिदविद्' |४| ३।२० । इति ङिद्वद्भावात् 'नो व्यञ्जनस्या०' |४| २|४५ | इति नलोपेऽनेन त्वम् । अभिषिष्वङ क्षते इति - नन्वत्र 'णिस्तो ० ' | २|३|३७| इति नियमात् मूला सकारस्य षत्वं न प्राप्नोतीति चेत्सत्यं 'स्पद्ध' | ७|४|११९ । इति परत्वादिदमेव प्रवर्तते इति । परिषस्वज इति अत्र 'स्वजेर्न वा | ४ | ३ |२२| इति पक्षे परोक्षाया: किवद्भावान्नलोपः । योगविभागादप्रतेरिति नानुवर्तते, चकारः परोक्षायां त्वादेरित्यस्यानुकर्षणार्थ: ततश्च 'चानुकृष्टं नानुवर्तते' इति न्यायादुत्तरत्राननुवृत्तिः ॥४५॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिवेः सेवः ।२।३।४६॥ पर्याध पसर्गस्थान्नाम्यादः परस्य सेवतेः सो द्वित्वेप्यट्यपि षु स्यात् परिषेवते । परिषिषवे । परिषिविषते । पर्यणेवत । निणेवते । विजिष्वे।४६। षेवृङ, सेवृड सेक्ने इति षोपदेशस्य पद्रादित्वादषोपदेशस्य तु : मूलत एवाप्राप्त वचनम् । प िनि त्युप दानात् अन्योपसर्ग पूर्व य तु नं. भवति- अनुसेवते, प्रति सषेवे । अत्र पसर्गाश्रित षत्व न भवति द्वित्वाश्रितं तु 'नाम्यन्तस्था०' ।२।३।१५। इत्यनेन भवत्येव ।।४६।। सर्यासतस्य ।२।३।४७॥ परिनिवेः परस्य सयसितयोः सः ष स्यात् । परिषयः । निषयः । विषयः । परिषितः । निषितः । विषितः ॥४॥ १ सय इति सिनोतेः 'युवर्ण' ।५।३२८ इस्यलन्सस्य 'अब ।५।।। ४९। इत्यजन्तस्य पुन्नाम्नि' ।५।३१११०॥ इति .. धान्तस्य वा रूपमिदम् सिम इति तान्तस्य रूपम् । स्यो : बर्वा नियमार्थम् । नियमश्चेत्थम् । ' उपसर्गात्सुरसुवसो:' । २ । ३ ॥ ३९ । इत्येव सिद्ध परिनिविभ्य एव तात्तस्य स्यतेः यथा स्यात नान्योपसम्पूर्वस्य उपसर्मा ।२।३।३९) इत्यनेनापि न भवति-प्रतिसितः, निः-सितः । योगविभामाद् द्वित्वेपिअट्यपति निवृत्तम् तेन विषयमाख्यत् 'णिज्बहुलं० ॥३॥४॥४२॥ इति विपूर्वात्सयशब्दात् गिजन्तात् माडा सहितान्द्यतन्यां 'पिचिद्र' १३४।५८० इति द्वित्वे कर्तव्ये 'णषमसत् ।२।१०६०। इत्यनेन षत्वनिवृत्तो 'अन्यस्य' ।४।१८। इति द्वित्वे च मा विषसयद् इत्यत्र द्वित्वे सति पूर्वेण व्यवधानादुत्तरस्म न भवति पूर्वस्य त्वम्यवहितत्वाद् भवत्येक एवं विषयम-... छत् क्यति ईकारे व्यसबीदित्यत्र, परिषित इबाचरत् क्या दीर्घश्चि' ।४।३।१०८। इति दीर्घत्वे च पर्यसितायतेत्यत्र षत्वं न भवति ।।४। । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०६) . . असोडसिवूसहस्सटाम् ।२।३।४८॥ परिनिविभ्यः परस्य सिवसहोः स्सटश्च सः ष स्यात्, न चेत् सिवसही सो विषयो स्याताम् । परिषीव्यति । निषीव्यति । विषीव्यति । परिषहते । निषहते । विषहते । परिष्करोति । विष्किरः। असोङति किम् । परिसोढः । मा परिसीषिक्त् । मा परिसीषहत ૪૮. .. सोश्च हुश्च सोडौ । न विद्यते सङी ययोस्तौ असोडौ । सिवश्च । सहश्च सिवूसही । असोंडो च तो सिव सही च, असोसिवूसही च सिट च तेष म् । सोढ इत्यादिप्रयोगस्थस्य सहेरवयवस्य 'सो' इत्यस्यानुकरणम् । द्वित्ले पीत्यस्य निवृत्तत्वात् पयादिभ्योऽनन्तरस्येव सस्य षत्व-विधानात् स्सट. स्तु प्रत्यये द्वित्गेन व्यवधानात् प्राप्तेरभावात् असोङति प्रतिषेधाभाव.. इति । परिषोव्यतीति- षिवूच उतो' "स्व देर्नामिनो०' ।२।१।६३। इति । दीर्घत्वम् । परिष्करोतीति:-'सं : परेः कृगः ४।४९२। इंति स्सट् । विष्किर इति- 'वो विकिरो वा ।४।४।९६॥ इति स्सेडागमः, नेस्तु परः . स्सड् नास्तीति नोदाहियते । परिषोढ इति सहिवहे रोच्चा' इत्योत्वम् । अत्र सहेः सोविषयत्वान्न भवति । सोप्रतिषेधस्तु सहेरेव न तु सिनः तस्य । सरूपासम्भवाद् । सिवोऽनुबन्धनिदेशाद्यङलुपि न भवति पारसेषियोति । -तिबा शव नुवन्धेन, निदिष्ट यद्गणेन च । एकस्वरनिति च, पञ्चैतानि न यङ लुपि ।। बहुवचन परि-नि-विभिः सह यथासङखयाभावार्थम् । अन्यथा परिनिवेग्त्यिस्य त्रित्वसङ्घयत्वात् सिवूसहस्सटामित्यनेन यथासङ्खचं स्यात् । मा परिसीषिवदित्यादि - षिवूचधातो: सीव्यन्तं . प्रयुङक्त सहमानं प्रयुङक्त इति णिग्, सह इत्यत्र 'क्षिति' ।४।३।५०। इति वृद्धिः, 'माङ यतनी ।५।४।३९। इत्यद्यतन्या दिव, 'गिश्रिदुश्रु०३।४।५८॥ इति ङः, 'उपान्त्यस्यासमान ४१३५॥ इति हस्वत्वं, 'णेरनिटि'।४।३।८। इति, णिलोप:, 'असमान' ।४।१।६३। इति यथायोगम् भ्यासे इत्वम्, 'लघोर्दीघ'०', ।४।१।६४। इति दीर्घत्वम् अत्र मूलधातोस्तु 'नाम्यन्तस्था०' २।३१५॥ इत्यनेन' षत्व भवत्येव ॥४८॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०७) . रतुस्वजश्चाटि नवा ।२।३।४९। परि नि: परस्य स्तुस्वोरसोङस्विसहस्सटां च सोऽटिसति ष् वा स्यात् । पर्यष्टौत् । पर्यस्तोत् । न्यष्टोत् । व्यष्टौत् । व्यस्तोत् । पर्यध्वजत् । पर्यस्वजत् । न्यष्वजत् । न्यस्वजत् । पध्वजत् । व्यस्वजन् । पर्यधीव्यत् । पर्यतीव्यत् । न्यषीव्यत् । न्यसोव्यत् । व्यषोव्यत् । व्यसीव्यत् । पर्यषहत । पर्यसहत । न्यषहत । न्यसहत । व्यषहत । व्यसहत । पर्यष्करोत् । पर्यस्करोत् । असोङसिवूसहेत्येव । पर्यसोढयत् । पर्यसीषीवत् । पयंसीपहत् ।४९। पर्यष्टौदिति-'उत औ०' ।४।३।५९। इत्यौत्वम् । 'उपमर्गात्सुग०' ।२।३।३९। इति स्वञ्जश्च' ।२।३।४५। इत्याभ्यां स्तुस्वजानित्यं प्राप्ते सिवू - सह - स्सटा चाप्राप्ते विभाषा ॥४९॥ निरभ्यनोश्च स्यन्दस्याप्राणिनि ।२।३।५। । एभ्यः परिनिवेश्च परस्याप्राणिकर्तृ कार्थवृत्तेः स्यन्दः सः ष् वा स्यात् । निःष्यदन्ते । निःस्यदन्ते । अभिष्यदन्ते । अभिस्यदन्ते । अनुष्यन्दते । अनुप्यन्दते । परिष्यन्दते । परिस्पन्दते । निष्यन्दते । निस्यन्दते । विष्यन्दते । विस्यन्दते तैलम् । अप्राणिनीति फिन् । परिस्यन्दते नत्र यः ॥५०॥ निःष्यन्दत इति-'स्यन्दौङ धवणे' इति स्यन्दतेरकृतसकारत्वान्मूलत एवाप्रा. प्तौ वचनम् । शनिर्देशात् यङ लुपितभा अभिम स्यशेति ते लम् । अत्रसूत्रे न Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०८) - व नतेयम् सम्भवति चै वाक्यत्वे वाक्य भेदाश्रयणस्यायुक्तत्व त् । प्रसज्ये तु न चेदित्यादि व क्यभेदस्यावश्यंभावित्वात् पर्युदासोऽ य न तु प्रसज्यप्रतिषेधः पर्युदासे विधेः प्राधान्यात् यत्र प्राणी चाप्राणी च कर्ता भवति तत्र प्र ण्याश्रयो विकल्पा भवति न तु प्राण्याश्रयः प्रतिषेध: - अनुष्यन्देते मत्स्योदके अनुसन्देते मत्स्योदके । ननूदकस्यापि ‘पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविध बल च'इत्यादिप्राण ये गित्लो उदव स्थापि प्राणित्वमिति चेत्नत्यं पृथिव्यप्तेजो-वायु वनस्पतयः स्थाव ':' इति 'प्राप्रापौषधि० ।६।२।३१। इत्यत्रौर्षाधवृक्षयो: प्राणन सिद्धपि पृथगुपादानादिह शास्त्रे प्राग्रिहणेन सा एव गृह्य ते न तु स्थावरा इत्यर्थो ज्ञाप्तिः। प्रसङ्ग कृत्वा प्रतिषेधः प्रसज्यप्रतिषेधः 'अव्यय प्रवृद्धा.' ।२।११४८। इति समासः प्रसज्यस्तु निषेधकृत्' इत्यत्र 'ते लुग वा' ।३।२।१०८। इति प्रतिषेधल पः । ननु तता 'अव्ययस्य' ।।२।७। इति सेलुप कथं न भवति ? उच्यते-समाससम्बन्धी सिरत्र नाव्ययस्येति न भवति ॥५०॥ वेः स्कन्दोऽक्तयोः ।२।३।५१। विपूर्वस्य स्कन्दः सः ष वा स्यात् न चेत् क्तक्तवतू स्याताम् । विष्क. न्ता । विस्कन्ता । अक्तयोरिति किम् । विस्कन्नः। विस्कन्नवान् । I૫૧ 'स्कन्द गति-शोषणयोः' अषोपदेशत्वात्पदादित्वाच्चाप्राप्ते षत्वे इदं वचनम् । क्तस्य द्विवचनात् 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' इति न्यायानपेक्षस्य क्तवतूप्रत्ययावयवस्य क्तस्य च ग्रहणम् । तृचि 'एकस्वराद०।४।४।५६। इतीडिनषेधे विष्कन्तेति । क्त त वतीच अनेन षत्वप्रतिषेधे 'नो व्यञ्जनस्या०' ।४।२।४५॥ इति नलोपे 'ग्दाद०' ।४।२०६९। इति तस्य नत्वे धातुदस्य च नत्वे विष्कन्न-विष्कन्नवान् । 'उपसर्गात्०' ।२।३।३९। इति स्थासेनि०' ।२।३।४०। इति सूत्रयो: 'आगमा यद्गुणीभूताः०' इति 'स्वाङ्गमव्यवधायि' इति न्याययोगनित्यता ज्ञापिताअतोऽत्र व्यस्कन्ददित्यत्र विचिस्कन्सतीत्यत्रानेन षत्वं न भवति । वस्तुतस्तु उपसर्गात् परस्येति धातोर्न विशेषणम् अपि तु सस्येति सकारस्य न गुणीभूतोऽडागम: अवयवभूत इत्यर्थः । सकारस्य च. न Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०९ ) स्वङ्गभूतो द्वित्व जो वर्ण इर्श प्राप्तेरेवाभावात् तत्र - नित्यताज्ञापनमप्ययुक्तमिति ध्येयम् ।। ५१ ।। परेः | २१३५२१ परेः स्कन्दः सः ष् वा समात् । परिष्कन्ता । परिस्कन्ता । परिष् कण्णः । परिस्कन्नः ॥५२॥ 'विभ्यां स्कन्दोऽ यो' इत्येकयोगाकरणाद् 'अक्तयो:' इति नानुवर्तते । 'रदादमूच्छ' |४१२६९॥ इनि प्रत्ययतस्य नत्वे व तुदम्य च नत्वे ० ' (२३२६ इति धातुनस्य णकारे 'तवर्ग' | १ | ३|६० । इति प्रत्ययनस्य त्वे च परिष्कण्ण इति ॥ ५२ ॥ निनैः स्फुरस्फुलोः | २०३॥५३॥ आभ्यां परयोः स्फुरस्फुलोः सः ष् वा स्यात् । निःष्फुरतिः । निःस्फुरति । निष्फुरति । निस्फुरति । निःष्कुलति । निःस्फुलति । निष्कुलति । निति ॥५३॥ वचनभेदो यथासङ्ख्यं निवृत्त्यर्थः । निष्फुरतोत्यादि- स्फुरत् स्फुरणे' 'स्फुरत् संचये च' तिव् तुदादित्वाच्छः । निसः सस्य रुत्वे सबसे० ' ११|३|६| इति तस्य सत्वेऽनेन धातुमस्य षत्वें 'सस्य शष' | १|३|६१ | इति पत्वम् सत्वाभावपक्षे कदाचित् बिसगः, कदाचित् 'व्यत्यये लुग्वा' | १|३|५६ | इति लोपः । षत्वाभावपक्षे कदाचित् संकारद्वयश्रवणं कदाचिद् विसर्गलापी ॥५३॥ वेः १: १२|३|५४॥ वैः परयोः स्फुरस्फुलोः सः ष् वा स्यात् । विष्णुरति । विस्फुरति । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१० ) विष्कुलति । विस्कुलति । ५४ ॥ 'fafaa: स्फुरस्फुलो:' इत्येक योगा करणमुत्तार्थम्, उत्तरत्र 'वे:' इत्यस्यैवानुवृत्तिर्यथा स्वान्न तु निर्नोग्त्यस्येत्येवमर्थः इत्यथः ॥ ५४ ॥ , स्कनः ।२।३१५५ । देः स्कन्नः सः षु नित्यं स्यात् । विष्कम्नाति ॥५५॥ वेः स्कनश्चेत्येक योगा करणाद्व ेति निवृत्तम् । विष्कम्नातीति-स्तभूस्तुम्भू० ' । ३।४।७८ । इति इनाप्रत्ययः ङिद्वद्भावान्नलोपः क्षुम्नादित्वाण्ण वाभवः । वनानिर्देशात् सश्नोर्न भवति विकन अन्यथा स्कम्भ इति निर्दिशेत । ननु श्नानिर्देशात् यत्र इनाप्रत्ययस्तत्रैव षत्वं प्राप्नोति नान्यत्रेति विष्कम्भतेत्यादी तृजादौ प्रत्यये षत्वं न प्राप्नोतीति चेन्मैवं इनानिर्देशस्य निषेधपरतया व्याख्यातत्वात् । स्तम्भू सौत्रो धातुरस्याषोपदेशत्वाद् - पदादित्वाच्चा- प्राप्तं षत्वं विधीयते ॥५५॥ निदुः समस्तेः | २३॥५६॥ एभ्यः परस्य समसूत्योः सः ष् स्यात् । निःधमः । दुःषमः । सुगमः विषमः । निःषूतिः । दुष्नतिः । सुषुतिः । विवृतिः ॥५६॥ 'षम वैक्लव्ये' इत्यजन्तस्य सर्वादिप उत्तस्थाव्युत्पन्नस्य वा 'सम' इत्यनुकरणं सूतिसूयति- सुवतीनां क्तयन्तानां सूर्त त्यनुकरणम् । यद्यपि सूती - स्यदादिकस्य तिव्यपि भवति तथापि समेन नाम्ना साहचर्यात् अवः स्वपः' |२|३|५७॥ इत्यनेन पृथग्योगाद् वा समसूत्योर्नाम्नोरेव ग्रहणाद् निः समति निःसूतमित्यादो धातो रूपये न भवति । नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् तेन नि: षमा, दुःषमेत्य द्यपि भवति । निश्चितः समः निषमः, दुष्टः समः दुःषम:, शोभनः समः सुसमः, विगतः समः विषमः 'प्रात्यव ० ' | ३|१|४७ | इति 'दुनिन्दा ०' | ३|११४३॥ इति 'मुः पूजायाम्' | ३|१|४४ ॥ इति समासः ॥५६॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३११) अवः स्वपः ।।३।५७। निदुःसुविपूर्वसप वहीनस्य स्वपेः सः ष् स्यात् । निःषुषुपतुः । दुःषुषुपतुः । सुपुषपतुः । विषषपतुः । अव इति किम् । दुस्वप्नः। ७॥ निराद्य पसर्गपूर्वस्य स्वपधातोः परोक्षाया अतुस्प्रत्यये 'इन्ध्यसंयोगात्०' ।४।३।२१॥ इति किद्वद्भावे 'स्वपेयङ' ।४।१।८०। इति त द्विवेऽनादिव्यञ्जनलोपेऽनेन पूर्वसस्य षत्वे परस्प 'नाम्यन्तस्था०' ।२।३।। इत षत्वे च निःषुषुपतुरित्यादि । दुः स्वप्न इति- 'जि-स्वपि-रक्षि०' ।५।३।८। इति न प्रत्ययः ॥५५॥ प्रादुरुपसर्गाद्यस्वरेऽस्तेः ।२।३।५८॥ प्रादुरुपसर्गस्थाच्च नाम्यादेः परस्यास्त : सो यादौ स्वरादी च परे ष् स्यात् । प्रादुःष्यांत । विष्यात । निष्यात् । प्रादुःषन्तिः। विषन्ति । निषन्ति । यस्वर इति किन् । प्रादुःस्तः ।५८। । __अकृतसकारत्वादप्राप्ते षत्वे इदं वचनम । प्रादुः-शब्दस्याप्रादित्वार. थगुपादानम् । प्रादुः-ष्यादिति- 'असक् भुवि' इति धाता: विधिनिम०' । ४।२८। इति सप्तमोय त् श्नास्त्योलुक् ।४।२।९०। इत्यकारलोपः अनेन षत्वम्. शिड्नान्तरेपीत्यस्यानुवृत्तत्वात् निः-प्याद्, निःषन्तोत्यपि ॥५८॥.. मस्सः ।२।३।५९। कृतद्वित्वस्य सस्य प न स्यात् । सुपिस्स्यते ५९। ... सुपिस्स्यते इत्यादि प्रयोगस्थो द्विरुक्त: सकारः स्सः इत्यनुक्रियते इत्याह- कृतद्वित्वस्येति- सुपूर्वा ससे: क्यरत्यये 'प्रदीर्घाद्' ||३३ वि Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१२) सूत्रेण द्विर्भावे 'न पन्तस्या०' ।२।३।१५। इति प्राप्तस्य षत्वस्यानेन प्रतिषेधे सुपिस्स्यते इति ॥१९॥ सिचो यति।।३।६०॥ सिवः सो यङि ष् स्यात् । सेसिच्यत ।६० सेसिच्यते इत्यत्र 'नाम्य- स्था०' ।।३।१५। इति प्रप्तस्य षत्वस्यानेन प्रतिषेधः । एव प त्वाद 'स्थ सेमि०।२।।४०। इति प्राप्तस्पं.पसर्गलक्षणस्य षत्वस्याप्यनेन अभिसेसिच्यते इत्यत्र प्रतिषेधः ज्ञेय. ॥६०॥ गतो सेधः ।२।३।६१ गत्यर्थभ्ध सेधः सः ष् न स्यात । अभिसेधति गाः। गतावितिकिम् । निषेधति पापात ।६१॥ ___ 'स्थासेनि०' ।।।४०। इति प्राप्तस्य षत्वस्या- यं प्रतिषेधः । अभिषेधती-ति- अभिगच्छनीत्यर्थः । एवं अभिसिसेधिषतीत्यादावपि अभि. जिगमिषतोत्याद्यर्थत्व द् प्रतिषेधो ज्ञेयः । अत्र सन्नतस्य प्रकृतिर्धातुर्गत्यर्थ एवं ति समुदायस्थ धात्वन्तरत्वापि निषेधः निषेधतीति-निबारयत.त्यर्थः । ॥६१।। सुगः स्यनि ।२।३।६२। सुनोतेः सः स्ये सनि च ष् न स्यात् । अभिसोष्यति । सुसूषतः क्विप् सुसूः ।६२॥ अभिसोष्यतीति- भविष्यन्त्या: स्यति ‘उपसर्गात्सुम्सु०' ।२।३।३९। इति प्राप्तस्य षत्वस्यात्र प्रतिषेधः । अटयनीति वचनात् उपसर्गात्सुम्सु०' ।२३।३९। इति प्राप्तं षत्वमपि अभ्यसोष्यदित्यादावनेन निषिध्यते । सुसू Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१३) रिति - स ेतुमिच्छतं त सन् ' स्वर हनगमो: सनि घटि | १|१०४ | इति दीर्घत्वम् 'वि' | ५ | १ | १४८ । 'अत. ' | ४ ३।८- । इति सनोऽकारलोपः । षत्वस्य परे 'वन' | २|१| ६०| इत्यसत्त्वात् सो रु' | २|१|७२ ॥ इति रुत्वम् । 'नत्वाभावात् नायं षत्वभूतः सन्निति गिस्त रेवेति नियमा भावात् 'नाम्यन्तस्थ'०' |२| ३ | १५ | इति षत्वप्राप्तिरिति प्रतिषिध्यते । सुसूषतत तु नो हि 'णिस्तारेव ष ण षत्व नान्यस्य इति नियमेन व्यावतितत्वात् अभिसुसूष त्यपि न दाह्रियते अद्वित्व इति व्यावृत्यैव निवर्तितत्वात् ।। ६० ।। रघुवर्णान्नोण एकपदे अजन्त्यस्यालचटतवर्गशसान्तरे ||३|६३॥ एभ्यः परस्य भिस्सहैकस्मिन्नेव पदे स्थितस्यानन्त्यस्य नो णः स्यात् लचटतवर्गान् शसौ च मुक्तान्यस्मिनिमित्तकाविणोरन्तरेपि । तीर्णम् । पुष्णाति । नृगान् । नृणाम् । करणम् । वृंहणम् । अर्केण । एकपद इति किम् । अग्निर्नयति । चर्मनासिकः । अनन्त्यस्येति किम् । वृक्षान् । लादिवर्जनं किम् । विरलेन । मूर्च्छ - नम् । दृढेन । तिर्थेन । रशना । रसना | ६३ | मनु 'ऋवर्णग्रहणं किमर्थं तद्ग्रहणाभावे ॠवर्ण मध्यव्यवस्थित रेफाश्रयं त्वं भविष्यत । अत एव पाणिनिना रषाभ्यामित्येवोक्तमिति चेत्सत्यं. नहि वर्ण देश वर्णग्रहणेन गृह्यन्ते तद् भिन्नत्वात् वर्णबुद्ध ेरनुपादानात् तथाहि मांसं न विक्रयमिति सत्यपि निषेधे गावो विक्रोयन्ते तत्र मांसद्धरभावत् तरतेः कणि तो इरादेशे द घले 'रदादमूर्च्छनदः ० ' |४|२| ६९ | इति तस्य त्वेऽनेन त्वे च तीर्णम् । पुष्णातीति - अत्र 'तवर्गस्य०' | १|३|६० | इत्यनेनैव ये सिद्धपि षकारग्रहणं कषणमित्यादौ व्यवहितार्थं सति तु षग्रहणे परत्वादनेनेव षत्वम् । बहु शब्दे च' इत्युदितो नागमेनटि 'शिड्ढेऽनुस्वारः' | १|३|४०| इत्यनुस्वारेऽनेन णकारे च बृहणमिति । 'पदे' इत्येतावतैव एकपदे लब्धे 'उक्तार्थानामभ्योगः' इति न्यायाद् निषेधेऽपि ' , Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) एकग्रहण नियमार्थं एकमेव यन्नित्य तत्रैव यथा स्यात् तेन चर्मनासिकः इत्यत्र समासे त्वेकविभक्तित्वादैकपद्यम् विग्रहविभक्तयपेक्षय नैकपद्यमपीति न भवति । संज्ञाया अभावादुत्तरेणापि न भवति । ''स इतनामिका चर्मविकारो नासिका यस्येति 'गं श्च ० ह्रस्वत्वे चर्मनासिकः । अधिकारश्च यमा णत्वविधेः तक्षण' मत्यादौ स्याद्यात्तः प्राक्पदत्व नास्ति तथापि चारः इति न्यायात् नामावस्यायामपि कृतणत्व नामेव प्रयोगः ॥ ६३ ॥ को टत्ये' नसत | २ | ४ | ९६ । इनि । यद्यपि र ग्वणम् भूतपूर्व कस्तवदुप.. पूर्वपदस्थ न्नामन्यगः | २|३|६४ | · गन्तवर्ज पूर्वपदस्थात् रघुवर्णात् परस्योत्तरपदस्थस्य नो ण् स्यात् संज्ञायाम् । द्र ुणसः । खरणाः । शूर्पणखा । नाम्नीति किम् । मेषनासिकः । अग इति किम् । ऋगयनम् । ६४ । 1 स खरणाः पूर्वपदशब्दः समासे यो रूढ़ स इह गृह्यते । पूर्वपदे तिष्टति 'स्थापा-स्ना०' | ५ | १|१४२ । इति कः । पूर्वशब्देनोत्तर पदमा क्षिप्यते तदन्तरेण तस्यासम्भवत् । दुवि नासिका यस्य 'अस्थूलाच्च ० ' | १|३ | १६१ | इति नसादेशेऽनेन त्वे च द्रणस इति । खरा नासिका अस्य अथवा खरस्य नासिकेव यस्प खरखुरान्नानिकाया नस्' । ।३।१६० । इति नस देशे खरणाः । शूर्पइव नखा यस्या इत 'नखमुख नाति' | २|४|४०| इति संज्ञायां ङी निषेधात् 'आत्' | २|४|१८| इत्यादि शूपणखा । मेषनासिक इति - मेषवन्नासिका यस्येति 'गोश्च ते० ' | २|४|९६ । इति हस्वत्वम् संज्ञाया अभ वात् णत्वं न भवति 'अत एव सज्ञायां विहितस्य नसादेशस्याप्यभावः ऋगयनमिति - अयतेऽनेनेत्ययनम् ऋचामयनम् ऋग्यनम् । ननु 'शिक्षादेश्चाण्' | ६ | ३ | १४८ । इत्यत्र ऋगयन पाठ देव त्वाभावः सिध्यति किम् 'अगः' इत्यनेनेति चेन्मैव 'समासान्तागम०' इति न्यायात् ज्ञाननिर्दिष्टस्य नित्यत्वादत्रापि षत्वं प्रसज्येतेति - निषेधार्थम् 'अगः' इति वचनम् । न च देवदारुवनम्, कुबेरवनम् मनोहवनमित्यत्र सञ्ज्ञायां णत्वं कथं न भवतीति शङ्कयम् ? 'कोटर निश्रक०' ।३।२।७६। इत्यत्र 'पूर्वपदस्थान्ना० | २|३|३५| इत्येव सिद्धे कृतणत्वस्य - , Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१५) वृतशब्दम्योपादानं नियमार्थम् नियमश्चैवं संज्ञायां कोटरा दभ्य एव वनशब्दस्य णत्वं नान्येभ्य इति । अत्र संज्ञासत्त्वेपि न णत्वम् । देवप्रियं दारू, तस्य: वनम्, कुबेरस्य वनम्, मनोहराः वृक्षविशेषाः तेषां वनम् संज्ञा एताः ॥ ६४ ॥ नसस्य |२|३|६५। पूर्वपदस्थाद्रषूवर्णात् परस्य नसस्य नो ण् स्यात् । प्रणसः । ६५ । 'उपसर्गात ।७।३।१६२ । इति विहितस्य नसादेशस्य नसेत्यनुकरणम् । प्रगता प्रवृद्धा वा नासिका यस्येति ' उपसर्गात्' ।७।३।१६२ | इति नसादेशः । अनाम्नि वचनमिदम् ||६५ ॥ निष्प्राऽग्रे ऽन्तः खदिर काश्यम् शरेक्ष प्लक्षपीयूक्षाभ्यो वनस्य |१२|३|६६ | निरादिभ्यः परस्य दनस्य नो ण् स्यात् । निवर्णम् । प्रवणम् । अग्रवणम् । अन्तर्वणम् । खदिरवणम् । कार्यवणम् । आस्रवणम् । शरवणम् । इक्ष व्रणम् । प्लक्षवणम् । पीयूक्षावणम् । ६६ । , बहुवचनं व्याप्त्यर्थं तेन संज्ञायामसंज्ञायां च भवति अन्यथा 'कोटरमिक सिधूक०' | ३|२|७६ । इत्यत्र कृतणत्ववनशब्दोपादानस्य नियमार्थत्वादत्र संज्ञायां न स्यात् । वनान्निष्क्रान्त निर्वणम्, प्रकृष्ट वनम् प्रवणम् प्रादिसमासावेतौ । वनस्याग्रम् वनस्यान्तः, 'पारेमध्ये ० | ३ | १|३०| इत्यव्ययीभावः तत्संनियोगे च आद्यस्यैकारान्तता सूत्रप ठबलात् निपात्यते । निष्प्राग्र े तसे नौषधिवचना न पिवृक्षविशेषा, एभ्यः सज्ञायां कोटरादिनियमेन व्यावर्तित . त्वादप्राप्तं णत्वविधानम् असंज्ञायामप्येकपदत्वाभावादप्राप्तमेव । इक्षु शर शब्दावौषधिवचनौ शेषा वृक्षवचनाः । उत्तर-सूत्र पि बहुवचनस्य व्याप्यर्थत्वात्संज्ञायां कोटरादिनियमस्य बाघे जाते उत्तरसूत्रेण विकल्पे प्राप्ते एवम Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१६) संज्ञायामप्युत्तरेण विकल्पे प्रप्ते नित्यार्थमिदम् । कार्यशब्दः व क्षविशेषवाची, अव्युत्पन्नः, अत्र वचनसामर्थ्यात् शकारव्यवध नेपि भवति । पीयुक्षाशब्दो द्राक्ष पर्याय: द्र क्षविशेषो वा । पोयुक्षाशब्दोऽन्दुत्पन्न: आबन्त ॥६६॥ दित्रिस्वरौषधिवृक्षेभ्यो नवा-निरिकादिभ्यः १२।३।६७। द्विस्वरेभ्यस्त्रिस्वरेभ्यश्चेरिकादिवर्जेभ्य ओषधिवृक्षवाचिभ्यः परस्य वनस्य नो ण् वा स्यात् । दुर्वावणम् । दुर्वावनम् । माषवणम् । माषवनम् । नीव खगम् । नीवारवनम्-वृक्षः । शिग्न वणम् । शिन वनम् । शिरीषवणम् । शिरीषवनम् । इरिकादिवर्जनं किम् । इरिकावनम् ।६७ ओषध्यः फलपाकान्ताः, लताः गुल्माश्च वीरुधः । - फली वनस्पतिज्ञेयो, वृक्षाः पुष्पफलोपगाः ॥ फलस्य पाकेनान्तो विनाशः यासां ताः ओषधय इति नाम्ना वनस्पतय उच्यन्ते यथा वहिग धूनमुद्गमाषादि अन्नौषध्ययः ।. लता: प्रतानवत्यो मालत्यादयः । लता वल्ली कर्कोटयादिका गुल्मा। हस्वस्कन्धास्तरवः बहुकाण्डपत्राः केतक्यादयः । उभयमेतद् व रूधः उच्यन्ते । पुष्पं विना फलमेव यस्य स प्लक्षादि: फली । पुष्पं फल चोपगच्छन्तीति 'नाम्नो गम:०' ।५।१।१३१। इति डे पुष्पफलोपगाः । पुन: पुन: स्वतौ पुष्पाणि फलानि चाश्रयन्ति ते वृक्षा इ त उच्यन्ते । अत्र यद्यपि वनस्पतिव क्षयो)दो. ऽस्ति तथाप्यति बहुत्वाथ - बहुवचनात् व क्षग्रहणे वनस्पतीनामपि ग्रहणं भवति । अत एव यथा संख्यमपि नास्ति । तथासंज्ञायामसंज्ञायां च भवति । इरिकादिराकृतिगणः । अनिरिकादिभ्य इत्यत्र नञः पयुदासत्वात् इरिकादिविशेष वर्जनावृक्षविशेषवाचिनामेव ग्रहणं तेन व क्षवनमित्यादौ न भवति । ॥६७॥ .. .. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७ ) गिरिनद्यादीनाम् । २।३।६८ एषां नो ण् वा स्यात् । गिरिणदी। गिरिनदी । तुर्यमाणः । तुर्य - मानः । ६८| बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । गिरिणीत षष्ठीसमासः । तूर्यमाण इति - तूर्यते रानशि श्ये मागमे च षुवर्गान्नो णः ०' ||३|६३॥ इति नित्यं प्राप्ते विकल्पः ॥६८॥ पानस्य भावकरणे । २।३।६९। पूर्वपदस्थाद्रादेः परस्य भावकरणार्थस्य पानस्य नो णु वो स्यात् । क्षीरपाणं क्षीरपानं स्यात् । कषायपाणः । कषायपानः कंसः १६९। 73 क्षीरपाणमिति - पतिः पानम् । अनट' | ५|३ | १२४१ इति भावे - इनट ततः क्षीरस्य पानमिति षष्ठीसमासः । कषायपाण इति – कषायः । पयतेऽनेनेति 'करणाधारे' | ५ | ३ | १२९ । इति करणेनट । कंसः पात्र विशेष: ।. भाव करणे इति वचनात् पयतेऽस्मिन्निति पानः, क्षीरपानो घोष इत्यत्र न 'भवति ॥ ६९ ॥ देशे | २|३|७| पूर्व पदस्थाद्रादेः परस्य देशविषयस्य पानस्य नो ण् नित्यं स्यात् । क्षीरपाणा उशीनराः । देशइति किम् । क्षीरपानाः गोदुहः 1 1७० ! Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१८) योगविभागाद् नवेति निव त्तम् । भ व करणे इति न नुवर्तते । . पयते इति पानम् क्षोर पान ये तेझीन्पाणा: । पनिमि. त्यत्र साधनपानशब्दो गह्यते भवकरण - प्रधनस्य तु पूर्गेण 'वकल्प एव । उशीनरा इति-त स्थ्यात मनुष्याभिधानेपि देशो गम्यते। ननु क्षीरप णादयः शब्दा मनुष्येषु वर्तन्ते तत्साम न धिकरण्यात् उशीनगद या प मनुष्येष्वेवेति कथ देशो गम्यते इति चेत्सत्यमु-शीनरादय: शब्दाः संज्ञ त्वेन पूर्वं देशेष्वेव प्रवत्ता: पश्च त् तत्स्थानसम्बन्धात् नु येषु । न मनुष्य भिधानेपि देशाभिधान गम्यते । यथा मञ्चा क्रशन्तीत्यत्र तत्स्थानसम्बन्धात् मनुष्याभिधानेपि मञ्वाभिधान गम्यते अन्यथा मञ्च धानविशिष्टाः पुरुषा इति न प्रतीये 'न् नागहीतविशेषणा बुद्धिः विशेप्यमधिगच्छत ति न्यायात् । गोवुह इति–ग पाला इत्यथः ॥७॥ ग्र.मायान्नियः।२।३।७१॥ आभ्यां परस्य नियो ण् स्यात् । प्रामणीः । अप्रणोः ७१। 'ग्रामं नयति अग्र नयतीति विवप् 'इस्युक्त वृता' ।।११४९। इति सपासः। नन गतिकारक०' इति न्यायादिवभत्त यत्पक्तः प्रागेव समासे निमित्तनिमित्तिनोरैकपदस्थत्वात् 'रघुवर्णान्नो०' ।२।३।६३। इयनेनैव सिद्धः किमनेनेति चेत्सत्यं नियमार्थः । नियमश्वं यदि नियो णत्वां स्यात्तदा ग्रामाग्र भ्यामेव तेन खरनो:, मेषनीः इत्यादौ पूर्वेणापि न भवति ॥७१॥ वाह याद्वाह नस्य ॥२॥३॥७२॥... वाह्यवाचिनो रादिमतः पूर्वपदात्परस्य वाहनस्य नो ण् स्यात। इक्षुवाहणम् । वाह्यादिति किस् । सुरवाहनम् ।७२। । वोढव्यं वाह्य अहेर्थे घ्यणि वहनाहमिति यावत् । उह्यतेऽनेनेति वहूनम् । वर्नमेव वाहनम् 'प्रज्ञादिभ्योऽण' १७।२।१६५॥ इति स्वार्थेऽण . . . . . . . .. . Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१९) - अयव आ एव निपातन दुप त्वदीर्घत्वम । इक्षणां वाहनमिति इक्ष वाहणम् सुरवाहन मिति-स्वस्वाम-भावसम्बन्धेऽत्र षष्ठो न तु वहक्रियापू कि कर्मकरणसम्बन्धे । यदा तु सुग अपि वाह्यत्वेन विवश्यन्ते तदाऽत्र प भवत्यव ॥७२॥ अतोऽह नस्य ।२।३७३॥ रादिमतोऽदन्तात् पूर्वपदात् परस्याह नस्य नो ण् स्यात् । पूर्वाह णः । अतइति किम् । दुरह नः । अह नस्येति किम् । दीर्घाह नी शरत् ।७३। पूर्वाह न: इति– पूर्वमह नः इति पूर्वपगऽधरो०' ।३।११५२। इति समास: 'सर्वा शसङ्ख्य ०' ७।३।११८॥ इत्यट अह नादेशः, अनेन णत्वम् च । दुरह न इति । निन्दितमहः 'दुनिन्दा०' ।३।११४३॥ इति समासः अट समास न्तः, अह नादेशश्च । दीर्घाह नी शरदिति । दीर्घाणि अहानि यस्यामिति 'अनो वा' ।२।४।११। इति ', 'अनोऽस्य' ।२।१।१०८० इत्यकारल.पेऽप्यह न इत्यकाररान्त निर्देशाण्णत्वाभावः ॥७३॥ चतुस्त्र हायनस्य वयसि ।२।३।७४। आभ्यां पूर्वपादाभ्यां परस्य हायनस्य नो ण् स्यात्, वयसि गम्ये ॥ चतुर्हायणो वत्सः । त्रिहायणी वडवा । वयसीति किम् । चतुर्हायना शाला ७४। चतुर्हायणो वत्स इति-चत्वारो हायनाः- संवत्सग अस्य सः । अत्र वत्सस्य वयो गम्यते। चतुर्हायणी वडवेति-अत्र 'संख्यादेहविनाद ।२४।९। इति डोः । चतुर्हायना शालेति—'कालकृ ता प्राणिनां शरीरावस्था वयः' इति वयसः प्राणिधर्मत्वात् शालायामभावाद्वयसीति वचनादन गत्वं Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२०) 'डो प्रत्ययश्च न भवति ॥७॥ वोतरपदान्तनस्यादेरयुवपक्वाह नः ।२।३७५। पूर्व-पदस्थाद्रादेः परस्य उत्तरपदान्तभूतस्य नागमस्य स्यादेश्च नों ण वा स्यात् चेयुवन-पक्वाहन-सम्बन्धी न स्यात् । व्रीहिवापिजो । व्रीहिवापिनौ । माषवापाणि । माषवापानि । व्रीहिवापेण । श्रीहिवापेन । युवादिवर्जनं किम् । आर्ययूना। प्रपक्वानि । दीर्घाहनी शरत् ।७५॥ वीहिवापिणाविति-उत्तरपदान्तभूतस्य नस्य, णत्त्वम् । ब्रोहीन् वपेते अभेक्षण साधु वेति 'साधौ' ।।१।१५। इति 'व्रताभीक्ष्ण्ये' ।।१।१५७। इत वा णिन् । 'ङस्युक्त कृता' ।३।२।४९। इति समासः, 'अजातेः शोले' ।५।१।१५४। इति तु न वोह्य देर्जातिवाचित्वात् । ननु 'गतिकारक०' इति न्यायाद विभक्तयत्पत्तः प्रागेव समासे सति उत्तरपदा-तभूतस्य नस्याभावात् कथमनेन विकल्प इति चेन्न रूढत्वाद्विभक्तयन्ताभावेप्युत्तरपदत्त्वम् ततः उत्त पदान्तभूतो नकार इति णत्वविकल्पो भवति । माषवापाणीति-" माषाणि वपन्तीनि 'कर्मणोऽण' ।५।१७। इत्यण्प्रत्ययः । वीहिवापेणेति'टाङस्यो०' ।१।४।५। इति स्यादेः नस्य णत्वम् । आर्ययूनेति-श्वन्युवन्मधन०' ।२।१।१०६। इति वस्योकारः, अत्रोत्तरपदान्तस्थनकारसत्त्वेपि युवादिवर्जनान्न णत्वम् । प्रपक्वानीति-क्ष शुषिपचो मक्वम् ।४।२।७८। इति तस्य वकारः । अत्र नागमनकारसत्त्वेपि युव दिवर्जनात् न णत्वम् । दीर्घाह नी शरदिति – दोर्धाणि अहानि यस्यां सा 'अनो वा' ।१।४।१५। इति. ङीः, 'अनोऽस्य' ।२।१।१०८। इत्यनोऽकारले पश्च अत्रोत्तर पदान्तस्थनकारस. त्वेपि युवादिवर्जनान्न णत्वम् ॥७५॥ . कवर्ग कस्वरवति ।२।३७६।। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३.१ ) पूर्व पदस्थाद् रादेः परस्थ कवर्गवत्येकस्वरवति चोत्तरपदे सति, उत्तरान्तस्य नागमस्य स्गदेश्चनो ण् स्यात्, न चेदसौ पक्वस्य । स्वर्गका मिणौ । वृषामिणौ । ब्रह्मणौ । यूषपाणि । अपक्कस्येत्येव । क्षीरपada |७६ | त्रितयनुवर्तनेपि प्रतिपेधस्य प्राप्तिपूर्वकत्वात् कवर्गत्वात् पक्वशब्दस्यैव प्रतिषेधइत्याह न चेदिति । स्वर्गं कामयेते इत्येव-सी लो. 'अज वेः श ले' | ५ | १|१५४ । इति णिनि स्वर्गका मिनौ । वृषवत् गच्छतः इत्येव शीलो वृषगामिनी । ब्रह्माणं त्वन्तौ 'ब्रह्मभ्रूणवुत्रात् क्विप् | ५ | १ | १६ | इत विव ब्रह्मणो । यूषनी 'आतांड व वामः | ५|१|७६ | इति डे यूराणि 'गतिका रङस्नान म्०' इति न्यायाद्विभक्तयुत्पत्तेः प्रागेव समासे एकपदस्थत्व त्रषृवर्षान्न ० ' | २|३|६३ | इति नित्यं प्राप्ते गुरोर्मुखम् - तेन गुरुमुखेण इत्यादौ तु केनानि सूत्रणाप्राप्ते 'वोत्तरपदान्तस्यादे: ० ' १२। ३७ । इति त्रि फलित. पुन. वार्थ 'वचनम् ॥७६॥ अदुरुपसर्गान्त रोहिनुमीनानेः | २|३|७७॥ - जोपसर्गस्यादन्तः शब्दस्थाच्च रादेः परस्यैषां नो ण् स्यात् । णेति णोपदेशा धातवः प्रणमति । परिणायकः । अन्तर्णयति । हिनुःप्रहिणुतः । मीना - प्रमीणीतः । आनि प्रयाणि । अदुरिति किम् ? बुर्नयः ॥७७॥ णोपदेशा धातव इति - ण इति णकारादिधातोरेकदेशः । उपसर्गाण्णत्वविधानात् णे'त णोपदेशाः धातवा गृह्यन्ते । उपसर्गेण धातुराक्षिप्यते धातुमन्तरेण तस्यासम्भवादित्यर्थः । उपदिश्यतेऽनेनेति उपदेशो धातुपाठः तत्र येषां णकारोऽस्ति ते णःपदेशा:, उपदेशनं वा उपदेशः प्रथममुच्चारण णः उपदेशे येषां ते णोपदेश : व्यधिकरणबहुव्रीहिः उपदिश्यते प्रथममुच्चार्यते इति वं पदेशः णः उपदेशो येषान्ते एकदेश- विकृतस्यानन्य Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२२) त्वात डिनुमिनाग्रहणे प्रहिणोति प्रमीणत इत्य दो विकृतस्यापि भवति । प्रयाणीति-प्र + या + पञ्चम्या आनि-प्रत्ययः ॥७७॥ नशः शः २।३।७८॥ अदुरुपसीन्तःस्थाद्रादेः परस्य नशः शन्तस्य नो ण् ष्यात् । प्रणश्यति । अन्तर्णश्यति । श इति किम् । प्रनङ क्ष्यति ॥७॥ प्रनङक्ष यतीति – 'नशौच अदर्शने' प्रपूर्वम्य नशः स्यतिप्रत्ययः, "शो धुटि' ।४।।१०९। इति नोन्तः, 'यजसजमज०' ।२।१८७। इति षत्व "षढो: कस्सि' ।२।१६२॥ इति त्वं, म्नां घुड्वर्गे' ।।१।३।३९। इति उत्वे न म्यन्तस्था०' ।।३।१५। इति षत्वम् । णर्षमसत्' ।२।२।६०। इत्यत्र णषे त निर्देश पेक्षया परे षत्वे कर्तव्ये ऽन्तरङ्गस्य पि णत्त्वस्यासिद्धत्व त् षत्वे को च 'एकदेविकृतः' इति न्यायात् प्राप्तावपि श.' इति व्यावृत्त्या साक्षा. च्छकारन्नित्वाभावान्निषेध दत्र णत्वाभाव. । नरोरणोपदेशत्वात् पूर्वेणा-सिद्ध विध्यर्थमिदम् ॥७८॥ नेमदिापतपदनदगदवपीवहीशमूचिग्यातिवातिद्रातिप्सातिस्यतिहन्तिदेग्धौ ।२।३७९। अदुरुपसर्गान्तःस्थादादेः परस्योपसर्गस्य नेनों माङादिषु परेषु ण स्यात् । प्रणिमिमीते । परिणिनयते । प्रणिददाति । परिणिदयते । प्रणिदधाति । प्रणिपतति । परिणिपद्यते । प्रणिनदति । प्रणिगदति । प्रणिवपति । प्रणिवहति । प्रणिशाम्यति । प्रणिचिनोति । प्रणियाति । प्रणिवाति । प्रणिद्राति । प्रणिप्साति । प्रणिष्यति । प्रणिहन्ति । प्रणिदेग्धि । अन्तणिमिमीते १७९। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३२३) ङ कारोपलक्षितो मा म ङ तेन माङ मेडो ग्रहणम् न तु म तिमिनमि-मिना नाम । ननु मिनोत -मिनात्य सरूपाभावाद्ग्रहणाशङ्कव नास्तीति चेन्मैव भिग -मिगो०' ।।।२।८। इत्यात्त्वविधानात् । कारनिदेशो नानुबन्धार्थः किन्तु मात्यःदिनिवृत्त्यर्थम्तेन प्रकृति ग्रहणे यङ लुबन्तस्यापि ग्रहणमिति न्यायात ग्ङ लुप्यपि भवति । अयं भावः यया रीत्या धातु-पाठे माङित्य-पाठ तया रीत्या यद्यत्रच्चा तः स्यात्तदाऽनुबन्धार्थः स्यादत्र तु विशेषण ङकारेण पलक्षि-तो मा इति । दा इति संज्ञ ग्रहणात दद ति दयनिदध त त्यादे हणम् । प्रणिशाम्यतीत्यत्र 'शम्सप्त०।४।२।१११॥ इति र्द घः । प्रणिष्यतीति-'षोंच अन्तकमणि' 'अंतः श्ये' ।४।२।१०३। इत्योकारल पः । वयादीनामनबन्धेन तिवा च निर्देशो य डलूप्निवत्त्यर्थः तेन निवाव. पीतीत्यादौ न भवति । पूर्वेषु तु यङलुप्यपि भवति प्रणिमामा त, प्रणिमामेतं त्यादि । आदिशब्ननिर्दिष्टत्वाद ड आगमत्वात् 'आगमा यदगुणी भूता.' इति न्यायाददडग्रहणेन ग्रहणात् प्रण्यामिमीते इत्यादावपि भवति । प्रण्य स्यतीत्यादौ तु अङा व्यवधानेऽपि 'पदेऽन्तरे' ।२.३।९३। इत्यत्राङा वर्जनात् भवति । प्रणिघ्नन्त त्यादौ हने: 'गमहन जन०।४।२।४४: इत्यवारलोपे 'हनो हमा घ्न.' ।२।१।११२। इति ह नो घ्न देशे वृतेऽप्यनेन 'एक देश विकृतमनन्यवद्' इति न्यायात णत्व सिद्धम् ॥७९।। अकखाद्यपान्ते पाठे वा ॥२॥३॥८०। धातुपाठे कखादिः षान्तश्च यो धातुपाठस्ताभ्यामन्यस्मिन् धातो • परे ऽदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रादेः परस्य नेर्नो ण् वा स्यात् । प्रणिपचति । प्रनिपचति । अकखादीति किम् । प्रनिकरोति । प्रनिखनति । अषान्त इति किम् । प्रनिष्टि । पाठइति किम् । प्रनिचकार ॥८॥ । प्रनिचकारेति-धातुपाठ ककारादित्वात्संप्रति चकागदित्वेपि प्रतिषेधो भवति । पूर्वसूत्रारम्भसामर्थ्यात्पूर्वसूत्राविभक्तोऽस्य विषयस्तेन प्रणिमयते, प्रणिदयते इत्यादौ पूर्वेण नित्यमेव णत्वम् । ननु कथ प्रणिष्ट Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२४) नाति, प्रनिष्टभ्नातीत्यत्र विकल्प: स्तम्भे-र्धातुष्वप ठादिति चेत्सत्य स्तम्भे: सौत्रषु पाटात्माठविषय त्वादत्र प्यनेन विक रूपः इति । सौत्राणा सूत्रमेव धातुपाठः इत्यर्थ । क्रियावावित्वे सति पाठ पटितत्वे सति सूत्रगृहीतत्वं सौत्रत्वम् ।।८०॥ दित्वेऽप्यन्तेप्यनितेः परेस्तु वा ।२।३१८१। अरु सन्तिः स्यादा देः परस्यानितेनों द्वित्वाद्वित्वयोरन्तानन्तयो. श्च ण स्मात् । परिपूर्वस्य वा स्यात् । प्राणिणिषति । पराणिति । हे ण । पर्यणि णिषति । पर्यनि नेति । पर्यणिति । पर्यनिति । हेपर्यण । हेपर्य ।८१। द्वित्वेऽप्यन्नेऽप त्यत्रापिनाऽद्वित्वम्यानन्तस्य च बोधः । प्राणिणिषतो त-प्रणितुमिच्छर्न ति सन 'स्ताद्यशित ७०' ।४।४।३२। इतं टि 'स्वगदे. द्वित यः।४।१।४।इति द्वितं यावयवस्य द्वित्वम् । द्वित्वे इति वचनात् द्वयोरप्यनेन णत्वम् अत्र द्वित्वे कतव्ये ‘णषमसत्० ।२।१।६०। इति णत्वशास्त्रस्यासत्त्वात् द्वित्वे कृते णत्वम् । पराणितं ति–'रूसञ्चकाच्छिदयः' ।४।४।८८। इर्त ट्। हे प्राणिति-प्राणित ति क्विपि आमन्त्र्यसिलुकि 'नामन्त्र्ये' ।२।१।९। इति नकारले पप्रतिषेधे च सिद्धम । अनन्त्यस्येत्यधिकारादन्ते न प्राप्नातीति अन्तवचनम् । अनित ति तिवा निर्देशो देवादिक निव त्यर्थः, न तु यङलुग्निव त्त्यथः यङ ऽमभवत् । ननु द्विले पि कृतेऽन्तेपोति वचनाद अन्तेऽपि शब्दादनन्तेपि भविष्यतीति कि द्वितोप त्यनेनेति चेत्सत्य द्विप त्यस्याभावो प्राणिणिषोत्यत्र प्रथ मन कारेऽन्तेपोत्यस्य चरितार्थत्वाद टवण व्यवधानाद् द्वित'यन कारस्य णत्व न स्य त् । अन्तेपीत्यत्रा पशब्दाभानो द्वित्वं प्यन्त एव स्यात् न तु प्र णिषिषतीत्य'द वनन्तेऽपि । ननु द्वित्तो सति अन्तस्थो नकारः क्व सम्भवत ति चेद अत्रोच्यते प्राणितेः सनि प्राणिणिषन्तं प्रयुङक्त णिगि. अल्लोपे विनि प्राणिणिष माचष्टे णिजि पुनः 'त्रन्त्यस्वरादे:' ।७।४।४३। सूत्रण इसिति लोपे विनि हे प्राणिण । इत्यादौ आमत्र्यत्वाच्च नलोपाभावः ॥८१॥ , Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२५) हनः ।२।३।८२॥ अरुपपन्तः-स्थाद्रा-देः परस्य हन्ते!ण् स्यात् । प्राहण्यत । प्रहज्यते । अन्तहण्यते ।८२॥ प्रा.ण्यत इति- कर्मण अविवक्षितकर्म वाद् भ घे वाऽमनेपदम् 'क्यः शिति' ।३।४।७० । इति क्यः । प्रघ्नन्तीत्यत्र तु 'हनो घि' १२२३९४। इ त निषेधान्न भवति ॥८२॥ वति वा ।२२३६८३॥ अदुरुपसर्गान्तःस्थाद रादेः परस्य हन्ते! मोः परयो वा स्यात् । प्रहावः । प्रहन्वः । प्रहमि । प्रहन्मि । अन्सहग्वः । अन्सहन्वः । अन्तहम्मः । अन्तर्हन्मः ॥४३॥ ... . पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पार्थं वचनम् ।।८३॥ .... निसनिक्षानन्दः कृति वा ।२।३।८४॥ - अदुरुपसर्गान्तःस्थाद रादेः परस्य निसादिधातोनों ग वा स्यात् कृत्प्रत्यये । प्रणिसनम् । प्रनिसनम् । प्रणिक्षणम् । प्रनिक्षणम् । प्रणिन्दनम् । प्रनिन्दनम् । कृतीति किम् । प्रगिस्ते १८४॥ . . णिसुकि चुम्बने, णिक्ष चुम्बने, णिदु कुत्सायाम् एषां णोपदेशत्वात् 'अदुरुपसर्गा' ।२।३.७७ इत्यनेन 'गतिकारकडस्युक्तानाम्' इति न्यायाद् विभक्तयुत्पत्तेः प्रागवे समासे एकपदस्थत्वात् 'रषवर्णा०' ।२।३१६३। इत्यनेन वा नित्य णत्वे प्राप्ते विकल्पार्थमिदम् । प्रणिस्ते इति- गोपदेशत्वात् “अदुरू Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) पसर्गा०' ।२।३।७ । इत्यनेन नित्यं णत्वम् ॥८४ स्वरात् २२३८५। अदुरुपसर्गान्तः स्थाद रादेः परस्य स्वरादुत्तरस्य कृतो नो न स्यात् । प्राणः प्रहीम: ॥८५॥ कृतीति विषयसप्तमीयं न तु निमित्तसप्तमी - कृद्विषयस्य नकारस्य णो भवतीत्यर्थ । अन्यथा निमित्तसप्तम्यां धातोर्नरस्य कृति निमित्तभूतेनो भवतीति सूत्रार्थे 'न ख्यापूग्भू० | १३|१०| इत्यादि प्रतिषेधोऽनकः स्यात्तत्र धतुनकारस्य भावाद् । प्रहाण इति- 'अहांङ क् गतौ' क्तः त्ययः 'सूयत्याद्य ० ' |४| २|७०॥ इति तस्य नकारः । प्रहीण इति- 'ओहांक् त्यागे' कप्रत्ययः, 'सूयत्याद्योदित ' ४२७०॥ इति तस्य नकार:, 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि ' ।३।४।९७॥ इतीकारः ॥८५॥ I नाम्यादेरेव मे ||३३८६ | अदुरूप सगान्तः स्थाद- रादेः परस्य नागमे सति नाम्याद रेव धातोः परस्य स्वरादुत्तरस्य कृतस्य नो ण् वा स्यात् । प्र ेड खणम् । प्रङ्ग पणम् । प्रङ्गणीयम् । नाम्यादेरिति किम् ? प्रमङ्गनम् ॥८६॥ १ कृद्विषयस्य नस्य णो भवतीत्यर्थः । ने इति- सत्सप्तमी । प्रणमित्यादि- इखु गुगतौध तू, अनड-अन यप्रत्ययो 'कवर्ग क०' | २३७६६ इति नागमस्य न णत्व 'म्ता घुड्वर्गे ० ' |१| ३ | ३९ | इति बहुवचनेन बाधितस्वात् । पूर्वेण सिद्ध नियमार्थमिदम् एवकार इष्टावधारणार्थ : ने एव सति मायादेरिति हि नियमे ईहि चेष्टायाम्, ऊहि तर्क-प्रेहणम् प्राहणमित्यत्र णो न स्यात् । न ग्रहणं नागमादेशोपलक्षणार्थम् नकारेण व्यवधाने तु प्राप्तिरेव नास्ति । प्रन्वनम् । प्रमङ्गनमिति - व्यञ्जनान्तादेवायं नियमः ण्यन्तात् तु , Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३२७) 'णेर्वा' ।२।३।८८। इति परत्वाद् विकल्प एव-प्रमङ्गणा, प्रमङ्गना। अयं भाव:प्रेशणेत्याढावयं सावकाशः, प्रयापणेत्यादी गर्वा' ।।३।८८। इति सावकाशः, प्रेङ्खणेत्यादौ तु उभयप्राप्ती परत्वाद्विकल्प एव । अत एव प्रमङ्गणेत्यादो नियमाप्रवृत्तिः ।।८६॥ व्यन्जनादेनम्युिपान्त्यावा ।२।३।८७। अदुरूपसर्गान्तः-स्थाद रादेः परो यो व्यञ्जनादि म्युपान्त्यो धातुस्ततः परस्य कृतः स्वरात्परस्य नो ण् वा स्यात् । प्रमेहणम् । प्रमेहनन् । व्यञ्जनादेरिति किम् । प्रोह ाम् । नाम्युपान्त्यादितिकिम् । प्रवपनम् । प्रवहणम । स्वरादित्येव । प्रमुग्नः । अदुरित्येव । दुर्मोहनः । लचटादिवर्जनं किम । प्रभेदनम् । प्रभोजनम् । स्वरादित्यनेन नित्यप्राप्ते विभाषेयम ८७ : प्रभुग्न इति-भूजोत कौटिल्ये' कर्मणि क्त: । 'सूयत्यद्याक्तिः'. २।३.८५॥ इति नत्वम् । दुर्मोहन इति-दुर्मुह्यतेऽनेनास्मिन वा 'करणाधारें १५।३।१२९॥ इत्यनट, दुर्मु ह्यतीति नन्या'दभ्यो वा । स्वराद्' ।२।३।८५इत्यमेन नित्य प्राप्ते विभाषा ।।८७॥ .. . णेवा ।२।३।८८॥ अदुरूपसर्गान्तः-स्थाद्र ादेः परस्य ण्यन्तस्य धातोविहितस्य स्वरात्परस्य नो ण वा स्यात् । प्रमङ्गणा। प्रमङ्गना । विहितविशेषणं किम । प्रयाप्यमाणः । प्रयाप्यमानः । इतिक्यान्तरेपि स्यात् ।८८ ... प्रमङ्गणेति-प्रमङ्गन्तं प्रयुक्त णिगि 'णिवेत्त्यास० ५३११११ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२८) इति स्त्रियामने आपि च सिद्धम् । प्रयाप्यमाण इति प्रपूर्वाद्याने: णिग् 'अतिः री०।४।२।२१॥ इति प्वागमः, ततः आनश, 'क्यः शिति' ।३।४।७०। इति क्यः, 'अता मः आने' ।।४।११४। इति मोऽन्तः । अनःम्पादिभ्यो ध तू. भ्यो नागमे सति 'नाम्यादेरेव ने' ।२।३।८६। इति नियमेनाऽप्राप्ते नागमरहितेभ्यस्तु ‘स्वरात्' ।२।३।८५। इत्यनेन नित्यं प्राप्ते उभयत्र विभाषेयम् ॥८८॥ निविण्णः ।२।३।८९। निविदेः सत्तालाभविचारणार्थात् परस्य क्तस्य नो णत्वं स्यात् । निविण्णः ।८९। विदेरिति-विदिच सत्तायाम्' 'विदं लती लाभे विदिप विवारणे' इत्येषां ग्रहणम् न तु विदक् ज्ञाने' इत्यस्य ग्रहणं सेट्त्वात् इतरेषां त्वनिट त्वाद् । निविण्ण इति-प्रावाजीदिति शेषः । एते त्रयोऽपि धातवः धातूनामनेकार्थत्वादत्र वैराग्ये वर्तन्ते । ननु 'गतिकारक०' इति न्यायात् 'रषुवर्णान्नो०ण:'।२।३।६३॥ इति सिद्धमेव किमनेनेति चेत्सत्यंमत्र 'रदादमूच्र्छ.' ।४।२।६९। इति क्ततकारस्य धातुदकारस्य च नत्वम् । अनेन 'अलचटतवर्ग०' इति व्यावृत्त्या प्रत्ययनस्य णत्वं निपात्यते धातूनस्य तु तवर्गस्य.' ।१।३।६०। इति 'रषवर्णान्नो ण:०' ।२।३।६३। इति वा णत्वं सिद्धमेव ।।८९॥ न ख्यापूगभूभाकमगमप्यायवेपो णेश्च ।।३।९। अदुरुपसर्गान्तः स्थाद् रादेः परेभ्यः ख्यादिभ्यो ऽपयन्तायन्तेभ्यः परस्य कृतो नो ण न स्यात् । प्रख्यानम् । प ख्याप नम । प.पवनम प.पावनम् । पभवनम् । पभावनम् । पभायमानम् ! पभायना। प्रकामिनी ।प.कामना । अपगमनिः । पगमना। प.प्यानः । पप्या Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२९) यता | पवेपनोयम । प वेपना ॥९०॥ 1 अम्यन्तेभ्यः 'स्वराद्' (२२३८५ इत्यनेन नित्ये प्राप्ते । वेः 'व्यञ्जनादेर्नायु ० ' । १३ । ८७ । इत्यनेन विकल्पे प्राप्ते, ण्यन्तेभ्यस्तु 'व' | २३८८ ! इत विकल्पे प्राते प्र िपेधः । ख्या इति निरनुवन्धोपादन चक्षा-देशस्थ ख्य प्रथमच परिग्रहम् । प्रकामिनाविति निम्त्ययः । अप्रगमनिरिति नञ ऽनिः शापे ||३|११७ इत्यनि-प्रत्ययः । प्रगमनेत्यत्र णौ 'म' कमिमि | ४ | ३ || इति वृद्धिनिषेधाभाव: 'अमोऽकम्यमि० ' | ४|२|२६| इति स्वः ||१०|| " देशें तरोऽय नह नः १९११ अन्तःशब्दात्परस्याऽयनस्य हन्तेश्च नो देशेर्थे ण् न स्यात् । अन्तरदनोऽन्ननो वा देशः । देशेइति किम् । अन्तरयणम् । अन्त ९१ अयते रेते - र्वा ' करणाधारे' | ५|३|१२९ । इत्यनटि अन्तरयनो देश : 'स्वर त्' | २|३|८५ | इति 'हन' | झटस इति च यथासङ्ख्यं प्राप्ते प्रतिप्रतिषेधः । अन्तरयणम्-भावेऽनट् ॥९१॥ षात्पदे | २|३|१२| पदे परतो यः षस्ततः परस्य नो ण् न स्यात् । सप्पिष्पानम | पदइति किम । सप्पिष्केण ॥९२॥ सपिण्पानमिति - अत्र 'पानस्य भावकरणे' | २३६९ | इति प्राप्त प्रतिषेधः । सपिकेणेति कुत्सितार्थे कप् ॥९२॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) पदन्तरेऽनाइ यतदिते ।२।३।९३। आङन्तं तद्धितान्तं च मुक्त्वा ऽन्यस्मिन् पद निमित्तकाविणोरन्तरेनोन न स्यात पावद्धनम रोषभीममुखेम । अनाडीति किम । माणद्धम् । अतद्धितइति किम । आदगोमयेण ।९३॥ रोष्ण भीमं रेषभीम रोषभं मम् । मुखं यस्य स रोषभ ममुख इति विग्रहे भीमपदस्थ तृतीया - समासे उत्तरपदत्वेन 'वृत्त्यन्तोऽ सणे' ।११।२५॥ इति पदत्वनिषेधेपि भूतपूर्वपदत्व-माश्रीयते । भ मं च तन्मुख च भीममुखं. रोगेण भ मं मुखं यस्येति विग्रहे तु भीमपदस्य वृत्त्यन्तत्वाभाव त्पदत्वप्रतिपंधाभावः। प्रानद्धमिति -प्रानह्यते स्मेति क्तप्रत्यये 'नहाहर्धतौ' ।२।१८५ इति धत्वम्, 'अदुरुपसर्गा०' ।२।३।५७। इति णत्वम् । आगोमयेगेति-गोः । पुरीषं 'गो: पुरीगे।६।२।५०।इति गोशब्दात् मयट् । आर्द्र च तद्गोमयं च तेन । ॥९॥ हनो घि ।२।३।९४॥ हन्तेनों घि निमित्तकायिणोरन्तरे सति म् न स्यात् । शत्र-नः १९४॥ शत्र न इति-शत्रुहन्त ति 'ब्रह्मादिभ्यः' ।५।१।८५॥ इति टक, 'गमहनजन' ।४।२।४४। इत्यकारलोपः, 'हनो ह नो घ्नः' ।।१।११२। इति धनादेशः । अत्र सज्ञायां 'पूर्वपदस्यान्ना।२।३।६४। इत असंज्ञायां तुकवगे-क स्वरवति' ।२।३।७६। इति च प्राप्त प्रतिष्ोधः ॥९४॥ .. . . .. नुतेर्यड २३॥९५१ नतेनों या विषये ण न स्यात् । नरोनत्यते । नरित्ति । यति Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३१ ) ^किम् । हरिणत नाम कश्चित् । ९५ । नरीनृत्यते - 'ऋमतां री : ' । ४ । १।५५ । इति रीरागमः । नरिनतति'रिच लुपि ।४ । १५६ । इति ग्रािगमः । अत्र 'रषृवर्णान्नो०' | २|३|६३| इनि प्राप्त प्रतिषेधः । हरिणतीति- हरिरिव नृत्यतीति 'कतुणिन्' ||१ | १५३ । इति णिन् ।। ९५॥ क्ष [नादीनाम् ||३|९६ । एषां नो ण न स्यात् । क्षुम्नाति । आचार्यानी ।९६| · क्षुम्नाति आचार्यानीति - अत्र रषृवर्णा ० ' | २|३|६३ | इति प्राप्त प्रतिषेधः । आचार्यस्य भार्या आचार्यानी 'मातुलाचार्यो० | २|४| ६३ । इति ङीः आनन्तश्च । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । क्षुम्ना इति निर्देशेन क्ष ुभ्ना इति रूपग्रहणं न तु यङलुब्निवृस्थथम् धातुग्रहणे तु क्षोभणमित्यत्रापि स्यात् । ननु एवं तहि क्षुनीतः क्षुभ्नन्ति इत्यादौ णत्वशास्त्रस्न परेऽसत्त्व दीकारादौ कृते क्षुम्नेति रूपाभावात् निषेधो न प्राप्नोत नि चेन्मैवं स्वरादेशस्य स्थानिवद्भावादेकदेशविकृतस्यानत्यत्वाद्वा भविष्यतीति ॥ ९६ ॥ । पाठेधात्वादेर्णो नः ।२।३।९७| पाठे धात्वादेर्णो नः स्यात् । नयति । पाठइति किम् । णकारीयति । आदेरिति किम् । रणति ॥९७॥ नयतीति 'णीं प्रापणे' । णकारीयतीति - णकार मिच्छतीति 'अमाव्ययात्क्यन्' । ३।४।२३। इति क्यन् । धातूनां णोपदेशस्तु 'णहिनुमीनाने ' इत्यस्य व्यवस्थार्थः । नन्वादिग्रहणं किमर्थमादिग्रहणाभावेपि णोपदेशबलान्नत्वं न भविष्यति अन्यथा भनित्येव कुर्यादिति चेन्मैवं नोपदेशस्य 'अदुरुपसर्गा०' | २|३|७७ | इति णत्वे फलमस्ति तथाहि उपसर्गपूर्वस्य प्रभणति Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३२) अन्यत्र तु भनीति स्य दित्य दिग्रहण मति ॥९७॥ षः सौष्टय ष्ठिवष्वष्कः ।२।३।९८। पाठेधात्वादेः षः सः स्यात् नतु ष्टयेष्ठिवष्वक सम्बन्धी स्यात् । . सहते । आदरित्येव ? लषति । ष्टयादिवर्जनं किम् । ष्टचायति । ष्ठीव्यति । वष्कते ।९८॥ षोपदेशश्चषां षत्वविषयव्यवस्थार्थः । यथा असीपहदित्याको कृत. त्वात् षत्वं भविष्यति अ यत्र तु न भवतीति व्यवस्था सिध्यति । नचात्राप्यादे. रित्यधिकाराभावेऽपि लषत त्यादौ प ठबलादेव षत्वं न भविष्यति अन्यथा लसिधि कर्यादिति किमादेरित्यधि-कारेणेति वाच्यं षत्वकरणस्यान्यत् फलमस्ति यथा 'अनादेशादे०' ।४।१।२४। इत्येत्वे कृते स कारस्य कृसत्वात् षत्वे परोक्षायां विलेषु-रित्यादि सिध्यति परन्तु प्रस्तुते लसतीति स्यादिति ॥१८॥ रलुलं कृपोऽकृपीटादिषु ।२।३।९९१ कृपे ऋत लुत्, रस्य च ल स्यात् । नतु कुपोटादिविषयस्य । क्लृप्य: ते । क्लृप्तः । कल्पते । कल्पयति । अकृपोटादिष्विति किम् ? कृपीटः । कुपाणः ।९९ ___ ननु 'वणे कदेशोऽपि वर्ण ग्रहणेन गृह्यते' इति न्यायात् ऋकारलकारयो रेफलकास्प्रहणेनैव ग्रहणात कि द्वयोख्यादानेन ? कृपो ‘रो ल:' इत्येव क्रियतामिति चेत्सत्यं वर्णवदेशोऽपि वर्णग्रहणेन गह्यते' इत्यस्य क्वचिदम्वतिज्ञापनार्थम् । एतच्च ,रष० ।२।३।६३॥ इति सूत्रगुणरस्तावृत्तौं विशेषेण स्पष्टीकृतम् । काल्पत इति-वर्तमानायाः ते प्रत्यये शवि गुणे रस्य लकारे बासिद्धम् । अकृपोटादिष्वित्यत्र बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।।९९॥ . . .. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३३) उपसर्गस्यायो ।२।३।१०। उपसर्गस्थस्य रस्यायौ धातौ परेल स्यात् । प्लायते । प्लत्ययते 1१०० प्लायते, प्लत्ययते इति-अघि गती प्रोपसर्गपूर्वकः एवं प्रत्युपसर्गपूर्वकोऽनेन लत्वम् ।।१००। ग्रो यडि।२।३।१०११ पडि परे गिरते रोल स्यात् । निजेगिल्यते ।१०१॥ निजेगिल्यत इति-ग त् निगरणे गहितं निगिरतीति ‘ग लुपसदघर०' ।३।४।१२॥ इति यह, 'ऋता पिङतीर्' ।४।४।११६। इतीरादेशः, द्वित्वे 'आगुणा०' ।४।१।४८। इति द्वित्वे पूर्वस्य गुणः, 'भ्वादे०' ।२।१।६३॥ इत्यस्य परेऽसत्त्वात् प्रागेवानेन रेफस्य लत्वे निजेगिल्यते । प्रः इति सामान्यनिदें शे. ऽपि गृण तेः 'न गुणाशुभ०' १३४।१३॥ इति निषाद् याभावादग्रहणम् ॥१०१॥ नवा स्वरे ।२।३।१०२॥ प्रो र स्वरादौ प्रत्यये परे विहितस्य ल वा स्यात् । गिलति । गिरति । निगाल्यते । निगार्यते । विहितविशेषणं किम् । गिरः १०२॥ निगाल्पत इति - निगिरन्तं प्रयुक्त णिग. 'नामिनोऽकलिहले.' Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३४) ।४।३।५१॥ इति वृतिः,क्यश्च । विहितविशेषणादिहापि लत्वम्।गिर इति-विवनिमित्त इर्, न स्वरादिप्रत्ययनिमित्त इति न लत्वम् ॥१०॥ परेर्घायोगे ।२।३।१०३० परिस्थस्य रो घादौ परे ल वा स्यात् । पलिघः । परिघः । पल्यङ्कः । पर्यः । पलियोगः । परियोगः ।१०३। पलिय इति - परिहन्यतेऽनेनेति परेघ:' ।५।३।४०। इत्यल, नि- . पातनाच्च धादेशः अनेन वा लत्वम् । पल्यङ्क इति-अङ्कयत त्यचि अङ कः, अङ्क परिगतः अङ्केन वा परिगत: 'प्रात्यवििन०' ।३।११४७। इ त समासः : अनेन वा लत्वम् । पलियोग इति - युक्तिर्योग:, योगं योगेन वा परिगतः 'प्रात्यवः' ।३।११४७। इति समासः अनेन वा लत्वम् ॥१०॥ ऋफिडादीनां इश्च ला ॥२॥३॥१०॥ एषामृर ललो उस्य च ल वा स्यात् । ऋफिडः।लफिलः । ऋतकः । लतकः । कपरिका । कपलिका ।१०४। - एषामृकारस्य लकारः, रकारस्य लकारः, डस्य च ल वा स्यात् । अतें र्बाहुलकात् फिडक्प्रत्यये ऋफिडः । अत्तरेव क्त कुत्सितादौ के अथवा इयति गच्छति जन: प्रत्ययमति शोरी' । उणा २०१ । इति तकि ऋतं सत्यं कायति 'आतो डो०' ।५१७६। इति डे ऋतकः । कं सुखं परं यस्यां 'शेष द्वा' ।७।३।१७५॥ इति कचि आपि इत्वे च कपरिका । बहुवचनमांकतिगणार्थम् ॥१०॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३५) जपादीनां पो वः | २|३|१०५ | एषां पो वो वा स्यात् । जवा जपा | पारावतः, पारापतः 1१०५। जयते इति धा०' |५|३|४७ | इश्यलि जपेति । पराद् विप्रकृष्टादापततीति विवपि परापत् तस्यापत्यं पारापतः । जपादयः प्रयोगतोऽनुसर्तव्याः ॥ १०५ ॥ ॥ इति द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः ॥ आत्मा अभी एक ही शरीर में नहीं, परन्तु तोन शरीर में है । जगत में जीव और जड के सिवा कुछ भी नहीं है । जो संसार है तथा संसार को उपलब्धियां हैं, वे उसकी विद्यमानता जीव के साथ जड़ के एकमेव जैसे योग को ही लेकर ही हैं । 'आप इच्छा करे तो आपको मिले बिना रहे ही नहीं' ऐसी यदि कोई भी वस्तु हो, तो वह एक मोक्ष ही है । आपके पिता की परंपरा अन दिकाल है, परन्तु पिता नहीं बनना यह आपके हाथ की बात है । वैसे आत्मा के साथ अनादिकालीन कर्म के योग के बारे में यदि आप सोचे और मेहनत करे, तो जरूर अन्त ला सकते हैं | - लेखक पू० परम शासनप्रभावक, व्याख्यान - वाचस्पति आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३६) भगवान श्री जिनेश्वर देवों के जैसा अन्य कोई उपकारी है ही नहीं । जो हमारे साथ वैरविरोध को छोड़े नहीं, उनके प्रति वैर विरोध को भी हमें तो छोड़ ही देना चाहिये, क्योंकि अपने खुद के भले के लिये ही उपशान्त बनना है, न कि - सिर्फ दूसरे किसी के भले के लिये उपशान्त बनना है । श्री पषण पर्वः यह वर्ष भर में लगे हुए दोषों से और हुए अनवनावों से आत्मा को मुक्त बनाने वाला वार्षिक पर्व है । वरविरोध से फायदा कुछ नहीं होता और नुकसान अवश्य होता है । फिर भी ऐसी मूर्खता करने वाले बहुत है और ऐसी मूर्खता करना यह समझदारी है ऐसा समर्थन करने वाली आत्माओं की भी इस जगत में कमी नहीं हैं । - लेखक पू. परम शासन - प्रभावक, व्याख्यान - वाचस्पति आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा - Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः ॥ स्त्रियां नृतोऽस्वस्त्रादेर्डीः | २|४|१| स्त्रीवृत्तेर्नान्तादृदन्ताच्च स्वस्त्रादिवर्जाङोः स्यात् । राज्ञी । अतिराज्ञी । कर्त्री । स्त्रियामिति किम् । पञ्च नद्यः । अस्वस्त्रादेरिति किम् । स्वसा । दुहिता ॥ १ ॥ 1 अतिराज्ञी - पूजितो राजा स्त्री चेदतिराज्ञी 'पूजा-स्वते: ० |७|३|७२ | सूत्रात् समासान्त प्रतिषेधः । पञ्च नद्यः - पञ्चनुशब्दस्य नकारान्तत्वेऽपि स्त्रियां वर्तमानत्वा-भावात् न ङीः । उक्तं च नान्तायाः संख्याया अलिङ्गत्वं 'नन्ता संख्या युष्मदस्मच्च स्युरलिङ्गका इति लिङ्गानुशासनवचनात् । स्वसा, अतिस्सा, परमस्वसा, दुहिता, ननान्दा, याता, माता, तिस्रः, चतस्रः एते स्वस्रादयः । तिसृचतस्रादेशस्य विभक्त्यानन्तर्यनिमित्तत्वात् सन्निपातलक्षणत्वात् तद्विघातका-भावादेवं ङी-निवृत्तौ सिद्धायां स्वस्रादिगणे एतयोः पाठ: 'सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य' इति न्यायस्यानित्यताज्ञापनार्थः || अधादृदितः | २|४|२| . अधातुर्य उदिदृदिच्चतदन्तात् स्त्रीवृत्त डः स्यात् । भक्ती । अति महती । पचन्ती । अधात्विति किम् । सुकन् स्त्री ॥२॥ 1 भवती - भांक दीप्ती 'भातेर्डवतुः । उणा - ८८६ | डवतुप्रत्ययः, उदित्त्वादनङीः । अतिमहती - हिवृहिमहि० । उणा० ८८४ इति दितृप्रत्ययः, प्रत्ययस्यदित्त्वम् । अवयत्रधर्मेण समुदायस्य व्यपदेशात्, अवयवस्य ऋदित्त्वात् महच्छब्दोऽपि ऋदित् तेन तदन्तं समासनाम । पचन्तीत्यत्र शतृप्रत्ययः प्रत्ययस्यदित्त्वात् अनेन ङीः । अव्युत्पत्तिपक्षे तु अतिमहतीत्यत महच्छब्दः ऋदित् तदन्तं समासनाम, भवतीति तु व्यपदेशिवद्भावेन । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) सुकन्निति–'कसुकि गतिशातनयोः' सूपसर्ग-पूर्वकस्य कसुकि-धातो: क्विन्तस्य रूपमिदम्, अत्र धातोरुदित्त्वम् 'स्महतोः' ।१।४।८६। इत्यत्न महत्साहचर्यात् शुद्धधातोः क्विन्तस्याग्रहणात् सुकन्नित्यत्र न दीर्घः । तत्र शुद्धधातोः विबन्तस्याग्रहणान्नामधातोस्तु भवत्येव श्रेयस्यति, महस्यतीति श्रेयान्, महान् ।।२।। अञ्चः ।।४॥३॥ अञ्चन्तात् स्त्रियां ङोः स्यात् । प्राची । उदीची ॥३॥ 'अञ्चोऽनर्चायाम्' ।४।२।४६। इति नलोपेऽनेन ङयां 'अच्च प्राग्दीर्घश्च' ।२।१।१०४। 'उदचः उदीच' ।२।१।१०३। इति कृते प्राचीत्यादि । अञ्च इति धातुरुपस्य निर्देशादर्चाविवक्षायां न-लोपाभावे अन विवक्षायां तु नलोपेऽपिच ङीः भवति । अचः इति निर्देशे तु,अच्च प्राग्दीघश्च ।२।।११४। इति-वत्' कृतनलोपादेव डीः स्यात्तन प्राञ्ची उदञ्चीत्यादिर्न सिध्येत् ॥३॥ णस्वराऽघोषाद्वनो रश्च ।२।४।४। , एतदन्तात् विहितो यो वन्, तदन्तात् स्त्रियां डीः स्यात्। तद्योगे वनौन्तस्य रश्च । अवावरी । धीवरी । मेरुदृश्वरी। णस्वराऽघोषादिति किम् । सहयुध्वा स्त्री। विहितविशेषेणं किम् । शर्वरी ॥४॥ विहितविशेषणेऽ-त्र पञ्चमीत्याह-विहित इति । वन इति 'निरनुबन्धग्रहणेन सामान्येनइति न्यायाद् वन्-क्वनिप्-वनिपां ग्रहणम् वनोऽन्तस्येति-ननु 'प्रत्ययस्य' ।७।४।१०८। इति सर्वस्य स्यादिति-कथमुक्तमन्तस्येति चेत्सयं वात् न इति कृते सिध्यतीत्यदोषः। 'ओण अपनयने"ओणतेः मन्वन्क्वनिप्०' ।५।१।१४७। इति वनि 'वन्याङ पञ्चमस्य' ।४।२।६५। इति णकारस्यात्वे ऽवादेशेऽनेन यां रेफे च अवावरी । दधातीति क्वनिपि ईर्व्यञ्जनेऽयपि' Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) | ४ | ३ | १७ | इतीत्वेऽनेन ङयां रेफे च धीवरी । मेरुं दृष्टवतीति 'दृशः क्वनिप्' ।५।१।१६६ । इति क्वनिपियां रेफे च मेरुदृश्वरी । सहयुध्वेति- सह योधितवतीति 'सहराजभ्यां०' | ५|१|१६७ | इति क्वनिप् । अघोषान्ताद्विहितत्वादस्याप्रवृत्तिः । शवं रीति-शृणातीति शर्वरी स्वरान्ताद्विहितत्वाद्गुणे कृते घोषवतोऽपि भवति । नान्तत्वात् 'स्त्रियां नृतो.' | २|४|१| इति ङीः सिद्ध एव णस्वराघोषादेव वनो ङी-र्भवतीति नियमार्थं रविधानार्थं च वचनम् । तेन सहयुध्वेत्यादौ 'स्त्रियां नृतो०' | २|४|१| इत्यनेनापि न भवति । विपरीत नियमस्तु 'स्त्रियां नृतो०' | २|४|१| इत्यस्यारम्भान्न भवति । अन्यथा राज्ञीत्यादौ स्वरात्परस्य नकारस्यावस्थानाद 'स्त्रियां नृत०' | २|४|१| इति ङीर्न स्यात् । ननु वनिति प्रत्ययग्रहणं कृद्ग्रहणं वा तत्र प्रत्ययग्रहणे ' प्रत्ययः प्रकृत्यादेः ० | ७|४|११५ । इति, कृदुग्रहणे 'कृत्सगति० |७|४|११७ | इति बहुधीवरीत्यादि न सिध्यतीति चेत्सत्यं ''अजादे' | २|४| १६ | इत्यत्रावृत्तिव्याख्यानस्य अत्र स्त्रीप्रकरणे तदन्तविधिज्ञापकत्वादन्तस्यापि विधिरिति बहुधीवरीत्यादि सिध्यतीत्यदोषः || ४ || वा बहुव्रीहेः ||३|| स्वराघोषाद्विहितो यो वन्तदन्तात् बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीर्वास्यात् । रश्चान्तस्य । प्रियावावरी । प्रियावावा । बहुधीवरी । बहुधीवा । बहुमेरुदृश्वरी । बहुमेरुदृश्वा || ५ || प्रियावावरीति- प्रियोऽवावा यस्याः साः । बहुधीवरीति - बहवो धीवानो 'यस्याः सा मेरुदृश्वरीति - बहवो मेरुदृश्वानो यस्यां सा । पक्षे बहुमेरुदृश्वा स्त्री |५| वा पादः | २|४|६| बहुव्रीहेस्तद्धेतुकपाच्छन्दान्तात् स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । द्विपदी । द्विपात् । बहुव्रीहिनिमित्तो यः पादिति विशेषणादिह न स्यात् । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादमाचष्टे । क्विपि पाद् । त्रयः पादोऽस्याः सा त्रिपात् ॥६॥ द्विपदीति-द्वी पादाबस्या इति 'सुसंख्यात्' ।७।३।१५०। इति सूत्रण पादस्य पादादेशः अनेन वा डीः 'यस्वरे पाद:०' ।२।१।१०२। इति पदादेशः यभावपक्षे द्विपातु ॥६॥ अन्नः ॥२॥४७॥ अधन्नताबहुव्रीहेः स्त्रियां डीः स्यात् । कुण्डोध्नी ॥७॥ नाम्नो विशेषणत्वात्तदन्तविधिः । ऊधन्निति कृतनकारादेशस्योधसो ग्रहणम् कुण्डवदूधसो यस्याः सा कुण्डोघ्नी। 'स्त्रियामधसो न्' ।७।३।१६९। इति इति सस्य न 'ईङौ' ।२।१।१०९। इत्यनोऽकारलोपः । 'अनो वा' ।२।४।११।। इति विकल्पे प्राप्ते वचनम् ॥७॥ मा . अशिशोः ।।४८ अशिशुइति बहुव्रीहेः स्त्रियां डीः स्यात् । अशिश्वी॥८॥ अविद्यमानः शिशुर्यस्या सा अशिश्वी। नचोधन्शब्दस्याशिशुशब्दस्य च बहुव्रीहिविषयत्वात्पूर्वेण सहैकयोग एव क्रियतां किं पृथग्योगेनेति वाच्यं द्वयोरपि वहुव्रीहिविषयत्वेऽप्यूध्नः तदन्तस्य विधिः, अशिशोस्तु स्वरुपस्येति योगविभागस्यावश्यककत्वात् । ।।८।। संख्यादेहायनाद्वयसि ।२।४ा। संख्यादेायनान्ताबहुव्रीहेः स्त्रियां डीः स्यात् । वयसि गम्ये बिहायणी ।। चतुर्हायणी वडवा । वयसीति किम् । चतुर्हायना शाला ॥६॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निहायणीत्यादि-'चतुस्त्रीयनस्य वयसि' ।२।३।७४। इति णत्वम् । - चतुर्हायना शालेति–'कालकृता प्राणिनां शरीरावस्था वयः' इति वयसः प्राणिधर्मत्वात् शालायामभावात् डी-र्णत्वं च न भवति ॥६॥ दाम्नः ।२।४।१०। संख्यादेमन्नन्ताबहुव्रीहेः स्त्रियां ङीः स्यात् । द्विदाम्नी । संख्यादेरित्येव । उद्दामानं पश्य ॥१०॥ द्वे' दामनी यस्यां सा द्विदाम्नी । उद्गतं दामास्या सा उद्दामा ताम् । अत्र त्रैरूप्यम्-उद्दामानम्, उद्दामाम्, उद्दाम्नी वडवां पश्य । 'अनो वा' ।२।३।११। इति विकल्पस्यापवादोऽयं योगः ।।१०।। अनो वा ।२।४।११। अन्नन्ताबहुव्रीहेः स्त्रियां ङोर्वा स्यात् । बहुराग्यौ । बहुराजे । बहुराजानौ ॥११॥ "ताभ्यां वाप् डित्' ।२।३।१५ इति डापि बहुराजे । उत्तरोपान्त्यवतः प्रतिषेधादुपान्त्यलोपिन एवायं विधिः ॥११॥ • 'नाम्नि ।२।४।१२। अन्नन्ताबहुव्रीहः स्त्रियां संज्ञायां नित्यं की स्यात् । अधिराज्ञी, सुराज्ञी नाम ग्रामः ॥१२॥ अधिको राजा यस्याः, शोभनो राजा यस्या सा अधिराज्ञी, सुराज्ञी । अयमयुपान्त्यलोपवत एवायं विधिः, नित्यार्थं वचनम्, तेन पक्ष डाप् विकल्पेन न भवति ।।१२।। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) नोपान्त्यवतः | २|४|१३| यस्योपान्त्यल - गुनास्ति तस्मादन्नन्ताद्बहुव्रीहेः स्त्रियां ङोर्न स्यात् । सुपर्वा । सुशर्मा । उपान्त्यवतइति किम् । बहुराशी ॥१३॥ अन्तस्य समीपमुपान्त्यम् । उपान्त्यलुग्नास्तीति 'न वमन्तसंयोगात्' | २|१| । १११ । इति निषेवेनेत्यर्थः । अन्यथा अनोनुपान्त्यवतो वा इति एकयोगः क्रियेत योगविभागकरणान्नायं 'अनो वा' | २|४|११ ॥ इति सूत्रविहितस्यैव प्रतिषेधः किन्तु 'स्त्रियां नृतो०' | २|४|१ | इत्यस्यापि । पिपर्तेः पृणातेर्वा वनि शृणोतेश्च मनि शोभनं पर्व शर्म यस्या सा सुपर्वा सुशर्मा । बहुव्रीहेरित्युक्तत्वाद् पर्वाणमतिक्रान्तेत्यतिपर्वणीत्यत्र 'स्त्रियां नृतो० ' | २|४| १ | इति सूत्रेण डीः भवति किनवव्युत्पत्तिपक्षाश्रयणाद् 'णस्वरा०' | २|४|४| इति ङी रश्च न भवति ||१३|| मनः । २।४।१४। मन्नन्तात् स्त्रियां ङीर्न स्यात् । सीमानौ ॥ १४ ॥ 'न मन्नुपान्त्यवयाम्' इत्येकयोगा करणाद्बहुव्रीहेरिति निवृत्तम् । मन्नन्ते बहुव्रीहौ त अन्नन्तद्वारा ङी-भवत्येव । यथा महत्त्वयोगाय महामहिम्नामाराधनीं तां नृप ! देवतानाम् । दातुं प्रदानोचित ! भूरिधाम्नीमुपागतः सिद्धिमिवास्मि विद्याम् । (किराता सर्ग ३ श्लोक २३) महतोभावः 'पृथ्वादेरिमन्वा' |9||5| इतीमनि अनोऽ- नर्थकत्वेपि 'अनिनस्मिन् ग्रहणान्य० ' इति न्यायात् महिमानमतिक्रान्ता - अतिमहिमेत्यादौ ङी - प्रतिषेधो भवति अतिक्रान्तो महिमा ययेति बहुव्रीहौ तु 'अनो वा' | २|४|११ । इत्यस्य ‘मनः’।२।४।१४। इत्यस्य च द्वयोरन्यत्र सावकाशत्वात् परत्वात् प्राप्तमपि निषेधं बाधित्वा विशेषविहितत्वात् 'अनो वा' | २|४|११ | इति विकल्प एव ।। १४ ।। वाभ्यां वा डित् ।।४।१५। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) मन्नन्ताद्बहुव्रीहेश्चान्नन्तात् स्त्रियामाप्वा स्यात् । सच डित् । 'सीमे । सुपर्वे । पक्ष । सीमानौ । सुपर्वाणौ ॥ १५॥ 'डाप्' इत्यकरणमुत्तरत 'आप' इत्यस्यैवानुवृत्त्यर्थम् । सीमानौ सुपर्वाणौ इति पक्ष पूर्वाभ्यां प्रतिषेधाद् ङीनं भवति उपान्त्यलोपवति बहुव्रीहौ तु ङी - रपि भवतीति त्रैरुप्यम् - बहुराजे बहुराजानो बहुराग्यो 'वा बहुव्रीहेः' | २४|५| इति वचनात् वन्नन्तस्यापि त्रैरुप्यम् बहुधीवे, बहुधीवानी, agatar | डित्करणमन्त्यस्वरादिलोपार्थम् ||१५| अजादेः | २|४|१६| अजादेस्तस्यैव स्त्रियामाप् स्यात् । अजा । बाला । ज्येष्ठा । क्रञ्चा ॥ १६ ॥ अजादेरिति - अत्र पञ्चमी अजादेः स्त्रियामाप् स्यादित्यर्थः । तस्यैवेति आवृत्त्या व्याख्यानात् षष्ठीसम्बन्ध अजादिसम्बन्धिन्यामेव स्त्रियामभिधेयायामाप् स्यादित्येवमर्थस्तेन पञ्चानामजानां समाहारः पञ्चाजी, दशाजी इत्यत्र समाहारः समासार्थः स्त्री नासावजशब्दसम्बन्धिनी- त्याप् न भवति किन्तु 'द्विगोः समाहारात्' | २|४|२२| इति समाहारलक्षणः ङी- र्भवति । अत एव च ज्ञापकादत्र स्त्रीप्रकरणे तदन्तादपि विधिर्भवति तेन महांश्चासावजश्च महाजा परमाजेति सिद्धम् एव मंतिमहती, वहुधीवरीत्यादि । अजेति - 'आत्' | २|४|१८ । इत्यापि सिद्धेऽपि जाते रयान्त०' | २|४|५४ | इति बाधनार्थोऽजादिपाठः । बालेति - 'वयस्यनन्त्ये' | २|४| २१ | इति वयोलक्षणस्य ङी-प्रत्ययस्यापवादः आप् । ज्येष्ठेति — 'धवाद्योगाद० ' | २|४|५६| इति धवयोगलक्षणस्य ङी - प्रत्ययस्यापवादः आप् । कुचेति - व्यञ्जनातत्वात् 'आत्' | २|४|१८ । इत्यप्राप्ते ऽजादिपाठः । कश्चिदस्मादिवकल्पेनेच्छति तन्मतें क्रुङ् । अन्ये तु क्रुञ्चानालभेतेति प्रयोगदर्शनादकारान्त एवेति मन्यन्ते । ऋवि पाद: पात्पदे | २|४|१७| Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) कृतपा-द्भावपादस्य ऋच्यर्थे पात्पदेतिनिपात्यते । त्रिपदा। त्रिपाद् गायत्री । ऋचीति किम् । द्विपात् । द्विपदी ॥१७॥ ऋच् वेदवाक्यमित्यर्थः । त्रयः पादा यस्याः सा त्रिपदेत्यादि 'सुसंख्यात्' . . ७।३।१५४। इति पादादेशः अनेन स्त्रीप्रत्ययविशिष्टस्य पात्पदेति निपातनम् 'वा पादः' ।२।४।६।इति ङीप्रत्ययस्या-पवादोऽयम्।।१७।। आत् ।।४।१८॥ अकारान्तात् स्त्रियामाप् स्यात् । खट्वा । या । सा ॥१८॥ खट काङ्क्ष 'खट्यते काञ्जयते शयालुभिरिति 'लटिखटि०' । उणा५०५। इति वे खट्वा । ननु खट्वाशब्दस्य नित्यस्त्रीलिङ्गत्वात् अकारान्त-प्रयोगा दर्शनात्कथमकारान्ततानिर्णय इति चेत्सत्यम अतिखटवः,प्रियखट्वः,पञ्चभिः खट्वाभिः क्रीतः पञ्चखट्वः इत्यादिप्रयोगदर्शनादस्या-कारान्तता निर्णीयतेऽन्यथाऽकारान्तत्वा-भावान्नाबन्त इति गोश्चान्ते०।२।४।६६। इति 'ड्यादेगी०।२४६५॥ इत्याब द्वारेण ह्रस्वोऽपि न स्यादिति । आदित्यधिकारः उत्तरत्न यथा-सम्भवं योजनीयम् ।१८। . गौरादिभ्यो मुख्याङ्डी ।२।४।१६। गौरादिगणान्मुख्यात् स्त्रियां ङोः स्यात् । गौरी। शबली । मुख्यादिति किम् । बहुनदा भूमिः ॥१६॥ गौरीशबलीति-अनयोर्गुणवचनत्वादजातिवचनत्वादप्राप्ते पाठः । 'अस्य ड्यां लुक्' ।२।४।८६। इत्यकारलोपः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥१६॥ अणजे-येकण-नज -स्ना -टिताम् ।२।४।२०। अणादीनां योऽत्तदन्तात्तेषामेव स्त्रियां ङीः स्यात् ।औप गवी। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैदी। सौपर्णेयी । आक्षिकी। स्त्रैणी। पौंस्नी। जानुदध्नी।२०। औपगवीति-उपगोरपत्यम् स्त्री 'ङसोऽपत्ये' ।६।१।२।८। इत्यण्, 'वृद्धिः स्वरेष्वा०' ।७।४।२। इति वृद्धिः, अस्वयम्भुवोऽव' ७४।७०। इत्यवादेशः, बंदीति-बिदस्यापत्यं पौत्री 'बिदादेव द्ध'।६।१।४१। इत्यत्र । सौपर्णेयोतिसपा अपत्यं स्त्री सौपर्णेयो 'ड्याब्ल्यङ ।६।१७१। इत्येयण । आक्षिकोति-अक्षौ-र्दीव्यतीति 'तेन जित०' ।६।४।२। इतीकण् । स्त्रैणीतिस्त्रिया अपत्यं स्त्रैणी पुसोऽपत्यं पोस्नी 'प्राग्वतः स्त्रीपुसान्न ।' ।६।१।२५। इति नत्र -स्नत्रौ । जानुदघ्नीति-जानु ऊध्वं प्रमाणमस्या 'वोध्वं दध्नट०' ।७।१।१४२। इति दध्नट, टित्त्वादनेन डीः । प्रत्ययसाहचर्यादागमटितो न भबति-पठिता विद्या । अणादीनां षष्ठीनिर्देशेन अकारस्य विशेषणादणादीनां योऽवारस्तत एव ङीप्रत्ययो भवति । तेन पाणिनिना प्रोक्त पाणिनीयम्'तद्वेत्यधीते' ।६।२।११७।इत्याप्रोक्तात्'।६।२।१२९।इति लो पाणिनीया कन्येत्यत्र न भवति - पाणिनोऽपत्यं 'ङसोऽपत्ये ।६।१।२८। इत्य ण 'गाथिविदथि०' ७।४।५०। इत्यन्त्यस्वरादिलोपः तदनन्तरं पाणिनस्यापत्यं पाणिनिः "अतः इन' ।६।१।३१। इतीज ॥२०॥ वयस्यनन्त्ये ।२।४।२१॥ कालकृता शरीरावस्था वयस्तस्मिन्नचरमे वर्तमानादकारान्तात् स्त्रियां ङोः स्यात् । कुमारी । किशोरो । भूटी। अनन्त्यइति किम् । वृद्धा ॥२१॥ धवयोगाभावविशिष्ट-वयः कुमारी-शब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तम् चत्वारि वयांसि-कुमार-यौवन-मध्यम-वृद्धत्वानितथा चाहुः- प्रथमे वयसि नाधीतं, द्वितीये नाजितं धनम् । तृतीये न तपस्तप्तं, चतुर्थे किं करिष्यति । कुमारयति क्रीडयतीति कुमारी कुत्सितो मारो मन्मथो यस्या वाऽनूढत्वात् बध्नातिकटाक्षरितिबन्धे'।उणा-१५७ इति किदूटिअनेन ड्यां च वधूटी। ननु आकृतिग्रहणत्वात् कुमारी-शब्दस्य जातित्वात् जाति-लक्षणेनैव ङीप्रयत्येन Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) भवितव्यम्- "आकृति-ग्रहणा जातिः, अत्रिलिङ्गा च यान्विता। आजन्मनाशमर्थानां, सामान्यमपरे विदुः ॥ . आकृतिग्रहणा जातिरिति प्रथ मलक्षणानुसारेणायावद्भव्यभाविनोऽपि कुमारीत्वस्याकृतिग्रहणत्वाज्जातित्वे सिद्ध प्रपञ्चार्थमिदम् । अत्रिलिङ्गा च यान्विता आजन्मनाशमर्थानामिति द्वितीयलक्षणानुसारेण तु जातित्वस्य याबद्रव्यभावित्वान्नायं जातिरिति पुनर्वचनमर्थवदित्यलम् ॥२१॥ द्विगोः समाहा रात् ॥२॥४॥२२॥ समाहारदिगोरदन्तात् स्त्रियां डोः स्यात् । पञ्चपूली, दशराजी ॥२२॥ पञ्चपूलीति-पञ्चानां पूलानां समाहारः । दशराजीति-दशानां राज्ञां समाहारः 'राजन्सखेः' ।७।३।१०६। इत्यः । अत्र ‘पात्रादि०' इत्यादिलिङ्गानुशासनेन स्त्रीत्वम् ॥२२॥ परिमाणात्तद्धितलुक्यबिस्ताचित-कम्बल्यात् ।२।४।२३॥ परितः सर्वतो मानं परिमाणं, रुढः प्रस्थादिबिस्तादिवर्जपरिमाणान्ताद् द्विगोरदन्तात् तद्धितलु किं स्त्रियां डीः स्यात् । द्वाभ्यां कुडवाभ्यां क्रीता द्विकुडवी। परिमाणादिति किम् । पञ्चभिरशिव क्रीता पञ्चाश्वा । तद्धितल कीति किम् । द्विपण्या। बिस्तांददर्जनं किम् । द्विविस्ता । द्वयाचिता । द्विकम्बल्या ॥२३॥ ऊर्वमानं किलोन्मानं, परिमाणं तु सर्वतः । आयामस्तु प्रमाणं स्यात्, संख्या बाह्या तु सर्वतः ।। सर्वतः आरोहपरिणाहाभ्यां मीयते परिच्छिद्यतेऽ-नेनेति अर्थे । .. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) कार्यासं भवात् परिमाणवाची यः शब्दस्तदन्तादित्यर्थः । द्विकुडवीति"मूल्यैः क्रीते' ।६।४।१५०। इतीकण ‘अनाम्न्यदिवः प्लुप' ।६।४।१४।२। इति लप । द्विपण्येति-द्वाभ्यां पणाभ्यां कीतेति ‘पणपदमाषाद्यः ।६।४।१४८। इति यः तस्य च विधानसामर्थ्यादलुप् द्विबिस्तेत्यादि-द्वाभ्यां बिस्ताभ्यां क्रोतेत्यादि ।॥२३॥ काण्डात् प्रमाणादक्षेत्र ।२।४।२४। प्रमाणवाचिकाण्डान्तादक्षेत्रविषयाद् द्विगोस्तद्धितलु कि स्त्रियां ङीः स्यात् । आयामः प्रमाणम् । द्वे' काण्डे प्रमाणमस्याः द्विकाण्डी रज्जुः । प्रमाणादिति किम् । द्विकाण्डा शाटी । अक्षेत्र इति किम् । द्विकाण्डा क्षेत्र: क्तिः ॥२४॥ द्विकाण्डी रज्जुरिति-'प्रमाणान्मात्रट्' ।७।१।१४० इति मात्रट 'द्विगोः संशये च' ।।४।१४४। इति मात्रटलोप। षोडशहस्तप्रमाणं काण्डम् । द्विकाण्डा शाटोति-द्वाभ्यां काण्डाभ्यां क्रीतेति 'मूल्यैः क्रीते' ।६।४।१५०। इतीकण तस्य च 'अनाम्न्यद्विः प्लप्' ।६।४।१४१। इति लोपः । क्षेत्रभक्तिरिति-क्षेत्रविभाग इत्यर्थः । भक्ति-ग्रहणं तद्धितान्तस्य स्त्रीत्वार्थम् ॥२४॥ पुरुषाद्वा ।।४।। प्रमाणवाचिपुरुषान्ताद् द्विगोस्तद्धितलु कि स्त्रियां डोर्वा स्यात् । द्विपुरुषो। द्विपुरुषा परिखा । तद्धितल कीत्येव । पञ्चपुरुषाः समाहृताः पञ्चपुरुषी ॥२५॥ द्विपुरुषीति-चतुर्हस्तः पुरुषः द्वौ पुरुषो प्रमाणमस्या इति मात्रटो 'हस्तिपुरुषाद्वाण' ।७।१।११४१। इत्यणो वा 'द्विगोः संशये च' ७१।१४४। इति लुप् । पञ्चपुरुषीति-द्विगोः समाहारात्' ।२।४।२२। इति नित्यमेव ॥२५॥ रेवत रोहिणाझे ।२।४२६॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) आभ्यां नक्षत्रवृत्तिभ्यां स्त्रियां ङीः स्यात् । रेवती । रोहिणी । रेवत्यां जाता रेवती । भ इति किम् । रेवता ॥ २६ ॥ , रेवत्यां जाता रेवतीति - 'चित्रारेवती० ' | ६|३|१०८ । इत्यणो लप् 'ङयादेगौ-णस्या०' |२|४|ε५। इति ङी प्रत्ययस्य लोपः । रेवतीशब्देन कन्याया वाच्यत्वाद् गौणस्यापि रेवतीशब्दस्य नक्षत्र वर्तमानत्वादनेन ङीः । नन्वत्र “गौरादिभ्यः' | २|४|११ | इति सूत्राद् मुख्याधिकाराद् गोणान्न भविष्यतीति चेन्मैवं मुख्याधिकारेऽपि क्वचिच्छाब्द्या वृत्त्या प्राधान्यं ग्राह्यं क्वचिदार्थ्या वृत्त्या अत्र तु यदि रेवतीशब्दस्य नक्षत्रलक्षणोऽर्थो वाच्यो न भवेतह तद्विशिष्ट: कालोऽपि वाच्यो न स्यात् रेवतेति - 'आत्' ।२।४।१८। इत्याप् प्रत्ययः ||२६|| नीलात्प्राण्योषध्योः | २|४|२७| प्राणिन्यौषधौ च नीलात् स्त्रियां ङीः स्यात् । नीली गौः । नीली औषधिः । नीलाऽन्या ॥२७॥ नीली औषधिरिति - नीली औषधि जातिरिति जातिशब्द जाती नित्यस्त्रीत्वात् 'जाते०' |२|४|५४ । इत्यप्राप्तेऽनेनैव ङीः ये तु नीलः पटः इत्यर्थान्तरेऽपि वृत्तिदर्शनादनित्यं स्त्रीत्वमभ्युपगच्छन्ति तेषां गुणशब्दस्यैवोदाहरणम् जातिशब्दात्त 'जाते० ' | २|४|५४ | इत्यनेन ङीः सिद्ध एव ||२७| , क्ताच्च नाम्नि वा | २|४|२८| नीलात् क्तान्ताच स्त्रियां संज्ञायां ङीर्वा स्यान् । नीली। प्रवृद्धविलूनी । नीला । प्रवृद्धविलूना ॥ २८ ॥ प्रवृद्धविसुनीति - प्रवृद्धा चासो विलना चेति प्रवृद्धविलनी औषधिविशेषः • अखण्डः सञ्ज्ञा - शब्दः व्युत्पत्तिमात्रमिदम् । प्रवृद्धा चासौ विलनीति त्वकथनमात्रं विग्रहस्तु प्रवृद्धश्चासौ विलूनश्च स्त्री चेत्प्रवृर्द्धविलूनीति Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) कार्योऽन्यथा गौणत्वाभावात् 'गोश्त्रान्ते' | २|४|१६| इत्यप्रवृत्तावदन्तत्वा. भावाद् ङीनं स्यात् ॥२८॥ केबलमामकभागधेयपापापरसमानार्थकृतसुमङ्गलभेष जात् ||४|२६| एभ्यो नाम्नि स्त्रियां ङीः स्यात् । केवली ज्योतिः । मामकी । भागधेयी । पापी । अपरो । समानी आर्यकृती । सुमङ्गली । भेषजी | नाम्नीत्येव । केवला |२६| ममेयं 'वा युष्मदस्मदो०' | ६ | ३ |६७ | इति सूत्रेणात्र - प्रत्यये ममकादेशेचानेन ङयां च मामकीति । ननु मामकशब्दस्यानन्तत्वेन 'अणजे ० ' | २|४| २० इति सूत्रेणैव ङी-सिद्धौ संज्ञायां नियम्यते मामकशब्दस्य नाम्न्येवेति तेनासंज्ञायां मामिका बुद्धिरित्यत्रात्रन्तलक्षणोऽपि ङोर्न भवति । भागशब्दात् 'नामरूपभागाद्धयः' | ७|२| १५८ । इति स्वार्थे धेयप्रत्यये भागधेयोति मामकी मातुलानी, भागधेयी, बलिः, पापी अपरी ओषध्यौ । समानी - छन्दः, आर्यकृती क्रियाविशेषः, सुमङ्गली छन्दः ओषधिर्वा, भेषजी ओषधिः । ॥२६॥ भाजगोणनागस्थलकुण्डकालकुशकामुककटकब रात् पक्वा वपन स्थूलाऽकृत्रिमाम त्रकृष्णायसीरिरं सुश्रोणिकेशपाशे | २|४|३०| एम्यो यथासंख्यं पक्वादिष्वर्थेषु स्त्रियां नाम्नि ङीः स्यात् । भाजी पक्वा चेत् । भाजाऽन्या । गोणी आवपनम् । गोणान्या । नागी स्थूला । नागान्या । स्थली अकृत्रिमा | स्थलाऽन्या । कुण्डी अमत्रम् । कुण्डान्या । काली कृष्णा । कालाया । कुशी 1 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) आयसी । कुशाया । कामुकी रिरंसुः। कामुकाऽन्या । कटी श्रोणिः । कटाऽन्या । कबरी केशपाशः। कबराऽन्या ॥३०॥ यथासंख्यमिति-सम्यक् ख्यायतेऽनयेति-संख्या क्रमवैशिष्टयन ज्ञानम् तामनतिक्रम्य-यथासंख्यम्, मिथः साकाङ्क्षाणां पदार्थानां येन क्रमेण ज्ञानंतेन क्रमेणान्वय इति तदर्थः। आवपन्ति धान्यानि यत्र तद् आ-वपनम् । करणेन निर्वृत्ता 'वितस्त्रिमक०।५।३।८४।इति त्रिमकि कृत्रिमा न कृत्रिमा अकृ- . विमाअन्या-। अमत्रम्-भाजनम् । कुशा काष्ठमयी तदाकृतिर्वल्गा वा। रिरंसुः-रन्तुमिच्छु:, मैथुने च्छुरित्यर्थः । केशपाशः-केशरचनाविशेषः इत्यर्थः, अन्या-कबरवर्णेत्यर्थः ॥३०॥ wamanmmmons-winnamrouTRANE नवा शोणादेः ।२।४॥३१॥ शोणादेः स्त्रियां डीर्वा स्यात् । शोणी । शोणा । चण्डी । चण्डा। ॥३१॥ शोण वर्णे अस्याचि-शोण उज्ज्वलो वर्णः, निर्दोषरक्तः वर्ण इत्यर्थः । चण्डी-कोपनायामनेनैव विकल्पः, गौर्यां तु गौरादिपाठान्नित्यं ङी: ॥३१॥ . इतोक्त्य र्थात् ।२।४।३२॥ क्त्यऽर्थप्रत्ययान्तवर्जादिदन्तात् स्त्रियां डीर्वा स्यात् । भूमी। भूमिः । धूलीः । धूलिः । अक्त्यर्थादिति किम् । कृतिः। अकरणिः । हानिः ॥३२॥ भूधातोः 'कृभम्यां कित्'। उणा० ६९०। इति मिप्रत्यये भूमिः । 'धग्श कम्पने' 'ध-मभ्यां लिक उणा० ७०१। इति लिकि धूलिः । अकरणिरिति 'नञोऽनि: शापे' ।५।३।११७इत्यनिः हानिरिति 'ग्ला-हा-ज्यः' ।५।३।११८। इत्यनिः ॥३२॥ पद्धतेः ।२।४॥३३॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) अस्मात् स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । पद्धती। पद्धतिः।३३। क्तिप्रत्ययान्तत्वादप्राप्ते वचनम् । पादाभ्यां हन्यत इति 'श्वादिभ्यः' ।५।३।६२। इति क्तिः, 'हिमहति०' ।३।२।९५॥ इति पदादेशः । अथवा हननं इतिः, पादस्य हतिः॥३३॥ शक्तः शस्त्रे ।।४॥३४॥ अस्माच्छस्त्र स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । शक्ती। शक्तिः। शस्त्र इति किम् । शक्ति: सामर्थ्यम् ॥३४॥ शक्यतेऽनया हन्तुमिति श्वादित्वात् क्तौ ङ्यां च शक्ती। शक्तिशब्दस्य क्तयन्तत्वादक्तयर्थादिति निषेधे प्राप्ते शस्त्रवाचिनो विकल्प आरभ्यते ॥३४।। ... स्वरादुतो गुणादखरोः ।२।४।३५॥ स्वरात्परो य उस्तदन्ताद् गुणवचनात् खरुवर्जात स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । पटवी । पटुः। विभ्वी। विभुः । स्वरादिति किम् । पाण्डु- भूमिः । गुणादिति किम् आखुः स्त्री । अखरोरिति । खरुरियम् ॥३५॥ 'स्वरादिति पञ्चम्यन्तस्याव्यवहितोत्तरत्वमर्थः ‘पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य' ।७।४।१०४।। इति न्यायात् । स्वरादव्यव- हितोत्तरत्वं केवलं 'तितउ' शब्दे दृश्यते किन्तु स न गुणवाचीति गुण-वाचकशब्दे स्वराव्य व-हितोत्तरस्योकारस्या-सम्भवात् 'येन नाव्य-वधानम्०', इति न्यायात् स्वरोकारयोर्मध्ये एकस्य व्यञ्जनस्य व्यवधानेऽपि स्वरोत्तरत्वविशिष्टोकारान्तात् गुण• वाचकात् स्त्रियां ङी-र्भवतीति सूत्रार्थः निष्पन्नः । अर्थे कार्यासम्भवादुत इत्यादि-विशेषणायोगाच्चोपचाराद् गुणवचन-शब्दः गुण इत्युच्यते । अथ ग्रन्थकृदभिमतं गुणस्य स्वरूपं प्रदर्श्यते Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) ------ सत्वे निविशतेऽ-पैति, पृथग्जातिषु दृश्यते । आधेयश्चाक्रियाजश्च, सोऽ -सत्वप्रकृतिर्गुणः ॥ सत्त्वं द्रव्यं तत्र निविशते तदेवाश्रयति यः स गुणः । द्रव्यादपैत्य-पगच्छति । यथाऽऽ-म्रान्नीलता पीततायामुपजातायां पृथग्जातिषु भिन्नजातीयेषु दृश्यते, यथा सैव नीलता आम्र दृष्टा तरुणतृणेषु दृश्यते । एतेन सर्वेण जातिगुणो न भवतीत्युक्तम् । आधेय उत्पाद्य: यथा कुसुम-संयोगाद् गन्धो. वस्त्रे यथा वाऽ-ग्निसंयोगाद्घटे रक्तता । अक्रियाजः-नित्यः यथाऽऽ-काशादिषु क्रियाया महत्त्वादि एवमुत्पाद्यानुत्पाद्यत्वप्रकारद्वयप्रदर्शनेन उत्पाद्यत्वेकप्रकारायाः क्रियायाः व्यवच्छेदः । असत्त्वप्रकृतिः द्रव्यस्वभावरहितः, अनेन द्रव्यस्य व्यवच्छेदः तथा च द्रव्यभिन्नत्वे सति क्रियाभिन्नत्वे सति जातिभिन्नत्वे सति द्रव्याश्रितत्वं गुणस्यलक्षणमित्यायाति । गुणादिति सामान्योक्तावपि केवलगुणवृत्त: स्त्रीत्वायोगात्त-तो द्रव्यवृत्तः प्रत्ययः । आख:स्त्रीति जाति-शब्दोऽयम् । खरुरिति-क्रूरा मुर्खा दर्पिष्टा श्वेता वा स्युच्यते । श्यतैतहरितभरितरोहिताद्वर्णात्तो नश्च ।।४।३६॥ एभ्यो वर्णवाचिभ्यः स्त्रियां डीर्वा स्यात् । तद्योगे तो न च । श्येनी । श्येता । एनी । एता ।हरिणी । हरिता । भरिणी। भरिता । रोहिणी । रोहिता । वर्णादिति किम् । श्येता । एता ॥३६॥ श्येनादीनां शब्दानां वर्णत्वमनुपपन्नमतोऽ-यमों विज्ञायते इत्याह वर्णवाचिभ्यः इति । वाऽ धिकारः प्रधानत्वात् प्रत्ययविधिनैव सम्बध्यते । श्येनी-शुभ्रा, एनी-कर्बुरा शुभ्रा वा, हरिणी-नीला । भरणी-पाटला धूसरा घृतवर्णा वा । रोहिणी रक्ता इत्यर्थः । चकारो नकारस्य डी-सन्नियोगशिष्टतार्थः-अयं भावः-चकारः यस्मात्परः श्रूयते तस्य भावे द्वितीयापेक्षा प्रतीयते तेन केवलो नकारो न भवति, सन्नियोगे एव भवति, असति च-ग्रहणे तु अयमर्थो न लभ्येत ॥३६।।। क्नः पलितासितात् ।२।४।३७। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) त इतिचेतिचानुवर्तते । आभ्यां स्त्रियां कीर्वा स्यात् । तद्योगे तः क्नः । पलिक्नी । पलिता । असिक्नी । असिता ॥३७॥ पलितशब्दः केशरोग-विषये वर्ण वर्तते । पलितमस्यास्तीति 'अभ्रादिभ्यः' ।७।२।४६। इत्य-प्रत्ययः ङ्यां च पलिक्नी वृद्धा । असिक्नी-अन्तः-पुरदूती। असितशब्देन सितप्रतिपक्षो वर्ण उच्यते तदा ङीः, यदा तु सिता-बद्धा। तदा न सा वर्ण इति तत्र द्वयमपि ङीः कनश्च न भवति ॥३७॥ असहनन -विद्यमानपूर्वपदात् स्वाङ्गादक्रोडादिभ्यः ।२।४॥३८॥ सहादिवर्जपूर्वपदं यत स्वाङ्ग तदन्तात् कोडादिवर्जाददन्तात् स्त्रियां डोर्वा स्यात् । पीनस्तनी । पीनस्तना। अतिकेशो । अतिकेशा माला। सहादिवर्जनं किम् । सहकेशा । अकेशा । विद्यमानकेशा। कोडादिवर्जनं किम् । कल्याणक्रोडा । बहुगुदा । वीर्घवाला। स्वाङ्गादिति किम् । बहुँशोफा । बहुज्ञाना । बहुयवा ३८. अविकारोऽ-द्रवं मूत, प्राणिस्थं स्वाङ्गमुच्यते । ___ च्युतं च प्राणिनस्तत्तन्निभं च प्रतिमादिषु ॥ इति पारिभाषिकं स्वाङ्गमिह गृह्यते । विकारः वातादिक्षोभजन्मा शोफादिस्तत् स्वाङ्गन भवति । रूपादियोगो मुर्तिः तद्योगान्मूतं पुद्गलद्रव्यम् अक्रोडादिभ्य इत्यत्र बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । बहुशोफेति-विकारत्वान्न भवति । बहुज्ञानेंति-मूर्ताभावान्न भवति ॥३॥ नासिकोदरोष्ठजवादन्तकर्णश्रृङ्गाङ्गगात्रकण्ठात् १२॥४॥३६॥ सहादिवर्जपूर्वपदेभ्य एभ्यः स्वाङ्गभ्यः स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) I तुङ्गनासिकी। तुङ्गनासिका । कृशोदरी । कृशोदरा । विम्बोष्ठी । बिम्बोष्ठा । दीर्घजङ्घी । दीर्घजङ्घा । समदन्ती । समदन्ता । चारुकणीं । चारुकर्णा । तीक्ष्णशृङ्गी । तीक्ष्णशृङ्गा । मृद्वङ्गी । मृद्वङ्गा । सुगात्री । सुगात्रा । सुकण्ठी। सुकण्ठा । पूर्वेण सिद्धे नियमार्थमिदम् । तेन बहुस्वरसंयोगो-पान्तेभ्योऽ न्येभ्यो माभूत् । सुललाटा सुपाव ॥३६॥ कृशमुदरं यस्याः सा । बिम्ब इत्र ओष्ठौ यस्या सा बिम्बोष्ठी । 'वोष्टीती समासे' ।१।२।१७। इति सूत्रण विकल्पेन विम्बाकारलोपः । पूर्वेण सिद्ध नियमार्थमिदम्, तेन नासिकोदराभ्यामेव बहुस्वराभ्याम् ओष्ठादिभ्य एव च संयोगोपान्तेभ्यः भवति नान्येभ्य || ३६ || नखमुखादनाम्नि | २|४|४०| सहादिवर्ज पूर्वपदाभ्यां स्वाङ्गाभ्यामाभ्यामसंज्ञायामेव स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । शूर्पनखी । शूर्पनखा | चन्द्रमुखी । चन्द्रमुखा । अनाम्नीति ? किम् शूर्पणखा | कालमुखा ॥४०॥ शूर्पनखीति - शूर्प इव नखोऽस्या इति समासः शूर्पाकारनखयोगोऽ-त्र न तु सञ्ज्ञाऽ-त विकल्पेन ङीः । शूर्पणखेत्यादि - संज्ञाशब्दावेतो न तु यौगिको 'पूर्वपदस्थान्ना० ' |२| ३ |६४ | इति णत्वम् ||४०|| पुच्छात् ।२।४।४१। सहादिवर्जपूर्वपदात् स्वाङ्गात् पुच्छात् स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । दीर्घपुच्छी । दीर्घपुच्छा ॥४१॥ नासिकादिनियमान्निवृत्तौ वचनम् । नन्वेवं तर्हि नासिकादिसूत्र एव पठ्यतां कि पृथक्पाठेनेति चेत्सत्यम् पुच्छादित्यस्यैवोत्तरत्रानुवृत्त्यर्थम् । दीर्घ पुच्छमस्याः सा दीर्घपुच्छी ॥४१॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 88 ) कबरमणिविवरादेः | २|४|४| एतत्पूर्वपदात् पुच्छात् स्त्रियां ङीनित्यं स्यात् । कबरपुच्छी । मणिपुच्छी । विषपुच्छी । शरपुच्छी ॥ ४२ ॥ विकल्पस्तु पूर्वेणैव सिद्ध: किन्तु नित्यार्थं पुनर्विधानम् । कबरं - कर्बुरं कुटिलं वा पुच्छमस्या कबरपुच्छी । मणिः पुच्छेऽस्याः मणि- पुच्छी, विषं पुच्छेऽस्या विषपुच्छी, शरं पुच्छे स्या शरपुच्छी । मणिच्पुछीत्यादिषु 'न सप्तमीद्वादिभ्यश्च' | ३|१|१५५ ॥ इति सूत्रादिन्द्वादित्वात् मण्यादिशब्दानां पूर्वनिपातः ||४२ || पक्षाच्चोपमानादेः | २|४|४३| उपमानपूर्वात् पक्षात् पुच्छाच्च स्त्रियां ङीः श्यात् । उलूकपक्षी शाला । उलूकपृच्छी सेना ॥४३॥ उलूकस्य पक्षाविव पक्षावस्याः सा उलूकपक्षी शाला । उपमीयतेऽन्येति बाहु लकात् 'उपसर्गादातः’।५।३।११० । इत्यङ् 'कबर - मणि- विषशबरादेः पक्षाच्चोप मादेस्तु' इत्येकयोगाकरणात् स्वाङ्गादेरिति निवृत्तम् । उलूकस्य पक्षविव पक्षावस्या उलूकपक्षी शाला । उलूकस्य पुच्छमिव पुच्छमस्या:उलूकपुच्छी सेना |४३| क्रीतात् करणादेः । २।४।४४॥ करणादेः क्रीतान्ताददन्तात् स्त्रियां ङीः स्यात् । अश्वक्रीती । मनसाक्रीती । आदेरिति किम् | अश्वेन क्रीता ॥ ४४॥ I अश्वेन क्रीयते स्म अश्वक्रीती 'गतिकारकङस्युक्तानाम् ०' इति न्यायात् विभक्तय त्पत्तेः पूर्वमेव कृदन्तेन' कारकं कृताः | ३ | १ | ६८ ॥ इति समासः अन्यथा विभक्तयन्तस्य समासेऽन्तरङ्ग' 'आत्' | २|४|१८ । इत्यापि विभक्तौ चादन्तत्वा भावात् ङीर्न स्यात् । मनसा क्रीतीत्यत्र 'नाम्नि' | ३|२| १६ | इत्य Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) लुप्समासः । अश्वेन क्रीतेत्यत्र ऐकपद्याभावात् करणं क्रीतान्तस्य नाम्नः आदिरवयवो न भवति ॥४४।। क्तादालपे ।२।४४५॥ क्तान्तात् करणादेरल्पेर्थे स्त्रियां डीः स्यात् । अनविलिप्ती छौः। . अल्पाने त्यर्थः । अल्प इति । चन्दनानुलिप्ता स्त्री ॥४५॥ अभ्रविलिप्तीति-पूर्ववदस्याद्यन्तेन समासः । अल्पाम्रा द्यौरिति-भल्पाभ्रमाकाशमित्यर्थः । अल्पार्थस्य गम्यमानत्वादल्पशब्दस्याप्रयोगः । चन्दनानुलिप्तेति-अनल्पेन चन्दनेन लिप्तेत्यर्थः । स्तोकेन चन्दनेन लेपासम्भवान्न तस्याल्पत्वमुपाधिर्विवक्ष्यते इत्यल्पत्वाभावात् ङीन भवति ।।४५॥ स्वाङ्गादेरकृतमितजातप्रतिपन्नाद्बहुव्रीहेः ।।४।४६॥ स्वाङ्गादेः कृतादिवर्जात् क्तान्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां डीः स्यात् । शङ्खभिन्नी । उरुभिन्नी । कृतादिवर्जनं किम् । दन्तकृता । वन्तमिता । दन्तजाता । दन्तप्रतिपन्ना ॥४६॥ पूर्ववत्पारिभाषिकं स्वाङ्ग ग्राह्यम् शङ्खौ भिन्न्नो यस्याः सा शङ्खभिन्नी उरू भिन्नो यस्या सा उरुभिन्नी ॥४६॥ अनाच्छादजात्यादेर्नवा ।२।४।४७। आच्छादवर्जा या जातिस्तदवयवात् कृतादिवर्जात् क्तान्ताद् बहुवीहे. स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । शाङ्गरजग्घी शाङ्गरजग्घा । आच्छादवर्जनं किम् ? वस्त्रच्छन्ना । जात्यावेरिति किम् । मासजाता । अकृताद्यन्तादित्येव । कुण्डकृता ॥४७॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) मासयातेति - मासशब्दः कालवचनः ||४३|| पत्युर्नः । २।४४८ । पत्यन्ताद्बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । तद्योगेऽत्तस्य न् च । दृढपत्नी । दृढपतिः । मुख्यादित्येव । बहुस्थूलपतिः पुरी ॥ ४८ ॥ बहुस्थूलपतिः पुरीति-स्थूलाः पतयो यासां ताः स्थूलपतयः इति कृते 'पत्युर्नः | २|४|४८ | इति नविकल्पाद बहवः स्थूलपतयः यस्यां सा बहुस्थूलपतिःपुरी। अत्र पत्यन्तबहुव्रीहिर्मु - ख्यो न भवति किन्तु स्थूलपत्यन्तो बहुव्रीहिः मुख्यो भवति यदा तु स्थूलश्च चासौ पतिश्च स्थूलपतिः ततः बहवः स्थूलपतयो यस्यां साबहुस्थूलपतिः पुरी तदापि स्थूलपत्यन्तो बहुव्रीहिः न तु पत्यन्तः इति न भवति ॥ ४८ ॥ सादेः |२|४|४| सपूर्वपदात्पत्यन्तात् स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । तद्योगेऽन्तस्य न् च । ग्रामस्य पतिः । ग्रामपत्नी | ग्रामपतिः । सादेरिति किम् । पतिरियम् । ग्रामस्य पतिरियम् ॥४६॥ पूर्वेणैव सिद्धे पुनर्वचनं बहुव्रीहि-निवृत्त्यर्थम् ॥४६॥ सपत्न्यादौ |२|४|५०३ एषु पतिशब्दात् स्त्रियां ङीः स्यात् । अतस्य न् च । सपत्नी । एकपत्नी ॥५०॥ पुनविधानं नित्यार्थम् । समानः पतिरस्याः समानस्य पतिरिति वा सपत्नी । समानादेरित्यकृत्वा समुदायनिपातनं समानस्य सभावार्थं पंवद्भावप्रतिषेधार्थं च तेन 'समानस्य धर्मादिषु' | ३ |२| १४८ । इति धर्मादिषु पत्नीशब्द• स्यापाठेऽपि समानस्य सभावः सिद्धः एवं सपत्नीभार्यः, सपत्न्या अयं इत्यत्र 'परत: स्त्री० ' | ३ |२| ४६ | | २|३|५१ | इति च प्राप्तस्य पुंवदुभावस्य प्रतिषेधः सापत्न इति 'जातिश्च' सिद्धः ॥ ५० ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) ऊढायाम् ||२|४|५१ पत्युः परिणीतायां स्त्रियां ङीः स्यात् । न चान्तस्य । पत्नी, वृषलस्य पत्नी ॥ ५१ ॥ याऽग्निसाक्षिपूर्वकेण परिणीता सेह गृह्यते । नामग्रहणे तदन्तविधिश्च ना-श्रीयते अतः केवलात्पत्युः परिणीतायां स्त्रियां ङी-रित्यर्थः । पत्युर्भाया पत्नी ॥ ५१ ॥ पाणिगृहीतीति |४| २|५२ ॥ पाणिगृहीतीतिप्रकाराः शब्दा ऊढायां स्त्रियां ङयन्ता निपात्यन्ते । पाणिगृहीती । करगृहीती | ऊढायामित्येव । पाणिगृहीतान्या ॥ ५२ ॥ इति शब्दः प्रकारार्थः सदृशार्थः इति यावत् । पाणिगृहीती इति प्रकारो येषान्ते सूत्रत्वाज्जसो लोपः । पाणिगृहीती - सदृशा इत्यर्थः । यस्या यथाकथचित्पाणिः गृहीतः सा पाणिगृहीता || ५२ || पतिवत्न्यन्तर्वत्न्यौ भार्यागभण्योः | २|४|५३ ॥ भार्या अविधवा स्त्री । तस्यां गर्भिण्यां च यथासंख्यमेतौ निपात्येते । पतिवत्नी । अन्तर्वत्नी ॥ ५३ ॥ निपातनात् पतिमच्छब्दात् ङीरस्य पतिवत्नादेशः एवं अर्न्तवत् शब्दात् ङीरस्यातवत्नादेशश्च सिद्धः । विगतो धवो यस्याः सा विधवाः न विधवा अविधवा जीवत्पतिरित्यर्थः । गर्भः कुक्षिगतोऽस्यास्तीति गर्भिणी ॥ ५३॥ जाते रयान्त नित्यस्त्रीशूद्रात् । २।४।५४। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) जातिवाचिनोऽदन्तात् स्त्रियां ङीः स्यात् । नतु यान्तनित्यस्त्रीशूद्रात् । कुक्कुटी । वृषली । नाडायनी । कठी । जातेरिति किम् । मुण्डा । तवर्जनं किम् | क्षत्रिया । नित्यस्त्रीवर्जन मिति किम् । खट्वा । शूद्र वर्जनं किम् । शूद्रा आदित्येव । आखुः ॥५४॥ आकृतिग्रहणा जातिलिङ्गानां च न सर्वभाक् । सकृदाख्यातनिग्रह्या गोत्र व चरणैः सह ॥ जातिः काचित् आकृतिः अवयवरचना ग्रहणं यस्याः सा यथा गोत्वादिः । सकृदुपदेशव्यङ्ग्यत्वे सति अत्रिलिङ्गा द्वितीया यथा ब्राह्मणत्वादिः । अनि त्वं देवदत्तादेरप्यस्त्यतः सकृदुपदेशव्यङ्ग्यत्वे सतीत्युक्तम् । गोत्रचरणलक्षणा च तृतीया । कुक्कुटीति - प्रथमजाति-भेदे उदाहरणम् । वृषलीति द्वितीय जाति-भेदे उदाहरणम् । गोत्रमपत्यम् । अपत्यं त्रेधाऽनन्तराप्रत्यं वृद्धापत्यं युवापत्यं च । चरणः वेदशाखाध्येता तथा चापत्यप्रत्ययान्तः, शाखाध्येतृवाचीच जातिकार्यं लभते । नाडायणीति - नडस्यापत्यं वृद्ध स्त्री नाडायनी 'नडादिभ्यः आयनण्' | ६ | १|५३ | इत्यायनं । कठीति-कठेन प्रोक्तं वेदं वेत्यधीत इति 'तेन प्रोक्त' | ६ | ३|१८१ । इत्यणः 'कठादिभ्यो वेदे लुप्’ ।६।१।१८३। इत्यनेन लुपि तद्वत्यधीते' | ६ |२| ११७ ॥ इत्यणः प्रोक्तात् ' | ६ |२| १२ | इति लुपि यां च सिद्धम् । एते द्व े तृतीयजातिभेदे उदा हरणे मुण्डेति मुण्डगुणयोगान्मुण्डा ॥ ५४ ॥ ! पाककर्णपर्णवालान्तात् । ।४।५५। पाकाद्यन्ताया जातेः स्त्रियां ङीः स्यात् । ओदनपाकी । आखुकर्णो । मुद्गपर्णी । गोवाली । जातेरित्येव । बहुपाकाय वागूः 1 ॥५५॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) ओदनपाकीति-ओदनस्येव पाकोऽ-स्या सा । आखुकर्णीति-आखोः कर्ण इव कर्णः पत्रं यस्या सा। मुद्गपर्णोति-मुद्गस्येव पर्णान्यस्या सा । एता ओषधिजातीनां सज्ञाः । आसां जातीनां नित्यस्त्रीरूपत्वात् पूर्वेणाप्राप्ते वचनमेवमुत्तरसूत्रत्रयेऽपि । बहुपाकेति-बहुः पाकोऽस्याः । नायं जातिप्रवृत्तिनिमित्तः किन्तु क्रियासम्बन्धनिमित्त इति न भवति ॥५५॥ . . . असत्काण्डप्रान्तशतकाञ्चः पुष्पात् ।२।४।५६। समादित्रर्जेभ्यः परो यः पुष्पशब्दस्तदन्ताज्जातेः स्त्रियां कीः स्यात् । शङ्खपुष्पी । सदादिवर्जनं किम् । सत्पुष्पा । काण्डपुष्पा । प्रान्तपुष्पा । शतपुष्पा । एकपुष्पा । प्राकपुष्पा ॥५६॥ शङ्खवणे शङ्खशब्दः शङ्खपुष्पं यस्या सा शङ्खपुष्पी, सत्पुष्पेत्यादिसन्ति काण्डे प्रान्ते शतमेकं प्राक् पुष्पं पुष्पाणि वा यस्याः ।।५६।। असम्भस्त्राजिनकशणपिण्डात्फलात् ।२।४।५७। समादिवर्जेभ्यो यः फलशब्दस्तदन्ताज्जातेः स्त्रियां डीः स्यात् । दासीफली । समादिप्रतिषेधः किम् । संफला । भस्त्रफला । अजिनफला । एकफला । शणफला। पिण्डफला ओषधिः ॥५७॥ दासीव फलं यस्या सा । सम्फलेत्यादि-संगतं भस्रव अजिनमिव एक च फलमस्याः । शणफलेति-शणस्येव फलान्यस्याः । पिण्डफलेति-पिण्डाकाराणि फलान्यस्या पिण्डफला कटुतुम्बी। ओषधिविशेषजातीनां सझा एता: ॥५७॥ अनजो मूलात् ।२।४।५८। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) नवर्जात्परो यो मलशब्दस्तदन्ताज्जातेः स्त्रियां ङोः स्यात् । दर्भमूली शीर्षमूली । अनत्र इति किम् ? अमूला ॥५८॥ दर्भमूलीत्यादि-दर्भस्येव, शीर्षे वा मूलमस्याः । अमूलेति-न विद्यते मूलानि यस्याः ॥५८।। धबायोगादपालकान्तात् ।२।४५६। धवो भर्ता, तद्वाचिनः सम्बन्धात् स्त्रीवृत्तः पालकान्तशब्दवर्जात् ङी स्यात् । प्रष्ठी । गणकी। धवादिति किम् । प्रसूता । योगादिति किम् । देवदत्तो वः । देवदत्ता स्त्री स्वतः । अपालकान्तादिति किम् । गोपालकस्य स्त्री गोपालिका। आदित्येव । सहिष्णोः स्त्री सहिष्णुः ॥५६॥ सम्बन्धादिति-योगः सम्बन्धश्च सम्बन्धिन-मपेक्षते स च प्रत्यासन्नत्वात् धवस्येव विज्ञायते, धवेन स्त्रियाः सम्बन्धा-दित्यर्थः । प्रष्ठस्य भार्या प्रष्ठी प्रष्ठः अग्रेसर एवं गणक्यपि । प्रसूतेति-विनिलु ठित-गर्भेत्यत्र । अस्त्यत्र योगस्तेन विना प्रसवाभावात् न तु धववाचि नाम । न हि पुसो गर्भो विलुटतीति । देवदत्त ति-अयं तु संज्ञाशब्दः स्वत एव स्त्रीवृत्तिः न तु धवयोगात् । पाल यतीति पालकः, गवां पालक: 'अकेन० ।३।१।१२। इति समास ॥५६॥ पूतक्रतुवृषाकप्यग्निकुसितकुसीदादै च ।२।४६०। एभ्यो धववाचिभ्यस्तद्योगात् स्त्रीबृत्तिभ्यो ङी: स्यात् । ङीयोगे चैषामैरन्तस्य । पूतकतायी । वृषाकपायी। अग्नायी। कुसितायी । कुसीदायी ॥६०॥ ननु प्रत्ययप्रकरणा-दैकारः इति विज्ञायते ततश्च समानप्रत्ययेन सह डी Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) प्रत्ययस्य पाक्षिकी प्रवृत्तिः स्यादिति ऐरन्तस्येति कथनम-सङ्गतमिति चेन्मैवम् एयेऽग्नायी' ।३।२।५१। इति निर्देशात् ऐकारस्य प्रत्ययत्वे अग्नायोति न स्यात् । पूतक्रतोर्भार्या पूतक्रतायो एवं वृषाकपायोत्यादि । वृषं दानवमावकम्पितवानिति अम्भि-कुण्ठि०' । उणा० ६१४ । इति इः । कुसितकुसिदी ऋषी ॥६०॥ मनोरौ च वा ।२।४।६१ धववृत्तेर्मनोर्योगात स्त्रीवृत्ते-मर्वा स्यात् । ङीयोगे चास्य औरश्चान्तस्य । मनावी । मनायी । मनुः ॥६१॥ वाकारः प्रथम-विधेयतया ङी-प्रत्ययेन सम्बध्यतेन त्वीकारेण तत्सन्निधानेनाप्रधानत्वात् । चकारेणकारोऽनुकृष्यते-इत्याह औरैश्चेति । मनोभार्यामनावी, मनायी । औकारेण सम्बन्धे तु डी-प्रत्ययस्य नित्यत्वे मनावीमनायी, मन्वीत्याद्यनिप्टं रूपं स्यात् ॥६१॥ . वरुणेन्द्ररुद्रभवशर्वमृडादान् चान्तः ।२।४।६२। एभ्यो धववाचिभ्यो योगात्स्त्रीवृत्तिभ्यो डोःस्यात् । ङीयोगे आन् चान्तः । वरुणानी । इन्द्राणी । रुद्राणी । भवानी। शर्वाणी । मृडानी ॥६२॥ अकारकरणसामर्थ्यादेव 'लुगस्या०' ।२।१।१२३। इत्यस्याप्रवृत्तः आनितिदीर्घोच्चारणं मतसंग्रहार्थम् । आन् चेत्यविकारनिर्देशोऽसन्देहार्थः अन्तग्रहणाभावे आनपि भिन्नप्रत्ययः स्यात् । किञ्चान्तग्रहणाभावे 'अनेकवर्णः सर्वस्य' ।७।१।१०७॥ इति सर्वस्यादेशः स्यात् ॥६२॥ । मातुलाचार्योपाध्यायाद्वा ।२।४।६३। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) एभ्यो धववाचिभ्यो योगात्स्त्रीवृत्तिभ्यो ङीः स्यात् । ङीयोगे चानन्तो वा । मातुलानी । मातुली । आचार्यानी । आचार्यो । उपाध्यायानी । उपाध्यायी ॥ ६३ ॥ आचार्यानीति - क्षुभ्नादित्वा णत्वा - भावः । ङीप्रत्ययस्य धवयोगे पूर्वणैव सिद्धत्वादनुद्यमानत्वादान एव विधीयमानत्वात् तस्यैव सम्बन्ध इत्याहङीयोगे आनन्तो वेति ॥ ६३ ॥ सूर्याद्देवतायां वा | २|४|६४ सूर्याद्धववाचिनो योगाद्देवतास्त्री वृत्तेर्डीर्वा स्यात् । ङीयोगे चानन्तः सूर्याणी | सूर्या । देवतायामिति । किम् । मानुषी सूरी ॥ ६४ ॥ सूर्येति पक्षे आवेव । मानुषी सूरीति-सूर्यस्याऽऽदित्यस्य वरप्रदानेन या मानुषीभार्या सा सूरी इत्युच्यते यथा कुन्ती । 'सूर्यागस्त्ययो० | २|४| ६६ | इति लोपः | ६४ | यवयवना रण्यहिमाद्दोषलिप्युरुमहवे |२| ४|६५॥ एम्यो यथासंख्यं दोषादौ गम्ये स्त्रियां ङीः स्यात् । ङीयोगे चानन्तः । यवानी । यवनानी लिपिः । अरण्यानी । हिमानी ॥ ६५ ॥ दोषाद्यर्थविशेषोपादानाद धवाद्योगादिति च निवृत्तम् । दुष्टो यवो यवानी अवयवार्थोऽसन्ने वएवंविधो व्युत्पत्तये परिकल्प्यते । वस्तुतस्तु यवजाते ह जात्यन्तरं रालकाभिधानं यवानीत्युच्यते यवानां दोषकारि रालक इति नाम्ना द्रव्यान्तरमिति भावः । यवनानामियं लिपि: यवनानी एतद्विषये ङीप्रत्यय - विधानादुक्तार्थत्वात् 'उक्तार्थानामप्रयोगः' इति न्यायात् 'तस्ये'दम्' । ६।३।१६० । इत्यण् न भवति । अर्थप्रत्यायनार्थमेव हि प्रकृतिप्रत्ययाः प्रयुज्यन्ते सोऽर्थो यद्यन्यैरुक्तः तदाऽर्थ प्रत्यायनरूपप्रयोजनस्य नष्टत्वात्तेषां प्रयोगो न भवति । उरु अरण्यम् - अरण्यानी । महद्धिमं हिमानी । उरुमह Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) त्वयोरेकार्थत्वेऽपि पृथगुपादानम् 'यथासङ्घयमनुदेशः समानाम् इति न्यायात् यथासङ्ख्यार्थम् । न्यायार्थरित्वत्थम्-सङ्ख्यया एकद्वयादिवचननिर्देशेन च . समानां तुल्यानां यथासङ्घय सम्यक् ख्यानं बु-द्धिनिमियर्थः । सङ्ख्या बोधक्रममनतिक्रम्य आद्यमाद्यन द्वितीयं द्वितीयेनेत्यादिरीत्याऽनुकूलं देशनं कथनं कार्यमित्यर्थः । अर्यक्षत्रियाद्वा ।२।४॥६६॥ आभ्यां स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । ङीयोगे चानन्तः । अर्याणी । अर्या । क्षत्रियाणी । क्षत्रिया ॥६६॥ अधवयोगेऽ--यंविधिः । धवयोगे तु 'धवाद्योगाद०' ।२।४।५६। इति नित्यमेव ङीः । अर्य आर्य इत्येकाौँ । कुत्रचिदार्य इति पाठः ॥६६॥ . यजो डायन च वा ।२।४।६७। यजन्तात् स्त्रियां ङीः स्यात् । ङीयोगे च डायनन्तो वा स्यात् । गार्गी ? गाायणी ॥६७॥ डायन् इति डित्करणम् आसरायणीत्यत्रा-सुरिशब्देकारलोपार्थमन्यथा तु समानानां०' ।१२।१। इत्यनेनैव सिद्धः । वाशब्दस्य साक्षान्निर्दिष्टेन डायना सहैव सम्बन्धः न त्वनुमितेन ङीप्रत्ययेन प्रत्यासत्तेः अथवा 'षावटाद् वा' ।२।४।६९। इति सूत्रकरणाद्वा । गार्गीति–'अस्य ङ्यां लुक्' ।२।४।०६। इति व्यञ्जनात्तद्धितस्य' ।२।४।१८। इत्यकारयकारयोर्लोपः ॥६७।। लोहितादिशकलान्तात् ।२।४६८। लोहितादेः शकलान्तात् यजन्तात् स्त्रियां डीः स्यात् । तद्योगे च डायनन्तः । लौहित्यायनी । शाकल्यायनी ॥६॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) " गर्गादेः " | ६ | १ | ४२ | इति सूत्रे लोहि - तादयः शकलान्ताः शब्दा ज्ञेयाः । षावटाद्वा | २|४|६६ । षान्तादवटाच्च यञन्तात् स्त्रियां ङीः वा स्यात् । ङीयोगे च डायनन्तः । पौतिमाष्यायणी । पौतिमाष्या । आवट्यायनी । आवया ॥ ६६॥ ङी - डायनोरुभयोरनुवर्तमानेपि- वाशब्दस्य प्रधानेन ङीप्रत्ययेन सह सम्बन्धः न त्वन्वाचीयमानेन डायने त्याह ङोर्वा स्यादिति - पूतिमासस्यापत्यं वृद्ध ं स्त्री 'गर्गादेर्यत्र' |६| १|४२ | इति यत्र, ' वृद्धिः स्वरेष्वादे० ' |७|४|१| इत्यादिवृद्धिः ||६|| कौरव्यमाण्डूकासुरैः | २|४|७०। एभ्यः स्त्रियां ङीः स्यात् । ङीयोगे च डायनन्तः । कौरव्यायर्णी । माण्डूकानो आसुरायणी ॥७०॥ " कुरोर्ब्राह्मणस्यापत्यं 'कुर्वादेः' | ६ | १|१०० | इति त्र्ये कुरूणां जनपदस्य राज्ञीति वा 'दुनादि ० ' | ६ | 91995 | इति ये । अयं चानयोर्विशेषः दुनादि ० ।६।१।११८। इत्यस्य द्विसंज्ञत्वाद् बहुषु ० | ६ | १ | १२४ | इति लुप् भवति । मण्डूकस्यापत्यं 'पीला साल्वा०' | ६ | १|६८ । इत्यण् 'अणत्र' ये० ' | २|४|२०| इति ङीप्राप्त डायनर्थमनेन ङीः । असुरस्य ऋषेरपत्यं स्त्री 'बाह्वादि' ।६।१।३२। इतीत्र ॥७०।। इञ इत: ।२।४।७१। इञन्तादिदन्तात् । स्त्रियां ङीः स्यात् । सौतङ्गमी इत इति । किम् । कारीषगन्ध्या ॥७१॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) - 'प्राकणिकाप्राकरणिकयोः ०' इति न्यायात् 'यत्रो डायन्च वा' | २|४|६७ | इति सूत्रात्प्रारब्धात् तद्धिताधिकारात्तद्धितीय एवेन गृह्यते न तु 'प्रश्नाख्याने वेत्र' |५|३|१२ε| इति कृत्सूत्रोक्तः तस्याप्राकरणिकत्वात् । सुतङ्गमेन निर्वृतेति 'सुतङ्गमादेरित्र' | ६ २२८५ । इतीञ्यनेन ङयां च सोतङ्गमी । करीषस्येव गन्धोऽस्या इति 'वोपमानात्' | ७|३ | १४७ । इतीत्समासान्तस्य पाक्षिकत्वात् करीषगन्धः । तस्यापत्यमिति 'अत इत्र । ६ । १ । ३१ । इतीत्रः .. 'अनार्षे वृद्ध ०' | २|४|७८ । इति ष्यादेशे सति इदन्तत्वाभावान्न भवति । अ- पत्येत्रन्तस्य मनुष्यजातिवचनत्वादुत्तरणैव सिद्ध े जात्यर्थोऽयमारम्भः । नन्वनपत्ये- त्रन्तस्ये- कारा- न्तत्वाव्यभिचाराद् 'इत:' इति विशेषमनर्थकमिति चेत्स - त्यमुत्तरार्थ - मिदमुत्तरत्र व्यञ्जनान्तमन्यस्वरान्तं चानेन व्यवच्छिद्यते । व्यञ्जनान्तं दरदित्यादि तत्रैवोदाहृतम् इह तु स्पष्टार्थमेवेत इत्युपादानम् ॥७१॥ नुर्जा: ।२।४।७२। मनुष्यजातिवाचिन इदन्तात् स्त्रियां ङीः स्यात् । कुन्ती । दाक्षी । इत इत्येव । दरत् । नुरिति किम् । तित्तिरिः । जातेरिति किम् । निष्कौशाम्बिः ॥७२॥ 1 , " गौत्रं च चरणैः सह " इति जातित्वम् । कुन्तीति - 'दुनादि०' | ६ | १|११८६ | इति यस्य 'कुन्त्यवन्ते: ० ' | ६| १|१२१ । लोपः । दाक्षीति- दक्षस्यापत्यमिति ‘अत इञ ।६।१।३१। इतीत्र । दरदिति-दरदोऽपत्यं 'पुरु-मगध' ।६।१।११६। इत्यणः 'द्र' रत्रणो' | ६ |१| १२३ । इति लोपः । तित्तिरिरिति - पक्षिजातिर्न मनुष्यजातिरिति न भवति । निष्कौशाम्बिरिति — कोशाम्ब्या निर्गतेति क्रियाशब्दत्वात् जातेरिति वचनादिह न भवति ॥ ७२ ॥ उतो ऽप्राणिनश्चायुरज्ज्वादिभ्य | २|४|७३ | Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) उदन्तान्नृजाते अ-प्राणिजातिवाचिनश्च स्त्रियामूङ् स्यात् । नतु य्वन्ता-द्रज्ज्वादिभ्यश्च । कुरूः । ब्रह्मबन्धूः ।अलाबूः । कर्कन्धः । उतइति किम् । वधूः । अप्राणिनश्चेति किम् । आखुः । जातेरि. त्येव । पटुः स्त्रीः। युरज्ज्वादिवर्जनं किम् । अध्वर्युः स्त्री। रज्जुः । हनुः ॥७३॥ ऊङिति दीर्घनिर्देशः उत्तरार्थः, तेन 'नारी-सखी.' ।२।४।७६। इत्यत्र श्वश्ररिति दीर्घान्तो निपातःसिद्धः । कुरूरिति-'दुनादि०।६।१।११७। इतिज्य स्य कुरो६ि।१।१११'इति लोपः,लोपाभावपक्षे तु कौरव्यमाण्डुका०।२।४७० इति सूत्रेण कौरव्यायणीति भवति । गोत्रत्वाज्जातित्वम् । ब्रह्मबन्धूरितिसमासान्त-प्रकरणे बहुलाधिकारात् ब्रह्मा बन्धूरस्या सेत्यत्रो ङः पूर्वं शेषाद्वा' ७।३।१७५।इति परोऽपि कच्प्रत्ययो न भवति । लिङ्गानाञ्च न सर्वभागिति जातित्वम् । तपः श्रुतादिगुणविहीनत्वादधमा द्विजजातिरनेनोच्यते । अलाबूःतुम्बी, कर्कन्धूः बदरी एतौ शब्दो अप्राणिजातिवचनौ 'प्राण्यौषधि०' ।६।२।३१। इति ज्ञापकादिह शास्त्रे प्राणिशब्देन तसा एव ग्राह्या नतू स्थावरा इति। अध्वर्युरिति-चरणत्वान्मनुष्यजाति-वाची। बहुवचनमाकृतिगणार्थम् यद्वा ऊश्चासावङ चेति बह्मबन्धरित्यत्र कच न भवति ॥७३॥ बाह्वलकद्र कमण्डलोस्नि ।२।४।७४। . बाह्वन्तात् कद्रुकमण्डलुभ्यां च संज्ञायां स्त्रियामूङ् स्यात् । भद्रबाहूः । कद्रूः । कमण्लूः । नाम्नीति किम् । वृत्तबाहुः ॥७४॥ अप्राणिजाति-वाचिनः कमण्डलुशब्दात् अप्राणिनश्चेत्यनेन प्राप्ते नियमः क्रियते । रज्ज्वादिपाठेन ऊनिषेधे च प्राप्ते विधिः क्रियते इति । कयं कामण्डलेयः 'चतुष्पा० ।६।१८३। इति चतुष्पात्प्राणिजातिवाचिशब्दान्तरमेतद् शब्दानामानन्त्यात् ।।७४।। उपमानसहितसंहित सहशफवामलक्ष्यणाहा रोः।२।४।७५॥ एतत्पूर्वपदादूरोः स्त्रियामूङ स्यात् । फरभोरुः। सहितोरूः । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) संहितोरूः । सहोरूः। सफोरूः । वामोरूः । लक्ष्मणोरूः। उपमानादेरिति किम् । पीनोरुः ॥७५॥ उपमानादिरादिर्यस्येति लुप्तपञ्चमीकं समस्तं वा पदमिति । आदिशब्दः पूर्वावयववचनः तेन च समासलाभादूरोरूत्तर-पदत्वं गम्यते । संधीयते स्मेति क्त 'धागः'।४।४।१५।इति हो कृते'समस्ततहिते वा' ।३।२।१३९।इति विकल्पेन मकारलोपे सहितः,सह हितेन वर्तते इति वा सहितः,सहते इत्यचि सहः सहशब्दः अव्ययो वा विद्यमानार्थः, सफशब्द: संक्लिष्टार्थोऽव्युपन्नः दन्त्यादिः । वमतीति ज्वलादित्वाणे वामः। लक्ष्मीरस्यास्तीति 'लक्ष्म्या अनः' ।७।२।३२। इत्यने लक्ष्मणः । सहितो, संहितो, सही (विद्यमानौ), सफौ,वामी, लक्ष्मणौ ऊरू यस्या इति विग्रहः ॥७॥ नारीसखीपङ्गेश्वश्रू ।२।४।७६। . एते ङयन्ता ऊङन्ताश्च निपात्यन्ते। ७।६। नृब्दात् 'स्त्रियां नृतोऽ०' ।२।४।।। इति ङ्यां नरशब्दात् जाति-लक्षणे 'जातोरयान्त०'२।४।५४। इति धवयोगलक्षणे वा 'धवांद्योगाद०।२।४।५६। इति ङीरस्त्येव नारादेशार्थ निपातनम् । सखिशब्दात् 'इंतोऽक्तयर्थात् ।२।४।३२॥ इति विकल्पे प्राप्ते, धवयोगेऽप्यप्राप्ते, सखशब्दाच्च सह खेन वर्तते येति बहुव्रीहेरापि प्राप्तेऽनेन डीः । पङ्ग शब्दो गुणवचनः । नात्रक, वर्णव्यवहित-स्वरात्परः उकार इति 'स्वरादुतो०' ।२।४।२५।इत्यप्राप्तेऽनुष्यजातित्वादप्राणिजात्य-भावाच्च ‘उतोऽ०' ।२।४।७३। इत्यप्राप्तेऽर्थात्कस्मिंश्चिदपि स्त्रीप्रत्ययेऽप्राप्तेऽनेनोङिवधानम् । श्वशरशब्दाच्च जातिलक्षणे धवयोगलक्षणे च ङीप्रत्यये प्राप्ते ऊ,उकाराकारयोलोपश्च । अयं च यदा सज्ञाशब्दः तदा आपि श्वशुरा इत्येव भवति न तु श्वश्रूरिति ॥७६॥ यूनस्तिः ।।४७७॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) -यूनः स्त्रियां तिः स्यात् । युवतिः । मुख्यादित्येव ? नियूंनी ॥७७॥ नकारान्तत्वात् ङीप्रत्यये प्राप्ते तदपवादोऽयं योगः । नि! नीति-'स्त्रियाँ नृतोऽ०' ।२।४।१। इति ङीः, 'श्वन्-युवन्०' ।२।१।१०६। इति वस्योकारः ॥७७॥ अनाषे वृद्धेऽ णिजौ बहुस्वरगुरूपान्त्यस्यान्तस्य व्यः ।२।४।७८। अनार्षे वृद्ध विहितौ यावणिौ तदन्तस्य सतो बहुस्वरस्य गुरूपान्त्यस्य नाम्नोऽन्तस्य ष्यः स्यात् । कारीषगन्ध्या। बालाक्या। अनार्षइति किम् । वासिष्ठी । वृद्धइति किम् । आहिच्छत्री । अणिन इति किम् । आतभागी । बहुस्वरेति किम् । दाक्षी । गुरुपान्त्यस्येति किम् । औपगवी । अणिजन्तस्य सतो बहुस्वरादिविशेषणं किम् । दौवार्या । औडुलोम्या ॥७॥ गुरुग्रहणादनेकव्यञ्जनव्यवधानेऽपि भवति । गुरुग्रहणं हि दीर्घ-परिग्रहा-थं संयोगपरपरिग्रहाथं च अन्यथा दीघोपान्त्येत्युच्येत । कारीषगन्ध्येति-करीषस्येव गन्धो यस्य स करीषगन्धिः, 'वोपमानात्' ।७।३।१४७। इतीत्समासान्तः । करीषगन्धे-र्वृद्धमपत्यं स्त्री 'डसोऽ पत्ये' ।६।१।२८। इत्यण - अनेन • 'प्यादेशः, षकार इत् । शब्दशक्ति-स्वाभाव्यात् ष्यादेश आबन्तसहित एव स्त्रीलिङ्गमभिव्यनक्ति । बालाक्येति-बलाकाया अपत्यं स्त्री 'बाह्वादिभ्यो गोत्रे'।६।१।३२। इतीत्रि इअन्तत्वादनेन ध्यादेशः । वाशिष्ठीति-'ऋषिवृष्ण्य०' ।६।१।६१। इत्यण् । आहिच्छनीति-अहिच्छत्रे जाता 'जाते' ।६।३।१८। इत्यण् । आर्तभागीति-ऋतभागस्यापत्यमिति 'बिदादेवृद्धे' ।६।१।४१। इत्यत्र । दाक्षीति-दक्षस्यापत्यम् 'अत इन'।६।१।३१। इती, 'नुर्जाते:' ।२।४।७२। इति डीः । औपगवीति-उपगोरपत्यं स्त्री औपगवी। दौवार्यत्यादि द्वारस्यापत्यं स्त्री 'अत इन' ।६।१।३१। इतीन , 'द्वारादेः' १७१६। इत्योकारः ध्यादेशश्च । अत्रेत्रः पूर्वमबहुस्वरत्वेऽपीभि सति Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुस्वरत्वादादेशो भवति । उडुलोम्नोऽपत्यं बाह्वादित्वादिनि 'नोपदस्य . तद्धिते' ७४।६१। इत्यन्त्यस्वरादेल कि च औडुलौम्या, अत्रेतः पूर्व नकारस्यान्त्यत्वादकारस्याऽ गरूपान्त्यत्वे च सत्यपीधि सत्यनो लोपे ओकारस्य गुरूपान्त्य-त्वा-दादेशो भवति । तदर्थमेवाणिअन्तस्य सतो . बस्वरादिविशेषणं कृतम् ॥७८।। कुलाख्यानाम् ।२।४७६ कुलमाख्यायते यकाभिः तासामनार्षवृद्धाणिजन्तानामन्तस्य स्त्रियां ष्यः स्यात् । पौणिक्या । गौप्त्या । अनार्ष इत्येव गौतमी ॥७९॥ कुलमाचक्षन्ते व्यपदिशन्तीति कुलाख्याः यद्वा कुलमाख्यायते आभिरिति 'स्थादिभ्यः कः' ।५।३।१२। इति के कुलाख्याः । बाहुलकात्स्त्रीत्वम् । स्वप्रभवस्यापत्यसन्तानस्य व्यपदेशकाः पुणिकप्रभृतयः । अबहुस्वरागुरूपात्याथं वचनम् । यकाभिरिति 'त्यादि-सर्वादे०:' ७।३।२६। इत्यक् । पौणिक्येति पुणिकस्यापत्यं पौत्रादि 'शि वादेरण्' ।६।१।६०। इत्यणः स्थाने ष्यादेशः । गौप्त्येति–'गुप्तस्यापत्यं 'अत इत्र' ।६।१।३१। इतीत्र , अनेन ध्यादेशः । गौतमस्येति-'ऋषिवृष्ण्य०' ।६।१।६१। इत्यण, ‘अणभे ये.' ।२।४।२०। इति डीः ॥७॥ क्रौड्यादीनाम् ।।४।८० कौडि इत्यादीना-मणिबन्तानामन्तस्य ष्यः स्यात् । क्रौडमा । लाड्या ॥८॥ अबहुस्वरागुरूपान्त्यार्थोऽ नन्तरापत्यार्थश्चारम्भः । क्रोडस्यापत्यं क्रोडिः। स्त्री कोड्या । क्रोडि: लाडि: एतावित्रन्ती ॥१०॥ भोजसूतयोः क्षत्रियायुवत्योः ॥२॥४॥८॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) •अनयोरन्तस्य यथासंख्यं क्षत्रियायुक्त्योः स्त्रियां ष्यः स्यात् । मोज्या क्षत्रिया। सूत्या युवतिः। अन्या तु भोजा । सूता ॥१॥ भोज्या-भोजवंशजा क्षत्रियेत्यर्थः यदा भोजशब्देन क्षत्रिया क्षत्रियवंशजा स्त्री प्रतिपाद्यते तदा 'जाते..' ।।४।५४। इति ङीप्रत्ययस्यापवादोऽ-नेन ध्यादेशः । सूत्या प्राप्तयौवना मानुषीत्यर्थः । यदा सूतशब्देन प्राप्तयौवना स्त्री प्रतिपाद्यते तदाऽनेन ध्यादेशोऽ न्यत्र त्वादेव ॥१॥ दैवयज्ञिशौचिवृक्षिसात्यमुनिकाण्ठे-विद्धर्वा ।।४।। एषामिनन्तानां स्त्रियामन्तस्य ष्यो वा स्यात् । देवयज्ञया । देवयज्ञी । शौचिवृक्ष्या । शौचिवृक्षी । सात्यमुगया । सात्यमुनी। काण्ठेविद्धया । काण्ठेविद्धी ॥२॥ इनन्तमात्र निर्देशात् पौत्रादौ प्राप्ये प्रथमापत्ये त्वप्राप्ते विभाषा । देवः एव याः पूजनीयः यस्य स देवयज्ञः । शुचिर्वृक्षो यस्य स शुचिवृक्षः। सत्यमुग्रं यस्य स, अत एव निर्देशान्मोन्तः । कण्ठे विध्यते स्म, तदा 'तत्पुरुषे कृति' ।३।२।२०। इत्यलुप् यदा तु कण्ठे विद्धमनेन तदा 'अमुर्द्ध मस्तकात्' ।३।२।२२। इत्यलुप् । देवयज्ञस्य शुद्धिवृक्षस्य सत्यमुग्रस्य कण्ठेविद्धस्य वाऽ पत्यमिति 'अत इत्र'।६।१३१। इतीत्र ॥२॥ 'ध्या पुत्रपत्योः केवलयोरीच तत्पुरुषे ।२।४।३।. मुख्यऽऽबन्तस्य ष्यः पुत्रपत्योः केवलयोः परयोस्तत्पुरुष समासे ईच् स्यात् । कारीषगन्धीपुनः । कारीषगन्धीपतिः। येति किम् । इभ्यापुत्रः । केवलयोरिति किम् । कारीषगाध्यापुत्राकुलम् ॥८३॥ प्या इत्यत्र 'दीर्घड्याव्' ।२।४।४५। इति, सूत्रत्वाद्वा सेलु। पुत्रपत्योरित्यत्र राजदन्तादित्वातु सौत्रनिर्देशाद्वा लघ्व०।३।१।१६०। इति पति-शब्दस्य न Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वनिपातः । इभमर्हतीति- 'दण्डादेयं |६|४|१७८ | 'गौणो ङयादिः ' |७|४|११६ | इति गौणस्य प्रकृत्यादेः समुदायस्य विशेषणेन भावात् अतिकारीषगन्ध्यापुत्र इत्यत्र ई च न भवति मुख्यस्य त्वधिकस्यापि विशेषणेन भावात् परमकारीषगन्धीपुत्र इत्यत्र ईच् भवत्येव ॥ ८३ ॥ | बन्धौ बहुव्रीहौ | २|४|८४॥ मुख्यssबन्तस्य यो बन्धौ केवले परे बहुव्रीहावीच् स्यात् । कारीषगन्धबन्धुः । केवल इत्येव । कारीषगन्ध्याबन्धुकुलम् । मुख्यइत्येव ? अंतिकारिषगन्ध्या बन्धुः ॥ ८४ ॥ • कारीषगन्ध्या बन्धुरस्य कारीषगन्धीबन्धुः । बन्धोः कुलम् बन्धुकुलम्, कारीषगन्ध्या बन्धुकुलम् कारीषगन्ध्याबन्धुकुलम् । अतिकारीषगन्ध्या बन्धुरस्येति अतिकारीषगन्ध्याबन्धुः || १४ || मातमातृमातृके वा | २|४।८५ । मुख्यssबन्तस्य ष्यो मातादिषु केवलेषु परेषु बहुव्रीहावीज् वा स्यात् । कारीषगन्धीमातः । कारीषगन्ध्यामातः । कारीषगन्धीमाता । कारीषगन्ध्यामाता । कारिषगन्धीमातृकः । कारीषगन्ध्यामातृकः ॥८५॥ मातेति निर्देशात् पुत्रप्रशंसामामन्त्र्यमन्तरेणापि पक्षे मातादेशः । अन्यथा मातृशब्देनैव गतार्थत्वात् मातशब्दोपादानमर्थकं स्यात् मातृमात कशब्द योश्च भेदेनोपादानात् "ऋन्नित्यदितः ” |७|३|१७१ । इति ऋदन्तलक्षणः प्रत्ययोsपि विकल्प्यते ॥८५॥ अस्य उघां लुक | २|४|८६ | Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) यो परे ऽस्य लुक् । स्यात् । मद्रचरी ॥८६॥ मद्रेषु देशेषु चरतीति 'चरेष्टः" ।५।१।१३८। 'अण ये०' ।२।४।२०। इति टित्वात् ङीः, अनेनाकारलोपः ।।८६॥ - मत्स्यस्य यः ।२।४।८७। मत्स्यस्य यो ङघा लुक् स्यात् । मत्सी ॥७॥ ननु ङ्यामिति 'सप्तम्याः पूर्वस्य' ७४।१०५॥ तच्चानन्तरस्येति परे 'स्वरस्य प्राग्विधौ ।७।४।११०। इत्यकारलुचः स्थानिवद्भावाद् व्यवधानाद्यकारलोपो प्राप्नोतीति चेत्सत्यं वचनादेकेन वर्णेन व्यवधानमाश्रीयत इति ॥७॥ व्यञ्जनात्तद्धितस्य ।२।४।८८। व्यञ्जनात्परस्य तद्धितस्य यो ङमा लुक् स्यात् । मनुषी। व्यञ्जनादिति किम् । कारिकेयी । तद्धितस्येति किम् ? वैश्यी ॥८॥ मनुषीति-मनोरपत्यं स्त्री मनुषी 'मनोर्याणी षश्चान्तः' ।६।१।६४। इति ये षागमे च गौरादित्वाद् ड्याम् 'अस्य ङयां लुक' ।।४।८६: इत्यकार'लोपेऽनेन यलोपः । कारिकेयीति-कारिकाया अपत्यं स्त्री 'व्याप्त्यु०' ।६।१७०। इत्येयणि 'अणत्रेये.'।२।४।२०। इति कीः । वैश्यीति–वैश्यस्य भार्या वैश्यी 'धवाद्योगाद०' ।२।४।५९। इति की अत्र यकारो न तद्धितसम्बन्धी अपि त्वौणादिकः ॥१८॥ सूर्यागस्त्ययोरीये च ।२।४।। अनयोर्यों यामीये च प्रत्यये लुक् स्यात् । सूरी। आगस्ती। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) सौरीयः । आगस्तीयः ॥८६॥ सूर्यस्य भार्या सूरी 'धवाद्यो०' ।२।४।५६इति ङीः । अगस्त्यस्येयम् 'तस्येदम्' ।६।३।१६। इत्यणि अण। ०।२।४।२०। इति ङ्याम् आगस्ती। सौरीयाऽऽगस्तीयशब्दयोः प्रथमं देवतार्थेऽण् पश्चादिदमर्थे 'दोरीयः' ।६।३।३२। इतीयः, 'अवर्णेवर्णस्य' ।७।४।६८। इत्यकारलोपोऽनेन यलोपः 'एक-देशविकृतमनन्यवत्' इति न्यायात् सौर्या-गस्त्ययोरपि सूर्याऽगस्त्य- . शब्दाभ्यां ग्रहणम् ॥८॥ तिष्यपुष्ययोर्भाणि ।२।४।६०। भं नक्षगं तस्याणि परे ऽनयोर्यो लुक स्यात् । तैषी रात्रिः, पौषमहः । भाणीति किम् । तैष्यश्चरुः ॥६॥ तिष्येण चन्द्रयुक्त न युक्ता-तैषीरात्रिः । पुष्येणचन्द्रयुक्त न युक्तमहः पौषमहः, अत्र चन्द्रयुक्तात्काले०' ।६।२।६। इत्यण् 'अवर्णेवर्णस्य' ।७।४।६८। इत्यकारलोपेऽनेन यलोपः । तैष्यश्चरुरिति-तिष्यो देवताऽस्य तैष्यश्चरः, देवतार्थेऽण् ॥१०॥ आपत्यस्य क्यव्योः ।२।४।६१॥ व्यञ्जनात्परम्यापत्यस्य यः क्ये च्वौ च परे लुक् स्यात् । गार्गीयति । गार्गायते । गार्गीभूतः । आपत्यस्येति किम् । साङ्खाश्योयति । व्यञ्जनादित्येव । कारिकेयीयति ॥१॥ पतनं पतः ततोऽन्यत् अपतः, तत्र साधु अपत्यम् अपत्ये भवः आपत्यः तस्य स्थानसम्बन्धे षष्ठी। गार्गीयतीति-गाय॑मिच्छतीति गार्गीयति । 'क्यनि' ।४।३।११२। इतीकारः 'येन नाव्यवधानं.' इति न्यायादीकारादिव्यवधानेपि भवति । गाय॑ इवाचरति गार्गायते । अगार्यो गार्ग्य:भूतः गार्गीभूतः ।'कृभ्वस्तिभ्यां०' ७॥१२६ इति च्वि: 'ईश्चा०' ।४।३।११२। साङ्काश्यीयतीति-संकाशेन निर्वृत्तं 'सुपन्थ्यादेर्व्यः' ।६।२।८४। इति ध्यः Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) सांकाश्यमिच्छतीति सांकाश्यीयति । कारिकेयीयतीति-कारिकाया अपत्यं कारिकेयमिच्छतीति ।६१॥ तद्धितयस्वरेऽनाति ।२।४।६। व्यञ्जनात्परस्यापत्यस्य यो यादावादादिवर्जस्वरादौ च तद्धिते लुक स्यात । गार्यः। गार्गकम् । आपत्यस्येत्येव । काम्पील्यकः । तद्धितेति किम् । वात्स्येन। अनातीति किम् ? गार्यायणः ॥१२॥ गर्गाणां इति-गायें साधुीः 'तत्र साधौ' ।७।१।१५। इति यः । गार्गकमितिगर्गाणां समूहो गार्गकम् ‘गोत्रोक्ष०' ।६।२।१२। इत्यकत्र । काम्पील्यक इति-कम्पीलेन निर्वृत्तं 'सुपन्थ्यादेर्व्यः ।६।२।१४। इति ज्यः । काम्पील्ये भवः काम्पील्यक: 'प्रस्थपुरवहन्ति० ।६।३।४३॥ इत्यका । वात्स्येनेति-वत्संस्थापत्यं वात्स्यः तेन अत्र टायारिनादेशः । गाायण इति-गार्यस्यापत्यं 'यत्रित्रः ।६।१।५४। इत्यायनण् ।।६२॥ बिल्वकीयादेरीयस्य ।२।४॥३॥ नडादिस्था बिल्वादयः। तेषां कीयप्रत्ययान्तानामीयस्य तद्धितयस्वरे लुक् स्यात् । बैल्वकाः । वैणुकाः । बिल्वकीयादेरिति किम् । नाडकीयः ॥६॥ नडादिषु बिल्वादीनां पाठः तेषांमि कीयप्रत्ययान्तामिह बैल्वका ग्रहणम् । इति-बिल्वा सन्त्यस्यामिति 'नडादेः कीथः' ।६।२।१२। इति कीये बिल्वकीया तस्यां नद्यां भवाः बल्वकाः भवे' ६।३।१२३। इत्यण् । वेणवः सम्त्यस्यामिति वेणुकीया नाम नदी तस्यां भवाः वैणुकाः । नाडकीय इतिनायं बिल्वकीयादिरिति कीयप्रत्ययान्तस्याणरूपस्वरादिप्रत्यये परेऽपि न भवति ॥६॥ न राजन्यमनुष्ययोरके ।२।४।६।। - - Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) - अनयोयो-ऽके परे लुग न स्यात् । राजन्यानां समूहो राजन्यकम् । एवं मानुष्यकम् ॥६४॥ राज्ञोऽपत्यं राजन्यः 'जाती राज्ञः' ।६।१।१२। इति यः, 'अनोऽट्ये ये' ७।४।५१। इति निषेधादनो लुगभाव: । राजन्यानां समूहः 'गोत्रोक्ष' ।६।२१२। इत्यकत्र । 'मनोरपत्यं 'मनोर्याणी षश्चान्तः' ।६।१।१४। इति ये षागमः, मनुष्याणां समूहः 'गोत्रो०६।३।१२। इत्यकत्र । तद्धितयस्वरे ।२।४।६२। इति यलोपे प्राप्त प्रतिषेधोऽयम् ॥१४॥ . यादेगौणस्याक्विपस्तद्धितलुक्यगोणीसूच्योः ।२।४॥६॥ यादेः प्रत्ययस्य गौणस्याक्विबन्तस्य तद्धितलुकि लुक् स्यात् । नतु गोणीसूच्योः । सप्तकुमारः । पञ्चेन्द्रः। पञ्चयुवा । द्विप गुः । गौणस्येति किम् । अवन्ती । अक्विपइति किम् । पञ्चकुमारी। अगोणीसूच्योरिति किम् । पञ्चगोणिः । दश सूचिः ॥६५॥ सप्तकुमार इत्यादि सप्त कुमार्यो देवताऽस्य संख्या समाहारे०१३।१।६६। इति द्विगुसमास:, देवतार्थस्याणः 'द्विगोरन' ।६।१।२४। इति लोपेऽनेन डीप्रत्ययस्यापि लोपः, 'निमित्ताभावे०' इति न्यायात् 'अस्य ङयां लुक्' ।२।४।६६। इति ड्यभावे तन्नैमित्तिकस्याल्लुकोऽप्य-भावेऽकारः प्रत्यावृत्तः एवं पञ्चेन्द्राण्यो देवताऽस्य पञ्चेन्द्रः । 'सन्नियोगशिष्टानामेकापायेऽन्यतरस्याप्यपाय' इति न्यायात् डीनिवृत्ती तत्संनियोगशिष्ट: आनपि निवृत्तः । पञ्चभिः युवतिभिः क्रीतः पञ्चयुवा 'मूल्यैः क्रीते' ।६।४।१५०। इतीकण 'अनाम्न्यद्विः प्लुप्' ।६।४।१४। इति लोपे स्त्रीविहित-तिप्रत्ययस्यापिनिवृत्तिः । एवं द्वाभ्यां पङ्गु-भ्यक्री-द्विपङ्गुः । अवन्तीति-अवन्तेरपत्यं स्त्री 'दुर्नादि०' ।६।१।११८। इति ध्यस्य 'कुन्त्यवन्तेः०' ।६।१।१२१। इति लोपः,पञ्चकुमारीति-कुमारीमिच्छतीति क्यनि कुमारीयतीति ततःक्विपि Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) कुमारी ततः पञ्च कुमार्यो देवताऽस्य पञ्चकुमारी। पञ्चगोणिरितिपञ्चभिः गोणीभिः क्रीतः 'मूल्यैः क्रीते' ।६।४।१५०। इतीकणः 'अनाम्न्यद्वि:०' ।६।४।१४१। इति लोपः । गौरादिङीप्रत्ययस्य निवृत्त्यभावे 'गोश्चान्ते.' ।२।४।६६। इति ह्रस्वत्वम् एवं दशभिः सूचीभिः क्रीतः दशसूचिः ॥६५॥ गोश्चान्ते ह्रस्वो ऽनंशिसमासेयो-बहुव्रीहौ ।२।४।६६। गौणस्याक्विपो गोङाद्यन्तस्य चान्ते वर्तमानस्य ह्रस्वः स्वात् । न चेदसावंशिसमासान्तइयस्वन्तबहुब्रीह्यन्तो वा । चित्रगुः । निष्कौशाम्बिः । अतिखट्वः । अतिब्रह्मबन्धुः । गौणस्येत्येव ? सुगौः । राजकुमारो । अक्विप इत्येव ? प्रियगौः। प्रियकुमारी चैत्रः । गोश्चेति किम् । अतितन्त्रीः । अन्त इति किम् । गोकुलम् । कुमारीप्रियः । कन्यापुरम् । अंशिसमासादिवर्जनं किम् । अर्द्धपिप्पली । बहुश्रेयसी ना ॥६६॥ सुगौरित्यादि-शोभना गौ: सुगौः। राज्ञः कुमारी राजकुमारी । प्रियगौरित्यादि-गामिच्छति, क्यन्, गव्यतीति क्विप्, ततः प्रिया गोरस्य प्रियगौः। कुमारीमिच्छतीति क्विप ततः प्रियश्चासी कुमारी च प्रियकुमारी चैत्रः । अर्द्धपिप्पलीति-अद्ध पिप्पल्याः ‘समेंऽशेऽद्ध' ।३।१।५४। इत्यंशितत्पुरुषः । बह्वधः श्रेयस्यो यस्य स बहुश्रेयसी ईथस्वन्तवहुव्रीहित्वादत्र न ह्रस्वः ।।६। क्लोबे।।४।। नपुंसकवृत्तेः स्वरान्तस्य नाम्नो ह्रस्वः स्यात् । कोलालपम् । अतिनु कुलम् ॥६७॥ कोलालपमिति-कीलालं पिबति यत्कुलं तत्कीलालयम् । नावमतिक्रान्तम्अतिनु । ॥१७॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) वेदूतोऽनव्ययय्वृदीच्ङीयवः पदे | २|४|| ईदूतोरुत्तरपदे परे ह्रस्वो वा स्यात् । न चेत्तावव्ययौ वृतौ ईचौ ङयौ इयुवस्थानौ च स्याताम् । लक्ष्मीपुत्रः । लक्ष्मिपुत्रः खलपूपुत्रः । खलपुपुत्रः । अव्ययादिर्वजनं किम् । काण्डीभूतम् । इन्द्रपुत्रः । कारीषगन्धीपुत्रः । गार्गीपुत्रः । श्रीकुलम् । कु लम् ॥ ६८ ॥ काण्डीभूतमिति - ' कृभ्वस्ति०' | ७|२| १२६ । इति च्वि:, 'ईश्चावर्ण ० ' |४|३।१११ । इतीकारः । 'ऊर्याद्य ० ' | ३|१|२| इति गतिसञ्ज्ञा, 'गतिः' | १|१|३६| इत्यव्ययसंञ्ज्ञा । इद्रहू-पुत्रइति - इन्द्र ह्वयतीति क्विप् यजादि ० ' | ४|१|७६ | इतिवृत् ' दीर्घमवो ० |४| १|१०३ | इति दीर्घत्वं पुत्रशब्देन षष्ठीसमासश्च । गार्गीपुत्र इति गर्गस्य वृद्धमपत्यं स्त्रीति गर्गादियत्रः 'यत्रो डायन् च वा' | २|४|६७ | इति ङीः 'व्यञ्जनात्त०' | २|४|| इति यलुक्, गार्ग्याः पुत्र इति षष्ठीसमासश्च ॥ ६८ ॥ ङापो बहुलं नाम्नि | २|४|| ङन्तस्यान्तस्य चोत्तरपदे संज्ञायां ह्रस्वः स्याद्, बहुलम् । भरणिगुप्तः । भरणीगुप्तः । रेवतिमित्रः । रेवतीमित्रः । शिलवहम् । शिलावहम् । गङ्गमहः । गङ्गामहः ॥६॥ ङीप्रत्ययसाहचर्यात् आपः प्रत्ययस्य ग्रहणं न त्वाप्नोते : क्विन्तस्येत्याहआबन्तस्येति क्वचित्प्रवृत्ति क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । विविधानं बहुधा समीक्ष्य, चातुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ॥ भरणीभिर्गुप्तः ' कारकं कृता' | ३|१|६८ | इति समासः । वहतीति वहम् शिलाया वह शिलावहम् । गङ्गायाः महः गङ्गमहः, गङ्गामहः। संज्ञा-शब्दाः एते ||६|| , Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) त्वे ।।४।१०। ङयाबन्तस्य त्वे परे बहुलं ह्रस्वः स्यात् । रोहिणित्वम् । रोहिणीत्वम् । अजत्वम् । अजात्वम् ॥१००॥ 'भावे त्वतल्' ।७।११५५॥ इति त्वप्रत्ययः ॥१००॥ भु वोऽच्च कुसकुटयोः ।।४।१०१। अनयोः परयो यो ह्रस्वो-ऽच्चस्यात् । भ्रकुसः । भ्र कुंसः । भ्रकुटिः । न कुटिः ॥१०१॥ भ्र वी कुसयतीति 'कर्मणोऽण्' ।५।१७२॥ इत्यण। भ्र वः कुटिः कौटिल्यमित्यय. ॥१०१॥ मालेषीकेष्टकस्यान्ते-ऽपि भारितूलचिते ।।४।१०२। एषां केवलानामन्तस्थानां च भार्यादिषु परेषु यथासंख्यं ह्रस्वः स्यात् । मालभारी । उत्पलमालभारी। इषीकतूलम् । इष्टकचितम् ॥१०२॥ . माला च इषीका च इष्टका चेति समाहारद्वन्द्वः । मालादिभिः प्रकृतस्य नाम्नो विशेषणात् तदन्तलाभात् केवलस्य व्यपदेशिवद्भावादह्रस्वसिद्धावन्त-ग्रहणम् ‘ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः' इति न्यायस्य ज्ञापकम् तेन दिग्धपादोपहतः, सौत्रनाडिरित्यादौ पदादेराऽऽयनण्प्रत्ययादयो न भवन्ति । मालां बिभतीत्येवं शीलः 'अजातेः शीले' ।५।१।१५४। इति णिन् मालभारी उत्पलानां माला तां बिभतीति । इषीकायास्तूलम्-इषीकतूलम्। चीयत इति चितम् इष्टकाभिश्चितम् ‘कारकं कृता' ।३।१।६८। इति समासः ॥१०२॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) गोण्या मेये ।२।४।१०३॥ गोप्या मानवृत्त रुपचारान्मेयवृत्तह्रस्वः स्यात् । गोण्या मितो। गोणिः ॥१०३॥ गोण्या मितो धान्यादिगोणिः । विनैव तद्धितेन गोणीशब्दो गोणीप्रमितेऽर्थे वीह्यादावुपचार.द् वर्तते यथा प्रस्थ-प्रमिते प्रस्थ इति । तरय चायं हस्वः इति सत्रारम्भः अथवा कृतेपि तद्धिते तल्लकि 'ड्यादेगीणस्या० ।२।४।६५। इत्यत्र अगोणीसूच्योरिति प्रतिषेधे ‘गोश्चान्ते०।२।४।६६। इति च समासे एव विधानात् अत्र तदभावात् ह्रस्वार्थ-मिदं सूत्रम्॥१०३।। यादीदूतः के ।२।४।१०४॥ . यादीदन्तानाञ्च के प्रत्यये ह्रस्वः स्यात् । पदिका । सोमपका । लक्ष्मिका । वधुका ॥१०४॥ पट्विकेति-कुत्सिताऽल्पाऽज्ञाता वा पट्वी-'प्राग्नित्यात्कप' ।७।३।२६। इति कप एवं सोमपिकेत्यादावपि । 'अस्यायत्तत्क्षिपका०' ।।४।१११। इत्यकारस्येत्वम् । ननु पटिवकेत्यत्र 'यादीद्वतः के' ।२।४।१०४। इनि हस्वस्य प्राप्तिः, 'क्यङमानि०' ।३।२।५०। इति वद्भावस्य च प्राप्ति-रित्युभयप्राप्तो परत्वात् पुवब्रावो भविष्यतीति पट्विकेति न सिध्यतीति चेत्सत्यमिदं डीग्रहणं निरवकाशं सत् पवनावं बाधते। 'प्रत्ययाप्रत्यययोः० इति न्यायात् काकः पाक: इत्यादी ह्रस्वो न भवति । ककि लौल्ये ककति लोलो भवतीत्यचि पृषोदाराद्यात्वेचकाकः। पचनं पाकःघनिक्तऽनिटश्च'०।४।१।१११॥इति कत्वमिति ककारस्य प्रत्ययत्वा-भावात् ह्रस्वत्वं न भवति । यदा तु कायतेःपिबतेश्च भीणशलि-वलि०' ।उणा० २१। इति कःतदा उणादीना मव्युत्पन्नत्वान्न भवतिव्युत्पत्तिपक्षे तु बहुलवचनान्न भवतीति भावः ॥१०४।। न कचि ।।४।१०५॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) यादीदूतां कचि परे ह्रस्वो न स्यात् । बहुकुमारीकः । बहुकीलालपाकः । बहुलक्ष्मीकः । बहुब्रह्मबन्धूकः ॥१०॥ बहुकुमारीक इत्यादि-बह्वयः कुमार्यो यस्मिन्निति 'ऋन्नित्यदितः' १७।३।१७१। इति कच् एवं बहु-ब्रह्मबन्धक इत्यत्रापि । बहुकीलालपाक इत्यत्र शेषाद्वा' ।७।३।१७५।इति कच् । 'बहलक्ष्मीक इत्यत्रकत्वे पमनडन्नी' ७।३।१७३। इति बहुत्वे तु 'शेषाद्वा' ७।३।१७५। इति कच । 'न कचिं' ।२।४।१०५। इति प्रतिषेधः पूर्वसूत्रे 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य' इति न्यायस्याभावज्ञापनार्थस्तेन शबरोपलक्षिता जम्बूः शबरजम्ब्वां भवः शाबरजम्बुकः ‘उवर्णादिकण् ।६।३।३६। इतीकण 'ऋवणोवर्ण०' ७।४।७१। इति सूत्रेणेकण इकारस्य लोपः तलोऽनेन ह्रस्वः सिद्धः । अन्यथा 'तस्य तुल्ये० ' ७१।१०॥ इति विहितस्य कस्यैव ग्रहणं स्यात् न तु कपादेः ॥१०॥ - नवाऽऽपः ।२।४।१०६। आपः परे ह्रस्वो वा स्यात् । प्रियखट्वकः । प्रियखट्वाकः । ॥१०६॥ पूर्वेण प्रतिषेधे प्राप्ते पक्षे ह्रस्वार्थमिदम् । प्रिया खट्वा यस्येति बहुव्रीही 'शेषाद् वा' ।७।३।१७५॥ इति कचि पक्षेऽनेन ह्रस्वत्वे प्रियखट्वक इत्यादि ॥१०६॥ इच्चापु सो ऽनित्क्याप्परे ।२।४।१०७। आबेव परो यस्मान्न विभक्तिस्तस्मिन्ननितः प्रत्ययस्यावयवे के परेऽ-पुल्लिङ्गार्थाद्विहितस्यापस्स्थाने इह्रस्वौ वा स्याताम् । खबिका । खट्वका । खट्वाका । अपुंस इति किम्। सविका। अनिदिति किम् । दुर्गका। आप्पर इति किम् । प्रियखट्वाको Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) ना। अतिप्रियखट्वाका स्त्री । आप इत्येव । मातृका ॥ १०७ ॥ : इत् अनुबन्ध यस्य स नित् न निदनित्तस्य सम्बन्धी क् अनित्क् तस्मिन् । अनि इतिपर्युदासेन प्रत्ययस्यैव कस्य ग्रहणं तेन 'नरिका - मामिका' ।२।४।११२। सूत्रादित्त्वशासनमर्थवद् भवति । अन्यथा नरान् कायति, ममेयं मामिका इत्यत्र इत्त्वनिपातनमनर्थकं स्यादनेन प्रकृतसूत्रेणैव सिद्ध ेः । आपीति उपश्लेषसप्तम्यैव आबुपश्लिष्टे ककारे इत्यर्थस्य सिद्ध परग्रहणं. नित्यार्थमित्याह - आबेव पर इति । ननु आबादेः स्त्रीवाचिशब्दादेव विधानात्, पुल्लिङ्गार्थादापोऽभावाद् विशेषणमिदं निरर्थकमिति चेन्न शब्दस्य यत्प्रवृत्तिनिमित्तं तदेव पुंस्त्वस्य स्त्रीत्वस्य वान्वयितावच्छेदकं भवति तादृशशब्दभिन्नश्शब्दोऽपुल्लिङ्गार्थ उच्यते । सर्वशब्दस्य च यत्प्रवृत्तिनिमित्तं पुंस्त्वस्यान्वयितावच्छेदकं तदेव च स्त्रीत्वस्यापीति नाऽपुल्लिङ्गाथंत्वम्, खट्वाशब्दस्यैतादृशम् अपुंल्लिङ्गार्थत्वम् । खट्विकेत्यादि'कुत्सिताल्पाज्ञाते | ७|३|३३| सूत्रात् प्, 'ङधादीदूतः | २ | ४|१०४| सूत्रान्नित्यं ह्रस्वे प्राप्तेऽनेन इकारो ह्रस्वश्च विकल्पेन तद्विमुक्त चाकार इति । सर्विकेति — सर्वशब्दस्य यत्प्रवृत्तिनिमित्तं तदेव पुंस्त्वस्यान्वयितावच्छेदकं तदेव च स्त्रीत्वस्यापीति नापुंल्लिङ्गार्थत्वम् । सर्वा नाम काचित् ततः 'यावादिभ्यः | ७|३|१५| सूत्रात्के 'ङयादीदूतः के' | २|४|१०४| सूत्रात् ह्रस्वत्वे ‘अस्यायत्त० ।२।४।१११ | सूत्रादिकारः, सर्वादेः सर्वशब्दस्य तु 'त्यादि - सर्वादेः० | ७|३|२९| सूत्रेणान्त्यस्वरात् प्रागकि सर्विका प्रत्युदाहरणं त्वाद्यमेव न तु द्वितीयं कात्पूर्वमापोऽभावेन द्वङ्गविकलत्वात् । दुर्गकेति-अनुकम्पिता दुर्गादेवीति 'लुक्युत्तरपदस्य क्पन् | ७|३|३८| सूत्रात् पन् 'ङयादीदूत : ० | २|४|१०४ | सूनात् ह्रस्वः । प्रियखवाकः - अन नाप्परः कः । प्रियखट्वाकमतिक्रान्ता अतिप्रियखट्वाका, अत्राप्याप्परो न कः, प्रथमं द्वितीया पश्चादाबिति न भवति । लुप्त द्वितीयाविभक्तिव्यवहितत्वात् । जननीवमातुस्तुल्या मातृका, 'तस्य तुल्ये० | ७|१|१०८ | सूत्रेण कप्रत्ययः, चन एवात्र मातृशब्दः, न तु धान्यमाता मिभीते इति व्युत्पन्नो मातृशब्दः । तस्याऽपंंस इत्यनेनैव व्यावृत्तत्वात्, आबित्येवेत्यस्य प्रत्यदाहरणता न स्यात् ॥ १०७॥ स्वज्ञाऽजभस्त्राऽधातुत्ययकात् | २|४|१०८ । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ . ) स्वज्ञाजभस्त्रेभ्यो धातुत्यवर्जस्य यौ यको ताभ्यां च परस्याप स्थाने ऽनित्क्याप्परे परत इकारो वा स्यात् । स्विका । स्वका। ज्ञिका। ज्ञका। अजिका। अजका । भस्त्रिका । भस्त्रका । इभ्यिका। इभ्यका। चटकिका । चटकका । धातुत्यवर्जन किम् । सुनयिका। सुपाकिका । इहत्यिका। आप इत्येव । काम्पोल्यिका ॥१०॥ कुत्सिता स्वा ज्ञातिःस्विका स्वका ज्ञांतिधनाख्यामामसर्वादित्वात्अकोऽभावे कप्प्रत्ययान्तोऽयम् । इभमहतीति-'दण्डादेर्यः ।।४।१७८। इति ये कत्सिताद्यर्थे कपि आपि विकल्पेनेत्त्वे इभ्यिका इभ्यका। शोभनो नयो यस्याः सा सुनया 'यादीदूतः' ।२।४।१०४। इति ह्रस्वत्वे 'अस्याः ' ।२।४।१११। इतीकारे च सुनयिका । इहत्यिकेति-इह भवा इहत्या । 'क्वेहा०' ।६।३।१६। इति त्यच् । काम्पील्यिकेति-कम्पीलेन निर्वृत्तं काम्पील्यम् सुपन्थ्यादेयं ।६।२।८४। इति ज्यः । तत्र भवा 'प्रस्थपूर०' ।६।३।३। इति योपान्त्यलक्षष्णेऽकन उत्तरसूत्रेणेह नित्यमिकारः ॥१०॥ द्वषसूतपुत्रवृन्दारकस्य ।२।४।१०६। एषामन्तस्यानित्क्याप्परे इर्वा स्यात् । द्विके द्वके। एषिका। एषका । सूतिका। सूतका। पुत्रिका। पुत्रका । वृन्दारिका । • वृन्दारका ॥१०॥ आप इति निर्वृत्तं पृथग्योगात् 'त्यादिसर्वादेः' ।।३।२६। इत्य कित्यकाद्यत्वे आपि 'औता' ।।४।२०। इत्येत्त्वे विकल्पेऽनेनेत्त्वे च द्विके द्विके इति पुत्रिकेति-पुत्रशब्दात् कुत्सितादौ कपि आबादी च, कृत्रिमः पुत्र इति वा 'तनुपुत्राऽण' ।७।३।२३। इति कः । प्रशस्तं वृन्दमस्या अस्तीति वृन्दात्' १७।२।११। इत्यारके वृन्दारिकेत्यादि, ततः आप। द्विशब्दसाहचर्यादेषेति सर्वादेः कृतविकारस्यैतदो निर्देशः तेनेषेर्णकादिप्रत्ययान्तस्या-विकृतस्य- ' तच्छन्द-स्य च न भवति । इच्छतीति-एषिका । एता एव एतिकाः ॥१०॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) वौ वत्तिका २।४।११०॥ शकुनावर्थे वत्तिकाया इत्वं वा स्यात् । वत्तिका । वर्तका। वाविति किम् । वत्तिका भागुरिः ११०॥ वर्तयतीति णकः, आप 'अस्यायत्त० ।२।४।१११॥ सूत्रादिकारे । वत्तिकाशकनिः । वत्तिका चटिका उच्यते लोके चिडीयां इति च । भागुरिः=लोकायतस्य व्याख्यात्री। लोके आयतं लोकायतम् =नास्तिकशास्त्रम् तस्य व्याख्याता आचार्य भागुरिशब्देनोच्यते, बाहुलकात्स्त्रीलिङ्गः ॥११०॥ N अस्या-यत्तत्क्षिपकादीनाम् ।२।४।१११। यबादिवर्जस्यातोऽनित्क्याप्परे इः स्यात् । पाचिका । मद्रिका । अनित्कीत्येव। जीवका। आप्पर इत्येव ? बहुपरिव्राजका। यदादिवर्जनं किम् । यका । सका। क्षिपका। ध्रुवका ॥१११॥ पृथग्योगाद् नवेति निवृत्तम् । यद्यत्रापि विकल्पः स्यात्तदा 'स्विका, स्वका' इत्यादी 'ड्यादीदूतः०' ।२।४।१०४। सूत्रात् ह्रस्वत्वेऽनेन वैकल्पिकस्य इत्वस्य सिद्धत्वात् 'स्वज्ञाज-भस्त्रा०।२।४।१०८। इत्यादीनां पृथगुपादानमनर्थकं स्यादिति । पचतीति पाचकः, ‘णकतृचौ' ।५।१४८। स्त्री चेत् पाचिका । आप, पश्चात् इत्वम् । मद्रषु भवा मद्रिका। 'वृजिमद्राद्देशात्कः ।६।३।३८। सूत्रेण कप्रत्ययः । जीवतादित्याशास्यमाना या सा जीवका 'आशिष्यकन्' ।५।१७०। सूत्रादकन् । बहवः परिवाजका यस्यां सा बहपरिणाजका नगरी। अत्र विभक्त्यन्तात् आप, अतो न ककारात्पर आप्, विभक्त्या व्यवहितत्वात् । क्षिपका-प्रहरणविशेषः । ध्रुवकाऽऽवपनभाजन-विशेषः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥१११॥ नरिका-मामिका ।।४।११२। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) नरिकामामिकयोरित्वं निपात्यते । नरिका । मामिका ॥११२॥ नरान् कायतीति नरिका ‘आतो डोऽह्वावामः ।५।१७६। सूत्रात् ङः, आप् । ममेयं मामिका ‘वा युष्म०' ।६।३।६७। सत्रात्आप अप्रत्ययः, अस्मदो ममक आदेशश्च, आत् ।२।४।१८। सूत्रात् । संज्ञाया तु केवल०' ।२।४।२९। सूत्रात नित्यं डीः । ककारस्याप्रत्ययसम्बन्धित्वापूर्वेणाप्राप्ते वचनम् ।।११२॥ तारकावर्णकाऽष्टका ज्योतिस्तान्तव-पितृदेवत्ये २।४।११३॥ एतेष्वर्थेष यथासंख्यमेते इवर्जा निपात्यन्ते । तारका ज्योतिः। वर्णका प्रावरणविशेषः । अष्टका पितृदेवत्यं कर्म ॥११३॥ तरतेणके तारका ज्योतिः, तच्च नक्षणं कनोनिका च, नक्षत्रमेवेत्यन्ये, अन्यत्र तारिका । वर्णंयतीति णके वर्णका-तान्तवः प्रावरणविशेषः, अन्यत्र वर्णिका भागुरिः लोकायतस्य । अश्नोतेरोणादिके तककि, अष्टका : पितृदेवत्यं कर्म, अन्यत्राष्टौ द्रोणाः परिमाणमस्या इति के अष्टिका खारी संख्या०' ।६।४।१३०। सूत्रात्कः, 'अस्या०' '२।४।१११। सूत्रीदिकारः । पितृदेवतार्थं कर्मति ‘देवतान्तात् तदर्थे ।७।१।२२। सूत्रात् ये पितृदेवत्यसिद्धम् ।।११३॥ . “इति द्वितीयाध्याये चतुर्थः पादः समाप्तः" श्री पर्युषण में योजी जाती हुई भाषण-श्रेणी . आज ऐसे मंगलमय और मन्त्राक्षरों से परिपूर्ण श्री कल्पसूत्र के श्रवण से जैन वंचित रह जाय, ऐसा प्रचार और ऐसी प्रवृत्तियां भी चल रही है और (सेवा समिति) युवक संघ आदि के नाम से योजित की जाती भाषण-श्रेणी, यह इसी के ही एक प्रतीकरूप है। पहले तो, यह श्री कल्पसूत्र, श्रावक श्राविकाओं को सुनने भी नहीं मिलता था। जबकि आज यह महाभाग्य से यह शक्य बना है, जबकि इसी के श्रवण से वंचित Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) . रहना यह भाग्यहीनता की निशानी है। कोई कहेगा कि 'प्रति वर्ष ये ही बातें सुननी कैसे पसन्द पड ? यह प्रश्न ही, मुल वस्तु की प्रीत का अभाव है, ऐसा सूचित करना है। परमतारक और परम शुद्ध देवों के चरित्र बारह महीने से सुनने का मौका मिले, उसमें बेचैनी किसको आवे? सभी पापप्रवत्तियों से मुक्त और केवलधर्मचारी ऐसे महापुरुषों के चरित्र और गुरु-वर्ग की परम्परा आदि के श्रवण का बारह महीने में मौका मिले, तब इस तरफ अरुचि किसको होवे ? देव के स्वरूप का और गुरु के स्वरूप का चिन्तन तो आत्मा को रोज करना चाहिये। इसी के योग से भी आत्मा की बहत शूद्धि शक्य है और सद्धर्म के सुन्दर आचारों को अपने जीवन में जीने की रणा मिलती है । शुद्ध देवतत्त्व पर, शुद्ध गुरुतत्त्व पर और धर्मतत्त्व पर श्रद्धा को बनाने का एवं आत्मा में श्रद्धा बनी हो तो उसको निर्मल बनाने का यह सुन्दर उपाय है। ऐसे सुन्दर संयोगो से कोई भी आत्मा वंचित रहे अथवा तो वचित बने, ऐसी प्रवृत्ति को तो वे ही आत्मा कर सकती है कि जिन आत्माओं को मोक्ष की अभिलाषा न हो । जो आज एक की एक बात से बेचैनी की बात करते हैं, वे इसका उत्तर दे सकेंगे क्या ? कि उनको श्रीकल्पसत्र में आने वाली सभी बातों की सच्ची ओर शक्य जितनी पूर्ण जानकारी है और इसी कारण अब वे नई कौन सी शोध में निकले हैं ? जिन लोगों को यह लगता हो कि 'श्रीकल्पसूत्र के वाचन में जो बातें देवसम्बन्धी, गुरु सम्बन्धी और धर्म सम्बन्धी कही जाती हैं, उसमें कुछ कस नहीं है, हम इससे भी अच्छा कह सकते हैं, ऐसी मनोवृति वाले मनुष्यों के लिये तो कहना ही क्या ? ऐसे मनुष्यों को श्रीपयु-षण पर्व में मानने वाले भी कैसे कहा जाय ? तो उन्होंने उनका नया कोई पर्व शोध निकालने के बदले, श्रीपर्युषण पर्व में ही और श्रीपर्युषणपर्व के नाम से ही भाषणश्रेणि योजने का क्यो पसंद किया? यह तो सूचना मात्र दी है, इस पर कहने जैसा तो बहुत ही है। यहां तो बात इतनी ही है कि-श्रीपर्युषण में श्रीकल्पसत्र का श्रवण यह अवश्यकर्तव्य है। प०पू० कलिकाल-कल्पतरु आचार्यदेव श्री विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ तृतीयाध्याये तृतीयः पादः ॥ धातोः पूजार्थस्वतिगतार्थाधिपर्यति-क्रमार्थाऽतिवर्जः प्रादिरुपसर्गः, प्राक् च ॥३॥१॥१॥ धातोः सम्बन्धी तदर्थद्योती प्रादिरुपसर्गः स्यात् । स च धातोः प्राक् न परो न व्यवहितः पूजाथी स्वती गतार्थावधिपरी अतिक्रमार्थमतिञ्च वर्जयित्वा। प्रणयति । प्ररिणयति । धातोरिति किम् । वृक्षं वृक्षमभिसेकः पूजार्थस्वत्यादिवर्जनं किम् । सुसिक्तम् । अतिसिक्तम् । भवता । अध्यागच्छति आगच्छत्यधि । पर्यागच्छति । आगच्छति परि। अतिसिक्त्वा । धातोरिति प्राक् चेति च गतिसंज्ञां यावत् ॥१॥ प्र परा अप सम् अनु अव निस् दुस् निर् दुर् वि आङ् नि अधि प्रति परि उप अति अपि सु उत्: अभि इति प्रादिः । अध्यागच्छति आगच्छत्यधि इत्यत्र उपरिभावः, सर्वतोभावश्च प्रकरणादेः प्रतीयते इति गतार्थत्वम् । प्राक-शब्दस्याव्यवहिते वर्तनादाह न पर इत्यादि । धातोरिति प्राक इति च गतिसंज्ञां यावदनुवर्तते ।।१॥ • ऊर्याद्यनुकरणविडाच-श्च-गतिः ।३।१२। एते उपसर्गाश्च धातोः सम्बन्धिनो गतयः स्युस्ते च प्राग् धातोः । ऊर्यादिः-ऊरीकृत्य । उररीकृत्य । अनुकरणम्खाटकृत्य । च्व्यन्तः-शुल्कीकृत्य । डाजन्तः-पटपटाकृत्य । उपसर्गः प्रकृत्य ॥२॥ ऊरीउररी अंगीकरणे विस्तारे च । खाडिति कृत्वा खाट्कृत्य गता Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) विद्यत् । पटपट कृत्येति - अव्यक्ता० |७|२|१४५ । इति डाच्प्रत्यये प्रकृतेद्विभावश्च । खाट् इत्यनुकरणशब्दोऽ त्युत्पन्नः एवमन्यत्र ज्ञेयम् ||२|| कारिका स्थित्यादौ |३|१|३| स्थित्यादावर्थे कारिका गतिः स्यात् । स्थितिर्मर्यादा वृत्तिर्वा । कारिकाकृत्य || ३ || करणं कारिका भावे णकः । कारिका - करणं पूर्वम् इति वाक्येऽपि अनेन गति संज्ञायाम् । अव्ययस्य | ३|२|७| इति षष्ठ्या लुप् । स्थित्यादिरित्यत्रादिशब्दात् यत्न-धात्वर्थ-निर्देशौ गृह्यते । कारिकाकृत्य- स्थिति यत्नं क्रियां वा कृत्वेत्यर्थः । गतिसंज्ञया समास - यबा देश - तागमा- बोद्धव्याः । स्थित्याद्यर्थाभावे तु न भवति कारिकां कृत्वा कर्त्री कृत्वेत्यर्थः । श्लोकवाचिनः कारिका -: शब्दस्य तु सत्यपि धातुसम्बन्धसम्भवे प्रयोगादर्शनाद् ग्रहणाभाव इति 11311 भूषादरक्षेपेऽलं - सदसत् । ३|१|४| एष्वर्थेष्वेते यथासंख्यं गतयः स्युः । सत्कृत्य, असत्कृत्य । अलङ्कृत्य । भूषादिष्विति किम् । अलङ्कृत्वा मा कारीत्यर्थः भूषा - मण्डनम् प्रीत्या संभ्रमः आदर:, क्षपोऽ नादरः । अलकृत्वा अत्र निषेधार्थोऽलंशब्द:, माङा योगेऽ द्यतन्यां ' कारि' इति प्रयोगः, एवं सत्कृत्वा विद्यमानं कृत्वेत्यर्थः असत्कृत्वा अविद्यमानं कृत्वेत्यर्थः, अत्रापि भूषाद्यर्था - भावान्न भवति || ४ || = अग्रहाऽनुपदेशे ऽन्तरदः | ३|१|५| अनयोरर्थयोरेतौ यथासंख्यं गती स्याताम् । अन्तर्हत्य | अद:कृत्यैतत्कर्त्तेति ध्यायति ॥ ५ ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५३ ) अग्रहोऽ स्वीकार:, अन्तर्हत्य-मध्ये हिंसित्वा शन न गत इत्यर्थः । स्वयं परामर्शोऽ-नुपदेशः विशेषाऽ-नाख्यानं वा । अदः कृत्यैतत्कर्तेति ध्यायति चिन्तयतीत्यर्थः । निर्दिष्टार्था-भावे तु न भवति-अन्तर्हत्वा मूषिकां श्येनो गतः परिगृह्य गत इत्यर्थः, अदः कृत्वा गत इति परस्य कथयति । अदस्शब्दस्त्यदादौ, अव्ययमिति केचित् ॥५॥ कणेमन-स्तृप्तौ ।३।१॥६॥ एतावव्ययौ तृप्तौ गम्यमानायां गती स्याताम् । कणेहत्य । मनोहत्य पयः पिबति । तृप्ताविति किम् ? तण्डुलावयवे कणे हत्या ॥६॥ कणेहत्य मनोहत्य पयः पिबतीति कणे इति सप्तम्यन्त-प्रतिरूपकमव्ययमभिलापातिशये वर्तते एवं मन:-शब्दोऽ-प्यत्रैव । अत्यन्तमभिलष्य तन्निवृत्तिपर्यन्तं पिबत्रीत्यर्थः। तण्डलावयवे कणे हत्वेति-तण्डलस्य सूक्ष्माशं विनाश्ये गत इत्यर्थः । मनो हत्वा गतः, चेतो हत्वेत्यर्थः ॥६॥ पुस्तमव्ययम् ।३।१७। एतावव्ययौ गती स्याताम् । पुरस्कृत्य । अस्तगत्य । अव्ययमिति किम् । पुरः कृत्वा नगरीरित्यर्थ ॥७॥ पूर्वपर्यायः पुरः-शब्द:-अनुपलब्ध्यर्थोऽ-स्तंशब्द: अस्तंगत्य पुनरुदेति सविता। पुरः कृत्वा नगरीरित्यर्थः इति । 'नमस्पुरसो०' ।२।३।१। इति सकारोऽप्यत्र न भवति ॥७॥ . गत्यर्थवदो-च्छः ।३।१।८। अच्छेत्यव्ययं गत्यर्थानां वदश्च धातोः सम्बन्धि गतिः स्यात् । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) अच्छगत्य । अच्छोद्य ॥८॥ अन्छेत्यव्ययमाभिमुख्ये दृढार्थे च वर्तते । अच्छगत्येति-अभिमुख गत्वेत्यर्थः । अच्छोद्येति अभिमखं दृढं वा उक्त्वेत्यर्थः ।।८।। तिरो-ऽन्तद्धौं ।३।१६। तिरो-ऽन्तद्धौं गतिः स्यात् । तिरोभूय ॥६॥ तिर:-शब्दोऽन्तद्धौं व्यवधाने वर्तमानो गतिसंज्ञो भवति । तिरस् अन्तर्द्ध चवज्ञातिर्यग्भावेषु । अन्तर्द्धय पचारात अवज्ञा-ऽप्यन्तद्धिरित्यर्थद्वयमस्यात्र विज्ञेयम् । तिरो-भयेति-व्यवहितो भत्वा तिरोधानं व्यवधानं कृत्वेति तदर्थः । तिर्यग्भावेऽर्थे तु न गतिसज्ञा भवति । तिरो भूत्वा ऊर्ध्वस्थितस्तिर्यग्वलित्वेत्यर्थः ॥६॥ . कृगो नवा ।३।१।१०। तिरोऽन्तद्धौ कृगः सम्बन्धि गतिर्वा स्यात् । तिरस्कृत्य । तिरःकृत्य । पक्षे तिरः कृत्वा ॥१०॥ तिरः कृत्वेति-अत्र गतिसंज्ञाभावपक्षे न समांसादिः न वा सकारः । तिर्यग्भावे तु न भवति-तिरः कृत्वा काष्ठं गतः ऊध्वं स्थितं काष्ठं तिर्यक कृत्वेत्यर्थः ॥१०॥ मध्येपदेनिवचनेमनस्य रस्यनत्याधाने ।३।१।११। अनत्याधानमनुपश्लेषोऽनाश्चर्य वा । तदृ त्तय एते ऽव्ययाः कृगयोगे गतयो वा स्युः । मध्येकृत्य । मध्ये कृत्वा । पदेकृत्य । पदे . कृत्वा। निवचनेकृत्य । निवचने कृत्वा । मनसिकृत्य। मनसि कृत्वा । उरसिकृत्य । उरसि कृत्वा ॥११॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५५ ) मनसि-कृत्येत्यादि-उभयत्र निश्चित्येत्य-र्थः । अत्याधानेऽर्थे तु न भवति मध्ये कृत्वा धान्यराशि स्थिता हस्तिनः धानिराशिमुपश्लिष्येत्यर्थः, पदे कृत्वा शिरः शेते पदमुपश्लिष्येत्यर्थः, मनसि कृत्वा सुखं शेते-मनसि सुखंधृत्वेत्यर्थः, उरसि कृत्वा पाणि शेते उरोदेशं पणिना उपस्पृश्येत्यर्थ । अव्ययमित्येव-मध्ये कृत्वा वाचं तिष्ठतीत्यादौ अन्तराले कथयित्वेत्यर्थः । अत्र मध्यशब्दस्य सप्तम्येकवचने 'मध्ये' इति रूपं न त्वव्ययमिति गति सज्ञा न भवति ॥११॥ उपाजेऽन्वाजे ।३।१।१२। एतावव्ययौ दुर्बलस्य भग्रस्य दा बलाधानार्थी कृग्योगे गती वा स्याताम् । उपाजेकृत्य । उपाजे कृत्वा। अन्वा-जे-कृत्य । अन्वाजे कृत्वा . । १२॥ एते अव्यये सप्तम्येकवचनान्तप्रतिरूप के । उपाजे-कृत्येत्यादि-दुर्बलस्य भग्नस्य वा बलाधानं कृत्वेत्यर्थः । दुर्बलस्य बलाधानं वचनादिना प्रोत्साहनादि, भग्नस्य परेण पराजितस्य च बलाधानमपि तदुत्साहसम्पादनादिक्रिया ॥१२॥ स्वाम्येऽधिः ।३।१।१३॥ स्वाम्ये गम्बे-ऽधीत्यव्ययं कृगयोगे गति-र्वा स्यात् । चैत्र ग्रामे • अधिकत्य । अधिक त्वा वा गतः। स्वाम्य इति किम् । ग्राममधिक त्य उद्दिश्येत्यर्थः ॥१३॥ स्वामी-ईश्वरः तस्य भावः स्वाम्यं तस्मिन् इत्यर्थः । चैत्र ग्रामेऽ धिकृत्याधि कृत्वा वा गतः स्वामिनं कृत्वेत्यर्थः । ग्राममधिकृत्येति-चिन्तया ग्राममुहिश्येत्यर्थः । उपसर्गसंज्ञकत्वाद् 'ऊर्याद्य०' ।३।१।२। इति नित्यं गति-संज्ञा ततश्च समासो यबादेशश्च सिद्धः ।।१३॥ साक्षादादिश्चव्यर्थे ।३।१।१४॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एते च्व्यर्थवृत्तयः क गयोगे गतयो वा स्युः । साक्षात्क त्य । साक्षात्क त्वा । मिथ्याक त्य । मिथ्याक त्वा ॥१४॥ साक्षात्कृत्य साक्षात्कृत्वेति-असाक्षाद्भूतं साक्षाद्भूतं कृत्वेत्यर्थः । मिथ्याकृत्य मिथ्याकृत्वेति-अमिथ्याभूतं मिथ्याभतं कृत्वेत्यर्थः । यदा साक्षाद्-.. भूतमेव किंचित् करोति तदा व्यर्थाभावात् साक्षात्कृत्वेत्येव भवति । विप्रत्ययो विकल्पेन भवति। व्यन्तानां तु 'ऊर्याद्यनू०' ।३।१।२। इति . . नित्यमेव गतिसंज्ञा तेन लवणी कृत्य-उष्णीकृत्येत्यादी मान्तत्वं न भवति एतत्सूत्रविहितगति-संज्ञासन्नि-योग एव मान्तत्वस्य निपातनात् । लवणम्, उष्णमपि साक्षादादिः ।।१४।। । नित्यं हस्तेपाणावुद्वाहे ।३।१।१५॥ एतावव्ययावुद्वाहे गम्ये नित्यं कृग्योगे गतो स्याताम् । हस्तेकृत्य । पाणौकृत्य । उद्वाहइति किम् । हस्ते कृत्वा काण्ड गतः ॥१६॥ एतौ सप्तम्यन्तप्रतिरूपकावव्ययौ । उद्वाहे विवाहः पाणिग्रहणमिति यावत् । हस्ते-कृत्य पाणी-कृत्येति-भार्यां कृत्वेत्यर्थः । हस्ते कृत्वा काण्डं गतः इति काण्डं शरं स्वीकृत्येत्यर्थः । नित्यग्रहणाद् वानिवृत्तिः ॥१५॥ प्राध्वं बन्धे ।३।१।१६। प्राध्वमित्यव्ययं बन्धार्थ कृग्योगे गतिः स्यात् । प्राध्वंकृत्य । बन्ध इति किम् । प्राध्वंकृत्वा शकटं गतः ॥१६॥ 'प्राध्वम्" इत्येतन्मकारान्तमव्ययमानुकल्ये वर्तते तच्चानुकूल्यं बन्धहेतुकं भवति तदा कार्यकारणयोरभेदोपचाराद् बन्ध इत्युच्यते अनेकार्थत्वाद् वा मुख्य एवास्य बन्धो-ऽर्थः । प्राध्वङ्कत्येति-बन्धनेना नुकूल्यं कृत्वेत्यर्थः । प्रार्थनादिना त्वानुकूल्यकरणे प्राध्वं कृत्वेति । प्राध्वं कृत्वा शकटं गत इति-प्रगतम-ध्वानं प्राध्वम् अध्व Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) गमने समर्थमध्वाभिमुखं । वा कृत्वेत्यर्थः 'उपसर्गाद०' ७३७८॥ इति सूत्रेणात्समासान्तः 'नोऽ पदस्यः' ७४।६१। इति सूत्रेण न-लोपः ततोऽम् 'अतः स्यमोऽ-म्' ।१।४।५७। ॥१६॥ जीविकोपनिषदौपम्ये ।३।१।१७। एतावौपम्ये कृग्योगे गती स्याताम् । जीविकाकृत्य । उपनिषस्कृत्य ॥१७॥ जोविका-जीवनोपायः उपनिषत् - रहस्यम् । जीविकामिव उपनिषदमिव कृत्वेत्वर्थः । जीवत्यनया जीविका 'नाम्नि पुसि च' ।५।३।१२१। इति नाम्नि स्त्रियां णकः अस्या०।२।४।१११। इत्यस्येकारः। षद्लु विशरणादो' अतः सम्पदादित्वाविवपि 'सदोऽप्रते०' ।२।३६४४इति षत्वे च उपनिषद् । जीविका चोपनिषच्चानयोः समाहार इति जीविकोपनिषद्, सौत्रत्वात् समासान्तविधेनियत्वाद वा 'चवर्गद०७३।१८। इत्यत्समासान्तो न विहितः । उपमानमुपमा, भिदादित्वाङ् उपमैब औपम्यं भेषजादित्वाट् ट्यण् तस्मिन् । औपम्याभावे तु न भवति जीविकाम् उपनिषदं कृत्वा गतः ।।१७११ नाम नाम्नकाक्षं समासो बहुलम् ।३।१।१८॥ नाम नाम्ना सहकार्ये सामर्थ्य विशेषे सति समासो बहुलं स्यात्। लक्षणमिदमधिकारश्च तेन बहुव्रीह्यादिसंक्रमाऽभावे यत्रैकार्थता । तत्रानेनैव समासः । विस्पष्टपटुः । दारुणाध्यायकः । सार्वचर्मीणो रथः । कन्येइव । श्रुतपूर्वः । नामेति किम् । चरन्ति गावो धममस्य नाम्नेति किम् ? चेत्रः पचति ॥१८॥ विस्पष्टं पटु विस्पष्टपट: अत्र गुणविशेषणस्य गुणवचनेन समासः। पटशब्द: पाटवविशिष्टद्रव्यस्य वाचकः तत्र पाटवस्य विस्पष्टमिति विशेषणम् Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) न तु द्रव्यस्य । विस्पष्टमिति नपुंसकम् । अत एव मुख्यस्य सामानधिक - र नास्तीति कर्मधारय तत्पुरुषाभावः । दारुणमध्यायकः दारुणाध्यायकः । अत्र क्रियाविशेषणस्य क्रियावता समासः । सर्वश्चर्मणा कृतः सर्वचर्मण: 'सर्वच - र्मणः ईनेन' | ६ | ३|१६५ । इति ईने 'नोऽपदस्य तद्धिते | ७|४ | ६१ । इत्यन्त्यस्वरादेरनो लोपे नस्य णत्वे च सर्वचर्मीणः । सर्वश्चर्मणा कृत इत्यत्र सर्वशब्दस्य कृतः इत्यनेन सम्बन्धो न तु चर्मणा । समासस्तु सर्व चर्मणोरिति सामर्थ्याभावान्न केनाऽपि समासप्राप्तिरित्यनेन समासः । कम्येइव इत्यत्र केनापि सूत्रान्तरेणाप्राप्तीअनेन समासो विभक्त र्लोपाभावश्च विज्ञेयः । 'ईदूदे० ' |१| २|३४ | इत्यसन्धिः । श्रतः पूर्वमिति श्रुतपूर्वः । बहुलवचनात् अनुव्यचलत् अनुप्रावर्षत् इत्यत्रानाम्नाऽपि समासो भवति । नित्यसंध्यादि समासफलम् समासस्य च नामत्वेऽपि संख्यायास्त्यादिभिरेवोक्तत्वातु स्यायो न भवन्ति पदत्वार्थमुत्पन्नस्य वा प्रथमैकवचनस्य त्याद्यन्तार्थप्राधान्यात् नपुंसकत्वे लोपो भवति ॥ १८ ॥ सुज्वार्थे सङ्ख्या सङ्ख्येये सङ्ख्यया बहुव्रीहिः | ३ | १|१६| सुजsर्थो वारो, वार्थी विकल्पः संशयो वा । तद्वृत्तिसङ्ख्यावाचिनामसङ्ख्येयार्थेन सङ्ख्यानाम्ना सहैकार्थे समासो बहुव्रीहिश्च स्यात् । द्विदशाः । द्वित्राः । सङ्ख्येति किम् । गावो वा । सङ्ख्ययेति किम् ? दश वा गावो वा । सङ्ख्येय इति किम् ? द्विविंशतिर्गवाम् ॥ १६ ॥ दश वा सुजिति - 'द्वित्रि ० ' । ७ २ ११० । इति द्विदंश - दिर्दशाः । द्वो वा त्यो वा द्वियाः । अत्र 'प्रमाणीसंख्या : ० ' | ७|३|१२८ । इति उप्रत्ययः 'आदशभ्यः सङ्ख्या संख्येये वर्तते तु संख्याने' इति न्यायात् यावद् दशशब्दश्रवणं तावत्पर्यन्तं संख्या=तद्वाचकशब्दः सख्येये संख्याविशिष्टे द्रव्यादौ न तु संख्याने परिच्छेदे इत्यर्थः, ततः परम् एकोनविंशत्यादिसंख्या संङ्खयेये संख्याने च वर्तते । तस्मात् अष्टादशपर्यन्तं संख्यावाचकस्य शब्दस्य संख्येयेन सह " सामानाधिकरण्येनैव प्रयोगः ततः परं सामानानिकरण्येन वैयधिकरण्येन च । एको घटः, द्वौ घटौ, यो घटाः, इत्यादि यावदष्टादश घटा न तु घटानां Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) त्रय इत्यादिः । ऊनविंशत्यादिषु च ऊनविंशतिर्विशतिर्वा घटाः, घटानामूनविंशतिरिति च भवति ।।१६॥ आसन्नादूराधिकाध्यद्धा दिपूरणं द्वितीयाद्यन्यार्थे ।३।१।२०। आसन्नादि अर्द्धपूर्वपदं च पूरणप्रत्ययान्तं नाम सङ्ख्यानाम्न. कार्ये समासः स्यात् । द्वितीयाद्यन्तस्यान्यपदस्याणे सङ्ख्येये वाच्य, स च बहुव्रीहिः । आसन्नदशाः। अदूरदशाः। अधिकदशाः । अर्घ्य विशाः । अर्द्धपञ्चविंशा ॥२०॥ अर्धपूर्वपदञ्च पूरणप्रत्ययान्तं नामेति-अर्धशब्द: आदि पूर्वपदं यस्य स चासौ पूरणश्च 'सङ्ख्यापूरणे'।७।१।१५५।इत्यधिकृत्य विधीयमानःपूरणार्थकः प्रत्ययः,प्रत्यये च तदन्तविज्ञानादुक्त पूरणप्रत्ययान्तमिति । नाम्नो वि. शेषणत्वात् नपुसकत्वम् । आसन्नदशाःइति-आसन्ना दश दशत्वं येषां येभ्यो वा 'प्रमाणीसंख्या० ।७।३।१२८। इति ड: नवैकादश वेत्यर्थः । 'आदशभ्यः संख्या०' इति न्यायस्य प्रायिकत्वादत्र दशशब्दः सङ्ख्यायां वर्ततेऽत एव दशत्वमिति पर्यायः प्रदशितः एवम-दूरदशाः । अधिकदशाः इति अधिका दश येभ्यो येषु वा ते अधिकदशा एकादशादयः अधिकत्वं च दशानामेकाद्यपेक्षम् । अवयवेन विग्रहः समुदायः समासार्थः । अत्राल्पीयोवाची अधिकशब्दो गृह्यतेऽत एव विग्रहवाक्ये 'अधिकेन भूयसस्ते' ।२।२।१११। इति विहिते पञ्चमीसप्तम्यौ प्रदर्शिते । अध्य विशा इति-अध्यर्दा विंशतिर्येषां तेऽध्यर्द्ध विशा: त्रिंशदित्यर्थः 'प्रमाणी० ७।३।१२। इति । विंशतेस्तेडिति' ७।४।६७। इति तेर्लोप । अर्धा पञ्चमी यासां ताः 'पूरणीभ्यस्तत्प्राधान्येप्' ।७।३।१३०। इति सूत्रेण अप् समासान्ते 'अवर्णेवर्णस्य' ।७।४।६८। इतीकारलोपे 'आत्' ।२४।१८। इत्यापि जसि च अर्धपञ्चमाः विंशतयो येषान्ते अर्धपञ्चविंशाः ‘एकार्थ चानेकं च' ।३।१।२२। इत्यनेनैव सिद्ध प्रतिपदविधानं डप्रत्ययविधावेतबहवी हिग्रहणाथं तेनासन्ना दशयेषान्ते आसन्नदशा इत्याहदावेवडः स्यात् एकार्थञ्चानेकञ्च'।३।१।२२।इत्येतत्सूत्रनिष्पन्ने तु डो न स्यात यथा प्रिया दश येषान्ते प्रियदशानः । एवमुत्तरसूत्रेऽपि ॥२०॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) अव्ययम् ।३।१।२१॥ अव्ययं नाम सङ्ख्यानाम्नैकार्थ्य समस्यते । द्वितीयाद्यन्याथै सङ्ख्येये वाच्ये स च बहुचीहिः । उपदशाः ॥२१॥ उप समीपे दश येषां ते-उपदशाः नवैकादश वा । योगविभागः उत्तरार्थः। ॥२१॥ एकार्थ चानेकं चा३।१।२२। एकमनेकं चैकार्थ समानाधिकरणमव्ययं च नाम्ना द्वितीयाद्यन्तान्यपदस्याथै समस्यते, स च बहुमीहिः । आरूढवानरो वृक्षः । सुसूक्ष्मजटकेशः । उच्चमुखः ॥२२॥ एकः समानः अर्थः-अर्थोऽधिकरणं यस्य तदेकार्थ-समानाधिकरणम् । एकशब्दो हि नानार्थकः संख्यायां यथा एको द्वौ त्रयः इति । असहायार्थे यथा एकका आगताः, अन्या-झे यथा एके आचार्या प्राहुरिति, प्रधानार्थं यथाक्दतामेकः । अल्पा यथा नैके विनष्टाः,रथाश्च नैके व्यशीर्यन्तेति,अस्ति समाना यथा-वयमेकधर्माण इति-यदाह ___ 'एकोऽन्यार्थे प्रधाने च, प्रथमे केवले तथा । साधारणे समानेऽल्पे, संख्यायां च प्रयुज्यते ॥' .. इति तनायमेकः समानार्थो ग्राह्यः तथा चार्थशब्देन प्रवृत्तिनिमित्ताश्रयत्वेन विवक्षितं द्रव्यं ग्राह्यम् । अर्थशब्दोऽपि नानार्थकः अर्थः प्रयोजने धनेऽभिधेये च' तत्राभिधेयमिह गृह्यते । अधिकरणमिति-अधिकरणं च शब्दस्यार्थ एव आरूढ इत्यत्रशब्दद्वयस्य प्रवृत्तिनिमित्ताश्रय एक एवभूतकालिकारोहणक्रियाश्रयत्वंवानरत्वं चोभयोः प्रवृत्तिनिमित्ते,तयोराश्रयो वानर एक एवेति भवति तयोरेकार्थत्वम् । आरूढो वानरो यं सआरुढवानरो:वृक्षः। शोभना:सूक्ष्मजटाः केशा अस्य स सुसूक्ष्मजटकेश: अयं बहुब्रीहिगर्भो बहुव्रीहिममासः प्रथमं मूक्ष्मा जटा येषां केशानामिति द्विपदबहुव्रीहिणा सूक्ष्मजटरशब्दं निष्पाद्य ततोऽनेन त्रिपदबहुव्रीहिविधानात् । उच्चमुखमस्व सउच्चमुखः । अत्र व्यधिकरणत्वान्न प्राप्नोतीति चकारोऽव्ययानुकर्षणार्थ उपात्तः Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) एवं अन्तर्मध्ये अङ्गानि निमित्तानि यस्य स अन्तरङ्गः एवं बहिरङ्गः । 'तु कामोsस्य स कर्तृ कामः 'तुमश्च मनः कामे' | २|३ | १४० । इत्युभयत्र मलोपः, 'क्वातुमम्' | १|१| ३५ | इत्यव्ययत्वम् । सामानाधिकरण्ये तु अस्ति क्षीरमस्या अस्तिक्षीरा गौः 'एकार्थम् ०' | ३ | १ | २२ | इत्येकार्थेना-पि सिध्यति त्रियावचनत्वे तु त्वस्त्यादीनां 'नाम नाम्न्ये ० ' | ३|१|१८ । इत्यादिनैव बहुलवचनात् सिद्धम् ||२२| उष्ट्रमुखादयः | ३|१|२३| एते बहुव्रीहिसमासा निपात्यन्ते । उष्टुमुखमिव मुखमस्य उष्टुमुखः वृषस्कन्धः । ||२३|| वृषस्कन्धः --- वृषस्कन्ध इव स्कन्धोऽस्य । पूर्वसूत्र ेण समानाधिकरण्ये समासो विहितः प्रकृते तु पूर्वोत्तरपदयोरुपमानोपमेयवृत्तित्वान्न सामानाधिकरण्यमिति पूर्वसूत्रेण समासाप्राप्तौ समासः उत्तरपदादिलोपश्च निपात्यते । यद्वा उष्ट्रादय एव शब्दा वृत्तौ उपमानत्वेन स्थिताः स्वावयवपराः ।।२३।। सहस्तेन | ३|१|२४| तेनेति तृतीयान्तेन सहोऽन्यपदार्थे समस्यते । स च बहुव्रीहिः । सपुत्र आगतः । सकर्मकः || २४|| 'सह' इत्येतन्नाम तुल्ययोगे विद्यमानार्थे च वर्तते । तुल्ययोगे - सह पुत्रण सपुत्र आगतः आगमनमुभयोस्तुल्यम् । विद्यमानार्थे - सह कर्मणा वर्तते सकर्मकः । विद्यमानता व सहार्थो न तु तुल्ययोगः । प्रथमान्तान्यपदार्थार्थं आरम्भः । एवमुत्तरत्रापि । 'सहस्य सोऽ - न्यार्थे । ३।२।१४३ | इति सादेश: 'सहात् तुल्ययोगे' ।७।३।१७८ । इति तुल्ययोगे कचो निषेधात् 'शेषाद् वा ' |७|३|१७५ । इति कजभावः ||२४|| दिशो रूढ्याऽन्तराले | ३|१|२५| Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) रूढया दिग्वाचिनाम रूढ्यै-व दिग्वाचिना सहान्तराले ऽन्यपदार्थे वाध्ये-समासे बहुव्रीहिः स्यात् । दक्षिणपूर्वा दिक् । रूढ्योति किम् । ऐन्द्रयाश्च कौबेर्याश्च दिशोर्यदन्तरालमिति ॥२५॥ रूढि:-समुदायशक्तिः । अन्तरालभूतोऽ-न्यपदार्थो-ऽपि दिगेव प्रत्यासत्तः, अत एवास्य नित्यस्त्रीलिङ्गता। दक्षिणस्याः पूर्वस्याश्च दिशोर्यदन्तरालं सा . दक्षिणपूर्वा दिग्। दिशि वर्तमाना नित्यस्त्रीलिङ्गा एवेति ‘परतः स्त्री० ।३।२।४६। सूत्रेऽ प्राप्ते 'सर्वादयोऽ स्थादौ ।३।२।६१। सूत्रात्पु वद्भावः । इन्द्रो देवताऽ स्या दिशः सा ऐन्द्री। कुबेरो देवताऽ स्याः सा कौबेरी, एतौ शब्दो यौगिको, अतो न समासः किन्तु वाक्यमेव । ऐन्द्रीकौबेरीशब्दयोः योगेनावयवशक्त्यैव दिग्वाचकत्वं न तु रूढया ॥२५॥ तत्रादायमिथस्तेन प्रहृत्येति सरूपेण युद्धेऽव्ययी-भावः ।३।१।२६॥ तत्रेति सप्तम्यन्तं मिथ आदायेति क्रियाव्यतिहारे तेनेतितृतीयान्तं मिथः प्रहत्येतिक्रियाव्यतिहारे समानरूपेण नाम्ना युद्धविषयेऽन्यपदार्थे वाच्ये समासोव्ययीभावः स्यात् । केशाकशि । दण्डादण्डि । तत्रेति तेनेति च किम् ? केशांश्च केशांश्च महोत्वा। मुखं च मुखं च प्रहृत्य कृतं युद्धम् । आदायेति प्रहत्येति च किम् । केशेषु च केशेषु च स्थित्वा, दण्डैश्च दण्डैश्चागत्य कृतं युद्धम् गृहकोकिलाभ्याम् । सरूपेणेति किम् । हस्ते च पादे च गृहीत्वा कृतं युद्धम् । युद्धइति किम् । हस्ते च हस्ते चादाय सख्यं कृतम् ॥२६॥ काकाक्षिगोलकत्यायेन 'मिथः' प्रत्येकमभिसंबन्ध्यते । केशेषु च केशेषु मिथो गृहीत्वा कृतं युद्धं केशाके शि 'ऐकायें ।३।२८। इति स्यादेलु पि केशकेश' इति समासात् 'इज् युद्ध' ७।३।७४। इति समासान्ते इत्रि Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) सति 'इच्यस्वरे दीर्घ आच्च' | ३ |२| ७२ ॥ इति प्रथमकेशशब्दस्याकास्य दीर्घं आकारे वा 'अवर्णेवर्णस्य' | ७|४|६८ | इति द्वितीय केशशब्दस्याकारलोपे च 'केशाकेशि' इति समासरूपनाम्नः उत्पन्नायाः से: 'अनतो लुप्' | ३|२|६| इति लुपि 'केशाकेशीति सिद्धम् । एवं दण्डादण्डि - दण्डैश्च दण्डैश्च मिथः प्रहृत्य कृतं युद्धम् । मिथ इति क्रियाव्यतिहारः किम् - केशेषु च केशेषु च गृहीत्वा कृतं युद्धमनेन ॥२६॥ नदीभिर्नाम्नि |२||२७| नाम नदीवाचिना संज्ञायामन्यपदार्थे समासोऽव्ययीभावश्च स्यात् । उत्तगङ्ग ं देशः । तूष्णीगङ्गम् । नाम्नीति किम् । शीघ्रगङ्गो देशः ॥ २७॥ , उन्मत्ता गंगा यत्र स उन्मत्तगङ्गम् देशः । तूष्णीं गङ्गा यत्र सः इमे देशनाम्नी । 'परतः स्त्री० |३|२|४| इति पुंवद्भावः, 'द्वन्द्व कत्वाव्ययी भावी' इति लिङ्गानुशासनात् क्लीवत्वे 'क्लीबे' | २४|| इति ह्रस्वत्वे स्यादेः 'अमव्ययी०' | ३|२|२| इत्यमादेशश्च । नदीभिरित्यत्र बहुवचनं 'स्वं रूपं शब्दस्या०' इति न्यायैकदेशं 'स्वं रूपं शब्दस्य ग्राह्यम् इत्यंशस्य ज्ञापकं तथा च नदीशब्दात् स्वरूपस्य ग्रहणे प्रसक्तं नदी - विशेषाणां ग्रहणार्थं बहुवचन - मुपन्यस्तं 'स्वं रूपं शब्दस्य' इति न्यायांशस्य ज्ञापन- फलं तु 'कल्यग्नेरेयण' |६|१|१७| इति सूत्र- ग्निशब्दस्यैव ग्रहणन तु तत्पर्यायाणाम् । एवमन्यान्यपि फलान्युदाहरणीयानि । नदीभिरिति बहुवचननिर्देशात् तद्विशेषाणां स्वरूपस्य च ग्रहणात् गङ्गायमुना दिनदीविशेषाणां नदीशब्दस्य च ग्रहणं सिध्यति ततश्चोत्तरसूत्र ेण पञ्चनदम् इत्यत्त्राव्ययीभावसमासो भवति तथा द्वियमुनमित्यादावपि भवति । श्रोतस्विनी - निम्नगा - सिन्धु-प्रभृतीनां पर्यायाणां तु न ग्रहणम् || २७॥ 1 सङ्ख्या समाहारे ।३।१८। सङ्ख्यावाचि नदीवाचिभिः सह समाहारे गम्ये समासोऽव्ययी Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) भावः स्यात् । द्वियमुनम् । पञ्चनदम् । समाहारेति किम् । एकनदी । द्विगुबाधनार्थं वचनम् ||२८|| अन्यपदार्थं इति निवृत्तम् । द्वयोर्यमुनयोः समाहारः द्वियमुनम् एवं पञ्चनदम् । अवाव्ययौभावत्वे 'संख्यायाः नदीगोदावरीभ्याम् ||३|१| इति समासान्तो 'अमव्ययी - भावस्या०' | ३|२|२| इति स्यादिविभक्त े रमादेश सिध्यति । यद्यपि द्विगौ द्वियमुनमित्यत्र पात्रादिपाठाभ्युपगमेन . 'द्विगोः समाहारात्' | २|४| २२ | इति ङीः प्रत्ययस्या - भावे नपुंसकत्वे हस्वत्वे "अतः स्यमो म्' | १|४|५७ | इति स्यमोरमादेशे अव्ययी - भावे च 'अमव्ययी०' | ३ |२| २| इति स्यमोरमादेशे च समानताऽस्ति तथापि द्विगौ सति द्वियमुनेन द्वियमुनायेत्यादि स्यात् इष्यते चापञ्चमीस्थले 'द्वियमुनम्' इत्येव । तच्याव्ययी - भावसंज्ञामन्तरेण न सिध्यतीति अव्ययीभाव-सञ्ज्ञाविधानम् । एवं पञ्चनदमित्यादौ च द्विगौ सति 'पञ्चनदि' इत्यादि स्यात् । एकनदीति - एका चासौ नदी च 'सर्वादयोऽ स्यादौ' | ३ |२| ६१ । इति पुयावः ॥२८॥ , वंश्येन पूर्वार्थे |३|१|| विद्यया जन्मना वा एकसन्तानो वंशः । तत्र भवो वंश्यः । तद्वाचिना नाम्ना सङख्यावाचिसमासोऽव्ययीभावः स्यात् । पूर्वपदस्यार्थे वाच्ये । एकमुनि व्याकरणस्य । सप्तकाशि राज्यस्य । पूर्वार्थइति किम् । द्विमुनिका व्याकरणम् ॥२६॥ विद्यासम्बन्धस्य जन्मसम्बन्धापेक्षया प्राधान्यं बोधयितु' 'विद्यया' इति प्राथम्येनोपन्यासः, तत्र विद्यया सम्बन्धः उपदेश्योपदेशक- भावलक्षणोऽध्याप्याध्यापकभाव-लक्षणो वा जन्मना च सम्बन्धो जन्यजनकभावलक्षणः । एक एक्रस्वभावः सन्तानः परम्परेति यावत् । सन्तानिनामेकलक्षणत्वात्संतानोऽप्येक-स्वभावो भवति । एको मुनिर्वंश्यो व्याकरणस्य - एकमुनि व्याकरणस्य । मुनिशब्दो विद्यावंशवाचीति सूचनाय 'वंश्य' इत्युक्तम् आद्यः - कारणपुरुष इत्यर्थः । 'व्याकरणस्य' इति कारणसम्वन्धे षष्ठी, Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) व्याकरणस्यायप्रणेता-मुनिरेक इत्यर्थः । यथा श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनव्याकरणस्याद्यप्रवर्तक एक एव हेमचन्द्रप्रभुः, तेनैव वृत्तिन्यासादिकरणात् । द्वाभ्यांमुनिभ्यां त्रयाभ्यां मुनिभ्यां प्रवर्तितत्वात् द्विमुनि व्याकरणस्य त्रिमुनि व्याकरणस्येत्यादि भवति । यदा तु तद्वतामभेदविवक्षा तदा एकमुनि व्याकरणं द्विमुनि व्याकरणमित्यादि सामानाधिकरण्यं भवति । अथ जन्मना वंश्य मदाहरति-सप्त काशयो वंश्या राज्यस्य-सप्तकाशि राज्यस्य । राज्यस्येति कारणसम्बन्धे षष्ठी । अत्र काशे राज्ञोऽ-पत्यानीति 'दुनादि०' ।६।१।११८। इति ज्यः तस्य 'बहुष्वस्त्रियाम्' ।६।१।१२४। इति बहुत्वे लुपि 'काशयः इति अपत्यार्थप्रत्ययस्य लोपे सति प्रकृतिमात्रमपत्यार्थवाचि भवति, राज्यस्य जनकाः सप्तकाशिनृपतनया इत्यर्थः । यद्यपि राज्येन सह काशीनां न जन्यजनक भाक्लक्षणो जन्मसम्बन्धः, न वा विद्यासम्ब न्ध:, तथापि राज्यस्य प्रतिष्ठापका एव राज्यस्य जनकाः । अभेदविवक्षया सप्तकाशि राज्यमिति । द्विमुनिकं व्याकरणमिति-द्वौ मुनी बंश्यावस्येत्यन्यपदार्थे तु बहुव्रीहिरेव ।।२६॥ पारे-मध्य-ऽग्रेऽन्तः षष्ठ्या वा ।३।१।३०। एतानि षष्ठयन्तेन पूर्वपदार्थे समासोऽव्ययी-भावो वा स्युः । पारेगङ्गम् । मध्यगङ्गम् । अग्रवणम् । अन्तगिरि । पक्षे गङ्गा. पारम् । गङ्गामध्यम् । वनानम् । गिर्यन्तः ॥३०॥ पारं गङ्गाया-पारेगङ्गम्, मध्यं गङ्गायाः मध्येगङ्गम् अग्रं वनस्य-अग्रेवणम् । अन्तगिरेः-अन्तर्गिरम् ‘पारे-मध्येऽ ग्रे.' इति सूत्रीयनिर्देशसाम ादेकारान्तता निपात्यते । अग्रेवणमित्यत्र 'निष्प्राग्रे०' ।२।३।६६। इति वनशब्दे नस्य णकारः । अन्तगिरमित्यत्र 'गिरि-नदी.' ७।३।१०। इति विकल्पे-न समासान्तोऽ-त् 'अवर्णवर्णस्य' ७।४।६८। इतीकारलोपः विकल्पपक्षे त्वन्तगिरीति भवति । वावचनात् पक्षे षष्ठीसमासोऽपि भवतिगङ्गायाः पारम्, गङ्गाया मध्यम्, वनस्याग्रम्, गिरेरन्तः इति विग्रहः 'षष्ठ ययत्नाच्छेषे०' १३।१७६। इति सूत्रेण समासः 'प्रथोमोक्त प्राक' Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) | ३|१|१४८ । इति गङ्गादिशब्दस्य प्राग्निपातः । यद्यपि गिरेरन्तः इत्यत्र अन्तः-शब्दस्या-व्ययत्वात् ' तृप्तार्थ ०' | ३|१|८५ । इति षष्ठीसमासो निषिध्यते, तथाप्यत्रवा-वचनसामर्थ्यात् समासो भवति अन्यथा तदंशे वावचनं व्यर्थमेव स्यादिति ||३०|| यादिवे | ३|१|३१| इयस्वेऽवधारणे गम्ये यावदिति नाम नाम्ना पूर्वपदार्थे वाच्ये समासोऽव्ययीभावः स्यात् । यावदमत्रं भोजय । इयत्त्व इति किम् । यावद्दत्तम् तावद्भुक्तम् ||३१|| इदं निर्दिश्यमानं मानमस्येति 'इदंकिमो ० ' 1919 19४८ । इत्यतुप्रत्यये इयादेशे च इयत् इयतः । परिच्छिन्नपरिमाणस्य भावः इयत्त्वम् । यावन्त्यमत्राणीति यावदमत्रम् | भोजयेति - अतिथीन् भोजयेति तु स्पष्टार्थं ज्ञेयम् । यावन्त्यमत्राणीति निर्ज्ञातपरिमाणेनामवादिनां तावत इति अतिथि-परिमाणमिहावधार्यते । यावन्ति पञ्च षड् वा भाजनानि तावत एव पञ्च षड वाऽतिथीन् भोजय नोनाधिकानित्यर्थः । यावद्दत्तं तावद्भुक्तमितिकियद्दत्तं, कियद् भुक्तमिति नावधारयति ॥ ३१ ॥ पर्यपाबहिरच् पञ्चम्या | ३|१|३२| एतानि पञ्चम्यन्तेन पूर्वपदार्थे वाच्ये समासोऽव्ययीभावः स्यात् । परित्रिगर्त्तम् । अपत्रिगर्तम् । आग्रामम् । बहिर्ग्रामम् । प्राग्ग्रामम् । पञ्चम्येति किम् । परिवृक्षं विद्यत् ॥ ३२ ॥ परि त्रिगर्तेभ्यः परित्रिगर्तम्, अप त्रिगर्तेभ्यः अपत्रिगर्तम्, आग्रामात् आग्रामम्, बहिर्ग्रामात् बहिर्ग्रामम् प्राग् ग्रामात् प्राग्ग्रामम् 'अप - परि' शब्दाविह वर्जनार्थी 'पर्याभ्यां वयें' | २|२|७७ | इति पञ्चमी 'त्रिगर्त ' इति देशविशेषस्य संज्ञा । वृष्टो मेघः इति योज्यतेतदा त्रिगर्तदेशं वर्जयित्वा मेघो वृष्ट इत्यर्थः । आङ् मर्यादाभिविध्यर्थः यदा मर्यादार्थस्तदा ग्राममवधि Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) , कृत्वा वृष्टो मेघः, अभिविध्यर्थस्तदा- ग्राममभिव्याप्य वृष्टो मेघः ग्रामेऽपि वृ॑ष्टः इत्यर्थः । बहिग्राममिति - ' प्रभृत्यन्यार्थ ० ' | २२|७५ | इति पञ्चमी ग्रामाद्बहिर्वृष्टो मेघ इत्यर्थः । प्राग्ग्राममिति प्रपूर्वः अञ्चति क्विप्, 'अञ्चोऽनर्थायाम्' | ४|२|४६ । इति नलोपः 'अञ्च : ' |२| ४ | ३ | इति ङी: ‘अच्व्प्राग्दीर्घश्च’ ।२।१।१०४ | इति 'च्' इत्यादेशे प्राची पूर्वा दिगित्यर्थः, प्राच्यां दिशि 'दिक्शब्दात् ० ' । ७ २ ११३ | इति धाप्रत्ययः, प्राच्यामदूरायां दिशीति वा 'अदूरे एन' | ७|२| १२२ । इति एनप्रत्ययः तयोश्च 'लुब ० ' |७|२| १२३ । इति लोपः तल्लुपि च 'ङयादेगौणस्या० ' २|४|५| इति ङीलोपे 'प्राच्' इति । तस्य' अधण्तस्वाद्याः ०' | १|१|३२| इत्यव्ययत्वम् । - ततः प्रथमासिः तस्य 'अव्ययस्य' | ३|२|७| इति लोपः तदनु 'चजः कगम्' |२|| ६ | इति चस्य त्वे 'घुटस्तृतीयः' | २|१|७६ | इति कस्य गत्वे च प्राग्' इति दिक्शब्दत्वात् तद्योगे 'प्रभृत्यन्यार्थ ० ' | २|२|७५ । इति पञ्चमी ग्रामतः पूर्वस्यां दिशि अदूरायां पूर्वस्यां दिशि वा वृष्टो मेघ इत्यर्थः । पर्यादिसाहचर्यात् अञ्चतिः धनलुबन्तोऽव्ययं गृह्यते तेन प्राङ् ग्रामात् चैत्र इत्यत्र न भवति । अत्र तु प्रकर्षेणाञ्चति गच्छतीति प्राङ् । नायमव्ययम्, 'पञ्चम्य०' |२| २६६। इति पञ्चमी, ग्रामापादानकगमनवान् चैत्र इति च बोधः । परि वृक्षमिति - परिवृक्षं विद्योतते विद्य ुदिति - ' भागिनि च ० ' |२२|३७| इति द्वितीया, वृक्षो लक्षणं विद्योतमाना विद्य ल्लक्ष्यम् अनयोश्च लक्ष्यलक्षणभा—वसम्बन्धः परिणा द्योत्यते वृक्षं लक्षीकृत्य विद्योतते विद्युदित्यर्थः ।।३२।। लक्षणेनाभिप्रत्याभिमुख्ये । ३ ११३३ | लक्षणं चिह्नम् । तद्वाचिनाऽऽभिमुख्यार्थावभिप्रती पूर्वपदार्थेऽर्थे समासोऽव्ययीभावः स्यात् । अभ्यग्नि । प्रत्यग्नि शलभाः पतन्ति । लक्षणेनेति किम् । श्रघ्नं प्रतिगतः । पूर्वपदार्थइत्येव । अभ्यङ्का गावः ॥ ३३॥ अभि अग्नि अभ्नग्नि, प्रति अग्नि प्रत्यग्नि । अग्नि लक्षीकृत्याभिमुखं पतन्तीत्यर्थः । स्रुग्घ्नं प्रति गत इति - प्रतिनिवृत्त्य पुनः स्रुग्घ्नमेवाभि Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) मुखं गत इत्यर्थः । पूर्व स्र ग्घ्नं परित्यज्यान्यत्र गतः पुनरपि स्र ग्घ्नं प्रत्येवाभिमूखीभूय दिङ्मोहादिना परावृत्त इति नात्र स्र रघ्नं लक्षणं यदुद्दिश्य हि गच्छति तल्लक्षणं भवति अत्र तु दिङ्मोहादेवेत्थं गतः गतक्रियापेक्षया च स्रग्ध्नस्य कर्मत्वम् । अभिमुखोऽङ्को यासां ताः अभ्यङ्का गावः ॥३३॥ दयेऽनु ।३।१॥३४॥ दध्ये आयामविषये यल्लक्षणं तद्वाचिना पूर्वपदार्थेऽनुः समासोऽव्ययीभावः स्यात् । अनुगङ्ग वाणारसी । दैर्घ्यइति किम् । वृक्षमनु विद्युत् ॥३४॥ वैषयिकाधिकरणे सप्तमीत्याह-आयामविषय इति विषयत्वं च द्योत्यद्योतकभाव-रूप-सम्बन्धः । अनुगङ्गां दीर्घा-अनुगङ्ग वाराणसी। गङ्गाया लक्षणभताया आयामेन वाराणस्या आयामो लक्ष्यते। ग्रथा गङ्गा दीर्घा स्थिता तथा वाराणसी दीर्घा स्थितेति लक्ष्यते इति गङ्गा वाराणसीदैर्घ्यस्य लक्षणं भवति । प्रसिद्ध लक्षणं भवति दीर्घत्वेन गङ्गा प्रसिद्धा तदनुगमनाद् काराणस्या दीर्घत्वमपि तत्सदृशं लक्ष्यते गङ्गादैर्ध्यसदृशोप पलक्षिता वाराणसीति प्रयोगार्थः । वृक्षमनु विद्यु दिति:वृक्षमनु विद्योतते विद्युत् इति ज्ञेयम् । वृक्षो विद्योतनस्य लक्षणत्वेन विवक्ष्यते न दैर्घ्यस्येति समासो न भवति ॥३४॥ समीपे ।३।१।३५॥ समीपार्थेऽनुः समोपिवाचिनाम्ना पूर्वपदार्थे समासोऽव्ययीभाव: स्यात् । अनुवनमशनिर्गता ॥३५॥ समीपिवाचिनाम्नेति-समीपं नाम कस्यचित्समीपिनो भवति, नहि बिना समीपिना समीपं भवति, यथा पुत्रः पिता सम्बन्धित्वात् तत्र प्रत्यासत्त्या यस्य तत् समीपं तद्वाचिना नाम्ना समस्यते इत्यर्थः । संगता आपो यत्रेति 'यन्तर०' ।३।२।१०९। इत्यप ईपादेशे 'समीप' इति वर्णानुपूर्वीज्ञानार्थ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) व्युत्पादनेऽप्यव्युत्पन्नः ( प्रकृतिप्रत्ययार्थानुगतिशून्यः सन्निकृष्टार्थवाचीह समीपशब्दः ।) अनु वनस्य-अनुवनमशनिर्गता । वनस्य समीपे वज्रगतमिति वाक्यार्थः अनोरव्ययत्वात् । 'विभक्ति-समीप० ।३।१।३। इत्यादिनैव समासे सिद्ध विकल्पार्थं वचनम् तेन वाक्यमपि भवति पृथग्वचनं लक्षणेनेत्यस्य निवत्त्यर्थम् तेन लक्ष्यलक्षणभावाभावेऽपि समासो भवति तदनुवृत्तौ च तत्रैव स्यादिति । केचित्तु-प्रकृतसूत्रेऽपि 'लक्षणेन' इत्यस्य सम्बन्ध स्वीकुर्वते यदाह-अनुशब्द: समीप-समीपिनोर्लक्ष्यलक्षणभावद्योतकः तथाहि वनसामीप्यगताया अशनेर्वनं लक्षणमिति । सूत्रभेदश्च स्पष्टप्रतिपत्तये इति तदाशयः ॥३५।। . तिष्ठग्वित्यादयः ।३।१॥३६॥ एते समासा अयोभावाः स्युः । यथायोगमन्यस्य पूर्वस्य वा पदस्यार्थे । तिष्ठद्गु कालः । अधोनाभं हतः ॥३६॥ तिष्ठन्ति गावो यस्मिन् काले गर्भग्रहणाय दोहाय वाहाय वत्सेभ्यो निवासाय जलपानार्थं वा स कालंस्तिष्ठद्गु। अयमन्यपदार्थे काले नाभेरधः अधोनाभम् निपातनादत् समासान्तः । पूर्वपदार्थ-प्रधानोऽयम् ‘तिष्ठगिक तिइत्यत्रेतिशब्दः स्वरूपपरिग्रहार्थः तेनेह समासान्तरं न भवति-परमं तिष्ठद्ग, तिष्ठद्गु प्रियमस्येति वाक्यमेव भवति । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥३६॥ नित्यं प्रतिनाऽल्पे ।३।१।३७। अल्पार्थेन प्रतिना नाम नित्यं समासोऽव्ययीभावः स्यात् । शाकप्रति । अल्पइति किम् । वृक्षं प्रतिविद्युत् ॥३७॥ शाकस्याल्पत्वं शाकप्रति । वृक्षं प्रति विद्यु दिति-वृक्षं प्रति विद्योतते विद्यु दिति ज्ञेयम्, नान प्रतिशब्दोऽल्पार्थे अपि तु लक्षणे इति समासो न भवति । नित्यग्रहणं वाक्यनिवृत्त्यर्थम् तेनान्यत्र समासो वाक्यं च भवति । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) अर्थात् अत्रास्त्र - पंदविग्रहः शब्दान्तरेणैवार्थ प्रदर्शनमन्यत्र तु समासमाजां पदानां समासोवाक्यं चेति ||३७|| सङ्ख्याऽक्षशलाकं परिणा द्यतेऽन्यथावृत्तौ |३||३८| सङ्ख्यावाच्यक्षशलाके च द्यूतविषयायामन्यथावृत्तौ वर्त्तमानेन परिणा सह नित्यं समासोऽव्ययीभावः स्यात् । एकपरि । अक्षपरि । शलाकापरि । एकेनाक्षेण शलाकया वा न तथावृत्तं यथापूर्व जयइत्यर्थः । सङ्ख्यादीति किम् । पाशकेन न तथावृत्तम् । द्यूतइति किम् । रथस्याक्षेण न तथावृत्तम् ॥ ३८ ॥ पञ्चिका नाम द्यतं पञ्चभिरक्षैः शलाकाभिर्वा भवंति तत्र यदा सर्वे उत्ताना अवाञ्च वा पतन्ति तदा पातयितुर्जयः यदा तु पञ्चाप्येकरूपा न पतन्ति तदा पातयितुः पराजयः । एकेनेत्यादि - पञ्चाक्षद्य तें चत्वारोऽक्षा ऊर्ध्वमुखाः पतिताः एकोऽधोमुखः अथवा चत्वारोऽक्षा अधोमुखाः एक ऊर्ध्वमुखः पतितस्तदा 'एकपरि' इत्युच्यते इति भावः । वर्तने चैषां कर्तृत्वात् तृतीयान्तत्त्रम्, अक्ष-शलाकयोस्त्वेकवचनान्तयोरेवेष्यते । एवं द्वाभ्याम् अक्षाभ्यां शलाकाभ्यं वा न तथा वृत्तमित्याद्यर्थे एवं त्रिभिः अक्षैः शलाकाभिः न तथा वृत्तमित्याद्यर्ये च द्विपरि त्रिपरि चतुष्परीति भवति । पञ्चषु त्वेकरूपेषु जय एव भवति । अयमपि नित्यसमासः अतोऽस्वपदविग्रहः परिपदस्याप्रयोगात् । अक्ष ेणेदं न तथा वृत्तं यथा पूर्वं जय, अत्र एकवचनान्त एवं । अक्षाभ्यामक्षैरित्यादिवाक्ये न भवति शलाकापरि ||३८|| ܘ ू विभक्तिसमीपसमृद्धिव्यृद्धयर्थाभावात्ययाऽसंप्रतिपश्चात्क्रमख्यातियुगपत् सदृक्सम्पत्साकल्यान्तेऽव्ययम् |३|१|३६| एष्वर्थेषु वर्त्तमानमव्ययं नाम्ना सह पूर्वपदार्थे वाच्ये निस्यं समासोऽव्ययीभावः स्यात् । विभक्तिः - विभक्त्यर्थः कारकम् । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) अधिस्त्रि । समीपम् उपकुम्भम् । समृद्धिः सुमद्रम् विगता ऋद्धिद्धिः दुर्यवनम् । अर्थाभावः निर्मक्षिकम् । अत्ययोऽतीतत्वम् अतिवर्षम् । असम्प्रतीति सम्प्रत्युपभोगाद्यभावः अतिकम्बलम् । पश्चात् अनुरथम् । क्रमः अनुज्येष्ठम् । ख्यातिः - इतिमद्रबाहुः । युगपत् - सचक्रं धेहि । सदृक्- सव्वतम्। सम्पत् - सब्रह्म साधूनाम् । साकल्यम् " सतृणमभ्यवहरति । अन्तः सपिण्डेषणमधीते ॥ ३६ ॥ - । · - · 1 अधिस्तीति निधेहि अत्र स्पष्टार्थं ज्ञेयम् । स्त्रीषु निधेहीत्यर्थः । 'स्त्रीषु' इति लौकिकं विग्रहवाक्यम् अलौकिकं तु 'अधि +सि, स्त्री+सुप्' इति अथवा अधि + जस स्त्री + जस्, इति । अत्राधिः सप्तम्यर्थे वर्तमानमव्ययं स्त्रीशब्देन प्रथमान्तेन सप्तम्यन्तेन वा समस्यते अधिनैवाधिकरणार्थो गतः न तत्र सप्तम्या अभिधेयमस्तीति प्रतिपत्तौ 'नाम्नः प्रथमै०' |२| ३|३१ इति प्रथमा भवति पदान्तराभिहितमेवार्थमधि - शब्दो द्योतयतीति प्रतिपत्तौ सप्तमी । नित्यसमासत्वात् सप्तम्या गतार्थत्वाच्च लौकिके विग्रहवाक्येऽधिशब्दप्रयोगो न भवति । कुम्भस्य समीपमुपकुम्भम्। ऋद्धेराधिक्यं - समृद्धिः । मद्राणां समृद्धि सुमद्र । विगता ऋद्धिव्यृद्धिः ऋद्ध्यभावःइत्यर्थः । दुर्वचनम्-यवनानां ऋद्धभाव इत्यर्थः । अर्थाभावः धर्मिणोऽसत्वम् । निर्मक्षिकं मक्षिकाणामभाव इत्यर्थः । अत्ययोऽतीतत्वम् ध्वंसत्त्वमित्यर्थः - अतिवर्ष वर्षाणामतीतत्वमित्यर्थ । असम्प्रतीति-वर्तमानकाले उपभोगादेः प्रतिषेधःअतिकम्बलं कम्बलस्योपभोगं प्रति नायं काल इत्यर्थः । अनुरथम् - रथस्य पश्चादित्यर्थः । क्रमः - आन पूर्व्यम् - अनुज्येष्ठम् - प्रविशतु ज्येष्ठानुक्रमेणेत्यर्थः । ख्यातिः शब्दप्रथा - इति भद्रबाहु भद्रबाहु शब्दो लोके प्रकाशत इत्यर्थः । युगपदेककालार्थः सचक्रं धेहि, चक्रेण सहैककालं चक्राणि वा युगपद्ध हीत्यर्थः । युगपदर्थे सहेत्यव्ययम् 'अकालेऽव्ययीभावे' | ३ |१| १४६ | इति सहस्य सभावः । सव्रतम् - व्रतस्य सदृशमित्यर्थः । अकालेऽव्ययीभावे' | ३|२| १४६ | इत्यव्ययीभावे सहस्य संभावः । संपत् सिद्धिः सत्र - साधूनां संपन्नं ब्रह्म - त्यर्थः । साकल्यमशेषता सतृणमभ्यवहरति न किञ्चित्त्यजतीत्यर्थः । सहशब्दोऽपरित्यागे वर्तते यावत् पात्र े परिविष्टं तत्र तृणमात्रमपि नावशेषितम् । सर्वमपि भुक्तमिति भावः । अन्तः समाप्तिः सपिण्डेषणमधीते पिण्डैषणापर्यन्तमधीत इत्यर्थः । अत्र समाप्ति रसकलेऽप्यध्ययने प्रतीयते इति Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) साकल्येऽनन्तर्भावः । पिण्डो भक्तमिष्यते अन्विष्यते कल्पयाकल्यविभागेन विचार्यतेऽस्मिन्निति 'इषोऽनिच्छायाम्' | ५|२| ११२ । इत्यने पिण्डेषणा दशवैकालिकग्रन्थे पिण्डेषणानामकं पञ्चममध्ययनमस्ति || ३६ || • योग्यतावीप्सार्थानतिवृत्तिसादृश्ये | ३|१|४०| एष्वर्थेsasarयं नाम्ना सह पूर्वपदार्थे समासोऽव्ययीभावः स्यात् । अनुरूपम् । प्रत्यर्थम् । यथाशक्ति । सशीलमनयोः ॥ ४० ॥ योग्यतायाम् अनुरूपम् चेष्टते योग्यां चेष्टां कुरुते इत्यर्थः । वीप्सायाम् प्रत्यर्थं शब्दाः अभिनिविशन्ते अर्थमर्थं प्रतीत्यर्थशब्दात् वीप्सायां द्वितीयाया विधानातवाक्यमपि भवति अर्थमथं प्रतीति 'भागिनि च ० ' | २२|३७| इति वीप्स्ये प्रतिना योगे द्वितीया विधीयते । यदि वीप्सायामिह नित्य एव समासः स्यात् तदा तद्विधानमनर्थकं स्यात् समासे द्वितीयस्यामन्यस्यां वा विभक्तौ नास्ति कश्चिद्विशेषः वाक्ये त्वस्ति, अतस्तद्वितीयाविधानसामर्थ्यादिदं वाक्यमपि भवति | अर्थानतिवृत्तिः पदार्थानतिक्रमः - यथाशक्ति- शक्त रनतिक्रमेण । सशीलमनयोः शीलस्य सादृशमित्यर्थः । सदृगित्यनेनैव सिद्ध सादृश्य ग्रहणं मुख्यसादृश्यपरिग्रहार्थम् ॥४०॥ यथाऽथा |३|१|४१ थाप्रत्ययवर्जं यथेत्यव्ययं नाम्ना सह पूर्वपदार्थे समासोऽव्ययी भावः स्यात् । यथारूपं चेष्टते । यथावृद्धमर्चय । यथासूत्रम् । अथेति किम् । यथा चैत्रस्तथाः मंत्रः ॥४१॥ थाप्रत्ययवर्जंयथेत्यव्युत्पन्नमव्ययं यथारूपं चेष्ठते-रूपानुरूपमित्यर्थः । यथावृद्धमवयं-ये ये वृद्धास्तानित्यर्थः । यथासूत्रमनुतिष्ठति - सूत्राक्तार्थमनक्रम्येतिभावः । यया चैत्र स्तथा मैत्र इति येन प्रकरणे शौर्यादिना मंत्रस्तथाँ तेनैव शौर्यादिन। प्रकारेण मैत्र इत्यर्थः येन प्रकारेणेति यच्छन्द्वात् 'प्रकारे या | ७ |२| १०२ इति थाप्रत्ययः। पूर्वेणैव सिद्ध सादृश्ये प्रतिषेधार्थं 'वचनम् | ४१| Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) गति-क्वन्यस्तत्पुरुषः ।३।१।४२॥ गतयः कुश्च नाम्ना सह नित्यं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । अन्यो बहुनीह्यादिलक्षणहीनः । ऊरीकृत्य । खाद्कृत्य । प्रकृत्य । कारि काकृत्य । कुब्राह्मणः । कोष्ठम् । अन्य इति किम् । कुपुरुष: ।४२। 'कु' इत्यव्ययं पापाऽल्पयोर्वर्तते । ऊरीकृत्येत्यत्रोर्यादिगणपठितत्वात् 'खाटुकृत्य' इत्यनुकरणत्वात् प्रकृत्येत्यत्र चोपसर्गत्वात् 'ऊर्याद्यनु०' ।३।१२। इति गति संज्ञा कारिकाकृत्येत्यत्र तु 'कारिका स्थित्यादौ' ।३।१३। इति गतिसञ्जकत्वादनेन तत्पुरुषः। गतिसंज्ञचावययं भवति,अत एव अव्ययपूर्वपदभावात् 'अननः क्वो यप' ।३।२।१५४। इत्यनेन यबादेशोऽपि भवति । कुत्सितो ब्राह्मणः कुब्राह्मणः ईषदुष्णं कोष्ठ 'काकवी वोष्णे' ।३।१३७॥ इति काऽदेशः कवादेशे तु कवोष्णम् एवं विकल्पपक्षे कोःकत् तत्पुरुषे'।३।२।१३०॥ इति कदादेशे कदुष्णमित्यपि भवति । कुत्सिताः पुरुषाः यस्य स कुपुरुषकः अत्र बहुव्रीहित्वात् कच् भवति ॥४२॥ । दुनिन्दाकृच्छ ।३।१॥४३॥ दुरब्ययं निन्दाकृच्छवृत्ति नाम्ना सह नित्यं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । दुष्पुरुषः । दुष्कृतम् । अन्य इति किम् । दुष्पुरुषक: ॥४३॥ निन्दितः पुरुषः दुष्पुरुषः । कृच्छ्रेण कृतं दुष्कृतम् । 'निदुर्ब०' ।२।३।६। इति षत्वम् । निन्दिताः पुरुषाः यस्य स दुष्पुरुषकः, अत्रापि बहुव्रीहित्वात् के भवति ॥४३॥ सुः पूजायाम् ।३।१।४४॥ स्वित्य व्ययं पूजार्थ नाम्ना सह नित्यं समासस्तत्पुरुष स्यात् । सुराजा । अन्य इति किम् । सुमद्रम् ॥४४॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) शोभनो राजा सुराजा 'राजन्सखे:' ।७।३।१०६। इति प्राप्तोऽपि समासान्तः 'पूजास्वते.' ७३७२। इति निषिध्यते । मद्राणां समृद्धि:-सुमद्रम् अत्र 'विभक्तिसमीप० ।।१३९। इत्यव्ययीभावात् 'अमव्ययीः' ।।२।२। इति पञ्चमीवर्जस्यादेरमादेशो भवति ॥४४।। अतिरतिक्रमे च ।३।१।४५॥ अतिक्रमे पूजायां चार्थे अतीत्यव्ययं नाम्ना सह नित्यं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । अतिस्तुत्य । अतिराजा ॥४५॥ अतिस्तुत्येति-अतिक्रमेण स्तवनं कृत्वेत्यर्थ अत्रसमासत्वात् क्त्वाया यबादेश। अनातिकमार्थत्वेनातेरुपसर्गसंज्ञाविरहात् 'उपसर्गात०' ।२।३।३६॥ इति षत्वं न भवति । पूजायाम्-शोभनो राजा-अतिराजा, राजन्सखेः'।७।३।१०६। इति प्राप्तोऽपि समासान्तः 'पूजास्वतेः' ।७।३।७२। इति निषिध्यते । ॥४५॥ आङल्पे ३।१।४६॥ आङित्यव्ययमल्पार्थ नाम्ना सह-समासस्तत्पुरुषः स्यात् । आक- .. डारः ॥४६॥ ईषत् कडारः आकडारः । कडारशब्दः पिङ्गलवणे तद्वति च ॥४५॥ प्रात्यवपरिनिरादयो गतक्रान्तक ष्टग्लानक्रान्ताद्याः प्रथमाद्यन्तैः ॥३॥१॥४७॥ प्रादयो गताद्यर्थाः प्रथमान्तरत्यादयः कान्ताद्यर्था द्वितीयान्तरवादयः क्रुष्टाद्यर्थास्तृतीयान्तैः पर्यादयो ग्लानाद्यर्थाश्चतुर्थ्यान्तै Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) निरादयः क्रान्ताद्यर्थाः पञ्चम्यन्तैनित्यं समासस्तत्पुरुषः स्युः । प्राचार्यः । समर्थः। अतिखट्वः । उद्वेलः । अवकोकिलः । परिवोरुत् । पर्यध्ययनः। उत्सङ्ग्रामः । निष्कौशाम्बिः । अपशाखः बाहुलकात् षष्ठयाऽपि । अन्तर्गााः । गताद्यर्थाइति किम् । वृक्षम्परि विद्युत् । अन्यइत्येव । प्राचार्यको देशः ॥४७॥ 'प्रात्यवपरिनिरादयः' इति द्वन्द्वगर्भो बहुव्रीहिः, ‘गत-क्रान्त-क्रुष्ट-ग्लान-... क्रान्ताद्यर्थाः इति च द्वन्द्वगर्भबहुव्रीहिगभबहुव्रीहिः, 'प्रथमाद्यन्तैः' इत्यत्रा दिपदेन द्वितीया-तृतीया-चतुर्थी-पञ्चमी-विभक्तीनां संग्रहो बहुव्रीहिगर्भो बहुव्रीहिश्च। 'द्वन्द्वान्ते द्वन्द्वादी वा श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते' इति न्यायेनादिशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धः उभयत्र च यथासंख्यमनुदेशः समानाम्' इति न्यायेन क्रमेणान्वयः । प्रादीनां गताद्यर्थेषु वर्तमानत्वं परस्परार्थान्तर्भावेण, तथाहि-यथा 'उपास्यते गुरुः' इत्यादावुपसर्गार्थान्तर्भावेण धातूनां सकर्मकवादिकं जायते, तथा प्रादीनामपि, क्तादिप्रत्ययविशिष्टधात्वर्थावगमकत्वेन तदर्थं वृत्तिरिति गतादिषु गम्यादिक्रिया-विशिष्ट-साधनेषु वृत्तित्तिविषये विज्ञायते इत्याहुः । प्रगतः आचार्यः प्राचार्यः । प्रगतत्वं चाचार्यस्य स्वविषयपारगामित्वम् । संगतोऽर्थः समर्थः, अतिक्रान्त खट्वाम्अतिखट्वः। खट्वाकर्मका-तिक्रमण-कर्तेत्यर्थः उद्गतो वेलाम्-उद्वलः उल्लङ्घितट इत्यर्थः ‘गोश्चान्ते.' ।२।४।१६। इतीह पूर्वत्र च ह्रस्वत्वं ज्ञेयम्-अवकृष्टः कोकिलया-अवकोकिलः . कोकिलया आहूत इत्यर्थः । " परिणद्धो विरुतिः, परिविरुत् । परिग्लानोऽध्ययनाय पर्यध्ययनः गुरुकुलवासपरिचर्यादिव्यासङ्गादध्ययनाथं ग्लान इत्यर्थः । उद्युक्तः संग्रामायउत्संग्रामः । निष्कान्तः कौशाम्ब्याः निष्कौशाम्बिः । अपगतः शाखायाः अपशाखः अन्तर्गतो गाय॑स्य अन्तर्गागः । प्रगता आचार्या यस्मिन् स प्राचार्यको देशः 'उष्टमुखादयः' ।३।१।२३। इति समासः बहुव्रीहित्वात् च कच समासान्तो भवति । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । तथा चोक्तातिरिक्तानामपि प्रादीनां गतादीनां विभक्तीनां च संग्रह इति भावः ॥४॥ अव्ययं प्रवृद्धादिभिः ३।१।४८। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) अव्ययं प्रवृद्धादिभिस्सह नित्यं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । पुनःप्रवृद्धम् । अन्तर्भूतः ॥४८॥ पुनः प्रवृद्धमिति-बहिरिति विशेष्य ज्ञेयम् नित्यसमासोऽयम् अर्थदर्शनाय च पुनर्वर्धते स्म,इति विग्रहः कार्यः बर्हि कुशः छिन्नोऽपि यः पुनर्वर्धत इत्यर्थः। 'कालवाचकात् पुनः-शब्दात् 'कालाध्वनो०' ।।२।४२। इति विकल्पेन द्वितीया सप्तमी वा। अन्तर्भूत इति-अन्तर्भवति स्मेति विग्रहः। बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥१४॥ इस्य क्तं कृता ।३।१।४६। कृत्प्रत्ययविधायके सूत्रे उस्यन्त-नाम्नोक्तं कृदन्तेन नाम्ना नित्यं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । कुम्भकार। उस्युक्तमिति किम् । अलङ्कृत्वा । कृतेति किम् । धर्मो वो रक्षतु ॥४६॥ हस्यन्तनाम्नोक्तमिति-पञ्चम्यन्तनाम्नोक्तमित्यर्थः । कुम्भकार इति ‘कर्मणोऽण' ।५।१।७२। इत्यण् । अलङ्कृत्वेति-'निषेधेऽलंखल्वोः क्त्वा' ।५।४।४४ इति, नाऽत्र सूत्रेऽलंशब्दः पञ्चम्यन्तोऽपितु सप्तम्यन्त इति न भवति । धर्मों वो रक्षत्विति-अत्र ‘पदाद्य ग्वि०' ।२।१।२१॥ इति वसादेशः ‘पदादिति इस्युक्तत्वेऽपि युष्मदः कृदन्तत्वाभावान्न समासः ॥४।।' तृतीयोक्त वा ।३।११५०। दशेस्तृतीययेत्यतो यत्तृतीयोक्तं नाम तत्कृदन्तेन वा समासस्तत्पुरुषः स्यात् । मूलकोपदंशम् । मूलकेनोपदंशं भुङ्क्ते ॥५०॥ वाशब्दो नित्यसमासनिवृत्त्यर्थः तेनोत्तरेषु वाक्यमपि भवति यद्वा पृथक्सूत्रकरणादेव नित्यत्वनिवृत्ती वा-शब्दो नित्यसमासाधिकारनिवृत्त्यर्थः ।।५०।। ना ।३।११५१॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) O . नञ् नाम नाम्ना समासस्तत्पुरुषः स्यात् । अगौः । न सूर्य पश्य न्ति असूर्यम्पश्या राजदाराः ॥५१॥ न गौ: अगौ: 'गोस्तत्पुरुषात्' ।७।१।१०५॥ इति प्राप्तोऽपि समासान्तः 'नञ्तत्पुरुषात्' ।७।३७१। इति प्रतिषिघ्यते, नत्रः 'नत्रत्' ।३।२।१२५। इत्यदादेशः । अत्र पर्युदासो नत्रर्थः, पर्य दासस्तु सदृशबोधकः तेन गोसदृश इत्यर्थः । तद्भिन्नत्वे सति तद्गतभूयोधर्मबत्त्वम् सादृश्यम् । प्रसज्यप्रतिषेधे त्वसामर्थेऽपि 'किंहिवचनान्न भवति' इति न्यायात् समासः ‘असूर्योग्रादृशः' ।५।१।१२६॥ इति 'श्रीति०' ।४।२।१०८। इति दृशेः पश्यादेशः 'खित्यनव्यया०' ।३।२।१११। इति पूर्वस्य मागमः। परपुरुषदर्शनाभाव एव तात्पर्य तेनं सत्यपि सूर्यदर्शने प्रयोगो न विरुध्यते ॥५१॥ पूर्वाप राधरोत्तरमभिन्ननाशिना ३।१॥५२॥ पूर्वादयोऽशार्था अंशवद्वाचिना समासस्तत्पुरुषः स्यात् । नचेत्सों-ऽशी भिन्नः । पूर्वकायः । अपरकायः । उत्तरकायः । अधरकायः । अभिन्नेनेति किम् । पूर्व छात्राणामामन्त्रस्व । शिनेति किम् । पूर्वो नाभेः कायस्य ॥५२॥ . अंशोऽवयव-स्तद्वानंशी अवयवी अवयवसमुदायवानिति यावत् । पूर्व कायस्य-पूर्वकायः एवम् अपरकाय इत्यादि । पूर्वादिशब्दस्य दिशि दृष्टत्वेप्यत्रावयव-वाचित्वात्तद्योगे 'प्रभृत्यन्यार्थ०' ।२।२।७५। इति न पञ्चमी । पूर्व छात्राणामिति-अत्र छात्रशब्द: छात्र-समुदायपरः बहुवचनं तूभृतावयवभेदसमुदायविवक्षया बहुवचनाद्भदः प्रतीयत इति समासो न भवति अंशी यत्रैकत्वसङ्खयविशिष्टस्तत्रैवा-भेदप्रतीतिः । पूर्वो नाभेः कायस्येतिनाभेर्यः पूर्वो भागः स कायस्यावयव इत्यर्थः । नाभेरिति पञ्चमी, नाभिः पूर्वभागस्यावधिर्न त्वंशीति नाम्ना न समासः, कायेन तु स्यादेव पूर्वकायो नाभेरिति पूर्वशब्दस्य नित्यसापेक्षत्वात् प्रधानत्वाच्च ॥५२॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) सायाह्नादयः ।३।११५३॥ एतेऽशितत्पुरुषाः साधवः स्युः । सायाह्नः । मध्यन्दिनम् ॥५३॥ सायमह्नः सायाह्नः सायंशब्दः मान्तोऽव्ययम् तदैतत्सूत्रनिर्देशवलादेव मकारलोपः यदा तु सायशब्दोऽकारान्तोऽ-नव्ययम् तदा तुं निसर्गतो मकारो नास्ति 'सर्वांशसङ्खया०' ।७।४।११८। इत्यद समासान्तः अह्नादेशश्च । सायं दिनावसानम् । ननु सायशब्दस्य वा दिनान्तवाचकत्वे तेन सहाह्नः कथं सामर्थ्य मिति चेत् उच्यते सायंशब्दस्य दिनान्तवाचकत्वेऽपि 'विशिष्टवाचकपदस्य सति विशेषणवाचकपदसमभिव्याहारे विशेष्यमात्रपरत्वमिति सिद्धान्तात् सायशब्दस्य वाऽन्तमात्रवाचकत्वमिति अह्ना सह सामोपपत्तिः । मध्यं दिनस्य-मध्यंन्दिनम् 'लोकम्पृण-मध्यंदिन०' ।३।२।११३। इति निपातनात् पूर्वपदस्य मान्तत्वम् । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । पूर्वे पञ्चालाः, उत्तरे पञ्चालाः' इति-वत् समुदायवाचिनामंशेऽपि प्रवृत्ति-दर्शनात् सामाना-धिकरण्ये सति कर्मधारयेणैव सिद्धम् पूर्वश्चासौ कायश्च पूर्वकायः, सायं च तदहश्च सायाह्नः इति तत्पुरुषविधानं त्विह पूर्वत्र चाह्नः सायं कायस्य पूर्वमिति षष्ठी-समासबाधनार्थम् ॥५३॥ समेंऽशेऽर्द्ध नवा ।३।११५४। समांशार्थमर्द्धमंशिना अ-भिन्नेन वा समासस्तत्पुरुषः स्यात् । अर्द्धपिष्पली । पिष्पल्यर्द्धम् । समेंशइति किम् । ग्रामाद्धः ॥५४॥ अर्धं पिप्पल्याः-अर्धपिप्पली पक्षे पिप्पल्यर्द्धम् । अधं च सा पिप्पली चेति कर्मधारयेणैव सिद्धे भेदविवक्षायां पक्षे षष्ठीसमासबाधनार्थम समांशे चार्धश्चासौ ग्रामश्चेति कर्मधा-रयनिषेधार्थ वचनम् । समेंशे वर्तमानोऽर्धशब्दो नपुसकः, असमांशे तु पुलिङ्गः ॥५४॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) जरत्यादिभिः | ३|१|५५। एभिरंशिभिरभिन्नैरद्धों वा समासस्तत्पुरुषः स्यात् । अर्द्धजरती । जरत्यर्द्धः । अद्धक्तम् । उक्तार्द्धः ||५५|| असमांशार्थ आरम्भः । अर्धी जरत्या - अर्धजरती, पक्षे जरत्यर्धः, उक्तस्यार्धः अधोक्त पक्षे उक्तार्धः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । पूर्ववत् इदमपि षष्ठीसमासबाधनार्थम् ||५५।। द्वित्रिचतुष्पूरणाग्रादयः | ३ | १|५६ ॥ पूरणप्रत्ययान्ता द्वित्रिचत्वारोऽग्रादयश्चाभिन्नेनांशिना वा समासस्तत्पुरुषः स्यात् । द्वितीयभिक्षा । भिक्षाद्वितीयम् । तृतीयभिक्षा | भिक्षांतृतीयम् । तुर्यभिक्षा | भिक्षातुर्यम् । अग्रहस्तः । हस्ताग्रम् । तलपादः । पादतलम् ॥५६॥ द्वितीयं भिक्षायाः - द्वितीयभिक्षा एवं तृतीयभिक्षा एवं तृतीयभिक्षेत्यादि 'येयौ च लुक् च' ।७।१।१६४ | इति तुर्यम् । अग्रं हस्तस्य - अग्रहस्तः एवं तलपादः पक्षे भिक्षाद्वितीयमित्यादि । नित्याधिकाराभावादेव पक्षे वाक्यस्य सिद्धत्वेऽपि वाऽनुवृत्तिः पक्षे षष्ठीसमासार्थम् तेन पूरणेन 'तृप्तार्थ ० ' | ३||८५ इति निषिद्धोऽपि षष्ठीसमासो भवति । अग्रादिराकृतिगणः ॥५६॥ कालो द्विगौ च मेयैः ॥ ३ । १ ५७ कालवाच्येकवचनान्तं द्विगौ च विषये मेयवाचिना समासस्तत्पुरुषः स्यात् । मासजातः । द्विगौ एकमासजातः द्वयह्रसुप्तः । कालइति किम् । द्रोणो धान्यस्य ॥ ५७ ॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 50 ) अशांशिनिवृत्तौ तत्सम्बद्ध वेति निवृत्तम् । काल इत्येकवचनं द्विगोरन्यत्र प्रयोजकम् तेन मासी मासा वा जातस्येत्यत्र न भवति द्विगो तु द्वौ यो वा मासा जातस्य द्विमासजातः, त्रिमासजात इत्यपि भवति द्विगुग्रहणं त्रिपदसमासार्थम्, अन्यथा नाम नाम्नेत्यनुवृत्तेर्द्वयोरेव स्यात् । मासो जातस्य मासजातः एको मासो जातस्य एकमासजातः द्वो अहनी सुप्तस्य द्वयह्रसुप्तः । अयमपि षष्ठीसमासा - पवादो - योगः ।। ५७ ।। स्वयंसामी क्त ेन | ३|१|५८ एते अव्यये क्तान्तेन सहैका समासस्तत्पुरुषः स्याताम् । स्वयंधौतम् । सामिकृतम् । तेनेति किम् । स्वयंकृत्वा ॥ ५८ ॥ , स्वयं धौतम् - स्वयंधौतम् । सामि कृतम् - सामिकृतम् । सामिशब्दोऽर्धपर्यायः । समासे सत्यैकपद्यादेक-विभक्तिस्तद्धिताद्य त्पतिश्च भवति यथा स्वयंधीतस्यापत्यमिति 'अत इत्र ' | ६ || ३१ | इति समुदायादेवेत्रि स्वायंधौतिः । सामिकृतस्यापत्यम् 'अवृद्धा दोनंवा' | ६ |9|११० । इति विकल्पेनायनित्रि सामिकृतायनिः पक्षे 'अत इत्र | ६|१|३ | इतीत्रि सामिकृतिः । एवं समासत्वात् नित्यं सन्धिविरामा- भावोऽपि । यदुक्त - 'संहितैकपदे नित्या ' वर्णानां परस्परं सन्निकर्षः संहिता ॥ ५८ ॥ द्वितीया खट्वा क्षेपे | ३|१|५६ । | खट्वेतिद्वितीयान्तं क्ष पे निन्दायां क्तान्तेन सहैकार्थ्यं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । खट्वारूढो जाल्मः । क्षेपइति किम् । खट्वा - मारूढः पिताऽध्यापयति ॥ ५६ ॥ खट्वारूढ इति क्ष ेपः समासार्थो न वाक्येन गम्यते इति नित्य एवायं समासः । खट्वारूढ़: उत्पथप्रस्थित एवमुच्यते । खट्वा - पल्यङ्कः आचार्यासनं वा खद्वाशब्दस्य पल्यङ्कार्थत्वे - गुरुपार्श्वे ब्रह्मचर्यव्रतधारणपूर्वकमध्यंयनं तत्परिसमाप्य गुरुभिः (गृहस्थ गुरुभिः) गृहस्थाश्रमप्रवे- शायानुज्ञातेन प्रथमाश्रमे एव यावज्जीवं स्थातुमशक्त ेन द्वितीयाश्रमप्रवेशः अनिन्दितः । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) अनधीतविद्यो गुर्वनुज्ञारेहितश्च यदि भार्यया सह तल्पमारोहेत् तदा निनिदत भवति । निन्दितम् आचार्य सनार्थत्वे तु गुरुभिराचार्यकर्मणेऽनुज्ञात एव यदाचार्यासनमधिरोहेत् तदा न निन्दितम्, यदा तु विपरीतं तदा निन्दितं खट्वारोहणम् । निन्दितो खट्वा- रोहणे क्षेपो भवति । उपलक्षणं चेह खट्वारोहणमुत्पथप्रस्थानस्य । काके भ्यो दधि रक्ष्यताम्' इति काकै रुपघातकमात्र, तेन सर्वोऽ-पि विमार्ग प्रस्थितः खट्वारूढ इत्युच्यते इतरमते आयुषः चतुरः भागात् कृत्वा चत्वार आश्रमा विहिताः । द्वितीयाश्रमेपि अनासक्त न भाव्यम् तृतीयाश्रमे सर्वत्यागाभ्यास । चतर्थाश्रमे सर्वत्यागी एव भवति आर्यः सर्वत्यागी भूत्वा सर्वत्याग-भावनायामेव वा शरीरं त्यजति ॥५६॥ . कालः ।३।१।६०॥ कालिवाचिद्वितीयान्तं तान्तेन समासस्तत्पुरुषः स्यात् । राठ्यारूढाः । अहरतिसृताः॥६०॥ रात्रिमारूढाः रात्र्यारूढाः । अहः अतिमृताः अहरतिसृताः । षड़ मुहूर्ताश्चराचराः इति तु विशेष्यम् ते दक्षिणायने रात्रिं गच्छन्ति उत्तरायणे त्वहरिति । अयं भावः-त्रिंशन्महूर्ता अहोरात्रः तत्रानो रात्रेश्च द्वादश मुहूर्ता ध्र वाः । षट् चरन्ति भ्रमन्तीति चराचराः अनवस्थिता इत्यर्थः । 'चराचर०' ।४।१।१३। इति निपातना-दचि द्विर्भावे च चराचरशब्दः । चराचरा अनवस्था-यिनः तेनोत्तरायणे क्रमेणाहर्गच्छन्ति, दक्षिणायने रात्रिम्, अत एवोत्त-रायणेऽ हानि वर्धन्ते, रात्रयो हीयन्तो दक्षिणायने . रात्रयो· वर्धन्ते अहानि हीयन्ते ते मुहूर्ता अहरतिसृताः' इत्यनेनोच्यन्ते । अव्यात्प्यर्थोऽ यमारम्भः । व्याप्तौ युत्तरेण सिध्यति ।।६।। व्याप्तौ ।३।१।६१॥ गुणक्रियाद्रव्यरत्यन्तसंयोगे या द्वितीया तदन्तं कालवाचि व्यापकार्थेन समासस्तत्पुरुषः स्यात् । मुहूर्त सुखं । क्षणपाठः । दिनगुडः । व्याप्ताविति किम् । गासं पूरको याति ॥६१॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) क्त नेति निवृत्तम् व्याप्तिः गुणक्रियाद्रव्यरत्यन्तसंयोगः । गुणक्रियाद्रव्यैरत्यन्तसंयोगे या द्वितीयेति-'कालाध्वनोाप्तौ' ।२।२।४२। इति सूत्रविहिता या द्वितीयेत्यर्थः । व्यापकं विना व्याप्तेरसम्भवादाह-व्यापकार्थेनेति । मुहूर्त सुखमिति-मुहूर्त सुखमिति विग्रहोऽ-त्र गुणेनात्यन्तसंयोगः । क्षणं पाठः क्षणपाठोऽ-त्र क्रिययात्यन्तसंयोगः । मुहूर्त गुडः अन्न द्रव्येणात्यन्तसंयोगः । मासं पूरको यातीति पूरयिष्यतीति पूरक: णकच्प्रत्ययः, अत्र कदेशमात्रसम्बन्ध इति व्याप्त्यभावात्समासो न भवति ॥६१॥. .. श्रितादिभिः ।३।१।६। द्वितीयान्तं श्रितादिभिः समासस्तत्पुरुषः स्यात् । धर्मश्रितः । शिवगतः ॥६२॥ "श्रिग सेवायाम्' इति गताविह वर्तते धर्म श्रितः प्राप्तः इत्यर्थः तेन 'गत्यर्था०' ।।१।११। इति कर्तरि क्तः धर्मकर्मकश्रयणकर्तेत्यर्थः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥६२॥ प्राप्तापन्नौ तयाच्च ।३।११६३॥ एतौ प्रथमान्तौ द्वितीयान्तेन समासस्तत्पुरुषः स्याताम् । तद्योगे चानयोरत् स्यात् । प्राप्तजीविका । आपन्नजीविका ॥६३॥ प्राप्ता जीविकां प्राप्तजीविका । आपन्ना जीविका-मापन्न-जीविका । परतः-स्त्री०' ।३।२।४६। इति पुवद्भावाप्राप्तेरनयोरद्विधानम् अद्वचनं स्त्रीलिङ्गार्थम् । पुलिङ्ग तु प्राप्तो जीविकां प्राप्त जीविता आपन्नो जीविकामापन्न-जीविकः । प्राप्तापन्नयोः प्रथमोक्तत्वात् पूर्वनिपातायं वचनम् । अनयोः श्रितादित्वाच्च पूर्वसूत्रेण समासे द्वितीयान्तस्यापि प्रथमोक्तत्वेन प्राग्निपातः तेन जीविकाप्राप्तो जीविकापन्नः इत्यपि भवति ॥६३॥ . Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईषद्गुणवचनः ।३।१।६४॥ ईषदव्ययं गुणवचनैः समासस्तत्पुरूषः स्यात् ये गुणे वत्तित्वा तद्योगाद् गुणिनि वर्त्तन्ते ते गुणवचनाः । ईषत्पिङ्गलः । ईषद्रक्तः । गुणव-चनैरिति किम् ? ईषद्गार्गः ॥६४। गुणवचना इत्यस्य द्विधा व्याख्यानं-ये गुणमुक्तवन्तस्ते गुणवचना इति यैर्गुणः उक्तस्ते गुणवचनाः इति च । तत्र प्रथमव्याख्याने 'बहुलम्' ।५।१।२। इति कर्तयनटि 'वचन' इति ततः षष्ठीसमासे 'गुणवचना' इति । यद्यप्यनटा भतार्थता नोच्यते तथापि वचनग्रहणसामर्थ्यात् भतप्रतिपतिः । गणवचना गणवृत्ता इत्यर्थो तू न ज्ञयोऽ-न्यथा गणवचनमनर्थकं स्यात, गुणेनेत्यस्यैवोपादेयत्वात् तत्र गुणे कार्यासम्भवात् तत्र वर्तमाने शव्दे संप्रत्ययः स्यात् परन्तु 'गणमुक्तवन्तो गणवचनाः' इति पूर्वाचार्यप्रसिद्धिः तत्प्रसिद्धया चेहोपादानमित्ययमों लभ्यते । द्वितीयव्याख्याने ऽपि यैरिति कर्तरि तृतीया । शब्दा हि स्वव्यापारमुक्ति प्रति कर्तारो भवन्ति । ईषत्पिङ्गल इति-ईषत् अल्पं पिङ्गलः । अत्र पिङ्गलशब्दो पटस्य पिङ्गलः इत्यत्र पिङ्गतालक्षणगुणे वर्तमानः सन् पट: पिङ्गल इत्यत्र गुणिनि द्रव्यविशेषे वर्तते । ईषद्गार्य इति-गुणैः क्रियया वा होनो गार्य एवमुच्यते वृद्धापत्यमिति ‘गर्गादेर्यत्र' ।६।१।४२। इति यत्रि गार्ग्यः अपत्यप्रत्ययान्तस्य गोत्रत्वात् ‘गोत्रच चरणैः सह' इति जातिवचनो गार्यशब्दः । समासे तद्धितकाम्यसमासान्तरादीनि प्रयोजनम् । यथा ईषत्पिङ्गलस्येदम् 'तस्येदम्' ।६।३।१६०। इत्यण् ईषत्पिङ्गलमैच्छदिति 'द्वितीयायाः काम्यः ।३।४।२२। इति समुदायादेव काम्यप्रत्यये तद्घटितसमुदायस्य च धातुत्वात् तस्यैवाद्यस्वरस्य वृद्धी ऐषत्पिङ्गलकाम्यदिति भवति । कोपेनेषद् रक्त इत्यत्र ईषद्रक्त इति समुदायस्यैकनामत्वात् तृतीया तत्कृतैः ।३।१।६५। इति समासो भवति । अन्यथा 'नाम नाम्ना' इत्यनुवृत्तेरेकत्वस्य च विवक्षणात् त्रिपदसमासो न स्यात् सति त्वस्मिन् योगे ईषच्छब्दस्य रक्तशब्देन समासे एकनामत्वात् कोपशब्देन समासो भवत्येव । न च रक्त-शब्दस्य गुणवचनत्वेऽपीपद्रक्तस्य गुणवचनत्वं कथमिति वाच्यम्, विशेष्यपारतन्त्र्येण तस्य गुणवाचकत्वाक्षते: वचनस्य गुणवाचकत्वं निराकृत्य 'ऊनार्थ पूर्वा.' ।३।१।६६। इति सूत्रण समास-कथनं तु नोचितं यतो यदि विशेष्यपार Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) तन्व्येणास्यगणार्थत्वं न स्यात् तदा विशेषणपारतन्त्र्येणेषद्रक्तशब्दस्योनार्थत्वं कथं स्वीकार्यम् ईषच्छब्दस्योनार्थत्वे-ऽपि समदायस्य तदर्थत्वाभावादिति तस्य गुणवाचकत्वाक्षतेः । न च पूर्वादेराकृति-गणत्वात् 'ऊनार्थ-पूवाद्य:' ।३।१।६६। इति सूत्रण समासः स्यादिति वाच्यं तस्यागतिकगतित्वात् ॥६४॥ . . तृतीया तत्कृतः ।३।११६५॥ तृतीयात्तं तदर्शकृतगुणवचननैरेकायें समासस्तत्पुरुषः स्यात् । शङ्क लाखण्डः । मदपटुः । तत्कृतैरिति किम् । अक्षणा काणः । गुणवचनरित्येव । दध्ना पटुः पाटवमित्यर्थः ॥६५॥ शङकुलया कृतः खण्डः-शकुलाखण्ड: मदेन कृतः पटुः कृतार्थो वृत्तावन्तर्भूत इति कृतशब्दो न प्रयुज्यते । खण्ड: क्रियारूपापन्ने गुणे वतित्वा पश्चान्मत्वर्थलक्षणया तद्वति द्रव्ये वर्तते इति गुणवचनः । अक्षणा काणः इति नात्र काणत्वमक्ष्णा कृतं किन्तु काण्डादिकृतमक्ष्यादीनां तु संबन्धमानं यद्भदैस्तद्वदा०' ।२।२।४६। इति तृतीया यदा तु तत्कृतत्वविवक्षायो कर्तरि करणे वा तृतीया तदा भवत्येव समासः अक्षिकाण इति । दघ्ना पटुः इति-नह्यत्र पटुशब्दः पूर्व गुणमुक्त वा साम्प्रतं द्रव्ये वर्तते अतो न गुणवचनः । अत एव शुद्धगुणवाचिनापि समासो न भवति यथा घृतेन पाटवमित्यादि ॥६॥ चतस्रार्द्धम् ।३।१।६६॥ अर्द्धस्तृतीयान्तस्तत्कृतार्गेन चतसृशब्देन समासस्तत्पुरुषः स्यात् । अर्द्ध चतस्रो मात्राः । चतस्रति किम् । अद्धन चत्वारो द्रोणाः ॥६६॥ अर्धेन कृताश्चतस्रोऽर्धचतस्रो मात्राः । 'त्रिचतुरस्ति' ।।११। इति चत Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) astame r aman.-- - -- नादेशस्य ग्रहणादिह न भवति-अर्धेण कृताश्चत्वारो द्रोणाः इति । द्रोणो मानविशेषः ॥६६॥ ऊनार्थपूर्वाद्यः ।३।१।६७। तृतीयान्तं ऊनाणैः पूर्वाद्यैश्च समासस्तत्पुरुष स्यात् । माषोनं माषविकलं । मासपूर्वः मासावरः ॥६७॥ ऊनशब्दोऽपूर्णार्थःतदर्थका ऊनविकलादिशब्दाः । माषेणोनं माषोनम्, माषेण विकलम् माषविकलम् मासेन पूर्वः,मासेनावरः,पूर्वादिराकृतिगणः। ननु पूर्वादीनां दिकशब्दत्वात् तद्योगे 'प्रभूत्यन्यार्थ' ।।२।७६। इति पञ्चमी समुचितेति चेत्सयं यदा मासादिः पूर्वादीनां पूर्वादिभावे हेतुत्वेन विवक्ष्यते तदा दिग्योगलक्षणां पञ्चमी प्रबाध्य ‘हेतुकर्तृ०' ।२।२।४४। हेतो तृतीया भवतीति ॥६७॥ कारकं कृता ।।१६। कारकवाचितृतीयान्तं कृदन्तेन समासस्तत्पुरुषः स्यात् । आत्मकृतम् । नखनिभिन्नः । काकयेया नदी । बाष्पच्छेद्यानि तृणानि। कारकमिति किम् । विद्ययोषितः ॥६॥ • आत्मना कृतम् आत्मकृतम् । अत्र कर्तरि तृतीया 'कृत् सगतिकारकस्यापि' 1७४।११७। इति गतिपर्वस्य निर्भिन्नः इत्यस्य कृदन्तत्वेऽनेन. समासे नखैनिभिन्न इति भवति । अत्र करणे तृतीया बहुलाधिकारात्स्तुतिनिन्दार्थतायां प्रायेण कृत्यैः समासः काकैः पीयत इति काकपेया 'यः एच्चातः' ।५।१२८। इति ये आकारस्य एकारेच ततः आपि तेनतृतीयान्तेन 'नामग्रहणेलिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणमिति' न्यायादनेन समासे काकपेया नदी पूर्णेत्यर्थः पूर्णतोयत्वात्तटस्थैः उत्पविर्वा काकैरपि पातुं शक्येति स्तुतिः अल्पतोयत्वोद्भावनेन तु निन्दा वाऽत्र गम्यते एवं-नामाल्पतोयेत्यर्थः Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) यत् काकैरपि शक्यं पातुमिति यद्वा काकेनैव पेया मलिननिकृष्टजलसत्त्वादिति । अत्र कर्तृ तृतीयायाः कृत्येन समासः । अयं च विशेषो वाक्येन न गम्यत इति नित्यसमासो वेदितव्यः यथा खट्वारूढ इति क्षेपो वाक्येन न गम्यत इति नित्यसमासः । बाष्पच्छेद्यानितृणानीति-मृदूनीत्यर्थः बाष्प श्छिद्यन्ते छेत्तु शक्यन्ते इति घ्यण् । अत्र मृदुतातिशयेन स्तुतिः । दुर्बलत्वेन निन्दा वाऽत्र । विद्ययोषितः इति-हेतावत्र तृतीया, अयं भाव: विद्याया अन्नं प्रति न कारकत्वमपि तु हेतुत्वं प्रयोजकत्वम्, प्रयोजक च न क्रियाजनकमपि तु कर्तृ-प्र-रकत्वात् परम्परया क्रियासम्बद्धमिति साक्षात्क्रियाजनकत्वरूपकारकत्वाभावादिह समासो न भवतीति कारकग्रहणाभावेतु स्यादेव समासः ॥६॥ न विंशत्यादिनकोऽच्चान्तः ।३।१।६६। एकशब्दस्तृतीयान्तो न विंशत्यादिना समासस्तत्पुरुषः स्यात् । एकस्यचादन्तः । एकान्नविंशतिः । एकानविंशतिः । एकान्नत्रिंशत् । एकानत्रिंशत् ॥६६॥ एकेन न विंशतिः एकान्नविंशतिः पक्षे एकानविंशतिः ।, एवं एकेन न त्रिंशदिति न विकल्पेन समासः। रूपद्वये एकान्नत्रिंशद्एकाद् न निशदिति । अन एकशब्दस्य 'अद्' इत्यन्तागमः ‘अद्' इति विधानसामर्थ्यात् पूर्वाकाकारस्य 'लुगस्या०' ।२।१।११३॥ इति लुग् न भवति अन्यथा 'द्' इत्येव कुर्याद् ‘समानानां तेन.' ।१।२।१। इति दोघे 'एकाद्'इति जाते तृतीयस्य पञ्चमे'।१।३।१।इति दस्य नकारे एकान्नविंशतिरिति। नस्य विकल्पेन विधानात् तदभावपो एकाद्नविंशतिरिति। ननु न विंशतिरविंशा 'नत्रत्।३।२।१२५॥इति नत्रोऽदादेशे नत्रव्ययात् संख्यायाः ड:'।७।३।१२३॥इतिडसमासान्ते च'भवितव्यमिति चेत्सत्यं न विंशत्यादिना' इति निर्देशान्न भवत्यन्यथेति निर्देशोऽनर्थकः स्यात् ॥६॥ चतुर्थी प्रकृत्या ।३।१७०। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ e) प्रकृतिः परिणामिकारणम् । एतद्वाचिनैका चतुर्य्यन्तं विका'कारार्थ' समासस्तत्पुरुषः स्यात् । यूपदारू । प्रकृत्येति किस रन्धनाय स्थाली ॥७०॥ परिणाम तावः दारुणो यूपी विकारस्तद्भवनं तद्र पापत्तिः स परिणामः । परिणामोsस्यातीति परिणामि । प्रक्रियते रूपान्तरमापद्यत इति प्रकृतिः । यूपो विकृतिः, दारु प्रकृतिः । रन्धनाय स्थालीति - नात्र प्रकृति - विकृति - भाव: ।। ७० ।। हितादिभि: |३|१|७१। चतुर्थ्यन्तं हिताद्य: समासस्तत्पुरुषः स्यात् । गोहितम् । गोसुखम् - ॥७१॥ गोभ्यो हितम् गोहितम् । गोभ्यां सुखम् ' हितसुखाभ्याम् | २ २ ६५ इति चतुर्थी समासादाशिर्षोऽ-नवगमान्नाशिषि' तद्रायुष्य ० ' | २|२|६६ | इति चतुर्थी । बहुवचनमाकृतिगणार्थं तेन आत्मनेपदं परस्मैपदमित्यादि सिद्धम् । अत 'परात्मभ्यां ङे:' ।३।२।१७। इति सूत्रेण चतुर्थ्या लोपो न भवति ॥ ७१ ॥ तदर्थार्थन | ३|१|७२ | चतुर्थ्यर्थो यस्य तेनार्थेन चतुर्थ्यन्तं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । पित्रर्ण पयः । आतुरार्था यवागूः । तदर्थार्थेनेति किम् । पित्रेऽर्थः ॥ ७२ ॥ - -- पित्रे इदं पित्रथं पयः । आतुरायेयम् आतुरार्था यवागूः 'ङेऽर्थो वाच्यवत्' इति लिङ्गानुशासनाद् वाच्य - लिङ्गता, नित्यसमासश्चायं चतुर्थ्येव तदर्थ - स्योक्तत्वादर्थशब्दाप्रयोगे वाक्यासंभवात् समासस्तु वचनाद् भवति । अस्वपदघटितविग्रहरूपत्वं नित्य-समासत्वम् । पित्रेऽथं इति तदर्थं धनमि+ त्यर्थः ॥७२॥ पञ्चमी भयाद्यः ॥ ३ ॥ १॥७३॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) पञ्चम्यन्तं भयाचं रेकार्थे समासस्तत्पुरुषः स्यात् । वृकभयम् । वृकभीरः ॥७३॥ वृकाद् भयं-वृकभयम्, वृकभीरुः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥७३॥ क्तनासत्त्वे ।३।१७४। असत्त्ववृत्तेर्या पञ्चमी तदन्तं तान्तेन समासस्तत्पुरुषः स्यात् । स्तोकान्मुक्तः । अल्पान्मुक्तः । असत्त्वइति किम् । स्तोकाबद्धः ॥७४॥ स्तोकान्मुक्त इत्यादि-'असत्त्वे उसेः' ।३।२।१०। इत्यलुप् । स्तोकाबद्ध इति स्तोकाद् द्रव्यादित्यर्थः । समासे तद्धिताद्य त्पत्तिः फलम् । स्तोकान्मुक्तस्यापत्यं स्तोकान्म क्तिः इत्यादि 'अतः इत्र' ।६।१।३१। इतीत्र ।।७४।। पर:-शतादि ।३।१७५॥ अयं पञ्चमीतत्पुरुषः साधुः स्यात् । परः-शताः। पर:-सहनाः ॥७ ॥ शतात् परे पर:-शताः । सहस्रात् परे-परसहस्राः। पर-शब्दस्य पूर्वनिपातः सकारागमश्च निपातनात् ।।७।। पष्ठपयत्नाच्छेषे ।३।१७६। शेषे ।२।२।१।या षष्ठी तदन्तं नाम नाम्नकाणे समासस्तत्पुरुषः स्वात् । न चेत्स शेषो 'नाथः।२।२।१०।इत्यावर्गस्नात् । रानपु. वः । अयत्नादिति किम् । सर्पिषो नाथितम् । शेष इति किम् । पवां कृष्णा सम्पन्नक्षीरा ॥७॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( द ) सर्पिषो नाथितमिति नाथुङ् उपतापैश्वर्याऽऽशीः षु 'आशिषि नाथः | ३ | ३|३६ । इत्यात्मनेपदविषये 'नाथ' | ३ |२| १० | इति यत्नात् पाक्षिके कर्मभावे निवृत्ते तन्निबन्धनद्वितीयानिवृत्तौ निषिद्ध कर्मणि षष्ठ्येव भवतीति शेष विज्ञायत इति यत्नजे शेषे षष्ठीति समासो न भवति । अत्र भावे क्लीबेतनानिमिति सपि भूयादित्याशासनमिति तदर्थः । गवां कृष्णा सम्पपन्नक्षीरेति-अत्नापादाने 'सप्तमी चाविभागे निर्धारणे | २२|१०| इति षष्ठी ||७६ || कृति | ३|१|७७॥ कर्म्मणिकृतः २०२८३ | कर्त्तरि । २।२८६ । इति या कृन्निमित्ता षष्ठी तदन्तं नाम नाम्ना समासस्तत्पुरुषः स्यात् । सर्पिर्ज्ञानं गणधरोक्तिः ॥ ७७ ॥ सिद्धसेन कृतिरिति - सिद्धसेनस्य सिद्धसेनदिवाकाराभिधस्य आचार्यस्य सम्मतितर्कादिग्रन्थ रचना। करोतेर्भावेक्तिः कर्तरि च षष्ठी । अनेन समासः गणधरोक्तिरिति - गणधरस्य भगवतो गौतमादेः, उक्ति:- उपदेशादि वचनम् । वचं भाषणे अतो भावे क्तिः वृति च कत्वे उक्तिः । अत्रापि कर्तरि षष्ठी । एवं धर्मानुस्मरणम् तत्त्वानुचिन्तनमित्यादि कर्मषष्ठयन्तस्योदाहरणम् ज्ञेयम् ॥७७॥ याजकादिभिः | ३|१|७८ । षष्ठयन्तं याजकाद्यः समासस्तत्पुरुषः स्यात् । ब्राह्मणयाजकः । गुरुपूजकः ॥७८॥ ब्राह्मणानां याजकः-ब्राह्मणयाजकः । गुरूणां पूजकः । बहुवचनमाकृतिगणाथंम् । 'कर्म' - जा तृचा च' | ३|१|८३ | इति प्रतिषेधापवादो योगः ॥ ७८ ॥ पत्तिस्थौ गणकेन | ३|१|७६ । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) एतो षष्ठयन्तौ गणकेन समासस्तत्पुरुषः स्याताम् । पत्तिगणकः ।। रथगणकः । पत्तिरथाविति किम् । धनस्य गणकः ॥७॥ पत्तीनां गणकः । पत्ति गणकः । रथानां गणकः रयगणक: ‘कर्मजा तृचा च' .. ।३।१।८३। इति प्रतिषेधापवादोऽ यम् योगः ॥७॥ सर्वपश्चादादयः ।३।१।८०। एते षष्ठीतत्पुरूषाः साधवः स्युः। सर्वपश्चात् । सर्वचिरम् ।८०॥ सर्वेषां पश्चात् सर्वपश्चात् । सर्वेषां चिरम् सर्वचिरम् । अव्ययेन 'तृप्तार्थ.' ।३।१।८५। इति प्रतिषेधो वक्ष्यति । तस्यापवादोऽयम् । बहुवचनं शिष्टप्रयोगानुसरणार्थम् ।।८०॥ अकेन क्रीडाजीवे ।३।१।८१। पष्ठयन्तमकप्रत्ययान्तेन क्रीडाजीविकयोर्गम्ययोः समासस्तत्पुरुषः स्यात् । उद्दालपुष्पमञ्जिका। नखलेखकः । क्रीडाजीवइति किम् । पयसः पायकः ॥१॥ आजीवो जीविका । उद्दालकपुष्पभजिकेति-उद्दालको वृक्षविशेषः तस्य पुष्पाणि तेषां भञ्जिका। कस्याश्चित् क्रीडायाः संज्ञा । नखलेखक इतिनखानां लेखक: नखलेखकः नापित इत्यर्थः । नखलेखनमस्याऽऽ जीवो-गम्यते, क्रीडाजीवी वाक्येन न गम्येते इति द्वितीया खट्वा क्षेपे' ।३।१।५०। इतिवत् नित्य-ग्रहणा-भावेऽ पि नित्यसमासौ एतो । 'कर्मजा तृचा च' ।३।११८३। इति प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् ।।८१॥ न कतरि ।३।१।८२॥ कर्तरि या षष्ठी तदन्तमकान्तेन समासो न स्यात् । तव Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) शायिका । कर्तरीति किम् । इक्षुभक्षिका ॥२॥ 'शयितु पर्यायः क्रम इति वाक्ये ‘पर्यायाहणो०' ।५।३।१२०। इति स्त्रियां भावे णके शाचि-का त-वेत्यत्र 'कर्तरि' ।२।२।८६। इति षष्ठी। इक्षुभ-क्षिकेति-भक्षण अदने' इत्यतः भावे स्त्रियां ‘पर्याया०' ।५।३।१२०। इति णकः कर्मणि षष्ठी 'कृति' ।३।१।७७। इति समासः ॥२॥ कर्मजा तुचा च ।३।१।८३॥ कर्म-णि या षष्ठी तदन्तं कर्तृ-विहिताकान्तेन तृजन्तेन च न समासः स्यात् । भक्तस्य भोजकः । अपां स्रष्टा । कर्म जेति किम् । गुणों गुणिविशेषकः, सम्बन्धे ऽत्र षष्ठी । कर्तरीत्येव । पयः-पायिका ॥८३॥ . कर्तरीत्यनुवर्तते तच्चाकस्य विशेषणम् । भोजक इत्यादि-णकतृचौ' ।५।१।४८। इति णकतृचौ । गुणो गुणिविशेषकः, गुणिन: संबन्धी विशेषक इत्यर्थः । शेषषठया समासः । पयः-पायिकेति पां पाने इत्यतः भावे स्त्रियां 'पर्यायाहः' ।५।३।१२०। इति णक: 'आतः ऐ०' ।४।३।५३। इत्याकारस्य ऐकारः यादेशश्च । पयः कर्म-कर्मणि षष्ठी कृति' ।३।११७७। इति समासः ॥३॥ तृतीयायाम् ।३।१८४॥ कर्तरि तृतीयायां सत्यां कम जा षष्ठी न समस्यते । आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालेन । तृतीयायामिति किम् । शब्दानुशासनं गुरोः ॥८४॥ अगोपालकेनेत्यत्र 'विहेतोरस्त्र्यणकस्य वा' ।२।२।८७। इति षष्ठीनिवृत्ती 'हेतु-कर्तृ०' ।२।२।४४। इति तृतीया। अशिक्षितेन दोग्ध्रा दुर्दोहा गावो यदि Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) दुह्यन्ते तदाऽऽ श्चर्यमिति । शब्दानुशासनं गुरोरिति - अत्र गुरोरित्यन कर्तरि षष्ठ्यां सत्यां शब्दानामनुशासनं शब्दानु - शासनमिति समासः स्यादेव || ४ || तृप्तार्थपूरणाव्ययातृश्शत्रानशा । ३।१।८५ | तृप्ताः पूरणप्रत्यान्तंरव्ययंरतुशतैः शत्रन्तैरानशन्तैश्च षष्ठघन्तं न समस्यते । फलानां तृप्तः । तीर्थकृतां षोडशः । राज्ञः साक्षात् । रामस्य द्विषत् । चैत्रस्य पचन् । मंत्रस्य पचमानः ॥८५॥ षडुत्तरा दश = षोडश 'एकादश षोडश० | ३|२|| इति निपातनम् षोडशानां पूरण इति 'संख्यापूरणे डट् २७/१/१५५ । इति ङित्त्वादन्त्यस्वरादिलोपे च षोडश इति । राज्ञः साक्षादित्यत्र स्वरादित्वात् 'साक्षात्' इत्यस्याव्ययत्वम् । रामस्य दिवषन् इति - विषक् अप्रीती अत: 'सुविषार्ह ०' |५|२| २६ । इत्यतृश । 'विषो वातृशः | २२|४| इति वा षष्ठी । चैत्रस्य पचन्निति - 'डपचींष् पाके' इत्यतः 'शत्रानशा ० ' |५|२| २० | इतिशतृप्रत्ययः तद्योगे शेषे षष्ठी इति कर्मणि कृतः | २२|३| 'कर्तरि २२८६ इति सूत्राभ्यां विधीयमानषष्ठ्या स्तु 'तृन्नुदन्ता०' | || इति निषेधात् । मैत्रस्य पचमानः इति - आनश्प्रत्ययः, शैषिको षष्ठी ॥८५॥ ज्ञानेच्छार्चार्थाधारक्त ेन | ३|१/८६ | ज्ञानेच्छाचर्णेभ्यो यो वर्तमाने तो यश्चाद्यर्थाच्चाधार इत्याधारे तस्तदन्तेन षष्ठयन्तं न समस्यते । राज्ञां ज्ञातः । राज्ञामिष्टः । राज्ञां पूजितः । इदमेषां यातम् ॥ ८६ ॥ राज्ञां ज्ञात इत्यादि-ज्ञांश अवबोधने 'इषत् इच्छायाम् ' पूजण् पूजायाम् एभ्यः 'ततु साप्या ० ' | ३ | ३ | २३ | इति कर्मणि 'ज्ञानेच्छाचार्थ ० Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) ।५।२।६२। सूत्रेण वर्तमाने क्तः भवति सर्वत्र कर्तरि' ।।२।८६। इति षष्ठी । वर्तमाने क्तविधानात् 'क्तयोरसदाधारे' ।२।२।६१। इति न षष्ठ्या निषेधः । राज्ञां ज्ञायमानः इष्यमाणः पूज्यमान इति क्रमेणार्थः । इदमेषां यातमिति-'यांक प्रापणे' इत्यतः 'तक्तवतू' ।५।१।१७४। इति भते 'अद्यर्थाच्चा०' ।५।१।१२। इति सूत्रणाधारे तो भवति 'कर्तरि' ।२।२।८६। इति षष्ठी। आधारे क्तविधानात् 'क्तयोरसदाधारे' ।२।२।११। इति न षष्ठया निषेधः । यायते स्माऽत्रेत्यर्थः ।।८६।। अस्वस्थगुणः ।३।१८७। ये गुणाः स्वात्मन्येव तिष्ठन्ति न द्रव्ये ते स्वस्थास्तत्प्रतिषेधेनास्वस्थगुणवाचिभिः षष्ठयन्तं न समस्यते । पटस्य शुक्लः । गुडस्य मधुरः । अस्वस्थगुणैरिति किम् । घटवर्णः। चन्दनगन्धः ॥७॥ पटस्य शुक्लः इत्यादि-शुक्लः पट: इत्यादी द्रव्येऽपि वृत्तिदर्शमादस्वास्थ्यमस्त्येव । सर्वेषामपि भावप्रत्ययेन स्वस्मिन्नवस्थितानां प्रतीतेः पटस्य शौक्ल्य-मित्यादि ततश्च सर्वे एव गुणा: स्वस्था इत्यनवधारणाश्रये आनर्थक्यादवधारणमाश्रीयते । ये गुणाः स्वात्मन्येवेति-स्वस्मिन्नेव भात्मन्येव स्वात्मनि स्वस्वरूपे एवावतिष्ठन्ते ये ते स्वस्था इति । घटवर्णः इत्यादिवर्णादयो न कदापि द्रव्यवाचका इति स्वस्था एवेति नात्र निषेधः । गणशब्देन चेह लोकप्रसिद्धा एव रूपरसगन्धस्पर्शगणा: अभिप्रेतास्ततस्तद्विशेषरेवायं प्रतिषेधः तेन यत्नस्य गौरवम् यत्नगौरवम्, प्रक्रियालाघवमित्यादिषु प्रतिषेधो न भवति ॥८७॥ सप्तमी शोण्डाद्यः ।३।१८८। एभिः सहकायें सप्तम्यन्तं समासस्तत्पुरुषः स्वात् । पानशौण्डः। अक्षधूर्त्तः ॥८॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) पाने शौण्डः पानशौण्डो मद्यपः । मद्यपे वर्तमानोऽपि शौण्डशब्द : गौणवृत्त्येह व्यसनिनि वर्तते, अक्षेषु धूर्तः अक्षधूर्तः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥८८॥ सिंहाद्यः पूजायाम् ।३।१।८६ । एभिः सप्तम्यन्तं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । पूजायां गम्यमानायां । . समरसिंहः । भूमिवासवः ॥ ८६ ॥ समरे सिंह इव समर सिंहः । भूमौ वासव इव इन्द्र इवेत्यर्थः । उपमयाऽत्र पूजाऽवगम्यते । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । यत्र साधारणधर्मवाचकशब्दस्याप्रयोगस्तत्रैवायं समासः तेन समरेसिंह इव शूरः इवेत्यत्र शूरशब्दस्य साधारणधर्मवाचकस्योपादानान्न समासः ॥ ८६ ॥ काका: क्षेपे | ३|१र्दिन एभिः सप्तम्यन्तं निन्दायां गम्यमानायां समासस्तत्पुरुषः स्यात् । तीर्थ काकः । तीर्थश्वा । क्षेपइति किम् । तीर्थ काकोस्ति |८०| 1 तीर्थे काक इव तीर्थकाकः । तीर्ये श्वा इव तीर्थश्वा । अनवस्थित एवमुच्यते । यथा तीर्थे काको न चिरं तिष्ठति तथा यो गुरुकुलं गत्वापि न चिरं तिष्ठति, अन्यत्र वा कार्ये सोऽनवस्थित उच्यते । तीर्थे काकोऽस्तीति-अत्र तत्त्वाख्यानं न पुनरन्यः काकतुल्यः क्षिप्यमान उच्यते इति क्षेपः इति समासो न भवति । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥६०॥ 1 पात्रेसमितेत्यादयः | ३|१|१| एते सप्तमीतत्पुरुषाः क्षेपे निपात्यन्ते । पाले समिताः । गेहे शूरः ॥१॥ पात्रे एव समिताः - पात्रेसमिताः पात्रे भोजनार्थे भाजने एव समिताः Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) समागताः भोजने एव सन्ति न कार्यान्तरे ते पात्रेसमिता: । 'तत्पुरुषे कृति' ।३।२।२०।इति सप्तम्याः अलुप् । गेहे एव शर: गेहे शूर: गेहे एव शौर्ययुक्तो न युद्ध इत्यर्थः । निपातनात् सप्तम्या अलुप् । अनयोरवधारणेनक्षेपो गम्यते । इति-शब्दः समासान्तरनिवृत्त्यर्थस्तेन ‘परमाः पात्रेसमिताः' पात्रेसमितानां पुनः इत्यादिषु समासो न भवति । बहुवचनमाकृति-गणार्थम् ।।६।। क्तन ।३।१२। सप्तम्यन्तं तान्तेन क्षेपे समासस्तत्पुरुषश्च स्यात् । भस्मनिहतं । अवतप्ते-नकुलस्थितम् ॥१२॥ . भस्मनि-हुतमिति-भस्मनि हुतमिवेति विग्रहः निष्फलं । कृतमेवमुच्यते यथा भस्मनि हत्त न हवनफलाय कल्पते तथोपमेयकार्य निष्फल मित्यवगति-रिति कार्यस्य निन्दितत्वं स्पष्टम् 'तत्पुरुषे कृति' ।३।२।२०। इति सप्तम्या अलुप । अवतप्ते न कुलस्थितमिति-कार्येष्वनवस्थितत्वमुच्यते अवतप्ते नकुलस्थितमिवेति विग्रहः स्थाधातो वे क्लीबे क्त 'स्थितम्' इति, नकुलस्य स्थितौ कर्तृ त्वम्, नकुलेन स्थितमिति ‘कारकं कृता' ।३।१।६८। इति समासे नकुलस्थितमिति कृत् सगतिकारक स्यापि' ।७।४।११७। इति परिभाषया नकुलस्थितशब्दोऽपि क्तान्तः तेन सह 'अवतप्ते' इति सप्तम्यन्तस्य प्रकृतसूत्रेण समासे कृते 'तत्पुरुषे कृति' ।३।२।२०। इति सप्तम्या अलुप् । हे देवदत्त । अवतप्ते नकुलस्थितं ते एतत् अवस्थानम् । यथा अवतप्ते प्रदेशे नकुला न चिरं तिष्ठन्ति तथा कार्याण्यारभ्य चापलेन तान्यनिवर्त्य इतस्ततः प्रधावनमित्यर्थः अव्यवस्थितोऽसीति निन्दा ज्ञेया। नित्यसमासाश्चैते पत्रेसमितादयश्च । अविग्रहोऽस्वपदविग्रहो वा नित्यसमासः इति नित्यसमासलक्षणात् प्रकृते चास्वपदविग्रहत्वान्नित्यसमासत्वं ज्ञेयमिति ॥१२॥ तत्राहोरात्रांशम् ।३.१६३। तो-तिसप्तम्यन्तं अहरवयवा राज्यवयवाश्चसप्तम्यन्ताः क्तान्तेन Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) समासस्तत्पुरुषः स्यात् । तत्रकृतम् । पूर्वाणक तम् । पूर्वरात्रक तम् । तत्राहोरात्रांशमिति किम् । घटे क तम् । अहोरात्रग्रहणं किम् । शुक्लपक्ष क तम् । अंशमिति किम् । अह्नि भुक्तं रात्रौनृत्तम् ॥६॥ पृथग्योगात्, क्षेप इति निवृत्तम् । तत्र त्यस्य सप्तम्यन्तत्वं सप्तम्यर्थवृति- . त्वात् यद्यपि तत्रभवानित्यादावन्यवि-भक्तयर्थमपि तत्र' इति तथापि प्रकृते प्रकरणात् सप्तम्यर्थकं ज्ञेयम् एवं 'तत्र' इति स्वरूपस्यात्र ग्रहणं नतु सामान्येन सप्तम्यर्थबोधकस्य । शुक्लपक्षे कृतमिति-पक्षो मासांशः इत्यहोरात्रग्रहणात् समासो न भवति ।।६३॥ - - नाम्नि ३१६४॥ सप्तम्यन्तं नाम्ना संज्ञाविषये समासस्तत्पुरुषश्च स्यात् । अरण्येतिलकाः, अरण्येमाषकाः ॥१४॥ अरण्येतिलका इत्यादि-तिलः प्रकारः एषामिति तिलकाः वृक्षविशेषाः । माषः प्रकारः एषामिति माषकाः वृक्षविशेषाः 'कोऽण्वादेः' ७।२७६। इत्युभयत्र कः । 'अद्-व्यञ्जनात्सप्तम्या बहुलम्' ।३।२।१८। इति सप्तम्या अलुप् । वाक्येन न संज्ञा गम्यते इति नित्यसमासोऽयम् ॥१४॥ . कृद्य नावश्यके ॥३॥१६॥ सप्तम्यन्तं नाम 'यएच्चात ।५।१।१८। इतियान्तेनावश्यम्भावे गम्ये समासस्तत्पुरुषश्च स्यात् । मासदेयम् । क दिति किम् । मासे पित्र्यम् ॥६५॥ 'अवश्यम्' इत्यव्ययं निश्चयार्थे तस्य भावः इति 'चोरादेः' ।७।१।७३। इति सूत्रणाकञ्प्रत्यये मकारलोपे आद्यस्वरस्य वृद्धौ च 'आवश्यक' इति मासेऽ वश्यं देयम् मासदेयम् । पित्र्यमिति-पित्रे हितमिति 'तस्मै. हिते' Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) |७|१|३५| इति ये 'ऋतोरस्तद्धिते' | १|२/२६ | इति ऋकारस्य रकारे 'पित्र्य' इति । अत्र तद्धितो यप्रत्ययो न तु कृदिति समासो न भवति ॥ ६५ ॥ विशेषणं विशेष्येणैकार्थ कर्म्मधारयश्च | ३|१|६६ | भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तयोः शब्दयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तिरैकार्थं तद्वद्विशेषणवाचि विशेष्यवाचिनैकार्थे समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । नीलोत्पलम् खञ्जकुटः । कुण्टखञ्जः । एकार्थमिति किम् । वृद्धस्योक्षा वृद्धोक्षा ॥ ९६ ॥ विशिष्यते नेकप्रकारं वस्तु प्रकारान्तरेभ्यो व्यवच्छिद्यतेऽनेनेति विशेषणं, व्यवच्छेद्य विशेष्यम् ऐकार्थ्यं तद्वदेकार्थं विशेषणवाचि नामैकाथं विशेव्यवाचिनानाम्नां सह समस्यते । स च समासस्तत्पुरुष - संज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्व भवति । ऐकार्थ्यं समानाधिकरण्यम् समानमधिकरणमर्थो ययोस्तौ समानाधिकरणौ तयोर्भावः सामानाधिकरण्यम् शब्दस्याधिकरणमर्थ एव अर्थे एवं शब्दप्रयोगात् । अयमाशयः नीलमुत्पल मित्यादौ पदद्वयमप्येकमेव द्रव्यमभिधत्ते नीलपदस्यापि नीलरूपवद्द्रव्यपरत्वात् । एवं चोभयोः सामानाधिकरण्यम् स्पष्टमेव । विशेषण- विशेष्ययोः सम्बन्धिशब्दत्वादे कतरोपादानेनैव द्वयोर्लब्धं द्वयोरूपादानं परस्परनुभयोर्व्यवच्छेदक वे समासोयथा स्वादित्येवमर्थं तेनेह न भवति तक्षकः सर्पः लोहितस्तक्षक इति, असर्पस्याऽन्यवर्णस्य वा तक्षकस्या भावात् । अयमाशयः - यत्र पूर्वोत्तरपदे प्रत्येकं विशेषणविशेष्यभूते भवतस्तत्रैव समासो भवतीति ज्ञापनार्थमुभयोरुपादानं यथा नीलोत्पलमिति । अत्र नीलार्थो भ्रमरादिभ्यो व्यावर्त्योत्पला नोत्पले व्यवस्थाप्यते उत्पार्थोऽपि रक्तोत्पलादिभ्यो व्यावर्त्य नीलार्थेन व्यवस्थाप्यते इत्यस्ति प्रत्येकं विशेषणविशेष्यभाव: । 'तक्षकस्तु लोहिताङ्गः स्वस्तिकाङ्कितमस्तक' इति सर्पविशेषस्य 'तक्षक' इति संज्ञा । यद्यपि तक्षकः सर्पस्य विशेषणं भवत्येव । तथाहि 'सर्प' इत्युक्त' सर्पसामान्यं प्रतीयते, न सर्पविशेष: तक्षकः इत्युक्ते तु सर्पविशेषोऽ तक्षकाद् व्यावृत्तः प्रतीयते, तथापि यत्रैकैकस्योभयत्र भावस्तव समास इति, न च सर्वार्थस्य तक्षकः कदाचित् विशेष्यो भवति कथ न भवति ? Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८ ) तक्षकस्य सर्पत्वाव्यभिचारात् । ननु नीलमुत्पलमित्यत्र नीलमनीलादुत्पलं . व्यावर्तयतीति विशेषणम् उत्पलेन भृङ्गादिभ्यो व्यावय॑ते इति विशेष्यं च भवति, एवमत्पलं भृङ्गादिभ्यो नीलं व्यावर्तयतीति विशेषणं, नीलेन रक्तोत्पलादिभ्यो व्यावर्त्यते इति विशेष्यं च भवतीति उभयोविशेषणं विशेष्यं भवति उत्पलमपि विशेषणं विशेष्य च भवति तथा च नीलमिति विशेषणं विशेष्यं योश्च विशेष्यत्वे सति विशेष्यस्यापि विशेषणत्वमित्युत्पलशब्दस्यापि नीलादिना समासप्रसङगः, तथा च 'प्रथमोक्तप्राक' ।३।१।१४८। इति वचनादुत्पलनीलमित्यपि स्यात् इति चेन्मैवं पूर्वदर्शितरीत्या यथा नीले विशेष्यविशेषणभावः तथोत्पलेऽपीति विशेष्यविशेषणभावस्य साम्येऽपि 'प्रधानानुयाय यप्रधानम्' इति न्यायादप्रधानस्यैव प्रधानेन समासः प्राधान्यं च द्रव्यशब्दानामेव, द्रव्यस्यैव साक्षात् क्रियाभिसम्बन्धात् । यस्तु गुणादिशब्दानामेव समासस्तनोभयोरपि पदयोरप्रधानत्वात् कामचारेण पूर्वापरनिपातः खजश्चासौ कूण्टश्च खञ्जकूण्ट: एवं कुण्टखजः । वृद्धोक्षेतिवि-शेषणं द्विविधं समानाधिकरणं व्यधिकरणं चेति । समानाधिकरणं नीलो घट इति । व्यधिकरणं राज्ञः पुरुष इति तत्र व्यधिकरणे विशेषणे 'वृद्धस्य उक्षा' इत्यत्रानेन समासो मा भूदित्येतदर्थमेकामिति प्रदत्तम् तथा च 'वृद्धोक्षा' इत्यत्र नानेन समासः किन्तु 'षष्ठ्ययत्ना०' ।३।१७६। इति षष्ठीसमासः' कर्मधारये तु 'जातमहद्०' ।३।१९५॥ इति समासान्तेऽ ति वृद्धोक्ष इति स्यात् स तु नेष्ट इति ।।६।। पूर्वकालौकसर्वजरत्पुराणनवकेवलम् ।३।१६७। पूर्वकालो यस्य तद्वाच्येकादीनि चकार्थानि परेण नाम्ना समासस्तत्पुरूषः कर्मधारयश्च स्यात् । स्नातानुलिप्तः । एकशाटी। सन्निम् । जरद्गवः । पुराणकविः । नवोक्तिः । केवलज्ञानम् । एकार्थमित्येव । स्नात्वानुलिप्तः ॥७॥ 'पूर्वकाल' इत्यर्थप्रधानो निर्देशः । पूर्वः कालो यस्यार्थस्य स-पूर्वकालः । पूर्वकालः संवन्धिशब्दत्वादपरकालेन समस्यते । तत्र वाचिनि प्रतिपत्तिः अर्थे कार्या-सम्भवादित्याह-तद्वाचीति पूर्वकालवाचि अपरकालवाचिना समस्यत Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) इत्यर्थः । पूर्व स्नात: पश्चादनुलिप्तः स्नातालिप्तः वृत्तिस्वाभाव्यात् स्नानोत्तरमेव चन्दनादिसेवनरूपानुलेपनस्य प्रसिद्धत्वाच्च समासे पूर्व कालत्व-स्यापरकालत्वस्य च पूर्वोत्तरपदार्थयोर्गम्यमानत्वात् तत्र पूर्वापरकालवाचिशब्दान्त राप्रवेशः । एका शाटी एकशाटी । शाटशब्देन त्वनभिधानान्न भवति एकः शाटः। सर्वं च तदन्न च सर्वान्नम् । जरश्वासी गौश्चेति-जरद्गवः अत्र ‘गोस्तत्पुरुषात्' ।७।३।१०५॥ इति समान्तोऽट् । पुराणश्चासो कविश्च पुराणकविः । नवा चासावुक्तिश्च नवोक्तिः । केवलमसहायं ज्ञानं केवलज्ञानम् । स्नात्वानुलिप्तः इति-स्नात्वेत्यसत्वाचिनो नानुलिप्तपदेन कार्यम् । अयमाशयः . स्नात्वेति पूर्वकालक्रियामाह न द्रव्यम्, अनुलिप्तेति तु द्रव्यमाह, अतो भिन्नार्था-विमो नैकार्था-वित्यर्थः । पूर्वेणैव सिद्ध पुनर्वचनं स्पर्धे परमिति पूर्वनिपातस्य विषयप्रदर्शनार्थं पूर्वाsपरकालवाचिनोरद्रव्यशब्दत्वात् च खञ्जकुण्टादिवद-नियमे प्राप्ते पूर्वकालवाचिन एव पर्वनिपातार्थ च । अत्र शब्दस्पर्धः तथाहि-प्रकृतसूत्रे ये शब्दा निहिताः तेषां मिथः समासे सति सूत्र-मध्ये यः शब्दोऽग्रे निहितः तस्य पर्वनिपातो भवति यश्च पूर्व निर्दिष्टः स परतो भवति स्पर्द्ध परमिति न्यायात् यथा-के क्लपुराणमित्यादिषु ॥१७॥ दिगधिकं संज्ञातद्धितोत्तरपदे ।३.१६८। दिग्बाच्यधिकं चैकार्थ नाम्ना समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । संज्ञायां तद्धिते च विषयभूते उत्तरपदे च परतः । दक्षिणकोशला । पूर्वेषु-कामशमी। दक्षिणशालः । अधिकषा•ष्टिकः । उत्तरगवधन । अधिकगवप्रियः ॥१८॥ दक्षिणाः कोशलाः दक्षिणकोशलाः एवं-नामा जनपदः । पूर्वा चासाविषुकामशमी च पूर्बोषुकामशमी एवंनामा ग्रामः । संज्ञायां नित्यसमासः नहि वाक्येन संज्ञा गम्यते । पूर्वोत्तरविभागप्रदर्शनार्थं तु विग्रहवाक्यम् । तद्धितेदक्षिणस्यां शालायां भवः दाक्षिणशालः। अधिकया षष्ठ्या क्रीतः इति 'मूल्यैः क्रीते' ।६।४।१५०। इतीकणि अथवा अधिकांषष्टि भूतो भावी वेति 'तं भाविभूते'।६।४।१०५। इतीकणि अधिकषाष्टिकः । अयमपि नित्यसमासः Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) न हि तद्धिते वाक्यमस्ति । उत्तरपदे - उत्तरो गौर्धनमस्येति - उत्तरगवधनः अत्र पूर्वं त्रिपदबहुग्रीही पश्चात् धनशब्दे उत्तरपदे परतः पूर्वयोः पदयोस्तत्पुरुषः तस्मिन् सति' गोस्तत्पुरुषात्' ७ । ३ । १०५ । इति समासान्ते - टि ओकारस्यावादेशः । एवं अधिको गौः प्रयोऽस्येति अधिकगवप्रियः । समासेऽन्त्यं पदमुत्तरपदं विज्ञायते । उत्तरपदेऽपि नित्यं समासः त्रयाणामेकार्थीभाव एवोत्तरपदसंभवात् तत्र च द्वयोर्व्यपेक्षाभावात् । 'विशेषणं विशेष्येण ० ' | ३|१|६| इत्येव सिद्धे नियमार्थं वचनम् दिगधिकं संज्ञातद्धितोत्तरपद एव समस्यते . नान्यत्रेति तेन उत्तरा वृक्षाः इत्यत्र समासो न भवति ॥ ८ ॥ संख्या समाहारे च द्विगुश्चानाम्न्ययम् | ३|१|ई| संख्यावाचि परेण नाम्ना समासस्तत्पुरुषः कर्म्मधारयश्च स्यात् । संज्ञातद्वितयोविषये उत्तरपदे च परे संमाहारे चार्थे, अयमेव चासंज्ञायां द्विगश्च । पचास्राः । सप्तर्षयः । द्वौ मातुरः अध्यर्धकंसः । पञ्चगवधनः । पञ्चनावप्रियः । पञ्चराजी । समाहारे चेति किम् । अष्टौप्रवचनमातरः । अनाम्नीति किम् । पाञ्चर्षम् । । ॥६६॥ अनेकस्य कथञ्चिदेकत्वं समाहारः । संज्ञायाम् पञ्च ते आम्राश्वेति पञ्चाम्राः सन्निवेशादिविशिष्टानां पञ्चानामाम्राणामियंसंज्ञा । सप्त च ते ऋषयश्च सप्तर्षयः सप्तानामृषिविशेषणामियं संज्ञा । ते चेमे 1 'मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः । वशिष्टश्च महातेजाः सप्तमः परिकीर्तितः ॥ | १ || ' इति तद्धिते-द्वयोर्मानोरपत्यं द्वैमातुरः अत्र 'संख्यासंभद्रातु०' |६|१|६६ । इत्यण्प्रत्ययः मातृशब्दस्य : 'मातुर्' इत्यादेशश्च । अध्यर्द्धण कंसेन क्रीतः अध्यर्धकंसः ‘कसमासेऽध्यर्ध' | १|१|४१ | इत्यध्यर्धशब्दस्य संख्याशब्दत्वम् । अध्यर्धेणेत्यस्यार्धसहितेनैकेनेत्यर्थः कंसेन परिमाण - विशेषेण अत्र 'कं साधत्' | ६ |४| - | १३५ । इतीकट् भवति तस्य च 'अनाम्न्य' | ६ | ४ | १४१ | इति लुप भवति । उत्तरपदे-‍ -पञ्च गावो धनमस्येति पञ्चगवथनः अत्र पूर्वं त्रयाणां पदानां Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) • बहुब्रीहिः पश्चात् धनशब्दे उत्तरपदे परतः पूर्वयोः पदयोस्तत्पुरुषस्तस्मिन् संति 'गोस्तत्पुरुषात् ' | ७ | ३ | १०५ | इति समासान्तेऽटि ततोऽवादेशः । पञ्च नाव: प्रिया यस्य स पञ्चनावप्रियः अत्रापि त्रयाणां बहुव्रीही पूर्वयोस्तत्पुरुषसंज्ञा कर्मधारयसंज्ञा द्विगुसंज्ञा च । तत्र द्विगुसंज्ञया' नाव: 1७|४|| १०४ । इति समासान्तेऽटि ततः आवादेशः । पञ्चानां राज्ञां समाहारः पञ्चराजी अत्र 'द्विगोरो' | ७|३|| इति समासान्तोsट् 'नोऽपदस्य तद्धिते' | ७|४|६१ | इत्यन्त्यस्वरादिलोपः पात्रादिवर्जिताददन्तोत्तरपदः समाहारे । द्विगुरन्नावन्तान्तो वाऽन्यस्तु सर्वो नपुंसकः ||१|| इति लिङ्गानुशासने अन्नन्तस्य विकल्पेन स्त्रीत्वानुशासनात् स्त्रीत्वपक्षे 'द्विगोः समाहारात्' | २|४|३२| इति ङीश्च पञ्चराजीति स्त्रीत्वाभावपक्ष नपुंसकत्वे सति पञ्च राजमिति च भवति । अनन्तरोक्तकारिकार्थश्चायम्पात्रादिगणवर्जितमकारान्तमुत्तरपदं यस्य स तथाविधो द्विगुः समाहारे वर्तमानः स्त्रीलिङ्गः, अन्नन्तमावन्तं च यदुत्तरपदं तदन्तो द्विगुः समाहारे वर्तमानो वा स्त्रीलिङ्गः उक्तस्त्रीत्वादन्यो द्विगुः समाहारे वर्तमानः सर्वो नपुंस इति । अष्टौ प्रवचनमातरः इति अत्र समाहारस्याविवक्षा । ईर्यासमित्यादिपञ्चसमितयः मनोगुप्त्यादित्रिगुप्तयः इमा अष्टौ प्रवचनमातरः जिनप्रवचने उक्ता: अत्र 'विशेषणं विशेष्येणै०' |३|१|६| इत्यनेनापि समामो न भवति नियमार्थत्वादस्य नियमाकारश्चायम्- संख्यावाचिनः समाहार-संज्ञा - तद्धितोत्तरपद एव समासेा भवति नान्यत्वेति पाञ्चर्षमिति - - पञ्चर्षीणामिदं पाञ्चर्षम् अत्र 'पञ्चषि' इत्यस्य द्विगुसंज्ञायां सत्यामनपत्यप्रत्ययस्य तस्येदम्' | ६ | ३ | १६० । इत्यण्प्रत्ययस्य 'द्विगोरन० ' | ६|१|२६ । इत्यनेन लुप भवति । तद्वारणार्थम् 'अनाम्नि' इत्यावश्यकमेव । ननु सुते 'अयम्' इत्यस्य ग्रहणाभावेऽपि सन्निधानादेव 'द्विगुश्च' इत्यस्यैव 'अनान' इत्यनेन संबन्ध: स्यादिति 'अयं -ग्रहणम् विफलमिति चेत्सत्यमग्रहणमुत्तरत्र 'द्विगुश्चेत्यस्याननुवृत्त्यर्थम् ||६|| निन्द्य कुत्सन र पापाद्यं: | ३|१|१०० | निन्द्यवाचि निन्दाहेतुभिः पागादिवर्णैः सह समासस्तत्पुरुषः Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) कर्म्मधारयश्च स्यात् । वैयाकरणखसूची मीमांसक दर्द रूढः । निन्द्यमिति किम् ? वैयाकरणश्चौरः । अपापाद्य रिति किम् । पापवैयाकरणः । हतविधिः ॥ १०० ॥ वैयाकरणश्चासो खसूची च वैयाकरणखसूची, यः शब्दं पृष्टः सन् निष्प्रतिभत्वात् खं सूचयति स एवमुच्यते । मीमांसकश्चासौ दुर्दुरूढ: मीमांसकदुर्दुरूढः । दुर्दुरूढः नास्तिकः क्वचित् दुर्दुरूट इति पाठ उपलभ्यते - तत्र दुःपूर्वात् दृणातेः 'दुरोद्रः कूटश्च दुर्च' । उणा० १५६ । इति किति ऊप्रत्यये दुरुदेशे च दुदुं रुट इति पृषोदरादिपाठात् टस्थाने ढकारे दुदु रुढः इति । वैयाकरणश्चौर इति - प्रत्यासत्ते निन्द्यशब्दप्रवृत्तिनिमित्तकुत्सायामयं समास इष्यते न चात्र चौर्येण वैयाकरणत्वं कुत्स्यते यस्मात् चौरोऽपि सम्यग् व्याकरणमधीते वेत्ति वा तस्मान्नात्र वैयाकरणत्वं प्रवृत्तिनिमित्तं कुत्स्यते । किंर्ताह ? तदाश्रयो द्रव्यं वैयाकरणत्वं तदुपलक्षणमात्रम् तेनात्र विशेषणसमासो भवति चौरवैयाकरणः । पापवैयाकरण इति - पापश्चासौ वैयाकरणश्चेति विग्रहः हतविधिरिति हतश्चासौ विधिश्चेति च विग्रहः । पापवैयाकरणः इत्यादिषु पूर्वनिपाते कामचारः विशेष्य-विशेषणभावस्य विवक्षाधीनत्वात् तथा च वैयाकरणस्य विशेषणत्वविवक्षायां वैयाकरणपापः इत्याद्यपि भवति । हतविधिरित्यादिषु तु जातिशब्देषु पापादेरेव विशेष णत्वमिति तस्यैव प्राग्निपातः । अधीतस्यानधीतरूपं हि पापमस्मिन् fara इति व्याकरणाध्ययनरूपं वैयाकरणत्वमेव निन्द्यते एवं हतविधिः । विशेष्यस्य पूर्वनिपातार्थं वचनम् । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ॥ १०० ॥ उपमानं सामान्यैः | ३|१|१०१ | उपमानवाच्येकार्थमुपमानोपमेयसाधारणधम्र्म्मवाचिभिरेव समासस्तत्पुरुषः कम्र्म्मधारयश्च स्यात् । शस्त्रीश्यामा । मृगचपला । उपमानमिति किम् । देवदत्ता श्यामा | सामान्यैरिति किम् । अग्निर्माणवकः ॥ १०१ ॥ उपमीयतेऽनेनेत्युपमानम् । उपमानोपमेययोः साधारणो धर्मः सामान्यम् । सामान्यैरेवेति बहुवचननिर्देशः स्वरूपविधेनिरासार्थः तेन सामान्यशब्दैन Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ( १०३ ) तदर्थो ग्राह्यः तदनुरोधादुपमानमित्यत्रापि तदर्थों ग्राह्यः अर्थे च कार्यासंभवात् तद्वाचिनि शब्दे प्रतिपत्तिः। एकार्थमितीहानुवर्तते तथा च योऽर्थों निष्पन्नस्तमाह उपमानवाचीत्यादि-शस्त्रीव शस्त्री चासो श्यामा च शस्त्रीश्यामा शस्त्रीव श्यामेत्यर्थः । शस्त्रीशब्दोऽत्र लक्षणया शस्त्रीसदशायां देवदत्तायां वर्तते श्यामाशब्दोऽपि श्यामत्वगुणविशिष्टायां देवदत्तायां वर्तते इति सामानाधिकरण्यमैकार्थ्यं भवति । मृगीव मृगी सा चासो चपला च- मृगचपला । अत्र 'पुवत् कर्मधारये' ।३।२।५७। इति मृगीशब्दस्य वनावः। 'विशेषणं विशेष्येण०' ।।१।६६। इत्येव समासे उपमानोपमेययोः साधारणधर्म-प्रतीत्यन्यथानुपपत्त्यैव पूर्वनिपाते च सिद्ध उपमानं सामान्यैरेवेति नियमार्थं वचनम्, तेनाग्निर्माणवक इत्यादी विशेषणसमासोऽपि न भवति । माणवको बालकः अग्निशब्दो लक्षणयान्निसदृशपद: ।।१०१॥ उपमेयं व्याघा : साम्यानुक्तौ ।३।१।१०२। उपमेयवाच्येकार्थमुपमानवाचिभिर्व्याघ्रायः साधारणधर्मानुक्तो समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । पुरुषव्याघ्रः। श्वसिंहो । साम्यानुक्ताविति किम् । पुरुषव्याघ्रः शूर इतिमाभूत ॥१०२॥ व्याघ्र इव व्याघ्रः पुरुषः सः चासो व्याघ्रश्च पुरुषव्याघ्रः। शुनी चासो सिंही च श्वसिंही अत्रापि कर्मधारयात्वद्भावः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । उषमानं । सामान्य रेवेत्यवधारणेन विशेषणसमासे प्रतिषिद्ध उपमानभूतानां व्याघ्रादिशब्दानामुपमेयेन सहापि विशेषण-समासो न स्यादिति समासविधानार्थं वचनम् किञ्च विशेषण-समासेऽन्न विशेष्यविशेषणयोरुभयोरपि द्रव्यवाचकत्वेन विशेष्य-विशेषणभावस्य च विवक्षाधीनत्वात् कदाचित्पुरुषस्य कदाचिद् व्याघ्रस्य च पूर्वप्रयोगः स्यादिति पूर्वप्रयोगनियमार्थमपि सूत्रस्यावश्यकत्वम् अन्यथा खञ्जकुण्टवदनियमः स्यात् । न च पुरुषः व्याघ्र इव शूरः इत्यत्र शूरसापेक्षत्वेन सापेक्षभसमर्थमिति न्यायात् व्याघ्रपदेनासामदेिव समासाभावात् साम्यानुक्ताविति प्रतिषेधोऽनर्थकः इति वाच्यम् इदमेव प्रतिपेधवचनं ज्ञापकम्-प्रधानस्य Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) सापेक्षत्वेऽपि समासो भवति तेन राजपुरुषः दर्शनीयः इत्यादि सिद्धम् ॥१०२॥ पूर्वापरप्रथमचरमजघन्यसमानमध्यमध्यमवीरम् ।३।१।१०३ एतान्येकार्थानि नाम्ना परेण समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्युः । पूर्वपुरुषः । अपरपुरुषः। प्रथमपुरुषः। चरमपुरुषः । जघन्यप रुषः । समानपुरुषः । मध्यप षः । मध्यमपुरुषः। वीरपुरुषः ॥१०३॥ पूर्वश्चासौ पुरुषश्च पूर्वपुरुषः । एवं सर्वत्र 'विशेषणं विशे०' इत्यादिनैव . सिद्ध 'स्पद्ध' IT यष सहोपात्तानामेव मध्ये द्वयोः परस्परं समासस्तत्र परपठितस्यैव पूर्वनिपातो यथा स्यादित्येवर्थमद्रव्यवाचिनोरमियमेन पूर्वापरभावप्रसक्ती पूर्वनिपातनियमाथं च वचनम् । तेन पूर्वजरन्, बीरपूर्वः, पूर्वपटु इत्यादि सिध्यति ।।१०३॥ श्रेण्यादि कताद्यश्च्व्य र्थे ।३।१।१०४॥ श्रेण्याबकार्थ कृताद्य सह व्यर्थे गम्ये समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । श्रेणिकृता । अमकृताः। व्यर्थइति किम् । श्रेणयः कृताः केचित् ॥१०४॥ एक-शिल्पोपजीविनामे कपण्योपजीविनां वा सङ्घः श्रेणिः अश्रेणयः श्रेणयः कृताः श्रेणिकृताः पुरुषाः । अत्र च्व्यर्थस्य समासेनैवीक्तत्वादुक्तार्थानामप्रयोगः इति निषेधात्समासात्पश्चान्न विप्रत्ययः इति न तन्निमितो दीर्घः । अनूकाः ऊका कृताः-ऊककृताः राशिस्थानिकृता इत्यर्थः। श्रेणयः कृताः केचिदिति- किञ्चिन्निगृहीता अनुगृहीता वेत्यर्थः । न चात्रापि अकृतस्यैव करणं भवतीति व्यर्थस्य प्रतीयमानत्वादत्रापि कथं न समास इति वाच्यं श्रेणिस्वरूपोपलक्षितानामेव श्रेणिस्वरूपादन्यत्क्रियमाणमनेन Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) दर्शयति, न च तत्कृतौ श्रेणिस्वरूपेऽभूततद्भावोऽस्तीति व्यर्थाभावः, निगृहीताः दण्डिताः अनुगृहीता उपकृताः सत्कृता वा, कृतशब्दस्य निगृहीतादिशब्दाना - मर्थेषु वृत्तिर्न सम्भवतीति तु न शङ्खयम् करोतेः क्रियासामाभ्यवाचित्वादनेकार्थत्वादवा धातूनाम् । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । श्रेणिकृता इत्यादौ क्रियाकारकसम्बन्धमावं न विशेष्य- विशेषणभाव इति वचनम् । क्तं नञादिभिन्नैः | ३|१|१०५॥ क्तान्तमेकार्थं नञ्प्रकारैरेव यानि भिन्नानि तैः सहसमासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । कृताकृतम् । पीताऽवपीत्तम् । क्तमिति किम् । कर्त्तव्यमकर्त्तव्यं च । नञादिभिन्नैरितिकिम् । कृतं प्रकृतं । कृतञ्चाविहितं च ॥ १०५ ॥ कृतं च तदकृतं च कृताकृतम् । पीतानपीतमिति आदिशब्दोपादानेन 'अप वि अव' प्रभृतीनां संग्रहों भवति । इदः क्तावयवत्वाद्विकारस्य त्वेकदेशविकृतस्यानन्यत्वान्न भेदकत्वम् तेन क्लिष्टाकिशितम्, पूतापक्तिमित्याद्यपि भवति । कृतं प्रकृतमिति कृताकृतादिषु हीषदसमाप्तिचोतकस्य नत्रः प्रयोगात् तदादयोऽपीषद समातिद्योतिनामपादीनां ग्रहणादिह प्रकृष्टार्थ द्योतकस्य प्रस्याग्रहणान्न भवति समासः । कृतं चाविहितं चेत्यत्र प्रकृतिभेद: । 'कृत् सगति०' | ७|४ | इति विहितेत्यस्य क्तान्तत्वमस्ति अत्रयवधर्मेण समुदायव्यपदेशात् कृताकृतादिष्वैकार्थ्यम् । 'विशेषणं विशेये ३६ इत्येव समासः सिद्धः, क्रियाशब्दत्वादनियमेन पूर्वापरनिपाते प्राप्ते पूर्वनिपातनियमार्थं वचनम् तेनाकृत कृतमित्यादि न भवति ॥ १०५ ॥ सेनाऽनिटा | ३|१|१०६ । सेट कान्तं नमाविभिन्नेनानिटा सह न समस्यते । क्लिशितम Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६ ) · क्लिष्टम् । शितमशातम् । सेडिति किम् । कृताक तम् । अनिटेति किम् । अशितानशितम् ॥१०६॥ पूर्वस्यापवादः । इड्ग्रहणमर्थभेदाहेतोविकारस्योपक्षणम्, तेन शिताशातमित्याद्यपि न भवति ॥१०॥ सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टं पूजायाम् ।३।१११०७) एतान्येकार्थानि पूजायां गम्यमानायां पूज्यवचनैः सह समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । सत्पुरुषः । महापुरुषः । परमपुरूषः । उत्तमपुरुषः । उत्कृष्टपुरूषः । पूजायामिति किम् । सन्घटो इस्तीत्यर्थः ॥१०७॥ .. संश्चासौ पुरुषश्च सत्पुरुषः । महांश्चासौ पुरुषश्च महापुरुषः । 'जातीय०' ।३।२७०। इति डाः । ननु महाजनः, महोदधिः' इत्यत्र वैपुल्यस्य गम्यमानत्वात्पूजाया गम्यमानत्वाभावात् कथं समास इति चेत् सत्यम् बहुलाधिकारात् भवति । पूजायामेवेति नियमाथं वचनं पूर्वनिपातव्यवस्थाएं च तेन सच्छुल्कः' इत्यादी खञ्जकुण्टादिवदनियमेन, पूर्वनिपातो न भवति "परमजरन् इत्यत्र 'पूर्वकालै०' ।३।२९७। इत्यनेन महावीर इत्यत्र 'पूर्वापरप्रथम०।३।१।१०३। इत्यनेन परममहान् इत्यत्र च 'सन्महत्परम०' ३।१।१०७। इत्यनेन समासे सति स्पर्धे परमिति यथा परं पूर्वनिपातश्च सिद्धौ भवति । परममहान् इत्यत्र परममहतोरेकसूत्रपठितयोरपि परस्परं समासे पाठापेक्षया परमशब्दस्य परत्वेन तस्यैव पूर्वनिपातात 'परम'महान्' इति भवति ।।१०७।। वृन्दारकनागकुञ्जरैः ।३।१।१०८। पूजायां गम्यायामेभिः सहः पूज्यवाच्येकार्थ समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । गोवृन्दारकः । गोनागः । गोकुञ्जरः । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) पूजायामिति किम् । सुसीमो नागः ॥ १०८ ॥ वृन्दारक इव वृन्दारकः । गौश्वासी वृन्दारकश्च गोवृन्दारकः । वृन्दारकशब्दो देववाची स गवादिना समानाधिकरणमलभमानः तात्पर्यमूलकलक्षणया स्वसदृशार्थपरः । तथा च गोवृन्दारक इति समासस्य वृन्दारकसदृशो गौरित्यर्थः । यथा सर्वप्राणिषु देवाः श्रेष्ठास्तथा गोष्वयं श्रेष्ठः पूज्य इत्यर्थः । अत्र वृन्दारकशब्दो वृन्दारकगतं पूज्यत्वं गुणमाश्रित्य गवि वर्तते अतो गोः प्रशंसा पूजा गम्यते इत्यर्थः । नागो हस्ती । नाग इव नागः । नागश्चासौं गौश्चेति गोनागः नाग इव बलेवानित्येवमुच्यते । कुञ्जरो हस्ती कुञ्जर इव कुञ्जरः । गौश्चासी कुञ्जरश्च गोकुञ्जरः । वृन्दारकादीनां जातिशब्दत्वेऽपि उपमानात्पूजावगतिः । शोभना सीमा स्फटा यस्य स सुसीमो नागः । नाव नागशब्द: पूजां गमयति किंतु जातिमात्रम् । स्फटा फणेत्यर्थः । नन्वत्र सुसीमत्वेन शोभनकणतया नागस्य पूजा गम्यत इति कथं समासो न भवतीति चेत्सत्यं 'पूजायाम्' इत्यनुवृत्तेन 'वृन्दारक नागकुञ्जराः विशिष्यन्ते तथा च पूजायां ये वृन्दारकनागकुञ्जराः ये पूजां गमयन्ति तैः समासः इत्यर्थो जातः । सुसीमो नाग इत्यत्र तु सुसीमवचनः न तु नागशब्द इति समासो न भवति । व्याघ्रादेराकृति - गणत्वात् 'उपमेयं व्याघ्राद्यः साम्यानुक्ती' | ३|१|१०२ । इत्येव सिद्ध पूजायामेवेति नियमार्थं साम्योक्तावपि विधानार्थं च वचनम्, तेन गोनागः बलवानि - त्यादि सिद्धम् ||१०८ || Cateतमौ जातिप्रश्ने | ३|१|१०६ | एतावेकार्थी जातिप्रश्ने गम्ये जात्यर्थेन नाम्ना समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । कतरकठः । कतमगार्ग्यः । जातिप्रश्न इति किम् । कतरः शुल्कः । कतमो गन्ता ॥ १०६ ॥ एतावेकार्थाविति - अन्यत्र द्वयोरेकस्मिन् निधार्ये उतरो भवति बहूनामेकस्मिन् निर्धार्ये तमो भवतीति कतरकतमयोनै कार्यत्वम् किन्तु 'बहूना प्रश्ने डतमश्च वा' | ७|३ | ५४ | इत्यनेन प्रश्नपूर्वके निर्धार्थे इतमो Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) उत्तरश्च पाक्षिकाविति तत्र कतरकतमयोरेकार्थत्वम् तत्र प्रश्नस्यानेकविषयसम्भवेनेह विशिष्टविषयत्वमाह - जातिप्रश्ने इति-जातिप्रश्न - वाचकयोरेतयो जतिवाचिनाम्नैव सह व्यपेक्षारूप मेकार्थीभावरूपं वा सामर्थ्यं भवितुमर्हतीति जातिप्रश्नपदसामर्थ्यादेव जातिवाचिनाम्नवानयोः समासो लभ्येत इत्यत उक्त जात्यर्थेनेति - कतरश्चासौ कठश्चेति कतरकठः । कठेन प्रोक्तमधीत इति कठः भवतां मध्ये कतरः कठोक्तशाखाध्यायीति प्रयोगार्थः कठशब्दात 'तेन प्रोक्त' | ६ |३|१८१ इत्यण 'कठादिभ्यो वेदे . लुप्' |६| ३ १७३॥ इति तस्य लोपः कठं वेत्त्यधीते वेति 'सवेत्त्यधीते' ६ |२| ११७| इत्यण् तस्य 'प्रोक्तात्' | ६ |२| १२६ । इति लुप एवं प्रक्रियां गम-सेन कठशब्देन कठोक्तशाखाध्येता कथ्यते । अत्र 'गोवं च चरणैः सह' । इति वचनात् वरंणलक्षणजातित्वं तविषयप्रश्नेऽयं समासः । कतमश्चासो माश्वेति कतममाग्य: । गर्गस्य वृद्धमपत्यमिति 'गर्गादेर्य १६।१।४२। इति वृद्धापत्ये यत्र । अपत्यप्रत्ययान्तत्वेनाथ गोत्रलक्षणजातित्वम् तदिवषयप्रश्नेऽयं समासः । अनन्तरापत्य वृद्धापत्यं युवापत्य च गोत्रम् तदभिधायिनोऽ - पत्यप्रत्ययान्ता अपि अभेदोपचारात् मोत्रम् । कतरः शुल्क इत्यादि - जातिप्रश्न इत्युपादानम् कतरः शुल्क इत्यत्र गुणप्रश्नस्य कतमो गन्तेत्यत्र क्रियाप्रश्नस्य गम्यमानत्वात् समासो न भवति । 'विशेषणं विशेष्ये ० ' | ३|१|६५ | इत्येव सिद्ध जातिप्रश्न एवेति नियमार्थं वचनम् ||१०|| किं क्षेपे |३||9901 frratri गम्यमानायां किमित्येकार्थं कुरस्यवाचिना समासस्तत्पुरूषः कर्मधारयश्च स्यात् । किंराजा । किंगोः । क्षेपइति किम् । को राजा तत्र ॥११०॥ 1 निन्दा - दोषोद्घोषणम् । को राजा किराजा यो न रक्षति । प्रजानां रक्षणं राज्ञः कर्तव्यं तदनाचरणात्तस्य कुत्सितत्वमिति भावः । को गोः किंगी बो न वहति । गौर्नाम भारवहनार्थः तदभावे स किंगौरिति क्षिप्यते । 'न किमः क्षेपे ७|३|७० | इति समासान्तप्रतिषेधात् किराजः इत्यंत्र "राज Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) न्सखे ।७।३।१०३। इत्यनेन विहितः किंगौरित्यत्र ‘गोस्तत्पुरुषात्' ।७।३।१०५। इत्यनेन विहितश्च समासान्तो न भवति । को राजा तत्रेति-अत्र किंशब्दः प्रश्ने न क्षेपे इति समासो न भवति । 'विशेषणं विशेष्ये०' ।३।१।६६। इत्येव सिद्ध क्षेप एवेति नियमाथं वचनम् ॥११०।। पोटायुवतिस्तोककतिपयगृष्टिधेनुवशावेहबष्कयणीप्रवक्त श्रोत्रियाध्यायकर्तप्रशंसारूढे तिः ।३।१११११॥ पोटादिभिः प्रशंशारूढेश्च सह जातिवाच्येकार्थ समासस्तपुरूषः कर्मधारयश्च स्यात् । इभ्यपोटा । नागयुवतिः । अग्निस्तोकम् । दधिकतिपयम् । गोगृष्टिः । गोधेनुः । गोवशा । गोवेहत् । गोबकयणी । कठप्रवक्ता । कठश्रोत्रियः कठाध्यायकः । मृगधूर्तः । गोमतल्लिका । गोप्रकाण्डम् ॥१११॥ इभ्यपोटेति इभ्या च सा पोटा चे-ति विग्रहः । इभ्या करेणुः स्थौल्यगुणयोगेन मनुष्यां प्रयोगात् 'इभ्या' इति जाति: पुरुषवेषधारिणी स्त्री पोटा गर्भ एव दास्यं प्राप्ता वा । या मातृग स्थितैव धनिकेन भोगार्थ क्रीतेत्यर्थः । उभयव्यञ्जना वा स्त्रीपुरुषोभयलक्षणेत्यर्थः । नागयुवति-रिति गजवाची सर्पवाची च नागशब्द: स्थौल्यगुणयोगात सादृश्येनान्यत्र स्त्रियांप्रयुज्यत इत्यङ्गीकारे नागी चासौ युवतिश्चेति 'भाजगोण०' ।२।४।३०। इति डीः सर्पवाचिनो नागशब्दस्य दैर्घ्यगणयोगादन्यत्र स्त्रियां प्रयोगे नागा चासो युवतिश्चेति विग्रहः । अग्निस्तोक्रमिति-अग्निश्चासौ स्तोकं चेति विग्रहः स्तोचनं भावे घत्रि न्यङ्कवादित्वात् कत्वे स्तोकः सोऽ स्यास्तीत्य भ्राद्यप्रत्यये स्तोकम्, 'वरं विरोधः' इति-वत् भिन्नलिङ्गयोरपि सामानाधिकरण्यम् । दधिकतिपयमिति-दधि च तत् कतिपयं चेति विग्रहः । गोगष्टिरित्यादि-गौश्चासौ गृष्टिचेति गृष्टि: सकृत्प्रसूता । गौश्चासौ धेनुश्च गोधेनुः । धेनुः नवप्रसूता । गौश्चासौ वशा च गोवशा। वशा-वन्ध्या । गौश्चासो वेहच्च गोवेहत् वेहत् गर्भघातिनी। विहन्तिगर्भमिति संश्चद्वेहत्' । उणा ८८२ । इति निपातनम् वेहत् । गौश्चासौ बष्कयणी च गोबष्कपणी। अत्र पाठद्वयं दश्यते बष्कयणी, बष्कयिणी' इति 'वष्कयस्त्वेकहायनो वत्सः' Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) इति शाकटायन:, तेन नीयत इति बष्कयणीति, बष्कयः, प्रौढवत्सोऽस्त्यस्या इति बष्कयिणीति साधना । कठप्रवक्त ेत्यादि - कठश्चासौ प्रवक्ता चेति । प्रवक्ता-उपाध्यायः । कठश्चासौ श्रोत्रियश्च कठश्रोत्रियः । श्रोत्रियः - छन्दोऽध्यायी वेदाध्यायीत्यर्थः । कठश्चासावध्यायकः । अध्यायकः - अध्येता । मृगधूर्तः इति मृगश्चासी धूर्तश्चेति विग्रहः । धूर्त:- वञ्चक: । मृगधूर्तः शृगालः । ननु 'निन्द्य कुत्सनने रपापाद्य : ' | ३|१|१०० । इति सूत्रेणैव समासे विशेष्यस्य पूर्वनिपातेन सिद्धेऽत्र धूर्तपदोपादानं व्यर्थमिति चेत् सत्यम्, वैयाकरण-खसूचीत्यादी तु शब्दप्रवृत्तिनिमित्तं वैयाकरणत्वं निन्द्यते अत्र तु प्रवृत्तिनिमित्ता- श्रयः मृगादिरूपः निन्द्यते इति तदाश्रयकुत्सायां समासो यथा स्यादिति धूर्त - ग्रहणम् । गोमतल्लि केत्यादि - गौश्चासौ मतल्लिका च । गौश्चासो प्रकाण्डं चेति गोमतल्लिका गोप्रकाण्डम् । शोभनोऽ-भिरूपों दर्शनीयो गौरित्यर्थः उत्तरपदस्थौ प्रशस्यार्थप्रकाशको मतल्लिका प्रकाण्डशब्दौ वाक्येन पूजा न गम्यते इति नित्यसमासावेतौ परमर्थदर्शनार्थमलौकिकं वाक्यं क्रियते । रूढ-ग्रहणादिह न भवति - गौः रमणीया, गौः शोभनाः । शोभनरमणीय - शब्द शोभनत्वं रमणीयत्वं च गुणमुपादाय प्रशंसां गमयतः न तु प्रशंसामेव मतल्लिकादिवदिति रूढग्रहणादिह न भवति । असति रूढग्रहणे तु प्रशंसा - शब्दमात्रेण समास इतीहापि स्यात् । विशेष्यस्य जातेः पूर्वनिपातार्थं वछनम् ||१११॥ . 1 चतुष्पाद्गभिण्या | ३|१|११२ चत्वारः पादा यस्या जातेस्तद्वाच्येकार्थं गर्भिण्या समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । गोगभिणी | महिषगभिणी । जातिरित्येव । कालाक्षी गर्भिणी । चतुष्पादिति चत्वारो पादा यस्याः सा चतुष्पाद् गवादिजातिः 'एकार्थ०' |३|१|२२| इति समासः, 'सुसंख्यात्' | ७|१|१५० । इति पादशब्दस्य पाद्' इत्यादेशः, 'निदु बहि' | २|३|| इति चतुरो रस्य ष: । गौश्चासा गर्भिणी च गोभिणी, महिषी चासो गर्भिणी च महिषगभिणी 'पुंवत् कर्मधारये ' | ३ |२| ५७| इति पुंवद्भावः । कालाक्षी गर्भिणीति--संज्ञा शब्दोऽयम् न तु Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) जातिवचनः इति समासो न भवति कस्याश्चित् स्त्रीगब्या: 'कालाक्षी' इति संज्ञेति संज्ञाशब्दोऽयं न तु जातिवचन इति समासो न भवति । जातेविशेष्यस्य पूर्वनिपातार्थं वचनम् ।।११२।। यवाखलतिपलितजरद्वलिनः ।३।१।११३। युवन्नित्येकार्थमेभिः समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । युवखलतिः । युवपलितः । युवजरन् । युववलिनः ॥११३।। युवा चासो खलतिश्च-युवखलतिः। युवा चासौ पलितश्च युवपलितः । युवा चासौ जरंश्च युवजरन् । ननु युवां चेत् कथं जरन् भवति ? जरन् वा कथं युवा ? इति चेत् सत्यं जरत्युत्साहादियुवधर्मोपलम्भाद् युनि वाऽऽलस्यादिजरद्धर्मोपलम्भात् तद्र पारोप इति । वलयोऽस्य सन्ति वलिनः अङ्गादित्वान्नः । नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्'इति युवतिश्चासौ खलतिश्चयुवखलतिः ‘इतोऽक्तयर्थात्' ।२।४।३२। इति विकल्पेन स्त्रियां डीविधानात् वैकल्पिक 'खलती' इत्यपि रूपं.गृह्यते । युवतिश्चासौ पलिता च । युवतिश्चासौ जरती च । युवतिश्चासौ वलिना च विशेषण-विशेष्यभावस्य विवक्षाधीनत्वेन यून एव प्राधान्येन विवक्षित्वात् विशेष्यत्वात् परनिपाते प्राप्ते द्वयोर्वा गुणवचनत्वात् खज्जकुण्टा-दिवदनियमे पूर्वनिपातार्थ वचनम् ॥११३।। कृत्यतुल्याख्यमजात्या ।३।१।११४॥ कृत्यान्तं तुल्यपर्यायं चैकार्थ्यमजात्येन सह समासस्तत्पुरुषःकर्मधारयश्च स्यात् । भोज्योष्णम् । स्तुत्यपटुः । तुल्यसन् । सदृश महान् । अजात्येति किम् । भोज्य ओदनः ॥११४॥ तुल्याख्यमिति-तुल्यमर्थमाचष्ट इति तुल्याख्यं 'मूलविभुजादयः' ।५।१।१४४ इति कः। तुल्यस्याख्याऽभिधास्यास्तीति वा तुल्याख्यम्। आख्याग्रहणं पर्यायार्थ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) मन्यथा' स्वरूपम्०' इति न्यायेन तुल्यशब्दःएव विज्ञायेत। भोज्यं च तदुष्णं च भोज्योष्णम् जलम्, भोक्त शक्यं भोजनाहं वोष्णमित्यर्थः। भजधातोः ऋवत्यञ्जनाद्ध्यण' ।५।१।१७। इति ध्यण, उष्णमिति गुणो न जातिरतः समासः । स्तुत्यश्चासौ पटुश्च स्तुत्यपटुः पुरुषः। स्तोतु शक्यः स्तवना) वेत्यर्थः । स्तोतेः 'दृवग्रस्तु' ।५।१।४०। इति क्यपि 'स्तुत्य' इति । 'शक्ताह कृत्याश्च'।५।४।३५॥इति सूत्रेण कृत्याः शक्यार्थेऽर्हार्थे च ज्ञयाः। तुल्यश्चासौ संश्चेति स तुल्यसन सदृशश्चासौ महांश्चेति स सदृशमहान् । अत्र ‘सन्म- . हत्०' ।३।१।१०७। इति सूत्रविषयासत्त्वेऽपि परत्वादनेनैव समासः । सत्कृत्यं 'परमपूज्य' इत्यादिविशेषेणे सतां कृत्यमित्यादि षष्ठीसमास एवोचितः कर्मधारयसमासे त्वस्य प्रवृत्त्या कृत्यसत् पूज्यपरम इत्यादि स्यात् । बाहुलकाद्वा 'सन्महत्०।३।१।१०७। इत्यस्यैवात्र प्रवृत्तिः जात्या समासस्याजातेः पूर्वत्वस्य च प्रतिषेधार्थ वचनम् ।।१४।। कुमारः श्रमणादिना ।३।१।११५॥ कुमारेत्येकार्थ श्रमणादिना समासस्तत्प रुषः कर्मधारयश्च स्यात् । कुमारश्रमणा । कुमारप्रजिता ॥११५॥ कृमारी चासो धमणा च कुमार-श्रमणा, कुमारी चासौ प्रजिता च कुमारप्रब्रजिता । 'पुवत् कर्मधारये' ।३।२।५७। इति पुंवद्भावः । 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इति न्यायात् श्रमणादी ये स्त्रीलिङ्गाः तैः सह स्त्रीलिङ्गः कूमारशब्दः समस्यते अन्यस्तुभयलिङ्गः समस्यते । अनेनैव न्यायेन स्त्रीलिङ्गऽपि समासस्य सिद्धावपि श्रमणादीनां स्त्रीलिङ्गानां पाठः पुल्लिङ्गः पूर्वनिपाते कामचारः इति बोधनाय तेन कुमारश्रमणः प्रअजितकुमार इति । श्रमणादीनां क्रियाशब्दत्वेन कुमारापेक्षया तेषामेव पूर्व-निपातः स्यात् अथवा कुमारशब्दस्य वयोरूपगुणवचनत्वेन विशेषणत्वमितिनियमाभावेन न नैयत्येन पूर्वनिपातः स्यादिति कुमारशब्दस्य पूर्वनिपातनियमाथं वचनम् ॥११॥ मयूरव्यंसकेत्यादयः ।३।१।११६। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) एते तत्पुरुषसमासा निपात्यन्ते । मयूरव्यंसकः । कम्बोजमु. ण्डः । एहोडं कर्म । अश्नोतपिबता क्रिया। कुरुकटो वक्ता । गतप्रत्यागतं । क्रयक्रयिका । शाकपार्थिवः । त्रिभागः । सर्वश्वेतः । ॥११६॥ व्यंसयति छलयतीति व्यंसकः धूर्त इत्यर्थः। मयूरश्च व्यंसकश्चासौ मयूरव्यंसकः, मुण्डश्चासौ कम्बोजश्च कम्बोजमुण्डः । मयूरव्यं सक: कम्बोजमुण्डः इत्यत्र विशेष्यस्य पूर्वनिपातो निपातनात् । कम्बोजशब्द: हस्तिभेदे शङ्खभेदे देशभेदे तदेशस्थजने च वर्तते । मुण्डनं मुण्डः सोऽस्यास्तीत्यभ्राद्यः यद्वा 'मुणत प्रतिज्ञाने' अतः 'क-ग.' उणा० १७०। इति किड्डे मुण्डः परिवापितकेश: कम्बोजशब्दादपत्ये 'राष्ट्रक्षत्रियात्०' ।६।१।११४। इति द्ररत्रः 'शका०' ।६।१।१२०। इति लोपः एवं चास्य गोत्रलक्षणमिति,अत्रापि गुणशब्दस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते जातिशब्दस्यपूर्वनिपातो निपातनात् । एहि ईडे ! स्त्रि! इति वचनं यस्मिन् कर्मणि तत् एहीडं कर्म । आङपूर्वस्य इण्क गतौ'इत्यस्य पञ्चम्या: हिप्रत्यये-'एहि'इति आगच्छति तदर्थः 'ईडिकस्तुती 'इतिधातोः ‘म्लेच्छीडे ह्रस्वश्च' (उणा-३)इत्यप्रत्यये स्त्रियामापि 'ईडा' स्त्रीति तदामन्त्रणे ईडे। ईडाशब्दोऽत्र स्त्रियां वर्तत इति प्रदर्शनाय 'स्त्रि' इति ईडे । इत्यस्य पर्यायततयो-च्यते। इतिशब्दोऽभेदार्थकः । अश्नीत-पिबतेति सातत्येनोच्यते यस्यां क्रियायां साअश्नीतपिबता क्रिया। कूरु कटमित्यमीक्ष्ण्यं कश्विदाह स कुरुकटो वक्ता गत। च तत् प्रत्यागतं च गतप्रत्यागतम् अत्रयदेव गतं तदेव प्रत्यात पूर्वापरकालविवक्षा नास्ति। क्रयः,अल्पः क्रयिका क्रयशब्दादल्पार्थ कःतदन्तःस्वाभाव्यादेव स्त्रिया वर्ततेइत्याप क्रयावयवयोगात् क्रयः क्रयिकावयवयोगात् क्रयिका क्रयश्चासौ क्रयिका च क्रयक्रयिका समुदाय-निपातनात्यूर्वपदस्य दीर्घत्वम् । गतप्रत्यागतादौ विशेषणसमासे पूर्वपदत्वानियमः स्यात्। इष्यते च गतादेरेव तदर्थमिहैतदुपादानम् एवं निपातनात् दीर्घत्वादिकमपि सिद्धम् । शाकपार्थिव इति-शाकप्रियः शाकभोजी शाकप्रधानो वा पार्थिवः शाकपार्थिवः शाकं प्रियं यस्य स शाकप्रियः । शाकं भङक्त इति शाकभोजी । शाक प्रधानमस्य शाकप्रधानः स चासौ पार्थिवश्च अत्र निपातनात् प्रियादेरुत्तरपदस्य लोपः प्रथोरपत्यं पार्थिवः यद्वा पृथित्या ईश्वरः 'पृथिवीसर्वः' ।६।४।४।१५६। इत्यत्रि पार्थिवः। त्रिभागःइति तृतीयो भागःत्रि-भागःअन्न पूरणप्रत्ययस्य वा लुग्भ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) वति विकल्पेन लोपात् तृतीयभाग इत्यपि भवति । सर्वश्वेत इति-सर्वेषां श्वेततर:-सर्वश्वेतः । अयमर्थः-सर्वे श्वेता तत्रायमतिशयेनेति श्वेततरः । अत्र 'द्वयोविभज्ये०' ।७।३।६। इति तरप्रयत्यः सर्वेषां श्वेततरः इत्यत्र 'सप्तमी चाविभागे०१२।२।१०६। इति निर्धारणे षष्ठी । अत्र गणेन तरबन्तेन निर्धारणषष्ठी-समासः तरब्लोपशच भवति । इतिशब्द: स्वरूपावधारणार्थः तेन परमो मयूरव्यंसक इति समासान्तरं न भवति उत्तरपदेन भवत्येवेत्यन्ये मयूरव्यंसकप्रियः इत्यादि,मयूरव्यंसकस्य प्रियःइतिषष्ठी-समासोऽयम् मयर-. व्यंसकः प्रियोऽस्येति बहीहिर्वा तत्र तत्परुष एवेह विवक्षितः बहनीही-तु 'प्रियः' ।३।१।१५७। इति प्रियशब्दस्य बहुग्रोही विकल्पेन प्राग्निपातविधानात् कदाचित् प्रियशब्दस्यापि पूर्वनिपाते प्रियमयूरव्यंसक इतिस्यात् परं स चा-निष्ट इति । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् तेन विस्पष्टं पटुः विस्पष्टपटुरित्यादयोऽपि द्रष्टव्या अयं 'नाम नाम्नः' ।३।१।१८। सूत्रेपि दर्शितः यथाकृतिबलादियमपि संज्ञा बहुवचनबलात् । 'द्विबंद्ध सुबद्ध भवतीति' हि न्यायः । पूर्वेणसामान्यतः समाससंज्ञा, अनेन तत्पुरुषसमासः समासान्तेरेऽप्रवंशश्च ।।११६।। चाथे द्वन्द्वः सहोक्तौ ।३।१।१७। नाम नाम्ना सहोक्तिविषये चार्थवृत्तिः समासोद्वन्द्वः स्यात् । प्लक्षन्यग्रोधौ । काक्रवचम् । नाम नाम्नेत्यनुवृत्तावपि 'लध्वक्षरादिसूत्रे एकग्रहणात् बहुनामपि । धवखदिरपलाशाः। चार्थइति किम् ? वीप्सा सहोक्तौ माभूत् । ग्रामो ग्रामो रमणीयः । सहोताविति किम् । प्लक्षश्च न्यग्रोध व वीक्ष्यताम् ॥११७॥ समुच्चयाऽन्वाचयेतरेतरयोगभेदाच्चत्वारश्चार्थाः तत्रैकमर्थं प्रति द्वयादीना क्रियाकारकद्रव्यगुणानांतुल्यबलानामविरोधिनामनियतक्रमयोगपद्यानामरूपभे देन चीयमानता समुच्चयः,आत्मरुपभेदेन आत्मनो रूपं स्वप्रवृत्तिनिमित्तं तद्भ देन तद्वलक्ष्येन न तु घटकलशादीनामक्येन चीयमानता ढौकनम् समुच्चयः तुल्यबलानाम् समुच्चये नैकतस्य प्राधान्यं प्रत्याययितुं शक्यत इति द्वयो. स्त्रयाणां चतुरादीनां वा समुच्चीयमानता तुल्यबलता। अविरोधिनाम्सहावस्थानाभावाद्-विरुद्धानां समुच्चीयमानता न सम्भवति यथा शीतो. ष्णादिशब्दप्रतिपाद्या अर्थाः परस्परप्रतिक्षेपका भवन्ति इति ते न समुच्चेतु Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) शक्यन्ते तादृशा ये न भवन्तीति भावः । अनियतक्रमयोगपद्यानाम्-न नियतः क्रमः योगपद्य वा येषाम् तेषां यथा बाल्य-यौवनादयो नियतकमा बाल्यानन्तरमेव यौवनोद्भवात् यथा च शब्द-रूप-रस गन्ध-स्पर्शाः नियतयोगपद्याः एकन्न पृथिव्यादौ पञ्चानामपि युगपदवस्थानस-द्भावात् एवम्भता ये न भवन्ति तेषामेव स्वरूपभेदेन प्रवृत्तिनिमित्त-भेदेन समुच्चीयमानता समुच्चयपदार्थः । (१) यथा चैत्र: पचति पठति च, अचैकस्मिन कारके कर्तृ रुपे पाकपाठक्रिययोः समुच्चयः (२) चैत्रो मैत्रश्च पठति, अत्रैकस्यां पाठक्रियायां कर्तृकारकयोः समुच्चयः । (३. राज्ञो गौश्चाश्वश्च, अवैकस्मिन् सम्बन्धिनि राज्ञि द्रव्ये द्रव्यद्वयस्य कारकरूपस्य गोरश्वस्य च समुच्चयः । (४) राज्ञो ब्राह्मणस्य च गौः, अत्रकस्मिन् गवि स्वे द्रव्ये स्वामिद्वयस्य समुच्च्यः । (५) शुक्लश्चायं गुणश्च अनैकस्मिन् द्रव्ये शक्ल-कृष्णयोगुणयोः समुच्चयः । (६) नीलं च तदुत्पलं च, अत्रैकस्मिन्धमिणि उत्पले नीलत्वोत्पलत्वयोर्धमयोः समावेशरूपः समुच्चयः । चशब्दं विनापि चार्थप्रतीतिः संभवति-यथा अहरहर्नयमानो गामश्वं पुरुषं षशुम् । वैवस्वतो न तप्यति सुराया इव दुर्मदी॥ 'अहरहरित्यादि-श्मशानात् । प्रतिनिवृत्तः शवानुगामिभिः पठनीयोऽयं मन्त्रः । गामश्वं पुरुष पशुमिति-पुरुषपदेन मनुष्यः, पशुपदेन च गवश्वमनुजभिन्नाः सर्वे जन्तवः उपलक्षिताः तथा च सर्वान् प्राणीन् अहरहः प्रतिदिनं नयमानो वैवस्वतो यमो न तृप्यति न विरतेच्छो भवति क इव दुर्मदीव-दुःखेन यो माद्यते बहुतरसुरासेवनेनापि यस्य मदो न सम्पद्यते स यथा सुराया न तृप्यति तथा यमोऽपि गवादीन् नयमानो न तृप्यतीति भावः । तथा चात्र तस्य स्वाभाविके कर्मणि शोको न कर्तव्य-इति शोकापनोदकं वाक्यमिदम् । अत्रकस्यां नयनक्रियायां बहूनां गवादीनां समुच्चीयमानतया समुच्चयार्थप्रतीतिसद्भावोऽस्त्येव चकारस्तु न पठ्यते तस्मात चशब्दं विनाऽपि तदर्थप्रतीतिर्भवतीति सिद्धम् । गण-प्रधान-भावमात्रविशिष्ट: समुच्चय एवा-न्वाचयः यथा-बटो भिक्षामट गां चानय स हि भिक्षां तावदटति यदि च गां पश्यति तामप्यानयति । समुच्चये तु समूच्चीयमानानां तुल्यबलत्वम् इह तु गुणप्रधानभाव एकस्य प्रधान्यमपरस्य चाप्राधान्यमिति विशेषः प्रकृते बटोभिक्षाटनमुद्दे श्यतया प्रधानं गवानयनं चानुङ्गिकम्, न हि तदर्थ सचेष्ट इति भावः । द्रव्याणामेव परस्परस Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) व्यपेक्षाणामुद्भूतावयवभेदः समूहः इतरेतरयोगः । द्रव्याणामेवेत्यादि-एवकारेण क्रियाकारकगुणानां व्यावृत्तिः । परस्परसव्यपेक्षाणामिति एक क्रियां प्रति यानि द्रव्याणि एकमपरमपेक्ष्यैव कर्तुं त्वादिना सम्बध्यन्ते तादृशानामित्यर्थः । एतावन्मात्रविवक्षायां समाहारेऽप्यतिव्याप्तिः स्यात् अत आह— उद्भूतावयवभेदः इति समूहो द्विविधः उद्भूतावयवभेदोऽनुद्भूतावयवभेदश्च यत्र समूह - स्थितानामवयवानां स्वगतो भेदः प्रातिस्विकं तद्व्यक्तित्वमुद्भूतं विविच्य ग्रहीतुं योग्यः स उद्भूतावयवभेदः यथा शाखा इति । अत्र शाखासमुदायस्य वृक्षत्वेन वृक्षरूपसमुदायस्थितावयवानां शाखानां भेद उद्भूत इति शाखासु बहुत्वं भवति तत्रैव चावयवभेदस्यानुभूतत्वे वृक्ष इत्येकत्वमेव प्रतीयते । एवं च समासे सत्यपि इतरेतरयोगे उद्भूवावयवभेदविवक्षया यथास्वं द्वित्वबहुत्वादिप्रतीति र्भवति यथाचैत्रश्च मैत्रश्च घटं कुर्वाते, चैत्रमैत्री घटं कुर्वाते इह वाक्यसमासयोरुभयतेतरेतरयोगः, एवं चैत्रश्च मैत्रश्च दत्तश्च पटं कुर्वन्ति । चैत्रमंत्रदत्ताः पटं कुर्वन्ति । चैत्रमैत्री चैत्र मैत्रदत्ताश्च समुदायावयवभूता उद्भूतत्वात् प्रत्येकं कर्तृत्वादिना प्रतीयन्ते इति तेषां संख्याऽमि प्रतीयते इति संख्यानिबन्धनं द्विवचनं बहुवचनं च भवति । स एव तिरोहितावयवभेद: संहति प्रधानः समाहारः धवश्च खदिरश्च पलाशश्च तिष्ठति धवखदिरपलाशं तिष्ठति अत्र तु समूहस्य प्राधान्यात्तस्य चैकत्वादेकवचनमेव भवति । एषु चाद्ययोः सहोक्तयभावात्समासो न भवति, उत्तरयोस्तु चार्थयोः सहोक्त विद्यमानत्वात् समासो भवति । यद् वर्तिपदैः प्रत्येकं पदार्थानां युगपदभिधानं सा सहोक्तिः प्लक्षन्यग्रोधावित्यत्र लक्षोऽपि द्वयर्थः न्यग्रोधोऽपि द्वयर्थः, उत्तरपदेन समुदायेन वा यद् वर्ति-पदार्थानां युगपदभिधानं सा सहोक्तिरित्यन्ये । अयं भावः - वर्तिपदैः समासघटकपदे पदार्थानां स्वस्वाभिधेयानां युगपत् - एककालावच्छेदेन अभिधानं प्रतिपानं सा सहोक्तिः द्वन्द्व ं प्रत्येक पदानि समुदायार्थ- मेवा चक्षते । द्वन्द्वतत्पुरुषयोरुत्तरपदमेव समुदायार्थ- वाचकं पूर्वपदं तु तात्पर्य-ग्राहक मितिमतेनाह उत्तरपदेनेत्यादि, अन्यत्र समासे तथा स्वीकारे क्षत्यभावेऽपि द्वन्द्वे सगुदायस्यैव वाचकत्वमिति मतेनाह समुदायेन वेति । प्लक्षन्यग्रोधावित्यादिप्लक्षश्च न्यग्रोधश्च प्लक्षन्यग्रोधो वाक् च त्वक च वाक्त्वचम् 'चवर्ग.' " Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ११७ ) ।७।३।१८। इत्यत्समासान्तः । ग्रामो ग्रामो रमणीयः इति-न केवलं चार्थे एव सहोक्तिः अपि तु वीप्सायामपि तत्र समासो मा भूदित्येतदर्थं 'चार्थे' इति पदं प्रयुक्तम् । प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च वीक्ष्यतामिति-अत्रोभयोः पृथगेव वीक्षणक्रियया सहान्वय इति न सहोक्तिः ॥११७।। masatssauNAARINDIANIMALMARAHDHEELeaves समानामर्थनकः शेषः ।३।१११८॥ अर्थेन समानां समानार्थानां सहोक्तौ गम्यायामेकः शिष्यते । अर्थादन्ये निवर्तन्ते । वनश्च कुटिलन वक्रौ कुटिलौ वा । सितश्च शुक्लश्च श्वेतश्च सिताः शुक्लाः श्वेता वा । अर्थेन समानामिति किम् । प्लक्षन्यग्रोधौ । सहोक्तावित्येव । वक्राइ कुटिलध दृश्यः ॥११८॥ समानामिति-अत्र निर्धारणे समुदायिभाव सम्बन्धे वा षष्ठी न तु स्थान्यादेशभावारुपसम्बन्धे षष्ठी (स्थानषष्ठी) तथा सति अर्थ-न समानां स्थाने एक: शिष्यते आदिश्यत, इत्येक: आदेशो भवति इत्यर्थः स्यात् एवं सति बिसं च बिसंचइत्यर्थे ए-कस्यादेशरुपतया तत्सम्बन्धिसकारस्य कृतस्थतया 'नाम्यन्तस्था०' २।३।१५। इति षत्वे 'विषे' इत्यनिष्टरुपमापद्यत । निर्धारणषष्ठयां स्वीकृतायां तेषांमध्य एक एव शिष्यते इत्यर्थलाभे नान सकारो कृतो नवा कृतस्थ इति षत्वाप्राप्तौ 'विसे' इतीष्टं सिध्यति । समत्वं नाम समानत्वम्, तच्चात्र द्विधा स्वरुपतोऽथतश्च तत्रार्थतः समानत्वमिह ग्राह्यमित्यावेदनायाह-अर्थेनेति । वक्रश्चेत्यादि-बहुवचनमतन्त्रं तेन द्वयोरप्येकः शिष्यते । अतन्त्रमित्यस्या-विवक्षित-मित्यर्थः । द्वन्द्वापवादो योगः ॥११॥ स्यादावसंख्येयः ।३।१।११६। सर्वस्मिन् स्यादी विभक्तौ समानानां तुल्यरूपाणां सहोक्तावेकः शिष्यते । नतु संख्येयवाची । अक्षश्च शकटस्य, अक्षश्च देवनः, Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) अक्षश्च बिभीतक: अक्षाः । स्यादाविति किम्- माता च जननी, माता च धान्यस्य । मातृमातरौ । असंख्येयइति किम् । एकश्चैकश्च ॥ ११९ ॥ अर्थेनेति नानुवर्तते । अक्षो रथस्यावयवे पाशकेऽप्यक्षमिन्द्रिये । बिभीतकेऽ-क्षः कर्षे च शकटव्यवहारयोः || इत्यक्षशब्दस्य-भिन्नार्थत्वेऽ-पि सरुपत्वेनैकशेषो भवतीत्याह- -अक्षश्च शकटस्येत्यादिना अक्षश्चाक्षश्चाक्षश्चेति विग्रहः अर्थ प्रदर्शनायाऽपरोंऽ-श: अक्षा इत्येक-शेषः । मातृमतराविति - 'तृस्वसृ ० ' | १|४|३८| इति सूत्रे नप्त्रादीनामपि सिद्ध पृथगुपादानं व्यर्थं सञ्ज्ञापयति उणादिनिष्पन्नानामेषामेव वृन्तन्तानां ग्रहणं नान्येषामिति जननीवाचिमातृशब्दस्य नेह ग्रहणं तेन जननीवाचिमातृशब्दस्य 'अङ' न' | १|४| ३६ | इत्यरादेश परिच्छेतृवाचिमातृशब्दस्य तु उणादिप्रत्ययान्तत्वाभावात् 'तृस्वसृ०' | १|४|३८| इत्यारादेशे च रूपं भिद्यते । एकश्चैकश्चेति - द्वन्द्वो ऽपि न भवत्यन- भिधानात् अयं भावः - एकशब्दस्य द्वन्द्व े सति न द्वयादिरर्थोऽभिधीयतेऽपि त्वेकस्यैव पौनःपुन्यादिप्रतिपादनाय एकैकेन कृतमित्यादौ द्वित्वं क्रियते इति । संख्येय इति कर्मनिर्देशात् संख्यानवाचिनो भवत्येव विंशतिश्च विंशतिश्च विंशती, नवतिश्च नवतिश्च नवतिश्च नवतयः । द्वन्द्वापवादोऽयं विधिः तेनाकृतद्वन्द्वानामेकेकषे वाक् च वाक् च वावावित्यादि सिद्धम् अन्यथा द्वन्द्व े कृते परत्वात् चवर्गदषहः ०' | ७|३|| इति समासान्ते कृते वैरुप्यादेकश ेषो न स्यात् ||११|| त्यदादिः | ३|१|१२० । त्यदाद्यरन्येन च सहोतौ त्यदादिरेवैकः शिष्यते । स च चैत्रश्च तौ । स च यश्च यौ, अहं च स च त्वं च वयम् ॥१२०॥ 'स्पर्द्ध” |७|४|११ε। इति त्यदादीनां मिथः सहोक्तौ यद्यत्पाठे परं तत् तदेवैकं Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) शिष्यते 'सर्वादेः स्मैस्मातौ ।१।४।७। सूत्र-टीका-मध्ये त्यदादिपाठः 'त्यद्, • तद्, यद्, अदस्, इदम्, एतद्, एक, द्वि, युष्मद्, अस्मद् भवतु, किम्' इति । त्यदादेः कृतैकशेषस्य स्त्री-पु-नपुसकलिङ्गानां युगपत् प्रयोगायोगात् पर्यायप्राप्ती शिष्यमाणलिङ्गप्राप्तौ वा 'स्त्रीनपुंसकानां सह वचने स्यात् परम्' इति लिङगानुशासनबलाद् यथापरमेव लिंग भवति-सा च चैत्रश्च तौ, स च देवदत्ता च तौ अत्र स्त्री-पूसलिङगयोः परं पुलिङगमेव भवति, सा च कुण्डे च तानि । अत्र स्त्री-नपुंसकयोः परं नपुंसकमेव भवति, स च कुण्डं च-ते । तच्च चैत्रश्च-ते । अत्र पु-नपुसकयोः परं नपुसकमेव भवति ।।१२०।। भभातृपुत्राः स्वसृदुहितृभिः ।३।१।१२१॥ स्वस्रर्थेन सहोक्तौ भ्रावों दुहित्रर्थेन च पुत्रार्थः एकः शिष्यते । भ्राता च स्वसा च भ्रातरौ । पुत्रश्च दुहिता च पुत्रौ ॥१२१।। भ्रातराविति-अत्र भातृस्वसृशब्दयोः सरुपत्वा-भावात् 'पुरुषः स्त्रियाः' ।३।१।१२६॥ इत्यस्य न तु प्रवृत्तिः । बहवचनं पर्यायार्थम् तेन सौदर्यश्च स्वसा च-सौदयौं । भ्राता, च भगिनी च सुतौ । पत्रश्च सुता च-पुत्रावित्यादि सिद्धम् ॥१२१॥ पिता मात्रा वा ।३।१।१२२। मातृशब्देन सहोक्तौ पितृशब्दएको वा शिष्यते । पिता च माता च पितरौ, मातापितरौ ॥१२२॥ मातापितराविति-'आ द्वन्द्व' ।३।२।३६। इति पूर्वस्याकारान्तादेशः । 'पितुदशगुणा माता गौरवेणातिरिच्यते' इति स्मरणात पाहिन्यादिमात-भिः आठरक्षितमात्रा च पुत्रस्य कल्याणमार्गदर्शनात प्रत्यक्षेणापि तदभ्यहितत्वदर्शनात् मातृशब्दस्य ‘लघ्वक्षरा०' ।३।१।६०। इत्यर्यत्वात्पूर्वनिपातः श्दशुरः श्वश्रूभ्यां वा ।३।१।१२३॥ mar.mam Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) श्वश्रूशब्देन सहोक्तौ श्वशुरएको वा शिष्यते । श्वशुरौ । श्वश्रूश्वशुरौ ॥१२३।। द्विवचनं जाती धवयोगे च वर्तमानयोः श्वश्वोः परिग्रहार्थम् तेन जाती तन्मात्रभेदे 'पुरुषः स्त्रियाः' ।३।१।१२६।इति नित्यविधिन भवति। श्वश्रश्वशुराविति-अभ्यर्हितत्वाच्छ्वश्रू शब्दस्य पूर्वनिपातः ॥१२३।। वृद्धोयूना तन्मात्रभेदे ।३।१।१२४। यूना सहोक्तौ वृद्धवाच्येकः शिष्यते । तन्मात्रभेदे, न चेत्प्रकृतिभेवोऽभेदो वाऽन्यः स्यात् । गार्ग्यश्च गार्यायणश्व गाग्र्यो । वृद्ध इति किम् । गर्गगाायणौ । यूनेतिः किम् । गार्ग्यगौं । तन्मात्रभेद इति किम् । गार्यवात्स्यायनौ ॥१२४॥ वृद्धः पौत्रादिः । युवा जीवद्वश्यादिः । 'पौत्रादिः वृद्धम्' ।६।१।२।इति सूत्रेण परमप्रकृतेः पौत्रादेवू द्धसंज्ञा विधीयते स एव पौत्रादिः इह वृद्धत्वेन ग्राह्यः कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे' इति न्यायात् एवं 'वश्यज्यायो०' ।६।१।३। इति युवसंज्ञकमपत्यमिह युवपदेन ग्राह्यम् न तु वयोविशेषविशिष्टः । ननु 'पौत्रादि वृद्धम्' ।६।१।२। इति सूत्रे वृद्धमिति क्लीबत्वविशिष्टा संज्ञा विहिता अत्र तु पुल्लिङ्गनिर्देशः कथमिति चेत् सत्यं तत्र अपत्यशब्दापेक्षं क्लीबन्वम् इह तु तदर्थापेक्षं पुस्त्वम् अर्थो हि तस्य पमपत्यं स्त्र्यपत्यं च तत्र प्राधान्यात् परत्वाच्च पुल्लिङ्गस्यैव निर्देश इति बोध्यम् । गार्यश्चेत्यादि-गर्गस्य वृद्धापत्यं गार्ग्यः ‘गर्गादेयंत्र' ।६।१।४२। इति यत्र । तस्य युवापत्यं गाायणः ‘यत्रित्रः' ।६।१।५४। इत्यायनण। गार्यश्च गार्यश्चेति कृतेऽपि 'गाग्यौं' इति रूपं तथाऽपि क्व वृद्धयूनोर्ग्रहणमिति प्रकरणाद् व्याख्यानाद्वाज्ञेयम् । गार्ग्यगर्गाविति-अत्र परमपरुषस्य गर्गस्यैवार्यत्वात् पूर्वनिपाते कर्तव्ये परनिपातनिर्देशः प्रकृते सहार्थयोगित्वेन तस्याप्राधान्यविवक्षाद्योतनार्थः, क्वचिद् ‘गर्ग'-गाग्यौं' इत्यपि पठ्यते । गार्ग्यवात्स्यायनाविति-वत्सस्य वृद्धापत्यं वात्स्यः पूर्ववद् या तस्यापत्यं युवा वात्म्या Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१ ) यनः पूर्ववदायनण् । नात्र केवलं वृद्धयुवप्रत्ययकृत एव मेदोऽपि तु प्रकृतिभेदोऽपीति न भवत्येकशेषः ॥ १२४ ॥ · स्त्री | पु वच्च । ३।१।१२५ । वृद्धस्त्रीवाची यूना सहोक्तौ एकः शिष्यते । पुल्लिङ्गश्चायं तन्मात्रभेदे । गार्गी च गार्ग्यायणश्च गार्ग्यौं । गार्गों च गाग्र्यायणौ च गर्गान् ॥ १२५॥ पुल्लिङ्गश्चायमिति स्त्र्यर्थः पुमर्थो भवतीत्यर्थः। स्त्रीलक्षणोऽर्थोय-स्य शब्दस्य समर्थो भवतीति भावः । गार्गीति गर्गस्य वृद्धमपत्यं स्त्री गार्गी । गर्गादे यंत्र ’|६|१|४२॥ इति यत्र, 'अवर्णे वर्णस्य' | २|४| ६७॥ इत्यलोपः, यत्रो डायन च वा' | २|४|६७ | इति ङीः, 'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' | २|४|| इति यलोपः । गर्गानिति अत्र पुंवद्भावाद् ङी- निवृत्तौ यत्रो लुप् 'शसोऽता० ' | १|४|४| इति नत्वं च । 'यत्रोश्या० ' | ६ |१| १२६ | इति यत्रो लुबपि स्त्रियां न भवतीति पुंवद्भावनिमित्तैव सा । प्रधानस्य पुंवद्भावे कृतेऽनुप्रयुज्यमानस्य पदस्यापि पुंस्त्वं भवति तेन इमौ गार्ग्याविति ||१२५।। पुरुषः स्त्रियाः | ३|१|१२६ । पुरुषशब्दः प्राणिनि पुंसि रूढः स्त्रीवाचिना सहोक्तौ पुरुषः एकः शिष्यते । स्त्रीपुरुषमात्रभेदश्चेत् । ब्राह्मणश्च ब्राह्मणी च ब्राह मणौ । पुरुष इति किम् । तीरं नदनदीपतेः । तन्मात्रभेदइत्येव । स्त्रीपुं सौ ॥ १२६॥ नदनदीपतेरिति - केवलं पुंल्लिङ्गार्थत्वेऽप्राणिन्यपि पुल्लिङ्गस्त्रीलिङ्गदर्शनात् तयोरप्येकशेषः स्यादिति 'प्राणिनि ' इत्युक्तम् । तत्साहचर्यात् स्त्री· शब्दोऽपि स्त्रीत्वविशिष्टे प्राणिनि रूढ इति ज्ञेयम् तादृशस्य पुंसस्तादृश्याः स्त्रिया एव प्रकृतोपयोगिसहोक्तिसम्भवात् । स्त्रीपुंसाविति - अत्र प्रकृतिभेदोऽपीति न भवत्येकशेषः ॥ १२६ ॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) ग्राम्याशिशुद्विशफसंङ्घ स्त्रीप्रायः ।३।१।१२७॥ प्राम्या अशवो ये द्विशफा द्विखुरा अर्थात्पशवस्तेषां सधे स्त्रीपुरुष-सहोक्तो प्रायः स्त्री वाध्येकः शिष्यते। स्त्रीपुरुषलात्रभेदश्चेत् । गावश्च स्त्रियः, गावश्च नरा, इमा गावः । ग्राम्येति किम् । रुरवश्चेमे रुरवश्चेमाः इमे रुरवः । अशिश्विति किम् । बर्कर्यश्च बर्कराश्च बर्कराः। द्विशफइति किम् । गर्दभाश्च गर्दभ्यश्च गर्दर्भाः । सङ्घ इति किम् । गौश्चायं गौश्चेयं इमौ गावो । प्रायइति किम् । उष्ट्राश्च उष्टयश्च उष्ट्राः ॥१२७॥ . ग्राम्येत्युपादानादारण्यानां न भवति स्त्री. शेषः। किन्तु पूर्वेण पुशेषे : इमे रुख:इति-बर्कयश्च बर्कराश्चेति-बकरशब्दः प्रकरणादिनाऽत्रा-जशिशुवाचीति न भवति स्त्रीशेष :किन्तु पूर्वेण पुशेष एव ॥१२७।। . क्लोबमन्येन क च वा ।३।१।१२८। । क्लीबं नप सकमन्येनाक्लोबेन सहोक्तावेकः शिष्यते । क्लीबाक्लीबमात्रभेदे तच्च शिष्यमाणं एकमेकार्थ च वा स्यात् । शुक्लं च शुक्लश्च शुक्लं,शुक्ले वा। शुक्लं च शुक्लश्च शुक्लाश्च शुक्लं शुक्लानि वा । अन्येनेति किम् । शक्लं च शुक्लं च शुक्ले । तन्मात्रभेदइत्येव हिमहिमान्यौ ॥१२८॥ शुक्लं च शुक्लं च शुक्ले । 'स्यादावसंख्येयः' ।३।१।११६। इत्येकशेषः अनेन त्वेकशेषे विकल्पेनकार्थत्वं प्रसज्येत । हिमहिमान्याविति-महद् हिममित्यर्थे हिमानी 'यवयवाना०।२।४।६५। इति की:,आन चान्त:हिमं च हिमानी चेति विग्रहः अत्र न क्लीबाक्लीवमात्रभेदः किन्त्वर्थभेदोऽपीतिनै कशेषः ।।१२।। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) पुष्यार्था पुनर्वसुः | ३|१|१२६ । पुष्यार्थान्नक्षत्रवृत्तेः परो नक्षत्रवृत्तिः पुनर्वसुः सहोत्तौ द्वयर्थः सन् एकार्थः स्यात् । उदितौ पुष्यपुनर्वसू । उदितौ तिष्यपुनर्वसू । पुष्यार्थादिति किम् ? आर्द्रापुनर्वसवः । पुनर्वसुरिति किम् । पुष्यमघाः । भ इति किम् तिष्यपुनर्वसवो बालाः ॥ १२६ ॥ एकशेषो निवृत्तः। एकमित्यनुवर्तते । अर्थग्रहणं पर्यायार्थम् पुष्यश्च पुनर्वसू च पुष्य एक पुनर्वसू द्वौ तत्र पुनर्वस्वर्यस्यैकत्वे द्वय एव द्वन्द्वः इति द्वन्द्वात द्विशेषणाच्च द्विवचनम् यदीदं न स्यात् तदा बह्वर्थो द्वन्द्व इति बहुवचनं स्यात् समाहारे तु पष्यपुनर्वसु । तिष्यपुनर्वसवो बाला इति - तिष्येण चन्द्रक्त ेन युक्तः कालः तिष्यः, पुनर्वसुभ्यां चन्द्रयुक्ताभ्यां युक्तोः कालः पुनर्वसुः 'चन्द्रयुक्तात्काले लुप् ६६ इति सूत्रेणा, 'लुप त्वयुक्त" इत्यशतत्र तस्य लोपः एवं कालत्रुतिभ्यां तिष्ये जातः तिष्यः पुनर्वस्वोर्जाती पुनर्वसू 'भर्तृ सन्ध्यादेरण' | ६|३८| इत्यनेन पुनरपि अण् तस्य च 'बहुलाग्नुराधाषुष्यार्थ- पुनर्वसु ० ' ६ । ३ । १०७ : इति लोपः एवमेकस्मिन् बाले वर्तमानस्य तिष्य-शब्दस्य द्वझोलियोर्वर्तमानस्य पुनर्वसुशब्दस्य च द्वन्द्वः तथा च तिष्यश्च बालः पुनर्वसू च बाली तिष्यपुनर्वसवः बाला इति ज्ञेयम् अत्र न नक्षत्रपरत्वमेषामपि तु तन्नक्षत्रयुक्तकालजातबाल परत्वमिति न भवत्येकार्थत्वम् । पुनर्वसुशब्दः ताराद्वयबोधकः अत्रैकवद्भावाभावात् बहुत्वाद् बहुवचनम् ।।१२६।। , विरोधिनामद्रव्याणां नवा द्वन्द्वः स्वैः | ३ | १|१३०| द्रव्यं गुणाद्याश्रयः । विरोधिवाचि नाम तदा श्रयवृत्तीनां द्वोवैकार्थः स्यात् । स्वैः स्वजातीयैरेवारब्धश्चेत् । सुखदुःखम् । सुखदुः-खे । लाभालाभम् । लाभालाभौ । विरोधिनामिति किम् । कामक्रोधौ । अद्रव्याणामिति किम् । शीतोष्णे जले । स्वैरिति किम् । बुद्धिसुखदुःखानि ॥१३०॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) वस्तूपलक्षणं यत्र सर्वनाम प्रयुज्यते । द्रव्यमित्युच्यते सोऽर्थो भेद्यत्वेन विवक्षितः ।। इति लक्षणलक्षितं द्रव्यमत्र न ग्राह्यमन्यथा सुखदुःखानामपि द्र-व्यत्वं स्यात् । किन्तु गुणादीनामाश्रयोऽत्र द्रव्यत्वेन ग्राह्यः अत एव आहद्रव्यं मुणाद्याश्रय इति । विरोधिनामिति-विरोधोऽस्त्येषामिति विरोधिनः विरोधश्चात्र सहावस्थानरूप एव । सहावस्थानासहाः पदार्था विरोधिनः । सुखदुःखमिति-सुखं च दुःख-चेति विग्रहः अत्र सुखदुःखयोः सहानवस्थानलक्षणों विरोध: गुणत्वं चोभयोः समानमिति भवति सजातीयत्वम् ।लाभालाभमिति-लाभोऽभिमतवस्तु-प्राप्तिः अलाभश्च तदप्राप्तिःप्राप्यप्राप्त्योविरोधः क्रियात्वं चोभयोः समानमेव । कामक्रोधाविति-कामश्च क्रोधश्-चेति विग्रहः कामक्रोधयोः सहावस्थानमस्ति ऋद्धोऽपि कामं स्वेच्छामाचरति शीतोष्णे जल इति-उदकयोः शीतोष्णगुणवत्त्वेन ताभ्यां शब्दाभ्यां शीतोष्णगुणाश्रयो द्रव्योऽत्रोच्यते इति द्रव्यवृत्तित्वादद्रव्याणामित्युपादानान्नकायं भवति । विरोधित्व च स्पष्टमेव । बुद्धि-सुखदुःखानीतिबुद्धिश्च सुखं च दुःख चेति विग्रहः । अत्र गुणत्वेन साजात्यं सुखदुखयोविरोधित्वेऽपि। बुद्धया अविरोधिन्या अपि ताभ्यां सह कथनात् तद्वयावृत्यर्थं स्वैरिति पदमिति भावः । समाहारे चार्थे एकत्वस्येतरेतरयोगे चानेकत्वस्य सिद्धत्वात् विकल्पे सिद्धे सर्वमिदं विकल्पानुक्रमणं नियमार्थं विरोधिनामेवा द्रव्याणामेव स्वैरेवेति तथा च प्रत्युदाहरणे इतरेतरयोग एव भवति ।।१३०॥ - अश्ववडवपूर्वापराधरोत्तराः ।३।१।१३१॥ . एते त्रयोपि द्वन्द्वा एकार्था वा स्युः स्वैश्चेत् । अश्ववडवं । अश्ववडवौ । पूर्वापरम् । पूर्वापरे । अधरोत्तरं । अधरोत्तरे ॥१३॥ अश्वश्च वडवा च अश्ववडवम्, अश्ववडवो। अश्ववडवेति निदेशादेवेतरेतरयोगे ह्रस्वत्वं निपात्यते अश्वशब्दो पुसि वर्तते । वडवा-शब्दः स्त्रियां वर्तते अश्ववडवयोः पशुत्वेन ‘पशुव्यञ्जनानाम्' ।३।१।१३२। इत्यग्रिमसूत्रेगैब विकल्पे सिद्ध ऽश्ववडवग्रहणं तत्पर्यायनिवृत्त्यर्थम् हयवडवे। समगहारें चार्थे एकत्वस्येतरेतरयोगे चानेकत्वस्य सिद्धत्वात् विकल्पे सिद्ध पूर्वा Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) परादिग्रहणं पदान्तरनिवृत्त्यर्थम् तेन पूर्व-पश्चिमौ, दक्षिणा-परौ, अधर. मध्यमो, उत्तरदक्षिणी इत्यत्र बिकल्पो न भवति अर्थात् नित्यमेवेतरेतरयोग इति भावः ॥१३१॥ पशुव्यञ्जनानाम् ।३।१।१३२॥ पशूनां व्यञ्जनानां च स्वैर्द्वन्द्वएकार्थों वा स्यात् । गोमहिषम् । गोमहिषौ । दधिघृतम् । दधिघृते ॥१३२॥ पशवोऽत्र ग्राम्या गवादयो ग्राह्या: न त्वारण्याः कुरङ्गादयः, उत्तरत्र मृगग्रहणात् तत्र. 'आरण्याः पशवो मृगा.' इति मृगग्रहणेनारण्य-पशूनां ग्रहणादिति भावः । व्यञ्जनं च येनान्नस्य रसो व्यज्यतेऽभिव्यक्तीक्रियते, अन्नं रुचिमापद्यते तद् दघिघृतादि,शाकसूपादिच। गौश्च महिषश्च गोमहिषम्गोमहिषो । दधि च घृतं च दधिघृतं दधिघृते । केचित्तु सेनाङ्गानां पशूनां पशुलक्षणं विकल्पमिच्छन्ति हस्तिनश्च अश्वाश्च-हस्त्यश्वं हस्त्यश्वा इत्येव भवति न तु परमपि सेनाङ्गलक्षणमेकत्वम् । गोमहिषमित्यादावयं विधि: सावकाशः अश्वरथमित्यादौ सेनाङ्ग०' ।।१।१३४। इति विधिः सावकाशः अत्र तूभयप्राप्तौ परत्वात् सेनाङ्गविधिः स्यात् तं बाधित्वाऽयमेव विकल्प इत्येतन्मतसंग्रहार्थमन बहुवचनोपादानम् ॥१३२॥ तरुतृणधान्यमृगपक्षिणां बहुत्वे ।३।१।१३३॥ • 'एतद्वाचिनां बह्वर्थानां प्रत्येकं स्वैर्द्वन्द्वएकार्थो वा स्यात् । प्लक्षन्यग्रोधम् । प्लक्षन्यग्रोधाः । कुशकाशम् । कुशकाशाः । तिलमाषम् । तिलमाषाः । ऋश्यणम् । ऋश्यणाः। हंसचक्रवाकम् । हंसचक्रवाकाः ॥१३३॥ अत्र तर्वादिविशेषाणामेव ग्रहणं न सामान्यस्य तथाहि-तर्वादिशब्दैः प्रत्येक Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) द्वन्द्वो विशिष्यते -तरूणां द्वन्द्वः, तृणानां द्वन्द्वः इत्यादि-रूपेण । न चैको बहुवचनान्तस्तरुशब्दो वृक्षशब्दस्तृणशब्दादिर्वा द्वन्द्वः । न च द्वयोस्तर्वादिशब्दयोः सह प्रयोगः 'स्यादावसंख्येयः | १|३ | ११६ । इत्येकशेषात् । नापि वृक्षादिपर्यायैः सह तस्य द्वन्द्व : 'समानाम० ' | ३|१|११८ । इत्येकशेषात्, नापि तरवश्च धवाश्चेति सामान्यविशेषयो स्तादृशप्रयोगानभिधानात् तरुत्वेनैव धवानामपि ग्रहणे तेषां प्रयोगवैयर्थ्याच्च तत्र द्वन्द्वाभावात् परिशेषाद्विशेषाणामेवद्वन्द्वः सिध्यति । प्लक्षाश्च न्यग्रोधाश्चेति प्लक्षन्यग्रोधम् प्लक्षन्यग्रोधाः । प्लक्षः पर्कटी वृक्षः, न्यग्रोधो वटः । कुशाश्च काशाश्चतिलाश्च' माषाश्च । ऋश्याश्च एणाश्च । हंसाश्च चक्रवाकाश्च । एकस्यापि पदस्य बहुत्वे भवति - प्लक्षश्च न्यग्रोधाश्च प्लक्षन्यग्रोधम्, प्लक्षन्यग्रोधाः, प्लक्षो च न्यग्रोधाश्च प्लक्षन्यग्रोधम्, प्लक्षन्यग्रोधा इत्यादि । एकस्यापि पदस्य बहुत्वे वर्तमानाभावे तु न भवति - प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च प्लक्षन्यग्रोधो । प्लक्षौ च न्यग्रोधौ च प्लक्षश्चन्यग्रोधो चेति वा - प्लक्ष - न्यग्रोधाः । यद्यपि द्विवचनान्तेन विग्रहे समुदायस्य बहुवमायाति तथापि बहुवचनग्रहणसामर्थ्यात् समास-घटकपदगतं बहुत्वमेवैकत्वनिबन्धनम् इत्यवगम्यत इत्येकस्यापि बहुत्वं विनाऽनेकवद्भावप्रतीतिरिति बोध्यम् । आरण्याः पशवो मृगा इति मृगाणामपि पशुत्वात् पशुविकल्पेनैव सिद्धे मृगाणामिहोपादान मृगाणां मृगैरेव बहुत्वे एव च द्वन्द्व एकवदिति नियमयति ॥ १३३॥ , सेनाङ्गक्षुद्रजन्तूनाम् ।३।१।१३४॥ सेनाङ्गानां क्षुद्रजन्तूनां च बह्वर्थानां स्यात् । अश्वरथम् । यूकालिक्षम् ॥ १३४ ॥ स्वैर्द्वन्द्व एकार्थो नित्यं पृथग्योगाद् वेति निवृत्तम् । अश्वाश्च स्थाश्च अश्वरथम्, केचित्तु सेनाङ्गानां पशूनां पशुविकल्पमिच्छन्ति - हस्त्यश्वम्, हस्त्यश्वाः । क्षुद्रजन्तवोऽल्पकायाः प्राणिन आनकुलमिह स्मयन्ते यूकाश्च लिक्षाश्च यूकलिक्षम् । यूकाः मनुजशरीरस्वेदजातास्तच्छाणितजीविन्यः, लिक्षाश्च केशाश्रिताः स्वल्पपरिमाणाः कीटाः || १३४।। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) फलस्य जातौ ।३।१।१३॥ फलवाचिनां बह्वर्थानां जातौ स्वैर्द्वन्द्वएकार्थो नित्यं स्यात् । बदरामलकम् । जाताविति किम् । एतानि बदरामलकानि सन्ति ॥१३॥ फलवाचिनां बह्वर्थानामिति-ननु जातिविवक्षायामेकवचनमेव युक्त जातेरेकत्वादिति एकेनैव बहूनां बोधायजातिविवक्ष्यत इतिजातिविवक्षायां बह्व र्थत्वमनुपपन्नमिति चेत्सत्यं जातिप्राधान्ये सति जातो व्यक्तिद्वारकबहुत्वसंख्यान्वयविवक्षायां बहुवचनम् । अयं भावः-जातो साक्षात् संख्यान्वयविवक्षाया-मेकवचनमेव प्रयुज्यते देवः पूज्यः' इत्यादिवत् तस्यामेव व्यक्तिद्वारकसंख्यान्वयविवक्षायां व्यक्तिनां बहत्वेन बहवचनमपि भवति यथा तत्रैव 'देवाः पूज्या' इति । तथा च यदा जातौ व्यक्तिद्वारकबहुत्वसंख्या विवक्षिता तदाऽनेनैकार्थ्यं भवति यदा जातिगता संख्या विवक्षिता तदैकवचनेन विग्रहात् 'बदरामलके' इत्येव भवति । बदराणि चामलकानि चेति विग्रहः बदः विकारः फलं-बदरम् 'हेमादि०' ।६।२।४५। इत्यत्र, आमलक्या विकारः फलम् आमलकम् 'दोरप्राणिनः' ।६।२।४६। इति मयट द्वयोरपि ‘फले' ।६।२।५८। इति लुप् । एतानि बदराणि सन्तीति-जातावित्युपादानात् व्यक्तिपरचोदनायां न भवति । व्यक्तय एव प्राधान्येन विवक्षितास्तत्र न भवतीत्यर्थः व्यक्तिपरा-व्यक्तिप्रधाना, चोदना उक्ति-रित्यर्थः । अन अङ्गुल्या निर्दिश्यमाना बदरामलकव्यक्तय एव न तु जातिः । अप्राणिपश्वादेः ।३।१।१३६। प्राणिभ्यः पश्वादिसूत्रोक्तभ्यश्च येऽन्यद्रव्यवाचिनस्तेषां जात्यर्थानाम् स्वर्द्वन्द्वएकार्थः स्यात् । आराशस्त्रि । जातावित्येव । सह्यविन्ध्यौ । प्राण्यादिवर्जनं किम् । ब्राह्मणक्षत्रियविशु द्राः । ब्राह्मणक्षत्रियविटश द्रम् । गोमहिषौ। गोमहिषम् । प्लक्षन्यग्रोधौ । प्लक्षन्यग्रोधम् । अश्वरथौ । अश्वरथम् । बदरामलके, बदरामलकम् ॥१३६॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) - बहुत्व इति निवृत्तम् ‘फलस्य जातौ' ।३।१।१३५॥ इति सूत्रारम्भात् । अयं भावः-यदि बहुत्व इत्यनुवर्तत तदा फलानाम-प्राणित्वस्य जातिपरत्वस्य च सत्त्वेनानेनैव तल्लक्ष्याणां सिद्ध : पूर्वसूत्रारम्भो निरर्थक एव स्यात्, न च तद्योगाभावे. जाताविति कुतो लभ्य इति वाच्यं 'जातो' इत्यस्य प्रकृत्रसूत्र एव पाठः कार्य इत्याशयात् । आरा च शस्त्री च आरा-शस्त्रि । आर -चर्मप्रभेदिका, शस्त्री-छरिका। जातिविवक्षायामयं विधि:- व्यक्ति विवक्षायां तु यथाप्राप्तम् आरा-शस्त्रि, आरा-शस्त्रयाविमे। जातावित्येवेति-तथा चानेकद्रव्यव्यक्तिवाचकानामेवेह ग्रहणमिति नेह भवति । ' सह्यविन्ध्याविति सह्यम्च विन्ध्यश्चेति विग्रहः, एतौ पर्व विशेषवाचिनावेकव्यक्तिरूपाविति सह्यत्व-विन्ध्यत्वयोन जातित्वम् व्यक्तर-भेदस्य जातिबाधकेषु परिगणनादिति नानेन नित्यमैकार्थ्यमिति पाक्षिको इतरेतरयोगोऽ- : व भवत्येव । अप्राणीति प्राणिनो द्रव्यस्य पर्युदासेना-प्राणिनो द्रव्यस्य ग्रहणादिह न भवति-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाः, उत्क्षेपणा-उपक्षेपणाऽऽकुञ्चनप्रसरण-गमनानि । अत्र प्रथमं गणद्वन्द्वोदाहरणं द्वितीयं न्यायदर्शन-प्रसिद्धकर्मद्वन्द्वो-दाहरणम् ॥१३६।। प्राणितुर्याङ्गाणाम् ।३।१।१३७। प्राणितूर्ययोरङ्गार्थानां स्वद्वन्द्वएकार्थः स्यात् । कर्णनासिकम् । मार्दङ्गिकपाणविकम् । स्वैरित्येव ? पाणिगृध्रौ । १३७॥ प्राणी च तूर्य चेति प्राणितूर्ये तयोरङ्गानि तेषां 'द्वन्दान्ते श्रयमाणं पदं प्रत्येकभिसम्बन्ध्यते इति न्यायेनाङ्गशब्दस्यान्ते श्रयमाणस्य प्रत्येक सम्बन्धात्-प्राण्यङ्गानां तूर्यङ्गाणां च स्वैद्वन्द्वः इत्यर्थो लभ्यते समाहारे कृते तु तथा न स्यात् तत्र समूहरूपेणोपस्थित्या प्रत्येकमङगशब्दसम्बन्धासम्भवात् । कणी च नासिका च कर्णनासिकम् । शङख-शाङिखकादिसमुदायस्तूर्यम्-शङ्खादयो वाद्यानि शाङ्खिकादयो वादकाः, अङ्गानिअवयवाः । मार्दङ्गिकपाणविकमिति-मृदङ्गवादनं शिल्पमस्येति मादनिकः । 'शिल्पम्' ।६।४।५७। इतीकण पणववादनं शिल्पमस्येति पाणविकः, पूर्ववदत्रापीकण, मार्दङ्गिकश्च पाणविकश्चेति विग्रहः । पाणिगृध्राविति- . अन कः प्राण्यवयवोऽ-परश्च प्राणीति स्वत्वाभावान्नैकवद्भावः । प्राण्यङ्गानां तूर्याङ्गेषु च शङ्खपटहादीनामप्राणिजातित्वात् पूर्वेण सिद्ध Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) व्यक्तिविवक्षायां विधानार्थं जातिविवक्षायां प्राण्यङ्गाप्राण्यङ्गादिसंभेद एकत्व निराकरणार्थं च वचनम्, एतज्ज्ञापनार्थमेव च बहुवचनम् । शङ्खश्च पटहश्च शङ्खपटहमिति वाद्यद्वन्द्वः आदिपदग्राद्या मार्दङ्गिकपाणिविकादयः । प्राण्यङ्गाप्राण्यङ्गादिसंभेद इति-पूर्वसूत्रऽ-प्राणित्वेन स्वत्वं ग्राह्यमिति प्राण्यङ्गाप्राण्यङ्गयोरभयोरप्यप्राणित्वं समानमेवेति तयोरेकत्र समासे मिश्रणे पूर्वेणैकत्वं स्यादेव, एतत्सूत्रकरणे तु प्राण्यङ्गानां प्राण्यङ्ग रेव द्वन्द्व एकवदित्यर्थलाभान्न भवति तत्रैकत्वमिति भावः ॥१३७॥ चरणस्य स्थगोऽद्यतन्यामनुवादे ।३।१।१३८॥ चरणाः कठादयः। तद्वाचिनामद्यतन्यां यो स्थेणी तयोः कर्तृत्वेन सम्बन्धिनां स्वैर्द्वन्द्वोऽनुवादविषये एकार्थः स्यात् । प्रत्यष्ठात् कठकालापम् । उद्गात् कठकौथुमम् । अनुवादइति किम् ? उदगुः कठकालापाः अप्रसिद्ध कथयन्ति ॥१३८॥ शाखाध्यययननिमित्तय व्यपदेशभांजो द्विजन्मानः चरणा: कठादयः । अयं भाव:-चत्वारो वेदाः तेषां शतशः शाखाः । यां शाखां यो द्विजन्माऽधीते स तच्छाखाध्यायित्वेन तन्नाम्ना प्रसिध्यतीति प्राक्तनी परिपाटि: तथा च यच्छाखाध्यायिनस्ते तच्छाखयैव विशिष्टमपदेशं मुख्यं व्यवहारं भजन्ते तथा च ते व्यपदिश्यमानाः कठादयः चरणशब्देन व्यवह्रियन्ते इति । कर्तृत्वेन सम्बन्धिनामिति-गौणमुख्ययोः मुख्ये एव कार्यसम्प्रत्ययः' इति न्यायान्मुख्यवृत्त्या कर्ता लभ्यते । स्थेणोमुख्यकर्तुश्चरणस्योतीष्टम्, तथा • न कृत्वा यत्सामान्येनोक्तं तदेतन्यायाभि-सन्ध्यैव अन्यथा मुख्यत्वस्य लाभो न स्यात् एवञ्च-यदि मुख्यत्व-भाजा कर्ता सह सम्बन्धः तदैव समाहारः यदा भावे प्रयोगस्तदा समाहारो न भवति अयं भावः-भाव-प्रत्यये कर्ता न मुख्यतया भासते ऽपि तु भाव एव तस्यैव प्रत्ययेनोक्तत्वादिति न तत्र मुख्यः कर्तेति न भवत्येकत्वम् तथैव चा-चार्यैरुदाहृतमपीति भावप्रत्यये प्रत्यष्ठायि कठकालापै-रित्येव प्रयोगः । प्रमाणान्तरप्रतिपन्नस्यार्थस्य शब्देन संकीर्तनम्-अनुवाद: यज्ञकर्मणि शंसितानुशंस-नमित्येके, अनुकरणमित्यपरे - अन्यत् प्रमाणं प्रमाणान्तरं अन्यत्वं च प्रकृतवाक्यापेक्षया तदपेक्षया भिन्नं वाक्यन्तररूपं शब्दप्रमाणं Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) 1 शब्दभिन्नं प्रत्यक्षादि प्रमाणं च । तेनावगतमप्यर्थं कार्यान्तरार्थं यदा प्रयोक्ता प्रतिपाद्यते संकीर्त्यते तदा तदेव संकीर्तनमनुवादशब्देनोच्यत इति भावः । पूर्वमेको याशिक: कमप्यर्थमेक एवोच्चारयति पश्चादन्ये याज्ञिका सम्भूय तदनुवादं कुर्वन्ति स एवास्य सूत्रस्य विषय इत्येकेषां मतमितिभावः । अक्षरार्थानुगुण्येनानुकरणमेवानुवाद इत्यपरे कथयन्ति अनु - पश्चात् वदनं - पूर्वमुच्चारणविषयीकृतस्य पश्चात्तथैव वदनमुच्चारणमनुवाद इत्यर्थाश्रयणेनेति भावः । कठकालापमिति-कठाश्च कालापाश्चेति विग्रहः । कठेन प्रोक्तो वेदः 'तेन प्रोक्त' | ६ | ३|११| इत्यं तस्य ' 'कठादिभ्यो वेदे लुप्' | ६ | ३|१८३ | इति लुप्, कठं विदन्ति अधीयते वा 'तद्वत्यधीते । ६।२।११७॥ इत्यण् तस्य 'प्रोक्तात्' | ६ |२| १२ | इति लोपे कठाः ( एवं - कलापिना प्रोक्तं वेदं विदन्ति अधीयते वेति कालापाः, अत: 'कलापि कुथुमि ०' | ७|४२ ६२ । इतीनो लुप् वृद्धिश्च प्रतिपूर्वस्य स्थाधातोरतन्य प्रत्यष्ठादिति । कठकौथुममिति कठाश्च कोयुमाश्चेति विग्रहः, कुथुमिना प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयत इति कौथुमाः । उत्पूवस्य इण्धातोरद्यतन्याम् - उदगादिति । कठेषु कालापेषु च प्रतिष्ठितेषु कठेषु कौथुमेषु च उदितेषु किमपि कार्यं कैश्चित् संकेतितम् स च संकेतस्तेषां मध्ये कैश्चिद्विस्मृतः पश्चात्कश्चितेष्वेकः प्रमाणान्तरेण तेषामुदयप्रतिष्ठे अवगत्य स्वसार्थानां स्मारणायानुवदति तत्रत्योऽयं प्रयोगः इति भावः । अप्रसिद्धं कथयन्तीति-यत्र प्रमाणान्तरेणाज्ञातं वस्तु स्वोहेन बदति तत्र समाहारो न भवतीति शब्दशक्तिस्वभावः पूर्वेषां च तथैव प्रयोग इति भावः ॥१३८ ।। अल्की बेऽध्वर्यु क्रतोः । ३।१।१३६ । अध्वर्यु : यजुर्वेदः । तद्विहितक्रतुवाचिनां स्वेद्वन्द्व एकार्थः स्यात् । नचेदेते क्लीववृत्तयः । अर्काश्वमेधम् । अक्लीबइति किम् । गवामयनादित्यानामयने अध्वय्विति किम् । इषुवज्रौं । क्रतोरिति किम् । दर्शपौर्णमासौ ॥ १३६ ॥ अध्वयं वः यजुर्वेदविदः तेषां वेदोऽप्यध्वर्युः, अध्वर्युं शब्दः यजुर्वेदानु Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) सारिहोमकारिणि यजुर्वेदविदि ऋत्विजि रूढः, तै यत्वात्तद्र पसम्बन्धं निमित्तीकृत्याध्वर्युशब्दो यजुर्वेदेऽपि निरूढलाक्षणिकः अध्वयों विहिता अध्वर्यु विहिताः ते क्रतवः अध्वर्युक्रतवः । मध्यमपदलोपिसमासः । अ-श्वमेधादयोऽध्वर्युक्तवः । ससोमको यागः क्रतुः । यजुर्बेदे विहिताः क्रतवो द्विधा ससोमकाः असोमकाश्च । सोमो लतौषधियं ज्ञोपयोगिद्रव्यम् । सोमौषधे रसेन होमः क्रियते हुतशेषश्च पीयते यस्मिन् यागे स ससोमको यागः । ससोमकयागे क्रतुशब्दो निरूढलाक्षणिक: तेनाध्वयु विहिता असोमका यागा इह न गृह्यन्ते । अर्कश्चाश्वमेधश्च-अर्काश्वमेधम् । इमावुभावपि ससोमको यागाविति इह न गृह्यन्ते । भवत्यनेनैकार्थत्वम् । गवामयनादित्यानामयन, इति-गवा मयने गोष्ठे यो यागोऽनुष्ठीयते स उपचाराद् गवामयनशब्देन कथ्यते,सं ज्ञानिमित्तको विभक्तिलोपाभावः एवं अदितेरपत्यं आदित्या देवाः तेषां स्थाने देव कुलादौ यो यागोऽ नुष्ठीयते स आदित्यानामयनशब्देन कथ्यते षष्ठया अलुप् पूर्ववत् तत्पुरुषे च परपदलिङ्गताया अनुशासनादिमौ शब्दी नित्यक्लीबलिङ्गी। इषुवज्राविति-एतौ शत्रुमारणाय सामवेदे विहितो । दर्शपौर्णमासाविति-दर्शतिथी अ-मावास्यायां विहितः यागोऽप्युपचारात् दर्श: । पौर्णमास्यां च विहितः पौर्णमास: . एतौ न मसोमको । न चेदे क्लीबवृत्तय इति प्रसज्यप्रतिषेधाश्रयणात् राजसूयं च वाजपेयं च राज सूयवाजपेये इत्यत्र न भवत्येकार्थत्वम् । इमौ क्रतू पुलिङगावपि स्तः इति पयुंदासा-श्रयणेऽ-त्रापि स्यात् । सोमो .. राजा सूयते यत्रेति राजसूयम्, राजा सोतव्य-मभिषवद्वारा सम्पादयितव्यं वा राजसूयं । वाजमन्नं घृतं वा पेयमत्र स यागः वाजपेयम् । इमी ससोमको यागविशेषौ ॥१३॥ निकटपाठस्य ।३।१।१४०॥ निकटः पाठो येषामध्येत णां तेषां स्वर्द्वन्द्वएकार्थः स्यात् । पदकक्रमकम् ॥१४०॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) पदमधीते पदकः । क्रममधीते क्रमकः । पदक्रमशब्दाभ्यामध्ययनार्थे 'पदक्रम - शिक्षा ० ' | ६ | २|१२६ । इत्यकः । पदकश्च क्रमकश्च पदकक्रमकम् । पदान्तरं क्रमस्य पाठात्पाठयोनिकटत्वम् || १४०॥ नित्यवैरस्य | ३|१।१४१। नित्यञ्जातिनिबद्ध वैरं येषां तेषां स्वर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात् । अहिनकुलम् । नित्यवैरस्येति किम् । देवासुराः । देवासुरम् ॥ १४१ ॥ नित्यमनिमित्तं जातिनिबद्ध ं वैरं येषां तेषां स्वैर्द्वन्द्वः एकार्थः स्यात् । अहिः सर्पः नकुलस्तदवैरी क्षुद्रजन्त्ववधि: प्रसिद्धः अनयोविरोधो जन्मत एव भवति स च यावज्जीवं तिष्ठतीति नित्यम् । देवासुराः देवासुरमिति नैषां निर्निमित्तं वैरमपि तु निमित्तसापेक्षम् । कविजन प्रसिद्धिस्त्वित्थम् अमृतादिप्राप्तिनिमित्तमिह वैरम् - अमृतोत्पत्तेः पूर्वं तु वैराभाव एव, अत एव तैः सम्भूय समुद्रमंथनार्थं प्रयत्नः कृतः । पशुविकल्पः पक्षिविकल्पश्च परत्वादनेन बाध्यते-अश्व महिषम्, काकोलूकम् । अयं भावः - अश्वस्य महिषस्य च पशुत्वेन तयोः पशुनिमित्तकः काकस्योलकस्य च पंक्षित्वेत तयोः पक्षिनिमित्तकश्च विकल्पः प्राप्तः परं तस्य नित्यवैरातिरिक्तस्थले सावकाशत्वम् अस्य च पशुपक्षिव्यतिरिक्त नित्यवैरे बाह्मणश्रमणादौ सावकाशत्वमितीह द्वयोः स्पर्द्ध परत्वादिदिदमेव प्रवर्तत इति । श्रमणो जैन साधुः । नेदं जातिकृतम्-पि तु परस्परधार्मिकभेदकृतम् इति नास्य निमित्तानतेक्षत्वम् || १४१।। नदीदेशपुरां विलिङ्गानाम् ।१।४।१४२ । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) एषां विविधलिङ्गानां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात् । गङ्गाशोणम् । कुरुकुरुक्षेत्रं । मथ रापाटलिपुत्रम् । विलिङ्गानामिति किम् । गङ्गायमुने ॥१४२॥ गङ्गा च शोणश्च गङ्गाशोणम्, कुरवश्च कुरुक्षेत्र च कुरुक्ष ेत्रम्, मथुरा च पाटलिपुत्र च मथुरापाटलिपुत्त्रम् । पुरां देशत्वात् तद्ग्रहणेनैव सिद्ध पुर्यहणं ग्रामनिषेधार्थम् जाम्बवश्च शालूकिनी च - जाम्बवशालूकिन्यौ ग्रामी प्रासादादिनिवेशविशिष्टो देश: पूः, क्षुद्रगृहादि - निवेशविशेषविशिष्टो देशो ग्रामः । देशग्रहणेन चेह जनपदानां ग्रहणं पृथग् नदीपूरग्रहणात् तेन पर्वतानां न, यथा कैलासश्च गन्धमादनं च कैलासगन्धमादने पर्वतौ । ।।१४२।। पात्र्यशूद्रस्य । ३।१।१४३॥ पात्रार्हशुद्रवाचिनां स्वर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात् । तक्षाप्रस्कारम् । पात्र ेति किम् ? जनङ्गमबुक्कसाः ॥१४३॥ शूद्र:, भोजने कृते सति कांस्यादि पात्र संस्कारेण भस्मोद्वर्तनादिना शुध्यति - लोके विशिष्टानां योग्यं भवति । ते पात्रमर्हन्तीति पादया: 'तमर्हति' | ५|४|१७७॥ इति यः । तक्षायस्कारमिति-तक्षाणश्चायस्काराश्चेति विग्रहः । जनगम बुक्कसाः इति - जनङ्गमाश्चण्डालाः बुक्कसास्तु म्लेच्छा इति - एतेभ्यस्त्र' वर्णिकाः स्वं पात्र न प्रयच्छन्ति तैः भोजने कृते सति पात्र संस्कारेणापि न शुध्यतीति पात्र्यग्रहणादिह न भवति । न च पात्र्यग्रहणमस्तु शूद्रग्रहणेन किमिति वाच्यं शूद्रग्रहणाभावे 'ब्राह्मणक्षत्रिवविशः' इति त्रैवर्णिकद्वन्द्व ेऽ पि एकत्वं स्यादिति । अत्र 'मास-वर्ण-भात्रानुपूर्वम्' | ३|१|१६१ | इति वर्णक्रमेण पूर्व प्रयोगः ॥ १४३ ॥ गवाश्वादिः | ३|१|१४४ | Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) अयं द्वन्द्वएकार्थः स्यात् । गवाश्वम् । गवाविकम् ॥१४४॥ गोश्चाश्वश्च गवाश्वम् गौश्चाविका च गवाविकम् । अविरेव अविका अजेत्यर्थः ‘पशुव्यजनानाम्' ।३।१।११३। इति विकल्पे प्राप्तेऽनेन नित्यं विधीयते । ‘स्वरे वाऽनक्षे' ।१।२।२६। इत्यवादेशःगवाश्वादिषु यथोच्चारितरूपग्रहणादन्यत्र नायं विधि: किन्तु पशुविकल्प एव भवति । गोऽश्वौ, गोऽश्वम्, गो-अश्वौ, गो-अशवम् । ‘गोऽश्वौ' इत्यत्र ‘एदोतः पदान्तेऽस्यलुक्' ।१।२।२७। इत्यकारलोपः, 'गो-अश्वौ'-इत्यत्र 'वात्यसन्धिः' ।१।।३१। इत्यसन्धिः ॥१४४।। न दधिपय-आदिः ।३।१।१४५॥ दधिपय आयो द्वन्द्वएकार्थो न स्यात् । दधिपयसी । सप्पिमधुनी ॥१४५॥ दधिश्च पयश्च-दधिपयसी । सपिश्च मधु च सपिर्मधुनी। उभयत्र व्यञ्जनलक्षणे पशुव्यञ्जनानाम्' ।३।१।१३२। इत्येकार्थत्वविकल्पे प्राप्ते प्रतिषेधः १४५। संख्याने ।३।१।१४६। वत्तिपदार्थानां गणनेगम्ये द्वन्दवएकार्थो न स्यात् । दश गोमहिषाः । बहवः पाणिपादाः ॥१४६॥ संख्यायत इति संख्यानम् तस्मिन् इयत्तापरिच्छेदः संख्यानम् इदं-शब्दतो निदिश्यमानमङ गुल्यादि-संकेतेन वा बोध्यमानं परिमाणं येषां ते इयन्तः तेषां भावःइयत्ता तस्याःपरिच्छेदोऽ-वधारणं संख्यानपदबोध्यमित्यर्थः। वर्तन वर्तःसमासः भावे घत्र , वर्तो येषामस्ति तानि वर्तीनि समासावयवभूतानि पदानि तेषां येऽर्था अभिधेयास्तेषामेव संख्यानमिह विवक्षितमिति भावः। दश-गोमहिषा इति---अत्र ‘पशुव्यञ्जनानाम्' ।३।१।१३२। इति प्राप्तस्य पशुलक्षणकत्वस्या-नेन निषेधः । बहवः पाणिपादा इति- अत्र प्राणितूर्यराङ्गणाम्' ।३।१।१३७। इति प्राप्तस्य प्राण्यङ्गनिबन्धनकत्वस्यानेन निषेधः Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'बहुगणं भेदे' ।१।१।४०। इति बहुशब्दो भेदवृत्तिः स्यात् न तु वैपुल्ये सधे वा भेदः पृथग्र पता-यथा बहवः पुरुषाः वैपुल्ये च न स्यात् यथा बहु धान्यमित्यादि बहुपदमत्र त्रित्वादिना नियतसंख्यापरं, न त्वनियतबहुत्वपरम, तथा सति परिच्छेदस्यावधारणस्य प्रतीतिर्न स्यात् । नन्वेकार्थो न स्यादित्युक्तया विशिष्य विहित एव समाहारो निषिध्येत 'चार्थे द्वन्द्वः०' ।३।१।११७। इति सामान्यतता विहितस्य कथं निषेध: ? 'सविशेषणाणां वत्तिर्न वत्तस्य च विशेषणयोगो न'इति न्यायेन स्वाभाविकी एव समाहारद्वन्द्वस्याप्राप्तिः । न च तथा सतीतरेतरेयोगोऽपि न स्यादिति वाच्यं 'सविशेषणानां वृत्तिन०' इति न्यायः 'सापेक्षमसमर्थम्' इति न्यायाश्रित एव विशेषणापेक्षस्य समस्यमानपदस्य सामर्थ्याभावात् किन्तु प्रधानस्य तु सापेक्षत्वेऽपि नासामर्थ्यमिति इतरेतरयोगे बतिपदार्थस्य प्राधान्यात्समासे क्षत्यभाव इति ।।१४६॥ वान्तिके ।३।१।१४॥ वतिपदार्थानां संख्यानस्य समीपे गम्ये द्वन्द्वएकार्थों का स्यात् । उपदशम् गोमहिषम् । उपदशाः गोमहिषाः ॥१४७॥ उपगता दश यस्य येषां वा उपदशं गोमहिषम्, उपदशा गोमहिषा इति । • नवैकादश वा गोमहिषसमूह इत्यर्थः । बहुव्रीहे: समीपिप्रधानत्वात् द्वन्द्वार्थस्यैकत्व बहुत्वात्तदनुप्रयोगस्यापि । बहुव्रीहेरेकवचनबहुवचनान्तत्वम् । अत्र 'प्रमाणीसंख्या०' ।७।३।१२८। इति डिदत्समासान्तः ततः 'डित्यन्त्यस्वरादेः' ।२।१।११४। इत्यनो लोपः दशानां समीपम् 'विभक्तिसमीप०' ।३।१।३८। इत्यव्ययीभावे तु ‘अनः' ।७।३।८८। इति समासान्ते 'नोपदस्य तद्धिते' ७।४।६१। इत्यन्तो लुपि समीपप्रधानत्वात् उपदशं गोमहिषम्, उपदशं गोमहिषा इति भवति ॥१४७।। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोक्तप्राक ।३।१।१४८॥ अत्र समासप्रकरणे प्रथमान्तेन यनिर्दिष्टं तत् प्राक् स्यात् । आसन्नदशाः । सप्तगङ्गम् ॥१४८॥ आसन्नदशा इति–'आसन्नादूरा०' ।३।१।२०। इति समासः । तत्र प्रथमान्ततयानिर्दिष्ट: आसन्नशब्द: इति तस्यैव पूर्व प्रयोगः । सप्तगङ्गमितिअत्र संख्या समाहारे०' ।३।१।१२। इति समासः तत्र संख्या प्रथमान्ततया निर्दिष्टेति संख्यावाचकस्य सप्तेत्यस्य पूर्वनिपातः। वाक्यक्त् समासेऽप्यनियमः स्यादिति वचनम् ।।१४८॥ राजदन्तादिषु ।३।११४६ एतेषु समासेष्वप्राप्तप्राग्निपातं प्राक् स्यात् । राजदन्तः । लिप्तवासितम् ॥१४६॥ दन्तानां राजा राजदन्तः 'षष्ठययत्ना०' ।३।१७६। इति प्रथमोक्तत्वेन दन्तशब्दस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते राजशब्दस्यानेन पूर्वनिषातः । पूर्व वासितं पश्चाल्लिप्तं-लिप्तवासितम् अत्र 'पूर्वकालैक०' ।३।१।६७। इति प्रथमोक्तत्वेन वासितस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते लिप्तस्य पूर्वनिपातः । वासितं सुरभीकृतम्, लिप्तमुपदिग्धम् । वासितस्यैवं लेपो विधीयते लेपो इत्यवासितस्य व्यर्थ इतिवासनं पूर्वकाल एव समुचितमिति भवति तस्य 'पूर्वकाल.' ।३।११६७।इति सूत्रविषयत्वम् । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।।१४९॥ . विशेषण-सर्वादिसंख्यं बहुव्रीहौ ।३।१११५०। विशेषणं सर्वादिसंख्यावाचि च बहुव्रीही प्राक् स्यात् । चित्रगुः । सर्वशुक्लः । दिवकृष्णः ॥१५०॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) चित्रगुरिति - चित्रा गावोऽस्येति एकार्थं चानेकं च' | ३|१|२२| इति - हुन्रीहिः अत चित्रा इति विशेषणम् गाव इति च विशेष्यम्, चित्रत्वेन हि गावो गवान्तराद्विशेष्यमाणाः प्रतीयन्ते ततस्तद्विशेोषमस्य पूर्वनिपातः अब 'गोश्चान्ते० | २|४| १६ | इति गोह्रस्वः सर्वशुक्ल इति सर्वशुक्ल मस्य सर्वशुक्लः अत्र शुक्ल शब्देन सर्वार्थस्य विशेष्यमाणत्वात् सर्वस्य विशेषणत्वात् विशेषणत्वाभावेऽपि सर्वादित्वात्सर्वं शब्दस्य पूर्वनिपातः । सर्वशब्दोऽत्र गुणिनिवर्ततेऽत एवं सर्वः शुक्लोयस्येतिपुसा विग्रहो न कृतः 'गुणे शुक्लादयः पु सिगुणिलिङ्गास्तुनद्वति' इति वचनात् सर्वशब्दः साकल्यकलितानां प्रकृतवस्तूनां स्त्रीपुंनपुंसकसाधारणानां बोधकः इति सामान्ये नपुंसकमिति सर्वशब्दस्य विशेष्यस्यनपुंसकतया तद्विशेषणस्य गुणिपरस्य शुक्लशब्दस्यापि क्लीबत्वं ज्ञेयम् कृष्ण गुणावस्य द्विकृष्णः अत्र द्वौ काविति प्रश्ने कृष्णौ इति कृष्णशब्देन द्वौ विशिष्यते इति द्विशब्दस्य विशेष्यत्वेऽपि संख्याशब्दत्वात्प्राग्निपातः । कृष्णशब्दोऽत्र गुणपरः न तु गुणि- परः द्विगुण कृष्णवर्णयुक्त इत्यर्थः । विवक्षितवस्तुनो यावती कृष्णवर्णमाला ततो द्विगुणा प्रकृतपदार्थस्येति यावत् । शब्दस्पद्धे परत्वात् सर्वादिसंख्ययोः संख्याया एव पूर्वनिपातः । यथा त्रयोऽन्येस्य स त्र्यन्यः उभयोस्तु सर्वादित्वे स्पर्धे परस्य पूर्वनिपातः । यथा द्वावन्यावस्य स द्व्यः । सर्वादिसंख्ययोविशेषणत्वेऽपि पृथग्वचनं शब्दपरस्पर्धार्थम् । अयं भावः - सर्वादिसंख्ययोविशष्यत्वविवक्षायां प्रकृतसूत्रे ग्रहणं सफलमेव, किन्तु विशेषणत्वविवक्षायामपि सफलमेवेत्यपिना सूच्यते । 'प्रथमोक्तं प्राक्' | ३|१|११८ | इत्यनियमे प्राप्तेनियमार्थं वचनम् । अयं भाव::- बहुग्रीही एकार्थमितिविशेषण सर्वादिसंख्यं तद्भिन्नमपि च भवति, तत्र 'प्रथमोक्तम्' इति पूर्वनिपाते 'विशेषणसर्वादिसंख्यस्यैव पूर्वनिपातो भवति, नेतरस्य ' इति नियमो न लभ्यते, अनियम एव स्यात्, अतो विशेषणसर्वादिसंख्यस्यैव पूर्वनिपातो यथा स्यातु नेतरस्येति नियमार्थमिदं वचनमारभ्यते ।। १५० ।। क्ताः ।३।१/१५१ तं सर्व बहुव्रीहौ प्राक् स्यात् । कृतकटः ॥ १५१॥ क्ान्तस्य विशेषणत्वात्पूर्वेण सिध्यति विशेष्यार्थं तु वचनम् । कृतःकटोऽनेन कृतकट: स्पर्द्ध परत्वार्थं च कृतो भव्यः कटोs नेन कृतभव्यकटः । अयं भावः यदा क्तान्तं विशेषणं तदा पूर्वेणैव पूर्वनिपातः सिध्यति यदा तु Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) विशेष्यत्वविवक्षा तदा-नेन पूर्वनिपातो भवति यदा तु द्वौ विशेषणौ तदोभयोविशेषणत्वेनाऽ विशेषेऽ-पि क्तान्तस्यानेन परत्वात् पूर्वनिपातो भवति । यथा कृतो भव्यः कटोऽ-नेनेत्यत्र कटे विशेषणद्वयं कृत इति क्तान्तं तदतिरिक्त भव्येति च तत्रोभयोविशेषणत्वेऽपि तान्तस्यानेन परत्वात् पूर्वनिपातो भवति । बहुवचनं व्याप्त्यर्थं तेन कृतप्रिय इत्यत्र परेणापि स्पर्द्ध क्तान्तस्यैव पूर्वनिपातः ।।१५१॥ जातिकालसुखादेर्नवा ।३।१।१५२॥ जातेः कालात सुखादिभ्यश्च बहुव्रीहौ क्तान्तं वा प्राक् स्यात् । शाङ्गरजग्धी । जग्धशाङ्गरा । मासजाता । जातमासा । सुखजाता । जातसुखा । दुःखहीना । हीनदुःखा ॥१५२॥ शाङ्गरं जग्धमनयेति शाङ्गरजग्धी, जग्धशाङ्गरा। शाङ्गरस्य वृक्षस्य : विकारः फलं 'दोरप्राणिनः' ।६।२॥४६॥ इति मयट् ‘फले' ।६।२।५८। इति लुप् 'यपि चादो जग्ध्' ।४।४।१६। इति जग्धादेशः अत्र कान्तस्य विशेषणत्वात्परनिपाते 'अनाच्छादजात्या०' ।२।४।४७। इति स्त्रियां ङ्यां शाङ्गरजग्धी यदा तु पूर्वनिपातस्तदा स्त्रियामपि जग्धशाङ्गरा फल-वाचकत्वादत्र शाङ्गरशब्दो जातिवाची । जातिविवक्षायां कृतः कटोऽ नेनेत्यत्र कटकृतः कृतकट: इति भवति-व्यक्तिविवक्षायां तु 'क्ताः ।३।१।१५१। इत्यस्यैव प्रवर्तनात् कृतकट इत्येव भवति । मासो जातोऽ-स्याः मासजाता • जातमासा जाताया मासो व्यतिक्रान्तः इत्यर्थः । अत्र कालो न जातिरिति 'अनाच्छाद०' ।२।४।४७। इति न डीः । सुखादयो दश 'सुखादेरनुभवे' ।३।४।३५। इति सूत्रे निर्दिष्टाः। सुखं जातमस्याः सुखजाता जातसुखा। दुःखं हीनमस्याः दुःखहीना, हीनदुःखा ॥१५२॥ आहिताग्न्यादिषु ।३।१।१५३। एषु बहुव्रीहिषु क्तान्तं वा प्राक् स्यात् । आहिताग्निः । अग्न्याहितः । जातदन्तः । दन्तजातः ॥१५३॥ यद्यप्याहिताग्यादिषु जातिवाचकैकपदक-बहुव्रीहयः-पठ्यन्ते तत्र च पूर्व Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) सूत्रैणेव विकल्पः सिद्धः तथापि व्यक्तिपरत्वविवक्षायां क्तान्तस्य नित्यं पूर्व - निपातं वारयितुं तेषां पाठ इति ज्ञ ेयम्। आहितोऽग्निर्येन स आहिताग्निः, अग्न्याहितः । आधानसंस्कारेण संस्कृतोऽग्निर्येनेत्यर्थः । तथा च नाग्नित्वेनाग्नेराधानं भवति किन्तु आहवनीयादितत्तद्व्यक्तित्वेनेति नात्र पूर्वसूत्रेण सिद्धिरिति विज्ञेयम् । जाता दन्ता अस्य जातदन्तः । बहुवचनमांकृतिगणार्थम् ॥१५३॥ प्रहरणात् । ३ । १ । १५४ ॥ प्रहरणार्थात् क्तान्तं बहुव्रीहौ वा प्राक् स्यात् । उद्यतासिः । अस्युद्यतः ॥ १५४॥ सूत्र प्रहरणशब्दो न स्वरूपपरोऽपि त्वर्थपरः, अर्थे च कार्यासम्भवात् तद्वाचिनि प्रत्यय इत्याह-प्रहरणार्थादिति । उद्यतोऽ - सिर-नेन उद्यतासि: अस्युद्यतः अत्र 'क्ताः' | ३|१| १५१ । इत्युद्यतस्य पूर्वनिपाते प्राप्तेऽसे: प्रहरणस्य वा पूर्वनिपातः । प्रह्रियतेऽनेनेति प्रहरणम् -तत्र येन प्रहारः क्रियते तादृशोऽस्यादिरपि प्रहरणार्थ, प्रहरणशब्दोऽपि प्रहरणसामान्यार्थः इति सामान्यविशेषयोरुभयोर्ग्रहणमिहाभिप्र ेतम् । तथा च कलितं प्रहरणमस्य कलित प्रहरणः प्रहरणकलितः इत्यपि द्रष्टव्यम् || १५४।। न सप्तमीन्द्रादिभ्यश्च | ३ | १|१५५ | इद्वादेः प्रहरणार्थाच्च प्राक् सप्तम्यन्तं बहुव्रीहौ न स्यात् इन्दुमौलिः । पद्मनाभः । असिपाणिः ॥ १५५ ॥ नत्र पादानाद् 'नवा' इति न संबध्यते । अयं भावः - नवा - शब्देन पूर्वव ✓ विकल्प उक्तः तेन च पूर्णविधि निषिध्य विकल्पो विधीयते इह च निषेधमावं न शब्देन प्रतीयते इति निषेधरूपविषयभेदात् प्रकरणभेदावगतौ पूर्व सूत्रसम्बन्धाभावबोधनात् 'न वा' इत्यस्य न सम्बन्ध इति इन्दुमौलौ यस्य इन्दुमौलिः । पद्मं ना भी अस्य पद्मनाभिः । असि: पाणा Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) - वस्य-असिपाणिः अत्र सर्वत्र उष्टमखादित्वादस्मादेव ज्ञापकाद् वा समासः । अत्र 'विशेषण०' ।३।१।१५०। इति विशेषणस्य मौल्यादेः प्राप्तः पूर्वनिपातोऽ नेन निषिथ्यते । अस्मादेव निषेधात् 'विशेषण.' ।३।१।१५०। इति सूत्रे विशेषणपदं समानाधिकरणब्यधिकरणोभयविधव्यावर्तकपरमिति ज्ञाप्यते । अत्र मौल्यादिः विशेषणम् इन्द्वादि च विशेष्यम् सप्तम्यर्थो हि सर्वदा स्वाधारस्य विशेषणत्वेनैव प्रतीयते । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ।।१५५।। गड्वादिभ्यः ।३।१।१५६॥ . . गड्वादिभ्यो बहुव्रीहौ सप्तम्यन्तं प्राक् वा स्यात् । कण्ठेगडुः । गडकण्ठः । मध्ये गुरुः । गुरुमध्यः ॥१५६॥ पृथग्योगारम्भात 'वा' इत्यनुवर्तते अन्यथा पूर्वसूत्र एव यड्वादिग्रहणे कृते पूर्वनिपातनिषेधः कृतः स्यात्, पृथग्योगान्निषेधसम्बन्धाभावः सूचितः । पूर्व-सूत्रे निषेधसामर्थ्याच्च वा इत्यनुवृत्त रभावः सूचितः निषेधसम्भवाभावे चेह तदनुवृत्तिः सिद्धा भवति तथा च निषेधविकल्पविधिविकल्पयोः फले भेदाभावेऽ पि विधिविकल्प एव स्वीकृतः । गडुर्मा सग्रन्थिः-गडुः कण्ठे यस्य-कण्ठेगडुः, गडुकण्ठः। अत्र अमर्धमस्त०' ।३।२।२२। इति सूत्रण सप्तम्या अलुप् । गुरुमध्ये यस्य-मध्येगुरुः, गुरुमध्यः । अत्र ‘मध्यान्ताद् गुरौं' ।३।२।२१। इति सूत्रेण सप्तम्याः अलुप् । अत्र सर्वत्रो-ष्ट्रमुखादित्वात् समासः एवं सप्तम्यन्तमितरस्य विशेषणमिति तस्य 'विशेषणसर्वा ।३।३।१५०। इति नित्यं पूर्वनिपाते प्राप्ते विकल्पेन पूर्वनिपातोऽ नेन विधीयते । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ॥१५६॥ प्रियः ।३।१।१५७। अयं बहुव्रीहौ प्राक् वा स्यात् । प्रियगुडः । गुडप्रियः ॥१७॥ सप्तमीति पदं निवृत्तं प्रथमान्तनिर्देशात् । प्रियो गुडोऽ स्य प्रियगुडः, गुड Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) प्रियः । प्रियः कः ? गुड इति प्रियस्य विशेष्यत्वे गुडो विशेषणमिति गुडस्यैव पूर्वनिपातः प्राप्तः, प्रियो गुडः इति गुडस्य विशष्यत्वे प्रियस्यैव पूर्वनिपातः प्राप्तः उभयत्रापि प्रियस्य विकल्पेन पूर्वनिपातोऽ नेन विधीयते ॥१५७॥ कडारादयः कर्मधारये ।३।१।१५८। एते कर्मधारये प्राक् वा स्युः । कडारजैमिनिः, जैमिनकडारः । काणद्रोणः । द्रोणकाणः ॥१५८॥ कडारशब्दो वर्णविशेषवाची, जैमिनिश्च ऋषिविशेषः । कडारश्चासौ, जैमिनिश्च कडारजैमिनिः, जैमिनिकडार: काणश्चासौ द्रोणश्च काणद्रोणः । कडारादीनां गुणवचनत्वा-द्विशेषणत्वात् विशेषणम्' ।३।१।६७। इत्यत्र प्रथमोक्तत्वात् नित्यं पूर्वनिपाते प्राप्ते विकल्पेन पूर्वनिपातोऽनेन विधीयते । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥१५६।। धर्मार्थादिषु द्वन्द्वे ॥३।१।१५६॥ एषु द्वन्द्व ष्वप्राप्तप्राक्त्वं वा प्राक् स्यात् । धायौं । अर्थधर्मों। शब्दार्थो । अर्थशब्दौ ॥१५६॥ . धर्मश्चार्थश्च धर्माथी अर्थधर्मों । शब्दाचर्थश्च-शब्दाथी, अर्थशब्दौ दन्त.. त्वादर्थशब्दस्य नित्यं पूर्वनिपाते प्राप्ते-ऽनेन विकल्पेन पूर्वनिपातो विधीयते। बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥१६॥ लघ्वक्षरासखीदुत्स्वराद्यदल्पस्वराय॑मेकम् ।३।१।१६०। लघ्वक्षरं सखिवजेंदुदन्तं स्वराद्यकारान्तमल्पस्वरं पूज्यवाचि चकं द्वन्द्वे प्राक् स्यात् । शरशीर्षम् । अग्नीषोमौ । वायुतो Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) यम् । असखीति किम् । सुतसखायौ। अस्त्रशस्त्रम् । प्लक्षन्यग्रोधौ । श्रद्धामेधे । लघ्वादिति किम् । कुक्कुटमयूरौ। मयूर-. कुक्कुटौ । एकमिति किम् । शङ्खदुन्दुभिवीणाः । द्वन्द्वइत्येव । विस्पष्टपटुः ॥१६॥ पृथग्योगाद् 'वा' इति निवृत्तम् । अयं भाव:-यदि विकल्प इहाप्यभिप्रेतः स्यात्तदा पूर्वसूत्रेण सहैवास्यापि सूत्रस्य पाठः कुर्याद् तथाऽकरणादत्रं विकल्पाभावः सूचितः । लध्वक्षर-करश्च शीर्षश्च करशीर्षम् 'प्राणितू०' ।३।१।१३७। इत्येकार्थत्वम् । अग्निश्च सोमश्च 'ई: षोमवरुणेऽग्ने.' ।३।२।४२। इतीकारस्य ईकारः। सूत्रे षोमेति निर्देशादी-कारसन्नियोगे षत्वं निपात्यते । वायुश्च तोय च वायुतोयम् अप्राणिजातित्वादेकत्वम् । अस्त्रं च शस्त्रं च अस्त्रशस्त्रम् । अत्र 'अप्राणि०' ।३।१।१३६। इत्येका-कार्थत्वम् । अस्त्रपदेन क्षेपणसाधनं धनुरादि सामान्येनाभिधीयते शस्त्र. : शब्देन च हिंसनसाधनमायुधमात्रमभिधीयत इत्यनयोः समानाथत्वाभावात् 'समानाम०' ।३।१।११८। इत्येकशेषो न भवति । अत्र स्वराद्यदन्तत्वादस्त्रशब्दस्य पूर्वनिपातः । प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च प्लक्षन्यग्रोधौअत्र प्लक्षस्य द्विस्वरत्वात न्यग्रोधस्य त्रिस्वरत्वादेतदपेक्षया प्लक्षस्याल्पस्वरत्वात्पूर्वनिपातः । श्रद्धा च मेधा च श्रद्धामेधे-अत्र श्रद्धामूलकत्वादभिप्रेतार्थसिद्ध: श्रद्धाया अर्यत्वेन मेधायाः पूर्व निपातः । सम्पबमोहनीयक्षयोपशममन्तरेण ज्ञानावरणीयक्षयोपशमोऽपि दुर्गतिप्रदः। सम्यक्त्वमोहनीयक्षयोपशमेन जिनोक्ततत्त्वेषु श्रद्धा जायते तथा चोक्तम् 'रुचिनिनोक्ततत्वेषु सम्यक् श्रद्धानमुच्यते । जायते तन्निसगैण गुरोरधिगमन वा ॥ इति । तदर्थस्तु-जिनोक्ततत्त्वेषु जीवादिषूक्तस्वरूपेषु या रुचिस्तत् श्रद्धानम् । ज्ञानं केवलंतुन रुचि विना फलसिद्ध रभावात्, शाकान्नपानादि-स्वरूपवेदिनाऽपि रुचि विना न सौहित्यलक्षणं फलमवाप्यते श्रुतज्ञानवतोऽप्यङ्गारमर्दकादेरभव्यस्य दूरभव्यस्य वा जिनोक्ततत्त्वेषु रुचिरहितस्य न विवक्षितं फलं Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) प्राप्तमिति श्रूयते । तस्य । चोत्पादे द्वयी गति:-निसर्गोऽधिगमश्च निसर्गो स्वभावः गुरुपदेशनिरपेक्षः-सम्यक श्रद्धानकारणमिति । कुक्कुटमयूरावित्यादि-एवत्सुत्रलक्ष्यातिरिक्तस्थले तु कामचारेणोभयोः पर्यायेण पूर्वप्रयोगः । अथ स्पर्द्ध परमेव भवती त किञ्चित्प्रकाश्यते--व्रीहिश्च यवश्च वीहियवावत्र लघ्वक्षरो यवः ब्रीहिः इदन्तः इति लघ्वक्षरापेक्षयेदन्तस्य सूत्रे परत्वात् बीहेरेव पूर्वनिपातः । एकवचनान्तेन विग्रहान्नात्र धान्यलक्षणमेकत्वम् ‘बहुत्व' इति वचनात् । असखीदुदैदित्यैकपद्यादिदुतोः स्पर्द्ध कामचारः पतिश्च वसुश्च पतिवसू वसुपती । अयं भावः असखीदुत्' इत्येक पदं न तु असखीदित्येकं पदम् ‘उत्' इति च भिन्नम् । तथा च सूत्रपाठेपरत्वव्यवस्था पदपाठनिबन्धनैवेति पदपूर्वापरीभावविरहान्न परत्वनिमित्तकः उदन्तस्य पूर्वनिपात-नियम इति तत्र कामचार एव भवति । उष्ट्रश्च खरश्च उष्ट्रखरमित्यत्रोष्ट्रशब्दस्य स्वराद्यन्तत्वं स्वरशब्दस्य लघ्वक्षरत्वमिति लघ्वक्षरापेक्षया स्वराद्यन्तस्य सूत्रपाठे परपठितत्वात्तस्यैव पूर्वनिपातः गवाश्वादित्वादेकार्थत्वम् । धवश्चाश्वकर्णश्च धनाश्वको एतन्नामको वृक्षो अत्र स्वराद्यन्तेन स्पर्द्ध:-तत्राल्पस्वरस्य सूत्रपाठे परत्वादल्पस्वरनिमित्तकः धवस्य पूर्वनिपातो भवति । दीक्षा च तपश्च दीक्षातपसी-अत्र तपसो लघ्वक्षरत्वेऽपि दीक्षाया बहूपकारकत्वान्मलभूतत्वाच्चार्चितत्वात् परत्वात्पूर्वनिपातः दधिपय-आदित्वाच्च नैकवद्भावः इति । ननु स्वभावत एकस्यैव पूर्वनपातो भविष्य-तीत्येकमिति व्यर्थमिति चेत्सत्यम् । युगपदनेकस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते एकस्यैव यथा-प्राप्तं पूर्वनिपातः शेषाणां तु कामचार इति प्रदर्शनार्थमेकग्रहणम् । तेन शङ्खश्च दुन्दुभिश्च वीणा च-शङ्खदुन्दुभिवीणाः शङ्खवीणादुन्दुभयः वीणादुन्दुभिशङ्खा वीणाशङ्खदुन्दुभय इति प्रयोगचतुष्टय भवति-अयं भाव:-अत्र शङ्खवीणाशब्दयोरल्पस्वरत्वम्-दुन्दुभेरसखीदन्तत्वमिति तदपेक्षयाऽल्पस्वरयोः शङ्खवीणा-शब्दयोरुभयोः पूर्वनिपातः स्पर्धे परत्वात् प्राप्तः तत्र यदा शङ्खशब्दस्य पूर्वनिपातः तदा वीणाशब्दे कामचारः इति शङ्खदुन्दुभिवीणाः, शङ्खवीणादुन्दुभयः इति प्रयोगद्वयम् यदा वीणाशब्दस्य पूर्वनिपातः तदा शङ्खशब्दे कामचारः इति 'वीणाशङ्खदुन्दुभयः, वीणादुन्दुभिशङ्खा इति Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) प्रयोगद्वयमेवं प्रयोग- चतुष्टयं भवति । एकग्रहणात् दुन्दुभिशङ्खवीणा इति तु न भवति । विस्पष्टपटुरिति - विस्पष्टं पदुरिति विग्रह: अत्र 'नाम नाम्ने० ' | ३|१| ३भ । इति सामान्यतः समासः 'मयूरव्यंसकेत्यादयः' । | ३|१|११६। इति तत्पुरुषसमासो वा ज्ञेयः । द्वन्द्वाभावादिहोकारान्तस्य पटुशब्दस्य पूर्वप्रयोगो न भवति ॥ १६० ॥ मासवर्णभ्रात्रऽनुपूर्वम् । ३।१।१६१। एतद्वाचि द्वन्द्वेऽनुपूर्व प्राक् स्यात् । फाल्गुनचेत्रौ । ब्राह्मणक्षत्रियौ । ब्राह्मणक्षत्रियवैश्याः । बलदेववासुदेवौ ।। १६१ ।। मासाश्च वर्णाश्च भ्रातरश्चेति समाहारे मासवर्णभ्रातृ पूर्वं पूर्वमनुसृत्यानुपूर्वम्, पूर्वमनतिक्रम्येतिवाड - व्ययीभावानां स्वपदविग्रहाभावात्, अनतिक्रमश्चानुसरणमेव । अनुपूर्वमिति मासेषु यो मासो यस्मात् पूर्वभावित्वेन प्रसिद्धस्तस्य पूर्व प्रयोगः एवं वर्णभ्रातृणामपि अनुग्रहणादेकमिति निवृत्तम् आनुपूर्व्यं पूर्वपश्चाद्भावस्वरूप क्रमवैशिष्ट्य ेन ज्ञानम् मासानां च तल्लोकप्रसिद्धमेव भ्रातोर्भ्रातॄणां वा क्रमवैशिष्ट्य तु प्रादुर्भावकालकृतं बोध्यम्, वर्णानां चानुपूव्यं लोकप्रसिद्धितो ज्ञेयम् । लोकप्रसिद्धिश्चेत्थम् - वर्णानां चानुपूर्व्यं तत्तज्जन्मस्थानकृतम् तथाहि मुखतो ब्राह्मणा जाता, बाहुभ्यां क्षत्रियाः स्मृताः । ऊरुभ्यां तु विशः प्रोक्ताः, पद्भ्यां शूद्रो-प्यजायत ॥ शब्दानुशासनस्य सर्वपार्षदत्वात् परसमयापेक्षयापि साध्यते इति । फाल्गुनचैवाविति - फाल्गुनश्च चैत्रश्चेति विग्रहः । ब्राह्मणक्षत्रियावितिब्राह्मणश्च क्षत्रियश्च अत्रोभयोः समस्वरत्वेनार्च्यत्वनिर्णयाच्चानिणये प्राप्तेऽनेनानुपूर्व पूर्वनिपातो भवति । ब्राह्मणक्षत्रियवैश्या इति ब्राह्मणश्च क्षत्रियश्च वैश्यश्चेति विग्रहः । अत्राल्पस्वरत्वेन पूर्वनिपाते प्राप्तेऽनेनानुपूर्व्यात् निपातः । बलदेव वासुदेवाविति - अर्च्यत्वं तु विवादास्पदं तत्तद्वि-शेषगुणापेक्षया च करुच्यधीनमिति तदनुसारिणी व्यवस्थेति प्रकृतसूत्र Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) प्रवृत्त्यैवेष्टसिद्धिः । अनुपूर्वग्रहणाद् यो ज्येष्ठभ्रातृवाची स पूर्व निपतति ॥१६१॥ भर्तु तुल्यस्वरम् ।३।१।१६२॥ नक्षत्रतुवाचि तुल्यस्वर द्वद्न्वेऽनुपूर्व प्राक् स्यात् । अश्विनीभरणीकृत्तिकाः । हेमन्तशिशिरवसन्ताः । तुल्यस्वरइति किम् । आर्द्रामृगशिरसी । ग्रीष्मवसन्तौ ॥१६२॥ अश्विनी च भरणी च कृत्तिका च अश्विनीभरणीकृत्तिकाः । अत्र सर्वेषां समस्वरत्वात् लघ्वक्षरादिसूत्राविषयत्वेनानियमप्राप्ती कृत्तिकादीनामनुपवं पूर्वनिपातः । अश्विनी-भरणी-कृत्तिका-मृगशिर-आ-पूनर्वसू०' इत्यादिनक्षत्रक्रमः । हेमन्त शिशिरवसन्ता इति-मार्गपोषौ हेमन्तः, माघफाल्गुनी शिशिरः, चैत्रवैशाखौ वसन्तः, ज्येष्ठाषाढी ग्रीष्मः, श्रावणभाद्रपदी प्रावृट, आश्विनकार्तिको शरदिति द्वौ द्वौ मासौ ऋतुः । हेमन्तशिशिरवसन्त-ग्रीष्म-प्रावृट-शरद्, इति ऋतूनां क्रमः। आर्द्रामृगशिरसीत्यादिअत्रााग्रीष्मयो-रल्पस्वरत्वात् पूर्वसूत्रेण पूर्वनिपातः ।।१६२।। संख्या समासे ।३।१।१६३। समासमात्र संख्यावाच्यनुपूर्व प्राक् स्यात् । दिवत्राः । दिवशती, • एकादशः ॥१६३॥ समासप्रकरणादेव समासे लब्धे पूर्वोक्तसूत्राणां बहुव्रीह्यादिसमासविशेषे पूर्वनिपातविधायकतयाऽस्य समाससामान्य एव प्रवृत्त्यर्थं समासग्रहणमिति तस्मात्समासमात्र इति लभ्यते इत्याह समासमात्रे इति । संख्यावाचिनां प्रायो बहुप्रीहिः समाहारद्विगुर्द्वन्द्वो वा भवति, तत्र 'सर्वा संख्या प्रथमोक्तां' इत्यनियमे आनुपूर्व्याः संख्यायाः पूर्वनिपातार्थं वचनम् । द्वौ वा त्यो वाद्वित्राः 'सुज्वार्थे संख्या०' ।३।१।१६। सूत्राद् विकल्पार्थे समासः, 'प्रमाणीसंख्याड ड:' ।७।३।१२८। सूत्रात्समासान्ते डे इकारलोपः । अत्रोभयोविशेष्य Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १४६ ) PRINTRINATHAARA HTTTTTTIROITTIHIT JSLILLNESH Thesh IPTI-ENT IIIMRUTTT.. . he . . . . T HAL विशेषण-भावा-भावा-नियमो न प्राप्तः, संख्यात्वमपि द्वयोरेवेति विशेपणसर्वादि०' ।३।११५०। इति न प्रवर्तते इत्यानपूादेव पूर्वनिपातः । द्वे शते समाहृते द्विशती । 'संख्या समाहारे० ।३।१।६६। सूत्रात् समाहारे द्विगुसमासः, अन पात्रादिवजिताददन्तोत्तरपदत्वात् स्त्रीत्वं डीश्च । एकश्च दश च=एकादश । 'चार्थे द्वन्द्वः०' ।३।१।१२१। सत्रात्समास:, 'एकादश०' ।३।२।११। सूत्रात्पूर्वपदस्य दीर्घत्वे 'एकादशन्' शब्दस्य प्रथमाबहुवचनस्य रूप-मिदम् । इह संख्यात्वेन लोकप्रसिद्धाया एव संख्याया ग्रहणं न तु संख्यासमुदायस्य तेन द्वौ वा त्रयो वा द्वित्राः । चत्वारश्च द्वित्राश्च चतुर्दिवत्रा इत्यत्र द्वित्रशब्दस्य न पूर्वप्रयोगः ।।१६३।।। __ "इति ततीयाध्याये प्रथमः पादः समाप्तः" . WHO RESOUBOUT कोई मर जाय तब आज के समयधर्मो कहते हैं कि-रोना, रोनाही आवे, रोना आवे ही! यानी रोये बिना कैसे चले? तब भगवान का-सर्वज्ञ का धर्म कहता है कि-'सब को मौत निश्चित है, श्रीतीर्य कर देव जैसे भी निर्वाण पाये, रोने से कोई वापिस नहीं आता, रोने से जाने वाला भी यदि वोसिरा कर न गया हो तो उसको भी पाप लगता है, इसीलिये रोना नहीं चाहिये । ज्यादा में प्रभुधर्म के ज्ञाता तो बहुत-बहुत समझाते हैं और कहते हैं कि 'टूटा हुआ आयुष्य जोड़ने की किसी की ताकत नहीं है। श्रीसुधर्मा इन्द्र ने एक क्षण मात्र आयुष्य बढाने का भगवान को कहा, परन्तु भगवान ने कहा कि 'बंधा हुए आयुष्य को घटाने या बढ़ानें को ताकत श्रीतीर्थकरों में भी नहीं है, तो मरने वाले आत्मा के आप हितैषी हो तो शेला छोड़ दो, मरने घाले को जिन्दगी तक तो पाप कराया, उसकी आय ( इन कम) आप सब खा गये और अब तक तो तुम्हारे हित के मार्ग में उसको जोड़ा। तो अब भी यदि तुम उसका भला चाहते हो तो रोना छोड़ दो, तुम रोओगे उसका पाप उसको लगेगा, क्योंकि वह वोसिरा कर नहीं गया, परन्तु 'ओ बापा !! ऐसा पुकार करते हुए गया है। प०पू० कलिकाल-कल्पतरु आचार्यदेव श्री विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा . .... . .. TOT HD . . RERA-NAMAHAIRMONEERINARMADAMIRROEMBAIRIREMIRMALAImmunMAIADMAAS NIRL NESIRENTIRANILARENMARTENANTRIEETTTTTTTTTOHTTTTT MITTERTAINMaxMANNER.NIHERAPT ITLNIRNORFTTTTER 11TH TITT1111111TTTTTTTTTTTIRPATIEWSTTTTTTTTTTIFFEREmmuTRITIMETig Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ सावद्य प्रवृत्ति कभी साधु करता नहीं, कराता नहीं और अनुमोदन भी नहीं करता । एक जैनाचार्य ने पारसीओं की, एवं दूसरों की कालोनीयां देखी। मुझे जैनों की कालोनीयां बनानी है, जैन भोजनशाला, जैन हास्पिटल बनानी है, तो उन्होंने क्या-क्या किया उसका वर्णन नहीं हो सकता । पागल मत बनो । सुरत में भगवान् महावीर के नाम की हास्पिटल बनाई गई । उस समय उसके उद्घाटन के लिये मोरारजी भाई आये थे । उन्होंने टकोर की कि • ऐसी हिंसक हास्पिटल भगवान के नाम से बनाई नहीं आ सकती, किसी अखबार वाले ने इस बात के अंशमात्र भी छापा नही । परम पूज्य अनेकान्ता -भासतिमिरतरणि वयाख्यान - वाचस्पति आचार्यदेव श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महारजा Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ तृतीयाध्याये द्वितीय पादः ॥ परस्पराऽन्योन्येतरेतरस्याम् स्यादेव पुंसि | ३ |२| १| एषामपु' वृत्तीनां स्यादेशम् वा स्यात् । इमे सख्यौ कुले वा परस्परां परस्परं अन्योन्यां अन्योन्यं इतरेतरं भोजयतः । आभिः सखीभिः कुलैर्वा परस्परां परस्परेण, अन्योन्याम् अन्योन्येन, इतरेतरां इतरेतरेण भोज्यते । अपुं सीति किम् । इमे नराः परस्परं भोजयन्ति ॥ १ ॥ परस्परश्चान्योज्यश्वेतरेतरश्चेति समाहारात्षष्ठी, अन्योन्येतरेतरशब्दयोद्वन्द्वं विधाय वा परस्परशब्देन द्वन्द्वस्तेनान्योऽन्यशब्दस्य स्वराद्यन्तत्वादल्पस्वरत्वाच्च परस्परशब्दात्पूर्वं प्रयोग इत्याशङ्कापि नैव कर्तव्या भवति । पूर्वमन्योन्यशब्दस्य इतरेतरशब्देन द्वन्द्व े परस्परशब्दस्यै वाल्पस्वरत्वम् । परस्परादयस्त्रयोपि स्वभावत एकत्वचनाः, पुंस्त्ववृत्तयः क्रियाव्यतिहारविषयाश्च । पुंस्त्वात् 'पञ्चतोऽ०' 19|४|५८ ॥ सूत्रं न प्रवर्तते । परस्याः परस्याः विनिमयः परस्परः अस्मादेव निर्देशात् परान्येतरशब्दानां सर्वनाम्नां द्वित्वं निपात्यते । परस्परो भुङ्क्ते, भुञ्जानं तं सख्यौ कुले वा प्रयुञ्जाते 'गतिबोधा' | २२|५| सुत्रेणाणिक्कतु : परस्परस्य कर्मत्वम्, अनेन आम्, पक्षे परस्परमेवमग्रे ऽपि । अत्र करणे सहार्थे वा यदा तृतीया तदा भोज्यते इति रूपं भवति तद् आभिः सखीभिरित्यनेन दर्शितम् । अत्र करणे सहार्थे वा यदा तृतीया यदेकोणिग्, यथा भुङ्क्ते जनस्तं भुञ्जानं सख्यः प्रयुञ्जते इति णिग्, केन सह केन कृत्वा वेति शङ्कायां परस्परेण । यदा तु कर्तरि तृतीया तदा णिग् द्वयं यथा भुङ्क्ते जनस्तं भुञ्जानं परस्पर: प्रयुङ्क्ते इत्येको णिग, तं परस्परं भोजयन्तं सख्यः प्रयुञ्जतं इति द्वितीया णिग्, ततः कर्तरि तृतीया । यदा तु प्रथम - कवचनस्याम्भावः तदामभावपक्षे परस्परो भोज्यत इत्यादि द्रष्टव्यम् । यत्र तु पुल्लिङ्गस्तदाम् नेत्याह इमे नरा इति ||१|| Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) अमव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्याः ।३।२।। अदन्तस्याव्ययीभावस्य स्यादेरम् स्यात्। नतु पञ्चम्याः। उपकुम्भमस्ति । उपकुम्भं देहि । अव्ययीभावस्येति किम् । प्रियोपकुम्भोऽयम् । अत इति किम् । अधिस्त्रि । अपञ्चम्या इति किम् । उपकुम्मात् ॥२॥ उपकुम्भमस्तीति-कुम्भस्य समीपमुपकुम्भम् । कुम्भसामीप्ययुतं यत्किञ्चि-दस्तीति अत्र प्रयमैकवचनस्य सेरमादेशः। उपकुम्भं देहीति-कुम्भसमीपयुताय देहीत्यर्थः । प्रियोपकुम्भोऽयमिति-प्रियमुपकुम्भं यस्य स-नात्र स्यादिरुपकुम्भसंबंन्धी अपि तु प्रियोपकुम्भसंबन्धीति न भवति ॥२॥ वा तृतीयायाः ।३।२।३। अवन्तस्याव्ययीभावस्य तृतीयाया अम् वा स्यात् । किन्न उपकुम्भम् । किन्न उपकुम्भेन । अव्ययीभावस्येति किम् । प्रियोपकम्भेन ॥३॥ किं न उपकुम्भमिति-नः उपकुम्भेन किं साध्यं ? किमपि न साध्यमित्यर्थः ।साधनाक्रियां प्रति उपकुम्भस्य करणत्वेन करणे तृतीयैषा तस्याश्च विकल्पेनांमावेशः। अमव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्याः'।३।२।३। इत्यस्यापवादोऽयम् एव-मुत्तरसूत्रमपि ॥३॥ सप्तम्या वा ।३।२।४। अवन्तस्याव्ययीभावस्य सप्तम्या अम्बा स्यात् । उपकुम्भम् । उपकुम्भे निधेहि । अव्ययीभावस्येत्येव । प्रियोपकुम्भे ॥४॥ उपकुम्भमिति-कुम्भसमीपे निधेहीत्यर्थः तृतीयासप्तम्योर्वा' इत्येकयोगे कर्तव्ये उत्तरार्थः योगविभागः कृतः । उत्तरसूत्रे केवलं सप्तम्याः सम्बन्धः Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) स्यादित्येतदर्थ पृथक्सूत्रकरणमिति भावः अन्यथा एकयोगनिदिष्टानां सह वा प्रवृत्तिः सह वा निवृत्तिः' इति न्यायेन तृतीयासप्तम्योरुभयोरेव तत्र . सम्बन्धः स्यात्, स चानिष्ट: ॥४॥ ऋद्धनदीवंश्यस्य ।३।। एतदन्तस्याव्ययीभावस्यादन्तस्य सप्तम्या अम् नित्यं स्यात् । सुमगधम् । उन्मत्तगङ्गम् । एकविंशतिभारद्वाजं वसति ॥५॥ ऋद्धसमृद्धम्, मगधामा समृद्धिः । सुमगधं वसति'विभक्तिसमीप०१३।१।३६ : इत्यव्ययीभाव: उन्मत्ता गङ्गा यस्मिन्नन्मत्तगण देशे वसति, देशविशेषस्य संज्ञेयम् 'नदीभिर्नाम्नि' ।३।१२।२७। इत्यव्ययीभावः । एक-विंशतिर्भारद्वाजा बंश्या:-एकविंशतिर्भारद्वाज वसति भरद्वाजशब्दस्य बिदादी पाठः ततश्चापत्यार्थे विहितस्यात्रः यात्रोऽश्या:०' ।६।१।१२६।इति बहुत्वे लुप् स्यादिति 'एकविंशति: भरद्वाजा' इति विग्रहो युक्तः तथापि 'एकविंशतिर्भारद्वाजा वंश्या; इत्याचार्यवचमप्रामाण्याद् भरद्वाजशब्दस्योपकादिषु पाठं परिकल्प्य लुपो वैकल्पिकत्वमेष्टव्यम् । यद्वा नायमा किन्तु अस्येदमिति विवक्षायामण् । पूर्वेण विकल्पः सिद्धः किन्तु नित्यार्थ वचनम् ॥५॥ अनतो लुप् ॥३॥९॥६॥ अवन्तवर्जस्याव्ययीभावस्य स्यालुप् स्यात् । उपवधु, उपकर्तृ । अनत इति किम् । उपकुम्भात् । अव्ययीमावस्येत्येव । प्रियोपवधुः । ॥६॥ वध्वाः समीपम् उपवधु । कतु: समीपम् उपकर्तुं । पियमुपवधु यस्य स प्रियोपवधुरिति-वधूसामीप्याभिलाषीत्यर्थः ॥६॥ अव्ययस्य ।३।२७। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) 1 अव्ययस्य स्यादेर्लु' प् । स्वः । प्रातः । अव्ययस्येति किम् । अत्युसः ||७|| १० अत्युच्चैस इति- उच्चैरतिक्रान्ता इत्यर्थः तथा चात्रातिक्रमणकर्तुः प्राधायेन पूर्वपदार्थ प्रधानस्य समासस्य संबन्धी स्यादिनच्च::- शब्दस्य तेनात्र • लुब न भवति । परमोच्चैरित्यादौ तूत्तरपदार्थप्रधानत्वात्समासस्याव्ययसम्बन्ध्येव स्यादिरिति लुब्भवत्येव । अत एव लुब्बिधानादव्ययेभ्यः स्यादयोऽनुमीयन्ते ततश्च 'अथो स्वस्ते गृहम् अथोच्चे में गृहम्' इत्यादी 'सपू'वत्प्रिथमान्ताद् वो' | २|१|३२| इति विकल्पेन 'ते मे' आदेशी पदसंज्ञा च सिध्यति ||७|| ऐका | ३|| ऐका मेकप तन्निमित्तस्य स्यादेर्लुप् स्यात् । चित्रगुः । पुत्री - यति । औपगवः । अतएव लुब्विधानान्नाम नाम्नेत्युक्तावपि स्याद्यन्तानां समासः स्यात् । ऐकार्थ्य इति किम् । चित्रा गावो यस्येत्यादिवाक्ये माभूत् ॥८॥ ऐकार्थ्यमिति - एकोऽर्थो ययोर्येषां वा तानि - एकार्थानि तेषां भावः ऐका - मिति व्युत्पत्ती सत्यामपि पृथक्पदानामथै- क्यस्यासंभव एव पर्यायस्थलेऽपि यथाकथञ्चिदर्थं भेदसत्त्वात् । तथा चात्र पृथगुपस्थितार्थानां पदानां वृत्तिवशादेको स्थितिजनकत्वरूप एकार्थीभाव एवाभिधीयते इति । तन्निमित्तस्येति - ' यस्मिन् सति यद् भवति तत्तस्य निमित्तम्' इति सामान्यग्याप्त्या यस्मिन् स्यादौ सति यत्र समुदाये ऐकपद्यमुत्पद्यते स स्यादि - स्तन्निमित्तमिति-ऐकपद्यपूर्व विद्यमानस्य स्यादेर्लु बिति भावः । ऐकपद्य च चतुर्षु भवति समासे नामधातुषु कृदन्ते तद्धितान्ते च । चित्रा गावो यस्य इति म चित्रगुः । पुत्रमिच्छति पुत्त्रीयति । उपगोरपत्यं औपगवः । ' ऐका' इतिनिमित्तसप्तमीविज्ञानादैकार्य्योत्तरकालस्य न भवति - चित्रगुः। ' ऐका' इत्यत्र 'क्त' त' | २|२| १०० । इति सप्तमी । अत्र सहकारित्वरूपं निमित्तम् ततश्चैकार्थ्योत्पत्तिपूर्वकाल - स्थितस्यैव स्यादेरनेन लुप तदुत्तर Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) कालोत्पन्नस्य तु न तन्निमित्तत्वम् कार्यनियतपूर्ववृत्तेरेव कारणत्वात् तदुत्तरकारलोत्पन्नस्य तु तत्कार्यत्वमेव ||८|| न नाम्येकस्वरात् खित्युत्तरपदेऽमः | ३ |२| दी समासारम्भकमन्त्यं पदमुत्तरपदं खित्-प्रत्ययान्ते उत्तरपदे परे नाम्यन्तादेकस्वरात्पूर्वपदात्परस्यामो लुब् न स्यात् । स्त्रियंमन्यः । नावंमन्यः । नामीति किम् । क्ष्मंमन्यः । एकस्वरादिति किम् । वधुं मन्यः । खितीति किम् । स्त्रीमानी ॥ ॥ स्त्रीं स्त्रियं वाऽत्मानं मन्यते स्त्रोंमन्यः । नावमात्मानं मन्यते नावंमन्यः । 'कर्तुः खश्' | २|१|११७ | इत्यनेन खश् 'दिवादेः श्यः | ३ | ४ |७२ | इति । श्यः क्ष्मंमन्य इति 'खित्यनव्यया-रुषो मोऽन्तो ह्रस्वश्च' । ३।२।११।। इति । स्त्रीमानीति - ' मन्याण्णिन्' | ५|१|११६ | इति णिन् । 'ऐका' |३२|| इति विहितस्य लुपोऽपवादः ॥ ६॥ असत्त्वे इसे: । ३1२1१०1 असत्त्वे विहितस्य ङसेरुत्तरपदे परे लुब् न स्यात् । स्तोकान्मुक्तः । असस्वइति किम् । स्तोकभयम् । उत्तरपदत्येव । निः स्तोकः ॥१०॥ स्तोकान्मुक्त इति - स्तोकाल्प ० | २|२| ७६ | इति सूत्रेण पञ्चमी 'क्त' नासत्त्वे' | ३|१|७४ | इति समासः । स्तोका व्यमिति द्रव्यादित्यर्थः । निष्कान्तः स्तोकातु - निः - स्तोकः ॥ १०॥ ब्राह्मणाच्छंसी | ३ ||११| Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) अत्रसमासे उसेलुबभावो निपात्यते। ब्राह्मणाच्छंसिनौ । निपातनादृत्विग्विशेषादन्यत्र लुबेव । ब्राह्मणशंसिनी स्त्री ॥११॥ यद्यप्ये कलक्ष्य मात्रविषयत्वात् सूत्रस्य निपातनपरत्वं तथापि प्रकरणपरिशुद्धयर्थं विधेयांशमाह-ङसेलुं बभाव इति । ब्राह्मणाद् ग्रन्थादादाय शंसतःब्राह्मणाच्छंसिनी । अत्र कुसलात्पचतीति-वद् उपात्तविषयमपादानम् । अयं भावः कुसूलादुद्ध त्य तण्डुलं पचतीति उपात्ता समीपोच्चारिता क्रियैव विषयो यस्य तथाभतम्, उद्ध त्येति क्रियानिरूपितमेवेत्यर्थः तथाऽ त्रापि आदायेति क्रियानिरूपितमपादानम् यस्मादादानं भवति तत्तस्यापादानं विश्लेषस्य सत्त्वात् । अत्र यदा उद्ध त्यादायशब्दो प्रज्युज्यते तदा केवले स्वार्थे विक्लेदने शंसने च पचिशंसी वर्तते । उद्धरति आददाति इति. क्रियापेक्षया तू निर्दिष्टविषयमपादानम् ग्रामादागच्छतीतिवत् । वेदोक्तानां मन्त्राणां कर्मसु विनियोगप्रतिपादक: कर्मस्वरूपबोधकश्च वेदभागो ब्राह्मणमित्याख्यायते अत्र ग्रन्थविशेषपर एव ब्राह्मणशब्दः । . तस्माद् ग्रन्थात् कमपि विषयमादाय यः शं-सति स ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विग्विशेषः, तस्य तादृशं व्रतं यज्ञकाले श्रुतमिति 'व्रताभीक्ष्ण्ये' ।५।१।१५७। इति णिन् । ब्राह्मणशसिनी स्त्रीति-निपातनेन तस्य लक्ष्यस्येष्ट-विषयत्वं विज्ञायते तस्मात् ऋत्विग्विशेषादन्यत्र लबेव, स्त्रिया ऋत्विकर्मानहत्वमिति तादृग्विशषाभावबोधनायैव स्त्रीलिङ्गप्रयोगः, पुंस्यपि तदविषये लब भवत्येव ॥११॥ ओजोऽञ्जःसहोऽम्भस्तमस्तपसष्ट: ।३।२।१२। एभ्यः परस्य टावचनस्योत्तरपदे परे लुब् न स्यात् । ओजसाकृतम् । अञ्जसाकृतम् । सहसाकृतम् । अम्भसाकृतम् । तमसाकृतम् । तपसाकृतम् । टइति किम् ? ओजो-भाव ॥१२॥ ओजः-आन्तरं बलम्, अञ्जः-सौकर्यम्, सहः सहनसामर्थ्यं बलम्, अम्भस्तमस्-तपांसि एषां कर्तृत्वविवक्षायां करणत्वविवक्षायां वा तृतीया, कर्तरि षष्ठी तु न ‘क्तयोरसदा' ।२।२।६१। इति निषेधात् । 'कारकं कृता' ।३।१६८। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) इति समासे सति 'ऐकायें' ।३।२।। इति लोपे प्राप्ते तस्याऽ नेन निषेधः । ॥१२॥ पुञ्जनुषोऽनुजान्धे ।३।२।१३॥ पुञ्जनुभ्ा परस्य टो यथासंख्यमनुजेऽन्धे चोत्तरपदे लुब् न स्यात् । साऽनुजः । जनुषाऽन्धः । टइत्येव ? पुमनुजा ॥१३॥ पुसा अनुजः पुसानुजः करणे व तृतीया-योऽसौ पुमान् पूर्व जातस्तेनैवानुजत्वं कृतमिति तात्पर्यात् । जनुषा जन्मनाऽ न्धः जनुषान्धः यः जन्मनैव दृक्शक्तिहीन एवमुच्यते । पुमनुजेति-पुमांसमनुजाता पुमनुजा 'श्लिषशी ।५।१६। इति कर्तरि क्तः । 'श्रितादिभिः' ।३।१।६२। इति समासः ‘अनोजनेड:' ।५।१।१६८। इति डः ॥१३॥ आत्मनः पूरणे ।३।२।१४। अस्मात्परस्य टः पूरणप्रत्ययान्त उत्तरपदे लुब् न स्यात् । आत्मनाद्वितीयः, आत्मनाषष्ठः ॥१४॥ आत्मना द्वितीय इति-अत्र गम्यमान-करोतिक्रियापेक्षमात्मनः करणत्वमिति करणे तृतीया आत्मना कृतो दिवतीय इत्यर्थावगमात् । 'ऊनार्थपूर्वाद्य: ।३।१।६७॥ इति पूर्वादित्वात्समासः । अथवा 'प्रकृत्या चार' इतिवत् 'यद्भदैस्तद्वदारव्या' ।।२।४६॥ इत्यभेदे तृतीया ॥१४॥ मनसश्चाज्ञायिनि ।३।२।१५॥ मनसः आत्मनश्च परस्य ट आज्ञायिन्युत्तरपदे लुब् न स्यात् । मनसाज्ञायी । आत्मनाज्ञायी ॥१५॥ भनसाऽऽज्ञातु शीलमस्य मनसाऽऽ ज्ञायी, मनसेवाज्ञापयति न तु वचः Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) प्रयुक्त सोऽनेन शब्देन नाभिधीयते ' - अजातेः शीले' | ५|१| १५४ | इति णिन् । एवमात्मनाऽज्ञायी । ननु मनसाऽऽज्ञायीत्यत्र लुप्यनिषिद्ध ेऽपि सकारस्याss कारेण योगात् मनसाऽऽज्ञायीति रूपं सेत्स्यतीति किं निषेधेनेति चेत्सत्यम् लुप्यनिषिद्ध े तु लुपि सति प्रत्ययलक्षणेन पूर्वस्य पदत्वात् पदान्तस्य सस्य रुत्वे 'रोय':' ||३| २६ | इति यत्वे यलोपे च मनआज्ञायीत्य - निष्टं रूपं स्यात् ॥१५॥ नाम्नि | ३|२|१६| मनसः परस्य टः संज्ञाविषये उत्तरपदे परे लुब् न स्यात् । मनसादेवी | नाम्नीति किम् । मनोदत्ता कन्या ॥ १६ ॥ योगविभागात् आज्ञायिनीति न सम्बन्ध्यते ' चानुकृष्ट' नानुवर्तते इति न्यायादात्मशब्दोऽपि न सम्बध्यते । मनसादेवीति - मनसा दीव्यादित्याशास्यमानेऽर्थे ' तिक्कृतौ नाम्नि' | ५|१|७१ ॥ इति सूत्र - सहकारेण लिहादित्वादचि देवशब्दस्तत गौरादित्वान्ङीः कारकं कृता' | ३|१|६८ | इति समासः एवं-नामा काचित् । 'मनोदत्ता कन्येति- मनसैव कस्मैचन वराय दत्ता न तु वाचा तद्दानं प्रकाशितमिति तदभिप्रायः । नं चेदं नाम, अपि तु यौगिक: शब्द: विशेषणार्थं प्रयुज्यत इति लुब्निषेधो न भवति ||१६|| परात्मभ्यां ङः | ३ |२|१७| आभ्यां परस्य वचनस्योत्तरपदे परे नाम्नि लुब् न स्यात् । परस्मैपदम् । आत्मनेपदम् । नाम्नीत्येव ? परहितम् ॥ १७॥ परस्मैपदमित्यादि- 'तादर्थ्ये' | २|२|५४ | इति चतुर्थी, 'हितादिभिः | ३ | १|७१ | इति सूत्रेण समासः । कथं परहितो नाम कश्चिद् ? इयमाधुनिकसंज्ञा । अत्र सूत्रे आधुनिकसंज्ञाया न ग्रहणम् तस्या ग्रहणेऽनवस्थास्यात् Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) पुरुषेच्छाया अनियतत्वेन आनन्त्यापत्तेः। परस्मै-पदमात्मनेपदे तु न आधुनिकसंज्ञे । 'परस्मैभाषा, आत्मनेभाषाः' इति धातुपाठादी प्रयुज्यमानावप्यनेनैव सिद्धौ ॥१७॥ अद्वयञ्जनात्सप्तम्या बहुलम् ।३।२।१८। अदन्ताद्वयञ्जनान्ताच्च परस्याः सप्तम्या बहुलं नाम्नि लुब्न स्यात् । अरण्येतिलकाः । युधिष्ठिरः। अद्वयञ्जनादिति किम् ।। भूमिपाशः । नाम्नीत्येव । तीर्थकाकः ॥१८॥ अरण्येतिलकाः इति-विग्रहवाक्यमपीदृशमेव, संज्ञात्वान्नित्यसमासः 'नाम्नि' ।३।१।६४। इति सूत्रेण । युधिष्ठिर इति–'गवियुधेः स्थिरस्य' ।२।३।२५॥ इति षत्त्वम् । तिष्ठतेः 'शुषीषि०' ।४।१।६। इति किति इरे स्थिरः। अत्रोभयत्र नित्यमेव । बहुलफलं तु क्वचित्प्रवृत्तिरित्यादि । तीर्थकाक इति- तीर्थे काक इवेति विग्रहः 'काकाद्यैः क्षेपे' ।३।१६०। इति समासः ॥१८॥ प्राक्कारस्य व्यञ्जने ।३।२।१६। राजलभ्यो रक्षानिर्देशः कारः प्राचां देशे यः कारः तस्य संज्ञायां गम्यमानयामद्वयञ्जनात्परस्याः सप्तम्या व्यञ्जनादावुत्तरपदे लुब् न स्यात् । मुकुटेकार्षापणः । समिधिमाषकः । प्रागिति किम् । यूथपशुः । उदीचामयं न प्राचाम् । कारइति किम् । अभ्यहितपशुः । व्यञ्जनइति किम् । अविकटोरणः ॥१६॥ राजा राष्ट्र रक्षति राज्ञा रक्षिते च राष्ट्र कृषिवाणिज्यादयः समुचित- . रूपेण संभवन्ति राजा च न स्वशरीरमात्रेण सर्व राष्ट्र पालयित क्षम इति तत्पालनाय रक्षाधिकृतपुरुषा नियुज्यन्ते ते च सवेतना भवन्ति Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) तदुपकरणान्यपि मूल्यलभ्यानीति तदर्थे राजा प्रजाभ्यः तत्र तत्रायस्थानेषु करं गृह्णाति स एव करः स्वार्थिकाण-प्रत्ययसम्बन्धेन कारोऽभिधीयते । रक्षानिवेश इति-निर्वेशः वेतनमिति यावत् । स न सर्वदेशेष्वेकरूपः क्वचित् कस्मिंश्चिदायस्थाने षष्ठभागरूपः क्वचिन्यूनः क्वचिच्चान्यप्रकार एवेत्यनेकरूपो भवति तत्र प्राचां देशे यः कारस्तत्रेदं सूत्रं प्रवर्तते । मुकुटे-मुकुटे कार्षापणो देयः मुकुटेकार्षापणः मुकटे मुकुटे-प्रतिमुकुटमित्यर्थः मुकुटनिर्माणे तस्य विक्रयतया निर्मात्रा विक्रेत्रा वा कार्षापणो रुप्यकचतुर्थांशो राजलभ्यद्रव्यरूपेण देय इति बोध्यम् । समिधि समिधि माषको देयः समिधिमाषक: ज्वालनकाष्ठविक्रेत्रा माषको देयः इति बोध्यम् । माषपरिमितो मृद्रा-विशेषो माषकः वृत्तौ वीप्साया दानस्य चान्तर्भावः । यूथे यूथे देयः पशुः यूथपशुः । अभ्यहिते अभ्यहिते देयः पशुः अभ्यहितपशः प्राचां देशे कारादन्यस्य नामैतत् । अविकटे अविकट उरणो देयः अविकटोरणः-अविः मेषः अवीनां संघात इति 'अवेः सङ्घातविस्तारे कटपटम्' ।७।१।१३२। इति कटप्रत्ययः उरणो मेष: अविसङ्घातपालकेन प्रतिसंघातमेक उरण काररूपेण इतिभावः । पूर्वसूत्रेणानिष्ट-स्थलव्यावृत्तिसिद्धाविष्टस्थले च तेनैवालुपः सिद्धौ सूत्रं व्यर्थं भवन्नियमयति । त्रिविधश्चात्र नियमः प्राचामेव कारस्यैव नाम्नि, व्यञ्जनादावेवेति तथा च प्रत्युदाहृतम् । अयं भावः-(१) व्यञ्जनादावुत्तरपदे नाम्नि सप्तम्या अलुप् चेत् प्राचामेव (२) व्यञ्जनादावुत्तरपदे नाम्नि सप्तम्या अलुप् चेत् प्राक्कारस्यैव (३) प्राचां कारस्य नाम्नि उत्तरपदे सप्तम्या अलुप चेत् व्यञ्जनादावेवोत्तरपद इति ।।११६।। .. तत्पुरुषे कृति ॥३॥२॥२०॥ अद्वपञ्जनात्परस्याः सप्तम्याः कृदन्ते तत्पुरुषे लुब् न स्यात् । स्तम्बेरमः। भस्मनिहुतम् । तत्पुरुषइति किम् ? धन्वकारकः । अद्वचजनादित्येव । कुरुचरः ॥२०॥ तत्पुरुषग्रहणात्पृथक्सूत्रारम्भाच्च नाम्नीति निवृत्तम् अयं भावः नाम्नि प्रायेण तत्पुरुषसमास एवेति तत्पुरुषग्रहणातु नाम्नीत्य-स्यासम्बन्धः सूचितः किञ्च 'अयञ्जनाद्' ।३।२।१८। इत्यनेनैव सिद्ध पृथक्सूत्रारम्भातु Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) नाम्नीत्यस्यासंबन्धः सूचितः। स्तम्बे रमते स्तम्बेरमः-'शोकापनुद०' .. ।५।१।१४३॥ इति कप्रत्ययान्तनिपातनम् । भस्मनि-हुतमिति-भस्मनि ... हुतमिवेत्यर्थः यथा भस्मनि हुतं न फलाय कल्पते तथोपमेय-कार्य निष्फलमित्यर्थः । धन्वनि मरुदेशे कारकाः यस्य स-धन्वकारकः । 'न सप्तमी० ॥३।१।१५५। इति ज्ञापकादुष्ट्रमुखादित्वाद्वा समासः । कुरुषु । चरतीति-कुरुचर: 'चरेष्ट: ।५।१।१३३) इति टप्रत्ययः-अत्रोदन्तात्परा सप्तमीति तस्या लुपो न निषेधः । बहुलमत्रानुवर्तते ॥२०॥ मध्यान्ताद् गुरौ ।३।२।२१॥ आभ्यां परस्याः सप्तम्या गुरावुत्तरपदे लुब् न स्यात् । मध्येगुरुः । अन्तेगुरुः ॥२१॥ गुरावित्युक्तत्वात् 'कृति' इत्यस्य न सम्बन्धः पृथग्योगाच्च 'तत्पुरुषे' इत्यस्यापि न संबन्धः तेन सामान्यतः उत्तरपदे निषेधोऽ-यम् तेन बहुव्रीहावपि निषेधो भवति-मध्ये गुरुय॑स्येत्यादि । अत्र सप्तम्या अलुब्विधानसामदेिव तत्पुरुषः, 'सप्तमी शौण्डाद्य:' ।३।१०८। इति सत्रस्थबहुवचनाद्वा । अत्रापि बहुलमित्यस्य सम्बन्धाद् मध्यगुरु; अन्तगुरुरित्यन्ये । लक्षणानां लक्ष्यानुसारित्वात्सति तादृशप्रयोगे तदपि स्वीकार्यमिति भावः ॥२१॥ अमूर्द्धमस्तकात्स्वाङ्गादकामे ।३।२॥२२॥ मूर्ख मस्तकवर्जात्स्वाङ्गवाचिनोऽव्यञ्जनात्परस्याः कामवर्जे उत्तरपदे लुब् न स्यात् । कण्ठेकालः । अमूद्ध मस्तकादिति किम् ? मू शिखः, मस्तकशिखः । अकामइति किम् । मुखकामः ॥२२॥ मूर्धमस्तकयोः समानार्थत्वे ऽपि 'समानाम०।३।१।११८। इति नैकशेष: शब्दस्वरूपपरत्वेनार्थ-भेदात् । स्वाङ्गमिह 'अविकारो द्रवमित्यादि परि Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) . भाषितं ग्राह्यम् । कण्ठे कालोऽ स्य कण्ठेकालः उष्ट्रमुखादित्वात्समासः । मूनि शिखाऽस्य मस्तके शिखाऽस्य मूर्द्ध शिख:, मस्तकशिख: । मुखे कामो यस्थ मुखकामः क्लीब एवमुच्यते तस्य मुख एव कामजव्यवहारस्य कामशास्त्र पठितत्वात् । विशेषणतयाऽ-पीदं प्रयुज्यते यः किल स्वकामं वक्तय व न तत्पूरणाय प्रयस्यति स एवं विशिष्यते ॥२२॥ बन्धे घजि नवा ।३।२।२३॥ बन्धे घबन्ते उत्तरपदे अद्व्यंजनात्परस्याः सप्तम्या लुब् वा न स्यात् । हस्तेबन्धः। हस्तबन्धः। चक्रेबन्धः । चकबन्ध । घनीति किम् । अजन्ते हस्तबन्धः ॥२३॥ हस्ते बन्धो, हस्ते बन्धोऽस्येनि वा हस्तेबन्ध:, हस्तबन्धः । 'व्यञ्जनाद् पत्र ।५।३।१३२। इति सूत्रेण करणे घन 'भावाकोंः ।५।३।१८। इति सूत्रेण वा । हस्तबन्ध इति-बध्नातीति 'अच' ।।१।४६। इत्यच् । पूर्वसूत्राद् 'स्वाङ्गाद्' इति नानुवर्तते तेंन स्वाङ्गास्वाङ्गाच्चायं विकल्पः । अनुवर्तने तू 'चक्र बन्ध चक्रबन्ध, इति न स्यात्।।२३।। कालात्तनतरतमकाले ।३।२।२४। अव्यञ्जनान्तात्कालवाचिनः परस्याः सप्तम्यास्तनादिप्रत्ययेषु काले चोत्तरपदे वा लुब् न स्यात्। पूर्वाह णेतनः। पूर्वाह णेतनः । पूर्वाहणेतराम् । पूर्वाह्नतरे। पूर्वाह णेतमाम् ।पूर्वाह णेतमे। पूर्वाहणेकाले । पूर्वाह्नकाले । कालादिति किम् । शुक्लतरे । शुक्लतमे । अद्वयञ्जनादित्येव । रात्रितरायाम् ।।२४।। सूत्रे प्रथमः कालशब्दोऽर्थप्रधानःद्वितीयःशब्दप्रधानस्तत्र चाचार्याणांव्याख्यानमेव मूलम् । ननूत्तरस्य कालशब्दस्य ग्रहणार्थंकालनामग्रहणं कर्तव्यमिति Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १६० ) चेत्सत्यम् तन-तर-तमानां साहचर्यात्परस्य कालशब्दस्यस्वरूपरत्वे निर्णीते पूर्वोत्तरोभयपदत्वं कालशब्दस्य न दृष्टमिति न्यायत एव पूर्वस्य कालशब्दस्यार्थपरत्वं विज्ञास्थत इति बुद्धया कालनामग्रहणं न कृतमिति वृत्तिकृत् स्पष्टयति-कालवाचिन इति । अह्नः पूर्वो भागःपाङ्गः, सर्वांश०' ७।३।११८। इत्यनेनाट अह्नः इत्यादेशश्च 'अतोऽह्नस्य' ।२।३।७३। इत्यनेन णत्वम् । पूर्वाह णे भव:-'पर्वाह्णापराह्णात् तनट' ।६।३८ । इति तनट । द्वयोरतिशयेन पूर्वाह्न इति पूर्वाह णेतराम् पूर्वाह्नतरे'द्वयोविभज्ये चतरप्' . . ।७।३।६। इति तरप् ततश्च सप्तभ्या अलुप्-पक्षे सप्तम्यर्थस्योक्तत्वात् समुदायात् प्रथमैव भवति । लुप्पो तु सप्तम्यर्थस्य प्रतिपत्त्यर्थं समुदायात्सप्तमी प्रयुज्यते । एवं बहूनां मध्ये प्रकृष्टे पूर्वाह णेतमाम् पूर्वह णेतमे 'प्रकृष्टेतमप्' ।७।३।५। इति तमप्, शेष पर्ववत् । द्वयोर्बहूनां वा मध्ये प्रकृष्टे शुक्ले शुक्ल-तरे शुक्लतमे । दृयोः प्रकृष्टायां रात्री रात्रितरायाम् । तनोतेस्तरतेस्ताम्यतेश्चाचि प्रत्यये तनतरतमशब्दा अपि सिध्यन्ति किन्तु 'प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव' इति न्यायादत्रं प्रत्ययस्यैव ग्रहणम् । नवाऽखित्कृदन्ते राने' ।३।२।११६। इत्यत्रान्तग्रहणम् ‘उत्तरपदाधिकारे प्रत्ययमात्रस्य ग्रहणं न तदन्तस्य' इति न्यायांशं ज्ञापयति तेनात्र तन-तर-तम प्रत्ययानां स्वरूपेणैव ग्रहणं भवति न तु 'प्रत्ययग्रहणे तदन्तस्य ग्रहणम् इति न्यायात्तनाद्यन्तानाम् । न चैवं 'न नाम्येक०' ।३।२।६। इत्यत्र 'तत्पुरुष कृति' ।३।२।२०। इत्यादौ च तदन्तग्रहणाभावे कथं तत्र तत्र तदन्तार्थलाभ इति वाच्यम् एतादृशेषु खिन्मात्रस्य कृन्मात्रस्य वोत्तरपदत्वाभावेन सूत्रवैयर्थ्यसंभावनया तदन्तग्रहणस्यावश्यकत्वाल्लक्ष्यानुरोधाल प्रकृतनिपमाप्रवृत्तेः, एवं च प्रकृतनियमे सति संभवे इति योजनीयमिति फलति । ॥२४॥ शयवासिवासेष्वकालात् ॥३॥२॥ १५॥ मकालवाचिनोऽव्यञ्जनात्परस्याः सप्तम्या एकूत्तरपदेषु लुब वा न स्यात् । बिलेशयः । बिलशयः । वनेवासी। वनवासी। प्रामेवासः । ग्रामवासः । अकालादिति किम् । पूर्वाणशयः । ॥२५॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) बिले शेते इति बिलेशयः - आधा रात्' | ५|१|१३७ | इति सूत्र ेण अप्रत्ययः । बिलेशयः सर्पः । यद्यपि मूषकादिरपि तथाभूतस्तथापि सर्पे एवास्य प्राचुर्येण प्रयोगः । वने वसतीत्येवं शीलः वनेवासी 'अजाते: शीले' | ५ | १|१५४ । इति णिन् । वसनं वासः । पूर्वाह णशय:, इति पूर्वाह णशेते इति पूर्वाह, शयः । बहुलाधिकारात् मनसिशयः कुशेशयमिति नित्यं लुबभावः । मनसिशयः इति कामपर्यायः । कुशे जले शेते इति व्युत्पत्त्या कुशेशयमिति कमलस्य नाम । अनयोः सञ्ज्ञाभङ्गभिया नित्यमेव सप्तम्या अलुप् ||२५|| वर्षक्षरवराप्सरः- शरोरोमनसो जे | ३ | २|२६| एभ्यः परस्याः सप्तम्या जे उत्तरपदे लुब् वा न स्थात् । वर्षेजः । वर्षजः । क्षरेजः । क्षरजः । वरेजः । वरजः । अप्सुजम् । सरसिजम् । सरोजम् । शरेजम् । शरजम् । उरसिजः । उरोजः । मनसिजः । मनोजः ॥ २६ ॥ वर्षण वर्षः, क्षरतीति क्षरो मेघो जलं च, त्रियत इति वर श्रेष्ठः, अप्शब्दो जलवाची, सरो जलाशय विशेोषः शृणाति हिनस्तीति शरो बाणस्तृणविशेषश्च, उरो वक्षस्थलम्, मनो मननक्रियमन्तः कर्णम् । वर्षे जातः वर्षेजः इत्यादि एवं सर्वत्र । 'सप्तम्याः | ५|१|१६|| इति भूतार्थे ड: । 'ङस्युक्त' कृता' | ३|१|४६ | इति समासः ||२६|| प्रावृवर्षाशरत्कालात् ॥ ३ ॥२॥२७॥ एभ्यः परस्याः सप्तम्या जे उत्तरपदे लुब् न स्यात् । दिविजः । प्रावृषिजः । वर्षासुजः । शरदिजः । कालेजः ॥ २७॥ पूर्वसूत्रेण सहयोगा करणाद-वेति निवृत्तम् द्यौराकाशः प्रावृडवर्षाशब्दो शरतुवाचकः । सप्तमीति सामान्येनोच्चारणाद् बहुवचनस्यापि लुपो निषेधात् । वर्षासुजः इति ऋतुवाचकः वर्षाशब्दः सदा बहुवचन एवं प्रयुज्यते ॥२७॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) अपो ययोनिमतिचरे ।३।२।२८। अपः परस्याः सप्तम्या ये प्रत्यये योन्यादौ च उत्तरपदे लुब न स्यात् । अप्सव्यः । अप्सुयोनिः । अप्सुमतिः । अप्सुचरः ॥२८॥ आसु भावः अप्सव्य, 'दिगादित्वाद् ‘दिगादिदेहांशाद्यः' ।६।३।१२४। इत्यनेन यप्रत्ययः ‘अस्वम्भुवोऽव्' ।७।४।७०। इत्यनेनोकारस्य 'अव्' आदेशः। अप्सु योनि उत्पत्तिर्यस्य स अप्सुयोनिः उष्ट्रमुखादित्वाद् ज्ञापकाद् वा समासः ॥२८॥ नेसिद्धस्थे ।३।२।६। इन्प्रत्ययान्ते सिद्धस्थयोश्चोत्तरपदयोनं लुब् न स्यात् । भवत्येवेत्यर्थः । स्थण्डिलवतॊ । साङ्काश्यसिद्धः । समस्थः ॥२६॥ इन्प्रत्ययान्त इति-यद्यपि संशोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं न तदन्तस्य' इति ज्ञापकसिद्धन्यायादवेन्ग्रहणे तदन्तग्रहणं न स्यातथापि केवलस्येन्प्रत्ययस्य सप्तम्यन्तेन सह संबन्धो न संभवति इत्यसं. भवादेवेहाप्यन्तग्रहणम्, तथाहि-इन्प्रत्ययो द्विविध: कृत् तद्धितश्च तत्र कृद् इन्प्रत्ययः धातोविधीयते इति सप्तम्यन्तात्परत्वासंभवः । तद्धित इन्प्रत्यय प्रथमान्ताद्विधीयत इति तत्रापि सप्तम्यन्तापरत्वासंभवः एव । भवत्येवे त्यर्थः इति-अथ नमोनमस्ते सततं नमो नमः इत्यादौ नमः-शब्दादीनामसकृत्प्रयोगे स्वार्थद्रढनमेव दृश्यते तथाऽत्रापि स्वार्थद्रढनं किं न स्यादिति चेतु सत्यम् 'द्वौ नत्रौ प्रकृतम) बोधयत' इति न्यायादन निषेधस्य निषेध इति प्रतीतो लुपो विधानमित्यायाति । यद्यपि चात्रलुपः स्वरूपेण कथनमेव युज्यते तथापि भङ्गयन्तरेण प्रतिपादनादत्र दाद मायाति। स्थण्डिलवर्तीति Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) स्वण्डिले वर्तते इति विग्रहः 'व्रताभीक्ष्ण्ये' ५११५४॥ इति णिन्प्रत्ययः । सांकाश्ये सिद्धः-सांकाश्यसिद्धः। 'सुपन्थ्यादेयः' ।६।२।८४। इति ज्यः। समे तिष्ठतीति-समस्थः । 'स्थापास्नात्र: कः ।५।१।१४२। इति कः । सर्वत्र 'तत्पुरुषे कृति' ।३।२।२०। इत्यलुप् प्राप्तः सोऽनेन निषिध्यते । अथ तत्पुरुषे कृति' ।३।२।२०। इत्यत्र बहुलग्रहणात् कुत्रचित्विकल्पः, कुत्रचित् नित्यम् कुत्रचित् निषेधः इति सर्व सेत्स्यतीति सूत्रपञ्चकं व्यर्थमिति चेत्सत्यम् ‘शयवासि०' ।३।२।२५। वर्ष-क्षर-वरा.' ।३।२।२६।इतिच सूत्राभ्यां विकल्पेनालुविधानं नित्यमेवा लुप् प्रकृतसूत्रेण च निषेध:एतत्सर्वं तत्पुरुषे कृति'।३।२।२०।इति सूत्रस्यैव प्रपञ्च इति । ते वैः विधयः सुसंगृहीता भवन्ति येषां लक्षणं प्रप्रञ्चश्चेति । अयामाशयः 'तत्पुरुषे कृति' ।३।२।२०। इति सूत्रविधेयस्यैवार्थस्य मन्दशिष्यबुद्धिबोधाय प्रपञ्चनं विस्तरेणाख्यानमिति यावत् । ते वै विधयः सुसंगृहीता भवन्ति येषां लक्षणं प्रपञ्चश्च' अयं न्यायानुसारी वाग्विशेषः। वैशब्दो हेत्वर्थक. यतः-येषां विधीनों लक्षणं-संक्षिप्य कथ्यते, प्रपञ्चो विस्तरेणाख्यानं च क्रियते ते विधयः सुसंगृहीता-शोभनप्रकरणे शिष्यैर्शाता भवन्ति, केवलसंक्षेपाख्यानेन न सर्वेषां बोद्धणां हृदयङ्गमो विधिर्भवति प्रपञ्चरूपेणाख्यानमप्यावश्यकमिति ज्ञेयम् ॥२६।। षष्ठयाः क्षेपे ।३।२॥३०॥ उत्तरपदे . परे क्षेपे गम्ये षष्ठया लुब् न स्यात् । चौरस्यकुलम् ॥३०॥ क्षिप्यते प्रतिष्ठायाः प्रच्याव्यतेऽ-नेनेति क्षेपो निन्दा, निन्दया जनः क्षिप्यते-लोकप्रतिष्ठया प्रच्युतो भवति, अथवा प्रतिष्ठाया एव प्रच्यावनं क्षेप: । चौरस्य कुलमिति-चौरसम्बन्धात् कुले निन्दितत्वं प्रतीयते । ननु चौरकुलमित्यपि प्रयोगो दृश्यते स कथमिति-चेत्सत्यम् Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) तत्त्वाख्यानमेतन्न तु क्षेपः । तत्त्वं यथार्थस्थितिः तस्याख्यानं कथनमेतत् न निन्दायां तात्पर्यम् । अयं भावः-यश्चौरत्वेन ख्यात एव, तस्य कुलम् । न तत्सम्बन्धान्निन्दित-त्वमपि तु वस्तुस्थितिरेव तादृशीति न क्षेपः ॥३०॥ पुत्र बा ३२॥३१॥ पुत्र उत्तरपदे क्षेपे षष्ठ्या लुब् वा न स्यात् । दास्याः पुत्रः । दासीपुत्रः ॥३१॥ दास्याः पुत्र:-दासीपुत्रः-दासस्य नायं पुत्रोऽ-पि तु दास्याः, तथा नानुचितस्वामिसम्बन्धजातत्वं तस्य प्रतीयत इति क्षेपः । पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पः । ॥३१॥ पश्यद्वाग्दिशो हरयुक्तिदण्ड ।३।२॥३२॥ एभ्यः परस्याः षष्ठ्या यथासंख्यं हरादावुत्तरपदे लुब् न स्यात् । पश्यतोहरः । वाचोयुक्तिः । दिशोदण्डः ॥३२॥ पश्यतोहर इति-स्वर्णकार एतेन शब्देन ख्यातः । स' हि पश्यत एव लोकस्याभूषणादिनिर्माणकर्मणि सुवर्णादिकं धाष्टयन हरति, अल्पमूल्यं द्रव्यान्तरं तत्र क्षिप्त्वा बहुमूल्यं द्रव्य सुवर्णादिकं चोरयतीति प्रसिद्धः, अत्र बहूनामपि पश्यतां हरणे पश्यतो-हरः इत्येव प्रयोगोऽ भिधानसामर्थ्यात् । यत्र च बहुत्वं विवक्षितं तत्र समास एव न भवतीत्यपि शब्दशक्तिमनुरुध्य कथयितुं शक्यते इत्यपि केचित् । पश्यन्तं जनमनादत्य-नाय ज्ञात शक्नोति, ज्ञात्वाऽ पि न तत्प्रमाणयितु शक्नोतीत्यादि बुद्धया स हरतीति 'षष्ठी वाऽ नादरे' ।२।२।१०८ इत्यनादरे षष्ठी, तस्याः समासः । पश्यन्तं जनमित्यत्र जनमिति सामान्यवाचिशब्दप्रयोगः निर्मीयमाणभूषणस्वामिनमन्य वोदासीनजनं पश्यन्तमनादृत्य हर्तेत्यर्थलाभः । अय शब्दः स्वर्णकारे प्रायः प्रयुज्यते । अन्ये त्वतिचतुरचोरेऽ प्ययप्रयोग इत्याहुः । वाचोयुक्तिः इति-विषयविषयिभावरूप-सम्बन्धे षष्ठी । वाग्विषय सयुक्ति Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) प्रतिपादन मिति तदर्थः, अथ च वाचा करणभतया सयुक्तिप्रतिपादनं वाचः स्पष्टत्वमिति वाऽर्थः । दिशोदण्ड इति तात्स्थ्यरूपसम्बन्धे षष्ठी ॥३२।। - अदसोऽकगायनणोः ।३।२॥३३॥ अदसः परस्या: षष्ठया अका-विषये उत्तरपदे आयनणि च परे लुब् न स्यात् । आमुष्यपुत्रिका । आमुष्यायण ॥३३॥ अका आयनण् द्वौ प्रत्ययौ 'संज्ञो-त्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्य व ग्रहणं न तदन्तस्य' इति न्यायस्यांश: 'न वा खित्कृदन्ते रात्र: ।३।२।११७। इत्यत्रान्तग्रहणेन ज्ञापितः परन्तु यत्र संभवस्तत्र प्रत्ययमात्रस्य व ग्रहणं यत्र न संभवस्तत्र प्रत्ययान्तस्येति व्यवस्था पूर्वमुक्ता, अत्र चाका विषयेऽ संभवोऽस्ति नह्यदसः परस्या षष्ठ्या अकत्र -परत्वसंभवः अदसोऽ-कविधानाभावात् चोरादित्वाद्धयकत्र विधीयते चौरादि-गणे नादसः पाठोऽ पि.तु अमुष्यपुत्रशब्दस्य व तथा चाका -प्रत्ययान्तमप्युत्तरपदं न संभवति केवलपुत्रशब्दादकत्रो. विधानाभावात् । एवं च प्रत्ययमानस्य प्रत्ययान्तस्य चोभयोरसंभवात् विषयपरतया सप्तमी व्याचष्टे-अकत्रविषये उत्तरपदे इति । यद्यप्युत्तरपदमात्रस्य नाकविषयत्वमपि तु समुदायस्य व तथापि समदायद्वाराऽ-वयवेऽपि तद्विषयताऽ क्षतैवेति मत्वा 'अकत्र विषये उत्तरपदे' इति व्याख्यानं कृतम् । आयनणस्तु केवलस्यापि षष्ठयन्ताददसः परत्वसंभवादत्रा तस्य स्वरूपस्य व ग्रहणं कर्तव्यम्-तदन्तस्योत्तरपदस्य तु नास्त्यत्रापि संभवोऽदस एव तद्विधानादिति स्वरूपमात्रस्य व ग्रहणमित्याह-आयनणि च पर इति । अमष्य पुत्रस्य भाव:- आमुपुत्रस्य भावः आमुष्यपुत्रिका। चौरादित्वात् 'चौरादेः' ।७।१।७३। इत्यनेकत्र । न च चौरादिगणे अमुष्यपत्रशब्दस्य पाठसामर्थ्यादेव षष्ठया अलुब भविष्यति, गणापाठ - स्यपरम्पराप्राप्तत्वेन प्रामाणिकत्वस्य प्रयोग- . साधुत्वनिर्णायकत्वस्य च सर्वैरपि स्वीक्रियमाणत्वात् एवं च सूत्रण तद्विधानं व्यर्थमिति बाच्यं गणे पाठस्य केवलमकञ्विषये एव साधुत्व. मित्येतावन्मात्रार्थसाधकत्वमित्ये-तत्सूत्रोण बोध्यते तदर्थमेव च पुनरलुपो विधानमिति न तद्व-यर्थमन्यथा अमष्यपत्रशब्द: व्यस्तः समस्यश्च प्रयुज्येत, अमुष्यपुत्रस्यापत्यमामुष्यपुत्रिः ततोऽ पि प्रत्ययान्तरमित्यधि Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) नेकानिष्टं स्यादिति । अमुष्यापत्यम्-आमुष्यायण: 'नडादिभ्यः आयनण्' ।६।१।५३। इत्यनेनायनण् । यद्यपि नडादिगणेऽ-मुष्यशब्दपाठेन षष्ठ्या अलुप साधयितु शक्यते तथापि तथापाठस्य अमुयोरपत्यममीषामपत्यमित्याद्यर्थे आयनणोऽ भावार्थ-त्वस्य कल्पनात् न षष्ठयलुप्साधक-त्वम् इति न तेनैतत्सूत्रस्यानर्थक्यशङ्का कर्तव्या ॥३४॥ देवानां-प्रियः ।३।२।३४॥ अत्र षष्ठया लुब् न स्यात् । देवानांप्रियः ॥३४॥ . देवानां प्रियः-अयं मूर्खे दृश्यते । निपातनमिदम् । ते-नार्थ-विशेषविषयता लभ्यते ॥३४॥ शेपपुच्छलाङ्गुलेषु नाम्नि शुनः ।३।२।३५, शुनः परस्याः षष्ठयाः शेपादावुत्तरपदे संज्ञायां लुब् न स्यात् । शुन-शेपः । शुन: पुच्छः । शुनोलाङ्लगूकः ॥३५॥ शुनः शेपमिव शेपमस्य-शुनः-शेपं:, शुनः पुच्छमिव पुच्छमस्य शुनः-पुच्छ:, शुनो लागूलमिव लाङ्गलमस्य शुनोलाङ्गलः । शेपः-शब्दः सकारान्तोऽप्यस्ति, इह त्व-कारान्तस्य ग्रहणम् तथैव सूत्रे पाठात् तथा च सकारान्ते परे लुबेव भवति । शेपशब्दो यद्यपि पुस्येवानुशिष्टस्तथापि बृहद्वृत्तावस्य नपुंसकत्वेन विग्रहवाक्ये निर्देशात् नपुंसकत्वमपि विज्ञेयम् । शेपशब्द: पुलिङ्गस्य मेढस्य वाचकः'शुनः-शेपादयस्त्रयोऽपि ऋषिविशेषाणां नामानि, अन्ये तु 'सिहस्य शेपं, सिंहस्य पुच्छं, सिहस्य लाङ्ग्लम्, इत्यत्रापीच्छन्ति तन्मतसंग्रहार्थं बहुवचनं कृतमर्थात् समाहारं विहायेतरेतरयोगस्य ग्रहणम्, कृतम् अनाम्न्यपि विध्यथं वा सिंहस्य शेपमित्यादीनां व्यस्तानामपि प्रयोगे फले भेदाभावेन समस्ता एवैते शब्दा इत्यत्र विनिग-मकाभावेन तेषामसंग्रहेऽपि दोषाभाव इत्यरुचिसूचकस्तुशब्द: पूर्वपक्षेऽ- रचेद्वितीयपक्षाश्रयणम् अयमाशयः-बहुवचनस्य व्याप्त्यर्थत्वसंभवेऽपि यत्र बहुवचनं तद्वंशे एव व्याप्तिः स्यादिति शपादिभ्योऽन्यत्राऽप्युत्तरपदे तत्प्रवृत्तिः स्यात् न तु Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) शुन्यस्य पूर्वपदस्य ग्रहणं स्यात्, शेपादिभ्योऽन्यत्र चोत्तरपदे प्रवृत्तिरनिष्टेति बहुवचनसार्थक्याय नामभिन्नेऽपि विषये सूत्रस्य प्रवृत्तिरित्येव कल्पनं वरमिति ॥ ३५ ॥ वाचस्पतिवास्तोष्पतिदिवस्पतिदिवोदासम् | ३|२|३६| एते समासाः षष्ठचलुपि निपात्यन्ते नाम्नि । वाचस्पतिः । वास्तोष्पतिः । दिवस्पतिः । दिवोदासः || ३६ | पृथक् पूर्वोत्तरपदयोनिर्देशेन निपात्यन्त इति लभ्यते । वाचस्पतिरितिबृहस्पतेर्नामेदम्, वास्तोष्पतिरिति - इन्द्रस्य वास्तुभूमिसाक्षिणो देवस्य च नामेदम् । दिवस्पतिरिन्द्रः । दिवोदासः - पुराणप्रसिद्धो राजा स च चन्द्रवंशीयः काशिराजः । वाचस्पति: दिवस्पतिरित्यत्र 'भ्रातुष्पुत्रकस्कादयः' | २|३| १४ | इति सूत्रेण कस्कादित्वाद रस्य सत्त्वम् । वास्तोष्पति - रित्यत्र भ्रातुष्पुत्त्रादित्वात् रस्य षंकारः । यद्यपि भ्रातुष्पुत्रादिगणे कस्कादिगणे चैषां पाठो न दृश्यते तथापि तत्र सूत्रे बहुवचनोपादानात्सिद्धिः । यद्वानिपातनेन सकार-षकारौ||३६|| ऋतां विद्यायोनिसम्बन्ध | ३ | २|३७| ऋदन्तानां विद्यया योन्या वा कृते सम्बन्धे हेतौ सति प्रवृत्तानां षष्ठयास्तत्रैव हेतौ सति प्रवृत्ते उत्तरपदे लुब् न स्यात् । होतुःपुत्रः । पितुः पुत्रः । पितुरन्तेवासी । ऋतामिति किम्। आचार्यपुत्रः । विद्यायोनिसम्बन्ध इति किम् ? भर्तृगृहम् ॥३७॥ अत्र विद्यायोन्योद्वन्द्व योनिशब्दस्येदन्तत्वेन तस्यैव पूर्वनिपाते प्राप्ते विद्याकृतस्य सम्बन्धस्य योनिसम्बन्धापेक्षयार्यत्वेन विद्याया एव पूर्वनिपातः । बहुधा हि शास्त्रे योनिवंशापेक्षया विद्यावंशस्य प्राबल्यं दृश्यते इति विद्याया अर्चत्वं निविवादम् । एवं च तदर्थं निर्देशसामर्थ्य - धर्मार्था - दित्वकल्पनादिक नावश्यकमिति भावः । विद्यायोनिसम्बन्धे इति पदं Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) काकाक्षिगोलकन्यायादावृत्त्या वा द्विधा सम्बन्ध्यते-'ऋताम्' इत्यनेन उत्तरपदे इत्यनेन च। पित्रादिशब्दानां योनिसम्बन्धस्य प्रवृत्तिनिमित्तत्वम् । होत्रादिशब्दानां विद्यासम्बन्धस्य प्रवृत्तिनिमित्तन्वम् नच 'ऋत' इति जातिवाच्येकवचनान्तेनैव बहनामृदन्तानां सम्भवे सम्भवति बहुवचनं व्यर्थमिति वाच्यं वहवचनस्य 'बिद्यासम्बन्धनिमित्ते योनिसम्बन्धनिमित्ते' इति यथासङ्ख्यप्रतिपत्तेव्युदासार्थत्वात् । अयं भावः यदि यथासङ्खयप्रतिपत्तेव्युदासो न भवेत्तहि--विद्यासम्बन्धनिमित्ते वर्तमानस्य सम्बन्धिन्याः षष्ठया विद्यासम्बन्धनिमित्त एवोत्तरपदे अलुप् स्यात्, 'योनिसम्बन्धनिमित्ते. वर्तमानस्य सम्बन्धिन्याः षष्ठयाश्च योनिसम्बन्धनिमित्त एवोत्तरपदे अलुप स्यादिति होतुः पुत्रः, पितुरन्तेवासी इत्यादावलुप् न स्यात् । 'ऋद्भयः इति पञ्चम्यन्तेन निर्देशे प्राप्ते षष्ठीनिर्देशः उतरार्थः' 'आ द्वन्द्वे' ।३।२।३९। इति सूत्रे मृतामिति षष्ठ्यन्तस्यैव सम्बन्धस्य युक्तत्वात् षष्ठीनिर्देश कृत इत्यर्थः । अयं भावः सूत्रे विभक्त : प्रकृत्या सह सम्बन्धमात्रप्रतिपादनेनापि लक्ष्यसिद्धौ बाधकाभावात् लाघवानुरोधात षष्ठीनिर्देश एव कृत 'ऋयः' इति कृते तु 'आ द्वन्द्व' ।३।२।३९। इत्यत्र तत्सम्बन्धासंभव आदेशविधौ स्थानार्थिकायाः षष्ठया एवोचितत्वात् तथा चोभयसूत्रसम्बन्धार्हेण षष्ठयन्तेनैव सम्बन्ध उचित इति । भर्तृ गृहमिति-भर्तृ शब्दोऽ त्राधिपवाचकः । पूर्वपदविशेषणस्य फलं तु भर्तृ शिष्यः,भर्तृ पुत्र इत्यादौ द्रष्टत्यम् । अत्र भर्तृ शब्दोऽधिपवाचक: यदा तु वल्लभवाची तदा भर्तु : शिष्य इति भवति । उत्तरपदविशेषणम्य फलं तु होतृधनम्, पितृगृहमित्यादौ द्रष्टव्यम् ।।३७॥ स्वसृपत्योर्वा ॥३॥२॥३८॥ विद्यायोनिस बन्धनिमित्तानामृदन्तानां षष्ठयाः स्वसृपत्योरुत्तरपदयोर्योंनिसम्बन्धनिमित्तयोलुब् वा न स्यात् । होतुः-स्वसा। होतृस्वसा । स्वसुः-पतिः। स्वसपतिः । विद्यायोनिसम्वन्धइत्येव । भर्तृस्वसा । होतृपतिः ॥३८॥ योनिसम्बन्धनिमित्तयोरिति-विद्यासम्बन्धांशः स्वसृपत्योर्न सम्बध्यतेऽसंभवात् तथा च योनिसम्बन्धांशमात्र तत्र संवध्यते । ननु स्वसुर्योनि Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९ । सम्बन्धस्याव्यभिचारात्तत्र न तत्सम्बन्धो युक्तः, पत्या सहापि न लत्सम्बन्धसंभवः, योनिसम्बन्धे सति पतिपत्नीभावस्यैवासंभवात् । योनिसम्बन्धी हि जन्मना सम्बन्धः, जनाना च सम्बन्धे सति पतिपत्नीभावस्य निन्दितत्वमेवेति सर्वथाऽत्र उत्तरपदांशे 'विद्यायोनिसम्बन्ध' इति पदस्यासम्बन्ध एव युक्तः इति चेत्सत्यम् उत्तरपदेन तत्सम्बन्धस्य पूर्वसूत्रे स्वीकृतत्वेनात्रापि यावदंशे तत्सम्बन्धे कृते क्षत्यभावः इत्याशयेन वृत्ती तत्सम्बन्धः कृतः, पत्या सह पूर्व योनिसम्बन्धाभावेऽपि पूत्रादिद्वारा तत्सम्बन्धस्य भावित्वादस्त्येव संभव इत्याशयेन तत्सम्बन्धः कृतः । सो स्वसृपत्योरिति द्वन्द्व पतिशब्दस्येकारान्तत्वेन तस्यैव पूर्वनिपाते प्राप्ते धर्मार्थादित्वात् स्वसुरिह पूर्वनिपातः । स्वसुः मातृपितृसम्बन्धविशिष्टाया बुद्धिविषयत्वात् तस्याश्च लोकव्यवहारदृष्ट्या पत्युरपेक्षया अर्च्यत्वाद्वा स्वसृशब्दस्यैव पूर्वनिपात । भत स्वसेति-अत्र पूर्वपदं न विद्यायोनिसम्बन्धे यो ह्यस्या भर्ता.तस्येयं स्वसेति प्रतीते: स्वसुर्योनिसम्बन्धसत्त्वेऽपि भर्तृ शब्दस्य भरणकर्तृत्व-- पालकत्व)-रूपार्थनि-मित्तकस्य विद्यायोनिसम्बन्धनिमित्तकत्वाभावात् । होतृपतिरिति-अत्रोत्तरपदं न योनिसम्बन्ध, पतिशब्दो ह्यत्र स्वामिवाचकः । पूर्वेण नित्यं प्रतिषेधे प्राप्ते विकल्पोऽयम् ॥३॥ आ द्वन्द्व ।३।२।३६। विद्यायोनिसम्बन्धनिमित्तानामृदन्तानां योद्वन्द्वस्तस्मिन् सत्युत्तरपदे पूर्वपदस्याऽऽत्स्यात् । होतापोतारौ । मातापितरौ । ऋतामित्येव । गुरुशिष्यौ । विद्यायोनिसम्बन्धइत्येव । कर्तृकारयितारौ ॥३६॥ होतापोतार।विति-होता हवनकर्ता, पोता-पुनातीति पावनकर्ता ऋत्विग्विशेष:, उणादिषु निपातनादिड-भाव: । अथ होतृपोतृनेष्टोद्गातारः' इह प्रथमयोः कस्मान्न भवति ? इति चेत्-सत्यम् अन्त्यस्यैवोत्तरपदत्वान्न भवति । अयं भावः-उत्तरपदशब्दः समासचरमावयव-भते पदे रूढः, उत्तरपदत्वस्य च पूर्वत्र सति यस्मात्परं नास्तितत्त्वमेव प्रवृत्तिनिमित्तत्वम्, Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) न तु समासाद्यावयवभूतपदात्परत्वमिति वृत्ती पूर्वपदस्येति कथनमपि उत्तरपदाव्यवहित-पूर्वपदपरम् न तु सभासाद्यावयवरूढपूर्वपदपरम् । अथ क्वचित्त्रयाणामपि पदानामात्वं दृश्यते यथा-होतापोतानेष्टोद्गातारः तत्कथमिति चेत्सत्यम् द्वयोद्वं योः द्वन्द्वेः भविष्यति । अयमर्थः-पूर्व होता च पोताच होतापोतारौ । नेष्टा च उद्गाता च नेष्टोद्गाताराविति द्वयो-ढे योद्धन्द्वं विधाय ततो होतापोतारी च नेष्टोद्गातारौ चेति विगृह्य द्वन्द्व कृते मध्यमस्य पोतृशब्दस्याप्युत्तरपदभूतनेष्टोद्गातृशब्दा-व्यवहितपूर्वत्वमिति तस्याप्यात्वे त्रयाणामप्यात्वं सम्पद्यत इति क्वचिन्मध्यमयोरेवात्वं दृश्यते यथा होतृगोतानेष्टोद्गातारः तत्र तु होता च पोता च नेष्टोद्गातारौ चेति विग्रहः । अयमर्थः-अन त्रयाणामेकदा द्वन्द्वः इति मध्यमपदस्य पोतशब्दस्यैव उत्तरपदाव्यवहितपूर्वपदत्वमिति तस्यैवात्वं भवति न तु होतृशब्दस्य मध्यमेन व्यवधानादिति । नेष्टा-नायकः सोऽ पि ऋत्विग्विशेषः, उद्गाता-उच्चैर्गानकर्ता यज्ञे सामवेदसम्बन्धिकमकर्ता च । विद्यायोनिसम्बन्धश्चेह प्रत्यासत्तेः समस्यमानानामृदन्तानामेव परस्परं द्रष्टव्यो न येन केनचित् । अयं भावः-सम्बन्धः द्वयो भवति एकत्र तदभावात, एवं च स सम्बन्धः कयोद्वं योाह्यः इत्यपेक्षायां समस्यमानपदयोरेव प्रत्यासन्नत्वात् तयोरेव तेषामेव वा ग्राह्यः तेनेह न भवति-चैत्रस्य स्वसृदुहितरौ। नात्र स्वसदुहित्रोः परस्परं सम्बन्धः, न हि स्वसा चैत्रस्य स्वसा भवन्ती दुहितरमपेक्षते दुहिता वा स्वसारमिति । अयं भावः-इदं सूत्र द्वन्द्व, प्रवर्तते द्वन्द्वश्च सहोक्तिमापन्नानामेव सहोक्तिश च यथाकथञ्चित्परस्परसम्बन्धेऽ स्त्येव स च सम्बन्धोऽ न्यत्र यादशस्तादशोऽस्तु प्रकृते विद्याकृतो योनि कृतो वा ग्राह्य इत्येव विवक्षितम्, इह च स्वस दुहितरावुभे अपि चैत्रमेवापेक्षेते तस्यैव स्वसा, तस्यैव च दुहिता, नहि दुहितुरियं स्वसा नवा स्वसुरियं दुहितेति तयोः परस्परमसम्बन्धात्प्रकृतसूत्राप्राप्त्या नात्वमिति । यद्य वं तर्हि चैत्रस्य पित-भ्रातराविति कथम्, ? अस्ति ह्य वात्र परस्पर-संबंध-संभावना । अयं भाव:-यद्यपि पिता भ्राता च चैत्रमपेक्षेते तथापि पितृभ्रात्रोर प्यस्त्येव स्वाभाविकः परस्परं जन्यजनकभावसम्बन्धः ततश्च परस्परसम्बन्धे सत्यपि कथं नात्वम् ? उच्यते यद्यपि चैत्रस्य भ्राता भ्राता भवन् पितरमपेक्षते चैत्रपितृजनितस्यैव चैत्र भ्रातृत्वात्, तथापि पिता-पिता भवन्न भ्रातरपेक्षते । अयं भावः-यद्यपि चैत्रस्य यो भ्राता स चैत्रनिरूपितभ्रातृत्वद्वारैव पितरं स्वजनकत्वेनापेक्षते न तु स्वतः, केवलस्य भ्रातृत्वस्य Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) - पितृनिरूपितत्वाभावात् तथापि पिता पितत्वेन न भ्रातरमपेक्षते पितत्वस्य 'पुत्रनिरूपिताया एव सत्त्वात् तस्यायं पुत्र इति कथिते स्वत एव स पितेत्यायातीति नास्ति पितृ-भ्रात्रोः निरूप्यनिरुपक- भावसम्बन्ध इति । यद्येवं तहि कथं होतापोतारो, मातापितरौ ? नह्यत्र परस्पापेक्षस्तथासम्बन्धोऽपि तु यजमानपुत्रापेक्षः । उच्यते - अत्रापि होत्रादीनां परस्परसम्बन्धोऽस्त्येव ते हि स्वकर्मणि यागे प्रजने च सहिता एव वर्तन्ते तत्कर्मनिमितश्चायं व्यपदेश इत्यदोषः । अयं भावः - होतापोतारावित्यत्र होता यजमानस्यैवेति तेनैव विद्याया: सम्बन्ध: पोताऽपि ऋत्विग्विशेषाद् यजमान सम्बद्ध एवेति तयोः परस्परमसम्बन्धेऽपि होतापोत्रोः कर्म यागः तत्र च तौ सहैव प्रवर्तते इति तयोः परस्परमेक कर्मकारित्वरूपसम्बन्धोऽस्त्येवेति न तत्र पूर्वप्रतिपादित नियमव्यभिचारः एवं मातापितरावित्यत्र मातृत्वं न पितमिरुप्यं नवा पितृत्वं मातृनिरूप्यं किन्तूभयमपि पुत्रनिरुपितमेव पुत्रस्यैव माता, तस्यैव च पितेति प्रतीतेः मातापित्रोः परस्परं सम्बन्धाभावेऽपि मातापित्रोः पुत्रस्योत्पादने तवरणादिकेच कर्मणि तयोः सहभावेन प्रवर्तनादेककर्मकारित्वरूपः सम्बन्धोऽवाप्यत्येवेति न पूर्वप्रतिपादित नियमव्यभिचारः । तेषां च तत्तच्छन्द प्रतिपाद्यत्वमपि तत्कर्मनिमित्तमेवेति स्वप्रवृत्तिनिमित्तत्वस्यैक्यरूप-सम्बन्धोऽपि तेषामस्त्ये वेति न पूर्वोक्तदोषशङ्का ॥ ३६ ॥ 1 पुत्रे | ३ | २|४०| पुत्रे उत्तरपदे विद्यायोनिसम्बन्धानामृदन्तानां द्वन्द्वे आः स्यात् । मातापुत्रौ । होतापुत्रौ ॥४०॥ पूर्वसूत्रस्यन्तामेव द्वन्द्वे प्रवृत्त्या पिता-पुत्रौ इत्यादिषु तदप्रवृत्तिरित्य यमारम्भः । इह समस्यमानानां पदानां परस्परं विद्यायोनिसम्बन्धः इत्यर्थो न स्वीकृतः, होतापुत्रावित्युदाहरणात् अत्र हि होतुः पुत्रस्य च न परस्परं विद्यासम्बन्धः न वा योनिसम्बन्धः । यद्यपि माता-पुत्रादीनामिव होतानावित्यस्य प्रयोगस्य लोकविश्रुतत्वं न प्रतीयते तथाप्याचार्योंदाहरणेन तस्य सत्त्वे विसंवादस्यानाशङ्कनीयत्वम् ॥४०॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) वेदसहश्रुताऽवायुदेवतानाम् ॥३॥२॥४१॥ एषां द्वन्द्वे पूर्वपदस्योत्तरपदे आः स्यात् । इन्द्रासोमौ । वेवेति किम् । ब्रह्मप्रजापती । सहेति किम् ? विष्णुशकौ । श्रुतेति किम् ? चन्द्रसूर्यो । वायुवर्जनं किम् ? वाय्वग्नी । देवतानामिति किम् ? यूपचषालौ ॥४१॥ वेदसहेत्यादि-पूर्व वेदसह-श्रुतशब्दयोः सप्तमीतत्पुरुषः, 'वायुनंत्रा बहुप्रीही समस्यते । न विद्यते वायुर्यासु ता अवायवः' अवायवश्च ताः देवताः-अवायुदेवता: वेदसहश्रुताः अवायुदेवताः वेदसहश्रुतावायुदेवता: तासामिति विग्रहः । वेदे सहश्रुतानां वायुजितदेवतानां द्वन्द्व पूर्वपदस्योत्तरपदे परे आकारोऽन्तादेशो भवतीत्यर्थः । इन्द्रश्च सोमश्च,इन्द्रासोमो,ब्रह्मप्रजापतीतिब्रह्मण एव मानसिकाः पुत्राः प्रजापतिःवेन प्रसिद्धाः, ब्रह्मापि प्रजापतिनाम्ना प्रसिद्धः 'स्रष्टा प्रजापति-धाः' इत्याद्यमरकोशात् । विष्णुशकाविति-एती वेदे पृथक पृथग्धविर्भागित्वेन श्रतो न तु सह हविर्भागित्वेन । चन्द्रसूर्याविति-एतौ वेदे सहख्यातावपि नैवं रूपेण श्रुतावपि तु सूर्याचन्द्रमसावित्यादिरूपेण । वाय्वग्नीति-वायुवर्जन सामान्येन द्वन्द्वस्यैव विशेषणम्, वायूजिततादृशदेवतानां द्वन्द्व इत्युक्त्या ,वायोः पूर्वपदत्ने उत्तरपदत्वे वोभयथापि नात्वप्रवृत्तिः तत्र वायोरुत्तरपदत्वे 'अग्निवायू' इति पूर्वपदत्वे च 'वाय्वग्नी' इति । यूपचषालाविति-यूपो यागसमाप्तिचिह्नभूतः स्तम्भविशेषः खदिरादिनिर्मितः, चषालो वलयाकारो लोहमयः काष्ठमयो वा यूपमध्ये देयः पदार्थः एतावपि वेदे सहश्रुतौ किन्तु देवतात्वाभावन्निात्र भवत्यात्वम् ।।४१।। ई: षोमवरुणे ऽग्नेः ॥३॥४॥ वेबसहश्रुतावायुदेवतानां द्वन्द्व षोमे वरुणे चोत्तरपदेऽग्नेरीः. स्यात् । षोमेति निर्देशादीयोगे षत्वं च । अग्नीषोमौ । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) अग्नीवरुणौ । देवता-द्वन्द्व इत्येव । अग्निसोमौ बटू ॥४२॥ षोमशब्दः न पृथक् शब्दः किन्तु सोमशब्द एव । कृतषत्वनिर्देशादीकारयोगे षत्वं निपात्यते । विशेष्य षत्वविधाने वाक्य-भेदापत्तः, पृथक्-सूत्रविधाने च स्पष्टमेव गौरवमिति कृतषत्वनिर्देश एव कृतः । अग्निश्च सोमश्चेति इतरेतरयोगद्वन्द्वेऽनेन ईत्वे षत्वे च रूपनिष्पत्ति: । अग्निसौमौ बटू इतिएको ऽग्निनामा बटुः अपरश्च सोमनामा तयोरिह द्वन्द्वः । नायं देवताद्वन्द्वः किन्तु मनुष्यद्वन्द्वः इति न भवतीत्वम् । ईकारसंनियोगे षत्वविधानात् 'सन्नियोगशिष्टानामेकापायेऽयतरस्याप्यपायः' इति न्यायादीत्त्वनिवृत्ती षत्त्वमपि निवर्तते ॥४२॥ इद्धिमत्यविष्णौ ।३।२।४३। विष्णुवर्जे वृद्धिमत्युत्तरपदे देवताद्वन्द्व अग्नेरिः स्यात् । आग्निवारुणीमनड्वाहीमालभेत । वृद्धिमतीति किम् ? अग्नीवरुणौ । अविष्णाविति किम् ? आग्नावैष्णवं चरु निर्वपेत् ॥४३॥ नन्वग्निशब्दे इकारः स्वत एवास्ति तस्य पुनः इकारविधानं किमर्थमिति चेत् सत्यमयमी-काराऽऽकारयोरपवादः इति अग्नीवरूणो देवताऽस्याः सा आग्नितारुणी देवतार्थेऽण 'देवतानामात्वादौ' ।७।४।२८। इति पूर्वपदस्योत्तरपदस्यः स्वरेष्वादे स्वरस्य वृद्धि-र्भवति । ननु अग्निश्च वरुणश्च अग्नीवरुणावित्यत्र प्रत्ययोत्पत्तितः पूर्वमेवेत्वमात्वं वा प्राप्नोति, प्रकृतसूत्रस्य च तद्धितप्रत्ययनिमित्तक-वृद्धिनिमित्त-कत्वेन बहिर्भ तनिमित्तकत्वाद् बहिरङ्गत्वमिति तदपेक्षयाऽन्तरङ्गयोरीकाराकारयोः प्रवृत्ती नास्त्यस्य सूत्रस्यावकाश इत्यपि शङ्कितु शक्यत इति चेत्सत्यम्, 'उपसंजनिष्यमाननिमित्तोऽप्यपवाद: उपसंजात-निमित्तमप्युत्सर्ग 'बाधते' इति न्यायेन 'परित्यज्यापवाद-विषयमुत्सर्गोऽभिनिविशते' इति न्यायेन वा नेकाराऽऽकारयोः प्रवृत्तिरिति विज्ञेयम् । किञ्च अग्नीवरुणो देवता ऽस्येति लौकिकं वाक्यमात्रम् किन्तु समास-तद्धितयोः सहैव विग्रहो Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) वास्तविकः | अग्निश्च वरुणश्च देवतेऽस्या इति विग्रह एव समासा - नन्तरं वाक्यावयवविभक्तं लुंपि एकपद्ये सति विग्रह एव समासानन्तरं वाक्यावयवविभक्तेपि सति देवतार्थे तद्धितप्रत्यये उभयदवृद्धी सत्याम नेनानिशब्दस्कारस्येकार इत्येव साध्वी प्रक्रिया । अन्यथाऽग्नीवरुणाविति कृते ईकारप्रवृत्तौ जातायां कथं तदपवादो संगच्छेतेति । अग्नीवरुणाविति अग्निश्च वरुणश्चेति इतरेतरयोगे द्वन्द्वः । अग्नाविष्णू देवताऽस्य 'देवता' ।६।२।१०१ । इत्यण्, 'देवतानामात्वा०' | ७|४|२८| इत्युभयपदवृद्धिः ||४३|| दिवो द्यावा | ३ |२| ४४ | देवताद्वन्द्वे दिव उत्तरपदे द्यावेति स्यात् । द्यावाभूमी ॥ ४४ ॥ देवताद्वन्द्व इति दिवो भम्यादेश्च तत्तल्लोकवाचकत्वेऽपि देवतात्वेन हवित्यागोद्देश्यत्वेन वेदे श्रवणान्न देवताद्वन्द्वत्वहानि: । द्यावाभूमीतिatravr: । भूमिः प्रसिद्ध व मनुष्य - निवासभूता ॥ ४४॥ दिवस-दिवः पृथिव्यां वा । ३ । २।४५ | देवताद्वन्द्वे दिवः पृथिव्यामुत्तरपदे एतौ वा स्याताम् । दिवस्पृथिव्यौ । दिवः पृथिव्यौ । द्यावापृथिव्यौ ॥ ४५ ॥ 1 द्यौश्च पृथिवी च दिवस्पृथिव्यो- दिवः पृथिव्यो । ननु दिवस्पृथिव्यावित्यत पदान्तस्य सस्य कथं न विसर्ग इति चेत् सत्यम् दिवः इति विस गन्तिस्य निर्देशात् 'दिवसिति' इति सकारस्य रूत्वं न भवति । अयंभावः - यदीहापि विसर्गः स्यादेव तर्हि पृथक् दिवः इति विसर्गान्तः पाठः व्यर्थः स्यादितिविसर्गान्तादेश-विधानबलात् सकारस्य रुत्वं न कल्पनीयमेव । परे तु 'दिवस' इत्यकारान्तमा देश विधायाकारस्योच्चारणमात्रप्रयोजनत्वेनाप्रयोगित्वमास्थाय तस्येत्संज्ञया लोपं विदधति विसर्गे प्राप्तेचा कारलोपस्य स्थानि-वद्भावेन तद्द्वारणं कुर्वन्ति । वेदे च सर्वत्र सकारसहित एव पाठ इति कथयन्ति । यद्यपि वृत्तिकाराः पदकाराश्च 'दिवः पृथिव्योः' इत्यादिविस Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) र्गान्तपाठमपि पठन्ति, तथापि तत् 'छन्दसि दृष्टानुविधिः' इति सिद्धान्तासमाधयमित्याहः किञ्च छन्दसि 'द्यावाचिदस्मै पृथिवी सन्तमेते' इति व्यस्तेऽपि प्रयोगे पृथिवीशब्दे व्यवहिते द्यावाशब्दो दृश्यते सोऽपि तथैव साधनीयः एवं च पृथक विसर्गान्तपाठं नाद्रियन्ते । स्वमते तु ज्ञानगौरवापेक्षया शब्दोच्चारणगौरवस्य लघीयस्त्वमित्याशयेन 'दिवः' इति विसर्गान्त एवादेशः स्वीकृत इति बोध्यम् ।।४५॥ उषासोषसः ।३।२।४६। देवताद्वद्न्वे उषस उत्तरपदे उषासा स्यात् । उषासासूर्यम्।४६। उषश्च सूर्यश्च-उषासासूर्यम्, अत्र समाहारः । उषस् इति सान्तं क्लीबं प्रत्यूषवाचि तदपि देवतात्वेन वेदे प्रसिद्धमिति न देवताद्वन्दत्वहानिः ।।४६।। - मातरपितरं वा ।३।२।४७। मातृपित्रोः पूर्वोत्तरपदयोन्वे ऋतोऽरो वा निपात्यते । मातरपितरयोः । मातापित्रोः ॥४७॥ माता च पिता-मातरपितरौ पक्षे मातापितरौः एकशेषे तु पितरौ । नन्विह मातरपितरमिति नपुसक-निर्देशोऽयुक्तः इहेतरेतरयोगद्वन्द्वस्येष्ट'त्वात्तत्र ..च उत्तरपदलिङ्गस्यैव विधानात्पुल्लिगनिर्देश एव युक्त इति चेत्सत्यम् । इह शब्दरुपापेक्षो नपुंसकैकवचननिर्देशः उत्तरपदस्य अरभावाभिव्यक्तयर्थः तेन मातरपितराभ्याम्, मातरपितरयोः पक्षे मातापितभ्याम्, मातापित्रोः । अत्राऽरादेशस्योभयपदविषयत्व-प्रदर्शनार्थे नवीने द्व उदाहरणे । अयं स्पष्टार्थः-इह न तच्छब्दगतलिङ्गवचने विवक्षिते अपि तु शब्दस्वरूपमात्रविवक्षा शब्दस्वरूपविवक्षणे च सामान्ये नपंसकमिति नियमान्नपुसकं प्रथमोपस्थितत्वाच्चैकवचनम्, 'मातरपितरौ वा' इति स्वाभाविके निर्देशे सति किमिदम् 'अडौं वा' ।१।४।४। इत्यरादेशेन Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) रूपमुत तदंशेऽपि निपातनमेवेति निर्णयो न स्यात् । तन्निर्णयाय अरादेशस्य स्पस्टीकरणायेत्थं निर्देश इति ॥४७॥ वर्चस्कादिष्ववरकरादयः ।३।२।४८। एष्वर्थेष्वेते कृतशषाद्य त्तरपदाः साधवः स्युः। अवस्करोऽन्नमलम् । अवकारो ऽन्यः । अपस्करो रथाङ्गम् । अपकरोऽन्यः ।४८। वर्चस्कादिष्विति-कुत्सितं वर्च इति-वर्चस्शब्दात् कुत्सार्थे संज्ञायां कप् । .. विष्ठायामयं रूढः । सोऽर्थो आदर्श प्रथमो येषां रथाङ्गादीनां तेष्वर्थे... ष्वित्यर्थः तद्गुणसंविज्ञानात् वर्चस्कार्थोऽ पि गृह्यत एव । अवस्कर इतिअवकीर्यते दूरं विक्षिप्यते इत्यवस्करः अलि गुणेऽनेनो-त्तरपदस्यादौ सकारे च सिद्धम् । अन्नमलमिति-भुक्तस्यान्नस्य रसादिषु तेजः शरीरेणौदारिक शरीरसात्कृ- तेषु यद् वहिः क्षिप्यते तदे वान्नमलम् । अवकारोऽन्य इति-वर्चस्कादन्योऽ-वकीर्यमाणो गृहान्निः-सारितोऽपद्रव्यसमूहोऽवकर इत्यर्थः । अपस्करो रथाङ्गमिति- रथोपकारिणि काष्ठे अपस्कर इति निपात्यते इत्यर्थः । रथाङ्गपदेनेह चक्रभिन्नं रथोपकारि द्रव्यं काष्ठं वा गृह्यते । अपकीर्यते स्वस्वस्थाने क्षिप्यते इत्यपस्करः पूर्ववदल्प्रत्ययादिः, रथाङ्गादितरोऽपकर एवेत्याह- अपकरोऽन्य इति । बहुवचनाकृतिगणार्थम् । इदं तु बोध्यम्-अवस्करशब्द: तत्सम्बन्धात्तद्दे शेऽपि लाक्षणिकः । तस्यावस्करस्य सम्बन्धादाधारत्वात् तद्देशः, यत्र देशे तस्य सम्बन्धः स देशोऽप्यवस्करशब्देनोच्यत इति भावः । 'लक्षणा शक्यसबन्धस्तात्पर्यानूपपत्तितः' इति वचनात् लक्षणायाः शक्यसम्बन्धत्वं लक्षणम् । शक्यस्य = शक्त्योपस्थितस्यार्थस्य सम्बन्धः यः कश्चित् सामीप्यसादृश्यादि= यथायोग्यं सम्बन्धः स एव लक्षणा इत्यर्थः। अत्राधारत्वरूपः सम्बन्धः ।।४८॥ परतः स्त्री पुम्वत् स्त्र्येकार्थेऽनङ् ।३।२।४६॥ परतोविशेष्यवशात् स्त्रीलिङ्गा स्त्रीवृत्तावेकार्थे उत्तरपदें पुम्व Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) त्स्यात् । न तूडन्तः । दर्शनीयभार्यः । परत इति किम् ? द्रोणीभार्यः । स्त्रीति किम् ? खलपुदृष्टिः । स्त्र्येकार्थ्यइति किम् ? गृहिणीनेत्रः । कल्याणीमाता । अनूङिति किम् । करभोरुभार्यः ॥४६॥ 1 एकार्थं नाम समानाधिकरणम् । शब्दस्याधिकरणमर्थः, अर्थे शब्दस्य वृत्तेः स तस्याधिकरणं तदेव समानम् अधिकरणं यस्य तत् समानाधिकरणम् । दर्शनीया भार्या यस्य स दर्शनीय भार्यः । दर्शनीय - शब्दो विशेष्यनिघ्नः अत्र नित्यस्त्रीलिङ्गभार्याशब्दरूपविशेष्य-परिततत्यात् स्त्रीत्वमापन्नः । 'एकार्थं चानेकं च' । ३।१।२२ इति सूत्र ेण समासः, 'गोश्चान्ते ० ' | ३ | ४ | ९६ । इति भार्याशब्दस्य ह्रस्वः । द्रोणीभार्य इति - द्रोणीशब्द: नदीवाचको नित्य - स्त्रीलिङ्गः, यद्यप्यस्य मार्याशब्देन पत्नीवाचकेन नैकार्थ्य संभावना तथापि तस्यामौपचारिकं भार्यात्वमारोप्य व्यवहारः समाधेयः । अत्र पुंवद्भावे शब्दातः प्रत्यासन्नो द्रोणशब्दः प्राप्नुयात् । अयं भावः परतः इत्यस्याभावेऽत्रापि स्वप्रवृत्तौ तत्तत्प्रवृत्तिनिमित्तकस्य शब्दस्य पुंस्त्वाभावेऽपि भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तकस्य समानाकृतेः शब्दस्य प्रयोगः स्यात् । तथा च द्रोणीभार्य इत्यत्र द्रोणीशब्दस्य स्थाने काकाढकचतुष्ट्यादिवाची द्रोणीशब्दः प्रयुज्येत । खलं पुनाति यत्कुलं तत् खलपु । खलपु दृष्टिरस्यासौ खलपुदृष्टिः, यद्यत्रापि पुंवद्भावः स्यात्तदा क्लीवत्वप्रयुक्तो ह्रस्वो निवर्तेतेति दीर्घान्तस्य खलपूशब्दस्य श्रवणं स्यात् । गृहिणीनेत्र इत्यादि - गृहिणी नेत्रं यस्य स गृहिणी - नेत्रः अत्र समानाधिकरणत्वेऽपि न स्त्रीलिङ्गोत्तरपदं वर्तते । एवं कल्याया माता कल्याणीमाता । अत्र स्त्रीलिङ्गोत्तरपदत्वेऽपि न सामानाधिकरयम् । करभवत् उरू जङ्घ े यस्याः सा करभोरू: 'उपसमान सहित ०' ।२।४।७४। इत्यूङ्प्रत्ययः । अनुङिति प्रसज्यप्रतिषेधात् इडविडऽपत्यं स्त्री अत्र तस्य लुप् इडविड् । सा चासो भार्या च ऐडविडभार्त्येत्यादिषु उत्तरेण वद्भावः । पर्युदासे हि ऊसदृशप्रत्ययान्तस्यैव पुंवद्भावः स्यात् । अयं भावः - ननु 'न तूङतः' इति प्रसज्यप्रतिषेधाश्रयणमयुक्त वाक्यभेदरूप - गौरवात् पर्युदासे हि 'ऊङन्त - भिन्नः परतः स्त्रीलिङ्गः स्त्रीवृत्तावेकार्थ उत्तरपदे पुवदित्येकमेव वाक्यं भवतीति लाघवमिति चेत्सत्यम् - पयुं - भिन्नस्तत्सदृशस्य प्रत्ययान्तस्यैव ग्रहणात् इह चापत्यार्थप्रत्य - यस्य स्त्रियां लुपि सति प्रत्ययान्तभिन्न एवेडविड् शब्दः, तस्य पंवद्भावो Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) न स्यादित्यैडविडभार्या इति रुपं न स्यात्, किन्तु इडविड्भार्येति, अत्र 'पुवत् कर्मधारये' ।३।२।५७। इति पुवद्भावो भवति तत्राऽप्यूनूडित्यस्य सम्बन्धोऽस्त्येवेति । यद्यत्र पथुदासः स्यात्तदा तत्रापि पर्युदास एव स्यात्, पयुदासे सदृशार्थस्यैव ग्रहणं भवति-यथा अब्राह्मण-मानयेत्युक्त ब्राह्मणभिन्नो मनुष्य एवाऽऽनीयते न तु पश्वादि: काष्ठादिर्वा, तथा चात्र ऊड़भिन्न ऊसदृशो गृह्यत सादृश्यं च स्त्रीप्रत्ययत्वेन सामान्यतः प्रत्ययत्वेन का ग्राह्यम्, उभयथापि प्रकृते दोष एव, इडविडशब्दो न स्वीप्रत्ययान्तो नवा किञ्चित्प्रत्ययान्तः प्रत्ययस्येह लुप्तत्वात् एवं चेदशलक्ष्यसिद्धयर्थं प्रसज्यप्रतिषेधाश्रयणम् फलमुखगौरवस्याकिञ्चित्करत्वात् ॥४६॥ क्यङमानिपित्तद्धिते ॥३॥२॥५०॥ क्यङि मानिनि चोत्तरपदे पित्तद्धिते च परतः स्त्र लिङ्गोऽनङः पुम्वत्स्यात् । श्येतायते । दर्शनीयमान्ययमस्याः । अजथ्यं यूथम् ॥५०॥ श्येतशब्दो वर्णवाची वर्णविशिष्टार्थमपीति स्त्रीलिङ्गतस्य श्येनीति रुपं भवति । श्येनीवाचरतीति क्यङ्' ।०।४।२६॥ इति क्यङि अनेन पुंवत्त्वे दीर्घ च श्येतायत इति । इमां दर्शनीयां मन्यते दर्शनीयमानी अय मस्याः। 'मन्यापिणन्' ।५।१।११६। इति णिन् मानिन्ग्रहणमस्त्युत्तरपदार्थम्, असमानाधिकरणाथं च । यद्यपि दर्शनीयामात्मानं मन्यते स्त्री-दर्शनीयमानिनीत्यसरूपत्वादत्रापि णिन्। अत्र या दर्शनीया सैव मानिनीति स्त्रीत्वं सामानाधिकरण्य चोभयमिह पूर्वेणंव सिद्धस्तथापि परत्वात्प्रतिपदोक्तत्वाच्चायमेव प्रवर्तते । यदा कांचित् स्त्रियं काचित्स्त्री दर्शनीयां मन्यते तदा दर्शनीयमानिनीत्यत्र स्त्रीवृत्तावृत्तपदेऽपि एकार्थोत्तरपदाभावात्पूर्वण न सिद्धः इत्यनेनपुव भावः । अजागै हितम्अजयं यूथम् अव्यजात् थ्यप' ।७।१।३८। इति ध्यप, अनेन पुंवद्भावः ।।५०॥ जातिश्च णितिद्धितयस्वरे ।३।२।५११ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) अन्या परतः स्त्री जातिश्च णौ प्रत्यये यादौ स्वरादौ च तद्धिते विषयभूते पुम्वत्स्यात् अनूङ् । पटयति । एत्यः । भावत्कम् । जातिः - दाराद्यः । गार्गः । तद्धितेति किम् । हस्तिनीयति । हस्तिन्यः ॥५१॥ पट्टीमाचष्ट - पयति । 'नामिनीऽक लिहले:' | ४ | ३ |५१ | इति वृद्धि:, 'तन्त् यस्वरादेः' ।७।४।४३। इत्यन्त्यस्वरादिलोपः तस्य स्थानिवद्भावादुपान्त्य - वृद्ध्यभावः । एन्यां साधुः एत्यः 'तत्र साधी | ७|१| १५ | इति यः । भवत्या इदं - भावत्कम् ' भवतोरिकणीयसी' | ६| ३ | ३०| इतीकण् 'ऋवणोवर्ण०' |७|२| ४ | इतीकण इकारलोपः । दरदोऽ पत्यं स्त्री अण तस्य 'द्र रत्रणो० ' | ६|१|१२३ । इति अणो लप् तस्यां साधुः ये ऽनेन पुंवद्भावे अणन्तः एव . दारदशब्दः समायाति तस्यान्त्यस्याकारस्य लोपे दारद्य इति । अत्र वावस्यापो निवृत्तिः फलम् । गार्ग्यायण्याः कुत्सितमपत्यं -- गार्गः 'वृद्ध० |६| १८७॥ इति णे पुंवद्भावे गार्ग्रशब्दस्यान्तलो यलोपे च - गार्ग इति । हस्तिनीमिच्छति - हस्तिनीयति 'अमाव्ययात् ०' | ३|४|२३| इति क्यन् । हस्तिन्यः इति - अयं प्रथमाबहुवचनस्य रूपम् । जातिग्रहणं स्वाङ्गात् ० ' | ३ |२|५६ | इति जातिलक्षणप्रतिषेधनिवृत्त्यर्थम्, सति तस्मिन् चकारोऽन्य- स्त्री संग्रहार्थः जातिः परतः स्त्री, अन्या च परतः स्त्री पुंवद्भवतीत्यर्थः अकृते हि चकारे जातेरेव पुंवद्भावः स्यात् अत्र तद्वितयस्वर इति विषयसप्तम्याश्रयणम् न तु 'सप्तम्याः पूर्वस्य' | ७|४|१०५ | इति परत्वार्थिका सप्तमी तेन पट्ट्ट्या भावः पाटवम्, अत्र प्रत्ययोत्पत्तेः पूर्वमेव पुंवद्भावे लघ्वादित्वात् 'वर्णाल्लघ्वादेः' | ७|१|६६ | इत्यण् भवति परसप्तम्याश्रयणे तु संयोगे परे पूर्वस्य गुरुत्वान्न पट्वीशब्दो लघ्वादिरिति • ततोऽ ण्ं न स्यात् । किन्तु गुणाङ्गप्रवृतिनिमित्तत्वेन 'पतिराजान्तगुणाङ्ग०' | ६| १ | ६० । इति ट्यण् स्यात् । एवं पूर्वमुक्ते दारय इत्यत्र पुंवद्भावस्या - लुपो निवृत्तिः फलमित्युक्तम् किन्तु तत्र निवृत्तिः पूर्वमप्रवृत्तिरेव जातस्य निवृत्त्ययोगात्, इदसपि विषय सप्तम्याश्रयणस्य फलम् ||५१|| एग्नायी । ३।२।५२ | Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (850) एयप्रत्ययेऽग्नय्येव परतः स्त्री पुम्वत् स्यात् । आग्नेयः । पूर्वेण सिद्ध े नियमार्थमिदम् । श्यैनेयः ॥ ५२ ॥ , अग्नेः स्त्रीत्यर्थे धवयोगे 'धवयोगे 'पूतक्रतू - वृषाकप्यग्नि० ' | २|४| ६० । इति ङी: अन्तस्यैः आयादेशे च अग्नायीति । अग्नाय्या अपत्यम् ' कल्यग्नेरेयण्' ।६।१।१७। इत्येयण् । प ंवद्भावः आदिवृद्धिश्च । पूर्वेण सिद्ध े नियमार्थमिदम् तेन श्येन्या अपत्यं श्येनैयः इत्यत्र पूर्वेणा - पि न भवति । अत्र 'द्विस्वरादनद्याः' ।६।१।७१। त्येयण् । ननु एये एवाग्नायीशब्दस्य पुंवत्त्वं नान्यति विपरीतनियमः कथं न भवतीति चेत्सत्यम् यदि विपरीतनियमोऽभिप्र ेतः स्यात्तर्हि एयभिन्ने निषेधस्य फलितया निषेधप्रकरणे एव 'अग्नायी अनेये' इति क्रियताम् 'आग्नेय' इति निपात्यतां वा तच्च निपातनं नियमार्थं भविष्यति एये एवाग्नायीशब्दस्य पुंवत्त्वं नान्यत्र ेति तदुभयमकृत्वा 'एयेऽग्नाथी' इति करणेन एये एवाग्नायीशब्दस्य पुत्रत्वं नान्यत्रेति तदुभयमकृत्वा विपरीतनियमः न भवति तेन - अग्नायै हितमित्यर्थे ईये 'जातिश्च ० ' | ३ | २५१ | इति पुंवद्भावे अग्नीय इति रूपं भवंति विपरीतनियमे तु अग्नीयीय इति स्यात् ||५२|| नाप्रियादौ । ३।२।५३। अप- प्रत्ययान्ते स्त्र्येकार्थे उत्तरपदे प्रियादौ च परतः स्त्री पुम्वन्न स्यात् । कल्याणीपञ्चमा रात्रयः । कल्याणीप्रियः । अप्रियादावितिकिम् | कल्याणपञ्चमीकः पक्षः ॥ ५३ ॥ कल्याणीपञ्चमी आसां ताः कल्याणीपञ्चमा रात्रयः । अत्र यैव पञ्चमी तज्जातीयाया एव रात्रेरन्यपदार्थत्वात्प्राधान्यमिति पूरणीभ्यस्तत्प्राधान्येऽप् | ७|३ | १३० । इत्यप् 'अवर्णवर्णस्य' | ७|४|६८ । इतीकार - लुक् । स्त्रीत्वादाप् । 'परतः स्त्री० ' | ३ |२| ४६ | इति प्राप्तस्य पुंवद्भावस्यानेन निषेधः । कल्याणी प्रियाऽस्य कल्याणीप्रियः । कल्याणी पञ्चमी ( रात्रिः ) अस्मिन् कल्याणपञ्चमीकः पक्षः इति अत्र पूरण्याः प्राधान्याभावादप्रत्ययो न भवति 'ऋन्नित्यदितः | ७ | ३ | १७१ | इति कच् ||५३ || Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) तद्धिताककोपान्त्यपूरण्याख्याः ।३।२।५४। तद्वितस्याकप्रत्ययस्य च कउपान्त्योयासां ताः पूरणप्रत्ययान्ताः संज्ञाश्च परतः स्त्री पुम्वन्न स्युः । मद्रिकाभार्यः। कारिका भार्य। पञ्चमीभार्यः । दत्ताभार्यः । तद्धिताकेति किम् ? पाकभार्यः तद्धितेत्यादि-तद्धितश्चाकश्च तद्धिता-ऽको, तयोः कः तद्धिताककः, स उपान्त्यो येषां स्त्रीरूपाणां शब्दानां ते-तद्धिताक कोपान्त्या श्च पूरण्यश्चआख्याश्च तद्धिताककोपान्त्यपूरण्याख्या इति । यद्यपीह सामानाधिकरण्याभावेन पुवद्भावस्य प्राप्त्यभावात् ‘तद्धिताककोपान्त्या-पूरण्याख्या' इति सूत्रस्वरूपं स्यात् तथापि किं सूत्रपाठ एव ह्रस्वपाठ: लेखकप्रमादकृतो वेति, चिन्त्यम् । मद्रिकाभार्य इति, 'वृजिमद्राद् देशात् कः' ।६।३।३८। इति शेषेऽर्थ कः, सा भार्या यस्य स परतः स्त्री०' ।३।२।४६। इति प्राप्तं पवत्त्वमनेन निषिध्यते । मद्रशब्द: देशवाचकः । कारिकाभार्य इति-करोतीति-कारिका कर्तरि अकः स्त्रीत्वादाप, इत्त्वे च कारिकेति । सा भार्या यस्येति विग्रहः । पञ्चमीभार्य इति-पञ्चानां पूरणी-पञ्चमी, सा भार्या यस्य, पञ्चन्-शब्दात् 'नो मट्' ।७।१।१५६। इति मट टित्त्वान्डीः-पञ्चमी । दत्ता-भार्य इतिददातीति दत्ता कर्तरि क्तः अथवा दीयते स्मेति दत्ता । कस्याश्चित्संज्ञेयम् । यद्यप्ययं स्त्रीविशेषरुढः इति स्वत एव स्त्रीलिङ्गः न तु विशेष्यवशात्तथापि दानक्रियानिमित्तो दत्तशब्द: न स्त्रीलिङ्गोऽ पि तु विशेष्यवशादेवेति तस्य परतः स्त्रीत्वमक्षतमिति ‘परतः स्त्री०' ।३।२।५९। इति पुवत्त्वं प्राप्तमनेन निषिध्यते । पाकभार्य इति-तद्धिताके ति विशेषणाभावेऽ न्यविधकोपान्त्यस्यापि पुवद्भावस्य प्रतिषेधः स्यादित्ययं न सिध्येत । पाकशब्द: प्रथम- वयोवाची, अजादिगणपाठादप् ।।५४॥ तद्धितः स्वरवृद्धिहेतुर रक्तविकारे ।३।२॥५५॥ रक्तविकाराभ्याम-न्यार्थः स्वरवृद्धिहेतुर्यस्तद्धितस्तदन्तः परतः स्त्रीपुम्वन्न स्यात् । माथुरीभार्यः । स्वरेति किम् ? वैयाकरण Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) भार्यः । वृद्धिहेतुरिति किम् ? अद्ध प्रस्थभार्यः। अरक्त वकारकिम् । काषायबृहतिकः । लौहेयः ॥५५॥ स्वरवृद्धिहेतुरिति-वृद्धिरारदौत्' ।३।३।१। इति सूत्रेणाऽऽरदोतां वृद्धिसंज्ञा विधीयते, ते च प्रायः स्वरस्थाने भवन्ति व्यञ्जनस्थानाया वृद्ध रभावात् अनादेशरूपा अप्येते । तेषां व्यावृत्त्ययं स्वरग्रहणम् । तद्धित इतिप्रत्ययग्रहणे तदन्तस्य ग्रहगाद् शब्दइति विशेष्यस्याध्याहार्येण 'विशेषणमन्तः' १७.४।११३॥ इति परिभाषाबलाद्वाऽऽह तदन्तः परतः स्त्रीलिङ्ग इति। मयुरायां भवा सत्री माथुरी सा भार्या यस्य स माथुरी-भार्य इति । वैयाकरणभार्य इति-व्याकरणं वेत्त्यधीते वा स्त्री सा वैयाकरणी 'तद्वत्यधीते ।६।२।११६। इत्यण अत्रादिस्वरवृद्धि बाधित्वा 'स्व: पदान्तात्०' . : ।७४।५। इत्यत् । यद्यप्यैद् वृद्धिः किन्तु न तु सा स्वरस्थाना । अर्द्धप्रस्थभार्य इति–अर्धप्रस्थे भवा भवार्थण अर्धप्रस्था भार्या यस्येतिविग्रहः 'अर्धात्परिमाणस्यानतो वा त्वादे: ।७।४।२०। इत्यनेनार्धात्परस्य परिमाणार्यस्य प्रस्थशब्दस्य स्वरेष्वादेरतो वृद्धवर्जनात्, आदेश्च विकल्पेन विधानाद-भावपक्षेऽस्य रूपस्य सत्वात् अत्र प्रकृतसूत्राप्रवृर्तनं पुवद्भावनिषेधः । कषायेन रक्ता 'रागाट्टो रक्त' ।६।२।१। इत्यणि वृद्धौ ङ्यां च काषायी, सा बृहतिकाऽस्य स काषायबृहतिकः । लोहस्य विकारः लौही, अत्र'विकारे' ।६।२।३०। इत्यण, ईषा-हलयुगयोमध्यस्थितो दण्डः, लोही ईषा यस्य स लोहेषः ॥५५॥ स्वाङ्गान्डोर्जातिाऽश्चामानिनि ।३।२१५६। स्वाङ्गाद्योङीस्तदन्तोजातिवाची च परतः पुम्वन्न स्यात् नतु मानिनि । दीर्घकेशीभार्यः । कठीभार्यः । शूद्राभार्यः। स्वाङ्गादिति किम् ? पटुभार्यः । अमानिनीति किम्? दीर्घकेशमानिनी। ॥५६॥ स्वाङ्गाद्यो डीरिति--'असह-नत्र -विद्यमान०' ।२।४।३।इति सूत्रेण विहित इत्यर्थः तत्र न स्वमङ्गस्वाङ्गमपितु-अविकारोऽद्रवमित्यादिना परिभाषित Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) मेव गृह्यते। दीर्घकेशीभाइति-दीर्घाः केशा:यस्याः सा दीर्घकेशी सा भार्या • यस्येति बहुव्रीहिगर्भो वहव्रीहिः । कठीभार्य इति-कठेन प्रोक्त वेत्यधीते या सा कठी, अत्र प्रोक्तार्थप्रत्ययस्य 'कठादिभ्यो वेदे लुप्' ।६।३।१८३। इति लुप्, अध्ययनार्थप्रत्ययस्य च 'प्रोक्तात्' ।६।२।१२६। इति लुप् ‘गोत्रं च चरणः सह' इत्युक्त जातित्वमिति 'जाते रयान्त०' ।२।४।५४। इति ङीः, सा भार्या यस्य सः । 'शूद्राभार्य-इति शूद्रशब्दस्य सकृदाख्यातनिर्गाह्यत्वे सत्यसर्वलिङ्गत्वरूपं जातित्वं बोध्यम्। पटभार्य इति-पटवी भार्या यस्य सः, दीर्घकेशमानिनीति-स्वभिन्नां कांचिद्दीर्घकेशां मन्यत इति 'क्यङ्मानिपितद्धिते' ।३।२।५०। इति सूत्रेण पृवद्भावः । नन्वत्र न मानिन्शब्द उत्तरपदमपि तु मानिनीशब्द इति 'अमानिनि' इत्युक्ते नात्र पुवद्भावो युक्तः प्रकृतनिषेधप्रवृत्तेरव्याहतत्वादिति चेत् ? न नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इति न्यायाद् लिङ्गबोधक-प्रत्ययविशिष्टस्यापि मानिन्शब्दस्य मानिन्ग्रणेन ग्रहणम् । न च कर्मोपपदादेव मन्धातोणिन्प्रत्ययो भवतीति-स बुदायस्यैव स्त्री-प्रत्ययप्रकृतित्वाद् दीर्घकेशमानिन्शब्दादेव स्त्रीबोधकप्रत्ययः नतु मानिन्शब्दादिति वाच्यम् यतो यो विहितस्तद्विशिष्टस्यैव तेन ग्रहणमित्येतादृशनियमानङ्गीकारात्। अस्तु वा समुदायादेव की:, तथा सति मानिन्शब्दमात्रस्योत्तरपदत्वमव्याहतमेव, समासात्पूर्व स्त्रीप्रत्ययोत्पत्त्यभावात् । ननु डीजात्योः सहैव निषेधेन सहान्वयात् सहोक्तिसत्वेन सूत्रे समासः कस्मात् न कृतः इति चेत्सत्यम्-'असमासनिर्देश: सुखेनार्थबोधार्थः, स्वाङ्गङीजात्यमानिनीति कृते नार्थः सुखेन बोद्ध शक्य इति व्यस्त एव निर्देशः कृत इति ॥५६॥ पम्वत्कर्मधारये ।३।२।५७ परतः स्त्री अनूङ् कर्मधारये सति स्व्येकाक्षं उत्तरपदे परे पुम्वत् स्यात् । कल्याणप्रिया । मद्रकभार्या । माथुरवृन्दारिका । चन्द्रमुखवृन्दारिका । अनूङित्येव ? ब्रह्मबन्धूवृन्दारिका ॥५७॥ ननु 'परतः स्त्री०' ।२।२।४।इति सूत्र णैव कर्मधारयेऽपि पुवद्भावः सिद्धः Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) एवेति व्यर्थमिदं पुवद्भावविधानमिति चेत्सत्यम् 'नापप्रियादी' ।३।२।५३। इत्यादिसूत्रः कृतस्य पुंवद्भावनिषेधस्य निवृत्त्यर्थम् एतेन सूत्रण पुनः पुवद्भावविधानमिति । कल्याणी चासौ प्रिया च कल्याणप्रिया । अत्र 'नाप्रियादौ' ।३।२।५३। इति निषेधस्य निवृत्तिः । मद्रिका चासो भार्या च मद्रकभार्या । अत्र 'तद्धिताककोपान्त्यः' ।३।२।५४। इति निषेधस्य निवृत्तिः मथुरायां भवा स्त्री माथरी चासो वृन्दारिका च माथरवृन्दारिका। अत्र 'तद्धितः स्वरवृद्धि०' ।३।२।५५। इति निषेधस्य निवृत्तिः । चन्द्र इव मुखं यस्याः सा चन्द्रमुखी 'असहन ' ।२।४।३८। इति डीः, चन्द्रमुखी चासौ वृन्दारिका च चन्द्र मुखवृन्दारिका । अत्र स्वाङ्गान्डीर्जातिश्चामानिनि' ।३।२॥५६॥ इति निषेधस्य निवत्तिः ॥५७।। रिति ।३।२।५८ परतः स्त्री अनूङ् रिति प्रत्यये पम्वत्स्यात् । पटुजातीया। कठदेशीया ॥५॥ पदवी प्रकारो यस्याः सा पटजातीया । 'प्रकारे जातीयर्' ।७।२।७५। इति सूत्रेण जातीयर्, अनेन पृव ब्रावः । ईषदसमाप्ता कठी कठ-देशीया 'अतमबादेरीषदसमाप्ते०' ७।३।११। इति सूत्रेणं देशीयर्, अनेन वद्भावः ॥५८॥ त्वते गुणः।३।२।५। परतः स्त्रयनूङ् गुणवचनस्त्वतयोः प्रत्यययोः पुम्वत्स्यात् । पटुत्वम् । पटु ता । गुणइति किम् । कठीत्वम् ॥५६॥ त्वते० । गुणपदं गुणवाचकपरं, तच्च गुणिनि वर्तमानमिह ग्राह्यम् साक्षादुगुणवाचकस्य स्त्रीत्वाभावात् 'गुणे शुक्लादयः पुसि गुणिलिङ्गास्तु तद्वति' इति स्मरणात् । तथा च गुणवचनशब्देन गुणवाचकत्वेन पूर्व दृष्ट: सम्प्रति गुणोपसर्जनद्रव्यवाचीह गृह्यते । अत्र एव तस्य परतः स्त्रीत्वमप्यु Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) पपद्यते, तदाह - परतः स्त्र्यनूङिति । पट्वया भावः पटुत्वम् । पटुता । कठीत्वमिति – कठीशब्दस्य यद्यपि जातिपरत्वेन 'स्वाङ्गान्ङीतिश्चामानिनि' | ३ |२| ५६ । इत्यनेनैव पुंवद्भावप्रतिषेधः प्राप्तः तथापि परत्वादस्य सर्वप्रतिष`धापवादत्वाशयेन प्रत्युदाहरणं बोध्यम् । एवं गुणः इति ग्रहहणाभावे संज्ञाक्रिया शब्दानामपि पुंवद्भावः स्यात् ॥५६॥ च्वौ क्वचित् ।३।२।६०। परतः स्त्र्यनूङ् ध्वौ क्वचित् पुम्वत्स्यात् । महद्भूता कन्या । क्वचिदिति किम् । गोमतीभूता ॥ ६०॥ अती महती भूतामहद्भूता कन्या । अगोमती गोमती भूता - गोमतीभूता । क्वचिद्रग्रहणात् क्वचिन्नित्यं क्वचिन्न क्वचिद्विकल्पेन पुंवद्भावो भवति ॥ ६० ॥ , सर्वादयोऽस्यादौ | ३|२| ६१ | सर्वादिः परतः स्त्री पुम्वत्स्यात् नतु स्यादौ । सर्वस्त्रियः । भवपुत्रः । अस्यादाविति किम् । सर्वस्यै ॥ ६१ ॥ लक्ष्यानुरोधात् 'स्त्र्येकार्थे' इतीह् न सम्बध्यते । सर्वासां स्त्रियः - सर्वस्त्रियः । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् तेन भूतपूर्व सर्वादेरपि भवति - दक्षिणोपूर्वाणाम् । अत्र दक्षिणा चोत्तरा च पूर्वा चेति द्वन्द्व : 'न सर्वादि:' | १|४|१२| इति सूत्रेण सर्वादित्वं निषिध्यते । परत्वात् प्रतिषेधविषयेऽप्ययं प्रवर्तते - सर्वा प्रियाऽस्य सः - सर्वप्रियः । अयं भावः - सर्वाद्यतिरिक्ते कल्याणीप्रिय इत्यादी 'नाप्रियादी' | ३ |२| ५३ | इत्यादयः प्रतिषेधाः सावकाशाः, प्रकृतसूत्रं च सर्वस्त्रिय इत्यादौ सर्वा प्रिया यस्य स सर्वप्रिय इत्यादौ चोभयोः प्राप्तिरिति 'स्व' | ७|४| ११६ | इति परिभाषाबलात् परत्वात्तत्रायं प्रवर्तते । किञ्च - 'अनन्तरस्यैव विधिनिषेधो वा' इति न्यायादनन्तरस्य 'परतः स्त्री०' | ३ | २|४६ | इत्यादिशास्त्रस्यैव स प्रतिषेधो Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) न तु व्यवहितस्यास्य सूत्रस्येत्येतद्विषये तत्प्रतिषेधाप्राप्तिरेवेत्यपि विज्ञयम ॥६१॥ मृगक्षीरादिषु वा ॥३॥२॥६॥ एषु समासेषु परतः स्त्री उत्तरपदे पुम्वद्वा स्यात् । मृगक्षीरम्। . मृगीक्षीरम् । काकशावः । काकोशा वः ॥६२॥ मृग्याः क्षीरम्-मृगक्षीरम्, मृगीक्षीरम् । काक्याः शावः काकशावः, काकीशावः ॥६२॥ ऋदुदित्तरतमरूपकल्पब्रुवचेलगोत्रमतहते वा ह्रस्वश्च ।३।२।६३॥ ऋदुदित्परतः स्त्री तरादिषु प्रत्ययेषु ब्रु वादौ च स्त्र्येकार्थे उत्तरपदे ह्रस्वान्तः पुम्वच्च वा स्यात् । पचन्तितरा । पचत्तरा। पचन्तीतरा। श्रेयसितरा । श्रेयस्तरा । श्रेयसीतरा । पचन्तितमा । पचत्तमा। पचन्तीतमा । श्रेयसितमा। श्रेयस्तमा, श्रेयसोतमा, पचन्तिरूपा । पचद्रूपा । पचन्तीरूपा । विदुषिरूपा । विद्वद् पा । विदुषीरूपा । पचन्तिकल्पा। पचत्कल्पा। पचन्तीकल्पा। विदुषिकल्पा । विद्वत्कल्पा। विदुषीकल्पा। श्रेयसिकल्पा। श्रेयस्कल्पा । श्रेयसीकल्पा। पचन्तिब्र वा । पचब्रुवा। पचन्तीब्रुवा। श्रेयसिब्र वा । श्रेयोब्र वा। श्रेयसोबुवा । पचन्तिचेली पचच्चेली। पचन्तीचेली। श्रेयसिचेली। श्रेयश्चेली। श्रेय. सोचेली। पचन्तिगोत्रा। पचद्गोत्रा। पचन्तीगोत्रा । श्रेयसिगोत्रा । श्रेयोगीत्रा। श्रेयसीगोत्रा । पचन्तिमता । पचन्मता। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) पचन्तीमता। श्रेयसिमता । श्रेयोमता । श्रेयसी-मता। पचन्तिहता। पचद्धता। पचन्तीहता। श्रेयसिहता। श्रेयोहता। श्रेयसीहता ॥६३॥ पचन्तितरेति-इयमनयोरतिशयेन पचन्तीति विग्रहः । पचन्तिरूपेत्यादिप्रशस्ता पचन्तीति 'त्यादेश्च प्रशस्ते रूपप्' ।।३।१५॥ इति रूपप् । ईषदसमाप्ता पचन्तीति 'अतमबादेरीषदसमाप्ते.' ७।३।१५। इति कल्पप् । पचन्तिवेत्यादि-ब्रवीतीत्यर्थेऽचि प्रकृतसूत्रे निपातनात् गुणाभावे उवादेशः स्त्रियामाप् पचन्ती चासौ ब्रुवा च । पचन्ती चासौ चेली च । चेलडिति टिद्वचनं ङयर्थम् गवोपपदात् त्रायतेः 'आतोडोऽह्वा-वामः' ।५।१।७६। इति डे गोत्रशब्दो व्युत्पाद्यते, परमसौ निन्दायामेव प्रयुज्यते । पचन्ती चासो गोत्रा च, पचन्ती चासौ मता च, पचन्ती चासो हता च । ब्रवादयः कुत्सनवचनाः तेन 'निन्द्य कुत्सनैरपापाद्यैः' ।३।१।१००। इति समासः । इदमनयोरतिशयेन प्रशस्येति श्रेयसी, सैवेति स्वार्थवाऽत्र तरः क्वचित्स्वार्थे' ।७।३।७। इत्यनुशासनात् ।।६३।। यः ।३।२।६४। हुयन्तायाः परतः स्त्रियास्तरादिषु प्रत्ययेषु ब्रुवादिषु चोत्तरपदेषु एकार्थे ह्रस्वः स्यात् । गौरितरा। गौरितमा । नर्तकिरूपा । कुमारिकल्पा । ब्राह्मणिब्रुवा। गागिचेली। ब्राह्मणिगोत्रा । गागिमता । गौरिहता ॥६४॥ 'चानुकृष्टं नानुवर्तते' इति न्यायात् पूर्वसूत्रे चानुकृष्टं पुवदिति नानुवर्तते गौरितरेति-इयमनयोरतिशयेन गौरी-गौरवर्णा । इयमासातिशयेन गौरी-गौरवर्णा गौरितमा । प्रशस्ता नर्तकी- नर्तकीरूपा । ईषदसमाप्ता कुमारी कुमारीकल्पा । गार्गी चासो मता-गार्गीमता । ननु प्रकृतसूत्र-विषये पिदादिनिमित्तः पुवावः Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (955) कर्मधारयनिमित्तश्च प्राप्नोति स कथं न क्रियते इति चेत् सत्यम् परत्वात् यथाप्राप्तं पुंवद्भावमयं बाधते । अयमाशयः - दर्शनीयत रेत्याबन्तेषु, विद्वद्वृन्दारिकेत्यादिषु च पुंवद्भावः सावकाशः । नर्तकिरूपेत्यादी कोपान्त्यत्वनिमित्तकपुं वावप्रतिषेधात्प्रकृत- सूत्रं सावकाशम्, गौरितरेत्यादिषु तुभय प्राप्तिः तत्र 'स्पर्धे' | ७|४| २१६ | इति परिभाषया परत्वादयमेव विधिरिति । 'नवैकरस्वराण्यम्' | ३ | २|६६ । इत्युत्तरत्र वचनादनेकस्वरस्यै - बायं विधिः ||६४ || भोगवद्गौरिमतोर्नाम्नि | ३ |२| ६५ | अनयोर्यन्तयोः संज्ञायां तरादिषु प्रत्ययेषु ब्रुवादौ चोत्तरपदे एकार्थे ह्रस्वः स्यात् । भोगवतितरा । गोरिमतितमा । भोगवतिरूपा । गौरिमतिकल्पा । भोगवतिब्रुवा । गौरिमतिचेली । भोगवतिगोत्रा । गौरिमतिमता । भोगवतिहता । नाम्नीति किम् ? भोगवतितरा । भोगवत्तरा । भोगवतीतरा ॥ ६५ ॥ नाम्नीति भोगवद्गौरिमतोरेव विशेषणं न तु तत्सहित वृत्तेः तेन सह सूत्र - स्थपदस्यास्य सम्बन्धासम्भवात् । भोगाः सर्पफणाः सर्पकञ्चुका वा सन्त्य - स्याम सा भोगवती । यद्यपि 'अन० | ३|२८|इति दीर्घे - भोगावतीति भवति, प्रकृतसूत्रे ह्रस्वनिर्देशादेव भोगवतीति ह्रस्वमध्यः पाठः । गौरशब्दात् गौरादित्वान्ङीः ततो मतौ स्त्रियां गौरिमतीति । नदीविशेषनाम्नी एते । न च नदीविशेषे कुतः फणानां सत्ता, ते हि सर्पाणामेव शरीरे स्युरिति वाच्यम् सर्पद्वारा नद्या अति तद्वद्वत्त्वे बाधकाभावात् । भोगवतितरा, भोगवत्तरा, भोगवतीतरेति - अत्र भोगवच्छन्दो न नामापि तु भोगाः सुखादयः सन्त्यस्या इति विग्रहवशाद्विशेषणभूतः परतः स्त्रीलिङ्गः पूर्वत्र तु नित्यस्त्रीलिङ्गो नदीविशेषस्य नामत्वात् ॥ ६५॥ नवैकस्वराणाम् ||२।६६। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) एकस्वरस्य ङन्तस्य तरादौ प्रत्यये ब्रु वादौ चोत्तरपदे स्त्र्येकार्थे वा ह्रस्वः स्यात् । स्त्रितरा । स्त्रीतरा । ज्ञितरा । ज्ञीतरा । ज्ञितमा । ज्ञीतमा जिब्रुवा । ज्ञीब्र वा, एकस्वराणामिति किम् ? कुटीतरा ॥ ६६ ॥ बहुवचनात् परत: स्त्रीति निवृत्तम्, सामान्येन ङयन्तस्यैकस्वरस्यानेन विधीयते । स्त्रितरेति-स्त्यायतोऽस्यां शुक्रशोणिते इत्यर्थे स्त्यायते रौणादिha प्रत्ययेन 'स्त्र-शब्दो निष्पद्यते, ततो ङयां स्त्रीति । ततः तरप्रत्ययः । जितरेत्यादि जानातीति ज्ञः तस्य भार्या इत्यर्थे धवयोगे ङीः ततः तरबादिः । कुटीतरेति- परतः स्त्रीत्वा भावात् 'य' | ३ |२| ६४ | इत्यापि नित्यं ह्रस्वो न भवति ॥ ६६ ॥ ऊङः ।३।२।६७ | ऊन्तस्य तसदौ चोत्तरपदे स्त्र्येकार्थ्ये वा ह्रस्वः स्यात् । ब्रह्मबन्धुतरा । ब्रह्मबन्धूतरा । कब्रुबा । कद्रब्रुवा ॥ ६७॥ ब्रह्मबन्धुतरेति ब्रह्मा बन्धुरस्येति व्युत्पत्त्या ब्रह्मबन्धुशब्दो विप्राचाररहिते निन्द्यकर्मकारिणि जात्या बिप्रे प्रयुज्यते ततः स्त्रियाम् 'उतोऽप्राणिन० ' | २|४| ६३ । इत्युङ्, अतिशयेन ब्रह्मबन्धूः ब्रह्मबन्धुतरा । अत्र विकल्पेनानेन ह्रस्वो भवति । कद्रब्रुवेति — कद्र शब्दः नागमातृवाची, निन्द्यसमा - सोऽयम् ॥६७॥ महतां करघासविशिष्टे डाः | ३ |२|६८ | करादावुत्तरपदे महतो डा वा स्यात् । महाकरः । महत्करः । महाघासः । महद्द्यासः । महाविशिष्टः । महद्विशिष्टः ॥ ६८ ॥ वैयधिकरण्ये अयं विकल्प, सामानाधिकरण्ये तु परत्वाद् 'जातीयैकार्थेऽच्चे:' | ३|२|७० | इति सूत्रेण नित्य एव विधिः । महाकर इति करो Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) हस्तः, राजग्राह्य ं द्रव्यं वा महतः करः इति विग्रहः । कर एव कार इति स्वार्थिकेऽणि कारशब्दस्यापि 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' इति न्यायेन ग्रहणम् भवति तेन महाकार, महत्कार इत्यपि । घासो बालतृणम्, महाघास इति महतः घास इति विग्रहः । विशिष्टः पार्थक्येन गणनाहं : महतां मध्ये विशिष्ट इत्यर्थे महाविशिष्ट इति ॥ ६८ ॥ 1 स्त्रियाम् ||३|२|६६ | स्त्रीवृत्तेर्महतः करादावुत्तरपदे नित्यं डाः स्यात् । महाकरः । महाघासः । महाविशिष्टः ॥ ६६ ॥ महत्या करः -- महाकरः एवं महाघासः, महाविशिष्ट: । ' नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इति न्यायात् पूर्वेणैव सिद्ध नित्यार्थमिदम् सूत्रम् ||६|| जातीयैकार्थेऽच्वे | ३|२|७०८ महतोऽच्वन्तस्य जातीयरि ऐकायें चोत्तरपदे डाः स्यात् । महाजातीयः । महावीरः । जातीयैकार्थ्य इति किम् ? महत्तरः । अच्वेरिति किम् ? महदुद्भूता कन्या ॥७०॥ महान् प्रकारोऽस्य स महाजातीयः । महान् चासो वीरश्च महावीरः । अमहती महती सम्पन्ना महद्भूता कन्या । 'च्वी क्वचित्' | ३ |२| ६० | इति सूत्रेण पुंवद्भावः ॥७०॥ न पुवन्निषेधे | ३|२|७१ महतः पुम्वन्निषेधविषये उत्तरपदे डा न स्यात् । महतीप्रियः ॥ ७१ ॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१ ) 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इति न्यायात् पूर्वसूत्रेण महती. "शब्दस्यापि डादेशो भवति तत्रानेन संकोचः क्रियते । महतीप्रियः इतिमहती प्रियाऽस्येति बहुव्रीहिसमासे 'परत: स्त्री पुंवत्' ।३।२।४८। इति सत्रेण प्राप्तस्य पवद्भावस्य 'नाप्रियादो' ।३।२०५३। इत्यनेन निषेधः ॥७॥ इच्यस्वरे दीर्घआच्च ३।२।७२। इजन्तेऽस्वरादावुत्तरपदे पूर्वपदस्य दीर्घत्वम् आच्च स्यात् । मुष्टीमुष्टी । मुष्टामुष्टी । अस्वरइति किम् । अस्यसि ॥७२॥ इच्प्रत्ययः ‘इज् युद्ध' ।७।३।१७४। इति सूत्रेण विधीयते । दीर्घत्वमाच्वेतितथा च दीर्घाऽऽ-कारयोः पाक्षिकत्वं लभ्यते, सह विधाने एकस्य विधानं व्यर्थमेव स्याद् । मुष्टिभि-श्च मुष्टिभिश्च मिथः प्रहत्य कृतं युद्ध मुष्टीमुष्टि, मुष्टामुष्टि । दीर्घत्वाऽऽ-त्वयोरकारान्ता-दन्यत्र विशेषः । अयं भावःयद्यप्य-कारान्तस्य दीर्घ आकारान्तादेशे वा विशेषो नास्ति तथाप्यन्यस्वरान्तेषु विशेषस्य सत्त्वात्त-द्विधानमप्यावश्यकमिति । असिना आसीना मिथः प्रहृत्य प्रवृत्तं युद्धम् अस्यसि । दीर्घः 'स्वरस्य ह्रस्वदीर्घप्लुता' इति न्यायात् . स्वरान्तानामेव भवति । दीर्घसाहचर्यादात्वमपि स्वरान्तानामेव भवति .. तेनेह न भवति-दोष्णोर्दोष्णोग हीत्वा व्यासक्तमिति दोर्दोषि ॥७२॥ ---- हविष्यष्टनः कपाले ।३।२।७३। हविष्यर्थे कपाले उत्तरपदेऽष्टनोदीर्घः स्यात् । अष्टाकपालं हविः । हविषीति किम् ? अष्टकपालम् । कपालइति किम् ? अष्टपात्रं हविः ॥७३॥ देवोद्देश्यत्वेन त्यज्य-मानं द्रव्यं हविः । 'अष्टनः' इति स्वार्थबहुत्वसंख्याधायित्वा-भावान्न बहुवचनम्, स्वरूपभङ्ग-भयेन चात्र 'अनोऽस्य' Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२ ) ।२।१।१०८। इत्यकारलोपो न कृतः । अत्र दीर्घात्वयो रूपे विशेषाभावाप्रथमोपस्थितदीर्घमात्रविधानेन रूपसिद्धिसम्भावनाया-मात्त्वं नानुवर्तितमित्याह-दीर्घः स्यादिति । अष्टसु कपालेषु संस्कृतम् अष्टाकपालं हविः । 'संख्या समाहारे च द्विगुश्चा-नाम्न्ययम्' ।३।२।६६। इति द्विगुसमासे 'संस्कृते भक्ष्ये' ।६।२।१४०। इयणि 'द्विगोरनपत्ये यस्वरादेल बद्विः' ।६।१।२४। इति लुपि 'अष्टन् कपाल'इति स्थिते नलोपे सत्यनेनान्त्यस्य दीर्घः । यदि च नलोपस्य दीर्घरूपे परविधावसत्त्वान्नकारस्यैवान्त्यत्वमिति कथं दीर्घ इत्याशङ्कयते, तदा ‘अन्त्यबाधेऽन्त्यसदेशस्य , उपान्त्यस्य) इति न्यायादुपान्त्यस्याकारस्य दीपे नलोपे च रुपसिद्धिया । अष्टानां समाहार:-अष्टकपालम् । पात्रादित्वात् स्त्रीत्वाभावः । अष्टसु पात्रेषु संस्कृतं हविः अष्टपात्रम्, पूर्ववत्समासप्रत्ययादिः ।।७३।। . . गवि युक्त ।३।२।७४। युक्तथे गव्यत्तरपदे ऽष्टनोदीर्घः स्यात् । अष्टागवं शकटम् । युक्त इति किम् । अष्टगुश्च त्रः ॥७४॥ अष्टागवं शकटसिति-अष्टौ गावो युक्ता अस्मिन्निति त्रिपदे बहुव्रीही कृते उत्तरपदे परे द्वयोढिगुः ‘गोस्तत्पुरुषात्' ।७।३।१०५ इत्यट्समासान्तः, तत्र दीर्घत्वेन युक्तार्थसंप्रत्ययाद् गतार्थत्वाद् युक्तशब्दस्य निवृत्तिः तथा च युक्तशब्द विनाऽपि तदर्थप्रतीतिः प्रयोगस्वाभाव्यात् अथवा अष्टौ गावः समाहृताः अष्टानां गवां समाहारः इति वा समाहारेऽ थे द्विगुः, तत्र साहचर्यादुपचारादष्टगवेन युक्तं शकटमप्यष्टागवमुच्यते यत्र दीपस्तत्र वोपचार: स दोघस्तस्योपचारस्य द्योतकः । अष्टगुश्चैत्र इति-अष्टौ गावो यस्येत्यर्थे वहुव्रीहिः 'गोश्चान्ते' ।२।४।६६। इति सूत्रेण ह्रस्वः । अत्र चैत्रपदसानिध्यात् स्वस्वामिभावसम्बन्धः प्रतीयते न तु युक्तार्थप्रतिप्रत्तिरित्यत्र दीर्घो न भवति । यद्यपि अष्टौ तुरगा यस्मिन् सोऽ अष्टतुरगो रथ इत्यादौ रथपद-सान्निध्यात् युक्तार्थप्रतिपत्तिरस्ति तथापि तत्र गव्युत्तरपदाभावान्न भवति प्रसिद्धपदसान्निध्यादपि शक्तिग्रहो भवति-यदाह- . Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३ ) शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद्विवृत्तेर्वदन्ति, सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ।। अस्यार्थस्तु-व्याकरणम् =शब्दव्युत्पादकशास्त्रम् । उपमान-सादृश्यज्ञानास्मकप्रमाणम्, कोशः अभिधानचिन्तामण्यादिः, आप्तवाक्यं प्रयोगहेतुभूतयथार्थज्ञानवत्पुरुषोच्चरितवाक्यम् । यथा-'कोकिल: पिकपदवाच्यः' इत्याप्तवाक्येन 'पिक' पदस्यार्थमाजानानस्य बालस्य 'पिक' पदस्य कोकिलात्मकेऽ र्थे शक्तिग्रहो भवति । व्यवहार:-'घटमानये' त्यादिशब्दप्रयोगात्मकस्तेनापि गोपदार्थमजानानस्य बालस्य शक्तिग्रहो भवति । यथा प्रयोजकवद्ध ने उपदेष्ट्रवद्धन . गूर्वादिना 'घटमानय' इति प्रयोज्यवृद्धाय इत्युक्तम्, तद्वाक्यं श्रुत्वा समीपस्थ: घटादिपदानां घटाद्यर्थेऽ गृहीतशक्तिको बाल: प्रयोजकवद्धोच्चरितवाक्यं श्रुत्वा प्रयोज्यवृद्धस्य गमनं घटानयनं च दृष्ट्वा घटानयनक्रिया ‘घटमानय' इतिपदज्ञानजन्यशाब्दबोधजन्येत्यनुमिनोमि। वाक्यस्य शेष:-प्रकृतवाक्यातिरिक्त वाक्ये प्रकृतवाक्यार्थबोधोपयोगी पदकदम्बोऽर्थवादाद्यात्मक:, विवृत्तिः-विवरणम्-पर्यायादिकम्, सिद्धपदस्य सान्निध्यम्-प्रसिद्धपदस्यसन्निधिः एतान्यष्टौ शक्तिज्ञानस्य प्रयोजकानि भवन्तीति वृद्धाः मन्यन्ते ।।७४।। नाम्नि ।३।७५॥ अष्टन उत्तरपदे संज्ञायां दीर्घः स्यात् । अष्टापदः कैलाशः । नाग्नीति किम् । अष्टदंष्ट्रः ॥७॥ 'अष्टौ पदानि स्थानानि यत्र सोऽष्टापद: कैलासः । कैलासपर्वतस्य संज्ञा । अष्टो दंष्ट्रा यस्य सोऽष्टदंष्ट्रः ।।७५।। कोटरमिश्रकसिधकपुरगसारिकस्य वणे ।३।२।७६। एषां कृतणत्वे वने उत्तरपदे संज्ञायां दीर्घः स्यात् । कोटरावणम् । मिश्रकावणम् । सिध्रकावणम् । पुरगावणम् । सारिकावणम् ॥७६॥ .. Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) 'वणे' इति पदं कृतणत्ववनशब्दस्यानुकरणम् । कोटरावनमित्यादि-नामत्वादिह वाक्यं न भवति, प्रक्रियानिर्वाहाय-'कोटर-आम्-वन-सि' इत्यलौकिकं वाक्यमवधारणीयम् । षष्ठीसमासः पूर्वपदस्थान्नाम्न्यगः' ।२।३।६४। इत्यनेन णत्वम् । एवं मिश्रकावणादीनामपि सिद्धिज्ञया । एते सर्वे नरकविशेषाणां वाचका इति प्राञ्चः । 'पूर्वपदस्थान्नाम्यगः' ।२।३।६४। इत्यनेन णत्वे सिद्ध कृतणत्वस्य वनशब्दस्य निर्देशो नियमार्थः, तेन 'पूर्वपदस्था-नाम्न्यगः' ।३।२।७६। इति सूत्रेण वनशब्दस्य णत्वमाकारसंनियोग एव । भवति । तस्मात्-कुबेरवनम् इत्यादौ संज्ञायामपि णत्वं न भवति ॥७६।। अञ्जनादीनां गिरौ ।३।२।७७। एषां गिरावुत्तरपदे नाम्नि दीर्घः स्यात् । अञ्जनागिरिः । कुक्कुटागिरिः ॥७॥ अजनो वृक्षविशेषः, तेषां (प्रभव:) गिरिः अञ्जनागिरिः, जन्यजनकभावसम्बन्धे षष्ठी। तदन्तेन गिरिशब्दस्य समासः । कुक कूट: पक्षिविशेषः तेषां (प्रभवः) गिरिः कुक्कुटागिरिः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । एवमाकृतयोऽ न्येऽ पि गणे बोध्या इति ज्ञापनार्थमित्यर्थः ॥७७॥ । अनजिरादिबहुस्वरशरादीनां मतौ ।३।२।७८। अजिरादिवर्जबहुस्वराणां शरादीनां च मतौ प्रत्यये नाम्नि दीर्घः स्यात् । उदुम्बरावती। शरावती । वंशावती । अनजिरादीति किम् । अजिरवतो । हिरण्यवती ॥७॥ अनजिरादिशब्दो बहुस्वरमात्रस्य विशेषणं संभवातु, न शरादीनामसंभवात्तदाह-अजिरादिवर्जबहुस्वराणाम् । उदुम्बरा वृक्षविशेषा ते सन्त्यस्यां सा उदुम्बरावती 'तदनास्ति' ।६।२।७। इति चतुरर्थ्यान्तर्गतार्थे 'नद्यां मतुः' ।६।२।७२। इति मतुः 'नाम्नि' ।२।१६५। इति मस्य वः, स्त्रियां ङीः । शरा Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) स्तृणजातयः ये सन्त्यस्यां सा शरावती | वंशाः वेणवः ते सन्त्यस्यां सा वंशावती । एतानि नदीविशेषनामानि । शरादिराकृतिगणः | अजिरमङ्गणं तदस्त्यस्यामिति विग्रहः । हिरण्यवतीति एते नदीविशेपस्य नाम्नी । अजिरादिराकृतिगणः । आकृत्यैव गण्यन्ते परिचीयन्ते इत्याकृतिगणा अजिरादय इति भावः ॥ ७८ ॥ | ऋषौ विश्वस्य मित्र | ३ |२|७६ । ऋषावर्थे मित्र उत्तरपदे विश्वस्य नाम्नि दीर्घः स्यात् । विश्वामित्रः ॥७६ 1 नाम्नीत्यनुवर्तनात् विश्वं मित्रमस्य विश्वमित्रो मुनिः इत्यत्र दीर्घो न भवति । अयं भावः - यद्यपि मुनेरहिंसायां प्रवृत्तस्य निवै रित्वाज्जगदेव तस्य मित्रमत्रि सर्वोऽपि मुनिविश्वमित्रः तथापि नाम्नीत्यनुवर्तनादत्र न भवति ॥७६॥ नरे | ३|२|८०| नरे उत्तरपदे नाम्नि विश्वस्य दीर्घः स्यात् । विश्वानरः कश्चित् ||८०| योगविभागाद् ऋषाविति न सम्बध्यते । विश्वे नरा अस्य - विश्वानरो नाम कश्चित् । विश्वशब्दोऽत्र सर्वपर्यायः ॥ ८० ॥ वसुटोः | ३|२८| अनयोरुत्तरपदयोविश्वस्य दीर्घः स्यात् । विश्वासुः, विश्वाराट् ॥ ८१ ॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६ ) पूर्वसूत्रेण सहैकयोगाकरणाद् नाम्नीति निवृत्तम् । विश्वं वसु अस्य-विश्वावसुः । विश्वशब्द: इह सर्वविधार्थः, सर्वप्रकारं वस्वस्येत्यर्थः । गावो भूमिहिरण्यमिति वसुनस्त्रयः प्रकाराः तत्र गोपदं सर्वविधपशुपरम्, हिरण्यपदं सर्वविधाकुप्यधनपरम्, भूमिपदं च भूमि-तत्संभवसर्वविधान्नादिपरम्, तथा च यस्यैतत्त्रितयान्तर्गन्तं सर्व प्रकारं वसु भवेत् स एव विश्वावसुःन तु सकलजगद्धनस्वामी, तादृशस्य कस्यचनाभावात् । विश्वस्मिन् राजते सर्वत्र दीप्यते स विश्वाराट्। 'यजसज०।२।१।८१।इति षत्वम,षस्य डः । राडिति विकृतनिर्देशादिह न भवति-विश्वराजौ, विश्वराजः ।।१।। वलच्यपित्रादेः ।३।२।१२। वलचप्रत्यये पित्रादिवर्जानां दीर्घः स्यात् । आसुतीवलः । अपिश्रादेरिति किम् । पितृवलः । मातृवलः ॥८२॥ , आसुतिः सुरा साऽस्यास्तीति आसुतीवलः । कृष्यादित्वात् 'कृष्यादिभ्यो बलच' । इति वलच् । नन्वत्र 'वलचि' इति कथं 'वले' इति कथनेनापीष्टसिद्धिर्भविष्यतीति चेत्सत्यम्-वलजित्यत्र चकारः प्रत्ययत्वज्ञापनाय, तेन कायबलमित्यादौ वलशब्दे परे दीर्घो न भवति । न च 'बले' इत्युपादानेऽपि 'प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव ग्रहणम्' इति न्यायात्प्रत्ययस्यैव ग्रहणं भविष्यतीति चकारः पुनव्यं र्थ इति वाच्यम् यत्र प्रत्यययाप्रत्यययोरु-भयोः सामान्येन ग्रहणप्राप्तं तत्रैन्न्यायप्रवृत्तिरिह तु उत्तरपदे'इत्यनुवृत्तमित्युत्तरपद भूतम् एवं वलशब्दे परे इत्यर्थो गम्येत,इति यत्रोतरपदभूतो वलशब्दस्तत्रैव दीर्घःस्यात् 'आसुतीबल' इत्यादौ तु न स्यात् । नन्वन केचित् 'कागबलम्' इत्यादी बलशब्दः न तु वलशब्दः इति भवद्दत्ताऽऽपत्तिरसङ्गतेति 'वलेऽपित्रादेः' इति सूत्रेणाऽपि नापत्तिरिति चेदत्र केचिद् यद्यपि वलधातोरचि वलत इति वलः' इति साधयितु शक्यते संभवति च तस्य क्लीबताऽपि तथापि तादशप्रयोगस्याप्रसिद्धत्वेन न कायबलमित्यादी संभव इति स्पष्टार्थमेव चकारोपादानमित्याहुः । वस्तुतस्तु अच्प्रत्ययान्तो कलशब्द: स्व. यमाचार्येण धातुपारायणे साधित इति तदप्रसिद्धिरिति कथनं नोचित Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७ ) मिति चकारोपादानमावश्यकम् । किञ्च बवयोरैक्यमिति बलशब्दोऽपि वलशन्दो भवतीति ध्येयम् ।।२।। चितेः कचि ।३।।३। चितेः कचि दीर्घ स्यात् । एकचितीकः ॥३॥ चितिशब्दोऽनेकार्थः चिनोतेः क्तिप्रत्यये साधुः, समूहे च वर्तते, इष्टकादिसमूहविषये च निरुढ-लक्षणया वर्तते । एका चितिरस्मिन एकचितीकः । इति विग्रहवाक्ये चितिशब्दस्तत्तत्समूहविशेषवाचक एव विज्ञायते 'शेषाद्वा' ।७।३।१२५॥ इति सूत्रेण कच् ।।३।। स्वामिचिह नस्याऽविष्टाऽष्टपञ्चभिन्नछिन्नच्छिद्रसवस्वस्तिकस्य कर्णे ।३।२।४। स्वामी चिह्नयते येन तद्वाचिनोविष्ठादिवर्जस्य कर्णे उत्तरपदे दीर्घ स्यात् । दानाकर्णः पशुः । स्वामिचिह्नस्येति किम् ? लम्बकर्णः। विष्टादिवर्जनं किम् ? विष्टकर्णः । अष्टकर्णः ॥४॥ स्वामी चिह्नयते परिचीयते येन चिह्न लक्षणम् स्वामिनश्चिह्नमिति षष्ठी तत्पुरुषः तथा च स्वामिपरिचायकस्य पूर्वपदस्येति फलति । दात्रमिव . दात्रम्, दात्रं चिह नं कर्णे यस्य स दात्रमिव वा कणौ यस्य स दानाकर्णः पशुः । दात्र लोहादिनिमित्त काष्ठादिद्विधाकरणसाधनम् तन्न पश्वादीनां कर्णे स्वामिविशेषपरिचायकत्वेन तिष्ठत्यपि तु तदाकारेण रोमदाहादिचिहमेव तथा च न तद्दात्रमपि तु तदाकारकत्वात् तत्सदृशम् । लक्षणया तेन शब्देन व्यवहारः । दानमिव कणौं यस्येति विग्रहान्तरसम्भावनाप्रदर्शन मात्रम् न तु स्वामिचिह्नत्वसाधकम् न हि प्राकृतिकेन दावाद्याकारेण चिह्नन स्वामिविशेषः प्रतीयते कृते तु संकेत कश्चिदित्थंभत: पशुः स्वामिविशेषसम्बन्धितया परिचीयते, अपि तु न तत्साधारण्येन चिह्नतयां व्य Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८ ) वहतुं शक्यते। लम्बकर्ण इति-लम्बौ कणो यस्येति विग्रहः, कर्णानां लम्बत्वं स्वामिनः परिचायकं नास्ति किन्तु चिह्नरूपमेव । तथा चात्र केवलस्य चिह्न-वाचिनः कर्णशब्दे उत्तरपदे दो! न भवति, किन्तु स्वामिचिह्नवाचिनः । यदि केवलं स्वामिशब्दोपादानं स्यात्तहि वाहनस्य कर्णः वाहनकर्ण इत्यत्र कर्णनिरूपितं स्वामित्वं वाहनेऽसित इत्यतिव्याप्तिः स्यात् । विष्टादिवर्जस्येति-'विष्टादिपर्युदासो व्यर्थः स्याच्च । 'विष्ल कोव्याप्तौ' विष्टं व्याप्तं (चिह्न) कर्णे यस्य स विष्टकर्णः । अशौटि त्याप्तौ अष्टं व्याप्तं (चिह्नकर्णे यस्य स-अष्टकर्णः । विष्टशब्दो व्याप्त्यर्थकाद्विषः, अष्टशब्दोऽपि व्याप्त्यार्थकादश्नोतेः वते सिद्धः। पञ्चशब्दसाहचर्याद् संख्यावाचकस्याऽप्यष्टशब्दस्य ग्रहणं तत्पक्षे अष्टौ (चिह्नानि) कर्णे यस्येत्यादिविग्रहः । एवं पञ्च(चिह्नानि) कर्णे यस्य स पञ्चकर्णः,भिदेश्छिदेश्च क्त भिन्न-छिन्न शब्दौ, तावपि स्वामिविशेषपरिचायकचिह्नवाचिनौ, स्वामिविशेषपरिज्ञानाय भेद-छेदो विशेषरीत्या क्रियेते, भिन्नं (चिह्न) कर्णे यस्येति, भिन्नौ च्छिन्नौ वा कणौ यस्येति. वां विग्रहे भिन्नकर्णः, छिन्नकर्णः । छिद्रं कर्णे यस्य स छिद्रकर्ण :। स्रव :(स्र वाकार चिह नं) कर्णे यस्य स स यकर्णः । स्वस्तिक:-मङ्गलसूचकचिह्नविशेषः, स कर्णे यस्य स स्वसितककर्णः ॥४॥ गतिकारकस्य नहितिवृषिव्यधिरुचिसहितनौको ।३।२।२५॥ गतिकारकयोर्नह्यादौ बिन्ते उत्तरपदे दीर्घः स्यात् । उपानत् । नीवृत् । प्रावृट् । श्वावित् । नोरुक् । ऋनीषट् । जनासट् परीतत् ॥५॥ उपनह्यति पादम् उपानत् । उपनातीति कर्तरि विग्रहः नहेर्दिवादित्वात् । उपनाते परिधीयते पादयोः बध्यते वा इति कर्मणि विग्रहः, उभयथापि वाच्यस्य पादत्राणस्य प्रतोतिः । 'नहाहोर्धतो' ।२।१।८५। इति सूत्रेण हकारस्य धकारः । नियतं वर्तन्तेऽस्यां नोवत् देशः इत्यर्थः । प्रवर्षन्त्यस्यां मेधाः प्रावृट्। यः श्वानं विध्यतीति-श्वावित् पशुविशेषः शुनः।३।३।६३।इति दीर्घः, Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( १६६ ) नितरां रोचते-नीरुक, ऋति पीडां सहते-ऋपीषट् । भीरुष्ठानादयः' ।२।३।३३। इति षत्वम् । जलं सहते-जलासट् । परितनोतीति-परीतत् । 'गमा क्वौ' ।४।२।५८। इति सूत्रेण नलोपः, 'ह्रस्वस्य तः पित्कृति' ।४।४।११३। इति सूत्रण तोऽन्तः । श्वाविदृतीषज्जलासडित कारकस्योदाहरणानि इतरे गतेः । इह क्विग्रहणादन्यत्र धातुग्रहणे तदादिविधिलभ्यते, तेन 'अयस्कृतम्, अयस्कृत इत्यादौ सकारसिध्यति अन्यथा अयस्कृदित्यश्रव स्यात् । अयं भावं.-'अतः कृकमि०' ।२।३५॥ सूत्र कृधातुनिदिष्ट:, तस्य स्वरूपमात्रस्य ग्रहणे 'अयस्कृद्' इत्यत्र व स्यात् नतु अयस्कृतम्, अयस्कारः' इत्यादी क्ताऽण्प्रत्ययान्ते करोतो। प्रकृतज्ञापने तदादिविधिलाभे तू करोत्यादौ शब्दे परे सूत्रस्य प्रवृत्त्या 'अयस्कृतम्' इत्यादावपि सत्त्वम् भवति ॥८५॥ . घञ्युपसर्गस्य वहुलम् ।३।२।८६॥ घनन्ते उत्तरपदे उपसर्गस्य बहुलं दीर्घः स्यात् । नोक्लेदः । नीवारः । बाहुलकात् क्वचिदवा। प्रतीवेशः । प्रतिवेशः । क्वचिन्न, विषादः । निषादः ॥८६॥ निक्लेदनं नीक्लेदः निपूर्वाक्लिद्यतेपन । नियतैत्रियते-नीवार: । निपूवाद्वृणोतेः 'नेषुः ।५।३।७४। इति घन । प्रतिवेशनं, प्रतिविशन्त्यस्मिन् वेति प्रतीवेशः, प्रतिवेशः । गृहसमीपस्थगृहान्तरं प्रतीवेश-प्रतिवेशशब्दाभ्यामाख्यायते। विषदनं विषीदति मनोऽस्मिन् वा विषादः । विपूर्वकात्सीदतेर्भावेऽधिकरणे वार्थे घन । निषीदति मनः पापं वा यस्मिन् निषादः । अधिकरणे घन । पूर्व विग्रहेण निषादनामा स्वरः परेण च म्लेच्छजातिविशेष उच्यते ॥८६॥ नामिनः काशे ।३।२।१७। नाम्यन्तस्योपसर्गस्याजन्ते काशे उत्तरपदे दीर्घः स्यात् । नीकाशः। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) वीकाशः । नामिनइति किम् ? प्रकाशः ॥७॥ नाम्यन्तस्योपसर्गस्येति-'अनवर्णा नामी ।१।१६। इति सूत्रेण अवर्णवर्जानामौदन्तानां स्वराणां नामिसंज्ञा विहिता तथाप्यत्र 'ए ऐ ओ औ वर्णानां स्वत एव दीर्घत्वेन दीर्घविधानानर्थक्यात् लु कारान्तामेवेहोद्देश्यत्वं, तत्रापि ऋकारान्त-लकारान्तयोरुपसर्गस्या-श्रुतत्वात् परिशेषादिकाराकारयोरेव ग्रहणम् । इकारोकारान्तस्योपसर्गस्येति पर्यवस्यति । निकाशते निकाश्यते इति वा नीकाशः । विकाश्यत इति वीकाशः । बहुलाधिकारात् विकाश इत्यपि । प्रकाशत इति प्रकाशः । 'काशे' इति सामान्यनिर्देशेऽपि घान्ते पूर्वसूत्रण विधानात् अजन्त एवायं विधिरित्याहअजन्त इति-'अच' ।५।१।५४। इति सूत्रणाच ॥७॥ दस्ति ।३।२।८८॥ दो यस्तादिरादेशस्तस्मिन्परे नाम्यन्तस्योपसर्गस्य दीर्घः स्यात् । वोत्तम् । दइति किम् । वितीर्णम् । तीति किम् । सुदत्तम् यीतम् । निदीयते स्म, विदीयते स्म-नित्तम्, वित्तम् । नि-विपूर्वाद् दासंज्ञकात् क्तः' 'अवौ दाधौ दा' ।३।३।५। इति सूत्रेण दासंज्ञा । 'स्वरादुपसर्गादस्ति कित्यधः ।४।४।।। इति 'दा' इत्यस्य 'त्त' इत्यादेशः । सुदीयते स्मेत्यर्थे ते 'निविस्वन्वात्, ।४।४।८। इत्यनेन विकल्पाद् दत्' ।४।४।१०। इति सूत्रेण ददादेशः ।।८८॥ अपील्वादेवहे ।३।२।८। पोल्वादिवर्जस्य नाम्यन्तस्य वहे उत्तरपदे दीर्घः स्यात् । ऋषीवहम् । मुनीवहम् । अपील्वादेरिति किम् । पोलुवहम् । दारुवहम् ॥६॥ ऋषीणां वहम् ऋषीवहम् । ऋषीणां धारकमित्यर्थः । मुनीनां वहम् मुनी.. Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१ ) वहम् । पीलुर्वृक्षविशेषः तस्य वहं-पीलुवहं नाम वनम् । दारूणां वहम्दारुवहम् ॥७॥ शुनः ।३।२।६०। अस्योत्तरपदे दीर्घः स्यात् । श्वादन्तः । श्वावराहम् ॥१०॥ शुनो दन्तः श्वादन्तः, श्वा । वराहश्च । बहुलाधिकारात् क्वचिद्विकल्पःशुनः पुच्छम् श्वापुच्छम् श्वपुच्छम् । क्वचिन्न-शुनो मुखमिव मुखं यस्यसश्वमुखः ॥१०॥ एकादश-षोडश-षोडषोढा-षड्ढा ।३।२।६१॥ एकादयोदशादिषु कृतदीर्घत्वादयोनिपान्त्यन्ते । एकादश । षोडश । षट्दन्ता अस्य षोडन् । षोढा, षड्ढा ॥१॥ एकेनाधिका एकाधिका दश । एकं च दश च वा-एकादश । अत्र पूर्वपदस्य दीर्घत्वं निपात्यते । पूर्वस्मिन् विग्रहेऽत्र तत्पुरुषसमासः, मयरव्यंसकादित्वाच्छा-कपार्थिवादिवदुत्तरपदलोपश्च । परस्मिन् विग्रहे 'चार्थद्वन्द्व:०' ।३।१।११७। इति सूत्रेण द्वन्द्वसमासः । षडधिका दश, षट् च दश च वा षोडश । अत्र षषोऽन्तस्योत्त्वं दशशब्ददकारस्य डत्वं च निपात्यते । षड .दन्ता अस्य-षोडन् । अत्र दन्तशब्दस्य 'वयसि दन्तस्य दतः' ।७।३।१५। इति दत्रादेशे कृते दस्य डत्व षषोऽ न्तस्योत्व च निपात्यते । 'ऋददितः' 1१।४।७०। इत्यनेन नोन्तः ‘पदस्य' ।२।१८९। इत्यन्त्यतकारस्य लुक । षड्भिः प्रकारैः-षोढा-षड्ढा,अत्र धाप्रत्यये षषोऽ न्तस्य वोत्त्व धकारस्य त् तृ-नित्यं ढत्त्वम् । अत्र षोढा विभजतीत्यत्र तृयीयान्तेन विग्रहस्योपयोगात् तृ-तीयान्तेन विग्रहः कृतः । अन्यत्र 'द्रव्यमेकं षोढा कुरु' इत्यादौ यथासंभवं द्वितीयाद्यन्ते-नापि विग्रहः क्रियते । अत्र 'संख्याया धा' ।७।२।१०४। इति सूत्रेण धाप्रत्ययः । 'प्रकारे धा' ७२।१०२। इत्यस्य प्रकरणे पठितत्वादत्र सम्भवत्स्याद्यन्ताद्विग्रहः क्रियते ॥११॥ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) द्वित्र्यष्टानां द्वात्रयोऽष्टाः प्राक्शतादनशीतिबहुव्रीही ।३।२। । एषां यथासंख्यमेते प्राक्शतात् संख्यायामुत्तरपदे स्युनत्वशीतो बहुव्रीहिविषये च । द्वादश । त्रयोविंशतिः । अष्टाविंशत् । प्राक्शतादिति किम् ? द्विशतम् । त्रिशतम् । अष्टसहस्रम् । . अनशीतिबहुव्रीहाविति किम् ? द्वयशीतिः । द्वित्राः ॥१२॥ म त्वशीतो बहुव्रीहिविषये चेति-अशीतिविषयं बहुव्रीहिविषयं चोत्तरपदं वर्जयित्वेत्यर्थः । द्वाभ्यामधिका दश, द्वौ च दश चेति वा दादशः । त्रयिधका त्रिश्च विंशतिश्चेति वा त्रयोविंशतिः, अष्टाधिका त्रिंशत् अष्टात्रिंशत् । अष्ट च त्रिंशच्च-अष्टचिंशत् । 'ननु चार्थे द्वन्द्वः०' ।३।१।११७।इति सूत्रेण एकविंशतिरित्यादौ संख्याद्वन्द्व समाहारेऽवयवानामनुद्भुतत्वात्पार्थक्येनप्रतीयमानत्वाद्भवत्वेकवचनं किन्तु संख्याद्वन्द्वे इतरेतरयोगेऽवयवानामनुद्भतत्वासार्थक्येन प्रतीयमानत्वादनेकत्वाच्च द्विवचनादिनैव भवितव्य-मिति कथमेकवचनमिति चेत्सत्यम्-यथा 'विंशतिघटाः' इत्यत्र विंशतिशब्दः संख्येयान् विंशतित्वसंख्यासहितान् घटानाचष्टे, तत्र घटानां बहुत्वेऽपि न तत्संख्यामपि तु विंशति त्वसं ख्यागतमेकत्वमनुसरति तत एकवचनान्तो भवति तथा 'एकविंशतिघंटाः' - इत्यत्रैक-विंशतिशब्द: संख्येयान् एकविंशतित्वसंख्यासहितान् घटाना चष्टे तत्र घटाना बहुत्वेऽपि न तत्संख्यामनुसरति किन्तु एकत्वविंशतित्वयोर्यः समुदायः एकविंशतित्वसंख्यात्मक: तद्गतमेकत्वमनुसृत्यैव संख्येयानाचष्टे इतीतरेतरयोगेऽप्येकवचनान्तो भवति । एवं 'आशताद् द्वन्द्वे०' इति लक्षणात् समाहारेऽपि स्त्रीलिङ्गो भवति । संख्याद्वन्द्वादन्यत्र संख्येयद्वन्द्वं तु संख्येयद्वन्द्वत्वात् संख्याद्वन्द्वादुच्यमानमेकत्वं न भवति, किन्तु संख्येयार्थकस्यैकशब्दस्य विशंतिशब्दस्य च प्रत्येकमेकत्वमिति मिलित्वा द्वयोद्वित्वं बहूनां बहुत्वमिति द्विवचनबहवचनान्तता भवति । यथा-एको देवदत्ताय दीयतां विंशतिश्चैत्रायेति-एकविंशती आभ्यां देहि । एवं षष्टिदेवदत्ताय दीयतां सप्ततिमैत्राय दीयताम्, अशीतिर्यज्ञदत्ताय दीयतामिति-षष्टिसप्तत्यशीतीरेभ्यो देहि । द्वयधिकं शतम् । द्वौ च शतं च द्विशतम् । त्र्यधिक Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) शतम् त्रयश्च शतं च त्रिशतम् । द्वाभ्यामधिका अशीतिः द्वौ च अशीतिश्च शीतिः । द्वौ वा यो वा द्वित्राः ||२|| चत्वारिंशदादौ वा | ३|१|१३| द्वित्र्यष्टानां प्राक्शताच्चत्वारिशदादावुत्तरपदे यथासंख्यं द्वात्रasष्टा वा स्युः, अनशीति बहुव्रीहौ । द्वाचत्वारिंशत् । द्वित्वारिंशत् । त्रयचत्वारिंशत् । विचत्वारिंशत् । अष्टाचत्वारिंशत् । अष्टचत्वारिंशत् ॥६३॥ पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पार्थमिदम् । द्वाभ्यामधिका. द्वौ च चत्वारिंशच्चेति वा द्वाचत्वारिंशत्, द्विचत्वारिंशत् । एवं त्रिभिरधिका, तयश्च चत्वारिंशच्चेति अष्टाभिरधिका, अष्ट च चत्वारिंशच्चेति त्रयश्चत्वारिशदित्यादि ||३|| हृदयस्य हृल्लासलेखाये | ३ |२| ६४ अस्य लासलेखयोरुत्तरपदयोरणि ये च प्रत्यये हृत् स्यात् । हृल्लासः । हृल्लेखः । हार्द्दम् । हृद्यः ॥ ६४ ॥ हृदयस्य लासः हृल्लासः, लसनं विलसनं लासः भावे घञ् हर्षातिरेकः, हृदयं लिखतीति हृल्लेख:, हृदये कमपि भावमाविष्करोतीति । भावः 'कोण' | ५|१|७२ | इत्यण् । अणुसन्निधानाल्लेखशब्दोऽप्यन्तो गृह्यते तेनं घञन्ते न भवति हृदयस्य लेख : हृल्लेखः । न च लासशब्दस्य सान्निध्यात लेखशब्दस्य घनन्तस्य ग्रहणं कुतो नेति वाच्यं पूर्वात् परबलीयस्त्वमिति परस्याणः सान्निध्यात् लेखशब्दस्याण एव ग्रहणमुचितमिति भावः । हृदयस्येदं-हादम् 'तस्येदम्' | ६ | ३ | १४२ । इत्यण् । हृदयस्प प्रिय: हृद्यः, हृदयस्य बन्धनो मन्त्रः हृयः वशीकरणमन्त्रः । अत्र प्रियार्थे बन्धनार्थे च 'हृद्यपद्य०' 1७1919१ | इति यप्रत्ययो निपात्यते । 'अण्' इत्येव सिद्ध लेख ग्रहणम् 'सिद्ध सत्यारम्भो नियमार्थ:' इति Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) न्यायात्किञ्चित् ज्ञापयति ‘संज्ञोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्य ग्रहणं न तदन्तस्य इति, ज्ञापयति तेनात्राणग्रहणे लेखग्रहणं न स्यादिति तस्येह सूत्रे ग्रहणं सार्थकम् फलं चान्येषामणन्तानां ग्रहणं न भवतीति । 'खित्यनव्यया०' ।३।२।१११। इत्यादौ त्वसंभवात्तदन्तग्रहणम् । हृदयशब्दसमानार्थेन हृच्छब्देनैव सिद्ध हृदादेशविधानं लासादिषु हृदयशब्दप्रयोग- . निवृत्त्यर्थम् ॥६४॥ पदः पादस्याज्यातिगोपहते ॥३॥२॥६५॥ पादस्याज्यादावुत्तरपदे पदः स्यात् । पदाजिः। पदातिः । पदगः । पदोपहतः ॥६॥ पादाभ्यामजति अतति चेति ‘पादाच्चात्यजिभ्याम्' ।६।२०। इति औणादिके इणि पदाजिः पदातिः, अजिरतिश्च गमनाथौ धातू । अत एव शात अघत्र' ।४।४।३। इति सत्रेण अजेर्वीः आदेशो न भवति । अयं भाव:-कानिचित्कार्याणि आचार्याः स्पष्टं कानिचिच्च स्वाचारेण शिक्षयन्ति तथा चाचार्येण आजिशब्दव्यव-हारादत्र तदभावोऽ नुमीयत इति । पादाभ्यां गच्छति-पदगः 'नाम्नो गमः . खड्डो०' ।५।१।१३१। इति डप्रत्ययः, पादाभ्यामुपहतः-पदोपहतः 'कारकं कृता' ।३।१।६८। इति समासः । पादशब्दोऽन्न शरीरावयवविशेषपरो न तु श्लोकादिचतुर्थांशपरः यद्यपि शरीरावयवविशेष पदशब्दोऽप्यस्ति तथापि आज्यादिष पादशब्दप्रयोगनिवृत्त्यथं वचनम् ।।१५।। हिमहतिकाषिये पद् ।३।२०६६। हिमादावुत्तरपदे ये च प्रत्यये पादस्य पद् स्यात् । पद्धि मम् । पद्धतिः । पत्काषी । पद्याः शर्कराः ॥६६॥ 'पादयोहिमम्--पद्धिमम्, पादाभ्यां हतिराघातः पद्धतिः, पादौ कषतीत्येवं. शीलः, पादाभ्यां साधु कषतीति, पुनः पुनः पादौ कषतीति वा-पत्काषी । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) 'अजातेः शीले' ।५।१।१५४॥ इति 'साधौ' ।५।१।१५५॥ इति 'बताभीक्ष्ण्ये' 1५।१।१५७। इति वा णिन् । पादौ विध्यन्ति पद्या:-शर्कराः, मार्गकङ्कणानि अत्र विध्यत्यनन्येन' ।७।१।८। इत्यनेन यः स्त्रीत्वादाप् ॥१६॥ ऋचः शसि ।।।। ऋचां पादस्य शादौ शम्प्रत्यये पद् स्यात् । पच्छो गायत्री शंसति, ऋचइति किम् ? पादशः श्लोकं वक्ति। दिवःशपाठात् स्यादिशसि न स्यात् ? ऋचः पादान पश्य ॥६॥ अर्थवान् नियताक्षरपादो वेदभागः ऋक् । पादं पादं गायत्र्याः शंसतिपच्छो गायत्रीं शंसति 'संख्यैकार्थाद्' ।७।२।१५१॥ इति शस्, पूर्वसूत्रगृहीत पादशब्दाविन्नस्य पादशब्दस्य ग्रहणार्थमेव पृथक्सूत्रमारब्धम् । वाक्यगम्यस्य गायत्र्याः पादसंबन्धस्य वृत्ती निवृत्तत्वातू स्वाभाविक शंसनक्रियापेक्षं कर्मत्वं भवति.। अयं भाव:-वाक्ये गायत्र्याः पादेन सह सम्बन्धो गम्यते स च वृत्तो सत्यां वृत्तावन्तभूत: पादस्य पृथगनुपस्थितेः अन्वयितावच्छेदकरूपं हि पृथगुपस्थितिमत्वम्, तच्च निवृत्तमिति सम्बन्धार्थो निवृत्तः, सम्प्रति च शंसतीति क्रियायाः किमपि कर्मापेक्ष्येते, तच्चोपस्थितत्वाद् गायत्र्येव तस्या एवावयवरूपेण शंसनादिति तस्यामेव कर्मत्वं प्रयुज्यत इति शेषत्वाभावान्न तस्याः षष्ठयन्तत्वम् । पादशः श्लोक क्क्तीति-पादं पादं श्लोकस्य व्याचष्ट इत्यर्थः । शसो द्विशकारपाठाद् विभक्तिशसि द्वितीयाबहुवचने न भवति-ऋचः पादान् पश्य द्विशकारपाठेन हि विद्यमानशकारवत्त्वं प्रतीयते, शसः शकारश्चन विद्यमानोऽपितु अप्रयोगितयेत्संज्ञक इति नान पदादेशः । पदादेशे तु 'पद' इति रूपं स्यान्न तु पादानिति ।।६७।। शब्दनिष्कघोषमिश्रे वा । । शब्दादावुत्तरपदे पावस्य पद् वा स्यात् । पच्छब्दः । पादशब्दः । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) पन्निष्कः । पादनिष्कः । पद्घोषः पादघोषः। । पन्मिश्रः । पादमिभः । ॥९॥ पादयोः शब्दः-पच्छब्दः, पादशब्दः, पादयोः सञ्चलनपतनादिकृतः शब्दः इत्यर्थः । पादयोनिष्कः-पन्निष्क इत्यादि-निष्कशब्दार्थोऽत्र भूषणविशेष: निष्कशब्दस्य बहवोऽर्थाः-दीनारम्, मानविशेष: भषणविशेषश्च । स च यद्यपि वक्षोभूषणे प्रयुक्तः तथापीह पन्निष्क इत्यादि प्रयोगश्रवणात्पाद- . भूषणेऽपि प्रयुज्यते इति प्रतीयते, पादयो?ष-पद्घोष इत्यादि। शब्दःस्पष्टं परिचीयमानः घोषश्चास्पष्ट: इति शब्द-घोषयो दः । पादाभ्यां मिश्रःपन्मिश्र इत्यादि । मिश्र-शब्द: संयुक्तार्थः, पादाभ्यां संयुक्त इत्यर्थः, सहाथै तृतीया, यदि च मिश्रशब्दस्य मिश्रीकृतार्थपरत्वमाश्रीयते तदा करणे तृतीया ॥६॥ नस् नासिकायास्त:-क्षुद्र ।३।२।। नासिकायास्तस्प्रत्यये क्षुद्रे चोत्तरपदे नस् स्यात् । नस्तः । नः-क्षुद्र ॥६६॥ नासिकायाः नासिकायां वा नस्तः, आद्यादीनामाकृतिगणत्वात् 'आद्यादिभ्यः' ।७।२।८४। इति सूत्रेण सार्वविभक्तिकस्नसुः । तत्र नासिकाया इति पञ्चम्यन्तत्वम्, नासिकायामिति सप्तम्यन्तम् । नासिकायां नासिकाया वा क्षद्रः-न क्षुद्रः । अत्र यदा सप्तम्यन्तेन विग्रहस्तदा नासिकाविषयक्ष द्रत्वविशिष्टः, पञ्चम्यन्तेन विग्रहे च नासिकाहेतुकक्षुद्रत्वविशिष्ट इत्यर्थः HEEN येऽवणे ।३।२।१००। नासिकाया ये प्रत्यये वर्णादन्यनार्थे नस् स्यात् । नस्यम् । यइति Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७ ) किम् ? नासिक्यपुरम् । अवर्णइति किम् ? नासिक्यो वर्णः । ॥१०॥ नासिकाय हितं तत्र भवं वा नस्यम् 'प्राण्यङ्गरथ०' ७।१।३७। इति यः, भवार्थे च 'दिगादि०' ।६।३।१२४। इनि यः । नासिकाया अदूरभवं-नासिक्यं पुरम् । 'सुपन्ध्यादेञ्यंः' ।६।२।८४। इति ज्यः । 'निरनुबन्ध-ग्रहणे न सानुबन्धकस्य' इति न्यायादत्र भवति । नासिकायां: भवः, नासिकामभिहत्य वायुनाभिव्यञ्जितो वर्ण:-नासिक्योः वर्णः । अत्रापि भवार्थे देहांशत्वाद्यः ॥१०॥ शिरसः शीर्षन् ।३।२।१०१॥ शिरसो ये प्रत्यये शीर्षन् स्यात् । शीर्षण्यः स्वरः । शीर्षण्यं तैलम्। यइत्येव ? शिरस्तः । शिरस्यति ॥१०१॥ शिरसि भवःशीर्षण्यःस्वरः,शिरसे हितं-शीर्षण्यं तैलम् देहांशत्वाद्यः शीर्ष नादेशे सति, नोऽपदस्य तद्धिते'।७।४।६१।इत्यन्यस्वरादिलुकि प्राप्ते'अनोऽटये ये' ।७।४।५१। इति निषेधः । शिरस्त: इति-पञ्चम्यन्तात् 'अहीय होऽपादाने' ७।२।८८। इति तस् । 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य' इति न्यायात् शिर इच्छति-शिरस्यति,अत्रापि न भवति । अत्र शिरस इत्यस्यादेशेन सम्बन्धः न तु प्रत्ययेन, तेन हास्तिशीषिरित्यादौ समाससंबन्धिन्यपि तद्धिते 'शीर्षः स्वरे' ।३।२।१०३। इति शीर्षादेशो भवति ॥१०१॥ केशे वा ।३।२।१०२॥ शिरसः केशविषये ये प्रत्यये शोषन् वा स्यात् । शीर्षण्याः, शिरस्याः केशाः ॥१०॥ शिरसि भवाः, शीर्षण्याः केशाः देहांशत्वाद्यः ।।१०२।। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) शीर्षः स्वरे तद्धिते ।३।२।१०३। शिरसः स्वरादौ तद्धिते शिर्षः स्यात् । हास्तिशोषिः। शोषिकः । ॥१०३॥ हस्तिनः शिर इव शिरो यस्य स हस्तिशिराः तस्यापत्यं-हास्तिशीषिः 'बाह्वादिभ्यो गोत्रे' ।६।१।३३। इतीत्र । 'अवर्णेवर्णस्य' ।७।४।६८। इत्यकारस्य लोपः । शिरसा तरति-शीर्षिकः । 'नो-द्विस्वरादिकः' ।६।४।१०। इति इकः । शीर्ष शब्दः प्रकृत्यन्तरमस्ति शीर्षच्छेयं परिच्छिद्यति, अनेनैव त्र सिद्ध उक्तविषये शिरसः प्रयोगनिवृत्त्यर्थं वचनम् । शीर्षच्छेदमहतीति 'शीर्षच्छेदाद् यो वा' ।६।४।१८४। इति यः तादृशं जनं परिच्छिद्य-निश्चित्येति क्वाचित्क: प्रयोगः ॥१०३॥ उदकस्योदः पेषंधिवासवाहने ।३।२।१०४। उदकस्य पेषमादावुत्तरपदे उदः स्यात् । उदपेषं पिनष्टि । उदधिर्घटः । उदवासः । उदवाहनः ॥१०४॥ उदकेन पिनप्टि-उदपेष-पिनष्टि 'स्वस्नेहनार्थात् पुष-पिषः' ।५।४।६५। इति णम्, उदकेन पिनष्टीत्यर्थः । उदकं धीयतेऽस्मिन्निति उदधिर्घटः, वसन' वासः, भावे पत्र । उदकस्य वास:-उदवासः। उदकं वाहनमस्य-उदवाहनः । अनामाथं वचनम्, नाम्नि नाम्न्युत्तरपदस्य च' ।३२१०७। इत्युत्तरसूत्रेणैव सिद्धम् ॥१०४॥ वैकव्यञ्जने पूर्ये ।३।२।१०५॥ उदकस्यासंयुक्तव्यञ्जनादौ पूर्यमाणार्थे उत्तरपदे उदो वा स्यात् । उदकुम्भः । उदककुम्भः । । व्यञ्जनइति किम् ? उदकामत्रम् । एकेति किम् ? उदकस्थालम् । पूर्वइति किम् ? . उदकदेशः॥१०॥ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ । उंदकुम्भ इति-उदकस्य कुम्भ इति सम्बन्धषष्ठया, उदकेन पूरणीयः कुम्भ इति पूरणार्थ वृत्तावन्तर्भाव्य करणतृतीयान्तेन वा समासः । अमत्रं पात्रम् विशालपात्रं स्थालशब्देनोच्यते । स्थालशब्दः स्त्रीलिङ्गः नपुंसकलिङ्गश्च स्थाली, स्थालम् । लोके अन्नपात्रे नपुंसकं प्रयुज्यते, पाकपात्रे च स्त्रीलिङ्गम् तथोदकपात्रऽ पि क्वचिन्नपुंसकत्वं प्रयुज्यत इत्य-स्मात्प्रयोगादवगम्यते । उदकदेश इति-उदकबहुलो देशः इत्यर्थः नात्र देशशब्दः पूरयितव्यवाचीत्यत्र न भवत्यु-दादेशः ॥१०॥ मन्यौदनसक्त -बिन्दु वज्रभारहारवीवधगाहे वा ।३।२।१०६॥ एषत्तरपदेषु उदकस्योदो वा स्यात् । उदमन्थः । उदकमन्थः । उदौदनः । उदकौदनः । उदसक्तः । उदकसक्तः । उदबिन्दुः उदक बिन्दुः । उदवजः । उदकवजः । उदभारः । उदकभारः । उदहारः। उदकहारः । उदवीवधः । उदकवीवधः । उदगाहः । उदकगाहः ॥१०६॥ उदमन्य इति-द्रवद्रव्यसंस्कृताः सक्तवो मन्थ इत्युच्यते । उदकेन मन्थ इति तृतीयासमासः यद्वा उदकेन मथ्यते इति कर्मणि घत्रि 'कारकं कृता' ।३।१।६८। इति समासः । उदौदन इति-उदकेनोपसिक्त ओदनः इति विग्रहः, उपसेक-क्रियायाश्च वृत्तावन्तर्भावात् तदद्वारा उदकेन सहोदनस्य सामर्थ्यम् । मयूरव्यंसकादेराकृतिगणत्वात् समासः । उदसक्त रिति-उदकेनोपसिक्तः सक्त रिति विग्रहे उपसेकक्रियाद्वारोदकेन सह सामर्थ्यम् । उदविन्दुरिति-षष्ठीसमासः । उदवज्रः इति-उदकस्य वज्रः इति विग्रहः । उदकसंभूतो मण्यादिजातीयः पदार्थः, वज्रत्वेन प्रसिद्धो वा मेघसम्भतोऽ'. शनिः । उदकस्य भार:-उदभारः । उदकं हरति स उदहारः 'कर्मणोऽ ण्' ।५।३।१४। इत्यण् । विवध्यते-वीवधः 'न जनबधः' ।४।३।५४। इति घनि वृद्ध रभावः । घत्रि उपसर्ग-दीर्घत्वे वीवधः । वीवधशब्द: पथिभारे वर्तते । उदकाहरणार्थः पथिभार इति तदर्थः । गाहो गाहनम्-उदकस्य गाहः Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) उदकगाहः । पूर्वसूत्र पूर्य उत्तरपदे प्रवर्तते, मन्थादीनां च पूरयितव्यवाचित्वाभावः स्पष्ट एवेति पूर्वसूत्रेण न प्राप्तिरिति तदर्थमयं सूत्रारम्भकृतो यत्नः कृतः ॥१०॥ नाम्न्युत्तरपदस्य च ।३।।१०७। उदकस्य पूर्वपदस्योत्तरपदस्य च संज्ञायामुदः स्यात् । उदमेघः । उदवाहः । उदपानम् । उदधिः । लवणोदः । कालोदः ॥१०॥ उदकपूर्णो मेघः उदमेघः । तत्सादृश्यात् तादशस्य कस्यचन पुरुषस्य संज्ञेयम् । उदकं वहतीत्युदवाहः, 'कर्मणोऽण' ५।३।१४। इत्यण । अयमपि पुरुषविशेषस्य संज्ञा। पीयतेऽस्मिन्निति पानं जलपानस्थानम्-उदकस्य पानं उदपानम् कूपादिसमीपे पश्वादिजलपानार्थ स्थलविशेषो निर्मीयते तदेव उदपानंनिपानं वो-च्यते । उदकं धीयतेऽस्मिन्निति उदधिः समुद्रनामसु प्रसिद्धोऽयं शब्दः, लवणं क्षारमुदकं यस्य स लवणोदः, कालं कृष्णवर्णमुदकं यस्य स कालोदः । एवं-नामानो समुद्रौ ।।१०७॥ ते लग्वा ।३।।१०। संज्ञाविषये पूर्वोत्तरपदे लुग्वा स्यात् । देववत्तः । देवः । दत्तः ॥१०८॥ शब्दसाम्येऽ पि प्रकरणादेरर्थविशेषनिर्णयः । अयं भावः-उत्तरपदस्य लोपे 'देवः' इत्युच्यमानोऽ-यं त्रिदशवाचकः अथवा देवदत्तवाचक इति सन्देहे प्रकरणादेरर्थ-विशेषनिर्णयो भवति । संयोगो विप्रयोगश्च, साहचर्य विरोधिता। अर्थः प्रकरणं लिङ्ग, शब्दस्यान्यस्य सन्निधिः ॥१॥ सामर्थ्यमौचिती देशः, कालो व्यक्तिः स्वरादयः । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृति-हेतवः ॥२॥ इति प्रकरणादेरर्थविशेषनिर्णायकत्वम् ।।१०८॥ द्वयन्तरनवर्णोपसर्गादप ईप् ।३।२।१०६। द्वयन्तामवर्णान्तव|पसर्गेभ्यश्च परस्यापउत्तरपदस्य ईप् स्यात् । द्वीपम् । अन्तरीपम् । नीपम् । समीपम् । उपसर्गादिति किम् ? स्वाप: । अनवर्णेति किम् ? प्रापम् । परापम् ॥१०॥ द्विधा गता आयोऽस्मिन्निति तत् द्वीपम् । यस्य भूभागस्य द्वयोः पार्श्वयोः समुद्रादिसम्बन्धिन्यः आपः सन्ति स'द्वीपम्' इति कथ्यते, नामत्वेन नित्यसमासत्वादस्वपदविग्रहः, यद्यपि (द्वि अप) इति स्वपदे विग्रहवाक्ये प्रयुक्त एव तथापि पदान्तरस्यापि मध्ये प्रवेशादस्वपदविग्रहत्वं व्यवह्रियते । अन्तर्गता आपो यस्मिन् तद् अन्तरोपम्, निवृत्ता आपो यस्मिन् तत् नीपम्, संगता आपो यस्मिन् तत् समीपम् । सर्वत्र 'ऋक्तःपथ्यपोत्' ।७।३।७६। इत्यत्समासान्तः । शोभना आपः-स्वापः, 'धातोः पूजार्थस्वति०' ।३।११। इति सूत्रेण पूजार्थकस्य स्वते!पसर्गत्वम्, पूजार्थकत्वात 'प्रजास्वते:०' ७।३।७२। इति न समासान्तः । प्रगता आपो यस्मिंस्तत प्रापम्, परागता आपो यस्मिस्तत्-परापम् ।।१०६॥ अनोर्देशे उप ।३।२।११०॥ अनोः परस्यापोदेशेऽथे उप स्यात् । अनपोदेशः । देशइति किम् । अन्वीपं वनम् ॥११०॥ अनुगता आपो यस्मिन्-अनूपो देशः । यत्र देशे सर्वत्रापः सुलभाः स देशः, तत्र वा देशे जलपूर्णदेश एवाधिकः शुष्क स्थलमल्पं स देशः इत्यर्थः । अनुगता आपो यस्मिन् तत् अन्वीपं वनम् ॥११०॥ खित्यनव्ययाऽ रुषो मोऽन्तो ह्रस्वश्च ।३।२।१११। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) स्वरान्तस्थानव्ययस्यारुषश्च खित्प्रत्ययान्ते उत्तरपदे मोडतो यथासम्भवं हस्वादेशश्च स्यात् । जंमन्यः । कालिमन्या । अरुन्तुदः । खितीति किम् ? ज्ञमानी । अनव्ययस्येति किम् ? दोषामन्यमहः ।।१११॥ -- स्वरान्तस्येति-अरु:- शब्दस्य पृथक्कथनबलात् स्वरान्तस्येति लाभः - जानातीतिज्ञः 'नाम्युपान्त्य ० ' | ५ ||५४ | इति कः, आलोपः । ज्ञमात्मानं मन्यते-शंमन्यः 'कर्तुः खश्' |५|१|११७ | इति ख‍, दिवादित्वात् श्यः ह्रस्वस्य स्वत एव विद्यमानत्वान्न ह्रस्वः । कालीमात्मानं मन्यते कालिमन्या, अरुर्मर्मस्थानं तुदतीति 'बहुविध्वरुस्तिलात् तुदः' | ५|१| १२४ | इति खश्, तुदादित्वात् शः, अनेन मोऽन्ते सति 'संयोगस्यादौ स्कोलु 'क' |२१|| इति सूत्रेण सलोपः । ज्ञं परं मन्यत् इति 'मन्याण्णिन् ' |५|१|११६ | इति णिन् । दोषा आत्मानं मन्यत इति दोषामन्यमहः ||१११|| सत्यागदास्तो: कारे । ३।२।११२ | एभ्यः कारे उत्तरपदे मोऽन्तः स्यात् । सत्यङ्कारः । अगबङ्कार । अस्तुङ्कारः ॥११२ ॥ 'सत्य - अगद - अस्तु' शब्दानां समाहारः, सौतत्वात्पु स्त्वम् । एभ्य इति - पूर्व सूत्र े षष्ठ्यन्ततया व्याख्यानम् अत्र तु पञ्चम्यन्ततया व्याख्यानं वैचित्र्यार्थम् । सत्यं करोति-इति 'कर्मणोऽ ण्' ।५।१।७२। इत्यण् । कृद्योगे कर्मणि षष्ठी, तदन्तस्य कारेति कृदन्तेन सह 'गतिकारक०' इति न्यायाद्विभक्त युत्पत्तेः प्रागेव समासः । अगदं नीरोगं करोतीति - अगदंकारी वैद्यः । अस्तु करोतीति - अस्तुकारः स्वीकार इत्यर्थः । अस्त्विति 'विभक्तिथमन्त०' |9||३३| इति विभक्त यन्ताभानामव्ययसं - ज्ञाविधानात्यादिविभक्तयन्ताभमव्ययमभ्युपगमे वर्तते ॥ ११२ ॥ लोकम्पूणमध्यन्दिनाऽनभ्यासमित्यम् | ३|२|११३ | Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३ ) एते कृतपूर्वपवमोऽन्ता निपात्यन्ते । लोकम्पृणः । मध्यन्दिनम् । अनभ्यासमित्यः ॥ ११३॥ लोकम्पूण इति लोकस्य पृणतीति 'कर्मणोऽण्' | ५|१|७२ । इत्यणोऽभावोऽपि निपातनाद् 'मूलविभुजादयः | ५|१| १४४ | इति पाठकल्पनाद्वा । अथवा लोकस्य पृणः इति विग्रहे- 'नाम्युपान्त्य ० ' | ५|१|५४ | इति कः । निपातनादेव समासः मान्तत्वं च पूर्वपदस्य । मध्यं दिनस्य मध्यं च तत् दिनं चेतिमध्यं - दिनम् | अश्नोतेर्घत्रि अभ्याश इति रूपम्, न अभ्याशः अनभ्याशः दूरमित्यर्थः इत्यं गन्तव्यमित्यर्थः, अनभ्याशं दूरमित्यंगन्तत्यं यस्य सोऽनभ्याशमित्यः, दूरतः परिहर्तव्यः इत्यर्थः । अत्रानभ्याशमिति क्रियाविशेषणत्वेन द्वितीयैकवचनान्तं क्लीबम् अन्यथा थमैकवचनान्तस्य घञन्तत्वेन पुंस्त्वं स्यात् 'अनभ्याशेनेत्यः अनभ्यामित्यः इति वा हेतुतृतीया । दूरेण प्राप्यो न त्वन्तिकेनेत्यर्थः ।।११३। भ्राष्ट्रग्नेरन्धे | ३ |२| ११४॥ आभ्यामिन्धे उत्तरपदे मोहन्तः स्यात् । भ्राष्ट्रमिन्धः । अग्निमिन्धः ॥ ११४ ॥ भ्राष्ट्रमधे दीपयतीति 'कर्मणोऽण' | ५ | १|७२ | इत्यण् । अग्निमिन्धे-इति अग्निमिन्धः ||११४ || अगलागिलगिलगिलयोः । ३ । २ । ११५ | गिलान्तवर्णात् पूर्वपदात्परे गिले गिलगिले चोत्तरपदे मोऽन्तः स्यात् । तिमिङ्गिलः । तिमिङ्गिलगिलः । अगिलादिति किम् । तिमिङ्गिलगिलः ।। ११५ ॥ तिमि गिलतीति - तिमिङ्गिलः । तिमिशब्दो मत्स्यपर्यायः, तं गिलतीति मूलविभूजादि पाठकल्पनात्क : 'नाम्युपान्त्य०' | ५|१|५४ | इति कस्तु 'कर्मणी Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) ऽण् ।५।१।७२।इत्यनेन बाध्यते बाहुलकाद्वा तद्बाधाभाव: कल्पनीयः । गिलं गिलतीति गिलगिलः तिमीनां गिलगिलः। गिलगिलशब्दे गिलशब्दो नोत्तरपदमिति गिलगिलोपादानम् । गिलशबदस्य स्वरान्तस्य पर्युदासेन स्वरान्ताद्विधिस्तेन व्यञ्जनान्तान्न भवति-धूरं गिलतीति-गिलः । न च मागमे सति मकारस्य लोपेन रुपसिद्धिस्तु भविष्यतीति वाच्यं 'रात्सः' ।२।१।६०। इति नियमात् । अगिलादिति किमिति-तिमिगिलं गिलतीति-तिमिगिलगिलः । अगिलादिति वचनेन गिलान्तात् मान्तनिषेधः, गिलगिल इत्यत्र .. केवलात् च गिलशबदात् व्यपदेशिवडावेन मान्तनिषेधः। न चात्र तु गिलगिलेति निर्देशादेव मोऽन्तो न संभवतीति अगिलादित्यस्य गिलस्यापि निषेधार्थत्वपर्यवसानं न युक्तमिति वाच्यं साक्षाद्वचनेन प्रयोगसाधुत्वे सिद्धे निर्देशसामर्थ्यकल्पनस्यानौचित्यात्, यत्र हि नास्ति किमपि स्पष्टं गमकं तत्रैव निर्देशसामर्थ्याद्याश्रयणस्य दर्शनात् ॥११५॥ भद्रोष्णात्करणे ।३।२।११६ . आग्यां परः करणे उत्तरपदे मोऽन्तः स्यात् । भद्रं करणम् । उष्णकरणम् ।.११६॥ भद्रस्य करणम्,उष्णस्य करणम्-'कृति' ।३।११७७। इति समासः। अत्र पञ्चमीनिर्देशेन कस्य मागमोद्द श्यत्वमिति यद्यपि स्पष्टं न ज्ञायते तथापि 'करणे' इति सप्तम्यन्तपदोपादानात् सप्तम्याः पूर्वस्य'।७।४।१०५॥इति परिभाषाबलादुत्तरपदात्पूर्वस्य भद्रशब्दस्योष्णरपदस्य च तदुद्दे श्यत्वं बोध्यम् । एवं पूर्वसूत्रेऽपि विज्ञेयम् तत्रापि पञ्चमीनिर्देशस्य सत्त्वात्, 'सत्यागदास्तोः कारे' ।३।२।११२। 'भ्राष्टाग्नेरिन्धे' ।३।२।११४। इत्यादौ च षष्ठ्यन्तत्वेन व्याख्यानसंभवेऽपि पञ्चम्यन्ततया व्याख्यानं तत्राप्येषा रीतिज्ञेया। ॥११६।। नवाखित्कृदन्ते रात्रेः ।३।१।११७। खिदर्जे कृदन्ते उत्तरपदे परे रात्रर्मोऽन्तो वा स्यात् । रात्रिञ्चरः। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१५ ) रात्रिचरः । खिद्वर्जनमिति किम् ? रात्रिमन्यमहः । कृदन्तइति किम् ? रात्रिसुखम् । अन्तग्रहणं किम् ? रात्रयिता ॥११७॥ रात्रौ चरतीति 'चरेष्ट:' ।५।१।१३८। इति टोऽनेन मागमः । रात्रिमात्मानं मन्यते इति-रात्रिमन्यमहः 'खित्यनव्य०।३।२।१११॥इति नित्यमेवरात्रेः सुखम्रात्रिसुखम्। सुखशबदोऽत्राव्युत्पन्नः। रात्रिरिवाचरति क्विप्,लुक्,तृचरात्रयिता। इदमेवान्तग्रहण ज्ञापकम्-इहोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययस्यैवग्रहणं न नदन्तस्येति, तेन कालात्तनतरतम०'1३।२।२४।इत्यादी प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं सिद्धम्, 'न नाम्येकस्वरात्' ३।२।६। इत्यादी त्वसंभवातदन्तग्रहणम् । केचित् 'तीर्थंकर, तीर्थकर इत्यत्रापि विकल्पमिच्छन्ति, तदर्थं प्रकृतसूत्रस्य द्विधा विभागः कार्यः 'नवाऽखित्कृदन्ते' इत्येको योगः, 'रात्रेः' इति च परः । तथा च पूर्वयोगेन सामान्यत एव खिद्भिन्ने कृदन्ते मागमविधानेन तीर्थंकरादावपि प्रवृत्तिः 'रात्रेः' इत्यनेन च विशिष्य रात्रिशबदस्यैव मान्तागमविधानम् । न चैवं कुम्भकार इत्यादावपि मागमः स्यान्निवारकाभावादिति वाच्यं योगविभागस्येष्टसिद्धयर्थत्वात् अन्यथा रात्रिञ्चर इत्यादावपि पूर्वयोगेनैव सिद्धरुत्तरयोगस्य वैयर्थ्यापातात् । उत्तरयोगारम्भसामर्थ्यादेव पूर्वयोगस्य क्वाचित्कन्वज्ञापनाद् वा, किञ्च परमतसंग्रहोपायत्वेनास्य योगविभागस्य स्वीकारान्नै तदाश्रयणे-न दोषापादनमुचितमिति ॥११७॥ धेनोभव्यायाम् ।३।२।११८॥ धेनोभव्यायामुत्तरपदे मोऽन्तोवा स्यात् । धेनुम्भव्या । धेनुभव्या ॥११॥ धेनुश्चासो भव्या च धेनुभव्या धेनुभव्या । नव-प्रसूतिका गौधेनुः,भव्याशबदः 'भव्यगेय-जन्य० ।५।१७। इति सूत्रेण निपातितः । धेनु-शब्देन मयूरवयंसकादित्वात्समासे विशेषणस्य भव्याशब्दस्य परप्रयोगः, विशेषणसमासे तु भक्याशब्दस्यैव पूर्वप्रयोगः स्यात् ।।११८।। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) अषष्ठीतृतीयादन्याद्दोर्थे ।३।२।११६ अषष्ठमन्तादतृतीयान्ताच्चान्यादर्थे उत्तरपदे द् अन्तो वा स्यात् । अन्यदर्थः । अन्यार्थः । षष्ठयादिवर्जनं किम् ? अन्यस्यान्येन वाऽर्थोऽन्यार्थः ॥११॥ 'अषष्ठीतृतीयात्"इति 'अन्यात् इत्यस्य विशेषणम्, विशेषणेन च तदन्त- ... विधिरिति अषष्ठयन्तादतृतीयान्ताच्चेत्यर्थलाभः।संज्ञोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं न तदन्तस्यइंतिनिषेधस्तु प्रत्ययग्रहण तदन्तग्रहणम्' इति न्यायप्राप्तस्यैव तदन्तग्रहणस्य साजात्यात् न तु विशेषणत्व-प्रयुक्ततदन्तग्रहणस्येति विज्ञेयम्।दोऽन्तो वा स्यादिति-अर्थादन्यशब्दस्यैवान्तः . . सप्तमीश्रुत्या 'सप्तम्याः पूर्वस्य'।७।४।१०५॥ इति परिभाषाबलात् । अन्यशचासौ अर्थश्च, अन्योऽर्थो यस्येत्यादिविग्रहे अन्यदर्थः,अन्यार्थ इति ॥११६।। आशीराशास्थितास्थोत्सुकोतिरागे ।३।२।१२०॥ एकूत्तरपदे अषष्ठीतृतीयादन्याह, अन्तः स्यात् । अन्यदाशीः । अन्यदाशा । अन्यदास्थितः । अन्यदास्था । अन्यदुत्सुकः । अन्यदूतिः । अन्यद्रागः । अषष्ठीतृतीयादित्येव ? अन्यस्य अन्येन वा आशीः अन्याशीः ॥१२०॥ पृथग्योगाद् वेति निवृत्तम्। अन्या आशी:अन्यदाशीः।अन्या आशा अन्यदाशा। अन्यमास्थितः अन्यदास्थितः,अन्या आस्था अन्यदास्था.। अन्यस्मिन् उत्सुक:अन्यदुत्सुकः, अन्या ऊतिः-अन्यदूतिः, अन्यत्र रागः अन्यद्रागः ॥१२०॥ ईयकारके ।३।२।१२१॥ अन्यावीये प्रत्यये कारके चोत्तरपदे दोऽन्तः स्यात् । अन्यदीयः । . अन्यत्कारकः ॥१२१॥ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) पृथग्योगादषष्ठीतृतीयादिति निवृतम् । अन्यस्यायमन्यदीयः । 'गहादिभ्यः' ।१।३।६३॥ इत्यत्रगहादेराकृतिगणत्वादीयः । अन्यस्यान्येन वा कारकः अन्यत्कारकः अन्यः कारक इति वा अन्यत्कारकः । अन्यस्य कारक इत्यर्थे 'कृति' ।३।१७१। इति समासः। अन्येन कारकः इत्यर्थे 'कारकं कृता' १३।१।६८। इति समासः । अन्यः कारकः इत्यर्थे विशेषणसमासः ॥१२१॥ सर्वादिविष्वग्देवाड्डद्रिः क्वयञ्चौ ।३।२।१२२॥ सर्वाविष्वग्देवाभ्यां च परत:क्विबन्ते अञ्चावुत्तरपदे डदिरन्तः स्यात् । सवंद्रीचः । द्वयद्रयङ् । कद्रयङ् । विश्वव्यङ् । देवद्रयङ् । क्वीति किम् । विष्वगञ्चनम् ॥१२२॥ सर्वमञ्चति तस्य ‘सर्वद्रि+अञ्च+अस् इति, स्थिती न-लोपे 'अच्च प्राग्दीर्घश्च' ।।१।१०४। इति चादेशो दीर्घश्च । द्वौ अञ्चतीति द्वयव्यङ, किमञ्चतीतिकद्रयङ्। विष्वगित्यव्ययं विश्वगञ्चतीति विष्वद्रयङ। देवा: नञ्चतीति देवद्रयङ ।।१२२।। सहसमः सधिसमि ।३।२।१२३। अनयोः स्थाने क्विबन्ते अञ्चावुत्तरपदे यथासंख्यं सध्रिसमी . स्याताम् । सध्यङ् । सम्यङ् । क्वयञ्चावित्येव ? सहाञ्चनम् ॥१२३॥ सहाञ्चतीति-सध्रयङ्, समञ्चतीति सम्यङ् । सहाञ्चनमिति-क्विबन्ताञ्चिय त्तरपदत्वाभावादत्र न भवति ।।१२३।। - तिरसस्तियति ।३।२।१२४। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) अकारादौ क्विबन्तेऽञ्चावुत्तरपदे तिरसस्तिरिः स्यात् । तिर्य। अतीति किम् ? तिरश्वः ॥१२४॥ तिरोऽञ्चति-तिर्यड । तिरश्च इति–'अच्च् प्रा दीर्घश्च' ।२।१।१०४। इति 'अच्' इत्यस्य स्थाने चादेशादकाराद्रित्वाभावः । दीर्घस्तु स्वराभावान्न भवति ।।१३४॥ नजत् ।३।१।१२५॥ उत्तरपदे परे नञ् अः स्यात् । अचौरः पन्थाः । उत्तरपद इत्येव ? न भुङ्क्ते ॥१२५॥ न विद्यते चौरो यत्र स अचौरः पन्थाः । न भुङ्क्तो इति-नाम नाम्नेत्युक्त. स्त्याद्यन्तेन सह समासा-भावान्नास्तीह भुङ्क्त' इत्यस्योत्तरपदत्वमिति न भवत्यकारः ।।१२५।। त्यादौ क्षेपे ।३।२।१२६॥ त्याद्यन्ते पदे परे निन्दायां गम्यमानायां नञ् अः स्यात् । अपचसि त्वं जाल्म। क्षेपइति किम् ? न पचति चैत्रः ॥१२६॥ क्वचिदनुत्तरपदेऽपि नत्रोऽकारादेशस्येष्टत्वेन तदनुशासनार्थं सूत्रमिदम्, । अपचसि त्वंजाल्मइति-कुत्सितं पचसीत्यर्थः, समासाभावेऽपि प्रयोगस्वाभाध्यादस्याकारस्य क्रियातः पूर्वमेव प्रयोगः । अत एव त्यादिपरत्वं सिध्यति 'अ-मा-नो-नाः प्रतिषेधे, इत्यकारेण प्रतिषेधार्थीयेनैव सिद्धो क्षेपे नत्रः श्रवणनिवारणार्थम्, अनुत्तरपदेऽ पि क्वचिन्ननः स्थानेऽकारस्य प्रयोगार्थ च वचनम् ॥१२६॥ नगोऽप्राणिनि वा ३।२।१२७॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१९ ) अप्राणिन्यर्थे नगो वा निपात्यते । नगः, अगः, गिरिः । अप्राणिनीति किम् ? अगोऽयं शीतेन ॥१२७॥ न गच्छतीति-नगः गिरिः, अगः-गिरिः । नत्र पूर्वाद् गमेः 'नाम्नो गमः०' ।५।१।१३१॥ इति ड: । अन्त्यस्वरादिलोपे डस्युक्त-समासे सति 'नत्रत्' ।३।२।१२५॥ इति नित्यमादेशे प्राप्ते विकल्पोऽयम् ।।१२७।। नखादयः ।३।२।१२८। . एते अकृताकाराद्यादेशा निपात्यन्ते । नखः । नासत्यः ॥१२८॥ खन्यते इति खं छिद्रम्, तदस्य नास्ति स नखः, बहुव्रीहिसमासे 'नात्' ।३।२।१२५॥ इति प्राप्तोऽकारादेशो निपातनान्निवर्त्तते इति तत्सिद्धिः । सत्सु साधुः सत्यः, न सत्यः असत्यः । न असत्यो विद्यते यत्र स नासत्यः । नासत्यशब्दस्यैव गणे पाठात् असत्य इत्य-त्राकारादेशो भवत्येव । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।।१२६॥ - अन् स्वरे ।३।२।१२६॥ स्वरादावुत्तरपदे ननोऽन् स्यात् । अनन्तो जिनः ॥१२६॥ न विद्यतेऽन्तोऽस्येति-अनन्तो जिनः । ननु नत्रः स्थानेऽनादेशे सति 'नाम्नो नोऽनह्नः' ।।१।९१। इति नलोपः नकारस्य ह्रस्वात्परत्वेन स्वरे परे तस्य 'ह्रस्वान्ङणनो द्वे' ।१।३।२७। इति द्वित्वं च प्राप्नोति तत्कथं न भवतीति चेत्सत्यम् अन् इति स्वरूपनिर्देशात् नलोपो द्वित्वं च न भवति । अयं भावः-नलोपे सति अकारस्यैव शिष्टत्वे तद्विधानवैयर्थ्यात्, सर्वत्र स्वरादावुत्तरपद एवानादेश-विधानेन द्वित्वस्य नित्यप्राप्ततया द्विनकारनिर्देशस्यैव प्रक्रियालाघवार्थं विधेयत्वं स्यादित्येकनकारान्तादेशस्वरूपनिर्देशसामर्थ्यादिह नकारस्य लोपो द्वित्वं च न भवतीति ।।१२६॥ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) कोः कत्तत्पुरुषे ।३।२।१३०॥ स्वरादावुत्तरपदे कोस्तत्पुरुष कद् स्यात् । कदश्वः । तत्पुरुष इति किम् ? कूष्ट्रो देशः स्वरइत्येव ? कुब्राह्मणः ॥१३०॥ कुशव्दोऽव्ययमिह गृह्यते तस्यैव प्रतिपदोक्तत्वेन 'गति-क्वन्यस्तत्पुरुषः' ।३।१।४२। इति समासविधानात् तथा च पृथ्वीवाचककुशब्दस्य नायमा- . देशः । एवं च कु पृथ्वीमतीतः क्वतीत इत्यादौ तत्पुरुषे कदादेशो न भवति तन हि द्वितीयान्तत्वस्य सामान्यरूपेण लक्षणरूपत्वेन वा तत्समासस्य लाक्षणिकत्वात् । कुत्सितः अश्वः कदश्वः, कुत्सिता उष्ट्रा अस्मिन्अष्ट्रो देशः । कुत्सितो ब्राह्मणः कुब्राह्मणः ॥१३०।। रथवदे ।३।२।१३१॥ रथे ववे चोत्तरपदे कोः कद् स्यात् । कद्रथः । कद्ववः ॥१३१॥ कुत्सितो रथः कद्रथः, कुत्सितो रथोऽस्य कद्रथः । वदनं-वदः, पुसि नाम्नि घः । कुत्सितो वदः-कद्वदः, कुत्सितो वदोऽस्य कद्वदः ।।१३१।। तृणे जातौ ।३।२।१३२॥ जातावर्थे तृणे उत्तरपदे कोः कद् स्यात् । कत्तृणा रोहिषाल्या तृणजातिः ॥१३२॥ कुत्सितं तृणमस्या:-कत्तृणा रोहिषाख्या तृणजातिः। जाती रूढत्वेनावयवार्थप्रतीत्यभावेऽपि पूर्वोक्तपदावगतयेविग्रहवाक्यं प्रदर्शितम् ।।१३२।। कत्त्रिः ।३।२।१३३॥ कोः किमो वा त्रावुत्तरपदे कद् स्यात् । कत्त्रयः ॥१३३॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) कुत्सितास्त्रयः, के वा त्रयः, कत्त्रयः, कुत्सितास्त्रय एषां के वा त्रयः एषां कत्त्रयः ।।१३३।। . काऽक्षपथोः ।३।२।१३४॥ अनयोरुत्तरपदयोः कोः का स्यात् । काक्षः । कापथम् ॥१३४॥ अयं भावः-उत्तरपदत्वदशायामुभयोविशेषस्य कस्यचिदनुपलभ्यमानत्वेन कस्य ग्रहणं कस्य नेति विनिगमकस्यानुपलब्धे अक्षशब्दस्याकारान्तस्य कृतसमासान्तस्य च ग्रहणम् । कुत्सितोऽक्षः-काक्ष:-पाशकादि । इन्द्रिये त्वक्षशब्दस्य क्लीबत्वं स्यात्-कुत्सितमक्षमिन्द्रियं काक्षम् । कुत्सितोऽक्षःधूः-स्थितश्चकाकर्षकः काष्ठविशेषो यस्य सः-काक्षो रथः, कुत्सितमक्षि अक्षं बाऽस्य काक्षः 'सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्गे'।७।३।१२६॥ इति ट: समासान्तः 'अवर्णवर्णस्य' ।।४।६८। इतीवर्णस्य लोपेऽक्षशब्दो निष्पद्यते तस्मिन्परे कोः कादेशः । कुत्सितः पन्थाः-कापर्थम् । अस्य तत्पुरुषसमासत्वेनोत्तरपदलिङ्गत्वस्यौचित्येऽपि लिङ्गानुशासने ‘पथः संख्याऽव्ययोत्तर०' इति पाठात् कापथमिति क्लीबत्वमुक्तम् । अनीषदर्थार्थं वचनम् ईषदर्थे तुं “अल्पे' ।३।२।१३६। इत्येव सिद्धम् ।।१३५।। पुरुष वा ।३।२।१३५॥ पुरुषे उत्तरपदे कोः का वा स्यात् । कापुरुषः । कुपुरुषः ॥१३५॥ कुत्सितः पुरुषः-कापुरुषः, कुपुरुषः, कुत्सितः पुरुषः, अस्मिन्-कापुरुषो ग्रामः, कुपुरुषो ग्रामः । अनीषदर्थे विकल्पोऽयम्, ईषदर्थे तु परत्त्वादुत्तरेण नित्यमेव । अनीषदर्थे पुरुषे परेऽस्य चारितार्थ्यम्, ईषदर्थे पुरुषशब्दादन्यत्र परस्य चारितार्थ्यमितीषदर्थे पुरुषशब्दे पर उभयोः प्राप्तौ सत्यां स्पर्द्ध जाते ‘स्पर्धे' ।७।४।१६६। इति परिभाषासूत्रबलात्परस्यैव प्रवृत्तिरिति 'भावः ।।१३५।। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) अलपे ।३।२।१३६॥ - ईषदर्थस्य कोरुत्तरपदे का स्यात् । कामधुरम् । काच्छम् ॥१३६॥ . अल्पशब्दस्य न शब्दस्वरूपपरत्वमपि त्वर्थपरत्वं व्याख्यानात् । यद्यपि रवं रूपं शब्दस्य शब्दसंज्ञा' इति न्यायेन शब्दस्य स्वरूपमेव ग्राह्य तथापि न्यायानामस्थिरत्वेन अल्पशल्दस्यहार्थपरत्वम् । मधु-माधु-. . यंमस्यास्तीति मधुरम्,ईषन्मधुरं कामधुरम्, स्वरादावपि परत्वादीषदर्थे कादेश एव भवति-ईषदच्छम् स्वच्छं-काच्छमिति ।।१३६॥ - काकवौ वोष्णे ।३।२।१३७॥ उष्णे उत्तरपदे कोः काकवौ वा स्याताम् । कोष्णम् । कवोणम् । पक्षे यथाप्राप्तमिति । तत्पुरुष, कदुष्णम् । बहुव्रीही, कूष्णो देश: ॥१३७॥ ई। कुत्सितं वोष्णं कोष्णं कवोष्णम्, ईत्यकुत्सितं वोष्णमत्र कोष्णः, कवोष्णः । बहुव्रीहौ तु कदादेशो न भवति कूष्णो देशः ॥१३७॥ कृत्ये ऽवश्यमोलुक् ।३।२।१३८। कृत्यान्ते उत्तरपदे ऽवश्यमोलुक् स्यात् । अवश्यकार्यम् । कृत्य इति किम् ? अवश्यं लावकः ॥१३॥ 'ते कृत्याः' ।५।४।४७। इति सूत्रेण ध्यणादयः कृत्संज्ञकत्वेनोक्ताः । कतु योग्यं कार्यम् ‘ऋवर्ण-व्यञ्जनांद् ध्यण' ।५।१।१७। इति घ्यण् । अवश्य कार्यम्-अवश्यकार्यम्-मयूरव्यंसकादित्वात्समासः । लनातीति लावक: कर्तरि ‘णकतृचौ' ।५।१।४८। इति णकः ।।१३८॥ समस्ततहिते वा ।३।२।१३६। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) तते हिते चोत्तरपदे समो लुग् वा स्यात् । सततम् । सन्ततम् । सहित-म् । संहितम् ॥१३९।। तनोतेःक्त ततमिति-सम्यक ततं-सततम्। अत्र समो मस्य लोपेपक्षे सन्ततम्। दधातेः क्त हितमिति-सम्यक् हितमिति विग्रहे समासेऽनेन मलोपः ।१३९। तुमश्च मनः-कामे ।३।२।१४०। तुम्समोर्मनसि कामे चोत्तरपदे लुक् स्यात् । भोक्तुमनाः । गन्तुकामः। समनाः । सकामः ।।१४०॥ -- भोक्तुमनोऽस्य-भोक्त मनाः, गन्तु कामोऽस्य गन्तुकामः, सम्यक् मनोऽस्य समनाः, सम्यक कामोऽस्य सकामः । सहशब्देनापि सिद्धी मकारसहितस्य समः श्रुतिर्मा भूदित्येतदर्थं वचनम् ॥१४०।। मांसस्यानपनि पचि नवा ।३।२।१४१॥ अनड्-धजन्ते पचावुत्तरपदे मांसस्य लुग्वा स्यात् । मांस्पचनम् । मांसपचनम् । मांस्पाकः । मांसपाकः ॥१४१॥ पर्भावेऽनट मांसस्य पचनम्,मांस्पचनम्मांसपचनम्। अनेनाकारलुक तस्य बहिरङ्गतयाऽसिद्धत्वात्,सकारस्य रुत्वं संयोगान्तलोपश्चनभवतः स्वरस्य परे प्राग्विधौ' ।७।४।११०। इति स्थानिवत्त्वेन तु न निर्वाहः'न सन्धिं.' ७।४।1१११। इति परिभाषयाऽसद्विधौ तन्निषेधात् । पचेर्भावे घत्र मांसस्य पाकः -मांस्याकः, मांसपाकः ॥१४१।। दिकशब्दात्तीरस्य तारः ।३।२।१४२॥ अस्मात्परस्य तीरस्योत्तरपदस्य तारो वा स्यात् । दक्षिणतारम् । दक्षिणतीरम् ॥१४२॥ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) , दिशि दृष्टः शब्दः दिक्शब्दः, दिग्वाचकत्वेन प्रसिद्धः इति भावः । अन व्याख्यानाद् दिग्विशेषवाचका एव पूर्वादयः शब्दा दिक्शब्दत्वेन गृह्यन्ते, दिवसामान्य वाचका: 'दिक्, आशा, ककुप् इत्यादयः शब्दाः ऐन्द्रादयश्च शब्द न गृह्यन्ते ' व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिः' इति न्यायात् । दक्षिण"स्या-दिशः दक्षिणस्य वा देशस्य तीरं दक्षिणतारम्, दक्षिणतीरम् । 'सर्वा'दयोsस्याद' | ३ |२| ६१ | इति पुंवद्भावः । 'दिशः' इत्येतावपि सिद्ध शब्दग्रहणात् तस्य शब्दस्य दिशि दृष्टत्वमेवावश्यकं न तु संप्रति दिगर्थवृत्तित्वमपि, तथा च दिग्वाचकस्य शब्दस्य संप्रति देशवाचकत्वेऽपि दिक्शब्दत्वेन ग्रहणं भवति ॥ १४२ ॥ सहस्य सोऽन्यार्थे |३|२।१४३ | उत्तरपदे परे बहुव्रीहौ सहस्य सो वा स्यात् । सपुत्रः । सहपुत्रः । अन्यार्थ किम् ? सहजः ॥ १४३ ॥ सह पुत्रेण-सपुत्र आगतः, सहपुत्र आगतः 'सहार्थे' | २|२|४५ । इति तुल्ययोगेऽर्थे गम्यमाने तृतीया 'सहस्तेन' | ३|१|२४ | इति सूत्रेण बहुव्रीहिसमासः । सहजात:- सहजः 'क्वचित्' | ५ | १|१७१ | इति डः ।। १४३ ।। नाम्नि | ३ |२| १४४ | उत्तरपदे परे बहुव्रीहो सहस्य सः संज्ञायां स्यात् । साश्वत्थं वनम् । अन्यार्थइत्येव ? सहदेवः कुरुः ॥ १४४॥ 1 सहाश्वत्थेन वर्तते साश्वत्थम् एवं नाम वनम् सह दीव्यतीति सहदेवः कुरुः । दीव्यतेरच् ॥ १४४॥। 1 अदृश्याधिके | ३ |२| १४५ । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) अदृश्यं परोक्षम्,अधिकमधिरूढं तदर्थयोरुत्तरपदयोर्बहुव्रीही सहस्य सः स्यात् । साग्नि कपोतः । सद्रोणा खारी ॥१४५॥ दृशधातुश्चाक्ष षजानार्थः । द्रष्टुमयोग्यम् - अदृश्यम्-चाक्षुषज्ञानाविषयमित्यर्थात्परोक्षत्वं पर्यव-स्यति,अक्ष्णःपरमक्षिविषयातीतं वस्तु परोक्षमिति कथ्यते तथा बाना झिादमिन्द्रियसामान्यपरमिति इन्द्रियविषयातीति एव वस्तुनिपरोक्षत्वव्यवहारःइति शब्दादिविषयेषु श्रोत्रादीन्द्रियग्राह्य षु न परोक्ष त्वम्। एवंचेन्द्रियाविषयेऽनुमानादिविगम्ये उत्तरपदार्थे सतीति पर्यवसितोऽर्थः अग्निना सह वर्तते इति साग्नि: कपोतः, अत्र कपोतेऽग्निरदश्य एव प्रतीयमानत्वात्, तथा चोत्तरपदभतस्याग्नेरदृश्यत्वेन तद्वाचित्वमुत्तरपदस्यास्तीति भावः । द्रोणेन चतुराढ कपरिच्छिन्नपरिमाणेन सहिता सद्रोणा खारी । द्रोणेनाधिका खारीत्यर्थः अत्र खार्या द्रोणेन सह विद्यमानत्वं न प्रतीयते अन्यार्थ एव प्रकृतसूत्रस्यापि प्रवृत्तिरित्यदृश्यार्थपरेऽधिकार्थपरे चोत्तरपदे 'सहस्य सौऽन्यार्थे ।३।२।१४३। इत्यनेनैव सिद्ध वचनम् नित्यार्थ ।।१४।। अकालेऽव्ययीभावे ।३।२।१४६। अकालवाचिन्युत्तरपदे सहस्याव्ययोभावे स. स्यात् । सब्रह्म साधूनाम् । अकालइति किम् ? सहपूर्वाणं शेते । अव्ययीभावइति किम् ? सहयुध्वा ॥१४॥ ब्रह्मणः सम्पत्-सब्रह्म साधनाम् । सम्पत्त्यर्थे द्योत्ये सहेत्यव्ययेन सह ब्रह्म+टा' इत्यस्य 'विभक्ति-समीप०' ।३।१।३। इत्यव्ययीभावः, अनेन सहस्य सादेशः, ब्रह्मपदेन निरवच्छिन्नं चैतन्यमुच्यते, साधवः समधिगयतत्त्वसाक्षात्कारा ब्रह्म सम्पद्यन्त इति तेषां ब्रह्मणः सम्पत्तिः प्रसिध्यति । सहपूर्वाह णशेते सकलं पूर्वाह णमभिव्याप्य शेते इत्यर्थः,अत्र पूर्वाह ण+टासहेत्यस्य साकल्येऽव्ययीभावसमासेऽनेन सहस्य सादेशो न भवति अत्रापि साकल्य एवाव्ययीभावः अभिव्याप्तिस्तु द्वितीयार्थः । सहयुध्वेति-सह युद्धवानित्यर्थे क्वनिप् ङस्युक्तसमासः ।।१४६।। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) ग्रन्थाऽन्ते |३|२| १४७ | एतद्वाच्युत्तरपदे सहस्यान्ययोभावे सः स्यात् । सकलं ज्योतिष मधीते ॥ १४७ ॥ ग्रन्थशब्दश्चेहग्रथ्यमानशास्त्रादिपरो न तु पुस्तकपरः ग्रन्थस्यान्तो ग्रन्थार्थः । कलामन्तं कृत्वा ==सकलं ज्योतिषमधीते कलामन्तं कृत्वेति-लौकिकं वाक्यम् अलौकिकं (शास्त्रीयं तु कलया सहेति 'सह-कला-टा' इति अनेन सहस्य सः | 'गोश्चान्ते० ' | २|४|१६| इति ह्रस्वः । कलाशब्दः कालविशेषवाची किन्तु प्रकृते तत्काल सहचारिणि तत्कालवर्तिनि ग्रन्थे लक्षणया प्रयुज्यते अवीयमानग्रन्थम् अध्ययन कालान्तिमकलावर्तिग्रन्येन सहितमधीते इत्यर्थस्य विवक्षणात् 'विभक्तिसमी ० ' |३|१|३ | इत्यन्तार्थेऽव्ययीभावः । केचित्तु ज्योतिः - शास्त्रस्य कालप्रतिपादकत्वस्य प्रसिद्धत्वात् कलादिशब्दाः कलादिप्रतिपादकग्रन्थपराः आदिशब्दाद् मुहूर्तादयो ग्राह्याः । तथा चकलादिप्रतिपादकग्रन्थमवधि कृत्वाऽधीते इति विवक्षितोऽर्थ इत्याहुः तन्न तथा सति उत्तरपदस्य ग्रन्थान्तप्रतिपादकत्वं न स्यादिति ( तद् ) ग्रन्थान्तवाचि म्युत्तरपदे इति वृत्तिग्रन्थो विरुध्येत । ननु कलादिशब्दानां ग्रन्थान्तवाचि - त्वेन कालवाचित्वाभावात् 'अकाले' इति निषेधाप्रसक्त्या पूर्वसूत्रेणैव सहस्य सादेश: सिद्ध एवेति व्यर्यमिदं सूत्रमिति चेत्सत्यं कालार्थोऽयमारम्भः । अयमाशय: - 'अकालेऽव्ययीभावे' | ३ २ १४६ । इत्यत्राकाले इत्यस्य कालनिरूपितवाचकताव्यावर्तककालत्व व्याप्यानुपूर्वी भिन्नानुपूर्वी मत्युत्तरपद इत्यर्थः एवं चात्र कलादिशब्दानां ग्रन्थान्तपरत्वेऽपि तदानुपूर्व्या. (तदुद्घटतवर्ण सन्निवेशक्रमस्य) कालनिरूपितवाचकताव्यावर्तककालत्वव्याप्यानुपूर्वीमत्त्वमेव तादृशानुपूर्व्या एव कालवाचित्वस्यान्यत्र दृष्टत्वात् इति पूर्वसूत्रे सादेप्राप्ती सादेशार्थं प्रकृत-सूत्रविधानम् ||१४७|| , . नाशिष्य गोवत्सहले । ३।२।१४८ । गर्वादिवजें उत्तरपदे आशिषि गम्यायां सहस्य सो न स्यात् स्वस्ति गुरवे सहशिष्याय । आशिषीति किम् ? सपुत्रः । गवा Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) दिवर्जनं किम् ? स्वस्ति तुभ्यं सगवे । सहगवे । सवत्साय । सहलाय । सहहलाय ॥१४८॥ शिष्येण सहिताय गुरवे स्वस्तीति विवक्षिते शिष्य-टा-सहेत्यस्य समासः, 'सहस्य सोऽन्यार्थे ।३।२।१४३। इति सादेशे प्राप्तेऽनेन निषेधः। स्वस्ति. शब्दयोगे सहशिष्यशब्दाच्चतुर्थी । सपुत्र इति-पुत्रेण सह सपुत्र अत्राशीनंगम्यते । 'सहस्य सोऽन्यार्थे' ।३।२।१४३। इति सादेशः, ननु सपुत्र इत्यादी 'आशिषि' इति कथनाभावेऽपि 'सहस्य सोऽन्यार्थे' ।३।२।१४३। सादेशः, नन सपूत्र इत्यादौ 'आशिषि' इति कथनाभावेपि सहस्य सोऽ० ।३।१।१४३ इति सूत्रवैयर्थं स्पादितिस्त्रारम्भसामदेिव सादेशो भविष्यतीति चेत्सत्यं सगवे सहगवे सवत्साय सहवत्साय' इत्यादिप्रयोगेषु तत्सार्थक्यस्य जागरुकत्वात् ।।।१४८।। समानस्य धर्मादिषु ।३।२।१४६॥ धर्मादावुत्तरपदे समानस्य सः स्यात् । मधर्मा । सनामा ॥१४॥ समानो धर्मोऽस्य-सधर्मा 'द्विपदाद् धर्मादन्' ।७।३।१४१। इत्यन् । समानं नामास्य सनामा । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।।१४६।। सब्रह्मचारी ।३।२।१५० · अयं निपात्यते ॥१५०॥ ब्रह्म आगमः, इति तदध्ययनार्थं व्रतमपि लक्षण्वा ब्रह मैव तच्चरतीति विग्रहे 'व्रता० ।५।१।१५५॥इति णिनि ब्रह्मचारीति। समानो ब्रह्मचारीतिविग्रहे विशेषणसमासेऽनेन समानस्य सादेशमात्र निपात्यते ब्रह्मचरिशब्दस्यान्यथैव सिद्ध: । सादेशमात्रस्य विधेयत्वे धर्मादिप्वेव ब्रह्मचारिशब्दे पठिते ऽपि प्रकृतप्रयोगसिद्धिरिति निपातनवैयर्थ्यमि-त्यरुचे विग्रहान्तरं प्रदर्श्यते। समाने ब्रह्मण्यागमे गुरुकुले वा व्रतं चरतीति विग्रहे निपातनात् व्रतशब्दस्य लोपः समानपूर्वे ब्रह्मण्युपपदे व्रते कर्मणि चरेणिन्नपि निपातनलभ्य एव । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) समाने आगमे व्रतं चरतीत्यत्र समानत्वं तदध्येयग्रन्थतुल्याध्येय-त्वेन, एवं समाने गुरुकुले व्रतं चरतीत्यत्र समानत्वं तद्गुरुकुलतुल्यगुरुकुलत्वेन । तत्र यद्यपि ब्रह्मचारीत्यस्यैव निपात्यमित्यायाति, तथाप्यवयवद्वारा अत्र साधुत्वमुक्तवा पुन: तस्य धर्मादिषु पाठकल नेत्यादिगौरवात् समदायस्येव निपातनमुचितमिति तथैव कृतम् ।।१५०।। दृगदृशदृक्षे ।३।२।१५१॥ एकूत्तरपदेषु समानस्य सः स्यात् । सदृक् । सदृशः । सदृक्षः ॥१५१॥ समान इव दृश्यते-सदृक्, सदृशः, सदृक्षः-'त्यदाद्यन्यसमानादुपमानाद्' ।५।१।८५२। इति क्विप्टकसक: टक-सक्सहचरितक्विन्तस्यैव दृशो ग्रहणादिह न भवति-समानादृक समानदृक् । अत्रेदं विचार्यते-समान इव दृशयते इति व्याप्ये (कर्मणि) प्रत्ययविधानात् कर्मणि विग्रहः, ये च व्याप्ये प्रत्ययं न विदधति ते 'तमिवेमं पश्यन्ति जनाः, इत्यर्थे स इवायं पश्यति ज्ञानविषयो भवतीति कर्मकर्तरि प्रत्ययमाहुः । स्वमते च सूत्र एव त्याप्ये कथनात् झटित्येवार्यसंगतिरिति न क्लिष्टकल्पनाऽऽ वश्यकता । 'समान इव दृश्यते' इति कथनं च 'त्यदाद्यन्य: ।५।१।१५१। इति सूत्रस्योपमानपदस्य सर्वत्रान्वयस्यौचित्यमनुरुध्य अन्यथा समानशब्दस्याप्युपमानवाचित्वेन पुनरुपमानवाचिन इवशब्दस्य प्रयोगोऽ-नावश्यक एव, सदृशशब्दस्य समानत्वेन दष्टिविषयतैवार्थः न त समानत्वेनैव दष्टिविषय इति । तथा च साम्यस्यापि तत्राभावो भासेत समान इव दृश्यते न तु वस्तुतः समान इति प्रतिपत्तेः, तथा च समानो दृश्यते इत्येव प्रयोगार्थः । समाना दुक सदृक इत्यत्र-इन्द्रियाणां कर्तृत्वविवक्षायां पश्यतीति कर्तरि क्विपि दृक् । करणत्वविवक्षायां पश्यत्यनयेति दृक अन्न 'क्र त्संपदादिभ्यः क्विप' ।५।३।११४॥ इति करणे विवप्, 'पुवत् कर्मधारये' ।३।२।५०। इति पुवद्भावः ।।१५१॥ अन्यत्यदादेराः ।३।२।१५२। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) अन्यस्य त्यदादेश्च दृगादावुत्तरपदे आः स्यात् । अन्यादृक् । अन्यादृशः । अन्यादृक्षः । त्यादृक् । त्यादृशः । त्यादृक्षः । अस्मादृक । अस्मादृशः । अस्मादृक्षः ॥१५२॥ । अन्य इव दृश्यते अन्यादगित्यादिः । स्य इव दृश्यते त्यादक्षःत्यादि । आवामिव वयमिव वा दृश्यते इति 'त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन्' ।२।१।१२। इति मादेशाभावात् अस्मादगियादि ।।५२॥ इदङ्किमीत्की ।३।२।१५३। दगादावुत्तरपदे इदङ्किमौ यथासङ्ख्यमोत्कोरूपौ स्याताम् । ईदृक् । ईदृशः । ईदृक्षः । कीदृक् । कोदृशः । कीदृक्षः ॥१५३॥ स्थान्यादेशयोः सामानाधिकरण्येन निर्देशः सर्वादेशार्थः । तथा सति ईदादेशः सम्पूर्णस्येदमः स्थाने भवति, अन्यथा तस्यैकवर्णरूपत्वेन षष्ठीनिर्देशेऽन्यस्यैव विधिः स्यात्, को' आदेशास्तूभयत्र सर्वादेश एवानेकवर्णत्वात् । अयमिव दृश्यत इति-ईदृगित्यादि । क इव दृश्यते कीदृगित्यादि ॥५३।। अनञः कृत्वोयप् ।३।।१५४। नोऽन्यस्मादव्ययात्पूर्वपदात्परं यदुत्तरपदं तदवयवस्य कत्वोयप् स्यात् । प्रकृत्य । अनजइति किम् ? अकृत्वा, परमकृत्वा । उत्तरपदस्येत्येव ? अलंकृत्वा ।।१५४॥ 'न नाम्येकस्वरात०' ।३।२।६। इत्यतः 'उत्तरपदे' इत्यधिकृतं, तत्सामर्थ्यात पूर्वपदस्येति लभ्यते । क्त व इति षष्ठीनिर्देशात् क्त वाप्रत्ययान्तस्योत्तरपदस्येति लभ्यते तत्सामर्थ्यात् 'अना' इत्यस्य पञ्चम्यन्तत्वात् उत्तरपदसामर्थ्यलब्धस्य पूर्वपदस्यापि पञ्चम्यन्तत्वमेव समानाधिकरण्यानुरोधात क्वेति प्रत्ययः, तद्ग्रहणे तदन्तस्य ग्रहणं भवतीति पर्युदासेन नभिन्नाद् Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ) नञ्चदशात् (अव्ययात्) पूर्वपदारपरस्य क्तान्तस्योत्तर पदस्य थप् भवति स च 'निर्दिश्यमानस्यैवादैशा भवन्ती' इति न्यायान्निदिय॑मानस्य क्त वाप्रत्ययस्य यबादेशः । प्रकृत्येति-कृत्वेति क्त वान्तम्, तस्य प्रशब्देन गतिसमासः, प्रशब्दश्चाव्ययं पूर्वपदम् तस्मात्पर क्त्वान्तमत्तरपदं तदवयवस्य क्त वो यबादेशः ह्रस्वस्य तः पित्कृति' ।४।४।११३॥ इति तागमः । न कृत्वा शकृत्वा परमकृत्वेति-परमं च तत् कृत्वेति विग्रहः। 'सन्महत्' ।३।१।१०७। इति समासः । अनत्रः इति पयुंदासान्ना सदशमव्ययं गृह्यते इति इह परमाद-नव्ययात् न भवति । अलं कृत्वेति-'निषेधेऽ लं-खल्वो: क्त वा' ।५।४।४४। इति क्त्वा अत्र क्वाविधायक-सूत्र'ऽ लंखल्वोः सप्तम्योक्तत्वेन ङस्युक्तत्वाभावान्न ङस्यूक्त-समास इति । अलंकृत्वाशब्दयोः पूर्वोत्तरपदत्वाभावः न हि पर्वमवस्थितं पदं पर्वपद-मत्तरमवस्थितं पद-मत्तरपदमिति पर्वोत्तरपदयोः यौगिकी शक्तिः व्याकरणे समपयुज्यते ऽपि तु पर्वपद-शब्द: समासप्रथमावयवे रूढः उत्तरपदशब्दश्च समास-चरमावयवे रूढ इति प्रकृते समासाभावादुत्तरपदत्वाभावाद्यबादेशो न भवति ॥५४॥ पृषोदरादयः ।३।२।१५। एते साधवः स्युः । पृषोदरः, बलाहकः ॥१५५॥ आदिशब्दोऽ त्र प्रकारवाची न तु व्यवस्थावाची। प्रकास्वाचित्वे गणे पटितेभ्योऽ न्येऽप्येवविधाः शिष्टप्रयुक्ताः शब्दा पृषोदरादित्वेन ग्रहीतु शक्याः । व्यवस्थावाचित्वे तु पृषोदरशब्दस्याद्यवयवत्बेन निर्दिश्य पठितसमुदायान्तर्गतस्यैव पृषोदरादित्वेन ग्रहणं स्यात् । पृषदिवोदरमस्य पृषदुदरेऽ स्येति वा पृषोदर: अत्रो-भयत्र विग्रहे पृषत्' शब्दो विन्दुवाची अनेन तकारलोपः। पृषत उदरं पृषोदरमिति षष्ठीसमासे पृषच्छब्दो मृगविशेषवाची ।बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥५५॥ वावाप्योस्तनिक्रीधाग्नहोर्वपी।३।२।१५६। अवस्योपसर्गस्यतनिक्रियोरपेश्च धाग्नहोर्यथासङ्ख्यं वपी वा स्याताम् । वतंसः । अवतंसः । वक्रयः । अवक्रयः । पिहितम् । अपिहितम् । पिनद्धम् । अपिनद्धम् ॥१५६॥ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) 'व्याख्यानात् अवाप्योः-तनिकी-भ्याम् धाग्नहिभ्यां च क्रमेण सम्बन्धः । विपीत्यादेशयोश्च यथासंख्यं सम्बन्धः । पृषोदरादिप्रपञ्च एषः तेन शिष्टप्रयोगोऽ-नुसरणीयस्तेन वगाहादयोपि साधुत्वेन विज्ञेया: । पृषोदरादिसूत्रविषय एवार्थोऽ नेन विस्तरेण प्रतिपादितः अर्थादिदं सूत्रं नापूर्वविधायक-मपि तु तत्पूरकमेवेति भावः। वतंस, अवतंस इति-अवपूर्वकात् तनोतेः सन्नौणादिकः, अवस्य पाक्षिको वकारादेशः । वक्रय अवक्रय इतिअवपूर्वकात् क्रीणाते वे अचि क्रय इति । अवेत्युपसर्गस्य वा वकारादेशः । पिहितम् अपिहितमिति-अपिपूर्वकात् दधातेः धातोहि इत्यादेशः । विकल्पेनापिशब्दस्य पि' इत्यादेशः । पिनद्धम्, अपिनद्धमिति-अपिपूर्वकस्य नह्यतेः वते प्रत्यये, पाक्षिकेऽ-पिशब्दस्य 'पि' इत्यादेशे च रूपद्धयम् ।।५६।। ॥ इति तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः ॥ दीक्षा को रोकना और.मोह का नाटक भुशासन का आज्ञारंगी श्री संघ तो अच्छी तरह समझ सकता है किदीक्षा को रोकने की भावना, भयंकर मोह का नाटक हो है। दीक्षित नने वाले की उम्र का निर्णय तो अनन्त-ज्ञानीयों ने किया ही है। 'आठ * की उम्र हुई कि तुरन्त ही वह दीक्षा के लिये उम्र से योग्य बन ता है। यानी इसके सामने विरोध करने वाले, प्रभुशासन का ही रोध करने वाले है । अठारह वर्ष से नीचे की उम्र वाले को दीक्षा के ये अयोग्य कहना इसके जैसा घोर पाप कौन-सा है ? जिस उम्र को तज्ञानियों ने योग्य बताई उस उम्र को अयोग्य कहना, इसके जैसी वाटल मनोवृत्ती दूसरी कौन सी है ? जो उम्र गुणों के आरोपण के लिये संशय योग्य है, उस उम्र को दीक्षा जैसी गुणमय वस्तु के लिये अग्य कहना, यह बुद्धि का सर्वथा दिवाला फूकने जैसी बात है। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ( २३२ ) दुनिया की कलाओं के लिये भी दुनिया ने बाल्यकाल ही पसन्द किया है संगीत भी सामान्यतया बाल्यकाल मे सिखाया जाता है, सिनेमा नाटक के एक्टर बनने की ट्रेनिंग भी बाल्यकाल से लेते है, नृत्यकला आदि और दूसरी भी पेट भरने की विद्या के लिये भी बाल्यकाल योग्य माना जाता है, तो फिर इस आत्मा की मुक्ति कराने वाली दीक्षा बाल्यकाल में होवे, उसके सामने विरोध करना यह भयंकर पाप और ऐसे प्रस्ताव रखने वाले पापी के रूप में पहचाने जाय इसमें आश्चर्य क्या है ? भयंकर पाप कर्म आचरने को तैयार हुए पापआत्माओं की बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई है और इसी कारण उनको यह भान नहीं है कि धर्म के साम्राज्य में, धर्म में दखल करने वाले कायदे नहीं ही होते है। . सोचो कि बहुत जोरों की बाढ. आ रही है वहां बचने के लिये स्टीमर में बैठने के लिये माता-पिता को पूछकर आने का और दूसरों के समक्ष जाहिर करने का कायदा बना सकते हैं ? पोलिस को सरकार ने यद्यरि मर्यादित सत्ता दी है, फिर भी उसके स्वयं पर आवे तव सरकार उसको कितनी छूट दे रखी है. ? यदि छूट न हो तो मरने जावे कौन प्रायः कोई नहीं । विश्वासपात्र और जवाबदार मुनिम यद्यपि शेठ का पूछे बिना व्यापार का कार्य नहीं करता, परन्तु शेठ ने एक माल ले। भेजा, मुनीम बाजार में गया और उस माल से दूसरे माल के सौदे । लाभ ज्यादा दिखता है और मौका ऐसा है कि उस भाव से उसी सम माल मिले वैसा है, तब मुनिम शेठ को पूछने जाय तो उसको शेठ बेवकू ही कहे न ? प०पू० कलिकाल-कल्पतरु आचाय देव श्री विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महारा Page #576 -------------------------------------------------------------------------- _