Book Title: Karmgranth tatha Sukshmarth Vicharsar Prakaran
Author(s): Veershekharvijay
Publisher: Bharatiya Prachya Tattva Prakashan Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004404/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAKOOOOOON DOOOOOOO पृत्तिसमलङ्कृताः चत्वारः प्राचीना कमान्थाः तथा सप्ततिकाभिधः षष्ठः कमान्थः सुष्टमार्थ-विचारसारप्रकरणम् तथा परिशिष्ट-दयम् तथा CCCCCCCOOOOOOO सम्पादक पूज्य मुनिराज प्री चीरोस्वरचिजयः। -- प्रकाशिका ... Hok भारतीय-प्राच्य-वय-प्रकाशन समितिः पिंडचाडा * ASHOK Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्री शवेश्वरपार्श्वनाथाय नमः .. // सकलागमरहस्यवेदिपरमज्योर्विच्छ्रीमद्विजयदानसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः // . नानावृत्तिविभूषिताः तथा चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः प्राकृतभाषागाथाबद्धटिप्पनक-यन्त्रकादिना-ऽलङ्कृतः सप्ततिकाभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः तथा प्राकृतभाषानिबद्धटिप्पनक-वृत्तिभ्यां विराजितं सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणम् तथा परिशिष्टद्वयम् यन्त्र-टिप्पणकादिना समलङ्कृत्य सम्पादकः संशोधकश्च प्रवचनकौशल्याधार--सिद्धान्तमहोदधि-सुविशालगच्छाधिपति-परमशासनप्रभावक.. कर्मसाहित्यनिष्णात-परमपूज्य-स्वर्गताचार्यदेवेश-श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वर विनीताऽन्तेवासि-निःस्पृहतासलिलनिधि-परमगीतार्थ-परमपूज्या-ऽऽचार्यदेव-श्रीमद्विजयहोरसूरीश्वरविनेयरत्नमुनि-श्रीललितशेखर विजय शिष्यरत्न-मुनि-श्रीराजशेखरविजय. शिष्यःमुनि-श्रीवीरशेखरविजयः प्रकाशिका-भारतीय-प्राच्य-तत्त्व-प्रकाशन-समितिः, पिन्डवाड़ा (राज.) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / प्रथम आवृत्तिः अति-२५०+२५ राजसंस्करण-४०) रु. राजाधिराज , -50) 20 वीर संवत् 2500 विक्रम संवत् 2030 AMAN * प्राप्तिस्थान * भारतिय-प्राच्यतच प्रकाशन समिति C/0 रमणलाल लालचंद 135/137 झवेरी बाजार, बम्बई 2 मारतीय प्रशच्यतत्व-प्रकाशन-समिति C/0शा समरथमल रायचंदज पिंडवाड़ा, (राज०) स्टे. सिरोही रोड (W. R.) / भारतीय-प्राच्यतष-प्रकाशन समिति शा. रमणलाल बजेचन्द, C/0 दिलीपकुमार रमणलाल, मस्कती मार्केट, अहमदाबाद 2. 4. 444 मनोदय प्रिंटिंग प्रेस, पिंडवाड़ा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHATVARAH PRACHINAH KARMA-GRANTHAH And Saptatikabhidhah Sastha Karmagranthah . . And Suksmaarth Vicharsar Prakaranam With Different Commentaries 6TH Iduh Editted by Muni shri Virashekharvijay Published by Bharatiya Prachya-Tattva Prakashan Samiti, Pindwara (Rajasthan) (India) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ First Edition Copies 250+25 DELUXE EDITION RS. 40 SUPER DELUXE ,, RS. 50 D. 1974 AVAILABLE FROM : 1. BHARATIYA PRACHYA TATTVA PRAKASHAN SAMITI. C/o .Shah Ramanlal Lalchand, 135/137 Zaveri Bazzar . . BOMBAY-2. (INDIA) 2. BHARATIYA PRACHYA TATTVA PRAKASHAN SAMITI. 0/0. Shah Samarathmal Raychandji, PINDWARA, (Rajasthan) St. Sirohi Road (W. R.) (INDIA) 3. BHARATIYA PRACHYA TATTVA PRAKASHAN SAMITI Shah Ramanlal Vajechand, C/o Dilipkumar Ramanlal, Maskati Market, AHMEDABAD-2. (INDIA) Printed by : Gyanodaya Printing Pross PINDWARA. (Raj.) St. Sirohi Road, (W.R.) (INDIA) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીપાલનગરમણ્ડન ભૂગર્ભગૃહ મૂળનાયક શ્રીમુનિવ્રતસ્વામી ભગવાન આ ગ્રન્થરત્ના પ્રકાશનમાં દ્રવ્યસહાયકોએ જે શ્રીપાલનગરના નિર્માણમાં ભાગ લીધો છે, તે જીનપ્રસાદમાં ભૂગર્ભગૃહના મૂળનાયક તરીકે બિરાજમાન પરમદર્શનીય પ્રશાંત જનબિંબ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીપાલ નગરમણ્ડન મૂળનાયક શ્રી આદીશ્વર ભગવાન આ ગ્રન્થરત્નના પ્રકાશનમાં દ્રવ્યસહાયકએ જે શ્રીપાલ નગરના જીનમંદિરના નિર્માણ ભાગ લીધે છે, તે જીનપ્રસાદમાં મૂળનાયક તરીકે બિરાજમાન પરમદર્શનીય પ્રશાંત જનબિંબ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलागाम रहस्यवेदि-मुरिपुरन्दर-बहुश्रुतगीतार्थ-परज्योतिर्विद परमगुरुदेव (IL परमपूज्य आचार्यदेवेश श्रीमदुविजयदानसूरीश्वरजी महाराजा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमत्पूर्वाचार्यकृतव्याख्यया श्रीमत्परमानन्दसूरिविरचितवृत्त्या च समेतः ___श्वेताम्बराग्रण्यश्रीमद्गर्गमहर्षिविरचितः / कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थ : श्वेतपटाचार्यश्रीमद्गोविन्दगणिगुम्फितटीकया समलङ्कृतः कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थ : श्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितव्याख्योपेतः बन्धस्वामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः श्रीहरिभद्रसूरिविरचितविवृत्त्या श्रीमन्मलयगिरिसरिविरचितवृत्त्या श्रीमद्यशोभद्रसूरीश्वरप्रणीतटीकया श्रीमद्रामदेवगणिविवृतविवरणेन च विभूषितः श्रीमजिनवल्लभगणिपुङ्गवनिर्मितः षडशीतिनामा चतुर्थ: कर्मग्रन्थ: श्रीमद् रामदेवगणिकृतप्राकृतभाषागाथानिबद्धटिप्पनकेन विराजितः सप्ततिकाभिध: षष्ठ: कर्मग्रन्थ: श्रीमद्रामदेवगणिविहितप्राकृतभाषाटिप्पन-वृत्तिभ्यां शोभितं __श्रीमजिनवल्लभगणिपुङ्गवप्रणीतं सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणम् प्रथमं परिशिष्टम् षडशीतिप्रकरणसत्कैकादशयन्त्रकलक्षणम् द्वितीयं परिशिष्टम् प्राचीनकर्मग्रन्थषट्कसत्कमूलगाथा-द्वितीय-चतुर्थ-पञ्चम-पष्टकर्मग्रन्थभाष्यगाथा सप्ततिकासारगाथा-सूक्ष्मार्थविचारसारमूल भाष्यगाथात्मकम् Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रकाशकीय निवेदन * यह सूचित करते हुए हमें अन्यन आनंद हो रहा है कि अल्प समय में परमपूज्य सिद्धांतमहोदधि कर्मसाहित्य निष्णात स्वर्गताचार्यदेवेश श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा की परम पावनी निश्रा में उनकी ही परमकृपा दृष्टि से संकलित किया हुआ और श्लोकबद्ध प्राकृत भाषा में रचे हुए मूलग्रन्थ तथा संस्कृत भाषा में रचे हुओ टीका ग्रन्थ रूप लाखोश्लोक प्रमाण कर्म साहित्य का सर्जन हो चुका है, और मी सर्जन चालु है जिनके वोल्युम (महामन्थ) ग्रन्थरत्न हमारी संस्था द्वारा आपके कर कमलों में पहुंच चुके हैं और प्रन्थों का मुद्रण कार्य चालु है। जिसे यथा समय आप प्राप्त कर सकेंगे। इसके अलावा इस कर्मसाहित्य विषयक मुनिचन्द्रसूरि विरचित टिप्पनक से युक्त पूर्वाचार्यकृत चूर्णि और उदयप्रममूरि विहित टिप्पनक इन दोनों से विभूषित किया हुआ ऐसा पूर्वधर वाचक श्रीशिवशर्मसूरिप्रणीत "बन्धशतकम्" नाम का प्राचीन ग्रन्थगन भी इस समिति द्वारा प्रकाशित किया गया है। उसी तरह पूर्वाचार्य कृत मूल टीका सहिन "चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः” नाम का प्राचीन प्रन्थरत्न हमारी संस्था द्वारा प्रकाशित हो चूका है / ठीक उसी तरह प्रस्तुत प्रन्थरत्न मी प्रकाशित हो रहा है। ___इनमें प्राचीन 4 कर्मग्रन्थों पैकी प्रथम कर्मग्रन्थ परमपूज्य गगेमहर्षि विरचित 168 गाथा प्रमाण है। उनमें एक पूर्वाचार्यकृत और दूसरी पूज्य परमानन्दसूरि रचित टीकाओं हैं। दूसरा कर्मग्रन्थ प्राचीनाचार्यविहित 55 आर्या प्रमाण है। उसमें श्रीमद् गोविन्दगणि रचित टीका है / तीसरा कर्मग्रन्थ जिसके रचयिता का नाम का उल्लेख नहीं मिलता है वह पूर्वकालीन महर्षि ने रचा हुआ 54 गाथा प्रमाण है। उस में श्रीमद् हरिभद्रसूरि म. ने टीका लिखी हुई है। चतुर्थ कर्मग्रन्थ को श्रीमद् जिनवल्लभगणि ने 86 आर्या में बनाया है उस पर की हुी 4 टीकाों यहां दी गई है। श्री हरिभद्रसूरिकृत टीका और श्री मलयगिरिसूरि विहित टीका दोनों साथ में दी गई है। बाद में तीसरी श्रीयशोभद्रसूरि प्रणीतवृत्ति ली गयी है। अंत में श्री रामदेवगणि की चौथी टीका जो प्राकृत भाषा में है वह दी गई है / प्राचीना. चार्यरचित सप्ततिकाख्य षष्ठ कर्मग्रन्थ 72 गाथा प्रमाण है / उनमें रामदेवगणिकृत विभिन्नप्रकार की दो टिप्पणी प्राकृतमाषा में श्लोकबद्ध है। श्रीमद् जिनवल्लभगणि प्रणीत सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण 151 गाथा प्रमाण है। उनमें प्रथम रामदेवगणिकृत टिप्पणी और दूसरी वृत्ति है। दोनों प्राकृत भाषा में गद्य में निबद्ध है। इसमें चतुर्थ कर्मग्रन्थ की दो टीका तक के 5 कर्मग्रन्थों के पृष्ट क्रमांक एक साथ में दिये है। जिन में प्रथम कर्मग्रन्थ के पृष्ट 1 से 8. तक दूसरे कर्मग्रन्थ के पृष्ट 89 से 126 तक, तीसरे कर्मग्रन्थ के पृष्ट 127 से 153 तक तथा चतुर्थ कर्मग्रन्थ के 154 से 262 तक है। बाद में तीसरी श्री यशोभद्रसूरि कृत टीका युक्त चतुर्थ कर्मग्रन्थ के 1 से 58 बाद श्री रामदेवगणि विहित प्राकृतवृत्ति साहित्य चतुथे कर्मग्रन्थ के 1 से 35 पृष्ट है बाद में टिप्पणसहित सप्ततिकाग्रन्थ के 1 से 84 पेज है, उनके बाद में सूक्ष्मार्थविचारसार टिप्पण के 1 से 58 पेज है अंत में सूक्ष्मार्थविचारसार प्रकरणवृत्ति के 1 से 48 पेज है इन में से अन्तिम चतुर्थ कर्मग्रन्थ की दो टीकाओं को छोडकर प्राचीन चारों कर्मग्रन्थ पहले मुद्रित हो चूकने पर भी ग्रन्थ के पृष्ट जीर्ण हो जाने से और इनकी जेसलमेर के भंडार की हस्त लिखित प्रत के साथ में मिलान की हुी प्रत मिलने से तथा श्रीमदयशोमद्रसूरि कृत टीकायुक्त और श्री रामदेवगणिकृत टीकायुक्त चतुर्थ कर्मग्रन्थ और रामदेवगणिकृत टिप्पणक युक्त . सप्ततिकाख्य षष्ठ कर्मग्रन्थ तथा रामदेवगणिरचित टिप्पणक और वृत्ति सहित सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण मुद्रित नहीं होने से तथा उनकी हस्तलिखित प्रत एवं प्रेस कॉपियां मी मिलने से इन प्राचीन चार कर्मग्रन्थों आदि का मुद्रण आवश्यक बन गया था। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन संपादन-संशोधन : परमपूज्य सिद्धान्तमहोदधि कर्मसाहित्य निष्णात सुविशालगच्छाधिपति स्वर्गत आचार्यदेवेश श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहेब के शिष्यत्न परमपूज्य गीतार्थ निस्पृहतानीरधि आचार्य देवेश श्रीमद् विजयहीरसूरीश्वर म सा. के शिष्यरत्न प. पू. मुनिराज श्री ललितशेखरविजयजी म. सा. के शिष्यरत्न प. पू. मुनिराज श्री राजशेखरविजयजी म. सा के शिष्यरत्न प. पू. मुनिराज श्री वीरशेखरविजयजी म.सा, ने कर्मसाहित्य के नव निर्माण के विराट कार्य को करते हुअ भी अपने अमूल्य समय का भोग देकर इस प्राचीन चार कर्मग्रन्थों और सप्ततिकाटिप्पणक तथा सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण का संशोधन कर, हस्तलिखित प्रत्यादि के साथ मिलानादि करके यन्त्र टिप्पणकादि बनवा कर संगदन किया है। संपादन-पद्धति : मूलग्रन्थ-टीकाग्रन्थ-साक्षिग्रन्थ-प्रतीक-टिप्पणी आदि के लिये विभिन्न छोटे बड़े खुले व गहरे एवं विविध प्रकार के टाइप पसंद कर अभ्यास कर्ताओं की अनुकूलता बनाए रखने का ठीक प्रयत्न किया है, जैसे मूल ग्रन्थ 20 पोईन्ट ब्लेक टाईपों में, टीकाग्रन्थ 16 पोईन्ट सामान्य टाईप में, प्रतीक 16 पोईन्ट जेक टाईप में टिप्पणी 12 पोईन्ट चालु टाईप में, साक्षिग्रन्थ 16 पोईन्ट जेक ट ईप में, चतुर्थग्रन्थ की अंतिम दो टीकाग्रन्थ के और सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण की टिप्पण तथा वृत्तिग्रन्थ के साक्षिग्रन्थ 12 पोईन्ट सामान्य टाईप में, दूसरे परिशिष्ट में छ कर्मग्रन्थ की मूलगाथाएँ और कर्मस्तवषडशीति-शतक-सप्ततिका प्रकरण की भाष्यगाथाएँ तथा सप्ततिकासार की गाथा और सूक्ष्माथविचारसारप्रकरण की मूल गाथा तथा भाष्यगाथा 16 पोईन्ट सामान्य टाईप में, विषयानुक्रम और शुद्धिपत्रक 12 पोईन्ट सामान्य टाईप में रखे है। शुद्धिपत्रक में सहायक : प्रन्थमुद्रित हो जाने के बाद में भी अनाभोग मुद्रणदोषादि के कारण रही हुभी अशुद्धियों के समार्जन के लिये शुद्धिपत्रक में प. पू. स्व. आचार्यदेव के शिष्यरत्न प. पू. आगमप्रज्ञ आचार्यदेव श्रीमद् विजयजम्बुसूरिश्वरजी म.सा. तथा प. पू. वीरशेखरविजयजी म. सा. और जैन श्रेयस्कर मंडल पाठशाला मेहसाणा के अध्यापक सुश्रावक श्रीयुत पुखराजभाई ने श्रीयुत वसंतभाई आदि द्वारा सहयोग.दिया है यह शुद्धिपत्रक ग्रन्थ के अंत में दिया गया है। तरनुसार ग्रन्थ सुधार कर . ढने का ध्यान रग्बने की ज्ञान-पिपासु वाचकों से हार्दिक अपील है। कृतज्ञता प्रदर्शन : अंत में सबसे पहले स्व. परम गुरुदेव सिद्धान्तमहोदधि कर्मसाहित्य निष्णात आचार्यदेवेश श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी म. सा. का जितना उपकार और भामार माने उतना कम है। क्योंकि उनकी ही परमकृपा और प्रभाव से इस समिति का उत्थान और कर्मसाहित्य का विशाल सर्जन हो सका है। साहित्य की इस इमारत की नींव की इंट तो आरही हैं। साथ में हस्तलिखित प्रतियां भादि के साथ में मिलाकर टिप्पणियां बनाकर, षडशीति प्रकरण के सब पदार्थों के ग्यारह (11) यंत्रों बनाकर उनका प्रथम परिशिष्ट और टिप्पणियुक्त पांवों प्राचीन कर्मग्रन्थ तथा सप्ततिकानाम के षष्ठ कर्मग्रन्थ की मूलगाथा. द्वितीय-चतुर्थ पञ्चम षष्ठ कर्मग्रन्थ की माष्वगाथा तथा सप्ततिकासार को गाथा और सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण की मूलगाथा तथा माध्य माथा का दूसरा परिशिष्ट बनवाकर जो-तोड परिश्रम से जिन्होंने इस प्रन्थरत्न का सपादन किया है वह पज्य मनिराजश्री वीरशेखरविजयजी म सा. के भवर्णनीय उपकार के हम चिर ऋणी है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन इस ग्रन्थ के शुद्धिपत्रक के सहायक प. पू. आगमप्रज्ञ आचार्यदेव श्रीमद् विजयजम्बूसूरीश्वरजी म सा. तथा प. पू. मु. वीरशेखरविजयजी म. सा. और महेसाणा के प्राध्यापक पुखराजभाई तथा वसतभाई आदि का हार्दिक आभार मानते हैं। ____ जेसलमेर की प्रति के साथ मिलाई हुी प्राचीन चार कर्मग्रन्थ की प्रति को जिन्होंने इस कार्य के लिये भेजी वह पू. आगमप्रभाकर मुनिराजश्री पुण्यविजयजी म. सा. का हार्दिक उपकार एवं आभार मानते हुओ हमें बडा गर्व और आनन्द होता है / यशोभद्रसूरि कृत टीका से युक्त षडशीति प्रकरण की हस्तलिखित प्रत को जिन्होंने बडौदा के प्रवर्तक श्री कांतिविजयजी शास्त्रसंग्रह" नाम के इन ज्ञान भण्डार में से कोशिश कर भिजवायी वह पू. मुनिराजश्री भुवनचन्द्रविजयजी म. सा. का और इस ज्ञान भण्डार के कार्यवाहकों का, श्री यशोभद्रसूरिकृत टीका से युक्त और श्री रामदेवगणिविहित टीका से युक्त षडशीति प्रकरण की दो प्रेस कॉपियां तथा श्रीरामदेवगणि की बनवायी हुभी सप्ततिकाटिप्पणी और सूक्ष्मार्थविचारसार टिप्पणी की प्रेस कापीयां डभोई के "श्री जम्बूस्वामि जंन मुक्ताबाई आगममंदिर" नाम ज्ञान भण्डार के लिए तैयार की हुी जिन्हों ने इस कार्य के लिये भीजवायी उन पूज्य आगमप्रज्ञ आचार्यदेव श्रीमद् विजयजम्बूसूरि. म सा. का हृदय पूर्वक उपकार और आभार मानते हैं। प्राचीन छः कर्मग्रन्थ की मूलगाथा एवं द्वितीय-चतुर्थादि प्राचीन कर्मग्रन्थ की भाष्यगाथा-सूक्ष्मार्थसारप्रकरण की मूलगाथा हस्तलिखितपत को इस कार्य के लिये भेजने वाले लालभाई दलपतमाई विद्यामंदिर के कार्यवाहकों का तथा श्रीरामदेवगणि की ही रची हुी विभिन्नप्रकार की टिप्पणि की हस्तलिखित प्रत और सूक्ष्मार्थविचारसार प्रकरणवृत्ति की फोटोकोपी के लिए सुविधा करवानेवाले * भोजक अमृतलालभाई का एवं इन सब प्रत्यादिकी प्राप्ति करवाने में सहाय करने वाले पू मुनिराजश्री जयघोषविजयजी म. सा. तथा पू. मुनिराजश्री धर्मानन्दविजयजी म. सा. का भी हार्दिक उपकार मानते हैं / बडौदा भण्डार की हस्तलिखित प्रति पर से केवल श्रुतमक्ति से प्रेरित होकर प्रेस कोपी की नकल बनाने वाले मंडवाडिया निवासी श्रीमान् खेमचंद मूलचंदजी का आभार मानते है। डभोई के भण्डार के लिये तैयार की हुमी रामदेवगणि कृत टीका से युक्त षडशीति प्रकरण प्रेस कॉपी की नकल करने कराने वाले देलंदर निवासी सदगृहस्थों का भी हम आभार मानते है / 'प्रफ रीडींग' सहायक महेसाणा वाले मास्टर चम्पकलाल का तथा मुद्रण कार्य को आत्मीयता तथा तेजी से करने वाले ज्ञानोदय प्रिन्टींग प्रेस - पिंडवाडा के व्यवस्थापक ब्यावर निवासी श्रीमान फतहचन्दजी जैन (हालावाले) एवं उनके सहयोगी कर्मचारीगण की निष्ठा एवं तत्परता के कारण उनकी स्मृति सदा सराहनीय बनी रहेगी। द्रव्य सहायक : सूचित करते अत्यन्त हर्ष होता है कि इस ग्रन्थरत्न के मुद्रण-व्यय में 5000) पाटी जैन उपाश्रय सादडी के साधारण खाते में सादडी निवासी शा पुखराजजी होराचंदजी ने अर्पण कर वहां के ज्ञान खाते से यह रकम हमारी संस्था को अर्पण करवाई तथा 5000) पिंडवाडा निवासी शा लालचन्दजी छगनलालजी ने अर्पण कर श्रुत-भक्ति का अपूर्व लाम लिया। . इन दोनों द्रव्य-सहायकों ने स्व. पुण्यानुमाव से विपुल लक्ष्मी उपार्जित की और धर्म क्षेत्र में मी ठीक प्रमाण से व्यय कर उसे सार्थक की है। जैसे पुखराजजी ने प्रसिद्ध-तीर्थ राणकपुर में परमपूज्य Page #16 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ ग्रंथना द्रव्य सहायको सुश्रावक पुखराजजी हीराचंदजी तथा सुश्रावक लालचंदजी छगनलालजी स्व. शाह छगनलालजी रुपचंदजी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन आराध्यपाद आचार्यदेव श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहब की निश्रा में गोली की आराधना करवाई, उसमें अपने द्रव्य का सव्यय किया वैसे ही लालचन्दजी ने मी बामणवाडजी तीर्थ में पू. आ. श्रीमद्विजयजम्बूसूरीश्वर म. सा. की निश्रा में ओली की आराधना करवाई और पिंडवाडा में बावन-जिनालय की प्रतिष्ठा अवसर पर भी अच्छा सद्व्यय किया तथा मन्दिर के पृष्ट भाग में श्री प्रेमसूरीश्वरजी गुरुमंदिर वाले उपाश्रय के निर्माण में भाग लिया और गुरु मूर्ति की प्रतिष्ठा का गम भी स्वयं ने लिया। इम उपरांत भी यह दोनों महानुभाव तन मन धन से संघ और शासन की उपासना करते रहते हैं जैसे कि बम्बई वालकेश्वर विभाग में श्रीपालनगर के मन्दिर ओर उपाश्रय के निर्माण में काफी सहकार दिया है और वहां स्तम्भ रूप बने हैं। श्री हुकमीचंदजी कोल्हापुर वालो ने अपने स्व० पिताजी श्री डुगाजी की पुण्य स्मृति में इस प्रन्थ के मुद्रण-व्यय में रु 5000) की द्रव्य सहाय करके अपूर्व श्रुत भक्ति की है। ___ श्री ढुंगाजी का जन्म विक्रम संवत 1919 में राजस्थान-सिरोही जिले के फुगणी गांव में हुआ था। व्यवसाय का प्रारम्भ महाराष्ट्र में कोल्हापुर जिले के वडगांव में कपड़े की दुकान से हुआ / आर्थिक स्थिति सामान्य होने पर भी नीतिमत्ता असामान्य थी। क्षमा-परोपकार-सहनशीलतादि सात्त्विक गुणों से जीवन एक सुश्रावक के उचित था / सामायिक प्रतिक्रमण पूजा पच्चक्खानादि नित्य कृत्यों में तथा श्री संघ के कार्यों में सदैव अप्रमत्त और उत्साही रहते थे। फलतः विक्रम सं० 1980 में मुनि भगवंतों की निश्रा में अनशन की भावना के साथ सर्व-संग का त्यागकर दिवंगत हुए। . हुकमीचंदजी के परिवार में धर्म संपन्नता आचारशीलता और नीतिमत्ता का जो उत्कर्ष है इसका श्रेयः स्व० डुंगाजी को ही है। इनका यह दानादि धर्म उत्तरोत्तर वृद्धि को पाता रहे और माव-धर्म का स्वरूप लेकर मोक्षदायक बने यही शुभेच्छा। . निकट भविष्य में और अधिक ग्रन्थों के प्रकाशन की आशा में। (i) पिंडवाड़ा भवदीयस्टे. सिरोहीरोड (राजस्थान) शा. समरथमल रायचन्दजी (मंत्री) (i) 135/137 जौहरी बाजार शा. लालचन्द छगनलालजी(मंत्री) बम्बई-२ भारतीय प्राच्य तत्व प्रकाशन समिति * समिति का ट्रस्टी मंडल के (1) शेठ रमणलाल दलसुखभाइ (प्रमुख) खंभात (6) शा. लालचंद छगनलालजीमंत्री पिंडवाड़ा (2) शेठ माणेकलाल चुनीलाल बम्बई (7) शेठ रमणलाल वजेचन्द अहमदाबाद / (3) शेठ जीवलाल प्रतापशी बम्बई (8) शा. हिम्मतमल रुगनाथजी बेडा (4) शा. खूबचन्द अचलदासजी पिंडवाडा (9) शेठ जेठालाल चुनीलाल घीवाले बम्बई (5) शा. समरथमल रायचंदजी मंत्री पिंडवाड़ा (10) शा. इन्द्रमल हीराचन्दजी पिंडवाड़ा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अाजलि - जिन्होंने भवरूपी सागर से मुझे बाहर निकल कर चारित्ररूप नौका पर चढायो और दीक्षा दिन से लेकर बारह वर्ष तक आपने सानिध्य में रख कर ग्रहणशिक्षा और आसेवनशिक्षा के साथ साथ ही संस्कृत-प्राकृतव्याकरण न्याय दर्शन काव्य कोश छन्द अलङ्कार प्रकरण छेद आगमादि विविध विषयक ग्रन्थों के अभ्यास द्वारा अमृतपान करवाया / जिन्होंकी सतत सत्प्रेरणा और परम कृपा से ही महागंभीर और अतिभगीरथ ऐसे कर्मसाहित्य के नवनिर्माण में आज तेरह तेरह वर्ष तक लगातार प्रयत्नशील रहा हूं और भी ऐसे नवसर्जनादि अनेक कार्यो में व्यस्त रहने पर भी जिस पुण्यपुरुष की अमीदृष्टि से ही इस ग्रन्थरत्न की सम्पादनता में भी सफलता पा रहा हुँ / उन कर्मसाहित्य के सूत्रधार सिद्धान्तमहोदधि सच्चारित्रचूडामणि परमशासनप्रभावक सुविशालगच्छाधिपति परमाराध्यापाद ___ स्वर्गीय आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा की परमपावनी स्मृति में भवदीय कृपैकाभिलाषी मुनि वीरशेखर विजय Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ ग्रन्थसर्जनना प्रेरक, मार्गदर्शक अने संशोधक सिद्धान्तमहोदधि, कर्मशास्त्रनिष्णात, सुविशालगच्छाधिपति, सकल संघकौशल्याधार. स्व. परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा M Page #21 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACA AN नानावृत्तिविभूषिताः चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः प्राकृतभाषागाधाकट टिप्पनक-यन्त्रकादिनाऽलङ्क्तः सप्ततिकाभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः तथा तथा प्राकृतभाषानिबद्धटिप्पनक-वृत्तिभ्यां विराजितं सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणम् तथा ... परिशिष्टद्रयम् Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विषयानुक्रमः * कर्मविपाकसंज्ञकः प्रथमः कर्मग्रन्यः गाथाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्कः गाथाङ्कः विषयः पृष्ठाकः टीकाकृन्मङ्गलश्लोकादिकम् 1 63-65 अ युमू लोत्तरभेदस्वरूपम् 1 मङ्गलादिचतुष्टयम् __2 66 आयुर्निगमय्य नामोपक्रमः 2 कर्मशब्दव्युत्पत्तिः 4 67-70 नाम्नः स्वरुग्म , 42.67 13-1.3 3 मोदकदृष्टान्तेन प्रकृत्यादिभेद चतुष्कम् 5 प्रकृतिभेदसन्याकथनम् 66 4 मूलोत्तरप्रकृतिसङ्ख्या 7-75 नाम्नो द्विच वारिंश प्रकृतिभेदाः 41 5-6 मूलप्रकृतयः 76-76 नाम् सप्तषष्टि , , 7-8 प्रत्येकमूलप्रकृत्युत्तरप्रकृतिसंख्या 8 7-80 बन्धप्रायोग्यसर्वोत्तप्रकृतिविंशत्यधिपटाद्योपम्येन प्रत्येकमलकमणां स्वरूपम है कशत भेदाः 10-12 पटदृष्टान्तेन मूलोत्तज्ञानावरण 81.82 नाम्नस्त्रिनवतिप्रकृतिभेदाः म्याच्छादक विदर्शनम् _ 83 नाम्नस्यधिकशतप्रकृतिभेदाः 13 मतिज्ञानावरणस्वरूपम् 84-85 गतिनामस्वरूपम् 14 अत " " 86-87 इन्द्रिय 15 अवधि , " 88-89 शरीर 16 मनःपयेव , , 13 10.62 अङ्गोपाङ्ग 17 केवल 14 13-105 बन्धन . , 18 ज्ञानावरणनिगमनदर्शनावरणप्रस्तावी. 4 106-107 सघातन , 16-21 प्रतिहार दृष्टान्तेन दर्शनावरणस्वरूपम् 15 188-110 संघयण 22-26 दर्शनावरणभेदनवकस्वरूपम् - 16 111-113 संस्थान 37 दशनावरणनिगमनवेदनीयप्रस्तावौ 19 114 क्षणे 28-29 दृष्टान्तेन वेदनीयस्वरूग्म 11 115 गन्ध 30-32 सामान्यतो गतिचतुष्के च वेदनीय 156 रस . द्वयविपाकः 657 शे 33 वेदनीयोपसंहारमोहनीयप्रारम्मौ / 118 अगुरुलघु 34 मद्यदृष्टान्तेन मोहनीयस्वरूपम् 22 116 उपघात 35 मोहनीयस्य द्वैविध्यम् 120 पराघात 36 दर्शनमोहनीयस्य त्रिविधता 22 121-123 आनुपूर्वी " " 37-36 क्रमेण सम्यक्त्वादित्रयस्य स्वरूपम् 23 124 उच्छ्वास , " 40 चारित्रमोहनीयस्य द्विविधता 25 125-126 आतप , " 41 षोडशकषायनामानि 127 उद्योत , " 42-43 अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्कस्वरूपम् 26 18-126 विहायोगति , , 44.15 अप्रत्याख्यानावरण"""" 28 130-133 त्रसदशक-थावरदशकनामानि 46-47 प्रत्याख्यानावरण , , , , 26 अवान्तरसंज्ञाश्च 48-49 संज्वलन , , , , 30 134-147 दशकद्वयप्रकृतिनामस्वरूपम् 50-61 नोकषायभेदसङ्ख्यास्वरूपम् 148 निर्माण / 62 मोहनीयनिगमनायुप्रकमौ 146 तीर्थकर र 21 3. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ ગ્રન્થમાં દ્રવ્યસહાયક શાહ હુકમચંદજી ડુંગાજી રાઠોડ (ફુગણી) (કોલાપુર) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 123 विषयानुक्रमः [ 13 गाथाङ्कः विषयः पृष्ठाडूः गाथाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्कः -- 150 नामकर्म निगमय्य गोत्रकर्मोपक्रमते 79 167 अन्तराय-निगमनपूर्वकमन्थकारनाम१५१-१५५ गोत्र-तद्भेदद्वयस्वरूपम् 80 निर्देशः 156 गोत्रमुपसंहृत्यान्तरायप्रस्तावना 81 168 ग्रन्थतो गाथासङ्घयानिर्देशपुरस्सरं 157-136 अन्तराय तदुत्तरभेदप ख्वकस्वरूपम् 2 तद्विषयज्ञानोपायः कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः 1 मङ्गलादिकम् ___89 1-10 मूलोत्तरप्रकृतिसमुत्कीर्तना 102 २गुणस्थाननामस्वरूपवर्णनम् 10 , वणेना 104 2-3 बन्धमाश्रित्य गुणस्थानकेषु व्यवच्छिद्य- 11-24 बन्धमधिकृत्य गुणस्थानकेषु व्यवच्छिमानप्रकृतिसङ्ख्या 16 द्यमानप्रकृतयः 144 4 उदयमाश्रित्य गुणस्थानकेषु व्यवच्छि 25-38 उदयमधिकृत्य गुणस्थानकेषु व्यव च्छिद्यमानप्रकृतयः __द्यमानप्रकृतिसङ्ख्या 98 . 35-42 उदीरणामधिकृत्य गुणस्थानकेषु व्यव५ उदीरणामधिकृत्य गुणस्थानकेषु व्यव च्छिद्यमानप्रकृतयः 122 च्छिद्यमानप्रकृतिसङख्या 96 43-54 सत्तामधिकृत्य गुणस्थानकेषु व्यवच्छि६-८ सत्तामाश्रित्य गुणस्थानकेषु व्यवन्छि द्यमानप्रकृतयः . द्यमानप्रकृतिसङ्ख्या, 10 55 सिद्धभगवत्स्तुतिपूर्वकमिष्टार्थाभ्यर्थना१२६ . बन्धस्वामित्वाभिधस्तृतीयः कर्मग्रन्थः / 1 मङ्गलादिकम् 17 26-34 योगभेदेषु बन्धस्वामित्वम् 140 2 मूलमार्गणा 127 35 वेदकषायभेदेषु , 3 गतिभेदेषु गुणस्थानानि जीवस्था 36 ज्ञानभेदेषु नानि च 128 37-38 संयमभेदेषु कृतयः 129 36 दशेनभेदेषु - 4-5 प्रथमंद्वितीयगुणस्थानयोर्व्यवचि छद्यमानप्रकृतयः 40-46 लेश्याभेदेषु 6-1 नरकगतिभेदेषु बन्धस्वामित्वम् 131 46 भव्या ऽभव्यभेदद्वये, 146 10-12 तिर्यग्गतिभेदद्वये 50-52 सम्यक्त्वभेदेषु , 13-14 मनुष्यगतिभेदद्वये , 134 52-53 संश्यसंज्ञिभेदद्वये , 150 15-21 देवगतिभेदेषु 53 आहारका ऽनाहारकभेदद्वये // 151 22-24 इन्द्रियभेदेषु 139 54 प्रकरणोपसंहारः 152 25 कायभेदेषु टीकाकुत्प्रशस्तिः षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः हारि-मल. यशो. राम० 8-10 , उपयोगाः 161 7 5 1-2 मङ्गलादिकम् 154/155 1.2 1 1 0 , लेश्याः 171 8 6 ' 3 जीवस्थानस्वरूाम् 162 3 2 . , मार्गणास्थानानि . 4-5 जीवस्थानेषु गुणस्थानानि 163 4 2 बन्धहेतवः . . 6-8 , योगाः 167 5 4 11 बन्धोदयोदीरणासत्तास्थानानि१७१८८ 145 145 146 136 153 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 विषयानुक्रमः गाथाङ्कः विषयः गाथाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्क: 12 मूरमागगास्थानानि 174 10 9 66-66 , योगाः 243 45 27 13-17 उत्तर , , 176 10 1 66-71 , उपयोगाः 245 46 27 18-25 मार्गणास्थानेषु जीवस्थानानि१७६१५ 10 72 केषुचिदर्थेषु सिद्धान्तमतस्या. 26 गुणस्थानानि 187.21 13 नधिकृतता 247 47 28 27-33 204 26 13 73 गुणस्थानेषु लेश्याः 2:6 47 28 : 211 26 15 " मागेणास्थानानि // 35-41 214 30 15 " 74-76 बन्धहेतवः 246 48 30 उपयोगाः 220 32 57 " " 251 5031 43-46 " 221 33 17 78 अष्टमूलप्रकृतयः 254 5233 49-50 योगत्रये गुणस्थान-जीवस्थानो ७४बन्धोदयोदीरणासत्तास्थानानि२५५५३३३ पयोग-योगसत्कमतान्तराणि 226 35 16 80 गुणस्थानेषु बन्धस्थानानि 255 53 33 51-52 मार्गण स्थानेषु लेश्याः 227 36 20 81 , उदयसत्ता, 25553 33 53-64 " अल्पबहुत्वम् 228 37 20 82-83 , उदीरणा , 257 5434 // मार्गणास्थानानि 23 84-85 , अल्पबहुत्वम् . 259 55 34 " बन्धहेतवः 26 86 सोपसंहारं निजनामोल्लेखनम्२६०५६३५ 65 गुणस्थानेषु जीवस्थानानि 243 44 27 . टीकाकृत्प्रशस्तिः 261-262 55 35 सप्ततिकाभिधानः षष्ठः कर्मग्रन्थः सूत्रकृत्तथा टिप्पनककन्मङ्गलादिकम् 1 सामान्यतो नामोत्तरप्रकृतीनां सामान्यतो मूलप्रकृ ीनां बन्धोदयसत्तास्थानसंवेधः 32-37 ___ बन्धोदयसत्तास्थानानि तत्संवेधश्च 1-2 चतुर्दशजीवस्थानेषु ज्ञानावरणा-ऽन्तरराययोजीवस्थानेषु , , , 2 रूत्तरप्रकृतीनां ... . 37-38 गुणस्थानेषु . ,, दर्शनावरणोत्तरप्रकृतीनां बन्धोदयसत्तासामान्यत उत्तरप्रकृतीनां स्थानानि तद्भहाश्व 38 , ज्ञानावरणाऽन्तरायोत्तरप्र०, , 3-4 ,, वेदनीया-ऽऽयु-र्गोत्रकर्मोत्तरप्रकृतीनां 38-36 , दर्शनावरणो-त्तरप्रकृतीनां ,.., 4-5 ,, मोहनीयोत्तरप्रकृतीनां , 39-44 , गोत्र वेदनीया ऽऽयुरूत्तरप्रकृतीनां , 5-6 ,, नामोत्तरप्रकृतीनां , 45-55 , मोहनीयोत्तरप्रकृतीनां , , 6-78 गुणस्थानकेषु ज्ञानावरणा-ऽन्तराययोदर्शनाव" बन्धस्थानमङ्गाः 86 बन्धस्थानेषूदयस्थानानि ____रणस्य चोत्तरप्रकृतीनां / / , 55-56 उदयस्थानमगाः 1.13 , वेदनीय-गोत्रा-ऽऽयुरुत्तरप्रकृतीनां ,, 56-57 बन्धस्थानेषु सत्तास्थानानि 14 , मोहनीयस्योत्तरप्रकृतीनां , 58-62 , गुणस्थानानि प्रतीत्य बन्धो- ,, ,, योगानाप्रित्योदयस्थानमङ्गाः६३-६४ दयसत्तास्थानसंवेधः 15-16 ,,, उपयोगाना ",65-66 , नामोत्तरप्र. बन्धस्थानानि, तदुमलाश्व 17-21 , लेश्या आश्रित्योदय 66 " उदय , , 22-23 , नामोत्तरप्रकृतिवन्धोदयसत्तास्थानानि 66-75 . , , सत्ता , , 3:32 गतिमार्गणाचतुष्के , तद्भङ्गाः संवेधश्च 75-80 सूक्ष्माथेविचारसारप्रकरणम् टिप्पनकम् वृत्तिः 2 कर्मणः प्रकृत्यादिभेदतो टिप्प० वृ० 1 मनालादिकम् 1 1 मूलोत्तरप्रकृतिभेदप्रदर्शनम् 2 1.3 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः [15 गाथाङ्क: विषयः पृष्ठाङ्कः गाथाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्क वृत्तौ कर्मबन्धहेतुमूलोत्तरभेद 43-46 शुभा-ऽशुभप्रकृतयः 16 2. निरूपणम 47 परावर्त्तमाना-ऽपरावर्तमानप्रकृतयः 1721 3 मूलप्रकृतीनां नामानि तदु 48-49 पुद्रल-मव-क्षेत्र-जीवविपा. त्तरभेदसङ्खयानिरूपणम् 2 3 किन्यः प्रकृतयः 17 21 4 दर्शनावरणो-त्तरप्रकृतयः 2 3-4 50 मूलभाव-तदुत्तरमावसङ्ख्या 17-1821 5 ज्ञानावरणा-ऽन्तरायकर्मणो 51.54 उत्तरभावानां निरूपणम् 18 22 रुत्तरप्रकृतयः 2-3 4 55-57 सान्निपातिकमावे संभवि६ मोहनीया-ऽऽयुर्गोत्र वेदनी नोऽसंमविनो भेदाः 18-20 22-13 योत्तरप्रकृतयः 3 5-6 58 अष्टमूलकर्मसु मूलभावानां प्रदर्शनम् 20 23 7-8 पिण्ड-प्रत्येकप्रकृतयः / 3 6 59 चतुर्दशगुणस्थानकेषु , , 20-2123 9-10 त्रस-स्थांवरदशकद्वयप्रकृतयः 3.467 6062 चतुर्दशजीवस्थानानि, तत्वस्वअथवा सप्रतिपक्षाः प्रकृतयः रूपम् , तत्र मावनिरूपणम् , 21-22 24-25 11 त्रसचतुष्कादिसंज्ञानिदर्शनम् 4 . . 63 मूलप्रकृतीनां ज्येष्ठस्थिति प्रमाणम 22 25 12 पिण्डप्रकृत्युत्तरप्रकृतिसङ्ख्याभणनम् 7 64 , जघन्य ,, 22-23 25 13-18 / नामानि क्रमशस्तथा 65-71 उत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्ट , , __मनुष्यद्विकत्रिकादिसंज्ञा 4.6-7-9 61 तमगाथायां पुनराहारक१६ नाम्नो विविधापेक्षयोत्तरप्रकृतीनां द्विक-जिननाम्नो जघन्यस्थिभिन्नभिन्नसङ्ख्या 6 12 . तिबन्धप्रमाणमपि 23-25 26-27 .20 बन्धादिषु नामादिप्रकृतीनां विष 72-73 ,, नांजघन्य ,, ,, 25-27 27 क्षाविशेषदर्शनम् 6.7- 12 74-75 ,, जघन्योत्कृष्टस्थिति. 21 पश्चदशबन्धननिरूपणम् 7 12 प्रमाणमेकेन्द्रियविकले. 22 वर्णादीनांशुमा-ऽशुभत्वमणनम्७ 13 न्द्रिया.ऽसंज्ञिषु तथाऽऽयुषां * . 23 ध्रुवाध्र व-बन्धोदय-सत्ताकानां जघन्यस्थिति प्रमाणम् 27-2828 तथा सर्व-देशघात्य ऽघाति 76 वैक्रियषट्कस्य मतान्तरेणाचतुर्विपाकानां प्रकृतयः 78 13 हारकद्विक-जिननाम्नोज२४ ध्र वा-ध्र ववन्धिप्रकृतयः 13 धन्यस्थितिप्रमाणम् 28 29 25-26 एकेन्द्रियादीनां बन्धायोग्य प्र० 14 77 जघन्यावाधानिरूपणम् 26 28 78-76 तुल्लकमवप्रमाणम् 26-30 26 27-29 उत्तरप्रकृत्यबन्धकालः 10-11 14-15 80 गुणस्थानकादिष स्थिति३०-३३ उत्तरप्रकृतिसत्कबन्ध कालः 11-13 15-16 34 ध्र वा-ध्र वोदयप्रकृतयः 13 17 ___81 जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धाल्प३५ ध्र वाऽध्र वोदयानां मङ्ग बहुत्वम् 30-32 24 विभागनिर्दर्शनम् 13 17 82 ,,, बन्धस्वामित्वम् 32 30 36 ध्र वा-ऽध्र वसत्ताकप्रकृतयः 13 17 83 ,,, बन्धपरिणामप्र३७-३९ गुणस्थानमाश्रित्य मिथ्यात्वा रूपणम् - 32-33 30 दीनां ध्र वा-ध्र वत्वम् 14-1518-16 84-85 चतुर्दशजीवस्थानेषु जघ. 40-42 सर्वघाति-देशघात्य-ऽघा न्योत्कृष्टयोगाल्पबहुस्वम 33-34 31 तिप्रकृतयः 86 ,, स्थितिस्थानाल्पबहुत्वम् 34 32 80 गुण प्रमाण तिबन्धाल्पः-३२ 26 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] विषयानुकमा त्वम् गाथाङ्कः विषयः पृष्टाङ्कः गाथाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्कः 87 जीवस्थानेषु योगवृद्धिविशेष 112 क्षेत्रस्य सूक्ष्मत्त्रप्रदर्शनम् 48 40 निरूपणम् 34-35 32 113 सूचिश्रेणि-प्रतरप्ररूपणम् / 48 40 8. प्रत्येकस्थितिस्थानगताध्य 114-116 प्रकृतिभेदादिनिरूपणम् 48-49 41 ____वसायप्रमाणम् .35 33 197-118 शुभा-ऽशुभप्रकृतीनां कषा८९ शुमा-ऽशुभप्रकृतिसत्कज योदयेष्वनुभागबन्धाध्यवघन्योत्कृष्टानुभागहेतुकाध्यवसायनिरूपणम् सायस्था नतारतम्याल्पबहुत्वम् 49-50 42 35-36 33 90-93 रसस्थाननिरूपणम् 36-37 33-34 116 अनुमागस्थानपरिमाण- . 14-66 वर्गणास्वरूपम् 37.4034-35 दर्शनार्थमल्यबहुत्वम् 5. 39 67 वर्गणाद्रव्योत्पत्तिप्रदर्शनम् 40 35 120 कर्मस्कन्धस्वरूपम् 50 42 18 जघन्योत्कृष्ट प्रदेशबन्धस्वा 121 , " प्रदेशगतरसाणुप्रमाणम् 50 43 मित्वम् 4. 36 122-148 सङ्ख्यास्वरूपम् 51-57. 43.48 16-100 दलविभागनिरूपणम् 41 36 1 46 सप्तमा-ऽसङ्खय-सप्तमान१०१-१०३ एकादशगुणश्रेणिप्ररूपणा 42-43 30 न्तविषयक मतान्तरम् / 57 48 .. 104 गुणस्थानकजघन्योत्कृष्टान्तरम् 43 38 151152 उत्सूत्रसत्कमिथ्यादुष्कृतपुर- .: 105-506 पुद्गलपरावर्तस्वरूपम् 44-46 38-36 स्सां निजनामोल्लेखपूर्वकं 150-111 योगस्थानादीनामल्पबहु श्रवण-ज्ञान-बोधन:शोधना. 46-48 40 दिप्रार्थनया साधं ग्रन्थसमापनम् 58 प्रथमं परिशिष्टम् यन्त्राङ्क: यन्त्राङ्कः 1 जीवस्थानेषु गुणस्थानक-योगों पयोग- 6 मार्गणास्थानेषु उपयोगलेश्याः बन्धो-दयो-दीरणा-सत्तास्थान-बन्ध " अल्पबहुत्वम् 8 . बन्धहेतवः / हेत्वऽल्पबहुत्वानि ., मार्गणास्थानानि 10-13 2 जीवस्थानेषु मार्गणास्थानानि 10 गुणस्थानेषु जीवस्थान-योगो-पयोग-१४-१५ 3 मार्गणास्थानेषु जीवस्थानानि लेश्या-बन्धो-दयो दीरणा-सनास्थान४ // गुणस्थानानि बन्धहेत्व ऽल्पबहुत्वानि / 5 , योगाः 11 गुणस्थानेषु मार्गणास्थानानि 16 द्वितीयं परिशिष्टम् गाथाङ्काः गाथाङ्काः 1-168 प्रथमकर्मग्रन्थमूलगाथाः 1-32-24/23 द्वितीय कर्मग्रन्थमाष्यगाथाः 51-54 1-57 द्वितीय " ," 5-54 तृतीय , " " 20-24 1-25 पश्चम " " , " 56.60 . 1-86 चतुर्थ , , , 25-32 1-181 षष्ठ , " " " 61-77 1.105 पदम""" 33-411.66 . , सार , 8-84 1-71 षष्ठ , ". 42-51 १-१५२/१७४-सूक्ष्मार्थविचारसार मूलगाथाः१.१६ 1.20 " .. "माष्य , 17-18 mxcc चतुर्थ , " " " Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ही अहं श्री शंखेश्वरपाश्वनाथाय नमः // न्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपादपद्मेभ्यो नमः॥ सकलागमरहस्यवेदिश्रीमदाचार्यविजयदानसूरीश्वरभ्यो नमः / सिद्धान्तमहोदधिश्रीमदाचार्यविजयप्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः / श्वेताम्बराग्रण्यश्रीमद्गर्गमहर्षिविरचितः कर्मविपाकाख्यः प्रथम: कर्मग्रन्थः / पूर्वाचार्यकृतव्याख्यया श्रीमत्परमानन्दसूरिविरचितवृत्त्या च समेतः / ... (पूर्वाचार्यकृतव्याख्या) - // नमः सिद्धेभ्यः / / रागादिवर्गहन्तारं, प्रणेतारं सदागमम् / प्रणौमि शिरसा देवं, वीरं श्रीजिनसत्तमम् // 1 // स्तौमि देवीं सदा भक्त्या, जिनाऽऽस्याम्बुजवासिनीम् / यत्प्रसादाद्वरं काव्यं, कवीनां जायतेऽमलम् // 2 // 'कः शक्तो विवरीतु स्यात् , सूत्रं जिनमतेऽखिलम् / अनन्तगमपर्याय, मतेर्मान्द्याच्च बालिशः // 3 // गुरुपादप्रसादेन, तथाऽपि जडबुद्धिना। क्रियते विवरणं किञ्चिद् , विपाके कर्मसंज्ञके // 4 // दोषान्मुक्त्वा वचो ग्राह्य, मदीयं कृतिभिः सदा / सतामभ्यर्थना येन, न (यन्न) कदाचिन्निष्फला भवेत् // 5 // तत्रेष्टदेवतास्तवाभिधायिकां प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्त्यर्थं विघ्नविनायकोपशान्तये शिष्टसमयप्रतिपालनाय च प्रयोजनाभिधेयसंबन्धगर्दा सूत्रकार आद्यामिमां गाथामाह___“सदागमे” इति जे० / 1 "विवरीतु समर्थः स्यात्कः सूत्रं जिनमतेऽखिलम्" जे०१२ “गमाः सदृशपाठाः, पर्यायाः नवपुराणादयः" जे० टिप्पणी / 3 पर्यायान्मते० जे०। ४-"त्सुबालिशः” इत्यपि // . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2] ____ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे (श्रीमत्परमानन्दमूरिविरचितवृत्तिः) निःशेषकर्मोदयभेघजालमुक्ती दिनाधीश योग्रतेजाः / लो प्रदर्शिताशेषपदार्थसार्थो, मुदेऽस्तु नः श्रीजिनवर्द्धमानः // 1 // इह हि सन्तः संसारसागरतरणतरणिकल्पं जिनशासनमवाप्य सकलजन्मजीवितसारं परोप- 5 कारं मन्यन्ते / स च संसारिणां सकलामङ्गलनिलयकर्मस्वरूपनिरूपणात्तदुन्मूलनप्रवृत्तानां सिद्धो भवतीत्यतस्तत्स्वरूपनिरूपणप्रवां प्रकरणं चिकीर्षु गर्गमहर्षिर्मङ्गलाभिधेयसंबन्धाभिधानबन्धुरा गाथामाह ववगयकम्मकलंकं वीरं नमिऊण कम्मगइकुमलं / 'वोच्छं कम्मविवागं, गुरूवइट्ठ समासेणं // 1 // .. 1 (पू०) अस्या व्याख्या-सा च संहितादिक्रमेण-"संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः / चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा" // 1 // तत्रास्खलितपदोच्चारणं संहिता / सा चेयम्-व्यपगतकर्मकलङ्क, वीरं नत्वा कर्मगतिकुशलं / वक्ष्ये कर्मविपाकं, गुरूपदिष्ट समासेन / 11 पदानि पुनः सैव संहिता विच्छेदेनोच्चार्यमाणा 2 / . पदार्थस्त्वयम्-घोरं नत्वा वक्ष्ये कर्मविपाकम् इति क्रियाकारकसंबन्धः। विरजनाद्वीरः / विपूर्व- 15 : स्य 'राजू दोतो' इत्यस्य धातोः औणादिड व्प्रत्ययान्तरय "अन्येषामपि" इति दीर्घत्वे वीर इति रूपम् / तस्यार्थः-विराजते शोभते प्रकाशते वावीरः / शूर वीर विक्रान्तौ" इत्यस्य वा / तत्रार्थः-महाविक्रान्तोऽपरवादिशत्रुजयात् , परीपहाद्यक्षोभ्यत्वाद्वा। ईर गतिप्रेरणयोः' इत्यस्य वा विपूर्वस्याच्प्रत्यये रूपम् / तस्य पुनरयमर्थः-विशेषेण ईरयति कर्म गमयति याति वा शिवमिति कृत्वा वीरः, गौणं नाम भगतः / अर्थव्युत्पत्त्यनुसारेणान्येऽप्यर्थाः सन्ति, अतस्तेऽप्यवबोद्ध- 20 व्याः / तथा चोक्तम्-"विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते / तपोवीर्येण युक्तश्व. तस्माद्वोर इति स्मृतः ॥१॥"'णम् प्रत्वे शब्दे [चइत्यस्य धातोः क्त्वान्तस्य नत्वेति रूपम् / 'नत्वा' प्रणम्य “वाच्छं' वक्ष्ये अभिधास्ये, किं श्रुतं वीरम् ? इत्याह-व्यपगतकर्म- भू कलङ्क वि-अप-पूर्वस्य गमेः क्तान्तस्य व्यपगतमिति रूपम् / कर्मैव कलङ्क कर्मकलङ्कम् / यदा प्रथमातत्पुरुषस्तदाऽयमर्थः-कलङ्क दूषणं जीवस्वभावस्य कर्मैवाशुभपरिणामपरिणतं कलङ्क 25 कर्मकलङ्कम् / विशदो विशेषार्थः, अपशब्दोऽभावार्थः, विशेषेणापगतं कर्मकलङ्क यस्यासौ व्यपगतकर्म करकोऽन्याहार्थः, अतस्तम् / यदा पुनईन्द्रः, कर्म च कलङ्क च कर्मकलङ्क, तदा कर्म ज्ञानावरणीयादि प्रतीतं, कलङ्क वाद्याभ्यन्तरभेइभिन्नम् / तत्र बाह्यमकीर्त्यादि, आभ्यन्तर- . मशुभाध्यवसायादि / ते [ विरोषेण ] अपगते अतीते यस्यासौ व्यपगतकर्मकलङ्कः, अतस्तम् / ___ 1 बोच्छं जे० / 20 न्तः कषायशत्रु० जे० / 3 णम प्रहृत्वे शब्दे अय घातोः जे० / 4 बोच्छं जे। . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्गलादिचतुष्टयम् ननु गमर्गत्यर्थत्वात्कथ नभावार्थः स्यात् ? उच्यते, विअपपूर्वो गमिः स्वभावात् अनेकार्थत्वाद्वा * धातूनामभावाथोऽपि दृष्टः / तथा-'कर्मगनिकुशल' इति कर्मणां गतिः परिच्छित्तिः, तत्परि णामो वा कर्मगतिः, तत्र कुशलो निपुणः सर्वथा तत्परिच्छेदकः / तं नत्वा वक्ष्ये 'कर्मविपाक' कर्मणां विपाकोऽनुभवः कविपाकस्तम् / कथंभूतम् ? 'गुरूपदिष्टं' गुरुभिरुपदिष्टो गुरूपदिष्टो 5 गुरुकथितस्तम् / कथं वक्ष्ये ? 'समासेन' संक्षेपेण, इति गाथाऽक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्-व्यपगतकर्मकलङ्ककम् , इत्यनेनापायापगमातिशय उक्तः / वीरं नत्वा, इत्यनेन स्तोतव्यसंपत्पूर्वको नमस्कारोऽभिहितः / कर्मगतिकुशलम् , अनेन तु स्तोतव्यस्यैव ज्ञानातिशयः प्रतिपादितः / कर्मविपाकम् , इत्यनेन त्वभिधेयम् / गुरूपदिष्टम् , पुनरनेनावयवेन शास्त्रस्य पारतन्त्र्यमाह गुरुपर्वक्रमलक्षणसंबन्धकम् / समासेन, इत्यनेन पुनः पदेन प्रयोजनाभिधानम् , 'व्यासाभिधा- 10 नारसमासाभिधानं प्रयोजनम्' इत्युक्तेः / कर्मविपाकाथोऽभिधेयः / अभिधानं तु इदमेव प्रकरणम् / अभिधानाभिधेयलक्षणश्च संबन्धः / इति गाथाभावार्थः 3 / पदविग्रहस्तु पदार्थ दर्शयद्भिर्दर्शित एव 4 / वीरमित्यनेनैव स्तोतव्यसंपदोऽभिहितत्वात् किमर्थं शेषपदोपन्यासः ? इति चालना 5 / प्रत्यवस्थानमाह-बीर इत्येतावन्मात्रे कृते 'नानाविधवीरप्रसङ्गः स्यात् / तद्वय दासार्थ व्यपगतकर्मकलङ्कमित्याह, तर्हि व्यपगतकर्मकलङ्कमित्येतदेवास्तु किं शेषपदैः ? इत्यत्राह- 15 कैश्चिद्वयपगतकर्मकलङ्कोऽप्यसर्वज्ञ इष्यते किञ्चिज्ज्ञत्वात् , तद्वयवच्छेदार्थ कर्मगतिकुशलं सर्वज्ञत्वाभिधायक पदमाह, तेन भाववीरं अशेषकल्मषध्वान्तरहितं सर्वशं सर्वदर्शिनमित्यभिहितं, भवति / ननु किमन्यैः कर्ममिपाको नाभिहितः येनाभिधीयते भवता कर्मविपाकः ? इत्यत्रोच्यते/ वि उक्तोऽन्यः, किन्तु व्यासेन, अत्र तु समासेन / इति गाथासमुदायार्थः॥१॥ क्रियत इति कर्म, इमां व्युत्पत्तिमाश्रित्य कर्मशब्दप्रवृत्तिः, जीवस्य च कर्मणा सार्द्ध मना- 20 दिसंयोगोऽभिधीयते तत्कथमिदमविरोधि ? इत्याह (पारमा०) तत्र 'वोरमिति' विशेष्यम् / तं 'नत्वा कर्मविपाकं वश्ये' इति संबन्धः / .. शेषतीर्थकृतामपि भावमङ्गलत्वे साधारणे सत्यासन्नोपकारित्वादस्य नमस्कारः / कीदृशं वीरम् ? कर्माण्येव जीवचन्द्रमसः स्वभावशुद्धस्य कलुषत्वापादनेन कलङ्कः, स व्यपगतोऽस्येति व्यपगतकर्मकलङ्कः / एतेन घातिकमविलयनप्रतिपादनेन भगवतः स्वस्वरूपापत्तिरुक्ता, अत एव 25 'कर्मगतिकुशलमिति' विशेषणं सुघटम् / कर्मणां गतिः परिणतिः, तत्र कुशलं विज्ञम् / नहि विमलकेवलं विना कोऽपि कर्मगतिं परिच्छेत्तुमलम् / यदुक्तम्-"जीवाण गई कम्माण परिणई पुग्गलाण परियहो / मुत्तण जिणं तह जिण-मयं च को जाणिलं तरह" ? // 1 // एवं च शास्त्रादौ भावमङ्गलं नमस्कारं कुर्वता व्याख्यानान्यपि सूचितानि / तथाहि 1 नामादिवी' प्रसङ्गः जे० / 2 षसङ्गरहितं जे० / 3 मनादिः सं० जे० / Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाको प्रयमे कर्मग्रन्थे कर्मविपाकं वक्ष्ये, इत्यनेनाभिधेयाभिधानम् / गुरूपदिष्टम् , इत्यनेन गुरुपर्वक्रमलक्षणमंबन्धाभिधायिना स्वमनीषिकापरिहारोपदर्शनम् / यथा सुधर्मस्वामिना जम्बूस्वामिनः / इत्यादिक्रमेण यावन्मद् रुणा ममोपदिष्ट, न तु स्वबुद्धिवैभवोद्भावितमिति / 'समासेन' संक्षेपेण, इत्यनेन संक्षेपरुचिश्रोतृप्रवर्तनम् / नमस्कारश्च चतुरतिशयोपेतस्य भवति, ते चेत्थमत्र भावनीयाः / 5 तथाहि-आद्यपदेनापायागमातिशयः प्रतिपादितः / अपायभूतानि हि घातिकर्माणि, तत्प्रक्षये च ज्ञानातिशयोऽवश्यंभावी, स च कर्मगतिकुशलं, इत्यनेनोक्तः / तद्वतश्च प्रायेण वचनातिशयः स्फुट एव / एतदुपेतश्च भवत्येव देवदानवमानवमाननीयः, इति वचनातिशयपूजातिशयावाक्षिप्तो, इति चतुरतिशयोपेतत्वम् / इति गाथार्थः // 1 // 'कमविपकिं वक्ष्ये' इत्युक्तम् , अतः कर्मणः शब्दव्युत्पत्तिप्रतिपादनपुरःसरं स्वरूपं .. निरूपयति 'कीरइ जओ जिएणं, मिच्छत्ताई हिँ चउगहगएणं / तेणिह भण्णइ कम्म. अणाइयं तं पवाहेणं // 2 // (पू०) अस्या व्याख्या-'क्रियते' निष्पाद्यते 'यतः' यस्मात्कारणात् 'जीवेन' प्राणिना, कैः ? 'मिथ्यात्वादिभिः' मिथ्यात्वमादिर्येषां ते मिथ्यात्वादयः / तत्र मिथ्यात्व- 15 मतत्त्वेषु तत्त्वाभिनिवेशः / आदिशब्दादविरतिप्रमादकषायाज्ञानादयो गृह्यन्ते / क (केन) क्रियते ? 'चतुर्गतिगतेन' नारकतिर्यङ्नरामरभवान्तर्गतेन, 'तेन' कारणेन 'इह' प्रवचने लोके वा 'भण्यते' उच्यते कर्म / न विद्यते आदिर्यस्य तदनादि, अनायेवानादिकम् / स्वार्थे कः / 'प्रवाहेण' सन्तत्या एकभवापेक्षया सा.द, प्रवाहापेक्षया पुनरनादि / यदि प्रवाहापेक्षयाऽपि सादि स्यात्तदा जीवानां पूर्व कर्मवियुक्तत्वमासीत् , पश्चादकर्मकस्य जीवस्य कर्मणा सह संयोगः 20 सञ्जातः, एवं च सति मुक्तानामपि कर्मयोगः स्यात् , अकर्मकत्वा विशेषत्वात्ततश्च मुक्ता अमुक्ताः स्युः / न चेदं कस्यचिदिष्टम् , इष्टौ वा प्रत्यक्षागमविरोधस्तस्मात्स्थितमेतत्-अनादिर्जीवस्य कर्मणा सह संयोगः। नन्वनादिसंयोगे कथं वियोगः कर्मणा जीवस्य स ? उच्यते, अनादिसंयोगेऽपि वियोगो दृष्टः, सुवर्णोपलवत् / तथाहि-सुवर्णे पाषाणानां यद्यप्य नादिः संयोगस्तथाऽपि तथाविधनरे(रसे)न्द्रादिसद्भावे धमनादिना किट्टवियोगो दृष्टः / एवं जीवस्याप्यनादिकर्म- 25 योगयुक्तस्य ज्ञानदर्शनचारित्रध्यानानलादिभिर्वियोगः सिद्धः / इति गाथार्थः // 2 // प्रागभिहितस्यैव कर्मणः स्वरूपभेदा नाह (पारमा०) 'क्रियते' निष्पाद्यते 'यतः' यस्मात् 'जीवेन' प्राणिना 'मिथ्यात्वा- . दिभिः' मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगः 'चतुर्गतिगतेन' नारकतिर्यग्नरामरस्थेन / 'तेन' 1 कीरइ गाहा अस्य व्या० जे० / 2 विशेषात्ततश्च जे० / 3 प्यनादिसंयोग जे० / 4 भेदमाह-। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमणः शब्दव्युत्पत्ति पुरःसरं स्वरूपं भेदाश्च कारणेज 'इह' ग्रन्थे प्रवचने वा कर्म भग्यते / ननु क्रियत इति को, इत्यनया व्युत्पच्या सादि त्वापत्तिः, ततश्चायमर्थः प्रसजति-यदुत सर्वेऽपि जीवाः पूर्वमकर्माणः सन्तः पश्चात्कर्मणा युज्यन्ते, अकर्मणां च कर्मयोगे मुक्तानामपि कर्मयोगः प्रामोत्यकर्मत्वाविशेषात् , ततो मुक्ता अप्यमुक्ताः स्युः, इत्युक्तमनादि तत् / नन्वनादित्वेऽङ्गीक्रियमाणे पारिणामिकजीवत्वस्येव वियोगो न 5 प्राप्नोति, इत्यत उक्तम्-'प्रवाहेण' सन्तत्या पितृ पुत्री संतानवत् / अनादिरपि पितृपुत्रसंतानो व्यवच्छिद्यमानो दृष्टः / तथा च' सति प्राक्कृतं निर्जरयति विपाकोदयादिभिः, नवीनं चार्जयति मिथ्यात्वादिभिः / इति गाथार्थः // 2 // संप्रति मुकुलितस्यैव कर्मणश्चातूरूप्यमाह 'तस्स उ चउरो भेया, पगईमाईउ हुति नायब्वा। 'मोयगदिढतेणं, पगईभेओ इमो होइ' // 3 // (पू०) व्याख्या-'तस्य तु' पुनः कर्मणः प्राक्प्रतिपादितस्य चत्वारो मंदाः सामान्येन / के ते ? इत्याह-'प्रकृत्यादयः' प्रकृतिरादौ येषां ते प्रकृत्यादयः, आदिशब्दात्स्थित्यनुभागप्रदेशबन्धा गृह्यन्ते / भवन्ति 'ज्ञातव्याः ' अवबोद्धव्याः 'मोदकदृष्टान्तेन' लड्डुकोदाहरणेन, " तथाहि-लड्डुकस्य प्रकृतिः कणिकागुडादयः 1, स्थितिः सप्ताहपक्षादिका 2, अनुभाग इयता 15 भागेन कणिका, इयद्भागेन गुडः, इयच्च घृतं, शुण्ठ्यादि चैतत्परिमाणम् 3, प्रदेशो रसवीर्यविपाकः 4 / एवं कर्मणोऽपि, प्रकरणं प्रकृतिः प्रकृष्टा वा कृतिः प्रकृतिर्ज्ञानावरणीयादिलक्षणा 1 / स्थीयतेऽनयेति स्थितिरुत्कृष्टाद्या 2 / अनुरूपो भागः अनुभागः कर्मणामेव विभागेनानुभवनम् 3 / प्रकृष्टो देशः प्रदेशः, तेनानुभवः प्रदेशानुभवो जीवप्रदेशैः कर्मपुद्गलानामनुभवनम् / अयं लड्डुकदृष्टान्तार्थः, अनेन प्रकृतिभेदः 'इमो' अयं वक्ष्यमाणलक्षणः 'शृणुत' आकर्णयत 20 ययम् / तस्येति पाठान्तरं वा, तत्र 'तस्य' कर्मणः, शेषं पूर्ववत् / इति गाथार्थः // 3 // __ स च मूलप्रकृत्युत्तरप्रकृतिभेदाद् द्विधा, अत आह ___ (पारमा०) 'तस्य' पुनः कर्मणश्चत्वारो 'भेदाः' प्रकाराः प्रकृत्यादयः, मकारोऽलाक्षणिकः, प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशलक्षणा भवन्ति ज्ञातव्या / केन पुनर्निदर्शनेन ? इत्याह-'मोदकदृष्टान्तेन' तथाहि-वातापहारिद्रव्यजन्मा मोदकः प्रकृत्या वातमपहरति, पित्तापहर्तृ द्रव्य- 25 निष्पन्नः पित्तम् , श्लेष्मापनायकद्रव्यकृतः श्लेष्माणामिति / स्थित्या तु स एव कश्चिदिनमेकमवतिष्ठते, अन्यस्तु दिनद्वयम् , इतरस्तु दिनत्रयम् , यावन्मासादिकमपि कश्चिदवतिष्ठते, ततः परं विनश्यतीति / अनुभागेनापि स्निग्धमधुरत्वलक्षणेन स एव कश्चिदेकगुणानुभागः, अपरस्तु द्विगुणानुभागः, अन्यस्तु त्रिगुणानुभाग इत्यादि / प्रदेशाः कणिक्कादिद्रव्यरूपाः, तेः स एव 1 "पि" इत्यपि। 2 तरस उ गाहा / तस्य पुनःकर्मणः जे० / 3 व्याख्याकारेण तु "इमो सुणह” इति पाठानुसारेण व्याख्यातम।४ यथाहि जे०। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाक ख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे कश्चिदेकप्रमृतिमानः, अपरस्तु द्वयादिप्रसृतिमान इति / एवं कर्मापि ज्ञानावारकादिपुद्गलैः प्रकृत्या किश्चिज्ज्ञानमावृणोति, किश्चिदर्शनं किश्चित्सुखदुःखानुभवं जनयती यादि / स्थित्या तु तदेव किञ्चित्रिशत्सागरोपमकोटीकोट्यादिकाल वस्थायि भवति / अनुभगतरतु तदेव एकस्थानिकद्विस्थानिकत्रिस्थानिकचतुःस्थानिकमन्दतीव्रतीव्रतरतीव्रतमरसयुक्तम् / प्रदेशतस्तु तदेवाल्पबहु-५.. प्रदेशनिष्पन्न मिति / यहाह-स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्तः, स्थितिः कालावधारणम् / अनुभागो रसो ज्ञेगा, प्रदेशो दलसञ्चयः // 1 // " इति / संप्रति प्रकृति स्थित्यनुभागप्रदेशानामाद्यभेदप्रदर्शनार्थमाह-प्रकृतिभेद एष वक्ष्यमाणो भवति / अयमभिप्रायः-अस्मिन ग्रन्थे प्रकृतिप्ररूप गैव करिष्यते / इति गाथार्थः // 3 // संप्रति मृलोत्तरप्रकृतिसंख्यामाह मूलपयडीउ' 'अट्ठ उ, उत्तरगयडीण अट्ठवन्नसयं। तामि सभावभेया, हुंति हु भेया इमे सुणह // 4 // (पू०) व्याख्या-मूले प्रकृतयो 'मूलप्रकृतयः' प्रथमा इत्यर्थः / मूलभूता वा प्रकृतयों मूलप्रकृतय आद्या इत्यर्थः / 'अष्ट तु' अष्टं व, न तु नव, नापि सप्त, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् / उत्तराः प्रकृतय उत्तरप्रकृतयः, तासामुत्तरप्रकृतीनां पुनरष्टपश्चाशदधिकं शतम् , पूर्वतनतुशब्दस्यैव विशेषणार्थत्वात् / विशेषणार्थत्वं चानेकार्थत्वादव्ययानाम् / 'तासा' प्रकृतीनां 15 'स्वभावभेदात्' धर्मभेदाभवन्त्येव भेदाः 'इमे' एते / हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् / तांश्च वक्ष्यमाणलक्षणान् 'शणुत' आकर्णयत यूयम् / इति गाथार्थः // 4 // प्रागभिहितमूलप्रकृतिभेदानाह पढममित्यादिगाथाद्वयेन' - . (पारमा०) मूलप्रकृतयोऽष्टौ, उत्तरप्रकृतीनां चाष्टापश्चाशं शतं भवति / संपति भेदसमर्थिकां युक्ति प्रतिपादयंस्तानेवाह-'तासां' मूलप्रकृत्युत्तरप्रकृतीनां 'स्वभावभेदात्' स्वरूपवै- 2, चिच्याद्भवन्ति 'भेदाः'प्रकाराः 'एते' अनन्तरग्रन्थेन विवक्षिताः शृणुतेति विलम्बपरिहारार्थम् / इति गाथार्थः // 4 // वचसः क्रमवर्तित्वात्प्रथमं मूलप्रकृतीः प्रतिपादयति पढमं नाणावरणं बीयं पुण दंमणस्स आवरणं / तइयं च वेयणीयं. तहा चउत्थं व' मोहणीयं // 5 // 5 आऊ नाम गोयं, अट्ठमयं अंतराइयं होइ / मुलपयडीउ एया, उत्तरपयडीउ कित्तेमि // 6 // 1 र गाहा / मूले जे० / 2 'न प्रथमम् आद्य जे० / 3 व्याख्याकारेण "तु' पाठमनुसृत्य व्याख्यातम् / Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलीत्तरप्रकृतिसङ्घया मूलप्रकृतयश्च (पू०) व्याख्या-'प्रथम' आद्यं 'ज्ञानावरणं' ज्ञानस्य मतिज्ञानादेरावरणमाच्छादनं क्रियते येन कर्मणा तज्ज्ञानावरणम् , द्वितीयं पुनः 'दर्शनस्यावरण' चक्षुर्दर्शनादेः स्वरूपतिरोधायकम् / तीयं च 'वेदनोयं वेद्यते येन सातासातस्त्ररूपं कर्मणा तद् वेदनीयं भवति / चतुर्थ तु मोह नीयमेव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् / मोहयतीति कृत्वा मोहनीयम् / इति गाथार्थः // 5 // 5 आयुःका पञ्चमं जीवस्य चतुर्गतिघनस्थितिकारणम् / जीवमनेकरूपैरुच्चावचैर्नामयतीति कृत्वा नाम, तच्च षष्ठम् / गां वाचं त्रायतीति गोत्रम् , उच्चैर्गोत्रादिभेदभिन्नं सप्तमम् / अष्टमकमन्तरायिक भवति / अन्तरायं दानादिविघ्नहेतुः कर्म, अन्तराये भवं अन्तरायिकम् / अन्तरा यारूपं वाऽन्तरायिकं दानलाभादिभेदभिन्नम् / 'मूलप्रकृतयः' आद्यप्रकृतयः 'एताः' उक्तलक्षगाः / उत्तरप्रकृतयः' तासामेव मूलप्रकृतीनां भेदान्तराणि किश्चिद्विशेषकृतानि / ताश्च 10 'कीतयामि' संशब्दयामि / इति गाथाद्वयार्थः // 6 // उक्सा मूलप्रकृतिभेदाः, साम्प्रतमुत्तरप्रकृतिभेदानाह गाथाद्वयेन (पारमा०.) प्रथमं 'ज्ञानावरणं' ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानं सामान्यविशेषास्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोधः, आवियतेऽनेनेत्यावरणम् , मिथ्यात्वादिसचिवजीवव्यापाराहतकर्मवर्गगान्तःपाती विशिष्टपुद्गलसमूहः / ज्ञानस्यावरणं ज्ञानावरणम् 1 / द्वितीयं पुनः 15 'दर्शनस्यावरणम्' दृश्यतेऽनेनेति दर्शनं सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको चौधः, तस्यावरणं दर्शनावरणम् 2 / तृतीयं च वेदनीयं' वेद्यते आह्लादादिरूपेणानुभूयते यत्तद् वेदनीयम् / यद्यपि च सर्व कर्म वेद्यते तथाऽपि पङ्कजादिशब्दवत् वेदनीयशब्दस्य रूढिविषयत्वात्सातासातरूपमेव कर्म वेदनीयम् , इत्युच्यते, न शेषम् 3 / तथा चतुर्थ च 'मोहनीयं' मोहयति सदसद्विवेकविकलं करोत्यात्मानमिति प्रवचनीयादित्वात्कर्तर्यनीयः 4 ॥शा 'आयुः' 20 अर्थात्पञ्चमम् , एति गच्छति प्रतिबन्धकतां नारकादिकुगतेनिष्क्रमितुमनसो जन्तोरित्यायुः / यद्वा एति गच्छति गत्यन्तरमनेनेत्यायुः 5 / 'नाम' अर्थात् षष्ठम् , नामयति गत्यादिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम 6 / 'गोत्रं' अर्थात्सप्तमम् , गूयते शब्दयते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात्तद् गोत्रम् 7 अष्टमकमन्तरायकं कर्म भवति / जीवं दानादिकं चान्तरा एति, न जीवस्य दानादिकं कतु ददातीत्यन्तरायम् , अन्तरायमेवान्तरायकम् / आर्षत्वाद् 25 यकारस्येकारः. 8 / मूलप्रकृतय एताः / अत्र च ज्ञानदर्शनरूपोऽयमात्मेत्यन्तरङ्गत्वादादावेव तदावरणोपादानम् / समानेऽपि चैतदन्तरङ्गत्वे ज्ञानोपयोगे एव सर्वलब्धीनामवाप्तिः / यदुक्तम्-"सव्वाओ लडीओ सागरोव उत्तस्स / " इति / अतो ज्ञानस्य प्राधान्यमिति तदाचरणस्य प्रथमतः / तदनु दर्शनावरणस्य / ततः केवलिनोऽप्येकविधबन्धकस्य सातवन्धोऽस्तीति व्यापित्वाद् वेदनीयस्य / ततोऽपि प्रायः संसारिणामिष्टानिष्टापत्तितो रागद्वेषौ, तद्रूपं च मोहनी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथामे कर्मप्रन्थे यमिति तस्य / ततश्च तत्प्रकर्षापकर्षभावित्वादायुर्वन्धनिबन्धनानां महारम्भपरिग्रहत्वादीनाम् , तद्भवं चायुष्कमिति तम्य / तदुदयश्च गत्यादिनामोदयाविनाभावीत्यतो नाम्नः / ततोऽपि च नरकगत्यादिनामोदयसहभाव्येव गोत्रकर्मोदय इति गोत्रस्य / तस्माच्चोचनीचभेदभिन्नात्यायो दानादिलब्धिभावाभावी, तयोश्चान्तरायक्षयोदयावन्तरङ्गहेतू , इति तदनन्तरमन्तरायस्येति / 5 उत्तरप्रकृतिप्रस्तावनायाह-उत्तरप्रकृतीः कीर्तयामि // 6 // ताश्चमाः 'पञ्चविह नाणवरणं, नव भेया दंमणम्म दो वेए। अट्रावीमं मोहे, चत्तारि य आउए हंति // 7 // नामे निउत्तरमयं, दो गोए अंतराइए पंच। .. एएमि भेयाणं, होइ' विवागो इमो सुणह // 8 // (पू०) व्याख्या-'पंचविधं' पञ्चप्रकारं 'ज्ञानावरण' कर्म ज्ञानस्वरूपतिरोधायकम् / 'नव भेदाः' नव प्रकाराः 'दर्शनस्य' दर्शनावरणकर्षणः / 'द्वौ भेदौ 'वेदे' वेदनीयकर्मणि / अष्टाविंशतिभेदाः 'मोहे मोहनीयकर्मणि / च वारश्च' 'आयुष्के' आयुष्ककर्मणि 'भवन्ति' जायन्ते 'भेदाः' विशेषाः / लुप्तानुस्वाराकारे प्रथमे द्व. पदे आयत्वात्प्राकृतत्वाद्वा / 15 ज्ञानस्य वरण ज्ञानवरणम् , इति पाठान्तरं वा / एतावत्पाठे सुस्थमेव / इति प्रथमगाथार्थः 7 द्वितीयगाथामाह '-'नामे' नामकर्मणि 'त्र्युत्तरं शतं' व्यधिकं शतं भेदानामिति गम्यते / द्वौ भेदौ गोत्रे, अन्तरायिके पश्च भेदाः / एतेषां भेदानां' सर्वेषामपि विशेषाणां 'भवन्ति' जायन्ते हुः पादपूरणे, भेदाः' विशेषाः सामान्य स्वरूपविशेषस्वरूपनिर्दिष्टाः 'इम' एते. 'शृणुत' आर्णयत यूयम् / इति गाथाद्वयार्थः // 8 // 20 दृष्टान्तद्वारेणैतेषामेव सामान्यविशेषभेदानां स्वरूपं स्फुटीकुर्वन्नाह (पारमा०) पञ्चविधज्ञानावरणं, आपत्वादाकारलोपः / 'वरण' इत्यस्य वाऽऽवरणार्थता / यथा गुरुवरणकमेव तम इत्यत्र / एवमग्रेऽप्यवगन्तव्यम् / नव भेदा दर्शनस्य / द्वौ वेदनीये / अष्टाविंशतिमोहे / चत्वारश्चायुपि भवन्ति / / 7 // नामकर्मणि व्युत्तरं शतम् / द्वौ गोत्रे / अन्तरायके पश्च / एतेषां भेदानां भवति विपाकः एषः' अनन्तरगाथया वक्ष्यमाणः / इति गाथा- 25 द्वयार्थः // 8 // प्रतिज्ञातमाह 1 पंचविहगाहा / पश्चविधं जे / 2 व्याख्याकारेण तु “हुति हु भेया इमे सुणह" इत्येवत्पाठानुसारेण व्याख्यातम्।३ आयुष्कर्मणि जे०।४ वा तस्मिम् पाठे जे० ।५ह-नामे० गाहा / नामे नामकर्मणि -जे / ६०न्यविशेषं / पड० गहा। पट: जे०। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येकमूलकर्मणामुत्तरप्रकृतिसङ्ख्या स्वरूपवर्णनश्च पडपडिहारसिमजा-हडिचित्तकुलालभंडगारीणं / जह एएसिं भावा. 'कम्माण वि जाण तह चेव // 9 // (पू०)व्याख्या-पटः शाटकः, प्रतीहारो राजदौवारिकः, असिः खड्गम् , मद्य-मासवः, /3 हडि: "पोढकः, चित्रं-चित्रकर्म चित्रकरो वेति, कुलालः कुम्भकारः, भाण्डागारिको भाण्डागारे 5 नियुक्तः। पटश्च प्रतीहारश्वासिश्च मद्यं च-मद्यशब्दस्या-ऽऽकारोऽलाक्षणिकः प्राकृतत्वात , हडिश्च' चित्रं च कुलालश्च भाण्डागारी च द्वन्द्वः (एषां द्वन्द्वस्तेषां) / यथा एतेषां 'भावाः' स्वरूपाणि गर्भार्थाः कर्मणां 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'मन्तव्याः'ज्ञातव्याः स्वरूपभेदाः। इति गाथार्थः॥९॥ पटादिदृष्टान्तानेव प्रकटयन्नाह (पारमा०) पटप्रतीहारअसिमद्यहडिचित्रमिति सूचनात्सूत्रस्य चित्रकरोऽभिधीयते, कुलाल- 10 भाण्डागारिकाणाम् / यथा एतेषां 'भावाः' आवारकादिस्वरूपाणि कर्मणामपि जानीहि तथा चैव / इति गाथार्थः // 9 // संप्रति ज्ञानावरणस्य पटौपम्यं भावयति सरउग्गयसमिनिम्मल-यरस्स जीवस्स छायणं जमिह / नाणावरणं कम्मं, पडोवमं होइ एवं तु // 10 // 15 (पू०) व्याख्या-शरदि उद्गतः शरदुद्गतः, स चासौ शशी च शरदुद्गतशशी, तस्मानिर्मलतरः तस्य, 'जीवस्य' प्राणिनः 'छादन' 'स्वभावतिरस्करणं यद् ‘इह' लोके तदिह ज्ञानावरणं कर्म भण्यते, तच्च 'पटोपम' भवति जीवस्य पटतुल्यम् / इति गाथार्थः // 10 // ज्ञानावरणस्य पटोपमामभिधाय साम्प्रतं यथा तज्जीवस्य 'च्छादनं भवति तथा दृष्टान्तेनाह-- ___ (पारमा०) शरदुद्गतशशिनिर्मलतरस्य 'जोवस्य च्छादन जीवस्वभावस्य नैर्मल्यस्य 20 तिरोधायकं यत्तद् ‘इह' लोके ज्ञानावरणं कर्म पटोपमं भवति / 'एवं' वक्ष्यमाणरीत्या / 'तुः' पुनरर्थे / इति गाथार्थः // 10 // ज्ञानावरणस्य पटौपम्यमुक्तम् / सम्प्रति पटस्यावारकत्वमभिधाय ज्ञानावरणे योजयति जह निम्मलावि चक्खू , पडेण केणावि छाइया संती। मंदं मंदतरागं, पिच्छइ सा निम्मला जइवि // 11 // तह मइसुयनाणाणं, ओहीमणकेवलाण आवरणं / जीवं निम्मलरूवं, आवरइ इमेहि भेएहि // 12 // 1 व्याख्याकारेण तु-"कम्माणं तह मुणेयव्वा" इत्येतत्पाठानुसारेण व्याख्यातम् / 2 'भावा' इत्यपि क्वचित् / 3 खोटकः, जे०। 4 हटिश्च जे / 5 च्छादकं जे० / Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे (पू०) व्याख्या-यथा 'निर्मलाऽपि' काचकामलादिदोषरहिताऽपि 'चक्षः' दृष्टिः ‘पटेम' वस्त्रेण केनापि' अनिर्दिष्टनाम्ना 'लादिता' स्थगिता सती मन्दं मन्दतरं पश्यति आवारकविशेषात / मा निर्मला यद्यपि स्वभावेन / इति गाथार्थः // 11 // उक्तो दृष्टान्तः, दार्टान्तिकयोजनामाह तथा मतिश्रुतज्ञानावरणं अवधिमन केवलानामावरणं यत्तज्जीवं 'निर्मलरूपं' शुद्रम्वरूपम् 5 .. 'आवृणोति' च्छादयति 'एभिभेदैः' वक्ष्यमाणलक्षणेः / इति गाथार्थः // 12 // मतिज्ञानभेदनिदर्शनद्वारेणावरणस्वरूपमाह- .. (पारमा०) यथा निर्मलमपि चक्षुः पटेन 'केनापि' मसृणममृणतरादिना छादितं सत् मन्दं 'मन्दतरक' मन्दतरमेव मन्दतरकं पश्यति तन्निर्मलं यद्यपि'चक्षुर्हि स्वभावनिर्मलमपि मसृणपटेनाच्छादितं मन्दं पश्यति मसृणतरेण तु मन्दतरमिति / चक्षुःशब्दस्य प्राकृतत्वात्स्त्रीत्वम् 10 // 11 // तथा मतिश्रुतज्ञानयोर्द्विवचनस्य बहुवचनं प्राकृतत्वात् / अवधिमनःकेवलानां मनःशब्देन मनःपर्यवमुच्यते, सूचनात्सूत्रस्य, मतिश्रुतज्ञानयोरवधिमनःपर्यवकेवलानां चावरणं तथेति / कोऽर्थः ? यथा यथा मतिज्ञानावरणादीनां निचितत्वं. तथा तथा पटावृतचक्षुष इवाल्पज्ञानं जीवस्य / एतदेवाह-जीवं 'निर्मलरूपं' अकलुषस्वभावमावृणोति 'एभिर्भदैः' अभिधास्यगानैः / मत्यादिव्युत्पत्तिस्तु व्याख्यानावसरे निरूपयिष्यते / इति गाथाद्वयार्थः // 12 // 15 सम्प्रति मतिज्ञानावरणं सप्रभेदमाह अट्ठावीसइभेयं, मइनाणं इत्थ वण्णियं समए। - तं आवरेइ जं तं, मइआवरणं हवइ पढमं // 13 // - (पू०) व्याख्या-अष्टाविंशतिभेदं मतिज्ञानं संख्यया 'अत्र' लोक 'वर्णितं' कथितं 'समये' सिद्धान्ते तद् 'आवृणोति' च्छादयति यत्तन्मत्यावरणं भवति 'प्रथम' आद्यम् / इति 20 गाथासमासार्थः / भावार्थस्त्वयम्-यदुक्तमष्टाविंशतिभेदं मतिज्ञानं तत्कथं स्यात् 1 उच्यते-आगमानुसारेण-व्यञ्जनावग्रहः, अर्थावग्रहश्च / तत्र व्यज्यन्ते व्यक्तीक्रियन्ते एभिरर्थाः व्यञ्जनानीन्द्रियाणि तैरवग्रहणमवग्रहः' सामयिकः, सामान्यार्थपरिच्छेदः व्यञ्जनावग्रहः / स च चतुर्विधो "नयनमनोवय॑म्" इति वचनात् / तथाहि-न चक्षुषाऽथों व्यज्यते-गम्यते प्राप्यते, अप्राप्रकारित्वाचक्षुषः / किन्तु योग्यदेशस्थमेव चक्षुर्योग्यदेशस्थमर्थ गृह्णाति साक्षात्करोति, न पुनः 25 प्राप्य गृह्णाति / प्राप्यग्रहणे चक्षुषः स्फोटादिरनिन्द्रियं चाधिष्ठानं स्यात् / तथा मनोऽप्येवमेव द्रष्टव्यम् , तस्याप्यप्राप्यकारित्वात् / अर्थस्यावग्रहणमवग्रहोऽर्थपरिच्छेदः / सोऽपि सामयिक एव। स च षड्विधः, इन्द्रियपश्चकेन मनसा चार्थग्रहणात् / तदुत्तरकालभाविनी ईहा, ईहनमीहा-चेष्टा कायवाङ्मनोलक्षणा / सा तु मौहूर्तिकी षड्विधा / तदनन्तरमपायो निश्चयः / सोऽपि षड्विध 1 हः एकसामयिकः, जे० / 2 ०वर्जम् / 3 प्राप्यं जे० / तस्याप्राप्या० जे० / Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मति-श्रुतज्ञानावरणयोभदाः स्वरूपञ्च [11 एव मौहूर्तिकः / ततो धारणा, 'स्मृतिः कालन्तरेऽर्थस्मरणरूपा अर्थाविच्युतिर्वा, साऽपि षड्विधा, असंख्यकालिकी संख्येयकालिकी वा / एवं सर्वेऽपि मिलिताश्चतुर्विंशतिभेदा व्यञ्जनावग्रहचतुर्भेदसहिता अष्टाविंशतिभेदा मतिज्ञानस्य जोयन्ते / एतच्चाष्टाविंशनिभेदभिन्नं मतिज्ञानं येन कर्मणा छाद्यते स्वकार्यजननं प्रति अकिश्चित्करं क्रियते तन्मतिज्ञानावरणम् / इति गाथाभावार्थः // 13 // 5 . उक्त मतिज्ञानावरणम् / श्रुतज्ञानावरणस्वरूपमाह- (पारमा०) 'मन ज्ञाने' मननं मतिः / यद्वा मन्यते इन्द्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनयेति मतिः, योग्यदेशावस्थितवस्तुविषय इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेषः / मतिथासौ ज्ञानं च मतिज्ञानम् / तच्चाष्टाविंशतिभेदम् 'अत्र' जैने समये वर्णितम् / तद्यथा-अवग्रहईहाऽपायो धारणा च / तत्रावग्रहो द्विधा, व्यञ्जनावग्रहोऽर्थावग्रहश्च / तत्र व्यञ्जनावग्रहश्चक्षु- 10 मनोवर्जेन्द्रियाणां स्वविषयद्रव्येः सह संबन्धः, ततश्चतुर्धा नयनमनसोरप्राप्यकारित्वेन विषयसंबन्धाभावादस्य चेन्द्रियविषययोः संबन्धग्राहकत्वादिति भावः / अर्थावग्रहः, किमपीदमित्यव्यक्तं ज्ञानम् / स च मनःसहितेन्द्रियपञ्चकजन्यत्वात्पोढा / अवगृहीतस्यैव वस्तुनोऽपि किमयं भवेत् ? स्थाणुः पुरुषो वा ?, इत्यादिवस्तुधर्मान्वेषणात्मको वितर्क ईहा / साऽपि मनःषष्ठेन्द्रियपञ्चकजन्या इत्यतः षोढे,व ) वस्तुनः स्थाणुरेवायं न पुरुषः, इति निश्चयात्मको बोधोऽपायः / 15 अयमपि पूर्ववत्षोढेव / निश्चितस्यैवाविच्युतवासनात्मकं धरणं धारणा | साऽप्युक्तरीत्या षोढेव / तदेवमर्थावग्रहादीनां चतुर्णा प्रत्येकं पड़िवधत्वाचतुर्विंशतिः / ततश्च व्यञ्जनावग्रहभेदचतुष्टयेन सहाष्टाविंशतिविधं मतिज्ञानम् / तथा चागमः-"पंचहि वि इंदिएहिं, मणसा अत्थोग्गहो मुणेगची / चक्विंदिय मणरहियं, वंजणमीहाइयं छडा" // 1 // इति तदेवमष्टाविंशतिभेदं मतिज्ञानमावृणोति यत्कर्म तदष्टाविंशतिभेदमपि सामान्येन मतिज्ञानावरणं भवति 'प्रथम' 20 आद्यम् / इति गाथार्थः // 13 // अधुना श्रुतज्ञानावरणमाह चोदसभेएसु गयं, सुयनाणं इत्थ वणियं समए / तस्सावरणं जं पुण, सुयआवरणं हवइ बीयं // 14 // (पू०) व्याख्या-चतुर्भिरधिका दश चतुर्दश, ते च ते भेदाश्च चतुर्दशभेदाः, तेषु 'गत' 25. स्थितं 'श्रतज्ञानं' प्रतीतं 'अत्र' कर्मव्याख्याप्रस्तावे 'वर्णितं' प्रतिपादितम् 'समये सिद्धान्ते, 'तस्य' श्रुतज्ञानस्य 'आवरण' छादनं यत्पुनः तच्छ्रुतावरणं भवति द्वितीयमिति गाथाक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्-श्रुतज्ञानं चतुर्दशविधं प्रतिपादितं तद्यथा भवति तथा दर्श्यते श्रुतानुसारेण-अक्षररूपं श्रुतमक्षरश्रुतम् 1 / तत्प्रतिपक्षोऽनक्षरश्रुतं उच्छ्वसितादि 2 / संज्ञिनो 1 श्रुतिः जे० / 2 तिभेदा जे / 'मणवज्ज' इत्यपि / Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ] कर्मविपाकास्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे : मनोयुक्तस्य श्रुतं संज्ञिश्रुतम् 3 / तद्विपरीतममंज्ञिश्रुतम् 4 / सम्यग-ऽविपरीतं श्रुतं सम्यक्श्रुतम् , सम्यग्दृष्टेर्वा यच्छु तं तत्सम्यक्श्रुतम् 5 / तद्विपरीतं मिथ्याश्रुतम् 6 / सादि, आदियुक्तं श्रुतं मादिश्रुतम् , / 'अनादिश्रुतं, अविद्यमानादि श्रुतमनादिश्रुतम् 8 / सह पर्यवसानेन वर्तते यत्तत्मपर्यवसितम् 9 / तद्विपरीतं त्वपर्यवसितम् 10 / गमाः सदृशपाठविशेषाः, ते विद्यन्ते यस्य तत्र 5 वा भवं तद्गमिकम् 11 / तत्प्रतिपक्षस्त्वगमिकम् 12 / अङ्गप्रविष्ट अङ्गश्रुतम् 13 / तद्विपरीतं त्वनङ्गश्रुतम् 14 / एवंभूतमिदं श्रुतज्ञानमावृणोति-च्छादयति यज्ज्ञानं तच्छुतज्ञानावरणम् / इति गाथाभावार्थः // 14 // अवधिज्ञानावरणस्वरूपभेदानाह (पारमा०) श्रवणं श्रुतम् , अभिलापप्लावितार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः / एवमाकारं वस्तु 10 घटशब्दाभिलाप्यं जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थम् , इत्यादिरूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेष इत्यर्थः / श्रुतं च तज्ज्ञानं च श्रुतज्ञानं चतुर्दशभेदेषु गतम् , इति द्वितीयार्थे सप्तमी / ततश्चतुर्दशभेदान प्राप्तं चतुर्दशभेदमिति यावत् / ते चामी-अक्षरश्रुतं, अक्षरश्रवणदर्शनादेरर्थप्रतीतिः 1 / अनक्षरश्रुतं, सेण्टितादिश्रवणान्मामाह्वयतीत्यादिरूपाभिप्रायपरिज्ञानम् 2 / समनस्कस्य मनोयुक्तेन्द्रिय- 15 जमुक्तरूपं श्रुतं संज्ञिश्रुतम् 3 / तदेवामनस्कस्य मनोरहितेन्द्रियजमसंज्ञिश्रुतम् 4 / सम्यग्दृष्टेजिनप्रणीतमितरद्वा श्रुतं यथास्वरूपागमात् सम्यक्श्रुतम् 5 / तदेव मिथ्यादृष्ट रंन्यथावगमान्मिथ्याश्रुतम् 6 / सादिश्रुतं, ज्ञानात्मकं सम्यग्दृष्टेरज्ञानात्मकं वा सम्यक्त्वच्युतस्य मिथ्यादृष्टेः 7 पूर्वमलब्धसम्यक्त्वस्य तु तदेवानादिश्रुतम् / 8 सपर्यवसितं भव्यानां केवलोत्पत्तौ ध्रुवं पर्यवसानात् 9 / अपर्यवसितमभव्यानां केवलोत्पादाभावात् 10 / अर्थभेदे सदृशालापकं गमिकम् 11 / 20 इतरदगमिकम् 12 / अङ्गप्रविष्टमाचाराद्यङ्गानि 13 / अनङ्गप्रविष्ट, शेषं प्रकीर्णकादि 14 / एवं चतुर्दशभेदं श्रुतज्ञानम् 'अत्र' जैनसमये 'वर्णितं' कथितम् / स चायम्-"अक्खरसन्नी सम्म, साईयं खलु सपज्जवसियं च / गमियं अङ्गपविट्ठ, सत्तवि एए सपडिवक्खा // 1 // " इति / तस्यावरणं यत्पुनस्तत् 'भुतज्ञानावरणम्' इति श्रुतज्ञानावरणं भवति द्वितीयम् / इति गाथार्थः॥१४॥ इदानीमवधिज्ञानावरणमाह अणुगामिवड्ढमाणय-भेयाइसु वण्णिओ इह ओही। तं आवरेइ 'जं तं, अवहीआवरणयं जाण // 15 // 1 अनादि, अविद्य० जे० / 2 “जं पि य ओहीआवरणयं तं पि” इत्येतत्पाठमनुसृत्य व्याख्याकारण व्याख्यातम् / Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधि-मनःपर्यवज्ञानावरणस्वरूपभेदाः ---(पू०) व्याख्या-अनुगमनशीलोऽनुगामी, वर्द्धनशीलो वर्द्धमानः, वर्द्धमान एव वर्द्धमानकः, * स्वार्थे कः / अनुगामी च वर्द्धमानकश्चानुगामिवर्द्धमानको, तौ च तौ भेदौ चानुगामिवर्द्धमानकभेदी, ता आदिषां भेदानां तेऽनुगामिवर्द्धमानकभेदादयः, तेषु 'वर्णितः' कथितः 'इह' प्रवचने व्याख्याप्रस्तावे वा। अनुस्वारः प्राकृतत्वात् / 'अवधिः' मर्यादापरिच्छेदलक्षणसं 'आवृणोति' 5 च्छादयति यदपि च कर्म 'अवध्यावरणकं तदपि' अवध्याच्छादकं तदपि ज्ञातव्यमित्यध्याहारः / इति गाथार्थः // 15 // उक्तमवधिज्ञानावरणम् / मनःपर्यवज्ञानावरणस्वरूपमाह-- (पारमा०) अवशब्दोऽधःशब्दार्थः / अव अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः / यद्वाऽवधिमर्यादा रूपिद्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा, तदुपलक्षितं ज्ञानमप्य- 18 वधिः / स च अनुगामिवर्द्धमानकभेदादिषु, इति तृतीयार्थे सप्तमी / ततश्चानुगामिवर्द्धमानकभेदादिभिः 'वर्णित:' प्रतिपादितः इहेति पूर्ववत् / तदावृणोति यत्कर्म तद् 'अवध्यावरणम्' अवधिज्ञानावरणमिति जानीहि / इति गाथार्थः // 17 // मनःपर्यवज्ञानावरणमाह___रिउमडविउलम'ईहिं, मणषजवनाणवण्णणं समए। तं आवरियं जेणं, तंपि हु मणपजवावरणं // 16 // __ (पू०) व्याख्या-ऋज्वी मतिर्यस्मिन् तदृजुमति, विपुला मतिर्यस्मिन् तद्विपुलमति / ऋजुमति च विपुलमति च ऋजुमतिविपुलमतिनी ताभ्यां, 'मनःपर्यवज्ञानवर्णनं' मनोगतभावपरिच्छेदकथनं 'समये' सिद्धान्ते प्रतिपादितं 'तदावृतं येन' तदाच्छादितं येन तदपि * 'हुः' पादपूरणे, 'मनःपर्यवावरणं' मनोगतभाव परिच्छेदकाच्छादफं जानीहि [इति] क्रिया- 28 ध्याहारः / इति गाथार्थः // 16 // अभिहितं मनःपर्यवज्ञानावरणम् / केवलज्ञानावरणस्वरूपमाह (पारमा०) पर्यवति-समन्तादवगच्छतीति पर्यवम् / मनसः पर्यवं मनःपर्यवम् , तच्च तज्ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञानम् , तस्य वर्णनं प्रकाशकत्वादिगुणकथनं मनःपर्यवज्ञानवर्णनम् , ऋज्वी मतिरस्येति ऋजुमतिः, विपुला मतिरस्येति विपुलमतिः, ताभ्यां ऋजुमतिविपुलमतिभ्यां 25 कृत्वा 'समये' सिद्धान्ते क्रियत इति शेषः / यत उक्तं मनःपर्यवज्ञानप्ररूपणायाम्-"तं दुविहं तंजहा-उजुमई विउलमहे अ" इत्यादि / अशेषविशेषास्तु नन्दित एवावसेयाः, संक्षेपमात्रत्वादस्थेति / तदावृतं येन कर्मणा तजानीहि मनःपर्यवज्ञानावरणम् / इति गाथार्थः // 1 // 1 "ईहि य” इत्यपि पाठः / 2 "०वणियं” इत्यपि पाठः / 3 'तं पुण' इत्यपि 4 नापर्यवज्ञानावरणजे०५ परिच्छेदाच्छादकं जे। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 // कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे केवलज्ञानावरणमाह लोयालोयगएसु, भावेसुजं गयौं महाविमलं / तं आवरिय जेणं, केवलआवरणय 'तं पि // 17 // व्याख्या-लोकश्चतुर्दशरज्ज्वात्मको धर्मास्तिकायादियुक्तः, अलोकस्तु धर्मास्तिकायादिवियुक्तः लोकश्वालोकश्च लोकालोको, तयोर्गता लोकालोकगताः, तेषु 'भावेषु' पदार्थेषु 'यद्गत यहाश्रितं, महच्च तद्विमलं च 'महाविमलं' बृहदमलं तद् 'आतं' स्थगितं येन' कर्मणा केवलावरणकं तदपि' केवलाच्छादकं तदपि मन्तव्यमिति क्रियाध्याहारः / इति गाथार्थः / / 17|| मतिज्ञानाद्यावरणं निगमयन् दर्शनावरणस्वरूपमाह (पारमा०) लोकालोकगतेषु 'भावेषु' जीवाजीवादिषु 'यद्गतं' स्थितं अनन्तत्वात् / ननु चालोके किमनेन गतेन ? तत्र जीवाजीवादिपरिच्छेद्याभावात् , नैवम् , अजीवस्यालोकाकाशस्य विद्यमानत्वात् / तथा चोक्तम्-"लोकालोकव्यापकमाकाशम्" इति / "महाविमलं' अतिशुद्धं तदावरणमलकलङ्कापगमात् , तत्केवलज्ञानं 'आवतं' आच्छादितं 'येन' / कर्मणा तत्पुनः 'केवलावरणम्' सूचकत्वात्सूत्रस्य केवलज्ञानावरणम् / इति गाथार्थः // 17 // 15 ज्ञानावरणं निगमयन् दर्शनावरणप्रस्तावनामाह एवं पंचवियप्पं, नाणावरणं ममासओ भणियं / बीय दंसणवरणं, नवभेय भण्णए सुणह // 18 // , (पू०) व्याख्या-‘एवं' उक्तप्रकारेण 'पञ्चविकल्पं' पञ्चप्रकारं ज्ञानावरणं कर्म 'समासतः' संक्षेपतो 'भणितं' प्रतिपादितम् / द्वितीयं दर्शनावरणं कर्म, तच्च 'नवभेदं' नवप्रकार 20 'भण्यते' उच्यते, 'शृणुत' आकर्णयत यूयम् / इति गाथार्थः // 18 // दर्शनावरणस्वरूपमाहTb/ (पारमा०) एवं' उक्ताप्रकारेण 'पञ्चविकल्पं' पश्चभेदं ज्ञानावरणं कर्म ‘समासतः' संक्षेपतो 'भणितं' प्रतिपादितम् / द्वितीयं दर्शनावरणं 'नवभेदं नवप्रकारं भण्यते, शृत / इति गाथार्थः // 18 // संप्रति दर्शतावरणस्य पूर्वोद्दिष्ट प्रतीहारसाम्यमाह 1 परमानन्दसूरीणा तु–'तं तु' इति पाठानुसारेण व्याल्यानम् / / 2 केवलज्ञानावरणक' जे० / , Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञानावरणीयम्वरूपभेद-दर्शनावरणस्वरूपभेदाः दंमणमीले जीवे, दसणघायं करेइ जं कम्मं / तं पडिहारसमाणं, दसणवरणं भवे बीयं // 19 // व्याख्या-''दर्शनशोले' दर्शनस्वभावे 'जोवे' प्राणिनि दर्शनधात' दर्शनहननं 'करोति' विदधाति 'यत्' कर्म तत् "प्रतीहारसमान' प्रतीहारतुल्यं 'दर्शनावरण' दर्शनच्छादनं 5 'भवति जायते जीवस्य / इति गाथार्थः // 19 // "दृष्टान्तमाह (पारमा०) दर्शनं शीलं स्वभावो यस्य स तथा 'दर्शनशील' इति षष्ठीसप्तम्योरथं प्रत्यमंदादर्शनशीलस्य जीवस्येत्यर्थः / एवमन्यत्रापि भावनीयम् / दर्शनघातं करोति यत्कर्म तत्प्रतीहारमामानं दर्शनावरणं भवेद् द्वितीयम् / इति गाथार्थः // 19 // प्रतीहारसाम्यं च तद्धर्मावगमे सुज्ञानम् , अतस्तत्स्वरूपं दृष्टान्तेनाह जह रण्णो पडिहारो. अणभिप्पेयस्स सो उ लोयस्स / रणो तहि दरिसावं, न देइ दट्ठपि कामस्स // 20 // व्याख्या-यथा 'राज्ञः' भूपतेः 'प्रतीहारः' राजदौवारिकः 'अनभिप्रेतस्य' अनभीष्टस्य 'स तु' स एव दौवारिको लोकस्य' प्राणिसमूहस्य 'राक्षः' भूभृतः 'तत्र' तस्मिन् स्थाने 'दर्शन' 15 राज्ञो निरीक्षणं 'न ददाति' न प्रयच्छति 'द्रष्टुकामस्याऽपि' दर्शनाभिलाषिणोऽपि / राजा ह्य वं मन्यते यद्यह मेतं लोकं पश्यामि, लोकोऽप्येवमिच्छति यदि राज्ञा सह दर्शनं भवति तदा शोभनं भवति, निषेधकेन तथाऽपि प्रतीहारवैगुण्येन तदर्शनं न सम्पद्यते / इति गाथार्थः // 20 // दार्टान्तिकयोजनामाह (पारमा०) यथेति दृष्टान्तोपन्यासे सशब्दोऽग्रेतनोऽत्र योज्यते / ततो यथा स प्रसिद्धो 20 राज्ञः प्रतीहारोऽनभिप्रेतस्य लोकस्य 'तुः' एवकारार्थे भिन्नक्रमश्च योक्ष्यते 'राज्ञः' प्रतीतस्य 'तत्र' राजकुलादौ 'दर्शावं' दर्शनं दर्शः, अवनमावो दर्श आवो दर्शावो दर्शनप्रतीतिः, तां न ददात्येव द्रष्ट कामस्यापि राज्ञः राजा ह्यवं चिन्तयति यद्यहमेनं जनं निरन्तरमेवावलोकये / प्रतीहारस्त्वभिमरादिभयमुद्भाव्यान्तरायीभवति / इति गाथार्थः // 20 // दान्तिकयोजनामाह 1 "दर्शनशीलो दर्शनस्वभावो जीवः प्राणी" इत्यपि पाठः। 2 "प्रतीहारो दौवारिकस्तस्य समानं दर्शनावरणं, द्वितीयं भवति" इत्येवंरूपोऽपि पाठो दृश्यते / 3 दर्शनवरणं दर्शनाच्छादनं जे०। 4 "अमुमेवार्थ भावयति-" इत्यपि / / 5 मेनं जे० / Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे जह राया तह जीवो, पडिहारसमं तु दंसणावरणं। तेणिह विबंधएणं, न पिच्छए सो घडाईयं // 21 // व्याख्या-यथा राजा तथा जीवः 'प्रतीहारसमं तु' प्रतीहारतुल्यं तु दर्शनावरणं कर्म 'तेन' दर्शनावरणेन इह लोके 'विषन्धकेन' प्रतिकूलेन] 'न प्रेक्षते' न पश्यति स घटा-" दिकं लोककल्पम् / आदिशब्दान्जीवादितत्त्वम् / इति सूत्रार्थः // 21 // दर्शनावरणीयस्य भेदानाह (पारमा०) यथा राजा तथा जीवः, राजस्थानीयो जीव इत्यर्थः / प्रतीहारसमं दर्शनावरणं कर्म तेन 'इह' संसारे विषन्धकेन' अननुकूलेन न प्रेक्षते 'सः' जीवो घटादिकम् / अयमाशयः-यथा राजा प्रतीहारेणाऽननुकूलेन दिदृक्षितमपि लोकं न पश्यति, तथा राजस्थानीयो 1 जीवः प्रतीहारस्थानीयेन दर्शनावरणेनाऽननुकुलेन लोकस्थानीयं घटपटादिवस्तु न पश्यति / इति गाथार्थः // 21 // उक्तः पूर्वोद्दिष्टः प्रतीहारदृष्टान्तः, दर्शनावरणस्य सम्प्रति नवविधत्वं गाथापूर्वार्द्धनाह-- ...निदापणगं तत्थ उ, चउ भेया दंसणस्स आवरणे / (पू०) व्याख्या-निद्रापश्चकं, 'तत्र तु' दर्शनावरणे चत्वारो भेदाः, दर्शनस्य संबन्धिनि 15 'आवरणे' छादने // दर्शनावरणभेदानभिधाय निद्रादिलक्षणमाह-- (पारमा०) 'निद्रापञ्चकम्' निद्रा-निद्रानिद्रा-अचला प्रचलाप्रचला-स्त्यानद्धिलक्षणम् / 'तत्र' दर्शनावरणकर्मणि 'चत्वारो भेदाः' चक्षुर्दर्शनावरण-अचक्षुर्दर्शनावरण अवधिदर्शनावरणकेवलदर्शनावरणलक्षणाः, दृश्यतेऽनेनेति दर्शनं तस्य आवरण इति दर्शनावरणकर्मणो भेदान- 20 भिधाय सार्द्धगाथाद्वयेन निद्रापञ्चकं तावद्वथाचष्टे सुहपडिबोहो निदा, बीया पुण 'निदनिद्दा य // 22 // सा दुक्खबोहणीया, पयला पुण जा ठियस्स उद्धाइ। पयलापयल चउत्थी तीए उदओ उ चंकमणे // 23 // थीणद्धी पुण दिणचिं-तियस्स अत्थस्स साहणी पायं। 25 सा संकिलिट्टकम्मस्स उदयओ होइ नियमेणं // 24 // . . १“निहनिहत्ति" इत्यपि पाठः / Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निद्रापञ्चक-चक्षुरचक्षुर्दशेनावरणस्वरूपम् [17 व्याख्या-'सुखप्रतिषोधो निद्रा' प्रसुप्तः सन् सुखेनैव यस्यां प्रबोधं गच्छति मा निद्रा / द्वितीया पुनर्निद्रानिद्रा च भवति ज्ञातव्या / इति गाथार्थः // 22 // द्वितीयनिद्रालक्षणमाह-तस्या उदये दुःखेन बोध्यते प्रसुप्तः सन् / प्रकण चलनं यस्यां सा 'प्रचला' सा पुनः का ? या 'स्थितस्य' अवस्थितस्यावस्थितवतः "उन्हावति'उद्गच्छति उत्पद्यते उद्भवतीत्यर्थः / 5 प्रचलाप्रचला चतुर्थी निद्रा, तस्याश्चोदयः 'चमणे' गमने भवति, यस्या 'उदयेन पुनः पुनः प्रचलनं भवति, सा च प्रचलाप्रचलोच्यते / इति गाथार्थः // 23 // स्त्यानर्द्धिस्वरूपमाह'स्त्यानं कठिनीभृतमृद्धि चित्तं यस्यां मा 'स्यानडिः सा पुनः 'दिनचिन्तितस्य' दिवसध्यातस्य 'अर्थस्य प्रयोजनस्य 'साधन निष्पादनी 'प्रायः' बाहुल्येन / अनुस्वारः प्राकृतत्वात् / मा संक्लिष्टस्याशुभस्य कर्मणः 'उदयतः' प्रादुर्भावात् 'भवति' जायते 'नियमेन' अवश्यं- 10 तया / इति गाथार्थः // 24 // निद्रापञ्चकं निगमयन् चक्षुर्दर्शनाद्यावरणस्वरूपमाह-- (पारमा०) सुखेन प्रतिबोधो जागरणं यस्मिन् स्वापे स सुखप्रतिबोधः नखच्छोटिकामात्रेण जागरणं, स च निद्रा नितरां द्राति कुत्सितत्त्वं अविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति / द्वितीया पुनर्निद्रा निद्रातोऽतिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रा / मयूरव्यंसकादित्वान्मध्यपदलोपी समासः 15 // 22 // दुःखेन घोलनादिभिर्बोध्यते यस्यां सा दुःखबोधनीया / अत एव सुखप्रतिबोधनिद्रातोऽतिशायित्वम् / प्रचलति घूर्णतेऽस्यामिति 'प्रचला' पुनः 'स्थितस्य' उपविष्टस्य ऊर्वस्थस्य वा 'उद्धावति' प्राबल्येनायाति न तु गतिमतः / प्रचलातोऽतिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला चतुर्थी, तस्या उदयश्चङ्कमणे / अत एव स्थानस्थितस्वप्तृभवप्रचलातोऽतिशायित्वम् // 23 // स्त्याना पिण्डीभूता ऋद्धिः आत्मनः शक्तिरूपा यस्यां स्वापावस्थायां सा 'स्त्यान ढि:' सा च 20 पुनर्दिनचिन्तितस्या-ऽर्थस्य साधनी प्रायः / श्रूयते च सिद्धान्ते-यथा कोऽपि क्षुल्लको दिवा द्विरदखलीकृतस्तस्मिन् बद्धाभिनिवेशो रजन्यां रत्यानद्वयु दयावेशादुत्थाय तद्दन्तमुशलयुगलमुत्पाट्यो. पाश्रयद्वारि विहाय पुनः सुप्त इत्यादि / सा संक्लिष्टकर्मण उदयाद्भवति 'नियमेन' अवश्यं, ततो नरकगमनात् / इति सार्द्धगाथाद्वयार्थः // 24 // . निद्रापञ्चकं निगमयन् चक्षुर्दर्शनावरणमाह निदापणगं एयं, चक्खू आवरइ चक्खुआवरणं / ससिदियआवरणं, होइ अचक्खुस्स आवरणं // 25 // 1 उदये पुनः / 2 स्त्याना कठिनीभूतचैतन्यऋद्धिर्यस्यां सा जे० / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 / ___कमविपाकाख्ये प्रथमे कर्नग्रन्थे व्याख्या-निद्र पञ्चकमेतदुक्तस्वरूपम् / चक्षुप आवरणं चक्षुरावरणं, चक्षुर्दर्शनावरण मिति दर्शनशब्दोऽत्र द्रष्टव्यः, यत्कर्ष चक्षुईर्शनं छादयति तच्चक्षुरावरणमुच्यते / शेषेन्द्रियाणामावरण शेषेन्द्रियावरणम् , अतस्तेषां घाणर'सनस्पर्श श्रवणमनसामावरणं छादनं भवत्यचक्षुषः 'आव. रणं' स्थगतम् / इति गाथार्थः / / 25 / / ____ उक्त चारचक्षुर्दर्शनावरणम् / साम्प्रतमवधिदर्शनावरणस्वरूपमाह (पारमा०) निद्रापञ्चकमेतत् पूर्वोक्तम् / एतच्च सूत्रकृता क्रमेण नोक्तम् / क्रमश्चैवम्निद्रा प्रचला निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला स्त्यानद्धिरिति / यथोत्तरं विपाकाधिक्यात् ।।तथा च सति स्त्याचित्रिकमित्युक्ते स्त्यानचिसहचरितं निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानद्धिलक्षणं प्रबलविपाकं निद्रात्रिकं परिगृह्यते / आगमेऽप्येवमेवासां क्रमः / तथाहि-"निदा तहेव पयला निद्दानिद्दा 10 य पयलपयला य। तत्तो य थोणगिडी, उ पंचमा होइ नायचा // 1 // " अत्र तूत्क्रमाभिधानमनानुपूळपि व्याख्याङ्गमिति न दोषः / चक्षुरिति चक्षुर्दर्शनं, तद् ‘आवृणोति' आच्छादयतीति चक्षुर्दर्शनावरणम् / शेषेन्द्रियमिति शेषेन्द्रियदर्शनम् / शेषाणि स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रमनांसि तेषामावरणं भवति 'अचक्षरावरणं' अचक्षुर्दर्शनावरणम् / इति गाथार्थः / / 25 / / अवधिदर्शनावरण केवलदर्शनावरणे व्याचिख्यासुराह सामन्नु वओगं जं, वरेइ तं ओहिदंसणावरणं / . केवलसामन्न जं, वरेइ तं केवलस्स भवे // 26 // व्याख्या-उपयुज्यतेऽसावित्युपयोगः, सामान्यश्वासावुपयोगश्च सामान्योपयोगोऽवधेरिति गम्यते / तं 'सामान्योपयोग' सामान्यपरिच्छेदं यद् 'वृणोति' छादयति कर्म तद् 'अव. घिदर्शनावरणं' अवधिसामान्यावबोधावरणं भवेदिति संबन्धः / 'केवलसामान्य' केवलदर्शनं 20 'वृणोति' छादयति यत्कर्म तत् 'केवलस्य' केवलदर्शनस्यावरणं 'भवेत्' भवति जायते / इति गाथार्थः // 26 // उक्तं द्वितीयकर्म, तृतीयमाह (पारमा०) सामान्यमविशेषग्राहि रूपिद्रव्याणामिति गम्यते, रूपिद्रव्यसामान्यमित्यर्थः / . तस्योपयोगो रूपिद्रव्यसामान्यग्रहणमिति यावत् / तत् कर्मभूतं यदावृणोति तदवधिदर्शनावर- 25 णम् / केवलस्यक्तरूपस्यो सामान्यं सकलजगद्भाविवस्तुस्तोमग्रहणरूपं केवलदर्शनमित्यर्थः / यद् 'घृणोति' आच्छादयति तत् 'केवलस्य' इति केवलदर्शनस्य भवेदावरणमिति संबन्धः / इति गाथार्थः // 26 // 1 सस्पर्शश्रव० जे०। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधि-केवलदर्शनावरणस्वरूपं वेदनीयद्वयस्वरूपाच दर्शनावरणं निगमयन् वेदनीयप्रस्तावना याह भणिय दंसणवरणं, तइय कम्मं तु होइ वेणिय / तं अमिधारामरिसं जह होइ तहा निसामेह // 27 // व्याख्या 'भणितं' उक्तं 'दर्शनावरण' कर्म / तृतीयं कर्म 'तु' पुनः भवति' जायते 5 वेदनीयं तत् 'असिधारासदृशं' खङ्गधारातुल्यं 'यथा' येन प्रकारेण भवति तथा' तेन प्रकारेण 'निशमयत' आकर्णयत यूयम् / इति गाथार्थः / / 27|| दृष्टान्तेन स्वरूपं प्रकटयन्नाह ___(पारमा०) भणितं दर्शनावरणं द्वितीयं कर्मत्यर्थागम्यते / तृतीयं कर्म पुनर्भवति वेदनीयं तदसिधारासदृशं यथा भवति तथा निशमयत / इति गाथार्थः // 28 // महुलितनिसियकरवा-लधारजीहाइ 'जारिसं लिहणं। 10 तारिसयौं वेयणिय सुहदुहउप्पायगं मुणह // 28 // व्याख्या-मधुना लिप्तं मधुलिप्त', तच्चतन्नि शितकरयालं च मधुलिप्तनिशितकरवालम् , तस्य धारा मधुलिप्तनिशितकरवालधारा तस्याः जिह्वया यादृशं लेहनं, य इव दृश्यते यादृशः वनन्त उपमानभूतः, तल्लेहनमास्वादनं, स इव दृश्यते तादृशः, तादृश एव तादृशकः कनन्तः / अतस्तद् 'वेदनोयं' कर्म वेदनस्वरूपं सुखदुःखोत्पादक" 'मुणह' जानीत / 'लिप्तं' दिग्धं 15 - 'निश्तिं' तीक्ष्णम् / इति गाथार्थः // 28 // वेदनीयस्य दृष्टान्तद्वारेण स्वरूपमाह (पारमा०) मधुना-क्षौद्रभ्रामरादिना लिप्तः=उपदिग्धो निशितः तीक्ष्णः, स चासौ करवालच मधुलिप्तनिशितकरवालः, तद्धाराया जिह्वया यादृशं लेहनं तादृशं वेदनीयं सुखदुःखोत्पादकं जानीत / 'ज्ञो जाणमुणो' (8-3-7) इति प्राकृते आदेशविधानात् 'मुणह' इति 25 सिद्धयति / इति गाथार्थः // 28 // . सुखदुःखोत्पादकत्वमेव भावयति___महुआसायणसरिसो, सायावेयस्स होइ हु विवागो। जं असिणा तहि छिजइ, सो उ विवागो असायस्स // 29 // व्याख्या-मधु भ्रमरीरसः शर्करादि वा, तस्यास्वादनं 'लेहनं, तेन सदृशस्तेन तुल्यः 25 'सायावेयरस' सातावेदनीयस्यैव सुखानुभवरूपस्य भवति 'विपाकः' अनुभवः / हुशब्दस्यै' 1 व्याख्याकारेण “जारिसयलिहणम्" इत्येतत्पाठानुसारेण व्याख्यातम् // 'जारिसं लेहणं इत्यपि : पाठो दृश्यते / 2 "तेजितम्” 'जे० टिप्पणी। 3-6 लिहनं (?) जे०। 4 यादृशं तदुपमानभूतं तल्लि (तल्ले?) हनं जे० / 5 मन्वीत जा० जे० / Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे वकारार्थत्वात् / उक्तं सातवेदनीयस्वरूपम् / असातवेदनीयस्वरूपमाह-यच असिना' खड्गेन 'छिद्यते' द्विधाक्रियते सः 'तु' पुनः 'विपाकः' अनुभवः 1 असातवेदनीयस्यैव' असुखानुभवस्यैव / इति गाथार्थः // 26 // निगमनपूर्वकं गतिचतुष्के सुखदुःखमतिदिशन्नाह (पारमा०) 'मध्वास्वादनसदृशः' मधुलिप्तनिशितनिस्त्रिंशधाराऽवलेहने यत् प्रथमतो मधुररससंवेदनं तत्सदृशः सातवेदनीयस्य भवति विपाकः / 'हुः' निश्चये / यदसिना तत्र छिद्यते स पुनर्विपाकः 'असातस्य' भीमो भीमसेन इतिवदसातवेदनीयस्य / इति गाथार्थः // 66 / / सम्प्रति चतुर्गतिविषयत्वं नियतगतिव्यवस्थया प्रस्तौति एय सुहदुक्खकरं, चउगइमावन्नयाण जीवाणं / सामन्नणं भणिमो, सुहदुक्खं दुसु दुसु गईसु // 30 // व्याख्या-'एवं' उक्तनीत्या 'सुखदुःखकरं' सुखदुःखोत्पादकं, केषाम् ? इत्याह'चतुर्गस्यापन्नानां' चतुर्गत्यवस्थिताना 'जीवाना' प्राणिनां सामान्येन 'भणिमो' भणामः / किं तत् ? इत्याह-सुखदुःखं द्वयो योर्गत्योः / इति गाथार्थः // 30 // सातावेदनीयानुभवं गतिद्वये निदर्शयन्नाह (पारमा०) 'एतद्' वेदनीयं सुखदुःखकरं चतुर्गत्यापन्नानां 'जीवानां' नारकतिर्यड्नरामरस्थानां सामान्येन भणामः 'सुखदुःखं योदयोर्गत्योः सुखं द्वयोदेवमनुजगन्योः, दुःखं द्वयोर्नरकतिर्यग्गत्योः / इति गाथार्थः // 30 // एतदेवाह देवेसु य मणुएसु य, तत्थ विसिट्ठे सु कामभोगेसु। 20 ज उवभुजइ जीवो, सो उ विवागो उ सायस्स // 31 // व्याख्या-'देवेषु च' अमरेषु 'मनुष्येषु च' पुरुषेषु च 'नत्र' तयोविशिष्टेषु 'कामभोगेषु काम्यन्त इति कामा इच्छाकामा मदनकामाः, भुज्यन्त इति भोगा भवनविलयादयः यत्तत्सुखं 'भुनक्ति' अनुभवति 'जीव' प्राणी, सः 'तु' पुनर्विपाकः 'सातस्य' सातवेदनीयस्य / ननु नरामरगत्योः किं सातोदय एव 1 नारकतिर्यग्गत्योश्चासातोदय एव ? येन भवद्भिर्दय॑ते२५ गतिद्वये गतिद्वये सातासातोदयः पृथक् पृथक् , उच्यते-प्रायोवृत्तिमाश्रित्येदमुक्तम् / अन्यथा तु 1 असातावे. जे० / 2 'तं भु' इत्येतदनुसारेण व्याख्याकारेण व्याख्यातम् , 'तहिं भु' इत्यपि . पाठः, एवमतनगाथायामपि।३'असा इत्यपि पाठः। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदनीयद्वयस्वरूपं मोहनीयस्वरूपच [21 ग्रथा नरामरगतौ सातोदयोऽस्ति तथा-ऽसातोदयोऽपीति प्रधान्यानोक्तस्तथा नारकतिर्यग्गतौ सातोदयः / इति गाथार्थः // 31 // नारकतिर्यग्गत्योदु:खस्वरूपमाह__ (पारमा०) देवेषु मनुष्येषु च' इति देवमनुजगत्योः, 'तस्थ विसिह सु काम- 5 भोगेसु' इति अत्र द्वितीयार्थे सप्तमी। विशिष्ठान 'कामान्' शब्दरूपलक्षणान् , 'भोगान्' गन्धरसस्पर्शलक्षणान . यदागमः-"कइविहा गं भंते ! कामा पन्नत्ता ? गोयमा! दुविहा कामा पन्नत्ता, सद्दा स्वा य / कइविहा णं भंते ! भोगा पन्नत्ता ? गोयमा ! तिविहा भोगा पन्नता, तंजहा-गंधा रसा फासो य” इति / यदुपभुङ्क्ते जीवः, स तु विपाकः सातस्यैव / देवेषु च मनुजेषु च, इत्यत्र चकारावनुक्तसमुच्चये तेन नरकेष्वपि१० नारकाणां जिनजन्ममहादौ, तिर्यक्ष्वपि पट्टहस्त्यादीनां सुखसंवेदनं सातविपाकः / इति गाथार्थः // 31 // नरकतिर्यग्गत्योरसातमाह 'नरएसु य तिरिएसु य, तेसु य दुक्खाई णेगरूबाई / जं उवभुजइ जीवो, सो उ विवागो असायस्स // 32 // 15 व्याख्या-नरान् कायन्ति शब्दयन्ति नरकास्तेषु,तथा तिरश्चीनमश्चन्ति गच्छन्ति-तिर्यश्चस्तेषु च, 'दुःखानि' 'असातवेदनीयानि 'अनेकरूपाणि' नानारूपाणि यत्तद्भुनक्ति जीवः, सः 'तु' पुनः 'विपाकः' अनुभवः 'असातस्य' दुःखस्य / इति गाथार्थः // 32 // ... मोहनीययुक्तस्य जीवस्य विपरीतस्वरूपं दृष्टान्तेन प्रकटयन्नाह _ (पारमा०) 'नरकेषु' नरकगतौ तिर्यक्षु' तिर्यग्गतौ 'तेसु य' इति न केवलं नरकगति-२० तिर्यग्गत्योः 'तयोश्च' देवमनुजगत्योदुःखान्यनेकरूपाणि यदुपभुङ्क्ते आभियोग्यदारिद्रयादि जीवः, स तु विपाकोऽसातस्य / इति गाथार्थः, // 32 // वेदनीयं निगमयन् मोहनीयप्रस्तावनामाह-- एयमिह वेयणीयं, चउत्थकम्मं तु होइ मोहणियं / तं मजपाणसरिसं, जह होइ तहा निसामेह // 33 // 24 व्याख्या-एतदस्मिन् वेदनीयमुक्तम् / चतुर्थ कर्म पुनर्भवति मोहनीयं, तन्मद्यपानसदृर्श यथा भवति तथा 'निशमयत / इति गाथार्थः // 33 // . 1 'तिरिएसुय नरएसु य तेसिं दुक्खाई' इत्यपि पाठो दृश्यते / 2 असातावे० जे० / 3 एयमिह सटी केयं गाथा जे० प्रतौ नास्ति / 4 निशामयत जि०॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे - (पारमा०) एतत् सातासातरूपं 'इह' प्रवचने वेदनीयमुच्यत इति गम्यते, चतुर्थकम भवति मोहनीयं तन्मद्यपानसदृशं यथा भवति तथा निशमयत / इति गाथार्थः // 33 // जह मजपाणमढो, लोए पुरिमो परब्बमा होइ। तह मोहेण वि मूढो, जीवो वि परबमो होइ // 34 // . व्याख्या-यथा 'मद्यपानमूढः' मद्य-मासवविशेषः, तस्य पान='घुटनं तेन मूढो मोहितो व्याप्तो 'लोके' मनुष्यलोके 'पुरुषः' मनुष्यः 'परवशः' परायत्तो, वकारस्य प्राकृतत्वाद् रुत्वम् , 'भवति' जायते 'तथा' तेनैव प्रकारेण मोहेनापि 'मूढः' छादितस्वरूपः 'जीवः' प्राणी 'परवशः' आत्मानायत्तः भवति' संपद्यते / इति गाथार्थः // 34 // मोहनीयस्वरूपं सभेदमाह (पारमा०) यथा 'मद्यपानमूढः' मद्यपानेन नष्टचेतनो लोके पुरुषः 'परवशः' परायत्तो भवति तथा मोहेनापि मृ8ो जीवोऽपि परवशो भवति इति गाथार्थः // 34 // संप्रति शब्दार्थकथनपूर्वकं मोहनीयग्य द्वैविध्यं तावदाह मोहेइ मोहणीयं, तंपि समासेण भण्णए दुविहं। दसणमोहं पढमं चरित्तमोहं भवे बीयं // 35 // 15 व्याख्या='मुह वैचित्ये' 'मोहयति' वैचित्यमुत्पादयत्यात्मन इतिकृत्दा मोहनीयम् / तदपि 'समासेन' संक्षेपेण भवति 'द्विविघं' द्विप्रकारम्' / द्वविध्यमेवाह-दर्श नमोहं 'प्रथम' आद्यम् , चरित्रमोहं भवेत् द्वितीयं' अप्रथमम् / इति गाथार्थः // 35|| प्रथमस्वरूपमाह-- (पारमा०) 'मोहयति' वैचित्यमापादयतीति मोहनीयम् / तदपि 'समासेन' संक्षेपेण 20 'भण्यते' प्रतिपाद्यते द्विविधम् / दृश्यते यथावदलोक्यते वस्त्वनेनेति दर्शनम् , तन्मोहयति मूढतां नयति यत्कर्म तदर्शनमोहं प्रथमम् / चर्यते तदिति चरित्रम् , त-मोहयति यत्कर्म तच्चरित्रमोहं द्वितीयम् / इति गाथार्थः / / 35 / / संक्षेपतो मोहनीयस्य द्वविध्यमभिधाय प्रथमं दर्शनमोहनीयभेदानाह दंमणमोहं तिविहं, सम्म मीसं च तह य मिच्छत्तं / सुद्ध अद्धविसुद्ध, अविसुद्धतं जहाकममो // 36 // . ___ 1 घोट्टनं जे० घुण्टनं जि०। 2 व्याख्याकारेण तु “होइ दुविहं तु” इत्यपि पाठः, तदनुसारेण व्याख्यातम् / Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयस्वरूपभेदाः सम्यक्त्वमोहनीयस्वरूपञ्च [ 23 व्याख्या-'दृशिर प्रेक्षणे' दृष्टिदर्शनं यथाऽवस्थितवस्तुपरिच्छेदः, तन्मोहयति यत्कर्म येन कर्मणाऽन्यथास्थितं वस्तु अन्यथा परिच्छिद्यते तदर्शनमोहम् / तच त्रिविधम् , 'सम्म मीसं च तह य मिच्छत्तं' सम्यक्त्वं सम्यग्मिथ्यात्वं तथा मिथ्यात्वं चेति / चस्य परतः संबन्धः / शुद्ध अविशुद्धं 'अविशुद्धं चेति / तत्र मिथ्यात्वपुद्गला एव शोधिताः कारणाभावे / विकाराजनकत्वेन शुद्धाः सम्यक्त्वमुच्यते 1 / तथा त एवार्द्धविशुद्धाः स्वरूपतः किञ्चिद्विकारजनकत्वेन अर्द्धविशुद्धं सम्यग्मिथ्यास्वमुच्यते 2 / त एव मिथ्यात्वपुद्गला अतत्त्वेषु तत्त्वाभिनिवेशरूपाः अविशुद्धं मिथ्यात्वमुच्यते, विषविकारतुल्यमिति तात्पर्यम् 3 'यथाक्रमशो' यथा परिपाट्या वक्ष्यते / इति गाथार्थः // 36 // हेतुद्वारेण सम्यक्त्वस्वरूपं समर्थयन्नाह (पारमा०) दर्शनमोहं त्रिविधम् / 'सम्यग' इति सम्यक्त्वम् , सम्यगित्येतस्य भावः सम्यक्त्वम् , इत्यतो 'मिथ' सम्यग्मिथ्यात्वम् / तथा मिथ्यात्वं च, शुद्धं अर्द्धविशुद्धं अविशुद्धम् , 'तद्यथा क्रमशः' इति सम्यक्त्वं शुद्धं, मिश्रम विशुद्धं, मिथ्यात्वमविशुद्धम् / इति गाथार्थः / / 36 / / सम्यक्त्वस्वरूपमाह-- केवलनाणुवलद्ध, जीवाइपयत्थ सद्दहे जेणं / तं सम्मत्तं कम्म, सिवसुहसंपत्तिपरिणामं // 37 / / व्याख्या-केवलमसहायं ज्ञानं केवलज्ञानम् , तेनोपलब्धा ज्ञातास्तीर्थकृद्भिर्ये जीवादिपदार्थाः तानागमान्निसर्गाद्वा विज्ञाय 'श्रद्दधीत' प्रतिपद्येत 'येन' कर्मणा हेतुभूतेन तत्सम्यक्त्वं कर्म यथाऽवस्थितवस्तुपरिच्छेदात्मकं प्रतिपत्तिरूपं सम्यग्दर्शनमित्यर्थः / शिवं निरुपद्रवस्थानं 20 मोक्षः तस्मिन् सुखं परमानन्दरूपं तस्य संप्राप्तिरवाप्तिः सा परिणामो यस्य तत् शिवसुखसं. प्राप्तिपरिणामम् / इति गाथार्थः // 37 // मिश्रस्वरूपमाह-- (पारमा०) केवलज्ञानेनोपलब्धानधिगतानर्थान् / केवलिभिर्जीवादिपदार्थान् जीवाजीवपु. ण्यपापासवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणान् श्रद्दधीत 'येन' कर्मणा हेतुभूतेन तत्सम्यक्त्वं कर्म / 25 विशेषणद्वारेणैतत्फलमाह-'शिवसुखसंप्राप्तिपरिणाम शिवसुखसंप्राप्तिः परिणामः परिणतिर्यस्य / इति गाथार्थः // 37 // मिश्रमाह 1 अविशुद्ध मिथ्यात्वपुद्गला एव शो० जे० जि० / 2 वक्ष्ये इति जे० / Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] कर्मविपाकाख्यं प्रथमै कर्मग्रन्थे राग नवि जिणधम्मे 'नवि दोसं जाइ जस्स उदएणं / सो मीसस्स विवागो, अंतमुहुत्तं भवे कालं // 38 // व्याख्या-'राग' प्रीतिलक्षणं 'नापि' नैव, अपिशब्दस्यैवकारार्थत्वात् , 'जिनधर्मे तीर्थक्रद्धर्मे 'न च' नैव 'द्वेषं' अप्रीतिलक्षणं 'याति' गच्छति 'यस्य' कर्मणः 'उदयन' 5 प्रादुर्भावेन, स मिश्रस्य 'विपाकः' अनुभव उदयो वा / स च भवन कियन्तं कालं यावद्भवति ? अत आह-अन्तर्मुहूर्तमानं कालं मुहूर्तस्यान्तः द्विघटिको मुहूर्तस्तस्य मध्यः / इति गाथार्थः // 38 // मिथ्यात्वस्वरूपमाह-- (पादमा०) 'राग' नापि प्रीतिलक्षणं जिनधर्म नापि 'द्वेषं अप्रीतिलक्षणं गच्छति, किन्तु . . मध्यस्थपरिणामः यस्य' कर्मण उदयेन भवति स मिश्रस्य 'विपाकः' उदयः ‘अन्तर्मुहूर्त भवेत्कालं' किश्चिन्न्यूनघटिकाद्वयलक्षणम् , तत ऊर्ध्वमवश्यं मिथ्यात्वे वा गमनात् / इति गाथार्थः // 38 // मिथ्यात्वमाह-- "जिणधम्ममि पओसं. वहइ य हियएण जस्म उदएणं / तं मिच्छत्तं कम्मं, संकिट्ठो तस्स उ विवागो॥३९॥ 15 व्याख्या-'जिनधर्मस्य' वीतरागधर्मस्य 'प्रद्वेष' मत्सरं 'वहति च' याति च 'हृदयेन' चेतसा, करोतीत्यर्थः 'यस्य' कर्मणः ‘उदये' विपाकानुभवे / चकरान्न केवलं हृदि प्रद्वषं वहति, तदुदयजनितं कार्य चावर्णवादादि शासनस्य विधत्ते, 'तन्मिथ्यात्वं कर्म मिथ्याऽलीकं विपरीतं वा तत्त्रपरिज्ञानं यस्मिन् तन्मिथ्यात्वं, ' संक्लिष्टः' अशुभतरः, तुशब्दस्य पुनःशब्दार्थत्वात्तस्य पुनः 'विपाकः' अनुभव उदयो वा / तदुदयेऽवश्यमशुभरूपस्य कर्मणो२० बन्धो भवति / इति गाथार्थः // 3 // उक्तं दर्शनमोहम् , साम्प्रतं चारित्रमोहमाह (पारमा०) जिनधर्मे प्रद्वषं वहति हृदयेन 'यस्य' कर्मणः 'उदयेन' विपाकवेदनेन / चकारान्न केवलं हृदि प्रद्वपं धारयति तत्फलमपि चावर्णवादादि करोति, तन्मिथ्यात्वं कर्म, संक्लिटस्तस्य पुनर्विपाकः, नरकादिप्रापकत्वात् / इति गाथार्थः // 36 // दर्शनमोहनीयं त्रिविधमप्युक्त्वा चारित्रमोहनीयं गाथाऽऽद्यदलेनाह - - 1 व्याख्याकारेण तु-"न य” इति पाठनुसारेण व्याख्यातम् / 2 'हवइ कालं' इत्यपि पाठः / 3 'जिणधम्मस्स पओसं वहई उदएण जस्स कम्मस्स' / इत्यपि पाठः / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रभहनीयभेदाः जापि य चरित्तमोहं. 'तंपि हु विह समासओ होइ / सोलस जाण कमाया, नव भेया नोकसायाणं // 40 // व्याख्या-यदपि च चरित्रमोहं यदिति प्रागभिहितं चरित्रमोहं, अपिशब्दः संभावने ममुच्चये वा, 'चः' पादपूरणे, चरेरित्रनप्रत्ययान्तस्य चरित्रमिति रूपम् / 'निरुक्तं तु चितस्य 5 कर्मणो रिक्तीकरणाच्चरित्रं व्रतं नियमो वाऽर्थः, तदपि 'समासेन' संक्षेपेण द्विविधं 'भणितं' प्रतिपादितम् / तुशब्दान्न केवलं मोहनीयं, चरित्रमपि द्विप्रकारमेव / षोडश 'जानीहि' विद्धि 'कषायान्' क्रोधमानमायालोभान प्रत्येकं चतुर्विकल्पान् / ते चामी-"जलरेणुपुढविपन्वयराईसरिसो.चउविही कोहो / तिणिसलयाकट्टियसेलत्थंभोवमो माणो // 1 // मायावलेहिगोमुत्तिमिदसिंगघणवंसमूलसमा। "लोहो हलिइ खंजणकद्दमकिमिराग 10 सारिच्छो // 2 // पक्रवचउमासवच्छरजावजीवाणुगामिणो कमसो / देवनरतिरियनारयगइसाहणहेयवो भणिया / / 3 / / " इति / षट् च दश च षोडश, पस्य उत्वं दस्य डत्वं निपातनात् , षडधिका दश षोडश, कपो-भवस्तस्यायो-लाभो येषु सत्सु तान् / तथा नव 'भेदाः' विशेष। नोकपायाणाम् / कषाया 'नो भवन्ति नोकषायाः, प्रतिषेधवाचको नोशब्दः, वेदत्रयहास्यादिरूपाः, तानिमान् स्त्रीपुनपुसकवेदहास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सादीन् / इति 15 गाथार्थः // 40 // षोडशकषायभेदानाह-- (पारमा०) यदपि च चरित्रमोहं तदपि द्विविधं, न केवलं मोहनीयं दर्शनमोहनीयचरित्रमोहनीयभेदाद् द्विविधम् / चरित्रमोहनीयमपि हुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद् द्विविधमेव समासतो भवति, कपायनोकषायभेदात् / तांश्चोत्तरार्द्धनाह-'षोडश' षोडशसंख्यापरिच्छिन्नान जानीहि, क्रोध- 20 मानमायालोभानां चतुर्णामपि प्रत्येकं चतुर्विधत्वात् / कष्यन्ते हिंस्यन्ते परस्परं प्राणिनोऽस्मिन्निति कषः संसारः, तं अयन्ते गच्छन्ति जन्तव एभिरिति कषायास्तान् , नव भेदान् नोकषायाणां वेदत्रयहास्यादिषट्कलक्षणान् , जानीहीति अत्रापि संबध्यते / इति गाथार्थः // 40 // कषायान्नामोद्देशेनाह कोहो माणो माया, लोभो चउरोवि हुँति चउभे या / 25 अगअप्पचक्खाणा, पञ्चक्खाणा य संजलणा // 41 // 1 "तंपि समासेण होइ दुविहं तु" इत्यपि पाठो दृश्यते, व्याख्याकारेण तु “तंपि समासेण दुविह भणिवं तु" इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् , अत्र 'दुविह' इति पदं प्राकृतत्वाल्लुप्तविभक्तिकं ज्ञेयम् / 2 चरेरित्रचप्रत्य० जे० / 3 “पदभञ्जकं" जे० टिप्पणी। 40 मो वेत्यर्थः, तदपि जे० / 5 लोमो जे०। 6 न जे०। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे व्याख्या-'क्रोधः' असहनरूपः, 'मानः' स्तम्भरूपः, 'माया' कुटिलस्वभावा, "लोभः' सश्चयशीलता, चत्वारोऽपि 'भवन्ति' जायन्ते 'चतुर्भेदाः' चतुर्विकल्पाः / 'अण' इति अनन्तानुबन्धि नश्चत्वारः, अनन्त-आसंसारं यावत् अनुबन्धः-प्रवाहो येषां तेऽनन्तानुबन्धिनः / अप्रत्याख्यानाश्चत्वारः-न विद्यते देशसर्वनिषेधरूपं प्रत्याख्यानं येषामुदये तेऽप्रत्याख्यानाः, 5 प्रसज्यनसमासस्य निषेधमात्रत्वात् / प्रत्याख्यानाचे ति प्रत्याख्यानावरणा गृह्यन्ते, यथा सत्यभामा भामेति, आङ्मर्यादायाम् / प्रत्याख्यानमा मर्यादया वृण्वन्ति-च्छादयन्ति येषामुदये सर्वप्रत्याख्यानं न भवति देशतस्तु भवति ते प्रत्याख्यानावरणाश्चत्वारः / संज्वलयन्ति यत्किंचिदेव स्वल्पमपि दुर्वचनादिकमासाद्योदयं यान्ति उपशाम्यन्ति च संज्वलनाश्चत्वारः / इति गाथार्थः // 41 // अनन्तानुबन्ध्युदये फलाभावप्रदर्शनायाह (पारमा०) क्रोधो मानो माया लोभश्चत्वारोऽपि प्रत्येकं चतुर्भेदा भवन्ति / कथम् ? 'अण' इति अनन्तानुबन्धिनः, तत्रानन्तं संसारमनुबघ्नन्तीत्येवंशीला अनन्तानुबन्धिनः / तथा 'अप्रत्याख्यानाः' प्रत्याख्यानं च द्विधा, देशविरतिसर्वविरतिभेदात् / तत्र देशविरतिः सर्वविरत्यपेक्षयाऽल्पं प्रत्याख्यानम् , ततश्च न विद्यतेऽल्पमपि प्रत्याख्यानं यदुदयात्ते तथा / 15 यत उक्तम्-"नाल्पमप्युत्सहेद्यषां, प्रत्याख्यातुमिहोदयात् / अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो द्वितीयेषु निवेशिता।।१॥" अथवाऽल्पं प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यानम् , तदप्यावृण्वन्तीत्यप्रत्याख्यानावरणा अप्येते तदाह-'आवण्वन्ति प्रत्याख्यानं स्वल्पमपि येन जीवस्य / तेनाऽप्रत्याख्यानावरणास्ते ननिह सोऽल्पाथः / / 1 / / ' 'प्रत्याख्यानाः' इति प्रत्याख्यानावरणाः, प्रत्याख्यानं सर्वविरतिरूपमावृण्वन्तीति, बहुलवचनात्कर्तर्यनट् / तथा 'संज्वलनाः' सं. ईपत्परीषहोपसर्गसंसर्गे चारित्रिणमपि ज्वलयन्तीतिकृत्वा / इति गाथार्थः // 41 // सम्प्रत्याद्यान् विशेषेणाह कोहो माणो माया लोभो पढमा अणंतबंधीउ / एयाणुदए जीवो इह सम्मत्तं न पावेइ // 42 // व्याख्या-क्रोधमानमायालोमा उक्तस्वरूपाः 'प्रथमास्तु' आद्यास्तु पर्वतराजिशैलस्तम्भ- 25 धनवंशकुडङ्गिकृमिरागाः 'अनन्तानुषन्धिनः अनन्तं-संसारं कर्म वा बभन्तीत्येवंशीला अनन्तबन्धिनः / 'अनन्तानुवन्धिनः' इति वा पाठो द्रष्टव्यो व्याख्यायाम् / सा चेयम्-अनन्तः अन- . न्तकालं यावत् , अनुबन्ध-श्चित्तस्याशुभोऽनुशयः प्रवाहोऽनन्तकालेनापि पश्चानिवृत्तिनं भवति, 1 'लोमः' अतिसञ्चय० जे० / 2 सज्वलन्ति जे० / 3 उपशमन्ति जे० / 4 व्याख्याकारेण तु “पढमा अगंतबंधी उ" इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् / / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायमोहनीयभेदस्वरूपफलवर्णनम तमनुवन्धन्तीत्येवंशीला अन्तानुबन्धिनः / सूत्रे तु प्राकृतत्वाद्गाथाभङ्गभयाच वं पाठः / तुशब्दस्तु प्रथमेत्यत्र पुनःशब्दार्थः / 'एयाणं' इत्यत्र चार्थात्संबन्धनीयः / अनन्तानुबन्धिनां क्रोधमानमायालोभानां 'उदये' अनुभवे 'इह' मनुष्यलोके सम्यक्त्वं 'न प्राप्नोति' नासादयति / इति गाथार्थः / / 42 // तेषां चोदयो गुणस्थानक कियदुरं यावद्भवति ? इत्याह (पारमा०) क्रोधो मानो माया लोभः प्रथमाः, 'अणंतबंधीउ' इति, आर्षत्वादनन्तानुवन्धिनः / एतेषामुदये जीवः 'इइ' संसारे 'सम्यक्त्वं' उक्तस्वरूपं न प्राप्नोति / इति गाथार्थः // 42 // सम्प्रति येषु गुणस्थानेश्वेषामुदयो येषु च न इत्येतदाह जं परिणामो किट्ठो. मिच्छाओ जाव सासणो ताव। सम्मामिच्छाईसु, एसिं उदओ 'अओ नत्थि // 43 // व्याख्या-'यत्' यस्मात्कारणात् 'परिणामः' अध्यवसायः 'क्लिष्टः' अशुभतमः 'मिथ्यात्वात्' मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकात्सकाशाद्यावत्सास्वादनः, सहास्वादनेन वर्तते सास्वादनः, सम्यक्त्व'मास्वाद्य पुनर्भवति अन्तमुहूर्तमात्रकालात् सास्वादनगुणस्थानकं यावत्ताव क्लिष्टप- 15 रिणामोऽनुवर्तते / ननु 'मिथ्यात्वात्' इति पञ्चम्येवावध्यर्थी लभ्यते तत्किमर्थ यावत्तावच्छन्दयो योरुपादानमिति ?, उच्यते- सापेक्षतया यावत्तावतोरुपादानमविरुद्धम् , अथवा मिथ्याहप्टिगुणस्थानकमवधिमवधिमत्सास्वादनगुणस्थानकम् , अवधिमत एव यावच्छब्दोऽवधिमन्वाभिव्याप्तिप्रदर्शकः तावच्छन्दस्तु तस्येवावधिमतः पर्यन्तप्रदर्शकः, संबन्धशब्दो वा, मिथ्या दृष्टिगुणस्थानकात्सकाशात्सास्वादनगुणस्थानकं यावद्भवति, न परतो भवति क्लिष्टाध्यवसायः, तत एव 20 निवर्तते इति तात्पर्यार्थः / ननु कथमिदमवसीयते ? इत्यत आह-'सम्यगमिथ्यात्वादिषु' सम्यग्मिध्याष्टिगुणस्थानकेषु, आदिशब्दादविरतादिगुणस्थानकेषु च एतेषां' अनन्तानुवन्धिनां उदयः, अनुभवः 'यतः' यस्मात्कारणात् 'नास्ति' न विद्यते इति युक्तिः / इति गाथार्थः // 43 // द्वितीयकपायोदये विरत्यभावमाह(पारमा०) एतद्वयाख्या च गुणस्थानात्सुज्ञाना इति गुणस्थाननामस्वरूपप्ररूपणाय शास्त्रान्त- 25 रश्लोकाः / तथाहि-"मिथ्याष्टिः 1 सास्वादन २-सम्यग्मिथ्याशावपि 3 / अविरतसम्यग्दृष्टिः 4, विरताविरतोऽपि च 5 // 1 // प्रमत्तश्चा 6 प्रमत्तश्च 7, निवृत्ति 1 व्याख्याकारेण तु "जओ" इत्येतत्पाठानुसारेण व्याख्यातम् जे० / 2 "मासाद्य" जे०।३ त्कृिष्टः परि० * जे / 4 बोल्लिकया यावत्ता० जे० / 5 सम्बन्धिशब्दो जे / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे बादरस्ततः 8 / अनिवृत्तिबादर ९था-ऽथ सूक्ष्मसंपरायकः 10 // 2 // ततः प्रशान्तमोहश्च 11 क्षीणमोहश्च 12 योगवान् 13 / अयोगवानिति 14 गुण-स्थानानि स्युश्चतुर्दश // 3 // मिथ्यादृष्टिभवेन्मिथ्या दर्शनस्योदये सति / गुणस्थानत्वमेतस्य, भद्रकत्वाद्यपेक्षया 1 // 4 // मिथ्यात्वस्यानुदयेऽनन्तानुबन्ध्युदये सति / सास्वाद- 5 नसम्यग्दृष्टिः, स्यादुत्कर्षापडावली 2 // 5 // सम्यक्त्वमिथ्यात्वयोगात् , मुहूर्त मिश्रदर्शन: 3 / अविरतसम्यग्दृष्टिरप्रत्याख्यानकोदये 4 // 6 // विरताविरतस्तु स्यात् , प्रत्याख्यानोदये सति 5 / प्रमत्तसंयतः प्राप्तसंयमो यः प्रमाद्यति 6 // 7 // सोऽप्रमत्तसंयतो यः, संयमे न प्रमाद्यति 7 / उभावपि परावत्या, स्यातामान्त. मौहर्तिकौ // 8 // कर्मणां स्थितिघातादो-नपूर्वान् कुरुते यतः / तस्मादपूर्वकरणः, 10 क्षपकः शमकश्च सः // 9 // यद्बादरकषायाणां, प्रविष्टानामिमं मिथः / परिणामा . निवर्तते निवृत्तिबादराऽपि तत् 8 // 10 // परिणामा निवर्तन्ते, मिथो यत्र न यत्ततः / अनिवृत्तिवादरः स्यात् , क्षपकः शमकश्च सः 9 / / 11 / लोभाभिधः संपरायः, सूक्ष्मकिट्टीकृतो यतः / स सूक्ष्मसंपरायः स्यात् , क्षपकः शमकोऽपि च 10 // 12 // अथोपशान्तमोहः स्यात् , मोहस्योपशमे सति 11 मोहस्य तु क्षये 15 जाते, क्षीणमोहं प्रचक्षते 12 // 13 // सयोगिकेवली घाति-क्षयादुत्पन्नकेवलः 13 / योगानां तु क्षये जाते, स एवायोगिकेवली 14 // 14 // " प्रतिपादितानि प्रस्तुतोपयोगीनि गुणस्थानानि / सम्प्रति सूत्रं व्याख्यायते-'यत्' यस्मात् परिणामः क्लिष्टो 'मिथ्यात्वात्' मिथ्यादृष्टिगुणस्थानाद्यावत्सास्वादनस्तावत् / अतः सास्वादनगुणस्थानेऽनन्तानुबन्धिनो व्यवच्छिन्नाः / सम्यग्मिध्यादृष्ट्यादिष्वेपामुदयोऽतः क्लिष्टपरिणामाभावान्नास्ति / इति गाथार्थः // 43 // 20 द्वितीयकषायानाह कोहो माणो माया, लोभी बीया अपञ्चखाणा उ / एयाणुदए जीवो, विरयाविरई न पावेइ // 44 // व्याख्या-क्रोधमानमायलोभा द्वितीयाः पृथ्वीराजिअस्थिमेषशृङ्गकर्दमतुल्याः अप्रत्याख्यानास्तु' सर्वथा विरत्यभावस्वरूपाः / तुशब्दः पुनःशब्दार्थः एतेषामित्यत्र संबन्धनीयः / 25 एतेषां पुनः उदये विपाके 'जीवः' प्राणी 'विरताविरति' देशविरतिं न प्रामोति, सम्यक्त्वं तु प्रामोति योग्यतायाम् / इति गाथार्थः // 44 // एतेषामुदये किमितिकृत्वा विरताविरतिं न प्रामोति ? इत्याह (पारमा०) क्रोधादयो द्वितीया अप्रत्याख्यानाः, उच्यन्ते इत्यध्याहारः / एषामुदये जीवो देशविरतिं न प्रामोति / इति गाथार्थः॥४४॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानक-तत्स्वरूप-मध्यमकपायाष्टकस्वरूपफलादिवर्णन 26 ___षां च यत्पर्यन्तेषु गुणस्थानेषूदयस्तदाह--- एमि 'जाण विवागो, मिच्छाओ जाव अविरओ ताव / परओ देमजयाइसु. नस्थि विवागो चउण्हपि // 45 // व्याख्या-'एतेषां' अप्रत्याख्यानकषायाणां 'येन' कारणेन 'विपाकः' उदयः, 'मिच्छाओ 5 जाव अविरओताव' मिथ्यात्वात्सकाशाद्यावदविर 'तगुणस्थानकं तावदुदय इति हृदयम् 'परओ देसजयाइसु' परतो देशयत्यादिषु विरताविरतादिषु 'नास्ति विपाको' न विद्यते अनुभवश्वतुर्णामपि द्वितीयाप्रत्याख्यानकषायाणां येन कारणेन / इति गाथार्थः // 45 // तृतीयकषायोदये सर्वविरत्यभावमाह___ (पारमा०) 'एषां अप्रत्याख्यानानां विपाको 'मिथ्यात्वात्' मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकाद्या- 10 वन् 'अविरतः' अविरतसम्यग्दृष्टिस्तावत् , इतेरध्याहारादिति जानीहि / परतो 'देशयतादिषु' विरताविरतादिषु नास्ति विपाकश्चतुर्णामपि / इति गाथार्थः // 45 // तृतीयानाह 'कोहो माणो माया, लोभो तइया उ पच्चक्खाणा उ। एयाणुदए जीवो, पावेइ न सब्वविरहं तु // 46 // 16 व्याख्या-क्रोधमानमायालोभाः 'तृतीयास्तु' तृतीयाः पुना रेणुरेखाकाष्ठगोमूत्रिकाखञ्जनसदृशाः 'प्रत्याख्यानास्तु' प्रत्याख्यानावरणा एव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् / एतेषां 'उदये' 'विपाके 'प्राप्नोति' आसादयति, न 'सर्वविरतिं तु' संयतत्वमेव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् , देशयतित्वं पुनः प्रामोति / इति गाथार्थः // 46 // किमितिकृत्वा सर्वविरतिं न प्रामोति 1 इत्याह (पारमा०) क्रोधादयस्तृतीयाः 'प्रत्याख्यानाः' इति प्रत्याख्यानावरणाः, उच्यन्त इति शेषः / एतेषामुदये जीवः पुनः सर्वविरतिं न प्रामोति / इति गाथार्थः // 46 // "एषामुदयावधिभूमिमाह 1 व्याख्याकारेण तु “जेण" इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् / एवमग्रेऽपि ज्ञेयम् // 2 तस्तावदुदय जे० 3 "एषामुदयभूमिमाह" इत्यपि / / 24 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कमेग्रन्थे एसिं जाण विवागो, मिच्छाओ जाव विरयधिरओ उ। परओ पमत्तमाइसु, नत्थि विवागो चउण्ह पि // 47 // व्याख्या-'एतेषा' प्रागुक्ततृतीयकषायाणां 'येन' कारणेन 'विपाकः' उदयोऽनुभवी मिथ्यात्वात्सकाशाद्यावद् ‘विरताविरतस्तु' तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद्विरताविरतगुणस्थानकमेव याव- 5 ददयः / 'परतः' अग्रतः प्रमत्तमादिर्येषां गुणस्थानकाना तानि प्रमत्तादीनि प्रमत्तसंयतगुणस्थानकम् , आदिशब्दादप्रमत्तादिसंयतगुणस्थानकानि गृह्यन्ते, [तेषु] नास्ति 'विपाकः' अनुभवश्चतु मपि यावत्येव गुणस्थानके तेषामुदयस्तावत्येव ते सर्वविरतेर्विवन्धका नोत्तरत्र, भवत्येवात्र सर्वविरतिः, प्राक पुनः कषायोदयो विबन्धकोऽस्तीत्यनेन कारणेन सर्वविरत्यभावः / इति गाथार्थः // 47 // चरमकषायानाह (पारमा०) एवां प्रत्याख्यानरणानां विपाको मिथ्यात्वाद् यावद्विरताविरतस्तावदेवेति जानीहि, परतः प्रमत्तादिषु चतुर्णामपि नास्ति विपाकः / इति गाथार्थः / / 47 / / चतुर्थकषायानाह कोहो माणो माया, लोभो चरिमा उ हुंति संजलणा। एयाणुदए जीवो, न लहइ अहखायचारित्तं // 48 // व्याख्या-क्रोधमानमायालोभाः 'चरमास्तु' पुनः पश्चिमाः भवन्ति' जायन्ते 'संज्वलनाः' प्रागभिहिताः / एतेषां 'उदये' विपाकानु 'भवे 'जीवः सत्वः 'न लभ्यते' न प्रामोति, यथैवा ख्यातं कथितं यथाख्यातम् , तच तच्चारित्रं च / इति गाथार्थः // 48 // किमितिकृत्वा न लभते ? इत्याह-- (पारमा०) क्रोधादयश्वरमाश्चत्वारो भवन्ति 'संज्वलनाः' संज्वलनाभिधानाः / एषामुदय जीवो न लभते यथाख्यातचारित्रम् / इति गाथार्थः // 4 // एतदुदयावधिमाह-- एसि जाण विवागो. मिच्छाओ जाव बायरो तिण्हं / लाभस्स जाव सुहुमो, होइ विवागो न परओ उ // 49 // 25 व्याख्या-'एतेषां' उक्तस्वरूपकषायाणां 'येन' कारणेन 'विपाकः' उदयो मिथ्यात्वात्सकाशाद्यावदादरणुस्थानकं 'तिण्हं' त्रयाणां जलरेखातिनिशवृक्षलताअवलेहिधनुलिखनरूपाणां, 1 भवने जे. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्वलनकपाय चतुष्क नोकषायस्वरूप फलादिवर्णनम् [31 - 'लोभाय' पुनर्हरिद्राशगतुल्यस्य यावत्सूक्ष्मःसंपरायो लोभी यस्मिन् गुणस्थानके तत्सूक्ष्मसंपरायं तस्मिन , 'भवनि' जायते 'विषाकः' उदयः, न परस्मिन्नुपशान्तमोहादौ / इति गाथार्थः॥४९॥ साम्प्रतं नोकपायानाह (पारमा०) एपां संज्वलनानां त्रयाणां क्रोधमानमाय लक्षणानां विपाको मिथ्यात्वा- 5 द्याववादरोऽनिवृत्तिवादर इति जानीहि, न परतः, इत्यत्रापि संबध्यते / 'लोभस्य' चतुर्थसंज्वलनस्य यावत् , 'सूक्ष्मः' सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानं तावद्विपाको भवति, न परतः पुनः प्रशान्तमोहादिषु / इति गाथार्थः / / 49 // उक्ताः कषायाः / सम्प्रति नोकषायप्रतिपादनायह नव नोकमाय भणिमो, वेया तिन्नेव हासछक्क च। इत्थीपुरिसनपुंसग. तेसि सरूवं इमं होइ // 50 // व्याख्या-नव संख्यया नोकषायाः पूर्वोक्तस्वरूपाः तान् , 'भणिमो' इति प्रतिपादयामः / वेदास्त्रयं उक्तलक्षणाः, हास्यषट्कं च / तत्र तावद् वेदाः स्त्रीनपुसकरूपाः, तेषां च स्वरूपं 'इमं वक्ष्यमाणलक्षणं 'भवनि' विज्ञेयम् / इति गाथार्थः // 50 // 'यथोद्देशस्तथा निर्देशः' इदि न्यावात् स्त्रीवेदं लक्षणपूर्वकं दृष्टान्तपुरस्सरमाह- 15 .(पारमा०) कषायसहचरिता नोकषायाः, नोशब्दोऽत्र सहचारवाची, कषायसहचरितत्व च कपायैः सह सर्वदा वर्तमानत्वात् / ते च नव, तान् भणामः, वेदत्रयं हास्यादिषट्कं च / तत्र वेदत्रिकमाह-स्त्रीपुरुषनपुसकेति स्त्रीवेदः पुरुपवेदो नपुसकवेदश्च / तेषां स्वरूपमिदं वक्ष्यमाणं * भवति / इति गाथार्थः // 50 // तत्र स्त्रीवेदमाह पुरिसं पइ अहिलासो, उदएणं होइ जस्स कम्मस्स / , सो फुकुमदाहसमो, इत्थीवेयस्स उ विवागो // 51 // व्याख्या-'पुरुषं प्रति' पुरुषमङ्गीकृत्य 'अभिलाषः' इच्छाविशेषः, यद्यहं पुरुषं सेवयामीत्येवंरूपः, 'उदयेन' विपाकेन यस्य 'भवति' जायते 'कर्मणः' मोहनीयविशेषस्य, 'सः' अभिलाषः फुस्फुमाया दाहः फुस्फुमादाहः तेन समः-तेन तुल्यः कारीपदाहसदृशः, यथा यथा '5 चाल्यते तथा तथा ज्वलति दहति च / एवमवलापि यथा यथा संस्पृश्यते पुरुषेण तथा तथाऽस्या अधिकतरोऽभिलापो जायते / अभुज्यमानायां तु छन्नकारीषदाहतुल्योऽभिलाषो मन्द इत्यर्थः / 'स्त्रोवेदस्य तु' योषिद्वदस्यैवायं 'विपाकः' अनुभवः / इति गाथार्थः // 51 // पुरुषवेदस्वरूपमाह Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 कर्मविपाकाख्ये प्रथम कर्मग्रन्थ (पारमा०) पुरुष प्रत्यभिलाषः स्त्रिया यस्य कर्मण उदयेन भवति, पित्तोदय मधुराभिलापवत् , स करीषाग्निदाहसमः स्त्रीवेदस्य विषाकः / इति गाथार्थः // 51 // पुरुषवेदमाह इत्थीए पुण उवरि. 'जस्मिह उदएण रागउप्पजे / सो तणदाहममाणो, होइ विवागो पुरिमवेए // 52 // (पू०) व्याख्या-'स्त्रियः पुनरुपरि' स्त्रीमङ्गीकृत्य, पुरुषस्येति सामर्थ्याल्लभ्यते गाथायामनुपात्तमपि, उत्पद्यते इति क्रियोपादानात् / नहि कर्तारमन्तरेण क्रिया संभवति, "क्रियाऽप्युपात्ता सामर्थ्यात्कर्तारमाक्षिपति कर्म च, कर्म चोपात्तं कर्तारं क्रियां चाक्षिपति, न कर्तृ व्यति- . रेकेण क्रिया संभवति. नापि कर्म विना क्रिया, इति सामर्थ्यादेकस्मिन्नुक्ते इतरयोर्ग्रहणम् / 10 'यस्य' कर्मणो मोहनीयविशेषस्योदयेनैव 'रागः' अभिष्वङ्गलक्षणः स्त्री सेवयामीत्येवंरूपः 'उत्पात' जायेत, स तृणदाहसमानः, यथा तृणानां दाहे ज्वलनं झटिति विध्यापनं च भवति, एवं पुवेदोदये स्त्र्यासेवनं प्रत्यऽभिलाषो भवति, निवर्तते च, तत्सेवने शीघ्र 'भवति' संजायते 'विपाकः' अनुभवः 'पुवेद एव' पुरुषवेद एव / इति गाथार्थः॥५२॥ नपुसकवेदस्वरूपमाह __ (पारमा०) स्त्रिया उपरि पुनर्यस्येह कर्मण उदयेन राग उत्पद्यते, श्लेष्मोदयेऽभ्लाभिलाषवत् , स तृणदाहसमानो भवति विपाकः 'पुर षवेदे' पुरुषवेदम्य / इति गाथार्थः / / 52 / / नपुसकवेदमाह-- इत्थीपुरिमाणुवरिं,' जस्सिह उदएण राग उप्पजे / नगरमहादाहसमो, 'सो उ विवागो अपुमवेए // 53 // व्याख्या-स्त्री च पुरुषश्च स्त्रीपुरुषौ प्रतीतौ तयोरुपरि 'यस्य' मोहनीयविशेषस्य 'उदयेन' विपाकेन रागः 'उत्पद्यतैव' जायेव / किंभूतोऽसौ ? 'इत्याह-नगरमहादाहसमः' नगरस्य महादाहो नगरमहादाहः तेन समस्तुल्यः, यथा नगरं दह्यमानं महता कालेन दह्यते विध्याति च महतैव / एवं नपुसकवेदोदयेऽपि स्त्रीपुरुषयोः सेवनं प्रत्यभिलाषातिरेको महताऽपि कालेन न निवर्तते नापि सेवने तृप्तिः 'जानीहि अवबुध्यस्व 'विपाकः' अनुभवः 'अपुवेदे 25 1-6 “जस्सुदएणं तु” इत्यपि पाठः, तदनुसारेण व्याख्याकारेणव्याख्यातम् / 2.7 "रागमुप्पजे " इत्यपि। पाठः / 3 व्याख्याकारेण तु ""गो उ पुमवेए' इति पाठमनुमृत्य व्याख्यातम्।४ क्रिया ह्य त्पन्ना सामर्थ्या जे।'उत्पद्यते' जायते / 8 “होइ" इत्यपि पाठः / व्याख्याकारेण तु-"जाण विवागो” इत्येतत्पाठानुसारेण व्याख्यातम् / / “नपुंसस्स" इत्यपि पाठः॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदत्रय-हास्यमोहनीयस्वरूपफलादिवर्णनम् [ 33 नपुसकवेदस्य / अपुवेदग्रहणेनात्र नपुसकवेदो गृह्यते न स्त्रीवेदः, तत्स्वरूपस्य प्रागभिहितत्वात् / इति गाथार्थः // 53 / / कियड्रमेते गुणस्थानकेषु गच्छन्ति ? इत्याह-- (पारमा०) स्त्रीपुरुषयोरुपरि यस्येह कर्मण उदयेन राग उत्पद्यते, पित्तश्लेष्मोदये मार्जिताभिलाषवत् , नगरमहादाहसमः पुनर्विपाकः 'अपुवेदे' नपुसकवेदस्य / इति गाथार्थः // 53 // .. गुणस्थानेष्वेतद्विपाकवेदनाय हास्यादिषट्कोद्देशाय चाह_ 'तिण्ह वि होइ विवागो, मिच्छाओ जाव बायरो ताव / हासरईअरइभयं, सोगदुगंछा 'उ अह भणिमो॥५४॥ व्याख्या-त्रयाणामपि 'भवति' जायते 'विपाकः' अनुभवो मिथ्यात्वात्सकाशाद्याबद्धादरगुणस्थानकं तावदनुवृत्तिः, परतो नास्त्यनुवृत्तिः / उक्तं वेदत्रिकम् , हास्यादिषट्कमाह'हास्यरत्यरतिभयं' हास्यं च रतिश्चारतिश्च भयं च द्वन्द्व कवद्भावादेकत्वम् / शोकजुगुप्से च 'अथ' अनन्तरं 'भणामः' प्रतिपादयामः / इति गाथार्थः // 54 // हास्यस्वरूपमाह- . (पारमा०) त्रयाणामपि स्रीवेदपुरुषवेदनपुसकवेदानां विपाको भवति मिथ्यात्वाद् यावदादरोऽनिवृत्तिवादरस्तावत् / न परतः / हास्यरत्यरतिभयमिति समाहारः / शोकजुगुप्से अथ भणामः / इति गाथार्थः // 54 // तत्र हास्यमोहनीयमाह मनिमित्तऽनिमित्तं वा, जहासं होइ इत्थ जीवस्स / सो हासमोहणीयस्स होइ कम्मस्स उ विवागो॥५५॥ व्याख्या-सह निमित्तेन वर्तत इति सनिमित्तं सकारणं, न विद्यते निमित्तं करणं यस्मिन् तदनिमित्तम् , तद्वा 'यहास्यं मुखविकासलक्षणमट्टहासरूपं वा 'भवति' जायते 'अत्र' संसारे 'जीवस्य' प्राणिनः, सः 'हास्यमोहनीयस्यैव' मुखविकासलक्षणस्यादृट्टहासरूपस्य वा भवति कर्मणस्तु 'विपाकः' अनुभवनम् / स इति विपाकापेक्षया पुल्लिङ्गनिर्देशः / इति गाथार्थः ॥५५॥रतिमोहनीयस्वरूपमाह (पारमा०) सनिमित्तं दर्शनभाषणश्रवणरूपवाह्यकारणापेक्षं, अनिमित्तं बाह्यहेतुमन्तरेण किमप्यन्तःस्मृतवतो यद्धास्यं भवति / यदुक्तं श्रीस्थानाङ्ग-"चउहिं ठाणेहिं हासुप्पत्ती 1 "तिण्हवि जाण विवागो" इत्यपि पाठः / 2 "य" इत्यपि पाठः / 3 "एत्थ" इत्यपि पाठः। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 ] कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे सिआ। तंजहा-पासित्ता, भासित्ता, सुअित्ता, संभरित्ता" इति / अत्र संसारे जीवस्य स हास्यमोहनीयस्य कर्मणो भवति विपाकः / इति गाथार्थः // 5 // रतिमोहनीयमाह सच्चित्ताचित्तेसु य, बाहिरदव्वेसु जस्स उदएणं / होइ रई रहमोहे, 'सो उ विवागो वियाणाहि // 56 // (पू०) व्याख्या-सच्चिताश्चाचित्ताश्च-सच्चित्ताश्चाचित्ताः कलत्रगृहादयः तेषु च, 'बाह्यद्रव्येषु' आत्मव्यतिरिक्तेषु, 'यस्य' मोहनीयविशेषस्य 'उदयेन' विपाकेन भवति रतिः' प्रीतिः, / ('रतिमोहे')रतिमोहनीयस्यैव कर्मणस्तं विपाकं 'विजानीहि' अवबुध्यस्व / इति गाथार्थः॥५६॥ अरतिमोहनीयमाह (पारमा०) सच्चित्तेषु देहकलत्रादिषु, अचित्तेषु कनकादिषु, चकारान्मिश्रेष्वलङ्कृतस्त्र्यादिषु, बाह्यशब्देनान्तरसम्यक्त्वादीनां व्युदासेन द्रव्येषु यस्य कर्मण उदयेन रतिर्भवति रतिमोहे / स 'तु' पुनर्विपाक इति विजानीहि / इति गाथार्थः / / 56 // अरतिमोहनीयमाह सच्चित्ताचित्तेसु य. बाहिरदव्वेसु जस्स उदएणं / अरई होइ हु जीवे, सो उ विवागो अरइमोहे // 5 // (पू०) व्याख्या- 'सच्चित्ताचित्तेषु च' ज्यादिवेश्मादिष्वशोभनेषु च 'बाह्यद्रव्येषु' आत्मनः पृथग्भूतेषु 'यस्य' कर्मणः 'उदयेन' विपाकेन अरतिः 'भवति' जायते रणरणकरूपा 'जोवे' जीवस्य स 'तु' पुनः 'विपाकः' अनुभवः 'अरतिमोहे' रणरणक रूपे, मोहस्यैव नान्यस्य / सर्वत्र षष्ठयर्थे सप्तमी प्राकृतत्वात् / इति गाथार्थः // 7 // भयस्वरूपमाह (पारमा०) 'सचित्ताचित्तेषु' उक्तस्वरूपेषु बाह्यद्रव्येषु यस्य कर्मण उदयेनारतिर्भवति जीवे, स 'तु' पुनर्विपाकोऽरतिमोहे / इति गाथार्थः // 55 // भयमोहनीयमाह-- भयवजियम्मि जीवे, जस्सिह उदएण 'हुति कम्मस्स। सत्तवि भयठाणाई, भयमोहे सो विवागो उ // 58 // 1 व्याख्याकारेण तु-"तं तु विवागं" इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् / 2 रूपमोहस्यैव जे . 3 "होइ" इत्यपि पाठः। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्यादिनोकषायमोहनीयस्वरूपफलादिवर्णनम् [ 35 (पू०) व्याख्या-'भयवर्जिते' भयरहिते 'जीवे' प्राणिनि यस्य 'कर्मणः' मोहनीयविशेषस्योदयेन 'भवन्ति' जायन्ते 'सप्तापि भयस्थानानि' इहपरलोकादानाकस्मादाजीवमरणाश्लाघारूपाणि / तत्रेहलोकभयं मनुष्यो मनुष्याद्रिभेति 1 / परलोकभयं मनुष्यो गवादेनरकादेर्वा बिभेति 2 / आदानं ग्रहणं तस्माद्भयमादानभयम् , अस्माकमयं राजादिर्धनादि ग्रहीष्यते, 3 / अकस्माद्भयमिदं धवलगृहादि ममोपरि निपतिष्यतीत्येवंरूपम् 4 | आजीविकाभयं दुष्कालादौ पतिते कथं वयं जीविष्यामः 1 5 / मरणभयं मरिष्यामो वयमित्येवं हृदयकम्परूपम् 6 / अश्लाघाभयं ममावर्णवादं लोकः करिष्यतीत्येवंरूपम् 7 / भयरूपं मोहं भयमोहं तस्य सः 'तु' पुनः 'विपाकः' अनुभवः तुरेवकारार्थो वा / इति गाथार्थः // 58 // शोकमोहनीयमाह (पारमा०) भयवर्जिते जीवे यस्य कर्मण इहोदयेन भवन्ति सप्तापि भयस्थानानि, भयमोहे स पुनर्विपाकः / भयस्थानानि च इहलोकपरलोकादानाकस्मादाजीवमरणाश्लाघारूपाणि / तत्र मनुष्यस्य मनुष्याद्भयमितीहलोकभयम् 1 / मनुष्यस्य महिषादेर्नरकादेर्वा भयं परलोकभयम् 2 / मम सकाशादयमिदमादास्यतीति भयमादानभयम् 3 / उपविष्टस्य सुप्तस्य वा मत्तमातङ्गादिनिमित्तमन्तरेण भयमकस्माद्भयम् 4 / धान्यहीनस्य दुष्कालपतनाद्याकर्णनाद्भयमाजीविकाभयम् 5 / नैमित्तिकादिना मरिष्यसि त्वमधुनेत्यादिकथिते भयं मरणभयम् 6 / अकार्यप्रकरणोन्मुखस्य 'विवचनायां जनापवादमुत्प्रेक्ष्य भयमश्लाघाभयम् / इति गाथार्थः // 58|| शोकमोहनीयमाह-- मोगरहियम्मि जीवे, जस्सिह उदएण होइ कम्मस्स / अकंदणाइ सोगो. तं जाणह सोगमोहणियं // 59 // (पू०) व्याख्या-'शोकरहिते' व्यपगतशोके 'जीवे' प्राणिनि स्वभावेन यस्य 'तु' पुनमोहस्य 'उदयेन' विपाकेन 'भवति' जायते कर्मणः, किम् ! इत्याह-'आक्रन्दनादिशोकः' आक्रन्दनमादिर्यस्य शोकस्य तदाक्रन्दनादिशोकः / आक्रन्दनं सशब्दं सदुःखं सताडनं प्रल. पनम् / आदिशब्दादुरोऽभिघातादि, तत् 'जानोहि' अवबुध्यस्व शोकमोहनीयम् इति गाथार्थः // 56 // जुगुप्सामोहनीयमाह (पारमा०) शोकरहिते जीवे यस्य कर्मण उदयादिहाक्रन्दनादि, आदिशब्दादुरस्ताडन 1 "विवेचनायाम्" इत्यपि / 2 व्याख्याकारेण तु-"जस्स उ उदएण" इत्येतत्पाठानुसारेण व्याख्यातम् / 3 "सोगं" इत्यपि पाठः।४ “जाणसु" इत्यपि पाठः / Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ] कर्मविपाकास्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे भूपीठलुठनादिशोको भवति, तज्जानीहि शोकमोहनीयम् / इति गाथार्थः / / 56 // जुगुष्मामोहनीयमाह दुग्गंधमलिणगेसु य, 'अभितरबाहिरेसु दब्बेसु / जेण विलीयं जीवे, उप्पजइ सा 'दुगुछा उ // 6 // ..(पू०) व्याख्या-दुर्गन्धाश्च मलिनाश्च दुर्गन्धमलिनाः, दुर्गन्धमलिना एव दुर्गन्धमलिनकाः, स्वार्थे कन् / दुर्गन्धा विरूपगन्धाः मलिना रेणुगुण्डिताः तेषु च, सहाभ्यन्तरबाह्य वर्तन्त इति साभ्यन्तरबाद्यानि, तेषु च, द्रवन्ति क्षरन्ति च तान तान् पर्यायानितिद्रव्याणि (तेषु), आभ्यन्तराणि रसासृगादीनि, बाह्यान्यशुच्यादीनि, चकारादपरेषु च तथाविधद्रव्येषु 'येन' कर्मणा 'व्यलोक' चित्तस्यान्यथात्वं जीवे' जीवस्य 'उत्पद्यते' जायते 'सा. जुगुप्सा' सैव जुगुप्सामोहनीयं, नान्या / इति गाथार्थः // 6 // कियर हास्यादीनामनुवृत्तिर्भवति ? इत्याह-- (पारमा०) दुर्गन्धमलिनकेष्वाभ्यन्तरबाह्य पु द्रव्येषु, आभ्यन्तराणि रसासृगादीनि, बाह्यान्यशुच्यादीनि, तेषु येन कर्मणा व्यलीकं मुखमोटननासाकुचनादिकं जीवस्योत्पद्यते सा जुगुप्सा / इति गाथार्थः // 6 // हास्यादिषट्कस्य गुणस्थानकेपृदयमाह-- 'छह वि होइ विवागो, मिच्छाओ जा अपुवकरणस्म / चरमसमउत्ति परओ, नस्थि विवागो 'उ छण्हपि // 61 // व्याख्या-'षण्णामपि' हास्यादीनां 'येन' कारणेन 'विपाकः' उदयो 'मिथ्यात्वात' उक्तस्वरूपात्सकाशाद्यावत् 'अपूर्वकरणस्य' निवृत्तिबादरगुणस्थानकस्या प्राप्तपूर्वकस्य करणस्य वा 'चरमसमयः' अपश्चिमसमयः, 'इतिः समाप्तौ / 'परतः' अग्रतो 'नास्ति' न विद्यते 'विपाकस्तु' अनुभवस्तु 'षण्णामपि' हास्यादीनाम् / इति गाथार्थः // 61 // . उक्तं मोहनीयम् , आयुष्कमाह (पारमा०) षण्णामपि भवति 'विपाक:' उदयो मिथ्यात्वाद्यावदपूर्वकरणस्य चरमसमय इति / परतोऽनिवृत्तिवादरतोऽनिवृत्तिवादरादिषु पुनर्नास्ति विपाकः षण्णामपि / इति गाथार्थः // 61 // अथ मोहनीयं निगमयमायुष्कर्मप्रस्तावनामाह१ व्याख्याकारेण तु “समितरबा--" इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् / 2 "दुगंछा उ" इत्यपि पाठः जे० / 3 प्सा' तदै (दे?)व जुगुप्सामो० जे० / 4 "छण्हवि जाण" इत्यपि पाठः / व्याख्याकारेण तु-"जेण" इत्येतत्पाठानुसारे व्याख्यातम् / 5 "य" इत्यपि पाठः।६ प्राप्तिपूर्वस्य जे०।। . . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुगुप्सास्वरूपफलादिहास्यषट्कोदयस्वाम्यायुःस्वरूपफलादिवर्णनम भणिओ मोहविवागो आउयकम्मं तु पंचमं भणिमो। तं होइ' चउपयारं, नरतिरिमणुदेवभेएहिं // 62|| व्याख्या-'भणित:' प्रतिपादितः 'मोहविपाकः' मोहनीयोदयः / 'आयुष्कर्म तु' उक्तस्वरूपं 'पञ्चम' संख्यया 'भणिमो' इति प्रतिपादयामः साम्प्रतम् / 'तदपि' आयुष्कमचतुष्प्रकारमेव, हुशब्दस्येवकारार्थत्वात् , कथम् ? इत्याह-'मरतिरिमणुदेव देः' नारकतियेङ्मनुष्यदेवभेदरूपमायुः / नरशब्देन नरकायुगृह्यते / मनुष्येति पृथगुपा दा(ना ?)बरकेति नोक्तं गाथाभङ्गभयात् / इति गाथार्थः // 62 // ननु किमायुः सुखदुःखे प्रयच्छति ? उत्त न ? इत्याह (पारमा०) भणितो मोहविपाकः / आयुष्कर्म पञ्चमं भणामः / तद्भवति चतुष्प्रकारं, नरेति नरकायुः, उत्तरत्र मनुष्यायुषः पृथगुपादानात्सूत्रस्य सूचकत्वाच्च / तिरित्ति तिर्यगायुः, मन्विति मनुष्यायुर्देवायुश्च भेदैः प्रकारैः इति गाथार्थः // 62 // मामान्येनायुस्वरूपं प्रतिपादयति-- / दुक्खं न देइ आउं 'नेव सुहं देइ उसुवि गईसु / दुक्खसुहाणाहारं, धरेइ देहट्ठियं जीवं // 6 // .. (पू०) व्याख्या-'दु ग्वं' असातावेदनीयं 'न ददाति' न प्रयच्छति 'आयुः' कर्म, तर्हि सुखं दास्यति 1 इत्याह-'नैव सुखं ददाति' न प्रयच्छति / 'चतसृष्वपि गतिषु' नारकतियग्नरामरलक्षणासु दुःखसुखयोः 'आधार' आश्रयं धारयति' अवस्थापयति 'देहस्थितं' 'शरीराश्रितं 'जोवं' प्राणिनम् / इति गाथार्थः // 63 // 'नरकायुष्कस्वरूपमाह-- (पारमा०) 'दुखं' असातं न ददाति 'आयुः' कर्म नैव च सुखं, सुखदुःखदाने सातासातरूपस्य वेदनीयस्यैव समर्थत्वात् / आयुस्तु दुःखसुखाधारभूतं जीवं देहस्थितं धारयति, एतावत एव सामर्थ्यस्य सद्भावात् / इति गाथार्थः // 63 // सम्प्रति नरकायुः प्रतिपादयन् हडिदृष्टान्तं भावयति-- जं नेरइयं नारयभवम्मि तहिं धरइ उब्वियंतपि जाणसु तं निरयाउं, हडिसरिसो तस्स उ विवागो॥६४॥" - 1 व्याख्याकारेण तु "तंपि हु चउप्पया" इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् / 2 मोहनीयविपाकः जे।३० दानान्नारकेति जे.। 4 "न पि य" इत्यपि पाठः / 5 नारका जे। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे (पू०) व्याख्या-'यत्' यस्मात् 'नारकिक' नरकोत्पन्नप्राणिनं 'नारकभवे' नारकाणां भवो नारकभवो नारकोत्पत्तिस्थानं तस्मिन् , 'तं' नारकं धारयति' अबस्थापयति 'उद्विजन्तमपि चेतस्युद्वेगं कुर्वाणमपि 'जानीहि विद्धि, तत् 'नरकायुः' नरकेषु प्राणिनोऽवस्थितिरूपम् / 'हडिः, प्रतीता तया सदृशस्तुल्यस्तत्तुल्यः, 'तस्य तु' पुनर्नारकायुष्कस्य 'विपाकः' अनुभवः / यथा हि राज्ञा 'हडौ क्षिप्तश्चौरादिह दयेनोद्वगं कुर्वन्नपि तया ध्रियते विवक्षितकालं यावत् , तस्या विघटनाभावे न निर्गच्छति तथा नरकादावपि / इति गाथार्थः // 64 // उक्तं नरकायुष्कम् , तिर्यगादीना मतिदेशमाह-- (पारमा०) 'यत्' कर्म नैरयिकं निरयोत्पन्नजीवं नारकभवे तस्मिन् धारयति उद्विजन्तमपि तत्कर्म निरयायुर्जानीहि / निष्क्रान्ता अयाद् इष्टफलदैवात्तत्रोत्पन्नानां सातवेदनाभावेनेति निरयाः। हडिसदृशस्तस्य तु विपाकः, यथा चौरादिस्तलवरादिना हडिक्षिप्तो गन्तुमना अपि तया धार्यते तथा जीवोऽपि नरकादिदुर्गनिष्क्रमितुमना अपि नरकाद्यायुषा हडिसदृशेन धार्यते / इति गाथार्थः // 64 // नरकायुरुक्त्वा तिर्यगायुष्कादीनामतिदेशमाह-- एवं तिरियं मणुयं देवं तिरि याइएसुः भावेसु। जं धरइ तब्भवगयं, तं तेसिं आउयं भणियं // 65 // व्याख्या-एवं' उक्तेनैव प्रकारेण 'तियञ्च' गवादिकं 'मनुष्य' पुरुषादिकं 'देव' भवनपत्यादिकं तिर्यगादिषु भावेषु' भवानुभूतिलक्षणेषु यद् 'घारयति' अवस्थापयति, तेर्षा भवस्तद्भवस्तद्गतं नारकादिभवगतं 'तद्' आयुः 'तेषां' तिर्यङ्मनुष्यदेवानामायुरकं भणितम् / तिर्यग्भवे तिर्यगायुष्क, मनुष्यभवे मनुष्यायुष्कं, देवभवे देवायुष्कं 'भणितं' प्रतिपादितम् / इति गाथार्थः // 65 // उक्तमायुष्कर्म, षष्ठं नामाह(पारमा०) 'एवं' उक्तप्रकारेण 'तियश्च गवादिक मनुष्य पुरुषादिकं 'देवं' भवनपत्यादिकं 'तिर्यगादिषु भावेषु' भवानुभूतिलक्षणेषु यत्' धारयति तद्भवगतम् , तेषां तिर्यगादीनां भवः तत्र स्थितं तत्तेषां तिर्यगादीनामायुरुक्तम् / इति गाथार्थः // 65 // आयुनिंगमयन् नामप्रस्तावनामाह भणिय आउयकम्म, छटुं, कम्मं तु भण्णए नाम। 1 उद्विजमानमपि चे० जे० / 2 हटिः जे० / 3 हटौ जे० / ४°मप्यतिदेश० जे०। 5 "मण्णई" इत्यपि पाठः। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुश्चतुष्क-नाम-स्वरूपफल दिवर्णनम् ( 36 त चित्तगरसमाणं. 'जह होइ तहा निसामह // 66 // (पू०) व्याख्या-'भणित' प्रतिपादितमायुष्कर्म / षष्ठं नाम कर्म भण्यते / नामदष्टान्तमाह - तत् 'चित्रकरसमान' चित्रकरसदृशं 'अनेकरूपं' नानारूपं / जीवं' इति प्राणिन 'करोति' निवर्तयति / इति गाथार्थः // 66 // दृष्टान्तमेव व्यक्तीकुर्वन्नाह --- (पारमा०) भणितमायुष्कर्म, षष्ठं कर्म पुनर्नाम भण्यते / तच्चित्रकरसमानं यथा भवति लथा निशमयत / इति गाथार्थः // 66 // प्रतिज्ञातमाह-- जह चित्तयरो निउणो, अणेगरूवाइं कुणइ रूवाई। मोहणमसोहणाइ, 'चोक्खाचोक्खेहि वण्णेहिं // 67 // व्याख्या-यथेति दृष्टान्तार्थः / चित्रकरः' "विज्ञानिकः निपुणः' नैपुण्ययुक्तः 'अनेक रूपाणि' बहुरूपाणि 'करोति' विदधाति 'रूपाणि' प्रतिबिम्बानिः / तान्येवाह-'शोभनानि सुरूपाणि 'अशोभनानि' विरूपाणि, चोक्षाः निर्मला अचोक्षाः अशुद्धा अनिर्मलास्तैर्वर्णकैर्हरितालादिभिः / इति गाथार्थः // 67 / / दार्शन्तिकयोजनामाह-- ... (पारमा०) यथा चित्रकरो 'निपुणः' स्वकर्मणि प्रवीणः 'अनेकरूपाणि' 'नानाप्रकाराणि 'रूपाणि' हस्त्यश्वादीनि करोति 'शोभनाशोभनानि' रम्यारम्याणि चोक्षाचोक्षः विशदाविशदैः 'वर्णैः हरितालादिभिः / इति गाथार्थः // 67 // .. दार्शन्तिके योजयति तह नामंपि य कम्म, अणेगरूवाई कुणइ जीवस्स / सोहणमसोहणाई, इटाणिट्ठाई लोयस्स // 68 // व्याख्या-'तथा' तेनैव प्रकारेण नामापि कर्म 'अनेकरूपाणि' नानारूपाणि ऋजुकुजवामनादिलक्षणानि 'करोति' निर्वर्तयति 'जीवस्य' आत्मनः, अनेकरूपाण्येवाह-शोभनानि सुरूपाणि, अशोभनानि विरूपाणि, किंभूतानि च तानि ? इत्याह-'इष्टानिष्टानि / अभिमतानभिमतानि 'लोकस्य' प्राणिसमूहस्य / सर्वत्रानुस्वारोऽलाक्षणिकः प्राकृतत्वाद्रष्टव्यः / इति गाथार्थः // 18 // 1 "अणेगरूवं जियं कुणइ" इत्यपिपाठस्तदनुसारेण व्याख्याकारेण व्याख्यातम् / 2 जियमिति प्रा० जे० ३"चुक्खमचोक्खेहिं" इत्यपि पाठः / / 4 "वैज्ञानिकः” इत्यपि पाठः 5 "नानाकाराणि" इत्यपि पाठः / 6 "चुक्षा चुरेः" इत्यपि पाठः / 7 ०नि लोकस्य अमिमता जे० / Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम / कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कमेग्रन्थ नाम्नो 'निरुक्तेन शब्द व्युत्पादयंस्तस्यैव भेदानाह-- (पारमा०) तथा नामकर्मापि जीवस्य 'अनेकानि' बहूनि रूपाणि 'शोभनाशोभनानि' शुभाशुभानि, अत एव लोकस्येष्टानिष्टानि करोति / अयमाशयः-शुभान्यपि बहुभेदानि अशुभान्यपि बहुभेदान्येव / एतेन सामान्यतः शुभाशुभभेदाद् द्विविधमपि नाम भवतीत्य गन्तव्यम् / यदागमः- "नामं कम्मं दुविहं, सहममुहं च अहिय। सुहस्स उ बहू भेगा, . एमेव असुहस्सवि // 1 // " इति गाथार्थः // 68 // नामकर्मणो व्युत्पत्तिपूर्वकं भेदोपक्षेपमाह गइयाइएसु जीवं नामइ भेएसु जं तओ नाम / तस्स उ बायालीसं. भेया अहवावि सत्तट्ठी // 69 // ... (पू०) व्याख्या-गतिरादिर्येषां ते गत्यादयः, गतिर्नरकगत्यादिका आदिशब्दाज्जात्यादयों गृह्यन्ते तेषु च, "जियं' प्राणिनं, 'च:' पादपूरणे, नामयति 'भेदेषु' विशेषेषु 'यद्' यस्माकारणात 'ततः तस्मादन्वर्थबलान्नाम उच्यते, तस्य तु' पुनर्नाम्नः कर्मणो द्विचत्वारिंशद् 'भेदाः' विशेषाः संख्यया, अथवेति पक्षान्तरसूचकः / पक्षान्तरमाश्रित्य सप्तपष्टिरपि भवन्ति भेदाः / इति गाथार्थः // 66 // नाम्न एवोत्तरभेदानाह-- (पारमा०) 'गत्यादिषु' वक्ष्यमाणेषु मेदेषु 'जीव' प्राणिनं 'नामयति 'तत्तत्पर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति 'यद्' यस्मात् 'ततः तस्मान्नामेत्युच्यते / तस्य पुनर्द्विचत्वारिंशद्भेदाः, अथवाऽपि सप्तषष्टिः // 66 // अहवावि हु तेणउई, भे या पयडीण ‘हुंति नामस्म / अहवा तिउत्तरसय, सव्वंवि जहक्कम मणिमो // 7 // (पू०) व्याख्या-'अथवा' इति पक्षान्तरार्थ एव 'अपि:' संभावने समुच्चये वा / 'हु" पाइपूरणे / पक्षान्तरमङ्गीकृत्य 'त्रिनवतिरपि संभाव्यते' त्रिभिरधिका नवतिः, त्रिनवतिः, साऽपि संभवति / 'भेदाः' विशेषाः 'प्रकृतीनां कर्मप्रकृतीनां 'भवन्ति' जायन्ते, कस्य ? 'नाम्नः' कर्मणोऽथवा 'युत्तरशतं' त्रिभि रुत्तरं शतं युत्तरशतं भवति, भेदानामिति शेषः, नाम्न एव / यद्येवं ततः किम् ? इत्याह-सर्वेऽप्येते प्रागभिहिता भेदाः 'यथाक्रम यथापरिपाट्या 'भणामः प्रतिपादयामः / इति गाथार्थः / / 70 // . 5 'पदभञ्जनेन० जे० टिप्पणी / 2 व्याख्याकारेण तु “सुय जियं" इतिपाठानुसारेण व्याख्यातम् 3 "य" इत्यपि पाठः / 4 'जीवं' जे० / ५-"इवि" इति व्याख्याकाराः। 6 “होंति" इत्यपि पाठः / 7 'अधिक' जे. टिप्पणी। - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 41 नाम-प्रकृतिसङ्ख्या-स्वरूप फलादिवर्णनम् 'यथोद्देशस्तथा निर्देशः' इति न्यायानाम्नः प्रकृतभेदानाह (पारमा०) अथवाऽपि विनवतिर्भेदाः / अथवा व्युत्तरशतं नाम्नः प्रकृतीनां भवति / सर्वानपि द्विचत्वारिंशत्सप्तषष्टित्रिनवतिव्युत्तरशतलक्षणान् यथाक्रमं भणामः, भेदानिति योज्यम् / इति गाथार्थः // 70 // तत्र द्विचत्वारिंशतमाह--- पढमा बायालीसा, गइजाइसरीरअंगुवंगे य। बंधणसंघायणसंघयणसंठाणनामं च // 71 // तह वण्णगंधरसफासनामअगुरुलहुगं च बोद्धव्वं / उबघायपराधायाणुपुब्बिउस्सासनामं च // 72 // आयावुजोयविहायगई तसथावराभिहाणं च / बायर सुहुमं पजत्तापजत्तं च नायब्वं // 73 // पत्तेयं माहारण,थिरमथिर सुभासुभं च नायव्वं / 'सूभगदूभगनामं, सूसर तह दूसरं चेव // 74 / / आइज्जमणाइज्ज, जसकित्तीनाममजसकित्ती य / निम्माणं तित्थयरं, भेयाणवि हुंति में भेया॥७५ // (पू०) व्याख्या-'प्रथमा' आद्या उद्देशापेक्षया द्विचत्वारिंशदवगन्तव्याः, काः 1 इत्याहगत्यादिकाः / गम्यतेऽस्यामिति गतिर्गमनं वा, गतिर्नरकादिका, जातिपक्षसमाश्रयणात्सर्वत्रैकत्वं द्रष्टव्यम् , यस्योदये नारकतिर्यङ्नरामरलक्षणा गतिर्भवति जीवस्य तद्गतिनाम उच्यते 1 / जायते जन्यते वा जातिरेकेन्द्रियादिका, यदुदये एकेन्द्रियादिकत्वं भवति जीवस्य तदेकेन्द्रिय(यादिजाति) नाम भवति ज्ञातव्यम् 2 / शीर्यत इति शरीरमौदारिकादि, यस्य कर्मण उदये औदारिकादिशरीरं संपद्यते देहिनां तच्छरीर नामावबोद्धव्यं ज्ञातव्यमिति सर्वत्र क्रिया 3 / अङ्गानि शिरःप्रभृतीनि, उपाङ्गान्यगुल्यादीनि, यस्य कर्मण उदये सर्वाण्येवाङ्गोपाङ्गानि निष्पधन्ते तदङ्गोपाङ्गनाम च ज्ञातव्यम् 4 / बध्यत इति बन्धनमौदारिकबन्ध नादि, तद्येन कर्मणा क्रियते तदौदारिक(कादि)बन्धनं नाम भवति ज्ञातव्यमिति क्रियाध्याहारः क्रियाऽभावे 5 / संघा 1 "सुहासुह" इत्यपि पाठः 2 “सूहगदूहग०" इत्यपि पाठः / 3 नाम च बो० जे०। 4 ०नादिना येन कर्मणा जे / Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 ] कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे त्यते येन तत्संघातननाम, यथा कञ्चुके पृथग्भृतानि खण्डानि संघात्यन्ते सीवकेन, तथा शरीरऽपि येने कर्मणा बाहुकलाचीप्रभृतीनां 'संघातनसंयोगः क्रियते तत्संघातननाम 6 / संहननं शरीरसामर्थ्यलक्षणम् , यदुदये जीवस्य वज्रर्षभनाराचा दिर्भवति तत्संहनननाम 7 / संस्थीयते येन कर्मणाऽऽकारविशेषेण तत्संस्थाननाम, यस्य कर्मण उदये समचतुरस्रादिकं संस्थानं भवति जीवस्य, तच्च ज्ञातव्यम् 8 / इति गाथार्थः // 71 // तथाशब्दः समुच्चयार्थः / वर्णनं वर्णो 'वरणाद्वा (?) वर्णः शुक्लादिः, यदुदये शुक्लपीतरक्तनीलकृष्णवर्णः प्राणी भवति तद्वर्णनाम 9 / गन्ध्यत इति गन्धो दुर्गन्धादिः, यदुदये सुगन्धदुर्गन्धगन्धः प्राणी भवति तद्गन्धनाम 10 / रस्यत इति रसः, यस्य कर्मण उदये तिक्तकटुकषायाम्लमधुररससंयुक्तं शरीरं भवति प्राणिनां तद्रसनाम 11 / स्पृश्यत इति स्पर्शः, स चाष्टधा "सुकुमारादिः, स यदुदयात्प्राणिनो भवति . . तत्स्पर्शनामावगन्तव्यमिति 12 / अगुरुलघु च बोद्धव्यम् , यस्य कर्मण उदये न गुरु नापि लघु शरीरं जीवस्य तदगुरुलघुनाम 'षोडव्यं' ज्ञातव्यम् 13 / उपहन्यते येन कर्मण। तदुपधातनाम, यदुदये जीवस्य स्वावयवेन परेण वा व्याघातो भवति 14 / परानाहन्ति पराघातनाम यस्य कर्मण उदये आत्मावयवैः परं हन्ति 15 / आनुपूर्वी नरकादिका, यदुदये जीवो नरकादौ गच्छति, नरकादिनयने कारणं रज ववृषभस्य 16 / उच्छ्वसनमुच्छ्वासस्तस्य नाम उछ्यासनाम, यदुदयाजीवस्योच्छ्वासनिःश्वासी भवतस्तच ज्ञातव्यम् 17 / इति गाथाः // 72 // आतपनमातपस्तल्लक्षणं नामातपनाम, यथाऽऽदित्य आतपनामोदये तपति, एवमन्येऽपि प्राणिन आतपनामकर्मोदये तपन्ति, तेनातपनामोच्यते 18 / उद्योतनमुद्योतस्तदुपलक्षितं नाम उद्द्योतनाम, यथा स्वद्योतक उद्योतयति उद्योतनामोदये, एवमन्योऽपि प्राणी यस्य कर्मण उदये. उद्योतयति तत्कर्म तस्योद्योतनामोच्यते 19 "विहायसा गम्यते यया 'प्राणिभिः सा विहायोगतिः, यदुदये प्राणी आकाशगामी भवति तद्विहायोगतिनाम 20 / न केवलमातपोद्योते अवगन्तव्ये, विहायोगति श्वावबोद्धव्या / त्रसस्थावराभिधानं च, त्रस्यत इति त्रसः त्रस इत्यभिधानमाह्वानं यस्य नाम्नः कर्मणस्तत्त्रसाभिधानं, यदुदये जीवस्त्रसो भवति 21 स्थावर इत्यभिधानं नाम यस्य तत्स्थावराभिधानं, यदुदये जीवस्य स्थावरत्वं भवति 22 / बादरः स्थूलस्तल्लक्षणं नाम बादरनाम, यदुदये जीवो बादरपरिणामपरिणतो भवति 23 / सूक्ष्मो लघुरणुमात्रो यस्य कर्मण उदये जीवः सूक्ष्मपरिणामपरिणतो भवति तत्सूक्ष्मनाम 24 / पर्याप्तं चापर्याप्तं च पर्याप्तापर्याप्तं तल्लक्षणं नाम, यदुदये जीवः स्वपर्याप्तिभिः पर्याप्तः परिपूर्णो भवति तत्पर्याप्तनाम 25 / अप 1 संघातनं सं० जे० / २०दि भवति जे / 3 वर्णनाद्वा जे०। 4 सुकुमालादिः : 5 'आकाशेन जे० टिप्पणी / 6 श्वावद्रष्टव्या जे० / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम्नो द्विचत्वारिंशत्प्रकृतिभेदाः [43 प्तिनाम किम् ? यस्योदये स्वपर्याप्तिभिरपरिपूर्णो भवति, न्यून एव कालं करोति, तदपर्याप्तनाम च ज्ञातव्यमवबोद्धव्यम् 26 / इति गाथार्थः / / 73|| एकं एक प्रति प्रत्येकं, यस्योदये प्रत्येकजीवो भवति पृथग्जीवो भवति तत्प्रत्येकनाम, यथा वृक्षादीनां पत्रपुष्पादि 27 / साधारणं तुल्यं नाम साधारणनाम, 'यदवाप्तावनेकजीवानामेकं शरीरं यथाऽल्लक्षादेः शरीरम् 38 / स्थिरमचलं, स्थिरं च तन्नाम च स्थिरनाम, यस्योदये जीवानां दन्तादयोऽवयवाः स्थिरा भवन्ति तत्स्थिरनाम 26 / न स्थिरमस्थिरं, यदुदये जीवस्यास्थिरा ग्रीवादयो भवन्ति तदस्थिरनाम 30 / शुभं प्रशस्तं तल्लक्षणं नाम शुभनाम, यदुदये जीवस्य शुभाः शिरःप्रभृतयोऽवयवास्तच्छुभनाम 31 / अशुभमप्रशस्तं, तदुदये जीवस्य पादादयोऽशुभावयवा भवन्तीति कृत्वाऽशुभनामोच्यते, 'ज्ञातव्य' 'मिदं बोद्धव्यमिति 32 सुभगमिति सुभगस्य भावः सौभाग्यं, 'यस्योदये सौभाग्ययुक्तो भवति सर्वजनमनोनयनानन्दकारी जीवस्तत्सौभाग्यनाम 33 / 'दुभगमिति' दुर्भगस्य भावो दौर्भाग्यं. यस्योदये जीवो दौभाग्ययुक्तो भवति सर्वजनमनोनयनोद्व गकारी तदुर्भगनाम 34 / "मूसरं इति शोभनः स्वरो यस्य तत्सुस्वरनाम. यदुदयाजीवस्य मधुरो गम्भीरः श्रव्यो ध्वनिर्भवति 35 / 'दूसरं' इति दुष्टः स्वरो धनिये स्मात्तदःस्वरनाम, यदुदयाजीवः काकस्वरः श्रुत्यसुखदो भवति तच्च ज्ञातव्यम् 36 / इति गाथार्थः / / 74 // आदेयनाम किम् ? यदुदयाजीवः सर्वस्यादेयो भवति ग्राह्यवाक्यो भवति तदादेयनाम 37 / न आदेयमनादेयं, यदुदया जीवोऽनादेयो भवति अग्राह्यवाक्यो भवति, सर्वोऽप्यवां विधत्ते तदनादेयनाम 38 / यशश्च कीर्तिश्च यशःकीती, तल्लक्षणं नाम यशःकीर्तिनाम, यशसा उपलक्षिता वा कीर्तिर्यशःकीर्तिः / 'दानपुण्यफला कोर्तिः,' 'पराक्रमकृत यशः' इतिवचनात् , यदुदयाद्यशःकीर्तिर्भवति जीवस्य तद्यशःकीर्त्तिनाम 39 / अयशःप्रधाना कीर्तिः, यदुदयाजीवस्य लोका अवर्णवादादीन 'गृह्णन्ति तदयशःकीर्त्तिनाम 40 / 'निम्माण' इति निर्माणनाम, यदुदयाजीवः स्वाङ्गावयवानां नियमनं विधत्ते नासिकादयो नासिकादिस्थान एव, नान्यत्र, इत्येवंभूतव्यवस्थानिवन्धनं नाम तनिर्माणनाम सूत्रधारसदृशम् 41 / तीर्थकरणशीलं तीर्थकरं यदुदये सुरासुरनरेन्द्रनिवहैः पूज्यः सर्वविद्भवति, तीर्थ च भावरूपं यदुदयात्प्रवर्तयति जीवस्तत्तीर्थकरनाम 42 / एते प्रथमा द्विचत्वारिंशतो 'भेदाः' विशेषाः, 'भेदानामपि' विशेषाणामपि भवन्ति' जायन्ते 'इमें वक्ष्यमाणलक्षणा भेदाः इति गाथार्थः // 7 // ___ उक्ता द्विचत्वारिंशद् , इदानीं सप्तषष्टिमाह * (पारमा०) प्रथमा द्विचत्वारिंशदियं भवतीति गम्यते / गति 1 जाति 2 शरीर 3 अङ्गोपाङ्गनि 4 च / बन्धन 5 सङ्घातन 6 संहनन 7 संस्थाननाम 8 चेति / नामशब्दस्य गत्या यदा व्याप्तौ जे० / 2 "मवबोद्धव्य० जे०। 3 यदुदयात् सौ० जे० / 4 सूसरमिति शो जे० / 5 यस्य तद्द 0 जे०। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 ) कर्मविपाकाख्ये प्रथामे कर्मग्रन्थे दिभिः प्रत्येकं योगः // 7 // तथा वर्ण 9 गन्ध 10 रस 11 स्पर्शनाम 12, इत्यत्रापि वर्णादिभिर्योज्यम् / अगुरुलघुकं च बोद्धव्यम् 13 / उपघात 14 पराघात 15 आनुपूर्वी 16 उच्छ्वासनाम 17 च, इत्यगुरुलध्वादिभिर्योज्यं. आतपादिभिश्च // 7 // आतप 18 उद्योत 19 विहायोगतयः 20 वसं 21 स्थावरा २२ऽभिधानं च / वसं च स्थावरं च त्रसस्थावरम् . इत्यादी द्वन्द्वनिर्देशः / त्रसस्थावरादीनां यश-कीर्त्ययश कीर्तिपर्यन्तानां सेतरत्वं ज्ञापयति / ततश्चैते त्रसादयः सेतरत्वात्त्रसादिविंशतिरिति संज्ञा लभन्ते / इति तयोरभिधानं नाम त्रसनाम स्थावरनाम च / बादर 23 सूक्ष्म 24 पर्याप्ता २५ऽपर्याप्त 26 च ज्ञातव्यम् // 73 // 'पत्तेयं साहरणत्ति' प्रत्येक 27 साधारण 28 / 'थिरमथिरत्ति' स्थिरा २९ऽस्थिरं 30 शुभा ३१ऽशुभं च ज्ञातव्यम् / सुभग 33 दुर्भगनाम 34 इति पूर्ववद्वादरादिभियोज्यम् / 'सूसर. तह दूसरंति' तथा सुस्वरं 35 दुःस्वरं 36 चैव ॥७४|'आइजमणाइज्जति' आदेया 37 ऽनादेयं 38 "जसकित्तीनाममजसकीत्ती यत्ति" यश कीर्तिनामा ३९ऽयशःकीर्तिनाम 40 चेति सुस्वरादिभिर्निर्माणादिभिर्योज्यम् / अनुस्वारलोपागमव्यत्ययादिकं प्राकृतत्वादवसेयम् / निर्माणं 41 तीर्थकरम् 42 / इति द्विचत्वारिंशद्भदाः / उत्तरभेदप्रस्तावनामाह-भेदानामपि द्विचत्वारिंशदूपाणां भवन्तीमे भेदाः सप्तषष्टित्रिनवतिव्युत्तरशतलक्षणा इति गाथापञ्चकार्थः॥७॥ तत्र सप्तपष्टिमाह___ गइ होइ 'चउन्भेया, जाईवि य पंचहा मुणेयवा। पंच य हुति सरीरा, अंगोवंगाई 'तिन्नेव // 76 // (पू०) व्याख्या गतिः ‘भवति' जायते 'चतुर्भेदा' चतुष्प्रकारा नारक 1 तिर्यङ् 2 नरा ३ऽमर 4 लक्षणा / जातिरपि च पञ्चधा 'मन्तव्या' ज्ञातव्या एकेन्द्रिय 1 द्वि 2 त्रि 3 चतु 4 प्पञ्चेन्द्रिय 5 रूपा / न केवलमेकविधा जातिः पञ्चविधाऽपि इत्यपिशब्दार्थः / 'च!' पूर्वया गत्या सह समुच्चयार्थः / पञ्च च भवन्ति शरीराणि औदारिक 1 वैक्रिया २ऽऽहारक 3 तैजस 4 कार्मण 5 लक्षणानि भवन्ति' जायन्ते / अङ्गोपाङ्गानि त्रीण्येव भवन्ति औदारिक 1 वैक्रिया २ऽऽहारका ३ऽङ्गोपाङ्गरूपाणि, तैजसकार्मणयोरङ्गोपाङ्गाभावादित्यवधारणम् / इति गाथार्थः // 76 // उक्ता गतिजातिशरीराङ्गोपोङ्ग विभागाः, साम्प्रतं संहननादिभेदानाह (पारमा०) गतिर्भवति चतुर्भेदा 4 नरकगत्यादिभेदात् / जातिरपि च पञ्चधा 9 एकेन्द्रियजात्यादिभेदाज् ज्ञातव्या / पञ्च च भवन्ति शरीराणि 14 औदारिकादिभेदात् / अङ्गोपाङ्गानि त्रीण्येव 17, न तु पश्चाप्याद्यशरीरत्रय एव तद्भावात् // 76 // १"चउपयारा" इत्यपि पाठः 2 “तिण्णेव” इत्यपि पाठ / 3 भेदाः साम्प्रतं संघयणादिभे० जे०। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम्नः सप्तषष्टिप्रकृतिभेदाः छस्संघयणा जाणसु. संठाणावि य हवंति छच्चेव / वण्णाईण चउक, अगुरुलहुवघायपरघायं 77 // (पू०) व्याख्या-षट् संहननानि 'जानीहि विद्धि वर्षभनाराच 1 ऋषभनाराच 2 नाराचा ३ऽर्द्धनाराच 4 कीलिका 5 छेवट्ठ (सेवात) 6 रूपाणि / संस्थानान्यपि च तथैव षडेव यथा संहननानि,-समचतुरस्र 1 न्यग्रोधमण्डल२ सादि 3 वामन 4 कुब्ज 5 हुण्ड 6 रूपाणि / वर्ण आदियषां ते वोदयः तेषां, चतुष्कं वर्ण 1 गन्ध 2 रस 3 स्पर्श 4 लक्षणम् / "अगुरु च लघु च अगुरुलघुनाम भवति ज्ञातव्यम् / उपघातश्च पराघातचोपघातपराघातं भवति ज्ञानव्यम् / इति गाथार्थः // 77 // उक्ताः संहननादयः आनुपूर्व्यादीनाह (पारमा०) पट संहननानि 23 वज्रर्षभनाराचादीनि जानीहि / संस्थानान्यपि च 29 समचतुरस्रादीनि भवन्ति पडेव वर्णादीनां वर्णगन्धरसस्पर्शानां चतुष्कं 33, अवान्तरभेदाविवक्षणात् / अगुरुलघु 34 उपधातं 35 परघातम् 36 // 77 // अणुपुब्बी चउभेया, ऊसासं आयवं च उज्जोयं / सुहअसुहविहायगई, तसाइवीसं च निम्माणं // 7 // (पू०) व्याख्या-'अणुपुवाति' आनुपूर्वी 'चतुर्भेदा' चतुष्प्रकारा नरकानुपूर्वी 1 तिर्यगानुपूर्वी 2 मनुष्यानुपूर्वी 3 देवानुपूर्वी 4 लक्षणा 'उच्छ्वासं' उच्छ्वासनाम, 'आतपंच' आतपनाम, 'उद्योत' उद्द्योतनाम, शुभाशुभविहायोगती, शुभा प्रशस्ता, अशुभा अप्रशस्ता / वसनाम 'आदौ येषां तत्त्रसादिविंशतिः, निर्माणमिति / आनुपूर्वीत्याकारो ह्रस्वः सूत्रे गाथाभङ्गभयात् प्राकृतत्वाच्च / इति गाथार्थः // 7 // उक्ता आनुपूर्व्यादयः, तीर्थकरयुक्तां सप्तषष्टियोजनामाह (पारमा०) आनुपूर्वी 40 चतुर्भेदा, नरकानुपूर्व्यादिभेदात् / उच्छ्वासं 41 आतपं 42 उद्योतं 43 शुभाशुभविहायोगतिः 45 त्रसादिविंशतिश्च प्राङ् निरूपिता 65 निर्माणम् 66 // 78 // “तित्थयरेण य सहिया, सत्तट्ठी एव हुति पयडीओ। सम्मामीसेहि विणा, तेवन्ना सेसकम्माणं // 79 // __ (पू०) व्याख्या-तीर्थकरणशीलं तीर्थकरं, तल्लक्षणं नाम तीर्थकरनाम, तेन सहिता सप्तभिरधिका षष्टिः सप्तपष्टिः 67 / एवमुक्तनीत्या, एवेति लुप्तानुस्वारं पदं प्राकृतत्वात् / 1 व्याख्याकारेण तु "तहेव” इति पाठानुसारेण व्याख्या कृता॥२-३ संघयनानि जे०।४ ल शक्ति वा (1) जे०। 5 अगुरुनाम भवति ज्ञा० (?) जे० / 6 आदौ यस्य तत् त्रसादिविंशतितमं निर्मा० जे० / 7 तित्थयरेणं सहिया" इत्यपि पाठः। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 ] कर्मविगकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे "भवन्ति' जायन्ते 'प्रकृतयः' उत्तरविशेषाः 'सम्यग्मिश्राभ्यां विना' सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वाभ्यां विना त्रिभिरधिका पञ्चाशत्रिपञ्चाशत् 'शेषकर्मणां' ज्ञानावरणाद्यन्तरायपर्यन्तानाम् / इति गाथार्थः // 79 // उक्ताः सप्तषष्टिभेदाः, इदानीमेककालं जीवस्य प्रकृतिबन्धसंख्यामाह (पारमा०) तीर्थकरेण च सहिता 67 सप्तषष्टिः, एवं भवन्ति प्रकृतयः / सम्प्रति सप्तष प्टेर्वन्धोपयोगित्वं प्रतिपिपादयिषुर्वन्धप्रायोग्याः शेषकर्मप्रकृतीरपि प्रसङ्गत आह-सम्यग्मिश्राभ्यां विना त्रिपश्चाशच्छेषकर्मणाम् / तथाहि-ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणनवकसंहतौ चतुर्दश वेदनीयद्विकसंकलने षोडश / सम्यक्त्वमिश्रे बन्धे नायात इति तद्वर्जितमोहनीयषड्विंशतिक्षेपे द्विचत्वारिंशत् / आयुषश्चतुष्टयमीलने पट्चत्वारिंशत् / गोत्रद्वयसंहतावष्टचत्वारिंशत् / अन्तरायपश्चक-.. युक्तौ यथोक्ता त्रिपश्चाशत् / इति सप्तषष्टिप्रतिपादकगाथाचतुष्टयस्यार्थः // 79 // एतन्मीलने यद्भवति तदाह___ एवं विसुत्तरसयं, 'बंधे पयडीण होइ नायव्वं / बंधणसंघाया वि य, सरीरगहणेण इह गहिया // 8 // (पू०) व्याख्या 'एवं' उक्तनीत्या 'विंशत्युत्तरं शतं' विंशतिरुत्तरा यस्मिन् तविंशत्युत्तरं तश्च तत् शतं च विंशत्युत्तरशतं बन्धनरूपाः प्रकृतयो बन्धनप्रकृतयः तासां भवति ज्ञातव्यम् एकस्य जीवस्य सामान्ये नैकदा यद्युत्कृष्टो बन्धो भवति तदा विंशत्युत्तरशतिको भवति नाधिको बन्धः / ननु सप्तषष्टिभेदमध्ये बन्धनसंघातभेदौ नोक्तौ तयोर्ग्रहणम् ?, इत्याह-बन्धनसंघातावपि च शरीरग्रहणेन 'इह' पक्षान्तरगृहीतौ तदन्तर्गतत्वात्तयोः / इति गाथार्थः // 8 // उक्ता सप्तषष्टिः, इदानीं त्रिनवतिमाह (पारमा०) एवं सप्तषष्टेखिपश्चाशतश्च मीलने विंशत्युत्तरं शतं प्रकृतीनां बन्धे ज्ञातव्यं भवति / ननु सप्तषष्टिभेदमध्ये बन्धनसंघातौ नोक्तौ तत्कथं तयोर्ग्रहणम् ?, इत्याह-बन्धनसंघातावपि शरीरग्रहणेनेह सप्तषष्टिपक्षे गृहीतौ / औदारिकशरीरनामग्रहणेन औदारिकबन्धनसंघातनाम्नी, वैक्रियशरीरनामग्रहणेन वैक्रियबन्धनसंघातनाम्नी, इत्यादि / इति गाथार्थः // 8 // उक्तं प्रसङ्गागतं बन्धोपयोगि विंशत्युत्तरं प्रकृतिशतं, सम्प्रति त्रिनवतिमाह बंधणभेया पंच उ, संघाया वि य हवंति पंचेव / पण वण्णा दो गंधा, पंच रसा अट्ट फासा य // 81 // 1 व्याख्याकारेण तु "बन्धणपयडीण" इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् / Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' बन्धयोग्यसर्वप्रकृतिसङ्ख्या तथा नाम्नस्त्रिनतिरव्युत्तरशतश्च प्रकृतिभेदाः [47 ___ (पू०) व्याख्या-बन्धनं पूर्वोक्तं तस्य भेदा विशेषाः पश्च, 'तुः' पुनः, संधाता अपि च 'भवन्ति' जायन्ते पञ्चैवोक्तलक्षणाः / पञ्च वर्णाः प्रतीताः / द्वौ गन्धो सुगन्धदुर्गन्धौ / पञ्च ग्या व्याख्यातार्थाः / अष्टौ स्पर्शा वक्ष्यमाणाः / इति गाथार्थः // 8 // सर्वसंख्याप्रक्षेपार्थमाह (पारमा०) औदारिकादिभेदाद्वन्धनभेदाः पञ्च / संघाता अपि पञ्चैव भवन्ति, औदारिकादिभेदादेवेत्येताभ्यां दश / पश्च वर्णाः, कृष्णादिभेदात् / द्वौ गन्धौ सुरभिदुरभिश्च / पञ्च रसास्तिक्ताद्याः / अष्ट स्पर्शा गुर्वाद्याः / एवमेता विंशतिः प्रकृतयः / एतासां च मध्याच्चतुष्कं. वर्णगन्धरसस्पर्शानां चतुर्णा सप्तपष्टि पक्षे सामान्यतो गृहीतानामत्र विशेषोपादानादपगतानां. स्थानपूरणे गतमिति शेषाः षोडश // 1 // दस सोलस छब्बीसा. एया मेलेहिं सत्तसट्ठीए। तेणउई होइ तओ, बंधणभेया उ पन्नरस // 2 // (पू०) व्याख्या-दश बन्धनसंघातभेदाः, षोडश वर्णगन्धरसस्पर्शाः, सर्वेऽपि मिलिताः षडपिं. शतिः' षड्भिरधिका विंशतिः षडूविंशतिः / ननु कथमेते वर्णादयः षोडश भवन्ति गण्यमाना विंशतिः 1 इति उच्यते-सप्तषष्टिभेदेषु 'वर्णादीनां चतुष्क' अनेनावयवेन चत्वारो भेदाः प्रतिपादिताः, तेष्वपनीतेषु वर्णगन्धरसस्पर्शविंशतिभेदानां मध्यात्षोडश एव भवन्ति, अत एतान् 'मीलय' एकीकुरु सप्तषष्टयां, त्रिभिरधिका नवतिस्त्रिनवतिः 'भवति' जायते / तत उक्ता त्रिनवतिः, बन्धभेदास्तु पुनः पञ्चदश वक्ष्यमाणलक्षणाः / इति गाथार्थः॥२॥ ग्रं० 535 / / .. व्युत्तरशतमाह (पारमा०) तथा च दश पूर्वाद्धोक्ताः, एताश्च षोडश, उभयमीलने च षड्विंशतिप्रकृतयः, एता मीलय सप्तषष्टी, ततस्त्रिनवतिर्भवति / इति पादोनगाथाद्वयार्थः / सम्प्रति व्युत्तरशतमाहबन्धनभेदाः पुनः पञ्चदश परस्परसंयोगाद्भवति / / 2 / / ... सव्वेहि वि छूढेहिं, तिगअहिगसयं तु होइ नामस्स। एएसिं तु विवागं, वृच्छामि अहाणुपुवीए // 83 // ___(पू०) व्याख्या-सर्वैरपि क्षिप्तैः सप्तपष्टिमध्ये षड्विंशतिभित्रिनवतिमध्ये बन्धनभेदैदशभिः प्रवेशितैत्रिकेनाधिकं शतं त्रिकाधिकशतं, 'न न्यूनाधिकमित्यर्थः, नाम्नः कर्मणः / ननु बन्धनभेदाः पञ्चदश, तत्प्रतिक्षेपे त्रिनवतौ कथं व्युत्तरशतम् 1 इति, उच्यते-बन्धनभेदा दशैव, .1 न तूनाधिकं जे / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे पश्चानां सप्तपष्टिमध्ये प्रक्षेपात् / एतेषां तु पुनः सर्वेषां 'चतुर्विध्योक्तानां 'विपाक' अनुभवरूपं "वुच्छामि' वक्ष्यामि, 'यथानुपूर्ताः' यथापरिपाट्या / इति गाथार्थः / / 83|| नारकादिगतिसंख्या "यतश्चैवं भवति तदाह (पारमा०) सर्वैरपि क्षिप्तैर्बन्धनभेदेरिति, अयं भावः-एषां मध्यादौदारिकादिबन्धनपञ्चकस्य त्रिनवतिपक्षोपात्तस्य शेषैर्दशभिरपि क्षिप्तस्व्युत्तरं शतं भवति नाम्नः प्रकृतीनामिति गम्यम्। विपाकभणनं प्रस्तौति- एतेषां' द्वित्वारिंशत्सप्तपष्टिविनवतित्र्युत्तरशतानां पुनर्विपाकं वक्ष्ये 'यथानुपूा क्रमानतिक्रमेण / इति सपादगाथार्थः / / 83|| प्रतिज्ञातमाह नारयतिरियनरामर-गइभेया चउविहा गई होइ।... एमा खलु ओदइए. होइ हु भावे जओ आह / / 84 // (पू०) व्याख्या-नारकतिर्यङ्नरामरगतिभेदाद्विशेषाच्चतुर्विधा गतिर्भवति / 'एषा' प्रागुक्ता 'खलु' निश्चयेन, कस्मिन भावे भवति ?, इति आह-औदायिके भावे भवति, न क्षायिकादौ / हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् / यत आह सूत्रकार एव / इति गाथार्थः / / 84|| नरकगतिस्वरूपमाह (पारमा०) नारकतिर्यनरामरगतिभेदाच्चतुर्विधा गम्यते प्राप्यते तथाविधकर्मसचिरैरिति गतिर्भवति / एषा 'खलु' निश्चितमौदयिके भावे भवति / यत आहेतिपदमुदारोक्या कर्तृ निर्देशमन्तरेणोपात्तं यत्र कुत्रचिद्विश्रान्त्यभावात्तीर्थकृतमाक्षिपति / इति गाथार्थः // 84 // किमाह ? इति चेदुच्यते जीए उदएण जीवो, नेरइओ होइ नरयपुढवीए / सा भणिया नरयगई, सेसगईओ वि एमेव // 65 // . (पू०) व्याख्या-'यस्याः' नरकगतेः 'उदयेन' प्रादुर्भावेन 'जोवः'प्राणी नारकिको ‘भवति' संपद्यते, क्व ? 'नरक पृथ्व्यां ' प्रतीतायाम् / सा 'मणिता' प्रतिपादिता नरकगतिः शेषगतयोऽपि' तिर्यङ्नरामरलक्षणा अपि 'एवमेव' उक्तन्यायेन / इति गाथार्थः / / 8 / / उक्ता गतिः, एकेन्द्रियादिजातिमाह-- (पारमा०) यस्या गतेरुदयेन जीवो नैरयिको भवति नरकपृथिव्यां, सा भणिता नरकगतिः शेषगतयोऽप्येवमेवेति / अयमाशयः-यस्या उदयेन तिर्यङ् भवति सा तिर्यग्गतिः / 1 चानुपूर्योक्तानां वि• जे० 2 वोच्छामि जे० // 3 यतश्चेयं म० जे० / 4 "पृथिव्यां० जे० / Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 ] गति-जातिस्वरूपफलादिवर्णनम् यदुदयान्मनुष्यः सा मनुष्यगतिः / यदुदयाच्च देवः सा देवगतिरिति / ननु भवद्भिरित्युक्तं यदुताह तीर्थकुन् , इदं तु सूत्रकृता स्वयमेवोक्तमिति, नैवम् , तस्यायमाशयः-सर्वोऽपि जिनागमोऽर्थतो जिनप्रणीतः, ततस्तदागमोद्भुतत्वादिदमपि तदुक्तमेवेत्यदोषः / इति गाथार्थः / / 8 / / जातिनामाह... इगदुगतिगचउरिंदिय-जाई पंचिंदियाण पंच मिया / . खयउवसमिए भावे, हुति हु एया जओ आह // 86 // (पू०) व्याख्या-एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातिः / जातिशब्दस्य प्रत्येक संबन्धः / चतस्रो जातयः / पञ्चेन्द्रियाणां पञ्चमिका जातिरुक्तलक्षणा / पञ्चप्रकाराऽपीयं कस्मिन भावे भवति?, इत्याह-शायोपशमिकभावे। क्षयश्च केषांचित्कर्मणाम् , उपशमश्च कर्मणामेव क्षयोपशमः, तेन निवृत्तः ठक् (नेन निवृत्तं पा० 5-1.71) क्षायोपशमिकः, आदिवृद्धीकादेशी, भावशब्दस्य विशेषणम् / क्षायोपशमिक एव भावे "भवन्ति' जायन्ते 'भेदाः' विशेषाः / . हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् / यत आह सूत्रकारः / इति गाथार्थः // 86 // (पारमा०) एकेन्द्रियादीनामेकेन्द्रियत्वादिसमानपरिणतिलक्षणमेकेन्द्रियादिशब्दव्यपदेशभाक् यत् सामान्यं सा जातिः एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिः, एकेन्द्रियजातिः द्वीन्द्रियजातिः, श्रीन्द्रियजातिः, चतुरिन्द्रयजातिः / जातिरित्यस्यात्रापि योगात्पञ्चेन्द्रियाणां जातिः पञ्चमिका / क्षायोपशमिके भावे भवन्त्येताः / यत आह-क्षायोपशमिकानोन्द्रियाणि तन्निमिता च जातिः इति गाथार्थः // 86 // ... एगिदिएसु जीवो, जस्सिह उदएण 'होइ कम्मस्स। सा एगिदियजाई, जाईओ एव सेसा उ // 7 // (पू०) व्याख्या-एकमिन्द्रियं स्पर्शनलक्षणं येषां ते एकेन्द्रियास्तेषु च, जीवतीति जीवो यस्य कर्मणाः "उदयेन" प्रादुर्भावेन 'याति' गच्छति एकेन्द्रियेषु सा 'एकेन्द्रियजातिः' एकेन्द्रियनाम तत् / "जातयः" द्वीन्द्रियादिजातयः एवेति लुप्तानुस्वारं पदं प्राकृतत्वात् / एवं शेषा अपि द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियलक्षणा यदुदयेन द्वीन्द्रियादिपूत्पद्यते सा द्वीन्द्रियादिजातिरुच्यते / इति गाथार्थः // 87 // उक्ता एकेन्द्रियादिजातिः, शरीराण्याह (पारमा०) 'एकेन्द्रियेषु' पृथिव्यादिषु 'जीव:' प्राणी 'यस्य' एकेन्द्रियव्यपदेशहेतोः कर्मण इहोदयेन भवति, सा एकेन्द्रियजातिः / जातय एवं शेषा अपि / ननु इह यस्य कर्मण - 1 विहा इत्यपि पाठः / 2 "भेया इति व्याख्याकारः।३ व्याख्याकारेण तु"जाइ" इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् / 4 व्याख्याकारेण तु "सेसावि” इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् / Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 / कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे उद्यादेकेन्द्रियो भवति सा एकेन्द्रियजातिरित्युक्तम् , पूर्व तु एकद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियजातयः क्षायोपशमिके भावे भवन्तीति तत्कथमेतत् ? इति, उच्यते-कारणकारणस्यापि कारणत्वविवक्षया क्षायोपशमिकभावे जातीनां भणनम् / तथाहि-क्षायोपशमिकभावेनेन्द्रियं जन्यते, तन्निमित्ता च व्यपदेशहेतुरौदयिकी जातिरिति, तर्हि जातिनाम किमर्थम् , एकेन्द्रियाद्यावरणक्षयोपशमे एकेन्द्रियादिव्यपदेशं प्राप्स्यति ? इति सत्यम् , एकेन्द्रियावरणक्षयोपशमे एकेन्द्रयोऽयमिति व्यपदेशः स्यात् , परं नियमो न स्यात् , यदुत स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशम एवैकेन्द्रियः / स्पर्शनरसनावरगक्षयोपशम एव द्वीन्द्रियः / स्पर्शनरसनघ्राणावरणक्षयोपशम एव त्रीन्द्रियः / स्पर्शनरसनघाणचक्षुरावरणक्षयोपशम एव चतुरिन्द्रियः / स्पर्शनरसघ्राणचक्षुःश्रोत्रावरणक्षयोपशमे तु पञ्चेन्द्रियोऽयम् / इति गाथार्थः // 87 // शरीराण्याह ओरालियवेउब्बिय-आहारगतेयकम्मए 'चेव / . एवं पंच सरीरा. तेसि विवागो इमो होइ // 8 // (पू०) व्याख्या-औदारिकं च वैक्रियं चाहारकं च तैजसं च कार्मणं चेति द्वन्द्वः, औदारिकबैंक्रियाहारकतैजसकार्मणानि च एवं' उक्तनीत्या पञ्चैव शरीराणि भवन्तीति शेषः / तेषां च' शरीराणां च / विपाक' अनुभवं 'इमं वक्ष्यमाणलक्षणं 'शृणत' आकर्णयत यूयम् / इति गाथार्थः // 8 // औदारिकस्वरूपमाह (पारमा०) औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणानि चैव / तत्रोदारं प्रधान, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरापेक्षया / ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्यापि अनन्तगुणहीनत्वात् / उदारमेवौदारिक, विनयादित्वादिकणि / विविधा क्रिया विक्रिया, तस्यां भवं वैक्रियम् / तथाहि-तदेकं भूत्वाऽनेक भवति / अणु भूत्वा महद्भवति / खचरं भूत्वा भूमिचरं भवति / अदृश्यं भूत्वा दृश्यं भवति / अनेकं भूत्वा एकम् , इत्यादि / आहियते निवर्त्यते चतुर्दशपूर्वविदा तीर्थकरऋद्धिस्फातिदर्शनादिकप्रयोजनोत्पत्तौ सत्यां विशिष्टलब्धिवशादित्याहारकम् , तच्च वैक्रियापेक्षयाऽत्यन्तशुभम् / तेजसा तेजःपुद्गलैनिवृत्तं तैजसं यदाहारपरिणमनस्य तेजोलेश्यानिर्गमनस्य च हेतुः / कर्मणो विकारः कार्मणम् / कर्मपरमाणव आत्मप्रदेशैः सह क्षीरनीरवदन्योऽन्यानुगताः सन्तः कार्मणशरीरम् / इदं च जन्तोर्गत्यन्तरसंक्रान्तौ साधकतमं करणम् / 'एवं' उक्तप्रकारेण पश्च शरीराणि, तेषां विपाक एव वक्ष्यमाणो भवति / इति गाथार्थः // 88 // "1 व्याख्याकारेण तु “चेवं / पंचेव सरीरा तेसिं च विवागं इमं सुणह" इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् / 2 विपाकः अनुभवः अयं वक्ष्यमाणलक्षणः शणुत जे०।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरा-ऽङ्गोपाङ्ग-स्वरूपफलादिवर्णनम् ओरालियं सरीरं. उदएणं होइ जस्स कम्मस्स / तं ओरालियनाम, सेससरीरा वि एमेव // 89 // (पू०) व्याख्या-औदारिकं शरीरं प्रतिपादितम्-'उदयेन' विपाकेन यस्य भवति कर्मणम्तदीदारिकशरीरनाम / 'शेषशरोराण्यपि' वैक्रियादिशरीराण्यप्येवमेव / यथौदारिकं शरीरमुदयेन यस्य कर्मणो भवति तदौदारिकनाम, तथा वैक्रियाशरीराद्यपि यस्य कर्मण उदयेन भवति तद्वैक्रियादिशरीरनाम / एवमेव शब्दार्थः / इति गाथार्थः / / 89 // उक्तानि शरीराणि, अङ्गोपाङ्गान्याह (पारमा०) औदारिकं शरीरं यस्य कर्मण उदयेन भवति तदौदारिकनाम / इदमुक्तं भवति-यदुदयवशादौदारिकशरीरप्रायोग्यान पुद्गलानादाय औदारिकशरीररूपतया परिणमय्य च जीवः स्वप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया संवन्धयति तदौदारिकनाम / शेषशरीराण्यप्येवमेवेति शेषशरीरनामस्वपीयं भावना कार्या / इति गाथार्थः / / 89 // अङ्गोपाङ्गनामाह अंगोवंगविभागो, 'उदएणं होइ जस्स कम्मस्स / तं अंगवंगनामं, तस्स विवागो इमो होइ // 10 // ___(पू०) व्याख्या-अङ्गोपाङ्गविभागो विशेषः 'उदयेन' विपाकेन यस्य भवति कर्मणस्तदङ्गोपाङ्गनामोच्यते / तस्य' अङ्गोपाङ्गनाम्नः 'विपाकः' अनुभवः 'अयं' (एषः) वक्ष्यमाणलक्षणों भवति / इति गाथार्थः // 10 // (पारमा०) अङ्गानि च उपाङ्गनि च अङ्गोपाङ्गानि, अङ्गोपाङ्गनि च अङ्गोपाङ्गानि च अङ्गोपाङ्गानि, 'स्यादावसंख्येयः' (सि० 3-1-119) इत्येकशेषः, तेषां विभागः पृथक्त्वं यस्य कर्मण उदयेन भवति तदङ्गोपाङ्गनाम, तस्य विपाक एष पृथक्त्वभवनलक्षण उक्तरूपो भवति / इति गाथार्थः / / 90 // अधुनाऽङ्गानि उपाङ्गानि अङ्गोपाङ्गानि च यान्युच्यन्ते तान्याह सीसमुरोयरपिट्ठी, दो बाहू ऊरुआ य अटुंगा। अंगुलिमाइ उवंगाई, अंगोवंगाई सेसाई // 11 // 1 "उदएणं जस्स होइ कम्मस्स" इत्यपि पाठः जे / Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ] कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे ___(पू०) व्याख्या-शिरो=मस्तकमुरो वक्षः, उदरं पोट्ट, पृष्टिः प्रतीता, द्वौ बाहू प्रतीतो. 'ऊरु च' ऊरू जर्छ, अष्टावङ्गानि / अङ्गुलिरादिर्येषां तान्यगुल्यादीन्युपाङ्गानि, अङ्गोपागानि, 'शेषाणि' उत्तव्यतिरिक्तानि / इति गाथार्थः / / 91 // . यथा येषामङ्गोपाङ्गानि भवन्ति येषां च न भवन्ति तत्प्रदर्शयन्नाह___ (पारमा०) शीर्ष उरः उदरं पष्ठिद्वौं बाहू ऊरके च, अष्टावङ्गानि, 'अगुल्यादीनि' अङ्गुलिभ्र जिह्वादीन्युपाङ्गानि / 'शेषाणि' तत्प्रत्यवयवभूतानि अङ्गुलिपर्व रेखादीनि अङ्गोपाङ्गानि / इति गाथार्थः // 91 // . सम्प्रति त्रैविध्यमाह आइल्लाणं तिण्ह, हुति सरीराण अंगुवंगाई। णो तेयगकम्माणं, बंधणनामं इमं होइ // 92 // . (पू०) व्याख्या-'आद्यानां' औदारिकवैक्रियाहारकाणां 'तिण्हं त्रयाणां 'भवन्ति' जायन्ते शरीराणामङ्गोपाङ्गानि / 'नौ' नैव तैजसकार्मणयोः, तत्कारणाभावात् / बन्धननाम पुनः ''इदं वक्ष्यमाणलक्षणं भवति / इति गाथार्थः / / 92 // . उक्तमङ्गोपाङ्गनाम, बन्धननाम प्राह (पारमा०) 'आद्यानां' औदारिकवैक्रियाहारकाणां त्रयाणां' शरीरणामङ्गोपाङ्गानि भवन्ति / इदमुक्तं भवति-अङ्गोपाङ्गनाम विधा, औदारिकाङ्गोपाङ्गनामवैक्रियाङ्गोपाङ्गनामआहारकाङ्गोपाङ्गनामभेदात् / तैजसकार्मणयोस्तु नाङ्गोपाङ्गनाम, जीवप्रदेशसंस्थानानुरोधित्वादिति / बन्धननाम प्रस्तौति-बन्धननाम 'इदं वक्ष्यमाणं पञ्चदशप्रकारं भवति / इति गाथार्थः / / 12 / / सम्प्रत्यौदारिकबन्धनचतुष्टयमाह ओरालियओरालिय, ओरालियतेयबंधणं बीयं / ' ओरालकम्मबंधण, तिण्हवि जोगे चउत्थं तु // 13 // (पू०)व्याख्या-औदारिकौदारिकबन्धनं प्रथमम् / 'औदारिकपुद्गलानामौदारिकपुद्गलैरेव संबन्धः प्रथमं बन्धनम् / औदारिकाणामेव पुद्गलानां तेजःपुद्गलैर्यः संबन्धो द्वितीयवन्धनमेतत् / औदारिकपुद्गलानामेव कार्मणपुद्गलैर्यत्संबन्धकरणं तत्ततीयम् , त्रयाणामपि 'योगे' संबन्धे चतुर्थ तु बन्धनं, औदारिकतैजसकार्मणपुद्गलानां पुन मीलने चतुर्थ बन्धनम् / इति गाथार्थः // 63 / / औदारिकादिबन्धनस्वरूपमाह (पारमा०) बध्यतेऽनेनेति बन्धनम् / औदारिकस्यौदारिकेन सह बन्धनं औदारिकौदारिकबन्धनम् , अर्थादाद्यम् / एवमौदारिकतैजसबन्धनं द्वितीयम् / औदारिककार्मणबन्धनमर्थात्तृतीयम् / त्रयाणामप्यौदारिकतैजसकार्मणानां योगे पुनश्चतुर्थम् // 93 // एतदेव व्याचष्टे 1 इमं जे / 2 औदारिकाणां पुद्ग० जे० / 3 मीर्लके जे० / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्गोपाङ्ग-बन्धन-स्वरूपफलादिवर्णनम् ओरालपुग्गला इह, बद्धा जीवेण जे उरालत्ते / अन्न 'उ बज्झमाणा, ओरालियपुग्गला जे 'य // 14 // (पू०)व्याख्या-उदाराश्च ते पुद्गलाश्च ते उदारपुद्गलाः 'इह' अस्मिल्लोके 'षडाः' गृहीता 'जीवेन' प्राणिना, 'ये' पुद्गलाः क ? 'उदारत्वे' उदारभावे / किमुक्तं भवति -यैः पुद्गलैरुत्तरकालमौदारिकं शरीरं निवर्तयति जीवः ते जीवेनात्मसात्कृता 'अन्ये च वध्यमानाः' वर्तमा. नकालभाविन एष्यत्कालभाविनश्चौदारिकपुद्गला 'ये तु' य एव बद्धा बध्यमानाश्च त एवौदारिकबन्धनकारणम् / इति गाथार्थः / / 94 // औदारिकपुद्गलसंबन्धेन बन्धनमाह (पारमा०) औदारिकपुद्गला इह संसारे जीवेन ये औदारिकत्वेन बद्धाः, तथाऽन्ये पुनर्वध्यमाना औदारिकपुद्गला ये च // 14 // तेसि जं संबंधं,'B अवरोप्पपुरग्गलाणमिह कुणइ। तं जउसरिसं जाणसु, ओरालियबंधणं पढमं // 15 // ___ (पू०) व्याख्या-'तेषां' "प्राग्बद्धबध्यमानपुद्गलानां 'यत्' कर्म 'संबन्ध' घटना 'परस्परं' अन्योऽन्यं 'पुद्गलानां' उक्तस्वरूपाणां 'इह' लोके 'करोति' निवर्तयति 'तत्' कर्म 'जतुसदृशं' लाक्षातुल्यम् / यथाहि-लाक्षया काहलादिषु दण्डिकाद्यवयवानां पृथग्भूतानां संबन्धः संयोगः क्रियते, एवमनेनापि कर्मणां पृथग्भूतानां बद्धबध्यमानपुद्गलानां संबन्धः संयोगः क्रियते इति लाक्षयोपमीयते / 'जानीहि विद्धि औदारिकबन्धनं 'प्रथम' आद्यम् / इति गाथार्थः // 9 // .. उक्तं प्रथमबन्धनम् , द्वितीयादीन्याह (पारमा) तेषां बद्धबध्यमानानां पुद्गलानां यत्कर्मान्योऽन्यं संबन्धं करोति तत् 'जतुसदृश' लाक्षातुल्यमौदारिकबन्धनं प्रथमं जानीहि / / 95|| शेषत्रयातिदेशमाह एवोरालियतेयग, ओरालियकम्मबंधणं तह य / ओरालतेयकम्मग-बंधणनामपि एमेव // 96 // (पू०) व्याख्या-'एवं' उक्तप्रकारेण, मकारस्य प्राकृतत्वाल्लोपः, यथौदारिक पुद्गलानां बद्धबध्यमानानां संयोजकं कर्म औदारिकबन्धनमुच्यते, तथौदारिकपुद्गलानां बद्धबध्यमानानां तैजसपुद्गलैर्यत्संबन्धकरणं तदौदारि'कतैजसबन्धनं द्वितीयम् / औदारिकपुद्गलानामेव बद्धबध्यमा .. १"य" इत्यपि पाटः। 2 “उ” इत्यपि पाठः। एतत्पाठद्वयानुसारेण व्याख्याकारेण व्याख्यातम् / 2 Bअवरूपर "इत्यपि पाठः।३ प्रागुक्तबध्यमान० जे०।४ पुद्गलबद्धबध्यमानसंयो० जे० / ५०क तेजोबन्धनं जे०। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे नाना कार्मणपुद्गलैः यः संबन्धः, तथा च ततृतीयम् / उदारतेजःकर्मपुद्गलानां बन्धनं संयोजन वन्धननाम एतदप्येवमेव, यथौदारिकपुद्गलानां द्विकसंयोगे तेजःप्रभृतिभिः संयोजक कमौंदारिकादिबन्धनं नाम, तथौदारिकतेजःकार्मणपुद्गलानां बद्धबध्यमानानामौदारिकतेजःकार्मणपुद्गलैर्यत्संयोजकं कर्म तद्भन्धनं नाम चतुर्थम् / इति गाथार्थः // 96 // उक्तान्यौदारिकादिबन्धनानि, साम्प्रतं वैक्रियबन्धनान्याह (पारमा०) एवं ये औदारिकपुद्गला बद्धाः, ये च तैजसपुद्गला बध्यमानाः, तेषां यत्कर्म संबन्धं विदधाति तदौदारिकतैजसनाम / एवमौदारिकपुद्गला बद्धाः कार्मणपुद्गलाश्च बध्यमानाः, तेषां संबन्धविधायकं यत्कर्म तदौदारिककार्मणनाम / एवमौदारिकपुद्गला बद्धाः, तैजसकार्मणपुद्गलाश्च बध्यमानाः, तेषां संबन्धकारकं कर्म औदारिकतैजसकार्मणनाम / इति गाथाचतुष्टयार्थः // 16 // वैक्रियबन्धनचतुष्टयमाह वेउब्धियवेउब्बिय, वेउब्वियतेयबंधणं बीयं / वेउब्विकम्मबंधण, तिण्हवि जोए चउत्थं तु // 9 // (पू.) व्याख्या-वे क्रियाणां पुद्गलानां वैक्रियैरेव संबन्धः प्रथमं बन्धनम् / वैक्रियपुद्गलानामेव तेजःपुद्गलैर्यत्संबन्धस्तद् द्वितीयं बन्धनम् / वैक्रियपुद्गलानामेव कार्मणपुंगललैर्यत्संबन्धक कर्म तत्तृतीयं बन्धनम् / त्रयाणामपि वैक्रियतेजःकार्मणपुद्गलानां 'योगे एव' संबन्धे एव चतुर्थम् / तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् / इति गाथार्थः // 97 // उक्तवैक्रियबन्धनान्येव व्यक्तीकुर्वन्नाह वेउविपुग्गला इह, बद्धा जीवेण जे विउव्वित्ते / अन्ने य बज्झमाणा, वेउब्बियपुग्गला जे उ // 98 // (पू०) व्याख्या-'क्रियपुद्गला' वैक्रियशरीरनिर्वर्तनप्रायोग्याः ‘इह' लोके 'पद्धाः' गृहीताः 'जीवेन' प्राणिना 'ये' पुद्गलाः 'विउव्वित्ते' वैक्रियभावे, अन्ये च 'बध्यमानाः' आगामिकालभाविनो वैक्रियपुद्गला ये तु इति गाथार्थः / / 9 / / वैक्रियपुद्गलबन्धनमभिधाय साम्प्रतं संबन्धद्वारेण बन्धनमाह तेसिं जं संबन्धं, 'अवरोप्परपुग्गलाणमिह कुणइ / तं जउसरिसं जाणसु, वेउब्वियबंधणं पढमं // 19 // 1 नां कर्मपुद्गलैः जे० / 2 अवरुपर इत्यपि पाठः। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धननाम्नः स्वरूपफलादिवर्णनम् / 55 . (पू०) व्याख्या-'तेषां प्रागुक्तपुद्गलानां यत् 'संबन्धं संयोगं 'परस्परं' अन्योऽन्यं पुद्गलानां 'इह' अस्मिन् संसारे 'करोति' निवर्तयति 'तत्' कर्म 'जतुसदृशं' लाक्षातुल्यं 'जानोहि अवबुध्यस्व 'वेउव्वियषन्धणं' [वैक्रियबन्धनं] 'प्रथम' आद्यम् / इति गाथार्थः / / 99 / / // 600|| ___ उक्तं वैक्रियबन्धनं, द्वितीयादीन्याह___ एवं विउवितेयग. वेउब्वियकम्मबंधणं तह य / वेउवितेयकम्मग-बंधणनामपि एमेव // 100 // (पू०) व्याख्या-एवेति लुप्तानुस्वारं पदं प्राकृतत्वात् , उक्तनीत्या / उक्तनीतिश्चेयम्-यथा क्रियपुद्गलानां बद्धवध्यमानानां वैक्रियैरेव यत्संबन्धकरणं तद् वैक्रियवैक्रियबन्धनमुच्यते / तथा वैक्रियपुद्गलानामुक्तस्वरूपाणां तैजसैर्यत्संबन्धकरणं तद्वितीयं बन्धनं वैक्रियतेजोलक्षणम् / वैक्रियपुद्गलानामेव कार्मणपुद्गलैर्यद्वन्धनं तथा च तत्तृतीयं वैक्रियकार्मणलक्षणम् / वैक्रियतेजःकार्मणबन्धननामाप्येवमेव / यथा प्रागुक्ते द्वे बन्धने द्विकसंयोगे तथेदमपि ज्ञातव्यम् / केवलं त्रिकसंयोगे चतुर्थम् इति गाथार्थः // 10 // उक्तानि वैक्रियवन्धनानि, आहारकबन्धनान्याह(पारमा०) चतस्रोऽपि स्फुटार्थाः / / 97 / / / / 98|| / / 99 // // 10 // आहारकबन्धनचतुष्टयमाह आहारगआहारग, 'आहारगतेयबंधणं बीयं / आहारकम्मबंधण, तिण्हवि जोए चउत्थं तु // 101 // (पू०) व्याख्या-आहारकपुद्गलानामाहारकपुद्गलैरेव यः संबन्धः स प्रथमं बन्धनम् / आहारकपुद्गलानामेव तैजसैबन्धनं संबन्धो द्वितीयम् / आहारकपुद्गलानामेव पुद्गलैर्बन्धनं संयोगस्तृतीयम् / त्रयाणामपि योगे आहारकतैजसकार्मणसंबन्धे चतुर्थम् / इति गाथार्थः 101 // आहारकबन्धनकारणमाह आहारपुग्गला इह, आहारत्तेण जे निबद्धा उ। अन्ने य बज्झमाणा, आहारगपुग्गला जेउ // 102 // (पू०) व्याख्या-'आहारपुद्गलाः' आहारकशरीरप्रायोग्याः 'इह' अस्मिन् संसारे 'आहारस्वेन ये निय हास्तु' आहारकभावेन ये, क्व 1 प्राक् शरीरग्रहणकाले जीवेन गृहीता एव / 1 "बद्धा जीवेण आहारतेज०" इत्यपि पाठः / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे 'अन्ये च' उत्तरकालभाविनो 'बध्यमानाः' गृह्यमाणा एवाहारकपुद्गलाः, 'यं तु' य एवा-ऽऽहारकशरीरनिवर्तनक्षमाः / इति गाथार्थः // 102 // आहारकपुद्गलसंबन्धद्वारेण बन्धनमाह-- तेमिं जं संबंध, 'अवरोप्पर पुग्गलाणमिह कुणइ / तं जउमरिसं जाणसु, आहारगबंधणं पढमं // 10 // (पू०) व्याख्या-तेषां' उक्तस्वरूपाहारकपुद्गलानां यत्' कर्म संबन्ध योग्यं 'परस्परं' अन्योऽन्यं बद्धबध्यमानानां 'इह' अस्मिल्लोके 'करोति' निवर्तयति 'तत्' 'जतुसदृशं' लाक्षातुल्यमुक्तन्यायेन 'जानोहि विद्धि आहारकबन्धनं 'प्रथम' आद्यम् / इति गाथार्थः // 103 // उक्तमाहारकबन्धनं प्रथमम् , द्वितीयादीन्याह एवाहारगतेयग, आहारगकम्मबंधणं तह य / आहारतेयकम्मग-बंधणनामंपि एमेव // 104 // .. (पू०) व्याख्या-एक्शब्दव्याख्या प्राग्वत् / यथाऽऽहारकपुद्गलानामाहारकपुद्गलैरेवाहारकाहारकबन्धनम् , तथाऽऽहारकतेजःपुद्गलेरेवाहारकतेजोबन्धनं द्रष्टव्यं द्वितीयम् / तथाऽऽहारककार्मणवन्धनं च तृतीयम् / आहारक तैजसकार्मणबन्धननामा-ऽप्येवमेव / यथा-ऽऽहारक बन्धने व्याख्यातं तथा-ऽत्रा-ऽपि द्रष्टव्यम् / इति गाथार्थः // 104 / / उक्तान्याहारकबन्धनानि, तेजोबन्धनान्याह(पारमा०) पाठसिद्धा एव / / 101 / / 102 // 103 / / 104 // सम्प्रति तैजसतैजस-तैजसकार्मण-कार्मणकार्मणबन्धनान्याह एवं तेथगतेयग, तेयग 'कम्मे य बंधणं तह य। 'कम्मइगंकम्मइगं, बंधणनामं पि पनरसमं // 105 / / (पू.)व्याख्या-तेजसपुद्गलानां बद्धानां प्राग्वध्यमानानामेष्यत्काले तेजःपुद्गलैरेव यः संबन्धः क्रियते ततेजस्तेजोबन्धनं प्रथमम् / तेजःपुद्गलाला बद्धबध्यमानानां कार्मणपुद्गलैश्च बन्धनं संबन्धस्तथा च तद्वितीयं तेजःकार्मणसंज्ञकं बन्धनम् / कार्मणपुद्गलानामतीतकालबद्धानां भविप्यकाले च बध्यमानानां कार्मणपुद्गलैरेव यः संवन्धस्तत्कार्मणबन्धनं पश्च दशम् / औदारिका 1 "अवरुप्पर पोग्गलाण" इत्यपि पाठः / 2 योगं जे०।३० कतेजःकार्मणः जे० / 4 बन्धनव्याख्यानं तथाऽत्रापि जे० / 5 “कम्मयगबंधणं" इत्यपि पाठः। 6 “कम्मइयंक्रम्मइयं" इत्यपि पाठः। 7 "तु पन्नरसं" इत्यपि पाठः।८० दशमम् जे / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धननाम-संघातनामस्वरूपफलादिवर्णनम् [57 दिद्विकादिसंयोगे चत्वारि, वैक्रियसंयोगे चत्वारि, तथाऽऽहारकसंयोगे चत्वारि, तैजससंयोगे द्व, कार्मणसंयोगे चैकम् , सर्वाण्यपि मिलितानि पश्चदश / इति गाथार्थः // 105 / / .. उक्तानि बन्धनानि, तदुक्तेर्वन्धननामा 'प्युक्तमेव, साम्प्रतं संघातनामाह(पारमा०) तैजसपुद्गलानां बद्धानां वध्यमानानां च तैजसपुद्गलैः सह संबन्धकारि तैजसतैजसबन्धनम् / तैजसपुद्गलानां बद्धानां वध्यमानकार्मणपुद्गलैः सह संबन्धकारि तैजसकार्मणबन्धनम् / कार्मणपुद्गलानां बद्धानां बध्यमानानां च संबन्धहेतुः कार्मणकार्मणबन्धनं पञ्चदशमिति / एवं चत्वार्योदारिकबन्धनानि, चत्वारि वैक्रियबन्धनानि, चत्वार्याहारकबन्धनानि, इत्येतानि द्वादश, तैजसतैजस-तैजसकार्मण-कार्मणकार्मणबन्धनत्रयसमन्वितानि पञ्चदशेति / ननु यत्र बन्धनपञ्चकमेवोपादीयते तत्र कथमेतावतां ग्रहः 1, उच्यते-तदेवमवगन्तव्यम् , गृहीतगृह्यमाणानामौदारिकपुद्गलानां तैजसकार्मणपुद्गलैश्च सह संबन्धकारि औदारिकबन्धनम् / एवं वैक्रियपुद्गलाना बद्धबध्यमानानां तैजसकार्मणपुद्गलैश्च सह संबन्धकारि वैक्रियबन्धनम् / एवमाहारकपुद्गलानां बद्धबध्यमानानां तैजसकार्मणपुद्गलैश्च सह संबन्धाधायकमाहारकबन्धनम् / एवं त्रिभिदश संगृहीतानि / तथा तैजसपुद्गलानां बद्धबध्यमानानां कार्मणपुद्गलैश्च / सह संब धहेतुस्तैजसबन्धनम् / एवमनेन चतुर्थेन द्वयसंग्रहः / यदुक्तं शतकवृहच्चूर्णी बन्धनपश्च. कमणनप्रस्तावे-"गहियधिप्पमाणाणं पुग्गलाणं अन्नसरीरपुग्गलेहिं वा समं बंधो जस्स उदएणं भवइ तं पंधणनामं ' इति / पञ्चमं तु कार्मणबन्धनमिति बन्धनपश्चकपक्षेऽपि पञ्चदशसंग्रहः / इति गाथार्थः // 10 // उक्तं सप्रभेदं बन्धननाम, अधुना संघातनामाह संघायनाम महुणा, संघायइ जेण तेण संघायं / ओरालियसंघायं, वेउब्विय जाव 'कम्मइगं // 106 // (पू०) व्याख्या-'संघायनाम' इत्यनुस्वारोऽलाक्षणिकः प्राकृतत्वात् , 'अधुना' साम्प्रतमुच्यते-'संघातयति' इति मीलयति वियुतानि द्रव्याण्येकीकरोतीत्यर्थः, 'येन' कारणेन 'तेन' कारणेन संघातनाम भण्यते / तत्रौदारिकस्य संघात औदारिकसंघातः तं, जानीहीति क्रिया सर्वत्र / वैक्रियसंघातं, आहारकसंघातं, तैजससंघातं यावत्कार्यणसंघातम् , इति पञ्च संघातनामानि / इति गाथार्थः / / 106 / / औदारिकादिसंघातस्वरूपमाह१. प्युक्तम् सा० जे० / 2 "अहुणा” इत्यपि पाठः 3 “कम्मइयं” इत्यपि पाठः। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कमेग्रन्थे (पारमा०) संघातनाम 'अधुना' बन्धननामानन्तरं भण्यत इत्यध्याहारः / व्युत्पत्तिमाह'संघातयति' पिण्डीकरोति औदारिकादिपुद्गलान् येन तेन हेतुना संघातमुच्यते / तच्च पञ्चधेत्याह-औदारिकसंघात, वैक्रिय संघातं, यावत्करणादाहारकसंघातं, तैजससंघातं, कार्मणसंघातम् / इति गाथार्थः / / 106 / / एतद्वयाचष्टे ओरालाई जे देहपुग्गला 'होति जम्मि ठाणम्मि / ते ठंति तम्मि ठाणे. संघायण कम्मणो उदए॥१०७॥ (पू०) व्याख्या-औदारिकमादिर्येषां ते औदारिकादयः, आदिशब्दा क्रियाहारकतैजसकार्मणपुद्गलपरिग्रहः / ये देहे पुद्गला देहपुद्गलाः भवन्ति' जायन्ते यस्मिन् स्थाने ते औदारिकादयः पुद्गलास्तस्मिन्नेव स्थाने भवन्ति नापरत्र, संघातनकर्मणः 'उदये' प्रादुर्भावे / अयमत्र भावार्थः-ये ह्यौदारिकादिषु शरीरेषु शिरःप्रभृत्यवयवानां निवर्तका औदारिकादिपुद्गला ये यस्य स्थानस्य योग्यास्ते तस्मिन्नेव शिरःप्रभृतिस्थानके भवन्ति / न विपर्ययेण यस्य कर्मणः प्रभावात्तत्संघातननामकर्मोच्यते / इति गाथार्थः / / 107 / / उक्तं संघातनाम, अधुना संहननान्याह (पारमा०) औदारिकादयो ये देहपुद्गला यस्मिन् स्थाने भवन्ति ते संघातकर्मण उदयेन तस्मिन् स्थाने तिष्ठन्ति / अयमभिप्रायः-ये औदारिकपुद्गला यत्र योग्यास्तान् तत्र संघातयति यत्कर्म निजोदयात् / यथा शिरोयोग्यान् शिरसि, पादयोग्यान पादयोः शेषाङ्गयोग्यान शेषाङ्गेषु, तदौदारिकसंघातनाम / एवं वैक्रियाहारकतैजसकार्मणेष्वपि वाच्यम् , इति गाथार्थः // 10 // सम्प्रत्यस्थिरचनात्मकस्य संहननस्यावसरः, तच्चौदारिकशरीर एव नान्येषु, तेषामस्थिरहितत्वात् , तच्च षोढेत्याह वजरिसहनारायं रिसहं नारायमद्धनारायं। कीलिय तह छेवट्ठं, तेसि सरूवं इमं होइ // 108 // . (पू०) व्याख्या-वज्रऋभनाराचं प्रथममाय, द्वितीयं च ऋषभनाराचं, नाराचं तृतीयं, अर्द्धनाराचं चतुर्थ, कीलिका पञ्चमं, तथा षष्ठं पुनश्छेवट्ठ (सेवार्त) संहननं भवतीति ज्ञातव्यम् / इति गाथार्थः // 108 // ऋषभादीन् व्याख्यानयत्राह (पारमा०) वज्रऋषभनाराचं ऋषभं इत्युक्ते ऋषभनाराचमिति द्रष्टव्यम् / नाराचं, अर्द्धनाराचं, कीलिका, तथा सेवार्तम् / तेषां स्वरूपमिदं भवति // 108 // 1 "हुति" इत्यपि पाठः / 2 'हुति" इत्यपि पाठस्तदनुसारेण व्याख्याकारैर्व्याख्यातम् / 3 “कम्मुणो” इत्यपि पाठः / 4 “वजरिसहनारायं पठमं बीअं च रिसहनारायं / नारायमद्धनारायकीलिया तह य छेवटै // 108 // इत्यपि पाठः, एतत्पाठानुसारेण व्याख्याकारैयाख्यातम् / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघातन-संघयणनामस्वरूपफलादिवर्णनम् [ 56 तथाहि रिसहो य होइ पट्टो, वज पुण कीलिया मुणेयव्वा / उभओ' मक्कडबंध नारायं तं वियाणाहि // 109 // (पू०) व्याख्या-ऋषभस्त्वागमभाषया दीर्घोऽल्पबाहल्यः, पृथुत्वयुक्तः कपाटादिषु लोहपट्टकाकारः पट्टोऽभिधीयते / वज्र पुनः कीलिका मन्तव्या, सा च प्रतीता / उभयतो द्वयोरपि पार्श्वयोर्मर्कटबन्धः प्रतीतः, स विद्यते यस्मिन् संहनने तन्नाराचसंहननं 'विजानीहि' अवबुध्यस्व / अयमत्र भावार्थः-यथा हस्तयोरुभयतो मर्कटबन्धेन कलाचीग्रहणे मध्यदेशे लोहपट्टकेन वेष्टयित्वा पट्टबन्धनमध्यदेशे वेधं दत्त्वा कीलिका प्रक्षिप्यते, तस्यां प्रक्षिप्तायां यादृशः सञ्चयो भवत्यचलः कालान्तरस्थायी बलवांस्तथाऽस्थिसञ्चयो यस्मिन् संहनने सति भवति तत्संहननं वज्रऋषभनाराचं भवति / इति गाथार्थः // 10 // मंहननोदयद्वारेण वज्रऋषभनाराचसंज्ञामाह (पारमा०) -ऋषभः परिवेष्टनपट्टो भवति / वज्र कीलिका ज्ञातव्या / उभयतो मर्कटचन्धं नाराचं तद्विजानीहि / अयमर्थः-द्वयोरस्थनोरुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थना परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयभेदि कीलिकापरपर्यायं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद्वर्षभनाराचम् / यत्पुनः की लेकारहितं तद् ऋषभनाराचम् / यत्र पुनः कीलिकया ऋषभसंज्ञपट्टेन च रहितो मर्कटबन्धो भवति तन्नाराचम् / यत्र त्वेकपा मर्कटबन्धो द्वितीयपावें च कीलिका भवति तदर्द्धनाराचम् / यत्र त्वस्थीनि कीलिकामात्रबद्धान्येव भवन्ति तत्कीलिका / यत्र तु परस्परं पर्यन्तसंस्पर्शलक्षणां सेवामाऋतान्यागतान्यस्थीनि भवन्ति स्नेहाभ्यवहारतैलाभ्यङ्गविश्रामणादिरूपां च परिशीलनां नित्यमपेक्षते तत्सेवार्तम् / इति गाथाद्वयभावार्थः॥१०॥ एतद्विपाकदर्शनायाह जस्सुदएणं जीवे, संघयणं होइ बजरिसहं तु। तं वज्जरिसहनाम, सेसावि हु एव संघयणा // 110 // (पू०) व्याख्या-'यस्य' कर्मणः 'उदयेन' अनुभवेन 'जीवे' प्राणिनि 'संहनन' उक्तलक्षणं भवति' जायते वज्रऋषभनाराचं' उक्तस्वरूपं, 'तुः' एवकारार्थः, स च व्यवहितः प्रासंबध्यत उदयेनैवेत्यत्र, तद्वऋषभनाराचनामोच्यते / शेषाण्यपि न केवलमिदं प्रागुक्तम् , 'हुः पादपूरणे, ऋषभनाराचादीन्यपि इत्यपिशब्दार्थः / 'एवं' उक्तनीत्या, लुप्तानुस्वारः 1 "अ" इत्यपि पाठः / 2 “मक्कडबंधो” इत्यपि पाठस्तत्पाठानुस"रो व्याख्याकाराः // Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.] कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे प्राकृतत्वात् , 'संधयणा' [संहननानि] / उक्तनीतिश्चेयम्-वज्रऋषभनाराचसंहननं यस्य कर्मण 'उदयेन प्रादुर्भवति तद्वऋषभनाराचसंहननं यथोच्यते, तथा ऋषभनाराचनारायार्द्धनाराचकीलिकाछेवट्ठानि यस्य कर्मण उदये भवन्ति तान्यपि तथा ऋषभनाराचनाराचार्द्धनाराचकीलिकाछेवट्ठनामान्यन्वर्थत उच्यन्ते इत्येवशब्दार्थः / इति गाथार्थः // 11 // उक्तानि संहननानि, अधुना संस्थानान्याह (पारमा०) 'यस्य' कर्मण उदयेन 'जोवे' इति जीवस्य संहननं भवति, 'वज्रर्षभं तु' इति सूचनात् वज्रर्षभनाराचं तद् वज्रर्षभनाराच नाम / शेषाण्यपि संहननानि एवमेव / हुशब्दस्यैवकारार्थस्यात्र योगात् / इति गाथार्थः // 11 // संस्थाननामाह___समचउरंसे नग्गोहमंडले साइवामणे खुज्जे / हुंडेवि य संठाणे, तेसि सरूवं इमं होइ // 111 // तुल्लं वित्थडबहुलं, उस्सेहबहु च मडह'कोट्टं च / हिडिल्लकायमडह, सव्वत्थासंठियं हुडं // 112 // (पू०) व्याख्या-समचतुरस्र यस्मिन् तत्समचतुस्र संस्थानमिति सर्वत्र संबन्धनीयम् ; मन्त- : व्यमिति क्रिया / न्यग्रोधस्येव मण्डलं यस्मिन् तन्न्यग्रोधमण्डलम् / सातिः शक्तिः / तथा वामनकुब्जे प्रतीते / हुण्डमपि च संस्थानं मन्यव्यमिति / तेषां च स्वरूपं 'इम' वक्ष्यमाणलक्षणम् / / 111 // लक्षणमाहतुल्यं समपादाङ्गुष्ठाग्रादारभ्य केशान्तं यावत्स्थितमूर्ध्वं यत्सूत्रं तावन्मात्रमेव तिर्यप्रसारितयोभुजयोः प्रमाणसूत्रमेवंभूतं तुल्यं समचतुरस्रसंस्थानमुच्यते / “विस्तारो बहुर्यस्मिन् तद्विस्तरबहु, प्राकृतत्वावह्वर्थे लच् / यस्मिन् विस्तारो वटस्येव बहु दैयं पुनः स्तोकं तद्विस्तरबहुलं न्यग्रोधमण्डलं संस्थानमुच्यते द्वितीयम् / उत्सेधो बहुर्यस्मिन् तदुत्सेधबहु उच्चस्त्वयुक्तं च / सातिसंस्थानेनोपमीयते सातिः शक्तिरुच्यते, शक्तिवद्यस्पिन् पुरुषस्य शिरोऽधोबाहुविस्तरस्तोकस्तत्सातिसंस्थानं तृतीयम् / मडहं कोष्ठं यस्मिन् तन्मडहकोष्ठम् , कोष्ठमुदरं तच्च वामनसंस्थानं चतुर्थम् / हेठिल्लकायोऽधःकायः स मडहो यत्र तद् हेठिल्लकायमडहं कुब्जसंस्थानं पश्चमम् / सर्वत्र शिरःप्रभृत्यगावयवेषु न विद्यते संस्थितियस्मिन्नो लङ्ककव त्सर्वावयवन्यूनं तद् हुण्डसंस्थानं षष्ठम् / इति गाथार्थः // 112 // 1 उदये भवति त० जे०।२ "संठाणा जीवाणं छ मुणेयव्वा // 111 // " इत्यपि पाठः 3 “कुटु” इत्यपि पाठः। 4 विस्तरो जे० / 5 तद्विस्तार० जे० / 6 कुब्जं सं०। 7 लोललडुकवत् जे० टिप्पणी / तत्सर्वावयवानां तद् हुण्डसंज्ञं संस्थानं ष. जे। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थाननाम-वर्णनामस्वरूपफलादिवर्णनम कर्षण उदयद्व रेण समचतुरस्रस्वरूपमाह (पारमा) तत्र समास्तुल्या यथोक्तप्रमाणाश्चतस्रोऽस्मयश्चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यस्य तत्समचतुरस्त्रम् / समासान्तोऽत्प्रत्ययः / न्यग्रोधवत्परिमण्डलं विस्तरभूरि न्यग्रोधपरिमण्डलम् / यथा न्यग्रोध उपरि संपूर्णावयवोऽधस्तु हीनः, तथा यत्संस्थानं नाभेरुपरि संपू प्रमाणं, अधस्तु न तथा तन्न्यग्रोधपरिमण्डलम् / यत्र नामेरधः सर्वावयवाः समचतुरस्रलक्षणाऽविसंवादिनः, उपरि तु न तदनुरूपास्तत् 'सादि उत्सेधबहुसंस्थानं, सादीति शाल्मलीतरुमाच- , अते प्रावचनिकाः / तस्य हि स्कन्धो द्राधीयान् , उपरि तु न तदनुरूपा विशालतेति / तथा यत्र शिरो ग्रीवं हस्तपादादिकं च यथोक्तप्रमाणोपपन्नं कोष्ठं उरउदारादि मडहं लघु तद्वामनसंस्थानम् , कुज्ञमित्यन्ये / यत्र तु उरउदरादि यथोक्तप्रमाणोपेतं, अधस्तनकायस्तु पादादिः, उपलक्षणत्वात् शिरोग्रीवादिकं च मडहं लघु भवति तत्कुजम् , वामनमित्यन्ये / यत्र सर्वेऽप्यवयवा असंस्थिता यथोक्तप्रमाणहीनास्तत् हुण्डसंस्थानम् / तेषां स्वरूपमिदं तुल्यादिकं भवति / इति गाथार्थः // 111 // 112 / / एतदुदयमादर्शयति जस्सुदएणं जीवे, चउरंसं नाम होइ संठाणं / तं चउरंसं नाम सेसावि हु एव संठाणा // 113 // . (पू०) व्याख्या-'यस्य' कर्मणः 'उदयन' अनुभवेन 'जीवे' जीवस्य 'चतुरस्र' ऊर्ध्यावस्थितसूत्रसमं "तिर्यक्प्रमाणं चतुरस्रमुच्यते संस्थानं भवति' जायते 'नाम' संज्ञा स्फुटं वा 'संस्थानम्' आकारविशेषस्तच्चतुरस्र नाम / 'शेषाण्यपि' न्यग्रोधमण्डलादीन्यप्येवमेव संस्थानानि द्रष्टव्यानि। 'अपि' समुच्चये, 'हुः पादपूरणे, समचतुरस्त्रसंस्थानोक्तन्यायेनेति भावः। इति गाथार्थः // 113 / / उक्त संस्थाननाम, वर्णनामाह (पारमा०) 'यस्य' कर्मण उदयाच्चतुरस्र नाम संस्थानं भवति जीवस्य तच्चतुरस्रनाम समचतुरस्रसंस्थाननाम / शेषाण्यपि संस्थानान्येवमेव / इति गाथार्थः॥११३॥ उक्त संस्थानम् , सम्प्रति वर्णनाम, तच्च पञ्चधा, तदुदयाच्च यद्भवति तदाह 'किण्हानीलालोहिय, हालिद्दा तह य हुति 'सुकिलया। जियदेहाणां वण्णा उदएणं वन्नन्नामस्स // 114 // 1-2 साचि इत्यपि पाठः / 3 तिर्यक् समानं चतु० जे० / 4 व्याख्याकारेण व्यस्ततया व्याख्यातम् , एवमग्रेऽपि // 5 “सुक्का य” इति वृत्त्योः // Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे (पू०) व्याख्या-कृष्णा नौला लोहिता हारिद्रा तथा भवन्ति शुक्लाश्च जीवदेहाना' प्राणिशरीराणां 'वर्णाः' प्रतीताः 'उदयेन' अनुभवेन 'वर्णनाम्नः' कर्मणः / इति गाथार्थः॥११४॥ उक्तं वर्णनाम, गन्धनामाह-- (पारमा०) वर्ण्यतेऽलंक्रियते शरीरमनेनेति वर्ण: / तत्र कृष्णनीललोहितहारिद्रशुक्ला जीवदेहानां वर्णा वर्णनाम्न उदयेन भवन्ति / इदमुक्तं भवति-कृष्णवर्णनाम्न उदयात्कृष्णदेहो मवतीति / नीलवर्णनाम्न उदयात्रीलदेह इत्यादि / इति गाथार्थः // 114|| गन्धनाम्नो द्विविधस्यापि विपाकमाह-- गंधेण सुरभिगंधं, अहवा गंधेण दुरभिगंधं तु / होइ जिया'णं देहं. उदएणं गंधनामस्स // 115 // (पू०) व्याख्या-घाणेन्द्रियास्वाद्येन 'सुरभिगन्ध' शोभनगन्धम् / अथवा गन्धेन 'दुरमिगन्धं तु दुष्टगन्धमेव 'भवति' जायते 'जीवानां' प्राणि नां 'देहः' शरीरं 'उदयेन' अनुभवेन 'गन्धनान्नः' कर्मणः / इति गाथार्थः // 115 / / उक्तं गन्धनाम, रसनाम प्राह (पारमा०) गन्ध्यते आघ्रायते इति गन्धः, तनिबन्धनं नाम गन्धनाम / सुष्ठ रभते : सुरभिः, ततश्च गन्धेन सुरभिगन्धम् / अथवा गन्धेन दुरभिगन्धं तु दुष्टं अभि आभिमुख्यं यत्र एवंभूतं जीवानां देहं, सुरभिदुरभिभेदभिन्नस्य गन्धनाम्न उदयेन भवति इति गाथार्थः // 115 // रसनाम प्रतिपादयति 'तित्तकडुया कसाया, अंबिलमहुरा रसावि पंच भवे। तेवि हु जियदेहाणं, रसनामुदएण खज्जंता // 116 // (पू०) व्याख्या-तिक्ताश्च कटुकाश्च तिक्तकटुकाः तिक्ताः कटुकाद्याः, कटुकाः शुण्ठ्यादयः, कषाया हरीतक्याद्याः, अम्ला बीजपूरादयः, मधुरा इक्ष्वादयः रसास्तु पञ्चैव भवन्ति, लवणरसः सर्वानुयायित्वान्न पृथगुक्तो जा(ज्ञा)यते न केवलं 'रसादयः, तेऽपि जीवदेहानामेव' प्राणिशरीराणामेव 'रसनाम्नः' कर्मणः 'उदयेन' अनुभवेन 'वाद्यमानाः' भक्ष्यमाणाः / हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् / इति गाथार्थः // 116 // उक्तं रसनाम, साम्प्रतं स्पर्शनामाह (पारमा०) तिक्तककटुककषायअम्लमधुरा रसा अपि पश्च, न केवलं वर्णाः, किं तु रसा अपि पञ्च जीवदेहाना खाद्यमाना रसनाम्नः पञ्चप्रकारस्योदयेन भवेयुः / लवणस्य तु एतदनु- - १"cण शरीरं" इत्यपि पाठः / 2 नां शरीरं देहं उ० जे० / 3 "तित्तगकडुयकसाया” इत्यपि पाठः। 4 "रसा उ" इति व्याख्याकाराः। 5 वर्णादयः जे०। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्ध-रस-स्पर्शा-ऽगुरुलघुनामस्वरूपफलादि र्णनम् यायित्वात् केवलस्यानुपयोगाच्च पृथगुपादानं न कृतम् / इति गाथार्थः // 116 // स्पर्शनाम प्राह-- गुरुलहुमि उकढिणावि य, निद्धा लुक्खा य होंति सीउण्हा। जियदेहाणं फासा, उदएणं फासनामस्स // 117 // ' (पू०) व्याख्या-गुरुश्च लघुश्च मृदुश्च कठिनश्च गुरुलघुमृदुकठिनाः, तेऽपि च, अपिशब्दः समुच्चये 'च.' स्वगतानेकभेदसंसूचनार्थः स्निग्धा रूक्षाश्च भवन्तीति प्रत्येकमभिसंबध्यते / शीताश्च उष्णाश्च शीतोष्णाः' 'जोवदेहानां' प्राणिशरीराणां 'स्पर्शाः' स्पर्शनेन्द्रियग्राह्या जायन्ते 'उदयेन' विपाकेन 'स्पर्शनाम्नः' कर्मणः / तत्र गुरुर्महान् वज्रसीसकादिवत् / लघु अल्पतरं शाल्मलीतूलवत् / मृदुः सुकुमारः पट्टस्पर्शवत् / कठिनो निर्वरः अन्धपाषाणवत् / स्निग्धः सस्नेही घृतपूरमिन्द्रिकापत्रयोरिव / रूक्षः स्नेहरहितः सुधावत् / शीतः प्रतीत उदकस्येव / उष्णस्तद्विपरीतोऽग्नरिव / स्पर्शशब्दः सर्वत्र संबन्धनीयः / इति गाथार्थः // 117 // उक्तं स्पर्शनाम, अगुरुलघुनामाह-- (पारमा०) तत्र गुरुलध्वादयः प्रायः स्पर्शत्वेन जने न प्रसिद्धा इति तत्स्वरूपनिरूपणा क्रियते / तत्र यतः स्पर्शाद्वस्तूनामधोगमनक्रिया भवति स स्पों गुरुः, यदाह-'अधोगते. गुरु' 1 / यतो वस्तूनां प्रायः तिर्यगूज़ च गमनं स स्पर्शो लघुः, यदाह-"तिर्यगूर्ध्वगते. लघुः' 2 / यतो वस्तूनां नमनक्रिया स स्पर्शो मृदुः, यदाह-'सन्नतेम॒दुः 3' / यतो वस्तूनां नमनक्रियाऽभावः स स्पर्शः कठिनः, यदाह-"प्रायोऽनमनस्य हेतुः कठिन: 4 / " चिकणत्वपरिणामः स्निग्धः 5 / अचिक्कणत्वपरिणामस्तु रूक्षः 6, यदाह-"चिक्कणत्वाचिकणत्वे स्निग्धरूक्षौ 5-6 / " यतो वस्तूनां काठिन्यापाको भवतः स स्पर्शः शीतः, यदाह-"काठि. न्यापाकयोःशीतः,७।" यतो वस्तूनां मार्दवविक्लित्ती भवतः स स्पर्श उष्णः, यदाह-मादवपाकयोरुष्णः 8 / इत्यष्टावपि स्पर्शा जीवदेहानां स्पर्शनाम्नोऽष्टविधस्योदयाद्भवन्ति इति गाथार्थः // 117 // अगुरुलघुनामाह___ गरुयं न होइ देहं, न य लहुयं होइ सव्वजीवाणं / होइ हु अगुरुयलहुयं, अगुरुल हुयनामउदएणं // 118 // (पू०)व्याख्या-'गुरुक' भारयुक्तं न भवति' शिंशपादिसारवत् न जायते 'देह' शरीरम् / 'नच' नैव लघुरेव लघुकमेरण्डकाष्ठवद् भवति 'सर्पजीवानां सर्वप्राणिनां देहमिति वर्तते, 1 जियदेहानां जे० / 2 घृतपूरामण्डिकाप० जे०। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् , भवत्येवागुरुलघुकं शरीरम् / केन ? इत्याह-'अगुरुलघुनाम्नः' कर्मणः 'उदयेन' अनुभवेन / इति गाथार्थः // 11 // उक्तमगुरुलघुनाम, साम्प्रतमुपघातनामाह (पारमा०) आत्मापेक्षया सर्वजीवानां देहं न गुरुकं भवति, नापि लघुकं भवति, उपलक्षणत्वान्नापि गुरुलघुकं, किन्तु अगुरुलघुकं भवति / अन्यापेक्षया तु गुरुकं लघुकं गुरुलघुकं वा भवति / यदाह-"अन्नन्नाविवाए तिन्निवि संभवंति" इति अगुरुलघुनाम्न उदयात् / इति गाथार्थः // 118|| उपधातनामाह-- अंगावयवी पडिजिब्भिया'इ जो अप्पणो उवग्घायं। कुणइ हु देहम्मि ठिओ सो उवघायस्स उ विवागो॥११९॥ (पू०) व्याख्या-अङ्गं शिरःप्रभृति, तस्यावयवो नासिकादि प्रतिजिबिका च / जिह्वाया उपरि लध्वी जिह्वा प्रतिजिबिका / योऽवयवः 'आत्मनस्तु' शरीरस्यैव 'उपघातं' विनाशं करोत्येव, हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् / 'देहे स्थितः' 'शरीरावस्थितः स उपघातनाम्न एव कर्मणो 'विपाकः' अनुभवः, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् / इति गाथार्थः // 119 // व्याख्यातमुपघातनाम, अधुना पराघातनामाह-- (पारमा०) यः प्रतिजिह्वागलवृन्दाद्यगावयवो 'देहे स्थितः' इति शरीरान्तः पीडाकारित्वेन स्थित आत्मन उपघातं करोति स उपघातस्य विपाक उपघातनामकर्मोदयात् स उपघातकारीति भावः / इति गाथार्थः / / 11 / / पराघातमाह-- तयविसदंतविसाई, अंगावयवो 'य जो उ अन्नेमि / जीवाण कुणइ घायं, सो परघायस्स उ विवागो // 120 // (पू०) व्याख्या-त्वक् 'शरीरांशो विषं यस्मिन्नगावयवे स त्वग्विषः, दन्ता विषं यस्यावयवस्यासौ दन्तविषः, त्वग्विषश्च दन्तविषश्च त्वग्विषदन्तविषौ तौ आदिर्यस्यावयवस्य स त्वग्विपदन्तविषादिः, आदिशब्दान्नखविषादिपरिग्रहः / अङ्गस्यावयवोऽङ्गावयवः, 'तु' पुनः 'यस्त' य एव 'अन्येषां' आत्मव्यतिरिक्तानां 'जीवानां' प्राणिनां 'करोति' विधत्ते 'विघातं' विनाशं सः 'परघातनाम्न एव' कर्मणः 'विपाक:' अनुभवः / इति गाथाः // 120 / / उक्तं पराघातनाम, साम्प्रतमानुपूर्व्या विषयमाह 1 "०य जो अत्तणो उबघायं" इत्यपि पाठः। २.शरीरे अव० जे० 3 'उ' इत्यपि पाठस्तदनुसारेण व्याख्याकारैर्व्याख्यातम // 4 शरीरं सविषं यः जे। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपघात-पराघाता-ऽऽनुपूर्वीनामस्वरूपफलादिवर्णनम् [65 (पारमा०) त्वग्विपदन्तविपाद्यगावयवश्च यः पुनरन्येषां जीवानां घातं करोति, चकारादधृप्यमोजो वाक्सोष्ठवं वा नृपसभादिगतस्य सभ्यादीनामपि क्षोभकृत् , प्रतिपक्षप्रतिभाप्रतिघातं च यत्करोति स पराघातस्य विपाकः / इति गाथार्थः / / 120 // द्वित्रिचतुःसामयिकेन विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यानुश्रेणिगमननिमिनमानुपूर्वीनामाह नारयतिरियनरामर-भवेसु जंतस्स अंतरगईए। अणुपुवीए उदओ, सा चउहा 'सुणसु जह होइ // 121 // (पू०) व्याख्या-'नारकतिर्यनरामरभवेषु' प्रतीतेषु 'जंतस्स' गच्छतः सतः 'अन्तरगतो' अपान्तरालगतौ 'आनुपूर्व्याः' नामकर्मविशेषस्य 'उदयः' विपाकः / सा चानुपूर्वी कियत्प्रकाराः भवति ? इत्येतदाह-'चतुर्डा' चतुर्भेदा शृणुत' आकर्णयत 'यथा' येन प्रकारेण 'भवति' जायते / इति गाथार्थः / / 121 / / नरकानुपूर्व्या विषयमाह (पारमा०) नारकतिर्यङ्नरामरभवेषु गच्छतो जीवस्य 'अन्तरगत्या' अपान्तरालगत्या वक्रगमनरूपयाऽऽनुपूर्व्या 'उदयः सा चतुर्दा शृणु यथा भवति / इति गाथार्थः // 121 // नरयाउअस्स उदए नरए वक्केण गच्छमाणस्स / नरयाणुपुब्बियाए. तहि उदओ अन्नहिं नत्थि // 122 // (पू०) व्याख्या-'नरकायुषः' नरकेऽवस्थितिकारकस्य 'उदये' प्रादुर्भावे 'नरके' प्रतीते 'वक्रण' कुटिलेन 'गच्छमाणस्स' इति गच्छतः सतः 'नरकानुपूाः ' नरकप्रापणे रज्जुकल्पाया वृषभस्येवाभिमतदेशनयने 'उदयः' अनुभवः 'तत्र' वक्रे / 'अन्यत्र' ऋजुगतौ 'नास्ति' न विद्यते / इति गाथार्थः // 122 // उक्तो नरकानुपूर्वीविषयः, अधुना तिर्यगाद्यानुपूर्वीविषयमाह. (पारमा०) नरकायुष उदये 'वक्रेण' कूर्परलाङ्गलगोमूत्रिकाकाररूपेण 'यथाक्रम' द्वित्रिचतुःसमयप्रमाणेन नरके गच्छतो नरकानुपूर्यास्तत्रोदयः / 'अन्यत्र' ऋजुगतौ नास्ति / इति गाथार्थः // 122 // एवं तिरिमणुदेवेतेसुवि वक्केण गच्छमाणस्स / तेसिमणुपुब्बियाणं, 'तहिँ उदओ अन्नहिं नत्थि // 123 // .1 "सुणह" इत्यपि पाठस्तत्पाठानुगन्तारा व्याख्याकाराः। 2 ति, अत आह जे० / 3-4 "उदओ तहि" इत्यपि पाठः। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे (पू०) व्याख्या-(एवं) उक्तनरकानुपूर्वीन्यायेन तिर्यङ्मनुजदेवान् प्रतीत्यानुपूर्व्या उदयो ज्ञातव्यः, न केवलं नरके, 'तेष्वपि' तिर्यङ्मनुजदेवेष्वपि 'वक्रण' 'कौटिल्येन 'गच्छमाणस्स' गच्छतः सतः 'तासामानुपूर्वीणां' तिर्यङ्मनुजदेवानुपूर्वीणां 'तत्र' तिर्यङ्मनुजदेवगतिषु वक्ररूपासु 'उदयः' विपाकः / 'अन्यत्रः' वक्रादन्यत्र 'नास्ति' न विद्यते / इति गाथार्थः // 123 // . उक्तमानुपूर्वीनाम, साम्प्रतमुच्छ्वासनामाह (पारमा०) 'एवं तिरिमणुदेवे' इति तिर्यङ्मनुष्यदेवानामेवं नरकानुपूर्वीवदानुपूयाँ वाच्याः, न केवलं नरके, 'तेष्वपि' तिर्यङ्मनुष्यदेवेष्वपि वक्रेण गच्छतः, 'तेषामानुपूर्वीणामुदयः' तिर्यग्मनुष्यदेवानुपूर्वीणामुदयः 'तत्र' वक्रगतौ / 'अन्यत्र' ऋजुगतौ नास्ति / इति गाथार्थः / / 123 // उच्छ्वासनामाह जस्सुदएणं जीवे, निष्फत्ती होइ आणपाणूणं / तं ऊसासं नाम, तस्स विवागो सरीरम्मि // 124 // (पू०) व्याख्या-'यस्य' कर्मणः 'उदयेन' विपाकेन 'जीवे' जीवस्य 'निष्पत्तिः' नित्तिर्भवति 'आनप्राणयोः' उच्छ्वासनिःश्वासयोः, तदुच्छ्वासनाम, उच्यत इति क्रिया। 'तस्य' चोच्छ्वासनाम्नः कर्मणो 'विपाकः' उदयः 'शरोरे' औदारिकादिलक्षणे / इति गाथार्थः // 124 // उक्तमुच्छ्वासनाम, अधुनाऽऽतपनामाह (पारमा०) यस्य कर्मण उदयेन जीवस्य 'आनपाननिष्पत्तिः' उच्छवासनिःश्वासलब्धिरुपजायते तदुच्छ्वासनाम / तस्य विपाकः शरीर इति / अयमभिप्रायः-जीवत्रिपाकित्वेऽप्युच्छ्वासनाम्नो विशिष्ट एव शरीरे उदयः, नापान्तरालगत्यादौ / इति गाथार्थः // 124 // आतपनामाह-- जस्सुदएणं जीवे, होइ सरीरं तु ताविलं इत्थ / सो आयवे विवागो, जह रविबिंबे तहा जाण // 125 // (पू०) व्याख्या-'यस्य' कर्मणः 'उदयेन' विपाकेन 'जोवे' जीवस्य, षष्ठयर्थे सप्तमी सर्वत्र द्रष्टव्या, अकारान्तं वा पदं प्राकृतत्वादेकारान्तम् , 'भवति' जायते 'शरीरं' प्रतीतं, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् , 'ताविलमेव' तापयुक्तमेव 'अत्र' अस्मिन् लोके, स आपतनाम्नः कर्मणः 'विपाक:' उदयः, क इव 1 इत्याह-यथा रविबिम्बे आतपनामोदयस्तथा विवक्षितशंरीरे 'जानीहि' अवबुध्यस्व / इति गाथार्थः / / 125 // 1 कुटिलेन गच्छमानस्य जे० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्छ्वासा-ऽऽतपो-द्योतनामस्वरूपफलादिवर्णनम् ननु यथा रवेः संतापकत्वेनातपनामोदयः प्रतिपाद्यते तथा तेजःकायिकस्यापि संतापकत्वेनातपनामोदयः स्यात् ? 'इत्याशङ्कय परिहारार्थमाह (पारमा०) यस्य कर्मण उदयाजीवस्य शरीरं तापवदुष्णप्रकाशकारि भवति स आतपस्य विपाकः / यथा 'रविधिम्बे' आदित्यमण्डले पृथ्वीकायिकेषु तथा जानीहि, अन्यत्र तु न भवति / यदयमेवाह शतकबृहच्चूर्णी-"आयवनामं आइचमंडलपुढ विकाइएसु चेव" / इति गाथार्थः॥१२५॥ आतपनामोदयश्च तेजःकायिकेषु न भवति इत्याह 'न भवइ तेयसरीरे, जेण उ तेयस्म उसिणफासस्स। .होइ हु उदओ नियमा. तह लोहियवण्णनामस्स // 126 // (पू०) व्याख्या-'कि नवि' इति पोल्लिकया किमिति कृत्वा 'तेजःशरीरे' तेजस्कायिकदेहे आतपनामोदयो नोच्यते ?, इत्याह-'भण्यते' उच्यते 'तेजस' अग्ने उष्णस्पर्शस्यैव' अशीतस्पर्शस्यैव स्पर्शनाम्नः कर्मण उदयो 'भवति' संपद्यते, हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् 'उदयः' विपाकः 'नियमातू' अवश्यंतया न आतपनाम्नः / तथेति समुच्चयार्थः / न केवलमुष्णस्पर्शनाम्न उदयः 'लोहितवर्णनाम्नश्च' रक्तवर्णनाम्नश्चोदयः / इति गाथार्थः // 126 // उक्तमातपनाम, साम्प्रतमुद्योतनामाह (पारमा०) न भवति तेजःशरीरे आतपनामकर्मोदय इति संबन्धनीयम् / कथं तर्हि तेषणात्वम् ? इति चेदत्राह-'येन' हेतुना तेजसो नियमादुष्णस्पर्शस्योदय इति, तर्हि प्रकाशकत्वं कथम् ? इत्याह-तथा लोहितवर्णनाम्नश्चोदयो भवति उष्णस्पर्शादुष्णत्वम् , उत्कटलोहितवर्णनामोदयाच प्रकाशकत्वम् / इति गाथार्थः॥१२६॥ उद्द्योतनामाह जस्सुदएणं जीवो, अणुसिणदेहेण कुणइ उज्जोयं। तं उज्जोयं नामं, जाणसु खजोयमाईणं // 127 // (पू०) व्याख्या-'यस्य' कर्मणः 'उदयेन' विपाकेन 'जीवः' प्राणी 'अनुष्णदेहेन' उष्णरहितशरीरेण 'करोति' विधत्ते 'उद्योतं' प्रकाशं तत्कर्म उद्योतनामकर्म 'जानोहि' अवबुध्यस्व तदुद्द्योतनाम / यथा खद्योतादीनां, आदिशब्दादौषध्यादीनामुयोतनाम / इति गाथार्थः // 127 // उक्तमुद्द्योतनाम, साम्प्रतं शुभाशुभेदाद् विहायोगतिमभिधातुकाम आधभेदमाह१ इत्याशङ्कापरि० जे० / 2 "किन्न हु” इत्यपि पाठः, व्याख्याकारेण तु "किं नवि तेयसरीरे भण्णइ तेयस्स" इति पाठानुसारेण व्याख्यातमस्ति 3 बोलिकया जे० 4 "इत्यावेदयन्नाह" इत्यपि / Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे (पारमा०) यस्योदयाजीवः 'अणु सिण' इति लुप्मविभक्तित्वादनुष्णं देहेनोद्योतं करोति / यदाह अयमेव शतकबृहच्चूर्णी-"अणुसिणो पगासो जस्सोदयाओ भवइ तं उज्जोयनाम' इति / तदुद्द्योतनाम जानीहि खद्योतादीनाम् , आदिशब्दाचन्द्र ग्रहनक्षत्ररत्नादीनां परिग्रहः / इति गाथार्थः // 127 // विहायोगतिमाह जस्सुदएणं जीवो, वर'वसहगईऍ गच्छइ गईए। *सा सुहिया विहगगई, हंसाईणं भवे सा उ // 128 // (पू०) व्याख्या-'यस्याः' शुभविहायोगतेः 'उदयेन' विपाकेन 'जीवः' सामान्येन प्राणी 'गच्छति' याति गत्या / किंविशिष्टया ? इत्याह-वरवृषभगत्या' वृषभोबलीवदः, वरः= प्रधानः, वरश्चासौ वृषभश्च वरवृषभः तस्य गतिस्तया, वरवृषभस्येव गतिः पुरुषस्य यत्र इत्यभिप्रायः / सा च 'शुभा' प्रशस्ता शुभैव, चशब्दस्यैवकारार्थत्वात् , विहायोगतिरिति वक्तव्या / 'विहाय()गतिनामकर्म' इति पाठः प्राकृत त्वाद्व(द्ध)कारस्याकारलोपे ओलोपे च / सा च केषां भवति ? इत्याह-हंसादीनां, आदिशब्दान्मतङ्गजादिपरिग्रहः, 'भवेत्' जायेत / तुशब्दस्यवकारार्थत्वात् / इति गाथार्थः // 128 // उक्ता प्रशस्ता गतिः, अप्रशस्तगतिमाह (पारमा०) विहायसाऽऽकाशेन गतिविहायोगतिः। ननु विहायसः सर्वगतत्वात्तदन्यत्र गतिसंभवाभावाद्विहायोविशेषणमनर्थकम् , नैवम् , विहायोग्रहणं नाम्नः प्रथमप्रकृतिगतितोऽस्या विशेषणार्थम् / ततो यस्य कर्मण उदयाजीवो वरवृषभगत्या गच्छति सा शुभैव शुभिका विहायोगतिः / सा तु हंसादीनां आदिशब्दाद्गजवृषभादीनां भवेत् / इति गाथार्थः // 12 // अशुभविहायोगतिमाह जस्सुदएणं जीवो, अमणिट्ठाए उ गच्छइ गईए। __सा असुभा विहगगई, उट्टाईणं भवे सा उ // 129 // (पू०) व्याख्या-'यस्य' कर्मण 'उदयेन' विपाकेन 'जीवः' प्राणी 'अमणिहाए उ' अमनोज्ञयैव 'गच्छति' याति 'गत्या' पादविहरणादिलक्षणया, सा 'अशुभा' अशोभना विहायोगतिर्नामकर्म, सा च केषां भवति ? इत्याह-उष्ट्रादीनां, आदिशब्दादासभादीनां 'भवेत्' जायेत / 'सा तु' सा पुनरुष्ट्रादीनामेव, नान्येषाम् / इति गाथार्थः / १०वसभ०" इत्यपि पाठः / 2 “सा सुहया' इत्यपि पाठः / “सा य सुहा" इति व्याख्याकाराः / 3 “विहगगति 0" जे०।४ ०त्वात् हस्याकारलोपे उलोपे च / सा जे० / 5 "य" इत्यपि पाठः / / Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - खगनिद्वयम्बरूपफलादि-बसदशक-स्थावर दशकप्रकृतिनामादिवर्णनम् उक्ता द्विधाऽपि विहायोगतिः साम्प्रतं त्रसादिदशकसंज्ञामाह (पारमा०) यस्य कर्मण उदयाजीवो, मनस इष्टा मनइष्टा, न मनइष्टा अमनइष्टा अशुभेत्यर्थः, तया गत्या गच्छति माऽशुभा विहायोगतिः, सा तृष्ट्रादीनां आदिशब्दात्खरादीनां भवेत् / इति गाथार्थः // 129 // सम्प्रति त्रसादिदशकमाह-- तमवायरपजत्तं. पत्तेयथिरं सुभं च सुभगं च / सूसरआइजजसं, तसाइदसगं इमं होइ // 130 // (पू०) व्याख्या-वसनाम, नामशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धः, बादरं पर्याप्तं प्रत्येकं स्थिर शुभं च मुभगं च सुस्वरआदेययशः / त्रसादिदशकं इदं' उक्तलक्षणं "भवति' ज्ञातव्यम् / इति गाथार्थः // 130 // त्रसादिदशक एवापान्तरसंज्ञाद्वयमाह-- (पारमा०) वसं 1 बादरं 2 पर्याप्तं 3 प्रत्येकं 4 स्थिरं 5 शुभं च 6 सुभगं च 7 मुस्वरं 8 आदेयं 9 'जसं' इति यश-कीर्तिः 10 / सादिदशकमिदं नामग्रहोपदर्शितं भवति / इति गाथार्थः / / 130 // - सादिदशकस्यैव संज्ञाद्वयविभागमाह-- . आइम्मि तसचउक्क, थिराइछक्कतु उवरिमं होइ। थावरदसगं अहुणा, 'थावरसुहुमं अपजत्तं // 131 // होइ तहा साहारं, अथिरं असुभं च दूभगं चेव / दूसरणाइज्जेहिं य अजसेहिं य बीयदसगं तु॥१३२॥ .. (पू०) व्याख्या-'आदौ' प्रथमं त्रसचतुष्कं भवति ज्ञातव्यम् / त्रसवादरपर्याप्तप्रत्येकनामानि / स्थिरादिषट्कं तु स्थिरशुभसुभगसुस्वरआदेययशांसि, पुनरुपरिमं षट्कं स्थिरादिषट्कसंज्ञं भवति विज्ञेयम् / उक्तं त्रसादिदशकं संज्ञात्रयं, स्थावरदशकसंज्ञाचतुष्कमधुनोच्यते-इति वाक्यशेषः / स्थावरसूक्ष्मं च साधारणमिति स्थावरनाम सूक्ष्मनाम च साधारणनाम स्थावरदशकान्तवर्ति विज्ञेयम् / इति गाथार्थः // 131 // तथा भवत्यपर्याप्तं नाम 'अस्थिरं' अस्थिरनाम 'अशुभं च' अशुभनाम 'दुर्भगं चैव' दुर्भगनामैव, दुःस्वरानादेयनामभ्यामयशःकीर्त्या च सह .1 "थावरसुहुमं च साहारं / / 131 तह होइ अपज्जत्तं" इत्यपि पाठस्तदनुसारेण व्याख्याकार व्यारख्यातम् , परमेनं पाठं परमानन्दसूरयस्तु अपपाठतया व्याख्यान्ति / / Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 ] कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे द्वितीयदशकं तु पुनरेतेनामभेदैर्भवति / दुःस्वरानादेयैः, बहुवचनं प्राकृतत्वात् "बहुवयणेण दुवयण" इत्याधुफ्तेः / 'अजसेहिं य' अत्र बहुश्चनमयशःकीर्त्तरनेकधा ख्यापनार्थम् / इति गाथार्थः // 132 // ....अस्यैव स्थावरदशकस्यान्तर्वतिसंज्ञात्रयमाह (पारमा०) 'आये' प्रकृतिपिण्डे त्रसचतुकमिति संज्ञा भवति 'स्थिरादिषट्कं तु' स्थिरादिषट्कसंज्ञं तु 'उपरिमं प्रकृतिपिण्डरूपं भवति इत्युक्तं प्रकृतिदशकस्य समस्तव्यस्तस्य सदशकत्रसचतुष्कस्थिरादिषट्कलक्षणं संज्ञात्रयम् / द्वितीयं दशकं प्रस्तावनापूर्वमाह-स्थावरदशकमधुनोच्यत इति शेषः / स्थावरं 1 सूक्ष्मं 2 अपर्याप्तम् 3 // 131 // 'होइ. तहा साहारं' इति, भवतीत्यग्रे योश्यते / साधारणं साधारणनाम 4 / "थावरसुहुमं च साहारं // तह होइ अपजत्तं" इति त्वपपाठः पर्याप्तप्रत्येकयोः सेतरत्वस्योच्छृङ्खलतापत्तेः / अस्थिरं 5 अशुभं 6 च दुर्भगं चैव 7 'दूसरणाइजेहिं य' इति दुःस्वरा 8 नादेयाम्यां 6, 'अजसेहिं' य इति अयश कीर्तिनाम 10 च द्वितीयदशकं भवति / इति गाथाद्वयार्थः // 13 // स्थावरदशकस्यापान्तरालसंज्ञात्रयमाह आइम्मि थावरचऊ, सुहमतिगं उवरिमं भवे इत्थ / अथिराइछक्कमुवरिं, 'विधागभेयं अओ भणिमो // 133 // (पू०)व्याख्या-'आदौ प्रथमं 'स्थावरचतुः' स्थावरसूक्ष्मसाधारणापर्याप्तनामानि स्थावरचतुष्कसंझं भवति विज्ञेयमिति शेषः / 'सूक्ष्मत्रिक' सूक्ष्मत्रिकसंज्ञं 'उपरिम' स्थावरनाम्न ऊर्ध्व सूक्ष्मसाधारणापर्याप्तनामानि सूक्ष्मत्रिकसंज्ञं भवेत् 'अत्र' शासने अस्थिरादिषट्कमुपरि तस्यैव स्थावरदशकस्यायं स्थावरचतुष्कं विहाय / अस्थिर 1 अशुभ 2 दुर्भग 3 दुःस्वर 4 अनादेय 5 अयशांसि 6 षट् अस्थिरादिषट्कमुच्यते / 'विपाक भेदः' अनुभवभेदः 'एतासां' नामप्रकृतीनां 'अयं वक्ष्यमाणलक्षणो 'भणितः' प्रतिपादितः / ननु किमर्थमिदं संज्ञाकरणम् ?, उच्यते-शास्त्रे व्यवहारार्थम् / इति गाथार्थः // 133 // सनाम्न उदयमाह (पारमा०) 'आये' प्रकृतिपिण्डे 'थावरचऊ' इति स्थावरेणोपलक्षितं चतुष्कं स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तकसाधारणलक्षणं स्थावरचतुष्कसंज्ञमिति गम्यम् / 'सूक्ष्मत्रिक' सूक्ष्मत्रिकसंझं 'उपरिमं स्थावरस्य सूक्ष्मअपर्याप्तकसाधारणलक्षणं भवेत् 'अत्र' स्थावरदशके च 'अस्थिरा 1 “विवागभेओ इमो होइ" इत्यपि पाठः / व्याख्याकारेण तु "विवागभेओ इमो मणिओ” इति पाठानुसारेण व्याख्यातमस्ति 2 ०भेदश्चानुभवभेदश्चैतासां जे। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्थावर दशकान्तवर्तिसंज्ञात्रय-त्रसादिनाम-स्वरूपफलादिवर्णनम् / 71 दिषट्कं' अस्थिरादिषट्कसंझं उपरि सूक्ष्मत्रिकस्य अस्थिरअशुभदुर्भगदुःस्वरअनादेयअयशःकीर्तिलक्षणं विपाकभेदम् , अतः संज्ञाचतुष्टयभणनानन्तरं भणामः इति गाथार्थः॥१३३॥ सम्प्रति सेतरत्वक्रमेण त्रसस्थावरयोर्विपाकमाह-- तसनामुदए जीवो, बेइंदियमाइ जाइ 'जीवेसु / थावग्नामुदए 'पुण पुढवीमाईसु सो जाइ // 134 // (पू०) व्याख्या-'सनानः कर्मणः उदये' विपाके 'जीवः' प्राणी 'दोन्द्रियादिः आदिशब्दात्रीन्द्रियादयः पञ्चेन्द्रियावसाना गृह्यन्ते, मकारोऽलाक्षणिकः प्राकृतत्वात , तेषु 'याति' गच्छति, जीवेषत्पद्यत इत्यभिप्रायः / 'स्थावरनाम्नः' कर्मणः 'उदये' विपाके पुनः 'पृथिव्यादिषु' आदिशब्दादप्तेजोवायुवनस्पतिषु मकारोऽत्राप्यलाक्षणिकः 'सः' जीवो 'याति' उत्पद्यते / इति गाथार्थः // 134 // उक्तस्त्रसस्थावरनामोदयः, साम्प्रतं वादरसूक्ष्मोदयम्वरूपमाह-- (पारमा०) त्रस्यन्ति उष्णाद्यभितप्ताश्छायाद्यासेवनार्थ स्थानान्तर मिति त्रसाः. तद्विपाकवेद्यं नाम त्रसनाम, तस्योदये जीवो' 'दीन्द्रियादिजोवेषु' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियेषु 'याति' गच्छति / तद्विपरीतं स्थावरनाम तस्योदये पुनरुष्णाद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थेषु 'पथिव्यादिषु' पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिषु स जीवो याति / ननु अग्नेरूद्धज्वलनं वायोस्तिर्यपवनमिति कथमनयोः स्थावरत्वमिति 1, सत्यम् , ऊर्ध्व ज्वलनं तिर्यपवनं चैतयोः स्वाभाविकमेव न तृष्णाद्यभितापे द्वीन्द्रियादीनामिव / तथाहि-अग्नेविंध्यापकजलधारास्वपि न परिहारबुद्धिर्वायोर्वा विनाशकानावपीति, तस्मात्स्वाभाविकगमने बुद्धिपूर्वकत्वाभावात्स्थावरत्वं न विरुद्धम् / इति गाथार्थः // 134 // अधुना बादरसूक्ष्मे आह बायरनामुदएणं. बायरकाओ'उ होइ सो नियमा। सुहुमेण सुहुमकाओ. अंतमुहुत्ताउओ होइ // 135 // (पू०) व्याख्या-'घादरनाम्नः कर्मणः 'उदयेन' विपाकेन 'बादरकाय एव' स्थूलकाय एव 'भवति' जायते, 'सः' जीवः 'नियमात् ' अवश्यंतया 'सूक्ष्मेण' सूक्ष्मनामकर्मोदयेन 'सूक्ष्मकाय:' श्लक्ष्णकायो भवति / स च भवन् कियत्कालायुर्भवति ? इत्याह-'अन्तर्मुहयुर्भवति' मुहूर्तमध्ये कालं करोतीत्यर्थः / इति गाथार्थः // 13 // 1 "जाईसु" इत्यपि पाठः / 2 “ण” इत्यपि पाठः / 3 "य" इत्यपि पाठः। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे पर्याप्तिसंख्याद्वारेण येषां प्राणिनां यत्परिमाणाः पर्याप्तयो भवन्ति तदर्शयितुमाह (पारमा०) वादरत्वं यद्वशात्पृथिव्यायेकैकस्य जन्तुशरीरस्य चक्षुह्यताया अभावेऽपि बहूनां समुदायस्य चक्षुर्गाद्यता - भवति स परिणामविशेषः, तन्निबन्धनं नाम बादरनाम. तस्योदयावादरकायः म प्राणी नियमेन भवति / तद्विपरीतं मूक्ष्मनाम, यदुदयान कदाचिदपि देहिदेहस्य चक्षुर्पाद्यता भवति तेन सूक्ष्मकायः, स चान्तमुहर्तायुर्भवतीनि प्रसङ्गतोऽभिहितम् / ' इति गाथार्थः॥ इदानीं पर्याप्तापयप्तियोरवसरः, तत्र पर्याप्तनाम यदयात्म्बयोग्यपर्याप्तिनिवर्तनसमों भवति, अतः पर्याप्तिनिरूपणपूर्वकं तदाह.. आहारसरीरिंदिय-पजत्ती आणपाणभाममण। ... - चत्तारि पंच छप्पिय. एगिदियविगलमन्नीणं // 136 // (पू०) व्याख्या-आहारशरीरइन्द्रियानप्राणभाषामनःपर्याप्तयः षड् भवन्ति / ताश्च चतस्रः पञ्च षडपि 'चैकेन्द्रियविकलसंज्ञिनां यथासंग्ख्येन भवन्ति अपिशब्दान्न भवन्ति च, केषांचिरपर्याप्तानामेव कालकरणात् / नन्वेकेन्द्रियादीनां पर्याप्तिसंख्योक्ता, अमंज्ञिनां तु पञ्चेन्द्रियसम्मूर्छजानां नोक्ता, तत्कथं तेषां संख्याऽवसीयते ? इत्याह-तेषामपि पञ्चैव पर्याप्तयो मनोरहितत्वात् / एतदपि कुतः ?, संज्ञिविशेषणान्यथानुपपन्या, तदेव सार्थकं भवेत् संज्ञिविशेषेणं यदैव संज्ञिन एव षट् पर्याप्तयो नासंज्ञिनः / अन्यथा व्यवच्छेद्याभावात्संज्ञिग्रहणं निरर्थक स्यात , तस्मात्संज्ञिग्रहणसामर्थ्यात्पारिशेष्यन्यायाचासंज्ञिनां पञ्चेन्द्रियाणां पञ्चैव पर्याप्तयो भवन्तीति कृतं प्रसङ्गेन / प्रकृतं प्रस्तुमः / इति गाथार्थः // 136 // उक्ता पर्याप्तिसंख्या, साम्प्रतं सहेतुकं पर्याप्तिस्वरूपमाह (पारमा०) 'आहारसरीरिंदियपजत्तित्ति' आहारपर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिरिति पर्याप्तिशब्दः प्रत्येकं योज्यते / 'आणपाणभासमणे' इत्यत्रापि तेनानपानपर्याप्ति औषापर्याप्तिमनःपर्याप्तिरिति / तत्र यया बाह्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति साहारपर्यासिः / यया रसीभूतमाहारं रसासृग्मासमेदोऽस्थिमजशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः / यया धातुरूपतया परिणमितमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः / यया पुनरुच्छ्वासप्रायोग्यवर्गणादलिकमादायोच्छ्वासरूपतया परिणमय्यालम्ब्य च मुश्चति सा उच्छ्वासपर्याप्तिः। यया तु भाषाप्रायोग्यवर्गणादलिकं गृहित्वा भाषात्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुश्चति सा भाषापर्याप्तिः / यया पुनर्मनोयोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुश्चति सा मनःपर्याप्तिः / एताश्च यथाक्रमं चतस्रः पञ्च षट् च एकेन्द्रियविक 1 एके० जे०। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त पजत . पर्याप्ता-ऽपय त प्रत्येक-साधारणनामस्वरूपफलादिवर्णनम् लेन्द्रियसंज्ञिनां भवन्ति / यत्तु तत्त्वार्थे पर्याप्तीनां पञ्चसंख्यात्वमुक्तं तदिन्द्रियपर्याप्ती मनःपर्याप्तेरन्तर्भावात् / यत्पुनरागमे तदेवं, यथा भगवत्याम्-"तए णं से ईसाणे देविंदे देवराया पंचविहाए पजत्तोए पज्जत्तिभावं गच्छइ, तंजहा-आहारपज्जत्तीए 1 सरीरपज्जत्तीए 2 इंदियपजत्तीए 3 आणपाणपजत्तीए 4 भासामणपजत्तीए 5 / " इति॥१३६॥ एयासि निप्फत्ती, उदएणं जस्स होइ कम्मस्स / तं पजत्तं नामं, इयरुदए नत्थि निप्फत्ती // 137 // (पू०) व्याख्या-'एतासां' पूर्वोक्तपर्याप्तीनां 'निष्पत्तिः' नित्तिः 'उदयेन' विपाकेन यस्य भवति कर्मणस्तत् 'पर्याप्तं नाम' पर्याप्तिसंज्ञकमुच्यत इति शेषः / 'इतरस्य' अपर्याप्तनाम्नः 'उदय' विपाके 'नास्ति' न विद्यते 'निष्पत्तिः' निवृत्तिः पर्याप्तेरिति गम्यते / इति गाथार्थः // 137 // उक्तं पर्याप्ति(प्त)नाम. साम्प्रतं प्रत्येकनामाह- . ____ (पारमा०) 'एतासां' प्ररूपितस्वरूपाणां 'निष्पत्तिः' परिसमाप्तिः 'यस्य' कर्मण उदयेन भवति तत्पर्याप्तकनाम / अपर्याप्तकमाह-इतरत् अपर्याप्तकनाम तस्योदये-नास्ति निष्पत्तिरेतासामित्यत्रापि योज्यम् / इति गाथाद्वयार्थः // 137 / / उक्ते पर्याप्तापर्याप्तकनाम्नी, सम्प्रति प्रत्येकनामाह-- एक्किक्कयम्मि जीवे, इक्किक्कं जस्स होइ उदएणं / 'ओरालाइसरीरं, तं नाम होइ पत्तेयं // 138 // (पू०) व्याख्या-एकैकस्मिन् 'जीवे' प्राणिनि 'एकैक' शरीरं भवति, यथा वृक्षादीनां पत्रादिषु जायते 'यस्य' कर्मणः 'उदयेन' विपाकेन, किम् ? इत्याह-औदारिकं शरीरं तन्नाम कर्म भवति प्रत्येकसंज्ञकं नाम / इति गाथार्थः / / 138 / / उक्तं प्रत्येकनाम, अधुना साधारणनामाह (पारमा०) एकैकस्य जीवस्य 'यस्य' कर्मण उदयादेकै औदारिकादि, आदिशब्दादै - क्रियमाहारकं वा शरीरं भवति तत्प्रत्येकनाम भवति / इति गाथार्थः // 138 // साधारणमाह जीवाणमणंताणं, इक ओरालियं इह सरीरं / हवइ 'हु जस्सुदएण, तं साहारं 'हवइ नामं // 139 // 1 व्याख्याकारेण तु “ओरालियं सरीरं" इति पाठानुसारेण व्याख्यातमस्ति। 2 "यथा शालिमु. द्रयवादिषु" जायते जे० / 3 "य" इत्यनुसारेण व्याख्याकारेण व्याख्यातं / 4 "भवे" इत्यपि पाठः, तथैव .. व्याख्याकाराः।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे (पू०) व्याख्या-'जीवानां' प्राणिनां 'अनन्तानां' अपरिमिताना 'एक' सर्वेषामेव प्राणिनां यथा सूरणादीनामनेकप्राणिनामेकं शरीरं, किम् ? 'औदारिक' प्रतीतं 'इह' अस्मिन् लोके शीर्यत इति शरीरं भवति च यस्योदयेन तत्साधारणं भवेन्नाम नामैव, चशब्दस्यैवकारार्थत्वात् / इति गाथार्थः // 136 // / उक्तं साधारणनाम, अधुना स्थिरनामाह-- (पारमा०) अनन्तानां जीवानामेकमौदारिकं शरीरं 'इह' संसारे देशीकुट्यायेकनिवासवदुर्गतानां निश्चितं यस्य कर्मण उदयाद्भवति तत् 'साहारं' साधारणनाम भवति / इति गाथार्थः // 139 // स्थिरनामाह-- दंतट्ठाइथिराणं, अंगावयवाण जस्स उदएणं / निप्फत्ती उ सरीरे, 'जायइ तं होइ थिरनामं // 140 // (पू०) व्याख्या-'दन्तास्थ्यादिस्थिराणां' दन्तास्थिनी प्रतीते, आदिशब्दाच्छिरोनासिकादिपरिग्रहः, स्थिराणामचलानां 'अङ्गावयवानां' शरीरावयवानां 'यस्य' नाम्नः कर्मणः 'उदयेन' विपाकेन 'निष्पत्तिस्तु शरीरे' निवृत्तिस्त्वङ्गे 'जायते' निष्पद्यते तद्भवति स्थिरनाम / इति गाथार्थः / / 140 // उक्तं स्थिरनाम, साम्प्रतमस्थिरनामाह-- (पारमा०) दन्तास्थिप्रभृतिस्थिराणां अङ्गावयवानां 'यस्य' कर्मण उदयान्निष्पत्तिः पुनः शरीरे जायते तत् स्थिरनाम भवति / इति गाथार्थः / / 140 // अस्थिरमाह-- जीहाभमुहाईणं, अंगावयवाण जस्स उदएणं / निप्पत्ती उ सरीरे, जायइ तं अथिरनामं तु // 141 // (पू०) व्याख्या-जिह्वाभ्र प्रभृतीनां भ्र जिह्व प्रतीते, आदिशब्दान्नेत्रकर्णादिपरिग्रहः, 'अङ्गाषयपानां' शरीरदेशानां 'यस्य' कर्मणः 'उदयेन' विपाकेन 'निष्पत्तिस्तु' निर्वृत्तिः पुनः 'शरीरे' देहे 'जायते' निष्पद्यते तदस्थिरनाम तु' तदस्थिरनामैव कर्म इति गाथार्थः // 141 / / उक्तमस्थिरनाम, साम्प्रतं शुभनामाह-- - (पारमा०) जिह्वाभ्र प्रभृतीनामगावयवानां 'यस्य' कर्मण उदयानिष्पत्तिः (पुनः) शरीरे जायते तत् 'अस्थिरनाम तु' तदस्थिरनामकमव / इति गाथार्थः // 141 // 1 "जायं" इत्यपि पाठः। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधारण-स्थिरा-ऽस्थिर-शुभा-ऽशुभनाम-स्वरूप फलादिवर्णनम् शुभमाह सिरमाईण सुहाणं अंगावयवाण जस्स उदएणं / निप्फत्ती उ सरीरे जायइ तं होइ सुभनामं // 142 // (पू०) व्याख्या-'शिरःप्रभृतीनां आदिशब्दाद्वक्षःस्थलादिपरिग्रहः, 'शुभानां प्रशस्तानां, अङ्गस्यावयवा अङ्गावयवाः, अङ्गशब्देन चात्र शरीरमुच्यते नोदरादि, अस्यामेव गाथायामादी शिरसोऽङ्गावयवत्वेनाभिधानात् तेषां 'यस्य' नामकर्मण उदयेन 'निष्पत्तिस्तु' नितिरेव 'शरीरे' देहे 'जायते' निष्पद्यते तद्भवति 'शुभनाम' शुभनामसंज्ञकं कर्म / इति गाथार्थः // 142 // उक्तं शुभनाम, अधुनाऽशुभनामाह-- (पारमा०) शिर आदिर्येषां ते शिरआदयो नाभेरुपर्यवयवास्तेषां शुभानामगावयवानां 'यस्य' कर्मण उदयान्निप्पत्तिः पुनः (शरीरे) जायते तत् शुभनाम भवति / शिरसा हि स्पृष्टस्तुष्यति इति गाथार्थः / / 142 // अशुभमाह-- पायाईअसुहाणं, अंगावयवाण जस्स उदएणं / निष्पत्ती उ शरीरे, जायइ तं असुभनामं तु // 143 // . (पू०) व्याख्या-पादावादिर्येषामवयवानां पादादिः, आदिशब्दात्पुतादिपरिग्रहः, तेषां "अशुभानां अशोभनानां 'अङ्गावयवानां' देहदेशानां यस्य' पुनः कर्मणः 'उदयेन' विपाकेन 'निष्पत्तिस्तु' निर्वृत्तिः तुशब्दः पुनःशब्दार्थः, 'शरीरे' देहे 'जायते' निष्पद्यते 'तदशुभनाम तु' अशुभनामैव / इति गाथार्थः / / 143 / / उक्तमशुभनाम, साम्प्रतं सुभगदुर्भगमाह-- (पारमा०) पादावादिर्येषां ते पादादयो नाभेरधोऽवयवाः, तेषामशुभानां 'यस्य' कर्मण उदयानिप्पत्तिः पुनः शरीरे जायते तदशुभनामैव / पादेन हि स्पृष्टो रुष्यति / ननु प्रणयप्रकुपितप्रणयिनीपादप्रहारेऽपि प्रणयिनस्तोष एवेति कथं न व्यभिचारः 1, उच्यते, तत्तोषस्य मोहनीयनिबन्धनत्वाद्वस्तुस्थितेश्चात्र विचार्यमाणत्वाददोषः / इति गाथार्थः // 143 // सम्प्रति सुभगदुर्भगनाम्नी आह-- Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे सूभगकम्मुदएणं, 'हवइ हु जीवो उ सव्वजणइट्ठो / 'दूहगकम्मुदए पुण, दुहओ सो 'सयललोयस्म // 144 // (पू०) व्याख्या-सुभगस्य भावः सौभाग्यं तस्य कर्मण उदयेन विपाकेन 'भवत्येव' जायत एव, हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् 'जीवस्तु' प्राणी सर्वजन इष्ट एव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् , अन्यथा सौभाग्याभावः / 'दुहगकम्मुदएणं' इति दौर्भाग्यकर्मोदयेन विपाकेन 'दुर्भगः' . नयनमनसोरुद्वेगकारी 'सकललोकस्य' सर्वप्राणिसमूहस्य / 'दुभगो सो सयललायस्स' इति पाठान्तरं वा / तत्रापि स एवार्थः / केवलं स दौर्भाग्ययुक्तस्य परामर्शः / इति गाथार्थः // 144 // उक्तं सुभगदुर्भगनाम, अधुना सुस्वरदुःस्वरनामोच्यते-- ___ (पारमा०) सुभगकर्मोदयाद्भवति निश्चितं जीवः, तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् , अनुपकारकृदपि सर्वजनस्येष्टो मनःप्रियः / दुर्भगकर्मोदये पुनःशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् , उपकारकुदपि 'दुःखदः' मनोनयनानामप्रियप्रतिमः स सकललोकस्य भवतीत्यत्रापि योज्यम् / यदाह"अणुवकरवि बहूणं, होइ पिओ तस्स सुभगनामुदओ / उवगारकारगोवि हुन रुचई दूभगस्सुदए // 1 // सुभगुदएवि हु कोई कंची आसज्ज दृभगो जइवि / जायह तदोसाओ, जहा अभव्वाण तित्थयरो // 2 // '' इति गाथार्थः // 144 // सुस्वरदुस्वरे आह सूसरकम्मुदएणं, सूसरसदो 'य होइ इह जीवो।' दूसरउदए 'विसरो, जपंतो होइ जणवेसो // 145 // (पू०)व्याख्या-सुस्वरं शोभनस्वरं तच्च तत्कर्म च सुस्वरकर्म तस्योदयेन विपाकेन 'सुस्वरशब्दस्तु" शोभनध्वनिरेव 'भवति' जायते 'इह' अस्मिन् लोके 'जीवः' प्राणी / दुःस्वरनाम्नः पुनरुदये विपाके 'विरसः' इतिविशेषेण गतो रसो माधुर्यलक्षणो यस्य स विरसः श्रुत्यसुखदः 'जल्पन्' वदन् 'भवति' जायते 'जनद्वेष्यः' लोकाप्रीत्युत्पादकः / इति गाथार्थः // 14 // उक्तं सुस्वरदुःस्वरनाम, साम्प्रतमादेयानादेयनामाह (पारमा०) सुस्वरकर्मोदयाद् द्वीन्द्रियादीनां शब्दः स्वरः शोभनः स्वरः सुस्वरः श्रोत्रप्रीतिहेतुः, एवंभृतश्च 'इह' संसारे जीवो भवति / दुःस्वरोदये विस्वरः खरभिन्नहीनदीनस्वरो जल्पन् 'जनदेष्यः' अप्रीतिपदं भवति / इति गाथार्थः // 14 // आदेयानादेये आह१“होइ" इत्यपि पाठः / 2 दुभगकम्मुदएणं दुभगो सो सव्वलोगस्स इत्यपि पाठः / व्याख्याकारेण तु "दुभगकम्मुदएणं दुब्मगओ सयल०" इति पाठानुसारेण व्याख्यातमस्ति / 3 “सव्वलोयस्स" इत्यपि पाठः, तथैव जे०।४'उ' इति व्याख्याकारः। "विरसो' इत्यपि पाठन्तदनुसारेण व्याख्याकारेण व्याख्यातमस्ति। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभग-दुर्भग-सुस्वर-दुःस्वरा-ऽऽदेया-उनादेय-यशःकीय-ऽयशःकीर्ति-निर्माणनामस्वरूाफलादिवर्णनम् [ 77 आएजकम्म उदए, चिट्ठा जीवाण भासणं जं च / तं बहु मन्नइ लोओ, 'अबहुमयं इयरउदएणं // 146 // (पू०) व्याख्या-आदेयनाम्नः कर्मणः 'उदय' विपाके 'चेष्टा' शरीरव्यापारलक्षणा जीवाना 'भाषणं यच्च' जल्पनं यच्च 'तत्' सर्व 'बहु मन्यते' अन्तःप्रीतियुक्तस्तत्तथैव प्रतिपद्यते 'लोकः' जनः / अबहुमतं' अनभिप्रेतं चेष्टाजल्पादिकमितरस्य पुनरनादेयनाम्नः कर्मण उदयेन विपाकेन / इति गाथार्थः // 146 // उक्तमादेयानादेयनाम, साम्प्रतं यशःकीत्ययशःकीर्तिनामाह(पारमा०) आदेयकर्मण उदये 'चेष्टा' उच्छृङ्खलरूपा जीवानां या 'भाषणं' असमञ्जसप्रलपनं यच्च तद्बहुमन्यते लोकः इतरदनादेयं, तस्योदये चेष्टा हसितललितादिका भाषणं युक्तियुक्तस्यापि अबहुमतम् / इति गाथार्थः / यशःकीर्त्ययशःकीर्ती आह जस्सुदएणं जीवो, लहइ हु कित्तिं जसं च लोगम्मि / तं जसनामं कम्म, अजसुदए लहइ विवरीयं // 147 // (पू०) व्याख्या-'यस्य' कर्मणः 'उदयन' विपाकेन 'जीवः' प्राणी 'लभते तु' प्रामोत्येव कीर्तियशस्तु, एकदिग्गामिनी कीर्तिः, सर्वदिग्गामि यशः, अथवा-"दानपुण्यफला कीर्तिः, पराक्रम कृतं यशः" / अथवा एकमेवेदं नाम, यशसोपलक्षिता कीर्तिर्यशःकीर्तिः, कीर्तिशब्दस्य पूर्वनिपातः प्राकृतत्वात् , 'लोके' जने तद्यशोनामकर्म यशःकीर्तिकर्मेत्यर्थः / अयशःकीत्युदये पुनः प्राणी 'लभते' प्राप्नोति, 'विपरीतं' अयश कीर्तिमासादयति / इति गाथार्थः // 147 // उक्तं यशःकीर्त्ययशःकीर्तिनाम, अधुना निर्माणनामाह-- (पारमा०) 'यस्य' कर्मण उदयाजीवो लभते कीर्ति परलोकगतस्यापि श्लाघनीयतारूपी, यशश्च जीवतः श्लाघतारूपं लोके तद्यशःकीर्तिनाम / अथवा यशसा शौण्डीर्यक्रियानुष्ठानस्वाध्यायध्यानादिशोभनार्थालम्बनेन कीर्तनं संशब्दनं यशःकीर्तिः / 'अजसुदए' इति अयशः कीयुदये लभते 'विपरीत' अश्लाघनीयतारूपम् / इति गाथार्थः // 147|| निर्माणमाह-- देहंगावयवाणं, लिंगागिइ जाइ नियमणं जं च / तहिँ सुत्तहारसरिसो, निम्माणे होइ हु विवागो॥१४८॥ 1 नवमन्नइ इयरउदएणं इत्यपि पाठः / 2 "कित्तीजसं" इत्यपि पाठः। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे (पू०) व्याख्या-देहं शरीरं तस्याङ्गानि शिरःप्रभृतीनि देहाङ्गानि, देहाङ्गानामवयवाः कर्णनासिकादयस्तेषां 'यन्नियमन' यो नियमोऽवश्यम्भावो यस्य देहाङ्गस्य येऽवयवास्तैस्तत्र भवितव्यम् / निजाङ्गादीनां नियमनं यच्चेति, निजमात्मीयं, अङ्गसुदरप्रभृति, निजंच तदङ्गच निजाङ्ग, निजाङ्गमादिर्येषामङ्गानां तानि निजाङ्गादीनि, यञ्च तेषां नियमनम् / यस्य मनुष्यशरीरादेयानि शिरः प्रभृत्यङ्गानि तैस्तत्रैव भवितव्यम् न पुनर्मनुष्यशरीराङ्गावयवैदेवादिशरीरादिषु भवितव्यम् / यस्य वा मनुष्यादेर्यच्छरीरं तस्य येऽवयवास्ते तस्मिन्नेव शरीरे भवन्यवयवाः / येन शरीराङ्गादिना योऽवयवो जन्यः स तदेवाङ्गजनयति, नान्यदिति / अयमत्र भावार्थः-देहाङ्गावयवानां इत्यनेनावयवनियम उक्तः, यस्य शिरःप्रभृत्यङ्गस्य योऽवयवो नासिकाकर्णादिः, तेनावयवेन तस्मिन्नेव शिरःप्रभृत्यङ्गे भवितव्यम् / तस्मिन्नप्यङ्गे भवता नासिकादिना नासिकादिस्थान एव भवितव्यम् / निजाङ्गादीनां इत्यनेन 'त्वङ्गनियम उक्तः, यस्य देहस्य पुरूषादेः संबन्धिनो यच्छिरः-प्रभृत्यङ्ग तेनाङ्गेन तत्रैव देहे भवितव्यम् , नान्यस्मिन , अथवा यस्याङ्गस्य यो निजोऽवयवः स तेनैव शिरःप्रभृतिनोत्पादयितव्यः, नान्येनोरःप्रभृतिना / अथवाऽन्यथा व्याख्यायते-देहाङ्गावयवानां निजाङ्गादिपु नियमनं यत् , चकाराद्विधानं च, इत्यत्र सप्तम्यर्थे षष्ठी / तेनायमर्थः-देहाङ्गावयवैनासिकादिभिनिजाङ्गादिष्वेव शिरःप्रभृतिषु भवितव्यं स्वस्थान एवेति / कस्यायं विपाकः ? इत्याह-निर्माणनाम्न एवायं 'विपाकः' उदयः 'भवति' जायते हुशब्दस्यावधारणार्थत्वात / किंभूतोऽसौ विपाकः ? इत्याह-'तहिँ सुत्तहारसरिसो' 'तत्र' निर्माणे यो विपाकः स सूत्रधारसदृशः सूत्रधारो-विज्ञानिकः, तेन तुल्यः / यथा सूत्रधारो देवकुलादौ क्रियमाणे स्तम्भादावङ्गे भद्रकोणरह प्रतिहारकादौ च यः कुम्भिकाकलशकादिरवयवो यस्मिन्नेव स्थाने बुध्यते (युज्यते) कतु तस्मिन्नेव प्रदेशे विज्ञानिकैः कारयत्यात्मव्यापारेण / इति गाथार्थः // 148|| उक्तं निर्माणनाम, अधुना तीर्थकरनामाह-- (पारमा०) देहं शरीरं, अङ्गानि शिरउरःप्रभृतीनि, अवयवा अगुल्यादय उपाङ्गादिरूपाः, तेषां नियमनम् / यथा मनुष्यस्य द्वौ हस्तौ द्वौ पादौ इत्यादिनियमः / 'लिङ्गाकृतिजातिनियमन' लिङ्गाकृत्योर्जाती जन्मनि नियमनं यच्च / यथा पुरुषस्य श्मश्रुप्रभृतिलिङ्ग, अधृष्यत्वादिका चाकृतिः / स्त्रियश्च स्तनादिकं चिह्न, अभिगम्यत्वादिका चाकृतिः / तत्र सूत्रधारतुल्यो निर्माणस्य भवति निश्चितं विपाकः / यथा सूत्रधारः शिलाकुट्टकैः कृतानि खरशिलादीनि देवकुलाङ्गानि यथास्थानं निवेशयति / तथा निर्माणमपि अङ्गोपाङ्गनाम्ना निर्मितानि शरीरागादीनि / इति गाथार्थः // 14 // तीर्थकरनामाह१ त्वषयवनियम जे० / 2 "प्रतिरहकादौ जे० / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्माण-तीर्थङ्करनाम-गोत्रस्वरूपफलादिवर्णनम् उदए जस्म सरासुर-नरवइनिवहेहिँ पहओ होइ। तं तित्थयरं नाम, तस्म विवागो उ केवलियो / 149 // (पू०) व्याख्या-'उदय' विपाके 'यस्य' कर्मणः सुरा ज्योतिष्कवैमानिकाः, असुरा भवनवासिनः, नरपतयो राजानः, सुराश्चासुराश्च नरपतयश्च सुरासुरनरपतयः तेषां निवहाः संघाताः तैः, 'पूजित:' अर्चितः 'भवति, जायते तदेवंभूतं 'तीर्थकरं' तीर्थकरणशीलं, ताच्छीलि कष्टः, 'नाम' नामकर्म, 'तस्य' तीर्थकरकर्मणो 'विपाकश्च' अनुभवश्व तात्त्विकः केवलिन एव तीर्थकरस्य नाकेवलिनः तस्य समस्तैः पूजनासंभवात् / इति गाथार्थः // 146 // / व्याख्यातं तीर्थकरनाम, तद्वयाख्यानात्सप्रपञ्चं नामकर्मापि व्याख्यातम् / साम्प्रतं सूत्रकार एव गोत्रप्रतिपादनायाह (पारमा०) 'उदये' विपाकानुभवे 'यस्य' कर्मणः, सुरा वैमानिकादयः, असुरा भवनपतिविशेषाः, नरा मनुष्यास्तेषां पतयः सौधर्मेन्द्रचमरसम्रााजादयः, तेषां निवहैः पूजितो भवति तत्तीर्थकरनाम, तस्य विपाका पुनः केवलिनः / तथाहि-भगवन्तस्तीर्थकरास्तीर्थकरनामकर्मोदयादेवादिभिरष्टमहापातिहार्यादिविरचनतः पूज्यन्ते, जघन्यतोऽपि कोटिसंख्यैः सेव्यन्ते च / गृहस्थाद्यवस्थायामपि जन्ममहादौ पूज्यन्त एव परं तस्यासन्ततत्वात् केवलोत्पादे च निरन्तरत्वात्तस्य विपाकः केवलिन इत्युक्तम् / इति गाथार्थः / / 149 // अधुना नाम निगमयन् गोत्रप्रस्तावनामाह-- . भणियं नामं कम्मं अहुणा गोयतु सत्तमं भणिमो। तंपि कुलालसमाणं, दुविहं जह होइ तह भणिमो // 150 // . (पू०) व्याख्या- भणितं' प्रतिपादितं नामकर्म सविस्तरम् / 'अधुना' साम्प्रतं पुनर्गोत्रं तु, तुशब्दः पुनःशब्दार्थ एवशब्दार्थो वा / यदा एवकारार्थस्तदा गोत्रमेव सप्तमं संख्यया 'भणिमो' प्रतिपादयामः / पुनःशब्दार्थ उक्त एव / तदपि कुलालसमानं, तच्छब्दो गोत्रपरामर्शकः, अपिशब्दः संभावने / किं संभावयति ? तदेतद्गोत्रं कुम्भकारतुल्यं वर्तते / किंभूतं तत् ? 'विविधं द्विप्रकारं 'यथा' येन प्रकारेण 'भवति' जायते 'तथा' तेन प्रकारेण 'भणाम:' प्रतिपादयामः / इति गाथार्थः // 150 // अभिहितगोत्री विध्ये आधभेदे दृष्टान्तमाह-- 1 "पूइओ लोए" इत्यपि पाठः / 2 ०को-ऽचू जे० / 3 "त" इत्यपि पाठः। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] . कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कमपन्थे ___ (पारमा०)-'भणितं' अशेषविशेषाख्यानतः प्रतिपादितं नामकर्म षष्ठम् / 'अधुना तु' सम्प्रति पुनः 'गोत्रं' सप्तमं कर्म भणामः / तदपि गोत्रं कुलालममानं सत् द्विविधं शुभाशुभकरणतो यथा भवति तथा भणामः / इति गाथार्थः / / 150 // सम्प्रति कुलालदृष्टान्तं स्पष्टमाचष्टे जइ इत्थ कुभकारो, पुढवीए कुणइ परिसं रूवं / जं लोयाओ पूयं पावइ 'इह पुण्णकलसाई // 151 // (पू०) व्याख्या-'यथा' येन प्रकारेण 'अत्र' अस्मिन लोके 'कुम्भकार:' घटकारः 'पृथिव्यां मृत्तिकायां 'करोति' विधत्ते ईदृशं रूपमतिशयवत् / 'यद्' रूपं 'लोकात् ' जनात् पूजां पुष्पचन्दनदध्यक्षतादिभिः 'प्रामोति' आसादयति 'इह' 'अस्मिँल्लोके' किं तत् ? इत्याह- . पूर्णकलशादि, आदिशब्दादर्घपात्रादि / इति गाथार्थः / / 15 / / उक्त उच्चैगोत्रदृष्टान्तः, अधुना नीचे!त्रदृष्टान्तमाह-- (पारमा०) यथाऽत्र कुम्भकारः 'पृथिव्याः' मृत्तिकाया ईदृशं रूपं करोति, यत्पूर्णकलशादि मसूणत्वादिगुणरहितमपि लोकात् पूजा प्रामोति / लोको हि पूर्णकलशाद्यभिमुखमायान्तमालोक्य शोभनः शकुन इति स्तुवन्नक्षतादिना पूजयतीति / / 151 // भुभुलमाई अन्नं सो चिय पुढवीएँ कुणइ रूवं तु / जं लोयाओ निंदं पावइ अकएवि मजम्मि // 152 // (पू०) व्याख्या-मुम्भुलो मद्यस्थानं, आदिशब्दात्कोशकादिपरिग्रहः, मकारोऽलाक्षणिकः प्राकृतत्वात् / भुम्भुला धन्यं रूपं स एव कुम्भकारः 'पृथिव्यां' मृत्तिकायां करोत्यंव' विधत्त एव, 'रूपं तु' उक्तलक्षणम् / यत् 'लोकात्' जनात् 'निन्दा' जुगुप्सां प्राप्नोति' आसादयति 'अकृतेऽपि' अस्थापितेऽपि 'मये' आसवे, आस्तां तावत्कृते, कृते तु सुरां निन्दा प्रामोति / इति गाथार्थः / / 152 // उक्तो दृष्टान्तः, अधुना दार्शन्तिकमाह-- (पारमा०) 'भुम्भुलं' मद्यभाजनं, 'अन्यत्' पूर्णकलशादिव्यतिरिक्तं स एव कुम्भकारः पृथिव्या रूपं करोति / यन्मसृणत्वादिगुणवदपि लोकान्निन्दां प्राप्नोति, 'अकृतेऽपि' अस्थापितेऽपि मद्ये / तथाहि-शिष्टजनो भुम्भुलादिकं तत्कालनिष्पन्नमपि इतरभाण्डालाभेऽपि महत्यपि प्रयोजने निन्द्यत्वान्न गृह्णात्येव / इति गाथाद्वयार्थः // 152 / / दान्तिकेन योजयति१ "जह" इत्यपि पाठः / 2 ०धन्यत् रूपं जे। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोत्र-सामान्य-तदुत्तरभेदद्वयस्वरूपफलादिवर्णनम् [81 एव कुलालममाणं गोयं कम्मं तु 'होइ जीवस्स / उच्चानीयविवागो, जह होइ तहा निसामेह॥१५३॥ (पू०) व्याख्या एवं' उक्तनीत्या 'कुलालसमान' कुम्भकारतुल्यं, किम् ? 'गोत्रमेव कर' कुलप्रसूतिलक्षणं 'अत्र' प्रक्रमे 'जीवस्य' प्राणिनः / तस्य च गोत्रस्योच्चैर्वर्णकारणं नीचनिम्नता विपाकोऽनुभवो 'यथा' येन प्रकारेण 'भवति' जायते 'तथा' तेन प्रकारेण दर्शनायाह-निशमयत' आकर्णयत यूयम् / इति गाथार्थः // 153 // उक्तमेवोच्चैगोत्रविपाकं प्रदर्शयन्नाह(पारमा०)-'एवं' शुभाशुभवस्तुविधानात् कुम्भकारतुल्यं गोत्रं कर्म पुनर्भवति जीवस्योचैनीच विपाको यथा भवति तथा निशमयत / इति गाथार्थः // 153 / / तत्रोच्चैर्गोत्रविपाकमाह अधणी बुद्धिविउत्तो रूवविहूणोवि जस्स उदएणं / 'लोयम्मि लहइ पूर्य, उचागोय तय होइ // 154 // (पू०) व्याख्या-'अधमः' अविद्यमानधनो बुद्धया वियुक्तो बुद्धिवियुक्तो बुद्धिरहितो, रूपेण विहीनः रूपविहीनः, सोऽपि आस्तां रूपयुक्तो 'यस्य' कर्मणः 'उदयेन' विपाकेन 'लोके' जने 'लभते' प्राप्नोति 'पूजां' अभ्यर्चनं वस्त्रालङ्कारस्रगादिभिरुच्चैर्गोत्रनामकर्म तद्भवति विज्ञेयम् / इति गाथार्थः // 154 // ___ उक्त उच्चै!त्रविपाकः, अधुना नीचे!त्रविपाकमाह..(पारमा०) 'अधनी' धनहीनः 'बुद्धिवियुक्तः' मतिनिमुक्तः 'रूपविहीनः' रूपरहितोऽपि 'यस्य' कर्मण उदयेन लोके जातिमात्रादेव पूजां लभते, तदुच्चेर्गोत्रं पूर्णकलशकारिकुम्भकारतुल्यम् / इति गाथार्थः // 154 // ___ नीचैर्गोत्रविपाकमाह-- "सघणो रूवेण जुओ, बुद्धीनिउणोवि जस्स उदएणं। "लोयम्मि लहइ निन्दं, एयपुण होइ नीयतु॥१५५॥ व्याख्या-'सघनो' विद्यमानधनः 'रूपेण युक्तः' रूपसहितः, बुद्धया निपुणो मतिनि१ "इत्थ" इत्यपि पाठस्तदनुसारेण व्याख्याकारेण व्याख्यातमस्ति / 2 व्याख्याकारेण "अधणो" इति पाठानुसारेण व्याख्यातमस्ति / 3-5 "लोगम्मि" इत्यपि पाठः॥ 4 “संघणी" इत्यपि पाठस्तदनुसारेण व्याख्याकारेण व्याख्यातमस्ति / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] - कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे पुणः, सोऽप्येवंविधो 'यस्य' कर्मणः 'उदयन' विपाकेन 'लोके' जने 'लभते' प्रामोति 'निन्दां' जुगुप्सां, अकुलीनोऽयं किमस्य गुणैः 1 एतत्पुनः कर्म नीचेगोत्रं निकृटगोत्रं विज्ञेयम् / इति गाथार्थः // 155|| प्रतिपादितं गोत्रकर्म, अधुना गोत्रनिगमनपूर्वकमन्तरायमाह-- __ (पारमा०) सधनो रूपेण युक्तो बुद्धिनिपुणोऽपि 'यस्य' कर्मण उदयेन लोके धृतिकापुत्रोऽयभित्यादिनिन्दा लभते / एतत्पुनर्भवति 'नायं तु' इति नीचेगोत्रं भुम्भुलककारिकुम्भकारप्रतिमम् / इति गाथार्थः // 155 // गोत्रं निगमयन्नन्तरायकप्रस्तावनामाह-- 'गोय भणिय अहणा, अट्ठमय अंतरायय होइ। ' तं भंडारियसरिसं, जह होइ तहा निसामेह // 156 // (पू०) व्याख्या-'गोत्रं' सप्तमं कर्म 'भणितं' प्रतिपादितम् / 'अधुना' साम्प्रतं अष्टममेवाष्टमकं, अन्तराये भवमान्तरायिकं कर्म 'भणाम:' पतिपादयामः, तत्कभूतम् ? इत्याह'भाण्डारिकसदृशं' भाण्डागारनियुक्तपुरुषतुल्यं (यथा भवति) तथैव 'निशमयत' आकर्णयत यूयं कथ्यमानमिति शेषः / इति गाथार्थः // 156 // .. अत्रैवार्थे दृष्टान्तमाह अन्वयव्यतिरेकाभ्याम्-- (पारमा०) गोत्रं भणितम् , अधुनाऽष्टमकं अन्तरायकं भवति तद्भाण्डागारिकसदृशं यथा भवति तथा 'निशमयत' शृणुत / इति गाथार्थः // 156 // प्रतिज्ञातमाह-- जइ राया इह भंडारिएण विणिएण कुणइ. 'दाणाई / तेण उ पडिकूलेणं, न कुणइ सो 'दाणमाईणि // 157 // (पू०) व्याख्या-यथेति दृष्टान्तार्थः / यथा 'राजा' नरपतिः 'इह' अस्मिल्लोके 'भाण्डारिकेण' स्वनियोगिकेन 'विनीतेन' स्वायत्तेन 'करोति' विधत्ते दानमादौ येषां तानि दानादीनि, आदिशब्दाद्भोगोपभोगपरिग्रहः 'तेन तु प्रतिकूलेन' तेन पुनर्विबन्धकेन निषेधकेन 'न करोत्येव' न वितरत्येव 'स' राजा दानादि तु, आदिशब्दादोगोपभोगादिपरिग्रहः / तुशब्दस्यवकारार्थत्वात् / इति गाथार्थः // 157 / / 1 "गुत्तं" इत्यपि पाठः / 2 "अंतराइयं मणिमो” इत्यपि पाठस्तदनुसारेण व्याख्याकारण व्याख्या. तम् / 3 “दाणाई" इत्यपि पाठः / 4 "दाणमाई उ" इति व्याख्याताः। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तररायकर्म-स्वरूपफलादिवर्णनम् अभिहितो दृष्टान्तः, अधुना दार्टान्तिकयोजनामाह (पारमा०) यथा राजा 'इह' लोके भाण्डागारिकेण विनीतेन दानादीनि करोति / तेन तु प्रतिकूलेन कुतोऽपि वैगुण्यादविधयेन न करोति स राजा दानादीनि / इति गाथार्थः // 157 // जह राया तह जीवो, भंडारी जह 'तहंतराय च / तेण उ विबंधएणं, न कुणइ सो 'दाणमाईणि // 15 // __ (पू०) व्याख्या-यथा राजा तथा जीवः तत्तुल्यो भाण्डारिको यथा तथाऽन्तरायिकं कर्म भवति भाण्डागारिकसदृशं जायते / अयमत्र भावार्थः-यदा तदन्तरायं क्षयोपशमादनुकूलं भवति जीवस्य तदाऽसौ दानादीनि करोति / ' तेन तु' पुनरन्तरायकर्मणा 'विवन्यकेन' प्रतिकूलेन न व.रोति स जीवो दानभोगादि आदिशब्दादुपभोगादिपरिग्रहः / इति गाथार्थः // 158 // तदेवान्तरायं संख्याभेदेन दर्शयति-- (पारमा०) यथा राजा तथा जीवः, यथा भाण्डागारिकस्तथाऽन्तरायं पुनः / 'तेन' त्वन्तरायेण 'विबन्धकेन' प्रतिकूलेन न करोति स जीवो दानादीनि / इति गाथार्थः // 158|| सम्प्रति पञ्चप्रकारत्वमाह-- तं दाणलाभभोगो-वभोगविरियतराय पंचमय / ___ एएसिं तु विवागं 'वोच्छामि अहाणुपुब्बीए // 159 // (पू०) व्याख्या-तद् दानं च लाभश्च भोगश्च उपभोगश्च वीर्य चेति द्वन्द्वः, एतेषामन्तरायं विनः लुमानुस्वारमन्तरायपदं प्राकृतत्वात् , 'पञ्चमयं' पञ्चभेदः / दानं त्रिविधम् , ज्ञानदानम् , अभयदानम् , धर्मोपग्रहदानम् / लाभोऽनेकप्रकारः, दायकादादेयप्राप्तिः / भुज्यत इति भोग आहारपुष्पादिः, उप सामीप्येन पुनः पुनर्वा भुज्यते उपभोगः / वीर्यमान्तरः शक्तिविशेषः / अन्तरायशब्दो विघातकः, स च प्रत्येकं संबध्यते / एतेषां पुनः 'विपाक' अनुभवं 'वोच्छामि' वक्ष्ये 'यथाऽनुपूर्व्या' यथापरिपाट्या / इति गाथार्थः // 159 // दानान्तरायस्य विषयमाह (पारमा०) 'तत्' अन्तरायं दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायाः पञ्च प्रकृता अस्मिन् दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायपश्चमयम् / एतेषां तु दानादीनां विपाकं भणामि 'यथानुपूा' आनुपूर्व्यनतिक्रमेण / इति गाथार्थः / / 156 // 1 व्याख्याकारेण तु “तहंतराईयं" इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् / 2 "तु” इत्यपि पाठः।३ व्याख्याकारेण तु“दाणभोगाई” इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् / 4 "पंचविहं"इत्यपि पाठः / ५“वुच्छाणि" इत्यपि पाठः, "मणामि य” इति पाठानुसारेण परमानन्दसूरीभिर्व्याख्यातम् / / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 ] कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे तत्र दानान्तरायमाह सइ फासुयंमि दाणे, दाणफलं तह य बुझई विउलं / बंभच्चेराइजुय, पत्तंपि य विज्जए 'तत्थ // 160 // (पू०) व्याख्या 'सति' विद्यमाने 'प्रासुके' निर्जीवे 'दाने' देयवस्तुनि, तथा न केवलं देयमस्ति, दानस्य यत् फलं स्वर्गापवर्गलक्षणं, तच्च बुध्यते 'अतुलं' अनन्यसाधारणं, न केवलं फलं वेत्ति, ब्रह्मचर्यादियुक्तम् , आदिशब्दादहिंसादिपरिग्रहः / पात्रमपि च देययोग्यं साधुरूपमपि च 'विद्यते' अस्ति 'अत्र' लोके दान प्रस्तावे / इति गाथार्थः / / 160 // उक्तं दानकारणम् , सत्यपि तस्मिन् दानान्तरायमाह- .. (पारमा०) 'सति' विद्यमाने 'प्रामुके' यतिजनग्रहणोचिते 'दाने' देयवस्तुनि न केवलं देयमस्ति / तथा दानफलं च 'अतुल्यं' असाधारणं स्वर्गापवर्गादि 'बुध्यते' जानाति दानसामग्रीपतितो जीव इति गम्यम् / न केवलं फलं वेत्ति, ब्रह्मचर्यादीति ब्रह्मचर्यज्ञानतपोयुक्तं पात्रमपि च विद्यते तत्रेति दानप्रस्तावे // 160 // दाउं नवरि न सकइ, दाणविघायस्स 'कम्मणो उदए / दाणंतरायमेय, लाभेवि य भण्णए विग्धं // 161 // (पू०) व्याख्या-दानसामग्र्यो सत्यामपि दातु" प्रयच्छयितु (वितरीतु') 'नवरं' केवलं 'न शक्नोति' नशक्तो भवति, क सति ? इत्याह-'दानविघातस्य कर्मण उदये' वितरणविघ्नकरस्य कर्मणो विपाके दानान्तरायं 'एतत्' कर्म / यदस्मिन् सति दानसामग्रीसद्भावेऽपि दानं न करोति / दानान्तरायमिदं प्रत्यक्षोक्तं / लाभेऽपि च, न केवलं दाने 'भण्यते' प्रतिपाधते 'विघ्न' अन्तरायम् / इति गाथार्थः / / 161 / / / तदेवाह (पारमा०) केवलमेवंविधायामपि सामग्- 'दानविघातस्य' दानविघ्नकरस्य कर्मण उदयाहातु न शक्नोति, एतद्दानान्तरायम् / लाभान्तरायं प्रस्तौति-लाभेऽपि च भण्यते 'विघ्न' अन्तरायम् / इति गाथाद्वयार्थः // 161 // प्रतिज्ञातमाह 1 व्याख्याकारेण तु “इत्य" इति पाठ आहतः / 2 प्रस्तावे च / ने० / 3 कम्मुणो इत्यपि पाठः / Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान-लाभभोगान्तरायाणां स्वरूपफलादिवर्णनम् / 84 जइवि पसिद्धो दाया, जायणनिउणोवि जायगो 'जइवि / 'न लहइ जस्सुदएणं, एय पुण लाभविग्धं तु // 162 // __ (पू०)व्याख्या-यद्यपि प्रसिद्धो भवति दाता, सर्वजनदायकत्वेन प्रसिद्धिं गतः, एकः कश्चिकस्यचिद्ददाति कस्यचिन्न स न प्रसिद्धः / यस्तु सार्वजनिकः स प्रसिद्धो भवति दाता / यद्यपि दाता प्रसिद्धो भवति तथाऽपि याचको न निपुणः ततो दानं न प्रवर्तते इत्याह-याचना मार्गणा तत्र निपुणो विज्ञानवान् , तथा याचते यथाऽदातापि ददाति, किं पुनर्दाता ? / याचको यद्यप्येवंभूतस्तथाऽपि नापि(?) नैव लभते' न प्राप्नोति दातुः सकाशात् , 'यस्य' कर्मणः 'उदयेन' विपाकेनैतत्पुनः 'लाभविघ्नं तु' लाभान्तरायमेव / ननु तदानान्तरायमेव किमितिकृत्वा दातुनोंच्यते, याबल्लाभान्तरायमुच्यते 'याचितुः ?, उच्यते-स्यादिदं वचो दानान्तरायमेव तन्न लाभान्तरायम् / यदि दाता यथा तस्य विवक्षितस्य न ददाति तथाऽन्यस्यापि यदि न कस्यचिद्दद्यातदा त्वदुक्तमेव स्यात् / यावता त्वसौ विवक्षितस्यैव न ददाति, अन्यस्य तु पुनः सर्वस्यापि ददाति तस्माल्लाभान्तरायमेव तत् , न दानान्तरायं दायकविषयं हि तद् ग्राहकविषयं तु, लाभान्तरायम् / इति गाथार्थः / / 162 / / उक्तं लाभान्तरायम् / अधुना भोगोपभोगसाधनसत्तायामप्युपभोगभोगयोर्विघ्नमाह___ (पारमा०) यद्यपि प्रसिद्धो दाता सर्वजनदायकत्वेन / यः किल कस्यचिद्ददाति कस्यचिन्न नस्मान निश्चयेन लाभः संभवतीति प्रसिद्धोपादानम् / एवंविधेऽपि दातरि अकालमार्गणउच्छजलभाषणादियाचकवैगुण्यादपि न दानसंभव इत्याह-याचननिपुणश्च याचको यद्यपि प्रसादपरं ज्ञात्वा प्रह्लादयन् तथा याचते यथाऽदाताऽपि ददाति, किं पुनाता ? | तथाऽपि न लभते * 'यस्य' कर्मण उदयेन, एतत्पुनर्लाभविघ्नं लाभान्तरायम् / इति गाथार्थः // 162 / / अथ भोगोपभोगयोर्विघ्नमाह मणुयत्तेवि 'हु पत्ते, लद्धवि हु भोगसाहणे विभवे / भुत्तुं नवरि न सका, विरइविहूणोवि जस्सुदए॥१६३।। (पू०) व्याख्या-मनुष्यत्वं पुरुषत्वं प्रधानं भोगोपभोगकरणं विकलादिगतौ तदयोग्यत्वात् तस्मात्तत्प्राप्तिरेव दुर्लभा, अतो दुर्लभे मनुजत्वे प्राप्तेऽपि तथा मनुजत्वे सत्यपि प्रधानं भोगकारणं विभवः, तदभावे तेषां भोक्तुमशक्य त्वात्परिभोक्तुम् (1), अत आह–'लब्धेऽपि च' 1 “जयवि" (?) इत्यपि पाठः। 2 "न वि लन्मइ जस्सुदए" इत्यपि पाठः / 3 याचयति (?) जे०। 4 यदा-ऽपि (?) जे० / 5 याचयितुः (?) जे०। ६"य" इत्यपि पाठः। 7 "लद्धेवि य मोगसाहणे विभवे / उवमुजिउं न सकइ" इत्यपि पाठस्तदनुसारेण व्याख्याकारेण व्याख्यातमस्ति / 8 त्वात् , अत जे०। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 कर्मविपाकाख्ये प्रथमे कर्मग्रन्थे प्राप्तेऽपि च 'भोगसाधने' भोगशब्दस्योपलक्षणत्वादोगोपभोगकारणे 'विभवे' धनादी. किम ? इत्याह-'उपभोक्तु' परिभोक्तु न शक्रोति' न शक्तः, कथंभूतः सन् ? इत्याह'विरतिविहीनोऽपि' विरतिरहितोऽपि 'यस्य' कर्मणः 'उदये' विपाके / इति गाथार्थः॥१६३।। तदेतत् किम् ? इत्याह (पारमा०) 'मनुष्यत्वे पि' विशिष्टभोगयोग्यताऽसाधारणकारणे प्राप्ते तत्रापि प्रधानं भोगसाधनं विभव इत्युक्तम् 'लम्धेऽपि' प्राप्तऽपि 'भोगसाधने विभवे भोजनताम्बूलविलेपनादिविधिप्रसाधने धने भोक्तु 'नवरं केवलं 'यस्य' कर्मणः 'उदये विपाके 'विरतिविहीनोऽपि भावनावशसमुत्थपरिहाराभिसन्धिशून्योऽपि कार्पण्याशक्त्यादिकारणवशान शक्नोति / / 163 // "भोगम्स विग्धमेय, उवभोगे आवि विग्धमवेव / भोगुवभोगाणेसिं, नवरि विसेसो इमो होइ // 164 // (पू०) व्याख्या-उप सामीप्येन भुज्यते परिसमन्तात् पुनः पुनर्वा भुज्यत इत्युपभोगस्तस्य विघ्न एतदुपभोगान्तरायम् / भोगोऽप्येवमेव उपभोगोक्तनीत्या, यथोपभोगेऽन्तरायमभिहितं तथाऽत्रापि विघ्न द्रष्टव्यम् / हुशब्दः पादपूरणः। ननु मूत्रोक्तं क्रममुल्लङ्घय किमर्थमुपभोगान्तरायव्याख्यातम् ? सूत्रक्रमात्प्रथमं भोगान्तरायं व्याख्यातुबुध्यते, अंत्रोच्यते-उपभोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थ व्यतिक्रमव्याख्यानम् / भोगोपभोगयोः कः प्रतिविशेषः ! इत्युच्यते, 'नवरं' केवलं विशेषः 'एषः' वक्ष्यमाणलक्षणः ('भवति' जायते) / इति गाथार्थः // 164 // ___ भोगोपभोगयोर्विषयव्यवस्थामाह (पारमा०) भोगविघ्नमेतदिति भोगान्तरायमिदमिति भावः / उपभोगे चापि विघ्नमेक्मेवेति पूर्ववत् / यदुदयेन मनुष्यत्वेऽपि प्राप्ते ललितललनाद्युपभोग्यतासंबन्धनिबन्धने लब्धेऽप्युभोगसाधने अमररमणीरामणीयकहठहरणप्रवीणपण्यतरुणीवशीकरणकार्मणसन्निभे विभवे ब्रह्मचर्यादिविशिष्टपरिणामापरिगतोऽपि कदर्यत्वासामर्थ्यादिकारणवशादुपभोक्तु न शक्नोति तदुपभोगा. न्तरायमिति भावः। भोगोपभोगयोरेतयोः केवलं विशेषः 'एषः' वक्ष्यमाणलक्षणो भवति / इति गाथाद्वयार्थः // 164 / / प्रतिज्ञातमाह सइ भुजइत्ति भोगो, सो 'पुण आहारपुप्फमा ईओ। उवभोगो 'य पुणो पुण, उवभुजइ भवणविलयाई // 165 // 1 "उवमोगविग्घमेयं, भोगेवि हु एवमेव विग्धं तु” इत्यपि पाठस्तदनुसारेण व्याख्याकारेण व्याख्यातम स्ति / / 2 भोगे जे / 3 “पुणु आहारपुप्फमाईणं" इत्यपि पाठः / 4 “उ” इत्यपि पाठः / . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोगोपभोगयोर्विशेषो वीर्यान्तरायस्वरूपफलादिवर्णनम् [87 - (पू.) व्याख्या-'सकृद्' एकयेव वारया विवक्षितं वस्तु भुज्यते, एका वा वारां भुज्यत इनि भोगः / म पुनः कः ? इत्याह-आहारश्चतुर्विधोऽशनपानखादिमस्वादिमरूपः, पुष्पाण्यादौ यस्याहारादः स आहारपुष्पादि ग्यं वस्तूच्यते आदिशब्दाद्विलेपनादिपरिग्रहः / उपभोगस्तु पुनः पुनर्भुज्यते, उप सामीप्येन वा भुज्यते उपभोगः / स च कः ? इत्याह-'भवनविलायादिः' भवनं धवलगृहादि, विलयादि कलत्रादि आदिशब्दादाभरणादिपरिग्रहः / इति गाथार्थः // 16 // अभिहितं भोगोपभोगान्तरायम् / साम्प्रतं वीर्यान्तरायमाह (पारमा०) 'सकृद्' एकवारं भुज्यत इति भोगः, स पुनराहारपुष्पादिकः / उपभोगश्च पुनः पुनरुपभुज्यते 'भवनवनितादिकः' गृहगृहिणीप्रभृतिकः / इति गाथार्थः // 165 // उक्तं भोगोपभोगयोरन्तरायं सकृत्पौनःपुन्यासेवनलक्षणो विशेषश्च / अधुना वीर्यान्तरायमाह बलवं रोगविउत्तो, वयसंपण्णोवि जस्स उदएणं / विरिएण होइ हीणो, वीरियविग्धं तु पंचमयं // 166 // (पू०) व्याख्या--'वलवान्' बलसंपन्नः 'रोगवियुक्तः' रोगरहितः 'वयःसंपन्नः' शरीरावस्थया विशिष्टवयोऽवस्थासंपन्नः, सोऽप्येवंभृतोऽपि 'यस्य' कर्मणः 'उदयेन' विपाकेन 'वीर्येण भवति होनः' अन्तःप्राणेन जायते रहितः / 'वीरियविग्धं तु पञ्चमयं वीर्यान्तरायमेव पश्चमकं संख्यया / इति गाथार्थः // 166 / / अन्तरायनिगमनद्वारेण प्रकरणपरिसमाप्ति प्रदर्शयन् प्रकरणकारः स्वनामाह (पारमा०) 'बलवं' इति बलवान् उपचितदेह इत्यर्थः / 'रोगवियुक्तः' कासश्वासादिरहितः 'वयःसंपन्नः' तारुण्यभरपरिगतः / एवंविधोऽपि 'यस्य' कर्मण उदयेन 'वीर्येण' शक्त्या हीनो भवति / केशोद्धरणकुसुमोचयादावप्यसमर्थः संपद्यते / तदित्यध्याहारात् तद्वीर्यान्तरायं पञ्चमकं भवति इति गाथार्थः // 166 / / सम्प्रत्यन्तरायनिगमनपूर्वकं प्रकरणकारः प्रकरणपरिसमाप्तिं स्वनाम चाह एवं पंच वियप्पं, अट्ठमय अंतराइय होइ / भणिओ कम्मविवागो, समासओ गग्गरिसिणा उ // 167 // व्याख्या-'एवं' उक्तन्यायेन 'पञ्चविकल्प' पश्चप्रकारं 'अष्ठमक' संख्ययान्तरायिक कर्म 'भवति' जायते / तदुक्ते 'भणितः' प्रतिपादितः 'कर्मविपाक' कर्मविपाकाख्यं प्रकरणं 'समासतः' संक्षेपतः / केन ? इत्याह-'गर्गर्षिणा तु' उत्तमसाधुनैव / इति गाथार्थः // 167 / ग्रं // 960 / / साम्प्रतं प्रकरणसंख्यामाह 1 “विगप्पं” इत्यपि पाठः। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमेविपायाख्यस्य प्रथमस्य कर्मग्रन्थस्थ समाग्निः (पारमा०) 'एवं' उक्तयुक्त्या 'पञ्चविकल्पं पञ्चप्रकारमष्टमकमन्तरायकं भवति / उक्तमन्तर यकं तदुक्तौ भणितः कर्मविपाकः / 'समासत:' संक्षेपतः 'गर्गऋषिणा' यतिमतल्लिकावृन्दवन्धपादपल्लवेन गर्गाभिधानमुनिनायकेन / इति गाथार्थः // 167 // अधुना ग्रन्थप्रमाणप्रतिपादनपुरस्सरं तत्परिज्ञानोपायप्रतिपादनद्वारेण पर्यन्तमङ्गलमाह एवं गाहाण मयं, अहिय छावट्ठिए उ पढिऊण / जो गुरु पुच्छइ नाही, कम्मविवागं च मो अइरा // 16 // (पू०) व्याख्या-'एवं' उक्तनीत्या ग्रन्थतो गाथाना 'शतमधिकं षट्पष्टया तु' षट्पष्टयैव चाधिकं शतं 'पठित्वा' कण्ठे कृत्वा. किम् ? इत्याह-यो 'गुरुं पृच्छति' आचार्य प्रश्नयति, विनेयो मानं विहाय, अनेन मानपरित्यागात्परलोकार्थिनाऽवश्यंतया तथा तथा गुरुरा: . राधनीयः प्रष्टव्यश्च, यथाऽसौ प्रानः सर्वस्वं कथयतीत्वावेदितम्', न पुनर्मानग्रस्तेन पुस्तकशिष्येण भाव्यम् , अविनयाज्ञाविराधनादिदोषप्रसङ्गात् / स चैवं भूतः ज्ञास्यत्येव= अवभोत्स्यत्येव 'कर्मविपाकं तु' कर्मस्वरूप तु 'सः' साधुः, अन्यो वा 'अचिरादेव' स्तोककालादेव / इति "गाथार्थः // 168 // ग्रन्थाग्रम् 967 // // इति कर्मविपाकमूत्रव्याख्या समाप्ता // ___ (पारमा०) एतद्गाथानां शतमधिकं षट्पष्ट्येति / आदिमान्तिमगाथयोनमस्कारकरणप्रकरणप्रमाणप्रतिपादनमात्रत्वेन ग्रन्थार्थानभिधायकत्वात्परमार्थतः परपष्टयैवाधिकं, तत्किम् ? इत्याह'पठित्वा' कण्ठगतं कृत्वा यो गुरु प्रश्न यति स ज्ञास्यत्यचिरात्कर्मविप कम् / गुरुनामग्रहणं च कुर्वता ग्रन्थकृता पर्यन्तमङ्गलं शिष्यसंतानस्याप्रच्युतस्मृतये कृतमिति गाथार्थः // 168 // श्रीभद्रेश्वरसूरिशिष्यतिलकश्रीशान्तिम रिप्रभोः, श्रीमन्तोऽभयदेवसूरिगुरवः सिंहासनोत्तंसकाः / तत्पादाम्बुजषट्पदेन परमानन्देन सत्प्रीतये, चक्रे कर्मविपाकवृत्तिमिषतः श्रोत्रैकलेह्य मधु // 1 // यन्नागमानुगामि स्या-न वा सङ्गतिमङ्गति / इह तत्साधुभिः शोध्य-मनभ्यर्थितवत्सलैः // 2 // प्रत्यक्षरं निरूप्यास्याः, ग्रन्थाग्रं परिनिश्चितम् / अनुष्टुभा नवशती, द्वाविंशत्यधिका 922 भवेत् / / 3 / / // इति पारमानन्दी कर्मविपाकवृत्तिः समाप्ता // १व्याख्याकारेण "तु" इति पाठ आहतः // 20 अधिकं जे० / 3 भूतः साधुः जे० / 4 बुध अवगमने जे० टिप्पणी / 5 गाथार्थः / छ / “छ" ||कर्मविपाकविवरणं समाप्तमिति // मंगल महाश्रीः' / शिवमस्तु सर्वजगतः // छ / छ / संवत् 1221 वर्षे माघशुदि 6 मौमे / / छ / छ / जे०। समाप्तोऽयं टीकाद्वयापेतः कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * [1 || ॐ हीं श्रीं अहं श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः // || न्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपादपद्मेभ्यो नमः / / || सकलागमरहस्यवेदिश्रीमदाचार्यविजयदानसूरीश्वरेभ्यो नमः // // कर्मसाहित्यनिष्णातश्रीमदाचार्यविजयप्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः / / खेतपटाचार्यश्रीमद्गोविन्दगणिगुम्फितटीकया समलकृतः कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / कर्मबन्धोदयोदीर्या-सत्तावैचित्र्यवेदिनम् / कर्मस्तवस्य टीकेयं, नत्वा वीरं विरच्यते // 1 // नमिऊण जिणवरिंदे, तिहयणवरनाणदंसणपईवे / बंधुदयसंतजुत्तं, वोच्छामि थयं निसामेह // 1 // पूर्वार्धेन मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारमाह-मङ्गलं चाविघ्नेन प्रकरणसमाप्त्यर्थम् / पश्चार्द्धन तु प्रयोजनादित्रयमिति गाथासमुदायार्थः, अवयवार्थस्तु नत्वा' प्रणम्य 'जिनवरेन्द्रान्' 'रागादिजयाजिनाः, ते च च्छद्मस्थवीतरागा अपि भवन्ति, अतः केवलिप्रतिपत्त्यर्थं वरग्रहणम् / जिनानां वरा जिनवराः, / ते च सामान्यकेवलिनोऽपि भवन्ति, अतोऽर्हत्प्रतिपत्यर्थमिन्द्रग्रहणम् / जिनवराजामिन्द्रा जिनवरेन्द्राः / जिनत्वे केवलित्वे च सति चतुस्त्रिंशत्रु द्धातिशेषरूपपरमैश्वर्यवन्त इत्यर्थः, तान् / तेषां वरशब्दलब्धं केवलित्वं विशेषणान्तरेण विवृणोति-त्रिभुवनवरज्ञानदर्शनप्रदोपान्' त्रीणि भुवनानि ऊद्धर्वाधस्तिर्यग्लोकरूपाणि, तेषां वराभ्यां केवलरूपतया ज्ञानदर्शनाभ्यां प्रदीपाः प्रकाशकास्तान , एवंविधान् जिनवरेन्द्रानत्वा ततः स्तवं वक्ष्यामीति संबन्धः / किंविशिष्टं स्तवम् ?, 'बन्धोदयसद्युक्तं' तत्र मिथ्यात्वादिभिर्बन्धहेतुभिरञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकवत् निरन्तरं पुद्गलनिचिते लोके कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलैरात्मनो वह्नययापिण्डवदन्योऽन्यानुगमाभेदात्मकः संबन्धो बन्धः / तेषां च यथा स्वस्थितिबद्धानां कर्मपुद्गलानां करणविशेषकृते स्वाभाविके वा स्थित्यपचये सत्युदयसमयप्राप्तानां विपाकवेदनमुदयः / उदयग्रहणेनोदीरणाऽपि तज्जातीया गृह्यते / सा पुनः कर्मपुद्गलानां करणविशेषजनिते स्थित्यपचये सत्युदयावलिकायां प्रवेशनमुदी 1 “रागारिजया" रागादिविजया” इति वा पाठः / 2 "द्धातिशय” इति वा / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे रणा / बन्धसङ्क्रमाभ्यां लब्धात्मलाभानां कर्मणां निर्जरणसङ्क्रमणकृतस्वरूपप्रच्युत्यभावे सद्भावः सत्ता / बन्धश्च उदयश्च सत् चेति बन्धोदयसन्ति, सदिति भावप्रधानेन निर्देशेन सत्तोच्यते, तैर्बन्धोदयसद्भियुक्तिः, तेषां व्यवच्छेदस्येह वर्णनात् , तं स्तवं वक्ष्यामि / स्तवस्त्वयमसाधारणसद्भूतगुणोत्कीर्तनरूपत्वात् / स त्विह गुणो बन्धोदयोदीरणासत्क्षयो जिनस्य वेदितव्यः / तथा च सदुद्देशाधिकारे वक्ष्यति “अडयालं पयउिसयं, खविय जिणं निव्वुयं वंदे" इति / सत्तापक्षये च बन्धोदयोदीरणा अपि क्षीणा एव भवन्तिः इति पृथक् तत्क्षयो नोक्तः / तत्क्षयोऽपि वा प्रतिगुणस्थानं तद्वयवच्छेदवचनेन पृथगुक्त एव / निशमयतेति शिष्यान् बोधयति / यमहं जिनस्य स्तवं वक्ष्ये तं 'निशमयत'शृणुत यूयं, तच्छ्वणस्य तदुक्तभगवद्गुणबहुमानद्वारेणाशयशुद्धया कर्मक्षयहेतुत्वाद्वस्तुस्वरूपावगतिहेतुत्वाच्च / तदवगतिहेतुत्वं च स्तावकवचनानामपि वस्तुस्वरूपवाचित्वेन प्रामाण्याभ्युपगमात् , तदेवमिह वक्तुरात्माशयविशुद्धिरनन्तरं स्तववचनस्य प्रयोजनं शिष्यानुग्रहश्च / श्रोतृणामपि स्वाशयविशुद्धिरेवगतिश्च / पारम्पर्येण तु स्वाशयविशु द्वेरुत्तरोत्तरविशुद्धिफलत्वादुभयेषां परमविशुद्धयात्मको निःश्रेयस इति प्रयोजनम् / अभिधेयं च बन्धादिव्यवच्छेदरूपमहंद्गुणनिकुरुम्बम् / संबन्धश्च स्तवप्रयोजनयोरुपायोपेयभावः। स्तवाभिधेययोस्तु वाच्यवाचकभाव इति दर्शितं वेदितव्यम् / / 1 / / कर्मणां च भगवतो न सर्वेषां युगपदेव बन्धादिव्यवच्छेदः, किं तर्हि ?, मिथ्यादृष्टयादीनि गुणस्थानानि परमपदप्रसादशिखरारोहणसोपानकल्पानि क्रमेणाधिरोहतः क्वचिदेव गुणस्थाने कियत्योऽप्येव कर्मप्रकृतयो बन्धमुदयमुदीरणां सत्ता वा प्रतीत्य व्यवच्छिन्नाः, तत्र तावद्धन्धं प्रतीत्य व कियत्यो व्यवच्छिन्नाः 1 इत्येतदाह 'मिच्छे सोलस पणुवी-स सासणे अविरए य दस पयडी। चउछक्कमेग देसे, विरए य कमेण वोच्छिन्ना // 2 // अधुना सुखप्रतिपत्त्यर्थ तावद्गुणस्थानानि लेशतो व्याख्याय पश्चादिमां गाथा व्याख्यास्यामः / तानि च गुणस्थानानि चतुर्दशधा, तद्यथा-मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् 1, सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् 2, सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् 3, अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् 4, देशविरतगुणस्थानम् 5, प्रमत्तसंयतगुणस्थानम् 6, अप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् 7, अपूर्वकरणगुणस्थानम् 8, अनिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थानम् 8, सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् 10, उपशान्तकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानम् 11, क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानम् 12, सयोगि १"-रापत्तिश्च / " इति वा पाठः // 2 कर्मस्तवमूलपुस्तकेष्वेतद्गाथाद्वन्दं दृश्यते-"मिच्छहिट्ठी 1 स्नासायणे 2 य तह सम्ममिच्छदिट्ठी 3 य / अविरयसम्मदिट्ठी 4, विरयाविरए 5 पमत्ते 6 य . 1 / तत्तो य अप्पमत्ते 7, नियट्टि 8 अनियट्टिबायरे 6 सुहुमे 10 / उवसंत 11 खीणमोहे 12 होइ सजोगी 13 अजोगी 14 य // 2 // " परं टीकाया अमावेन नाहतं मूले / / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थाननामस्वरूपवर्णनम् केवलिगुणस्थानम् 13, अयोगिकेवलिगुणस्थानं 14 चेति / तत्र गुणाः ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा जीवस्वभावविशेषाः, स्थानं पुनरत्र तेषां शुद्धयशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरूपभेदः, तिष्ठन्त्यस्मिन् गुणा इतिकृत्वा यथाऽध्यवसायस्थानमिति, गुणानां स्थानं गुणम्थानम् / / मिथ्या विपर्यस्ता दृष्टिहत्प्रणीतवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य भक्षितहत्पूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत् मिथ्यादृष्टिस्तस्य गुणस्थानं ज्ञानादिगुणानामविशुद्धिप्रकर्षविशुद्धयपकर्षकृतः स्वरूपविशेषो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् ?, ननु च दृष्टी विपर्यस्तायां तदाधारत्वाद् गुणानामभाव एव स्यात् तदभावे च कुतस्तत्स्वरूपविशेषात्मकं मिथ्यादृष्टेगुणस्थानम् इत्यत्रोच्यते-यद्यपि मिथ्यात्वमोहनीयोदयाद् दृष्टिविपर्यासम्तथाऽपि नैकान्तेनाम्य निगुणत्वं, अजीवत्वप्रसङ्गात् / तथा चार्षम्-"सव्वजोचाणं पि य णं अक्वरस्स अणंतभागो निच्चुग्घातिओ / जइ पुण सोवि आवरेज्जेजा तेणं जीवो अजोवत्तं पावेजा। सुठुवि मेहसमुदए होइ पहा चंदसूराणं' इत्यस्ति, तस्यापि या च यावती च गुणमात्रा दृष्टिविपर्यासेन तु साऽपि विपर्यस्तस्वरूपैवेति / जिनप्रणीतं चैकमप्यक्षरमश्रद्दधानो मिथ्यादृष्टिर्भवतीति / उक्तं च-"सूत्रोक्तस्यैकस्या-प्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्यादृष्टिः सूत्रं, हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् // 1 // " इति / ___ आयं सादयतीति आसादनं, अनन्तानुबन्धिकषायवेदनम् , नैरुक्तो यशब्दलोपः / सति हि तस्मिन्ननन्तसुखफलदनिःश्रेयसतरुबीजभूत औपशमिकसम्यक्त्वलाभो जघन्यतः समयेन उत्कृष्टतः षड्भिरावलिकाभिः सीदत्यपगच्छति / सहासादनेन वर्तत इति सासादनः / सम्यगविपर्यस्ता दृष्टिर्जिनप्रणीतवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः / सासादनश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्चेति सासादनसम्यग्दृष्टिः, तस्य गुणस्थानं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमिति / एतच्चैवं भवतिगम्भीरभवोदधिमध्यविपरिवर्ती जन्तुरनाभोगनिर्वार्तितेन गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पेन यथाप्रवृत्तिकरगेन संपादितान्तः सागरोपमकोटाकोटीस्थितिकस्य मिथ्यात्ववेदनीयस्य कर्मणः स्थितेरन्तर्मुहूर्तमुदयक्षणादुपर्यतिक्रम्यापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञिताभ्यां विशुद्धिविशेषाभ्यामन्तमुहूर्तकालप्रमाणमन्तरकरणं करोति / तस्मिन् कृते तस्य कर्मणः स्थितिद्वयं भवति, अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमस्थितिरन्तमुहूर्तमात्रा, तस्मादेवोपरितनी शेषा द्वितीयस्थितिरिति / स्थापनेयम्-4 तत्र प्रथमस्थितौ मिथ्यात्वदलिकवेदनादसौ मिथ्यादृष्टिः / अन्तमुहूर्तेन तु तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवौपशमिकं सम्यक्त्वमामोति मिथ्यात्वदलिकवेदनाभावात् , यथा हि वनदवानलः पूर्वदग्धेन्धनमूपरं वा देशमवाप्य विध्यायति, तथा मिथ्यात्ववेदनाग्निर न्तरकरणमवाप्य विध्यायति / तस्यामान्तमौहूर्तिक्यामुपशान्ताद्धायां परमनिधिलाभकल्पायां जघन्येन समयशेषायामुत्कर्षेण षडावलिकाशेषायां कस्यचिदनन्तानुबन्ध्युदयो भवति / तदुदये Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे चासौ सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने वर्तते, उपशमश्रेणिप्रतिपतितो वा कश्चित्सामादनत्वं याति / तदुत्तरकालमवश्यं मिथ्यात्वोदयादसौ मिथ्यादृष्टिर्भवतीति 2 / / सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिर्यस्य स सम्यग्मिथ्यादृष्टिः, तस्य गुणस्थानं सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानम् / वर्णितविधिना लब्धं सम्यक्त्वमौषधविशेषकल्पमासाद्य मदनकोद्रवस्थानीयं दर्शनमोहनीयं अशुद्धं कर्म विधा करोति, अशुद्धं 1 अर्द्धविशुद्धं 2 विशुद्धं 3 चेति / स्थापना त्रयाणां चैतेषां पुञ्जानां मध्ये यदाऽर्द्धविशुद्धः पुञ्ज उदेति _ तदा तदुदयवशादर्द्धविशुद्धमर्हदृष्टतत्त्वश्रद्धानं भवति जीवस्य, तेन तदाऽसौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमन्तमुहूर्त कालं स्पृशति, तत ऊर्ध्वमवश्यं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा गच्छतीति 3 // तथा विरतिर्विरतं, 'नपुसके भावे क्तः' तत्पुनः सावद्ययोग: . प्रत्याख्यानं, तन्न जानाति नाभ्युपगच्छति न तत्पालनाय यतत इति त्रयाणां पदानामष्टौ भङ्गाः। तज्ज्ञापनाय स्थापना- न ना न | तत्र प्रथमेषु चतुर्यु भङ्गेषु मिथ्यादृष्टिरज्ञानित्वाल्लभ्यते / शेषेषु त्रिषु सम्यग्दृष्टिः, तस्य हि ज्ञानमेव भवतीति सप्तसु भङ्गेषु नास्य विरतमस्तीत्यविरतो भवति / न पा | चरमभङ्गे तु विरतिरस्तीति / / अविरतश्चासौ | जा ना न | सम्यग्दृष्टिश्चेत्यविरतसम्यग्दृष्टिः. तस्य गुणस्थानमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् | जान सम्यग्दृष्टित्वं पुनरौपशमिकसम्यक्त्वे वर्णितान्तरकरणकालसंभवे विशुद्धदर्शन- जा 5 पा | मोहपुञ्जकोदयकालसंभवे वा क्षायोपशमिकसम्यक्त्वे सर्वदर्शनमोहक्षयसंभवे वा क्षायिकसम्यक्त्वे सति भवति, विरतः पुनरप्रत्याख्यानावरणकषायोदयवशान भवति / ते ह्यन्पमपि प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीति नोऽल्पार्थत्वादप्रत्याख्यानावरणा उच्यन्ते इति 4 // एकव्रतविषयस्थूलसावद्ययोगादौ सर्वव्रतविषयानुमतिवर्जसावधयोगान्ते करणत्रययोगत्रयविषयसर्वसावद्ययोगस्य देशे विरतमस्यास्तीति देशविरतः / सर्वसोवद्ययोगप्रत्याख्यानरूपं तु विरतमस्य नास्ति, प्रत्याख्यानावरणकषायोदयात् / सर्वविरतिरूपं हि प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणा उच्यन्त इति 5 / संयच्छति स्म सम्यगुपरमति स्म यावजीवं सर्वसावधयोगादिति संयतः / “कर्तरि निष्ठा गत्यर्थाकर्मका" इत्यादिसूत्रेण, प्रमदनं प्रमत्तं प्रमादः, स च विकथाकषायमद्यविकटेन्द्रियनिद्रारूपाणां पश्चानामन्यतमः प्रमत्तमस्यास्तीति अर्शआदित्वाद् अचः मत्वर्थीयस्योपादानात् प्रमत्तः प्रमादवानित्यर्थः, स चासौ संयतश्चेति प्रमत्तसंयतस्तस्य संबन्धिनां गुणानां स्थानं विशुद्धयविशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरूपविशेषः / तथाहिदेशविरतगुणादेतद्गुणानां विशुद्धिप्रकर्षोऽशुद्धथपकर्षश्च, अप्रमत्तसंयतगुणापेक्षया तु विपर्यय इति जाना पा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्मिथ्यात्वादिगुणस्थानस्वरूपवर्णनम् एवमन्यगुणस्थानेष्वपि गुणस्थानयोजना द्रष्टव्या पूर्वोत्तरापेक्षया विशुद्धयविशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतेति 6 // नास्ति प्रमत्तमस्येति अप्रमतो विकथादिप्रमादरहितः / अप्रमत्तश्चामो संयतश्चेत्यप्रमत्तसंयतस्तस्य गुणस्थानम् 7 // अपूर्वं करणं स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसङ्कमस्थितिबन्धानां पञ्चानामर्थानां निवर्तनमस्यासावपूर्वकरणः, तथाहि-यावत्प्रमाणमसी पूर्वगुणस्थानविशुद्धया स्थितिखण्डकं रसखण्डकं वा हतवान , ततो बृहत्तरप्रमाणमपूर्वमस्मिन् गुणस्थाने हन्ति / उपरितनस्थितेर्विशुद्धिवशादपवर्तनाकरणेनावतारितस्य दलिकस्यान्तमुहूर्तप्रमाणमुदयक्षणादुपरि क्षिप्रतरक्षपणाय प्रतिक्षणमसंख्येयगुणवृद्धया विरचनं गुणश्रेणिरित्युच्यते / स्थापना / एतां च पूर्वगुणस्थानेष्वविशुद्धतरत्वात् कालतो द्राधीयसीमप्रथीयसी च दलिकस्याल्पतरस्यापवर्तनाद्विरचितवान् / इह तु विशुद्धतरत्वादपूर्वां कालतो इस्वतरां पृथुतरां च बहुतरदलिकापवर्तनाद्विरचयति / स्थापना / शुभप्रकृतिष्वशुभप्रकृतिदलिकस्य प्रतिक्षणमसंख्येयगुणवृद्धया विशुद्धिवशान्नयनं गुणसङ्क्रमः, तमिहासावपूर्व करोति / स्थितिं च कर्मणां द्राधीयसी प्राग्वद्धवान् , इह तु तामपूर्वा इसीयसी बध्नाति विशुद्धतरत्वादिति / पश्चाप्यपूर्वाणि करणान्यस्य / स च द्विधा, क्षपक उपशमको वा / क्षपणोपशमनार्हत्वात् , राज्यार्हकुमारराजवत् , न पुनरसौ क्षपयत्युपशमयति वा, तस्य गुणस्थानं अपूर्वकरणगुणस्थानम् / अपूर्वकरणाद्धायाश्चान्तमौहर्तिक्याः प्रथमसमये जघन्यादीन्युत्ष्टटान्तान्यध्यवसायस्थानानि असंख्येयलोकाकाशप्रदेशमात्राणि / द्वितीयसमये तदन्यान्यधिकतराणि / तृतीयसमये तदन्यान्यधिकतराणि चतुर्थसमये / तदन्यान्यधिकतराणीत्येवं यावञ्चरमसमय इति / तानि च स्थापनायां विषमचतुरस्र क्षेत्रमास्तृणन्ति स्थापना 7000000000 प्रथमसमयंजघन्यात्प्रथमसमयोत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धम् / तस्माद् द्वितीयसमय- 50000000 जघन्यमनन्तगुणविशुद्धम् , तस्मात्तदुत्कृष्टमनन्तगुणेन विशुद्धमिति / एवं याव- 3 द्विचरमसमयोत्कृष्टाचरमसमयजघन्यमनन्तगुणविशुद्धम् , तस्मात्तदुत्कृष्टम- 20000 नन्तगुणविशुद्धमिति। एकसमयगतानि तु परस्परं षट्स्थानपतितानीति / युग- ज०म० उ० पदेतद्गुणस्थानप्रविष्टानां बहूनां जीवानामन्योऽन्यस्य संबन्धिनोऽध्यवसायस्थानस्यास्ति निवृत्तिरपीति निवृत्तिगुणस्थानमपीदमुच्यते 8 // युगपदेकंगुणस्थानं प्रतिपन्नानां बहूनां जीवानामन्योऽन्यस्य संबन्धिनोऽध्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिरिह निवृत्तिरभिप्रेता, नास्ति तथाविधा निवृत्तिरस्येत्यनिवृत्तिः, अन्येषां यदध्यवसायस्थानमसावपि नद्वर्तीत्यर्थः, सम्परायः कषायोदयः,समन्तात्परैति पर्यटति संसारमनेनेतिकृत्वा। बादरः स्थूलः सम्परायो यस्य स बादरसम्परायः, सूक्ष्मकिट्टीकृतसम्परायापेक्षया बादरत्वम्। अनिवृत्तिश्चासौ बाद 600000000 4000000 380000 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे रसम्परायश्वेत्यनिवृत्तिवादरसम्परायः / स च द्विविधः, क्षपक उपशमको वा, क्षपयति उपशमयति वा मोहनीयादिकर्मे ने कृत्वा, तस्य गुणस्थानं अनिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थानम् / अनिवृत्तिवादरसम्परायाद्धायामान्तमौहूर्तिक्यां प्रथमसमयादारभ्य प्रतिसमयमेकैकमनन्तगुणविशुद्धं यथोत्तरमध्यवमायस्थानम् तेन तत्रैकसमयप्रविष्टानामेकमध्यवसायस्थानमनुवर्तते परस्परं न तु निवर्तत इत्यनिवृत्तित्वम् 9 // सूक्ष्मः सम्भरायः किट्टीकृतलोभकपायोदयरूपो यस्य सोऽयं मूक्ष्मसम्परायः। सोऽपि द्विविधः, क्षपकः उपशमको वा / क्षपयत्युपशमयति वा लोभमेकमितिकृत्वा. तस्य गुणस्थानम् 10 // छाद्यते केवलज्ञानदर्शनमात्मनोऽनेनेऽति च्छद्म ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायमोहनीयकोदयः, सति तस्मिन् केवलस्यानुत्पादात्तदपगमानन्तरं चोत्पादाच्छद्मनि तिष्ठतीति छद्मस्था, स च सरागोऽपि भवतीत्यतस्तद्वयवच्छेदार्थ वीतरागग्रहणम् / वीतो विगतो रागो मायालोभकषायोदयरूपो यस्य स वीतरागः, स चासो छद्मस्थश्च वीतरागच्छद्मम्थः / स च क्षीणकषायोऽपि भवति, तस्यापि यथोक्तरागापगमादतस्तद्वयवच्छेदार्थमुपशान्तकपायग्रहणम् / कषऋषशिषेत्यादिदण्डकधातुर्हिसार्थः / कषन्ति कप्यन्ते च परस्परमस्मिन प्राणिन इत कपः संसारः / 'पुसि संज्ञायां घः प्रायंण' (पा० 3-3-18) इति घः प्रायग्रहणात् , अन्यथा हि हलन्तत्वात् 'हलच' (पा०३-३-१२१) इति पञ् स्यात् / कपमयन्ते गच्छन्ति एभिर्जन्तव इति कषायाः क्रोधादयः / उपशान्ता उपशमिता विद्यमाना एव सङ्क्रमणोद्वर्तनापवर्तनादिकरणोदयायोग्यत्वेन व्यवस्थापिताः कषाया येन स उपशान्तकषायः. स चासो वीतरागच्छद्मस्थश्वेत्युपशान्तकवायवीतरागच्छद्मस्थः तस्य गुणस्थानमिति प्राग्वत् / तत्राविरतसम्यग्दृष्टः प्रभृत्यनन्तानुबन्धिनः कषाया उपशान्ताः संभवन्ति / उपशमश्रेण्यारम्भे ह्यनन्तानुबन्धिकषायानविरतो देशविरतः प्रमत्तोऽप्रमत्तो वा सन् उपशमय्य दर्शनमोहत्रितयमुपशमयति / तदुपशमानन्तरं प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानपरिवृत्तिशतानि कृत्वा ततोऽपूर्वकरणगुणस्थानोत्तरकालमनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थाने चारित्रमोहनीयस्य प्रथमं नपुंसकवेदमुपशमयति, ततः स्त्रीवेदम् , ततो हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सारूपं युगपत् षट्कम् 6, ततः पुरुषवेदम् , ततो युगपदप्रत्याख्यानापरणप्रत्याख्या नरवरणों क्रोधौ, ततः संज्वलनक्रोधम् , ततो युगपद्वितीयतृतीयौ मानौ ततः संज्वलनमानम् , ततो युगपद्वितीयतृतीये माये, ततः संज्वलनमायाम् , ततो युगपद्वितीयतृतीयों लोभौ, ततः सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने संज्वलनलोभमुपशमयतीति / तदेवमन्येष्वपि गुणस्थानेषु कापि कियतामपि कपायाणामुपशान्तत्वसंभवात् उपशान्तकषायव्यपदेशः संभवतीत्यतस्तद्वयवच्छेदार्थमुपशान्तकषायग्रहणे सत्यपि वीतरागग्रहणं कर्तव्यम् / उपशान्तकषायवीतराग इति चैतावतै वेष्टसिद्धौ छद्मस्थग्रहणं स्वरूपकथनार्थम् , व्यवच्छेद्याभावात् / न ह्यच्छमस्थ उपशान्तकषायवीतरागः संभवति, यस्य च्छद्मस्थग्रहणेन व्यवच्छेदः स्यात् 11 // Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृन्ममम्परायादिगुणस्थानम्वरूपवर्णनम् क्षणा अभावमापन्नाः कपाया यस्य स क्षीणकषायः / तत्रानन्तानुवन्धिकपायान प्रथममविरतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तगुणस्थानेषु क्षपयति / दर्शनत्रितयं चेतेषु पूर्वोक्तगुणस्थानेषु क्षपयति / ततः शेषान् संज्वलनलोभवर्जाननिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थाने वक्ष्यमाणेन क्रमेण क्षपयति / संज्वलनलोभं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान इति / तदेवमन्येष्वपि सरागेषु क्षीणकषायव्यपदेशः संभवति क्वापि कियतामपि कषायाणां क्षीणत्वसंभवात् , अतस्तद्वयवच्छेदार्थं वीतरागग्रहणम् / श्रीणकषायवीतरागत्वं च केवलिनोऽप्यस्तीति तद्वयवच्छेदार्थ छद्मस्थग्रहणम् / छद्मस्थग्रहणेऽपि च कृते सरागव्यवच्छेदार्थ वीतरागग्रहणम् / वीतरागश्चासौ छद्मस्थश्चेति वीतरागच्छद्मस्थः / स चोपशान्तकपायोऽप्यस्तीति तद्वयवच्छेदार्थ क्षीणकषायग्रहणम् / क्षीणकषायश्चासौ वीतरागच्छअस्थश्च क्षीणकपायवीतरागच्छमस्थः तस्य गुणस्थानमिति प्राग्वत् 12 // वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमसमुत्थलब्धिविशेषप्रत्ययमभिसन्ध्यनभिसन्धिपूर्वमात्मनो वीर्य योगः / स द्विधा, सकरणोऽकरणश्च / तत्रालेश्यस्य केवलिनः कृत्स्रयोज्ञेयदृश्ययोरर्थयोः केवलं ज्ञानं दर्शनं चोपयुञ्जानस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतिधो वीर्यविशेषः सोऽकरणः, स च नेहाधिक्रियते / यस्तु मनोवाकायकरण साधनसलेश्यजीवक को जीवप्रदेशपरिस्पन्दात्मको व्यापारः स सकरणस्तेकेवलिनो नेहाधिकारः / स च करणभेदात्तिस्रः संज्ञा लभते, तद्यथा-कायिकोवाचिको मानसश्चेति / नत्र भगवतोऽभिसन्धिपूर्वस्त्रिविधोऽपि भवति / कायिकश्चक्रमणनिमेषोन्मेषादौ / वाचिको देशनादौ / मानसो मनःपर्यायज्ञानिभिरनुत्तरसुरादिभिर्वा मनसा पृष्टस्य सतो मनसैव देशनायाम् , ते हि भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रष्टव्याणि मनःपर्यायज्ञानेनावधिज्ञानेन च पश्यन्ति, ततस्तद्वारेण पृष्टमर्थमवगच्छन्ति / सह योगेन वर्तत इति सयोगः सयोगीति वा, बहुव्रीहेमत्वर्थीय इति यथा -सर्वधनीत्यादी सर्वधनादेराकृतिगणत्वात् , केवलमेकमसहायमसाधारणमनन्तमपरिशेषं च / तत्रैकं तद्भावे छानस्थिकशेषज्ञानदर्शनाभावात / 'उक्तं च-"उप्पन्नंमि अणंते, नठमि य छाउमथिए नाणे" इति / असहायं न तु मतिज्ञानवदिन्द्रियमनःकृतसहायकापेक्षमर्थग्रहणे प्रवतते, परनिरपेक्षनिरावरणात्मस्वभावत्वात् / असाधारणमनन्यसदृशं, तदन्यस्यैवंविधज्ञानदर्शनाभावात् / अनन्तमपर्यवसानं, पुनस्तत्स्वरूपतिरस्करणकारणघातिकर्माऽत्यन्तक्षयोद्भूतत्वात् द्रव्याघनन्तज्ञेयग्रहणात्मकत्वाद्वा अनन्तम् / अपरिशेषं संपूर्ण, संभिन्नापरिशेषद्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणवस्तुग्रहणस्वरूपत्वात् / तच्च द्विविधं, ज्ञानं दर्शनं चेति / तत्केवलं यस्यास्तीति स केवली, सयोगी चासौ केवली चेति सयोगिकेवली तस्य गुणस्थानं तथैव 13 / / नास्ति यथोक्तो योगो निरुद्धत्वादस्यत्ययोगः अयोगीति वा पूर्ववदिति / स त्रिविधोऽपि योगः प्रत्येकं द्विविधः, सूक्ष्मो बादरश्च / तत्र केवलोत्पत्तेरुत्तरकालं जघन्येनान्तमुहूर्तमुत्कर्षेण देशो 1 "तदुक्तम्" इत्यपि पाठः // Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे नपूर्वकोटी विहृत्यान्तमु हूतावशेषायुष्कः सयोगिकेवली प्रथमं बादरकाययोगेन बादरवाङ्मनोयोगी निरुणद्धि / ततः सूक्ष्मकाययोगेन बादरं काययोगं निरुणद्धि, सति तस्मिन् सूक्ष्मयोगस्य निरोद्धमशक्यत्वात् / ततश्च सर्वबादरयोगनिरोधानन्तरं सूक्ष्मक्रियमनिवर्तिशुक्लध्यानं ध्यायन सूक्ष्मकाययोगेनसूक्ष्यवाङ्मनोयोगौ निरुणद्धि / ततस्तमेव सूक्ष्मकाययोगं स्वात्मनैव निरुणद्धि / तन्निरोधानन्तरं समच्छिन्नक्रियमप्रतिपातिशुक्लध्यानं ध्यायन हस्वपश्चाक्षरोच्चारणमात्रं कालं शैलेशीकरणं प्रविष्टो भवति शीलस्य योगलेश्याकलङ्कविप्रमुक्तयथाख्यातचारित्रलक्षणस्य य ईशः स शीलेशः, तस्येयं शैलेशी / त्रिभागोनस्वदेहावगाहनायामुदरादिरन्ध्रपूरणवशात्सङ्कोचितस्वप्रदेशस्य शीलेशस्यात्मनोऽत्यन्तं स्थिरावस्थितिरित्यर्थः / तस्यां करणं पूर्वरचितशैलेशीसमयसमानगुणश्रेणीकस्य वेदनीयनामगोत्राख्यस्याघातिकमंत्रितयस्यासंख्येयगुणया श्रेण्या, आयुःशेषस्य तु यथास्वरूपस्थितया श्रेण्या निर्जरणं शैलेशीकरणम् , तच्चासौ प्रविष्टः सन अयोगी चासौ केवली चेत्ययोगिकेवली भवस्थः / स च शैलेशीकरणचरमसमयान्तरसमये छिन्नचतुर्विधकर्मबन्धनत्वाच्छिन्नफलबन्धनैरण्डबीजवद्गतिप्रवृत्तेः, व्यवगतकर्मलेपसङ्गत्वात् / विगतमृल्लेपसङ्गगम्भीरजलतलवयु परितलगाम्यलाबुवत् सर्वथा विप्रहाय शरीरत्रयमूर्धमृजुश्रेण्या समयेन गच्छत्यालोकान्तरम् , न परतोऽपि, मत्स्यवजलकल्पगत्युषष्टम्भकधर्मास्तिकायाभावात् / तत्रासो सिद्धोऽयोगिकेवली शाश्वतं कालमास्ते 14 / / इति व्याख्यातानि लेशतो गुणस्थानकानि / ' गाथाऽधुना वित्रियते-'मिच्छे' इति, भीमसेनो भीम इत्यादिवत्पदवांच्यस्यार्थस्य पदैकदेशेनाप्यभिधानदर्शनान्मिथ्या दृष्टिगुणस्थानमित्यर्थः / एवमुत्तरेष्वपि पदवाच्यस्यार्थस्य पदैकदेशप्रयोगो द्रष्टव्यः / तत्र षोडशेति बन्धमाश्रित्य कर्मप्रकृतय इति प्रक्रमाद्गम्यते / व्यवच्छिन्ना इति वक्ष्यमाणेन संबन्धः / तत्र भावस्तदुत्तरेषु चाभावो व्यवच्छेदार्थः / केवलज्ञानं जम्बूस्वामिनि यथा, विंशत्युत्तरं च कर्मप्रकृतिशतं बन्धेऽधिक्रियते तच्च दर्शयिष्यामः / तत्र तीर्थकरनाम्न आहारकद्वयस्य च मिथ्यादृष्टेबन्धो नास्ति, तद्वन्धस्य यथासङ्घय सम्यक्त्वसंयमप्रत्ययत्वात् / उक्तं च-“सम्मत्तगुणनिमित्तं, तित्थयरं संजमेण आहारं" इति / शेषस्य सप्तदशोत्तरस्य कर्मप्रकृतिशतस्य मिथ्यादृष्टेन्धि इति / 'पणुवोस सासणे' इति, पञ्चविंशतिः कर्मप्रकृ. तयः सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने बन्धं प्रतीत्य व्यवछिन्नाः / इह तु मिथ्यादृष्टिषोडशके सप्तदशोत्तरशतादपनीते शेषस्यैकोत्तरशतस्य बन्धः / तीर्थकरनाम्नस्तु सत्यपि तत्प्रत्यये सम्यक्त्वे नास्तीह बन्धः, तस्य हि बन्धारम्भः शुद्धसम्यग्दृष्टेरेव भवति / तत्सत्कर्मा च सासादनत्वं न प्राप्नोति / सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने तु देवमनुष्यायुषोरपि बन्धो नास्ति, आयुर्वन्धाध्यवसायस्थानविरहात् / अतस्तत्सहितायां सासादनव्यवच्छिन्नपञ्चविंशतावेकोत्तरशतादपनीतायां शेष 1 "न्तात् , न” इत्यपि // 2 "धानान्मिथ्या” इति वा पाठः। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धमाश्रित्य गुणस्थानकेषु व्यवछिद्यमानप्रकृतिसङ्ख्या (7 चतुःसप्ततेर्वन्धः 'अविरए य दस पयडो' इति, अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने दश प्रकृतयो बन्धं प्रतीत्य व्यपच्छिमाः। पूर्वोक्तायां चतुःसप्ततौ देवमनुष्यायुष्कतीर्थकरनामसु प्रक्षिप्तेषु सप्तसप्ततेन्धः / 'चउ छक्कमेग देसे, विरए य कमेण वोच्छिन्ना' इति, चतस्त्रः पटक एक देशे इति देशविरतगुणस्थाने, विरते चेति विरतो द्विविधः, प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च तस्मिन्निति / कमुक्तं भवति ?-देशविरतगुणस्थाने चतस्रः प्रमत्तसंयतगुणस्थाने, षट्कं अप्रमत्तसंयतगुणस्थाने त्वेका कर्मप्रकृतिः क्रमेण यथासंख्यं व्यवच्छिन्नाः / तत्र देशविरतगुणस्थाने दशसु प्रकतिषु अविरतसम्यग्दृष्टिव्यवच्छिन्नासु सप्तसप्ततेरपनीतासु शेषायाः सप्तषष्टेर्बन्धः / प्रमत्तसंयतगुणम्थाने तु देशविरतव्यवच्छिन्नासु चतसृषु प्रकृतिषु सप्तष टेरपनीतासु शेषायास्त्रिषष्टेर्वन्धः / अप्रमत्तसंयतगुणस्थाने तु प्रमत्तसंयतव्यवच्छिन्नासु षट्सु प्रकृतिषु त्रिषष्टेपनीतासु शेषायां सप्त पश्चाशति द्वयोराहारकशरीराहारकाङ्गोपाङ्गयोः प्रक्षिप्तयोरेकोनषष्टेबन्धः / प्रमत्तसंयतगुणस्थाने तु तत्प्रत्यये संयमे सत्यपि नास्त्याहारकद्वयवन्धः, तस्य प्रमादरहितविशिष्टसंयमप्रत्ययत्वात् / देवायुषस्तु बन्धे व्यवच्छिन्ने सत्यप्रमत्तसंयतस्याप्यष्टपञ्चाशतो बन्धः // 2 // दुगतीसचउरपुव्वे, पंच नियट्टिमि बंधवोच्छेओ। मोलस सुहुमसरागे, माय मजोगी जिणवरिंदे // 3 // (टीका) 'दुगतीसचउरपुव्वे' इति, अपूर्वकरणगुणस्थाने त्वन्तमुहूर्तमात्रायास्तदद्धायाः भागसप्तकम् / तत्र प्रथमे सप्तभागे द्विकस्य बन्धव्यवच्छेद इति वक्ष्यमाणेन संबन्धः / पष्ठे सप्तभागे त्रिंशतः, चरमे सप्तभागे चतसृणां प्रकृतीनां वन्धव्यवच्छेदः / तत्र प्रथमे सप्तभागे प्रागुक्ताया अष्टपञ्चाशतो बन्धः / द्वितीयादिभागेपु तु प्रथमभागव्यवच्छिन्नं प्रकृतिद्वयमष्टपञ्चाशतः शोध्यते, शेषायाः षट्पञ्चाशतो बन्धः / सप्तमभागे षष्ठभागव्यवच्छिन्नायां त्रिंशति षट्पञ्चाशतः शोधितायां शेषायाः षड्विंशतेर्बन्धः / 'पंच नियटिमि बंधवोच्छेओ' इति, अनिवृत्तिवादर सम्परायगुणस्थाने पश्चानां कर्मप्रकृतीनां बन्धव्यवच्छेदः / 'पञ्च' इति, छन्दोवशादापत्वाच्च षष्ठयर्थ प्रथमा, दृश्यते ह्या विभक्तिव्यत्ययः / तद्यथा-'अन्नत्थूससिएण' इति / अन्यत्रोच्छचसितादिति पश्चम्यर्थे तृतीया / एवं द्विकत्रिंशचतुरित्यत्रापि समाहारद्वन्द्वात्पष्ठयर्थे प्रथमा द्रष्टव्या। तासां च पश्चानां न युगपद्धन्धव्यवच्छेदः, किन्तु क्रमेणानिवृत्त्यद्धायाः पञ्चसु भागेषु एकस्याः कर्मप्रकृतेः प्रथमभागे, द्वितीयस्या द्वितीये, तृतीयस्यास्तृतीये, चतुर्थ्याश्चतुर्थे, पञ्चम्याः पञ्चमे भागे बन्धव्यवच्छेद इति / तत्र प्रथमे भागे चतसृषु प्रकृतिष्वपूर्वकरणगुणस्थानसप्तमभागव्यवच्छिन्नासु पड्विंशतेरपनीतासु शेषाया द्वाविशतेन्धिः / द्वितीयभागे प्रथमभागव्यवच्छिन्नामेकामपनीय शेष कविंशतेर्वन्धः / तृतीये भागे द्वितीयभागव्यवच्छिन्नामेकामपनीय शेषाया विंशत Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मप्रन्थे न्धः / चतुर्थभागे तु तृतीयभागव्यवच्छिन्नामेकां मुक्त्वा शेषाया एकानविंशबन्धः / पञ्चमभागे तु चतुर्थभागे व्यवच्छिन्नामेको मुक्त्वा शेषाणामष्टादशानां बन्धो बोद्धव्यः / 'सोलस सुहमसरागे' इति, सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने षोडशेति विभक्तिव्यत्ययात्षोडशानां कर्मप्रकतीनां बन्धव्यवच्छेदः / इह चानिवृत्तिवादरसम्परायपश्चमभागव्यवच्छिन्नायामेकस्यां कर्मप्रकृतावष्टादशभ्योऽपनीतायां शेषाणां सप्तदशानां बन्धः / 'साय सजोगी जिणवरिंदे' इति, सयोगिकेवलिगुणस्थाने सातस्यैकस्य बन्धव्यवच्छेदः / जिनवरेन्द्र इति पूर्ववत् / सूक्ष्मसम्परायव्यवच्छिन्नासु षोडशसु प्रकृतिषु सप्तदशभ्योऽपनीतासूपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिगुणस्थानेषु शेषाया एकस्याः सातवेदनीयकर्मप्रकृतेर्वन्धः / अयोगिकेवली त्वबन्धकः, पुद्गलग्रहणहेतोर्योगस्याभावात् / उक्तं हि-'जोगा पगइपएसं' इति // 3 // उक्तो गुणस्थानेषु प्रकृतिबन्धव्यवच्छेदोद्देशः / इदानीं तेष्वेव क्क कियतीनां कर्मप्रकृतीनामुदयव्यवच्छेदः ? इत्याह पण नव 'इग सत्तरसं, अड पंच य चउर छक्क छ च्चेव। .. इग दुग सोलस तीसं, बारस उदए 'अजोगंता॥४॥ पश्च 1 नव 2 एका 3 सप्तदश 4 अष्टौ 5 पञ्च 6 च चतस्त्रः 7 षट्कं 8 षट् 9 चैव . एका 10 द्विकं 11 षोडश 12 त्रिंशत् 13 द्वादश 14 कर्मप्रकृतयो यथासङ्खथ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानप्रभृत्ययोग्यन्ता योज्याः / कर्मप्रकृतीनां च द्वाविंशं शतमुदयोदीरणयोरधिक्रियते, तच्च दर्शयिष्यामः / तत्र-मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने पश्चानामुदयव्यवच्छेदः पूर्वोक्त एव व्यवच्छेदार्थः सर्वत्रानुसरणीयः इह सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वाहारकशरीरतदङ्गोपाङ्गनामतीर्थकरनाम्नां पश्चानां प्रकृतीनामुदयो मिथ्यादृष्टेर्नास्ति / शेषस्य सप्तदशोत्तरस्य शतस्योदयः / सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने नवानामुदयव्यवच्छेदः / सासादनभावस्थस्य नरकेधूत्पादो न संभवतीति तदपान्तरालगतिभावी नरकानुपूर्व्या नास्त्युदय इति तत्सहिते मिथ्यादृष्टिव्यवच्छिन्ने पञ्चके सप्तदशोत्तरशतादपनीते शेषस्यैकादशोत्तरशतस्योदयः / सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने त्वेकस्याः कर्मप्रकृतेरुदयव्यवच्छेदः / सम्यग्मिथ्यादृष्टेर्विग्रहगतिर्न संभवति, 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं' इति वचनात् / अतो विग्रहगतिभावी नास्त्यानुपूर्वीचतुष्कस्योदयः / तत्र नरकानुपूर्वी पूर्वा(म)पनीतैव, शेषत्रयसहितं सासादनव्यवच्छिन्नं नवकं द्वादश भवन्ति / तेष्वेकादशोचरशतादपनीतेषु शेषा नवनवतिः, तस्यां सम्यग्मिथ्यात्वे प्रक्षिप्ते शतस्योदयः / अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने सप्तदशानां प्रकृतीनामुदयव्यवच्छेदः / सम्यग्मिथ्यादृष्टिव्यवच्छिन्नामेकां प्रकृति 1-2 "इगि” इत्यपि पाठः 3 “य” इत्यपि पाठः / 4 "शेषायां नवनवतौ सम्यग्मिथ्यात्वं प्रक्षिप्यते ततश्च शतस्योदयः" इत्यपि पाठः। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयोदीरणे समाश्रित्य गुणस्थानकेषु व्यवछिद्यमानप्रकृतिसङ्ख्या (e शतादपनीय शेषायां नवनवतौ सम्यक्त्वमानुपूर्वीचतुष्कं च प्रक्षिप्यते ततश्चतुरुत्तरशतस्योदयः। देशविरतगुणस्थाने प्रकृत्यष्टकस्योदयव्यवच्छेदः / अविरतसम्यग्दृष्टिव्यवच्छिन्ने सप्तदशके चतुरुत्तरशतादपनीत शेषायाः सप्ताशीतेरुदयः। प्रमत्तसंयतगुणस्थाने पञ्चानामुदयव्यवच्छेदः / देशविरतव्यवच्छिन्नमष्टकं सप्ताशीतेरपनीय शेषायामेकोनाशीतावाहारकशरीरतदङ्गोपाङ्गनाम्नोः प्रक्षिप्तयोरेकाशीतेरुदयः / अप्रमत्तसंयतगुणस्थाने चतसृणां प्रकृतीनामुदयव्यवच्छेदः / प्रमत्तसंयतव्यवच्छिन्नं पञ्चकमेकाशीतरपनीयते शेपायाः षट्सप्ततेरुदयः / अपूर्वकरणगुणस्थाने षण्णां प्रकृतीनामुदयव्यवच्छेदः / अप्रमतव्यवच्छिन्ने चतुष्के षट्सप्ततेरपनीते शेषाया द्वासप्ततेरुदयः / अनिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थाने षण्णां प्रकृतीनामुदयव्यवच्छेदः / अपूर्वकरणव्यवच्छिन्ने षट्के द्वासप्ततेरपनीते शेषायाः षट्पष्टरुदयः / सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने त्वेकस्याः प्रकृतेरुदयव्यवच्छेदः अनिवृत्तिबादरसम्परायव्यवच्छिन्ने षट्के पटप टेरपनीते शेषायाः षष्टेरुदयः / उपशान्तमोहगुणस्थाने द्वयोः प्रकृत्योरुदयव्यवच्छेदः / 'मूक्ष्मसम्परायव्यवच्छिन्नायामेकस्यां प्रकृतौ षष्टेपनीतायामेकोनषष्टेरुदयः / क्षीणमोहगुणस्थाने षोडशानां प्रकृतीनामुदयव्यवच्छेदः / द्वयोद्धिचरमसमये चतुर्दशानां तु चरमसमये उपशान्तमोहव्यवच्छिन्नं द्वयमेकोनषष्टेरपनीयते, शेषायाः सप्तपश्चाशत उदयः / सयोगिकेवलिगुणस्थाने त्रिंशतः प्रकृतीनामुदयव्यवच्छेदः / क्षीणमोहव्यवच्छिन्ने षोडशके सप्तपश्चाशतोऽपनीते शेषायामेकचत्वारिंशति तीर्थकरनाम्नि प्रक्षिप्ते द्वाचत्वारिंशत उदयः / भवस्थायोगिकेवलिगुणस्थाने द्वादशानामुदयव्यवच्छेदः / सयोगिकेवलिव्यवच्छिन्नायां त्रिंशति द्वाचत्वारिंशतः शोधितायां द्वादशानामुदयः / सिद्धकेवली त्ववेदकः // 4 // इति प्रकृत्युदयव्यवच्छेदोद्देशः / इदानीमुदीरणाव्यवच्छेदोदेशमाह पण नव 'इग सत्तरसं, अट्ठ य चउर छक छ च्चेव / 'इग दुग सोलगुयालं, उदीरणा होइ जोगता // 5 // इहोदयाधिकारमनुसृत्य भावनीयमुदीरणाभिलापेन / नवरं विशेष उच्यते-प्रमत्तसंयतगुणस्थाने प्रकृत्यष्टकस्योदीरणाव्यवच्छेदः / उदीरणा त्वेकाशीतेरुदयवत् / अप्रमत्ते चतरुणां प्रकृतीनामुदीरणाव्यवच्छेदः / प्रमत्तव्यवच्छिन्नमष्टकमेकाशीतरपनीयते, शेषायात्रिसप्ततेरुदीरणा। अपूर्वकरणे षण्णां व्यवच्छेदः / अप्रमत्तव्यवच्छिन्ने चतुष्के त्रिसप्ततेरपनीते शेषाया एकोनसप्तते १.“शेषायामकान्नाशी” इति वा पाठः। एवमग्रेऽपि 'एकोनचत्वारिंशत् एकोनषष्टिः' इत्यादावपि 'एकान्नचत्वारिंशत् एकान्नषष्ठिः,' इत्यादि "नविंशत्यादिनेकोऽञ्चान्त” (सिद्ध० 3-1-66) इति सूत्रेण तत्पुरुषसमासे एकशब्दस्य 'अद्' इत्यन्तागमे च ज्ञेयम् / / 2 "सूक्ष्मरागव्यव” इति वा पाठः / / 3-4 "इगि" इत्यपि पाठः। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10.] कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मप्रन्थे रुदीरणा / अनिवृत्तिबादरसम्पराये पण्णां व्यवच्छेदः / अपूर्वकरणव्यवच्छिन्नं षट्कमेकोनसप्ततेरपनीयते, शेषायास्त्रिपष्टेरुदीरणा / सूक्ष्मसम्पराये त्वेकस्याः प्रकृतेरुदीरणाव्यवच्छेदः / अनिवृत्तिबादरसम्परायव्यवच्छिन्ने षट्के त्रिषष्टेरपनीते शेषायाः सप्तपश्चाशत उदीरणा / उपशान्तमोहे द्वयोरुदीरणाव्यवच्छेदः / सूक्ष्मरागव्यवच्छिनायामेकस्यां सप्तपश्चाशतः शोधितायां शेषायाः षट्पञ्चाशत उदीरणा / क्षीणमोहे षोडशानामुदीरणाव्यवच्छेदः / उपशान्तमोहव्यवच्छिन्ने द्वये पट्पश्चाशतः शोषिते शेषायाश्चतुष्पश्चाशत उदीरणा / सयोगिकेवलिन्येकोनचत्वारिंशत उदीरणाव्यवच्छेदः / क्षीणकषायव्यवच्छिन्ने षोडशके चतुष्पञ्चाशतः शोधिते शेषायामष्टाविंशति तीर्थकरनाम्नि प्रक्षिप्ते सत्येकोनचत्वारिंशत उदीरणा / अयोगिकेवली त्वनुदीरक एव // // इति प्रकृत्युदीरणाव्यवच्छेदोद्देशः / प्रकृतिसत्ताव्यवच्छेदोद्देशमाह अणमिच्छमीससम्म, अविरयसम्माइअप्पमत्ता। . सुरनरयतिरियआउं, निययभवे मयजीवाणं // 6 // अनन्तानुबन्धिनश्चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः, मिथ्यात्वं, 'मिश्र' सम्यग्मिथ्यात्वमित्यर्थः सम्यक्त्वं इत्येताः सप्त कर्मप्रकृतयोऽविरतसम्यग्दृष्टयाद्यप्रमत्तान्ताः / किमुक्तं भवति ?, एताः प्रकृतयोऽविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतगुणस्थाना नामन्यतमस्मिन् व्यवच्छिन्नसत्ताका भवन्ति / एता हि सप्त प्रकृतीरेतेषामन्यतमो विशुद्धिवशात् क्षपयतीति / तथा सुरनारकतिर्यगाषि निजकभवे सत्तामधिकृत्य व्यवच्छिन्नानीत्यधिकाराल्लभ्यते / केषाम् ?, इत्याह-सर्वजीवानां क्षपकजिनत्वं प्राप्स्यतामेव. न त्वन्येषामित्यर्थाद्गम्यते / तथाहि-ये जीवाः सुरनारकतिर्यक्षु चरमं तद्भवमनुभूय मनुष्यतयोत्पन्नास्तेषां सुरनारकतिर्यगायपि स्वस्वभवे व्यवच्छिन्नसत्ताकानि जातानि, पुनस्तदनवाप्तः, नान्येषां पुनस्तत्प्राप्तेरिति / अष्टचत्वारिंशं च शतं कर्मप्रकृतीनां सत्तायामधिक्रियते, तच्च दर्शयिष्यामः / तत्र मिथ्यादृष्टेरष्टचत्वारिंशस्यापि शतस्य सत्ता / यदा प्राग्बद्धनारकायुष्कः क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्य तीर्थकरनाम्नो बन्धमारभते, तदाऽसौ नरकेषुत्पद्यमानः सम्यक्त्वमवश्यं वमतीति मिथ्यादृष्टस्तीर्थकरनाम्नोऽपि सत्ता संभवति / सासादनसम्यग्मिथ्यादृष्टयोस्तस्मिन्नेव तीर्थकरनामरहिते सप्तचत्वारिंशस्य शतस्य सत्ता / तीर्थकरनामसत्कर्मणो जीवस्य तद्भावानवाप्तेः / तद्भन्धारम्भस्य च शुद्धसम्यक्त्वप्रत्ययत्वादित्युक्तं प्राक् / अविरतदेशविरत प्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतानामक्षपितदर्शनसप्तकानामष्टचत्वारिंशस्य शतस्य सत्ता संभवति / तदितरेषां त्वेकचत्वारिंशस्य शतस्येति / इयं चैतेषु गुणस्थानेषु सामान्यजीवानां संभवमधिकृत्य सत्ता वर्णिता, न त्वधिकृतस्तवस्तुत्यस्य जिनस्यैषा सत्ता 1 "सूक्ष्मसम्परायव्यव०" इति वा पाठः 2 "मन्यतरस्मिन्" इत्यपि पाठः।३ "प्रमत्ताप्रमत्तसंयतानाम" इति वा पाठः। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मनामधिकृत्य गुणस्थानकेषु व्यवच्छिदामानप्रकृतिसह ख्यादि . [ 101 मंभवनि, अस्याः सुरनाकतिर्यगायुष्कसंभवापेक्षणीयत्वात् , जिनस्य च तदस भवात्तस्यापि वा प्राग्भवापेक्षया संभवो भाव्यः / इदानीं जिनस्य क्षपकश्रेण्यामपूर्वकरणादिषु प्रकृतिसत्ताऽनुवपर्यते / उपशमश्रेणी सत्तायास्त्विह नाधिकारः / तत्रापूर्वकरणगुणस्थाने स्वस्वभवव्यवच्छिन्नानि देवनारकतिर्यगायपि त्रीण्यविरताद्यप्रमत्तसंयतावसानगुणस्थानव्यवच्छिन्नं च दर्शनसप्तकमष्टाचत्वारिंशशनादपनीयते, शेषम्याष्टात्रिंशस्य प्रकृतिशतस्य सत्ता // 6 // अधुना त्वनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थाने प्रकृतिसत्ताव्यवच्छेदमाह मोलस अठेक्केक्कं "छक्केक्कक्केक खीणमनियट्टी। एगं सुहुममरागे, खीणकसाए य सोलसगं // 7 // पोडश 1 अटी 2 एकं 3 एकं 4 'छक्कककक खीणमनिगट्टी' इति, षट् 5 एक 6 एकं 7 एकं 8 एक ह / क्रमेण कर्म क्षीणं 'अनिवृत्तौ' अनिवृत्यद्धायां प्रथमं षोडश कर्माणि श्रीणानि / ततोऽष्टौ तत एकमित्यादिक्रमः / यावदक्षीणं षोडशकं तावत्पूर्वोक्तस्याष्टात्रिंशस्य शतस्य सत्ता / तस्मिन् क्षीणे सत्यष्टात्रिंशशतादपनीते शेषस्य द्वाविंशस्य शतस्य सत्ता / ततोऽप्यष्टके क्षीणे द्वाविंशशतादपनीते शेषस्य चतुर्दशोत्तरस्य शतस्य सत्ता / ततोऽप्येकस्मिन क्षीणे त्रयोदशस्य शतस्य सत्ता / ततः पुनरेकस्मिन् क्षीणे द्वादशस्य शतस्य सत्ता / ततोऽपि षट्के झीणे द्वादशशतादपनीते षडुत्तरशतस्य सत्ता / तस्मादेकस्मिन् क्षीणे पश्चोत्तरशतस्य सत्ता। ततोऽपि द्वितीये पुनरेकस्मिन् क्षीणे चतुरुत्तरशतस्य सत्ता / ततोऽपि तृतीये पुनरेकस्मिन् क्षीणे युत्तरशतस्य सत्ता / ततश्चतुर्थे पुनरेकस्मिन् क्षीणे द्वयु त्तरशतस्य सत्ता / 'एगं सुहमसरागे' इति, सूक्ष्मसरागगुणस्थाने त्वेकं कर्म क्षीणं व्यवच्छिन्नभित्यर्थः / पूर्वोक्तस्य द्वयु त्तरशतस्य सत्ता। 'वीणकसाए य सोलसगं' इति, क्षीणकषायगुणस्थाने पोडशकं कर्मणां क्षीणम् / द्वे कर्मणी द्विचरमसमये, चतुर्दश चरमसमय इति। तत्र यावद्विचरमसमयस्तावत्सूक्ष्मसम्परायक्षीणायामेकस्यां कर्मप्रकृतौ द्वयु त्तरशतादपनीतायां शेषस्यैकोत्तरशतस्य सत्ता / चरमसमये तु द्विचरमसमयक्षीणं द्विकमेकोत्तरशतादपनीयते, शेषाया नवनवतेः सत्ता / सयोगिकेवलिनस्तु क्षीणकषायचरमसमयक्षीणे चतुर्दशके नवनवतेरपनीते शेषायाः पञ्चाशीतेः सत्ता.॥७॥ बावत्तरिं दुचरिमे, तेरस चरिमे अजोगिणो खीणे / अडयालं पयडिसयं, खविय जिणं निव्वुयं वंदे // 8 // 1 "सत्तया त्विह” इत्यपि पाठः / / 2 "अद्विविक्क" इत्यपि पाठः / 3-4 "छक्किक्किक्किक्क खीणमनियट्टी / " इति वा पाठः॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 ] कर्मस्त्वाख्ये द्वितीये कर्म ग्रन्थे अयोगिकेवलिनो द्वासप्ततिढेिचरमे समये क्षीणा / द्वौ चामावस्मादिति द्विचरमः, तद्गुणसंविज्ञानेन बहुव्रीहिणा चरमात्पूर्वोऽनन्तरसमय उच्यते / 'तेरस चरिमे अजोगिणो खीणे' इति त्रयोदश चरमे समये कर्माण्ययोगिकेवलिनः क्षीणानि | यावद्विचरमसमयस्तावत्पूर्वोक्तायाः पश्चाशीतेः सत्ता / चरमसमये तु द्विचरमसमयक्षीणायां द्वासप्ततौ पञ्चाशीतरपनीतायां शेषाणां त्रयोदशानां सत्ता / तदेवं च 'अडयालं पयउिसयं, ग्वविय जिणं निव्वुयं वंदे इति, पूर्वभवक्षीणमायुस्त्रयमविरताद्यप्रमत्तान्तगुणन्थानक्षीणे दर्शनसप्तके क्षिप्तं जाता दश / तेऽप्यनिवृत्तिबादरसम्परायक्षीणे पोडशके क्षिप्ता जाता षड्विंशतिः / तम्या तत्रैव क्षीणमष्टकं क्षिप्तं जाता चतुस्त्रिंशत् / तस्यां तत्रैव क्रमेण क्षीणो द्वावेकको क्षिप्तौ जाता षट्त्रिंशत् / तस्यां तत्रैव क्षीणं षट्कं क्षिप्तं जाता द्विचत्वारिंशत् / तस्यां तत्रैय क्रमेण क्षीणाश्चत्वार एककाः क्षिप्ता जाता पटचत्वारिंशत् / तस्यां सूक्ष्मसम्परायक्षपित एकः क्षिप्तो जाता सप्तचत्वारिंशत् / तस्यां क्षीणमोहक्षपितं द्वयं क्षिप्तं जातकोनपश्चाशत् / तस्यां तत्क्षपितमेव चतुर्दशकं क्षिप्तं जाता त्रिषष्टिः / साऽप्ययोगिकेवलिक्षपितायां द्विसप्ततौ क्षिप्ता जातं पश्चत्रिंशं शनम् / तत्र तत्क्षपितमेव त्रयोदशकं क्षिप्तं जातमष्टचत्वारिंशं शतमिति / तदेवमष्टचत्वारिंशं प्रकृतिशतं क्षपयित्वा जिनो निर्वृतः, तमेवंविधं जिनमहं वन्दे // 8 // इत्युक्तः सत्ताव्यवच्छेदोद्देशः / इदानी बन्धादिव्यवच्छेद्रोद्देशेषद्दिष्टानां पोडशादीनां प्रकृतिसंख्यानां प्रतिनिर्देशाय मूलप्रकृत्युत्तरप्रकृतीर्दर्शयितुमाह नाणस्स दंसणस्स य, आवरणं वेयणीयमोहणियं / आउयनामं गोयं, तहतरायं च पयडीओ // 9 // पंच नव 'दोन्नि अट्ठा-वीसा चउरो तहेव बायाला। 'दोण्णि य पंच य भणिया, पयडीओ उत्तरा चेव // 10 // गाथे युगपद्वयाख्यायेते-ज्ञानस्यावरणं पञ्चविधं भवति / तद्यथा-आभिनियोधिकज्ञानावरणं 1 शतज्ञानावरणं 2 अवधिज्ञानावरणं 3 मनःपर्यायज्ञानावरणं 4 केवलज्ञानावरण 5 मिति // दर्शनस्यावरणं नवविधम् / तद्यथा-निद्रा 1 निद्रानिद्रा 2 प्रचला 3 प्रचलाप्रचला 4 स्त्यानर्द्धिः 5 चक्षुर्दर्शनावरणं 6 अचक्षुर्दर्शनावरणं 7 अवधिदर्शनावरणं 8 केरलदर्श वरणं 9 चेति 2 // वेदनीयं द्विविधम्-सातवेदनीयं 1 असातवेदनीयं 2 चेति 3 // मोहनीयमष्टाविंशतिविधम् / तिस्रो दर्शनमोहनीयप्रकृतयः-मिथ्यात्वं 1 सम्यग्मिथ्यात्वं 2 सम्यक्त्वं 3 चेति / पञ्चविंशतिश्चारित्रमोहनीयप्रकृतयः / तद्यथा-षोडश कषायाः 16 नव नोकषायाः 25 / तत्र कषायाः-अनन्तानुबन्धी क्रोधो मानो माया लोभश्च 4, अप्रत्याख्यानावरणः क्रोधो मानो 1-2 "दुन्नि" इत्यपि पाठः। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलोत्तरप्रकृतिसमुत्कीर्तना [ 103 माया लोभश्च 8, प्रत्याख्यानावरणः क्रोधो मानो माया लोभश्च 12, संज्वलनः क्रोधो मानो माया लोभश्च 16 इति पोडश कपायाः / नव नोकषायास्तु-वेदत्रयं हास्यादिपट्कं च / वेदत्रयम्-स्त्रीवेदः 1 पुवेदः 2 नपुंसकवेदः 3 इति / हास्यादिषट्कं च-हास्यं 1 रतिः 2 अरतिः 3 शोकः ४भयं 5 जुगुप्सा 6 इत्यष्टाविंशतिधा मोहनीयमुक्तम् 4 // आयुष्कं चतुर्धा-नारकायु कम् 1 तिर्यगायुष्कम् 2 मनुष्यायुष्कम् 3 देवायुष्क 4 मिति 5 // 'नाम द्विचत्वारिंशद्भेदम् / तद्यथा चतुर्दश पिण्डप्रकृतयः 14, अष्टाविंशतिः प्रत्येकप्रकृतयः 28 इति द्विचत्वारिंशत् / पिण्डप्रकृतयस्तावत्-गतिनाम 1 जातिनाम 2 शरीरनाम 3 शरीराङ्गोपाङ्गनाम 4 शरीरबन्धननाम 5 शरीमङ्घातननाम 6 संहनननाम 7 संस्थाननाम 8 वर्णनाम 9 गन्धनाम 10 रसनाम 11 स्पर्शनाम 12 आनुपूर्वी नाम 13 विहायोगतिनाम 14 इति चतुर्दश / एतासां तावद्भेदा दर्श्यन्ते / गतिनाम चतुर्विधम्-नारकगतिनाम 1 तिर्यग्गतिनाम 2 मनुष्यगतिनाम 3 देवगतिनाम 4 इति / जातिनाम पञ्चविधम्-एकेन्द्रियजातिनाम 1 द्वीन्द्रियजातिनाम 2 त्रीन्द्रियजातिनाम 3 चतुरिन्द्रियजातिनाम 4 पञ्चेन्द्रियजातिनाम 5 इति / शरीरनाम पञ्चविधम्-औदारिकशरीरनाम 1 वैक्रियशरीरनाम 2 आहारकशरीरनाम 3 तेजसशरीरनाम 4 कार्मणशरीरनाम 5 इति / अङ्गोपाङ्गं त्रिविधम्-औदारिकाङ्गोपाङ्गम् ? क्रियाङ्गोपाङ्गम् 2 आहारकाङ्गोपाङ्गं 3 चेति / बन्धनं पञ्चविधम्-औदारिकबन्धनादि शरीरवत् 5 / सङ्घातनामापि तथैव 5 / संहनननाम पड्विधम्-वज्रर्षभनाराचम् 1 ऋषभनाराचम् 2 नाराचम् 3 अर्द्धनाराचम् 4 कीलिका 5 सेवाः 6 चेति / संस्थाननाम पड्विधम्-समचतुरस्रम् 1 न्यग्रोधपरिमण्डलम् 2 'सादि 3 वामनम् 4 कुब्नं 5 हुण्डं 6 चेति / वर्णनाम पञ्चविधम्-कृष्णम् 1 नीलम् 2 लोहितम् 3 हारिद्रम् 4 शुक्लं 5 चेति / गन्धनाम द्विविधम्-सुरभिनाम 1 दुरभिनाम 2 चेति / रसनाम पञ्चविधम्-तिक्तम् 1 कटुकम् 2 कषायम् 3 अम्लम् 4 मधुरं 5 चेति / स्पर्शनामष्टविधम्-कर्कशम् 1 मृदु 2 गुरु 3 लघु 4 शीतम् 5 उष्णम् 6 स्निग्धम् 7 रूक्षं चेति / आनुपूर्वी चतुर्विधा नरकानुपूर्वी 1 तिर्यगानुपूर्वी 2 मनुष्यानुपूर्वी 3 देवानुपूर्वी 4 चेति / विहायोगतिविविधा-प्रशस्तविहायोगतिः / अप्रशस्तविहायोगति 2 श्चेति / इत्येताश्चतुर्दश पिण्डप्रकृतयः / प्रभेदाग्रमेतासां पश्चषष्टिरिति 65 / प्रत्येकप्रकृतयस्त्विमाः-त्रसनाम 1 स्थावरनाम 2 बादरनाम 3 सूक्ष्मनाम 4 पर्याप्तकनाम 5 अपर्याप्तकनाम 6 प्रत्येकनाम 7 साधारणनाम 8 स्थिरनाम 9 अस्थिरनाम 10 शुभनाम 11 अशुभनाम 12 सुस्वरनाम 13 दुःस्वरनाम 14 सुभगनाम 15 दुर्भगनाम 16 आदेयनाम 17 अनादेयनाम 18 यश-कीर्तिनाम 19 अयशःकीर्त्तिनाम 20 अगुरुलघुनाम 1. “दिदानीं नाम मण्यते, तद्दि वचत्वारिंशद्विधम् / " इति वा पाठः / 2 "साति 3" इत्यपि / 3 "द्विधा" इति वा / 4 "माष्टधा" इति वा पाठः / / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] कर्मसवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे 21 उपघातनाम 22 पराधातनाम 23 उच्छ्वासनाम 24 आतपनाम 25 उद्योतनाम 26 निर्माणनाम२७ तीर्थकरनाम 28 इत्य टाविंशतिः प्रत्येकप्रकृतयः / पूर्वोकापिण्डप्रकृतिचतुर्दशकेन सहिता द्विचत्वारिंशद्भवन्ति / पिण्डप्रकृतिप्रभेदपञ्चपष्टया तु सहिता त्रिनवतिर्भवति 6 // गोत्रं द्विभेदम-उच्चैर्गोत्रं 1 नीचेर्गोत्रं 2 चेति 7 / अन्तरायं पश्चवा-दानान्तरायम् 1 लाभान्तरायम् . 2 भोगान्तरायम् 3 उपभोगान्तरायम् 4 वीर्यान्नरायं 5 चेति 8 // एवं च कृत्वा ज्ञानावरग पञ्च प्रकृतयः / दर्शनावरणे नव / वेदनीये द्वे / मोहनीयेऽष्टाविंशतिः / आयुषि चतस्रः / नाम्नि त्रिनवतिः / गोत्रे द्वः / अन्तराये पञ्च / सर्वपिण्डोऽष्टचत्वारिंशं शतमित्येतेन सर्वेण सत्तायामधिकारः / उदयो दीरणयोस्त्वौदारिकादिबन्धनानां पञ्चानामौदारिकादिसङ्घातानां च पश्चानां यथास्वमौदारिकादिषु पञ्चसु शरीरेण्वन्तर्भावः / वर्णगन्धरमस्पर्शानां यथासंख्य पञ्चद्विपश्चाष्टप्रभेदानां तत्प्रभेद'कृतां विंशतिमपनीय तेषामेव चतुर्णामभिन्नानां ग्रहणे पोडशकमिदं, बन्धनसङ्घातदशकसहितमष्टचत्वारिंशशतादपनीयते, शेषेण द्वाविंशेन शतेनाधिकारः / बन्धे तु सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः सङ्कमेणैव निष्पाद्यत्वाद्वन्धो न संभवतीति तयोविंशशतादपनीतयोः शेषेण विंशेन शतेनाधिकारः / इति प्रकृतिसमुत्कीर्तना कृता। अधुना प्रकृतिवर्णना क्रियते / तत्र बानावरणं तावत्-सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोधो ज्ञानं तस्यावरणं ज्ञानावरणम् / तस्य प्रथमो भेद आभिनिबोधिकज्ञान वरणम् / अभिमुखो योग्यदेशावस्थितार्थापेक्षी नियतः स्वस्वविषयापेक्षी बोधोऽभिनिबोधः स एवाभिनिवोधिक, तच्च तद् ज्ञानं चेति आभिनियोधिकज्ञानम् / तच्चतुर्विधम्-अवग्रहः 1 ईहा 2 अपायः 3 धारणा 4 चेति / अवग्रहो द्विविधः-व्यञ्जनावग्रहः 1 अर्थावग्रहश्च 2 / तत्र व्यञ्जनावग्रहश्चक्षुर्मनोवर्जानामिन्द्रियाणां स्वस्वविषयद्रव्यैः सह संबन्धः, तेनासौ चतुर्विध एव / अर्थावग्रहस्तु किमपीदमित्येतावन्मात्रो मनःषष्ठैः पञ्चभिरिन्द्रियैर्वस्त्ववबोधः, ततश्चैवमसौ पोढा / ईहादयोऽपि मनःपष्ठेन्द्रियपञ्चकसंभवत्वात्पोव / अपि किं न्वयं भवेत् पुरुष एव उत स्थाणुः ? इत्यादिवस्तुधर्मान्वेषणात्मकं ज्ञानचेष्टनमीहा / पुरुष एवायमिति वस्त्वध्यवसायात्मको निश्चयोऽपायः / निश्चितस्याविच्युतिस्मृतिवासनात्मकं धरणं धारणा / तदेतदष्टाविंशतिविधं श्रुतनिश्रितमाभिनियोधिकज्ञानम् , श्रुतेन संस्क्रियमाणत्वात् / अश्रुतनिश्रितेनौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयेन सह द्वात्रिंशद्विधम् / अथवा बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितासंदिग्धत्रुवाणां सेतराणामर्थानां ग्रहणेन भिद्यमानत्वा वादशभिरष्टाविंशतिगुणिता त्रीणि शतानि षट्त्रिंशानि, तानि बुद्धि चतुष्टयसहितानि चत्वारिंशानि त्रीणि शतानि भेदानामाभिनिबोधिकज्ञानस्येति तस्यैतावद्भेदमेव यदावरणस्वभावं कर्म 1 'कृता विंशतिरपनीयते, ते-०" इति वा पाठः। 2 'वस्तुन्यध्यवसायात्मको" इत्यपि पाठः।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिवर्णना तदाभिनिंबोधिकज्ञानावरणमेकग्रहणेन गृह्यते 1 / तथा श्रवणं श्रुतं अभिलापप्लावितार्थग्रहणप्रत्य- योपलब्धिविशेषः, ततस्तेन तदेव वा ज्ञानं श्रुतज्ञानम्। तच्च संक्षेपतश्चतुर्दशविधमक्षरश्रुतादि / तत्राक्षरश्रुतं त्रिविधम्--संज्ञा 1 व्यञ्जन 2 लब्धि 3 भेदात् / तत्र संज्ञाक्षरं लेख्यलिपिरूपम् , यथा-ठकारो घटाकृतिः, घटीरूपो धकार इत्यादि / व्यञ्जनाक्षरं भाषाशब्दस्तदेतद् द्वितयमज्ञानात्मकमपि श्रुतकारणत्वादुपचारेण श्रुतम् / लब्ध्यक्षरं तु शब्दश्रवणरूपदर्शनादेरर्थप्रत्यायनगर्भाक्षरोपलब्धिः 1 अनक्षरश्रुतं श्वेडितशिरःकम्पादिनिमित्तं मामाह्वयति वारयति वेत्यादिरूपमभिप्रायादिपरिज्ञानम् 2 / समनस्कस्य मनःसहायरिन्द्रियैर्जनितमुक्तलक्षणं श्रुतं संज्ञिश्रुतम् 3 / तदेव मनोरहितेन्द्रियजमसंज्ञिश्रुतममनस्कस्य 4 / सम्यग्दृष्टेरर्हत्प्रणीतमितरद्वा श्रुतं यथास्वरूपावगमात् सम्यक्श्रुतम् 5 / तदेव मिथ्यादृष्टेमिथ्याश्रुतम् , अन्यथाऽवगमात् 6 / सादिश्रुतं ज्ञानात्मकं सम्यग्दृष्टेरज्ञानात्मकं वा सम्यक्त्वच्युतस्य 7 / मिथ्यादृष्टेरलब्धपूर्वसम्यक्त्वस्य तु तदेवानादिश्रुतम् 8 / सपर्यवसितं भव्यानां केवलोत्पत्तौ ध्रुवं पर्यवसानात् 9 / अपर्यवसितमभव्यानां केवलोत्पादानहत्वात् 10 / भिन्ने यदर्थजाते सदृशाक्षरालापकं तद्गमिकम् 11 / असदृशं त्वगमिकम् 12 / अङ्गप्रविष्टमाचारादीन्यङ्गानि 13 शेषं प्रकीर्णको नङ्गप्रविष्टम् 14 / इति चतुर्दशधा श्रुतज्ञानं तस्यावरणस्वभावं कर्म श्रुतज्ञानावरणम् 2 / तथाऽवधानमवधिरिन्द्रियाद्यनपेक्षात्मनः साक्षादर्थग्रहणम् , अवधिरेव ज्ञानमवधिज्ञानम् / अथवाऽवधिर्मर्यादा तेनावधिना रूपिद्रव्यमर्यादात्मकेन ज्ञानमवधिज्ञानम् / इत्येक एव समासशब्दो विग्रहद्वयनिष्पन्नः स्वमर्थमन्यव्यतिरिक्तमाह, मतिश्रुते तावदिन्द्रियमनोजनिते, तयोः प्रथमेन विग्रहेण व्यतिरेकः, द्वितीयेन तु मनःपर्यायकवलयोः एकस्य सर्वरूपिमर्यादया ज्ञानत्वासंभवात् , द्वितीयस्य तु रूप्यरूपिविषयत्वात् / यत्त्ववधिज्ञानं तस्य सर्वरूपिमर्यादयापि विषयः संभवतीति मनःपर्यायकेवलयोस्ततो व्यतिरेकः / तद्भवप्रत्ययं नारकदेवानां गुणप्रत्ययं मनुष्यतिरश्वाम् / एतच्च पोढा, अनुगाम्यादि / तत्र अनुगामि यद्देशान्तरगतमपि ज्ञानिनमनुगच्छति लोचनवत् 1 यत्तु तद्देशस्थस्यैव भवति स्थानरथदीपवत् , तद्देशनिवन्धनक्षयोपशमजन्यत्वात् , देशान्तरगतस्य त्वति तदननुगामीति 2 / अवस्थितं यन्न प्रतिपतति, आदित्यमण्डलवत् 3 / अनवस्थितं यत्प्रतिपतति, लपणसमुद्रवेलावत् 4 / हीयमानकं यजवन्ये नाङ्गुलासङ्खथे यभागविषयमुत्कर्षण सर्वलोकविपयमुत्पद्य पुनः स क्लेशवशात्क्रमेण हानि विषयसंकोचात्मिकां याति, यावदमुलासङ्ख्य यभागस्ततोऽपि प्रतिपतति, येन त्वलोकस्य प्रदेशोऽपि दृष्टस्तस्य न हीयते 5 / वर्धमानकं यदगुलासङ्खथे यभागादिविषयमुत्पद्य पुनवृद्धिं विषयविस्तरणात्मिकां याति, यावदलोके लोकप्रमाणान्यसङ्खये यानि खण्डानि 6 / इति षड्विधमवधिज्ञानम् / तस्य च जघन्योत्कृष्टमध्यमक्षेत्रविषयासवय यत्ववशादसझे यया भेदाः, तेषामावरणस्वभावानि एतावन्त्येव कर्माणि, तानि चैकग्रहणेन Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे गृह्यन्तेऽवधिज्ञानावरणमिति 3 / तथा संज्ञिभिर्जीवः काययोगेन गृहीतानि मनःप्रायोग्यवर्गणापुद्गलद्रव्याणि चिन्तनीयवस्तुचिन्तनव्यापृतेन मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमय्यालम्व्यमानानि मनासीत्युच्यन्ते, तेषां मनसां पर्यायाश्चिन्तनानुगुणाः परिणामाः तेषु ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् / अथवाऽऽत्मभिर्वस्तुचिन्तने व्यापारितानि मनांसि पयति परिगच्छत्यवतीति मनःपर्यायं, 'कर्मण्यण' (पाणि०३-२-१) तस्य कथंचित्कर्तुरनन्यत्वात्क त्वम् / कर्ता वाऽऽत्मा यथोक्तानि मनांसि पर्येति अनेनेति मनःपर्यायम् / 'अकर्तरि च' इत्यादिना धनू / तत्पुनस्तदावरणक्षयोपशमजो लब्धिविशेषः, तदुपयोगो वा विषयग्रहणात्मक इति / तच्च तद् ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् / तच्च द्विविधम्-ऋजुमति विपुलमति चेति / ऋज्वी साक्षात्कृतेष्वनुमितेषु वाऽर्थेष्वल्पतरविशेषविषयतया मुग्धा मतिविषयपरिच्छित्तिर्यस्य तजुमति / तदितरा विपुला मतिर्यस्य तद्विपुलमति / तत्रजु मतेर तृतीयाङ्गुलहीनो मनुष्यलोकः क्षेत्रतो विषयः, स एव विपुलमतेः संपूर्णो निर्मलतरः / कालतस्त्वेतावति क्षेत्रे भूतभाविनोः पल्योपमासङ्ख्येयभागयोरतीतानागतानि, संज्ञिमनोरूपाणि मूर्त्तद्रव्याणि, तान्येव च द्रव्यतोऽपि / भावतस्तु तत्पर्यायाश्चिन्तनानुगुणाः परिणतिरूपा ऋजुमतेविषय इति / चिन्तनीयं तु मूर्तममूर्त वा त्रिकालगोचरमपि बाह्यमर्थमनुमानादवैति, न साक्षात् / यत एतत्परिणतान्येतानि मनोद्रव्याणीत्येतदन्यथानुपपत्तेरमुकोऽनेनार्थश्चिन्तित इति लेखाक्षरदर्शनात्तदुक्तार्थमिवाप्रत्यक्ष मनोद्रव्यदर्शनाच्चिन्त्यमर्थमनुमिमीते / स चैष बाह्याभ्यन्तररूपो द्विविधोऽपि विषयः स्फुटतरवहुतरविशेषाध्यासितत्वेन विपुलमतेर्विमलतरोऽवसेयः / तदेवमेतयो योरपि मनःपर्यायमेदयोरावरणस्वभावं कर्मापि द्विविधमेव, तदेकग्रहणेन गृह्यते मनःपर्यायज्ञानावरणमिति 4 / केवलज्ञानं प्रागुक्तस्वरूवं तस्यावरणं केवलज्ञानावरणम् 5 / इत्युक्तं पञ्चविधं ज्ञानावरणम् 1 // सामान्यविशेषात्माके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको बोधो दर्शनं तस्यावरणस्वभावं कर्म दर्शनावरणम् | तन्नवविधम् / तत्र निद्रापञ्चकं तावत् 'द्रा' कुत्सायां गतौ / नियतं द्राति कुत्सितत्व'मविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति निद्रा सुखप्रबोधा स्वापावस्था, नखच्छोटिकामात्रेणापि यत्र प्रबोधो भवति तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रेति कार्येण व्यपदिश्यते 1 / तथा निद्रातिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रा, शाकपार्थिवादित्वान्मध्यपदलोपी समासः / सा पुनदुःखप्रबोधा स्वापावस्था तस्या ह्यत्यर्थमस्फुटतरीभूतचैतन्यत्वादुःखेन बहुभिर्घोलनादिभिः प्रबोधो भवति, अतः सुखप्रबोधनिद्रापेक्षयाऽस्या अतिशायिनीत्वम् , तद्विपाकवेद्या का प्रकृतिः कार्यद्वारेण निद्रानिद्रेत्युच्यते 2 / उपविष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलत्यस्यां स्वप्ता स्वापावस्थायामिति प्रचला, सा ह्युपविष्टस्योर्ध्वस्थि 1 "मविस्फुटत्वं” इति वा पाठः / / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिवर्णना [ 107 तस्य वा घूर्णमानस्य स्वप्तुर्भवति, तथाविधविपाकवेद्या कर्मप्रकृतिः प्रचलेति 3 / तथैव प्रचलाऽतिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला, सा हि चक्रमणादि कुर्वतः स्वप्तुर्भवति, अतः स्थानस्थितस्वप्तृभवां प्रचलामपेक्ष्यातिशायिनी, तद्विपाका कर्मप्रकृतिरपि प्रचलाप्रचला 4 / स्त्याना बहुत्वेन सङ्घातमापन्ना गृद्धिरभिकाङ्क्षा जाग्दवस्थाऽध्यवसितार्थसाधनविषया यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानगृद्धिः / तस्यां हि सत्यां जाग्रदवस्थाध्यवसितमर्थमुत्थाय साधयति। स्त्याना वा पिण्डीभृता ऋद्धिरात्मशक्तिरूपा 'अस्यामिति स्त्यानद्धिरित्यप्युच्यते, तद्भावे हि स्वप्तुःप्रथमसंहननस्य केश: : बलसदृशी शक्तिर्भवति / प्रसिद्धं चैतदागमे-भिक्षार्थमन्यग्रामं गतस्य क्षुल्लकस्यागच्छतो न्यग्रोध शाखायां शिरः स्खलितम् / ततस्तेन रुषितेन रात्रावेतन्निद्रोदये सा वटशाखा भक्त्वा प्रतिश्रयद्वारे प्रक्षिप्तेत्यादि / अथवा स्त्याना जडीभूता चैतन्यर्द्धिरस्यामिति स्त्यानद्धिरिति, तादृशविपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि स्त्यानद्धिः स्त्यानगृद्धिरिति वा 5 तदेतन्निद्रापञ्चकं दर्शनावरणक्षयोपशमलब्धात्मलाभानां दर्शनलब्धीना मावारकमुक्तम् / अधुना यदर्शनलब्धीनां मूलत एव लाभमावृणोति तदिदं दर्शनावरणचतुष्कमुच्यते-चक्षुषा सामान्यग्राही बोधश्चक्षुर्दर्शनं तस्यावरणं चक्षुदर्शनावरणंम् 6 अचक्षुषा चक्षुर्वन्द्रियचतुष्टयेन मनसा वा यदर्शनं तदचक्षुर्दर्शनं तस्यावरणम् 7 / अवधिना=पि'द्रव्यमर्यादया अवधिरेव वा करणनिरपेक्षबोधरूपो दर्शनं सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनं तस्यावरणम् 8 तथा केवलमुक्तस्वरूवं तच्च तदर्शनं च तस्यावरणं केवलदर्शनावरणम् है / इत्युक्तं नवविधं दर्शनावरणम् 2 // आरोग्यविषयोपभोगादिजनितमाह्लादरूपं सुखं सातं, तद्रूपेण विपाकेन वेद्यत इति सातवेदनीयम् 1 / तद्विपरीतं दुःखमसातं, तद्रूपेण विपाकेन वेद्यत इत्यसातवेदनीयम् 2 / इत्युक्तं द्विविधं वेदनीयम् 3 // तत्वार्थश्रद्धानं दर्शनं, तन्मोहयति . विपर्यायं गमयतीति दर्शनमोहनीयम् / तत्त्रिविधं, मिथ्यात्वादि / तत्र मिथ्यात्वं त्रिविधम्सांशयिकम् 1 आभिनहिकम् 2 अनाभिग्रहिकं 3 चेति / तत्र सांशयिकं यदिदमुक्तमर्हता तत्त्वं जीवादि, तन्न जाने-तथा स्यात् उतान्यथा ? इत्येवंरुपम् / उक्तं च-“एकस्मिन्नपि तत्वे, संदिग्धे प्रत्ययोऽहति हि नष्टः / मिथ्या च दर्शनं तत् , स चादिहेतुर्भवगतो. नाम् // 1 // " इति 1 / आभिग्रहिकं येन बोटिकादिकुदर्शनानामन्यतमदभिगृह्णाति 2 / अनाभिग्रहिकं अज्ञानां गोपादीनामीपन्माध्यस्थ्याद्वाऽनभिगृहीतदर्शनविशेषा सर्वदर्शनानि शोभनानीत्येवंरूपा या प्रतिपत्तिः 3 / इत्येतेन विविधेन प्रकारेण विपच्यते यत्कर्म तदपि मिथ्यात्वम् 1 / सम्यग्मिथ्यात्वमद्धविपर्यस्त वं दर्शनस्य नेकान्तशुद्धमशुद्धमेव वा तत्त्वश्रदधानत्वं तादृशविपा 1 “यस्या " इत्यपि / 2 "शाखया” इति वा / 3 "रुषितेन गत्वा स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये सा' / 4 "मावरण. कमु” इति क्वचित् / / 5 “रूपिमर्यादयः” इत्यपि ! 6 “तत्त्वार्थश्रद्धानत्वं ताशविपाकवेद्य” इत्यपि पाठः / Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे कवेद्यं कर्म सम्यग्मिथ्यात्वम् 2 / तथा सम्यक्त्वमविपर्यस्तत्वं तत्त्वदर्शनस्य यथा यदहन प्राह तथैव तत् , इत्येवंरूपं, तत्व 'श्रद्दधोनत्वम् , एतत्परिणामपरिणतेनात्मना यव द्यते तदर्शनमोहन यं कर्म, तदपि सम्यक्त्वमिति 3 / 1 / तथा चारित्रं सावद्ययोगविरतिलक्षणो जीवपरिणामः तन्मोहयतीति चारित्रमोहनीयम् / तत्र षोडश कषायाः / कषायशब्दः प्रागुक्तार्थ एव / तत्रानन्तं संसारमनुबध्नन्ति अनुसंदधति तच्छीलाश्चेत्यनन्तानुबन्धिनः / यद्यपि चैतेषां शेषकषायरहितानामुदयो नास्ति, तथाऽप्यवश्यमनन्तसंसारमौलकारणमिथ्यात्वोदया क्षेपित्वादेतपामेवेष व्यपदेशः / शेषकषाया हि नावश्यं मिथ्यात्वोदयमाक्षिपन्ति, अतस्तेषामुदययोगपद्ये सत्यपि नायं व्यपदेशः, इत्यसाधारणमेतेषामेवैतन्नामधेयम् / ते च चत्वारः / क्रोधोऽक्षान्तिपरिणतिलक्षणः / मानो गर्यो जात्यायुद्भवममार्दवम् / माया वञ्चनप्रतिकुञ्चनाद्यात्मिका परिणतिः / लोभोऽसंतोषात्मको गार्य परिणामः / तद्विपाकवेद्याः कर्मप्रकृतयोऽपि तन्नामधेयाः / इत्येते क्रोधादयो यथासङ्खय पर्वतरेखाशेलस्तम्भवंशीमूलकृमिरागसमाना यावज्जीवानुवन्धिनो जीवपरिणामविशेषा अनन्तानुवन्धिन इत्यवसेया इति 4 // त एव च क्रोधादयो यथाक्रम पृथिवीरेखाऽस्थिमेषशृङ्गकर्दमरागसमानाः संवत्सरानुवन्धिनोऽप्रत्याख्यानावरणाः, नोऽल्पार्थत्वादल्पं प्रत्याख्यानं अप्रत्याख्यानं देशविरत्याख्यं तदाकृण्वन्ति ये ते तथोक्ताः 4 / त एव क्रमेण रेणुरेखाकाष्ठगोमूत्रिकाखञ्जनरागसमानाश्चतुर्मासानुबन्धिनः प्रत्याख्यानावरणाः, प्रत्याख्यानं सर्वविरत्याख्यमावृण्वन्तीतिकृत्वा 4 / त एव क्रमशो जलरेखातिनिसलंताअवलेखहरिद्रारागसमानाः पक्षानुबन्धिनः संज्वलनाः, संज्वलयन्त्युदयेन चारित्रिणमपीति संज्वलनाः 4 / इत्युक्ताः षोडश कषायाः। नव नोकपाया इति, नोशब्दः साहचर्यार्थः / कषायैः सहचरा नोकपायाः / केवलानां नैषां प्रधान्यं, किन्तु कषायैरनन्तानुबन्ध्यादिभिः सहोदयं यान्ति तद्विपाकसदृशमेव विपाकमादर्शयन्तीति बुधग्रहवदन्यसंसर्गमनुवर्तन्ते / तत्र वेदत्रये-यदुदयेन स्त्रियाः पुस्यभिलाषः पित्तोदयेन मधुराभिलाषवत् , स फुम्फुमानिसमानः स्त्रीवेदः 1 / यदुदयेन पुसः स्त्रियामभिलाषः श्लेष्मोदयादम्लाभिलाषवत् , स तृणाग्निज्वालासमानः पुवेदः 2 / यदुदयेन पण्डकस्य स्त्रीपुसयोरुभयोरभिलाषः पित्तश्लेष्मणोरुदयेन मर्जि(जि)काभिलाषवत् , स महानगरदाहाग्निसमानो नपुसकवेदः 3 / यदुदयेन सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति तत्कर्म हास्यवेदनीयम् 4 / 'यदुदयेन रमणीयेषु वस्तुषु रमते प्रमोदते तद्रतिवेदनीयमिति 5 / ततो विपरीतमरतिवेद 1 "श्रद्धानत्व-” इति वा पाठः // 2 “यापेक्षित्वा" इत्यपि // 3 "फुम्फकाग्नि" इति वा पाठः / 4 "यदुदयेन सचित्ताचित्तेषु बाह्यद्र-येषु जीवस्य रतिरुत्पद्यते तद्रतिवेदनीयं कर्म 5 / यदुदयेन तेष्वेवारतिस्त्पद्यते तदरतिवेदनीयं कर्म 6 / यदुदयेन शोकरहितस्यापि जीवस्याक्रन्दनादिशोको जायते तच्छोकवेदनीयं कर्म 7 / यदुदयेन भयवर्जितस्यापि जीवस्येहलोकादि सप्तप्रकार भयमुत्पद्यते तद्भयवेदनीयं कर्म 8 // " इति वा पाठः॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिवर्णना [101 नीयम् 6 / यदयेन बियविप्रयोगादिपीडितचित्तः शोचनाऽऽक्रन्दपरिदेवनादि करोति तच्छोकवेदनीयम् 7 / यदुदयेन स नमित्तमनिमित्तं वा बिभेति तद्भयवेदनीयम् 8 / यदुदयेन शकृदादिवीभत्सपदार्थभ्यो जुगुप्सते उद्विजते तज्जुगुप्सावेदनीयम् 9 / इत्युक्ता नोकषायाः, तदभिधानाचारित्रमोहनीयं च 2 मोहनीयं चाष्टाविंशतिविधमिति 4 // एति याति चेत्यायुः, नरुक्तीशब्दव्युत्पत्तिः / यद्यपि च सर्व कर्म स्वहेतुभिर्नियमादपूर्वमेत्यात्मानं, पूर्वबद्धं च यात्यपत्यात्मनस्तथाप्ययमम्त्यायुषो विशेषः / प्राग्भवबद्धमात्मनो यदा यात्यपैति तदा तदपगमानन्तरं वर्तमानभवबद्धमुदयमेति एति याति चेत्यनया व्युत्पत्त्या, तदेवेदृशं गमनागमनं विवक्षितमित्यसाधारणमायुषो नाम, तच्चतुर्धा / नारकस्य सतो वेद्यमायुष्कम् नारकायुष्कम् 1 / तिरश्चां तिर्यगायुष्कम् 2 / मनुष्याणां मनुष्यायुष्कम् 3 / देवानां देवायुष्कम् 4 इत्युक्तं चतुर्विधमायुष्कम् 5 // तथा नामयति परिणमयत्यात्मानं तेस्तैर्गत्यादिभिः पर्यायेरिति नाम / गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति तथाविधकर्मोदयसचिवा जीवास्तामिति गतिः / नारकादिपर्यायपरिणतिस्तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि गतिः, सैव नाम गतिनाम / नारकशब्दव्यपदेश्यपर्यायनिवन्धनं नारकगतिनाम एवं तिर्यङ्मनुष्यदेवगतिनामापि वाच्यम् 1 / जननं जातिरेकेन्द्रियादिशब्दव्यपदेश्येन पर्यायेण जीवानामुत्पत्तिः, तद्भावनिवन्धनभूतं नाम जातिनाम, तत्पश्चधा, एकेन्द्रियजातिनामादि / तत्रैकस्य स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्यावरणक्षयोपशमात्तदेकविज्ञानभाज एकेन्द्रियाः अनेनैवाभिलापेन द्वयोः स्पर्शनरसनज्ञानयोीन्द्रियाः / त्रयाणां स्पर्शनरसनघ्राणज्ञानानां त्रीन्द्रियाः / चतुर्णा स्पर्शनरसनधाण चक्षुर्ज्ञानानां चतुरिन्द्रियाः / पञ्चानां स्पर्शनरसनघाणचतुःश्रोत्रज्ञानानामावरणक्षयोपशमात्पञ्चविज्ञानभाजः पञ्चेन्द्रियाश्च वाच्याः / एकेन्द्रियाणां जातिनामैकेन्द्रियजातिनाम, एवं यावत्प. ञ्चेन्द्रियजातिनाम / ननु चैकादीन्द्रियज्ञानावरणक्षयोपशमादेवैकेन्द्रियादिव्यपदेशः सिद्धयत्येव तत्किमपरं जातिनाम्ना कार्यम् ?, नैतदस्ति, क्षयोपशमस्य ज्ञानोत्पादनमात्रनिबन्धनत्वेनेकेन्द्रिया. दिव्यपदेशहेतुत्वायोगात् / किञ्चैकेन्द्रियजात्यादिनामोदयजनितस्यैकेन्द्रियादिशब्दव्यपदेशहेतोः पर्यायविशेषस्याभावे क्षयोपशमं प्रति नियमो न स्यात् , ततश्च पृथिव्यादीनां शङ्खादीनां (पिपीलिकादीनां) चैकद्विव्यादीन्द्रियज्ञानावरणक्षयोपशमोऽप्यनियमेन स्यात्तस्माजातिनामोदयकृतः पर्यायविशेषस्तथातथाक्षयोपशमस्य नियामक एकेन्द्रियादिव्यपदेशहेतुश्चेति स्थितम् 2 / शीर्यते तदिति शरीरं, प्रतिक्षणं प्रागवस्थातश्चयापचयाभ्यां विनश्यतीत्यर्थः / तच्च पञ्चविधैरोदाकादिवर्गणापुद्गलैः क्रियत इति तद्भेदात्पश्चधा, औदारिकशरीरादि, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि तन्नामकं पञ्चधैव / तत्र यस्य कर्मण उदयादौदारिकवर्गणपुद्गलान् गृहीत्वौदारिकशरीरत्वेन परिणमयति तदौदारिकशरीरनाम / एवं वैक्रियाहारकतैजसकार्मणशरीरनामकर्मस्वपि स्वस्ववर्गणापुद्गलग्रहण Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 ] कर्मस्तवाल्ये द्वितीय कर्मग्रन्थे परिणमनकारणत्वं वाच्यम् / यावद्यस्य कर्मण उदयात्कार्मणवर्गणापुद्गलान गृहीत्वा कार्मणशरीरत्वेन परिणमयति तत्कार्मणशरीरनामकर्म, तच्च कार्मणशरीरादन्यत्। सत्यपि समानवर्गणापुद्गलात्मकत्वेतद्धि नाम्नः कर्मण उत्तरप्रकृतिः। कार्मणशरीरं पुनस्तदुदयनिर्वय॑मशेषकर्मणां प्ररोहभूमिराधारभूतम् / तथा संसार्यात्मनां गत्यन्तरसंक्रमणे साधकतमं करणमित्यन्यत् . ततस्तत्कारणभूतं कार्मणशरीरनामकर्मेति स्थितम् 3 / अङ्गानि शिरउरउदरपृष्ठवाहूरसंज्ञकान्यष्टौ / तदवयवभूतानि त्वगुल्यादीन्युपाङ्गानि / शेषाणि तु तत्प्रत्यवयवभूतान्यगुलिपवेरेखादीन्यङ्गोपाङ्गानि / अङ्गानि चोपाङ्गानि चाङ्गोपाङ्गानि चेति द्वन्द्वगर्भादेकशेषादङ्गोपाङ्गानि. तानि च यस्य कर्मण उदयात्रिषु शरीरेषु भवन्ति, तत्रिविधमङ्गोपाङ्गनाम / तत्र यदुदयादौरिकशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गोपाङ्गविभक्त्या परिणतिः तदोदारिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम / एवं वैक्रियाहारकाङ्गोपाङ्गनाम्नोरपि वाच्यम् / तैजसकार्मणयोस्तु, जीवप्रदेशसंस्थानानुरोधित्वान्नास्यङ्गोपाङ्गसंभवः 4 : पूर्वगृहीतरौदारिकपुद्गलैः सह परस्परं च गृह्यमाणानौदारिकपुद्गलानुदितेन येन कर्मणा बध्नात्यात्माऽन्योऽन्यसंसक्तान् करोति तदौदारिकशरीरबन्धननाम, दारुपाषाणादीनां जतुरालाप्रभृतिश्ले"प'द्रव्य" वत् / एवं वैक्रियादि चतुष्केऽपि वाच्यम् / यदि त्विदं शरीरपश्चकपुद्गलानामन्योऽन्यसंबन्धकारि बन्धनपञ्चकं न स्यात्ततस्तेषां शरीरपरिणतौ सत्यामप्यसंबद्धत्वान्पवनाहतकुण्डस्थितास्तीमितसक्तूनाभित्रैकत्रस्थैर्य न स्यात् 5 / तच्च बन्धनमसंहतानां न संभवति, अतस्तत्पिण्डनकारणं पञ्चविधं सङ्घातनाम / तथैवौदारिकसङ्घातनामादि / तत्र यस्योदयादौदारिकशरीरत्वपरिणतान पुद्गलानात्मा सङ्घातयति-पिण्डयति तदौदारिकसङ्घातनाम / वैकियादिचतुष्केऽप्येवमेव वाच्यम् 6 / संहननमस्थिसंचयः, तच्चोहारिकशरीर एव, नान्येपु, तेषामस्थ्याधभावात् / तच्च पोढा, वर्षभनाराचादि / तत्र वज्र कीलिका, ऋषभः परिवेष्टनपट्टः, नाराच उभयतो मर्कटवन्धः / यत्र द्वयोरस्टनोरुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थमा परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रययेदि कीलिकाकारं वज्रनामकमस्थि भवति तद्व भनाराचं प्रथमम् / यत्र तु कीलिका नास्ति तदृषभनाराचं द्वितीयम् , ऋषभवर्ज वज्रनाराचं द्वितीयमित्येके / वज्र भवर्ज नाराचं तृतीयम् / एकतो मर्कटबन्धं द्वितीयपार्वे कीलिकाविद्धमर्द्धनाराचं चतुर्थम् / ऋषभनाराचवर्ज कालिकाविद्धास्थिद्वयसंचितं कीलिकाख्यं पञ्चमम् / अस्थिद्वयपर्यन्तसंस्पर्शलक्षणां सेवामृतमागतं सेव तं षष्ठम् / इतीदं षड्विधस्थिसंनिचयात्मकं संहननं यदुदयाद्भवति शरीरे तदपि तत्संज्ञक पविधं संहनननामकर्म 7 / संस्थानं शरीराकृतिरवयवरचनात्मिका तदपि पोढा, समचतुरस्रादि / तत्र समाः शरीरलक्षणशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयो यस्य तत्सम: चतुरस्रम् / 'सुप्रातसुश्वसुदिवशारिकुक्षचतुरश्रेणीपदाजपदप्रोष्ठपदा' (पाणि 1 द्रव्याणां तुल्यम्” इति वा पाठः // Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 111 प्रकृतिवर्णना 5-4-120) इत्यकारः समासान्तः / अम्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवाः / ततश्च सर्वेऽप्यवथवाः शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाऽव्यभिचारिणो यस्य, न तु न्यूनाधिकप्रमाणाः, तत्तुल्यं समचतुग्धम् / न्यग्रोधवत्परिमण्डलं न्यग्रोधपरिमण्डलम् / यथा न्यग्रोध उपरि संपूर्णावयवः, अधस्तनभागे तु न तथा, तथेदमपि नाभेरुपरि विस्तरबहुलं शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभाग् , अधस्तु हीनाधिकप्रमाणमिति / सादीति, आदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते, तेनादिना शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभाजा मह वर्तते यत्नत्सादि / सर्वमेव हि शरीरमविशिष्टेना दिना मह वर्तते इति विशेषणान्यथानुपपत्तेरादेरिह विशिष्टता लभ्यते / सादि उत्सेधबहुलं परिपूर्णोत्सेधमित्यर्थः / वामनं पडभकोष्ठं, यत्र पाणिपादशिरोग्रीवं शरीरलक्षणोक्तप्रमाणयुक्तम् , यत्पुनः शेष कोष्ठपुर उदरपृष्ठादिरूपं तन्मडभं न्यूनाधिकामागं तद्वामनम् / कुब्जमधस्तनकायमडभं वामन विपर्ययाद्भावनीयम् / नवरमधस्तनकायशब्देन पाणिपादशिरोग्रीवमिहोच्यते / सर्वत्रासंस्थितं हुण्ड, यस्य हि प्रायेणेकोऽप्यवयवः शरीरलक्षणोवतं प्रमाणं न संवदति तत्सर्वत्रामंस्थितं हुण्डमिति / उक्तं च-"तुल्ल वित्थडबहुलं, उस्सेहबहुं च मउहको च / हेडिल्लकायमउहं, सव्वत्थासंठियं हुडं // 1 // ' इत्येतद्यथाक्रमं पण्णामपि लक्षणमितीदं षड्विधं संस्थानं यदुदयाद्भवति शरीरे तदपि कर्म तदभिधानं षड्विधं संस्थाननाम 8 / वर्णः पश्चविधः प्रसिद्धस्वरूपः; स यदुदयाच्छरीरपुद्गलेषु भवति तत्पञ्चविधं कृष्णनामादि वर्णनाम 9 / एवं गन्धो द्विविधः, रसः पञ्चविधः, स्पर्शश्वाष्टविधः, प्रसिद्धस्वरूप एव / तन्नामान्यपि कर्याणि तथैव वाच्यानि 10 / 11 / 12 / द्विसमयादिना विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यानुश्रेणिनियता गमनपरिपाटीहानुपूर्वीत्युच्यते, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरप्यानुपूर्वी / सा चतुर्विधा / नरकगतिनामकर्मप्रकृतेः सहचरितानुपूर्वी नरकगत्यानुपूर्वी, तया सह वेद्यमानत्वात्तत्सहचरितत्वम् तथा तिर्यङ्मनुष्यदेवानुपूर्दोऽपि वाच्याः 13 / गमनं गतिः, सा चेह पादविहरणाधात्मिका देशान्तरप्राप्तिहेतुद्वीन्द्रि यादीनां प्रवृत्तिरभिधीयते, नैकेन्द्रियाणां, पादाद्यभावात् / विहायसा गतिविहायोगतिः / ननु च विहायसः सर्वगतत्वात्ततोऽन्यत्र गतिर्न संभवति, ततश्च व्यवच्छेद्याभावाद्विहायसा विशेषणमनर्थकम् , सत्यमेतत् , नभसोऽन्यत्र गतिर्नास्ति तथाऽपि यदि गतिरित्येवोच्येत, ततो नाम्नः प्रथमप्रकृतिरपि गतिरस्तीति पौनरुक्त्या शास्यात् , अतस्तद्वयवच्छेदार्थ 'विहायोग्रहणं कार्यम् / विहायसा गतिः प्रवृत्तिर्न तु भवगतिर्नरकगत्यादिकेति / सा च द्विविधा, प्रशस्ताऽप्रशस्ता च / प्रशस्ता गजहंसवृषभादीनाम् , अप्रशस्ता तूष्टखरटोलादीनामिति, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि तन्नामिकैव द्विविधा 14 / इत्युक्ताः पिण्डप्रकृतयः // सन्त्युष्णाभितप्ताः छायाद्यभिसर्पणेनोद्विजन्ते तस्मादिति त्रसा द्वीन्द्रियादयः, तत्पर्यायविपाकवेद्यं कर्मापि त्रसनाम 15 / उष्णाद्यभितापेऽपि स्थानशीला न तत्परिहारसमर्थाः 1 “विहायसो” इति वा पाठः। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 ) कमस्तवाख्ये द्वितीये कमग्रन्थे स्थावराः पृथिव्यादय एकेन्द्रियाः, तत्पर्यायविपाकवेद्यं कर्मापि स्थावरनाम | नेजोवायनां तु स्थावरनामोदयेऽपि स्वाभाविकं चलनम् 16 / यस्योदयाजीवा बादराः म्यूरा भवन्ति तद्रादरनाम / न चेह चाक्षुषत्वं बादरत्वमिष्टं, बादरम्याप्येकैकस्य पृथिव्यादिशरीरस्य च क्षुषत्वाभावात् / यद्यपि चैतज्जीवविपाकि बादरनाम तथापि शरीरेऽभिव्यक्ति कियतीमपि दर्शयति / 'यथा क्रोध उदितो रक्तनेत्रभ्रकुटीभङ्गरूक्षवदनत्वादिकमिनि / तेन पृथिव्यादीनां बादराणां बहनों समेताना चाक्षुषत्वं भवति, न तु सूक्ष्माणामिति 17 / यस्योदयात्सूक्ष्माः पृथिव्यादयः पञ्च भवन्ति तत्सूक्ष्मनाम 18 / पर्याप्तिराहारादिपुद्गलदलिकग्रहणपरिणमनहेतुः पुद्गलोपचयजः शक्तिविशेषः / सा च साध्यभेदेन पोढा / यया ह्याहारमात्मा गृहीत्वा खलरसतया परिणमयति सा शक्तिराहारपर्याप्तिः / यया रसीभूतमाहारं सप्तधातुतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः / यया तु धातुभूतमिन्द्रियतया परिणमयति सेन्द्रियपर्यामिः / यया तूच्छ्वासप्रायोग्यं वर्गणाद्रव्यमादायोच्छ्वासतयाऽऽलम्ब्य मुञ्चति सोच्छ्यामपर्यामिः / यया तु भाषाप्रायोग्यं वर्गणाद्रव्यमादाय भाषात्वेनावलम्ब्य मुश्चति मा भाषापर्याप्तिः / यया तु मनःप्रायोग्यं वर्गणाद्रव्यमादाय मनस्तयाऽऽलम्ब्य मुश्चति सा मनःपर्याप्तिः / इत्येताः यथासंख्यमेकेन्द्रियविकलेन्द्रियसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां चतुष्पश्चषट्सङ्ख्याः पर्याप्तयो यस्योदयाद्भवन्ति तत्पर्याप्तक नाम / येषां हि पर्याप्तयः सन्ति ते पर्याप्ताः, मत्वर्थीयोऽचप्रत्ययः, पर्याप्ता एव पर्याप्तकाः / तद्भावविपाकवेद्यं कर्मापि पर्याप्तकनाम / ननु च शरीरपर्याप्त्यैव शरीरं भविष्यति तत्कि शरीरनाम्ना ? नेतदस्ति, साध्यभेदात , शरीरनाम्नो हि जीवेन गृहीतानां पुद्गलानामौदारिकादित्वेन परिणतिः साध्या, शरीरपर्याप्तेस्तु प्रागात्मनाऽऽरब्धस्य शरीरस्य परिसमाप्तिरिति 19 / ता एव षड् यथास्वं शक्तयो विकला अपर्याप्तयस्ता यस्योदयाद्भवन्ति तदपर्याप्तकनाम, शब्दव्युत्पत्निः पूर्ववत् 20 यस्योदयाप्रत्येकं शरीरं भवति, एकैकस्य जीवस्यकैकं शरीरमित्यर्थः, तत्प्रत्येकनाम 21 / यस्योदयादनन्तानां जीवा साधारणमेकं शरीरं भवति तत्साधारणनाम 22 / यदयादरथ्यादयः शरीरावयवाः स्थिरा निश्चला भवन्ति तत्स्थिरनाम 23 / यदुदयाजिह्वादिवदस्थिरा भवन्ति तदस्थिरनाम 24 / यदुदयान्नाभेरुपरि शुभाः शरीरावयवा भवन्ति तच्छुभनाम, शिरःप्रभृतिना हि स्पृष्टस्तुष्यति पादादिभिस्तु रुप्यति 25 / यदुदयानाभेरधोऽशुभाः शरीरावयवा भवन्ति तदशुभनाम 26 / यदुदयान्मधुरगम्भीरोदारः स्वरो भवति तत्सुस्वरनाम 27 / यदुदयात्खरभिन्नहीनदीनः स्वरो भाति तद्दु स्वर नाम 28 / यदुदयात्सर्वस्य प्रियः प्रह्लादकारी भवति तत्सुभगनाम 29 / तद्विपरीतं दुगनाम 30 / यदुदयेन यत्किचिदपि ब्रुवाण उपादेयवचनो भवति सर्वस्य तदादेयनाम 31 / यदुदयेन तु युक्तमपि त्रु वाणः परिहार्यवचनो भवति तदनादेयनाम 1 "यथा क्रोधे उदिते" इत्यपि पाठः // Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिवर्णना [ 113 32 / सर्वदिग्गामिनी पराक्रमकृता वा सर्वजनोत्कीर्तनीयगुणता यश उच्यते, एकदिग्गामिनी तु दानपुण्यकृता वा कीर्त्तिः, यशश्च कीर्तिश्च यशःकीर्ती, ते यदुदयाद्भवतस्तद्यशःकीर्तिनाम 33 / तद्विपर्ययादयश-कीर्त्तिनाम 34 / सर्वप्राणिनां शरीराणि यदुदयान्नैकान्तगुरूणि नैकान्तलघूनि भवन्ति तदगुरुलघुनाम / एकान्तगुरुत्वे हि वोढुमशक्यानि स्युः, एकान्तलघुत्वे तु वायुनाऽपि हियमाणानि धारयितु न पायेंरन् 35 / स्वशरीरावयवैरेव नखादिभिः शरीरान्तर्वईमानैर्यदुदयादुपहन्यते पीडयते तदुपघातनाम 36 / यदुदयात् परानाहन्ति दुष्प्रधृष्यतया शरीराकृतेरभिभवति तत्पराघातनाम 37 / यदुदयादुच्छ्वासलब्धिरात्मनो भवति तदुच्छ्वासनाम / सर्वलब्धीनां क्षायोपशमिकत्वादौदयिकी लब्धिर्न संभवति ?, इति चेत् नैतदस्ति, वैक्रियाहारकलब्धीनामौदायिकीनामपि संभवात् / वीर्यान्तरायक्षयोपशमोऽपि च तत्र निमित्तीभवतीति सत्यप्यौदयिकत्वे क्षायोपशमिकव्यपदेशोऽपि न विरुध्यत एव / सतीमपि चोच्छ्वासनामोदयजनितामुच्छवसनलब्धिमात्मा व्यापारयितु न शक्नुयात् शक्तिविशेषरूपामुच्छ्वासपर्याप्तिमन्तरेण, यथा हि वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितां सतीमपि वाग्व्यापारात्मिकां वाग्वीर्यलब्धि व्यापारयितु न शक्नोति 'भाषापर्याप्तिमन्तरेण, इत्यसावपि वाग्वीर्यलब्धेः पृथगिष्यते / यथा वा ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयोपशमजनितां सतीमपि मनोव्यापारात्मिकां पर्यालोचनवीर्यलब्धि व्यापारयितु न शक्नोति मनःपर्याप्तिमन्तरेण इत्यसावपि मनोवीर्यलब्धेः पृथगिष्यत एव / तथोच्छ्वासनामोदयजनितायामुच्छ्वासलब्धौ सत्यामप्युच्छ्वासपर्याप्तिरेपितव्या 38 / यदुदयाजन्तुशरीराण्यत्युष्णप्रकाशलक्षणमातपं प्रकुर्वन्ति तदातपनाम / तदुदयश्च रविविम्बादौ पार्थिवशरीष्वेव न शेषेषु, वह्निज्वालाप्रभादिपूष्णप्रकाशरूपत्वे सत्यप्यातपो न भवति, किं तर्हि ? तेजे जन्नुशरीराण्येव, तत्र तूष्णत्वमुष्णस्पर्शनामोदयात् , प्रकाशरूपत्वं तु लोहितवर्णनामोदयादवसेयमिति 39 / यदुदयाजन्तुशरीरमनुष्णप्रकाशात्मकमुयोतं प्रकरोति / यथा यतिदेवोत्तरवैक्रियचन्द्रसंग्रहतारारत्नौषधिमणिप्रभृतयस्तदुद्योतनाम 40 / यदुदयाच्छरीरेष्वङ्गप्रत्यङ्गानां प्रतिनियतस्थानवृत्तिता भवति तत्सूत्रधारकल्पं निर्माणनाम / तदभावे हि तद्भुतककल्पैरङ्गोपाङ्गनामादिभिनित्तानामपि शिरउरउदरादीनां स्थानवृत्तेरनियमः स्यात् 41 यदुदयाजीवः सदेवम जासुरलोक पूज्यमुत्तमोत्तमं पदं धर्मतीर्थस्य प्रवर्तयितृत्वमवाप्नोति तत्तीर्थकरनाम 42 / इत्युक्तं नाम 6 / / गां वाचं त्रायत इति गोत्रम् / तत्पुनः प्राणिनामुच्चैींचैर्भावलक्षणः कर्मविशेषोदयजनितः पर्यायविशेषः / स [ त्तमाधमादिशब्दरूपां स्वार्थप्रतिपादनप्रवृत्तां प्रवृत्तिनिमित्तीभवन् वाचं रक्षति तदर्थाभिधायित्वेन पालयति / अथवा 'गुङ शब्द' इत्यस्माद्धातोः ष्ट्रन् / गूयते संशब्दयते प्रधानाधमादिरूपतयाऽनेनेति गोत्रम् / तथाविधविपाकवेद्यं कर्मापि गोत्रम् , तच्च 1 "वाक्पर्या-" इति पाठः॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 ] कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे द्विधा-उच्चैोत्रं 1 नीचैर्गोत्रं 2 च / तत्रोच्चैर्गोत्रमष्टधा वेद्यते, जातिकुलबलरूपतपऐश्वर्यश्रुतलाभैः 1 / तद्विपर्ययात्तु नीचैर्गोत्रम् 2 / निर्गुणोऽपि हि जातिवशादुत्तम इति जनैः पूज्यते / जातिहीनस्तु गुणवानपि निन्द्यते तथा कुलादिष्वपि वाच्यम् उक्तं द्विविधं गोत्रम् 7 // जीवं चार्थसाधनं चान्तरा एति पततीत्यन्तरायम् / जीवस्य दानादिकमर्थं सिसाधयिषोविनीभूय विचाले पततीत्यर्थः / तत्पश्चधा-दानस्यान्तरायं दानान्तरायमित्यादि / सति दातव्ये वस्तुनि समागते च गुणवति पात्रे दानस्य च कल्याणकं फलविशेष विद्वानपि यदुदयादातुनोत्सहते तदानान्तरायम् 1 प्रसिद्धादपि सर्वप्रदादातुः गृहे च विद्यमानं देयमर्थजातं याश्चाकुशलो याचमानो गुणवानपि यदुदयान लभते तल्लाभान्तरायम् 2 / सकृद्भज्यत इति भोगः, आहारमाल्यविलेपनादिः / पुनः पुनभुज्यत इत्युपभोगः शयनवसनवनिताभूषणादिस्तस्यान्तरायम् , भोग्यमुपभोग्यं वा विद्यमानमनुपहताङ्गोऽपि यदुदयान्न शक्नोति भोक्तुमुपभोक्तु वा तद्भोगान्तरायमुपभोगान्तरायं च वेदितव्यम् 3 / 4 / वीर्य शक्तिरुत्साहः सामर्थ्यमिति चोच्यते, तस्यान्तरायं विघातकं वीर्यान्तरायम् / यदुदयादनुपहतपीनाङ्गोऽपि शक्तिविकलो भवति तद्वीर्यान्तरायम् 5 / इत्युक्तं पञ्चविधमन्तरायम् 8 // कृता च प्रकृतिवर्णना / व्याख्यातं च मृलोत्तरप्रकृतिसंख्याप्रतिपादकं गाथाद्वयम् // 9 // 10 // इदार्नी कास्ता मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानेषु षोडशाद्याः कर्मप्रकृतयो बन्धादीन् प्रतीत्य व्यवच्छिन्नाः 1 इति प्रदर्शयन्नाह मिच्छ नपुंसगवेयं, नरयाउं तह य चेव नरयदुर्ग। इगविगलिंदिय'जाई, हुंडमसंपत्तमायावं // 11 // थावर सुहुमं च तहा, साहारणयं तहा अपजत्तं / एया सोलस पयडी, मिच्छमि य बंधवोच्छेओ॥१२॥ मिथ्यात्वं नपुसकवेदः नरकायुष्कं 'तह य नरयदुगं' इति, नरकगतिनाम 'नरकगत्यानुपूर्वीनाम 'इगविगलिंदियजाई' इति, एकेन्द्रियजातिः द्वीन्द्रियजातिः त्रीन्द्रियजातिः चतुरिन्द्रियजातिः हुण्डं संस्थानं 'असंप्राप्तं' सेवार्तसंहननं आतपनाम स्थावरनाम सूक्ष्मनाम साधा. रणनाम अपर्याप्तनाम, 'एया सालस पयडी' इति, विभक्तिव्यत्ययादेतासां षोडशानां प्रकतीनां मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने बन्धव्यवच्छेदो भवति, एतत्प्रकृतिबन्धस्य मिथ्यात्वप्रत्ययत्वात् ,. तस्य चोत्तरत्राभावात् // 11 // 12 // 1 "जाई" इत्यपि पाठः / 2 "नरकानुपूर्वीनाम” इति वा पाठः // Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धं प्रतीत्य गुण थानकेषु व्यवछिद्यमानाः प्रकृतयः [ 115 थीणतिगं इत्थी वि य, अण तिरियाउं तहेव तिरियदुगं। मज्झिम चउ संठाणं, मज्झिम चउ चेव संघयणं // 13 // उज्जोयमप्पसत्था, 'विहायगइ दूभगं अणाएज्जं / दूसर नीयागोयं, सासणसम्मम्मि वोच्छिन्ना // 14 // 'थीप तिगं' इति, निद्रानिद्रा 1 प्रचलाप्रचला 2 स्त्यानगृद्धिः 3 स्त्रीवेदः 4 'अण' इति, अनन्तानुबन्धिनश्चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः 8 तिर्यगायुष्कं 9 'तहेव तिरियदुर्ग' इति, तिर्यग्गतिनाम 10 तिर्यग्गत्यानुपूर्वीनोम 11 'मज्झिम चउ संठाणं मज्झिम चउ चेव संघयणं' इति, प्रथमचरमवर्जानि मध्यमानि चत्वारि चत्वारि संस्थानसंहननानि / तानि चामनिन्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानं सादिसंस्थानं वामनसंस्थानं कुब्जसंस्थानं ऋषभनाराचसंहननं नाराचसंहननं अर्द्धनाराचसंहननं कीलिकासंहननं चेति, उद्द्योतनाम अप्रशस्तविहायोगतिः दुर्भगं अनादेयं दुस्वरं नीचैर्गोत्रम् , इत्येताः पञ्चविंशतिः कर्मप्रकृतयो बन्धं प्रतीत्य सासादनसम्यग्दृष्टौ व्यवच्छिन्नाः / अनन्तानुबन्ध्युदयप्रत्ययत्वादेतद्वन्धस्य तदभावादुत्तरेष्विति // 13 // 14 // बीयकसायचउक्क, मणुयाउं मणुय दुग य ओरालं। तस्स य अंगोवंगं, संघयणाई अविरयंमि // 15 // ... 'बीयकसायचउक्कं इत्यप्रत्याख्यानावरणाश्चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः मनुष्यायुष्क 'मणुयदुग य' इति, मनुष्यगतिर्मनुष्यगत्यानुपूर्वी, औदारिकशरीरं 'तस्स य अंगोवंग' इति, औदारिकाङ्गोपाङ्ग संघयणाई' इति, संहननानामादिप्रकृतिर्वज्रर्षभनाराचसंहननम् , इत्येता देश प्रकृतयोऽविरतसम्यग्दृष्टौ व्यवच्छिन्ना इति वर्तते / बन्धं प्रतीत्येति च प्रकरणाद्गम्यते / तत्र द्वितीयकपायचतुष्कं तदुदयाभावान्न बध्नाति देशविरतादिः। कषाया ह्यनन्तानुबन्धिवर्जा वेद्यमाना एव बध्यन्ते, "जे वेयइ ते बंधति" इतिवचनात् / अनन्तानुबन्धिनस्तु चतुर्विंशतिमोहसत्कर्माऽनन्तवियोजको मिथ्यात्वं गतो बन्धावलिकामात्रं कालमनुदितान् बध्नाति / मनुप्यायुरादित्रयं त्वेकान्तेन मनुष्यवेद्यमेव / औदारिकादित्रयं तु मनुष्यतिर्यगेकान्तवेद्यमेव / देशविरतादिस्तु देवगतिवेद्यमेव बध्नाति, नान्यत् / तेनैतद्दशकमविरत एव व्यवच्छिन्नम् / सम्यग्मिथ्यादृष्टौ न कस्यचिद्रन्धव्यवच्छेदः, तस्याविरतसम्यग्दृष्टिना सह बन्धहेत्वविशेषात् // 15 // तइयकसायचउक्कं, विरयाविरयंमि बंधवोच्छेओ। अस्सायमरइसोयं, तह चेव य अथिरमसुभं च // 16 // 1 “बिहाइगइदूमयं” इत्यपि पाठः / 2 "०दुवय” इत्यपि पाठः / 3 "अस्साइअरइसोगं” इत्पपि पाठः / जाराला Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे अन्जसकित्ती य तहा, पमत्तविरयंमि बंधवोच्छेओ। 'देवाउयं च एगं, नायब्वं अप्पमत्तंमि // 17 // तइयेत्यादि गाथापूर्वाद्धम् / 'तइयकसायचउक्कं' इति, प्रत्याख्यानावरणानां क्रोधमानमायालोभाना देशविरतेर्बन्धव्यवच्छेदः, तदुत्तरेषु तेषामुदयाभावादनुदितानां चाबन्धात्प्राग्वत् // ____ 'अस्साय' इत्यादि पश्चार्द्धम् / 'अन्जसकित्ती' इत्यादि पूर्वार्द्धम् / असातवेदनीयं अरतिः शोकः अस्थिरनाम अशुभनाम // 16 // अयशःकीर्तिनाम, इत्येतासां षण्णां प्रकृतीनां प्रमत्तविरतेर्बन्धव्यवच्छेदः, तद्वन्धस्य प्रमादप्रत्ययत्वात् , प्रमादस्य चोत्तरत्राभावात् // 'देवाउयं' इत्यादि पश्चार्द्धम् , देवायुष्कमेकं ज्ञातव्यं, अप्रमत्ते बन्धं प्रतीत्य व्यवच्छिनम् / 'देवायुष्कबन्धं हि प्रमत्तः सन्नारभते, तद्वन्धाद्धायामेव कश्चिदप्रमत्तो भूत्वा समापयति, न त्वप्रमत्त एवारभते / तदुत्तरेषु तद्वन्धासंभव एव, तेपामत्यन्तविशुद्धत्वात् , आयुषश्चं घोलनापरिणामेनैव बन्धात् // 17 // निदापयला य तहा, अपुव्वपढमंमि बंधवोच्छेओ। देवदुगं पंचिंदिय-उरालवज्जं चउसरीरं // 18 // समचउरं वेउब्विय-आहारय अंगुवंगनामं च / वण्णचउक्कं च तहा, अगुरुयलहुयं च चत्तारि // 19 // तसचउपसत्थमेव य, विहायगइ थिरसुभं च नायव्वं / सुहयं सुस्सरमेव य, आएज्ज चेव निमिणं च // 20 // तित्थयरमेव तीसं, अपुव्वछब्भागबंधवोच्छेओ / हासरइभयदुगुछा, अपुव चरमंमि वोच्छिन्ना // 22 // निदेति गाथाचतुष्कं / अपूर्वकरणाद्धायाः सप्त भागाः क्रियन्ते / तत्र प्रथमे भागे निद्राप्रचलयोर्वन्धव्यवच्छेदः / तदुत्तरत्र तद्वन्धाध्यवसायस्थानाभावाद् , उत्तरेष्वपि चायमेव हेतुरनुसरणीयः / 'देवदुर्ग' इति, देवगतिर्देवानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिः 'उरालवलं चउसरीरं' इति, वैक्रियं आहारकं तैजसं कामणं, समचतुरस्रसंस्थानं वैक्रियाङ्गोपाङ्ग आहारकाङ्गोपाङ्गम 'वण्णचउक्कं च तहा' इति, वर्णो गन्धो रसः स्पर्शः, 'अगुरुयलहुयं च चत्तारि' इति, अगुरुलघु उपघातं पराघातं उच्छ्वासनाम चेति, 'तस चउ' इति, वसं बादरं पर्याप्तकं, प्रत्येकं, 'पसत्यमेव य विहायगइ' इति, प्रशस्ता विहायोगतिः, स्थिरं शुभं च ज्ञातव्यम् , सुभगं सुस्वरं आदेयं निर्माणं तीर्थकरनाम, च, इत्येतासां त्रिंशतः कर्मप्रकृतीनामपूर्वकरणस्य १"देवाउगं च एक्कं तहापमत्तम्भि नायव्वं" / इत्यपि पाठः।२ "तदायु०" इत्यपि पाठः। 3 "सन्ना रभ्य त०" इति वा पाठः / 4 "चेव" (1) इत्यपि पाठः ।५"०चरिमम्मि' इत्यपि पाठः। ' Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धं समाश्रित्य गुणस्थानकेच्छिद्यमानाः प्रकृतयः [117 'छब्भाग' इति, पष्ठे सप्तभागे बन्धव्यवच्छेदः / हास्यरतिभयजुगुप्साश्चतस्रः प्रकृतयोऽपूर्वकरणचरमे सप्तभागे बन्धं प्रतीत्य व्यवच्छिन्नाः / / 18 // 19 // 20 // 21 // . पुरिसं चउसंजलणं, पंच य पयडीओ पंच 'भागंमि। अनियट्टीअद्धाए, जहकमं बंधवोच्छेओ // 22 // पुरुष कर्म पुरुपवेदः, 'चउ संजलणं' इति, चत्वारः संज्वलनाः क्रोधमानमायालोभाः, इत्येतासां पश्चानां प्रकृतीनां 'पञ्च भागंमि' इति, पञ्चसु भागेष्वनिवृत्त्यद्धायाः 'यथाक्रम यथासंख्यमेकैकस्मिन् भागे एकैकस्याः प्रकृतबन्धव्यवच्छेदः / पुरुषवेदादीनां मायासंज्वलनान्तानामुत्तरत्र तद्वन्धाध्यवसायस्थानाभावः, व्यवच्छेदहेतुलोभसंज्वलनस्य (संज्वलनलोभस्य) तु बादरसम्परायप्रत्ययो बन्धः, स चोत्तरत्र नास्तीत्यतो व्यवच्छेदः // 22 // नाणंतर यदसगं देसण चत्तारि उच्च जसकित्ती / एया सोलस पयडी, 'सुहुमकसायंमि वोच्छिन्ना // 23 // 'नाणंतरायदसगं' इति, ज्ञानावरणं पञ्चविधमन्तरायं पञ्चविधं, 'दसण चत्तारि' इति, दर्शनावरणानि चत्वारि चक्षुरचक्षरवधिकेवलदर्शनावरणाख्यानि, उच्चैगोत्र, यश कीर्तिः, इत्येताः षोडश प्रकृतयः सूक्ष्मकषाये बन्धं प्रतीत्य व्यवच्छिन्नाः / एतबन्धस्य साम्परायिकत्वादुत्तरेषु च सम्परायस्य कषायोदयलक्षणस्याभावात् // 23 // उवसंतखीणमोहे, जोगिंमि उ साय बंधवोच्छेओ। नायव्वो पयडीणं, बंधस्संतो अणंतोय // 24 // // बंधो सम्भत्तो / उवसंतेत्यादि / उपशान्तमोहे क्षीणमोहे सयोगिकेवलिनि च सातवेदनीयस्य बन्धव्यवच्छेदः / तदुत्तरस्मिन्नयोगिकेवलिनि तद्वन्धप्रत्ययस्य योगस्याभावात् , इत्येवं ज्ञातव्यः प्रकृतीनां चन्धस्यान्तोऽनन्तश्च / यत्र हि गुणस्थाने यासां प्रकृतीनां बन्धहेतुव्यवच्छेदस्तत्र तासां बन्धस्यान्तः, यथा मिथ्यादृष्टिव्यवच्छिन्नबन्धानां पोडशानां प्रकृतीनां मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगाः समुदिता बन्धहेतवः, तेषु मध्ये मिध्यात्वं तत्रैव व्यवच्छिन्नम् / ततश्च मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने तासां बन्धस्यान्तः तत उत्तरेषु कारणवैकल्येन बन्धाभावादितरासां बन्धस्यानन्तः / तत उत्तरेष्वपि तद्वन्धकारणसाकल्येन बन्धभावात् इत्येवमन्येष्वपि गुणस्थानेषु प्रकृतीनां स्वस्वबन्धहेतूनां व्यवच्छेदाव्यवच्छेदाभ्यां साकल्यवैकल्यवशाद्वन्धस्यान्तोऽनन्तश्च भावनीयः॥२४॥ // इति बन्धाधिकारः समाप्तः // 1 "मायम्मि" इत्यपि पाठः / 2 "सुहुमसरागम्मि" इत्यपि पाठः / 3 "सजोइम्मी साय” इत्यपि पाठः / 4 "वा" इत्यपि पाठः। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे ___ अथेदानी कास्ताः पश्चाद्याः कर्मप्रकृतयो यासां मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानेषूदयव्यवच्छेदः ? इत्याह मिच्छत्तं आयावं सुहम अपजतया य तह चेव। . साहारणं च पंच य, मिच्छमि य उदयवोच्छेओ॥२५॥ मिथ्यात्वं आतपनाम सूक्ष्मनाम अपर्याप्तकनाम साधारणं च, इत्यासां पश्चानां प्रकृतीनां मिथ्यादृष्टावुदयव्यवच्छेदः / मिथ्यात्वोदयस्तावन्मिथ्यादृष्टेरेव भवति, तेनोत्तरेषु तदुदयाभावः। आतपनामोदयस्तु बादरपृथिवीकायिकेश्वेव / अपर्याप्तनाम्नस्तु सर्वेष्वपर्याप्तकेषु / सूक्ष्मनाम्नः सूक्ष्मैकेन्द्रियेषु / साधारणनाम्नोऽनन्तकायिकवनस्पतिषु / न चैतेषु स्थितो जीवः सासादनादित्वं लभते, नापि पूर्वप्रतिपन्नस्तेषूल्पद्यते / सासादनस्तु यद्यपि बादरपर्याप्तकैकेन्द्रियेषत्पद्यते तथाऽपि न तस्यातपनामोदयसंभवः, तत्रोत्पन्नमात्रस्यासमाप्तशरीस्यैव सासादनत्ववमनात् / समाप्ते च शरीरे तत्रातपनामोदयो भवति, तेनैतासां मिथ्यादृष्टौ व्यवच्छेद उदयस्य // 25 // अण एगिदियजाई, विगलिंदियजाइमेव थावरयं / / एया नव पयडीओ, सासणसम्मंमि वोच्छिन्ना // 26 // 'अण' इति अनन्तानुबन्धिनश्चत्वारः, एकेन्द्रियजातिः, 'विगलिंदियजाइमेव' इति. विकलानि पञ्चभ्य ऊनानि इन्द्रियाणि येषां ते विकलेन्द्रिया द्वीन्द्रियादयस्तेषां ,जातयस्तिस्रः, तद्यथा-द्वीन्द्रियजातिः, त्रीन्द्रियजातिः, चतुरिन्द्रियजातिः, स्थावरनाम, इत्येता नव प्रकृतयः सासादनसम्यग्दृष्टावुदयं प्रतीत्य व्यवच्छिन्नाः। अनन्तानुबन्धिनामुदये सम्यक्त्वलाभो न भवति, "पढमिल्लुयाण उदए, नियमा संजोयणा कसायाणं / सम्मइंसणलंभं, भवसिद्धीयावि न लभंति // 1 // " इतिवचनात् / नापि सम्यमिथ्यात्वं कोऽप्यनन्तानुबन्ध्युदये गच्छति / योऽपि पूर्वप्रतिपन्नसम्यक्त्वोऽनन्तानुबन्धिनामुदयं करोति सोऽपि सासादन एव भवतीत्युत्तरेवासामुदयाभावः / शेषास्त्वेकेन्द्रियजात्यादयो यथास्वमेकेन्द्रियविकलेन्द्रियवेद्या एव / उत्तरगुणस्थानानि तु संज्ञिपञ्चेन्द्रिया एव प्रतिपद्यन्ते / पूर्वप्रतिपन्नोऽपि पञ्चेन्द्रियेष्वेव गच्छति अन उत्तरेष्वासामुदयाभावः। / ततश्च सासादन एवोदयव्यवच्छेदः // 26 // सम्मा मिच्छत्तेगं, सम्मामिच्छमि उदयवोच्छेओ। बीयकमायचउक्कं. तह चेव य नरयदेवाऊ // 27 // मणुयतिरियाणुपुब्बी. वेउब्धियछक्क 'दूहयं चेव / अणएज्जं चेव तहा. अजसकित्ती अविरगंमि // 28 // . 1 "दूहियं” इत्यपि पाठः / Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयमधिकृत्य गुणस्थानेषु व्यवच्छिद्यमानाः प्रकृतयः / 119 पूर्वार्द्धम् / सम्यङ्मिथ्यात्वस्यैकस्य सम्यङ्मिथ्यादृष्टावृदयच्यवच्छेदः / तदुदये हि सम्यमिथ्यादृष्टिरेव भवति नान्य इति / / ___ 'बोयकसायचउक' इति, अप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभाः / देवायुः नरकायुः मनुजानुपूर्वी, तिर्यगानुपूर्वी 'घेउब्धियछक्क' इति वैक्रियेण युक्तं षटकं वैक्रियषट्कम्क्रियशरीरं वैक्रियाङ्गोपाङ्ग नरकगतिः नरकानुपूर्वी देवगतिः देवानुपूर्वीति / दुर्भगं, अनादेयं, अयशःकीर्तिः, इत्येताः सप्तदश प्रकृतय उदयं प्रतीत्याविरतसम्यग्दृष्टौ व्यवच्छिन्नाः / द्वितीयकषायोदये देशविरतेरपि लाभः श्रुते प्रतिषिद्धः, 'बोयकसायाणदये' इत्यादिना / नापि पूर्वप्रतिपन्नदेशविरत्यादेर्जीवस्य तदृदयसंभवः, तेनोत्तरेषु तदुदयाभावः / देवनरकायुषी देवगतिद्वयं नरकगतिद्वयं च यथास्वं देवनारकवेद्यमेव, न च तेषु देशविरत्यादेः संभवः / वैक्रियशरीरवैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम्नोस्तु देवनारकेषूदयः / तिर्यङ्मनुष्येषु त्वप्राचुर्येणाविरतसम्यग्दृष्टयन्तेषु / यस्तूत्तरगुणस्थानेष्वपि केषाञ्चिदागमे विष्णुकुमारस्थूलभद्रादीनां वैक्रियद्वितियस्योदयः श्रूयते, स इहाचार्येण न विवक्षितः, किं प्रविरलतरत्वात् , आहोस्विदन्यः कोऽप्यभिप्रायः 1, इति न विद्मः तिर्यङ्मनुजानुपूर्योस्तु परभवादिसमयेषु त्रिष्वपान्तरालगतावुदयसंभवः, स च यथायोगं तिर्यङ्मनुष्याणां वर्षाष्टकादुपरिष्टात्संभविषु देशविरत्यादिगुणस्थानेषु न संभवति / दुर्भगमनादेयमयशःकीर्तिरित्येतास्तु तिस्रः प्रकृतयो देशविरतादीनां गुणप्रत्ययानोदन्तीत्यत एता अवेरते व्यवच्छिनाः // 27 // 28 // तइयकसायचउक्कं, 'तिरियाऊ तह य चेव तिरियगई। उज्जोय नीयगोयं, विरयाविरयंमि वोच्छिन्ना // 29 // 'तृतीय कषायचतुष्कं' इति, प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधादयः, तिर्यगायुः, तिर्यग्गतिः, उद्योतं, नीच्चैगोत्रम् , इत्येता अष्टौ प्रकृतय उदयं प्रतीत्य विरताविरते व्यवच्छिन्नाः / विरतवासौ स्थूलप्राणातिपातादेरविरतश्च सूक्ष्मप्राणातिपातादेविरताविरतो-निवृत्तानिवृत्तो देशविरत इत्यर्थः / तृतीयकषायोदये हि चारित्रलाभो न भवति, "तहयकसायाणुदए" इत्यादिवचनात् / न च पूर्वप्रतिपन्नचारित्रस्य तदुदयसंभव इत्युत्तरेषु तदुदयाभावः / तिर्यगायुस्तिर्यग्गतिरुद्योतनाम इत्येताः स्वभावतस्तिर्यग्वेद्या एव / तेषु च देशविरतान्तान्येव गुणस्थानानि संभवन्ति नोत्तराणि इत्युत्तरेषु तदुदयाभावः / उद्योतनाम्नस्तु यतिवेक्रियेऽप्युदयसंभवः / तथा चोक्तम्"उत्तरवेउच्च देवजति" इति, स विहाचार्येण वैक्रियोदयवन विवक्षितः / नीचेगोत्रं तु तिर्यक्षु गतिस्वाभाव्याद्धृवौदयिकं न परावर्तते / ततश्च देशविरतस्यापि तिरश्चो नीचेगोत्रोदयोऽस्त्येव / मनुजेषु तु सर्वस्य देशविरतादेगुणिनो गुणप्रत्ययादुच्चगोत्रमेवोदेतीति उत्तरत्र नीचैगोत्रोदयाभावः / ततश्चैता अष्टावपि देशविरत एवोदयं प्रतीत्य व्यवच्छिन्नाः // 29 // 1 "तिरियाउं तहय चेव तिरियगई" इत्यपि पाठः / 2 “निच्च” इत्यपि पाठः / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 ] कर्मस्त्वाख्यै द्वितीये कर्मग्रन्थै थीणतिगं चैव तहा, आहारदुगं पमत्तविरयंमि। . सम्मत्तं संघयणं. अंतिमतिगमप्पमत्तमि // 30 // ___पूर्वार्द्धम् / स्त्यानर्धित्रयं पूर्वोक्तम् , तथा 'आहारकद्वयं' आहारकशरीराहारकाङ्गोपाङ्गा ख्यम् , इत्येतत् प्रकृतिपञ्चकं प्रमत्तविरते व्यवच्छिन्नमुदयं प्रतीत्य / तत्र स्त्यानर्द्धित्रयोदयः प्रमादरूपत्वादप्रमत्ते न संभवति / आहारकं च शरीरं विकुर्वाणो यतिरवश्यं प्रमादवशगो भवति / यत्त्विदमन्यत्र श्रूयते-प्रमत्तयतिराहारकं विकृत्य पश्चाद्विशुद्धिवशात्तत्रस्थ एवाप्रमत्तता यातीति तदाचार्येण वैक्रियोदयन्यायेन न विवक्षितम् / / 'सम्मतं' इत्यादि पश्चार्द्धम् / सम्यक्त्वं, तथा 'संहननानामन्यत्रयं' इति, अर्द्धनाराचकीलिकासेवार्ताख्यं, इत्येताश्चतस्रः प्रकृतय उदयं प्रतीत्याप्रमत्ते व्यवच्छिन्नाः / तत्र सम्य- .. क्त्वे क्षपिते उपशमिते वा श्रेणिद्वयमारुह्यत इत्यपूर्वकरणादौ तदुदयाभावः / चरमसंहननत्रयोदये तु श्रेणिरारोढुं न शक्यते, तथाविधविशुद्धेरभावादित्युत्तरेषु तदुदयाभावः // 30 // तह नोकसायछक्क, अपुवकरणंमि उदयवोच्छेओ। वेयतिग कोह'माणामायासंजलणमनियट्टी // 31 // पूर्वार्द्धम् / नोकषायषट्कस्य हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साख्यस्यापूर्वकरणे उदयव्यवच्छेदः / संक्लिष्टतरपरिणामवेद्यत्वादुत्तरेषां च विशुद्धतरपरिणामत्वात्तेषु तदुदयाभाव इति, उत्तरेष्वप्ययमुदयव्यवच्छेदो हेतुरनुसरणीयः॥ 'वेयतिग' इत्यादिपश्वार्द्धम् / वेदत्रिकं स्त्रीवेदपु वेदनपुंसकवेदाख्यम् , क्रोधमानमायाः संज्वलनास्त्रयः, इत्यस्य प्रकृतिषट्कस्यानिवृत्तिबादरसम्पराये उदयव्यवच्छेदः / तत्र स्त्रियाः श्रेणिमारोहन्त्याः स्त्रीवेदस्य प्रथममुदयव्यवच्छेदः, ततः क्रमेण संज्वलनत्रयस्य, पुसोऽप्येवम् , नवरं प्रथमं पुवेदस्य, नपुसकस्य तु प्रथमं नपुसकवेदस्य // 31 // संजलणलोभमेगं, 'सुहुमकसायंमि उदयवोच्छेओ। तह 'रिसहं नाराय, नारायचेव उवसंते // 32 // पूर्वार्द्धम् / संज्वलनलोभस्यैकस्य सूक्ष्मकषाये उदयव्यवच्छेदः / तदुत्तरेष्वस्योदयाभावः, उपशान्तत्वात्क्षीणत्वाद्वा // 'तह रिसहं' इति पश्चार्द्धम् / ऋषभनाराचं द्वितीयं संहननं नाराचं तृतीयमित्यनयोरुपशान्तमोहे उदयव्यवच्छेदः / प्रथम संहननेनैव क्षपकश्रेण्यारोहणात्क्षीणमोहादौ तदुदयाभावः। उपशमश्रेणिस्तु प्रथमसंहननत्रयेणारुह्यते // 32 // 1 "माणयः” इत्यपि पाठः / 2 "सुहु मसरागम्मि" इत्यपि पाठः / 3 "रिसहनाः' इत्यपि पाठः। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयमाश्रित्य गुणस्थानकेच्छिद्यमानाः प्रकृतयः [121 निदा पयला य तहा, खीणदुचरिमंमि उदयवोच्छेओ। नाणंतरायदमगं, दंगण चत्तारि चरिमंमि // 33 // निद्राप्रचलयोः क्षीणकषायस्य द्विचरमसमये उदयव्यवच्छेदः / चरमसमये तु क्षीणत्वात्तदुदयाभावः / अपरे पुनराहुः-उपशान्तमोहे निद्राप्रचलयोरुदयव्यवच्छेदः। पञ्चानामपि हि निद्राणां घोलनपरिणामे भवत्यु दयः / क्षपकाणां त्वतिविशुद्धत्वान्न निद्रोदयसंभवः / उपशमकानां पुनर नतिविशुद्धत्वात्स्यादपीति / 'नाणंतरायदसगं' इति, ज्ञानावरणे पञ्च, अन्तराये पञ्च, दर्शनावरणानि चत्वारि चक्षुर्दर्शनावरणादीनि, इत्येतासां चतुर्दशानां प्रकृतीनां क्षीणकपायचरमसमये उदयव्यवच्छेदः, तदनन्तरं क्षयादिति // 33 // 'अन्नयरवेयणीय, ओरालियतेयकम्मनामं च / छच्चेव य संठाणा, ओरालियअंगुवंगं च // 34 // 'आइमसंघयणं खलु, वण्णचउक्कं च दो विहायगती। अगुरुयलहुयचउक्कं. पत्तेयथिराथिरं चेव // 35 // सुभसुस्संरजुयलावि य, निमिणं च तहा हवंति नायव्वा / एया तीसं पयडी, सजोगिचरिमंमि वोच्छिन्ना // 36 // गाथात्रयम् / 'अन्यतरवेदनीयं सातमसातं वा यदयोगिगुणस्थाने न वेदयिष्यते / औदारिकशरीरं तैजसशरीरं कार्मणशरीरम् , 'छच्चेव य संठाणा' षट् संस्थानानि समचतुरस्रादीनि, 'ओरालियअंगुवंगं च' इति, औदारिकाङ्गोपाङ्गनाम, 'आदिमसंहननं' वज्रर्षभनाराचम् 'वर्णचतुष्क' वर्णगन्धरसस्पर्शाख्यम् , 'दो विहायगती' इति, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगती इति, 'अगुरुलघुचतुष्क' अगुरुलघूपघातपराघातोच्छ्वासाख्यम् , प्रत्येकं स्थिरं अस्थिरं, 'सुभसुस्सरजुयलावि य' इति, शुभं अशुभं सुस्वरं दुःस्वरं निर्माणम् , इत्येतास्त्रिंशत् प्रकृतय उदयं प्रतीत्य सयोगिचरमसमये व्यवच्छिन्नाः / तत्रान्यतरवेदनीयं यदयोगिगुणस्थाने न वेदयितव्यं तत्सयोगिचरमसमये व्यवच्छिन्नोदयं भवति, पुनरुत्तरत्रोदयाभावात् / सुस्वरदुःस्वरनाम्नोस्तु भाषापुद्गलविपाकित्वाद्वाग्योगिनामेवोदयः, शेषाणां शरीरपुद्गलविपाकित्वात्काययोगिनामेव / तेन हि योगेन तत्पुद्गलग्रहणपरिणामालम्बनानि, ततस्तेषु गृहीतेषु पुद्गलेष्वेतेषां कर्मणां स्वस्वविपाकेनोदयो भवति, तेनायोगिनि योगाभावात्तदुदयाभावः॥३४॥३॥३६॥ 1- "अन्नयरं" इत्यपि पाठः / 2 "आयम" (?) इत्यपि पाठः / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 ] कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे 'अन्नयरवेयणीय मणुयाऊ मणुयगइ य बोद्धव्वा / पंचिंदियजाई वि य, तस सुभगा एजपजत्तं // 37 // बायरजसकित्ती वि य, तित्थयरं उच्चगोयय चेव / एया बारस पयडी, अजोगिचरिमंमि वोच्छिन्ना // 38 // __ // उदओ सम्मत्तो // गाथाद्वयम् // 'अन्यतरवेदनीयं' सातमसातं वा, यदुदयावस्थं मनुष्यायुः मनुष्यगतिः पञ्चेन्द्रियजातिः त्रसं सुभगं आदेयं पर्याप्तं बादरं यशःकीर्तिः तीर्थकरं उच्चैर्गोत्रम् , इत्येता द्वादश प्रकृतयो भवस्थायोगिचरमसमये व्यवचिछिन्ना उदयमाश्रित्य क्षयादुत्तरत्रोदयाभावः // 37 // 38 // // इत्युदयाधिकारः॥ इदानीं कास्ताः पश्चनवाद्याः कर्मप्रकृतयो यासां गुणस्थानेषूदीरणाव्यवच्छेदः 1 इत्येतदतिदेशद्वारेणाह उदयस्सुदीरणाए, सामित्ताओ न विजइ विसेसो। मोत्तण तिन्नि ठाणे, पमत्तजोगी अजोगी य // 39 // उदयस्योदीरणस्य च इत्यनयोरभिहितलक्षणयोः 'स्वामित्वात्' स्वामित्वमाश्रित्य, कर्मप्रकृतीनामिति गम्यते / न विद्यते विशेषः संख्यान्यूनाधिकत्वकृतो भेदः / किमुक्तं भवतियावतीनां प्रकृतीनां यो मिथ्यादृष्टयादिर्वेदयिता स तावतीनामुदीरयिता-ऽपीति, अतिप्रसङ्गनिवृत्त्यर्थमपवादमाह-मुक्त्वा त्रीणि स्थानानि प्रमत्तयतिसयोग्ययोगिगुणस्थानकाख्यानीति // 39 // तेषु तु यो विशेषस्तमाह तीसं बारस उदए, केवलिणो मेलणं च काऊण। सायासायं च तहा 'मणुयाउं अवणिय किच्चा // 40 // त्रिंशत् द्वादश च यथासंख्यं प्रकृतय उदयव्यवच्छेदमाश्रित्य, केषाम् 1 इत्याह-केवलिनां सयोगिनामयोगिनां च / ततश्च तासां त्रिंशतो द्वादशानां च प्रकृतीनां मीलनं कृत्वा द्विचत्वारिंशति जातायां सातमसातं च तथा मनुष्यायुरित्येतत् प्रकृतित्रयमपनीतं कृत्वा // 40 // ततः सेसं इगुयालीसं, "जोगिंमि उदीरणा य बोद्धव्वा / अवणीय तिन्नि पयडी, “पमत्त उदयंमि पक्खित्ता // 41 // 1 "अन्नयरं वेअणीयं मणुयाउं मणुयगती य” इत्यपि पाठः। 2 "इज्ज" इत्यपि पाठः / 3 “मणुयाऊमवणियं" (?) इत्यपि पाठः / 4 “सजोगम्मि" इत्यपि / 5 “पमत्तविरियम्मि" इत्यपि पाठः। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदीरणां सत्ताञ्च प्रतीत्य गुणस्थानकेषु व्यवच्छिद्यमानाः प्रकृतयः / 123 शेषमपनीतस्य किं भवति ? एकोनचत्वारिंशत् प्रकृतयः, तासां सयोगिगुणस्थाने उदीरणा बोद्धव्या / अपनीय तिस्रः प्रकृतीः प्रमत्तयतेरुदये व्यवच्छिन्नस्य प्रकृतिपञ्चकस्य संबन्धिनि प्रक्षिप्ताः / सातासातमनुजायुषां हि प्रमादसहितेनैव योगेनोदीरणा भवति, नान्येन, इत्युत्तरेषु तदुदीरणाया अभावः // 41 // ____ततश्च किं भवति तह चेव अट्ठ पयडी, पमत्तविरए उदीरणा होइ। नस्थित्ति अजोगिजिणे, उदीरणा होइ नायब्वा // 42 // // उदीरणा सम्मत्ता // तथा चैवं सत्यष्टानां प्रकृतीनां प्रमत्तविरते व्यवच्छेदमधिकृत्योदीरणा भवति, अष्टानामुदीरणाव्यवच्छेदो भवतीत्यर्थः / नास्तीत्ययोगिजिने उदीरणा ज्ञातव्या भवति, योगाभावात् / उदीरणा हि योगविशेषरूपः करणविशेषः // 42 // ... // इत्युदीरणाधिकारः // इदानीं प्रकृतिसत्ताव्यवच्छेदाधिकारोद्दिष्टाः प्रकृतीरानुपूर्व्या प्रतिनिर्दिशति अणमिच्छमीससम्मं, 'अविरयसम्माइअप्पमत्तता। सुरनरयतिरियआउं निययभवे सव्वजीवाणं // 43 // पूर्वव्याख्यातैव गाथा / पूर्वमुद्देशाधिकारोक्ताऽपि पुनरिह प्रकृतिनिर्देशप्रसङ्गेन पठिता स्मृत्यर्थ विस्मरणशीलानामिति // 43 // थीणतिगं चेव तहा, नरयदुगं चेव तह य तिरियदुगं / इगिविगलिंदियजाई, आयावुजोयथावरय // 44 // प्राग्भवव्यवच्छिन्नायुस्त्रयसत्ताकः सन्निविरताद्यप्रमत्तान्तगुणस्थानेषु क्षपितदर्शनसप्तको यतिरप्रमत्तः प्रतिसमयानन्तगुणविशुद्धिविवृद्धयात्मकयथाप्रवृत्तकरणबलेनापूर्वकरणं प्रविश्य तत्र चातिशयवद्विशुद्धिवशात्कर्माणि क्षपणयोग्यतामापाद्यानिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानं प्रविशति / तत्र च प्रथममेव द्वितीयतृतीयानष्टौ कषायान् क्षपयितुमारभते, तेषु चार्द्धक्षपितेष्वेताः षोडश प्रकृतीरुत्सादयति / तद्यथा-'स्त्यानडिनयं' प्रागुक्तम् , 'नग्यदुगं चेव तह य तिरियदुगं' इति, नरकगतिर्नरकानुपूर्वी, तिर्यग्गतिस्तिर्यगानुपूर्वी, 'इगिविगलिंदियजाई' इति, एकेन्द्रियजातिस्तथा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातयस्तिस्रः, आतपमुद्योतं स्थावरम् // 44 // 1 "अविरइ" इत्यपि पाठः। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 ] कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे साहारण सुहुमं 'चिय, सोलस पयडीओ होंति नायव्वा। बीयकसायचउक्कं तइयकसायच अठेव // 45 // .. साधारणं सूक्ष्मं, इत्येताः षोडश प्रकृतयः प्रागुद्दिष्टाः सत्ताव्यवच्छेदमधिकृत्य भवन्ति ज्ञातव्याः / तासां च क्षयानन्तरं शेषमष्टकं क्षपयति, तच्चेदं-द्वितीयकषायचतुष्कम् , तृतीयकषायाश्च चत्वार इति // 45 // एगनपुसगवेय, इत्थीवेयौं तहेव एगं च। तह नोकसायछक्कं पुरिसं कोहं च माणं च // 46 // ततश्चैको नपुसकवेदः सत्ता प्रतीत्य व्यवच्छिन्नो ज्ञातव्यः / ततः स्त्रीवेद एकः, ततः . 'नोकषायषटक' हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साख्यम् , ततः पुरुषवेदः, ततः संज्वलनः क्रोधः, ततः संज्वलनो मानः, सत्ताव्यवच्छेदमधिकृत्य ज्ञातव्यः // 46 // .. माय चिय अनियट्टी, भागं गंतूण संतवोच्छेओ। लोहं चिय संजलणं, 'सुहुमकसायमि वोच्छिन्ना // 47 // पूर्वार्द्धम् // मायायाश्च संज्वलनाया अनिवृत्त्यद्धाया भागं गत्वा सत्ताव्यवच्छेदः / अनिवृत्त्यद्धाभागं गत्वेत्येतद् पूर्वेष्वपि पोडशाष्टैकैकादिष्वपेक्षणीयम् / __ 'लोभं चिय' इत्यादिपश्चार्द्धम् / लोभस्य संज्वलनस्य सूक्ष्मकषाये सत्तामधिकृत्य व्यवच्छेदः // 47 // “खीणकसायदुचरिमे, 'निद्द पयलं च हणइ छउमत्थो। नाणंतरायदसगं देसणचत्तारि चरिमंमि // 48 // क्षीणकषायो द्विचरमे समये निद्रा प्रचलां च हन्ति, छद्मस्थः सनित्यतो द्विचरमसमये तयोः सत्ताव्यवच्छेदः / तथा ज्ञानावरणं पञ्चविधम् , अन्तरायं पञ्चविधम् , इत्येतद्दशकम् , दर्शनावरणानि चत्वारि, इत्येताश्चतुर्दश प्रकृतीः क्षीणकषायच्छद्मस्थश्चरमसमये हन्तीत्यतस्तत्र तासां व्यवच्छेदः // 4 // देवदुग पणसरीरं, पंचसरीरस्स बंधणं चेव / पंचेव य संघाया. संठाणा तह यछक्कं च // 49 // तिनि य अंगोवंगा. संघयणं तह य होइछक्कं च / पंचेव य "वण्णरसा, दो गंधा अट्ट फासा य॥५०॥ 1 "वि य" इत्यपि / 2 "हुति" इत्यपि / 3 "अटुंच" इत्यपि पाठः / 4 “कोहा य माणा य" इत्यपि पाठः। 5 "सुहुमसरागम्मि" इत्यपि पाठः। 6 "निद्दा पयला हणइ" इत्यपि पाठः। "वन्नरसा" इत्यपि पाठः। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तामाश्रित्य गुणस्थानकेच्छिद्यमानाः प्रकृतयः [ 129 अगुरुयलहुयच उक्कं विहायगइदुग थिराथिरं चेव / 'सुहसुस्सरजुयलावि य, पत्तेय दूभगं अजसं // 51 // अणएज्जं निमिणं चिय, अपजत्तं तह य नीयगोय च / 'अन्नयरवेयणियौं अजोगिदुचरमंमि वोच्छिण्णा // 52 // गाथाचतुष्टयम् // देवगतिर्देवानुपूर्वी / पञ्च शरीराण्यौदारिकादीनि / पञ्चशरीरस्यौदारिकादेर्वन्धनान्यौदारिकबन्धनादीनि / पञ्च संघातनामान्यौदारिकसङ्घातादीनि / संस्थानषट्कं षट्प्रकारं समचतुरस्रादि / त्रीण्यङ्गोपाङ्गनामान्यौदारिकाङ्गोपाङ्गादीनि / संहननषट्कं षट्प्रकार वर्षभनाराचादि / 'पंचेव य वण्णरसा' इति, पञ्च वर्णनामानि कृष्णादीनि, पञ्चरसनामानि तिक्तादीनि / द्वगन्धनामनी सुरभि असुरभि च / अष्टौ स्पर्शनामानि कर्कशादीनि / 'अगुरुयलहुयच उक्क' इति, अगुरुलघुपधातपराधातोच्छ्वासाख्यं चतुष्कम् / 'विहायगइदुग' इति, प्रशस्तविहायोगतिरप्रशस्तविहायोगतिः, इत्येतद्द्वकं स्थिरमस्थिरं 'सुहसुस्सरजुयलावि य' इति, शुभमशुभं सुस्वरं दुःस्वरमिति / प्रत्येकं दुर्भगमयशःकीतिरनादेयं निर्माणमपर्याप्त नीचैगोत्रमन्यतरवेदनीयमनुदयावस्थं सातमसातं वा / इत्येता द्वासप्ततिः प्रकृतयः सत्तामधिकृत्यायो. गिद्विचरमसमये व्यवच्छिन्नाः / सर्वा अपि ह्य ता अनुदयावस्थाः। ततश्च यद्यपि रायोगिना योगनिरोधं कुर्वता सर्वासामवातिप्रकृतीनां कालतः समैव गुणश्रेणिरुपरचिता तथाऽप्यनुदयावस्थप्रकृतीनां चरमसमये दलिकमुदयवतीपु स्तियुकसंक्रमेण संक्रान्तत्वात् आत्मानुभावतो नास्ति / तेन द्विचरमसमये तत्सत्ताव्यवच्छेदः // 49 // 50 // 51 // 52 // - 'अन्नयरवेयणीय, मणुयाऊ मणुयदुवय बोद्धव्वा / पंचिंदियजाईवि य, तससुभगाएजपजत्तं // 53 // वायरजसकित्ती वि य, तित्थयरं उच्चगोयय चेव / एया तेरस पयडी, अजोगिचरिमंमि वोच्छिन्ना // 54 // // सत्ता सम्मत्ता // . गाथाद्वयम् // अन्यतरवेदनीयं सातमसातं वा, यदुदयावस्थं मनुष्यायुः, 'मणुयदुवय पोडव्वा'मनुजद्वितयं मनुजगतिः मनुष्यानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिः त्रसं सुभगं आदेयं पर्याप्त बादरं यशःकीर्तिस्तीर्थकरं उच्चैर्गोत्रम् , इत्येतास्त्रयोदश प्रकृतयोऽयोगिचरमसमये व्यवच्छिन्नाः सत्तामधिकृत्य / अपरेषां पुनराचार्याणां मतेन-मनुजानुपूर्व्या द्विचरमसमये सत्ताव्यवच्छेदः उदयाभावात् / उदयवतीनां हि द्वादशानां स्तिबुकसङ्कमाभावात्स्वानुभवे दलिकं चरमसमयेऽपि दृश्यत 1 "सुमसुस्सरजुगलदुगं पत्तेयं दूहगं” इत्यपि पाठः / 2 "नीयगुत्तं च” इत्यपि पाठः / 3 "अन्नयरं वेअणीवं अजोगिदुचरिमम्मि वोच्छिन्ना" इत्यपि पाठः / 4 "अन्नयरं" इत्यपि पाठः / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 / कर्मस्तवाख्यस्य द्वितीयस्य कर्मग्रन्थस्य समाप्तिः एवेति युक्तस्तासां चरमसमये व्यवछेदः / आनुपूर्वीनाम्नां चतुर्णामपि क्षेत्रविपाकित्वाद्भवान्तरापान्तरालगतावेवोदयस्तेन भवस्थस्य नास्ति तदुदयः / तदभावाच्चायोगिद्विचरमसमये मनुजानुपू aa अपि सत्ताव्यवच्छेदः / ततश्च तन्मतेनोल्लिङ्गनगाथादावेवं पाठो द्रष्टव्यः-'तेवत्तरिं दुचरिमे पारसचरमे अजोगिणो वीणे" इति / तथा-"अणएजनिमिणमणुयाणपुट्विपज. तय च नीयं च" / तथा-"मणुयाऊ मणुयगइ य षोडव्वा' / तथा-"एया पारस पयडी अजोगिचरिमंमि वोच्छिन्ना" इति / तथा चेहाप्युदयाधिकारे द्वादशानामयोगिन्युदय उक्तः 'पारस उदये अजोगंता' // 53 // 54 // // इति सत्ताधिकारः // तदेवं भगवता क्रमेण गुणस्थानान्यारोहता संपादितं कर्मप्रकृतिबन्धोदयोदीरणासत्ताव्यबच्छेदाख्यं गुणमभिष्टुत्य स्तवकारः सर्वकर्मबन्धादिव्यवच्छेदोद्भवं भगवतो निरतिशयं गुणं दर्शयन्नात्मनः प्रशस्ताध्यवसायप्रवृत्तिहेतु प्रार्थनाविशेषमाह सो मे तिहयणमहिओ, सिद्धो बुद्धो निरंजणो निच्चो। दिसउ वरनाण'लभं, दंसणसुद्धिं समाहिं च // 55 // // कर्मस्तवः समाप्तः // 'सः' भगवानेवमात्मनः संपादितगुणातिशयः 'मे' मह्य दिशतु ज्ञानलाभादिकमिति संबन्धः / त्रिभुवनेन देवमनुजासुरलोकत्रयलक्षणेन महितः पूजितः, 'सिद्धः' निष्ठिताशेषप्रयोजनः, 'बुद्ध' समस्तवस्तुविषयकेवलबोधभाक् , 'निरञ्जनः' निर्गताशेषक्लिष्टकर्मम्रक्षणः, 'नित्यः' ध्रुवः साद्यनिधनं कालं तत्पर्यायापरित्यागी 'दिशतु' ददातु वरमुत्तमं ज्ञानं सम्यग्ज्ञानरूपं मतिज्ञानादिकेवलज्ञानान्तं तस्य लाभमप्राप्तप्राप्तिलक्षणम् , तथा दर्शनं सम्यक्त्वं तस्य शुद्धि दर्शनमोहनीयकर्मापगमकृतं वैमल्यम् , तथा 'समाधि' चारित्रविशुद्धात्मकमिति // 55 // स्मृत्यनुसारेण मया, यद्गदितमिहोनमधिकमागमतः। तत्क्षन्तव्यं श्रुतशु-द्धबुद्धिभिः शोधनीयं च।१।। इति श्वेतपटाचार्य-गोविन्दगणिना कृता / कर्मस्तवस्य टीकेयं, देवनागगुरोगिरा // 2 // अनुष्टुप्छन्दसा प्रायः, संकलय्यानुवर्णितम् / सहस्रमेकं श्लोकानां, नवत्युत्तरमेव च // 3 // // इति श्वेतपटाचार्यश्रीमद्गोविन्दगणिकृता कर्मस्तवटीका समाप्ता / / 1 "लाभं” इत्यपि पाटः / 2 “सर्व, सुबु-" इत्यपि / 3 “य श्रीगोविन्देन निमिता" इत्यपि पाठः / / * समाप्तोऽयं सटीकः कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कमग्रन्थः . Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // ॐ ही अह श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः / / || न्यायाम्भोनिधि-प्रतिभाप्रतिकृति-श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपादपद्मेभ्यो नमः // || सकलागमरहस्यवेदिश्रीमदाचार्यविजयदानसूरीश्वरेभ्यो नमः || || कर्मसाहित्यनिष्णातश्रीमदाचार्यविजयप्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः // बन्धस्वामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः / श्रीमद्धरिभद्रसूरि विर चितव्याख्ययोपेतः / गत्यादिमार्गणास्थान-बन्धस्वामित्वदेशकम् / नत्वा वीरं जिनं वक्ष्ये, बन्धस्वामित्ववृत्तिकाम् // 1 // इह स्वपरोपकाराय यथार्थाभिधानं बन्धस्वामित्वप्रकरणमारिप्सुराचार्यो मङ्गलादिप्रतिपादकं गाथासूत्रमिदमाह नमिऊण वद्धमाणं, 'गइयाईठाणदेसय सिद्ध। गइयाइएसु 'वोच्छं, बंधस्सामित्तमोघेणं // 1 // .. (हारि०) व्याख्या-इह प्रथमार्द्धन मङ्गलं द्वितीयार्द्धनाभिधेयं साक्षादुक्तम् / प्रयोजनसंबन्धी तु सामर्थ्यगम्यौ, इति गाथासमुदायार्थः / अवयवार्थस्त्वयम्-'वक्ष्ये अभिधास्ये, किं तद् ? 'बन्ध. स्वामित्वं'मिथ्यात्वादिभिर्बन्धहेतुभिः कर्मपरमाणूनां जीवप्रदेशैः सह संबन्धो बन्धस्तस्य स्वामित्वमाधिपत्यं बन्धस्वामित्वं, जीवानामिति गम्यते / केषु ? 'गइयाइएसु' इति गत्यादिमागंणास्थानेषु, केन ? 'ओघेन' सामान्येन, किं कृत्वा ? 'नत्वा' प्रणम्य, कम् ? 'वर्द्धमानं' स्वकुलसमृद्धिवृद्धिकारकत्वेन पितृभ्यां व्यवस्थापितैवंविधनामकं चरमतीर्थाधिपति, शेषजिनत्यागेन च वर्द्धमानग्रहणं वर्तमानतीर्थाधिपतित्वेन परमोपकारित्वात् / कीदृशम् 1 गतिरादिर्येषां तानि गत्या. दीनि तानि च तानि स्थानानि च गत्यादिस्थानानि तेषां देशकः प्रतिपादको गत्यादिस्थानदेशकस्तम् तथा सितं बद्धं ध्मातं भस्मसात्कृतमष्टप्रकारं कर्म येन स सिद्धस्तम् / इति गाथार्थः // 1 // गत्यादीन्येवाह गइ इंदिए य काए, जोए वेए कसाय नाणे य / संजम दंसण लेसा, भव सम्मे सण्णि आहारे // 2 // 1 "गइयाइट्ठा०" इत्यपि पाठः / 2 “बुच्छे” इत्यपि। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] बन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे (हारि०)व्याख्या-तत्र 'गतयो' नरकगत्याद्याश्चतस्रः। 'इन्द्रियाणि' स्पर्शनादीनि पञ्च। 'कायाः पृथिव्यादयः षट् / 'योगाः' सत्यमनःप्रभृतयः पञ्चदश / 'वेदाः' स्रीवेदादयस्त्रयः। 'कषायाः क्रोधादयश्चत्वारः 'ज्ञानानि' मतिज्ञानादीनि पश्च / इहोपलक्षणत्वेन विपक्षस्यापि संग्रहादज्ञानान्यपि मत्यज्ञानादीनि त्रीणि ग्राह्याणि / एवमुत्तरत्रापि क्वाप्युपलक्षणव्याख्यानं द्रष्टव्यम् / ननु ज्ञाने प्रस्तुते उपलक्षणत्वेन किमर्थमज्ञानत्रयग्रहणं कृतम् ?, सत्यं, सौम्य ! चतुर्दशमार्गणास्थानेषु प्रत्येकं सर्वसांसारिकसत्त्वसंग्रहार्थम् / तथा 'संयमः' सामायिकादिः पश्चप्रकारः / उपलक्षणत्वादेशसंयमासंयमौ च, इत्येते सप्तात्रापि ग्राह्याः / 'दर्शनानि' चक्षुदर्शनादीनि चत्वारि / 'लक्ष्याः' कृष्णलेश्याद्याः षट् / भवपदेन भव्याभव्यौ द्वौ ग्राह्यौ / 'सम्यक्त्वानि' वेदकादीनि त्रीणि / संज्ञिपदेन संश्यसंज्ञिनौ द्वौ / आहारकपदेन आहारकानाहारको द्वौ गृहीतौ / इति द्वारगाथासमासार्थः // 2 // ___ इह यद्यपि गत्यादिषु बन्धस्वामित्वं वक्ष्यामीति प्रागुक्तं तथाऽपि न तद्गुणस्थानकनिरपेक्षं वक्ष्यते / गुणस्थानकानामपि बन्धस्वामित्ववद्गत्याद्याश्रितत्वादिति गुणस्थानकानि / तथा गत्याद्याश्रितत्वेनैव सुरनिरयनरतिरश्चां पर्याप्तापर्याप्तकजीवस्थानयोरपि बन्धस्वामित्वस्य वक्ष्यमाणत्वादिति जीवस्थानानि च गतिषु दर्शयन्नाह गुणठाणा सुरनिरए. चउ पण 'तिरिएसु चउदस नरेसु। जीवट्ठाणा तिरिए, चउदस सेसेसु 'दुग दुगं जाण // 3 // गीतिरियम (हारि०) व्याख्या-इह यथासंभवं सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययविभक्तिलोपादिकं प्राकृतत्वादृष्टव्यम् / ततश्च गुणस्थानकानि-"मिच्छ दिठी सासा-यणे य तह सम्ममिच्छिदिट्ठी य / अविरयसम्मदिट्टो, विरयाविरए पमत्तं य // 1 // तत्तो य अप्पमत्ते, नियष्टि अनि. यटिघायरे सुहुमे / उवसंतग्वीणमोहे, होइ सजीगी अजोगो य // 2 // " इति नामकानि / एतानि च क कियन्ति भवन्ति ? इत्याह-सुरनारकयोश्चत्वारि प्रत्येकमाद्यानि जानीहि, इति संबन्धः / तथा पञ्च तिर्यक्षु आधान्येव / तथा चतुर्दश नरेषु / इति योजितानि चतसृष्वपि गतिषु गुणस्थानकानि, सम्प्रति तास्वेव जीवस्थानानि योजयन्नाह-जीवस्थानानि"मुहुमा बायरं बेइं-दिया य तेइंदिया य चउरिंदी / अस्सण्णी सण्णी वलु, चउदस पजत्त अपजत्ता // 1 // " इत्येवंरूपाणि / एतानि च केषु कियन्ति भवन्ति ? इत्याह तिर्यक्ष चतुर्दश / 'शेषेषु' सुरनरनारकेषु द्विकं द्विकं जीवस्थानयोरिति शेषः / पर्याप्तापर्याप्तकसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणं 'जानीहि अवबुध्यस्वेति / ननु संमूर्छनजापर्याप्तलक्षणं नरेषु तृतीयमपि जीवस्थानकगस्ति तत्कथमत्र न गृहीतम् ?, इत्यत्रोच्यते-तिर्यग्रहणेन तेषां ग्रहणादिति न दोषः / इति गाथार्थः // 3 // 1 'तिरिए चउद्दस नरेसु" इत्यपि पाठः / 2 “जाण दुर्ग" (?) इत्यपि पाठः / Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिभेदेषु गुणस्थानानि जीवस्थानानि च तथा मूलोत्तरप्रकृतयः (121 इह बन्धस्वामित्वं वक्ष्य इत्युक्तम् / बन्धश्च कर्मप्रकृतीनां भवति, अतः शिष्यहितार्थ सूत्रेऽनुक्ता अपि प्रथमं प्रकृतयः सर्वाः प्ररूप्यन्ते, 'ताश्चैताः-"दसण 1 नाणावरण 2 ऽन्तराय 3 मोहा 4 ऽऽउ 5 गोय 6 वेयणियं 7 / नामं 8 च नव 1 पण 2 पण 3 ऽढवीस 4 चउ 5 दु 6 दु 7 बियाल 8 विहं // 1 // नयणेयरोहिकेवल दसणावरणयं भवे चउहा / निद्दापयलाहिं छहा, निदाइदुरुत्तथीणडी // 2 // नाणांवरणं महसुयआहिमणोनाणकेवलावरणं / विग्धं दाणे लाभे, भोगुवभोगेसु विरिए य // 3 // सोलस कसाय नव नोकसाय दंसणतिगं च मोहणियं / नरयतिरिनरसुराऊ, नोउच्चं सायमस्सायं // 4 // गइ 1 जाइ 2 तणु 3 उवंगा 4, बंधण 5 संघाय. णाणि 6 संघयणा 7 / संठाण 8 वण 9 गंध 10 रस 11 फास 13 अणपुश्वि 14 विहगगई 14 // 5 // पिंउपयडित्ति चउदस, परघाउन्जोयआयवुस्सासं। अगु. रुलहुतित्थनिमिणोवघायमिइ अट्ठ पत्तेया // 6 // तसवायरपजत्तं, पत्तेय थिरं सुभं च सुभगं च / 'सुसराऽऽएजजसं तसदसगं थावरदसं तु इमं // 7 // थावरसुहम अपज्ज, साहारणअथिरअसुभदुभगाणि | दूसरणाएजाजसमिय नामे सेयरा वीसं // 8 // तसचउ थिरछक्कं अधिरछक्क सुहुमतिग थावरचउक्कं / सूभगतिगाइविभासा, पयडीण तयाइ संखाहिं / 9 // गइयाईण य कमसो, चउ 1 पण 2 पण 3 ति 4 पण 5 पंच 6 छ 7 छक्कं 8 / पण ९दुग 10 पण 11 58 12 चउ 13 दुग १४मिय उत्तरभेय पणसहो / / 10 / / निरयतिरिनरसुरगई, इगषियतियचउपणिंदि जाईओ / ओरालियवेउव्वियआहारगतेयकम्मइया // 11 // पढमतिणुणणवंगा, पंधण संघायणा य तणुनामा / सुत्ते सत्तिविसेसो संघयणमिहहिनिचउत्ति / 12 / / छडा संघयणं बजरिसभनाराय 1 वजनारायं 2 / नाराय 3 मडनाराय४ कीलिया 5 तह य छेवढे 6 // 13 / / समचउरंसं 1 नग्गोह 2 साइ 3 खुजाणि 4 वामणं 5 हुंड 6 / संठाणा वण्णा किण्हनोललोहियहलिहसिया // 14 / / सुरभि 1 दुरभी 2 रसा पण,तित्त 1 कडु 2 कसाय 3 अंबिला 4 महुरा 5 / फासा गुरु 1 लह 2 मिउ 3 खर 4 सी 5 उण्ह 6 सिणिड 7 रुक्ख 8 58 // 15 // चउह गइव्वणपुवो, दुविहा य सुहासुहा विहायगई। गइअणुपुव्वी उ दुगं, तिगं तु तं चिय नियाउजुयं / / 16 / / इय तेणउई संते पंधणपण्णरसगेण तिसयं वा। वण्णाइभेय 16 षधण 15 संधाय 5 विणा उ सत्तट्ठी / / 17 / / सा बंधुदए पंधणसंघाया निय. तणुग्गहणगहिया / वण्णाइविगप्पा वि हु, न य बंधे सम्ममीसाइ // 18 // वेउ. __5 "ताश्चेमाः" इत्यपि पाठः / 2 "हवइ"इत्यपि पाठः / 3 "ति" इत्यपि / 4 "सूसरआएजजसं" इत्यपि मुद्रितप्रतौ। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 ] बन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे व्वाहारोरालियाण सग 3 तेय 3 कम्म 3 जुत्ताणं / नव बंधणाणि इयरदुसहियाणं तिणि 3 तेसिं च 3 // 19 // ' अस्या अयमर्थः-पूर्वगृहीतवैक्रियपुद्गलैः सह परस्परं गृह्यमाणान् वैक्रियपुद्गलानुदितेन येन कर्मणा बनात्यात्मा तद्वै क्रियवैक्रियवन्धनम् 1 / एवं वैक्रियतेजसं 2 वैक्रियकार्मणं 3 / आहारकाहारक 4 आहारकतैजस 5 आहारककार्मण 6 औदारिकौदारिक 7 औदारिकतैजस 8 औदारिककार्मण ह वैक्रियतैजसकार्मण 10 आहारकतैजसकार्मण 11 औदारिकतैजसकार्मण 12 तेसिं च' इति, तयोस्तैजसकार्मणयोः तैजसतैजस 13 तैजसकार्मण 14 कार्मणकार्मण 15 बन्धनानि / इति पञ्चदश बन्धनानि / वर्णादिविंशतः शुभाशुभविभागोऽयम्-'नीलकसिणं दुगंधं, तित्तं कडुयं गुरुं खरं रुक्खं / सोयं च असुभनवगं, इक्कारसगं सुहं सेसं" इति प्ररूपिताः प्रकृतयः / आसां व्याख्यानं ग्रन्थान्तरादवसेयम् , गमनिकामात्रत्वात् प्रस्तुतप्रयासस्येति // अथ वक्ष्यमाणार्थोपयोगि मिथ्यादृष्टि सास्वादनगुणस्थानकव्यवच्छिन्नप्रकृति ख्यासूचक गाथाद्वयमाह निरयतिगं मिच्छत्तं, नपुस इगविगलजाइआयावं / 'छेवट्ठ थावरचऊ, हुड चिय मिच्छदिट्ठिम्मि // 4 // थीणतिगित्थी अण तिरितिग 'कुविहगई यं नीयमुजोयं / 'दूभगतिग पणुवीसा, मज्झिमसंठाणसंघयणा // 5 // ___ (हारि०) व्याख्या-'निरयतिगं' इति, नरकत्रिकं नरकगति 1 नरकानुपूर्वी 2 नरकायु 3 लक्षणम् , मिथ्यात्वं 4 नपुंसकवेदः 5, 'इगविगलजाइ' इति, एकेन्द्रियजातिः 6, द्वि 7 त्रि 8 चतुरिन्द्रिय ह जातयश्च, आतपनाम 10 सेवार्तसंहननम् 11, 'थावरचऊ' इति, स्थावरनाम 12 सूक्ष्मनाम 13 साधारणनाम 14 अपर्याप्तनाम 15 लक्षणं थावरचतुष्कम् , हुण्डसंस्थानं 16 चेति प्रकृतिषोडशकं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके बन्धं प्रतीत्य व्यवच्छिन्नमिति // 4|| साम्प्रतं द्वितीयगाथा व्याख्यायते-'थोणतिगित्थी' इति, स्त्यानचित्रिकं स्त्यानर्द्धि 1 निद्रानिद्रा 2 प्रचलाप्रचला 3 लक्षणम् , स्त्रीवेदः 4 'अण' इति, अनन्तानुबन्धि-क्रोध 5 मान 6 माया 7 . लोभाः 8, 'तिरितिग' इति, तिर्यकत्रिकं तिर्यग्गति 9 तिर्यगानुपूर्वी 10 तिर्यगायु 11 लक्षणम् , 'कुविहगई य' इति, अशुभविहायोगतिश्च 12, नी.ोत्रं 13 उद्योतनाम 14, 'दूभगतिग' इति, दुर्भगत्रिकं दुर्भगनाम 15 अनादेयनाम 16 दुःस्वरनाम 17 रूपम् , 1" 'तेसि च' इति, तयोस्तैजसकार्मणयोः" इति पाठो न दृश्यते जे० प्रतौ / 2 केषुचित्पुस्तकेषु"सासादन०" इत्यपि पाठः / 3 "इगि०" इत्यपि पाठः 4 “सेघदुः” इति जे० प्रतौ / 5 “कुविहगगई" इत्यपि पाठः। ६“दुभगतिगं" इत्यपि पाठः / 7 "प्रति व्यवच्छिन्नमिति" इत्यपि पाठः / / Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-द्वितीयगुणस्थानयोरुकिछद्यमानप्रकृतयस्तथा नरकगतौ बन्धस्वामित्वम् / 131 'मझिमसंठाणसंघयणा' इति, मध्यमसंस्थानानि चत्वारि न्यग्रोधपरिमण्डलं 18 सादि 16 वामनं 20 कुब्ज 21 चेति, संहननानि चत्वारि ऋषभनाराचं 22 नाराचं 23 अर्द्धनाराचं 24 कीलिका 25 चेति पञ्चविंशतिप्रकृतयः / आसां सासादनगुणस्थाने बन्धमाश्रित्य व्यवच्छेद इति शेषः / सासादनगुणस्थानकस्वरूपं त्विदम् "उचसमसम्मत्ताओ, चयओ मिच्छं अपावमाणस्स सासायणस तं तयंतरालम्मि छावलियं // 1 // " इति गाथाद्वयार्थः // 5 // ___ व्याख्यातं वक्ष्यमाणार्थोपयोगि गाथाद्वयम् / अथ प्रस्तुतमभिधीयते, तत्र मार्गणास्थानाना प्रथमं गतिद्वारमाश्रित्य नरकगतावोघबन्धः प्रतिपाद्यते थावरचउजाई चउ, विउवाहारदुग सुरनिरतिगाणि / .. आयवजुयाऽऽहिँ ऊणं, एगहियसयं नरयबंधे // 6 // (हारि०) व्याख्या-थावरचउ' इति, स्थावरनाम 1 सूक्ष्मनाम 2 साधारणनाम 3 अपर्याप्तनामेति 4 चत्वारि 'जाई चउ' इति, एक 5 द्वि 6 त्रि 7 चतुरिन्द्रिय 8 जातयश्चतस्रः, 'विउवाहारदुग' इति, द्विकशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धाद्वैक्रियशरीर 9 तदङ्गोपाङ्गद्विकम् 10, आहारकशरीर 11 तदङ्गोपाङ्गद्विकम् 12, 'सुरनिरतिगाणि' इति, त्रिकशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात् सुरगति 11 सुरानुपूर्वी 14 सुरायुष्कत्रिकम् , 15, नरकगति ६नरकानुपूर्वी 17 नरकायुष्कत्रिकम् 18 एषां तत्पुरुषगर्भो द्वन्द्वः / तानि किविशिष्टानि ? इत्याह-'आयवजुय' इति, विभक्तिलोपादातपनाम 19 युतानि कर्माणीति शेषः / 'आहिँ ऊणं' इति लिङ्गव्यत्ययेनैभिरूनमेकाधिकशतं नरकबन्धे / अयमत्राभिप्रायः-एकोनविंशतिं कर्मप्रकृतीबंन्धाधिकृतकर्मप्रकृतिविंशत्युत्तरशतमध्यान्मुक्त्वा ततः शेषस्यैकोत्तरशतस्य 101 नरकगतावोघबन्धः / 'आयवजुयाणि मोत्तु" इति पाठेऽयमर्थः-प्राक्तनकर्माणि आतपयुतानि मुक्त्वा , शेषं तथैव / इति गाथार्थः // 6 // ___ इति सामान्येन नरकगतौ बन्धमभिधाय साम्प्रतं तस्यामेव मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानकचतुष्टयविशिष्टं तं प्रतिपिपादयिषुराह तित्थोणं सय मिच्छा, साणा नपुहुड'छेयमिच्छोणं / मीसा नराउपणुवीसोणं सम्मा नराउतित्थजुयं // 7 // तिरियम (हारि०) व्याख्या-अत्र साध्याहारा योजना / ततः प्रागुक्तमेकोत्तरशतं, 'तित्थोणं' इति, तीर्थकरनामोनं शतं भवति तन्मिथ्यादृष्टो बध्नन्ति 100 / एतच्च शतं नपुंसकवेद 1 हुण्डसंस्थान 2 छेदस्पृष्टसंहनन 3 मिथ्यात्वो 4 नं सत् षण्णवतिर्भवति, एतां सासादना बध्नन्ति 96 / एषा च षण्णवतिः, नरायुश्च प्रागुक्तपश्चविंशतीश्च, नरायुःपञ्चविंशती, ताभ्यामूना 1 “छेव०" इत्यपि पाठः। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 ] बन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे नरायुःपञ्चविंशत्यूना सती सप्ततिर्भवति, ता मिश्रा बध्नन्ति 70 इति / एतां च सप्तति नरायुस्तीर्थकरनामयुतां सम्यग्दृष्टयो बध्नन्ति 72 इति / अयं च बन्धो रत्नप्रभाशर्कराप्रभावालुकाप्रभाभिधानप्रथमनरकपृथिवीत्रये द्रष्टव्यः, पङ्कप्रभादिषु विशेषवन्धाभिधानात् / इति गाथार्थः // 7 // ____ अथ तमेव पङ्कप्रभादिनरकपृथिवीत्रये गाथाप्रथमपादेन तथा सप्तमनरकपृथिव्यां पादोनगाथाद्वयेनाह पंकाइसु तित्थोणं, नराउहीणं सयं तु सत्तमिए / मणुदुगउच्नेहि विणा, मिच्छा बंधंति 'छण्णउइं // 8 // हुंडाईचउरहिये, साणा तिरियाउणा य 'इगनउई। इगुणपणुवीसरहिया, सनरदुगुच्चा सयरि मीसे // 9 // __ (हारि०) व्याख्या-सामान्यं गुणस्थानचतुष्टयवर्ति च प्राक्तनप्रथमनरकपृथिवीत्रयोक्तं बन्धकदम्बकं यथासंभवं तीर्थकरनामोनं 'पंकाइसु' इति, पङ्कप्रभाधूमप्रभातमःप्रभासु मन्तव्यमिति शेषः / अत्र पृथिवीत्रये तीर्थकरनामनिमित्तसम्यक्त्वसद्भावेऽपि क्षेत्रमाहात्म्येन तथाविधाध्यवसायाभावात्तीर्थकरनामकर्मबन्धो नास्तीति / ततः सामान्येन शतं 100, मिथ्यादृशां च शतं १००,सासादनानां षण्णवतिः 96, मिश्राणां सप्ततिः 70, अविरतसम्यग्दष्टीनामेकसप्ततिः 71, इति / इह तु सामान्यपदेऽविरतगुणस्थानके च तीर्थकरनामहीनतोक्ता, मिथ्यादृष्ट्रयादिषु त्रिषु पुनस्तस्य प्रागेवापनीतत्वादिति भावः / 'नराउ होणं सयं तु सत्तमिए' इत्यादि पङ्कप्रभादिनरकृपृथिवीत्रये सामान्येन यच्छतमुक्तं तदेव नरायुष्कहीनं पुनः सप्तम्यामोघबन्धः 99 / तुशब्दः पुनः योजित एवेति / अथ तस्यामेव गुणस्थानकेषु तन्निरूपयन्नाह-मणदुग' इत्यादि मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीद्विकोच्चैोविना षण्णवतिर्भवति, ता मिथ्यादृशो बध्नन्ति 96 / इति // 8|| अथ द्वितीयगाथा व्याख्यायते-'हुंडाईचउरहियं' इति, हुण्डसंस्थानच्छेदस्पृष्टसंहनननपुंसकवेदमिथ्यात्वचतुष्करहितम् तथा 'तिरियाउणा य' इति, तिर्यगायुषा च रहितां तां पण्णवतिं कृत्वेति शेषः, चशब्दादहितशब्दः प्राक् समस्तोऽप्यत्र योज्यते / तत एकनवतिं 91 सासादना बदन्तीति प्राक्तनेन संबन्धः / तथा 'इगुणपणुवीसरहिया' इति, एकेन तिर्यगायुषाऽनन्तरापनीतेनोना रहितकोना सा चासौ पञ्चविंशतिश्च पूर्वोक्ता तया रहिता न्यूना एकोनपञ्चविंशतिरहिता / तथा 'सनरदुगुच्चा' इति, सह नरद्विकोच्चैवर्तते सनरद्विकोचा, नरगतिनरानुपूर्तीद्विकोच्चैर्गोत्रैः सहितेत्यर्थः / "यका एकनवतिः / सा सप्ततिर्भवति, सा च मिश्रे 70 / इह सप्तम्यां नरायुस्तावन्न बध्यत एव / तद्वन्धाभावेऽपि मिश्रगुणस्थानकेऽविर 1 "छन्नउई" इत्यपि पाठः / 2 "इगनउई” इत्यपि पाठः / 3 "पुनरर्थे” इत्यपि, “पुनरर्थो" इत्यपि / 4 "यका" इति स्वार्थिकप्रत्ययान्तं रूपम् , "या" इत्यर्थः / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यार्थः // 9 // नरकगतिभेदेषु तिर्यग्गतौ च बन्धस्वामित्वम् ( 133 नगुणस्थानके च नरगतिनरानुपूर्वीद्वयं बध्यते, तस्यान्यदाऽपि बन्धात् / अयमर्थः-नरगति नरानुपूयॉर्नरायुषा सह नावश्यं प्रतिबन्धः, यदुत यत्रायुर्वध्यते तत्रैव गत्यानुपूर्वीद्वयमपि, किन्तु आयुरेकदेव बध्यते, गत्यानुपूर्वीद्वयमन्यदाऽपि बध्यत इति / तथा मिथ्यात्व'सासादनाभ्यां द्वयं न बध्यते, कलुषाध्यवसायत्वादिति / अथ कथमत्राविरतगुणस्थानके बन्धस्वामित्वं पृथगू नोक्तम् ?, सत्यं, मिश्रस्येवाविरतस्यापि सप्तति श्या, न्यूनाधिकप्रकृतेरभावात् / इति गाथाद____एवं नरकगतौ बन्धस्वामित्वमभिधायाथ तिर्यग्गतो सामान्येन गुणस्थानकविशिष्टं च तदाह तित्थाहारदुगुणा, तिरिया बंधति सव्वपयडीओ। पजत्ता तह मिच्छा, 'साणा उण सोलसविहीणा // 10 // __ (हारि०) व्याख्या-तीर्थकराहारकद्विकोनाः सर्वप्रकृतीः पर्याप्तास्तिर्यश्चः प्रक्रमात्सामान्येन बध्नन्तीति 117 / अत्र च तिरश्चा सत्यपि सम्यक्त्वे भवप्रत्ययादेव तथाविधाध्यवसायाभावात्तीर्थकरनाम्नः संपूर्णसंयमाभावादाहारकद्विकस्य च बन्धो नास्तीति हृदयम् / 'तह मिच्छा' इति तथा मिथ्यादृशोऽपि पर्याप्ता इति योगः। सप्तदशोत्तरशतसंख्याः 117 प्रकृतीर्वघ्नन्ति / 'साणा उण' इति सासादनाः पुनः षोडशेन पूर्वोक्तेन विहीनाः षोडशविहीनाः 101 ता बध्नन्ति / इति गाथार्थः॥१०॥ तथा नरतिगसुराउउसभं, उरलदुगं "मोत्तु पण्णवीसं च / .... ... अणुहत्तरितु मीसा, सुराउणा सत्तरी सम्मा॥११॥ (हारि०) व्याख्या-'नरतिग' इति, नरगतिनरानुपूर्वीनरायुत्रिकं सुरायुः 'उसभं' इति, वज्रर्षभनाराचं, एषां समाहारद्वन्द्वस्तत् / 'उरलदुर्ग' इति औदारिकशरीरतदङ्गोपाङ्गद्विकमिति सप्तप्रकृतीः पञ्चविंशतिं च प्रागुक्ता मुक्त्वा एकोत्तरशतमध्यादिति शेषः / शेषामेकोनसप्तति मिश्रा बध्नन्ति 69 / एषैव सुरायुषा सहिता सप्ततिर्भवति 70, ता 'सम्मा' इति, अविरतसम्यग्दृष्टयो बध्नन्ति / इति गाथार्थः // 11 // "बीयकसायूणा देस अपजत्ता सयं नवग्गं तु / मोत्त णमोघबन्धा, निरसुरआउं विउविछक्कं च // 12 // गीतिरियम .1 "सासादनयोः तवयं” इत्यपि / 2 "सासा उण सोलसविहूणा" इत्यपि। 3 "मुत्त" इत्यपि पाठ। 4 “बीयकसायविहूणा देसअपजत्तसयनवग्गं तु मुत्तूण" / इत्यपि पाठः / तथा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 ] बन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे (हारि०) व्याख्या-'बोयकसायणा देस' इति द्वितीयकषायैरप्रत्याख्यानावरणैः क्रोधाद्यैश्चतुर्भिरूना-हीना द्वितीयकषायोनाः सप्ततिः प्रकृतयः पट्पष्टिर्भवति 66, ताः प्रकृतीदेंशविरता बध्नन्तीति / पर्याप्तकपञ्चेन्द्रियाणां तिर्यग्जातीनां बन्धोऽभिहितः / अथापर्याप्तानां तेषां तमाह-'अपज्जत्ता' इत्यादिगाथापादत्रयम् , एतस्य भावार्थ:-तिर्यग्गतिसत्कारसप्तदशोत्तरशतलक्षणादोघबन्धान्नारकसुरायुषी 'वक्रियषटकं च' क्रियशरीर 1 तदङ्गोपाङ्ग 2 नरकगति 3 नरकानुपूर्वी 4 देवगति 5 देवानुपूर्वी 6 लक्षणं मुक्त्वा शेषं शतं नवाग्रम् 109, तुशब्दस्य पुनरर्थस्येह संबन्धादपर्याप्तपञ्चेन्द्रियाः पुनस्तिर्यगजातयो बध्नन्ति / इति गाथार्थः // 12 // एवं तिर्यग्गतौ बन्धस्वामित्वमुक्तम् / साम्प्रतं नरगतावाद्यगुणस्थानकपञ्चके तदतिदिशन् शेषगुणस्थानकेषु तदेवाह-- तिरिया व नरा पयडी. बंधती मिच्छमाइया पंच। अजयाइ पंच तित्थं, अपमत्तनियट्टि आहारं॥१३॥ कम्मत्थयबंधसमो, पमत्तमाईण होइ बन्धो उ / अप्पज्जत्ता मणुया, तिरिया व सयं 'नवग्गं तु // 14 // (हारि०) व्याख्या सामान्येन नरा विंशत्युत्तरशतं बध्नन्तीति प्रक्रमः / मिथ्यागाद्याः पश्च तिर्यश्च इव प्रकृतीर्वघ्नन्तीति / अत्रैव विशेषमाह-'अजयाइ पंच तिथं' इति, अविरतसम्यग्दृष्टयाद्या निवृत्तिबादरान्ताः पञ्च तीर्थकरनाम बध्नन्ति / तथा 'अपमत्तनियष्टि आहारं' इति, अप्रमत्तनिवृत्तिवादराः सप्तमाष्टमगुणस्थानवर्तिनो यतयो द्विकशब्दाध्याहारादाहारकद्विकं वध्नन्तीति / / 13 / / तथा-कर्मस्तवबन्धसमः, मकारस्यालाक्षणिकत्वात् प्रमत्तादीनां पुनर्मनुष्याणां भवति बन्धः / तुशब्दः पुनरर्थः प्रागेव योजित इति, अस्याः सार्द्धगाथायाः सामान्येन चतुर्दशगुणस्थानकेषु च नरबन्धमधिकृत्यैवं सशब्दसंस्कारातः स्थापना-तत्र सामान्येन विंशत्यधिकशतं 120, मिथ्यादृशां सप्तदशोत्तरशतं 117, सासादनानामेकोत्तरशतं 101, मिश्राणामेकोनसप्ततिः 69, अविरतसम्यग्दृष्टीनामेकसप्ततिः 71, देशविरताना सप्तपष्टिः 67, प्रमत्तानां त्रिषष्टिः 63, अप्रमत्तानामेकोनषष्टिः 59, निवृत्तिबादराणामष्टपश्चाशत् 58 षट्पञ्चाशत् 56 पड्विशतिश्चेति 26 विभागत्रयम् , अनिवृत्तिवादराणां द्वाविंशतिः 22 एकविंशतिः 21 विंशतिः 20 एकोनविंशतिः 19 अष्टादश 18 चेति पञ्च विभागाः, सूक्ष्मसम्परायाणां सप्तदश 17, उपशान्तमोह 1 क्षीणमोह 1 सयोगिनां 1 प्रत्येकमेकैव अयोगिनां बन्धो नास्ति / इति "कम्मत्थयबंधसमो, पमत्तमाईण होइ पंधो उ" इत्युक्तम् / तत्र कर्मस्तवग्रन्थे 1 "नवन्महियं” इत्यपि पाठः / 2 एकान्नवि० जे० / Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यगतौ वन्धस्वामित्वम् [ 135 सामान्यतो बन्धं प्रत्युक्तम् , न पुनः काञ्चन गतिमाश्रित्य / यथा-'सतरससयमेगुत्तर चउसयरी तह य स तसयरा य / सगसट्ठी तेवट्ठी, उणसट्ठी अठवण्णा य // 1 / / छप्पपणा हव्यासा, बाबासा सत्तरेगमेगंच / एगो य बंधसेसो मिच्छाइसु होति नायव्वा। // 2 // " अङ्कतस्तु सामान्येन 120 / म० 117 / सा० 101 / मि० 74 / अ० 77 / दे०६७। प्र० 63 / अ० 59, 58 ।नि० 58, 56, 26 / अ० 22 21, 2019, 18 / सू० 27 / उ० 1 / क्षी० 1 / स० 1 अ००। एतानि चाङ्कस्थानानि प्रतिगुणस्थानमनेन प्रकृतिव्यवच्छेदक्रमेण जायन्ते / यथा-'मिच्छं सोलस पणवीस सासणे अविरए य दसपयडी। चउछकमेग देसे, विरए य कमेण वोच्छिन्नाः / / 2 / दुगतोस चउरपुव्वे, पंच नियट्टिम्मि बंधवोच्छेओ। सोलस सुहमसरागे, सायसजोगोजिणवरिंदे // 2 // " इह मिथ्यादृष्टिसासादनगुणस्थानकद्वये वन्धं प्रति व्यवच्छिन्नाः प्रकृतयोऽत्रैव प्राक् प्रतिपादिताः / मिश्रे तु न काश्चन प्रकृतयो व्यवच्छिन्नाः, अतोऽविरतगुणस्थानकादी बन्धं प्रति व्यवच्छिन्नाः प्रकृतयः प्रतिपाद्यन्ते / तद्यथा-"घीयकसायचउक्कं 4, मणुयाउं 5 मणुयदुवय 7 ओरालं 8 / तस्स य अंगोवंगं 9, संघयणाई 10 अविरयम्मि / 1 // तइयकसायचउक्कं 4, विरयाविरयम्मि पंधवोच्छेओ / अस्साय 1 मरइ 2 सोगं 3, तह चेव य अथिर 4 असुहं 5 च / / 2 / / अजसकित्ती 6. य तहा, पमत्तविरयम्मि बंधवोच्छेओ। देवाज्यं च एगं, 'नायव्वं अप्पमत्तंमि // 3 / निद्दा 1 पयला 2 य तहा, अपुव्वपढमंमि पंधवुच्छेओ। देवदुर्ग 2 पचिंदिय 3, उरालवजं चउसरीरं 7 // 4|| समचउरं 8 वेउव्विय 9, आहारगअंगुवंगनामं 10 च / वण्णचउक्कं 14 च तहा, अगुरुयलहुयं च चत्तारि 18 / / 5 / / तसचउ 22 पसत्यमेव य, विहायगइ 23 थिर 24 सुहं च 25 नायव्वं / सुहयं 26 सूसरमेव य 27, आएजं 28 चेव निमिणं च 29 // 6 // तित्थयरमेव तीसं, 30, अपुव्वछन्भाय बंधवोच्छेओ / हास 1 रह 2 भय 3 दुगुका 4, अव्वचरिमम्मि वोच्छिन्ना // 7 // पुरिसं 1 चउसंजलणं 5, पंच य पयडीओ पंचभागम्मि।अनियट्टोअडाए, जहक्कम बंधवोच्छेओ // 8 // नाणंतरायदसगं 10; दसणचत्तारि 14 उच्च 15 जसकित्ती 16 / एया सोलस पयडी सुहमसरागमि वोछिचना / / 9 / / उवसंतखीणमोहे, जोगिम्मि उ साय 1 बंधवोच्छेओ। नायचो पयडीर्ण, बंधस्संतो अणंतो य // 10 // " बन्धस्यान्तोऽनन्तश्चेत्यस्यायमर्थःयाः प्रकृतयो यत्र गुणस्थाने व्यवच्छिन्नास्तत्र तासामन्तोऽग्रेतनगुणस्थाने न गच्छन्तीति, अन्यासां त्वनन्त उत्तरत्रापि गच्छन्तीति तात्पर्यमिति | आसां दशानामपि गाथानां पुनर्व्याख्यानां कर्मस्तवटोकातो बोद्धव्यमिति / तथाऽत्रैव प्रकृत्यपकर्षप्रक्षेपकथनगाथाः / यथा 1 कर्मस्तवे तु "तहप्पमत्तम्मि नायव्वं" इत्येवंरूपः पाठो-ऽपि दृश्यते / EEEEEEEEEE | Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ] बन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे "वोससयं सामन्ने, सत्तरससयं तु बंधए मिच्छो। तित्थयराहारदुर्ग, न बंधए फिटए तेण॥१॥ सम्मा मिच्छदिही, आणि न घंधए 'जओ ताणि / फिति तेण तस्स उ अज्सवसाओ 'जओ नत्थि / / 2 / / तित्थयरं पक्खिप्पइ, सम्मपिडिम्मि बंधए जेण / सम्मत्तस्स गुणणं, आऊणि य तत्थ खिप्पति।३।। आहारमप्पमत्ते, पक्खिप्पइ जेण संजमो तस्स / इय दुसु गुणठाणेसु, अवगरिसो दोसु पक्खेवो // 4 // " इह कर्मस्तवोक्तगुणस्थानकबन्धात् नरतिरश्वां मिश्राविरतगुणस्थानकयोर्विशेषोऽयं द्रष्टव्यः / तद्यथा-कर्मस्तवे मिश्रगुणस्थानके चतुःसप्ततिः 74, अविरतगुणस्थानके सप्तसप्ततिः 77 इति / नरतिरचा पुनर्मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीवर्षभनाराचसंहननौदारिकशरीरतदङ्गोपाङ्गलक्षणप्रकृतिपश्चकस्य बन्धाभावान्मिश्रगुणस्थानके एकोनसप्ततिः 69, अविरते सप्ततिः 70, केवलं नराणां तीर्थकरक्षेपे एकसप्ततिः 71 इति / इहैकसप्ततिप्रमाणनरबन्धमध्येऽनन्तरोक्तप्रकृ: तिपञ्चके नरायुष्के च क्षिप्ते कर्मस्तवोक्ता सप्तसप्ततिर्भवति अविरतगुणस्थानके 77 इति / एवं सामान्यकर्मस्तवोक्ताङ्कावली नरतिर्यगङ्कावली च किंचित्पृथग्जातेति केवलं तिरश्वा पञ्चैव गुणस्थानानि, नराणां तु मण्येव / विशेषस्तु मिश्राविरतगुणस्थानयोरिति तात्पर्यार्थः / विस्तरतस्तु कर्मप्रकृतिवर्णनादिकर्मस्तवटोकातो विज्ञेयमिति / तथा-'अप्पजत्तो' इत्यादि, अपर्याप्तमनुजाः पुनस्तियश्च इव शतं नवाग्रं 109 बध्नन्ति / तुशब्दो योजित एव / इति गाथाद्वयार्थः // 14 // एवं मनुष्यगतौ बन्धस्वामित्वमुक्तम् / साम्प्रतं देवगतिमधिकृत्य तत्प्रतिपादयन्नाह वेउव्वाहारदुगं, नारयसुरसुहुमविगलजाइतिगं। "मोत्तु चउरग्गसय, देवा बंधति ओहेणं // 15 // (हारि०)व्याख्या-'वेउवाहारदुर्ग' इति, द्विकशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धादुवैक्रियशरीरतदङ्गोपाङ्गद्विकं. आहारकशरीरतदङ्गोपाङ्गद्विकम् / 'नारयसुरसुहुमविगलजाइनिगं' इति, त्रिकशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धानारकत्रिकं सुरत्रिकं च प्राग्वत् / सूक्ष्मत्रिकं तु सूक्ष्मनामसाधारणनामापर्याप्त नामलक्षणम् / विकलजातित्रिकं च प्राग्वत् / एवमेताः षोडश 'प्रकृतीद्वन्द्वगर्भास्तत्पुरुपकृतसमासाः विंशत्यधिकशतमध्यान्मुक्त्वा चतुरग्रशतं 104 ओघेन देवा बध्नन्ति / इति गाथार्थः // 15 // एवमोघबन्धं प्रतिपाद्य साम्प्रतं गुणस्थानकेषु तन्निरूपयन्नाह तित्थोणं तं मिच्छा. साणा छेवट्ठहुडनपुमिच्छं / एगिदिथावरायवपयडी 'मोत्तण छन्नउई // 16 // "1-3 "तओ" इति जे० / 3 "जेण" इति जे० / 4 "मुत्तु'' इत्यपि पाठः / 5 प्रकृतीस्तत्पुरुषगर्भकतसमाहारद्वन्द्वा विंशत्य० जे। 6 "मुत्तण छन्नवई" इत्यपि पाठः / Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगतिभेदेषु बन्धस्वामित्वम् [ 137 (हारि०) व्याख्या-तच्च चतुरग्रशतं तीर्थकरनामोनं 103 मिथ्यादृशो देवा बध्नन्ति इति प्राक्तनेन संबन्धः / एवमुत्तरत्रापि / छेदस्पृष्टसंहननहुण्डसंस्थाननपुसकवेदमिथ्यात्वमिति द्वन्द्व - कवद्भावः। तथैकेन्द्रियजातिस्थावरनामातपनामप्रकृतीविहितद्वन्द्वसमासाः / एवमेताः सप्तापित्र्यधिकशतमध्यान्मुक्त्वा शेषां षण्णवति सासादनसम्यग्दृष्टिदेवा 96 बघ्नन्ति इति गाथार्थः // 16 // तथा ओघुत्तं पणुवीसं, नराउजुत्तं विवजिउं मीसा। बंधति सयरिमजया, तित्थनराऊहिं बिगसयरी // 17 // (हारि०) व्याख्या-ओधोक्तां पञ्चविंशति नरायुयुक्ता षण्णवतेमध्याद्विवर्ण्य शेषां सप्ततिं 'मिश्राः' सम्यम्मिथ्यादृष्टयो देवा बध्नन्ति 70 / एषा च सप्ततिस्तीर्थकरनामनरायुा सह द्विसप्ततिर्भवति, तां 72 अयता बध्नन्ति / इति गाथार्थः // 27|| . इति सामान्येन देवगतिबन्धः प्रतिपादितः, साम्प्रतं विशेषतो देवविशेषनामोच्चारणपूर्वक तमाह मिच्छाइअविरयंता, देवोघं तित्थहीण बंधति / भवणवणजोइदेवा, देवीओ चेव सव्वाओ // 18 // . (हारि०) व्याख्या-अत्र पदघटनैवं कार्या-भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कदेवाः सर्वे तद्देव्यश्चैव सर्वा मिथ्यागाद्या अविरतसम्यग्दृष्टिपर्यन्ता विभक्तिलोपात्तीर्थकरनामहीनं देवौघं चतुरग्रशतादिलक्षणं यथासंभवं बध्नन्तीति / तद्यथा-सामान्यतस्त्र्यधिकशतं 103, मिथ्यादृशोऽपि व्यधिक• शतं 103, सासादनाः षण्णवति 66, मिश्राः सप्ततिं 70, अविरता एकाधिकसप्ततिं 71 बघ्नन्ति / इति गाथार्थः // 18 // तथा . सहसार सामन्नदेवभंगो, सोहम्मीसाण मिच्छमाईणं / सहसारंता इगिथावरायवोणं सणंकुमाराई // 19 // गीतिरियम (हारि०) व्याख्या-'सामान्यदेवभङ्गका पूर्वोक्तश्चतुरग्रशतादिलक्षणः 104, कयोः ? विभक्तिलोपात्सौधर्मेशानयोः, केषाम् ? मकारोऽलाक्षणिकः, मिथ्यागादीनां भवतीति शेषः / , इह यद्यपि 'मिच्छमाईणं' इत्युक्तं तथाऽपि सामान्यमपि द्रष्टव्यम् / ततः सामान्येन चतुरग्रशतं 104, मिथ्यादृशां व्यग्रशतं 103, सासादनानां षण्णवतिः 96, मिश्राणां सप्ततिः 70, अविरतानां द्विसप्तति 72 रिति / 'सहसारंता' इत्यादियोजना त्वेवं कार्या-सनत्कुमा Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 ] बन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे राद्याः सहस्रारान्ता देवा एकेन्द्रियजातिस्थावरातपोनमोघं चतुरग्रशतादिलक्षणं बध्नन्ति / तद्यथासामान्येकैकाग्रशतं 101, मिथ्यादृशः शतं 100, सासादनाः षण्णवति 96, मिश्राः सप्ततिं 70, अयता द्विसप्तति 72 मित्यत्र सासादनादिगुणस्थानकत्रये एकेन्द्रियादिप्रकृतित्रयस्य, "तित्थोणं तं मिच्छा, साणा छेवट्ठहुंडनपुमिच्छं / एगिदिथावराराव-" इति गाथया प्रागेवापनीतत्वान्न कश्चित्सङ्ख्याविशेष इह / इति गाथार्थः // 19 // अथ सनत्कुमारादिसहस्रारान्तदेवा रत्नप्रभादिपृथिवीत्रयनारकाश्च बन्धमाश्रित्य समा इति गाथायाः प्रथमार्द्धन, तथा पश्चिमार्द्धनानतादिवेयकान्तदेवानां सामान्यबन्धं दर्शयन्नाह रयणा नारयसरिसा, सहसारंता सणंकुमाराई / इगिथावरायवतिरितिगुजोऊणं तु आणयाईया ॥२०॥गीतिरियम् / / (हारि०) व्याख्या-'श्यणा' इति सूचकत्वात्सूत्रमिति न्यायात्पदावयवे पदसमुदायोपचाराद्वा रत्नप्रभोच्यते / उपलक्षणं चैतत् प्रथमपृथिवीत्रयस्य / ततश्च रत्नप्रभाया नारका रत्नप्रभानारकास्तैः सदृशाः समाः रत्नप्रभानारकसदृशाः' / क एते ? सनत्कुमाराद्याः सहस्रा. रान्ता देवा इति गम्यते / तद्यथा-सामान्येनैकाग्रशतं 101, मिथ्यादृशां शतं 100, सासादनानां षण्णवतिः 96, मिश्राणां सप्ततिः 70, अयतानां द्विसप्तति 72 रिति / 'इगि' इत्यादि, एकेन्द्रियजातिस्थावरनामातपनामतिर्यत्रिकोद्योतोनं तु चतुरग्रशतं सप्तनवतिर्भवति, तामानताद्या ग्रैवेयकनवकान्ता देवा इति गम्यते, सामान्येन 97 बध्नन्ति / इति गाथार्थः // 20 // एवमानतादिसामान्यबन्धं प्रतिपाद्य साम्प्रतं तमेव गुणस्थानकविशिष्टं निरूपयन्नाह तित्थं 'नपुचउतिरितियउज्जोऊण पणवीस सनराउं / मोत्तण मिच्छमाई, नराउतित्थेहि अजया उ // 21 // (हारि०) व्याख्या-अस्या भावार्थोऽयम्-पूर्वोक्तसप्तनवतेमध्यात्तीर्थकर मुक्त्वेति संवन्धः / एवमुत्तरत्रापि शेषां षण्णवतिं 66 मिथ्यादृशो बध्नन्ति / तथा षण्णवतेमध्यात् 'नपुसकचतुष्क' सेवार्तसंहननहुण्डसंस्थाननपुसकवेदमिथ्यात्वलक्षणं मुक्त्वा शेषां द्विनवति 92 सासादना बध्नन्ति, तथा द्विनवतेमध्यात्तिर्यत्रिकोद्योतोनां पञ्चविंशति' एकविंशतिमित्यर्थः, किंविशिष्टाम् ? 'सनरायुषं' नरायुयुक्ता द्वाविंशतिमित्यर्थः, 'मुक्त्वा त्यक्त्वा शेषां मिश्राः सप्ततिं 70 बध्नन्ति / तथा सप्ततिं च नरायुस्तीर्थकराभ्यां सहाविरता बध्नन्ति 72 / तुशब्दाद्विशेषा. 1 “नपुसचउ" इत्यपि पाठः / 2 "पणुवीससनराओ / मुत्तूण” इत्यपि पाठः / Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सनत्कुमारादिदेवभेदेष्विन्द्रियभेदेषु च बन्धस्वामित्वम् / 136 नभिधानेऽपि मिथ्यात्वादिगुणस्थानकत्रयाभावात्पश्चोत्तरविमानदेवा एतामेवाविरतगुणस्थानकसत्कां द्विसप्तति 72 वध्नन्ति इति गाथार्थः / / 21 / / इति देवगतौ बन्धस्वामित्वमुक्तम् , तद्भणनाच गतिबन्धमार्गणा समाप्ता 1 // साम्प्रतमिन्द्रियेषु तदारभ्यते तित्थाहारं निरयसुराउ 'मोत्तु विउव्विछक्कं च / __ इगविगलिदी बंधहि , नवुत्तरं ओघमिच्छा य // 22 // (हारि०) व्याख्या-'तित्थाहारं' इति, द्विकशब्दो लुप्तो द्रष्टव्यः / ततस्तीर्थकरा 1 ऽऽहारकद्विकं 3, नरकायुः 4, सुरायुः 5, 'वैक्रियषट्कं च' वैक्रियशरीर 6 तदङ्गोपाङ्ग 7 सुरगति 8 सुरानुपूर्वी 9 नरकगति 10 नरकानुपूर्वीलक्षणं 11 विंशत्युत्तरशतमध्यादिति शेषः, मुक्त्वा शेषं नवोत्तरं शतमिति गम्यते 109, 'ओघ' इति प्राकृतत्वात् सामान्यपदिनो मिथ्याशश्च 109 एकेन्द्रियविकलेन्द्रिया बध्नन्ति / इति गाथार्थः // 22 // ____ अथ गाथायाः प्रथमार्द्धन तेषां सासादने बन्धं समर्थयन्नपरार्द्धन पञ्चेन्द्रियेषु तमाह साणा बंधहिँ सोलस, 'निरतिगहीणा य मोत्तु छन्नउइं। ओघेणं वीसुत्तर-सयं च पंचिंदिया बंधे // 23 // (हारि०) व्याख्या-अत्रापि पदघटनैवं कार्या-नरकत्रिकहीनाच पोडश प्रकृतीनवोत्तरशतमध्यान्मुक्त्वा शेषां षण्णवति 96 मेकेन्द्रियविकलेन्द्रियाः सासादना बध्नन्ति / पञ्चेन्द्रियाः पुनः चश.ब्दस्य पुनरर्थस्यात्र योजनात् 'ओघेन' सामान्येन विंशत्युत्तरशतं 120 'बन्धे' इति प्राकृतत्वाद्वध्नन्तीति, अत्रोपलक्षणत्वान्मिथ्यात्वादिषु च कर्मस्तवोक्तबन्धो द्रष्टव्यः / इति गाथार्थः / / 23 / / . अत्रैवैकेन्द्रियविकलेन्द्रियेषु सासादनमाश्रित्य मतान्तरमाह 'इगिविगलिंदी साणा, तणुपज्जत्तिं न जंति जं तेण। नरतिरियाउअबंधा, मयतरेणं तु 'चउणउई // 24 // (हारि०) व्याख्या-एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाः सासादनाः सन्तः 'तनुपर्याप्तिं' शरीरपर्याप्ति 'न यान्ति' न गच्छन्ति, 'यद' यस्माद्धेतोस्तेन ते नरतिर्यगायुरबन्धा इति मतान्तरण पुनश्चतुनवति 64 बध्नन्तीति / अत्र भावार्थः-पूर्वमतेन शरीरपर्याप्त्युत्तरकालमपि सासादनमावस्येटत्वादायुर्वन्धो ऽभिप्रेतः / इह तु प्रथममेव तन्निवृनष्टः / इति गाथार्थः // 24 // 1 "मुत्तु” इत्यपि पाठः। 2 "इगि” इत्यपि पाठः। 3 “निरि" इत्यपि पाठः / 4 "मुत्त छन्नउई" इत्यपि पाठः / 5 "ग" इत्यपि पाठः / 6 “चउणउई" इत्यपि पाठः / ७-"ऽभिहितः" इत्यपि पाठः। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 ] पन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे उक्तमिन्द्रियेषु बन्धस्वामित्वम् 2 // साम्प्रतं कायेषु तदुच्यते भूदगवणकाया एगिदिसमा मिच्छसाणदिट्ठीओ। मणुयतिगुच्चं 'मोत्त, सुहुमतसा ओघ थूलतसा॥२५॥ (हारि०) व्याख्या- अत्रैवं योजना कार्या मिथ्यादृशः सासादनसम्यग्दृशश्च भूदगवनस्पतिकाया एकेन्द्रियसमाः / एकेन्द्रियाणां तु पूर्वमिदमुक्तम् , तद्यथा-ओघतः 109, मि० 109, सा० 96 / प्रागुक्तमतान्तरेण तु चतुर्नवतिरपि 94 द्रष्टव्या / तथा 'मणुय' इत्यादि, अस्यायमर्थः पूर्वोक्तैकेन्द्रियविकलेन्द्रियसत्कान्नवाग्रशतान्मनुजत्रिकोच्चैर्गोत्रं मुक्त्वा 'सूक्ष्मत्रसाः' तेजोवायुकायजीवः पञ्चोत्तरशतं 105 बध्नन्ति / तथा 'ओघ' इति, अनुस्वारलोपादोघं विंशत्युतरशतादिलक्षणं कर्मस्तवोक्तं 'स्थूलत्रसाः' त्रयकायिका बघ्नन्तीति शेषः / अङ्कतः स प्रागेव दर्शितः / इति गाथार्थः // 25 // एवं कायेषु बन्धोऽभिहितः 3 // साम्प्रतं योगेषु तं प्रतिपादयन्नाह 'मणवइजोगचउक्के, ओघो डरलेवि ओघनरभंगो। निरतिगसुराउआहारगं च हिच्चा उ 'तमीसे // 26 // " (हारि०) व्याख्या- "मनोवाग्योगचतुष्के' इति चतुष्कशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धान्मनोयोगचतुष्के वाग्योगचतुष्के चेत्यर्थः, सत्य 1 मृषा 2 मिश्रा 3 ऽसत्यामृपाख्ये 4 / एतत्स्वरूपं संक्षेपत इदम्-'अस्ति जोवः' इत्यादिचिन्तनपरं सत्यम् / एतद्विपरीतं मृषा / तथा धवखदिरादिषु वृक्षेषु सत्सु खदिरवनमिदमिति मिश्रम् / सत्यमृषाविकलमसत्यामृपं आज्ञापनादि, यथा-हे देवदत्त ! घटमानय, धर्म कुरु, भिझा देहीति / विस्तरव्याख्यानं तु ग्रन्थान्तरादवसेयं, गमनिकामात्र त्वात्प्रस्तुतप्रयासस्येति ओघबन्धो विंशत्युत्तरशतादिलक्षणः 120 कर्मस्तवाभिहितो विज्ञेय इति शेषः / तथौदारिकेऽपि 'ओघनरभङ्ग' सामान्यमनुष्यभङ्गको द्रष्टव्य इति शेषः, अङ्कत उभयेऽपि भङ्गकाः प्राक् प्रदर्शिता एव / तथा नरकत्रिकसुरायुराहारकद्विकं विहितसमाहाहारद्वन्द्वसमासं प्रकृतिषट्कं विंशत्युत्तरशतमध्यादिति शेषः, हित्वा शेषस्य चतुर्दशाधिकशतस्य 114 'तन्मिश्रे' त्वौदारिकमिश्रे सामान्येन बन्ध इ.त शेषः / सुरद्विकभावना "सप्तमनरकथिव्या नरद्विकभावनावद्दष्टव्या / इति गाथार्थः / / 26 / / अथौदारिकमिश्रेऽपि गुणस्थानकविशिष्टं तमाह१ "मुत्तु” इत्यपि पाठः। 2 "मणवय" इत्यपि पाठः / 3 "तु" इति मुद्रितप्रतौ / 4 "तम्मिरसे" इत्यपि पाठः। "मनोयोगवा०" इत्यपि / ६"त्वादेतत्म०" इति जे०। ७“सप्तमनरकपथिव्या” इति पाठो। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायभेदेषु ये गभेदेषु च बन्धस्वामित्वम् [ 141 सुरदुग'विउब्वियदुर्ग, तित्थं हिच्चा सयं नवग्गं तु। बंधति उरलमिस्से. मिच्छा उ सजोगिणो मायं // 27 // (हारि०) व्याख्या-सुरद्विकवैक्रियद्विकं पूर्वोक्तम् , अत्र तत्पुरुषगर्भः समाहारद्वन्द्वः, तीर्थकरनाम चेति प्रकृतिपञ्चकमनन्तरोक्तसामान्यवन्धाच्चतुर्दशोत्तरशतादिति गम्यते, 'हित्वा' परिन्यज्य शेष नवाग्रशतमौदारिक मिश्रयोगे मिथ्यादृशस्तु बध्नन्ति 109 / तथा सयोगिन औदारिकमिश्रयोग इति पूर्वेण योगः, केवलिसमुद्धाते सप्तमषष्ठद्वितीयसमयेषु सातमेवैकं 1 बध्नन्तीति पूर्वेण संबन्धः / अत्र यदुत्क्रमतः सयोगिग्रहणं तल्लाघवार्थम् / यच्च प्राक्तनगाथायाः 'औदारिकमिश्रे' इति पदेऽनुवर्तमाने पुनस्तत्पदोपादानं तद्भिन्नगाथायां सुखार्थम् / इति गाथार्थः // 27 // अथ सार्द्धगाथयौदारिकमिश्रयोगे बन्धं समर्थयन् गाथार्द्धन वैक्रिययोगे देवनारकबन्धसमतां दर्शयन्ना(यश्चा)ह निरतिगहीणा सोलस, तिरिनरआ विमोत्त साणा वि / तिरियाउविहीणं पण्णवीसमुज्झित्त अविरए बंघो // 28 // तित्थं वेउविदुर्ग, सुरदुगसहिय उरलमिस्से / सामनदेवनार यबंधो नेओ विउविजोगे वि // 29 // गीत्युद्गीती एते गार्थ (हारि०) व्याख्या-नरकत्रिकहीनाः षोडश प्रकृतीः तथा तिर्यङ्नरायुषी अपि नवोतरशतमध्यादनन्तरोक्तान्मुक्त्वा शेषां चतुर्नवति 64 मौदारिकमिश्रयोग इति पूर्वेणयोगः / 'साणा वि' इति, सासादनसम्यग्दृशोऽपि / अपिशब्दः समुच्चयार्थः / बध्नन्तीति प्राक्तनेन संबन्धः / तथा चतुर्नवतेमध्यात्तिर्यगायुविहीनां पञ्चविंशतिं 'उज्झित्वा' परित्यज्य शेषायाः सप्ततेः 'तित्थं वेउव्विदुगं सुरदुगसहियं इति, प्राकृतवशात्तीर्थकरनाम वैक्रियद्विकं सुरद्विकसहितमिति पञ्चप्रकृतिसहिताया 75 औदारिकमिश्रयोगे 'अविरए' इति, अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके बन्धः / एवं गुणस्थानकचतुष्क एवौदारिकमिश्रयोगोऽपि लभ्यते नान्यत्रेति / मिश्रता चात्र कार्मणेनैव सह मन्तव्येति / 'सामन्नदेवनारयबंधो नेभो विउविजोगे वि' इति, वैक्रिययोगेऽपि सामान्यदेवनारकबन्धो ज्ञेयः / स च प्रागेव प्रतिपादितः, तद्यथा-देवानां सामान्येन 'चतुरप्रशतं 104, मिथ्यादृशांगुत्तरशतं 103, सासादनसम्यग्दृशां .1 "वेउव्विदुगं" इत्यपि पाठः / 2 "मुत्तु" इत्यपि पाठः। 3 "बंधे” इति मुद्रितप्रतौ / 4 "ग्ण" इत्यपि / 5 "सहेति मन्तव्यमिति" इति जे०।६"चतुरुत्तरशतम्" इति जे०। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] कन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे षण्णवतिः 66, मिश्राणां सप्ततिः 70, 'अविरतसम्यग्दृशां द्विसप्तति 72 रिति / नारकाणां तु सामान्येनैकाधिकं शतं 501, मिथ्यादृशां शतं 100, सासादनानां षण्णवतिः 66, मिश्राणां सप्ततिः 70, अविरतानां द्विसप्तति 72 रिति / स्वभावस्थदेवनारकचैक्रिययोगोऽत्र गृहीतः / इति गाथाद्वयार्थः / / 28-26 // ___साम्प्रतं वैक्रियमिश्रयोगेऽपि देवनारकबन्धातिदेशगर्भ सामान्यपदे मिथ्यात्वसासादनाविरतगुणस्थानकत्रये च तन्निरूपयन्नाह वेउब्वियमीमम्मि वि. तिरियनराऊहिँ वज्जिया सेसा। तित्थोणा ता मिच्छा, बंधहिँ माणा उ चउणउई // 30 // .. एगिदिथावरायवसंढाइचउक्वजिया सेसा / तिरियाऊणं पणुवीम 'मोत्तु अजया मतित्था उ॥३१॥ (हारि०) व्याख्या-वैक्रियमिश्रयोगेऽपि न केवलं वैक्रिययोग इत्यपिशब्दार्थः / अनन्तरं देवनारकवैक्रिययोगोक्ताः प्रकृतीस्तिर्यग्नरायुया वर्जिताः शेषा द्वयु त्तरशतसङ्ख्याः सामान्रोन देवाः 102, नारकास्तु नव नवतिप्रमाणा 99 बध्नन्ति / इह देवनारका निजायुषः षण्मासावशेषा एवायुर्वघ्नन्ति, अतो मिश्रयोगे उत्पत्तिकाले आयुयबन्धाभावे ता एव सामान्योक्ताः प्रकृतीस्तीर्थकरोना मिथ्यादृशो देवाः 101 नारकाश्च 98 बध्नन्तीति // 30 // अथ 'एगिदि' इत्यादिगाथा वित्रियते-ता एव पुनरेकेन्द्रियजातिस्थावरातपनामनपुसकवेदहुण्डसंस्थानसेवार्तसंहनन मिथ्यात्वरूपनपुंसकचतुष्कवर्जिताः शेषाः सासादनवर्तिनो देवाः 94, 'नारका नपुसकचतुष्केण वर्जिताः शेषाः न त्वेकेन्द्रियादित्रयेण तस्य प्रागेव 'थावरचउ जाईचउ' इत्यादिगाथयाऽपनीतत्वादित्यतश्चतुर्नवति 94 सङ्ख्या एव बध्नन्ति / तथा तिर्यगायुरूनां 'पणवीस' इति विभक्तिलोपात् पञ्चविंशतिं मुक्त्वा सतीर्थकराः कर्मप्रकृतीरयता अविरतसम्यग्दृष्टिदेवाः 71, तुशब्दः समुच्चयाः / नारकाश्च 71 बध्नन्ति वैक्रियमिश्रयोग इति पूर्वेण योगः / मिश्रता चात्र प्रथमोत्पत्तौ कार्मणकायेनव सह मन्तव्येति / अयं च मिथ्यात्वसासादना"विरति गुणस्थानकत्रय एव लभ्यते नान्यत्र / यत एतेष्वेव गृहीतेषु जीवा म्रिय ते नान्येषु / तथाहि-"मिच्छे सासाणे वा, अविरयसम्मम्मि अहव गहियमि ! जंनि जिया परलोए, सेसेकारसगुणे मोत्तुं // 1 // " इति गाथाद्वयार्थः // 30-31 // 1 "अविरतानां द्वासप्तति 72 रिति” इत्यपि // 2 "मुत्तु " इत्यपि पाठः। 3 "इह देवनारका निजायुषः षण्मासावशेषा एवायु बेध्नन्ति, अतो मिश्रयोगे उत्पत्तिकाले आयुर्दू यबन्धाभावे” इति पाठो जे० प्रतौ न दृश्यते / 4 "नारकाश्च नपुंसकादि चतु० इत्यपि / 5 "विरत०” इत्यपि। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैफ्रियमिश्रा-ऽऽहारकद्विक-कार्मण-काययोगेषु बन्धस्वामित्वम् अर्थ गुणस्थानकदृष्टान्तपूर्वकं किंचिदधिकपादेनाहारकयोगद्वये, तथा सामान्यपदे गुणस्थानचतुष्टये च तदूनगाथात्रयेण कार्मणकाययोगे बन्धमाह तेवढाहारदुगे, जहा पमत्तस्स कम्मणे बंधो / आउतिगं निरयतिगं, आहारय वजिओघो // 32 // 'सुरदुगतित्थविउब्वियदुगाणि मात्त ण बंधहि मिच्छा। निरतिगहीणा सोलस, वजित्ता सासणा कम्मे // 33 // तिरियाऊणं पणुवीस 'मोत्तु सुरदुगविउविदुगजुत्तं / अजया तित्थेण समं, सजोगि सायं समुग्घाए॥३४॥ (हारि०) व्याख्या-'तेवठ्ठा' इति प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोपे त्रिषष्टेः 63 कर्मप्रकृतीनामिति गम्यते आहारकद्विके आहारकशरीर तन्मिश्रलक्षणयोगद्वये बन्धो यथा प्रमत्तस्येति षष्ठीसप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदाद्यथा प्रमत्ते प्रमत्तगुणस्थानके बन्धशब्दस्य वक्ष्यमाणस्यात्रापि योजनादेवं संबन्धः / साम्प्रतं कार्मणकाययोगे बन्धमाह-'कम्मणे बंधो आउतिगं' इत्यादि, आयुत्रिकं तिर्यङ्नरामरायुष्कलक्षणम् / नरकत्रिकं प्रागुक्तम् / 'आहारय' इति सूचकत्वात्सूत्रस्याहारकशरीरतदङ्गोपाङ्गलक्षणं द्वयं ग्राह्य, इत्यष्टावोघबन्धाद्विशत्युत्तरशतलक्षणाद्वर्जयित्वा शेषम्य द्वादशोत्तरशतस्य 112 सामान्येन कार्मणकाययोगे बन्धः / इति गाथार्थः // 32 // तथा-सुरद्विक 2 तीर्थकर 1 वैक्रियद्विकानि 2 पूर्वोक्तानि, तत्पुरुषगर्भकृतद्वन्द्वसमासानि कर्माणीति शेषः, अनन्तरोक्तसामान्यबन्धद्वादशोत्तरशतमध्यान्मुक्त्वा शेषं सप्तोत्तरशतं 107 कार्मणकाययोगे मिथ्यादृशो बध्नन्ति / तथा नरकत्रिकहीनाः षोडश प्रकृतीरिति शेषः, अनन्तरोक्तसप्तोत्तरशतमध्यावजैयित्वा शेषां चतुर्नवति 64 सासादनसम्यग्दृष्टयः 'कम्मे' इति कार्मणकाययोगे बध्नन्तीति प्राक्तनेन संबन्ध इति / 'कम्मणे बंधो' इति प्राक्तनगाथाया अनुवर्तमाने कार्मणकाययोगे यत् पुनरिहोक्तम् 'कम्मे' इति तद्गणस्थानकयोजनार्थमिति न दोषः / इति गाथार्थः // 33 // तथा-तिर्यगायुरूनां 'पणुवीस' इति विभक्तिलोपात्पञ्चविंशतिमनन्तरोवतचतुर्नवतेमध्यान्मुक्त्वा शेषां सप्तति सुरद्विकवैक्रियद्विकयुक्तां तीर्थकरेण च 'सम' सार्द्ध पञ्चसप्ततिमित्यर्थः, अयता अविरतसम्यग्दृष्टयः कार्मणकाययोगे बध्नन्तीति 75 पूर्वेण संबन्धः / अयं च कार्मणकाययोगो विग्रहगतौ गच्छतो जीवस्यानाहारकस्यैतद्णस्थानत्रयोपेतस्य लभ्यते / तथाहि-"मिच्छे सासाणे वा, अविरयसम्मम्मि अहव गहियम्मि / जति जिया परलोए, सेसेक्का - 1 मुत्तुण इत्यपि पाठः / 2 मुत्तु इत्यपि पाठः / ३"-तन्मिश्रलक्षणे योगद्वये” इति व्यस्त कचित् / / Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 ) बन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे रसगुणे मोतु // 1 // ' तथा 'सजोगि सायं समुग्घाए' इति विभक्तिलोपात्सयोगिनस्त्रयोदशगुणस्थानवर्तिनः समुद्धाते केलिसमुद्धाते तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु कार्मणकाययोगे सातमेवैकं 1 बजन्तीत्यत्रापि प्राक्तनेन संबन्धः / एवं च कार्मणकाययोगो मिथ्यात्वसासादनाविरतसयोगिगुणस्थानकचतुष्टय एव लभ्यते, नान्यत्र / इति गाथार्थः // 32-33-34 // एवं योगेषु बन्धस्वामित्वमुक्तम् 4 // साम्प्रतं वेदद्वारे कषायद्वारे च तत्प्रतिपादयन्नाह वेयतिएवोघेणं, बंधो जा बायरो हवइ ताव / कोहाइसु चउसोधो, मिच्छाओ जाव 'अनियट्टिं // 35 // (हारि०) व्याख्या-'वेदत्रिकेऽपि' स्त्रीवेदपुरुषवेदनपुसकवेदरूपे 'ओघेन' सामान्येन बन्धः कर्मस्तवोक्तो यावदनिवृत्तिवादरगुणस्थानकं तावद्भवति, ततः परं वेदानामभावादिति / तद्यथासामान्येन 120 / मि० 117 / सासादन 101 / मिश्र 74 / अविरत 77 / दे० 67 / प्र० 63 / अ० 59, 58 / नि० 58, 56 26 / अ० 22, 21, 20, 19,18, / इति वेदेषु बन्धस्वामित्वमुक्तम् 5 // तथा क्रोधादिषु चतुष्ोघवन्धो मिथ्यादृष्टेरारभ्य यावदनिवृत्तिबादरगुणस्थानकम् / तद्यथा-सामान्येन 120, मि० 117, सा० 101, इत्यादिकोऽनन्तरोक्तो वेदद्वारवत् / इति गाथार्थः / / 3 / / इति कषायद्वारे बन्धस्वामित्वमुक्तम् 6 // साम्प्रतं ज्ञानद्वारे गुणस्थानकगर्भ यथायोगं तदारभ्यते / अण्णाणतिएवोघो, मिच्छासाणेसु नवसु नाणतिए / मणपज्जवेवि सत्तसु, ओघं दुसु केवलिस्सावि // 36 // (हारि०) व्याख्या 'अज्ञानत्रिकेऽपि' मत्याज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूपे मिथ्यादृष्टिसासादन'गुण-स्थानकयोरुपलक्षणत्वान्मिश्रे चौघबन्धः / तथा 'ज्ञानत्रिके' मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानलक्षणे 'नवसु' गुणस्थानकेष्वविरतसम्यग्दृष्टयादिक्षीणमोहान्तेष्योघबन्ध इति संबन्धः / तथा मनःपर्यायज्ञानेऽपि सप्तसु गुणस्थानकेषु प्रमत्तसंयतगुणस्थानादिक्षीणमोहान्तेषु 'ओध' इति प्राकृतत्वादोघबन्ध इति / तथा केवलिनोऽपि 'द्वयोः' सयोग्ययोगिगुणस्थानकयोरोघवन्ध इति पूर्वेण योगः / सर्वत्र कर्मस्तवोक्तोऽयमोघबन्धो द्रष्टव्यः / यत्पुनरप्योघशब्दोपादानमेकगाथायां तत्सुखार्थम् / तथा त्रयोऽप्यपिशब्दाः समुच्चयार्थाः / स चाङ्कत एवम् / अज्ञानत्रिके-सामान्येन 1 “अनियट्टी” इत्यपि पाठः। 2 “ओघो” इत्यपि पाठः / 3 "केवलस्सावि" इत्यपि पाठः / 4 "-गुणस्थानवं यावदुपल०" इत्यपि // Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . वेद-कषाय-ज्ञान-संयम-दर्शनमार्गणाभेदेषु बन्धस्वामित्वम् [145 117 / मि० 117 / सा० 101 / मिश्रे 74 / ज्ञानत्रये-अविरते 77 / दे० 67 / प्र० 63 / अ० 59. 58 / नि० 58, 56. 26 / अनि० 22, 21, 20, 19, 18 / सू० 17 / उ० 1 / क्षी० 1 / मनःपर्यवे-प्र० 63 / अ० 59 58 / नि० 58, 56, 26 / अ० 22, 21, 20, 19, 18 / सू० 17 / उ० 1 / क्षी० 1 / केवलिनः स० 1 अ०-० / ___ 'इह ज्ञानद्वारे मिश्रगुणस्थानकेऽप्युपलक्षणत्वादोघवन्धो द्रष्टव्यः७४ / इति गाथार्थः // 36 // एवं ज्ञानद्वारे सप्रतिपक्षे बन्धस्वामित्वमुक्तम् 7 // अथ संयमद्वारे यथायोगं गुणस्थानकसन्मित्रं तत्प्रति पादयन्नाह सामाइयछेएसु, पमत्तमाईसु चउसु ओघोत्ति। . परिहारस्स पमत्ते, अपमत्ते सुहुम सट्ठाणे // 37 // उवसंताइसु अहखाय देसविरयस्स होइ सट्ठाणे। "मिच्छाईसु चऊसु, ओघो अस्संजयस्सावि // 38 // (हारि०) व्याख्या सामायिकच्छेदोपस्थापनीययोः प्रमत्तादिषु चतुष्ोघबन्धः / इतिः वाक्यसमाप्तौ / तथा 'परिहारस्य' परिहारविशुद्धिकस्य प्रमत्तेऽप्रमत्ते च गुणस्थानकद्वये ओघबन्ध इति योगः, एवमुत्तरत्रापि / 'सुहुम' इति विभक्तिलोपात्सूक्ष्मसम्परायस्य 'सहाणे' इति स्वस्थाने सूक्ष्मसम्पराये गुणस्थानक इति // 37 // तथोपशान्तादिषु चतुर्यु गुणस्थानकेषु 'अहखाय' इति विभक्तिलोपाद्यथाख्यातस्य, तथा देशविरतस्य स्वस्थाने भवति बन्धः / तथा मिथ्यात्वादिषु चतुर्श्वसंयतस्यापि, न केवलं प्राक्तनेषु इत्यपिशब्दार्थः, ओघबन्धः / तद्यथा प्रथमसंयमयोः-प्र० 63 / अ० 59 58 / नि०५८, 56, 26 / अ० 22, 21, 20, 19, 18 / परिहारविशुद्धिकस्य-प्र० 63 / अप्र० 59 / सूक्ष्मस्य-मू० 17 / यथाख्यातस्य-उ० 1 / क्षी० 1 / स० 1 / अ०-० / देशविरतस्य-दे०६७। असंयतस्य-मिथ्या० 117 / सा०-१०१ / मि० 74 / अ० 77 / इति गाथाद्वयार्थः // 37-38 // ... इति संयमद्वारे देशसंयमासंयमाभ्यां युक्ते बन्धस्वामित्वमुक्तम् 8 // साम्प्रतं दर्शनद्वारे "सगुणस्थानके तन्निरूपयन्नाह चक्खुअचक्खू ओघो, मिच्छाई खीणमोह ओहिस्स / अजयाइनवसु केवलदसण केवलिदुगे चेव // 39 // 1 "इह ज्ञानद्वारे मिश्रगुणस्थानके बन्धो न चिन्तितः तस्य मिश्ररूपत्वादिति सम्भाव्यत इति गाथार्थः // 36 // " इति जे०।२"-पादनायाह' इत्यपि // 3 "मिच्छाईसु चउसु" इत्यपि पाठः / ४"गुणस्थानकेषु" इत्यपि पाठः। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे (हारि०)व्याख्या-चक्षुरचक्षुर्दर्शनयोमिथ्यादृगादि 'वीणमोह' इति प्राकृतवशात्पदैकदेशेऽपि पदावगमाल्क्षीणमोहान्तेष्वोघबन्धः / तद्यथा-सामान्यतः 120 / मि० 117 / सा० 101 / मि० 74 / अ० 77 / दे० 67 / प्र० 63 / अ० 59, 58 / नि० 58, 56, 26, / अ० 22, 21, 20, 19, 18 / सू० 17 / उ० 1 / क्षी० 1 / तथा 'ओहिस्स' इति / विभक्तिव्यत्ययादवधिदर्शने अयतादिष्वविरतसम्यग्दृष्टयादिषु नवस्वितिभणनाक्षीणमोहान्तेष्विति लभ्यते ओघबन्धः / तद्यथा-अविरतस्य सप्तसप्तति 77 रित्यादिरनन्तरं दर्शित एवेति / 'केवलदसण' इति विभक्तिलोपात्केवलदर्शने 'केवलिदुगे चेव' इति केवलिसत्कसयोग्ययोगिगुणस्थानकद्विके चौघबन्ध इति पूर्वेण संबन्धः। तद्यथा-स० 1 / अ०-० / इति गाथार्थः 39 // इति दर्शनद्वारे बन्धस्वामित्वं 'निरूपितम् 9 // साम्प्रतं लेश्याद्वारमभिधीयते, तत्रादौ गुणस्थानकेषु ताः प्रतिपाद्य ततस्तद्गतं बन्धस्वामित्वं भणिष्यते छच्चउसु तिण्णि तीसु, छण्हं सुक्का अजोगि अल्लेसा। आहारूणा आइतिलेसी बंधति सव्वपयडीओ ॥४०॥गीतिरियम् / / (हारि०) व्याख्या-षड् लेश्याश्चतुर्यु आद्यगुणस्थानकेषु ततस्तिस्रो लेश्यास्तेजोलेश्याद्यास्त्रिषु देशविरतप्रमत्ता प्रमत्तेषु ततः 'छण्हं' इति विभक्तिव्यत्ययात् षट्सु निवृत्तिबादरगुणस्थानकादिषु सयोग्यन्तेषु / शुक्लैवैका लेश्या, अयोगिनस्त्वलेश्या एवेति / अङ्कतः-मि० 6 / सा० 6 / मि० 6 / अ० 6 / दे० 3 / प्र० 3 / अ० 3 / नि० 1 / अ० / 1 सू० 1 / उ० 1 क्षी० 1 / स० 1 / अ०-० / इति योजिता लेश्या गुणस्थानकेषु / साम्प्रतमुक्तलेश्यावत्सु गुणस्थानकेषु बंधस्वामित्वं योज्यते-आहारकद्विकोनाः सर्वाः प्रकृतीः 'आइतिलेसी' इति प्राकृतशैलीवशादायत्रिलेश्यावन्तः, इत्याद्यगुणस्थानकचतुष्केऽपि योज्यम् / सामान्येन बध्नन्ति 118 / इति गाथार्थः // 40 // तथा मिच्छा तित्थोणा ता, साणा उण सोलसविहूणा / सुरनरआऊ ‘पणवीस मोत्तु बंधति मीसा उ // 41 // उद्गीतिरियम् (हारि०) व्याख्या-मिथ्यादृशस्तीर्थकरोनास्ता अनन्तरोक्ता अष्टादशाधिकशतसंख्याः प्रकृतीर्वघ्नन्तीति योगः / तद्यथा-मि० 117 / सासादनाः पुनः पोडशविहीनास्ताः पूर्वोक्तसप्तदशा 1 "प्ररुपितम्” इत्यपि / 2 "स्तद्वारबन्ध०” इत्यपि / 3 “तिन्नि” इत्यपि। 4 "०प्रमत्तान्तेषु इत्यपि / 5, पणुवीस मुत्तु " इत्यपि। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याभेदेषु बन्धस्वामित्वम् [ 147 धिकशतप्रमाणा बध्नन्तीत्यत्रापि योज्यम् तद्यथा-सा० 101 / तथा सुरनरायुषी पश्चविंशति . च पूर्वोक्तामेकाग्रशतान्मुक्त्वा शेषां चतुःसप्ततिं 74 मिश्रा बध्नन्ति / इति गाथार्थः // 41 // तथा सुरनरआउयसहिया, अविरयसम्मा उ होंति नायब्वा / तित्थयरेण जुया तह, तेऊलेसे 'परं वोच्छं // 42 // __ (हारि०) व्याख्या-सुरनरायुष्कसहितास्तीर्थकरेण युताश्चतुःसप्ततिसंख्याः प्रकृतय इति शेषः। 'अविरयसम्मा उ' इति विभक्तिव्यत्ययात्तथाऽविरतसम्यग्दृष्टिषु 'भवन्ति' ज्ञातव्याः। तुशब्दः समुच्चयार्थः, स च प्राग् योजित एव / तथाशब्दोऽपीत्ययमर्थः-पूर्वोक्तां चतुःसप्ततिमेतत्प्रकृतित्रयसहितामतिरतसम्यग्दृशो बध्नन्ति 77 इति / अथगाथाचतुर्थपादेनाग्रेतनग्रन्थसंबन्धमाह 'तेऊलेसे' इति प्राकृतत्वात्तेजोलेश्यायामतः परं 'वक्ष्यं' अभिधास्ये / इति गाथार्थः // 42 // यथाप्रतिज्ञातमेवाह विगलतिगं निरयतिगं सुहमतिगूणं सयं तु एकारं / तित्थाहारूणा मिच्छ साण इगितिनपुचउरूणा // 43 // (हारि०) व्याख्या-अनुस्वारयोरलाक्षणिकत्वाद्विकलत्रिकनरकत्रिकसूक्ष्मसाधारणापर्याप्तलक्षणसूक्ष्मत्रिकोनं पुनर्विंशत्युत्तरशतमेकादशाधिकशतं भवति तच्छतमेकादशाग्रं 111 / तुशब्दो योजित एव, सामान्येन तेजोलेश्याका जोवा बघ्नन्तीति वक्ष्यमाणेन संबन्धः / 'तित्थाहारूणा' इति प्राकृतत्वेन द्विकशब्दलोपात्तीर्थकराहारकद्विकोना एकादशोत्तरशतसंख्यप्रकृतीमिथ्यादृशस्तेजोलेश्यावन्तोबध्नन्तीति 108 / 'इगिति' इति सूचकत्वात्सूत्रस्यकेन्द्रियजातिस्थावरातपना'मेति त्रिकं, 'नपुचउरूणा' इति प्राकृतत्वादेव नपुसकवेदहुण्डसंस्थानसेवार्तसंहननमिथ्यात्वलक्षणनपुंसकचतुष्कं, अनयोद्वन्द्वः ताभ्यामूना हीना एकेन्द्रियत्रिकनपुंसकचतुष्कोना अनन्तरोक्ता अष्टाधिकशतसङ्ख्याः प्रकृतय एकोत्तरशतसङ्ख्या भवन्नि 101 / तास्तेजोलेश्याकाः सासादना बध्नन्ति / इति गाथार्थः // 43 // मीसाईपंचगुणा, ओघं बंधंति पम्हलेसा वि। विगलतिगं निरयतिगं, सुहुमतिगेगिंदिथावरायावं, // 44 // हिच्चा सयमट्टहियं, तित्थाहारदुगहीण मिच्छाओ। संढाइचउकोणं, साणा मीसाइ पणगओघं तु // 45 // गीतिद्वयम् // * 1 हुति" इत्यपि पाठः 2 "परे वुच्छ” इत्यपि / 3 "इक्कारं" इत्यपि पाठः / Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 बन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे (हारि०) व्याख्या-तात्स्थ्यात्तदयपदेशः' इतिन्यायान्मिश्रादिपञ्चगुणस्था जीवाः कर्मस्तवोक्तमोघं बध्नन्ति / तद्यथा-मिश्र 74 / अ० 77 / दे० 67 / प्र० 63 / अ० 59, इति तेजोलेश्याकाः / तथा पद्मलेश्याका अपि विकलत्रिकं नरकत्रिकं पूर्वोक्तस्वरूपम् / 'सुहुमतिग' इति सूक्ष्मनामसाधारणनामापर्याप्तकनामलक्षणसूक्ष्मत्रिकमेकेन्द्रियजातिस्थावरनामातपनाम चेति पदद्वयस्य समाहारद्वन्द्वस्तदिति द्वादशप्रकृतीरित्यर्थः, हित्वा' त्यक्त्वा विंशत्यधिकशतमध्यादिति शेषः / शेषं शतमष्टाधिकं सामान्येन 108 बध्नन्तीति प्राक्तनक्रियायोग इति / तथा तीर्थकराहारकद्विकहीनाः पूर्वोक्ताष्टाधिकशतसङ्ख्याः प्रकृतीमिथ्यादृशस्तु पद्मलेश्याका बध्नन्तीति योगः 105 / तथा पञ्चोत्तरशतं 'संढाइचउकोणं' इति नपुसकादिचतुष्केण पूर्वोक्तेनोनं हीनं नपुसकादिचतुष्कोनं पद्मलेश्याकाः सासादना बध्नन्तीति 101 / तथा मिश्रादयः ‘पणग' इति पञ्चौघं पद्मलेश्याका वध्नन्तीति योगः / तद्यथा-मिश्र० 74 / अ० 77 / देश० 67 / प्र० 63 / अ० 59, 58 / तुः' पूरणे समुच्चये वा / इति गाथद्वयार्थः / // 44-45 // उक्तः पद्मलेश्यावत्सु गुणस्थानकेषु बन्धः / साम्प्रतं शुक्ललेश्यावत्सु जीवेषु सामान्येन स उच्यते बंधति सुक्कलेसा, नारयतिरिसुहुमविगलजाइतिगं। इगिथावरायवुज्जोय वज्जिय सय तु चउरहिय // 46 // __ (हारि०) व्याख्या-बध्नन्ति शुक्ललेश्याकास्तु सामान्येनेति शेषः / किं तत् ? शतं चतुरधिकमिति संबन्धः / तुशब्दो योजित एव / किं कृत्वा ? 'वजिय' इति वर्जयित्त्वेति योगः / किं तत् ? नारकतिर्यक्तिकसूक्ष्मत्रिकविकलजातित्रिकम् / अत्र तत्पुरुषगर्भः समाहारद्वन्द्वः / त्रिकशब्दस्य च प्रत्येकमभिसंबन्धः कार्यः / तथा 'इगिथावरायवुज्जोय' इति विभक्तिलोपादेकेन्द्रियजातिस्थावरनामातपनामोद्योतनाम चेति प्रकृतिषोडशकमित्यर्थः, 'वर्जयित्वा' त्यक्त्वा विंशत्यधिकशतमध्यादिति शेष इति / तद्यथा-सामान्येन 104 / इति गाथार्थः // 46 // साम्प्रतं शुक्ललेश्यावतामेव त्रयोदशगुणस्थानकेषु बन्धमाह तित्थाहारदुगुणं, एगहियसयतु बंधही मिच्छा। संढाइचउकोणं, साणा बंधति 'सगनउइं॥४७॥ 1 "इग” इत्यपि / 2 “सगणवई" इत्यपि पाठः / Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मशुक्ललेश्याद्वय मव्या-ऽभव्येषु बन्धस्वामित्वम [146 (हारि०) व्याख्या-किंचिदत्र साध्याहारा योजना ततस्तदनन्तरोक्तं चतुरग्रशतं तीर्थकराहारकद्विकोनमेकाग्रशतं भवति, तच्छुक्ललेश्याका मिथ्यादृशो बध्नन्ति 101 / पुनरेतदेवैकाग्रशतं 'संढाइचउक्कोणं' इति नपुसकादिचतुष्केण पूर्वोक्तेनोनं हीनं नपुंसकादिचतुष्कोनं 1 'सत् सप्तनवतिर्भवति, तां शुक्ललेश्याकाः सासादना बध्नन्ति / यदिह बघ्नन्तीति द्विरुपादानं तद्गणस्थानकद्वययोजनेन सुखार्थम् / इति गाथार्थः // 47 // तथा तिरितियउज्जोऊणं पणुवीसं 'मोत्त सुरनराउजुयं / चउहत्तरं तु मीसा. बंधहि कम्माण पयडीओ // 48 // (हारि०)व्याख्या-तियत्रिकोद्योतोनां पञ्चविंशतिं सुरनरायुयुतां सप्तनवतेर्मध्यान्मुक्त्वा चतुःसप्ततिं शुक्ललेश्याका मिश्रा बध्नन्ति 74 कर्मणां प्रकृतीः / इति गाथार्थः // 48 // ____साम्प्रतं बन्धमाश्रित्य लेश्याद्वारं गाथायाः पादत्रयेण समर्थयंश्चतुर्थपादेन तु भव्यद्वारे बन्धस्वामित्वमुपदर्शयन्नाह तित्थयरसुरनराउयसहिया अजयम्मि होइ सगसयरी / देसाइनवसु ओघो, भव्वेसु वि सो अभव्य मिच्छसमा॥४९॥ गीतिरियम ... (हारि०) व्याख्या-तीर्थकरसुरनरायुष्कसहिता 'अयते' अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके सप्तसप्ततिर्भवति 77 शुक्ललेश्याकानां बन्धमाश्रित्येति शेषः / तथा 'देसाई' इति देशविरतादिनवसु गुणस्थानकेष्विति शेषः, ओघवन्धः / तद्यथा-देश० 67 / प्र० 63 / अ० * '59, 58 / नि० 58, 56, 26 / अ० 22, 21, 20, 19, 18 / सू० 17 / उ०१ / क्षी० 1 / स० 1 इति लेश्यासु बन्धस्वामित्वमुक्तम् 10 // साम्प्रतं भव्यद्वारे तदभिधीयतेभव्वेस वि' इति भव्येष्वपि न केवलं प्राक्तनपदेष्वित्यपिशब्दार्थः / 'सो' इति यः पूर्व कर्मस्तवोक्तो बन्धो दृष्टान्तीकृतः स बन्धो भवतीति योगः। तद्यथा-सामान्येन 120 / मि. 117 / इत्यादिकः / तथा 'अभव्व मिच्छसमा' इति प्राकृतत्वादभव्या मिथ्यादृष्टिसमाः / - तद्यथा-मि० 117 / इति गाथार्थः / 49 // _____ एवं भव्याभव्येषु बन्ध उक्तः 11 // साम्प्रतं 'सम्यक्त्वद्वारे यथासंभवं गुणस्थानकसम्मिश्रः सम्यक्त्वे उच्यते १"तत्सप्त-" इत्यपि पाठः // 2 "मुत्त" इत्यपि पाठः / 3 “सम्यक्त्वद्वारे” इति पाठो नास्ति जे० प्रतौ। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] बन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे ओघो वेयगसम्मे, अजयाइचउक्क खाइगेवोघो / अजयादजोगि जाव उ, ओघो उवसामिए होइ // 50 // 'उवसम्मे वटता चउण्हमिक्कपि आउयं नेय / बंधंति तेण अजया, सुरनरआऊहिं ऊणं तु // 51 // (हारि०) व्याख्या-ओघबन्धः कर्मस्तवोक्तः, 'वेयगसम्मे' इति क्षायोपशमिकसम्यक्त्वे गुणस्थानकमाश्रित्य, कस्मिन् ? अत आह-'अजयाइचउक्क' इति विभक्तिलोपादविरतसम्यग्दृष्टिदेशयतप्रमत्ताप्रमत्तसयंतलक्षणगुणस्थानकचतुष्टये भवतीति योगः। तद्यथा-अविरत० 77 / देश० 67 / प्रमत्त० 63 / अप्र० 59, 58 / क्षायोपशमिकसम्यक्त्वस्वरूपं तूढीर्णमिथ्यात्वक्षयेऽनुदीर्णोपशमे भवतीति / उक्तं च-"मिच्छसं जमुइन्न, तं खीणं अणुइयं तु उवसंतं / मीसोभावपरिणयं, वेइज्जंतं स्त्रओवसमं // 9 // " तथा 'खाइगेवोघो' इति क्षायिकेऽप्योघबन्धो भवतीति सण्टङ्कः / कस्मिन् ? अत आह-अजयादजोगिजाव' इति अयताच्चतुर्थगुणस्थानकादयोगिगुणस्थानकं चतुर्दशं यावत् / तद्यथा-अवि० 77 / दे० 67 / इत्यादिकः पूर्ववदिति / क्षायिकसम्यक्त्वस्वरूपं त्विदम्-"खीणे दसणमोहे, तिविहम्मि वि भवनियाणभूयम्मि / निप्पचवायमउलं, सम्मत्तं खाइयं होइ // 9 // " तथौघबन्ध औपशमिके भवतीति // 50 // अत्र किंचिद्विशेषमाह-'उवसम्मे' इत्यादिद्वितीयगाथा व्याख्यायते-औपशमिके सम्यक्त्वे वर्तमाना जीवाश्चतुर्णा मध्यादेकमप्यायुष्कं नैव बध्नन्ति, तेन ‘अयताः' अविरतसम्यग्दृष्टयः सुरनरायुया, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् , ऊनामेव नवरमोघं बघ्नन्तीति / तदन्यायुष्कद्वयं प्रागेव मिथ्यात्वसासादनगुणस्थानकद्वयेऽपनीतम् , ततोऽयतानामौपशमिकसम्यक्त्वे पञ्चसप्ततिरेव भवतीति 75 / अयमाशयः-कर्मस्तवोक्तौघबन्धोऽविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके सुरनरायुषोर्बन्धोऽस्ति, औपशमिके नास्ति / इति गाथाद्वयार्थः / / 50.51 / / साम्प्रतं गाथायाः पूर्वार्द्धनौपशमिकसम्यक्त्वेऽपि देशविरताद्युपशान्तमोहान्तगुणस्थानकेषु बन्धं दर्शयन्नपरार्द्धन तु संज्ञिद्वारे तमेव प्रतिपादयन्नाह ओघो देसजयाइसु, सुराउहीणो उ जाव उपसंतो। ओघा 'मण्णिसु नेओ. मिच्छाभंगो अमण्णीसु // 52 // (हारि०) व्याख्या-ओघबन्धो देशयतादिषु, कि निःशेष एव ? न इत्याह-सुरायुषा हीनः सुरायुहीनः, तुशब्दः पुनरर्थे / ओघबन्धे हि देशविरत्याचप्रमत्तान्तेषु सुरायुषो बन्धोऽस्ति, / “उवसंते” इत्यपि पाठः / 2 "नेव” इत्यपि पाठः / 3 "-रदृष्टिप्रभृतिगुणस्थानकचतुष्क भवतीति योगः” इति जे प्रतौ / / 4 'सन्निसु" इत्यपि पाठः। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-संज्ञ्या-ऽऽहारकमार्गणाभेदेषु बन्धस्वामित्वन [ 151 औपशमिक सोऽपि नास्तीति भावः / अयं चौघबन्धः कियडूरं यावत् ज्ञेयः 1 इत्याह-यावत् 'उपशान्तं' उपशान्तमोहवीतरागगुणस्थानकं प्राकृतत्वात्पुल्लिङ्गनिर्देश इति / अङ्कतः पुनरीदृशः दे० 66 / प्र० 26 / अ० 58 / नि०५८, 56, 26, / अ० 22, 21, 20, 19, 18 // सू० 17 / उ० 1 / अत्र देवायुर्वन्धाभावाद्देशविरतिप्रभृतिगुणस्थानकाय एव कर्मस्तवोक्तबन्धाद्विशेषः, नान्यत्रेति / यदा पुनरुपशमश्रेणिस्य आयुष्क क्षये देवेषत्पद्यतेऽसौ तदा त्वप्रतिपन्नौपशमिकसम्यक्त्व एवायुर्वन्धं विधत्त इति / इह सूत्रेऽनुक्तोऽपि सम्यक्त्वविपक्षभूतेषु मिथ्यात्वसासादनमिश्रेषु कर्मस्तवोक्त ओघवन्धो द्रष्टव्यः / स पुनः-मि० 117 / सा० 101 / मि० 74 / इति / अत्राह परः-ननु "उवसामगसेढोए, पट्ठवओ अप्पमत्तविरओ उ / पज्जवसाणे सो वा, होइ पमत्तो अविरओ वा // 9 // " अयमर्थः-उपशमश्रेण्याः 'प्रस्थापकः' आरोहकः 'अप्रमत्तविरतः' सप्तमगुणस्थानकस्थः साधुर्भवति / स एवौपशमिकः 'पर्यवसाने' उपशमश्रेण्या अद्धाक्षये भवति प्रमत्तोऽविरतो वा / तथा ‘सो वा' इत्यत्र वाशब्दादुपशमश्रेणिस्थो मृतो वा देवेषत्पन्नोऽविरतो वा भवतीति, सत्यम् , अपराचार्यमतेनाविरतादयोऽपि प्रारम्भका इति / 'यत उक्तम्-"अन्ने भणंति अविरयदेसपमत्तविरयाणं। अन्नयरो पडिवजह सणसमणम्मि उ नियहो // 1 // " चतुर्थपादस्यायमर्थः दर्शनत्रिकोपशमे सति निवृत्तिवादरो भवतीति / औपशमिकसम्यक्त्वं तूपशमश्रेण्या प्रथमसम्यक्त्वलामे चा भवति जीवस्य / उक्तं च-"उवसामगसेढिगयस्स होइ उवसामियं तु सम्मत् / जो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं // 1 // ' अत्राह परः-ननु क्षायोपशमिको पशमिकसम्यक्त्वयोः कः प्रतिविशेषः, उच्यते-क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमिथ्यात्वदलिकवेदनं विपाकतो नास्ति, प्रदेशतः पुनर्विद्यते / औपशमिके तु प्रदेशतोऽपि नास्तीति विशेषः / एवं सप्रपञ्चं सम्यक्त्वद्वारे बन्धस्वामित्वमभिहितमिति 12 / / 'ओघो सपिण.' इत्यादि ओघबन्धः कर्मस्तवोक्तः 'संज्ञिषु' मनोविज्ञानवत्सु ज्ञेयः / तद्यथा-सामान्येन 120 / मि० 117 / इत्यादिकः पूर्ववदिति / तथा मिथ्यादृष्टिभङ्गकः 'असंज्ञिषु' मनोविज्ञानविकलेषु ज्ञेय इति पूर्वेण योगः / तद्यथा-मि० 117 / इति गाथार्थः // 52 // ____ अथ गाथायाः पूर्वार्द्धन सासादनेऽसंज्ञिबन्धं समर्थयनपरार्द्धनाहारकद्वारे सप्रतिपक्ष तमेवाह साणेवि असण्णिस्सा, भंगा 'सण्णुब्भवा मुणेयवा। आहारगेसु ओघो, इयरेसु य 'कम्मणो भंगो // 53 // 10 क्षये सवार्थसिद्धावुत्पद्यतेऽसौ तदा” इति जे० / 2 “यदुक्तम्” इत्यपि / 3 “सन्निव्मवा" / इत्यपि / 4 "कम्मुणो" इत्यपि पाठः / Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 ] बन्धस्वामित्वाख्ये तृतीये कर्मग्रन्थे (हारि०)व्याख्या--सासादनेऽप्यसंज्ञिनो भङ्गः संयुद्भवो मुणितव्यः / तद्यथा-सा० 101 / इह सूत्रे बहुवचनं प्राकृतशैलीवशाद् / इति संज्ञिद्वारे बन्धोऽभिहित इति 13 / / 'आहारगेसु ओघो' इति आहारके वोघबन्धः कर्मस्तवोक्तः / तद्यथा--सामान्येन 120 / मि० 117 / इत्यादिकः / तथेतरेषु पुनरनाहारकेषु 'कम्मणो' इति कार्मशरीरस्य संबन्धी 'भंगो' भङ्गविकल्पो मुणितव्य इति पूर्वेण योगः / तद्यथा-आयुस्त्रिकं नरकत्रिकं, आहारकद्विकम् , इत्यष्टौ प्रकृतीरोघवन्वाद्विशत्यधिकशतलक्षणान्मुक्त्वा शेषस्य द्वादशोत्तरशतस्यानाहारके सामान्येन बन्धः 112 / तथा सुरद्विकं 2 तीर्थकरं 1 वैक्रियद्विकं 2 च पूर्वोक्तद्वादशोत्तरशतमध्यान्मुक्त्वा शेषस्य सप्तोत्तरशतस्यानाहारके मिथ्यादृष्टेन्धः 107 / तथा नरकत्रिकहीनाः षोडश प्रकृतीः पूर्वोक्ताः सप्तोत्तरशतमध्यावर्जयित्वा शेषायाश्चतुर्नवतेः सासादनगुणस्थानकेऽनाहारकजीवे बन्धः 94 / तिर्यगायुरूनां पश्चविंशति पूर्वोक्तां चतुर्नवतेमध्यान्मुक्त्वा शेषायाः सप्ततेः सुरद्विकवैक्रियविकतीर्थकरयुस्ताया अविरतगुणस्थानकेऽनाहारकजीवे बन्धः 75 / तथा सयोगिनि त्रयोदशगुणस्थानके एकस्याः सातप्रकृतेः समुद्धाते तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेष्वनाहारकजीवे बन्धः / अयं चानाहारकजीवो मिथ्यात्वसासादनाविरतसयोगिगुणस्थानकचतुष्टय एव लभ्यते, नान्यत्रेति / यदिदं बन्धस्वामित्वं कार्मणकाययोगे प्राक् चतुर्थयोगद्वारे प्रतिपादितं तदिहाप्यर्थतः स्मारितं विस्मरणशीलानाम् / नवरं तत्र कार्मणकाययोगाभिलापेनोक्तमिह त्वनाहारकाभिलापेन / इति गाथार्थः // 53 // ____ इत्याहारके बन्धस्वामित्वं प्रतिपादितम् 94 // तत्प्रतिपादनाच्च प्रतिपादितं प्रकरणादौ प्रतिज्ञातं चतुर्दशमार्गणास्थानबन्धस्वामित्वं गुणस्थानकयोजनागर्भ यथासंभवं पर्याप्तकापर्याप्तकजीवस्थानक सन्मिश्रं च / साम्प्रतमौद्धत्यपरिहारपूर्वकं प्रकरणसमर्थनां प्रयरणपरिज्ञानोपायं च प्रचिकटयिषुर्गाथामाह-- इय पुव्वसूरिकय पगरणेसु जडबुद्धिणा 'मए रइय। बंधस्सामित्तमिणं, नेय कम्मत्थय सोउं // 54 // // बंधसामित्तं सम्मत्तं // (हारि०) व्याख्या इतिशब्दः परिसमाप्तौ / 'पूर्वसूरिकृतप्रकरणेषु' कर्मप्रकृत्यादिषु विषये 'जबुद्धिना' बालमतिना 'मए' इति ग्रन्थकार आत्मानं निर्दिशति, 'रचितं' निबद्धम् / 1 'कम्मुणो" इत्यपि पाठः // 2 “बन्धविकल्पो" इत्यपि / ३"समन्वितं च" इत्यपि / 4 "पगरणाउ” इत्यपि पाठः / 5 "मया” इत्यपि / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थसमाप्तिसूचका प्रशस्तिः [ 153 यद्वा विभक्तिव्यत्ययात्पूर्वसूरिकृतप्रकरणेभ्यः सकाशाद्रचितं स्वभावतः पुनर्जडमतिनेति शेषः / तथैवेति, 'बन्धस्वामित्वमिदं' प्रस्तुतप्रकरणमेतच्च 'ज्ञेयं' बोद्धव्यम् / किं कृत्वा ? 'श्रुत्वा' आकर्ण्य, कम् ? 'कर्मस्तव' कर्मस्तवप्रकरणम् , इह बहुषु स्थानेषु तदुक्तबन्धनिर्देशद्वारेण चन्धाभिधानात् / इति गाथार्थः / / 54 / / // अथ टीकाकृत्प्रशस्तिः // यत्यालये मन्दगुरूपशोभे, सन्मङ्गले सबुधराजहंसे / / तारापथे वा सुकविप्रचारे श्रीमानदेवामिधसूरिगच्छे // 1 // भव्या बभूवुः शुभशस्यशिष्याः, अध्यापकाः श्रीजिनदेवसंज्ञाः / तेषां विनेयो गुरुभक्तियुक्तः समस्ति नाम्नां हरिभद्रसरिः // 2 // अणहिल्लपाटकपुरे, श्रीमजयसिंहदेवनृपराज्ये / . आशावरसौवर्णिकवसतौ विहिताधिवासेन // 3 // पन्धस्वामित्वाख्यप्रकरणवृत्तिः समासतो. रचिता / तेनेयं तनुमतिना, प्राक्तनटिप्पनकमवलोक्य // 4 // अत्र च यन्मतिमान्द्यादुत्सूत्रं विरचितं कथश्चिदपि / तच्छोध्यं धीमद्भिः, परोपकारैककृतचित्तैः // 5 // वर्षशतैकादशके द्वासप्तत्याऽधिके नभोमासे / सितपंचभ्यां सूर्ये समर्थिता वृत्तिकेयमिति // 6 // अस्यामक्षरगणनाजातं शतपंचकं युतं षष्टया द्वात्रिंशदक्षरात्मक-सदनुष्टुप्छन्दसां प्रायः // 7 // // इति श्रीमद्धरिमद्रसूरिविहिता बन्धस्वामित्वप्रकरणवृत्तिः समाप्ता / // ग्रन्थानम् 560 // ममाप्तोऽयं सटीको बन्धस्वामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः / Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // ॐ ही श्री अहं श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः / || न्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपादपद्मेभ्यो नमः // // सकलागमरहस्यवेदिश्रीमदाचार्यविजयदानसूरीश्वरेभ्यो नमः // // कर्मसाहित्यनिष्णातश्रीमदाचार्यविजयप्रेमसूरीश्वरभ्यो नमः // श्रीमज्जिनवल्लभगणिपुङ्गवप्रणीतः / षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः। (अपरनाम-आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणम्) श्रीहरिभद्रसूरिविरचितविवृत्त्या श्रीमन्मलयगिरिसूरिविरचितवृत्त्या च समलकृतः (हारिभद्री वृत्तिः) नत्वा जिनं विधास्ये, विवृतिं जिनवल्लभप्रणीतस्य / आगमिकवस्तुविस्तर--विचारसारप्रकरणस्य // 1 // इह जिनवल्लभगणिनामा सूत्रकारो गणधरदेवादिनिबद्धातिगम्भीरशास्त्रार्थांवगाहनाऽसमर्थानां विशिष्टसंहननायुर्मेधादिविकलानां कलिकालोत्पन्नमानवानामनुग्रहाय सूक्ष्मार्थ सार्थप्रकाशनार्थ प्रस्तुतप्रकरणं चिकीर्ष मङ्गलादिप्रतिपादकमिदमादौ गाथाद्वितयमाह (मलयगिरीया वृत्तिः) प्रणम्य सिद्धिशास्तारं, कर्मवैचित्र्यवेदिनम् / जिनेशं विदघे वृत्ति, षडशीतयेथाऽऽगमम् / / 1 / / इह हि शिष्टाः क्वचिदिष्टे वस्तुनि प्रवर्तमानाः सन्त इष्टदेवतास्तवाभिधानपुरस्सरमेव प्रवर्तन्ते, न चायमाचार्यों न शिष्ट इति तत्समयपरिपालनार्थ तथा श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति, उक्तं च-"श्रेयांसि बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि / अभंयसि प्रवृत्तानां, कापि पान्ति विनायकाः॥१॥" इति / इदंच प्रकरणं सम्यग्ज्ञानहेतुत्वाच्छ योभूतमतो मा भूदत्रविघ्न इति विघ्नविनायकोपशान्तये चेष्टदेवतास्तवम् / तथा न प्रेक्षापूर्वकारिणः क्वचिदपि 1 "शास्त्रार्थ-०" इत्यपि / Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलादिकं प्रन्थारम्भश्च [ 154 प्रयोजना दिविरहे प्रवर्तन्ते / ततः प्रेक्षावतां प्रवृत्यर्थ प्रयोजनादिकं च प्रतिपिपादयिषुरादाविद गाथाद्वयमाह निच्छिन्नमोहपासं, पसरियविमलोरुकेवलपयासं। पणयजणपूरियासं, पयओ पणमित्त जिणपासं // 1 // वोच्छामि जीवमग्गण-गुणठाणुवओगजोगलेसाई। किचि सुगुरूवएसा, सन्नाणसुझाणहेउत्ति // 2 // - (हारि०) व्याख्या-तत्र विघ्नविनायकोपशान्तये शिष्यजनप्रवर्तनाय वा शिष्टसमयपरिपालनार्थ चेष्टदेवतानमस्काररूपं भावमङ्गलमुपादेयम् / तथा श्रोतृजनप्रवृत्त्यर्थ शिष्टसमयपरिपालनार्थं च संबन्धादित्रयं वाच्यम् / तथाहि-इह श्रेयोभूते वस्तुनि प्रवर्तमानानां प्रायो विघ्नः संभवति, श्रेयोभूतत्वादेव, श्रेयोभूतं चेदं स्वर्गापवर्गसंसर्गहेतुत्वाद् , विघ्नोपहतशक्तेश्च शास्त्रकतुश्विकीर्षितप्रकरणस्यानिष्पत्तिर्मा भूदिति विघ्नविनायकोपशमनाय मङ्गलमुपादेयम् / आह च-"बहुविग्घाई सेयाइं तेण कयमङ्गालोवयारेहिं / सत्थे पयटियव्यं, विजाएँ महानिहीए व्व // 1 // " ननु मानसादिनमस्कारतपश्चरणादिना मङ्गलान्तरेणैव विघ्नोपशमसद्भावादिष्टसिद्धिर्भविष्यतीति किमनेन ग्रन्थगौरवकारिणा वाचनिकनमस्कारेण ? इति, सत्यम् , किन्तु श्रोतृजनप्रवृत्त्यर्थमिदं भविष्यति / तथाहि-यद्यप्युक्तन्यायेन कर्तु रविघ्नेष्टसिद्धिः स्यातथाऽपि प्रमादवतः शिष्यस्येष्टदेवतानमस्काररूपमङ्गलं विना प्रक्रन्तप्रकरणाध्ययनश्रवणादिषु प्रवर्तमानस्य विघ्नसंभवादप्रवृत्तिः स्यात् / मङ्गलवाक्योपन्यासे तु मङ्गलवचनाभिधानपूर्वक प्रवर्तमानस्य मङ्गलवचनापादितदेवता विषयशुभभावव्यपोहितविघ्नत्वेन शास्त्रे प्रवृत्तिरप्रतिहतप्रसरा स्यात् / तथा देवताविशेषनमस्कारोपादाने सति देवताविशेषगदितागमानुसारीदं प्रकरणमत उपादेयमित्येवंविधबुद्धिनिबन्धनत्वेन शिष्यप्रवृत्त्यर्थमिदं भविष्यतीति / आह च-"मंगलपुष्वपवत्तो, पमत्तसीसो वि पारमिह आइ / सस्थिविसेसन्नाणाउ गोरवादिह पयजा // 1 // " शास्त्रविशेषपरिज्ञानात् इन्युक्तगाथायास्तृतीयपादस्यार्थः / ननु मङ्गलविकलानामपि बहुतमशास्त्राणां दृश्यते संसिद्धिः श्रोतृजनप्रवृत्तिश्चेति, ततः किमनेनानैकान्तिकेन शास्त्रगौरवकारिणा मङ्गलेन ? इति सत्यम् शिष्टसमयपरिपालनार्थमिदं भविष्यति / तथाहिशिष्टाः क्वचिदभीष्टे वस्तुनि प्रवर्तमाना इष्टदेवतानमस्कारपूर्वकं प्रायः प्रवर्तन्ते / शिष्टश्चायमप्या . 1 आदिशब्दात् संबन्धाभिधेयग्रहणम् // 2 "विशेषनमस्कारोपलब्धशुभ-" इत्यपि पाठः। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे चार्य इति शिष्टसमाचारः परिपालितो भवतु, इति मङ्गलमभिधेयम् / आह च-"शिष्टाः शिष्टस्वमायान्ति, शिष्टमार्गानुपालनात् / नल्लङ्घनोदशिष्टत्वं, तेषां समनुषज्यते // 1 // " तथा संबन्धादीनि श्रोतजनप्रवृत्त्यर्थमभिधेयानि / तथाहि-'यदसंबन्धं तत्र न प्रवर्तन्ते प्रेक्षावन्तो दशदाडिमादिवाक्य इव / एवं निरभिधेयेऽपि काकदन्तपरीक्षायामिव / एवं निष्प्रयोजनेऽपि कण्टकशाखामर्दन इवेति / अतः संबन्धादिप्रतिपादनं श्रोतृणां शास्त्रे प्रवृत्त्यङ्गम् / अथासर्वज्ञावीतरागवचनानां व्यभिचारित्वसंभवेन संवन्धादिसद्भावे निश्चयाभावान्नेतः प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरत्र भविष्यति / या पुनः संशयात्प्रवृत्तिस्तां संबन्धादिवचनं विनैव भवन्ती को निवारयितु पारयतीति न श्रोत्प्रवृत्यङ्ग संबन्धादिवचनम् , सत्यम् , किन्तु शिष्टसमयपरिपालनार्थ भविष्यति / शास्त्रकारा ह्येवं प्रवर्तमानाः प्रायः प्रेक्ष्यन्ते / येऽपि किल बौद्धाः सर्वथा वचनस्य प्रामाण्यं नाभ्युपगतास्तेऽपि संबन्धाद्यभिधानपूर्वकमेव प्रवृत्तास्ततः शिष्टसमयानुपालनार्थमिदमिति / इह"संहिता च पदं चंव, पदार्थः पदविग्रहः / चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा // 1 // " इति व्याख्यालक्षणप्रपञ्चोऽन्यतोऽवधारणीयः / तत्र निच्छिन्नो नितरां नोटितो मोह एव पाशो मोहनीयकर्मबन्धनं येन स निच्छिन्नमोहपाशस्तम् / प्रसृतो विस्तृतो विमलो-निर्मल उरु-वृहत्प्रमाणः केवलप्रकाश केवलज्ञानोद्योतो यस्य स प्रसृतविमलोरुकेवलप्रकाशस्तम् / प्रणतजनानां प्रणिपतितलोकानां पूरिताः परिपूर्णतां नीता आशा मनोरथा येन स प्रणतजनपूरिताशस्तम् 'प्रयतः' आदरपरः 'प्रणम्य' प्रणिपत्य 'जिनपाव' पार्श्वतीर्थकरमिति // 1 // ततो 'वक्ष्यामि' अभिधास्ये, स्थानशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धाञ्जीवस्थानानि च सूक्ष्मापर्याप्तकैकेन्द्रियादीनि, मार्गणास्थानानि च गत्यादीनि, गुणस्थानकानि च मिथ्यादृष्टयादीनि, उपयोगाश्च मतिज्ञानादयः, योगाश्च मनःप्रभृतयः लेश्याश्च कृष्णलेश्याद्याः, ता आदिः प्रभृतियस्य तत्तथा / आदिशब्दात् कर्मबन्धोदयोदीरणासत्तास्थानाल्पबहुत्ववन्धहेतुपरिग्रहः / किंचिदित्यल्पं न विस्तरतः क्रियाविशेषणमिदम् / 'सुगुरूपदेशात्' सदाचार्यहेयोपादेयार्थप्रतिपादनलक्षणात् , संज्ञानं च विशिष्टावबोधः सुध्यानं च धर्मध्यानादि संज्ञानसुध्याने तयोर्हेतुः-कारणमितिकृत्वा / तत्र प्रथमगाथया मङ्गलम् , द्वितीयया तु जीवस्थानाद्यभिधेयम् / सुगुरूपदेशादिति पदसूचितो गुरुपर्वक्रमलक्षणः संबन्धः / संज्ञानसुध्यानहेतुरितिवचनाभ्यूहितं प्रयोजनमिति भावनीयम् / इह च जीवस्थानाद्यभिधेयजातं यद्यपि सामान्यतः प्रोक्तं तथाऽपि जीवस्थानेषु गुणस्थान 1 योगो 2 पयोग 3 लेश्या 4 बन्धो 5 दयो 6 दीरणा 7 सत्तास्थाना 8 ख्यान्यष्टौ / तथा मार्गणास्थानेषु जीवस्थानक 1 गुणस्थानक 2 योगो 3 पयोग 4 लेश्याऽ 5 रूपबहुत्व 6 रूपाणि षट् / तथा गुणस्थानकेषु जीवस्थान 1 योगो 2 पयोग 3 लेश्या 4 1 "यदसंबद्धं" इत्यपि पाठः॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलादिकम [ 157 बन्धहेतु 5 बन्धोदयो 7 दीरणा 8 सत्तास्थाना 9 ऽल्पबहुत्व 10 लक्षणानि दश पदान्यभियतया मन्तव्यानि / व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेरिति / इहाष्टपदादिसंग्रहार्थमिदं गाथात्रयं श्रोतृजनसुखार्थ कथ्यते / तद्यथा-"चउदसजियठाणेसु, गुणजोगुवओगलेसबंधुदया। 'उदीरणा य सत्ता, वत्तव्या अट्ठपयकमसो // 1 // चउदसमग्गणठाणेसु मूलएसु घिसडिइयरेस। जियगुणजोगुवओगा, लेसप्पवहुंच छहाणा ॥२॥चउदसगुणठाणेसु जियजोगुवओगलेसबंधा य / बंधुदउदीरणाओ, 'संतप्पपहुं च दस ठाणा, // 3 // " इति गाथाद्वयार्थः // 2 // अथ जीवस्थानानि प्रदर्शयन्नाह (मल०.) इहाद्यगाथयाऽभीष्टदेवतास्तवस्याभिधानम् / इतरया च प्रयोजनादीनाम् स चाभीष्टदेवतास्तवो द्विधा, प्रणामतः स्तोत्रतश्च / तत्र प्रयतः प्रणम्येति प्रणामतः, परिशिष्टपदैः स्तोत्रतः। स्तोत्रमपि स्वपरार्थसंपदतिशयाभिधानेन द्विधा / स्वार्थसंपन्नश्च परार्थ प्रति समर्थों भवतीति प्रथमतः पूर्वार्द्धन स्वार्थसंपदमाह-नितरांमपुनर्भावेन छिन्नो द्विधाकृत आत्मना सह एकीभूतः सन् ततः पृथग्भूतीकृतः, मोहयत्यात्मानमिति मोहो मोहनीयं कर्म, स एव भवचारकविनिर्गमप्रतिबन्धकारितया पाश इव पाशो येन स निच्छिन्नमोहपाशस्तं प्रणम्य / मोहग्रहणं चेह शेषज्ञानावरणीयादिघातिकर्मत्रयोपलक्षणम् / यत आह-'पसरियविमलोस्केवलपयासं' न ह्यपरिक्षणमोह इवाक्षीणज्ञानावरणीयादिधातिकर्मा प्रसृतविमलोरुकेवलप्रकाशो भवतीति / तत्र प्रसृतो विस्तृतो विमलो-निर्मलस्तदावरणमलस्य निःशेषतोऽपगमात् , उरु-विशालः सकललो प्रकाशः / शक्तेश्च प्रसरः प्रचुरीभावो न पुनर्बहिर्गमनमसंभवात् / इह प्रकाशशब्दस्य केवलमेव प्रकाशः केवलप्रकाश इत्येवं केवलशब्देन सह सामानाधिकरण्यमव्याख्याय यत्प्रकाशकत्वरूपशक्तिवाचकत्वव्याख्यानं तेनेदमावेद्यते यदुत न ज्ञानं क्वापि गच्छति, कित्वात्मस्थमेव सत्सकलमपि ज्ञेयं भिन्नदेशस्थमपि अचिन्त्यशक्तियुक्ततया प्रकाशयतीति / तेन यत्कश्चिदुच्यते, इह सकललोकपर्यन्तेऽपि ज्ञानमुदयते तच्च ज्ञानमात्मनो गुणः, गुणाश्च न द्रव्यमन्तरेण क्वापि गच्छन्ति तस्मादाकाशवदात्माऽपि सर्वव्यापी प्रतिपत्तव्य इति तदपास्तं द्रष्टव्यम् / ज्ञानस्याचिन्त्यशक्त्युपेततयास्वभिन्नदेशस्थेऽपि विषये परिच्छेदाय प्रवृत्युपपत्तेः, यथा लोहोपलस्य भिन्नदेशस्थस्यापि लोह 1 "उदीरणया" इत्यपि पाठः / 2 "अप्पबहुं चेव दसठाणा ॥३॥"इति जे० / 3 स्वश्च परश्च तयोरर्थसंपत् तस्या अतिशयः तस्याभिधनं तेनेति समासः / 4 "इति सामानाधिकरण्यम-" इत्येवंरूपः क्वचित् पाठः / / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे स्याकर्षणे / तदुक्तम्-"गंतृण न परिछिंदह, नाणं नेयं तयंमि देसंमि / आयत्थं चिय नवरं, अचिंतसत्तीओं विन्नेयं॥१।। लोहोवलस्स सत्ती, आयत्याचेव भिन्नदेसंमि / लोहं आगरिसती, दोसइ इह कजपचक्रवा। 2 / / एवमिह नाणसत्ती, आयत्था चेव हंदि लोगंतं / जह परिछिंदइ संमं, को णु विरोहो भवे तस्स ? // 3 // " इति / एतेन "अज्जवि धावइनाणं अजविऽलोओअर्णतओ अस्थि" इत्याद्यपि कुचोद्यमपाकृतमवसेयम् / यतो न केवलज्ञानमलोके गच्छति, द्रव्यमन्तरेण गुणानां प्रवृत्त्यसंभवात् तत्र गत्युपष्टम्भकधर्मास्तिकायाभावाच्च, किन्तूत्पत्तिसमय एवात्मप्रदेशस्थं सदचिन्त्यशक्तियुक्ततया सकलमपि लोकालोकात्मकं ज्ञेयं परिच्छिनत्ति / तदुक्तम्-"तम्हा सव्वपरिच्छेयसत्तिमंतं तु नायजुत्तमिणं एत्तो चिय नोसेसं, जाणइ उप्पत्तिसमयंमि॥१॥" ततः कथम् ? "अज विधावह नाणं" इत्यादि दोषप्रसङ्गः / ननु यो निच्छिन्नमोहपाशः स प्रसृतविमलोरुकेवलप्रकाश एव भवति, ततोऽपार्थकत्वान्नेदं विशेषणमुपादेयमिति न, छद्मस्थावस्थाभाविनिच्छिन्नमोहपाशव्यवच्छेदफलतया ऽस्य सार्थकत्वात् / यद्येवं ततः प्रसृतविमलोरुकेवलप्रकाशमित्येतावदेवास्तामलं निच्छिन्नमोहपाशग्रहणेन न, अस्यापि कुवादिमतव्यवच्छेदफलतया सार्थकत्वात् / तथाहि-इह आजीविकनयमतानु सारिणो गोशालकशिष्याः प्रसृतविमलोरुकेवलप्रकाशमपि न तत्त्वतो निच्छिन्नमोहपाशमभिमन्यन्ते, अवाप्तमुक्तिपदा अपि तीर्थनिकारदर्शनादिहागच्छन्तीतिवचनात् / तत्त्वतो निच्छिन्नमोहपाशस्य चेहागमनासंभवात् ततस्तद्वयवच्छेदार्थ निच्छिन्नमोहपाशग्रहणम् / "एनमेव परार्थसंपदा विशेषयति-'पणयजणपूरियास' प्रणता ये जनाः तेषां पूरिता आशा-मनोरथा येन स प्रणतजनपूरिताशस्तम् / प्रणतजनानां चाशाः पूर्यन्ते भगवता सकलदेवासुरमनुजतिर्यग्गणसाधारण्या वाण्या निःश्रेयसाभ्युदयसाधनोपायप्रदर्शनेन, नान्यथा / यदुक्तम्-"अरिहंता भगधंतो, अहियं च हियं च नवि इहं किंचि / वारेति कारवेंति य, घेत्तण जणं पला हत्थे // 1 // उवएसं पुण 'तं दिति जेण चरिएण. कित्तिनिलयाणं / देवाणवि होति पहू, वि मंग पुण मणुयमेत्ताणं ? // 2 // " इत्यादि ननु यो निच्छिन्नमोहपाशः प्रसृतविमलोरुकेवलप्रकाशश्च स प्रणतजनपूरिताश एव भवति, ततः किमनेन विशेषणेन दानादिप्रकारेण ?, सामान्यकेवलिव्यवच्छेदार्थत्वात् , ते हि यथोक्तविशेषणद्वयविशिष्टा अपि सन्तो न भगवानिव सकलजगदुपकारकरणेकतानाः, ततस्तद्वयवच्छेदार्थ प्रणतजनपूरिताशग्रहणम् / यद्येवं तर्हि प्रणतजनपूरिताशमित्येतदेवास्तां अलं निच्छिन्नमोहपाशादिग्रहणेन, तदयुक्तं, माण्डलिकादयोऽपि हि तथाविधतुच्छद्रव्यादिमात्रवितरणकरसिका लोके प्रणतजनपूरिताशा इति प्रतीताः, ततस्तत्कल्पं भगवन्तं प्रणामाहे मा ज्ञासिपुरिति तद्वयवच्छेदार्थ निच्छिन्नमोह 1 पार्श्वजिनमेव / 2 किंपि" इत्यपि / 3 "ते" इत्यपि / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलादिकम् पाशादिग्रहणम् / कमेवंभृतम् ? पुनः प्रयतः प्रणम्येत्यतो विशेष्यमाह--'जिनपाव पश्यति यथावस्थितं सकलमपि जगदिति पार्श्वः रागद्वेषादिशत्रुजेतृत्वाजिनः स चासौ पार्श्वश्व जिनपार्श्वस्तम् / ननु यो जिनपार्श्वः स निच्छिन्नमोहपाशादिविशेषणकलापोपेत एव भवतीति किमेतेषां विशेषणानामुपादानेन ? निरर्थकत्वात् , न, नामादिरूपजिनपार्खादिव्यवच्छेदकारितया तेषामपि सफलत्वात् / एवं द्वयादिसंयोगापेक्षयाऽपि विचित्रनयमताभिज्ञेन यथाशक्ति विशेषणसाफल्यं वाच्यम् / तमेवंभूतं जिनपार्श्व प्रयतः प्रणम्य // 1 // किम् ? इत्याह-इह स्थानशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते / जीवस्थानानि मार्गणास्थानानि गुणस्थानानि / तत्र जीवति प्राणान् धारयतीति जीवः / क इत्थंभूतः 1 इति चेत् , उच्यते, यो मिथ्यात्वादिकलुषितरूपतया सातादिवेदनीयादिकर्मणाम'भिनिवर्तकः, तत्फलस्य च विशिष्टसातादेरुपभोक्ता, नारकादिभवेषु च यथाकर्मविपाकोदयं संसर्ता, सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयाभ्यासप्रकर्षवशाच्चाशेषकर्माशाऽ पगमतः “परिनिर्वाता स जीव आत्मा। यदुक्तम्-'यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च / संसर्ता परिनिर्वाता, स ह्यात्मा नान्यलक्षणः // 1 // " इति / 'कथं तत्सिद्धिः? इति चे प्रतिप्राणिस्वसंवेदनप्रमाणसिद्धचैतन्याऽन्यथानुपपत्तेः / तथाहि-नेदं चैतन्यं नाम भूतधर्मः, तद्धर्मत्वे सति पृथिव्याः काठिन्यस्येव तस्य सर्वदोपलम्भप्रसङ्गात् / कदाचिद नभिव्यक्तिभावान सर्वदोपलम्भ इति चेत् , न, आवरणाभावेनानभिव्यक्तेरेवानुपपद्यमानत्वात् / कथमावरणाभावः 1 इति चेत् , एते "ब्रमः, विकल्पाभ्यामयोगात् / तथाहि-किं तान्येव भूतान्यावरणं भवेयुः, अन्यद्वा ? इति विकल्पद्वयी गत्यन्तराभावात् , तत्र न तावत्तान्येव भूतान्यावरणीभवितुमर्हेयुः, तेषां भूतानां व्यञ्जकत्वप्रतिज्ञानात् / नाप्यन्यद्वाऽऽवरणं विचारपथमवतार्यमाणं . : घटामटाट्टि, वस्त्वन्तराभ्युपगमप्रसङ्गेन चत्वार्येव पृथिव्यादीनि भूतानीति तत्त्वसंख्याव्याघातप्रसङ्गात् / न वै पृथिव्यादिभ्योऽन्यद्वस्त्वन्तरमावरणमिति बमः, किन्तु तेषामेव पृथिव्यादिभूतानां तथाविधविशिष्टपरिणामाभावः, ततो न कश्चिद्दोषः 1 इति चेत् , न, तथाविध विशिष्टपरिणामाभावस्यैकान्ततुच्छरूपत्वेनाऽऽवारकत्वायोगात् / अन्यथा तस्याप्यतुच्छरूपतया भावरूपत्वे सति पृथिव्यादिभूतचतुष्टयान्यतमभृतरूपतापत्तेर्व्यञ्जकत्वाप्रसङ्गः / अथोच्यतेनासौ तथाविधविशिष्टपरिणामाभावस्तुच्छरूपः, किन्तु परिणामान्तरम् , ततः कथमावारकत्वयोगः 1 इति, न, तस्यापि भूतपरिणामतया भूतस्वभावत्वाद् भूतवद्वयञ्जकत्वेऽस्यै (त्वस्ये-) वोपपत्ते वारकत्वस्येति यत्किश्चिदेतत् / नापि भूतकार्यमिदं चैतन्यम् , अत्यन्तवैलक्षण्येन भूतचैतन्ययोः कारणकार्यभावस्यानुपपत्तेः / तथाहि-प्रत्यक्षत एव काठिन्याबोधस्वरूपाणि . 1 उपार्जकः / 2 विनाशतः / 3 मोक्षं गन्ता / 4 "तदुक्तम्" इत्यपि / 5 चार्वाको वदति। 6 भस्ति जीव इति पक्षः। 7 अप्रकट-1 8 वयं जैनाः / / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे भूत नि प्रतीयन्ते, चैतन्यं च तद्विलक्षणम् , ततः कथमनयोः कार्यकारणभावः ?, यदाह"काठिन्यायोधरूपाणि, भूतान्यध्यक्षसिडितः। चेतना का न तद्रूपा, सा कथं तत्फलं भवेत् ? // 1 // " तदेवं न भूतधर्मो भूतकार्य वा चैतन्यम् , अस्ति चैतत्प्रतिप्राणिस्वसंवेदनप्रमाणसिद्धम् / तत एतदन्यथानुपपत्त्या स यथोक्तलक्षणो जीवः प्रतीयते / तस्यैव चिद्रपाऽमूर्ततया चैतन्यं प्रत्यनुरूपत्वेन तद्धर्मित्वोपपत्तेः, इति कृतं प्रसंगेन, विस्तरार्थिना तु धर्मसंग्रहणिटीकाऽनुसतव्या / तेषां जीवानां स्थानानि, सूक्ष्मपर्याप्तैकेन्द्रियत्वादयोऽवान्तरविशेषाः, तिष्ठन्त्येषु जीवा इतिकृत्वा गुणानां स्थानानि / मार्गणं जीवादीनां पदार्थानामन्वेषणं मार्गणा तस्याः स्थानानि आश्रया मार्गणास्थानानि वक्ष्यमाणानि गत्यादीनि / गुणा ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा जीवस्वभावविशेषाः, स्थानं पुनरेतेषां शुद्धयशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरूपभेदः, तिष्ठन्त्यस्मिन् गुणा इतिकृत्वा गुणस्थानानि गुणस्थानानि वक्ष्यमाणानि मिथ्यादृष्टयादीनि / 'उवओग' इति उपयोजनमुपयोगः, बोधरूपो जीवव्यापारः / कर्मणि वा घञ् / उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यत इत्युपयोगः / करण वा घः। उपज्यते वस्तुपरिच्छदे प्रति जीवोऽनेनेत्युपयोगः / सर्वत्र जीवस्वतत्वभृतोऽवबोध एवोपयोगो मन्तव्यः / 'जोग' इति योजनं योगः, जीवस्य वीर्य परिस्पन्द इतियावत् / कर्मणि वा पञ् / युज्यते धावनवल्गनादिक्रियासु व्यापार्यत इति योगः / यद्वा युज्यते संबध्यते धावनवल्गनादिक्रियासु जीवोऽनेनेति योगः | नाम्नीति करणे घः प्रत्ययः स च मनोवाकायलक्षणसहकारिकारणभेदान्त्रिधा वक्ष्यमाणस्वरूपः / लिश्यसे श्लिष्यते कर्मणा सहात्माऽनयेति लेश्या, कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्मनः शुभाशुभरूपः परिणामविशेषः / यदुक्तम्-"कृष्णादिद्रव्यसाचिध्यात्, परिणामो य आत्मनः / स्फटिकस्येष तत्रायं लेझ्याशब्दः प्रवर्तते // 1 // " इति / सा च षोढा, कृष्णलेश्या नीललेश्या, 2 कापोतलेश्या 3 तेजोलेश्या 4 पालेश्या 5 शुक्ललेश्या 6 / आसां च स्वरूपं जम्बूफलखादकषट्पुरुषीदृष्टान्तेनैवमवसेयम्-"जह जंबुपायवेगो, सुपक्कफलभरिण नमियसाहग्गो / दिट्ठो छहिँ पुरिसेहि, ते बेती जवु भक्खेमो // 1 // किह पुण ते चिंतेगो, आम्हणे होज जीवसंदेहो / तो छिंदिऊण मूलाउ भक्खिमो 'ताई पाडेउं // 2 // षोआह किमम्हाणं, तरुणा छिन्नेण एम(म्म)हंतेण / दिह महल' साहा, बेई तइओ पसा. हाओ // 3 // गोच्छे चउत्थओ पुण, पंचमगो वेइ गिहह फलाइं / चित्तण खायह ति य, पडिय त्ति य छडओ बेइ // 4 // विद्वतस्सोवणओ, छिंदह भूलाउ बेइ जो एधं / वह सो किण्हाए, नीलाएँ महलसाहाए // 5 // काऊ होइ पसाहा, तेऊ गुच्छा फला य पम्हाए / पडिय ति सुकलेसाए" इति // आदिशब्दा 1 "ताहि" इत्यपि पाठः / २-“साला" इत्यपि पाठः, एवमग्रेऽपि // Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलादिकम् त्कर्मबन्धहेतुबन्धोदयोदीरणासत्ताल्पबहुत्वपरिग्रहः तत्र क्रियते मिथ्यात्वादिभिर्हेतुभिनियंत ' इति कर्म ज्ञानावरणीयादि वक्ष्यमाणमष्टप्रकारम् / कथमेतत्सिद्धिः ? इति चेत् , उच्यते, इह आत्मत्वेनाविशिष्टानामात्मनां यदिदं देवासुरमनुजतिर्यगादिरूपं वैचित्र्यं तत्तावन्न निर्हेतुकमेष्टव्यम् / मा प्रापत्सदा भावादिदोपप्रसङ्गः / "नित्यं सत्यमसत्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात" इतिवचनात् / सहेतुकत्वाभ्युपगमे च यदेवास्य हेतुस्तदेवास्माकं कर्मेति मतमिति तत्सिद्धिः / तदुक्तम्-"आत्मत्वेनाविशिष्टस्य, वैचित्र्यं तस्य यदशात् / नरादिरूपं तचित्रमदृष्टं कर्मसंज्ञितम् // 1 // " इति / तदपि च कर्म पुद्गलस्वरूपं प्रतिपत्तव्यं, नामृतम् / तथा सति ततः सकाशादात्मनामनुग्रहोपघातासंभवादाकाशादिव / यदाह-"अन्ने उ अमुत्तं चिय, कम्म मन्नंति वासणारूवं / तं च न जुजइ तत्तो, उवघायाणुग्गहाभावा // // नागासं विधायं अणुग्गहं वावि कुणइ सत्ताणं" इत्यादि / इति कृतं प्रसंगेन, गमनिकामात्रफलत्वात्प्रयासस्य / ततस्तैः कर्मपुद्गलैः सहात्मनो वह्नययःपिण्डवदन्योऽन्यानुगमलक्षणः संबन्धो बन्धः, तस्य हेतवः सामान्यविशेषरूपा वक्ष्यमाणा मिथ्यात्वतज्दादिलक्षणाः / बन्ध उक्तस्वरूप एव / तथा तेषामेव कर्मपुद्गलानां यथास्वस्थितिबद्धानामपवर्तनादिकरणविशेषतः स्वभावतो वा उदयसमयप्राप्तानां विपाकवेदनमुदयः / तेषामेव च कर्मपुद्गलानामकालप्राप्तानां जीवसामर्थ्य विशेषादुदयावलिकायां प्रवेशनमुदीरणा / तथा तेषामेव कर्मपुद्गलानां बन्धसंक्रमाभ्यां लब्धात्मलाभानां निर्जरणसङ्क्रमकृतस्वरूपप्रच्युत्यभावे सति सद्भावः सत्ता / अल्पबहत्त्वं गत्यादिरूपमार्गणास्थानादिषु जीवानां परस्परं स्तोकभूयस्त्वम् , एतत् 'वक्ष्ये' अभिधास्ये / कथम् 1 इत्याह-किंचित्' स्वल्पं न विस्तरवत् / दुःपमानुभावेनापचीयमानमेधायुरादिगुणानामिदानींतनजनानां तथाऽभिधाने सति उपकारासंभवात् , तदुपकारार्थं च एष प्रकरणारम्भप्रयासः। उपकारमेव दर्शयति-'सन्नाणसुझाणहेउ' इति संज्ञानं यथाऽवस्थितवस्तुतत्त्वावबोधात्मकमागमानुसारिविज्ञानं, सुध्यानं धर्मध्यानं, तयोर्हेतुः कारणम् / इदं जीवस्थानाधभिधानमितिकृत्वा जीवस्थानादिकं किंचिदभिधास्ये / किं स्वमनीषिकया ?, न इत्याह-'सुगुरूपदेशात्' गृणाति शास्त्रार्थमिति गुरुः, स चानागमिकोऽपि स्यात् , अतस्तद्वयवच्छेदार्थ सुग्रहणम् / शोभनः सर्वदैव सदागमनिष्णातो गुरुः सुगुरुः, तस्योपदेशो यथाऽवस्थितजीवाजीवादिवस्तुतत्वयाथात्म्यनिर्देशस्तस्मात् इह वक्ष्यमाणसकलवक्तव्यतानिबन्धनं जीवा इति प्रथमतस्तेषामुपादानम् ते च प्रपञ्चतो निरूप्यमाणा गत्यादिमार्गणास्थानैरेव निरूपयितु शक्यन्त इति / तदनन्तरं मार्गणास्थानग्रहणम् / तेषु च मार्गणास्थानेषु वर्तमाना जीवा न कदाचिदपि मिथ्यादृष्टयाद्यन्यतमगुणस्थानकविकला भवन्तीति प्रतिपत्त्यर्थ मार्गणास्थानकानन्तरं गुणस्थानकग्रहणम् / अमूनि च गुणस्थानकानि जानादिरूपशुभपरिणामशुद्धपशुद्धिप्रकर्षापकर्षरूपाण्युपयोगवतामेवोपपद्यन्ते, नान्येषामाकाशा Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे दीनाम् , तेषां ज्ञानादिरूपपरिणामरहितत्वात् , इति ज्ञापनार्थ गुणस्थानकानन्तरमुपयोगग्रहणम् / उपयोगवन्तश्च मनोवाकायचेष्टासु वर्तमाना नियमतः कर्मसंबन्धभाजो भवन्तीति ज्ञापनायोपयोगग्रहणानन्तरं योगग्रहणम् | योगवशाचोपात्तस्यापि कर्मणो यावन्न कृष्णाद्यन्यतमलेश्यापरिणामो जायते तावन्न तस्य स्थितिपाकविशेषो भवति / "स्थितिपाकविशेषस्तस्य भवति लेश्याविशेषेण" इतिवचनप्रामाण्यात् ततो योगवशादुपात्तस्य कर्मणो लेश्याविशेषतः स्थितिविपाकविशेषो भवतीति प्रतिपत्तये योगानन्तरं लेश्योपादानमिति / यद्यपि चेह सामान्येनोक्तं जीवस्थानाद्यभिधास्ये इति, तथाऽप्येवं विशेषतो द्रष्टव्यम् / जीवस्थानकेषु-गुणस्थानक 1 योगो 2 पयोग 3 लेश्या 4 कर्मबन्धो 5 दयो 6 दीरणा 7 सत्ता 8 वक्ष्ये / मार्गणास्थानकेषु पुनः-जीवस्थानक 1 गुणस्थानक 2 योगो 3 पयोग 4 लेश्या 5 ल्पबहुत्वानि 6 / गुणस्थानकेषु च-जीवस्थानक 1 योगो 2 पयोग 3 लेश्या 4 बन्धहेतु 5 बन्धो 6 दयो 7 दीरणा 8 सत्ता 9 ऽल्पबहुत्वानि 10 / इति तथैव सूत्रकृता वक्ष्यमाणत्वात् / / 2 // तत्र 'यथोद्देशं निर्देश:-' इति न्यायात्प्रथमतस्तावजीवस्थानानि निरूपयन्नाह इह सुहुमबायरेगिदिबितिचउअसन्निसन्निपंचिंदी / अपजत्ता पजत्ता, कमेण चउदस जियट्ठाणा // 3 // (हारि०) व्याख्या-इह सर्वत्र यथासंभव लिङ्गव्यत्ययविभक्तिलोपादिकं प्राकृतत्वाद्द्रष्टव्यम् / 'हह' जीवस्थानादिषु मध्ये सूक्ष्मवादरभेदादेकेन्द्रिया द्विधा, द्वित्रिचतुरिन्द्रियास्त्रयः, असंज्ञिसंज्ञिभेदात्पञ्चेन्द्रिया द्विभेदाः, एवमेते सप्त सप्ताप्यपर्याप्ताः पर्याप्ताश्चैवं क्रमेण तावञ्चतुदंश जीवस्थानानि भवन्तीति शेषः / इतिगाथार्थः // 3 // साम्प्रतमेतेषु गुणस्थानकानि संबन्धपूर्वकं गाथाद्वयेनाह (मल०) 'इह' अस्मिन् जगति अनेन क्रमेण चतुर्दश जीवस्थानानि प्राग्निरूपितशब्दार्थानि भवन्ति, केन क्रमेण 1 इति चेत् , आह-सूक्ष्मवादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः, एते च सर्वेऽपि प्रत्येकं पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्चेति / तत्र एकं स्पर्शनलक्षणमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः / ते च प्रत्येकं द्विविधाः, सूक्ष्मा बादराश्च / सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्माः, सकललोकव्यापिनः / बादरनामकर्मोदयाद्वादराः. ते च लोकप्रतिनियतदेशवर्तिनः। द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रिया इति / इन्द्रियशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते / द्वीन्द्रियाः, त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाः, असंज्ञिसंज्ञिभेदभिन्नाश्च पञ्चेन्द्रियाः / तत्र द्वे स्पर्शनरसनलक्षणे इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः, शङ्खचन्दनककपर्दजलूकाकृमिगण्डोलपूतरकादयः / त्रीणि स्पर्शनरसनघाणलक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः, यूकामत्कुणगर्दभेन्द्रगोपककुन्थुमत्कोटा 1 "चउदसजियठाणेसुगुणजोगुओगलेसबंधुदया। उदीरणया सत्ता वत्तव्या अट्ठपयकमसो // 3 // " इत्यपि गाथाऽधिकतया दृश्यते हस्तलिखितमूलगाथाप्रतौ। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानानि तेषु गुणस्थानानि च [ 163 दयः / चत्वारि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुर्लक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः, भ्रमरमक्षिकामशकवृश्चिकादयः / पञ्च स्पर्शनरसनघ्राणचतुःश्रोत्रलक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः, मत्स्यमकरमनुजादयः / ते च द्विभेदाः, संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च / तत्र संज्ञानं संज्ञा, भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनं 'उपसर्गादातः' इत्यङ्प्रत्ययः, सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः, विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानभाज इतियावत् / तद्विपरीता असंज्ञिनः, यथोक्तमनोविज्ञान विकला इत्यर्थः / एते च सूक्ष्मैकेन्द्रियादयः प्रत्येकं द्विधा. पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च / पर्याप्तिर्नाम पुद्गलोपचयजः पुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुः शक्तिविशेषः सा च विषयभेदात्योढा / तद्यथा-आहारपर्याप्तिः 1, शरीरपर्याप्तिः 2, इन्द्रियपर्याप्तिः 3, उच्छ्वासपर्याप्तिः 4, भाषापर्याप्तिः 5, मनःपर्याप्ति 6 श्चेति / तत्र यया बाह्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति साऽऽहारपर्याप्तिः / यया रसीभूतमाहारं रसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः / यया तु धातुरूपतया परिणमितमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियप र्याप्तिः / यया पुनरुछ्वासप्रायोग्यवर्गणादलिकमादायोच्छ्वासरूपतया परिणमय्यालम्ब्य च मुश्चति सा उच्छ्वासपर्याप्तिः / यया तु भाषाप्रायोग्यवर्गणाद्रव्यं गृहीत्वा भापात्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा भाषापर्याप्तिः / यया पुनर्मनोयोग्यवर्गणादलिकं गृहीत्वा मनस्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः / एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणां संज्ञिवर्जानां द्वीन्द्रियादीनां संज्ञिनां च चतुः-पञ्च षट्-संख्या भवन्ति / पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः / 'अभ्रादिभ्यः' इति मत्वर्थीयो'ऽप्रत्ययः / ये पुनः स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्यासकाः / ते च द्विधा, लब्ध्या करणेन च / तत्र येऽपर्याप्तका एव सन्तो म्रियते न पुनः स्वयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः / ये पुनः करणानि शरीरेन्द्रियादीनि न तावन्निवर्तयन्ति, अथ चावश्यं पुरस्तानिर्वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्तकाः / इह चैवमागमः-लब्ध्यपर्याप्तका अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव म्रियन्ते नार्वाग् / यस्मादागामिभवायुद्धवा नियन्ते सर्व एव देहिनः / तच्चाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानामेव बध्यत इति // 3 // तदेवं निरूपितानि जीवस्थानानि, सांप्रतं यथोदेशं निर्देश इति न्यायात्क्रमप्राप्तान्यपि मार्गणास्थानानि अनिरूप्य एतेष्वेव जीवस्थानकेषु गुणस्थानकाद्यभिधित्सुयुक्तिमुपन्यस्यन्नाह सव्वभणियबमूलेमु तेसु गुणठाणगाइ ता भणिभो। पढमगुणा दो वायरबितिचउरअसन्नि अपजत्ते // 4 // 1 "अनादिभ्यः” (७२।४६)इति हैमसूत्रे तथा श्री मलयगिरिसूरिभिरपि स्वकृतव्याकारणे'अप्रत्ययः,' अङ्गीकृतोऽस्ति / / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 ] षडशीति नाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे सन्नि अपजत्ते मिच्छदिट्टिसामाणअविरया तिन्नि / सव्वे सन्नि पजत्ते, मिच्छं सेसेसु सत्तसु वि // 5 // (हारि०) व्याख्या-'सर्वभणितव्यमूलेषु' समस्तवक्तव्यतायेषु 'तेसु' इनि, यानि पूर्व प्रतिपादितानि जीवस्थानानि तेषु 'विषयेषु, गुणस्थानकानि वक्ष्यमाणलक्षणान्यादिः प्रथम यस्य तत्तथा / आदिशब्दाद्योगोपयो गादिसप्तस्थानानि ग्राह्याणि / तावच्छब्दः क्रमोपन्यासे / 'भणामः' प्रतिपादयामः / तत्र गुणस्थानकानि तावदाह-प्रथमगुणस्थानके द्वे मिथ्यादृष्टिसासादनरूपे भवत इति शेषः / केषु 1 इत्याह-"घायरवितिचउरअसन्नि" इति विभक्तिलोपात् बादरद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु, इति द्वन्द्वः / कीदृशेषु ? 'अपजसे' इति वचनव्यत्ययादपर्याप्तकेषु / कर्मग्रन्थाभिप्रायेण बादरैकेन्द्रियेष्वपि सासादनस्यापि सद्भावादिति // 4 // सन्नीत्यादिद्वितीयगाथा व्याख्यायते ___ संज्ञिपञ्चेन्द्रिये अपर्याप्ते मिथ्यादृष्टिसासादनाविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकानि त्रीणि भवन्तीति शेषः / एवं सर्वत्र यत्र क्रिया नास्ति तत्र स्वयं योज्या / तथा 'सर्वाणि' गुणस्थानकानि संज्ञिपञ्चेन्द्रिये पर्याप्ते / तथा मिथ्यात्वगुणस्थानकं शेपेषु 'सप्तस्वपि' पर्याप्तापर्याप्तक सूक्ष्म 1-2 पर्याप्तकवादर 3 द्वि 4 त्रि 5 चतुरिन्द्रिया 6 ऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु 7 / / इति गाथाद्वयार्थः // 5 // इति जीवस्थानेषूक्तानि गुणस्थानानि / अथैतेष्वेव योगान् योजयन्नाह- . (मल०) यद्यपि वक्तुमवसरप्राप्तानि मार्गणास्थानानि तथाऽपि प्रथमतस्तावत् 'तेषु' एवानन्तरोद्दिष्टेषु जीवस्थानकेषु वयं गुणस्थानकादि 'भणामः' भणिष्यामः प्रतिपादयिष्यामः "वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवा" इति भविष्यति वर्तमाना / किं कारणम् ? इत्यत आह'सर्वभणितव्यमूलेषु' इति “निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्" इति न्यायाद्धेतावियं सप्तमी। ततोऽयमर्थः-यतः सकलवक्ष्यमाणमार्गणास्थानकादिवक्तव्य तानिबन्धनमेते जीवास्तत एतेष्वेव तावद्गणस्थानकादि वक्ष्यामः न हि गुणस्थानकादिप्रपञ्चेनानितिस्वरूपा जीवा मार्गणास्थानादिषु निरूप्यमाणा अपि यथावत्प्रत्येतु शक्यन्त इति / तत्र गुणस्थानक्रानि यद्यप्याचार्येण स्वयमेवाग्रे वक्ष्यन्ते, तथाऽपीह ना विज्ञातस्वरूपाणि सन्ति तानि जीवस्थानकेषु चिन्त्यमानानि सम्यगवगन्तु शक्यन्ते / ततो विनेयजनानुग्रहाय तानि संक्षेपतः प्रदर्श्यन्ते-'जीवाइपयत्थेसु, जिणोवइठेसु जा असद्दहणा / सद्दहणापि य मिच्छा, विवरीयपरूवणा जा य // 1 // संसयकरणं जंपि य, जो तेसु अणायरी 1 'विषये" इति जे० / 2 "०गाद्यष्टौ स्था०” इति जे / 3 "उट् प्रत्ययः” इत्यपि पाठः / . Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु गुणस्थानकानि [ 165 पयत्थेसु / तं पंचविहं मिच्छ, तदिहो मिच्छदिट्टीओ // 2 // उवममअडाएँ ठिओ, मिच्छमपत्तो तमेव गंतुमणो / सम्मं आसायंतो, सासायणगो मुणेयवो // 3 // जह गुउदहोणि विसमाइभावसहियाणि होति मीमाणि / भुजंतस्स तहोभयदिट्ठीए मीसदिट्ठीओ // 4 // तिविहे वि हु सम्मत्ते, थेवावि न विरह जस्स कम्मवसा / सो अविरउ त्ति भण्णइ, देसे पुण देसविरईओ // 5 // विकहाकसाय. निद्दासदाइरओ भवे पमत्तो त्ति / पंचसमिओ तिगुत्तो, अपमत्तजई मुणयन्वो // 6 // अप्पुव्वं अप्पुव्वं, जहुत्तरं जो करेह ठिइकंडं / रसकंडं तग्घायं, सो होइ अपुव्वकरणो ति // 7 // निनिवदंति विसुडिं, समगपइहा वि जमि अन्नोऽन्नं / तत्तो नियहिठाणं, विवरीयमओ य अनियटी ।।दा थूलाण लोभखंडाण वेयगो बायरो मुणेयन्वो। सुहमाण होइ सुहुमो, उवसंतेहिं तु उवसंतो / / 9 / / खोणंमि मोहणिजे, वीणकसाओ सजोगजोगि ति / होइ पत्ता य तओ, अपउत्ता होइ हु अजोगो // 10 // " एतानि जीवस्थानकेधूपदर्शयन्नाह-पढमेत्यादि / इह पदैकदेशेऽपि पदसमुदायोपचारात् 'गुणाः' इत्युक्ते गुणस्थानकग्रहणम् / प्राकृतत्वाञ्च द्वित्वेऽपि बहुवचनम् / यथा 'हत्था पापा' इत्यादौ / तत्र दू प्रथमगुणस्थानके मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणे भवत इति गम्यते / केषु ? इत्याह-'बादरद्वित्रिचतुरिन्द्रियाऽसंज्ञिनि अपयोप्त' बादरेत्यादिपदानां समाहारो द्वन्द्वः प्राकृतत्वाच ततः परस्य सप्तम्येकवचनस्य लुक् अपर्याप्त इति च तस्य विशेषणम् / एवमन्यत्राप्यक्षरगमनिका कार्या / एतदुक्तं भवति-अपर्याप्तबादरैकेन्द्रिये पृथिव्यम्बुवनस्पतिलक्षणे न तेजोवायुरूपे, तन्मध्ये सम्यक्त्वलेशवतामप्युत्पादाभावात् / सम्यक्त्वं चासादयतां सासादनभावाभ्युपगमात् / तथा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु चापर्याप्तकेषु प्रथमे मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणे गुणस्थानके भवतः / नन्वेकेन्द्रियाणामागमे सासादनभावो नेष्यते, यतस्तत्र नियमादेकेन्द्रिया अज्ञानिन एवोक्ताः। द्वीन्द्रियाश्च केचिदपर्याप्तावस्थायां सासादनभावोपगमाज्ज्ञानिनः, केचिच्च तदभावादज्ञानिनः / 'यदि पुनरेकेन्द्रियाणामपि सासादनभावः स्यात्तर्हि तेऽपि द्वीन्द्रियादिवदुभयथाऽप्युच्येरन् , न चोच्यन्ते, तथाहि-"एगिदियाणं भंते ! किं णोणी अन्नाणी ?, गोयमा! नो नाणी नियमा अण्णाणी / तथा बेदियाणं भंते ! किं नाणी अण्णाणी ?, गोयमा ! नाणी वि अन्नाणी वि।" इत्यादि / तत्कथमिहापर्याप्तवादरैकेन्द्रियेषु पृथिव्यब्वनस्पतिलक्षणेषु सासा- 1 तालपत्रपुस्तके तु "अन्यथा तेऽपि द्वीन्द्रियादिवदुमयथाऽप्युच्येरन् , चोच्यन्ते" इत्येतावानेव पाठो दृश्यते। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 ] एडशीतिनाम्नि चतुर्थं कर्मग्रन्थे दनगुणस्थानकभाव उक्तः ?, सत्यमेतत् . किन्तु मा त्वरिष्ठाः, स्वयमेतदाचार्य एवाग्रे प्रतिविधास्यतीति // 4 // संज्ञिनि अपर्याप्तके त्रीणि' गुणस्थानकानि भवन्ति / कानि ? इत्यत आह-'मिच्छदिहिसासाणअविरया' इति, मिथ्यादृष्टिसासादनाविरतसम्यग्दृष्टिलक्षणानि, न शेषाणि सम्यग्मिथ्यादृष्टयादीनि, तेषां पर्याप्तवस्थायामेव भावात् / 'सव्वे सन्निपजत्ते' इति, 'सर्वाण्यपि मिथ्यादृष्टयादीन्ययोगिपर्यन्तानि गुणस्थानकानि संज्ञिनि पर्याप्ते भवन्ति, संज्ञिनः सर्वपरिणामसंभवात् / अथ कथं संज्ञिनः सयोग्ययोगिरूपगुणस्थानकद्वयसंभवः ? तद्भावे तस्यामनस्कतया संज्ञित्वायोगात् , न, तदानीमपि हि तस्य द्रव्यमनःसंबन्धोऽस्ति, समनस्काश्चाविशेषेण संज्ञिनो व्यवहियन्ते, ततो न तस्य संज्ञित्वव्याघातः / उक्तं च-'मण. करणं केवलिणी वि अस्थि, तेण सणिणो भन्नति / मणोविन्नाणं पडुच्च ते सन्निणो न भवंति" इति // 'मिच्छं सेसेसु सत्तसु वि' इति शेषेषु पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मपर्याप्तबादरद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणेषु सप्तस्वपि जीवस्थानकेषु मिथ्यादृष्टिलक्षणमेकं गुणस्थानकं भवति, न सासादनलक्षणमपि कथम् ? इति चेत् , उच्यते-इह संज्ञिशेषेसु जीवस्थानकेषु परभवादागच्छतामेव घण्टालालान्यायेन सम्यक्त्वलेशमास्वादयतामुत्पत्तिकाल एव सासादनभावो लभ्यते, तदानीं चैतेषामपर्याप्तावस्था / तत्रापि चापर्याप्त सूक्ष्मैकेन्द्रिये न सासादनभावसंभवः, तस्य मनाक् शुभपरिणामरूपत्वात् , महासंक्लिष्टपरिणामस्य च सूक्ष्मैकेन्द्रियमध्ये उत्पादाभिधानादिति / तदेवं निरूपितानि जीवस्थानकेषु गुणस्थानकानि, 'सांप्रतं यद्यप्युपयोगा वक्तुमवसरप्राप्तास्तथाऽपि बहुवक्तव्यत्वाद्योगा एव तावद्वक्ष्यन्ते / 'ते च' इत्यादि / ते च पञ्चदश / तद्यथा-सत्यवाग्योगः 1, असत्यवाग्योगः 2, सत्यमृपावाग्योगः 2, असत्यमृषावाग्योगः 4, / तत्स्वरूपं चेदम्-"सच्चा हिया सतामिह, संतो मुणओ गुणा पयत्था वा / तव्विवरीया मोसा, मीसा जा तनुभयसहावा // 1 // अणहिगया जा तीसु वि, सद्दो चिय केवलो असचमुसा / " एवं मनोयोगोऽपि चतुर्धा द्रष्टव्यः / काययोगः सप्तधा / औदारिकं 1, औदारिकमिश्रं 2, वैक्रियं 3, वैक्रियमिश्रं 4, आहारकं 5, आहारकमिश्रं 6, कार्मणं 7, च / तत्रौदारिककाय. योगस्तिर्यङ्मनुष्ययोस्तयोरेवापर्याप्तयोरौदारिकमिश्रकाययोगः। वैक्रियकाययोगो देवनारकयो. स्तिर्यङ्मनुष्ययोर्वा वैक्रियलब्धिमतोः / वैक्रियमिश्रकाययोगोऽपर्याप्तयोदेवनारकयोस्तियङ्मनुष्ययोर्वा वैक्रियारम्भकाले परित्यागकाले च / आहारककाययोगश्चतुर्दशपूर्वविदः / आहारक 1 तालपत्रपुस्तके त्वितः परम्-"इह प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययः। यदाह पाणिनिः प्राकृतलक्षणे'लिङ्ग व्यभिचारी' इति / ततश्च 'सर्वे' इति / " इत्येतत्पाठोऽधिक उपलभ्यते / 2 इतः परं तालपत्रपुस्तके तु "सांप्रतं योगाः प्राप्तावसराः / ते च पञ्चदश / तद्यथा" इत्येतावानेव पाठो दृश्यते / Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु गुणस्थानानि योगाश्च [ 167 मिश्रकाययोगः आहारकस्य प्रारम्भसमये परित्यागकाले च / कार्मणकाययोगः अष्टप्रकारकर्मविकाररूपशरीरचेष्टास्वरूपोऽपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये केवलिसमुद्घातवस्थायां च // 5 // तानेतान् योगान जीवस्थानकेषु चिन्तयन्नाह जोगा छसु अप्पजत्तएसु कम्मइगउरलमिस्सा दो। वेउब्वियमीसजुया सन्नि अपजत्तए तिनि // 6 // (हारि०) व्याख्या-'योगी' वक्ष्यमाणलक्षणौ कार्मणौदारिकमिश्रकाययोगौ द्वौ / केषु ? इत्याह-'षट्स्वपर्याप्तकेषु' संक्षिपञ्चेन्द्रियवर्जितेषु / तत्र विग्रहगतावनाहारकस्य यथासंभवमेकद्वित्रिसमयान यावत्कार्मणकाययोगः, तदन्यत्रौदारिकमिश्रयोग इति / मिश्रता च कार्मणेनैव मह मन्तव्येति / तथा वैक्रियमिश्रयुतो तावेव पूर्वोक्तौ द्वौ / क ? इत्याह-संज्ञिन्यर्याप्तके त्रय एवंरूपा भवन्ति / अत्र तु देवनारकेषत्पद्यमानस्य वैक्रियमिश्रकाययोगो द्रष्टव्यः / अत्रापि मिश्रता कार्मणेनेव सह मन्तव्या / इति गाथार्थः // 6 // अथात्रैव गाथार्द्धन मतान्तरं दर्शयन् पर्याप्तेषु तानेवाह (मल०) संक्षिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तकवर्जितेषु षट्स्वपर्याप्तकेष्ठ द्वौ कार्मणौदारिकमिश्रलक्षणो योगी भवतः / तत्र कार्मणकाययोगोऽपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च / शेषकालं त्वौदारिकमिश्रकाययोगः / 'सनिअपजत्तए तिनि' इति संज्ञिन्यपर्याप्तके त्रयो योगा भवन्ति / के ते ? इत्याह-वेउव्वियमीसजुया' तावेवानन्तरोस्तावौदारिकमिश्रकार्मणयोगौ वैक्रियमिश्रयुतौ, तथा च त्रयो योगा भवन्ति / वैक्रियमिश्रकाययोगश्च संज्ञिनोऽपर्याप्तस्य देवनारकेषत्पद्यमानस्य द्रष्टव्यौ न शेषस्य, असंभवात् / मिश्रता च कार्मणेन सह द्रष्टव्या // 6 // अत्रैव मतान्तरमुपदर्शयन्नाह दिति अपजत्ताण वि तणुपजत्ताण केइ ओरालं / बायरपज्जत्ते तिन्नि उरल वेउब्वियदुगं च // 7 // _ (हारि०) व्याख्या-अत्रैवं योजना कार्या। केचनाचार्याः शेषपर्याप्त्यपेक्षयाऽपर्याप्तानामपि 'तणुपज्जत्ताण' इति तनुपर्याप्तानां शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तानामौदारिकशरीरं 'ब्रुवते' प्रतिपादयन्तीति / नन्वेवं सति वैक्रियमपि प्राप्नोति, न्यायस्य समानत्वादिति, सत्यम् , लब्ध्यपर्याप्तानां शरीरपर्याप्तौ सत्यां यावदद्यापीन्द्रियपर्याप्तिं न समापयन्ति तावत्तिर्यग्मनुष्याणामौदारिकयोगोऽभिप्रेतः / सुरनारकाणां तु लब्ध्यपर्याप्तत्वं नास्त्येवेति न तेषां वैक्रिययोगः प्रतिपादित इति / करणापर्याप्तानां त्वौदारिकयोगो वैक्रिययोगश्च न विवक्षितः, अन्यथाऽपर्या Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थे सानामौदारिकयोगव क्रिययोगोऽप्यभिहितः स्यादिति / लब्धिकरणापर्याप्तकपर्याप्तिमा पुनरयं विशेषः- लब्ध्यपर्याप्तास्त उच्यन्ते ये निजपर्याप्तीरसमाप्य म्रियन्ते, लब्धिपर्याप्ताः पुनः समाप्य नियन्त इति / करणापर्याप्तास्ते भण्यन्ते ये निजपर्याप्ती द्यापि पूरयन्ति परं पूरयिष्यन्ति / करणपर्याप्ताः पुनस्ते भण्यन्ते यैर्निजपर्याप्तयः पूरिता भवन्ति / अतो देवनारका असंख्यातवायुपस्तियेङ्नरा जिनादयश्च लब्धिपर्याप्ता एव भवन्ति न तु लब्ध्यपर्याप्ताः तेषां निरुपक्रमायुष्कत्वेनापर्याप्तकावस्थायां मरणाभावात् / तथा चोक्तम्-'देवा नेरहया वा, असंववासाउया य तिरिमणुया। उत्तमपुरिसा य तहा. चरमसरोरा य निरुवकमा 1 // " इति / करणत उभयथाऽपि भवन्ति / संख्यातवर्षायुषो नरनिर्यश्चो लब्धितः करणतश्चापर्याप्ताः पर्याप्त काश्च भवन्ति / संख्यातवर्षायुषस्तिर्यङ्नरा'स्तु ते गीयन्ते येषां पूर्वकोट्यायुः, येषां पुनस्तदधिक तेऽसंख्यातवर्षायुषोऽभिधीयन्ते आगमपरिभाषया / इत्युक्तं प्रासङ्गिकं साम्प्रतं प्रस्तुतमभिधीयत' इति 'घायरपज्जत्ते' इत्यादि बादरपर्याप्ते किम् ? इत्याह-औदारिकं वैक्रियद्विकं च चैक्रियशरीरतन्मिश्रलक्षणमिति त्रयो भवन्तीति शेषः / चैक्रियद्विकस्य हि वादरपर्याप्तकवायुकायिकेषु सद्भावात् / इति गाथार्थः // 7 // ___ अथ गाथाढेन योगान समर्थयन् जीवेष्वेवोपयोगानाह___(मल०) केचिदाचार्याः शीलाङ्कादयः शेषपर्याप्त्यपेक्षयाऽपर्यामानां 'तणपजत्ताणं इति तनुपर्याप्त्या पर्याप्तानामौदारिकं शरीरं 'ब्रुवते' प्रतिपादयन्ति / शरीरपर्याप्त्या हि परिसमाप्तवत्या किल तेषां शरीरं परिपूर्ण निष्पन्नमितिकृत्वा / तथा च तद्ग्रन्थः-"औदारिक काययोगस्तियङ्मनुजयोः शरीरपर्याप्तरूवं, तदारतस्तु मिश्रः" इति / नन्वनया युक्त्या संज्ञिनोऽपर्याप्तस्य देवनारकेफ़्त्पद्यमानस्य तनुपर्याप्त्या पर्याप्तस्य वैक्रियमपि शरीरमुपपद्यत एव तत्किमिह तन्नोक्तम् ?, इत्युच्यते, उपलक्षणत्वादेतदपि द्रष्टव्यमित्यदोषः / यद्वा इहापर्याप्मा लब्ध्यपर्याप्तका एवान्तमुहूर्तायुषो विविक्षितास्ते च तिर्यङ्मनुष्या एव घटन्ते तेषामेवान्तर्मुहूर्तायुष्कत्वसंभवात् , न देवनारकाः, तेषां जघन्यतोऽपि दशवर्षसहस्रप्रमाणायुष्कत्वात् / लब्ध्यपर्याप्तकाश्च जघन्यतोऽपीन्द्रियपर्याप्तौ परिसमाप्तायामेव म्रियन्ते नार्वाग् , इत्युक्तागमाभिप्रायेण / ततस्तेषां लब्ध्यपर्याप्तकानां शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तानामौदारिकमेव शरीरमुपपद्यते, न वैक्रियमित्यदोषः / केचिदिति वाणस्य चाचार्यस्यायमभिप्रायो लक्ष्यते यद्यपि तेषां शरीरपर्याप्तिरभूत्तथाऽपि इन्द्रियोच्छ्वासादीनामप्यद्याप्यनिष्पन्नत्वेन शरीरस्यासंपूर्णत्वात् , अत एव कार्मणस्याप्यद्यापि व्याप्रियमाणत्वादौदारिकमिश्रमेव तेषां युक्त्युपपन्नमिति / 'वायर' इत्यादि वादर एकेन्द्रियपर्याप्तके त्रयो योगा भवन्ति / के ते 1 इत्याह 1 "०स्ते भण्यन्ते” इत्यपि / 2 "मण्यन्ते” इत्यपि / Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु योगा उपयोगाश्च [ 166 औदारिकं वैक्रियद्विकं च / तत्रौदारिकं पृथिव्यादीनाम् / वैक्रियद्विकं तु चैक्रियतन्मिश्रलक्षणं वायुकायिकस्य // 7 // उरलं सुहुमे चउसु य, भासजुयं पनरसावि सन्निम्मि। उवओगा दमसु तओ, अचक्खुदंमणमनाणदुगं // 8 // (हारि०) व्याख्या-औदारिकशरीरं, क्व ? इत्याह-सूक्ष्मे पर्याप्त इति पूर्वेण संबन्धः / तथा 'चतुर्यु' द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु, पर्याप्तेषु अत्रापि पूर्वेण योगः / किम् ? इत्यत आह-तदौदारिकं पूर्वोक्तं भाषयाऽसत्यामृषारूपया युतं समन्वितं भाषायुतं योगद्वयमित्यर्थः / तथा 'पञ्चदशापि' योगा वक्ष्यमाणस्वरूपाः संज्ञिनि पर्याप्ते इति प्राक्तनेन संटकः / इति योजिता जीवंस्थानेषु योगाः पञ्चदशापि, साम्प्रतं तेष्वेवोपयोगान् प्रतिपिपादयिषुराह'उपभोगा ससु तओ' इत्यादि / उपयोगा वक्ष्यमाणलक्षणास्त्रयः, किंरूपाः 1 इत्याह'अचक्षुदर्शनम्' चतुरहितशेषेन्द्रियोपयोगलक्षणम् / तथा 'अज्ञानदिकं च' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानस्वरूपमिति 1 केषु ? इत्याह-दशसु जीवस्थानेषु पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्म 2 बादर 2 द्वि 2 श्रीन्द्रिया२ऽपर्याप्तकचतुरिन्द्रिया१ऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय१रूपेषु / इति गाथार्थः // 8 // तथा. . (मल०) पर्याप्त इत्यनुवर्तते / 'औदारिक' औदारिककाययोगः सूक्ष्मैकेन्द्रिये पर्याप्ते भवति। तथा 'चउसु य भासजुयं इति चतुर्यु द्वि 1 त्रि 2 चतुरिन्द्रिया 3 ऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु 4 पर्याप्तेषु तदेवौदारिकं 'भाषायुतं' वाग्योगसहितं द्रष्टव्यम् / भाषा चेह असत्यामृषारूपाऽवगन्तव्या / तदुक्तम्-“विगलेसु असचमोसेव" इति / 'पनरसावि 'सन्निम्मि' इति संज्ञिनि पर्याप्तके पञ्चदशापि योगाः संभवन्ति / चतुर्धा मनोयोगः चतुर्धा वाग्योगः, सप्तधा च काययोग इति / नन्वौदारिकमिश्रौक्रियमिश्रकार्मणकाययोगाः कथमस्योपपद्यन्ते ? तेषामपर्याप्तावस्थामावित्वात् , उच्यते, वैक्रियमिश्रं संयतादे क्रियं प्रारभमाणस्य प्राप्यते / औदारिकमिश्रकाययोगी तु केवलिनः समुद्धातगतस्य / उक्तं च "औदारिकप्रयोक्ता, प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः / मिश्रौदारिकयोक्ता, सप्तमषष्टद्वितीयेषु // 1 // कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थके पश्चमे तृतीये च / / " तदेवं निरूपिता जीवस्थानकेषु योगाः, सांप्रतमुपयोगा निरूपणावसरप्राप्तास्ते च द्वादश / तद्यथा-मतिज्ञानादीनि पञ्च ज्ञानानि, मत्यज्ञानादीनि त्रीण्यज्ञानानि, चक्षुर्दर्शनादीनि च चत्वारि दर्शनानि / एतान् जीवस्थानेषु चिन्तयन्नाह-'उवओगा' इत्यादि / 'दशसु' जीवस्थानकेषु पर्याप्ता-ऽपर्याप्त-सूक्ष्म-बादर-एकेन्द्रिय 4 द्वीन्द्रिय 6 श्रीन्द्रिया 8 ऽपर्याप्त चतुरिन्द्रिया हऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय 10 लक्षणेषु त्रय उपयोगा भवन्ति / Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थे के ते 1 इत्याह-अचक्षुर्दर्शनमज्ञानद्विकं च मत्यज्ञानश्रुताज्ञानलक्षणम् / ननु स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमसंभवाद्भवतु मतिरेकेन्द्रियाणां, यत्तु श्रुतं तत्कथमुपपद्यते ? भाषालब्धिश्रोत्रेन्द्रियलब्धिविकलत्वात् , भाषाश्रोत्रेन्द्रियलब्धिमतो हि तदुपपद्यते ना यस्य / तदुक्तम्- "भावसुयं भासासोयलडिणो जुञ्जए न इयरस्स / भासाभिमुहस्स सुयं, सोऊण व जं हविजाहि // 1 // " उच्यते, इह तावदेकेन्द्रियाणामाहारादिसंज्ञा विद्यते, तथा सूत्रेऽभिधात् / संज्ञा चाभिलाष उच्यते / यदुक्तमावश्यकटीकायाम्-"आहारसज्ञा आहागभिलाषः क्षवेदनीयप्रभवः खल्वात्मपरिणाम विशेषः” इति / अभिलाषश्च ममैवरूपं वस्तु पुष्टिकारि तद्यदीदमवाप्यते ततः समीचीनं भवति इत्येवंशब्दार्थोल्लेखानुविद्धः स्वपुष्टिनिमित्तभूतप्रतिनियतवस्तुप्राप्त्यध्यवसायरूपः, स च श्रुतमेव शब्दार्थालोचनानुसारित्वान् श्रुतस्य चैतल्लक्षणत्वात् , उक्तं घ-इंदियमणोनिमित्तं, जं विमाण सुयाणुसारेण / निययस्थोत्तिसमत्थं तं भाष. सयं मई सेसं // 1 // " इति 'सयाणसारेण' इति शब्दार्थालोचनानुसारेण केवल मेकेन्द्रियाणामव्यक्त एव कश्चनापि अनिर्वचनीयः शब्दार्थोल्लेखो द्रष्टव्यः, अन्यथाऽऽहार दिसंज्ञानुपपत्तेः / यदप्युक्तं भाषालब्धिश्रोत्रेन्द्रियलन्धिविकलत्वादेकेन्द्रियाणां श्रुतमनुपपन्नमिति, तदप्यसमीक्षिताभिधानम् , तथाहि-बकुलादेः स्पर्शनेन्द्रियातिरिक्तद्रव्येन्द्रियविकलत्वेऽपि किमपि सूक्ष्म भावेन्द्रियपश्चकविज्ञानमभ्युपगम्यते, "पचेंदिउ व्ध (o उ) घउलो" इत्यादिजिनवचनप्रामाण्यात् , तथा भाषाश्रोत्रेन्द्रियलब्धिविकलत्वेऽपि तेषां किमपि सूक्ष्मं श्रतमपि भविष्यति, अन्यथा आहारादिसंज्ञानुपपत्तेः, तदुक्तम्- "जह सहुमं भाविंदियणाणं दविदियाण विरहे वि / दब्वसुयाभावंमि वि, भावसुयं पत्थिवाईणं / / 1 / / " इति कृतं प्रसंगेन गमनिकामात्रफलत्वात्प्रयासस्य // 8 // चक्खुजुया चउरिदियअसन्नि पज्जत्तएसु ते चउरो। मणनाणचक्खुकेवलदुगरहिया सन्नि अपजत्ते // 9 // (हारि०) व्याख्या-ते पूर्वगाथोक्तात्रय उपयोगाः 'चक्षुर्युताः' चक्षुरिन्द्रियोपयोगान्विताश्चत्वारो भवन्तीत्यर्थः। केषु ? 'चउरिंदियअसन्नि' इति विभक्तिलोपाच्चतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्येन्द्रियेषु, कीदृशेषु 1 पर्याप्तकेषु / तथा मनःपर्यायज्ञानचक्षुर्दर्शनकेवलद्विकरहिताः / केवलद्विकं तु केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपम् / शेषा अष्टावुपयोगाः संज्ञिन्यपर्याप्तके भवन्ति / इति गाथार्थः // 9 // अथ किंचिदूनपादेनोपयोगान् समर्थयन् संबन्धपूर्वकं लेश्यास्तेष्वेव दर्शयन्नाह- . (मल०) त एव पूर्वोक्तास्त्रय उपयोगाः 'चक्षुर्युताः' चक्षुर्दर्शनोपयोगसहिताः सन्तश्चत्वार उपयोगा भवन्ति, केषु ? इत्याह-'घउरिदियअसग्नि पजत्तएस' चतुरिन्द्रियेषु असंशिषु च Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषूपयोगा लेश्या च / 171 पर्याप्तकेषु / 'मणनाण' इत्यादि संज्ञिनि अपर्याप्ते मनःपर्यवज्ञानचक्षुर्दर्शनकेवलज्ञानकेवलदर्शनरूपकेवल द्विकरहिताः शेषा अष्टावपि ज्ञानात्रिकाज्ञानत्रिकाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनरूपा उपयोगा भवन्ति // 9 // सव्वे मन्निसु एत्ती, लेसाओ छावि दुविह सन्निमि। चउरो पढमा बायर अपजत्ते तिन्नि सेसे म् // 10 // (हारि०) व्याख्या-सर्प उपयोगाः 'संज्ञिषु' पर्याप्तष्विति शेषः / एवं प्रतिपादिता जीवस्थानेषुपयोगाः, इतो लेश्यास्तेष्वेव प्रतिपाद्यन्त इति शेषः / छावि दुविह सन्निमि' इति पडपि कृष्णलेश्याद्याः / क ? दिविधे संज्ञिनि' पर्याप्तापर्याप्तकलक्षणे / तथा 'चतस्रः प्रथमाः' कृष्णनीलकापोततैजसीरूपाः / क ? पादर' इति बादरेऽपर्याप्ते देवेभ्यश्च्युतस्य भूदकतरुघूत्पनस्य तेजोलेश्यायाः सद्भावात् / तथा निम्रः' प्रथमाः कृष्णनीलकापोताख्याः, केषु ? शेषेषु प्राक्तनद्विविधसंश्यपर्याप्तवादरवर्जितेष्वेकादशसु जीवस्थानेषु / इति गाथार्थः॥१०॥ इति प्रतिपादिता लेश्या जीवस्थानेषु, सांप्रतं तेष्वेव बन्धोदयोदीरणासत्ताख्यस्थानचतुष्टयमेकगाथयां प्रतिपादयन्नाह___(मल०) सर्वेऽपि द्वादशाप्युपयोगाः संज्ञिषु पर्याप्तेषु द्रष्टव्याः ते च क्रमेणैव न तु युगपत् , उपयोगानां तथाजीवस्वभावत्वतो योगपद्यासंभवात् / तदुक्तम्-"समए दो गुवआगा" इति / तदेवं निरूपिता जीवस्थानकेधूपयोगाः / 'एत्तो' इति इत ऊर्धमेतेष्वेव लेश्या अपि निरूज्यन्ते 'लावि विह सन्निम्मि' इति द्विविधेऽपि संज्ञिनि पर्याप्तापर्याप्तलक्षणे पडपि कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्लरूपा लेश्या भवन्ति / 'चउरो पहमा बायर अपजत्ते' इति चादरैकेन्द्रियेऽपर्याप्तके प्रथमाश्चतस्रः कृष्णनीलकापोततेजोरूपा भवन्ति / तेजोलेश्या कथमवाप्यते ?, इति चेदुच्यते, यदा देवभवाच्च्युतः सन् कश्चनापि बादरैकेन्द्रियतया भूदकतरुषु मध्ये समुत्पद्यते तदा तस्य घण्टालालान्यायेन साऽवाप्यते इत्यदोषः 'तिनि सेसेसु' इति / अत्र प्रथमा इत्यनुवर्तते / प्रथमास्तिस्रः कृष्ण नीलकापोताख्याः शेषेषु प्राक्तनद्विविधसंश्यपर्याप्तचादरेकेन्द्रियवर्जितेम्बेकादशसु जीवस्थानकेषु लभ्यन्ते नान्याः. तेषा सदेवाशुभपरिणामभावात् / शुभपरिणामरूपाश्च तेजोलेश्यादयः / इति // 10 // तदेवं जीवस्थानकेषु लेश्या अभिधाय, साम्प्रतमेतेष्वेव बन्धोदयोदीरणासत्ताख्यस्थानचतुष्टयमभिधित्सुराहसत्तट्ठ 1 अट्ठ 2 सत्तह 3 अट्ठ 4 बंधु १दयु २दीरणा ३संता'४ / तेरससु जीवठाणेसु सन्निपजत्तए आंघो // 11 // 1 "सत्ता" इत्यपि पाठः। - - Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे (हारि०) व्याख्या-सप्ताष्टौ चाष्टौ च सप्ताष्टौ चाष्टौ च सप्ताष्टाष्टसप्ताष्टाष्टौ / एतसंख्यानि कानि भवन्ति ? इत्याह-'बंधुदयुदोरणा 'संता' इति बन्धश्च उदयश्च उदीरणा च सच्च बन्धोदयोदीरणा संति भवन्तीति शेषः / क्व ? इत्याह-'त्रयोदशसु जीवस्थानेषु' सूक्ष्मापर्याप्तादिषु / तथा 'सन्निपजत्तए ओघो' इति संज्ञिपर्याप्ते पर्यन्तवर्तिनि चतुर्दशजीवस्थानके ओघः सामान्यं भवति / इति गाथाऽक्षरघटना / भावना त्वेवम्-सप्तायुर्वर्जाः प्रकृतयो. ऽष्टौ तद्युवता बन्धे / तथाऽष्टावुदये / तथा सप्ताष्टौ कथितस्वरूपा उदीरणायाम् / तथाऽष्टौ सत्तायाम् / इति यथासंख्येन योजना कार्या / बन्धादीनां स्वरूपं त्विदम्-मिथ्यात्वादिभिर्बन्धहेतुभिरञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकवन्निरन्तरं पुद्गलनिचिते लोके कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलेरात्मनो वह्वययःपिण्डवदन्योऽन्यानुगमाभेदात्मकः संबन्धो बन्धः / तेषां च यथास्वस्थितिबद्धानां कर्मपुद्गलानां करणविशेषकृते स्वाभाविक वा स्थित्यपचये सत्युदयसमयप्राप्तानां विपाकवेदनमुदयः / करणानि पुनरिमान्युक्तानि / तथाहि-पंधण 1 संकमण 2 व्वदृणा 3 य ओवट्टणा 4 उईरणया 5 / उवसामणा 6 निहत्तो, 7 निकायणा 8 च त्ति करणाइं / / 1 / / ' अस्याः सुखार्थ लेशतो व्याख्यानमिदम्-बन्धनं प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशरूपम् 1 / संक्रमणं प्रकृतेः प्रकृत्यन्तरनयनम् 2 | उद्वर्तनं स्थितिरसवृद्धथपादनम् 3 / अपवर्तनं स्थितिरसहापनम् 4 / उदीरणाऽप्राप्तकालस्य कर्मदलिकस्योदये प्रवेशनम् 5 / 'उपशमना सर्वकरणायोग्यत्वसंपादनं, दर्शनत्रिके तु संक्रमणमेकं प्रवर्तते 6 / निधत्तिरुदयोदीरणासंक्रमरूपैत्रिभिः करणैर्यदन्यथा कर्तुं न शक्यते 7 / निकाचना पुनः सर्वकरणायोग्यत्वमिति 8 / तथा कर्मपुद्गलानामेव करणविशेषजनिते स्थित्यपचये सत्युदयावलिकायां प्रवेशनमुदीरणा / बन्धसंक्रमाभ्यां लब्धात्मलाभानां कर्मणां निर्जरणसंक्रमकृतस्वरूपप्रच्युत्यभावे सद्भावः सत्ता 'सन्निपज्जसए ओघो' इति / अस्य पदस्यार्थ स्वयमेव ग्रन्थकारो गुणस्थानकेषु बन्धादिमार्गणायामग्रे वक्ष्यति / स्थानाऽशून्या) सामान्यतो, न गुणस्थानकयोजनया बन्धादिस्थानसंख्या गाथाद्वयेनोच्यते-"धन्धेऽह सत्त गाउग 7 छविहममोहाउ 6 इगविहं सायं 1 / संतोदयेसु अट्ठ उ 8, सत्त अमोहा 7 घउ अधाई / / 1 / / अट्ट उदीरइ 8 सत्त उ, अणाउ 7 छव्विहमवेयणियआऊ 6 / पण अवियणमोहाउग 5 अकसाई नामगोत्तद्गं 2 // 2 // " अयमर्थः-अष्टौ सर्वा अपि मूलप्रकृतयः 8, आयुर्वजाः सप्त 7, मोहायुर्वर्जाः षट् 6, एकमेव वेदनीयम् , इत्येवं चतुर्धा बन्धः / तथाऽष्टौ तथैव 8, मोहवर्जाः सप्त 7, घातिकर्म वर्जाश्चतस्रः 4, इत्युदयस्त्रिधा / तथाऽष्टौ पूर्ववत् 8, आयुर्वर्जाः सप्त 7, आयुर्वेदनीयवर्जाः. 1-2-3 “सत्ता" इत्यपि पाठः / 4 “उपशामना" इत्यपि पाठः / 5 "पूर्ववत्" इत्यपि पाठः। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु बन्धोदयोदीरणासत्स्थानानि षट्र 6, वेदनीयाथुहिवर्जाः पञ्च 5, नामगोत्रे एव द्वे 2, इति पञ्चप्रकारोदीरणा 5 / सत्ता पुनरुदयवत् / इति गाथार्थः // 11 // इत्युक्तानि जीवस्थानेषु गुणस्थानकादीन्यष्टौ पदानि, सांप्रत मार्गणास्थानानि प्ररूपयबाह. (मल०) सप्त वाऽष्टौ वा सप्ताष्टाः, सप्ताष्टाश्चाष्टौ चेत्यादिद्वन्द्वः / बन्धोदयादिपदानामपि द्वन्दः / ततः षष्ठीतत्पुरुषसमासः / समाननिर्देशत्वाचात्र यथासंख्यम् , एतदुक्तं भवति-संज्ञिपर्याप्तवर्जितेषु शेषेषु त्रयोदशसु जीवस्थानकेषु बन्धः सप्तानामष्टानां वा कर्मणां ज्ञातव्यः / तथाहि-यदाऽनुभूयमानभवायुपस्त्रिभागनवभागादिरूपे शेषे सति परभवायुर्वध्यते, तदाऽष्टानामपि कर्मणां बन्धः / शेषकालं त्वायुपो बन्धाभावात्सप्तानामेव उदयः पुनरेतेषु त्रयोदशसु जीवस्थानकेषु सर्वकालमष्टानामेव कर्मणाम् / यतः सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकं यावदष्टानामपि कर्मणामुदयोऽवाप्यते, एतेषु च जीवस्थानकेषु उत्कर्पतोऽपि यथासंभवमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकसंभव इति / उदीरणा सप्तानामष्टानां वा / तत्र यदाऽनुभूयमानभवायुरुदयावलिकान्तः प्रविष्टं भवति तदा सप्तानाम् , अनुभूयमानभवायुषोऽनुदीरणात् , आवलिकावशेषस्योदीरणानहत्वात् / उदीरणा हि उदयावलिकाबहिर्वर्तिनीभ्यः स्थितिभ्यः सकाशात्कपायसहितेनासहितेन वा योगकरणेन दलिकमाकृष्योदयसमयप्राप्तेन दलिकेन सहानुभवनम् / तथा चोक्तम्-"उदयावलिय. बाहिरिल्लटिईहिंतो कसायसहियासहिएणं जोगकरणेणं दलियमाकड्ढिय पत्तदलिएण समं अणुभवणमुदीरणा" इति / ततः कथमावलिकागतस्योदीरणा भवति ? इति, न च परभवायुषस्तदानीमुदीराणासंभवस्तस्योदयाभावात् , अनुदितस्य चोदीरणानहत्वात् / शेषकालं त्वष्टानामुदीरणेति / सत्ताऽप्येतेषु जीवस्थानकेष्वष्टानामपि कर्मणां द्रष्टव्या / तथाहि-अष्टानामपि कर्मणां सत्ता उपशान्तमोहगुणस्थानकं यावदनुवर्तते / एते च जीवा उत्कर्षतोऽपि यथासंभवमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकवर्तिन एवेति / 'सन्निपजत्तए ओघो' इति संज्ञिनि पर्याप्ते ओषः, सामान्यं द्रष्टव्यम् / तच्च यद्यप्यग्रे स्वयमेवाचार्यो गुणस्थानकेषु बन्धादिमार्गणायामभिधास्यति तथाऽपीह स्थानाऽशून्यार्थे संक्षेपतः किंचिदुच्यतेतत्र सक्ष्मसंपरायगुणस्थानकादर्वाग्वर्तिनो यथासंभवं यदायुर्वघ्नन्ति तदाऽष्टानामपि कर्मणां बन्धकाः शेषकालं तु सप्तानाम् / सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकवर्तिनस्तु मोहायुर्वर्जानां षण्णां कर्मणाम् / उपशान्तमोहादयः पुनः सयोगिकेवलिपर्यन्ताः सातवेदनीयस्यैवेकस्येति / तथा सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकं यावदष्टानामपि कर्मणामुदयः / उपशान्तमोहगुणस्थानके क्षीणमोहगुणस्थानके च मोहनीयवर्जानां सप्तकर्मप्रकृतीनाम् / सयोगिकेवलिगुणस्थानकेऽयोगिकेवलिगुणस्थानके Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174) षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे च घातिकर्मचतुष्टयरहितशेषकर्मचतुष्टस्येति / तथा मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकात्प्रभृति यावत्प्रमत्तसंयतगुणस्थानकं तावद्यदि अनुभूयमानभवायुरावलिकावशेषं न भवति तदाऽष्टानामपि कर्मणा. मुदीरणा यदा त्वनुभूयमानभवायुरावलिकावशेषं तदा तथास्वभावत्वेन तस्यानुदीयमाणत्वात्सतानामुदीरणा / सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके तु सदैवाष्टानामेव कर्मणामुदीरणा, आयुष आवलिकावशेष सम्यगमिथ्यादृष्टिगुणस्थानकस्यैवाभावात् / तथाऽप्रमत्तगुणस्थानकात्प्रभृति यावत्सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकस्यावलिकावशेषो न भवति तावद्वेदनीयायुर्वर्जानां षण्णां कर्मणामुदीरणा तदानीमतिविशुद्धत्वेन वेदनीयायुरुदीरणायोग्याध्यवसायाभावात् / आवलिकावशेषे तु मोहनीयस्याप्यावलिकाप्रविष्टत्वेनोदीरणाया असंभवाज्ज्ञान 1 दर्शनावरण 2 नाम 3 गोत्रा ४ऽन्तराया 5 णामेवोदीरणा / एतेषामेव चोपशान्तमोहगुणस्थानकेऽपि उदीरणा / क्षीणमोहगुण स्थानकेऽप्येतेपामेव यावदावलिकामात्रावशेषो न भवति / आवलिकावशेषे तु ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणामप्यावलिका प्रविष्टत्वान्नोदीरणेति द्वयोरेव नामगोत्रयोरुदीरणा / 'एवं सयो। गिकेवलिगुणस्थानकेऽपि / अयोगिकेवलिगुणस्थानके तु वर्तमानो जीवः सर्वथाऽनुदीरक एव / ननु तदानीमप्येप सयोगिकेवलिगुणस्थानक इन भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयोदये वर्तते ततः कथं तदापि तयोर्नामगोत्रयोरुदीरको न भवति 1 इति, नैष दोषः, उदये सत्यपि योगसव्यपेक्षत्वादुदीरणाया स्तदानीं च तस्य योगासंभवादिति / तथा उपशान्तमोहगुणस्थानकं यांवदष्टानामपि कर्मणां सत्ता। क्षीणमोहावस्थायां तु मोहरहितानां सप्तानां कर्मणाम् / सयोगिकेवल्याद्यवस्थायां चाघातिकर्मणां चतुर्णाम् / इति // 11 // ___ तदेवं जीवस्थानकेषु गुणस्थानकाद्यभिधाय साम्प्रतं मार्गणास्थानेषु जीवस्थानकादि विवक्षुस्तान्येव तावनिर्दिशन्नाहएत्तो गइ 1 इंदिय 2 काय 3 जोय 4 वेए 5 कमाय णाणेसु / संजम 8 दंसण 9 लेसा 10 भव 11 सम्मे 12 सन्नि 12 आहारे 14 // 12 // (हारि०) व्याख्या-'इतः' जीवस्थानविचारानन्तरं मार्गणास्थानान्युच्यन्त इति शेषः / तान्येवाह-गतीन्द्रियकाययोगवेदे' इति समाहारद्वन्द्वः / 'कषायज्ञानेषु' अत्रेतरेतरद्वन्द्वः 'सयमदर्शनलेश्याभव्यसम्यक्त्वे' इत्यत्रापि समाहारद्वन्द्वः / 'सज्ञा झ्या) हरे' इत्यत्रापि स एव / इति गाथार्थः // 12 // इति मूलभेदापेक्षया मार्गणास्थानानि चतुर्दश 14, उत्तरभेदापेक्षया तु द्विषष्टिः, तत्प्रतिपादनाय गाथापश्चकमाह 1 एवमिति कोऽर्थः 1 सयोगिकेवलिगुणस्थानकेऽपि द्वयोरेव नामगोन्नयोरुदीरणा। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागेणास्थानानि [ 175 (मल०) 'इतः' जीवस्थानेषु गुणस्थानकाद्यभिधानादनन्तरं मार्गणास्थानकेषु जीवस्थानायुच्यत इति शेषः / तानि च मार्गणास्थानान्यमुनि-गइ' इत्यादि / तत्र गम्यते तथाविधकर्मसचिौ वैः प्राप्यते गतिर्नारकत्वादिपर्यायपरिणतिः, सा च चतुर्धा-नरकगतिः 1 तिर्यग्गतिः 2 मनुष्यगतिः 3 देवगतिश्च 4 इदियः' इति इन्दनादिन्द्र आत्मा ज्ञानेश्वर्ययोगात्तस्येदमिन्द्रियम् , तच स्पर्शन 1 रसन 2 घाण 3 चक्षुः 4 श्रोत्र 5 भेदात्पश्वधा / इन्द्रियग्रहणेन च / तदुपल क्षिता एकेन्द्रियद्वीन्द्रियादयो गृह्यन्ते. तेष्वेवाग्रे जीवस्थानकादीनां चिन्तयिष्यमाणत्वात् / 'काय' इति चीयत इति कायः, 'चित्युपसमाधानावासदेहे कश्चादेः' इति घञ्प्रत्ययः, चकारस्य च ककारः, स च पोढा-पृथिवी 1 अप् 2 तेजो 3 वायु 4 वनस्पति 5 त्रस 6 काययोगात् / 'जोग' इति योगशब्दः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, स च मनो 1 वाक् 2 काय 3 सहकारिभेदात्संक्षेपतस्विधा / 'वेद' इति वेद्यत इति वेदः, स च त्रिधा-स्त्रीवेदः 1 पुरुपवेदः 2 नपुसकवेदश्च 3 / तत्र स्त्रियाः पुस्यभिलापः स्त्रीवेदः 1 / पुसः स्त्रियामभिलाषः पुवेदः 2 / नपुसकस्योभयं प्रत्यभिलापो नपुसकवेदः 3 / 'कसाय' इति कष्यन्ते हिंस्यन्ते परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कपः-संसारः तमयन्ते गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषायाः क्रोध 1 मान 2 माया 3 लोभाः 4 ‘णाण' इति ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्-सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मकोऽवबोधः / तच्च पञ्चधा, तद्यथा-मतिज्ञानं 1 श्रुतज्ञानं 1 अवधिज्ञानं 3 मनःपर्या यज्ञानं 4 केवलज्ञानं 5 च / ज्ञानग्रहणेन चाज्ञानमपि तत्प्रतिपक्षभूतमुपलक्ष्यते / तच्च त्रिविधम्मत्यज्ञानं 1 श्रुताज्ञानं 2 विभङ्गज्ञानम् 3 च / वक्ष्यति च ज्ञानभेदाभिधानावसरे-"महसुय ओहोणकेवलाणि मइसुयअनाणविन्भंगा" इति / 'संजम' इति संयमनं संयमः सम्यगुपरमः, 'यमः संन्युपवेः" इति भावेऽच्प्रत्ययः, चारित्रमित्यर्थः / तच्च पञ्चधा सामायिकं 1 छेदोपस्थापनं 2 परिहारविशुद्धिकं 3 सूक्ष्मसंपरायं 4 यथाख्यातं 5 च / संयमग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतो देशसंयमोऽसंयमश्च सूच्यते / वक्ष्यति च “सामइयछेयपरिहारसुहुमअहवायदेसजय अजयः' इति / 'दसण' इति दृष्टिदर्शनं सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यावबोधः / तच्चतुर्विधम् , तद्यथा-चक्षुर्दर्शनं 1 अचक्षुर्दर्शनं 2 अवधिदर्शनं 3 केवलदर्शनं च 4 / 'लेसा' इति लेश्या प्रानिरूपितशब्दार्था, सा पोढा-कृष्णलेश्या 1 नीललेश्या 2 कापोतलेश्या 3 तेजो. लेश्या 4 पद्मलेश्या 5 शुक्ललेश्या 6 (च)। 'भव' इति भव्यः-तथारूपानादिपारिणामिक भावासिद्धिगमनयोग्यः / भव्यग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतोऽभव्योऽपि गृह्यते / यद्वक्ष्यति भव्यद्वारमेदव्याख्यायाम्-'भवाभव्य' इति / 'सम्मे' इति सम्यक्त्वम् / सम्यक्शब्दः प्रशंसार्थोऽविरुद्धार्थो वा / सम्यग् जीवस्तद्भावः सम्यक्त्वम् , प्रशस्तो मोक्षाविरोधी वा आत्मधर्म इति यावत् / तच्च विधा-क्षयोपशमिकं 1 औपशमिकं 2 क्षायिकं 3 च / उक्तं च "सम्मत्तंपि य Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे तिविहं खओवसमियं तहोवसमियं च / खइयं च" इति / सम्यक्त्वग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतं मिश्रं 1 सास्वादनं 2 मिथ्यात्वं 3 च परिगृह्यते / तथा चैतद् द्वारं व्याख्यानयन् वक्ष्यति"खओवसमखइयउवसमियमोससासाणं मिच्छो य" इति / 'सन्नि' इति संज्ञी प्राङिनर्दिष्टस्वरूपः, तत्प्रतिपक्षभूतः सर्वोऽप्येकेन्द्रियादिरसंज्ञी, सोऽपि संज्ञिग्रहणेन सूचितो द्रष्टव्यः / 'आहार' इति आहारयाते ओजोलोमप्रक्षेपाहाराणामन्यतममाहाराणामित्याहारकः, तत्प्रतिपक्षभूतोऽनाहारकः // 12 // तदेवमुक्तानि मार्गणास्थानानि, साम्प्रतमेतेषामेव विनेयजनानुग्रहायोक्तस्वरूपानेव भेदान् दर्शयन्नाह सुरनरतिरिनरयगई 4, 'इगबितिचउरिंदिया य पंचिंदी 5 / .. पुढवीआऊतेऊवाऊवणसइतसा काया 6 // 13 // (हारि०) व्याख्या-सुराश्च भवनपत्याद्याः, नराश्च कर्मभूमिजादयः, तिर्यञ्चश्र जलचरादयः, नारकाश्च रत्नप्रभाद्याः, अत्र समासस्तेषां गतयः सुरनरतिर्यग्नारकगतयश्चतस्रः 4 / तथैकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियश्चेति पञ्च / पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसाः कायाः षट् / इति प्राग्वत्सर्वपदेषु समासः कार्यः / इति गाथार्थः // 13 // .. मणव इकायाजोगा 3, इत्थी पुरिसो नपुंसगो वेया 4 / कोहो माणो माया, लोभो चउरो कसायत्ति 4 // 14 // (हारि०) व्याख्या-मनोवाक्काययोगस्त्रयः / स्त्री पुरुषो नपुसकमिति वेदास्त्रयः / क्रोधो मानो माया लोभ इति चत्वारः कषायाः। इतिशब्दो वाक्यसमाप्तौ / इति गाथार्थः // 14 // (मल०) 'सुरगाहा' 'मणगाहा' एते निगदसिद्धे // 13 // 14 // मइसुयओहीमणके-वलाणि मइसुयअनाणविन्भंगा 8 / सामइयछेयपरिहा-रसुहुमअहखायदेसजयअजया 7 // 15 // (हारि०) व्याख्या-मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानीति पञ्च ज्ञानानि / मतिश्रुताज्ञानविभङ्गनामानि त्रीण्यज्ञाना न्युपलक्षगत्वाद्गृह्यन्ते / एवमन्यत्रापि यत्र विपक्षभूतं पदं दृश्यते तत्रायमेव हेतुर्वक्तव्य इति / अत एवोत्तरभेदापेक्षया द्विषष्टिरित्युक्तं प्रागिति / सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसंपराययथाख्यातदेशसंयतासंयताख्यानि सप्त पदानि / इति गाथार्थः // 15 // 1 "इगि" इति जे०।२ "पंचेंदी" इति जे० / 3 "वय.” इत्यपि पाठः। 4 "नसओ" इत्या पाठः। 5 "न्यप्य" इति जे॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवान्तरगत्यादिमार्गणास्थानानि [ 177 (मल०) मतिश्रुतावधिमनःपर्यवकेवललक्षणानि पञ्च ज्ञानानि / मतिश्रुताज्ञानविभङ्गल'क्षणानि च त्रीणि अज्ञानानि / तत्र "मनज्ञाने" मननं मतिः / यद्वा मन्यते इन्द्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनयेति मतिः, योग्यदेशावस्थितवस्तुविषय इन्द्रियमनोनिमित्तकोऽवगमविशेषः / तथा श्रवणं श्रुतम् , अभिलापप्लावितार्थग्रहणप्रत्यय उपलब्धिविशेषः / एवमाकारं वस्तु जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थ घटशब्दाभिलाप्यम् , इत्यादिरूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तो ज्ञानविशेष इति यावत् / तदुक्तम्-"ज पुण तिकालविसयं, भागमगथाणुसारि विनाणं / इंदियमणोनिमित्तं, तं सुयनाणं जिणा चिति // 1 // " तथाऽवशब्दोऽधःशब्दार्थः / ततश्च अव अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः / यद्वाऽवधिर्मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः / तथा परि-सर्वतो भावे अवनं अवः / "तुदादिभ्योऽनको" इत्यधिकारे, “अकितो वा" इत्यनेनाकारः प्रत्ययः / यथा भवनं भव इत्यादिषु अवनं गमनं वेदनमिति पर्यायाः / परि=अवः पर्यवः, मनसि मनसो वा पर्यवः मनःपर्यवः, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः / इदं च मनःपर्यवज्ञानमर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्तिसंज्ञिमनोगतद्रव्यालम्पनं मनःपर्यायज्ञानमित्येवमप्येतदभिधीयते / तत्र मनसः पर्याया बाह्यवस्त्वालोचनप्रकारा धर्मा मनःपर्यायाः तेषु तेषां वा संबन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानमिति पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराच्च मन इत्युक्तेऽपि मनःपर्यव इति मनःपर्यायज्ञानमिति व्याख्यातम् / तथा केवलमेकं, मत्यादिज्ञानरहितत्वात् / "उप्पण्णमि अणंते, नहमि उ छाउमस्थिए नाणे।" इतिवचनात् / शुद्धं वा केवलं, तदावरणमलकलङ्कापगमात् / सकलं वा केवलं, तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणविगमतः संपूर्णात्पत्तेः / असाधारणं वा केवलं, अनन्यसदृशत्वात् / अनन्तं वा केवलं ज्ञेयानन्तत्वात् / यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावावभासि ज्ञानमितिभावना / तथा मतिश्रुतावधिज्ञानान्येव मिध्यात्वकलुषिततया यथाक्रमं मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानव्यपदेशभाञ्जि भवन्ति / तदुक्तमाद्यत्रयं ज्ञानमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तमिति / 'विभंगे' इति विपरीतो भङ्गः परिच्छित्तिप्रकारी यस्मिस्तद्विभङ्गम् , विपर्यस्तमवधिज्ञानम् 'सामइय' इत्यादि / समानां शानदर्शनचारित्राणामायः समायः, समाय एव सामायिकम् / विनयादेराकृतिगणतया "विनपादिभ्यः" इति स्वार्थे इकण / तच्च सर्वसावद्यविरतिरूपं चारित्रम् / यद्यपि च सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिक तथाऽपि च्छेदादिविशेषविशेष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते / प्रथमं पुनरविशेषणात्सामान्यशब्द एवावतिष्ठते / तच द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च / तत्रेत्वरं भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेष्वनारोपितव्रतस्य शैक्षकस्य विज्ञेयम् / यावत्कथिकमाभवचर्ति / तच्च भरतैरावतभाविमध्यमद्वाविंशतितीर्थकरविदेहतीर्थकरतीर्थान्तर्गतसाधूनामवसेयम् , Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 ] . घडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे तेषामुत्थापनाया अभावात् / 'छंद' इति च्छेदोपस्थापनम् / तत्र च्छेदः पूर्वपर्यायस्य, उपस्थापना च महाव्रतेसु यस्मिन् चारित्रे तच्छेदोपस्थापनम् / तच्च द्विधा-सातिचारं निरतिचारं च / तत्र निरतिचारं यदित्वरसामायिकवतः शैक्षकस्यारोप्यते तीर्थान्तरसंक्रान्तौ वा, यथा पार्श्वनाथतीर्थाद्वर्धमानस्वामितीर्थं संक्रामतः पञ्चयामधर्मप्रतिपत्तौ / सातिचारं यन्मूलगुणघातिनः पुन तोच्चारणम् / 'परिहार' इति परिहारविशुद्धिकम् / परिहरणं परिहारस्तपोविशेषः तेन विशुद्धिर्यस्मिन् चारित्रं तत्परिहारविशुद्धिकम् / तच द्विधा-निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकं च / तत्र निर्विश. मानका विवक्षितचारित्रसेवकाः / निर्विष्टकायिका आसेवितविवक्षितचारित्रकाः / तदव्यतिरेकाचारित्रमप्येवमुच्यते / इह नवको गणः, तत्रैको वाचनाचार्यः चत्वारो निर्विशमानकाः, चत्वारश्चानुचारिणः / निर्विशमानकानां चायं परिहारः-"परिहारियाण उ तवो, जहन्न मझो तहेव उक्कोसो। सीउण्हवासकाल, भणिओ। धीरेहि पत्तेयं // 1 // तत्थ जहन्नो गिम्हे, चउत्थ 1 छहो 2 उ होइ मज्झिमओ / अहम 3 मिह उक्कोसो, एत्तो सिसिरे पव. क्वामि // 2 // सिसिरे र जहन्नाई, छट्ठाई दसम 4 चरिमगो होइ / वासासु अट्ठमाई, पारस 5 पजत गो नेको // 3 // पारणगे आयाम, पंचसु गहो दोसु (स) भिग्गहो भिक्खे / कप्पट्ठिया वि पइदिण, करेंति एमेव आयामं // 4 // एवं छम्मासतवं, चरिउ परिहारिगा अणचरति / अणुचरिंगे परिहारिय-पइट्ठिए जाव छम्मासा // 5 / / कप्पट्टिओ वि एवं, छम्मासतवं करेइ सेसाओ। अणुपरिहारिगभावं, वयंति कप्पडिगत्तं च // 6 // एवं सो अट्ठारसमासपमाणो उ पण्णिओ कप्पो / संखेवओ विसेसो, सत्तादेसाओ (विसेससुत्ताउ) नायव्वो // 7 // कप्पस रत्तीए, तयं जिणकप्पं वा उर्वेति गच्छं वा / पडिवजमाणगा पुण, जिणासगासे पवजति // 8 // तित्थयरसमोवासे-वगस्स पासे व नो उ (न उण) अन्नस्स / एएसिं जं चरण, . परिहारविसुद्धिगं तं तु / / 9 / / तथा 'सुहम' इति सूक्ष्मसंपरायम् / सूक्ष्मो लोभांशावशेषत्वात् संपरायः कषायोदयो यत्र तत्सूक्ष्मसंपरायम् / तच्च द्विधा-विशुद्धयमानकं संक्लिश्यमानकं च। तत्र विशुद्धयमानकं क्षपकश्रेणिमुपशमश्रेणि वा समारोहतः / संक्लिश्यमानकं तूपशमश्रेणितः प्रच्यवमानस्य / 'अहखाय' इति यथाख्यातं यथा सर्वस्मिन् जीवलोके ख्यातं प्रसिद्धं अकषायं भवति चारित्रमिति तथैव यत्तद्यथाख्यातम् / 'देस' इति देशयतो देशविरतः / 'अजय' इति अयतोऽविरतो विरतिहीन इति // 15 // अबक्खुचक्खुओही केवलदसण 4 मओय छल्लेसा / किण्हा नीला काऊ, तेऊ पम्हा य सुका य // 16 // Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचक्षुर्दर्शनादिमार्गणास्थानानि ( 179 .(हारि०) व्याख्या-अचतुश्चक्षुरवधिकेवलदर्शनानि चत्वारि / अतश्च पड्लेश्या उच्यन्ते ति शेषः / कास्ताः ? इत्याह-कृष्णा नीला कापोता तेजसी पमा शुक्ला चेति षड् लेश्याः / इति गाथार्थः / / 16 / / ____ (मल०) दर्शनशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते / अचक्षुर्दर्शनं चक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं च / तत्र सामान्यविशेषात्मके अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनं स्वस्वविषयसामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनम् / चक्षुषा दर्शनं रूपसामान्यग्रहणं चक्षुर्दर्शनम् / अवधिरेव दर्शनं रूपिद्रव्यसामान्यग्रहणमवधिदर्शनम् / केवलमेव दर्शनं सकलजगद्भाविवस्तुसामान्यपरिच्छेदरूपं केवलदर्शनम् / 'अओ य छल्लंसा' इत्यादि निगदसिद्धम् // 16 // भव्व 1 अभव्या 2 'खउवसम 1 खइय 2 उवममिय 3 मीम 4 'सासाणं 5 / मिच्छो य 6 सन्न 1 सन्नी 2, आहार 1 णहार 2 इय भेया // 17 // ___ (हारि०) व्याख्या-भव्याभव्यौ दौ / क्षायोपशमिकशायिकौपशमिकमिश्रसासादनानि 'मिच्छो य' इति मिथ्यात्वं चेति षट् / तथा संश्यसंज्ञिनौ द्वौ / तथाऽऽहारकानाहारको द्वौ / 'इति' अमुना प्रकारेण 'भेदाः' द्विषष्टिप्रमाणा उत्तरभेदा मूलभेदानां भवन्तीति शेषः / एतेषां व्याख्यानमावश्यकादिग्रन्थेभ्योऽवसेयम् , गमनिकामात्रत्वात्प्रस्तुतप्रयासस्य / इति गाथार्थः // 17 // साम्प्रतमेतेवेव जीवस्थानान्याह (मल०) भव्याभन्यौ प्रागुक्तस्वरूपौ 'खउवसम' इत्यादि / क्षायोपशमिकं क्षायिक ओपशमिकं च / तत्र उदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य क्षयेणानुदीर्णस्य चोपशमेन सम्यक्त्वरूपतापत्तिलक्षणेन विकम्भितोदयत्वरूपेण च यन्नित्तं तत्क्षायोपशमिकम् / तथा त्रिविधस्यापि दर्शनमोहनीयस्य क्षयेणात्यन्तोच्छेदेन निवृत्तं क्षायिकम् / तथोदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य क्षये सत्यनुदीर्णस्य य उपशमो विपाकप्रदेशवेदनरूपस्य द्विविधस्याप्युदयस्य विष्कम्भणं तेन निवृत्तमौपशमिकम् / 'मोससासाणं मिच्छो य' इति मिश्रं सासादनं मिथ्यात्वं च, एतानि गुणस्थानकव्याख्यायां यथास्थानं वक्ष्यन्ते / शेष सुगमम् // 17 // तदेवमुक्ता अवान्तरगत्यादिमार्गणास्थानभेदाः, साम्प्रतमेतेष्वेव जीवस्थानानि चिन्तयनाह सुरनिरए सन्निदुर्ग, नरेसु तइओ असन्निअपजत्तो। तिरियगईए चउदस, एगिदिसु आइमा चउरो // 18 // (हारि०) व्याख्या-सुरनारकयोः 'सन्निदुर्ग' इति पर्याप्तापर्याप्तकलक्षणं संक्षिपञ्चेन्द्रिय द्विकम् / तथा 'नरेसु तइओ' इति नरेषु पुरुषेषु पूर्वोक्तं द्वयं तृतीयोऽसंश्यपर्याप्त इति / आह अन्यत्र बन्धस्वामित्वशतकादिग्रन्थेषु नरेषु जीवस्थानकद्वयमेवोक्तं तत्कथमत्र तृतीयमप्य 1 "सासाणा" इत्यपि पाठस्तदनुसारेण श्रीहरिभद्रसूरिणा व्याख्यातम् / 2 “सन्नि" इत्यपि पाठ // Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे पर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणं जीवस्थानकमुक्तम् 1, सत्यम् . तेषु तस्य तिर्यग्रहणेन गृहीतत्वादिति / तथा तिर्यग्गतौ चतुर्दशापि जीवस्थानानि भवन्तीति शेषः / इति गतिषु मागितानि. जीवस्थानानि, साम्प्रतमिन्द्रियेषु तान्येवाह-एकेन्द्रियेषु 'आइमा' इति आदिमानि प्रथमानि पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मवादरलक्षणानि चत्वारि जीवस्थानानि भवन्ति / इति गाथार्थः // 18 // तथा (मल०) सुरगतौ नरकगतौ च 'संज्ञिद्विक' पर्याप्तापर्याप्तलक्षणम् / अपर्याप्तकश्चेह करणापर्याप्तको गृह्यते, न लब्ध्यपर्याप्तकः, तस्य देवनारकगत्योरुत्पादाभावात् / 'नरेसु' इत्यादि / 'नरेसु' मनुष्येषु पूर्वोक्तं संज्ञिद्विकं तावल्लभ्यत एव, किन्तु तृतीयोऽपि जीवजातिभेदोऽसंश्यपयोप्तको लभ्यते / कथम् ? इति चेद्उच्यते, इह द्वये मनुष्या गर्भव्युत्क्रान्ताः संमृर्छिमाश्च / तत्र ये गर्भव्युत्क्रान्तास्तेषु यथोक्तं संज्ञिद्विकं लभ्यते, ये तु वान्तपित्तादिषु संमूर्छन्ति तेऽन्तमुहूर्तायुषोऽसंज्ञिनो लब्ध्यपर्याप्तकाश्चेति तेषु तृतीयः प्रकारो लम्यत इति / तिरियगईए चउदस' इति तिर्यग्गतौ चतुशापि जीवस्थानानि भवन्ति / यतस्तस्यामेकेन्द्रिया विकलेन्द्रियाः संश्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाश्च प्राप्यन्ते / उक्तानि गतिषु जीवस्थानानि, साम्प्रतमिन्द्रियेषु तान्येवाह-एगिदिएसु आइमा चउरा' एकेन्द्रियेवादिमानि पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरलक्षणानि चत्वारि जीवस्थानानि भवन्ति, शेषस्यासंभवात् // 18 // .. बितिचउरिंदिसु दो दो, अंतिम च उगे पणिदिसु 'भवंति। थावरपणगे पढमा, चउरो चरमा दस तसेसु // 19 // - (हारि०) व्याख्या-द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु प्रत्येकं 'वे दुवे' पर्याप्तापर्याप्तकलक्षणे जीवस्थानके / तथा 'अन्तिमानि' पर्यन्तवर्तीनि 'चत्वारि' पर्याप्तापर्याप्तकासंज्ञिसंज्ञिरूपाणि जीवस्थानानि भवन्तीति संबन्धः / केषु ? इत्याह-पञ्वेन्द्रियेषु / इत्येवमिन्द्रियेषु मार्गितानि जीवस्थानानि, सम्प्रति कायेषु तान्येवाह- स्थावर पञ्चके' पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिलक्षणे प्रथमानि' पूर्वाण्येकेन्द्रियसक्तानि पूर्वोक्तानि चत्वारि जीवस्थानानि भवन्ति / तथा 'चरमाणि' अन्त्यवर्तीनि दश जीवस्थानानि पूर्वोक्तैकेन्द्रियसत्कवर्जितानि, केषु ? 'सेसु' द्वीन्द्रियादिषु भवन्ति / इति गाथार्थः / / 19 / / इति कायेषु जीवस्थानान्युक्त नि, साम्प्रतं योगेषु तान्येवाह (मल०) द्वीन्द्रियेषु त्रीन्द्रियेषु चतुरिन्द्रियेषु च प्रत्येकं ई द्वे' पर्याप्तापर्याप्तलक्षणे जीवस्थानके भवतः / तथा पञ्चेन्द्रियेषु 'अन्तिमानि' पर्यन्तवर्तीनि पर्याप्तापर्याप्तसंश्यसंज्ञिलक्षणानि चत्वारि जीवस्थानानि न शेषाणि, असंभवात् / कायेष्वेतानि चिन्तयन्नाह-'याघर' इत्यादि / 1 हवन्ति / Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु जीवस्थानानि 'स्थावरपञ्चके' पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिलक्षणे प्रत्येकं 'प्रथमानि' पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियलक्षणानि चत्वारि जीवस्थानानि भवन्ति, स्थावरपश्चकस्यैकेन्द्रियत्वेन तत्संबन्धिनामेव जीवस्थाननां तत्र संभवात् / तथा चरमाणि' एकेन्द्रियसंवन्धीनि चत्वारि जीवस्थानानि वर्जयित्वा शेषाणि द्वीन्द्रियादिसंबन्धीनि दश जीवस्थानानि त्रसेषु लभ्यन्ते, द्वीन्द्रियादीनामेव त्रसत्वात् // 19 // " इदानीं योगादिष्वेतानि जीयस्थानानि यथालाघवमुपदिदर्शयिषुराह विगलतिअसन्निसन्नी, पज्जत्ता पंच होंति वइजोगे। मणजोगे सन्निको, पुमित्थिवेए चरम चउरो // 20 // (हारि०) व्याख्या-इह प्राकृतशैलीवशात्पुल्लिङ्गनिर्देशः / ततश्च विकलत्रिकासंज्ञिसंज्ञिलक्षणानि पर्याप्तकजीवस्थानानि पञ्च भवन्ति, क इत्याह-वाग्योगे / तथा मनोयोगे पर्याप्तसंक्येक जीवस्थानकम् / काययोगे पुनरग्रे वक्ष्यतीति / साम्प्रतं वेदेषु तान्याह-वेदशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात् पुरुषवेदस्त्रीवेदयोः 'घरमाणि' पर्यन्तवर्तीनि जीवस्थानानि पञ्चेन्द्रियसत्कानि चत्वारि भवन्तीति प्राक्तनेन योगः // इह अपर्याप्तश्च करणेन गृह्यते, न लब्ध्या, लब्ध्यर्याप्तकस्य सर्वस्यैव नपुसकत्वात् / अन्यच्च यंदवासंज्ञिनि स्त्रीपुसाभिधानं तत्कार्मग्रन्थिकमतेनैव द्रष्टव्यम् / सैद्धान्ति. कानां त्वसंज्ञी पयाप्तोऽपर्याप्तो वा नपुसक एव / तथा च प्रज्ञप्तिः-"असन्निपुच्छा गोयमा! नपुंसगवेयगा" मनुष्यासंज्ञिनस्तु लब्ध्यपर्याप्ता एव भवन्तीत्यतस्ते निर्विवादं नपुसका एव / इति गाथार्थः // 20 // उक्तानि वेदेषु जीवस्थानानि / अथ पूर्वायोजितकाययोगनपुसकवेदयोरग्रेतनपदपञ्चदशके च सर्वजीवस्थानानि / लाघवार्थ संगृह्य तत्प्रतिपादयन्नाह (मल०) विकलत्रिकं द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय 2 चतुरिन्द्रिय 3 लक्षणं, असंज्ञी 4 संज्ञी 5 च पर्याप्तः, इत्येतानि पञ्च जीवस्थानानि वाग्योगे भवन्ति न शेषाणि, तेषु वाग्योगासंभवात् / 'मणजोगे सन्निको' इति पर्याप्त इत्यनुवर्तते, मनोयोगे पर्याप्तः संश्येको लभ्यते नान्यः, तत्र मनःसद्भावायोगात् / तथा पुवेदे स्त्रीवेदे च चरमाणि पर्याप्तापर्याप्तसंश्यसंज्ञिलक्षणानि चत्वारि जीवस्थानानि भवन्ति / यद्यपि च सिद्धान्तेऽसंज्ञी पर्याप्तोऽपर्याप्तो वा सर्वथा नपुंसक एवोक्तः / तथा चोक्तं प्रज्ञप्तौ-"तेणं भंते ? असन्निपंचंदियतिरिक्खजोणिया कि इथिवेयगा पुरिसवेयगा नपुंसगवेयगा 1 गोयमा ? नो इत्थिवेयगा नो पुरिसवेयगा नपुंसकवे यगा" इति / तथाऽपीह स्त्रीपुसलिङ्गाकारमात्रमङ्गीकृत्य स्त्रीवेदे पुवेदे वाऽसंज्ञीनिर्दिष्ट इत्यदोषः / तदुक्तं पञ्चसंग्रहमूलटीकायाम्-"यद्यपि चासंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ नपुसको तथा 1 "वय०” इत्यपि पाठः / 2 “सन्नेको” इति जे / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे ऽपि स्त्रीपुसलिङ्गाकारमात्रमङ्गोकृत्य स्त्रीपुसावुक्ताविति / " अपर्याप्तकरचेह करणापर्याप्तको गृह्यते न लब्ध्यपर्याप्तकः, लव्यपर्याप्तकस्य सर्वस्यैव नपुंसकत्वात् // 20 // काओगिनपुंसकसायमइसुयअनाणअविरयअचक्खू / आइतिलेसा भवियरमिच्छ आहारगे सव्वे // 21 // (हारि०) व्याख्या-काययोगे 1 नपुंसकवेदे 2 कपायचतुष्के 6 अज्ञानशब्दस्य प्रत्येक ममिसंबन्धात् मत्यज्ञाने 7 श्रुताज्ञाने 8 अविरते 9 अचक्षुर्दर्शने 10 ''आइतिलेसा' इति कृष्णलेश्यायां 11 नीललेश्यायां 12 कापोतलेश्यायां 13 'भवियर' इति भव्येषु 14 अभव्येषु 15 मिथ्यादृष्टिषु 16 आहारके 17 चेति सप्तदशस्थानेषु सर्वाणि जीवस्थानानि भवन्तीति शेषः / इति गाथार्थः // 21 // ____ इत एकादशस्थानेषु लाघवार्थमेव संगृह्य पर्याप्तापर्याप्तसंक्षिपञ्बेन्द्रियरूपं जीवस्थानकद्वयं निरूपयन्नाह___(मल०) काययोगे नपुसकवेदे 'कषाये' क्रोधादिचतुष्टयरूपे अज्ञानशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धान्मत्यज्ञाने श्रुताज्ञाने 'अविरत' इति विरतिहीने अचक्षुदर्शने 'आदित्रिलेश्यासु' कृष्णनीलकापोतरूपासु 'भव्येतरेषु' इति भव्येश्वभव्येषु च तथा मिथ्यात्वे आहारके च सर्वाण्यपि जीवस्थाना न भवन्ति, जीवस्थानव्यापकत्वात्काययोगादीनाम् / / 21 / / मइसुयओहिदुगविभंगपम्हसुकासु तिसु य सम्मेसु / सन्निम्मि य दो ठाणा. सन्निअपजत्तपजत्ता // 22 // (हारि०) व्याख्या-मतिज्ञाने 1 श्रुतज्ञाने 2 'ओहिदुग' इति अवधिज्ञाने 3 अवधिदर्शने 4 च विभङ्गज्ञाने 5 पद्मलेश्यायां 6 शुक्ललेश्यायां 7 चेति, तथा 'तिसु य सम्मेस' इति त्रिषु च सम्यक्त्वेषु, तद्यथा-क्षायिके 8 क्षायोपशमिके 9 औपशमिके 10 च. संज्ञिनि११ च, 'दो ठाणा' इति द्वे जीवस्थानके पर्याप्तापर्याप्तकसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणे इत्येकादशस्थानेषु जीवस्थानकद्वयमित्याह / इह भावना चैवम्-मतिश्रुतावधिद्विकविभङ्गपद्मशुक्ललेश्यावतां देवादिभ्यश्च्युनानां संज्ञिपञ्चेन्द्रिये त्पन्नानां प्रथममपर्याप्तकसंज्ञिलक्षणं जीवस्थानकं प्राप्यते / पर्याप्तं च जीवस्थानकमेतेषु सुज्ञानमेव / तथा 'तिसु य सम्मेसु' इति त्रिषु च सम्यक्त्वेषु क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकलक्षणेषु पर्याप्तापर्याप्तकसंज्ञिपञ्वेन्द्रियलक्षणं जीवस्थानकद्वयं भवतीत्युक्तम् / तत्र क्षायिकसम्यग्दृष्टिः संज्ञिपञ्चेन्द्रियः पर्याप्तकः करणापर्याप्तकश्च सर्वगतिषु तावल्लभ्यते / कथमत्रापर्याप्तको लभ्यते ? इति चेत् , उच्यते, इहकश्चित्पूर्व बद्धायुष्कः क्षायिकसम्य 1 "आइतिलेस. त्ति" इति जे० / 2 "वि” इत्यपि पाठ / 3 “उ” इत्यपि पाठः / Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 183 मार्गणास्थानेषु जीवस्थानानि क्त्वमुत्पाद्य गतिचतुष्टयस्यान्यतरस्यां गतावुत्पद्यमानः प्रथममपर्याप्तकः क्षायिकसम्यग्दृष्टिलभ्यते पर्याप्तः सुप्रतीत एव / क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिस्तु देवादिभ्योऽनन्तरमिहोत्पद्यमानस्तीर्थकरादिरपर्याप्तकः प्राप्यते / पर्याप्तकः पुनरत्रापि सुज्ञान एव / औपशमिकसम्यक्त्वे पर्याप्तकसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय एव लभ्यते, अपर्याप्तकसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पुनरौपशमिकसम्यक्त्वाभावात् / अन्ये तु संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्यापर्याप्तस्यापि व्यवहारनयमताभिप्रायेणौपशमिकसम्यक्त्वं वर्णयन्ति, तच्च नावगच्छामः / तथाहि-अपर्याप्तावस्थायां तावदेतत्सम्यक्त्वं नोत्पादयति, तथाविधशुद्धयभावात् / पारभविकं तर्हि भविष्यति ? इति चेत् , तदपि न युक्तिक्षमम् , तथाहि-यो मिथ्यादृष्टिः संस्तत्प्रथमतयौपशमिकसम्यक्त्वमवाप्नोति स तद्भावमापन्नः कालं न करोत्येव / / यत उक्तम्-"अणबंधो 1 दय 2 माउगबंधं 3 कालंपि 4 सासणे कुणह / उवसमसम्मद्दिट्ठो, चउण्हमेगंपि नो कुणइ // 1 // " उपशमश्रेणेमृत्वाऽनुत्तरसुरेषूत्पन्नस्यापर्याप्तकस्यैतल्लभ्यते इति चेत् , एतदपि न मन्यामहे, तस्य प्रथमसमय एव सम्य. क्त्वपुद्गलोदयात् / उक्तं च शतकचूामस्मिन्नेव विचारे-"जो उवसमसम्मदिठो उघ. समसेढीए कालं करेइ, सो पढमसमए चेव सम्मत्तपुजं उदयावलियाए छोटूण सम्मत्तपोग्गले वेएइ, तेणं न उवसमसम्मपिट्ठी अपजत्तगो लम्भइ / " इत्यादि / तस्मात्पर्याप्तकसंज्ञिलक्षणमेकमेव जीवस्थानकमत्र प्राप्यते इति स्थितम् / इह तु ग्रन्थे' मतान्तरमाश्रित्यौपशमिकसम्यक्त्वे जीवस्थानकद्वयमुक्तम् / इति गाथार्थः // 22 // साम्प्रतं दशसु स्थानेषु लाघवार्थमेव पर्याप्तसंज्ञिरूपमेकजीवस्थानकं चक्षुर्दर्शने च सविकल्पजीवस्थानकानि निरूपयन्नाह (मल०) मतौ श्रुते अवधिद्विके इति-अवधिज्ञाने अवधिदर्शने च तथा विभङ्गज्ञाने पद्मश्यायां शुक्ललेश्यायां 'त्रिषु च सम्यक्त्वेषु' क्षायोपशमिकक्षायिकौपशमिकेषु संज्ञिनि च प्रत्येकं द्वंद्व जीवस्थानके पर्याप्तापर्याप्तसंज्ञिलक्षणे भवतः न शेषाणि, तेषु मिथ्यात्वादिकारणतो मतिज्ञानादीनामसंभवात् / अत एव च हेतोरिहापर्याप्तकः करणापर्याप्तको गृह्यते न लब्ध्यपर्याप्तकः, तस्य मिथ्यादृष्टित्वादिति / आह क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकेषु कथं संज्ञी अपर्याप्तको लभ्यते ? उच्यते, इह कश्चित् पूर्वबद्धायुष्कः क्षपकश्रेणिमारभ्यानन्तानुवन्ध्यादिसप्तकक्षयं कृत्वा क्षायिकसम्यक्त्वमुत्पाद्य यदा गतिचतुष्टयस्यान्यतरस्यां गतावुत्पद्यते तदाऽसौ अपर्याप्तकः क्षायिकसम्यक्त्वे प्राप्यते / क्षायोपशमिकसम्यक्त्वयुक्तश्च देवादिभ्योऽनन्तरमिहोत्पद्यमानस्ती.. 1 इतोऽग्रे-व्यवहारनय-' इत्यधिकः पाठः / 2 इतः परम्-"दशुमलेश्याकत्वादसंज्ञित्वाच्चेति" इत्येतत्पाठः क्वचित्पुस्तकेऽधिको लभ्यते / / Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे र्थङ्करादिरपर्याप्तकः सुप्रतीत एव / औपशमिकसम्यक्त्वं पुनरपर्याप्तावस्थायामनुत्तरसुरस्य द्रष्टव्यम् / इह केचिदपर्याप्तावस्थायामौपशमिकं सम्यक्त्वं नेच्छन्ति / तथा च ते आहुः-न तावदस्यामेवापर्याप्तावस्थायामिदं सम्यक्त्वमुपजायते, तदानीं तस्य तथाविधविशुद्धयभावात् / अथै तत्तदानीं मोत्पादि यत्तु पारभविकं तद्भवत्केन विनिवार्यत इतिमन्येथाः, तदपि न युक्तम् , यतो यो मिथ्यादृष्टिस्तत्प्रथमतया सम्यक्त्वमौपशमिकमवाप्नोति स तावत्तद्भावमापन्नः सन् कालं न करोत्येव / यदुक्तमागमे-"अणबंधो 1 दय 2 माउगबंधं 3 कालं 4 च सासणो कुणइ उषसमसम्मदिट्टी, पउण्हमेकंपि नो कुणइ / 1 // " यस्तूपशमश्रेणिमारूढः सन् मृत्वा. ऽनुत्तरसुरेपूत्पद्यते तस्य प्रथमसमय एव सम्यक्त्वपुद्गलोदयात् क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं भवति न त्वौपशमिकम् / उक्तं च शतकबृहच्चूणौं-"जो उवसमसम्मट्ठिी उवसमसेढोए काल करेइ सो पदमसमए चेव सम्मत्तपुजं उदयावलियाए छोदण सम्मत्तपोग्गले वेयइ, तेण न उवसमसम्महिटो अपजत्तगोलन्भइ" इत्यादि / अपरे पुनराहुः-भवत्येवापर्याप्तावस्थायामप्यौपशमिकं सम्यक्त्वम् , सप्ततिचूादिषु तथाऽभिधानात् / सप्ततिचूर्णी हि गुणस्थानकेषु नामकर्मणो बन्धोदयादिमार्गणावसरेऽविरतसम्यग्दृष्टेरुदयस्थानचिन्तायां पञ्चविंशत्युदयः सप्तविंशत्युदयश्च देवनारकानधिकृत्योक्तः / तत्र नारकाः क्षायिकवेदकसम्यग्दृष्टयः, देवाश्च त्रिविधसम्यग्दृष्टयोऽपि / तथा च तद्गन्थः-"पणवीस सत्तावीसोदया देवनेर. इए पडुच नेरइगो खइगवेयगसम्मदिट्टी देवो तिविहसम्म हिट्ठी वि" इति / पञ्चविंशत्युदयश्च शरीरपर्याप्ति निर्वतैयतः / सप्तविंशत्युदयश्च शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य शेषपर्याप्तिभिः पुनरपर्याप्तस्य / ततोऽपर्याप्तावस्थायामपीहौपशमिकं सम्यक्त्वमुक्तम् / तथा पञ्चसंग्रहेऽपि मार्गणास्थानकेषु जीवस्थानकचिन्तायामौपशमिकसम्यक्त्वे- "उवसमसम्मंमि, दो सपणी" इत्यनेन ग्रन्थेन संज्ञिद्विकमुक्तम् / ततश्चाचार्येणापीहोक्तम्-"तिमु य सम्मेसु' इति / सत्वं पुनः केवलिनो विदन्तीति // 22 // मणपज्जवकेवलदुगसंजयदेसजयमीसदिट्ठीसु / सन्नीपज्जो चक्खुम्मि तिन्नि छ व पज्जियर चरमा // 23 // (हारि०) व्याख्या-मनःपर्यायज्ञाने 1 'केवलदुग' इति केवलज्ञाने 2 केवलदर्शने च 3 'संजय', 'इति गुणगुणिनोरभेदोपचारेण संयमो गृहीतस्ततः सामायिके 4 छेदोपस्थापनीये 5 परिहारविशुद्धिके 6 सूक्ष्मसंपराये 7 यथाख्याते 8 'देशविरतौ 6 मिश्रदृष्टौ 10 च संज्ञिपर्याप्तकपञ्चेन्द्रियरूपमेकं जीवस्थानकं दशसु स्थानेषु भवतीति शेषः / तथा '1 सप्ततिका चूर्णिः / 2 “सन्नी सम्ममि दोण्णि" इत्यपि पाठः। 3 "अर" इत्यपि पाठः। 4-5 "त्ति” इति जे / “देशयतौ” इति जे / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु जीवस्थानानि [ 185 चक्षुर्दर्शने त्रीणि जीवस्थानानि पर्याप्तकचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपाणि भवन्तीति / अत्रैवं विकल्पमाह-"छ व पजियर चरमा" इति षड् वा पर्याप्तापर्याप्तरूपाणि चरमाणि जीवस्थानानि चतुरिन्द्रियप्रभृतीनां भवन्तीति शेषः / इह कैश्चिदिन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तावस्थायामपि चक्षु. दर्शनाभ्युपगमात् / इति गाथार्थः // 23 // तथा' (मल०) मनःपर्यायज्ञाने 'केवलहिके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे 'संयतेषु' सामायिकादिपश्चप्रकारसंयमवत्सु देशयते मिश्रदृष्टौ च संज्ञिपर्याप्तलक्षणमेकं जीवस्थानं प्राप्यते नान्यत् / तथाहि-न तावन्मनःपर्यायज्ञाने केवलद्विके पश्चप्रकारे च सामायिकादौ संयमे देशसंयमे चान्यजीवस्थानकं संभवति, तत्र सर्वदेशविरत्योरभावात् / सम्यग्मिथ्याद्रष्टिता च पर्याप्तसंझिव्यतिरेकेण शेषेषु जीवस्थानकेषु तथाविधपरिणामाभावान संभवतीति / 'चक्खुमि तिलि' इति चक्षदर्शने त्रीणि जीवस्थानकानि पर्याप्तचतुरिन्द्रियोसंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि भवन्ति नान्यानि, तेषु तदसंभवात् / अत्रैव मतान्तरेण विकल्पमाह-'छ व पजियर घरमा' इति षड्वा पर्याप्तापर्याप्तरूपाणि चरमाणि जीवस्थानकानि चक्षुर्दर्शने भवन्ति, चतुरिन्द्रियादीनामिन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्तानां शेषपर्याप्त्यपेक्षयाऽपर्याप्तानामपि आचार्यान्तरैश्चक्षुर्दर्शनाभ्युपगमात् / तदुक्तं पश्चसंग्रहमूलटीकायाम्-'करणापर्याप्तकेषु चतुरिन्द्रियादिष्विन्द्रियपर्याप्तौ सत्यां चक्षुदर्शनं भवति" / इति // 23 // सत्त उ सासाणे बायराइ छ अपज्ज सन्निपज्जो य / तेउल्लेसे बायरअपजत्तो दुविह सन्नी य // 24 // . (हारि०) व्याख्या-सप्तैव तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् जीवस्थानानि, क ? इत्याह-'सासादने' कानि तानि ? इत्याह-बादरादीनि षडपर्याप्तानि / अयमर्थः-सासादनभावे मृतस्य बादरादिधूत्पन्नस्य तेषु तत्प्राप्यते, अतः सासादने तानि षट् प्राप्यन्त इति / तथा संज्ञि पर्याप्तच सासादने सप्तम इति / तथा 'तेउल्लेसे' इति तेजोलेश्यायामपर्याप्तबादरजीवस्थानकमेकम् , देवेभ्यश्च्युतस्य भूदकतरुपूत्पन्नस्यापर्याप्तावस्थायां प्राक्तनी तेजोलेश्या प्राप्यते इत्याशयः / तथा द्विविधः संज्ञी पर्यप्तापर्याप्तरूप इति द्वयमिति तेजोलेश्यायां त्रीणि जीवस्थानानि / इति गाथार्थः // 24 // तथा(मल०) 'सासादने' सासादनसम्यक्त्वे सप्त जीवस्थानकानि भवन्ति, कानि ? इत्यत आह. 'पादरादयः' बादरैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः षट् अपर्याप्तकाः १"मत्ति" इति जे० / 2 "त्ति' जे / Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे संज्ञी पर्याप्तकश्च / नन्वेकेन्द्रियाणामागमे सासादनभावो नेप्यते तत्कथमिहापर्याप्तवादरैकेन्द्रियलक्षणं जीवस्थानकं सासादनेऽभिहितम् ? इति, सत्यमेतत् , किन्तु मा त्वरिष्ठाः, सर्वमेतदाचार्य एवाग्रे निर्णेष्यतीति / तेजोलेश्यायां त्रीणि जीवस्थानकानि भवन्ति, किम्' ? इत्याहबादरोऽपर्याप्तो, द्विविधश्च पर्याप्तापर्याप्तभेदेन संज्ञीति / वादरोऽपर्याप्तकः कथमवाप्यते ? इति घेद , इह भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवाः पृथिवीजलवनस्पतिषु मध्ये उत्पद्यन्ते ते च तेजोलेश्यावन्तः / यल्लेश्यश्च म्रियते अग्रेऽपि तल्लेश्य एवोत्पद्यते-"जलेसे मरइ तल्लेसे उववजह" इतिवचनात् / अतो बादरापर्याप्तावस्थायांकियत्कालं तेजोलेश्याऽवाप्यते ? इति न कश्चिद्दोषः // 24 // अस्सन्नि आइ बारस, अणहारे अट्ठ सत्तअपजत्ता। .. सन्नी पज्जत्तो तह. इय गइ याइसु जियाणा // 25 // (हारि०) व्याख्या-असंज्ञिनि मनोविज्ञानविकले, किम् ? इत्याह- आइ' इति विभक्तिलोपादाद्यानि द्वादश जीवस्थानानि संज्ञिपञ्चेन्द्रियसत्कजीवस्थानकद्वयवर्जितानि / तथाऽनाहारकेऽष्टौ जीवस्थानानि, कथम् ? सप्तापर्याप्तजीवस्थानानि संज्ञिपर्याप्तकं च जीवस्थानकमष्टममिति / तच्च केवलिसमुद्धाते तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु कार्मणकाययोगे प्राप्यते / तथा चोक्तम् "कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थके परमे तृतीये च / समयत्र येऽपि तस्मिन् , भवत्यनाहारको नियमात् // 1 // " इह यद्यपि केवली मनोविज्ञानविकल्परहितस्तथाऽपि द्रव्यमनः समाश्रित्य संज्ञिग्रहणेन गृहीतः / इति गत्यादिषु जीवस्थानान्युक्तानीति शेषः / इति गाथार्थः / / 2 / / इति मार्गितानि मार्गणास्थानेषु चतुर्दशापि जीवस्थानानि, साम्प्रतमेतेष्वेव गुणस्थानकान्यभिधित्सुस्तन्नामसूचामाह (मल०) 'असंजिनि' संझिव्यतिरिक्त 'आइ पारस' इति आदिमानि द्वादश जीवस्थानकानि भवन्ति, सर्वेषामपि विशिष्टमनोविकलतया संज्ञिप्रतिपक्षत्वाविशेषात् , संज्ञिप्रतिपक्षस्य चाऽसंज्ञित्वेन व्यवहारात् / तथाऽनाहारकेऽष्टौ जीवस्थानकानि भवन्ति, कानि ? इत्यत आह-सप्तापर्याप्तकाः सूक्ष्मैकेन्द्रियादयः विग्रहगतावेकं द्वौ त्रीन् वा समयान् यावत्तेषामाहारासंभवात , संज्ञी च पर्याप्तकः, स च केवलिसमुद्धातावस्थायां तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु / तदुक्तम्"चतुर्थपश्चमतृतीयेष्वनाहारकः" इति / उपसंहारमाह-इय' इत्यादि / इतिरेवमुफ्तेन प्रकारेण 'गत्यादिषु' मार्गणास्थानकेषु जीवस्थानकानि भवन्तीति // 25 // . 1 "कानि ? इत्याह-" इत्यपि पाठः / 2 "आइसु” इत्यपि पाठः / 3 "त्ति" इति जे० / Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु जीवस्थामि तथौघतो गुणस्थानकानि [187 ___ तदेवमुक्तानि मार्गणास्थानेषु जीवस्थानकानि, साम्प्रतमेतेष्वेव गुणस्थानकान्यभिधिसुस्तान्येव तावत्स्वरूपतो निर्दिशति मिच्छे 1 सासण 2 'मिस्से 3 अविरय 4 देसे 5 पम-त६ अपमत्ते 7 / नियट्टि 8 अनियट्टि 9 सुहुमु 10 वसम 11 खीण 12 सजोगि 13 अजोगि 14 गुणा // 26 // (होरि०) व्याख्या-सूचकत्वात्सूत्रमितिन्यायात्पदावयवेषु पदमुदायोपचाराद्वा / तथा एकारान्ताः शन्दाः प्रथमान्ता ज्ञेयाः प्राकृतशैलीवशात् / “कयरे आगच्छइ दिनरूवे" इत्यादिवदिति यथायोगं शब्दसंस्कारादि कार्यम् / तत्र मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् 1, सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् 2, सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् 3, अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् 4, देशविरतिगुण. स्थानम् 5, प्रमत्तसंयतगुणस्थानम् 6, अप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् 7, अपूर्वकरणगुणस्थानम् 8, अनिवृत्तिवादर संपरायगुणस्थानम् 9, सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानम् 10, उपशान्तकषायवीतरागच्छमस्थगुणस्थानम् 11, क्षीणकषायवीतरागच्छमस्थगुणस्थानम् 12, सयोगिकेवलिगुणस्थानम् 13, अयोगिकेवलिगुणस्थानम् 14 'गुणाः' इति गुणस्थानकानि / एवं गुणस्थानकपदसंस्कारः / पदार्थस्तु कर्मस्तवटीकातोऽवधारणीयः / स्थानाशून्यार्थं कश्चिद्गाथाभिः कथ्यते / ताश्चेमाः- "जीवाइपयत्थेसु, जिणांवइटेसु जा असहहणा / सद्दहणावि य मिच्छा, विवरोयपरूनणा जा य॥१॥ संसयकरणं जंपि य, जो तेसु अणायरा पयत्थे सु / तं पञ्चविहं मिन्छ, तदिट्ठी मिच्छदिट्ठा य // 2 // उवसमअडाएँ ठिओ, मिच्छमपत्तो तमेव गंतुमणो / सम्मं आसायंतो, सासायणमो मुणेयव्वो // 3 // जह गुडदहीणि विसमाइभाव. सहियाणि हुंनि मिस्साणि / भुजंतस्स तहोभय, तद्दिट्ठी मोसविट्ठो य // 4!! तिषिहे विहु सम्मत्ते, थेवा वि न विरह जस्स कम्मवसा / सो अविरओ त्ति भण्णइ, देसो पुण देसविरईए।५ / विकहाफसायनिदासदाइरो भवे पमत्तोत्ति। पंचसमिओ तिगुस्तो, अपमत्तजई मुणेयव्वो // 6 // अप्पुव्वं अप्पुव्वं जहुत्तरं जो करेइ ठिइखंडं / रसखंडं तम्घाय सा होइ अपुवकरणा त्ति |7|| विणिवदंति विसुर्डि, समयपहटा वि जत्थ अनोमं / तत्तो नियटिठाणं, विवरोयमओ य अनियही ॥|थलाण लोभखंडाण वेयगो बायरो मुणेयव्वो / सहमाण होई सुहमो, उवसंतेहिं तु उवसंतो // 9 // वीणमि मोहणोए, वीणकसाभो सजोगजोगि सि / हाइ पउत्ता य तओ, अपउत्ता होइ हु अजोगी // 10 // इति संक्षेपतो .1 "मीसे" इत्यपि पाठः / 2 “दिति कार्यम्" इत्यपि पाठः / Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्ये गुणस्थानकीर्तनम् / अथैतेषामेव शिष्यजनहितार्थ कालप्रमाणं गाथाभिरेव कथ्यते-"मिच्छत्तमभव्वाण, अणोइयमणंतयं मुणेयव्वं / मव्वाणं तु अणाइयसपजसियं च सम्मत्से / / 1 / छावलियं सासाणं, समहियतेत्तीससागर चउत्थं / देसूणपुषकोडो पचमग तेरसं च पुढो / लशुपंचव स्वरचरम, तइयं छहाइयारसं जाव / इय अहगुणहाणा, अंतमुटुसा य पसेयं / / 3 / / " अर्थतेषु गुणस्थानकेषु गृहीतेषु जीवो भवान्तरं याति उत न ? इत्याह-"मिच्छे सासाणे वा अविरयसम्ममि अहव गहियंमि / जति जिया परलोए, सेसेकारसगुणे मोत्तु // 1 // " अथ केषु नियन्ते केषु च न ? इति कथ्यते-"मीसे 1 वीणि 2 सजोगा 3 न मरंतेकारसेसु उ मरंति / तेसु वि तिसु गहिएसु', परलोगगमो न अडेसु।।१।।" इति गाथार्थः // 26 // साम्प्रतमेतानि मार्गणास्थानेष्वभिधित्सुः पूर्व तावद्गतीन्द्रियेषु मायाह (मल०) सूचनात्सूत्रमितिन्यायात्पदैकदेशेऽपि पदसमुदायोपचाराद्धा / इहैवं गुणस्थानकनिर्देशो द्रष्टव्यः / तद्यथा-मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् 1, सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् 2, सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् 3, अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् 4, देशविरतगुणस्थानम् 5, प्रमत्तसंयतगुणस्थानम् 6, अप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् 7, अपूर्वकरणगुणस्थानम् 8, अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानम् 9, सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानम् 10, उपशान्तकषायवीतरागच्छमस्थगुणस्थानम् 11, क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानम् 12, सयोगिकेवलिगुणस्थानम् 13, अयोगिकेवलिगुणस्थानम् 14 इति / तत्र मिथ्या विपर्यस्ता दृष्टिर्जीवाजीवादिवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य भक्षितहृत्पूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत्स मिध्यादृष्टिः, गुणस्थानशब्दः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, मिथ्यादृष्टेगुणस्थानं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् / ननु यदि मिथ्यादृष्टिस्ततः कथं तस्य गुणस्थानसंभवः 1, गुणा हि ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाः, तत्कथं ते दृष्टौ विपर्यस्तायां भवेयुः 1 इति, उच्यते, इह यद्यपि तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणात्मगुणसर्वघातिप्रबलमिथ्यात्वमोहनीयविपाकोदयादस्तुप्रतिपत्तिरूपा दृष्टिरसुमतो विपर्यस्ता भवति, / तथापि काचिन्मनुष्यपश्वादिप्रतिपत्तिरन्ततो निगोदावस्थायामपि तथाभूताव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिप्रत्तिरविपर्यस्ताऽपि भवति / यथाऽतिवहलधनपटलसमाच्छादितायामपि चन्द्रार्कप्रभायां काचित्प्रभा, तथाहि-समुन्नतातिबहलजीमूतपटलेन दिवाकररजनिकरकरनिकरतिरस्कारेऽपि नैकान्तेन तत्प्रभानाशः संपद्यते, प्रतिप्राणिप्रसिद्धदिनरजनीविभागाभावप्रसङ्गात् / उक्तं च-"सुटु वि मेहसमुपए, होइ पहा चंदसूराणं।" इति / एवमिहापि प्रवलमिथ्यात्वोदयेऽपि काचिदविपर्यस्तापि दृष्टिर्भवतीति तदपेक्षया मिथ्यादृष्टेरपि गुणस्थानकसंभवः / यद्येवं ततः कथमसौ मिथ्यादृष्टिरेव ? मनुष्यपश्वादिप्रतिपत्त्यपेक्षया अन्ततो निगोदावस्थायामपि तथाभूताव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्यपेक्षया वा सम्यग्दृष्टित्वात् , Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकानि [186 नैष दोषः, यतो भगवदहत्प्रणीतं सकलमपि द्वादशाङ्गार्थमभिरोचयमानोऽपि यदि तद्गतमेकमप्यारं न रोचयति सहानीमप्येष मिथ्यादृष्टिरेवोच्यते, तस्य भगवति सर्वज्ञे प्रत्ययनाशात् / तदुक्तम्-'सूत्रोत्तास्यकस्याऽप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः / मिथ्यादृष्टिः सूत्रं, हि म. प्रमाणं जिनाभिहितम् // 1 // " इति / किं पुनः शेषो भगवदर्हद भिहितयथावजीवाजीवादिवस्तुतत्वप्रतिपत्तिविकल इति यत्किंचिदेवैतत् / मिथ्यात्वं च पञ्चधा तचोपरिष्टाइक्ष्यामः / आयमोपशमिकसम्यक्त्वलाभलक्षगं सादयति अपनयतीति आसादनं अनन्तानुबन्धिकषायवेदनम् / अत्र पृषोदरादित्वाद्यशब्दलोपः / "कृषहुलं" इतिवचनाच कर्तरि अनट् / सति हि अस्मिन् परमानन्दरूपानन्तसुखफलदो निःश्रेयसतरुबीजभूत औषशमिकसम्यक्त्वलामो जवन्यतः समयमात्रेण उत्कतिः पड्भिरावलिकाभिरपगच्छतीति / ततः सह आसादनेन वर्तत इति सासादनः / सम्यग अविपर्यस्ता दृष्टिर्जिनप्रणीतवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः, सासादनश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च सासादनसम्यग्दृष्टिः तस्य गुणस्थानं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् / सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमिति वा पाठः / तत्र सह सम्यक्त्वलक्षणरसास्वादनेन वर्तत इति सास्वादनः / यथा हि भुक्तक्षीरानविषयव्यलीकचित्तः पुरुषस्तद्वमनकाले क्षीरानरसमास्वादयति * तथैषोऽपि मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरि व्यलीकचित्तः सम्यक्त्वमुद्वमन् तद्रसमास्वादयति / ततः स चासौ सम्यग्दृष्टिश्च तस्य गुणस्थानं सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् / एतच्चैवं भवति, इह गम्भीरापारसंसारपारावारमध्यमध्यासीनो जन्तुमिथ्यादर्शनमोहनीयादिप्रत्ययमनन्तपुद्गलपरावर्तान यावदनेकशारीरिकमानसिकदुःखलक्षाण्यनुभूय कथमपि तथाभव्यत्वपरिपाकवशतो गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पेनानाभोगनिर्वर्तितेन यथाप्रवृत्तकरगेन करगं परिणामोऽनेतिवचनादध्यवमायविशेषरूपेण ज्ञानावरणीयादिकर्माण्यायुर्वर्जानि सर्वाण्यपि पन्योपमासंख्येयभागन्यूनैकसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकानि करोति / अत्र चान्तरे जीवस्य कर्मपरिणामजनितो धनरागद्वेषपरिणामरूपः कर्कशनिबिडचिरप्ररूढगुपिलवल्कग्रन्थिवदुर्भेदोऽभिन्नपूर्वो ग्रन्थिर्भवति / तदुक्तम्-'तहि अंतरंमि जीवस्स / हवइहु अभिन्नपुठ्वो, गंठो एवं जिणा बैंति // गंठित्ति सुदुब्भेओ, कक्खडघणरूढगूढगंठि ब्ध / जीवस्स कम्मजणिओ, घणरागहोसपरिणामो // 1 // " इति / इमं च ग्रन्थि यावदभव्या अपि यथाप्रवृत्तकरणेन कर्म क्षपयित्वाऽनन्तशः समागच्छन्ति / यदुक्तमावश्यकटीकायाम्-'अभव्यस्यापि कस्यचिद्यथाप्रवृत्त करणतो प्रन्थिमासाचाहदादिविभूतिदर्शनतः प्रयोजनान्तरतो वा प्रवतमानस्य श्रुतसामायिकलाभो भवति न शेषलाभ इति / " एतदनन्तरं पुनः कश्चिदेव महात्मा समासन्नपरमनियतिसुखः समुल्लसित. प्रचुरदुर्निवारवीर्यप्रसरो निशितकुठारधारयेव परमविशुद्धया यथोक्तस्वरूपस्य ग्रन्थेर्भिदां विधाय Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] _____ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे मिथ्यात्वमोहनीयकर्मस्थितेरन्तमुहूर्तमुदयक्षणादुपरि अतिक्रम्यानिवृत्तिकरणसंज्ञितेन विशुद्धिविशेषेणान्तमुहूर्तकालप्रमाणमन्तरकरणं करोति / अत्र यथाप्रवृत्तकरणापू:करणानिवृत्तिकरणानामयं क्रमः-"जा गंठो ता पढम, गठि समइच्छता हवइ बीय / अनियट्टीकरणं पुण, सम्मत्तपुरक्खडे जीवे / / 1 / / " 'गठिं समइच्छओ' इति ग्रन्थि समतिक्रामतो भिन्दानस्येति यावत् , 'सम्मत्त पुरक्वडे' इति सम्यक्त्वं पुरस्कृतं येन तस्मिन् आसन्नसम्यक्त्वे जीवेऽनिवृत्तिकरणं भवतीत्यर्थः / तस्मिंश्चान्तरकरणे कृते सति कर्मणः स्थितिद्वयं भवति / अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमा स्थितिरन्तमुहूर्तप्रमाणा / तस्मादेव चान्तरकरणादुपरितनी द्वितीया / स्थापना चेयम् / तत्र प्रथमस्थितौ मिथ्यात्वदलिकवेदनादसौ मिथ्यादृष्टिरेव / अन्तर्मुहूर्तेन पुनस्तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवौपशमिकं सम्यक्त्वमवामोति मिथ्यात्वदलिकवेदनाभावात् / यथा हि वनदावानलः पूर्वदग्धेन्धनं वनमूपरं वा देशमवाप्य विध्यायति तथा मिथ्यात्ववेदनवनदवोऽपि अन्तरकरणमवाप्य विध्यायति, तथा च सति तस्यौपशमिकसम्यक्त्वलाभः / उक् च-"ऊसरदेसं ददिल्लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प / इय मिच्छस्स अणुदए, उवसमसम्म लहइ जीव। // 1 // " इति / तस्यां चान्तौहूर्तिक्यामुपशान्ताद्धायां परमनिधिलाभकल्पायां जघन्येन समयमात्रशेषायामुत्कर्षतः पडावलिकाशेषायां सत्यां कस्यचिन्महाविभीषिकोत्थानकल्पोऽनन्तानुबन्धिकषायोदयो भवति, तदुदये च सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके वर्तते, उपशमश्रेणिप्रतिपतितो वा कश्चित्सासादनत्वं याति / तदुत्तरकालं चावश्यं मिथ्यात्वोदयादसौ मिथ्यादृष्टिर्भवतीति / / तथा सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासो सम्यग्मिध्यादृष्टिः तस्य गुणस्थानं सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् / इहानन्तराभिहितविधिना लन्धेनौपशमिकसम्यक्त्वेनौषधविशेषकल्पेन मदनकोद्रवस्थानीयमिथ्यात्वमोहनीयं कर्म शोधयित्वा त्रिधा करोति / तद्यथा-शुद्धम् 1, अर्द्धविशुद्धम् 2, अविशुद्धं 3 चेति / स्थापना-AAA || तत्र त्रयाणां पुञ्जानां मध्ये यदाऽर्द्धविशुद्धः पुञ्ज उदेति तदा तदुदयवशाजीवस्या विशुद्धमहदभिहिततत्त्वश्रद्धानं भवति, तेन तदाऽसौ सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानमन्तमुहर्तकालं स्पृशति / तत ऊर्ध्वमवश्यं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा गच्छतीति / / तथा विरमति स्म सावद्ययोगेभ्यो निवर्तते स्मेति विरतः / “गत्यकर्मण्याधारे च" इति इतरि क्तप्रत्ययः / यथा शयितो देवदत्त इति / अत्र न विरतोऽविरतः / यद्वा तद्भावे क्तः' इति नपुसके भावे क्तप्रत्यये विरमणं विरतं सावद्ययोगप्रत्याख्यानम् , नास्य विरतमस्तीत्यविरतः स चासौ सम्यग्दृष्टिश्वेत्यविरतसम्यग्दृष्टिः / एष हि अविरतिप्रत्ययं दुरन्तनरकादिदुःखफलं कर्मबन्धम् / सावध-- योगविरतिं च परममुनिप्रणीतां सिद्धिसौधाध्यारोहणनिःश्रेणिकल्पां जाननपि न विरतिमभ्युपगच्छति, न च तत्पालनाय यतते अप्रत्याख्यानावरणकषायोदयविमितत्वात् / उक्तं च Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान कानि [ 191 "बंधं अविरइहेउं, जाणतो रागदोसदुधखं च / विरइसुहं इच्छंतो, विरई काउं च असमत्थो // 1 // एस असजयसम्मो, निंदंतो पावकम्मकरणं च / अहिगयजीवाजीवा, अचलियदिट्ठी पलियमाहो // 2 // " सम्यग्दृष्टित्वं चास्य पूर्वव्यावर्णितान्तरकरणकालसंभविनि औपशमिकसम्यक्त्वे विशुद्धदर्शनमोहपुञ्जोदयसंभविनि क्षायोपशमिकसम्यक्त्वे वा सर्वदर्शनमोहनीयक्षयसमुत्थक्षायिकसम्यक्त्वे वा सति द्रष्टव्यम् , तस्य गुणस्थानमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् / / तथा सर्वसावद्ययोगस्य देशे एकव्रतविषयस्थूलसावद्ययोगादौ सर्वव्रतविषयानुमतिवर्जसावद्ययोगान्ते विरतं विरतिर्यस्यासौ देशविरतः / सर्वसावद्ययोगविरतिस्त्वस्य नास्ति प्रत्याख्यानावरणकपायोदयात् / सर्वविरतिरूपं हि प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः / उक्तं च-'सम्मइंसणसहिओ, गिण्हंतो विरइमप्पसत्तीए / एगव्व याइचरिमो, अणुमइमंतो ति देसजई // 1 // परिमियमुवसेवंतो, अपरिमि. यमणतयं परिहरंतो। पावइ परम्मि लोए, अपरिमियमणतयं सोक्खं // 2 / / देशविरतस्य गुणस्थानं देशविरतगुणस्थानम् / / तथा संयच्छति स्म सम्यगुपरमति स्मेति संयतः / 'गत्यकर्मण्वाधारे च' इति कर्तरि क्तप्रत्ययः / प्रमाद्यति स्म संयमयोगेषु सीदति स्मेति प्रमत्तः, प्रर्ववत्कर्तरि क्तप्रत्ययः / यद्वा प्रमदनं प्रमत्तं प्रमादः, मदिराकपायविषयादिभेदात्पश्चप्रकारः, प्रमत्तमस्यास्तीति प्रमत्तः प्रमादवान् , "अभ्रादिभ्यः" इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः / प्रमत्तश्चासौ संयतश्च प्रमत्तसंयतः तस्य गुणस्थानं प्रमत्त संयतगुणस्थानम् / विशुद्धथविशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरूपभेदः / तथाहि-देशविरतगुणापेक्षयैतद्गुणानां विशुद्धिप्रकर्षोऽविशुद्धयपकर्षश्च / अप्रमत्त संयतगुणस्थानापेक्षया तु विपर्ययः / एवमन्येष्वपि गुणस्थानकेषु पूर्वोत्तरापेक्षया विशुद्धयविशुद्धिप्रकर्षापकर्ययोजना द्रष्टव्या // तथा न प्रमत्तोऽप्रमत्तः, यद्वा नास्ति प्रमत्तमस्येत्यप्रमत्तः स चासौ संयतश्च तस्य गुणस्थानमप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् / / ___ तथा अपूर्वमभिनवं प्रथममिति यावत्करणं स्थितिघात 1 रसघात 2 गुणश्रेणि 3 गुणसंक्रम 4 स्थितिबन्धानां 5 पश्चानामर्थानां निवतेनं यस्यासावपूर्वकरणः / तथाहि-बृहत्प्रमाणाया ज्ञानावरणीयादिकर्मस्थितेरपवर्तनाकरणेन खण्डनमल्पीकरणं स्थितिघात उच्यते / रसस्यापि च प्रचुरीभूतस्य सतोऽपवर्तनाकरणेन खण्डनमल्पीकरणं रसघातः / एतौ च द्वावपि पूर्वगुणस्थानकेषु विशुद्धेरल्पत्वादल्पावेव कृतवान् / अत्र पुनर्विशुद्धरतीवप्रकृष्टत्वात् बृहत्प्रमाणतयाऽपूर्वाविमौ करोति / तथोपरितनस्थितेर्विशुद्धिवशादपवर्तनाकरणेनावतारितस्य दलिकस्यान्तमुहूर्तप्रमाणमुदयक्षणादुपरि क्षिप्रतरक्षपणाय प्रतिक्षणमसंख्येयगुणवृद्धथा यद्विरचनं सा गुणश्रेणिः / स्थापना चेयम्-* // इमां च पूर्वगुणस्थानकेष्वविशुद्धत्वात्कालतो द्राधीयसीमप्रथीयसी च दलिकस्यापवर्तनाद्विरचितवान् / इह पुनर्विशुद्धतरत्वादपूर्वा कालतो ह्रस्वतरां पृथुतरां च प्रभूततरदलिक Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे स्यापवर्तनाद्विरचयतीति / तथा बभ्यमानशुभप्रकृतिष्ववध्यमानाशुभप्रकृतिदलिकस्य प्रतिसमयमसंख्येयगुणवृद्धया विशुद्धिवशान्नयनं गुणसंक्रमः, तमपीह पूर्वां करोति / तथा स्थितिं कर्मणां प्राग् अशुद्धत्वाद्राधीयसीं चद्धवान् , इह तु तामपूर्वी विशुद्धिवशाद् हुमीयसीं बनातीति / एवं चापूर्वकरणो द्विधा, क्षपक उपशमकश्च / क्षरणोपशमाहत्वाच्चैवमुच्यते / राज्यार्हकुमारराजवत् / न पुनरसो क्षपयति उपशमयति वा, तस्य गुणस्थानमपूर्वकरणगुणस्थानम् / अस्मिंश्च गुणस्थानके कालत्रयवर्तिनो नानाजीवानाश्रित्य प्रतिसमयं यथोत्तरमधिकवृद्धयाऽसंख्येयलोकाकाशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्ति / तथाहि-येऽस्य गुणस्थानकस्य प्रथमसमयं प्रतिपद्यन्ते प्रतिपत्स्यन्ते च तान् सर्वानपेक्ष्य जघन्यादीन्युत्कृष्टान्तान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते, क्वचित्कदाचित्केषांचित्तेषां प्रथमसमयवर्तिनां परस्परमध्यवसायस्थानना-. नात्वस्यापि भावात् / तस्य च नानात्वस्यैतावत एव केवलवेदिनोपलब्धत्वात् / अत एव चेदमपि न वाच्यम् , कालत्रयवर्तिनामेतद्गुणस्थानकप्रथमसमयप्रतिपत्तणामानन्त्यात्परस्परमध्यवसायस्थाननानात्वाच्चानन्तान्यध्यवसायस्थानानि प्राप्नुवन्तीति बहूनां प्राय एकाध्यवसायस्थानवर्तित्वाद्वितीयसमये तदन्यान्यधिकतराण्यध्यवसायस्थनानि लभ्यन्ते तृतीयसमये तदन्यान्यधिकतराणी चतुर्थसमये तदन्यान्यधिकतराणीत्येवं यावच्चरमसमयः / एतानि च स्थाप्यमानानि 1000 0 0 0 0 विषमचतुरस्र क्षेत्रमास्तृणन्ति / स्थापना / / ननु द्वितीयादिसमयेष्वध्यवसाय स्थानानां वृद्धौ किं कारणम् 1, उच्यते, तथास्वभावविशेषः / एतद्गुणस्थानकं प्रविपत्तारोहि प्रतिसमयं विशुद्धिप्रकर्षमासादयन्तः खलु स्वभावत एव ऊर्ध्वमद्धतरं गच्छन्तो बहवो विभिन्नेषु विभिन्नेप्वध्यवसायस्थानेषु वर्तन्त इति। अत्र चप्रथमसमयजघन्याध्यवसायस्थानात्प्रथमसमयोत्कृष्टमध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशुद्धम्। प्रथमसमयोत्कृष्टाध्यवसायस्थानाद्वितीयसमये जघन्यमध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशुद्धमिति / तस्मात्तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धमित्येवं यावद्विचरमसमयोत्कृष्टाध्यवसायस्थानाचरमसमयजघन्यमध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशुद्धम् / तस्मादपि तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धम् / इत्येकसमयगतानि चामृन्यध्यवसायस्थानानि परस्परमनन्तभागवृद्धा 1 ऽसंख्यातभागवृद्ध 2 संख्यातभागवृद्ध 3 संख्येयगुणवृद्धा 4 ऽसंख्येयगुणवृद्धा 5 ऽनन्तगुणवृद्ध 6 रूपषट्स्थानकपतितानि / युगपदेतद्गुणस्थानकप्रविष्टानां च परस्परमध्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिलक्षणा निवृत्तिरप्यस्ति, यथोक्तमनन्तरमितिकृत्वा निवृत्तिगुणस्थानकमप्येतदुच्यते / उक्तं च-'नियहि अनियहि वायरे सहमे' इति इदानीमनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानकमुच्यते-तत्र युगपद्गुणस्थानकं प्रतिपनानी बहूनामपि जीवानामन्योऽन्यमध्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिनिवृत्तिः सा नास्त्यस्येत्यनिवृत्तिः / समकालमेतद्गुणस्थानकमारुढस्यापरस्य यस्मिन् समये यदध्यवसायस्थानमसावपि विवक्षितः 0 . 0 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकानि [ 193 पुरुषस्तस्मिन् समये तदेवाध्यवसायस्थानमनुवर्तत इति यावत् / संपरेति पर्यटति संसारमनेनेति संपरायः कषायोदयः, बादरः सूक्ष्मकिट्टीकृतसंपरायापेक्षया स्थूरः संपरायो यस्य स बादरसंपरायः, अनिवृत्तिश्चासो बादरसंपरायश्च तस्य गुणस्थानं अनिवृत्तिवादरसंपरायगुणस्थानम् / तस्यां चानिवृत्तिवादरसंपरायगुणस्थानकाद्धायामान्तमौहूर्तिक्यां प्रथमसमयादारभ्य प्रतिसमयमनन्तगुणविशुध्धं यथोत्तरमध्यवसायस्थानं भवति / यावन्तश्चान्तहर्ते समयास्तावन्त्येवाध्यवसायस्थानानि तत्प्रविष्टानां भवन्ति नाधिकानि, एकसमयप्रविष्टानां सर्वेषामप्येकाध्यवसायस्थानत्वात् / स चानिवृत्तिवादरो द्वधा, क्षपक उपशमकश्च / क्षपयत्युपशमयति वा मोहनीयं कतिकृत्वा // तथा सूक्ष्मः किट्टीकृतः संपरायो लोभकषायोदयरूपो यस्य स सूक्ष्मसंपरायः / स द्विधा, क्षपक उपशमकश्च / क्षपयति उपशमयति वा लोभमेकमितिकृत्वा तस्य गुणस्थानं सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानम् / / तथा छादयति ज्ञानादिगुणमात्मन इति च्छम ज्ञानावरणीयादिघातिकर्मोदयः। छद्मनि तिष्ठतीति च्छमस्थः / च स सरागोऽपि भवतीति तद्वयवच्छेदार्थ वीतरागग्रहणम् / वीतो विगतो रागो मायालोभकषायोदयरूप उपलक्षणत्वादस्य द्वेषोऽपि क्रोधमानोदयरूपो यस्यासौ वीतरागः स चासौ छद्मस्थश्च वीतरागच्छद्मस्थः / स च क्षीणकषायोऽपि भवति तस्यापि यथोक्तरागापगमात् , अतस्तद्वयवच्छेदार्थमुपशान्तकषायग्रहणम् / उपशान्ता उपशमिता विद्यमाना एव सन्तः संक्रमणोद्वर्तनादिकरणविपाकप्रदेशोदयायोग्यत्वेन व्यवस्थापिताः कषायाः प्राङ्निरूपितशब्दार्था येन स उपशान्तकषायः स चासौ वीतरागच्छद्मस्थश्च तस्य गुणस्थानमुपशान्तकषायवीतरागच्छमस्थगुणस्थानम् / एतद्विनेयजनानुग्रहाय विशेषतो मूलत एव भाव्यते / तत्र प्रथमतोऽनन्तानुबन्धिकपायानविरतो देशविरतः प्रमत्तोऽप्रमत्तो वोपशमय्य ततो दर्शनमोहनीयत्रितयमु. पशमयति / कथमनन्तानुबन्धिनामुपशमनम् ? इति चेत् , उच्यते, योऽविरतादीनामन्यतमोऽनन्तानुवन्धिन उपशमयितु प्रयतते सोऽन्यतमस्मिन् योगे वर्तमानोऽवश्यं तेजःपद्मशुक्ललेश्याऽ. न्यतमलेश्यायुक्तः साकारोपयोगोपयुक्तोऽन्तःसागरोपमकोटीकोटीस्थितिसत्कर्मा प्रकृतीश्च बन्नाति परिवर्तमानाः शुभा एव / प्रतिसमयं चाशुभानां कमणामनुभागमनन्तगुणहान्या करोति, शुभानां चानन्तगुणद्वया / स्थितिवन्येऽपि च पूर्णे पूर्ण सत्यन्यं स्थितिबन्धं पल्योपमासंख्येयभागन्युनं करोति / करण कालापूर्वमपि चान्तमुहूर्त कालं यावदवदायमानचित्तसंततिरवतिष्ठते / स्थित्वा च तावन्तं कालमान्तमौर्तिकानि त्रीणि करणानि करोति / तद्यथायथाप्रवृत्तकरण 1 मपूर्वकरण 2 मनिवृत्तिकरणं 3 च / चतुर्थी तूपशान्ताद्धा / तत्र यथाप्रवृत्तकरणे प्रविशन् प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धथा विशुद्धया प्रविशति, न च तत्र स्थितिघातं रसघातं गुणश्रेणि गुणसंक्रमणं वा करोति तद्योग्यविशुद्धयभावात् / तस्यां चान्तमौहूर्तिक्यां यथाप्रवृत्तकरणादायां कालत्रयवर्तिनानाजीवापेक्षया प्रतिसमयमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि विशुद्धि Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे स्थानानि भवन्ति / प्रतिसमयं चैतानि सर्वाण्यपि षट्स्थानपतितानि / तत्र प्रथमसमये या जघन्या विशुद्धिः सा सर्वस्तोका / ततो द्वितीयसमये जघन्या विशुद्धिरनन्तगुणा / ततोऽपि तृतीयसमये जघन्या विशोधिरन्तगुणा / एवं तावद्रष्टव्यं यावत्तस्य यथाप्रवृत्तकरणस्यासंख्येयो भागो गतो भवति / ततोऽसंख्येयभागगतचरमसमयजघन्यविशुद्धः सकाशात्प्रथमसमये उत्कृष्टा विशुद्धिरनन्तगुणा / ततोऽपि यतो जघन्यविशुद्धिस्थानानिवृत्तस्तत उपरितनं जघन्यं स्थानमनन्तगुणम् / ततो द्वितीयसमये उत्कृष्टा विशुद्धिरनन्तगुणा। तत उपरितनं जघन्धं स्थानमनन्तगुणम् / ततस्तृतीयसमये उत्कृष्टा विशुद्धिरनन्तगुणा / एवमुपदर्शितक्रमेण जघन्यमुत्कृष्टं चामुश्चता सताऽनन्तगुणवृद्धया श्रेण्या तावज्ज्ञातव्यं यावद्यथाप्रवृत्तकरणस्यान्तिमं जघन्यं विशुद्धिस्थानम् / ततः शेषाण्युत्कृष्टानि स्थानानि सर्वाण्यप्यनन्तगुणवृद्धया श्रेण्या नेतव्यानि यावद्यथाप्रवृत्तकरणस्य चरमसमये उत्कृष्टं विशुद्धिस्थानम् / भणितं यथाप्रवृत्तकरणम् / / इदानीमपूर्वकरणमुच्यते१२° 0 0 0. 0 0 * deg 16 तत्रापूर्वकरणस्य प्रतिसमयमसंख्येयले काकाशप्रदेशप्रमाणानि 0 0 0 0 0 0 0 0 000.00 14 विशुद्धिस्थानानि भवम्ति, तानि च प्रतिसमयं षट्स्थानपति०००० deg 13 तानि / तत्र प्रथमसमये जघन्या विशुद्धिः सर्वस्तोका, सा च 4 यथाप्रवृत्तकरणचरमसमयोत्कृष्टविशुद्धिस्थानादनन्तगुणा। ततो ऽपि चापूर्वकरणस्य प्रथमसमय एवोत्कृष्टा विशुद्धिरनन्तगुणा / ततोऽपि च द्वितीयसमये जघन्या विशुद्धिरनन्तगुणा / एवं जघन्यमुत्कृष्टं चानन्तगुणवृद्धया श्रेण्या तावन्नेतव्यं यावदपूर्वकरणस्य चरमसमये जघन्यविशुद्धित उत्कृष्टा विशुद्धिरनन्तगुणा। स्थापना 60000000010| चेयम्- / / अस्मिंश्चापूर्वकरणे प्रविशन् स्थितिघातं रसघातं गुणश्रेणिं गुणसं७०००००००० 50000006 / क्रमं स्थितिबन्धं च युगपदारभते / तत्र स्थितिघातो नाम सत्कर्मणोऽग्रिम१००००२ | भागादुत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्त्वमात्रां जघन्यतः पल्योपमासंख्येयभागमात्रां स्थिति खण्डयति तद्दलिकं चाधस्ताद्याः स्थितीन खण्डयिष्यति तत्र प्रक्षिपति / अन्तमुहूर्तमात्रकालेन तद्दलिक खण्डयते / ततः पुनरपि ततोऽधस्तादुपदर्शितक्रमेणैव पल्योपमासंख्येयभागमात्र स्थितिखण्डमुत्किरति निक्षिपति च / एवमपूर्वकरणाद्धायामनेकानि स्थितिखण्डसहस्राणि भवन्ति / तस्य चापूर्वकरणस्य प्रथमसमये यत्स्थितिसत्कर्मासीत्तत्तस्यैव चरमसमये संख्ये यगुणहीनं जातम् / अधुनाऽनुभागधातो भण्यते-तत्र यदशुभप्रकृतीनामनुभागसत्कर्म तस्यानन्ततमभागमपहाय शेषस्य प्रतिसमयमनन्तानुभागभागान् विनाशयन् साकल्यतोऽन्तमुहूर्तमात्रेण विनाशमापादयति / ततः पुनरपि तस्यानन्तरमुक्तस्यानन्ततमभागस्यानन्तभागं विमुच्य शेषं प्रतिसमयमनन्ताननुभागभागान् विनाशयन् साकल्यतोऽनन्तमुहूर्तमात्रेण विनाशयति / ततः पुनरपि प्राग्मुक्तस्यानन्तभागस्यानन्तभागं मुक्त्वा शेषमन्तमुहूर्तमात्रेण पूर्वोक्तविधिना साकल्येन विनाशयति / एमेव 0wr.m066 0000000 0 000 000 . .00 |3000004 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकानि [ 165 कस्थितिखण्डोत्किरणकालेऽनेकान्यनुभागखण्डसहस्राणि व्यतिक्रामन्ति / स्थितिखण्डसहस्र स्त्वपूर्वकरणं परिसमाप्यते / तथा गुणश्रेणि कालतोऽपूर्वकरणकालतोऽनिवृत्तिकरणकालतश्च विशेषधिकां करोति / तत्रोदयक्षणादन्तमुहूर्तप्रमाणाभ्यः स्थितिभ्य उपरितनीनां स्थितीनां संबन्धिदलिकमादायोदयावलिकात उपरि वर्तमानासु स्थितिष्वन्तर्मुहूर्तप्रमाणासु मध्ये निक्षिपति / यच्च प्रथमसमयगृहीतं दलिकं निक्षिप्यते तत्प्रथमस्थितौ स्तोकम् , द्वितीयस्थितावसंख्येयगुणम् , तृतीयस्थितावसंख्येयगुणम् , एवं यावनिक्षेपविषयभूतान्तमुहूर्तचरमस्थितिः / द्वितीयसमयेऽपि यद्दलिकमन्तमुहूर्तादुपरितनस्थितिभ्यो. गृह्यते, ततः प्रथमसमयगृहीतदलिकादसंख्येयगुणम् , तदपि निक्षिप्यमाणं पूर्ववदेवावगन्तव्यम् / एवं तृतीयादिसमयेष्वपि ग्रहणनिक्षेपो द्रष्टव्यौ / विपाकानुभवतश्च क्षीयमाणास्वधस्तनस्थितिषु तत उपयु परितरमारभ्योदयावलिकात ऊर्व शेषासु स्थितिषु शेषसमयगृहीतं दलिकं निक्षिप्यते इति / अधुना गुणसंक्रमो भण्यते-तत्रापूर्वक रणस्य प्रथमसमये यदनन्तानुबन्धिकषायसंबन्धिदलिकं परप्रकृतौ संक्रमयति तत्स्तोकम् / ततो द्वितीयसमये संक्रम्यमाणमसंख्येयगुणम् / तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम् / एवं यावदपूर्वकरणाद्धायाश्चरमसमयः / तथाऽपूर्वकरणस्य प्रथमसमयेऽन्य एव स्थितिबन्ध आरभ्यते / स्थितिबन्धस्थितिखण्डे च युगपदारभ्येते युगपदेव च निष्ठां यातः / एवमेते पश्च पदार्था अस्मिन्नपूर्वकरणे युगपदारभ्यन्ते / गतमपूर्वकरणम् / इदानीमनिवृत्तिकरणमुच्यते अनिवृत्तिशब्दार्थभावना प्राग्वदवगन्तव्या / अत्रापि पूर्वोक्ताः स्थितिघातादयः पञ्च पदार्था युगपदारभ्यन्ते / तस्याश्वानिवृत्तिकरणाद्धायाः संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्स्वनन्तानुबन्धिनां कषायाणामन्तरकरणं करोति / तच्चैवम्अधस्तादावलिकामानं मुक्त्वा तत उपरिष्ठादन्तमुहूर्तमान स्थितिखण्डमुत्किरति / उत्कीर्यमाणं च दलिकं बध्यमानासु परप्रकृतिषु संक्रमयति / अन्तमुहूर्तमात्रकालेन च स्थितिवन्धकालसमेन तदन्तरकरणं परिसमाप्यते / तस्मिन्नेव च समये प्रथमस्थित्यावलिकागतं च दलिकं स्तिबुक' . संक्रमेण वेद्यमानासु परप्रकृतिषु प्रक्षिपति / उपरितनस्थितिगतं च दलिकमेवमुपशमयति-प्रथमसमये स्तोकम् / द्वितीयसमये ततोऽसंख्येयगुणम् / तृतीयसमये ततोऽसंख्येयगुणम् / एवमन्तर्मुहूर्तमात्रेणानन्तानुवन्धिनः साकल्येनोपशमयति / - अन्ये पुनराहुः-नैवानन्तानुबन्धिनामुपशमना भवति, किन्तु विसंयोजनैव, सा पुनरेवम्इहाविरतादयः क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टयथातुर्गतिका अपि / तद्यथा-नारका देवा अविरतसम्यग्डष्टयः, तिर्यश्चोऽविरतसम्यग्दृष्टयो देशविरता वा, मनुजा अविरतसम्यग्दृष्टयो देशविरताः सर्वविस्ता वा, यथासंभवं विशुद्धिपरिणामेन परिणममाना अनन्तानुबन्धिनां विसंयोजनार्थ यथाप्रवृत्तादीनि 1 अनुदीर्णमुदीर्णान्तस्तुल्यकालं प्रतिपक्षणम् / दलिकं संक्रमं याति येन स स्तिबुको मतः॥१॥ 2 "दलिकमुपशमयितुमारमते / तच्चैवम्" इत्यपि पाठः / / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 ] षडशतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थे त्रीणि करणानि कुर्वन्ति / तत्र यथाप्रवृत्तमपूर्व च प्राग्वत् / अनिवृत्तिकरणं पुनः प्राप्तः सन् अनन्तानुबन्धिनां स्थितिमुद्वलनासंक्रमेणोद्वलयन् तावदुद्वलयति यावत्पल्योपमासंख्येयभागामात्रं स्थितम् / तदपि च बध्यमानासु मोहनीयप्रकृतिषु परिणमयति प्रथमसमये स्तोकम् , द्वितीय समयेऽसंख्येयगुणम् / एवं यावच्चरमसमये आवलिकागतं मुक्त्वा शेषं सर्व संक्रमेण द्विचरमसमयपरिणमितादसंख्येयगुणं परिणमयति / आवलिकागतं पुनः स्तिबुकसंक्रमेण वेद्यमानासु प्रकृतिषु संक्रमयति / भणिता अनन्तानुवन्धिनां विसंयोजना / साम्प्रतं दर्शनत्रिकस्योपशमना भण्यते-तत्र मिथ्यात्वस्योपशमको द्विधा, मिथ्यादृष्टिः क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिश्च / इतरयोस्तु द्वयोरपि क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिरेव / तत्र मिथ्यादृष्टेमिथ्यात्वोपशमना यथा कर्मप्रकृतिसंग्रहण्याम् इह तु ग्रन्थगौरवभयान्नोच्यते / क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टेर्दर्शनत्रिकोपशमनाविधिः पुनर-. यम्-इह क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिः संयमे वर्तमानः समन्तमुहूर्तमात्रेण दर्शनत्रिकमुपशमयति / उपशमयतश्च करणत्रिकविधिः पूर्ववत्तावद्वक्तव्यः यावदनिवृत्तिव.रणाद्धायाः संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्स्वन्तरकरणम् / अन्तरकरणं च कुर्वन् वेदकसम्यक्त्वस्य प्रथमस्थितिमन्तमुहूर्तमात्रां स्थापयति / मिथ्यात्वमिश्रयोश्चावलिकामात्राम् / उत्कीर्यमाणं च दलिकं त्रयाणामपि सम्यक्त्वस्य प्रथमस्थितौ प्रक्षिपति / मिथ्यात्वमिश्रयोः प्रथमस्थितिदलिकं सम्यक्त्वस्य प्रथमस्थितिदलिकमध्ये स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयपि / सम्यक्त्वस्य पुनः प्रथमस्थितौ विपाकानुभवतः क्रमेण क्षीणायां सत्यामुपशमसम्यग्दृष्टिर्भवति / उपरितनदलिकस्य चोपशमना त्रयाणामपि मिथ्यात्वादीनामनन्तानुबन्धिनामुपरितनस्थितिदलिकस्येवावसेया / एवमुपशान्तदर्शनमोहनीयत्रिकचारित्रमोहनीयमुपशमयितुकामः पुनरपि यथाप्रवृत्तादीनि त्रीणि करणानि करोति / करणानां च स्वरूपं प्राग्वदवगन्तव्यम् / केवलमिह यथाप्रवृत्तकरणमप्रमत्तगुणस्थाने भवति / अपूर्वकरणमपूर्वकरणगुणस्थानके / अत्रापि स्थितिघातादयः पूर्ववदेव / अपूर्वकरणाद्धायाश्च संख्येयभागे गते सति निद्राप्रचलयोर्बन्धव्यवच्छेदः / ततः प्रभूतेषु स्थितिखण्डसहस्रषु गतेषु सत्स्वपूर्वकरणाद्धायाः संख्येया भागा गता भवन्ति / अस्मिश्चान्तरे देवगति 1 देवानुपूर्वी 2 पञ्चेन्द्रियजाति 3 वैक्रिया 4 ऽऽहारक 5 तेजस 6 कामेण 7 समचतुरस्त्रक्रिया 9 ऽऽहारकाङ्गोपाङ्ग 10 वर्णादिचतुष्का 14 ऽगुरुलघू 15 पघात 16 पराघातो 17 च्छ्वास 18 त्रस 19 वादर 20 पर्याप्त 21 प्रत्येक 22 प्रशस्तविहायोगति 23 स्थिर 24 शुभ 25 सुभग 26 सुस्वरा 27 ऽऽदेय 28 निर्माण 29 तीर्थकर 30 संज्ञितानां त्रिंशतः प्रकृतीनां बन्धव्यवच्छेदः / ततः स्थितिखण्डपृथक्त्वे गते सत्यपूर्वकरणाद्धायाश्चरमसमये हास्यरतिभयजुगुप्सानां बन्धव्यवच्छेदः / उदयव्यवच्छेदश्च सर्वकर्मणां देशोपशमनानिधत्तिनिकाचनाकरणव्यवच्छेदश्च / ततोऽनन्तरसमयेऽनिवृत्तिकरणे प्रविशति / तत्रापि स्थितिघातादीनि पूर्व Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकानि [167 वत्करोति / ततोऽनिवृत्तिकरणाद्धायाः संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु दर्शनसप्तकशेषाणामेकविंशतेोहनीयप्रकृतीनामन्तरकरणं करोति / तत्र यस्य वेदस्य संज्वलनस्य घोदयोऽस्ति तयोः स्वोदयकालप्रमाणां प्रथमस्थितिं करोति शेषाणां त्वेकादशकषायाणामष्टानां च नोकपायाणामावलिकामात्राम् / वेदत्रिकसंज्वलनचतुष्टयस्य तूदयकालप्रमाणमिदम्-स्त्रीवेदनपुसकवेदयोरुदयकालः सर्वस्तोकः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः, ततः पुरुषवेदस्यासंख्येयगुणः, तस्मादपि संज्वलनक्रोधस्योदयकालो विशेषाधिकः , तस्मादपि मानस्य विशेषाधिक एवं यथोत्तरं मायालोभयोरुदयकालो विशेषाधिको वाच्यः / अत एवान्तरकरणमु. परितनभागापेक्षया समम् , अधोभागापेक्षया तूक्तनीत्या विषमम् / अन्तरकरणविधानकालश्च स्थितिघाताभिनवकर्मबन्धकालसमानः / अन्तरकरणगतस्य चोत्कीर्यमाणस्य दलिकस्य प्रक्षेपविधिरयम्-यस्य कर्मणस्तदानुभवनं बन्धश्च भवति तस्यान्तरकरणसत्कप्रदेशाग्रं प्रथम स्थितौ द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति, यथा पुरुषवेदोदयारूढः पुरुषवेदस्य / यस्य पुनरनुभवनमस्ति, न तु बन्धः, तस्यान्तरकरणसत्कं दलिकं प्रथमस्थितौ प्रक्षिपति, यथा स्त्रीनपुसकवेदोदयारूढः स्त्रीनपुसकवेदयोः / यस्य पुनरुदयो नास्ति, बन्धः पुनरस्ति, तस्यान्तरकरणसत्कं दलिकं द्वितीयस्थिती प्रक्षिपति, यथा संज्वल नक्रोधोदयारूढः शेषसंज्वलनानां / यस्य पुनरुदयो बन्धश्च नास्ति तस्यान्तरकरणसत्कं प्रदेशाग्रं परप्रकृतिषु प्रक्षिपति, यथा द्वितीयतृतीयकषायाणाम् / इहानिवृत्तिकरणे बहु वक्तव्यं तद्ग्रन्थगौरवभयान्नोच्यते / केवलं विशेषार्थिना कर्मप्रकृतिसंग्रहणिनिरीक्षितव्या / अन्तरकरणं च कृत्वा ततो नपुसकवेदमन्तमुहूर्तमात्रेणोपशमयति / उपशमनाविधिः प्राग्वत् / ततोऽन्तमुहूर्तमात्रेण स्त्रीवेदम् / ततोऽन्त्रमुहूर्तेन हास्यादि'षट्कम् / तस्मिश्चोपशान्ते तत्समयमेव पुरुषवेदस्य बन्धोदयव्यवच्छेदः / ततः समयोनावलिकाद्विकेन पुरुषवेदमुपशमयति, ततो युगपदन्तमुहूर्तमात्रेणाप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणक्रोधौ / तदुपशान्तौ च तत्समयमेव संज्वलनक्रोधस्य इन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदः / ततः समयोनावलिकाद्विकेन संज्वलनक्रोधमुपशमयति / ततोऽन्तमुहूर्तमात्रेणाप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणो मानौ युगपदुपशमयति / तदुपशान्तौ च तत्समयमेव संज्वलनमानस्य बन्धोदयो दीरणाव्यवच्छेदः / ततः समयोनावलिकाद्विकेन संज्वलनमानमुपशमयति / ततो युगपदन्तमुहूर्तमात्रेणाप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणे माये उपशमयति / तदुपशान्तौ च तत्समयमेव संज्वलनमायाया बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदः / ततोऽसौ लोभवेदको जातः / लोभवेदकाद्धायाश्च द्वयोस्विभागयोर्वर्तमानो द्वितीयस्थितेः सकाशाइलिकमानीय प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च / तत्र प्रथमस्त्रिभागोऽश्वकर्णकरणाद्धा तत्र विशुद्धया वर्द्धमानोऽपूर्वस्पर्द्धकानि करोति / अपूर्वस्पर्द्धकशब्दार्थ चाग्रे वक्ष्यामः / संज्वलनमायायाश्च बन्धादौ व्यवच्छिन्ने सति ततः Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16.] पडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्ये समयोनावलिकाद्विकेन संज्वलनमायामुपशमयति / एवमश्वकर्णकरणाद्वायां गतायां ततो द्वितीये लोभवेदकाद्धायास्त्रिभागे वर्तमानो लोभस्य द्वितीयस्थितिगतस्य किट्टीः करोति / किट्टीकरणाद्धायाश्वरमसमये युगपदप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणलोभावुपशमयति / तदुपशान्तौ च तत्समयमेव संज्वलनलोभवन्धव्यवच्छेदः बादरलोभोदयव्यवच्छेदश्च / ततोऽसौ सूक्ष्मसंपरायो भवति। तदा चोपरितनस्थितौ यत्किट्टीकृतं दलिकं तत्कतिपयं ततः समानीय प्रथमस्थिति करोति वेदयति च, सा च सूक्ष्मसंपरायाद्धान्तमुहूर्तप्रमाणा। तदानीं च सूक्ष्मकिट्टीकृतं दलिकं समयोनावलिकाद्विकबद्धं च पश- , मयति सूक्ष्मसंपरायाद्धायाश्चरमसमये संज्वलनलोभ उपशान्तो भवति, तत्सममेव च ज्ञानावरणपञ्चक 5 दर्शनावरणचतुष्का ९ऽन्तरायपञ्चक 14 यशःकीयु 15 च्चैर्गोत्राणां 16 वन्धव्यवच्छेदः। ततोऽनन्तरसमयेऽसावुपशान्तकषायो भवति, स च जघन्येनैकसमयमात्रमुत्कर्षतोऽन्तमुहतं कालं यावल्लभ्यते / तत ऊर्ध्व नियमादसौ प्रतिपतति / प्रतिपातश्च द्विधा, भवक्षयेण अद्धाक्षयेण च / तत्र भवक्षयो प्रियमाणस्य / अद्धाक्षय उपशान्ताद्धायां समाप्तायाम् / अद्धाक्षयेण च प्रतिपतन् यथैवारूढस्तथैव प्रतिपतति / यत्र यत्र बन्धोदयो व्यवच्छिन्नास्तत्र तत्र प्रतिपतता सता ते आरभ्यन्त इति यावत् / प्रतिपतंश्च तावत्प्रतिपतति यावत्प्रमत्तसंयतगुणस्थानकम् / कश्चित् पुनस्ततोऽप्यधस्तनं गुणस्थानकद्विकं याति / कोऽपि सासादनभावमपि / यः पुनर्भवक्षयेण प्रतिपतति स प्रथमसमय एव सर्वाण्यपिबन्धानादीनि करणानि प्रवर्तयतीत्येष विशेषः / उत्कर्षतश्चैकस्मिन् भवे द्वौ वारावुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते / यश्च द्वौ वारावुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते तस्य नियमात्तस्मिन् भवे क्षपकश्रेण्यभावः। यः पुनरेकं वारं प्रतिपद्यते / तस्य क्षपकश्रेणिर्भवेदपि इत्येष कार्मग्रन्थिकाभिप्रायः / सिद्धान्ताभिप्रायेण त्वेकस्मिन् भवे एकामेव श्रेणि प्रतिपद्यते / यत उक्तं कल्पाध्ययने-'अन्नयरसेढिवज एगभवेणं च सव्वाई" / 'सव्वाई' इति सर्वाणि सम्यक्त्वदेशविरत्यादीनि / अन्यत्राप्युक्तम्-मोहोपशम एकस्मिन् , भवे दिः स्थादसंतप्तः / यस्मिन् भवे तूपशमः, क्षयो मोहस्य तत्र न॥१॥” इति / / 'क्षीणकषायीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानमिति' क्षीणा अभावमापन्नाः कषाया यस्य स क्षीणकषायः, तत्रान्येष्वपि गुणस्थानकेषु वक्ष्यमाणयुक्त्या क्वापि कियतामपि कषायाणां क्षीणत्वसंभवात्क्षीणकपायव्यपदेशः संभवति, ततस्तद्वयवच्छेदार्थ वीतरागग्रहणम् / क्षीणकषायवीतरागत्वं च केवलिनोऽप्यस्तीति तद्वयवच्छेदार्थछद्मस्थग्रहणम् / यद्वा छद्मरथः सरागोऽपि भवतीति तदपनोदार्थ वीतरागग्रहणम् / वीतरागश्चासौ छमस्थश्चेति वीतरागच्छद्मस्था, स चोपशान्तकवायोऽपि भवतीति तन्निरासार्थ क्षीणकषायग्रहणम् / क्षीणकषायश्चासौ वीतरागच्छअस्थश्च तस्य गुणस्थानं क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानम् / इदं च यथाऽवाप्यते तथा मूलत एव भाव्यते / इह यः क्षपकश्रेणिमारभते सोऽवश्यं मनुष्यो वर्षाष्टकाचोपरि वर्तमानः, सच प्रथममनन्तानुबन्धिनो विसंयोजयति / तद्विसंयोजना च प्रागेव भाणता / ततो दर्शनमोहक्षपणार्थ यथाप्रवृत्तादीनि त्रीणि करणानि करोति / तत्र यावदपूर्वकरणं तावत्पूर्ववदेव वक्तव्यम् / अनिवृत्तिकरणा Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकानि [ 166 दायां च वर्तमानो दर्शनत्रिकस्य स्थितिसत्कर्म तावदुद्वलनासंक्रमेणोद्वलयति यावत्पल्योपमासंख्येयभागमात्रमवतिष्ठते / ततो मिथ्यात्वदलिकं सम्यक्त्वमिश्रयोः प्रक्षिपति, तच्दैवम्-प्रथमसमये स्तोकम् , द्वितीयसमये ततोऽसंख्येयगुणम् / एवं यावदन्तमुहूर्तचरमसमये आवलिकागतं मुक्त्वा शेषं द्विचरमसमयसंक्रमिताइलिकादसंख्येयगुणं संक्रमयति / आवलिकागतं तु स्तिबुकसंक्रमेण सम्यक्त्वे संक्रमयति / एवं मिथ्यात्वं क्षपितम् / ततोऽन्तमुहूर्तमात्रेण सम्यग्मिथ्यात्वमप्यनेनैव क्रमेण सम्यक्त्वे प्रक्षिपति / ततः सम्यग्मिथ्यात्वमपि क्षपितम् / ततः सम्यक्त्वमपवर्तयितु तथा लग्नो यथाऽन्तमुहर्तमात्रेण तदप्यन्तमुहूर्तमात्रस्थितिकं जातम् , तच्च क्रमेणानुभूयमानमनुभूयमानं सत्समयाधिकावलिकाशेपं जातम् / ततोऽन्नतरसमये तस्योदीरणाव्यवच्छेदः / ततो विपाकानुभवनेनेव केवलेन वेदयति यावच्चरमसमयः / ततोऽनन्तरसमयेऽसौ क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्जायते / उक्तो दर्शनत्रिकक्षपणाविधिः / इह यदि बद्धायुष्कः क्षपकश्रेणिमारभते, तत एतावत्येवावतिष्ठते / अथावद्धायुष्कस्ततोऽन्तमुहूर्तमात्रे गते सति पुनरपि चारित्रमोहनीयक्षपणार्थ यथाप्रवृत्तादीनि त्रीणि करणान्यारभते, तेषां च स्वरूपं पूर्ववदेव वक्तव्यम् / तत्रापूर्वकरणे स्थितिघातादिभिरप्रत्याख्यानावरणक्रोधादीन्यष्टौ कर्माणि तथा क्षपयति स्म यथाऽनिवृत्तिकरणाद्धाप्रथमसमये तानि पल्योपमासंख्येयभागमात्रस्थितिकानि जातानि / अनिवृत्तिकरणाद्धायाश्च संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु स्त्यानचित्रिक 3 नरकगति 4 तिर्यग्गति 5 एक 6 द्वि 7 त्रि 8 चतुरिन्द्रियजाति 9 नरकानुपूर्वी 10 तिर्यगानुपूर्वी 11 स्थावरा 12 ऽऽतपो 13 द्योत 14 सूक्ष्म 15 साधारणा 16 नां पोडशप्रकृतीनां प्रतिसमयमुद्वलनासंक्रमेणोद्वल्यमानानां पल्योपमासंख्येयभागमात्रा स्थितिर्जाता / ततो बध्यमानासु प्रकृतिषु गुणसंक्रमेण प्रतिसमयं प्रक्षिप्यमाणानि तानि षोडश कर्माणि निःशेषतोऽपि क्षीणानि भवन्ति / इहाप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणकषायाष्टकं पूर्वमेव क्षपयितुमारब्धं परं नाद्यापि क्षीणं केवलमपान्तराल एव पूर्वोक्तं प्रकृतिषोडशक क्षपितम् / ततः पश्चात्तदपि कषायाष्टकमुद्वलनविधिनाऽन्तमुहूर्तमात्रेण क्षपयति, एष सूत्रादेशः / अन्ये पुनराहुः-पोडश कर्माण्येव पूर्व क्षपयितुमारभते / केवलमपान्तरालेऽष्टौ कपायान् क्षपयति, पश्चात् षोडश कर्माणीति / ततोऽन्तमुहूर्तमात्रेण नवानां नोकषायाणां चतुर्णा च संज्वलनानामन्तरकरणं करोति, तच्च कृत्वा नपुसकवेदमुद्वलनविधिना क्षपयितुमा. रभते / तत्रान्तरकरणस्योपरितनस्थितिदलिकमुद्वलनासंक्रमेणोद्वल्यमानमुद्वल्यमानं पन्योपमासंख्येयभागमानं जातम् / ततः प्रभृति वध्यमानप्रकृतिषु गुणसंक्रमेण तद्दलिकं प्रक्षिपति / तच्वैवं प्रक्षिप्यमाणं प्रक्षिप्यमाणमन्तमुहूर्तमात्रेण निःशेष क्षीणम् / अधस्तनस्थितिदलिकं च यदि नपुसकोदेन क्षपकश्रेणिमारूढस्ततोऽनुभवतः क्षपति, अन्यथा त्वावलिकामात्रम् / तत्व वेद्यमानासु प्रकृतिषु स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयति / तदेवं क्षपितो नपुंसकवेदः / ततोऽन्तर्मुहूर्तमा Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 ) षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे त्रेण स्त्रीवेदोऽप्यनेनैव क्रमेण क्षिप्यते / ततः षड् नोकषायान् युगपत्क्षपयितुमारभते / ततः प्रभृति च तेषामुपरितनस्थितिदलिकं न पुरुषवेदे संक्रमयति किन्तु संज्वलनक्रोध एव, एतेऽपि च पूर्वोकाविधिना क्षिप्यमाणा अन्तमुहूर्तमात्रेण निःशेषाः क्षीगाः। तत्समयमेव च पुरुपवेदस्य बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदः समयोनावलिकाद्विकवद्धं मुक्त्वा शेषदलिकस्य क्षयश्च / ततोऽसाविदानीमवेदको जातः / क्रोधं च वेदयतः सतस्तस्य क्रोधाद्धायास्त्रयो विभागा भवन्ति / तद्यथाअश्वकर्णकरणाद्धा 1, किट्टिकरणाद्धा 2, किट्टिवेदनाद्धा 3 च / तत्राश्वकर्णकरणाद्धायां वर्तमानः प्रतिसमयमनन्तान्यपूर्वस्पर्द्धकानि चतुर्णामपि संज्वलनानामन्तरकरणादुपरितनस्थितौ करोति / अथ किमिदं स्पर्द्धकम् ? इति, उच्यते, इह तावदनन्तानन्तैः परमाणुभिनिष्पन्नान् स्कन्धान् जीवः कर्मतया गृह्णाति / तत्र चैकैकस्मिन् स्कन्धे यः सर्वजघन्यरसः परमाणुः तस्यापि रसः . केवलिप्रज्ञया छिद्यमानः सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणान् रसभागान् प्रयच्छति / अपरस्तु तानप्येकाधिकान् / अन्यस्तु द्वयधिकान् / एवमेकोत्तरया वृद्धया तावन्नेयं यावदन्यः परमाणुः सिद्धानन्तभागाधिकान् रसविभागान् प्रयच्छति / तत्र जघन्यरसा ये केचन परमाणवस्तेषां समुदायः समानजातीयत्वादेका वर्गणा इत्युच्यते / अन्येषां त्वेकाधिकरसभागयुवतानां समुदायो द्वितीया वर्गणाः अपरेषां तु द्वयधिकरसभागयुक्तानां समुदायस्तृतीया / एवमनया दिशेकेकरसभागवृद्धानामणनां समुदायरूपा वर्गणाः सिद्धानामनन्तभागकल्पा अभव्येभ्योऽनन्तगुणावाच्याः / एतासां च समुदायः स्पर्द्धकमित्युच्यते / स्पर्द्वन्त इवोत्तरोत्तरवृद्धया परमाणुवर्गणा अत्रेतिकृत्वा / इत ऊद्धवेमेकोत्तरया निरन्तरवृद्धया प्रवर्द्धमानो रसो न लभ्यते, किन्तु सर्वजीवानन्तगुणैरेव रसभागैः / ततस्तेनैव क्रमेण ततः प्रभृति द्वितीयं स्पर्द्धकमारभ्यते / एवमेव च तृतीयम् / एवं तावद्वाच्यं यावदनन्तानि स्पर्धकानि / एतेभ्य एव च इदानीं प्रथमादिवर्गणा गृहीत्वा विशुद्धिप्रकर्षवशादनन्तगुणहीनरसाः कृत्वा पूर्ववत्पर्घकानि करोति / न चैवंभूतानि कदाचनापि पूर्व कृतानि ततोऽपूर्वाणीत्युच्यन्ते / अस्यांचाश्वकर्णकरणाद्धायां वर्तमानः पुरुषवेदं समयो. नावलिकाद्विकेन क्रोधे गुणसंक्रमेण संक्रमयन् चरमसमये सर्वसंक्रमेण संक्रमयति, तदेवं क्षीणः पुरुषवेदः / किट्टिकरणादायां पुनर्वतमानश्चतुर्णामपि संज्वलनानामुपरितनस्थितिगतदलिकस्य किट्टीः करोति / अथ किमिदं किट्टिः ? इति, उच्यते, पूर्वस्पर्द्धकेभ्योऽपूर्वस्पर्द्धकेभ्यश्च प्रथमादिवर्गणा गृहीत्वा विशुद्धिप्रकर्षवशादत्यन्तहीनरसाः कृत्वा तासामेकैकोत्तरवृद्धित्यागेन बृहदन्तरालतया व्यवस्थापनम् / यथा यासामेव वर्गणानामसत्कल्पनयाऽनुभागभागानां शतमेकोत्तरादि चासीत् , तासामेव विशुद्धिवशादनुभागभागानां दशकस्य पञ्चदशकादेश्च व्यवस्थापनमिति / एताश्च किट्टयः परमार्थतोऽनन्ता अपि स्थूलजातिभेदापेक्षया द्वादश कल्प्यन्ते एकैकस्य कषायस्य तिस्रस्तिस्रः / तद्यथा-प्रथमा द्वितीया तृतीया च / एवं क्रोधेन क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नस्य द्रष्टव्यम् / Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकानि [ 201 यदा तु मानेन प्रतिपद्यते तदोद्वलनविधिना पूर्वोक्तेन क्रोधे क्षपिते सति शेषाणां त्रयाणां पूर्वक्रमेण नवकिट्टीः करोति / मायया चेत्प्रतिपन्नस्तर्हि क्रोधमानयोरुद्वलनविधिना क्षपितयोः सतोः शेषद्विकस्य पूर्वक्रमेण पट किट्टीः करोति / यदि पुनलोंभेन प्रतिपद्यते तत उद्वलनविधिना क्रोधादित्रिके क्षपिते सति लोभस्य किट्टित्रिकं करोति / एष किट्टीकरणविधिः / किट्टीकरणादायां निष्ठितायां क्रोधेन प्रतिपन्नः सन् क्रोधस्य प्रथमकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च तावद् यावत्समयाधिकावलिकामात्रमवशिष्यते / ततोऽन्तरसमये द्वितीयकिट्टिदलितं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च तावद् यावसमयाधिकावलिकामात्रमवशिष्यते / ततस्तृतीयकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोतिं वेदयति च तावद् यावदिहापि समयाधिकावलिकामात्र शेषः, तिसृष्वपि चामूषु किट्टिवेदनाद्धामूपरितनस्थितिगतं दलिकं गुणसंक्रमेणापि प्रतिसमयमसंख्येयगुणवृद्धिलक्षणेन संज्वलनमाने प्रक्षिपति / तृतीयकिट्टिवेदनादायाश्चरमसमये संज्वलनक्रोधस्य बन्धोदयोदीरणानां युगपद्वयवच्छेदः / सत्कर्मापि च तस्य समयोनावलिकाद्विकवद्धं मुक्त्वाऽन्यन्नास्ति, सर्वस्य माने प्रक्षि. तत्वात् / ततोऽनन्तरसमये मानस्य प्रथमकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च तावद् यावदन्तमुहूर्तम् / क्रोधस्यापि च बन्धादौ व्यवच्छिन्ने सति तस्य संबन्धि दलिकं समयोनावलिकाद्विकमात्रेण कालेन माने गुणसंक्रमेण संक्रमयति / मानस्यापि च प्रथमकिट्टिदलिकं प्रथमस्थितीकृतं समयाधिकावलिकाशे जातम् / ततोऽनन्तरसमये मानस्य द्वितीयकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च तावद् यावत्समयाधिकावलिकामात्र शेपः / ततस्तृतीयकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थिगितमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च तावद् यावत्समयाधिकावलिकामात्र शेपः / तस्मिन्नेव च समये मानस्य बन्धोदयोदीरणानां युगपद्वयवच्छेदः / सत्कर्मापि च तस्य समयोनावलिकाद्विकबद्धमेव,शेषस्य क्रोधशेषस्येव माने मायायां प्रक्षितत्वात् / ततो मायायाः प्रथमकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च तावद् यावदन्तमुहूर्तमात्रम् | संज्वलनमानस्य च बन्धादी व्यवच्छिन्ने तस्य संबन्धि दलिकं समयोनावलिकाद्विकमात्रेण कालेन गुणसंक्रमेण मायायां प्रक्षिपन चरमसमये सर्वसंक्रमेण संक्रमयति / ततो मायायां च प्रथमकिट्टिदलिकं प्रथमस्थितीकृतं समयाधिकावलिकाशेषं जातम् / ततोऽनन्तरसमये मायाया द्वितीयकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च तावत् यावत्समयाधिकावलिकामानं शेषः / ततोऽनन्तरसमये तृतीयकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च तावद् यावत्समयाधिकावलिकामात्र शेषः / तस्मिन्नेव च समये मायाया बन्धोदयोदीरणानां युगपद्व्यवच्छेदः / सत्कापि च तस्याः समयोनावलिकाद्विकवद्धमात्रमेव, शेषस्य गुणसंक्रमेण लोभे प्रक्षिप्तत्वात् / ततोऽनन्तरसमये लोभस्य Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] षडशीतिनाम्नि चतुथ कर्मग्रन्थ प्रथमकिट्टिदलि द्विनीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च तावद् यावदन्तमु - हुर्तमानं संज्वलनमायायाश्च बन्धादौ व्यवच्छिन्ने सति तस्याः संबन्धि दलिकं समयोनावलिकाद्विकमात्रेण कालेन गुणसंक्रमेण लोभे प्रक्षिपन् चरमसमये सर्वसंक्रमेण संक्रमयति / संज्वलनलोभस्य च तदानीं प्रथम किट्टिदलिकं प्रथमस्थितीकृतं समयाधिकावलिकामात्रशेषं जातम् / ततोऽनन्तरसमये लोभस्य द्वितीयकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थिति करोति, तां च वेदयन् तृतीय किट्टिदलितं गृहीत्वा सूक्ष्मकिट्टीः करोति तावद् यावद्वितीयकिट्टिदलिकस्य प्रथमस्थितीकृतस्य समयाधिकावलिकामानं शेषः / तस्मिन्नेव च समये संज्वलनलोभस्य बन्धव्यवच्छेदः, बादरकषायोदयोदीरणाव्यवछेदः अनिवृत्तिगुणस्थानककालव्यवच्छेदश्च युगपज्जायते / ततोऽनन्तरसमये सूक्ष्मकिट्टिदलिक द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थिति करोति वेदयति च तदानीमसौ सूक्ष्मसंपराय उच्यते / पूर्वोक्ताश्चावलकाः द्वितीयतृतीयकिटिगताः शेषीभूताः सर्वा अपि वेद्यमानासु परप्रकृतिषु रितबुकसंक्रमेण संक्रमयति / प्रथमद्वितीयकिट्टिगताश्च यथास्वं द्वितीयतृतीयकिट्टयन्तर्गता एव वेद्यन्ते / सूक्ष्मसंपरायश्च लोभस्य मूक्ष्मकिट्टीवेदयन् सूक्ष्मकिट्टिदलिफ समयोनावलिकाद्विकवद्धं च प्रतिसमयं स्थितिघातादिभिस्तावत्क्षपति यावत्सूक्ष्मसंपरायाद्धायाः संख्येयभागा गता भवन्ति, एकोऽवशिप्यते / ततस्तरिमन संख्येये भागे संज्वलनलोभं सर्वापवर्तनयाऽपवयं सूक्ष्मसंपरायाद्धासमं करोति, सां च सूक्ष्मसंपरायाद्धा अद्याप्यन्तमुहूर्तप्रमाणा, ततः प्रभृति च मोहस्य स्थितिघातादयो निवृत्ताः / शेषकर्मणां तु प्रवर्तन्त एव / तां च लोभस्यापवर्तितां स्थितिमुदयोदीरणाभ्यां वेदयन तावद्गतः यावत्समयाधिकावलिकामानं शेषः। ततोऽनन्तरसमये उदीरणा स्थिता / तत उदयेनेव केवलेन तां वेदयति यावच्चरमसमयः / तस्मिंश्चरमसमये ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्कयशाकीयुच्चैोत्रान्तरायपश्चकानां पोडशकर्मणां बन्धव्यवच्छेदः, मोहनीयस्योदयत्ताव्यवच्छेदश्च भवति / ततोऽसावनन्तरसमये क्षीणकपायो जातः, तस्य च शेषकर्मणां स्थितिधातादयः पूर्ववत्प्रवर्तन्ते, यावत्क्षीणकषायाद्धायाः संख्येया भागा गता भवन्ति, एकः संख्येयो भागोऽवतिष्ठते / तस्मिश्च ज्ञानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चकदर्शनावरणचतुष्कनिद्राद्विकरूपाणां पोडशकर्मणां स्थितिसत्कर्मसर्वापवर्तनयाऽपवर्त्य क्षीणकषायाद्धासमं करोति / केवलं निद्राद्विकस्य दलिकापेक्षया समयन्यनं कालतस्तु तुल्यं करोति / सा च क्षीणकपायाद्धाऽद्याप्यन्तमुहूर्तप्रमाणा, ततः प्रभृति चैतेषां स्थितिघातादयः स्थिताः, शेषाणां तु भवन्त्येव / तानि च पोडश कर्माणि निद्राद्विकवर्जितान्युदयोदीरणाभ्यां वेदयन् तावद्गतः यावत्समयाधिकावलिकामानं शेषः / ततोऽनन्तरसमये तेषां निद्राद्विकवर्जितानां चतुर्दशकर्मणामुदीरणा निवृत्ता / तत आवलिकामात्रं कालं यावदुदयेनैव केवलेन तानि वेदयति यावत्क्षीणकषायाद्धाया द्विचरमसमयः / Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकानि तस्मिश्च द्विचरमसमये निद्राद्विकं स्तिबुकसंक्रमेणान्यत्र संक्रमयति / एवं निद्राद्विकं स्वरूप-सत्ताऽपेक्षया क्षीणम् / चतुर्दशानां च प्रकृतीनां चरमसमये क्षयः / ततोऽनन्तरसमये केवली जायत इति / / 'सयोगिकेवलिगुणस्थानम्' इति योगो वीर्य परिस्पन्द इत्यनन्तरम् सह योगेन वर्तन्ते ये ते सयोगा मनोवाकायाः ते यस्य विद्यन्त इति सयोगी। तत्र भगवतः काययोगश्चक्रमणनिमेषोन्मेषादिः, वाचिको देशनादिः, मानसिको मनःपर्यायज्ञानिभिरनुत्तरसुरादिभिर्वा पृष्टस्य सतो मनसैच देशनात् / ते हि भगव प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि मनःपर्यायज्ञानेनावधिज्ञानेन च पश्यन्ति, दृष्ट्वा च ते विवक्षि.वस्त्वालोचनाकारान्यथाऽनुपपत्त्याऽलोकस्वरूपादिकमपि बाह्यमर्थं पृष्टमवगच्छन्तीति / केवलं ज्ञानं दर्शनं चोक्तस्वरूपं विद्यते यस्य स केवली, सयोगी चासौ केवली च सयोगिकेवली तस्य गुणस्थानं सयोगिकेवलिगुणस्थानम् / सयोगिकेवली च 'जघन्येनान्तमुहर्तम् , उत्कर्षतो देशोनां पूर्वकोटी विहत्य कश्चित् कर्मणां समीकरणाथं समुद्घातं गच्छति, यस्य वेदनीयादिकमायुषः सकाशादधिकतरम् / अन्यस्तु न गच्छत्येव / गत्वा चागत्वा च समुद्घातमघातिकर्मक्षपणाय लेश्यातीतमत्यन्ताप्रकम्पं परमनिर्जराकारणं ध्यानं प्रतिपित्सुयोगनिरोधायोपक्रमत एव / तत्र पूर्व बादरकाययोगेन बादरमनोयोगं निरुणद्धि, ततो वाग्योगम् , ततः सूक्ष्मकाययोगेन बादरकाययोगम् , ततस्तेनैव सूक्ष्ममनोयोगम् , ततः मूक्ष्मवाग्योगम् , ततः सूक्ष्मकाययोगं निरुन्धानः सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिध्यानमारोहति / तत्सामर्थ्याच वदनोदरादिविवरपूरणेन संकुचितदेहविभागवर्तिप्रदेशो भवति / योगनिरोधश्चेष विस्तरतरफेणास्माभिव हद्धर्मसारटीकायामभिहित इति नेह पुनः प्रतायते / तस्मिश्च ध्याने वर्तमानः स्थितिघातादिभिरायुर्वजानि सोण्यपि अघातिकर्माणि तावदपवर्तयति यावत्सयोग्यवस्थाचरमसमयः तस्मिंश्च चरमसमये सर्वाण्यपि कर्माण्ययोग्यवस्थासमस्थितिकानि जातानि / येषां च कर्मणामयोग्यवस्थायामुदयाभावः तेषां स्थितिं च स्वरूपं प्रतीत्य समयोनां विधत्ते / सामान्यतः सत्ताकालं त्याश्रित्यायोग्यवस्थासमानामेव / तस्मिश्च सयोग्यवस्थाचरमसमये औदारिक 1 तैजस 2 कार्मणशरीर 3 संस्थानपट्क / प्रथमसंहननौ 10 दारिकाङ्गोपाङ्ग 11 वर्णादिच. तुष्का 15 ऽगुरुलघू 16 पघात 17 पराघात 18 शुभाशुभविहायोगति 16 20 प्रत्येक 21 स्थिरा 22 ऽस्थिर 23 शुभा 24 ऽशुभ 25 निर्माण 26 नाम्नामुदयोदीरणाव्यवच्छेदः, अन्यतरवेदनीयस्य 27 च उच्छ्वास 28 सुस्वर 26 दुःस्वराणां 30 च ततोऽनन्तरसमयेऽयोगिकेवली भवति / / 'अयोगिकेवलिगुणस्थानकम्' इति योगः पूर्वोक्तो विद्यते यस्यासौ योगी, न योगी अयोगी. अयोगी चासौ केवली चायोगिकेवली, तम्य गुणस्थानं अयोगिकेवलिगुगस्थानम् / तस्मिश्च वर्तमानः कर्मक्षपणाय व्युपरतक्रियमप्रतिपातिध्यानमारोहति / एवमसावयोगिकेवली स्थितिघातादिरहितो यान्युदयवन्ति कर्माणि तानि स्थितिक्षयेणानुभवन् क्षप Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थे यति / यानि पुनरुदयवन्ति तदानीं न सन्ति तानि वेद्यमानासु प्रकृतिषु स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयन वेद्यमानप्रकृतिरूपतया च वेदयन् तावद्याति यावदयोग्यवस्थाद्विचरमसमयः तस्मिश्च द्विचग्मसमये देवगति 1 देवानुपूर्वी 2 शरीरपञ्चक 7 बन्धनपश्चक 12 संघातपश्चक 17 संस्थानपञ्चका 23 ऽङ्गोपाङ्गत्रय 26 संहननषट्क 32 वर्गादिविंशति 52 पराघातो 53 पघाता 54 ऽगुरुलघू 55 छ्वास 56 प्रशस्ता ५७.ऽप्रशस्त 58 विहायोगति स्थिरा 56 ऽस्थिर 60 शुभा 61 ऽशुभ 62 सुस्वर 63 दुःस्वर 64 दुर्भग 65 प्रत्येका 66 ऽनादेया 67 ऽयशःकीर्ति 68 निर्माणा : ऽपर्याप्तक 70 नीचेगोत्रा 71 ऽसातासातान्यतरा 72 नुदितवेदनीयानि द्विसप्ततिसंख्यानि स्वरूपसत्तामधिकृत्य क्षयमुपगच्छन्ति / चरमसमये तेषां सर्वात्मना स्तिबुकसंक्रमेणोदयवतीषु प्रकृतिषु मध्ये संक्रमयिष्यमाणतया न स्वरूपसत्ता संभवति / संक्रमश्च सर्वोऽप्युक्तस्वरूपो मूलप्रकृत्यभिन्नासुपरप्रकृतिषुद्रष्टव्यः / मूलप्रकृत्यभिन्नाः संक्रमयति गुणत उत्तरा: प्रकृतीः' इतिवचनात् / चरमसमये सातासातान्यतरोदितवेदनीय 1 मनुष्यगति-२ मनुष्यानुपूर्वी 3 मनुष्यायुः 4 पञ्वेन्द्रियजाति 5 त्रस 6 सुभगा 7 ऽऽदेय 8 यशःकीर्ति 9 पर्याप्तक 10 वादर 11 तीर्थकरो 12 च्चैगोत्राणां 13 त्रयोदशप्रकृतीनां सत्ताव्यवच्छेदः / अन्ये पुनराहुःमनुष्यानुपूर्व्या द्विचरमसमये व्यवच्छेदः, उदयाभावात् / उदयवतीनां हि स्तियुकसंक्रमाभावात्स्वरूपेण चरमसमये दलिकं दृश्यत एवेति युक्तस्तासां चरमसमये सत्ताव्यवच्छेदः / आनुपूर्वीनाम्नां तु चतुर्णामपि क्षेत्रविपाकतया भवापान्तरालगतावेवोदयस्तेन न भवस्थस्य तदुदयसंभवः / तदसंभवाचायोग्यवस्थाद्विचरमसमय एव मनुष्यानुपूाः सताव्यवच्छेद इति / तन्मतेन द्विचरमसमये त्रिसप्ततिप्रकृतीनां सत्ताव्यवच्छेदः, चरमसमये द्वादशानामिति / ततोऽनन्तरसमये कोशबन्धविमोक्षलक्षणसहकारिसमुत्थस्वभावविशेषादेरण्डफलमित्र भगवानपि कर्मसंबन्धविमोक्षलक्षणसहकारिसमुत्थस्वभावविशेषसंभवादूचं गच्छति / स चोर्ध्वं गच्छन् ऋजुश्रेण्या यावत्स्वाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावत एव प्रदेशान् ऊर्ध्वमप्यवगाहमानो विवक्षितसमयाचान्यत्समयान्तरमस्पृशन लोकान्ते गच्छति / तदुक्तमावश्यक वर्गौ-जेत्तिए जोवोऽवगाहो तावड्याए ओगाहणाए उडढं उजगं गच्छद न वंक विड्यं समयं च न फुसए" इति / तत्र गतः सन् भगवान् शाश्वतं कालमवतिष्ठते / इति / / 26 / / तदेवमुक्तानि प्रसक्तानुप्रसक्तप्रतिपादनेन सप्रपञ्च गुणस्थानकानि / साम्प्रतमेतानि मार्गणास्थानेषु चिन्तयन्नाह चत्तारि देवनरएसु पंच तिरिपसु चउदस नरेखें। इगिविगलेसु दो दो पंचिंदीसु चउद्दस वि // 27 // Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु गुणस्थानकानि [205 (हारि०) व्याख्या-'चत्वारि' मिथ्यादृष्टयादीनि गुणस्थानकानीति गम्यते / क्व ? इत्याह-देवनारकेषु प्रत्येकं भवन्तीति शेषः / तथा पश्च तिर्यश्वाधान्येव / तथा चतुर्दश नरेषु / इति मार्गितानि गतिषु गुणस्थानकानि, साम्प्रतमिन्द्रियेषु तान्याह-'इगिविगलेसु' इति एकेन्द्रियविकलेन्द्रियेषु द्वे द्वे गुणस्थानके मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणे भवतः / एकेन्द्रियेषु सासादनं प्राग्वत् / तथा पञ्चेन्द्रियेषु चतुर्दशापि गुणस्थानकानि भवन्ति / इति गाथार्थः // 27|| इत्युक्तानि गुणस्थानकानीन्द्रियेषु, इतः कायादिषु चतुर्यु मार्गणास्थानेषु तान्येवाह (मल०) देवेषु नारकेषु च प्रत्येकमाद्यानि मिथ्यादृष्टयादीन्यविरतसम्यग्दृष्टिपर्यन्तानि चत्वारि गुणस्थानकानि भवन्ति न देशविरतादीनि, तेषु भवस्वभावतो देशतोऽपि विरतेरभावात् / ‘पञ्च तिरिसु' इति तिर्यनु पञ्च गुणस्थानकानि भवन्ति, तत्र चत्वारि पूर्वोक्तान्येव, पञ्चमं तु देश विरतिगुणस्थानकम् , तेषु देशविरतेः सद्भावात् / तथा 'नरेषु मनुष्येषु चतुर्दशापि गुणस्थानकानि भवन्ति, तेषु मिथ्यात्वादीनां शैलेश्यवस्थापर्यन्तानां सर्वभावानामपि संभवात् / तथेकेन्द्रियविकलेद्रियेषु प्रत्येकं 'द्वे द्वे' मिथ्या दृष्टिसासादनलक्षणे गुणस्थानके भवतः / तत्र मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकमविशेषेण सर्वेषु द्रष्टव्यम् / सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानक पुनस्तेजोवायुवर्जप्रत्येकवादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु लब्ध्या पर्याप्तेषु करणेन त्वपर्याप्तेषु न सर्वेष्विति / 'पंचिंदीसुचउद्दस वि' इति पञ्चेन्द्रियेषु चतुर्दशापि गुणस्थानकानि भवन्ति / तत्रासंज्ञिपञ्चेन्द्रिथेषु द्वे मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिलक्षणे गुणस्थानके प्राप्येते, तेषु लब्ध्या पर्याप्तेसु करणेन त्वपर्याप्तकेषु सासादनमावस्यापि लभ्यमानत्वात् / लब्ध्यपर्याप्तेषु तु तेषु मिथ्यादृष्टिलक्षणमेकं गुणस्थानकम् / संज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पुनरपर्याप्तकेषु त्रीणि गुणस्थानकानि, तत्र 'द्वे' पूर्वोक्ते एव, तृतीयं त्वविरतिसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकम् / एतेष्वेव च करण. पर्याप्तकेषु सर्वाण्यपि गुणस्थानकानि भवन्ति, मनुष्येषु सर्वभावसंभवात् / / 27 / / भूदगतरूसु दो एगमगणिवाऊसु चउदस तसेसु। जोए तेरस वेए तिकसाए नव दस य लोभे // 28 // (हारि०) व्याख्या-'भूदगतरूसु' भूम्यम्बुवनस्पतिकायिकेषु 'हे' प्रथमे गुणस्थानके प्रत्येकं भवतः / तथा 'एक' आद्यं गुणस्थानकमनिवायुकायिकेषु, सासादनभावान्वितस्य तेष्वनुत्पादात् / तथा चतुर्दश वसेषु / तथा 'जोए' इति योगत्रये मनोवाकायलक्षणे त्रयोदश गुणस्थानान्यन्त्यगुणस्थानकवर्जितानि, चतुदेशगुणस्थानके तु योगानामभावात् / तथा नवशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात् , 'वेदत्रये स्त्रीपुनपुंसकलक्षणे नव गुणस्थानानि, 'कषायत्रये' क्रोधमानमायालक्षणे नववाद्यानि, तथा दश चाऽऽद्यान्येव लोभे भवन्ति / इति गाथार्थः // 28 // Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] ... षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे इति काययोगवेदकपायेषु मार्गितानि गुणस्थानकानि, साम्प्रतं ज्ञानपञ्चकेऽज्ञानत्रयान्विते तथा लाघवार्थमवधिदर्शने केवलदर्शने च तान्येवाह___ (मल०) 'भूदगतरुषु' पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु प्रत्येकं 'ब' मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणे गुणस्थानके भवतः, करणापर्याप्तावस्थायामेतेषु लब्धिपर्याप्तकेषु सासादनभावस्यापि लभ्यमानत्वात् / 'इगमगणिवाउसु' इति अग्निषु वायुषु चैकमेव मिथ्यादृष्टिलक्षणं गुणस्थानकं भवति, सासादनभावोपगतस्य तेषु मध्ये उत्पादाभावात् / 'चउदस तसेसु' इति त्रसेषु चतुर्दशापि गुणस्थानकानि भवन्ति, एकेन्द्रियवर्जितानां सर्वेषामपि त्रसत्वात् / तत्र च मनुष्यापेक्षया सर्वगुणस्थानकानामपि संभवात् / तथा 'यागे' मनोवाकायरूपेऽयोगिकेवलिगुणस्थानकवर्जितानि शेषाणि त्रयोदशापि गुणस्थानकानि भवन्ति सर्वेष्वप्येतेषु यथायोगं योगत्रयस्यापि संभवात् / तथा 'वेद' स्त्रीपुनपुसकलक्षणे, 'कषायत्रये क्रोधमानमायारूपे मिथ्यादृष्टयादीन्यनिवृत्तिबादरपयेन्तानि नव गुणस्थानकानि भवन्ति, न शेषाणि; अनिवृत्तिबादर एव क्षीणत्वेनोपशान्तत्वेन वा शेषेषु गुणस्थानकेषु तेषामसंभवात् / 'दस य लोभे' इति लोभे लोभकपाये दश गुणस्थानकानि भवन्ति / तत्र नव पूर्वोक्तान्येव, दशमं सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकम् , तत्र किट्टीकृतलोभदलिकस्य वेद्यमानत्वात् // 28 / / __ मइसुयओहिदुगे नव अजयाइ जयाइ सत्त मणनाणे / केवलदुगंमि दो तिन्नि दो व पढमा अनाणतिगे / / 29 / / (हारि०) व्याख्या-मतिश्रुतावधिद्विके, अत्र द्वन्द्वैकवद्भावः, तत्र मतिज्ञाने श्रुतज्ञाने अवधिज्ञाने अवधिदर्शने च प्रत्येक नव गुणस्थानानि भवन्तीति / अथ किमाहानि ? तान्याह'अजयाइ' इति विभक्तिलोपादयतादीन्यविरतिसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकप्रभृतीनि क्षीणमोहान्तानि / तथा 'जयाइ सत्त मणनाणे' इति अत्रापि विभक्तिलोपाद्यतादीनि प्रमत्तयतिप्रमुखानि क्षीणमोहान्तानि सप्त गुणस्थानकानि मनापर्यवज्ञाने भवन्ति / तथा केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे '' सयोग्ययोग्याख्ये गुणस्थानके भवतः / तथा 'त्रीणि' प्रथमानि मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्ररूपाणि, 'द वा प्रथमे' मिथ्यादृष्टिसासादनरूपे, क ? इत्याह'अज्ञानत्रिके' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गलक्षणे / तत्र यदभिप्रायेण त्रीणि गुणस्थानानि भवन्ति, तेषामयमाशयः-यदुत मिश्रदृष्टेया॑मिश्रज्ञानान्यप्यज्ञानान्येव यथावस्थिततत्त्वनिर्णयाभावात् , अतस्त्रीण्यपि गुणस्थानान्यत्राज्ञानत्रिके भवन्तीति / यदभिप्रायेण च द्वे गुणस्थानके भवतः तेषामिदमाकूतम्-यदुत मिश्रदृष्टेः किंचित्सम्यग्रूपत्वात्तज्ज्ञानानि किंचित्कलुषाण्यपि सम्य 1 अत्र टीकायां "दो दो इगमगणिवाउसु” इति पाठान्तरानुसारेण व्याख्यातं ज्ञेयम् / . 2-3 "त्ति' इत्यपि पाठः / Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 207 मार्गणास्थानेषु गुणस्थानकानि गज्ञानान्येव, अतोऽज्ञानत्रये द्वे एव गुणस्थानके भवतः / आहवं तर्हि सासादनस्यापि सम्यग्दृष्टित्वेन तदवबोधस्यापि ज्ञानरूपत्वात्कथमज्ञानत्रये सासादनगुणस्थानकसंभवः ? इति, सत्यमेतत् , नवरं तज्ज्ञानस्यानन्तानुवन्धिप्रथमकमायोदयेनातिपितत्वादज्ञानमेवेति भावः / इति गाथार्थः // 29 // एवं ज्ञानेषु सप्रतिपक्षेषु अवविदर्शने केवलदर्शने च तानि प्ररूपितानि गुणस्थानकानि, साम्प्रतं संयमे सामायिकादिपञ्चप्रकारे देशसंयमे च तानि प्रतिपिपादयिषुराह (मल०) मातेशाने श्रुतज्ञाने अवधिद्विक अवधिज्ञानदर्शनरूपे 'अयतादीनि अविरतसम्यग्दृष्टयादीनि क्षीगमोहान्तानि नव गुणस्थानकानि भवन्ति न शेपाणि / तथाहिं न मतितावधिज्ञानानि मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्रेषु भवन्ति तद्भावे ज्ञानत्वस्येवायोगात् / यववधिदर्शनं तत्कुतश्विदभिप्रायाद्विशिष्टश्रुतविदो मिथ्या दृष्टयादीनां नेच्छन्ति / तन्मतमाश्रित्याचारेणापि तत्तेषां नेष्टम् / अथ च सूत्रो मिथ्यादृष्टयादीनामप्यवघिदर्शनं प्रतिपाद्यते / यदुक्तं प्राप्तौ-"ओहिदं." सणभणगारोवउत्ताणं भंते ? किं नाणी अन्नाणी? गायमा ! णाणीवि अन्नाणोवि / जह नाणो ते अत्थेगइआ तिपणाणी, अत्थंगइया चउणाणी। जे तिण्णाणी ते आभिणिवाहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी / जे चउणाणि ते आभिणिवाहियणाणी सयणाणी ओहिणाणी मणपन्जवणाणी जे अण्णाणी ते णियमा 'मइअ. पणाणी सयअण्णाणी विभंगनाणो" इति / अत्र हि येऽज्ञानिनस्ते मिथ्यादृष्टय एवेति मिथ्यादृष्टीनामप्यवधिदर्शनं साक्षादत्र सूत्रे प्रतिपादितम् , स एव च विभङ्गज्ञानी / यदा सासादनभावे मिश्रभावे वा वर्तते तदानीं तत्राप्यवधिदर्शनं प्राप्यत इति / यत्तु सयोग्ययोगिकेवलिगुणस्थानकद्विकं तत्र मतिज्ञानादि न संभवत्येव, तद्वयच्छेदेनैव केवलज्ञानस्य प्रादुर्भावात् / नटुंमि उ छाउमथिए नाणे" इतिवचनप्रामाण्यात् / आह, ननु यदि मतिज्ञानादीनि स्वस्वाधरणक्षयोपशमभावेऽपि प्रादुर्भवन्ति ततो निःशेषतः स्वस्वावरणक्षये सुतरां भवेयुश्चारित्रपरिणामवत्तत्कथं तदानीं तेषामभावः ? आह च-"आवरणदेसविगमे जाइं विज्जति मह. सुयाईणि / आवरणसव्वविगमे कह ताइँ न होति जीवस्स // 1 // " इति, उच्यते, इह - यथा सहनभानोरुपचितघनपटलान्तरितस्यापान्तरालावस्थितकटकुट्याद्यावरणविवरप्रविष्टः प्रकाशो घटपटादीन् प्रकाशयति, तथा केवलज्ञानावरणावृतस्य केवलज्ञानस्यापान्तरालमतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमरूपविवरविनिर्गतः प्रकाशो जीवादीन् पदार्थान् प्रकाशयति, स च तथा प्रकाशयन् मतिज्ञानमित्यादिलक्षणं तत्तत्क्षयोपशमानुरूपमभिधानमुद्वहति / ततो यथा सकलपनपटलकटकुट्याद्यावरणापगमे स तथाविधः प्रकाशः सहस्रभानोरस्पष्टरूपो न भवति, किन्तु सर्वात्मना स्फुटरूपोऽन्य एव, तथेहापि सकलकेवलज्ञानावरणमतिज्ञानाद्यावरणक्षये 1 ति अन्नाणी, तं जहा। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे न तथाविधो मतिज्ञानादिसंज्ञितः केवलज्ञानस्य प्रकाशो भवति, किन्तु सर्वात्मना यथावस्थितं वस्तु परिच्छिन्दम् परिस्फुटरूपोऽन्य एवेत्यदोषः / उक्तं च-"कविवरागय. किरणा मेहंतरियस्स जइ दिणेसस्स / ते कडमेहावगमे; न होति जह तह इमाइंपि // 1 // " इति / अन्ये पुनराहुः-सन्त्येव मतिज्ञानादीन्यपि सयोगिकेवल्यादौ, केवलमफलत्वात् सन्त्यपि तदानीं न विवक्ष्यन्ते यथा सूर्योदये नक्षत्रादीनीति / तथा चोक्तम्-"अण्णं आभिणियोहियणाणाईणि वि जिणस्स विजंति / अफलाणि सूरुदये, जहेव णक्खत्तमाईणि // 1 // " 'जयाइ सत्त मणनाणे' इति यतादीनि प्रमत्तयतिप्रमुखानि क्षीणमोहान्तानि सप्त गुणस्थानकानि मनःपर्यायज्ञाने भवन्ति न शेषाणि / भावना पूर्वोक्तानुसारेणावसेया / तथा 'केवलद्रिके केवलज्ञानदर्शनरूपे द्वे सयोग्ययोगिकेवलिलक्षणे गुणस्थानके भवतः / तथा 'अज्ञानत्रिक' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानलक्षणे प्रथमानि त्रीणि मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रलक्षणानि गुणस्थानकानि भवन्ति / मिश्रदृष्टेश्च यद्यपि-'मीसंमि वा मिस्सं' इतिवचनात् , ज्ञानव्यामिश्राण्यज्ञानानि प्राप्यन्ते न शुद्धान्यज्ञानानि, तथाऽपि तान्यज्ञानान्येव, यथावस्थितवस्तुतत्वनिर्णयाभावात् / अन्ये पुनराहुः-यद्यपि न तदानीं यथावस्थितवस्तुतवानर्णयस्तथाऽपि न तान्यज्ञानान्येव, सम्यग्ज्ञानलेशव्यामिश्रत्वात् / 'तदुक्तम्-मिथ्यात्वाधिकस्य मिश्रदृष्टेरज्ञानबाहुल्यम् , सम्यक्त्वाधिकस्य पुनः सम्यग्ज्ञानबाहुल्यमित्यादि / तन्मतमाश्रित्याह-'दो व' इति द्वे वा प्रथमे मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणे गुणस्थानके भवतः / इति / / 29 / / सामाइयछेएसु, चउरो परिहार दो पमत्ताई / देससुहमे सगं पढमचरमचउ अजयअहखाए // 30 // __ (हारि०) व्याख्या-सामायिकच्छेदोपस्थापनीययोश्चत्वारि गुणस्थानानि विभक्तिलोपात्प्रमत्तादीनीति सण्टङ्कः। तथा परिहारविशुद्धिके द्वे प्रमत्ताप्रमत्ते / तथा 'देशसूक्ष्मे' अत्र द्वन्द्वः, स्वकमिति प्रत्येकं योज्यम् / देशे-देशविरते-चारित्राचारित्र इत्यर्थः, 'स्वक' स्वकीयं देशयति गुणस्थानकमित्यर्थः / तथा सूक्ष्मसंपराये च चतुर्थचारित्रे स्वकं स्वकीयं मूक्ष्मसंपरायाभिघगुणस्थानकमित्यर्थः / तथा प्रथमं च चरमं च प्रथमचरमे, *प्रथमचरमे च* ते 'चउ' इति चतुष्के च प्रथमचरमचतुष्के ते भवतः, अत्र प्रथमाद्विवचनलोपो द्रष्टव्यः / कयोः ? इत्याह-वचनव्यत्ययादयतयथाख्यातयोर्यथासंख्यम् / अयमभिप्रायः-अयनशब्देन गुणगुणिनोरभेदोपचारादसंयमो गृहीतः, ततोऽसंयमे प्रथमानि मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्राविरतलक्षणानि चत्वारि गुणस्थानकानि भवन्ति / यथाख्याते तु संयमे चरमाण्युपशान्तक्षीणमोहसयोग्ययोगिकेयलिलक्षणानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति / इति गाथार्थः // 30 // इति संयमे सप्रतिपक्षे भणितानि गुणस्थानानि, साम्प्रतं दर्शनलेश्याभव्येषु तान्येवाह_*.तनिद्रयान्तर्गतमगो मप्रितौ नास्ति / Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु गुणस्थानकानि [ 201 (मल०) सामायिकच्छेदोपस्थापनयोश्चत्वारि प्रमत्तादीन्यनिवृत्तिवादरपर्यन्तानि गुणस्थानकानि भवन्ति / तथा परिहारविशुद्धिक संयमे द्वे प्रमत्ताप्रमत्तयतिलक्षणे गुणस्थानके भवतः, नोत्तराणिः तस्मिन संयमे वर्तमानस्य श्रेण्यारोहप्रतिषेधात् / 'देसमुहमे सग' इति देशविरतौ सूक्ष्मसंपरायसंयमे च स्व-स्वकीयं स्वकीयं यथाक्रमं देशविरतिगुणस्थानकं सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकं भवति / 'पढमचरमचउ अजयअहखाए' इति यथाक्रमं अयते असंयते-संयमहीने प्रथनानि मिथ्यादृष्ट यादीन्यविरतसम्यग्दृष्टिपर्यन्तानि चत्वारि गुणस्थानकानि भवन्ति / यथाख्यातचारित्रे पुनश्चरमाण्युपशान्तमोहादीन्ययोगिकेवलिपर्यन्तानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति // 30 // बारस अचक्खुचक्खुसु पढमा लेमासु तिसु छ दुसु सत्त। सुक्काएँ तेरस गुणा सव्वे भव्ये अभव्वेगं // 31 // __ (हारि०) व्याख्या- द्वादश प्रथमानि गुणस्थानकानीति योगः / क्क ? इत्याह-अचक्ष श्चक्षुषोः' 'अचक्षुर्दर्शने चक्षुर्दर्शने इत्यर्थः / तथा प्रथमानि मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानानि षडिति संबन्धः / कासु ? इत्याह-लश्यासु' तिसृषु कृष्णनीलकापोताभिधानासु / तथा सप्त प्रथमानि मिथ्यादृष्टयादीनि अप्रमत्तयत्यन्तानि / कयोः ? इत्याह-'दुसु' इति द्वयोर्लेश्ययोस्तैजसीपद्माभिधानयोः / तथा 'शुक्लास शुक्ललेश्यायां प्रथमानि त्रयोदश गुणस्थानानि / प्रथमशब्दश्चतुर्वपि पदेषु योज्यते / तथा भव्ये सर्वाणि गुणस्थानानि / तथाऽभव्ये एकं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकम् , अत्र जातावेकवचनम् / इति गाथार्थः / / 31 / / / इति दर्शनादिपदत्रये मागितानि गुणस्थानानि, साम्प्रतं सम्यक्त्वसंज्ञिपदद्वये तान्येवाह (मल०) अचक्षुर्दर्शने चक्षुर्दर्शने च प्रथमानि मिथ्यादृष्टयादीनि क्षीणमोहपर्यन्तानि द्वादश गुणस्थानकानि भवन्ति / भावना सुज्ञाना / तथा प्रथमासु तिसृषु 'लश्यामु' कृष्णनीलकापोतरूपासु प्रथमानि मिथ्यादृष्टयादीनि प्रमत्तान्तानि षड् गुणस्थानकानि भवन्ति / कृष्णनीलकापोतलेश्यानां हि प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि, ततो मन्दसंक्लेशेषु तदध्यवसायस्थानेषु तथाविधसम्यक्त्वदेशसर्वविरतीनामपि सद्भावो न विरुध्यते / तदुक्तम्--सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतीनां प्रतिपत्तिका ने शुभलेश्यात्रयमेव भवति / उत्तरकालं तु सर्वा अपि लेश्याः परावर्तन्तेऽपीति / तथा 'द्वयोः' तेजःपद्मरूपयोलेश्ययोः सप्त गुणस्थानानि भवन्ति / तत्र षट् पूर्वोक्तान्येव सप्तमं त्वप्रमत्तसंयतगुणस्थानकम् मिथ्याष्टयादीनां त्वेते लेश्ये जघन्यात्यन्ताविशुद्धतदध्यवसायस्थानापेक्षया द्रष्टव्ये / एवमुत्तरत्रापि भावनीयम् / तथा शुक्लायां' शुक्ललेश्यायां प्रथमानि त्रयोदश गुणस्थानकानि भवन्ति, न त्वयोगिगुणस्थानकम्। अयोगिनो लेश्यातीतत्वात् / तथा भव्ये सर्वाण्यपि गुणस्थानकानि भवन्ति, योग्यत्वात् / अभव्ये पुनरेकमेव मिथ्यादृष्टिलक्षणं गुणस्थानकमिति / / 31 // 1 "चक्षुर्दर्शने-ऽचक्षुर्दर्शने चेत्यर्थः' इत्यपि पाठः / Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे वेयगखइगवसमे चउरो एक्कारस? तुरियाई / सेसतिगे सहाणं सनिसु चउदस असत्रिसु दो // 32 // __ (हारि०) व्याख्या--वेदक-झायोपशमिकं तच क्षायिकं चौपशमिकं चेति समाहारद्वन्द्वः / तत्र यथासंख्येन चत्वार्यकादशाष्टौ गुणस्थानानि भवन्ति / किमाद्यानि ? इत्याह--विभक्तिलोपात् 'तुर्यादोनि' चतुर्थादीनि / तत्र वेदके विरतसम्यग्दृष्टिंदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तयतिनामानि चत्वारि गुणस्थानानि / क्षायिके त्वविरतसम्यग्दृष्टयादीन्ययोगिकेवलिगुणस्थानकान्तान्येकादश / औपशमिकेऽविरतसम्यग्दृष्टयाद्युपशान्तमोहान्तान्यष्टौ गुणस्थानकानि भवन्ति / तथा 'शेषत्रिके' मिश्रसासादनमिथ्यादृष्टिरूपे 'स्वस्थानं' स्वकीयपदं भवति / अयमर्थः- सम्यग्मिथ्यात्वे सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकम् / एवं सासादने सासादनम् , मिथ्यात्वे मिथ्यात्वमिति / तथा 'संज्ञिषु' मनोविज्ञानयुक्तेषु चतुर्दश गुणस्थानकानि भवन्ति / नन्वत्र चतुर्दशगुणस्थानकभणनेन सामान्येन केवल्यपि संज्ञित्वेन गृहीतः, तत्र सयोगिनं प्रति संज्ञित्वभावना द्रव्यमनःसमाश्रयणेन भवद्भिः प्रागुक्ता अयोगिनं प्रति सा कथं बुध्यते ?, अत्रोच्यते, पूर्वावस्थामाश्रित्य द्रष्टव्येति संभाव्यते *यथा दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा गृह्यते / तथा* 'असंज्ञिषु' मनोविज्ञानरहितेषु द्वे मिथ्यात्वसासादनलक्षणगुणस्थानके भवतः / इति गाथार्थः // 32 // ____ इति सम्यक्त्वद्वारे सप्रतिपक्षे संज्ञिद्वारे चोक्तानि गुणस्थानानि / अथ पर्यन्तवाहारकद्वारे सप्रतिपक्षे तानि प्रतिपादयन् गत्यादिषु गुणस्थानकसमर्थनां दर्शयन्नाह (मल०) वेदक-क्षायोपशमिकं तस्मिन् , तथा क्षायिके औपशमिके च सम्यक्त्वे यथासंख्यं चत्वारि एकादशाष्टौ च गुणस्थानकानि भवन्ति / कानि पुनस्तानि ? इत्यत आह'तुर्यादीनि' चतुर्थादीनि / तत्र क्षायोपशमिकसम्यक्त्वेऽविरतसम्यग्दृष्टयादीन्यप्रमत्तपर्यन्तानि चत्वारि गुणस्थानकानि भवन्ति, क्षायिके त्वविरतसम्यग्दृष्टयादीन्ययोगिपर्यन्तान्येकादश गुणस्थानकानि भवन्ति, औपशमिकसम्यक्त्वे पुनरविरतसम्यग्दृयादीन्युपशान्तमोहपर्यन्तान्यष्टाविति / 'सेसतिगे सहाणं' इति शेषत्रिके मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रलक्षणे स्वस्थानं स्वं स्वमेव गुणस्थानकं भवति / तथा संज्ञिषु चतुर्दशापि गुणस्थानकानि भवन्ति, सयोग्ययोग्यवस्थायामपि द्रव्यमनोऽपेक्षया संज्ञित्वाभ्युपगमात् / 'असपिणसु दो' इति असंज्ञिषु द्वे मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणे गुणस्थानके भवतः / तत्र सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकं लब्धिपर्याप्तकानां करणापर्याप्तावस्थायां द्रष्टव्यम् // 32 // आहारगेसु पढमा तेरसऽणाहारगेसु पंच इमे / / पढमंतिमदुगअविरय इय गइयाईसु गुणठाणा // 33 // * एतचिह्नद्वयान्तर्गतपाठः प्रत्यन्तरे नास्ति / 1 "पठमंतदुगअविरया” इति वा। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु गुणस्थानकानि तथौघतो योगाः [261 (हारि०) व्याख्या-आहारकेषु प्रथमानि त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति / तथाऽनाहारके पञ्चेमानि वक्ष्यमाणानि / तान्येवाह-पढमंतिमद्गअविश्य' इति द्विकशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात्प्रथमद्विकान्त्यद्विकाविरतानीति तत्पुरुषगर्भो द्वन्द्वः / तत्र मिथ्यादृष्टिसासादनाविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकानि त्रीणि विग्रहगतौ सयोगिकेवलिगुणस्थानकम् / समुद्घाते चतुर्थपञ्चमतृतीयसमयेषु सिद्धान्तप्रसिद्धेषु अयोगिकेवलिगुणस्थानं त्वीषद्हम्वाक्षरपञ्चकोगिरणमानं कालं समस्तगुणस्थानकमित्यर्थः। उक्तं च-“विग्गहगइमावन्ना, केवलिणो समुहया अजोगी य / सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा / / 1 / / " इत्यनाहारके पवेति गत्यादिनाहारकपर्यवसानेषु चतुर्दशपदेषु द्विषष्ट्य त्तरभेदप्रभिन्नेषु 'इति' अमुना प्रकारेण गुणस्थानकान्यभिहितानीति शेषः / इति गाथार्थः // 33 // साम्प्रतं मार्गणास्थानेष्वेव योगान्मार्गयितुकामः पूर्वं तानेव प्ररूपयन्नाह___(मल०) आहारकेषु प्रथमानि मिथ्यादृष्टयादीनि त्रयोदश गुणस्थानकानि भवन्ति, सर्वेष्वप्येतेषु ओजोलोमप्रक्षेपाहाराणामन्यतमस्याहारस्य यथायोगं संभवात् / तथाऽनाहारकेषु पञ्च इमानि वक्ष्यमाणांनि गुणस्थानकानि भवन्ति / कानि ? इत्यत आह-पढमंतिमदुगअविरय' इति प्रथमद्विकं मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणम् , अन्तिमद्विकं सयोग्ययोगिकेवलिलक्षणम् , अविरतसम्यग्दृष्टिश्चेति / तत्र सयोगिनोऽनाहारकत्वं समुद्घातगतस्य तृतीयचतुर्थपश्चमसमयेषु तदुक्तम्-'चतुर्थपञ्चमतृतीयेष्वनाहारकः" इति / अयोग्यवस्थायां तु योगरहितत्वेनौदारिकादिशरीरपोषकपुद्गलग्रहणाभावादनाहारकत्वम् औदारिकवैक्रियाहारकशरीरपोषकपुद्गलो. पादानमाहार इति हि समयोपनिपटेदिनः / मिथ्यादृष्टिसासादनाविरतसम्यग्दृष्टिषु विग्रहगताचनाहारकत्वमिति / उपसंहारमाह-'गल्याइसु इय गुणट्ठाणा" // 33 // तदेवमुक्तानि मार्गणास्थानेषु गुणस्थानकानि, साम्प्रतमेतेषु योगानभिघित्सुस्तानेव पूर्व स्वरूपतो निर्दिशति सच्च मोसं मीसं असच्चमोसं मणं तह वई य। .. उरलविउव्वाहारा मीसा कम्मइगमिय जोगा // 34 // ... (हारि०) व्याख्या-सन्तो मुनयः पदार्था वा, तेषु यथासंख्येन मुक्तिप्रापकत्वेन यथाचस्थितस्वरूपचिन्तनेन वा हितं सत्यम् / अस्ति जीवः सदसद्रूपो वा देहमात्रव्यापकः, इत्यादि यथावस्थितवस्तुविकल्पनपरम् / तथा तद्धिपरीतं मृषा / नास्ति जीव एकान्तसद्रूपों वेत्यादि / यथावस्थिता-ऽयथावस्थितवस्तुचिन्तनपरं मिश्रम् / इह धवखदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुष्पशोकवृक्षषु अशोकवनमिदमिति यदा विकल्पयति तदा प्रस्तुतमिश्रविषयता / इदं हि विकल्पनमत्राशोकवृक्षाणां सद्भावात्सत्यम् , अन्येषामपि धवादीनां तत्र सद्भावादसत्यमिति मिश्रम् / न Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] पडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मप्रन्थे विद्यते मृषा यत्र तद्भवत्यमृषम् , असत्यं च तदमृपं चेति कृताकृतादिवत्कर्मधारयः, आमन्त्रणप्रज्ञापनादिरूपम् , यथा हे देवदत्त ! घटमानय, धर्म कुरु, भिक्षां देहि इत्यादि / एवंविधं किम् ! इत्याह-'मणं' इति मनश्चित्तं, तथाशब्दो वाक्योपक्षेपार्थः / लिङ्गव्यत्ययेन वाकचैत्रविधैव चतुर्भे देत्यर्थः / तथा 'उरलविवाहारा' इति सूचकत्वात्सूत्रस्यौदारिकवैक्रियाहारककाययोगाः / तथा 'मीसा' इति एत एवौदारिकादयो मिश्रास्त्रयः / 'कम्मइग' इति प्राकृतत्वात्कार्मणकाययोग इति सप्तविधकाययोगः / तत्रोदारं-प्रधानं, उदारमेवीदारिकम् / प्राधान्यं चेह तीर्थकरगणधरशरीरापेक्षया वेदितव्यम् / ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्याप्यनन्तगुणहीनरूपत्वात् / अथवा उदारं सातिरेकयोजनसहस्त्रमानत्वाच्छेषशरीरेभ्यो बृहत्प्रमाणम् , उदारमेवौदारिकम् / बृहत्त्वं चास्य भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया मन्तव्यम् / अन्यथा हि उत्तरवैक्रियं लक्षयोजनमानमपि लभ्यत इति / औदारिकमेव चीयमानत्वात्कायः, तेन सहकारिकारणभूतेन तद्विषयो वा योग औदारिककाययोगः 1 / तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रया तस्यां भवं वैक्रियम् , विशिष्टं कुर्वन्ति तदिति च निपातनाद्वैक्रियम् , तदेव कायस्तेन योगो वैक्रियकाययोगः 2 / तथा चतुर्दशपूर्वविदा तथाविधकार्योत्पत्तौ विशिष्टलब्धिवशादाहियते=निर्वयंत इत्याहारकम् , अथवा आहियन्ते गृह्यन्ते तीर्थकरादिसमीपे सूक्ष्मा जीवादयः पदार्था अनेनेत्याहारकम् , तदेव कायः, तेन योग आहारककाययोगः 3 / तथा औदारिकं मिश्रं यत्र, कार्मणेनेति गम्यते, स भवत्यौदारिकमिश्रः / उत्पत्तिदेशे हि अनन्तरागतो जीवः प्रथमसमये कार्मणेनैवाहारयति ततः परमौदारिकस्यारब्धत्वादोदारिकेण कार्मणमिश्रेणाहारयति, उक्तं च नियुक्तिकृता-"जोएण कम्म एणं, आहारेई अणंतरं जीवी / तेण परं मीसेणं, जाव सरीरस्स निप्फत्ती // 1 // " औदारिकमिश्रश्चासौ कायश्च तेन योग औदारिकमिश्रकाययोगः 4 / तथा वैक्रियं मिश्रं यत्र कार्मणेनेति गम्यते स वैक्रियमिश्रः / अयं तु देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायां मन्तव्यः / शेषस्तु वाय्वादीनामौदारिक (वै क्रिय) मिश्री न ग्राह्योऽप्रधानत्वादिति 5 / तथाऽऽहारकं मिश्रं यत्रौदारिकेणेति गम्यते स आहारकमिश्रा, स एव कायस्तेन योग आहारकमिश्रकाययोगः / यदा सिद्धप्रयोजनश्चतुर्दशपूर्व विदाऽऽहारकं परित्यज्यौदारिकोपादानाय प्रवर्तते तदौदारिवण मिश्रमाहारकं प्राप्यते / बहुव्यापारत्वेन प्रधान स्वादाहारकेण व्यपदेश इति भावः / अन्ये त्वस्यापि प्रारम्भकाल एवाहारकमिश्र प्रतिपद्यन्ते, प्रारभ्यमाणत्वेनाहारकस्य प्राधान्यविवक्षया तेनैव व्यपदेशमिच्छन्तीति हृदयम् 6 / तथा कर्मैव कार्मणः, अथ कर्मणो विकारः कार्मणः, उक्तं च-'कम्मविवागो कम्मणमट्टविहविचित्तकम्मनिप्फन्नं / सव्वेसि सरीराणं कारणभूयं मुणेयव्वं // 1 // कार्मणश्चासौ कायश्च तेन योगः कार्मणकाययोगः 7) 'इय जोगा' इति 'इति' अमुना प्रकारेण योगाः पञ्चदशापि प्ररूपिता इति शेषः / इति गाथार्थः // 34 // Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगाः [ 213 साम्प्रतमेते गत्यादिमार्गणास्थानेषु योज्यन्ते (मल०) इह योगशब्देन कारणे कार्योपचारात्तत्सहकारिभूतं मनः प्रभृत्येव विवक्षितमिति तेः मह योगस्य सामानाधिकरण्यम्। तत्र मनश्चतुर्धा, तद्यथा-सत्यं, मृषाः 'मिश्रम्' इति मत्यामृषा असत्यामृषेति। तत्र सत्यमिति सन्तो मुनयः पदार्था वा, तेषु यथासंख्यं मुक्ति प्रापकत्वेन यथावस्थितवस्तुस्वरूपचिन्तनेन च साधु सत्यम् , यथाऽस्ति जीवः सदसद्पो देहमावव्यापी, इत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुचिन्तनपरम् / सत्यविपरीतमसत्यम् , यथा नास्ति जीव एकान्तासद्रपो वा, इत्यादिकुविकल्पनपरम् / सत्यं च मृषा चेति मिश्रम् , यथा धवखदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुवशोकवृक्षेष्वशोकवनमेवेदमिति विकल्पनपरम् / अत्र हि कतिपयाशोकवृक्षाणां सद्भावात्सत्यता, अन्येषामपि धवादीनां सद्भावादसत्यता, व्यवहारनयमतापेक्षया चैवमुच्यते / परमार्थतः पुनरिदमसत्यमेव, यथाविकल्पितार्थायोगात् / तथा यन्न सत्यं नापि मृषा तदसत्यामृषा / इह विप्रतिपत्तौ सत्यां यद्वस्तुप्रतिष्ठाशया सर्वज्ञमतानुसारेण विकल्प्यते, यथाऽस्ति जीवः सदसद्रप इत्यादि, तत्किल सत्यं परिभाषितम् / यत्पुनर्विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठाशया सर्वज्ञमतोत्तीर्ण विकल्प्यते, यथा नास्ति जीव एकान्तनित्यो वेति तदसत्यम् , विराघकत्वात् / यत्पुनर्वस्तुप्रतिष्ठाशामन्तरेण स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरम् ; यथा हे देवदत्त ! घटमानय, गां देहि मह्यम् ; इत्यादिचिन्तनपरं तदसत्यामृषा / इदं हि स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरत्वान्न यथोक्तलक्षणं सत्यं नापि मृषेति, इदमपि व्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यम् , निश्चयनयमतेन तु विप्रतारणादिबुद्धिपूर्वकमसत्येऽन्तर्भवति अन्यथा तु सत्ये इति / 'तह वई' इति यथा मनः सत्यादिभेदाच्चतुधो तथा वागपि सत्यादिभेदाच्चतुर्धा / 'उर लविउच्चाहारा' इति औदारिकवैक्रियाहारकाणि / तत्रोदारं प्रधानम् / प्राधान्यं च तीर्थकरगणधरशरीरापेक्षया द्रष्टव्यम् / ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्याप्यनन्तगुणहीनरूपत्वादुदारमेवौदारिकम् / विनयादित्वादिकण् / अथवोदारं-सातिरेकयोजनसहस्रमानत्वाच्छेषशरीरापेक्षया बृहत्प्रमाणम् / वृहत्ता चास्य वैक्रियमधिकृत्य भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या / अन्यथोत्तरवैक्रियं योजनलक्षमानमपि लभ्यत इति / उदारमेवौदारिकम् / प्राग्वदिकण्प्रत्ययः / तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियम् / तथा चतुर्दशपूर्वविदा तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधप्रयोजनोत्पत्तौ सत्या विशिटलब्धिवशादाहियते निवर्त्यत इत्याहारकम् / कृद्धहुलमितिवचनात् कर्मणि बुञ् / यथा पादहारक इत्यत्र / 'मिस्सा' इति मिश्रशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते / औदारिकमिश्रं वैक्रियमिश्रं आहारकमिश्रं च / तत्रौदारिकमिश्रं कार्मणेन, तच्चापर्याप्तावस्थायां केवलिसमुद्धातावस्थायां वा उत्पत्तिदेशे हि पूर्व भवादनन्तरमागतो जीवः प्रथमसमये कार्मणेनेव केवलेनाहारयति, ततः परमौदारिकस्याप्यारब्धत्वादौदारिकेण कार्मणमिश्रेण यावच्छरीरस्य निष्पत्तिः / उक्तं च 'जोएण Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे कम्मएणं, आहारेई अणंतरं जीवो। तेण परं मोसेणं, जाव सरीरस्स निप्पत्ती // 1 // " केवलिसमुद्घातावस्थायां तु द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु कार्मणेन मिश्रमौदारिकं प्रतीतमेव / तथा वैक्रियमिश्रं कार्मणेन औदारिकेण वा / तत्कार्मणेन मिश्रं देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायां प्रथमसमयादनन्तरं द्रष्टव्यम् / बादरपर्याप्तकवायोः पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणां च वैक्रियलब्धिमतां वैक्रियारम्भकाले वैक्रियपरित्यागकाले वा औदारिकेणेति / तथा सिद्धप्रयोजनस्य चतुर्दशपूर्वविंद आहारकं परित्यजत औदारिकमुपपादनस्य आहारकं वा प्रारभमाणस्याहारकमिश्रमोदारिकेण द्रष्टव्यम् / 'कम्मइग' इति कमैंव कार्मणम् / प्रज्ञादित्वादण / संसार्यात्मनां गत्यन्तरसंक्रमणे साधकतमं करणम्' / 'इय जोगा' इतिः परिसमाप्तिवचनः / ततोऽयमर्थ:-एते एव योगा नान्ये इति / ननु तैजसमपि शरीरं विद्यते तदुक्ताहारपरिणमनहेतुः, यद्वशाद्वा विशिष्ट - तपोविशेषसमुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमः तत्कथम् ?, उच्यते, एत एव योगा इति नैष दोषः, सदा कार्मणेन सहाव्यभिचारितया तस्य तद्ग्रहेणैव गृहीतत्वादिति // 34 // उक्ताः स्वरूपतो योगाः, साम्प्रतमेतानेव मार्गणास्थानेषु चिन्तयन्नाह एकारस सुरनारयगईसु आहारउरलदुगरहिया / जोगा तिरियगईए तेरम आहारगदुगुणा // 35 // __(हारि०) व्याख्या-एकादशेति संख्या योगा इति योगः / किं स्वरूपास्ते ! इत्याह'आहारकदिकौदारिकद्विकरहिताः' द्विकशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते कयोः, सुरनारकगत्योः ' सुराणां नारकाणां चैकादश योगा इत्यर्थः / आहारकद्विकं यतेरेव / औद रिकद्विकं तु नरतिरश्चामेवेतिकृत्वेति तद्वर्जनम् / तथा तिर्यग्गतो त्रयोदश योगा इति प्राक्तनेन संबन्धः / कीदृशास्ते ? इत्याह-आहारकद्विकोनाः, भावना तु पूर्ववत् इति गाथ.र्थः // 3 // सम्प्रत्येकगाथया पश्चविंशतिपदेषु पञ्चदशापि योगान् संगृह्य लाघवार्थमाह___ (मल०) सुरगतौ नरकमतौ च प्रत्येकमाहारकद्विकौदारिकद्विकरहिताः शेषा एकादश मनोयोगचतुष्ट 4 वाग्योगचतुष्टय 8 वैक्रिय ह वैक्रियमिश्र 10 कार्मण 11 लक्षणा योगा भवन्ति / तत्र कार्मणमपान्तरालगती उत्पत्तिप्रथमसमये च, वैक्रियमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम् , पर्याप्तवस्थायां तु वैक्रियम्, मनोयोगचतुष्टयं वाग्योगचतुष्टयं च पर्याप्तावस्थायां सुप्रतीतमेव / यदा-ऽऽहारकद्विकमाहारकतन्मिश्रलक्षणं तन्न संभवत्यैव, तत्र सर्वविरत्यभावात् / सर्वविरतस्य हि चतुर्दशपूर्ववेदिन आहारकद्विकं संभवति-"आहारं चउदसपुग्विणो उ" इत्यादिवचनप्रामाण्यात् / औदारिकद्विकमप्योदारिकतन्मिश्रलक्षणं नरतिरथामेवोपपद्यते, न देवनारकाणामिति / तथा तिर्यग्गतौ आहारकद्विकेन आहारकतन्मिश्रलक्षगेन ऊना-हीनाः शेषास्त्रयोदश भवन्ति / तौकादश पूर्वोक्ता एव तिरश्वामपि केषांचिद्वै क्रियलब्धियोगतो वैक्रियविकसंभवात्केवलमौदारिकद्विकमधिकमिह प्रक्षिप्यते // 35 / / Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु योगाः [215 नरगइ' पणिदि तस तणु नर अपुम कसाय मइ"सु" ओहिदुगे" / अच्चक्ख" छलेमा' भव्य सम्मदुग सन्निस" य मब्बे // 36 // (हारि०) व्याख्या-'नरगई' इति मनुष्यगतौ 1 पञ्चेन्द्रियेषु 2 असेषु 3 'तणु' इति काययोगे 4 'नर' इति पुरुषवेदे 5 'अपुम' इति नपुसकवेदे 6 'कसाय' इति क्रोध 7 मान 8 माया ह लोभेषु 10 मतिज्ञाने 11 श्रुतज्ञाने 12 'ओहिदुगे' इति अवधिज्ञाने 13 अवधिदर्शने 14 च / एतेषु समाहारद्वन्द्वः 'अचक्खु' इति अचक्षुर्दर्शने 15 'छलेसा' इति कृष्ण 16 नील 17 कापोत 18 तेजसी 16 पद्म 20 शुक्ललेश्यासु 21 भव्येषु 22 सम्मदुग' इति क्षायोपशमिके 23 क्षायिके 24 संज्ञिषु 25, अत्रापातरेतरद्वन्द्वः, चशब्दः समुच्चये, 'सव्वे' योगा इति प्रक्रमः, पञ्चदशापि पश्चविंशतिपदेषु भवन्ति / इति गाथार्थः // 36 / / तथा- . (मल०) नरगतौ मनुष्यगतो. इन्द्रियद्वारे पञ्चेन्द्रियेषु कायद्वारे त्रसकायेषु,योगद्वारे काययोगे, वेदद्वारे पुवेदनपुसकवेदयोः, कपायद्वारे चतुर्वपि कषायेषु 'मइसुओहिदुगे' इति ज्ञानद्वारे मतिज्ञाने श्रुतज्ञाने अवधिज्ञाने, दर्शनद्वारे अवधिदर्शने 'अचक्खु' इति अचक्षुर्दशेने, लेश्याद्वारेषट्स्वपि लेश्यासु, भव्यद्वारे भव्येषु 'सम्मदुग' इति सम्यक्त्वद्वारे क्षायोपशमिके क्षायिके च, संज्ञिद्वारे संज्ञिषु' पञ्चदशापि योगा भवन्ति / सुज्ञानत्वाच नेह भावना क्रियते / / 36 / / एगिदिएसु पंच उ कम्मइगविउविउरलजुअलाणि / कम्मुरलदुर्ग अन्तिमभासा विगलेसु चउरोत्ति // 37 // (हारि०) व्याख्या-एकेन्द्रियेषु पञ्चैव योगा इति प्रकमः / तुशब्द एवकारार्थः, स च योजित एव / के एते ? युगलशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात्कार्मणवैक्रिययुगलौदारिकयुगलानि, अत्र तत्पुरुषगर्भो द्वन्द्वः / तत्र कार्मणं विग्रहगतो, वैक्रियद्विकं बादरपर्याप्तकवायुकायिकापेक्षम् , तथा कार्मणौदारिकद्विकमिति द्वन्द्वः, अन्त्यभाषा चेति 'विकलेषु' विकलेन्द्रियेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियरूपेसु प्रत्येकं चत्वारो योगा इति प्रक्रमः / इतिशब्दो वाक्यसमाप्तौ / तत्र कार्मणं विग्रहगतो, अन्त्यभाषाऽसत्यामृपालक्षणा इति गाथार्थः। / 37 // तथा (मल०) एकेन्द्रियेषु पञ्च योगा भवन्ति / के ते इत्याह-'कम्मइगविउव्विउरलजुयलाणि' इति कार्मणमौदारिकयुगलं वैक्रिययुगलं च / तत्र कार्मणमपान्तरालगती उत्पत्तिप्रथमसमये च औदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायां, पर्याप्तावस्थायां त्वौदारिकम् / वैक्रिययुगलं बादरपर्याप्तवायुकायिकस्य तस्य तल्लब्धिसंभवात् / तथा विकलेषु' विकलेन्द्रियेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियलक्षणेषु कार्मणौदारिकद्विकान्तिमभाषारूपाश्चत्वारो योगा भवन्ति / तत्र कार्मणौदारिकद्विकभावना प्राग्वत् / अन्तिमभाषा चासत्यामृषारूपा, शेषा तु भाषा तेषां न संभवत्येव, “विगलेषु असच्चमोसेव" इतिवचनात् // 37 // Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे कम्मुरलदुगं थावर काए वाए विउविजुयल जुयं / पढमंतिममणवइदुगकम्मुरलदु केवलदुगंमि // 38 // (हारि०) व्याख्या-कार्मणौदारिकद्विकम्, अत्र समाहारद्वन्द्वः / तत्र कार्मणं विग्रहगतो, औदारिकद्विकं त्वौदारिकशरीरतन्मिश्रलक्षणमिति त्रयो योगाः / क ? इत्याह-'स्थावरकाये' पृथिव्यम्बुतेजोवनस्पतिरूपे / तथा 'वायौ' वायुकायिके प्राक्तनत्रयं स्थावरकायसत्कं वैक्रिययुगलयुतमिति पञ्च योगा वायुकाये / वैक्रियद्विकभावना तु प्राग्वदिति / तथा विभक्तिलोपात्प्रथमान्त्यमनोवाग्द्विककार्मणौदारिकद्विकमिति कर्मधारयगर्भो द्वन्द्व इत योगसप्तकं 'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे भवति / तत्र सत्यासत्यमृषारूपं मनोद्वयम् 2 एवं वाग्द्वयमपि 2 / औदारिकं च सर्वदेव, कार्मणौदारिकमिश्रद्वयं तु केवलिसमुद्घाते, उबर च- 'औदारिकप्रयोक्ता, प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः / मिश्रौदारिकयोक्ता, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु / // 1 // कार्मणशरीरयोगो. चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च / समयत्रयेऽपि तस्मिन् , भवत्यनाहारको नियमात् / / 2 / / " इति गाथार्थः / / 3 / / साम्प्रतं प्रथमार्केन पदनवके आहारकद्विकवर्जत्रयोदशयोगान , द्वितीयान पदषट्के औदारिक मश्रकार्मणवर्जत्रयोदशयोगानेव च संगृह्याह___(मल०) कार्मणमौदारिकतन्मिश्रलक्षणम् , इत्येते त्रयो योगा स्थावरकाये' पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिलक्षणे भवन्ति, भावना प्राग्वत् , न शेषा, असंभवात् / तथा वातकाये तदेव पूर्वोक्तं त्रिकं 'वैक्रिययुगलयुतं' वैक्रियतन्मिश्रसहितं द्रष्टव्यम् , तस्य बादरपर्याप्तस्य सतः कस्यचिद् वैक्रियलब्धिसंभवात् / ननु च कथमुच्यते कस्यांचवे क्रियलब्धिसंभवः ? यावता सर्वोऽपि बादरपर्याप्तो वायुकायिकः स वैक्रिय एव. अवैक्रियस्य चेष्टाया एवाप्रवृत्तेः. तदुक्तम्सम्वे वेउव्विया वाया वायंति अवेउब्धियाणं चेट्टा चेव न पवत्तह" इति, तदयुक्तम् , अवैक्रियाणामपि तेषां स्वभावत एव तथाचेष्टोपपत्तेः, उक्तं च-"जेण सव्वेसु चेव लोगागासाइस चला वायवो वायंति तम्हा अवेउवियावि वाया वायंति ति घेत्तध्वं सभावओ तेसिं वाइयव्व" इति वानाद्वायुरितिकृत्वा / तथाऽन्यत्रा'युक्तम्-"त थ ताव तिण्हं रासोणं वेउव्वियलड़ी चेव नत्थि / वायरपजत्ताणपि असंविजहभागमेताणं लडो अस्थि ति तिण्हं रासोणं" इति / त्रयाणां राशीनां पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मापर्याप्तबादरवायुकायिकानाम् / तथा केवलदिके' केवलज्ञानदर्शनरूपे सप्त योगा भवन्ति / के ते ? इत्याह-“पढमंतिममणवइदुगकम्मुरलदु" इति प्रथमान्तिमरूपं मनोद्विकं सत्यमनः असत्यामृषामनश्च, वाग्द्विकं प्रथमान्तिमरूपं सत्या असत्यामृषा च भाषा, शेषस्य मनोद्विकस्य वाग्द्वि कस्य चासंभवाच्छद्मस्थविरहितत्वात् / औदारिककाययोगः सयोग्यवस्थायां तस्यामेव चावस्थायां समुद्घातगतस्य कार्मणौदारिकमिश्रलक्षणयोगद्वयसंभव इति // 38 // Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु योगाः [ 217 .थीवेअ 1 नाणो 4 वमम 5 अजय 6 सासण 7 अभव्य 8 मिच्छेसु 9 / तेरस मण 1 व 2 मणनाण 3 छेय 1 सामइय 5 चक्खुसु 6 य // 39 // (हारि०) व्याख्या-स्त्रीवेदे 1 मत्यज्ञाने 2 श्रुताज्ञाने 3 विभङ्गज्ञाने 4 औपशमिकसम्यक्त्वे 5 'अजय' इति अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके 6 सासादने 7 अभव्ये 8 मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके 9 अत्र द्वन्द्वः, आहारकद्विकवर्जास्त्रयोदश योगा भवन्त्येतेषु नवसु स्थानेषु चतुर्दशपूर्वधरत्वाभावेनाहारकद्विकाभानो भावनीयः / तद्यथा-मनोयोगे 1 वाग्योगे 2 मनःपर्यायज्ञाने 3 छेदोपस्थापनीयसंयमे 4 सामाथिकसंयमे 5 'चक्खुसु' इति चक्षुर्दर्शने च 6 द्वन्द्वः, चशब्दः समुच्चये, न केवलं प्राक्तनपदनवके त्रयोदश योगाः, किन्तु मनोयोगादिपदषट्के चात्रापर्याप्तकाभावादौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगवर्जत्रयोदशयोगा भवन्तीति / अत्रायं गर्भार्थः-इह वर्जनीययोगद्वयं द्वयोरपि पदकदम्बयोभिन्न भिन्न भिन्नविभक्तिनिर्देशादेवैतदर्थमेव तन्मध्ये त्रयोदशशब्दस्यप्रक्षेपो विहितः / वर्जनीययोगद्वयं च सुज्ञानात्वात्सूत्रे सूत्रकृता नोक्तम् / इति गाथार्थः // 36 // तथा(मल०) वेदद्वारे स्त्रीवेदे, ज्ञानद्वारे अज्ञाने मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानलक्षणे, सम्यक्त्वद्वारे औपशमिकसम्यक्त्वे, अयते विरतिहीने, सासादने, अभव्ये, मिथ्यात्वे च आहारकद्विकहीनाः शेषास्त्रयोदश योगा भवन्ति / यवाहारकद्विकं तदेतेषु न संभवत्येव, यतस्तच्चतुर्दशपूर्वविदो भवति-"आहारदुगं जायइ चउद्दसविण" इति वचनात् / तानि चतुर्दशापि पूर्वाण्यज्ञानाऽयतसासादनाऽभव्यमिथ्यादृष्टिषु दूरतोऽपास्तानि / स्त्रीवेदश्चेह द्रव्यरूपो द्रष्टव्यः, न तु तथारूपाध्यवसायलक्षणो भावरूपः , तयाविवक्षणात् / एवमुपयोगमार्गणायामपि द्रष्टव्यम् / प्राक्तु गुणस्थानकमार्गणायां सर्वोपि वेदो भावरूपो गृहीतः, तथा विवक्षणादेव / अन्यथा तेषु यथोक्तगुणस्थानकनवकसंख्यानायोगात्सयोगिकेवल्यादावपि द्रव्यवेदस्य भावात् / द्रव्यवेदश्च बाह्यमाकारमात्रम् , तत्कुतः स्त्रीवेदे चतुर्दशपूर्वाधिगमसंभवः / यत आहारकद्विकं तत्रोपपद्यते, स्त्रीणामागमे दृष्टिवादाध्ययनप्रतिषेधात् , तदुक्तम्"तुच्छा गारवबहुला, चलिंदिया दुयला य धीईए / इय अइसेसजायणा, भूयावादी उ नीत्थीणं // 1 // " इति / 'भूयावादो' इति भूतवादो-दृष्टिवादः। तथा औपशमिकसम्यक्त्वं प्रथमसम्यक्त्वोत्पादकाले उपशमशेण्यारोहे वा, न च सम्यक्त्त्वोपादकाले चतुर्दशपूर्वाधिगमसंभवः, तदभावाच कथमाहारकद्विकभावः ? श्रेण्यारूढस्त्वाहारकं नारभत एव, तस्याप्रमत्तत्वात् / आहारकारम्भकस्य तु लब्ध्युपजीवनेनौत्सुक्यभावतः प्रमादबहुल___. १“जोगाऽऽहारदुगृणा तेरस थीमाइनवसु दारेसु / ओरालमिस्सकम्मणरहिया मणमाइछण्हंवि // // " इति गाथा-ऽधिकतयादृश्यतेहस्तलिखितप्रतौ / Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे त्वात् , अत एवोक्तमन्यत्र-"आहारगं पमत्तो उपाएइ न अप्पमत्तो" इति / आहारकस्थितश्चोपशमश्रेणि नारभत एव, तथास्वभावत्वात् / औदारिकमिश्रं चेह सासादनभावाभिमुखस्य कदाचित्कालकरणसंभवादवसेयमिति / 'मणवह' इत्यादि मनोयोगे वाग्योगे मनःपर्यायज्ञाने छेदोपस्थापने सामायिके चक्षुर्दर्शने च कार्मणौदारिकमिश्रवर्जाः शेषास्त्रयोदश योगा भवन्ति कार्मणौदारिकमिश्रयोगौ तु तेषु न संभवत एव, तयोरपर्याप्तावस्थायां भावात् एतेषां तु मनोयोगादीनां तस्यामवस्थायामसंभवात् // 36 // परिहारे सुहुमे नव, उरल 1 वइ 2 मणा 3 ते सकम्मुरलमिस्सा। अहखाए सविउव्वा, मीसे देसे सविउविदुगा // 40 // (हारि०) व्याख्या-परिहारविशुद्धिके तृतीयसंयमे सूक्ष्मसंपराये च चतुर्थसंयमे, अत्र समाहारद्वन्द्वः / औदारिकवाग्मनांसीति द्वन्द्वः / औदारिककाययोगो वाक्चतुष्टयं मनश्चतुष्टयं च इति प्रत्येकं नव योगा भवन्ति / तथा 'ते' पूर्वोक्ता नव 'सकार्मणौदारिकमिश्राः' कार्मनका ययोगौदारिक मश्रयोगयुक्ता एकादश योगा 'यथाख्यान' पञ्चमे संयमे भवन्ति / यथाख्यातसंयमश्चान्त्यगुणस्थानकचतुष्के प्राप्यते, ततः कार्मणौदारिक मिश्रयोगद्वयं केवलिसमुद्धाते प्राग्वद् द्रष्टव्यम् / उपशान्तक्षीणमोहयोस्तु नव नव योगा भवन्ति / अयोगिनि पुनः सयोगाभाव एवेति तात्पर्यम् / तथा 'सविडव्वा मोसे' इति तच्छब्दः पूर्वोक्तोऽत्राप्यनुवर्तते, ततस्ते पूर्वोक्ताः परिहार वेशु सूक्ष्मसंपरायसत्का नव योगा सर्वक्रियाः सवैक्रियशरीरा दशेत्यर्थः, क्व ? इत्याह-'मिश्रे' मिश्रगुणस्थानके / इदं च वैक्रियं देवनारकापेक्षम् / तथा 'देसे सविउवि. दुगा' इति देशे देशविरते गुणस्थानके, अत्रापि तच्छन्दोऽनुवर्तनीयः / ततस्ते पूर्वोक्ता नव सवैक्रियद्विका वैक्रियशरीरतन्मिश्रान्विता इत्येकादश योगा भवन्ति / वैक्रियद्विकं च यथासंभवं लब्धौ सत्यां देशविरताः कुर्वन्ति / इति गाथार्थः // 40 // तथा (मल०) परिहारविशुद्धिके सूक्ष्मसंपराये च संयमे नव योगा भवन्ति / के ते ? इत्याह'उरलवइमणा' औदारिकं चतुर्धा वाक्चतुर्धा मनश्च / यस्याहारक द्विकं वैक्रियद्विकं कार्मणमौदारिकमिश्रं च तन्न संभवत्येव / तथाहि, आहारकद्विकं चतुर्दशपूर्ववेदिनः / परिहारविशुद्धिकसंयमोपेतश्चोत्कर्षतोऽप्यधीतकिंचिन्न्यूनदशपूर्व एव, उत्कर्षतोऽपि तावदधीतश्रुतस्यैव तत्संयमप्रतिपत्त्यभ्यनुज्ञानात् , तत्कथं तस्याहारकद्विक संभवः 1 नापि तस्य वैक्रियद्विकसंभवः, तस्यामवस्थायां तत्करणाननुज्ञानाञ्जिनकल्पिकस्येव, तस्याप्यत्यन्तविशुद्धाप्रमादमूलघोरानुष्ठानपरायणत्वात् , वैक्रियारम्भे च लब्ध्युपजीवनेनौत्सुक्यभावतः प्रमादसंभवात् / अत एंव सूक्ष्मसंपराय संयमेऽपि चतुर्णामपि योगानामभावः, तत्संयमोपेतस्याप्यत्यन्तविशुद्धतया निस्तरङ्गमहोदधिक Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणासु योगाः [219 ल्पत्वेन वैक्रियाद्यारम्भासंभवात् / कार्मणमौदारिकमिश्रं चापर्याप्तावस्थायामेवेति संयमद्वयेऽपि तस्याभावः / तथा यथाख्यातसंयमे त एव नव पूर्वोक्ता योगाः कार्मणौदारिकमिश्रसहिताः सन्त एकादश भवन्ति / यथाख्यातसंथमो हि केवलिनोऽपि भवति / तस्य च समुद्धातगतस्य तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु कार्मणं "कामणशरीरयोगो, चतुथके पश्चमे तृतीये च / " इतिवचनात् / द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु त्वौदारिकमिश्रं "मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्टद्वितीयेषु इतिवचनादवाप्यत इति, यथाख्यातसंयमे द्वयोरपि संभवः। सविउच्वा मीसे' इति मिश्र सम्य. मिथ्यादृष्टौ त एव पूर्वोक्ता योगा वैक्रियसहिताः सन्तो दश भवन्ति / तत्र वैक्रियं देवनारका पेक्षम् , यत्तु वैक्रियिमथ तन्नैवावाप्यते, तस्यापर्याप्तावस्थाभावित्वात् / मिश्रभावस्य च-"न सम्मामिच्छो कुणइ कालं" इतिवचनप्रामाण्यतोऽपर्याप्तावस्थायामसंभवात् / स्यादेतक्रियलब्धिमतां मनुष्यतिरश्यां सम्यग्मिथ्यादृशां सतां वैक्रियमिश्रं नावाप्यते ? इति, तेषां वैक्रियारम्भासंभवादन्यतो वा कुतश्चित्कारणादाचार्येणान्यैश्च तन्नाभ्युपगम्यत इति न सम्यगवच्छामस्तथाविधसंप्रदायाभावात् / 'देसे सविउवदुगा' इति देशे देशविरतिरूपे संयमे त एव नब पूर्वोक्ताः सवेक्रियद्विका वैक्रियतन्मिश्रसहिताः सन्त एकादश योगा भवन्ति, देशविरतानामबडादीनाभित्र वक्रिय बन्धिमा वैक्रियविकसंभवात् / / 40 // कम्मुरल विउविदुगाणि चरमभासा य छ उ असन्निम्मि / जोगा अकम्मगाहारगेसु कम्मणमणाहारे // 41 // (हारि०) व्याख्या-द्विकशब्दः पदद्वयेऽपि संबध्यते / कार्मणौदारिकद्विकवैक्रियद्विकानि अत्र तत्पुरुषगर्भो द्वन्द्वः, 'चरमभाषा च' असत्यामृषारूपति, षड्योगा इति संबन्धः / असज्ञिनि' मनोविज्ञानविकले एकेन्द्रियादौ / तत्र कार्मणं विग्रहगतौ, औदारिकमिश्रमपर्याप्तकावस्थायाम् , औदारिकं पर्याप्तावस्थायाम् , सर्वदेव वैक्रियद्विकं बादरपर्याप्तकावस्थायां वायुकायिकापेक्षम् / अन्त्यभाषा च शङ्खादिद्वीन्द्रियादीनाम् / तथा योगाः 'अकार्मणाः' कार्मणशरीररहिताश्चतुर्दशेत्यर्थः, केषु ? इत्याह-आहारकेषु भवन्ति / कार्मणमेक 'अनाहारे' अनाहार कजीवे / अनाहारको हि मिथ्यादृष्टिसासादनाविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकत्रये विग्रहगतौ सयोगिगुणस्थानके केवलिसमुद्धाते 'इह यद्यप्ययोग्यप्यनाहारको वर्तते तथाऽपि निरुद्धसमस्तयोगत्वामास्य कार्मणकयोगो भवति / इति गाथार्थः / / 41 // एवं मार्गणास्थानेषु योजिता योगाः, साम्प्रतमुपयोगनामसूा कुर्वस्तावदाह(मल८) कार्मणम् , औदारिकद्विकमौदारिकतन्मिश्रलक्षणं, वैक्रियद्विकं वैक्रियतन्मिश्रल१ "समयत्रये अयोगिगुणस्थानके समस्तेऽपि प्राप्यते तत्रैव कार्मणकयोगो नान्यत्रेति गाथार्थः // 41 // " इति जे०। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 / षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे क्षणं, चरमभाषा अन्तिम्भापा इत्येते षड् योगाः 'असंज्ञिनि' संज्ञिव्यतिरिक्त जीवे भवन्ति / तत्र काणमपान्तरालगती उत्पत्तिप्रथमसमये च औदारिकमिश्रमपर्याप्ताव थायाम् / पर्याप्तावस्थायामौदारिकम् , क्रियद्विकं यादरपर्याप्तवायुकायिकानाम् , चरमभाषा शङ्खादिद्वीन्द्रियादी नामिति / 'अकम्मगाहारगेसु' इति आहारकेषु कार्मणकाययोगविकलाः, शेषाचतुर्दशापि योगा भवन्ति / यत्तु कार्मणं तन्न घटत एव, तस्यापान्तरालगतौ केवलिसमुद्धाततृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु वा भावात् , तदानींचानाहारकत्वात्। एतच्चाचार्येणोक्तं न सम्यगवगम्यते, यत ऋजुगतौ विग्रहगतौ वा उत्पत्तिप्रथमसमये-"जोएण कम्मएणं, पाहारेई अणंतरं जीवो / तेण परं मोसेणं, जाव सरीरस्स निष्फत्ती॥१॥” इति परममुनिाचनप्रामाण्यादाहारकस्यापि सतः कार्मणकाययोगोऽस्त्येव / अथोच्येत, गृह्यमाणं गृहीतमिति निश्चयनयवशात्प्रथमसमयेऽप्यौदारिकादिपुद्गला गृह्यमाणा गृहीता एव, ततो द्वितीयादिसमयेष्विव तदानीमप्यौदारिकमिश्रकाययोग इति, तदेतदयुक्तम् , यतो यद्यपि तदानीमौदारिकादिपुद्गला गृह्यमाणा अपि गृहीता एव तथाऽपि न तेषां गृह्यमाणानां स्वग्रहणक्रियां प्रति करणरूपता येन तन्निबन्धनो योगः परिकल्प्येत, किन्तु कर्मरूपतेव, निष्पन्नरूपस्य सत उत्तरकालं करणभावदर्शनात , न हि घटः स्वनिष्पादनक्रियां प्रति कर्मरूपता करणरूपतां च प्रपद्यमानो दृश्यते / द्वितीयादिसमयेषु तु तेषामपि प्रथमसमयगृहीतानामन्यपुद्गलोपादानं प्रति करणभावो न विरुध्यते निष्पन्नत्वात् , अतस्तदानीमौदारिकादिमिश्रकाययोग उपपद्यत एव, अत एवोक्तम्-"तेण परं मीसेणं" इति तस्मादस्ति आहारकस्याप्युत्पत्तिप्रथमसमये कार्मणकाययोग इति / 'कम्मणमणाहारे' इति व्यवच्छेदफलं हि वाक्यमतोऽवश्यमबंधारयितव्यम् / तच्चावधारणमिहैवं कार्मणमेवैकमनाहारके न शेषयोगा असंभवादिति / न पुनरेवं कार्मणमनाहारकेष्वेवेति / आहारकेष्वप्युत्पत्तिप्रथमसमये कार्मणयोगसंभवान्नापि कार्मणमनाहारकेषु भवत्येवेत्यवधारणम् , अयोग्यवस्थायामनाहाकस्यापि कार्मणकाययोगाभावात् / वक्ष्यति च-"गयजोगो उ अजोगी" इत्येवमन्यत्रापि यथासंभवमवधारणविधिरनुसरणीयः // 41 // तदेवं मार्गणास्थानेषु योगानभिधाय साम्प्रतमेतेष्वेवोपयोगानभिधित्सुस्तानेव स्वरूपतस्तावदाह नाणं पंचविहं तह, अन्नाणतिगं ति अट्ठ सागारा / चउदंसणमणगारा, बारस जियलक्खणुवओगा // 42 // (हारि०) व्याख्या-'ज्ञान' बोधः 'पञ्चविध' मतिज्ञानादिपञ्चप्रकारम् , तथाशब्दः समुच्चयार्थः, 'अज्ञानत्रिक' मत्यज्ञानादित्रिभेदम् , इत्येवंप्रकारा अष्टेति संख्याः 'साकाराः' सहाकारैर्विशेषग्राहकैर्वर्तन्त इति साकाराः / तथा चतुर्णा दर्शनानां चक्षुर्दर्शनादीनां समा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगाः [221 हारः, चतुर्दर्शन मितिशब्दोऽत्रापि योज्यः, ते च इत्येवंरूपा अनाकाराः सामान्यग्राहिणो द्वादशेति संख्योपयोगा इति सण्टङ्कः / कीदृशास्ते ? इत्याह-'जियलक्खण' 'इति विभक्तिलोपा जीवानां पूर्वोक्तस्वरूपाणां लक्षणानि चिह्नानि जीवलक्षणानि-"उपयोगलक्षणो जीवः' इति वचनात् / इति गाथार्थः / / 42 // अथैतस्तेिष्वेव योजयबाह (मल०) 'उपयागाः' प्राग्निरूपितशब्दार्था द्वादश भवन्ति / किंविशिष्टाः 1 इत्याह'जियलक्ग्वण' इति प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोपः, जीवस्यात्मनो लक्षणं, लक्ष्यते ज्ञायते तदन्यव्यवच्छेदेनेति लक्षणं असाधारणं स्वरूपम् , अत एवोक्तमन्यत्र-'उपयोगलक्षणो जोव" इति / ते च द्विधा. साकारा अनाकाराश्च / तत्राकारः प्रतिवस्तुप्रतिनियतो ग्रहणपरिणामरूपो विशेषः "आगारो उ विसेसो" इतिवचनात् , सहाकारेण वर्तन्त इति साकाराः, यथोक्ताकारविकलास्त्वनाकाराः / तत्र साकाराः पञ्चविधं ज्ञानं मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवललक्षणम् , अज्ञानत्रिकं मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूपम् . 'इनि:' परिसमाप्तौ, एतावन्त एवाष्टौ साकारा उपयोगा न त्वन्ये इति / चत्वारि दर्शनानि चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनलक्षणान्यनाकारा उपयोगाः। अमूनि च ज्ञानान्यज्ञानानि दर्शनानि च मार्गणास्थानभेदाभिधानावसरे सप्रपञ्चं व्याख्यातानीति नेह भूयो व्याख्यायन्ते // 42 // अथैतान् मार्गणास्थानेषु योजयन्नाह मणुयगईए बारस, मणकेवलदुरहिया नवन्नासु / थावरइगिबितिइंदिसु, अचक्खुदंसणमनाणदुगं // 43 // (हारी०) व्याख्या-मनुष्यगतौ द्वादशोपयोगा इति प्रक्रमः / तथा मनःपर्यवज्ञानकेवलद्विकरहिता इति द्वन्द्वगर्भस्तत्पुरुषः, नवोपयोगाः 'अन्यासु' मनुष्यगत्युद्धरितासु सुरनारकतिर्यग्गतिषु / इत्युक्ता गतिषूपयोगाः। इत इन्द्रियादिषु तान् प्रतिपादयन्नाह-यावरइगिवितिइंदिसु' इति “गहइंदिए य काए" इत्यादिगाथया केषांचित्पदानां क्वचित्पदव्यत्ययेन भणनं तल्लाघवार्थमिति / पृथिव्यम्बुतेजोवायुवनस्पत्येकद्वित्रीन्द्रियेष्वित्यष्टसु पदेषु कृतद्वन्द्व - बचतुरदर्शनमज्ञानद्विकमिति त्रय उपयोगाः / इति गाथार्थः // 43 // तथा(मल०) मनुजगतौ उपयोगा द्वादशापि यथोक्ता भवन्ति / तत्र सर्वविरतिसद्भावेन मनःपर्यायकेवलज्ञानादीनामपि संभवात् / तथा मनःपर्यायज्ञानकेवलज्ञानकेवलदर्शनरूपकेवलद्विकरहिताः - १“त्ति" इति जे० / 2 "ल्लिङ्गव्यत्ययत्वाच्च जी इति जे० / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222] षड्शीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्ये शेषाः नवोपयोगा 'अन्यासु' मनुजगतिव्यतिरिक्तासु सुरनारकतिर्यग्गतिषु भवन्ति. तासु सर्वविरत्यसंभवेन मनःपर्यायज्ञानादीनामसंभवात् / तथा कायद्वारे स्थावरेषु पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिलक्षणेषु, इन्द्रियद्वारे एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियेषु, अचक्षुर्दर्शनम् , अज्ञानद्विकं च मत्यज्ञानश्रुताज्ञानलक्षणमिति त्रय उपयोगा भवन्ति, न शेषाः / यतः सम्यक्त्वाभावान्न तेषु मतिज्ञानश्रु तज्ञानसंभवः, सर्वविरत्यभावाच मनःपर्यायकेवलज्ञानकेवलदर्शनाभावः / यत्त्ववधिज्ञानमवधिदर्शनं विभङ्गज्ञानं च तद् भवप्रत्ययं गुणप्रत्ययं वा न चानयोरन्यतरोऽपि प्रत्ययः संभवति / चक्षुर्दर्शनोपयोगाभावस्तु चतुरिन्द्रियाभावादेव सिद्धः / इति // 43 / / चक्खुजुयं चरिंदिसु, तं चिय बारम 'पणिदितसकाए। "जोए वेए सुकाएँ "भव'सन्नीसुआहारे // 44 // (हारि०) व्याख्या-'चक्षुर्युत' चक्षुरिन्द्रियोपयोगान्वितं तं चिय' इति तदेव पूर्वोक्तमुपयोगत्रयं च, क ? इत्याह-'चतुरिन्द्रियेषु' अचक्षुर्दर्शनमज्ञानद्विकं चक्षुर्दर्शन मिति चत्वार उपयोगाश्चतुरिन्द्रियेषु भवन्तीत्यर्थः / अथ द्वादशपदेषु लाघवाथं सर्वोपयोगान् संगृह्य प्रदर्शयन्नाह-'पारस' इति द्वादशोपयोगाः, क ? इत्याह-पञ्चेन्द्रिय 1 त्रसकाये 2 इति समाहारद्वन्द्वः, योगे मनो 3 वा 4 काय 5 रूपे. वेदे स्त्री 6 पु ७-नपुसक 8 लक्षणे, 'मुक्काएँ' इति शुक्ललेश्यायां 9, भव्ये 10, संज्ञिषु 11 अत्र द्वन्द्वः, आहारे 12 इति पद द्वादशके भवन्ति / इति गाथार्थः // 44 // ___तथा गाथार्द्धन पदैकादशके दशोपयोगान् संगृह्य तथा केवलद्विके निजद्विकं क्षायिके नवोपयोगाश्चापरार्द्धनाह (मल०) 'चक्षुयुतं' चक्षुर्दर्शनोपयोगसहितं तदेव पूर्वोक्तमुपयोगत्रयं चतुरिन्द्रियेषु भवति / तथा पञ्चेन्द्रियेषु, कायद्वारे त्रसेषु योगेषु च मनोवाकायरूपेषु, वेदेषु च द्रव्यवेदरूपस्त्रीपुनपुसकलक्षणेषु, शुक्ललेश्यायां, भव्येषु, संज्ञिषु, आहारकेषु च द्वादशोपयोगा भवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि सम्यक्त्वदेशविरत्यादीनां संभवात् // 44 // केवलदुगहीणा दस, कसाय पणलेस"चक्खूसु / केवलदुगे नियदुर्ग, खड़गे नय नो अनाणतिगं // 45 // (हारि०) , 'व्याख्या-'केवलनिकहोनाः' केवलज्ञानकेवलदर्शनरहिता दशोपयोगा भवन्ति, केषु 1 इत्याह-कषाय 4 पञ्चलेश्या ह अचक्षु 10 चक्षुष्षु 11 अत्र द्वन्द्व इति Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणासूपयोगाः [ 223 पदैकादशके इति / तथा केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे 'निजदिक' केवलज्ञाने केवलज्ञानोपयोगः, केवलदर्शने केवलदर्शनोपयोग इत्यर्थः। तथा क्षायिक सम्यक्त्वे नवोपयोगाः, कथम् ? इत्याह-'नो' नैव 'अज्ञानत्रिक' मत्यज्ञानश्रु ताज्ञानविभङ्गरूपमेतदुपयोगत्रयं विनेत्यर्थः / इति गाथार्थः // 4 // तथा (मल०)केवलद्विकेन केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणेन हीनाः शेषा दशोपयोगाः कषायेषु क्रोधमानमायालोभरूपेषु, शुक्ललेश्यावर्जितासु शेषासु पञ्चसु पद्मादिलेश्यासु, अचक्षुर्दर्शने च भवन्ति, न तु केवलद्विकं कषायादिसद्भावे तस्यानुत्पादात् 'केवलदुगे नियदुगं' इति केवलद्विके केवलज्ञानदर्शनलक्षणे निजद्विकं केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणं स्वकीयमुपयोगद्वयं भवति न शेषा उपयोगाः, देशज्ञानदर्शनव्यवच्छेदेनैव केवलढिकस्य सद्भावात् / एतच्च प्रागेवोक्तम् / तथा क्षायिके सम्यक्त्वे नव उपयोगा भवन्ति कुतः 1 इत्याह-'नो अनाणतिगं' इति यतस्तत्सद्भावेऽज्ञानत्रिकं न भवति, तस्य मिथ्यात्वनिवन्धनत्वात , निर्मूलतो मिथ्यात्वक्षयेण च क्षायिकसम्यक्त्वोत्पादात् , अतस्तत्र नवैवोपयोगा भवन्ति // 45 // पढमचउनाणसंजमवेयगउवसमियओहिदंसेसु / नाणवउदसणतिगं, केवलदुजुयं अहक्खाए // 46 // (हारि०) व्याख्या-ज्ञानानि च मतिज्ञानादीनि संयमाश्च सामायिकसंयमादयो ज्ञानसंयमाः, चत्वारश्च ते ज्ञानसंयमाश्च चतुर्ज्ञानसंयमाः, प्रथमाश्च ते चतुर्ज्ञानसंयमाश्च प्रथमचतुर्ज्ञानसंयमाः, प्रथमचतुर्ज्ञानानि प्रथमचतुःसंयमाश्चेत्यर्थः, प्रथमचतुःशब्दयोः प्रत्येकमभिसंबन्धात् , ततः प्रथमचतुर्ज्ञानसंयमाश्च वेदकं च क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमौपशमिकं च अवधिदर्शनं च प्रथमचतुर्ज्ञानसंयमवेदकौपशमिकावधिदर्शनानि तेष्वेकादशस्थानकेषु कत्युपयोगाः ? इत्याह-शानचतुष्टयदर्शनत्रिकमिति तत्पुरुषगर्भो द्वन्द्वः, तत्र ज्ञानचतुष्कं मतिश्रुतावधिमनःपर्यवज्ञानलक्षणम् , दर्शनत्रिकं तु चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनरूपम् , इति सप्तोपयोगा भवन्ति / तथा 'केवलदिकयुतं' केवलज्ञानकेवलदर्शनद्वययुक्तं पूर्वोक्तमुपयोगसप्तकमुपयोगनवकं भवति तत् क्क 1 इत्याह-'यथाख्याते' पश्चमसंयमे, एतच्चान्त्यगुणस्थानकचतुष्टये भवति / ततश्चोपयोगसप्तकं छद्मस्थवीतरागोपशान्तक्षीणमोहगुणस्थानकयोः / केवलिद्विकं च केवलिनः स्वगुणस्थानकयोरिति भावना / इति गाथार्थः / / 46 // तथा Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 ] षडशीतिनानि चतुर्थे कर्मग्रन्थे ___ (मल०) प्रथमेषु चतुर्यु ज्ञानेषु मतिश्रुतावधिमनःपर्यायवानलक्षणेषु प्रथमेषु च चतुर्यु संयमेषु सामायिकच्छेदापस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसंपरायरूपेषु, 'वेयग' इति क्षायोपशमिके औपशमिके च सम्यक्त्वेऽवधिदर्शने च चत्वारि ज्ञानानि मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानलक्षणानि, तथा दर्शनत्रिकं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनलक्षणम् , इत्येते सप्त उपयोगा भवन्ति न शेषाः, तद्भावे मत्यज्ञानादीनामसंभवात् / इहाप्यवधिदर्शने मत्यज्ञानाधुपयोगप्रतिषेधो मतान्तरापेक्षया द्रष्टव्यः / अन्यथा हि मत्यज्ञानादिमतामपि सूत्रे साक्षादवधिदर्शनं प्रतिपादितमेव यथोक्तं प्रागिति / 'केवलदुमुयं अहक्खाए' इति यथाख्यातसंयमे तदेव पूर्वोक्तमुपयोगसप्तकं 'केवलद्विकयुतं' केवलज्ञानदर्शनयुतं द्रष्टव्यम् , यथाख्यातसंयमस्य सयोगिकेवल्यादावपि भावात् / तत्र च कंवलद्विकस्य भावात् / इति // 46 // नाणतिगदंसणतिगं, देसे मीसे अनाणमीसं तं / केवलदुगपणपजववज्जा अस्संजयंमि नव // 47 // (हारि०) व्याख्या-ज्ञानत्रिकदर्शनत्रिकमिति द्वन्द्वः, इति षडुपयोगाः, क्क 1 इत्याह-'देशे' देशविरतरंयमे, तथा 'मिभे' मिश्रगुणस्थानके, तदिति ज्ञानदर्शनत्रिकं मिश्रमज्ञानमिश्रम् , तथा केवलद्विकमनःपर्यायज्ञानवर्जा इह यथायोगं समासः, नवोपयोगाः. .कं ? इत्याह-'असंयते' संयमरहिते, तत्र मिश्रे उक्ता एवोपयोगाः / मिथ्यादृष्टेः सासादनस्य चाज्ञानत्रयम् , सम्यग्दृप्टेानत्रयमवधिदर्शनं च, त्रयाणामप्यचक्षुर्दर्शनं चक्षुर्दर्शनं चेति नवोपयोगभावना / इति गाथार्थः // 47 // तथा (मल०) ज्ञानत्रिकं मतिश्रुतावधिलक्षणम् , दर्शनत्रिकं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनलक्षणम् , इत्येते षड् उपयोगा देशविरतिसंयमे भवन्ति न शेषाः, मिथ्यात्वसर्वविरत्यभावात् 'मोसे अनाणमीसं तं' इति मिश्रे सम्यग्दृष्टौ तज्ज्ञानत्रिकं दर्शनत्रिकं चाज्ञानमिश्रं द्रष्टव्यम् / मतिज्ञानं मत्यज्ञानमिश्रम् , श्रुतज्ञानं श्रुताज्ञानमिश्रम् , अवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानमिश्रम् / इह चावधिदर्शनमाचार्येण मतान्तरापेक्षया भणितम् / अन्यथतेष्वेव मार्गणास्थानकेषु गुणस्थानकमार्गणायाम्-"महसुय. भोहिदुगे नव अजयाई" इत्यनेन ग्रन्थेन यदुक्तं अवधिदर्शनस्यायतादीनि क्षीणमोहान्तानि नव गुणस्थानकानि भवन्तीति तद्विरुध्येत, मिश्रगुणस्थानकेऽपीदानीमवधिदर्शनस्याभिधानादिति / तथा केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणकेवलद्विकमनःपर्यायज्ञानवर्जाः शेषा नवोपयोगाः 'असंयते' . संयमहीने भवन्ति, न तु केवलद्विकमनःपर्यायज्ञाने, तस्य विरतिहीनत्वात् , तेषां च विरतिनिबन्धन त्वात् // 47 // Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणासूपयोगाः [ 225 अन्नाणतिगअभव्वे, सासणमिच्छे य पंच उवओगा। दो दंसण तिअनाणा, ते अविभंगा असन्निम्मि // 48 // (हारि०) व्याख्या-अज्ञानत्रिकं च पूर्वोक्तमभव्यश्चेति समाहारद्वन्द्वः, तत्राज्ञानत्रिकाभव्ये, सासादनं च मिथ्यात्वं चात्रापि समाहारद्वन्द्वः, तत्र सासादनमिथ्यात्वे च, चशब्दः समु. च्चयार्थः, इति पदषट्के, किम् ? इत्याह-पञ्चोपयोगाः / कीदृशाः ? इत्याह-रे दर्शने' चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनलक्षणे, 'त्रीण्य ज्ञानानि' मत्यज्ञानादीनि / तथा 'ते' पूर्वोक्ताः पश्चाविभङ्गा विभङ्गवर्जिताश्चत्वार इत्यर्थः, क. 'असंज्ञिनि' मनोविज्ञानविकले / इति गाथार्थः // 48 // साम्प्रतमुपयोगानुपसंहरन् मतान्तरं दर्शयन्नाह___ (मल०) अज्ञानत्रिके मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानलक्षणे, तथाऽभव्ये, सासादने, मिथ्यात्वे च, दर्शनद्विकं चक्षुरचक्षुर्दर्शनलक्षणम् , अज्ञानत्रिकं मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानलक्षणम् , इत्येते पञ्च उपयोगा भवन्ति न शेषाः, अवदातसम्यक्त्वविरत्यभावात् / अज्ञानत्रिकादौ चावधिदर्शनं यतः कुतश्चिदभिप्रायादाचार्येण नोक्तं तन्न सम्यगवगच्छामः, सूत्रे मत्यज्ञानादावप्यवधिदर्शनस्य प्रतिपादितत्वात् / एतच्च प्रागेवानेकश उक्तम् / "ते अदिभंगा असन्निम्मि" इति त एव पूर्वोक्ताः पञ्चोपयोगा अविभङ्गा विभङ्गज्ञानविकलाः सन्तः शेषाश्चत्वार उपयोगा असंज्ञिनि संज्ञिव्यतिरिक्ते जीवे भवन्ति / यत्तु विभङ्गज्ञानं तदसंज्ञिनि नोपपद्यते, तद्धि भवप्रत्य. यतो गुणप्रत्ययतो वा जायते, न चानयोरेकतरोऽपि प्रत्ययोऽत्र घटते / इति // 48 // मणनाणचक्खुरहिया, दस उ अणाहारगेसु उवओगा। इय गइयाइसु नयमयनाणत्तमिणं तु जोगेसु // 49 // (हारि०) व्याख्या-मनःपर्यवज्ञानचक्षुर्दर्शनरहिता दशैवोपयोगाः, तुरेवकारार्थः, क ? इत्याह-अनाहारके विग्रहगतौ केवलिसमुद्धाते च यथायोगं योज्याः / तथाहि-विग्रहगतौ सम्यउदृष्टेनित्रयमवधिदर्शनं च, मिथ्यादृष्टेः सासादनस्य चाज्ञानत्रयम् , त्रयाणामप्यचक्षुर्दर्शनं तस्यानाहारकावस्थायामपि लब्धिमाश्रित्याभ्युपगमात् / इत्येवमेतेऽष्टौ केवलिसमुद्धातेऽयोगिनि गुणस्थानके च केवलज्ञानकेवलदर्शनद्विकमित्यनाहारके दशेति भावना / इति गत्यादिपूपयोगा योजिता इति शेषः इति / अत्र नयमतेन निश्चयनयाभिप्रायेणेकैकयोगापेक्षयेत्यर्थः, नानात्वं नयमतनानात्वं विशेषो योगेषु मनोवाकायरूपेषु / कीदृशं नानात्वम् ? अत आह-इदं वक्ष्यमाणम् , तुशब्दः पुनरर्थः, प्राक्तनव्याख्यापेक्षया वक्ष्यमाणव्याख्यानस्य विशेषद्योतकः / इति गाथार्थः // 46 // तदेव नानात्वमाह Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे (मल०) मनःपयज्ञान चक्षुर्दर्शनरहिताः शेषा दशैवोपयोगा अनाहारके भवन्ति, तुरेवकारार्थ, तदुक्तम्- "तुः स्याद्रेदेऽवधारणे" इति / अनाहारको हि विग्रहगतौ केवलिसमुद्धातावस्थायामयोग्यवस्थायां वा, न च तदानीं मनःपर्यायज्ञ नचक्षुर्दर्शनसंभव इति, उपसंहारमाह-'उवयोगा इय गहयाइसु' इति, इति एवमुक्तेन प्रकारेण गत्यादिषु मार्गणास्थानेधूपयोगा भवन्ति / साम्प्रतं योगेषु गुणस्थानकजीवस्थानोपयोगयोगानधिकृत्य मतान्तरमुपक्षिन्नाह–'नयमयणाणत्तमिणं तु जोगेसु' योगेषु मनोवाकायलक्षणेषु नयनमतेन "नयो ज्ञातुरभिप्रायः" इतिवचनात् , अभिप्रायान्तरविशेषरूपेण नानात्वमिदं वक्ष्यमाणरूपं द्रष्टव्यम् / तुर्विशेषणे, स च शेषेषु मार्गणास्थानकेषु यथाभिहितं तथैवावगन्तव्यम् / योगेषु पुनवक्ष्यमाणनयमतापेक्षयाऽन्यथाऽपीति विशेषयति // 49 // _____ तदेव नानात्वमुपदर्शयति तणुवइमणेसु कमसो, दुचउतिपंचा दुअट्टचउचउरो। तेरसदुबारतेरस, गुणजीवुवओगजोगत्ति // 50 // __ (हारि०) व्याख्या- तनुवाञ्मनस्सु 'क्रमशो' यथासंख्येन द्वि 1 चतु 2 स्त्रि 3 पश्च 4 गुण 1 जीवस्थानको 2 पयोग 3 योगा 4 इति तनौ काययोगे / तथा क्रमश एव द्वि 1 अष्ट 2 चतु 3 श्चत्वारो 4 गुण 1 जीवो 2 पयोग 3 योगाः 4 इति वाचि वाग्योगे / तथा क्रमश इत्यत्रापि संबध्यते, ततस्त्रयोदश 1 द्वि 2 द्वादश 3 त्रयोदश 4 गुण 1 जीवस्थानको 2 पयोग 3 योगाः 4 इति मनसि मनोयोगे भवन्तीत्यक्षरघटना / भावार्थो गाथाभिः 'कथ्यते "केवलतणुजोगंमी, दो गुणच उजीवआइमा हुंनि / मासुयअन्नाणदुर्ग, अञ्चल तिन्नि उवओगा // 1 // वेउविउरलजुयला 4. कम्मणजोगी य 1 पंच जोगत्ति / अमणवईए पढमा, दो गुण जिय अट्ट चउ उवरि // 2 // चक्सुअचक्खू मइसय अनाण चत्तारि हुंति अवओगा / कम्मणउरालजुयलं 2, असञ्चभासा य चउ जोगा // 2 // तेरस गुण मणजोंगे, अंतिमदो जोव पारउवओगा / तेरस जोगा यतहा, कम्मोरलमिस्स 2 वज्जत्ति 4 // 4 // " मनोयोगे नानात्वं जीवस्थानेष्वेव शेषपदत्रयाभिधानं च प्रसङ्गादिति / अत्र यन्त्रस्थापनेयम्-म / 13 / 2 / 12 / 13 मतान्तराभिधायकगाथागम्भीरार्थाऽपि सूत्रकारेण केनाप्यभिप्रायेण न विवृताव।२।८।४।४ अस्माभिश्च यथाऽवबोधं विवृता / इति गाथार्थः // 50 // गुजी। उ जो स।२।४।३५ 1 "उच्यते” इति जे० / 2 एतद्गायाचतुष्कं हस्तलिखितमूलगाथाप्रती मूलगाथातया प्रतिपादितम् / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोवचःकाययोगमार्गणासु नयमतनानात्वं मार्गणासु लेश्याश्च मागास लेण्याश्च [227 अधुना लेश्यास्तेष्वेव योज्यन्ते (मल०) तनुवाङमनस्सु 'क्रमशः' क्रमेण यानि द्विचतुरादीनि द्वादशसङ्ख्यापदानि तानि चत्वारि चत्वारि भूत्वा क्रमश एवं पृथक् पृथग् गुणस्थानकजीवस्थानकोपयोगयोगाभिधायकानि ज्ञातव्यानीत्यक्षरघटना / अस्य च नानात्वस्य निबन्धनम् / अयमभिप्रायः-प्राग्योगान्तरसहितोऽसहितो वा स्वस्त्र रूपमात्रेणेव काययोगादिविवक्षितः, तेन यत्र यथोक्तगुणस्थानकादिवक्तव्यता. सोऽप्युपपद्यते / इह तु काययोगादियोगान्तरविरहित एव विवक्ष्यते / यथा वाग्योगमनोयोगविरहितः काययोगः, मनोयोगकेवलकाययोगविरहितश्च वागयोगः, केवलकाययोगवाग्योगविरहितश्च मनोयोगः, ततः पूर्वस्मानानात्वमिति / तत्र केवलकाययोगे व मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणे गुणस्थानके, चत्वारि पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मवादरे केन्द्रियलक्षणानि जीवस्थानकानि, त्रयो मत्यज्ञानश्रुताज्ञानाचक्षुर्दर्शनरूपा उपयोगाः, वैक्रियद्विकौदारिकद्विककार्मणलक्षणाः पश्च योगाः, केवलकाययोगो ह्य केन्द्रियेष्वेवाप्यते,तत्र च गुणस्थानकादीनि यथोक्तान्येव घटन्त इति / तथा वाग्योगे मनोयोगविरहिते द्वे मिथ्यादृष्टिसासादनलक्ष गे गुणस्थानके अष्टौ, पर्याप्तापर्याप्तद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रिय लक्षणानि जीवस्थानानि, चत्वारश्चक्षुरचक्षुर्दर्शनमत्यज्ञानश्रुताज्ञानलक्षणा उपयोगाः, कार्मणौदारिक द्विकासत्यामृषाभाषारूपाश्चत्वारो योगाः, केवलवाग्योगो हि केवलकाययोगविरहितस्वरूपो द्वीन्द्रियादिष्वेवासंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तेषु संभवति नान्येषु, ततो यथोक्तान्येव गुणस्थानकादीनि तत्र भवन्ति न ऊनाधिकानि / तथा मनोयोगेऽयोगिकेवलिवर्जितानि शेषाणि त्रयोदशगुणस्थानकानि, द्वे च पर्याप्तापर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणे जीवस्थानके, द्वादशाप्युपयोगाः, कार्मणौदारिकमिश्रवर्जिताच शेषास्त्रयोदश योगाः, कार्मणौदारिकमिश्रौ हि काययोगावपर्याप्तावस्थायां केवलिसमुद्धातावस्थायां वा, न च तदानीं मनोयोगोऽपर्याप्तावस्थायां मनस एवाभावात् केवलि समुद्घातावस्थायां तु प्रयोजनाभावात् / तदुक्तम् मनोवचसी तु तदा सर्वथा न व्यापारयति. प्रयोजनाभावादिति // 50 // उक्तं योगेषु नयमतनानात्वम् , साम्प्रतं मार्गणास्थानेषु लेश्या अभिधित्सुराह लेसा उ तिनि पढमा, नारगविगलग्गिवाउकाएसु / एगिदिभूतरूदगअसन्निसु पढमिया चउरो // 51 // (हारि०) व्याख्या-लेश्यास्तिस्रः प्रथमाः कृष्णनीलकापोताख्या भवन्तीति / केषु ? इत्याह-नारक १-विकला 4 ऽग्नि 5 वायुकायिकेषु 6 अत्र द्वन्द्वः इति पदपञ्चके प्रथमा एव प्रथमिकाश्चतस्रः कृष्णनीलकापोततेजस्यभिधाना भवन्ति / इति गाथार्थः // 51 // Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे तथा (मल०) लेश्यास्तिस्रः कृष्णनीलकापोतरूपा नारकेषु विकलेन्द्रियेष्वग्निषु वायुकायिकेषु च संभवन्ति नान्याः प्रायोऽमीषामप्रशस्ताध्यवसायस्थानोपेतत्वात् / तथेन्द्रियद्वारे एकेन्द्रियेषु, कायद्वारे भूतरूदकेष्वगंज्ञिषु च प्रथमाश्चतस्रः कृष्णनीलकापोततेजोरूपा लेश्या भवन्ति / भवनपतिव्यन्तरज्योतिप्कसौधर्मशाना हि देवाः स्वस्वभवविच्युतावेतेपुत्पद्यन्ते ते च तेजोलेश्यावन्तः। जीवश्च यल्लेश्यो म्रियते अग्रेऽपि तल्लेश्य एवोपपद्यते, "जल्लेसे मरइ तल्लेसे उववजई' इति वचनात् / तत एतेषामपर्याप्तावस्थायां कियत्कालं तेजोलेश्या भवतीति // 51 // केवलजुयलअहक्खायसुहुमरागेसु सुकले सेव / लेसासु छसु सठाणं गइयाइसु छावि सेसेसु // 52 // (हारि०) व्याख्या केवलयुगलयथाख्यातसूक्ष्मरागेषु इति द्वन्द्वः, इति पदचतुष्के शुक्लैवैका लेश्या / तथा लेश्यासु षट्सु स्वस्थानम् / कृष्णलेश्यायां कृष्णलेश्या, नीललेश्यायां, नीललेश्या, इत्यादि / तथा गत्यादिषु शेषेष्वेकचत्वारिंशत्पदेषु षडपि लेश्याः / इति गाथार्थः // 52 // इति योजिता लेश्याः, इतोऽल्पबहुत्वमुच्यते (मल०) केवलयुगले केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे, तथा यथाख्यातसंयमे सूक्ष्मसंपरायसंयमे च शुक्ललेश्या भवति न शेषलेश्याः, केवलयुगलादावेकान्तविशुद्धपरिणामभावात् , तस्य शुक्ललेश्याऽविनाभूतत्वात् / तथा षट्सु लेश्यासु 'स्वस्थानम्' इति स्वा स्वा लेश्या भवति यथा कृष्णलेश्यायां कृष्णलेश्या इत्यादि / 'शेषेषु' च गत्यादिमार्गणास्थानकेष्वेकचत्वारिंशसंख्येषु षडपि लेश्या भवन्तीति / 52 / तदेवमुक्ता मार्गणास्थानकेषु लेश्याः, इदानीमेतेष्वेव चतुर्दशसु मार्गणास्थानेषु स्वस्थानापेक्षयाऽल्पबहुत्वमुच्यते गइयाइसु अप्पबहुं, भणामि सामन्नओ सठाणे वि। नरनिरयदेवतिरिया, थोवा दुअसंखणंतगुणा // 53 // (हारि०) व्याख्या-'गल्यादिषु' चतुर्दशस्थानेषु 'अल्पपटुत्वं' एते स्तोका एतेभ्य एते बहव इत्येवंलक्षणं 'भणामि' प्रतिपादयामि, 'स्वस्थानेऽपि' सप्रतिभेदे गत्यादौ 'सामान्यतो' देवमनुष्यादिगतिभेदानपेक्षं यथा भवति, एतदेवाह-नर' इत्यादि, अत्र Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणासु लेश्या तथा गतिमार्गणास्वल्पबहुत्वम् (226 यथासंख्येन पदयोजना कार्या, सा चैवम्-नरास्तावत् स्तोकाः 1, ततो नारका असंख्यातगुणाः 2, ततो देवा असंख्यातगुणाः 3, ततस्तियश्चोऽनन्तगुणाः 4 तत्रानन्तवनस्पतिसद्भावात् / एवमन्यत्रापि यथासंभवं वनस्पतिमाश्रित्यानन्तत्वभावना कार्या / इति गाथार्थः // 53 // इति गतिष्वल्पबहुत्वमुक्तम् / तथा- (मल०) गत्यादिषु चतुर्दशसु मार्गणास्थानेषु 'सठाणे वि' इति अपिरयधारणे स्वस्थान एव न तु परस्थाने, स्वगत'नारकाद्यपेक्षयैवेति यावत् 'अल्पबहुत्वम्' एतेभ्य एते स्तोका एते वहव इत्येवं लक्षणं भणामि, “वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा" इति भविष्यति वर्तमाना, ततो भणामि भणिष्यामीत्यर्थः / कथम् ? इत्याह-'सामान्यतः' सामान्येन स्तोकविशेषाधिकासंख्यातादित्वरूपेण, न तु विशेषेण श्रोणिप्रतराद्याकाशप्रदेशोत्सर्पिण्यादिसमयापहारलक्षणेन, तथाऽभिधाने सति ग्रन्थगौरवापत्तितः संक्षिप्तरुचिविनेयजनोपकारानुपपत्तेः / तदेव सामान्यतोऽल्पबहुत्वमाह-'नरनिरय' इत्यादि / इह यथासंख्येन पदयोजना कर्तव्या / सा चैवम्-नरा मनुष्या निरयदेवतिर्यग्योनिभ्यः सकाशात्स्तोकाः, यतस्तैरुत्कृष्टपदवर्तिभिरपि सर्वतः सप्तरज्जुप्रमाणस्य घनीकृतस्य लोकस्योपरितनाधस्तनप्रदेशरहितमेकैकप्रदेशपङ्कितरूपं श्रेणिमात्रमप्यङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिसंबन्धितृतीयवर्गमूलगुणितप्रथमवर्गमूलप्रदेशप्रमाणैरसत्कल्पनया षट्पश्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणाङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिसंबन्धिद्विकलक्षणतृतीयवर्गमूलगुणितषोडशलक्षणप्रथमवर्गमूललब्धद्वात्रिंशत्प्रदेशप्रमाणैराकाशखण्डेमनुष्यरूपस्थानीयैरपहियमाणमपि नापहियते, एकरूपहीनत्वात् / यदि पुनरेतावत्प्रमाणमेकं रूपमन्यत्स्यात् , ततः सकलाऽपि श्रोणिरपहियते / कालतश्च प्रतिसमयमेतावत्प्रमाणैरप्याकाराखण्डैरपहियमाणा श्रेणिरसंख्याताभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिनिःशेषतोऽपहियते, कालतः सकाशात्क्षेत्रस्यात्यन्तसूक्ष्मत्वात् / उक्तं च "उक्कोसपए जे मणुस्सा भवन्ति तेसु एकमि मणुयरूवे पक्खित्ते समाणे तेहिं मणुस्सेहिं सेढी अवहीरइ / तोसे य सेढीए कालक्वित्तेहिं अवहारो मग्गिजह / कालतो ताव असंखेजाहिं उस्सपिणिओसप्पिणोहिं, खेत्तओ अंगुलपढमघग्गमूलं तइयवग्गमूलपडप्पन्न / किं भणियं होइ ? तीसे सेढीए अंगुलायए खण्डे जो पएसरासी, तस्स जं पढमवग्गमूलपदेसराशिमाणं तं तं तइयवग्गमूलपएसरासिणा पडुपाइजइ पडुप्पाइए समाणे जो पएसरासी हवइ एवइएहि खंडेहिं अबहीरमाणो अबहीरमाणी जाव भिट्ठाइ ताव मण स्सावि अवहीरमाणा निट्ठति। आह, कहमेगा सेढी एद्दहमेत्तेहिं खंडेहिं अवहोरमाणो अवहीरमाणी असंखि. 1 "नारकादिपदापेक्षया" इत्यपि / “नारकादिभेदापेक्षया" इत्यपि / / Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे 230] बाहि उस्सप्पिणिओसप्पिणोहि अवहोरइ / आयरिओ आह, खेत्तस्स सहमत्त ओ सत्ते विमं भणियं-'सहमो य होइ कालो, तत्तो सुहमययरं हवह खेत्तं / अंगुलसेदोमित्ते, ओसप्पिणिओ असंखेजा // 1 // ' इति / " अतो निरयादिभ्यः सकाशात्स्तोका मनुष्याः, तेभ्यो नारका असंख्यातगुणाः, यतः सप्तरज्जुप्रमाणस्य घनीकृतस्य लोकस्योर्ध्वाधआयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिगतप्रथमवर्गमूलधनप्रदेशराशिप्रमाणास्तासां यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणा नारकाः, अतस्ते नरेभ्योऽसंख्यातगुणा एव, तेभ्योऽपि देवा असंख्यातगुणाः, कथम् ? इति चेद् , उच्यते, देवा हि भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकभेदेन चतुर्विधाः / भवनपतयश्चासुरनागसुवर्णादिभेदेन दशविधाः / तत्रासुरकुमारा अपि तावद्धनीकृतस्य लोकस्य या ऊर्ध्वाधआयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽङगुलमात्रक्षेत्रगत- . प्रदेशराशिसंवन्धिप्रथमपर्गमूलासंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणास्तासां संबन्धी यवान् प्रदेश राशिस्तावत्संख्याकाः / एवं नागकुमारादयोऽपि प्रत्येकं द्रष्टव्याः / तथा संख्येययोजनप्रमाणाकाशप्रदेशसूचिरूपैः खण्डैर्यावद्भिर्धनीकृतस्य लोकस्य ('उपरितनाधस्तनप्रदेशरहितं मण्डकाकार) प्रतरमपहियते तावत्प्रमाणा व्यन्तराः / उक्तं च-"संखेजजोयणाणं, सहपएसेहिं भाइयं पयरं / वंतरसरेहि होरइ, एवं एकेक देणं॥१॥" इति / अस्या अक्षरगमनिका-संख्येययो. जनानां या सूचिरेकप्रादेशिकी पङ्क्तिस्तत्प्रदेशैः संख्येययोजनप्रमाणेकप्रादेशिकपवितप्रदेशरिति यावद्भक्तं प्रतरं व्यन्तरसुरैरपहियते तावद्भागलब्धराशिप्रमाणा व्यन्तरसुरा इत्यर्थः / इयमत्र भावनासंख्येययोजनप्रमाणसूचिप्रदेशाः किलासत्कल्पनया दश प्रतरप्रदेशाश्च लक्षम् , तस्य दशभिर्भागे हते लब्धाः सहस्रा दश एतावन्त इत्यर्थः / एवमुक्तेन प्रकारेण प्रतिनिकायं व्यन्तराणां भावना कार्या / न चैवं सर्वसमुदायप्रमाणनियमव्याघातप्रसङ्गः, सूचिप्रमाणहेतुयोजनसंख्येयत्वस्य वैचित्र्यादिति / तथा षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुलप्रमाणैराकाशप्रदेशसूचिरूपैः खण्डैर्यावद्भिर्यथोक्तस्वरूपं प्रतरमपहियते तावत्प्रमाणा ज्योतिष्का देवाः / तदुक्तम्-छप्पन्नदोसयं. गुलसूइपएसेहि भाइयं पयरं / जोइसिएहिं हारह" इति / अत एवोक्तं सूत्रे-"वाणमतरेहिंतो संखेनगुणाजोइसिया" इति तथा वैमानिकदेवा धनीकृतस्य लोकस्य या ऊर्वाधआयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिसंबन्धितृतीयवर्गमूलधनप्रमाणास्तासां यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणाः / अतः सकलभवनपत्यादिसमुदायापेक्षया चिन्त्यमाना देवा नारकेभ्योऽसङ्ख्यातगुणा एव / तथा चोक्तम्-"थोवा नरा नरेहि य, असंवगुणिया हवंति नेराया। तत्तो सुरासुरेहि य, सिडाणंता तओ तिरिया // 1 // " इति / यदुक्तं तृतीयवर्गमूलधनप्रमाणा इति, तस्येयं गणितभावना-अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशेरसत्कल्पनया 1 एतत्कोष्ठाकान्तर्वतिपाठ एक एव पुस्तक उपलभ्यते / Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गती-न्द्रिय-कायमार्गणास्वल्पबहुत्वम् [ 231 षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणस्य प्रथमं वर्गमूलं षोडश, द्वितीयं चत्वारि, तृतीये द्वे, तच्च तृतीयं वर्गमूलं द्वितीयेन वर्गमूलेन चतुष्टयलक्षणेन गुण्यते ततोऽष्टौ भवन्तिः एष तृतीयवर्गमूलस्य घनः / अङ्कस्थापना-२५७ अर य घनः 8 / एवं प्रागपि वर्गमूलघनभावना द्रष्टव्या / तेभ्योऽपि च देवेभ्यस्तिय-: श्चोऽनन्तगुणाः तत्रानन्तसंख्योपेतस्य वनस्पतिकायस्य सद्भावात् // 53 // . तदेवं गतिष्वल्पबहुत्वमभिधाय, साम्प्रतमिन्द्रियद्वारे तदभिधित्सुराह पणचउतिदुएगिंदी, थोवा तिनि अहिया अणंतगुणा। तसतेउपुढविजलवाउहरियकाया पुण कमेणं // 54 // थोग असंखगुणिया, तिनि विसेसाहिया अणंतगुणा। मंणवयणकायजोगी, थोवासंखगुणणंतगुणा // 55 // (हारि०) व्याख्या-सूचकत्वात्सूत्रस्य पश्चचतुरिद्वय केन्द्रियाः, अत्र द्वन्द्वगर्भो बहुबीहिः / तत्र पञ्चेन्द्रियाः स्तोकाः, तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया अधिकाः, तेभ्यस्त्रीन्द्रिया अधिकाः, ततो द्वीन्द्रियां अधिकाः, तेभ्य एकेन्द्रिया अनन्तगुणाः / अनन्तत्वभावना प्राग्वत् / इतीन्द्रियेष्वल्पबहुत्वमुक्तम् / तथा त्रसतेजःपृथिवीजलवायुहरितकायाः, इह द्वन्द्वगर्भस्तत्पुरुषः / पुनः क्रमेजाल्पबहुत्वं वक्ष्यमाणगाथया मन्तव्यम् / इति गाथार्थः // 54 // तदेवाह (हारि०) व्याख्या-त्रसादयः प्राग्गाथापराोक्ताः / तत्र प्रसाः स्तोकाः, तेभ्यस्तेजस्काया असङ्ख्यगुणिताः, ततः पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः, तेभ्यो जलकायिका विशेषाधिकाः, तेभ्यो वायुकायिका विशेषाधिकाः, तेम्यो हरितकायिका अनन्तगुणाः / अनन्तत्वभावना प्राग्वत् / इति कायेष्वल्पबहुत्वमुक्तम् / तथा मनोवचनकाययोगिनः क्रमेणेति प्रक्रमः / स्तोका मनोयोगिनः संज्ञेपञ्चेन्द्रियाः, तेभ्योऽसङ्ख्यगुणा वचनयोगिनो द्वीन्द्रियादयः, तेभ्योऽनन्तगुणाः काययोगिन एकेन्द्रियाः पृथ्वीप्रभृतयः / अनन्तगुणत्वभावना प्रागिव / इति योगेष्वल्पबहुत्वमुक्तम् / इति गाथार्थः // 55 // तथा (मल०) पञ्चेन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियादिभ्यः सकाशात्स्तोकाः, तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः / तत्र यद्यपि च घनीकृतस्य लोकस्य या ऊर्ध्वाधआयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयः असंख्यातयोजनकोटीकोटीप्रमाणाकाशप्रदेशसूचिगतप्रदेशराशिप्रमाणास्तासां यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 ] पडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे चतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिपञ्चेन्द्रिया अविशेषेण सूत्रे निर्दिष्टाः / तथा चोक्तं तत्र यथोक्तरूपद्वीन्द्रियपरिमाणाभिधानानन्तरम्-"जहा बेइंदियाणं तहा तेइदियाणं चरिंदियाण वि भाणियव्व, पंचिंदियतिरिक्वीणियाणंपि" इति / तथापि सूचिपरिमाणहेत्वसङ्ख्यातरूपसङ्ख्याया बहुभेदत्वान्न यथोक्तविशेषाधिकत्वाभिधानव्याघातः / अत एव च हेतोस्तिर्यग्योनिपञ्चेन्द्रियेषु द्वीन्द्रियादितुल्यतया सूत्रेऽभिहितेष्वपि तत्रापि नरनिरयदेवप्रक्षेपेऽपि पञ्चेन्द्रियाचतुरिन्द्रियादिभ्यः स्तोका एव द्रष्टव्याः / तदुक्तम्-पचिंदिया य थोषा,विवजएण वियला विसेसहिया" इति द्वीन्द्रियेभ्योऽपि चेकेन्द्रिया अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायजीवराशेरनन्तानन्तत्वात् / 'मस तेउ' इत्यादि सोत्तरगाथार्द्धम् / सा द्वीन्द्रियादयः पूर्वनिर्दिष्टसंख्याकाः, ते तेजस्कायिकादिभ्यः सकाशात्स्तोकाः, तेभ्यः पुनस्तेजस्कायिका असंख्यातगुणाः, तेषां सूक्ष्मवादरभेदभिन्नानामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमागत्वात् तेभ्यः पृथ्वीकायिका विशेषाधिकाः, तेभ्योऽप्कायिका विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि वायुकायिका विशेषाधिकाः / यद्यपि चैतेषामपि पृथ्वीकायिकादीनामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणतया सूत्रेऽविशेषेण निर्देशः कृतः / तथा चोक्तम्-जहा पुढविकाइयाणं एवं आउकाइयाणं " इत्यादि / तथाऽपि लोकानामसंख्यातत्वस्यानेकभेदत्वादिहैव विशेषाधिकत्वाभिधानेऽपि न कश्चिदोषः / उक्तं च-“योवा य तसा तत्तो, नेउ असंखा तओ विसेसहिया / कमसो भूदंगवाऊ, अकायहरिया अणंतगुणो // 1 // " 'अकाय' इति सिद्धाः, तथा तेभ्यो वायुकायिकेभ्यो हरितकाया अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / 'मणवयण' इत्यादि / मनोयोगिनः स्तोकाः, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेव मनोयोगित्वात् / तेभ्यश्च वाग्योगिनोऽसङ्ख्थातगुणाः, द्वीन्द्रियादीनामप्यसंज्ञितिर्यपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां वाग्योगिनां मनोयोगिभ्योऽसङ्ख्यातगुणानां तत्र प्रक्षेपात् / वाग्योगिभ्योऽपि काययोगिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामप्यनन्तानन्तानां तत्र प्रक्षेपात् // 54 // 55 // पुरिसेहिंतो इत्थी, संखेनगुणा नपुसणंतगुणा। . माणी कोही 'मायी, लोही कमसो विसेसहिया // 56 // (हारि०) व्याख्या-पुरुषाः स्तोका इति सामर्थ्याल्लभ्यते, ततः पुरुषेभ्यः स्त्रियः संख्येय. गुणाः / तथा चागमः-“देवेहितो बत्तीसगुणाओ देवीणो नरेहितो सत्तावीसगुणाओ नारीओ, तिरिएहितो तिगुणाओ तिरिच्छीओ किंचि अहियाओ।" इति / अत्रार्थे गाथे 'तिगुणा तिरूवअहिया, तिरियाणं इत्थिया मुणेयव्वा / सत्तावोसगुणा पुण; मणुयाणं तदहिया चेव // 1 // षत्तीसगुणा बत्तीसख्यअहिया य तह य देवाणं / 1 "माई लोभी" इत्यपि पाठ। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय काय वैद-कपाय-ज्ञानमार्गणास्वल्पवहुस्वम [ 233 देवोओ पन्नत्ता, जिणेहि जियरागदोसेहि // 2 // ' ततः स्त्रीभ्यो नपुसकान्यनन्तगु. णानि / अनन्तत्वभावना पूर्ववत् / इति वेदेष्वल्पबहुत्वमुक्तम् / तथा मानिनः, क्रोधवन्तो, मायिनो, लोभवन्तः क्रमेण विशेषाधिकाः, अयमर्थः-स्तोका मानवन्त इत्यागमे भणनात्स्तोका इति सामर्थ्यलभ्यम् / शेपा भणितक्रमेण विशेषाधिका ज्ञेयाः / सामान्येन चत्वारोऽप्यनन्ताः, अनन्तकायिकादिष्वेतचतुष्कपायसद्भावात् / इति कपायेष्वल्पबहुत्वमुक्तम् / इति गाथार्थः // 56 // तथा (मल०) स्त्र्यादिभ्यः सकाशात्पुरुषाः रसोका इति सामर्थ्याल्लभ्यते, अन्यथा तेभ्यः स्त्रीणां सङ्ख्यातगुणत्वं नोपपद्यते, पुरुषेभ्यः सकाशामियः संख्यातगुणाः। उक्तंच-"तिगुणा तिरुवअहिया, तिरियाणं इत्थिया मुणेयध्या / सत्तावीसगुणा पुण मणयाणं तद. हिया चेव // 1 // वतीसगुणा बत्तीसरूवअहिया य तह य देवाणं / देवीओ पण्णत्ता, जिणेहि जियरागदीसेहिं // 2 // " स्त्रीभ्यच नपुसका अनन्तगुणाः, अनन्तगुणता च वनस्प, तिकायापेक्षया द्रष्टव्या / 'माणी' इत्यादि सर्वस्तीका मानिनः, मानपरिणामकालस्य क्रोधादिपरिणामकालापेक्षया सर्वस्तोकत्वात् / तेभ्यः क्रोधवन्तो विशेषाधिकाः, क्रोधपरिणामकालस्य मानपरिणामकालापेक्षया विशेषाधिकत्वात् / नेभ्योऽपि मानिनो विशेषाधिकाः, भूयस्त्वेन जन्तुना प्रभूतकालं च मायाबहुलत्वात् / ततोऽपि विशेषाधिका लोभवन्तः, सर्वेषामपि प्रायः संसारित जीयानां सहा परिग्रहाद्याकाङ्क्षासद्भावात् // 56 / / / मणपजविणो 'थोवा, ओहिण्णाणी तओ असंखगुणा। मइसुयनाणी तत्तो, विसेसअहिया समा दोवि // 57 // (हारि०) व्याख्या-मनःपर्यवज्ञानिनः स्तोकाः, अवधिज्ञानिनस्ततोऽसंख्यगुणाः, असं. व्यत्वात्सम्यग्दृष्टिदेयादीनाम् / मतिश्रुतज्ञानिनस्ततो विशेषाधिकाः, अवधिरहितसम्यग्दृष्टितिर्यः नरप्रक्षेपात् / स्वस्थाने पुनः 'समी' तुल्यौ द्वार्वाप राशी / इति गाथार्थः / / 7 / / तथा (मल०) मनःपर्यायज्ञानिनः शेषज्ञान्यपेक्षया स्तोकाः, तद्धि गर्भव्युत्क्रान्तमनुष्याणां तत्रापि संयताामप्रमत्तानां विविधामोषध्यादिल.ब्धयुक्तानामुपजायते / यत उक्तम्-"तं संजयरस सबप्पमायरहियरस विविहरिहिमतो।” इत्यादि / ते च स्तोका एव, सङ्ख्यातत्वात् / तेभ्योऽसङ्खयेयगुणा अवधिज्ञानिनः, सम्यग्दृष्टिदेवादीनामवधिज्ञानयुक्तानां तेभ्योऽसंख्यातगुणत्वात् / 'ततः' अवधिज्ञानिभ्यः सकाशान्मतिश्रुतज्ञानिनो विशेषाधिकाः, अवधिज्ञानरहितसम्यग्दृष्टिनरतिर्यप्रक्षेपात् / एतौ च मतिज्ञानिश्रुतज्ञानिनौ स्वस्थाने चिन्त्यमानी १“थेवा ओहिन्नापी" इत्यपि पाठः / Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थे द्वावपि तुल्यौ, मतिश्रुतज्ञानयोः परस्परनान्तरीयकत्वात् / तथा च सूत्रम्-'जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ मइनाणं / दोवि एयाइं अन्नान्नमणुगयाई" इति // 5 // विभंगिणो असंखा, केवलनाणी तओ अणंतगुणा / तत्तोऽणतगुणा दो, मइसुयअन्नाणिणोतुल्ला // 58 // (हारि०) व्याख्या-वक्ष्यमाणतच्छब्दस्यात्रापि योगाततः पूर्वगाथोक्तमतिश्रुतज्ञानिभ्यः सकाशाद्विभङ्गिनोऽसंख्याः, मिथ्यादृष्टिसुरादीनामसंख्यगुणत्वात् / केवलज्ञानिनस्ततोऽनन्तगुणाः सिद्धानामानन्त्यात् / ततोऽनन्तगुणो द्वौ मतिश्रुताज्ञानिनो, एतदज्ञानद्वयवतां हि मिथ्यादृष्टयादीनामनन्तगुणत्वात् / 'तुल्यो' समौ स्वस्थान इति शेषः / इति गाथार्थः // 58|| इति ज्ञानेष्वल्पबहुत्वमुक्तम् / तथा (मल०) तेभ्यश्च मतिज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्यः सकाशाद्विभङ्गज्ञानिनोऽसङ्ख्यातगुणाः, मिथ्यादृष्टिसुरादीनां विभङ्गज्ञानवतां तेभ्योऽसङ्ख्यातगुणत्वात् / ततोऽपि च विभङ्गज्ञानिभ्यः सकाशाकेवलिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानां तेभ्योऽनन्तगुणत्वात् , तेषां च केवलज्ञानयुक्तत्वात् / तेभ्योऽपि च केवलज्ञानिभ्यः सकाशादनन्तगुणाः मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिनः, सिद्धेभ्यो वनस्पतिकायिकानामनन्तगुणत्वात् , तेषां च मिथ्यादृष्टितया मतिश्रुताज्ञानयुक्त्तत्वात् / एतौ द्वावपि मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिनौ स्वस्थाने चिन्त्यमानौ तुल्यौ, मत्यज्ञानश्रुताज्ञानयोः परस्परमावनाभाविन्यात्।।५८।। सुहुमपरिहारअहखायछेयसामइयदेसजइअजया। पर थोवा संखेजगुणा, चउरो अस्संखणंतगुणा // 59 // (हारि०) व्याख्या-सूचकत्वात्सूत्रस्य सूक्ष्मसंपरायपरिहारविशुद्धिकयथाख्यातच्छेदोपस्थापनीयसामायिकदेशयत्ययताः क्रमेणेति प्रक्रमः / प्रथमाः स्तोंकाः / ततः संख्येयगुणाश्चत्वारः / ततो देशयतयो गुणशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धादसंख्यगुणाः असंख्यगुणत्वादेशविरततिरश्चाम् / ततोऽनन्तगुणा अयताः, आद्यगुणस्थानकचतुष्टयवर्त्यसंयमिनः / भावना पूर्ववत् / इति गाथार्थः / / 5 / / इति संयमेष्वल्पबहुत्वमुक्तम् / तथा (मल०) सर्वस्तोकाः सूक्ष्मसंपरायसंयमिनः, शतपृथक्त्वमात्रसंभवात् / तेभ्यः सङ्खये यगुणाः परिहारविशुद्धिकाः, सहस्रपृथक्त्वसंभवात् / तेभ्योऽपि सङ्खथे यगुणा यथाख्यातचारित्रिणः, कोटीपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् / तेभ्योऽपि च च्छेदोपस्थापनचारित्रिणः सङ्ख्य यगुणाः, कोटीशतपृथक्त्वेन लभ्यमानत्वात् / तेभ्योऽपि सामायिकसंयमिनः सङ्ख्थे यगुणाः, कोटीसहस्रपृथ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान-संयम-दर्शन-लेश्यामार्गणास्वल्पबहुत्वम् [ 235 क्त्वेन प्रा यमाणत्वात् / तेभ्योऽपि देशयतयोऽसङ्ख्यातगुणाः, असङ्ख्यातानां तिरश्चा देशविरतिसंभवात् / तेभ्योऽप्ययताः संयमहीना आद्यगुणस्थानकचतुष्टयवतिनोऽनन्तगुणाः, मिथ्यादृशामनन्तानन्तस्वात् / 'संखेज गुणा चउरो' इति चत्वारः परिहारविशुद्धिकयथाख्यातच्छेदोपस्थानसामायिकवन्तः क्रमेण सङ्खथे यगुणाः शेपाक्षरगमनिका सुज्ञाना / इति // 56 / / इय ओहिचक्खुकेवलअचक्खुदंसी कमेण विन्नेया। थोवा अरसंखगुणा, अणंतगुणिया अणंतगुणा // 60 // (हारि०) व्याख्या-इति' अमुनोल्लेखेन विज्ञेया इति संवन्धः, पदावयवे पदसमुदायो. पचारात् / अवधिदर्शनचक्षुर्दर्शनकेवलदर्शनाचक्षुर्दर्शनिनः, 'क्रमेण' भणितपरिपाट्या 'विज्ञयाः' ज्ञातव्याः / कथम् ? स्तोका अवधिदर्शनिनः / ततोऽसंख्यगुणाश्चक्षुर्दर्शनिनः चतुरिन्द्रियप्रमुखचक्षुष्मतामसंख्यगुणत्वात् / ततोऽनन्तगुणिताः केवलदर्शनिनः, सिद्धानामनन्तत्वादेव / ततोऽनन्तगुणा अचक्षुदर्शनिनः, सर्वजीवव्यापित्वादचक्षत र्शनस्य / तदुक्तम्-"ज्ञानं सम्यग्दृष्टदर्शनमथ भवति सर्वजीवानाम् / इति भावना / " इति गाथार्थः // 60 // इति दर्शनेबल्पबहुत्वमुक्तम् / तथा (मल०) 'इतिः' एवं वक्ष्यमाणलक्षणेन प्रकारणावधिचक्षाकेवलाचक्षदर्शनिनः क्रमेण विज्ञेयाः / केन प्रकारेण ? इत्याह-'थोवा' इत्यादि, स्तोका अवधिदर्शनिनः, सुरनारकाणां नरतिरश्वां च केषांचिदवधिदर्शनसंभवात् / तेभ्यश्चक्षुर्दशनिनोऽसङ्ख्यातगुणाः, चतुरिन्द्रियादीनामपि चक्षुदेशनिनां तत्र प्रक्षेपात् / तेभ्योऽनन्तगुणा, केवलदर्शनिनः, सिद्धानां तेभ्योऽनन्तगुणत्वात् , तेषां च केवलदर्शनयुक्तत्वात् / तेभ्योऽप्यनन्तगुणा अचक्षुर्दर्शनिनः, सर्वसंसारिजीवानां सिद्धेभ्योऽनन्तगुणत्वात् , तेषां च नियमादचक्षदर्शनोपेतत्वात् / इति // 6 // सुका पम्हा तेऊ, काऊ नीला य किण्हलेसा य। थोवा दो संखगुणाऽणंतगुणा दो विसेसहिया // 6 // (हारि०) व्याख्या-इह गुणगुणिनोरभेदोपचारादेतल्लेश्यावन्तो गृह्यन्ते / ततः शुक्ललेश्यावन्तः स्तोकाः, ततः पद्मतेजोलेश्यावन्तो संख्येयगुणौ द्वौ प्रत्येकम् / ततोऽनन्तगुणाः कापोतलेश्यावन्तः कापोतलेश्याया अनन्तकायिकेष्वपि सद्भावात् / ततो द्वावुभौ राशी विशेषाधिको / 'नोलाश्च' नीललेश्यावन्तः कृष्णलेश्याश्च / तत्र नीललेश्याधिक्यं चतुर्थनरके सद्भावात् / कृष्णल श्याधिक्यं षष्ठसप्तमनरकसद्भावात् / इति गाथार्थः // 61 / / इति लेश्यास्वल्पबहुत्वमुक्तम् / तथा(मल०) स्तोकाः शुक्ललेश्यावन्तः, वैमानिकेष्वेव देवेषु लान्तकादिष्वनुत्तरसुरपर्यवसानेषु / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 636 ] पडशीतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थ केषुचिदेव च मनुष्यस्त्रीपु सेषु कर्मभूमिजेषु तिर्यक्सीपु सेषु च केषुचित्सङ्ख्यातवर्षायुष्केषु शुक्ल लेश्यासंभवात् / ततः सङ्ख्य यगुणाः पद्मलेश्यावन्तः, सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मले कदेवेषु उक्तस्वरूपेषु च मनुष्यतिर्यक्षु पद्मलेश्याभावात् , सनत्कुमारादिदेवानां च लान्तकादिदेवेभ्यः सङ्खये यगुणत्वात् / तेभ्योऽपि तेजोलेश्यावन्तः सङ्खये यगुणाः, सौधर्मशानादिदेवेषु केषुचिच्च तिर्यमनुष्येषु तेत्रोलेश्यासद्भावात् , तेषां च सकलपद्मलेश्यांसहित तर्यगादिप्राणिगणापेक्षया संख्येयगुण वात् / ततः कापोतलेश्यावन्तोऽनन्तगुणाः, अनन्तकायिकेष्वपि कापोतलेश्यासद्भावात् / ततो विशेषाधिका नीललेश्यावन्तः, नारकादीनां तल्लेश्यावतां तत्र प्रक्षेपात् / ततोऽपि विशेषाधिकाः कृष्णलेश्यावन्ता, भूयसां तल्लेश्यासद्भावात् / / 61 / / थोवा जहन्नजुत्ताऽणतयतुल्लत्ति इह अभव्वजिया। . तेहिंतोऽणंतगुणा, भव्या णिव्याणगमणरिहा // 62 / / (हारि०) व्याख्या-स्तोका इहात्र विचारे वर्तन्ते / क एते ? अभैव्यजीवा मुक्तिगमनायोग्यजन्तवः, किं परिमाणाः ? जघन्यं च तद्युस्तानन्तकं च जघन्ययुक्तानन्तकं सिद्धान्तप्रसिद्धम् , तेन तुल्याः समा जघन्ययुक्तानन्तकतुल्याः / इह युक्तानन्तकपदे स्थानाशून्यार्थ कांचिद्भावना लिख्यते-तत्र जम्बूद्वीपप्रमाणशलाकाप्रतिशलाकामहाशलाकाख्यपल्यत्रयमनवस्थितचतुर्थपल्येन भ्रियते, एकैकभरणपूर्वकं यावच्चत्वारोऽपि पल्या भृता एकशलाकोना भवन्ति तावत्संख्यातमुत्कृष्ट भवति / तत एकशलाकाक्षेपे परीतासंख्यातं जधन्यं स्यात् 1 / एवमनेकप्रक्षेपर्वगिः तसंवर्गितन्यायेन च मध्यमपरीतासंख्यातम् 2 / उत्कृष्टपरीतासंख्यातं च 3 / एवं जघन्यादिभेदत्रयेण युक्तासंख्यातम् 3 / एवं भेदत्रयेणाऽसंख्यातासंख्यातं भवति 3 / एवमसंख्यातपदस्थानेऽनन्तपदं वाच्यम् / ततोऽनन्तेऽपि नवभेदा जाताः 9 / प्रक्षेपादिकं सर्व जीवसमासादिग्रन्थेभ्योऽवसेयम् / वचनमात्रमत्र लिखितमिति / किन्त्वनन्तानन्तकमुत्कृष्टं न कथंचित्पूर्यते प्रस्तुते त्वभव्या युक्तामन्तकप्रथमभेदसमा मन्तव्याः / इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्तौ / इहशब्दो योजित एव / तेभ्योऽनन्तगुणा भव्याः / कीदृशा भव्याः 1 'निर्वाणगमनाहीः' निवृत्तियानयोग्याः / इति गाथार्थः // 6 // इति भव्येष्वल्पबहुत्वमुक्तम् / तथा (मल०) 'इह' अस्मिन् जगति भव्यापेक्षयाऽभव्यजीवाः स्तोकाः कुतः ? इत्याह-'जह नजुत्ताणतयतुल्लत्ति हेतावियं प्रथमा / ततोऽयमर्थः-यतोऽभव्यजीवा जघन्ययुक्तानन्तकतुल्या इति तस्माद्भव्यजीवापेक्षया ते स्तोकाः / अथ किमिदं जघन्ययुक्तानन्तकं नाम 1; उच्यते, अनन्तसङ्ख्याविशेषः, स च सङ्ख्यातासङ्ख्यातरूपसङ्ख्याविशेषप्ररूपणामन्तरेण न प्ररूपयितु शक्यते, एकादिप्ररूपणामन्तरेण शतादिसङ्ख्यावत् , तत आदितः कथयितुमारम्यते / Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्या-भत्र्ययोरल्पबहुत्वं सङ्ख्यास्वरूपञ्च (337 तत्र सङ्खयानं त्रिधा, जघन्य मध्यमुत्कृष्टं च / तत्र जघन्यं द्वौ एकस्य एकत्वादेव गणनागोचरातिकान्तत्वात् / मध्यमं संख्या त्रिप्रभृति यावदेकरूपहीनतया उत्कृष्ट सङ्ख्यातं न भवति / तबोत्कृष्ट नवम्-इह जम्बूद्वीपप्रमाणा अधस्ताद्योजनसहस्रमवगाढा उपरिष्टादष्टयोजनोच्छ्तिचतुर्दादशोपर्यधोविस्तृतप्राकारतदुपरिपञ्चधनुःशत विस्तृतद्विगव्यूतोच्छ्तिवेदिकान्तसहिताश्चत्वारः पल्याः कल्प्यन्ते / तत्र प्रथमोऽनवस्थितपल्यः / द्वितीयः शलाकापल्यः / तृतीयः प्रतिशलाकापल्यः / चतुर्थो महाशलाकापल्यः / प्रथमपल्यश्चानवस्थितनामा सशिखाकः सर्पपैरापूर्यते, यावदेकोऽप्यन्यः सर्पपस्तत्र प्रक्षिप्तः सन् नावस्थातु शक्नोति / ततोऽसत्कल्पनया कश्वनापि देवो वा दानवो या तमनवस्थितं पल्यं वामकरतले धृत्वैकं सर्पपं द्वीपे प्रक्षिपेद् एकं समुद्रे पुनरप्येकं द्वीपे एक समुद्र, एवं तावत्प्रक्षेपो वाच्यो यावदसावनवस्थितपल्यो निःशेषतो निष्ठितो भवति, तत एकोऽनवस्थितपल्यसत्कसर्पपेभ्योऽन्य एव सर्षपः शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते, ततो यत्र द्वीपे समुद्रे वाऽसौ अजवस्थितपल्यो निष्ठां गतः, तदन्तां ये द्वीपसमुद्रास्तावत्प्रमाणः पुनरन्यः पल्यः परिकल्प्यते / सोऽप्यधोयोजनसहस्रमवगाढ उपरिष्टायथोक्तजगतीवेदिकापरिकलितः सशिखाका सर्पपेरापूर्यते / ततस्तमुत्पाट्य यस्मिन् द्वीपे समुद्रे वा प्रथमः पल्यो निष्ठितस्ततः परतो द्वीपसमुट्रेप्वकैकं सर्पपं प्रक्षिपेत्तावद्यावदसौ निलेपो भवति / ततः शलाकापल्ये द्वितीया सर्षपरूपा शलाका प्रक्षिप्यते / अन्ये त्वाहुः-एपेव प्रथमा शलाकेति / तत्वं पुनः केवलिनी विदन्ति / ततो यस्मिन द्वीपे समुद्रे वा स एष द्वितीयः पल्यो निष्ठितरतदन्ता मूलतः सर्वेऽपि ये द्वीपसमुद्रास्तावत्प्रमाणः पुनरन्यः पल्यः परिकल्प्यते, पूर्ववत्सर्षपैश्चापूर्यते / ततस्तं तावत्प्रमाणं पल्यमुत्पाठ्य ततो निष्ठितस्थानात्परतो द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्पपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति / ततस्तृतीया सर्षपरूपा शलाका शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते / एवमनेन क्रमेण पुनः पुनरनवस्थितपल्यसर्षपाऽऽपूरणरिक्तीकरणलब्धैकेकसर्पपरूपाभिः शलाकाभिः शलाकापल्यो यथोक्तप्रमाणः सशिखाकस्तावदापूरयितव्यो यावत्तत्रैकोऽप्यन्यः सर्पषो न मातीति / ततः पूर्वपरिपाट्यागतोऽनवस्थितः पल्यः सर्पपैरापूरणीयः / ततः शलाकापल्यं वामकरतले कृत्वा पूर्वानवस्थितपल्यचरमसपाक्रान्तावीपात्समुद्राद्वा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं त्वेकैकं सर्वपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति / ततः प्रतिशलाकापल्ये सर्पपरूपा प्रथमा प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते / ततोऽनन्तरोक्तोऽनवस्थितपल्य उत्पाट्यते / ततः शलाकापल्यचरमसर्षपाक्रान्ताद्वीपात्समुद्राद्वा परतः पूर्वक्रमेण द्वीपसमुद्रेध्वेकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निःशेषतो निष्ठितो भवति / ततः शलाकापल्ये पुनरपि सर्पपरूपा एका शलाका प्रक्षिप्यते / ततोऽनन्तरोक्तानवस्थितपल्यचरमसर्षपाक्रान्तो द्वीपः समुद्रो वा यस्तदन्तमनवस्थितपल्यं सर्पपैर्भूत्वा ततः परतः पुनरप्येकैकं सर्षपं प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं च प्रक्षिपद् यावदसौ निष्ठितो भवति / ततो द्वितीया शलाका शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते / एवमपरापरानव Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 ] पडश तिनाम्नि चतुर्थं कर्मग्रन्थे स्थितपल्यापूरणरिक्तीकरणल धैकेकसर्पपेर्यदा शलाकापल्य आपूरितो भवति / पूर्वपरिपाट्या चानवस्थितपल्यस्तदा शलाकापल्यमुत्पाट्य प्राक्तनानवस्थितपल्यचरमसर्पपाक्रान्ताद्वीपात्समुद्राद्वा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चैकैकं सर्पपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निलेंपो भवति / ततः प्रतिशलाकापल्ये सर्वपरूपा द्वितीया शलाका प्रक्षिप्यते / ततोऽनवस्थितपल्यमुत्पाट्यानन्तररिक्तीकृतशलाकापल्यचरमसर्वपाक्रान्तवीपात्समुद्राद्वा परतः पूर्वक्रमेण द्वीपसमुद्रेवेक सर्पपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति / ततः पुनरपि शलाकापल्ये सर्वपरूपा शलाका प्रक्षिप्यते, यत्र चासो द्वीपे समुद्रे वा निष्ठितस्तावत्प्रमाणविस्तरात्मकमनवस्थितप न्यं सर्पपेरापूर्य ततः परतः पूर्वक्रमेण द्वीपसमुद्रेवेकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति / ततः शलाकापल्ये द्वितीया शलाका प्रक्षिप्यते / एवमनेन क्रमेण तावद्वक्तव्यं यावत्योऽपि प्रतिशलाकापल्यशलाका पल्यानवस्थितपल्याः परिपूर्णमापूरिता भवन्ति / ततः प्रतिशलाकापल्यमुत्पाट्य निष्ठितस्थानात्परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रमेबैकं सर्पपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति / ततो महाशलाकापल्ये एका सर्वपरूपा शलाका प्रक्षिप्यते / ततः शलाकापल्यमुत्पाद्य प्रतिशलाकापल्यगतचरमसर्पपाक्रान्ताद्वीपात्समुद्राद्वा / परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्र मेकैकं सर्पपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति / ततः प्रतिशलाकापल्ये एका शलाका प्रक्षिप्यते / ततोऽनवस्थितपल्यमुत्पाटयेत् , उत्पाट्य च शलाकापल्यगतचरमसर्पपाक्रान्ताद्वीपात्समुद्राद्वा परतो द्वीपसमुद्रेष्वकै सर्पपं प्रक्षिपेत् . तावद्गच्छेद् यावदसौ निःशेषतो रिक्तीभवति / ततः शलाकापल्ये प्रथमा शलाका प्रक्षिप्यते / ततोऽनन्तरोक्तानवस्थितपल्यगतचरमसर्षपाक्रान्तो द्वीपः समुद्रो वा यस्तत्पर्यन्तविस्तरात्मकोऽनवस्थितपल्यः कल्पयित्वा सर्पपेरापूर्यते / ततस्तमुत्पाटय ततो निष्ठितस्थानात्परतो द्वीपसमुद्रध्वे के सषपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति / ततो द्वितीया शलाका शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते / एवं शलाकापल्यः पूरणीयः / एवमापूरणोत्पाटनप्रक्षेपपरम्परया तावद्वक्तव्यं यावन्महाशलाकापल्यप्रतिशलाकापल्यशलाकापल्यानवस्थितपल्याः सर्वेऽपि परिपूर्णशिखायुक्ताः समारिता भवन्ति / अत्र च यावन्तोऽनवस्थितपल्यशलाकापल्यप्रतिशलाकापल्यसषपप्रक्षेपव्याप्ता द्वीपसमुद्रा यावन्तश्च चतुष्पल्यसपा एतावत्प्रमाणो राशिरेकरूपोन उत्कृष्टं संख्यातं भवति / तदुक्तम्-"पढमतिपल्लुम्हरिया. दीवुदहीपल्लचउसरिसवा य / सम्वोवि एस रासी, रूवूणो परमसंखेजं // 1 // " इति / सिद्धान्ते च यत्र कुत्रचित्संख्यातग्रहणम् , तत्र सर्वत्रापि जघन्योत्कृष्टापान्तरालवतिमध्यमं संख्यातं द्रष्टव्यम् / तदुक्तमनुयोगद्वारचूर्णी सिद्धान्ते-"जत्थ जत्थ संखेजगगहणं तत्थ तत्थ सव्वत्थ अजहण्णमणुक्कोसयं दहव्वं" इति / उक्त सङ्ख्यातं, साम्प्रतमसङ्ख्यातकमुच्यते / तत्तु विधा, परीतासङ्ख्यातकं युक्तासङ्ख्यातकं असङ्ख्यातासङ्ख्यातकं च / पुनरप्येकैकं त्रिधा, जघन्यं मध्यमं उत्कृष्टं च / तत्र जघ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्ख्यास्वरूपं [ 239 न्य परीता ख्यातक उत्कृष्टसङ्ख्यातकमेवेकरूपाधिकं द्रष्टव्यम् / यत उक्त सूत्रे-'उक्कोसए संखेज्जयं स्वं पक्खित्तं जहण्णयं परित्तासंखेजयं होइ" इति / ततः परमसंख्यातसंख्यास्थानानि सण्यपि मध्यमपरीतासंख्यातकरूपाणि द्रष्टव्यानि यावदुत्कृष्टं परीतासंख्यातकं न भवति / तच्चैवंरूपम्-जघन्यपरीतासंख्यातकसंबन्धीनि यावन्ति सर्पपलक्षणानि रूपाणि तान्येकैकशः पृथक् पृथक् संस्थाप्य, तत एकैकस्मिन् रूपे जघन्यपरीतासंख्यातकप्रमाणो राशिर्व्यवस्थाप्यते / तेषां च राशीनां परस्परमभ्यासो विधीयते / इहैवं भावना-असत्कल्पनया किल जघन्यपरीतासंख्यातकराशिस्थाने पञ्च रूपाणि कल्प्यन्ते / तानि च रूपाणि पृथक् पृथग् विधियन्ते / जाताः पञ्च एककाः / 1 एतेषामेककानां स्थाने प्रत्येकं पञ्चपरि५ माणो राशिर्व्यवस्थाप्यते एतेषां च राशीनामेवमभ्यासः क्रियते / पञ्चभि गुणिताः पश्च, जाता पञ्चविंशतिः / एषा पञ्चभिरभ्यस्यते, जाते पञ्चविंशं शतं / 5 एवमनेन क्रमेण परस्परमभ्यासे सति जातानि पञ्चविंशत्यधिकान्येकत्रिंशच्छतानि 3125 एवमिहापि यथोक्तजघन्यपरीतासंख्यातकराशीनां पृथक् पृथग् एफैकस्मिन् रूपे व्यवस्थापितानां परस्परमभ्यासे सति यावान् राशिरुत्पद्यते, तावान् रूपोनः सन्नुत्कृष्टं परीतासंख्यातकं भवति / रूपे च प्रक्षिप्ते सति जघन्यं युक्तासंख्यातकं भवति, तावत्प्रमाणा एव च समया एकस्यामावलिझायां द्रष्टव्याः / तथा च सूत्रं जघन्ययुक्तासंख्यातकाभिधानानन्तरम्-'आवलिया वि तत्तिल्लिया चेव" इति / ततः परं यान्यसंख्यातसंख्यास्थानानि तानि मध्यमयुक्तासंख्यातकस्थानानि द्रष्टव्यानि, यावदुत्कृष्टं युक्तासंख्यातकं न भवति / तच्चेवम् यानि जघन्ययुक्तासंख्यातकराशौ रूपाणि तान्येकैकशः पृथक् पृथक् संस्थाप्य तत एककरिमन रूपे जघन्ययुक्तासंख्यातकप्रमाणो राशिर्व्यवस्थाप्यते / तेषां च राशीनां पूर्वोक्तप्रकारेण परस्परमभ्यासे सति यावान् राशिः संपद्यते, तावान् एकरूपोनः सन्नुत्कृष्टं युक्तासंख्यातकं भवति / रूपे च प्रक्षिप्ते सति जघन्यमसंख्यातासंख्यातकं भवति / अन्ये पुनराहुः-जघन्ययुक्तासंख्यातकराशौ जघन्ययुक्तासंख्याकराशिना वर्गिते सति यावान् राशिः संभवति / यथा चतुष्केन वर्गिते षोडश, तावत्प्रमाणो राशिरेकरूपोनः सन्नुत्कृष्टं युक्तासंख्यातकं भवति / रूपे च प्रक्षिप्ते सति जघन्यमसंख्यातासंख्यातकं भवति / ततः परं यान्यसंख्यातसंख्यास्थानानि तानि सर्वाप्यपि मध्यमासंख्यातासंख्यातकस्थानानि, यावदुत्कृष्टमसंख्यातासंख्यातकं न मवति / तत्पुनः कियत् ? इति चेद् , उच्यते, जघन्यासंख्यातासंख्यातकराशिरूपाणि पृथक्पृथग् एकैकशी व्यवस्थाप्य तत एकैकस्मिन रूपेजघन्यासंख्यातासंख्यातकराशिर्व्यवस्थाप्यते / तेषां च राशीनां परस्परमभ्यासे कृते सति यावान् राशिः संभवति तावानेकरूपहीनः सन्नुत्कृष्टमसंख्यातासंख्यातकं भवति / अन्ये पुनरेवमाहुः-जधन्यासंख्यातासंख्यातकराशेर्वगर्गो विधीयते / वर्गितस्यापि च तस्य राशेः पुनरन्यो वर्गो विधीयते / ततः Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 ] पडशौतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थे पुनरपि तस्य वर्गितवर्गितरयान्यो वर्गो विधीयते / इत्येवं / त्रीन वारान् वर्गे कृते सति इमान दशा. ऽसंख्यातकप्रक्षेपान प्रक्षिपेत् / "लोगागासपएसा, धम्माधम्मेगजीवदेसाय / दव्वटिया निगोया, पोया चेव बोडव्या // 1 // ठिइबंधज्झवसाया, अणभागा जोगछेयपलि. भाग।। दोण्ह य समाणसमया, असंखपक्खेव दसउत्ति॥२॥" "दव्वठिया निगाया" इति द्रव्यस्थिता निगोदाः सूक्ष्मागां च बादराणां चानन्तकायिकजीवानां शरीराणि 'परोया' इति अनन्तकायिकव्यतिरिक्ताः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसाः प्रत्येकशरीरिणः। लिइबंधझवसाया" . इति स्थितिबन्धस्य कारणभूता अध्यवसायाः कषायोदयरूपाः / “ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ" इतिवचनात् / स्थितिबन्धाध्यवसायाः तेऽप्यसंख्याता एव / तथाहि-ज्ञानावरणीयस्य कर्मणस्तावअधन्यस्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः / मध्यमः स एवैकसमयाधिको द्विसमयाधिक इत्यादि. रूपः / उत्कृष्टस्तु त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटौप्रमाणः / एषां च स्थितिबन्धानां निर्वतका अध्यव. . . सायाः प्रत्येकनमेख्यलोकाकाशप्रमाणाः / 'ठिइयंधे ठिहबंधे अज्झवसाणाणऽसंखिया लोगा' इति वचनात् / एवं च सत्येकस्मिन्नपि ज्ञानावरणीये कर्मण्यसंख्याताः स्थितिबन्धाध्यकसायाः प्राप्यन्ते / किं पुनः समस्तेषु कर्मसु ? इति / अनुभागाझानावरणीयादिकर्मणां दलिकेषु जघन्यमध्यमादिभेदभिन्ना रसविशेषाः, तेषां निष्पादकानि यान्यध्यवसायस्थानानि सान्यनुभागपन्धाध्यवसायस्थानानि, पदैकदेशे षदसमुदायोपचारात् / तत्रानुभागवन्धाध्यवसायस्थानान्यनु / भागशब्देनोक्तानि तानि चासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि / जोगळे यपलिभागो' इति योगो मनोवाकानिमित्तं वीयम् तस्य प्रज्ञाच्छेदनकच्छेदेम प्रतिविशिष्टा निर्विभागा भागा योगच्छेदप्रतिभागाः, ते च जघन्ययोगस्थानादारभ्योत्कृष्टयोगस्थानं यावत्प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा भवन्ति / 'दोण्ड य समाणसमया' इति / द्वयोः समयोरुत्सपिण्यवसर्पिण, रूपयोः समयाः परमनिरुद्धाः कालविशेषाः, तेऽप्यसंख्याता एव / एतेषां च दशानां राशीनां प्रक्षेपे सति पुनः समस्तस्यापि राशेः पूर्ववत्स्त्रीम वारान वर्गो विधीयते / तत एतावत्प्रमाणो राशिरेकरूपोन उत्कृष्टमसंख्यातासंख्यातकं भवति / उक्तमसंख्यातकम् , इदानीमनन्तकमुच्यते / तदपि विधा, परीतानन्तकं युक्तानन्तकं अनन्तानन्तकं च / पुनरप्येक विधा, जघन्य मध्यममुत्कृष्टं च / तत्रोत्कृष्टासंख्यातासंख्यातकराशावेकरूपे प्रक्षिश्ते सति जघन्यं परीतानन्तकं भवति / ततः परं यान्यनन्तकरूप संख्यास्थानानि तानि मध्यमपरीतानन्तकानि द्रष्टव्यानि, यावदुत्कृष्टं परीतानन्तकं न भवति / तच्चैवम्-जघन्यपरीतानन्तकराशौ यावन्ति रूपाणि तावसंख्याकानां जधन्यपरीतानन्तकराशीनां परस्परमभ्यासे कृते सति यावान् राशिर्भवति. तावानेकरूपहीनः सन्नुत्कृष्ट परीतानन्तके भवति / रूपे च प्रक्षिप्ते सति जघन्य युक्तानन्तक भवति / एतावत्प्रमाणा अभव्यजीवाः / तथा च सूत्रे जघन्ययुक्तानन्तकसंख्याभिधानानन्तरम्'-"अभव, Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्ख्यास्वरूपं सम्यक्त्वमागंणाभेदेप्वल्पबहुत्वञ्च [ 241 सिद्धिया वि तत्तिया चेव" इति / इह तावदेतावनैव पर्याप्तम् / अतः परं तु विनेयजनानुग्रहाय मध्यमयुक्तानन्तकादीन्यपि संख्यास्थानान्युपदश्यन्ते / तत्र जघन्ययुक्तानन्तकात्पराणि यान्यनन्तसंख्यास्थानानि तानि मध्यमयुक्तानन्तकस्थानानि द्रष्टव्यानि, यावदुत्कृष्टं युक्तानन्तकं न भवति / तच्चैवमवगन्तव्यम्-जघन्ययुक्तानन्तकराशी यावन्ति रूपाणि तावत्प्रमाणानामेव जघन्ययुक्तानन्तकराशीनामन्योन्यमभ्यासे कृते सति यावान् राशिः संपद्यते तावानेकरूपोनः सन्नुत्कृष्टं युक्तानन्तकं भवति / रूपे च प्रक्षिप्ते सति जघन्यमनन्तानन्तकं भवति / ततः परं यान्यनन्तसंख्यास्थानानि तानि सर्वाण्यपि मध्यमानन्तानन्तकरूपाणि द्रष्टव्यानि / उत्कृष्टं त्वनन्तानन्तक नास्त्येव / तथा च सूत्रम्-"उकोसय अणंताणतयं नस्थि" इति अन्ये पुनराहुः-जघन्यानन्तानन्तकराशेस्तावतैव राशिना गुणनस्वरूपो वर्गः क्रियते, ततस्तस्य वर्गितराशेः पुनर्वर्गस्तस्यापि भूयो वर्गः / एवं वारत्रयं वर्ग कृते सति इमे पट प्रक्षेपाः प्रक्षिप्यन्ते-"सिद्धा निगोयजीवा, वणस्सई कालपुरगला चेव / सव्वमलोगागासं, छप्पेएऽणंतपक्वेवा // 1 // " इत्यस्य व्याख्या सर्व एव सिद्धा अपगतसकलकर्मकलङ्काः / तथा सर्वेऽपि सूक्ष्मवादरभेदभिन्ना निगोदजीवा अनन्तकायिकसत्त्वाः, तथा सर्व वनस्पतयः प्रत्येकानन्तवनस्पतिजीवाः, 'काल' इति सर्वेऽतीतानागताः समयाः, सर्वे पुग्लाः समस्तपुद्गलास्तिकायगताः परमाणवः, तथा सर्व समस्तमलोकाकाशम्', अयं च सर्वशब्दः प्रत्येकं लिङ्गवचनपरिणामेन संबन्धनीयः, स च तथैव संबन्धितः एते प्रदर्शितस्वरूपाः षडपि प्रक्षिप्यन्त इति प्रक्षेपाः, कर्मणि घम' प्रक्षेपणीया राशयः. पूर्वोक्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते ततः पुनरप्येतावत्प्रमाणस्य राशेः पूर्वोक्तेनैव क्रमेण वारत्रयं वर्गों विधीयते ततः केवलज्ञानदर्शनपर्यायाः सर्वेपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते, तत उत्कृष्टमनन्तानन्तकं भवति / सूत्राभिप्रायतश्चैवमप्युत्कृष्टमनन्तानन्तकं न भवतीति / प्रकृतमिदानीमनुस्रियते / तत्र यथोक्तसंख्येभ्योऽभव्येभ्यः सकाशाद्भव्या अनन्तगुणाः / किस्पास्ते ? इत्याह-निर्वाणगमनाः ' निवृतिगमनयोग्याः // 62 // सामाणउवसमियमिस्सवेयगक्खड्गमिच्छदिट्टीओ। थोवा दो संखगुणा, असंखगुणिया अणंता दो॥६३॥ (हारि०) व्याख्या-सासादनौपशमिकमिश्रवेदकक्षायिकमिथ्यादृष्टय इति द्वन्द्वः / तत्र स्तोकाः सासादनाः, ततो द्वावौपशमिकमिश्रदृष्टी संख्यातगुणौ, ततोऽसंख्यातगुणिता वेदकाः, क्षायोपशमकिसम्यग्दृष्टय इत्यर्थः, एतत्सम्यक्त्ववतां देवादीनामसंख्यगुणत्वात् / ततोऽनन्तगुणौ द्वौ क्षायिकमिथ्यादृष्टी / तत्र क्षायिकेष्वनन्तत्वं सिद्धापेक्षम् मिथ्यादृष्टिपदे च भावितार्थमेव / इतिं गाथार्थः // 63 // Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे इति सम्यक्त्वे सप्रतिपक्षेऽल्पबहुत्वमुक्तम् / तथा (मल०) स्तोकाः सासादनसम्यग्दृष्टयः, तेभ्यः संख्यातगुणा औपशमिकसम्यग्दृष्टयः, केषांचिदेवोपशमिकसम्यक्त्वतः प्रच्युतेः, ततः प्रच्यवमानानां च सासादनत्वात् / तेभ्योऽपि चौपशमिकसम्यग्दृष्टिभ्यः सकाशान्मिश्राः संख्यातगुणाः' तेभ्योऽपि क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टयोऽसंख्यातगुणाः तेभ्योऽपि क्षायिकसम्यग्दृष्टयोऽनन्तगुणाः, क्षायिकसम्यवत्वाता सिद्धानामानन्त्यात् / तेभ्योऽपि मिथ्याद्रष्टयोऽनन्तगुणाः, सिद्धेभ्योऽपि वनस्पतिजीवानामननन्तत्वात , तेषां च मिथ्यादृष्टित्वात् / इति // 63 // सन्नी थोवा तत्तो, अणंतगुणिया असन्निणो होति। थोवाणाहारजिया, तदसखगुणा 'सआहारा // 64 // ___ (हारि०) व्याख्या-संज्ञिनः स्तोकाः. ततोऽनन्तगुणिताः 'असंज्ञिन:' मनोविज्ञानविकलाः पृथिवीकायिकादिसर्वजीवा भवन्तीति, क्रियापदं सर्वाल्पबहुत्वपदेषु योज्यम् / इति संशिष्वल्पबहुत्वमुक्तम् / तथा स्तोका आहारकापेक्षयाऽनन्ता अप्यनाहारकाः / एषां चानन्तत्वं प्रतिसमयोद्धतनिगोदासंख्येयाभागप्रमाणानन्तकायिकजीवानामनन्तानां विग्रहगत्यापन्नानां तथा सिद्धानां चानन्तानां सद्भावात् / तेभ्योऽसंख्यातगुणास्तदसंख्यातगुणा भवन्ति, के ? इत्याहसहाहारेण वर्तन्त इति साहारकाः / यतोऽनाहारका विग्रहगत्यापन्ना एकैकानगोदासंख्येयभागवर्तिन उक्ताः शेषाश्चाहारकाः / अतोऽनाहारकेभ्य आहारका असंख्येयगुणा एव / इति गाथार्थः // 64 // इत्युक्तमल्पबहुत्वम् , तदभिधानाच्च भणितं मार्गणास्थानगताभिधेयपदपट्कम् / अधुना गुणस्थानकेषु जीवस्थानाद्यभिधेयपददशकं मार्गयितुकामः प्रथमतस्तेष्वेव जीवस्थानान्याह, अबार्थेऽन्यकत की संवन्धगाथेयम्-इय जियहाणाईयं. मग्गणठाणेसु मग्गिय मसेसं / संपइ गुणठाणेसु, जीवाणाइयं वोच्छं // 1 // " इतः प्रस्तुतगाथोच्यते (मल०) स्तोकाः संज्ञिनो जीवाः, देवनारकसमनस्कपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्नराणामेव संज्ञित्वात् / तेभ्योऽसंज्ञिनः संशिव्यतिरिक्ता अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायजीवानामनन्तत्वात् / तथा स्तोका अनाहारकाः / विग्रहगत्यापन्नसमुद्धातगतकेवलिभवस्थायोगिकेवलिसिद्धानामेवानाहारकत्वात् / तेभ्योऽसंख्यातगुणाः साहारा आहारकजीवाः / ननु च सिद्धेभ्योऽनन्तगुणाः संसारि 1 “हुँति" इत्यपि पाठः। 2 "उ साहारा" // इत्यपि पाठः। 3 "तेभ्योऽसङ्ख्यगुणा भवन्ति" इत्यपि पाठः। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषमार्गणास्वल्पबहुत्वं तथा गुणस्थानकेषु जीवस्थानकानि [ 243 जीवाः ते च प्राय आहारकाः. तत्कथमसंख्यातगुणा अनाहारकेभ्य आहारकाः ? इति, नैष दोषः, यतः प्रतिसमयमेकैकस्य निगोदस्यासंख्येयभागप्रमाणा विग्रहगत्यापन्ना जीवा लभ्यन्ते ते चानाहारकाः. तत आहारकजीवानामनाहारकजीवापेक्षयाऽसंख्यातगुणत्वमेवेति / / 64 // उक्तं गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु स्वस्थानापेक्षयाऽल्पबहुत्वम् / इदानीं गुणस्थानकेषु जीवस्थानानि चिन्तयन्नाह मिच्छे सव्वे छ अपज सन्निपजत्तगो य सासाणे। सम्मे दुविहो सन्नी. संसेसु सनिपजत्तो // 65 // (हारि०) व्याख्या-मिथ्यादृष्टौ सर्वजीवस्थानानि भवन्तीति गम्यम् / तथा षडपर्याप्तकजीवस्थानानि सूक्ष्मरहितानि संज्ञी पर्याप्तकश्चेति सप्तमं जीवस्थानकम् . क्व ? इत्याह-सासादने / तथा 'सम्मे' इति अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके, किम् ? इत्याह-'विविधः पर्याप्तापर्याप्तलक्षणः संज्ञीति जीवस्थानकद्वयम् / तथा शेषेषु' मिश्रदेशविरत्यादिष्वेकादशगुणस्थानकेषु संज्ञी पर्याप्त इत्येकं जीवस्थानकम् / इति गाथार्थः // 65 // माम्प्रतं गुणस्थानकेषु जीवस्थानकसमर्थनां सूचयन् योगादिसंबन्धं दर्शयंश्च तेषु तानेवाह.. (मल०) मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके सर्वाण्यपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियादीनि पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानि जीवस्थानानि भवन्ति, मिथ्यात्वस्य सर्वेष्वप्येतेषु संभवात् / तथा सूक्ष्मैकेन्द्रियवर्जिताः शेषाः षट् अपर्याप्तकाः संज्ञी पर्याप्तकश्चेति सप्त जीवस्थानानि सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके भवन्ति / अपर्याप्तकाश्येह करणापर्याप्तका द्रष्टव्याः न तु लब्ध्यपर्याप्तकाः, तेषु मध्ये सासादनसम्यक्त्वसहिस्योत्पादाभावात् / 'सम्मे दुविहो सन्नो' इति अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने 'विविधः पर्याप्तापर्याप्तरूपतया द्विप्रकारः संज्ञी ज्ञातव्यः / इहाप्यपर्याप्तकः करणापेक्षया द्रष्टव्यः न तु लब्ध्यपर्याप्तकमध्येऽविरतसम्यग्दृष्टेरुत्पादाभावात् / 'शेषेषु' मिश्रदेशविरत्यादिषु गुणस्थानकेषु पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणमेकमेव जीवस्थानकं द्रष्टव्यं न शेषाणि, तेषां मिश्रभावदेशसर्वविरतिप्रतिपत्त्यभावात् / न च पूर्वप्रतिपन्नमिश्रभावोऽन्येषु जीवस्थानकेषु लभ्यते-"न सम्ममिच्छो कुणइ कालं" इतिवचनात् // 65 // - उपसंहारमाह इय जियठाणा गुणठाणगेसु जोगाइ वोच्छमेत्ताहे। जोगाहारदुगुणा, मिच्छे सासणअविरए य // 66 // Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 षडशीतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थे (हारि०) व्याख्या-इति जीवस्थानानि गुणस्थानकेषक्तानि / इति शेषो दृश्यः // 1 // इतो योगादि वक्ष्ये, इति गाथार्द्धन संबन्धोऽभिहितः / साम्प्रतं संबन्धितमेवार्थमाह-योगा उक्तस्वरूपा भवन्ति / किमशेषा अपि ? न इत्याह-आहारकद्विकोनास्त्रयोदशेत्यर्थः, क्व ? इत्याह'मिच्छे' इति मिथ्यादृष्टौ सासादनेऽविरते च गाथार्थः // 66 // तथा (मल०) 'इति' एवमुपदर्शितेन प्रकारेण जीवस्थानकानि गुणस्थानकेषु द्रष्टव्यानि / 'एत्ताहे' इति इत ऊर्ध्व सम्प्रति 'योगादि' आदिशब्दादुपयोगादिपरिग्रहः, 'वक्ष्ये' अभिधास्ये / तत्र योगान् तावदाह-जोगा' इत्यादि / योगा आहारकद्विकेन आहारकतन्मिश्रलक्षणेन ऊना रहिताः शेषास्त्रयोदश मिथ्यादृष्टौ सासादने अविरतौ च भवन्ति / मिथ्यादृयादिगुणस्थानकत्रये हि संज्ञिपञ्चेन्द्रियोऽपि लभ्यते, तस्य च यथोक्तास्त्रयोदशापि योगाः संभवन्ति / यच्चाहारकद्विकं तच्चतुर्दशपूर्विण एव / तदुक्तम्-आहारदुगं जायइ चउदसविस्स' 'इति / न च मिथ्यादृष्ट्यादौ चतुर्दशपूर्वाधिगमसंभव इति // 36 // उरलविउव्व'वइमणा दस मीसे ते विउव्विमीसजुया। देसजए एकारस साहारदुगा पमत्ते. ते // 6 // (हारि०) व्याख्या-औदारिव क्रियवाग्मनांसीति द्वन्द्वः, इंति दश योगा मिश्रे-न सम्ममिच्छो कुणइ कालं" इतिवचनात् / कार्मणौदारिकवैक्रियमिश्रत्रिकं न भवति, आहारकद्विक तु यतेरेव भवति, अतो मिश्रे दश योगा इति भावना / तथा ते पूर्वोक्ता दश योगा वैक्रियमिश्रयुता एकादशेत्यर्थः क्व ? इत्याह-देशयते / तथा सहाहारकद्विकेन आहारकशरीरतन्मिश्रलक्षणेन वर्तन्त इति साहारकद्विकास्ते पूर्वोक्ता एकादश त्रयोदशेत्यर्थः, क्व ? इत्याह-'प्रमत्ते' षष्ठगुणस्थानके / इति गाथार्थः / / 67 / / तथा (मल०) औदारिकवैक्रियचतुर्विधवाग्योगचतुर्विधमनोयोगलक्षणा दश योगा मिश्रे सम्यग्मिथ्यादृष्टौ भवन्ति न शेषाः। तथा ह्याहारकद्विकस्यासंभवः पूर्वोक्तयुक्तेरेव, कार्मणशरीरं त्वपान्तरालगतौ संभवति, अस्य च मरणासंभवेनापान्तरालगत्यसंभवस्ततस्तस्याप्यसंभवः, अत एवौदारिकवैक्रियमिश्रेऽपि न संभवतः, तयोरपर्याप्तावस्थाभावित्वात् / तस्यां चावस्थायां सम्यग्मिथ्यात्वाभावात् / ननु च मा भूद्देवनारकसंबन्धि वैक्रियमिश्रम् , यत्पुनर्मनुष्यतिरश्चा सम्यग्मिथ्यादृशां वैक्रियलब्धिमतां वैक्रियकरणसंभवेन तदारम्भकाले वैक्रियमिश्रं भवति तत्कस्मानाभ्युपगम्यते ?, उच्यते, तेषां वैक्रियकरणासंभवतोऽन्यतो वा यतः कुतश्चित्कारणादाचार्य. .1 "वय" इत्यपि पाठः। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकेषु योगाः [ 245 मान्यैश्च तन्नाभ्युपगम्यते तन्न सम्यगवगच्छामः. तथाविधसंप्रदायाभावात् , एतच्च प्रागेवोक्तमिति / त एवानन्तरोक्ता दश योगा वैक्रियमिश्रयुताः सन्त एकादश देशयते' देशविरतिगुणस्थानके भवन्ति, अम्बडस्येव वैक्रियलब्धिमतो देशविरतस्य वैक्रियारम्भसंभवात् / तथा 'प्रमत्ते' प्रमत्तगुणस्थानके त एवानन्तरोक्ता एकादश योगा ‘साहारदिकाः' आहारकद्विकमहिनाः सन्तस्त्रयोदश भवन्ति // 67 // एक्कारस अपमत्ते, मणवइआहारउरलवेउव्वा / अप्पुव्वाइसु पंचसु, नव ओरालो मणवई य // 68 // हारि०) व्याख्या-एकादश योगाः, क ? इत्याह-अप्रमत्ते, कीदृशास्ते ? इत्याह-मनोवागाहारकौदारिकवैक्रियाणीति द्वन्द्वः / तत्रौदारिकमिश्रमपर्याप्तकतिर्यङ्मनुष्याणां केवलिसमुद्धाते च / कामणं तु विग्रहगतौ तिर्यगादीनां केवलिसमुद्धाते च। तथाऽऽहारकमिश्रं प्रमत्तयतेः / वैक्रियमिश्रं तु देवादीनामिति / एते चत्वारो योगा यथायोगमेतेषु भवन्ति, अतोऽप्रमत्ते प्रोक्ता एवेकादश योगा भवेयुरिति / तथाऽपूर्वादिषु निवृत्तिवादरगुणस्थानकादिषु पञ्चसु क्षीणमोहान्तेष्वित्यर्थः, कियन्तो योगाः ? इत्याह-नवेति संख्यौदारिकमनोवचासि चेति द्वन्द्वः, औदारिककाययोगश्चत्वारि मनांसि चत्वारि वचनानि / इति गाथार्थ; // 68|| साम्प्रतं योगान् समर्थयन्नुपयोगसंबन्धं दर्शयन्नाह(मल०) चतुर्विधवाग्योगचतुर्विधमनोयोगाहारकौदारिकवैक्रियलक्षणा एकादश योगाः अप्रमत्ते' अप्रमत्तगुणस्थानके भवन्ति / यत्तु वैक्रियमिश्रमाहारकमिश्रं च तन्न संभवति, तद्धि वैक्रियस्याहारकस्य च प्रारम्भकाले भवति, तदानीं लब्ध्युपजीवनादिनौत्सुक्यभावतः प्रमादसंभव इति / तथा औदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम् , कार्मणं त्वपान्तरालगतो, यद्वोभेऽपि केवलिसमुद्धातावस्थायाम् , ततस्तेऽपीह पूर्वत्र च गुणस्थानके न संभवत इति / 'अप्पुव्वाइस' इत्यादि / अपूर्वादिष्वपूर्वकरणादिषु क्षीणमोहपर्यन्तेषु पञ्चसु गुणस्थानके वौदारिकं चतुर्विधं मनश्चतुर्विधा वाग् इत्येते नव योगा भवन्ति, न शेषाः, अत्यन्तविशुद्धतया तेषां वैक्रियाहारकारम्भासंभवात् , तत्र स्थितानां च स्वभावत एव श्रेण्यारोहाभावात / औदारिकमिश्रकार्मणकाययोगाभावस्तु पूर्वोक्तयुक्तरेवावसेय इति // 6 // घरमाइममणवइदुगकम्मुरलदुर्गति जोगिणो सत्त। गयजोगों य अजोगी, वोच्छमओ बारसुवओगे॥६९॥ (हारि०) व्याख्या-मनश्च वाक् च तयोदिके, मनोवाग्द्विके चरमं चान्त्यं, आदिमं चाद्यं चर१“तु" इत्यपि पाठः। - Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे मादिमे, ते च ते मनोवाग्द्विके, च चरमादिममनोवाग्द्विके, चरमादिमं च मनोऽसत्यामृषं सत्यं चेत्यर्थः, चरमा आदिमा च वागसत्यामृषा सत्या चेत्यर्थः, ततश्चरमादिमनोवाग्द्विके च कार्मणं चौदारिकद्विकं चौदारिकशरीरतन्मिश्रलक्षणं चरमादिममनोवाग्द्विककार्मणौदारिकद्विकम् , इत्येते सप्तेति संबन्धः, योगा भवन्ति / कस्य ? इत्याह-'योगिनः' सयोगिकेवलिनः। तत्र मनोद्विकं दूरदेशस्थमनःपर्यायज्ञानादिषुद्रव्यमनोव्यापारणात् / वाग्द्विकं देशनादावुपयोगात् / कार्मण औदारिकमिश्रश्च केवलिसमुद्धातेऽष्टसामयिके यथासंभवमौदारिकश्च चङ्कमणादौ द्रष्टव्य इति, तथा गतयोगश्चायोगीति / इति योजिता योगा गुणस्थानकेषु 2 / वक्ष्येऽभिधास्येऽत ऊर्ध्व कान् ? उपयोगान प्राक्प्रतिपादितस्वरूपान् , कियतः 1 द्वादश गुणस्थानकेष्विति प्रक्रमः / इति गाथार्थः // 66 // प्रस्तावितमेवाह__ (मल०) चरमादिमरूपं मनोद्विकं चरमादिमरूपं च वाग्द्विकं कार्मणमौदारिकतन्मिश्र- . लक्षणमौदारिद्विकं चेति सप्त योगाः 'योगिनः' सयोगिकेवलिनो भवन्ति / तत्र चरमं मनोऽऽसत्यामृषा आदिमं सत्यम् एवं चरमादिमे वाचावपि द्रष्टव्ये / कार्मणौदारिकमिश्रे तु समुद्धातावस्थायामिति / 'गयजोगो उ अजोगी' इति अयोगी अयोगिकेवली गतयोग एव भवति, योगाभावनिबन्धनत्वादयोगित्वावस्थायाः. तुशब्द एवकारार्थः तदेवमभिहिता गुणस्थानकेषु योगाः / साम्प्रतमेतेष्वेवोपयोगानभिधातुकाम आह-'वोच्छमओ' इत्यादि / वक्ष्येऽभिधास्येऽत ऊर्ध्व गुणस्थानकेषु द्वादश उपयोगान् // 66 // तानेवाह अचक्खुचक्खुदंसणमन्नाणतिगं च मिच्छमासाणे / अविरयसम्मे देसे, तिनाणदंसणतिगंति छ उ // 7 // (हारि०) व्याख्या-दर्शनशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धादचक्षुर्दर्शनचक्षुर्दर्शन मिति द्वन्द्वः, तथाऽज्ञानत्रिक चेति पञ्चोपयोगाः, कयोः ? इत्याह-वचनव्यत्ययान्मिथ्यादृष्टिसासादनयोरिति द्वन्द्वः / तथाऽविरतसम्यक्त्वे 'देसे' देशविरते च, किम् ? इत्याह-त्रिज्ञानदर्शनत्रिकमिति कर्मधारयतत्पुरुषगर्भः समाहारद्वन्द्वः, इत्येते षडुपयोगाः / इति गाथार्थः / / 70 // तथा (मल०) अचक्षुर्दर्शनं चक्षुर्दर्शनं अज्ञानत्रिकं च मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गलक्षणमित्येते पञ्चोपयोगा मिथ्यादृष्टिसासादनगुणस्थानकयोर्भवन्ति न शेषाः, सम्यक्त्वविरत्यभावात् / तथाऽविरतसम्यग्दृष्टौ देशविरते च त्रीणि ज्ञानानि मतिश्रुतावधिलक्षणानि, दर्शनत्रिकं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनलक्षणमित्येते षडुपयोगा भवन्ति न शेषाः, मिथ्यात्वसर्वविरत्यभावात् // 7 // Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकेधूपयोगास्तथा सिद्धान्तमतानधिकृतत्वकथनम् मीसे 'ते च्चिय मीसा सत्त पमत्ताइसुसमणनाणा। केलियनाणदंसणउवओगा जोगजोगीसु // 71 / / (हारि०) व्याख्या-मिश्रगुणस्थानके त एव पूर्वोक्ताः षडुपयोगा अज्ञानमिश्राः / तथा सप्तोपयोगाः, केषु ? इत्याह-प्रमत्तयत्यादिषु क्षीणमोहान्तेषु सप्तगुणस्थानकेषु, कीदृशाः ? समनःपर्यायज्ञानाः / 'ते चिय' इत्यत्रापि संबन्धात्त एव पूर्वोक्ताः षडुपयोगाः समनःपर्ययज्ञानाः सप्तेत्यर्थः / तथा केवलिकज्ञानदर्शनोपयोगाविति कर्मधारयः, कयोः 1 इत्याह-'योग्ययोगिनोः' सयोग्ययोगिकेवलिगुणस्थानकयोर्भवत इति शेषः / इति गाथार्थः / 71 // ____ इत्युक्ता उपयोगा गुणस्थानकेषु / साम्प्रतमिहैवागमोक्तानामपि केषांचिदर्थानामनधिकृतत्वमाह (मल०) 'मिश्रे' मिश्रगुणस्थानके त एव पूर्वोक्ताः षडुपयोगा अज्ञानमिश्रा द्रष्टव्याः, तस्योभयदृष्टिपातित्वात् / केवलं कदाचित्सम्यक्त्वबाहुल्येन ज्ञानबाहुल्यम् , कदाचिच्च मिथ्यात्वबाहुल्येनाज्ञानवाहुल्यम् , समकक्षतायां तूभयोरपि समतेति / अस्मिश्च गुणस्थानके यदवघिदर्श नमुक्तं तत्सैद्धान्तिकमतापेक्षया द्रष्टव्यमित्युक्तं प्राक् / तथा प्रमत्तादिषु क्षीणमोहपर्यन्तेषु सप्तसु गुणस्थानकेषु त एव पूर्वोक्ताः षड् उपयोगाः 'समणनाणा' इति समनःपर्यायज्ञानाः सन्तः सप्त भवन्ति न शेषाः, मिथ्यात्वघातिकर्मक्षयाभावात् / तथा केवलिक ज्ञानदर्शनलक्षणौ द्वावुपयोगौ सयोगिकेवलिनि अयोगिकेवलिनि च गुणस्थानके भवतो न शेषा दश ज्ञानदर्शनलक्षणाः, तदुच्छेदेनैव केवलज्ञानदर्शनोत्पत्तेः / 'नटुंमि उ छाउमथिए नाणे" इतिवचनात् / / 71 // तदेवमुक्ता गुणस्थानकेधूपयोगाः / साम्प्रतं यदिह प्रकरणे सूत्राभिमतमपि कार्मग्रन्थिकाभिप्रायानुसरणतो नाधिकृतं तदर्शयन्नाह सासणभावे नाणं विउविगाहारगे उरलमिस्सं / नेगिदिसु सासाणो नेहाहिगयं सुयमयंपि // 72 // (हारि०) व्याख्या 'सासादनभाचे' सासादने सति ज्ञानमित्यादि 'श्रुतमतमपि' सिद्धान्ताभिप्रेतमपि 'न' नैव 'इह' अस्मिन् प्रकरणे 'अधिकृतं' अभ्युपगतम् , किन्त्वज्ञानमेवाधिकृतं कर्मग्रन्थाभिप्रायस्येहाश्रितत्वादिति संवन्धः / तथा 'वैक्रियाहारके वैक्रियाहारककरणे औदारिकमिश्रमित्यपि नाधिकृतम् , किन्तु वैक्रियमिश्रमाहारकमिश्रं चाधिकृतम् , तस्यैव प्रधा१ "तिश्चिय” इत्यपि पाठः। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 ] पडशीतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थे नत्वात् / तथा 'न' नैवैकेन्द्रियेषु 'सासाणो' इति लिङ्गव्यत्ययात्सासादनमिति न चाधिकतम् , किन्त्वेकेन्द्रियेषु सासादनमधिकृतं तत एव हेतोः / इति गाथार्थः / / 72 // इतो लेश्यास्तेष्वेवाभिधित्सुराह (मल०) 'सासादनभावे' सासादनसम्यग्दृष्टित्वे सति ज्ञानं भवति, नाज्ञानमिति / श्रुतमतमपि' मूत्रसम्मतमपि, तथाहि-बेइंदियाणं भते ! किं नाणो अन्नाणी ? गोयमा ! जाणीवि अण्णाणीवि / जे नाणी ते नियमा दुनाणी / तंजहा-आभिणियोहियनाणी सुयणाणी / जे अण्णाणी ते वि नियमा दुअन्नाणी। तंजहा-मइअन्नाणी सुयअन्नाणी य // " इत्यादि सूत्रे द्वीन्द्रियादीनां ज्ञानित्वमभिहितम् , तच सासादनसम्यक्त्वापेक्षयैव न शेषसम्यक्त्वापेक्षया, असंभवात् / उक्तं च प्रज्ञापनाटीकायाम्-बेइदियरस दो णाणी कहं लम्भंनि ? भण्णइ सासायणं पडुच्च तस्सापजत्तयस्स दो णाणा लब्भंति" इति / ततः सासादनभावेऽपि ज्ञानं सूत्रे सम्मतमेव, तच्चेत्थं सम्मतमपि नेह प्रकरणेऽधिकृतं कित्वज्ञानमेव, कामंग्रन्थिकाभिप्रायस्यानुसरणात् / तदभिप्रायश्चायम्-सासादनस्य मिथ्यात्वाभिमुखतया तत्सम्यक्त्वस्य मलीमसत्वेन तन्निबन्धनस्य ज्ञानस्यापि मलीमसत्वादज्ञानरूपतेति / तथा सूत्रे वैक्रिये आहारके चारभ्यमाणे तेन प्रारम्यमाणेन सहोदारिकस्य मिश्रीभवनात् , औदारिकर्मिश्रमुक्तम् / तथा चाह प्रज्ञापनाटीकाकारः-यदा पुनरौदारिकशरीरी वैक्रियलब्धिसंपन्नो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको वा पर्याप्तबादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदौदारिकशरीरयोग एव वर्तमानः प्रदेशान् विक्षिप्य वैक्रियशरीरयोग्यान प्रगलानादाय यावद्वैक्रियशरीरपर्याप्त्या पर्याप्ति न गच्छति तावद्वैक्रियेण मिश्रता . व्यपदेशश्चौदारिकेण तस्य प्रधानत्वात् / एवमाहारकेणापि सह मिश्रता द्रष्टव्या / आहारयति च तेनैवेति तेनैव व्यपदेश इति / परित्यागकाले च वैक्रियस्याहारकस्य च यथाक्रमं वैक्रिय मिश्रमाहारकमिश्रं च / उक्तं च प्रज्ञापनाटीकायामेवाहारकमधिकृत्य-यदाहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्यादौदारिकप्रवेशं प्रति व्यापारभावान्न परित्यज्यते, यावत्सर्वथैवाहारकं तदौदारिकेण सह मिश्रतेत्याहारकमिश्रता इत्याहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग इति / तच्चेत्थम्-वैक्रियाहारकारम्भकाले औदारिकमि सूत्रेऽभिहितमपि नेह प्रकरणेऽधिकृतं कार्मग्रन्थिकैः, गुणविशेषप्रत्ययसमुत्थलब्धिविशेषकारणतया प्रारम्भकाले परित्यागकाले च पैक्रियस्याहारकस्य च प्राधान्यविवक्षरा वैक्रिय मिश्रस्याहारकमिश्रयैव चाभिधानात् तदभिप्रायस्य चेहानुसरणात् / तथा नैकेन्द्रियेषु 'सासाणो' इति भावप्रधानोऽयं निर्देशः सासादनभावः सूत्रे मतः, अन्यथा द्वीन्द्रियादीनामिवैकेन्द्रियाणामपि ज्ञानित्वमुच्येत न चोच्यते, किन्त विशेषतः प्रतिषिध्यते / तथाहि-'एगिदियाणं भंते ! किं नाणी अण्णाणी ? Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगममतानधिकृतत्वं तथा गुणस्थानकेषु लेश्याः गोयमा ! नो नाणी नियमा अन्नाणी" इति / स चेत्थं सासादनभावप्रतिषेधः सूत्रे मतोऽपि केनचित्कारणेन कार्मग्रन्थिकै भ्युपैयत, इतीहापि नाधिक्रियते तदभिप्रायस्यैवेह प्रायोऽनुसरणादिति / 'नेहाहिगयं सुयमयंपि'इत्येतद्विभक्तिपरिणामेन प्रतिपादं संबन्धनीयं तथैव च संबन्धितमिति // 72 // ____ गुणस्थानकेश्वेव लेश्या अभिधित्सुराह लेसा तिन्नि पमत्तं तेऊपम्हा उ अप्पमत्तता। सुक्का जाव सजोगी निरुद्धलेसो अजोगि त्ति // 73 // (हारि०) व्याख्या-आद्यास्तिस्त्रो लेश्याः प्रमत्तान्ताः प्रमत्तात्परतो न भवन्तीति प्रमत्तं यावत्पडपीत्यर्थः / तथा तैजसीपद्म त्वप्रमत्तान्तेऽप्रमत्तात्परतस्ते न भवतोऽप्रमत्ने अन्त्यास्तिस्रो लेश्या इत्यर्थः / ततोऽप्रमत्तादूध 'शुक्ला' शुक्ललेश्यकैवेत्यर्थो यावत् सयोगिगुणस्थानम् / तथा 'निरुडलेश्यः' अलेश्य इत्यर्थः, कोऽसौ ? इत्याह-'अयोगी' अयोगिकेवली / इतिशब्दो लेण्याद्वारसमाप्त्यर्थे / इति गाथार्थः / / 73|| इत्युक्ता लेश्या गुणस्थानकेषु 4 / साम्प्रतं बन्धहेतवः, ते च मूलभेदतश्चत्वार उत्सरभेदतः सप्तपश्चाशदिति तानुभयथाऽभिधित्सुराह (मल०) आद्यास्तिस्रो लेश्याः 'प्रमत्तान्ताः' प्रमत्तगुणस्थानकपर्यन्ता भवन्ति, प्रमत्तात्परतो न भवन्तीति यावत् / तेजःपद्मलेश्ये तु 'अप्रमत्तान्ते' मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकात्प्रभृति यावदप्रमत्तगुणस्थानकं तावद्भवत इत्यर्थः / 'सुक्का जाव सजोगी' इति मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकात्प्रभृति यावत्सयोगिकेवलिगुणस्थानकं तावत् 'शुक्ला' शुक्ललेश्या भवति / 'निरुद्धलेसो अजोगी त्ति' अयोगी अयोगीकेवली 'निरुडलेश्यः' अपगतलेश्यो भवति / इतिर्वाक्यपरिसमाप्तौ / इह लेश्यानां प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि / तती मन्दाध्यवसायस्थानापेक्षया शुक्ललेश्यादीनामपि मिथ्यादृष्टयादौ कृष्णलेश्यादीनामपि प्रमत्त गुणस्थानकेऽपि संभवो न विरुध्यत इति / / 73 / / तदेवमुक्ता गुणस्थानकेषु लेश्याः / साम्प्रतं बन्धहेतवो ववतुमवसरप्राप्ताः, ते च मूलभेदतश्चत्वार उत्तरभेदतश्च सप्तपश्चाशत् , एतानुभयथाऽप्यभिधित्सुराह-- बंधस्स मिच्छअविरइकसायजोग त्ति हेयवो चउरी। ., पंच दुवालम पणुवीस पनरस कमेण भेया सिं // 74 / / .(हारि०) व्याख्या-मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः, 'इति' अमुना प्रकारेण बन्धस्य मूल "अविरया इत्यपि पाठः। i ) . Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्ये हेतवश्चत्वारः / एषां च मिथ्यात्वादीनां 'क्रमेण' परिपाट्या इति संबन्धः / पञ्च-द्वादश-पश्चविंशति-पञ्चदशसंख्या भेदा भवन्ति / एते च मीलिताः सप्तपश्चाशद्वन्धहेतूत्तरभेदाः / इति गाथार्थः / / 74 / / एतानेव विवृण्वन्नाह (मल०) 'बन्धस्य' सामर्थ्याज्ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धस्य मूलहेतवश्चत्वारः / के ते 1 इत्याह-मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः / तत्र मिथ्यात्वं विपरीतावबोधस्वभावम् / अविरतिः सावद्ययोगेभ्यो निवृत्त्यभावः / कषाययोगाः प्राङ्निरूपितस्वरूपाः / नन्वन्यत्र प्रमाोऽपि बन्धहेतुरभिधीयते, तदुक्तम्-"मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा पन्धहेतवः" इति / स कथमिह नोक्तः 1. उच्यते, कार्मग्रन्थिकैर्मद्यविषयरूपस्य तस्याविरतावेवान्तर्भावो विवक्षितः कषायश्च पृथगेवोक्तः / वैक्रियारम्भादिसंभवी तु प्रमादो योगग्रहणेनैव गृहीत इत्यदोषः / . अमीषामेवोत्तरभेदानाह-'पंच' इत्यादि / मिथ्यात्वस्योत्तरभेदाः पञ्च, अविरतेादश कषायाणां पञ्चविंशतिः. योगानां पञ्चदश / / 74H / एतानेव स्वरूपतः कथयन्नाह ★आभिग्गहियं अणभिग्गहं च तह अभिनिवेसियं चेत्र / संसइयमणाभोगं मिच्छत्तं पंचहा एवं // 75 / / बारसविहा अविरई मणइंदियअनियमो छकायवहो। सोलस नव य कसाया पणुवीसं पन्नरसजोगा // 76 // (हारि०) व्याख्या-आभिग्रहिकं दीक्षितानाम् 1 / अनभिग्रहं चेतरेपाम् 2 / तथाऽऽभिनिवेशिकं गोष्ठामाहिलादीनाम् 3 / सांशयिकं जिनोक्ततत्त्वेषु संशयवताम् 4 / अनाभोगमेकेन्द्रियादीनाम् 5 / मिथ्यात्वं पञ्चधा 'एवं' इत्येवंप्रकारमिति |7|| अर्थ द्वितीयगाथा व्याख्यायते-द्वादशविघाऽविरतिर्भवति / कथम् ? इत्याह-मनश्चेन्द्रियाणि च मनइन्द्रियाणि तेषामनियमोऽनियन्त्रणमिति समासः / तथा षट् च ते कायाश्च पृथिव्यादयः तेषां च वधोहिंसेति समासः / तथा षोडश नव च कषायाः प्रसिद्धस्वरूपोः कियन्तो मीलिता भवन्ति ? इत्याह-पञ्चविंशतिः / तथा पञ्चदश योगाः प्राक्प्रतिपादितस्वरूपोः ।इति गाथाद्वयार्थः // 76 / / अथ बन्धहेतूत्तरभेदान् गुणस्थानकेषु यथासंख्येन योजयन्नाह(मल०) गाथाद्वयम् / मिथ्यात्वमुक्तस्वरूपम् / 'एवम्' अमुना प्रकारेण पञ्चधा' पञ्चप्रकारम् / केन च प्रकारेण 1 इत्याह-आभिग्रहिकं 2 आनाभिग्रहिकं 2 च तथाऽऽभिनिवेशिकं 3 चैव सांश★उक्तगाथा द्वयमध्येऽन्यगाथाद्वयं हस्तलिखितमूलगाथाप्रतावधिकतयेत्यं दृश्यते तद्यथा आमिग्गहियं किल दिक्खियाणमणमिग्गहं तु इयराण / गुट्ठामाहिलमाई। जं अभिनिवेसियं तं तु / / संसइयं मिच्छत्तं जा संका जिववरुत्ततत्तेसु / विगलिंदियाण जं पुण तमणाभोगं विणिहिट्ठ। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धहेतवस्तेषामुत्तरभेदाश्च [ 251 यिकं 4 अनाभोगिक 5 मिति / तत्राभिग्रहेण इदमेव दर्शनं शोभनं नान्यद् इत्येवंरूपण कुदर्शनविषयेण निवृत्तमाभिग्रहिकम् यद्वशाबोटिकादिकुदर्शनानामन्यतमं दर्शनं गृह्णाति 1 / एतद्विपरीतमनाभिग्रहिकम् यदशात्सर्वाण्यपि दर्शनानि शोभनानीत्येवमीषन्माध्यस्थ्यमुपजायते 3 / आभिनिवेशिकं यदभिनिवेशेन निवृत्तम् , यथा गोष्ठामाहिलादीनाम् 3 / सांशयिकम् , यद्वशागगवदहदुपदिष्टेष्वपि जीवादितचेषु संशय उपजायते, यथा न जाने किमिदं भगवदुक्तं धमास्तिकायादि सत्यमुतान्यथेति 4 / अनाभोगिकं यइनाभोगेन निवृत्तम् , तच्चैकेन्द्रियादीनामिति 5 / तथा द्वादशविधाऽविरतिः / कथम् ? इत्याह-'मणइंदियअनियमो छकायव हो' इति पश्चानामिन्द्रियाणां षष्ठस्य च मनसः स्वस्वविषये प्रवर्तमानस्य यदनियमनं अनियन्त्रणम् / तथा षण्णां पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसरूपाणां कायानां वधो-हिंसा इति / तथा कषायाः प्रागुफ्तशब्दार्थाः पञ्चविंशतिः / कथम् ? इत्याह-पोडश नव चेति / तत्र क्रोधमानमायालोभः प्रत्येकमनन्तानुबन्धि नोऽप्रत्याख्यानावरणाः प्रत्याख्यानावरणाः संज्वलनाश्च ततस्ते षोडश भवन्ति / तत्र पारंपर्यण भामनन्तमनुवघ्नन्तीत्येवं शीला अनन्तानुबन्धिना, उदयस्थानाममीषां सम्मक्वविघातकृत्त्वात् / तथाऽल्पमपि प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीत्यप्रत्याख्यानावरणाः, तदुदये लेशतोऽपि प्रत्याख्यानानुत्पत्तेः / प्रत्याख्यानं सर्वविरतिरूपमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः / तथा परीपहोपमर्गादिसंपाते चारित्रिणमपि सम् ईपज्ज्वलयन्तीति संज्वलनाः / पश्चानुपूर्व्या च स्वरूपमेतेषामेवम्-"जलरेणुपुढविपदयराईसरिसो चउव्वि हो कोहो / तिणिसलगाकटियसेलस्थंभोवमो माणो // 1 // मायावलेहिगोमुत्तिमिंदसिंगघणवंसमूलसमा / लोहो हलिदखंजणकदम किमिरागसारिच्छी // 2 // पक्खचउमासवच्छरजावजीवाणुगामिणो कमसो / देवनरतिरियनारयगासाहणहेययो भणिया॥३॥" इति तथा वेदनिकहास्यादिषट्करूपा नव नोकषायाः / ते च कषायसहचारित्वादुपचारेणेह कषाया इत्युक्ताः / तत्र वेदत्रिकं प्रागनिर्दिष्टस्वरूपम् / हास्यादिषट्कं हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्सालक्षणम् / तत्र सनिमित्तमनिमित्तं वा यद्धसनं तद्धास्यम् / बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु प्रीती रतिः / तेष्वेवाप्रीतिररतिः / भयं त्रासः / परिदेवनादिलिङ्गः शोकः / सचेतनाचेतनेषु वस्तुषु व्यलीककरणं जुगुप्सा इति / योगाः पञ्चदश, ते च सर्वेऽपि प्राक् प्रतिपादितस्वरूपाः / 75 / / 76 // इदानीममूनेव बन्धहेतून गुणस्थानकेषु चिन्तयन्नाह 'पणपन्नपन्नतियछहिय चत्तउणवत्त छत्रउ दुगवीसा। 'मोलसदमनवनवसत्तहेउणो न उ अजोगिम्मि // 77 // - "चत्तिगुणचत्तः" इत्यपि पाठः / Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे ___ (हारि०) व्याख्या-अस्याः केनाप्यभिप्रायेण सूत्रकारेण पदविवरणं न कृतम् तच्च यथावबोधमस्माभिः शास्त्रानुसारेण लिख्यते-तत्र सामान्येन पूर्वोक्ताः सप्तपञ्चाशदुत्तरभेदा बन्धहेतवो भवन्ति 57 / ततो / मिथ्यादृष्टेराहारकतन्मिश्रवर्जनात्पञ्चपञ्चाशदेव मन्तव्याः, तद्वजनं तु संयमवतस्तत्सद्भावादिति 55 ।तथा पूर्वोक्तायाः पञ्चपञ्चाशतो मिथ्यात्वपञ्चकऽपनीते सासादनस्य पञ्चाशद्रष्टव्याः 50 / सम्यमिथ्यादृष्टेस्तु परलोकगमनाभावात्कार्मणं औदारिकमिश्रं बैंक्रियमिश्रं च न संभवति. अनन्तानुबन्ध्युदयस्य चास्य निषिद्धत्वात् : अनन्तानुबन्धिचतुष्टयं च नास्ति अत एतेषु सप्तसु पूर्वोक्तायाः पञ्चाशतोऽपनीतेषु शेषास्त्रिचत्वारिंशदुत्तरभेदा भवन्ति 43 / तथाऽविरतस्य परलोकगमनसंभवात् पूर्वापनीतकार्मणौदारिकमिश्रवैक्रियभिश्रत्रये पूर्वोक्तत्रिचत्वारिंशति पुनः-प्रक्षिप्ते षट्चत्वारिंशद्भदा भवन्ति 46 / तथा देशविरतस्याप्रत्याख्यानादरणोदयस्य निषिद्धत्वादप्रत्याख्यानावरणचतुष्टयं तथा विग्रहगतावपर्याप्तावस्थायां च देशविरतेरभावात् कार्मणौदारिकमिश्रद्वयंत्रससंयमानिवृत्तत्वात् त्रसासंयमश्च न संभवति, अत एतानि पूर्वोक्तायाः षट्चत्वारिंशतोऽपनीयन्ते, ततः शेषा एकोनचत्वारिंश 'द्वन्धहेतवो भवन्ति / अत्राह, ननु देशविरतस्त्रसासंयमात्संकल्पजा देव निवृत्तो न त्वारम्भजादेः, तत्कथं सर्वोऽप्येषोऽपनीयते ? सत्यम् , किन्तु, गृहिणामशक्यपरिहारत्वेन सन्नप्यारम्भजत्रसासंयमो न विवक्षित इत्यदोपः / एतच्च शतकबृहचूर्णिमनुश्रित्य लिखितमिति नात्र स्वमनीषिका भावनीयेति / तथा प्रमत्तस्य पूर्वापनीतत्रसासंयमव्यतिरिक्तानामेकादशाविरतीनामभावात् प्रत्याख्यानावरणानां चाभावादेव आहारक द्विकसद्भावात् पूर्वोक्तायामेकोनचत्वारिंशति पञ्चदशकेऽपनीते द्विके च क्षिप्ते षड्विंशत्युत्तरभेदा भवन्ति 26 / तथाऽप्रमत्तस्य त्वनन्तरोक्तायाः षड्विंशतेर्लब्ध्यनुपजीवनेनाहारवेक्रियानारम्भकत्वाद्वै क्रियमिश्राहारकमिश्रद्वयेऽपनीते शेषाश्चतुर्विंशत्युत्तरभेदा भवन्ति 24 / तथाऽपूर्वकरणे त्वतिविशुद्धत्वाद्वैक्रियाहारकमपि न संभवत्येव, ततो क्रियाहारकद्विकेऽनन्तरोक्तायाश्चतुर्विंशतेर्मध्यादपनीते शेषा द्वाविंशतिर्भवति 22 / तथाऽनिवृत्तिवादरस्य तु हास्यादिषट्कस्यापूर्वकरण एव व्यवच्छिन्नत्वात् शेषाः संज्वलनाश्चत्वारः कषायाः, वेदत्रयम् , मनो 4 वचनौ 4 दारिकरूपा नव योगाः, एते षोडश भवन्ति 16 / यावदद्यापि वेदत्रयं संज्वलनत्रयं च नापगच्छति, तदपगमने तु यथासंभवो वाच्यः / तथा मूक्ष्मसंपरायस्य वेदत्रयक्रोधादित्रिकयोरनिवृत्तिवादर एव व्यवच्छिन्नत्वाच्छेषा नव योगाः संज्वलनलोभश्चेति दश भवन्ति 10 / तथा त्रयाणामुपशान्तादीनां योगप्रत्यय एव बन्धः, ततश्चोपशान्तक्षीणमोहयोः प्रत्येकं नवधा भवति, अष्टौ मनोवाचः औदारिककाययोगश्चेति 9 / तथा सयोगिकेवलिनस्तु योगः सप्तधा १-'दुत्तरभेदा लभ्यन्ते" इत्यपि / / २"०देरेवासौ" इत्यपि / 3 "मिश्रवैक्रियमिश्रसद्भावात्" इत्यपि / Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 253 _ गुणस्थानकेषु बन्धहेतवः भवति, पूर्वोक्तनवकमध्यान्मृषामिश्ररूपे मनोद्वये एवं वाग्द्वये चापनीते औदारिकमिश्रकार्मणे च क्षिप्ते सति / तथाऽयोगी तु प्रत्ययाभावादबन्धकः / अयमों गाथाभिरपि कथ्यते शिष्यानुग्रहार्थम्-आहारगदुगहोणा, पणवन्ना होइ मिच्छदिहिम्मि 55 / सा मिच्छपणगहोणा, पन्नासा तह य सासाणे 50 / / 1 / / सा चउणंतकसाया 4, ओरालविउवि. मोस कम्मइगं / इय सत्तगेण रहिया, तेयाला मीसगुणठाणे 43 // 2 // ओरालियवे उव्वियमीसदुगं तह य कम्मणसरीरं / एय निगेणं सहिया, अविरयसंमंमि छायाला 46 // 3 // ओरालमोसकम्मणचउपोयकसायतसअविरई य / इय सत्त गेण रहिया, इगुयाला देसविरइयंमि 39 // 4 // तइयकसायचउक, एक्कारस अविरई य 'मोत्तण / आहारगदुगसहिया, पमत्तसाहुस्स छव्वीसा 26 // 5 // विउ. वाहारगमीसगरहिया चउवोस होइ अपमत्ते 24 / आहारगवेउवियहीणदुवीसा अपुवंमि 22 // 6 // हासाइछकरहिया, सोलस अनियटियायरे होति 16 / संजलणवेयनियतियरहिया इह होंति दस सुहमे 10 // 7 // उवसंते 9 तह खोणे 9, नव नव हेऊ न लोहपरिहीणा / दोमणदोवइरहिया, कम्मणओरालमीसजुया // 8 // एवं सत्त सजोगे 9, एए सव्वे न हुंन जोगंमि / चउदस गुणठाणेसु, पण. वनिच्चाइ वक्वायं // 9 // " इति गाथार्थः // 77 // . इत्युक्ता बन्धहेतवः / अधुना येषां कर्षणामेते बन्धहेतवस्तेभ्यस्तेषां बन्धं दर्शयन् संख्याविशिष्टानि तान्याह-- (मल० ) इह मिथ्यात्वाद्यवान्तरभेदानामनन्तरोक्तानां पञ्च द्वादशादीनामेकत्र मीलने सप्त पश्चाशद्भवति / तत्र मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके आहारकतन्मिश्रवर्जाः शेषाः पञ्चपञ्चाशद्धन्धहेतवो भवन्ति / आहारकद्विकवर्जनं तु 'संयमवतों तदुदयो नान्यस्य' इतिवचनात् / तथा सासादनसम्यग्दृष्टौ पश्चाशद्वन्धहेतवः, मिथ्यात्वपञ्चकस्येहासंभवेनोपनयनात् / तथा सम्यग्मिध्यादृष्टौ त्रिचत्वारिंशद्वन्धहेतवः, यतोऽत्र 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं" इतिवचनात् / न परलोकगमनं तदभावाच न कार्मणौदारिकमिश्रवेक्रियमिश्रसंभवः, अनन्तानुबन्ध्युदयस्य चात्र निषिद्धत्वादनन्तानुबन्धिचतुष्टयमपि न संभवति, अत एतेषु सप्तसु पूर्वोक्तायाः पञ्चाशतोऽपनीतेषु शेषास्त्रिचत्वारिंशदेव भवति / तथाऽविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके षट्चत्वारिंशद्वन्धहेतकः यतोऽत्र परलोकगमनसंभवात् पूर्वापनीतं कारणोदारिकमिश्रवेक्रियमिश्रलक्षणं त्रिकं पूर्वोक्तायां त्रिचत्वारिंशति पुनः प्रक्षिप्यत इति / तथा देशविरतिगुणस्थानके एकोन चत्वारिंशद्वन्धहेतवः यस्मामात्राप्रत्याख्यानावरणकषायोदयः, न च त्रसासंयमः, नाप्येतद्गुणस्थानकमपान्तरालगतावपयोतावस्थायां वा लभ्यते, ततोऽप्रत्याख्यानावरणचतुष्टयकार्मणौदारिकमिश्रत्रसासंयमरूपेषु सप्तसु - 1 "मोत्तु तओ" इत्यपि। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे पूर्वोक्तायाः षट्चत्वारिंशतोऽपनीतेषु शेषा एकोनचत्वारिंशद्वन्धहेतवो भवन्ति / ननु देशविरतस्त्रसासंयमात्संकल्पजादेव नित्तो न त्वारम्भजात् , तत्कथमेषोऽत्रापनीयते ? इति, नैष दोषः, आरम्भेऽपि तस्य यतनया प्रवर्तमानत्वेन तनिमित्तस्य त्रसासंयमस्य सतोपीहाविवक्षणात् / तथा प्रमत्तगुणस्थानके पविशतिर्बन्धहेतवः, यत इहैकादशधाऽविरतिः प्रत्याख्यानावरणचतुष्टयं च न संभवति, आहारकद्विकं च संभवति, ततः पूर्वोक्ताया एकोनचत्वारिंशतः पञ्चदशकेपनीते द्विके च तत्र प्रक्षिप्ते पविशतिरेव भवति / तथाऽप्रमत्तस्य लब्ध्यनुपजीयनेनाहारकवैक्रियानारम्भादाहारकमिश्रवैक्रियमिश्रलक्षणे द्विके पड्विशतेरप्यपनीते शेषाश्चतुर्विंशतिबन्धहेतवोऽप्रमत्तगुणस्थानके भवन्ति / अपूर्वकरणगुणस्थानके तु वैक्रियाहारके अपि न संभवतः, इत्यनन्तरोक्तायाश्चतुर्विशतेबैंक्रियाहारकरूपे द्विकेऽपनीते शेषा द्वाविंशतिबन्धहेतवः / तथा हास्यादिषट्कस्यापूर्वकरणगुणस्थानक एव व्यवच्छिन्नत्वादनिवृत्तिवादरसंपरायगुणस्थानके द्वाविंशतेः षट्केऽपनीते शेषाः षोडश बन्धहेतवो भवन्ति, ते च "वेदत्रय संज्वलनचतुष्टयौ'दारिककाययोग''चतुर्विधवाग्योग"चतुर्विधमनोयोगरूपा द्रष्टव्याः / तथा सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानके वेदत्रये क्रोधादित्रये चानिवृत्तिवादर एव व्यवच्छिन्नत्वात्पोडशकादपनीते शेषा दश बन्धहेतवो भवन्ति / उपशान्तमोहगुणस्थानके नव बन्धहेतवः, लोभस्य सूक्ष्मसंपराये व्यवच्छिन्नत्वात् अत एव क्षीणमोहगुणस्थानकेऽपि, सयोगिकेवलिगुणस्थानके सत्यासत्यामृपामनोयोगसत्यासत्यामृषावाग्योगकार्मणौदारिकतन्मिश्रलक्षणाः सप्त बन्धहेतवो भवन्ति / 'न उ अजो. गिम्मि' इति अयोगिकेवलिगुणस्थानके तु न कश्चिद्वन्धहेतुः, योगग्यापि व्यवच्छिन्नत्वात् // 77 // उक्ता बन्धहेतवः / साम्प्रतं येषां कर्मणामते बन्धहेतपस्तेगामेतेभ्यो बन्धमुपदर्शयन्नाह-- तो 'नाण'दसणावरण वेयणीयाणि "मोहणिज्जं च / 'आउय नाम गोयं तरायमिइ अट्ठ कम्माणि // 7 // (हारि०) व्याख्या-'तो' इति तेभ्यो मिथ्यात्वादिभ्यः सकाशाज्ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयानीति द्वन्द्वः / तथा मोहनीयं च / आयुनामेति समाहारद्वन्द्वः / तथा गोत्रान्तरायमित्यत्रापि समाहारद्वन्द्वः / इत्येतान्यष्टौ कर्माणि बध्यन्त इति शेषः / इति गाथार्थः // 8 // अधुनैषां बन्धादिस्थानसंख्यामाह (मल०) 'तो' इति तेभ्योऽनन्तरोक्तभ्यो बन्धहेतुभ्यः 'इति' अमून्यष्टौ कर्माणि बध्यन्त इति शेषः / कानि ? इत्यत आह-'णाण' इत्यादि ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिर्वा ज्ञानम् , सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मकोऽवबोधः, दृश्यतेऽनेन दृष्टिा दर्शनम्', सामान्यावबोधात्मकं चक्षुर्दर्शनादि, आप्रियते-आच्छाद्यतेऽनेनेत्यावरणम् , मिथ्यात्वादिसचिवजीव Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलप्रकृतयस्तेषां बन्धोदयोदीरणासत्तास्थानानि [243 व्यापाराहतकर्मवर्गणान्तःपाती विशिष्टपुद्गलसमूहः, ज्ञानं च दर्शनं च तयोरावरणे, तथा वेद्यते सातसातरूपेणेति वेदनीयम् , यद्यपि च सर्व कर्म वेद्यते, तथाऽपीह पङ्कजादिशब्दवद्वेदनीयशब्दस्य रूढिविषयत्वात्सातासातरूपमेव कर्म वेदनीयं न शेषम् , ज्ञानदर्शनावरणे च वेदनीयं च तानि / मोहयतीति मोहनीयं, मिथ्यादर्शनादि / चः समुच्चये / आयात्यागच्छति प्रतिबन्धकतां स्वकृतकर्मावाप्तनरकादिकुगतेर्निष्क्रमितुमनसो जन्तोरित्यायुः / नामयति गत्यादिविविधभावानुभवनं प्रति जीवं प्रवणयतीतिनाम, गतिजात्यादि / गूयते शब्दयते उच्चावच्चैः शब्दैरात्मा यस्मात्तद्गोत्रम् / अन्तरा दातृप्रतिग्राहकयोरन्तर्विघ्नहेतुतयाऽयते गच्छतीत्यन्तरायं दानान्तरायादि // 78 // तदेवं बन्धहेतुभ्यो यानि कर्माणि बध्यन्ते तान्युपदी, साम्प्रतमेतेष्वेव बन्धादिस्थानसंख्यामाह 'सत्त'ठुछेग बधा, संतुदया 'अट्ठसत्तचत्तारि / 'सत्त''छपं च दुगं, उदीरणाठाणसंखेयं // 79 // (हरि०) व्याख्या-सप्ताष्टपडेकविधबन्धभेदाच्चत्वारि बन्धस्थानानि 4 / अष्टसप्तचतुविधसत्ताभेदात् त्रीणि सत्तास्थानानि 3 / एवमुदयस्थानान्यपि त्रीणि 3 सप्ताष्टषट्पञ्चद्विविधोदीरणाभेदात्पश्चसंख्योदोरणास्थानानि 5 / इति गाथार्थः / 79 // अर्थतानि गुणस्थानकेषु योजयति (मल०) चत्वारि बन्धस्थानानि / तद्यथा-सप्ताष्टौ पडेकमिति / तत्र यदाऽऽयुर्न बध्यते तदा सप्त, शेषकालं त्वष्टौ / आयुमोहनीयबन्धव्यवच्छेदे षड् / ज्ञानदर्शनावरणान्तरायनामगोत्रबन्धस्य व्यवच्छेदे चैकमिति / त्रीणि सत्तास्थानानि / तद्यथा-अष्टौ सप्त चत्वारि / तत्राष्टौ प्रतीतानि / मोहनीयसत्ताक्षये सप्त / ज्ञानादर्शनावरणान्तरायसत्ताक्षयेऽपि चत्वारि / उदयस्थानान्यपि त्रीणि / तद्यथा-अष्टौं सप्त चत्वारि / तत्राष्टानामुदयः सर्वसंसारिणामुपशान्तमोहादौ / मोहनीयोदयव्यवच्छेदे सप्तानाम् / घातिकर्मक्षये तु चतुर्णामिति / उदीरणास्थानानि पञ्च / तद्यथा-सप्ताष्टौ षट् पश्च द्वे इति / तत्रायुष उदीरणायामपगतायां सप्तानाम् / आयुरप्युदीरयतामष्टानाम् / वेदनीयायुषोरुदीरणायामपगतायां षण्णाम् / वेदनीयायुर्मोहनीयो. दीरणायामपगतायां पश्चानाम् / नामगोत्र एव केवले उदीरयतो द्वयोरुदीरणेति / इयं बन्धादीनां स्थानसंख्या // 79 // साम्प्रतं बन्धस्थानानि गुणस्थानकेषु योजयन्नाह अपमत्तंता सत्तट्ठ मीसअप्पुब्वबायरा सत्त / बंधति छ सुहुमो एगमुवरिमा बंधगोऽजोगी // 8 // Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356] - षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे / (हारि०) व्याख्या-'अप्रमत्तान्ताः' इत्युक्ते मिथ्यादृष्टिप्रभृतय इति लभ्यन्ते / तत एते पडू मिश्रवजास्तस्य पृथग्भणनात्सप्ताष्टौ वा बध्नन्तीति संबन्धः / तथा मिश्रापूर्वबादरात्रयोऽपि सप्त बध्नन्तीति / तथा षट् सूक्ष्मसंपराया बध्नन्ति / तथैकमुपरितना उपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवलिनः / तथा 'अबन्धगोऽजोगी' इति अयमर्थः-सप्तविधवन्धका आयुर्वन्धवर्जाः षड्विधबन्धका मोहायुबॅन्धवर्जिता एकविधवन्धकाः सातमेवेकं बध्नन्ति / इति गाथार्थः // 8 // इति बन्धस्थानयोजना गुणस्थानकेषूक्ता 6 / अथोदयसत्तास्थानद्वयं तेष्वेव निरूपयन्नाह_ (मल०) मिथ्यादृष्टिप्रभृतयोऽप्रमात्तान्ताः सप्ताष्टौ वा कर्माणि बध्नन्ति, आयुर्वन्धकालेऽष्टौ, शेषकालं तु सप्तैव / 'मोसअप्पुव्ववायरा' इति मिश्रापूर्वकरणानिवृत्तिवादराः सप्तैव . बध्नन्ति, तेपामायुर्वन्धाभावात् / तत्र मिश्रस्य तथास्वाभाव्यात् , इतरयोस्त्वतिविशुद्धत्वात् , आयुर्वन्धस्य च घोल नापरिणामनिमित्तत्वात् / 'छ सुहुमो' इति सूक्ष्मपरायो मोहनीयायुर्वर्णानि पद कर्माणि वनाति, मोहनीयबन्धस्य बादरकषायोदयनिमित्तत्वात् , तस्य च तदभावादायुर्वन्धाभावस्त्वतिविशुद्धन्वादवसेयः / 'एगमुवरिमा' इति एकं सातवेदनीयलक्षणं कर्मोपरितना उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिनो बध्नन्ति न शेषाणि, तद्वन्धहेत्वभावात् / 'अबन्धगोऽजोगो' इति अयोगी=अयोगिकेवली योगस्यापि बन्धहेतोरभावादबन्धकः // 80 // , उक्ता गुणस्थानकेषु बन्धस्थानयोजना / साम्प्रतमेतेषूदयसत्तास्थानयोजनां निरूपयन ह जा सुहुमो ता अट्ठवि, उदए संते य होंति पयडीओ। . सत्तऴ्वसंते खीणि सत्त चत्तारि सेसेसु // 81 // (हारि०) व्याख्या-मिथ्यादृष्टेरारभ्य यावत्सूक्ष्मसंपरायस्तावदष्टावपि, किम् ? 'उदए संते य' इति उदये सत्तायां च 'भवन्ति' जायन्ते प्रकृतयः कर्मणामिति शेषः / तथा सप्ताष्टी चोपशान्ते, सप्त उदयेऽष्टौ सत्तायामित्यर्थः / तथा 'क्षीण क्षीणमोहे -मोहवर्जा उदये सत्तायां च सप्तेति / तथा चत्वार्यघातिकर्माणीति शेषः / शेषयोः सयोग्ययोगिकेवलिगुणस्थानक्योरुदये सत्तायां च भवन्तीति सर्वत्र योज्यम् / इति गाथार्थः / / 81 // ___ इत्युदयसत्तास्थानानि निरूपितानि गुणस्थानकेषु / 81 / साम्प्रतमुदीरणास्थानानि तेष्वेव योजयन्नाह (मल०) मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकमारभ्य यावत्सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानं ताबदष्टावपि कर्मप्रकृतय उदये सत्तायां च प्राप्यन्ते / उपशान्तमोहगुणस्थानके उदये सप्त कर्मप्रकृतयः, सत्ताया- . Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु बन्धोदयसत्तोदीरणास्थानानि [ 257 मष्टौ / 'क्षीणे' क्षीणमोहगुणस्थानके सत्तायामुदये च सप्त कर्मप्रकृतयः, मोहनीयस्य क्षीणत्वात् / 'चत्तारि सेसेसु' इति प्राकृतत्वाद् द्वित्वेऽपि बहुवचनम् / शेषयोः सयोग्ययोगिकेवलिगुणस्थानकयोरुदये सत्तायां चतस्रोऽघातिक प्रकृतयो भवन्ति, घातिकर्मचतुष्टयस्य क्षीणत्वात् // 8 // उक्ता सत्तोदयस्थानकयोजना | साम्प्रतमुदीरणास्थानानि योजयन्नाह सत्तट्ठ पमत्ता, 'कम्मे उइरिति अट्ठ मीसो उ / . वेयणियाउ विणा छ उ, अपमत्तअपुवअनियट्टी // 2 // (हारि०) व्याख्या-सप्ताष्ट वा कर्माण्युदीरयन्तीति सण्टङ्कः / क एते ? प्रमत्तान्ताः पञ्च मिश्रवर्जाः, तस्य पृथग्भणनात् / तदेवाह-'अट्ठ मीसो उ' इति अष्टावेव वचनव्यत्ययादुदीरयति मिश्रः, तुरेवकारार्थो योजित एव / तथा विभक्तिलोपावेदनीयायुभ्यां विना षट् कर्माण्युदीरयन्ति / क एते ? अप्रमत्तापूर्वानिवृत्तिबादरा इति द्वन्द्वः / इति गाथार्थः / / 82 / / तथा-- (मल०) मिथ्यादृष्टिप्रभृतयः प्रमात्तान्ता यावदद्याप्यनुभूयमानभवायुरावलिकावशेषं न भवति तावत्सर्वेऽप्यमी निरन्तरमष्टावपि कर्माण्युदीरयन्ति, आवलिकावशेषे पुनरनुभूयमानभवायुषि सप्तैव, आवलिकावशेषस्य कर्मण उदीरणाया अभावात्तथास्वाभाव्यात् / 'अट्ठ मोसो उ' इति मिश्रस्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टिः पुनरष्टावेव कर्माण्युदीरयति; न तु कदाचनापि सप्त, सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानके वर्तमानस्य सत आयुष आवलिकावशेषाभावात् / स हि अन्तमुहूर्तावशेषायुष्क एव तद्भावं परित्यज्य सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा नियमात्प्रतिपद्यत इति / तथाऽप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिवादरा वेदनीयायुषी वर्जयित्वा शेषाणि षट् कर्माण्युदीरयन्ति न तु वेदनीयायुषी, अतिविशुद्धतया तदुदीरणायोग्याध्यवसायस्थानाभावात् // 2 // सुहमो छ पंच उइरेइ पंच 'उवसंतु पंच दो खीणो। .. जोगी उ नामगोए, अजोगि 'अणुदीरगो भयवं // 3 // (हारि०) व्याख्या-सूक्ष्मसंपरायः षट् पञ्च वोदीरयति / तथा पञ्चोपशान्तमोहः / तथा पञ्च द्वे वा क्षीणमोहः / तथा योगी सयोगिकेवली तुरेवकारार्थः, उत्तरत्र योक्ष्यते, नामगोत्रे एव / तथाऽयोगी अनुदीरको न किंचिदुदीरयति भगवान् पूज्य इति / सप्ताष्टषडादिपदभावना त्वेवं द्रष्टव्या-इह मिथ्यादृष्टेः प्रभृति यावत्प्रमत्तसंयतो यावदद्याप्यावलिकावशेषमात्मीया 1 "कम्मउईति" इत्यपि पाठः / 2 "उई रेइ" इत्यपि पाठः / 3 "उवसंत' इत्यपि / 4 अणुदीरणं। मगवं" इत्यपि। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 1 पडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे त्मीयमायुर्न भवति तावत्सर्वेऽप्यमी निरन्तरमष्टावपि प्रकृतीरुदीरयन्ति, तदुदीरणायोग्याध्यवसायस्य सर्वेष्वपि भावात् / अद्धावलिकावशेष आयुषि सप्तैव प्रकृतीरुदीरयन्ति न त्वायुष्कम् / सम्यग्मिथ्यादृष्टिस्तु अष्टावेवोदीरयति न तु कदाचनापि सप्तेति, सम्यग्मिथ्यादृष्टेरायुष आव लिकावशेषताया अभावात् , स ह्यायुष्कान्तमुहूर्तावशेष एव तद्भावं परित्यज्य सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा नियमात्प्रतिपद्यत इति / अप्रमत्तादयस्त्रयः षट् कर्माण्युदीरयन्ति, अतिविशुद्धत्वेन वेदनीयायुरुदीरणायोग्याध्यवसायाभावात् / सूक्ष्मसंपरायस्तु पड्विधोदीरकस्तावद् यावन्मोहनीयमावलिकावशेषं न भवति, तदवशेषे तु तस्मिन् पञ्चविधोदीरक एवेति / उपशान्तमोहस्तु पूर्वोक्तपश्वविधोदीरक इति / क्षीणमोहस्तु ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायेष्वावलिकावशेषे तु द्विविधोदीरकः, पूर्व तु पञ्चविधोदीरक इति / सयोगिकेवली पुनर्द्विविधोदीरक एव, यतो वेद्यमानमेव कर्मोदीयते / तत्र घातिचतुष्टयस्य क्षीणत्वाद्वेदनमेव नास्ति, कुतस्तदुदीरणम् ? वेदनीयायुषोस्तूदीरणा प्रागेवोपरतेति / अयोगिकेवली तु न किंचिदुदीरयति, उदीरणस्य योगसव्यपेक्षत्वात् , तस्य च तदभावात् / इति गाथार्थः // 3 // इत्युक्तोदीरणा / अथाल्पबहुत्वमाह (मल०) सूक्ष्मः सूक्ष्मसंपरायः षट् पञ्च वा कर्माण्युदीरयति / तत्र षडनन्तरोक्तानि तानि च तावदुदीरयति यावन्मोहनीयमावलिकावशेषं न भवति, आवलिकावशेष ·च मोहनीये तस्याप्युदीरणाया अभावात् शेषाणि पश्च कर्माण्युदीरयति / 'पंच उवसंतु' इति उपशान्त= उपशान्तमोहः पञ्चकर्माण्युदीरयति न वेदनीयायुर्मोहनीयानि / तत्र वेदनीयायुषोः कारणं प्रागेवोक्तम् / मोहनीयं तदुदयाभावानोदीर्यते 'वेद्यमानमेवोदीर्यते' इतिवचनात् / 'पंच दो वीणो' इति क्षीणः क्षीणमोहोऽनन्तरोक्तानि पश्च कर्माण्युदीरयति, तानि च तावदुदीरयति यावज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणि आवलिकाप्रविष्टानि न भवन्ति, आवलिकामात्रप्रविष्टेषु तु तेषु तेषामप्युदीरणाया अभावाद् द्वे एव नामगोत्रलक्षणे कर्मणी उदीरयति / 'जोगी उ नामगोए' इति योगीतु-सयोगिकेवली पुनर्नामगोत्रे उदीरयति, न शेषाणि, घातिकर्मचतुष्टयं हि निमूलत एव क्षीणमिति न तस्योदोरणासंभवः, वेदनीयायुषोस्तूदीरणा पूर्वोक्तकारणादेव न भवतीति / ' 'अजोगि अणुदीरगो भयवं' इति अयोगिकेवली भगवान् अनुदीरकोज किंचिदपि कोंदीरयति, योगसव्यपेक्षत्वादुदीरणायाः, तस्य च योगाभावात् // 3 // इत्युक्ता गुणस्थानकेधूदीरणास्थानयोजना / साम्प्रतमेतेष्वेव वर्तमानानां जन्तूनामन्पबहुत्वमाह Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेष्वल्पबहुत्वम् / 255 उपसंतजिणा थोवा, संखेजगुणा उ खीणमोहजिणा। सुहुमनियट्टिनियट्टी, तिन्नि वि तुल्ला विसेसहिया 184 // जोगिअपमत्तइयरे, संखगुणा देससासणा मिस्सा / अविरयअजोगिमिच्छा, असंख चउरो दुवेऽणंता // 85 // ___ (हारि०) व्याख्या-उपशान्तजिनाः स्तोकाः, यतस्ते प्रतिपद्यमानकाश्चतुष्पञ्चाशत्प्रमाणा एव प्राप्यन्ते, तेभ्यः संख्येयगुणाः क्षीणमोहजिनाः, यतस्तेऽष्टोत्तरशतसंख्या एकसमये प्रतिपद्यमाना लभ्यन्ते / एते द्वयेऽपि यदोत्कृष्टपदे लभ्यन्ते तदा ज्ञेयाः, कदाचिद्विपर्ययेणापि स्युः क्षीणमोहाः स्तोका उपशान्तमोहास्तु बहव इति / ततो विशेषाधिकाः, क एते ? सूक्ष्मसंपरायानिवृत्तिनिवृत्तिबादरास्त्रयोऽपि स्वस्थाने तुल्याः, तुल्यत्वादेतद् णस्थानकायस्यारम्भकाणामिति // 84 // इतो द्वितीयगाथा व्याख्यायते- तेभ्यो योग्यप्रमत्तेतरे इति द्वन्द्वः / इतरः प्रमत्तो गृह्यते, संख्यातगुणाः, यतः सयोगिकेवलिना कोटीपृथक्त्वं प्राप्यते / अप्रमत्तप्रमत्तगुणस्थानकवतां तु कोटीसहस्रपृथक्त्वं सामायिके कोटीशतपृथक्त्वं छेदोपस्थापनीये परमप्रमत्तान्तमुहूर्त लघु प्रमत्तान्तमुहूर्त बृहत्प्रमाणम् , इत्यतो यथोक्तं संख्यातगुणत्वं लभ्यते / ततो देशविरतसासादनमिश्राऽविरतायोगिमिथ्यादृष्टयः क्रमेणासंख्याश्चत्वारो द्वयेऽनन्ताः / भावना त्वेवम्-प्रमत्यतिभ्योऽसंख्यातत्वाद्देशविरतितिर्यग्मनुष्याणाम् / सासादनास्तु कदाचित्सर्वथैव न भवन्ति, यदा तु भवन्ति तदा जघन्यपदे एको वा द्वौ वा यावदुत्कृष्टतो गतिचतुष्टयसंभवित्वादेशविरतेभ्योऽसंख्येयगुणा भवन्ति / मिश्रा यदा भवन्ति तदोत्कृष्टतः सासादनेभ्योऽसंख्यातगुणाः, उत्कृष्टतोऽपि पडावलिकाप्रमाणत्वात्सासादनाद्धायाः, मिश्राद्धायास्त्वन्तमुहूर्तप्रमाणत्वादिति / मिश्रेभ्योऽसंख्येयगुणा अविरतसम्यग्दृष्टयः, चतुर्गतिषु सर्वकालभावित्वात्तेषामिति / तेभ्योऽनन्तगुणा अयोगिनः, अयोगिग्रहणेन चात्र सिद्धा अपि गृहीताः, यतोऽयोगिनो भवस्थाभवस्थ. भेदेन द्विविधा भवन्ति / तेभ्योऽनन्तगुणा मिथ्यादृष्टयः, पृथिव्यादिसाधारणमिथ्यादृष्टीनामनन्तत्वात् / इति गाथार्थः // 85 // इत्युक्तमल्पबहुत्वम् , तद्भणनाचोक्त' यथाप्रतिज्ञातं समस्तमभिधेयजातम् / साम्प्रतं प्रकरणस्यादेयताख्यापनार्थ प्रकरणकारो गुणनिष्पन्नं स्वनाम सूचयन्नुपदेशमाह (मल०) उपशान्तजिना-उपशान्तवीतरागाः स्तोकाः, यतस्ते प्रतिपद्यमानका उत्कर्षतोऽपि चतुष्पश्चाशत्प्रमाणा एव प्राप्यन्त इति / तेभ्यः सकाशात्पुनः क्षीणमोहजिनाः संख्येयगुणाः, यतस्ते प्रतिपद्यमानका एकस्मिन् समयेऽष्टोत्तरशतप्रमाणा अपि लभ्यन्ते / एतच्चैवमाचार्येणाभिहितमुत्कृष्टपदापेक्षया, अन्यथा कदाचिद्विपर्ययोऽपि द्रष्टव्यः / स्तोकाः क्षीणमोहाः,वहवस्तु Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे तेभ्य उपशान्तमोहा इति / तथा तेभ्यः क्षीणमोहेभ्यः सकाशात्सूक्ष्मानिवृत्तिनिवृत्तयः सूक्ष्मसंपरायानिवृत्तिवादरापूर्वकरणा विशेषाधिकाः / स्वस्थाने पुनरेते चिन्त्यमानास्त्रयोऽपि तुल्या इति // 84 // 'इयर' इति अप्रमत्तप्रतियोगिनः प्रमत्ताः तेभ्यः सूक्ष्मादिभ्यः सकाशाद्योगिनः सयोगिकेवलिनः सङ्ख्यातगुणाः, तेषां कोटीपृथक्त्वेन लभ्यमानत्वात् / तेभ्योऽप्रमत्ताः संख्येयगुणाः कोटीसहस्रपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् / तेभ्योऽपि संख्येयगुणाः प्रमत्ताः / प्रमादभावो हि बहूनां बहुकालं च लभ्यते, विपर्ययेण त्वप्रमाद इति न यथोक्तसंख्याव्याघातः / 'देस' इत्यादि, देशविरतसासादनमिश्राविरतिलक्षणाश्चत्वारो यथोत्तरमसंङ्खये यगुणाः / अयोगिमिथ्यादृष्टिलक्षणौ च द्वौ यथोत्तरमनन्तगुणौ / तत्र प्रमत्तेभ्यो देशविरता असंख्येयगुणाः, तिरश्रामसंख्यातानां देशविरतिभावात् / सासादनास्तु कदाचित्सर्वथैव न भवन्ति, यदा तु भवन्ति तदा / जघन्येनैको द्वौ वा, उत्कर्षतस्तु देशविरतेभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः / तेभ्योऽपि मिश्रा असंख्येय गुणाः, सासादनाद्धाया उत्कर्षतोऽपि पडावलिकामात्रतया स्तोकत्वात् , मिश्राद्धायास्त्वन्तमुहूर्तप्रमाणतया प्रभूतत्वात् / तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणा अविरतसम्यग्दृष्टयः, तेषां गतिचतुष्टयेऽपि प्रभूततया सर्वकालं संभवात् / तेभ्योऽप्ययोगिनो भवस्थाभवस्थभेदभिन्ना अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् / तेभ्योऽप्यनन्तगुणा मिथ्यादृष्टयः साधारणवनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् , तेषां च मिथ्यादृष्टित्वादिति / / 85 / / ___ तदेवमभिहितं गुणस्थानकवर्तिनां जीवानामल्पबहुत्वम् , तदभिधानाच्च यत् 'घोच्छामि जीवमग्गण' इत्यादि प्राक् प्रतिज्ञातं तदपि समर्थितम् / साम्प्रतं जिनवचनानुसारिप्रकरणमिदमित्येतत्प्रकरणश्रवणादिक्रियासु वर्तमानानां जीवानामेकान्तेन हितसंप्राप्तिमुत्पेक्षमाण आचार्यो निजान्वर्थनामोत्कीर्तनपूर्वकं जिनशासनगौरवख्यापनपूर्वकं च परेषामुपदेशमाह जिणवल्लहोवणीयं, जिणवयणामयसमुद्दबिंदुमिमं / हियकंखिणो बुहजणा, निसुणंतु गुणंतु जाणंतु // 86 // // इति षडशीत्यपरपर्यायागमिकवस्तुविचारसारप्रकरणम् / / Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकध्वल्पबहुत्वं श्रीहरिभद्रसूरिविहितटीकास्थप्रशस्तिश्च [261 (हारि०) व्याख्या-जिनो वल्लभो यस्य स तथा तेनोपनीतस्तम् , इत्यनेन प्रकरणादेयतामाह / भवति हि यथोक्तान्वर्थनाम्ना पुरुषविशेषेणोपनीते वस्तुनि बुधजनानामादेयताबुद्धिः, एतदेव च प्रस्तुतप्रकरणकतु रभिधानम् / जिना रागादिवैरिवारजेतारः, तेषां वचन-मागमः, तदेवामृतं-त्रिदशाहारः, तस्य समुद्रः सिन्धुः, तस्य विन्दुरिवबिन्दुस्तम् , इमं प्रस्तुतप्रकरणरूपं 'हितकाक्षिणः' मोक्षाभिलाषिणो 'बुधंजनाः' पण्डितलोकाः 'निशृण्वन्तु' आकर्णयन्तु 'गुणयन्तु परावर्तयन्तु 'जानन्तु' बुध्यताम् / इति गाथार्थः / / 86 // .. // अथ प्रशस्तिः // * प्रायोऽन्यशास्त्रदृष्टः, सर्वोऽप्यों मयाऽत्र संचरितः / नं पुनः स्वमनीषिकया, तथापि यत्किंचिदिह वितथम् // 1 // * सूत्रमतिलङ्घय लिखितं, तच्छोध्यं मय्यनुग्रहं कृत्वा / परकीयदोषगुणयोस्त्यागोपादानविधिकुशलैः // 2 // * छद्मस्थस्य हि बुद्धिः, स्वलति न कस्येह कर्मवशगस्य / सद्बुद्धिविरहितानां, विशेषतो मद्विधासुमताम् // 3 // * कृत्वा यवृत्तिमिमा, पुण्यं समुपार्जितं मया तेन / मुक्तिमचिरेण लभता, क्षपितरजाः सर्वभव्यजनः // 4 // * मध्यस्थभावादचलप्रतिष्ठः, सुवर्णरूपः सुमनोनिवासः / अस्मिन्महामेरुरिवास्ति लोके, श्रीमान् बृहद्गच्छ इति प्रसिद्धः // 5 // " तस्मिन्नभूदायतबाहुशाखः कल्पद्रमाभः प्रभुमानदेवः / यदीयवाचो विबुधैः सुबोधाः, कर्णेकृता / नूतनमञ्जरीवत् // 6 // x तस्मादुपाध्याय इहाजनिष्ट, श्रीमान्मनस्वी जिनदेवनामा / / गुरुकमाराधयिताल्पबुद्धिस्तस्यास्ति शिष्यो हरिभद्रसरिः // 7 // * अणहिल्लपाटकपुरे, श्रीमजयसिंहदेवनृपराज्ये / आशापूरवसत्या, वृत्तिस्तेनेयमारचिता // 8 // * एकैकाक्षरगणनादस्या वृत्तेरनुष्टुभां मानम् / . अष्टौ शतानि जातं, पश्चाशत्समधिकानीति 850 // 6 // * वर्षशतैकादशके, दासप्तत्याधिके 1172 नभोमासे / सितपञ्चम्यां सूर्ये, समर्थिता वृत्तिकेयमिति / 10|| // इत्यागमिकवस्तुविचारसारप्रकरणवृत्तिः, श्रीमद्धरिभद्रसूरिनिर्मिता समाप्ता / / * आया। X उपज,तिः। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे श्रीमलयगिरिसूरिकृतटीकागता प्रशस्तिः (मल०) सुगमम् // 86 // // मग प्रशस्तिः // यद्गदितमल्पमतिना, जिनवचनविरुद्धमर्थतत्वेषु / विद्वद्भिस्तत्त्वज्ञः प्रसादमाधाय तच्छोध्यम् // 1 // [आर्या महर्थमल्पशन्दं, प्रकरणमेतद्विवृण्वता कुशलम् / यदनापि मलयगिरिणा, सिद्धिं तेनाश्रुतां लोकः // 2 // [.. // इति श्रीमन्मलयगिरिसूरिविरचिता पडशीतिप्रकरणवृत्तिः समाप्ता // // समातोऽयं टीकाद्वयोपेतः पडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः // Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति - - ___ श्रीमज्जिनवल्लभगणिपुङ्गवप्रणीते श्रीषडशीतिनाम्नि चतुर्थे प्राचीनकर्मग्रन्थे प्रथमा श्रीहरिभद्रसूरिकृता द्वितीया श्रीमलयगिरिसूरिकृता च टीका समाप्ता Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मम्म्म श्रीमजिनवल्लभगणिपुङ्गवप्रणीते श्रीषडशीतिनाम्नि चतुर्थे प्राचीनकर्मग्रन्थे तृतीया श्रीयशोभद्रसूरिकृता टीका प्रारभ्यते Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // ॐ हीं श्रीं अई श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथायनमः / / न्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपादपद्मेभ्यो नमः / / सकलागमरहस्यवेदिश्रीमदाचार्यविजयदानसूरीश्वरेभ्यो नमः // कर्मसाहित्यनिष्णातश्रीमदाचार्यविजयप्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः / / श्रीमज्जिनवल्लभगणिपुङ्गवप्रणीतः षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / ( अपरनाम-आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणम् ) श्रीमद् यशोभद्रसूरीश्वरप्रणीतटीकया समलङ कृतः॥ श्री नमः सर्वज्ञाय आगमिकवस्तुगोचरविचारसारप्रकरणपदजातं किश्चित्किञ्चिद्विवृणोमि नतहिता भारती स्मृत्वा / / 1 / / कासौ श्रीजिनवल्लमस्य रचना सूक्ष्मार्थचर्चाऽर्चिता, क्वयं मे मतिरग्रिमा प्रणयिनी मुग्धत्वपृथ्वीभुजः / पङ्गोस्तुङ्गनगाधिरोहणसुहद्यत्नोऽयमार्यास्ततो, ऽसद्ध्यानव्यसनार्णवे निपततः स्वान्तस्य पोतोऽर्पितः // 2 // निच्छिन्नमोहपासं पमरियविमलोरुकेवलपयासं / पणयजणपूरियासं पयओ पणमित्त जिणपासं // 1 // (यशो०) "निच्छिन्नमोहपास"मित्यादि, विशेषणविभूषितात्मानं जिनपार्श्व प्रणम्य जीवमाग्गंणागुणस्थानादि वक्ष्य' इत्युत्तरगाथया संवन्धः / तत्र 'निच्छिन्ने"ति अविरतसम्यग्दृष्टयादीनामपि सूक्ष्मसंपरायान्तानां किंचित् किंचित् मोहछेदोऽस्तीति तद्व्यवछेदार्थ निशब्दोपादानं नितरामतिशयेन छिन्नः खंडितो मोह एव सर्वोपद्रवन्ध्यस्थानगमनविचारकत्वात्पाशोऽनेन स तथा, एवंरूपश्च क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थावस्थावलम्ब्यपि भगवान् स्यादत आह-प्रसतो ऽसर्वगतात्मनि व्यवस्थित एव विस्तृतः प्रचुरभावमापत्रः समस्ततदावरणविरयाद्विमल: . सकललोकालोकव्यापकत्वादुरू-महान् केवलस्य केवलज्ञानस्य प्रकाशः प्रकाशनशक्ति * "सूक्ष्मार्थचर्चा-ऽनतिा"इति वा / Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे विषयपरिछेदसामर्थ्य यस्य प्रसृतविमलोरुकेवलप्रकाशः / इह यद्यपि मोह इव ज्ञानावरणदर्शनावरगान्तरायेष्वपि छिन्नेष्वेव केवलप्रसरस्तथापि मोहछेदस्य प्रधानतया मोहछेदहेतुकः केवलप्रकाशः प्रतिपादितः / अनेन विशेषणद्वयेनापायापगम-ज्ञानातिशयावभिहिती ताभ्यां च तीर्थकरस्तुतेः प्रस्तुतत्वात्तीर्थकरनामकर्मोदयाविनाभाविनौ पूजा-वचनातिशयावाक्षिप्तौ / इत्थं वानिएविधातेष्टप्राप्तिशरीरा स्वार्थसंपत्तिः प्रकाशिता / प्रणतजनस्य पूरिताः सकलसत्त्वसाधारणेन वचसा स्वर्गापवर्गमार्गप्रकाशनादाशाबाञ्छायेनेत्यनेन च परार्थसंपत्तिः / प्रयत आदरपरः / एवं च सम्पूर्णस्वार्थपरार्थसंपदो भगवतः "प्रणम्ये" ति प्रकर्षप्राप्तनमस्कारस्वरूपमनुपधि धोत्पादनद्वारा विघ्नजनका-ऽधर्मप्रतिवन्धानिखिलविघ्नविधातनिघ्नं तत्त्वतो मङ्गलमाविष्कृतमिति / अर्हता तुल्यगुणत्वेऽपि पार्श्वजिनस्य यदत्रोपादानं तत्तच्छासनाधिष्ठायकसाहायकेन प्रकरणस्य प्रणीतत्वात् // 1 // वोच्छामि जीवमग्गणगुणठाणुवओगजोगलेसाई / किंचि सुगुरूवएमा सन्नाणसुझाणहेउत्ति // 2 // (यशो०) जीवाश्च मार्गणगुणाश्च, तेषां स्थानानि, तानि चोपयोगाश्चेत्यादि द्वन्द्वगों बहुव्रीहीः। आदिशब्दात्कर्मबन्धोदयोदीरणासत्तास्थानाल्पबहुत्ववन्धहेतुपरिग्रहः / किंचिदिति सिद्धान्तसिन्धोरुद्धत्य विन्दुमात्रम् / वक्ष्ये ऽभिधास्ये। किमिति ? सज्ज्ञानस्य सुध्यानस्य च हेतुः कारणमिति कृत्वा / "सुगुरुवएसे"ति शोभनस्य समयानुसारिसम्यग्ज्ञानानुष्ठांनसारस्य गुरोरुपदेशेन, अनेन कश्चिदप्राप्तप्रवराम्नाय इदं प्रणीतवानिति शंकानिराशः / एवं च जीवस्थानाद्यभिधेयं निखिलजगदुपादेयताकुलगृहम् / गुरुपर्वक्रमलक्षणः संबन्धः / जीवादिवस्तुविषयप्रकरणकरणद्वारेणातिद्रढिमोपारूढबोधरूपं सन्–शोभनं ज्ञानम् , धर्मध्यानाधिरोहणार्थ श्रुतधर्मानुगतानि वाचनाप्रच्छनापरावर्त्तनानुप्रेक्षारूपाण्यालम्बनान्येव शोभनं रूपध्यानं च कत्तु रनंतरप्रयोजने एतत्प्रकरणश्रवणप्रसादसमासादितजीवस्थानादिव्युत्पत्तिस्वरूपं ज्ञानमुपवर्णितचरं सुध्यानं च श्रोतुरनंतरप्रयोजने प्रतिपादितानि / परंपरप्रयोजनं तु कत श्रोत्रोः "ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिद"मिति वचनात्परमपदरूपमाक्षिप्तं द्रष्टव्यम् / इह यद्यपि जीवस्थानाद्यभिधेयं सामान्यत उक्तम् , तथापि जीवस्थानेषु गुणस्थानयोगोपयोगलेश्यावन्धोदयोदीरणासत्ताख्यान्यष्टौ, मार्गणास्थानेषु जीवस्थानगुणस्थानयोगोपयोगलेश्याल्पबहुत्वाभिधानानि षट् , गुणस्थानेषु जीवस्थानयोगोपयोगलेश्याबन्धहेतुबन्धोदयोदीरणासत्तास्थानाल्पबहुत्वाख्यानि च दशाभिधेयानि “व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति' रितिन्यायादवगन्तव्यानि जीवस्थानगुणस्था-- नादीनाम् , तुशब्दार्थो यथावसरमुपवर्णयिष्यते / अत्र च प्रकरणकृत् 'प्रणम्ये ति क्त्वाप्रत्ययेन पूर्वकालभाविना 'वक्ष्य' इत्युत्तरकालभाविक्रियासव्यपेक्षेण प्रणमनक्रियामभिदधता कथञ्चि Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलादिकं जीवस्थानस्वरूपञ्च [3 नित्यानित्यपक्षं समर्थयते स्म / एकान्तनित्यानित्यपक्षे हि क्त्वाप्रत्ययानुपपत्तिः / एकान्तनित्यतायां कर्तुं प्रणमनक्रियास्वभावात , जीवस्थानादिकर्मकवचनक्रियाया अभावाद् , एकान्ताऽनित्यतायां चान्यः प्रणमनक्रियायाः कर्ताऽपरो वचनक्रियायाः कर्त्तति विभिन्नकत कत्वात् प्रत्ययानुत्पत्तिः // 2 // तत्र जीवस्थानानां संख्यावछिन्न स्वरूपं निरूपयन्नाह-- इह सुहुमवायरंगिदिवितिचउअसन्निसन्निपंवेदी / अपनत्तापजत्ता कमेण चउदम जियाणा / / 3 // (यशो०) इह-जगति प्रवचने वा सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माः सर्वलोकव्यापिनो, बादरनामकर्मोदयाद्रादरा लोकदेशवर्तिन एकेन्द्रियाः / सूचकत्वात्सूत्रस्य द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः / "असन्निसन्ना"ति, संज्ञा-विज्ञानं सा हेतुवाददीर्घकालदृष्टिवादभेदात् त्रिधा / तत्र हेतोर्वादस्तेन संज्ञा / द्वित्रिचतुरिन्द्रियाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां मन्तव्या। ते हि हेतुवादेन एवं वक्तु शक्यन्त एव, संज्ञिन एते, आतपादिभ्यच्छ.याद्याश्रयणादाहारादिनिमित्त वेष्टान्वितत्वाच्च / एतदपेक्षया पृथिव्यादयोऽमंज्ञिना, या तु सिद्धान्ते पृथिव्यादीनामपि आहारादिभेदादशविधा संज्ञा प्रतिपादिता सा तेषामतिशयेनाव्यक्तेति न विवक्षिता 1 / दीर्घकालिकी संज्ञा साभिधीयते यस्यां सत्यां कालत्रये-ऽपि इदमकार्पमिदं करोमि इदं करिष्यामीति विमश्यते / एतदपेक्षयामनोलब्ध्या वन्ध्याः सर्वेऽप्यसंज्ञिनः / एषा च न हेतुवादेन प्रतीयते,बालानामपि सुप्रतीतत्वात् / दृष्टिः सम्यग्दर्शनं तस्य वदनं *(वादस्) तेन संज्ञा सम्यक्वविमलीकृतज्ञानरूपा / एतदपेक्षया संज्ञिपञ्वेन्द्रिया अपि मिथ्यादृशोऽसंज्ञिन उच्यन्ते / समये तु यत्र क्वचित्संश्यसंज्ञिव्यवहारः, स समस्तोऽपि दीर्घकालिकसंज्ञाभावाभावावलम्ब्येत्यत्रापि दीर्घकालिकसंज्ञावन्तः संज्ञिनस्तद्विपरीतास्त्वसंज्ञिनः,पञ्च न्द्रियाः। "अपजत्तापजते" तिपर्याप्तापर्याप्तव्यवहारस्य पर्याप्तिपरिज्ञानपुरस्सरत्वादादौ पर्याप्तः संक्षेपतः स्वरूपं सोपयोगित्वाद् भेदकालस्वामिनश्वोच्यन्ते / तत्र पर्याप्ति-राहारप्रवृत्तियोग्यपुद्गलदलिकोपादनपरिणामनकारणं जीवस्य पुद्गलोपचयः शक्तिविशेष इति स्वरूपम् / यया बाह्यमाहारमाहृत्य खलरसरूपतया परिणामयति जन्तुः सा शक्तिराहारपर्याप्तेः / यया रसीभूतमाहारं रसासृक्मासमेदोस्थिमञ्जाशुक्ररूपसप्तधातुमयौदारिकशरीररूपतया वैक्रियाहारकयोोग्यानि च द्रव्यान्यादाय वैक्रियाहारकरूपतया च परिणति नयति, सा सरीरपर्याप्तिः। इयं च न शरीरनामकर्मण्यन्तर्भवति, साध्यभेदात् / शरीरनाम्नो हि कर्मणो जीवेन गृहीतानां पुद्गलानामौदारिकादिदेहत्वेन परिणतिः साध्या, शरीरपर्याप्तेस्त्वारब्धशरीरस्य परिसमाप्तिरिति / ययेन्द्रिययोग्यधातुभूतमाहारमिन्द्रियतयापरिणाममुपनयति, सेन्द्रियपर्याप्तिः / ययोच्छ्वासयोग्यं वर्गणाद्रव्यं स्वीकृत्योच्छ्वासतया परि * ( ) एतच्चिन्हान्तर्गतः पाठः प्रक्षिप्तो द्रष्टव्यः / एवमग्रेऽपि / Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे णमय्यालम्ब्य च मुञ्चति,सोच्छ्वासपर्याप्तिः ।इयमुच्छ्वासनाम्नो भिन्ना, यत उच्छ्वासनामोदयन जनतामपि सतीमुच्छ्वासनलब्धिमुच्छ्वासलब्ध्या जन्तुर्व्यापारयितु समर्थः, नान्यथा। यया भाषानुकूलं वर्गणाद्रव्यं गृहीत्वा भाषारूपत्वेन परिणमय्यालन्य च मुञ्चति,सा भाषापर्याप्तिः ।यया मनःप्रायोग्यं वर्गणाद्रव्यमुपादाय मनस्वेन परिणमयपालम्ब्य च मुश्चति, सा मनःपर्याप्तिरिति षट् / प्रज्ञापना-व्याख्याप्रज्ञप्त्यादी त्वन्त्यपर्याप्त्योर्वहुश्रुतिगम्ययुक्तिकयैकत्वविवक्षया पञ्चेति भेदाः / “बेउव्वाह राणं सरीरअन्नाउपणइगिगसमया। रिह पण असमुहुत्ता उरले आहारगममये"त्तिवचनात् , वैक्रियस्याहारकस्य च शरीरपर्याप्तिरान्तमौहूर्तिकी, शेषास्तु सामायिकाः; औदारिकस्याहारपर्याप्तिः सामायिका, शेषाः पुनरान्तौहर्तिक्य इति कालः / प्रज्ञापनायां त्याहारादिपर्याप्तीनां युगपदारब्धानां मध्ये आहारपर्याप्तेः समयः, शेषाणां प्रत्येकमन्तमुहूर्तम् / सामान्येन निष्पत्तिकाल उक्तः / तत्राद्यानां च तिसृणामेकेन्द्रिया भाषापयर्याप्तिसहितानां [केव](विक)लेन्द्रिया भाषापर्याप्तिसमन्वितानां पञ्चेन्द्रिया इति स्वामिनः / एताश्च पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते मत्वथींयात्प्रत्यये पर्याप्ताः, तद्विपरीता अपर्याप्ताः / ते च, ये भवान्तरालवतिनो विवक्षितभवे च प्रथमोत्पन्नास्त एव वाच्याः, न पुनर्भवारम्भभाविपर्याप्तिसमाप्त्या पर्याप्त्या विशिष्टतीर्थगादयो वैक्रियाद्यारम्भादिकालवर्तिनः, सत्यामपि वैक्रियाद्यपेक्षया पर्याप्त्यसमाप्तौ तेषामपर्याप्तत्वेन सैद्धान्तिकैरपरिभाषितत्वात् / ततश्च सूक्ष्मवादरैकेन्द्रिया द्वीन्द्रियादयः संक्षिपञ्चेन्द्रियान्ताः प्रत्येकमपर्याप्तपर्याप्तभेदभाजः क्रमेणेति / सूक्ष्मत्वस्य सर्वप्राणिनां मूलस्थानत्वेन प्रथमं सूक्ष्मास्ततो यथोत्तरं प्रवर्द्धमानकर्मक्षयोपशमपात्रत्वेन बादराद्याः संज्ञिपञ्चेन्द्रियान्ता निर्देश्याः, त एव चापयर्याप्तत्वपूर्वकत्वाद्विवक्षितभवे पर्याप्तत्वस्य पर्याप्तेभ्यःप्रथममपर्याप्ता इत्यनेनेव क्रमेण / "जियहाणे"ति प्राकृतत्वात्पुसा निर्देशः / एवमन्यत्रापि लिङ्गव्यत्ययादि तत्र तत्र द्रष्टव्यम् / नीवन्ति जीविष्यन्ति जीवितवन्त इति जीवास्तिष्ठन्ति जीवास्तत्कर्मपारतन्त्र्यादेष्विति स्थानानि= स्वरूपमेदाः, जीवानां स्थानानि मन्तव्य नीति शेषः / अत्र सामर्थ्यादेव चतुर्दशत्वे लब्धे चतुदशेति न्यूनाधिकसंख्याव्यवछेदार्थमिति // 3 // संप्रति जीवस्थानेषु गुणस्थानानि संबन्धपुरस्सरं गाथायुगेनाहसब्वभणियध्वमूलेसु तेसु गुणठाणगाइ ता भणिमो। पढमगुणा दो बायरबितिचउरअसन्निअपजत्ते // 4 // सन्निअपजत्ते मिच्छदिट्टिसासाणअविरया तिन्नि / सव्वे सन्निपजत्ते मिच्छं सेसेसु सत्तसु वि // 5 // (यशो०) इह प्रकरणे सर्वेषां भणनार्हाणां गुणस्थानादीनामायेषु "तेस्वि"ति तेषु जीवस्थानेषु Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु गुणस्थानानि योगाश्च गुणस्थानान्यादिः-प्रथमं यस्य योगादिस्थानसप्तकस्य तत्तथा, तावच्छद्रः क्रमार्थः / ततो जीवस्थानेषु गुणस्थानानि ततो योगास्तत उपयोगा इत्यादि / 'बायरे' ति सूचकत्वात्सूत्रस्य बादरैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियासंक्षिपञ्चेन्द्रिया इति दृश्यम् / तच्च समाहारद्वन्द्वाश्रयणाल्लुप्तसप्तम्येकवचनान्तम् / एवमन्यत्रापि / एकादश समुदायव्यपदेशविभक्तिलोपावभ्यूह्यौ / ततश्च नादरादिष्वसंज्ञिपर्यवसानेष्वपर्याप्तेषु पञ्चसु 'पढमगुणे ति प्रथमे मिथ्यात्वसास्वादनरूपे गुणस्थाने भवतः / नवप्रथमगुणस्थानमेतेषु प्रतीतम् . द्वितीयं तु करणापर्याप्तबादरैकेन्द्रियादिषु बद्धायुषः संक्षिपञ्चेन्द्रियस्य पर्यन्त औपशमिकसम्यक्त्वमवाप्य तदैव वमतो मिथ्यात्वं चाऽप्राप्नुवतस्तेष्वे. वोत्पद्यमानस्य जघन्यतः समयमुत्कृष्टः पडावलिका भवतीति कार्मग्रन्थिकमतम् / यत्तु उभवा (या)भावो पुढवाइएसु" इति वचनात्तु सम्यक्त्वश्रुतादिसामायिकानामुभयस्य पूर्वप्रतिपन्नप्रति पद्यमानरूपस्यैकेन्द्रियेष्वन्तर्भाव इति सिद्धान्तमतम् / तदिह नाश्रितमिति 'नेगिंदिसु सासाणोत्ती' ति स्वयमेव वक्ष्यति / 'सन्निअपजत्ते' ति अत्र मिथ्यादृष्टिसास्वादने पूर्ववत् , अविरतसम्यगदृष्टिगुणस्थानसद्भावस्तु कस्यचिदप्रतिपतितसम्यक्त्वस्य करणापर्याप्तसंज्ञियूत्पद्यमानस्य / 'सव्वे समित्ति सर्वाणि चतुर्दशाऽपि संजिनि पर्याप्त प्राप्यन्ते, नानाजीवानपेक्ष्य सयोगिनि च संज्ञीति व्यवहारो द्रव्यमनोऽपेक्षया, अयोगिनि तु भूतपूर्वमनो-ऽपेक्षया / सेसे 'स्विति उक्तातिरिकनेषु सप्तसु पर्याप्तापर्याप्त सूक्ष्मैकेन्द्रिये वादरैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंक्षिपञ्चेन्द्रियेषु तु पर्याप्तेष्वित्यर्थ // 4-5 // अर्थतेष्वेव जीवस्थानेषु [प्रयोगान्योजयमाह जोगा लसु अप्पज्जत्तएसु कम्मइगउरलमिस्सा दो। वेउब्बियमीसजुया सनिअपजत्तए तिनि // 6 // (यशो०) षट्सु अपर्याप्तेषु (अ)पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियवर्जेषु योगी कार्मणौदारिकमिश्रौ / तत्रैतेषामृजुगतिविग्रहग[तिउ](त्यु)त्पतिप्रथमसमयवर्तिनों काणकाययोगः / उत्पत्तिप्रथमसमयादपरसमयगताना पर्याप्तरसमर्थयमानानामौदारिक मिश्रं कामणेन यत्र तत्तथा, तद्भवति / तावेव पूर्वोक्तौ वैक्रियं मित्रं कार्मणेन यत्र तत्तथा, तेन युती सहिताविति त्रयो योगाः संझिन्यपर्याप्ते भवन्ति / तत्र वैक्रियमिश्रयोगोऽस्य देवनारकेषत्पद्यमानस्य बोद्धव्यः // 6 // अथाद्यार्द्धन मतान्तरमाह बिंति अपजत्ताण वि तणुपजत्ताण केइ ओरालं। (यशो.)इह सूत्रकृदङ्गत्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे भाहारपरिज्ञाख्यतृतीयाध्ययने ओया. हारा जीव सव्वे अपजत्तगेति नियुक्किंगाथायां पय प्तकास्तु इन्द्रियादिभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तकः केषा Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे श्चिन्मतेन शरीरपर्याप्त्या वा पर्याप्तका गृह्यन्त” इति विवृत्तिः। ततः शरीरपर्याप्त्यापि पर्याप्ताः पर्याप्ता उच्यन्ते / तेनेन्द्रियादिपर्याप्तीरपेक्ष्याऽपर्याप्तानां शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तानामौदारिककाययोगं केचिदाचक्षते / तथा चाऽऽचाराङ्गस्य लोकविषयाख्यद्वितीयाध्ययनप्रथमोई शके पञ्चदशभेदमनोवाकायलक्षणप्रयोगकर्मविचारे “औदारिककाययोगास्तियंग्मनुष्योः शरीरपर्याप्तरूद्ध" मिति विवरणम् / नत्येवं सुरनारकाणां वैक्रियकाययोगः कथं नेष्यते ? / पर्याप्ता हि द्विधा, लब्धितः करणतथ / ततस्तत्र [कृता?]लब्ध्यपर्याप्तानामौदारिकः काययोगो विवक्षितः, लब्ध्यपर्याप्तास्तु देवनारका न भवन्तीति तेषां वैक्रिययोगाऽप्रसङगः / करणापर्याप्तानां सुरनारकागां वैक्रियकाययोगो नरतिरश्वां च औदारिककाययोगो न विवक्षित इति / "बित्ति अपजत्ताण वि" इत्यौदारिकस्यैवोक्तेरेवानुमीयते / अथवा वैक्रियशरीरिणः शरीरपर्याप्तिरान्तमौह तिकी, शेषाः पश्च सामायिक्य इति / संज्ञिनोऽपर्याप्तकस्य स्वल्पकालत्वेन वैक्रियं न विवक्षितमिति / लब्धितः करणतश्च पर्याप्तापर्याप्तयोरयं विशेषः-यः स्वपर्याप्तीरसमाप्य म्रियते स लब्ध्यपर्याप्तः / स च 'आइतिए न त्थ. अपज्जत्तो' इति वचनादाद्यं पर्याप्तित्रिकं समाप्यैव म्रियेत इति दृश्यम् / यस्मादागामिभवायुष्कं बद्ध्व म्रियते / तच समापिताद्यपयोतित्रिकेणैव बध्यते, यत औदारिकवैक्रियाहारककाययोगे विशिष्टे परभवायुर्वन्धः / तद्विशिष्टता च न शरीरपर्याप्त्यैव किन्तु शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यां पर्याप्तस्य, अन्यथैकेन्द्रियादिव्यपदेशस्याप्यभावप्रसङ्गः / तद्विपरीतो लब्धिपर्याप्तः / यः पुनरुच्छवासादिकाः स्वस्वविषयेषु परिणमनं प्रतिसाधकतमत्वेन करणापरपर्यायाः पर्याप्ती द्यापि पूरयति परं पूरयिष्यति स करणापर्याप्तः / यः पूरेतनिजपर्याप्तिः स करणपर्याप्तः / तत्र सुरनारकासंख्यातवर्षापुर्नरतिर्यगुत्तमपुरुषचरिमशरीरिणो लब्धितः पर्याप्ता एव भवन्ति,निरूपक्रमायुष्कत्वेनापर्याप्तदशायां मरणाभावात् / निरूपक्रमसोपक्रमायुष्कता चैवम्-यदा जन्तुः स्वायुषस्त्रिभागे त्रिभागत्रिभागे वा जघन्यत एकेन द्वाभ्याश्च, उत्कृष्टतः सप्तभिरष्टाभिर्वा करायुःकर्माण ग्रहणरूपरन्तमुहूर्तप्रमाणेन कालेन जीवप्रदेशरचनानाडिकान्तवर्तिन आयुःकर्मवर्गणापुद्गलान्विशिष्टवीर्ये ग करोति, तदा निरूपक्रमायुर्भवति / अन्यदा तु सोपकमायुष्क इत्या.ऽऽचारटीका / आयुषि सप्तभिरष्टाभिर्वाकर्गवामिव मरुषु जगलं दूषग्रहणरूपैर्यत्पुद्गलोपादानं तदतिदृढमित्यपवर्तयितुमशक्यतया निरुपक्रममुच्यते / यत्तु पद्भिः पञ्चभिचतुर्भिर्वा आगृहीतं दलिऊं तदपवर्त्तनाकरणेनोपक्रम्यत इति सोपक्रममिति बृहदुत्तराध्ययनटोकेति / करणतस्त्वमौ उभयथापि स्युः / अत्र संग्रहगाथा:"सो लद्धिअपजत्तो जो मरइ अपूरिउ अपज्जत्तो लद्धिपजत्तो सो पुण जो मरई ताउ पूरित्ता // 1 // नजवि पूरेइ परं पूरिस्सइ स इह करणअपजत्तो। सो पुग करणपजत्तो जेणं ता पूरया हुन्ति // 2 // रइयसुरासंखाउतिरियनरचरिमतणुपवरपुरिसा / लद्धिाजत्ता नियमा करणेणं हुन्ति हुविहा वि // 3 // " Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु योगा उपयोगाश्च इत्यलम् / बायरपजत्ते तिन्नि उरलवेउब्वियदुगं च // 7 // (यशो०) बादरपर्याप्तैकेन्द्रियस्य पृथिव्यादेरौदारिककायये गः / वैक्रियो वैक्रियमिश्रश्च बादरपर्याप्तवायुकायिकं प्रतीत्य / तथाहि-अस्य वैक्रियलब्धिमतो वैक्रियः, क्रियारम्भत्यागकालयोरौदारिकेण मिश्रो वैक्रियो वैक्रियमिश्रः, स च योगः प्राप्यते / अत्रौदारिकवैक्रिययोमिश्रतायां समायामपि प्रारम्भकाले प्रारभ्यमाणत्वेन त्यागकाले च बहुव्यापारत्वेन वैक्रियस्य प्राधान्याद्वैक्रियमिश्र इति व्यपदेशो, न त्वौदारिकमिश्र इति / 'विउव्वगाहारगे उरलमिस्स' मिति वक्ष्यमाणोक्तेः / अन्ये तु वायोक्रियारम्भकाले वैक्रियेण मिश्र औदारिकमिश्र इति व्यप दिशन्ति / बहुव्यापारत्वेनौदारिकस्य प्राधान्यविवक्षया / / / अथाद्याढेन योगान्समर्थयन् जीवस्थानेष्वेवोपयोगानाह उरलं सुहुमे चउसु य भासजुयं पनरसा वि सन्निभि / उवओगा दससु तओ अचक्खुदंसणमनाणदुगं // 8 // (यशो०) पजत्त' इति प्रागुक्तानुवृत्या सूक्ष्मे पर्याप्त औदारिकः, चतुर्यु च द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तेषु भाषयाऽसत्यामृषारूपया युक्त औदारिकः, चः पुनरर्थत्वात् संज्ञिनि पर्याप्ते पुनः पञ्चदश चतुर्विधमनश्चतुर्विधवाक्सप्तविधकायरूपा योगाः / तत्र वैक्रियमिश्रो गर्भजतिर्यग्मनुष्ययोर्लब्धिमतो_क्रियस्या-ऽऽरम्भकाले त्यागकाले च / लब्धिपर्याप्तस्य च पर्याप्तग्रहणेन ग्रहणादुत्पद्यमानयोरपर्याप्तयोदेवनारकयोरपि वैक्रियस्यारम्भकाले पर्याप्तयोस्तूभयोरुत्तरक्रियारम्भकाले च वैक्रियमिश्रः ।आहारकमिश्रस्तु लब्धिमतां संयतानामाहारकस्यारम्भकाले त्यागकाले च मन्तव्यः। अन्ये तु तिर्यग्मनुष्ययोक्रियस्यारम्भकाले,संयतानामा ऽऽहारकस्यारम्भकाले / केचित्तु तयोः त्यागकाले औदारिकमिश्रमिति मन्यन्ते / औदारिकमिश्रस्तु केवलिसमुद्धाते सप्तमषष्ठ-द्वितीयसमयेषु / कार्मणयोगः पुनस्तत्रैव चतुर्थ-पञ्चमतृतीयसमयेषु द्रष्टव्यः / शेषयोगास्तु सुझाना एव / 'तओ' इति त्रय उपयोगा दशसु पर्याप्तापर्याप्तेषु सूक्ष्मवादरैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियेषु अपर्याप्तयोस्तु चतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रिययोः त्रय इति व्याचष्टे। 'अचक्खुदंसणमनाणदुग' मिति अचक्षुषा-चक्षुर्वर्जेन्द्रियैर्दर्शनं सामान्यांशग्राही बोधोऽचक्षुर्दर्शनं पर्याप्तेषु इन्द्रियानाश्रितसामान्योपयोगमात्ररूपं चापर्याप्तेषु। अज्ञानद्विकं मत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपम् / तत्रास्य द्विकस्य द्वीन्द्रियादिषु सद्भावः सूपपादः / एकेन्द्रियेषु स्पर्शनावरणक्षयोपशमसमुत्थाया मतेर्भाषाश्रोतेन्द्रियलन्ध्यमावेपि भावेन्द्रियप्रसूतस्यानभिव्यक्तशब्दार्थोल्लेखोपप्लावितोपलब्धिरूपस्य Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्ये कस्यापि श्रुतस्य च सद्भावः / बुद्वेदनीयप्रादुर्भूताहाराभिलाषात्मकाहारसंज्ञाया इव मतेः श्रुतस्य च मिथ्यात्वाकान्तत्वादज्ञानता / / 8 / / चक्खुजुया चरिंदियअसन्नि पजत्तएसु ते चउरो। मणनाणचक्खुकेवलदुगरहिया सनिअपजत्ते // 9 // (यशो ) असमीति लुप्तसप्त नीबहुवचनातं पर्याप्तेष्विति प्रत्येकं सम्बध्यते. ततस्ते पूर्वोक्तास्त्रयश्चक्षुर्दर्शनयुक्ताश्चत्वारः पर्याप्तेषु चतुरिन्द्रियेष्वसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु च योगाः / संज्ञिन्यपर्याप्ते पुनरष्टौ / तथाहि-ज्ञानत्रिकमवधिदर्शनं करणापर्याप्तस्याविरतसम्यग्दृशो विभङ्गस्तु मिध्यादृशः, नवरं मनुष्यस्य विभास्तिरश्वश्वावधिविभडगो न स्तः, प्रज्ञापनादिषु प्रतिषिद्धत्वात् : तिर्यक्षु हि विभङ्गावभ्योः प्रतिपतितयोरेवोत्पत्तिः, मनुष्येषु तु विभङ्गे प्रतिपतित एव, अवधौ तु सत्यपि तीर्थकरवत् , मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं च लब्धितः करणतश्चापर्याप्तस्य मिध्यादृशः, अचक्षुर्दर्शनं लन्धितः करणतश्चापर्याप्तयोः सम्यग्मिथ्यादृशोर्भवतीत्यत एवाह-'मणानाणे'त्यादि / / / / अथ प्रथमपादेनोपयोगान समर्थयन् लेश्या दर्शयन्नाह सव्वे सन्निसु एत्तो लेसाओ छावि दुविहमनिमि / चउरो पढमा बायरअपजत्ते तिनि सेसेसु // 10 // (यशो• संज्ञियु पारिशे यात्पर्याप्तेषु सर्वे द्वादश मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानमत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गच रचक्षुरवधि केवलदर्शनरूपा उपयोगा भवन्ति इति / उपयोगानन्तरं लेश्या अक्ष्यन्त इति शेषः / ताश्च दिविधे पयोप्ता-ऽपर्याप्तलक्षणे संझिनि षडपि कृष्णनीलकापोती तेजसीपनाशुक्लाभिधाः / बादरापर्याप्तलक्षणे जीवस्थाने प्रथमावतस्त्रस्तिस्रः प्रतीतास्तैजस्यास्तु सदभावः पुढवीभाउवणस्सई'त्यादिवचनाऽविशिष्ठत्वेऽपि जघन्यायुर्देवेभ्य ईशानान्तेभ्यश्च य त्वा जयन्यस्थितिरहितस्थितिकेषु शुभपृथिव्युदकाप्रशस्तपलाशादिशेषप्रशस्तोत्पलादिवनस्पतिवृत्पद्यमाने करणापर्याप्ते / अत्रापि 'प्रथमा' इति सम्बन्धात्तिस्रः प्रथमाः शेषेषु-द्विविधसंज्ञिवादरापर्याप्तवर्जितेष्वेकादशसु // 10 // अथ जीवस्थाने व बन्धोदयोदीरणासत्ताख्यं स्थानचतुष्टयमाह सत्तऽट अट्ट सत्तऽट अह बन्धुदउदीरणासंता / तेरमसु जीवठाणेसु सन्निपज्जत्तए ओवो // 11 // (यशो०) सप्ताष्टौ च अष्टौ च सप्ताष्टौच अष्टौ चेति संख्यानि यथाक्रमं 'सन्ते' ति भावप्रधानलानिर्देशस्य बन्धोदयोदीरणासत्तारूपाणि स्थानानि भवन्तीतिशेषः / उदयादीनां बन्धाधीनत्वा Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषूपयोगा लेश्या बन्धोदयोदीरणासत्तास्थानानि च / / दादौ चन्धस्य, ततो बन्धस्वरूपाच्युते हेतुत्वेन बन्धप्रतिपक्षत्वादुदयोदीरणयोः, तत्राप्युदयविशेष एवोदीरणेत्युदयानन्तरमुदीरणायाः, ततो बन्धस्वरूपप्रच्युतेरहेतुत्वेनोदयोदीरणयोः प्रतिपक्षत्वा सत्तायाः स्थानानीत्ययमेव बन्धादीनां क्रमः / इह च बन्धादीनां प्रत्येकमेकप्रकारत्वेपि सप्ताष्टा दिमूलकर्मापेक्षया सप्ताष्टादिसंख्यात्वम् / तत्र ज्ञानावरणदर्शनावरण वेदनीयमोहनीयनामगोत्रान्तरायात्मनां सप्तानामायुर्युक्तानामष्टानां कर्मणां बन्धः, एवमुदीरणापि, उदय सत्ते त्वष्टानामेवेति त्रयोदशसु जीवस्थानेषु / संज्ञिनि तु पर्याप्त ओघः सामान्यं बन्धादीनाम् , विशेषन्तु गुणस्थानकविशेषापेक्षया "सनहछेगवन्धे" त्यादिना वक्ष्यति / स चैवं सुखार्थ किश्चिदिहापि दर्श्यते / / अद्वैव य सत्ताउगरहिया छम्मोहाउयविउत्ता / सायं एगं एयं च उरो ठाणाणि बन्धप्स // 1 // भड सत्त मोहरहिया चउरो वेज्जाउनामगोयाणि / 'वेज'तिवेदनीयं। सत्ताए उदएवि ठाणाणि य पत्तेयं / / 2 / / अड सत्ता-ऽऽउविणा-ऽणाउवेज छप्पण अमोहविजाऊ दो नामं गोयं तह इय पंच उईरणाट्ठाणा / / 3 / / 'अगाउने ति आयुर्वेदनीयरहितानि षट् / बन्धादीनां स्वरूपमिदम्-निरन्तरं पुद्गलपरिपूर्णलोके कर्मवर्गणानुगुणानामणूनामात्मनश्च वह्नययस्पिण्डवत्परस्परमभेदेनेव मिथ्यात्वादितुभिः सम्बन्धो बन्धः / तेषामेव यथास्वस्थितिबद्धानां करणविशेषनिम्मिते स्वाभाविक बाऽनाधाकालक्षयरूपे स्थित्यपचये सत्युदयसमयमायातानां विपाकवेदनमुदयः / तेषामेवानागतफलानां करगविशेषनिर्वर्तिते स्थित्यपचये सत्युदयाऽऽवालिकायां प्रवेशनमुदीरणा / बन्धसंक्रमाभ्यां लब्धात्मलाभानां कर्मणां निर्जरणसंक्रमकृतस्वरूपप्रच्युत्यभावे सद्भावः सत्ता / अत्र संग्रहगाथाःबीबस्स पोग्गलाण य जोगाण परोपरं अभेएणं / मिच्छाइहेउविहिया जा घडणा एत्थ सो बन्धो // 1 // करणेण सहावेण च ठियवचए तेसिमुदयात्ताणं / जं वेयणं विवागणं सो उदओ जिणाभिहिओ // 2 // कम्माणूणं जाए करणविसेसेण ठियपचयभावे / जं उदयावलियाए पवेसणमुदीरणा सेह // 3 // बंधणसंकमलद्वत्तलाहकम्मस्स रूवअविणासे / निजरणसंकमेहिं सन्मावो जो य सा सत्ता // 4 // 'कर गेजति सूचितानि करणान्यमूनिबन्धणसंकमणुव्वट्टणा य अववट्टणा उईरणया। उवसामणा निहत्ती निकायणा चत्ति करणाई // 1 // अस्या व्याख्या- बन्धनकरणं बन्ध एव / पगिइठिहरसपएसाणमन्नकम्मत्तणेण ठवियाणं / जं अन्न कम्मरूवत्तठावणं संकमो एसो // 1 // तं उव्वट्टणकरणं जं ठिइरसवुड्डियपडियपडुत्तं। ठिहरसहस्सीकरणं करणं अवत्तणं जाण // 2 // उदीरणोक्तैव / उदयनिहित्तिनिकायणउदीरणाणं अजोग्गयत्तेणं / कम्माणं जं ठावणमुवसमणा सा विणिहिट्ठा // 3 // एवढणापवत्राणियरकरणाजोग्गयाएँ कम्माणं / संठावणं निहत्ती निकायणा करणणुवियसं // 4 // सर्वकरणायोग्यमित्यर्थः // 11 // Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे जीवस्थानेषु गुणस्थानादीन्यष्टौ पदान्युक्तानि जीवस्थानगुणस्थानादीनामन्वेषणारूपाया मार्गणायाः स्थानानि मार्गणास्थानानि मूलभेदापेक्षया चतुर्दशसंख्यान्याह___एत्तो गइइंदियकाय जोयवेए कमायनाणे य / संजमदंमणलेसा भवसम्मे सन्निआहारे // 12 // (यशो०) एत्तो-जीवस्थानाद्यनन्तरम् , अत्र गतयश्चेन्द्रियाणि चेत्यादिः ‘सुरनरतिरिनरयगई' . इत्यादिविभागानुसारेण विग्रहे यथासम्भवं समाहारद्वन्द्वः, एन्वन्तु सर्वत्र प्राकृतप्रभवम् / तत्र गम्यन्ते स्वपरिगामनिर्मितकर्मपाशावनडेजन्तुभिरिति गतयः / इन्द्रस्याऽऽत्मनो लिङ्गानीन्द्रियाणि / अत्राश्रितेनेन्द्रि येणाश्रयमुपलक्षयता इन्द्रि यवन्त उत्ता भवन्ति, तथा च 'इगविती' त्यादिना विभागेन सहाविर धः / एवमन्यत्रापि यथासम्भवं व्याख्येयम् / चीयन्त इति कायाः पृथिव्यादयः / कायशब्दश्चात्र शरीर इव पृथिव्यादिजीवनिचये वर्त्तते, चयसाधात् / युज्यतेधावनादिक्रियासु व्यापार्यते जीव एभिरिति, युज्यन्ते = संबध्यन्ते धावनादिक्रिययाऽसुमन्त एभिरिति वा योगाः / वेद्यन्ते = आद्यभिल पोत्पादकत्वेनानुभूयन्त इति वेदाश्चारित्रमोहनीया. न्तर्गतकर्मदलिकनिकायविशेषाः / कष्यन्ते = नरकादिस्थानेषु देहिनोऽनेनेति कप-कर्म, कष्यन्ते प्राणिनः परस्परमस्मिन्निति कषः संसारो वा, तदेव, स एव वा, आयो = लाभो येभ्य इति वा. कषमयन्ते गच्छन्त्येभिरिति वा कषायाः / ज्ञायन्ते-निर्णीयन्ते सामान्यविशेषात्मकानि वस्तूनि विशेषरूपत्वेनैभिरिति ज्ञानानि / सं-सम्यग् यम्यते-निवर्त्यते जन्तुर्जन्तुघातादिम्य एभिरिति संयमाः / दृश्यते सामान्यविशेषाध्यासितं वस्तुसामान्यरूपतयेभिरिति दर्शनानि / लिश्यति = श्लिष्यति कर्मणा प्राणी आभिरिति लेश्याः सकलकर्मनिस्यन्दभूतकृष्णनीलादिद्रव्यसच्चिवस्य जीवस्य शुभा अशुभाश्च परिणामविशेषाः। मुक्तिपर्यायेण भविष्यन्तीति त्रैकालिकेऽच्प्रत्यये भवाः भव्याः / जीवादितत्त्वश्रद्धानेन सम्यगश्चन्ति-प्रवर्तन्ते सम्यत्रसम्यगद्दशस्तेषां भावाः सम्यक्त्वानि-जीवादितत्त्वश्रद्धानपरिणामाः / इदं कृतमिदं करोमीदं करिष्यामीत्यादिदीर्घकालत्रयविषयविशिष्टमनोव्यापारवती दीर्घकालिक्यभिधाना संज्ञाऽस्याऽस्तीति संज्ञी। ओजोलोमप्रक्षेपभेदात् त्रिविधमाहारं यर्थासम्भवमाहारयन्तीत्याहास्काः // 12 // सुरनरतिरिनरयगई 'इगिबितियधरिदिया य पंचेंदी। पुढवी आऊ तेऊ वाऊ सुइतसी काया // 13 // (यशो०) उतानार्था / नवरं भवपश्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकस्वरूपाः सुराः / सम्मूछिमा गर्भजाश्च प्रतीता नराः / एकद्वित्रिसन्द्रियाः सम्मूर्च्छजमनुष्यव्यतिरिक्ता असंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः "व३” इत्यपि पाठः / पाचोरइत्यपि / NA Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलोत्तरभेदभिन्नानि मार्गणास्थान कानि [ 11 संज्ञिपञ्बेन्द्रियाश्च मीनमहिष्याइयस्तियश्चः / निग्याः नरकाबासास्तत्रोल्पना अपि जन्तयो निरयाः / सुर रादिषु विषये गतिः सुरनरादिशब्दव्यपदेश्यपर्यायनिवन्धनम् / अत्र प्रायः प्रकृष्टसुखस्य च्यवनेाविषादादेरीपदसुखस्य चाऽऽधारतया प्रथमं सुराणाम् , प्रायोल्पसुखस्य बहो न्ध-वध-परिभव-गोत्पत्ति-जरा-रुगादेरसुखस्य चाऽऽधारतया तदनु नराणाम्, प्रायोल्पसुखस्य बहुतरस्य शीतवातातपपारतन्त्र्यादेरसुखस्य चाऽऽस्पदतया ततस्तिरश्वाम् , परमाधार्मिकपरस्परोदीरणक्षेत्रप्रत्ययबहुतमकेवलासुखनिकेतनतया तदनन्तरं नारकाणां गतिरुक्ता / सर्वदैवातिती. वाज्ञानोदयाद्याधारतया प्रागेकेन्द्रियास्तदपेक्षयोत्तरोत्तरविशिष्टक्षयोपशमसमर्पिताधिकाधिककरणोपहितज्ञानभाक्त्वेन क्रमेण द्वीन्द्रियाद्याः पञ्वेन्द्रियान्ता निर्दिष्टाः / एकेन्द्रियादिव्य पदेशश्वामीषां यथोत्तरं प्रवर्द्धमानमतिज्ञानावरणक्षयोपशमाविर्भूतस्यैकेन्द्रियादिजातिनामको. दयनियमितक्रमस्य पर्याप्तकनामकर्मादिसामर्थ्यसिद्धस्य द्रव्यभावरूपस्पर्शनादेरेकद्वयादीन्द्रिय स्य भाजनस्वात् / प्रायोवादीनां धरणस्खलनादिक्षमाशिथिलावयवतया प्रथमं पृथिवीकायस्य, ततः शिथिलावयवतया तद्विपक्षस्या-ऽकायस्य, ततस्तद्विरोधित्वेन तेजस्कायस्य, ततस्तदुपहकत्वेन वायोस्ततस्तत्साद्गुण्यवैगुण्यानुसारिणीवनरपतेः साद्गुण्यवैगुण्य इति वनस्पतिकायस्याथ शकलपृथिवीकायाद्युपभोगयोग्यत्वेन त्रसकायस्य निर्देशः / / 13 / / / मण'वयकाया जोगा इत्थी पुरिसो नपुंसगो वेया। कोहो माणो माया लोभी चउरो कसायत्ति // 14 // (यशो०) काययोगेन मनोयोग्यवर्गणाभ्यो गृहीत्वा मनोरूपेण परिणमितानि वस्तुचिन्ताप्राकानि द्रव्याणि मन इत्युच्यते / तेन सहकारिणा तद्विपयो वा योगो मनोयोगः। उच्यत इति वा भाषापरिणतिमापन्नः पुद्गलसमूहस्तया सहकारिण्या तद्विषयो वा योगो वाग्योगः / चीयत इति काय औदारिकादिस्तेन सहकारिणा तद्विषयो वा योगः काययोगः / तत्र स्तोकाधारतया प्रथमं मनोयोगस्य, तदपेक्षया वह्याश्रयतया वाग्योगस्य, तदपेक्षयाऽतिबह्याश्रयतया तत्पृष्ठे काययोगस्योपन्यासः / यदुदये स्त्रियाः पुंस्यभिलाषः स फुफकाग्निसमानः स्त्रीवेदः / यदुदये पुसः स्त्रियामभिलाप[स्त्रि](स्त)णाग्निज्वालातुल्यः स पुवेदः। यदुदये नपुंसकस्य स्त्रीपुसयोरभिलाषः स महानगरदवाग्निसमो नपुसकवेदः / तत्र पुरुषवेदापेक्षया बमाश्रितत्वादादौ स्त्रीवेदः, ततः पुरुषवेदः, स्त्री-पुरुषोभयाभिलाषित्वेनातिसंक्लिष्टतया तयोरन्ते नपुंसकवेदः / क्रोधोऽक्षान्तिस्वरूपो मानो-वों जात्याधुद्भवममार्दवं माया-बचनाघात्मिका परिणतिलोभो-संतोषात्मको गाग्रंपरिणामः सर्वानुगामित्वादादौ क्रोधस्य तदनु 1 "वह" इत्यपि पाठः / Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] पडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे तत्संबद्धत्वान्मानस्य, लोभार्थ मायोपादीयत इति ततो लोभकारणत्वान्मायायाः, ततस्तत्कार्यवात्सर्वदोषाश्रयत्वात्सर्वगुरुत्वात्सर्वोपरिक्षपणक्रमाद्वा लोभस्योपादानम् / 'कसायत्ति' इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः // 14 // मइसुयओहीमणके बलाणि मइसुयअनाणविभंगा। सामइयछेयपरिहा-रमुहुमअहखायदेसजयअजया // 15 // (यशो०) “पदैकदेशे पदसमुदाय” इति न्यायान्मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनःपर्यायज्ञानकेवलज्ञानानीति मन्तव्यम् / एवं च्छेदादिष्वपि / योम्यदेशस्थितस्यार्थस्येन्द्रियाण्याश्रित्य मननं मतिस्तद्रूपं ज्ञानम् , श्रवणं श्रुतं शब्दसंपृक्तार्थप्रत्ययः, यदि वा श्रूयत इति श्रुतं-शद्वस्तत्पुनर्ज्ञानं कारणे कार्योपचारद्वारा / अवधानम् इन्द्रियाद्यनपेक्षतयात्मनः साक्षात्कारेण वस्तुग्रहणम् , यदि वाऽवधि-मर्यादा तेन रूपिद्रव्यमर्यादात्मकेन यज्ञानमुत्पद्यते तदप्युपचारादवधिः / मनसा पर्याया-श्चिन्तनानुगुणाः परिणामास्तेषु ज्ञानम् , अथवा मनांसि पर्येति सर्वात्मना जानातीति कर्मण्यणि मनःपर्यायम् , तच्च तज्ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् , एतेषां च ज्ञानानां यथास्वमन्यत्र भेदा उक्ता अपि प्रस्तुताटुपयोगित्वान्नेहोच्यन्ते / केवलं तद्भावे शेषज्ञानाभावादेकमित्यर्थः, तच्च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानमिति ज्ञानानि पञ्च / इह स्वामि-काल-कारण-विषय-परोक्षत्व-साधातद्भावे च शेषज्ञानसभावादादावेव मति-श्रुतयोरुपन्यासः / तत्र स्वामी मतिश्रुतयोरेकः / काल: स्थितिकालः प्रवाहापेक्षयाऽतीतादिः सर्वे एव / अप्रतिपतितेकजीवापेक्षयोत्कृष्टतः पट्षष्ठिसागरोपमाण्यधिकानि / कारणं तत्रापि मतिपूर्वकत्वान्मतिभेदत्वाद्वा श्रुतस्य प्रथमं मतेस्ततः श्रुतस्य / ततो जीवस्य साक्षात्कारेण व्याप्रियमाणत्वेन विशिष्टत्वात्कालविपर्ययस्वामिलाभसाधाद्वाद्यज्ञानद्वयानन्तरमवधेग्रहः / तथाहि-य एव मतिश्रुतयोरुक्तः कालः स एवावधेः / यथा च मतिश्रुतयोविपक्षेऽज्ञाने, तथास्य विभङ्गः / य एव च तयोः स्वामी स एवास्यापि / तथा विभङ्गज्ञानिनः सुरादेः सम्यक्त्वावाप्तौ युगपदेव मतिश्रुतावधिज्ञानानां लाभः / ततो विशुद्धचारित्रसव्यपेक्षत्वेनातिविशिष्टत्वान्मनःपर्यायस्य / एभ्यः सर्वेभ्य उत्कृष्टत्वादन्ते केवलग्रहणम् , आद्यज्ञानत्रयविपक्षभूतानि नाण'इत्युद्देशसूचितानि मत्यज्ञानादीनि तु त्रीण्यज्ञानानि / तत्र मतिज्ञानमपि मिथ्यादृशो नञः कुत्सार्थत्वान्मिथ्यात्वसंचलितत्वेन कुत्सितं ज्ञानं मत्यज्ञानम् / एवमस्य श्रुतज्ञानमपि श्रुताज्ञानम् / एवमस्यावधिज्ञानमपि / विविधो विरूपो वा सम्यग्ज्ञानवैदृश्येन भगः परिच्छेदप्रकाशोऽस्मादिति विभङ्गस्तद्रूपं ज्ञानं विभङ्गज्ञानमुच्यते / अत्र विभङ्गध्वनिनैव कुत्साया गमित्वान ज्ञानशब्दो नना विशेषितः / एषामपि क्रमकारणमाद्यज्ञानत्रयवद्विज्ञेयः / सामायिकादयः पञ्च संयमाः। तत्र समोरागद्वेषरहितस्य ज्ञानादीनामायो लाभः समायः, स एव सामायिकं चारित्राचारकर्मक्षयोपशमसमुत्थः सर्वविरतिरूपो जीवपरिणतिविशेष Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थान.तारभेदानि स्तत्पश्चविधमपि सामान्यतः सामायिकमुच्यते / केवलं यच्छेदोपस्थापनीया.दभेदोपसेवितं तत्तैरेवभेदेरौचित्येन निगद्यते / यत्तूक्तभेदवन्ध्यं तत्सामान्येन सामायिकमुच्यते / तच्च द्वैधमल्पकालिक यावर्जीविकं च, तत्राद्यं भरतेरावते वादिमान्तिमतीर्थकरतीर्थेष्वनारोपितमहाव्रतस्य, द्वितीयं तु मध्यमतीर्थकरतीर्थवर्तिनां विदेहतीर्थान्तर्वतिनां च / छेदोपस्थापनात्मिकाया[या] उपस्थापनाया [स](अ)भावाद्विज्ञेयम् / प्राचीनपर्यायच्छेदाच्छेदश्च महाव्रतेपूपस्थापनं चात्मनो यत्र तच्छेदोपस्थापनम् / तत्सातिचारमितरच्च / तत्र सातिचारं मूलगुणघातिनः पुनव्र तारोपरूपम् / इतरनिरतिचारमल्पकालिक.सामायिकस्य व्रतारोपणात्मकम् ,तीथात्तीर्थान्तरसंक्रमे वा चतुर्यामधर्मात पञ्चयामधर्माभ्युपगम इति / परिहारेण तपोविशेषण विशुद्धिर्यत्र तत्परिहारविशुद्धिकम् / तद्विविधम् / ' निर्विशमानकं निविष्टकायिकं च / तत्र निर्विशमानकांस्तदा सेवकाः परिहारिकास्तदभेदात्तदपि निर्विशमानकम् / निविष्ट आसेवितप्रस्तुतचारित्रः कायो येषां ते स्वार्थिकेकाण निविष्टकायिका अनुपारिहारिकाः। कल्पस्थितश्च कृतप्रस्तुततपसस्तदभेदाचारित्रमपि निर्विष्टकायिकम् / तत्र चत्वारो यतयः पारिहारिका अनुपारिहारिकाश्चत्वारः कल्पस्थितस्तु वाचनाचार्य एक इति नवको गणः / प्रथमसंहननो जन्मत आरम्य जघन्यत एकोनत्रिंशद्वर्षो यतित्वमाश्रित्य विंशतिवर्ष उभयमनुश्रुत्योत्कृष्टतो देशोनपूर्वकोटिको गणगणनाश्रयणेन जघन्यतस्त्रिसंख्य उत्कृष्टतः शतशः पुरुषापेक्षया सप्तविंशतिसंख्यपुरुषा उत्कृष्टतः सहस्त्रशो जघन्यतोप्यवगाढनवमपूर्वतृतीयाचाराभिधानवस्त्ववसानदृष्टिवाद उत्कृष्टतोऽपरिपूर्णदशपूर्वो गच्छानिर्गत्य तीर्थकरस्य सन्निधानासेविततत्तपसो वा सन्निधौ ग्रीष्भे जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदतो यथाक्रमं चतुर्थपष्टाष्टमान्तं शिशिर षष्ठाठमदशमान्तं वर्षास्वष्टमदशमद्वादशमान्तं संसृष्टा-ऽसंसृष्टवर्जितोद्धताल्पलेपावगृहीता भिक्षाग्रहभक्तपानात्मकभिक्षाद्वयाभिग्रहपवित्राचामाम्लपारणकं पारिहारिकानुपारिहारिककल्पस्थितापेक्षया प्रत्येकं पाण्मासावधि समुदितापेक्षयाष्टादशमासावसानमेतत्तपः प्रतिपद्यते / परं प्रथमं पारिहारिक स्ततोऽनुपारिहारिकैः प्रतिपन्नपारिहारिकैः ‘भावरस्मिस्तपसि पूर्णतां नीते कल्पस्थित इदंतपः करोति, शेपास्त्वनुपारिहारिककल्पस्थितत्वे प्रतिपद्यन्ते, एतत्तपःसमाप्तौ सर्वेप्यमी पुनरिदमेव जिनकल्पं गच्छं वा समाश्रयन्ति / तत्र ये भूयो गच्छमाना गच्छन्ति त इत्वराः शुद्धपारिहारिकास्तेषां संहरगोपसर्गातकवेदनानामभाव एतत्तपःप्रभावादेव / ये तु जिनकल्पं प्रतिपद्यन्ते ते यावत्कथिकास्तेषां संहरणाइयो भाज्याः। ततश्चैषामुमयेषां चारित्रं परिहारविशुद्धिकम् / सूक्ष्मः किट्टीकतलोभलक्षणः संपरायः कषायो यत्र तत्सूक्ष्मसंपरायम् / इदं च विशुध्यमानकं क्षपकोपशमयश्रेणिद्वयमारोहतो भवति। संक्लिश्यमानकं तूपशमश्रेणितः प्रतिपततः / सर्वकषायेभ्योऽकषायचारित्रं श: भवतीति जिनसमये समाख्यातम् ।ततो यथैवाख्यातं समये तथैव यच्चारित्रं तद्यथाख्यातम् / सर्वथैष कषायोदयशून्यमित्यर्थः / अहक्खायमिति तु 'कगचजतदपयवां प्रायो लुगि' त्यनेन Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे चाहुलकादादिस्थस्यापि यस्य लोपें निर्दिपः, यद्वा 'अहसदो जाहन्थे आङोऽभिविहीऍ कहियमक्खायं। चरणमकसायमुइय तमहक्खाय अहक्खीय' / / मिति च वचनादथशब्दो यथार्थः / ततोऽथैवयथैवाऽकषायतयेत्यर्थः, आ=अभिविधिना-ऽऽख्यात-मुक्तमथाख्यातम् / इदं चोपशान्तमोहक्षीणमोहसयोग्ययोगिकेवलिसम्बन्धितया चतुर्दा / इहच्छेदोपस्थापनीयादिविशेषाविवक्षया सामान्यं सामायिकमादा उत्तरोत्तरविशुद्धाऽऽधारतयाच्छेदोपस्थापनीयादीनि क्रमेणोपन्यस्थानीति संयमाः / स्वामिनस्तु पुलाक-बकुश-प्रतिसेवनाकुटीला आधद्वितीयसंयमयोः, कषायकुशीलोन्त्यबर्जानाम् , निग्रन्थस्नातकावन्त्यस्य / पुलाका श्यातु पुलाकोद्देशकादवसेयाः / संयमविपक्षतया च 'संयमे' त्युदंशम् च ती यमासंयमा ऽसंयमरूपी धर्मे धर्मिणि उपचाराद्देशयतायतावुक्तौ / व्याख्यास्यमानायें ता चोत्कृष्टतया देवयतः प्रथमं निर्दिष्टस्ततोऽयतः // 15 // अच्चाखुबक्खुओही केवलदसणमओ य छल्लेसा / किण्हा नीला काऊ तेऊ पम्हा य सुक्का य // 16 // (यशो.) इह दर्शनशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धादचक्षुर्दर्शनं चक्षुर्दर्शनमित्यादि दृश्यम् / तत्राचक्षुषा-चक्षुर्जेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा च सामान्यविशेषात्मनो वस्तुनः सामान्यांशग्राही बोधोत्पादसमयेऽपि सद्भावेनेन्द्रियानाश्रितसामान्योपयोगमात्रं चाऽचक्षुर्दर्शनम् / चक्षोक्तरूपस्य वस्तुनः सामान्यांशग्रहणात्मकं दर्शनं चक्षुदर्शनम् / अवधिना-रूपिद्रव्यमर्यादयावधिरेव वा करणनिरपेक्षअधिरूपो दर्शनं सामान्यार्थोपादानमवधिदर्शनम् / केवलेन-सम्पूर्णवस्तुतत्त्वग्राहिबोधविशेषरूपेण दर्शनं वस्तुसामान्यांशग्रहणं केवलदर्शनम् / तत्र चाऽचक्षुदर्शनमेकेन्द्रियादीनामपि भवतीत्यविशिष्टत्वात्प्रथममचक्षदेर्शनम् / तत उत्तरोत्तरविशिष्टतया चक्षुर्दर्शनादीन्युक्तानि / अतो लेश्या विभज्यन्त इति शेषः / ताच कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्लद्रव्यसाचिव्योपनीततत्तत्परिणामविशेषोदयासादितकृष्णनीलादिव्यपदेशभाजः षट्, 'मूलं साहपस हा गुच्छफले भूमिपडियमक्खणया। सव्वं माणुसपुरिसे साउहजुझंतधणहरणा / / ' इति गाथोक्तजम्बूखादकग्रामघातकोदाहरणद्वयप्रतीततात्पर्यार्थाः / तत्र प्रकर्षपदप्राताशुद्धिकत्वेन प्रथमं कृष्णां लेश्यामुपदोत्तरोत्तराधिकविशुद्धतयोक्तक्रमेण नीलाकापोताद्याः प्रदर्शिताः // 16 // भव्धअभव्या खउवसम खइय उवसमिय मीस सासाणा / मिच्छो य सन्नसन्नी आहारणहार इय भेया // 17 // (यशो.)भव्या-मुक्त्यहस्तिद्विपक्षतया "भवे''त्युद्देशसचिताश्चा-ऽभव्याः। इह भव्यानां भव्य- . त्वमनादिकालसिद्धमेवमभव्यानामप्यभव्यत्वम् / इदं भन्यत्वमभव्यत्वं चानादिकालसंसिद्धमपि केवलिना प्रत्यक्षसिद्धम् / चर्मचक्षुषामनुमानगम्यम् / लिङ्गं त्विदम्-यः संसारविपक्षं मोक्ष प्रतिप Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानांतरभेदानि तेषु जीवस्थानानि च द्यते तदभिलापं च सस्पृहं वहति, किमहं भव्योऽभव्यो वा, यदि भव्यस्तदा भव्यम् , अथामव्यस्तदा धिग्मामित्यादि चिन्तयति कदाचित्स भव्य इति भव्यत्वस्येति / यस्य नेदृशी चिन्ता कदाचित्सोऽभव्य इत्यभव्यत्वस्येति / मिथ्यात्वमोहनीयस्योदीर्णस्य क्षयादनुदीर्णस्यानुविपाकत उपशान्तत्वात् क्षयोपशमाभ्यां निवृतं क्षायोपशमिकम् / अनन्तानुवन्धिकषायचतुष्टयक्षयपूर्वकेण सम्यक्त्वमिमिथ्यात्वरूपस्य दर्शनत्रिकस्य विशुद्धा-ऽध्यवसायात्सर्वथा दलिकनिलेपनाकरणरूपेण क्षयेण निवृत्तं क्षायिकम् / उदयमायातस्य मिथ्यात्वस्य क्षयेऽनुदीर्णस्य सत्तामात्रवर्तिनः प्रदेशतयाप्युदयविधातरूपेणोपशमेन निवृत्तमौपशमिकम् / तत्र संसारिणां क्षायिकापेक्षया प्रभृतकालभावित्वेनादौ क्षायोपशमिकस्य, ततः क्षायिकस्य, ताभ्यामप्यल्पकालत्वेनौपशमिकस्य पश्चानिर्देश इति सम्यक्त्वानि / एतद्विपक्षतया सम्मे"त्युद्देशमूचितानि मिश्र-सास्वादन-मिथ्यास्वादीनि वक्ष्यमागार्थानि / तत्र मध्यस्थत्वादक्लिष्टतया मिश्रस्य, ततः क्लिष्टतया सास्वादनस्य, ततोऽतिक्लिष्टतया मिथ्यात्वस्य कथनम् / संज्ञिनो व्याकृतार्थास्तद्विपक्षतया चासंज्ञिनः "संज्ञो" ऽत्युदेशसूचिता इति निर्दिष्टाः / आहारका अपि निर्दिष्टार्थास्तद्विपक्षतया वाऽऽ"हारे"त्युद्देशसूचितानामनाहारकागां निर्देशः / इत्येवंरूपा उत्तरभेदा द्वापष्टिमार्गणास्थानानां तेषाञ्च निजनिजस्थानापेक्षया निर्देशकमकारणानि यथामति दर्शितानि सूक्ष्मदृशा त्वन्यथाऽ प्यूह्यानि // 17 // सांप्रत्येतेषु जीवस्थानान्याह सुरनरए सन्निदुगं नरेसु तइओ असन्निपजत्तो। तिरियगईए चउदस एगिदिसु आइमा चउरो // 18 // (यशो०)[......................................... भेदा सरनरकयोः सरनरफगत्योः संज्ञिद्वयं पर्याप्तकरणापर्याप्तरूपं ..............."नरकगत्यो...." ....... वगर्भजम......................"रदात्य...भयं...'त्य..... | अ या संशय'......."पर्याप्तघटनीय..........."स्य................... का देस्तु नराणां जीवस्थानद्वयमत्यकाई / ]( "सुरनरए" इत्यादि, मार्गणास्थानेषु जीवमेदाः / सुरनरकयोः सुरनरकगत्योः संज्ञिद्वयं-पर्याप्तकरणा-ऽपर्याप्तरूपं संज्ञिभेद द्वयम् , सुरनरकगत्योर्लब्ध्यपर्याप्तस्योत्पादाभावादिह करणा-ऽपर्याप्तस्य ग्रहणम् / “नरेसु" इत्यादि, नरेषु-मनुष्येषु प्राग्वत् संज्ञिद्विकम्, केवलमिहा-ऽपर्याप्तो लब्धिकरणभेदेन द्विविधोऽवगन्तव्यः, लब्ध्यपर्याप्तसंज्ञिनोऽपीह प्रवेशात् / तृतीयश्च जीवभेदो लब्ध्यपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणः प्राप्यते, वान्तपित्तादिसंमूर्छिममनुष्याणामसंज्ञिलब्ध्यपर्याप्तकत्वात् / तद्यथा-इह द्विविधा मनुष्याः, गर्भजमनुष्याः संमूर्छिममनुष्याश्च / तत्र गर्भजमनुष्येषु पर्याप्ता-ऽपर्याप्तमंज्ञिभेदद्वयम् , वान्तपित्तादिगतसंमूर्छिममनुष्येष्वपर्याप्तासंझि Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे पञ्चेन्द्रियरूपस्तृतीयो जीवभेदो-ऽप्यवाप्यते / नन्वन्यन्त्र बन्धशतक-बन्धस्वामित्व-पञ्चसंग्रहादिषु ग्रन्थेषु नराणां जीवम्थानद्वयमेवोदितम् / तत्कथं घटनीयमिति चेत् , सत्यम् ,) तत्र मनुष्यवायर्यावरणात्संक्लिष्टत्वाच्च सम्मूर्छजनरास्तिर्यग्रहणेन गृहीता इत्येके अपर्याप्तका एवामी कालं कुर्वन्तीत्यल्पकालत्वान्न विवक्षिता इत्यपरे मन्यन्त इति / तिर्यग्गतौ चतुर्दश, एकेन्द्रियादीनां संज्ञिपञ्चेन्द्रियान्तानां सभेदानां व्यापकत्वादस्याः / एकेन्द्रियेषु पृथिव्यादिषु सूक्ष्मवादरात्मकानि पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदानि चत्वारि जीवस्थानानि // 18 // वितिवरिंदिसु दो दो अंतिमचउरो पणिदिसु हवन्ति / थावरपणगे पढमा चउरो चरमा दम तसंसु // 19 // . (यशो०) द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियेषु द्वे द्वे पर्याप्तापर्याप्तरूपे जीवस्थाने. दोषाणामसम्भवात् / पञ्चेन्द्रियेष्वन्त्यानि चत्वारि संश्यसंज्ञि-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तलक्षणानि / उष्माद्यभितप्ता अपि स्थानशीलाः स्थावराः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपास्तेषां पञ्चके सूक्ष्म-बादरापर्याप्ता-ऽपर्याप्तरूपाणि प्रथमानि चत्वारि / त्रस्यन्त्युष्मायभितप्तास्तस्मादुद्विजन्ते च्छायाधभिसर्पन्तीति वसा द्वीन्द्रियाइयस्ते वन्त्यानि (पर्याप्ता-5) पर्याप्तसूक्ष्मवादररहितानि दश / / 16 / / विगलतियमन्निसन्नी पजत्ता पंच हति वय जोगे। मणजोगे सन्निको पुमिथिए चरिमचउरो // 20 // . (यशो०) “पदेकदेशे पदसमुदाय" इतिन्यायाद्विकला विकलेन्द्रिया अपरिपूर्णेन्द्रिया-द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियास्तेषां त्रिकं चासंज्ञी (च) संज्ञी च विभक्तिलोपाद्विकलत्रिकामंज्ञिसंज्ञिनः पर्याप्ताः पश्चवचनयोगे, न शेषाणि, तेषु वाग्योगाभावात् / मनोयोगे एकः संज्ञी पर्याप्तः, तत्रैव मनसः सद्भावात् / पुवेद स्त्री-वेदयोश्चरमाणि पर्याप्तकरणापर्याप्त संझ्यसंझेरूपाणि जीवस्थानानि / लब्ध्यपर्याप्तस्तु सर्वोपि नपुंसक एव / यच्चात्रासंज्ञिनि स्त्रीपुसाभिधानं तत् स्त्रीपुरुषाकारमात्रमङ्गीकृत्य कार्मग्रन्थिकमतेन / सिद्धान्तमतेन त्वसंज्ञी द्विविधोऽपि नपुसक एव / / 20 // काओ गनपुंसकमायमइसुयअनाणअविरयअचक्खू / आइतिलेमा भव्वियरमिच्छआहाग्गे सव्वे // 21 // महसुयओहिदुगविभंगपम्हसुक्कासु तिसु य सम्मेसु / सन्निम्मि य दो ठाणा सन्निअपजत्तपज्जत्ता // 22 // 1. "विगळति ऊसम्मि” इत्यपि पाठः / 2. "होति वइ०" इत्यपि / 3. सन्नेक्को / Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु जीवस्थानानि ___(यशो०) अवधिद्विकमवधिज्ञानमवधिदर्शनं च, त्रीणि सम्यक्त्वानिझायोपशमिक-क्षायिको पशमिकरूपाणि, एतेषु च मत्यादिध्वेकादशसु स्थानेषु पर्याप्तकरणापर्याप्तसंज्ञिलक्षणे द्वे जीवस्थाने तत्र करणापर्याप्तरूपंजीवस्थानमेतेपु देवादिम्यः समागत्य मनुष्यादौ प्रथमं समुत्पन्नस्य / नवरं रत्नप्रभायां भुवनपतिव्यन्तरेषु चासंज्ञिभ्य उत्पद्यमानस्यापर्याप्तस्य विभगो न लभ्यते / संज्ञिभ्यः पुनरपर्याप्तस्यापि भवतीति विभङ्गे विशेषो दृश्यः। पर्याप्तसंनिरूपं प्रतीतम् / यद्यप्योपशमिके पर्याप्त एव संज्ञी सङ्गतिमङ्गतिः अपर्याप्तस्य संजिन औपशमिकाभावात् / तथा ह्यसावपर्याप्तदशायां तावदिदं तथाविधविशुध्यभावान्नोत्पादयितु समर्थः / पारभविकं तु नोपपत्तिसहम् / यतो यो-ऽनादिमिथ्यादृक् तत्प्रथमनया औपशमिकमाप्नोति, न स तद्भावमापनः कालं करोति / यत उत्तम्"अणबन्धोदय 2, माउगबंधं 3 कालं च 4 सासणे कुणइ / उबसमसम्मदिट्टी चउण्हमे पि नो कुणइ' ति। न चोपशमश्रेणेमृ त्याऽनुत्तरसुरे पृत्पद्यमानस्यापय तस्यैतत्प्राप्यत इति प्रतिपादयितु साप्रतम् , तस्य प्रथमसमय एव सम्यत्त्वपुद्गलोदयात् / उक्तं च- जो उवसमसम्मट्ठिी उसमसेढीए कालं करेइ, सो पढमसमए चेव सम्मत्तपुजं उदयावलियाए छोड़ण सम्मत्तपुग्गले वेएइ नेण न उवसमसम्मदिट्ठी अपज्जत्तगोलभइ।" इति निश्चयनयपरशतकमतम् तथापि व्यवहारनयपरपञ्चसंग्रहादिमतमवलम्ब्यात्रौपशमिकसम्यग्दृष्टेः संझ्यपर्याप्तोऽप्यभिहितः, यतस्तत्र-ऽवक्तव्यस्य सर्वथोपशान्तये मोहस्योदया अवक्तव्योदया मोहस्यैव नानाजीवापेक्षया पश्चाभिहिता एकषट्-सप्ताष्टनवोदयरूपाः / तत्रैकोदयो लोभस्यैकस्योदयोऽद्धाक्षये उपशमश्रेणेः प्रतिपतितः सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमयेऽवाप्यते / शेषाश्चत्वारो भवक्षय एव / यत उपशान्तस्य सत आयुःक्षयादनुत्तरसुरेषु प्रथमसमय उत्पद्यमानस्य लभ्यन्ते / तत्रानन्तानुबन्धिशेषकपायत्रयहास्यरतिपुरुषवेदानामुदयः पडुदयः / भयेन वा जुगुप्सया वा वेदकेन वा क्षिप्तेन त्रिधा सप्तोदयः / भयजुगुप्सयोर्भयवेदकयो जुगुप्सावेदकयोर्वाऽऽक्षिप्तयोस्त्रिधाष्टोदयः / तत्रैकपडुदयो द्वौ सप्तोदयौ वेदकवन्ध्याकोऽष्टोदयो वेदकविकल इति चत्वार उदया औपशमिकसम्यग्दृप्टेः क्षायिकसम्यग्दृष्टेश्च सम्भवन्ति / तत उपशान्तः कालगत औपशमिकसम्यग्दृष्टिः संश्यपर्याप्तोऽपि लभ्यते / न च क्षायिकसम्यग्दृप्टें व वेदकरहिता उदया इति वाच्यम् / तत्र पृथग्विवक्षाया अभावात् / कर्मसप्ततिकाचूां च ‘छलोदओ उवसमसम्मदिट्ठस्स वा खाइगसम्मदिहिस्स वे'' त्यादेर्व्यक्तमेव भणनायुक्तमुक्तं सूत्रकृतीपशमिकसम्यक्त्ये संध्यपर्याप्तोऽपि भवतीति // 22 // मणपज्जबकेवलदुगसंजयदेसजयमीसदिट्ठीसु / सन्नी पजो चक्खुमि तिन्नि छ व पजियरचरमा // 23 // (यशो०) अत्र गुणगुणिने रभेदोपचारादिह संयतशब्देन संयमः सामायिकादिः पञ्चविधोऽपि Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थ परिगृहीतस्सत एतेषु मनःपर्यवादिषु पर्याप्तसंज्ञिरूपमेकं जीवस्थानम् / केवली च यद्यपि न संज्ञीनाप्यसंझीति प्रतीतस्तथापि द्रव्यमनोयोगादिह संज्ञित्वेन विवक्षितः / चक्षदर्शने त्रीणि पर्याप्तचतुरिन्द्रिया-ऽसंज्ञि-संज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपाणि षड् वा चरमाणि पर्याप्तेतराणि पर्याप्तकरणापर्याप्तचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिरूपाणि / यतः केचिदिन्द्रियपर्याप्तिमात्रपर्याप्तावस्थायामपि चक्षुर्दर्शनमभ्युपगच्छन्ति / / 23 // सत्त उ सासाणे बायराइ छ अपज्जमन्निपज्जा य / तेउल्लेसे बायरअपजत्तो दुविहसन्नी य // 24 // (यशो०) तुरेवार्थः, ततो-ऽयमर्थःसासादनभावे मृतस्य बद्धायुषो बादरादिषूत्पद्यमानस्य सासादनमवाप्यतेऽतः सासादने बादरादीनि संज्ञिपञ्चेन्द्रियान्तानि करणापर्याप्तरूपाणि पट् , पर्यातसंज्ञिरूपं चेति सप्लैव / तथा ईशानान्तजघन्यायुर्देवेभ्यश्च्युतस्य शुभपृथिव्युदकवनस्पतेः पञ्चेन्द्रियेपूत्पन्नस्य करणापर्याप्तस्य प्राग्भवभाविनी पर्याप्तपञ्चेन्द्रियस्य तद्भवभाविनी तेजोलेश्या भवतीति तेजोलेश्यायां करणापर्याप्तबादरसंज्ञिरूपे पर्याप्तसंज्ञिरूपं चेति त्रीणि // 24 // अस्सन्नि आइ बारस अणहारे अट्ठ सत्त अपजत्ता / सन्नी पज्जत्तो तह इय 'गइयाइसु जियहाणा // 25 // (यशो०) असंज्ञिनि मनोविज्ञानशून्ये एकेन्द्रियादौ "आई"ति विभक्तिलोपादाद्यानि द्वादश पर्याप्ताऽपर्याप्तसंज्ञिरहितानीत्यर्थः / अनाहारके सप्तापर्याप्तरूपाणि जीवस्थानानि विग्रहगताविति सा निरूप्यते / जन्तोमरणस्थानाद् भाविभवोत्पादस्थान एकसमयेन प्राञ्जलगमनमृजुगतिः, तदपेक्षया वक्रत्वेन विलक्षणायाः श्रेणेहणं विग्रहस्तेन गतिविग्रहगतिः / सा द्विसमया एकवक्रा यथा यदेशानकोणोपरिभागादाग्नेयकोणाधस्तनभागे कश्चिदुत्पद्यते, तदाये समय 'ईशानकोणोपरिभागादाग्नेयकोणोपरिभागं गत्वा तदधस्तनभागलक्षणस्योत्पतिस्थानस्य समश्रेणी प्रतिपद्यते,जीवपुद्गलयोरनुश्रेणिगमनादाद्यसमय एवोत्पत्तिस्थानाप्राप्तेः ततो द्वितीयसमये वक्र विधाय तत्रोत्पत्तिस्थाने जन्तुर.त्पद्यत इति, अस्यां चैकवक्रायां द्विसमयायां विग्रहगतावाघसमये मुच्यमानं मुक्त = मभावीभूतमिति पूर्वशरीरस्य मुक्तत्यादग्रेतनस्याद्याप्यप्राप्तत्वादनाहारक इति क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदवादिनिश्चयनयानुगप्रज्ञप्त्यद्यागमानुसारिणः / क्रियाकालनिष्ठाकालयोर्मेदवादिव्यवहारनयमतावलम्बितत्वार्थटीकाद्यनुसारिणस्तु मन्यन्ते-अत्राद्यसमयेप्याहारकोऽसौ न भवति / प्राक्तनशरीरं ह्यत्र मुच्यमानममुक्तमत एवायं पूर्वभवचरमसमय एव, 9. "गडयाईस जियठाणा" इति वा। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु जीवस्थानानि [16 न तु परभवप्रथमसमयः / पूर्वशरीरस्याद्यापि सद्भावात्तत्सद्भावे च न विद्यत आहारोऽस्येत्यनाहारक इति वक्तुमशक्यमेवेत्यनाहारको न भवते / इदं च मतद्वयमपि कथञ्चित्प्रमाणम् , मतद्वयमयत्वात् जिनशासनस्येति ! द्वितीयसमये चाहारक इत्यत्रा-ऽविवादः / द्विवक्रा त्रिसमया,यथा यदा तस्मादेवेशानकोणोपरिभागान्नेरुतकोणाधस्तनप्रदेशे उत्पत्तिस्तदाबक्षणे वायव्यकोणोपरिभागं गच्छति, ततो द्वितीयक्षणे विग्रहेण नेरुतकोणोपरिभागं गच्छति, तृतीयक्षणे विग्रहेणैव तदधस्तनभागरूपमुत्पत्तिस्थानमासादयतति / अत्रापि प्रागुक्तयुक्त्तेनिश्चयनयमत आद्यक्षणद्वयेऽनाहारकः / व्यवहारनयमते तु प्रागुक्तोपपत्तेरे कस्मिन्नेव मध्यमे क्षणेऽनाहारको न त्वायान्त्यक्षणयोरिति / तदेवं त्रसानामृजुगतिरेकवक्रा द्विवक्रा च विग्रहगतिरित्येतदेव गतित्रयं भवति / अथेकेन्द्रियाण मेव त्रिवक्रा चतुःसमया यथा यदा त्रसनाडया बहिर्वि दग व्यव. स्थितम्य यस्य निगोदादेरधोलोकालोक उत्पादो नाड्या बहिरेव दिशि भवति. तदेकेन. समयेनासो विदिशो दिशमागत्य द्वितीयेन नाडी प्रविश्य तृतीयेनोद्धर्वलोकं गत्वा चतुर्थेन नाडीतो निर्गत्योत्पत्तिस्थान उत्पद्यत इति / अत्रापि प्राग्वदेकीयमते नाडी एषु त्रिषु समयेप्वनाहारकश्चत” त्याहारकः / अन्यदीयमतेन तु मध्यमयोर्वक्रसमययोवानाहारको न त्वा दमान्तिमसमययोः / चतुर्वक्रा पञ्चसामायिकी, यथा यदा त्रसनाडी बहिविदिशस्तद्वहिविदिश्वोत्पद्यते तदा भवति / अत्र स समयत्रयं पूर्ववदेव चतुर्थे तु समो नाडीतो बहिन्निर्गत्योत्पत्तिस्थानस्य समश्रेणी प्रतिपद्यते, पञ्चमे तु नाडी बहिर्विदिग्लक्षणमुत्पतिस्थानमाप्नोति / अत्राप्येकमतेनाधसमयचतुष्टयेऽनाहारकः पश्चमे बाहारकः / अन्यमतेन मध्यमे वक्रसमयत्रय एवानाहारको न तु प्रथमचरमसमययोरिति / मौइ. पर्याप्तलक्षणं तु [वहिः] (जीव)स्थानं समुद्घाते / समुदातश्च सम्शब्दस्यैकीभावार्थत्वाज्जीवस्य वेदनायनुभवज्ञानेन महकीभावेन तदेकपरिणामात्मना उच्छब्दस्य प्राबल्यार्थत्वात्प्राबल्येन घातो-हननं बहूनां वेदनीयादिकम् प्रदेशानां कालान्तरानुभवयोग्यानामुदीरणाकरणेनाकृष्योदयप्रक्षेपपुरस्सरमनुभूयनिर्जरणं-जीवप्रदेशैःसह सम्बद्धानां ज्ञातन मित्यर्थः / यद्वा समन्ताचं च हम्यन्ते क्षिप्यन्ते जीवप्रदेशा यत्रा-ऽसौ समुद्घातः / स च सप्तधा : यदुत्तम् वैयण 1 कषाय 2 मारण 3 वेउव्विय 4 तेय 5 हार 6 केवलिया 7 // / सगपण चउ तिन्निकमा मणु 7 सुर 5 नेरइय 4 तिरियाण ३।।"मिति / * अस्या व्याख्या-तत्र यदा वेदनाभिभूतः कश्चित्प्रदेशाननन्तानन्तकर्मस्कन्धानुविद्धान् शरीराद्वहिः प्रक्षिपति, तैश्च जठरमुखादिशुपिराण्याऽऽपूर्य विस्तारायामाभ्यां देहमानं क्षेत्रमभिव्याप्य तिष्ठतिः तदा तस्य वेदनयाऽसद्वेदनीयोदयप्रभवया पीडया समुद्घातो वेदनासमुद्घातः / अनेन च प्रभृतासातवेदनीयपुद्गलानां शातो भवति // 1 // यदा तु तीवकषायोदयाकुलितः स्वादेशान्बहिः क्षिप्त्या स्वप्रदेशैरेव सर्वशुषि अत्र प्रतिपादितसमुद्घातस्वरूपं जीवसमासश्रीमन्मलधारगच्छोयहेमचन्द्रसूरिवृत्यनुसारि / Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे राण्या-ऽऽपूर्या-ऽऽयामविस्ताराभ्यां कायप्रमाणं क्षेत्रं व्याप्या ऽऽस्ते, तदा तस्य कषायहेतुभिः समुद्घातः कषायसमुद्वातः / अनेन कषायमोहनीयपुद्गलानां शातो भवति / / 2 / / यदा कश्चिदन्तमुहूर्तशेषेष्वायुभिविष्कम्भबाहुल्याभ्यां शरीरमानमायामेन जघन्यतोऽङगुलासंख्येयभागमुत्कृष्टतोऽसंख्येययोजनानि शरीराद्धहिः स्वप्रदेशदण्डं निसृज्य परभवे यत्र स्थाने स्वयमुत्पत्स्यते तत्र प्रक्षिपति, तदा तस्य मरगमेव प्राणिनामन्तकारित्वादन्तो मरणान्तस्तत्र भवो मारणात्तः समुद्घातः / एतेन चायुःकर्मपुद्गलानां शातो भवति // 3 // यदा कश्चिद्वैक्रियलब्धिमान् वैक्रियकरणकाले विकम्भवाहल्याभ्यां कायमानमायामेन जघन्यतोऽगुलसंख्येय-: भागमुत्कृष्टतः संख्येयानि योजनानि शरीरादहिः स्वप्रदेशदण्डं निसृज्य यथा स्थूलान्रक्रियशरीरानामकर्म पुद्गलान्प्राग्बद्धान शातयति * (तदा तस्य वैक्रियशरीरनामकर्मविषयः समुद्धातो. वैक्रियसमुद्धातः, यद्वा वैक्रियशरीरकरणकालविषयः समुद्धातो वैक्रियसमुद्घातः // 4 // यदा कश्चित्तेजोनिसर्गलब्धिमान् क्रुद्धः साधादिः सप्ताष्टौ पदान्यवष्वक्य विष्कम्भवाहल्याभ्यां देहमानमायामेन तु जघन्यतो-ऽगुलासङख्येयभागमुत्कृष्टतः पुनः संख्येयानि योजनान्यनन्ततेजसशरीरस्कन्धवेष्टितानां जीवप्रदेशानां दण्डं शरीराबहिः प्रक्षिपति, ततः क्रोधविषयीकृतं मनुष्यादि निर्दहति, तदा तस्य तेजोविषयः समुद्धातः तेजःसमुद्धातः / अनेन च प्रभूताँस्तैजःशरीरनामकर्म पुद्गलान शातयति // 5 // यदा कश्चिदा-ऽऽहारकशरीरलब्धिमान चतुर्दशपूर्वविद् आहारकशरीरकरर्णकाले विष्कम्भवाहल्याम्यां शरीरमानमायामेन जधन्यतोऽङ्गुलसङ्ख्येयभागमुत्कृष्टतस्तु संख्येयानि योजनानि शरीराद् बहिः स्वप्रदेशदण्ड निसृज्य यथास्थूलान् प्रभूतानाहारकशरीरनामकर्म पुद्गलान् प्राग्वद्धान् शातयति तदा तस्याहारकशरीरकरणकाले समुद्घात आहारकसमुद्घातः // 6 // एते च वेदनादयः षडग्यान्तमौहूर्तिकाः // यदान्तमुहूर्त्तायुः केवली वेदनीय-नाम-गोत्रकर्मात्रयं नायुषः समं न्यूनं वा किन्त्वतिप्रचुरमाकलयति, तदा वेदनीयादित्रयस्य क्षिप्रतरक्षपणाय केवलज्ञानाभोगतो जीवप्रदेशसंघातं प्रथमसमये विष्कम्भवाहल्याभ्यां कायप्रमितमायामत ऊवधिोलोकान्तगामिनं दण्डाकारत्वेन दण्डं द्वितीयसमये तमेव पूर्वापरदिकप्रसारणात् तिर्यग्लोकान्तकपाटाकारत्वेन कपाटं तृतीयसमये च दक्षिणोत्तरदिप्रसारणात् तिर्यग्लोकान्तव्यापाकं मथ्याकारत्वेन मन्थानं कृत्वा चतुर्थसमये च जीवप्रदेशानामनुश्रेणिगमनातृतीयसमये पूरितानि मथ्यन्तराणि लोकनिष्कुटानि च पूरयित्वा पञ्चमसमये मथ्यन्तरप्रसृतान् जीवप्रदेशान् संहृत्य षष्ठे समये मन्थानमुपसंहृत्य सप्तमसमये कपाटं शड्कोच्याष्टम * ( ) एतच्चिन्हान्तर्गतः पाठोऽत्र प्रक्षिप्तो द्रष्टव्यः / एवमन्यत्रापि। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानानि / 21 समये दण्डं संहृत्य शरीरस्थो भवति / तदा तस्य वेवलिनः समुद्घातः केवलिसमुद्घातः / / 7 / / अयं चाष्टसामायिकः // इति पूर्वार्द्धार्थः / / उत्तरार्द्धार्थस्तु-मनुजानां सर्वसम्भवात्सप्तापि / चतुविधदेवानामाहाकलब्धिकेवलित्वाभावात्पश्चाद्याः / नारकाणां तैज[सआ](सा-ऽऽ)हारकलब्धिकेवलित्वाभावादाद्याश्चत्वारः / पृथिव्य तेजोवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां वैक्रियलब्ध्यभावात् त्रयः / वायूनां चादरकरणपर्याप्तवसनाड्यन्तर्गतानां प्रायो वैक्रियलब्धिसंभवाच्चत्वारः / गर्भजपञ्चेन्द्रियतिरश्च तेजोलब्रेरपि भावादाद्याश्चत्वारः / एवं समुद्घातस्य सप्तविधत्वेऽपि संक्षिपर्याप्तलक्षणमेकं जीवस्थानं केवलीसमुद्घात एव मन्तव्यम् , अत्रैव तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेष्वनाहारकत्वसम्भवात् / इत्येवमनाहारके सप्तापर्याप्तरूपाणि संज्ञिपर्याप्तेन सहाष्टौ जीवस्थानानीति स्थितम् / इत्यनेन प्रकारेण गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु जीवस्थानानि चिन्तितानि // 25 // इदानीं मार्गणास्थानेषु योजयितुकामो गुणस्थानानि चतुर्दश नामतः स्वरूपतश्चमिच्छे सासणमिस्से अविरयदेसे पमत्तअपमत्ते / नियटिअनियट्टिसहुमुवसमखीणसजोगजोगिगुणा // 26 // (यशो.) “नियटो"त्यत्र प्राकृतत्वात् दृस्य द्वित्वाभावः / सूचकत्वात्सूत्रस्य, पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद्वा मिच्छादिद्विगुणठाणं सासायणसम्मदिद्विगुणठाणमित्यादि दृश्यम् / तत्र मिथ्याविपर्यासवती दृष्टि-रहत्प्रणीततत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य कवलितहत्पूरस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत्स मिथ्यादृष्टिः / गुणा-ज्ञानादिरूपा जीयस्वभावविशेषास्तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानम् , गुणानामेवोपचयापचयजः स्वरूपविशेषः, गुणानां स्थानं गुणस्थानम् , ततश्च मिथ्या दृष्टेगुणिस्थानं सास्वादनाद्यपेझया गुगानामपचयजः स्वरूपविशेषो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् / इह यद्यपि मिथ्यादृष्टेविपर्यस्तदृष्टित्वात्सम्यग्बोधाभावेन गुणानामभावेन गुणस्थानाभावः। तथापि तस्य काचिच्चैतन्यकला कशीकार्याऽन्यथाऽजीवत्वप्रसङ्गः / सा च मिथ्यात्वोदया विपर्ययपरीताऽपि चिद्र पत्वाद् व्यवहारतो गुणत्वेनेप्टेति तद्भाजनतया मिथ्यादृष्टेगुणस्थानत्वमुपपन्नम् / अत्र गुणस्थाने समस्तजन्तुराशेरनन्ततमेन भागेन रहिताः सर्वेऽपि जन्तवोऽवाप्यन्ते // 1 // आद्यमौपशमिकसम्यग्दनिप्राप्तिरूपं सादयत्य=ऽपनयतीति नैरुक्ते यशब्दलोपः, आसादनं प्रथमकषायोदयवेदनम् / ततश्च सहा-ऽऽसादनेन वर्चत इति सासादनः / स चासो सम्यग् अविपरीता दृष्टिर्जिनप्रणीततत्त्वप्रतिपत्तिरस्येति सम्यग्दृष्टिश्च सासादनसम्यग्दृष्टिस्तस्य गुणस्थानं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् / यद्वा सह सातनया प्रथमकषायोदयरूपया वर्त्तत इति सासादनः / स चासौ सम्यग्दृष्टिश्चेत्यादि प्राग्वत् / अथवा सह औपशमिकतवरसास्वादनेन वर्तते, तद्रसं नाधा-ऽपि सर्वथा त्यजतीति सास्वादनः, स चासौ सम्यग्दृष्टिश्चेत्यादि प्रागिव / एतच्च यथा भवति तथा समासत उच्यते, Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 / षडशीतिनाम्नि चतुर्थ मंत्रन्य अनादिमिथ्यादृष्टिरसुमान् निर्मितदर्शनत्रिपुञ्जोऽनाभागानतितेन गिरिसरिदुपलपालनाकल्पेन यथा येनैव प्रकारणानादिकाले अभूत्तेनेच प्रवृत्तं नाऽपूर्व स्वभावान्तरं प्राप्त मत्यन्वयन यथाप्रवतेन क्रियते कर्मबन्धोदयांदीरणोपशमनाद्यनेनेति करणेनाध्यवसायविशेषेण मोहत्य सागरापमाणामेकानसप्ततिं नाम्नो गोत्रस्य चैकानविंशतिमायुर्वानामन्येषां कर्मणामेकोनात्रशतं च क्षपायत्वा प्रत्येः कृतपल्योपमा-ऽसंख्येयभागन्यूनान्त्यसागरकोटिकोटिस्थितिको मध्यमास्थतावायुपा वर्तमानो विशुद्धिविशेषस्वरूपेणानादौ संसारे अप्राप्तपूर्वत्वात् स्थितिधातरसघाताद्यपूर्वाथानदत्त कत्वाद् अपूर्वण करणेन भिनघनरागद्वेषरूपग्रन्थिः प्रधानतरविशुध्यात्म न विद्यते मोक्षतरबाज सम्यक्त्वमनासाद्य निवृत्ति [ाघुटगमस्येण स्वद्ध]( यावृत्तिर्यस्य यस्मिन् वा तद् ,तच तत्कग्ण)मानवृचिकरणमनुभवन्मिथ्यात्वस्थितेरुदयक्षणादारभ्यान्तमुहूर्त योपरि प्रदेशतो विपाकतश्च मिथ्यात्वदलिकानुदयरूपमन्तरकरणं करोति / कृते चैतस्मिन् मिथ्यात्वस्थितिरन्तमुहूर्त्तमानाऽध. ना / तदुपारवा त्तना अन्तर्मुहूत्तोनान्तःसागरोपमकोटीकोटिमाना द्वितीया / तत्रा-ऽऽद्यायां स्थितो वत्तेमानो मिथ्यात्वोदयान्मिथ्यादृष्टिरेव, अन्तर्मुहूर्तेन तस्यामुपगतायामन्तरकरणप्रथम(समय) एवं.पशमिकसम्यग्दर्शनप्राप्तायुपशान्ताद्धायामान्तमोहूर्तिक्यां जघन्येन समयशेषायामुत्कृष्टतः पडावालेकाशेषायामनन्तानुबन्ध्युदयः कस्यचिद् भवति / तत्र चासौ सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने वर्तते / उपशमश्रेणेर्वा प्रतिपतितः कश्चिदिति कर्मग्रन्थमतम् / तत्र तस्याद्यगुणस्थामपि यावत् गमनात् / सिद्धान्तमते तु श्रेणेः समाप्तौ निवृत्तः प्रमत्तगुणेऽप्रमत्तगुणे वा-ऽवतिष्ठते / कालगतस्तु देवेष्वविरतो भवतीति / सास्वादनोत्तरकालं चावश्यं मिथ्यात्वादयान्मिथ्यादृष्टिः स्यात् / अत्र च गुणस्थाने उत्कर्पतो-ऽसंख्येयाः प्राणिनः प्राप्यन्ते // 2|| सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिरस्येति सम्यमिथ्यादृष्टिस्तस्य गुणस्थानं सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् / यदा हि पूर्वोक्तप्रकारेणा-ऽवाप्तेनोपशमिकसम्यक्त्वेनौपधकल्पेन वक्ष्यमाणमतभेदादपूर्वकरणेन वा मदनकोद्रववदशुद्धस्य मिथ्यात्वमोहनीयस्य शुद्धार्द्धविशुद्धाशुद्धतया त्रिधा कृतस्य सम्बन्धिनां पुञ्जानां मध्येऽद्धविशुद्धपुञ्ज उदेति, तदा तदुदयवशेनाद्धविशुद्धजिनतच्वश्रद्धानसभावात् सम्यग्मिथ्यादृष्टिरन्तमुहूर्त यावत्तत ऊर्ध्वं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा भजति / अत्राऽप्युत्कृष्टतोऽसंख्येयाः प्राणभाजो लभ्यन्ते // 3 // विरति स्म = सावद्ययोगेभ्यो निवर्त्तते स्म विरतो न तथाऽविरतः, यद्वा विरमगं विरतं-सावधयोगपरिहार एव, अप्रत्याख्यानकषायोदयान्नास्य विरतमस्तीत्यविरतः। स चासौ सम्यग्दृष्टिवाविरतसम्यग्दृष्टिः / स च पूर्वोपवर्णितोपशमिकसम्यग्दृष्टिः, शुद्धदर्शनमोहपुञ्जोदयवर्ती वा क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिः, प्रथमकषायचतुष्कमिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वक्षपणात् क्षीणदर्शनसप्तको वा क्षायिकसम्यग्दृष्टिस्तस्य गुणस्थानमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् / इह च कर्मग्रन्थमतेन प्रथममुक्तरीत्यैव सर्वोऽ-प्यौपशमिकसम्यग्दृष्टिभूत्वा कृतत्रिपुञ्जः क्षायोपशमिक Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानानि सम्यग्टष्टिमिश्रो मिथ्यादृग्वा भवति / सिद्धान्तमतेन तु कोऽप्यनादिमिथ्थाढक्तथाविधगुर्वादिसामग्र्यामपूर्वकरणेन पुञत्रयं कृत्वा शुद्धपुञ्जपुद्गलान्वेदयतापशमिकसभ्यग्दृष्टिग्भूत्यैव क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिर्भवति / अन्यस्तूक्तक्रमेणवौपशमिकसम्यग्दृष्टिर्भवति / पुञ्जत्रयमसो न करोत्येव / तदकरणादेव चौपशमिकाच्च्युतो मिथ्यात्वमेव व्रजति / यत्कल्पभाष्यम्"आलम्त्रणमलहन्ती जह सद्धाणं न मुञ्चई इलिया / एवं अकयतिपुञ्जी मिच्छं चिय उवसमी एह // " / अत्रा-ऽसंख्याताः सर्वदेव आसाद्यन्ते // 4 // प्रत्याख्यानकषायोदयेन विचारितसर्वविरतिलाभत्वात्कग्णत्रययोगत्रयविषयसर्वसावद्ययोगस्य देशे विवक्षितैकवतगोचरस्थूलसावद्ययोगादौ समस्तव्रतविषयानुमतिरहितव्यापारान्ते विरतं-विरतिर्यस्य स तथा, तस्य गुणस्थानं देशविरतगुणस्थानम् / अत्रापि संख्यातीताः सततमऽवाप्यन्ते // 5 / / संयच्छति स्म सर्वसावर योगात्, सम्यगुपरमति स्म संयतः, प्रमाद्यति स्म-संयमयोगेषु सीदति स्म प्रमत्तः, यद्वा प्रमदनं प्रमत्तं प्रमादो मदिरा-विषय-कपाय-निद्रा-विकथानामन्यतमः, सर्वे वा, प्रमत्तमस्यास्तीति मत्वर्थीयात्प्रत्यये प्रमत्तः, स चासौ संयतश्च स तथा, तस्य गुणस्थानं प्रमत्तसंयतगुणस्थानम् / अत्र कोटिसहस्रपृथक्त्वं प्राप्यते // 6 // प्रमत्तविपरीतोऽप्रमतः, स चासो संयतश्चाप्रमत्तसंयतस्तस्य गुणस्थानमप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् / अवसर्पिण्यास्तृतीये चतुर्थे चारके उत्सप्पिण्या द्वितीये तृतीये चतुर्थे चारकेऽवसर्पिण्युत्सर्पिणीव्यतिरिक्ते चतुर्थारकप्रतिमे च काले लब्धजन्मोत्तमसंहननो वर्षाष्टकोपरि शुभलेश्यो मनुष्योऽस्मिन्नप्रमत्तगुणस्थानकेऽविरतादीनां त्रयाणां गुणस्थानकानामन्यतमे वा वर्तमानः प्रथमकषायचतुष्क-दर्शनत्रिवक्षपणाया आरम्भकः / अत्रा-ऽप्रमत्तगुणस्थानके प्रमत्तसंयतेभ्यः स्तोकाः प्राप्यन्ते // 7 // युगपदिदं गुणस्थानमनुप्रविष्टानामन्योन्यमध्यवसायस्थानस्य भेदरूपा निवृत्तिरप्यम्तीति निवृत्तिः, सा चासौ गुणस्थानं च निवृत्तिगुणस्थानम् / अस्य नियतिघादर' इत्यपि संज्ञा / यन्मूलावश्यकटीका-क्षपक श्रेण्यन्तर्गतो जीवग्रामः क्षीणदर्शनसप्तको निवृत्ति यादरो भण्यते / अपूर्वकरणगुणस्थानमिति संज्ञान्तरमप्यस्य, तत्रापूर्व-नवं स्थितिघात-रसघात-गुणश्रेणि-गुणसंक्रम-स्थितिबन्धानां करणं-निवर्तनमस्येत्यपूर्वकरणः / तत्र महामानायाः कर्मस्थितेरपर्वर्तनाव रणे नाल्पीकरणं स्थितिघातः / रसस्य प्रभूतस्यापवर्तनाकरणेनाल्यीकरणं रसघातः / एतौ च प्राक्तनगुणस्थानेषु विशुद्धेरल्पत्वादल्पावेव व्यधादत्र तु विशुद्धेरुत्कृष्टत्वेन महाप्रमाणावपूर्ती विधत्ते। उपरितनस्थितेर्विशुद्धिवशादपवर्त्तनाकरणेनावतारितस्य दलिकस्यान्तमु हत्तप्रमाणमुदयसमयस्योपरि शीघ्रतरक्षपणाय प्रतिसमयमसंख्येयगुणया वृद्ध्या रचनं गुणश्रेणिरुच्यते / एतां च पूर्वगुणस्थानेष्वविशुद्धत्वेन कालतो दीर्घा दलिकरचनामाश्रित्य लघीयसी दलिकस्यापवर्तनात् कृतवान् / अत्र तु विशुद्धत्वाद पूर्वा कालतो स्वतरां (दलिकरचना) स्वीकृत्य पृथीयसी बहुतरस्य दलिकस्यापवर्त्तनात् करोति / तथा बध्यमानशुभकर्मस्ववध्यमानाशुभकर्मदलिकस्य प्रतिब्दिशब्द](क्षण)मसंख्येयगुणवृद्ध्या विशुद्धिवशेन Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 / षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे नयनं संचारणं गुणसंक्रमः / एनमप्यत्र विशिष्टतरत्वादपूर्व करोति / विशिष्टाध्यवसायपरिगृहीतस्य कर्मदलिकस्य यत्कालनियमनं स स्थितिबन्धः एतं चाशुद्धत्वात्प्रान्द्राधीयांसमाकार्षीदिह तु विशुद्धत्वाल्लघीयांसं करोति / उपलक्षणं चैतदुदयोद्वर्त्तनादीनाम् , यत एतानप्यपूर्वान् करोत्यत्र स चापूर्वकरणः क्षपणाया उपसमनायाथार्हत्वात् क्षपक उपशमको वा न पुनरयं क्षपयत्युपशमयनि वा किश्चित् / तस्य गुणस्थानमपूर्वकरणगुणस्थानम् / अत्र संख्याता लभ्यन्ते // 8 // एककालमिदं गुणस्थानमाधिरूढानां बहूनामसुमन्तां परस्परसम्बन्धिनोध्यवसायस्थानस्य व्यावृतिरिह निवृत्तिः, नास्ति तथाविधा साऽस्येत्यनिवृत्तिः / तुल्यकालमिदमारूढानामन्येषां यदध्यवसायरथानं विवक्षितस्यापि तदेवेत्यर्थः / / 9 / / सम्परैति-पर्यटति संसारमनेनेति सम्परायः = पायोदयः, बादरसूक्ष्मसम्परायापेक्षया स्थूलः सम्परायोऽस्येति वादरसम्परायोऽनिवृत्तिश्चासौ बादरसम्परायश्च स तथा, स च क्षपकोपशमकभेदात् द्विधा, तत्राऽबद्धायुः क्षपकः प्रत्याख्यानाप्रत्याखानकषायाष्टकम क्षपितं कृतान्तराल एवातिविशुद्धिवशेन अपितस्त्यान ित्रिकनरकद्विकतिर्यग्द्विकन्द्रियादिजातिचतुष्कातपोद्योतस्थावर-साधारणसूक्ष्माभिधानषोडशप्रकृतिर्मतान्तरेण त्वपर्याप्तप्रक्षेपात्क्षपितसप्तदशप्रकृतिस्तस्यैव क्षपितशेष क्षपयति, ततः क्रमेण नपुसकवेद खी-वेद-हास्यादिपटक-पु वेदसंज्वलनक्रोध-मान-मायाः क्षपयति, ततो लोभमपि बादरं सूक्ष्मलोभस्य सूक्ष्मसम्पराय एव क्षपणात् उपशमकस्तु नपुसकवेदं स्त्रीवेदं हास्यादिषट्कं पुवेदं द्वितीयतृतीयौ क्रोधौ चतुर्थक्रोधं द्वितीयतृतीयौ मानौ चतुर्थमानं द्वितीयतृतीये माये चतुर्थमायां द्वितीयतृतीयौ लोभौ च क्रमेणोपशमयति / ततश्चास्य सामान्येनेहोक्तअपणोपशमविषयक्रमस्यावश्यकवृत्तिकृता विशेषेण क्षपणायामुपशमनायां च निष्टङ्कितक्रमान्तमुहूर्तमनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानम् / अत्र संख्याताः प्राप्यन्ते / / 3 / / सूक्ष्मः सम्पराय:किट्टीकृतलोभकपायोदयरूपो यस्य स सूक्ष्मसम्परायः क्षपक उपशमो वा / तस्य गुणस्थानं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानं / अत्र संख्याता अधिगम्यन्ते // 10 // छाद्यते केवलं ज्ञानं दर्शनं चात्मनोऽनेति छद्म, तच्चान ज्ञानदर्शनावरणान्तरायकर्मोदयरूपम् , तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थः, वीतो रागो मायालोभोदयरूपो यस्य स तथा, स चासौ छमस्थश्च वीतरागछमस्थः / उपशान्ता-उपशमं नीताः सन्त एव संक्रमणोद्वर्त्तनादिकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापिताः कपाया येन स तथा, स चासो वीतरागछद्मस्थश्च उपशान्तकपायवीतरागच्छद्मस्थस्तस्य गुणस्थानम् उपशान्तकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानम् / तत्रोपशान्तकपायग्रहणे सति वीतरागग्रहणमविरतसम्यग्दृष्ट्यादीनां प्रमत्तान्तानां व्यवच्छेदाय, तेपामप्यनन्तानुबन्ध्यादिकियत्कषायोपशमकत्वात् , वीतरागग्रहणे चोपशान्तकपायवीतरागग्रहणं क्षीणऋपायस्य निरासाय, उपशान्तकषायवीतरागग्रहणे छद्मरथग्रहणं स्वरूपाविष्करणार्थम् : नह्य Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानानि छद्मस्थ उपशान्तकषायवीतरागः सम्भवति, यः छन्मस्थग्रहणेन व्यवच्छिद्येत / अयमुपशान्तकषायवीतरागच्छद्मस्थो जघन्यतः समयमुत्कर्षतोऽन्तमुहूर्त भवति / तत सर्व नियमेनाद्धाक्षयेण भवक्षयेण वा प्रतिपतति / तत्र भवक्षयो त्रियमाणस्य,अद्धाक्षय उपशान्ताद्धायां पूर्णायाम् / अद्धाक्षण प्रतिपतन् यथैवारूढस्तथैव प्रतिपतति / अयं च वारचतुष्टयमुपशमश्रेणिं नानाभवेषु प्रतिपद्यते / 'च: उबसमित्त मोह' इति वचनात् / एकस्मिस्तु वारद्वयमुत्कर्षत ‘एगभवे दुखुत्तोचरितमोहं उनसमेह' इति वचनात् / यश्च वारद्वयमेता प्रतिपद्यते तस्य तत्र भवे नियमात् क्षपकश्रे रभावः / यः पुनरेकवारं प्रतिपद्यते तस्य क्षपकश्रेणिर्भवेदपीति कर्मग्रन्थमतम् / सिद्धान्तमतं त्वेकभवे एकामेव श्रेणी प्रतिपद्यते / यत्कल्पः-'अन्नयरसेढिबज्ज एगभदेण च सव्वा' इति / अत्र संख्याता वर्तन्ते // 11 // क्षीणा:-क्षयमापन्नाः कषाया यस्य स तथा, स चासौ वीतरागच्छद्मस्थश्च क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थस्तस्य गुणस्थानं क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानम् / अस्मिन् द्वादशे गुणस्थाने परमार्थेन दर्शितायाः क्षपकश्रेणेरेकादशे चोपशमश्रेणेः परिसमाप्तिभवति / श्रेणिद्वयस्यास्य परिसमाप्तिकालोऽप्यन्तमुहूर्तमेव, असंख्येयत्वादन्तमुहर्सानाम् / तत्राविरताद्यप्रमतान्तेष्वाद्यान् कषायान्दर्शनत्रयं च, शेषास्तु संज्वलनलोभविकलाननिवृत्ती, संज्वलनं लोभं च सूक्ष्मसम्पराये क्षपयति / तदेवमेतेष्वपि गुणस्थानेषु क्षीणकषायव्यपदेशः प्रसज्यते, क्वापि कियतां कषायाणां क्षयसद्भावाद् , अतस्तद्व्यवच्छेदार्थं वीतरागग्रहणम् , क्षीणकषायवीतरागत्वे सति च्छद्मस्थग्रहणं केवलीव्युदासाय, छद्मस्थग्रहणे सति सरागपराकरणार्थं वीतरागग्रहणम् , क्षीणकषायग्रहणं चोपशान्तकषायव्यवच्छित्तये। अत्र संख्याता भवन्ति।१२।।सह योगेन-- वीर्येण वर्तन्ते सयोगा मनोवाकायास्ते विद्यन्ते यस्य सयोगी / यद्वा अनुत्तरविमानवासिमनः• 'पर्यायज्ञानादिभिः किंचिन्मनसा पृष्टस्य केवलिनो मनसैवावेदने मनोयोगस्याद्यान्त्यभेदभाजः, देशनादौ वाग्योगस्यादिमान्तिमभेदान्वितस्य. चंक्रमणादावौदारिककाययोगस्य च सद्भावात् , सहयोगैमनोवाकार्यर्तत इति सयोगः, सयोगी वा, सर्वधनादेशकृतिगणत्वेन मत्वर्थीयेन्विधानात् , केवलमस्तीति केवली, सयोगश्चासौ सयोगी वा चासौ केपली च तस्य गुणस्थानं सयोगकेवलिगुणस्थानं सयोगिकेवलगुणस्थानमिति वा / अत्र कोटिपृथक्त्वमापद्यते // 13 // न सन्ति प्राचीना[मयोगा यस्या-ऽसावयागोऽयोगी वा पूर्ववत् / अयोगित्वं पुनरेवम्-त्रिविधोऽपि योगः सूक्ष्मवादरत्वाभ्यां वेधा, केवली च केवलोत्पादादुई जघन्यतोऽन्तमुहर्त्तमुत्कृष्टतस्तु देशोनां पूर्वकोटी विहृत्यान्तमुहूर्तशेषायुः शैलेशी प्रतिपित्सुरादौ बादरकाययोगेन बादरवाग्मनोयोगी निरुध्य सूक्ष्मकाययोगावष्टम्मेन बादरकाययोगं निरुणद्धि / सर्वबादरयोगनिरोधानन्तरं च सूक्ष्मकाययोगावष्टभ्मेन सूक्ष्मवाग्मनोयोगी निरुणद्धि / सूक्ष्मकाययोगं तु सूक्ष्मक्रिय मनिवर्चिशुक्लध्यानं ध्यायन् सावष्टम्भेनैव निरुणद्धि / अन्यस्यावष्टम्भनीययोगान्तरस्य तदा Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] षडशीतिनाम्नि चतुर्य कर्मग्रन्थे ऽसत्त्वात् / सन्निरोधानन्तरं च समुच्छिन्नक्रियमप्रतिपातिशुक्लध्यानं ध्यायन् हस्वपश्चाक्षरोद्गिरणमात्रमात्रकालं शैलीशीकरणं प्रविष्टो भवति / शीलस्य योगलेश्यामलविकलयथाख्यातचारित्ररूपस्य य ईशः स शीलेशस्तस्येयं शैलेशी, त्रिभागीनस्वदेहावगाहनायामुदरादिरन्ध्रपूरणात्संकोचितस्वप्रदेशस्य शेलेश्याऽऽत्मनोऽत्यन्तस्थिरावस्थितिरित्यर्थः / तस्यां करणं-पूर्वरचितशैलेशीसमयसमानगुणश्रेणीकस्य नाम-वेद्य-गोत्राख्यस्याघातिकर्मत्रयस्याऽसंख्येयगुणया श्रेण्या,आयुःशेषस्य तु यथास्वरूपस्थितिकया श्रेण्या निर्जरणं शैलेशीकरणम् / तत्र प्रविष्टोऽयोगोऽयोगी वा स चासौ केवली च स तथा / अयं च शैलेशीकरणचरमसमयानन्तरं सिद्धो भवति / सिद्धोपि च सन्नयोगकेवलीति व्यपदिश्यते / योगानामभावात् केवलस्य च भावात् / एतदपेक्षयैव चोत्तरत्रायोगिकेवलिनामानन्त्यं वक्ष्यते / भवस्थापेक्षया तु संख्यात्वमेव स्यात् / तस्य .. गुणस्थानमयोगकेवलिगुणस्थानमयोगिकेवलिगुणस्थानं वा // 14 // एषामुत्तरोत्तरप्रवर्द्धमानविशुद्धमत्ता / एवं क्रमनिर्देशहेतुः / अत एवाह-गुणा"इति सूचकत्वात् सूत्रस्य इतेरुल्लेखार्थस्य च गम्यमानत्वादित्येवंरूपाणि गुणानां स्थानानि-उपचयापचयजाः स्वरूपविशेषा गुणस्थानानि / तथाहि-पूर्वपूर्वगुणापेक्षयोत्तरोत्तरगुणानामुपचय उत्तरोत्तरगुणापेक्षया पूर्वपूर्वगुणानामपचयः / कालप्रमाणं चामीषां यथाजीवाणममध्वाणं मिच्छत्तमणाइअनिहणं नेयं / भवियाणमिणमणाई संतं पत्तंमि सम्मत्ते // 1 // सासाणं छावलियं तुरियं तेत्तीससागरा अहिया / पंचममह तेरसमं देसूणा पुव्वकोडी उ // 2 // चरिमं हस्सपणरवरउग्गिरणपमाणयं भवत्थाणं / सिद्धाणमणंतद्धं अन्तमुहुत्तं तु सेसाणि ||3|| समओ उ जहण्णेणं पमत्तसासणुवसन्तमोहाणं / देससजोगिअसंजयमिच्छत्ताणं मुहत्तंतो // 4 // नीवसमासे त्वप्रमत्तादीनां चतुणों समयो जधन्यः कालः / सांप्रतमेतानि मार्गणास्थानेषु योजयति चत्तारि देवनरएसु पंच तिरिएसु चउदस नरेसु। .. इगिविगलेसु दो दो पंचिंदीसु चउद्दस वि // 27 // (यशो०) देवनरकगत्योराद्यानि चत्वारि, न शेषाणि, विरतेरभावात् / तिर्यग्गतौ देशविरत्यन्तान्याद्यानि पञ्च, नान्यानि, सर्वविरतेरभावात् / मनुष्यगतौ चतुर्दश-सर्वगुणाश्रयत्वात्तस्याः / "इगिविगलेसु"ति एकेन्द्रियविकलेन्द्रियेषु मिथ्यात्वसास्वादनरूपे द्वे / तत्रैतेषु सर्वभेदभिन्नेषु मिथ्यात्वं प्रतीतम् / स्वास्वादनं तु तेजोवायुवर्जप्रत्येकबादरैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु करणापर्याप्तेषु द्रष्टव्यम् / पञ्चेन्द्रियेषु चतुर्दश / तत्रैतेषु सर्वभेदेषु मिथ्यात्वम् , असंज्ञिषु पञ्चेन्द्रियेषु करणापर्याप्तेषु सास्वादनम् , संक्षिषु करणापर्याप्तेषु सासादना-ऽविरताख्ये, शेषाणि त्वेकादशापि संज्ञिषु पर्याप्तेष्वेव // 27 // Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु गुणम्थानानि भूदगतरूसु दो एगमगणिवाऊसु उदस तसेसु। जोए तेरस वेए तिकसाए नव दस य लोभे // 28 // (यशो०) भूदकतरूषु पृथिव्यब्वनस्पतिषु द्वे द्वे आये / तत्र मिथ्यात्वं सुगमम् / सास्वादनं करणापर्याप्तेषु / एकमायमग्निवायुष्वतिसंक्लिष्ठतया सासादनभावान्वितस्यैष्वनुत्पत्तेः। त्रसेषु चतुईश / द्वीन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियान्तसंग्राहित्वेन सर्वगुणानां सम्भवात् / योगे मनोवाक्कायरूपेऽयोगिवर्जानि त्रयोदश / वेदे नपुसकस्त्रीपुरूपे त्रयः कषायाः समाहातात्रिकषायं तत्र क्रोधमानमायात्मके नवाद्यानि / तत्राऽनिवृत्तिबादराख्यनवमगुणस्थाने वर्तमानो यावदेतत्कषायत्रिकं नाद्यापि क्षपयत्युपशमयति वा तावत् स्वगुणस्थानसंख्येयभागान्यावदेतद्वेदत्रयकषायत्रयवानवाप्यते, न परतः / लोभे दशादितः प्रभृति / सूक्ष्मसम्पराये-ऽपि किट्टीकृतालोभसम्भवात् // 28 // मइसुयओहिदुगे नव अजयाइ जयाइ सत्त मणनाणे / केवलदुगंमि दो तिन्नि दो व पढमा अनाणतिगे / / 29 / / (यशो०)मतिज्ञानश्रुतज्ञाना-ऽवधिज्ञाना-ऽवधिदर्शनेषु नव अयतादीनि अविरतसम्यग्दृष्टयादीनि क्षीणमोहान्तानि मनःपर्यायज्ञाने यतादीनि-प्रमत्तसंयतादीनि क्षीणमोहान्तानि / केवलद्विकेकेवलज्ञानकेवलदर्शनात्मनि द्वे सयोग्ययोगिरूपे / अज्ञानत्रिके-मत्यज्ञान-श्रुतज्ञान-विभङ्गाख्ये / त्रीण्यादिमानि द्वे वा प्रथमे / तत्र ये त्रीणि मन्यन्ते, तेषामिदमाकूतं यन्मिश्रदृष्टेज्ञॉनान्यपि अज्ञा. नान्येव, यथाऽवस्थितवस्तुपरिच्छेदाभावात् , ज्ञानकार्याऽकरणाद्वा / ये तु द्वे एव प्रतिजानते, तेपामयमभिसंधिर्यदुत मिश्रदृष्टेज्ञानानि किश्चित्समीचीनरूपत्वादीपत्कलुषभावभाज्यपि सम्यगज्ञाना येव, अतो-ज्ञानात्रये मिश्रदृष्टिर्न प्राप्यते / न च सास्वादनस्यापि सम्यग्दृष्टित्वेन तदवबोधस्यापि सम्यग्ज्ञानात्मकत्वादज्ञानत्रितये सास्वादनगुणस्थानासद्भाव इति वाच्यम् / यतस्तज्ज्ञानस्य प्रथमकषायोदयेनातिदूषितत्वादज्ञानत्वमेव // 26 // सामाइयछेएसु चउरो परिहार दो पमत्ताई। देससुहुमे सगं पढमचरमचउअजयअहखाए // 30 // (यशो०)सामायिकच्छेदोपस्थापनीययोश्चत्वारि प्रमत्तादीनि अनिवृत्तिवादरान्तानि / परिहारविशुद्धिके द्वे प्रमत्ताऽप्रमत्तरूपे, नोत्तराणि, श्रेणेरभावात् / देशविरते स्वकं स्वकीयं देशविरत्यभिधम्, सूक्ष्मसंम्पराये स्वकं सूक्ष्मसंरायात्मकम् / प्रथमचरमयोरयत-यथाख्याताम्यां सह यथाक्रम सम्बन्धस्ततः प्रथमानि मिथ्यादृष्टयादीनि चत्वार्यसंयते / यतोऽत्रासंयतत्वं विरतेरभावः, स चा-ऽविरतसम्यमिथ्यादृशोस्तुल्यः / यथाख्याते तु चरमाणि उपशान्तकषायादीनि चत्वारि // 30 // Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 // षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे वारस अवखुचक्खुसु पढमा लेसासुतिसु छ दुसु सत्त। सुक्काएँ तेरस गुणा सव्वे भव्वे अभव्वेगं // 31 // (यशो०) “सव्वे भव्वे" इति पदं विहाय प्रथमशब्दस्य सर्वत्राभिसम्बन्धादचक्षुश्चक्षुर्दर्शनयोर्दा दश प्रथमानि / लेश्यास्वाद्यासु तिसृषु प्रथमानि षट् / तत्र कृष्णादिलेश्यात्रये प्रथमानां चतुर्णा सद्भावः, मंदसंक्लेशे तु तत्र देशविरतप्रमत्तयोः सद्भावः। प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि .. धध्यवसायस्थानानि / लेश्यानां मतभेदेन तु चत्वार्येव / यतः केचिद्देशविरतादित्रयस्य विशुद्धतैजस्यादित्रये सद्भावं मन्यते / न कृष्णादिलेश्यात्रये / देशविरतादित्रयस्य विरतत्वात् , तथाविधसंक्लेशवत्तिनात तत्र विरतेरभावात / द्वयोस्तैजसीपबलेश्ययोः सप्त प्रथमानि | शुक्लायां तु प्रथमानि त्रयोदश / भव्ये सर्वाणि चतुर्दश / अभव्ये प्रथममेकम् / // 1 // वेयग खड़ग उसमे चउरो एक्कारसट्ट तुरियाई / सेसतिगे सहाणं सनिसु चउदस अमनिसु दो // 32 // (यशो०) वेद्यन्ते-विपाकेनानुभूयन्ते सम्यक्त्वपुञ्जपुद्गलो यत्रतद्वेदकं झायोपशमिकम् / यदप्यन्यत्र क्षपितमायदर्शनसप्तकस्य सम्यक्त्वपुञ्जचरमपुद्गलग्रासरूपं वेदकमुक्तं तदप्येतदेव / तत्र वेदके क्षायिक ओपशमिके च यथासंख्येन चत्वारि एकादश अष्टौ तुर्यादीनि-चतुर्थादीनिअविरतसम्यग्दृष्टिप्रमुखाणि क्रमेणा-ऽप्रमातान्तानि अयोग्यन्तानि उपशान्तमोहान्तानीत्यर्थः / शेपत्रिके सम्यक्त्वत्रयापेक्षया विपक्षभूते मिश्रसास्वादनमिथ्यादृष्टिनाम्नि स्वस्थानं स्वपदं मिश्रे मिश्रं सास्वादने सास्वादनं मिथ्यात्वे मिथ्यात्वमित्यर्थः / संज्ञपु-मनोविज्ञानसहितेषु चतुर्दश / यतोऽत्र द्रव्यमनोऽपेक्षया सयोगी / प्राचीनद्रव्यमनोऽपेक्षया वा-ऽयोग्यपि संज्ञीति व्यवहतः / अन्ये तु केवली “नोसन्नी नोऽसन्नी” इतिवचनाऽवष्टम्भेन संशिषु सयोग्ययोगिरूपं गुणस्थानं द्वयं न प्रतिपद्यन्ते / असंक्षिषु द्वे आये // 32 // आहारगेस पठमा तेरसणाहारगेस पंच इमे / 'पढमतदुगअविरया इय गइयाईसु गुणठाणा // 33 // (यशो०) आहारकेषु प्रथमानि त्रयोदश / अनाहारकेषु पञ्चेमानि / तान्येवाह- 'पदमन्ते" तिद्विक-शब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात्प्रथमद्विकान्त्यद्विकाविरतरूपाणि पश्च। तत्र मिथ्यात्व-सास्वादनाविरतसम्यग्दृष्टिरूपाणि विग्रहगतौ / सयोगिगुणस्थानं समुद्धाते तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु / अयोगिगुणस्थानं तु पञ्चहस्वाक्षरोगिरणमात्रकालम् / इत्यमुनोल्लेखेन गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु गुणस्थानानि योजितानीति शेषः // 33 // 1. "पठमंतिमदुगअविरय गइयाइसु इय गुणट्ठाणा // 33 // " इत्यपि पाठः। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु गुणस्थानानि, ओघतो योगाश्च [ 26 अधुना मार्गणास्थानेष्वेव योगान्योजयितु योगभेदास्तावदाह सच्च मोसं मीसं असच्चमोसं मणं तह वई य / उरलविउव्वाहारा मीसा कम्मइगमिय जोगा॥३४॥ (यशो०) योगाः सपूर्व व्याकृतार्थास्ते त्रिविधा अपि पञ्चदशधा मनोयोगचतुष्टयवाग्योगचतुष्टयकाययोगसप्तकमीलनेन / अत एव गाथान्ते "हय जोगा"इतीयत्ताद्योतकं पदमुक्तम् / तत्र मनोयोगस्तावच्चतुर्दा, सत्यासत्यमिश्रासत्यामृषाभेदेन / तत्र सन्ति मुनयः पदार्था वा तेम्यो मुक्ति प्रापकत्वेन यथाऽवस्थितस्वरूपपर्यालोचनेन वा हितः सत्यः / यथास्ति जीवः सदसद्रूप इत्यादि। यथावस्थितवस्तुचिन्तनपरः सत्यमनोयोगः / सत्यविज्ञानजनकत्वात्तु मनोयोगस्य सत्यत्वव्यपदेशः, कारणे कार्योपचारात् / एवमन्यत्रापि / तद्विपरीतो ऽसत्यो-मृषा / यथा नास्ति जीव एकान्तमपो वेत्यादि विमर्शनपरः। सत्यासत्योभयरूपो मिश्री यथा धवखदिरमिश्रेषु बहुप्वशोकवनमिति विकल्पननिष्ठः / न विद्यते सत्यं यत्र सोऽसत्यो न विद्यते मृषा यत्रासावमषा असत्यश्वासावमृषश्च कृताकृतादिवत्कर्मधारयेऽसत्यामुषः / यत्किल विवादे सति वस्तुप्रतिष्ठाशया जिनमतानुसारेण विकल्प्यन्ते तत्सत्यम् / यजिनमतानवतारि विकल्पयते तदसत्यम् / यत्तु वस्तु प्रतितिष्ठासां विना स्वरूपमात्रप्रज्ञापनापरं व्यवहारपतितं विमृश्यते तन सत्यं नाप्यसत्यं किन्त्व सत्यामृतम् / तदेवं देवदत्त घटमानय भिक्षा देहीत्यादिपरामर्शकोऽसत्यामृषो मनोयोगः / एवं यथा मनोयोगश्चतुद्धा तथा तेन प्रकारेणास्ति जीवः सद्रप इत्यादिसमुच्चारणमात्रभेदेन चतुर्की वाग्योग उदाहार्यः / काययोगभेदास्तु सूचकत्वात् सूत्रस्य औदारिको वैक्रिय आहार इति त्रयः, पुनरेत एव प्रत्येकं मिश्रपदविशेषिता इति षट् , कार्मणेन सह सप्त / तत्रोदारः प्रधानं स एवौदारिक प्राधान्यं च तीर्थकरगणधरपुरुषापेक्षया यद्वा सातिरेकयोजनसहस्रमानत्वात् शेषभवधारणीयकायेम्यो महाप्रमाण उदारः, स एवौदारिकः काययोगः / विशिष्टा विविधा वा क्रिया विक्रिया, तस्या भावो वैक्रियः / चतुर्दशपूर्वविदा संशयच्छेदनवार्थग्रहणार्थं तीर्थंकरादिसन्निधिगमन-प्राणिदया-स्वसमृद्धिप्रकटनहेतवे विशिष्टलब्धिवशाद् हियते निर्माप्यत इत्याहारकः / स च जघन्यत एको द्वौत्रयो वा उत्कांतः सहस्त्रपृथक्त्वमानो युगपन्नानाजीवानां सम्भवति / एकजीवस्य त्वेकभवे वारद्वयम् / सर्वभवेषु वारचतुष्टयमेव / चतुर्थवेलायां कृतं तद्भव एव मुक्तेरिति / औदारिको मिश्रो यत्र सामर्थ्याय तेन कार्मणेन स औदारिकमिश्रः / उत्पत्तिदेसे हि समनन्तरागतो जन्तु. रायसमये कार्मणेनैवाहारयति। तत ऊर्धमौदारिकस्याऽऽरब्धत्वात्कार्मणमिश्रेणौदारिकेणकार्मगौदारिकयोमिश्रत्वे समाने पि ओदारिकस्यारम्यमाणत्वेन प्राधान्यादौदारिकमिश्र इति व्यपदेशः। वैक्रियो मिश्र उत्तरवैक्रियारम्भत्यागकालयोः पर्याप्तदेवनारकावपेक्ष्य वैक्रियेण / केषांचिन्मतेन Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे तु कृतवैक्रयसमुद्धातौ तावपेक्ष्य कार्मणेनापि / अपर्याप्तदेवनारकापेक्षया तु कार्मणेन / पर्याप्तवादरवायुकायिकपञ्च न्द्रियतिर्यग्मनुष्यापेक्षया पुनरौदारिकेण यत्र स वैक्रियमिश्रः / अत्रा-ऽपि प्रारम्भकाले प्रारभ्यमाणत्वेन त्यागकाले च बहुव्यापकत्वेन वैक्रियस्य प्राधान्याद्वैकियमिश्र इति व्यपदेशः, न तु कार्मणमिश्र इत्यौदारिकमिश्र इति वा / अत्र सैद्धान्तिका वायुकायिकतिर्यग्मनुष्याणां वैक्रियस्यारम्भकाले औदारिकस्य बहुव्यापारत्वेन प्राधान्यादौदारिकमिश्रमभ्युपयन्ति / अन्ये तु वैक्रियत्यागकाले औदारिकस्य प्रारभ्यमाणत्वेन प्राधान्यादौदारिकमिश्रमभ्युपयन्ति / आहारको मिश्रो यत्र सामर्थ्यप्राप्तेनौदारिकेण स आहारकमिश्रः। अयं च चतुर्दशपूर्वविद आहारकारम्भत्यागकालयोबर्बोद्धव्यः / अन्ये त्वाहारकस्याऽऽरम्भकाले, केचित्त त्यागकाल औदारिकमिश्रं मन्यन्ते / कारणानि तु पूर्ववत् , कमैंव कार्मणम् , कर्मविपाको वा कार्मणः, तपः काययोगः / अयं तु केवल ऋजुगतौ विग्रहगतावुत्पत्तिप्रथमसमये केवलिसमुद्धातस्य च त्रिचतुःपञ्चसमयेषु लम्यते / तैजसकाययोगस्तु सर्वदैव कार्मणसहभावित्वात् कार्मणेनैव संगृहीत इति पृथग्नोक्तः / मनोवाकाययोगानाक्रमकारणं प्रागुक्तम् , मनोभेदेषु प्रशस्यत्वादादौ सत्यस्य, ततस्तत्प्रतिपक्षत्वादसत्यस्य, ततस्तदुभयनिष्पन्नत्वान्मिश्रस्य, तदनुभयलब्धात्मलाभत्वादसत्या. मृषस्योपादानम् / एष एव वाग्भेदेष्वपि निर्देशक्रमहेतुः / काययोगभेदेषु पुनरुत्कृष्टतोऽ-नन्तकालभावित्वेनौदारिकस्य, तत उत्कृष्टतः संख्यातसागरोपमकालभावित्वेन वेक्रियस्य, ततोन्तमुहूर्तकालभावित्वेना-ऽऽहारकस्य, तत औदारिकादियोगमू(लानां मिश्राणां कार्मणे शैदारिकादिमिश्राणाम् / तदनन्तरं केवलस्य कतिपयसमयभावित्वेन संसारान्त(वर्तिनां संसार)निमित्त(त्वेन च कामणस्य निर्देशः // 34 / / अथ तान् मार्गणा) स्थानेषु योजयति / एकारस सुरनार यगईसु आहार उरलदुगरहिया। जोगा तिरियगईए तेरस आहारगदुगुणा // 35 // (यशो०) सुरनारकगत्योरेकादश योगाः। द्विकशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धादाहारकद्विकेन रहिता औदारिकद्विकेन रहिताः / आहारका-ऽऽहारकमिश्रौदारिकौदारिकमिश्ररहिता एकादश योगा इत्यर्थः / आहारकद्विकं यतेरेव औदारिकद्विकं तिर्यग्नराणामेवेति तत्परिहरणम् , तिर्यग्गतौ त्रयोदश, के ? आहारकद्विकेनोना = ऽऽहारकद्विकशेषा / भावना पूर्ववत् // 3 // A अयं च बाहुल्यापेक्षया विवक्षाभेदः / अन्यथौदारिककायस्योत्कृष्टकालो देशोनद्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, वैक्रियस्य चान्तमुहूर्तमात्र एव इति ज्ञयम्। . . . Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु योगाः नरगइपणिंदितसतणुनरअपुमकसायमइसुओहिदुगे। अच्चक्खुछलेसाभवसम्मदुगसन्निसु य सब्वे // 36 // (यशो०) अत्राऽऽद्यार्धे समाहारद्वन्द्वोऽपराद्धे तु "सन्निसु ये"तिपर्यन्त इतरेतरयोगः "अपुमे"ति नपुंसकः अवधिद्विक-मवधिज्ञानावधिदर्शने, सम्यक्त्वद्विकं क्षायोपशमिक-क्षायिके, ततो नरगत्यादिषु पञ्चविंशतिसंख्येषु स्थानेषु सर्वयोगाः / भावना तु प्रतीता // 36 // एगिदिएसु पंच उ कम्मइगविउव्विउरलजुअलाणि / कम्मुरलदुर्ग अन्तिमभासा विगलेसु चउरोत्ति // 37 // (यशो०) तुरेवार्थे, पञ्चैव, एकेन्द्रियेषु के ? कार्मणं युगलशब्दस्य वैक्रिया-ऽऽहार]यौदारि)काभ्यामभिसम्बन्धाद्वैक्रिययुगलमौदारिकयुगलं च / तत्र कार्मणं विग्रहगता ऋजुगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च औदारिकद्विकं पर्याप्तापर्याप्तदशायाम् / वैक्रियद्विकं तु पर्याप्तबादरवायुकायिकापेक्षम् / विकलेषु-विकलेन्द्रियेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु कार्मणमौदारिकद्विकमन्तिमभाषा चासत्यामृषारूपेति चत्वारः / भावना सुगमा // 37 // कम्मुरलदुगं थावरकाए वाए विउविजुयलजुयं / पढमंतिममणवइदुगकम्मुरलदुकेवलदुर्गमि // 38 // (यशो०) स्थावरकाये पृथिव्यादौ वनस्पत्यन्तेऽर्थाद्वायुवर्जे, कार्मणं च औदारिकद्विकं चेति द्वन्द्वे कार्मणौदारिकद्विकमिति योगत्रयम् / एतदेव वायुकाये वैक्रियद्विकेन युतं-युक्तमिति योगपश्चकम् / भावना त्वेकेन्द्रियवत् / प्रथम सत्यमन्तिममसत्यापं मनस्तद्रपं द्विकं प्रथमा सत्यान्तिमाऽसत्यामृपा वाक् तद्रूपं द्विकं कार्मणमौदारिकद्विकं चेति योगसप्तकं केवलज्ञान केवलदर्शनयोः / अत्र द्रव्यमनः प्रतीत्य मनोभेदद्वयमुक्तम् , वागद्वयमौदारिकं च प्रतीतम् / कामणौदारिकमिश्रयोगौ तु समुद्धाते / उक्तश्च-"औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः। मिश्रोवारिकयोक्ता सप्तमषष्ट द्वितीयेषु // कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पंचमे तृतीये चेति // 38 // 'थीवेयअनाणोवसमअजयसासणअभव्वमिच्छेसु / तेरस मणवइमणनाणछेयसामइयचक्खुसु य // 39 // (यशो०) अत्र पूर्वार्द्धप्रतिपादिते स्थाननवके आहारकद्विकवर्जास्रयोदश / द्वितीयार्द्धगते तु स्थानषट्केऽपर्याप्तत्वाभावादौदारिकमिश्रकार्मणवर्जास्रयोदश विवक्षितवर्जनीयं योगद्विकं च सूत्रकृता सुज्ञानत्वान्नोक्तमिति // 39 // .. 1. "थीवेअन्नाणो” इत्यपि पाठः / Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्तो कर्मग्रन्थे परिहारे सुहुमे नव उरलवइमणा सकम्मुरलमिस्सा। अहखाए सविउव्वा मीसे देसे सविउवदुगा // 4 // (यशो०) परिहारविशुद्धिके सूक्ष्मसम्पराये च औदारिको वाक्चतुष्टयं मनश्चतुष्टयं चेति नव / ते पूर्वोक्ता नव कार्मणौदारिकमिश्री केवलिसमुद्घातापेक्षौ / / उपा] (चेत्येकादश योगा यथाख्यात. सं)यमेऽन्त्यगुणस्थानचतुष्कवर्तिनि भवन्ति / तत्र कार्मणौदारिकमिश्री केवलिसमुद्घातापेक्षौ। उपशान्तक्षीणमोहयोस्तु नव नव योगाः / अयोगिनिसर्वयोगाभाव एव / मिश्रगुणस्थानके तच्छब्दानुवृत्या ते पूर्वोक्ताः परिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्परायसम्बन्धिनो नव, वैक्रियसहिता दश / अत्र "नसम्ममिच्छे कुणइ काल" मिति वचनान्मिश्रस्य मरणाभावेन विग्रहगतिभावि कार्मणमपर्याप्तावस्थाभाविनावौदारिकमिश्रदेवनारकसम्बन्धिर्वक्रियमिश्री च न भरन्ति / नरतिरश्वोस्तु सम्यग्मि ध्यादृशोक्रियमिश्राभावो वैक्रियस्यैवाकरणादन्यतो वा कारणादिति तत्त्वविदो विदन्ति / आहारकद्विकाभावः प्रतीतः / देशे-देशविरतेऽत्रापि तच्छब्दानुवृत्या ते पूर्वोक्ता नव वैक्रियद्विकेन तु सहिता एकादश / वैक्रियद्विकं देशविरतस्याम्बडपरिव्राजक स्यैक (स्येव) वैक्रियलब्धौ सत्या द्रष्टव्यम् // 4 // कम्मुरलविउवदुगाणि चरमभामा य छ उ.अमनिमि / जोगा अकम्मगाहारगेसु कम्मणमणाहारे // 41 / / (यशो०)द्विकशब्दस्यौदारिकवैक्रियाभ्यामभिसम्बन्धात्कार्मणौदारिकद्विकवैक्रियद्विकान्यऽसरयामृषा भाषा चेति षड़ योगाः / असंज्ञिनि मनोविज्ञानशून्य एकेन्द्रियादौ / तत्र कार्मणं विग्रहगतो, औदारिकमिश्रोऽपर्याप्तावस्थायाम् , औदारिकं पर्याप्तावस्थायाम् , वैक्रियद्विकंच बादरपर्याप्तवायोः, असत्यामृषा भाषा च पर्याप्तद्वीन्द्रियादीनाम् | आहारकेषु योगा अकर्मकाः कार्मणरहिताश्चतुर्दशेत्यर्थः / यत्तु ऋजुगतौ विग्रहगतौ जोएण कम्मएणं आहारेई अणंतरं जोयो / " इति वचनादुत्पत्तिपञ्चमसमये कार्मणवतोऽप्या-ऽऽहारकत्वम् , तदल्पकालभावित्वान्न विवक्षितमिति (त्यु) च्यते। कार्मणमेकमेवानाहारके / अनाहारको हि मिथ्यादृष्टि-सासादना-ऽविरतगुणस्थानत्रये विग्रहगती सयोगिगुणस्थाने च केवलिसमुद्घाततृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु प्राप्यते / स च तदा कार्मणेनैव योगेन युतः / अयोगिनस्तु अनाहारकस्य न कार्मणयोगोऽपि, निरूद्धसमग्रयोगत्वादेव // 41 // अधुना मार्गणास्थानेषु योजयितुमुपयोगान् भेदतः स्वरूपतश्च तावदाहनाणं पंचविहं तह अन्नाणतिगं ति अट्ठ सागारा। चउदंमणमणगारा बारस जियलक्खणुवओगा // 42 // . (यशो०)उपयुज्यते ऽर्थपरिच्छित्तिं प्रति व्यापार्यत इति उपयुज्यतेऽर्थे परिच्छेदं प्रतिव्यापा Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंघे मार्गणास्थानेषु चोपयोगाः यते जीव एभिरिति वा उपयोगा-जीवस्वतत्त्वभूतबोधात्मनः। ते च परिच्छेद्यभेदावधा। साकारा अनाकाराश्च / तत्र सामान्यविशषात्मके वस्तुनि विशेषांशग्राहिणः साकाराः / सह विशिष्टाकारेण विशेषग्राहित्वात्मकेन वर्तन्ते इति कृत्वा / सामान्यांशग्राहिणोऽनाकाराः / विशिष्टाकारस्याऽभावात् / तत्र ज्ञानपञ्चकं मतिज्ञानादि पूर्वोपवर्णितं मत्यज्ञानाद्यज्ञानत्रिकं चैत्यष्टौ साकाराः / चतुर्णा दर्शनानामचक्षुर्दर्शनादीनां प्राग्व्याकृतार्थानां समाह रश्चतुर्दर्शन मितिशब्दानुवृत्तेरिति दर्शनचतुष्टयरूपा अनाकाराः / एतेन भेदानुगतं स्वरूपमुक्तम् / “जीवलक्खणे"ति जीवानां लक्षगानि स्वरूपाणि 'उपयोगलक्षणो जीव" इति वचनादिदं च सामान्यानुयायि स्वरूपम् / द्वादशेति संख्यायाः सामर्थ्यगम्याया अपि साक्षादुपादानमेतवान्त एव न न्यूनाधिका इति नियमार्थम् / अत्र "सव्वाउ लद्धीओ सागरोवउत्तस्स भवन्ती" ति वचनाल्लब्धिहेतुत्वेन प्राधान्यात् / छद्मस्थगतसाकाराणामन्तमुहूर्त्तकालत्वेनाल्ये-ऽपि साकाराणां पर्यायपरिच्छेदकतयाचिरस्थायित्वेनाऽनाकाम्यः संख्यातगुणकालत्वादादी साकारा उक्ताः, ततोऽनाकाराः / यत्तु विभङ्गज्ञानान्निवर्तमानस्य साकारानाकारोपयोगद्वयेऽपि वर्तमानस्य सम्यक्त्वावधि: ज्ञानप्रतिपत्तिरस्तीत्युक्तं पञ्चमाङ्गतदवस्थितपरिणामापेक्षया "सव्वाओ लद्वीओ" इत्यादि तु वचनं प्रवर्त्तमानपरिणामापेक्षयेति न विरोधः / ज्ञानपञ्चकस्या-ऽज्ञानत्रिकस्य दर्शनचतुष्कस्य च निर्देशक्रमहेतवः प्रागुक्ताः // 42 // अथैतान् मार्गणास्थानेषु योजयतिमणुयगईए बारम मणकेवलदुहिया नवन्नासु / थावरइगबितिइंदिसु अबक्खुदंमणमनाणदुगं // 43 // (यशो०) मनुष्यगतौ द्वादश, तत्र सर्वेषामपि सम्भवात् / मनःपर्यव-केवलद्विकवर्जिता नवाऽन्यासु देव-तिर्यग्नरकगतिपु / मनःपर्यवकेवलद्विकाभावस्तु संयमपरिणामाभावात् / स्थावरेषु पृथिव्यादिषु पञ्चसु एक-द्वि-त्रीन्द्रियेषु चाष्टासु पदेषु अचक्षु दर्शनमत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपमुपयोगत्रयम् // 43 // चक्खुजुयं चरिंदिसु तं चिय बारस पणिदितमकाए। जोए वेए सुक्काएँ भवसन्नीसु आहारे // 44 // (यशो०) चक्षुर्दर्शनयुक्तं तदेव प्राचीनमुपयोगत्रयं चतुरिन्द्रियेषु पञ्च द्रियादिषु द्वादशसु पदेषु द्वादशोपयोगाः प्रतीताः / परं यत्संज्ञिनि केवलद्विक निगदितं तत्केवलिनः संझ्य-संज्ञिव्यपदेशशून्यस्यापि द्रव्यमनोऽपेक्षया 'संज्ञि' इति विवक्षणान्मन्तव्यम् / यस्वनिवृतिवादर एव व्य Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 } षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मपन्ये वच्छिन्नेऽपि वेदत्रिके केवलिद्विकमुक्तम् , तदाकारमात्राश्रयणेन केवलिनो पि पुरुषादिव्यपदेशभाजनत्वाद् द्रष्टव्यम् // 44 // केवलदुगहीणा दस कसायपणलेसऽवखुचक्खसु य / केवलदुगे नियदुगं खड़गे नव नो अनाणतिगं // 45 // (यशो०) कपायचतुष्के लेश्यापञ्चके चक्षुरचक्षुर्दर्शनयोः केवलद्विकेन न्यूना दशः एतेषामभाव एव केवलद्विकसद्भावात् / केवलद्विके निजद्विकं केवलज्ञानकेवलदर्शनात्मकम् / झायिके नव, कथं नोऽज्ञानत्रिकं भवति, तदन्ये भवन्तीति तात्पर्यार्थः // 4 // पढमचउनाणसंजमवेयगउवम् मियओहिदंससु / नाणचउदंसणनिग केवलदुजुयं अहक्खाए // 46 // (यशो.प्रथमचतुःशब्दयोनिसंयमाभ्यां प्रत्येकमभिसम्बन्धात्प्रथमेषु चतुर्यु ज्ञानेषु मत्यादिषु प्रथमेषु चतुर्यु संयमेषु सामायिकादिषु वेदके-झायौपशमिकसम्यकत्वे औपशमिकसम्यकत्वाऽवधिदर्शनयोश्च ज्ञानचतुष्कं दर्शनत्रिकं चेत्युपयोगसप्तकम् / एतदेव केवलद्विकेन सहितं यथाख्यातसंयमेऽन्त्युगुणस्थानचतुष्कवर्तिनि / तत्रोपयोगसप्तकमेतदेव क्षीणमोहयोः, केवलद्विकंच सयोग्ययोगिगुणस्थानयोः // 46 // नाणतिगदंमणतिगं देसे मीसे अनाणमीसं तं / केवलदुगमणपज्जववज्जा अस्संजयंमि नव // 47 // (यशो०) ज्ञानत्रिकमाद्यं दर्शनत्रिकं चाद्यमिति षडुपयोगा देशविरते। मिश्रे-मिश्रगुणस्थाने तदेव ज्ञानत्रिकं दर्शनत्रिकं चेति षट् / केवलं ज्ञानविकमज्ञानमिश्रं द्रष्टव्यम् / इदमत्र तात्पर्यम्मिश्रः सम्यगमिथ्यादृष्टिरूच्यते / ततश्च यावतांऽशेनाऽत्र सम्यगशब्दप्रवृत्तिस्तावता.ऽस्य ज्ञान कथ्यते, यावता च मिथ्याशब्दप्रवृत्तिस्तावता तदेवा-ऽज्ञानमिश्रीभूतं द्रष्टव्यम् / अत एवावधिज्ञानशं कंचिदाश्रित्यावधिदर्शनमप्यत्रोक्तम् , अन्यथा शुद्ध विभङ्गज्ञाने मिथ्यादृष्टेरिव न तदुक्तं स्यात् / केवलद्विकेन मनःपर्यवेन च रहिता नवाऽसंयते-संयमशून्ये मिथ्यादृष्टि-सास्वादनमिश्रा-विरतभेदे न च स्वरूपे / तत्र मिश्रे पडुक्ता एवोपयोगा। मिथ्यादृष्टेः सास्वादनस्य चाज्ञानत्रयम् / सम्यग्दृष्टेनित्रयमवधिदर्शनं च / सर्वेषामप्येषां चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं चेति नवोपयोगभावना // 47 // अन्नाणतिगअभव्वे सासणमिच्छे य पंच उवओगा। दोदंसणतिअनाणा ते अविभंगा असन्निमि // 48 // Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषूपयोगानयविशेषेण योगत्रये गुणस्थान-जीवस्थानो-पयोगयोगसत्कमतान्तराणि च [ 35 (यशो०) अज्ञानत्रिकादिषु षट्स्थानेषु चक्षुरचक्षुर्दर्शनरूपं द्विकमज्ञानत्रिकं चेति पञ्च / इह विभङ्गेऽवधिदर्शनाभाव उक्तः कर्मप्रकृत्यनुवत्त्या / तत्र हि मिथ्यारूपतया सम्यक् विषयानिश्वायकत्वादवधिदर्शनं न विभङ्गात्पृथग्विवक्षितम् / प्रज्ञापनायां तु विभङ्गस्यावधिदर्शनमनुमतम् / यतस्तत्रोक्तम्-“दसणं विभंगोहीण जउतु रूप (ल्ल)मेवेति यथासम्यग्दृशो विशेषविषयमवधिज्ञानमवधिदर्शनं सामान्यविषयमेवं मिथ्यादृशो विशेषविषयो विभङ्गः सामान्यविषयमवधिदर्शनमिति / ते च प्रागुक्ताः पञ्च विभङ्गरहिताश्चत्वारोऽसंज्ञिनि मनोविज्ञानविकले // 48 // अथोपयोगोपसंहरणाय मतान्तरप्रस्तावनायन्नाह- .... मणनाणचक्खरहिया दम उ अणाहारगेमु उवओगा। इय गइयाइसु नयमयनाणतमिणं तु जोगेसु // 49 / / (यशो०) तुरेवार्थे, दशैवोपयोगा अनाहारके / अनाहारको हि विग्रहगतिकेवलिसमुद्धातभवस्थायोगिसिद्धदशास्वेव प्राप्यते / तत्र विग्रहगतौ सम्यग्दृष्टेनितिकमवधिदर्शनं च / मिथ्यादृष्टेः सास्वादनस्य च मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने विभङ्गज्ञानमपि तयाः, . "सन्नी नेरइएसु उरलपरिच्चाग्रणंतरे ममए / विन्भंगं ओहिं वा अविग्गहे विग्गहे लमइ // " इति वचनात्संज्ञिभ्यो नारकेषूत्पद्यमानयोरपर्याप्तदशायां मन्तव्यम् , असंज्ञिभ्यः पुनर्नरकेषूत्पन्नस्य मिथ्यादृशः पर्याप्तदशायामेव विभङ्गज्ञानम् , यत उक्तम्'अस्सन्नी नरगसु पजत्तो जेण लहइ विभंग / नाणा तिन्नेव तओ अन्नाणा दुन्नि तिन्नेवे" ति. एतच्च भानपतिव्यन्तरे-प्वप्युत्पद्यमानयोर्वाच्यम् / ज्योतिष्कवैमानिकेषु पुनरसंज्ञिम्य उत्पाद एव नास्तीत्येव विवादो विभङ्गः / त्रयाणामप्यचक्षदर्शनमेवमेतेष्वष्टौ / केवलिसमुद्घाते भास्थायोगिगुणस्थानके सिद्धेषु च केवलद्विकमिति विवेकः / इति गत्यादिषु उपयोगा योजिता इति शेषः / अत्र नयमतेन-निश्चयनयाश्रयेण नानात्वं विशेषो नयमतनानात्वं योगेषु इदं वक्ष्यमाणम् , तुशब्दः प्राग्व्याख्यानात्करिष्यमाणव्याख्यानव्यतिरेकसूचकः // 49 // तदेव नानात्वमाह-- तणुवइमणेसु कमसो दुवउतिपंचा दुअट्टचउचउरो। तेरसदुबारतेरस गुणजीवुवओगजोगत्ति // 50 // (यशो०) तनौ काययोगे क्रमेण द्वौ चत्वारः त्रयः पञ्च गुणस्थान-जीवस्थानो-पयोग-योगाः / वाचि-बाग्योगे क्रमेण द्वावष्टौ चत्वारः चत्वारो गुणस्थान-जीवस्थानो-पयोग-योगाः / मनसिमनोयोगे क्रमेण त्रयोदश द्वौ द्वादश त्रयोदश गुणस्थान-जीवस्थानो-पयोग-योगा भवन्तीत्यक्षरघटना / भावार्थस्तु काययोगे मनोवाग्रहिते आद्यगुणस्थानद्वयम् , आदिमं जीवस्थानकचतुष्कम् , Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे प्रथमाज्ञानद्विकमचक्षुर्दर्शनं चेत्युपयोगत्रिकम् , वैकियद्विकमौदारिकद्विकं कार्मणं चेति योगपञ्चकम् , मनोवर्जिते न तु कायविरहिते वाचः कायाव्यभिचारित्वाद्वाग्योगे प्रथमगुणस्थानद्वयम् , पर्याप्तापर्यामद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपाण्यष्टौ जीवस्थानानि, इह करणेनाऽपर्याप्तस्य वाग्योगो 'म विनि भूतवदुपचार" इतिन्यायात् , चारचक्षुदेशनमत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपा उपयोगाश्चत्वारः, औदारिकद्विकमसत्यमषाभाषा कार्मणमिति योगाश्चत्वारः / मनोयोगे त्रयोदश गुणस्थानानि अयोगगुणस्थानरहितानि, संज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तरूपे द्वे जीवस्थाने, करणाऽ पर्याप्तस्य मनोयोगो भाविनि भूतवदुपचारात् , उपयोगा द्वादशापि, योगाः कार्मणौदारिकमिश्रवर्जास्रयोदशः / मनोयोगः, कायवाग्भ्यां विना न सम्भवतीति तत्सहचरितो गृहीतः / मनोयोगे च नानात्वं जीवस्थानेष्वेव शेषपदत्रयप्रतिपादनं प्रसङ्गात्कृतम् // 50 // ____ अथ लेश्यानामवसरस्तावोत्तरोत्तरविशुद्धिमत्त्वात्क्रमेण स्वरूपतः प्रागेव प्रदर्शिताः, केवलं मार्गणास्थानेषु योज्यन्ते लेसा उ तिन्नि पढमा नारगविगलग्गिवाउकाएसु। एगिदिभूतरूदगअमन्निसु पढमिया चउरो॥५१॥ (यशो०) नारकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाग्निकायवायुकायेषु तित्र एव, अभ्यासामसम्भवात् / एकेन्द्रियादिके पदपश्चके प्रथमा एव प्रथमिकाश्चतस्रः / तत्र तिस्रः प्रतीताः, तेजसी पुनरीशानान्तजघन्यायुर्देवेभ्य उत्पन्नानां सुभपृथिवीवनस्पत्यप्कायानां करणापर्याप्ततानामवगन्तव्या / एतदपेक्षयैव च करणा ऽपर्याप्तकैकेद्रियासंज्ञिनोस्तेजसो प्रतिपादिता / शेपैकेन्द्रियशेषासंज्ञिनोस्तु मध्ये देवानामुत्पाद एव नास्ति / / 51 // केवलजुयलअहक्खायसुहुमरागेस मुक्कलेंसेव। . लेसासु छमु सठाणं गइयाइमु छावि सेसेमु // 5 // (यशो०) केवलज्ञान-केवलदर्शनयोर्यथाख्याते सूक्ष्मरागे-सूक्ष्मसम्पराये च शुक्लालेश्यैव, .. अन्यासां व्यविच्छिनत्वात् / लेश्यासु षट्सु स्वस्थानं स्वकीयं स्थानं कृष्णायां कृष्णा नीलायां नी. लेत्यादि / शेषेषक्तोद्धरितेषु गत्यादिवेकचत्वारिशति पदेषु षडपि / इह चैकैकस्या अपि लेश्यायाः परिणामतारतम्येनाऽसंख्येया भेदा इति विशुद्धिमधिस्टेषु मनःपर्यव-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकादिषु प्रतिपत्तिकालं विहाय परिणामविशेषापेक्षया प्रथमलेश्यात्रयस्यापि सद्भावात्सामान्येन लेश्या षट्कोक्तिन विरूध्यते / उक्तंच. "सम्मत्तसुयं सव्वासु लहइ सुद्धासु तिसु य चारित्तं / पुठ्यपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेसाए।' इति // 52 // अथ प्रस्तावनापुरस्सरं मार्गणास्थानानामल्पबहुत्वं चिन्तयति / Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [37 मार्गणास्थानेषु लेश्या अल्पबहुत्यञ्च गइयाइसु अप्पबहु भणामि सामन्नओ सठाणे वि / नरनिग्यदेवतिरिया थोवा दुअसंखऽणतगुणा // 53 // (यशो०) गत्यादिषु विभागेन चतुर्दशसु विभागेन द्वापष्टिसंख्येषु मार्गणास्थानेष्वल्पबहुत्वमेतेऽल्पे एतेभ्य एते बहव इत्येवं रूपं "सठाणे वि' त्ति अपिरेवार्थे स्वस्थान एव स्वयमेव स्थानं भेदमपेक्ष्य सामान्यतोऽनपेक्षतया भवनपत्यादिगत्याद्यपेक्षं यथा भवति तथा वच्मि / तत्र नराः स्तोकाः, सर्वस्य संमूर्च्छजपर्याप्तापर्याप्तगर्मजभेदभाजो मनुष्यराशेरसंख्यातत्वेऽपि मनुजक्षेत्र एबोत्पत्तेः। नारकाद्यपेक्षया यदा तु गर्भजा एव नरा गृह्यन्ते तदा संख्याता एवेति स्तोकाः / एतेभ्यो नारकदेयौ द्वावसंख्यातो, नारका असंख्याता देवाश्था-संख्याता इत्यर्थः / अत्र नारकशब्दात्परेण देवशब्दोपपादान्नारकेभ्यो देवा भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क-वैमानिकरूपा असंख्याता इति दृश्यम् / एवमन्यत्रापि यथास्वं वाच्यम् / एतच्च “मइसुयभन्नागिणो तुल्ले" त्यादिवक्ष्यमाणोक्तौ तुल्यादिग्रहणाद् गम्यते / एतेभ्यस्तियश्चोऽनन्तगुणाः / आनन्त्यमत्रानन्तकायिकवनस्पत्यक्षया // 53 // पणउतिदुएगिन्दी थोवा तिन्नि अहिया अणन्तगुणा। तमतेउपुढविजलवाउहरियकाया पुण कमेणं // 54 // थोवा असंखगुणिया तिन्नि विसेसाहिया अणन्तगुणा / (यशो०) सूचकत्वात्सूत्रस्य ' इंदी'त्यनेन सूचितस्येन्द्रियस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात्पञ्चेन्द्रियाश्चतुरिन्द्रिया इत्यादि दृश्यम् , ततः पञ्चन्द्रिया असंख्याता अपि उत्तरापेक्षया स्तोकाः / एवमुत्तरत्रापि यथास्वं संख्याताऽसंख्यातानन्तोत्तरपदापेक्षया स्तोकत्वमुद्भाव्यम् / एम्यश्चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रियास्रयेऽधिका विशेषाधिकाः / अत्रापि चतुरिन्द्रियेभ्यस्त्रीन्द्रिया विशेषाधिका इति निर्देशक्रमानुसारेण गम्यम् / एवमन्यत्रापि विशेषाधि. कत्वादि यथासम्भवं वाच्यम् / एकेन्द्रिया अनन्तगुणास्तेष्वनन्तवनस्पतिसद्भावात् / तथा सा द्वीन्द्रियाद्यास्त्रसनाडीमात्रान्तर्गतत्वेन स्तोकाः, ततस्तेजस्कायिका मनुष्यक्षेत्रभाविनो पादराः, सर्वलोकभाविनः मूक्ष्मा इत्यसंख्याताः / ततः पृथिवीकायिकास्ततोऽप्कायिकास्ततोऽपि वायुकायिका इति त्रयोऽप्यधिका = विशेषाधिकाः / यतो वादरपर्याप्ताग्निभ्यो वादरपर्याप्तपृथिव्यब्वायवः क्रमेणाऽसंख्याताः, ततोऽग्निपृथिवीजलवायव एव पादराऽपर्याप्ता असंख्याताः, ततः सूक्ष्माऽपर्याप्तास्तेजःकायिका असंख्याताः, ततः सूक्ष्मापर्याप्ताः पृथिवीजलवायवो विशेषाधिकाः, तेभ्यः सूक्ष्मपर्याप्ताग्नयोऽसंख्याताः, तेभ्यः सूक्ष्मपर्याप्तभूजलवायवो विशेषाधिका इति .. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] - षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मगन्थे प्रज्ञापनातृनोपपदार्थलेशः / वनस्पतयोऽनन्ता / आनन्त्यमनन्तकायिकापेक्षम् / दिग्विभारपेशं तु प्रज्ञापनातृतीयपदोपदर्शितम् / तं गत्यादिद्वारत्रयगोचरमल्पब हुन्वमेवम्-दक्षिणो. दीचीदिशोर्भरतैरावतादिलघुक्षेत्रवर्तितया नराः स्तोकाः। दक्षिणस्यामसंख्यातगुणाः। तस्या हि प्रसूतपापाः कृष्णपक्षिकास्तियश्चः प्रचुरा उत्पद्यन्त इते सप्तम्याम् / एवं पष्ठयादिषु रत्नप्र. भान्तासु नारका वाच्याः / पूर्वप्रतीच्योर्भवनानां स्तोकत्वात्तनिवासिनोपि देवाः स्तोकाः / उदीच्यामसंख्यातगुणाः / याम्यायां भवनबहुत्वादसंख्यातगुणाः / यतो निकाये निकाये चत्वारि चत्वारि शतसहसाण्यतिरिच्यन्ते / पूर्वस्यां व्यन्तराः स्तोकाः / यतो यत्र शुषिरं तत्र व्यन्तराः प्रचरन्ति, यत्र पुनर्घनं तत्र न प्रचरंतीति घनत्वात्पूर्वस्याममीषामुपपत्तिमती] (तेरतीव)स्तोकता / अधोलौकिकग्रामसद्भावादपरस्यां विशेषाधिकाः / तत एव च याम्यायां विशेषाधिकाः / प्राचिप्रतीच्योः स्तोका ज्योतिप्काः, यतश्चन्द्रसूर्यद्वीपेषूद्यानकल्पेषु तेषामल्पा राजधान्यः / विमानबहुत्वात्कृष्णपाक्षिकदक्षिणदिग्गामित्वाच्च दक्षिणस्यां विशेषाधिकाः / उदीच्यां विशेषाधिकाः / यस्मात्संख्येयासंख्येययोजनेभ्यो बहिर्दीपवर्तिनि विस्तरदीर्घत्वाभ्यां संख्यातयोजनकोटीकोटीके मानसाभिधाने सरसि बहून् ज्योतिष्कांस्तान् क्रीडनव्यावृताननवरतमवलोक्य मत्स्यादयो जलचराः संजातजातिस्मरा आसन्नविमानदर्शनकृतनिदानाः किंचद्वतं प्रतिपद्य कृतानशना ज्योतिष्केघृत्पद्यन्ते / वैमानिका आद्यकल्प चतुष्टयवासिनः पूर्वस्यामपरस्यां च स्तोकाः। यत आवलिकाप्रविष्टानि विमानानि चतसष्वपि दिक्ष तुल्यानि पुष्पावकीर्णानि तु दक्षिणस्यामुत्तरस्यां च बहून्यसंख्यातविस्तृतानि च ततः पूर्वापरयोः पुष्पावकीणविमानद्वारेणोदितदेवाः स्तोकाः / उत्तरस्यां पुष्पावकीर्णविमानबहूत्वेनासंख्येययोजनविस्तृतत्वेन च सौधर्मवासिनोऽसंख्यातगुणाः। दक्षिणस्यां विशेषाधिकाः, दक्षिणदिग्गामित्वाद् बहूनां कृष्णपाक्षिकजीवानाम् / ईशानवासिन उत्तरस्यामसंख्यातगुणाः। याम्यायां विशेषाधिकाः / सनत्कुमारवासिनोऽसंख्यातगुणा उत्तरस्याम् / विशेषाधिका याम्यायाम् / एतद्दिग्गामिनोहि बहव कृणपाक्षिकाः, स्वल्पाः शुक्लपाक्षिकाः / एवं महेन्द्रवासिनोऽपि / ब्रह्मलोकवासिनः पूर्वापरोत्तरासु स्तोकाः / शुक्लपाक्षिका हि अल्पा एता सूत्पद्यन्ते। उदीच्यामसंख्यातगुणाः / याम्यां त एव विशेषाधिकाः / प्रचुरकृष्णपाक्षिकतिरश्चा तत्रोत्पत्तेः / एवं सहस्रारं यावत् / आनतादिवासिनो बहुसमा मनुष्याणामेव हि तेषूत्पत्तिः / तिर्यश्च एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियविशेषरूपाः / अत एवैषामल्पबहुत्वमिन्द्रियकायद्वारयोर्वमः / तत्रेन्द्रियद्वारे पृथिव्यादयः सूक्ष्माः प्रायः सर्वत्र समा एवेति तानुपेक्ष्य बादरानाश्रित्याल्पबहुत्वमित्यम्-पृथिवीकायिका दक्षिणस्यां स्तोकाः / यतो यत्र घनं तत्र पृथिवी बहुर्यत्र शुषिरं तत्र स्तोका। ततोऽस्यां बहुतरा भवनावासाश्च शुषिरा इति स्तोकता तेषाम् / उदीच्या विशेषाधिकाः, भवनापासनरकावासस्तोकतया / प्राच्यां चन्द्रसूर्यद्वीपावधिकृत्य विशेषाधिकाः / Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषवल्पबहुत्वम् [ 36 अपरस्यां विशेषाधिकाः / पड्सप्ततिसमधिकयोजनसहस्रोचत्वेन द्वादशयोजनविष्कम्भेण लवणोदधिमध्यवर्तिना गोतमाभिधानद्वीपेन नवयोजनशतावगाहाधोलौकिकग्रामैश्च सहितावेतावधिकृत्य अपरस्यामापः स्तोकाश्चन्द्रसूर्यगोतमद्वीपानपेक्ष्य / पूर्वस्यां विशेषाधिकाः, यतश्चन्द्रसूर्यद्वीपयोरेव तत्र भावो न तु गौतमद्वीपस्य / याम्यायां चन्द्रसूर्यद्वीपाभावाद्विशेषाधिकाः / उदीच्यां तु पूर्वोपवर्णितमानससरःसद्भावेन तासां विशेषाधिकत्वम् / एवमुदीच्या मानसापेक्षया वनस्पति-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय-पञ्वेन्द्रियतिरश्चां पूर्वादिदिक्त्रयापेक्षया विशेषाधिकत्वकारणमन्वेषणीयम् / दक्षिणोत्तरयोस्तेजस्कायिकाः स्तोकाः / यतोऽत्र मनुजास्तत्र पाकारम्मेण बादरतेजस्कायानां सम्भव इति भातैरावतेषु मनुष्याणामल्पत्वात् सुषमादिप्वभावाच्च स्तोकास्ते / पुरस्ताद्विदेहवर्तिमनुजजनितपाकारम्भद्वारा संख्यातगुणाः / पश्चिमायामधोलौकिकप्रामान्तरीकृत्य विशेषाधिकाः / पूर्वस्यां वायवः स्तोकाः / यस्माद्यत्र शुषिरं तत्र वायुर्यत्र घनं तत्र नासावस्ति / अधोलौकिकयामापेक्षयाऽपरस्यां विशेषाधिकाः। उत्तरस्यां भवनछिद्रबहुत्वान् विशेषाधिकाः / दक्षिणस्यां भवनबहुत्वात् शुषिरबहुत्वमिति विशेषाधिकाः / बहुतरभवनछिद्रबहुत्वादेव / पूर्वस्यां स्तोका वनस्पतयः / इयमत्र भावना-इह सर्वबहवो वनस्पतय इति ते यत्र सन्ति तत्र तेषां बहुत्वम् / तेषां च तत्र बहुत्वं यत्राऽप्कायः, यत्राऽयं तत्र नियमेन वनस्पतिः पनकशेवलहढादिवोदरः / ततश्च द्वीपद्विगुणविष्कम्भेषु समुद्रेषु सलिलं बहु / प्राचीप्रतीच्योत्र चन्द्रसूर्यद्वीपाः सन्ति / यत्र च तेऽवगाढास्तत्रोदकाभावः, तदभावाच वनस्पत्यभाव इति प्राच्या स्तोका वनस्पतयः / प्रतीच्यां तु लवणसमुद्रे गौतमद्वीपोऽभ्यधिकस्तत्र च जलाभावादल्पतरा वनस्पतयः / याभ्यायां तु चन्द्रसूर्यद्विपाभावात्पूर्वतो विशेषाधिकाः / याम्यातोऽप्युदीच्यां मानससरोऽपेक्षया विशेषाधिकाः / मानसजलनिश्रया वनस्पतिवदुदीच्यां द्वित्रिचतुरिन्द्रियपश्चन्द्रियतिरश्वां दिक्त्रयाऽपेक्षया बहुत्वमुत्तरत्रोहनीयम् / एवं चैकेन्द्रियाः कायपञ्चकाव्यभिचारिण इत्येकेन्द्रियाणामल्पबहुत्वभावनयैव कायपश्चकाल्पबहुत्वमिहापि लाघवाथै निर्णीतमेवेति कायद्वारे कायपञ्चकस्या-ऽल्पबहुत्वगवेषणा न कार्याः। द्वि-त्रि-चतुरि न्द्रियाः पञ्चन्द्रियतिर्यश्वश्च प्रतीच्या स्तोकाः। पूर्वस्यां विशेषाधिकाः। दक्षिणस्यां विशेषाधिकाः / उत्तरस्यां विशेषाधिकाः। सुरनरनारकरूपाः पञ्चन्द्रियाः प्रागेवाल्यबहुत्वेन निर्णीता एव / कायद्वारे पृथिव्यादयो वनस्पत्यन्तास्त्रसाश्वाल्पबहुत्वेन चिन्तिता एवेति गतीन्द्रियकायेति द्वारत्रयमूरीकृत्य दिगपेक्षयाल्पबहुत्वचिन्ता कृतोपयोगित्वात् // 54 // मणवयणकायजोगी थोवअसंखगुणणन्तगुणा // 55 // (यशो०) मनोयोगिनो गर्भजतिर्यग्मनुष्या देवा नारकाच असंख्याता अपि स्तोकाः / ततो वाग्योगिनो द्वीन्द्रियादयोऽसंख्यातगुणाः / काययोगिनः सर्वे संसारिणोऽनन्तगुणाः / आनन्त्यं Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे / प्रागिव / यद्यपि निगोदजीवानामनन्तानामप्ये कमौदारिकं वपुस्तथापि कार्मणापेक्षयानन्त. गुणत्वम् // 5 // पुरिसहिंतो इत्थी संखेजगुणा नपुसणन्तगुणा / माणी कोही मायी लोभी कमसो विसंसहिया // 56 // (यशो०) पुरुषेभ्यो देवगर्भजमनुजतिर्यविशेषरूपेभ्योऽसंख्यातेभ्यः स्त्रियो देवीनारीतिरश्च यः . संख्यातगुणाः / स्त्रीभ्यः पुरुषाः स्तोका इति तु सामर्थ्यलभ्यम् / उक्त च"तिगुणा तिरूवअहिया तिरियाणं इथिओ मुणेयव्वा / सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिया चेव / / बत्तीसगुणा बत्तीसरूवअहिया य तह य देवाणं / देवीओ पन्नत्ता सुत्ते जीवाभिगमनामे // " नपुसकाः पूर्वोण्वर्णितस्त्रीपुरुषवर्जाः संसारिणोऽनन्ताः. आनन्त्यं प्राग्वत् / तथा मानिनः स्तोकास्ततः क्रोधिनो विशेषाधिकास्ततोमायिनस्ततो-ऽपि लोभिनः / यद्यप्यमी चत्वारोप्य मन्तवनस्पतिगतेन सामान्येनाऽनन्तास्तथापि कषायसत्तामात्रस्या-ऽविवक्षया तथाविधोपयोगरूपमिह कपायित्वमङ्गीकृतमितिस्वल्पकालत्वात् मानोपयोगस्य मानिनामल्पमनन्तत्वम् , ततःक्रोधादीनां यथाक्रमं बहुतरबहुतम कालत्वात् क्रोधमायालोभोपयोगानां विशेषाधिकमानन्त्यमवगन्तव्यम्। 56 // मणपजविणो थोवा ओहिन्नाणी तआं असंखगुणा / महसुयनाणी तत्तो विसेसअहिया समा दोवि // 57 // (यशो.)मनःपर्यवज्ञानिनःस्तोकाः-परिमिताः,मनः पर्यवज्ञानस्य विशुद्धिमच्चारित्रवतामेव भावात् / ततोऽवधिज्ञानिनोऽसंख्यातगुणाः, असंख्यातानां देवनारकाणां भवप्रत्ययस्य तिर्यग्मनुष्याणां सम्यग्दृशां गुणप्रत्य यस्यावधेः सद्भावात् / ततो मतिज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च विशेषाधिकाः, यतस्तेऽवधिज्ञानिनो-ऽपि मनःपर्यायज्ञानिनोप्यवध्यादिरहिता अपि पञ्चेन्द्रिया भवन्ति [परस्परपेक्षया भवन्ति / परस्परापेक्षया पुनरुभयेऽप्यमी तुल्या एव / अत एवोक्तं "समा दो वो'ति // 5 // विन्भंगिणो असंखा केवलनाणी तओ अणन्तगुणा / तत्तोऽणन्तगुणा दो मइसुयअन्नाणिणो तुल्ला / / 58 // (यशो०) तत इत्यनुवृत्या तेभ्यो मतिश्रुतज्ञानिभ्यो विभङ्गज्ञानिनोऽसंख्या असंख्याता मिध्यादृष्टिसुरादीनां विभङ्गभाजां सम्यग्दृष्टयपेक्षयाऽसंख्यातगुणत्वात् / ततोऽनन्तगुणाः केवलिनः, सिद्धकेवलिनामनन्तत्वात् / ततोऽनन्तगुणा मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्च, अनन्तकायिकप्रक्षेपात् / सिद्धकेवलिनोऽपि हि एकस्यापि निगोदस्यानन्ततम एव भागे वर्तन्ते, परस्परममी उभयेऽपि तुल्या एव / तत एवोक्तं "तुल्ला" इति // 58 // Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (41 मर्गा थानेष्वल्पबहुत्वम् सुहुमपरिहारअहखायछेयसामइयदेसजयअजया / थोवा संखेजगुणा चउरो अस्संखणन्तगुणा // 59 / / (यशो०) अत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् सूक्ष्माः पूक्ष्मसम्परायाः स्तोकाः, उत्कृष्टतोऽपि शतपृथक्त्वमानत्वात्तेषाम् / पृथक्त्वं च द्विप्रभृतिरानवभ्यः संख्या / ततः परिहारे''ति परिहारिकाः संख्येयगुणास्ते पामुत्कृष्टतः सहस्रपृथक्त्वमानत्वात् / ततो यथाख्यातचारित्रिण उपशान्तमोह-क्षीणमोह-सयोगि-भवस्था-ऽयोगिनः संख्यातगुणाः / यत उपशान्तमोहक्षीणमोहानां मिलितानामुत्कृष्टतः शतपथक्त्वम् / एतच्च तु पञ्चादिशतरूपम् / यत्त्वग्रे केवलानां क्षीणमोहान शतपथक्त्वं वक्ष्यते, तद् द्वयादिशतरूपं मन्तव्यम् / सयोगिनां कोटिपृथक्त्वम् / भवस्थाऽयोगिनां अट्ठसयभेगसमयभो सिज्' इतिवचनाद् अष्टोत्तरं शतं प्राप्यते / एतेभ्यश्छेदोपस्थापनीय चारित्रिणः संख्यातगुणाः, तेषामुत्कृष्टतः कोटीशतपृथक्त्वमानत्वात् / ततः सामायिकचारित्रिणः संख्यातगुणाः, तेपामुत्कृष्टतः कोटीसहस्रपृथक्त्वमानत्वात् / ततो देशयता-देशविरता असंख्यातगुणाः, असंख्यातत्वाद्देशविरततिरश्चाम् / ततोऽयता आद्यगुणास्थानचतुष्कवर्तिनोऽनन्ताः, अनन्तकायिकप्रक्षेपात् // 56 // इय ओहिचक्खुकेवलअचक्खुदंसी कमेण विन्नेया / थोवा अस्संखगुणा अणन्तगुणिया अणन्तगुणा / / 60 // (यशो०) इत्यमुनोल्लेखेन विज्ञेया इति संटङ्कः / अवधिना चक्षुषा केवलेनाऽचक्षुषा च पश्यन्तीत्येवं शीला अबध्यादिदर्शिनोऽवधिदर्शनवदादयः। तत्रावधिदर्शिनः स्तोकाः, अवधिदर्शनस्य करणापर्याप्तपर्याप्तानां संज्ञिपञ्वेन्द्रियाणां केषांचिदेव भावात् / तेभ्यश्चक्षुर्दशनवन्तोऽसंख्यातगुणाः, केवलिबर्जसर्वपर्याप्तचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियव्यापकत्वाच्चक्षुर्दर्शनस्य / ततोऽनन्तगुणिताः केवलदर्शिनः, अनन्त-सिद्धकेवलिप्रक्षेपात् / ततोऽनन्तगुणा अचक्षुर्दर्शनिनः, सर्वे केवलिवर्जा एकेन्द्रियादयः, अनन्तगुणत्वमनन्तवनस्पतिप्रक्षेपात् / / 60 // सुक्का पम्हा तेऊ काऊ नीला य किण्हलेमा य / थोवा दो संखगुणाऽणन्तगुणा दो विसेमहिया // 61 // (यशो०) इह गुणगुणिनोरभेदात् शुक्लादिलेश्याशब्देन शुक्लादिलेश्यावन्तो ग्राह्याः / तत्र शुक्ललेश्यावन्तः स्तोकाः, असंख्याता अप्युत्तरापेक्षया कतिपयमहर्दिकब्रह्मलोकदेवसंख्यातायुगर्भज नरतिरश्चां तथा लान्तकाद्यनुत्तरान्तविमानवासिनामेव शुक्लायाः सद्भावात् / ततः पद्मले श्यावन्तः संख्यातगुणाः, कतिपयसनत्कुमारदेवसंख्यातायुगर्भजनरतिरश्चां माहेन्द्रदेवानां भूयसा Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 ] पडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे च ब्रह्मलोकदेवानां पद्माया भावात् / अधस्तना हि यथाक्रमं वैमानिका बहवः / ततस्तेजोलेश्यावन्तः संख्यातगुणाः, ज्योतिष्क-सौधर्मशानवासिदेवानां कतिपयसनत्कुमारवासिदेवभवनपतिव्यन्तरसंख्याता-ऽसंख्यातायुर्गर्भजनरतियंगपर्याप्तवादरपृथिव्यप्प्रत्येकवनस्पतिकायानां तेजस्याः सम्भवात् / ततः कापोतलेश्यावन्तोऽनन्तगुणाः, कतिपयतृतीयनरकनारकभवनपतिव्यन्तरसम्मुर्छजसंख्यातासंख्यातायुनरतिर्यगपर्याप्तपर्याप्तपथिव्युदक तेजोवायुप्रत्येकाऽनन्तवनस्पतिविकलेन्द्रिया-ऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामाद्यद्वितीयनरकनारकाणां च सर्वेषां कापोत्याः सम्भवात् / ततो नीललेश्यावन्तो विशेषाधिकाः / ततोऽपि कृष्णलेश्यावन्तः / कथमेतद्यावता-ऽनन्तराभिहितनरकनारकवर्जेष्वेव कापोत लेश्यावत्सु नीलकृष्णलेश्ये प्राप्येते, यस्तु कतिपयतृतीयपश्चमनरकनारकेषु चतुर्थनरकनारकेषु च नीललेश्या कतिपयपञ्चमनरकनारकेषु षष्ठसप्तमनरकनारकेषु च कृष्णलेश्येति विशेषः, स प्रत्युताधिकत्वप्रतिकूलः,अधस्तनाधस्तननरकवासिनो हि नारकाः स्तोकाः, सत्यम् , किन्तु येषु प्रथमं लेश्यात्रयं प्राप्यते तेषु कापोतलेश्यावद्भ्यः संक्लिष्टत्वेन नीललेश्यावन्तः किंचदधिकास्तेभ्योप्यतिसंविलष्टत्वेन कृष्णलेश्यावन्तः / यदुक्तम्-एकेन्द्रियानाश्रित्य भगवतीसप्तदशशतकद्वादशोद्देशके-"गोयमा सव्वत्थोवा एगिन्दिया तेउलेसा काउलेसा अणन्तगुणा नीललेसा विसेसाहिया किण्हलेसा विसेसाहिये"ति // // 61 // थोवा जहन्नजुत्ताणतयतुल्लत्ति इह अभव्वजिया / तेहितोऽणन्तगुणा भव्वा निव्वाणगमणऽरिहा // 62 // (यशो०) स्तोका इह संसारे-ऽभव्यजीवाः / किंप्रमाणाः ? जघन्यं च तद्युक्तानन्तकं च तेन तुल्याः। परित्तयुक्तनिजपदोपाधिवशाद्धि त्रिविधमप्यऽनन्तकं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदान्नवविधम् / तच्च जीवसमास-सा शतकादिभ्योऽभ्यूह्यम् / इह तु विस्तारभिया नाविर्भाव्यते / तेम्योऽभव्येभ्योऽनन्तगुणा भव्याः / अभव्याः सिद्धानामनन्तभागे, भव्यास्तु सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणा इति ह्यागममुद्रा / ते पुनः कीदृशाः, निर्वाणगमनमवश्यप्राप्यत्वेनार्हन्ति ये, त इह भव्याः,न पुनः सामग्गिअमावाओ ववहारगरासिअपवेसाओ / भव्यावि ते अणन्ता जे सिद्धिसुहं न पावेति // गाथोक्तस्वरूपा अपि // 62 // सासाणउवसमियमिस्सवेयगकखइगमिच्छदिट्ठीओ / थोवा दो संखगुणा असंखगुणिया अणन्ता दो॥६३॥ (यशो०) सास्वादना उत्कृष्टतः क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागवा-ऽऽकाशप्रदेशप्रमाणत्वेना- . ऽसंख्याता अपि औपशमिकाऽपेक्षया स्तोकाः / सास्वादनत्वं हि औपशमिकं त्यजतां मिथ्यात्वं चाप्राप्नुवतां प्राप्यते / तत्र यावन्त औपशामिकं प्राप्नुवन्ति न तावन्तः सर्वेऽपि सास्वादनत्व Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 43 मार्गणास्थानेष्वल्पबहुत्वम् स्पृशः, किन्तु केचिदेवा-ऽनन्तानुबन्ध्युदयादिति सास्वादनाः स्तोकाः / अत एवा.ऽमीभ्य ओपशमिकसम्यक्त्वभाज उपशमाः संख्यातगुणा उक्ताः / ते हि "अस्संखाउयतिरिया विमाणियो पढमपुढविनेरइया / मणुया य तिसंमत्ता वेयगउवसामगा सेसा॥" इत्युक्तेबहवः तृतीयनरके ऽपि कृष्णवन्नारकाणां क्षायिकसम्यक्त्ववतां सद्भावेन 'पढमपुढविनेरइयो' तिन व्यभिचारित्वम् , तेषां तद्वता कादाचित्कत्वेनाल्पत्वादविवक्षितया जीवसमासवृत्युक्तयेति / औपशमिकेभ्यो मिश्राः सम्यग्मिध्यादृशः संख्यातगुणाः। ते ह्यौपशमिकसम्यक्त्वभाग्भ्यो बहवो भवन्ति, यदा स्युः, मिश्रपरिणामस्य ह्य कस्मिन्नपि भवे एकस्यापि जीवस्य सर्वगतिष्वपि पुनः पुनः सम्भवः / औपशमिकं त्वनादिमिथ्यादृष्टीनां ग्रन्थिभेदे भवत्युपशमश्रेणी चाधिरोहतां कति. पयानामित्युपपन्नमौपशमिकसम्यक्त्ववद्भ्यो मिश्राणां संख्यातगुणत्वम् / कादाचित्कत्वं सास्वादनौपशमिकसम्यग्दृशोरपि समानम् / यदबोचाम"अप्पज्जत्तमणुस्सा वेउव्यिय मिस्तमीसन्दिट्ठी य / तह सुहुमसम्पराया परिहारियछेयचारित्ता / अप्पुवकरणअणियट्टिबायरा तहुवसन्तमोहा य / आहारगमिस्सोवि य सासणदिट्ठी य भयणिजा।।" इत्येते एकादशापि "भयणिज्ने" ति कदाचिद्भवन्ति, कदाचिन्नेत्यर्थः / तथाहिपर्याप्ता अपर्याप्ताश्च गर्भजमनुजाः सदाभाविन इति लब्धितः करणतश्चा-ऽपर्याप्ताः सम्मूछेजा मनुजा अपर्याप्तमनुष्या मिश्राः सास्वादनाश्चैते त्रयः सर्वस्मिल्लोके कदाचित्पल्योपमाऽसंख्येयभागं यावन्न भवन्ति / नरकदेवगतो द्वादश मूहूर्त्ता उत्पादविरहकाल उक्त इति नारकदेवानामुत्पत्तिसमयभाविनो वैकियशरीरानिष्पत्तौ वैक्रियमिश्रयोगाः कादाचित्काः / एतच्छेपयोगास्तु सदाभाविनः / लब्धिप्रत्ययतिर्यग्मनुष्यवैक्रियमिश्रयोगाः पुनरिह न विवक्षिताः / सूक्ष्मसम्पराया उत्कृष्टतः षण्मासान्यावन्न भवतीति कादाचित्काः / यतः क्षपकश्रेणि षण्मासान्यावन्न कोऽपि कदाचित्प्रतिपद्यते / एवमपूर्वकरणा-ऽनिवृत्तिबादराणामिहोक्तानामनुक्तानां च क्षपकश्रेण्यारम्भक्षीणमोहायोगिनामप्युत्कृष्टमन्तरं वाच्यम् / मिथ्यादृष्टय-ऽविरतदेशविरतप्रमत्ताऽप्रमत्तसयोगिनां सदैव लोके सद्भावेन च विरहकालासम्भवः / पारिहारिका अवसप्पिण्यामादित एव एकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणं पञ्चकं षष्टं चारकं उत्सपिण्यां तावत्प्रमाणं प्रथमं द्वितीयं चारकं यावद्भरतैरावतेषु जघन्यतो न भवन्ति / छेदोपस्थानीयचारित्रिणोऽवसपिण्या उक्तप्रमाणं पष्ठमरकमुत्सप्पिण्या उक्तप्रमाणं प्रथमं द्वितीयं चारकं यावद् भरतैरावतेषु जघन्यतो न भवन्ति / उभयेपि पारिहारिकाः च्छेदोपस्थापनीयचारित्रिणश्चाष्टादशसागरोपमकोटीकोटीर्यावन्न प्राप्यन्ते / उत्सप्पिण्या आदित एव सागरोपमकोटीकोटिद्वयप्रमाणं चतुर्थ सागरोपमकोटीकोटित्रयमानं पञ्चमं सागरोपमकोटीकोटिचतुष्टयप्रमितं षष्ठं चारकं यावन्न भवन्ति, अवसपिण्यामपि सागरोपमकोटीकोटिचतुष्कप्रमाणं प्रथमं - सागरोपमकोटीकोटित्रय Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] पडशीतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थे परिच्छिन्नं द्वितीयं सागरोपमकोटीकोटिद्वयावच्छिन्नं तृतीयं चारकं यावन्न भवन्ति / यः पुनरुत्सरिडण्याश्चतुर्थारकस्यादाववसण्यिास्तृतीयारकस्य पर्यन्ते कियन्तमपि कालं उभयेषामपि सद्भावः सोऽल्पकालत्वेन न विवक्षित इति न तेन न्यूनता उत्कृष्टविरहकालस्य / उपशान्तमोहा उपशमश्रेणिवर्तिनश्चोत्कृष्टतो वर्षपृथत्यवं यावन्न भवन्ति / एवमाहारकमिश्रयोगोऽपि / प्रयोजनाभावनाहारकशरीरस्या-ऽऽरम्भाभावेनाहारकमिश्राभावात् / “आहाराई लोए छम्सासं जा न हुन्ति उ कयाई ति प्रज्ञापनावचनं तु मतान्तरेण / एतेषां च मिश्रादीनां यथावसरमुत्तरत्रापि कादाचित्कत्वं भावनीयम् / मिश्रेभ्यः क्षायोपशमिकभाजोऽसंख्यातगुणाः / एते हि सर्वदेवा-ऽसंख्यातगुणाः प्राप्यन्ते / मिश्रास्तु कदाचिदेव, कादाचित्कत्वं त्वनन्तरमेव प्रत्यपादि / वेद्यन्ते ऽनुभूयन्ते शुद्धसम्यक्त्वपुञ्जपुद्गला अस्मिन्निति वेदकंक्षायोपशमिकमुपचारात्तु तद्वन्त उक्ताः / एवं क्षायिकशब्देन क्षाथिकवन्तो मन्तव्यास्ततः क्षायोपशमिकवद्भ्यः क्षायिका अनन्तगुणाः / सिद्धानामपि क्षेपात् / क्षायिकवद्भ्यो मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः / एते ह्यनन्तास्तून्सपिण्यवसपिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणाः / क्षायिकवन्तस्तु एकनिगोदजीवानामध्यनन्तभाग एव वर्तन्ते // 6 // सन्नी थोवा तत्तो अणन्तगुणिया असन्निणो 'हुन्ति / थोत्राणाहारजिया तदसंखगुणा सआहारा // 64 / / (यशो०) संज्ञिनो मनोविज्ञानान्वितास्ते च पर्याप्तपञ्चेन्द्रिया एवेत्यऽसंख्यातमात्रत्वेनाऽसंज्ञिभ्यः स्तोकाः / ततः संशिभ्योऽसंज्ञिनोऽनन्तगुणिताः, पृथिव्याद्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियान्तजन्तुव्यापित्वादसंज्ञित्वस्य / स्तोका आहारका-ऽपेक्षयाऽनाहारकजीवास्तेषां विग्रहगतिमापन्नानामनन्तानां सिद्धानां चाऽनन्तानां सद्भावादानन्त्येऽपि तेभ्योऽसंख्यातगुणास्तदसंख्यातगुणाः, के ? सहाहारेण वर्तन्ते इति साहारा आहारका इत्यर्थः / अनाहारका हि एकस्यापि निगोद स्यासंख्येयभागवर्तिनोऽभिहिताः, अतोऽनाहरकेभ्योऽसंख्यातगुणा आहारकाः // 64 // ____ उक्त मार्गणास्थानगताभिषेयपदषट्कमिदानी गुणस्थानेषु जीवस्थानाधभिवेयपददशक प्ररूपयितुकामो जीवस्थानानि तावदाह मिच्छे सव्वे छ अपज्ज सन्निपज्जत्तगो य सासाणे। सम्मे दुविहो सन्नी सेसेसु सन्निपज्जत्तो // 65 // (यश०)मिथ्यात्वे सर्वाणि जीवस्थानानि / सर्वत्रेकेन्द्रियादौ मिथ्यात्वस्य सम्भवात् / सूक्ष१. "होति" इत्यपि पाठः। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मार्गण स्थानेष्वल बहुत्वं तथा गुग थानेषु जीवस्थानानि योगाश्च केन्द्रिय जण्यिपर्याप्तरूपाणि षट् संजिपर्याप्तवं ति सास्वादने सप्त सास्वादनस्य हि संज्ञिपर्याप्तत्वं निर्विवादसिद्धम् / संशिपर्याप्तस्य च बादरैकेन्द्रियादिषु पूर्व बद्धायुपः पर्यन्तसमय औपशमिफ प्राप्य तदेव वमतो मिथ्यात्वं चाप्राप्नुवतस्ते धेवोत्पद्यमानस्योत्कृष्टतोऽपि पडावलिकामानत्वेनाऽपर्याप्तदशायामेव सास्वादनत्वं भवतीति सास्वादनस्या पर्याप्तरूपमेव च दरैकेन्द्रियादिजीवस्थानषट्कम् , न तु पर्याप्तरूपम् / सूक्ष्मैकेन्द्रियेषु बद्धायुप औपशमिकं न लभत इति तत्र सास्वादनत्वाभावः / सम्यक्त्वे-उपचारादविरतसम्यग्दृष्टौ द्विविधः करणएयाप्तापर्याप्तरूपः संज्ञी, न शेषाणि / शेपेषु सम्यक्त्वाभाव एवोत्पत्तेः / शेषेपूरनोद्भिरितेषु मिश्रदेशपिरतादिषु संज्ञिपर्याप्तः, एकादशसु शेषाभावस्तु सुज्ञानः // 6 // इय जियठाणा गुण ठाणगेसु जोगा य वोच्छमेत्ताहे / जोगाहारटुगूणा मिच्छे सासणअविरए य // 66 // (यशो०) इत्यमुनोल्लेखेन जीवस्थानानि गुणस्थानकेषफ्तानीति शेषः / योगाश्चेतः परं वक्ष्ये तानेवाह-योगा मिथ्यात्वे सास्वादनेऽविरते च संयमाभावादाहारकद्विकस्य च संयमप्रत्ययकत्वादाहारकद्विकेनोनास्तदन्ये त्रयोदशेत्यर्थः / / 66 // उरलविउ विवइमणा दम मीसे ते विउविमीमजुया / देसजए एक्कारस साहारदुगा पमत्तेत्ते // 67 // (यशो०) मिश्रे मिश्रगुणस्थानके औदारिक क्रिया काययोगौ वाग्मनसे च विशेषानिर्देशात् प्रत्येकं चतुर्दाऽपीति दश / मिश्रे हि संयमाभावादाहारकद्विकाभावः / कार्यणौदारिकमिश्र-क्रियमिश्राणामभावे कारणं "सविउव्वा मीसे" त्यत्रोक्तम् / ते पूर्वोक्ता दश वैक्रियमिश्रयुक्ता एकादश देशयते देशविरते / तत्र वैक्रियद्विकं वैक्रियलब्धौ सत्याम् / अपर्याप्तत्वे भवान्तराले च देशविरतेरभावादौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगी नास्या-ऽपि स्तः / सर्वविरतेरभावाचा-ऽऽहारकद्विकाभावः / ते पूर्वोक्ता एकादश सहाहारकद्विकेन वर्त्तन्ते साहारकास्त्रयोदशेत्यर्थः, प्रमत्ते= प्रमत्तसंयते / इह हि “संयमेणाहार" इति वचनादाहारककाययोगः, आहारकाश्रयत्वाचाहारकमिश्रयोगः / कामणोदारिकमिश्राभावस्तु भवान्तराले-ऽपर्याप्तदशायां च सर्वविरतेरभावात् / यत्त केचिद्देशविरत-प्रमत्तसंयतयोवै क्रियद्विकं न प्रतिपद्यन्ते, तदम्बडश्रावक-विष्णुकुमार-स्थूलभद्रादिभिर्व्यभिचातीत्युपेक्षितमाचार्येण // 67 // 'एक्कारसऽप्पमत्ते, मणवइआहारगुरलवेउव्या / अप्पुब्वाइसु पंचसु नव ओरालो मणवई य // 6 // 1. "एक्कारस अमत्ते" इत्यपि पाठः / Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे __(यशो०) अप्रमत्तेप्रमतसंयते मनश्चतुष्कं वाक्चतुष्कमाहारकौदारिकवैक्रियाश्चेत्येकादश / इह कार्मणौदारिकमिश्राभावः पूर्ववत् / वैक्रियमिश्रा ऽऽहारकमिश्रयोस्त्वऽभावोऽप्रमत्तत्वादेव / तथा ह्य तौ वैक्रियाहारकयोरारम्यमाणयोस्त्यज्यमानयोर्वा प्राप्यते / तत्रारम्भकाले लब्धेरुपजीवनौत्सुक्यात्यागकाले च त्यागौत्सुक्यान्नाप्रमत्तत्वम् / आरम्मत्यागकालान्तराले चौत्सुक्याभावा. दप्रमत्तताऽपीत्यप्रमत्तस्याऽपि वेक्रियाहारकावुक्तौ / फेश्चित्तु सर्वथा नोक्तौ, अप्रमत्तस्य लब्धेरनुपजीवनात् / अपूर्वादिषु-निवृत्त्यादिषु पञ्चसु क्षीणामोहान्तेष्वित्यर्थः, नवौदारिककायमनश्चतुष्टयवाक्चतुष्टयलक्षणाः / इहौदारिकमिश्रकार्मणाभावः प्रागिव / अतिविशुद्धत्वादेव बैंक्रियाहारककरणासम्भवाद्वैक्रियस्याहारकद्विकस्य चाभावः // 6 // संप्रति योगसमर्थनापुरस्सरमुपयोगप्रस्तावनामाह चरमाइममणवइदुगकम्मुरलदुगन्ति जोगिणो सत्त / गयजोगो य अजोगी वोच्छमओ बारसुवओगे // 69 // (यशो०) चरममसत्यामुषमादिमं च सत्यं मन इति द्विकमेवं चरमादिमा च वागिति द्विकं कार्मणमौदारिकद्विकं चेति सप्त योगिनः-सयोगिकेवलिनः / तत्र मनोद्विकं दवीयोदेशव्यवस्थितमनःपर्ययज्ञानिप्रभृतिषु द्रव्यमनोव्यापारणाद् , वाग्द्विकं देशनादौं, कार्मणौदारिकमिश्रयोगौ यथाक्रमं तृतीय-चतुर्थ-पञ्चमसमयेषु द्वितीय-पष्ट-सप्तमसमयेषु च समुद्घाते वाच्यौ, औदारिकः प्रतीतः / अयोगी च गतयोगोऽपगतयोगः / अतो-योगचिन्तानन्तरमुपयोगान्वक्ष्ये, 'गुणस्थानेष्वि'ति प्रकृतम् 'द्वादशे' ति स्वरूपपरम् / / 6 / / तानेवाह अच्चक्खुचक्खुदंसणमन्नाणतिगं च मिच्छमासाणे।। अविरयसम्मे देसे तिनाणदंसणतिगं ति छ उ // 70 // (यशो०) कर्मप्रकृतिमतेनाऽवधिदर्शनाऽनङ्गीकारादचक्षुर्दर्शनं चक्षुर्दर्शनमज्ञानत्रिकं चेति पञ्च वचनव्यत्ययान्मिथ्यात्वसास्वादनयोः। शेषास्तु सम्यक्त्वाविनाभाविन इत्यनयोने भवन्ति / अविरतसम्यग्दृष्टौ चशब्दलोपादेकदेशे समुपायोपचाराच्च देशविरते च त्रीण्याद्यानि ज्ञानानि दर्शनानि चेति षट् / अज्ञानत्रिकं मिथ्यात्वाविनाभावि मनःपर्यवज्ञानकेवलद्विकं च चारित्राव्यभिचारीत्यनयोन भवन्ति // 7 // मीसे तिच्चिय मीसा सत्त पमत्ताइसु समणनाणा। केवलियनाणदंमणउवओगा जोगजोगीसु // 7 // Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु योगा उपयोगा लेश्या-मतान्तराणि च [ 47 (यशो०) मिश्रे मिश्रदृष्टौ त एव प्राचिनाः षट् मिश्रा अज्ञानेनेति शेषः / अत्र भावार्थों "मीसे अनाणमीसं तं इत्यत्र योऽभिहितः स एवानुसर्तव्यः / शेषोपयोगाभावः पूर्ववत् / प्रमत्तादिषु सयोग्यऽयोगिनोः पार्थक्येन चिन्तनात क्षीणमोहान्तेषु इत्यनुवृत्तमतिज्ञानादयः पट् सह मनोज्ञानेन-मनःपर्यवज्ञानेनेति सप्त / शेपाभावः प्रतीतः / केवलज्ञानदर्शनोपयोगौ सयोग्ययोगिनोः, अत्र केवलद्विकस्य शेषोपयोगाऽपायेनैव भावाच्छेपाभावः // 71 / / साम्प्रतमागममाम्नातानामपि केपांचिदर्थानामत्रानधिकृतत्वमाहमामणभावे नाणं विउविगाऽऽहाग्गे उरलमिस्सं / नेगिंदिसु 'सासाणोत्ति नेहहिगयं सुयमयंपि // 72 // (यशो०) सास्वादनत्वे सति ज्ञान-मत्यादि श्रुतमतमपि सास्वादनो हि किल सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दृष्टेश्च ज्ञानमेवेति सैद्धान्तिकः प्रज्ञापनादिभिः आश्रितमपि नात्र प्रकरणेऽधिकृत मम्युपगतमपि त्वज्ञानमेवेति योगः / कार्मग्रन्थिका-(ऽङ्गी)कृतस्यैवेहाश्रितत्वादिति भावः / कार्मग्रन्थिकैर्हि कर्मप्रकृत्यनुसारिभिः सास्वादनभावेऽनन्तानुबन्ध्युदयाद्वाऽल्पकालभावित्वाद्वा ज्ञानं न विवक्षितम् / वचनव्यत्ययाद्वैक्रियाहारकयोस्त्यज्यमानयोरौदारिकमिश्रंशरीरं श्रुतमतमपि नाधिकृतमित्यत्रापि योगः / सिद्धान्ते हि प्रज्ञापनादौ (वैक्रि)यलब्धिमतां बादरवायुतिर्यग्मनुष्याणां वैक्रियस्याऽऽरम्भकाले वैक्रियमिश्रकाययोगस्त्यागकाले पुनरसा औदारिकमिश्र उक्तः / आहारकस्याप्याऽऽरम्भकाल आहारकमिश्रः त्यागकाले पुनरौदारिकमिश्रोऽभिहितः / इह तु कार्मग्रन्थिकाशयाश्रयणाद्वैक्रियाहारकयोरारम्भकाल इव त्यागकालेऽपि वैक्रियमिश्राहारकमिश्रावुक्तावित्यर्थः / तथैकेन्द्रियेषु न सास्वादन इति यत् श्रुतमतं तदप्यत्र नाधिकृतमित्यत्रापि योगः। अयं चार्थः “पढमगुणा दो बायर" इत्यत्र निर्णीतः // 72 // अथ गुणस्थानेष्वेव लेश्याः प्रतिपादयतिलेसा तिनि पमत्तं तेऊ पम्हा य अप्पमत्ता। सुक्का जाव सजोगी निरूद्धलेसो अजोगित्ति // 73 // (यशो०) आद्यस्तिस्रो लेश्याः प्रमत्ते प्रमत्तगुणस्थानेऽन्तस्तत्र सद्भाव उत्तरत्राभावरूपो व्यवच्छेद आसामिति। प्रमत्तान्ताः प्रमत्तं यावत्पडपि, तदृषं तूत्तरास्तिस्र इत्यर्थः / यथा च प्रमत्तयतेविशुद्धस्या-ऽप्यविशुद्धमाद्यलेश्यात्रयं भवति / तथा 'गइयाइसु छावि सेसेस्वि" त्यत्रोक्तम् / एवं तेजसीप। अप्रमत्तान्ते / अप्रमते-ऽन्त्यास्तिस्र इत्यर्थः / निवृत्तिगुणस्थानमादितः कृत्वा सयोगिकेवलिनं यावच्छुक्ला, अयोगी तु व्यवच्छिन्नलेश्यः, लेश्योच्छेद एवा-ऽयोगित्वप्राप्तः / 1 "सासाणो नेहाहिगयं" इत्यपि पाठः / Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे इतिशब्दो लेश्याद्वारसमाप्त्यर्थः // 73 // इदानीं गुणस्थानेषु ज्ञानावरणादिकर्मणां बन्धहेतून दर्शयितुकामः प्रथमं तानेव भेदत आह बन्धस्स मिच्छअविरहकमायजोगत्ति हेयवो चउरो / पंच 'दुवाल पणुवीस पन्नरस कमेण भेया सिं // 7 // (यशो०) ज्ञानावरणादिकर्मणां बन्धस्य हेतवः कारणानि=मिथ्यात्वाविरतिकषाययोग इत्येवंरूपाश्चत्वारः, एतांश्च मूलभेदानाहुः, न तु प्रमादरूपं पञ्चममिति / तद्भेदानां मद्यादीनां मिथ्यात्वशेषेष्ठतेष्वेव यथायोगम तर्भावात् / तत्र मिथ्यात्वमेकस्मिन्नेव गुणस्थान इत्यादौ निर्दे: ष्टम् / ततो यथोत्तरं बहुगुणस्थानाश्रयत्वेना-ऽविरत्यादयः। तथाहि-मिथ्यात्वं मिथ्या(दृष्टा)वेव, अविरतिराद्यपञ्चगुणस्थानव्यापिनी, कषाया आद्यगुणस्थानदशकव्यापिनः, योगास्तु अयोगिव-. र्जगुणस्थानव्यापिनः / एषामेव क्रमेण पञ्च द्वादश पञ्चविंशति पञ्चदशेति संख्या-ऽवच्छिन्ना भेदाः, सर्वे वा मीलिताः सप्तपञ्चाशत् / एतांश्चोत्तरभेदानाचक्षते / / 74 // अथैतानेव क्रमेण विकृणोति / / आभिग्गहियं 'अणभिग्गहियं च तह अभिनिवेसियं चेव / संसइयमणाभोगं मिच्छत्तं पंचहा एवं // 75 // (यशो०)अभिग्रहः परोपदेशादिप्रभवः कदाग्रहस्तस्माद् यातमाभिग्रहिकम् येन बोटिकादिदर्शनानामन्यतमदभिगृहणाति / तद्विपरीतमनाभिग्रहिकमज्ञानां गवादीनामिव / यद्वेषन्माध्यस्थ्यासर्वदर्शनानि शोभनानीत्येवंरूपा यतः प्रतिपत्तिः तदाभिग्रहिकम् / यद्यपि चाभिग्रहिक विपर्यस्तरूपतया-ऽभिनिवेशिकायप्य-ऽनाभिग्राहिकेऽन्तर्भवति / तथा-ऽप्य-ऽपवादविषयं परिहत्योत्सर्गाः प्रवर्त्तत इति न्यायादाभिनिवेशिकादिभ्यो भिन्नविषयमनाभिग्रहिकं बोद्धव्यम् / अभिनिवेशो=ऽवलेपः, यद्वशीभूत एकेन वस्तुतत्त्वे प्ररूपिते मात्सर्यादिना वस्तुतस्वमन्यथा कथयति / उत्सूत्रप्ररूपणं वा स्वयं कृतमात्मलाघवभिया समर्थयते / वस्तुतत्त्वमजानानो वाऽन्येन पृष्टो मा मामचं ज्ञासीदयमिति यथाकथश्चिदुत्तरयति / तस्माद् यातमाभिनिवेशिकम् / यथा गोष्ठामाहिलादीनाम् / यदईता जीवादितत्त्वमभिहितं तन्न जाने किं तथैव भवेदुता-ऽन्यथेत्येवंभूतासंशयाद् यातं सांशयिकम् / आभोगो-विशिष्टज्ञानम् , स न विद्यते यत्र तदनाभोगं पृथिव्यादीनाम् / एवमिति काक्वापाठस्तत एव-ममुना प्रकारेण पञ्चधा मिथ्यात्वम् / अन्यथा तु विपर्यस्तबोधरूपत्वेनेकविधम् / आभोगा-ऽनाभोगप्रभवतया द्विविधम् / संशयाऽऽभोगाऽनाभोगोद्भवतया त्रिविधम् / सावधारणजीवाद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणानां क्रियावादिनामशीत्यधिकशतस्य / न कस्यचित्क्षणिकत्वादनवस्थि 1 "दुवालसपणुवीसपनरस” इत्यपि पाठः / 2 "अणभिग्गह" इत्यपि / Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु बन्धहेतवः [4 तस्य क्रिया सम्भवतीति वक्तु शीलानामक्रियावादिनां चतुरशीतेरः, अज्ञानेन चरतामज्ञानप्रयोजनानां वाऽज्ञानिकानां सप्तषष्टेः, विनयेन चरतां विनयप्रयोजनानां वा वैनयिकानां द्वात्रिंशतश्च, मीलनेन त्रिपष्टयधिकं शतत्रयविधम् / तत्र जीवाजीवपुण्यपापाश्रवसंवरनिर्जरावन्धमोक्षाभिधाना नवपदार्थाः, स्वपरभेदाभ्यां क्रमेण काले-श्वरा-ऽऽत्म-नियति-स्वभावभेदान्त्रिताभ्यामस्तित्वेन चिन्त्यमाना अशीत्युतरं शतं विकल्पानाविर्भावयन्ति / अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः 1, तथास्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः 2, इति स्वतो भङ्गद्वयम् / एवं परतोऽपि भङ्गाद्वयम् / सर्वेऽपि चत्वारः कालेन लब्धाः। एवमीश्वरादिभिश्चतुर्भिरपि प्रत्येकं चत्वारो लभ्यन्ते / ततः पञ्चभिश्चतुष्कविंशतिर्जाता। सा च जीवपदेन लब्धा / एवम-ऽजीवादिभिरष्टाभिः पृथग्विशतिर्लभ्यत इति नव विंशतयो मीलिताः क्रियावादिनामशीत्युत्तरं शतं भवति / तथा जीवाजीवाश्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाभिधानाः सप्त पदार्थाः स्वपरभेदाभ्यां प्रत्येकं कालेश्वरात्मनियतिस्वभावयदृच्छासम्बन्धिताभ्यां नास्तित्वेन चिन्त्यमानाश्चतुरशीतिविकल्पान्जनयन्ति / यथा नास्ति जीवः स्वतः कालतः, 1, नास्ति जीवः परतः कालत इति द्वौ / एव मीश्वरादिभिः पञ्चभिः प्रत्येकं द्वौ द्वौ लभ्येते / सर्वेऽपि द्वादश / एते च जीवादिसप्तकेन गुणिताश्चतुरशीतिरक्रियावादिनाम् / तथा जीवादयो नव पदार्थाः सन् 1, असन् 2, सदसन् 3, अवक्तव्यः 4, सदवक्तव्यः 5, असदवक्तव्यः 6, सदसदवक्तव्यः 7, इत्येतैः सप्तभिः प्रकारे ते ज्ञातु शश्यन्ते / ज्ञातेर्वा किमेभिः प्रयोजनमिति बुद्धया व्यासितेस्त्रिषष्टिमाज्ञानिकानां भेदान्प्रसुवते / यथा सत्र जीव इति को वेत्ति किंवा तेन ज्ञातेन प्रयोजनम् / असन् जीव इति को वेत्ति किं वा तेन ज्ञातेन प्रयोजनमित्यादयः सप्त जीवेन लब्धाः / एवमजीवादिभिरपि सप्तभिः पदैः प्रत्येक सप्त लभ्यन्त इति नव सप्तकास्त्रिषष्टिः। एतन्मध्ये चामी चत्वारः क्षिप्यन्ते / यथा सती भावोत्पत्तिरिति को वेत्ति किं वा तया ज्ञातया / एवमसती सदसती अवक्तव्या भावोत्पत्तिरिति को वेत्ति किंवा ज्ञातयेति सर्वत्र योज्यते / सदवक्तव्यादिकं तु विकल्पत्रयमुत्तरं कालं भावावयवाऽपेक्षम् , अतोऽत्र न सम्भवतीति नोक्तम् / इत्थं च सप्तभङ्गी सूत्रकृदादिवृत्त्यनुवृत्त्या दर्शिता / विशेषावश्यकादौ त्ववक्तव्य इति तृतीयेन सदसन्निति चतुर्थेन भङ्गेन सेति / तदेवं सप्तषष्टिराज्ञानिकानां भवति / सुरनृपतियतिजातिस्थविरावममातृपितृणामष्टाणां स्थानानां प्रत्येकं कायेन वचसा मनसा दानेन च विनय इत्यष्टभिश्चतुष्फैात्रिंशद्वैनयिकभेदाः सर्वेषां च मीलनेन त्रिषट्यधिकशतत्रयविधं मिथ्यात्वम् / 'जावइया नयवाया तावइया चेव हुन्ति परसमया / जावइया परसमया तावइया चेव भिच्छत्तं" // न्यायादपरिमित भेदं वेति / / 75 / / वारसविहा अविरई मणइंदियअनियमो छकायवहो / सोलम नव य कमाया पणुवीसं पन्नरस जोगा // 76 // Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थे __(यशो०) अविरतिदशविघा कथमित्याह-मनस इद्रियाणां च पश्चानामनियमोऽनियन्त्रणं शब्दादिषु विषयेषु मनोज्ञा-ऽमनोज्ञेषु रागद्वेषप्रवृत्तेरनिवारणमिति षोढा तथा षण्णां कायाना पृथिव्यादीनां वधो = हिंसेति च पोढेति द्वादशविधेति मध्यमां वृत्तिमवलम्ब्योक्तमन्यथा सामान्येन सावद्ययोगा-निवृत्तिरूपत्वेनै कविधैव / व्यक्त्याश्रयणेन यावन्ति हिंसादीनां पापस्थानानि तदनुवृत्तिरूपत्वेनापरिमितविधा / पोडश नव चेति कषायाः पञ्चविंशतिः / षोडश नव च कषाया इति सामान्योक्तावपि षोडश कषाया नव नोकषाया इति दृश्यम् / तत्र कपायाः प्राग्निीतार्थाः क्रोधादयश्चत्वारोऽनन्तानुवन्ध्य प्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनात्मकमेदचतुष्टयेन प्रत्येकं भिद्यमानाः षोडश भवन्ति / तत्रानन्तं संसारमनुबध्नन्ति प्राणिभिः संबद्धं कुर्वन्तीयेवंशीला अनन्तानुबन्धिनः / यद्यप्यमीषां शेषकायोदयशन्यानामुदयो नास्ति / तथाऽ-प्यनन्त भवमूलकारणस्य मिथ्यात्वोदयस्या-ऽऽक्षेपकत्वादेतेषामेवानन्तानुबन्धित्वव्यपदेशः / शेषास्तु कषाया न नियमेन मिथ्यात्वोदयमाक्षिपन्ति / ते चाऽनन्तानुबन्धिनः क्रोध-मान-माया-लोभा यथाक्रमं शैलरेखाशैलस्तम्भवंशीशूलकृमिरागसंनिभा जीवपरिणतिविशेषा अवगन्तव्याः / नोऽल्पार्थत्वादल्पमपि प्रत्याख्यानं देशविरतिरूपमावृण्वन्तीत्यप्रत्याख्यानावरणा एवंरूपाश्च क्रोधादयः क्रमेण पृथिवीरेखा-ऽस्थिमेषशृङ्गकईमरागसदृशा मन्तव्याः / प्रत्याख्यानं सर्वविरतिरूपमाबृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणा एवमात्मनश्च क्रोधादयो यथासंख्यं रेणुरेखाकाष्टगोमूत्रिकाखञ्जनरागसमाना ज्ञेयाः / सम्शब्दस्येषदर्थत्वात्परीषहादिपरिचये चारित्रिणमपीपज्ज्वलयन्तीति संज्वलना एवंरूपाश्च क्रोधादयः क्रमेण जलरेखातिणिशलतावंशावलेखाहरिद्रारागसमा बोद्धव्या इति / तथा नोशब्दस्य साहचर्यवाचित्वात्कषायैः सहचरा नोकषायाः, तेषां हि केवलानां प्राधान्यम् , किन्तु तेषां यैः सहोदयमायान्ति कपायविपाकसममेव च विपाकमुपदर्शयन्ति / ते च स्त्रीनपुसकात्मकवेदत्रयहास्यरत्य-रतिशोकमयजुगुप्सालक्षणहास्यादिषट्करूपत्वेन नवधा ।तत्र वेदत्रयं प्रागुक्तस्वरूपम् / यदुदये सहेतुकमहेतुकं वा हसति स हासः / यदुदये रमणीये वस्तुनि रमते= प्रमोदते सा रतिः / तद्विपरीताऽरतिः / येन प्रियविप्रयोगाद्याकुलः शोचना-ऽऽक्रन्दनादि विधत्तेस शोकः / येन स चीजमबीजं वा बिभेति तद् भयम् / येन सकृदादिविरूपपदार्थात् जुगुप्सन्ते, सा जुगुप्सति कपायाः पञ्चविंशतिः / योगाः पञ्चदशेति मनश्चतुष्टय-वाच्चतुष्टय-कायसप्तकरूपाः प्रागुक्तार्थाः। एते च मिथ्यात्वादयः सस्वभेदा मीलिताः सप्तपञ्चाशत्कर्मणां बन्धहेतव उक्ताः // 76 / / अथैतान् क्रमेण गुणस्थानेषु योजयतिपणपन्नपन्नतियछहियचत्तगुणचत्तछचन्दुगवीसा। सोलस दस नव नव सत्त हेउणो न व अजोगित्ति // 77 // Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धहेतव अंधे गुणस्थानेषु च [ 51 (यशो०) नत्वयोगिनीति वचनात्पश्चपञ्चाशदादिसंख्याऽवच्छिन्नाः क्रमेण मिथ्यादृष्ट्यादिषु बन्धहेतवो भवन्तीति शेषः / “तियछहिएचत्ते"ति त्रिचत्वारिंशत्षट् वत्वारिंशदित्यर्थः / “छचउद्गवीसे"तिपड्विंशतिश्चतुविंशतिविंशतिरित्यर्थः / तत्र मिथ्यादृष्टेः संयमाभावेना-ऽऽहारकद्वयाऽभावाच्छेपा पञ्चपञ्च शत् / पञ्चपञ्चाशतश्च मध्यान्मिथ्यात्वपञ्चकोत्सारणेन सास्वादनस्य पञ्चाशत् / पश्चाशतश्च मध्यान्मिश्रत्वे कालकरणाभावेन कार्मणौदारिकमिश्र-वैक्रियमिश्ररूपयोगत्रया-पगमेऽनन्तानुबन्धिनां च निषिद्धत्वेनाऽनन्तानुबन्धिचतुष्टयोत्सारणेषु मिश्रष्टेस्च्यधिका चत्वारिंशत् / त्रिचत्वारिंशतः कालकरणसम्भवेन कामेणौदारिकमिश्रवैक्रियमिश्रात्मकयोगत्रिके प्रक्षिप्तेऽविरतसम्यग्दृष्टेः पड्भिरधिका चत्वारिंशत् / षट्चत्वारिंशतश्चा-ऽप्रत्याख्यानावरणोदये विग्रहगतावपर्याप्तदशायां च देशविरतेरभावादप्रत्याख्यानावरणचतुष्कस्य कामणौदारिकमिश्रयोगद्वयस्य चोत्सारण आरम्भजत्रसाऽविरत्यविवक्षया संकल्पजत्रसा-ऽविरतेर्निवृत्त्या त्रसा-ऽविरतौ चापनीतायां देशविरतस्यैकोनचत्वारिंशत् / एकोनचत्वारिंशतश्च मध्यात् प्रत्यानावरणोदयस्या-ऽविरतेश्व सर्व विरतेः प्रतिपन्थित्वादेकादशभेदा-विरति प्रत्याख्यानावरणचतुष्का-ऽपनयने संयमप्रत्ययकत्वादाहारकलब्धेराहारकद्विकप्रक्षेपे च प्रमत्तसंयतस्य षड्विंशतिः / तस्याश्च मध्यात्पूर्वोक्तयुक्त्या वेक्रियमिश्रा-ऽऽहारकमिश्रद्वये-ऽफ्नीते ऽप्रमत्तसंयतस्य चतुर्विंशतिः / चतुर्विशतेमध्यादपूर्वकरणस्यातिविशुद्धत्वादा-ऽऽहारकवैक्रियापसारणे द्वाविंशतिः / द्वाविंशतेमध्यादपूर्वकरण एव व्यवच्छिन्नस्य हास्यादिषट्कस्यापगमे निवृत्तिवादरस्य षोडश / एतच्च यावदद्या-ऽप्यऽसौ वेदत्रयं क्रोधमानमायारूपं संज्वलनत्रयं च न क्षपयति तावद् द्रष्टव्यम् / तत्क्षये तु यथासम्भवं वाच्यम् / पोडशानां च मध्यादनिवृत्तिवादर एव व्यवच्छिन्नयोर्वेदत्रिकसंज्वलनक्रोधादित्रिकयोरपसारणे सूक्ष्मसम्परायस्य * दश / दशभ्यो लोभल्योपशान्तत्वेनोत्सारण उपशान्तमोहस्य नव / क्षीगत्वेन लोभस्यापनयने क्षीणमोहस्य नव। नवभ्यो मृपामिश्रात्मकयोर्मनोद्वय-वागद्वययोग्पनयने कार्मणौदारिकमिश्रयोः प्रक्षेपे च सयोगिनः सप्त हेतवः कर्मबन्धस्येति गम्यम् / एषामपि सप्तानामभावान्न तु = नैवाऽयोगिनो बन्धहेतवः / कलिकालानुचितसमाचाराधारपरमाराध्यास्मद्गुरुश्रोशीलभद्र मूरिविरचिताः "पण न्ने" तिगाथाव्याख्यारूपास्त्विमा गाथाः / पणपन्नबन्धहेऊ मिच्छद्दिविश्स उदयओ होन्ति | आहारगदुगरहिया जेणं तं संजयम्स सवे // 1 // पन्नासा (सा)सायणि पंचगमिच्छत्तविरहिया होइ / मिस्से पुण तेयाला अण कम्मणमिस्सदुगरहिया / / 2 / / तुरियंमि उ छायाला कम्मणमिस्सदुगसंजुया जाण / एगूणचत्त देसे बीयकसायाण भावाओ // 3 // अविरयउरलगमिस्सं कंमइगं जेण तस्थ नो सत्त / छब्बीसा य पमत्ते संजलणा नोकसाया य / / कंमणउरालमिस्सं बज्जित्ता सव्वजोगसम्भावा / चस्वीसं अपमत्ते वेउवाहारमिस्सविणा // 5 // Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे बावीसाउ अपुव्वे वेउव्वाहारविरहिया होइ / अनियट्टीए सोलस हासच्छक्केण रहियाओ॥६॥ सहमे दसगं जाणम तिवेयतिकसायविरहियं काउं। उवसंते खीणे उण जोगा नव बन्धडे उम्मि / / 7 / / सज्जोगिकेवलम्मि सच्चमसच्चामुसा वइमणो य / उरलं कमणमिस्सा जोगा सत्तेव बन्धस्स // 8 // " अधुना येषामेते बन्धहेतवस्तेषां कर्मणां बन्धोदयोदीरणासत्ता गुणस्थानेषु चिन्तयितुकामः संख्याविशेषितानि सहेतुकानि तावत्तान्याह तो नाणदंसणावरणवेयणीयाणि मोहणिज्जं च / आउयनामं गोयंतरायमिय अट्ठ कम्माणि / / 78 // (यशो०) "तो"इति तेभ्यो मिथ्यात्वादिभ्यो हेतुभ्यः सकाशात् ज्ञानावरणादीनि अन्तरायान्तानि काण्यष्टौ मूलभेदा-ऽपेक्षया भवन्तीति शेष इति समुदायार्थः / अवयार्थस्त्वयम्-ज्ञानं पूर्वोक्तस्वरूपं मत्यादि, दर्शनं च चक्षुर्दर्शनादि, तयोरावरणे आवरणस्वभावे ज्ञानावरणं दर्शनावरणं चेत्यर्थः / आरोग्यविषयोपभोगादिजनितेनाल्हादात्मकत्वात्सुखरूपेणानारोग्यादिजनितेनानाल्हादात्मकदुःखरूपेण च विपाकेन वेद्यत इति वेदनीयम् / मुहयन्ति-सत्कृत्येभ्यः पराङ्मुखा भवन्तीति मोहनीयम् / आयाति भवाद् भवान्तरे संक्रामतां जन्तूनां निश्चयेनोदयमित्यायुः / यद्वाऽनुभू [य](त)मेति, अनुभूतं च [जा](या)तीत्यायुः / यद्यपि च सर्व कमवंभूतमेव तथापि पङ्कजादिशब्दवद् रूढिविषयत्वादायुःशब्देन पश्चममेव कर्माभिधीयते / व्युत्पत्तिद्वये-ऽप्या-ऽऽयुरितिशब्दसिद्धिनैरूक्ती। नमयति-परिणमयति संसारिणं गत्यादिभिः पर्यायैरिति नाम / यद्वा सुरो ऽयं नरोऽयमित्यादिकं नाम यद्वशाजन्तुराशादयति तत्काप्युपचारान्नाम / गूयते-संशब्द्यते प्रधाना-प्रधानरूपतया तेनोच्चैर्नीचैः कुलोत्पत्त्यादिलक्षणेन पर्यायेणेति गोत्रं, तादृशविपाकवेद्यं कापि गोत्रम् / आत्मानं चार्थसाधनं चान्तरायते-पततीत्यन्तरायं लिङ्गानुशासनेऽन्तरायशब्दस्य पुस्त्वे-ऽप्यागमेषु नपुसकत्वं दृश्यते / जीवस्य दानादिकम) सिसाधयिषोविध्नीभूयान्तरापततीत्यर्थः / भेदास्त्वेषां ज्ञानावरणादीनां प्रस्तुतानुपयोगित्वान्न प्रपञ्चिताः / इह च ज्ञानदर्शनस्वभावत्वेन आत्मनो ज्ञानदर्शन एवान्तरङ्गे इत्यादौ तदावरणोपादानम् , तुल्येपि च तयोरन्तरङ्गत्वे ज्ञानमेव विशेषांशग्राहित्वेन विशिष्टार्थक्षममिति ज्ञानावरणमादावुपादायि। ततो दर्शनावरणम् / एतयोश्च व्यवस्थितिकत्वेनैतदनंतरं वेदनीयम् / इष्टानिष्टविषया-ऽपितसुखदुःखरूपे च वेदनीये सति जीवः सत्कृत्येषु मुह्यतीत्यतोऽनन्तरं मोहरूपं मोहनीयम् / तदप्यायुपि सति भवतीत्यतः पृष्ठत आयुः / नराधायुःसहितश्च जन्तुर्नरकगत्यादिपर्यायानासादयतीत्वतः प्राग्नरकगत्यादिपर्यायपरिणमनरूपं नाम / नाम्ना च लब्धनरकगत्यादिपर्याय 'उच्चैर्गोत्रवतोऽपिजन्तोर्दानादिकमर्थं सिसाधयिषोर्यद्विघ्नः सम्पद्यते तदन्तरायकर्ममाहात्म्यमिति ज्ञापनाय गोत्रानन्तरमन्तरायमुक्तम् // 78|| 1 "उच्चावच्चैगूयते इति ततो गोत्रम् / " इत्यादिभावात्मकः पाठोऽत्र लुप्तः सम्भाव्यते / Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलप्रकृतयस्तथा तेषां बन्धोदयोदीरणासत्तास्थानान्योधे गुणस्थानकेषु च [53 - अर्थतेषां बन्धादिस्थानसंख्यामाह सत्तट्ठछेगबन्धा सन्तुदया अट्ट सत्त चत्तारि / सत्तट्ठछपंचदुगं तुदीरणाठाणसंखेयं // 79 // (यशो०) सप्ताष्टपडेकसंख्याश्चत्वारो बन्धा=बन्धस्थानानि / अष्टसप्तचतुःसंख्याऽङ्किताः प्रत्येकं सत्तोदयाः सत्तास्थानान्युदयस्थानानि चेत्यर्थः / सप्ताष्टषट्पञ्चद्विकरूपा पुनरूदीरणास्थानानामियं संख्या। इह च बन्धादीनां प्रत्येकमेकप्रकारत्वेऽपि सप्ताष्टादिकर्मापेक्षया सप्ताष्टादिसंख्यात्वम् / तदयमर्थोऽष्टानामायुर्वर्जानां तु सप्तानां मोहनीयायुःशेषाणां पण्णां वेदनीयस्यैकस्य कर्मणो बन्धः / तथाष्टानां मोहरहितानां तु सप्तानां वेदनीया-ऽऽयुर्नामगोत्राणां चतुर्णा प्रत्येकं सत्तोदये / तथाष्टानामायुर्वर्जितानां तु सप्तानां वेदनीयायुःशेषाणां पण्णां वेदनीयायुर्मोहरहितानां पञ्चानां द्वयोर्वा नामगोत्रयोरुदीरणेति // 76 / / अथैतेषां बन्धस्थानानि गुणस्थानेषु योजयति. अपमत्तंता सत्त? मीसअप्पुब्वबायरा सत्त / बन्धंति छ सुहुमा एगमुवरिमाऽवन्धगोऽजोगी॥८०॥ (यशो०) अप्रमत्तान्ता मिश्ररहिता मिथ्यादृष्टयादयः षट् , सप्तायुर्वर्जानि, आयुःसहितानि त्वष्टौ कर्माणि बध्नन्ति / आयुर्हि एकभवमध्य एकदैव बध्यत इति न सदा तद्वन्धः / मिश्रा-ऽपूकरणा-ऽनिवृत्तिबादरास्त्रयोऽपि सप्तैव बध्नन्ति / तथाहि-मिश्रदृष्टित्वे वर्तमानो न म्रियते, नाऽप्या-ऽऽयुर्वघ्नाति, तत्स्वभावत्वात् / अपूर्वकरणानिवृतिवादरी त्वतिविशुद्धत्वान्नायुर्वनीतः / सूक्ष्मसम्पराया मोहनीयायुःशेषाणि पड् बध्नन्ति। मोहनीयवन्धो हि बादरसम्परायहेतुकः / सूक्ष्मसम्परायाणां तु वादरसम्परायो नास्तीति मोहनीयवन्धाभावः / आयुर्वन्धाभावस्तु घोलनापरिणामाभावाद् ; आयुर्हि घोलनापरिणामनिर्वय॑म् / उपरितना = उपशान्तमोहक्षीणमोह-सयोगिकेवलिनो योगव्यापारादेकमेव सातात्मकं वेदनीयं बध्नन्ति, न शेपाणिः तद्वन्धः हेत्वभावात् / अयोगिकेवली पुनरबन्धकः, योगव्यापारस्या-ऽप्यभावात् // 80 // _ अथ गुणस्थानेष्वेव उदयस्थानानि लाघवार्थ तत्समानसंख्याकानि सत्तास्थाननि च युगपद्योजयति जा सुहुमो ता अट्ट वि उदये संते य हुन्ति पयडीओ। सप्तऽट्ठ व संते खीणि सत्त चत्तारि सेसेसु // 1 // 1 “होंति' इत्यपि पाठः / Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे (यशो०) मिथ्यादृष्टेरारभ्य यावत्सूक्ष्मसम्परायास्तावदष्टावपि प्रकृतयः कर्मण्युदये सत्तायां च भवन्ति / "सत्त?"ति यथासंख्यमुदयसत्ताभ्यां योज्यते / तत उपशान्तगुणस्थाने सप्तकर्माण्युदये / उपशान्तमोहस्य हि मोहोदयो नास्त्युपशान्तमोहत्वादेव / शेषाणां तु सप्तानामप्युदयः / सत्तायां त्वष्टौ, उपशान्तस्य हि मोह उपशान्तो न क्षीण इति मोहनीयस्यापि सत्ता / क्षीणमोहे मोहनीयन्यूनाः सप्तोदये सत्तायां च / अस्य हि मोहनीयस्योदयवत्सत्तापि नास्ति, तस्य सर्वथा क्षीणत्वात् / चत्वार्यघातिकर्माणि वेदनीयायुर्नामगात्राख्यानि शेषयोः = सयोग्ययोगिनोरूदये सत्तायां च शेषाणां तु क्षय एव केवली भवतीति शेषाभावः // 8 // अथ तेष्वेवोदीरणास्थानानि योजयतिसत्तट्ट पमत्तता कम्मे उइरिन्ति अट्ठ मीमो उ / वेयणियाउ विणा छ उ अपमत्तअपुवअणियट्टी // 82 // सुहुमो छ पंच उइरेइ पंच उवसंतु पंच दो खीणो। जोगी उ नामगोए अजोगिअणुदीरणो भयवं // 83 // (यशो०) मिथ्यादृष्टयादयः प्रमतान्ताः सामर्थ्यान्मिश्रदृष्टिवर्जा अष्टौ सप्त वा कर्माण्युदीरयन्ति / तत्र यावदद्या-ऽप्येपामावलिकाशेषमात्मीयात्मीयमायुनं भवति तावदेते सर्वे-ऽपि सततमष्टौ कर्माण्युदीरयन्ति, सर्वेषामपि तदा तदुदीरणायोग्या-ऽध्यवसायस्य भावात् / आवलिकाशेषे त्वायुषि सप्तैवा-ऽऽयुर्वर्जितानि / आवलिकाशेषं ह्यायुरनुदीर्यमाणमेव वेद्यते, तत्स्वभावात् / एवमुत्तरत्रा-ऽपि विमर्शनीयम् / मिश्रदृष्टिरष्टावेव, तुशब्दस्यैवार्थस्य व्यवहितस्य योजितत्वात् , मिश्रदृष्टयायुषि आवलिकाशेषताया अभावात् / स ह्यन्तमुहर्ता-ऽवशेष एवायुषि मिश्रदृष्टित्वमपहाय सम्यर्दशनं मिथ्यात्वं वा नियमेनाऽऽसादयति / अप्रमत्ता-ऽपूर्व करणाऽनिवृत्तिवादरा विभक्तिलोपाद्वेदनीयायुभ्यां विना तच्छेपाणि षडुदीरयन्ति / तेषामपि विशुद्धत्वेन वेदनीयायुपोरूदीरणाप्रायोग्या-ऽध्यवसायाभावान्नोदीरणा / सूक्ष्मसम्परायाः प्रागुक्तानि षडुदीरयन्ति / तावद्यावन्मोहनीयमावलिकाशेपं न भवति / आवलिकाशेषे तु तस्मिन्पञ्चैवोदीरयति / तस्य तदा वेदनीयायुर्वन्मोहनीयस्या-ऽप्युदीरणा नास्तीत्यर्थः / उपशान्तमोहः पूर्ववत्पञ्चैवोदीरयति, तस्य हि मोहनीयोपशान्तत्वेनोदयाभावान्नोदीरणा / यदुक्तम्- “वेद्यमानमेवोदीर्यते" इति / वेदनीया-ऽऽयुषोः पुनरनुदीरणाकारणं प्राग्वत् / क्षीणमोहः पञ्च द्वे वा कर्मणी उदीरयति / तत्र यावत् ज्ञानावरणदर्शनावरणा-ऽन्तरायकाण्यावलिकाशेषाणि न भवन्ति तावत्पूर्वोक्तानि पञ्च / . तस्य हि क्षीणमोहनीयोदयाभावानोदीरणा, शेषं प्रागिव / यदा तु ज्ञानदर्शनावरणान्तरायकर्माणि केवलोत्पत्तिप्रत्यासत्ता ऽऽवलिकाशेषाणि स्युस्तदा द्वे एवोदीरयन्ति / तदा हि ज्ञान Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेपूदीरणास्थानान्यल्पबहुत्वञ्च दर्शनावरणान्तरायकर्माण्यनुदीरयन्नेन क्षपयत्यावलिकागतानामुदीरणाया असम्भवादिति / द्वे नाम गोत्राख्ये उदीरयति / योगी-सयोगिकेवली पुनद्वे एव नामगोत्रे उदीरयति / सयोगिकेवलिनो ज्ञानदर्शनावरणान्तरायमोहनीयानां क्षीणमोहत्वेन नोदीरणा, वेदनीयायुपोः पुनरुदीरणा प्रागेवोपरता / अयोगी अयोगिकेवली नोदीरयति, योगाभावात् / उदीरणा हि योगसव्यपेक्षा, यत एवं कस्यापि कर्मणो नोदीरकस्तत एव प्रत्यासन्नसनातनानन्दपरपरमपदसमृद्धिकत्वेन भगवानिति विशेषितः / 82-83 // अथ गुणस्थानेष्वेवाल्पबहुत्वमाहउबसन्तजिणा थोवा संखेजगुणा उ खीणमोहजिणा। सुहुमनियट्टनियट्टी तिन्नि वि तुल्ला विसेसहिया // 84 // जोगिअपमत्तइयरे संखगुणा देससासणा मिस्सा / अविरयअजागिमिच्छा असंखचउरो दुवेऽनन्ता // 85 // (यशो०) उपशान्तजिना = उपशान्तमोहाः क्षीणमोहापेक्षया स्तोकाः / तथा ह्यन्तमुहूर्तप्रमाणोपशमश्रेणिस्तस्यां च कदाचित्को-ऽपि न प्रविशति, तदन्तरकालस्योत्कर्षतो वर्षपृथक्त्वमानस्योक्तत्वात् , यदा तु प्रविशति तदेको द्वौ वा यावदुत्कर्षत एकसमये चतुःपञ्चाशत् / यथैकस्मिन्समयेषु युगपदुत्कृष्टतश्चतुःपञ्चाशत् प्रविशति, तथा परा-ऽपरेप्वपि समयेष्विति नानासमयप्रविष्टा अपि पञ्चदशस्वपि कर्मभूमिषु उत्कृष्टतः संख्याता एव भवन्ति / अथ कथमेवं यावतैकस्मिन्न यन्तमु हूतं समया असंख्याताः, तत्र यदि प्रतिसमयमेकेकोपि प्रविशति, तथाऽप्यन्तमुहू कालेऽसंख्याताः, किमुत चतुःपञ्चाशत्प्रवेशे / सत्यम् , किन्तु न प्रतिसमयमुपशमश्रेण्यां प्रविशन्ति, केचिदेव समयेषु तत्प्रवेशस्य समयेऽभ्यनुज्ञानात् / किञ्च गर्भजमनुष्या अपि संख्याताः सम्भवन्ति, किं पुनश्चारित्रिणः / क्षीणमोहजिनाः पुनः संख्यातगुणाः, पूर्वेभ्य इति गम्यम् , एवमुत्तस्त्रापि / तत्र क्षपकणिरप्यन्तमुहूर्तमाना, तस्यां च को-ऽपि कदाचिन्नाधिरोहतिः / तदन्तरालस्योस्कृष्टतः परमासमानत्वात् / यदा त्वधिरोहति तदेको द्वौ वा यावदुत्कृष्टत एकसमयेऽष्टोत्तरं शतम् / एवं च यथैकस्मिन्समयेऽष्टोत्तरं शतं तामधिरोहति, तथा-ऽपरेष्यपीति नानासमये-ऽधिरूढा उत्कृष्टतः शतएथक्त्वमानाः क्षीणमोहाः प्राप्यन्ते / क्षपकश्रेणिमपि न प्रतिसमयं अधिरोहन्ति, किन्तु केषुचिदेव समयेष्विति पूर्ववत् ना-ऽसंख्यात्वमाशङ्कनीयम् / यदनोपशान्तमोहेभ्यः क्षीणमोहानां संख्यातगुणत्वमुक्तम् , तद्यदैते द्वयेऽप्युत्कृष्टपदे लभ्यन्ते तदा द्रष्टव्यम् / अन्यथा कदाचित्क्षीणमोहाः स्तोका / उपशान्तमोहास्तु वहव इत्यपि भवति / सूक्ष्मसंपरायनिवृत्तिअनिवृत्तिबादरास्त्रयोऽपि प्रत्येकं पूर्वेभ्यो विशेषाधिकाः, स्वस्थाने तु तुल्याः / एते हि त्रयो-ऽपि Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे क्षपकोपशमकभेदाभ्यां द्वैधं भवति तत्र ये क्षपकास्ते क्षीणमोहवत् पूर्वोक्तरीत्या शतपृथक्त्वमानाः / ये चोपशमकास्ते प्रागुनन्यायेनोपशान्तवत्संख्याताः / तथा योगिनःसयोगिकेवलिनोऽप्रमत्ता इतरे च प्रमत्ताः सूक्ष्मसम्परायादिभ्यः संख्यातगुणाः / अत्र सयोगिभ्यः परेणा-ऽप्रमत्तानामप्रमत्तेभ्यश्च प्रमत्तानामुपादानात्सयोगिभ्योऽप्रभत्तास्तेभ्यश्च प्रमत्ताः संख्यातगुणा इत्यनुक्तमपि दृश्यम् / अयं च न्याय उत्तरत्रापि वाच्यः / तत्र सयोगित्वं प्रतिपद्यमाना जघन्यत एकादया उत्कृष्टतोऽष्टोत्तरं शतम् / पूर्वप्रतिपन्ना जघन्यत उत्कृष्टतश्च कोटिपृथक्त्वमानाः। अप्रमत्तप्रमत्तास्तु प्रत्येक सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसंयमवत्वेन त्रिधा / तत्र सामायिक प्रतिपद्यमाना जघन्यत एकादय उत्कृष्टतः सहस्रपृथक्त्वमानाः। पूर्वप्रतिपन्ना जयन्यत उत्कृष्टतश्च कोटिसहस्रपृथक्त्वमानाः / तच्चात्र द्विवादिकोटीरूपमेवाऽवगम्यते, न तु नवकोटीरूपम् , सर्वसंयतानामेव कोटीसहस्त्रपृथक्त्वस्य श्रूयमाणत्वात् / च्छेदोपस्थापनीयवन्तश्च यदा भवन्ति तदा तत्प्रतिपद्यमाना जघन्यत एकादय उत्कृष्टतः शतपृथक्त्वमानाः / पूर्वप्रतिपन्ना उत्कृष्टतः कोटीशतपृथक्त्वमानाः। जघन्यतो प्येतावन्त एव भगवत्यामभिहिताः। एतच्च सम्यग्नावगम्यते / यतो दुषमान्ते भरतादिषु दशसु क्षेत्रेषु प्रत्येकं च्छेदोपस्थापनीयवत्प्रमत्ता-ऽप्रमत्तद्वयस्य भावाद् विंशतिरेव श्रूयत इत्येके / प्रथमतीर्थकरतीर्थकालापेक्षमिदमित्यपरे / पारिहारिकविशुद्धिकवन्तो यदा स्युस्तदा तत्प्रतिपधमाना जघन्यत एकादय उत्कृष्टतः शतपृथक्त्वमानाः। पूर्वप्रतिपन्ना जघन्यत एकादय उत्कृष्टतः सहस्रपृथक्त्वमाना इति / यद्यप्येषामपि समानतैव तथाप्यप्रमत्तकालादन्तमुहर्त्तमात्रत्व साधयेऽपि प्रमत्तकालस्य बहुत्वादप्रमत्तेभ्यः प्रमत्ताः संख्यातगुणा उक्ताः / अप्रमत्तान्तमुहूर्ताऽपेक्षया हि प्रमत्तान्तमुहूर्तानि महान्तीति / तथा प्रमत्तेभ्यो देशविरतास्तेभ्यः सास्वादनसम्यग्दृशस्तेभ्यो मिश्रशस्तेभ्योऽप्यविरतसम्यग्दृश इति चत्वारोऽसंख्याताः। अविरतेभ्योऽयोगिकेवलिनस्तेभ्यश्च मिथ्यादृश इति द्वयेऽनन्ताः / ततः प्रमत्तेभ्यो देशविरता असंख्याताः, तिर्यप्रक्षेपात् / देशविरता हि नरास्तिर्यञ्चश्च / तत्र तिर्यश्चोऽसंख्याताः / सास्वादनास्तु कदाचिन्न भवन्ति, यदा तु भवन्ति, तदोत्कृष्टतो गतिचतुष्कसंभवित्वेन देशविरतेभ्योऽसंख्याताः। मिश्रा अपि कदाचिन्न भवन्ति, यदा तु भवन्ति, तदोत्कर्षतः सास्वादनेभ्योऽसंख्याताः स्युः / सास्वादनाद्धाया उत्कृष्टतो.ऽपि षडावलिकामानत्वेनाल्पकालिकत्वान्मिश्राद्धायास्तु जघन्तोऽप्यन्तमुहूर्तमानत्वेन बहुकालभावित्वात् / अविरतसम्यग्दृशस्तु सर्वदैव सास्वपि गतिषु प्राप्यन्त इति मिश्रदृष्टिभ्योऽऽसंख्याताः / अयोगिनस्तु भवस्थाः सिद्धाश्च तत्र सिद्धानामानन्त्यादविरते. भ्योऽनन्तगुणाः / मिथ्यादृष्टयपेक्षयाऽनन्ता अपि सिद्धा अनन्तभाग एव वतन्त इत्य-ऽयोगिभ्यो मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः / आनन्त्यं चामीषामनन्तोत्सप्पिव्यवसर्पिणीषु Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेष्वल्पबहुत्वं ग्रन्थसमाप्तिश्च [ 57 यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणं मन्तव्यम् / इत्युक्तं गुणस्थानेषु जीवस्थानाद्यभिधेयपददशकम् / एवं च यथाप्रतिज्ञातं मूला-ऽदर्शितमप्यभिधेयजातमभिहितम् // 84-85|| संप्रति श्रोतृणामाशीर्वचनव्याजेन प्रकरणार्थसम्पूर्णतामाविष्कतु माहजिणवल्लहोवणीयं जिणवयणामयसमुद्दबिंदुमिमं / हियकंखिणो बुहजणा निसुणंतु गुणंतु जाणंतु // 86 // (यशो०) जिन एव = रागादिजेतैवोपचाराजिनाज्ञैव वा जिनः स वल्लभो यस्येति सान्वयजिनवल्लभाभिधानः प्रकरणकारस्तेनोपनीत = मितस्ततो विकीर्णानामर्थानामेकत्र मीलेनेन सामीप्येन प्रापितं जिनवचनमेव जरामरणादिक्लेशपरम्परापहारकारितया परैरलब्धमध्यतयाऽमृतसमुद्रस्य बिन्दुरतिस्तोकत्वसाधर्येण इममिति यदा प्रकरणवशाल्लब्धस्य प्रकरणस्येदमिति (इ)दमा परामर्शस्तदा प्रकरणस्य जिनवचनामृतसमुद्रबिन्दुत्वेन निरूपणम् / यदा त्वतिशयोक्तिभङ्गया-ऽस्य प्रकरणस्य जिनवचनामृतसमुद्रबिन्दुत्वेनाऽत्यन्ता-ऽभेदाध्यवसायस्तदेममिति जिनवचनामृतसमुद्रबिन्दोर्विशेषणम् / अनेन चागममूलता-ऽऽ विर्भावनपरेणास्य प्रकरणस्य विशेषेणोपादेयता प्रतिपादिताः। हितकाङ्क्षिण इति मोक्षाभिलाषिणो मोक्ष एच हि प्राणिनां परमार्थतो हितम् / हितकाङ्क्षिणश्च तत्वज्ञानशून्या अपि स्वबुद्ध्या भवन्तीत्याहबुधजनाः तत्त्वविदः नितरामुपविधव्यावधानपरतया श्रृण्वन्तु | परावर्त्तनं च पठनपूर्वकमिति पठन्त्विति सामर्थ्याद् गम्यते / तथा ज्ञानं तु संशयविपर्ययपराकरणद्वारेण निश्चिन्वन्तु / इह च प्रकरणमिदमीदृशमिति प्रवादाधिकसत्कौतुकास्तत्प्रथमं श्रृण्वन्ति / श्रवणे चा-ऽवधारितप्रकरणस्य परमोपादेयत्वात्पठित्वा परावर्त्तयन्ति / परावर्तेन प्रसादेन च सम्यग् जानन्तीति श्रवणादीनामेवं क्रमः // 86 // // इत्यागमिकवस्तुविचारसारप्रकरणं विवरणम् / / // अथ प्रशस्तिः // xशब्दैककारणतया-ऽद्भुतवैभवेन, सद्भावभूषिततया ध्रुवतानुवृत्त्या / पुष्णात्यखंडमिह यद्गमनेन संख्यं, चान्द्रं कुलं तदवनावविगीतमस्ति // 1 // X तत्रोदितः प्रतिदिनं स्मरमत्सरादि-दैतेय निर्दयविमर्दनकलिलोलः / विश्वेऽप्यधृष्यमहिमा सवितेव सूरिः, श्रीशीलभद्र इति विश्रुतनामधेयः॥२॥ बहुपरिभवातिदीना येन स्वात्मनि गुणाः सबहुमानं / न्यस्ताः सम्प्रतिकृतयुगमुनिविषयविवाददलनाय // 3 // 4 वसंततिलका। A आर्या। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे टीकाकृत्प्रशस्तिः x तस्याभवद्भुवनवल्लभभाग्यसम्प-त्सूरिर्द्धनेश्वर इति प्रथितः 'स शिष्य / अद्याऽप्यमन्दमतयो ननु यत्प्रतिष्ठा-मादित्सवः किमपि चेतसि चिन्तयन्ति // 4 // सूक्ष्मार्थसार्द्धशतकप्रकरणविवरणमिषेण सम्यग्दृशां / मलयजमिव लोकानां हृदयानि मुखानि भूषयति // 5 // येन विविधशास्त्रादिप्रपञ्चपीयूषमर्पितं निपुणाः / के के पायं पायं न भवन्ति रूजातिनिमुक्ताः // 6 // बाल्यादपि बलमांसल-भवरिपुपृतनापराभवारम्भः / अजनि नयविनय सदनं तयोविनेयेषु यस्तिलकः // 7 // xबोधावधारणविरोधनिरोधधर्मो पायप्रदर्शनपरोपकृतादिशक्त्या। यो रोचकं व्यरचयञ्चतुराशयेषु, प्रायेण विश्रुतगुणेष्वपि सज्जनानां // 8|| +नृपतिरजयदेवो देवविद्वन्मनीष-मददलनविनोदैः कोविदैस्तुल्यकालं / स्थितिमुपधिविरूद्धा मागधीगमधत्ता-ऽस्खलितमखिलविद्या-ऽऽचार्यकं यस्य दृष्ट्वा / / / 7 अर्णोराजनृपे सभी परिवृढे, श्रीदेवबोधादिषु, प्राप्तानेकजयेषु साक्षिपु सदिग्-वासःशिरःशेखरः / सद्विद्योऽपि गुणेन्दुरन्तरुदित-क्षोभोद्भवद्वेपथु- - हेतु' यस्य निशम्य मन्तुविमुखं, तत्प्राज्ञवादव्रतम् // 10 // v यस्य श्रीखण्डपाण्डु-भ्रमति दशदिशः, कीर्तिरुत्साहिते वा घाटं द्रष्टुं त्रिलोक्याः, सुरभितभुवनै-स्तैः पवित्रैश्चरित्रैः। . तस्य श्रीधर्मसूरे-निरवधिधिषणा-शालिनः शिष्यलेशः, स्मृत्यै स्वस्येदमल्पं, विवरणमकृत, श्रीयशोभद्रसूरिः // 11 // * मृदुमतिपरिस्पन्दायद्वावधानवियोगतो, यदिह विवृतं किंचित्क्वा-ऽपि स्वदर्शनबाधया। तदखिलमपि क्षुद्राचारा त्तिपराङ्मुखै, विदितविशदाम्नायैः सम्यग्विशोध्यमशङ्कितैः // 12 // // इति श्रीमद्य गोभद्रसूरिप्रणीतषडशीतिप्रकरणटीका समाप्ता / X वसंततिलका। आर्या / + मालिनी। V शादुलविक्रीडितम् / * हरिणी "वृषभचरितं" इति वा "वृषमललित" इति वाऽपरनाम छन्दः / 1 "सुशिष्यः" इति वा। हस्तलिखितप्रत्यादिषु पुनः "सशुष्यतः' इति पाठ उपलब्धोऽस्ति / किन्तु सोऽशुद्धः प्रतिभाति / // इति श्रीयशोभद्रसूरिकृतवृत्त्युपेतः षडशीतिनामा चतुर्थःकर्मग्रन्थः॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति ___ श्रीमजिनवल्लभगणिपुङ्गवप्रणीते. श्रीषडशीतिनाम्नि चतर्थे प्राचीनकर्मग्रन्थे तृतीया श्रीयशोभद्रसूरिकृता टीका समाप्ता Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ. श्रीमज्जिनवल्लभगणिपुङ्गवप्रणीते श्रीषडशीतिनाम्नि चतुर्थे प्राचीनकर्मग्रन्थे चतुर्थी श्रीरामदेवगणिविहिता टीका प्रारभ्यते Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // ॐ ह्री श्री अर्ह श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः // न्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपादपद्मेभ्यो नमः // सकलागमरहस्यवेदिश्रीमदाचार्यविजयदानसूरीश्वरेभ्यो नमः / / कर्मसाहित्यनिष्णातश्रीमदाचार्यविजयप्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः // श्रीमज्जिनवल्लभगणिपुङ्गवप्रणीतः षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / ___(अपरनाम-आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणम् ) "श्रीमद्रामदेवगणिविवृतविवरणेन विभूषितः // " Kritem // नमो जिनागमाय // सिरिपासजिणं नमिउं, वत्थुवियारस्स विवरणं भणिमो। इह आयसुमरणत्थं, गुरूवएसा समासेणं // 1 // तत्थ ताव पगरणकारो इट्ठदेवयानमोक्कारपुव्वं अभिधेयं पयोजणं च गाहादुगेण भरे - निच्छिन्नमोहपासं पसरियविमलोरुकेवलपयासं / पणयजणपूरियासं पयओ पणमित्त जिणपासं // 1 // वोच्छामि जीवमग्गणगुणठाणुवओगजोगलेसाई / किंचि सुगुरूवएसा सन्नाणसुझाणहेउत्ति // 2 // (राम०) निच्छिन्नो-तोडिओ मोहलक्खणो पासो बंधणं जेण तं, पसरिओ वित्थरिओ विमलो निम्मलो उरू बृहत्तरो केवलनाणस्स पयासो अवलोयणं जस्स तं, पणयजणाणं-स्तावकलोकानां पूरिया पयच्छिया आसा=इहलोगे परलोए य जा कावि वंछिया जेण तं, एवं विहविसेसणजुत्तं 'पयओ' उज्जमपरो पासजिणं 'पणमित्तु' नमिय वोच्छामि जीवट्ठाणाइ / तत्थ जीवट्ठाणेसु मग्गणट्ठाणेसु गुणट्ठाणेसु जे उवओगा जोगा लेसा, आइसद्दाओ जीवट्ठाणेसु गुणट्ठाणाणि मूलपयडीविसओ बंधो उदओ उदीरणा सत्ता य, तहा मग्गणट्ठाणेसु जीवट्ठाणगुणट्ठाणाणि अप्पबहुत्तं च तहा गुण'ट्ठाणगेसु जीवट्ठाणाणि बंधहेयवो मूलपयडीसु 1. ""ट्ठाणेसु” इत्यपि पाठः। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे बंधाइ अप्पबहुत्तं च भणामि त्ति संबंधो 'किंचि' ति सुयसागराओ बिंदुमेत्तं 'उद्धरिय, सुगुरूवएसा न समईए विगप्पियं किं निमित्तं 'सन्नाणसज्झाणहेउ ति' ति तत्थ नाणं वत्थुगओ बोहो जीवाइपयत्थेसु झाणं असुहमणवयणकायनिरोहो, जओ वुत्तं ___ "भंगियसुयं गुणतो, वट्टइ निविहे वि झाणम्मि / अत्योहाए तस्सेव मणो संभासणेण पुण वयणं / होइ चिय सुनिरूद्धो तल्लिहणाईहि पुण काओ / / " सोहणं जं नाणज्झाणं तस्स हेऊ तप्पओयणं जेण तं पयट्टइ ति / / 1-2 // पुव्वं "जीवट्ठाणाईसु गुणट्ठाणाई वोच्छामि" ति वुत्तं, अओ पढमं ताव जीवट्ठाणाणि सरूवओ मणेइ इह सुहुमबायरेगिदिवितिचउअसन्निसन्निपंचिंदी / . अपजत्तापजत्ता कमेण चउदस जियटाणा // 3 // (राम०) सुहुमा एगिदिया वायरा एगिदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिदिया असन्निपंचिदिया सन्निपंचिंदिया / एवं सत्त, सत्त वि दुविहा अपज्जत्तगा पज्जत्तगा य. एए चउदस जीवट्ठाणा // 3 // एएसु गुणट्ठाणाईणं कमेण मग्गणा कीरइ / तत्थ पढमं गुणट्ठाणमग्गणा, जस्स जत्तिया गुणट्ठाणा तं भन्नति सव्वभणियव्वमूलेसु तेसु गुणठाणगाइ ता भणिमो / पढमगुणा दो बायरबितिचउरअसनिअपजत्ते // 4 // (राम०) इह पगणे जे केइ अत्था भणियव्वा तेसिं सव्वेसि जीवा मूलं, तेण "सव्वभणियध्वमूलेसु" त्ति वुच्चइ / अतो तेसु गुणठाणाईणि ताव भन्नति / आइसदाओ जोगा उवओगा लेसा, बंधो उदओ उदीरणा सत्ता य मूलपयडीणं। पठमगुणा दो-मिच्छत्तं सासायणं च, बायर एगिदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियअसन्निअपज्जत्तगेसु ए सु पंचसु दो गुणट्ठाणा लभंति / अपज्जत्त गाण सासायणो कहं ? भन्नइ,-सन्निपंचिंदिया पुचि एएसु बद्धाउया अंते उवसमसम्मत्तं उप्पाइंति, अंते य नियमा वर्मति, तेसिं कोइ सासायणभावेण एएसु उववज्जइ, तओ किंचिकालं "सासायणभावो लब्भति // 4 // सनिअपजत्ते मिच्छदिट्टिसासाणअविरया तिन्नि / सव्वे सन्निपजत्ते मिच्छं सेसेसु सत्तसु वि // 5 // . 1. 'उद्धरियं सुगुरूवएसाओ" इत्यपि / 2. स्वमत्या / 3 “सु पंच०" इति “सु पंचसु एए दो” इति वा पाठः। 4 “सासणमावो" इति वा। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानानि, तेषु गुणस्थानानि च [3 (राम०) सन्निअपज्जत्तगस्स तिन्नि-मिच्छद्दिट्ठी सासायणो अविरयसम्मट्टिी य / सासायणस्स पुव्वुत्तो विही। अविरओ कहं ? अपरिवडियसम्मत्तो कोइ एएसु उववज्जइ ति काउं / सन्निपज्जत्तयस्स सव्वे गुणट्ठाणा, जओ सव्वेसिं गुणट्ठाणाणं भायणोत्ति 'मिच्छं सेसेसु सत्तसु वि' सुहुमअपज्जत्तपज्जत्तगस्स बायरएगिदिय-बेइंदिय-तेहंदिय-चउरिंदिय असन्निपज्ज. तगेसु एगो मिच्छत्तगुणो / सुहुमअपज्जत्तगस्स 'सासायणो कहं न होइ ? 'सासायणो जीवो जओ तेसु न उववज्जइ ति काउं // 5 // इयाणिं जोगमग्गणा, ते य पन्नरस, तं जहा-सच्चं मणं 1, मोसं मणं 2, मीसं मणं 3, असच्चमोसं मणं 4, सच्चभासा 1, असच्चभासा 2, मीसभासा 3, असच्चमोसा भासा 4, ओरालियं१. ओरालियमीसं 2, वेउव्वियं१, वेउव्वियमीसं 2, आहारगं 1, आहारगमीसं 2, कम्मगं 1, एवं जोगा 15 / ___ एत्थ पसंगागयं भासाचउक्कस्स विवरणमाह"एगा सहावसच्चा मोसा दुइया तहेव नायव्या / तइया सञ्चामोसा, अवच्चमोसा 'चउत्थी उ॥२। जणश्यसम्मयठवणा नामे रूवे पडुच सच्चे य / ववहारमाबजोगे, दसमे ओकम्मसच्चे य // 3 // जणवयसच्चं एत्थं देसियभामाएँ जत्थ जे रूढं / जह कुकणे पसिदो पयसदो पाणिप चेव // 2 / तामरसकुवल उलप उमाणं पंकसंमवम्मि समे / तासरसमेव गोवाइसम्मयं सम्मया एसा // 5 // भावरमुद्द माईहि मासकाहावणे सहस्समिणं / जंठाविज्जइ जियकप्पणाएँ तं ठागणे सच्चं / / 6 / / जत्था पक्खो पक वो अबुडिढकारी वि कुलधणाईणं / तव्वद्धणोत्ति मन्नइ, नामेणऽभिहाणसच्चं तं / / 7 / "अणुगरणट्ठा वेसं, कवडेण व दंसणाइरूवं वा / तग्गुणहीणो विरयइ भन्नइ तं रूवसच्चं ति / / 8 / / हीण हिएसु दुइएण वत्थुणा लहुय-गरुयभावेण। निच्छिज्जइ जो अत्थो, पडुच्च सच्चं तय होइ / / 6 / / गिरिगयनणाइदाहे. वि पव्वओ ज्झामिओत्ति ववहारे। भायणालणमणुदरा कन्ना नीरो मुरब्मा य / 10 / पंचन्ह वि वन्नाणं, विजंते संमवम्मि तह हे / सेया बलाहिया एत्थ भावसचं निएयव्यं / / 11 / / दंडाईणं जोगा, दंडी त होइ जोगसच्चं ति। उवमासच्चं तु मवे समुद्दतुल्लं तलायं ति / / 12 / / एमा सहावसच्चा दस भेया मासओ अदोसा य / एत्तो एगंतमुसं, तप्परिहारठ्ठया बेमि // 13 // कोहे माणे माया, लोभे पेज्जे तहेव दोसे य / हासभए अक्खाइय उवधाए निस्सिया दसमा / / 14 / / कोहाभिभूयचित्तो, असंभवादणवबुझि उणं वा / पच्चायंतो अन्नं कयाइ सच्चे वि मोसे व // 15 // माणम्मि अगणुभूयं ईसरियं अत्तणो पयासेइ / मायाए सगडाई, मुहपक्खेवा नयणमोहो / / 16 / कूडपमाणसंकेयजोगवाणिज्जओ उ लोभगया। पेमम्मि वि दासोहं, अत्थविहूणं मुसं होइ / / 17 / जं पुण अवन्नवाओ,तित्थगर राण विपओसियं एसा। नम्मेण हासमोसा चोर व्वेएण भयजणया / / 18 / / संभवरहियं मासइ, कहासु अक्खाइ आगया होइ। उवधायनिस्सिया तह, अब्भवाणुब्भवा जाओ।।१६।। एत्तो उ नयभासा, सच्चामोसा त्ति दसविहा होइ / सम्मं वियारिऊणं, परिहरियव्या विवेईहिं / / 20 / / उत्पत्तिविगमउभया जीवाजीवमयणंतयपरित्ता। अद्धा अद्धद्धा तह. संगहमेत्रोण बोद्धया // 21 // जम्ममरणोभयाणं,संखा बालाइयाण जा नगरे / हीणाहिगा व तत्थ उ विसंवयंती उ सच्चमुमा // 22 // .. 1 'सासणो" इत्यपि / 2 “ससासणो" इत्यपि / 3 “कम्मगं' इत्यपि / 4 "चमत्था' इत्यपि / 5 "अणुकर'' इत्यपि"। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मपन्थे एस गुरुजीवरासी संखाई दंसणेण थोवाणं / तत्थ मयाणं मावा जीवविमिस्सा इमा नेया // 23 // एत्थेव मया बहवो थोवा जीवंति सन्त्रमयभणणा / मिस्सा इमा अजीवेहि होइ भासा उसच्चमुसा // 24 // सव्वं मयममयं वा, उमयं नियमेण वागरंतस्स / जं तत्थ विसंवइयं, तमुभयमिस्सं निएयव्यं // 25 // अण्णण पंडुपत्तेण वा वि मीसं तु मूलगाईयं / द अणंतभणणे साहारणभीसिया होइ / / 26 / / तं चेवुक्खयमेत्तं मिलाणममिलाणमेगरासिगयं / सव्वं परित्तमेयं, भणओ मिस्सा परित्तेण // 27 // तूरंतो अन्नजणं, विज्जते चेव दिवसकालम्मि। जाया निसा पयट्टसु वयओ अद्धाएँ मिस्सेय // 28 // पढमम्मि चेव जामे, रयणिए वासरस्स वा वेइ / जायं इयं निसीह, मज्झन्हो वा वि अद्धद्धा // 2 // इन्ही असच्चमोसा, तिण्हं पीमाण लक्वणा जोगा। नाऊण विगयदोसं, तिभासगातो पउंजंति // 30 // आमंतणि आणवणी, जायणि तह पुच्छणी य पन्नवणी / पच्चक्खाणी मासा, मासा इच्छाणुलोमा य।।३।। अणमिग्गहिया मासा, मासा य अभिग्गहम्मि बोधवा। संसयकरणी मासा, वोगडअवोगडा चेव // 32 // जीएँ पवित्तिनिवित्तीउ नेय जायंति भासियाए वि। संबोहमेत्तकरणी आमंतणिया भव भासा / 33 // . . आणवणी कज्जनिओयणाएँ तह मग्गण जायणिया / संदेहविगमहेउं, चोयणी पुन्छणी होइ॥३४॥ पाणिवहाओं नियत्ता, दीहाऊरूवगुणजुया हुंति। एवं विणेयवग्गस्स देसणा होइ पण्णवणी // 35 / / अण्णम्मि जायमाणे, पच्चक्खाणी न देमि भासते / तह चोयणा पडिच्छण ममऽणुमयमिणं ति अणु लोमा // 36 // . अभिधेयविगलसद्दो, हासपलावाइओणभिग्गहिया। धडपडगाई 'अत्थो विवेयमासा अभिग्गहिया // 37 // नाणा विहत्थगहणी, सिंघवसद्दो व्व संसयकरीओ। नरवत्थतुरयपभिईसु वच्चमाणा जहिच्छाए।३८ / सगडघडाइपसिद्धो, सद्दो सा वोगडा उ बोधव्वा / लल्लक्खरदुब्बोहा, अबोगडा होइ गंभीरा / / 36 / ' इति / तत्थ जोगा छसु अप्पजत्तएसु कम्मइगउरलमिस्सा दो। वेउब्बियमीसजुया सनिअपजत्तए तिन्नि // 6 // (राम०) सन्निअपज्जत्तगवज्जेसु छसु अपज्जत्तगेसु जोगा दो-कम्मइगं ओरालमीसं च। कम्मइगं विग्गहगईए पढमचरमविग्गहं मोत्तु, ओरालमिस्सं सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तगस्स / A सण्णिअपज्जत्तगस्स तिन्नि वेउव्वियमीसं 1 ओरालियमिसं 2 कम्मगं 3 च, जओ देवनेरइया सन्निणो उप्पत्तिकाले वेउव्वियमीसा // 6 // बिंति अपजत्ताण वि तणुपज्जत्ताण केइ ओरालं / बायरपजत्ते तिन्नि उरलवेउब्वियदुगं च // 7 // (राम०) पज्जत्तीओ छ होति / तं जहा-'आहारपज्जत्ती 1, शरीरपज्जत्ती 2, इंदियपज्जत्ती 3, आणुपाणुपज्जती 4, भाषापज्जत्ती 5, मणपज्जनी 6 / 1 "अत्थोभिधेयमासा'' इत्यपि पाठः / 2 एतच्चिद्वयमध्यगतः पाठः प्रत्यन्तरादर्श नास्ति / / ३"आहारगपज्जत्ती एगा” इत्यपि / Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु योगा उपयोगाश्च आहारसरीरिंदियउस्सासवओमणोमिनिव्वत्ती। होइ जओ दलियाओ, करणं पइसा उ पज्जत्ती / / पज्जत्ती नाम सत्तीविसेसो / सो दलिओपचयाओ ओपज्जइ, जओ आहारियस्स दव्वस्स खलरसपरिणामणसत्ती आहारपज्जत्ती 1 / सत्तधाउतया रसस्स परिणामणसत्ती सरीरपज्जत्ती 2 / रस 1 श्रोणित 2 मांस 3 स्नायु 4 अस्थि 5 मज्जु 6 रेतु 7 इति सप्त धातवः / इंदियपज्जत्ती पंचण्हमिंदियागं जोगपुग्गले विचिणिय तब्भावनयणसत्ती, अत्थावबोहसत्ती य इंदियाज्जत्ती 3 / आणुपाणुजोगे बाहिरे पुग्गले धेतूण आणापाणुत्ताए परिणामित्ता ऊसासनीसासत्ताए निसरणसत्ती आणापाणुपज्जत्ती 4 / वयणजोगे पोग्गले धेत्तूग भासत्ताए परिणामित्ता वयणजोगत्ताए निसरणसत्ती भासापज्जत्ती 5 / मणजोगे पोग्गले धित्तूण मणत्ताए परिणामित्ता मणोजोगत्ताए निसिरणसत्ती मणपज्जत्ती 6 / एयाओ पज्जत्तीओ पज्जत्तगनासकम्मोदएण निव्वत्तिज्जन्ति, तं जेसिं अत्थि ते पज्जत्तगा / एयाओ चेव पज्जत्तीओ अपज्जत्तनामकम्मोदए ण निव्वत्तिज्जंति, तं जेसिं अत्थि ते अपज्जत्तगा। ____तत्थ आइल्ला चत्तारि एगिदियाणं, आइल्ला पंच विगलिंदियअसण्णीणं, छावि सण्णीणं / तत्थ 'नियनियाहिं असमत्तीयाहिं अपज्जत्तगा समतियाहि पुण' पज्जत्तगा / सत्तसु अपज्जत्तगेसु सरीरपञ्जत्तीए पज्जत्तगेसु ओरालियसरीरं बेंति केई। तेसिं मएण तिनि जोगा-ओरालियं 1 ओरालियमीसं 2 कम्मगं च 3 / सनिअपज्जत्तगस्स देव-नेरइए पडुच्च वेउब्वियं कहं न होइ ? भ०-वेउब्वियसरीराणं सरीरपज्जत्ती अंतोमुहुत्तिया, सेसा पंच एगेगसामइगीओत्ति, तेण अप्पकालियस्स न विचक्रवा कया / "वायरपजते तिन्नि" ति बायरएगिदियपज्जत्तगे तिनि जोगा-ओरालियं 1 वेउब्वियं 2 वेउब्वियमीसं च 3 / वेउविदुगं वाउकाइए पडुच्च // 7 // उरलं सुहमे चउसु य भासजुयं पनरसा वि सन्निभि / उवओगा दससु तओ अचक्खुदंसणमनाणदुगं॥८॥ (राम०) सुहुमस्स पज्जत्तगस्स एगं ओरालियं / 'चउसु य भासजुयं ति चउसु ठाणेसु वेइंदिय-तेदिय-चउरिदिय-असण्णिपज्जत्तगेसु तं चेव ओरालियं असच्चमोसा भासा य / 'पणरसावि सन्निम्मि' ति सण्णिपज्जत्तगस्स पन्नरसावि जोगा, जओ सव्वेसि अहिगारित्ति / कहं ? मणचउक्कं वइचउक्कं ओरालियं वेउब्वियं एए दस सभावस्थाणं मणुयतिरियनेग्झ्यदेवाणं जहासंभवं लब्भंति / वेउव्वियमिस्सं देवनेरइयाणं उप्पत्तिकाले, जओ लद्धीए पज्जत्तगा चेव उववज्जंति। 'तहा सन्वेसिं उत्तरवेउब्वियारंभकाले कम्मणा सह, जओ ते वेउव्वियकरणकाले वेउम्चियसमुग्धायं 'समोहन्नंति, समोग्याए य कम्मणसरीरेण वे उब्वियपोग्गले आदायंति, आदाईएसु 1 स्वस्तिकद्विकान्तर्वर्ती पाठः प्रत्यन्तरे नास्ति / 2 "नियनिजाहि" इत्यपि / 3 "लद्धीपज्जत्त " इत्यपि / 4 "अहवा सम्वेसिं" इत्यपि / 5 “समोहन्नति-संखेन्जाई जोयणाई निसिरिति, समो' इत्यपि। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे वि जाव सरीरपज्जत्ती न पूरइ ताव वेउव्वियमिस्सं सन्निस्स लब्भइ / अन्ने आयरिया भणति-मणुयतिरियाणंओरालियेण सह विउब्धियमिस्सं विउब्धियारंभकाले,जओ ओरालि' यस्स,पयत्तो। तोवुत्तं. 'जोगो विरियं थामो उच्छाहपरक्कमो तहा चिट्ठा। सत्ती सामत्थं ति य जोगस्स हवंति पज्जाया।" तहा देवनेरइयाणं वि विउब्वियमीसं. वेउव्विएण सह / आहारगमिस्सं एवं चेव, नवरं चोद्दस पुव्वधरस्स आहारगारंभ काले, तओ आहारगं निष्फज्जइ / ओरालियमिस्सं केवलिस्स समुग्धायगयस्स बीय-छट्ठ-सत्तमसमएसु / कम्मणसरीरं च तस्सेव ति-चउत्थ-पंचमसमएसु / एवं सन्निपज्जत्तगे सव्वे जोगा लन्भंति / अण्णेसि मएण वेउव्वियाऽऽहारगसंहरणकाले ओरालियमिस्सं लब्भति / परं एयरस सत्थयारेण न विवक्खा कया // ___इयाणि उवओगमग्गणा / ते य बारसविहा / तं जहा-मइनाणं सुयनाणं ओहिनाणं मणपज्जवनाणं केवलनाणं 5, मइअन्नाणं सुयअन्नाणं विभंगनाणं 3, चक्खुदंसणं अचक्खुदंसणं ओहिदंसणं केवलदंसणं 4 एवं बारस उवओगा। 'दससु तओ' त्ति जीवट्ठाणेसु चउरिदियपज्जत्तगअसण्णिपज्जत्तग-सन्निपज्जत्ता-ऽपज्जत्तगवज्जेसु तिण्णि उवओगा मडअन्नाणं सुयअमाणं अचक्खुदरिसणं च ||8|| चक्खुजुया चउरिंदियअसन्निपजत्तएसु ते चउरो। मणनाणचक्खुकेवलदुगरहिया सनिअपजत्ते // 9 // __ (राम०) चउरिदियपज्जत्तगस्स असन्निपज्जत्तगस्स य ते पुव्वुत्ता तिनि चक्खुजुया चत्तारि उवओगा। सण्णिपज्जत्तगस्स मणपज्जवनाणचक्खुदरिसणकेवलदुगवज्जा अट्ठ उवओगा / 'एत्थ पढमं नाणतिगं ओहिदसणं अविरयसम्मद्दिढि पडुच्च, अन्नाणतिर्ग मिच्छादिठि पडुच्च, अचक्खुदंसणं दोसु वि एवं अट्ठ॥६॥ सव्वे सन्निसु एत्तो लेसाओ छावि दुविहसन्निमि / चउरो पढमा 'बायरअपजत्ते तिन्नि सेसेसु // 10 // (राम०) सन्निपज्जत्तगस्स 'सव्वे' बारस वि उवओगा, जओ सव्वेसि अहिगारि त्ति / इओ लेसामग्गणा भण्णइ-ताओ छल्लेसाओ, तं जहा-किन्हलेसा-नीललेसा-काउलेसा तेउलेसा-पम्हलेसा-सुक्कलेसा 'लेसाओ छावि दुविहसन्निम्मि' सन्निपज्जत्ता-ऽपज्जत गेसु छावि लेसाओ होति / चउरो लेसा 'पढमा' आइमा बायरएगिदियअपज्जत्तगस्सु, जओ पुढवि. आउवणस्सइकाएसु देवा वि ईसाणंता तेउलेसासमन्निया उववज्जंति, तेण किंचिकालं तेउलेसा 1 "यंपयत्तो" इत्यपि। 2 "* पुव्विस्स" इत्यपि / 3 "०काले मिस्सं, तभो" इत्यपि / 4 "तत्थ" इत्यपि / 5 "बायरऽपजत्ते" इत्यपि। 6 "०गे छावि" इत्यपि / Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जावरा जीवस्थानेषूपयोगा लेश्याश्च तथा जीवस्थानेष्वेव मार्गणास्थानःनि [. संभवति / इह सासण-नाणतिग-विभंग-अवहिदंसण-सम्मत्ततिग तेउ-पम्हसुक्कलेसाओ 'अपज्जत्तगेसु वि-करणअपज्जत्तगेसु लद्धीए पज्जत्तगेसु दट्ठन्वाओ। 'सेसा एकारस जीवट्ठाणा, तेसु तिमि लेसा पढमा-किन्हलेसा नीललेसा काउलेसा // 10 // इयाणिं मंदमइवियोहणत्थं सुत्ते अभणियमवि किंचि मग्गणट्ठाण-बंधहेउमग्गणालक्खणं जीवट्ठाणेसु बुच्चइ / तत्थ ताव मग्गणमूलभेया सव्वेसिं पत्तेयं पत्तेयं चउद्दस वि होति / उत्तरभेया बासट्ठी / ते य कस्स जीवठाणस्स केत्तिया ? तन्निरूवणत्थं भण्णइ सुहुमअपज्जत्तगस्स उत्तरभेया / तं जहा-तिरियगई 1 एगिदियत्तं 1 तसवज्जा पंच थावरकाया 5 कायजोगं 1 नपुंसगवेयं 1 कसायचउक्कं 4 मइअन्नाणं 1 सुयअन्नाणं 1 असंजमो 1 अचक्खुदरिसणं 1 पढमलेसतिगं 3 भव्वाभव्वदुर्ग 2 मिच्छत्तं 1 असण्णी 1 आहार-ऽणाहारदुगं 2, एवं छब्बीसं भेया / सेसा छत्तीसं असंभविया / सुहु'मपज्जत्तगस्स वि एवं। णवरं अणाहारगो न होइ, तेण पणवीसं भेया 25 / बादरअपज्जत्तगस्स उत्तरभेया / तं जहा-तिरियगई१एगिदियत्तं 1 तसवज्जा पंच थावरकाया 5 कायजोगं 1 नपुंसगवेयं 1 कसायचउक्कं 4 मइअण्णाणं 1 सुयअण्णाणं 1 असंजमो 1 अचक्खुदरिसणं 1 पढमलेसचउवकं 4 भव्वाभब्वदुगं 3 सासायणं 1 मिच्छत्तं 1 असण्णी 1 आहारदुगं 2 एवं अट्ठावीसं / सेसा चउत्तीसं असंभविया / बायरपज्जत्तगस्स एए / नवरं सासायणो तेउलेसा अणाहारगो न होइ ति पणवीसा / ___बेइंदियअपज्जत्तगस्स उत्तरभेया / तं जहा-तिरियगई 1 वेइंदियत्तं 1 तसकायं 1 कायजोगं१ नपुसगं 1 कसायचउक्कं 4 अन्नाणदुर्ग 2 असंजमो 1 अचखुदरिसणं 1 पढमलेसतिगं 3 भव्वाभवदुगं 2 सासणो 1 मिच्छट्ठिी 1 असण्णी 1 आहारदुर्ग 2 तेवीसं भेया / सेसा अउणयालीसं असंभविया / बेइंदियपज्जत्तस्स एवं / नवरं सासणो अणाहारगो न होइ, भासाजोगो य होइ बावीसा / तेइंदिय-चउरिदिय अपज्जत्ताण वि बेइंदिय अपज्जत्तवुत्ता तेवीसा / पज्जत्तगाणं पज्जसवावीसा, नवरं चउरिदियस्स चक्खुदरिसणं तेवीसइमं / एत्थ य इंदियवुड्ढी आलावगो भाणियब्यो। असण्णिपंचिंदियस्स अपज्जत्तगस्स उत्तरभेया / तं जहा-मणुयगई 1 तिरियगई 1 पंचिंदियत्तं 1 तसकायं 1 कायजोगं 1 वेयतिगं 3 कसायचउक्कं 4 अन्नाणदुर्ग 2 असंजमो 1 अचक्खुदरिसणं 1 1 "एएमु वारससु ठाणेसु अपज्जत्त " इत्यपि / 2 'सेसेसु एक्कारसजीवाणेसु तिम्नि" इत्यपि / 3. "मस्स पज्जा" इत्यपि। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / नापा। पडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे पढमलेसतिगं 3 भव्वाभव्वादुगं 2 सासणो ! मिच्छद्दिट्ठी 1 असन्नी आहारदुगं 2 छ्व्वीसं भेया। पज्जत्तगस्स सासणो अणाहारगो मणुयगई न होइ त्ति, चवखुदरिसणं भासा य होइ त्ति पणवीसा / ___ सन्निपंचिंदियस्स अपज्जत्तगस्स उत्तरभेया / तं जहा-गइचउक्कं 4 पंचेंदियत्तं 1 तसकायं 1 कायजोगं 1 वेयतिगं 3 कसायचउक्कं 4 नाणतिगं 3 अन्नाणतिगं 3 असंजमो 1 अचखुदरिसणं 1 ओहिदरिसणं 1 लेसछ्वकं 6 भव्वाऽ-भव्यदुर्ग 2 सम्मत्तपंचगं 5 मिस्साभावाओ सन्नी 1 आहारदुगं 2 उगयालीसं भेया, सेसा तेवीसं असंमविया / सन्निपज्जत्तगस्स उत्तरभेया / तं जहा-गइचउक्कं 4 पंचिंदियत्तं 1 तसकायं 1 जोगतिगं वेयतिगं 3 कसायचउक्कं 4 नाणपंचगं 5 अणाणतिगं 3 संजमसत्तगं 7 दंसणचउक्कं. 4 लेसछक्कं 6 भव्वाभव्यदुर्ग 2 सम्मत्तछक्कगं 6 सन्नी 1 आहारदुगं 2 बावन्नं भेया, सेसा दस असंभविया। उत्तरबंधहेयवो तं जहातेत्तीसा बत्तीसा, तेत्तीसा तिण्ह होइ चउतीसा। दो दो एगुत्तरिया, उणयाला चत्त दुग एगे // 1 // मिच्छत्तमणाभोगं, अजतो छक्काय एगअक्खे य / तह सोलस य कसाया, हासाईछक्क अपुमं च // 2 // धुवहेऊ इगतीसं, सामण्णेणं तु जीवठाणेसु / सेसा उ अधुवहेऊ, वोच्छं जा जस्स संभविया // 3 // सत्तसु वि अपज्जेसुओरालियमीस कम्मइग जोगा। इय इगतीसे पवित्र, इंदियवुड्ढी य संमविया // 4 // अस्सन्नीसन्नीसु, पुरिसं थीवेय खिवसु असमत्ते / नवरं सन्निज्जे, वेउव्वियमीसंयं खिवसु // 5 // उरलं सुहुमसमत्ते, वेउव्विदुगेण संजुअं थूले / उरलं मासा इंदियवुडडी सेसं अपज्जसमं // 6 // परभविया मिच्छत्ता संमविया सेसु हुंति सव्वेसु / मणविन्नाणअम वा एक्कस्स कया विवक्खा उ॥७॥ १६ह बारस जीवट्ठाणगेसु अन्नं वि बैंति वेयदुगं / तं लद्धिसंभवेणं, तणुज्जत्तीएँ ओरालं // 8 // इह हेउमग्गणा इह, मणिया तेरससु जीवठाणेसु / सन्नीपज्जत्ते पुण, गुणठाणकमेण नायव्वा // 6 // संपयं मूलपयडीसु घट्ठाणाई आह सत्तऽट्ट अट्ठ सत्तऽट अह बन्धुदउदीरणा सत्ता / तेरससु जीवठाणेसु सनिपज्जत्तए ओघो // 11 // . (राम०) तेरससु जीवठाणेसु बंधे अट्ठ कम्माणि, अहवा सत्त, आउकम्मं विणा | उदए अट्ठ कम्माणि / उदीरणाए वि अट्ठ, अहवा सत्त आउकम्मं विणा / सत्ताए अट्ठ वि कम्माणि / सण्णिपज्जत्तए ओधो / सो य इमो आउविहूणा सत्त उ, मोहणिया-ऽऽउयविणा उ छब्बंधे / वेयणियएगबंधे, चत्तारि य बंधठाणाई / / मोहविहूणा सत्त उ, उदए चत्तारि धाइकम्मविणा / तिन्नेव उदयठाणा, एवं सत्ताइ तिन्नेव / 1 "इह आइमंतजीवट्ठा०" इत्यपि पाठः / 2 "संता" इत्यपि // Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t] जीवस्थानेषु मार्गणास्थानानि बन्धहेतवो बन्धस्थानानि च तथौधतो मूलोत्तरमार्गणास्थानानि 'अद्धावलियासेसे सत्त उदीरिति आउकम्मविणा। वेयणियाऽऽउ विणा छ उ, मोहविहूणा उ पंचेव॥ दो चेव नाम-गोए, उदीरणाठाण होंति पंचेव / ओघेण ठाणसंखा, सन्नीपज्जत्तए होइ // " // 12 // भणियाणि जीवट्ठाणेसु गुणट्ठाणाईणि / इयाणिं मग्गणाठाणेसु जीवट्ठाणाईणि दंसेउं मग्गणाठाणाणि ताव दंसेइ एत्तो गइइंदियकायजोयवेए कसायनाणेसु / संजमदंसणलेसा भवसम्मे सनिआहारे // 12 // (राम०) संपयं सयमेव सुत्तकारो इमां दारगाहां विवरेइ सुरनरतिरिनिरयगई इगि-बि-ति-चउरिंदिया य पंचेंदी / पुढवी आऊ तेऊ वाऊ वणसइतसा काया // 13 // (राम०) देवगई मणुयगई तिरियगई निरयगई 4 दारं / एगिदियं बेइंदियं तेइंदियं चउरिदियं पंचिंदियं 5 दारं / पुढवी आऊ तेऊ वाऊ वणस्सइतसा काया 6 दारं // 13 // मणवइकाया जोगा इत्थी पुरिसो नपुंसगो वेया। कोहो माणो माया लोभी चउरो कसायत्ति // 14 // (राम०) मणजोगो वइजोगो कायजोगो 3 दारं / इत्थिवेओ पुरिसवेओ नपुंसगवेओ 3 दारं / कोहो माणो माया लोभो 4 दारं // 14 // मइसुयओहीमणकेवलाणि मइसुयअनाणविभंगा। . सामइयछेयपरिहारसुहुमअहखायदेसजइअजया // 15 // (राम०) मइनाणं सुयनाणं ओहिनाणं मणपज्जवनाणं केवलनाणं मइअन्नाणं सुयअन्नाणं विभंगनाणं 8 दारं / सामाइयं छेओवट्ठावणियं परिहारविसुद्धियं सुहुमसंपरायं अहक्खायं देसविरओ अविरओ 7 दारं // 1 // अक्खु-चक्खु-ओही-केवलदसणमओ य छल्लेसा / किण्हा नीला काऊ तेऊ पम्हा य सुक्का य // 16 // (राम०) अचखुदरिसणं चक्खुदरिसणं ओहिदरिसणं केवलदरिसणं 4 दारं / किण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा 6 दारं // 16 // 1 "अप्पप्पणो आठगअद्धाए आवलियसेसे सत्त उदीरंति, कम्हा ? आउगं आवलियागयं न उदीरति त्ति . काउं।" इति प्रत्यन्तरे टिप्पनकम् // . Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे [10 भव्व-अभव्वा खउवसम-खइय-उवसमिय-मीस-'सासाणा। मिच्छो य सन्नसन्नी आहारणहार इय भेया // 17 // (राम०) भव्वो अभव्वो 2 दारं / खाओवसमियं सम्म खाइयं सम्मत्तं उबसमियं सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं सासायणं मिच्छद्दिट्ठी 6 दारं / सण्णी असण्णी 2 दारं / आहारगो अणाहारगो 2 दारं // 17 // एए उत्तरभेया वावट्ठी, एएसु जीवट्ठाणा कस्स केत्तिया 1 तं भण्णइ सुरनरए सन्निदुगं नरेसु तइओ असन्निपजत्तो। तिरियगईए चउदस एगिदिसु आइमा चउरो // 18 // (राम०) देवगईए निरयगईए य दो जीवठाणा-सन्नी पज्जत्तगो अपज्जत्तगो य / मणुयगईए तिन्नि जीवट्ठाणा-सन्नी पज्जत्तगो अपज्जत्तगो असण्णी अपज्जत्तगो य / तिरियगईए चउदस, सव्वे सिं तिरियगइसंभवाओ / एगिदिएसु 'आहमा चउरो' सुहुम-बायरा पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य // 18 // बितिचउरिंदिसु दो दो अंतिमचउरो पणिदिसु हवन्ति / थावरपणगे पढमा चउरो चरमा दस तसेसु // 19 // . (राम०) बेइंदिएसु दो-बेइंदिओ पज्जत्तगो अपज्जतगो य / तेइंदिएसु दो-तेइंदिओ पज्जत्तगो अपज्जत्तगो य / चउरिदिएसु दो जीवठाणा-चउरिदिओ पज्जत्तगो अपज्जत्तगो य / अंतिमचउरो पणिदिसु हवंति-असन्नी पज्जत्तगो अपज्जत्तगो य सन्नी पज्जत्तगो अपज्जत्तगो य.। 'थावरपणगे पढमा चउरो' त्ति पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया थावरा पंच, तत्थ पत्तेयं पत्तेयं पढमा चउरो-सहुम-बायरा पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य / 'चरमा' अंतिमा दस तसकाए, ते य इमे-बेइंदिया तेइंदिया चउरिदिया असन्निपंचिंदिया सन्नी य पज्जत्तगा, अपज्जत्तगा य / / 14 / / विगलतिअसन्निसन्नी पजत्ता पंच हुति वइजोगे। मणजोगे सन्निको पुमित्थिवेए चरमवउरो // 20 // (राम०) बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया एए विगला, असन्निपंचिदिया सण्णिपंचेंदिया य पज्जता पंच जीवट्ठाणा वइजोगे हुंति / मणजोगे एगो सण्णी पज्जत्तगो। पुरिसवेए इत्थीवेए 1 "सासाणे" इत्यपि / 2 ""सिं सं०" इत्यपि पाठः / Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरमार्गणास्थानानि तेषु जीवस्थानानि च [ 11 'चरमचउरो' असन्नी सन्नी य पज्जत्तगा-ऽपज्जत्तगभेएण' चउरो / असण्णिपजत्तापज्जत्तगाणं कहं पुरिसित्थिवेयसंभवो / जओ नपुसगा एव सुत्ते पढिया / भन्नइ-आकारमात्रमाश्रित्य // 20 // काओगिनपुंसकसायमइसुयअनाणअविरयअचक्खू / आइतिलेसा भवियरमिच्छआहारगे सव्वे // 21 // - (राम०) 'काओगो 1 नपुसगवेओ 2 कसायचउक्कं 6 मइअन्नाणं 7 सुयअण्णाणं 8 अविरओ 6 अचखुदरिसणं 10 किन्हलेसा 11 नीललेसा 12 काउलेसा 13 भन्यो 14 अभव्वो 15 मिच्छद्दिट्ठी 16 आहारगो 17 य एएसिं सत्तरसण्हं दाराणं जीवट्ठाणा चउदस वि, जओ सव्वेसि संभवो // 21 // मइसुयओहिदुगविभंगपम्हसुकासु तिसु य सम्मेसु / सन्निम्मि य दो ठाणा सन्निअपज्जत्तपज्जत्ता // 22 // __ (राम०) मइनाणं 1 सयनाणं 2 ओहिदुर्ग 4 विभंगनागं 5 पम्हेलेसा 6 सक्कलेसा 7 'तिसु य सम्मेसु ति वेयगसम्मत्तं 8 वाइयसम्मत्तं ह उवसमसम्मत्तं 10 सण्णिओ 11 य एएसि एकारसण्ह दाराणं दो जीवट्ठाणा- सन्नी पज्जत्तगो अपज्जत्तगो य // 22 // एत्थ चोयगो भगइ-"उवसमसम्मदिद्विस्स एगं चेव जीवट्ठाणं संभवइ, जओ पढममुत्रसमसम्म उप्पाइंतस्स तिपुजीकरणकाले सन्नी पज्जत्तगो चेव, अपज्जत्तगस्स तिपुजी. करणनिसेहाओ। अह भणिस्ससि उपसंतो पडतो कालं करेइ सो अणुत्तरसुरेसु उववाइ त्ति तत्थ देवो लब्भइ, तं न जओ कम्मपयडीए भणियं-'पढमसमए वि देवेसु उववज्जंतस्स करणाणि उग्याडियाणि होति' इइ वयणाओ करणेहिं उग्घाडिएहि वेयगो चेव, न उवसंतस्स अपज्जत्तगस्स संभवो / तदजुत्तं, अभि पायाऽपरिन्नाणाओ / जओ पंचसंगहे सव्वकम्माणं उदयट्ठाणेसु भूओगार-अप्पयर-अवट्ठिय-अव्वत्तोदयविचारे मोहस्सेव अव्वत्तोदया भणिया न सेसकम्माण ते य सव्वहा उवसंतस्स मोहणीयस्स ^ अद्धाखयस्स व वेयपरिवडिया पढमसमए ^ उदया अव्वतोदया / जओ वोत्तं"एगादहिगे पढमो, एगाई ऊणगम्मि बीओ य / तत्तियमित्तो तइओ पढमे समए अव्वत्तव्यो॥" A ____नाणाजीवापेक्खया पंच, तं जहा-एकोदओ, छलोदओ, सत्तोदओ, अट्ठोदओ, नवोदओ। तत्थ एकोदओ लोभस्स एक्कस्स सो य अद्धाक्खए परिवडतस्स सुहुमसंपरायपढमसमए लब्भइ सेसा चत्तारि भवक्खए व सव्वट्ठसिद्धे देवस्स पढमसमए उववज्जंतस्स 1 "णं पत्तेयं पत्तयं च उरो" इत्यपि / 2 काययोगः / 3 "उवसमसम्मत्तस्स अप०" इत्यपि पाठः / A एतच्चिद्वयमध्यगतः पाठः प्रत्यन्तरे नास्ति / Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे लब्भंति। जओ "उवसंतो कालगओ सवढे जाई"त्ति भगवईसिद्ध / तत्थ छलोदओ अर्णताणुबंधिवज्जकसाया 'तिन्नि हासो रई य पुरिसवेओ य / सत्तोदओ भएण वा दुगु'छाए वा वेयगसम्मत्ते वा छुढे तिहा होइ / अट्ठोदओ वि तिहा भयदुगुछाए भयवेयगेण दुगुछावेयगेण व छुढे / नवोदओ भयदुगुछावेयगेण तिहि वि 'छुढेहि संभवइ / तत्थ एक्को छलोदओ दो य सत्तोदया वेयगरहिया एको अट्ठोदओ सो वि वेयगरहिओ एए चत्तारि उदया उवसमसम्मदिट्ठीणं 'तहा एए चत्तारि उदया खाइगसम्मदिट्ठीणं च लभंति / तत्थ करणेसु उग्धाडिएसु वि कोइ कस्सइ जीवस्स उदयमागच्छइ / ते पुण पढमसमए अव्वत्तोदया / बीयाइसु अवट्ठिय"भूओगाराईणि | तो तत्थ उवसंतो कालगओ उवसमसम्मट्ठिी अपज्जत्तगो लब्भइ / अह भणिस्ससि क्खाइगदिद्विस्सेव वेयगरहिया उदया, तन्न, जओ पुढो विवक्खाभावो / जं पुण भणियं कम्मपगडीए पढमसमए करणाणि 'पढमसमए करणाणि उग्घाडियाणि' तं .पि न विहडइ। जओ कस्सवि जीवस्स सत्तोदओ अट्ठोदओ नवोदओ वेयगसम्मण समं उदयमागच्छंति तं तं जीवं पडुच्च तदपि घडा-अन्नं च सत्तरीचुन्नीए भणियं- "पणवीससत्तावीसोदया देवनेरइए वेउठिबए पडुनच नेरइया वेयगखाइयदिट्ठी देवा तिविहसम्मट्टिीवि। एए य पणवीससत्तावीसोदया अपजत्तोदयातेसु वि अपजत्तगो देवो उवसमसम्मदिट्ठी लब्भइ त्ति / अतो जुत्तमु सुत्तयारेण 'उब समसम्मादडिम्स दो वि जीवट्ठाणा' / पज्जा वित्थरेण // 22 / / ... पगयं भणामोमणपज्जवकेवलदुगसंजयदेसजइमीसदिट्ठीसु / सन्नी पन्जो चकलुमि तिन्नि छ व पन्जियरचरमा // 23 // (राम०) मणनाणं 'केवलदुर्ग' केवलनाणं केवलंदसणं च, संजया पंच-सामाइयं छेओवट्ठावणियं परिहारविसुद्धीयं सुहुमसंपरायं अहक्खायं, देसविरओ सम्मामिच्छद्दिट्टी य एएसिं दसण्हं दाराणं एगं जीवट्ठाणं सन्नी पज्जत्तगो। चक्खुदंसणे-चउरिंदिय-असण्णिपंचेंदिय-सनिपंचेंदिया पज्जत्तगा तिन्नि / केसिंचि मएण 'छज्जीवट्ठाणाणि-तिन्नि पज्जत्तगा 'इयरे' लद्धीए पज्जत्तगा करणेण अपज्जत्तगा य तिण्णि एवं छ / // 23 // सत्त उ सासाणे बायराइ छ अपज्जसन्निपज्जो य / तेउल्लेमे बायरअपजत्तो दुविहसन्नी य // 24 // . नि'णा द न्हं जुयलाणं एगयरं पुरिस" इत्यपि पाठन्तरम् / 2 "छुढे त्ति संभवइ'' इत्यपि / 3 "तहा" इति प्रन्यन्तरे नास्ति / 4 "भूभोगाराइ ति" इत्यपि पाठः / 5 “छ जीव." इत्यपि / 6 "इयरे अपज्जत्तगा य" इत्यपि / A एतच्चिद्वयान्तर्गतः पाठः प्रत्यन्तरे नास्ति / Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु जीवस्थानानि गुणस्थानानि च [13 / (राम०) सासायणसम्म सत्त जीवट्ठाणा-सुहमपज्जत्तगवज्जा छ अपज्जत्तंगा सन्नी पज्जत्तगो य / अपज्जत्तगेसु सासणो कहं ? भण्णइ-अपज्जत्तगा दुविहा-करणअपज्जत्तगा लद्धिअपज्जत्तगा य, लद्विअपज्जत्तगेसु सासाणो न लब्भइ, करणअपज्जत्तेसु लद्धीए पज्जत्तगेसु सासणो जहण्णेणं एक समयंः उक्कोसेणं किंचिऊणं छावलियकालं लब्भइ / किं निमित्तं कालनियमणं 1 जओ एएसु सु अपज्जत्तगेसु -पुव्वं बद्धाउया उववज्जंति, तत्थ बायरेगिदिएसु देवा ईसाणंता तिरियमणुया य कम्मभूमिजा उववज्जंति, विगलअसन्नीसु तिरियमणुया चेव - सण्णी , कम्मभूमिजा उववज्जंति, सन्नीसु चउगइया वि उववज्जंति, न पुण 'एए सु अपज्जत्तगेसु / सन्नीपज्जगस्स पुण उक्कोसेणं छावलियकालो वि लब्भइ / जओ सम्मत्तुप्पत्ती सासणभावो वि अस्थि / तेउलेसे तिन्नि जीवट्ठाणाणि-बायरएगिदिओ अपज्जत्तगो पुव्वुत्तविहीए सन्नी पज्जचोऽपज्जनगो य। अस्सन्नि याइ बारस अणहारे अट्ठ सत्त अपजत्ता / सन्नी पज्जत्तो तह इय गइयाइसु जियहाणा // 25 // (राम०) असण्णिम्मि आइमा बारस जीवट्ठाणा-सण्णिपज्जत्तापज्जत्तगवज्जा / अणाहारे - अट्ठ जीवट्ठाणा-सत्त अपज्जत्तगा अंतरगईए, अट्ठमो केवलीसमुग्धाए तिचउत्थपंचमसमएसु // 25 // गइयाइसु जीवट्ठाणा मग्गिया / इयाणिं गुणठाणा मग्गिज्जति, तत्थ ताव गुणठाणा दंसेइ मिच्छे सासणमिस्से अविरयदेसे पमत्तअपमत्ते / नियटिअनियट्टिसहुमुवसमखीणसजोगजोगिगुणा // 26 // (राम०) मिच्छदिद्विगुणट्ठाणं सासायणगुणट्ठाणं सम्ममिच्छद्दिट्ठीगुणहागं अविरयसम्मदिद्विगुणवाणं देसविरयगुणट्ठाणं पमत्तसजयगुणट्ठाणं अपमत्तसंजयगुणट्ठाणं अपुन्यकरणगु गट्ठाणं अनियट्टिबायरसंपरायगुणट्ठाणं सुहुमसंपरायगुणट्ठाणं उवसंतमोहगुणट्ठाणं खीणमोहगु. . गट्ठाणं सजोगिकेवलिगुणट्ठाणं अजोगिकेवलिगुणट्ठाणं // 26 // एए गुणट्ठाणा कस्स मग्गणट्ठाणस्स केत्तिया तं भन्नइ चत्तारि देवनरएसु पंच तिरिएसु चउदस नरेसु। इगिविगलेसुदो दो पंचिंदीसु चउद्दस वि // 27 // (राव०) देवगईए निरयगईए पढमा चत्तारि गुणट्ठाणा / तिरियगईए पंचमो देसविरओ / A एतच्चिद्वयमध्यगतः पाठः प्रत्यन्तरे नास्ति। 1 "एए छ अपज्जत्तगा" इत्यपि पाठः / 2 "छसु सम्मत्त पत्तो संभवइ / " इति पाठोऽप्यत्राधिकतयोपलभ्यते किन्तु सो-ऽत्र संगतो न भवतीति / 3 "जियट्ठाणा" इत्यपि / Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे मसुयगईए चउद्दस वि / सव्वेसिं अहिगारि त्ति काउं / एगिदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदियागं दो दो गुणट्ठाणा-मिच्छद्दिट्ठी सासायणो य। सासणस्स पुव्वुत्तो विही / पंचिदिएसु चउदस बि / मणुस्साणं अंतभावाओ // 27 // भूदगतरूसु दो एगमगणिवाऊसु चउदस तसेसु। जोए तेरस वेए तिकमाए नव दस य लोभे // 28 // (राम०) भू–पुढवी दग-आयुकाओ तरुचणस्सइकाओ एएसिं दो गुणट्ठाणामिच्छद्दिट्ठी सासायणो य / तेउकाए वाउकाए एगो मिच्छद्दिट्टी, तेसिं गुणांतरअसंभवाओ। तसकाए चउदस वि / मणुयगइअंतब्भावओ / जोए-जोगतिगे तेरस गुणट्ठाणा अजोगिवज्जा। वेए वेयतिगे तिकसाए-कोहे माणे मायाए एएसिं छण्हं पढमा नव गुणट्ठाणा / लोभस्स एएं नव, दसमो सुहुमसंपराओ // 28 // मइसुयओहिदुगे नव अजयाइ जयाइ सत्त मणनाणे / केवलदुगंमि दो तिन्नि दो व पढमा अनाणतिगे // 29 // (राम०) मइनाणं सुयनाणं ओहिनाणं ओहिदरिसणं एएसिं चउण्हं नव गुणट्ठाणाअविरयसम्मत्ताओ आरम्भ जाव खीणमोहो / मणपज्जवनाणे सत्त गुणठाणा-पमत्तसंजयाओ जाव खीणमोहो / केवलनाणे केवलदरिसणे दो गुणठाणा-सजोगी अजोगी य / अन्नाणतिगेमइअन्नाणे सुयअन्नाणे विभंगलक्खणे पढ़मा तिन्नि गुणट्ठाणा अहवा दोनि गुणठाणा-मिच्छद्दिट्ठी सासायणो य / केसि मएण मिस्सो वि अन्नाणी भन्नइ, नाणकज्जाकरणाओ // 29 // सामाइयछेएसुचउरो परिहार दो पमत्ताई। देससुहुमे सगं पढमचरमचउअजयअहखाए // 30 // (राम०) सामाइए छेओवट्ठावणिए य चत्तारि गुणट्ठाणा-पमत्तअपमत्तअपुवकरणअनियट्टि बायरा / परिहारविसुद्धीए दो-पमत्तो अपमत्तो य। देसे देसविरओ। सुहुमे सुहमसंपराओ। पढमा चत्तारिगुणट्ठाणा अविरयस्स / चरिमा उवसंतमोहाइया चत्तारि गुणट्ठाणा अहखायचरित्तस्स // 30 // बारस अचक्खुचक्खुसु पढमा लेसासुतिसु छ दुसु सत्त। सुक्काएँ तेरस गुणा सव्वे भव्वे अभव्वेगं // 31 // (राम०) वारस गुणट्ठाणा सजोगि-अजोगिवज्जा पढमा चक्खुस्स अचवखुस्स य / लेसासु तिसु किन्हनीलकाउसु पढमा छ गुणठाणा / तेउपम्हाए सत्तमो अप्पमत्तो / सुक्कलेसाए सव्वे भजोगिवज्जा तेरस / भव्वस्स चउदस वि गुणट्ठाणा / अभव्वस्स एगं मिच्छत्तं // 31 // Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु गुणस्थानानि योगाश्च वेयग खड्ग उवसमे चउरो एक्कारसह तुरियाई / सेसतिगे सहाणं सन्निसु चउदस असनिसु दो // 32 // (राम०) वेयगसम्मद्दिहिस्स चत्तारि-अविरयसम्मद्दिट्ठी देसविरओ पमत्तो अपमत्तो य / खाइगसम्मदिद्विस्स एगारस-अविरयसम्माओ जाव अजोगिगुणट्ठाणं / उवसमसम्मदिद्विस्स अट्ठअविरयसम्मत्ताओ जाव उवसंतगुणट्ठाणं, अट्ठ गुणट्ठाणा उवसमसम्मत्ते / तत्थ अविरय-देशवि. रय-पमत्त-अपमत्ता उवसमसेटिं आरहंति, कहं उवसमसम्मत्तं ? भन्नइ-मिच्छट्टिी अनियट्टिकरणडिओ तहाविहविसुद्धिसमनिओ उवसमसम्मत्तं चउण्हमेगयरं च पडिवज्जेइ। अविरओ देसो पमत्तो अपमत्तो वा / एवं उवसमसम्म / उक्तं च“सोलस मंदणुमागं संजमगुणवढिओ जयइ / सोलस थीणगिद्धितिगमिच्छत्तपढमकसाया // " . 'सेसतिगे सहाण' मीसे मीसं, सासायणे सासायणं, मिच्छे मिच्छत्तं / सन्निपंचेंदिया चउद्दस वि गुणट्ठाणा / असन्निस्स दो-मिच्छद्दिट्ठी सासायणो य / / 32 / / आहारगेसु पठमा तेरसणाहारगेसू पंच इमे / 'पढमतदुगअविरया इय गइयाईसु गुणठाणा // 33 // __ (राम०) आहारगेसु सव्वे अजोगिकेवलिवज्जा तेरस / अणाहारगेसु पंच इमे पढमा दो-मिच्छ.. विट्ठी सासायणो य, अंतिमा दो-सजोगिकेवली समुग्धाए अजोगिकेवली य, अविरयसम्मट्टिी पंचमो य, विम्गहगईण पढमविग्गहं मोत्त। - गइयाइसु बासट्ठिभेएसु इय भणियपयारेण गुणठाणा 'मग्गियत्ति सेसो // 33 / / इयाणि जोगा मग्गिजंति / अओ पढमं ताव ते निदंसेइ सच्च मोसं मीसं असच्चमोसं मणं तह वई य / उरलविउव्वाहारा मीसा कम्मइगमिय जोगा // 34 // (राम०) पुष्वभणिया जोगवियारणा इह दट्टव्वा / / 34 // एकारस सुरनार यगईसु आहारउरलदुगरहिया / जोगा तिरियगईए तेरस आहारगदुगुणा // 35 // (राम०) देवगईए निरयगईए एक्कारस जोगा, ओरालियदुगआहारदुगाणं एएसि असंभवाओ। तिरियगईए तेरस जोगा, आहारगदुगस्स असंभवाओ // 35 // .1 "मग्गिया।" इत्यपि। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे नरगइपणिंदितसतणुनरअपुमकसायमइसओहिदुगे। अच्चक्खुछलेसाभव्वसम्मदुगसन्निसु य सव्वे // 36 // (राम०) मणुयगईए 1 पंचिदिए 2 तसकाए 3 कायजोगे 4 पुरिसवेए 5 नपुसंगवेए 6 कमायचउक्के वि 10 मइनाणे 11 सुयनाणे 12 ओहिनाणे 13 ओहिदरिसणे 14 अचक्खुदरसिणे 15 लेसछक्के 21 भव्वे 22 वेयगसम्म 23 खाइगसम्म 24 सन्निए य 25, एएसि पणवीसाए दाराणं पण्णरस वि जोगा / सव्वेसि मणुयगईसंभवाओ // 36 // . एगिदिएसु पंच उ कम्मइगविउव्विउरलजुअलाणि / कम्मुर लदुर्ग अन्तिमभासा विगलेसु चउरोत्ति // 37 // (राम०) एगिदिएसु पंच जोगा-कम्मइगं ओरालियदुगं वेउवियदुगं च / वेउव्वियदुर्ग वाउए पडुच / कम्मइगं ओरालियदुगं असच्चमोसभासा य चत्तारि जोगा बेइंदिय-तेंइदियचउरिदिएसु // 37 // कम्मुरलदुगं थावर काए वाए विउविजुयलजुयं / पढमंतिममणवइदुगकम्मुरलदु केवलदुगंमि // 38 // , (राम०) कम्मगं ओरालियदुगं च तिन्नि जोगा थावरकाए / थावरकाओ पंचहा पुढविआउ-तेउ-वाउ-वणस्सइ-कायो / वाए विउव्विदुगेण जुया ते चेव जोगा पंचेव / पढमं सच्चमणं सच्चभासा अंतिमं असच्चमोसमणं असच्चमोसा भासा य, कम्मणं ओरालियदुगं च सत्त जोगा केवलिदुगम्मि // 38 // थीवेयअनाणोवसमअजयसासणअभव्वमिच्छेसु / तेरस मणवइमणनाणछेयसामइयचक्खुसु य // 39 // (राम०) थीवेओ 1 अन्नाणतिगं 4 उवसमसम्मत्तं 5 अविरओ 6 सासायणं 7 अभव्वं 8 मिच्छं 9 च, एएसु नवसु दारेसु तेरस जोगा / जओ आहारदुगस्सासंभवो / मणजोगो 1 वइजोगो 2 मणपज्जवनाणं 3 छोओवट्ठावणियं 4 सामाइयं 5 चक्खुदरिसणं 6 च एएसि छण्हं दाराणं ओरालियमिस्सकम्मइगवज्जा तेरस जोगा / अपडिपुन्नो मिस्सो इतिकहं वेउव्वाहास्गमिस्सेसु चक्खुदरिसणं ? भाविनि भूतवदुपचारात् / भणियं च"थीमाइनवसु तेरस जोगाहारेसु हारगदुगुणा / कम्मुरलमीसऊणा मणमाईणं तु छण्हं पि॥" // 39 // पलजय। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु योगा उपयोगाश्च [17 परिहारे सुहुमे नव उरलवइमणा सकम्मुरलमिस्सा।। अहखाए सविउव्वा मीसे देसे सविउवदुगा // 40 // (राम०) परिहारविसुद्धीए सुहुमसंपराए य नव नव जोगा मणचउक्कं वइचउक्कं ओरालियसरीरं च / ते य नवजोगा अहक्खाए ओरालियमीसकम्मगसरीरेण सह एक्कारस हवंति / अहक्रवाए चारिने चत्तारि गुणट्ठाणा / तत्थ अजोगी अजोगो। उवसंतमोहखीणमोहे पड्डुच्च नव नव जोगा ।सजोगिकेवलिस्स केवलनाणभणिया सजोगे सत्त पुव्वुत्ता मिलिया अहक्खाए एकारस / ते नव पुव्वुत्ता वेउब्वियसरीरेण दस जोगा मीसे / नव पुव्वत्ता वेउव्वियदुगेण एक्कारस जोगा देसविरयस्स / 40|| कम्मुरलविउव्वदुगाणि चरम भामा य छ उ असन्निम्मि। जोगा अकम्मगाहारगेसु कम्मणमणाहारे // 41 // (राम०) कम्मगं ओरालियदुगं वेउव्वियदुगं असच्चमोसा भासा य छ जोगा असन्निस्स / जओ सब्वे असन्निपंचिंदियविगलिं 'दियादओ असन्निगहणेण गहिया। जोगा चउदस आहारगस्स कम्मइगविणा / अणाहारंगे एगो कम्मणजोगो / मग्गणठाणेसु जोगा मग्गिया // 41 // इयाणि उवओगा मग्गिज्जति / अओ पढमं ते चेव निदंसेइनाणं पंचविहं तह अन्नाणतिगं ति अट्ठ सागारा। चउदंसणमणगारा बारस जियलक्खणुवओगा // 42 // (राम०) पंच नाणाणि, तिन्नि अन्नाणाणि, एए अट्ट सागरोवओगा। चत्तारि दंसणाणि अणागारोवओगा / एवं बारस / एए जीवस्स लक्खणं जीवावबोहस्स कारणं, एएहिं जीवो जाणिज्जइ त्ति जीवलक्खणुवओगा // 42 // मणुयगईए बारस मणकेवलदुरहिया नवऽन्नासु / थावरहगबितिइंदिसु अचक्खुदंसणमनाणदुगं // 43 // (राम०) मणुस्सगईए बारस वि उवओगा। जओ सव्वेसि संभवो / मणपज्जवनाणकेवलदुगवज्जिया नव अण्णासु तिसु गईसु / एएसि तिहं उवओगाणं असंभवाओ / थावरकाया पंच, एगिदिय-बेइंदिय तेइंदियाण य, एएसिं अट्ठण्हं दाराणं तिनि उवओगा-अचक्खुदंसणं मइअण्णाणं सुयअन्नाणं च // 43 // १०दिय-एगिदिया असन्नि" इत्यपि / Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गए। . 18]. षडशीतिनाम्नि चतुर्थो कर्मग्रन्थे चक्खुजुया चरिंदिसु तं चिय बारस पणिदितसकाए / जोए वेए सुक्काएँ भव्वसन्नीसु आहारे // 44 // (राम०) "तं चिय"त्ति ते चेव तिन्नि चक्खुजुया चउरिंदिसु चउरो होति / बारस उवओगा, पंचिदिए 1 तसकाए 2 जोगतिगे 5 वेयतिगे 8 सुक्कलेसाए 9 भव्वे 10 सण्णिए 11 आहारगे य 12 / एएसिं बारसहं दाराणं सव्वे वि उवओगा / जओ सव्वेसिं अहिगारिणो त्ति / कहं ? वेयतिगे बारस वि उवओगा, जाव दस एव संभवंति, जओ वेयत्तिगस्स अनियट्टिबायरे उदयवोच्छेओ, सच्चमेयं, परमाकारमात्रमाश्रित्य न दोषः // 44 // केवलदुगहीणा दस कसायपणलेसऽचक्खुबक्खुसु य / केवलदुगे नियदुगं खड़गे नव नो अनाणतिगं // 45 // (राम०) कसायचउक्के 4 लेसापणगे ह चक्खु 10 अचक्खुसु य 11, एएसि एगारसण्हं दाराणं दस उवोगा, केवलिदुगअभावाओ / केवलिदुगे दो उवओगा, केवलनाणं दंसणं च / खइगे-खाइगसम्मत्ते नव उवओगा, अन्नाणतिगाभावाओ // 4 // पढमचउनाणसंजमवेयगउवसमियओहिदंसेसु / नाणवउदंमणतिगं केवलदुजुयं अहक्खाए // 46 // . (राम०) पढमनागचउक्कं 4 पढमसंजमचउक्कं 8 वेयगसम्मत्तं , उवसमसम्मत्तं 10 ओहिदंसणं च 11, एएसि एगारसण्हं दाराणं सत्त उवओगा, नाणचउक्क देसणतिगं च / अहक्खायचारिते एए सत्त केवलदुगं च नव उवओगा // 46 // नाणतिगईमणतिगं देसे मीसे अनाणमीसं तं / केवलदुगमणपज्जववज्जा अस्संजयंमि नव // 47 // (राम०) मइनाणं सुयनाणं ओहिनाणं 3 चखुदंसणं अचखुदंसणं ओहिदंसणं 6 च एए छ उवओगा देसविरयस्स / मीसे दंसणतिगं नाणतिगं अन्नाणभीसं / एवं केवलनाणदंसणं मणपज्जवनाणं विणा अविरए नव उवओगा / अविरओ सम्मद्दिट्ठी वा मिच्छद्दिट्ठी वा / सम्मदिद्विस्स नाणतिगं दंसणतिगं च एए छ / मिच्छद्दिहिस्स अन्नाणतिगं दो दंसणा य / एवं नव // 47 // अन्नातिगअभव्वे सासणमिच्छे य पंच उवओगा / दादमणतिअनाणा ते अविभंगा असन्निमि // 48 // (राम०) अनाणतिगे 3 अभव्वे 4 सासायणे 5 मिच्छे य 6, एएसिं छण्हं दाराणं पंच Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागणास्थानेषूपयोगा नयविशेषेण योगत्रये गुणस्थाना-जीवस्थानो-पयोग योगसत्कमतान्तराणि च [ 16 उवोगा, अन्नाणतिगं अचखुदंसणं चक्षुदंसणं च / एए चेव विभंगनाणं विण असण्णिस्स चत्तारि उवओगा / / 48 // मणनाणचक्खुरहिया दस उ अणाहारगेसु उवओगा / इय गइयाइसु नयमयनाणत्तमिणं तु जोगेसु // 49 // (राम०) मणपज्जवनाणचखुदंसणरहिया अणाहारे दस उवओगा। जओ नाणतिगं अचवखुदंसणं ओहिदंसणं च अविरयसम्मदिद्विस्स विग्गहगईए, अचक्खुदंसणं अन्नाणतिगं मिच्छद्दिहिस्स विग्गहगईए लगभइ / नणु विभंगनाणस्स अपजत्ते निसेहो दीसइ, कहं 1 एत्थ तं भणियं / भन्नइ-"विभंगस्स भवट्ठि'' इइ क्यगाओ भणियविवाहपन्नत्तिमएण / जओ तत्थ वुत्त"अवहिं वा विभंग वा अविग्गहे लठमई"त्ति वयणाओ न दोसो केवलदुगं केवलिसनुग्धाते तइयचउत्थ पंचमसमएसु लब्भइ / एवं अणाहारगस्स दस उवओगा | इय भणियपयारेण गइयाइएसु उवओगा मग्गिया // 46 // इयाणि पुण नयमएण मयंतरेण नाणत्त इमं वक्खमाणं जोगेसु दट्ठव्वं / तमेव दंसेइतणुवइमणेसु कमसो दुचउतिपंचा दुअट्ठचउचउरो। तेरसदुबारतेरस गुणजीवुवओगजोगत्ति // 50 // (राम०) कायजोगे दो गुणट्ठाणा-मिच्छद्दिट्ठी सासायणो य / चत्तारि जीवट्ठाणासुहुमबायरएगिदिया पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य / तिन्नि उवओगा-मइअन्नाणं सुयअन्नाणं अचरबुदसणं च / पश्च जोगा-कम्मणं ओरालियदुगं वेउव्वियदुगं च, वाउकाइए पडुच्चा जओ कायजोगस्स विवक्खा कया एगस्स / दारं / वइजोगे दो गुणट्ठाणा-मिच्छद्दिट्ठी सासायणो य / अट्ठ जीवट्ठाणा-बेइंदिय-तेहंदिय-चउरिदिय असनिपंचिंदिया अपज्जत्तगा पज्जत्तगा य / एए चत्तारि वि अपज्जत्तगा करणेण चेव दट्ठव्वा / न उण लद्धीए / एवं अट्ठ जीवट्ठाणा / चत्तारि उवओगादो दंसणा दो अन्नाणा / एवं चत्तारि जोगा-कम्मइगं ओरालियदुगं असच्चमोसमासा य / एसा बइजोगस्स विवक्खा कया / दारं / मणजोगे तेरस गुणट्ठाणाअजोगि विणा / दो जीवट्ठाणा-एगो सण्गी पज्जत्तगो, बीओ सो चेव करणअपज्जत्तगो लद्धीए पज्जत्तगो गहिओ। उवओगा बारस वि / जोगा तेरस-कम्मइगओरालियमीसरहिया। कहं 1 केवलिस्स दव्वमणाअविवक्खाओ / एवं मणवइकायविवक्खा कया / मणजोगो वइजोगो करणअपज्जत्तगाण कहं ? भण्णइ-भाविनि भतवद् उपचारात् // 50 // इयाणि लेसामग्गणा भण्णइ / ताओ पुण मग्गणट्ठाणमजके नि भणियाओ। संपयं तेसि चेव मग्गिज्जंति / Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे लेसा उ तिन्नि पढमा नारगविगलग्गिवाउकाएसु / एगिदिभूतरूदगअसन्निसु पढमिया चउरो // 51 // (राम०) निरयगईए विगलतिगे तेउकाएवाउकाए य पढमाओ तिन्नि लेसाओ / एगिदिय-पुढविकाय-वणस्सइकाय-आउकायअसन्नीणं पढमा चत्तारि लेसाओ / “असन्नीर्ण' ति बायर-एगिदियअपज्जत्तगहणं, तस्स तेउलेससंभवो // 51 // केवलजुयलअहक्खायसुहुमरागेसु सुक्कलेसेव / लेसासु छसु सठाणं गइयाइसु छावि सेसेसु // 52 // (राम०) केवलनाणे केवलदंसणे अहकखायचारित्ते सुहुमसंपरायचारित्ते एगा सुक्कलेसा / लेसासु छसु सट्ठाणं स्वकीयं स्वकीयं स्थानम् / गइयाईणं सेसाणं एगचत्तालीसाए दाराणं सव्वेसि छ लेसाओ / नणु जइ एगचत्तालीसाए दाराणं छ लेसा कहिया, कहं सामाइयाइसु किण्हाइलेसा ? जओ गुणलाभो सुहलेसाए न अन्नहा संभवो / भण्णइ- जओ एक्केकीए तारतमपरिणामभेएणं भेया असंखेज्जा। तेहिंतो जे मंदतरा परिणामविसेसा ते पडुच्च सामाइयाइसु वुत्ता / अओ भण्णइ मणपज्जवनाणसामाइयछेओवट्ठावणियपरिहारविसुद्धियदेसविरयाईसु वि ठाणेसु असुद्धले. साणं न विरोहो उप्पत्तिकालं मोत्तण / उक्त श्चसम्मत्तसुयं सव्व सु लहइ सुद्धासुतिसु य चारित्तं / पुषपडिवण्णओ पुण, अण्णयरीए उ लेसाए॥५२॥ इयाणि अप्पाबहुयं भन्नइ गइयाइसु अप्पबहु भणामि सामन्नओ सठाणे वि / नरतिग्यदेवतिरिया थोवा दुअसंखऽणंतगुणा // 53 // (राम०) गइयाइसु चउद्दससु मग्गणहाणेसु पोय पोयं सट्ठाणे अप्पाबहुयं भणामि / सव्यथोवा मणुयगइजीवा, निरयगईए असंखगुणा, तओ देवगईए असंखेज्जगुणा, तिरियगईए अणंतगुणा जावा / दारं // 53 // पणचउतिदुएगिन्दी थोवा तिन्नि अहिया अणन्तगुणा / तसतेउपुढविजलवाउहरियकाया पुण कमेणं // 54 // (राम०) थोवा पंचिंदिया 1, / चउरिदिया विसेसाहिया 2, तेइंदिया विसेसाहिया 3, वेईदिया विसेसाहिया 4, तओ एगिदियजीवा अणंतगुणा // 54 // Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्यणास्थानेषु लेश्या अल्पबहुत्वञ्च थोवा असंखगुणिया तिन्नि विसेसाहिया अणंतगुणा / मणवयणकायजोगी थोवअसंखगुणणन्तगुणा // 55 // (राम०) थोवा तसकाइया 1, तेउकाइया असंखगुणा 2, पुढविकाइया विसेसाहिया 3, आउकाइया विसेसाहिया 4, वाउकाइया विसेसाहिया 5, वणस्सइकाइया अपंतगुणा 6 दारं / थोवा मणजोगी 1, वइजोगी असंखगुणा 1, कायजोगी अणंतगुमा 3 / दारं / / 5 / / पुरिसेहिंतो इत्थी संखेजगुणा नपुसणन्तगुणा / माणी कोही मायी लोभी कमसो विससहिया // 56 // (राम०) सबथोवा पुरिसवेया, इस्थिवेया संखेज्जगुणा / उक्तश्चतिगुणा तिरूवअहिया तिरियाओ इथिओ मुणेयया / सत्तावीमगुणा पुण मणुयाणं तदहिगा चेव / बत्तीसगुणा बतीसरूवं अहिया व तह य देवीओ / देवाणं इइ वोत्तं सुरो जीवामिगमनामे / / तेहिंतो नपुंसगा अमंतगुणा, जओ पंचेंदिया केई, एगिदियविगलिंदिया सव्वे नपुसगा / दारं / सबथोवा माणकसाई 1, कोहकसाई विसेसाहिया 2, मायाकसाई विसेसाहिया लोभकसाई कमसो विसेसाहिया 4, सञ्चजीवाणं कसाया पत्तेयं पत्तेयं अस्थित्ति कह ऊणाहिय ? भन्नइ,-उदयं पडुच्च माणोदए वहमाणा थोबा, सेसा कमेण विसेसाहिया, तेण अप्पबहुयं न दोसो / दारं // 56 // . मणपजविणो थोवा ओहीनाणी तओ असंखगुणा / महसुयनाणी तत्तो विसेसअहिया समा दोवि // 57 // (राम०) सच्चथोचा मणपज्जवनाणी, जओ ते मणुस्सा चरित्तिणो या ओहिनाणी तो असंखगुणा, बओ चउगइएसु वि ओहिनाणमत्थि; तओ मइनाणी सुयनाणी दो वि तुल्ला, पुब्वेहितो विसेसाहिया, जओ तिरियमणुया सम्मदिठिणो ओहिं विणा केइ अत्थि, तेहि साहिया।॥२७॥ वि-भंगिणो असंखा केवलनाणी तओ अणन्तगुणा / तत्तोऽणन्तगुणा दो मइसुयअन्नाणिणो तुल्ला // 58 / / (राम०) तो विभंगनाणी असंखगुणा, एए वि चउगइया वि अस्थि, तो केवलनाणी अणंतगुणा, जेण सिद्धा वि लब्भंतिः तत्तो अणंतसुणा मइअन्नाणिसुयअन्नाणी, जओ एगिदिया सब्वे वि लन्भंति: दोन्नि वि सट्ठाणओ तुल्ला / दारं // 5 // Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 361 .. पंडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे सुहुमपरिहारअहखायछेयसामइयदेसजयअजया / थोवा संखेजगुणा चउरो असंखणन्तगुणा // 59 // (राम०) सव्वथोवा सुहुमसंपरायचारित्ती, जेण उवसामग खवगा सुहुमलोभकिट्टिवेयगा धिप्पंति 1, तो संखेयगुंणा परिहारविसुद्धीया, जओ विसिहतवपडिवनगा भरहेरवयदससु खिचेसु चरिमाइमतित्थयरतित्थेसु नवकगणट्ठिया धिप्पति 2, तओ अहक्खायचारित्ती संखेजगुणा, जओ उवसंतखीणमोहे केवली य सब्वे भवत्था धिप्पंति 3, तओ छेओवट्ठावणियचारित्ती संखेजगुणा, जओ पंचभरहे पंचएरवये पढमंतिमतित्थयरतित्थडिया छेओवट्ठावणि. यचारित्तपडिवन्ना धिप्पंति 4, तओ संखगुणा सामाइयचारित्ती, जओ भरहएरवयमहाविदेहेसु सामाइयचारित्तट्ठिया धिप्पंति 5, देसविरया असंखेजगुणा, जओ तिरिएसु देसविरई अत्थि 6, तो अविरया अणंतगुणा, जओ सव्वे एगिदियादओ धेप्पंति, / दारं // 59 // इय ओहिचक्खुकेवलअचक्खुदंसी कमेण विन्नेया। थोवा अस्संखगुणा अणन्तगुणिया अणन्तगुणा // 6 // (राम०) सव्वथोवा ओहिंदंसी 1, चक्खुदंसी असंखगुणा 2, केवलदंसी अणंतगुणा 3, सिद्धाणं पि दंसणमत्थित्ति / अचक्खुदंसी अणंतगुणा 4, एगिदियाणं पि गहणाओ। दारं // 6 // सुक्का पम्हा तेऊ काऊ नीला य किण्हलेमा य / थोवा दो संखगुणाऽणन्तगुणा दो विससहिया // 61 // (राम०) सव्वथोवा सुक्कलेसा 1, पम्हलेसा संखेयगुणा 2, तेउलेसा संखेयगुणा 3, तओ काउलेसा अणंतगुणा 4, जओ एगिंदियादओ धेप्पंति, तओ नीललेसा विसेसाहिया 5, किण्हलेसा विसेसाहिया 6 / दारं // 61 / / थोवा जहण्णजुत्ताऽणतयतुल्ल त्ति इह अभव्वजिया / तेहिंतोऽणंतगुणा भव्वा निव्वाणगमणरिहा // 2 // (राम०) सव्वथोवा अभव्वा, ते य जहन्न जुत्ताणतयं, नवविहस्स अणंतस्स चउत्थं, तेण तुल्लासमा इह अप्पबहुत्ते, तेहिंतो भव्वा अणंतगुणा, केरिसा भव्वा ? आह-'निव्वाण गमणरिह' त्ति निव्याणं मोक्खो तत्थ गमणं अरिहंति जोग्गा हुँति / जे ते निव्वाण गमणारिहा / दारं / // 62 // Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेष्वल्पबहुत्वं मार्गणास्थानानि च [23 सासाणउवसमियमिस्सवेयगक्खड्गमिच्छदिट्ठी उ / थोवा दो संखगुणा असंखगुणिया अणंता दो // 63 // (राम) सबथोवा सासायणसम्मदिट्टी 1, उसमसम्मद्दिडी संखेयगुणा 2. सम्मामिच्छट्ठिी संखेयगुणिया 3, जं पुण उपरि सासायणाहितो मिस्सा असंखगुणिया भणिया तं गंधंतरमएण संभाविजइ. वेयगसम्मदिट्ठी असंखगुणा 4, खाइगसम्मदिट्ठी अणंत. गुणा५, सिद्धा वि गहिया, तओ मिच्छदिट्ठी अणंतगुणा 6, एगिदियादओ गहिया / दारं / / / 63 / / सन्नी थोवा तत्तो अणन्तगुणिया असन्निणो 'हुन्ति / थांवाणाहारजिया तदसंखगुणा साहारा // 64 / / (राम०) सव्वथोवा सण्णी 1, असण्णी अणंतगुणा 2. जओ असन्निपंचेदिया चउरिदिया तेइंदिया बेइंदिया एगिदिया य असन्निगहणेण गहिया। दारं ।थोवा अणाहारजिया१, जओ विग्गहगइणो पढमविग्गहं मोत्तु तहा केवलीसमुग्धायगया सेलेसीपडिवना य तहा सिद्धा अणाहारा, नो अन्ने, आहारंगा असंखेज्जगुणा, जओ पुव्वुत्ता मोत्तण सेसा सव्वे साहारा जीवा / दारं / भणियं मग्गणठाणेसु अप्पबहुत्त // 64 // इयाणि सीसमईबोहणत्थं सय मेव मग्गणट्ठाणेसु मग्गगट्ठाणमग्गणा बंधुत्तरहेउमग्गणा य कीरति तत्थ मूलभेया मग्गणाट्ठाणाण चउद्दस वि उत्तरभेएसुबासठ्ठीए पाएणं संभवन्ति / उत्तरभेया पत्तेयं पत्तयं कस्स वि केत्तिया ?, तं भण्णइ तत्थ गइदारे-देवगईए देवगई पंचिंदिय तसत्तं जोगतिगं पुरिसित्थिवेओ कसायचउक्क नाणतिगं अन्नाणतिगं असंजमो दंसगतिगं लेसछक्कं भव्वदुगं सम्मत्तछक्कं सन्नी आहारदुगं एवं एगुणवत्ता / मणुयगईए गइतिगं एगिदिय विगलजाइचउक्कं थावरपणगं एए बारस वज्जित्ता पंचासा / तिरियगईए केवलदुगं गइतिगं मणपज्जवनाणं संजमपंचगं एए एक्कारस वज्जित्ता एक्कावन्ना / निरयगईए जहा देवगईए नवरं नपुंसवेओ एगो 'सा य गई सुभलेसतिगं थीपुमं वज्जित्ता पणतीसा। इंदियदारे-एगिदिएसु तिरियगई एगिदियत्तं थावरपणगं कायजोओ नपु'सगवेओ कसायचउक्कं अन्नागदुगं असंजमो अचक्खुढेसणं पढमलेसचउक्कं भव्यदुर्ग मिच्छ त्तसासणे असण्णी आहारदुर्ग एवं अठ्ठावीसा / विगलतिगे तिरियगई बेदियतं तसं कायजोगो वइजोगो नपुसकवेओ कसायचउक्कं अन्नाणदुर्ग असंजमो अचक्खुदंसणं पढमलेसतिगं भव्वदुगं 1. "नरक०" टिप्पनकम् Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्ये सासगमिच्छत्ते असन्नी आहारदुर्ग एए चउवीसा / नवरं चउरिदिए चक्खुदंसर्ण पणवीसा / पंचिंदिएसु एगिदियविगलजाइचउक्कं थावरपणगं एए नव वज्जित्ता तेवन्ना होइ / कायदारे-पुढविकाए तिरियगई एगिदियत्तं पुढविकाओ कायजोगो नपुसगवेओ कसायचउक्कं अन्नाणदुगं असंजमो अचखुदंसगं पढमलेसचउक्कं भव्यदुनं सासणमिच्छत्ते असन्नीआहारदुर्ग एया चउवीसा / एवं सेसेसु वि आउतेउवाउवणस्सईसु / नवरं तेउवाउकाए सासगतेउलेसे वज्जिता बावीसा / तहा आउकाए' इच्चाइ भाणियव्वं / तसकाए थावरपणगं एगिदियजाई वज्जित्ता छप्पन्ना। जोगदारे-मणजोगे एगिंदियविंगलजाइचउक्कं थावरपणगं असण्णी अणाहार एए एक्कारस वज्जित्ता एक्कावन्ना / वइजोगे विगलतिगेण असन्नी पणवन्ना / कायजोगे सव्वे / .. .. वेयदारे-पुरिसवेए एगिंदियविगलजाइचउक्कं थावरपणगं केवलदुगं सुहुमसंपरायअहखायचारित्तं इत्थिनपुसगवेयं असन्नी नरयगई वज्जित्ता पणयालीसा होइ / एवं इथिवेए वि / नवरं इथिवेओ भाणियव्वो पुरिसनपुगवे यपरिहारविसुद्धिनिसेहो कायव्यो 44 / नपुसगई. इत्थिपुरिसवेओ केवलदुगं सुहुमसंपरायअहक्खायचारित्ते देवगई वज्जित्ता पणवन्ना / ___ कसायदारे-कसायचउक्के वि पत्तेयं पत्तेयं तिन्नि कसाए केवलदुगं सुहुमसंपरायअहरवायचारिते वज्जित्ता पणपन्ना होइ / नवरं लोभे सुहुमो वि होइ, एवं छप्पन्ना / नाणदारे-मइसुयओहिसु एगिदियविगलजाइचउक्कं थावरपणगं केवलदुगं अन्नाणतिगं मिच्छत्तसासणे अभव्यं असन्नी एए वज्जित्ता सेसा चोयालीसा। मणनाणे मणुयगई पंचिंदियत्तं तसत्तं जोयतिगं वेयतिगं कसायचउक्कं नाणचउक्कं संजमपणगं दंसणतिगं लेसछ्वकं भव्वं सम्मत्ततिगं सन्नी आहारगं सत्ततीसा होइ / केवलनाणे मणुयगई पंचिंदियत्तं तसत्त जोगतिगं केवलनाणं अहक्खायचारित्त केवलदसणं सुक्कलेसा भव्वत्त खाइगं सम्मत्त सण्णी आहारगदुगं पनरस हुति / मइअन्नाणसुयअन्नाणेसु नाणपंचगं संजमछक्कं केवलदंसणं ओहिदंसणं पढमसम्मत्तचउक्क वज्जित्ता सेसा पणयालीसा / विभंगे एगिदियविगलजाइचउक्कं थावरपणगं नाणपंचगं पठमसंजमछक्कं ओहिकेवलदंसणे पढमसम्मत्तचउक्कं असन्नी एए वज्जित्ता पणतीसा। संजमदारे-सामाइयछेओवठ्ठावणियपरिहारगेसु पत्तेयं पत्तेयं मणुयगई पंचिंदियत्त तसं जोगतिगं वेयतिगं कसायचउक्कं नाणचउक्कं स्वं स्वं चारित्रं दंसणतिगं लेसछक्कं भव्वं सम्मत्ततिगं नवरं परिहारविसुद्धीए उवसमसम्मत्त भयणा सन्नी आहारगं तेजीसा / नवरं परिहारविसुद्धि थीवेओ न होइ तओ बत्तीसा / सुहुमसंपराए मणुयगई पंचिंदियचं तसं जोगतिगं लोहकसा 1. पुढविकाए तिरियमई इत्यादि पूर्वोक्त आलापकः / टिप्पनकम् / / Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [25 मागणास्थानेषु मार्गणास्थानानि नाणचउक्कं सुहुमसंपरायं दंसणतिगं केवलं विणा सुक्कलेसा भव्वं सम्मत्तदुगं सन्नी आहारगं एकवीसा / अहखाए लोभं वज्जित्ता केवलदुगेण अनाहारगेण य तेवीसा / देसविरए मणुयतिरियगईओ पंचिंदियत्तं तसं जोगतिगं वेयतिगं कसायचउक्कं मइसुयओहिनाणाणि देसविरई दसणतिगं लेसाछक्कं भव्यं सम्मत्ततिगं सन्नी आहारगं एए तेत्तीसा / अविरए केवलदुगं मणपज्जवनाणं संजमछक्कं एए वज्जित्ता तेवन्ना / ____दसणदारे-चक्खुदंसणे एगिदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-थावरपणगं केवलदुगं अणाहारं एए वज्जित्ता एक्कावन्ना / अचखुदंसणे केवलनाणदंसणे वज्जित्ता सट्ठी / ओहिदंसणे ओहिनाणवत् / केवलदंसणे केवलनाणवत् / लेसादारे-पढमलेसतिगे पत्तेयं पत्तेयं केवलदुगं अहखायं सुहुमसंपरायं विवक्खलेसापणगं वज्जिता तेवन्ना होइ / एवं तेउलेसे नवरं विगलजाइतिगं तेउकायवाउकाए निरयगई वज्जिता सत्तालीसा / पम्हसुक्कलेसाए वि एगिदियपुढविआउवणस्सइअसण्णी वज्जित्ता बायालीसा / परं सुक्कलेसाए अहक्खायं सुहुमसंपरायं केवलदुगं पक्खिविय छायालीसा / भव्वदारे-भव्वे अभव् विणा सव्वे | अभव्वे नाणपंचकं संजमछक्कं दसणदुगं भव्वं सम्मत्तपंचगं वज्जित्ता तैयालीसा।। सम्मत्तदारे-वेयगउवसमसम्मत्तेसुएगिदियविगलजाइचउक्कं थावरपणगं केवलदुर्ग अन्नाणतिगं सहुमसंपरायअहक्खायचारित्रमीससासणमिच्छत्ताणि सम्मत्तदुगं विवक्खं असन्नी अभव्वं वजित्ता पत्तेयं पत्तेयं ऊणचत्ता / नवरं उवसमसम्मत्ते सहुमअहक्खायचारित्तेहि एक्कचत्ता / एवं खाइगसम्मत्ते वि / परं केवलदुगे पक्खित्ते तेयालीसा / मिस्से गइचउवकं पंचिंदियत्तं तसं जोगतिगं वेयतिगं कसायचउक्कं अन्नाणतिगं नाणमीसं असंजमो दंसणतिगं लेसाछक्कं भव्वं मीसं सम्मत्तं सन्नीआहारगं तेत्तीसा / सासणे वि नवरं एगिदियजाइविगलिंदियजाइचउक्कं पुढविआउवणस्सइअसन्नी अणाहारगं च पक्खिविय बायालीसा। मिच्छदिठिस्स नाणपंचगं संजमछक्कं ओहिकेवलदसणे सम्मत्तपंचकं वज्जित्ता चउयालीसा / सन्निदारे-सन्निसु एगिदियजाई विगलतिगं थावरपणगं असन्नी दस वज्जित्ता बावन्ना / असण्णिसु मणुयतिरियगई जाइपंचगं छक्काया कायजोगो वइजोगो नपुंसगवेओ कसायचउक्कं अन्नाणदुर्ग असंजमो चक्खुअचकखुदसणं पढमलेसचउक्कं भव्वदुर्ग सासणमिच्छत्ते असन्नी आहारदुगं छत्तीसा / ____ आहारदारे-आहारे अणाहारगं विणा एगसट्ठी / अणाहारे संजमचत्तारि अहखायं विणा मीसदेसविरई मणनाणं आहारगं चक्खुदंसणं वज्जित्ता तेवन्ना / भणिया मग्गणट्ठाणेसु मग्गणठाणमग्गणा / Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे (राम०) इयाणिं बंधहेउमग्गणा गाहाहिं कीरइ मणुगइ 1 पणिदि 2 तस 3 तणु 4 अचकखु 5 सन्नी य६ आइच उलेसा 10 / तह मश्वे 11 सम्वे वि हु 57 सत्तावन्ना इगारससु // 1 // ओराला 2 हारदुर्ग 2 मिच्छऽणाभोग 1 नपुस 1 देवस / 'चय 51 नारएस 50 एवं नवरं न खिवस थीपुमं चयसु // 2 // तिरियगइ 1 अमव्व 2 मिच्छे 3 अन्नाणतिगे य६ हारदुगरणा 55 / आहारि कम्मणूणा 56 अणहारे 'जोगचउदसहिं 43 // 3 // वेयतिग 55 च उकसाए 54 पडिवरवे मुत्त संससंमविया / आहारगं तु थीK 53 मीसा 43 साणा य 50 गुणाहिया // 4 // अण 4 मिच्छे 9 परिवज्जिय मइमुय२ ओहिदुग ४रवइग 5 रवउवसमे 6-48 / . आहारगं च उवसमि 46 गुणगहिओ देसवरिओ य 39 // 5 // मणवइश्चक्खुसु 3 हेऊ 55 ओरालियमीसकम्मइगवज्जा / . Aनवर मणजोगि तऽयं अणभोगं मिच्छ चउपना // 6 // एगिदिएसु हेऊ वाउवमा . तत्थ होति. छत्तीसा / A सो वि सुक्कपम्हसु 2 अणमोगं मिच्छ१वज्जा हि 56 // 7 // संजलण 4 जोगनवगं हासाई 6 पुरिस 1 अपुम 2 वेयं च / परिहारिबंधहेऊ इगवीसं 21 जेण पुव्वधरो // 8 // वेऽव्वाहारदुर्ग 4 थीवेयं पविखवाहि इगवीसे. 26 / मण 1 सामइए 2 छेए 3 छब्बीसं तिसु वि पत्तेयं // 9 // केवलदुग, 7 अहखाए 11. 3 सुहुमसगगे 10 य जोगपुव्वुत्ता / . नवरं सुहुमसरागे दसमो लोभो य हेउ त्ति // 10 // छक्कायवहो 6 फासो 7 हासाई 13 नपुम 14 सोलस कसाया 30 / अणमोगामच्छ 31 धुवया थावर ५इगि६ विगल 9 अमणाणं 10 // 11 // कम्मणओगलदुगं थावरकाए 34 रविउविजुय 5. वाए 36 / / 'भासामणविगल णं, इंदियवुठी य संमविया . // 12 // इह भविस्यम्मि हेऊ पण मिच्छा विर बारस कसाया / पणणीसं तह जोगा तेरस आहारगदुगुणा // 13 // संसइय अभिनिवेसा मणुए य पडुच्च पायसो होति / अह सम्वेसु वि एए इह मविया अन्नमविया य // 14 // इयाणिं गुणट्ठाणेसु जीवट्ठाणाईणं मग्गणा भण्णइ १"त्यज" इति टिप्पनकम् / 2 "न्यूना" इति टिप्पनम्। 3 "आहारदुगं थीसु" इति जेसलमेर प्रतौ। 4 “वातोपमा" इति टिप्पनकम् / 5 "द्विकं गृहीतव्यम्" इति टिप्पनकम् / 6 "मासा विगलमजाणं" इति जेसलमेरप्रतौ। एतच्चिद्वयगतः पाठो जेसलमेरप्रतौ नास्ति, तथा "सव्वे.वि" इति स्थाने “मणजोग" इति पाठो दृश्यते / Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणस्थानेषु बन्धहेतवस्तथा गुणस्थानेषु जीवस्थानानि योगाश्च मिच्छे सव्वे छ अपज्ज सन्निपज्जत्तगो य सासाणे / सम्म दुविही सन्नी सेसेसु सन्निपज्जत्तो // 65 // (राम०) मिच्छदिट्ठिस्स जीवट्ठाणा चउदस वि / सासायणस्स जीवट्ठाणा सत्त / छ अपज्जत्ता बायराई सनिपज्जो य / सम्मो-अविरय सम्मदिट्ठी, तस्स दो जीवट्ठाणा-सन्नी पज्जनगो अपज्जत्तगो य / सेसेसु एगारससु गुणट्ठाणगेसु एगं जीवट्ठाणं सन्नी पज्जत्तओ // 65 / / इय जियठाणा गुण ठाणगेसु जोगा य वोच्छमेत्ताहे / जोगाहारदुगूणा मिच्छे सासणअविरए य // 66 // (राम०) मिच्छदिट्ठिसासायणअविरयसम्माट्ठिीणं जोगा तेरस आहारगदुगूणा // 66 // उरलविउव्वाइमणा दस मीसे ते विउविमीसजुया / देसजए एक्कारस साहारदुगा पमत्तेते // 6 // (गम०) ओरालियं विउब्वियं मणचउक्क वइचउक्क एए दसजोगा सम्मामिच्छद्दिहिस्स। देसविरयस्स ते दस वेउन्चिमीसजुया इक्कारस जोगा / पमत्तस्स ते इक्कारस आहारगदुगजुया जोगा तेरस / / 67 // एक्कारसप्पमत्ते, मणवइआहारगुरलवेउब्वा / अप्पुव्वाइसु पंचसु नव ओरालो मणवई य // 6 // (राम०) एकारस अप्पमचे मणचउक्कं वइचउक्क आहारगं ओरालियं वेउव्वियं मिस्सविरहेण / अपुवकरणा जाव खीणमोहो तावपंचण्ह वि नव नव जोगा ओरालियं मणचउक्कं वइचउक्कं च // 6 // चरिमाइममणवइदुगकम्मुरलदुगन्ति जोगिणो सत्त / गयजागो य अजोगी वोच्छमओ बारसुवओगे // 69 // - (राम०) चरिमं असच्चमोसमणं आइमं सच्चमणं, एवं वई वि, चत्तारि, ओरालियं ओरालियमीसं कम्मइगसरीरं च, एए सत्त जोगा सजोगिकेवलिस्स / “गयजोगो य अजोगि" ति जोगनिरोहाओ अजोगिम्मि जोगा न होति // 66 // ___उवओगमग्गणा भन्नति Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे / अबक्खुबक्खुदंसणमन्नाणतिगं च मिच्छमामाणे / अविरयसम्मे देसे तिनाणदंसणतिगं ति छ उ // 7 // (राम०) अचक्खुदंसणं चक्सुदंसणं अन्नाणतिगं च पंच उवओगा मिच्छे सासायणे य / अविरयसम्मे देसविरए य नाणतिगं देसणतिगं छ उवओगा // 70 // मीसे ते चिय मीसा सत्त पमत्ताइसु ममणनाणा / केवलियनाणदंमणउवओगा जोगजोगीसु // 7 // (राम०) मिस्से ते च्चिय अण्णाणमिस्सा छच्चेव / सत्त पमत्ताईसु, एए छ मणनाणजुया सत्त उवओगा पमत्ताओ जाव खीणमोहो / सजोगिअजोगिकेवलीणं दो उवओगा-केवलनाणं केवलदंसणं च // 71 // इयाणि जे भावा सुये भणिया वि इह न अहिगरिज्जति ते दंसेइ सासणभावे नाणं विउव्विगाऽऽहारगे उरलमिस्सं / नेगिंदिसु 'सासाणोत्ति नेहहिगयं सुयमयंपि // 72 // (राग०) इमाए गाहाए अयं भावत्थो-जहा- “सम्यग्दृष्टेज्ञान' मिति वचनात् तत्त्वार्थादौ सासायणस्स वि नाणं भणियं, सासायणसम्मत्ताओ / तहा सुत्ते वेउव्वियलद्धिजुयतिरियमणुयागं वेउव्वियारंभकाले वेउब्धियमीसं, संवरणकाले उ ओरालियमीसं भणियं, तहा आहारगकाले आहारगमीसं, संहरणकाले पुण ओरालियमीसं। तहा आवस्सए “उभायाभावो एगिदिए" त्ति वचनाद् एगिदिएसु सासाणसम्मत्तं निसिद्धं एवं पुण वक्खाणं आगमे भणियमवि न अहिगयं-- नादरियं इह पगरणे / कुतः ? जओ सासगस्स नाणं अगंताणुबंधिसियत्ताओ अप्पकालीणत्ताओ य न विवक्खियं, विउव्वियाहारउरलमिस्सं पुण सयगचुन्नि अभिप्पाएणं न विवक्खियं / तहा एगिदिसु सासणभावो इह पगरणे भणिओ जीवसमासाऽभिप्पाएण, जओ तत्थ एगिदियस्स वि सासणभावो भणिओ // 72 / / लेसाओ भणेइ / लेसा तिन्नि पमत्तं तेऊ पम्हा उ अप्पमत्तंता / सुक्का जाव सजोगी निरूद्धलेसो अजोगित्ति // 73 // (राम) मिच्छट्ठिीओ जाव पमत्तसंजओ ताव छ लेसाओ, तिण्हं असुहलेसाणं पमत्ते अंतो / अप्पमत्तसंजयस्स लेसाओ तिण्णि, दोण्हं लेसाणं अपमतसंजओ अंतो। उवरिं सुक्कलेसा जाव सजोगिकेवली / अजोगी अलेसो / / 73 / / Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषूपयोग-लेश्या-मार्गणास्थानानि इयाणि गुणट्ठाणगेसु पसंगागया मग्गणट्ठाणमग्गणा सयमेव भण्णइ तत्थ सामन्नेण सव्वे मूलभेया पाएण सव्वेसु गुणट्ठाणगेसु संभवंति, उत्तरभेया पुण कस्स विकित्तियप्पमाणा। अओउत्तरभेयनिदसणत्थं भन्नइ मिच्छादिहिगुणट्ठाणाईसु / ते य भन्नंति तत्थ मिच्छद्दिट्ठिस्स उत्तरभेया-गइचउपकं 'इंदियपणगं कायछक्कं जोगतिगं वेयतिगं कसायचउक्कं अन्नाणतिगं असंजमो दसणदुर्ग लेसाछक्कं भव्वाभव्वदुर्ग मिच्छत्तं सनिअसन्निदुर्ग आहारअणाहारदुर्ग एवं 'चउयालीसा 44, सेसा अट्ठारसा-ऽसंभविया / सासायणस्य उत्तरभेया-गइचउकजाइपणगं तेउकायवाउकायवज्ज कायचउक्क जोगतिगं वेयतिगं कसायचउक्कं अन्नाणतिर्ग असंजमो दंसणदुर्ग लेसछक्कं भव्वं सासायणसम्मदिट्ठी सन्नी असन्नी आहारगं अणाहारगं च एवं एगयालीसं 41, इगवीसमसंभविया / ___ सम्मामिच्छादिट्ठिस्स उत्तरभेया-गइचउवकं पंचिंदियजाई तसकाओ जोगतिगं वेयतिगं कसायचउवकं नाणतिगं अन्नाणमिस्सं असंजमो दंसणतिगं लेसछक्कं भव्वं सम्मामिच्छदिट्ठी सन्नी आहारगं च एवं तेत्तीसा 33, एगूणतीसं असंभविया / अविरयस्स उत्तरभेया-गइचउक्कं पंचिंदियजाई तसकायं जोगतिगं वेयतिगं कसायचउक्क नाणतिगं असंजमो दंणतिगं लेसद्वकं भव्वं सम्मत्ततिगं सन्नी आहारअणाहारदुर्ग च एवं छत्तीसं 36, छब्बीसं असंभविया / / देसविरयस्स उत्तरभेया-गइदुगं पंचिंदियं तसकायं जोगतिगं वेयतिगं कसायचउवर्क नाणतिगं देससंजमो दंसणतिगं लेसाछवकं भव्वं सम्मत्ततिगं सन्नीआहारग एवं एते तेत्तीसं३३, ऊणतीसं असंमविया / पमत्तसंजयस्स उत्तरभेया-मणुयगई पंचेंदियं तसकायं जोगतिगं वेयतिगं कसायचउक्कं नाणचउक्कं संजमतिगं देसणतिर्ग लेसछ्वकं भव्वं सम्मत्ततिगं सन्नी आहारगं एवं पणतीसं 35 सत्तावीसं असंभविया। अपमत्तसंजयस्स उत्तरभेया-मणुयगई पंचेंदियं तसकायं जोगतिगं वेयतिगं कसायचउवर्क नाणचउक्कं संजमतिर्ग दंसणतिगं लेसतिगं भव्वं सम्मत्ततिगं सन्नी आहारगो एवं बत्तीसं३२, तीसं असंभविया। ___अपुव्वकरणस्स उत्तरभेया-मणुयगई पंचेंदियं तसकाओ जोगतिगं वेयतिगं कसायचउक्कं नाणचउदकं संजमदुर्ग सणतिगं सुवकलेसा भव्वं सम्मत्तदुर्ग सन्नी आहारगो एवं अट्ठावीसं 28, सेसा चउत्तीसं असंभविया / एवं अनियट्टीए वि / / __ सहुमसंपरायस्स-मणुयगई पंचेंदियं तसकार्य जोगतिगं वेयसुन्न लोभं नाणचउपकं सहुमसंपराय.. १“जाइपणगं" इत्यपि पाठः / 2 "०निदसणत्थं मि०" इत्यपि / 3 'चव्यालीसं' इति / 4 "तेत्तीसं" इत्यपि / Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30] षडशौतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थे चरित्रं दंसणतिगं सुक्कलेसा भव्वं सम्मत्तदुगं सन्नी आहारगं एवं एगवीसं२१, सेसा असंभविया / उपसंतस्स उत्तरभेया-मणुयगई पंचेंदियं तसकायं जोगतिगं वेयसुन्नं कसायसन्नं नाणचउक्कं उवसमियं चरित्तं दसणतिगं मुक्कलेसा भव्वं सम्मदुर्ग सन्नी आहारगं एवं वीसं 20, सेसा असंभविया / ___खीणमोहस्स य-मणुयगई पंचिंदियत्त तसकार्य जोगतिगं वेयकसायमुन्नं नाणचउक्क अहक्खायसंजमंदसणतिगं सुक्कलेसा भव्यं खाइयसम्मत्तसन्नी आहारगं एवं ऊणवीसा१९, सेसा असंभविया / सजोगिकेवलिस्स उत्तरभेया-मणुयगई पंचिंदियं तसकायं जोगतिगं वेयकसायसुन्न नाणे केवलनाणं संजमं खाइयं दंसणं केवलदंसणं सुक्कलेसा भव्वं सम्मत्त खाइयं सन्नी .. आहारणाहारं एवं पनरस 15, सेसा असंभविया। अजोगिकेवलिस्स उत्तरमेया-मणुयगई पंचेंदियं तसकार्य जोगवेयकसायसुन्नं केवल नाणं खाइयं संजमं केवलदंसणं लेसासुण्णं भव्वं खाइयं सम्मत्त सन्नी अणाहारगं एवं दस 10, सेसा असंभविया / इयाणिं गुणट्ठाणगेसु बंधहेउ भणिउकामो पढमं ताव बंधरस मूल या उत्तरभेया य दंसेइ बन्धस्स मिच्छअविरइकमायजोगत्ति हेयवो चउरो। ... पंच दुवालस पणुवीस पनरस कमेण भेया सिं // 7 // (राम०) बंधो कम्मबंधो, तस्स चत्तारि हेऊ, मिच्छत्त 5, अविरई 12, कसाया 25. जोग 14 त्ति / एएसिं चउण्हं पि कमेणं जहासंखं पंच दुवालस पणुवीस पनरस भेया होति।।७४॥ ते य उत्तरभेए विवरेइ-- आभिग्गहियं अणभिग्गहं च तह अभिनिवेसियं चेव / / संसइयमणाभोगं मिच्छत्तं पंचहा एवं // 75 / / (राम०) मिच्छत्तं पंचविहं-आभिग्गहियं मिच्छत्तं, अणभिग्गहियं भिच्छत्तं, अभिनिवेसियं मिच्छत्त, संसइयं मिच्छन, अणाभोगं मिच्छन्नं च / इयाणि पंचविहस्स मिच्छत्तस्स वक्खाणं गंथाणुसारेण कीरइ मुत्ते अभणियमवि परोवयारनिमित्त / तत्थ आभिग्गहियं कुदिठिदिक्खियाणं गाढतरमेयं जीवाणं दीहसंसारियाणं पायसो होइ // 1 // अणभिग्गहियं पुण असंपत्तसम्मत्ताणं कुदिठ्ठिअदिक्खियाणं मणुयतिरियाणं // 2|| अभिनिवेसियं तु संपत्तजिणवयणाणं एगेण सहावपरूपणाए कयाए मच्छराइणा तमन्नहा Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु मार्गणास्थानानि तथौघतो मूलोत्तरबन्धहेतवः [ 31 वागरेमाणाणं कम्मि कारणे उस्सुत्ते वा पन्नविए 'पडिनिवेसेण वा मया एस अत्थो समस्थणीओत्ति अणाभोगेण परूविए वा पच्छा नाए वि वत्थुतत्ते सभणियपडिप्पवे सेण वा अजागंतो वा भावत्यं पनवेइ, वारिओ वा न चिट्ठइ, एएसि जीवाणं अभिनिवेसियं मिच्छत्तं // 3 // संसइयं पुण मुचे वा अत्थे वा उभयम्मि वा संकिओ परूवेइ / सो अन्नं न पुच्छड् / कहमहमेद्दहपरिवारो वि अन्न पुच्छामि / पुच्छिजमाणो वा जाणेज्जा, एस एयं न जाणइ त्ति / अहवा जे मह भत्ता ते जाणिज्जा, एयाहिंतो विएस वरतरओ, तत्तो पुच्छिज्जइ, तओ मं मोतूण एए इयं भइस्पति, अओ अन्नं न पुच्छइ / तस्स संसइयं मिच्छत्तं // 4 // अणाभोगं एगिदियाईणं / जम्हा आभोगो नाणं-उवओगो भण्णई / एयं केरिसं एयं व त्ति एसो पुण तेसि नत्थि, तेण तेसिं अणाभोग मिच्छ / अहवा सुद्धं परूवइस्सामि अणुवओगाओ असुद्धं परूवियं तं पि अणाभोगं परेसिं मिच्छत्तकारणचेण // 5 // एवं पुण पंचविहं पि मिच्छत्तं थूलभावेण / परमत्थओ विवज्जासो सो पुण एवं न मए न मम पुच्चपुरिसेहिं वा कारियं एयं जिणाययणं किं मम एत्थ पूयासक्काराइआयरेणं / अहवा मए एयं जिगवि कारियं मम पुव्वपुरिसेहिं वाः ता इत्थ पूयाइयं निव्वत्तेमि / किं मम परकीएसु अञ्चायरेणं / एवं तस्स न सबन्नुपचया पवित्ती / अन्नहा सव्वेसु वि बिंबेसु अरहं चेव ववइसिज्जइ / सो अरिहा जइ परकीओ ता पत्थरलेप्पपित्तलाइयं अप्पणिज्जयं, न पुण पत्थराईसु वंदिज्जमाणेसु कम्मक्खओ। किंतु तित्थयरगुणपक्खवाएणं / अन्नहा संकराइविंवेसु वि बंदिज्जमाणेस कम्मक्खओ होज्जा / मच्छरेण वा परकारियचेइयालए विग्धं आयरंतस्स महामिच्छत्तन तस्स गंट्ठिभेओ वि संभाविजइ / जे पासत्थाइकुदेसणाए वि मोहिया सविहियाणं वा वाहाकरा भवंति / तेसिं पि महामिच्छत्त / एयम्मि य विवज्जासरूवे मिच्छत्ते सह सुबहुँ पि पढंतो अन्नाणी चेव / न हि विवरीयमइणो नाणं कज्जसाहगं, तओ अन्नाणं, "एएस य 'हुंतेमु अइदुक्करा वि तवचरण किरिया न मोक्खसाहिगा / जम्हा सो जीवरक्खामुसावायाइरक्खणं करेंतो वि अविरओ कहिज्जइ, पंचमगुणठाणे देसविरई, छट्ठगुणट्ठाणे सव्वविरई, न पढमगुणट्ठाणे, तस्स य अणंताणुबंधिपमुहा सोलस वि कसाया बंज्झति उइज्जति य / तन्निमि ताओ असुहाओ दीहट्ठियाओ तिव्वाणुभागाओ कम्मपयडीओ बझंति / अओ मिच्छत्तं पढमो बंधहेऊ ||75 // बारसविहा अविरई मणइंदियअनियमो छकायवहो। सोलम नव य कसाया पणुवीसं पन्नरस जोगा // 76 // १"अहङ्कारेण" इति टिप्पनकम् / 2 "स्वभणितप्रतिमणितप्रद्वेषेण'' इति टिप्पनकम् / 3 “परूवेई' इति वा पाठः / 4 “संकराइदेवेसु" इत्यपि / 5 विपर्यासरूपेषु टिप्पनकम् / 6 “होंतेसु इत्यपि / Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ] षडशीतिनाम्नि चतुर्थे कर्मग्रन्थे _ (राम०) पंचण्हं इंदियाणं मणस्स य अनियमो छण्हं कायाणं वहे अविरई एवं अविरइ बीओ बंधहेउ // 2 // सोलस कसाया नव नोकसाया पणवीसं एए तइओ बंधहेऊ // 3 // पगरस जोगा चउत्थो बंधहेऊ // 4 // एए सामन्नेण / उत्तं च"चउपञ्चइओ बंधो, पढमे उधरिमतिगे तिपच्चइओ / मोसगबीओ उवरिमदुगं च देसिका देसम्मि / / 1 / / उवरिल्लपंचगे पुण दुपच्चा जोगाच्च भो ति"ति। एए मूलहेऊ गुणट्ठाणगेसु / संपयं पुण सुत्तकारो तेसु चेव उत्तरबंधहेऊ दंसेइपणपन्नपन्नतियबहियचत्तगुणवत्तछ व उदुगवीसा। सोलस दस नव नव सत्त हेउणो न व अजोगि'म्मि // 77 // (राम०) पंचविहं मिच्छत्त, बारसविहा अविरई, पणवीसं कसाया, जोगा तेरस, आहागदुगूणा, एए पणपण्णं मिच्छादिट्ठिस्स बंधहयेवो 1 / सासायणस्स मिच्छत्त विणा पण्णासं 2 / बारसविहा अविरई अणंताणुवंधिवज्जा एगवीसं कसाया मणचउक्कं वइचउक्कं ओरालियं वेउविव्वयं च सम्मामिच्छस्स तेयालीसं हेऊ 3 / वेउन्त्रियमीसओरालियमीसकम्मइगजोगतिगे छूढे तेयालीसाए छायालीसं अविरयस्स 4 / तसविरइवज्जा एगारसविहा अविरई पढमबीयकसायट्ठगवज्जा सत्तरस कसाया मणचउक्कं वइचउक्क ओरालं सरीरं वेउव्वियदुर्ग च एए ऊणयालीसं देसविरयस्स 5 / संजलणचउक्कं नोकसाय नवर्ग मणचउक्क वइचउक्कं आहारदुर्ग 'विउब्धियदुर्ग ओरालियं च छव्वीसं पमत्तसंजयस्स 6 / एसा चेत्र छन्वीसा वेउव्वियमीसआहारगमिस्सवज्जा चउवीसं अप्रमत्तस्स / संजलणचउक्कं नोकसायनवर्ग मणचउक्कं वइचउक्कं ओरालियसरीरं एवं बावीसं अपुवकरणस्स 8 / संजलणचउक्कं वेयतिगं जोगनवगं एवं सोलस वायरसंपरायस्त है। संजलगलोहं जोगनवगं दस सुहुमसंपरायस्स 10 / ' उवसंतमोहक्खीणमोहाणं नव नव जोगा बंधहेऊ 11-12 / सजोगिस्स सत्त जोगा दट्ठया 13 / अजोगिस्स बंधहेयवो न संति 14 // 77 // एत्थ गाहाओपणपण्णबंधहेऊ मिच्छद्दिहिस्स "उन यो होति / आहारगदुगरहिया जेणं तं संजयस्स मवे 1 // 1 // पन्नासा सासणे पंचगमिच्छत्तविरहिया होइ 2 / मिस्से पुण तेयाला अण कम्मणमिस्सदुगरहिया 3 // 2 // तुरियम्मि उ छायाला कम्मणमिस्सदुगसंजुया जाण 4 / एगूणवत्त देसे बीयकसायाण मावाओ // 3 // तसअविरइउग्लगमिस्सं सम्मइगजेण तत्थ ना सत्ता 5 / छव्वीसा य पमत्तेसंजलणा 4 नोकसाया :य // 4 // कम्मण उरलगमिस्सं वज्जित्ता सबजोगसब्भावे 13-6 / चउकीसं अपमत्ते वेउव्वाहारमिस्सविणा 7 / / 5 / / बावीसा उ अपुव्ये वेउव्वाहारविरहिया होइ 8 / अनियट्टीए सोलस हासच्छक्केण रहिया उ६|| सहमे दसगं जाणसुतिवेयतिकसायविरहियं काउं१०। उवसंते खीणे पुण जोगा नव बंधहेउत्ति 11-12 // 7 // सज्जोगिकेवलिंमि सच्चअसच्चामुसावइमणो य / 'कम्मं उरलदुगेणं जोगा सत्तेव बंधस्स 13 // 8 // 1. “त्ति” इत्यपि पाठः / 2 "व्य" इत्यपि / 3 "वेउव्विय" इत्यपि। 4 "भोहओ" इत्यपि / 5 "कम्मणमुरलदुग तह, जोगा" इति जे। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु मूलोत्तरबन्धहे तव ओघतो गुण थानेषु च मूल कर्मबन्धोदयो दीरण सत्तास्थानानि 33 भणिया गुणट्ठाणगेसु बंधहेऊणं उत्तरभेया / बंधहेऊहिं पुणं कम्मं बज्झइ, अओ तस्स नामाणि संखं च निदंसेइ तो नाणदंसणावरणवेयणीयाणि मोहणिज्जं च / / आउयनामं गोयंतरायमिय अट्ठ कम्माणि / / 78 // (राम०) कंठा / एएसि कम्मरणं बंधो हवइ बंधे कडे सति उदयाइणा वि भवितव्यम् / जओ बुतं"बंधस्सुदयो उदए उदीरणा 'तदवसेसयं संतं / तम्हा बंधविहाणे, भन्नंते इइ मणेयध्वं / // 7 // अओ बंधस्स उदयस्स उदीरणा संतस्स वि ठाणाणि गुणठामगेसु दंसेइ सत्तट्ठछेगबन्धा सन्तुदया अट्ट सत्त चत्तारि। सत्तट्टछपंचदुगं तुदीरणाठाणसंखेयं // 79 // (राम०) पुव्यमेव जीवट्ठाणेसु बंधोदओदीरणसंताणं ठाणाणि वक्खाणियाणि / तमेव वक्राणं इत्थ दट्ठव्वं // 79 // . मिच्छट्ठिपभीईणं बंधाणपमाणमाह अपमत्तंता सत्तट्ठ मीसअप्पुव्वबायरा सत्त / बन्धंति छ सुहुमा एगमुवरिमाऽबन्धगोऽजोगी // 8 // (राम०) मिच्छदिहिसासणअविरयदेसविरयपमत्तअपमत्तेसु एएसु छसु ठाणेसु - * अट्ठविहबंधगा अहवा आउयं मोत्तु सचविहवंधगा / तहा सम्मामिच्छट्ठिी अपुवकरणअनियट्टिकरणा आउयं मोत्तूण सत्तविहबंधमा / सुहुमसंपराया मोहाउयं मोत्तूण छविहवंधगा। उबसंतखीगमोहसजोगिकेवली. एगविहवेयणियबंधगा। अबंधगो अजोगी / / 80 // मिच्छदिपिभिईणं उदयसत्ताट्ठाणपमाणमाह जा सुहुमो ता अट्ट वि उदये संते य हुन्ति पयडीओ। सप्तऽट्ट व संते खीणि सत्त चत्तारि सेसेसु // 1 // (राम०) मिच्छद्दिट्ठीउ जाब सुहुमसंपराओ ताच उदए संते क अट्ठ कम्माणि / उवसंते उदए सत्त, मोहं मोत्तूणः सत्ताए अट्ठ कम्माणि / खीणमोहे उदए सत्ताए य मोहं मोत्तूण सत्त कम्माणि / सजोगिअजोगिकेवलीणं उदए सत्ताए य चत्तारि चत्तारि कम्मर अधाइणो // 1 // 1 वाम्यां विरहितम्” इति टिप्पणनकम् / Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 311 - षडशीतिनाम्नि चतुर्थ कर्मग्रन्थे उदीरणाठाणपमाणमाह. सत्तट पमत्तता कम्मे उइरिन्ति अट्ठ मीमो उ / वेणियाउ विणा छ उ अपमत्तअपुवअणियट्टी // 82 // सुहुमो छ पंच उइग्इ पंच उवसंतु पंच दो खीणो। जोगी उ नामगाए अजोगिअणुदीरणो भयवं // 83 // (राम०) मिच्छद्दिट्ठी सासायणो अविरओ देसविरओ पमत्तो य एए पंच ठाणा अट्टाह कम्माणं उदीरगा। अहवा अद्धावलियासेसाउया सत्तण्हं उदीरगा। जओ आवलियागयं कम्म करणाई न भवइ / सम्मामिच्छट्ठिी अट्ठण्हं उदीरगो / जओ "न सम्मामिच्छो कुगइ कालं" इइ वयणाओ / तहा अपमत्तअपुवकरणअनियट्टिबादरा वेयणियआउए मोत्तॄण छण्डं कम्माणं उदीरगा। तहा सुहुमो वेयणियआउए मोत्तु छण्हं उदीरगो, तहा मोहे अद्धावलियासेसे पंचण्हं उदीरगो / जओ मोहोदीरणा लोहे किट्टीकए अद्धावलियासेसे थक्कइ त्ति / मणुयाउयवेयणियाणं पुण उदीरणा पमत्तविरए थक्कइ ति / तहा नाणावरणदंसणावरणअंतरायनामगोयाणं पंचण्ह उवसंतो उदीरगो। खीणमोहो वि एएसिं चेव पंचण्डं उदीरगो। तहा नाणावरणदंसणावरणविग्धेहि अद्धावलियसेस'मेरोहिं नामगोयाणं खीणमोहो चेव दोण्हं उदीरगों। सजोगिकेवली दुण्हं नामगोयाणं उदीरगो / अजोगिअणुदीरगो भयवं // 82-83 // गुणट्ठाणगेसु अप्पबहुत्तमाह-- उवसन्तजिणा थोवा संखेजगुणा उ खीणमोहजिणा। सुहुमनियट्टनियट्टी तिन्नि वि तुल्ला विसेसहिया // 8 // जोगिअपमत्तइयरे संखगुणा देससासणा मिस्सा / अविरयअजोगिमिच्छा असंखचउरो दुवेऽनन्ता // 5 // (राम०) सव्वत्थोवा उवसंतजिणा / तओ खीणमोहजिणा संखेज्जगुणा 2 / सुहुमो अनियट्ठी नियट्ठी तिन्नि वि तुल्ला, पुब्वेहितो विसेसाहिया / तओ सजोगिकेवली संखेज्जगुणा / तओ अपमत्तसंजया संखेज्जगुणा / तओ पमत्तसंजया संखेज्जगुणा / तओ देसविरया असंखेज्जगुणा / जओ तिरिया वि गहिया / तओ सासायणा असंखेज्जगुणा / तओ सम्मामिच्छाहिट्ठी असंखेज्जगुणा / तओ अविरय-सम्मदिट्ठी असंखेज्जगुणा / तओ अजोगिकेवली अणंतगुणा जओ सिद्धा वि गहिया / तओ मिच्छद्दिट्ठी अणंतगुणा // 84-85 // 1 "मित्तेहि" इत्यपि। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण थानेपूदीरण स्थानान्यल्पबहुत्वञ्च तथा ग्रन्थसमाप्तिः [35 संपयं पगरणकारो सयं सनामसंजुत्तं पणिहाणं करेइ जिणवल्लहोवणीयं जिण वयणामयसमुहबिंदुमिमं / हियकंखिणो बुहजणा निसुणंतु गुणंतु जाणंतु // 86 // (राम०) जिगा सव्वन्नुणो वल्लहा जेसि जगाणं ते जिगवल्लहा जणा तेसिं अहवा जिणवल्लहायरिएहिं उवणीयं ढोकितं मुयसागराओ इह दट्ठव्वं जिणवयणमेव अमयसमुद्दो तस्स बिंदुमिव बिंदु थोवत्ताओ इमें पगरणं हियकरिवणो मोक्खाभिलासिणो बुहजणा-पंडियलोया णिसुणंतु सवणगहणाइणा, गुगंतु-अणवरयं परावचणेण परावत्तयंत, इहापोहलक्खणनाणसभावेण अत्थो मुणंतु // 86 // // सम्मत्तं वत्थुधियारम्स विवरणम् / / / / अथ प्रशस्तिः // नियगुरुवयगाउ मुयं सुयाउ जे सुमरियं तयं लिहिये / मुत्ते उस्पुत्तज, मिच्छामिह दुक्कडं तस्स // 1 // ससमयपरसमयविसारयाण भवियजणकुमुयचंदाणं / पसमाइगुणगुरूणं, पयओ पणमामि पयपउमं // 2 // सुगुरुणं सिरिजिणवल्लहाण सूरीण सूरिपवराणे / उज्झियनियकज्जाणं परोवयारेकरसियाण // 3 // णेण कयं वत्थुवियारसारनामं ति पगरणं पवरें / अप्पग्गंथमहत्थं, तस्सेव णु विवरणं विहियं // 4 // तस्सिस्सलवेणं रामदेवगणिणा उ मंदमइगा वि / पाइयचयणेहि फुडं भवहियटै समासेणं // 5 // / / ग्रन्थानम् 750 // // इति श्रीरामदेवगणिकृता षडशीतिप्रकरणवृत्तिः समाप्ता // इति श्रीरामदेवगणिप्रणीतटीकायुतः षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हात . . चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः समाधाः Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // ॐ नमो वीतरागाय // // ॐ ह्री श्री अहं श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः / / न्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपाइपद्मेभ्यो नमः / सद्धर्मसंरक्षकश्रीमदाचार्यविजयकमलसूरीश्वरपादपद्मेभ्यो नमः / / सकलागमरहस्यवेदिश्रीमदाचार्यविजयदानसूरीश्वरेभ्यो नमः / / कर्मसाहित्यनिष्णातश्रीमदाचार्यविजयप्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः / / परमगीतार्थश्रीमदाचार्यविजयहीरसूरीश्वरेभ्यो नमः / / 'श्रीमच्चिरन्तनाचार्यप्रणीता . * सप्ततिका * ___(सित्तरी) "श्रीमद्रामदेवगणिना कृतेन टिप्पनकेन समलङ कृता" सिद्धपएहि महत्थं बन्धोदयसंतपगउिठाणाणं / वोच्छं सुण संखेवं निस्संदं दिडिवायस्स // 0-1 // (1)2 कह बंधतो वेयइ कइ कइ वा पगउिठाणकम्मंसा / मूलुत्तरपयडीसु भंगविगप्पा घोडव्या ॥सू०-२।। (2) सुगइगमसरलसरणिं, वीरं नमिऊण मोहतमतरणिं / सत्तरिएटिप्पेमी, किंची चुन्नीउ अणुसरिउ // 1 // (3) [2] संखेवा भंगाणं, सुमरणहेउ तह पगडिठाणाणं / पत्तेयं पगडीणं, नामग्गाहं च काहामि // 2 // (4) [2] आउसमं अट्ठ भवे, आउविहूणा य सत्त बंधम्मि / मोहणियाऽऽउविणा छ उ, एगो वेयणियबंधो उ // 3 // (5) [3] अठ्ठदओ बहुयागं, मोहं मोत्तूण केसि सत्तुदओ। घाइविहूणा चउरो, तह सत्ताए वि तियठाणा // 4 // (6) [4] 1 अज्ञातनामानार्यरचिता इत्यर्थः, न पुनश्चिरन्तनामिधाचार्यविहिता इति / 2 ( ) एतचिचहान्तगंतगाथाक्रमः ससूत्रक: L. D. (लालभाइ दलपतभाइ विद्यामंदिर) प्रत्यनुसारी / सूबरहितगाथाक्रमः पुनःJ. (जेसलमेर) प्रतिप्रेसकोप्यपेक्षः / 3 / ] एतचिह्नान्तर्गतगाथाक्रमः ससूत्रका J. प्रतिप्रेसकोप्यधिकाः / 4 "संखेवेणं इत्यति। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे सामन्ना 1 जीव 2 गुणा 3, पत्तेयं मूलपयडिविसओ उ / नियनियभंगेहि समं, सुत्तऽणुसाराउ तं च इमं / 5 // (7) [5] मूलप्रकृतौ सत्तास्थानानिअट्ठविह-सत्त-छब्बंधएसु अट्टेव उदय'संताई / / एगविहे तिविगप्पो, एगविगप्पो अबंधम्मि // 0-3 / / (8) [6] पढमद्धं कंठं / सत्तऽढ 1 सत्त सत्त य 2, चउरो चउरो य 3 उदयसंतंसा / एगविहबंधगे इह, तह य अवंधम्मि चउ चउरो // 6 // (9) [7] सामन्ने ठवणा उदओ 8 8 87 | 7 | 4 | 4 | जीवस्थानेषु मूलप्रकृतीनां बन्धोदयसत्तास्थानानिसत्तऽबंध अठ्ठदयसंत तेरससु जोवठाणेसु / एगम्मि पंच भंगा दो भंगा होति केवलिणो॥०-४॥ (10) [1] पढमद्धं कंठं / 'एगम्मि' सन्निट्ठाणे / / अडसत्तछेगवंधा, उदए संते य पढमतिसु अट्ठ / एगम्मि सत्त अट्ट य, तह सत्त य सत्त उदयंसा // 7 // (11) [9] सण्णिस्स ठवणा तेरससु जीवठाणेसु ठवणा जीव- सू. सू. बे. त्रि० वि० च. ट्राणा अप. प. अप.J अप. प. 'अप प० | अ. 1 "संतसा" इति वा पाठः।२ “हुंति" इत्यपि / च. | असं. असं. प. / अप. प. सं. अप. . Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थान-गुणस्थानेषु मूलकर्मणां तथौघतो ज्ञानावरणोत्तरप्रकृतीनां बन्धोदयसत्तास्थानानि [ 3 केवलिठवणा बन्धो .उदओ | सत्ता | 4 | 4 | गुणस्थानकेषु मूलप्रकृतीनां बन्धोदयसत्तास्थानानिअट्ठसु एगविगप्पो, छस्सु उगुणसन्निएस दुविगप्पो। पत्तेयं पत्तेयं, बंधोदय-संतकम्माणं ॥सू०-।। (12) [10] मिस्सअपुव्वा बायर, सगबंधा छच्च बंधए सुहमो / 'उवसंताई 3 एगं, अबंधगोऽजोगि एगेगं // 8 // (13) / मिच्छासासणअविरय-देसपमत्तअपमत्तया चेव / सत्तऽट्ठबंधगा इह, उदया संता य पुण एए // 6 // (14) [12] जा सुहुमो ता अढ उ, उदए संते य होंति पयडीओ / "सत्तऽड उवसंते खीणि सत्त चत्तारि सेसेसु // 10 // (15) [13] ठवणा| गुणठाणाणि मिच्छ| सा० मि० अवि० देस० पम० अपम अपू० | अणि. सु० |उव० खीण मजो. अजो. / उदओ 88E FIREEEEEE EFF00 | 4 | 4 | सत्ता मूलपयडीसु भणिया बन्धोदयसंतठाणसविगप्पा / उत्तरपयडीसु तहा ते चिय. पयडेमि पत्तेयं // (16) उत्तरप्रकृतिषु बन्धोदयसत्तास्थानानि - पंधोदयसंतंसा, नाणावरणंतराइए पंच / बंधोवरमे वि तहा, "उदयंसा होति पंचेव ।।मू०-६।। (17) [14] * 1 "वि"इत्यपि / 2 "बादर" अनिवृत्तिः। 3 उपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगिकेवलिनः। 4 “सत्तऽठुवसंते” इति L. D. प्रतौ। ५"उदसंता हुंति" इति। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्रतिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे नाणावरणं म३१सुयरओहि३मणोनाण४केवलावरणा 5 / विग्धं दाणे लाभे 2, भोगु३वभोगे४ य विरिए य 5 // 11 // (18) [15] सामन्नेणं गुणट्ठाणगेसु य बंधाइवोच्छेदमाहनाणंतरायबंधो, सुहुमे संतुदय 'खीणचरिमम्मि / वोच्छिन्ना य कमेणं, दो दो भंगा उ दोण्हं पि / / 12 / / (16) [16] ठवणा नाणावरण अंतराय० बंधो उदओ सत्ता दर्शनावरणस्योत्तरप्रकृतीनां बन्धोदयसत्तास्थानानिपंधस्स य संतस्स य, पगइहाणाणि तिन्नि तुल्लाई / उदयट्ठाणाई दुवे, चउ पणगं दसणावरणे // 0-7 // (20) [17] नयणेयरोहि-केवल-दसणआवरणयं भवे चउहा / निदा-पयलाहि छहा, निद्दाइ दुरुत्त थीणद्धी // 13 // (21) [18] सामण्णे ठवणा दसणावरण बंधो || 6 | 4 / है उदओ 4 / सत्ता 1 एतत्प्रतिपादनं सप्ततिकाचूर्णि-टीकाभ्यां समं (न) विरुध्यते, तद्यथा-'दो होंति दोसु ठाणेसु' त्ति उदयसंताणि दोण्णि, एयाणि उवसंतखीणकसायेसु दोसु भवंति, सुहुमरागचरिमसमए बंधो कोच्छिण्णो, छ उमत्थत्ताओ उदयसंता अस्थि / ते य खीणकसायचरिमसमए दोवि खिज्जति / " (सप्ततिकाचूर्णिपत्र 35 पृष्ठि 2) / तथा द्वयोः पुनर्गुणस्थानकयोः उपशान्तमोह-क्षीणमोहरूपयोः 'दुवे' उदयसत्ते स्तः. न बन्धः, बन्धस्य सूक्ष्मसम्पराये व्यवच्छिन्नत्वात् / एतदुक्तं मवति बन्धाम वे उपशान्समोहे क्षीणमोहे च ज्ञानावर णीयाऽन्तराययोः प्रत्येकं पञ्चविध उदयः पञ्चविधा च सत्ता भवतीति परत उदय-सत्तयोरप्यभाकः। कर्मग्रन्थद्वितीयविभागः पृ० 207) 2 आदिशब्दात् प्रचला ज्ञातव्या / Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनावरण गोत्र-वेदनीयाऽऽयुष्ककर्मणामुत्तरप्रकृतीनां बन्धोदयसत्तास्थानानि [5 नव छच्चउहा बंधे, तह 'संता पंच चउर उदयम्मि / सामण्णमिणं बीए, भंगा पुण होंति एक्कारा // 14 // (22) [16] षीयावरणे नव बंधएस चउ पंच उदय नव संता / छ च्चउबंधे चेवं, चउबंधुदए छलसा य // 0-8 // (3) [20] उवरयबंधे चउ पण, नवंस चउरुदय छच्च चउ संता। वेयणिया-ऽऽउय-गोए,विभन्न मोहं परं वोच्छं ।।सू०-६! (24) [21] नव छ च्चउ वेहबंधे, उदए चउ पंच संत नव छसु वि / चउबंधुदए "संता, 'छच्चेव य होति खवगस्स // 15 // (25) [22] बंधोवरमे चउ पंच उदय नव संत होति उवसंते / खीणे उदयचउक्कम्मि छ च्च चत्तारि संताओ / 16 // (26) [23] - बंधो || 6 | 6 | 4 | 4 | 4 | * * * * उदओ | 5 | 4 | 5 | 4 | 5 | 4 | 4 | 5 | 4 |4 | 4 | | सत्ता / EEEEE | 6 || E | 6 | 4 | ठवणा 'वेदणीयाउयगोए विभज्ज मोहं परंवोच्छं / वेदनीया-ऽऽयुर्गोत्राणामुत्तरप्रकृतीनां बंधोदयसत्तास्थानसंवेधभङ्गाः'गोयम्मि सत्त भंगा, अट्ट य भंगा भवंति वेयणिए। पण नव नव पण भंगा, आउचउक्के विकमसोउ।मू०-०। (27) [24] नीयं बंधं नीयस्स उदय नीयस्स चेव संताओ / अनिलाऽनलजीवाणं इयरेसु अणंतरुव्वदृ // 17 // [25] अनला-ऽनिलजीवाणं एगो इय एसु केसि चि // (28) / उद्वालियउच्चागोए तेउवाऊण णीयमिह संतं / इयरेसु च उव्वट्टे पज्जत्ती जा न पूरेइ // (26) 1.5-7 “सत्ता” इति L. D. प्रतौ। २:सामन्न" इति L. D. प्रतौ / 3 “हुंति" इति L. D. प्रतौ। 4 अंत्र प्राचीनकर्मस्तवकारादिभिस्त्रयोदशमङ्गाः प्रतिपाद्यन्ते / यतस्तेः क्षपकाणामपि निद्राद्विकोदयं स्वीक्रियते / दृश्यतां प्राचीनकर्मस्तवे त्रयस्त्रिंशत्तमगाथापूर्वाधं तट्टीका च ६क्षपकाणां स्त्यानचित्रिकक्षयानन्तरं षड्विधा सत्ता बोद्धव्या / 8 अयं पाठः J0 प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / L. D. प्रतौ चास्ति / 6 "केनाऽपि विदुषा सप्ततिकामूलप्रकरणेऽर्थानुसन्धानार्थ प्रक्षिप्तमिदं गाथासूत्रम् , न तु मूलप्रकरणस्येदमिति / एवमप्रेऽपि ज्ञेयम् / Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठवणा सप्ततिकामिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे नीउच्च बंधुदए, विगप्प चत्तारि दोहिं संतेहिं / बंधोवरमे उच्चस्स उदय दो-एक्कसंताओ // 18 // (38) [26]] | बंधो नीयं नीयं नीयं उच्चं उच्चं . | 0 | उदओ नीयं | नीयं उच्चं नीयं उच्चं उच्चं उच्च | सत्ता नीयं 2 | 2 | 2 | 2 | 2 |उच्चं सायाऽसाये दोसु', 'चउभंगा बंध-उदइ दुदु संता / बंधोवरमे चउरो, संता दुसु दोन्नि दुसु एगं // 16 / (31) [27] | बंधो अमा असा- सायं * * * * | उदओ असा सायं असा सायं असा सायं अमा सायं | सत्ता 2 2 2 2 2 2 11 | एगो अ बंधपुव्वे, बंधे बंधुत्तरे य चउ चउरो / नरतिरियाणं आउयचउक्कबंधुदय-संतेहिं // 20 // (32) [28] सुर-नरयाणं पण पण, बंधे बंधुत्तरे य दो दुन्नि / जम्हा न तेसिँ बंधो, सुर-निरयाऊण संभवइ / / 22 / / (33) -[29] ठवणा . ठवणा / देवाणं भंगा / मणुयाणं भंगा / तिरियाणं भंगा नेरइयाणं भंगा / उद. दे दे. दे दे दे. म. |म म. म. म. म. म. म. म. ति.ति ति.नि.ति.ति. तितिति.नि.नि नि.नि.नि मोहनीयस्योत्तरप्रकृतीनां बन्धस्थानानि दश - बावीस एक्कवीसा, सत्तरसा तेरसेव नव पंच / चउतिगदुगं च एक्कं, बंध ठाणाणि मोहस्स।।सू०-१०|| 34) [30] 1 "चउभंगो' इति J0 प्रतिप्रेसकोप्याम् / २“ढाणाइ" इति L. D. प्रतौ। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ओघतो गोत्र-वेदनीया-ऽऽयुर्मोहनीयोत्तरप्रकृतीनां बन्धोदयसत्तास्थानानि [. मिच्छं कसायसोलस, भय कुच्छा तिण्ह वेयमन्नयरं / हास-रइ इयरजुयलं च बंधपयडी य बावीसं // 22 // (35) [31] इगवीसा 'मिच्छविणा, नपुवंधविणा उ सासणे बंधे / अणरहिया सत्तरस न वंधि थिई "तुरिअठाणम्मि / 23 / / (36) [32] बियसंपरायऊणा, तेरस तह तइयऊण नव बंधे / भय-कुच्छ-जुगलचाए, पण पंधे बायरे ठाणे // 24 / / (37) [33] तह पुरिस-कोह-ऽहंकार- माय-लोभस्स बंधवोच्छेए / चउ-ति-दुग-एगबंधे, कमेण मोहस्स दस ठाणा // 25 // (38) [34] ठवणा-२२, 21, 17, 13, 9, 5, 4, 3, 2, 1 ॥एवं बंधे 10 // मोहनीयस्योत्तरप्रकृतीनामुदयस्थानानि नवएगं च दो य चउरो, एत्तो एगाहिया दसुक्कोसा / ओहेण मोहणिज्जे, उदयहाणाणि नव होति ॥सू०-११॥ (36) [35] एगयरसंपरायं, . वेयजुयं दोण्णि जुयलजुयचउरो / पच्चक्खाणेगयरे, छूढ़े पंचेव पयडीओ // 26 // (40) [36] छ बिडय 4 एगयरेणं, छूढ़े सत्त य दुगुछि भय अह / अणि नव मिच्छे दसगं, सामन्नेणं तु नव उदया // 27 // (41) [37] ठवणा-१, 2, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10 / मोहनीयस्योत्तरप्रकृतीनां सत्तास्थानानि पञ्चदश. अट्ठग-सत्तग-छ-उचउ-तिग दुग एगाहिया भवे वोसा। तेरस''पारेक्कारस, एत्तो पंचाइएकूणा ।।मु०-१२॥ (42) [38] 1 "मिच्छणा" इति L. D. प्रतौ। "मिच्छोणा" इति वा पाठः / 2 अत्र पु-स्त्रीवेदयोरन्यतरस्य बन्धः प्रक्षिप्यते / 3 “सत्तरसं न बंधि थिई" इति L. D. प्रतौ / अत्र केवलं पुवेदो बध्यते / 4 उपलक्षणात्तृतीयगुणस्थानके-ऽपि / 5 "माया०” इति वा / 6 “हुंति" इत्यपि। 7 वेदत्रिकादन्यतरवेदयुतम् // 8 "दस” इति तु J0 प्रतिप्रेसकोप्याम् / तेनोदयपदेन नवापेक्षयोदयस्थानानि, दशापेक्षया तूदयप्रकृ. तय इति सम्माव्यते / 6 अत्राचायश्रीमलयगिरिपादाः सप्ततिकाटीकायामित्थं क्रमभेदेन व्याख्यानयन्ति 'तत्र तत्र चतुर्णा संज्वलनानामन्यतमस्योदये एकमुदयस्थानम् , तदेव वेदत्रयान्यतमवेदोदयप्रक्षेपे द्विकम् , तत्रापि हास्यरतिरूपयुगलप्रक्षेपे चतुष्कम् , तत्रैव भयप्रक्षेपात् पञ्चकम् , जुगुप्साप्रक्षेपात् षट्कम् , तत्रैव चतुर्णा प्रत्याख्यानावरणकषायाणामन्यतमस्य प्रक्षेपे सप्तकम् , तत्रैव चाऽप्रत्याख्यानावरणकषायाणामन्यतमस्य प्रक्षेपेऽष्टकम् / तत्रैव चतुर्णामनन्तानुबन्धिकषायाणामन्यतमस्य प्रक्षेपे नवकम् , तत्रैव मिथ्यात्वप्रक्षेपे दशकम् // " ( कर्मग्रन्थ द्वितीयविभागपत्र 162) 10 "अट्टयसत्तय” इति / 11 "बारिकारस" इति L. D. प्रतौ। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकामिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे संतस्स पयरिठाणाणि ताणि मोहस्स होति पन्नरस / बंधोदयसंते पुण, भंगविगप्पे बहू जाण ॥सू०-१३॥ (43) [39] नव नोकसाय सोलस, कसाय दंसणतिगं ति अडवीसा / सम्मत्तुव्वलणेणं, मिच्छे मीसे य सगवीसा // 28 // (44) [40] छव्वीसा पुण दुविहा, मीसुव्वलणे अणाइमिच्छत्ते / सम्म दिट्टऽडवीसा, अण 4 क्लए होइ चउवीसा / 26 // (45) [41] मिच्छे मीसे सम्मे 3, खीणे ति-दुवीस एक्कवीसा य / अट्ठकसाए तेरस, नपुक्खए होइ बारसगं // 30 // (46) [42] थोवेयि खीणिगारस, हासाई 6 पंच चउ पुरिसखीणे / कोहे माणे माया, लोभे खीणे य कमसो उ // 31 // (47) [43] "तिग दुग एग असंतं, मोहे पन्नरस संतठाणाणि / बंधोदयसंवेहे भंगविगप्पे बहू जाण // 32 // (48) [4] ठवणा-२८, 27 26, 24 23, 22. 21 13. 12, 11, 5, 4 32,11 "बंधंसुदए पडुच्चा, जइवि पुणो मोहविवरणं वुत्तं / . तह वि य सुहगुणणत्थं सुहसुमरणहेउ एगत्थ / / 33 / / (46) [45] मोहनीयस्य बन्धथानानां मङ्ग:छब्यावीसे चउ इगवीसे सत्तरसतेरसे दो दो / नवबंधए 'उदोन्नि उ, एक्केक्कमओ परं भंगा|सू.-१४।। (50) [46] वेयजुयलेहि चरिया, भंगा छच्चेव चउर नपुऊणा / / जुयहि चउसु दो दो, सेसा एक्कक्क संभविया // 34|| (51)' [47] | 2 | 3 | 4 5 6 7 8 | अनिवृत्ति ठाणाणि मि. सा. मिश्र. अवि. देश. | प्र० | अप्र. अपू० 1 2 3 4 5 बंधट्टाणाणि 2 | 21 | 7 | 17 | 13 | EET321 | भंगा | 6 | 4 | 2 | 2 | 2 | 2|| 1 ||4|1|11 ठवणा 'हन्ति" इति / २०"हिट्रिडवी०'इति प्रती / 3 “थीवेयखीणिगान्स" इत्यपि। 4 "तिगदुगएगअसंत" इति वा, तिग दुग य संत" इति L. D. प्रतौ / 5 "बंधंसगुणं पडु" इति प्रतौ / “बंधु दयगुण" इति L. D प्रौ। ६"वि दुण्णि" इति / 7 "मकारस्त्वलाक्षणिकः” इति सप्तनिकाटीकायाम् / Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयस्य सत्ताग्थानानि, बन्धस्थानभङ्गाः, बन्धस्थानेषूदयस्थ न नि, उदयस्थानभङ्गाश्च [ / मिच्छाइ पमत्ता जुयलगया वेयभंग उठेति / वुच्छिन्न अरइसोगा पमत्ति उवरिं तु एगेगो // (52) __'एवं गुणट्ठाणगेसु बंधभंगा / 25 / इयाणिं उदयठाणागं उदयगविवरणमाह मोहनीयस्य बन्धस्थानेषूदयस्थानानिदस बावीसे नव इगवीसे सत्ताइउदयठाणाणि / छाई नव सत्तरसे तेरे पंचाइ अठेव |सूत्र-१५॥ (53) [48] चत्तारि आइ नवपंधएसु उक्कोस सत्त उदयंसा / .. पंचविहर्षधए पुण, उदओ दोण्हं मुणेयव्वो।सूत्रम्-१६॥ (54) [46] एत्तो चउबंधाई, एककुदया हवंति सव्वे वि / पंधोवरमे वि तहा,उदयाभावे वि वा होज्जा // 0-17|| (55) [50] ठवणा मिच्छ-तिकसाय वेयं, जुयलन्नयरेण 2 सत्तगं तत्थ / वेयतिग-चउकसाए, जुयलम्नयरेण चउवीसा // 35 // (56) [1] वेएसु चउकसाया, कोहाइकमेण उदयओ होति / एक्केक्कम्मि चउचउरो, तिग-चउगुणिया उ बारसगं // 36 // (57) [52] ते हास-रईउदए, अरई-सोगपरियत्तउदए वा / दो मिलिया चउवीसं, 'उदयगया मोहणीयस्स ||37 / / (58) [53] ... एवं सव्वत्थ चउवीसिया चारणा / सत्तोदयम्मि एगा, अण-भय-कुच्छाण एगयरखेवे / अठ्दो तिन्नि तहिं, दुगसंजोगम्मि तह नवए // 38 // (56) [54] तिगपक्खेव दसेगा, चउसु वि उदएसु अट्ठ चउवीसा (मिच्छे)। सासणमीसे तिगतिग भयकुच्छदुगेहि चउचउरो // 39 // [55] तिगपक्खेव दसेगा चउसु वि उदएसु अट्ठचउघीसा / मिच्छम्मि गुणट्ठाणे सेसगुणाणं च एस कमो // (60) तिगतिग उदयट्ठाणा सासणमिस्से य सत्तअडनवगं / 1 अयं पाठ: J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति, L. D. प्रतौ चास्ति / 2 "उदयकम्मंसा" इति / / 3 "उदयविगमा य मोहस्स / / 58 // " इति L D प्रतौ / Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे / एगद्गएगकमसो चउरो चउरो च पत्ते // (61) छलउदयम्मी एगा भय-कुच्छा-सम्मखेवएगयरे / सत्तोदयम्मि तिन्नि उ, दुग-तिगपक्खेव मिच्छसमा // 40 // (62) [56] पत्तेय अट्ठ अट्ठ उ अविरय-देसे पमत्त-अपमत्ते / अप्पुव्वे पुण चउरो, सव्वे बावन्नमिच्छाई // 41 // (63) [57] चोयगो आहअणउदयरहियमिच्छो कम्मि जिए कित्तियं च से कालं / आह-तदुवलगसम्मदिहिस्स मिच्छुदयआवलियकालं // 42 // (64) [58] चउवीससंतकम्मी, मिच्छत्तगओ अणंतिणो बंधे / मुत्सु अबाहाकालं तदु उवरि निक्खिवे दलियं // 43 // (65) [56] .' कहणंतवंधिउदओ आवलियाउवरि बुच्चए एवं / सव्वं पडिग्गहते अन्नकसायाण संकमणे // 44 // (66) [60] जं पढमसमयदलियं, संकेतं तं च आवलियउवरिं / उदयंसे आगच्छइ, तम्मी से अट्ठ उदओ उ ॥४शा : (67) अन्नं च तम्मि समए, उदीरणोवट्टणागयं दलियं' / उदयम्मि खिवइ जीवो, अणंतिणो तेण आवलिआ // 46 // (68) [62] तं चेव सत्तगं भय-दुगुच्छ अणसहिय अट्ठनवदसगं / / इत्थं चउवीसा होति तिन्नि तन्नेग जहसंखं // 47 // [13] चउवीसा पुन्वकमा कमेण उदएण जहसंखं // (69) पुव्वुत्तसत्तगा मिच्छफेडणे खेवणे यऽणंताणं / सत्त य सासाणे तह-ऽड नव य भयकुच्छपवखेवे // 48 // (70) [64] वेयतिकसायमीसं, जुयलन्नयरेण सत्त मीसम्मि / भयकुच्छाणन्नयरे, एगदुगेणं च अट्ट नव // 49 // (1) [65] तिगसंपराय 3 वेयं 1 जुयलनयरेण छच्च पयडीओ / भयकुच्छसम्मखेवे अविरयसत्तऽद्ध नव होति // 50 // (72) [66] अजउदयठाणचउरो (व्व) देसविरए य सव्वविरए य। नवरं कसायहाणी एक्केक्कं जाण जहरखं // 51 // (73) [67] . 1 "हुति" इति L. D. प्रतौ 2 "अजउदयट्ठाणा तह चउरो देसे य” इति L. D. प्रतौ। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयस्योदयस्थानमङ्गाः इगसंपरायवेयं जुयलन्नयरेण चउरउदओ उ / अप्पुव्वे भयकुच्छा एगदुगेणं च पण छक्क // 52 // (74) / इगवेयइगकसाए उदओ 'दोण्हं तु बायरकसाए / एक्कुदयवेयखीणे बायरसुहुमाण 'दोण्हं पि // 53 // (75) [69] "उदया इच्चाइ पए भणिया उवसंति तिन्नि संताओ / अडचउवीसउवसमे इगवीसं खंडसेटीए // 54 // (76) [70] बावन्नं 52 चउवीसा गुणठाण पडुच्च इत्थ उट्ठविया / बंधुदए पुण चत्ता 40 सामन्न पडुच्च उठेंते // (77) मोहनीयस्योदयस्थानानां भङ्गाःएक्कगछक्केकारस दस सत्तचउक्कइक्कगं चेव / एए चउवीसगया पारदुगिकम्मि एकारा ॥सू०-१८।। (81) [71] एईए विवरणं जंतगाहाओएगो "दसोदओ नवुदयचउर तह अड पंच सग छक्कं / छत्तिग पण दुग चउ एग हुन्ति उदएसु ठाणाई / / 5 / / (82) [72] दसगम्मि एग तिग पढमनवगि सेसेसु नवसु 3 एगेगं / पढमे अट्ठगि तिन्नि उ दुग दुग तिग एग चउवीसा // 56 // (83) [73] तिसु सत्तगेसु एगेग तिनी तिनि उ छटए एगा / "सव्वुदए चउवीसा, तह एग तिगं तिगं छदुगे // 57 // (84) [74] पणउदइ एग 1 बीयम्मि, तिन्नि चउरोदयम्मि एगा उ / बार दुगोदयभंगा एकोदय होंति एक्कारा // 8 // (85) [75] गुणठाणा मि.मि सा.मी.अवि. मि.सा मी.अवि. दे. मि-सा मी.अवि. दे.. सं. | उदयठाणा 106 TEE |8 8 8 8 87 7 7 7 7 . चउवीसिया 1 3 | 1 | 1| 1 |3|22| 3 || 1 | 1 | 1 | 3 |3| 1 ठवणा 1-2 "दुन्ह" इति L. D. प्रतौ / अयं पाठः J. प्रतिप्रेसकोप्यामस्ति, 3 "उदयाभावे वि वाहिजिते-"इइ सुत्ताओ मणिया उबसंते तिन्नि चेव संताओ” इति L.D. प्रतौ। 4 "दसोदउ नवोदय” इति वा। 5 "सव्वुदए ......छतिगे // इति J. प्रतिप्रेसकोप्याम् / “सत्तुदए" इत्यपि वा L. D. प्रतौ माति / तथा J. प्रतावपि स्यात् / Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] सप्ततिका मधे षष्ठे कर्मग्रन्थे दे hd अवि. दे. सं. दे. सं. सं. दुगोदए भंगा 12 | 6 | 66 554 एक्कोदए भंगा 11 1 3 3 1 3 1 एवं चउवीसा ४०+भंगा 23 इय मोहरायसेन्ने चालीसकुडंब ४०वग्ग किल भिचा / वग्गे वग्गे य तहा चउवीसकुडुबिया अस्थि // 59 // (78) [76] तेहि य जगडिज्जतं सव्वजगं कलकलेइ अणवरयं / 'मोत्तुमपमत्तसिद्धा इय एवं मोहिया जीवा // 60 // (76) [77] 'उदयपया य कुडुबी माणुससंखा य इत्थ किल विंदा / सूरा य पयइभेया इयरि असंखा मुणेयव्वा // 6 // (80) [78] गुणठाणा मिच्छ सासण० मिस्स० अविरय० | देस० बंधठाणा / 22 / 21 / 17 उदयठाणा उदयठाणा 8 6 2 . | Maalee चठवीसिया / 3 3 || 1 |20||2| 1 ||3|3|| चवीसिया 3 चउवीसियमंखा प्रमत्तः / अपमत्तः / अपुव्व० अनिवृत्तिः सू. उप० उदयपए पयविंदसंखामाह 1 "मुत्त अ०" इति L. D. प्रतौ। 2 "उदयपयपयकुडुबी" इति L. D. प्रतौ / 3 L. D. प्रतावयं पाठः, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 53 [2] मोहनीयस्योदयस्थानमङ्गाः नवतेसीयसएहिं उदयविगप्पेहि मोहिया जीवा / उणहत्तरिसीयालापयविंदसएहिँ विन्नेया।सू०-१६।। (86) [76] चत्ता चउवीसाणं चउवीसगुणा य 'होति नवसट्ठा / तेवीसभंग मिलिया तेसीया नवसया होति // 62 // (87) [80] वेयतियचउकसाए अन्नयरुदएण भंगबारसगं / पणबंधे दुगउदओ चउबंधाई उ एक्कुदया // 63 / / (88) [1] चउबंधे चउभंगा तिगभंगाईण भंगया छक्कं / उवरयवंधे एगो एक्कुदएक्कारभंगाओ // 64 / / जे बंधइ ते वेयइ बंधे य पडुच्च इय दसगं // 8) पयाणं संखा वुत्ता। इयाणिं पयविंदाणं संखा कहिज्जइउवरयवंधे एगो तुरियकसायस्स सुहुमकिट्ठदए / संखा विवक्खिया इह एक्कुदएकारभंगाओ // (90) जत्थुदए चउवीसा जत्तियसंखा स एव गुणकारो / चउराइदसंतुदया. गुणिनियचउवीससंखाए // 65 // (61) [83] दस१०चउपन्न५४ट्ठासी८८सत्तरि७०बायाल४२वीस२०चउ४संखा / दुगउदयम्मी एगा एक्कुदइक्कारभंगाओ // 66 // (92) [84] चउवीसगुणा काउं पत्तेयं तेसि होइ इय संखा / चालीसा दोन्नि सया२४०बारस छन्नउय 1266 तह अन्ने / / 67||63) [85] बारहिया इगवीसं२११२सोलस आसी य१६८७°सहस अट्ठहियो१००८ चउअसिया ४८०छन्नवई९६चउवी सि२४कार११भंगा // 68 // (64) [6] एवं सव्वविसुद्धेण 6647 / "उणहत्तरि छत्तीसा, एकारसभंग मिलिय सीयाला / अन्ने उ चउरवंधे दुगोदयं यिंति किल किंचि // 66 // (65) [87] 'नवपंचाणुसएहिं उदयविगप्पेहिँ मोहिया जीवा / अउणत्तरि एगुत्तरि पयविंदसएहि विन्नेया ।।सूत्रम्-२०॥ (66) [8] पुवेयबंधवोच्छेय आवली एक्क दोण्ह उदओ उ / 1.2 'हुंति" इति L. D. प्रतौ / 3 “दुन्नि" इति L D. प्रतौ / ४"दस य अट्टहिया 1008 / इति J. प्रतिप्रेसकोप्याम् / 5 'उणहत्तरि सीयाला पयविंदाणं तु हुन्ति मोहस्स" इति L D. प्रतौ / 6 "नवपंचाणज्यसएहुदय "इत्यपि / Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे / तेसि मए पयबारसविंदा चउवीस 'तई अहिया 1.71 // (17) [89] मोहनीयस्य बन्धस्थानेषु सत्तास्थानानितिन्नेव उ बावीसे इगवीसे अट्ठवीससत्तरसे / छच्चेव तेरनवबंधएसु पचेव ठाणाणि ॥सूत्रम्-२१।। (8) [60] 2 संतढाणा संखा बंधे बंधे पडुच्च इह भणिया / तह वि य सुहगुणणत्थं गुणउदय पडुच्च संवेहो // 72 // (99) [1] बंधगुणठाणगेसु उदयट्ठाणाउ 'सुत्तभणियमवि / पुणरवि सुमरणहेडं, तह 'उदए संतसंखाओ // 73 // (100) [12] चउठाणा मिच्छत्ते सासणमिस्से य तिगतिगं जाण / अजयाइ अप्पमत्तं चउचउठाणा उ उदयाणं // 74 / / (101) [3] सत्तोदय अडबीसा सेसेसुदएसु तिगतिगं जाण / अडसत्तछक्कमहिया वीसा. बावीसबंधम्मि // 7 // (102) [4] इगवीसे अडवीसा एक्का सत्ताइतिसु वि पत्तेयं / मीसम्मि संतठाणा अडसगचउअहियवीसाउ // 76 / / मीसम्मि संतठाणा तिगतिग उदएसु पत्तेयं // (103) अडवीसा सगवीसा सम्मुव्वलणे य मीसउदयम्मि / चउवीससंतठाणं सेढिं उवरिं पडतस्स // (184) अजओदयम्मि पढमे अडचउइगअहियवीस 28, 24, २१,ठाणाई। बीए तइए ते च्चिय तिवीसबावीसंजुत्ता 28,24,23,22.21 / / 77 // (105) [16] इगवीस वज तुरिए २८,२४,२३,२२जेणं सोवेयगस्स उदओ उ / ' एवं देस-पमत्ता-ऽपमत्तयाणं च दट्ठव्वं // 7 // [7] हगवीसवज्जतुरिए२८,२४,२३,२२ चउरो ठाणा उ तत्थ संतम्मि। सो वेयगदिट्ठीणं इगवीसा खवगदिट्ठीणं // (106) तिगपणपणचउसंता सव्वे सत्तरसठाणसंखाए / एवं देसपमत्तापमत्तयाणं च दद्वयं // (107) देसविरओ य दुविहो तिरिमणसामन्नपंचठाणाई / अडवीसा, चउवीसा तिरियाणं देसविरयाणं / / 7 / / (108) [98] इगवीसा बावीसा तिरियाणं भोगभूमि संभवइ / 1. "इत्थहिया" इति L. D. प्रतौ / 2 "संतसठाणसंखा" इति L. D. प्रतौ / 3 “सुन्तमणियमविण इति, J. प्रतिप्रेसकोप्याम् / 4 "उदया" इति J. प्रतिप्रेसकोप्याम् / Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयस्य बन्धस्थानेषु सत्तास्थानानि गुणस्थानानि प्रतीत्य बन्धोदयसत्तासंवेधश्च [15 * 'जत्थ न विरईभावो ते वि य मणुखवगआयाआ / / 80(509) [99] अडचउइगेण अहिया वीसा अप्पुचि तिसु य पत्तेयं / उदएसु सत्ताओ, बायररागे अओ वोच्छं // 8 // (110) [100 पंचविहचउविहेसु छछक्कसेसेसु जाण पंचेव / पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि य पंधवोच्छेए सूत्रम्-२२।। (111) [101. पणगाइ५,४,३,२.१एगु संते तह य अबंधम्मि तिन्नि पत्तेयं / चउरट्ठइक्कवीसा 24,28, २१,उवसमसेटिं पडुच्चेए / .82 / (112) [102] इगवीसा खवगम्मि वि पणगे बंधम्मि किंचि कालमिह / मज्झिलट्ठकसाएक्खय तेरस १३नपुमि बारसगं 12 // 83 / / (113) [103] थीवेयखीणिगारस पणगे किंची चउक्कवंधेवि / हासाइखीणि पणगं चउरो पुरिसम्मि चउबंधे // 84 // (114) [104] तियबन्धे वि य संता संजलणचउक्क आवलिदुगूणा / कोहे खयम्मि तिन्नि उ ते चेव दुगम्मि खणमित्तं / / 85 / / (115) [105] माणे खयम्मि तिन्नि उ तत्थेव दुगम्मि जाव अंतमुहू / ते चेव एक्कबंधे जाव न खीणा तिजयमाया // 86 / / (196) [106] मायाए खीणाए लोभो बंधम्मि लोभसंता य / / अब्बंधम्मि वि लोभो सव्वे तियजुत्तठाणाइं // 87 // (117) (107] सत्ताठाण गुणट्ठाण | मिच्छद्दिटि.| सासण बन्धट्ठाण 22 / 21 / 17 / 17 / 13 उदयट्ठाण मिस्सा अविरय० सविरय० 17 [vl | >> | " | " | " / सत्ताठाणाणि . 23 / / सव्वाणि 10 / 3 1 "तत्थ" इति L. D. प्रतौ / 2 "चउअट्ठएकक" इतिL. D प्रतौ। 3 “लोभे” इति L. D. प्रतौ। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] सप्ततिकामिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे / सत्ताठाण गुणटुण पमत्तः अपमत्त | अपुव्व। अनियति अनियट्टि० सु उ० 8 | बंधटाण. 0 उदयट्ठाण 24 सत्ताट्ठाणाणि सव्वाणि | 17 / 17 / / | 2743 132 गुणठाणगउदएसु संतढाणाण संख इय वुत्ता / ' गुणठाणगपत्तेयं, 'सव्वसंखा य इय भणिमो // 8 // (118) [108) दसतिगनवमिच्छाइसु, अजयाई पंचगम्मि सगसयरी / छच्छक्क पणचउक्कम्मि पणपण सेसेसु चउतिग अबंधे / / 89 // (16) [106] 'मोहे संवेहभणणा तेत्तीससयं तु संतठाणाणं / गुणठाणगे पडुच्चा बंधे पुग अढनउई . य // 90 // (120) [110] दसतिगवीसा सत्तरस दुसु य पत्तेय संतठाणाई / सगवीस पंचगाई चउर अबंधम्मि य ठाणाइं // 91 / / (121) [11.1) सगवीस मीसगम्मी सेसा सामन्न चउसु उदएसु / इय अजयमीसगाणं वीसं सत्तरसबंधम्मि // 92 / / (12) [112) दसनवपन्नरसाई पंधोदयसंतपयडिठाणाणि / भणियाणि मोहणिज्जेएसोनामं परं वोच्छं // 2023 / / (123) [113]. 1 "स०संखं” इति L. D. प्रतौ / 2 "मोहसंवे” इति उ. प्रतिप्रेसकोप्याम् / 3 : नवई // 120 // " इति L. D. प्रतौ। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयस्य गुणस्थानकान्याश्रित्य बन्धोदयसत्तास्थानानि नाम्नो बन्धस्थानानि [17 दसनवपण्णरसाई इच्चाई विवरियं समासेण / 'इत्तो य नामबंधा तेवीसाईणि विवरेमि // 92 // (124) [114) नाम्न उत्तरप्रकृतीनां बन्धस्थानानि / तेवीसपण्णवीसा छव्वीसा अट्ठवीसगुणतीसा / तोसेगतीसमेगं बंध हाणाइँ नामस्स ॥सू०-||२४॥ (125) [115] ठवणा-२३, 25 26, 28, 29, 30, 31, 1, वन्नरस १गंध१फासा१ तेयगकम्मइग१अगुरु१उवघायं / / निम्मेण?-नाम-धुवयाह सेसा अडवन्नअधुवाओ // 93 / / (12) [116] गइ 4 अणुपुव्वीचउ 2 छ उ संघयणागीतसाइवीसं२०च / जाइ५सरीरं३ गतिगं३ परघाचउ४ तित्थ विहगदुगं (127) अडवन्न अधुवाओतग्गयणुपुग्विजाई थावरमाई उ. दूसरविहूणा / धुवध९ हुंडउरलं तेवीसअपजथावरए // 94 // (128) [117] सासपरघायखेवे. पणवीसा सुहुमबायराणं तु / छब्बीस : आयवेणं उज्जोअपरित्ति बंधतिगं // 9 // [118] अपजत्तं अवणित्ता पज्जत्तगखेव पज्जपाओगा / / सासपरघायखेवे सो बंधो पज्जपाओगो // 9 // [119] अपजत्तं अवणित्ता पजत्तगखेव सा उ तेवीसा / सासपरधायखेवे पणवीसा होइ पगईणं // (129) पुढवाइबायराणं पजाणं सुहमबायराणं तु / छव्वीस आयवेणं अहवा उज्जोयपरियत्तो // (130) "बायरएगिरिपाउग्गा एसा // बंधतिगं थावराणेयं // 'सेसा बंधा य इय नेया / गइजाइछेयपुव्वी धुववधा हुडउरलदुगथूलं / दूसररहिया अथिराइ 5 तसअपज्जत्तपत्तेयं // 97 // (131) [120] बीया पणवीसेसा तसपाउग्गा तहा य सरसासे / विहगपरघायखेवे उणतीसा तीस उज्जोएं // 98 // (132) [121] 1 "एत्तो य" इति L. D. प्रतौ। 2 "ठाणाणि” इति वा / 3-4 "अयं पाठः L. D. प्रतावरित .. प्रतिप्रेसकोप्या नास्ति / 5 "अयं पाठः L.D. प्रतौ नास्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्या चास्ति / Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] सप्ततिकामिध षष्ठे कर्मग्रन्थे पणवीस अपज्जाणं उणतीसा तीस पज्जपाओगा / वितिचउरिदियपंचिंदियाण तिरियाण बंधे उ // 96 / / (133). [122] पणवीसा गुणतीसा तिरियसमा तीस तित्थसंजुत्ता / बंधतिगं मणुजोगं नेरइयअसुद्धअडवीसा // 100 / (134) [123] सा चेयंनरयदुगं 2 परघायं 1 सासं१दुहखगइ१सयल १हुंडं च१ / / धुवबंधि हतमचउक्कं 2 वेउव्विदुगं 2 च अथिराई 6 // 101 // (135) [124] देवदुगं २परघायं 1 सासं 1 सुभखगइ१सयल१चतुरंसं 1 / धुवबंधीहतसदसगं१०वेउव्विदुगंश्च अडवीसा / 102 / / (136) [125] सा तित्थे उणतीसा ऽऽहारदुगे तीस तिसु य इगतीसा / चउठाणा देवाणं सेटिदुगे एग जसकित्ती // 103 // (137) [126] बउ पणवीसा सोलस नववाणउईसया 'उ अध्याला। ईयालोत्तर छायालसया एक्केक्क बंधविही ॥सू०-२५।।(१३८) [127]: टवणा- | बंधठाणा | 23 25 26 28 | 26 | 30 | 31 | 1 | | भंगा 4 25 26 / 62484641, 1 | बायरपत्तेगियरे भंगा चत्तारि बंधतेवीसे / , पणवीसे पणवीसा छन्वीसे भंगसोलसगं / / 104 // [128] | बाबा. सु. सु. ठवणा T एस गमो सव्वेसि भंगाणं चारणे होइ // (136) बायर-थिर-पत्तेया सुभ-जस-पडिवक्खभंगबत्तीसा / साहार-सुहमि जसवज्ज वीस बारस असंभविया // 105 / / (140) [126] 1 य” इति वा / 2 "इयलीसोत्तर” इति L. D. प्रतौ / 3 इदं यन्त्र L. D. प्रतावस्ति / Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम्नो बन्धस्थानभङ्गाः [1 // बादर चादर वा दर वादर बादर बावर बादर वादर बादर बादर बादर बावर बादर बादर बादर बाद पत्तेभ. पत्तेअ. पत्तेअ. पत्तेभ. पत्तम. पत्तेअ पत्तेभः पत्तेभ साधा-साधा साधा.साधा साधा साधा, सा. सा. थिर थिर थिर थिर अथिर अथिर अथिर अथिर थिर थिर थिर थिर भथिर अथिर अथिर मथिर सुम | सुम असुभ असुभ सुभ | सुभ असुभ असुभ सुभ सुभ असुभ असुभ| सुभ | सुभ असुभ असुभ जस अजस जस अजस जस अजस जस अजस जस अजस जस अजस जस अजस जस अजस सुहम सुहम सुहम सुहम सुहम सुहम सुहम सुहम सुहम सुहम सुहम सुहम सुहम सुहम सुहम सुहम पत्ते. पत्ते. पत्ते- पत्ते. पत्ते. पत्ते | पत्ते. पत्ते. सा. सा. सा. सा. सा. बा. सा. साः थिर थिर थिर थिर अथिर अथिराअथिर अथिर थिर थिर | पिर थिर अधिर भथिर अथिर अथिर सुन सुभ असुभ असुभ सुभ सुभ असुभ असुभ सुभ |सुम असुभ असुभ सुम सुम असुभ असुभ जस अजस जस अजस जस अजसा जस अजस जस अजस| जम अजस जस अजस जस मजस . - 'साहारणस्स वा सुहमस्स वा दोण्हं वा जसेण सह बंधो न भवइ। असमत्तमणुय [तह] बितिचउपणिदितिरियाण बंधि पणवीसे / असुहपयडीण जेणं न तेसि परियत्ति एक्केको // (141) असमत्तमणुयनितिचउपणिदितिरि पण्णवीसि तह पंच / असुभपयडीण जेणं न तेसि परियत्ति संभवइ // 106 // [130] उज्जोय-आयवेणं थिरसुभजससेयरेहि सोलसगं / उज्जोवेणं अट्ठ उ आयवपरियत्ति अट्ठेव // 107 / / (142) [131] : 1 अयं पाठ: L. D. प्रतावस्ति / Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] सप्ततिकामिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे ठवणा | थिर थिर | थिर थिर अथिर (अथिर अथिग अथिर | सुम सुम असुमा असुभा सुभ, सुभ असुभ/असुभ | जस अजस जस अजस जस अजस जस अजस एसा वि ठावणा इह बायरएगिदिविगलदेवाणं / तह तीसे मणुजोगे पत्तेयं जस्स संभविया // 108 / / (143) [132] थिरसुभजसइयरेहिं बितिचउरिंदीण अट्ठ पत्तेयं / उणतीसतीसबंधे अडवीसे अट्ठ देवाणं // 109 // (144) [133] | बंधठा० - 25 28 29 30 | बेई० 1 'ठवणा तेइं० . चउ० - 1 || देव० ठवणा तीसा य मणुयजोगा उणतीसा तीस एगतीसा य / , देवाण अट्ठ अह य एक्केक्को भंगमेएसु // 110 // (145) [134] | जोग्गः | मणुः देव० / बंधो 30 | 29 | 30 | 31 भंगा थिरछक्कं - सुभखगई सप्पडिवखेहि चारिया संता / .. . गुणिया संघयणा-ऽऽगीहि भंगया सयलतिरियाणं // 111 // (146) [135] . 1 इदं यन्त्र L. D. प्रतावस्ति / 2 “संघयण तहागिईहि (भंगया] (भंगा य) सयलतिरियाणं / / 146 // " ति L. D. प्रतौ। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम्नो बन्धस्थानमगाः . [ 21 / / चत्तारि सहस्सा छस्सयाउ अठुत्तराउः -गुणतीसे / एवं उज्जोयतीसे मणुए 'उणतीसि ते चेव // 112 // (147) [136] | थिर| सुमसुभग | सुसर आइज़ | जस | सुभख० संघ० संठा. बंधठा० 25 26 / 30 | ऽथिर सुभ दुभग दूसर भगाइजाऽजस ऽसुभख० 168/768| तिरि० 1 46084608 | 2/4 - 16 32 / 64 | 128 / 7684608 मणु० | 1 4608 | नारय अडवीसेगो एगो कित्तीए सेणिमासज्ज / तेरससहस्सनवसयपणयाला सव्वपयडीणं // 113 / / (148) [137] तेवीसाइं . ठाणा सवियप्पा अट्ट विवरिया वंधे / .... एत्तो य सव्वजियवंधठाण. पत्तेय भंगजंतइयं // (149) ठवणा नामबंधठाणा 23 | 25 / 26 28 29 30 31 | 1 सव्वसंखा | बंधठाणभंगा | 4 | 25 | 16 ||62484641 1 | 1 | 13645 एगिदिय•| 4 | 20 | 16 0 . . . . . . 40 विगलिंदिय . | 3 | . . 24 | 24 . ..: 51 पं०निरिय० / 0. | 1 | * * 46084608 * 01 1210 मणुयपाउ• | 1 | * * 46088 नरयपाउ० | 0 0 0 | 1 | . . . . देवपाउग्ग० * * * - 8 | 1 | 1|| 18 मपाउग्ग० * * * * * * * || 1 | एत्तो य उदयठाणा सव्वजियाणं च हुँति सामन्नं / . ते बारस. वीसाई जाव य अठेव . पिज्जंता // (150) ____ नाम्न उदयस्थानानि१ "उणतीसे" इति L. D, प्रतौ / 2 “सव्वपिंडेणं // 14 // " इति L. D. प्रतौ / 3 इदं यन्त्र L D.. 4617 मपाउग्ग० प्रतावस्ति। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे वीसिगवीसाच उदोसगाइ इगतीसगत्ति एगहिया / उदयट्ठाणाणि भवे नव अट्ठय हुंति नामस्सासू.-२६॥ (151) [138] तेवीसाई ठाणा सविगप्पा अट्ठ विवरिया बंधे / तह बारस उदयंगया वीसाई अट्ठ पज्जंता // 114 // [13] ठवणा- 20 / 21 / 24 / 25 // 26 / 27 / 28 / 29 / 30 / 31 / / 8 / / उदएसु जे सामी कित्तय उदया उ कस्स पत्तेयं / भंगा वि य पत्तेयं तेसिं संखाइयं भणिमो // 115(152) [140] निम्मेणथिराऽथिरश्तेयश्कम्मश्वनाइ४अगुरुरसुह१मसुहं / नामधुवोदय बारस 12 सेसा अधुवा उ पणपन्नं // 116 / / (153) [141] तसस्थावराइ४चउ चउ, तह सुभगाठदुभग आगिसंघयणाद।। गइ अणुपुव्वी४ य तहा, परघाचउ४ तित्थ१ उवघायं१ (154) जाइश्सरीरोश्वंगा३ विहदुगर सव्वा वि पंचवन्नाओ 55 / .. बारुदयठाणनामे पत्तेयं पयडि विवरेमिः // (155) तसतिग-सुभगा-ऽऽइज्जा मणुगइ-सगल-जसकित्ति तह धुवया। , वीसा उ समुग्याए "सेसा उ कमेण पक्खेवा // 117 / / (156) [142] ओरालियदुगरेमुसमं 1 पसेउवधाय१इयरसंठाणं 6 / छच्चीस सजोगिकेवलि ओरालियमीसि समुघाए // 118 // 1143] ओरालियदुगरसभं 1 पत्तेयुश्वघाय१इयरसंठाणा 6 / वि य छक्क सत्तसमए छूढे छव्वीस समुघाए // (157) परघाय-सास-विहदुग-सरदुग-एगयरखेवि तीसुदओ / सामनकेवलि 'तिगं नित्थयरे तित्थसंजुत्ता // 11 // (158) [144] सामन्नकेवलिउदया-२०, 26, 28, 29, 30, 8 // तित्थयरउदया-२१, 27, 29, 30, 31, // सहनिरोहे तीसा उणतीसा सासरोहि तित्थयरे / 1 "उ एगाहिया य इगतीसा" इति वा पाठः।२ "होति" इति L. D. प्रतौ। 3 "संखा य इय" इति L. D. प्रतौ। 4 "धुवउदया' इति L. D. प्रतौ। 5 "तइए चउपंचमे समए॥१५६।।" इति L. D. प्रतौ / ६"दुग" इति J. प्रतिप्रेसकोप्यामस्ति / किन्तु स सम्यग न प्रतिभाति / Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम्न उदयस्थानानि [ 23 उणतीसट्ठावीसा केवलि तह मयंतरेण इमं // 120 // [145] तह सव्वरोहि नवगं छट्ठाणा हुन्ति उदएसु // (159) उणतीसट्ठावीसा केवलि तह सव्वरोहिं अडपयडी / अन्ने उ अट्ठ उदया मयंतरेणं तु उदएसु // (160) 'सर-सास-परधा-रोधा विहगइ-पत्तेय-कमनिरोहेणं / तीसुदया गुणतीसाइ जाव पणवीसउदएणं // 121 / / (161) [146] उवधाए चउवीसा ओरालदुगेण होइ बावीसा / 'उसभा-ऽऽगीण निरोहे वीसा धुवरोहि अठेव // 122 / / (162) [147] सेलेसी आरंभे उदयट्ठाणाउ अट्ट केवलिणो / सेलेसी पडिवन्ने अट्ठण्हं पयडिउदए उ // 123 // (163) [148] एए सामण्णे केवलम्मि तित्थयरि तित्थजुयठाणा / लिहियाउं पंचसंगह-विवरण-अप्पयरठाणाउ // 124 // (164) [146] गइजाइआणुपुव्वी * थावरसुहुमं अपजधुवउदया / दुभगाणाइजाजस विग्गहगइ पगइइगवीसा // 125 // (165) [150] सा आणुपुविरहिया अपज्जएगिदिसुहुमइयराणं / हुंडु-वधा-पत्तेएहि 'उरलदेहेहि . चउवीसा // 126 // (166) [151] पणवीसा छव्वीसा सत्तावीसा य 'होइ सा चेव / परघाय-सास-आयव कमेण एगिंदुदयठाणा // 127 // (167) [152] गाइजाइआणुपुव्वी तसतिगणाइजअजसदुभगं च / धुवउदया सव्वे वि हु अंतरगइ पगइइगवीसा // 128 // (168) [153] सा आणुपुब्बिरहिया संघयण-तहा-ऽऽगि-एगयरखेव / तह पत्ते-उवधाए ओरालदुगेण छव्वीसा // 126 // (166) [154] "एसा पुण छव्वीसा मणु-तिरि-विगलाण उदयपाओगा। लद्धिअपजापजाण करणे नियमा अपजाण // 130 // (170) [155] परघाय जत्थ खेवे उदए जीवाण ते उ पजाण / 1 "सर १सास 1 परघायं विहगइ' इति L. D. प्रतौ। 2. 'वर्षभसंधयणसमचतुरस्रसंस्थानयोनिरोघे' इत्यर्थः / / "उरलपरदेहि" इति L. D. प्रतौ / 4 "हुन्ति ता" इति L. D. प्रतौ / 5 "एए उ दुवे उदया" इति L. D. प्रतौ / Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे तणुपज्जत्ती नियमा इयरा 'उ कमेण पज्जत्ती // 131 // (172) [156] विहगइ-परघायजुया . अट्ठावीसा ससासउणतीसा / उज्जोएणं तीसा सरेण सा एगतीसा उ // 132 // (171) [157] संघयणूणा सव्वे / तएव तिरिओदया य देवेसु / पढम चिय संठाणं वेउविदुगं च इट्ठखगइसरा // 133 / / (173) [158] एगिदियाण पंच उ छछक्क सुरविगलसगलतिरियाणं / मणुए उज्जोऊणा उदयट्ठाणाउ 'सव्वेवि // 134 // (174) [156] एगिदियाणं-२१,२४,२५,२६, 27 / देवाण-२१, 25, 27,28,26,30 / विगलसगलाणं-२१, 26, 28, 29, 30, 31 / मणुयाण उदयठाणा-२१.२६,२८,२९,३० // . इगवीसूणा पंच उ तिरिजइवेउविहारगाणं च / .. अविरयमणवेउन्विय उज्जोऊणा य चत्तारि // 135 // (175) [160] नेरइयाणं तिरिसम संघयणुज्जोयवञ्ज पंचेव 25,27,28,29,30 असुहपयडीण उदया अविवक्खा भंगया पंच // 136 / / (176) [161] जे उदएसुसामी उदयप्पयडीण विवरणं विहिर्य / इत्तो पत्तेय इहं भंगाणं चारणं भणिमो // 137 / / (177) [162] अप्पज्जसुहुमअजसा सेयरमिलिएहि अट्ठ उ विगप्पा / सुहुमअपज्जे य जसं वज्जित्ता पंच संभविया // 138 // (108) [163) ठवणा अप. अप. अप. अप. प. प. सु. बा. बा. सु. सु. अज. ज. अज. ज. अज. ज. अज. ज अप्पजसुहुमसाहार अजसइयरेहि भंगसोलसगं / सुहुमअपज्जे जसउदयवज छक्कं असंभवियं // 136 / / (176) [164] १"जे जत्थ संभविया // 172 / / " इति L.D. प्रतौ / 2 “पञ्चेव // 174 // " इति L.D. प्रतौ / 3 "सुरसमउज्जोऊणा य उदयपञ्चेव / " इति L. D. प्रतौ। 4 "कुणिमो" इति L D. प्रतो / . Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम्म उदयस्थानानि तद्भङ्गाश्च [ 25 एगिदियठवणा ऽप. | ऽप. | ऽप. ऽप | sप. प. प. प. पज्ज. पज्ज- पज्ज. पज्ज. पज्ज- पज्ज- पज्जः पज्ज |ज. ज. ज. ज. ऽज. ज. ज. ज. |ऽज | ज. ज. ज. ऽज. ज. Sज. JA बायरपत्तेयजसा सप्पडिवक्खेहि अट्ठ उ विगप्पा / / सुहुमे वज्जेज जसं उदए छच्चेव संभविया // 140 // (180) [165] एगिदियपणुवीसाठवणा-बायर बायर बायर | बायर सुहुम सुहु. स्हु. | सुहुः पत्ते. पो. साहारण साहा. पत्ते. पो. साहा. साहा. ऽजस | जस | ऽजस | जस ऽजस | जस ऽजस जस ठवणा- छन्वीसा वि य तिविहा सासुज्जोए य आयवेगयरे / सासे छा पुव्वुत्ता पत्तेयजसेयरेहि चउजोए // 141 // (181) [166] ... उज्जोय |उज्जो. उज्जो. उज्जोय पत्तेय पोय साहा. साहा. जस जस जस | ऽजस आयवछव्वीसाए पत्तेयजसाजसेहिं दो चेव / वाए विउव्धिकरणा चउवीसाइसु य एक्केक्कं // 142 / / (182) [167] सास छवीसे छूढे आयवसगवीस अहव उज्जोए / पुव्वुत्ता छन्भंगा पिंडे एगिदिवायाला // 143 / / (183) [168] Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे एगिदिय उदयठवणा- उदय०→ भंगा सामन० 5 10 उज्जोय० * * * | 4 | आयब० * * * | 2 | 2 विउव्वि० 0 1 1 1 . आयव० एवं कुलभङ्गा बेइंदियइगवीसे पज्जत्तजसेयरेहि चत्तारि / अपजत्ते जसवज्जा तिमि उ छच्चीसि एमेव // 144 // (184) [166] पज्जत्तजसजसेहिं अट्ठावीसम्मि भंगया दोन्नि / एच गुणतीसतीसे एक्कत्तीसे य ते चेव // 14 // (185) [170] नवरं दो अणुतीसा सासे छुढे य अहव उज्जोए / तह तीसाओ तिनि उ सरदुगउज्जोयएगयरे . // 146 // (186) [171] सरदुगएगयरेणं दो इगतीसाउ भंगबावीसं / बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदिय मिलिय छावट्ठी // 147 // (187) [172] विगलठवणा उदय 21 26 | 28 29 30 31 | एक सुभगाइज्जजसेहिं सप्पडिवक्खेहि अट्ठ उ विगप्पा / अप्पजदुभगणाइज्जअजस एगो य इय नवगं // 148 // (188) [173] पज्जत्तसुभगआइज्जकित्ति तह सेयराहिँ सोलसगं / असमत्ते य सुभतिगं वज्जिय नव होंति संभविया // 146 // [174] इयाणिं पंचिंदिवचारणाठवणा पज्जत्त सुभग सुभग | सुभग सुमग दुभग | दुभग दुभग दुभग আজ भाइज्ज ऽणाइज्ज ছিল আৰুল | আল ই অাস্থল जस | जस | ऽजस / जस ऽजस | 2 | 3 | 4 - 5 | 6 / . . . S दुभग भणा जस ऽजस जस Sजस। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम्न उदयस्थानेषु मङ्गाः इगवीसुदयविगप्या संघयण तहागि गुणिय छव्वीसे / एग असमत्तभंगो अट्ठासीया सया 'दोन्नि // 150 // (186) [175] विहदुगपरियत्तेणं अट्ठावीसम्मि सुद्धया दुगुणा / "सा पुज्जोउणतीसे बावन्नेक्कारस मया उ // 151 // (160) [176] सुरदुगउज्जोएणं “एगयरेण परिवत्ति तीसुदए / पंचसया छावत्तर तिगुणा सत्तरस अडवीसा // 152 // (161) [177] सरदुगएगयरेणं छूढे इगतीसि भंगया एए / एक्कारसबावण्णा पणिदितिरिउदयठाणेसु // 153 // (162) [178] नव उणनउया दोसय छावत्तरपंच दुगुण तह तिगुणा / दुगुणा इगतीसाए उणवन्न छलुत्तरा पिंडे // 154 // (13) [176] पणिदितिरियठवणा- उदय. 21 | 26 | 28 29 30 31 | | एवं मणुयगईए मणुयगई इत्थ होइ वत्तव्वा / नवरं उज्जोयरहया उदया पंचेव सवियप्पा // 155 // (164) [180] नव उणनउया दोसय छावत्तरपंच दुसु य पत्तेयं / / चावण्णेक्कार या छब्बीसदुरुत्तरा पिंडो // 156 // (165) [181] मनुयठवणा वीसोदयम्मि एगो छच्च छवीसे य तीसचउवीसा / 'विहगा सरसंठाणेहि एगों अट्ठोदए भंगो // 157 / / (196) [182] पढमंतिमदोभंगा गहिया सेसाउ मणुयगहणेण / तित्थोदय एक्कोक्को सव्वे तित्थयरि छन्भंगा // 158 // (197) [183] 1 "दुन्नि" इति L. D. प्रतौ। 2 "छावत्तरपंच उदयअडवीसा।” इति L. D. प्रतौ / 3 "सासुज्जोयुणतीसे' इति L. D. प्रतौ / 4 "एगेगयरपरि०'' इति L. D. प्रतौ / 5 “बावन्ने०" इति L. D. प्रतौ / 6 "विह १-सर१.संठाणेहि एगो" इति L. D. प्रतौ। .. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ] सप्ततिकामिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे केवलितित्थवरठवणा-१ | उदय.. | 20 | 21 | 26 27 28 29 30 31 | 9 | 8 | भंगा केव० | 1 | 0 (6) (12) (12) * (24) | | | 1 2(56) तित्थ. . . . | 1 |*| 1 | 1 | 1 | 10 | 6 , भगणाइज्जाजससेयरमिलिएहिँ अट्ठ उ विगप्पो / पत्तेयं पत्तेयं उदएसु छसु वि देवाणं // 159 // (168) [184] | दूमग | दुभग | दुभग | दुभग | सुभग सुभग | सुभग | सुभग অলসল আল | আল মলাস্থলমাল মাহুল মাল अजस जस अजस | जस अजस जस | अजस | जस ठवणा सासुज्जोएगयरे तह सरउज्जोयएगयरसहिया / अट्ठावीसुणतीसे दुगुणा चउसट्ठि सव्वे वि // 160 // (191) [185] एवं विउव्वितिरिए इगवीसूणेसु भंगछप्पन्ना / तह मणुए वेउव्वि य उज्जोयविणा उ बत्तीसं // 161 // (200) [186] उज्जोयरहियतीसा मोत्तणं चउसु उदएसु। | उदय०- 21 25 | 20 28 29 30 सव्वे | | देवभंगा 888 | 16 | 16 | 8 | 64 वेउव्वियति. * - 8 | 16 | 16 | 8 | 56 | ठवणा आहारगउदएK भंगा सत्तेव तिरियसारिच्छा / आहारदुर्ग खिविउं वेउव्विदुगं तु अवणेहिं // 162 / / (201) [187] 1. J. प्रतिप्रेसकोप्या 27-28 उदयम्थानद्वये केवलिसत्का मङ्गा न दर्शिता / L. D. प्रतौ पुनः 6-6 षड् षड् मङ्गा दर्शिता / तथा ऽप्यत्रा-ऽन्यतरविहायोगतरुदयत्वाद् द्वादशानां मङ्गानां सम्भव इति हेतोदश भङ्गा निरूपिताः, तथैवा-ऽन्यत्र दर्शितत्वात् / Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठवणा आहारग० नाम्न उदयस्थानेषु मङ्गाः तिरियसरिच्छा जेणं दुभगऽणाइज्ज अजसपयडीओ / अविरयवोच्छिन्ना ते न तेसि उदओ जईणं तु (202) एवं जइवेउव्वे नवरं उज्जोयभंगया तिण्णि / सेसा उ मणुयगहणे नेरइयअसुद्धपंचेव // 163 // (203) [188] उदयः | 21 | 25 27 28 29 30 सम्वे आहारग० * | 1 | 1 | 22 | 1 | . जति० 0 | 1 | 1 | 2 | 2 | 17 | नारकिय० | 1 | 1 | 1 | 1 | 1 | * | r | नाम्न उदयस्थानानां भङ्गाःएगबियालिकारस तेत्तीसा छस्सया प तेत्तीसा / पारससत्तरससयाणऽहिगाणि'विपंचसोईहि ।।सू.२७॥ (204) [186] 'उणतीसेक्कारसयाणऽहिगा सत्तरसपंचसहोहिं / एक्केक्कगं च वीसादडुदयंतेसु उदयविही ॥सू.-२८॥ (205) [190] ठवणा | भंगा| 1 42 | 11 | 33. (600 33 1202 / 178526174165 1 | 1 | एएसिं विवरणं- . पण नव नव नव अट्ठग एगं एग इह उदयइगवीसे / . इगिविगलतिरियमणुए सुरनारयतिथि बायाला ||164 // (206) [161] छच्चत्तारि य एगं वायरसुहुमे य पवणवेउव्वे / एगिदियाण भंगा एक्कारस होति चउवीसे // 165 / / (207) [192] सत्तऽड अट्ठ अट्ठ य एगो एग तह उदयपणवीसे / / एगिदिसुरविउव्वियतिरिमणुआहारनेरइए // 166 / / (208) [193] तेरस नव इगि विगले दोसय उणनउय मणुय तह तिरिए / छच्च सया छव्वीसे उदए भंगाण एगत्थ // 167 // (206) [164] 1 “दुपंच०" इत्यपि / 2 "उणतीसिकारस” इत्यपि / 3 “हुँति” इति L. D. प्रतौ / Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30.] सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे छच्चट्ठ अट्ट अट्ट य एगो एग तह एग सगवीसे / एगिदिविक्कितिरिनरसुरनारयतित्थआहारे // 168 // (210) [165, छक्कं पणसयछावत्तराई दुसु तह य दुसु य सोलसगं / नव दुग एगं भंगा अट्ठावीसम्मि उदयम्मि // 166 / / (211) [196] विगलतिरिमणुयदेवा तिरिनरवेउव्विहारनेरइए / इह बारसय दुरुत्तर मिलिया एगत्थ पिंडेणं // 170 // (212) [197] एक्कारस वावना छावत्तरपंच 'दुसु य सोलसगं / नवबारसदुगभंगा इक्केक्ककमेण उणतीसे // 171 // (213) [198] तिरिनरदेवा तिरिनर वेउव्वियविगलहारगजईण / . तित्थे नाग्यकमसो मिलिया सत्तारपणसीया // 172 / / (214) [196] सतरस सय अडवीसा अट्ठारस तह इगार बावन्ना / अट्ठट्ट एग एगं तह एगं तीसउदयम्मि // 173 / / (215) [200] तिरिविगलमणुयदेवा तिरिनरवेउव्विहारतित्थयरे / इय मिलिया भंगाणं उणतीससयाउ 'सत्तरस / / 174 / / (216) [201] एक्कारस बावन्ना बारस एक्को य भंग इगतीसे / / तिरिविगलतित्थमिलिया सव्वे पणसट्टडकारा // 175 / / (217) [202] वीस नव अट्ठ उदएसु भंग मेक्केक्क ते य केवलिणो / इय संखा उदएसु बारससु कमेण पत्तेयं // 176 / / (218) [203] वायाला छावट्ठी उणवण्णसया छलुत्तरविंगप्पा / इगिविगलतिरिपणिदिसु छव्वीस दुरुत्तरा मणुए // 177 / / (216) [204] चउसट्ठी पण सुरनारयाण छप्पण्ण तिरियवेउव्वे / पणतीस मणुविउव्विसु सत्तट्ट य हारकेवलिणो ||178 / / (220) [205] इय सव्वुदयविगप्पा एक्काणउया सया उ सगसयरी 7761 / एत्तो संतढाणा ते वारस होति नामस्स // 179 // (21) [206] - "दुदुसु" इति J. प्रतिप्रेसकोप्यां किन्तु स सम्यग् न भाति / 2 "विउवि तह विगलः' इति जे प्रतिप्रंसकोप्याम् / 3 “सत्तारा" इति L D. प्रतौ / 4 "एक्कारा' इति L. D. प्रतौ / .5 "एक्केक्कु” इति L. D. प्रतौ। -- Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 31 नामउदयठाणा - भंगसंखा मनुज, 286 नाम्न उदयस्थानेषु मङ्गाः मव्वुदयविगप्पठवणा|नामउदयठाणा -20212-25 26 27 28 29 30 31 8 8 संग्गा उदए सब्वभंगा- 1 4211133 600 33 1202|0785/29171165 1 1704 1 | गिदियभंगा- 0 | 5|110 13 6 * * * * ... विगलिंदिय ,,000 पंचिंदियतिरिय", | | 0 576 1152/1728/1152 0 . 4906 576 576 1152 . . 0 2602 वेउठिवयतिरिय 2, मणुज , -600 * . | देवाण, - TEE * || 16 | 16 8 | * [.. | 6. तित्थयर , . .. * TRI * | 1 | 1 | 1 . 6 | केवलीणं ,- RI. I. | 0 |म.६) * (म.) |(म. / (6. | * 01/ 2 | वेउब्धियजइ ,, | 0 010 * * | 1 | 1 | | 0.0.3 | आइ रग , ... R2 | 2 || ... | नारक ,- | | || 1 | 1 | 0 | * 001 . "मणुज , तित्थयर,, + वेउब्धियजा नाम्नः मनास्थानानितिदुणउई 'उगुणउई अच्छलसी असीइ उगुसीई / अच्छप्पन्नत्तरि नव अg य नामसंताणि।। सूत्रम्-२६।। (222) [207] ठवणा-६३, 62, 86, 88, 86, 80, 76, 78, 76, 75, 6, 8 / गइ-अणुपुव्वी चउ चउ बंधण-संघाय-जाइ-वन-रसा 5 / तणु 5 पत्तेयं पण पण अंगतिगं अट्ठ फासा य // 181 // (223) [208] छागी छस्संधयणा विहदुग-दुगगंध सेयरा वीसं / पत्तेया अट्ठ भवे तेणउई नामसंताओ // 182 / / (224) [209] 1 "इगुनउई” इति वा, "गुणनउई / अडसी छलसी असीइ गुणसीई / अट्ठय०" इति वा / .. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे तित्थूणा बाणउई तेणउई चेवहारचउऊणा / सत्ताए गुणनउई अट्ठासी होइ तित्थूणा // 182 / / (225) [210] नेरइयसुरदुगाणं एगयरूव्वलणि होइ छासीई / 'तत्तो विउव्विचउसुरदुगाण आसीइ उव्वलणो // 183 / / (226) [211] मणुदुगउव्वलणेणं अत्तरि तेउवाउसंतमिणं / पढमचउक्का तेरस-खएण चत्तारि खवगस्स // 184 / / (227) [212] साहारसुहुमचउजाइ थावरं आयवं च निरयदुगं / तिरियदुर्ग उज्जोयं तेरस अनियट्टिवोच्छेए // 185 // (228) [213] मगुयगडजाइतसवायरं च पज्जत्तसुभगआएज्जं / जसकित्ती तित्थयरं अजोगि जिणसंति नव होति // 186 / / (229) [214] ता तित्थूणा अट्ठ उ केवलिसामन्नसंतए होति / 'इत्तो वंधुदयाणं संतवाणाण संवेहो // 187 / / (230) [215] बंधुदयसंतठाणा एगत्थ परूविया वि सव्वत्थ / न विसेसो पगईसु कायव्वो ठाणमासज्ज // 188|| (231) [216] नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानानिनव पंच उदयसंता तेवीसे पनवोस छन्वीसे / , भहपउरडवीसे "नवसतुगुतीसतीसम्मि ।।सूत्रम्-३१।। (232) [217] ठवणा | बन्ध. 23/25/26/28/2630 उदय० | सत्ता. 55547 तेवीस पन्नवीसा छब्बीसुणतीसतीस बंधम्मि / नव नव उदयट्ठाणा वीसा नव अट्ठ 'मोत्तूणं // 189 / / (233) [218] ठवणा-२१, 24, 25, 26, 27, 28, 29, 30,31, इगिविगला सविगप्पा तिरिमणु सामन्न तह सवेउव्वा / नियनियउदयविगप्पेहिं सव्वे बंधति संभविया // 190 / / (234) [216] 1 "णिरसुरदुगचउविलियमद्रासी भसीइ उठवलणे // (226)" इति L. D. प्रतौ। 2 "हुंति" इति L D प्रती।३"एतौ" इति L. D. प्रतौ। 4 'मगि गुण ती" इत्यपि। 5 "बंधेसु इति L..D. प्रतौ। 6 "मुत्तूणं' इति L D. प्रतौ। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठवणा नाम्नः सत्तास्थानानि बन्धोदयसत्तास्थानानां संवेधश्च [33 नवरं इह पडिसेहो तिरिमणुयाणं च भोगभूमीणं / तणुयकसायत्तणओ अट्ठावीसं च बंधंति // 191 // (235) [220] ते पज्जत्ता एत्थ य अपज्जि गुणतीसमवि य बंधंति / जम्हा ते देवेसु न अन्नगइ जति पाए // 192 // (236) [221] तह ईसाणंतसुरा पज्जत्तेगिदियाण पाओगा / बंधंति मिच्छदिट्ठी पणवीसा तह य छव्वीसा // 163 // (237) [222] गुणतीसतीसबंधा सव्वे देवा य तह य नेरइया / नियनियउदयविगप्पेहिँ 'सम्ममिच्छाइ जहजोग्गं // 194 // (238) [223] . | बंधट्टाणा | 23 | 25 26 28 29 30 | | उदयट्ठाणा | | | | - सत्ताट्ठाणा | 5 | 5 | 5 | 4 | 7 | नव नव उदयट्ठाणा बंधे बंधे य हुंति पत्तेयं / सवियप्पाई वुत्ता अट्ठावीसम्मि पुण एए // 16 // (233) [224] अट्ठावीसे बंधे उदयट्ठाणा उ अट्ठ नायव्वा / केवलितिगचउवीसं चउरो "मोत्तूण सवियप्पा // 196 / / (240) [225] इगवीसे छव्वीसे उदए जे वट्टमाणया जीवा / खाइगवेयगदिट्ठी नियमा बंधंति न उ अन्ने // 197|| (241) [226] सेसेसु उदएसु सम्मदिवि तह मिच्छदिट्ठी य / अज्झत्थवसा बंधहि सुरनारयजोग्गनरतिरिया // 198 // (242) [227] 28 पंधे 8 उदयट्ठाणा-२१।२।२६।२७।२८।२९।३०।३। उदएसु जे जीवा वट्टता बंधगा उ ते भणिया / तेसिं तु संतठाणा कित्तिय के कस्स तं भणिमो // 199 / / (243) [228] (१)इगि(२)विगल 3 सगल पंचंसिगा उ चत्तारि आइएं उदया। (१)उणवीस(२)इट्ठारस(३)दुसयअट्ठनउआ उ न उ अन्ने (चुन्नीगाहा) // 200 / (244) [229] (१)उणवीस(२)ऽट्ठारस (३)दुसय अट्ठनउया य हुन्ति भंगाणं। .1 "सम्ममिच्छा य” इति L. D. प्रतौ। 2 "सविगप्पा इय" L. D. प्रतौ / 3 "मुत्तूण" इति L.D.प्रती। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगिदिय | 34 ] सप्ततिकामिवे षष्ठे कर्मग्रन्थे (१)इगि (२)विगल(३)सगलतिरिए पणतीसा तिन्नि सव्वे वि 335 // 201 // (245) [230 . 'ठवणा | उदय 21 | 24 25 26 | सव्वे भंगा | | सू० अप० 1 2 3 | सू० 50 1 2 | 1 | 1 | 5 | 16 बा अ० 1 2 3 | बा. प० | 2 | 4 | 1 | 1 वि०अप० 3 3 | 6 | 18 वि०प०६ / / 12 / पंति अप० 1 पं०ति०प० | 8 | 18 | सत्ताठा० 5 | 5 | 5 | 5 | 20.335 / सेसा उ सव्वभंगा अत्तरिसंतबज्जिया नेया / / चउगइ जियसंभविया 7456 पणसंतहाण पुण एए // 202 // (246) [231] बाणउई अट्ठासी, अद्वत्तरि असि य होइ 'छासीइ / चउपढमेसुदएसु अत्तरिवज्ज सेसेसु // 203 / (247) [232] इय एवं संवेहो बंधट्ठाणेसु पंचसु वि भणिओ / नव पंच उदयसंता वुत्ता सेसं च 'वोच्छामिः // 204 // (248) [233] नव पंच उदय संतगाण 2 . | बंधट्ठाणा | 23 25 | 26 / 26 | 30 उदयट्ठाणा | | 9 | | संतढाणा 4040 | 40, 4040 विगल० | पणिदिति० ठवणा 1 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति / J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति। 2 “सेसा अत्तरि संतवज्जिया भंगा 7456 // इय एव सव्वभंगा अत्तरिसंतवजिया नेया" / इति J. प्रतिप्रेसकोप्याम् / 3 "छासीया" इति L. D. प्रतौ। 4 "वुच्छामि" इति L. D. प्रतौ / Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानसंवेधः [35 उणतीसतीसबंधे संतवाणा उ सत्त पत्तेयं / पण पण इह पुव्वुत्ता तित्थजुया दुन्नि पुण एए / / (246) चउवीसं इगतीसं उदए 'मोत्तु उणतीसवंधम्मि / दो दो य संतठाणा तेणउई अउणनउई य // 205 // (250) [234] एवं तीसे बंधे नवरं छवीस मुत्तु छट्ठाणा / ___इय संवेहो वुत्तो नव सत्तुगतीसतीसम्मि // 206 // (251) [235] | बंधट्टाणा | 29 | 30 | उदयट्ठाणा 7 | 6 दो दो संतढाणा-६३-८४ | सत्ताठाणा 14 , 12 अट्ठावीसे बंधे संवेहो अट्ठ उदय चउसंता / बाणउई अट्ठासी छासी तह अउणनउई य // 207 / / (252) [236] छसु आइएसु दो दो बाणउई अट्ठसी य ठाणाई / ___तीसे चउरो ठाणा उणनउई मुत्तु इगतीसे // 208 // (253) [237] भडवीसबंधट्ठागे वणा" उदयठाणाणि 21 25 26 27 28 29 30 31 | एवं | 12 | 12 92 12 12 | 92 | 12 | salah salcol colecca colae सत्ताठाणाणि 88 | 86 तीसोदय उणनउई अट्ठावीसे कहं भवे बंधे / भाचार्यः प्राह मणुतित्थसंतगम्मी मिच्छगए निरयमिमुहम्मि // 209 / / (254) [238] तित्थयरसंतकम्मी सम्मदिट्ठी उ बंधए णियमा / उणतीसं तित्थजुयं वेयगवंधा उ नो अन्ने // (255) १"मुत्त" इति L. D. प्रतौ / A पेज नं० 52 A एतच्चिह्नगतं टिप्पनकं द्रष्टव्यम् / Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठवणा सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे वेयगसम्मट्ठिी णिरयाभिमुहो वमेइ सम्मत्तं / तेण मुहुत्तं भिन्नं . उणनउई मिच्छसंता उ // (256) ____ संतढाणाण संखामाहआइतिए वीससयं उणवीसा तह य होइ चउपण्णा / बावन्ना वि य कमसो सत्ताठाणाई छण्हं पि // 210 // (257) [239] | बंधट्ठाणा | 23 | 25 26 / 28 | 26 | 30 | उदयट्ठाणा | | | | | | सत्ताठाणा | 40 40 | 40 | 16 | 54 | 52 | एगेगमेगतोसे एगे एगुदय अट्ठ संतम्मि / उवरयबंधे दस दस वेयगसंतंमि ठाणाइं / सूत्रम् 32 / / (258) [240].. इगतीसे बंधम्मी उदओ तीसन्ह तेणवइसत्ता / तह एगवंधि उदयं 30 संतवाणाई तहि अट्ठ // 211 // [241] जसकित्ति बंधु तीसन्ह उदय तह संतठाण अठे व / / (256) पढमा चउरो ठाणा ते चिय पत्तेय तेरसविहूणा / ' इय अट्ठ संतठाणा जसकित्तीबंधसंवेहो // 212 // (260[242] उवरयबंधे दस उदयठाण तह दस य संतठाणाई / चउवीसा पणवीसा छलसी अट्टत्तरी मुत्तु // 213 / / (261). [243] | बंधठा० | 31 | 10 | | उदय० 1 1 / 10 'ठवणा सत्ता० 1 वीसवीसा तीसा केवलिणो पुव्ववुत्त उदयाउ / सरसाससव्वरोहे नवअट्ठयअहियवीस अट्ठव // 214 / / (262) [244] दो दो य संतठाणा उणसी पन्नत्तरी य सव्वेसु / अट्ठोदयम्मि संतं ते चिय अट्ठव संतम्मि // 215 / / (263) [245] 1 इदं यन्त्र L D. प्रतावस्ति, J प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानसंवेधश्चतुर्दशजीवस्थानेषु ज्ञानावरणान्तराययोः संवेधश्च [30 एए केवलिउदया तित्थजुया ते य छच्च तित्थयरे / दो दो संतवाणा आसी 'छाहत्तरी तह य // 216 // (264) [246] छठ्ठदए नवपयडी ते चिय संतम्मि चरिमसमयम्मि / तित्थयरकेवलिस्सा तइयं ठाणं तु संतम्मि // 217 / / (265) [247] उवसंते चउ पढमा तीसे उदयम्मि तह य त्थियरे / रसणं केवलिनियरे उवरयवंधम्मि संवेहो // 218 // [248] तेरस तेरस भेया केवलितित्थयर तह य उवसंते / चउ पढमा तीसुदए उवरयवंधम्मि संवेहो // (266) उवणा- उदयठागः| 20 | 21 | 26 27 28 29 30 31 | | 8 सव्वे | सत्ताठाण| 2 | 2 | 2 | 2 | 2 | 482 | 3 | 3 |30| सामान्येन नाम समाप्तम् / / मूलुत्तरपगईसु कंधोदयसंतठाण इय भणिया / जीवगुणठाणगेसु तह उत्तरपगइसु भणिमो // 216 / / (267) [249] तिविगप्प पगइठाणेहि जीवगुणसण्णिएमु ठाणेसु। भंगा पउंजियव्वा जत्थ जहासंभवो भवइ ॥सू०-३३।। (268) [250] तिविगप्पा बोधव्वा बंधं उदयं च संतठाणतिगं / भंगा पउंजियव्वा जियगुणठाणाण संभविया // 220 // (269) [251] ..चतुर्दशजीवस्थानेषु ज्ञानावरणान्तराययोबन्धोदयसत्तास्थानभङ्गाःतेग्ससु जीवसंखेवएसु नाणंतरायतिविगप्पो / एक्कम्मि तिदुविगप्पो करणं पइ 'एत्य अविगप्पो॥सू.-३४॥(२००) [252] "नाणावरणंतरायठवणा जीवट्ठाणा | 13 | सण्णी उदय. सत्ता . / १."तहाहारचउरहिया" इति J. प्रतिप्रसकोप्याम् / 2-4 इदं यन्त्रं L. D. प्रताबस्ति, J. प्रतिप्रेस. कोप्यां नास्ति / 3 "इत्थ" इति L. D प्रतौ / Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे करणं पइत्ति जोगी मणमाईणि उ हवंति करणाई / सञ्चखओ दुण्हं पि हु करणं पइ तेण अविगप्पो // 221 / / (271) [253] जीवस्थानेषु दर्शनावरणीयस्य बन्धोदयसत्तास्थानमङ्गाःतेरे नव चउ पणगं नपंसएगम्मि भंग 'मेक्कारा / वेयणियाउं गोए विभन्न मोहं परं वोच्छं ॥सू.-३५॥ (272) [254] नवबंधं नवसंतं चउपण उदयम्मि दंसणावरणे / *तेरससु आइमेसु सण्णी पुव्वुत्त एक्कारा // 222 / / (273) [255] "ठवणा | बंधठाणा | बंधठाणा | 6 | 6 | 4 | 4 | 4 | deg | उदयठाणा| 4 . . . . . . . | 4 || | सत्ताठाणा . . . | 9 | | 6 | 4 | जीवस्थानेषु वेदनीयगोत्रयोबन्धादिस्थानानां मङ्गाःपजत्तगसनियरे अट्ठ चउक्कं च वेयणियभंगा / सत्तग तिगं च गोए पत्तेयं जीवठाणेसु / / सूत्रम्-०॥ (274) [256] ठवणा [o / अ. अ. सा- सा उदओ अ- | सा- अ० सा-। अ- अ. सा. सा. अ. सासा० य० सा० य० सा० | य० सा | य० पढमा दुग तह तुरिओ गोए वेयणियभंगचत्तारि / .. तेरससु आइमेसु सन्नीपज्जत्ति पुव्वुत्ता // 223 / / (275) [257] "तेरससु जीवठाणेसु ठवणा | बंध० नी. नी. | उच्च. | उदय० नी. नी. नी. सत्ता नी | 2 | 2 1 "मिक्कारा" इति L. D. प्रतौ। 2 वेयणियाउय गोए" इति L. D. प्रतौ / 3 "तेरससु पि इमासु" इति L D. प्रतौ। 4 इक्कारा" इति L. D. प्रतौ / 5-6-7 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु ज्ञानावरणादिकर्मबन्धोदयसत्तास्थानमङ्गाः 'सन्निपजत्तगस्स ठवणा ___बंधो | नीय० | नीय० | नोय० | उच्च | उच्च | . उदभो | नीय० | नीय० उच्च० | नीय | उच्च | उच्च | उच्च सत्ता नीय० | 2 | 2 2 2 2 / 1 सण्णिम्मि सत्त भंगा पढमो कह जेण तेउवाऊणं / भण्णइ पढमुश्ववण्णे तेहिंतो तिरियसण्णिम्मि // 224 // (276) [258] . जीवस्थानेष्वायुषो बन्धादिस्थानभङ्गाः पज्जत्ता-ऽपज्जत्रागसमणे पज्जरासमण-सेसेसु / अट्ठावीसं दसगं नवगं पणगं च आउस्स |सू.- 0 // (277) [256] सण्णिअपज्जमणुतिरिय मणुतिरिजोगं च आउ बंधंति / "एक्कक्कु बंधपुत्वे बंधु४त्तर४ चउर इय दसओ // 225 // (278) [260] सन्नी पज्जे भंगा अडवीसं पुव्ववुत्त आउम्मि / पज्जाऽमण तिरियसमा पण "इक्कारे य 5 देवसमा // 226 // (27) [261] | 11 जीवठा० 'ठवणा प० असं० भप० सं० प० सं० जीवस्थानेषु मोहनीयबन्धादिस्थानभङ्गाःअट्ठसु पंचसु एगे एगदुगं दस य मोहबंधगए / तियचउनवउदयगए तिग तिग पण्णरससंतम्मि ॥सू.-३६॥ (280) [262] . 1.6 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति, २'भन्नई" इति L. D. प्रतौ / 3 "वषन्ने” इति L. D. प्रतौ / 4 “एगो अबंधपुव्वे" इति J. प्रतिप्रेसकोप्याम् / 5 “एकारे" इति L. D. प्रतौ। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40] सप्ततिकामिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे 'ठवणा जीवठा० | 8 | 5 | 1 | बंधठा० उदयठा० सत्ताठा० 3 3 J15 'ठषणा अट्ठ उ जीवट्ठाणा सत्त अपज्जत्तसुहमपज्जो य / बावीसबंध एगं दुवंध२पढमा भवे पणगे // 227 / / (281) [263] | जीवठा०८ | 5 | बंधठा० | 22 22 वायरविगलअसभी पज्जत्ता पंच हुंति जियठाणे / बावीसा इगवीसा दुगबंधा मिच्छसाणाणं // 228 / / (282) [264] छब्बावीसे 'चउएगवीस [भंग दुबंधम्मि जे उ पुवुत्ता। इगविगलेसु तेच्चिय जेण तिवेएसु ते जंति // 229 // (283) [265] अडनवदसगं उदया पत्तेयं जीवठाणतेरससु / वावीसबंधगेसु इयरेसु नवंतसत्ताई // 230 // (284) [266] चउवीसा चउचउरो तिगतिग उदएसु वन्निया पुव्वं / , नवरं नपुंसवेइसु चउरट्ठ पणिदिए * *मोत्तु // 231 / / (285) [267] छप्पन्नं इह अट्ठा सोलस चउवीस'गुणिअनामेहिं / अट्ठसया बत्तीसा 832 उदयविगप्पा 'य मोहस्स // 232 // (286) [268] ___पयविंदविहिमाहछत्तीसाणं दसगं चउरो बत्तीस तिन्नि छत्तीसा / अदृष्ट गुणायारो तह चउवीसाइ पयविंदा // 233 // [269] 1.2 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / 3 "चउइगवीसे [भंगदु]" इति L D. प्रतौ * पेज नं. 42 * एतच्चिह्नगतं टिप्पनकं द्रष्टव्यम् / 4 "मुत्तु" इति L. D. प्रतौ / 5 "गुणसनामेहिं" इति L. D. प्रतौ। / ६"उ" इति L. D. प्रतौ / Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 जीवस्थानेषु मोहनीयस्य बन्धोदयसत्तास्थानानि तद्भङ्गाश्च मानानि तदाश्च अन्ना बत्तीसा वि य चउवौसाए गुणित्तु खिवएसु / बाहत्तरिसयचउसंहिअहियपयविंदपिंडेणं // 234 // [270] उदए ... नपुसवेए बंधे बावीस उदयठाणत्तिगं .. | - ... अड नव दसगं कमसो इगदुगएका चउवीसा / / (287) / उदयगुणा छत्तीसा ते दस ठाणा नपुसउदयम्मि / ते अट्ठा छत्तीसा दसहिँ गुणा तिन्नि सय सट्ठा 360 / / (188) पज्जत्तवायरविगला 4 बंधे इगवीस साणमासज / सत्ताइ नवंतुदया नपुस चउरट्ठ पत्तेयं // (286) उदयगुणा बत्तीसा चउग्गुणा 128 ते य हुँति इह अट्ठा / पुव्वुत्त 360 एइ अट्ठा अट्ठगुणा हुन्ति पयविंदा 3904 / / (290) छत्तीसं चउवीसा तीसु वि पत्तेय मिच्छगुणठाणे 108 / सासण अमणे पज्जे बत्तीसा विंदचउवीसा 140 // (261) चउरुत्तरगुणयाला. 3604 अट्ठगुणा इत्थ होंति पयविंदा / तेत्तीससया इह सद्विसहिय 3360 चउवीसगुणकारे / / (262) बाहत्तरि चउसट्ठा 7264 पयविंदाणं तु मोहनीयस्स / तेरससु आइमेसु सन्नीपज्जत्ति पुव्वुत्ता // (293) जीवट्ठाणा सुहुम.ऽप. बायर.ऽप. बेई.ऽप. ते.ऽप. चउ.ऽप. | ऽसं.ऽप. | सं.ऽप. | सुहुमपज्ज बंधट्टाणा / 22 / 22 / 22 / 22 / 22 / 22 / 22 / 22 बंधभंगा / 6 6 6 6 6 / 6 . . 6 . 6 | | उदयट्ठाणा 8 /8/690 8/8 108/4/10/8/2 10 8 6 20/88/20/8/8 10 | चउवीसियाणं * पेज नं०४२ द्रष्टव्यम् / Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 ] सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे बादरपज बे.पज्ज |ते.पज्ज च.पज्ज असं-पज्ज. वा.पज्ज बे.पज्ज ते.पज्ज च.पज्ज असं.पज्ज 22 / 22 / 22 / 22 / / 22 / 21 / 21 / 21 / 21 . 21 | | | 8 8 24 , 8 8 8 8 / 24 16 चउवीसा-८३२ उदयविगप्पा। चउवीसिया वा | उदए-ऽटुगा (3232/32/3232 96.96/2/3232.32 3216/32,32/32/3266 पए-ष्ट्रगाः 363636/3636/36/36/36/363636/36/36/32/32/32/32/32/ पयविंदा EFFEREFERE इगि विगल अपज्जत्ता सुहुमो पज्जो य छच्च जियठाणा / तह विगल वारपज्जा उदइ नपुसेण ए दस उ // 235 // (294) [271] * अस्सन्निसन्निपज्जा तह य अपज्जा य चउर जियठाणा | * तिगवेयपरावत्तो उदए आसज्ज चउसुपि // 236 / / (265) [272] . तेरससु जीवठाणेसु संतढाणसंखमाहइगवीसबंधगाणं सासणभावम्मि पंचजियठाणा / उदएसु पत्तेयं एगा अडवीस संतम्मि // 237 // (296) [273] बावीसबंधतेरस बंधे बंधे य तिगतिगं उदया / उदएसु पत्तेयं तिगतिगसंता उ पुच्चुत्ता // 238 / / (267) [274] 8 इह ग्रन्थे लब्ध्यपर्याप्ताना,संश्यसंक्षिपञ्चेन्द्रियाणामपि वेदत्रयमङ्गीकृत्य यत्प्ररूपणं कृतं तत्त सर्वस्या-ऽपि लब्ध्यपर्याप्तस्य नपुसकवेदित्वाच्चिन्त्यम् , यतश्चूर्णिकाररपि लब्धिपर्याप्तसंज्ञिनीव लब्धिपर्याप्तासंज्ञिन्येव वेदत्रयमङ्गीकृतम् , न पुनर्लब्ध्यपर्याप्तसंझ्यसंज्ञिनोरपि, यदुक्तम्-“एक्केक्कम्मि उदयम्मि नपुंसगवेदेणं चेव अट्ठ अट्ठ भंगा / सेसा न संभवंति ............. | असन्निपज्जत्तगस्स तिहिं वि वेदेहिं उहावेयध्वा / " इति / किञ्च सिद्धान्ताभिप्रायेण पर्याप्तोऽपर्याप्तो वा सर्वोऽप्यसंज्ञी नपुंसक एव, यदुक्तं Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु बन्धोदयसत्तास्थानानि तद्भङ्गाश्च श्रीप्रज्ञप्तौ-ते गं भंते ? असन्निपंचिंदितिरिक्खजोणिया किं इथिवेयगा पुरिसवेयगा नपुसगवेयगा ? - नो इत्थिवेयगा नो पुरिसवेयगा नपुसगवेयगा” इति / एतसिद्धान्ताभिप्रायेण च श्रीमन्मलयगिरिपादः सप्ततिकायाः षड्त्रिंशत्तमगाथावृत्तौ पर्याप्तासंज्ञिनि नपुसकवेद एव दर्शितः, तत्राऽपि चूर्णिकारामिप्रायेण वेदत्रयम् , एवं सप्ततिकाभाष्यपञ्चपञ्चाशत्तमगाथावृत्तौ श्रीमेरुतुङ्गाचार्यैरपि / तेनाकारमात्रमङ्गी. कृत्य कार्मग्रन्थिकमताभिप्रायेण लब्धिपर्याप्तासंज्ञिनि वेदत्रयं संभवति, तथैव बहुभिर्वत्तिकारैः समर्थितत्वात् / चूर्णिकारास्तु विपाकोदयापेक्षया वेदत्रयमसंज्ञिनि लब्धिपर्याप्ते स्वीकुर्वन्ति, न पुनः केवलमाकारमात्रेणेति विशेषः / न पुनर्लब्ध्यपर्याप्तसंश्यसंज्ञिनोरपि। न च "चउ चउ पुमिथिवेए" इति पञ्चमसंग्रहवचनम् , "पुमत्थिवेए चरम चउरो॥” इति प्राचीनषडशीतिवचनम् , “थीणरपणिदि चरमाचउ' इति नव्यषडशीति वचनम् , इत्यादिवचनैस्तथा श्रीरामदेवगणिनैव प्राचीनषडशीतिदशमगाथाविवरणे जीवस्थानेषु मार्गणास्थानानि दर्शयता-"असणिअपजत्तगस्स उत्तरभेया। तं जहा ..........वेयतिगं ..... .... / सन्निपंचिंदियस्स अपज्जगस्स उत्तरभेया / तं जहा-गइ चउक्कं .....वेयतिगा”. इत्यादिना पर्याप्ता-ऽपर्याप्तसंज्ञिद्वया-ऽसंज्ञिद्वयलक्षणेषु चतुर्ध्वपि जीवस्थानेषु वेदत्रयं प्रतिपादितम् , अतः कथं लब्ध्यपर्याप्तसंझ्यसंज्ञिनोस्तन्निषिध्यते भवतेति वाच्यम् , अभिप्रायाऽपरिज्ञानात् , यतस्तत्र सर्वत्रा-ऽप्यपर्याप्तः करणेना-ऽपर्याप्तो विवक्षित इति न कश्चिदपि दोषः, भवत्वत्रा ऽपि करणा-ऽपर्याप्त इति चेत्, सत्यम् , तदेहाऽप्यदोष एव, किन्तु सो-ऽत्र विवक्षितो नास्ति, यतो लन्ध्यपर्याप्तस्यैवा-ऽत्र विवक्षितत्वेन सप्तस्वप्यपर्याप्तेषु प्रथमगुणस्थानादिकमेव दर्शितम् , अन्यथा द्विती. यगुणस्थानादिकमपि दर्शितं स्यात् / ननु यथा भाववेदमाश्रित्य सप्ततिकाभाष्य-५६-५७ तमगाथावृत्तौ मेरुतुङ्गाचायैर्विपाकोदयतो देवनारकाणां वेदत्रयस्य संभवो दर्शितः तथा च तद्ग्रन्थः-"यद्यप्याकृत्या देवानां क्लीबवेदो नारकाणां च पुस्त्रीवेदौ न स्तस्तथा-ऽपि विपाकोदयतो वेदत्रयमपि संभवति" इति / तथा लब्ध्या-ऽपर्याप्तयोः संश्यसंज्ञिनोरपि स्यादिति चेत् , न, तत्रैव सप्ततिकाभाष्य 55 तमगाथावृत्तौ तैरेव मेरुतुङ्गाचार्य ब्धिपर्याप्त 'यतिरिक्तानां त्रयोदशानामपि जीवभेदानां केवलस्य नपुसकवेदस्यैवोदयस्य प्रतिपादनात् , एवमन्य * त्रा-ऽपि / अन्यथा यथा “उदयविगप्पा जे जे उदीरणाए वि होंति ते ते उ / अंतमुहुत्तिय उदया समयादारम भंगा य / / 3 // " इति पञ्चसंग्रहसत्कसप्ततिकागाथास्वोपज्ञवृत्तौ-"युग्मेन वेदेन वा-ऽवश्यमन्तमुहूर्ता. दरतः परावर्तितव्यम्" (पञ्चसंग्रहप्रथममागपत्र-२४३-१) इति स्ववचनमादृत्य पग्रञ्चसंहकारीवस्थानेषु बन्धहेतून दर्शयद्भिश्चतुर्दशस्वपि जीवस्थानेषु वेदत्रयं प्रतिपादितम् , (पञ्चसंग्रहप्रथमभागपत्र-१७९-१८२) तथा चूर्णिकार-भाष्यवृत्तिकारादिभिरपि चतुर्दशस्वपि जीवमेदेषु वेदत्रयम्य विधानं कृतं भवेत , तल्यन्यायत्वात,न च तैस्तथा विहितम, एवं प्रस्ततग्रन्थे-ऽपि, तथा श्रीमन्मलयगिरिपादेरपि उदय विगप्पा.....” (पञ्चसंग्रहसप्ततिका 33 गाथा प्रथमभागपत्र-२४२-२) इति गाथावृत्तौ "युग्मेन वेदेन वाऽवश्यं मुहुत्तादारतः परावनितव्यम्" इति पञ्चसंग्रहकारवचनं पुरस्कृत्य भावनाया विहितत्वेऽपि जीवभेदेषु बन्धनिरूपणावसरे तदनादृतम्" उक्तं च तैम्तत्र-"इह संज्ञिपञ्चेन्द्रियव्यतिरिक्ताः शेषाः सर्वे ऽपि संसारिणो जीवाः परमार्थतो नपुंसकाः, केवलमसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः स्त्रीपुलिङ्गाकारमात्रमधिकृत्य पुस्त्रीवेदे प्राप्यन्ते” (पञ्चसंग्रह प्रथममागपत्र 183-) इति / ततो वेदत्रयपरावृत्तिमतमप्रधानं प्रतिभाति / किञ्च लब्ध्यपर्याप्तः सर्वोऽपि नपुंसक एवेति हेतोरत्र लब्ध्यपर्याप्तसंश्यसंज्ञिनोर्वेदत्रयस्य यत्प्रतिपादनं तद् विचारणीयम् / Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे इगवीसे ते पणरस सत्तरसयं तु चंधि बावीसे / .... बत्तीसं संतसयं सन्नी सामन्नगहणेण // 239 // (268) [275] ठवणा| बंध० | 22 / 22 | 22 - 22 . 22 / 22 / 22 / 22 / 22 / उदय. |: 22 / 22 / 22 / 22 / 21 / 21 / 21 / 21 / इति जीवस्थानेषु मोहः समाप्तः // जीवस्थानेषु नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानानि.पणदुगपणगं पणचउ पणगं पणगा हवंति तिन्ने / पणछप्पणगं छच्छप्पणगं अट्ठदसगं 'च ॥सू.-२७॥ (266) 276] एतद्गाथाद्वयस्य विवरणे. L. D. प्रतौ गाथाप्रतीकानुसारेण पूर्व सप्तस्वप्यपर्याप्तजीवभेदेषु नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानानि प्रतिपाद्य ततः पर्याप्तसूक्ष्मजीवभेदे, पर्याप्तबादरजीवभेदे, पर्याप्तविकलेन्द्रियभेदत्रये पर्याप्ताऽसंज्ञिजीवभेदे च क्रमेण भणितानि / J. प्रतिप्रेसकोप्यां पुनः प्राक् त्रयोदशस्वपि जीवभेदेषु बन्धस्थानानि, तत उदयस्थानानि त्रयोदशजीवभेदेषु, ततः सत्तास्थानान्यपि त्रयोदशसु जीवभेदेषु प्रतिपादितानि इति गाथाभेदः गाथाक्रमभेदश्च J. प्रतिप्रेसकोप्यपेक्षया विवरणगाथा२४१ तः 283 सन्ति / L. D. प्रतौ विवरणगाथा-३०१ तः 350 भवन्ति / तथा L. D. प्रतौ त्रयोविंशतिबन्धकत्वं वैक्रियोदयवतां पञ्चविंशति-सप्तविंशत्युदयस्थानद्वयगतानां प्रतिषिद्धम् , J.प्रतिप्रेसकोप्यां न निषिद्धम् , नाम्न एकोनत्रिंशद्बन्धस्थाने एकविंशतिषड्विंशत्युदयस्थानयोस्त्रिनवतिसत्स्थानं J. प्रतिप्रेसकोप्यां निषिद्धमपि L D. प्रतौ न प्रतिसिद्धम् / तेन J. प्रतिप्रेस. कोप्यपेक्षया LD. प्रतौ प्रयोविंशतिबन्धस्थाने पञ्चविंशतिषड्विंशत्युदयस्थानयोः प्रत्येकं द्वे द्वे सत्तास्थाने इति चत्वारि सत्तास्थानानि न्यूनानि, एकोनत्रिंशबन्धस्थान एकविंशति-षड्विंशत्युदयस्थानयोः प्रत्येकं त्रिनवतिस-स्थानमिति द्वे सत्कर्मस्थाने अधिके / ततः पर्याप्तसंज्ञिजीवभेदे बन्धाऽबन्धस्थानवयुदयस्थानगतानि समुदितानि सर्वाणि सत्तास्थानानि LD. प्रतौ अष्टोत्तरशतद्वयम् 208, J. प्रतिप्रेस. कोप्यां दशाधिकद्विशते 210 सन्तीति विशेषः / १“ति" इत्यपि पाठः। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु मोहनीयनाम्नोर्बन्धोदयसत्तास्थानानि तद्भङ्गाश्च [45 सत्तेव अपज्जत्ता सामी 'महुमो व बायरो चेव / विगलिंदिया उ तिनि य तह य असन्नीय सन्नी य ।।सू.-२८|| (300)[277] ____ पणदुगपणगंति एएसिं विवरणं // पणबंधट्टाणा ते य इमेतिग२३पणवीस २५छवीसा२६गुणतीसा२९तीस३०बंधठाणा उ / पढमम्मि जीवठाणे इय नेयं जाव तेरससु // 220 // [278] पढमम्मि जीवठाणे इय णेयं जाव सत्तसु य / (301) भंगा इह मिच्छसमा चारणाहिट्ठा उ कया // चउ 4 पणवीसा 25 सोलस 16 बाणवइसया वि हुँति चालीसा 9240 छायालं बत्तीसा 4632 सत्तअपज्जेसु पत्तेयं / / (302) : अमणम्मी पज्जत्ते “छद्धा अडवीसबंधिमागच्छे / सन्नी पज्जत्ते पुण अट्ठव य होति पुव्वुत्ता // 241 // [276] भंगा इह पुव्वुत्ता सव्वत्थ वि जीवठाणबंधेसु / पत्तेयं जोइज्जा जे जत्थ व होंति संभविया // 242 / / .. [280] इगचउवीसेगिदिसु 21 / 24 छवीसइगवीस 26 / 21 पंचसु तसेसु / , . दो दो उदयअपज्जे[स] भंगा सव्वे वि पंचंसा // 243 / / (303) [281] इगवीसे दो भंगा बायरसुहुमेहि 'एक्कइक्केण / 'बायरपत्तेगियरे चउरो चउवीसि अजसेण // 244 // (304) [282] अप्पज्जपणतसाणं सव्वासुभपगइमिलिय मेक्केक्कं / इगवीसे छब्बीसे पण पण पत्तेय दुण्हं पि // 245 / / (305) [283] नवरं मणुयअपज्जे भंगा चउ चउरसंतकम्मंसा / अडत्तरी न तेसि सेसा चत्तारि संभविया // 246 // (306) [284] एत्थ अपज्जत्ताणं असन्निसन्नीण भंगया दो दो / इगवीसे छव्वीसे मणुजोगे चउरए हुति // 247 // [285] पणचउपणगं सुहमे बंधे भंगा अपजसमसब्वे / उदएसु पुण भंगा चउसु वि उदएसु पत्तेयं // (310) . 1 "तहं सुहमबायरा चेव” इत्यपि, "सुहमा य बायरा चेव' इत्यपि, "सुहुमो य बायरो चेव" इत्यपि, वा पाठः / 2 अयं पाठः L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / 3 "छट्ठा" इति वा / 4 "पणसंता / / (303)" इति L. D. प्रतौ। 5 "एकमेक्केण" इति L D. प्रतौ / 6 "तह पत्तेगियरेहिं . दो दो” इति L. D. प्रतौ / 7 “एक्कोको" इति L. D. प्रतौ। "भंगा उ" इति L. D. प्रतौ / . Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 ] सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे पज्जत्त'सुहुम एगो इगवीसे दुगदुगं च इयरेसु / साहारणइयरेहिं भंगा पण पंचसंतसा // 248 // (311) [286] इगवीसे चउवीसे इग दुग पणसंतभंगया तिन्नि / / तह पणवीसछवीसे इक्केक्को अजसउदएणं // 246 // [287] पणवीसे छवीसे इक्केको पंच संतसो / (312) 'दो इह भंगा अन्ने साहारणि "पण्णवीस छव्वीसे / अट्ठत्तरी न तेसिं तेऊवाऊण संभवइ // 250 // (313) [288] सुहमे पज्जे उदया चउरो पत्तेय पंच संतंसा / चउ पंचा इह वीसं बंधे बंधे य पत्तेयं // (314) ... . सुहमगिदियपज्जत्तठवणाजंतइयंसुहमे पज्जे पणचउपणगं ति बंधठाणा बंधभंगा| उदय- | सत्तापणबंधा चउउदया पणसंता उदयठा० | 21 / 23 | 25 26 / 23 | 4 | 7 | 20 पणसंता / 1 | 2 प्र.१ प्र.१ 25 / 25 / / चउसंता . . सा.१ सा.१/ 26 / 16. 7 सत्तठाणा 62 | 26 | 1240 / 7 पणसंता 30 4632 | 7 / 20 चउभंगा, | सव्वे- 13617 | 35 | च उसंता सुहुमपज्जत्तबंधभंगसंखा 13617 दुन्निभंगा। 78 भंगा ठाणा 100 पणगा तिन्नेव त्ति। तिविगप्प बायराणं बंधोदयसंत पणग पत्तेयं / बंधा उ अपजसमा उदया पंचेव पुण एए // (315) . पायरइगवीसाए दो भंग जसेयरेहि पणसंता / जसपत्तेइयरेहिं चउरो चउवीसि तह चेव // 251 // (316) [286] . 1 "सुहुमि' इति L. D. प्रतौ / 2 "०रणेय०" इति L. D. प्रतौ। 3 "दो भंगा इह" इति / 4 ‘पन्नवीसि" इति च L. D. प्रतौ / 5 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु नाम्न बन्धोदयसत्तास्थानभङ्गाः ते पणवीसछ्वीसे चउरो चउरो य एसि 'दुगभंगा / पत्तेयअजसचरिया पण संता हुंति नायव्वा // 252 // (317) [290] एगिदिअपज्जाणं छब्भंगा सुहमि पज्जि पंचेव / अड बायरपज्जत्ते सव्वे उणवीस पंचंसा // 253 // (316) [261] "सेसा उज्जोयचरिया चउरो दो आयवेण भंगा उ / छव्वीसे सगवीसे तिगवाउविउब्धि पुच्चुत्ता // 254 // (318) [292] पंचेव उदयठाणा चउरो पणसंत एगु पणसंतो / चउवीससंतभेया बंधे बंधे य पत्तेयं // (320) उणवीसं पणसत्ता सेसा तेवीस चउरसंता उ / बायालीसविगप्पा एगिदियसयलउदएसु // 25 // [293] पज्जत्तजसजसेहिं . दो दो इगवीसि तह य छव्वीसे / बेइंदियतियचउरिंदियाण पण पण संतंस पत्तेयं // 256 / [264] विगलअपज्जत्ताणं तिगतिग इगवीसि तह य छव्वीसे / पुव्वुत्ता भंगा बारस पुण एए (त्ति) अट्ठारा // 25 // [265] सूभगआएज्जजसेयरेहि अट्ठव पज्जइगवीसे / संघयणागिइ भणिया उदए छव्वीसए भंगा / / 258 / / [296] इय सन्निप्रसन्नीणं तिरियाणं पंच अंसिया नेया 576 / सेसा उ सव्वभंगा अद्वत्तरिवज्ज संभविया // 259 / / [267] नामे इह संवेहे जीवठाणेसु. बंधसंखाओ / बंधेसु . उदयसंखा उदएसु य संतसंखा उ // 260 // (309) [298) १“एक्केक्के” इति L. D. प्रतौ / 2 "सेसचउसंता" इति L. D. प्रतौ। 3 "पणसंता" इति L. D. प्रतौ / 4 "अन्ने” इति L. D. प्रतौ / 5 "दुस्सु वि उदएसु दुन्नि पत्तेयं" इति L. D. प्रतौ / / ............ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 ] सप्ततिकामिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे 'सत्तअपज्जेसु ठवणा सत्तअपज्जेसु पण दुग पणगं ति, पण बंधठाणा, दो उदयठाणा, पण संतठाणा। जीवठाणा सुहु० अ० बाद० अ० बेई० अ० तेई० अ० चउ० अ० असं० अ० सं० अ० उदयठाणा| 21 | 24 | 21 | 24 | 21 / 26 | 21 | 26 | 21 | 26 21 | 26 / 21 उदयभंगा ति. ति.ति. तिश म.१ म. म. सत्ताठणा पंचसत्ता 787878 78 ति. ति. ति.ति. बंधठाणा बंधभंगा उदय उदय- | उदय- सत्ता ठाणा | भंगा | ठाणा 23 | 4 | 2 16 26 / 16 / 2 / 1670 26 | 1240 | 2 | 16 - 70 30 / 4632 | 2 | 16 | 70 सव्वे- 1397 / 80 350 सत्तअपज्जेसु पत्तेयबंधभंगा 13917 तिगपणवीसछ्वीसे उणतीसे तीसबंधठाणेसु / नव नव उदयट्ठाणा केवलिए उदय मुत्तूणं // 26 // इगिबितिचउरपणिंदियतिरिमणुसविउच्चि पाय बंधति / नियनियउदयविगप्पे सव्वे जे जस्स संभविया // 262 // 1 इदं यन्त्र L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / / [26] [300] Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... उदय- | सत्ता जीवस्थानेषु नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानभङ्गाः [ 46 एगिदितिरितसेसु तेऊवाऊणणंतरूप्पन्ना / पज्जत्तीअसमत्ता अद्वत्तरिसंत केसि वि // 263 // (321) [301] 'पज्जत्तबायरेगिंदियठवणा जंतइयंबायरपज्जे पणगा हवंति तिन्नेव बंधठाणा बंधभंगा उमा पण बंधा, पण उदया. पण संता।। भंगा| ठाणा उदयठाणा | 21 24 25 26 27 / 23 | 4 | 26 / 24 पणसंतभंगा| 2 | 4 | | 1 | 0 | 25 / 25 / 26 चउसंतभंगा . | 1 | 4 | 10 | 6 | 26 / 16 / 26 सत्ताठाणा | 5 | 5 | 5 | 5 | 4 | 29 1240 | 26 | 24 अभंगा पसंता. अट्रारस चउसंता, वेउठिवभंगा 3 तिसंता | 30 / 4632 | 26 / 24 (सव्वे - 13617/ 145 120) बायरएगिदियपज्जत्तबंधभंगा // 13917 // पण छप्पण विगलाणं तिविगप्पा एसि हुंति पत्तेयं / पण बंध अपजसमा उदया छच्चेव पुव्वुत्ता // (322) पज्जत्तजसजसेहिं दुस्सु वि उदएसु दुन्नि पत्तेयं / नवरं दो उणतीसा सासुज्जोयाण एगयरे // (323) तह तीसाओ तिन्नि उ सरदुगउज्जोयएगयरखेवे / सुरदुगएगयरेणं इगतीसा दुन्नि उदएसु // (324) छद्दगुणा बारसगं दो गुणतीसे य चउर तीसुदए / दो इगतीसे अहिया सव्वे विगलाण . सहि ति // (325) बितिचउरिदियपज्जे दो दो पत्तेय भंग छच्छक्कं / इगवीसे छब्बीसे पणसंता सेसचउसंता // (326) एए वितिचउरिंदिय उदया सव्वे वि हुँति पत्तेयं / दो पढमा पणसंता चउरुदया चउरसंता उ // (327) बंधेसु जे भंगा उदया भंगा उ जे उ बंधम्मि / उदएसु जे सत्ता पत्तेयं मग्गणा होइ // (328) 1 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | उदय- सत्तानंगा / ठाणा 50 ] सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे 'ठवणा-7 पण छप्पण विगलाणं ति / पण बंधा छ उदया बंधठाणा बंधभंगा 10 पणसंतठाणा विगलेसु उदयठा० | 21 | 26 / 28 | 29 30 31, 23 / 4 / 20 - 26 पणसंता | 2 | 2 | * | * * * | 25 / 25 / 20 - 26 चउसंता | 0 * 2 | 4 | 6 | 4 | 26 / 16 / 20 / 26 विगलभंगा 6 | 6 | 6 | 12 | 18 | 12 | 26 / 9240 | 20 | 26 सत्ताठाणा 5 | 5 | 4 | 4 | 4 | 4 | 30 / 4632 | 20 | 26 एवं बेइंदिय-तेइंदिय-चउदियाण पज्जाण पत्तोयं (सव्वे- 13917/ 100 130) | बंधे पत्तेयविगलभंगा / / 1391 / / छ छप्पणगं ति॥ पज्जामण विगलसमा उदयविगप्पा उ सन्निसारिच्छा / बंधेसु संतसंखा गिलाण व तस्स तीससयं (326) तह अडवीसा अन्ना सवियप्पा बंध अमणाणं / देवनिरयगइजुग्गा अंतिल्लेहिं दोहिं उदएहिं // (330) अट्ठासी बाणउई. सत्ताठाणा उ दोनि पुव्वुत्ता / छासीई होइ तहिं दोसु वि उदएसु छस्संता (331) 'ठवणा- छछप्पणगं ति छ बंधा, (छ) उदया (पण)सत्ताठाणा उबंधठाणा बंधभंगा उदयभंगा संतठाणा अमणपज्जे उदयठाणा- 21 26 | 28 | 26 | 30 | 31 | 23 4 4604 पणसंतभंगा- 8 |288 * * * * | 25 / 25 | चउसंतभंगा 1728/1152/ |4604 सत्ताठाणा→| 5 | 5 | 4 | 4 | 4 | 4 28 2% 2880 | 9240 4604 26 4632 | 4604 | 26 (सव्वे- 13626 27400 | 136) 1-2 इदं यन्त्रं LD. प्रतावस्ति, J.प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु नाम्भो बन्धोदयसत्तास्थानमङ्गाः [51 * अप्पज्जे पणबंधा दुगदुग उदयाउ पंच'सत्तंसा / पंचुदया दसठाणा बंधे बंधे य पत्तेयं // 264 / / (307) [302] पंचगुणा पंचासा सत्त अपज्जत्त तेहि गुणकारो / तिन्नि सया पन्नासा संतढाणाण उदएसु // 26 / / (308) [303] सुहुमेयर पज्जाणं ठाणा चउ १००पंच१२०उदयसंखाए / चउ चउ पणसंतंसा एगे चउसंतकम्मंसो // 266 // [304] बेइंदियाइपज्जत्तयाण छच्चुदयठाण जा अमणा / आइमदुग पणसंता अट्ठत्तरि वज्जिया सेसा // 267 // [305] दुसु दस चउ सोलसगं बंधे बंधे य मिलिय तीससयं / बेइंदियाइ अमणे मिलिया सयपंच वीसहिया // 26 // [306] तह अट्ठवीसवंधे अमणाणं दुन्नि उदयअंतिल्ला / बागउई अट्ठासी छलसी पत्तेय दोसु छट्ठाणा // 269 / / [307] तिण्णि सया पंचासा सयमेगं तह सयं च वीसहियं / अप्पज्जसुहुमवारे . विगलामण पंचछव्वीसा // 270 // [308] छनउय सहस्सेगं संतवाणाणि जीवठाणेसु / तेरससु आइमेसु अट्ठट्टदसगाण ई भणिमो // 271 / / [30] अदृट्ठदसगं ति पुव्वुत्तबंधठाणा अट्ठ उ उदया उ चउर मुत्तूण / केवलितिगचउबीसं "दस संता अट्ट नव मुत्तु // 272 / / (332) [310] एगिदियबायाला चिगले छावट्ठि केवलीणट्ठ / चउरो य अपज्जाणं मोत्तु सेसा उ 7671 सण्णिस्स // 273 // (333) [311] संतट्ठाणा मन्नइ- . विगलसमा सन्नीसु छस्सु वि उदएसु संतठाणाई / पणवीसे सगवीसे दुग दुग / 92 / 88 / एए विउव्वीणं // 274 / / (334) [312] "ठवणा / उदयः / 21 25 26 27 28 29 30 31 संखा | उदयभंगा- 25 26 576 | 26 1166/1772/28681152 7671 सत्ताठाणा- 5 | 2 | 5 | 2 | 4 | 4 | 4 | 4 | 30 | 1 "संतंसा" इति L. D. प्रतौ। २“तेहिं" इति L. D. प्रतौ। 3 "पंचासा" इति L. D. प्रतौ। 4. 'संता दस' इति L. D. प्रतौ / 5 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे तेवीसबंधगाणं छव्वीसा हंति संतठाणाणि / पणसगवीसे वज्जिय सेसा उदया जओ तेसि // (335) तेवीसे छव्वीसं तीसं बंधेसु चउसु पत्तेयं / .. 'ठवणा | बंधठाणा | 23 | 25 26 / 8301 एवं सत्ता // 146 / / | बंधभंगा | 4 | 25 | 16 9248/4641(13934) | सत्ताठाणा 26 | 30 30 30 | 30 | (146) | उणवीसा पुव्वुत्ता सत्ताठाणा उ अडवीसे // (336) तीसं तु संतठाणा पंचसु बंधेसु होति पत्तेयं / 150 उणवीसा पुव्वुत्ता 19 सत्ताठाणा उ अडवीसे / / 7 / / [313] तह उणतीसे बंधे सत्त उ उदया उ मणुयमासज्ज / तेणवई उणनवई पत्तेयं संतटाणाइं // 276 / / (337) [314] .. मणुतित्थसंतियाणं सत्तसु उदएसु वट्टमाणाणं / . उणतीस बंधठाणं पंचसु दो / 63 86 / दोसु उणनवई // 277 / [315] : 1 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति। A नाम्न एकोनत्रिंशद्बन्धस्थाने मनुष्याणामेव 25-27-28-26-30 प्रकृत्यात्मकेषु पञ्चस्वेवोदयस्थानेषु वर्तमानानां त्रिनवतिसत्तास्थानस्थानं प्राप्यते, नेतरोदयस्थानेषु वर्तमानानाम् , यतो नारकेषु जिननामा-ऽऽहारकसप्तकोमययुगपत्सकर्मकाभावात्तिर्यक्षु जिननामसत्ताया एवाऽमावाद्दे वेषु नाम्नस्त्रिनवतिसत्कर्मणामेकोनत्रिंशबन्धस्थानस्या-ऽभावान्मनुष्या-ऽतिरिक्तगतित्रयगतानां जीवानां नाम्न एकोनत्रिंशबन्धस्थाने नाम्नस्त्रिनवतिसत्कर्मस्थानं ना-उवाप्यते, चतविंशत्यदयस्थानम्य केवला. नामेकेन्द्रियाणामेव प्रायोग्यत्वेन मनुष्यप्रायोग्याण्युदयस्थानान्येकादश, तत्राऽष्टनव विंशत्ये-कत्रिंशत्प्रकृस्यात्मकोदयस्थानचतुष्कस्य केवलिनामेव सम्भवान्नाम्न एकोनत्रिंशद्बन्धस्थाने वा त्रिनवतिसत्कर्मणि वा तदुदयस्थानचतुष्कं नैव प्राप्यते, ततो नाम्न एकोनत्रिंशद्बन्धस्थाने 21, 25, 26, 27, 28, 26, 30 प्रकृत्यात्मकानि सप्तैवोदयस्थानानि, सन्ति, तत्रा-ऽपि 21-26, एकविंशति षड्विंशतिप्रकृत्यात्मकवर्जशेषेषु पञ्चस्वेवोदयस्थानेषु नाम्नस्त्रिनवतिसत्ता प्राप्यते, 21-26 एकविंशति षड्विंशतिप्रकृत्यात्यमकोदयस्थानद्वये त्रिनवतिसत्कर्मता कथं न प्राप्यते इति चेत् , उच्यते-जिननामा-ऽऽहारकसप्तकोभयसत्कर्मणां मनुष्याणां नियमतो वैमानिकदेवेष्वेवोत्पादोऽस्ति / तेषाञ्च सम्यग्दृष्टित्वेन जघन्यतोऽपि साधिक. पल्योपमस्थितिकेष्वेवोत्पादस्य सम्भवेन वैमानिकभवस्थितेरपि जघन्यतः पल्योपमपमाणत्वेन च पल्योपमतो न्यूनस्थितेरनुत्पादादा-"sऽहारकसप्तकोद्वलनं कृत्वैव” पुनर्मनुष्येषूत्पादो भवति, तेन तदानीमपर्याप्ताऽवस्थायामेकविंशति--षड्विंशतिप्रकृत्यात्मकोदयस्थानयोर्वर्तमानानां मनुष्याणामेकोनत्रिंशद्बन्धस्थाने विनवतिसत्ता नामकर्मणो नैव भवति, आहारकसप्तक-जिननामोभयसत्कर्मताया अभावात् , आहारकसप्तकस्य जिननाम्नो वा नूतनबन्धस्य तत्राऽसद्भावाच्च / Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [53 जीवस्थानेषु नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानभङ्गाः - देवगईपाउपगं उणतीसं बंधमाणाणं // (338) 'सत्ता सव्वेसु दो दो 93,86 // ठवणा- 21 25 26 27 28 29 30 . एवं तीसे बंधे नवर सुरा मणुयजोग बंधति / छसु निएसु उदएसु बारसठाणा. संतस्स 12 // 278 // (336) [316] ४वणा / उदयठाणा | 21 | 25 27 | 28 | 26 | 30 | सत्ताठाणा बंधम्मि एगतीसे उदओ 'तीसाइ तिणवई 'संता / तह एगबंधि उदओ सत्ताठाणाई अट्ठव // 279 // (340) [317] छायालं सयमेगं छव्वीसुणवीस तह य नव ठाणा / अब्बंधि अट्ट सन्निसु दो सय अडुत्तरा सव्वे 208 // (341) "ठवणा | बंधठाणा | 23 | 25 26 28 | 26 | 30 | उदयठाणा 8 | 8 | 8 | 8 | 88 | 1 | 1 | 1 | सत्ताठाणा| 26 | 30 30 | 19 30 39 1 8 8 (208/ छव्वीस केवलीणं तिगतिग सत्ता नवट उदएसु / तित्था-ऽतित्थगराणं दो दो सेसेसु सव्वेसु // (342) मतान्तरेण सिद्धान्ता-ऽभिप्रायेण पुनः सम्यग्दृष्टीनां पल्योपमाऽसङ्ख्येयभागादिन्यूनस्थितेष्वपि मवनपत्यादिदेवेषूत्पादोऽस्ति, ततस्तत्रा-ऽऽहारकसप्तकजिननामोभयसत्कर्मा मनुष्यउत्पद्या-ऽऽहारकसप्तके - नुद्वलिते सत्येव पुनर्मनुष्यो भवति, तदा तस्य नाम्न एकोनत्रिंशद्वन्धे एकविंशति-षड्विंशत्युदयस्थानद्वये त्रिनवतिसत्कर्मता लभ्यते, एतदभिप्रायेणेव सप्ततिकामूल-चूर्णि वृत्तिषु तथा-ऽत्रैव ग्रन्थे प्राग् // 206 // दयस्थानद्वये (250) तमगाथायामनन्तरं / / 276 / / तमगाथायाञ्च नाम्न एकोनत्रिंशबन्धस्थाने सप्तोदयस्थानेषु त्रिनवति सत्कर्मता प्रतिपादितेति सम्भाव्यते / L. D. प्रतौ पुनरत्राऽपि-त्रिनवतिसत्कर्मता एकविंशति षड्विंशत्युदयस्थानद्वये निषिद्धा / 1.2.5 इदं यन्त्रं L. D. प्रतौ। 3 "तीसन्ह" इति L. D. प्रतौ। 4 "संत" इति L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रसकोप्यां नास्ति / Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे 'ठवणा अट्र बंधठाणा. अट्ट उदयट्टाणा सत्ताठाणा दस सन्निम्मि बंधठाणा बंधभंगा उदय सत्ता भंगा ठाणा 257656, 30 6 4123/ 11 6248 7671 44 | उदयठाणा | 21 | 25 26 27 28 29 30 31 | 23 4 सन्नितिरिभंगा 8 . 288 0 576 1952) 728/1652/ 25 / 25 | मणुयभंगा | . 28 * 576 576 1152| | 26 / 16 विउव्यितिरिय. . . | 8 | 16 | 16 8 8 | आहारकभंगा * | 1 || 1 | 22 | 1 | 0 | 266248 देवाण भंगा | 8 8 | * | 8 | 16 | 16 | 8 | 6 | 30 4641 मारकाण भंगा 1 1 0 1 1 1 0 . विउठिवमणु,, | 08.8 9 / 10 सत्ताठाणा 5 2 5 2 | 4 | 4 | 4 4 (सव्वे- 13745 42H / 200) सतित्थयरसंता 63 सामन्न तरियमणुयचउसु उदएसु भंगा चुन्नीएन भणियत्ति न लिहिया देवाण भंगा 30 4641 7667 - 42 अट्ठावीसं बंधं बंधहि तिरिमणुय निययउदएहि / सुरनिरगइपाउग्गं विसुद्ध तह किस्समाणा उ / (343) करणि अपजत्ता उण आइमचउउदय वट्टमाणा उ / ' सुद्धिगया अडवीसं इयरा उणतीस बंधंति // (344) इह आइम चउउदया इगवीसछ्वीस तह य अडवीसा / उणतीसा विय कमसो वियप्प जे जस्स संभविया / / (345) 1 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रसकोप्यां नास्ति / अत्र L. D. प्रतौ "उदयह" इति पाठो दृश्यते किन्तु सम्यग् न ज्ञायते इति कृत्वा-ऽस्मामि रेकत्रिंशद्बन्धसत्कमेकं त्रिंशत्प्रकृत्यात्मकमुदयस्थानमाश्रित्य मङ्गाः 144 दशिता इति ज्ञेयम् / यदि केषाञ्चिदाचार्याणामभिप्रायेण पुनरुत्तरवैक्रियमनु- / ध्या आहारकमनुष्याश्चापि प्रकृतबन्धकतया विवक्ष्यन्ते तदेहैकोनत्रिंशदुदयस्थानमप्यधिकतया लभ्येत, तथे कोनत्रिंशदुदयस्थानसत्कमङ्गद्वयं त्रिंशदुदयस्थानसम्बन्धिमङ्गद्विकमिति चतुर्णा भङ्गानामधिकतया लाभात्सर्वं उदयभङ्गाः 148 स्युः। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु नाम्नस्तथा गुणस्थानकेषु ज्ञानावरणान्तरायदर्शनावरणीयानां बन्धोदयसत्तास्थानभङ्गाः [55 न य विवरियं पुढो इह भंगा अडवीसि उदयमंभविया / चुन्निदुगे वि हु लहुए अहवा न हु अवगया सम्म / / (346) तेण न भंगपमाणं अडवीसम्मि चउउदयसंभवियं / तिरिमणुसामन्नाणं इयरुदएसु च पुण एए // (347) पणतीसमणुविउविसु छप्पन्नं तह तिरिक्खभंगा / तीसिगतीसे उदए तिरिमणुसामन्न जे भंगा / (348) पणतीसं छप्पना चालीससया उ अहिय बत्तीसा / 4032 भंगाणं तु. पमाणं विउव्विदुगउदयअंतेसु // (346) अट्ठावीसबंधजंतझ्यं'ठवणा ठाणा | 21 | 25 26 27 28 | 26 | 30 / 31 | मंगा | तिग्यि० * | * | 0 | 0 | 0 | 0 17281152 (2880) | मणुवे. उम्विय० तिरिवेः। * | 8 | | | 16 | 16 | 8 || (56) | तिरिवेउठिवय० सामन्नमणुयतिरियभंगा सम्यग् न ज्ञा(यन्)ते चउसु उदएसु // जीवस्थानेषु नाम समाप्तम् // चउपढमट्ठाणाई 4 तेरसहीणाई 4 नाव पत्तेयं / [318] एवं उवरयवंये सन्नीपज्जत्तसंवेहो // 28 // पंचासं सयमेगं चउवीसणुवीस तहय सत्तरस / दुन्नि सया य दहोत्तर सन्नीपज्जत्तठाणाणि // 28 // [316] भणियाउ जीवठागे बंधोदयसंतविवरणं किंचि / गुणठाणगेसु तं चिय भणामि किंचि समासेणं / / 282 / / (350) [320] गुणस्थानकेषु ज्ञानावरणा-ऽन्तराययोर्दर्शनावरणस्य बन्धोदयसत्तास्थानानां मङ्गाःनाणंतरायतिविहमवि दससु दो 'होति दोसु ठाणेसु / "मिच्छासाणे वोए नव चउ पण नव य संतंसा ॥मू.-३६॥ (351) [321] . 1 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / 2 “जीवठाणेसु” इति J. प्रतिप्रेसकोप्याम् / 3 "तेच्चिय" इति J. प्रतिप्रसकोप्याम। 4 "हुंति" इति L. D. प्रतौ / 5 "मिच्छासाणा" इति L. D. प्रतौ। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 56 सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे 'मीसाइनियहीओ छच्चउ पण नव य सन्तकम्मंसा / चउबंधतिगे चउपणनवंस दुसु जुयल छस्संता॥सू.-४०॥ (352) [322] उवसंते चउपणनव खीणे चउरुदय छच्च चउसंता / वेयणियाउयगोए विभज मोहं परं वोच्छं ।।मू.-४१।। (353) [323] नाणंतरायगाहातिगस्स विवरणं पुव्वुत्तं // दुसु जुयले छस्संता एएण पएण सूइया खवगा / तेसि विसेसं विवरे किंची गाहानुसारेण ||283 / / (354) [324] अच्चंतविसुद्धत्ता निदाउदओ न खवगसेढीए / अप्पुव्वाई चउबंधगेसु चउरोदओ तेण / / 284 // (3.5) [325] अप्पुव्वपढमभागे छक्कं उवरिं तु चउरबंधुदए / जा सुहुमो सत्ताए बायरसंखंस नवसंता // 285 // (356) [326] ___ थीणतिगखविय उवरि छस्संता जाव सुहुमरागंतो / घंधोवरमे चउरुदय खीणि संता उ छच्चउरो / / 286 // (357) [327] गुणस्थानकेषु वेदनीयगोत्रयोर्बन्धस्थानादिमङ्गाः चउ छस्सु दोन्नि सत्तसु एगे चउ गुणिसु वेयणियभंगा।' गोए पणचउ दो तिसु एगट्ठसु दोन्नि एगम्मि ।।स.-०॥ (358) [328] छसु आइमेसु पढमा चउरो बंधे य अंतिमा दो दो / वेयणिए इय सत्तसु बंधोवरमे चउर एगे // 287 / / (359) [326] बंधोवरमि अजोगे सायासायाण उदउ को कस्स / जाव दुचरिमो दो दो 'चरिमे एक्केक्क संताओ // 288 / / (360) [330] सायं बंधं तह उदय साय तह सायबंधि दुक्खुदओ / दो दो संता दोसु वि इय भंगा सत्तसु गुणेसु // 289 / / (361) [331] पदमम्मि पढम पंच उ बीए पढमं विवज्जिया चउरो / उच्चं बंधं नीचुच्च उदय दो संत भंगदुगं // 260 / (362 [332] एगेसि मयं नीयं वयगहणे नेव होइ उदयम्मि / नीया वि हु जइजाई तह वि य ते उच्च वेयंति // 291 / / (363) [333] १“मिस्साइ०' इति L. D. प्रतौ / 2 "अंतरिउ” इति L. D. प्रतौ / 3 'चरमे'' इति L. D. प्रतौ। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकेषु दर्शनावरणीय-वेदनीय गोत्रा ऽऽयुषां बन्धोदयसत्तास्थानभङ्गाः [57 संजयपमत्तठाणाउ जा चरिमो सुहुमरागसमओ उ / 'बंधोदयम्मि उच्चं संता दुस उच्चनीयाणं / / 292 / / (363) [334] उवरयबंधे उच्चं उदए संताइ दो वि जाजोगी / अज्जोगि 'चरमसमए "उदए संता य उच्चस्स // 263 / / (364) [335] ___ गुण थान कष्वायुषो बन्धादिस्थानमगाःअट्ठच्छाहिगवीसा सोलस वीसं च बार छद्दोस / दोचउसु तीसु एक्क मिच्छाइसुआगे भंगा।।सू.-०।। (366) [336] अट्ठावीसं 28 पढमे 26 बीए नरयाउ नरतिरि न बंधे / तइए बंधविवज्जा 16 चउत्थए वीस इय होति / / 294 / (367) [337] अविरयसम्मा जीवा तिरिमणु देवाउ[एक]मेव बंधति / नारयसुर मणुयाउं अट्ठ उ भंगा असंभविया // 265 / / (368 [338] 'नरतिरियदेसविरया देवाउं एकमेव बंधति / 'पुव्वुत्ता दस जुत्ता भंगविगप्पा उ बारस उ / 266 // (369) [339] मणुसरिस पमदत्तियरे 6 उवरि मणुउदयमणुयसंताओ / खवगे पडुच्च एगं वि य सेढी चउसु सुरसंता // 267 / / (370) [340] गुणठाणा * मि० सा० मी० / अ० | दे० | प० |ऽप० | "ठवण णारण०|नानावरण है |उदय 4/5 4/5 4/5 4/5 4/5 4/5/4/5] विदनीय भंगा| 4 | 4 4 | 4|44| 2 | आउय० |भंगा| 28 | 26 | 16 | 20 | 12 | 6 6 1 "बंधे उदए" इति L. D. प्रतौ / 2 “दो'' इति L. D. प्रतौ / 3 "सत्ताए” इति L. D. प्रतौ / 4 "चरिम०" इति L. D. प्रतौ / 5 "उदओ" इति L. D. प्रतौ / / "बन्धामावा" इति L D. प्रती। 7 "हुंति" इति L. D. प्रतौ / 8 "अविस्यसम्मा [जीवा] तिरिमणु देवाउं एगमेव" इति L. D. प्रतौ / है "पुव्वुत्तदसं जुत्तं" इति L. D. प्रतौ / 10 'मणुभंग" इति L. D प्रतौ / 11 इदं यन्त्रं L D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकामिधे षष्ठे कर्मप्रन्थे नि० ऽनि० | सु० | उ० वी० | स० अजो. * | 4/5 4/5 4/5 4/ 5 4 0 गुणस्थानकेषु मोहनीयस्य बन्धस्थानानिगुणठाणगेसु अट्ठस एक्केक्कं मोहबंधठाणं तु / पंचानियठिाणे पंधोवर मी परं तत्तो सूत्रम् 42 // (371) [341] गुणस्थानकेषु मोहनीयोदयस्थानानिसत्ताइ स उ मिच्छे सासायणमीसए नवुक्कोसा। छाई नव उ अविरए देसे पंचाइ अठेव ।सूत्रम्-४३।। (302) [342] विरए खओवसमिए चउराई सत्त छच्चापुव्वम्मि / अनिअष्टिबायरे पुण एको व दुवे व उदयंमा ||सू.-४४।। (373) [343] एगं मुहुमसरागो वेएइ अवेयगा भवे सेसा / भंगाणं च पमाणं पुवुद्दिटटेण नायध्वं / सूत्रम 15 / / (374) [344] "गुणठाणगेसु अटुसु” इच्चाइनाह * रक्कास विप सुरुवं / / जइ वि इह मोहविवरण गुणठाण पडुच्च हिट्टओ अधिक संपइ पुण कमपत्तं तस्सऽणमा / (375) Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु मोहनीयस्य बन्धोदयस्थानभङ्गाः ठवणा पमत्त. गुणठाणा मिच्छदिट्ठि सासादन| मीस. | अविरयसम्म देसवि. बंधट्ठाणा | 22 / 21 / 17 / 17 / 13 बंधभंगा / 6 / 4 / 2 2 2 2 उदयट्टाणा IFE || TET EPTEJEE||56 08/4/56. वउवीसिया 133 1/4 2 2 12 1 1/3 3 1 2 | 3|3|1|1|33] 1 | 16 / 96 / 12 / 192 / 162 | अपमत्त अपुव्व० अनियट्टिबायर० सु.|| उदयपद ठवणा | 162 / 66 12 मोहिया जीवा -- मिच्छाइ गुणट्ठाणगेसु उदयसंखामाह ठाणा वास मि० सा• मी• ऽवि० दे० | 50 ऽप० | नि० |ऽनि०| सु० | .'ठवणा-उदयः चउ 30 / 00 .. | 2 ५२भं एवं बावन्न चउवीसिया। उदयपया चउवीस-| दुगीदयभं० 12 | 1 |5, गुणा 1248 // दुगोदयएगोदयपया 1 // एगोदयमं०५ / 1 इदं यन्त्र L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे . पत्तेयं गुणठाणे पडुच्च मोहुदयपयविंदसंखामाह'ठवणा- | गुणठाणा मिच्छ| मा. मीस० ऽविः | देवः पमत्त ऽपम० निय. - ऽनियट्टि . मोहोदय. 162 66 / 96 162 | 162 192 132 66 | 12 | 1 | 2 | 2 | 1 | पयविंद चउवी सिया |पयविंदा 1632 768 768 1440/1248/1056 2056/480 28 एवं मोहोदय१२६५।। एवं पयविंदचउवीसिया 352|| पयविंदा 26 / / एवं सव्वे पयविंदा 8477 // वा गुणठाणा | मिच्छ० | सा० मी० ऽविरय० | देमवि० | पमत्त० | ऽपम० पदचउवीसिया 8 / 4 / 4 / 8 8 8 8 पदविंदचउ वीसिया पदविंदा 1632 768 768 1440, 1248 : 1056 | 1056 सत्ताठाणा 28,27,26 28 28,27 28,24 28,24 | 28 24 | 28,24 24 23,22.21/23,22,21,23,22,2123,22,26 // २ठवणा |नि अनियट्टि सु. उ. . | 4 | 12 | 1 | 1 | 1 | 1 | | उदयपया 1265 / / पयविंदच वीसिया 20 ( भ 24 | 1 | 1 | 1 | 352, भंगा 21 // पयविंदा 8477 // 28,24/ 28,24, 21, 13, 12,11, 5 | 21 | 4, 3, 2,1 1 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / 2 इदं यन्त्र J. प्रतिप्रेसकोप्यामस्ति, L. D. प्रतौ नास्ति। 29 25 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु मोहनीयस्योदयस्थानभङ्गाः मोहनीयस्योदयस्थानमङ्गाःएक छडेक्कारेकारसेव इकारसेव नवतिनि / एए चउवीसगया पारदुगे पंच एगम्मि सूत्रम्-४६॥ (376) [345] पोरसपण सहिसया उदयविगप्पेहि मोहिया जीवा। "चुलसोयसत्तसत्तरिपयविंदसएहि विन्नेया ॥सू-०॥ (377) [346] ___ गुणस्थानके षु मोहनीयोदयस्थानमङ्गाःअहगचउचउचउरडगा य चउरो य 'होति चउवीसा / मिच्छाइ अपुवंता पारसपणगं च अनियटी ।।सू.-०॥ (378) [347] दसगम्मि एग मिच्छे तिग तिग नवअट्ठगम्मि सत्तेगा / एगदुग एग साणे नवअट्ठगसत्तगे कमसो // 268 // (376) [348] तह मीसगम्मि एवं अविरयसम्मे छडेग चउवीसा / तिगतिग सत्तग अट्ठग एगा नवगम्मि बोधव्या // 299 // (380) [349] पंचोदयम्मि एगा तिगतिग छस्सत्तगे य अठेगा / देसविरयम्मि एवं अट्ठग चउवीस उदएसु // 300|| (381) [350] चउरोदयम्मिएगा तिग तिग पणछक्कगम्मि सत्तेगा / संजयपमत्तउदए अपमत्ते तह य एवं तु // 301 / / (382) [351] अप्पुव्वे चउरेगा पणगे दो छक्कगम्मि एका उ / मिच्छाइ अपुव्वंते बावन्ना सन्बचउवीसा // 302 / / (3-3) [352] चउवीसगुणा एए बारस अडयाल हुँति मोहुदया / दुग एग उदयभंगा नवमे ते जाण सोलसगं // 303 / / (384) [353] बंधोवरमे सुहमे एगुदओ लोभसुहुमकिट्टीणं / इय सव्वुदयविगप्पा बारसपणसह मोहस्स // 304 / / (385) [354] आह कह एक उदए 'हेट्ठा एक्कारभंग नणु वुत्ता / इह पुण पंचेव कहं पुब्बिं बंधो इहं उदओ // 305 / / (386) [355] जे बंधइ ते वेयइ बंधविवक्खाइ भंगएक्कारा / उदयविवक्खाइ पुणो एक्कुदए पंच भंगा उ // (387) * ठवणा-पेज नं० 56 // 1. "छडिक्का०" इति L.D. प्रतौ / 2. "एक्कम्मि” इति L.D. प्रतौ / 3. “सट्ट०" इति L. D. 'प्रतौ / 4 “चुलसीइ सत्तुत्तरिपय०" इति / 5 "हुति" इति वा / 6 "उवरिं" इति L. D. प्रवौ / Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे अट्ठी 'पत्तीसा पत्तीसा सहिमेव बावन्ना / चोयाल दोसु 'वोसा मिच्छामाईसु सामन्ने ॥सू.-०॥ (388) [356] मिच्छे जो चउवीसा उदयगुणा ते उ मिलिय अट्ठी / बत्तीसाइ कमेणं एस गमो जा अपुते // 306 / / (386) [357) "एए सव्वेगट्ठा चउवीसाए गुणित्तु कयरासी / उणतीसभंगसहिया चुलसी सतहत्तरा एवं // 307 // (360) [358] ठवणा-पेज नं०६०॥ जोगोषओगलेसाइएहि गुणिया हवंति कायया / जे जत्थ गुणहाणे हवंति ते तत्थ गुणकारा ॥सू.-४७॥ (361) [356] 'मोहुदयजोगपयविंदाणं च विवरणमाहमोहुदयपयविगप्पा गुणि(आ) गुणठाणजोगसंखाए / सामन्नं नव जोगा सव्वेसिं अहिय केसिंचि // 308|| (362) [360] नव गुणिया उदयपया इक्कारसहस्स तिन्नि पणसीया 11385 / अन्ने वि चउर जोगा मिच्छे साणे य सम्मम्मि // 309 / / (353) [361] तह मीसपमत्तेसु एगो दो जोगअहियया कमसो / . इत्थ वि लद्धविगप्पा खेप्पिज्जा पुन्वरासिम्मि // 310 / / (364) [362] वेउव्विय तह वेउब्विमीसओरालमीसकम्मइया / मिच्छम्मि सासणम्मि य अविरयसम्मम्मि ए अहिया // 311 // (365) [363] अडचउवीसा वेउव्वियम्मि चउचउरसेसतिगमिच्छे / अणउदयरहियउदया न होंति सत्ताइनवगेसु // 312 / / (366) [364] जओ 'वुत्त। अणउदयरहियमिच्छे जोगा दस कुणइ जं न सो कालं / अणणुदओ पुण तदुवलग सम्मदिद्विस्स मिच्छुदए // 313 / / (367) [365] सासणमीसे चउरो वेउव्वियजोगि दुसु य पत्तेयं / तह उरलमीसकम्मणि सासणभावम्मि चउचउरो // 314 // (368) [366] वेउन्विमीसनरए अहोमुही नेव सासणो गच्छे / देवा न संढवेया विउव्विमीसम्मि नपुऊणा ||315 // (366) [367] 1 "बत्तीसं बत्तीसं'' इति। 2 “वीसा वि अमिच्छमा०" इति। 3 "एसव्वे एगत्या" इति L. D. प्रतौ J. प्रतिप्रेसकोप्यामपि / 4 “अयं पाठः J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति, किन्तु L. D. प्रतावस्ति / 5... 'हुन्ति' इति L. D. प्रतौ। 6 "वोत्तं" इति L. D. प्रतौ / Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु मोहनीयस्योदयस्थानभङ्गाः सोलहया तेण चत्तारि / / अविरयसम्मे अट्ठ उ वेउब्वियकायजोगि चउवीसा / तह मीसकम्मणेसु नवरं थीवेयपडिसेहो // 31 // (420) [368] इह सम्मदिद्विजीवो न थीसु उववज्जइचि ववहारे / अच्छेरउत्ति होज्जा अहवा सुत्तस्स बाहुल्ला // 317 // (401) [366] नपुवेय कहं भन्नइ वेयगरहियाउ जेण तिन्नुदया / तह वेयगेण तिनि उ नरएसुववज्जमाणाणं // 318 / / (402) [370] इत्थ य नपुसवेओ इयरगईउ पुमवेय संभविया / संभावयामि इत्थं नपुसथीवेयपडिसेहो // 316 / / (403) [371] ओरालमीसि सम्मे पुरिसवेएण चेव उववाओ / अह तित्थं थीवेए इत्थ'वि अच्छेरसंभवओं // 320 // (404) [372] अट्ठ य सोलहया वेउव्वियमीसकम्मइगजोगे / ओरालमीसि चउरो वेउव्विय अट्ठ चउवीसा // 321 / / (405) [373] आहारयदुगजोगे सोलहया अट्टअट्ठउदए / जम्हा पुव्वधरी वा विक्कियलद्धी य नो इत्थी // 322 // (406) [374] इय वीर्य 20 तह बारस 12 चउरो अट्ठव 'मिलिय चउवीसा। मिच्छाइ अविरयंते तह सासणि चउर सोलहिया // 323 / / (407) [375] अविरयसम्पे वीसं पमत्तपिरियम्मि सोलसोल हया / चउवीससोलहेहिं गुणिया खिव पुवरासिम्मि // 324 / / (408) [376] तेरससहस्स तह इक्कसी य जोग' पयसव्वपिंडेण / (13081) इय अणुमारा विंदा गुणिज्ज इह सव्वजत्तेण। / 325 / / (401) [377] पुव्वं व जोगगुणिया पयविंदा ते हवंति इह दंडा / तेणउया 'दोन्निसयासहस्पछावत्तरी नवहि (76263) // 326 / / (410) [378] वेउव्वियअट्ठी बत्तीसा इयरजोग पत्तेयं / छावत्तरमयमेगं चीनियमिच्छदिद्विम्मि // 327 // (411) [376] सासायण वेउनियोगालयमीसकम्मइगजोगे / बत्तीमं पत्तेयं वेचिपभीस सोलहया // (412) 1 "व" इति L. D. प्रतो 2 ति .. D. प्रतौ / 3 "मयः" इति L. D. प्रतौ। 4 "दुनि" ति L. D. प्रतौ। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे मीसे विउव्विजोगे बत्तीसं होति विंदचउवीसा / अविरयसम्मे सट्ठी वेउब्वियकायजोगम्मि // (43). तह मीसकम्मणेसु सोलहया सढि . होति पत्तेयं / / ओरालियमीसम्मी . तेसट्ठी अट्ठया जाण // (414. आहारग तह आहारमीस संजयपमत्तउदयम्मि / चोयालं पत्तेयं सोलहया दोसु जोगेसु / (415) एए गुणित्तु सव्वे नियनियठाणेहि पुव्वरासिम्मि / पक्खिवसु समवउत्तो संपुना जेण सा रासी / / (416) मोहोदयपयविंदा गुणजोगवियारणाअ उवउत्तो / संखा पुण उणनवई सहस्स तह तिन्नि उणपन्ना / / (86346) (47) : 'ठवणा-. गुणठाणा→ मि० | सा. | मी. प्रवि. देस. मत्त. ऽपम. |ऽपुव्व ऽ'नय. सु. | जोगठाणा- | 13 | 13 | 10 | 13 | 9 | 11 | 9 9 9/16/6/1 (सव्वे) जोगपवा→ 2208/1216 660 2240 17 8/19841728 864 644 6. 13081 जोगपयविंदा 132 17287680 16.137 | 13 |65045320 252 6 .89346 मोहोदयपयविंदा गुणिजोगवियारणा तइयमंखा / जाया सहस्स उणनवइ तिण्णि सया अउणपण्णा य 86346 // 32 // [380] मणिया जोगपयदंडमगाणा, इयाणि उवओगपयदंडमग्गणा भण्णइपढमे बीए पंच उ तइए चउ पंचमे व छच्च भवे / सेसे सत्तुवओगा मोहुदएहिं गुणिज्जाहि // 326 / / (418) [381] मिच्छे जा चउवीसा उवओगगुणा हवंति तेसि पया / नवसयसट्ठा 960 सव्वे से सेसु य एस होइ कमो 330 / (416) [382] जइवि चउवीससंखा गुणिया उवओग इत्थ पयवुत्ता / तहवि य चउवीसगुणा मोहपया 'एत्थ दट्ठव्या 331 / (420) [383] 1 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / 2 ' भन्नई'' इति L D प्रतौ / 3 'सेसगुणाणं च एस कमो / 4 "पुग्वुत्ता" इति L. D प्रतौ। 5 'इन्थ' इति L. D. प्रतौ / Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ठवणा गुणस्थानेषुमोहनीयस्योदयस्थानभङ्गास्तथैव योगोपयोगलेश्या आश्रित्याऽपि [65 साणे चउसयमीया 480 मीसे छावत्तरा य पंच भवे 576 / अविरयसम्मे 1152 देसे 1152 कारसबावण्ण इक्केक्क।।३३२॥(४२१) [384] उवओगपय पमत्ते तेरस चोयाल 1344 तहय इयरे य 1344 / छब्बावत्तरपुव्वे 672 अनियट्टिसयं तु बारहियं 112 // 333 / / (422) [385] सुहमे बंधोवरमे एक्कुदए सत्त हुति उवओगा / सव्वे सत्त सहस्सा नवनउया होंति सत्तसया (7799) // ( 23) अट्ठी बत्तीसा इय अणुसारेण सेसचउवीसा / नियउवओगगुणा ते पयदंडा हुति सव्वे वि // (424) चउवीस पंचभंगा सत्तगुणा ते वि खिवसु रासिम्मि / एक्कावन्नसहस्सा तेसीया हुति सव्वे वि / / (51083) (425) उपयोगपयदंडागुणठाणा * मि. सा. मी. अवि० देस. प. | अप. अपु. अनि| सु. | उबओगा- 185/4 | 6/4 | 6/8/6/8/7/8/7/8/7/4 | 7/16, 12 (सब्बे) | उपयोगपया-६६० 480 | 576 11521152 / 13444344 672 | 112 | - | 77e , गिपय 81603840/4608/8640 / 04887362/7392/3360 166 | 7 51083 इयाणि लेसपया लेसदंडा य भन्नति पढमचउक्के छक्क उवरि तिगे तिन्नि होति लेसाओ / सेसेसु सुक्कलेसा मोहुदएहिं गुणिज्जाहि // (426) मिच्छम्मि लेसउदया इक्कारसया हवंति बावन्ना 1152 / अविरयसम्मे तेच्चिय लेसगुणा होति ते उदया 1152 // 334 // (427) [386] सासण 576 मीसे 576 देसे इयरे य होंति लेसुदया / छावत्तरपंचसया 576 पत्तेयं पुचि छन्नउई 66 // 335 / / (428) [387] सोलस 16 अनियट्टिम्मी सुहुमे एकको य संखस वि / नउया बावन्नसया सत्त उ भंगा उ पिंडेण 5267 // 336 // (426) [388] अट्ठी इच्चाई गुणिया सव्वे वि लेसदंडाओ / अट्ठत्तीससहस्सा दोन्नि सया सत्ततीसाउ 38237 // 337 // (430) [386] - 1 इद यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J. प्रतिप्रेसकोप्यां नास्ति / 2 “तिच्चिय" L. D. इति प्रतौ। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 ] सप्ततिकामिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे 'ठवणा गुणठाणा - मि. सा. मी. अवि. / देस. लेसा - 6 6 6 / 6 / 3 लेसापया - 1152 576, 576 | 1152 576 लेसापयदंडा- 9792 4608 4608 8640 3744 स.ठा.संख्या / 3 / 1 / 3 / 5 / 5 | 21,21, | 22.21, सत्ताठाणा -28,27,26, 28 28,27,24 28,2,3 पमत्त / अप० / अपु० | अनि० | सु. उ. . |मञ्चसंख० 11-(297 1 -38237 | 3198 | 3168 | 480 | 28 / 28.24,2328,2423/ 28,24 28.04.21 28,24/28.24,21 22,21, 22,21, 21. 13,50.5121,1 |5.5.3.2, गुणस्थानकेषु मोहनीयसत्तास्थानानि गुणठाणगेसु सत्तासंग्वामाहतिन्नेगें एगेगं तिगमिस्से पच चउसु तिगपुवे / एक्कारवायरम्मी सुहुमे चउ तिनि उवसंते ॥सू.-४८॥ (531) [390] तिन्नेगे एगेगं गाहा पुव्वभणिया सत्तट्टाणा उ मोहे गुणट्ठाणमासज्जइयाणि नामस्स भन्नइ गुणस्थानकेषु नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानानिछन्नवछक्कं, तिगसत्तदुगं दुगतिगदुग, तिगहचऊ / दुगछच्चउ दुगपणचउ चउदुगचउ पणगएगचऊ ।।म.-४९।। (432) [391] एगेगमह एगेगमट्ट छउमत्यकेवालजिणाणं / एगं चउ एमं चउ अट्ट चउ दुलक्कमुदयसा ।स.-५०। (133) [362] एएसिं विवरणं भण्णइ- . रिप्रेमकोप्यां नास्ति। 1 इदं यन्त्रं L. D. प्रतावस्ति, J प्रतिप्रेमकाप्यां नास्ति : 'लय : 3 "मोहमासज" इति L. D. प्रतौ। 4 "जंतइय” इति L ता . Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गुणस्थानेषु मोहनीयस्य लेश्या आश्रित्योदयस्थानमङ्गास्तथा मोहनीयसत्तास्थानानि तथा [67 नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानमङ्गाः ठवणा बंधट्टाणा- 6 | 3 | 2 | 3 | 2 | 2 | 4 | 5 | 1 | 1 | * | * * * उदयठाणा / | 7 | 3 || 6 | 5 | 2 | 1 | 1 | 1 | 1 || 8 | 2 संतढाणा- 6 | 2 | 2 | 4|4|4|4|4|||| 4 | 4 | 6 | तीसंत छच्च बंधा उदया नव केवलीण मोत्तूण / पणता पुव्वुत्ता उणनवई मिच्छदिद्विस्स // 338 // (434) [393] बंधभंगाचंउ पणवीसा सोलस नव वाणउई सया य चत्तोला / बत्तीसुतरछायालसया मिच्छस्स बंधविही ॥सू.-०॥ (435) [364] ____ बंधभंगा 13926 / / सत्तट्ठहारकेवलि 'भंगतिगं जइ विउव्वि संभविया / मोत्तृण सेस सव्वे मिच्छद्दिविस्स संभविया // 336 // (436) [365] संवेहो. उदएसु बंधे बंधे य संतचालीसा / नवर उणतीसबंधे "नेरइय पडुच्च उणनउइ // 340 // (437) [396] इगवीसे पणवीसे सगवीसे अट्ठवीसउणतीसे / उणतीसबंधगा ए पंचसु उदएसु नेरइया // (438) तित्थयरसंतकम्मी नरए बंधाउ अंतरमुहुत्तं / मिच्छत्तवेयगो सो पंचसु नेरइयउदएसु // 341 // (439) [367] अट्ठावीसे बंधे अंतिल्ला दोन्नि उदय मिच्छस्स / / चउतिगसत्ताठाणा पुव्वुत्ता सत्त सव्वेवि // 342 / / (440) [398] पणवंधेसु दोसय अडवीसे सत्त पंच उणतीसे / दोन्नि सय बारसुत्तर सत्ताट्ठाणाइँ मिच्छम्मि // 343 / / (441) [369] ठवणा- | बंध० / 23 / 25 / 26 / 28 / 26 / 30 / | सत्ता० 40. 40 40 |10/5 40 / / 9 9 8 (छन्नवछक्कं ति गयं // 1 // इति प्रथमगुणस्थानके) 1 "वीस अट्ट नव मुत्तु / " इति L. D. प्रतौ / 2 "भंगा तिग' इति L. D. प्रतौ। 3 "मुत्तण" इति L. D. प्रतौ / 4 “अहिया उणनवा पणभेया // 43 // " इति L. D. प्रतो। 212 उदया Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मगन्थे अडवीसुगुतीसतीसा बंधा साणम्मि बंधभंगा उ / अड चउसट्ठिसयाई बत्तीससयाइँ कमसो उ // 344 / / (442) [400] . | बंधट्टाणा | 28 | 26 | 30 | भंगा 8 64003200 छेवट्टहुंड मुत्तं पणपणगेणं गुणिज्ज थिरगाई / 128 / जम्हा न सासणम्मी हुंडं छेवट्ट बझंति // 345 / / (443) [401] तेण उणतीसबंधे चउसट्ठिसया उ मणुयतिरिएसु / 'उज्जोयतीसि भंगा बत्तीससया उ तिरियाणं // 346 // (444) [402] चउपढम तिनि चरिमा मिच्छगनवगाउ सासणे सत्त / अट्ठासी बाणउई सत्ताट्ठाणा उ साणम्मि // 347 / / (445) [403] पढमा उ चउरउदया इगिविगलपणिदिलद्धिपजाणं / पुव्वभवायायाणं करणि अपजाण संभविया // 348 // (446) [404] चउ पढमा एगिदिसु चउवीसं मुत्तु ते च्चिय तसेसु / णवरि पणवीसउदओ सुरेसु पुव्वुत्त एगिदी // (447) तिण्णुदया जे चरिमा उवसमसम्मम्मि अणउदय भणिया। पजत्तचउगईसु जे जस्स य केइ संभविया // 346 / / (448) [405] ___भंगा उदएसु के कस्स तं भन्नइबत्तीस दोन्नि अट्ठय बासी य सया य पंच नव उदया। बारहिगा तेवीसं बावन्नेकारस 'सया य ॥सूत्रम्-०||(४४६) [406] दो 2 छक्क 6 अट्ठ 8 अट्ठग 8 तह अट्ठग 8 सासणम्मि इगवीसे / इगि 1 विगल 2 सगल 3 मणु 4 सुर 5 पज्जत्ताणं च संभविया // 350 // (450) [407] बायरपत्तेयवणे पजत्तजसाजसेहि दो भंगा / इगवीसे चउवीसे 24 अट्ठय 8 पणवीसि देवाणं // 351 // (451) [408] 1 "उज्जोयतीसबंधे” इति L. D. प्रतौ / 2 "दुन्निअट्ठ य बासीइ" इत्यपि / 3 "सयाई” / L. D. प्रतौ। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानभङ्गाः [69 दोसय अट्ठासीया मणु तह तिरियाण छच्च विगलाणं / पंचसया बासीया 582 उदए छन्वीसि सव्वे वि // 352 / / (452) [406] एगो य अट्ठभंगा नारयदेवाण उदइ उणतीसे / तीसुदइ तिरियमणुसुर तेवीससया उ बारहिया // 353|| (453) [410] उज्जोयतीसि अट्ठ उ कारसबावन्न ते य सरतीसे / देव तह तिरिय भंगा ते चिय मणयाण तिरियसमा // 354H / (454) [411] उज्जोयतीसउदओ मिच्छदिद्विस्स न उण साणस्स / उज्जोयएगतीसा सासणभावम्मि कह एवं // 35 // (455) [412] जं मिच्छदिद्विभणियं 'सासणुतीसम्मि तस्स पक्खेवा / अपजत्ति संभवो तहि साणं भासाइपज्जत्ते // 356 / / (456) [413] इगतीसा तिरिउदए सासणभावम्मिकार बावण्णा / चउसहससत्तनवई 4097 सासणगुणसव्व पिंडेण ||357 / / (457) [414] संवेहो य इयाणिं सासण भावम्मि चंधि अडवीसे / दो उदया अंतिल्ला तिगसंत न तिरिय बाणउई // 358 / / (458) [415] मणुतीसुदए सत्ता बाणवई जेण कोइ सेढोओ / चुयहारगकम्मंसी सासणभावम्मि गच्छेजा // 359 / / (459) [416] अडसी तिरिमणुयाणं नियनियउदएसु वट्टमाणाणं / अडवीसबंधगाणं तिगठाणा संत संवेहो // 360 // (460) [417] उव्वलियसेसहारगउवसमसम्म लहित्तु जेसि मयं / . तत्तो सासणभावं बाणवई तिरिय न विरोहो // 361 // (461) [418] कह भन्नइजो गंठिं ता पढमो गंठि समईअओ भवे बीयं / / अनियट्टीकरणं पुण सम्मत्तपुरक्खडे जीवे // (462) "तस्स य अंते उवसमसम्मं तिगपुज कुणइ मिच्छसि / (463) वेयगसम्मद्दिट्ठी अणंतरं सव्वविरइ लहिऊण / तत्तो विसुज्झमाणो आहारचऊ समज्जेइ / / (464) 'अडवीससंतकम्मी मोहे बाणवइ नाम . संतंसी / १"सासुणती०" इति L. D. प्रतौ / 2 "बावन्ना” इति L. D. प्रतौ / 3 “एषा गाथा-ऽपूर्णा लेखकदोषात् L.D. प्रतावस्तीति सम्भाव्यते / एतद्गाथोत्तरार्धम्-"तव्वडिओ पुण गच्छद सम्मे मीसाइ . मिच्छे का / / (463)" इत्येवंविधं स्यादन्यथा बेत्यपि संभावना क्रियते। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकामिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे परिवडिउं मिच्छत्तं तह गच्छद चउसु वि गईसु // (465) मिच्छत्तगओ तिन्नि वि सम्मं मीसं च हारचउपयडी। उव्वलिउं आढवई उचलइ च संखपल्लंसे // (466) छव्वीससंतकम्मी पुण स च करणेहिँ उवसमं पावे / तस्संते अणउदए सासायणभाव गच्छेज्जा / (467) आहारचउव्वलिए अट्ठासी संतकम्म णामस्स / अहवा वि पढमसम्मे. अंते साणो व अट्ठासी // (468) अन्नेसि मयं तिन्निवि उव्वलियं आढवेइ समकालं / उव्वलइ कमेण तहा पल्लासंखंसभागेण // (466) उव्वलिए दिद्विदुगे हारगसंतम्मि उव्वलियपाए / इत्थंतरम्मि उवसमकरणेहिं उवसमइ पावं // (470) तस्संते अणउदए पढमं साणो व बुच्चए सो च / / बाणवइसंतकम्मं साणे तिरियाण न विरोहो // (471) जे उणतीसं बंधहि सासायणमणुयतिरियपाउग्गं / . अडसीइसंतठाणं सत्तसु उदएसु तह 'तीसे // 362 / / (472) [416] नव तिरिपाउग्गं उज्जोयसहियं तु बंधमाणाणं / , तिगअट्ठअट्ठठाणा सव्वे उणवीस पिंडेण // 363 // (473) [420] उणतीसतीसवंधे नियनियउदएसु संत बाणउई / पुव्वं व भणियविहिणा तिरिमणुय मयंतरेणेह // 364 / / 474) [421] तिगसत्तदुगं ति गयं / / 2 / / (इति द्वितीयगुणस्थानके) उणतीसअट्ठवीसा बंधे उदएसु तीसउणतीसा / तह एगतीस उदए दो ठाणा संत मीसस्स // 365 / / (475) [422] बंधेसु भंगसोलस उदए चउतीस होंति पणसट्ठा / 3465 / भंगा इह संभविया चउगइयाणं च पज्जाणं // 366 // (476) [423] एगं अट्ठ य भंगा नारयदेवाण अउणतीसम्मि / तेवीसं चउरुत्तर 2304 नरतिरियाणं च तीसुदए // 367|| 477) [424] इगतीसा तिरियाणं तिरिय विगप्पा इकार बावन्ना / 1152 / एवं चउतीससया पणसट्ठा मिस्सभंगाणं // 368 // (478)[425] 1 "तीसि” इति L. D. प्रतौ / 2 "हुँति” इति L. D. प्रतौ / “य कार” इति J. प्रतिप्रेसकोप्यां Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानानां मङ्गाः संवेधश्च [.1 संवेहो बंधेसु उदयं उदयं पडुच्च दो ठाणा 9299 / अडवीसि दुअंतिल्ला इयरे 'उणतीसउदओ उ // 366 / / (479) [426] __एवं संतट्ठाणा 6 // दुगतिगद्गं ति गयं // 3 // (इति तृतीयगुणस्थानके) तिगबंधठाण अजए अडवीसु गुतीसु तह य तीसा य / थिरसुभजसइयरेहिं भंगा अट्ठट्ठ पत्तेयं // 370 / / (480) 427] अट्ठ उ उदयट्ठाणा जे पुव्वुत्ता उ बंधि अडवीसे / उदयविगप्पा सव्वे जे जेसिं हुंति संभविया / / 371 / / (481) [428] चउगई उ पडुच्च संतठाणसामित्तसंभवमाह-- संतट्ठाणा चउरो. पढमा तेणवइ मणुयदेवाणं / अपमंत्तसंजओ बंधिऊण अजसो मणुस्सदेवो वा // 372 / / (482) [426] तं च कहं अपमत्तो अपुवकरणो य पंधि इगतीसं / परिवडिऊण असंजय मणुओ देवो व मरिउ उववन्नो // 373 / / (483) [430] चाणउइ संतकम्मी आहारग बंधिऊण चउगइया / ते उव्वलिंति अजया अणउव्वलिए य चाणउई // 374 / / (484) [431] उणनवइ / देवमणुए नेरइयाणं च सम्मदिट्ठीणं / तिरिए न तिन्थसंता निरिमणुमिच्छाण अंतमुहू // 375 / / (485) [432] अडसीइ संतठाणं चउसु वि गईसु सम्ममिच्छाणं / मणुतिरियाणं सेसा जा जस्स य होइ संभविया // 376 // [433] तेरसहीणा चउगे पढमाइकमेण खवगाणं // (486) मव तिथि अट्ठ केवलि सत्ता पयडी अजोगिगुणठाणे / छासी तह सीई तिरिमणु अत्तरि गइतसाणं च // (487) संवेहो भन्नइ / / अट्ठावीसे बंधे अट्ठ उ उदया उ संत दो ठाणा / / अट्ठासी बाणउई दुग दुग पत्तेय उदएसु 16 // 377 / / (488) [434] उणतीसवंधगाणं सामन्नेणं त सत्त उदया उ / इगतीसं वज्जेता निग्यिाण र मण्यपाउग्गा // 378|| (489) [435] दुविहोणुतीमबंधो मणगडपाउमा तह सुराणं च / देवगईपाउग्गं मणया संधति तित्थजुयं // 376 / / (490) [436] १"तिन्नेव" उदया उ” इति J. पनो कयामा / 2 "य" इति J. प्रतिप्रेसकोप्याम् / Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकामिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे इह पंचसु उदएसु तेणउई 63 तहय होइ उणनवई / इगवीसे 1 छव्वीसे 1 उणनवई संतएगाउ // 380 / / (461) [437] - कहं भन्नइ // इह आहारचउक्कं अविरइ[ए]पत्तो य उव्वलेमाणो / उव्वलइ कमेण तहा पलियासंखंसभागेण // 381 // (462) [438] तित्थयरसंतकम्मी देवा मणु एसु चविउ उववण्णा / नाहारसंतकम्मं बंधाभावांउ इह तेसि // 382 / / (463) [439] इगवीसा छब्बीसा दुन्नि उ उदया सरीरअसमत्ते / उणतीसवंधगाणं सम्मद्दिवीण मणु याणं // 383 / / (494) [440) मणयगईपाउग्गं सुरनेरइया य सम्मदिट्ठी य / अट्ठासी बाणउई नियनियउदएसु दो ठाणा 12 / / 384 // / (464) [441] एवं सुरनेरइया तित्थजुया तीसठाण बंधति / तित्थाहारगसंता जेणं वंधि त्ति उववन्ना // 385 / / (465) [442] मणुगइजोग्गं तीसं सुरनेरइया उ तित्थजुयबंधे / तित्थाहारगसंता जेणं बंधे त्ति उववन्ना . // (465) तेणवई उणनवई उदयं उदयं पडुच्च देवाणं / 13 // निरये नोभयसंता तेणं उणनवइ उदएसु // 386 / / (466) [443) सोलस तह चउवीसा बारसठाणा उ तीसु वि कमेण / . चावन्न संतठाणा अविरयसम्मस्स बंधेसु // 387 // (467).[444] तिअट्टचउ त्ति गयं / / 4 / / (इति चतुर्थगुणस्थानके) अडवीसा उणतीसा बंधा उदया उ चउर वेउव्वे / इगतीसतीसउदया सामन्न देसविरयाणं // 388 // (468) [445) पुवुत्तवंधभंगा उदयविगप्पा उ सरखगइ चरिया / संधयणतहागिहया चोयालसयं तु पत्तेयं // 38 / (466) [446] तीसोदयम्मि तिरिमणु इगतीसे तिरियदेसविरयाणं / 'पणुउदयतिरिविउव्विय 5, चउरो मणुयाण४ इवकेक्क 441 // 360 // (500) [447] १.पण" इति L. D. प्रतो। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानानां भङ्गाः संवेधश्च ठवणा उदयठाणा→ 25 27 28 29 30 31 | उञ्यितिरि... 29 | 1 | 1 || वेउठिबमणु०- 1 | 1 | 1 | 1 | . . | सा. तिरि.- * * * * 144 144 | सा. मणु. * * * * * | 144 0 441| इय संवेहो भन्नइ अट्ठावीसा य तिविह बंधंति / मणुतिरियकम्मभूमग पलिभागिय देसविरया य // 361 // (501) [448] छच्चेव उदय इत्थं दो दो ठाणाडसी य बाणउई / इगतीस न मणुएसु वारस ठाणा उ उदएसु / / 362 / / (502) [446] तह देसविरयमणुया अडवीसा तित्थसहिय उणतीसा / तेणवई उणनवई पंचसु उदएसु पत्तेयं // (503) चारस तह दस सत्ता सव्वे बावीस देसविरयाणं / दुग छच्चउ त्ति गयं // 5 // (इति पञ्चमगुणस्थानके) अन्नो उदयविसेसो सत्तय वेउवि तह य आहारे / चोयालसयं तेरस अट्ठावन्नं सयं 158 संखा // (505) दुगपणचउ त्ति गयं / / 6 / / (इति षष्ठगुणस्थानके) / चउबंधा अपमत्ते अट्ठावीसाइ जाव इगतीसा / 'इक्केक्कभंगमेसिं दो उदया तीसउणतीसा // 363 // (506) [450] इक्केक्कं च विउव्विसु तह 'इक्केक्कं च हारगजईणं / चोयालसयं तीसे अडयालसयं तु पिंडेणं // 364 // (507) [451] संवेहसंतसंखा दो दो उदया उ बंधि पत्तेयं / "इक्केक्क संतठाणं सव्वे अठेव उदएसु ॥३९शा (508) [452] तित्थाहारगसंता हेउसभावा तमेव बंधति / सम्मअपमत्तसंजय इक्केक्कं तेण उदएसु // 366 / / (509) [453] 1.23.4-6 "एक्के” इति L. D. प्रतौ / 5 "हे उसमावे" इति L D. प्रतौ / Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे ठवणा Mo बंधठाणा- 28 29 30 31 / उदयठाणा उदयठाणा 26 | 30 / 26 30 | 26 | 30 | 29 | 30 | सत्ताठाणा 8888898412 | 92 | 13 | 13 | चउदुगचउत्ति गयं // 7 // (इति सप्तमगुणस्थानके) बंधा जहाऽपमत्ते अपुव्वकरणि जसकित्तिपंचमिया / तीसुदओ तह भंगा 72 पढमतिसंधयणसंभविया // 367 / / (510) [454] एगयरे संठाणे सरदुगखगईहिँ होइ चउवीसा / पढमतिसंघयणहया वाहत्तरि भंग सव्वे // (511) चउपढम संतठाणा अपुव्वकरणस्स एक्कउदयम्मि / एत्तो य नवरि वोच्छं जसकीत्ती बंधउदएसु // 398 / / 512) [455] जसकित्तीए बंधे उदओ तीसन्ह चउर सत्ताओ / एवं सत्ताठाणा अट्टेव अपुव्वकरणम्मि / (513) पणएगचउ त्ति गयं // 8 // (इत्यष्टमगणन्थानके) , एगेगमट्ट एवं बायरसुहुमाण दुण्ह पत्तेयं / / जसकित्तिबंधु तीसण्ह उदउ तह संतठाणाई // 396 / / (514) [456] चउपढमा उवसामग खवगा य पडुच्च बायरकसाए / तह तेरस खविएहिं चउरो खवगाण अट्ठट्ट / 400 / (515) [457] ___एगेगमट्ठ त्ति गयं / / 1-10 // (इति नवम-दशमगुणस्थान कयोः) बंधोवरमे उवसंत खीण तीसण्ह उदय पत्तेयं / चउचउरसंतठाणा उवसमखीणम्मि पुव्वुत्ता // 401 // (16) [458] सरखगइविवक्खेहिं चउरो चउवीस आगिई गुणिया / ते संघयणतिगेणं बाहत्तरि 'होति उवसंते // 402 / / (517) [456] . सरखगइविपक्खेहिं चउरो चउवीस आगिई गुणिया / खीणम्मि भंगसंखा नेया पढमम्मि संघयणे // (518) ___(एगं च उत्ति // 11-12 / / इत्येकादश-द्वादशगुण : न य :) केवलिसजोगिजोगिसु अट्ठ उ दो उदयठाण जहखं / दो दो संतवाणा तित्थातित्थाण जोगिस्म // 4.3 / / 519) [460] जे चउरो इह संता आसी छावत्तरी य दो तिन्नि / 1 "इंति' इति L D. प्रतौ। 2 "तित्थयरे” इति L D. प्रतौ / Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण थानकेषु गतिमार्गणाचतुष्के च नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानानां भङ्गाः संवेधश्च [75 सामन्नकेवलिदुगं उणसी 'पण्णत्तरी दुनि // 404 / / (520) [461] पण पण उदएसु इहं संतढाणाइ वीस जोगिस्स / अज्जोगिकेवलिम्मी पगई नव अट्ठ उदओ उ // 40 // (521) [462] नवउदए दो संता तित्थजुया नव य संत इइ तिन्नि / अट्ठोदयम्मि एए तित्थविहूणा य इय (6) छच्च // 406 // (522) [463] (अट्ठ चउ त्ति दुछक्कं ति य गयं / / 13-14 / / (इति त्रयोदश-चतुर्दशगुणस्थानकयोः) चउतीससंतठाणा उवरयवंधम्मि सव्वउदएसु / भणियाउ विवरणा इह गुणठाणगगाहदुगनामे // 407 // (523) [464] दोछक्कट्ठचउक्कं इच्चाई मग्गणा उ चोदस वि / सूइ[य] इह सत्थयारेण तेसिँ पि करेज्ज अणुसारा / / 408 // (524) [465] दोछक्कऽहुंचकं पणनवएक्कारछक्क बंधुदया / नेरहयाहसु संता ति पंच एक्कारस चउक्कं ।।मूत्रम्-५१॥ (525) जीवभेदा - निरि. | तिरि. | मणुः / देव. बंधठाणा - 2 | 6 8 / 4 उदयठाणा - 5 | 1 | 11 | 6 सत्ताठाणा , 3 . 5 / 11 / 4 निरयगइ दुन्नि बंधा उणतीसा तीस तिरियमणुजोग्गा / भंगा इह पुव्वुत्ता संघयणतहागिगुणियाउ // (526) अठुत्तर छायाला उणतीसे दुन्ह तीसि जोयजुये / तह तीसे तित्थजुये मणुजोगे अट्ठ भंगा उ // (527) ठवणा बंधठाणा - तिरिजोग्गा भं. 4608 | 4608 (6216)| मणु जोग्गा भं० 4608 | 8 (4616) ठवणा 30 / (सव्वे) (13832) 1 "पन्नत्तरी” इति L D. प्रतौ / Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 ] उवणा सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे तिरियगई छन्बन्धा तेवीसाई य तीसपज्जंता / भंगा इह मिच्छसमा मणुगइ अYव ओघुत्ता // (528) बंधट्टाणा- 23 / 25 | 26 / 28 29 30 31 / 1 (सव्वे) तिरियबंधठाणभंः | 4 | 25 | 16 | 6 |2404632) * * (13626) मणुयबंधठाणभंः | 4 | 25 16 162484633| 1 | 1 (13637) पणवीसा छव्वीसा उणतीसा तीस चउर सुरबंधा / आइदुगिगिदिवायरइयरे मणुतिरियपाउग्गा // (526) पणवीसे अड भंगा छव्वीसे दुगुण आयवुज्जोए / वायरएगिदिंगया दोसु य नरयव्व उट्ठति // (530) | बंधट्ठाणा - 25 | 26 / 2 / 3. | सव्वे] / तिरियजोग्गभं. 8 | 16 | 4608 | 4608 (6240) ठवणा मणुयजोग्गर्भ. . . 46088 (4616) | (13856) दोलक्कटचउक्कं ति गयं / / (इति नरकादिगतिचतुष्के नाम्नो बन्धस्थानानि) इगवीसा पणवीसा सगवीसा अट्ठवीस उणतीसा / नेरहय पंच उदया एक्केको भंगमेएसु / / / (531) , | उदयठाणा- 21 | 25 | 27 28 29 ठवणा पण उदया एगिदिसु विगले सगले य छच्च पत्तेयं / सामन्नतिरि विउव्विय देवुदया पंच न य पढमी // (532) वायाला छावट्ठी इगविगले निययनिययउदएसु / सगलेसु छच्चुदया उणपन्न छलुत्तरा पिंडे // (533) छप्पन तिरिविउव्विसु पिंडे पणसहससयरिजुयउदया / तिरियगइ सव्वभंगा ठावणसित्तं तु जंतइयं // (534) Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [. गतिमार्गणाचतुष्के नाम्नो बन्धोदयस्थानानां मङ्गाः . ठवणा | उदयठाणा - 21 | 24 25 26 27 28 29 30 31 (सव्वे) | एगिदिभ - 5 | 11 | 7 | 13 | 6 | * * * * | 42 विगलभः - * * * * | 6 | 6 | 19 | 12 | 66 सगल तिरिभः : * * 28e * 506 57: Prissuest | बेउव्वितिरि. | * * | | * | 8 | 16 | 16 | 8 | * | 56 | सामन्त्रमणुयउदया इगवीस छवीस तह य अडवीसा / उणतीसा तीसा तह छब्बीस दुउत्तरा पिंडे // (535) सेसा उ छच्च ठाणा केवलिआहार तह विउव्वाणं / अड. सन पणतीसा भंगा पुव्वुत्त मणु उदए // (536) ठवणा- . उदयठाणा - 20 | 21 | 25 | 28 | 20 | 28 | 26 | 30 | 31 | | 8 | सव्व भंगा। मणुभंग० - * E | * |28| * [576 576 |1152 * * | 0 | 2602 आहारभंग०- * * 1 . | 12 | 2 | 1 | * * * सामनके०- 1 | * * म | * | स: / मः / म. * * 1 | शेष०२ तित्थयर० - * | 1 | * * | 1 | * | 1 | 1 | 1 | 1 | 6 | |घेउञ्चि० * * * 8 | 9 | 9 | 1 | * * * | 35 | ठवणा इगवीसा पणवीसा सत्तावीसाइ जाव तीसुदओ / छन्चुदया देवेसु भंगा चउसहि सव्वेवि // (537) | उदयठाणा - 21 , 25 | 27 | 28 29 30 | उदयभंगा - 4 | 8 | 8 | 16 | 16 | 8 सव्वभंगा 64|| Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे पण नव एक्कार छक्क त्ति गयं ॥(इति नरकादिगतिचतुष्के नाम्न उदयस्थानानि) चाणउई अट्ठासी उणनवई निरय तिन्नि संताओ / तिरियगइ पंच संता सामन्नेणं तु इय एवं // (538) . बाणउई अट्ठासी छलसी अत्तरी य चत्तारि / .. तह पंचमिया. आसी अत्तरिवज्ज मणुएसु // (536) मणुयसत्ताठाणा-६३, 62, 86, 88.86, 80, 76, 76, 75, 6, 8 / देवगइ चउर संता तिणवइ बाणवइ तह य अट्ठासी // उणनवई संत भवे इओ(तो) संवेहु एएसु // (540) (तिपंचएक्कारसचउक्कं ति गयं // इति गतिचतुष्के नाम्नः सत्तास्थानानि) (अथ गतिमार्गणाचतुष्के नाम्नो बन्धोदयसत्तास्थानसंवेधः) . उणतीसे बंधम्मी पंचसु उदएसु निरय दुगसंतं / बाणवई अट्ठासी तिरिजुग्गे संतया दस उ // (541) तह तीसे उज्जोए उणतीसे तह य मणुयजुग्गम्मि / दस दस संतवाणा उणनवई दोसु पणपणगं || (542) तिन्थयरसंतकम्मी मिच्छद्दिट्ठी उ अंतमुहुकालं / उणतीसबंध संतं उणनवइ नेरइयउदएसु // (543). तह तीसवंधि एवं सम्मट्ठिी उ निरयवंधेसु / .. आयमचउअंतमुहू चरिमे निरयाइयं संतं // 144). इय संवेहो वुत्तो नारयवंधुदयसंत चालीसं / तिरियगई संवेहो इय अणुसारेण वोच्छामि // (545) बंधठाणे 26, उदएसु संतठाणा तु एवं सव्वा 25 // |बंधठाणे 30, उदएसुसंतठाणा उदयठाणा 21 | 25 27 28 | 2 | 21 | 25 | 27 , 28 | 26 सगलतिरिजुग्गे 2 62 | 62 | 62 62 | 2 | 62/63 |8222 मणुयगइजुग्गे 2 | 2 | 2 | 2 | 2 |89 | 86 | 89 | 86 | 8E तित्थयरसंतकम्मी | 1 | 1 | 1 | 1 | 1 | एवं सम्वेवि 15|| तिरियगइसंवेहो भन्नइपणवंधा हिट्ठसमा बंधे बंधे य नव उदयठाणा / आइमचउ पणसंता चरिमा नियमा उ चउसंता || (546) ठवणा Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [. .. गतिमार्गणाचतुष्के नाम्नः सत्तास्थानमङ्गा बन्धोदयसत्तास्थानसंवेधश्च चालीससंतठाणा चंधे बंधे य होति पत्तेयं / दुनिसय संतभेया अट्ठावीसम्मि पुण एए // (547) अट्ठावीसे बंधे उदयट्ठाणा उ अट्ठ पुव्वुत्ता / इह कम्मभोगभूमियवेउव्वियतिरियमासज्ज // (548) दो दो संतवाणा अट्ठसु उदएसु होति पत्तेयं / नवरं दोअंतिल्लिसु छलसी अट्ठार सव्वेवि // (546) - मणुयगइसंवेहमाहमणुउदया पुण सत्त उ उदए उदए य चउर संताउ / चाणवई अट्टानी छलसी तहऽसीइ तुरिया उ // (550) नवरं दो वेउव्विय दो दो पढमाउ संतभेया उ / चाणउई अट्ठासी पणवीसे तह य सगवीसे // (551) संवेहो बंधेसु बंधे बंधे य सत्त सव्वुदया / चउवीस संतठाणा पंचसु बंधेसु पत्तेयं // (552) पढमतिगबंधु मिच्छे उणतीसा तीस सम्म तह मिच्छे / सव्वेसु संतठाणा चउवीसे पंच गुणिया उ // (553) तित्थयरसंतियाणं तिणवइ उणनवइ दुन्नि उदएसु / उणतीस बंधठाणे सत्तसु उदएसु पत्तेयं // (554) अट्ठावीसे बंधे सत्तसु उदएसु संतसोलसगं / तीसे तह इगतीसे बाणउई तह य तेणउई // (555) जसकित्तिबंध अट्ठ उ उवरयवंधगि तीस पुव्वुत्ता / नउयसयसंतसंखा मणुयगई नामसंवेहो.. // (556) (देवगइसंवेहमाह-) देवगई संवेहो बंधे बंधे य सव्वुदयठाणा / पाणउई अट्ठासी दो दो संता उ उदएK. // (557) तित्थयरसंतिया जे मणुयगईजोग्गतीस बंधता / तेणउई उणनवई छसुवि उदएसु पत्तेयं / // (558) तेणवइसंतकम्मं पलियासंखंसआउवोलीणे / न घडइ देवगईए आहारचउक्क उव्वलइ // (556) केसिंचि मए एवं आहारुव्वलिय सचरमखंडस्स / संता अहिया विहु तेणवई तेण बहुकालं // (560) Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधे षष्ठेकर्मग्रन्थे दोछक्कट्ठचउक्कं इच्चाइट्ठाण गइचउक्कस्स / / बंधोदयसवियप्पा. संतढाणा य इय वुत्ता // (461) इय अणुसारेण तहा नेया इह मग्गणाण तेरससु / बंधोदयसंतगया. भेयवियप्पाउ सव्वत्थ // (462) इय एउ सुमरणत्थं टिप्पणमित्तं पि किंचि उद्धरियं / लक्खणछंदवियारो न य कायव्यो य को वि इहं // (563) [466] इत्थ य सुत्तविवन्नं मइमोहा किंचि उद्धरिय होज्जा / सोहिंतु जाणमाणा मज्झ य मिच्छुक्कडं होउ // (564) [467] सिरिजिणवल्लहसूरी आसी सूरुव भुवणविक्खाओ / तस्सेव विणेएणं उद्धरियं रामदेवेणं // (565) श्रीरामदेवगणिकृतं सप्ततिकाटिप्पनकं समाप्तम् / / शिवमस्त सर्वमगत भजन जयति शासनम Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 1 सप्ततिकामिधे षष्ठे कर्मप्रन्थे ऽवशिष्टमूलगाथासूत्राणि इगिविगलिंदिय सगले पणपंच य अट्ठ पंधठाणाणि। पण छक्केकारुदया पण पण पारसगसंताणि ॥सूत्रम्-५२॥ इय कम्मपगडिठाणाणि सुटु बंधुदयसंतकम्मंसा / गइआइएहिं अट्ठसु चउप्पगारेण नेयाणि ॥सूत्रम्-५३॥ गइ १इंदिए २य काए ३जोए 4 वेए५ कसाय 6 नाणे य। संजम 8 दंसण हलेसा 10 भव 11 सम्मे 12 सन्नि 13 आहारे 14 ॥सूत्रम्-०॥ संतपयपरूवणया१दव्वपमाणंच 2 खेत्त 3 फुसणा य। कालं 5 तरंच 6 भावो 7 अप्पाषहुयं च ८दाराइं॥सूत्रम्-०॥ xउदयरसुदोरणस्स य सामित्ताओ न विज्जह विसेसो। मुत्तुणं ईयालं सेसाणं सव्वपयडोणं ॥सूत्रम्-५४॥ xनाणंतरायदसगं 10 देसण नव ह वेयणिज्ज मिच्छत्तं। सम्मत्त 1 लोभ 1 वेया 3 उयाणि ४नवनाम 9 उच्च 1 च ॥सूत्रम्-०॥ मणुयगइजाइतसपायरं च पज्जत्तसुभगमाइज्जं / जसकित्ती तित्थगरं नामस्स हवंति नव एया ।।सूत्रम्-०॥ तित्थयराहारगविरहिया उ अज्जेइ सव्वपयडीओ / मिच्छत्तवेयगो सासणो वि उगवीससेसाओ ॥सूत्रम्-५६।। लोयालसेस मीसो अविरयसम्मो तियालपरिसेस / तंवन्न देसविरओ विरओ सगवन्नसेसाओ ॥सत्रम्-५७|| उगुसहिमप्पमत्तो बंह देवाउगस्स इयरो वि / अट्ठावन्नमपुम्दो छप्पन्नं वावि छन्वीसं ॥सूत्रम्-२८॥ षावीसा एगणं बंधइ अट्ठारसत्ति अनियहो / सत्तर सुहमसरागो, सायममोहो सजोगि त्ति ॥सूत्रम्-५९।। x उदयम्सु गाहा / / नाणंतरायगाहा // निहापणगाणं सरीरपज्जत्तीए पज्जयाणं बीयसमयाउ आढवित्तु उदओं हवइ उदीरणाए विणा ताव जाव इंदियपज्जत्तीए पज्जत्तगुत्ति तओ बीयसमयपमिइ दोवि हुँति त्ति // मिच्छत्तस्स पढमसम्मत्तमुप्पइंतेण अंतरकरणं कयं तत्थ पढमठिईअ आवलियसेसाए उदीरणा नस्थि उदओ चेव // सम्मत्तस्स बावीससंतकम्मे आवलियसेसे उदभो चेव // अहवा . उवसमसेढिं पडिवजंतस्स अंतरकरणे कए पढमठिईए आवलियसेसाए उदओ चेव // तिण्हं वेयाणं जेण वेएण सेढिं पडिवनस्स अंतरकरणे कए पढमठिईए आवलियासेसाए उदओ चेव / / Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2] सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे ऽवशिष्टमूलगाथासूत्राणि एसो उ बंधसामित्तोघो गइयाइएसु वि तहेव / . ओहाओ साहिजा जत्थ जहा पयडिसम्भावो ॥सूत्रम्-६०।। तित्थयरदेवनिरयाउयं च तिसु तिमु गईसुबोधव्वं / अवसेसा पयडोओ हवंति सव्वासु वि गईसु ॥सूत्रम्-६१॥ पढमकसायचउर्फ दसणतिगसत्तया वि उवसंता / अविरयसम्मत्ताओ जावऽनियटित्ति नायव्वा ।।सूत्रम्-६२।। सत्तट्ट नव य पारस सोलस अट्ठारसेव इगुवीसा। एगाहिदुचउवीसा पणवीसा पायरे जाण ॥सूत्रम्-०॥ सत्तावीसं सुहमे अट्ठावोसं वि मोहपयडीओ / उघसंतवीयरागे उवसंता हुति नायव्वा ॥सूत्रम्-०॥ पढमकसायचउकं एत्तो मिच्छत्समोससम्मत्तं / अविरयसम्मे देसे 'पमत्तअपमत्त खोयंति ॥सूत्रम्-६३।। अनियटिबायरे थीणगिडितिगनिरयतिरियनामाउ / संखिइमे सेसे तप्पाओगा उ खोयंति ॥सूत्रम्-०|| एत्तो हणइ कसायट्टगं पि पच्छा णपुंसगं इत्थी / तो णोकसायछक पि छुहइ संजलणकोहम्मि ॥सूत्रम्-oji पुरिसं कोहे कोहं माणे माणं च छुहइ मायाए / मायं च छुहइ लोभे लोभ मुहम पि तो हणइ ।।सूत्रम्-६४॥ खीणकसायदुचरिमे निइं पयलं च हणइ छउमत्थो। ' आवरणमंतराए छउमत्थो चरिमसमयम्मि सूत्रम्-०॥ संभिन्नं पासंतो लोगमलोगं य सव्वओ सव्वं / तं नथि जंन पासह भूयं भव्वं भविस्सं य ॥सूत्रम्-.॥ देवगइसहगयाओ दुचरिमसमयभषियम्मि खीयंति / सविवागेयरनामा नीयागोयंपि तत्थेव ॥सूत्रम्-६५॥ अन्नयरवेयणिज्ज मणुयाऊ उबगोय नामे य / वेएइ अजोगिजिणो उक्कोस जहन्न एक्कारं ॥सूत्रम्-६६॥ मणुयगइजाइतसपायरं च पजत्तसुभगमाएज्जं / जसकित्ती तित्थयरं नामस्स हवंति नव एया |सूत्रम्-६७॥ . 1. “पमत्तअपमत्तगे य खीयंति" इति पाठः / Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 83 सप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे ऽवशिष्टमूलगाथासूत्राणि तच्चाणुपुग्विसहिया तेरस भवसिद्धियस्स चरिमम्मि / सन्तंसगमुक्कोसं जहन्नयं पारस हवन्ति ॥सूत्रम्-६८|| मणुयगडसहगयाओ भवखित्तविवागजीववागत्ति / वेयणिअन्नयरुच्चं च चरिमसमयम्मि खीयंति ॥सूत्रम्-६९।। अह सुचिरसयलजयसिहरमरुयनिरुवमसहावसिडिसुहं / अणिहणमव्वाबाहं तिरयणसारं अणुहवं ति ॥सूत्रम्-७०॥ दुरहिगमणिउण परमत्यरुइलबहुभंगदिट्टिवायाओ / अत्था अणुसरियव्वा बंधोदयसंतकम्माणं ॥सूत्रम्-७१।। जो जत्थ अपडिपुन्नो अत्यो अप्पागमेण बडोत्ति / तं खमिऊण बहुमुया पूरेऊणं परिकहिंतु ॥सूत्रम्-७२|| . गाहग्गं सयरीए चंदमहत्तरययाणुसारीए / टीकाएँ नियमियाणं एगूणा होइ नउईओ ॥सूत्रम्-०॥ // सप्ततिका समाप्ता // शिवमस्त सर्वमगत जन जया Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्राचीनाचार्यप्रणीते श्रीसप्ततिकाभिधे षष्ठे कर्मग्रन्थे श्रीरामदेवगणिविरचितं टिप्पनकं समाप्तम् Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // ॐ ह्रीं श्री महं श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः / / न्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपादपद्मेभ्यो नमः // सकलागमरहस्यवेदिश्रीमदाचार्यविजयदानसूरीश्वरेभ्यो नमः // कर्मसाहित्यनिष्णातश्रीमदाचार्यविजयप्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः / / श्रीमज्जिनवल्लभगणिपुङ्गवविरचितं सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणम् - (अपरनाम-सार्धशतकप्रकरणम् ) श्रीमद्रामदेवगणिकृतटिप्पनकेन विराजितम् // waikan // ॐ नमो वीतरागाय // सिद्धत्थसुयं नमिउं सुहमत्थवियारटिप्पणं किंचि / .. सुगुरुवएसेण अहं . भणामि सरणथमप्पस्स // तत्थ पगरणकारो मंगलाभिधेयाणं पडिपायणनिमित्तं . इमां गाहामाह मयलंतरारिवीरं वंदिय वरनाणलोयणं वीरं / वोच्छं . जहासुयमहं कम्माइवियारसारलवं // 1 // सयला सव्वे अंतरा-कायमज्झवत्तिणी जे अरिणो वेरिणो केवलनाणाइगुणपरमपाणघायगत्तेण, अन्नाणरागदोसकोहमाणमायालोभाइणो, तेसिं वीरो-मूरो, जहा वीरपुरिसो कोइ पभूयबलजुत्तो वेरिणो निज्झिणाइ अप्पपरकम्मेण, तहा भगवया वि ते अंतरवेरिणो अबाणाई या निझिया इइ कटू सयलंतरारिवीरो, तं, वंदिय=पणमिय वीरं चरमतित्थयरं उत्तरपएण संबंधो / तहा 'वरनाणलोयणं' ति, वरे-अधाने अशेषाऽऽवरणक्षयात् , नाणं केवलनाणं लोयणं केवलदंसणं च, "लोक दर्शने' इति वचनात् , वरनाणलोयणे जस्स, तं तहा, वोच्छं-भणिस्सामि, कहं ? जहासुर्य-सुयाणुसारेण 'अहं' ति, अप्पनिद्देशो, किं भणिहिसि ? कम्माणि वक्खमाणाणि / आइसद्दाओ गुणसेढि-पुग्गलपरावत्ताइया / तेसिं वियारो-पनवणा, तस्स सारो-पहाणो अट्ठो, तस्सेव लओ अंसो, तं वोच्छामित्ति संबंधः / / 1 / / Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे इयाणि पदमं ताव कम्मं परूवेइ-- कीरइ जिएण हेऊहि पयइठिइरसपएसओ जंतं। मूलुत्तरुट्ट अडवनसयपभेयं भवे कम्मं // 2 // करीइ-निष्फाइज्जइ, जीवेण-संसारिणा 'हेऊहि' त्ति मिच्छत्त५-अविरइ१२-कसाय२५-जोगे१५हिं बंधहेऊहिं चउहि कम्मं बज्झइ / तं च कम्मवग्गणाहिं कज्जलसमुग्गउव्व निचिओ लोगो ते य कम्मत्ताए जीवेण गहिया कम्मति वुच्चंति / जओ वुत्तं"जीवझवसायाओ कम्मत्ता पोग्गला परिणमंति / पुग्गलकम्मनिमित्तं जीवो वि तहेव परिणमइ // " ___ तं च चउविहं, पगइबंधोठिइबंधो अणुभागवंधो पएसबंधो / तत्थ आईए पगइबंधो उद्दिट्ठो। . तं पुण दुविहं, मूलपगइविसयं उत्तरपगइविसयं च / मूलपगइविसयं अट्ठविहं / उत्तरपगइविसयं अडवनसयपमेयं // 2 // मूलपगईणं नामाणि एक्केकाए मूलपयडीए उत्तरपयडिसंखं च दंसेइदंसण 1 नाणारे वरणंतराय 3 मोहा 4 उ 5 गोय वेयणियं / नामंच नव' पण पण 3 ऽट्टवीस 4 चउ 5 टु दुः"बियालविहं // 3 // दंसणाइपयाणं नवाइसंखाए सह जहसंखं संबंधो कायव्यो / तं जहा-दसणावरणं नवविहं 1, नाणावरणं पंचविहं 2, अंतराइयं पंचविहं 3, मोहणीयं अट्ठावीसविहं 4, आउयं चउविहं 5, गोयं दुविहं 6, वेयणियं दुविहं 7, नामं वायालीसविहं 8 // 3 // सव्वासिं मूलपयडीणं उत्तरपयडिनामाणि दंसेइ नयणेयरोहिकेवलदंसणआवरणयं भवइ. चउहा / निद्दापयलाहि छहा निदाइदुरुत्तथीणद्धी // 4 // नयणं ति चक्खुदंसणं, इयरं ति अचक्खुदंसणं, तं पुण चत्तारि इंदियाई चक्खुवज्जाई, मणो य, आवरणसद्दो पत्तेयं संबज्झइ, तओ चक्खुदंसणावरणं 1, अचक्खुदंसणावरणं 2, ओहिदंसणावरणं 3, केवलदसणावरणं 4, निद्दा 5, पयला 6, निदाइदुरुत्तति, निहानिद्दा 7, आइसद्दाओ पयलापयला 8, थीणद्धि ह, ति // 4 // नाणावरणं मइसुयओहिमणोनाणकेवलावरणं / . विग्धं दाणे लाभे भोगुवभोगेसु विरिए य // 5 // . Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [. कर्मप्रकृतिमूलोत्तरभेदप्ररूपम् नाणावरणं पंचविहं / मइनाणावरणं, सुयनाणावरणं, ओहिनाणावरणं, मणपज्जव'नाणावरणं, केवलनाणावरणं / विग्धं ति अंतरायकम्मं पंचहा / दाणंतराइयं, लाभंतराइयं, भोगंतराइयं, उपभोगंतराइयं, वीरियंतराइयं // 5 // सोलसकसाय-नवनोकसाय-दसणतिगं ति मोहणियं / निरयतिरिनरसुराऊ नीउच्चं सायमस्सायं .. // 6 // कसाया अणंताणुवंधिणो कोहमाणमायालोमा चत्तारि, एवं अपञ्चक्खाणावरण 4, पच्चक्खावरण 4, संजलण 4, एए चत्तारि चउका सोलस / नव नोकसाया, पुरिसवेओ, इत्थीवेओ, नपुसगवेओ, हासं, रई, अरई, सोगो, भयं, दुगु छत्ति / दसणतिगं ति, मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तं, सम्मत्तं, मोहणीयं अट्ठावीसविहं / निरियाऊ तिरियाऊ मणुयाऊ देवाऊ त्ति, आउकम्म चउब्भेयं / नीयागोयं उच्चा- . गोयं ति, गोयं दुविहं / सायावेयणियं असायावेयणियं ति, वेयणियं दुविहं // 6 // गइ 1 जाइ ? तणु 2 उवंगा बंधण 5 संघायणाणि संघयणा / संठाण वन्न गध रस ११फास १२अणुपुग्विविहगगई // 7 // पिंडपयडि त्ति, चउदस परघा ? उज्जोय आयवु 3 स्सायं / अगुरुलहु 'तित्थ 6 निमिणो वघाय - मिय अट्ठ पत्तेया // 8 // गइनामं 1, जाइनामं 2, सरीरनामं 3, अंगोवंगनामं 4, बंधणनामं 5, संघायनामं 6, संघयणनामं 7 संठाणनामं 8. वन्ननामं , गंधनाम 10, रसनामं 11, फासनामं 12, अणुपुग्विनाम 13, विहायगइनामं / / 14 // पिंडपयशि त्ति, ति, पिंडो-बहुपयडिसमुदाओ, पिंडपहाणा पगईओ पिंडपगईओ चउदस-चउदससंखाओ, एएसिं चउदसण्हं पयडिमेयाणं ति ति गम्भत्थो। परघायनाम, उज्जोयनाम, आयवनाम, ऊसासनामं, अगुरुलहुनामं, तित्थयरनामं, निम्माणनाम, उवघायनाम, एए अट्ठ पत्तेया, पडिभेयाभावाओ नापि सविवक्खाओ वक्खमाणा इव // 7-8 // पिंडपयडीओ पत्तयपयडीओ य दंसियाओ / इयाणि सविवक्खाओ पगईओ दंसेइ-- तसबायरपज्जत्तं पत्तेयं थिरसुभं च सुभगं च / सुसराइज्ज जसं तसदसगं थावरदसं तु इमं // 9 // Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे थावरसुहमअपज्जं साहारणमथिरमसुभदुभगाणि / दूसरणाएज्जाजसमिय नामे सेयरा वीसं // 10 // तसं 1 बायरं 2 पज्जत्तगं 3 पत्तेयं 4 थिरं 5 सुभं 6 सुभगं 7 सुसरं 8 आदेयं हजसं 10 एयं तसदसगंः थावरदसगं पुण एयं-थावरं 1 सुहुमं 2 अपज्जत्तगं 3 साहारणं 4 अथिरं 5 असुभं 6 दुभगं 7 दूसरं 8 अणादेयं / अजसं 10 इतिः नामे =नामकम्मणि सेयर त्ति, सविवक्खा वीस-बीससंखाउ पगईओ, पिंड-पत्तेय तसथावरदसग-पगईओ मिलिया बायालीसं नामकम्माणि पगईओ होति // 9-10 // संपयं एयासु तसाइसचिवक्खाइपगईसु पुव्वायरियभणियाओ सन्नाओ दंसेइ-- तसचउथिरछक अथिरछक्कसुहुमतिगथावरच उक्त / सुभगतिगाइविभासा पयडीण तदाइसंखाहिं // 11 // तसचउक्क, थिरछक्क, अथिरछक्क, सुहमतिगं, थावरचउक्क, सुभगतिगं / आइसद्दाओ दुभगतिगं / सुभपंचगं पुव्वुत्तमेव तसदसगंथावरदसगं च / एवं रूवा जा विभामा सन्नाऽभिहियलक्खणा सा सव्वा किं ? तदाइसंखाहिं ति, सातसथिराइया पयडी, आर-पढमा जामि संखाणं चउकगाईण, ता तदाइयाओ संखाओ। ताहिं तदाइसंखाहिं भाणियव्वा / तत्थ तसं वायरं पज्जत्तं पत्तेयमिति तसचउक्क / थिरं सुहं सुभगं मूसरं आएज्जं जसकित्तीत्ति थिरछक / अथिरं असुहं दुभगं दुसरं अणाएज्जं अज्जसं ति अथिग्छक / सुहुमं अपज्जत्तं साहारणं सुहुमतिगं / थावरं सुहुमं अपज्जत्तगं साहारणं ति थावरच उक्क / सूभगं मूसरं आदेयं ति सुभगतिगं / दुभगं दुसरं अणाएज्जं भगतिगं / सुभपंचगं पुण सुभं सुभगं मूसरं आएज्जं जमकित्ती त्ति / / 11 / / इयाणि चोदसण्हं पिंडपगईणं पत्तेयं पत्तेयं उत्तरभेयसंखा निरूवणत्थं भन्नइ-- गइयाईप य कमसो चउ पण पण 3 ति 4 पण 5 पंच छ "च्छक्क। पण 'दुग० पण-११ ऽटु१२ चउ१२ दुग' मिय उत्तरभेयपणसट्ठी // 12 // . एसा य दारगाहा, अणंतरमेव गाहाछक्वण सुत्तकारो ववखाणिरसइ त्ति, न वक्खाणिज्जइ // 12 // निरयतिरिनरसुरगई इगिविय 1 तियवउपणिंदिजाईओ। ओरालियवेउब्वियआहारगतेय 2 कम्मइया // 13 // 1 "तिच उर" इत्यपि पाठः। २"०कम्मइगा" इत्यपि / Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृत्युत्तरभेदनिरूपणम् निरयगई, तिरियगई, मणुयगई, देवगई, // दारं / / एगिदियजाई, बेइंदियजाई, तेईदियजाई, चउरिदियजाई, पंचिंदियजाई // दारं / / ओरालियसरी, वेउब्वियसरीरं, आहारगसरीरं, तेयगसरीरं, कम्मगसरीरं // 13 // पढमतितणूणुवंगा बंधणसंघायणा य तणुनाम / सुत्ते सत्तिविसेमो संघरणमिहऽट्ठिनिचउत्ति // 14 // पढमाणं तिन्हं तणूणं उवंग त्ति अंगोवंगाणि भवति / न पुण तेयसकम्मइगाणं / त जहा ओरालियअंगोवंगं वेउव्वियअंगोवंगो आहारगअंगोवंगं / / दारं / / पंधणसंघायणा य तणु नामत्ति, तणूण सरीराणं एगदेसअणुसरणाओ नाम=अभिहाणं जेसिं बंधणसंघायणाणं ते तहा भाणियव्वा / जहा ओरालिययसरीरबंधणं एवं वेउब्वियचंधणं, आहारगवंधणं, तेयगबंधणं, कम्मइगवंधणं / / दारं / / तहा ओरालियसरीरसंघायं, वेउब्वियसंघायं, आहारगसंघायं, / तेयगसरीरसंघाय / कम्मणसरीरसंघायं / / दारं / संघयणे मयविसेसं दंसेइ-सुत्ते जीवाभिगमाइआगमे सत्तिविसेसो-सामथभेओ संघयणं इह-कम्मवियारे अट्ठिनिचओ अद्विसं ठाणं ति // 14 // छद्धा संघपणं वज्जरिसभनाराय 1 वज्जनारायं / _ नारायः मद्धनाराय 4 खीलिया 5 तह य छेवटुं // 15 // वज्जग्सिभनारायं, वज्जनागयं, नारायं, अद्धनागयं, खीलिया, छेस्ट संघयणं / / दारं // 15 // समचउरंमं नग्गोहसाइखुज्जाणि वामणं हुंडं / संठाणा वन्ना किन्हनीललोहियहलिहसिया // 16 // समचउरंमं संठाणं, नग्गोहमंडलसंठाणं, माइसंठाणं खुज्जमंठाणं, वामण ठाणं, हंडठाणं / / दारं / किण्हवन्नो, नीलवन्नो, लोहियवन्नो, हालिद्दवन्नो, सुकिलवन्नो, ।।दा।। / / 16 / / सुरभिदुरभी रसा १पुण तितकडकमायअंबिला २महुरा। फासा गुरुलहुमि उखरसीउण्हसिणिद्धरुक्खऽ? // 17 // सुरभिगंधो, दुरभिगंधो / दारं // तित्तरसो, कड्यरसो, कसायग्सो, अंबिलरसो. महुरसो / / दारं // गरुयफासो, लहुफासो, मिउफासो, कक्कसफासो, सीयफासो / उन्हफासो, निद्धफासो, रुक्खफासो / दारं / / / / 17 / / / 1 "पण" इत्यपि / 2 "महुरो” इत्यपि / Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे चउहगइव्वणुपुब्बी दुविहा य सुहासुहा य ? विहयगई। गइअणुपुब्बीओ दुगं तिगं तु तं चिय नियाउजुअं॥१८॥ निरयाणुपुब्बी, तिरियाणुपुव्वी, मणुयाणुपुव्वी, देवाणुपुव्वी // दारं // सुहविहायगई दुहविहायगई // दारं / / दारगाहा वक्खाणिया। संपयं कित्तियाणं पगईणं मिलियाणं सन्नाविसेसं दंसेइ____ गइआणुपुव्वीओं दुगंनि अप्पणीया गई आणुपुव्वी य एया दो वि निस्यदुर्ग तिरियदुगं मणुयदुगं देवदुगसद्देहिं बुच्चंति / तिगं पुण तं चिय नियनियाउजुयं, तत्थ देवगई देवाणुपुव्वी देवाउयं तिगं बुच्चइ ।।१८||एवं सव्वत्थ नामपगईओ एयाओ केणावि संखाविसेसेण कत्थ वि सत्यंतरे ववहरिज्जंति / तओ तमवि संखा विसेसं दंसेइ इय तेणई संते बंधणपन्नरसगेण तिसयं वा। वन्नाइभेयबंधणसंघायविणा उ सत्तट्ठी // 19 // पिंडपगईणं चउदसन्हं पडिभेया पणसट्ठी पत्तेयअट्ठगेण तराटसेण थावरदसगेण य तेणवई संजाया / संति त्ति, सा संते सत्ताहिगारे उवजुज्जइ / मा वि तेणवई बंधणपन्नरसगेण वेउव्वाहारोरालियाइ इच्चाइ माहाए वक्खमाणेण पखित्तेण तिसर्य=तिउत्तरं सयं संजायं / एयं संत उदए उदीरणाए य कम्मपयडिसंगहणोए अहिगिज्जइ / इह पुण बंधुदए सत्तट्ठी॥१९॥ सा सयं चेव सुत्तयारो दंसेइ - सा बंधुदए बंधण-संघाया नियतणुग्गहणगहिया / वन्नाइविगप्पा वि हु न य बंधे सम्ममीसाइं // 20 // सा सत्तसट्ठी नामपयडीणं बंधे बंधाहिगारे उदए-उदयाधिगारे य उवजुज्जइ त्ति / बंधणं ति बंधणाणि पंच पनरस वा, संघाया य पंच, नियतणुग्गहणेण गहिया। जस्स ओरालियाइसरीरस्स बंधणसंघाया ते तेणेव सरीरेण सह गहिया / तहा वनगंधरसफासाणं जे सोलसविगप्पा ते वि वण्णाइमामण्णेण गहिया / बंधणपत्थावादेव जेसि कम्माणं बंधोन हवइ, ताणि निदंसेइ बंधे-बंधाहिगारे न सम्मं मीसं च / जओ बंधे विसुत्तरसयमेव होइ / / उक्तं च-बंधे विसुत्तरसयं सयबावीसं च होइ उदयम्मि / एवं उदीरणाए अडयालसयं तु सतमि / / ___ तत्थ तेवन्ना सेसकम्माण सम्ममीसूणा, जओ मिच्छत्तस्सेव बंधो, न सम्मत्तसम्ममिच्छत्ताणं / तहाहि-तेसिं उप्पत्ती जीवेणं विसुद्धझवसायपरिणएणं करणपओगाइपओगेणं 1 "विहगगई"इत्यपि / 2 "तेगई" इत्यपि / Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृत्युत्तरभेद ध्रुवबन्धादिप्रकृतिप्रतिपादनम् अनियट्टीकरणचरमसमये वट्टमाणेणं ते चेव मिच्छत्तपोग्गला तिहा कया सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं मिच्छत्तं च वुच्चंति / सत्तट्ठीए नामस्स विसुत्तरं सयं होइ / उदयाइसु पुण सम्ममीसे वि होति, तओ बावीसं सयं / अडयालं सयं पुण पणपन्नाए तेणउईए य होइ // 20 // संपयं बंधणपन्नरसगं वक्खाणेइवेउव्वाहारोरालियाण सगतेयकम्मजुत्ताणं / नव बंधणाणि इयरदुसहियाणं तिन्नि तेसिं च // 21 // वेउव्वाहारोरालियाणं सरीराणं सगेणं अप्पणा सह तेयगेणं कम्मणा य सरीरेणं जुत्ताणं नवबंधणाणि होति, जहा-वेउब्वियपुग्गलमईयस्स वेउब्वियपोग्गलेहिं सह बंधणं वेउव्वियवेउव्वियबंधणं 1, एवं वेउव्वियतेयवंधणं 2, वेउव्वियकम्मगवंधणं 3, तहा आहारगआहारगबंधणं एवं तेयगकम्मणा वि 3, तहा ओरालियओगलियबंधणं एवं तेयकम्मेहिं 3, तहा इयरेहिं कम्मगतेयगेहि दोहि सहियाणं ओरालियाइसरीराणं पत्तेयं पत्तेयं एक क एवं एयाणि तिन्नि होति, जहा वेउव्वियतेयकम्मगबंधणं 1, आहारगतेयकम्मबंधणं 2, ओरालियतेयकम्मगबंधणं 3, तेसिं च तेयकम्माणं तिन्नि बंधणाणि जहा तेयगतेयगवंधणं 1, तेयगकम्मबंधणं 2, कम्मगकम्मगवंधणं 3, सव्वाणि पन्नरस // 21 // संपयं वन्नाईणं लाघवत्थं सुभासुभाणं सन्नाविसेसं करेइनीलकसिणं दुगंधं तित्तं कडुअं गुरु खरं रुक्खं / सीयं च असुभनवगं एकारसगं सुभं सेसं // 22 // नीलो कसिणो य दो वन्ना, 'दुगंधो-असुहगंधो एगो, तित्तो कडओ य रसा दो, गरुयं खरं रुक्खं सीयं चत्तारि फासा, एए नव अमुहनवगं भन्नन्ति / सेसा भेया एक्वारसगं (सुह)भन्नन्ति / तं जहा-लोहियहालिहसुक्किला वन्ना तिन्नि, सुरभिगंधो एगो, कसायअंबिलमहुररसा तिन्नि, मिउलहुयनिद्धउण्हफासा चत्तारि // 22 // इयाणि धुवबंधि-अधुवयंधि-उदयाइवियारं सुत्तयारो निदंसेइ धुवबंधोदय संता 2 सव्वेयरधाइ 4 सुभ५ अपरियत्ता / छद्धा वि सपडिवक्खा चउहविवागा य पयडीओ // 23 // धुवो सव्वकालमवडिओ बंधो मिच्छत्ताविरईकसायजोगेहिं जीवपएसाणं कम्मवग्गणापुग्गलेहिं सह खीरनीरनाएण संबंधो बंधो। उदओ तेसिं चेव विवागपत्ताण कम्मपुग्गलाणं 1 "कटुअं” इत्यपि। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8] __ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे विवागेण निज्जरणं अणुभवो वा एगट्ठा / संत त्ति जं कम्मं बंधागयं संकमागर्य वा जाव ऽज्ज वि केणइ परिणामविसेसेण न खेज्जइ, ताव तस्स कम्मस्स संत त्ति वुच्चइ / जओ वुर्त‘कम्पमसुइ सुई वा बद्धं पि न जाव वेइय अहवा / करणंत रेण न विजोजियं नि तं मन्नई संत // ति / धुवसद्वो पत्तेयं संबज्जइ तओ धुवबंधिणीओ सत्तचालीसा पगईओ भाणियव्याओ / तहा छडा वि सपक्विक्व त्ति वयणाओ अधुवबंधिणीओ वि तिहत्तरी भाणियव्वाओ त्ति एवं पयं . सव्वत्थ दट्टव्वं / अधुवधुवाण सरूवं"नियहे उसमवेवि हु भयणिज्जो ज ण होइ पयडीण / बंधो ता अधुवाओ धुवा अभयणिज्जबंधाओ।" ____ तहा धुवोदया सत्तावीसा, अधुवोदया पंचाणउई / एएसिं सरूवं"अव्वुच्छिन्नो उदओ जाणं पयडी ता धुवोदइया। वोच्छिन्नो वि हु संभवइ जाण अधुबोदया ताओ // " . तहा धुवसत्ताओ पगईओ तीसअहियं सयं, अधुवसत्ताओ अट्ठावीसं / एएसि सरूवं"कम्ममसुभं सुभं वा बद्धं पि न जाव वेइयं अहवा / करणंतरेण न विजोइयं ति तं भन्नइ संतं / " . सव्वं कसिणं घायंति सव्वघायणीओ वीसं, इयर त्ति देसं घायंति देसघायणीओ पंचवीसं / एएसिं सरूवं. पयडीओं विचित्ताओ देसं सव्वं हणंति घाईओ। एयासि नियसरूवं सकजकरणाओं विण्णेयं / पडिवक्खे अघायणीओ पंचहत्तरी ___तहा सुभाओ पुण्णसरूवाओ, वायालीसं असुभाओ पावसरूवाओ बासीई / उक्तं च"बायालीसा पयडीण सुहसरूवाण पुन्नमक्खायं / ब यासी असुहाओ पावं दुहहेउभावाओ // " ____तहा अपरियत्तमाणीओ जाओ पगईओ बज्झमाणाओ वेइज्जमाणाओ वा न अन्नासि पगईणं बंधं उदयं वा खलंति, तेसिं च अन्नाए पगईए न बंधो उदओ वा पडिखलिज्जइ नाओ अपरियत्तमाणीओ अउणतीसं / परियत्तमाणीओ पुण जाओ पगईओ विवक्खभृयाणं बंधं उदयं वा निरु धित्ता बंधे उदए य आगच्छंति, ताओ भन्नति / जहा साए बज्झमाणे असायं निरुज्झइ त्ति, असाए बज्झमाणे सायं निरुज्झइ / वुत्तं च"विणिवारिय जा गच्छद बंधं उदयं च अन्नपगईणं / सा हु परियत्तमाणी अणिवारिती अपरियत्ता॥" तहा चउहविवागा य पयडीओ त्ति चउहविवागो-पोग्गलभवखेत्तजीवरूवो जासिं पयडीणं ताओ भाणियव्वा उत्ति / / तत्थ पुग्गलेसु ओरालियाइसरीररूवेसु विवागेण वेयणं जासिं ताओ पोग्गलविवागिणीओ छत्तीसं / भवे=देवाइलक्खणे विवागो जासिं ताओ भवविवागिणीओ चत्तारि / खेत्ते-परभवगमणकालमावि वक्कलक्खणे विवागो जासिं ताओ खेत्तविवागिणीओ चत्तारि / जीवे जीवपएसेसु विवागो जासि ताओ जीवविवागिणीओ अट्ठहत्तरी // 23 // . इयाणिं इमा दारगाहा छत्तीसाए गाहाहिं विवरेड / तत्थ ताव "जहोदेसं निदेस" इति धुववंधिणीओ भणेइ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ध्रुवबन्ध्यादिप्रकृतिनिरूपणम् धुवबंधी भयकुच्छाकसाय१६ मिच्छंतराय आवरणा१४ / . वनवउतेयकम्मागुरुलहुनिमिणोवधाया य 47 // 24 // ... - धुवो बंधो विवक्खियगुणट्ठाणं च पडुच्च जासिं निरंतर होइ, ताओ धुवबंधिणीओ। ताओ इमाओ-भयं, 'कुच्छ' त्ति दुगंच्छा, कसाया सोलंस, मिच्छत्तं; अंतरायपणगं, नाणावरणपणगं, दंसगावरण नवगं, वन्नगंधरसफासा चत्तारि, तेयगं, कम्मइगं, अगुरुलहुयं, निम्मेणं / उबघायं च / पडिवक्खे अधुवबंधिणीओ / ताओ इमाओ गाहादुगेण भणिज्जंति "उरलविउठवाहारगद्गाणि गइ४जाइ५खगइ२अणुपुत्वी४।। संघयणागीतसवीसु सासतिस्थायवुज्जोयं // .. परघायवेयणीया उगोयहासाइदुजुयलतिबेयं / .... विग्यावरण विणा - इय तेवत्तरिमधुवबंधाओ; // " : . . .. . संपयं बंधपत्थावादेव जाओ जे जीवा न बंधंति, ताओ तेसि दंसेइ- . - बंधति न इगि विगला, वेउब्वियछक्कदेवनरयाउं / . . . . . तिरिया तित्थाहारं गईतसा नरतिगुच्चं च // 25 // ... जइवि विगलाण गहणं पढमा पंचिंदियं त्ति वत्तव्वा / तित्थाहारदुगुणा ओघा(१२०) अट्ठन्ह परिहाणी . बंधति न एगिदिया बेइंदिय तेइंदिय चउरिंदिया वेउव्विछक्क, तच्चेतत् देवदुर्ग 2 नरयदुर्ग 2 वेउविसरीरं 5 अंगुवंगं च 6 : वेउव्विछक्कमेयं, निरयसुराऊहिं सह अट्ठ, तहा देवाउयं निरयाउयं च / तओ तेसिं बंधे नवोत्तरं सयं 106 / तहा तिरिया तित्थयरं आहारदुगं च नबंधंति, तेसिं बंधे सत्तरुत्तरमयं 117 / तहा गईतसा तेउवाऊ नरतिगं-नरगइ-नराणुपुवी-नराउलक्खणं उच्चागोयकम्मं च न बंधंति, तेसिं बंधे पंचोत्तरसयं 105 / एए सव्वे भवपच्चयादेव एयाओ पगईओ न बंधति / / 25 / / तहा-... ... ... ... ... नरयसुरसुहुमविगलत्तिगाणि आहारदुगविउविदुर्ग। :.' बंधहि न सुरा सायावथावरेगिदि नेरइया : // 26 // : नरयतिगंकनरपगई-नरयापापुब्बि-नरयाउलक्खणं, एवं सुरतिगं, सुहुमं अपजत्तं साहारणं. सुहमतिगं, बेइंदिय-तेइंदिय:चउरिदियः विगलतिगं, आहारदुमं आहारसरीरं, अंगोवंमलक्खणं, एवं वेउब्वियदुगं 16 बंधंति न सुरा-देवाः भवपञ्चयाओ तेसिं बंधे चउरुत्तरसयं. 104 ... ! .. . तहा एयाओ ..सोलसपयडीओ सह आयावथावरएगिदियजाईए उणवीसं नेरइया : भवपच्चएणं न बंधंति; तेसिं बंधे. एकोत्तरसयं.१.०१॥२६॥ : ... ... ____ बंधपत्थावादेव जेसि पयडीणं बंधकालो अबंधकालो य तं दंसेइ--...... Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] --सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे तिरिनिरयतिगुज्जोयाण सवउपल्लं तिसहमयरसय / इमिविगलजाइआयवथावरचउसुतु पणसीयं // 27 // तिरियतिगस्स नस्यतिगस्स उज्जोयस्स चउहिं पल्लेहिं अहियं तिसट्ठीए सागरोवमाण या अहियं सयं अबंधकाओ। तहा एगिदिय बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियजाईणं आयवस्स थावरसुहुमअपजसाहारणाणं च पणसीए सागरोवमाणं अहियं सचउपल्लं सागरोपमाणं सयं / सन्वेसिं अंतरालभाविनरभवा य अबंधकालो होइ, वक्खमाणगाहाए संक्ज्झइ // 27 // तहा-- बत्तीसं सासाऽणतबंधसेस पणुवीसपयडीणं / नरभवसहिय परमों पणिदिसुः अबंधकालो सिं // 28 // बत्तीसाए अहियं सयं सागरोवमाणं अबंधकालो सासाणंतसेसपणुवींसपयडीणं होइ / / तहा-"मिच्छनपुंसगवेयं निरयाउं तह य चेव निरयदुर्ग" इच्चाइगाहाचउक्केण मिच्छद्दिहिसासणेसु दोसु' गुणट्ठाणगेसु वोच्छिन्ना जाओ पयडीओ, ताओ सासाणंता वुच्चंति / सासणे अंतो-बंधवुच्छेओतेसिं तिकट्ट / ताओ एकचत्तालीसं / तासि मज्झाओ "तिरिनिरयतिगुजोयाण" इच्चाइगाहाएः भणिया जाओ तासिं अन्ना सेसाः पणवीसा पयडी / तासिं बत्तीस सयं नरभवसहियं ति=नरभवे जाओ पुवकोडीओं पुहत्तपमाणाओ ता अहियं परमो-उक्किट्ठो पणिदिसु= पंचेंदिएसु अबंधकालो होइ / ताओ पुण पंचवीसाओ इमाओं ."थीणतिगं३ मगतिगं३ अपढमसंठाणखगड १संघयणं 5 / अणनीयश्नपुसित्थी मिच्छंति य सेसपणुवीसा // // 28 // संपयं जहा एसों अबंधकालो निष्फजइ तहा' दंसेइ-- बत्तीसं विजयाइसु मेवेज्जाईसुः तेसुः तेसटुं / ... तमपुढविजुएसु. गयस्स तेसुः पणसीयमयरसय // 29 // इह कोइ जीवो अहापवत्ताइणा करणेण सम्मत्तं सव्वविरई लभिय विजएसु विवज्जा तत्थ तेत्तीसं सागरोवमाइदेवाउयं परिपालइ, तओ. उवट्टित्ता, चरणं परिपालिय, पुणो वि. तहेव परिवालइ तओ छासट्ठी। होइ भविय मणुस्सो, मिस्सं अंतोमुहत्तं, पुणो वि सम्मत्तं सव्वविरइं च, अच्चुयदेवलोए उववज्जइ तत्थ बावीसं सागरोवमाई, एवं पुणो वि सम्मनः सव्वविरई च, अचुयदेवलोए. उववज्जइ तत्थ बावीसं सागरोवमाई, तओ चोयालीसा, पुणो वि तेणेव स्वेण अच्चुए, तओ बीया छावट्ठी होइ / उक्तं च. ... "दोवारे विजयाइसु गवस्स तिनच्चुए अहव ताई। भरेगं नरभवयिं नाणाजीवेहि सव्वद्धं // 1 // Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरप्रकृतीनां बन्धा- बन्धकालाभिधानम् . [11 / ___एवं बत्तीसं सागरोवमसयं / सम्मत्तस्स मिस्संतरियस्स उक्कोसो टीकालो, भोगभूमिअबंधकालो पल्लतियं भवपच्चएण, तहा पल्लोवमं 1 सोहमे, गुणपच्चएणं, नवमे गेविज्जे सागरएगत्तीसं भवपञ्चएणं, अवंधिय पुव्वुत्तं बत्तीसं सागरोवमसयं चउपल्लाहियं सव्वं तिसर्ल्ड सागरोवमसयं / 'अओ वुत्तं-"गेविज्जाईसु तेसुतेस?" ति "तमपुढविजुएसु" त्ति, ___तहा-कोइ जीवो छट्ठपुढवीए बावीसं सागरोवमाई परिवालिय, उव्वट्टिता, देसविरहें 'पडिवज्जिय, तओ सोहम्मे, तओ पुच्वकम्मेण नवमंगेविज्जे सागरो एगत्तीसं अबंधित्ता, तओ 'अणुत्तराइसु सागरोवमसयं बत्तीसं अबंधित्ता, एवं पंचासीय सचउपल्लं / अयं अबंधकालो 'एगचत्तालीसाए पयडीणं / उक्तं च-- भवपच्चइओ बंधो न भोगभूमिसु तिपलिय सत्तण्हं / अंते सम्मत्तेणं पलियसुरो चविय मणुएसु // 1 // सव्वविरई पंधज्जिय पालिय मणुयाउ नवमगेविज्जे / इगतीससागराऊ मिच्छत्तेणं बसे तत्थ // 2 // चरिमे अंतमुहुत्ते सम्मत्तं लहिय चविय मणुएसु / सम्मत्तं च अछडिय अच्चुयसुरमणुयवारतिगं // 3 // छावट्टी अणुपालिय अंतमुहत्तं च मीसमावेण / पुणरवि सम्मत्तेणं विजयदुवारं च छावष्ट्रिं // 4 // चउपल्ला इगतीसा इग छावट्ठी पुणो वि छ वट्ठी। तेवढे उदहिसयं अहियं पुण चउहिँ पल्लेहिं // 5 // छट्ठीए नेरइओ बावीसं सागराइँ पालेइ / भवपच्चओ न बंधो थावरचउजाइमायावे // 6 // सत्तो उव्वट्टित्ता सम्मत्तं देसविर इ सोहम्मे / चउपलिय मणुय विरई पालिय देवत्तइगतीसा // 7 // तत्तो पुवकमेणं दो छावट्ठी उ पालए सम्मे / अइरेगा मणुयभवा पंचासीयं सचउपल्लं // 8 // अहवा गेवेन्जाणुत्तरेसु छावट्ठि पालए सम्मे / पच्छा य अच्चुयसुरो छावट्ठी पूरए एवं // 6 // सत्तसु नवपयडीसुगुणभवाच्चय अबंधु उक्कोसो / अहियं न होइ आणालिहियं पुण कम्मपयडीए // 10 // 'पणुवीसाएँ अबंधो उक्कोसो होइ सम्मगुणजुत्तो। बे छाचट्ठी ते पुण अहिया सव्वत्थ मणुयभवा // 11 // एसिं अबंधकालो सुहपयडीणं च बंधकालो य / पणसीयं बत्तीसं उदहिसयं होइ केसिं च // 12 // एसो अबंधकालो य बंधकालो य होइ सण्णिस्स / उक्कोसो विण्णेओ न य सेसजियाण एस विही // 13 // इयाणिं निरंतर बंधकालो अधुवबंधिणीणं भण्णइ-- समयादसंखकालं जा परमो नीयतिरयदुगबंधो / सुरदुगविउब्बियदुगे तिपल्लमाउसु मुहुत्त तो 30 // . नीयागोयस्स तिरियदुगस्स जहन्नो समय, उक्कोसओ असंखकालमिति निरंतरं बंधकालो हवइ / तेउकायवाउकाइयाणं एसो; जओ तेउवाउकाइयाणं कायट्टिई असंखकालपमाणा, तीए एयतिगस्स न परावत्तो होइ / सुरदुगस्स देवगइ-देवाणुपुव्वीसरुवस्स वेउब्वियदुगस्स सरीरअंगोवंगलक्खणस्स जहण्णओ समओ, उक्कोसो पलिओवमतिगं; जओ देवकुरुउत्तरकुरूसु देवगइपाऊंग्गं बंधं बज्झइ, नो अन्नं / आउचउक्के उक्कोसओ वि अंतोमुहुत्तं // 30 // . तसचउपणिंदिपरघाउस्सासेसु पणसीयमुदहिसयं / / बत्तीसं सुभगतिगुच्चपुरिससुभखगइचउरंसे // 31 // Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , 12 ] ............ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे तसचउक्कपणिंदिजाइपरघायनामऊसासनामाणं सययं बंधकालो। जघन्यः समयः। उक्कोसं सागरोवमसयं पण्णासीयं पल्लचउक्कं च / 'जओ पडिवक्खस्स अबंधकालो सो एएसिं बंधकालो। उस्सासपरपाया पत्तेया कहं पडिवक्खा - ? भण्णइ, परघायनामं उसासनामं च पज्जत्तगेण समं चमंति, एएण कारणेणं पज्जत्तगो पडिवक्खों / तहा सुभगतिगं उच्चागोयं पुरिसवेयं सुहविहायगई चउरंससंठाणं, एएसि बंधकालः जघन्यः समयः, उक्कोसं सागरोवमसयं बत्तीस पडिवक्खसंभवाओ // 31 / / ... ... ... ... ... ...... ... उरले असंखपोग्गलपरियट्टा माय पुबकोडूणा / तेत्तीसयरा नरदुगतित्थुमहउरालुवंगेसु // 32 // ओरालियसरीरे बंधकालो जघन्यः समयः, उक्कोसो ' सततं असंखपुग्गलपरियट्टा / . . उक्तं च-"एगिंदिय हरियंतिया पुग्गलपरियट्टया असंखिज्जा' इत्यादि / सायावेयणियस्स बंधकालो जघन्यः समयः, उकोसं देसूणा पुचकोडीजओ केवलि सायावेयणियं चेव बंधइ, तस्स / मणुयदुर्ग तित्थयरनामं वज्जरिसभसंघयणं ओरालियअंगोवंगं एएसितिस्थयरवज्जाणं बंधकालो जघन्यः समयः, तित्थयरस्स अंतोमुहुत्तं जघन्यः, उक्कोसं पंचण्ह वि सागरोवमतेत्तीसं 'अणुत्तरविमाणेसु // 32 / / . ... समयादंतमुहुरा सेसाणं 43 तह जहण्णबंधो वि / ..... . तित्थाउसु अंतमुहू धुवबंधीणं 47 तु भंगतिगं // 33 // जओ नेहत्तरी अधुवबंधणीओ तासि बंधकालो बत्तीसं अणंतरमेव पन्नवियाओ। "सेसाणं" ति . अन्नासिं एक चत्तालीसाए पगईणं बंधकालो जघन्यः समयः / उक्कोसं अंतोमुहत्तं / ता य इमाओं .. थिरसुमजसथावरदस१८असुभागी५ ख़गइ' जाइ४ संघयणा 5 / . . . . .: निरया-हारदु:गायब 1 असाय१अपुमि१त्थिा१दुजुयलु४ज्ज़ोयं 1. / ' थिरनामं सुहनामं जसनामं थावरदसगं असुहसंठाणपंचगं असुहविहायगइ असुहजाइचउक्क 'असुहसंधयणपंचगं: निरंयदुर्ग आहारगदुर्ग : आयवनामं असायवेयणीयं नपुंसगवेयं इत्थिवेयं हासरइंजुयलं अरइसोगजुयलं उज्जोयं च / एवं एकत्तालीसं 41 / तथा तित्थयरनामस्सआउचउक्कस्स जहन्नबंधकालो अंतोमुहत्तं / तित्थयरनामस्स जघन्यः बंधकालो कह लभइ ? भन्नइ-तित्थयरनामवंधगो उवसमसेढि आरुहइ, अनियट्टी जावउवसंतो अंबंधगो, परि. वडिओ, पुणो बंधइ अंतोमुहत्तं, पुणो सेढि आरुहइ, पुणो वि अनियट्टी अबंधगो, परिवडिओ 'पुणो 'बंधइ / उक्त च-"एगभवे दुक्खुत्तो चरित्तमोहं उपसमिज्जा' . .:: 1 अत्रौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम्नोऽनुत्तरसुरापेक्षया सम्पूर्णत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणो बन्धकालः प्राप्यमाणो--- ऽप्युत्कृष्टबन्ध कालचिन्तायां तु: सप्तमनरकनारकापेक्षयाऽन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपममान : स लभ्यते, सप्तमनरकान्निर्गतस्या ऽप्यन्तर्मुहूत यावत्तद्वन्धलाभात् / .......... / / Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जोयायवपरंधातस उत्तरप्रकृतीनां बन्धकालध्र वोदयत्वादिप्रदर्शनम् [ 13 --. एवं अधुवबंधिणीणं साइसंतो य बंधो धुवबंधिणीणं का वार्ता इत्याह-"धुवबंधी "तु भंगतिगं" कहं 1, अणादिअपज्जवसिओ 1 अभव्वाणं, अणादिसपज्जवसिओ 2 भव्वाणं, साइअपज्जवसिओ बंधं पइ असंभविओ, सादिसपज्जवसिओ 3 प्राप्तगुणानां, स च जघन्येन अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं देसूर्ण अवड़पुग्गलं / एयं भंगतिगं धुवबंधिणीणं / इयरासिं च भणिओ भव्वाणं जोग्गाणं बंधकालो / / 33 / / संपयं धुवोदयाणं इयरासिं च उदयविभागो भन्नइनिम्मेणथिराथिर तेय कम्मवण्णाइ अगुरुसुहमसुहं। नाणंतरायदसगं देसणचउ मिच्छ धुवउदया // 34 // निम्माणनामं थिरनामं अथिरनामं तेयगसरीरं कम्मगसरीरं वण्णाइचउक्कं अगुरुलहुनाम सुहनामं असुहनामं नाणावरणपणगं अंतरायपणगं देसणचउक्कं मिच्छत्तं च, एए धुवोदया सत्ता'वीसं / पडिवक्खोऽधुवोदया, ताओ इमाओ - "गइ४ आणुपुठिव 4 सुभगा 4 दुभगा 4 आउच उ 4 थावर 4 चउक्क / संघयणा 6 गी 6 विहदुगनीउच्चं सायमस्सायं // 1 // सासतित्थउवघायं / उलचि उव्वाहारगदुग 6 पणजाई पनिह // 2 // सोलसंकसायनवनोचरित्तमोह तह सम्ममीसं च / अधुवोदयपणनउई सत्तावीसं धुवोदझ्या // 3 // " // 34 // : ... इयाणि धुवोदयाणं अधुवोदयाणं च भंगविभागं निदंसेइ--: . . - उदयो धुवउदयाणं अणायणंतो अणाइसंतो य / . अधुवाण साइसंतो मिच्छस्स उ भंगतिगमेयं // 35 // - जहा-अणाइअणंतो 1, अणाइसंतो 1, अणाइओं अपज्जवसिओ अभव्वाणं 1, अणाइओ सपज्जवसिओ भव्वाणं होइ छव्वीसाए धुवोदयाणं / अधुवोदयाणं 65 पुण साइओ संतो होइ जहासंभवं भव्वाणमभव्वाण य / मिच्छस्स पुण भंगतिगं एयं अणतरुत्तं, साइसंतो य // 35 / / भणिया धुवोदया अधुवोदया य / इयाणि धुवसंतदारं भणिउकामो थोवत्ताओ अधुवसंताओ भणेइ-- - वेउव्वेकारससम्ममीसतित्थुञ्चमणुदुगाउचऊ / - आहारसत्त अधुवा 28 धुवसंता सेस तीससयं // 36 // निरयदुर्ग 2, देवदुर्ग 3, वेउब्धियसरीरं 1, अंगोवंग 1, संघायं१, वेउब्वियचउबंधणं 4, वेउव्विकारसयं, सम्मत्तं, सम्मामिच्छत्तं, तित्थयरनाम, उच्चागोयं, मणुयदुर्ग, आउचउक', आहारगसरीरं, आहारगअंगोवंगं, आहारगसंघायं, आहारगबंधणचउक, एवं आहारगसत्तर्ग; एए अट्ठावीसं अधुवसंताओ / पडिवक्खो धुवसंताओ / ता य इमा"संघयणछक्कतिरिदुगतेग 7 ओरालसत्तयदुगं च / वण्णाई 20 संठाणा 6 तसाइबीसा य नायव्वा // 1 // सायासायं विहदुगनीयं पणजाइ अतित्थपत्तेयं / पणयालघाइपयडी धुवसंते तीससयमेवं / . // // 36 // Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 1 . सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे .. संपयं जेसु गुणट्ठाणगेसु जाओ मोहनामप्रगईओ नियमेण विगप्पेण य संभवति, ताओ सेइ तिसु मिच्छत्तं नियमा अट्ठसु गुणठाणएसु भयणिज्ज। . सामायणम्मि नियमा संत सम्म दससु भज्जं // 37 // मिच्छदिविसासायणसम्मामिच्छत्तेसु मिच्छत संतं नियमेण हवइ / “असु गुणठाणगेसु भयणिज्ज"ति अविरयाइ जाव उवसंतकसाओ ताव भयणिज्ज-भजनीयं, कयाइ होइ, कयाइ न होइ / कहं भयणिज्जं ? जया तेवीससंतकम्मिओबावीससंतकम्मिओ एगवीससंतकम्मिओ जहासंभवं एएसु गुणट्ठाणगेसु आरुहइ, तया नो मिच्छत्तसंतकम्मी हवइ / जया पुण अट्ठावीससंतकम्मिओ चउवीससंतकम्मिओ एएसु गुणट्ठाणगेसु आरुभइ, तया मिच्छत्तसंतकम्मिओ जीवो / एवं मिच्छत्तस्स भयणा होइ / अहवा "तिसु मिच्छत्तं नियम" ति तिसु गुणट्ठाणगेसु मिच्छत् नियमा अस्थि त मिच्छदिट्ठि सासायण-सम्मामिच्छद्दिट्ठीसु / अट्ठसु अविरयाओ जाव उपसंतकसाओ ताव भइयव्य होइ, वा नवा / उवसमसेणिं पडुच्च होइ, खाइगसम्मदिढेि पडुच्च न होई / "सासायणम्मि नियमा संत सम्म"ति / / सासायणसम्मद्दिडिम्मि सम्म नियमा अस्थि जेण उबस नसम्मत्तऽद्धाए सासायणो सो य अट्ठावीससंतकम्मिओ "वससु भ[यणिज्ज" ति आइमेसु सासायणवज्जेसु जाव उवसंतकसाओ एएसु दससु सम्मत्त भयणिज्ज / कई ? भन्नइ,-मिच्छदिद्विणि उवलियं अणुप्पाइयं वातं पडुच्च नत्थि, अट्ठावीससंतकम्मियस्स अस्थि / सम्ममिच्छदिविम्मि उव्वलियं पडुच्च नत्थि, जओ सम्मत्ते उव्वलिए वि सम्मामिच्छद्दिट्टी लन्मइ अणुव्वालियसम्मत्तस्स अस्थि / सेसेसु खाइगसम्मद्दिट्टि पडुच्च नत्थि, इहरहा अत्थि // 37 // सामणमीमे मीसं संतं नियमेण नवसु भइयव्वं / नियमा मिच्छासाणे पढनकमाया नवसु भन्जा // 38 // सासायणे मीसे य सम्मामिच्छत्तं नियमा अस्थि / कह ? भन्नइ,-सासायणे नियमा अट्ठावीससंतकम्मिगो / सम्मामिच्छद्दिट्ठी पुण सम्ममिच्छत्र्तण विणा न होइ सि काउं / गुणठाणनवगम्मि भयणिज्ज-मिच्छट्ठिी असंजयसम्मदिट्ठी जाव उवसंतकसाओएएसु नवसु होज्ज वा नवा। कहं ?, भनइ,-मिच्छदिद्विस्स अट्ठावीससंतकम्मियस्स सत्तावीससंतकम्मियस्स अत्थि, छव्वीससंतकम्मियस्स नत्थि / सेसेसु खाइगसम्मद्दिट्ठीं पडुच्च नस्थि, इयरहा अस्थि / तहा नियमा मिच्छद्दिहिस्स सासणस्त य पढमकसाया अणंताणुवंधिणो होति, जेण एए अर्णताणुवंधिणो नियमा बंधति / नवसु भाज"त्ति सम्ममिच्छद्दिट्ठी जाव उवसंतकसाओ एएसु नवसु ठाणेसु अर्णतानुवंधे संतं भइयव्यं / कहं 1, भन्नइ,-उव्वलियं पडुच्च नत्थि, अन्नहा अस्थि / अन्ने Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकं प्रतीत्य मोहनीयनामोत्तरप्रकृतीनां धुंवाध्र वसत्त्वस्योत्तरप्रकृतीनां सर्वघातित्वादेश्व भर्णनम् [15 आयरिया पंचसु भयणिज्जं, इइ व्याख्यानयंति / जओ तेसि मएणं अट्ठावीससंतकम्मिओ ना उवसमसेढी(अ) आरुहइ, तओ अपमत्तं जाक भयणिज्जा अगताणुबंधिणो होति // 38 // सव्वगुणे साहारं सासणमिस्सरहिएसु वा तित्थं / नोभयसंते मिच्छे अंतमुहुत्तं भवे तित्थे // 39 // सव्वेसु गुणहाणगेसु आहारसत्तगस्स संतं संभवइ। तित्थयरनामं पुण मीससासायणवज्जेसु. सतं होइ / वासद्दाओ केसु विगुणट्ठाणगेसु भवई वा नवा / तित्थयरस्स आहारसत्तगस्स य उभयसंता हवइ, तया मिच्छत्तं न गच्छइ / “अंतमुहुत्त भवे तित्थे" ति, तित्थयरनामसंतं मिच्छद्दिविम्मि अंतमुहुत्तं लब्भइ / कहं 1, भन्नइ-नरए बद्धाउओ वेयगसम्मत्तं पडिवज्जइ विसुज्झमाणो तित्थयस्नामं बंधइ, अंतकाले सम्मत्तं वमेइ, मिच्छत्तं गच्छइ, नरएसु उववज्जइ, पज्जविभावं गओ सम्मत्तं पडिवज्जइ एवं मिच्छदिद्विम्मि तित्थयरनामं अंतोमुहुत्तं संता लभइ / / 39 / / संपयं धुवबंधोदयसंताइ भणिय / संपयं सव्वेयरघाइदारं सपडिवक्खं भन्नइ / तत्थ ताव पढेमं सव्वघाडणीओ, ता य इमा केवलियनाणदंसणआवरणं बारसाइमकसाया / मिच्छत्त निद्दपणगं इय वीसं सव्वघाईओ // 40 // केवलनाणावरणं 1, केवलदंसणावरणं 2, आइमा अणंताणुबंधिअपच्चक्खाणपच्चक्खाण लक्खणा कसाया बारस, मिच्छत्तं, निद्दापणगं च, इय वीसं सव्वघाईओं // 4 // संपयं सव्वघाइतं देसघाइत्तं भावेइ... सम्मत्तनाणदंसणचरित्तघाइत्तणाउ घाईओ / तस्सेस देसघाइत्तणाउ पुण देसघाईओ // 41 // सम्मत्तनाणदसणचरित्तस्स यं सव्वहा हणणसीलत्तणेण सव्वघाइणीओ / तत्थ मिच्छत्तं अणंताणुवंधिणो य सम्मत्तस्स जीवाजीवाइसद्दहणरुवस्स घाइगा / केवलणाणकेवलदंसणावरणे पुण केवलनाणकेवलदंसणाणंसव्वहा घाइगे। उक्तंच-"परं सुट्टुं वि मेहसमुदए होई पहा चंदसूराणं"। ति वचनात् जीवलक्खणभूयस्स अगतिमकेवलभागस्स अणावरणमेव / अन्नहीं जीवो अजीवत्तणं पावेज त्ति / निद्दापणगं खाओवसमचक्खुदंसणाईण घाइगं, बीयकसाया देसविरईए, तइयकसाया सम्वविरईए चरित्तस्स घाइगा / / 4 / / संजलणनोकसाया चउनाणतिदसणावरणविग्धा / ... पणवीसदेसघाई - सेसअघाई सरूवेण // 42 // Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे संजलणचउवक, नोकसायनवगं, मइनाणावरणं, सुयनाणावरणं, ओहिनाणावरण, मणपज्जवनाणावरणं, चक्खुदंसणावरणं, अचक्खुदंसणावरणं, ओहिदंसणावरणं, अंतरायपणगं च, एए पणवीसंदेसघाइणीओ। सेसाओ उद्धरियाओ अघायणीओ, सरूवेण सहावेण / ता य इमा७५ . . "तसवीसं२०पत्तेया,वेयणियदुगं च२, आउ चत्तारि४ / _____ गर४.जाइ४ तणु उवंगा३ संघयणागीय 6 नी१उच्चं // वन्नरसगंधफासा४ देवनातिरियनिरियपुवीभो / ___ सुह असुहा विहगगई अघाइ पयडीओं पणसयरी॥१-२॥" इयाणिं सुभासुभाओ पयडीओ दंसेइ-... नरतिरिसुराउमुच्चं सायं. परघायआयवुजोय / तित्थोसासनिमेणं. पणिदिवइरुसभचउरसं // 43 // .. मणुयाउयं, देवाउयं, तिरियाउयं तं. सुभं पुण भोगभूमी पडुच्च संभवियं, उच्चागोयं, सायावेयणियं, परघायनाम. आयवनाम, उज्जोयनाम, तित्थयरनामं, उस्सासनामं, निम्माणनाम, पणिंदिजाई, वज्जरिसभनारायं संघयणं, समचउरंससंठाणं // 43 // / तसदस चउवण्णाई सुरमणुदुगपंचतणुउवंगतिगं / अगुरुलहुपढमखगई बायालीसं ति सुहपयडी // 44 // . . तसदसगं, वण्णाइचउक्कं, देवदुर्ग, मणुयदुर्ग, सरीरपंचगं, उवंगतिगं, अगुरुलहुयं, सुभखगई, एया बायालीसं, इतिशब्दः समाप्तो, सुहपयडीओ भन्नति / / 44 // सेसा पडिवक्खो असुहपयडीओ निदंसेइ-.. थावरदसचउजाई अपठमसंठाणखगइ संघयणाः / तिरिनरयदुगुवघायं वन्नवऊ नामवउतीसा // 45 // ..... * थावरदसगं, पंचिंदिजाइवज्जाओ. चत्तारि जाईओअसुभसंठाणपंचगं, असुभा खगई. असुभसंघयणपंचगं, तिरियदुर्ग, निरयदुगं. उवघायं, असुभपयडीओ दोसु वि वण्णाइचउक्गः हणेण अनुभवण्णाइचउक', एवं नाम चउतीसा / 45 / / .. - निरयाउनीयअस्सायघाइपणयालसहियबासीई / .:....: असुभषयडी उ. दोसु वि वन्नाइच उकगहणेण // 46 // निरयाउयं, नीयगोयं, असायवेयणीयं, पणयालीसं घाइपयडीओ, एवं असुभपयडी बियासी / दोसु वि वनाइचउक्क सुभासु सुभं असुभासु असुभ ति // 46 // इयाणिं अपरियत्तमाणीओ परियत्तमाणीओ य.भन्नंति--- . . Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरप्रकृतीनां शुमाशुभत्व-परावर्तमाना-ऽपरावर्तमानत्वादिकथनम् [17 नाणंतरायदंसणचउक्कपरघायतित्थउस्सास / नामधुवबंधिनवमिच्छभयदुगुच्छा अपरियत्ता // 47 // नाणावरणपणगं, अंतरायपणगं, दंसणावरणचउक्क, परघायं, तित्थयरनामं, उस्सासं नाम, धुवबंधिणीओ य नवसंखाओ, ता इमा-वण्णचउतेयकम्मागुरुलहुनिमिणोवघाया य, मिच्छत्तं, भयं, दुगुच्छा य / एयाओ अपरियत्तमाणीओ अउणतीसं / परियत्तमाणीओ पुण इमाओ"गइ४ जाइतितणुश्वंगा३ संघयणागीइविहगरअणुपुत्वी४।तसथावराइवीसं आउचऊ सायमस्सायं // 1 // सोलसकसायनवनोमयकुच्छविणा उनिहपणगं च। उज्जोआयवनीउच्च होंति परियत्तइगनउई।॥२॥"॥४७॥ अह च ओहविवागा पयडीओ दंसेइ गाहादुगेणसंठाणा * संघयणा सरीरुवंगाणि आयवुजोया / नामधुवोदय . साहारणियरउवधायपरघाया // 48 // उदइयभावा पोग्गलविवागिणो आउभवविवागीणि / खेत्तविवागणुघुवी जीवविवागीओ सेसाओ // 49 // संठाणछक्क', संघयणछक्क', सरीरतिगं, अंगोवंगतिगं, आयवं, उज्जोयं, नामधुवोदया य, ता उ इमाओ-निम्मेणथिराथिरतेयकम्मवण्णाइचउअगुरुलहुसुहमसुहं 12, साहारणं, पत्तेयं, उवधायं, परघायं च, एयाओ छत्तीसं / "उदइयभावा" उदओ-विवागो तओ उदओ जस्स अत्थि सो उदइओ, उदइओ भावो जासिं ताओ उदइयभावाओ। तहा एयाओ चेव पोग्गल'विवागिणीओ बुच्चंति / आऊणि पुण चत्तारि भवविवागीणि भन्नति / आणुपुव्वीओ चत्तारि खेत्तविवागिणीओ वुच्चंति / सेसाओ सव्वाओ वि जीवविवागिणीओ होति / ता इमा"चउगइ४विहदुगरजाई५ तसतिग३उस्साससुभग४दुभगचउ 4 / थावरसुहुमअपज्जनीउतचं सायमस्सायं // 1 // तित्थं सम्मं मीसं पणयालीसं च घायायडीओ / इय अठ्ठत्तरिपयडी जीवविवागा मुणेयव्वा // 2 // " जा वि पोग्गलाइविवागिणीओ ता वि जीवविवागिणी चेव / परं पोग्गलाण संजोगेण विवागं देंति, अओ पोग्गलविवागत्ताइनामेण भणियाउ त्ति न दोसो | पोग्गलविवागाइसद्दत्थो दारगाहाए सचिओ // 48-49 / / इयाणि उदयभावाहिगारादेव सव्वे भावे परूवेइभावा छचोवसमिय 1 खइय 2 खओवसम 3 उदय 4 परिणामा 5 / दु 1 नव 2 ऽट्ठारि 3 गवीसा 4 तिग 5 भेया सन्निवाओ य // 50 // Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे भवति-संपज्जति भावा-जीवपरिणामविसेसा ते य छसंखा समन्निया / तत्थ उवसमिओ 1, खाइओ 2, खओवसमिओ 3, उदइओ 4, पारिणामिओ 5, एए पंचेव जहसंखं दुभेयनवमेय-अट्ठारसभेय-इगवीसभेय-तिभेया होति / छट्ठो पुण सन्निवाओ मेलावओ // 50 // इयाणिं जे सम्मत्ताइगुणा जत्थ भावे संभवंति ते तत्थ दंसेइ सम्मचरणाणि पढमे, बीए वरनाणदंसणचरित्ता / तह दाणलाभभोगोवभोगविरयाणि सम्मं च // 51 // उवसमियं चरितं, उपसमियं सम्मत्त एए पढमे होति / केवलनाणं 1, केवलदरिसणं 1, खाइयं चरणं 1, दाणलद्धी 1, लाभलद्धी 1, भोगलद्धी 1, उवभोगलद्धी 1, वीरियलद्धी 1, एए सव्वक्खएण पंचलद्धीओ, खाइयसम्मत्तं 1, एए बीए खाइयभावे // 51 // चउनाणऽन्नाणतिगं दसणतिगपंचदाणलद्धीओ / सम्मत्त चारित्त च संजमासंजमो तइए // 52 // नाणचउक, अनाणतिगं, दसणतिगं, पंचदाणलद्धीओ, एए देसखएणं, सम्मत्तं, चारित्तं, "संजमासंजमो" त्ति देसविरओ एए तइए खाओवसमियभावे / / 52 / / चउगइचउकसाया लिंगतिगं लेसछक्कमण्णाणं / मिच्छत्तमसिद्धत्त असंजमो चोत्थभावम्मि // 53 // गइचउक्क, कसायचउक्क, वेदतिगं, लेसछक्क, अन्नाणं, मिच्छत्तं, "असिद्धत्तं" ति संसारित्तं "असंजमो" त्ति देसओ सव्वओ वा अनियमो 1, एए चउत्थे उदइयभावे एगवीसं // 53 // पंचमगम्मि य भावे जीवाभवत्तभव्वयाईणि / पंचण्ह वि भावाणं भेया एमेव तेवण्णा // 54 // जीवत्तं भव्वत्तं अभव्यत्तं आइसद्दाओ असंखेयपए सत्ताइया / इयाणि पुव्वभेयाणं संपिंडियाणं संखा निदंसेइ-पंचण्ह वि भावाणं तेवण्णं भेया होति / एवं पुवकम्मेण दोण्हं नवण्हं अट्ठारसहं एगवीसाए तिन्हं च संजोयणेण // 54 // संपयं सन्निवाइयभावे भेए संभविणो असंभविणो य दंसेइउदइयखाओवसमियपरिणामेहिँ चउरो गइचउक्के / खइयजुएहिँ वि चउरो तदभावे उवसमजुएहिं // 55 // .. Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावप्ररूपणम् [16 - उदइयं मणुयत्तं, खाओवसमियाइं इंदियाइं, पारिणामियं जीवत्तं, एस तिगजोगो 1 एकोः अन्ने तिगजोगा नेरइयतिरिक्खदेवत्तणे पक्खित्ते मणुयत्ते उस्सारिए होति / गइभेएण चत्तारि तिगजोगा / तहा एए उदइयखाओवसमियपरिणामियभेया खइयसम्मत्तेण चउजोगो / सो वि चउगइभेएण चत्तारि चउजोगा / अहवा खाइयं उस्सारिय उवसमसम्मत्तेण पक्खित्तेण चउजोगो 3 / ते वि गइचउक्कमेएण चत्तारि चउजोगा / एवं सव्वे बारस होति // 55 // एकेको उवसमसेढिसिद्धकेवलिसु एवमविरुद्धा / पन्नरस मनिवाइयभेया वीसं असंभविणो // 56 // उपसमिय-खाइय-खाओवसमिय-ओदइय-पारिणामिएहिं पणजोगे उवसमसेढीए भंगेको मणुस्साणं 1 / खाइय-पारिणामिएहिं दुगजोगे भंगेको य सिद्धाणं 2 / खाइय-ओदइय-पारिणामिएहिं तिगजोगे भंगेको केवलीणं 3 / एवं एए भंगा संभविया पुवुत्ता भंगा बारस उवसमसेदि-सिद्ध-केवलिभंगा तिन्नि 3 / एवं सनिवाइगभावे पण्णरस भंगा। वीसं असंभविया / ते य इमेउपसमियं खाइयं.१, उवसमियं खाओवसमियं 2, उपसमियं उदइयं 3, उवसमियं पारिणामियं 4, खाइयं खाओवसमियं 5, खाइयं उदइयं 6, खाइयं परिणामियं, (1) सिद्धभंगोः उव. समिथं उदइयं 7, खाओवसमियं पारिणामियं 8, उदइयं पारिणामियं 9 दुगजोगे नव भंगा, असंभवियाः उपसमियं खाइयं खाओवसमियं 1, उपसमियं खाइयं ओदइयं 2, उपसमियं खाइयं पारिणामियं 3. उवसमियं खाओवसमियं उदइयं 4, उवसमियं खाओवसमं पारिणामियं 5, उपसमियं उदइयं पारिणामियं 6, खाइयं खाओवसमियं उदइयं 7, खाइयं खाओवसमं पारिणामियं 8, तिगजोगे अट्ठ असंभविया / खाइयं उदइयं पारिणामियं (2) केवलिभंगो सुद्धो, खाओवसमियं उदइयं पारिणामियं (3) गइचउकभंगो 4, एवं तिगजोगे भंगा अट्ठ असंभविया, उवसमियं खाइयं खओवसमियं उदइयं 1, उपसमियं खाइयं खामोवसमियं पारिणामियं 2, उपसमियं खाइयं उदइयं पारिणामियं 3, उपसमियं खाओवसमियं उदइयं पारेणामियं (4) गइचउक्कभंगो 4, खाइयं खाओवसमं उदइयं पारिणामियं (5) गइचउक्कभंगो 4 / एवं चउक्कजोगे तिनि असंभविया / सव्वे वि वीसं असंभविया / उपसमियं खाइयं खाओवसमियं उदइयं पारिणामियं (6) उवसमसेढिभंगो / एवं भंगा 26 / संभंविया भंगा 6 / असंभविया भंगा 20 // 56 // इयाणि संभविणो जे छभंगा ते विसेसओ दंसेइ दुगजोगो सिद्धाणं केवलिसंसारियाण तिगजोगो। चउजोगजुयं चउसु वि गईसु मणुयाण पणजोगो // 57 // Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे ____तत्थ खाइय-पारिणामिएहिं दुहिं जोगो सिद्धाणं / उदइय-खाइय-पारिणामिएहिं केवलीणं / संसारियाणं पुण चउगइयाण वि तिगजोगो उदइय-खाओवसमिय-पारिणामिएहिं / चउजोगो दुविहो चउसु वि गईसु / तत्थ एसो तिगजोगो खाइएण वा उवसमिएण वा चउजोगो / मणुयाण खाइगसम्मद्दिट्ठीणं उवसमसेढिपज्जंतपत्ताणं पंचन्ह वि भावाणं जोगो लब्भइ / / 57 // इयाणि छण् भावाणं अट्ठकम्मेसु जो जहिं संभवइ तं दंसेइ-- मोहस्सेव उवसमो खाओवसमो चउण्ह घाईणं / उदयक्खयपरिणामा अट्ठन्ह वि होंति कम्माणं // 58 // मोहणीयस्सेव ओवसमिओ भावो, न पुण अन्नेसि कम्माणं / नाणवरणदंसणावरणमोह- . णीयअंतराइयाणं घाइकम्माणमेव खाओवसमिओ भावो। उदइयखाइयपारिणामिया तिन्नि भावा अट्ठण्ह वि होति कम्माणं / / 58 / इयाणिं गुणट्ठाणगेसु मिच्छद्दिछिपभिईसु एए चेव भावे दंसेइ-- सम्माइचउसु तिगचउभावा चउपणुवसामगुवसंते / चउ खीणेऽपुब्वे तिन्नि सेसगुणठाणगेगजिए // 59 // अविरयसम्मदिट्ठिदेसविरयपमत्तअपमत्तेसु चउसु वि खाओवसम-उदइय--पारिणामिया भावा तिन्नि / अहवा उवसमिय-खाइयाणं एगयरे छूढ़े चत्तारि भावा / "चउपणउवसामगुवसंते" त्ति / अनियट्टिसुहुमसंपराया उवसामगा, उवसंतमोहो उवसंतो / एएसि तिण्हं उवसमियं खाओवसमियं उदइयपरिणामा भावा चत्तारि / अहवा पंच खाइयसम्मत्तेण / चउ खोणेऽपुव्वे" ति उदइय-खाओवसमिय-परिणामा खीणमोहस्स अपुव्वकरणस्स य तिन्नि भावा / खीणे चउत्थो खाइओ / अपुव्वकरणस्स पुण चउत्थो खाइगो उपसमिओवा। "तिनि सेस." त्ति / तिनि भावा सेसाणं गुणवाणगाणं होति / तत्थ सजोगिअजोगिकेवलीणं खाइय-उदइयपारिणामिया भावा मिच्छसासणसम्ममिच्छाणं उदइय-खाओवसमिय-पारिणामिया तिन्नि हवंति / 'एगजिए" त्ति एक कस्स जीवस्स एए सव्वे वि भावा / न उण तग्गुणट्ठाणगयाण अणेगजीवाणं / ___ संपयं गुणट्ठाणगेसु पत्तेयं उत्तरभावभेयसंखा भण्णइ / ते पुण एए"पणअंतरायअन्नाणतिन्नि अच्चक्खुचक्खु दस एए / मिच्छे साणे य हवंति मीसए अंतरायपण // 1 // नाणतिगदंसणतिगं 'मीसं सम्मं च बारस हवंति / एवं च अविरयंमि वि नवरं तहिदसणं सुद्धं // 2 // देसे 'देसव्विरई तेरसमा तह पमत्तअपमत्ते / मणपज्जवपक्खेवा चउदस अप्पुव्यकरणे य // 3 // 1 "मीसगसम्म” इत्यपि पाठः / 2 “य देसविरई तेरसम' इत्यपि पाठः। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलकर्माष्टके मूलभावानां गुणस्थानकेषु मूलोत्तरभावानां धर्मास्तिकाय देश्च वर्णनम् [21 चेयगसम्मेण विणा तेरस जा सुहुमसंपराउत्ति / ते च्चिय उवसमखीणे चरित्तविरहेण बारम उ / / 4 / खाओवसमिगमावाण कित्तणा गुणपए पडुच्च कया। ओदइयभावमिहि ते चेव पडुच्च दसेमि / / 5 / / 'चउगइयाइगवीसं मिच्छे साणे य होंति वीसं च / मिच्छेण विणा मीसे इगुणीसमनाणविरहेण / / 6 / / एमेव अविरयम्मी सुरनारयगइ वियोगओ देसे / सत्तरम होंति तेञ्चिय तिरियगइअसंजमाभावा // 7 // पन्नरस पमत्तम्मी अपमत्ते आइलेसतिगविरहे / ते च्चिय बारस सुक्केगलेसओ दस अपुवम्मि / 8 / / एवं अनियट्टम्मि वि सुहुने संजलणलोभमणुयगई / अंतिमलेसअसिद्धत्तभावओ जाण चउभावा / / 9 / / संजलणलोभविरहा उवसंतक्खीणवलीण तिगं / लेसाभावा जाणसु अजोगिणो भावदुगमेव // 10 // अविरयसम्मा उवसंतु जाव उवसमगखइयगा सम्मा / अनियट्टीओ उवसंतु जाव उवसामियं चरणं // 11 // ४परं उपशमश्रेणिं प्रतिपततोन चटतः / / खीणम्मि खइयसम्मं चरणं च दुगं पिजाण समकालं / नव नव खइगा भावा 'जाण सजोगे अजोगे य॥१२ जीवत्तमभव्वत्तं भव्वत्तं पि हु मुणाहि मिच्छम्मि / साणाई खीणते दोन्नि अभव्यत्तवज्जा उ // 13 // सजोगि अजोगिम्मी जीवत्तं चेव मिच्छमाईण / ससभावमीलणाओ भावे मुण सन्निवायम्मि // 14 / / चउदुगतिगपणचउतिगतीसा तीसा सगट्ठदुगवीसा वीसिगुणवीस तेरस बारस मुण सनिवार्याम्म // 15 // 56 / / इयाणिं एए चेव भावे अजीवेसु भणिउकामो पढमं ताव अजीवट्ठाणाणि च उदस भइधमाधम्मनभा तिन्नि दव्यदेमप्पएसओ तिविहा। गइठाणऽवगाहगुणा अरूविणो कालसमओ य // 6 // धम्मस्थिकायदव्वे परिपुन्नो धम्मस्थिकाओ 1, धम्मस्थिकायदव्वदेसे तस्सेव दुभागतिभागाई 2, धम्मत्थिदव्वे पएसा निविभागा भागा 2 / एवमन्नेसु वियाणियव्वं / अधम्मत्थिकायदव्वे 1, अधम्मत्थिकायदव्वदेसे 2, अधम्मत्थिकायदव्वप्पएसे 3 / आगासस्थिकायदव्वे 1, आगासत्थिकायदव्वदेसा 2, आगासत्थिकायदव्वपएसा 3 / “गइट्ठाणअवगाहगुण" त्ति जहासंखं संबंधो गुणपरिणामः / धम्मत्थिकाए गइगुणे / अधम्मत्थिकाए ठाणगुणे / आगासत्थिकाए अवगाहगुणे / “अरूविणो" त्ति अरूविया रूवरसगंधफासरहिया एए नव अजीव. ठाणा तहा "कालसमओ" काललक्षणो समओ कालसमओ अरूवी एवं 10 // 60 // संपयं कालसरूवं रूविअजीवसरूवं च भणेइ सो वत्तणाइलिंगो रूविअजीवा उ हुँतिमे चउरो / १"चउगइयाई इगवीस मिच्छसा(स)णे य हुंति" इत्यपि पाठः। 2-3 'तिच्चिय' इत्यपि / 4 “यद्यप्युपशान्तमोहगुणस्थानक एवौपशमिकं चारित्रमस्ति, तत्रैव सर्वथा चारित्रमोहोपशमात् , तथा-ऽपि नवम-दशमगुणस्थानकद्वये कतिपयचारित्रमोहनीयप्रकृत्युपशमाद् "राजाहः कुमारो राजा" इति भाव्युपचाराद्वोपशमश्रेणिं चटतो जीवस्या ऽपि नवम-दशमगुणस्थानद्वय औपशमिकं चरणं संभवति, तथाऽन्यत्र प्रतिपततो जीवस्य चारित्रमोहनीयस्य नियमत उपशमितत्वेन केवलं भूतोपचारन्यायमाश्रित्यैतदुक्तं सम्भाव्यते। 5 "जिणे" इत्यपि / 6 "गुणेसु" इत्यपि / 7 “दु त्ति" इत्यपि पाठः। “मावं मुण संनिवार्य // 14 // " इत्यपि / Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारमारप्रकरणे खंधा देमपएसा केवलअणवो य ते य पुण // 61 // सोत्ति कालो वत्तणाइलिंगो परावत्तणाइलक्खणो / आइसद्दाओ अईयाणागयाइ लब्भइ / रूविणो अजीवा चत्तारि / ते य इमे-खंधो दुपएसाइ अणंतपएसिओ जाव, देसपएसा पूर्ववत् केवलं खंघपरिणामरहिया अणवो परमाणवो चउत्थो / पुब्वेहिं सह सव्वे चउदस // 61 // तहा चउविहा वि रूविणो अजीवा किं गुणा ?, इइ जाणत्थं गाहा दंसेइवण्णाइगुणा बंधाइकारणं इय अजीवचउदसगं / सव्वे वि हु परिणामे भावे खंधा उदइए वि // 2 // "वन्नाइगुण" ति वन्नगंघरसफासपरिणया बंधाइकारणं कहं ?, भन्नइ, कम्मजोग्गत्ताए परिणयाखंधा जीवा बंधंति ? आइसदाओ उदए उदीरणाए सत्ताए य ठविति / एवं बंधाइकारणं / एए चउद्दस वि अजीवट्ठाणा कम्मि भावे वटंति?, भण्णइ, सव्वे वि हु पारिणामिए भावे, खंधा उदइए वि भावे वटंति / कहं खंघा एव न सेसा ? भन्नइ जओ खंघसंबंधिणो अद्धस्स तिभागस्त वा चउत्थभागस्स वा देसविवक्खा, पएसा निविभागा भागा, तरसेव न जुया देसपएसविववखा / कोहोदए जीवस्स कम्मखंधा एव पडिपुन्ना उदए आगच्छंति, न देसपएसा / परमाणवो पुण न कम्मत्ताए परिणमंति / एवं खंधा उदइए भावे, न सेसा / तहा अवि.सद्दाओं खयखओवसमउवसमेसु वि कम्मखंधा वटंटित कम्मरूवपरिणया / एवं पगइबंधो। पसंगागयं च भणियं // 62 / / पोग्गला कम्मबंधकारणं भणिया, अओ तेसिं मूलपगडित्तेण उत्तरपगतित्तेण बद्धाणं ठिई जहण्णुकोसं भणिउकामो पढमं ताव मूलपगडीणं उक्कोसठिई भण्णइ मोहे कोडाकीडीउ सत्तरिं वीम नामगोयाणं / तीमियराण चउण्हं तेत्तीसयराइँ आउस्स // 6 // मोहणीयस्स सत्तरिकोडाकोडी उक्कोसो ठीइ बंधो, नामस्स गोयस्स य वीसं कोडाकोडी उक्कोसो ठिइबंधो. तीसं पुण इयराणं नाणावरणीयवेयणीयअंतरायाणं उक्कोसो ठिइबंधो, "तेत्तीसयराइ"त्ति, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि “आउस्स"त्ति आउकम्मस्स उक्कोसो ठिइबंधो // 63 / / इयाणि मूलपगडीणं जहन्ना ठिई दंसइ-- मोत्त मकसाय हस्सा ठिइ वेयणियस्स बारस मुहत्ता। अट्ठ नामगोयाण सेसयाणं मुहत्तंतो // 6 // अकसाइणो-उवसंतमोह-खीणमोह सजोगिकेवलिणो मुत्त' परिवज्जिय एएसि वेयणियठिई, . सेसाणं बंधगाणं वेयणीयस्स ठिई हस्सा जहन्ना बारस मुहुत्ता / जओ तेसिं सामइओ बंधो / एसा य पुण जहन्नट्ठीई बंधगस्स सुहुमसंपरायस्स अंते लब्भइ / नामस्स गोयरस य अट्ठमुहुत्त / / Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्धकारणपुद्गलस्योत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणात्य च कथनम् [23 सेसाणं नाणावरणदंसणावरणअंतरायमोहणीयआयुष्काणां अंतमुहुत्तं जहन्नो टिइबंधो // 64 // इयाणि पत्तेयं पत्तेयं उक्कोसा ठिई उत्तरपयडीणं भन्नइ तीसं कोडाकोडी असायआवरणअंतरायाणं / मिच्छे सत्तरि मित्थीमणुदुगसायाण पन्नरस // 65 // . . असायवेयणीयस्स नाणावरणपणगस्स दसणावरणनवगस्स अंतरायपणगस्स य तीसं कोडाकोडी उक्कोसो ठिइवंधो / इत्थीवेयस्स मणुयदुगस्स सायावेयणीयस्स य पन्नरस कोडाकोडी उक्कोसो ठिइबंधो // 65 / / . संघयणे संठाणे पढमे दस उवरिमेसु दुगवुड्ढी / चालीस कसाएसु अट्ठारस विगलसुहुमतिगे // 66 // . पढमाणं वज्जरिसभनारायसमचउरंसाणं कोडाकोडी दस उक्कोसो ठिइबंधो / उवरिमेसु दुगेण सागरोवमाण कोडाकोडीणं वुड्डी कायव्वा / जहा वज्जनारायनग्गोहाणं कोडाकोडी बारस | नारायसंघयणसाइसंठाणाणं कोडाकोडी चउदस / अद्धनारायसंघयणखुज्जसंठाणाणं कोडाकोडी सोलस / खीलियसंघयणवामणसंठाणाणं तहा उत्तरनिहिट्ठाणं विगलसुहुमतिगाणं कोडाकोडी अट्ठारस उक्कोसो ठीइबंधो / सोलसण्हं कसायाणं पुण कोडाकोडीओ चालीसं // 66 // दस दस सुकिलमहुराण सुरभिनिधुणहमिउलहूणं च / अड्ढाइजपवुड्ढा ते हालिद बिलाईणं // 6 // सुकिलवण्णमहुररससुरभिगंधनिद्धफासउण्हफासमउयफासलहुयफासाणं दस दस कोडाकोडी उक्कोसो ठिईवंधो। "अढाइज्ज पवुडढ" त्ति अड्राइज्जाहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं पवुद्धिमागया 'ते' त्ति सुकिलाईणं ठिईविसेसा दससागरोवमलक्खणा, हालिद्दअंचिलाईणं दुण्हं / / उक्कोसा ठिई भवइ / तहाहि-हालिद्दवन्नअंबिलरसाणं कोडाकोडी सड्रबारस उक्कोसा ठिई। लोहियवन्नकसायरसाणं कोडाकोडी पन्नेरस नीलवन्नकडुयरसाणं कोडाकोडी सङ्कसत्तरस / / 6 / / हासरइपुरिसउच्चे सुभखगइथिराइछक्कदेवदुगे / दस सेसाणं वीसा एवइयाबाहवाससया // 68 // हासरई पुरिसवेओ उच्चागोयं सुभखगई, थिराइछक्क, देवदुर्ग, एएसि दसकोडाकोडी उक्कोसो ठिईबंधो / एए तियासी पगइओ।। इयाणि उद्धरियपगईणं उकोसो ठिईबंधो दंसेइ-"सेसाणं वीस"त्ति सेसाणं तसचउकाईणं वीसं कोडाकोडी उक्कोसो ठिईबंधो होड / ता य पगईओ इमाओ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे तसचउ 4 तिरि 2 निरयदुगा तेयविउव्वुरलसत्तगा हुंडं / पढमंतजाइ२ कुखगइ कुवन्ननवगं अकडुनील।। पत्तेया य अतित्था थावरअथिराइछक्कठेवटुं / सोगारइमयकुच्छानपुंसनिगसट्ठिवीसिक्का // 'नि' त्ति नीयागोयं, "इगसटिसिक्क" ति एयाए एगसट्ठीए पयडीणं वीसं सागरोवमकोडाकोडी उक्कोसो ठिइबंधो। "एवढ्याषाहवाससय" ति जस्स जत्तियाओ सागरोवमकोडाकोडीओ उक्कोसा ठीई तस्स कम्मस्स तेत्तिया वाससया अबाहा=अणुदयकालो / एस उकोसो वुच्चइ / अन्नहा पओगोदये तस्सेव बंधावलियाए गयाए उदीरणाकरणेण उदयसंभवाओ // 68 // अंतोकोडाकोडी त्थिाहाराण जेठिइबंधो / अंतमुत्तमबाहा इयरो संखेज्जगुणहीणो // 69 // तित्थयरनामस्स आहारसत्तगस्स य अंतो मज्मे कोडाकोडीए उक्कोसो ठिईबंधो / "अंतमुहुत्तं"ति अबाहा पुण अंतोमुहुत्तमेव / तहा इयरो जहन्नो बंधो पुण एसो य अंतोकोडाकोडीरूवो संखेज्जगुणकारेण हीणो कओ होइ / नणु तित्थयरनामस्स अंतोमुहुत्तं कहं अबाहा ? | ‘याव ता बझइ तं तु भगवओ तइयभवोसक्कात्ताणं पि"ति वचनात् , संख्यातोऽसंख्यातोऽपि कालो लहद्द त्ति कहं ? भन्नइ-तित्थयरनामस्स पओगेण उदिन्नस्स आणाईसरियाइओ लद्धीओ, अन्नजीवहिंतो घिरे सतराओहोंति त्ति एएण कारणेण संभवइ / अनहा कहं अंतोमुहुत्तं अवाहा / अओ संभाविज्जइ बद्धस्स अणुदीरणा कालो अबाहा / अन्नो अभिप्पाओ सुयकेवलिणो मुणति / तित्थयरस्स उक्कोसो अविरए / अपमत्ते पुण उक्कोसो आहारस्स जहन्नो दोण्ह वि अपुवकरणे ठिइवंधो // 69 / / तेत्तीसुदही सुरनारयाउ नरतिरियआउ पल्लतिगं।. निरुवकमाण छ मासा अबाह सेसाण भवतंसो 70 // तेत्तीसं सागरोवमाई उक्कोसो ठिइबंधो सुराणं नारयाणं होइ / नराणं तिरियाणं च आउस्स उक्कोसो ठिबंधो पल्लतिगं-तिनि पलिओवमाणि / तहा निरुवमकमाण-सुरनारयाणं असंखवासाऊणं मणुयतिरियाणं च परभवियआउयस्स बद्धस्स छमासा यावत् अबाहाकालो / सेसाण= नरतिरियाणं संखिज्जवासाउयाणं पुण नियनियभवस्स तंसो-तृतीयभागः / अवाहाकालो उकोसो // 7 // संपयं असन्निपंचेंदियाई जे जीवा परभवियं आउं बंधति, तं दंसेइतह पुब्बकोडिपरओ इगिविगलिंदी न बंधए आउं। आउचउ परमबंधो पल्लासखंसममणेसु // 7 // Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्ट जवन्यस्थितिबन्धप्रमाणम [ 25 तहा पुव्यकोडीए परतो अग्रतः एगिदिया विगलिंदिया य न बंधंति आउं परभवजोग्गं / - तहा चउण्डं आऊणं परमो उक्कोसो पलिओवमम्स असंखभागो अमणेसु-असन्निपंचिदिएसु उक्कोसो ठीबंधो / एवं तियासी 83, एगसहि 61, आहारसत्तग 7, तित्थयरनामं 1, आउचउक्कं 4 चा एवं छावन्नपयडिसयस्स ठिइबंधो भणी / न य बंधे सम्ममीसाई // 71 / / ____ उक्कोसो ठिबंधो सम्मत्तो / / भणिओ सव्यपयडीए उक्कोसो बंधो / इयाणिं जहन्नो भण्णइदमणवउविग्यावरणलोभसंजलणहस्सठिइबंधो / अंतमुहुतं ते 'अट्ठ जसुच्चे बारस य साए // 72 // दसणावरणचउक्स्स "विग्घं" ति अंतरायपणगस्स नाणावरणपंचगस्स संजलणलोहस्स "हस्स"त्ति जहन्नो ठिइबंधो अंतोमुहत्तं "ते" तिअंतोमुहुत्ता अट्ठसंखा जसकित्तीए उच्चागोए य चारस पुण अंतमुहुत्ता सायवेयणीयस्स ||72 / / दो मामा, अद्धऽद्ध संजलणतिगे पुमट्ठ वरिसाणि / सेसांणुकोसाओ. मिच्छत्तठिईएँ जं लद्धं // 73 // दो मासा, अद्धं मासों, मासस्स वि अद्धं पक्खो, जहासंखं संजलणतिगे कोहमाणमायालक्खणे पुरिसवेयस्स अट्ठ विरिसाणि, जहन्नो ठिइबंधो सव्वत्थ संबज्झइ / “सेसाणुक्कोसाओ मिच्छत्तठिईऍज लई"ति ताव पढमं एगिदियाणं सव्वेसिं उक्कोसो ठिइबंधो / भन्नइ बावीसा खवगभणियाणं सेसस्स इगारसुत्तरसयस्स तं च इमं"बारसमसायपढमा१२. निहापणनीयहास छक्कं च / मिच्छत्तमसायं 1 थी 1 नपुस 1 नामस्स ता य इमा॥१॥ ओराल तेयसत्तगसंघयणा६गीइ६वीसवन्नाई 20 / पत्तेआ य अतित्थाजसघज्जतसाइ 16 पण जाई // 2 // खगई२ तिरिरमणुयरेदुगा सव्वे मिलिया तितीससयमेगं / सेसा भणिज्जमाणा, तेवीसं इत्थ दट्ठव्वा // 3" एयासि तित्तीससयसंखाणं पयडीणं ठियाउ उक्कोसो ठिइबंधो उ मिच्छत्तट्ठीए सत्तरिकोडाकोडीलक्खणाए भागे हरिए जं लब्भइ, सो एगिदियस्स उक्कोसगो ठिबंधो / तओ पलिओवमस्स असंखेज्जभागऊणो संतो जहन्नो ठिईबंधो हवइ / एवं एगिदियस्स उक्कोसजहन्नो भणिओ सामन्नेणं / विसेसेणं भन्नइ-तत्थ पढमं बारसकसायाणं उक्कोसिया ठिई चालीसं कोडाकोडीओः तीसे सत्तरि कोडाकोडीहिं भागे हरिए, 7000000000000000 समसुन्नाणं पाडणे, जं उव्वरियं तं सत्तहिं गुणिय सत्तहा किरंति, सत्तहिं भागे हरिए सत्तहा लन्भंतिः लद्धं चत्तारि सत्तभागा सायरस्स। तहा निद्दापणगस्स असाय 1 "अठ जसउच्चे' इति वा। 40000000000000 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] - सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे वेयणीयस्स तीसं कोडाकोडीओ तेसिं सत्तरिकोडाकोडीभागे हरिए, समसुन्नाण पाडणे, लद्धा . तिमि सागरस्स सत्तभागा। तहा मिच्छत्तस्स उक्कोसा ठिई सत्तरि कोडाकोडीओ, तीसे ठिईए सत्तरिकोडाकोडीहिं चेव भागो होरइ सुन्नाणि सुन्नेहिं जंतिः तओ पच्छा जेहिं सत्तहिं भागेहिं सागरोवमं होइ, ते सत्त भागा होति / 3 सागरोवममेगं ति भावत्थो / तहा सियवण्ण 1 महुर 2 सुरही 3 मिउ 4 लहु 5 निधुदण्ह 7 तहेव सुभगं खगई 8 हास ह रइ 10 उसभ 11 चउरंस 12 थिरपण 17 दस कोडाकोडीओ, तेसिं पुव्वुत्तभागहारेण लद्धो . 'एओ सागरोवमसत्तभागो / तहा रिसभनारायनग्गोहाणं दुवालसकोडाकोडी सत्तरिकोडाकोडीए भागे हरिए, १२००००००००००००००दुण्ह रासीणं समसुन्नाण पाडणे, उपरि बारह अहो सत्तरि 1; तो 'सागरस्स एगो सत्तभागो लब्भइ, तहा सागरस्स जेहिं वीसहिं भागेहिं सागरोवमसत्तभागो होइ ते चत्तारि भागा लद्धा / / 4 / तहा नारायसाईणं चउदसकोडाकोडीओ उक्कोसिया ठिई भागे हरिए, जाया उवरि चउदस अहो य सत्तरी 14; इत्थ वि एगो सत्त भागो सागरस्स, तहेव सत्त भागस्स वीसभागा अट्ट होति / / तहा अद्धनारायवामणाणं सोलसकोडाकोडीओ भागे हरिए उवरि सोलस अहो य सत्तरि 38; इत्थ वि लद्धं एगो सत्तभागो सागरसत्तभागस्स वीसभागा बारस : / 33 / तह कीलियहुंडाण सुहमतिगस्स विगलतिगस्स य अट्ठारस कोडाकोडीओ उक्कोसिया ठिई भागे हरिए जाया उवरि अट्ठारस अहो सत्तर : एत्थ वि एगो सत्तभागो सागरस्सः तहा जेहिं वीसहिं भागेहिं सागरसत्तभागो ते सोलस / / तहा हालिद्दअंबिलाणं वनरसाणं सड़ दुवालसकोडाकोडीओ ठिई तहेव भागे हरिए उव्वरियं उवरि पणवीस सयं हेट्टा / पुण सत्तसयाणि 125 तओ सागरस्स एगो सत्तभागो / अन्नं च सागरसत्तभागस्स पंच वीसभागा: / 5 / एवं लोहियकसायाण इथिवेयमणुयदुगाणं च पन्नरस कोडाकोडीओ तेसि भागे हरिए उवरियं उवरि पन्नरस अहो सत्तरि, इत्थ अवस्सियं एगो सत्तभागो, सत्तभागस्स दस वीसभागा / नीलवनकडुयरसाणं उक्कोसिया ठिई सडासत्तरस कोडाकोडीओ, तेसि भागे हरिए, उव्यरियं पंचहत्तरसयं हेट्ठा सत्तसयाणि 15 तओ एगो सत्तभागो, पन्नरस वीसभागा सत्तभागस्स / / 3 / सेसाणं पयडीणं वीसं कोडाकोडी उक्कोसिया ठिई ताओ पुव्वुत्ताओ "तसचउ तिरिनिरय" इच्चाइ गाहादुगेण भणियाओ निरयदुगविउव्वियसत्तगवज्जियाओ, तासिं जा उक्कोसिया ठिई, तीए 1 एतच्च सिद्धान्ताभिप्रायेण कामप्रकृत्यादि कार्मग्रन्थिकाभिप्रायेण तु स्ववर्गोत्कृष्टस्थितेःसप्ततिकोटाकोट्या भागे हवे यल्लभ्यते, तावत्प्रमाणो भवति तनात्र 3 सागरोपमं भवति / एवमन्यत्रा-ऽपि / 2 द्वाद.. श:नां सप्तभिर्गुणने जातं 84, सप्तत्या हते लब्धं सप्तभागः 1, उद्धरिताः 14, ये विंशत्या गुण्यन्ते, जात 280, पुनः सप्तत्या भागे हृते लब्धं सागरोपभसप्तभागस्य विंशतिभागाश्चत्वारः एवं सर्वस्थितिष्वपि / Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणम् [27 मिच्छत्तठिईए भागे हरिए, लद्धा दोन्नि सागरसत्तभागा : / एसो य मिच्छत्तठिईभागलद्धो ठीबंधो एगिदियाणं भणिओ उक्कोसो, जहन्नगो पलिओवमस्स असं खेजइभागेण ऊणगो, 133 सन्निस्स . उक्कोसो जहन्नो, एगिदियस्स उक्कोसजहन्नो भणिओ' // 73 / / इयाणि तेवीसाए भणियसेसाए तहा विगलिंदियअसन्निपज्जवसाणाणं जेण कम्मेण उक्कोसो जहन्नओ य होइ तं दंसेइ एसेगिंदियजिट्ठो पलियाऽसंखंमहीण लहुबंधो / पणुवीसा पन्नामा सयं सहस्सं च गुणकारो // 74 // कमसो विगलअसन्त्रीण पल्लसंखंसऊणओ डहरो। ' सुरनरयाउ समा दस सहस्स सेसाउ खुड्डभवं // 75 // तहा "एसो"त्ति उवलक्षणं / जओ जासिं पुव्वं खवगमासज्ज “दसणचउविग्यावरण" इच्चाइ बावीसं पयडी भणियाओ. तासिं एगिदियाणं पि मिच्छत्तठिईए भागे हरिए जं लब्भइ, सो उक्कोसजहन्नो ठिइबंधो हवइ / तत्थ देसणचउक्स्स उक्कोसो ठिइबंधो तीसं कोडाकोडीओ मिच्छत्तठिईए भागे हरिए लद्वा तिन्नि सागरसत्तभागा / अंतरायनाणावरणाणं पुण तीसं कोडाकोडीओ तेसिं मिच्छत्तठिईए भागे हरिए लद्धा तिनि सागरसत्तभागा / संजलनचउक्कस्स पुव्वुत्ता चत्तारि भागा कसायदारेण पुरिसवेयजसकित्तिउच्चगोयाणं दसकोडाकोडीओ उक्कोसठिईबंधो, तस्स भागे हरिए लद्धो एगो सत्तभागो सायरस्स पन्नरसकोडाकोडीओ, तीसे भागे हरिए लद्धो एगो सत्तभागो. जहिं वीसहिं भागेहि सागरसत्तभागो होइ, ते दस भागा / / .तहा एसो चेव एगिदियजेट्टो ठिइबंधो, पणुवीसाए पन्नासाए सएण सहस्सेण गुणिओ कमसो परिवाडीए बेइंदियतेइंदियचउरिदियअसन्नीणं उक्कोसो ठिइबंधो हवइ / तत्थ पणुवीसाए गुणिओ बेइंदियाणं; तत्थ जे चत्तारि सागरसत्तभागा, ते पंचवीसाए गुणिया जायं सयं सागरसत्तभागाणं 100; तओ सत्तहिं भागे हरिए लद्धाणि चउदस सागरोवमाणि दो सत्तभागा 143 / जत्थ पुण तिन्नि, तत्थ पंचवीसाए गुणिया जाया पंचहत्तरी 75, तओ सत्तहिं भागे हरिए लद्धाणि दस सागरोवमाणि पंच सागरसत्तभागा .." / जत्थ सत्त सत्तभागा, ते वि पणवीसाए गुणिया जायं पंचहत्तरं सयंः तओ भागे हरिए जायाणि पंचवीसं सागरोवमाणि 25 / तहा सत्तदसण्हं पयडीणं जो सागरसत्तभागो सो पणुवीसाए गुणिओ जाया पणवीसं 25 तओ सत्तहि भागे हरिए लद्धाणि तिन्नि सागरोवमाणि चत्तारि सत्तभागा 3 / जत्थ पुण एगो सत्तभागो चत्तारि सागरसत्तभागस्स वीसभागा संतिः तत्थ ताव एगो भागो पणुवीसाए गुणिय सत्तहिं 1 मूलप्रकृतिमाश्रित्य / Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे हरियाः लद्धाणि सागरोवमाणि तिन्नि चत्तारि सत्त भागा य / तहा वीस चत्तारि भागा गुणिया जायं सयं तओ वीसाए भागे हरिए लद्धा पंच सागरसत्तभागाः तओ पुव्वुव्वरिय चउहिं सह नव सव्वे तओ सत्तहिं भागे एगसागरोवमं दो य सत्तभागेण ट्ठिया सव्वं मिलियं चत्तारि सागरोवमाणि दो सागरसत्तभागा 4 / एवं एएण कमेण जत्थ एगो सत्तभागो सत्तभागस्स वीसभागा य अट्ठः तत्थ पंचसागरोवमाणि होति 5 / तहा जत्थ एगो सत्तभागो सत्तभागस्स वीसभागा बारसः तत्थ पंचसागरोवमाणि पंच सत्तभागा 55 / तहा जत्थ एगो सत्तभागो सत्तभागस्स सोलसवीसभागाः तत्थ छ सागरोवमाणि तिनि सत्तभागा / जत्थ पुण एगो सत्तभागो सत्तभागस्स वीसभागा पंच तत्थ चत्तारि सागरोवमाणि तिन्नि भागा, सत्त भागस्य वीसभागा पंच 4 / / जत्थ पुण एगो सत्तभागो दस वीसभागाः तत्थ पंच सागरोवमाणि दोन्नि सत्तभागा दस वीसभागा 53 / / जत्थ पुण एगो सत्तभागो पन्नरस वीसभागाः तत्थ छ सागरोवमाणि एगो सत्तभागो पन्नरस वीसभागा / / ।तहा जत्थ दोणि सत्तभागाः तत्थ सत्त सागरोवमाणि एगो सत्तभागो / तहा जत्थ एगो सत्तभागो तत्थ तिन्नि सागरोवमाणि चत्तारि सत्तभागा 4 / एवं एएसु वि सागरोवमसत्तभागेसु सागरोवमसत्तभागवीसभागेसु वा पन्नासाए सएण सहसेण य गुणिएसु जे रासीओ उप्पज्जंति, जहासंभवं भागे पाडिए; ते गणियगणनकुसलेण सयमेव उप्पाइयव्वा / तहा सुराणं नारयाणं च आउयं जहन्नं दसवरिससहस्साणि / सेसाणं नरतिरियाणं आउयस्स जहन्नो बंधो खुड्डभवो वक्खमाणो / / 74-75 // संपयं वेउव्विछक्कस्स मयंतरेणं तित्थाहाराणं च जहन्नियं ठिई दंसेइसहसगुणेगिदिठिई विउबिछक्के जओ अमनिसुतं। , केसिं च सुराउसमं तित्थं आहारगंतमुहू // 76 // एयाए गाहाए वक्खाणं इह जइ वि सेसाणुक्कोसाओ मिच्छत्तठिईएलद्धं।।७३॥"ति वयणाओ वेउव्वियछक्कस्स सामन्नेण एगिदियाणं ठिइबंधो लब्भइ, तहा वि सो एगिदियठिईबंधो सहस्सगुणोहोति "वेउव्वियकरस" त्ति वेउब्वियएक्कारसगस्स हवइ / कम्हा ? जओ "असनिस' त्ति समुच्छिमेसु तं वेउब्वियएक्कारसं बंधमागच्छइ, न एगिदियाणं / तत्थ देवदुगस्स एगम्मि सत्तभाए सहस्सेण गुणिए सत्तहि भइए लद्धं सयमेगं बिचत्तालं सागरोवमाणं छच्च सत्तभागा य सागरस्स 142 / / / निरयदुगस्स वेउव्वियसत्तगस्स य दोसु सत्तभागेसु सहस्सगुणिए सत्तहिं भइएसु लद्धं एवं चेव दुगुणं 285 / / तहा केसिं च आयारियाणं मएणं / सुराउसमं देवाउतुल्ल दसवरिससहस्स त्ति गभत्थो, तित्थंकरनामगुत्तं वज्झइ / आहारगस्स 'अंतमुहु" ति, अन्तोमुहुत्तं जहनिया ठिई होइ त्ति // 76 // Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्यस्थितिबन्धाबाधाप्रमाणं क्षुल्लामवादिप्रमाणश्च इयाणिं ठिइबंधो जहन्नओ जस्स अबाहाकालो जो होइ तं दंसेइभिन्नमुहुत्तमबाहा सव्वामि सबहिं डहरबंधे / आउसु जे? वि जओ संखेपद्धा भवइ तेसु // 77 // 'भिन्नमुहत्त' ति अंतोमुहत्तं अबाहा अणदओ सव्वासिं=मूलुत्तरपगईणं 'सव्वहिं' ति सव्वेसु जीवट्ठाणाईसु "डहरबंधे"त्ति जहन्नवंधे पुव्वभणिए / आउए पुण अवाहाह "आउसु जेष्टि"त्ति आऊणं जेठे वि=उक्कोसे वि ठिइवंधे अंतोमुहत्तं कम्हा ? जओ "असंखेप्पि" त्ति असंखेप्पा संकोचिउमशक्या अद्धा कालो भवइ तेसु-आऊसु / तहाहि-इह परभवियाउस्स बंधो इहभवाउयतिभागे तदभावे सेसस्स तिभाए एवं तिभागा तिभागा कप्पणाए जाव अंतो तिभागो सो य असंखेप्पद्धा भन्नइ / / 77 // तिरियमणुयाणं ठिइबंधो जहन्नो खुड्डुभवप्पमाणो भणिओ / अओ इयाणि खुड्डभवं पन्नवेइ खुड्डभवा साहीया सत्तरस भवंति एगपाणुम्मि / पाणू एगमुहुत्ते तिसत्तरीसत्ततीससया // 7 // खुड्डभवा-खुड्डागभवलक्खणा, सत्तरससंखा समनिया किंचित्, साहिया चउणवइआवलिएहिं किंचि अहिएहिं, कत्थ 1, “एगपाणुम्मि" त्ति एगे ऊसासनिसासे / तहा "पाण" त्ति ऊसासनिसासा एकम्मि मुहुत्ते दुघडियपमाणे "तिसत्तरि" ति तिसत्तरीए अहियाणि सत्ततीसं सयाणि भवंति // 78|| संपयं मुहुत्ते खुड्डभवप्पमाणमाह-- पणसट्ठिसहसपणसय छत्तीसा इगमुहुत्तखुड्डभवा / दो य सया छप्पन्ना आवलियाणेगखुड्डभवे // 79 // एगम्मि मुहुत्ते पणसद्विसहस्सा पंचसया छत्तीसा य खुड्डभवा होति / तहा दो य सयाछप्पन्ना आवलियाणं एकस्मिन् खुड्डभवे होति / __ इयाणि जहा एगम्मि पाणुम्मि सत्तरस खुड्डभवा साहिया होंति, तहा कहिज्जइ-इह कहियस्स एयस्स 65536 मुहुत्ते ठियखुल्लगभवगहणरासिस्स सत्ततीसाए सएहिं तिहत्तरेहिं ऊसासाणं भागो हीरइ / तत्थ लब्भहिं सत्तरसखुड्डभवा / सेसं उव्वरियं तेरस सया पंचाणउया अंसाणं / इह अयं भावत्यो-जेसि अंसाण तिहिं सहस्सेहिं सत्तहिं सएहिं तिहत्तरीए य खुड्डगभवग्गहणं होइ ते एए अंसा / तत्र स्थापना 17333 | तओ एए अंसा दोहिं सएहिं छप्पन्नेहिं खुड्डभवप्पमाणेहिं आवलियाणं गुणिय आवलियाओ कीरंति / 357120 / मुहुत्तऊसासेहिं भागो Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे ... ... . हीरइ / लद्धा आवलि 64 / आवलिभागा 24 / एवं सत्तरस भवा साहीया हवंति / मुहुत्तापलियाओ मुहुत्तखुइभवावलियाहि गुणिया / ताओ दो सयाणि सोलहुत्तराणि सत्तहत्तरि सहस्सा सत्तपट्टी लक्खा एगा कोडी य 16777216 हवंति / उक्तं च-- "सोलुत्तरदोन्निसया सत्तत्तरिसहसलक्खसयसट्ठी / एगा कोडी आवलियाणं मणिया मुद्दुत्तम्मि // 1 / " संपयं स्थितिप्रस्तावादेव किंपि गुणट्ठाणगेसु भणेइ अयरंतकोडिकोडीओ अहिगो सासणाइसु न बंधो / हीणो न अपुव्वंतेसु नेव य अभव्वसन्निम्मि // 8 // , अयराणं सागरोवमाणं अंतोकोडाकोडीओ कोडाकोडीमज्झाओ अहिओ कोडाकोडीरूवो न हवइ बंधो सासायणपमुहगुणट्ठाणगेसु, विसोहिवसेण तहाविहठिइबंधाभावाओ / कोई . भणिज्जा अंतोकोडाकोडीए वि न हवेज्जा, अओ निसेहइ / हीणो-पडिओ अंतोकोडाकोडीओ न होइ / तहा विसोहिवसओ कमेण संखेज्जगुणहीणो पायसो भविजा। सो वि अंतोकोडाकोडीओ चेव / अपुव्वंतेसु-अपुव्वकरणगुणट्ठाणं जाव, तहा "नेव य अभव्वसन्निम्मि" त्ति अभव्वसनिपजत्तेवि अंतोकोडाकोडीओ हीणो बंधो न होइ / सो वि अन्नेसिं संखेजगुणो पाएण ||8|| संपयं संजयाणं उक्कोसओ देसविरयाणं पजत्तापज्जत्ताणं अविरयसम्मदिट्ठीणं सन्नीणं च ठिबंधो जहन्नो उक्कोसो य भिन्नो भिन्नो भन्नड अमणुकोसाओ विरयउकोसो देसविस्यहस्सियगे / चउसम्मसन्निचउरो ठिइबंधाऽणुकमसंखगुणो 81 // "अमणुकोसाओ" इइ भणंतेण सुत्तकारेण अन्ने वि ठिईओ जहन्नुकोसठिईबंधगा सव्वे वि सूइया ।जहा कम्मपयडीए छत्तीसं पयाणं कम्मस्स ठिइबंधो उक्कोसजहनओ भणिओ / इत्थ पुण सुत्तयारेण अंतिल्लाण एक्कारसन्हं चेव पयाणं उक्कोसो जहन्नो वि ठिइबंधो भणिओ। अओ पढम ताव आडल्लाणि पणवीसपयाणि दंसिज्जंति / तओ पच्छा गाहा वक्खाणेज्जिही सो य इमो-- "थोवो इह ठिइबंधो संजयजीवस्स सो य अंतमुहू 1, तत्तो असंखगुणिओ बायरएगिदियजहन्नो // 1 // तत्तोसुहमि समत्ते ३,बायर ४,सुहमे अपज्जय ५,जहन्नो। कममो विसेसअहिओ सहुमि ६,यरि,अपज्जजेट्रो याशि सुहुमे,यर ६,पग्जेसुकमसी विसेसभहिओ ठिई बंधो। तत्तो संखेज्जगुणो बंदिय 10 पज्जत्तयजहन्ना अप्पज्जत्त ११,जहन्नो तस्सेवुक्कोसगो य १२,ठीबंधो / पज्जत्तेसुक्कोसो कमसो अहिओ य तिण्डंपि।४॥ एवं तिचऊ अमणिंदियाण पढमे पयम्मि संखगुणो / सेसेसु विसेसहिओ नेयम्वो जाव पणवीसं // 5 // " पसंगागयं सव्वजीवट्ठाणेसु सव्वासिं जहन्नुकोसठिईणं अप्पाबहुगं भन्नइ- . Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु स्थितिबन्धप्रमाणाल्पबहुत्वम् तत्थ सव्वत्थोवो संजयस्स जहन्नगो ठिइबंधो सो य अंतमुहत्तपमाणो 1, एगिदियबायर पज्जत्तगस्स जहनओ ठिइबंधो असंखेज्जगुणो 2, सुहुमस्स पज्जत्तगस्स जहन्नगो ठिइबंधो विसेसाहिओ 3, बायरअपज़्जत्तगस्स जहन्नो विसेसाहिओ 4. सुहुमस्स अपज्जत्तगस्स जहन्नगो विसेसाहिओ 5, तस्सेवुकोसठिइबंधो विसेसाहिओ 6, बायरस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसो विसेसाहिओ 7, सुहुमस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसो विसेसाहिओ 8, बायरस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसो विसेसाहिओ तत्थ बेइंदिय पजत्तगस्स जहन्नगो संखेयगुणो 10, अपज्जत्तगस्स जहन्नगो विसेसाहिओ 11, तस्सेव य उक्कोसगो विसेसाहिओ 12, बेइंदियस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसओ विसेसाहिओ१३, तेइंदियस्स पज्जत्तगस्स जहन्नो संखिजगुणो 14, तस्सेव अपजत्तगस्स जहन्नगो विसेसाहिओ 15, तस्सेव य उकोसो विसेसाहिओ 16, तेइंदियस्स पज्जत्तगस्स उकोसो विसेसाहिओ 17, चउरिदियस्स पञ्जतगस्स जहन्नो संखेज्जगुणो 18, अपजत्तगस्स जहन्नो विसेसाहिओ 19, तस्सेव अपज्जत्तगस्स उकोसो विसेसाहिओ 20, चतुरिंदियस्स पजत्तगस्स उक्कोसो विसेसाहिओ 21, असन्निपंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहन्नगो ठिइबंधो संखेज्जगुणो 22, तस्सेव अपज्जत्तगस्स जहन्नो विसेसाहिओ 23, तस्सेवुक्कोसगो विसेसाहिओ 24, असन्निपंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसो ठिबंधो विसेसाहिओ 25 / इयाणिं गाहा धक्खाणिज्जइ तत्थ अमणाणं अमन्त्रीणं पज्जत्ताणं 'उकोसठिइबंधा विरयरस-संजयस्स ठिइबंधो उक्कोसगो संखेज्जगुणो २६,देसविरयहस्सियरो" त्ति संजयठिइबंधाओ देसविरयस्स हस्सो-जहन्नोसंखेज्जगुणो 27, 'इयरो' त्ति तस्सेव देसविरयस्स इयरो-उकोसो संखेज्जगुणो 28, "सम्मचउ" त्ति असंजयसम्मद्दिट्ठी पज्जत्तअपज्जत्तगाणं जहन्नुक्कोसगं ति भणियं होइ, देसविरयउक्कोसओ असंजयसम्मदिहिस्स पज्जत्तगस्स जहन्नो ठिइबंधो संखेज्जगुणो 26, तस्सेव अपज्जत्तगस्स जहनो संखेज्जगुणो 30, तस्सेव अपज्जत्तगस्स उक्कोसओ संखेज्जगुणो 31, तओ असंजयसम्मदिहिस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसो संखेज्जगुणो 32, सन्निचउरो त्ति पज्जत्तापज्जत्तसन्नीणं उक्कोसजहन्नभेएण चउण्हं, तओ, असंजयसम्मदिहिस्स पज्जत्तगस्स उकोसगाओ ठिइबंधाओ सनिपज्जत्तस्स जहन्नो ठिइबंधो संखेज्जगुणो 33, तओ तस्सेव अपज्जत्तगस्स जहन्नो संखेज्जगुणो 34, तओ तस्सेव अपज्जउकोसो संखेज्जगुणो 35, कोडाकोडीए अभिंतरे चेव जइ वि कमेण बुड्रिमागओ तहा वि सन्निस्स पज्जत्तगस्स अपज्जत्तुकोसाओ उक्कोसो संखेज्जगुणो 36, एवं संजयस्स उक्कोसाओ आढत्तो कोडाकोडीओ अभिंतरओ भवइ पणतीसं जाव उक्कोसो सन्निस्स होइ पज्जत्तग . 1 मिथ्यात्वमधिकृत्य सागरोपमसहस्रळक्षणात् / Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे स्सेवत्ति / पुव्वं सामन्नेण जो उक्कोसगो ठिइबंधो भणिओ, सो सन्निस्स पज्जत्तगस्स मिच्छद्दिहिस्स चेव भवइ / / 80 // ठिईबंधपरूपणा भणिया / ताणं उक्कोसाणं जहन्नाणं जे सामिणो ते इयाणि भन्नंति सव्वाण वि पयडीणं उक्कोसं सन्निणो कुणंति ठिई / एगिदिया जहन्नं असनिखवगा य काणं पि // 2 // सव्वाण वि सुभाणं असुभाणं पयडीणं मलुत्तराणं उक्कोसं ठिइबंधं सन्निणो कुणंति=निव्वतंति, न सेसा जीवा / भणियं च-'उकोसो सन्निस्स होइ पज्जत्तगस्सेव” जओ तेसिं चेव तहाविहपरिणामसम्भावो / तहा जहन्नं पुण ठिइबंधं एगिदियपज्जत्तगा निव्वतिंति एगारसुत्तरपयडिसयस्स छप्पन्नसयस्स मज्झाओ। तहा "असनिणो" ति "काणंपि"त्ति संबज्झइ सव्वत्था तओ. असन्निणो पंचेंदिया वेउविक्कारसगस्स पुव्वभणियस्स जहन्नं ठिंई, तहा खवगा "दसणचउविग्यावरण" इच्चाइबावीसपयडीणं जहन्नं ठिई कुणंति / चकारात् तु अपुव्वकरणो आहारसत्तगस्स तित्थयरनामस्स य, तिरिमणुया आउयचउकस्स जहन्नठिइबंधगा। उक्तं च- .. "आहारयतित्थयरं नियट्टि अनियट्टि पुरिससंजलणा। बंधा सुहमसरागो सायजसुच्चावरणविग्घं / 1 // 'छन्हमसन्नी कुगइ जहन्नठिइमाउगाणमन्नयरो / सेसाणं पज्जत्तो बायरएगिदियविसुद्धो / / 2 / / " || : संपर्य एयासिं ठिईणं जेण परिणामेण सुभाणं वा असुभाणं वा सम्भावो तं भन्नइ सव्वाणुकोमठिई असुभा सा जमइसंकिलेसेणं / इयराउ विसोहीए सुरनरतिरियाउए मुत्तुं // 3 // सव्वाणं पुन्नरूपाणं पावरूवाणं च उक्कोसा जाठिई सा सव्वा असुभा / जं असंकिलेसेण= अइतिव्वकसाउदएण असुभा बज्झइ / जओ मिच्छद्दिट्ठी आहारगसत्तगस्स तित्थयग्नामदेवाउयमणुयतिरियाउवज्जाणं सव्वपयडीणं सुभाणं असुभाणं वा उक्कोसं संकिलिट्ठो ठी बंधइ / तत्थ असुभपयडीणं ठिई तिव्वरसा कडुविवागा असुभफलरसेणेव कहुविवागवत् / सुभाणं पुण वालय कवलोपमा नीरसा तत्तओ असुभा चेव तहा तित्थयरनामस्स अविरयसम्मद्दिट्टी, आहारसत्तगस्स अपमत्तसंजओ तप्पाओगसंकिलिट्ठो उक्कोसठिई बंधड / संकिलेसो-कसाओदओ सो असुभो चेव / इयरा पुण जहन्ना ठिई, सा य विसोहीए बंधं पडुच्च कसायहासरूवा एसा सुभा। असुभाणं असुभा चेव तहा वि विसोहीए निंबरसबहुओउदगमीसरसलववत् सुभा इव लक्खिज्जइ / अओ सुभासुभाणं सुभा चेव / इक्खुरसबहुपाणियरसवत् "सुरनरतिरियाउए मुतु"ति देवमणुयति 1 देवद्विक-नरकद्विक वैक्रियद्विकरूपाणां षण्णां प्रकृतीनम् / 2 स्वकीयं बन्धमाश्रित्य / Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्टजघन्यस्थितिस्वामिनस्तथा जीवस्थानेषु योगवृद्धयल्पबहुत्वम् [33 रियाउआण विवरीयं, कहं विवरीयं ? भन्नइ,-एएसिं जा जा उ ठिई उक्कोसा सा विसोहीए चेव भवइ / जहन्ना पुण संकिलेसेण त्ति / देवाउयस्स सव्वठे, मणुयतिरियाउयाणं उत्तरकुरुभोगभूमीए, सा सुभा चेवः अओ वुत्तं, सुरनरतिरियाउए मुत्तु-परिवज्जिय ||83 // पसंगागयं भन्नइ / एयाउ ठिईओ योगसहिएणं जीवनियवीरिएणं बज्झति / अओ जीवठाणेसु जस्स जेत्तिया जोगवुड्डी, तस्स अप्पबहुत्तं दंसेइ सुहुमनिगोयाइखणे जोगो थोवो तओ असंखगुणो। बायर'बितियचउरमणसनिअपज्जत्तगजहन्नो // 4 // पढमदुगुकोसो सिं. पजत्तजहन्नगेयरो य कमा / असमत्ततसुकोसो. पजत्तजहन्नजेट्ठी य // 85 // सुहुमनिगोयस्स-साहारणसुहमम्स लद्धीए अप्पज्जत्तगस्स आइक्खणे-पढमसमए वट्टमाणस्स अप्पविरियलद्धिस्स जहन्नओ जोगो सो य थोवो। तओ बायरएगिदियस्स अपज्जत्तगस्स जहन्नो जोगो. असंखेज्जगुणो | तओ बेइंदियस्स अपज्जत्तगजहन्नो असंखेज्जगुणो / तओ तेइंदियस्स अपज्जत्तगस्स जहन्नो असंखगुणो। एवं चउरिदियअपज्जत्तगस्स असन्निपंचिंदियस्स अपज्जत्तगस्स सन्निपंचिंदियस्स अपज्जत्तगस्स भाणियव्वं पढमदुगुक्कोस त्ति पढमदुगं जाइदुगं सुहुमबायरएगिदिया अपज्जत्तगा, तेसिं उक्कोसो / तओ परिवाडीए सन्निअपज्जत्तजहन्नाओ सुहुमस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसो जोगो असंखेज्जगुणो / तओ बायरस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसो असंखेज्जगुणो / “सिं पज्जत्तजहन्नगेयरो य कमा"त्ति तेसिं चेव सुहुमबायराणं पज्जत्तगाण करणं पडुच जहन्नो इयरोउक्कोसो य कमेण असंखेज्जगुणो। जहा तओ सुहुमस्स पज्जत्तगस्स जहन्नओजोगो असंखेज्जगुणो। (तओ) बायरस्स पज्जत्तगस्स जहन्नओ असंखेज्जगुणो। तओसुहुमपज्जत्तगस्स उक्कोसो असंखेज्जगुणो / तओ बायरपज्जत्तगस्स उक्कोसो असंखेज्जगुणो / “असमत्ततसुक्कोसु" त्ति असमत्ता अपर्याप्ता जे तसा-बेइंदियतेइंदियाइणो तेसिं उक्कोसो जहक्कम असंखेज्जगुणो नेयव्वो। जहा बायरपज्जत्तगस्स उक्कोसाओ बेइंदियअपज्जत्तगस्स उक्कोसओ जोगो असंखेन्जगुणो। एवं तेइंदियअपज्जत्तगचउरिंदियअपज्जत्तगअसन्निपंचिंदियअपज्जत्तगसन्निपंचिदियअपज्जत्ताणं कमेण असंखेज्जगुणो उक्कोसो जोगो होइ / एए सव्वे लद्धिपज्जत्तगा चेव गहिया। "पज्जत्तजहन्नजेट्ठो य"त्ति तेषामेव बेइंदियाईणं पज्जत्ताणं जहन्नो 'जेठो य' त्ति उक्कोसो जोगो कमेण असंखिज्जगुणो कायव्यो / जहा सन्निपंचेंदियअपज्जत्तउक्कोसाउ बेइंदियपज्जत्तस्स जहन्नजोगो असंखेज्जगुणो / तओ तेइंदियपज्जत्तजहन्नो असंखेज्जगुणो। 1. "बियवियचउमण" इत्यपि / Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34) सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे तओ चउरिदियपज्जत्तगजहन्नो असंखेज्जगुणो। तओ असन्निपंचिदियस्स पज्जत्तगजहन्नो असंखेज्जगुणो। तओ सनिपंचिंदियपज्जत्तजहन्नो जोगो असंखेज्जगुणो / एए सव्वे करणपजत्तीए पज्जत्तगा दट्ठव्वा / तओ सन्निपंचिंदियपज्जत्तगजहन्नजोगाउ बेइंदियपज्जत्तगउकोसगो असंखे. ज्जगुणो। तओ तेइंदियपज्जत्तगउक्कोसो असंखेज्जगुणो / तओ चउरिदियपज्जत्तगउक्कोसो असंखेज्जगुणो / तओ पंचिंदियअसन्निपज्जत्तगउक्कोसो असंखेज्जगुणो / तओ सन्निपंचिंदियपज्जत्तगउक्कोसो जोगो असंखेज्जगुणो // 84-85 // इयाणिं ठिइठाणाणं अप्पबहुत्तं भन्नइ / एयाओ ठिईओ कसायसहिएणं जीवेणं निव्वत्तिज्जति / अओ चउदसण्हं जीवठाणाणं विसेसं दंसेइ एवं चिय ठिइठाणा अपजपजकमेण संखगुणा। . नवरमसमत्तबिंदिय'एकपए ते असंखगुणा // 86 // "एवं चिय"त्ति जोगपरूवणानाएण "ठिहठाण"त्ति ठिईणं जहण्णक्कोसभेयभिन्नाणं बंधठाणाणं जहन्निगं ठिइं आई काउं जाव उक्कोसिगा ठिई तेसिं मझे जत्तिया ठिईविगप्पा ते उक्कोसियाए ठिईए समं ठीठाणाणि वुच्चंति / "अपज्जपज्जकमेण"त्ति अपज्जत्तगपज्जत्तगपरिवाडीए संखगुणा होति / "नवरं"ति केवलं असमत्ते अपर्याप्ते बेदियठाणे एगत्थ पए ताणि ठिईचंधठाणाणि असंखगुणाणि होति / तत्थ ताव सव्वत्थोवाणि ठिइबंधठाणाणि सुहुमस्स अपजत्तगस्म / तओ बायरस्स अपज्जत्तगस्स संखेज्जगुणाणि / तओ सुहुमस्स पज्जत्तगस्स संखेज्जगुणाणि / तओ वायरस्स पज्जत्तगस्स संखेज्जगुणाणि, पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमित्ताणि / तओ बायरपज्जगठिइबंधठाणेहितो बेइंदियस्स अपज्जत्तगस्स टिईबंधठाणाणि असंखेज्जगुणाणि / कहं ? भन्नइ.-बेइंदियाण ठिइबंधठाणाणि पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमित्ताणि त्ति काउं / तस्सेव पज्जत्तगस्स संखेजगुणियाणि / तेइंदियस्स अपज्त्तत्तगस्स संखेज्जगुणाणि / तस्सेत्र पज्जत्तगस्स संखेज्जगुणाणि / तओ चउरिंदियस्स अपज्जत्तगस्स संखेज्जगुणाणि | तस्सेव पज्जत्तगस्स संखेज्जगुणाणि / असन्निपंचिंदियस्स अपज्जत्तगस्स संखेज्ज. गुणाणि / तस्सेव पज्जत्तगस्स संखेज्जगुणाणि / तओ सन्निपंचिंदियस्स अपज्जत्तठिइठाणाणि संखेज्जगुणाणि | तस्सेव पज्जत्तगस्स ठिइठाणाणि संखेज्जगुणाणि // 86 // एएसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं अन्नं किं पि विसेसं दंसेइ-- सव्वे वि अपजत्ता होंति पइक्खणमसंखगुणविरिया। संखगुणूणा सुहुमेसु बायरेसु य असंखगुणा // 87 // 1. "इकपए"इत्यपि / 2. "हुंति"इत्यपि / Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु स्थितिस्थ नवीर्याल्पबहुत्वं प्रत्येकस्थितिबन्धेष्वध्यवसायप्रमाणं तथा-ऽध्यवसायेनेवाऽ- [35 नुभागस्य प्ररूपणम् . सव्वे वि-सत्त वि अपज्जत्ता पइक्खणं-पढमसमयादारब्भसमए समए असंखगुणवीरियबुडोए वटंति जाव अपज्जत्तचरमसमओ / पज्जत्तेन नियमो / जओ सो अवट्टियवीरिओ होइ हीणवीरिओ वा; अहियवीरिओ वा / तहा अपज्जत्तगाणं अप्पबहुयं भन्नइ-"संखगुणणा सुहमेमु"त्ति संखेज्जगुणेणं उणा-हीणा सुहमेसु-पज्जत्तगेसु तो सुहमअपज्जत्तगा जीवा / बायरेसु पुण असंखगुणा अपज्जत्ता जीवा पज्जत्तेहिंतो हुंति / / 87 / जीवट्ठाणेसु परूवियाणि ठिइबंधठाणाणि / ताओ कसाओदयभेएसु निव्वत्तिज्जंति / अओ तेसिं चेव संखानिरूवणत्थं भणेइ-- ठिइबंधे ठिइबंधे अज्झवसाया असंखलोगसमा / कमसो विसेसअहिया सत्तसु आउसु असंखगुणा // 8 // तत्थ सव्वकम्माण जहन्नियाओ ठिइबंधाओ आरम्भ जाव उक्कोसिया ठिई, तासि मज्मे जाओ समयवुडीए ठिईओ तासिं एक्के कम्मि ठिइवंधे एगिदियाइजीनपाओग्गे अज्ज्ञवसायासंकिलेसा असंखलोयसमा असंखलोगेसु जेत्तिया आगासपएसा तेत्तियपमाणा होति / कालमेएण एगजीवं पडुच्च, एगम्मि वि कालो अणेगजीवे पडुच्च लब्भंति / एए गुणअज्झवसाया कमसो-परिवाडीए सत्तसु नाणावरणाइकम्मेसु जे जहन्नाओ ठिबंधाओ उत्तरोत्तरा ठिइबंधा तेसु विसेसेण किंचित्साधिकत्वेनाधिका भवंति / अज्झवसायठाणाणं दुविहा वुड्रिपरूवणा। तं जहा-अणंतरोवणिहियाए, परंपरोवणिहियाए / तत्थ अणंतरोवणिहियाए हस्सा विसेसवडित्ति सत्तन्हं फम्माणं पढमाए ठिईए ठिबंधज्झवसाया थोवा / विइयाए विसेसाहिया / एवं तइयाए जाव उक्कोसा ठिइत्ति / परंपरोवणिहियाए सत्तन्हं कम्माणं पल्लासंखेजमागं 2, गंतु दुगुणाणि, पुणो पन्नअसंखेज्जइभागं गंतु दुगुणवड्ढियाणिः एवं जाव उक्कीसिया ठिइत्ति / आउसु दुविहा वि असंखगुणा "आउनु असंखगुण'' त्ति आऊणं पुण विसेसो, जओ चउसु वि आऊसु जहन्ने ठीवंधे जे धज्झवसायट्ठाणा, ते सव्वे थोवा, असंखेज्जलोगागासपएसमेत्ता / तेहिं वि समयाणं उत्तराए ठिईए असंखेज्जगुणा / एवं ताव नेयं जाव नियनिया उक्कोसिया ठिइत्ति // 8 // ____संपयं दंसणावरणाईणं असुभसुभाणं कम्माणं जारिसेण अज्झवसाएण जारिसो अणुभागो उप्पाइज्जइ तं कहेइ असुशाण संकिलेसेण होइ तिब्वे सुहाण सोहीए। अणुभागो मंदो पुण विवजए सब्वपयडीणं // 89 // .. असुहाणं-पावपगईणं संकिलेसेग-कसाओदएण "अणुभागो"त्ति संबज्झइ होइ-भवइ तिव्वो-उक्कोसो महाविसोवमो। सुभाणं पुण-पुन्नपगईणं विसोहीए-कसायपरिहाणीए अणुभागो Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 / सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे तिब्बो अमयरसोवमो होइ / तह ‘मंदो'त्ति जहन्नअणुभागो सव्वपयडीणं सुभासुभाणं विवज्जएण विवरीयत्तणेण भवइ / तहाहि-अंसुभपगईणं विसोहीए मंदो, सुभपगईणं संकिलेसेण मंदरसो।।८९|| इयाणिं जाओ पयडीओ जेत्तियरसविसेससमन्नियाओ ताओ दंसेइ सतरस पयडी संजलण 4 विग्ध 5 पुदेसधाइआवरणा७ / चउठाणरसपरिणया दुतिचउठाणा उ सेसाओ // 9 // सत्तरसपयडीओ संजलणचउक्कं अंतरायपणगं पुरिसवेयं केवलनाणवज्जा चत्तारि नाणावरणा केवलदसणावरणवज्जा तिनि दंसणावरणरूवाओ चउठाणरसपरिणयाओ नायव्वा / तत्थ चत्तारि ठाणाणि एगट्ठाणदुट्ठाणाईणि वक्खमाणाणि जस्स सो चउठाणो रसो, तेंण एगाइमेयभिन्नेण चउट्ठाणेण परिणयाओ। एगट्ठाणिओ वा दुट्ठाणिओ वा तिट्ठाणिओ वा चउट्ठाणिओ वा / कहं सत्तरस संखा एव चउट्ठाणिओ, न सेसाणं ? भन्नड,-अनियट्टिअइक्वते बंधो एयाण सुहमरागे य / अन्नेसिं न असुभाणं तेणिगठाणाणि सत्तरस, सेसाओ पुण पयडीओ बायालीसं पुन्नपगईओ, पणसट्ठी पावपगईओ य दुतिचउठाणाओ-दुइज्जतिइज्जचउत्थरसठाणपरिणयाओ होति / / 90 // इयाणि जारिसेहिं कसाएहिं एगठाणाइया रसविसेसा निष्फज्जंति तं भन्नइपव्वयभूमी वालुयजलरेहासरिस संपराएहिं / चउठाणाई असुहाण वच्चयाओ सुहाणं तु // 11 // असुभपयडीणं चउट्ठाणाइया रसविसेसा होति / एएहिं संपराएहिं जहा पव्वयरेहासरिसकोहेणं चउठाणिओ रसो बज्झइ / भूमीरेहासरिसेण तिहाणिओ, वालुयरेहासरिसेण दुट्ठाणि ओ रसो बन्झइ / जलरेहासरिसकोहेण य एगठाणिओ / सेसाणं माणमायालोभाणं उवलक्षणं दट्ठव्वं / तहा थंभ-सिमूल-किमरागसरिसेहिं जहासंखं माण-माया-लोमेहिं चउठाणिओ, अट्ठिमिठसिंग-कद्दमरायसरिसेहिं तिढाणाइओ, कट्ठ-गोमुत्तिया-खंजणरायसन्निभेहिं दुट्टाणियो, तिणसलय-अवालहिय-हलिद्दरागसन्निभेहिं एगट्ठाणिओ असुभाणं रसो वज्झइ / सुभाणं-पुन्नपगईणं "वचयाउ"त्ति विवज्जएण अणुभागो होइ जलरेहासरिसेण चउट्ठाणिओ, वालुयरेहासरिसेण तिहाणिओ, भूमिरेहासरिसेण दुट्ठाणिणो, पव्वयरेहा सरिसेण एगट्ठाणिओ / एवं माणमायालोमेहिं पुव्वुत्तं विवरीयं भणियव्वं // 1 // इयाणिं एगठाणाईणं रसाणं दिट्टेण सरूवं सुभासुभपयडीसु दंसेइ घोसाडइनिंबुवमो असुहाण सुहाण खीरखंडुवमो / एगट्ठाणो उ रसो अणंतगुणिया कमेणियरे // 12 // Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभागबंधस्तथा वर्गणाप्ररूपणा [ 37 - घोसाडइ-निंबेहिं उवमा सरिसत्तं जस्स सो घोसाडइ-निंबोवमो रसो उसुभाणं एगट्ठाणिओ रसो। सुहाणं खीरखंडेहिं उवमा जस्स रसस्स सो खीरखंडोवमो रसो एगट्ठाणिओ होइ / इयरे पुण दुट्ठाणाइया कमेण अणंतगुणिया। एगट्ठाणियाओ द्वाणिओ अणंतगुणो / एवं दुट्ठाणियाओ तिहाणिओ अणंतगुणो। तिहाणियाओ चउहाणिओ अणंतगुणो / नणु पुव्वं सुभाणं एगट्ठाणिओ निसिद्धो, कहं पुणरवि भणिओ ? भन्नइ,-दुट्ठाणाइरससाहणनिमित्तं न पुण एएसि एगट्ठाणो बंधमागच्छइ / / 12 / / संपयं एगट्ठाणियरसाओ जहा दुट्ठाणाइया रसा उववज्जंति, तहा भन्नइनिंबुच्छरसाईणं दुतिचउभागा पुढो कढिज्जंता / किर एकभागसेसा दुतिचउठाणा रसा कमसो // 13 // निंबाईणं उच्छाईणं च जो सभावत्थो रसो, सो एगट्ठाणिओ तस्सेव दुन्नि भागा तिन्नि भागा चउरो भागो "पुढो" ति पत्तेयं 2 कढिजंता "किर"ति आप्तसंसूचकार्थः, एगो भागो जो सो उचरिओ जेसु दुतिचउभागेसु ते एक्कभागसेसा दुतिचउभागा रसा होति कमसो / जहा दोहि भागेहिं कढिज्जमाणेहिं एगे उव्वरिए द्वाणिओ। एवं तिहि एगे भागे उव्वरिए तिहाणिओ। चउहिं कढिज्जमाणेहिं एगे उव्वरिए चउट्ठाणो // 13 // अणुभागबंधो सम्मत्तो / इयाणिं पएसबंधं भणिउकामो पढमं ताव वग्गणासरूवं भणेइइगदुअणुगाइ जा अभवणंतगुणसिद्धणंतभागाणू / खंधा उरलोचियवग्गणाओ तह अगहणंतरिया // 14 // कमसो विउव्वियाहारतेयभासाणुपाणुमणकम्मे / इय वग्गणावगाहो उणूणंगुलअसंखंसो // 15 // एगणं दव्वाणं वग्गणा सा अग्गहणपाउग्गा एगा। दुयऽणुगाणं खंघाणं वग्गणा सा वि अग्गहणपाउग्गा एगा तिअणुगाणं खंधाणं वग्गणा सावि अग्गहणपाउग्गा / एवं एगेगपएसवुडीए ताव खंधा भाणियव्वा, जाव "अभवणंतगुणसिद्धणंतभागाणु" ति अभव्वेहितो अणंतगुणा सिद्धाणं अणंतभागपमाणा अणवो=परमाणवो जेसु ते भवंति अभव्वाणतगुणसिद्धाणंतभागाण | एयारिसा खंधा किम् ? इत्याह-"उरलोचियवग्गणाउ''त्ति ओरालियसरीरजोग्गाओ वग्गणाओ भवंति / वग्गणा नाम एगजाईयदव्वसमुदायरूवा / किं भणियं होइ ? परमाणवो पोग्गलाणं एगपएसदव्ववग्गणा अग्गहणपाउग्गा / एवं दुपएसियाण वि, Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे तिपएसियाण वि, चउपएसियाण वि, जाव दमपएसियाण वि / एवं चैव संखेज्जपएसियाण वि. संखेज्जाओवग्गणाओ सव्वाउ वि अग्गहणपाउग्गाओ। असंखेज्जपएसियाण वि असंखेज्जाउ वग्गणाओ सव्वाओ अग्गहणपाउग्गाओ। अणतपएसियाणं अगंताओ वग्गणाओं सवाओ अग्गहणपाउग्गाओ चेव / अणंताणंतपएसियाणं अणताणताओ वग्गणाओ, ताउ किं गहणपाउग्गाउ अग्गहणपाउग्गाउ वा ? भनइ-काओ वि गहणपाउग्गाओ, काओ वि अग्गहणपाउग्गाउ / तासिं अणंताणंतपएसियाणं दव्ववग्गणाणं अग्गहणपाउग्गाणं उवरि एगे रूवे छूढ़े ओरालियशरीरवग्गणा / जाणि दव्याणि घेत्तृण जीवा ओरालियसरीरत्ताए परिणमंति, ताणि य दव्याणि सिद्धाणमणंतभागो अभव्वसिद्धियाणं अणंतगुणाणि एवइयाणं परमाणणं समुदाओ एगो खंधो। सा ओरालियदव्ववग्गणा जहन्ना / ताओ एगपएसुत्तरा बीया वग्गणां / एवं एगेगपएसुत्तराओ अणंताओ वग्गणाओ जाव उक्कोसा ओरालियसरीरदव्ववग्गणा / जहन्नाओ उकोमा विसेसाहिया / को विसेसो जहन्नाए चेव अणंतिमो भागो ति। "तह" त्ति वत्तव्यतरसूयणस्थो। "अगहणंतरिय"त्ति अग्गहणवग्गणाविरहियाओ। किम् ? इत्याह,-कमसो-परि.. वाडीए वेउनियआहारगतेयभासा आणुपाणमणकम्मे विसयभूए / "इय" ति एवं वग्गणा भाणियव्वा / किं भणियं होइ ? ओरालियसरीरउकोसवग्गणाउ उवरि,एगे रूवे च्छूढे अगहणवग्गणा जहन्ना / तेसिं जहन्नाईणि एगेगपएसुत्तराणि अणंताणंताणि ठाणाणि जाव उक्कोसा ओरालियसरीरअग्गहणवग्गणा / जहन्नाओ उक्कोसा अणंतगुणा। को गुणाकागे?, भन्नइ-, अभव्वसिद्धिएहिं अणंतगुणो, सिद्धाणं अणंतभागो त्ति / तस्सुवरि एगे रूवे छुढे जहन्ना वेउब्वियसरीरवग्गणा। वेउब्वियसरीरवग्गणा नाम जाणि दव्याणि घेत्तुणं वेउब्धियसरीरत्ताए परिणामेंति जीवा / तेसिं अणंताणं ताओ वग्गणाओ एगेगपएसुत्तराओ / जहन्नाओ वेउव्वियसरीरदव्यवग्गणाओ उक्कोसिया वेउब्वियसरीरवग्गणा विसेसाहिया / को विसेसो ? तीसे चेव अणंतिमो भागो / तओ तस्स उवरि एगे रूवे च्छूढे जहन्निया वेउब्धियअग्गहणवग्गणा / तासि जहबाईणि उक्कोसपज्जवसाणाणि अणंताणंताणि अग्गहणवग्गणाठाणाणि / जहन्नाओ उक्कोसा अणंतगुणा / गुणकारो भन्नइ-अभव्यसिद्धिएहि अणंतगुणो, सिद्धाणं अणंतिमो भागो। ताए उवरिं एगे रूवे छुढे जहन्ना आहारयसरीरवग्गणा तासि जहन्नाईणि पएसुत्तराणि अणताणताणि ठाणाणि जाव उक्कोसा। जहन्नाओ उक्कोसा विसेसाहिया / . को विसेसो ? तस्सेव अतिमो भागो त्ति / तस्सुवरि एगे रूवे छूढे जहन्निया आहारयसरीरअग्गहणा वग्गणा। तासि अणताणताण वग्गणाठाणाणि / जाव उक्कोसा आहारयसरीरअग्गहणवग्गणा / जहन्नाओउक्कोसा / अणतगुणा / को गुणकारो ? अभव्वसिद्धिएहिं अणंतगुणो, सिद्धाणमणंतभागो त्ति / तस्सुवरिं एगे रूवे छुढे तेयसदव्ववग्गणा जहन्ना। तेजसदव्ववग्गणा नाम जाणि दव्वाणि घेत्तर्ण Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 36 वगणा निरूपणम् तेजससरीत्ताए परिणामंति जीवा / तेसि अणंताणंताओ वग्गणाओ पएसुत्तराओ। जाव उक्कोसा .. तेजोदव्ववग्गणा / जहन्नाओ उक्कोसा केवइया ? विसेसाहिया। को विसेसो ? भन्नइ,-तस्सेव अणंतिमो भागो / तस्सुवरि एगे रूवे छूढे तेयगसरीरअग्गहणदव्वग्गणा जहन्ना। तासि जहन्नाईणि पएसुत्तराणि अणंताणताणि वग्गणाठाणाणि / जाव उक्कोसा तेजोअग्गहणदव्ववग्गणा | जहन्नाओ उक्कोसा अणंतगुणा / को गुणकारो ? भन्नइ, अभयसिद्धिएहिं अणंतगुणो, सिद्धाणं अतिमो भागो / तस्सुवरि एगे रूवे छुढे भासादव्ववग्गणा जहन्ना / तत्थ भासा चउब्विहा / तं सच्चामोसा, मीसा, असच्चामोसा। जाई दवाइंधेत्तूण सच्चादिभासत्ताए परिणामेउं तीरंति जीवा, ताणि दव्वाणि भासादबवग्गणा | तासिं जहन्नाईणि पएसुत्तराणि अणताणि ठाणाणि / जाव उस्कोमा / जहन्नाओ उक्कोसा विसेसाहिया / को विसेसो तस्सेवऽणंतिमो भागो / तरसुवरि एगे रूवे छूटे भासाअग्गहणदव्ववग्गणा जहन्ना / भासाअग्गहणदव्ववग्गणा नाम भासावग्गणं अतिच्छिया आणापाणुवग्गणं अपत्ता / तासिं जहन्नाईणि पएसुत्तराणि अणता ताणि भासाअग्गहणदव्ववग्गणाठाणाणि / जाव उक्कोसा भासाअग्गहणदव्ववग्गणा / जहाओ उक्कोसा अणंतगुणा / को गुणकारो?, भन्नइ, अभव्वसिद्धिएहिं अणंतगुणो, सिद्धाणं अणंतभागो / तस्सुवरि एगे रूवे छूढे आणापाणुदव्यवग्गणा जहमा / (जहा) भासादव्ववग्गणा परूविया तहा आणापाणुवंग्गणा वि परूवेयव्या / जाव जहाओ उक्कोसा विसेसाहिया / को विसेतो ? तस्सेव अणंतिमो भागो। तस्सुवरिं एगे रूवे छूढे आणापाणुअग्गहणदव्यवग्गणा जहा / तासिं जहन्नाईणि पएसुत्तराणि अणताणताणि आणापाणुअग्गहणदव्ववग्गणाठाण णि जाव उक्कोसा आणापाणुदव्वअग्गहणवग्गणा / जहन्नाओ उक्कोसा अर्णतगुणा / को गुणकारो ? भन्नइ,-अभव्वसिद्धिएहि अणतगुणो, सिद्धाणमणंतभागो / तस्सुवरि एगे रूवे छुढे मणदव्ववग्गणा जहन्ना / जहा आणपाणुवग्गणा परूविया तह मणदव्ववग्गणा वि परूवेयव्वा / जाव जहन्नाओ उक्कोसा विसेसोहिया / को विसेसो ? भन्नइ-तस्सेवाणंतिमो भागो / तस्सुवरि एगे रूवे छूढे मणअग्गहणदव्ववग्गणा जहन्ना / मणअग्गहणदव्ववग्गणा नाम मणदव्ववग्गणं अतिच्छिया, कम्मइगवग्गणा अपत्ता / तासिं जहन्नाईणि जहा ओरलियअग्गहणदव्ववग्गणाए तहा भाणियव्वाणि / जाव तस्स उवरिं एगे रूवे छूढे कम्मइगदव्ववग्गणा जहन्ना / कम्मइगसरीरदव्ववग्गणा नाम जाणि दव्वाणि घेत्तुणं नाणावरणिज्जत्ताए जाव अंतराइयत्ताए परिणामंति जीवा | ताणि दव्याणि कम्मइगसरीरदव्ववग्गणा / जा जहन्नाई एगेगपएसुत्तरा / जाव उक्कोसा / जहन्नाओ उक्कोसा विसेसाहिया / को विसेसो ? भन्नइ-तस्सेव अणंतिमो भागो / एयासिं च वग्गणाणं ओरालियाइगहणपाओग्गाणं अग्गहणपाउग्गाणं च अवगाहनिरूवणत्थं भन्नइ / अवगाहो-अवगाहखेत्तं "ऊणूणंगुलअसंखंसो''त्ति ओरालियाइवग्गणाणमट्ठन्हें Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे सत्तन्हं च अंतरालगयाणं कमेण ऊणो ऊणो अंगुलस्स असंखेज्जइभागो उत्तरउत्तराणं वग्गणाः .. ' ठाणाणं बहुबहुतरबहुतमपएसनिष्फन्नत्तणेण सुहुमसुहुमतरसुहुमतमसरूवत्ताउत्ति // 94-65 / / संपयं एएसु चेव वग्गणाठाणेसु जहन्नुकोसाणं वग्गणाणं विसेसं सयमेव निरूतो भणेइएगुत्तरा अभव्वाणंतगुणा अंतरेसु अग्गहणा / सव्वहि जोगजहन्ना नियणंतंसाऽहिया जेट्ठा // 16 // एसा य गाहा वग्गणापरूवणापत्थावे भावियत्था न पुणो वि भाविज्जइ / नवरं "सव्वहिं जोगजहन्ना नियणंतसाहिया जेट्ठा" त्ति / सम्वेसु वग्गणाठाणेसु जा जहन्नगहणपाउग्गवग्गणा सा निययनियएण अणंतभागेण अब्भहिया उक्कोसिया गहणपाउग्गवग्गणा होइ त्ति // 96 / / इयाणिं वग्गणादव्वाणं उप्पत्तिं दंसेइजोगणुरूवं गेन्हिय सोचियदलियं जिओ परिणमेइ / भामाणुपाणुमणोचियं च लंबए दव्वं // 17 // जस्स जीवस्स जावइओ जहन्नाइभेयभिन्नो जोगो-वीरियं तस्स अणुरूवं गेन्हिय "सोचिय" त्ति ओरालियाइसरीरस्य दंसणावरणाइअट्ठविहकम्मस्स य जस्स जस्स अप्पणुप्पणो उचियं पाउग्गं दलियं तस्स तं जीवो परिणामेइ / जीवपएसेहिं सह तहभावत्ताए परिणामेइ / जहा अग्गणी इंघणं पक्खित्तं अगणित्ताए परिणामेइ, तहा भासाए आणुपाणूणं मणस्स य जं उचियं दलियं तं अवलंबते अबढ भइः न उण जीवपएसेहिं सह तब्भावत्ताए परिणमेइ / जहा पायाइविगलो उठाणचंकमणाईणि काउकामो लढि अवलंबइ मुयइ य कारणं पडुच्च / एवं जीवो वि भासाईणि दव्वाणि अवलंबित्ता भासाआणुपाणुमणत्तेण य परिणामिय मुयइ त्ति भणियं होइ ||17|| संपयं दंसणावरणाईणं उक्कोसजहन्नाणं पएसवंधाणं अट्ठन्हं कम्माणं पएसबंध निदंसेइ अप्पयरपयडिबंधी उक्कडजोगी य सन्निपज्जत्तो / कुणइ पएसुक्कोसं जहन्नयं तस्म वच्चासो // 9 // "अप्पयरपयडिबंधी" सव्वजहन्नमूलुत्तरविसयपयडिबंधी “उकडजोगी" सव्वुक्को सजोगी सन्निपज्जत्तो एयविसेसणजुत्तो जीवो "कुणइ पएसक्कोस" ति उक्कोसं पएसबंधं करेदि / जहन्नयं पुण पएसवंधं तस्स-पुव्वुत्तजीवस्स वच्चासो विवरीओ / / उक्तं च"सुहुमनिगोया पज्जनगस्स पढमे जहन्नगे जोगे। सत्तहं पि जहन्नो आउगबंधो वि आउस्स" // 8 // " संपयं जुगवमेव दंगणाईणं अट्ठन्ह वे बज्झमाणाणं पएसवंधागयस्स दलियस्स कस्स केत्तिओ भागो होइ त्ति दंसेइ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गणा दलविभागनिरूपणम् [ 41 गहियदलियस्स भागो बहुठिकम्मेसु होइ कमवुद्यो / वेयणिए सव्वोवरि तस्स फुडत्तं न जेणऽप्पे // 19 // गहियस्स दलियस्स बज्झमाणपगडिसंखाए विभज्जमाणस्स भागो-अंसो "बहुठोकम्मेसु" त्ति बहुट्ठियाणि जाणि कम्माणि तेसु कमवुड्डी-परिवाडीए वुडिमागओ भवइ / नवरं वेयणीए दुविहे वि सम्वेसि कम्माणं "उवरि" त्ति बहुवुडो भवइ, जेण कारणेण तस्स वेयणियस्स फुडत्तं सकज्जसाहणत्तं न होड, अप्पे-थोवे सति दुहं वा सुहं वा / अप्पदलिएण न वेइज्जइ ति। तत्थ अट्ठविहबंधगे आउस्स थोवो भागो / तओ नामगोयाणं दोण्ह वि भागो तुल्लो, आउयभागओ विसेसाहिओ / तओ नाणावरणीयदंसणावरणीयअंतराइयाणं तिन्ह वि कम्माणं तुल्लो भागो, पुचभागाओ विसेसाहिओ / तओ मोहणीयस्स विसेसाहिओ / तओ वेयणीयस्स विसेसाहिओ // 9 // इयाणिं इममेव कम्मदलियं दंसणावरणाइउत्तरपयडीसु विभज्ज पयडीण सव्वघाईण होइ नियजाइदलअणंतंसो / बझंतीण विभज्जइ सेसं संसाणमणुसमयं // 10 // सव्ववाइपयडीणं केवलदसणावरणाईणं वीससंखाणं नियजाइदलस्स दंसणावरणाइभागागयस्स अणंतमो अंसो होइ / परं बझंतीणं बंधे आगच्छंतीणं विभज्जइ-विभागमावज्जइ / "सेसं" ति उव्वरियं सेसाणं-देसघाईणं पयडीणं 'अणुसमयं" ति निरंतरं / तत्थ दंसणावरणीयस्स नव उत्तरपयडीओ, छ सव्वघाईओ, ताहि लद्धं अणंतिमो भागोः देसघाइणीओ तिन्नि, सेसं तेसिं अणंतगुणं / नाणावरणस्स पयडीओ पंच, केवलनाणावरणं सव्वघाई, तीए लद्धं सव्वथोवंः सेसं मइनाणावरणाईण चउहि भागेहिं अणंतगुणं / अंतराइए पयडीओ पंच, सव्याओ देसघाइणीओ, सव्वेसि तुल्लो भागो / मोहणीयस्स उत्तरपयडीओ छव्वीसं; सव्वघाईओ तेरस, ताहिं भागलद्धं अणंतिमो भागोः कहं ? भन्नइ,-सव्वकम्मपएसाणं जे निद्धयरा पुग्गला सव्वकम्मदयाणंतुत्ति, एएण कारणेण अणंतिमो भागो, ते सव्वघाइजोग्गा नियनियसबधाईसु उववुज्जतिः देसघाइणीओ तेरस, तेसिं भागो अणंतगुणो / आउयस्स पयडीओ चत्तारि, वज्जंतियस्स भागो / एवं गोयवेयणीयाणं पि बझंतीणं भागो। नामस्स अट्ठ बंधठाणाणि-तेवीसा, पणवीसा, छब्बीसा, अट्ठावीसा, गुणतीसा, तीसा, दगतीसा, एगा जसकित्ती / जं बंधट्ठाणं जया बज्झइ तस्स भागो दट्ठव्यो / नवरं वण्णाईणं विसेसो / वनस्स पंचभागा सलद्धभागस्स / गंधस्स दो / एवं रसफासाईण वि संभवियभेएसु भाणियव्वं // 10 // Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 ] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे भणिओ पगइठिईरसपएसजुत्तो कम्मवियारसारलवो / पएसबंधो वुत्तो / ते य पएसा गुणसेढीकमेण पायसो बहुतरा निज्जरिज्जंति / अओ गुणसेढीओ इकारस, ते य दंसेइ-- सम्मत्तदेसरसंपुनविरइ३उप्पत्तिअणविसंजोए 4 / . दंसणखवगे 5 मोहस्स समग६उवसंत७खवगे य 8 // 10 // खीणाइतिसु य 11 'संखगुणूणं अंतोमुहुत्तकालाओ। गुणसेढीओ इगारस कमादसंखगुणदलियाओ // 102 // उप्पत्तिसहो तिसु संबज्झइ, तओ सम्मत्तुप्पत्तिगुणसेढी 1, देसविरयउप्पत्तिगुणसेढी 2, "संपुन्नविरय" ति सव्वविरयउप्पत्तिगुणसेढी 3, अणंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेढी 4, इह अणंताणुबंधिविसंजोयणं अपमत्तस्स अइसयसुद्धिमावन्नस्स विवविखयं; अनहा अविरयप्रमत्तजया वि अणंताणुवंधि विजोजिति सणतिगं खवंति त्ति न सिं तारिसा विसुद्धी; जारिसा अपमत्तस्सः जओ अणंताणुवंधिगुणसेढीनिज्जराओ दसणतिगगुणसेढिनिज्जरा असंख् गुणा दिट्ठाः देसणमोहखवगगुणसेढी 5, एसा वि अपमत्तस्स, परं अणंताणुबंधिअणंतरं विसुद्धिमागओ खबइ एयाओ पंचगुणसेढीओ असेढिगयस्स लभंति / "मोहस्स समगउवसंत" ति मोहो =चरितमोहो पत्तेयं संबज्झइ, तओ चरित्तमोहउवसामगगुणसेढी 6, एसा अनियट्टिकरणाईसु / तो चरित्तमोहउवसंतगुणसेढी७,एसा उवसंतमोहे। खवगगुणसेढी 8, एसा वि अनियट्टिकरणाईस / "खोणाइतिस य" ति खीणमोहसजोगिकेवलिअजोगिसु तिसु कमेण, जहा खीणमोहगुणसेढी 9, सजोगिकेवलिगुणसेढी 10, अजोगिकेवलिगुणसेढी 11 / संखगुणेण ऊणो अंतोमुहुत्तकालो पढमाए गुणसेढीए जाव संखगुणूणं अंतोमुहुत्तं / जहा सम्मत्तप्पत्तिगुणसेढीए पभृओ कालो। इयरा सेसा कमेण संखगुणहीणा ठवणा एसा पढमा, सेसाउ एत्तो उव्वत्तेणं संखेज्जगुणहीणाओ संखेज्जगुणहीणाओ उपरि पुहुत्तेणं विसालाओ कायव्याओ जाव अजोगिगुणसेढीए / "गुणसेढीओ" त्ति वक्खमाणलक्खणाओ, ताओ एगारससंखा, ओघकमेण परिवाडीए असंखगुणं दलिय जासु ताओ / तहा सव्वत्थोवं सम्मत्तुप्पायगुणसेढीए दलियं तओ देसविरइउप्पायगुणसेढीए असंखेज्जगुणं / एवं ताव नेयं जाव अजोगिगुणसेढी / कहं असंखगुणं असंखगुणं दलियं ? भन्नइ,-उवरिं उवरिं विसुज्झमाणत्ताओ // 101-102 // इयाणिं पुव्वुद्दिट्ठाणं गुणसेढीणं रूपं फलं च दंसेइगुणसेढी दलरयणाऽणुसमयमुदयादसंखगुणणाए / एयगुणा पुण कमसो असंखगुणनिजरा जीवा // 103 / / 1. “संखगुणूणूणंतोमुहुत्तकालओ। गुणसेढी इक्कारस” इत्यपि / Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणश्रेणिप्ररूपणा तथा गुणस्थानानां जयन्योत्कृष्टान्तरम् / 43 गुणेण=असंखेजगुणकारेण वुड्ढिमागया जा सेढी उत्तरोत्तरपरिवाडी, सा य गुणसेढी, कम्मदलरयणा-कम्मपएसाणं विरयणा, अणुसमयं-पइक्खणं उदयाओ-उदयक्खणाओ उवरि उवरिं असंखगुणणाए-असंखेजगुणकारेण असंखगुणकारेण दलरयणा / उक्तं च सम्यक्त्वाऽधिकारे सत्तरोबृहत्चूण्यों गुणसेणिलक्षणम् - "उबरिल्लठिई हिंतो घेत्त णं पोग्गले उ सो खिवइ / उदयसमयम्मि थोवा तत्तो य असंखगुणिया उ // 1 // बीयम्मि खिवइ समए तइए तत्तो असंखगुणियाओ। एवं समए समए अंतमुहुत्तं तु जा पुन्नं // 2 // दलियं पि गिण्हमाणो पढमे समयम्मि थोवयं गिन्हे / उवरिल्लठिईहिंतो बीयम्मि असंखगुणियं तु // 3 / गिण्हइ समए दलियं तइए समए असखगुणियं तु / एवं समए समए जा चरमो अंतसमउत्ति // 4 / / सेढीऍ कालमाणं दुन्हवि करणाण समहियं जाण | खिजह सा उदएणं जं सेसं तम्मि निक्खेवो // 5" सम्मत्तुप्पत्तिगुणसेढी अधिकारे बृहत्सत्तरीचुण्णीओ उन्हग्यिं / "एस कमो सेसाण वि दलरयणाए गुणाण सेढीणं। अस्थि विसेसो कत्थवि सो पुण सुत्ताउ विन्नेओ। 6 / " एयगुणाओ-गुणसेटिंगुणाओ पुण कमसो-परिवाडीए असंखेज्जगुणेण कम्मपुग्गले निज्जरिज्जति जे, ते असंखगुणनिज्जरा जीवा होंति, सम्मत्तलद्धाइणो अजोगिपज्जवसाणा // 103 // इयाणि गुणट्ठाणगाणं जहन्नुकोसमंतरं निदंसेइपलियासंखंतमुहू सामणइयरगुणअंतरं हस्सं / मिच्छस्स बेछसट्ठी इयरगुणे पोग्गलद्धतो // 104 / / इह जहासंखं संबंधो कायव्यो / पलिओवमस्स असंखिज्जं भागं अंतरं "जहण्णं" ति, जहण्णं सासयगुणट्ठाणगस्स / अंतमुहुत्तं इयराणं मिच्छदिडिपभिईणं उवसंतमोहपज्जवसाणाणं दसण्ह जहन्नं अंतरं / सासायणस्स कहं पलियस्स असंखेज्जइभागो अंतरं ? भन्नइ,-कोइ जीवो मिच्छदिट्ठी छव्वीससंतकम्मिओ जहापवत्ताइकरणेहिं सम्मत्तप्पतिकाले तिजं करिय, तओ उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियसेसाए उक्कोसिएणं जहन्नेणं एक समयं सासायणगुणो। तओ मिच्छत्तं गच्छइ। तओ मिच्छत्तं गओ अणंतरं सम्मत्तपुजं उव्वलेउं आढवेइ / तओ उव्वलणकमेण पलि ओवमस्स असंखिज्जइभाएणं उव्वलेइ / एवं सम्मामिच्छत्तपुजपि / तओ छवीससंतकम्मिओ जाओ पुणो वि अहापवत्तकरणाइणा उवसमसम्मदिट्ठी एसो बीयाए जाओ पुवुत्तो "पुव्वं व सासणं" ति / पुवं व सासणभावं गच्छइ / एवं सासयणम्स पलिओवमस्स असंखिज्जहभागो जहन्नं अंतरं / तहा मिच्छदिहिस्स उक्कोसं अंतरं दो छावट्ठीओ सागरोवमाणं / कहं ? 'उकोससम्मत्तकालो। इयरगुणाणं सासायणसम्मदिद्विपभिईगं दसण्हं उक्कोसअंतरं पोग्गलपरियट्टस्सद्धं // 104 // पुव्वं "पुग्गलद्धतो" त्ति वुत्तं, अओ पुग्गलपरावत्तसरूवमेव भणेइ१. "पुग्गलद्धंतो।।" इत्यपि / 2. मिश्रगुणस्थकान्तरितसम्यक्त्वोत्कृष्टकालो बोध्यः, सम्यत्क्योत्कृष्टकालस्य षटषष्टिसागरोपमप्रमाणत्वात् / Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 ] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे दब्बे खेत्ते काले भावे चरह दुह बायरो सुहुमो / होइ अणंतुस्सप्पिणिपरिमाणो पोग्गलपरट्टो // 105 // दव्वओ पोग्गलपरियट्टो, खेत्तओ पोग्गलपरियट्टो, कालओ पोग्गलपरियट्टो, भावओ पोग्गलपरियट्टो / एवं चउव्विहो पोग्गलपरियट्टो / एसो चउविहो वि दुविहो बायरो सुहुमो य / तहा एसो कालपमाणेणं अणंताओ उस्सप्पिणीओ / उस्सप्पिणीओ अवसप्पिणीओ विणा न होति / अओ ताओ वि अणंताउ तत्तियपमाणो पुग्गलपरियट्टनामो // 104|| इयाणिं एसो जहा चउव्विहो बायरसुहुममेयभिन्नो हवइ, तहा भणेइ चउतणुमणवइपाणुत्तणेण परिणमिय मुयइ सव्वअणू / एजिओ भवमिरो जत्तियकालण सो थूलो // 106 // "चउत्तणु" त्ति चत्तारि सरीराणि / तं जहा ओरालियसरीरं, वेउब्वियसरीरं, तेयगसरीरं, कम्मगसरीरं / आहारगसरीरं न घेप्पइ / जओ उक्कोसेण चत्तारि वारा होइ / मणं वयणं 'पाण' ति ऊसासा एएणं चउतणुत्ताईण परिणामेण परिणमिय=परिणामित्ता "मुयइ" त्ति छडइ / “सव्वअणु" त्ति सबलोयपोग्गले एगो जीवो विवक्खियकालाओ भवेसु नरनरगाइलक्षणेसु भमिओ-भममाणो जावइयकालेण अणंतोसप्पिणिलक्खणेण सी कालो थुलो नायव्यो पोग्गलपरियट्टो // 106 / / सत्तण्हऽण्णयरेण उ इय फुसणे सुहमदवपरियट्टो / अण्णे चउतणुसु कमेणिमण तं वेंति दुविहं पि // 107 // "सत्तण्ह" त्ति चउण्हं तणूणं तिहं मणाईणं मज्झाओ अण्णयरेण=एकतरेण एगजीवो परिणामेत्ता 'इय"तिथूलपोग्गलपरियट्टनाएण फुसणे सव्वदव्वपोग्गलाणं "मुहुमदव्व परियहो" त्ति सुहुमो दव्वओपोग्गलपरियट्टो हवइ / अन्ने आयरिया पुण चउसु तणुसु ओरालियाइवट्टमाणेण कमेणिमेण पुव्वभणियपोग्गलपरियट्टनाएण जया चउहि सरीरेहि सव्वे पोग्गला परिणामित्ता मुक्का हवंति, तया बायरो दव्वपुग्गलपरियट्टो जया उ चउण्ह एगयरेणं तया तं सुहुमपोग्गलपरियट्ट ति भणति / / 107 // लोगपएसोसप्पिणिसमया 2 अणुभागबंधठाणा 3 य / पुट्ठा मरणेण जया कमुक्कमा बायरोत्ति तया // 10 // लोगो चउदसरज्जुपमाणो तस्स आगासपएसा, तहा उसप्पिणित्ति उस्सप्पिणिगहणेण अवसप्पिणि वि गहिया / जहा दिवसे गहिए राई वि गहिज्जइ तेसि जेत्तिया समया, तहा अणु Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गलपरावर्तस्वरूपम् [45 भागबंधठाणाणि वक्खमाणाणि। एए सव्वे पुट्ठा फासिया एगजीवेण चाउरंतसंसारं भमन्तेण जया कममरणेण अकममरणेण य विवक्खियमग्णठाणं पडुच्च तया बायरो जहासंभवं खेत्तकालभावपोग्गलपरियट्टो हवइ / / 108 / / पुट्ठाणंतरमरणेण पुण जया ते तया भवे सुहुमो / पोग्गलपरियट्टो खेत 2 कालभावेहिँ 3 इय नेयो॥१०९॥ जया पुण ते चेव लोगपएसा उस्सप्पिणिसमयं अणुभागवंधट्ठाणा अणंतरमरणेण कममरणेव फासिया होति, तया सुहुमो जहासंखं खेतकालभावपोग्गलपरियट्टो हवइ / भावणा--जहा एगो आगासपएसो विवक्खिज्जइ, तत्थ पएसे जीवो मओ पुणो जइ तस्सेव अणंतरे मरेइ, तओ लेक्खए गणिज्जइ, अन्नत्थ मओ न गणिज्जइ, एवं अणंतरमरणेण जया सव्वलोगासपएसा य फासइ, तया खेत्तओ सुहुमो पोग्गलपरियट्टो / तहा उस्सप्पिणीउ पढमसमए मओ तओ समयउणाओ वीससागरोवमकोडाकोडीओ अइक्कंताओ बीयसमए जइ मरइ तहा तत्थ लेक्खए लग्गइ / अण्णेसु . समएसु मओ न उ गणिज्जा / एवं अणंतरमरणेण जया उस्सप्पिणिअवसप्पिणिसमया पुट्ठा होति तया कालओ सुहुमो। इयाणि भावपोग्गलपरियट्टस्स भावणावसरो। सो य दक्खमाणगाहाए वक्खाणियाए जाणिज्जइ / जओ तत्थ अणुभागबंधठाणाणं माणं भणियं / अणुभागवंधठाणेसु य भावपोग्गलपरियट्टो परूविओ। अओ पढमं ताव सा गाहा इत्थ वक्खाणिय भाविज्जइ / सा य एसासमयभवसुहुमअगणी. असंखलोगा तओ असंखगुणा / तेऊ तकाठिई कमसो अणुमागठाणा य परश्या ___ एगसमए भवा-जाया उप्पन्ना एगट्ठ असंखेज्जाणं लोगाणं जत्तिया आगासपएसा तत्तिया, के सुहुमअग्गणिकाइया ते य थोवा विवक्खिया तेहिंतो तेउकाइया जीवंतगा असंखेज्जगुणा / तओ तेहिंतो "तकाठिह" त्ति तेउकाइयाणं कायठिई पुणो तत्थेव काए उप्पन्नाणं ठीइलक्खणा सा य असंखेज्जोस्सप्पिणिओसप्पिणिसमयपमाणा असंखेज्जगुणा / तओ कमसो परिवाडीए तेउकाइयठिईहिंतो अणुभागवंधट्ठाणा असंखेज्जगुणा / तओ अणुभागट्ठाणसदस्स को अत्थो 1, भन्नइ, एगसमए जे जीवेण कम्मपएसखंधा गहिया, तेसिं जो रसो तं अणुभागट्ठाणं तु बुच्चइ, एएसिं तु अणुभागवंधट्ठाणाणं जं जहन्नगं अणुभागवन्धज्झवसाणठाणगं तं विवखिज्जइ, तओ तस्सोदए मओ पढमं, ताव बीयं अणुभागट्ठाणं पुवाओ अणुभागपलिच्छेएहिं विसेसियतरं, तओ जइ तत्थ अणंतरमेव मओ तो लेखए गणिज्जइ, अन्नत्थ मओ न गणिज्जइ / एवं वीयाओ तइयं अणुभागवंधट्ठाणं अणुभागपलिच्छेएहिं विसेसियतरं / एवं तइयाओ चउत्थं / चउत्थाओ पंचमं / जाव उक्कोसं अणुभागबंधठाण। एवं अणुभागवंधज्झवसायठाणेहिं अणंतरमरणेण Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46] सूक्ष्मार्थविचारसा प्रकरणे जया फासियाणि हवंति, तया सुहमो पोग्गलपरियट्टी भावओ होइ / पोग्गलपरियट्टो नाम खेतकालभावेहि इय नेउ"त्ति, खेतओ कालओ भावओ य इय भणियपयारेण पोग्गलपरियट्टो नेयो-जाणेयव्यो / एक्केको वि अणंताहिं उस्सप्पिणिअवसप्पिणीहिं निष्फाइ / भणिया पोग्गलपरियट्टपरूवणा // 106 // ____ इयाणि भावे पोग्गलपरियट्टे ठिंबंधज्झवसायठाणा भणिया / ते य केहिंतो बहुया, केहिंतो थोवा, तप्पसंगेणं जोगठाणाईणं सत्तण्हं पयत्थाणं अप्पावहुयं भणिउकामो गाहाजुयलेण भणेइ जोगट्टाणा 'सेढीअसंखभागो तओ असंखगुणा। पयडीभेया तत्तो 'ठीभेयाणक्कमेण तओ // 110 // 'ठीबंधज्झवसाया तत्तो अणुभागबंधठाणाणि / तोऽणंतगुणा 'कम्मपएमा तत्तो रमच्छेया // 111 // ___ "जोगट्ठाणा सेढी असंखभागो" त्ति / "जोगो विरियं थामो उच्छाहपरक्कमो तहा चेट्ठा / सत्ती सामत्थं ति य जोगस्य हवंति पज्जाया / // " तस्स ठाणाणि जोगठाणाणि सहावओ चेव अप्पवीरियलद्धिगस्स साहारणसुहुमअप्पज्जत्तस्स तब्भवपढमसमयगस्स सव्वजहन्नाओ जोगट्ठाणाओ आठवेत्तु अणतगणंतराणे विसेसाहियं जोगट्ठाणं / एयाए जोगवुड्डीए ताव गयं जाव उक्कोसगं जोगठाणं पज्जत्तगस्स सण्णिणो सव्वमहल्लविरियलद्धिस्स / ते य जोगठाणा "सेढोअसंखभागो"त्ति, घणीकयलोयस्स तिरियपि सत्तरज्जुप्पमाणीए एगपएसिगाए सेढीए जावइओ असंखेज्जइमो भागो तावइया भवंति / किं भणियं होइ ? लोगसेढीए असंखेज्जइमे भागे जत्तिया आगासपएसा, तत्तियाणि जोगट्ठाणाणि हवंति "तओ असंखगुणा पयडीभेया"त्ति तेहिं जोगठाणेहिंतो असंखेज्जगुणा पयडीभेया-पयडीणं विगप्पा / कहं 1, भन्नइ.पयडीओ असंखेज्जा जं ओहिदुगे वि तारतम्मेण / अस्संखलोगखएसपमाणा हुँति किल या // 114 / / ओहिनाणओहिदसणाणं भेया असंखेज्जलोगागासपएसमित्ता / अओ तदावारगाणं नाणावरणदंसणावरणाण वि तत्तिया चेव पयडीभेया / जओ तक्खओवसमेण ते लब्भंति त्ति / चउण्हं आणुपुव्वीनामाणं असंखेज्जाओ पगईओ लोगस्स संखेइज्जमे भागे जेत्तिया आगासप्पएसा तत्तियाओ, सेसाणं भेया पसिद्धा, एए अहिगिच्च जोगठाणेहितो असंखेज्जगुणा पगइ . 1. "सेढीअसंखभागे" इति मुद्रितप्रतौ / 2 'ठि:"इति खंभातशांतिनाथभंडारसत्कहस्तलिखितताडपतो। तथैव मुद्रितप्रतावपि / 3. "ठिइ” इत्यपि / 4 "कम्मप्पएप तत्तो य रसछेया / " इति मुद्रितप्रती। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 47 योगस्थानादिसप्तपदार्थाल्पबहुत्वम् भेया / एक्कैक्के जोगट्ठाणे वट्टमाणो सब्याओएयाओ बंधइ त्ति काउं। "तत्तो ठोभेयाणुकमेणं" त्ति पयडीभेएहितो कम्मठीभेया अणुक्कमेण परिवाडीए असंखेज्जगुणा हवंति / कहं ? भन्नइआजिठिईओ हस्सठिई समउत्तरा ठिई ठाणा। सव्वपयडीसु एवं सम्वजियाणं पि ठिइमेया // 11 // ___ एक्केक्काए पगईए जहन्नाओ ठिइठाणाओ आढवित्तु ताव जाव उक्कोसिया ठिई एयासि मज्मे तत्तियाणि तरतमजोगेण समउत्तरवडियाणि ठीठाणाणि ताणि पगइसमृहेहिंतो असंखेज्जगुणाणि / एक्केक्कम्मि असंखेज्जा भेया लब्भंति त्ति काउं। तओ-टिइभेएहितो "ठीपंध. ज्यवसाय"त्ति, ठीबंधज्झवसायठाणाणि असंखेज्जगुणाणि / कहं ? भन्नइठिइठाणे ठिइठाणे कसायउदया असंखलोगसमा। अणुमागबंधटाणा इय इक्केक्के कसाउदए॥११६।। ठिई निव्वत्तंति जाणि अज्झवसाणटाणाणि ताणि टीबंधज्झवसाणठाणाणि, कसाउदया वि बुच्चंति / ताणि अंतोमुहुत्तमित्तकालपरिमाणठीईणि | ताई च जहन्नगे ठिइठाणे असंखेज्जलोगागासपएसमेत्ताणि / तत्थ वि सव्वजहण्णे सव्वो थोवो संकिलेसो। तओ आढवेत्तु उवरिमाणि 'छट्ठाणवडियाणि / एवं समउत्तराए ठिईए ठीबंधज्झवसाणठाणाणि अन्नाणि असंखेज्जलोगागासपएसमित्ताणि / तओ विसेसाहियाणि / तओ बिसमउत्तराए ठीबंघन्झवसाणठाणाणि अपुव्वाणि असंखेज्जलोगागासपएसमित्ताणि / तेहितो विसेसाहियाणि / एवं कमेण नेयव्या जाव उक्कोसिया ठिई / जेण कारणेण एक्केक्के ठीठाणे असंखेज्जलोगागासप्पएसमिताणि ठीबंधज्झवसाणठाणाणि लब्भंति / तेण ठीविसेसेहितो ठीबंधज्झवसायठाणाणि असंखेज्जगुणाणि / 'तत्तोअणुभागधंघठाणाणि"त्ति ठीबंधज्झवसाणठाणेहिंतो अणुभागबंधठाणाणि असंखेज्जगुणाणि कहं ? भन्नइ-ठीबंधज्झवसायठाणं हि नाम कसाउदयपरिणामो गामनगराइपरिणामवत् / तेसु ठीबंधन्झवसाणठाणेसु तिव्वमंदमज्झिमपरिणामाणि अणेगमेयभिन्नाणि जहन्नेणेकसमयपरिमाणाणि उक्कोसेण अट्ठसमयपरिमाणाणि अणुभागबंधज्झवसाणठाणाणि कुच्चंति, गामनगराइ चेव उच्चनीयमज्झिमकुटुंबविभवविशेषवत् / ताणि असंखेज्जलोगागासप्पएसमेत्ताणि / एक्केक्कम्मि ठीबंधज्झवसाणठाणे तेण अणुभागवंधज्झवसाणठाणाणि असंखेज्जगुणाणि भवंति त्ति / "तोडणंतगुणा कम्मपएस"त्ति अणुभागबंधज्वसाणठाणेहितो कम्मपएसा कम्मपोग्गला अणंतगुणा / कहं ? भन्नइ,-कम्मपोग्गलग्गहणसमए जो परिणामो सो अणुभागबंधज्झवसागठाणबंधु वुच्चति / किं कारणं ? भन्नइ,-तओ परिणामविसेसाओ तेसु पोग्गलेसु रसविसेसो भवइ त्ति, कम्मपोग्गला अभव्वसिद्धिएहिं अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता एक्कम्मि समए गहणम्मि ति / एवमणुसमयं एक्केक्कम्मि परिणामे - १.अणंतभागु , असंख्यातमागु , संख्यातभागु संख्यगुणु , असंख्यातगुणु , अणंतगुणु / Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4-] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे अणताणता कम्मपोग्गला लभंति त्ति काउं, अज्झवसाणठाणेहिंतो कम्मपोग्गला अणंतगुणा भवन्ति त्ति / "तत्तो रसच्छेय"त्ति कम्मपोग्गलेहितो रसपलिच्छेया अणंतगुणा / कहं ? भन्नइजहा अद्दहणविसेसाउ सित्थेसु रसविसेसो दिट्ठो, तहा अज्झवसाणविसासाउ कम्मखंधेसु रसविसेसो भन्नइ / अज्झवसाणाई अद्दहणतुल्लाई, तंदुलत्थाणीया कम्मप्पएसा, जो एक्कम्मि सित्थे रसो विभज्जमाणो भागं न देइ सो अविभागपलिच्छेओ। एवं कम्मखंधेसु जो अणभागरसो सो केवलनाणेण विभज्जमाणो विभजमाणो भागं न देइत्ति अविभागपलिच्छेओ वुच्चइ / तारिसा अविभागा पलिच्छेया एक्के कम्मि कम्मप्पए सम्मि सव्वजीवाणं अणंतगुणा लब्भंति / तेण कम्पएसेहितो अविभागपलिच्छेया अणंतगुणा सिझति / / 111 // ___पुव्वं “जोगट्ठाणा सेठीअसंखमागो" त्ति भणियं / अओ सेढीमेव पनवेउकामो / आगासपएसाणं अईक्मुहुमतं साल दंसेव 'खेत्तं सुहुमं कालाउ जेण अंगुलपएससेढीए / समयपएसऽवहारे असंखओसप्पिणी हुंति // 112 // खेत्तं आगाससुहुमकालाओ अद्धाकाललक्खणाओ। कोऽत्र हेतुरित्युच्यते / जेण कारणेणं अंगुलपमाणाए पएससेढीए संबंधिणो जे पएसा तेसिं मज्झाओ समयमएसावहारे-समए एककपएसाक्हारे किज्जमाणे असंखओसप्पिणी होति / असंज्जासु ओसप्पिणीसु जावइयसमया तावइया तत्थ पएसा हवंति // 112 // चउदसरज्जुलोगो बुद्धिाओं होइ सत्तरज्जुघणो। तदीहेगपएमा सेढी पयरो य तव्वग्गो // 113 // सुगमा चेव एसा गाहा / परं 'पयरी य तव्वग्गो"त्ति सेढी सेढीए चेव गुनिया . पयरो भवइ / एसों य एत्थ अणुवजुञ्जमाणो वि पसंगेण भणिओ त्ति // 113 / / पयडीउ असंखेजा जं ओहिदुगे वि तारतम्मेणं / अस्संखलोगखपएमपमाणा होति किल भेया / / 114 // आजेटुठिई हस्सट्टिईउ समउत्तरा ठिईठाणा / सव्वपयडीसु एवं सवजियाणं पि 'ठीभेया // 115 // "ठीठाणे ठीठाणे कसायउदया असंखलोगसमा / 1. "खित्तं" इत्यपि / 2. 'हुति"इत्यपि / 3 “ठिइभेया' इत्यपि। 4. 'ठिइठाणे ठिठाणे" इत्यपि। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रसूक्ष्मत्व सूचीश्रेणि-तर-प्रकृतिभेदादिप्ररूपणम् [46 अणुभागबंधठाणा इय 'एक्क्के कसाउदए // 116 / / एयाओ तिन्नि वि गाहाओ पुब्बुताणं चेव पयडिभेयाईणं चउण्हं अत्थाणं सरूवनिवगाऊ पुवमेव भावियत्याओ त्ति न वक्वाणिज्जति / 114-115-116 / / / पुवं एक्केके कसाउदए ठीबंधज्झवसाणलक्खणे अखेज्जलोगागासप्पएसप्पमाणा अणुभागवंधज्झवसाणठाणा भणिया! ते किं सव्वस्थ समा ? अह अन्नह ? ति भण्णइ,अन्नहा, जओ थोवाऽणुभागठाणा जहन्नठिइपढमबंधहेउम्मि / बीय इ विसेस हया जा चरनार चरमहेऊ // 117 / / नाणावरगीयस्य जहणठिईए निव्वत्तगो जो सवजहन्नो कसायउदयभेओ सो जहन्नठिईए पढमो बंधहेऊ वुच्चइ / तत्थ थोव गुभागबंधझवसायठाणा / "बायाइ पिसेसहिय"त्ति / बीयाए वि हेऊए विसे साहिया / तइयाए हेऊए विसेसाहिया। चउत्थाए हेऊए विसेसाहिया / एवं विसेमाहिआ विसेसाहिआ जाव नाणावरणीयस्स जहन्नाठईए चरमो हेऊ। २(तत्थ विसे साहिया चरिमाओ बीयठीईए पठमो हेऊ तत्थ विसेसाहिओ एवं जाव निरंतरं विसेसाहियो जाव बीयठीईए चरभो हेऊ एवं निरंतरं विसेसाहिओ विसेमाहियो जाव नाणावरणस्स उक्कोसठिईए जो चरिमो ठीभेओ तत्थ जो चरिमो बंधहेऊ। ) तत्थ विसेसाहिओ / / 117 / / इय असुभाण सुभाण उ विवरीयं जेठिइचरमहेऊ / आरख्भ निज आउसु ठिई ठिई पइ असंखगुणा // 118 // एवं असुभपयडीणं, सुहपयडीण "विवरीयं' ति किं विवरीयं ? भन्नइ,-"जेडटिईए"त्ति उक्कोसं कसा प्रोदयं आरब्भ आई काउं नेज्जा ताव जाव जहन्नठिईए पढमो बंधहेऊ कसाओदओ जहा सायावेयणियस्स पन्नरससागरोवमकोडाकोडीओ उक्कोसा ठिई तस्स जो चरिमो ट्ठीभेओ तस्स य जो चरिमो बंधहेऊ तत्थ सव्वथोवा अणुभागबंधज्झवसाणठाणा | दुचरिमे विसेसाहिया तिच रमे विसेसाहिया / एवं विसेमाहिया विसेसाहिया जा चरिमाए ठिईए पढमो बंधहेऊ एवं दुचरिमाए ठिईए जो चरिमो बंधहेऊ। तत्थ विसेसाहिया। एवं विसेसाहिया 2, जाव तस्सेव पढमो हेऊ / एवं कमेण ओसरमागाओ ओसरमाणाओ जाव सायावेयणीयस्स जहन्नाए ठिईए पढमो बंधहेऊ, तत्थ सव्वुकोसं अणुभागवंधठाणं / एवं सुहपयडीसु / आउयस्स "ठिई 1 "इक केक के" इत्यपि / 2. () एतचिह्नान्तर्गतः पाठः प्रत्यन्तरे नास्ति / Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे ठिई पइ असंखगुण"त्ति आउयठिईएँ एगअणुभागठाणस्स बीयं असंखगुणं, न उण विसेसाहियं / एवं सव्वाण विसेसाहियाई // 11 // संपयं अणुभागठाणपरिमाणनिमित्तं इयं गाहा समयभवसुहुमअगणी असंखलोगा तओ असंखगुणा / तेऊ तकायठिई कमसो अणुभागठाणा य // 119 // एसा पुव्वं चेव चउत्थपोग्गलवक्खाणसमए वक्खाणिय त्ति न पुणों वक्खाणिज्जइ / / 116 // इयाणि जीवो मिच्छत्ताइकारणेहिं केरिसं दलियं कम्मत्ताए परिणामेइ तं भन्नइ अंतिमचउफासदुगंधपंचवण्णरसकम्मइगखंधे / अभवियअणंतगुणिए गेण्हइ तत्तियअणू समए // 120 // एक्कं दव्यं अणंतपएसियं अणंतपरमाणूणं संघाओ कियत्परिमाण इति चेत ?, अभवसिद्धिएहिं अणंतगुणा, सिद्धाण अणंतिमो भागो, एत्तियाणं परमाणूणं समुदाओ एगो खंधो / अंतिमफासा चत्तारि, अट्ठन्हें फासाणं अंतिल्ला णिद्धलुक्खसीयउसिणा, दो गंधा, पंच वन्ना रसा य, जेसु कम्मइगखंधेसु अंतिमचउफासदुगंधपंचवन्नरसकम्मइगखंधा ते य संखाए अभव्वसिद्धिएहिं अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता खंधा एगसमएणं गहणकम्मत्ताए इति / एवं अणुभागबंधज्झवसाणठाणेहिंतो कम्मपएसा अणंतगुणा ||120 / / एएसु कम्मखंधेसु पइपएसं जीवो रसाणू कियंतो निव्वत्तेइ त्ति दंसेइगहणसमए य जीवो नियपरिणामेण जणयइ रसाणू / सव्वजियाणंतगुणे कम्मपएसेसु सव्वेसु // 12 // कम्मपुग्गलेहिंतो अविभागपलिच्छेया अणंतगुणिया / कहं ? भन्नइ-जहा अद्दहणविसेसाओ सित्थेसु रसविसेसो दिट्ठो, तहा अज्झवसाणविसेसाओ कम्मखंधेसु रसविसेसो हवइ / अज्झवसाणाई अद्दहणतुल्लाई, तंदुलथाणीया कम्पएसा, जो एगम्मि सित्थे रसो सो विभज्जमाणो विभजमाणो भागं न देइ , सो अविभागपलिच्छेओ वुच्चइ / एवं कम्मखंधेसु जो अणुभागरसो सो केवलनाणेणं विभज्जमाणो 2, भागं न देइत्ति सो अविभागपलिच्छेओ वुच्चइ / तारिसा अविभागपलिच्छेया एक्केक्कम्मि कम्मपएसम्मि सव्वजीवाणंतगुणा लब्भंति / अओ भन्नइ-गहणसमए-कम्मखंधगहणसमए जीवो नियपरिणामेण सव्वाणं जीवाणं अणतगुणारसाणू जणयइ-उप्पाएइत्ति सव्वेसु वि कम्मपएसेसु-कम्मपुग्गलेसु, तेण कम्मपएसेहितो अविभागपलिच्छेया अणंतगुणा / / 121 / / Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभागस्थानपरिमाणनिमित्ताल्पबहुत्व-कर्मस्कन्धस्वरूप-कर्मस्कन्धप्रदेशगतरसाणु-संख्यास्वरूप-निरूपणम् (51 एए जोगठाणाईया सत्त पयत्था अप्पबहुत्तसंखाए भणिया / अओ संखेज्जअसंखेज्जअणंतभेयजाणावणत्थं गणणासंखाणं परूवेइ संखिज्जेगमसंखं परित्तिजुत्तनियपयजुयं तिविहं / एवमणंतं पि तिहा जहन्नमज्झुकसा सव्वे // 122 // संखेज एगविहं / एगविहं पि तिविहं "जहन्नमझुक्कसा सव्वे // 122 // " त्ति वयणाओ / तं जहा-जहणं मज्झिमं उक्कोसं 3 / असंखेज्जं तिविहं / परित्तासंखेज्ज, जुत्तासंखेज्ज असंखासंखेज्ज एक्के पि य तिविहं / एवं अणंतं पि तिहा / "जहन्नमज्झकसा सव्वे" एक्केक्कं पुण तिविहं / जहन्नयं मज्झिमं उक्कोसं // 122 / / ___पढमं ताव संखिज्जगं उद्दिट्ठ, तं चेव जहन्नमज्झिमुक्कोससरूवओ भणेइ संखेजगं जहन्न 'दोचिय मज्झिममओ परं बहुहा। जा उक्कोसं तं पुण चउपल्लपरूवणाइ इमं // 123 // संखेज्जयं दुविहं / मणणासंखेज्जयं, उवमासंखेज्जयं / गणणासंखेज्जयं अणेगविहं / तत्थ जहण्णयं दो चिय, मज्झिममओ परं बहुहा=अणेगमेयभिन्नं जाव सयं सहस्सा लक्खं जाव चुलसीई लक्खा पुव्वंगं भवइ / पुव्वंगगुणिया कमेण पत्तेयं 2, सत्तावीस ठाणा / ते य इमे पुव्वंगं 1 पुव्वं 2 तुडियंगं 3 तुडियं 4 अडडंगं 5 अडडं 6 अवयवंगं 7 अवयव 8 हुहुयंगं 1 हुहुयं 10 उप्पलंगं 11 उप्पलं 11 पउमंगं 13 पउमं 14 नलिणंग 15 नलिणं .16 अत्थनिउरंगं 17 अत्थनिउरं 18 अउयंगं 16 अउयं 20 नउयंग 21 नउयं 22 मउयंग 23 मउयं 24 चूलियंग 25 चूलियं 26 सीसपहेलियंग 27 जाव सीसपहेलियं 28 / गणणसंखाणयं चउणउयं अंकट्ठाणसयं / अओ परं उवमासंखेज्जयं अणेगविहं जाव उक्कोसर्ग संखेज्जयं / तं पुण चउपल्लपरूपणाइ इमं वक्खमाणं // 123 // जंबुद्दीवपमाणा चउरो जोयणसहस्समोगाढा / रयणपहरयणकंडं भिंदिय पुट्ठा वइरकंडं // 124 // जंबुद्दीवपमाणा चत्तारि पल्ला ठविज्जंति जोयणसहस्सं अबगाहो रयणप्पहाए पढमं रयणकंडं जोयणसहस्सं भिंदित्ता रयप्पहाए बीयं वयरकंडं तस्स उवरितलं पुट्ठा // 124 // .. 1. "दुच्चिअ" इत्यपि / Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे पल्लाऽणवडिय १सलागर पडिमलागा३महासलागक्खा / सब्वे सवेइयंता उवरि मसिहा य भरियबा // 125 // पल्लसद्दो पत्तेयं संबज्झइ, अणवट्ठियपल्लो 1, सलागपल्लो 2, पडिसलागपल्लो 3, महासलागपल्लो 4, "सव्वे"त्ति चत्तार वि जोयणलक्खं आयामविक्खंभेण तिउणं सविसेसं परिरएणं, जोयणसहरसं ओगाहेणं, "सवेइय"त्ति, अट्ठजोयणियाए वेइयाए उच्चत्तेणं, उवरि मिहा [पउम्] (पुष्णा) भरियव्वा // 125 // तो कप्पणाइ केणइ सुरेण पढमो धरित्त वामकरे। एक्केक्कं दीवुदहीसु सरिम खिविय निविओ // 126 // "तो"त्ति चउपल्लफ्रूवणाणंतरं कप्पणाए केणइ सुरेण पढमं अणवट्ठियपल्लं भरित्ता वामहत्थे धरित्ता ओखित्ता एगा सलागा दीवे एगा समुद्दे पुणो एगा सलागा दीवे एगा सलागा समुद्दे ताव पक्खिविया जाव एको क्काए निविओ / 126 / / / दीवे जत्थुदहिम्मि 'व तदंतमेव पढमं व तं भरियं / पुरओ खिव एक्के दीवुदहिसु निट्टिए तम्मि // 127 // दीवे वा समुद्दे वा जत्थ चरिमा सलागा ठिया तं चेव तत्तियपमाणं अणवट्ठियपल्लं, जोयणसहस्सं ओगाहेणं, अट्ठजोयणाणि उच्चत्तेणं, तदंतमेवनिहाणपत्तदीवसगुद्दपेरंतमेव, पढमं व-जंबुदीवपमाणपढमपल्लमिव भरित्ता "पुरओ खिव ९ववेक"ति जत्थ दीवे या समुद्दे वा चरिमा सलागा ठिया, तओ पुरओ एगा सलागा दीवे एगा सलागा समुद्दे पविखव जाव एक्केकाए निहिओ / 127 // खिवसु सलागा पल्ले सरिसवमेगं पुणो तदंतं तं / पुव्वं व भरसु खिवसु य पुरओ पुण तम्मि निविए // 128 // सलागापल्ले एगं सरिसवं खिव, पुणो तदंतं तं दीवे वा समुद्दे वा जत्थ चरिमा सलागा ठिया पुणो तत्तियपमाणं अणवट्ठियपल्लं, पुव्वं व-पढमवारमिव भरसु सरिसवाणं ख्विसु य पुओ जत्थ चरिमा सरिसवसलागा ठिया तओ पुरओ तओ तम्मि निढविए पल्ले किं 1 // 128 / / बीयं सलागपल्ले खिव सरिसवमेवमेव पुण तइयं / इय पुणरुत्तणवट्ठियभरणविरेयणसलागाहिं // 129 // 1. "य" इत्यपि / Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्ख्यास्वरूग्म् [53 बीयं सरिसवं सलागपल्ले खिवसु / एवमेव पुणो तइयं 'इय"त्ति एवं 'पुणरुत्तणव. हियभरणविरेयणसलागाहिं" ति, पुणरुत्तं पुणो पुणो अणवट्ठियभरणविरेयणं तेण जाओ सलागाओ ताहिं सलागाहिं // 129|| पुन्नो मलागपल्लो पुवकमागयणवढिओ य तओ। 'सो चिय सलागपल्लो उक्खिप्पइ खिप्पड य पुरओ॥१३०॥ सलागपल्लो पुनो भरिओ, पुव्वकमेण य आगओ जो अणवट्टियपल्लो सो वि भरिओ, जाहे सलागापल्लो सरिसवं न पडिच्छइ, ताहे सो च्चिय सलागपल्लो उक्खिप्पइ, वामकरे संठविय खिप्पड़ य, तग्गओ सरिसवरासी अणवडियपल्लस्स य पुरओ जत्थ सलागा न पयडिया // 130 // पुवकमनिटिए तहिमेगं खिव सरिसवं तइयपल्ले / पुव्वं व. निट्ठियंते अणवट्टियपल्लमेव खिव // 131 // पुवकमनिट्ठिए सलागपल्ले "तइय"त्ति पडिसलागापल्ले एगा सलागा खिवसु, 'पुव्वं व निहियंते" त्ति जत्थ चरिमा सलागा ठिया सलागापल्लस्स तत्तियपमाणं अणवट्ठियपल्लं भरित्ता खिवसु / / 131 // . पुण तम्मि निट्ठिए खिव सलागपल्लम्मि सरिसवं 'एक्क। अण्णोण्णऽणवडियओ सलागपल्लं पुणो भरसु // 132 // पुण तम्मि अणवट्ठियपल्ले निट्ठिए खिवसु सलागपल्ले एगं सरिसवं / "अण्णोण्णऽणवट्ठिय उ"त्ति, अण्णोणाओ अणवट्ठियपल्लाओ सलागापल्लं सरिसवेहिं पुणो भरसु-बीयवारं पडिपुण्णं कुणसु // 132 // तेण पुण पडिसलागापल्ले भरियम्मि दोसु य तमेव / उद्धरिय पुयविहिणा सरिसवमेगं खिव चउत्थे // 133 // तेण सलागापल्लेण कमेण पडिसलागापल्ले तइयठाणठिए भरियम्मि समाणे "दोसु य" त्ति, अणवट्ठियपल्लसलागापल्लेसु वि भरिएसु, तओ "तमेव" ति पडिसलागापल्लं भरिय, उद्धरिय, वामकरे संठविय, पुवविहिणा=जत्थ न पडिया सलागा तस्स पुरओ निक्खिवणेण / एगं सरिसवं चउत्थे महासलागपल्ले खिवसु // 133 // इय पढमेहिं बीयं तेहि य तइयं तु तेहि य चउत्थं / भरणुद्धरणविकरणं ता कज्जं जाफुडा चउरो // 134 // ... 1 "सुच्चिय' इत्यपि / 2 ‘इक्कं" इत्यपि / 3 “तेहिं तशं तु तेहि अ" इत्यपि / Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे ___"इय"त्ति दरिसियकमेण पढमेहिं अणवट्ठियपल्लेहिं एक्केकाए सलागाए सलागपल्लं भरसु, बीएहिं सलागपल्लेहिं एक्केक्काए सलागाए पडिसलागपल्लं भरसु, तइएहिं पडिसलागापल्लेहिं एक्केक्काए सलागाए महासलागापल्लं भरसु, भरणं तिण्हं पल्लाणं उद्धरणं देवेण वामकरधरणलक्खणं विकिरणं दीवसमुद्देसु पुरओ निक्खिवणं ताव कज्जं जाव कमेण चत्तारि वि पुण्णा / / 134 // पढमतिपल्लुद्धरिया दीवुदहीपल्लचउसरिसवा य / सव्वो वि एस रासी रूवूणो परमसंखेज्जं // 135 // पढमेहिं तिहिं पल्लेहिं दीवसमुद्देसु जे पक्खित्ता सरिसवा ते उद्धरिया / "चउपल्लसरिसवा य सव्वो वि एस रासी रूवूणो परमसखेज्जो"त्ति सव्यो सरिसवनिचओ रूवूणो परमं उपमासंखेज्जयं जिसव्वुक्कोसं हवइ // 135|| / इय तिविहं संखेज्ज असंखय'मिओ उ जेट्ठसंखेज्ज / रूवजुयं संजायइ जहण्णयपरित्तयासंखं // 136 // इय=एवं भणियपयारेण तिविहमवि-जहन्नं मज्झिमं उक्कोसं संखेज्जं भणियं / इओ य तं पुण जेट्ठसंखेज्जयं अणंतरमेव दंसियं रूवेण जुयं संजायइ, किं.१ जहण्णयपरित्तासंख= जहन्नगं परित्तयनामं असंखेज्जं // 136 / / तं विवरिय एक्केरके ठाणे ठावेसु तत्तियं रासिं / अन्नोन्नब्भासे ताण होइ चउत्थं असंखिज्जं // 137 // जावइया सरिसवा तावइया पत्तेयं 2, रासीओ ठविज्जंति / ताओ कप्पणाए दसदससरिसवाओ दस रासीओ कीरंति / तओ अण्णुण्णब्भासे ताण होइ कोडीसहस्सं तु 10000000000 / 137|| तं पुण जहन्नजुत्तं आलियाए वि तत्तिया समया / एयकमा बितिचउपंचमे य अन्नोन्नअब्भासे // 138 // . "तं पुण" ति चउत्थं असंखेज "जहन्नं जुत्तं"ति जहन्नं जुत्तासंखेज्जगं होइ / तहा पत्थावाओ अयं संखापमाणं अन्नं किं पि दंसेइ-जावइया जहन्नजुत्तासंखेज्जगे सरिसवा आवलियाए वि तत्तियपमाणा समया लभंति / “एयकम"त्ति एएण कमेण जहन्नपरित्तासंखेज्जगदरिसियअन्नोन्नब्भासेण नेयव्वा बीए तइयचउत्थे च पंचमे य / कम्मि? . 1 "मओ उ जिट्ठ०" इत्यपि / 2 “अण्णुण्ण०" इत्यपि / 3 "एत्तिया” इत्यति / Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्ख्यास्वरूपम् इत्याह-अन्नोन्नभासे कए किं निष्फज्जइत्ति // 138 // अओ भणेइ- . सत्तमअसंखपढमचउसत्तमाऽणतया य होंति कमा / रूवजुया ते मज्झा रूवूणा पच्छिमुक्कोसा // 139 // ... "सत्तमअसंग्व"त्ति सत्तमं असंखिज्जगं तं च जहन्नं असंखेज्जासंखेजगं भन्नइ / 'पढमचउसत्तमाणतया य हीति कमा।" ति पढ़मं अणंतकं तं च परित्ताणंतनामगं। "घउ" त्ति चउत्थगं जहण्णगं जुत्ताणंतगं / "सत्तमाणतया य"त्ति सत्तमं जहन्नमणंताणंतगं वासद्दो उक्तसमुच्चये होंति= संपज्जति कमेण-परिवाडीए / तहा "रूवजुय"त्ति एगेण रूवेण जुया 'ते' त्ति जहन्नगजुत्तासंखेज्जाइया पुव्वरासिणो अण्णोन्नभाससमुप्पण्णा"मज्झ"त्ति मज्झिमसनामगा होति। "रूवूणा पच्छिमुक्कोस"त्ति ते चेव अन्नोनभासकया चउत्थाइया रूवेण ऊणा कया पच्छिमुक्कोसा होति / एएसिं चेव संखाठाणाणं जे पच्छिमासंखा ठाणा ते उक्कोसा होति / किं भणियं होइ-जहा जहन्नपरित्तासंखेज्जगं नियभवपमाणेसु ठाणेसु, ठावेऊण तो तेसिं रासीणं अन्नोकभासो कज्जइ, तओ चउत्थं जहन जुत्तासंखेज होइ / तं चेव स्वजुत्तं मज्झिमं जुत्तासंखेज्जगं / रूपूर्ण पुण तं चेव किं ? होइ पच्छिमं जं परित्तासंखेजगं तं उक्कोसं होइ / एवं सव्वत्थ भावणा सयं कायव्वा / नवरं अणंताणंतगं उक्कोसो न होइ त्ति // 139|| ... 'एत्तियमुत्तं सुत्ते अण्णमयमओ चउत्थयमसंखं / वग्गियमिकसि जायइ जहन्नयमसंखयासंखं // 140 // एत्तियं सुत्ते आगमे उत्तं / अन्नस्स आयरियस्स मएणं चउत्थं असंखेज ति / जहन्नं जुत्तासंखेज्जगं एकवारवग्गियं सत्तमं जहन्नं असंखासंखं भवइ / / 140 // रूवजुय तं मज्झं सबाह रूवूणमाइमुक्कोसं / तं वग्गिउँ तिवारं दस पक्खेवे खिवसु एए // 41 // पुव्वद्धं पढिअसिद्धं / नवरं तत्थ जहन्नं असंखेज्जासंखेज्जतं कप्पणाए सयं 100, एकवारवग्गियं जाया दससहस्सा 10000, बीयवारवग्गियं 100000000, तइयवारवग्गियं 10000000000000000 / तह वि उक्कोसंन भवइ। तओदस पक्खेवा खिप्पयंति। ते य इमे लोगागासपएसा 1 धम्मा२धम्मेगजीवदेसा य 4 / दवट्ठिया निगोया 5 पत्तेया चेव 6 बोद्धव्वा // 142 // 1 'इत्तियमित्तं" इत्यपि / Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे ठिइबंधज्झवसाया 7 अणुभागा 8 जोगछेयपलिभागा 9 / 'दोण्ह समाण य समया 10 असखपवखेश्या दसउ // 143 / / चउदसरज्जू लोगो तस्स पएसा पढमं 1, धम्मत्थिक यपएसा बीयं 2, अधमस्थिकायपएसा तइयं 3, एगजीवपएसा चउत्थं 4, एए च तारि वि तुल्ला पत्तेयं लोगपएसपमाणा / "दव्यट्ठिय"त्ति, दवहिबायग्सुहुमनिगोयपज्जत्तगचउक्कसरीररासी पंचमं "पत्तेय" त्ति पत्तेयसरीरा, ते य अट्ठावीसाए जीवट्ठाणेसु जीवरासी च्छट्ठ 6, "ठीबंधज्यवसाय'त्ति कसाउदयभेदा सत्तमं 7 "अणुभाग"त्ति अणुभागबंधझवसाया अट्ठमं 8 / "जोगच्छेयपलि. भाग"त्ति जोगो-जीववीरियंसो बुद्धीए च्छिज्जमाणो जाहे भागं न देइ ताहे सो जोगपलिभागो दुच्चइ ति। ते य एगजीवस्स असंखेज्जाणं लोगाणं जावइया आगासपएसा तावड्या अविभागा पलिच्छेया दिट्ठा / उक्तं च"पल्लाच्छेयणिच्छिन्ना लोगासंखेजपएसममा / अविभागा एक केव के होति पएसे जहन्नेण // " नवमं 9 दोह समाण य"त्ति दोण्ह समो उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ तासि समयरासी एस दसमो 10, एए दस पक्खेवा पक्खित्ता तह वि उक्कोसं न भवइ / पुण वग्गिए तिक्खुत्तो तम्मि भवे लहुपरित्तयाऽणतं / तो तत्तियवाराओ तत्तिय मेत्ते ठवसु गसी // 144 // तो पुवकमेण तिन्नि वारा वग्गिज्जइ, तओ तं उक्कोसं असंखिज्जासंखिज्जगं लंघिऊण जहन्ने च परित्त पाणतए पडियं / ताण ऽण्णोण्णब्भासे जुत्ताऽणतं जहन्नय भवइ / एवइयअभव्वजिया गसिम्मि य वग्गिए तम्मि // 145 / / ताण-तत्तियपमाणरासीणं अन्नोबमासे जुत्ताणतयं जहण्ण यं होइ / अणंतगपन्नवण्णाए चउस्थं अणंतगं / एवइयत्ति एतत्प्रमाणा अभन्वा निव्वाणगमणअजोग्गा जीवा होति / तहा रासिम्मि यत्ति पुणरवि वग्गिए कयवग्गे तम्मि जहन्नजुत्ताणंतगपमाणे किं होइ ? / / 145 / / अओ भणेइ जायमणंताणं तं जहन्नयत च वग्गसु तिवारं। - तह वि परं तं न भवे ता खिवसु इमे छ पक्खेवे // 156 / / जायं संपन्न अणताणं तं सत्तमं संखागणं जहन्नं तं च पुणरवि वग्गसु तिन्नि वाराओ। तहवि वग्गिए वि परं उक्कोसं अणताणतगं न भवेन होइ / 'तो' ति तयणतरं खिवसु पक्खिव . छपवखेवा वक्खमाणा / / 146 // 1 "दोण्ह य समाण समया इत्यपि / 2 "०मित्त" इत्यपि / Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्ख्यास्वरूपम् संशयास्वरूपम् सिद्धा 1, निगोयजीवा२ वणस्सई 3, काल४,पोग्गला५ चेव / सव्वम'लोयागासं 6, छप्पेएणंतपक्खेवा / / 147 // सिद्धा अणंता तेसिं रासी पढमो पक्खेवो 1, "निगोयजीव"त्ति सुहुमबायरनिगोय: पजत्तापजत्तगरासी चउक्कजीवरासी बीओ पक्खेवो 2, "वणस्सइ"त्ति निगोयचउक्कजीवा पत्तेयवणस्सइउया वणस्सई बुच्चंति एस तइओ पक्खेवो 3, “काल"त्ति अईयाणागयभेयभिन्नो चउत्थो परखेवो 4, "पोग्गल"त्ति सव्वो पोग्गलरासी पंचमो 5, “सवमलोगागासं" ति लोगस्स अलोगस्स य जे आगासपएसा एस छट्टो पक्खेवो 6 / एए अणताणं रासीणं पक्खेवा // 147 // पुण तिक्खुत्तो वग्गिय केवलवरनाणदंसणे खित्ते / भवइ अणंताणंतं जेटुं ववहरइ पुण मज्झं // 148 // प्रणरवि तिन्नि वाराओ वग्गिय पुव्वक्कमेण एवं छपक्खेवजुत्तं रासिं तओ तत्थ केवलवरनाणकेवलदंसणाणं जो नेयविसओ सो सव्वो खिप्पइ / तओ खित्ते सइ अणताणतं जेट्ट हवइ / ववहरइ पुण सव्वेसु ववहारेसु मझ-मज्झिमं; जेट्ठाणंतगपमेयस्स रासिस्सेवाभावाउ // 148 // संपयं असंखाणंतपन्नवणाएऽण्णायरियमएण किंचि विसेसं भणेइ अन्नोनभाससमं वग्गियसंवग्गिय ति तो केह। सत्तमऽसंखअणंते तिवग्गठाणे तमाहु तिहा // 149 // जो पुविल्लेसु परित्तजुत्तसन्निएसु असंखेजगठाणेसु अणंतगसंखाठाणेसु य अनोन्नम्मासो मणिो तस्स इमं तुन्लं वग्गियसंवग्गियं भन्नइ-ताणं दोण्ह रासीणं परोप्परगुणणं "ति" समाप्तौ "तो"ति तओ केइ आयरिया सत्तमे असंखेजगे जहन्नए असंखेज्जसंखेज्जनामगे तहा सत्तमे अणतगे जहाणताणंतगनामगे। तिवग्गट्ठाणे सो चेव रासी तेण रासिणा गुणिओ वग्गो हबह / एवं दुइज्जतिइज्जवारासु वग्गे कए तिन्नि वग्गा होति / तेसिं तिन्हं वग्गाणं उवरि तिअनोन्नन्मासं आहु-भणति "तिह"त्ति तिसु ठाणेसु / भावणा-जहा जे पुचि कया दस पक्खेवा पक्खित्ता तओ ते पुणरवि तिन्नि वारकयं / एवं छसु ठाणेसु पत्तेयं 2 अन्नोन्नन्भासं कारयति / एवं अणते वि परं तत्थ छच्चेव पक्खेवा // 149 // 1 "लोगा०" इत्यपि / 2 “जिठ्" इत्यपि / 3 "तमो केह" इत्यपि / Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणसमाप्तिः इयाणिं पगरणकारो पणिहाणं करेइनेयअइगहणयाए निबिडजडत्तेण नियमईएँ तहा। जमिहुस्सुत्तं 'वोत्तं मिच्छामिह दुक्कडं तस्स // 15 // नेयस्स-कम्माइवियारस्स अइगहणयाए अइगंभीरत्तयाए तहा "निषिजउत्तेण"ति निबिडजडत्तं अणवबोहसत्ती तेण, नियमईए-मम पण्णाए जं इह पगरणे उस्सुत्त-सुत्तबझ वुत्तंभणियं मिच्छा=अलियं होइ मम दुक्कडं-आगमासायणाइदोसरूवं तस्स उस्सुत्तभणणसंबंधि // 15 // संपयं पगरणकारो नाम कहितो विसेसेण पणिहाणं करेइ- . जिणवल्लहगणिलिहियं सुहमत्थवियारलवमिणं सुयणा। निसुणंतु मुणंतु सयं परे वि 'बोहंतु सोहिंतु // 152 // जिणवल्लहगणिनामगेण पगरणकारेण लिहिअंसुआ आगमसमुद्दाओ उद्धरियं / सुहुमा= सुहुमबुद्धिगम्मा जे अत्था, तेसि वियारो-परूवणं, तस्स लवो अंसो तं इमं पुव्वपरूवियं अहो सुयणा निसुणंतु सवणगहणाइणा, मुणंतु-ईयापोहलक्खणनाणबिसेसवावारेण अत्थओ जाणंतु सयं-अप्पणा, परेवि-अन्नेवि भव्वा बोहिंतु-एयपगरणथवियारा य कुव्वंतु / तहा जं किंचि अणाभोगओ अणुचियं लिहियं तं सोहिंतु-अवणेतु, अन्नं च संजोजयंतु एयस्स उचियं तिं // 151 / / // इति सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणस्य टिप्पनकं समाप्तमिति // ग्रन्थानं 1450 // // श्रीरामदेवगणिकृतटिप्पनकेन समलङ्कृतं // // श्रीमज्जिनवल्लभगणिरचितं // // श्री सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणं समाप्तम् // RArrestseextremiserrestresses 1 "वुत्तं मिच्छा में"इत्यपि बोहित इत्यपि / Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति . श्रीमज्जिनवल्लभगणिरचिो श्रीसूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे (अपरनाम-सार्धशतकप्रकरणे). श्रीमद्रामदेवगणिप्रणीतं टिप्पन समाप्तम् Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ श्रीमज्जिनवल्लभगणिपुङ्गवकृते श्री सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे __(अपरनाम-सार्धशतकप्रकरणे) 'अज्ञातकतृका टीका प्रारभ्यते पृष्ठ मं०१ टिप्पणकं द्रष्टव्यम् / Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्री श्री अहं श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः॥ .. न्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपादपद्म भ्यो नमः // सद्धर्मसंरक्षकश्रीमदाचार्यविजयकमलसूरीश्वरपादपद्म भ्यो नमः // सकलागमरहस्यवेदिश्रीमदाचार्यविजयदानसूरीश्वरपादेभ्यो नमः // कर्मसाहित्यनिष्णातश्रीमदाचार्यविजयप्रेमसूरीश्वरपादेभ्यो नमः // परमगीतार्थश्रीमदाचार्य विजयहीरसूरीश्वरपादपद्म भ्यो नमः // .. श्रीमजिनवल्लभगणिपुङ्गवविहितं . * श्री सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणम् *. (अपरनाम-सार्धशतकप्रकरणम्) 'अज्ञातकतृकया टीकया विभूषितम् // ॐ नमः सर्वज्ञाय // सयलंतरारिवीरं वंदिय वरनाणलोयणं वीरं / वोच्छं जहासुयमहं कम्माइवियारसारलवं // 1 // कीरइ जिएण हेऊहि पयइटिइरसपएसयो जं तं / मूलुत्तर? अडवन्नसयपमेयं भवे कम्मं // 2 // एयं वक्खाणं-जीवेण तहाविहअज्झवसाणपरिणएण कीरइ त्ति जं तं कम्मं / तं च अंजणचुण्णपुन्नसमुग्गउव्व सुहुमथूलाइअणेगविहपरिणामपरिणएहिं अणतेहि पोग्गलेहिं निरंतरं निविडलोगो / परिच्छिन्ना एव पोग्गला कम्मपरिणामणजोग्गा बज्झमाणा जीवपरिणामपच्चएण चा-ऽट, नाणाइलद्धिघाइणो 3 सुहदुक्ख 4 सुभासुभाउ 5 नाम६ उच्चनीयगोत्तं तराय पोग्गला कम्मं ति वुच्चई। . 1. यद्यपि चैषा टीका-ऽज्ञातकतृका भणिता तथा-ऽपि श्रीमद्रामदेवगणिकृता टीकेषाऽपि सम्भाव्यते। यतः श्रीमद्रामदेवगणिविहितषडशीतिप्रकरणवृत्तिप्रशस्ती या प्रथमगाथा विद्यते सैव गाथाऽत्रा-ऽपि प्रशस्तितयाऽन्ते विद्यते। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2] सूक्ष्मार्थविचारसार करणे "जीवपरिणामहेऊ कम्मट्ठा पोग्गला परिणमंति / पोग्गलकम्मणिमित्तं जीवो वि तहा विपरिणमइ // " तमट्टविहं कम्मं केहिं हेऊहिं बज्झइ त्ति तत्थ कम्मबन्धहेयवो चत्तारि / तं जहा-मिच्छत्तं 5, अविरई 12, कसाया 25, जोगा१५। मिच्छत्तं पंचविहं ५-अभिग्गहियमिच्छत्तं१, अणभिग्गहियमिच्छत्तं 2, आभिणिवेसियमिच्छत्तं 3, संसइयमिच्छत्तं 4, अगाभोगमिच्छत्तं 5 / तत्थ आभिग्गहियं कुदिद्विदिक्खियाणं हवइ / गोढयरमेयं च जीवाणं दीहतरसंसारियाण पायसे संभवइ // 1 // अणभिग्गहियं पुण असंपत्तसम्मत्ताणं कुदिट्ठअदिक्खियाणं मण्यतिरियाईणं // 2 // आभिनिवेसियं तु संपत्तजिणवय(णा)णं एगेण सम्भावप्परूवणाए कयाए मच्छराइणा तमण्णहा वागरेमाणेणं पडिनिवेसेण वामया एसो अत्थो समत्थणीउत्ति / अणभोगपरूविए वा पच्छा नाए वि सच्चतत्ते सभणियपडिप्पवेसेण, अजाणं वा भावत्थं, परूवेइ वारिओ वि न चिट्ठई। एएसि जीवाणं आभिणिवेसियं मिच्छत्तं // 3 // संसइयं पुण सुत्ते वा अट्टे वा उभयम्मि वा संकिओ परूवेइ, सो य अन्नं न पुच्छइ कहमहमेदहपरिवारो वि अन्नं पुच्छामि, पुच्छिजमाणो वा जाणिज्जा एस एयं न याणइत्ति, अहवा जे मह भत्ता जाणिजा, एयाहिंतो वि एस वरतरओ, जओ पुच्छिजाइ, तओ मं मोत्तूग एए एयं भइस्ते, अओ अन्नं न पुच्छ, तस्स संसइयमिच्छत्तं // 4 // अणाभोगं एगिदियाईणं, जम्हा आभोगो नाणं-उवओगो भण्णइ एयं केरिसं एवं व त्ति एसो पुण तेसि नत्थि, तेण तेसिं अणाभोगमिच्छत्तं / अहवा सुद्धं परूवइस्सामि, अणुवओगाउ असुद्धं 'पन्नवियं, तं वि अणाभोगं परेसिं मिच्छत्तकारणत्तेण / / 5 / / एयं पुण पंचविहं मिच्छत्तं यूएभावेण / परमत्थओ विवज्जासो / सो पुण-एयं न मए न मम पुचपुरिसेहिं वा कारियं एवं जिणाययणं, किं मम एत्थ पूयासत्काराई आयरेणं / अहवा मया एयं जिणबिंब कारियं मम पुव्वपुरिसेहिं वा, ता एत्थ पूया. इयं निव्वमि, किं मम परकीएसु अच्चायरेणं / एवं च तस्स न सव्वन्नुपच्चया पवित्ती; अन्नहा सव्वेसु (वि बिंबेसु) अरिहं चेव ववइसिजइ सो अरहा जइ परकीओ तो पत्थरलेप्पपित्तलाइयं अप्पणिज्ज, न पुण पत्थराईसु वंदिजमाणेसु, कम्मक्खओ, किंतु तित्थयरगुणपक्खवाएणं; अन्नहा संकराइबिंबेसु वि पासाणाइसब्भावाओ तेसु वि बंदिजमाणेसु कम्मक्खओ होजा / मच्छरेण वा परकारियचेइयालए विग्धं आयरंतस्स महामिच्छत्तं न तस्स गंटिमेओ वि संभाविज्जइ / जे पासत्थाइकुदेसणाए वि मोहिया सुविहियाणं वा वाहाकरा भवन्ति, ते विः जे विजाइनाइपकखवाएण साहुवंदणाइसु पयटॅति, न गुणागुणचिंताए, ते विः 1 “परूवियं" इत्यपि। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-बन्धहेतु-मूलोत्तरभेदप्ररूपणम् तहेब महामिच्छदिट्ठी / एवं विवजासरूवे मिच्छत्ते सइ सुबहुं पि पढंतो अन्नाणी चेव / न हि विवरीयमइणो नाणं कजसाहगं, अतो अन्नाणं तं, एएसु होतेसु अइदुक्रा वि तवचरणकिरिया न मोक्खसाहिगा। जम्हा सो जीवरक्खामुसावायाइवजणं करेंतो वि अविरओ कहिजइ / पंचमगुणट्ठाणे देसविरई, छट्टगुणट्ठाणे सव्वविरई, न पढमगुणट्ठाणे। तस्स च अणंताणुवंधिपमुहा सोलस वि कसाया बझति उइज्जति य / तन्निमित्ताओ असुहाओ दीहट्टिईओ तिव्वाणुभागाओ पयडीओ बझंति / तासिं च उदए नरयतिरियकुमाणुसत्तदेवगइरूवो संसारो तन्निबन्धणाणि य भूरिदुक्खाई पिट्ठओ अणुसज्जति / एवं च संविग्गमुणिगणग्गेसरसिरिसूरिजिणेसरविरइयकहाणयकोसाओ लिहियमिणं एवं मिच्छत्तं बन्धहेऊ / / 1 // 'बारसविहा अविरई, तं जहा- 'मणइंदियअनियमो छकायवहो // 2 // 'पणवीस कषाया, तं जहा-सोलस कसाया नवनोकसाय पणवीसं // 3 // जोगा य पन्नग्स, तं जहा-मणचउक्कं, वइचउक्कं, ओरालियं ओरालियमीसं, वेउवियं, वेउवियमीसं, आहारगं, आहारगमीसं, कमइगं च; एवं पण्णरस जोगा // 4 // एवं बंधहेययो चउरो / कम्मबंधो चउव्विहो / पगइवंधो ठिईबंधो रसबंधो पएसबंधो य / तत्थ पगइबंधो दुविहो, मूलपयडीबंधो उत्तरपगइबंधो य / मूलपगइबंधो अट्ठविहो / उत्तरपगइवंधो अट्ठवन्नसयपभेओ / तत्थ जहासुयाणुसारेण कम्मवियारसरूवमित्तपरिकहणेणं आयसुमरणं पत्थणामि, नेह सद्दावसदाइछलो घेत्तव्यो // 1-2 / / दंसण १नाणा२ वरणंतराय३ मोहाउ५गोयवेयणीयं७ / ' नामंच नव १पण २पण३ऽट्ठवीसचउ५दुइदुबियालविहं८॥३॥ दसणावरणं नवविहं१,नाणावरणं पंचविहं 2, अंतराइयं पंचविहं 3, मोहणिज्जं अट्ठावीसविहं 4, आउयं चउव्विहं 5, गोयं दुविहं 6, वेयणिज्ज दुविहं 7, नामं बायालीसविहं 8 // 3 // एयाओ मूलपयडीओ उत्तरपयडिभेयेणं विसेसिजमाणीओ अणेगविहाओ भवंति / तत्थ पढमंताव दंसणावरणस्स नाणाइप्पडिणीयादिभावोवचियाओ पावपोग्गलनिफनाओ दरिसणोवघायकारियाओ नव उत्तरपयडीओ भवंति / तं जहा नयणेयरोहिकेवलदंसणयावरणयं भवइ चउहा / निदापयलाहि छहा निदाइदुरुत्तीणद्धी // 4 // ____ 1.2 अविरतादिबन्धहेतुभेदप्रतिपादका गाथा चेमा-"बारसविहा अविरई मणइंदियअनियमो छकायवहो ।सोलस नव य कसाया पणुवीसं पन्नरस जोगा।७॥" / प्रतौ "सोलसकसाया तं जहा-नवनोकसाय पणवीसं" इति पाठः / किन्तु स सम्यग् न भाति / Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचारसारप्रकरणे सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे - इमीए वक्खाणं-चक्खुदंसणावरणं, अचक्खुदंसणावरणं, ओहिदसणावरणं, केवलदंसणावरणं एवं पुण चउवि निदापयलाहि सह छद्धा / निदानिद्दापयलापयलाथीणगिद्धियत्ति एयाहि नवहा पुण / तत्थ चक्खुणा जं दीसइ तं चक्खुदसणं; तदुवघायकारयं चक्खुदंसणावरणं / चक्विदियावसे सेहिं जं उवलक्खइ तं ओग्गहमित्तं अचक्खुदंसणं; तदुवघायकारयं अचखुदंसणावरणं / ओहिणा जं दिसइ, तं ओहिंदसणं तस्स उवघायकारयं ओहिदंसणावरणं / केवलनाणेणं जं दीसइ, तं केवलदंसणं; तदुवघायकारयं केवलदंसणावरणं / निद्दापणगं पुण भन्नइ-तत्थ "सुहपडिबोहो निदा, दुहपडिबोहो य निदनिहा य / पयला होइ ठिपस्स उ; पयलापयला य चंकमओ / / " ___ सुत्तस्स पावकम्मजीवस्स पुव्वाभिलासनिप्फन्ना जा सा थीणगिद्धी / जओ आह"सुत्तस्स थीणगिद्धी उपरजइ पुवचित्तनिष्फन्ना। जेण निवाएइ गए किं पुण सेसे स सुत्तो उ / ' तकारयं थीणगिद्धिकम्मं / भणियं च"दसणशीले जीवे दंसणघायं करेइ जं कम्मं / तं पडिहारसमाणं दंसणवरणं भवे तत्थ // "||4|| : इयाणि नाणावरणीयं / तत्थ नाणस्स नाणोवधायपओसनिण्हवणंतरायपडणीआदिभावोवचियाओ पावपुग्गलनिष्फनाओ नाणोवघायकारियाओ पंच उत्तरपयडीओ भवंति / तं जहा नाणावरणं मइसुययोहिमणोनाणकवलावरणं / विग्धं दाणे लाभे भोगुवभोगेसु विरिए य // 5 // आभिणियोहियनाणावरणं, सुयनाणावरणं, ओहिनाणावरणं, मणपजवनाणावरणं, केवलनाणावरणमिति / भणियं च“सरउग्गयससिनिम्मलयरस्स जीवरस छायणं जमिह / त होइ नाणवरणं पटोव्व च्छाएइ .. .. // " जह चक्खु तह जीवं च्छाइएइत्ति भणियं होइ / इयाणि अंतराइयं / तस्स पहाणान्नपाणपूयासकारविग्घकरीओ रागदोसचरित्तभंजणदाणोवघायभावोवचियाओ पंच उत्तरपयडीओ भवंति / तं जहा-दाणाभिघायकारयं दाणंतराइयं, चिट्ठमाणमग्गस्सावि लाभविग्धकारयं लाभंतराइयं, विभवभोगविग्धकारयं भोगतराइयं, सरीरोव भुजणभोगविग्धकारयं, उवभोगांतराइयं, विरिउवघायजणणं वीरियंतरायं / - एयं भंडारियसरिसं / जओ आह"जह राया इह भंडारिएण विणएण कुणइ दाणाइ। तेण उ पडिफूलेणं न कुणइ सो दाणमाईणि / / 5 / / संपयं मोहणीयस्स भण्णइ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृत्युत्तरभेदनिरूपणम् सोलसकसाय-नवनोकसाय-ईसणतिगं ति मोहणियं / निरयतिरिनरसुराऊ नीऊच्चं सायमस्सायं // 6 // मोहणिज्जस्स अट्ठावीसं उत्तरपयडीओ / तं जहा-मिच्छत्तभावोवचियं मिच्छादंसणपरिसहकारणं मिच्छत्तं / उक्तं च..."अरहंतसिद्धचेइयतवसुयगुरुधम्मसंघपटणीओ / बंधइ दसणमोहं अणंतसंसारिओ जेण" मिच्छत्तसहावेण उवचियं विसुद्धाविसुसद्धा-ऽसद्धकारि सम्ममिच्छत्तं / . मिच्छत्तभावेण उवचियं परिणामविसेसेण विसुद्धमाणं य से पडिघाइसम्मत्तकारणं, सम्मदंसणं / इयाणिं चरित्तमोहं / तं पुण"तिव्वकसाओ बहुमोहपरिणओ रागदोससंजुत्तो / बंधइ चरित्तमोहं दुविहं पि चरित्तगुणघाइ / / " अणंताणुवंधिणो चउरो कोहमाणमायालोभाः ते य सम्मत्तोवधायकारया / अप्पचक्खाणावरणकसाया चउरोः ते य विरयाविरउवघायकारया / पच्चक्खाणावरणा कसाया चउरो, ते य संजमचरित्तोवघायकारया / संजलणकसाया चउरो, ते य अहक्खायचारित्तो. वघायकारया / जं पुण महामोहोदएण उवचियं महानगरदाहोवमं नपुसकवेयं कम्मं / जं कुट्टिलभावपाउसियनियाणं भावोवचियं पुरिसाभिलासं फुस्फुमअग्गिसमाणं तं इस्थिवेयं कम्म / जं मद्दवाइसहावोवचियं पुरिसभावलिंगनिव्वत्तयं इत्थीपरिसहकारणं तणग्गिसमाणं तं पुरिसवेयं कम्मं / हासकारि हासं / रइकारि रई / अरइजणगं अरइकम्मं / सोगजणगं सोगो / भयउव्यायगं भयमोहं / दुगुच्छाभावो दुगुच्छा | भणियं च__“जह मज्जपाणमूढो लोए पुरिसो परव्वसो होइ / तह मोहेण वि मूढो जोवो वि परब्यसो होइ ||8||" __ आउयं चउव्विहं / तं जहा-निरयार, तिरियाउं, मणुयाउयं, देवाउयं / तत्थ मिच्छत्तमहारंभपरिग्गहाइभावोवचियं डीलक्खणं निरयाउं / उम्मग्गदेसणाकूडतुलयाइभावोचियं ट्ठीईलक्षणं तिरियाउयं। पयण कसायदाणरइविणीयाइभावोवचियं ट्ठीलक्खणं मणयाउयं / सम्मदंसणसरागसंजमविरयाविरइबालतवाकामनिजराभावोवचियं डीलक्खणं देवाउयं / भणियं च"जं नेरइओ नारयभवम्मि तह वमइ उव्वियंतंपि / जाणसु तं नरयाउं 'हटिसरिसो तस्स परिणामो।" "एवं तिरिमणुदेवो तिरियाइएसु भावेसु जं धरइ तब्भवगयं तं तेसिं आउयं भणियं / / अहुणा गोयस्स दुवे उत्तरपयडीओ / तं जहा-उच्चागोयं, नीयागोयं च / तत्थ सिद्धतित्थयरभत्तिसंजमसाहुवंदणपयणुमाणपसत्थभावोवचियं उत्तमकुलजाइयाण जणगं उच्चागोयं / अप्पथुइपरनिंदाअट्ठमयठाणसमज्जियं खरसाणवायसासोयरियमच्छवंठदासाइजाइलक्खणं नीयागोयं। तं कुलालसरिसं / जओ आह - 1 "हडि०'' इत्यपि / 2 "एतदर्थदर्शिका गाथा चेमा-"एवं तिरियं मणुयं देवं तिरियाइएसु भावेसु। जं धरइ तब्भवगयं तं तेसिं श्राउयं भणियं / / " (प्राचीनप्रथमकर्मग्रन्थगाथा-६५) Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे "जह इत्थ कुभयारो पुढवीए कुणइ एरिसं रूवं / जं लोयाओ निंदं पावइ अकए वि मज्जम्मि / जह एत्थ कुंभकारो पुढवीए कुणइ एरिसं रूवं / जं लोयाओ पूयं पावइ इह पुण्णकलसाई // एवं कुलालसमाणं गोयं कम्मं तु एत्थ जीवस्स / उच्चानीय विभागो जहा होइ तहा निसामेह // अधणी बुद्धि(विउत्तो रूव)विहूणो वि जस्स उदएणं / लोम्मि लहइ पूयं उच्चागोयं तय होइ // सघणो रूवेण जुओ, बुद्धीनिउणो वि जस्स उदएणं ! लोगम्मि लहइ निन्दं एयं पुण होइ नीयं तु / " तत्थ वेयणियस्स दो उत्तरपयडीओ। तं जहा-सायं असायं च / अणुकम्पाइसुसुद्धभावोवचियं सुभलक्खणं (सायं)। तव्विवरियभावोवचियं दुहलक्खणं असायं / भणियं च"महुलित्तनिसियकरवाल धारजीहाइ जारिसं लिहणं / तारिसयं वेयणियं सुहदुहउप्पायगं भणियं // " "महुआसायणसरिसो सायावेयस्स होइ परिणामो / जं असिणा तहि छिज्जइसो परिण'मो असायस्स"En नामं बायालीसविहं, अहवा तेणवइभेयं, अहवातिउत्तरसयभेयं, अहवा सत्तसट्ठिभेयं / गइ१जाइ२तणु३उवंगा४बंधण५संघायणाणि दसंघयणा७। सठाण वनगंध१०रस ११फास १२अणुपुवि१३विहगगइ 14 // 7 // गइनाम, जाइनामं, सरीरनामं, अंगोवंगनामं, बंधणनाम, संघायनामं संघयणनाम, संठाणनामं, वणनामं, गंधनाम, रसनामं, फासनामं, आगुपुधिनामं, (विहायोगइनाम)। एवं पिंडपयइ ति च चउदस / / 7 / / पिंडपयडि त्ति, चउदस परघा१उज्जोय २यायवु३सासं। अगुरुलहु ५तित्थ निमिणो 7 वघायरमिय अट्ठ पतेया॥८॥ परघायनाम, उज्जोयनाम, आयवनामं, (उस्सासनामं,) अगुरुलहुनामं, तित्थयरनामं, निम्माणनामं, उवघायनामं, एवं अट्ठ पत्तेया // 8 // तसवायरपजत्तं पत्तेयं थिरसुभं च सुभगं च / सुसराइजजसं तसदसगं थावरदसं तु इमं // 1 // तसनामं, 1 बादरनामं 2, पजत्तनामं 3, पत्तेयनामं 4, थिरनामं 5, सुहनामं 6, सुभगनामं 7, सूसरनामं 8, आदेयनामं 6, जसकित्तिनामं च 10 // 6 / / थावरसुहुमयपज्ज साहारणमथिरमसुभदुभगाणि / दूसरणाएजाजसमिय नामे सेयरा वीसं // 10 // - - - - - - - 1 "०विवागो" इत्यपि / 2 "मुणह" इत्यपि / 3 “हु विवागो" इत्यपि / 4 "उ विवागो” इत्यपि / Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृत्युत्तरभेदनिरूपणम् [7 ___थावरनामं 1, सुहुमनाम 2, अपजत्तनामं 3, साहारणनामं 4, अथिरनामं 5, असुभ— नामं 6, दूभगनामं 7, दूसरनामं 8, अणादेयनामं 9, अजसकित्तिनामं 10, इय नामे सेयरा वीसं // 10 // तसचउथिरछक्कं अथिरछक्कसुहुमतिगथावरचउवकं / सुभगतिगाइविभासा पयडीण तहाइसंखाहिं // 11 // तसं, बादरं, पजत्तगं, पत्तेयः एयं तसचउक्कं / थिरं, सुभं, सुभगं, मूसरं, आदेयं, जसं एवं थिरछक्कं / अथिरं, असुमं, भगं, अणाइज्ज, अजस; एवं अथिरछक्कं / सुहुमं, अपजत्तगं, साहारणं; एवं सुहुमतिगं / अहवा थावरेण समं, थावरचउक्कं / सुभगतिगाइ विभासा, विविधा भासा विभासा / जहा सुभगं, सूसरं, आदेयं; एवं सूभगतिगं / विवरीयं भगतिगं आइपयडीविवक्खया तिगं चउक्कं पंचगं वा नेअं // 11 // एवं बायालीसविहं नामं / अहुणा तेणवइ भण्णइ गइयाईण य कमसो चउ १पण २पणइतिश्पण५पंचछ७च्छक्कं 8 / पण दुग१०पण 1 १७४१२चउ १३दुग१४मिय उत्तरभेयपणसट्टी॥१२॥ गइ 4, जाइ 5, सरीर 5, अंगोवंग 3, बंधण 5, संघाय 5, संघयण 6, संठाण 6, वण्ण 5, गंध 2, रस 5, फास 8, अणुपुवी 4, विहायगइ 5, एवं पणसट्ठी 65 // 12 / / एएसिं विवरणंनिरयतिरिनरसुरगई इगिबियतियचउपणिदिजाईयो / श्रोरालियवेउब्वियबाहारगतेयकम्मइया // 13 // निरयगई, तिरियगई, मणुयगई, देवगई जीए उदएण जीवो नेरइओ होइ नरयपुढवीए सा भणिया नरयगई / सेसगईउ वि एमेव / जाइनिष्फत्तिअभिहाणकारणं जाइनामं / तं जहा-एगिदियजाई, बेइंदियजाई, तेइंदियजाई, चउरिदियजाई, पंचिंदियजाई त्ति / एएसिं भेया-एगिदियजाइनामं पंचहा भवइ / तं जहा-पुढविकाइ एगिदियजाइनामं / एएसिं एक्केकीए अणेगभेया जहा पन्नवणाए / एवं बेइंदियतेइंदियचउरिदियपंचिंदियजाइनामाण य अणेगा भेया जहा पण्णवणाए / एवमेयं जाइनामं विवरणओ. अणेगकोडिसो भणियव्वं / अणेगा उ कुलकोडीओ संक्खेवेण पुण पंच उत्तरपगईओ वणिजिहिंति / "एगिदि एसु जीवो जस्सिह कम्मस्स होइ उदएणं / सा एगिदियजाई बहुभेओ तीअ परिणामो // " . एवं बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदियाइओ पंचिंदियाण वि तहा बहवो भेया होंति एक्केकाए / Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे ओरालियसरीरं, वेउव्वियसरीरं, आहारगसरीरं, तेजइगसरीरं, कम्मगसरीरं / तत्थ उदारपोग्गलनिष्फण्णं उदारं, (उदारं) नाम थूरं / विविहप्पकारकारयं वेउब्वियं जं अपमत्तसंजएण उवचियं पमत्तसंजयस्स उदयगयं भवइ / उक्कोसदलियणिफयमाणं संदेहाइपुच्छनिमित्तं सव्वण्ण समीवं गमणजोगं आहारगसरीरं, चउदसपुव्यधरस्सेव / आहारपागतेयनिस्सग्गकारि तेयगसरीरं / कम्मपुग्गलमयं कम्मगसरीरं / भणियं च"ओरालियं सरीरं उदएणं होइ जस्स कम्मस्स / तं ओरालियनामं 'बहुभेभो तस्स परिणामो // एवं विउवहारगतेयगकम्मे य होइ जहकमसो / होति विसेसिज्जंते एक्केक्के बहुविहा भेया // // 13 // पढमतिताणुवंगा बंधणसंघायणा य तणुनामा / सुत्ते सत्तिविसेसो, संघयणमिह ट्ठिनिचउत्ति // 14 // ओरालियअंगोवंगं, वेउब्वियअंगोवंगं, आहारगअंगोवंगं / तत्थ इमाणि अट्ठ अंगाणि, "दोहत्था दोपाया सीसं पट्टी उरं च उदरं च / एए अटुगा खलु सेसाणि उ होंति वंगाणि " भणियंच-"अंगोवंगविभागो उदएणं होइ जम्स कम्मस्स / तं अंगुवंगनामं तस्स बहुभेया इमे होति // . सीसमुरो य पट्टी दो बाहू उरुया य अटुंगा / अंगुलिमाइ उवंगा अंगोवंगाई सेसाई" // ओरालियबंधणं, वेउवियचंधणं, आहारग धणं, तेयगवंधणं, कम्मगसरीरबंधणं / उक्तं च"ओरालपुग्गला इह बद्धा जीवेण जे उरालत्ते / अन्ने उ बज्झमाणा, ओरालियपुग्गला जे य // तेसिं जं संबंध अवरोप्परपुग्गलाणमिह कुणइ / तं ज उसरिसं जाणसु ओरालियबंधणं पढमं // " __सव्वत्थ नामे नाणत्तं / / ओरालियसंघायं, वेउव्वियसंघाय, आहारगसंघायं, तेयगघायं, कम्मइगसंघायं / उक्तं च"ओरालाई जे देहपुग्गला होति जम्मि ठाणम्मि / तिळंति तम्मि ठाणे संघायणकम्मुणो उद ए॥६॥" सुत्ते वा आगमे सत्तिविसेसो संघयणं / तं च देवा किर वज्जरिसभसंघयणी / इह अद्विनिचओ-अद्विसंघाओ / अट्ठियं अट्ठिसंघायवंधनिव्वत्तजणगं, तं संघयणनामं // 14 // छद्धा संघयणं वज्जरिसहनारायश्वजनारायं 2 / नाराय३मद्धनारायटकीलिया 5 तह य देवळें // 15 // वज्जरिसभनारायं, नारायं अद्धनारायं खीलियसंघयणं, छेवट्ठ / उवतं च"नंगलियपट्टकौलियपट्टरिए, पट्टकोलियारहियं / एगदुवंधे य तहा छदठं पुण कोडिए मिलियं // // 15 // जं संठाणनिव्वत्तिजणगं तं संठाणनाम --------- 1 प्राचीनप्रथमकर्मग्रन्थे पुनः “सेससरीरा वि एमेव॥"। इति पाठः 2 प्राचीनप्रथमकर्मग्रन्थे पुनः "तस्स विधागो इमो होइ।।'' इति पाठः। 3 'पिट्ठी" इत्यपि। 4 "ते ठंति" इति, "ते हुंति" इत्यपि वा पाठ / Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृत्युत्तरभेदनिरूपणम् -समचउरंसं नग्गोहसाइखुज्जाणि वामणं हुंडं / संठाणा वन्ना किन्हीललोहियहलिदसिया // 16 // समचउरंसं, नग्गोहमंडलं, साइसंठाणं, खुज्जसंठाणं वामणसंठाणं, छेवट्ठसंठाणं / "जस्सुदएणं जीवे चउरंसं नाम होइ संठाणं / 'तं बहुविहप्पगारे देइ विवागं सरीरम्मि // " एवं नग्गोहाईसु पसत्थापसत्थवण्णजणगं वण्णनामं / एवं गंधरसफासा वि भाणियव्वा / किण्हवणं नीलवणं लोहियवणं हालिद्दवण्णं सुकिलवण्णं / भणियं च"किण्हा नीला लोहिय हालिद्दा सुक्किला य वन्ने / एयाणुदए जीवो होइ सरीरेण तव्यन्नो // जम्सुदएणं जौवे सरीरगं होइ किण्हवण्णं तु। तं किण्हवण्णनामं सेसगवन्ना वि एमेव // " // 16 // सुरभिदुरभी रसा पण तित्तकटुकसाययंबिला महुरा / फासा गुरुल हुमिउखरसीउराहसिणिद्धरुक्खष्ट // 17 // सुरभिगंध, दुरभिगंधं / "जम्सुद एणं जीवे दुग्गंधं अहत्र सुरमिगंधं वा / होइ सरीरं सो इह परिणामो गंधनामस्स // " रसा पण तित्तरसं, कडुयरसं, कसायरसं, अंबिलरसं, महुरसं / "जस्सुदएणं जीवो तित्तं सारण होइ हु शरीरं / तं तित्तनामकम्मं सेसा उ रसा उ एमेव // " ___फासा-गरुयफासं, लहुयकासं, मउयफासं, कक्कसफासं, सीयफासं, उण्हफासं, निद्धफासं, रुक्खफास। "जम्सुदएणं जीवे गरुयं लहुयं च तह य मिउ कठिणं / होइ सरीरे फासं सुहमसुहं तं भवे दुविहं // जस्सुदएणं जीवे निद्धं रुक्खं च तह य सीउण्हं / फासं होइ सरीरे सुहमसुहं तं भवे दुविहं / / " / / 17 / चउहगइव्वणुपुब्बी दुविहा य सुहासुहा य१विहयगई। गइअणुपुब्बीयों दुगं तिगं तु तं चिय नियाउजुधे // 18 // निरयाणुपुव्वी, तिरियाणुपुव्वी, मणुयाणुपुव्वी, देवाणुपुव्वी | जं अंगोवंगादीणं सरीरावयवविसेसाणं विणिवेसकारयं भवंतरे य वट्टमाणस्स जीवस्स जीवपएसाणुपुग्विववत्थावगं तं आणुपुविनामं / भणियं च"अंगोवंगावयवा कुणइ विसेसाउ जं सरीरस्स / कुणह अणुपुट्विपएसो निरयाई आणुपुव्वीओ // नारयतिरियनरामरमवेसु जंतस्स अतरगईए / भवइ हु जस्स विवागो तं असुपुत्वी हवइ कम्मं // " सिक्खालद्धिद्विपञ्चयस्स आगासगमणस्स जणगं विहाइगइनामं / तं दुविहं सुहविहायगई, दुहविहायगई / भणियं च- - १"तं चउरंसं नाम सेसा वि हु एव संठाणा // " इति प्राचीन प्रथमकर्मग्रन्थे पाठः। (गा० 113) .. Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे "जस्सुदएणं जीवो वरवसमगईय गच्छइ गईए। सा सुहया विहयगई तीइ विवागो सरीरम्मि // " पज्जत्तगस्सेव, "जस्सुदएणं जीवो. अमणिट्ठाए उ गच्छइ गईए / सा असुहया विहगई तीइ विवागो सरीरम्मि ||" ___ पञ्जत्ते गइअणुपुब्बीदुगं तु देवगई देवाणुपुव्वी, एवं मणुयदुर्ग, तिरियदुर्ग, नरयदुगं / "तिगं" ति तं चेव निययाउयजोगा तिगं ति भन्नइ // 18 // भणियं च पिंडपयडिविवरणं / पत्तेयविवरणं कीरइ-परेसिं घायजणगं परघायनाम। जओ एयं पुग्गलविवागी। भणियं च. "देहम्मि वट्टमाणो अंगावयवो उ जो उ 'अण्णेहिं / जीवाण कुणइ घायं तं परघायं हवइ कम्मं / / " अण्णे भणंति-परघायनामं जं परेण आउहाइणा हणिऊणं खेयं अरुगं वा [अरुगं सूसमुख प्रहारस्तामदादीनां (2)] कीरइ तं पराघायनामं / पगासजणगं उजोयनामं ।जहा अग्गिमणीदिणयरचन्दविमाणखज्जोयमाइयाणं उज्जोओ। .. अण्णे भणंति-अणसिणो पगासो जस्सोदयाउ भवइ तं उज्जोयनाम खज्जोयमाइयाणं; न तु अग्गिस्स आइच्चस्स वा / जओ अग्गिस्स फासो उसिणनामोदयाउ, रूवं. लोहियनामं ति / भणियं च"जस्सुदएणं जीवो अणुसिणदेहेण कुणइ उज्जोयं / तं उज्जोयं नामं जाणसु खजोयमाईर्ण // ' , आयवनामं जहासत्ती तावकरी। जहा अग्गिदिणयरविमाणमाइयाणं आयावो / अण्णे भणंति-आइञ्चमंडलपुढविकाइएसु चेव विवागो मन्नत्थ / भणियं च"जस्सुदएणं जीवे होइ सरीरंतु ताबिलं इत्थ / त आयवमिह नामं तस्स विवागो उ रविविबे॥" ऊसासो-अणुपाणु / भणियं च"जस्सुदएणं जीवे निप्पत्ती होइ आणुपाणूणं / तं ऊसासं नामं तस्सुदओ पज्जत्तजीवम्मि // " सरीराईसु अगुरुलहुपरिणामकारयं अगुरुलहुनाम / भणियं च- . न य गरुयं न य लहुयं उदएणं होइ जस्स कम्मस्स / जीवस्स इह शरीरं तं नामं अगरुलहुगं तु // ... जंतित्थयरसिद्धपवयणपरिपथेरबहुस्सुयतवस्सिभत्तिवच्छल्लो अभिक्खनाणोवओगा ईसणविणयआवस्सचरिऊ निरयारखणलवतवरामतित्थपभावणा अपुव्वनाणग्रहणं सुयभत्ती वेयावच्चं समाहिसंवेगवरभावोवचियं तं पुनपुग्गलनिष्फण्णं तित्थयरभावगं तित्थयरनाम / जओ आहउदए जस्स सुरासुरनरवइनिवहेहि पूइओ लोए / तं तित्थयरं कम्मं केवलिणो तस्स उदओ उ // 6 // जाइलिंगआगीववत्थावनं निम्माणनामं / जओ आहदेहंगावयवाणं लिंगागीजाइ नियमणं ण / तं सुत्तहारसरिसं निमेणनामं वियाणाहि // अप्पणोवघायणगमा उवधायनामं / जओ एसो पुग्गलविवागी / भणियं चदेहम्मि वट्टमाणो अंगावयवो उ अप्पणो जो उ / वट्टइ इह उवघाए तं उवघायं भवइ कम्मं // . १"अण्णेसिं" इति वा। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृत्युत्तरभेदनिरूपणम् [ 11 एवं पत्तेयविवरणा। इयाणि सेयरविवरणा भन्नइ-तसभावनिव्वत्तयं तसनामं / थावरभावनिव्वत्तयं थावरनाम / तसकम्मदए जोवो बेइन्दियमाइजाइजीवेसु / थावरकम्मुदएणं पुढवीमाईसु सो जाइ / ___बायरसरीरनिव्वत्तयं बायरनामं / सुहुमसरीरनिव्यत्तयं सुहुमनामं / भणियं च"वायरकम्मुदएणं बायरकाएसु होइ सो नियमा / सुहमेण सुहमकाए अंतमुहुत्ताउओ होइ / " * पजत्तजीवसरीरभावनिव्वत्तयं पज्जत्तनामं / अपज्जत्तभावनिव्वत्तयं चापज्जनामं / नओ आह आहारसरोरिदियपज्जत्ती आणपाणुभासमणे / चत्तारि पंच छप्पिय एगिदियविगलसण्णीणं // एयासिं निप्फत्ती उदएणं होइ जस कम्मस्स। तं पज्जत्तयनाम इयरुदए नत्थि निष्फत्ती // जं एगमेगं जीवं पइ सरीरनिव्वत्तयं तं पत्तेयसरीरनामं / जं अणेगजीवसामण्णसरीरनिवत्तयं तं माहारणसरीरनामं / जओ आह"(एक्कक्कयम्मि जीवे) एक्केक्कं जस्स होड उदएणं / 'ओरालियं सरीरं तं नाम होइ पत्तेयं // जीवाणमणंताणं एक्कं ओरालियं इह सरीरं / हवइ हु जस्सुदएणं तं साहारं हवइ नामं // " देहावयवाणं थिरभावजणंगं थिरनामं / जओ आह"दंतट्राइथिराणं अंगावयवाण जस्स उदएणं / निप्फत्ती उ सरीरे जायइ तं होइ थिरनामं // जीहाभमुहाईणं अंगावयवाण जस्स उदयेणं / निष्फत्ती उ सरीरे जायइ तं अथिरनामं तु // " - नामं तु पुग्गलविवागी / जओ आहसिरमाईण सुहाणं अंगावयवाण जस्स उदएणं / निष्फत्ती उ सरीरे जायइ तं होइ सुहनामं // पायाई असुहाणं अंगावयवाण जस्स उदएणं / निप्फत्ती उ सरीरे जायइ तं असुहनामं तु // * सोहग्गजणगं सुभगनामं / दोहग्गजणगं दुभगनाम / जओ आह"सूभगकम्मुदएणं हवइ हु जीवो उ सव्वजणइट्ठो। दूभगकम्मुदएणं पुण दुभगो सो सव्वलोयस्स // " सूसरत्तभावं सूसरनामं / दूसरत्तभावं दूसरनामं / जओ आह"सूसरकम्मुदएणं सूसरसहो उ होइ इह जीवो / दूसरउदए विसरो जंपतो होइ जणवेसो // " उज्जभावजणगं आदेयनामं / अणुज्ज(भावज)णगंअणादेयनामं / अहवा आदेज्ज पमाणीकरणं / अणाइज्जं (अपमाणीकरणं) / जओ आह"आइज्जकम्मउदए चिट्ठा जीवाण भासणं जं च। तं बहु मण्णइ लोओ अबहुमयं इयरउदएणं // " कित्तिभावगं जसकित्तिनामं / अजसकित्तिभावगं अजसकित्तिनामं / जओ आह"जस्सुदएणं जीवो लइह हु कित्ती जसं च लोगम्मि। तंजसनामं कम्मं विवरीयं लहह इयरुदए / / " एवं सेयरविवरणा कया। 1 "ओरालाइसरीरं" इत्यपि प्राचीनप्रथमकर्मग्रन्थे पाठः। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे इय तेणउई संते बंधणपन्नरसगेण तिसयं वा। वन्नाइभेयबंधणसंघायविणा उ सनट्ठी // 11 // . एवं पणसट्ठी पिंडुत्तरपगई / अट्ठ पत्तेया / सेयरा वीसं / एवं तेणऊई / बंधणपन्नरसगेण तिसयं वा / बंधणपन्नरसगे छूढे तेणउई तिउत्तरसयं भवइ / वण्णाइभेया वीसं एक्केक्क मुत्तूणं सेसा सोलस, तहा बंधणपण्णरसावि, संघायपञ्चवि, एवं छत्तीसाए, तिउत्तरसयाओ अवणीआ सत्तट्ठी // 9 // सा बंधुदए बंधण-संघाया नियतणुग्गहणगहिया / वन्नाइविगप्पा वि हु न य बंधे सम्ममीसाई // 20 // एवं नामकम्मपयडी / सत्तट्ठी बंधे उदए उदीरणाए य बंधणपण्णरसगं संघायपणगं नियनियसरीरगहणेण गहिया / वण्णाइविगप्पा सोलस सजाइगहणेण गहिया। उक्तं च"ससरीरंतरभूया बंधणसंघायणा य बंधुदए / वन्नाइविगप्पा वि हु बन्धे नो सम्ममीसाई // " .. "न य धंधे सम्ममोसाई" एएण सूइयं सेसाणं सत्तण्हं कम्माणं उत्तरपयडी बंधे य तेवन, उदए उदीरणाए सत्ताए य पणवन्न / उक्तं च"बंधे वीसोत्तरसयं बावीससयं तु होइ उदयम्मि / एवं उईरणाइ वि अडयालसयं तु-संतम्मि // " बन्ध. उदय. उद रणा. सत्ता. नामकम्मस्स सेसकम्माण | 53 , 55 55 55 // 20 // बंधणपण्णरस इति कहं ?. वेउव्वाहारोरालियाण सगतेयकम्मजुत्ताणां / नव बंधणाणि इयरदुसहियाणां तिन्नि तेसिं च // 21 // वेउव्वियवेउब्वियं 1, वेउब्धियतेयगं 2, वेउव्वियकम्मगं 3, आहारगआहारगं 1, आहारगतेयगं 2, आहारगकम्मगं 3, (ओरालिय)ओरालियं 1, ओरालियतेयगं (2, ओरालियकम्मर्ग)३। एवं नव बंधणाणि है। "इयरदुसहियाणं" ति वेउब्धियतेयगकम्मगं 1, आहारगः / तेयगकम्मगं 2, ओरालियतेयगकम्मगं 3 / एवं "तिणि तेसिं च" 3 तेयगतेयगं 1, तेयगकम्मगं 2, कम्मगकम्मगं 3 / एवं पन्नरस बंधणाणि 15 // 21 // Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामप्रकृतिसङ्ख्यानानात्वं, बन्धादीनाश्रित्य तद् , पञ्चदशबन्धानानि, ध्र वा-ऽध्रु वबन्धादिप्रकृतयश्च [ 13 नीलकसिगां दुगंधं तितं कडुयं गुरु खरं रुक्खं / सीयं च असुमनवगं एकारसगं सुभं सेसं // 22 // नीलवण्णं, कसिणवण्णं, दुग्गंध तित्तरसं, कडुयरसं गुरुफासं, ककसफासं, रुक्खफास, सीयफास; एवं कुवण्णनवगं / लोहियवन्नं, हालिद्दवण्णं, सुकिलवन्नं सुरभिगंध कसायरसं, अंबिलरसं, महुररसं महुफासं, लहुयफास, निद्धफासं, उण्हफास एवं सुभवण्णेकारसगं // 22 // धुवबंधो १दयरसंता३सब्वेयरघाइ ४सुभ५ अपरियत्ता / छद्धा वि सपडिवक्खा चउहविवागा य पयडीयो // 23 // __दारगाहा // धुवबंधिनी 47, धुवउदया 27, धुवसत्ता 130, सव्वघाई 20, देसघाई 25, सुभपयडी 42, अपरियत्ता 26 / "छडा वि सपडिवक्ख"त्ति, अधुवबंधिनी 73, अधुवउदया 65, अश्रुवसत्ता 28, अघाई पयडी 75, असुभा 82, परिवत्तमाणी 61 / एवं सपडिवक्खा 6 / "चउहविवांगाय पयडीओ" पुग्गलविवागिणी 36, खेत्तविवागिणी 4, भवविवागिणी४, बीवविवागिणी 78 // 23 // ___एएसिं नामग्गहणेण, विवरणा कीरइ-- "नियहेउसम्भवे वि हु भयणिज्जो जाण होइ पयडीणं / बंधो ता अधुवाओ, धुवा अभयणिजबंधाओ।" धुवबंधी भय १कुच्छा१कसाय १६मिच्छतरायावरणा१४ / वनउपतेय १कम्मा १गुरुल हुनिमिणो श्वघाया 1 य 47 // 24 // भयमोहं 1, दुगुच्छामोहं 1, कसायमोहं 16, मिच्छत्तमोहणीयं 1, अंतरायपणगं५, नाणारणपणगं 5, दंसणावरणनवगं 8, नामधुवबंधी ९,-वण्णाइचउक्कं 4, तेजइगं 1, कम्मणं१, भगरुलहुयं 1, निम्माणनामं 1, उवघायं 1 / एवं धुवबंधी 47 // 24 // पडिवक्खे अधुवबंधिणीओ / ताओ च इमा__उरलविउव्वाहारगदुगाणिगइ४जाइ५खगइ२ अणुपुवी।। संघयणागीतसवीसु 20 सासतित्थायवुजोयं // 25 / / (प्रक्षेपगाथा) ओरालदुर्ग वेउव्विदुगं आहारदुगं गइचउक्कं जाइपंचगं विहायगइदुर्ग अणुपुब्बीचउक्कं संघयणछक्कं संठाणछक्कं तसाइदसगं थावराइदसगं ऊसासं तित्थयरं आयवं उज्जोयं च // 25 // परघायवेयणीयाउगोयहासाइदुजुयलतिवेयं / / विग्यावरण विणा इय तेवत्तरिमधुवबंधायो // 26 // (प्रक्षेपगाथा) Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे परघायं वेयणियदुर्ग गोयदुगं आउचउक्कं हासरइदुर्ग अरइसोगं च वेयतिगं / एवं... तेवत्तरि अधुवबंधाओ // 26 // . बंधाधिकारे गईसु बंधसंखामाह बंधति न इगिविगला वेउब्बियछक्कदेवनरयाउं / तिरिया तित्थाहारं गईतसा णरतिगुच च // 25 // 27 // 1 मणुयगईए बंधे वीसोत्तरसयंः सव्वेसि गुणाणं भयणा त्ति काउं / तिरियगईए पंधे सत्तरहोत्तरसयं; तित्थयरस्स गइपच्चएणं, आहारदुगस्स संजमाभावात् , तित्थयरनाम आहारगदुर्ग न बंधति / एगिदियविगलिंदियजाइ बंधे नवुत्तरसयं; देवदुगं निरयदुगं वेउन्वियदुर्ग, एवं वेउव्विछक्कं देवाउयं निरयाउयं न बंधति / गईतसा तेऊवाऊ पंधे पंचोत्तरसयं मणयतिर्ग उच्चागोयं न बंधति / / 25||27|| नरयसुरसुहमविगलत्तिगाणि अाहारदुगविउव्विदुगं / बंधहि न सुरा सायावथावरेगिदि नेरइया // 26 // 28 // देवगईए बंधे चउरुत्तरसया देवतिगं निरयतिगं सुहुमविगलतिगं आहारदुर्ग वेउवब्बियदुर्ग न बंधति / निरयगईए बंधे एक्कोत्तरसयं; आयवनामं थावरनाम एगिदियजाई देवसोलसगं न बंधति / / 26 / / 28 / / बंधाधिकारे अबंधकालो एगयालीसाए पगईणं भण्णइ तिरि३नरयतिगुजोयाण सचउपल्लं तिसट्टमयरसयं / . इग 1 विगलजाइ 3 यायव 1 थावरचउगेसु पणसीयं // 27 // 26 // तिरियतिगं निरयतिगं उज्जोयं च एवं, अबंधकालो सागरोवमतिसट्ठसयं पल्लचउक्कं च / तहा इगिविगलजाइचउक्कं आयवं थावरचउक्कं एवं नव, अबंधकालो सागरोवमपणसीयसयं पल्लचउक्कं च // 27 // 26 // बेत्तीसं सासाणंतबन्धसेसपणवीसपयडीणं / नरभवसहियं परमो पणिंदिसु अबंधकालो सिं // 28 // 30 // मिच्छसोलस-पणवीससासणाइबंधवोच्छेओ एए एक्कचत्तालीसं 41 / / सोलस पुव्वा / भणियाउ सेसा पणवीसं 25 // 28 // 30|| ता य इमा 1 इत आरभ्यः प्रक्षेपगाथारहिताः प्रक्षेपगाथा सहिताश्च द्विविधा गाथाङ्का दर्शिता क्षेयाः। . Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकारे एकेन्द्रियादिषु बन्धा-ऽप्रायोग्यप्रकृतयोऽबन्धकालश्च [ 15 थीणतिगं३दुभगतिगं३अपढमसंघयण५खगइ १संठाणा५ / * अण४नीय१नपुसि१त्थी१मिच्छति अ सेसप गुवीसा॥३१॥(प्रक्षेपगाथा) थीणतिगं दुभगतिगं अपढमसंघयणपणगं कुखगइ अपढमसंठाणपणगं अणंताणुबंधी चउक्कं नीयगोयं नपु'सगइत्थिवेयं मिच्छत्तं एवं पणवीसं, अबंधकालो सागरोवमसयं बत्तीसं // 31 // बत्तीसं विजयाइसु गेविज्जाईसु तेसु तेसटुं / तमपुढविजुएलु गपस्स तेसु पणसीयमुदहिसयं // 26 // 32 // उक्तं च... "दो वारे विजय ईसु गयस्स तिण्णच्चुए अहवा ताई / अइरेगं नरभवियं नाणाजीवेहि सव्वद्धं / / " एवं बत्तीस सयं सागरोवमाणं अबंधकालो / एवं बत्तीसं सागरोवमसयं सम्मत्तस्स मिस्संतरियस्स उक्कोसो ठीकालो, तहा भोगभूमिअबंधकालपल्लतियं भवपच्चएणं, पल्लोवमं सोहम्मे गुणभवपच्चएणं, नवमगेवेज्जे सागरएगतीसं भवपच्चएणं, अबंधे य पुव्वुत्तं बत्तीसं सागरोवमसयं, अबंधिय, एवं गेविज्जाईसु तिसट्ठसयं सागरोवमाणं / "तमपुढविजुएसु" त्ति, छट्टपुढवीए सागरोवमबावीसं भवपच्चएणं, तओ मणुओ देसविरइ पलियचउठिपढमकप्पे गुणभवपञ्चएहिं, तओ पुवकम्मेण नवमगेवेज्जे सागरएगत्तीसं अचंधित्ता, तओ अणुत्तराईसु सागरोवमसयं बत्तीसं अबंधित्ता एवं पञ्चासीयं सचउपल्लं। एवं (अ)बंधकालो एगचत्तालीसाए। अहवा-"पलियाइ तिण्णि भोगावणिम्भि भवपञ्चयं पलियमेयं / सोहम्मे सम्मत्तेण नरभवे सव्वविए // 1 // मिच्छो भवपच्चयओ गेवेज्जे सागराइं इगतीसं / अंतमुहुत्तणाई सम्मत्तं तम्मि लहिऊण // 2 // विरयनरभवंतरिओ अच्चु(य)देवो उ अयरछासट्ठी / मिस्सं मुहुत्तमेगं फासिय मणुओ पुणो विरओ // 3 // छासट्ठी अयरांणं अणुत्तरे विरयनरभवंतरिओ / तिरिनरयतिगुज्जोयाण एस कालो अबंधम्मि // 4 // छट्ठीए नेरइओ भवपञ्चयओ उ अयरबावीसं। देसविरइओ भविओ पलियचउक्कं पढमकप्पे / / 5 / / पुवुत्तकालजोगा पंचासीयं सयं सचउपल्लं / आयवथावरचउविगलतियगएगिदियअबंधो // 6 // पणवीसाएँ अबंधो उक्कोसो होइ सम्मगुणजुत्ते / बत्तीस सयमयराण हुंति अहिआ मणुस्सभवा // 7 भासिं अबंधकालो सुहपयडीणं तु बंधकालो उ / पणसीयं बत्तीसं उदहिसयं होइ कासिं चि // 8 // बंधाबंधववत्था जुत्तिनिओगाउ आसि संठविया / दठूण पंचसंगहो निययवियप्पो न मंतव्यो।।। एवमिह बंधकालो अबंधकालो वि होइ सन्निस्स / उक्कोसो विन्नेभो न उ सव्वजिआण एस विही // 10 // " // 26 // 32 // बंधाधिकारे एव बंधकालो अधुववंधिणीणं भण्णइ समयादसंखकालं जा परमो नीयतिरियदुगबंधो / सुरदुगविउब्वियदुगे तिपलमाउसु मुहत्तंतो // 30 // 33 // Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे नीयागोयस्स तिरियदुगस्स य सययं बंधकालो समयं 1 जघन्यं, उक्कोसं जाव तेउवाउ- . कायट्ठीइ एवं असंखकालं / सुरदुगविउव्यियदुगे पलिओवमतिगंः जओ देवकुरुसु देवगइपाउम्गं बंधंति न अण्णं | आउचउक्के वि उक्कोसं अंतोमुहुत्तं // 30 // 33 // तसचउपणिदिपरघाउस्सासेतु पणसीयमुदहिसयं / बत्तीसं सुभगतिगुच्चपुरिससुभखगइचउरसे // 31 // 34 // तसचउक्कं पणिदिजाइ परघायनामं उसासनामं च / सययं बंधकालो जघन्न समयं 1, उक्कोसो सागरोवमसयं पंचासीयं पल्लचउक्कं च / जत्थ परिपवखस्स (अ)बंधकालो सो एएसि बंधकालो। आयवनामं थावरेण समं, परघायनामं ऊसासनामं पज्जत्तगेण बध्नन्ति / एवं पडिवक्खविवक्खा / तहा सुभगतिगउच्चागोयं पुरिसवेयं च सुभविहायगइ चउरंससंठाणंएएसि . बंधकालः जघन्यः समयः; उचकोसो सागरोवमसमयं बत्तीसः पडिवक्खसंभवाओ॥३१॥३४॥ उरले असंखपुग्गलपरियट्टा साय पुव्वकोट्टणा / तेत्तीसयरा नरदुगतित्थुसभउरालुवंगेसु // 32 // 35 // ओरालियसरीरबंधकालो जघन्यः समयः, उक्कोसो सययं असंखपुग्गलपरियट्टा / उक्तं च"एगिदियहरियंतियपोग्गलपरियट्टया असंखेज्जा" इत्यादि / सायावेयणियस्स बंधकालो जघन्यः समयः, उक्कोसं देसूणपुच्चकोडी, केवली सायावेयणियं चेत्र बंधइ / मणुयदुगं तित्थयरनामं वज्जरिसभसंघयणं ओरालियअंगोवंगं, एएसिंबंधकालो जघन्यः समयः / तित्थयरस्स अंतोमुहुत्तं जघन्यः, उक्कोसं पंचण्ह वि सागरोवमतेत्तीसं, अणुत्तरविमाणेसु / एवं बत्तीसं पगईओ॥३२॥३५॥ समयादंतमुहुत्तं सेसाणां तह जहन्नबंधो वि / / तित्थाउसु अंतमुहू धुववधीणं तु भंगतिगं // 33 // 36 // सेसाणं एक चत्तालीसाए पगईणं बंधकालोजघन्यःसमयः 1, उक्कोसं अंतोमुहत्तं / / 33 // 36 // थिरसुभजसथावरदस१० असुभागी५खगइ १जाइटसंघयणा। णिरया२हारदुगायव असाय?अपमिथि१दुजुयलु४ज्जोयं 1 // 37 // (प्रक्षेपगाथा) थिरनाम, सुभनाम, जसनामं, थावरंदसगं, असुभसंठाणपंचगं, असुभविहायगई, असुभजाइचउक्कं, असुभसंघयणपंचगं, निरयदुर्ग, आहारदुर्ग, आयवनामं, असायवेय- . णीयं, नपुसगवेयं, इत्थिवेयं, हासरइजुयलं, अरइसोगजुयल, उज्जोयं च; एवं एकचत्तालीसं / Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकारे प्रकृतीनां बन्धकालस्तथा ध्रु वाध्रु वोदयसत्ताकप्रकृतयः (17 __ "तह जहन्नबंधो वि।" तित्थयरनामस्स आउचउक्कस्स जहण्णबंधकालो अंतोमुहुत्तं / तित्थयरनामस्स जघन्यः बंधकालो कह?-तित्थयरनामबंधगो उवसमसेटिं आरुहइ, अनियट्टीओ जाव उवसंतो तावाऽबंधगो, परिवडिओ, पुणो बंधइ अंतोमुहुत्तं, पुणो सेढिं आरुहइ, अबंधगो, परिवडिओ पुणो बंधइ / उक्तं च-"एगमवे दुक्खुत्तो चरित्तमोहं उवसमिज्जा" इति श्रुतिः / "धुवबधीणं तु भंगतिगं" कह ? अणादिअपज्जवसियं 1, अणादिसपज्जवसियं 2, सादिअपज्जवसियं बंधं पइ असंभवियं, सादिसपज्जवसियं 3, एयं भंगतिगं // 37 // दारं / / "अव्वोच्छिन्नो उदओ जाणं पयडीण ता धुवोदयिया। वोचछिन्नो वि हु संभवइ जाण अधुवोदया ताओ। दव्वं खेत्तं कालं भवं च भावं च हेयवो पंच / हेउसमासेणुदओ जायइ सव्वाण पयडीणं // " निम्मेणथिराथिरतेयकम्मवन्नाइ अगुरुसुहमसुहं / नागंतरायदसगं दसगचउ मिच्छ धुवउदया // 34 // 38 // निमाणनामं, थिरनाम, अथिरनामं, तेयगसरीरं, कम्मगसरीरं, वण्णाइचउक्कं, अगरु. लहुनामं, सुभनामं, असुभनाम, नाणावग्णपणगं, अंतरायपणगं, दसणचउक्क, मिच्छत्तं चएए धुवोदया सत्तावीसं / पडिवखे अधुवोदया / ता य इमा-गइचउक्कं, जाइपणगं, सरीरतिगं, अंगोवंगतिगं, संघयणछक्कं, संठाणछक्क, तसचउक्कं. थावरचउक्कं, आणपुव्वीचउक्कं, सुभगाइचउक्कं, दुभगाहचउक्कं, आउचउक्कं, निद्दापणगं, चरित्तमोहं पणवीसं, विहाइगइदुर्ग, गोअदुगं, वेयणियदुर्ग, परघायं, उज्जोयं, आयवं, ऊसासं, तित्थयरं, उवघायं, सम्मत्तं, मीसं च / एवं अधुवोदयाणं // 34 // 38 // - उदयो धुवोदयाणं अणाइणंतो अणाइसंतो य / अधुवाण साइसंतो मिच्छस्स उ भंगतिगमेयं // 35 // 31 // अणादिअपज्जवसिय 1, अणादिसपज्जवसियं 2, एवं भंगदुगं छव्वीसाए धुवोदयाणं / सादिसपज्जवसियं एगं भंग अधुवोदयाणं 65 / मिच्छस्स तिण्णेव भंगाओ ॥३५।।३।।दारां।। "कम्ममसुभं सुभं वा बद्धं पि न जाव वेइयं अहवा / करणंतरेण वि वियोयियं न ता भन्नए संतं // " वेउविकारससम्ममीसतित्थुञ्चमणुदुगाउचऊ / याहारसत्त अधुवा धुवसंता सेस तीससयं // 36 // 40 // देवदुगनिरयदुर्ग, वेउव्वियसरीरं, वेउब्वियअंगोवंगं, वेउव्वियसंघायं, वेउव्वियवंधणचउक्कं, एवं वेउव्विएकारसं सम्मत्तं, सम्मामिच्छत्तं, तित्थयरनाम, उच्चागोयं, मणुयदुर्ग, आउचउक्कं, आहारगसरीरं, आहारगअंगोवंगं, आहारगसंघायं, आहारगवंधणचउक्कं, एवं आहारगसत्तर्गः एवं अट्ठावीसं अधुवसंताओ। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे . पडिवखे धुवसंताओ / ता य इमा-संघयणछक्कं, तिरियदुर्ग, ओरालियसत्तगं, तेजइ सत्तगं, वण्णाइवीस, संठाणछक्क, तसाइदसगं, थावराइदसगं, घाइपयडीउ पणयालं, वेयणीयदुर्ग, विहायगइदुर्ग, नीयागोयं, जाइपंचगं, अतित्थपत्तेयसत्तर्गः एवं धुवसंततीससयं // 36 // 40 // गुणठाणगेसु विसेससत्तामाहतिसु मिच्छत्तं नियमा 'अट्ठसु गुणठाणएसु भयणिज्ज। 'श्रासाणे सम्मत्तं नियमा भज्जं दससु होइ // 37 // 41 // मिच्छदिद्विसासायणसम्मामिच्छत्ताणं मिच्छत् संतं नियमेण हवइ। "अट्ठसु गुणठाणगेसु भयणिज्ज" कह ? अट्ठ अविरयसम्माउ जाव उवसंतं / जया तेवीससंतकम्मिगो बावीससंतकम्मिओ एगवीससंतकम्मिओ जहासंभवं एए(सु) गुणट्ठाणगेसु हवइ / तया नो मिच्छत्तसंतकम्मिओ चउवीससंतकम्मिओ एए(सु) गुणट्ठाणगे(सु) आरुहइ तया मिच्छत्तसंतकम्मिओ सो जीवो एवं / अट्ठसु गुणट्ठागेसु भयणिज्जो / अहवा "तिसु मिच्छत्तं नियम"त्ति, तिसु ठाणगेसु मिच्छत्तं नियमा अस्थि / तं मिच्छदिद्विसासायणसम्मामिच्छद्दिट्टीसु / "अट्ठसु ठाणेसु भइयव्वं" ति, असंजयाइ जाव उवसंतकसाओ ताव होज्ज वा नवा / खाइय. सम्मद्दिष्टुिं पडुच्च नत्थि, सेसेसु अत्थि / “आसाणे सम्मत्तं नियम"त्ति सासायणसम्मदिद्विम्मि सम्मत्तं नियमा अस्थि / तेण उवसमसम्मत्ताद्धाए सांसायणो हवइ / "भज्ज दससु होइ"त्तिआइमेसु सासायणवज्जेसु जाव उवसंतकसाओ एएसु दससु सम्मत्तं भयणिज्ज / कह ?, भण्णइ,-मिच्छदिट्ठिम्मि उव्वलियं न उप्पाइयं व तं पडुच्च नत्थि / अट्ठावीससंतकम्मियस्स अस्थि / सम्मामिच्छद्दिविम्मि उव्वलियं पडुच्च नस्थि / सम्मत्ते उव्वलिए वि सम्मामिच्छदिट्ठी लभइ / अणुव्वलियस्स अत्थि। सेसेसु खाइगसम्मदिढेि पडुच्च नत्थि / इहरहा अस्थि // 37 // 41 // 'सासणमिस्से मिस्सं संतं नियमेण नवसु भइयव्वं / निग्रमा मिच्छासाणे पढमकसाया नवसु भज्जा // 38 // 42 // "वोयतइएमु मीसं नियम"त्ति सासायणमीसेसु सम्मामिच्छत् नियमा अस्थि / कहं ?, भण्णइ,-सासायणे नियमा अट्ठावीससंतकम्मिगो / सम्मामिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छतेण विणा न होइ त्ति काउं / "ठाणनवगम्मि भयणिज्ज" मिच्छदिट्ठी, असंजयसम्मद्दिट्ठी जाव उवसंतकसाओ एएसु नवसु होज्ज वा नवा / कहं ?, भण्णइ,-मिच्छद्दिद्विस्स अट्ठावीत ___1. "अट्ठसु ठाणेसु भइयव्वं / " इत्यपि पाठः सम्माव्यते / एतत्पाठानुसारेण "अहवा" इत्यादिनाद्वितीयव्याख्यावसरे व्याख्यातम् / 2. "सासायणम्मि नियमा संत सम्म दससु मज्जं // " इत्यपि पाठः। 3. व्याख्या पुनः “बीअतइएसु मीसं नियमा ठाणनवगम्मि भयणिज्जं / संजोयणा उ नियमा दुसु पंचसु होइ मइयव्वं / / " इति गाथापाठानुसारेण / Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु प्रकृतिविशेषसत्ता, सर्व देशघातिप्रकृतयश्च [16 संतकम्मियस्स सत्तावीससंतकम्मियस्स अत्थि / छव्वीससंतकम्मियस्स नत्थि / सेसेसु खाइगसम्मदिढेि पडुच्च नत्थि / इयरहा अस्थि / “संजोयणा उ नियमा दुसु"त्ति अणंताणुचंधिणो मिच्छदिद्विसासायणेसु अस्थि नियमाः जेण एए अणंताणुबंधिणो नियमा बंधति / "पंचसु होइ भइयवं"ति, सम्मामिच्छट्ठिी जाव अपमत्तसंजओ एएसु पंचसु ठाणेसु अणताणुवंधिसंतं भइयव्वं / कहं 1, भण्णइ,-उव्वलियं पडुच नत्थि, अण्णहा अत्थि / - अण्णे-नवसु भयणिज्जं / तेसिं मएणं अट्ठावीससंतकम्मिओ वि उवसमसेढी आरुहइ / तेसिं मएण अत्थि अणंतानुबंधि, उव्वलिएसु नत्थि / एवं भज्ज // 38 // 42 / / सब्बगुणेसाहारा सासणमिस्सरहिएसु वा तित्थं / नोभयसंते मिच्छो अंतमुहुत्तं भवे तित्थे // 36 // 43 // सव्वेसु गुणगेसु आहारसत्तगस्स संतं संभवइ / तित्थयरनामस्स मीससायणवज्जेसु संतं वियप्पेण भवइ / जया आहारगतित्थयरस्स उभयसंता हवइ, तया मिच्छत्तं न गच्छइ / "अंतमुहुतं भवे तित्थे" कहं ?, भण्णइ,-नरयबंधाउओ वेयगसम्मत्तं पडिवज्जइ / विसुज्झमाणो तित्थयरनामं बंधइ / अंतकाले सम्मत्तं ठवेइ / नरएसु उबवज्जइ / पज्जत्तिभावं गओ सम्मत्तं लहइ / एवं मिच्छदिद्विस्स तित्थयरनामं अंतोमुहत्तं सत्ता लब्भइ / / 39 / / 43 // दारं / / "पयडीओ विचत्ताओ देसं सव्वं हणंति घाईओ। एयासि नियसरूवं सकज्जकरणाओं विन्नेयं // " केवलियनाण १देसण 1 यावरणे बारसाइमकसाया / मिच्छत्त 1 निदपणगं 5 इय वीसं सव्वघाईयो // 40 // 44 // केवलनाणावरणं, केवलदंसणावरणं पढमं कसायबारसगं मिच्छत् निदापणगं च; इय वीसं सबधाईओ // 40 // 44 // सम्मत्तनाणदंसणचरित्तघाइत्तणाउ घाईयो / तस्सेस देसघाइत्तणाउ पुण देसघाईयो // 41 // 45 // मिच्छत्तं अणंताणुवंधिचउक्कं सम्मत्तस्स घाई / केवलनाणावरणं केवलनाणस्स घाई। केवलदसणावरणं केवलदंसणस्स घाई / निद्दापणगं खाओवसमदंसणस्स घाई / बीयकसाया देसविरइयाई / तइयकसाया सव्वविरइचरित्तघाई / "तस्सेस"त्ति, सव्वघाईउव्वरियं तं घाएइ देसघाई। उक्तं च- "सुट्ठु वि मेहसमुदए होइ पहा चंद सुराणं / " तस्स कुदद्विदुगाई आवारगा॥४१॥४५॥ संजलण४नोकसाया 1 चउनाणतिदंसणावरणविग्घा 5 / पणुवीस देसघाई, सेस अघाई सरूवेण // 42 // 46 // Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे संजलणचउक्क, नोकसायनवर्ग, मइनाणावरणं, सुयनाणावरणं, ओहिनाणावरणं, मणपज्जवनाणावरणं, चखुदंसणावरणं, अचक्खुदंसणावरणं, ओहिदंसणावरणं, अंतरायपणगं च एवं पणवीस देसघाई। "सेस अघाई सरूवेण" कहं 1, "पलिभाग"त्ति, अघाइपयईओ घाइणीसहचरिओ घाइत्तं पडिवज्जतिः जह अचोरो वि चोरवसा / पडिवक्खम्मि अघाई / ता य इमा-गइचउक्कं, जाइपणगं, सरीरपणगं, अंगोवंगतिगं, संघयणछक्कं, संठाणछक्कं वण्णाइचउक्कं, आणुपुब्विचउक्कं, विहायगइदुगं, तसदसगं, थावराइदसगं, पत्तेयअट्टगं, आउचउक्कं, वेयणियदुर्ग, गोयदुर्ग च; आघाइपयडी पणसपरी 75 // 42 // 46 // दारं / / "बायोलीसं पयडीण सुहसरूवाण पुण्णमक्खायं / बायासी असुमाओ पावं दुहहे उभावाओ / " नरतिरिसुराउमुच्चं सायं परघाययायवुज्जोयं / तित्थुस्सासनिमेणं पणिदिवइरुसहचउरंसं // 43 // 47 // तसदस चउवराणाई सुरमणुदुगपचतणुउवंगतिगं / अगुरुलहुपढमखगई बायालीसं ति सुहपयडी. // 44 // 48 // मणुयाउं, देवाउं, तिरियाउं: उच्चागोयं, सायावेयणियं, परघायनाम, आयवनाम, उज्जोयनामं, तित्थयरनाम, उस्सासनामं, निम्माणनामं, पणिदिजाइ, वज्जरिसमसंघयणं, समचउरंससंठाणं तसदसर्गः वण्णाइचउक्कं, देवदुर्ग, मणुयदुर्ग, सरीरपंचगं, उवंगतिगं, अगरुलहुयं, सुभखगइ, बायालीसं ति सुहपयडी // 43-44 // 47-48 / / पडिपक्खे असुहपयडी / ता य इमा थावरदस चउजाई अपढमसंठाणखगइसंघयणा / तिरिनरयदुगुवघायं वनचऊ नामचउतीसा // 45 // 4 // थावरदसगं, असुभजाइचउक्कं, असुभसंठाणपंचगं, असुभखगई, असुभसंघयणपंचगं, तिरियदुर्ग, निरयदुर्ग, उवघायनामं, असुभवण्णाइचउवक; एवं नामचउतीसा // 45 // 49 // नरयाउनीयमस्सायघाइपणयालसहियवासीइ / असुहपयडी उ दोसु वि वनाइचउक्कगहणेण // 46 // 50 // असायवेयणियं, नीयगोयं, निरयाउयं, पणयालीसं घाइपयडीओ एवं असुभपयडी- . बयासी।दोसु वि वण्णाइचउक्कं सुभं सुभियाण, असुभं असुभियाण य गहणेणं॥४६॥५०॥दारं॥ "विणिवारिय जा गच्छइ बंधं उदयं व अण्णपगईए / सा हु परिअत्तमाणी, अनिवारिती अपरिअत्ता / / " Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अघाति-शुभा-ऽशुम परावर्तमाना-ऽपरावर्तमान-चतुर्विधविपाकप्रकृतयो मूलमावास्तदुत्तरमावसङ्ख्या च [ 21 नाणांतरायदंसणचउक्कपरघायतित्थमुरसासं / नामधुवबन्धिनवमिच्छभयदुगंछा अपरियत्ता // 47 // 51 // नाणावरणपणगं, अंतरायपणगं, दंसणावरणचउवकं, परघायतित्थयरनामं, उस्सासं, नामधुवबंधी नव, मिच्छत्तं, भयं, दुगुच्छा यः अपरियतामाणीउ उणतीसं / .. पडिवक्खे परियत्तमाणीओ। ता य इमा--गइचउक्क, जाइपणगं, सरीरतिगं, अंगोइंगतिगं, संघयणछक्क, विहायगईदुर्ग, आणुपुन्विचउक्कं, तसदसगं, थावरदसगं, आउचउक्कं, वेयणियदुगं. कसायसोलसगं, हासरइदुर्ग, अरइसोगदुर्ग, वेयतिगं, निद्दापणगं, उज्जोयआयवं, गोयदुर्ग चा परियत्तमाणीओ इगनउई / / 47-51 // दारं // .. "चउहविवागा य पयडीउ"त्ति, पुग्गलविवागिणीओ, जीवविवागिणीओ, खित्तभवविवागिणीओ - संघयणा 6 संगणा 6 सरीरु 3 वंगाणि 3 श्रायवु 1 ज्जोया 1 / नामधुवोदय 12 साहार१णियर १उवघाय१परवाया 1 // 48 // 52 / / संघयणछक्क, संठाणछक्कं, सरीरतिगं, तेयगकम्मइगे धुवोदयगहणेण गहिया; अंगोवंगतिगं, आयवं, उज्जोयं, नामधुवोदया; साहारणं, पत्तेयं, उवधायं, परघायं च छत्तीसा / एवं पुग्गलविवागीणि // 48 // 52 // उदइयभावा पुग्गलविवागिणो पाउ भवविवागीणि / खित्तविवागणुपुवी जीवविवागी उ सेसाउ // 4 // 53 // .. भवविवागी आउयचउक्कं / खेत्तविवागी अणुपुव्वीचउक्कं / जीवविवागीओ सेसाओ / ता य इमा-गइचउक्कं, विहायगइदुर्ग, जाइपणगं, तसतिगं, थावरतिगं, उस्सासं, सुभगाइचउक्कं, दुभगाइच उक्कं, गोयदुर्ग, वेयणियदुर्ग, तित्थयरं, सम्मत्तं, सम्मामिच्छत्तं, घाइपयडीओ पणयालं एवं अट्ठहत्तरि जीवविवागीणि // 46 // 53 // / "उदयभावा पुग्गल विवागिणो'इति, भावा कत्तिया कित्तियभेया य तं जाणणत्थं भण्णइ. भावा छच्चोवसमिय १खइयरखोवसम३उदयपरिणामा 5 / दु१नवटारि३गवीसातिग५भेया सन्निवायो य 6 // 50 // 54 // उपसमियर, खाइयंह, खाओवसमिओ१९, ओदइयं२१, परिणामियं३, सण्णिवायं .. च 53 // 50 // 54|| Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 ] सूक्ष्मार्थ विचारसारप्रकरणे सम्मचरणाणि पढमे बीए वरनाणदंसणचरित्ता / तह दाणलाभभोगोवभोगविरियाणि सम्मं च // 51 // 55 // उवसमियं चरितं, उवसमियं सम्मत्तं, एए दुगभेया / / दारं / / केवलनाणं 1, केवलदरिसणं 1. खाइयं चरणं 1; दाणलद्धी१, लाहलद्धी१, भोगलद्धी१, उवभोगलद्धी१, वीरियलद्धी१. खाइयसम्मत्तं 1, एए नव खाइयभावा / / 51 // 55 // दारं / / चउनाणऽनाणतिगं दंसणतिगपंचदाणलद्धीयो / सम्मतं चारित्तं च संजमासंजमो तइए // 52 // 56 // नाणचउक्क, अन्नाणतिगं, दंसणतिर्ग, पंचदाणद्धीओ, सम्मत्तं, चरित्तं, देसविरयं च / .. एवं अट्ठारस खाओवसमियभावा // 52 // 56 / / दारं / / चउगइचउकसाया लिंगतिगं लेसछक्कमराणाणां / मिच्छत्तमसिद्धत्तं असंजमो चोत्थभावम्मि // 53 // 57 // गइचउक्कं, कसायचउक्क, वेदतिगं, लेसछ्वक, अण्णाणं, मिच्छत्तं असिद्धत्तं, असंजमो चउत्थभावम्मि / एवं उदइयभावा एगवीसं // 53 // 57 / / दारं / / पंचमगम्मि य भावे जीवाभवत्तभव्वयाईणि / पंचराह वि भावाणां भेया एमेव तेवन्ना // 54 // 58 // जीवत्तं, भव्यत्तं, अभव्वत्त एवं पारिणामिया भावा३ / / दारं / / सन्निवायस्स भेया तेवण्णं सव्वं भावाणं / / 54 / / 58 / / दारं // उदझ्यखायोक्समियपरिणामेहि चउरो गइचउवके / खइयजुएहि वि चउरो तदभावे उवसमजुएहिं // 55 // 56 // उदयं 1, खओवसमियं 2, पारिणामियं 3; एवं तिगजोगो चउसु गईसु भंगो / खाइयं१, ओदइयं 2, खाओवसमियं 3, पारिणामियं 4 एवं चउक्कजोगो चउगईसु भंगो 2 / अहवा उपसमियं१, उदयं२, खाओवसमियं३, पारिणामियं४; एवं चउक्कजोगो चउसु गईसु भंगो 3 // 55 // 56 // इक्विको उवसमसेदिसिद्ध केवलिसु एवमविरुद्धा / पन्नरस सन्निवाइयभेया वीसं असंभविणो // 56 // 60 // Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरभावानां, सान्निपातिकभावे संभविता-संभविनभेशानां च, तथा मूलकर्मसु गुणस्थानेषु च [23 मूलभागनां प्ररूपणम् उवसंमियं 1, (खाडअं 2,) खाओवसमियं (3, ओदइ)४, पारिणामियं 5, एवं पंचजोगो, उवसमसेढीए भंगेक्को मणुस्साणं 4 / खाइयं 1, पारिणामियं 2; एवं दुगजोगो भंगेक्को य सिद्धाणं५। खाइयं 1, (ओदइयं२,) पारिणामियं३, एवं तिगजोगे भंगेक्को केवलीण६। एवं एए छभंगा संभविया / भंगतिगे चउसु गईसु भंगा बारस, उवसमसेढीभंगेक्को१, सिद्धभंगेक्को१, केवलीभंगेक्को१एवं सान्निवाइयभावा पण्णरस / भंगा वीसं असंभविया // ते य इमे--उवसमियं खाइयं 1, उपसमियं खाओवसमं२, उवसमियं ओदइयं३, उपसमियं पारिणामियं४, खाइयं खाओवसमियं 5, खइयं ओदइयं 6, खाइयं पारिगामियं, सिद्धभंगो (1); खाओवसमियं ओदइयं 7, खाओवसमियं पारिणामियं 8, ओदइयं पारिण मियं ; दुगजोगे नवभंगा असंभविया / / उवसमियं खाइयं खाओवसमियं 1, उपसमियं खाइअं ओदइयं 2, उवसमियं खाइअं पारिणामियं 3, उपसमिय खापोवसमियं ओदइयं४, उव समियं खाओवसमं. पारिणामियं 5, उवसमियं ओदइयं पारिणामियं 6, खाइथं खाओवसमं, ओदइयं 7, खाइयं खाओवसमं पारिणामियं 8, खाइयं ओदइयं पारिणामियं, केवलीभंगो सुद्धो (2); खाओवसमं ओदइयं पारिणामियं, गइचउक्कभंगो (3); एवं तिगजोगे भंगा अट्ठ असंभविया // उवसमियं खाइयं खाओवसमियं ओदइयं 1, उवसमियं खाइयं खाओवसमियं पारिणामियं 2, उवसमियं खाइयं ओदइयं पारिणामियं 3, उवसमियं खाओवसमियं ओदइयं पारिणामियं, गइचउक्कभंगो (4); खाइयं खाओवसमं ओदइयं पारिणामियं, गइचउकभंगो (5), चउकजोगे भंगा तिन्नि असंभविया / / उवसमियं खाइयं खाओवसमियं ओदइयं पारिणामियं (6), उवसमसेढीभंगो // एवं भंगा 26 / संभविया भंगा 6 / असंभविया भंगा 20 / एवं वीस असंभविया / / 56 // 60 / / दुगजोगो सिद्धाणं केवलिसंसारियाण तिगजोगो / चउजोगजुगं चउसु वि गईसु मणुयाण पणजोगो॥५७॥६१॥ कंठा // 57||61 // मोहस्सेव उवसमो खायोवसमो चउराह घाईणं / उदयक्खयपरिणामा अट्ठगह वि इंति कम्माणं // 58 // 2 // मोहणीयस्स उवसमिओ भावो / / 1 / / नाणावरणं, दंसणावरणं, मोहणीयं, अंतराइयं च एए घाइकम्मा खाओवममिए भावे / ओदइयं, खाइयं, पारिणामियं एए तिण्णि भावा अट्ठण्हं वि होति कम्माणं // 5 // 62 / सम्माइचउसु तिगचउभावा चउपणुवसामगुवसंते / चउ खीणेऽपुब्वे तिन्नि सेसगुणठाणगेगजिए // 51 // 63 // Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे ___अविरयसम्मद्दिवि देसविरयं पमत्तं अपमत्तं च चउसु वि खाओवसम-उदइय-पारिणामियभावा तिण्णि | अहवा उवसमिय-खाइआण एगयरे छूढे, चत्तारि भावा / "चउपणउवसामग''त्ति, अनियट्टिसुहुमसंपराया उवसामगा, उवसंतमोहो उवसंतो, एएसि भावा चत्तारि पुव्वुत्ता / अहवा पंच, तिन्नि पुव्वुत्ता, उपसमिय-खाइया खिप्पंति; एवं वंच / खीणमोहस्स भावा तिण्णि पुव्वुत्ता; खाइयं चउत्थं / अपुव्यकरणस्स चत्तारि पुव्वुत्ता / सजोगि-अजोगिकेवलीणं खाइय-ओदइय-पारिणामिया तिण्णि भावा / मिच्छसासणसम्मामिच्छस्स तिण्णि पुव्वुत्ता / / 56 / / 63 / / - एएसु गुणट्ठाणगेसु पत्तेयं पत्तेयं उत्तरभावा भेया कस्स कित्तिया तं भण्णइपण अंतराय अन्नाण तिणि अचक्खुचक्खु दस एए / मिच्छे साणे य हवंति मीसए अंतराय पण // 1 // नाणतिगर्दसणतिगं मीस्सं सम्मं च / बरस हवंति / एवं च अविरयम्मि वि नवरं तहि सणं सुद्धं // 2 // .. देसे देसव्विरई तेरसमा तह पमत्तअपमत्ते / मणपज्जवपक्खेवे चउदस अप्पुवकरणे य 3|| वेयगमम्मेण विणा तेरम जा सुहुमसंपराओ त्ति / तेच्चिय उवसमखीणे चरित्तविरहेण बारस उ॥४॥ खाओवममिगमावाण कित्तिणा गुणपए पडुच्च कया ओदइयमावमिहि ते चैव पडुच्च दंसेमि // 5 // .. चउगइयाई इगवीस मिकिछ साणे य होंति वीसं च / मिच्छेण विणा, मिस्से उगुणीसमनाणविरहेण / 6 // . एमेव अविश्यम्मी सुरनारयगइविओगओ देसे / सत्तरस होति ते च्चिय तिरियगइममंजमाभावा / / / पण्णास पमत्तम्मी अपमत्ते आइलेसतिगविरहे / ते निचय बारस सुक्केगलेसओ दस अपुवम्मि // 8 // एवं अनियट्टम्मि वि सुहमे संजलणलोभमणुयगई / अंतिमलेसअसिद्धत्तमावओ जाण चउभावा // 6 // संजलणलोमविरहा उवसंतकवीणकेवलीण तिगं लेसाभावा जाणसु अजोगिणो भावदुगमेव // 10 // अविरयसम्मा उबसंतु जाव उवसमिगखइयगा वा वि / अनियट्टी उवसंतो जाणस उवसामियं चरणं / / 11 / / खीणम्मि खडयसम्मं चरणं च दुगं पि जाण समकालं। नव नव खइगा मावा जाण सजोगे अजोगे य॥१२॥ जीवत्तमभव्वत्तं भव्यत्तं वि हु मुणाहि मिच्छम्मि। साणाई खीणंते दोण्णि अभव्वत्तवज्जाओ // 13 // सज्जोगि अजोगिम्मी जीवत्तं चैव मिच्छमाईणं / ससभावमीलणाओ भावे पुण सन्निवायम्मि // 14 // तिसु ठाणगेसु भावाचत्तारि / अहवा पंच / कहं ? ओदइयो खाओवसमियं पारिणामिओ, एवं तिण्णि भावा ठप्पा। खाइयं सम्मत्तं, एए चत्तारि भावा खीणमोहस्स / भावा 3, खाइयं सम्मत्तं, उवसमियं चरित्त; एए पंच भावा उवसंतस्स सेढीए पडंतस्सवा / भंग 2 / भावा 3, उपसमियं सम्मत्तं, खाइयं चरणं; एस भंगो असंभविओ 3 / भावा तिन्नि, उवसमियं सम्मत्तं, उपसमियं चरणं; एए चत्तारि भावा उवसंतस्स सेढीए पडतरस वा / एए चत्तारि भंगा सम्माइचउसु गाहा-ऽणुसारेण भणियव्वा / / "कम्माइ" आइसद्दाओ अजीवट्ठाणाइ भणिज्जति / धम्माधम्मनभा तिन्नि दव्वदेसप्पएसयो तिविहा / गइठाणवगाहगुणा अरूविणो कालसमयो य // 60 // 6 // 1 प्रथमगाथासत्कोऽयं प्रतिकः / Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानेषु मूलोत्तरभावानां धर्मास्तिकायादेर्मूलप्रकृत्युत्कृष्ट जघन्यस्थितिबन्धमानस्य च निरूपणम् [ 25 धम्मत्थिकायदव्वे 1, धम्मत्थिकायदव्वदेसे 2, धम्मत्थिकायदव्वपएसा 3 / अधम्मथिकायदव्वे 1, अधम्मत्थिकायदव्वदेसे 2, अधम्मत्थिकायदव्वपएसा 3 / आगासत्थिकायदव्वे 1, आगासत्थिकायदव्वदेसे 2, आगासत्थिकायदव्वपएसा 3 / धम्मत्थिकाए गइगुणो, अधम्मत्थिकाए ठाणगुणे, आगासत्थिकाए अवगाहगुणे / अरूविया एए नव अजीवट्ठाणा, कालसमओ वि अरूवी, एवं दस / / 60 / 64 / / सो वत्तणाइलिंगो रूविश्रजीवा उ हुंति मे चउरो। खंधा देसपएसा केवलश्रणवो य ते य पुणो // 6 // 65 // कालो वत्तणाइगुणो / रूविणो अजीवा वि चत्तारि / ते य इमे-खंधा, खंधदेसा, खंधपएसा, एगे परमाणू // 61 // 65 // वराणाइगुणा बंधाइकारणं इय अजीवचउदसगं / सव्वे वि हु परिणामे भावे खंधा उदइए वि // 62 // 66 // वण्णाइगुणावण्णगंधरसफासपरिणया चत्तारि वि दव्वा बंधाइकारणं / वह ? भण्णइकम्मजोगत्ताए परिणया खंधा जीवा बंधति बंधेः उदये उदीरणाए य इंतिः सत्ताए पट्टवितिः एवं बंधाइकारणं / एए चउदस वि अजीवट्ठाणा कम्मि य भावे वट्टति?, भण्णइ-सव्वे वि हु पारिणामिए भावे; खंधा उदइए वि / खंधा उदए कहं ?, भण्णइ-खंधस्स अद्धस्स तिभागस्स वा चउत्थभागस्स वा देसविवक्खा / पएसा निविभागा भागा तस्सेव / न विभिन्ना देसपएसविवक्खा / कोहोदए जीवस्स कम्मखंधा उदए / एगे परमाणू न कम्मत्ताए परिणमइ / एवं खंधा ओदइए भावे न सेसा // 62 // 66 // एव पगइबंधो पसंगागउ त्ति भणिओ॥ . इयाणिं ठीबंधो / सो दुविहो, मूलपगइट्ठीबंधो य उत्तरपगइट्टिइबंधो य / एवकेक्को य दुविहो उक्कोसट्ठीबंधो जहण्णट्ठीबंधो य / मूलपयडीट्ठीबंधो भण्णइ मोहे कोडाकोडीउ सत्तरी वीस नामगोयाणं / तीसयराण चउराहं तित्तीसयराइँ ग्राउरस // 63 // 67 // मोहणीयस्स सत्तरिकोडाकोडी उक्कोमो ठीइबंधो / नाणावरणीयदंसणावरणीयअंतराया य वेयणीयस्स य तीसं कोडाकोडी उक्कोसो ठीइबंधो / नामगोयाण य वीसं कोडाको उक्कोसो द्वीइबंधो / आउयस्स तेत्तीसं सागरोवमाइ सक्कोसो ठीइबंधो / / 63 / 167 // मोत्तुमकसाई हस्सा ठिइ वेयणियस्स बारसमहुत्ता। अट्ठ नामगोयाण सेसयाणं मुहत्तंतो // 6 // 68|| .. अकसाई-उवसंतमोहा सजोगकेवली, एए मोत्, जओ एसि इरियावहपञ्चओ सामइगो ठिइबंधो, सेसाणं संपरायगो वि, तओ अकसाई मुत्तूण वेयणीयस्स चारस मुहुत्ताः नामस्स य Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे गोयस्स य अमुट्ठ मुहुत्ताः सेसाणं पंचण्हं अंतोमुहुत्तंजहण्णट्टिइबंधो // 64 / 68 / / इयाणिं उत्तरपयडीणं भन्नइ तीसं कोडाकोडी असाययावरणअंतरायाणं / मिच्छे सत्तरिमित्थीमणुदुगसायाण पन्नरस // 65 // 66 // असायवेयणीयस्स नाणावरणपणगस्स दसणावरणनवगस्स अंतरायपणगस्स य तीसं कोडाकोडी उ उक्कोसो ठीइबंधो / मिच्छादसणस्स सत्तरिकोडाकोडी उक्कोसो ठीइबंधो / इत्थीवेयस्स मणुयदुगस्स सायावेयणीयस्स पण्णरसकोडाकोडी उक्कोसो ठीईबंधो // 65 // 66 / / संघयणे संठाणे पढमे दस उबरिमेसु दुगबुड्ढी / चालीसकसाएसु अट्ठारस विगलसुहुमतिगे // 66 // 7 // वजरिसभनाराय-समचउरंसस्स य कोडाकोडी दस / वजनाराय-नग्गोहस्स य कोडाकोडी बारस / नाराचसंघयण-साइसंठाणस्स य कोडाकोडी चउदस | अद्धनारायसंघयणखुजसंठाणस्स य कोडाकोडी सोलस, खीलियसंघयण-वामणसंठाण-सुहुमतिग-विगलतिगाणं कोडाकोडी अट्ठारस उक्कोसो ठीइबंधो / कसायसीलसमें कोडाकोडीओ चालीसं // 66 // 70 // . दस दस सुक्किलमहुराण सुरभिनिग्धुराहमिउलहूणं च / अड्डाइजपवुड्डा ते हालिबिलाईणं // 67 // 71 // सुक्किलवण्ण-महुररस सुरभिगंध-निद्धफास-उण्हफास-मउयफास-लहुयफासाण य दस कोडाकोडी उक्कोसो ठीईबंधो / हालिवन्न-अंबिलरसस्स कोडाकोडी सद्धबारस उक्कोसो ठिईबंधो / लोहियवण्ण-कसायरसस्स कोडाकोडी पण्णरस / नीलवण्ण-कडुयरसस्स कोडाकोडी सद्धसत्तरस / / 67 // 71 / हासरइपुरिसउच्चे सुभखगइथिराइछक्कदेवदुगे / दस सेसाणं वीसा एवइयावाहवाससया // 68 // 72 // हासग्इ-पुरिसवेय-उच्चागोय-सुभखगइ-थिराइछक्क देवदुगस्स य दस कोडाकोडी उक्कोसो ठीबंधो / एए तियासी पगईओ। सेसाणं वीसकोडाकोडी उक्कोसो ठीइबंधो। ता य इमातिरियदुर्ग किण्हवन्नं तित्तरसं दुग्गंध गुरुफासं कक्कसफासं सीयफासं रुक्खसफासं अतित्थपत्तेयसत्तगं तेजहगसत्तगं ओरालियसत्तगं तसाइचउक्कं अथिराइछक्कं थावरनाम एगिदियजाई पंचिंदियजाई हुंडसंठाणं छेवट्टसंघयणं भयं दुगंछा अरई सोगा य नीयगोयं नपुसगवेयं / असुभखगई वेउब्वियसत्तगं निरयदुगं य / एए एगसहिपयडीओ / जस्स जेत्तिया सागरोवमकोडाकोडीओ उक्कोसा ठी, तस्स तेत्तिया रामसया अबाहा // 68 // 72 // Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टजघन्यस्थितिबन्धप्रमाणस्य प्ररूपणम् अंतोकोडाकोडी तित्थाहाराण जिट्टठिइबंधो / अंतमुहुत्तमबाहा इयरो संखिजगुणहीणो // 66 // 73 // तित्थयरनामस्स आहारगसत्तगस्स य, अंतोकोडाकोडी उवकोसो ठीइबंधो / अंतमुहत्तं अवाहा / इयरा जहण्णा सा संखेजगुणहीणा | सा वि अंतोकोडाकोडी / तित्थयरनामस्स कहमंतोमुत्तमेत्तमबाहा ?, जओ-"बज्झइ तं तु भगवओ तइअमवोसक्कइत्ताणं" ति / भण्णहतित्थयरनामस्स पओगओ उइण्णस्स आणेसरियाइलद्धीओ अण्णजीवेहितो विसेसियतराओ संभवंति / तेणेवं होइत्ति संभावयामि // 69 // 73 / तेत्तीसुदही सुरनारयाउ नरतिरियाउ पल्लतिगं / निरुवकमाण छ मासा अबाह सेसाण भवतंसो // 70 // 7 // देवाउयस्स निरयाउयस्स य तेत्तीमं सागरोवमाई उक्कोसो ठिईबंधो। निरुवक्कमाणं परभवाउयं बद्धं छहिं मासेहिं उदयं एइ / एवइया अबाहा / सेसाणं मणुयतिरियाणं संखेज्जवासा उयाणं भवतंसो भवस्स तिभागो उक्कोसिया अबाहा // 70 / 74 / / तह पुवकोडिएरो इगविगलिंदी न बंधए बाउं / अाउचउ परमबंधो पल्लासंखंसममणेसु // 71 // 7 // एगिदिया विगलिंदिया परभवाउयं पुव्वकोडि उक्कोसं ठिई बंधति; न परओ / तिरियमणुयाउमेव बंधति त्ति काउं / असण्णिपंचिंदियस्स आउचिउ)क्के वि पलिओवमस्सासंखेज्जभागं उक्कोसो ठिईबंधो। एवं तियासी 83 एगसहि 61 आहारसत्तगं७ तित्थयरनामं१आउचउक्कं च / एवं छप्पण्णपयडिसयस्स टिईवंधो भणिओ / न य बंधे सम्ममीसाई।।७१।७५।। उक्कोसट्ठीईबंधो समत्तो / / इयाणिं जहन्नट्ठीबंधो भण्णइ दंसणचउविग्यावरणलोहसंजलणहस्सटिइबंधो / अंतमुहत्तं ते अट्ठ जसुच्चे बारस य साए // 72 // 76 // दसणावरणचउक्कं अंतरायपणगं नाणावरणपणगं लोभसंजलणस्स य अंतोमुहत्तं जहण्णट्ठीईबंधो / जसकित्तीउ उच्चगोयस्स य अट्ठ मुहुत्ता जहण्णट्टीईबंधो / सायावेयणियस्स बारस मुहुत्ता / / 72 / / 76 / / "दो मासा पद्धद्धं संजलणतिगे पुमट्ठ वरिसाणि / सेसाणुकोसायो मिच्छत्तठिईय जं लद्धं // 73 // 77 / / कोहसंजलणाए. दो मासा, माणसंजलणाए एगो मासो, मायासंजलणाए पण्णरसदिणाणि, पुरिसवेयस्स अट्ठवरिसाणि जहन्नट्ठीईबंधो / “संसाण कोसाओ मिच्छत्तठिईभ जलद्ध" Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे कहं ? भण्णइ-मिच्छत्तस्स सत्तरिकोडाकोडी उकोसा ठीई तीए सत्तरीए भागो हरिज्जइ / लद्धा सागरोवमस्स सात सत्तभागा / कसायाणं चालीस कोडाकोडी उ उक्कोसो ठीबंधोः सत्तरीए भागे पाडिए लद्धा चत्तारि सत्त भागा सागरोवमस्स | नाणावरण-दसणावरण-वेणियाणं अंतरायस्स य तीसं कोडाकोडी उक्कोसो ठीबंधो / तीसे सत्तरीए भागे पा.डए लद्धा तिनि सत्तभागा सागरोवमस्स / नामगोयाण य वीमं कोडाकोडी उक्कोसो ठीईबंधो वीसाए सत्तरीए भागे पाडिए लद्धा दुण्णि सत्तभ.गा सागरस्स / / 73/77|| एसेगिंदियजेटो पलियासंखंसहीणलहुबंधो / पणुवीसं पन्नासा सयं सहस्सं य गुणकारो // 74 // 78 // एगिदियस्स उक्कोसगो ठिईबंधो सव्वकम्माणं जहण्णगो पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणगो / एयं सामन्नेण जहण्णबंधो।। एवं मूलपयडीणं / उत्तरपयडीणं य एयाणुसारेण / जहा मणुयदुगस्स पण्णरससागरोवमकोडाकोडीओ, उक्कोसा ठीई / जहन्ना तस्सेव सत्तरिभागे पाडिए लद्धं सागरोवमस्स दिवड सत्तभागं। एवं सागरोवमस्स सहस्र / एवं सव्वेसिं अणुसारो वि भइयव्यो / एवं एगिदियस्स ठिईबंधो / एयाउ बेइंदियस्स पणवीसगुणो, एगिदियाउ तेइंदियस्स पन्नासगुणो, एगिदियाउ चउरिदि यस्स सयगुणो, एगिदियाओ असण्णिपंचिंदियस्स सहस्सगुणो // 74 // 78 / / कमसो विगलग्रसरणीण पल्लसंखंसऊणयो डहरो। सुरनिस्याउ समा दस सहस्स सेसाउ खुड्डुभवं // 7 // 7 // पलिओवमस्स संखेयभागूणो जहनो चउण्हं पि / देवाउयनरयाउयस्स य जहन्नट्ठीबंधो दसवरिससहस्साणि / "सेसाउ" मणुयाउयं तिरियाउयं जहण्णट्ठीपंधो खुड्डगभवं // 75||79 / / सहसगुणेगिदिठिई विउविछवके जयो असन्निसुतं / केसिंचि सुराउसमं तित्थं थाहारगंतमुहू // 76 // 8 // वेउब्वियछगस्स एगिदियाओ सहस्सगुणा वनइ / जओ असन्निपंचिंदियस्स जहन्नेण वि वेउव्वियछक्कगस्स बंधोः न एगिदिय-विगलिंदियाणं / केसिंचि आयरियाणं मएण तित्थयरनामस्स दसवाससहस्साई जहण्णो ठीईबंधोः आहारगस्स अंतमुहुत्तं // 76 / / 80 // भिन्नमुहुत्तमबाहा सव्वासि सव्वहिं डहरबंधे / पाउसु जिट्ठे वि जो संखेप्पद्धा भवे तेसु // 77 // 81 // अंतोमुहुत्तं आवाहा सव्वासि पयडीणं सव्वहिं जहण्णठीबंधे / आउयस्स विवरीयं जओ जेठे वि जहण्णा अबाहा, जहण्णे वि उक्कोसा अबाहाः एत्थ चउभंगो // 77 // 81 // Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरप्रकृतीनां जवन्यस्थितिबन्धमानस्याबाधाप्रमाणस्य खुल्लमवादिमानाय च कथनम् [26 खुड्डभवा साहीया सत्तरस हवंति एगपाणुम्मि / पाणू एगमुहुत्ते तिसत्तरा सत्ततीससया // 78 // 82 // पाणू-ऊसासनीसासो / तत्थ एगे ऊसासे खुड्डभवा सत्तरसा साहिया, केत्तिएण 1. आवलियाए चउणवईए साहियाए / “पाण" एगमुहुत्ते सत्तत्तीससया तिहत्तरा पारणूणं भवंति / / 78 // 2 // पणसट्ठिसहस पणसय छत्तीसा इगमहुत्त खुड्डुभवा / दोय सया छप्पन्ना श्रावलियाणेगखुड्डभवे // 7 // 83 // __ मुहत्ते दो नालिआओ। तत्थ खुड्डभवग्रहणा पणस द्वसहस्स पंचसया छत्तीसा भवंति / एगम्मि खुड्डभवग्गहणे आउमाणं दोसया छप्पण्णाए आवलियाणं / पणसट्ठीसहस्साणं पंचण्डं सयागं छत्तीसाणं खुड्डभवग्गहणेणं / दोहिं सएहिं छप्पण्णेहिं गुणित्तु आवलियाओ कीरति / पुणो सत्तत्तीसाए सएहिं तिहत्तरेहिं ऊसासाणं भागो हीरइ / लद्धाओ चउणवइआवलियाओ साहियाओ / एवं सत्तरस खुड्डभवा साहिया ऊसासे हवंति / 76 // 8 // श्रयरंतकोडिकोडीयो अहिगो सासणाइसु न बंधो / हीणो ण अपुव्वतेसु णेव य अभव्वसन्निम्मि // 80 // 8 // आसायणाइ जाव अपुव्वकरणो अंतोकोडाकोडिट्ठीईबंधो तारतम्मेण नाहिगो न हीणो अपुव्वंतेसु / अभव्वसण्णिस्स अंतोकोडाकोडी ठीबंधो जहण्णो वि न हीणयरो / / 80 // 84 / / अमणुक्कोसायो विरउक्कोसो देसविस्यहस्सियते / सम्मचरसन्निचउरो ठिबंधाणुकमसंखगुणा // 81 // 85 // पसंगागयं सव्वजीवट्ठाणेसु सव्वासिं जहण्णुक्कोसहिईणं अप्पाबहुगं भण्णइ / तत्थ सव्वत्थोवो संजयस्स जहण्णगो ट्ठितिबंधो 1 / (एगिदिवायरपज्जत्तगस्स जहन्नओ ठिइबंधो असंखेज्जगुणो 2 / सुहमस्स पज्जत्तगरस जहन्नओ विसे० 3 / ) एगिदियबादरस्स अपजत्तगस्स जहन्नो वि विसेसा० 4 / सुहुमस्स प० जहं० विसे० 5 / तस्सेवुक्कस्सद्वितीबंधो विसे० 6 / बादरस्स अपज्जतगस्स उस्को विसे०७ / सुहुमस्स पजत्तगस्स उक्क० विसे०८ / बादरस्स पज्जत्तगस्स उक्क० विसे० 9 / ततो बेइंदियस्स पजत्तगस्स जहं० संखेजगु० 10 / तस्सेव अपज्जत्तगस्स जह• विसेसा० 11 / तस्सेवुक्कस्स विसे० 12 / बेइंदियस्स पज्जत्तगस्स उक्को विसे० 13 / तेइंदियस्स पज्जगस्स जहण्णो संखेज्जगुणो 14 / तस्सेव अपज्जत्तगस्स जहण्णगो विसेसाहिओ 15 / तस्सेव उक्कोसो विसेसाहिओ 16 / तेइंदियपज्जत्तगस्स उक्क० विसेसा० 17 / चउरिदियस्स पज्जत्तस्स जहण्णो संखेज्जगुणो 18 / अपज्जत्तगस्स जहं० विसेसाहिओ 16 / तस्सेव अपज्जत्तगस्स उक्कोसो विसेसाहिओ 20 / चउरिंदियस्स पज्जत्तगस्स उक्क० विसे० 21 / Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3.] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे असण्णिपंचेंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णगो ठितिबंधो संखेज्जगुणो 22 / तस्सेव अप० जहं० वसेसो० 23 / तस्सेवुक्कस्सगो विसे० 24 / असण्णिपंचेंदियस्स पज्जत्तगस्स (उक्क०) ठिईबंधो विसेसाहिओ 25 / ततो संजयस्स उक्कस्सगो ठितिबंधो संखेज्जगुणो 26 / “विरए देसजदुगे सम्मचउक्के य संखगुणे" त्ति, ततो देसविरयस्स जहण्णओ ठिईबंधो संखेज्जगुणो 27 / तस्सेवुक्कस्सगो ठितिबंधो संखेज्जगुणो 28 / “देसजतिदुगे' त्ति, देसविरयस्स जहण्णुक्कोस्स ति भणियं होइ। “सम्मचक्के य"त्ति, अस्संजयसम्मदिट्ठी। पज्जत्तापज्ज तयाणं जहण्णुक्कोसगं ति भणियं होति / देसविरयस्स उक्कोस्साओ ठितिबंधाओ असंजयसम्मादिहिस्सपज्जत्तगस्स जहं०ठिति० संखेज्जगुणो 26 / तस्सेव अपज्जत्तगस्स जहं० ठिति० संखेज्जगुणो 30 / तस्सेवुक्कस्सओ ठितिबं० संखेज्जगुणो 31 // असंजयसम्मदिहिस्स पज्जत्तगस्स उक्कस्सगो ठितिबंधो संखेज्जगुणो 32 / 'सण्णीपज्जत्तियरेसु"त्ति / अस्संजयसम्मदिहिस्स पज्जत्तगस्स उक्कस्सगाओ ठितिबंधाओ सण्णिपंचिंदियपज्जत्तगस्स जहण्णओ ठितीबंधो० (संखगुणो) 33 / तस्सेव अपज्जत्तगस्स जह संखेज्ज० 34 / तस्सेवुक्कस्सगो ठितिबंधो संखेज्जगुणो 35 / "अभितरओ उ कोडाकोडीए' ति / एवं संजयस्स उक्कोसाओ आढत्तं कोडाकोडीओ अभंतरओ भवंति / “उक्कसो सण्णिस्स होइ पन्ज. त्तगस्सेव" त्ति पुव्वं सामण्णेण उक्कोसगो भणिओ, सो सण्णियस्स पंचिंदियस्स पज्जगस्स मिच्छादिहिस्स चेव भवइ 36 / / / / 81 / / 85 / / ठितिबंधठाणपरूवणा भणिया / / सव्वाण वि पयडीणं उक्कोसं सन्निणो कुणंति ठिई / ' एगिदिया जहन्न असन्निखरगा य काणं वि // 82 // 86 // सव्यासि पयडीणं उक्कोसो ठिइबंधो सण्णिरसः न सेसाणं | उक्तं च-"उक्कसो सण्णिस्स होइ पज्जत्तगरसेव" / "एगिदिया जह" जहण्णं-जहण्णठीबंधं एगिदियाइ नवोत्तरपयडिसयस्स / असण्णिपंचिदिया वेउव्वियएक्कारसगरस जहण्णट्टिइबन्धगा / खवगा बावीसाए पयडीणं जहण्णढीवन्धगा। चकारात् अपुवकरणो आहारसत्तगस्स तित्थयरनामस्स या तिरियमणया आउयचउक्कस्स जहण्णट्ठीवन्धगा। उवतं च"आहारगतित्थयरं नियट्टि अनियट्टि पुरिससञ्जलणा / बन्धइ सुहुमसरागो सायजसुच्चावरणविग्घ // 1 // छण्हमसण्णी कुणइ जहां ठीमाउगाणमण्णयरो / सेसाणं पज्जत्तो बायरएगिदियविसुद्धो // 2 // " सव्वाणुकोसठिई असुभा सा जमइसंकिलेसेणं / // 2 // 86|| - इयरा उ विसोहीए सुरनरतिरियाउए मोतु // 83 // 8 // . सव्वाण वि पयडीणं उक्कोसा ठीई असुभा / जओ सव्वसंकिलिट्ठो मिच्छदिट्ठी आहारसत्तग- - तित्थयरनाम-देवाउय-मणुयाउय-तिरियाउयवज्जाणं सव्वपयडीणं उक्कोसंठीई बंधइ / नवरं सुभपयडीणं तप्पाउगसंकिलिट्ठो। सा असुभा असुभरुक्खफलविवागवत् असुभपयडीणं सुभपयडीणं वालुयकवलोवमानीरसा तओ असुभा / तित्थयरनामस्स अविरयसम्मदिट्ठी आहारसत्तगस्स Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 ] जीवभेदेषु स्थितिबन्धाल्पबहुत्वस्योत्कृष्टजन्यस्थितिस्वामिनो जीवस्थानेषु योग्.वृद्धथल्पबहुत्वस्य च दर्शनम् अपमचसंजओ तप्पाओगसंकिलिट्ठो उक्कोसं ठीई बंधइ / संकिलेसो-कसाओदओ सो असुभो / देवाउस्स विसुद्धो उक्कोसं ठीई बंधइ / जओ सुहपरिणामेण देवाउयस्स बंधो। मणुयतिरियाउयाण वि विसोहीए उक्कोसो ठीबंधो जओ तप्पाओगविसुद्धा बंधइ / इयरा जहण्णं विसुद्धो सव्वपयडीणं ठीई बंधइ / आउयविवरीयं आउगाणं तप्पाओगसंकिलिट्ठो जहण्णट्ठी बंधइ // 83 / / 8 / / पसंगागयं भण्णइ सुहुमनिगोथाइखणे जोगो थोवो तो असंखगुणो / बायरबियंतियचंउमणसगिणपजत्तगजहन्नो // 4 // 8 // साहारणस्स सुहुमस्स लद्धीए अपज्जत्तगस्स पढमसमए वट्टमाणस्स अप्पवीरियलद्धिस्स जहण्णओ जोगो सव्वत्थोवो / “पायरबिगतिगचउमणअसण्णिअपजत्तगजहण गो'' त्ति ततो बादरएगिदियस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो। बेइंदियस्स अपज्जत्तगस्स जहण्ण ओ जोगो असंखेज्जगुणो / एवं तेइंदियस्स चउरिदियस्स असन्निपंचिंदियस्स सन्निपंचेंदियाणं पज्जत्तअपज्जत्तगाणं जहन्नगो जोगो कमसो असंखेज्जगुणो ||84 // 8 // 'प्रढमदुगुक्कोसो सिं पजत्तजहन्नगेयरो अकमा / असमत्ततसुकोसो पजत्तजहन्नजिट्ठो . य // 85 // 86 // " आदिद्गुक्कोसोत्ति, आदिदुर्ग-सुहुमबायरएगिदिया अपज्जत्तगा, तेसिं उक्कोसो / ततो परिवाडीए असंखेज्जगुणो / सुहुमस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसगो जोगो असंखेज्जगुणो / बादरस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसगो जोगो असंखेज्जगुणो अ। "सिं पजत्तजहण्णगेयरे य कम" ति, तेसिं चेव सुहुमवायराणां पज्जत्तगाणं करणं पडुच्च जहण्णुक्कोसगा जोगा कमेण असंखेज्जगुणा / तओ सुहुमस्स य पज्जत्तगस्स जहण्णजोगो असंखेज्जगुणो / बादरस्स पज्जत्तगस्स जहण्णओजोगो असंखेज्जंगुणो / ततो सुहुमस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसगो असंखेज्जगुणो / बादरपज्जत्तउक्कोसगो जोगो असंखेज्जगुणो। "उक्कस्मजहण्णियरो असमत्तियरे असं[खेज्ज](ख)गुणो" त्ति, 'उक्कोसगं" ति बेइंदियाईणं अपज्जत्तगाणं उक्कोसो, "जहनियरो"त्ति तेसिं चेव पज्जत्तग जहन्नगो "इयरो" उक्कोसो "असमत्तियरेसु"त्ति अपज्जत्तगपज्जत्तगेसु असंखेज्जगुणो नेयव्यो / बादरएगिदियति पज्जत्तगस्स उक्कस्सगाउ बेडंदियस्स अपज्जत्तगस्स उक्कस्सगो जोगो असंखेज्जगुणो / तेइंदियस्स अपज्जत्तगस्स उक्कस्सजोगोऽसंखेज्जगुणो। चउरिदियस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोस्सगो जोगो असंखेज्ज० / असण्णिपंचिंदियस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसगो जोगो असंखेज्जगुणो / सन्निपंचिंदियअपज्जत्तगस्स उक्कस्सजोगो असंखगुणो / एते सव्वे लद्धीए पज्जत्तगा गहिया / 1 व्याख्यानं पुनः "आदिदुगुक्कोसो सिं पज्जत्तजहण्णगेयरे य कमा। उक्कस्सजहणियरो असमत्तियरे असंखगुणो / / 8 / 89 // इति गाथानुसारेण कृतम / Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे बेइंदियस्स पज्जत्तगस्स जहन्नगो असंखगुणो / करणेण पज्जत्तगस्स / ततो हिडिल्ला ठाणा लद्धिपज्जत्तगस्स करणेणं अपज्जत्तगस्स भवति / ततो बेइंदियस्स पज्ज० जह० जोगो असंखगुणो। तेइंदियपज्ज०जह जोगो असंखगुणो / चउरिदियपज्ज० जह० असंगु० / असण्णिपंचेंदियस्स पज्ज० (जह०)जोगो असंखगुणो / सन्निपंचिंदियस्स पज्ज० जह० जोगो असंखेज्जगुणो / सव्वे करणपज्जत्तीए पज्जत्तगा / ततो बेइंदियपज्ज० उवकस्सजोगो असंखगु० / तेइंदियपज्जत्तगस्स उक्कोसो जोगो असंखगु० / चउरिंदियपज्ज० उक्को० जोगो असंखगु० / असण्णिपज्जतगस्स उक्कोसगो जोगो असंखेज्जगुणो / सण्णिपज्जत्तगस्स उक्को• जोगो असंखेज्जगुणो // 8 // 86 / / ठीबंधाधिकार एवं भण्णइ एवं चिय ठिठाणा अपज्जपजकमेण संखगुणा / नवरमसमत्तबिंदियइकपए ते असंखगुणा // 86 // 10 // ठितीबंधट्ठाणाई ठितीबंधट्ठाणाई / जहणिगहितिं आदि काऊणं जाव उवकस्सिगहिई / तेसि मज्झे जत्तिया ठितिविगप्पा ते उक्कसियाए ठितीए समं ठितिवंधट्ठाणा वुच्चंति। ताणि सव्वथोवाणि सुहुमस्स अपज्जत्तगस्स ठितिबंधट्ठाणाणि / वादरस्स अपज्जगस्स द्वितिबंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि / सुहुमस्स पज्जत्तगस्स ठितिवंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि / बादरस्स पज्जत्तगस्स ठितिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुण / एवं तेसिं पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागमेत्ताणि ठितिबंधट्ठाणाणि / ततो बेइंदियस्स अपज्जत्तगस्स ठितिबंधट्ठाणाणि, असंखेज्जगुणाणि / कहं 1 ते बेइंदियाईणं ठितिबंधट्ठाणाणि / पलिओवमस्स संखेज्जतिभागमेत्ताणि काउं / तस्सेव पज्जत्तगस्स ठितीबंध० संखेज्जगुण / (तेइंदियस्स अपज्जत्तगस्स ठितिबंध० संखेज्जगुण / तस्सेव पज्जतगस्स ठितिबंध० संखेज्जगु० / चरिंदियस्स अपज्जत्तगस्स ठितिबंध संखेज्जगुण / तस्सेव पज्जत्तगस्स ठितिबंध० संखेज्जगुण / असण्णिपंचिदियस्स अपज्जत्त० ठितिबंध० संखेज्जगु० / तस्सेव पजत्तगस्स ठितिबंध०संखेनगु० / सण्णिपंचिंदियअपज्ज०ठितिबंधट्ठा संखेज्जगु० / तस्सेव पज्जत्तगस्स ठितिबंधठाणाई संखेज्जगुणाई॥८६॥९॥ सव्वे वि अपजत्ता हुंति पइक्खणमसंखगुणविरिया। संखगुणूणा सुहुमेसु बायरेसु य असंखगुणा // 87 // 11 // सव्वे वि अपज्जत्ता समए समए असंखगुणविरियवुडीए वट्टति / जाव उक्कोसगो अपज्जत्तगोपजत्तगो अवट्ठियवौरिओहीणवीरिओ वा अहिगवीरिओ वा संभवइ / “संवगुणणा सुहमेसु" ति सम्वत्थोवा सुहुमा अपज्जत्तगा सुहमपज्जत्तगा संखेज्जगुणा। "बायरेसुय असंवगुण" ति / सव्वत्थोवा बादरपज्जतगा / बादरअपज्जत्तगा अखगुणा / / 87 / / 91 // . "ठिबंधे ठिबंधे अज्झवसाया असंखलोगसमा / . 1 व्याख्यानं पुनः “ठिइबंघे ठिइबंधे अज्झवसाण णऽसंख्यिा लोगा। हस्सा विसेसवुढी आऊणमसंखगुणवड्ढी / / 862 // " इति गाथानुसारेण विहितम् / Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्थानेषु योग-स्थितिस्थानाल्पबहुत्वस्य योगवृद्धिविशेषस्य स्थितिम्थानगताध्यवसायप्रमाणस्य 33 ___तथा अनुभागबन्धस्य निरूपणम् कमसो विसेसअहिया सत्तसु ग्राउसु असंखगुणा // 8 // 12 // - तत्थ पगणाए “ठितिबधे ठिइबंधे अन्झवसाणाणऽसंखिया लोग, ति, नाणावरणिज्जस्स जहणियाए ठिईए ठितिबंधज्झवसाणाणं ठाणाणि असंखलोगागासपएसमेत्ताणि / वितियाए ठिईए जाव असंखेज्जलोगागासपएसमेत्ताणि / ततियाए वि असंखेज्जलोगागासपएसमेत्ताणि / एवं जाव उक्कसिया ठिति त्ति / एवं आउगवज्जाणं सत्तण्ह वि कम्माणं / तेसिं अज्झवसाणहाणाणं दुविहा वडिपरूवणा / तं (जहा-)अणंतरोवणिहिया परंपरोवणिहिया य / तत्थ अणंतरोवणिहियाए “हस्सा विसेसड्ढि', ति नाणावरणिज्जस्स जहणियाए ठिईए ठितिबंधज्झवसाणठाणाणि थोवाणि / वितियाए ठिईए ठितिबंधज्झवसाणद्वाणाणं विसेसाहियाणि / ततियाए वि विसेसा० / एवं विसेसा० 2 जाव उक्कस्सिगा ठिति त्ति / एवं आउगवज्जाणं सतण्हं कम्माणं / "आऊणमसंखगुणवडि" त्ति, आउगस्स जहणियाए ठिईए ठितिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि थोवाणि / बितियाए असंखगुणाणि / ततियाए असं० / एवं असंखेज्जगुणाणि 2 जाव उक्कस्सिया ठिति त्ति / “परंपरोवणिहियाए / पल्लासंखियमागं गंतु दुगुणाणि जाव उक्कस्स // " त्ति। परंपगेवणिहियाए नाणावरणिज्जस्स जहण्णियाए ठिईए ठितिपंधज्झवसाणट्ठाणेहितो पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागं गंतुणं दुगुणवडियाणि अज्झवसायट्ठाणाणि | तओ पुणो पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागं गंतूणं दुगुणवडि० / एवं दुगुणवडिया२ जाव उक्कसिया ठिति त्ति ||88||62 // "ठीबंधो पसंगागओ वि समत्तो।। इयाणिं अणुभागबंधो भण्णइ असुभाण संकिलेसेण होइ तिब्बो सुहाग सोहीए। अणुभागो मंदो पुण विवजए सव्वपयडीणं // 86 // 3 // असुभपयडी बायासीई / सव्वसंकिलिट्ठो सव्वुक्कोसं अणभागबंधं बंधइ अमुभपयडीणं / सुभायडी बायालीसा। सव्यविसुद्धो सव्वुक्कोसं अणभागं बंधंति / अणुभागो मंदो पुण विवज्जए सव्वपयडीणं / असुहाण विसोहीए मंदो, सुहाण संकिलेसेण जहन्न अणभागं बज्झइ / / 8 / / 3 / / सतरस पयडी संजलण 4 विग्ध 5 पुदैसघाइ यावरणा 7 / चउठाणरसपरिणया दुतिचउठाणा उ सेसा उ // 10 // 4 // संजलणचउक्कं अंतरायपंचगं पुरिसवेयं देसवाइआवरणा-नाणचउक्कं दंसणतिग; एवं सत्तरस, चउट्ठाणरसपरिणया / कहं 1, चउट्ठाणणियं वा, तिहाणियं वा, दुट्ठाणियं वा, एगट्ठाणियं वा रसंबंधति / सेसाणं पयडीणं दुट्ठाणं वा, तिट्ठाणं वा, चउट्ठाणं वा / / 90||64|| पव्वयभूमी वालुयजलरेहासरिससंपराएहिं / / चउठाणाई असुहाण वच्चयायो सुहागां तु // 11 // 5 // ___ असुहपयडीणं, पव्वयसरिससंपराएहिं चउट्ठाणिो , भूमीसरिसतिद्वाणिओं, Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे वालुयसरिसदुट्ठाणिओ, जलरेहासरिससंपराएहिं एगट्ठाणिओ / उक्तं च-“एयाओ सत्तरसकम्मपयडीओ च उविहभावपरिणय" ति, एगट्ठाण-दुट्ठाण-तिद्वाण-चउट्ठाणभावसंजुत्ता। कई? अनियट्टिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गएसु एएसि कम्माणं एगट्ठाणिगो रसबंधो हवइ / सेसा तिणि वि संसारत्थाणं / पव्वयरायसमाणकोहस्स चउठाणिगो रसो / भूमीराइसमाणस्स तिहाणिगो रसो / वालुयउदगराइसरिसस्स दुट्ठाणिगो / / विवरीयं सुहपयडीणं जलरेहा-वालुयरेहासरिसचउठाणिओ रसबंधो भूमीरेहासरिसतारतम्मेन तिठाणिओ रसबंधो पव्वयरेहासरिसदुट्ठाणिओ रसबंधो / असुहपयडिपणसहीणं एवं चेवः नवरं विवरीयं भाणियव्वं // 9165 / / घोसाडइनिंबुवमो असुभाण सुभाण खीरखंडुवमो / एगट्ठाणो उ रसो अांतगुणिया कमेणियरे // 12 // 16 // असुभपयडीणं घोसाडीरसं निंबरसं अद्दहणे निदरिसणं / सुभपयडीणं इच्छुरसं माहिसं खीरं अद्दहणे निदरिसणं / विवागेण सव्वथोवो विवागो एगट्ठाणिए 1 / दुट्ठाणिए अणंतगुणो 2 / तिहाणिए अणंतगुणो 3 / चउट्ठाणिए अणंतगुणो 4 / उक्तं च-घोसाडइनिंबाण जाइरसतुल्लो एगठाणिरसो / तस्स वि य णेगभेया / जहा पाणीयदुमागतिभागचउभागसंमिस्साइ जाव अंतिमो रसलवो बहुपाणीमिस्सो व // 93 / / 96 / निंबुच्छरसाईणां दुतिचउभागा पुढो कढिज्जंता / , किल इक्कभागसेसा दुतिचउठाणा रसा कमसो // 13 // 17 // निंबरसो उच्छुरसो सभावत्थो एगट्ठाणिओ / दो भागा कढिज्जति, एगभागसेसो दुट्ठाणिओ। तयो भागा कढिज्जंति, एक्कभागसेसो तिट्ठाणिओ रसो / चत्तारि भागा कढिन्जंति एकभागसेसो चउहाणिओ६३।।१७। अणुभागबंधो समत्तो॥ इयाणि पएसबंधो भण्णइइगदुगणुगाइ जा अभवणांतगुणसिद्धांतभागाणू / खंधा उरलोचियवग्गणाउ तह अगहगांतरिया // 6 // 18 // . एगपरमाणू , दो परमाणू , तिण्णि परमारणू , जाव दसपरमाणू खंधोः संखेज्जपरमाणु असंखेज्जपरमाणू खंधो अणंतपरमाणू खंधो / ते सव्वे अग्गहणजोगा / अणताणंतपरमाणू खंधो अग्गहणजोगा जाव अभवसिद्धिएहिं अणंतगुणो खंधो। सा उरालियगहणजोगा वग्गणा जहण्णा परमाणुवुट्ठीए अणंताओ वग्गणाओ जाव उक्कोसो / तस्सुवरि ओरालियअग्गहणवग्गणा एगोत्तरियाओ जाव अणंताओ / / 64|18|| कमसो विउविश्राहारतेअभासाणपाणमणकम्मे / Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 35 अनुभागबन्धस्य तथा प्रदेशबन्धे वर्गणास्वरूपस्य प्ररूपणम् इंय वग्गणाऽवगाहो ऊणूणंगुलअसंखंसो // 15 // 11 // - तस्सुवरि वेउव्वियगहणवग्गणा / तस्सुवरिं वेउब्वियअग्गहणवग्गणा / तस्सुवरिं आहारगगहणवग्गणा | तस्सुवरिं आहारगअगहणवग्गणा / तस्सुवरि तेयगसरीरगहणवग्गणा / तस्सुवरि तेयगसरीरअग्गहणवग्गणा / तस्सुवरि भासागहणवाणा / तस्सुवरि भासाअग्गहणवग्गणा / तस्सुवरि आणपागुग्गहगवग्गणा / तस्सुवरि आणुपाणुअग्गहणवग्गणा / तस्सुवरि मणजोगग्गहणवग्गणा / तस्सुवरि मण अग्गहणवग्गणा / तस्सुवरि कम्मणसरीरजोगा गहणवग्गणा / इय वग्गणा / इयवग्गणावगाहो"त्ति, ओरालियवग्गणाणं अंगुलअसंखेज्जभागो अवगाहो / सेसाणं ऊणयरो, जाव कम्मइगसरीरवग्गणाओ॥६५॥६॥ एगोत्तरा अभव्वाणंतगुणा अंतरेसु अग्गहणा / . सबहि जुग्गजहन्ना नियगांतसाहिया जिट्ठा // 16 // 10 // "एगीतर"त्ति, ते ओगलियसरीरजहण्णवग्गणं आदि काऊण एगोत्तरवुडीए ताव गया जाव कम्मणसरीरउक्कोसा वग्गणा / 'अभव्वाणंतगुण'त्ति, अंतरंतरे य अग्गहणपाउग्गाओ वग्गणाओ जहण्णाओ वग्गणा उक्कोसा अणंतगुणा | को गुणकारो ? / अभवसिद्धिएहिं अणंतगुणो, सिद्धाणमणंतिमो भागो। एवं सम्बन्थ / “सबहिँ जोगजहण"त्ति, सम्वेसि जोग्गवगणाणं जहण्णाओ उक्कोसा विसेसाहिया / को विसेसो ? / तस्सेव अणंतिमो भागो / एवं सव्वत्थ / उक्तं च-"जाव तस्सुपरि एगे रूवे छुढे / कम्मगसरीरदठववगणा जहन्नाइपएसोत्तरा जाघ उक्कोसा। जहण्णा उक्कोमा विसेसाहिया / को विसेसो ? तस्सेव अणंतिमो भागो।” कम्मइगसरीरदव्यवग्गणा नाम अट्ठविहस्स कम्मस्प्त गहणं पवत्तइ / तं जहा-नाणावरणीयस्स दंसणावरणीयस्स, वेयणीयस्स, मोहणीयस्स, आउयस्स, नामस्स, गोयस्स, अंतरायस्स जाणि य दव्याणि घेतूण नाणावरणीयत्ताए जाव अंतराइताए परिणामिति जीवा ताणि दव्याणि कम्मगसरीरदव्ववग्गणा // 16-100 // 'जोगणुरूवं गिरिहय सुच्चिय दलियं जियो परिणमेइ / भासाणापाणुमणोचियं च अवलंबए दब् // 17 // 101 // जोगेहिं पुवुत्तहिं. तदणुरूवं ति, तेसिं अणुरूवं तदणुरूवं ति भण्णमाणा ओरालियादओ संबज्झति / अहवा जोगेहिं तवणुरूवं ति उक्कोसाणुक्कोसजहण्णजोगे पुग्गले वा। किं भणियं होइ ?, भण्णइ,-जहण्ण जोगजोगिस्स थोवा पुग्गला गहणमिति / उक्कोसजोगिस्स बहुगा पुग्गला गहणमेंतित्ति भणिय होइ / 'परिणामिय गिहिऊण पंचतणु"त्ति "परिणमिह"ति तब्भावताए परिणामेइ / जोगेहिं तेसिं अणुरूवे पोग्गले घेत्तूण ओरालाईहिं सरीरेहिं परिणामेइ जहा - 1. विवरणं पुनः 'जोगेहि तयणुरूवं परिणामिय गिहिऊण पंतगृ / पाओगे चालबइ भासाणुपाणुमणत्तणे खंघे / / 17 / 10 / / " इति गाथापाठमनुसृत्य कृतम् / Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे अगणिवणं पखित्तं अगणित्ताए परिणामेइ, तहा जीवो वि जोगेहिं तप्पाओगे पोग्गले घेत्तणं ओरालियाइसरीरत्ताए परिणामेइ / “पाओगे चालंबई"त्ति, भासाइपाउग्गे पोग्गले अवलंबइ / जहा पायाइविगलो उट्ठाणचंकमणाईणि काउकामो लढि अवलंबइ मुयइ य कारणं पडुच्चा एवं जीवो वि "भासाणुपाणमणत्तणे खंघे" त्ति, भासाआणुपाणुमणुजोगे य खंधे अवलंबित्ता भामाआणुपाणुमणत्तं य पारिणामिय मुयंइ त्ति भणियं होइ / / 97 / / 101 / / अप्पयरपयडिबंधी उक्कडजोगी य सन्निपज्जत्तो / कुणइ परसुक्कोसं, जहन्नयं तस्स वच्चासे // 18 // 102 // मूलपयडी वा उत्तरपयडी वा जो थोवाउ बंधइ, उक्कडजोगी-उक्कोसजोगी मुण्णी पज्जत्तगो सव्वविसुद्धो उक्कोसगं पएसं बंधइ / जहण्णयं तस्स विवरीयं / उक्तं च- .. "सुहमनिगोया पज्जत्तगस्स पढमे जहण्णगे जोगे। सत्तण्हं पिजहण्णो आउगबंधे वि आउस्स।।९८॥१०२।। अट्ठविहबंधगस्स अट्ठहिं भागेहिं दलियं कीरइ / तस्स अप्पाबहुयंगहियदलियस्स भागो बहुठिकम्मेसु होइ कमवुड्डो। वेयलिए सब्बोवरि तस्स फुडुत्तं न जेणप्पे // 11 // 10 // आउयस्स थोवभागलद्धं / जो तेत्तीसं सागरोवमाइं उक्कोसट्ठी / नामस्स गोयस्स दोहावि तुल्लो विसेसाहिओ। जओ वीसं मागरोवमकोडाकोडी उक्कोसा टिई / नाणावरणीयस्स दंसणावरणीयस्स अंतरागस्स तिण्ह वि तुल्लो विसेसाहिओ / जओ तीसंसागरोवमकोडाकोडीओ उक्कोसहीई / मोहणीयस्स विसेसाहिओ। जओ सत्तरिकोडाकोडी उक्कोसा ठीई / वेयणीयस्स विसेमाहिओ। जओ तस्स फुडत्तं न जेण अप्पा / सुहं वा दुहं वा अप्पदलिएण न अणु हविजइ // 66 / 103 // उत्तरपयडीणं भण्णइ पयडीण सव्वघाईण होइ नियजाइदलणतंसो / बझतीण विभज्जइ सेसं सेसाणमणुस मयं // 100!104 // दसणावरणीयस्स नव उत्तरपयडीओ सव्वघाई छ पयडीओ, भागलद्धं दलियं सव्वत्थोवं देसघाई तिण्णि पयडीओ, भागलद्धं दलियं अणंतगुणं / नाणावरणीयस्स उत्तरपयडीओ पंचा एगा पयडी सव्वघाई, भागलद्धं दलियं सव्वत्थोवं देसघाइपयी चत्तारि, भागलद्धं दलियं अणंतगुणं / अंतरायस्स उत्तरपयडीओ पंच, पंच वि देसघाई, पंच पि भागो। मोहणीयस्स उत्तरपयडीओ छव्वीसं सव्वघाई तेरह, भागलद्धं दलियं सव्वत्थोवंः देसघाई वि तेरह, भागलद्धंदलियं अणंतगुणं / “वझंतोणं" ति, आउयस्स उत्तरपयडीओ चत्तारिः बभंतियस्स य भागो। नामस्स अट्ठबंधट्टाणा / तेवीसा, पणवीसा, छव्वीसा, अट्ठावीसा, उगुणतीसा, तीसा, एगतीसा एगा जसकित्ती 11 बझंतस्स भागो // 100||104 / Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशबन्धे स्वामित्व-दलविभाजनयोस्तथैकादशगुणश्रेणीनां भणनम / 37 "कोरइ जिएण हेऊहि पगइठिइरसपएसओ जं तं / मूलुत्तग्लू अडवण्णसयपभेयं भवे कम्मं // " एयं जहाजोग्गं पाए वक्खायं / इयाणि जहावगमेण पसंगागयं आइमदेसे व लखियं सम्मत्तदेसविरयाइ भण्णइसम्मत्त१देसरसंपुनविरइउप्पत्तिणविसंजोए 4 / दंसणखवए 5 मोहस्स समग६उवसंत७खवगे य 8 // 101 // 105 / / सम्मत्तुप्पत्तिगुणसेढी 1, सावगगुणसेढी 2, संजयगुणसेढी 3, अणंताणुवंधिविजोजण. गुणसेढी 4, दंसणमोहखवगगुणसेढी 5, चरित्तउवसामगगुणसेढी 6, उवसंतकसायगुणसेढी 7, खवगगुणसेढी 8 // 101 / 105 / / खीणाइतिसु य 11 संखगुणगुणतोमुहुत्तकालाउ / गुणसेढी इक्कारस कमादसंखगुणदलियाउ // 102 // 106 // खीणमोहगुणसेढी ह, सजोगिकेवलिगुणसेढी 10, अजोगिकेवलिगुणसेढी 11 // "असंखगुणसे दिउदय"त्ति, सव्वत्थोवं सम्मत्तुप्पायगुणसेढीए दलियं / साबगगुणसेढीए असंखेज्जगुणं, जाव सजोगिकेवलिगुणसेढीए असंखेज्जगुणं, अजोगिकेवलिगुणसेढीए दलियं असंखेज्जगुणं / तम्हा उदयं पि पडुच्च अंसंखेज्जगुणं / एवं "तविवरीओ कालो असंखेज गुणसेटि" त्ति, कालं पडुच्च विवरीयाउ / सव्वत्थोवो अजोगिकेवलिगुणसेढिकालो / सजोगिकेवलिगुणसेढिकालो संखेज्जगुणो / एवं संखेज्जगुणो / संखेज्जगुणो जाव सम्मत्तुप्पत्तिगुणसेढिकालो / ठवणा-★ एसा पढमा / सेसाओ एत्तो उच्चत्तेणं संखेज्जगुणहीणाओ संखेज्जगुणहीणाओ। उवरि पोहत्तेण विसालाओ विसालाओ कायव्वाओजाव अजोगिकेवलिस्स। ठवणा-(१)। कहं ? असंखेज्जगुणं 2 दलियं / भण्णइ,-सम्मत्तउप्पाइनो मिच्छद्दिट्टी सो कम्मदव्वं थोवं थोवं खवेइ सम्मत्तनिमित्तं / मम्मत्तं पडिवनस्स तओ असंखेज्जतमाए सेढीए भवइ / तओ देसविरयगुणसेढी असंखेज्जगुणा, देसोवरयत्ताओ / तओ संजयगुणसेढी असंखेज्जगुणा, सव्वोवरमत्ताओ / अणंताणुवंधिगुणसेढी असंखेज्जगुणा / हेडिल्लाणं तिहं / तत्थ संजमं पडुच्च तिगरणसहिओ अणंताणुबंधिणो खवेइ त्ति काउं / तओ दंसणमोहखवगगुणसेढी असंखेज्जगुणा / जेण अणंताणुबंधिणो खवित्तु विसुद्धयरो दंसणतिगं खवेइ / एए सव्वे असेढिगयस्स लभंति / कसायउवसामगस्स गुणसेढीपडिवण्णा समए समए अणंतगुणविसोहीए चटंति / उवसंतगुणसेढी असंखेज्जगुणा / सव्वठीइउव्वट्टणाए लद्धमिति काउं। गुणसेढी परूवणा भणिया कम्मपंयडिसंगहणिचुण्णीओ // 102-106 // गुणसेढी दलरयणाऽणुसमयमुदयादसंखगुणणाए / एयगुणा पुण कमसो असंखगुणनिज्जरा जीवा // 10 // 107 // एवं गुणसेढीदलरयणविहिमाह-उक्तं च Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे उवरिल्लठिईहितो घेत्तूणं पुग्गले उ सो खिबह / उदयसमयम्मि थोवा तत्तो उ असंखगुणियाउ / 1 // बीयम्मि खिवइ समए तइए तत्तो असंखगुणियाओ / एवं समए समए अंतमुहुत्तं तुजा पुन्नं // 2 // दलियं तु गिण्हमाणो पढमे समयम्मि थोवयं गिण्हे / उवरिल्लट्ठीहितो बीयम्मि असंखगुणियं तु // 3 // गिण्हइ समए दलियं तइए समए असंखगुणियं तु / एवं समए समए जो चरिमो अंतसमओ त्ति // 4 // सेढीय कालमाणं दोण्ह वि करणाण समहियं जाण। खिज्जइ सा उदएणं जं सेसं तम्मि पक्खेवो // 5 // सम्मत्तुप्पायगुणसेढीअधिकारो बृहत्सत्तरीचुण्णीओ उद्धरियो / सेसाण वि पाएणं एसा विही दलरयणाए / किंचि विसेसो वि संभाविज्जइ / सो य सुत्ताओ नायव्यो / एयगुणा पुण कमसो असंखगुणनिज्जरा जीवा | मिच्छदिट्ठीओ अविरओ विसुद्धयरो / अविरयाओ देसविरओ विसुद्धयरो / एवं अजोगिकेवली जाव / एवं निज्जरा वि कमसो असंखगुणिया य // 103 / / 107 // गुणट्ठाणगेसु जहण्णुक्कोसअंतरमाह पलियासंखंतमुहू सासणइयरगुणयंतरं हस्सं / मिच्छस्स बे छसट्ठी इयरगुणे पुग्गलद्धंतो // 104||108 // सासायणस्स अंतरं जहणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं / कहं 1 सासणचागाओ मिच्छत्तं गओ मिच्छत्ते नियमा सम्मत्त उव्वलेइ / उव्वलणसंकमेणं सो य पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं उव्वलेइ / तओ सम्मामिच्छत्तं उव्वलेइ / छव्वीससंतकम्मिओ भवइ / तओ पुव्वकमेण करणं करित्ता कोइ सासणं गच्छिज्जा / एवं सासणस्स पलिओवमस्स असंखेजइभागं जहण्णं अंतरं / सेसाणं उवसंतं जाव अंतोमुहुत्तं जहण्णयं अंतरं दसण्हं / मिच्छदिद्विस्स उक्कोस अंतरं दो छावट्ठीओ सागरोवमाणं / इयरगुणे दस, तेसिं अंतरं उक्कोसं पुग्गलपरियट्टस्स-ऽद्धं देसोणं / / 104||108 // "पुग्गलपरियह" इति किं ? दवे खित्ते काले भावे चउह दुह बायरो सुहुमो / होइ अगांतुस्सप्पिणिपरिमाणो पुग्गलपरट्टो // 105 // 10 // ____दव्वओ पुग्गलपरियट्टो, खित्तओ पुग्गलपरियट्टो कालो पुग्गलपरियट्टो, भावओ पुग्गलपरियट्टो / एवं चउन्विहो / एककेक्को वि दुविहो, बायरो सुहुमो य / / 105 / / 106 // . तत्थ दव्वओ पुग्गलपरियट्टमाह उतणुमणवइपाणुत्तणेण परिणमिय मुयइ सव्वअणू / एगजित्रो भवमभिरो जत्तियकालेण सो थूलो // 106 // 110 // ओरालियसरीरं विउब्वियसरीरं तेयगसरीरं कम्मगसरीरं परिणामित्ताए मणत्ताए (वइत्ताए) ऊसासनाए परिणामित्ता य सबलोयपुग्गला एगेणं जीवेणं जत्तियकालेणं भयंतेणं मुक्का, सो वायरपरियट्टो // 106 // 110 // Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानकेषु जघन्योत्कृष्टान्तरस्य पुद्गालपरावर्तस्वरूपस्य वर्णनम [ 36 * सत्तराहयरेण उ इय फुसणे सुहुमदव्वपरियट्टो / अराणे चउतणुसु कमेणिमेण तं बिति दुविहं पि // 107 // 111 // चउण्हं सरीराणं, तिहं मणवइपाणुए, एगयरेणं सव्वलोयपुग्गला परिणामित्ता एगजीवेणं मुक्का ठवेज्जा तया सुहुमो दव्वपरियट्टो / 'अण्णं चउतणुसु" अण्णेआयरिया जया चउहिं सरीरेहिं सव्वपुग्गला परिणामिय 2 मुक्का हवेज्जा, तया बायरो दव्वपरियट्टो / जया चउण्ह एगयरेणं, तया सुहुमपोग्गलपरियट्टो // 107||111 / / लोगपएसो 1 सप्पिणिसमया 2 अणुभागबंधठाणा य 3 / पुट्ठा मरणेगा जया कमुक्कमा बायरुत्ति तया // 108 // 112 // लोगो.चउद्दसरज्जू , तस्स आगासपएसा / ओसप्पिणिगहणतो अवसप्पिणि वि गहिया / जहा दिवसे गहिए राई वि गहिया / तेसि जत्तिया समया / अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणा / लोगपएसा अणंतरपरंपरअपुणरुत्तं जया मरणेण फासिया ठवेज्जा, तया चायरो खेत्तपुग्गलपरियट्टो / एवं ओसप्पिणिसमया फासिया हवेज्जा, तया बायरो कालपुग्गलपरियट्टो / एवं अणुभागट्ठाणा वि / नवरं सव्वेसु अणुभागवंधाणेसु अणंतरपरंपरअपुणरुत्तं उदए वट्टमाणो मरिज्जा, तया बायरो भावपुग्गलपरियट्टो // 108 // 112 / / पुट्ठाणांतरमरणेण पुणा जया ते तया भवे सुहुमे / पोग्गलपरियट्टो खितकालभावेहिँ इय नेयो॥१०॥११३॥ "अणंतरमरणेणं ति एसो आगासपएसो विवक्खिज्जइ / तत्थ पएसे स उ पुणो तस्सेव अणंतरं जइ मरइ, तओ तस्स लेखए गणिज्जइ / अण्णत्थ मओ न गणिज्जइ / एवं अणंतरमरण सबलोगआगसपएसा फासिया हवेज्जाः तओ सुहमो खेत्तपोग्गलपरियट्टो / "ओसप्पिणि. समय" त्ति ओसप्पिणीए पढमसमओ विवक्खिज्जइ / तओ समऊणाओ वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ अइक्कंताओ बीयसमए मरणवारओ जइ तत्थ तओ लेखए गणिज्जइ / अन्नत्थ मओ न गणिज्जइ / एवं अणंतरमग्णेण वीसाणं सागरोवमकोडाकोडीणं जत्तिया समया। जया सव्वे अणंतरमरणेण फासिया हवेज्जा तओ सुहुमो कालपुग्गलपिरियट्टो / ठवणा (1) // 106 / 113 / / समयभवसुहुमयगणी असंखलोगा तो असंखगुणा। तेऊ तक्कायठिई कमसो अणुभागठाणा य // 11 // 123 // __ एगसमए भवा-जाया-उप्पणा एगळं / असंखेज्जाणं लोगाणं अत्तिया आगासपएसा, तत्तिया सुहुमअगणिकाइया एगसमएण उप्पज्जति मरंति या ते विवक्खया थोवा 1 / तेहितो तेओकाइया जीवंतगा असंखेज्जगुण 2 / तओ तेउकायकायठिई असंखेज्जगुणा 3 / तओ अणुभागबंधज्झवसायट्ठाणा असंखेज्जगुणा // तेसि जहण्णगमज्झिमउक्कोसमेयाणं अणेगा Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे भेया / कहं ?, भण्णइ-बाहुल्लओ। चउसमयट्ठाई, तओ अहिया जाव अट्ठसमयट्ठाई / तओ हीणा जाव उवकोसगा दुसमयट्ठाई / उक्तं चचउराई जावढगमेत्तो जावं दुगं तु समयाणं / पज्जत्तजहण्णाइ जावुक्कोसं ति उक्कोसं // 1 // * चउसमयट्ठाई असंखेज्जा पत्तेयं पत्तेयं जाव दुसमयट्ठाई वि असंखेज्जा / अओ भण्णइ अणेगा भेया / एएमि जो जहण्णगो अणुभागबंधज्झासायट्ठाणो सो विवस्खिज्जइ / तस्सोदए मओ बीओ अणुभागबंधज्झवसायट्ठाणो अस्पुभागपलिछेएहिं विसेसियरो जइ तत्थ मओ लेखए गणिज्जा अण्णत्थ मओ न गणिज्जइ / एवं बीयाउ तइओ अणुभागबंधज्झवसायट्ठाणो अणुभागपलिछेएहिं विसेसियरो / एवं तइयाओ चउत्थो, चउत्थाओ पंचमो, जाव उक्कोसगो अणुभागबंधज्झासायट्ठाणो / एवं अणुभागवंधज्झवसायट्ठाणा अणंतरमरणेण जया फासिया हवंति, तया सुहुमो भावपुग्गलपरियट्टो। एक्केक्को अणंताहिं उवसप्पिणिअवसप्पिणीहिं निहाइ // 116 / 123 / / भणिया पुग्गलपरियट्टपरूवणा लेसओ किंचि / इयाणिं पसंगागय जोगट्ठाणा भण्णइ-. जोगट्ठाणा सेढीअसंखभागो तयो असंखगुणा / पयडीभेया तत्तो ठिइभेयाणुक्कमेण तयो // 110 // 11 // सव्वत्थोवा जोगट्ठाणा१।तओ पयडीभेया असंखगुणारातओ ठीभेया असंखगुणा३ / / 110 // 114 / / ठिबंधझवसाया तत्तो अणुभागबंधठाणाणि / तोऽगांतगुणा कम्मपएसा तत्तो य रसछेया // 111 // 115 / / तो ठीइबंधज्झवसायट्ठाणा असंखगुणा 4 / तओ अणुभागबंधज्झवसायट्ठाणा असंखगुणा 5 / तओ कम्मपएसा अगंतगुणा 6 / तओ अणुभागपलिच्छेया अणंतगुणा // 111 // 115 / / दारगाहाओ / जोगहाणा कहं ? खेत्त सुहुमं कालाउ जेण अंगुलपएससेढीए / समयपएसवहारे असंखयोसप्पिणी हुंति // 112 // 116 // .. सुगमा // 112 // 116 // चउदसरन्जू लोगो बुद्रिकयो होइ सत्तरज्जुघणो / तद्दीहेगपएसा सेढी पयरो य तव्वग्गो // 113 // 117 // सुगमा / सेढीए असंखेयभागो जोगट्ठाणाणि सव्वाणि ति।। जोगो विरिय थामो उच्छाहपरक्कमो तहा चेट्टा / सत्ती सामत्थं ति य जोगस्स हवंति पज्जाया / / " तेसि ठाणाणि जोगठागाणि / सव्वजहण्णाओ जोगठागाओ आढवित्तु अणंतरणतरं विसेसाहियं जोगठाणं / एयाए जोगवुड्डीए ताव गयं जाव उक्कोसगं जोगठाणं ति / “सेविअ. संखेज्जइमो"त्ति, ताणि सव्वाणि जोगठाणाणि केत्तियाणि 1, लोगसेढीए असंखेज्जईमे भागे रज्जुघणो / Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगस्थानादिसप्तपदार्शल्पबहुत्व-क्षेत्र सूक्ष्मत्व-सूची श्रेणि-प्रतर-प्रकृतिभेदादिकथनम् [41 जत्तिया आगासपएसा तत्तियाणि जोगठाणाणि सव्वाणि वि / / 113 // 117 / / दारं / पयडीउ असंखिज्जा जं योहिदुगे वि तारतम्मेणां / अस्संखलोगखपएसपमाणा हुंति किल भेया॥११४॥११८॥ "जोगो हि जीवविरियं, तं भेया होति फुडमसंखेज्जा / तत्तो वि पगडिभेया असंखगुणिया विणिहिट्ठा / जम्हा ओहिविस भो उक्कोसो सम्वबहुयसिहिसूई / जेत्तिअमेत्तं फुसइ तेत्तियमेत्तप्पएसममा / तत्तारतम्मभेया जेण बहू होंति आवरणजणिया / तेणासंखगुणत्तं पयडीणं जोगओ जाण / " उक्तंच-"सव्वबहुअगणिजीवा निरंतरं जत्तियं भवेज्जासु। खेत्तं सव्वदिस गं परमोहीखेत्तनिहिट्ठा / / " // 114 // 118 / / दारं / श्रा जिठिई हस्सट्टिईउ समउत्तरा ठिईटाणा / सव्वपयडीसु एवं सम्बजियाणां, पि ठिइभेया // 115 // 11 // कहं ? एक्केक्काए पगईए जहण्णीउ आढवेत्तु, ताए जाव उक्कोसिया ठीई / एएसिं मज्झे जत्तियाणि तारतम्मजोगेण समउत्तरवद्रियाणि ठीठाणाणि, ताणि पगइसमूहेहिंतो असंखेज्जगुणाणि / एक्केक्कम्मि असंखेया भेया लब्भंति त्ति काउं / / 115 / / 11 / / दारं / ठिइठाणे ठिठाणे कसायउदया असंखलोगसमा / अणुभागबंधठाणा इय इक्केक्के कसाउदए // 116 // 120 // नाणावरणीयस्स जहनियाए ठीईए ठीइनिव्वत्तगा कसायउदयभेया असंखेज्जाण लोयाणं जत्तिया आगासपएसा तत्तिया / बीयाए ठीईए ठीनिव्वत्तगा कसायउदयभेया असंखेजाणं लोयाणं जत्तिया आगासापएसा तत्तिया / पुव्वेहितो विसेसहिया / तइयाए ठीईए ठीनिव्वत्तगा कसाउदयभेया असंखेज्जाणं लोयाणं जत्तियागासपएमा तत्तिया / पुव्वेहितो विसेसहिया / एवं ठीईए ठीईए निव्वत्तगा नाणावरणीयस्स जाव उक्कोसियाए ठीए ठीनिव्वत्तगा कसाउदयभेया असंखेज्जाणं लोयाणं जत्तिया आगासपएसा तत्तियाः कमसो विसेसाहिया। एवं सब्बकम्माणं सव्वपयडीणं जहण्णठीइं आई काऊण समउत्तराए सम उत्तराए जाव उवकोसियठीईए ठीनिव्वत्तगा कसायउदयभेया असंखेज्जाणं लोयाणं जत्तिया आगासपएसा तत्तिया कमसो विसेसाहिया। नवरं आउयस्स ठीए ठीए असंखेज्जगुणा / एवं ठीएहितो ठीबंधज्झवसाया असंखेज्जगुणा ।।दा।। . "अणुभागबंधठाणा इय एक्केक्क कसाउदए"ति, नाणावरणीयस्स जहण्णट्ठीनिव्वत्तगो जो सव्वजहण्णो कसाउदओ। तत्थ अणुभागबंधट्ठाणा असंखेज्जाणं लोयाणं जत्तिया आगासपएसा तत्तिया / बीइए कसायउदए अणुभागबंधट्ठाणा असंखेज्जाणं लोयाणं जत्तिया आगासपएसा तत्तिया। तइए कसाओदए असंखेज्जाणं लोयाणं जत्तियं आगासपएसमाणं तत्तिया। एवं जहण्णट्ठीनिव्वत्तगाणं कम्मेण कसाउदयभेयाणं जाव उक्कोसओ कसायउदयभेओ / तत्थ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे असंखेज्जाणं लोयाणं जत्तिया आगासप्पएसा तत्तिया / एवं नाणावरणीयस्स जहण्णट्ठीई आदि काऊणं सव्वठीइठाणेसु जाव उक्कोसिया ठी। ठीईए जहण्णकसायउदयं आई काऊण जाव उक्कोसियाए ठिईए उक्कोसओ कसाउदओ। तत्थ अणुभागवंधट्ठाणा असंखेज्जाणं लोयाणं जत्तिया आगासपएमा तत्तिया / एवं सव्वकम्मपयडीणं / अओ भण्णइ-ठीबंधज्झवसाणट्ठाणहितो अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणा असंखगुणा ।।११६॥१२०।दारं।। थोवाणुभागठाणा जहराणठिइपदमबंधहेउम्मि / बीयाइ विसेसहिया जा चरमाए चरमहेऊ // 117 // 121 // नाणावरणीयस्म जहण्णट्ठीईए निव्वत्तगो जो सव्वजहन्नो कसाउदयभेओ सो जहण्णट्ठिईए पढमो वंधहेऊ वुच्चइ / तत्थ थोवाणुभागबंधझवसायट्ठाणा "बीयाइ विसेसहिय" ति, बीयहेउए विसेसहिया (तइअए) चउत्थए हेउए विसेसाहिया विसेसाहिया जाव णाणावरणीयस्स जहण्णठीईए चरमो हेऊ / तत्थ विसेसाहिया / चरिमाओ बीयट्ठीईए पढमो हेऊ / तत्थ विसेसाहिया / एवं जाव निरंतरं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव बीयट्ठीईए चरमो हेऊ / एवं निरंतरं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव नाणावरणस्स उक्कोसटिईए जो चरिमो ठीभेओ / तत्थ जो चरिमो बंधहेऊ / तत्थ विसेसाहिया // 117 // 121 // इय असुभाण सुभाण उ विवरीयं जिट्ठठिइचरमहेऊ / श्रारम्भ निज अाउसु ठिई टिइं पइ असंखगुणा // 118 // 122 // एवं असुभपयडीणं / "सुहपयडीणं विवरीयं" ति, सायावेयणीयस्स पण्णरस सागरोवमकोडाकोडी उक्कोसा ठिई। तस्स जो चरिमो ठीभेओ / तस्स य जो चरिमो बंधहेऊ / तत्थ य सव्वत्थोवा अणभागवंधज्झवसाणट्ठाणा / दुचरिमाए विसेसाहिया, तिचरिमाए विसेसाहिया, एवं विसेसाहिया जाव चरिमाए पढमो बंधहेऊ / एवं दुचरिमाए ठीईए जाव चरिमो बंधहेऊ / तत्थ विसेसाहिया / एवं विसेसाहिया 2 जाव तस्सेव पढमहेऊ। एवं कमेण ओसरमाणा ओसरमाणा जाव सायावेयणीयस्स जहण्णाए ठीईए पढमबंधहेऊ / तत्थ सव्वुकोसा अणुभागट्ठाणा / एवं सव्वसुहपयडीसु / आउयस्स ठीईए ठिईए असंखेजगुणा / अओ भन्नइ ठिइबंधज्झवसायट्ठाणेहिंतो अणुभागबंधज्झवसायट्ठाणा असंखगुणा // 118 // 122 / / अंतिमचउफासदुगंधपंचवन्नरसकम्मइगखंधे / अभविश्रयणंतगुणिए गिराहइ तत्तियअणू समए॥१२१॥१२४॥ निद्धण्हं निसीयलं, लुखुण्हं, लुक्खसीयलमिति अंतिमचउफासाई दुनि गंधाई, पंच वण्णाई, पंच रसाई / "दवियंति, एक्कं बद्धं अणंतपएसियं अणंतपरमाणणं संघायं / तं Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणुमागबन्धस्थान-तदध्यवसायस्थान-कर्मप्रदेशा-ऽविभागपरिच्छेदानां सङ्ख्यायाश्च निदर्शनम् [43 कियत्परिमाणमिति चेत् , अभवियसिद्धिएहिं अणंतगुणा, सिद्धाणमणंतिमो भागो, एत्तियाणं - परमाणणं समुदाओ एए खंधे सव्वे वि तल्लखणा भणिया / कित्तिया ते / / अभवियाणं अणंतगुणा, सिद्धाणमणंतभागमेत्तखंधा एगसमएणं गहणं कम्मत्ता इंति / एवं अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाहिंतो कम्मपएसा अणंतगुणा ।।१२०||१२४॥दा।। गहणसमए अ जीवो नियपरिणामेण जणयइ रसाणू / सम्वजियाणंतगुणे कम्मपएसेसु सव्वे // 121 // 125 // कम्मपुग्गलेहितो वि अविभागपलिच्छेया अणंतगुणिया। कहं ?, भण्णइ,-जहा अद्दहणविसेसाओ सित्थेसु रसविसेसो दिट्ठो, तहा अज्झवसाणविसेसाओ कम्मखंधेसु रसविसेसोहवइ / अज्झवसाणाई अद्दहणतुल्लाइं / तंदुलथाणिया कम्मपएसा / जो एगम्मि सित्थे रसो विभजमाणो 2 भागं न देइ सो अविभागपलिच्छेओ / एवं कम्मखंधेसु जो अणभागरसो सो केवलनाणेणं विभजमाणो भागं न देइ ति सो अविभागपलिच्छेओ वुच्चइ / नारिसा अविभागपलिच्छेया एककेक्कम्मि कम्मपएसम्मि सव्वजीवाणंतगुणा लम्भंति / उपतं चगहणसमयम्मि * जीवो उप्पाएइ उ गुणे सपञ्चयो / सव्वजियानंतगुणे कम्मपएसेसु सम्वेसु // तेण कम्मपएसेहितो अविभागपलिच्छेया अणंतगुणा // 121 / / 12 / / दार।। इयाणि गणणासंखाणमाहसंखिज्जेगमसंखं परित्तजुत्तनिअपयजुयं तिविहं / एवमणंतं पि तिहा जहणमझुक्कसा सब्वे // 122 // 126 // संखेनं एगविहं / एगविहं पितिविहं / तं जहा-जहण्णं मज्झिमं उक्कोसं / असंखेज्जतिविहं / परित्तासंखेन्जं, जुत्तासंखेन्जं, असंखासंखेज्ज / एक्केक्कं पि यतिविहं / जहण्णयं मज्झिमं उक्कोसं। एवं अणतं पि तिविहं / परित्ताणतयं, जुत्ताणतयं, अणंताणतयं / एक्केक्कं पुण तिविहं / जहण्णय मज्झिमं उक्कोसं च // 122 // 126 / / संखेज्जगं जहरणं दुच्चिय मज्झिममयो परं बहुहा / जा उक्कोसं तं पुण चउपल्लपरूवणाइ इमं // 12 // 127 // संखेज्जयं दुविहं / गणणासंखेज्जयं, उवमासंखेजयं / गणणासंखेजयं अणेगविहं / तत्थ जहण्णयं दोच्चिय / मज्झिममओ परं बहुहा अणेगमेयभिन्नं जाव सयं सहस्सं लक्खं जाव चुलसी लक्खा पुव्यंगं भवइ / पुव्वंगगुणिया कमेण पत्त्यं पत्तेयं सत्तावीसं ठाणा / ते य इमे-पुव्वं 2 तुडियंगं 3, तुडियं 4, अउडंगं 5, अडडं 6, अवयवंगं 7, अवयवं 8, हुहुयंगं 6, हुहुयं 10, उप्पलंगं 11, उप्पलं 12, पउमंगं 13, पउमं 14, णलिणंगं 15, गलिणं 16, अनि उरंगं 17, अस्थनिउरं 18, अउयंगं 16, अउयं 20, नउयंगं 21, नउयं 22, मउयंगं 23, मउयं 24, Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 ] मृक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे चूलियंगं 25, चूलियं 26, सीसपहेलियंगं 27, जाव सीसपहेलियंते गणणासंखाणयं चउणउयं अंकट्ठाणसयं / अओ परं उपमासंखेज्जयं अणेगविहं जाव चउपल्लपरूवणाइ इमं // 123 / / 127 / / जंबुद्दीवपमाणा चउरो जोगुणसहस्समोगाढा / .. रयणपहरयणकडे भिदिय पुट्ठा वइरकंडें // 12 // 128|| जंबुद्दीवपमाणा चत्तारि पल्ला ठविज्जंति / जोयणसहस्सं अवगाहो रयणप्पहाए पढमं रयणकंडं जोयणसहस्मं भिदित्ता रयणप्पहाए बीयं वइरकंडं तस्स उवरितलं पुट्ठा / / 124 / 128 // पल्लाणवट्ठियसलागपडिसलागामहासलागक्खा / सव्वे सवेइअंता उवरिं ससिहा य भरियव्वा // 125 // 12 // अणवट्ठियपल्लासलागापल्लपडिसलागापल्ल३।महासलागापल्लं / / "सम्वे"त्ति, चत्तारि वि जोयणलक्खं आयामविक्खंभेणं तिउणं सविसेसं परिरएणं, जोयणसहस्सं ओगाहेणं, "सवेहय"त्ति, अट्ठजोयणियाए वेइयाए उच्चत्तेणं उवरिं सिहाए समं भारयव्वा / / 125 // 129 // तो कप्पणाइ केणइ सुरेण पढमो धरेत्तु वामकरे। इक्किक्कं दीवुदहीसु सरिसवं खिवित्र णिवियो॥१२६॥१३०॥ तो कप्पणाए केणइ सुरेण पढमं अणवट्ठियपल्लभरित्ता, वामहत्थे धरित्ता, उक्खित्तो / एगा सलागा दीवे, एगा समुद्दे, पुणा एगा सलागा दीवे, एगा समुद्दे, जाव एक्कक्केण निडिओ // 126 // 130 // दीवे जत्थुदहिम्मि य तदंतमेव पढमं व तं भरिउं / पुरो खिव इक्किक्कं दीवुदहिसु निट्ठिए तम्मि॥१२७॥१३॥ दीवे वा समुद्दे वा जत्थ चरिमा सलागा ठिया तं चेव तत्तियपमाणं अणवट्ठिअपल्ल' जोयणसहस्सं ओगाहेणं, अट्ठजोयणाणि उच्चत्तेणं, "तदंतमेव पढमं व तं भरि"ति, तं चेव अणवठ्ठिय पल्लं पढमं भरित्ता पुरओ खिवइ / “एक्केके"त्ति, जत्थ दीवे वा समुद्दे वा चरिमा सलागा ठिया / तओ परओ एगा सलागा दीवे एगा समुद्दे जाव एक्केकेण निट्ठिओ // 127 // 131 // खिवसु सलागापल्ले सरिसवमेगं पुणो तदंतं तं / पुत्वं व भरिसु खिवसु अ पुरयो पुण तम्मि निट्ठविए // 128 // 132 // सलागापल्ले एगंसरिसवं खिव / 'पुणो तदंतं" दीवे वा समुद्देवा जत्थ चरिमा सलागा ठिया पुणो तत्तियपमाणं अवट्ठियपल्ल भरसु खिवसु य पुरओ / जत्थ चरिमा सरिसवा ठिया ताओ पुरओ खिव / तम्मि निठिए // 128 // 132 // Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्ख्यास्वरूपम् बीयं सलागपल्ले खिव सरिसवमेवमेव पुण तंइयं / इय पुणरत्तणवट्ठिअभरणविरेत्रणसलागाहि // 12 // 133 // बीयं सरिसवं सलागपल्ले खिवसु / एवमेव पुणो तइयं पुणरुत्तं अणवद्वियं, सलागा, पुणरुत्तं अणबढ़ियं, सलागा, पुणरुत्तं अणवट्ठियं भरणविरेयणसलागाहिं // 129 // 133 // ... पुराणो सलागपल्लो पुव्वकमागयणवट्ठियो य तयो। सुचित्र सलागपल्लो उक्खिप्पइ खिप्पइ अ पुरो॥१३०॥१३४॥ . सलागपल्लो भरिओ / पुव्वकमेण आगओ अणवढिओ वि भरिओ / जाहे सलागपल्लो सरिसवं न पडिच्छइ, ताहे सो वि य सलागपल्लो उक्खिप्पइ खि पइ य पुरओ जत्थ सलागा न पडिया॥१३०||१३४॥ पुवकमनिटिठए तहिमेगं खिव सरिसवं तझ्यपल्ले / पुवं व निठिअंते अणवट्ठिअपल्लमेव खिव // 131 // 135 // पुवकमनिट्ठिए सलागपल्ले, पडिसलागापल्ले एगा सलागा खिवसु "पुध्वं व निहियते" जत्थ चरिमा सलागा. ठिया (तओ परओ) [तत्तियपमाणं] अणवट्ठियपल्ल [भरित्ता] खिवसु // 131 / / 135 // ... पुण तम्मि निठिए खिव सलागपल्लम्मि सरिसवं इक्कं / अन्नुन्नणवठ्यियो सलागपल्लं पुणो भरह // 132 // 136 // पुवकमेण निट्ठिए, सलागा सलागपल्ले खिवसु / एवं अणवढिओ। सलागपल्लो पुणो भरसु / तदंतं अणवट्ठियपल्लं भरित्ता खिवसु, सलागा खिवसु / पुणो तदंतं अणवट्ठियपल्लं भरित्ता खिवसु / एवं पुणरुत्तं जाव पुण्णं // 132 // 136 / / तेण पुण पडिसलागापल्ले भरियम्मि दोसु अ तमेव / ऊद्धरित्र पुन्वविहिणा सरिसवमेवं खिव चउत्थे // 133 // 137 // तेण सलागापल्लेण कमेण पडिसलागापल्लं भरियं / "दोसु य"त्ति अणवट्ठियपल्लं सलागापल्लं च दो वि भरिया। "उडरिय"त्ति ताहे पडिसलागापल्लं, उक्खिप्पइ पुव्वक्कमेण जत्थ न पडिया सलागा, तस्स परओ खिप्पइ, पुवकमेण निट्ठिए, एगा सलागा खिव चउत्थपल्ले // 133 // 137 // इत्र पढमेहिं बीयं तेहिं तइयं तु तेहि अ चउत्थं / भरणुद्धरणविकिरणं ता कज्जं जा फुडा चउरो // 134 // 138 // Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 ] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणे पढमेहि अणवट्ठियपल्लेहिं एक्केक्काए सलागाए सलागापल्लं भरसु / बीहि सलागापल्लेहिं एक्केक्काए सलागाए पडिसलागापल्लं भरसु / तइएहि पडिसलागापल्लेहिं एक्केकाए सलागाए महासलागापल्लं भरसु / भरित्ता उक्खिप्पंति उफ्खिवित्ता एगा दीवे एगा समुद्दे विक्किरिजंति, जाव कमेण चत्तारि वि पुण्णा / 134 // 138 // पढमतिपल्लुद्धरिया दीवुदही पल्लचउसरिसवा च / सव्वो वि एस रासी रूवूणो परमसंखिज्जं // 135 // 13 // पढमे तिहिं तिहिं पल्लेहिं दीवसमुद्देसु जे पश्खित्ता सरिसवा, ते उद्धरिया, चउपल्लसरिसवा य / “सव्वो वि एस रासो रूवूणो परमसंखेज्जो' एस सरिसवनिचओ रूवृणो परमसंखेज्जयं जेठं / एमेव रूवजुओ परित्ताऽसंखयं जहण्णं // 135 // 139 / / 'तं विवरिय इक्किक्के ठाणे ठावेसु तत्ति रासिं / अराणुराणब्भासे ताण होइ चउत्थं असंखिज्जं // 137 // 140 // जावइया सरिसवा तावइया पत्तेयं पत्तेयं रासीओ ठविति / ताओ कप्पणाए दस दस सरिसवा उ दस रासीओ कीरति / अण्णुण्णब्भासे ताण होइ कोडीसहस्सं तु / / 137 // 14 // तं पुण जहराणजुत्तं श्रावलियाए वि एत्तिथा समया। एकमा बितिचउपंचमे अ अराणुराणअभासे // 138 // 141 // चउत्थं / “एयकमा षितिचउपंचमे य अण्णुण्णअन्भासे", चउत्थस्स अण्णुण्णमासे सत्तमं असंखासंखयं होइ / सत्तमस्स अण्णोण्णब्भासे पढमं परित्ताणंतयं होइ / पढमस्स अण्णोण्णब्भासे चउत्थं जुत्ताणतयं होइ / चउत्थस्स अण्णोण्णमासे सत्तमं अणंताणतयं होइ // 138 // 14 // एत्तियमुत्तं सुने अन्नमयमयो चउत्थयमसंखं / वग्गियमिक्कसि जायइ जहन्नयमसंखयासंखं // 140 // 142 // एत्तियं सुत्ते / अण्णस्स आयरियस्स मएणं चउत्थं असंखेज्जं एक्कवारवग्गियं सत्तमं. असंखासंखयं भव // 140 / / 143 // रूवजुग्रं तं मझ सव्वहि स्वणमाइमुक्कोसं / तं वग्गिउं तिवारं दस पक्खेवे खिवसु एए // 141 // 143 // 1. "इय तिविहं संखेज्जं असंखयमिओ उ जेटुसंखेज्जं रूवजुयं संजायइ जहण्णयारित्तासंखं // 136 // इनि गाथा-ऽन्यत्रास्ति, इह पुनर्वृत्तौ नाधिकृतेति। 2 'सप्तमअसंखपढमच उसप्तमा-ऽणतया य / होति कमा रूवजुया ते मझा रूवूणा पच्छिमुक्कोसा // 13 // इति गाथा-ऽन्यत्र विद्यते, भत्र वृत्तौ नाधिकृतेति। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्ख्यास्वरूपम् [4. "तं वग्गिय तिवारं"ति तं कप्पणाए सयं 100 / एक्कवारवग्गियं 10000 / बीयवारवग्गियं 100000000 / तइयवारवग्गियं 10000000000000000 / तह वि उक्कोसो न भवइ तओ दसपक्खेवा खिप्पंति / ते य इमे // 141 / 143 / / लोगागासपएसा 1 धम्मा२धम्मेश्गजीवदेसा य 4 / . . दवट्ठिया णिगोया 5 पतेया चेव बोधव्वा 6 // 142 // 144 // चउदसरज्जू लोगो, तस्स पएसा पढमं 1 / धम्मत्थिकायपएसा बीयं 2 / अधम्मस्थिकायपएसा तइयं 3 / एगजीवप्पएसा चउत्थं 4 ! 'दव्वट्ठिय'त्ति बायर-सुहुमनिगोयपज्जत्ता-ऽपज्जत्तगचउक्कसरीररासी पंचमं 5 / 'पत्तेय'त्ति पत्तेसरीरा ते य अट्ठावीसाए जीवट्ठाणेसु जीवरासी छ8६॥१४२॥१४४|| ठिबंधझवसाया 7 अणुभागा 8 जोगछेत्रपलिभागा 1 / दोराह य समाण समया 10 असंखपक्खेवया दस वि॥१४॥१४॥ "ठिइपंधझवसाय"त्ति कसायोदयभेया सत्तमं 7 / 'अणुभाग'त्ति, अणुभागबंधज्झवसाया अट्ठमं 8 / "जोगछेयपलिभाग"त्ति, जोगो जीवविरियं सो बुद्धीए छिज्जइ छिज्जमाणो छिज्जमाणो जाहे भागं न देइ ताहे सो जोगपलिभागो वुच्चइत्ति / ते य एगजीवस्स असंखेज्जाणं लोगाणं जावइया आगासप्पएसा तावइया अविभागापलिच्छेया दिट्ठा / उक्तं च"पण्णाछेयणच्छिण्णा लोगासंखेज्जगप्पएससमा / अविभागा एक्केक्के होंति पएसे जहण्णेणं // " / "दोण्ह समाण य समय"चि दोन्नि, ओसप्पिणीउस्सप्पिणीओ, तासिं जा समयरासी एस दसमो 10 / एए दस पक्खेवा पक्खित्ता तह वि उक्कोसं न भवइ / / 143 // 14 // पुण वग्गिए तिखुत्तो तम्मि भवे लहुपरित्तयाणंतं / / तो तत्तिवारायो तत्तिमित्त ठवसु रासी // 144 // 146 // तो पुन्वक्कमेण तिण्णि वारा वग्गिज्जइ / तओ उक्कोसं असंखेज्जासंखेजओ लंपिऊण . जहण्णे परिचाणंतए पडियं // 144 // 146 // ताणराणोरणब्भासे जुत्ताणतं जहणयं भवइ / एवइन अभवजिया रासिम्मि अवग्गिए तम्मि॥१४५॥१४७॥ कंठा // 145 / / 147 // जायमणंताणंतं जहणयं तं य वग्गसु तिवारं / तह विपरं तं न भवे, तो खिवसु इमे छ पक्खेवे // 146 // 14 // Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणसमाप्तिः पुव्वकमेण तिवारा वग्गिज तह वि उक्कोसं न भवइ / तओ छ पक्खेवा खिपति // 146 // 148 // सिद्धा 1 निगोयजीवा 2 वणस्सई 3 काल पुग्गला चेव 5 / सवमलोगागासं 6 छप्पेएऽगांतपक्खेवा // 14 // 14 // सिद्धाणंता: तेसिं रासी पढमं 1 / “निगोयजीव" त्ति सुहुमबायरनिगोयपऊत्तापञ्जत्तगघउक्कजीवरासी बीयं 2 / "वणस्सइ"ति निगोयचउक्कजीवा पत्तेयवणा य वणस्सई बुच्चई तइयं / 'काल"त्ति, अईयअणागयद्धासमयरासी चउत्थं 4 / "पुग्गल"त्ति, सव्वपुग्गलरासी पंचमं / सव्वमलोगागासं"ति, लोगस्स च अलोगस्स च आगासपएसा / एए छ अणंतरासी उक्खिप्पंति तह वि उक्कस्सं न भवइ // 147 / 146 // पुण तिक्खुत्तो वग्गिय केवलवरनाणदंसणे खित्ते / भवइ अणंताणंतं जिववहरइ पुणा मज्झ // 148 // 150 // पुवकमेण तिण्णि वारा उ वग्गिज्जइ तहवि उक्कोसं न भवइ / तओ केवलनाणदंसणस्स य जो नेयविसओ, सो खिप्पए / एवं उक्कोसं भवइ // 148||150 // 'अन्नुन्नन्भाससमं वग्गिसंवग्गियं तयो केइ / सत्तमअसंखणंते तिवग्गठाणो तमाहु तिहा // 14 // 151 // 'जा विही अण्णुण्णभासे, सा विहीवग्गियसंवग्गिए' इति अण्णे आयरिया / तहा "सत्तमअसंखणते"ति, वग्गट्ठाणेसु तं आहु-उक्तवन्तः / तिण्णि वारा वग्गियं दसपक्खेवा, पुणो तिण्णि वारा वग्गियं / एवं 6 छसु वारासु पत्तेयं पत्तेयं कमेण अण्णुण्णभासं कारविति / एवं सत्तमअणंते वि छसु वि वारासु अण्णुण्णब्भासं कारविंति / / 146 / / 151 / नियगुरुवयणाउ सुयं सुयाउ जं सुमरियं च तं लिहियं / जं पुण उस्सुत्तमिहं मिच्छामिह दुक्कडं तस्स ||छ।।६०३।। . ॐ // टीकया समलङ्कृतं // श्रीमज्जिनवल्लभगणिप्रणीतं // .. ॥श्रा सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणं समाप्तम् // //////////////////////////////////////////////////////////// 1 अत्रा-ऽनधिकृतमप्यन्यत्र विद्यमानं व्याख्यातञ्चेदं गाथायुग्ममन्ते विद्यते- / / "नेयअइगहणयाए निबिउजडत्तेण नियमईएँ तहा / जमिहुस्सुत्तं वुत्तं मिच्छा मे दुक्कडं तम्स ||150 / / जिणवल्लभगणिलिहियं सुहमत्थविचारलवमिणं सुयणा। निसुणंतु मुणुतु सयं परे वि बोहिंतु मोहिंतु / / 151||" Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रथमे परिशिष्टे * षडशीतिप्रकरणसत्कान्येकादश यन्त्रकानि - Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या बादरके 1-2 जीवस्थानेषु गुणस्थान योगोपयोग-लेश्या बन्धो-दयो दीरणा-सत्तास्थान-बन्धहेत्व-ऽल्पवहत्वप्रदर्शियन्त्रकम् (प्रा० 4 कम गाथा 3 तः 11) 2 नानि जीवस्थानानि गुणस्था... मोग१३.उपयोगाः / 15 योगाः / 12 उपयोगाः | बन्ध- उदय-रदीर-सत्तान्थान्था० णास्था स्था० बन्धहेतवः अल्पबहुत्वम| अनु. x - क्रम मत्यज्ञान पौमिक ध्रुव० अष. सूक्ष्मवे.. श्रताज्ञान कार्मण 3 अशुभाः 7-8 8 / 31 +2 योग 33 प्रसंख्यगुणाः ग्रचक्षदर्शन ४३+तंजसी ,, + 2 ., ,, द्वीन्द्रिय अशुभाः , +2 +1 इन्द्रिय 34 विशेषाधिकाः श्रीन्द्रिय ., + 2,, +2 .. चतुरि"न्द्रिय 2 ., + 2, +3 , ,प्रसंजिप० - , + 2,.+4 +२वेद.7 36 असंख्यगुणा: 6 संक्षिपञ्चे. 2+ वैक ज्ञानत्रयमज्ञान मि० सर्वाः त्रय चक्षरचक्ष. ,, + 3..+ 4,+2., 40 A स्वयमूह्याः पर्या. सूक्ष्मैके. / प्रौदा अज्ञानद्वयमरिक चक्षुदर्शनम् अशुभाः 1, + 1 , 32 | सङ्ख्यगुणा: 13 , बादरके०११ प्रौदा + वैक्रि०२ , + 3, 34 अनन्तगुणा: 10 द्वीन्द्रिय. 1३+वचो० , +4 +1,, 34 विशेषाधिका: .. त्रीन्द्रिय + 4,+.. . चतुरिन्द्रि. 1 |३+नक्षुर्द ., + 4 +3,, 36 | संख्यगुणा: 2 1 प्रसंशिप -, +4 +4,,+2 वेद.7 36 विशेषाधिकाः 3 35 ', संज्ञिपञ्चे. सर्वे सर्व सर्वाः सर्वे सर्वाल्पा: सर्वाणि 4.5 / गाथाङ्काः 3 6-7-8 11. १०-श्रीरामदेवगणिकृतवृत्ती * अनाभोगमिष्यात्वं 1, षटकायस्पर्शेन्द्रियाविरतिसप्तकं 7, षोडशकसायाः 16, हास्यषटकं 6, नपुसकवेदश्चेत्येकत्रिशद् ध्रुवबन्धहेतवोऽत्र बोध्याः। एतदल्पबहुत्वं श्रीप्रज्ञापनाद्या मानुसारेणोक्त ज्ञेयम् / प्रस्तुतचतुर्थकर्मग्रन्थे तस्याऽदर्शितत्वात् / A अस्माकमाग नपाठस्यानुपलम्भाव। पर्याप्तेऽपर्याप्ते चास जिनि वेदद्वयमाकारमाश्रित्य धोध्यम् / Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप. सश्मैकेर तिर्यग.१ एकन्द्रिय. स्थावरकर प्रशानदयम-२ म.१ 36 27 मथ्या सास्वा०२ " 37 चतुर्दशजीवस्थानेषु मार्गणास्थानप्रदर्शियन्त्रकम् (चतुर्दशस्वपि जीवस्थानेषु मूलमागणास्थानानि चतुर्दशा-ऽपि सन्ति) (प्रा० 4 कर्म• गा० 10 श्रीरामदेवगणितणीतवृत्तौ पृष्ठः-७-८) मार्गणाजीवस्थानानि गतिः इन्द्रियम कायः योगः वेदः / ज्ञानम संयमः संयमः दर्शनम् / लश्या भव्यः | सम्य० संज्ञो आहा. SH सम्म सशविताः विताः एकेन्द्रिय. स्थावरका-काययोग असंय प्रथमा: 3 भव्या.ड-मिथ्यात्व. असं-पाहा. प्रचक्ष०१ ___ 1 या: 5 अशुभाः / भव्यौ 2 | निः१ अना.२ 4. " अप. बादरैके० 50 , प्रथमा:४ मिथ्या०१ *अपद्वीन्द्रियादीन्द्रिय.-१ त्रसका.-१ | प्रथमा:३ मिथ्या० सास्वा०२ 2 / 23 39 काययो. " " " विनोयो.२ . मिथ्या०शाहाल 22 40 अप.त्रीन्द्रिय , त्रीन्द्रिय.१ " काययो०१ मिथ्या " सास्वा०२ 2 2334 काययो.२ मिथ्या०. ग्राहा 22 / 40 अप० चतुरि " न्द्रिय मिथ्या. काययो.१ सास्वा०२ काययो.२ वचोयो. चक्षुरचक्षु. 2 मिथ्या०श.. पाहा०२३३९ अप.प्रसंजिपञ्च० मनु तिय. पञ्चेन्द्रि मिथ्या० A2 य०१ " अचक्षुदं०१ सास्वा०२ प. , तिर्यग्ग.१ , चक्षुरचक्षुदं. वचोयो मिथ्या० | ग्राहाल 25 37 अप. संजिगञ्चे० गतिचतु जानत्रि कमजाकाययो०१० चक्षुरधिदः * सा मित्रावना सज्ञिक :6 कम नत्रिकम् 6 " योगत्रिकम् जान० ५अज्ञा- सर्व भे- दर्शनचतुष्कम् सर्व भेदा: न०३ दाः७४ * इहा-ऽपर्याप्ताःकरणापर्याप्ता विवक्षिता ज्ञेयाः / तेनापर्याप्तबादरैकेन्द्रिये लेश्याचतष्कम् , अपर्याप्तबादरकेन्द्रियाद्यपर्याप्तजौवभेदषट के सास्वादन च दशित बोध म् / असं शिपञ्चेन्द्रिये वेदत्रिकं तु भाकारमात्रमाश्रित्य विजेयम् , अन्यथा केवलं नप सक वेदः। A अपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रिये मतान्तरेण ज्यगतिनं भवति / वचोयो. चतार 'काययो.१वदात्र कम् काययो y 3 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्यामागेणास्था०५ मार्गणास्थानेषु जीवस्थानप्रदर्शियन्त्रकम् (चतुर्थप्राचीनकमॅग्रन्थे गा० 18 तः 24) कायः योगः +-जीवस्था. ज्ञानम् संयमः लेश्याः भव्यः | सम्य आहा- माणा गाथा रीमख्या ङ्काः ज्ञान.३विभङ्ग अवधि.१ | पद्य द्विविधसंज्ञीA देव०२ उप.क्षायो संज्ञी शुक्ला०२ क्षा०३. सर्व० तिर्य. काययो० नपुंस. सर्व प्रज्ञानद्वय० प्रविरत प्रचक्षु० भव्याअशुभाः३ पाहा. मिथ्या०१ भव्यौर | २+अप.असं. मनु०१ चतुर्विधके० पृथिव्याएकेन्द्रिय.१ दि.५ द्विविधद्रीन्द्रिय | द्वीन्द्रिय०१ श्रीन्द्रिय त्रीन्द्रिय.१ चतुरिन्द्रिय. चतुरिन्द्रिय. 4 |x,,संझ्यसंज्ञि० पञ्च न्द्रिय. 10 चतुर्विध के०विना त्रसका.१ 20 पर्याप्तसंशी मनोयो० मन:प० | शेष०६ केवल०१ मिश्र०१ केवल०२ 5 पर्या.द्वीन्द्रियादि. वचीयो० कोपर्या॰चतुरिन्द्रि वक्षुदक यादयः३अपर्या.वा 23 अप.बादरैके० दुविधसंज्ञि०० तेजो०१ 24 अप.बादरैकेन्द्रि सास्वादन. यादय.६ प.सं.* 12 दुविधसंज्ञिवर्ज० 8 मपर्या.७प संझि अना हा.१। - A संज्ञिवजनरकगत्योघादिद्वादशमार्गणासु संक्यपर्याप्तः करणत एव बोध्यः, न त लब्धितः / * मनुष्यगतौ लब्बित एवापयाप्तासंज्ञो विज्ञयः / X स्त्रीपुमागणादये संश्यसंशिरूपावपर्याप्ती करणत एव / 7 तेजोलेश्यामार्राणायामपर्याप्ती बादरैकेन्द्रियसज्ञिनौ करणत एव / !* सास्वादने षडप्यऽपर्याप्ता: करणापर्याप्ता अवगन्तव्याः / भागमाऽभिप्रायणेहैकेन्द्रियो नास्ति / Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्र कषा गतिः आहा-मार्गणा - |री संख्या | गाथाङ्काः 27-30 यः संज्ञी असं.१ तेजोवायु०२ 4 5 27-26.3 / |27 28-32 28-31-32 28-31-33 28 प्राहा मार्गणास्थानेषु गुणस्थानप्रदर्शियन्त्रकम (प्राचीनचतुर्थकर्मग्रन्थे गाथा 27 तः 33) मार्गणा दर्शन- लेश्याः भव्यः सम्यकायः योगः वेदः | | ज्ञानम् संयमः +गुणस्था. यम श्त:४ / नरकदेव०० प्रसंयम०१ .१त:५ तिर्य०१ भब्य.१ मनुष्य०१ पञ्च.१ त्रसका०१ / सर्वाणि 1-2 शेष०५ पृथ्यब्वन०३। अभ.१ मिथ्याला १त:१३ शुक्ला०१ १तह सर्व३, शेष श्तः१० लोभः. ४तः१२ ज्ञान०३ ६त:१२ मन:प०१ 13-14 केवल०१ श्त:२/३वा अज्ञान०३ सामा.छेदो. ६ताह परिहार०१ 6-7 दश०१ सूक्ष्म०१ 4 Mi-1-1-1-1-1-1-1-1------------ 1 4 - ११तः१४ यथाख्यात०१ शेष०२ प्रभा तज.पद्म 2 श्तः१२ १तः६A श्तः७ ४त.७ ४तः१४ ४तः११ वेदक०१ क्षायिक.१ उपशम.१ मिब०१ साम्बा.. अना 13-14 * संजिनि द्रव्यमनोऽपेक्षया सयोगिकेवलिगुणस्थानम् , प्राचीनद्रव्यमनोऽपेक्षया-ऽयोगिकेवलिगुणस्थानम् / A मतान्तरे-१ तः 4 गुणास्थानानि / Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानेषु योगप्रदर्शियन्त्रकम् (प्राचीनचतुर्थकर्मग्रन्थे गा० 34 तः 41) ओघतः सत्या-ऽसत्य-सत्यासत्या-ऽमत्या-ऽमृषामनश्चतुष्कवचश्चतुष्कौदारिकद्विकवैक्रियद्विकाहारकद्विक कार्मणकाययोगलक्षणाः पञ्चदश योगाः (गा. 34) संख्या मार्गणा→ +-योगा: गार इन्द्रियम् कायः योगः ज्ञानम् संयमः संजी।आहा-माणा गा वत्वम / १५-पाहा०२, नरक० रकः संख्या थाङ्काः प्रौदा०२. श्यामव्यः सम्य. देव०२ १५-पाहा०२, तिर्य.. अज्ञान मिथ्या. 3 अभअसयम०१ | सास्वा० व्य. उपशम० अचक्षुर क्षा०, संज्ञा वधि 2" सर्वा:६ भव्य:१ क्षायौ०२५ सर्व पञ्च०१ त्रस.१ काय.१ शेष०२ + 5 ज्ञान०३ एके०१ बायु.१ 2 / 37 | 38 शेष०३ 'मनुष्य. सर्वे प्रौदा०२, वैक्रिय०२ काम व्य.वचो.,ौदा... 3 | X " : 13 १५-औ०मि०,कार्म० मनो०२, वचो. 2, औ०२, का / मनो०४, वचा०,४ शेष०४ शेष८२ चक्षु० मन.पर्यव. सामा० छेदो०२ केवल केवल०१ मा परिहार सूक्ष्म०२ यथाख्यात. 240 मनो.४,वचो 4, मो.२, का., 40 " औ.. . देश०१ ". प्रो. वै मिश्र०१ अस जी.१ व्य. वचो० प्रौ३ व०२, का० १५-कार्मण कार्मण० पाहा. प्रना. Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजी आहा सर्वा: था सवार मार्गणास्थानेषूपयोग-लेश्याप्रदर्शियन्त्रकम् (प्राचीनचतुर्थकर्मग्रन्थे गाथा 42 तः 52) ओघतो ज्ञानपञ्चक-ऽज्ञानत्रिक-दर्शनचतुष्करपा द्वादश उपयोगाः कृष्ण-नील कापोत-तेजः-पद्म शम्ललेश्यालक्षणाः षड़ लेश्याश्च संख्या गण | गतिः इन्द्रियम् | कायः योगः वेदः कषा- ज्ञानम् / संयमः सम्य-उपयोगाः। 5 क्त्व म् / सर्वे मनु०१ पञ्च.१ | वस०१ सर्व 3. 3. शुक्लार भव्य.१ संज्ञी प्राहा१ 13 43-44 १२.केवल०२,मनः प्रसंयम०१ प०. यः रक: 43 शेष०३ अज्ञानद्वयमचक्षु० शेष०३ | शेष०५ 8 / 43 44. चतुरि०१ अस. अज्ञान०२ चक्षुर चक्षु० | १२-केवल द्विक० सर्वे४ चक्षरचक्षुः शेषा:५ ज्ञान०४ संयमाः४ अवधि०१ वेदक.उप. ज्ञान०४ दर्शन०४ केवलद्विकम केवल.१ केवल०१ अज्ञानत्रय. 3 प्रज्ञान०३चक्षुरचक्षु. प्रभ-सास्वा० व्य. मिथ्या 2 6 48 . है ज्ञानपञ्चक,दर्शन०३ यथाख्यात०१ क्षायिक. 46 देश०१ 6 ज्ञान०३, दर्शन०३ 1, (अज्ञानमिश्र०) १२-मन:प०,चक्षु +-लेश्याः प्रना. अशुभाः नरक०१ विकले.३ तेजोवार शेष०३ पञ्च 01 त्रस०१ सर्वे३ सर्व३ सर्व एके०१ शेष०३ शेष०७ शेष.५ शेष०३ सर्वाः पद्मशुक्लवर्जा: सर्वे संज्ञो सर्व०२ प्रसज्ञो 4 केवल सूक्ष्म० / यथाख्या०२ केवल०१ 1 शुक्ला 1 स्वीया सर्वां.६ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवाः मार्गणास्थानेष्वल्पबहुत्वप्रदर्शियन्त्रकम् (प्राचीनचतुर्थकर्मग्रन्थे गाथा 53 तः 64) [8 गतिः इन्द्रियम् कायः योगः / वेदः कषायः ज्ञानम् मनुष्या० सर्वाल्पाः पञ्चेन्द्रियाः सर्वाल्पाः त्रसकायाः / सर्वाल्ग: मनो० सर्वाल्पाः पुरुषा' | सर्वाल्पा: मानिनः सर्वाल्पा: | मन.पर्य सर्वाल्पा: निरयाः / असं.गु. चतुरिन्द्रियाः | विशेषा विशेषाधिका: तेजःकायाः असंख्यगुणाः वचो० असंख्य गुणा: स्त्रियः / संख्यगुणा: क्रोधवन्तः अवधि. मसंख्य गुणा: धिकाः ., त्रीन्द्रिया: पथ्वीकाया: विशेषाधिकाः काय० अनन्तगूणा: न सका: अनन्तगणा: मायिनः मति० विशेषाधिकाः तिर्यचः प्रणंतगुणाः| द्वीन्द्रियाः अप्कायाः लोभवन्तः श्रुत० तुल्या : एकेन्द्रियाः अणन्तगुरु वायुकाया: विभङ्ग | असंख्यगुणा: वनस्पति | अणन्तगुणा: केवल० अणन्तगुणा: मत्य० श्रता. तुल्या : गाथाङ्काः + 53 54 54-55 57-58 संयमः दर्शनम् लेश्या मव्यः सम्यक्त्वम् संज्ञी आहारका सूक्ष्म० / सर्वाल्पाः / अवधि. सर्वाल्पाः। शुक्ल. | साल्पा: | अभ. सल्पिा : सास्वादन सबोल्पा: / संजिनः सर्वाल्पा | अनाहारकाः सल्पिा: परिहार. सङ्ख्यगुणाः असङ्ख्यपद्म. अनन्त. संख्यगुणाः भव्या: अनन्त गुणाः उपशम | संख्यगुणाः | असंज्ञिनः प्राहारकाः | असंख्यगुणाः गुणाः यथाख्यात. केवल. अनन्ततेजो. मिश्र० छेदोप. प्रचक्षु. कापोत० अनन्तगुणा: वेदक असख्यगुरगा: सामायिक. नील० विशेषाधिका: क्षायिक अनन्तगुणाः देश० असंख्यगुणा कृष्ण०. मिथ्या० गुणाः गुणा: " मसंयम. अनन्तगुणाः गाथाङ्काः + 59 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्यः सम्य - / . . | लेश्या 50 सर्वे प्रचक्षू. संज्ञी मार्गणास्थानेषु बन्धहेतवः (प्राचीनचतुर्थकर्मग्रन्ये गाथा 64 श्रीरामदेवगणिवृत्तौ पृष्ठ 26) बन्धहेतवः गतिः इन्द्रियम कायः योगः | वेदः कषाय | संयमः दशनम क्त्वम अना.मि थीपु.प्रोग्रा.२विना नरक०१ पाहारकद्विक विना तिर्य०१ प्रज्ञानत्र.३ असंयम 1 प्रभब्य मिथ्या. मनुष्य०पञ्च 01 त्रस०१ काय.१ प्रथमा:४ भव्य: अना.मि.,नपु.प्रौ.राहा.रविना 52 देव०१ ध्रुव.३१+प्रो.२,वै.२,काम 36 एके वायु.१ ध्रुव३१+ौ.२.का,+१इंदिय+बच 36 द्वीन्द्रिय 01 ध्रुव.३१+,, ,, + 2 ., .. त्रीन्द्रिय. + + , " +3 , ,, चरि०५ " + " " शेष०४ यो.. मि., कार्मण० विना अना मि , प्रौमि. . का:विना| मनो.१ पांडवक्ख.२,पाहा.२ विना 38 वना . स चक्ष 54 शष. |- བ ལ ལ བ ལ མ ཁ འབལ བ ལ བ |ལལལ མཚ| བདལ བ བ ལ 7/0/- ཟླ.| ཀ 48 क्षायि० क्षयो०२ मनः मिथ्या.५, . अनं.४ ., सज्व.४,नोक९,प्रो.मि.,का विना योग 13 मनो.२, वचो., 2au. 2 का. सं.४,नोक.८,मनो.४.वचो.४,औ.८ मनो.४,वची.४,ौ 2, का.. सर्व४ मतिश्रुता अवधि वधि. सामान्छेदो 2 पर्यव०१ केवल कवल परिहार०१ यथाख्यात सूक्ष्म० 1 देश०१ पद्म-शुक्ल. " . औ.,सं.लो. 58 अवि.११ क.८ नोक ७.यो.१३, अना० मि. विना ५७-मि..५ अनं ४,पाहा.२ उपशम ४६-पौ.मि.,वै मि.,का / ५७-मिथ्या 5, पाहा.२ चतुरि०३८+१इंदिय,वेद 2. कार्मण विना मिथ्या.५, अवि.१२,क.२६.काम..] उपशम. मिश्र०१ सास्वा०१ प्रसंज्ञी प्राहा१ 1 प्रना.१ 1 Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] - मूल / मार्गणास्थानेषु मार्गणास्थानप्रदर्शियन्त्रकम् / योगः / वेदः | कषायः मार्गणास्थानानि उत्तर गतिः इन्द्रियम् कायः स्वीया०१ पञ्च०१ त्रस.१ / सर्वे३ ' सर्वे४ नरक० oc or तिर्यग्गति० सर्वाणि 5 गतिः 11 पञ्च 01 / मनुष्य० * देव० सर्वे 6 , 3 / सर्षे 3 | , 4 प्रस०१ / / 3 , 3 , 4 3 स्त्रीपुसौर , 4 c / अस० विना 5 काय.१ नपु 4 ,1 | एकेन्द्रिय० / तियं.१ - स्वीयम् 1 द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय० / सर्वाः४ , 1 | त्रस०१ काय-वचो०२ , 1 / इन्द्रियम् , 1 | सर्वे 3 सर्वे३ , 4 नपू०१ , 4 पृथ्व्य०वनस्पति० तिर्य.१ / एकेन्द्रिय०१ / स्वीयः 1 | काय.१ काय.१ तेजोवायु कायः कायः 4 त्रस० सर्वाः४ | एके० विना 4 , 1 | सर्वे३ | मनो० पञ्च०१ / स०१ | , 3 | योगः वचो. , 1 | एके० विना४ 1 काय सर्वाणि ce || सर्वे६ 3 . "2 पुरुष० / 3 स्वीय: 1 , 4 वेदः 1 | स्त्री० x नरक० विना३/ पञ्च'.१ x | देव० ,, 3] न सर्वाणि 5 / / सर्वे 6 क्रोध-मान माया० सवाः 4 स्वीयः१ / कषायः / कषायः लोभ० , 4 / पञ्च०१ त्रस०१ 3 3 सर्वे 4 मतिश्रुतावधि. 'मनःपर्यव० मनुष्य० 1 , 1 / / , 1 ज्ञानम् केवल प्रज्ञानद्वय० सर्वाः४ / सर्वाणि 5 / सर्वे 6 सर्व 4 वभङ्ग 4 / पञ्च०१ - त्रस०१ / Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व०२ (प्राचीनचतुर्थकर्मग्रन्थे गाथा-६४ श्रीरामदेवगणिकृतवृतौ पृष्ट-२३-०४-२५) [ 11 संभ- असंभज्ञानम् / संयमः | दर्शनम् | लेश्याः भव्यः सम्यक्त्वम् संज्ञी | | आहारी विता: विताः ज्ञान०३,प्रज्ञा०३, असंयम०१ केवल० प्रशुभा.३ सर्व०२ सर्वाणि 6 संजी विना 3 | 35 | 27 " , 6 देशसं०२ " सर्वाः 6, 20 सर्व०२ सर्वाणि 8 | सर्वे 7 | सर्वाणि 4 ज्ञान-३,प्रज्ञा०३/ असंयम.१ 6 संज्ञी केवल० 2 द " विना३ सास्वा० प्रज्ञानद्विक०२. अचक्षु०१ प्रथमा:४ 1 ,2 28 मिथ्या०२ अस सर्वाणि - चक्षुरचक्षु सर्वाणि४ | सर्वाः 6, 2 सर्वे सर्वाणि 6 | सर्व०२ प्रज्ञानद्वय०२ असंयम०१ प्रचक्षु.१ प्रथमा:४ , सास्वा० मिथ्या०२ अस 1 224 / / "1 अशुभा: 3, 2, मिथ्या०१. FERREETEEEEEEEEEE सर्वाणि 8 सर्वे सर्वाणि४ सर्वाः६ सर्वाणि 6 | सर्व० 2 " 8 | संज्ञी 1 पाहा०१/ 51 6 " 2 | 6 सर्व.२ ,1 55 , 6 , 2 सव० 2 ज्ञान०४,प्रज्ञा.३. सूक्ष्म.यथा. विना केवल०विना |,6, 2 ,6 संज्ञी१, 245 परि० सू० यथा०४ सूक्ष्म० यथा. | विना 5 6 , 2 6 सर्व०२ , 2 55 اس اس اس ,2 56 3 " 6 भव्य.? 2 सम्यक्त्वत्रिक. | मिश्र.४ / संजीर सम्यक्त्वत्रिक. ,244 15 x 4 संयमपञ्चकम् 5/" "3 " 6 माहारी। केवल० | यथाख्यात०१४ केवल०१ शक्ला०१, 1 | क्षायिक०१। 1 सर्व०२१ मज्ञानत्रिकम् 3/ असंयम०१ चक्षुरचा सास्वा० क्षु०२ सर्वा:६सर्व०२ | सर्व०२ 2 मिथ्या०२ 45 ___ .3 , 2 , 6, 2 , 2 संज्ञी० 1 , 2 35 / 27 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ] सामा० छेदोप० / मनुप्य०१ / परिहारविशुद्धि सूक्ष्मस पराय० 0 . 4 ., 1 / , 3 . लोभ यथाख्यात. . संयम ~ ~ ~ ~~ / देश० सर्वे 4 m अस यमः चक्षु तिर्यग्मनु० .3 सर्वे३ सर्वाः 4 सर्वाणि 5 / सर्वे६ / 3 , 4 चतू० पञ्चे०२ स०१ / 3 / सर्वाणि 5 सर्वे 6 प्रचक्षु० ~ दर्शनम् ~ अवधि. A | ., 4 / पञ्चे० 1 त्रम०१ ~ केवल. मनुष्य०१ प्रप्रशस्ता: सर्वाः 4 | सर्वाणि 5 / सर्वे 6 , 3 / सर्वे३ सर्व : नरकः विना३ एके० पञ्चे०२ जोवायू वि.४ पञ्चे०१ / त्रस०१ 3 तेजो पद्म० शुक्ल " : लेश्या ~~~~ / भव्यः ~ ~ भव्य सवो 4 सर्वाणि 5 सर्वे 6 अभव्य० वेदक० 4 / पञ्च.१ त्रस०१ // उपशम० 1 / क्षायिक० सम्यक्त्वम् मिश्र सास्वादन. , 4 / सर्वाणि 5 तिजोवायू०४ बिना 4 मिथ्यात्व० संज्ञिक , 4 / पञ्चे०१ त्रस०१ , 3 | आहारी. संज्ञी - सन असंज्ञि तिर्यग्मनु० 2 | सर्वाणि 5 सर्वे 6 काय-वचो०२ नपू०१ पाहारि० / सर्वाः४ | , 5 , 6 / सर्वे 3 अनाहारि०१ / / 4 / , 5 , A मति-श्रुता-ऽवधिज्ञानत्रया-ऽवधिदर्शनमार्गणाचतुष्के मिश्रदृष्टेििनत्वस्वीकृतमताभिप्रायेण मित्रसम्यक्त्वं दर्शितं ज्ञेयम् / अन्यथाऽज्ञानमिश्रत्वेन तस्य ज्ञानित्वास्वीकृताभिप्रायेण पुनर्मि सम्यक्त्वं विना त्रिचत्वारिंशन्मार्गणास्थानान्युक्तमार्गणाचतुष्टये भवन्ति / Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 13 केवलोन ज्ञान०४ स्वीय: 1 केवल०विना३६ केबलविना३ . 6 भव्य:१ सम्यकत्वत्रय पाहा०१ 33 | 26 ., 3 शुक्ला०१, 1 उप. क्षायि.२ 1 .11 सर्वज्ञानानि 5 सर्वाणि४ |" "2 , सर्व०२ केवल० सम्यक्त्वत्रिका ज्ञान 03, विना३ , 1 पाहा०१ | सर्वाणि 6 सर्व०२५३ जान.३ प्रज्ञा.३.६ ,, ज्ञा०४७ सर्वे " X4 त्रीणि सम्य संज्ञी१ क्त्वानि मिश्र./ , ا ة ا ایمان اس ام | سابا | سرا - केवल० यथाख्यात०१। केवल०१ शुक्ला०१ , 1 / क्षायिक०१ ज्ञान.४, प्रज्ञा०३,सूक्ष्म.यथा. विना केवल०विना 3 स्वीया 1 | मर्व० 2 | सर्वाणि 6 " 7 1 " // 7 सर्वाणि 8 / सर्व 3 / सर्वाणि४ 5 | सर्वाः६ भव्य०१ भज्ञानत्रय०३ असंयम०१ चारचक्ष०२, 6 अभव्य० मिथ्यात्व०१, 2 / / केवलोनज्ञान०४ | सूक्ष्म० यथा विना केवल०विना३, 6 भव्य०१ स्वीयं 1 संज्ञी , . " 1 र 2 .. 2 सर्व०२५२ 2 ज्ञानपञ्चक०५ | सर्व 7 सर्वाणि 4 , 6 ज्ञानमिश्राज्ञान 3 प्रसंयम०१ वे वलवर्ज०३, 6 असंयम० 1 वे वलवर्ज० 3 .. 6 / ,1 // 1 , 1 पाहा०१ , 1 प्राहा०१ 33 अज्ञानत्रय०३ , 1 ., , 3 1 " चक्षुरचक्षु०२ ., 6 सर्व०२ , 1 सर्वे०२ , 2 44 18 सर्वाणि 8 / सर्वे . सर्वाणि 4, 6, 2 | सर्वाणि 6 | संज्ञी | , 2 | 52 10 सास्वा० प्रज्ञामद्विक०२ असंयम०१ चक्षुरचक्षु०२ प्रथमाः 4, 2 सर्वाणि 8 | सर्वे स र्वाणि 4 | सर्वाः६ , 2 | सर्वाणि 6 सर्व० 2 पाहारि. 1 61 | 1 मनःप०विना 7 यथा.सं.,प्रसं० 2 चक्षुर्वज०३ | , 6, 2 मिश्रःविना , 2 अनाहा०१ | 53 / / * मनुष्यगतो मतान्तरेणा-ऽसंज्ञो नास्ति / X अत्र वेदद्वयेऽसंझी स्त्रीपुरुषवेदाकारमाश्रित्वैव / मिथ्या प्रसज्ञी 1/ 2 Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] गुणस्थानकेषु जीवस्थान-योनों-पयोग-लेश्या-बन्धो-दोर्दीरणा गुणस्थानानि 14 जीवस्थानानि | 15 | योगाः उपयोगा लेश्याः 6. सो मिथ्यात्क० | 14 सर्वाणि | 13 | पाहारकद्विकोना: | 5 | अज्ञानत्रय० चक्षुर चक्षुर्द० सू०विना षडपर्या. सास्वादन | * पर्या. संज्ञि० | 13 मिश्रोष्ट 1 पर्याः संज्ञि० | 10 मन०४. वचो०४ ,ज्ञानत्रय० दर्शनत्रय० प्रौदा०,40 (अज्ञानमिश्र) अविरतसम्य० | 2 | द्विविध संज्ञि. | 13 | पाहारकद्विकोनाः | 6 जानत्रय० दर्शनत्रयः 6 देशविरत० | 1 | पर्या. संज्ञि. मन०४ वचो०४ औ०, 02 प्रमससंयत० 13 श्री. मि.,काम०विना 7 ज्ञान०४ दर्शन०३ अप्रमत्तसं० सुभाः मनो०४, वचो०४, मो०, वैर, आ०, मनो०४. वचो०४ अपूर्वकरण शुक्लाः औ० अनिवृत्तिबादर० सूक्ष्मसंपराय० उपशान्तकषाय० 1 क्षीणकषाय० सयोगिकेव० / सत्य०,व्य० मनो०२ .. वचो०२/२ औ०२ काम० केवलज्ञानम् में दर्शनम् प्रयोगिकेव० | 1 गाथाङ्काः - 65 . / 66-67-68-66 . 70.71 * इहा.ऽपर्याप्ता: करणापेक्षया ज्ञेयाः, लब्ध्यपेक्षया पुनः पर्याप्ता एव / * सिद्धान्तमतेऽकेन्द्रिया न भवन्ति / V सिद्धान्तमते ज्ञानवर्यामह स्वीकृतम्। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तास्थान-बन्धहेत्व-ऽल्पबहुस्त्वप्रशियन्त्रकम् (चतुर्थेप्राचीनकर्मग्रन्थे गाथा-६५ तः 85) [15 बन्धहेतवः अल्पबहुत्वम् अनुक्रम बन्धस्था उदयस्था-उदीरणा-सत्तास्थानानि | नानि स्थानानि, नानि | मूल० | उत्तर- बन्धहेतवः माहारकद्विकं विना अनंतमु. ५५-मिथ्यात्वपञ्चकम् प्रसं० गु० ५०-अनं०४, मौ० मि०, वैकमि० का० 7-8 8 3 - 46 43+au0 मि०, वै० मि० कार्मण ४६-त्रसका०,अप्रत्या०४, प्रौदा०मि० कामण, ३९-अवि०, 11, प्रत्या०४, - + ग्राहा०२, . 2 - 26 संख्यगु० 8 6 . 8 2 | 24 २६-प्रा. मि., 40 मि०, | २४-पाहा०, वैक्रिया, - तुल्या: २२-हास्यषट्कम् तुल्याः 10 १६.संज्वलनत्रिक-वेदत्रिकं० विशेषाधिका: | १०-संज्वलन लोभ० सर्वाल्पा: संख्यगु० प्रथमान्तिममनोद्वयक , ,, वचो, पो.मौ.मि.कार्मण, अनंतमू० 20 | | 882-83 81 7 4-75-76-77 84-85 x सिद्धा अप्यत्र संगृहीता द्रष्टव्या: A मतान्तरेऽशुभलेश्मात्रयं चतुर्थगुणस्थानं यावत्सम्भवेन पञ्चम-पटमुषस्थानद्वये न सन्ति / Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / कषा -1 यम गुणस्थानकेषु मार्गणास्थानप्रदर्शियन्त्रकम् (प्राचीनचतुर्थकर्मग्रन्थे गाथा 73 तमायां श्रीरामदेवगणिकृतवृत्तौ पृष्ठ 29-30) [ 16 मार्गणाःगतिः इन्द्रि। कायः योगः वेदः | यः ज्ञानम् | संयमः | दर्शनम | लेश्या | भव्यः सम्यक्त्वम् संज्ञी आहारकः समः असम असं यमः चक्षुरचक्षुः सर्वाः 6 | सर्व०२ | मिथ्या० 1 | सर्व०२ | सर्व० 2 44 / 18 मिथ्यात्व० सर्वाः सर्वा . सब 6 सर्वे३ सर्वे३मप्रज्ञानत्रिकम सास्वादन तेजोवायु० विना५ भव्य०१ सास्वा०५ 41 21 मिश्र त्रस० प्रज्ञ मिश्र ज्ञान 3. मतिश्रुतावधि. केवल० विना 3 मि०१ संज्ञी 1 पाहा०१ अविरतसम्य सम्यक्त्व. त्रयम् / सर्व.२ 36 | 26 देश०A | तिर्य ग्मन. मनु " ,' पाहा० 1 33 26 - " देशसं०१ केव०विना सामान्छेदो ज्ञान०४ परि०३ प्रमत्त० ष्य०१ अप्रमत्त " ". |शुभाः 3 32 / 30 | " सामा०छेदो०, अपूर्व शुक्ला उपक्षायि.२ 28 | 34 अनिवृत्ति / 28 | 34 सूक्ष्म 0 नोभ 1 . सूक्ष्म उपशान्तमो० " यथाख्यात०१ 20 42 क्षीणमो. क्षायिक.१ " सयोगि. केवल०१ केवल. सर्व.२ | 1 प्रयोगि० " | अना. * इह सास्वादनगुणस्थानके सिद्धान्ताभिप्रायेगकेन्द्रिया न सन्ति, ज्ञानत्रिकञ्चास्ति; न त्वज्ञानत्रिकम् / जीवसमासादिग्रन्थाभिप्नामेण केन्द्रियविकलेन्द्रिया-उसशिनो न सन्ति / A मतान्तरेण देशविरति प्रमत्तसंयतगुणस्थानद्वयेऽशुभलेश्यात्रयं नास्ति। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - अथ द्वितीये परिशिष्टे . प्राचीनकर्मग्रन्थषट्कमूलगाथा-द्वितीय-चतुर्थ-पञ्चम-षष्ठकर्मग्रन्थभाष्यगाथाः सप्ततिका सारगाथास्तथा सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणमूलभाष्यगाथाः / - - Page #599 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // श्री आत्मानन्द-कमल-दान-प्रेमसूरिसद्गुरुभ्यो नमः // // अहंम् / / श्वेताम्बराग्रण्यश्रीमद्गर्गमहर्षिविरचितः कर्मविपाकाख्यः प्रथम: कर्मग्रन्थ : ववगयकम्मकलंक, . वीरं नमिऊण कम्मगइकुसलं / वोच्छं कम्मविवागं, गुरूवइटें समासेणं // 1 // कीरइ जओ जिएणं, मिच्छचाईचउगइगएणं / नेणिह . भण्णइ कम्म, अणाइयं तं पवाहेणं // 2 // तस्स उ चउरो भेया, पगईमाईउ हुँति नायव्वा / मोयगदिद्रुतेणं पगईभेओ इमो 'होइ // 3 // मुलपयडीउ अट्ठ उ, उचरपयडीण अट्ठवमसयं / तासि सभाषभेया, हुति हु भेया इमे सुणह // 4 // पढमं नाणावरणं, बीयं 'पुण दंसणस्स आवरणं / नइयं च वेरणीयं, तहा चउत्थं च मोहणियं // 5 // आऊ नाम गोयं, *अट्ठमयं अंतराइयं होइ / मुलपयडीउ एया, उत्तरपयडीउ कित्तेमि // 6 // पंचविहना गवरणं, नव भेया दंसणस्स दो वेए / अट्ठावीसं मोहे, चत्तारि *य आउए हुति // 7 // नामे तिउत्तरसयं, दो गोए अंतराइए पंच / / एएसि मेयाणं, “होइ विवागो इमो सुणह // 8 // पडपडिहारसिमजाहडिचित्तकुलालभंडगारीणं / जह एएसि भावा, 'कम्माण वि जाण तह . चेव // 9 // सरउग्गयससिनिम्मलयरस्स जीवस्स छायणं जमिह / नाणावरणं कम्मं, पडोवमं होइ एवं तु // 10 // १"सुणह" इत्यपि पाठः / 2 "पुण होइ दंसणावरणं" / 3 "भाउ य नाम"। *"चरिमं पुण मंत०॥ १“उ' | 5 "हुति हु भेया इमे सुणह" / 6 "कम्माणं तह मुणेयव्वा" इत्यपि / 7 "मावा" इति / Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः जह निम्मलावि चक्खू, पडेण केणावि छाइया संती / मंदं मंदतरागं, पिच्छइ सा निम्मला जइवि // 11 // तह महसुयणाणाणं, 'ओहीमणकेवलाण आवरणं / जीवं निम्मलरूवं, आवरद इमेहिं भेलहिं // 12 // अट्ठावीसइभेयं, मइनाणं इत्थ वणियं समए / .. तं आवरेइ ज तं, मइआवरणं हवइ पढमं // 13 // 'चोद्दसमेएसु गर्य, सुयनाणं इत्थ वणियं सम्मए / तस्सावरणं जं पुण, सुयआवरणं हवा बीयं // 14 // अणुगामिवडमाणयमेयाइसु वण्णिओ इहं ओही / तं आवरेइ तं अवहीओवरणयं जाण // 15 // रिउमइविउलम ईहिं, मणपजवनाणवण्णणं समए / तं आवरिय जेणं, 'तं पि हु मणपजवावरणं // 16 // लोयालोयगएसु, मावेसु जं गयं महाविमलं / तं आवरियं जेणं, केवलआवरणयं "तंपि // 17 // "एवं पंचविअप्पं, नाणावरणं समासओ भणियः।। बीयं दंसणवरणं, नवभेयं मण्णए सुणह // 18 // दंसणसीले जीवे, दंसणघायं करेइ जं कम्मं / तं पडिहारसमाणं, सणवरणं भवे बीयं // 19 // जह रनो पडिहारो, अणभिप्पेयरस सो उ लोगस्स / रण्णो तहि दरिसावं, न देइ दलृ पि कामस्स // 20 // जह गया तह जीवो, पडिहारसमं तु दंसणावरणं / . तेणिह विबंधएणं, न पिच्छए सो 'घडाईयं // 21 // निद्दापणगं तत्थ उ, घउभेया दंसणस्स आवरणे / "सुहपडिवोहो निदा, बीया पुण "निद्दनिदा य // 22 // सा दुक्खबोहणीया, पयला पुण जा ठियस्स उद्धाइ / / पयलापयल चउत्थी, तीए उदओ उ चंकमणे // 23 // , 1 "भोहिमणोके०" इति / 2 "चउदस" इति 3 "ज पि य, भोहीभावरणयं तंपि" "जं पुण ओ०". इति वा पाठः / 4 "मईहिय" इति 5 "भियं समए।" इति / 6 “तं पुण" / 7 "तं तु"। 8 "एयं"। है "पडाईयं / 10 "सुहपरिबोहा" 11 / “निहनिहन्ति"। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः .. थीणद्धी पुण दिणचिंतियस्स अत्थस्स साहणी पायं / सा संकिलिट्ठकम्मस्स उदयओ होइ नियमेणं // 24 // निद्दापणगं एयं, चक्खू आवरइ चक्खुआवरणं / सेसिदियआवरणं, होइ अचखुस्स आवरणं // 25 // सामन्नुवओगं जं, वरेइ ते ओहिंदसणावरणं / केवलसामन्नं जं, वरेइ तं केवलस्स भवे // 26 // भणियं दसणवरणं, तइयं कम्मं तु होइ वेयणियं / तं असिघारासरिसं, जह होइ तहा निसामेह // 27 // महुलित्तनिसियकरवालधारजीहाइ 'जारिसं लिहणं / तारिसयं वेयणियं, सुहदुहउप्पायगं मुणह // 28 // महुआसायणसरिसो, सायावेयस्स होइ हु विवागो / जं असिणा नहि छिजर, सो उ विवागो असायस्स // 29 // ..'एयं सुहदुक्खकर पउगइमावनयाण जीवाणं / सामन्नेणं भणिमो, सुहदुक्खं दुसु दुसु गईसु // 30 // देवेसुः य मणुएसु य, तत्थ विसिट् सु कामभोगेसु / जं 'उवभुजइ जीवो, सो उ विवागो "उ सायस्स // 31 // 'नरएसु य तिरिएसु य, तेसु य दुक्खाई गरूवाई / जं 'उवभुजह जीवो, सो उ विवागा असायस्स // 32 // एयमिह वेयणीयं, चउत्थकम्मं तु होइ मोहणियं / / तं मजपाणसरिसे, जह होइ तहा निसामेह 33 // जह मजपाणमूढो, लोए पुरिसो परब्यसो होइ / सह मोहेणवि मूढो, जीवोवि परव्यसो होइ // 34 // मोहेइ मोहणीयं, तं पि समारेण भण्णए दुविहं / दंसणमोहं पढम, चरित्तमोहं भवे चीयं // 35 // दंसणमोहं तिविहं, सम्म मीसं च तह य मिच्छत्तं / / * सुद्धं अद्धक्सुिद्ध, अविसुद्धं तं जहाकमसो // 36 // १“जारिसयलिहणे" इति "जारिसं लेहणं" इत्यपि दृश्यते / 2 “एवं" इत्यपि / 3.6 "ते भुजह" इति "तहिँ भुजई"इत्यपि / 4.7 "" इति।५"निरिएसु यनरएसु य तेसिं"1 8 “होइ दुविहं तु।" इति / Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः केवलनाणवलद्धे, जीवाइपयत्थ सद्दहे जेणं / तं संमत्तं कम्म, सिवसुहसंपत्तिपरिणामं // 37 // राग नवि जिणधम्मे, 'नवि दोसं जाइ जस्स उदएणं / . सो मीसस्स. विवागो, अंतमुहुत्तं भवे कालं // 38 // 'जिणधम्ममि पओसं, वहइ य हियएण जस्स उदएणं / " तं मिच्छत्तं कम्म, संकिट्ठो तस्स उ विवागो।।३६॥ जपि य चरित्तमोहं, "तं पि ह दविहं समासओ होइ। सोलस जाण कसाया, नव भेया नोकसायाणं // 40 // कोहो माणो माया, लोभो चउरो वि हुँति चउभेया। अणअप्पचक्खाणा, पञ्चक्खाणा य संजलणा // 41 // कोहो माणो माया लोभो पढमा 'अणंतवधी उ / एयाणुदए जीवो, इह संमत्तं न पावेइ // 42 // जं परिणामो किट्ठो मिच्छाओ जाव सासणो ताव / संमामिच्छाईसु', एसिं उदओ 'अओ नत्थि // 43 // कोहो. माणो माया, लोभो बीया अपञ्चखाणा उ / एयाणदए जीवो, विग्याविरई . न पावेइ // 44 // एसिं जाण विवागो, मिच्छाओ जाव अविरओ ताव / / परओ देसजयाइसु, नत्थ विवागो चउण्हंपि // 45 // कोहो माणो माया, लोभो तइया उ पञ्चखाणा उ। . एयाणुदए जीवो, पावेइ न सव्वविरई तु // 46 // एसि 'जाण विवागो, मिच्छाओ जाव विरयविरओ"उ। . . परओ पमत्तमाइसु, नथि विवागो चउण्डंपि // 47 // कोहो माणो माया, लोभो चरिमा उ हुँति संजलणा।। एयाणदए जीवो, न लहइ अहखायचारितं // 4 // एसि "जाण विवागो, मिच्छाओ जाव वायरो तिण्डं / लोभस्स जाव सुहुमो, होइ विवागो न परओ "उ // 49 // , 1 "न य” इति / 2 "हवई" इति / 3 "जिणधम्मस्स पओसं वहई उदएण जस्स कम्मस्स"। 4 "तंपि समासेण होइ दुविहं तु।" इत्यपि / “तं पि समासेण दुविह मणियं तु / " इत्यपि / 5 "अणंतवंधीउ" इत्यपि / 6 “जओ" इति / 7.9.11 "जेण" इति / 8 "सब्वविरई उ" इति / 10/12 "य" इति। . Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः नव नोकसाय भणिमो, वेया तिन्नेव हासछक्क / इत्थीपुरिसनपुसग, तेसिं सरूवं इमं होई॥५०॥ पुरिसं पइ अहिलासो, उदएणं होइ जस्स कम्मस्स / सो फुफुमदाहसमो, इत्थीवेयस्स उ विवागो // 52 // इत्थीए पुण उवरिं, 'जस्सिह उदएण रागमुप्पजे / सो तणदाहसमाणो, होइ विवागो 'पुरिसवेए // 52 // इत्थीपुरिसाणुवरिं, 'जस्सिह उदएण "रागमुप्पज्जे / नगरमहादाहसमो, 'सो उ विवागो "अपुमवेए // 53 // 'तिण्ह वि होड विवागो, मिच्छाओ जाव बायरो ताव / हासरईअरइभयं, सोगदुगुच्छा 'उ अह भणिमो // 54 // सनिमित्तऽनिमित्तं वा, जं हासं होइ ''इत्थ जीवस्स / सो हासमोहणीयस्स होइ कम्मस्स उ विवागो // 55 // सच्चित्ताचित्तेसु, य बाहिरदव्वेसु जस्स उदएणं / होइ रई रइमोहे, ''सो उ विवागो वियाणाहि // 56 // सञ्चित्ताचित्तेसु य, बाहिरदव्वेसु जस्स उदएणं / अरई होइ हु जीवे सो उ विवागो अरइमोहे // 57 / / भयवज्जियंमि जीवे, जस्सिह उदएण हुंति कम्मस्स / सत्तवि भयठाणाई, भयमोहे सो विवागो उ // 58 / / सोगरहियंमि जीवे, जस्सिह उदएण होइ कम्मस्स / अक्कंदणाइसोगो, तं जाणह सोगमोहणियं // 56 // दुग्गंथमलिणगेसु य, "अभितरबाहिरेसु दव्वेसु / जेण विलीयं जीवे उप्पजइ सा' दुगुछाउ // 6 // छण्हवि "होइ विवागो, मिच्छाओ जा अपुव्वकरणस्स / चरमसमउ ति परओ, नत्थि विवागो''उ छण्हं पि // 61 // भणिओ मोहविवागो, आउयकम्मं "तु पंचमं भणिमो / 2" होइ चउपयारं, नरतिरिमणुदेवभेएहिं // 2 // १-४"जस्सुदएणं तु" इति। 2.5 “राग उप्पजे" इति / 3 “उ पुमवेए" इति / 6 "हो" इति 'जाण" इति वा 7- "नपुंसस्स" इति। 8 “तिण्हवि जाण विवागो” इति / 1-16-18 "य" इति। 10 "एत्थ" इति / 11 "तं तु विवागं वियाणाहि" "सो उ विवागो मुणेयव्वो" इति / 12 “जस्स उ" इति / 13 "जाणसु" इति। 14 "सभितर०" इति / 15 "दुगंछा" इति / 17 “जाण" इति। 16 “च"। 20 "तंपि हु चउप्पयारं" इति। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः दुक्खं न देइ आउं 'नेय सुहं देइ चउसुवि गईसु / . दुक्खसुहाणाहारं, धरेइ देहद्वियं जीवं // 6 // जं नेरइयं नारयभवम्मि तहिं धरइ उब्वियंत पि। जाणसु तं निरयाउं हडिसरिसो तस्स उ विवागो // 64 // एवं तिरियं मणुयं देवं तिरियाइएसु भावेसु / जं घरइ तब्भवगयं तं तेसि आउयं भणियं // 6 // भणियं आउयकम्म, छ8 कम्म 'तु भण्णए नाम / तं चित्तगरसमाणं, "जह होइ तहा निसामेह // 66 // जह चित्तयरो निउणो, अणेग रूवाइँ कुणइ रूवाई / सोहणमसोहणाई, 'चुक्खाचुक्खेहिँ वण्णेहिं // 67 / / तह नाम पि य कम्मं, अणेगरूवाइँ कुणइ जीवस्स / सोहणमसोहणाई, इट्ठाणिट्ठाइँ लोयस्स // 68|| गइयाइए"सु जीवं, नामइ भेएसु जं तओ नामं / तस्स उ बायालीसं, भेया अहवावि सत्तट्ठी // 69 // अहवावि 'हु तेणउई, भेया पयडीण 'हुति नामस्स / / अहवा तिउत्तरसयं, सब्वेवि जहक्कम भणिमो // 7 // पढमा बायालीसा, गइजाइसरीरअंगुवंगे य / बंधणसंपायणसंघयणसंठाणनामं च // 7 // तह वाणगंधरसफासनामअगुरुलहुयं च बोधव्यं / ' उवधायपरापायाणपुन्विउस्सासनामं च . // 72 // आयातुओयविहायगई तसथावराभिहाणं च / बायरसुहुमं पजत्तापजतं च नायव्वं // 73 // पत्तेयं साहारण, थिरमथिर"सुभासुभं च नायव्वं / / "भगद्भगनाम, सूसर तह दूसरं चेव // 4 // आइजमणाइज्ज, जसकित्तीनाममजसकित्ती य / निम्माणं तित्थयरं, मेयाणवि हुँतिमे मेया // 7 // 1 "नेव" इति "न विय" इति वा पाठः / 2 "भेएसु" इति। 3 "3" / 4 "अणगरूवं जिय कुणह' इति / 5 "भेया"। 6 "नुक्खमचोक्लेहि "चोक्खाचोखेहि" इत्यपि वा पाठः "-सुंय जियं" .. इति / 8 "य" इति। तेणह दिइति / 10 "होति" इति / 11 "सुहासई" इति / 12 "सूहगदूहग" इति / Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः गइ होइ 'चउम्मेया, 'जाईवि य पंचहा मुणेयव्वा / पंच य हुति सरीरा, अंगोवंगाई "तिन्नेव // 76 // छस्संघयणा जाणसु, संढाणावि य 'हवंति छच्चेव / वण्णाईण चउक्कं, अगुरुलहुवधायपरथायं // 77 // अणुपुन्बी चउमेया, उस्सासं आयवं च उजोयं / सुहअसुहविहायगई, तसाइवीसं च निम्माणं // 7 // तित्थ यरेण य सहिया, सत्तट्ठी एव हुति पयडीओ। सम्मामीसेहि . विणा, तेवना सेसकम्माणं // 76 / / एवं विसुत्तरसयं . 'बंधे पयडीण होइ नायव्वं / बंधणसंघायावि य, सरीरगहणेण इह गहिया // 8 // पंधणमेया पंच उ, संघायावि य हवंति पंचेव / * पण वण्णा दो गंधा, पंच रसा अट्ट फासा य // 8 // दस सोलस छन्वीसा, एया मेलेहि सत्तसडीए / तेणउई होइ तओ, बंधणमेया उ "पण्णरस // 2 // सव्वेहि वि छूढेहिं. तिगअहियसयं तु होइ नामस्स / एएसिं तु विवागं, बुच्छामि अहाणुपुवीए // 3 // नारयतिरियनरामरगइमेया. चउविहा गई होइ / एसा खलु ओदइए, होइ हु भावे जओ आह // 4 // जीएँ उदएण जीवो, नेरइओ होइ नरयपुढवीए / सा भणिया नरयगई. सेसगईओ वि एमेव // 5 // इगदुगतिगचउरिदियजाई पंचिंदियाण पंच मिया / खयउवसमिए भावे, हुंति हु 'एया जओ आह // 86 // एगिदिएसु जीवोः जस्सिह उदएण ''होइ कम्मस्स / सा एगिदियजाई; जाईओ एव "सेसा उ // 8 // ओरालियवेउब्वियआहारयतेयकम्मए १२चेव / एवं पंच सरीरा, तेसिँ विवागो इमो होइ ||8|| 1 "चउपयारा" इत्यपि। 2 "जाईविह" इत्यपि। 3 "तिण्णेव” इति। 4 "तहेव” इति पाठः / ५"यरेणं स०" इति / 6 “बंधणपयडीण" इति / 7 “पन्नरस" इति / " विहा" इति / ९"भेया" इति। '10 "जाइ" इति / 11 "सेसावि” इति / 12 "चेवं / पंचेव सरीरा तेसिं च विमागं इमं सुणह" इत्यपि पाठः। Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः ओरालिय' सरीरं, उदएणं होइ जस्स कम्मस्प / तं ओरालियनाम, सेससरीरा वि एमेव // 6 // अंगोवंगविभागो, उदएणं 'होइ जस्स कम्मस्स / तं अंगुवंगनाम, तस्स विवागो इमो होइ // 9 // सीसमुरोयरपिट्ठी दो बाह ऊरुया य अट्ठगा / अंगुलिमाइउवंगा, अंगोवंगाई सेसाई // 91 / आइल्लाणं तिह, हुति सरीराण अंगुवंगाई / 'नो तेयगकम्माणं, बंधणनाम इमं होइ // 12 // ओरालियओरालिय ओरालियतेयवंधणं बीयं / ओरालकम्मबंधण, तिण्हवि जोगे चउत्थं तु // 3 // ओरालपुग्गला, इह, बद्धा जीवेण जे उरालत्ते / अन्ने 'उ बज्झमाणा, ओरालियपुग्गला जे 'य / / 94 // तेसिं जं संबंध, "अवरोप्परपुग्गलाणमिह कुणइ / तं जउसरिसं जाणसु, ओरालियवंधणं पढमं // 65 // एवोरालियतेयग, ओरालियकम्मपंधणं तह य. / ओरालतेयकम्मगबंधणनामं पि एमेव // 66 // .. वेउव्वियवेउब्विय, वेउन्धियतेयवंधणं बीयं / वेउव्विकम्मवंधण, तिण्हवि जोए चउत्थं तु // 17 // वेउन्विपुग्गला इह, बद्धा जीवेण जे विउन्विते / अन्ने य वज्झमाणा, वेउवियपुग्गला जे उ // 9 // तेसिं जं संबंध, 'अवरोप्परपुग्गलाणमिह कुणइ / तं जउसरिसं जाणसु, वेउब्बियवंधणं पढमं // 6 // एवं विउवितेयग, वेउव्वियकम्मबंधणं तह य / बेउन्वितेयकम्मगवंधणनामं / पि एमेव // 10 // आहारगआहारग, आहारगतेयवंधणं बीयं / आहारकम्मवंधण, तिण्हवि जोए चउत्थं तु // 10 // आहारपुग्गला इह, आहारत्तेण जे निबद्धा उ / अन्ने य बज्झमाणा, आहारगपुग्गला जे उ // 10 // 1' जस्स होइ" इत्यपि / 2 "गो'' इति / 3.4 "उ” इति / 5-6 "अवरुप्पर” इति। Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः [ . . तेसिं जं संबंध, 'अवरोप्परपुग्गलाणमिह कुणइ / तं जउसरिसं जाणसु, आहारगबंधणं पढमं // 103 / / एवाहारगतेयग, आहारगकम्मबंधणं तह य / आहारतेयकम्मगबंधणनामं पि एमेव // 104 // एवं तेयगतेयग, तेयग 'कम्मे य बंधणं तह य / कम्मइगं कम्मइगं, बंधण नाम पि पनरसमं // 105 // संघायनाम महुणा, संघायइ जेण तेण संवायं / ओरालियसंघायं, वेउब्विय जाव 'कम्मइगं // 106 // ओरालाई जे देहपुग्गला होति जंमि ठाणंमि / ते ठंति तंमि ठाणे, संघायण कम्मणो उदए // 107 // वारिसहनारायं, "रिसहं नारायमद्धनारायं / कीलिय तह छेवढ, तेति सरूवं इमं होइ // 108 // रिसहो य होइ पट्टो, वज्ज पुण कीलिया मुणेयव्वा / उभओ मक्कडधं, नारायं तं वियाणाहि // 10 // अस्सुदएणं जीवे, संघयणं होइ वञ्जरिसहं तु / तं वञ्जरिसहनामं सेसावि हु एव संघयणा // 110 // समचउरंसे नग्गोहमंडलं साइवामणे खुज्जे / हुंडे वि य संठाणे, तेसि सरूवं इमं होइ // 111 // तुल्लं वित्थडबहुलं, उस्सेहबहुं च मडह कोट्टच / हिडिल्लकायमडह, सव्वत्थासंठियं हुंडं // 112 // . जस्सुदएणं जीवे, चउरंसं नाम होइ संठाणं / तं चउरंसं नामं, सेसावि हु एव संठाणा // 113 // किण्हा नीला लोहिय, हालिद्दा तह य हुँति "सुकिलया। जियदेहाणं वण्णा, उदएणं वण्णनामस्स // 114 // गंधेण सुरभिगंध, अहवा गंधेण दुरभिगंधं तु / होइ जिया'णं देहं, उदएणं गंधनामस्स // 11 // 1. "अवरुप्परपोग्गलाण' इत्यपि / 2 “कम्मयगबंधणं” इत्यपि। 3 “कम्मइयं कम्मइयं” इत्यपि / 5" नामं तु पन्नरसं' इति / 5 "अहुणा" इत्यपि / 6 "कम्मइयं" इत्यपि / 7-8 “हुंति" | "०कम्मुणो" इत्यपि / 10 “पढमं बीयं च रिसहनारायं / नारायमद्धनारायकीलिया तह य छेवट्ठ // " इति पाठः / 11 “अ” इति वा / 12 “मक्कडबंधोः' इति / / 13 "संठाणा जीवाणं छ मुणेयव्वा " इत्यपि / 14 "कुटुं" इति बा / 15 "सुक्का य" इति / 16 "°ण सरीरं" इति / Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः 'तित्तगकडुयकसाया, अंबिलमहरा 'रसावि पंच भवे / तेवि हु जियदेहाणं, रसनामुदएण खजंता // 116 / / गुरुलहुमिउकढिणावि य. निद्धा लुक्खा य होंति सीउण्हा। जियदेहाणं फासा, उदएणं फासनामस्स // 117 // गुरु न होइ देहं, न य लहुयं होइ सव्वजीवाणं / होइ हु अगुरुयलहुयं, अगुरुलहुयनामउदएणं // 118 // अंगावययो पडिजिब्भिया 'इ जो अप्पणो उवग्घायं / / कुणइ हु देहमि ठिओ, सो उवधायस्स उ विवागो // 119 // तयविसदंतविसाई, अंगावयवो 'य जो उ अन्नेसिं / जीवाण कुणइ घायं, सो परघायस्स उ विवागो // 120 // नारयतिरियनरामरभवेसु जंतस्स अंतरगईए / अणुपुव्वीए उदओ, सा चउहा 'सुणसु जह होइ / / 121 // नरयाउयस्स उदए, नरए वक्केण गच्छमाणस्स / नरयाणुपुव्वियाए, "तहि उदओ अन्नहिं नस्थि // 122 // एवं तिरिमणुदेवे, तेसुवि वक्केण गच्छमाणस्स / तेसिमणुपुब्बियाणं, तहिं उदओ अन्नहिं नथि // 123 // जस्सुदएणं जीवे, निष्फत्ती होइ आणपाणणं / तं 'ऊसासं नामं, तस्स विवागो सरीरम्मि // 124 // जस्सुदएणं जीवे, होइ सरीरं तु ताविलं इत्थ / / सो आयवे विवागो, जह रविबिंबे तहा जाण // 125 // / "न भवइ तेयसरीरे, जेण उ तेयस्स उसिणफासस्स / होइ हु उदओ नियमा, तह लोहियवण्णनामस्स // 126 / / जस्सुदएणं जीवो, अणुसिणदेहेण कुणइ उज्जोयं / तं उज्जोयं नामं, जाणसु खजोयमाईणं // 127 // जस्सुदएणं जीवो, वर''वसभगईऍ गच्छइ गईए / १२सा सुहया विहगगई, हंसाईणं भवे सा उ // 128 // 1 "तित्तकडुया कसाया” इत्यपि पाठः / 2 "रसा " इति / 3 "पंचविहा” इति / 4 "०य जो अत्तणो उ उबघायं" इति वा / 5 “उ” इति वा / ६"सुणह' इति 7 . "उदओ तहि" इति वा / / , "उस्सासं" इति / 10 “किं नवि तेयसरीरे: भण्णइ तेयस्स" इति पाठः “किन्न हु" इति वा। 11 "वसह" इति वा / 12 “सा य सुहा" इति / Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 11 कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः जस्सुदएणं जीवो, 'अमणिट्ठाए उ गच्छइ गईए / सा असुहा विहगगई, उट्टाईणं भवे सा उ // 126 / / तस-बायर-पजत्तं, पत्तेय-थिरं सुभं च सुभगं च / सूसर-आइज-जसं, तसाइदसगं इमे होइ // 130 // आइम्मि तसचउक्कं, थिराइछक्कं तु उवरिम होइ / थावरदसगं अहुणा, थावर-सुहुमं अपज्जत्तं // 131 // होइ तहा साहारं, अथिरं असुभं च दुभगं चेव / दूसरणाइज्जेहि अ, अजसेहिं य बीयदसगं तु // 132 // आइम्मि थावरचऊसुहुमतिगं उवरिमं भवे इत्थ / अथिराइछक्कमुवरि, विवागमेअं अओ भणिमो // 133 / / तसनामुदए जीवो, बेइंदियमाइ जाइ जीवेसु / थावरनामुदए 'पुण, पुढवीमाईसु सो जाइ // 134 // बायरनामुदएणं, बायरकाओ 'उ होइ सो नियमा / सुहुमेण सुहुमकाओ, अंतमुहुत्ताउओ होइ // 135 / / आहारसरीरिंदियपज्जत्तीआणपाणभासमणे / च तारि पंच छप्पि य, एगिदियविगलसन्नीणं / / 136 / / एयासि निष्फत्ती. उदएणं जस्स होइ कम्मस्स / तं. पजत्तं नामं, इयरुदए नत्थि निष्फत्ती // 137. / इक्किक्कयंमि जीवे, इकिक्कं जस्स होइ उदएणं / "ओरालाइसरीरं, तं नाम होइ पत्तेयं // 138 / / जीवाणमणंताणं, .इक्क ओरालियं इह सरीरं / हवइ "हु जस्सुदएणं, तं साहारं 'हवइ नामं // 136 / / दंतहाइथिराणे, अंगावयवाण जस्स उदएणं / निष्फत्ती उ सरीरे, जायइ तं होड थिरनामं // 14 // जीहाभमुहाईणं. अंगावयवाण जस्स उदएणं / निष्फत्ती उ सरीरे. जायइ तं अथिरनामं तु // 141 // . 1 "अमणीहाए य” इति / 2 'थावरसुहुमं च साहारं // 13 // तह होइ अपज्जत्त" इति // 3 "विवागभेओ इमो भणिओ" इति, "विवागभेओ इमो होइ" इति वा पाठः। 4 "जाईसु" इति / 5 "" इति / 6.8 "य" इति / 7 “ओरालियं सरीरं" इति / "भवे” इति ॥१०"जायं" इत्यपि पाठः। . Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः सिरमाईण सुहाणं, अंगावयवाण जस्स उदएणं / निष्फत्ती उ सरीरे जायइ तं होइ सुभनामं // 142 // पायाई असुहाणं, अंगावयवाण जस्स उदएणं / निष्फत्ती उ सरीरे जायइ तं असुभनामं तु // 143 // सूभगकम्मुदएणं 'हवइ हु जीवो उ सव्वजणइट्ठो / 'दुहगकम्मुदए पुण, दुहओ सो सयललोयस्स // 144 / सूसरकम्मुदएणं, सूसरसद्दो 'य होइ इह जीवो / दूसरउदए 'विसरो जंपंतो होइ जणवेसो // 14 // आएजकम्मउदए चिट्ठा जीवाण भासणं जं च / / तं बहु मन्नइ लोओ, अबहुमयं इयरउदएणं // 146 / / जस्सुदएणं जीवो लहइ हु कित्तिं जसं च लोगम्मि / तं जसनामं कम्मं अजसुदए लहइ विवरीयं // 147 // देहंगावयवाणं लिंगागिइ जाइ नियमणं जं च / तहि सुत्तहारसरिसो निम्माणे होइ हु विवागो // 148 // उदए जस्स सुरासुरनरवइनिवहेहिँ पूइओ होइ / / तं तित्थयरं नाम तस्स विवागो 'उ केवलिणो // 146 / ' भणियं नामं कम्मं अहुणा गोयं तु सत्तमं भणिमो / तं पि कुलालसमाणं दुविहं जह होइ तह भणिमो // 150 / / जह इन्थ कुभकारो पुढवीए कुणइ एरिसं रूवं / / जं लोयाओ पूर्य, पावइ इह पुण्णकलसाई // 151 // भुंभुलमाई अन्नं. सो चिय पुढवीऍ कुणड रूवं तु / जं लोयाओ निंद, पावइ अकएवि मज्जंमि // 152 // एव कुलालसमाणं, गोयं कम्मं तु"होइ जीवस्स / उच्चानीयविवागो जह होइ तहा निसामेह // 153 // १२अधणी बुद्धिविउत्तो, रूवविहूणोवि जस्स उदएणं / 13 लोयंमि लहइ पूर्य , उच्चागोयं तयं होइ // 154 // 1 "होइ हु" इति / 2 'दूमगकम्मदएणं; दुब्मगओ" इति “दूभगकम्मुदएणं दुभगो सो सव्वलोगस्स" इति वा / 3 “सव्वलोगस्स" इति। 4 "उ" इति / ५"विरसो" इति / ६“अवमन्नई” इति / 7 "कित्तीजस" इत्यपि पाठः / "लोए' इति / / "य" इति / 10 "तं" इत्यपि / 11 “इत्थ" इति / 12 “अधणो' इति पाठः।१३ "लोगम्मि" इति। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः [ 13 'सघणो रूवेण जुओ, बुद्धीनिउणो वि जस्स उदएणं / 'लोयंमि लहइ निंद, एवं पुण होइ नीयं तु / / 155 / / "गोयं भणियं अहुणा, अट्ठमयं 'अंतराययं होइ / तं भंडारियसरिसं, जह होइ तहा निसामेह // 15 // जह राया इह भंडारिएण विणिएण कुणइ "दाणाई 1 तेण उ पडिकूलेणं, न कुणइ सो 'दाणमाईणि // 15 // जह राया तह जीवो, भंडारी जह "तहंतरायं च / तेण उ विबन्धएणं, न कुणइ सो 'दाणमाईणि // 158 // तं दाणलाभभोगोवभोगविरियंतराय पंचमयं / एएसि तु विवागं, "वोच्छामि अहाणुपुव्वीए // 159 / / सइ फासुयंमि दाणे, दाणफलं तह य बुज्झई अउलं / चंभच्चेराइजुयं, पत्तं पि य विजए'तत्थ // 160 // दाउं नवरि न सक्कड, दाणविधायस्स "कम्मणो उदए / दाणंतरायमेयं, लाभे वि य भण्णए विग्धं // 161 / / जइ वि पसिद्धो दाया, जायणनिउणो वि जायगो जड़ वि / न लहइ जस्सुदएणं, एयं पुण लाभविग्धं तु // 162 / / मणयत्ते वि" य पत्ते, लद्धे वि "हु भोगसाहणे विभवे / ""भुत्तुं नवरि न सकइ, विरइविहूणो वि जस्सुदए / / 163 / / 'भोगस्स विग्धमेयं, उवभोगे आवि "विग्धमेवेव / भोगुवभोगाणेसिं, नवरि विसेसो इमो होइ // 164 // सइ भुजइ नि भोगो, सो "पुण आहारपुष्फमाईओ। उवभोगो २'य पुणो पुण, उवभुजइ भवणविलियाई // 165 / / 1 "सघणी" इति / 2 "लोगम्मि” इत्यपि पाठः / 3 “गुप्त" इत्यपि / ४."अंतराइयं भणिमो” इति / 5 "दाणाई" इत्यपि / 6 “दाणमाई उ" इति / 7 "तहंतराईयं" इति / ८"तु" इत्यपि / 6 “दानमाई उ" इति / 10 "पंचविहं" इति / 11 “वुच्छाणि" इति, "मणामि य" इत्यपि वा / 12 "विउलं" इति / 13 "इत्थ" इति / 14 "कम्मुणो" इत्यपि / १५"हु" इति वा / 16 “य" इति / 17 "उवभुजिउं न सक्कइ" इति / 18 "उवभोगविग्धमेयं, मोगेवि हु एवमेव विग्धं तु"। इति पाठः। 19 “विग्घ एमेव" इति। . 20 "पुणु आहारपुप्फमाईणं" इत्यपि / 21 “उ” इत्यपि। Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] कर्मविपाकाख्यः प्रथमः कर्मग्रन्थः बलवं रोगविउत्तो, वयसंपण्णो वि जस्स उदएणं / विरिएण होइ हीणो, वीरियविग्धं तु पंचमयं // 166 // एवं पंच'वियप्पं, अट्ठमयं अंतराइयं होइ / भणिओ कम्मविवागो, समासओ गग्गरिसिणा उ // 167 // एयं गाहाण सयं, अहियं छावट्ठिए उ पढिऊणं / जो गुरु पुच्छइ नाही, कम्मविवागं च सो अइरा / / 168 // // इति महर्षिगर्गपिप्रणीतः कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः // Reserterestressettesenterseerence 1 "०विगप्पं” इत्यपि / 2 'तु” इति पाठः। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || अहम् // // कर्मस्तवाख्यः द्वितीयः कर्मग्रन्थः // नमिऊण जिणवरिंदे, तिहुयणवरनाणदंसणपईवे / बंधुदयसंतजुत्तं, वोच्छामि थयं निसामेह // 1 // कमिच्छट्ठिी सासायणे य तह सम्ममिच्छदिट्ठी य / अविरयसम्मदिट्टी, विरयाविरए पमत्ते य // 2 // तत्तो य अप्पमत्ते, नियट्टिअनियट्टिबायरे सुहुमे / उपसंतखीणमोहे, होइ सजोगी अजोगी य // 3 // मिच्छे सीलस पणुवीस सासणे अविरए य दस पयडी / चउछक्कमेग देसे, विरए य कमेण वोच्छिन्ना // 4 // दुगतीसचउरपुव्वे, पंच नियट्टिमि बंधवोच्छेओ / सोलस सुहुमसरागे, साय सजोगी जिणवरिंदे // 5 // पण नव 'इग सत्तरसं, अड पंच य चउर छक्क छ च्चेव / 'इग दुग सोलस तीसं. बारस उदए अजोगंता // 6 // पण नव इग सत्तरसं, अट्ट य चउर छक्क छ च्चेव / .. "इग दुग सोल गुयालं, उदीरणा होइ जोगंता // 7 / / अणमिच्छमीससम्मं, अविरयसम्माइअप्पमत्ता / सुरनरयतिरियआउं, निययभवे सव्वजीवाणं // 8 // सोलस 'अट्ठक्केक्कं, 'छक्केक्केक्कक खीणमनियट्टी / एगं मुहुमसरागे, खीणकसाए य सोलसगं // 6 // पावत्तरि दुचरिमे तेरस चरिमे अजोगिणो खीणे / अडयालं पयडिसयं, खविय जिणं निव्वुयं वंदे // 10 // नाणस्स देसणस्स य, आवरणं वेयणीयमोहणियं / आउयनाम गोयं, तहंतरायं च पयडीओ // 11 // पंच नव दोन्नि अट्ठावीसा चउरो तहेव बायाला / 'दोण्णि य पंच य भणिया, पयडीओ उत्तरा चेव // 12 // * 2.3 एतद्गाथायुग्मं टीकाग्रन्थेषु विवृतं न दृश्यते / १-२-३.४"इगि” इत्यपि। 5 'अद्विक्तिक" इत्यपि / 6 "छक्किक्किक्किक्क" इत्यपि / 7-8 "दुन्नि" इत्यपि / Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] कर्मस्तवाख्योः द्वितीयः कर्मग्रन्थः मिच्छनपुंसगवेयं, नरयाउं तह य चेव नरयदुगं / इगविगलिंदिय'जाई, हुंडमसंपत्तमायावं // 13 // थावर सुहुमं च तहा, साहारणयं तहा अपजत्तं / एया सोलस पयडी; मिच्छमि य बंधवोच्छेओ // 14 // थीणतिगं इत्थी वि य. अण तिरियाउं तहेव तिरियदुगं / मज्झिम चउ संठाणं, मज्झिम चउ चेव संघयणं / / 15 / / उज्जोयमप्पसत्था, 'विहायगइ दुभगं अणाएज्ज / दूसर नीयागोयं; सासणसम्ममि वोच्छिन्ना / / 16 / / बीयकसायचउक्क, मणुयाउ मणय दुग य ओरालं / तस्स य अंगोवंगं, संघयणाई अविरयंमि // 17 // तइयकसायचउक्क, विरयाविरयंमि बंधवोच्छेओ। "अस्सायमरइ सोयं, तइ चेव य अथिरमसुभं च // 18 // अजसकित्ती य तहा, पमत्तविरयंमि बंधवोच्छेओ / "देवाउयं च एगं, नायव्वं अप्पमत्तंमि // 19 // निद्दापयला य तहा, अपुव्बपढममि बंधवोच्छेओ देवदुगं पंचिंदिय उरालवज्जं चउसरीरं // 20 // समचउरं वेउव्वियआहारयअंगुवंगनामं च / / वण्णचउक्त च तहा, अगुरुयलहुयं च चत्तारि // 21 // तस चउ पसत्थमेव य, विहायगइ थिर सुभं च नायव्वं / / सुहयं सुस्सरमेव य आएज्जं चे निमिणं च // 22 // तित्थयरमेव तीसं, अपुव्वछभाग बंधवोच्छेओ। हासरइभयदुगुछा, अपुव'चरमंमि वोच्छिन्ना // 23 // पुरिसं चउसंजलणं, पंच य पयडीओ पंच भागंमि / अनियट्टीअद्धाए, ... जहक्कम .. बंधवोच्छेओ // 24 // नाणंतरायदसगं, देसण चत्तारि उच्च जसकित्ती / एया सोलस पयडी, "सुहुमकसायंमि वोच्छिन्ना / / 25 / / 1 "जाई" इत्यपि / 2 “विहागइरदूमयं” इत्यपि / 3 “दुवय" इत्यपि / 4 "अस्साइ अरइ सोगं" इत्यपि / 5 "देवाउगं च एक तहापमत्तम्मि नायव्वं" इत्यपि / 6 "०चरिमम्मि" इत्यपि / 7 "सुहमसरागम्मि' इत्यपि। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः [17 उवसंतखीणमोहे, जोगिमि उ सायवंधवोच्छेओ / नायव्यो पयडीणं, बंधस्संतो अणंतो य // 26 // // बंधो सम्मत्तो // मिच्छत्तं आयावं, सुहुम अपजत्तया य तह चेव / साहारणं च पंच य, मिच्छमि य उदयवोच्छेओ // 27 // अण एगिदियजाई, विगलिंदियजाइमेव थावरयं / / एया नव पयडीओ, सासणसम्मंमि वोच्छिन्ना // 28 // सम्मामिच्छत्तेगं, सम्मामिच्छमि उदयवोच्छेओ / बीयकसायचउक्क, तह चेव य नरयदेवाऊ / / 29 / / मणुयतिरियाणपुधी, वेउव्वियछक्क 'दहयं चेव / अणएज्ज चेव तहा, अञ्जसकित्ती अविरयंमि // 30 // तइयकसायचउक, तिरियाऊ तह य चेव तिरियगई / उज्जोय नीयगोयं, विरयाविरयंमि वोच्छिन्ना // 31 // थीणतिगं चेव * तहा, आहारदुगं पमत्तविरयंमि / सम्मत्तं संघयणं, अंतिमतिगमप्पमत्तमि // 32 // तह नोकसायछक, अपुवकरणंमि उदयवोच्छेओ। वेयतिगकोह माणामायासंजलणमनियट्टी // 33 // संजलणलोभमेगं, "सुहुमकसायंमि उदयवोच्छेओ / / तह 'रिसहं नारायं, नारायं चेव उवसंते // 34 // निदा पयला य तहा, खीणदुचरिमंमि उदयवोच्छेओ। नाणंतरायदसगं, दसण चत्तारि चरिमंमि // 35 // अन्नयरवेयणीयं, ओरालिय-तेय-कम्मनामं च / छ च्चेव य संठाणा, ओरालियअंगुवंगं च // 36 / / आइमसंघयणं खलु, वण्णचउकं च दो विहायगती / अगुरुयलहुयचउक्क, पत्य थिराथिरं चेव // 37 // 1 "दूहिय” इत्यपि / 2 "तिरियाउं तह य चेव तिरियगई" इत्यपि / 3 "निच्च०" इत्यपि / 4 "माणय०" इत्यपि / 5 "सुहुमसरागम्मि" इत्यपि / 6 "रिसहना०" इत्यपि / 7 "अन्नयरं वेभणीयं" इत्यपि। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः सुभसुस्सरजुयला वि य, निमिणं च तहा हवंति नायव्वा / एया तीसं पयडी, सजोगिचरिमंमि वोच्छिन्ना // 38 // 'अन्नयरवेयणीयं, मणुयाऊ मणुयगइ य बोद्धव्वा / पंचिंदियजाई वि य, तस सुभगा एज पञ्जत्तं // 36 // बायर जसकित्ती वि य, तित्थयरं उच्चगोययं चेव / एया बारस पयडी, अजोगिचरिमंमि वोच्छिन्ना // 40 // उदओ सम्मत्तो।। उदयस्सुदीरणाए, सामित्ताओ न विजइ विसेसो / मोत्तूण तिन्नि ठाणे, पमत्त-जोगी अजोगी य // 41 // तीसं बारस उदए, केवलिणो मेलणं च काऊण / सायासायं च तहा. मणयाउं अवणियं किच्चा // 42 // सेसं इगुयालीसं, जोगिंमि उदीरणा य बोद्धव्वा / अवणीय तिन्नि पयडी, “पमत्तउदयंमि पक्खित्ता // 43 // तह चेव अट्ठ पयडी, पमत्तविरए उदीरणा होइ / नत्थि त्ति अजोगिजिणे, उदीरणा होइ नायव्या // 44 // // उदीरणा सम्मत्ता // अणमिच्छमीससम्म... अविरयसम्माइअप्पमत्तंता / सुरनरयतिरियआउं, निययभवे सव्वजीवाणं // 4 // थीणतिगं चेव तहा, नरयदुगं चेव तह य तिरियदुर्ग / इगिविगलिंदियजाई, आयात्रुज्जोयथावरयं // 46 // साहारण सुहुमं 'चिय, सोलस पयडीओं होति नायव्वा / बीयकसायचउक्क', तइयकसायं च अट्ठव // 47 // एग नपुसगवेयं, इत्थीवेयं तहेव एगं च / तह नोकसायछक्क, पुरिसं 'कोहं च माणं च // 48 // मायं चिय अनियट्टीभागं गंतूण संतवोच्छेओ। लोहं चिय संजलणं, "सुहुमकसायंमि वोच्छिन्ना // 46 // 1 "अन्नयरं वेअणीयं मणुयाउं मणुयगती य" इत्यपि / 2 "०इज्ज." इत्यपि / 3 "सजोगम्मि" इत्यपि / 4 "पमत्तविरयम्मि” इत्यपि / 5 "अविरइ" इत्यपि / 6 “वि य" इत्यपि / 7 “हुँति" इत्यपि / क "अट्ठ च" इत्यपि / 9 "कोहा य माणा य” इत्यपि / 10 "सुहुमसरागम्मि" इत्यपि / Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः खीणकसायदुचरिमे, 'निदं पयलं च हणइ छउमत्थो / नाणंतरायदसगं, देसण चत्तारि चरिमंमि // 50 // देवदुग पणसरीरं, पंचसरीरस्स बंधणे चेच।। पंचेव य संघाया, सेठाणा तह य छक्क' च // 51 // तिन्नि य अंगोवंगा, संघयणं तह य.होइ छक्क' च / / पंचेव य वण्णरसा, दो गंधा अट्ठ फासा य // 52 / / अगुरुयलहुयचउक्क', विहायगइदुग थिराथिर चेप / 'सुहसुस्सस्जुयला वि य, पत्रेयं दुभगं अजसं // 53 // अणएज निमिणं चिय, अपज तह य 'नीयगोयं च / 'अन्नयरवेयणियं, अजोगिदुचरममि चोच्छिण्णा // 54 // अन्नयरवेयणीयं, मणुयाऊ मणुयदुचय बोद्धव्वा / पंचिंदियजाई वि य, तससुभगाएज्जपज्जतं // 55 // बायरजसकित्ती वि य, तित्थयरं उच्चगोययं चेव / एया तेरस फ्यडी, अजोगिचरिमंमि वोच्छिन्ना // 56 // // सत्ता सम्मत्ता // सो मे तिहुयणमहिओ, सिद्धो बुद्धो निरंजणो निच्चो / दिसउ चरणाणलंभ, दंसणसुद्धिं समाहिं च // 7 // // इति कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः समाप्तः // ////////////////////////////////////////////////////////////// १“निदा पयला हणई" इत्यपि। 2 "वन्नरसा' इत्यपि / 3 "सुभसुस्सरजुगलदुर्ग पत्तेयं दूहगे" इत्यपि / 4 "नीयगुत्तं च" इत्यपि / 5 "अन्नयरं वेभणीयं भजोगिदुचरिमम्मि वोच्छिन्ना" इत्यपि / "भन्नयरं" इत्यपि। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // // बन्धस्वामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः // . Raigan नमिऊण वद्धमाणं, गइयाईठाणदेसयं सिद्धं / गइयाइएसु वोच्छं, बंधस्सामित्तमोघेणं // 1 // गइ 4 इंदिए 5 य काए 6, जोए 15 वेए 3 कसाय 4 नाणे 8 य / संजम 17 दंसण 4 लेसा 6, भव 2 सम्मे 3 सणि 2 आहारे // 2 // गुणठाणा सुरनिरए, चउ पण तिरिएसु चउदस नरेसु। जीवट्ठाणा तिरिए, चउदस सेसेसु "दुग दुगं जाण // 3 // निरयतिगं मिच्छत्तं; नपुस 'इगविगलजाइअ.यावं / छेवट्ठ थावरचऊ, हुंडं चिय मिच्छदिद्विम्मि // 4 // थीणतिगित्थी अण तिरितिग "कुविहगई य नीयमुज्जोयं / 'दूभगतिग पणुवीसा, मज्झिमसंठाणसंघयणा // 5 // थावरचउ जाई चउ, विउवाहारदुग सुरनिरतिगाणि / आयवजुयाऽऽहि ऊणं, एगहियसयं नरयवंधे // 6 // तित्थोणं सय मिच्छा, साणा नपुहुंड छेयमिच्छोणं / मीसा नराउपणुवीसोणं सम्मा नराउतित्थजुयं // 7 // पंकाइसु तित्थोणं, नराउहीणं सयं तु सत्तमिए / मणुदुगउच्च हि विणा, मिच्छा बंधंति "छण्णउइं // 8 // हुंडाईचउरहियं, साणा तिरियाउणा य "इगनउई। इगुणपणुवीसरहिया, सनरदुगुच्चा सयरि मीसे // 9 // तित्थाहारदुगुणा, तिरिया बंधंति सव्वपयडीओ। पजत्ता तह मिच्छा, "साणा उण सोलसविहीणा // 10 // १“गइयाइट्रा०" इत्यपि। 2 “बुच्छं" इत्यपि। 3 "तिरिये चउद्दस'' इत्यपि / 4 "जाण दुर्ग" इत्यपि / 5 "इगि" इत्यपि / 6 “सेव?" इत्यपि / 7 “कुविहगगई" इत्यपि / ८"दुभगतिगंग इत्यादि। "छेव०" इत्यपि / 10 "छन्नई" इत्यपि / 11 "इगनउई" इत्यपि / 12 “सासा उण सोलसविहणा" इत्यपि। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [21 बन्धस्वामित्वाख्य स्तृतीयः कर्मग्रन्थः नरतिगसुराउउसमें, उरलदुगं 'मोत्तु पण्णवीसं च / अणुहत्तरिं तु मीसा, सुराउणा सत्तरी सम्मा // 11 // 'बीयकसायणा देस अपज्जत्ता सयं नवग्गं तु / मोत्तृणमोघबन्धा, निरसुरआउं विउव्विछवकं च // 12 // तिरिया व नरा पयडी, बंधंती मिच्छमाइया पंच / अजयाइ पंच तित्थं, अपमत्तनियट्टि आहारं // 13 // कम्मत्थयबंधसमो, पमत्तमाईण होइ बन्धो उ। अप्पजत्ता मणुया, तिरिया व सयं नवग्गं तु // 14|| वेउव्वाहारदुर्ग, नारयसुरसुहुमविगलजाइतिगं / "मोत्तु चउरग्गसयं, देवा बंधंति ओहेणं // 15 // तित्थोणं तं मिच्छा, साणा छेवट्ठहुडनपुमिच्छं / एगिदिथावरायवपयडी "मोत्तूण छनउई // 16 // ओघुत्तं पणुवीसं, नराउजुत्तं विवजिउं मीसा / बंधंति सयरिमजया, तित्थनराऊहिँ बिगसयरी // 17 // मिच्छाइअविरयंता, देवोघं तित्थहीण बंधंति / भवणवणजोइदेवा, देवीओ चेव सञ्चाओ // 18 // सामन्नदेवभंगो, सोहम्मीसाण मिच्छमाईणं / सहसारंता इगिथावरायवोणं सणंकुमाराई // 19 // रयणानारयसरिसा, सहसारंता . सणंकुमाराई / इगिथावरायवतिरितिगुजोऊणं तु आणयाईया // 20 // तित्थं 'नपुचउ तिरितियउज्जोऊण "पणवीस सनराउ / मोत्तूण मिच्छमाई, नराउतित्थेहिं अजया. उ // 21 // तित्थाहारं निरयसुराउ 'मोत्तु विउव्विछक्क च / * 'इगविगलिंदी बंधहि, नवुत्तरं ओघ मिच्छा य // 22 // 1 "मुत्त" इत्यपि / 2 "बीयकसायविहूणा देसअपज्जत्तसयनबग्गं तु। मुत्तण........इत्यपि / 3 "नवमहियं" इत्यपि / 4 "मुत्त" इत्यपि / 5 "मुत्तण" इत्यपि। 6 “नपुंसचउ०" इत्यपि। 7 पणुवीससनराओ / मुत्त ण" इत्यपि / 8 "मुत्तु" इत्यपि / / "इगि” इत्यपि। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्वामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः साणा बंधहि सोलस, 'निरतिगहीणा य 'मोत्तु छनउई। ओघेणं वीसुत्तरसयं च पंचिंदिया बंधे // 23 // इगिविगलिंदी साणा, तणुपज्जत्ति न जंत्ति जंतेण / निरतिरियाउअबंधा, मयंतरेणं तु 'चउणउइं // 24 // मुदगवणकाया एगिदिसमा मिच्छसाणदिडीओ। मणुयतिगुच्च "मोत्तु, सुहुमतसा ओघ थूलतसा // 25 // मणवइजोगचउक्के, ओयो उरले वि ओपनरभंगो / निरतिगसुराउआहारगं तु हिच्चा उ तिमीसे // 6 // सुरदुग विउव्वियदुर्ग, तित्थं हिचा सयं नवग्गं तु / बंधंति उरलमिस्से, मिच्छा उ सजोगिणो सायं // 27 // निरतिगहीणा सोलस, तिरिनरआउं पिमोत्तु साणा वि / तिरियाउविहीणं पण्णवीसमुज्झितु अविरए ''बंधे // 28 // तित्थं वेउबिदुर्ग, सुरदुगसहियं उरलमिस्से / / सामन्नदेवनारयबंधो नेओ विउविजोगे वि // 29 / / वेउन्वियमीसम्मि वि, तिरियनराऊहि वजियासेसा / तित्थोणा ता मिच्छा, बंधहिँ साणा उ चउणउई // 30 // एगिदिथावरायवसंठाइचउकवज्जिया सेआ। . तिरियाऊणं पणुवीस "मोत्तु अजया सतित्था उ // 31 // तेवढाहारदुगे, जहा पमत्तस्स कम्मणे बंधो। आउतिगं निरयतिगं, आहारय वज्जिउं ओघो // 32 // सुरदुगतित्थविउब्वियदुगाणि १३मोत्तूण बंधहिँ मिच्छा / निरतिगहीणा सोलस, वज्जित्ता सासणा कम्मे // 33 // तिरियाऊणं पणवीस "मोत्तु सुरदुगविउव्विदुगजुत्तं / अजया तित्थेण समं, सजोगि सायं समुग्धाए // 34 // .. 1 "निरि०" इत्यपि। 2 "मुत्त छन्नउई" इत्यपि / 3 "इग" इत्यपि / 4 "चउणउई" 5 "मुत्त" इत्यपि / ६"मणवय०" इत्यपि / 7 "च" इत्यपि / "तम्मिस्से" इत्यपि / “वेउविदुगं" 10 "मुत्त" इत्यपि / 11 "बंधो" इत्यपि / 12 "मुत्तु" इत्यपि / 13 "मुत्तण” इत्यपि / 14 'मुत्तु” इत्यपि। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . बन्धस्वामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः वेयतिएवोघेणं, बंधो जा वायरो हवइ ताव / कोहाइसु चउसोधो, मिच्छाओ जाव 'अनियट्टि // 35 // अण्णाणतिएवोघो, मिच्छासाणेसु नवसु नाणतिए / मणपज्जवे वि सत्तसु ओघं दुसु केवलिस्सावि // 36 / / सामाइयछेएसु, पमत्तमाईसु चउसु ओघो त्ति / परिहारस्स पमत्ते, अपमत्ते सुहुम सट्ठाणे // 37 / / उपसंताइसु अहखाय देसविरयस्स होइ सट्टाणे / 'मिच्छाईसुचउसु, ओघो अस्संजयस्सावि // 38 // चक्खुअचक्खू ओघो, मिच्छाई खीणमोह ओहिस्स / * अजयाइनवसु केवलदसण केवलिदुगे चेव // 39 // छचउसु तिणि तीसु, छण्हं सुका अजोगि अल्लेसा / आहारूणा आइतिलेसी बंधंति सव्वपयडीओ // 40 // . मिच्छा तित्थोणा ता, साणा उण सोलसविहूणा / सुरनरआऊ पणवीस मोत्तु बंधति मीसा उ // 41 // सुरनरआउयसहिया, अविरयसम्मा उ "होति नायव्वा / तित्थयरेण जुया तह, तेऊलेसे 'परं वोच्छं // 42 // क्गिलतिगंनिरयतिगंसुहुमतिगूणं सयं तु एक्कारं / तित्थाहारूणा मिच्छ साण इगितिगनपुचऊणा // 43 // मीसाई पंचगुणा, ओघं बंधति पम्हलेसावि / विगलतिगं निरयतिगं, सुहमतिगेगिंदिथावरायावं // 44 // हिचा सयमट्ठहियं, तित्थाहारदुगहीण मिच्छाओ। संढाइचउक्कोणं, साणा मीसाइ पणगओघं तु // 45 // बंधंति सुक्कलेसा, नारयतिरिसुहुमविगलजाइतिगं / 'इगिथावरायवुजोय वज्जिय सयं तु चउरहियं // 46 // तित्थाहारदुगूणं, एगहियसयं तु बंधही मिच्छा। संढाइचउकोणं, साणा बंधंति 'सगनउइं // 47 // १“अनियट्टी' इत्यपि / 2 "केवलस्सावि // " इत्यपि / 3 मिच्छाईसु चसु' इत्यपि / 4 “पणुवीस मुत्तु" इत्यपि / 5 "हुति' इत्यपि। 6 “परे वुच्छ” इत्यपि / 7 "इक्का" इत्यपि / 8 "इग०" इत्यपि / 6 “सगणवई" इत्यपि। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] बन्धस्वामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः . तिरितियउज्जोऊणं, पणुवीसं 'मोत्तु सुरनराउजुयं / चउहत्तरं तु मीसा, बंधहिँ कम्माण पयडीओ // 48 // . तित्थयरसुरनराउयसहिया अजयम्मि होइ सगसयरी / देसाइनवसु ओघो, भव्वेसु वि सो अभव्य मिच्छसमा // 49 // ओघो वेयगसम्मे, अजयाइचउक्क खाइगेवोघो। अजयादजोगि जाव उ, ओघो उवसामिए होइ // 50 // 'उवसम्मे वट्टता, चउण्हमिकपि आउयं 'नेय / बंधंति तेण अजया, सुरनरआऊहिँ ऊणं तु // 51 // ओषो देसजयाइसु, सुराउहीणो उ जाव उवसंतो।। ओघो सण्णिसु नेओ, मिच्छाभंगो असण्णीसु // 52 // साणे वि असण्णिस्सा, भंगा "सण्णुब्भवा मुणेयव्वा / / आहारगेसु ओघो, इयरेसु य "कम्मणो भंगो // 53 // इय पुव्वसूरिकय 'पगरणेसु जडबुद्धिणा "मए रइयं / बंधस्सामित्तमिणं, नेयं कम्मत्थयं सोउं // 54 // ॥समाप्तश्चायं बन्धस्वामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थ :, 1 "मुत्त" इत्यपि / 2 "उवसंते' इत्यपि / 3 “नेव" इत्यपि / 4 "सन्निब्भवा"इत्यपि / “कम्मुणो". इत्यपि / 6 "पगरणाउ" इत्यपि / 7 "मया" इत्यपि / Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // // षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः // निच्छिन्नमोहपासं पसरियविमलोरुकेवलपयासं / पणयजणपूरियासं, पयओ पणमित्तु जिणपासं // 1 // वोच्छामि जीवमग्गणठाणुवओगजोगलेसाई / किंचि सुगुरूवएसा, सन्नाणसुझाणहेउत्ति // 2 // 'इह सुहुमबायरेगिदिवितिचउअसन्निसन्निपंचिंदी / अपजत्ता पज्जचा, कमेण चउदस जियट्ठाणा / / 3 / / सव्वभणियव्वरलेसु तेसु गुणठाणगाइ ता भणिमो / पढमगुणा दो बायरवितिचउरअसन्नि अपजत्ते // 4 // सन्निअपज्जत्ते मिच्छदिविसासाणअविरया तिनि / सव्वे सनिपजत्ते, मिच्छं सेसेसु सत्तसु वि // 5 // जोगा छसु अप्पज्जत्तएसु कम्मइगउरलमिस्सा दो। वेउब्वियमीसजुया, सनिअपज्जत्तए तिमि // 6 // विति अपज्जत्ताण वि, तणपज्जत्ताण केइ ओरालं। बायरपज्जत्ते तिन्नि उरल वेउब्वियदुगं च // 7 // उरलं सुहुमे चउसु य, भासजुयं पनरसावि सन्निम्मि / उवओगा दससु तओ, अचक्खुदंसणमनाणदुगं // 8 // चक्खुजुया चउरिदियअसन्निपज्जत्तएसु ते चउरो / / मणनाणचक्खुकेवलदुगरहिया सन्निअपजरो // 9 // सव्वे सन्निसु एत्तो, लेसाओ छावि दुविहसन्निमि / चउरो पढमा बायर-अपजत्ते तिनि सेसेसु // 10 // सत्तट्ठ 1 अट्ठ२ सत्तट्ठ 3 अट्ठ४ बंधु१दयुरदीरणा३'संता 4 / - तेरससु जीवठाणेसु सनिपज्जत्तए ओघो // 11 // 1 चउदसजियठाणेसुगुणजोगुवओगलेसबंधुदया / उदीरणया सत्ता वत्तव्या अटुपयकमसो // 3 // " इत्यधिका प्रक्षिप्तगाथा हस्तलिखितप्रत्तौ दृश्यते / 2 "सत्ता" इत्यपि / Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः एत्तो गइइंदियकायजोयवेए कसायनाणेसु 7 / संजमदंसणलेसाभवसम्मे सन्निआहारे // 12 // सुरनरतिरिनरयगई, 'इगबितिचउरिंदिया य पंचिंदी। पुढवीआऊतेऊवाऊवणसइतसा काया // 13 // मण' वइकाया जोगा, इत्थी पुरिसो 'नपुसगो वेया। कोहो माणो माया, लोभो चउरो कसाय त्ति // 14 // मइसुयओहीमणकेवलाणि मइसुयअनाणविन्भंगा। सामाइयछेयपरिहारसुहुमअहखायदेसजयअजया // 15 // अञ्चक्खुचक्षुओही, केवलदंसणमओ य छल्लेसा / किण्हा नीला काऊ, तेऊ पम्हा य सुक्का य // 16 // भव्वअभव्वा खउवसमखइयउवसमियमीस सासाणं / मिच्छो य 'सन्नसन्नी, आहारणहार इय भेया // 17 // सुरनिरए सन्निदुर्ग, नरेसु तइओ. असन्निअपजत्तो / . तिरियगईए चउदस, एगिदिसु, आइमा चउरो // 18 // बितिचउरिदिसु दो दो, अंतिम चउरो पणिदिसु "भवंति / थावरपणगे पढमा, चउरो चरमा दस तसेसु // 19 // विगलतिअसन्निसनी, पज्जत्ता पंच होति विजोगे। मणजोगे 'सन्निक्को, पुमिस्थिवेए चरम चउरो // 20 // काओगिनपुसकसायमइसुयअनाणअविरयअचाखू / आइतिलेसा भवियरमिच्छ आहारगे सव्वे // 21 // मइसुयओहिंदुगविभंगपम्हसुक्कासु तिसु “य सम्मेसु / सनिम्मि ''य दो ठाणा, सनिअपज्जत्तपज्जत्ता // 22 // मणपज्जवकेवलदुगसंजयदेसजयमीसदिट्ठी सन्नी पजो चक्खुमि तिनिछ व पज्जियरचरमा // 23 // 1 "इगि०" इत्यपि / 2 "पंचेदी' इत्यपि / 3 "वयः' इत्यपि / 4 "नपुसओ" इत्यपि / 5 "सासाणा" इत्यपि / 6 "सन्नि०" इत्यपि / 7 "हति" इत्यपि / 8 "वय०” इत्यपि / / "सन्नेको" इत्यपि / 10 "वि" इत्यपि / 11 "उ" इत्यपि / 12 "०अर." इत्यपि पाठः / Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः सत्त उ सासाणे बायराइ छ अपज सनिपज्जो य / तेउल्लेसे बायरअपजत्तो दुविहसन्नी य // 24 // अस्सन्नि आइ बारस, अणहारे अट्ठ सत्त अपजत्ता।। सन्नी पज्जत्तो तह, इय 'गइयाइसु जियट्ठाणा // 25 / / मिच्छे सासण मीसे, अविरयदेमे पमत्तअपमत्ते / 'नियटि अनियट्टिसुहुमुवसमखीणसजोगजोगिगुणा // 26 // चत्तारि देवनरएसु पंच तिरिएसु चउदस नरेसु / इगिविगलेसु दो दो, पंचिंदीसु चउद्दस वि / / 27 / / "भूदगतरूसु दो एगमगणिवाऊसु चउदस तसेसु / जोए तेरस वेए, तिकसाए नव दस य लोभे // 28 // महसुयओहिदुगे नव, अजयाइजयाइ सत्त मणनाणे / 'केवलदुगंमि दो तिन दो व पढमा अनाणतिगे / / 26 / / सामाइयछेएसु, चउरो परिहार दो पमत्ताई / देससुहुमे सगं पढमचरमचउ अजयअहखाए // 30 // बारस अचक्खुचक्खुसु, पढमा लेसामु तिसु छ दुसु सत्त / सुकाएँ तेरस गुणा, सव्वे भव्वे अभव्वेगं / / 31 / / वेयगखइगउवसमे, चउरो एक्कारसट्ठ तुरियाई / सेसतिगे सट्ठाणं, सन्निसु चउदस असन्निसु दो // 32 // आहारगेसु पढमा, तेरसऽणाहारगेसु पंच इमे / "पढमंतिमदुगअविरय, गइयाइमु इय गुणट्ठाणा // 33 // सच्च- मोसं मीसं, असच्चमोसं मणं तह वई य / उरलविउव्वाहारा, मीसा कम्मइगमिय जोगा // 34|| एक्कारस सुरनारयगईसु आहारउरलदुगरहिया / १"गइयाईसु जियठाणा" इत्यपि। 2 "मिस्से" इत्यपि / 3 "नियट्टिअनियट्टिसुहुमुवसमखीणसजोगिअजोगिगुणा / 26 // " इत्यपि पाठो मुद्रितप्रतौ हस्तलिखितमूलगाथाप्रतौ च दृश्यते। किन्तु तत्र छन्दमङ्गोऽस्ति सुखावगमार्थमेवंभूतः पाठः कृतः सम्भाव्यते / हस्तलिखितयशोभद्रसूरिवृत्तियुतगाथाप्रतौ पुनरस्माद्भिन्न उपरि दर्शितेन तुल्यश्च पाठो लभ्यते / 4 अत्राऽपि पूर्ववन्मुद्रितप्रतिहस्तलिखितमूलगाथाप्रत्यादिषु भूद'गतरूसु दो दो इगमगणिवाउसु चउदस तसेसु / " इत्यपि पाठः प्राप्यते / श्रीमन्मलयगिरिपादेरेतत्पाठानुसारेणेव वृत्तिर्विहिता दृश्यते / 5 "पढमतदुगअविरया इय गइयाईसु गुणठाणा" इत्यपि / Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ] .. षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः जोगा तिरियगईए, तेरस आहारगदुगुणा // 35 / / नरगइपणिदितसतणुनरअपुमकसायमइसुओहिदुगे / 'अञ्चक्खुछलेसाभव्वसम्मदुगसन्निसु य सत्वे // 36 / / एगिदिएसु पंच उ. कम्मइगविउब्विउरलजुयलाणि / कम्मुरलदुगं अंतिमभासा विगलेसु चउरो त्ति // 37 // कम्मुरलदुग थावरकाए वाए विउविजुयलजुयं / पढमंतिममणवइदुगकम्मुरलदु केवलदुग'मि // 38 // थीवेअन्नाणोवसमअजयसासणअभवमिच्छेसु / तेरस मणवइमणनाणछेयसामइयचक्खुसु य / / 36 / / 'परिहारे सुहुमे नव, उरलवइमणा सकम्मुरलमिस्सा / अहखाए सविउव्वा, मीसे देसे सविउविदुगा // 40 // कम्मुरलविउव्विदुगाणि चरमभासा य छ उ असन्निम्मि / जोगा अकम्मगाहारगेसु कम्मणमणाहारे // 41 // नाणं पंचविहं तह, अन्नाणतिगं ति अट्ट सांगारा।। चउदंसणमणगारा, बारस, जियलक्खणुवोगा // 42 // मणुयगईए बारस, मणकेवलदुरहिया नवन्नासु / थावरइगिबितिइंदिसु अचक्खुदंसणमनाणदुर्ग . // 43 // चक्खुजुयं चउरिदिमु, तं चिय बारसपणिदितसकाए / जोए वेए सुकाएँ भव्सन्नीसु आहारे // 44 // केवलदुगहीणा दस, कसायपणलेसचक्खुचक्खूसु / केवलदुगे नियदुर्ग, खड़गे नव नो अनाणतिग / / 4 / / पढमचउनाणसंजमवेयगउवसमियओहिदंसेसु नाणचउदंसणतिगं, केवलदुजुयं अहक्खाए. // 46 // नाणतिगदंसणतिगं, देसे मौसे अनाणमीसं तं / केवलदुगमणपज्जववज्जा अस्संजयंमि नव // 47 // १"अचक्खु छल्लेसा." इत्यपि / 2 "थौवेयअनाणो०" इत्यपि / तथा "जोगाऽऽहारदुगुणा तेरस थीमाइनवसु दारेसु / ओरालमिस्सकम्मणरहिया मणमाइछण्हं वि॥ // " इति प्रक्षिप्तगाथाऽधिकतया हस्तलिखितप्रवौ दृश्यते। 3 “परिहारसुहम्मे" इत्यपि पाठः। 4 "मणा ते सकम्मु” इति पाठः / Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः अन्नाणतिगअभब्वे, सासणमिच्छे य पंच उवओगा / दोदंसणतियनाणा, ते अविभंगा असन्निम्मि // 48 // मणनाणचक्खुरहिया, दस उ अणाहारगेसु उवओगा। इय गइयाइसु नयमयनाणत्तमिणं तु जोगेसु / / 46 / / 'तणुवइमणेसु कमसो, दुचउतिपंचा दुअट्ठचउचउरो / तेरसदुबारतेरस, गुणजीवुवओगजोग. ति // 50 // लेसा उ तिन्नि पढमा, नारगविगलग्गिवाउकाएसु / एगिदिभूतरूदगअसन्निसु पढमिया चउरो // 51 / / केवलजुयलअहक्खायसुहुमरागेसु सुक्कलेसेव / लेसासु छसु सठाणं, गइयाइसु छावि सेसेसु / / 52 / / गइयाइसु अप्पबहु', भणामि सामन्नओ सठाणे वि / नरनिरयदेवतिरिया, थोवा दुअसंखणंतगुणा / 53 / / पणचउतिदुएगिंदी, थोवा तिन्न अहिया अणंतगुणा / तसतेउपुढविजलवाउहरियकाया पुण कमेणं // 54 / / थोवा असंखगुणिया, तिन्न विसेसाहिया अणंतगुणा / मणवयणकायजोगी, थोवा संखगुणणंतगुणा // 55 / / पुरिसेहिंतो इत्थी, संखेजगुणा नपुसणंतगुणा / माणी कोही 'मायी, लोभी कमसो क्सेिसहिया // 56 // मणपज्जविणो थोवा, ओहीनाणी तओ असंखगुणा / महसुयनाणी तत्तो, विसेसअहिया समा दो वि / / 57 // विभंगिणो असंखा, केवलनाणी तओ अणंतगुणा / तत्तोऽणंतगुणा दो, मइसुयअन्नाणिणो तुल्ला // 58 // 1 "केवलतणुजोगमि दो गुणचउजीवआइमा हुँति / मइसुभअन्नाणदुगं अच्चक्खू तिन्नि उवओगा // 1 // वेउव्विउरलजुयला कम्मणजोगो य पंच जोगत्ति / भमणवईए पढमा दो गुण जिय अटू चउ उवरि / / 2 / / चक्खुभवक्खू महसयअनाण चत्तारि हुंति उवओगा / कम्मण उरालजुयलं असच्चमासा य चउ जोगा // 3 // तेरस गुण मणजोगे अंतिम दो जीव बार उवओगा / तेरसजोगा य तहा कम्मोरलमिस्सवज त्ति // 4 // " एतद्गाथाचतुष्कं प्रक्षिप्ततयाऽधिकं दृश्यते हस्तलिखितमूलगाथाप्रतौ / 2 "माई लोमी" इत्यपि / , 3 "थोवा ओहिमाणी" इन्यपि / Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः सुहुमपरिहारअहखायछेयसामइयदेसजइअजया / थोवा संखेज्जगुणा, चउरो अस्संखणंतगुणा // 56 / / इय ओहिचक्खुकेवलअचक्खुदंसी कमेण विन्नेया। " थोवा अस्संखगुणा, अणंतगुणिया अणंतगुणा // 60 // सुक्का पम्हा तेऊ, काऊ नीला य किण्हलेसा य / थोवा दोऽसंखगुणाऽणंतगुणा दो विसेसहिया // 61 / / थोवा जहन्नजुत्ताणतयतुल्ल ति इह अभवजिया। तेहितोऽणंतगुणा, भव्वा निव्वाणगमणरिहा // 62 // सासाणउवसमियमिस्सवेयगक्खइयमिच्छदिट्ठीओ / / थोवा दो संखगुणा, असंखगुणिया अणंता दो // 63 / / सन्नी थोवा तत्तो, अणंतगुणिया असन्निणो 'होति। थोवाणाहारजिया, तदसंखगुणा 'सआहारा // 64 // मिच्छे सव्वे छ अपज्ज सन्निपज्जत्तगो य सासाणे। सम्भे दुविहो सन्नी, सेसेसु सन्निपज्जत्तो // 65 / / इय जियठाणा गुणठाणएसु जोगाइ वोच्छमेत्ताहे / जोगाहारदुगुणा, मिच्छे सासणअविरए य // 66 // उरलविउव्व वइमणा, दस मीसे ते बिउब्विमीसजुया। . देसजए एकारस, साहारदुगा पमत्तेते // 67 / / "एकारस अपमत्ते, मणवइआहारउरलवेउव्वा / / अप्पुव्वाइसु पंचमु, नव ओरालो मणवई य // 6 // चरमाइममणवइदुगकम्मुरलदुर्ग "ति जोगिणो सत्त / गयजोगो य अजोगी, वोच्छमओ बारसवओगे // 69 / / अच्चक्खुचक्खुदंसणमन्नाणतिगं च मिच्छसासाणे / अविरयसम्मे देसे, तिनाणदंसणतिगं ति छ उ / / 70 / / मीसे ते च्चिय मीसा, सत्त पमत्ताइसु समणनाणा / केवलियनाणदंसणउवओगा जोगजोगीसु // 71 / / / , १"हुति" इत्यपि / 2 "उ साहारा" इत्यपि / 3 "वय०" इत्यपि / 4 एकारस-ऽप्यमत्ते” इत्यपि / 5 "तु" इत्यपि। ६"तिच्चिय" इत्यपि / Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः सासणभावे नाणं, विउविगाहारगे उरलमिस्सं / नेगिदिसु 'सासाणो, नेहाहिगयं सुयमयं पि // 72 / / लेसा तिन्नि पमत्त, तेऊपम्हा उ अप्पमत्तता / सुक्का जाव सजोगी, निरुद्धलेसो अजोगि त्ति || 73 // बंधस्स मिच्छ अविरइकसायजोग त्ति हेयवो चउरो / पंच दुवालस पणुवीस पनरस कमेण भेया सिं // 74 // आभिग्गहियं अणभिग्गहं च तह अभिनिवेसियं चेव / संसइयमणाभोगं, मिच्छत्त पंचहा एवं // 75 / / बारसविहा अविरई, * मणइंदियअनियमो छकायवहो / सोलसं नव य कसाया, पणुवीसं पन्नरस जोगा / / 76 // पणपन्नपन्नतियछहिय, चत्तउणचत्त छचउदुगवीसा / सोलसदसनवनवसत्त हेउणो न उ अजोगिम्मि // 77 / / तो नाणदंसणावरणवेयणीयाणि मोहणिज्जं च / आउयनामं गोयंतरायमिइ अट्ठ कम्माणि // 78 // सत्तट्ठछेगवंधा, संतुदया अट्ठ सत्त चत्तारि / सत्तछपंचदुर्ग, उदीरणाठाणसंखेयं // 79 // अपमत्तता सत्तट्ठ मीसअप्पुव्ववायरा सत्त / बंधंति छ सुहुमो एगमुवरिमा बंधगोऽजोगी // 8 // जा मुहुमो ता अट्ठ वि, उदए संते य होंति पयडीओ। सत्तढुवसंते खीणि सत्त चत्तारि सेसेसु // 81 // सत्तट्ठ पमत्तंता, कम्मे उइरिति अट्ठ मौसो उ। वेयणियाउ विणा छ उ, अपमत्तअपुव्वअनियट्टी // 2 // सुहुमो छ पंच उइरेइ पंच उवसंतु पंच दो खीणो / जोगी उ नामगोए, अजोगिअणुदीरगो भयवं // 3 // १सासाणोत्ति नेहाहिगर्य' इत्यपि / 2 "आमिग्गहियं किल दिक्खियाणमणमिग्गहं तु इयराण / गुदामाहिलमाईण जं आमिनियेसि यं तं तु // 1 // संसइयं मिच्छत्तं जा संका जिणवरुत्ततत्तेसु / विगलिंदियाण जं पुण तमणामोगं विणिदि8 // 2 // इति गाथायुग्ममधिकं प्रक्षिप्तगाथात्वेन 75-76 गाथाद्वयमध्ये दृश्यते हस्तलिखितप्रतौ / 3 “चत्तिगुणचत्त." इत्यपि। 4 "हुन्ति' इत्यपि। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32) षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः उवसंतजिणा थोवा, संखेजगुणा उ खीणमोहजिणा / 'सुहुमनियट्टनियट्टी, तिन्नि वि तुल्ला विसेसहिया // 84 // जोगिअपमत्तइयरे, * संखगुणा देससासणा मिस्सा / अविरयअजोगिमिच्छा, असंखचउरो दुवेऽणंता / / 85 // जिणवल्लहोवणीयं, जिणवयणामयसमुद्दबिंदुमिमं / हियकंखिणो बुहजणा निसुणंतु गुणंतु जाणंतु // 86 // 1 "सुहुमनियट्टिनियट्टी” इत्याप / आसमानोऽयं जिनवल्लभगणिप्रणीतः षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // पूर्वधरवाचकवरश्रीशिवशर्मसूरिप्रणीतः // शतकसंज्ञकः पञ्चमः कर्मग्रन्थः // अरहते भगवंते अणत्तरपरकम्मे पणमिऊणं / वंधसयगे निबद्धं संगहमिणमो पवक्खामि // 1 // सुणह इह जीवगुणसन्निएसु ठाणेसु सारजुत्ताओ / वोच्छं कइवइयाओ गाहाओ दिद्विवायाओ // 2 // ___ (प्रक्षेपगाथा) उवयोगा जोगविही जेसु य ठाणेसु जत्तिआ अस्थि / / 'जप्पच्चइओ बंधो होइ जहा जेसु ठाणेसु / / 2 / / 3 / / बंधं उदयमुदीरणविहिं च तिण्हं पि तेसि संजोगं / बंधविहाणे य तहा किंचि समासं पवक्खामि // 3 // 4 // एगदिएसु, चत्तारि हुति विगलिदिएसु छच्चेव / पंचिदिएसु 'वि तहा चत्तारि हवंति 'ठाणाणि // 4 // 5 // तिरियगईए 'चोदस, हवन्ति सेसासु जाण दो दो उ / मग्गणठाणेसेवं, नेयाणि समासठाणाणि // 5 // 6 // गइइन्दिए य काए, जोए वेए कसायनाणे य / संजमदंसणलेसा, भवसम्मे सन्निआहारे // 7 // (प्र०) एकारसेसु "तिय तिय दोसु चउक्कं च बारसेगम्मि / जीवसमासेसेवं उवओगविही मुणेयव्वा // 6 // 8 // "णवसु चउक्के एक्के जोगा एक्को य 'दोन्नि पन्नरस / तब्भवगएसु एए भवन्तरगएसु काओगो // 7 // 6 / / उवओगा जोगविही जीवसमासेसु वन्निया' एवं / एत्तो गुणेहि सह' 'परिगयाणि ठाणाणि मे सुणह॥८॥१०॥ मिच्छट्टिी सासणमिस्से अजए य देसविरए य / नव संजएसु एवं चउदस गुणनाम"ठाणाणि // 9 // 11 // . 1. "जप्पच्चईउ" इत्यपि / 2 "जया' इत्यपि / 3. "उदयोदीरण." इत्यपि / 4. "य" इत्यपि / 5. "ठाणाई" इत्यपि / 6. “चउदस” इत्यपि / 7. “तिगतिग” इत्यपि / 8 "नवसु” इत्यपि / 9, "दुन्नि" इत्यपि। 10. “एए" इति वा पाठः / 11. "संगयाणि' इत्यपि। 12. 'भे" इत्यपि / 13. “एए" इत्यपि / . 14. "धेयाणि" इत्यपि / Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकसंज्ञकः पञ्चमः कर्मग्रन्थः सुरनारएसु चत्तारि 'हुंति तिरिएसु जाण पंचेव / मणुयगईए वि तहा चोद्दस गुणनामठाणाणि // 10 // 12 // . दोण्हं पंच उछच्चेव दोसु एक्कमि होंति वा मिस्सा / सत्तवओगा सत्तसु दो चेव य दोसु ठाणेसु // 11 // 13 // "तिसु तेरस एगे दस नवसत्तसिगम्मि हुन्ति 'एगारा / एगम्मि सच जोगा, अजोगिठाणं हवइ एक्कं // 12 // 14 // तेरस चउसु दसेगे पंचसु नव दोसु होन्ति एगारा / एगम्मि सत्त जोगा अजोगिठाणं हवइ 'एगं // 13 // 15 // चउपच्चइओ बन्धो पढमे उवरिमतिगे तिपच्चइओ / मीसग बीओ उवरिमदुर्ग च देसिक्कदेसम्मि // 14 // 16 // उवरिल्लपंचके पुण दुपच्चओ जोगपच्चओ तिहं / / सामन्नपच्चया खलु अट्ठण्हं होन्ति कम्माणं // 15 // 17 // "पडिणीयअन्तराइयउवधाए तप्पओसनिन्हवणे / आवरणदुर्ग भूओ बन्धइ अच्चासणाए य 16 // 18 // भृयाणुकम्पवयजोगउज्जओ खन्तिदाणगुरुभत्तो / , बन्धइ भूओ सायं विवरीए बन्धए इयरं // 17 // 16 // . "अरहन्त-सिद्ध-चेइअ-तव-सुय-गुरु-साहु-संध पडणीओ। बन्धइ दंसणमोहं अणन्तसंसारिओ जेणं // 18 // 20 // तिव्वकसाओ बहमोहपरिणओ रागदोससंजुत्तो। बन्धइ चरित्तमोहं दुविहंपि चरित्तगुणधाई // 19 // 21 // मिच्छद्दिट्ठी महारम्भपरिग्गहो तिव्व 'लोभनिस्सीलो / निरयाउयं निबंधइ पावमई रुद्दपरिणामो // 20 // 22 // उम्मग्गदेसओ मग्गनासो गूढहिययमाइल्लो / सढसीलो य ससल्लो तिरियाउं बन्धए जीवो // 21 // 23 // पयईअ तणुकसायो दाणरओ सीलसंजमविहूणो / मज्झिमगुणेहि जुत्तो मणुयाउं बन्धए जीवो // 22 // 24 // 1 "होति" इत्यपि / २'चउदस" इत्यपि / 3 "दुण्ह" इत्यपि / 4 “तिसु तेरस एगे दस नव योगा हुन्ति सत्तसु गुणेसु / एक्कारस य पमत्ते सप्त सयोगे अयोगिवकइति पाठान्तरे / 5 “एक्कार।" इत्यपि / 6 “एक्क" इत्यपि / ७“पडिणीयमन्तराइय." इत्यपि / 8 "अरिहन्तः" इत्यपि। 9 "०लोहनीसीलो''इत्यपि। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकसंज्ञकः पञ्चमः कर्मग्रन्थः [ 35 अणुवयमहव्वए हि य बालतवाकामनिज्जराए य / देवाउयं निबन्धइ सम्मद्दिट्ठी उ जो जीवो // 23 // 25 / / मणवयणकायवंको माइल्लो गारवेहि पडिबद्धो / असुहं बन्धइ 'कम्मं तप्पडिवक्खेहि सुहनामं // 24 // 26 / / अरहन्ताइसु भत्तो सुत्तरुई पयणुमाण-गुणपेही / बन्धइ उच्चागोयं विवरीए बन्धए इयरं // 25 / / 27 / / "पाणवहाईसु रओ जिणपूआमोक्खमग्गविग्धकरो / . अज्जेइ अन्तरायं न लहइ जेणिच्छियं लाभं // 26 // 28 // बंधट्ठाणा चउरो तिन्नि य उदयस्स हुन्ति ठाणाणि / पंच य उदीरणाए संजोयमओ परं वुच्छं / / 26 / / (प्र०) छसु ठाणगेसु सत्तट्ठविहं बन्धन्ति तिसु य सत्तविहं / छव्विहमेगो तिन्नेगबन्धगाऽबन्धगो एगो // 27 // 30 // सत्तट्टविह छ (विह) बन्धगावि वेएन्ति अट्ठगं नियमा / एगविह बन्धगा पुण चत्तारि व सत्त वेएन्ति // 28 // 31 / / मिच्छद्दिटिप्पभिई अट्ठ उदीरन्ति जा पमत्तो त्ति / अद्धावलियासेसे तहेव सत्तेवुदीरन्ति // 26 // 32 // 'वेयणियाऊवज्जे छकम्म उदीरयन्ति चत्तारि / अद्धावलियासेसे "सुहमो उदीरेइ पञ्चेव // 30 // 33 // वेयणियाउयमोहे वज्ज उदीरेन्ति दोन्नि पंचेव / अद्धावलियासेसे नामं गोयं च अकसाई // 31 // 34 // उइरेइ नामगोए छक्कम्मविवज्जिया सजोगो “य / वट्टन्तो य अजोगी न किञ्चि कम्मं उदीरेइ / / 32 / / 35 / / अणुईरन्त अजोगी अणुहवइ चउब्विहं गुणविसालो / इरियावहं न बन्धइ आसन्नपुरक्खडो सन्तो // 33 // 36 // इरियावहमाउत्ता चत्तारि व सत्त चेव वेदेन्ति / 'उईन्ति दुन्नि पश्च य संसारगयम्मि भयणिजा // 34 // 37 / / 1 ०हिं बा०' इत्यपि / 2 “य" इत्यपि। 3 "नाम" इत्यपि / 4 "पाणि." इत्यपि / 5 "०बन्धगो" इत्यपि। 6 “वेयणियाउय०" इत्यपि वा। 7 "सुहुमु उदीरेइ” इत्यपि। "सुहुमोदौरेइ" इत्यपि / 8 “उ” इत्यपि। / "उईरिन्ति" इत्यपि / Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकसंज्ञकः पञ्चमः कमग्रन्थः छप्पश्च उदीरन्तो बन्धइ सो छव्विहं तणुकसाओ / अट्ठविहमणुहवन्तो सुक्कझाणा 'डहइ कम्मं // 35 // 38 / / अट्ठविहं वेयन्ता छविहमुईरन्ति सप्त बन्धन्ति / अनियट्टी य नियट्टी अपमत्तजई य ते तिन्नि // 36 // 39 // अवसेसट्टविहकरा वेयन्ति उदीरगा वि अट्ठण्हं / सप्तविहगा वि वेइन्ति अट्ठगमुईरणे भजा // 37 // 40 // णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीयमोहणियं / आउयनामं गोयं तहंतगयं च पयडीओ // 38 // 41 // पश्च नव 'दोनि अट्ठावीसा चउरो तहेव बायाला / "दोन्नि य पञ्च य भणिया पयडीओ उत्तरा चेव // 39 // 42 // साइअणाई धुवअधुवो य बन्धो य कम्मछक्कस्स / तइए 'साइयसेसो अणाइधुवसेसओ आऊ // 40 // 43 // उत्तरपयडीसु तहा धुविगाणं बन्धचउविगप्पो य / "साई अधुवियाओ सेसा परियत्तमाणीओ // 41 // 44 // : चत्तारि पयडिठाणाणि तिनि भूगारअप्पतरगाणि . / मूलपयडीसु एवं अवडिओ चउसु नायव्यो // 42 // 45 / / एगादहिगे पढमो एगादी ऊणगम्मि बीओ य / / तत्तियमित्तो तइओ पढमे समये अवत्तव्यो ॥४६॥(प्र०). तिन्नि दस अट्ठ ठाणाणि दंसणावरणमोहनामाणं / एन्थ 'य भूओगारो सेसेसेगं हवइ ठाणं // 43 / / 47 / / तेवीसपण्णवीसाछब्बीसाअट्ठवीसइगुतीसा.. / तीसेगतीस एगं बन्धट्ठाणाइ नामस्स ॥४८॥(प्र०) सव्वासि पगईणं मिच्छद्दिट्ठी उ बंधओ भणिओ / तित्थयराहारदुर्ग 'मोत्तूणं सेसपयडीणं // 44 // 46 // सम्मत्तगुणनिमित्तं तित्थयरं संजमेण आहारं / बझंति सेसियाओ मिच्छत्ताईहि हेऊहिं // 45 // 50 // 1 "दहइ" इत्यपि / 2-3 "दुन्नि" इत्यपि / 4 “साइगवज्जो" इत्यपि / 5 "साइग" इत्यपि पारः। . 6 "व" इत्यपि / 7 “पयडीणं" इत्यपि / 8 "मुत्तुं सतरुत्तरसयस्सा / / " इत्यपि / Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शतकसंज्ञकः पञ्चमः कर्मग्रन्थः सोलस मिच्छत्तता पणुवीसं होइ सासणंताओ / तित्थयराउदुसेसा अविरइअंताउ मीसस्स // 46 // 51 / / अविरयअंताओ दस विरया'विरयंतया उ चत्तारि / छच्चेव पमत्तंता एगा पुण अप्पमत्तंता // 47 // 52 // दो तीसं चत्तारि य, भागे भागेसु संखसम्भाए / चरमे य जहासंखं, अपुव्वकरणंतिया होति // 48 // 53 // संखेजइमे सेसे, आढत्ता बायरस्स 'चरिमंतो / पंचसु एक्केक्कंता, सुहुमंता सोलस हवंति // 46 // 54 // सायंतो जोगते. एत्तो परओ उ नत्थि "बंधो य / . 'नायव्वो पयडीणं बंधस्संतो अणंतो य // 50 // 55 // इगयाइएसु एवं तप्पाओग्गाणमोघसिद्धाणं / सामित्तं नेयव्वं पयडीणं ठाणमासज // 51 // 56 / / -सत्तरिकोडाकोडी अयराणं होइ मोहणीयस्म / तीसं आइतिगंते वीसं नामे य गोए य ॥५७॥(प्र०) तेत्तीसुदही आउम्मि केवला होइ एवमुक्कोसा / मूलपयडीण एत्तो ठिइं जहन्नं निसामेह ॥५८॥(प्र०) मूलठिईण ऽजहन्नो सत्तण्हं साइयाइओ बंधो / सेसतिगे दुविगप्पो आउचउक्केवि "दुविकप्पो // 52 / / 56 / / अट्ठारसपयडीणं अजहन्नो बंध चउविगप्पो य / , 'साईअअधुवबंधो सेसतिगे होइ बोद्धव्यो // 53 // 6 // उक्कोसाणक्कोसो जहन्नमजहबगो य ठिइबंधो / साईअअधुवबंधो सेसाणं होइ पयडीणं // 54 // 6 // सव्वासि पि ठिईओ सुभासुभाणंपि होति असुभाओ / माणुसतिरिक्खदेवाउगं च मोत्तण सेसाणं // 55 // 62 // 'सव्वढिईणमुक्कोसगो उ उक्कोससंकिलेसेणं / .. विवरीए उ जहन्नो आउगतिगवज्जसेसाणं // 56 // 63 / / १"०विरयंतियाउ" इत्यपि / 2 "तीसा" इत्यपि / 3 "चरमंते” इत्यपि। 4 "बन्धोत्ति' इत्यपि / 5 "दुविगप्पो" इत्यपि / 6-8 "साइयअव०" इत्यपि / 7 “जहन्नमजहन्नो" इत्यपि / 9 "सब्बठिईणं * 0" इत्यपि। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 ] शतकसंज्ञकः पञ्चमः कर्मग्रन्थः 'सव्वुक्कोसठिईणं मिच्छादिट्ठी उ बंधओ भणिओ / आहारगतित्थयरं देवाउं वा वि मुत्तूणं // 57 / 64 / / देवाउयं पमत्तो आहारगमप्पमत्तविरओ उ / तित्थयरं च मणुस्सो अविरयसम्मो समज्जेइ // 58 // 65 // पन्नरसण्हं ठिइमुक्कोसं बंधंति मणुयतेरिच्छा / छण्हं सुरनेरइया ईसाणंता सुरा तिण्हं // 59 // 66 // सेसाणं चउगइया ठिइ मुक्कस्सं करेंति पगईणं / उक्कोससंकिलेसेण ईसिमहमज्झिमेणावि // 60 // 67 / / आहारगतित्थयरं नियट्टिअनियट्टि पुरिससंजलणं / बंधइ सुहुमसरागो सायजसुच्चावरणविग्यं // 61 // 68|| छण्हमसन्नी कुणइ जहन्नठिई आउगाणमन्नयरो / सेसाणं पञ्जत्तो बायरएगिदियविसुद्धो // 62 // 66 // धाईणं अजहन्नोऽणुक्कोसो वेयणीयनामाणं / "अजहन्नमणुक्कोसो गोए अणुभागबंधम्मि / 63 / / 70 // 'साई अणाई धुवअधुवो य बन्धो उ मूलपयडी / / सेसंमि उ दुविगप्पो आउचउक्के वि दुविगप्पो // 64 // 71 // . अट्टाहमणुक्कोसो. तेयालाणमजहन्नगो बंधो / ओ हि चउविगप्पो सेसतिगे होइ दुविगप्पो // 65 // 72 // उक्कोसमणुक्कोसो जहन्नमजहन्नगो "य अणुभागो / साईअर्धवबंधो पयडीणं होइ सेसाणं // 66 // 73 // सुभपयडीण विसोहीइ तिव्वमसुहाण संकिलेसेणं / विवरीए उ जहन्नो अणुभागो सव्वपयडीणं // 67 / 74 // बायालंपि पसत्था विसोहिगुणउक्कडस्स तिव्वाओ / बासीइमप्पसत्था मिच्छुक्कडसंकिलिट्ठस्स // 68 // 75 / / आयवनामुज्जोयं माणुसतिरियाउगं पसत्थासु / मिच्छस्स हुंति तिव्वा सम्मद्दिहिस्स सेसाओ / / 69 / / 76 / / 1 'सव्वोकोस०" इत्यपि / 2 "य' इत्यपि / 3 "मुक्कोसं करंति" इत्यपि / 4 "जहन्न ठिइमा०" इत्यपि / 5 "अजहन्न अणुः" इत्यपि / 6 “साइअणाई" इत्यपि / 7 "वि" इत्यपि / Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकसंज्ञकः पञ्चमः कर्मग्रन्थः [39 देवाउमप्पमची तिव्वं खवगा 'करिति बत्तीसं / बन्धंति तिरयमणुया एकारस मिच्छभावेणं / / 70 // 77 // पंच सुरसम्मदिट्ठी सुरमिच्छो तिन्नि जयइ पयडीओ / उज्जोयं तमतमगा सुरनेरइया भवे तिहं // 71 / 78 / / सेसाणं चउगइया तिव्वणुभागं करिति पयडीणं / मिच्छद्दिट्ठी नियमा तिव्वकसाउक्कडा जीवा / / 72 / / 76 / / चोदस सरागचरिमे पंचगमनियट्टि नियट्टिएक्कारं / सोलस मंदणुभागं संजमगुणपत्थिओ जयइ / / 73 / 80 // आहारमप्पमत्तो पमत्तसुद्धो उ अरइसोगाणं / सोलस माणुसतिरिया सुरनारगतमतमा तिन्नि / / 74 // 81 // एगिदियथावरयं मंदणुभागं करेंति तिगईया / परियत्तमाणमज्झिमपरिणामा नेरइयवजा // 7 // 2 // आसोहम्मायावं अविरइमणुओ "य जयइ तित्थयरं / चउगइउक्कंडमिच्छो पन्नरस दुवे विसोहीए // 76 // 3 // सम्मट्ठिी मिच्छो व अट्ठ परियत्तमज्झिमो जयति / परियत्तमाणमज्झिममिच्छद्दिट्ठी उ तेवीसं // 77 // 84 // केवलनाणावरणं दंसणछक्कं च मोहबारसगं / ता सव्वघाइसन्ना हवंति मिच्छत्तवीसइमं // 78 // 8 // नाणावरणचउक्कं दंसणतिग मंतराइए पंच / पणुवीसदेसघाई संजलणा नोकसाया य // 79 // 86 // अवसेसा पयडीओ अघाइया "घाइयाहि पलिभागा / ता एव पुन्नपावा सेसा पावा मुणेयव्वा // 8 // 87 // आवरणदेसघायंतरायसंजलणपुरिससत्तरस / चउविहभावपरिणया तिविहपरिणया भवे सेसा // 8 // 8 // चउपच्चएगमिच्छत्तसोलसदुपच्चया य पणतीसं / सेसा तिपच्चया खलु तित्थयराहारषज्जाओ // 2 // 8 // पंच य छत्तिन्नि छ पंच दोन्नि पंच य हवंति अद्वैव / सरिराई फासंता पयडीओ आणुपुव्वीए // 3 // 6 // १“करंति" इत्यपि / 2 "कुणंति" इत्यपि / 3 “सरागचरमो" इत्यपि / 4 "करंति तेगइया''इत्वपि / 5 "उ" इत्यपि / 6 "अंतराइयं” इत्यपि / 7 "धाइयाइपलि०" इत्यपि / 8 "छत्तिगछप्पंच' इत्वपि। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकसंज्ञकः पञ्चमः कर्मग्रन्थः 'अगुरुलहुग उवधायं परघा उज्जोयआयव निमेणं / पत्तेयथिरसुभेयरनामाणि य पोग्गलविवागा // 84 // 6 // आऊणि भवविवागा खित्तविवागा "य आणुपुव्वीओ। अवसेसा पयडीओ जीवविवागा मुणेयव्वा // 85 / / 12 / / एगपएसोगाढं सव्वपएसेहि कम्मणो जोगं / बंधइ जहुत्तहेउं साईयमणाइयं वा वि // 86 // 63 // पंचरसपंचवन्नेहि संजुयं दुविहगंधचउफासं / दवियमणंतपएसं सिद्धेहि अणंतगुणहीणं // 8764 // आउगभागो थोवो णामे गोए समो तओ अहिओ / आवरणमंतराए "तुल्लो अहिगो य मोहे वि // 88||5|| सव्वुवरि 'वेयणीए भागो अहिगो 'अ कारणं किंतु / सुहदुक्खकारणत्ता ठिईविसेसेण .सेसाणं // 89 // 66 // .. छण्हंपि अणुक्कोसो पएसबंधो चउव्विहो बंधो / / सेसतिगे दुविगप्पो मोहाउ य सबहिं चेव / / 60 // 17 // तीसण्हमणुक्कोसो उत्तर पयडीसु चउविहो बंधो / सेसतिगे दुविगप्पो''सेसासु य चउविगप्पो वि // 61 // 8 // आउक्कस्स पएसस्स पंच मोहस्स सत्त ठाणाणि / सेसाणि तणुकसाओ बंधइ उक्कोसगे जोगे ||12||66 / / सुहुमनिगोयाऽपजत्तगस्स पढमे जहन्नगे जोगे / . सत्तण्हं तु जहन्नं आउगबंधे वि आउस्स / / 93 / 100 // सत्तर सुहुमसरागो पंचगमनियट्टि सम्मगो नवगं / अजई वितियकसाए देसजई तइयए जयइ // 14 // 101 / / तेरस बहुप्पएसं सम्मो मिच्छो व कुणइ पयडीओ / आहारमप्पमत्तो सेसपएसुक्कडं मिच्छो // 65 // 102 / / . 1 "अगुरुलहू"। 2 "निम्मेणं" इत्यपि / 3 “पुग्गल०" इत्यपि / 4 "उ" इत्यपि / 5 "कम्मुणो” इत्यपि / 6 "परिणयं" इत्यपि पाठः / 7 "सरिसो' इत्यपि पाठः / 8 "वेयणीय" इत्यपि / 9 "" इत्यपि / 10 " पयडीण" इत्यपि / 11 'सेसाणं' इत्यपि / 12 "पि जहण्णो" इत्यपि / “सतरस" इत्यपि। . 14 'बीअकसाए" इत्यपि / Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 41 . शतकसंज्ञकः पञ्चमः कर्मग्रन्थः / सन्नी उक्कडजोगी पज्जतो पयडिबंधमप्पयरो / कुणइ पएसुक्कोसं जहन्नगं जाण विवरीए // 66 // 103 / / घोलणजोगिअसन्नी बंधइ चउ 'दोन्नि अप्पमत्तो उ / पंचासंजयसम्मो भवाइ सुहुमो भवे सेसा // 97 // 104 // जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ / कालभवखित्तपेक्खो उदओ सविवागअविवागो // 18 // 10 // सेढिअसंखेज्जइमे जोगट्ठाणाणि होति सव्वाणि / तेसिमसंखिज्जगुणो पयडीणं संगहो सव्वो // 66 // 106 / / तासिमसंखिज्जगुणा ठिईविसेसा हवंति नायव्वा / "ठिइबंधज्झवसायाणिऽसंखगुणियाणि एत्तो उ॥१००।१०७।। तेसिमसंखिज्जगुणा अणुभागे होति बंधठाणाणि / एत्तो अणंतगुणिया कम्मपएसा मुणेयव्वा // 101 / / 108 // अविभाग पल्लिछेया अणंतगुणिया 'भवंति एचा उ / सुयपवरदिट्टिवाए विसिह मतओ परिकर्हिति // 102 // 106 / / एसो. बंधसमासो बिंदुक्खेवेण वन्निओ कोइ / कम्मप्पवायसुय सागरस्स णिस्संदमेचाओ // 10 // 110 // बंधविहाणसमासो रइओ अप्पसुयमंदमइणा उ / तं बंधमोक्खणिउणा पूरेऊणं परिकहेंति / / 104 / 111 / / इय कम्मयडिपनवं संखेवुद्दिढि णिच्छियमहत्थं / जो उवजुज्जइ बहुसो सो णाहिति बंधमोक्खट्ठ॥१०॥११२।। 1 "दुन्नि' इत्यपि / 2 "पंच असं०" इत्यपि।३ "तेसि असं०" इत्यपि / 4 "रिइबन्धझवसायट्ठाणाणि असंखगुणिआणि // " इत्यपि / 5 "पलिच्छेआ" इत्यपि / 6 “हवन्ति इत्तो उ" इत्यपि / 7 ""मयओ परिकहन्ति' इत्यपि / 8 "पिण्डखेवेण वणिओ" इत्यपि / 9 ""सायरस निम्संदमित्तो उ” इत्यपि / 10 "परिकहन्तु" इत्यपि / ११“संखेवुद्दिट्टनिच्छयमहत्थं" इत्यपि। 12 “उ पउंजइ बहुसो सो नाहिइ बन्धमोक्वत्थं" / / इत्यपि / Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सप्ततिकाभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः सिद्धपएहि महत्थं, बंधोदयसंत 'पयडिठाणाणं / वुच्छं सुण संखेवं, नीसंदं दिद्विवायस्स // // का बंधतो वेयइ, कइ कइ वा 'संतपयडिठाणाणि / मूलुत्तर पगईसु, भंगविगप्पा उ बोद्धव्वा // 2 // अट्ठविहसत्तछब्बंध "एसु, अट्ठव उदय संतंसा / . एगविहे तिविगप्पो, एगविगप्पो अबंधमि / / 3 / / सत्तट्ठबंध अठ्ठदय-संत तेरससु जीवठाणेसु / एगंमि पंच भंगा, दो भंगा हुँति केवलिणो // 4 // अट्ठसु एगविगप्पो, छस्सु वि गुणसन्निएसु दुविगप्पो / पत्ते पत्ते, बंधोदयसंतकम्माणं // 5 // . पंच नव' दुन्नि अट्ठा--वीसा चउरो तहेव बायाला / "दुन्नि अपंच य भणिया, पयडीओ आणुपुवीए // 6 // - (प्रक्षेपगाथा) बंधोदयसंतंसा, नाणावरणंतराइए पंच। बंधोवरमेवि उदय, संतंसा हुंति पंचेव // 6 // 7 // / ___* सप्ततिकाख्यस्य षष्ठस्य कर्मग्रन्थस्य मूलगाथाः सप्ततिकाचूर्णावेकसप्ततिसङ्ख्याका गृहीताः सन्ति / ताश्चात्रा-ऽङ्कतो दर्शिताः तथाऽन्या अपि प्रक्षिप्तगाथा मुद्रितपुस्तकेषूपलभ्यन्ते ता अप्यत्र संगृहीताः, ताभिः प्रक्षिप्तगाथाभिः सह मूलगाथानां क्रमाङ्क एकनवतिसङ्घयान्तः प्रदशितः स च मुद्रितपुस्तकेषु दृश्यते / हस्तलिखितप्रतौ पुनरेकनवतिगाथोक्तक्रमानुमारेण 66-67 तमगाथयोर्मध्ये द्वे गाथे अधिकतया स्तः, 62 तमगाथा नास्ति, 68-66 तमगाथयोमध्येऽधिकतयैकगाथा-ऽस्ति, तेन हस्तलिखित प्रतौ सर्वा गाथास्त्रिनवतिर्भवति / मुद्रितपुस्तकापेक्षया हस्तलिखितप्रतौ 21..2 तमगाथयीः, 25-28 तमंगाथयोः, 55-56 तमगाथयोश्च क्रमव्यत्ययोऽस्ति / तमगाथा च भिन्नवास्ति। तथा श्रीमन्मलयगिरिपादकृतवृत्तावपि चूर्णिवन्मूलगाथाः सन्ति, केवलं तत्र 24-25 तमगाथयोमध्ये भाष्यसत्काऽशीतितमा गाथा 25 तमगाथातयाऽधिका प्रक्षिप्ता विद्यते, तेन तत्र सर्वा गाथा द्वासप्ततिर्भवति / 1. “पगई” इति वा "पगडि'' इति वा / 2. "वोच्छं" इत्यपि / 3. "निस्संद'' इत्यपि / 4. “संति पगडिठाणाणि" इति वा. “पयडिसंतठाणाणि" इति वा “पयइठाणकम्मंसा" इति वा “पयडिठाणसंतंसा" इति वा पाठः / 5. “पयडीसु" इति वा,"पयडीणं" इति वा पाठः। 6. “उ बोधव्वा" इति वा “मुणेयवा" इति वा पाठः / 7. "०गेसु” इति वा। 8. "संताई" इत्यपि / 6. "होति' इत्यपि। 10-11. "दोन्नि” / इत्यपि / 12 "य" इत्यपि। 13. तहा उद-संता होंति पंचेव / / 6 / ' इति वा, "तहा उदसंता हुंति पञ्चेव // 6 // " इति वा, "पुणो पञ्चेव य उदयसंतंसा / / इति वा। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः बंधस्स य संतस्स य, 'पगइट्ठाणाइँ तिण्णि तुल्लाई / उदयट्ठाणाइँ दुवे, चउ पणगं दंसणावरणे // 7 // 8 // बीआवरणे नवबंध एसु, चउपंचउदय नवसंता। छच्चउबंधे चेवं, चउबंधुदए छलंसा य // 8 // 9 // उवरयवंधे चउ पण, नवंस चउरुदय 'छच्च चउ संता। वेअणिआउयगोए, विभज्ज मोहं परं 'वुच्छं // 6 // 10 // गोअंमि सत्त भंगा, अट्ठ य भंगा हवंति वेअणिए / पण नव नव पण भंगा, आउचउक्के वि कमसो उ ॥११॥(प्र०) बावीस 'इक्कवीसा, सत्तरमं तेरसेव नव पंच / चउ तिग दुगं च इक्कं, बंधट्ठाणाणि मोहस्स // 10 // 12 // ''एगं व दो व चउरो, एत्तो "एगाहिआ दसुक्कोसा / ओहेण मोह''णिज्जे, उदय हाणाणि नव हुँति / / 11 / / 13 / / .1 "अट्ठय-सत्तय-छ-च्चउ-तिग-दुग-"एगाहिआ भवे वीसा। तेरस बारिक्कारस, इत्तो पंचाइ "एगूणा / / 12 / / 14 / / संतस्स पयडिठाणाणि, ताणि मोहस्स हुंति पन्नरस / / बंधोदयसंते पुण, भंगविगप्पा बहू जाण // 13 // 15|| छब्बावीसे चउ इगवीसे, सत्तरस तेरसे दो दो / "नवबंधगे वि"दुण्णि उ, "इकिक्कमओ परं भंगा // 14 // 16 // दस बावीसे नव "इगवीसे, सत्ताइ उदय कम्मंसा / - छाई नव सत्तरसे, तेरे पंचाइ अट्टेव // 15 // 17 // 1. "पगईठाणाणि तिन्नि तुल्लाणि" इति वा, "पगडिट्ठाणाणि तिन्नि सरिसाणि / " इति वा / 2. "उदयट्राणाणि” इति वा / 3. “गेसु” इति वा / 4. 'पंच उदय नवसंत छच्च चउजुयलं।" इत्यपि पाठः / 5. "छ चउसंताई" इत्यपि / 6. “वोच्छं" इति वा। 7. "य" इत्यपि / 8. "एकवीसा" इत्यपि। 6. "सत्तरसा" इत्यपि / 10. “एक्कं” इति वा "एगं” इति वा / 11. "एक्कं” इति वा, "एको” इति वा, "एको" इति वा, “एगं च दो य चउरो" इति वा / 12. "एक्काहिया" इत्यपि / 13. "०णिज्जा” इति वा / 14. “टाणा नव हवंति'' इत्यपि / 15. "अट्ठगसत्तग" इति / 16. “एक्का०" इत्यपि। 17 "बारेकारस" इति वा "बारेक्कारा" इति वा / 18. “एत्तो" इति वा / 16. "एक्कूणा' इत्यपि, “एकूणा" इत्यपि वा। 20. "पगडि०" इति वा, "पगइ०" इति वा, "पगइठाणाइँ" इति वा / 21. "होंति" इति वा / 22. "०विगप्पे” इति वा / 23. "बहुं" इत्यपि / 24. "णव०" इत्यपि / 25. "दोन्नि'' इत्यपि / 26. “एक्केक०" इत्यपि / 27. "इक्कवीस" इति वा “एगवीस" इति वा। 28 "ठाणाणि" इति वा "०ठाणाई"इति वा / Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः चत्तारि 'आइ 'नवबंध 'एसु 'उक्कोस सत्तमुदयंसा / पंचविहबंधगे पुण, उदओ "दुहं मुणेअव्वो // 16 // 18 // 'इत्तो चउ बंधाई, इक्किक्कुदया हवंति सम्वेवि / / वंधोवरमे वि तहा, उदयाभावे वि 'वा' हुज्जा // 17 // 19 // ''इक्कग छक्किक्कारस, दस सत्त चउक्क' इक्कगं चेव / एए चउवीसगया, ''चउवीस दुगेक्कमेक्कारा // 18 // 20 // "नवतेसीइसएहिं, उदयविगप्पेहि मोहिआ जीवा।। अउणुत्तरिसीआला,पय"विंदसएहिँ विन्ने आ॥२०॥२१॥ नवपंचा' णउअसए, उदयविगप्पेहि मोहिआ जीवा / २°अउणुत्तरि एगुत्तरि, पयविंदसएहि विन्नेआ // 16 // 22 // २"तिन्नेव य बावीसे. इगवीसे अट्ठवीस २२सत्तरसे / छच्च व तेर नव-बंध एसु पंचेव "ठाणाणि // 21 / / 23 / / पंचविहचउविहेसु, छछक्क सेसेसु जाण पंचेव / २"पत्तेअं, पत्ते चत्तारि "अ बंध' बुच्छेए // 22 // 24 // दसनवपन्नरसाई. बंधोदयसंत पयडिठाणाणि * / 3°भणि आणि मोहणिज्जे, 'इत्तो नामं परं चुच्छं॥२३॥२५॥, . 1. "माइ" इति वा। 2 "0" इति वा / 3 "०गेसु" इति वा / 4 “सत्तक्क पेण उदयंसा" इति वा “उक्कोससत्त उदयंसा" इति वा / 5. "दोह" इति वा / 6 एत्तो' इति वा / 7. "बंधादी" इत्यपि / = "एक्कुक्कु" इत्यपि, “इक्केक्कु०" इत्यपि वा / 9. "ता होज्जा // 16 // " इति वा / 10. "होज्जा" इत्यपि। 11. “एक्कग छक्केक्कारस" इत्यपि / 12. "एक्कगा'' इति वा, "एक्कगं" इति वा / 13. 'चउवीस दुगेक्कमिक्कारा // 18 // " इत्यपि, “चउवीस दुगिक्कमिकारा 1 // 20 // '' इत्यपि वा, "बार दुगिक्कमि इक्कारा // 20 // " इत्यपि वा / 14. इयं गाथा हस्तलिखितप्रतौ द्वाविंशतितमी द्वाविंशतितमी चैकविंशतितमीति व्यत्ययः / 15 “विगप्पेहि मोहिया' इत्यपि / 16. "अउणत्तरिसीयाला' इत्यपि / 17 "०वंद०" इत्यपि / 18. "cणउयसए" इति वा, "०णउइसएहुदय०" इति वा, "०णुयसएहिं" इति वा / 16. “भोहिया" इत्यपि / 20. "अउणत्तरि" इति वा, "अउणत्तरि एगुत्तरि' इति वा। 21. "तिण्णेव उ” इति वा, "तिन्नेव उ” इति वा / 22. "कम्मंसा / सत्तरसे छस्संते तेरस नवबंधए पंच // 23 // " इति हस्तलिखितप्रतौ। 23 "णव०" इति वा / 24. "गेसु" इति वा / 25. "ठाणाई // 21 // '' इति वा 26. “पत्तेयं पत्तयं" इत्यति / 27. "य"इति वा, "उ' इति वा / 28. "वोच्छेए' इत्यपि। 26. "०पगइ०" इति वा, "०पयइ०" इत्यति वा / 37. “भणियाई" . इत्यपि 31. "एत्तो' इति वा / 32 "णाम" इति वा / 33 “वोच्छं' इत्यपि / Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [45 सप्ततिकाभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः तेवीस १पण्णवीसा, छव्वीसा अट्ठवीस २गुणतीसा / ३तीसेगतीस ४मेगं. बंध ५ट्टाणाणि नामस्स // 24 / / 26 / / ६चउ पणवीसा सोलस नव बाणउईसया य अडयाला / एयालुत्तरछाया--लसया इक्किक्क बंधविही ॥२७॥(प्र०) वीसिगवीसा चउवीसगा उ एगाहिआ य इगतीसा / उदयट्ठाणाणि भवे नव अट्ठ य हुंति नामस्स // 2 / / 28|| १.इक्क विआलिश्कारस, ११तित्तीसा छस्सयाणि १२तित्तीसा। बारससत्तरससयाण -हिगाणि विपंचसीईहिं // 26 // 26 // अउणत्ती१३सिक्कारससयाणिहिअसतरपंचसट्ठीहिं / * १४इक्किक्कगं च वीसा-दटठुदयंतेसु उदयविही // 27 // 30 / / तिदुनउई १५गुणनउई, १६अडसी छलसी असीइ 1 गुणसीई। १८अट्ठयछप्पन्नत्तरि, नव अट्ठ य १९नामसंताणि // 28 // 31 // अट्ठ य बारस बारस, बंधोदय२०संतपयडि २१ठाणाणि / ओहेणाएसेण य, जत्थ जहासंभवं २२विभजे // 26 // 32 // नव ३पणगोदयसंता, तेवीसे २४पन्नवीस छव्वीसे / अट्ठ चउरवीसे, नव २५सगि गुणतीस तीसंमि // 30 // 33 / / २६एगेगमेगतीसे, एगे एगुदय अह संतमि / उवरयवंधे दस दस, वेअगसंतंमि २७ठाणाणि // 31 // 34 / / . 1. “पन्नवीसा" इत्यपि / 2 “गुणतीसा" इति, “उगुतीसा" इत्यपि वा। 3 "तीसिक्क०" इत्यपि, "तीसेक्क" इत्यपि / 4. "मेक्कं” इत्यपि / 5. “टाणाइँ” इत्यपि / 6. इयं गाथा मूलगाथातया चूर्णी नास्ति, श्रीमन्मलयगिरिविहितवृत्त्युपेतसप्ततिकायां चा ऽस्ति / 27-28 तमगाथयोर्हस्तलिखितप्रतौ व्यत्ययोऽस्ति / 27 तमगाथास्थानेऽष्टाविंशतितमी गाथा, अष्टाविंशतितम्याः स्थाने सप्तविंशतितमीति / 7. "एक्केक"इत्यपि / 8. "गाइ इगतीसगंत एगहिया" इत्यपि / “गादिगतीसगं ति एगहिया / " इत्यपि, “गाति एगाहिया उ इगतीसा।” इत्यपि, “गाइ एगाहिया उ इगतीसा" इत्यपि वा। 6 “होंति" इत्यपि। 10. “एगबियालेक्कारस" इत्यपि, एगबियारेक्कारस" इत्यपि वा / 11-12 "तेत्तीसा" इत्यपि / 13. "०सेक्कारससयऽहिगसत्तरस पंच०" इत्यपि, "0 सेक्कारससयाहिगा सतरसपंच०" इत्यपि, “सेक्कारससयाणहिगसतरपंच०" इत्यपि वा। 14. "इक्के क्वगं" इत्यपि, “एककेक्कगं" इत्यपि वा / 15. "इगु०" इत्यपि, 'उगुः” इत्यपि वा। '6. "अटुच्छलसी" इत्यपि, "अट्टयळलसी" इत्यपि वा / 17. “उगु०" इत्यपि / 15. 'अट्ठयछप्पणत्तरि" इत्यपि, “अच्छप्पणत्तरि" इत्यपि / 16. "णाम" इत्यपि / 20. “सत्तपगडिठाणाई” इत्यपि / 21. "०ठाणाई" इत्यपि / 22. “विभए” इत्यपि / 23. "पंचोदय" इत्यपि, "पंच उदय०" इत्यपि / 24. “पण्णवीस" इत्यपि / 25. “सत्तगतीस०" इत्यपि,"सत्तगुतीस" इत्यपि, "सत्तिगुतीस०" इत्यपि वा / 26. “एगेगं इगतीसे” इत्यपि / 27 "ठाणाई" इत्यपि / Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः तिविगप्पपगइठाणेहि, जीवगुणसन्निएसु ठाणेसु / भंगा पजियव्वा, जत्थ जहा संभवो १भवइ / / 32 // 35 // तेरससु जीवसंखेवएसु, नाणंतरायतिविंगप्पो / इक्कमि तिदुविगप्पो, करणं पइ ३इत्थ अविगप्पो॥३३॥३६॥ तेरे नव चउ पणगं, नव संतेगंगि भंगमिक्कारा / वेअणिआउगगोए, विभज्ज मोहं परं ४०च्छं // 34 // 37 // पज्जत्तगसनिअर, अट्ठ चउक्कं च ६वेअणियभंगा। सत्त य तिगं च गोए, पत्ते जीवठाणेसु ॥३८॥(प्र०) पज्जत्ताऽपज्जत्तग, . समणे पज्जत्तअमण सेसेसु / अट्ठावीसं दसगं, नवगं पणगं च आउस्स ॥३९॥(प्र०) अट्ठसु पंचसु एगे, एग दुगं दस य मोहबंधगए / तिग चउ नव उदयगए, तिग तिग पन्नरस संतमि / / 35 // 40 // पण दुग पणगं पण चउ, पणगं पणगा हवंति तिन्न व / पण छप्पणगं छच्छ,-प्पणगं अट्ठ दसगं तिं // 36 // 41 // सत्तेव अपज्जत्ता, सामी ९सुहुमा य बायरा चेव / / विगलिंदिआ १८उ तिन्नि उ, तह य असन्नी ११अ सन्नी १२अ // 37 // 42 // नाणंतराय तिविहमवि, दससु दो १३हुँति दोसु ठाणेसु / मिच्छा१४साणे १५वीए, नव चउ पण नव य १६सतंसा॥३८॥४३॥, १७मिरसाइ १८नियट्टीओ, छ च्चउ पण नव य संतकम्मंसा / चउबंध तिगे चउपण, नवंस दुसु जुअल१६छस्संता॥३६॥४४॥ उवसंते चउ पण नव, खीणे चउरुदय छच्च चउ२०संता। वेअणिआउअगोए, विभज्ज मोहं परं २१वुच्छं // 40 // 45 // चउ छस्सु दुन्नि सत्तसु, एगे चउगुणिसु वेअणिअभंगा। गोए पण चउ दो तिसु, एगट्ठसु २२दुन्नि इक्कमि ।।१६।।(प्र०) 1. "होइ” इत्यपि / 2. “एक्कम्मि" इत्यपि। . 3 एत्थ" इत्यपि। 4. “वोच्छं" इत्यपि / 5 "०यरे” इत्यपि। 6. "वेय०" इत्यपि / 7. “सत्तग०" इत्यपि / 8. "पत्तेयं" इत्यपि। "तह सुहुमबायरा” इत्यपि। 10. "य" इत्यपि / 11.12. "य" इत्यपि / 13. "होति" इत्यपि / 14. "सासण" इत्यपि / 15. “बिइए" इत्यपि / 16 “सत्तंसा" इत्यपि / 17. "मीसाइ" इत्यपि - 18. "नियट्टीए" इत्यपि / 19. "छस्संत" इत्यपि / 20. "संत" इत्यपि / 21. "वोच्छं" इत्यपि / 22. "दोन्नि" इत्यपि। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः अट्ठच्छाहिगवीसा, सोलस वीसं च २बारस छ दोसु / दो चउसु तीसु इक्कं, ३मिच्छाइसु आउए भंगा ॥४७॥(प्र०) गुणठाणएसु अट्ठसु, इक्किक्कं मोह बंधगाणं तु / ५पंच अनिअट्टिठाणे, बंधावरमो परं तत्तो // 41 // 48 // सत्ताइ दस उ मिच्छे, सासायणमीसए निवुक्कोसा। छाई "नव उ अचिरए, देसे पंचाइ अट्टेव // 43 // 49 // चिरए खओवसमिए, चउराई सत्त छच्चऽपुच्वंमि / ८अनिअट्टिबायरे पुण, इक्को व दुवे व उदयंसा // 43 // 50 // एगं सुहुमसरागो, वेएइ अवेअगा भवे सेसा / 'भंगाणं च पमाणं, पुव्वुद्दिटेण नायव्वं // 44 // 51 // १०इक्क छडिक्कारिक्का-रसेव इक्कारसेव ११नव तिन्नि / एए चउवीसगया, बार दगे पंच १२इक्कमि // 45 // 52 // ‘बारसपणसट्ठिसया, उदयविगप्पेहिँ १३मोहिआ जीवा / चुलसीई .सत्तृत्तरि, पय१४विंदसएहिँ १५विन्नेआ ।।५३॥(प्र०) अट्ठग चउ चउ चउरगा य, चउरो १६अ हुँति चउवीसा / मिच्छाइअपुव्वंता, बारस पणगं च. 1 अनिअट्टी ।।५४।।(प्र०) १८जोगोवओगलेसा,-इएहि गुणिआ हवंति १९कायव्वा / जे जत्थ 2 गुणट्ठाणे, हवंति ते तत्थ गुणकारा / / 46 / / 5 / / अट्ठी बत्तीसं, बत्तीसं सट्टिमेव २१बावन्ना / २२चोआल दोसु वीसा,२३विअमिच्छमाईसु २४सामन्नं ॥५६॥(प्र०) 1. "च्छाहियः' इत्यपि। 2. "बार छ होसु" इत्यपि / 3. "मिच्छाइसु आउगे" इत्यपि / 4. "०बंधठाणं" इत्यपि / 5. “पंचानि०" इत्यपि / 6. "णवु०" इत्यपि / 7. "णव" इत्यपि / 8. "अणि." इत्यपि / 9. 'एको" इत्यपि / 10. “एक्कछड़ेक्कारसेव एक्कारसेव" इत्यपि / 11. “णव" इत्यपि / 12. “एक्कम्मि" इत्यपि / 13. "मोहिया" इत्यपि / 14. "बंधसएहि" इत्यपि / 15. "विन्नेया" इत्यपि / 16. "य" इत्यपि, “य होंति" इत्यपि वा / 17. "अनिय?" इत्यपि, “अणिय?" इत्यपि वा / 14 55-56 तमगाथयोर्हस्तलिखितप्रतौ व्यत्ययोऽस्ति / 19. "नायव्वा” इत्यपि / 20. “गुणट्ठाणेसु डंति" इत्यपि / “गुणट्ठाणेसु होंति" इत्यपि / 21. "बावण्णा' इत्यपि / 22. "चोयालु" इत्यपि / “चोयालं चोयलं वीसा विय मिच्छमाईसु // " इत्यपि / 23. “मिच्छामाईसु" इत्यपि। 24 “सामण्णं" इत्यपि / Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः १तिन्नेगे एगेगं, तिग मीसे पंच २चउसु तिगऽपुव्वे / ३इक्कार बायरंमि उ, सुहुमे चउ तिन्नि उवसंते॥४७॥५७।। ४छन्नव छक्कं तिग सत्त, दुगं दुग तिग दुगं ति अट्ठ चउ | दुग'छच्चउदुगपणचउ, चउदुगचउपणगएगचऊ / / 48 // 58 // एगेगमह एगे-गमट्ठ छउमत्थकेवलिजिणाणं / / एग चऊ एग चऊ, अट्ठ चऊ दु छक्कमुदयंसा // 46 // 56 // चउ ६पणवीसा सोलस, नव चत्ताला सया य बाणउई। बत्तीसुत्तरछायाल-सया मिच्छस्स बंधविही ६०॥(प्र.) अट्ठ ७सया चउसट्ठी, बत्तीससयाइँ सासणे भेआ / अट्ठावीसाईसु, सव्वाणऽहिग (छन्नउई ॥६१।।(प्र.) इगचत्तिगार बत्तीस, छसय इगतीसिगारनवनउई / सतरिगसि गुतीसचउद. इगारचउसट्टि मिच्छुदया ॥६२॥(प्र.) बत्तीस 1 दुन्नि अट्ठय. बासीइसया य पंच नव उदया / ११बारहिआ तेवीसा, १२बावनिक्कारस सया य ॥६३।।(प्र.) दो छक्कट्ठ चउक्कं, पण १३नव इक्कार छक्कगं उदयां / ५४नेरइआइसु १५सत्ता,तिपंच इक्कारस चउक्कं / / 50||64 / / ' १६इग विगलिंदिअ सगले, पण पंच य अट्ठ बंधठाणाणि / पण १७छक्किक्कारुदया, पण पण बारस य संताणि / / 51 // 65 / / १८इअ कम्मपगइठाणाणि, सुठ्ठ बंदय संतकम्माणं / १गइआइएिह अट्ठसु, २०चउप्पयारेण नेयाणि // 52 // 66 / / 21 1. तिण्णगे" इत्यपि / 2. "अयमेव पाठः समीचानोऽस्ति / तथाऽप्यत्र चूर्णिकारैः टीकाकृद्भिश्च “च उसु नियट्टिर तिन्नि" इति पाठो विवृतः / हस्तलिखितप्रतौ पुनः "पंच" इतिशब्दो नास्ति तथा “च उसु पण नियट्रितिगं" इति पाठ उपलभ्यते / 3. "एक्कार बायरम्मी" इत्यपि / 4. "छण्णाव" इत्यपि / 5 "छक्क चऊ .... पणेगचऊ / / 58 // " इत्यपि / 6 "पणु०" इत्यपि / 7. “य सय चोवढेि बत्तीससया य" इत्यपि / 8. "छण्णउई” इत्यपि / 9. इयं गाथा हस्तलिखितप्रतौ नास्ति मुद्रितप्रस्तकेषूपलभ्यते / 10. "दोन्नि" इत्यपि / 11 बारहिगा' इत्यपि / 12. "बावन्ने०" इत्यपि / 13. "नवगेक्कार" इत्यपि / "नवएक्कार" इत्यपि वा / 14 "र" इत्यपि। 15 "संता" इत्यपि / 16 "इगि" इत्यपि। 17 "छक्के०" इत्यपि। 18 "इय कम्मपगडि०" इत्यपि, "इय कम्मपगइठाणाई" इत्यपि / 16 "गइयाइएसु". इत्यपि, "गइयाइएहि" इत्यपि / 20 “च उप्पगारेण" इत्यपि। 21 "गइइंदिए य काए जो वेए कमायनाणे य / संजमदंसणलेसा भवसम्मे सन्निआहारे // संतपयपरूवणया दव्वपमाणं च वित्तफुसणा य। कालंतरं च भावो अप्पाबहुयं च दायव्वं / // इति गाथाद्वयं 66-67 तमगाथायोर्मध्येऽधिकतया हस्तलिखितप्रतौ प्रक्षिप्तं दृश्यते / Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः उदयस्सुदीरणाए, १सामिचाओ न विज्जइ विसेसो / मुत्तूण य ३इगयालं, सेसाणं सव्व४पयडीणं // 53 // 7 // नाणंतरायदसगं, दसणनव वेअणिज्जमिच्छत्तं / / सम्मत्त लोभ वेआ-उआणि नवनाम उच्च च // 54 // 68 // 5 / ६तित्थयराहारग विरहिआओ, अज्जेई सव्व-पयडीओ। मिच्छत्त वेअगो सा+सणो१०वि गुणवीससेसा।।५५॥६६॥ छायालसेसमीसो, अविरयसम्मो ११तिआल१२परिसेसा / / १३तेवन्न देसविरओ, विरओ १४सगवन्नसेसाओ // 56 // 70 / / १५इगुणट्ठिमप्पमत्तो, बंधइ देवा१६उअस्स इअरो वि / / १७अट्ठावन्नमपुव्यो, १८छप्पन्नं वावि छन्वीसं // 57||71 // 'बावीसा एगणं, बंधइ १६अट्ठारसंतमनिअट्टी / २०सतरस सुहुमसरागो, सायममोहो२१सजोगुत्ति // 58 // 72 // एसो उ बंध२२सामित्व,-ओहो गइआइ२३एसु वि तहेव / / ओहाओ २४साहिज्जइ, जत्थ जहा २५पगइसब्भावो / / 59 // 73 // तित्थयरदेवनिरया-२६उअंच तिसु तिसु गईसु २७बोधव्वं / / अवसेसा २८पयडीओ, हवंति सव्वासु वि गईसु // 60 // 74 / / पढमकसायचउक्क, दसण२९तिग सत्तगा वि उवसंता, ३०अविरयसम्मत्ताओ, जाव ३१निअट्टित्ति नायव्वा / / 61 / / 75 / / -- 1. "सामित्ताए” इत्यपि / 2. "मोत्तूण” इत्यपि / 3. “ईयालं" इत्यपि, "इगुयालं" इत्यपि वा / 4 "पगडीणं" इत्यपि, 'पगईणं" इत्यपि / 5 "मणुयगइजाइतसबायरं च पज्जत्तसुमगमाएज्ज / जसकित्ती तित्थयरं नामस्स हवंति नवए य॥ // " इतिगाथा / 68-66 तमगाथयोर्मध्येऽधिकतया हस्तलिखितप्रतौ प्रक्षिप्ता दृश्यते / 6 "तित्थगरा" इत्यपि / 7 विरहिआउ" इत्यपि, "०वजियाउ” इत्यपि / 8 "पगईओ” इत्यपि, "पगडीओ" इत्यपि वा / / "०वेयगो” इत्यपि / 10 "वि उगुवीसेसाओ" इत्यपि “वि इगु. वीससेसाओ" इत्यपि, “उ उणवीससेसाओ" इत्यपि वा / 11 "तियाल" इत्यपि। 12 "०परिसेस" इत्यपि ! 13 'तेवष्णः" इत्यपि, / “तेपन्न" इत्यपि वा। 14 "सगवण्ण" इत्यपि, “सगपन्न" इत्यपि / 15 इगुसट्ठि०" इत्यपि, “उगुसट्ठि०' इत्यपि वा। 16 “उयस्स त्यरो वि" इत्यपि, "उगं च इयरो वि' इत्यपि वा / 17 "अट्ठावण्ण०" इत्यपि / 18 "छप्पण्णं” इत्यपि / 16 "अट्ठारस त्ति अनियट्टी” इत्यपि, 'अट्ठारसं ति अनियट्टी" इत्यपि वा। 20 "सत्तर" इत्यपि / 21 "सजोगित्ति" इत्यपि। 22 'सामिचोहो" इत्यपि, “सामित्तओधो" इत्यपि। 23 "०ए वि तह चेव" इत्यपि / 24 “साहेज्जा" इत्यपि।२५ "पगडि" इत्यपि / 26 “२उगं च” इत्यपि, "0 उयं च" इत्यपि वा / 27 "बोद्धव्वं' इत्यपि / 28 "पगडीओ इत्यपि / 26 "विय सत्तया वि" त्यपि / 30 "अविरत" इत्यपि / 31 "नियट्टी" इत्यपि / ... Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50) सप्तनिकाभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः सत्तट्ट नव य पनरस, सोलस अट्ठारसेव १गुणवीसा / एगाहि दु चउवीसा, २पणवीसा बायरे जाण ।।७६।।(प्र.) सत्तावीसं सुहुमे, अट्ठावीसं ३च मोह ४पयडीओ / उवसंत ५वीअराए, उवसंता हुँति नायव्वा ॥७७॥(प्र.) पढमकसायचउक्कं, ७इत्तो मिच्छत्तमीससम्मत्तं / ८अविरयसम्मे देसे, ध्पमत्ति अपमत्ति खीअंति / 62 // 78 / / अनिअट्टिबायरे थीण-गिद्धितिगनिरय१तिरिअनामाओ / ११संखिज्जइमे सेसे, तप्पाउग्गाओं १२खीअंति ॥७॥(प्र.) १३इत्तो हणइ कसाय-द्वगंपि पच्छा १४नपुसगं इत्थी / तो १५नोकसायछक्क, १६छुहेइ संजलणकोहमि ॥८॥(प्र.) पुरिसं कोहे कोहं, माणे माणं च छुहइ मायाए / मायं च छुहइ १७लोहे, लोहं सुहमपि तो हणइ // 63 / / 81 // खीणकसायदुचरिमे, १८निदं पयलं च हणइ छउमत्थो / आवरणमंतराए, छउमत्था चरम ममयंमि ॥८२(प्र.) देवगइसहगयाओ, दुचरमसमयभविअंमि १६खीअंतिं / सविवारगेअरनामा, २१नीआगोअंपि तत्थेव // 64 // 3 // . अन्नयर२२वेयणीअं, मणुआ२३उअमुच्चगोअ२४नवनामे / / वेएइ अजोगिजिणो, उक्कोसजह ५न्नमिक्कारा // 65 // 84 // २६मणुअगइजाइतसवायरं च, पज्जत्तसुभग माइज्ज। जसकित्ती तित्थयरं, २८नामस्स हवंति नव एआ॥६६॥८५।। 1 "इगुवीसा" इत्यपि, “उगुवीसा" इत्यपि, “उगवीसा" इत्यपि / 2 "पणुवीसा'' इत्यपि / 3 "पि" इत्यपि / 4 "पगडीओ” इत्याप / 5 “वीयरागे” इत्यपि / 6 “होति” इत्यपि / 7 ' एत्तो” इत्यपि / 8 "अविरय देसे विरए" इत्यपि। "अविरयदेसे विरयपमत्तऽप्पमत्ते य” इत्यपिवा।। "पमत्तअपमत्त खीयंति" इत्यपि / 10 'तिरिय." इत्यपि, “तिरियणामाउ" इत्यपि / 11 "संखे०" इत्यपि / 12 “खीयंति" इत्यपि / 13 “एत्तो" इत्यपि / 14 "णपु०" इत्यपि / 15 'णो०" इत्यपि / 16 "छुब्भइ" इत्यपि / 17 "लोभे लोभ" इत्यपि। 18 'निदा पयला य” इत्यपि। 16 “खीयंति" इत्यपि / 2. "गेयर०" इत्यपि / 21 "नीया गोयं०” इत्यपि / 22 “वेयणीयं" इत्यपि,“वेयणिज्ज" इत्यपि / 23 "०उय उच्चगोय." इत्यपि। 24 "णामं च" इत्यपि, “नाम नव" इत्यपि / 25 “न्नएक्कारं // " इत्यपि, “नमिक्कारे।।" इत्यपि / 26 'मणय.” इत्यपि / 27 "०माएज्ज" इत्यपि / 28 'णामस्स हवंति णव एया" इत्यपि / Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः १तच्चाणुपुन्विसहिआ, तेरस भवसिद्धिरअस्स चरमंमि / संतंसगमुक्कोसं, जहन्नयं बारस हवंति // 67 // 86 // ४मणुअगइसहगयाओ, भवखित्तविवाश्गजिअविवागाओ / वेअणिअन्नयरुच्चं, चरमसमयंमि खीअंति / / 68||87 / / अह सुइअसयल जगसिंहर-१०मरुअ११निरुवम१२सहा-- वसिद्धिसुहं / १३अनिहणमव्वाबाहं, तिरयणसारं अणुहवंति // 69 // 88|| दुरहिगम--निउण--परमत्थ--१४रुडरबहुभंगदिट्ठिवायाओ। अत्था अणुसारअव्वा, बंधोदयसंतकम्माणं // 70 / 86 / / * जो जत्थ अपडिपुन्नो, अत्थो अप्पागमेण बद्धोति / तं खमिऊण बहु१५सुआ, पूरेऊणं परि१६कहंतु // 71 // 30 // गाहग्गं १७सयरीए, चंदमहत्तरमयाणुसारीए / १८टीगाइनिअमिआणं, एगृणा होइ १९नउईओ ॥६१॥(प्र.) 1 अस्या गाथायाः स्थामे हस्तलिखितप्रतौ निम्ना गाथा दृश्यते / “ता एव हुंति नेया बारस मवसिद्धिगस्स चरमंते। संतस्स उ उक्कोसं जहन्न एक्कारस हवंति ।८८इति / 2 "व्यस्स” इत्यपि, 'गस्स" इत्यपि वा। ३"हन्नगं" इत्यपि / 4 "मणुय०" इत्यपि / 5 "गजियविवागाओ।" इत्यपि, "गजीववागुत्ति / " इत्यपि, "गजीववागत्ति" इत्यपि, "हवंति भवजीवपावकम्मंसा" इत्यपि / 6 "वेयणियः" इत्यपि / 7 “चरिमे समयम्मि खीयंति // 7 // " इत्यपि, “च चरिमभवियस्स खीयंति // 66 / / 68 // " इत्यपि, “अचरिमसमय म्मि खीयंति // 6 // " इत्यपि / 8 "सुइय०" इत्यपि "सुइरसइजलमसिहर। .9 "जय०" इत्यपि / 10 "मरुय०" इत्यपि। 11 ‘णिरुवम" इत्यपि। 12 "०समाव०" इत्यपि। 13 "अणि०" इत्यपि / 14 "रुइल०" इत्यपि / 15 “सुया" इत्यपि / 16 'कहिंतु" इत्यपि / 17 सत्तरिए" इत्यपि, "सतरीए" इत्यपि वा। 16 “टीकाएँ नियमियाणं" इत्यपि, “टिक्काएँ णियमियाणं" इत्यपि / 16 "णउईउ" इत्यपि। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् / / . . . *कर्मस्तवभाष्यम् / बंधे 'वीसुत्तरसयं, सयबावीसं तु होइ उदयंमि / / *उईरणाइ एवं, अडयालसयं तु संतमि // 1 // 1 // वीसंबंधे बंधणसंघाया : नियतणुग्गहणगहिया / / चन्नाइविंगप्पा वि हु, न य बंधे 'सम्ममीसाइ // 2 // सामन्नणं एयं, सत्तरससयं तु होइ मिच्छस्स / / / तित्थयराहारदुर्ग, . .न बंधए फिट्टए तेणं // 3 // 3 // सम्मामिच्छद्दिट्ठी, आऊणि न बंधए 'जओ ताणि / / फिट्टति 'तेण तस्स.उ, अज्झवसाओ जओ नत्थि // 4 // 4 // तित्थयरं पक्खिप्पइ, सम्मद्दिट्ठिमि बंधए जेण / / / सम्मत्तस्स "गुणेण य. आठण वि तत्थ खिप्पंति // 5 // 5 // आहारमप्पमत्ते, पक्खिप्पइ जेण * संजमो / तस्स / / उदए सत्तरससयं, मिच्छे पंचेहि रहियं तु // 6 // 6 // सम्म सम्मामिच्छं, आहारदुर्ग / तहेव. तित्थयरं / / पंच पयडी उ एया, मिच्छमि उ जाव फिट्टति // 7 // 7 // नरयाणुपुब्वियाए, सासणसम्ममि होइ न हु उदओ।। नरयंमि जं न गच्छइ, अवणिज्जइ तेण सा तस्स // 8 // 8 // सम्मामिच्छत्तं पुण, पक्खिप्पड, . 'सम्ममिच्छठाणंमि / / अणुपुव्वीओ फिट्टति जेण न हु अंतरा गच्छे // 9 // 9 // सम्मत्त पक्खिप्पइ, सम्मद्दिविम्मि जेण तस्सुदओ / / अणु पुब्बीण वि एवं, तेणं ताओ वि खिप्पंति // 10 // 10 // * कर्मस्तवोपरि भाष्यद्वयं प्राप्यते / तत्र प्रथमं द्वात्रिंशदाथात्मकं द्वितीयं च त्रयोविंशत्या चतुर्विंशत्या च गाथामिः संकलितम् / तत्र ताडपत्रपुस्तकेषु पत्रमयपुस्तकेषु च द्वितीयं भाष्यं दृश्यते, प्रथमं तु केषुचित्पत्रमयेष्वेव / तथापि द्वयोर्न सर्वथा भेदः। द्वितीयं प्रथमेऽन्तर्भवति / किन्तु गाथानां मूलकमो भिद्यतेऽनः प्रथममाष्यीयगाथक्रमेण सार्द्ध द्वितीयभाष्यगाथाक्रमो नोपेक्षितोऽस्मामिः। एका च द्वितीयभाष्यगाथा प्रथमे न दृश्यते याऽने उल्लेखिष्यते / द्वयोरपि कोंर्नाम नोपलभ्यते / 1. 'विसुत्तरसंयं" इत्यपि / 2 "उदीरणावि" इत्यपि पाठः / 3 “सम्ममीसाई' इत्यपि / 4 'तु बंधए मिच्छो' इति / 5 "तो" इति / 6 "जेण" इति / 7 “गुणेणं, आ०" इति // 8" पुवी वि हु एवं" इति / Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवभाष्यम् . [ 53 आहारदुंग खिप्पइ, र पमत्तविरयम्मि जेण तस्सुदओ।। तित्थयरं केवलिणो. उदीर' होइ एमेव // 11 // 11 / / 2 नवरं / पमत्तविरए, पयडीओ तिन्नि चेव खिप्पंति / 2 केवलिउदया चित्तु, तम्मि य ताओऽवि धक्कति // 12 // 12 मीसं उदयइ मीसे, सम्मत्त'. चंउसु अविस्याईसु / / आहारं : च पमत्त, जोगिजिणिदमि तित्थयरं // 13 // सत्तरसुत्तस्मगुत्तरं च चउहत्तरी यः सगसयरी / / / सत्तडीः तिगसट्ठी, उणसट्ठी अट्ठवन्ना. य // 14 // 17 // निद्ददुगे , छप्पन्ना, छब्बीसा नामतीसविस्यमि / / हांसरइभयदुगु छाविरमे बावीसऽपुव्वम्मि || 15 / / 18 // बुवेथकोहमाइसु, : अबज्झमाणेसुः पंच / ठाणाई / / बायरसुहुमे सत्तरपगईओ सायमियरेसु // 16 // 19 // उदयसङख्यांमाहसत्तरसं एक्कारं, : सयमेगः चउहि संजुयं सम्मे / / सत्तासी एकासी, छसारि बिसत्तरि छसट्ठी // 17 // 20 // सट्ठी उणसट्ठी वि य, सगवन्न बियाल बारसं उदए / / मिच्छाइ जा पमत्तो, उईरणा उदयसरिसाओ // 18 // 21 // तेहत्तरि गुणहत्तरि, तेवट्ठी सत्तवन्न छप्पन्ना। बउपन्ना इगुयाला, अपमत्ताओ उईरणया / / 19 / / 22 // जावः पमत्तो * संत्तद्वउईरगो वेयआउवज्जाणं। / सुहुमो मोहेण य जाव खीणतप्परउ नामगोयाणं // 20 // मिच्छे सासण अविरय देस पमत्तापमत्त'. सत्तट्ठ / / मीस नियट्टिऽनियट्टि य, सग सुहुने छच्च बंधकमाः // 21 / एगविहबंध ' सेसा, उदओ तिसु ठाणगेसु अट्ठण्हं / / एगविहबंधठाणे, सत्त / य चउरो य वेयंतिः // 22 // मिच्छे अडयालसयं, सासणमीसेसु तित्थयरहीणं / / सत्तयरहियं 'चउसु अडतीसं दोसु संतमि / / 23 // 23 // १०णा उदयसरिसाओ;' इति / 2 एषा गाथा त्रयोविंशतिगाथात्मके भाष्ये नास्ति ततो द्वादशी गाथाङ्कस्त्रयोदशस्थाने / एवमग्रेऽपि न्यूनः कार्यः // ३“पयडोओ तत्थ तिन्नि खिप्पंति' इति / 4 "ता चेव वकं ति" इति / 5 “सत्तठुईर"० इत्यपि पाठः सम्भाव्यते। 6 “चउसु वि" इति / Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवभाष्यम् सुहुमै दुरुत्तरसर्य, अडयालमिगुत्तरं च पंचासी। 'पंचासी य अजोगे, पयडीणं संतवोच्छेओ // 24 // 24 // तित्थयरेण विहींणं, सीयालसयं तु संतए होइ। सौसायणमि उ गुणे, सम्मामिच्छे यपयडीणं // 25 // 14 // अणतिरिनारयरहियं बायाल सयं वियाण संतंमि / / उवसामगस्सऽपुब्बानियट्टिसुहुमोवसं तस्स // 26 // 16 // सव्वेसु वि आहारं, सासणमिस्सेयरे न वा तित्थं / / उभये संति न मिच्छे, तित्थयरे अंतरमुहुत्तं // 27 // जा सुहमसंपराओ,' उइन्नस ताई ताई सव्वाइं / सत्तठुवसंते खीण सत्त सेसेसु चत्तारि / / 28 / / संते अडयालसयं, खवगं तु पंडुच्च होइ पणयालं / / आउतिगं नत्थि तहिं, सत्तगखीणमि अडतीसं // 26 // 13 // .मिच्छत्तअविरई तह, कसायजोगा य हेयवो भणिया / ते पंच दुवालस पन्नवीस पन्नरस भेइल्ला // 30 // पणपन्नपन्नतियछहिय चत्तगुणचत्तछचउद्गवीसा / ' सोलस दस नव नव सत्त हेउणो न उ अजोगंमि // 31 // अहिनवगहणं बंधों, उदओ हु विवागवेयणं तस्स / अविवागेणणुभवणं, अणुदयपत्तस्सुईरणयां // 32 // 1 // 1 "नायव्वा अणुमागे पंयडीणं संतवोच्छेओ।।२४।।" इत्यपि / 2 “य” इति / एतद्भाष्ये, या गाथा नास्ति सा चैतदनन्तरमेषा-"पणयालं अडतीसं, अविरयसम्माओ जाव अपमत्तो। अप्पुव्वे अडतीसं, नवरं खवगंमि बोधव्वं // 15 // " इति / .3 सयं तु संतए जाण" इति / ४०तेसु' इति / 5 "चत्तिगुण." इत्यपि। * ॥समाप्तमिदं कमस्तवभाष्यम् // Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... // अहम् // . .: / // षडशीतिभाष्यम् // . जीवाइपयत्थेसु, जिणोवइट्टे जा असद्दहणा / ' सद्दहणा वि य मिच्छा, विवरीयपरूवणा जा य // 1 // संसयकरणं जं पि य, जो तेसु अणायरो पयत्थेसु / तं पंचविहं मिच्छ, तंट्ठिी 'मिच्छदिट्ठी य // 2 // उवसमअद्धाइ ठिओ, मिच्छमपत्तो तमेव गंतुमणो / सम्मं आसायंतो, सासायणगो मुणेयव्वो // 3 // अह गुडदहीणि 'विसमाइभावसहियाणि हुंति मिस्साणि। ' भुजंतस्स तहोभय, तद्दिट्ठी मिस्सदिट्ठी य // 4 // तिविहे वि हु सम्मत्ते, 'थोवा वि न विरह जस्स कम्मवसा।। सो अविरउ ति भण्णइ, 'देसो पुण देसविरईए // 5 // विकहाकसायनिदासद्दाइरओ भवे पमत्तु ति / पंचसमिओ तिगुत्तो, . अपमत्तजई मुणेयव्वो // 6 // अप्पुव्वं अप्पुव्वं. जहुत्तरं जो करेइ ठिइखंडं / रसखंडं तग्घायं. . सो होइ अपुव्वकरणु त्ति // 7 // विणिवट्टति विसुद्धिं, 'समयपविट्ठा वि जत्थ' अन्नन् / . "तं तु नियट्ठिाणं, विवरीयमओ य अनियट्टी / / 8 / थूलाण लोभखंडाण वेयओ बायरो मुणेयव्यो / सुहुमाण होइ सुहुमो, उपसंतेहिं तु उवसंतो॥६॥ खीणंमि "मोहणीए, खीणकसाओ सजोगजोगि त्ति / होइ पउत्ता य तओ, अपउत्तो होइ हु अजोगी // 10 // जीवाणमभव्वाणं, मिच्छत्तमणाइअनिहणं नेयं / / भवियाणामणमणाई संतं पत्तंमि सम्मत्तं // 11 // 1 "मिच्छदिट्टीओ' इत्यपि। 2 "विसयामावरहियाणि" इत्यपि / 3 'होति” इत्यपि / 4 "हिट्ठीए मीसदिट्ठीओ" इत्यपि / 5 "थेवे'' इत्यपि / 6 “देसे पुण देसविरईओ॥” इत्यपि / 7 “पमत्तोत्ति" इत्यपि। ८"अपुवकरणो त्ति ॥'इत्यपि / 6 “समगपइट्ठा" इति “समयपइट्टा" इति वा पाठः। 10 "अन्नोन्न' इत्यपि / 11 "तत्तो' इत्यपि / 12 “अनियष्टि" इत्यपि / 13 “मोहणिज्जे" इत्यपि / / Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. षडशीतिभाष्यम् सासाणं छावलियं, तुरियं 'तित्तीससागरा अहिया / पंचममह तेरसमं, देसूणा पुव्वकोडी . य // 12 / / चरिमं . हस्सपणक्खरउग्गिरणपमाणयं भवत्थाणं / / सिद्धाणमणंतद्ध, अंतमुहुत्तं तु. सेसाणि // 13 // समओ उ जहन्नेणं, पमत्तसासणुवसंतमोहाणं / / देससजोगिअसंजयमिच्छत्ताणं . . . मुहुर्ततो. // 14 / / अस्संखाउंयतिरिया, विमाणिणो : पढमपुढविनेरइया / / मणुयाय तिसम्मत्ता, वेयगउवसामगा सेसा // 15 // अप्पज्जत्तमणुस्सा, वेउव्वियमीसमीसदिठी यः / / तह. सुहुमसंपराया, परिहारियछेयचारिचा // 16 / / अप्पुव्वकरणअनियट्टिबायरा तहुवसंतमोहा य। / / / आहारग मीसो वि.य, सासणदिट्ठी य भयणिज्जा // 17 // सामन्नेणं / एवं, ग. सत्तावन्ना विसेसहेऊणं / / सा आहारदुगूणा,. पणवन्ना मिच्छदिठिस्स / / 18 / / मिच्छत्तपंचगूणा, सासणदिट्ठिस्स होइ. पन्नासा / / परलोगगमणविरहा, सम्मामिच्छस्स पुणः एसा / / 19 / ओरालमिस्सवेउव्वमिस्सकम्मणसरीरजोगेहि ... / / तह अणंताणुबंधीहि 'विरहिया होइ तेयाला // 20 // पुव्वुत्तजोगजुत्ता, * स च्चिय पुणरवि य मरणसंब्भावा / / अविरयसम्मद्दिष्टिस्स बंधहेऊण छायाला // 21 // ओरालमिस्सकम्मणजोगाः तससंजमेहि परिहीणा / / बीयकसाएहिं - चिय, विरयाविरयम्मि गुणचत्ता // 22 // अविरइमिक्कारसहा; . पञ्चक्खाणे ...य चयय तत्थेवः / / / पक्खिक्यिाहारदुर्ग, पमत्तविश्यस्स छव्वीसा // 23 // घेउव्विमिस्सआहारमिस्सवज्जाऽपमत्ति :, चउवीसा / / वेउब्वियआहारगरहिया ; बावीसऽपुव्वस्सः // 24 // / --"तेत्तीस" इत्यपि / 2 "उ" इत्यपि / 3 "मिस्सो" इत्यपि / 4 "मिस्सो वि' इत्यपि / . ... Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिभाष्यम् हासच्छक्कविमुक्का, सोलस अनियट्टिबायरस्स भवे / संजलणवेअतियवज्जियत्ति दस सुहुमरागस्स // 25 // लोभूणा नव उवसंतगस्स ते चेव खीणमोहस्स / चरमाइममणवइदुगकम्मुरलदुग सजोगिस्स // 26 // अठेव य संताउगरहिया छम्मोहआउयविउत्ता / सायं एगं एवं, चउरो ठाणाणि बंधस्स // 27 // अड सत्त मोहरहिया, चउरो 'विज्जाउनामगोया य / सत्ताए उदए चिय, तिन्नि य ठाणाणि पत्तेयं // 28 // अड सत्ताउविणाऽणाउविज छप्पण अमोहविज्जाऊ / दो नाम गोयं तह , इय पंच उईरणा ठाणा / / 29 / / जीवस्स पुग्गलाण य, जुग्गाण परुप्परं अभेएणं / . 'मिच्छाइहेउविहिया, जा घडणा इत्थ सो बंधो // 30 // करणेण सहावेण व, ठिइवचए तेसिमुदयपत्ताणं / जं वेयणं विवागेण सो उ उदओ जिणाभिहिओ / / 31 / / कम्माणूणं जाए, करणविसेसेण ठिइवचयभावे / जं उदयावलियाए, पवेसणमुदीरणा सेह // 32 // बंधणसंकमलद्धत्तलाहकम्मस्स रूवअविणासो / निज्जरणसंकमेहिं, सब्भावो जो य सा सत्ता // 33 // बंधणसंकमणुव्वट्टणा य ओवट्टणा उईरणया / उवसामणा निहत्ती, निकायणा चत्ति करणाइं // 34 / / बन्धनकरणं बन्ध एव / पयइठिइरसपएसाणमन्नकम्मत्तणेण य ठियाणं / जं अन्नकम्मरूवत्तठावणं संकमो एसो // 35 / / तं उव्वट्टणकरणं, जं ठिइरसवुड्रिपयडियपहुत्तं / ठिइरसहस्सीकरणं, करणं अपवट्टणं जाण // 36 / / 1 "वेज्जाउनामगोयाणि" इत्यपि / 2 "जोगाण" इत्यपि / 3 "उ वियाण" इत्यपि। Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिमाष्यम् उदीरणोक्तैव। उदयनिहत्तिनिकायणउदीरणाणं अजोग्गअत्तेण * / कम्माणं जं ठावण, उवसमणा सा विणिहिट्ठा // 37 // उव्वट्टणापवत्तणियरकरणा'जुग्गयाइ कम्माणं / संठावणं निहत्ती, निकायणा करणणुचियत्तं // 38 // 1 "जोग्गयाएँ इत्यपि पाठः / ... // इति षडशातिभाष्यम् // Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शतकभाष्यम् ॐ नमिऊण जिणं वुच्छामि बंधसयगे चउन्ह बंधाण / दाराणि तहा संखामित्तनिबद्धाउ पयडीओ // 1 // 'पढमवए पगई 1 साइआइ 2 भुयगारमाइ 3 सामित्तं 4 / ठिइ 1 साइआइ 2 सुहअसुह पच्चयं 3 सामिणो 4 बीए // 2 // तह साइआइ 1 पच्चय 2 सुहासुह 3 स्सामि 4 घाइयअघाई 5 / भन्नंति ठाण 6 पच्चय 7 विवाग 8 भेया य रसबंधे // 3 // कम्मपएस गहविहिं 1 भागो 2 तह साइआइ३ सामित्तं 4 / भन्नहि पएसबंधे ठिइबंधेऽट्ठारस इमाउ // 4 // संजलंण४-नाण५-दंसणचउक्क४-विग्धाणि-५ पन्नरस एया / नरतिरिनरयाउ३-विगल३-सुहुमतिग३-विउव्वछक्काणि // 5 // छेवढे उज्जोयं तिर२ओरालियरदुगाणि छप्पयडी / तिन्नि पयडीउ आयवथावरएगिदिजाईओ // 6 // छप्पयडीउ . विउव्वियछक्क इत्तोऽणुमागवंधम्मि / अगुरुलहु-कम्म-तेयग-सुवनचउ-निमिण अट्ठ इमा // 7 // मिच्छ-कसाय१६-दुगछा भय-दसण ह-नाण ५-विग्ध ५-उवधाया। असुभा चउवन्नाई तेयालीसा इमा होइ // 8 // साय-तिरिमणुसुराउग३-नरदुगर-सुरदुगर-पणिदि-तणुपणग 5 / / "समचउर-वज्जरिसभं-गुवंगतिग 3 पवरवन्नाई // 6 // सासु-ज्जोया-ऽऽयव-तित्थ-निमिण-परघाय-उच्च-अगुरुलहू / सुखगइ-तसाइदसग इय बायालीस सुहपयड़ी // 10 // नरयाउ-नरयर-तिरिदुगर- 'विगलिगजाई 4 अ दुखगइअसाया / / उवधायथावरदसगमपढमसंठाण५संघयणा 5 // 11 // नीयं तह सम्मामीसरहियघाईणि "णिट्ठवन्नाई / इय असुभा वासीई पणिदि ऊसास देवदुगा // 12 // १“पढमपए पगइए (पगइबन्धे) साइआई भुयग्गारमाइ" इति मुद्रितप्रतौ / 2 “साई आई सुइअसुहपचयं” इति मु० प्रतौ / 3 "सुहासुहं सामि" इति मु० प्रतौ। 4 “ग्गहणविहि माग तह" इति मु० प्रतौ। 5 “(समचउरंसमगुरुलहुसुखगइपरधाय उज्जोय।।६।। तित्थगरोस्सासायवणिम्मणवंगाणि तह आइसंधयणं। सुपसत्थवन्नच उतसदसोच्चगोयं ति बायाला।।१०।।) (समचउ (...)गुरुलहुसुखगइतसाइदसगं इय बायलीस सुहपयडी॥]" इति मु० प्रतौ। 6 " (इग) विगलजाइअसुहखगइऽसाया' इति मु० प्रतौ। ७“तहरुनिट्ठ'' इति मु० प्रतौ / 8 "उस्सास०" इत्यपि। Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकभाष्यम् तणअंगुवंगओरा लरहियतसदसग 10 सायसमचउरं / निमिणुच्चतित्थपरघायअगुरुवरखगइवन्नचऊ // 13 // इय बत्तीसेगारस नरतिरिनरयाउ 2 विगल 3 सुहुमतिगा 3 / नरयदुग 2 पंच आइमसंघयणं मणुय दुउरालं // 14 // आयवइगिंदिथावर तिन्नि . उ छेवट्ठ तिरिदुगा तिन्नि / चउदस चउ दसणनाण 5 विग्ध 5 पण पुरिस संजलणा 4 // 15 // इक्कारस निद्ददुगं 2 कुवनचउ४-हास-रइ-भय-दुगुछा / . तह उवघायं सोलस मिच्छा-ऽऽइमबारसकसाया // 16 // तह थीणतिगं 3 सोलस विउन्विछक्का-ऽऽउ४-सुहुम३-विगलतिगा३ / / सुर-नारयाण उज्जोय-उरलदुग तिन्नि मंदरसा // 17 // तिरियद्ग-नीय तिन्नि उ मंदरसाओ कुणंति तमतमगा / तसचउ-सुवन्नचउ-तेय-कम्म-पंचिंदि-पराया // 18 // अगुरुलहु-निमिणि-सासा पनरस नपु-मिच्छि दुन्नि जस-साया / थिरसुभसेयर अट्ठ उ तेवीसं खगइ-मणुयदुगा // 19 // आइज्जर-सुभगर-सूसरर-सेयर-संठाण-संघयण-उच्चं / एग सायं सोलस मिच्छम्मि उ बंधु वुच्छिण्णा // 20 // सासण-अविरय-बुच्छिन्न-बंध पणतीस तह य सरिराई / ' कमसो तणु-संठाणं-गुवंग-संघयण-वन्नाई // 21 // थीणतिगवज्जदंसण 6 अणरहियकसाय 12 भयदुगुछा य। नाणं५–तराय५ तीसं पएसबंधम्मि पुण नेया // 22 // बहुदलियाउग-मोहे घिणंति पण सग न मीससासाणा / / सुहमचयजोग सतरस पण पु-संजलण नव तित्थं // 23 // निदृदुग हासछग तेरस समचउर-वज्जरिसहाणि / . सूसर सुभगा ऽऽइज्जा विउव्विर-सुरदुग-सुरनराऊ // 24 // सुखगइ असाय 'चउरो सुराउ-नरयाउ-नारयद्गाणि / दुन्नि उ आहारदुग पंच सुर२-विउव्विदुगर-तित्थं // 25 // 1 . °लियरेहि तसदसगायः” इति मु० प्रतौ / 2 "आयम इति / ह० प्रतौ / 3 “ण” मा यदुदुउरालं / " इति मुद्रितप्रतौ पाठान्तरम् / 4 'मेचिरिसा (सुरनिरया)। इति मु० प्रतौ / 5 "चउह।” इनि मु० प्रतौ / 6 'य' इत्यपि मु० प्रतौ। // समाप्तमिदं शतकभाष्यम् // Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सप्ततिकाभाष्यम् * णमिऊण महावीरं कम्मट्ठपरूवणं करिस्सामि / बंधोदयसंतेहिं सत्तरियाचुन्निअणुसारा // 1 // णाणतरायदसणवरणे वेयणियआउगोयाणं / सुगमित्ति किंपि दंसिय सेसंपि समासओ वोच्छं // 2 // णाणंतरायदसगं बंधहि मिच्छाउ जाव सुहुमोत्ति / उदसंतं . जा खीणो आवरणं दंसणस्सित्तो // 3 // जा सायणु नवबंधी मिच्छा उवरिं छबंधि जाऽपुव्वो / अप्पुव्वा जा सुहुमो निदादुगविरहिचउबंधी // 4 // मिच्छा जा उवसंतं नवसंतं उदयचारिपणगं वा / खवगाण वि नवसन्तं जा बायर भागसंखेज्जो // 5 // उवरिं खीणदुवरिमं जा छ उ चउ संति चरिमि खीणस्स / उदए पुण खवगाणं चत्तारि उ सणावरणे // 6 // चउपणगं वा उदए खीणदुचरिमं तु जाव अन्ने उ / भणियं दंसणवरणं संपइ पभणामि वेयणियं / / 7 / / जाव पमत्तु असायं सायं जोगंत जयहि मिच्छादी / अस्सायं सायं वा उदए दो संति भंगचऊ // 8 // बंधविणा उ अजोगी जाव दुचरिमं दुसंति ते वुदया / चरिमे वि ते वि उदया उदयगयं 'संति भंगचऊ // 6 // आउस्सेगं बंधे एगं उदयम्मि संति दो हुँति / जा बंधो उदएगं दो संतं बंधविरमम्मि // 10 // एवं नरतिरियाणं दुसंत अट्ठट्ठभंग चउगइसु / आउचए 'जोग्गाणं नेरइयसुराण पुण एवं // 11 // भंगचऊ पत्तेयं जं ते बंधंति आउदुगमेव / * सव्वेसिमुदयसंतं एगेगं बंधपुव्विं तु . // 12 // 1 "बंधहिँ" इत्यपि / 2 "बंधा" इत्यपि / 3 "मागुसंखिजो इत्यपि मुद्रितप्रतौ / 4 "जयहिँ" इत्यपि। ५"संत" इत्यपि / 6 "जुग्गाणं' इत्यपि / Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 ] सप्ततिकामाष्यम् (गतिः समाप्ता) अट्ठच्छाहिगवीसा सोलस वीसं च बार छा दोसु / दो चउसु तीसु 'एक्कं मिच्छाइसु आउगे भंगा // 13 // गुणठाणेसु आउस्स भंगा इति // आऊ अडवीसविहं भणियं पभणामि 2 संपर्य गोयं / बंधोदयसंतेहिं णीयं तिरियाण मिच्छाण // 14 // ते वि हु तेऊ वाऊ तत्तो वा आगया पुढविमाई / जाव न उच्चागोयं बंधहि तावेस भंगो उ // 15 // दो संतं नीयवंधं नीउच्चं उदइ सासणो जाव / उच्चं बंधं नीयं च वेयए जाव देसोत्ति // 16 // दो 'संतमुच्चवंधं उच्चं उदयम्मि जाव सुहुमोत्ति / दो संतमुच्चमुदयं उवसंताओ अजोगंतं // 17 // उदसंतं उच्चं चिय अजोगिचरिमम्मि सत्तमो भंगो / भणियं गोयं संपइ भणामि मोहं समासेणं // 18 // बावीस “एगवीसा सत्तरसं तेरसेव नव पंच / / चउतिगदुर्ग च एगं बंधट्ठाणाणि दस मोहे // 16 // मिच्छं कसायसोलस भयं दुगंछा तिवेय अन्नयरं / ' हासरई इयरे का छ भंग मिच्छस्स बावीसा // 20 // मिच्छनपुसगरहिया इगवीसा सासणस्स चउभंगा / . अणइत्थिरहिय सतरस दो भंगा मीसअजयाण // 21 // दुतियकसायविहूणा तेरस देसम्मि नव य विरयम्मि / दो दो भंगा नवरं अपमत्ताईण एगेगो // 22 // जं ते हासरइदुगं बंधहि नन्नं तु जाव अप्पुब्यो / हासरइभयदुगुछारहिया पंचेव ते टुति // 23 // तो पुकोहाईणं कमेण वोच्छेइ सेसठाणाई / / अनियट्टि पंच बंधइ न सेस उदयं च एत्तो य // 24 // एको 'व दो' व चउरो''एत्तो एक्काहिया दसुक्कोसा / ओहेण मोहणिज्जे उदयट्ठाणाणि नव हुँति // 25 // 1 "इक्क"इत्यपि / 2 "संपई" इत्यपि / 3 "संत उ" इत्यपि / 4 "इक्कवीसा सत्तरसा" इत्यपि / 5 "मन्नयरं" इत्यपि / 6 “बंधहि" इत्यपि / 7 "जाइ" इत्यपि / 8-11 "इत्तो" इत्यपि / 9-10 "य" इत्यपि / 11 "इत्तो इक्काहिया" इत्यपि / Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभाष्यम् चउ कोहाइ अणाई दुजुयल हासरइअरइसोगाणं / चेयतियं एएहिं भंगा चउवीसतिजनामा // 26 // इति संज्ञाकरणम् // अणविगु तिन्नि कसाया जुयलन्नयरं तिवेयअन्नयरं / मिच्छं च सत्त उ चउ मिच्छे भंगा तिजा हुँति // 27 // चउवीस संतु सम्मी मिच्छं गंतु अणंतचयमाणो चंधावलिया पढमा तत्थुदओ नत्थि णंताणं // 28 // भयगुच्छअणंताणं एगयरे अट्ठ नव य पुण हुति / / दुगजोगतिण्हमेगयरखिणि-तिगुणा 3 तिजा दुसुचि // 29 // दस तिण्हं पि हु खिवणे तिजभंगा 24 अट्ठ सव्वि हुंति तिजा / // 24-8|| सत्तद्वनवा एवं सासणमिस्से य नवरं तु // 30 // मिच्छाठाणेणंताणुबंधे मिस्सं च खिवसु जहसंखं / / चउंचउ तिजा य' दोसु वि मिच्छविणासम्मि छक्कुदओ // 31 // भयगुच्छवेयगाणेगयरे सग 7 अट्ठ 8 एगदुगखिवणे / तिहं दुगजोगाणं ति३ तिज 24 नव तिहिं वि एगतिजो // 32 // सव्वट्ठ तिजा 24 / एवं बिइयकसाएहिँ विरहिया देसे / पंचाई अढता उदया' सव्वेऽट्ट तिज हुंति // 33 // तइयकसायविहणा विरए चउराइ सत्तगंता उ / / उदया सव्वट्ठ तिजा 24-8 तत्थ उ सम्मे विसेसो यं / / 34|| जा वेयगसम्मघरा उदया ताणं तु हुंति न 'उ पढमा / खइयगउवसमियाणं चउत्थउदया नवि य हुँति / / 35 / / पणवंधि बार मंगा कसायवेएहिँ दुन्ह उदयम्मि / पंचाओ य चउक्क संकममाणस्स 'ते चन्ने // 36 // जावइया बज्झती तस्समभंगा य तत्थ य हवंति / एगो अबंधगस्स उ एगारस सन्वि एगुदए // 37 // चउरो जईउ देसाउ पंच अजयाउ छा उ जाऽपुव्वा / सत्तापमत्त देसट्ठ नच उ अजयंत मिच्छाउ // 38 // १"दो वि हु मिस्स विणा' इत्यपि / 2 "ति ति तिज नव तिहिं बि" इत्यपि / 3 "सव्व-" इत्यपि / 4 "सव्वेऽ?" इत्यपि / 5 "हु" इत्यपि / 6 "ते वऽन्ने" इत्यपि / 7 "बंधती इत्यपि / Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 ] सप्ततिकाभाष्यम् दस मिच्छे अनियट्टी वेयइ दो एगु वा सहुमु एगं / उदया गुणेसु एवं भंगविगप्पा इमे तेसु // 39 / / अट्ट य चउ चउ चउरट्ठगा य चउरो य हुंति तिज 24 नामा। चउतीस भंग 8 एगो 9 सुहुमंता हुँति जहसंखं // 40 // उदओ सम्मत्तो॥ अठग सत्तग छच्चउ' तियदुगएक्काहिया भवे वीसा / तेरस बारेकारस एत्तो पंचाइ एगूणा / / 4 / / मोहो सव्वो अडवीस सम्मि उव्वलिइ होइ सगवीसा / / मिस्सुव्वलिए छब्बीस अणाइमिच्छसि वा होइ // 42 // जहसंखं अणचउ 4 मिच्छ मिस्स 2 सम्मं च अट्ठ य कसाया। नपु१२ मिथिहासछप्पु खविए मोहाउ 28 जा चउरो // 43 // "एक कम्मि य खीणे संजलणे सेस संत जावेगो / गुणस्थानेषु सत्तास्थानान्याहमिच्छे जा छव्वीसा अट्ठावीसा य सासाणे // 44 // चउवीसंता छव्वीसवज्जिया मिस्सि हुति संताउ / अडचउतिदुएगहिया वीसा अजयाइचउसु पि // 45 // , तो अडचउएगहिया वीसा' उवसंत जाव सव्वेसि / तेराइ खवगि बायरि एगंता “एगु सुहुमम्मि // 46 // अडवीससंतकम्मो सम्म उव्यलिय जाइ मीसम्मि / मिच्छादिट्ठी एवं सत्तावीसा हवइ मीसे // 47 / / सांप्रतं गुणास्थानविषयबन्धोदयेषु सत्ताम्थानान्याह-- जे गुणठाणगसंता ते ते ताणं पि बंधउदएसु / "मोत्तु बायरखवगो अणसम्मविसेसिउदए वि // 48 / / '"इयवीसाई चउरो पणचइ चउचइ इगार पण चारि / तिब्बंधाइसु संतं बंधसमं एगअहियं च // 49 // 1 "तिगदुगएगाहिया" इत्यपि / 2 “उव्वलिए" इत्यपि। 3 "०मीस." इत्यपि। 4 "इत्थि" इत्यपि / 5 "इक्किक्कम्मि उ" इत्यपि / 6 “उवसंतु" इत्यपि / 7 “एग" इत्यपि / 8 'मिच्छदि०" इत्यपि / 6 “अणसम्मविसेसुदए बायरखवगं च मुत्तणा // 48 // " इति मुद्रितप्रतौ पाठान्तरम् / 10 इयं गाथाद्वयी हस्तलिखितप्रतौ, मुद्रितप्रतौ पुनरित्थं दृश्यते / 'मिच्छुदए अणरहिए अट्ठाब से च.हुति संतम्मि। सम्मजुइ उदइ इगवीस नत्थि तिदुवीससम्मिविणा // 49 // इगवीसाई चउरो पणचइ चउचइ इगार पण चारि / तियबंधाइसु संतं बंधसमं एगअहियं च // 50 // इति / Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभाष्यम्। सम्मजुय उदइ इगवीस नत्थि तिदुवीस नत्थि विणा / मिच्छुदए 'अणरहिए अट्ठावीसेव संतम्मि // 50 // पुचयनपित्थिसंते जुगवं थक्क 'अवेइ एक्कुदओ / चउबंध संतिगारस जुगवं सत्तक्खए चउरो / / 5 / / पंडगपट्ठवगेयं एवं थीए वि' नवरि नपि खीणे / 'ता इत्थिउदयसंतं पुबंधं जुगवुच्छेएइ // 52 // पुरिसो पट्ठवगो: पुण सव्विगवीसाइफासए कमसो | . हासछगखवणकाले पुबंधुदया परं थक्का // 53 // सम्म विणा उदएसु संतविभागो उ अजयमाईणं / / चउरहवीस उवसंतसम्मि खीणम्मि - इगवीसा // 54 // जीवस्थानेषु बन्धादीनाहअट्ठसु पंचसु एगे जियठाणे एग दुन्नि दस बंधा / 'तिग 'चउ नव उदयम्मि उ तिग तिग पन्नरस संतम्मि.॥५५।। .. . . गतिषु बंधादीनाहबंधट्ठाणा तिन्नि उ पढमा सुरनारएसु चउ तिरिसु / / सुरनारयाण छाई तिरि पंचाई दसंतुदया // 56 / / इगवीसंता तेवीसवज्जिया छावि संति तिसु गइसु / मणयगईए . सव्वे, बंधोदयसंतठाणाणि // 57|| मोहो सम्मत्तो॥ तेवीसपन्नवीसा छव्वीसा अट्ठवीस गुणतीसा / तीसेगतीसमेगंबंधट्ठाणाणि नामस्स // 58 / / वन्नचउतेयकम्मा, निम्माणुवघायमगुरुलहुयं च / नव धुवबंधा एए सव्वत्थ मिलंति, जा बंधो // 56 // थिरसुभर सुस्सर३ सुखगइ४ सुभग५ जसा देय७ सियरसत्तदुगा संघयणा 6 संठाणा. छद्धा-पिंडा हवंतेए // 6 // 'नवगाविरुद्धगहणे तज्जा भंगा हवंति सव्वत्थ / छायालसयाणि अडुत्तराणि अविसेसिए धुवओ // 6 // 1 "तो इथिउदय सन्त पुबंध जुगव छे एई” इति पाठो मुद्रितप्रतो दृश्यते। किन्तु स छन्दमना, दिहेतुना ऽशुद्धः प्रतिभाति। 2 “तिसिक्कतिसमेगं" इति मुद्रितप्रतौ पाठोऽस्ति, किन्तु सोऽशुद्धः / ३."नवए वि०" इत्यपि। Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभाष्यम् जत्थ य अट्ठ य भंगा तत्थ य थिरसुभर जसेहिँ३ सियरेहिँ 3 / उठिंति संकरहिया आयवउज्जोय 'दुगि दुगुणा // 62 / / बंधस्थानानि विवरयन्नाह गाथाष्टादशकेननियगइदुगनियजाई उरलं हुंडं च थावरं अथिरं / अणएज्ज असुभद्भग अपज्जनवधुवय अजसं. च // 63 / / पत्ते यदुगेगयरं सुहुमदुगेगयरिगिदितेवीसा / "एगिदियाइतिरिनर बंहिँ मिच्छेण चउभंगा // 64 // सोसासपराधाए . खित्ते पणुवीसिगिदिपज्जस्स / पत्तेयसुहुमसुभथिर जसजुयलिहिँ वीस भंगाओ // 65 / / . विरुद्धपरित्यागेन ज्ञेयाः। नेरइयवज्ज मिच्छो बंधइ एसा वि होइ छब्बीसा / उज्जोयआयवाणं एगयरे भंगसोलसगं // 66 // साहारणसुहमेहिं उज्जोयजसायवा न बझति / अपजत्तेणं च तहा पसत्थपरियत्तमाणीओ // 67 // 5 एगिदिवज्जतिरिमणअपज्ज पणवीस एत्थ पणभंगा / / तसबायरउरलदुगं सेवट्ट तह य पत्तेयं // 68 // , 'तेकीससेससहियं नरतिरिएगिदियाइ बंधंति / नारयअडवीसेवं बंधहि तिरिमणुयपंचिंदी // 69 // ___ सा एवंनियगइदुगनियजाईबायरपरघाय पजपत्तेयं / नवधुव सासु तसं चिय वेउव्विदुगं च हुडं च // 7 // अपसत्थपिंडसहिया संघयणं 'मोत्तु मिच्छ बंधेइ / / भंग विणा मिच्छाई पुव्वंता सा वि सुरजोग्गा // 71 // नवरं भंगा अट्ठ उ समचउरंसं पसत्थपिंडं च / सा तित्थि इगुणतीसा बंधहिँ अजयाइणो अहवा // 72 // १"दुवि" इत्यपि ह० प्रतौ / 2 एगिदिया य तिरि०" इत्यपि / ह० प्रतौ 3 "बायरपत्तेयथिरासुमजसि सियरेहिँ वीसांसा // 65 // " इत्यपि मुद्रितप्रतौ पाठान्तरम् / 4 बंधति" इति मु० प्रतौ / 5 "अपि-. जत्तविगलतिरिमणुयजुग्गपणवीसइत्थ पण भंगा' इति मुद्रितप्रतौ पाठान्तरम् / 6 “सेसतेवीस०" इति मुद्रितप्रतौ पाठोऽस्ति पर तु म छन्दभङ्गकारणेणा-ऽशुद्धो भाति / 7 "पजत्त०" इति तु मुद्रितप्रतौ पाठोऽति, किन्तु स न सम्यक् , छन्दोमङ्गत्वात् / 8 "मुत्त मिच्छु" इत्यपि / / “बंधइ" इति मु० प्रतौ। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभाष्यम् / नियगइदुगनियजाई उरलदुर्ग बायरं पराघायं / पत्तेय पज्ज नव धुव नवपिंडा उ तसं सासं // 73 // नरतिरिय 'जोग्गमिच्छाइ दोनि बंधति पिंडजा भंगा / विगलट्ठभंग हुईं सेव? हीणपिंडिल्ला 74 // संघयणा संठाणा छावि हु मिच्छाण हुँति बंधम्मि / "सेवद्वहुंडविरहे पण सासणि तयणुभंगा उ // 7 // "पढमं सुरनेरइया मिस्साइजया नराण पाउग्गं / अडभंग 'सत्थपिंडा एस विसेसो इगुणतीसे // 6 // नरइगुणतीस तीसा तित्थेणं होइ "अजउ बंधेइ / अहवु ज्जोयण तीसा तिरि गुण तीसाइ तह सव्वं // 77 // अहवा सुरअडवीसाऽऽ"हारगदुजुया अभंग वरतीसा / तित्थेणं इगतीसा बंधहि अपमत्तअप्पुव्वा // 7 // जसकित्तिमपुव्वाई "बंधहि उवसंतमाइ न उ नाम / इय नामबंध'ठाणाइ भंगसंखा इमा तेसु // 79 // चउ४"पणवीसा २५सोलस१६नवः बाणउई सया य अडयाला। "इगयाउत्तरछायालसया४६४१ "एक कबंधविही // 8 // गुणस्थानेषु बन्धस्थानान्याहमिच्छो छ उ तीसंता सासणु"अजया य तिन्नि तीसंता / देसपमत्ता मीसा बंधहि वीसा नवदुहिया // 8 // अडवीसाई चउरो बंधइ अपमत्तु पंच अप्पुव्वो / एगमनियट्टिसुहुमा सेसा नाम न बंधंति // 2 // ___ जीवस्थानेषु बन्धस्थानान्याहएगेगतीस सन्नी पज्जो अडवीस पज्जु अमणो वि / सेसा उ पंचठाणा 'बंधइ सव्वे वि जियठाणा // 3 // 1. "जुग्ग०" इत्यपि / 2. "दुन्नि" इत्यपि / 3. "छेवट्ठ" इत्यपि / 4. "छेवढ0" इत्यपि / 5. बंहि सुरनेरइया मिस्सा अजया य मणुयपाउग्गं / " इति मुद्रितप्रतौ पाठान्तरम्। 6. “०पसत्थ." इति मु० प्रतौ / 7. “अजय" इति मु. प्रतौ / 8. "जोइण०" इत्यपि मु. प्रतौ / 9. "०तीसाएँ' इत्यपि मु०प्रती। 10. "हारदुगजुया'' इत्यपि मु० प्रतौ। 11-12. "बंधहिँ" इत्यपि मु० / 13. "०ठाणाइँ" इत्यपि मु०। 14. “पणु०" इत्यपि मु० / 15. "इगुयालुत्तर०" इत्यपि मु०। 16. "इक्विक" इत्यपि मु० / 17. "अजओ" इत्यपि मु० / 18. "बंधहि" इत्यपि मुः। Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकामाष्यम् * गतिषु तान्याहमणुएसु सव्वि बंधा पणछन्नववीस तीस देवेसु / . तिरिएसु छ 6 तीसंता नरए गुणतीसतीसा य // 4 // पणयाल सन्नि नरि सत्ततीस तेरस सहस्स नव य सया / तिरि पज्जि अमणि मिच्छे ते छब्बीसा असम्मजया // 8 // ते सतरसहिय 'जियबारसेसु अट्ठसय, तेरस सहस्सा / छप्पन्नहिय सुरेसु बत्तीसहिया य ते नरए // 86 // छन्नवइसयट्ठहिया सोलस बत्तीस सोल सोलस य.। . चउ पंच एगमेगं साणाइसु भंग जा सुहुमो // 87 / / . // इति जीवस्थानादिषु भङ्गाः॥ ' बंधो समत्तो॥ वीसिंगवीसा चउवीसि गाउ इगतीसमंत एगहिया / उदयट्ठाणाणि भो 'नव अट्ठ य हुंति नामस्स // 8 // 'तेयाकम्मागुरुलहु थिरसुभजुयलाणि निम्म वन्नचउ / एया पारस पयडी धुवोदया हुति नामस्स . // 86 // 'संघयणा६संठाणासुभगं१आदेय१जस१ति३जुयलाणि / 'ससीगुणण भंगा अडसीया दो सया हुँति // 10 // करणं / / पज्जत्तजसादेयं सूभगजुयलेहि नव य. भंगाओ / अपसत्थेगु अपज्जे पज्जड उ करणजवडिल्लं // 11 // 'साहारण ण आयवु-जीयजसायव अपज्जसुहमेहिं / साहारुज्जोयजसायवे य नोदिति * सुहमतसे // 2 // !!... उदयस्थानानि विवरयन्नाह त्रिंशद्भिर्गाथामिःनियगादुगनियजाई थावरनादेय दुहयधुवपयडी / सुहुमापज्जजसाणं " दुगदुग एगयरिं पणभंगा // 3 // थावरइगवीसेसा अवणिय अणुपुवि 'पत्तियं एयं / पत्तेयदुगेगयरं हुंडं उरलं "उवग्यायं . // 14 // 1. "बारसजिएसु” इत्यपि मु० / 2. "०गाइ०" इत्यपि / 3 "इयं गाथा हस्तलिखितप्रतौ नास्ति / 4 संघयण सठाणं सूभगआ०" इति मु. प्रतौ / 5 “रासिगुणणे" इति मु. प्रतौ / 6 “साहारणे न" इति सुर प्रतौ / 7 “दुभग०" इत्यपि मु. / 8. "एगयरे य” इति ह. प्रतौ / 9 "घित्ति' इत्यपि मु. प्रतो। 10 च उवघायं” इत्यपि मु. प्रतौ। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभाष्यम् दस भंगा 'उरलम्मी विउन्धिपज्जेगु जाण चउवीसे। 'बायरविउविदेहं पत्तेयं वित्थ य विसेसो // 95 / / पज्जचउवीस पणुवीस होइ परघाय सत्त तहि भंगा / / पत्तेय?सुहमरजसजुयलि "छाओ एको य वेउव्वे // 16 // ऊसासे छव्वीसा तत्थ वि ते सत्त अहव 'उज्जोयं / 4 / / अहवा वि आयवेणं 2 चउरो 4 दोर गिदि छव्वीसा ||7|| सासव्वीसमज्मे आयवउज्जोयएगयरि छूढे / सत्तावीस छ 6 भंगा एगिदियभंगवायालं // 8 // जा इगवीसा एगिदियस्स विगलाण होइ सा चेव / किंतु तसवायरं चिय पाठो भंगा य 'तिन्नेवं / / 16 / / अपसत्थपञ्जभंगो एगो नरएसु अट्ठ वि सुरेसु / / नव तिरिनरेसु जवडिल्लि भंग सेसो उ विगलकमो // 10 // धिगलइग वीसि अणुपुग्विविरहिए खिवसु हुँडसेवट्टे / / उरलदुगं . उबघायं पत्तेयं चेव छव्वीसा // 101 / / तं भंगतियं सा वि हु दुखगई परघायखिवणि अडवीसा / भंगा य ''दोन्नि इत्थं अपजभंगा जओ नत्थि // 102 / / ऊसासुजोयाणेगयरे गुणतीस भंग चत्तारि / सासगुणतीसतीसा सुरदुगउज्जोयं एगयरे // 103 / / "छब्भंगा सर तीसा इगतीसोजोयएण भंगचऊ / बेइंदियबावीसा छावट्ठी सव्वविंगलाणं // 14 // संगलोणं छव्वीसा एवं नवरं तु रासिजा भंगा 288 / अप्पञ्जभंग अप्पसत्थजुत्त 1 अडवीस पुण एवं // 10 // खगईदुगएगयरे परघाए खित्ति रासिजा 288 दुगुणा / रासिज२८८भंग चउगुणा४ गुणतीसे सासि जोए वा // 106 / / ऊसांसें गुणतीसें सरदुगउज्जोयएगयरखेवे / / १'उरलम्मि उ! इत्पपि मु / 3 “जाणि" इति ह. प्रतौ / 3 "बायरु" इति मुः। 4 "इत्थ' इत्यपि मु०॥ 5 "छा इक्को उ" इति मु०।६"उज्जोए' इत्यपि मु.७ "छब्बीसे" इत्यपि।"तिन्नेव" इत्यपि मु.। . ९०वीस" इति मुंः / 10 "परिधा०" इति मु. / 11 "दुन्नि" इति मु. / 12 “छ य” इत्यपि मुः। Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकामाष्यम् 'छग्गुणरासिजभंगा२८८ तीसाइ पुणो वि सरतीसा // 10 // उज्जोएणिगतीसा चउम्गुणा 4 रासिजा उ उदयंसा / छलहियगुणवनसया भंगा पंचिंदितिरियाणं // 10 // उज्जोयरहियतिरिविहि सामन्ननराण अस्थि सव्वो वि / दुगहियछव्वीससया भंगाणं ताण तो हुति // 10 // वेउब्वियपणुवीसा वेउव्विदुगं समंतचउग्सं / पत्तेयं उवघायं सिंगवीसणुपुविरहिया य // 110 // अडभंग सत्तवीस वि सुखगइ परवायसंजुय तहेव / सासुजोएगयरे अडवीस दु अट्ट 2 / 8 जवडिल्ला // 11 // उज्जोयसूसरेगयरि सास अडवीस होइ गुणतीसा / जवडिल्ला दो य अठा उज्जोए तीस जवडट्ठा // 112 // तिरि छप्पन्नं भंगा नरेसु एमेव भंगपणतीसा / जं उजोओं जईणं तहि पसत्था य जवडिल्ला // 113 // आहारसंजयाण वि एवं आहारगं तहिं वच्चं / 'एक्केको वि य भंगा सव्वत्थ वि सत्तमिलिया वि // 114 // नरगइपणिंदिजाई तसवायरपजसुभगधुवपयडी / . आदेयजसा वीसं तित्थेणिगवीस केवलिणो // 115 // उरलदुगं सट्ठाणं पत्तेगुवघायवज्जरिसहं च / सह वीसाएँ छवीसा सत्तावीसा य तित्थेणं // 116 // स च्चेव य छब्बीसा परघाउस्सासगइसरेगयरं / / पक्खिविय भवे तीसा एगत्तीसा य तित्येणं // 117 // केवलिणो तीसुदए सरंमि रुद्धे भवे इगुणतीसा। अडवीस सासरोहे अहवा तित्थयर इगतीसा // 118 // सररोहि तीस सासम्मि गूणिया एवमट्ठ मणुयगई। तससुहयपञ्जबायरपणिंदिया-ऽऽ'एजयजसेहिं // 119 / / नव तिथिण केवलिणो सव्वे भंगट्ठ पुत्वगहणेण / मणुयाण सव्वि भंगा छब्बीससया उ बावन्ना // 120 // 1 "छगुणा" इत्यपि मु. / 2 "परिघाय०" इति ह. प्रतौ / 3 “च सत्था" इति ह। " "इदियो . बिय" इत्यपि मु / 5 "पत्तेयु०" इत्यपि मु. / 6 “इज्ज" इत्यपि मुः। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभाष्यम् नियएगवीसजुत्ता विउन्वितिरिसरिस हुंति देवुदया / चउसहि देवभंगा अपसत्था पंच नरएसु // 121 // उदयेषु मङ्गसंख्या। इग बेयालिकारस तेत्तीसा छस्सयाणि तेत्तीसा / चारस सत्तरससयाणहिगाणि चिपंचसीईहिं // 122 // अउणत्तीसेगारससयहियसत्तरसपंचसट्ठीहिं एक्केवगं च वीसादलृदयंतेसु उदयविही // 123 / / | उदयस्थान. 2002124/25 26 27 28 | 29 30 31 बन्धस्थानेषु उदयावाहइमतीसंता इगवीसमाइणो सन्वि उदय विज्जति / तीसंतबंधगेसु चउवीसा 'मोत्तु अडचीसे // 124 // गुणतीसतीस उदया इगतीसे एगवंधि तीसेव / चउवीसा 'पणचीसा 'मोत्तमबंधम्मि दस सेसा // 12 // ___सांप्रतं सर्वोदयमङ्गसंख्यापूर्वकं सर्वस्थानेषु संमवितोदयमङ्गसंख्यामाहसत्तत्तरी सयाई एकाणउयाइँ सव्वभंगाणं 77911 जइ१८सुर६४नरय५विहूणा तेवीसे चंधि सेसुदया७७०४॥१२६॥ "नारय५जई१८विहूणा पुण छव्वीसे य पन्नवीसे य 7768 / केवलिरहियादउदया गुणतीसे तीसबंधे य 7783 / / 127 // पन्नसया 'बासीया 5082 अडवीसे वंधि जमिह तिरिउरला / देहेणापडिपुन्ना पढमे संघयणसंठाणे // 128 // अडयालं भंगसयं१४८इगतीसे एगवंधि दुगसयरी / 72 अट्ठाणवई सव्वे अबंधए हुँति उदयंसा // 126 / / // इति बन्धस्थानेषु उदयमङ्गसंख्या // ___ सांप्रतं गुणस्थानेषु उदयस्थानान्याह 1 "मुत्त" इत्यपि मु / 2 "०उदओ" इत्यपि ह / 3 "पणु०" इत्यपि मु / 4 "मुत्त" इत्यपि : मुः। 5 "नरयजइविहूणा पुण छब्बीसे पनवीसबंधे य" / इत्यपि मुद्रित प्रतौ / 6 "बासीती" इत्यपि मु.। Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सप्ततिकामाष्यम् इगतीसंता इगवीसमाइणोः मिच्छि सच्चि उदयाओ / : र त्तट्ठवीसरहिया ते चेव उ सत्त सासाणे // 130 // रणतीसाई तिनि उ इगतीसंता उ मिस्सगुणठाणे / / चउवीसरहिय अजए देसे चउछेग-२४-२६-२१-वीसूणा।।१३१॥ विरए वेवं नवरं इंगतीसाए य रहिय अपमत्तो / गुणतीसतीस पुव्वा जा खीणो तीस जोगेवं // 132 / / चउपणअहिया वीसा नव अट्ठ य 'मोत्तु अट्ठ उदयाओ। नव अट्ठ अजोगंमी भंगोवाओ इमो. .. तेसु // 133 // 'सुहुमतिगं सुहुमतसा मिच्छे इंगविगल जाव सासाणे / उदया 'वि न संतेए सासाणे नरगइगवीसा // 134 / / एगिदिसु छव्वीसा नरतिरि गुणतीसतीस वुजोई / सुरवजा पणवीसा इगतीसा तिरिसगलसेसा // 135 / / मिश्रे विशेषमाहनरतिरिए गुणतीसा तीस वि जोएण नत्थिणमीसाण / अण एजदुहयमजसं देसाईणं न य उदेइ. // 136 // गुणतीसंतुद एहिं संजयदेसा न हुँतुरलदेहा / ' आहारनरूज्जोया जइस्सऽपुव्वऽट्ट केवलिणो // 137 // / संघयणे पढमे चिय सेढी तिन्नाइ. अन्नि उवसमगे / तित्थयरे समचउरं सरखगई सुप्पसस्थित्ति // 138 // . नियउदयभंगसंखा अजोग्गरहिया, भवे. निययसंखा / गुणठाणे गुणठाणे भंग चिय. 'संपयं बुच्छं // 136 / / सत्तत्तरितेवत्तरि 7773. भंगसया मिच्छसासणे एवं / चारि सहस्सा सगनउय 409 मीसि चउतीस पणसट्टा३४६५ // 140 // अजए इगवन्नसया इगचत्ता ५१४१देसि चउसयतिचत्ता४४३ / अट्ठवन्नसय छठे 158 अडयालसयं 148 तु अपमत्ते // 14 // . 1 "मुत्त" इत्यपि मु.। 2 "य" इत्यपि मु.। 3 इयंगाथा मुद्रितप्रतावित्थम्-'सगलतिरिसेसइगतीस असुरपणुवीसिगिदि छव्वीसा / तिरिजोई विगलतीसा तिरिमणुयाणं च गुणतीसा" इति / 4 “अणुइज्ज" इत्यपि मु० / 5 "०एसु" इत्यपि मु० / 6 “संपइं!' इत्याप मु०। Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभाष्यम् उवरिं जा उवसंतो विसत्तरी 72 खीणमोहि चउवीसा 24 / अडचत्त 48 सजोगम्मी दो भंगा चरिमगुणठाणे // 142 // जीवस्थानेषूदयानाहछव्वीसंता सुहुमे सगवीसंता य बायरे उदया / इगतीसंता चउवीसहीण समणेगवीसाई // 143 // विगलामणेसु ते वि हु पणुवीसा सत्तवीस विणु छाओ / पजि 'अपजाणं निज दो दो उरलोदया पढमा // 144 // जीवस्थानेषु उदयस्थानकमङ्गसंख्यामाहसुहमेयरेसु तिय तिय 3 अपजि पज्जेसु सत्त गुणतीसं / सन्नि अपज्जे चउरो दो दो सेसेसु ऽपज्जेसु // 145 / / छावत्तरि इगसत्तरि समणे विगलेसु वीस पत्तेयं / अमणे गुणवन्नसया चउसहिया जीवउदयंसा // 146 // गतिषूदयस्थानान्याहइगपणसगढनवहियवीसा नरगे सुरेसु तीसा वि / नरुदय-चउवीसूणा नवट्ठवीसूण-तिरिएसु // 147 / / उदयंस पंच नरए तिरिए पण सहस सयरि भंगाणं / देवेसु चउसट्ठी नरेसु छब्बीसवावन्ना // 148 // . गुणस्थानजीवस्थानगतीनां बन्धेषूदयानतिदिशन्नाहगुणतीसंता उदया अडवीसे नत्थि जाव मीसोति / निगतीस तित्थबंधे इगतीसचयाइ 31 गुणसरिसा // 149 // पणसगअहिया वीसा तेवीसचए न होइ सगलाणं / ' गुणजियगईण सरिसावसेसबंधेसु उदयाओ // 150 / / . मिश्रस्यैकोनत्रिंशबन्धे एकोनत्रिंशदुदयः / / // उदओ सम्मत्तो॥ ..: तिदुनवई गुणनवई 'अट्ठच्छडमी असी य गुणसी य / अट्ठयछप्पन्नत्तरि नव अट्ठ य नामसंताणि // 15 // पडिपुन्नु नामु तिणवइ तित्थविणा दुणवई य सा होइ / चउआहारगरहिया ता 63-92 गुणनवई य अडसीया॥१५२॥ .: "भपजत्ताणं निय दो" इत्यपि / 2 'भडसी छडसी असीइ गुणसीइ / " इत्यपि मु० / 3 "परिसुन्न" इत्यपि मु। Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभाष्यम् 'सुरदुगनरयदुगे वा एगयरे नासिए हवइ छासी / असइ विउविचउक्के दुगअन्नयरे य उव्वलिए // 153 / / मणुयदुगे उव्वलिए अडसत्तरि सत्तखवणरहियाण / / खवगाणं पुण सव्वे छासी अडसत्तरी मोत्तु // 154 / / तेणवइमाइयाओ चउरो नामस्स तेरसे खविए / जायंति असी गुणसी छसयरि पणसयरि जहसंखं // 15 // नरयदुगं तिरियदुगं विगलिगजाई य थावरं सुहुमं / आयावं उज्जोयं 'साहारण तेरस इमाओ // 156 / / दुणवइअडसीयाओ उवसंतो जाव संति मिच्छाओ / तिणवइ गुणणवईओ दो वि हु अजयाउ अट्ठण्हं / 157 / / गुणनवइ असी छासी "अडसत्तरि मिच्छि थूलखवगाओ। पणछन्नवहियसत्तरि असी अजोगंतऽणुवसते // 158 / / नव अट्ठ अजोगिम्मी सत्ता गुणठाणगेसु इय भणिया / गुणवंधुदएसे नवरं तत्थ य विसेसोयं // 159 / / अडवीसचयं "मोत्तु दुणवइ छडसी८६ असी प्य सव्वत्थ / / छच्चीसंतुदएसु अडसयरी पंचमी मिच्छो // 16 // गुणतीसचए नरगोदएसु२१ 25,27, 28, २९नवसी विधि अडवीसे। दुणवइ नवद्वछासी नवसी विणु एकतीसुदए // 161 // सासणि तीसे तुदए दुणवइ 'अडसी य सेसि पुण अडसी। ' अजए गुणतीसचए तिनवइ नवसी छवीसुदए // 16 // 'देसपमत्ति गुण' तीसे 26 चइ अजए तीसि तिणवई नवसी / अडवीसचए दुणवइ अडसी अजयाइतिहंपिं // 163 // अडसी नवसी दुणवइ तिणवह संता कमेण बंधेसु / अपमत्तअपुव्वाणं इगतीसंतेसु चउसु पि // 164 // 1 "अभ्या गाथायाः स्थाने मुद्रितप्रतावियं गाथाऽस्ति / “छासीइ असइ सुरदुगि नरगोचियछक्कगे असइ असिई / सुरदुगि नरयदुगेण व छक्कचए सइ पुणो छासी।" इति / 2 "अमृत्तरि" इत्यपि मु० / 3 'अडहत्तरि मुत्त॥” इत्याप मु० / 4 "साहारण" इत्यपि मु। 5 अडहत्तरि इत्यपि मु०। 6 "०म्मि उ" इत्यपि मु०। 7 "मुत्त दुनवई छडसी असीइ" इत्यपि मु०।८ "अडसीइ" इत्यपि मु० 6 देसि" इत्यपि मु० / 10 "०तिसे” इत्यपि मु०। Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभाष्यम् तित्थविणा उदएसु अतित्थसंताइँ हुँति केवलिणो। तित्थेण सतित्थाई सेसा संता गुणकमेण // 16 // जीवस्थानेषु सत्तामाहदुणवइ अडसी छासी असीइ अडहत्तरी य तेरससु / पन्नत्तरिपज्जंता दस संता सन्निपजत्ते // 166 / / जीवस्थानविषयबन्धोदयेषु सत्तामाह'बंधोदइ तेरेवं नवरं उरलोदए छवीसंते / अडसयरि संति बंधे अडवीसि अतित्थि मिच्छविही // 16 // छव्वीसंतचएसु सन्निम्मि वि होइ विगलविहि नवरं / पणसगवीसुदएसु दुणवइ अडसी अ तेवीसा // 16 // अडवीसाई तीसंतबंधि संताई निययउदएसु / अजयजुयमिच्छविहिणा छलसीमाई उरलि चेव // 16 // इगतीसएगबंधे अबंधि उदएसु जइविही होइ / करणं पइ सन्निम्मि वि विहि केवलिणो निरवसेसो // 170 // गतिषु सत्तामाहएगचउ पंच छहिए वीसे उदयम्मि जे तिरियउरला / तेसिं चेवडसयरी तिरिजोग्गचईण नवरं तु // 171 // छप्पणवीसुदएसु अडसयरी नस्थिगिदिपजस्स / जससाहारणआयवउजोएहिं तु मिस्सेसु // 172 // दुणवह अडसी चउगइ 'असी य छासी य मणुयतिरिएसु / सुरणर तिणवइ नरगे वि गुणवई पंच नरि सेसा // 173 // गतिविषयबन्धोदयेषु सत्तामाहबंधोदएसु गइविहि णारयतिरिएसु णवरि अडसयरी / जीवे व्व तिरिंगईए अडवीसि अतिथि सन्निविही // 174 // तिरि सयलि२६८विगलि१८सव्वे 'पर्णसिगाएगवीसछव्वीसे। उरलेगिंदियभंगा एवं इगवीसचउवीसे ॥१७शा पत्तेयअजसभंगा दो दो छव्वीसपनवीसेसु / एवं च पंच सत्तिगतिन्निसया 'होति पणतीसा // 176 / / १“बन्धोदय" इति मु० प्रतौ। 2 “असीइ छासीह" इत्यपि मु० 3 “जीवन्व" इत्यपि मु०।४"पण.. सगा" इति वा / 5 "संतिग" इत्यपि मु०। 6 "हुँति" इत्यपि मु० / Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाभाष्यम् मणएसु वि सन्निविही णवरं अडसयरि नत्थि तह तीसे / बंधे तिनवइ नवसी इगतीसुदओ नसइ बंधो // 177 // देवाण तीसबंधे संता चउरो वि नियमउदएसु / दुनवइ अडसी संता सेसेसु बंधउदएसु / 178 // सव्वत्थ वि अडसयरी अन्ने तिरियाण उरलउदएसु। पणसगवीसुदएसु तेवीसचयं नरे विति // 176 / / सामान्येन सर्वबन्धेषु सत्तास्थानान्याहतीसंतऽडवीसविणा बंधेसुदएसु एगतीसंते / इगवीसाइसु दुणवइ अडसी छासी असी ठवसु // 180 // छव्वीस तुदएK अडसयरी ' पंचमी तहा ठवसु / गुणनवई तह तिणवइ ठवेसु एएसु उदएसु // 181 / / गुणतीसबंधगस्स उ चउवीसिगतीसवज्जि सेसेसु / छच्चउअहिया वीसिगतीसा वज्जित्तु तीसचए // 182 / / इगतीसबंधि उदया गुणतीसा तीस संति तेणवई / इगबंधिअबंधीणं तीसुदए अट्ठ संताणि // 183 / / तिदुनवई गुणनवई ' अडसी य असी य तह य गुणसीया / छप्पणहत्तरि " एत्तो अबंधि सेसेसु उदएसु // 18 // वीसछ्वीसऽडवीसे गुणसी पन्नत्तरी य संताई / / गुणतीसे इगुणासी छप्पणसयरी असी चेव // 18 // णवउदए संताई असीइ छावत्तरी य नव चेव / अठ्ठदए ते चेव उ एगूणा तित्थनामेणं // 186 / / असीइ छसयरि दुनि उ इगवीसिगतीससत्तवीसाए / . अडवीसे पुण बंधे नवइ अडसी य सव्वत्थ // 187 / / इगतीसुदए छासी छासी गुणनवई "तीसुदयअहिया / गुणनवइ कस्स भन्नइ मिच्छद्दिद्विस्स ननस्स // 188|| 1 "तेवीसचओ वि मणुएसु॥” इत्यपि मुद्रितप्रतौ पाठः / 2 "पंचमं" इति मु० प्रतौ / 3. "छ- . चउअहियवी०" इत्यपि मु. / 4 "अडमी[ई]इ असीइ तह य गुणसीइ // " इत्यपि मु०। 5. "इत्तो" इत्यपि मु०.६"अडसीइ सव्वत्थ" इत्यपि मु० / 7 'तिसुदए अहिया।" इत्यपि मु। Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकामाष्यम् गुणनवइ कहं भन्नइ चियतित्थो 'वेयगे गओ मिच्छं / बंधेइ नरगजो ग्गा अडवीसा तीसउदयंमि // 189 // पत्तस्स तस्स नगरे, उदइगवीसाइ बंधि गुणतीसा / अन्तमुहुत्तं तत्तो सतित्थ तीसा चिणइ सम्मे // 19 // इय सव्वकम्मबंधाइरूवणा लेसओ मए भणिया / / संतंताताणंतं अत्तपुरं इच्छमाणेण // 16 // 1 'वेयगो” इत्यपि मु० / 2 "डगं भडवीसं” इत्यपि मु० / 3 "तीसं" इत्यपि। “भमयपुरं" इत्यपि। .: इति सप्ततिकाभाष्यं समाप्तम् .. Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // सप्ततिकासारम् // सिरिवीरजिणं नमिऊण भणियनीसेससत्थसारत्थं / वुच्छामि सत्तरीए सारमिणं संगहेऊण // 1 // बंधे उदए संते पण पण पढमंतिमेसु कम्मेसु / वेयणियाउयगोए बंधे उदए य एक्किक्कं // 2 // संतम्मि दोन्नि एक्कं व हुज्ज अह दंसणस्स आवरणे। नव छच्चउरो बंधे संतम्मि य उदय चउ पण वा / / 3 / / बावीस इक्कवीसा सतरस तेरस हवंति नव पंच / चउ तिग दुग एक्कं वि य बंधट्ठाणाणि दस मोहे // 4 // मिच्छं कसायमोलस वेओ एक्को भयं दुगंछा य / जुयलेगेण दुवीसा इगवीसा मिच्छविगमम्मि // 5 // अणबंधविगमि सतरस तेरस विगमे अपञ्चखाणाणं / पञ्चक्खाणाभावे नव हासाईचउक्कस्स // 6 // वोच्छेए पणबंधे ऽमवेयाविंगमओ य चत्तारि / कोहाई य कसाए केवलए बंधए तत्तो // 7 // कोहे विगए बंधइ संजलणतिगं दुगं तु माणम्मि मायाविगमे बंधइ अनियट्टी लोभमेगं तु // 8 // दस नव अह य सत्त य छ पंच चउ दुन्नि एक मोहुदया / मिच्छ कसायचउक वेओ जुयलं भयदुगुछा // 6 // एए दस अणविगमे भयदुगुंछाण वेगविगमम्मि / नवउदए दुगविगमे अट्ठ य सत्त उ तिगाविगमे // 10 // अणरहियकसायतिगं वेओ जुयलं छलोदए एवं / आइल्लवीयरहिया दुन्नि कसाया य पुमवेओ // 11 // जुयलेण य पणगुदए चउरुदओ पुणिक्कयम्मि संजलणे / वेएण य जुयलम्मि य दुगोदओ जुयलविगमम्मि // 12 // वेयस्स पुणो विगमे संजलणकसायमेगमुदयम्मि / इय दिसिमित्तं भणिया एगेगपगारओ उदया // 13 // अट्ठग-सत्तय-छ-च्चउ-तिग-दुग-इक्काहिया भवे वीसा / तेरस बारिकारस पण चउ ति दु इक्क मोहस्म // 14 // Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकासारम् संतहाणा पनरस अडवीसा ताव इत्थ सुपसिद्धा / सम्मत्ते उव्वलिए सगवीसा होइ संतम्मि // 15 // मीसम्मि उ छन्वीसा अणाइमिच्छस्स अहविमो नेया / अणुबंधीणुव्वलणे चउचीसा मिच्छपुजम्मि // 16 // खवियंमी तेवीसा बावीसा मिस्सपूजखवणम्मि / सम्मत्तपुजखवणे इगुवीसा खवगसम्मस्स // 17 // अट्ठकसाए खविए तेरस बारस नपुंसवेयखए / . थीवेयखएक्कारस खीणे छक्कम्मि पंचेव // 18 // पुमवेयखए चउरो तिनि उ कोवम्मि दुनि माणम्मि / मायाखयम्मि एको इय भणियं सयलमोहणियं // 16 // तेवीस पन्नवीसा छव्वीसा अहवीस इगुतीसा / तीसेगतीसमेगें बंधट्ठाणाणि नामस्स // 20 // तेवीसा पणवीसा छनवहिय वीस तीस एयाणि 1. मिच्छद्दिट्टी बंधइ तिरियगईए निमित्ताई // 21 // एगिदियपाउग्गाणि बंधठाणाणि तिनि पढमाणि / तत्थ च तेयगकम्मगवन्नाइचउक्कयं चेव // 22 // अगुरुलहू उवघायं निम्माणं नव इमाउ धुवबंधा / तिरियगई एगिदियजाई ओरालियं हुंडं // 23 // तिरियाणुपुन्विथावरबायरसुहमाण दुन्हमेगयरं / अप्पजत्तगपचेयइयरमेगियरथिरगं च // 24 // असुभं दूभगअणइजअजसधुवबंधिणीहि सुह एसा / अप्पजत्तगएगिदियाण पाउग्गतेवीसा // 25 // परघाउस्साससमा पजत्तेगिदिजोग्गपणवीसा / आयावुजोए वा तज्जोगा चेव छब्बीसा // 26 // पणवीसा गुणतीसा तीसा बेइंदियाण पाउग्गा / तेवीसाए पुवोइयाएँ खित्तम्मि सेवठे // 27 // अंगोवंगे य तहा अप्पजत्तस्स जोग्गपणवीसा / नवरि तसं बेइंदियजाई च्चिय इत्थ भणियव्वा // 28 // परघाउस्सासअणिढगमणदसरसमेयगुत्तीसा / Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकासारम् नवरं एसा पज्जत्तगस्स जोग्गा मुणेयव्वा // 29 / / एवं चिय तीसा वि हु नवरं उज्जोयबंधगस्सेसा / एवं जा चउरिंदी बंधतिगं होइ एयं पि // 30 // पंचिंदियतिरियाणं मणुयाणं तह य होइ पाउग्गं / एयं चिय बंधतिगं संघयणाईहि नाणत्तं // 31 // अन्नं चुज्जोएणं तीसा न हु होइ मणुयपाउग्गा / . किं तु सुरा निरया वि य तित्थयरसमं कुणंति तयं // 32 // अडवीसे गुणतीसा तीसा इगतीसमेव एयाणि / / देवाणं पाउग्गाणि बंधठाणाणि चत्तारि // 33 // देवगई पंचिंदियजाई वेउव्वियं च चउरंसं / अंगोवंगं च तहा देवणुपुव्वी य नायव्वा // 34 // परघाऊसासपसत्थगमणतसबायरं च पज्जत्तं / पत्तेयं च थिराथिरसुभासुभाणं च एगयरं // 35 // सुभगं सुस्सरमेव य आइज्जजसाण दुन्हमेगयरं / . धुवबंधिणीण नवगम्मि मीलिए होइ अडवीसा // 36 // 'तित्थयरेणुगतीसा आहारदुगेण होइ पुण तीसा / तित्थयराहारदुगे य मीलिए हवइ इगतीसा // 37 // नेइइयाणं जोग्गा एक्कच्चिय बज्झए उ अडवीसा / . साहे सुराण भणिया नाणत्तं निरयसद्दाई // 38 // , . वीसा एक्कग चउ पण छ सत्त अट्ठ नवसमहिया वीसा। तीसेगतीस नव अट्ठ उदयठाणाणि बारस उ // 39 // तेणउई बाणउई नवढछहिँ समहिया असी असिई / . नवअट्टछपन्नत्तरि नवट्ठ बारस वि संताणि // 40 // ओहेणं भणियाई जप्पाउग्गाणि बंधठाणाणि / तह उदसत्ताणिहि वोच्छं चउगइविसेसेण // 41 // एगुत्तीसा तीसा वि य बंधठाणाणि दुन्नि निरयाणं / इगवीस पन्नवीसा सत्तद्वनवाहिया वीसा // 42 // 1 "तित्थयरे गुणतीसा" इत्यपि वा / 2 "एक्कविहा” इत्यपि वा। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकासारम् उदयट्ठाणाणि इमाणि पंच संताणि हुँति पुण तिनि / बाणउई य नवासी अट्ठासी तत्थ बंधदुगं // 43 // जह पुन्धि निढि पंचिंदियतिरियमणुयपाउग्गं / तह इहई विन्नेयं उदयट्ठाणाणि पुण बुच्छं // 44 // तेयइगं कम्मइगं वन्नाइचउकअगुरुलहुयं च / थिरमथिरं सुभमसुभं निम्मेण धुवोदया एए // 45 // निरयगई पंचिंदियजाई निरयाणुपुब्धि तसनामं / बायर तह पज्जत्तग भग अणइज्जमजसं च // 46 // चारस धुवोदयाओ इय इगलीसा भवंतरालम्मि / . हुंडं वेउव्विदुगं उवधायं तह य पत्तेयं // 47 // एयाहिं पणवीसा सरीरपत्तस्स आणुपुन्वि विणा / तत्तो सरीरपज्जत्तगस्स . परफायगमणा य // 48 // पक्खित्ते सगवीसा ऊसासे अहवीस 'इगुतीसा / सरसहिया अह संते बाणउया ताणि वोच्छामि // 49 // गइचउगजाइपणगं पंच सरीराणि पंच संघाया / पंचेव बंधणाई छस्संठाणाणि तह चेव / 50 // अंगोवंगाण तिगं छस्संघयणाणि वनगंधरसा / फासा सव्वे वीसं विहायुदु चउरो य अणुपुची // 51 // अगुरुलह उवधायं परघाऊसासआयवुज्जोयं / तसबायरपज्जत्तं परोयथिरं सुभं सुभगं // 52 // सूसरआइज्जजसं थावरदसगं . तसाइपडिवक्खो / निम्माणेणं सहिया वाणउई नामसंतम्मि // 53 / / आहारगं / सरीरं बंधणसंघायअंगुवंगं च / एएहि चउहि रहिया तित्थयरसमा नवासी य // 54 // तित्थयरनामरहिया अट्ठासी. अवसिया य निरयगई / इत्तो तिरियगईए वोच्छं धुदयसंताणि // 5 // तेवीस पन्नवीसा छब्बीसा इगुणतीस तीसा य / / एयाणि पंच एगिदियाण बंधस्स ठाणाणि // 56 // . 1 "गुणतीसा" इत्यपि / Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकासारम् इगवीसा चउवीसा पंचगछगसत्तसमहिया वीसा / उदयट्ठाणाणि इमाणि पंच बाणउय अट्ठासी // 57 // छलसी असी य अद्वत्तरी य एयाणि पंच संताणि / तिरिमणपाउग्गाई बंधट्ठाणाई जहपुट्विं // 58|| उदयट्ठाणिगवीसा जहपुव्वं नारयाण निद्दिट्टा / नवरिंगिदियजाईपमुहं नाणत्तमिह नेयं // 19 // तत्तो सरीरपत्ते ओरालसरीरहुंडउवधायं / साहारणपत्तेयाणमेगा अणुपुस्विविगमम्मि // 60|| चउवीसुदओ तत्तो सरीरपज्जत्तगस्स परघाए / . खित्तम्मि पन्नवीसा ऊसासुदयम्मि छव्वीसा // 6 // आयावुज्जोए वा खित्ते सगवीस संतठाणेसु / बाणउई अट्ठासी जह निरयाणं तहेहं पि // 62 / / देवदुगे उव्वलिए तत्तो अट्ठत्तरी य संतम्मि / तेवीसपन्नवीसा, छन्नवहियवीसतीसा य // 63 / / विगलिंदियाण तिण्हं पि बंधठाणाणि पंच एयाणि / इगछक्कगअडनवहियवीसा तीसा य इगतीसा // 64 / / उदयट्ठाणाणि इमाणि छच्च एगिदियाण जह भणिया / नवरं इगवीसाओ अणुपुचि विणा सरीरत्थे // 65 / / ओरालदुगे हुंडे उवघाए तह य चेव सेवट्ठ / पत्तेयम्मि य खित्ते छव्वीसा होइ उदयम्मि // 16 // परवाए गमणम्मि य अट्ठावीसा तओ य उस्सासे / इगुतीसा तीसा उण सरम्मि उज्जोइ इगतीसा // 67 // बाणउई अट्ठासी छलसी य असी य अट्ठसयरी य / संताण पंच एगिदियाण जह पुव्वभणियाणि // 68|| तिगपंचगछगअट्ठगनवाहिया वीस तह य तीसा य / .. छ इमाणि बंधठाणाणि * हुँति पंचिंदितिरियाणं // 69 / / एयाणि जहा विगलिंदियाण पाएण नवरि इत्यहिया / अट्ठावीसानेया सुरनेरइयाण पाउग्गा // 7 // एकगछागअट्ठगनवाहिया वीस तीस इगतीसा / .. Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकासारम् उदयट्ठाणा छश्चिय पागयपंचिदितिरियाणं // 7 // एयाणिं अह विगलिंदियाण नाणत्तु जाइमाईहिं / पंचगसत्तगअट्ठगनवाहिया वीस तीसा . य // 7 // वेउब्वियतिरियाणं उदयट्ठाणाणि : पंच एयाणि / अस्संघयणी वेउव्वियत्ति नो एगहीणत्ति . // 73 // इगपंचछसत्तट्ठगनवाहिया वीस तीस इगतीसा / / अट्ठदया सामन्नेग हुति पंचिदितिरियाणं // 74 // एएसिं संताण वि पंच जहेगिदियाण भणियाणि / सम्मत्ता तिरियगई इत्तो बुच्छामि मणुयगई // 7 // तत्थ मणुयाण अट्ठ वि बंधट्ठाणाणि पुव्वभणियाणि / ' चउवीसविरहियाइं . एकारस उदयठाणाणि // 6 // अत्तरिवज्जाइं एकारस हुति संतठाणाणि / / सामन्नमिणं चुच्छं विसेसओ उदयसंताणि // 77 // इगवीसा छव्वीसा अडवीसा एगूणतीस तीसा य / " पागयमणुयाण इमाणि उदयठाणाणि पंचेव // 78|| पंचगसत्तगअट्ठगनवाहिया वीस तीस जहपुट्वि / पंचिंदियतिरियजुग्गा तहित्थ वेउविमणुयाणं // 7 // वीसेगवीस छस्सत्तअट्ठनवअहिय वीस तीसा य / . इगतीस नवट्ठ भवे दस उदया केवलिजिणाणं // 8 // मणुयगई पंचिंदियजाई तसबायरं च पज्जतं / " सूभगआइज्जजसं धुवोदएहिं समा .. वीसा // 8 // सामन्त्रकेवलिस्स य इमा . समुग्घायवट्टमाणस्स / तित्थयरस्सिगवीसा छव्वीसा देहपत्तस्स // 2 // केवलिणो पक्खित्ते ओरालदुगोवधायपत्तेए / संघयणे संठाणे सत्तावीसा य तित्थयरे // 3 // छव्वीसाए खित्ते परंघाऊसासगइसरेगयरे / ओरालकायजोगे तीसा सामन्त्रकेवलिणो // 8 // सरऊसासनिरोहे तीसा उण केवलिस्स अडवीसा / / ऊसासे अनिरुद्धे सरे निरुद्धम्मि इगुतीसा // 8 // Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सप्ततिकासारम् / तीसा उ सहावत्थस्स होइ तह इकतीस तित्थयरे / गबजाइतसे / वायरपज्जतं. सुभगमाइज्जं // 6 // जसतित्थयरेहिमसो नवोदओ पुण इमो अजोगिस्स / / तित्थयरनामरहिओ * अठ्ठदओ होइ तस्सेव // 7 // तेणाई बाणाई नवद्वछहि समहिया असी असिई / अक्खवगाणे छ इमाः हवंति नामस्स संताणि // 8 // तेरसनामे खविए चउन्ह आइलसंतठाणाणं / तत्तो कमेण जाणसुः खवगाणं केवलीणं च // 6 // असिई अउणासीई छावत्तरि पनसचरी चेव / हुति अजोगिजिणाणं पुव्वुत्तनवट्ठसंताणि // 10 // देवाणं पणवीसा छवीसिगुत्तीस तीस चउबंधा / एगिदियपंचिंदियतिरियाण. नराण पाउग्गा // 11 // उदयट्ठाणाणि पुणो पंच जहा नारयाण भणियाणि / ' छद्रं तु इहं तीसा उज्जोएणं समा नेया // 6 // तेणउई चाणउई नवअट्ठहि समहिया असीई य / / संतहाणाणि पुणो देवाण इमाणि चत्तारि // 93 / / एयाहिँ जहा पुचि भणियाई तहा इहं पि नेयाणि / इय बंधोदयसंताणि वनियाई समासेणं // 64|| इय सत्तरीए सुत्तस्स तह य चुनीए सारसुद्धरियं / - सीसाण हियट्ठाए भणियं सिरिहेमसूरीणं // 15 // जो पढइ इमं जीवो तस्स फुडं सत्तरीयचुनीए / सारस्थो हिययत्यो विष्फरह सया सनामं व // 16 // ..य सत्तरीसारं सम्मत् // . * इति सप्ततिकासारं समाप्तम Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमज्जिनवल्लभगणिप्रणीतम् // सार्धशतकनामप्रकरणम् // ( अपरनाम-सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरणम् ) सयलंतरारिवीरं वंदिय वरनाणलोयणं वीरं / 'वोच्छं जहासुयमहं कम्माइवियारसारलवं // 1 // कीरइ जिएण हेऊहिँ पयइठिइरसपएसओ जं तं / मुलुत्तरद्वअडवनसयपमेयं भवे कम्मं // 2 // दसणनाणावरणंतरायमोहाउगोयवेयणियं नामं च नव-पण-पण-ऽट्ठवीस-चउ-दु-दु-बियालविहं // 3 // नयणेयरोहिकेवलदंसणआवरणयं भवे चउहा / निद्दापयलाहि छहा निदाइदुरुत्तथीणद्धी // 4 // नाणावरणं . मइसुयओहिमणोनाणकेवलावरणं / विग्धं दाणे लाभे भोगुवभोगेसु विरए य // // सोलस कसाय नव नोकसाय दंसणतिगं ति मोहणियं / नरयतिरिनरसुराऊ नीउच्चं सायमस्सायं // 6 // गइजाइतणुउवंगा बंधणसंघायणाणि संघयणा / संठाण वनगंधं रसफासणुपुव्विविहगगई . // 7 // पिंडपयडत्ति चउदस परघाउज्जोय आयवुस्सासं / अगुरुलहुतित्थनिमिणोवघायमिइ . अट्ठ . पत्तेया // 8 // तसबायरपज्जत्तं पत्तेयथिरं सुभं च सुभगं च / सुसरा एज्जजसं तसदसगं थावरदसं तु इमं // 9 // थावरसुहुमअपज्जं. साहारणमथिरमसुभदुभगाणि / दूसरणाएज्जाजस मिइ नामे सेयरा वीसं // 10 // तसचउ थिरछक्कं अथिरछक्क सुहुमतिग थावरचउक्कं / ..1 "वुच्छं" इत्यपि / 2 "०वण्णगंधरसफास अणु०" इत्यपि / 3 "०इज्ज०" इत्यपि / 4 "०मिय" * इत्यपि। Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्धशतकनामप्रकरणम् सुभगतिगाइविभासा पयडीण तयाइसंखाहि // 11 // गइयाईण यकमसोचउ१पण२पण तिथपण५पंचदछ७च्छक्कं८ / पण ९दुग१०पण११ऽ११२चउ१३दुग१४मिय उत्तरभेय पणसट्ठी // 12 // 'नरयतिरिनरसुरगई इगिबियतियचउपणिदिजाईओ / / ओरालियवेउब्धियाहारगतेयकम्मइगा // 13 // पढमतितणूणुवंगा बंधणसंधायणा य तणुनामा / सुत्ते सत्तिविसेसो संघयणमिहऽट्ठिनिचओ त्ति // 14 // छद्धा संघयणं वज्जरिसहनाराय 1 वज्जनारायं / नाराय 3 मद्धनाराय 4 कीलिया 5 तह य छेवट्ठ 6 // 15 // समचउरंसं नग्गोह साइखुज्जाणि वामणं हुंडं / संठाणा वन्ना किण्हनीललोहियहलिद्दसिया / 16 // सुरभिदुरभी रसा "पुण तित्तकडुकसायअंबिला महुरो / फासा गुरुलहुमिउखर सीउण्हसिणिद्ध रुक्खट्ठा // 17 // चउह गइव्वणुपुवी दुविहा य सुहासुहा 'विहायगई / गइअणुपुव्वी उ दुर्ग तिगं तु तं चिय नियाउजुयं // 18 // इय तेणउई संते बंधणपन्नरसगेण तिसयं वा / 'वन्नाइभेयबंधणसंघाय विणा . उ सत्तट्ठी // 19 // सा बंधुदए बंधणसंघाया नियतणुग्गहणगहिया / "वन्नाइविगप्पा वि हु न य बंधे सम्ममीसाइं // 20 // वेउव्वाहारोरालियाण सगतेयकम्मजुत्ताणं / नवबंधणाणि इयरदुसहियाणं तिन्नि तेसिं च // 21 // नीलकसिणं दुगंधं तित्तं कडुयं गुरु' खरं रुक्खं / सीयं च असुभनवगं एकारसगं सुभं सेसं // 22 // धुवबंधोदय संता सव्वेयरघाइसुभअपरियत्ता / छद्धावि सपडिवक्खा चउहविवागा च पयडीओ // 23 // सीयालीसं धुवबंधिणीओं तेवत्तरी अधुवबंधा / सत्तावीस धुवुदया अधुवुदया हुति पणनउई // 24 // . 1 "निरय०" इत्यपि / 2 "इगबियतिचतुरपणिदि" इत्यपि / 3 "बंधन०" इत्यपि / 1 "पण" . इत्यपि / 5 “य विगहगई" इत्यपि। 6-7 'वण्णाइ" इत्यपि / 8 "सत्ता'' इत्यपि / Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्धशतकनामप्रकरणम् 'धुवसंता तीससयं अट्ठावीसा य अधुवसंता य / बायालीस सुभाओ बासीई हुति असुभाओ // 25 // पणसत्तरि पयडीओ अघाइया घाइयाउ पणयाला / पणवीस देसघाई सव्वे घाईउ वीसं तु // 26 // तेणउइ परावत्ता अपरावत्ताउ अगुणतीसं तु / पुग्गलविवागिणीओ छत्तीसं हुति पयडीओ // 27 // चत्तारि भवविवागा खित्तविवागाउ हुति चत्तारि / अठुत्तरि जीवविवागिणीउ पयडीउ नायव्वा // 28 // धुवबंधी भयकुच्छा कसायमिच्छंतरायआवरणा / वनचउतेयकम्मागुरुलहुनिमिणोवघाया य // 24 // 26 // उरलविउव्याहारगदुगाणि 6 गइ 4 जाइ 5 खगइ 2 अणुपुव्वी 4 / संघयणागिइ 6 तसवीसू 20 सासतित्थायवुज्जोयं // 30 // परघायं वेयणिया२ऽऽउ४गोय२ हासाइदुजुयलतिवेयं . / इय तेवत्तरि पयड़ी उ अधुवबंधा विणिहिट्ठा // 31 // बंधंति न * इगिविगला वेउव्वियछक्कदेवनर याऊ / तिरिया तित्थाहारं गईतसा नरतिगुच्चं च // 25 // 32 // नरयसुरसुहुमविगलत्तिगाणि आहारदुगविउव्विदुगं / बंधहि न सुरा सायावथावरेगिदि नेरइया // 26 / 33 / / तिरिनरयतिगुज्जोयाण सचउपल्लं तिसट्ठमयरसयं / इगिविगलजाइआयवथावर चउसु तु पणसीयं // 27 // 34 // बत्तीसं सासाणंत बंधसेस पणुवीसपयडीणं / नरभवसहियं परमो पणिंदिसु अबंधकालो सिं // 28 // 35|| थीणतिगं दुभगतिगं 3 'अपढमसंठाण 5 खगइ 1 संघयणा 5 / अण 4 नीय 1 नपुसित्थी 1 मिच्छं ति य सेसपणुवीसा / / 29 // 36 // बत्तीसं विजयाइसु विज्जाई तेसु तेसठं / तमपुढविजुएसु गयस्स तेसु पणसीय "मयरसयं // 30 // 37 // समयादसंखकालं जा परमो नीयतिरियदुगवंधो / 1 "०याउँ' इत्यपि / 2 "बंधहि" इत्यपि / 3 "इग." इत्यपि। 4 "चउगेसु पणसीयं" इत्यपि / ५"पणवीस" इत्यपि / 2 "भपढमसंघयण 5 खगह 1 संठाणा 6 / " इत्यपि / 7 "मुदहि" इत्यपि / Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्धशतकनामप्रकरणम् सुरदुगावेउव्विदुगे तिपल्लमाउसु मुहुत्तंतो // 31 // 38 // तसचउपणिदिपरघाउस्सासेसु पणसीयमुदहिसयं / / बत्तीसं सुभगतिगुच्चपुरिससुभखगइ चउरंसे // 32 // 46 // उरले असंख'पोग्गलपरियट्टा साय पुवकोडूणा / तेत्तीसयरा नरदुग 'तित्थुसभउरालुवंगेसु // 33 // 40 // थिर१सुभएजसपथावरदस१असुभागिइ५खगइ१जाइ४ संघयणा | निरयारहारदुगायव 1 असाय 1 अपुमि१त्थि 1 दुजुयलुज्जोयं // 41 // समयादतमुहुत्तं सेसाणं 1 तह "जहन्नबंधो वि / तित्थाउसु अंतमुहू घुवबंधीणं तु भंगतिगं // 34 // 42 // निम्मेणथिराथिरतेयकम्मवन्नाइअगुरुसुहमसुहं नाणंतरायदसगं दंसणचउ मिच्छ धुवउदया 27 // 35 // 43 // उदओ धुवोदयाणं अणाइणंतो अणाइसंतो य / अधुवाण साइसंतो मिच्छस्स उ भंगतिगमेयं // 36 // 44 // पणनउईयममिच्छो मोहो निदाउगोयवेयणीयं / : गइजाइतितणुवंगा संघयणणुपुब्विसंठाणा // 45 // खगइदुगं पोया अधुवुदया अगुरुनिमिणपरिहीणा / ' पयडीणं तसुवीसं थिराथिरसुभासुभविहीणं ॥४६॥दारं / वेउव्वेक्कारससम्ममीसतित्थुच्चमणुदुगाउचऊ / आहारसत्तअधुवा धुवसत्ता सेस तीससयं // 37 // 47 // मोहो असम्ममीसो विग्धावरणाणि नीयवेयणियं / संघयणागिइतसवन्नवीस पणजाइखगइदुगं // 48 // तिरियदुगरतेयसत्तुरलसत्तगा 7 तित्थहीणपत्तेया / अट्ठावन्नसयाओ धुवसत्ता एय तीससयं // 46 // तिसु मिच्छत्तं नियमा अट्ठसु गुणठाणएसु भयणिज्जं / सासायणम्मि नियमा संतं सम्मं दससु भज्जं // 38 // 50 // सासणमीसे मीसं संतं नियमेण नवसु भइयव्वं / नियमा मिच्छासासाण पढमकसाया नवसु भज्जा // 5 // 1 "विउव्वियदुगे” इत्यपि / 2 "०पुग्गल०” इत्यपि / 3 "तित्तीस." इत्यपि / 4 "तित्थुसह" इत्यपि / 5 "जहण्ण०" इत्यपि / Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्धशतकनामप्रकरणम् सव्वगुणेसाहारं सासणमिस्सरहिएसु वा तित्थं / नोभयसंते मिच्छो अंतमुहुत्तं भवे तित्थो // 40 // // 52 // दारं / 3 / केवलियनाणदंसणआवरणं बारसाइमकसाया। मिच्छत्त निद्दपणगं इय वीसं सव्वघाई उ // 41 // 53 // सम्मत्त नाणदंसणचरित्तघाइत्तणाउ घाईओ। तस्सेसदेसघाइत्तणाउ पुण देसघाईओ // 42 // 54 // संजलणनोकसाया चउनाणतिदंसणावरणविग्धा / पणुवीस देसघाई सेस अघाई सरूवेण // 43 // 5 // दारं / 4 / नरतिरिसुराउ उच्चं सायं परघाय आयवुज्जोयं / तित्थुस्सासनिमाणं पणिदिवइरुसहचउरंसं // 44 // 56 // तसदसचउवन्नाई सुरमणुदुगपंच तणुउवंगतिगं / अगुरु लहुपढमखगई बायालीसं ति सुहपयडी // 4 // 57 // थावरदसचउजाई . अपढमसंठाणखगइसंघयणा / तिरिनरयदुगुवघायं वनचऊ नामचउतीसा // 46 // 5 // नरयाउनीय अस्साय घाइपणयालसहिय बासीई / असुहपयडीउ दोसु वि वनाइचउक्कगहणेणं // 47||56 / / दारं / निदाउ 4 गोय 2 वेयण 2 कसाय 16 हासाइदुजुयल 4 तिवेयं 3 / अणुपुब्बि 4 तितणु 3 वंगा 3 गिइ 6 गइ 4 संघयण 6 जाई उ 5 // 6 // तसवीसु 20 जोयायव 1 खगई 2 परवत्तिणी उ इगनउई। पडिवखुदयं बंधं व रुधिउ जा उ वट्टति // 1 // नाणंतरायदंसणचउक्क परिघायतित्थमुस्सासं / नामधुवबंधिनवमिच्छ भयदुगंछा अपरियत्ता // 48 // 62 // दारं / संठाणा संघयणा सरीरुवंगाणि आयवुज्जोया / नामधुवोदयसाहारणियरउवघायपरघाया .. // 46 // 63 // उदइयभावा पोग्गलविवागिणो आउ भवविवागीणि / खिरविवागणुपुव्वी जीवविवागी उ सेसाउ // 50 // 64 // १"०वरणे” इत्यपि / 2 “मुच्चं" इत्यपि / ३"मायवु०" इत्यपि / 4 "०लघु०" इत्यपि / ५"०मस्साय" इत्यपि / ६"परघाय” इत्यपि / 7 पुग्गल०" इत्यपि / Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्धशतकनामप्रकरणम् नाणंतरायदसगं 10 देसणनव ह मोहणीयअडवीसं / वेयणियरगोयजुयला जीवविवागीउ नामे उ // 6 // सत्तावीसं गइ४जाइ५खगइ२ याउ तित्थमुस्सासं / . सेयरपत्ते यतिगं 3 . मुत्नु पडिवक्स चउदसगं // 66 / / भावा छच्चोवसमिय 1 खइय 2 खओवसम 3 उदय 4 परिणामा 5 / दु 1 नव 2 द्वारि 3 गवीसा 4 तिगभेया सन्निवाओ य / 51 // 6 // सम्मचरणाणि पढमे बीए वरणाणदंसणचरित्ता / / तह दाणलाभभोगोवभोगविरयाणि सम्मं च // 52 // 6 // चउनाण-नाणतिगं देसणतिग पंच दाणलद्धीओ / ..... सम्मत्तं चारित्तं च संजमासंजमो तइए // 53 // 69 / / . चउगइ चउकसाया लिंगतिगं लेसछक्कमन्नाणं / मिच्छत्तमसिद्धत्तं असंजमो चउत्थभावम्मि // 54 // 7 // पंचमगम्मि य भावे जीवाभव्वत्तभव्वयाईणि / पंचण्ह वि भावाणं भेया एमेव तेवन्ना // 55 // 71 // उदइयखाओवसमियपरिणामेहि चउरो गइचउक्के / खइय'जुएहि व चउरो तदभावे उवसमजुएहिं // 56 // 72 // 'एक्केको उवसमसेढिसिद्धकेवलिसु एवमविरुद्धा / पन्नरस सन्निवाइयभेया वीसं असंभविणो // 57 / / 73 / / दुगजोगो सिद्धाणं केवलिसंसारियाण तिगजोगो / , चउजोगजुयं चउसु वि गईसु मणुयाण पणजोगो // 58 // 74 // मोहस्सेवोवसमो खाओवसमो चउण्ह घाईणं / उदयक्खयपरिणामा अट्ठन्ह वि होंति कम्माणं // 56 // 7 // सम्माइचउसु तिगचउभावा चउ पणुवसामगुवसंते / चउ खीणापुव्वे तिनि सेसगुणठाणमेगजिए // 60 // 76 / / धम्माधम्मनभा तिन्नि दव्वदेसप्पएसओ तिविहा / गइठाणवगाहगुणा अरूविणो कालसमओ य // 1 // 77|| सो क्त्तणाइलिंगो रूवि अजीवा उ होंति मे चउरो / 1 "०नुएहिं चउरो' इस्यपि / 2 “इक्किक्को" इत्यपि / 3 “हुंति" इत्यपि / Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधशतकनामप्रकरणम् खंधा देसपएसा केवलअणवो य ते य पुणो // 62||78 // चन्नाइगुणा बंधाइकारणं इय अजीवचउदसगं / सव्वेवि हु परिणामे भावे खंधा उदइए वि // 63 / / 79 / / मोहे कोडाकोडीउ सत्तरी वीस नामगोयाणं / तीसयराण चउण्हं तेत्तीसयरा उ आउस्स // 64 // 8 // मोत्तुमकसायहस्सा ठिइ वेयणियस्स बारस मुहुत्ता / अट्ठट्ट नामगोयाण सेसयाणं मुहुत्तंतो ॥६शा८१।। तीसं कोडाकोडी असायआवरणअंतरायाणं / मिच्छे सत्तरिमित्थीमणुदुगसायाण पन्नरस // 66 / / 82 / / संघयणे संठाणे पढमे दस उवरिमेसु दुगवुड़ी / चालीस कसाएसु अट्ठारस सुहुमविगलतिगे // 67 / 83 / / दस . दस सुक्किलमहुराण सुरभिनिभृण्हमिउलहूणं च / अडाइज्जपवुट्टा ते हालिदंबिलाईणं // 68 // 84 // हासरइपुरिसउच्चे . सुभखगइथिराइछक्कदेवदुगे / दस सेसाणं वीसा एवइयाबाहहवाससया // 66 / 8 / / तसचउतिरिनरयदुगा तेयविउव्वुरलसत्तगं हुंडं / पढमंतजाइकुखगइ कुवन्ननवगं अकडुनीलं // 86 // पत्तेया (य) अतित्था थावरअथिराइछक्कछेवढं / / सोगारइभयकुच्छा , नपुनीए (त्ति) इगसहि वीसिक्का // 7 // अंतोकोडाकोडी तित्थाहाराण जिठिइबंधो / अंतमुहुत्तमवाहा इयरो संखेज्जगुणहीणो // 7 // 8 // तित्तीसुदही सुरनारयाउ नरतिरियआउ पल्लतिगं / / निरुवकमाण छमासा अबाह सेसाण भवतंसो // 7 // 86 // तह पुवकोडिपरओ इगिविगलिंदी न बंधए आउं / आउचउपरमबंधो पल्लासंखंसममणेसु . // 72 / / 60 // दसणचउविग्धावरणलोहसंजलणहस्सठिइबंधो अंतमुहुत्तं ते अट्ठ जसुच्चे बारस य साए // 73 / / 91 / / दो मासा अद्धद्धं संजलणतिगे पुमट्ठवरिसाणि / सेसाणुक्को'साइ मिच्छत्तठिईउ जं लद्धं // 74 // 2 // 1 "०साउ मिच्छत्तठिईइ" इत्यपि / Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्धशतकनामप्रकरणम् निद्दापणगमसायं संजलणपुमेहि वज्जिओ मोहो / .. वेउव्वेकारसतिथिकित्तिआहारसगरहिया // 3 // नामस्स य तेयासिं नीएण समं सयं तु इक्कारं / नियनिय उक्कोसाओ मिच्छत्तठिईए हरसु भागं // 14 // एसेगिदियजिट्टो 'पलियअसंखंसहीणलहुबंधो // 'पणुवीसा पन्नासा सयं सहस्सं च गुणकारो // 7 / / 15 / / कमसो विगलअसन्नीण पल्लसंखंसऊणओ डहरो / सुर नरयाउ समा दस सहस्स सेसाउ खुड्डभवं // 76 / / 66 // सहसगुणेगिदिठिई विउव्विछक्के जओ असन्निसु तं / केसिंचि सुराउसमं तित्थं आहारगंतमुह // 77 97 // भिन्नमुत्तमबाहा सव्वासि सव्वहिं डहरबंधो / आउसु जिट्ठो वि जओ संखिप्पद्धा भवे तेसु // 9 // खुड्डभवा 'साहीया सत्तरस * भवंति एगपाणुम्मि / पाणु एगमुहुत्ते तिसत्तरा सत्ततीससया // 76 / / 99 / / पणसट्ठिसह[स]स पणसय छत्तीसा इगमुहुत्तखुड्डभवा / दो य सया छप्पन्ना आवलियःणेगखुडुभवे // 8 // 100 // .. अयरंतकोडिकोडीओ अहिगो सासणाइसु न बंधो / हीणो न अपुन्वंतेसु नेव य अभव्यसनिम्मि / 81 // 101 // अमणुक्कोसाउ विरयउक्कोसो देसविरयहस्सियरो / सम्मचउसन्निचउरो ठिइबंधाणुकमसंखगुणा // 2 // 102 // एतत स्थितिबन्धयंत्रकं 'अमणुक्कोसाउ विरय०" इत्यादिगाथाभिर्विवृतम् / 1 संयतस्य स्थितिबन्धः जघन्यः स्तोकः / 7 बाद० अप० उ० विशे० / 2 बाद० प० ज० असं०गुणः / / 8 मू० प० उ० विशे० / 3. सूक्ष्म प० ज. विशे०। / 4 बादर पर्या० उ० विशे० / 4 बा० अप० ज. विशे०। / 10 बे० प. ज. विशेः / 5 सू० अप० ज० विशे०। / 11 बे० अप० ज. विशे० / 6 सू० अप० उ० विशे०। / 12 बे० अप० उ० विशे। 1 “पलियासं०" इत्यपि / 2 "पणुवीसं" इत्यपि। 3 "निरयाउ' इत्यपि / 4 "टहरबंधे / माउसु जिट्टे वि"इत्यपि / 5 "साहिया" इत्यपि हस्तलिखितप्रतौ / Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 14 15 चउ० 20 21 22 23 24, सार्धशतकनामप्रकरणम् बे प० उ० विशे०। / 25 - असं. प. उ. विशेः / ते 50 ज. विशे०। | 26 संयतस्य उ० स्थितिबन्धः संख्ये। ते अप० ज. विशे०। | 27 देशवि. ज. संख्य.। अप० उ० विशे०। 28 देशवि. उत्कृ. संख्ये। प० उ० विशे० / 26 अवि. प. ज. संख्ये। प. ज. विशे० / 30 अवि. अप. ज. संख्ये। चउ० अप० ज. विशेः / 31 अवि. अप. उ. संख्ये। चउ. अप.. उ०. विशे। | 32 अवि. प. उ. संख्ये। चउ. प. उ. . विशेः / 33 संज्ञि पंचे. प. ज. संख्ये. / असं. प. ज. संख्या। 34 संज्ञि पंचे. अप. ज. संख्येः / असं... अप... ज. विशे। / 35 संज्ञि पंचे. अप. उ. संख्ये. / असं... अप... उ. विशे। | 36 संज्ञि पंचे. प. उ. संख्ये. / बारस सुत्ते वुत्तो संभविभेया हवंति चउवीसं / तिम अमणे . विरएगो वीसं एगिदिविगलाणं // 103 / / . पढमो थोवो वीओ असंखगुणो सत्तगं विसेसहियं / / दसमो संखिज्जगुणो इक्कारसगं विसेसहियं // 104 // बावीसो संखगुणो तिनि विसेसाहिया तओ सेसा / एकारस संखगुणा छत्तीसा भंगपविभागा // 10 // पज्जत्तगो जहनो ततो अपज्जत्तगो जहन्नो' य / अपजत्तगमुक्कोसो ततो पज्जत्तगुकोसो // 106 / / सव्वाण वि पयडीणं उक्कोसं सनिणो कुणंति ठिई / एगिदिया जहन्नं असन्निखवगा य काणं पि // 83 // 107 / / वेउव्विक्कारसगं असन्निखबगाण तह य बावीसा / / , देसणजसविग्यावरणसायपुरिसुच्चसंजलणा // 18 // सव्वाणुकोसठिई असुभा सा जमइसंकिलेसेण / इयरा उ विसोहीए सुरनरतिरियाउए मोत्तु // 84 // 10 // सुहुमनिगोयाइखणे जोगो थोवो तओ असंखगुणो / बायरवियतियचउमणसनिअपजत्तगजहन्नो शा११०॥ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्धशतकनामप्रकरणम् पढमदुगुकोसो सिं पज्जत्तजहन्नगेयरो य कमा / असमत्ततसुक्कोसो पज्जत्तजहन्नजिट्ठो य // 8 // 11 // एवं चिअ ठिइठाणा अपज्जप'ज्जा कमेण संखगुणा / नवरमसमत्तवेदिय एक्कपए. ते असंखगुणा // 7 // 112 / / सव्वे वि अपज्जत्ता होति पइकखणमसंखगुणविरिया / संखगुणूणा सुहुमेसु बायरेसु य असंखगुणा // 88 // 113 / / ठिइबंधे ठिबंधे अन्झवसाया असंखलोगसमा / कमसो विसेसअहिया सत्तसु आउसु असंखगुणा // 86 // 114 // एतत् योगयंत्रकं "सुहुमनिगोयाइखणे" इत्यादिगाथाभिर्विवृतम् / 1 सूक्ष्म अप० जघ० . स्तोक / 15 तेइं० " 16 चउ० " " 17 असं० , 18 संज्ञि , , 26 बेई० पर्या. जघ० 20 तेई० , , or mor.9 उत्कृष्ट / " , , 8 सूक्ष्म " 22 असं० " ." 6 वाद. , / 23 संज्ञि " ", 1. सूक्ष्म प० जघ० 24 बेइं० पर्या० उत्क० 11 बाद. " " / 25 तेइं० . , . 12 सूक्ष्म , उत्कृ० 26 चउ० // 13 बाद० " " " 27 असं० , , 14 बेई० अप० " " / 28 संज्ञि , , 'असुभाण संकिलेसेण होइ तिव्वो सुहाण सोहीए / अणुभागो मंदो पुण विवज्जए सव्वपयडीणं ॥९॥११शा सतरस पयडी संजलण 4 विग्ध 5 पुंदेसघाइआवरणा। 1 भमुहाण" इत्यपि। Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [11 सार्धशतकनामप्रकरणम् चउठाणरसपरिणया दुतिचउठाणाउ सेसाउ // 6 // 116 // पव्वयभूमीवालुयजलरेहासरिससंपराएहिं चउठाणाई असुहाण वच्चआओ. सुहाणं तु // 12 // 117 // घोसाडइनिंबुवमो 'असुहाण सुहाण खीरखंडुवमो / एगट्ठाणो य रसो अणंतगुणिया कमेणियरे // 13 // 118 // निंबुच्छरसाईणं दुतिचउभागा पुढो कढिज्जंता / 'किर एकभागसेसा दुतिचउठाणा रसा कमसो // 94 // 119 // इगदुअणुगाइ जा अभवणंतगुणसिद्धऽणतभागाणू / खंधा उरलोचियवग्गणाउ तह अगहणतरिया // 9 // 120 / / कमसो विउव्विआहार तेयभासाणपाणमणकम्मे / इय वग्गाणवगाहो ऊणूणंगुलअसंखंसो // 9 // 121 // एंगुत्तरा अभव्वाणंतगुणा अंतरेसु अग्गहणा / सर्वहि "जोग्गजहन्ना नियणंतसाहिया जिवा // 97 // 122 // जो मणुएवं गिहिय सोच्चिय दलियं जिओ परिणमेइ / भासाणा पाणमणोचियं च अवलंबए दव्वं // 8 // 123 // अप्पयरपयडिबंधो उक्कडजोगी य सन्निपज्जत्तो / कुणइ पएसुक्कोसं जहन्नयं तस्स वच्चासे // 66 // 124 / / " एतत् स्थितिस्थानयंत्रकं “एवं चिय ठिई" त्यादि गाथया निवृत्तम् / सूक्ष्म अप. स्तोक | 8 तेइं.. पर्या. ___ बाद. " संख्या. ह चउ. अप. | 10 " पर्या. बाद. 11 असं. अप. असं. ." पर्या. पर्या. संख्या . संज्ञि. अप. अप. 14 " पर्या. संख्या. م COTE م سم सूक्ष्म पर्या. ه م م و १"असुभाण सुभाण" इत्यपि / 2 “उ" इत्यपि / 3 “किल इक०" इत्वपि / 4 "तेयमासापु०" त्यपि / ५"जुग्ग०" इत्यपि / 6 "पाणु०" इत्यपि / . Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्धशतकनामप्रकरणम् गहियदलियस्स भांगो बहुठिइकम्मेसु होइ कमवुड्डो / वेयणिए सव्वोवरि तस्स फुड न जेणप्पे // 10 // 125 / / षयडीण सव्वघाईण : होइ नियजाइदलअणंतंसो / बझंतीण विभज्जइ सेसं सेसाणमणुसमयं // 101 / 126 // सम्मत्त 1 देस 2 संपुनविरइ 3 उप्पत्ति अणविसंजोए 4 / दमण'खवगे५ मोहस्स समग६ उवसंत७ खवगे य 8 // 102 / 127 // खीणाइतिसु य 11 संखगुणूणूणंतोमुहुत्तकालाओ / गुणसेढी'उ इगारस कमादसंखगुणदलियाओ // 103 / 128 // गुणसेढी .. दलरयणाणुसमयमुदयादसंखगुणणाए / एयगुणा पुण कमसो असंखगुणनिज्जरा जीवा // 104 / / 126 // पलियासंखंतमुहू सासणइयरगुणअंतरं हस्सं / मिच्छस्स बे, छसट्ठी इयरगुणे पुग्गलद्धंतो // 10 // 130 // दव्वे खेचे काले भावे चउह दुह वायरो सुहुमो / होइ अणं तोसप्पिणिपरिमाणो पोग्गल परिट्टो // 106 // 131 // चउतणुमणवइपाणुत्तणेण परिणमिय मुयइ सव्वारा / / एगजिओ भवभमिरो जत्तियकालेण सो थूलो / / 107||132 // सत्तण्हण्णयरेण उ इय फुसणा सुहुमदव्वपरियट्टो / अन्ने चउ तणुसु कमेणिमेण तं विंति दुविहं ति // 108 // 133 / / कम्मइयतेयओरालपाणुमणवइविउविएहि कमा . / . पत्तेयमणंतगुणो पोग्गलपरियट्टकालो यः // 134 / / एगो ति निरुवचरिओ त्ति बायरो दव्वपोग्गलपरिट्टो / / घेप्पई तत्तो सुहमेण वच्छदोसो छसुवयारो // 13 // लोगपएसोसप्पिणिसमया अणुभागबंधठाणाई / पुट्ठा मरणेण जया कमुक्कमा बायरो त्ति तया // 106 / 136 // पुट्ठाणंतरमरणेण पुण जया ते तया भवे सुहुमो / पोग्गलपरियट्टो खेत्तकालभावेहि इय नेओ // 110 // 137 / / जोगट्ठाणा सेढीअसंखभागे तओ असंखगुणा / 1 "खवए” इत्यपि / 2 "खीणातितिसु” इत्यपि / 3 "इक्कारस” इत्यपि। 4 "तुस्स०” इत्यपि / ५“परट्टो" इत्यपि / 6 “अण्णे" इत्यपि / 7 "पि" इत्यपि / Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्धशतकनामप्रकरणम् पयडीभेया तत्तो ठिइभेयाणुक्कमेण तओ // 111 / / 138 // ठिइबंधज्झवसाया तत्तो अणुमागवंधठाणाणि / तोणंतगुणा'कम्मपएसा तत्तोरसच्छेया // 112 // 136 / / खेत्तं सुहुमं कालाउ जेण अंगुलपएससेढीए / समयपएसवहारे असंखओसप्पिणी होति // 113 / / 140 / / चउदसरज्जू लोको बुद्धिकओ होइ सत्तरज्जुघणो। तद्दीहेगपएसा सेढी पयरो य तव्वग्गो // 114 // 14 // पयडीओं - असंखेजा जं ओहिदुगे वि तारतम्मेणं / अस्संखलोगखपएसपमाणा हुंति 'खलु भेया // 115||142 // आजिद्रुट्ठिई हस्सट्ठिईउ समउत्तरा ठिईठाणा / सव्वपयडीसु एवं सव्वजिआणं पि ठिइभेया ||116 // 143 / / ठिइठाणे ठिइठाणे कसायउदया असंखलोगसमा / . अणुभागवंधठाणा इय "एक्केक्के कसाउदए // 117 // 144 // थोवाणुभागठापा जहन्नठिइपढमबंधहेउम्मि / "वीया विसेसअहिया जा चरमाए चरमहेऊ // 118 // 145 / / इय असुभाण सुभाण उ विवरीयं जिट्ठठिइचरमहेऊ / आरब्भ निज्ज आउसु ठिई ठिडं पइ असंखगुणा // 11 // 146 // समयभवसुहुमअगणी असंखलोगा तओ असंखगुणा / तेऊ तत्कायठिई कमसो अणुभागठाणा य / / 120 // 147 // अंतिमचउफासदुगंधपंचवन्नरसकम्मइगखंधे / अभवियअणंतगुणिए गिण्हइ तत्तिय मणू समए // 121 // 148 / / गहणसमए य जीवो नियपरिणामेण जणयइ रसाणू / सव्वजियाणंतगुणे कम्मपएसेसु सव्वेसु // 122 // 146 / / संखेज्जेगमसंखं परित्तजुत्तनियपयजुयं तिविहं / एवमणंतंपि तिहा जहन्नममुक्कसा सव्वे // 123 / / 150 / / संखेज्जगं जहन्नं दोच्चिय मज्झिममओ परं बहुहा / / 1 "कम्मप्पएस' इत्यपि / 2 'य रसछेया' इत्यपि / 3 'खित्तं" इत्यपि / 4 “हुति" इत्यपि / 5 "लोगो" इत्यपि। 6 “किल" इत्यपि / 7 "इक्किक्के" इत्यपि। 8 "बीयाइ विसेसहिया" इत्यपि / . अणू" इत्यपि / 10 "दुच्चिम" इत्यपि / Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्धशतकनामप्रकरणम् जा उक्कोसं तं पुण चउपल्लपरूवणाइ इमं // 124 / / 15 / / जंबुद्दीवपमाणा चउरो जोयणसहस्समोगाढा / रयणपहरयणकंडं भिंदिय पुट्ठा वइरकंडं // 125 / / 152 // पल्लाणवट्ठियसलागपडिसलागामहासलागक्खा सव्वे सवेइयंता उवरि ससिहा य भरियव्वा // 126 1153 // तो कप्पणाइ केणइ सुरेण पढमो धरित्त वामकरे / 'एक्केक्कं दीवुदहीसु सरिसवं खिविय निट्ठविओ // 127 / / 154 // दीवे जत्थुदहिम्मि व तदंतमेव पढमं व तं भरिउ / परओ खिव एक्केक्कं दीवुदहिसु निद्विए तम्मि // 128 // 155 / / खिवसु सलागापल्ले सरिसवमेगं पुणो तयं तं तं / पुव्वं व भरसु खिवसु य पुरओ पुण तम्मि निविए // 126 // 156 / / बीयं सलागपल्ले खिव सरिसवमेव (मेव) पुण तइयं / इय पुणरुत्तणवठियभरणविरेयणसलागाहिं // 130 // 157 // "पुन्नो सलागपल्लो पुव्वकमागयणवढिओ य तओ / 'सो चिय सलागपल्लो उक्खिप्पइ 'खिप्पई पुरओ // 131 / / 158 / / पुव्वकमनिट्ठिए तहिमेगं खिव सरिसवं व तियपल्ले / ' पुव्वं व निट्ठियंते अणवट्ठियपल्लमेव खिव // 132 // 159 // पुण तम्मि निट्ठिए खिव सलागपल्लम्मि सरिसवं 'एक्कं / अन्नन्नणव 'ट्ठियओ सलागपल्लं पुणो "भरसु // 133 // 16 // तेण पुण पडिसलागापल्ले भरियम्मि दोसु य तमेव / उद्धरियपुब्वविहिणा सरिसवमेवं खिव चउत्थे // 134 / / 161 // इय पढ़मेहिं वीयं तेहिं तइयं तु तेहिं य चउत्थं / भरणुद्धरणविकिरणं ता कज्जं जा फुडा चउरो // 135 / / 162 / / पढमतिपल्लुद्धरिया दीवुदहीपल्लचउसरिसवा य / सव्वो वि एस रासी रूवोणो परम''संखिज्जो // 136 // 163 // 1.3 "इक्किक्कं" इत्यपि / 2 “य' इत्यपि। 4 "पुण्णो" इत्यपि / 5 "सुच्चिअ" इत्यपि / ' 6 "खिप्प अ” इत्यपि.। . "तइअ०" इत्यपि / 8 ''इक्क" इत्यपि / / "ठियाओ" इत्यपि / १०."भरह" इत्यपि / 11 “संखिज्जं" इत्यपि / Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्धशतकनामप्रकरणम् इय तिविहं संखिज्जं असंखय'मिओ उ जेट्ठसंखेज्जं / रूवजुयं संजायइ जहन्नयपरित्तयासंखं // 137 / 164|| तं विवरिय 'एक्किक्के ठाणे ठावित्तु तत्तियं रासि / अन्नुन्नब्भासे ताण होइ चउत्थं असंखिज्जं // 138 // 165 / / तं पुण जहन्नजुत्तं आवलियाए वि तत्तिया समया / एयकमा वितिचउपंचमे य 'अन्नुन्नअन्भासे // 136 / / 166 / / "सत्तमअसंखपढमचउसचमाणतया य हुँति कमा / रूवजुया ते मज्झा रूवूणा पच्छिमुक्कोसा // 140 // 167 // "एत्तियमेत्तं सुत्ते अन्नमयमओ चउत्थयमसंखं / चग्गिय 'मेकसि जायइ जहन्नयमसंखयासंखं // 14 // 16 // रूवजुयं तं मझ 'सव्वहि रुवोणमाइमुक्कोसं / तं वग्गियं तिवारं दस पक्खेवे खिवसु एए // 142 // 169 // लोगागासपएसा धम्माधम्मेगजीवदेसा य / दव्वडिया * निगोया पत्तेया चेव बोधव्वा // 143 // 170 / / ठिइबंधज्झवसाया अणुभागा जोगछेयपलिभागा / दोण्ह समाण य समया असंखपक्खेवया दस"उ // 144 // 17 // पुण वग्गिए तिखुत्तो तम्मि भवे लहुपरित्तयाणतं / तो तत्तियवाराओ तत्तियमित्ते ठवसु रासी // 145 / / 172 // ताण''न्नुन्नन्भासे जुत्ताणंतं जहन्नयं भवइ / एवइयअभव्वजिया रासिम्मि य वग्गिए तम्मि // 146 / 173 / जायमणंताणंतं जहन्नयं तं च वग्गसु तिवारं / तहवि परं तं न भवे तो खिवसु इमे छ पक्खेवे // 147 // 174 / / सिद्धा निगोयजीवा वणस्सई कालपुग्गला चेव / सव्वमलोगागासं छप्पेएणंतपक्खेवा // 148 // 17 // पुण तिक्खुत्तो वग्गिय केवलवरनाणदंसणे खित्ते / भवइ अर्णताणतं जिह्र ववहरइ पुण ममं // 146 // 176 / / १"मओ" इत्यपि / 2 “इक्किक्के" इत्यपि / 3 “जहण्ण" इत्यपि / 4 "अण्णुण्ण" इत्यपि / 5 "सत्तमसंखं" इत्यपि / 6 “होति" इत्यपि / 7 " इत्तिम०" इत्यपि / "मिक्कसि" इत्यपि / 9 "सव्वह"इत्यपि / 10 "वि'' इत्यपि / 11 “ण्णोण्ण" इत्यपि / Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] सार्धशतकनामप्रकरणम् 'अन्नोन्नब्भाससमं वग्गियसंवग्गियं तु तो केई / -- सत्तमअसंखणते तिवग्गठाणे तमाहु तिहा // 150 // 177 // नेयअइगहणयाए निबिडजडत्तेण नियमईए तहा / / जमिहुस्सुत्तं वुत्तं मिच्छा मिह दुक्कडं तस्स // 151 // 178 / / जिणवल्लहगणिलिहियं सुहुमत्थवियारलवमिणं सुयणा / निसुर्णतु मुणंतु सयं परेवि बोहिंतु सोहिंतु // 152 / / 179 / / 1 "अन्नुन्न०" इत्यपि / 2 "तभो केह" इत्यपि / 3 “मे” इत्यपि / समाप्तं चेदं सार्द्धशतकनामप्रकरणं // Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // सार्द्धशतकभाष्यम् // नियहेउसंभवे वि हु भयणिज्जो जाण होइ पयडीणं / बंधो ता अधुवाओ धुवाउ अभयणिज्जबंधाउ // 1 // अव्वोच्छिन्नो उदओ जाणं पयडीण ता धुवोदइया / वोच्छिन्नो वि हु संभवइ जाण अधुवोदया ताओ // 2 // विणिवारिय जा गच्छइ बंधं उदयं च अन्नपगईए / सा हु परियत्तमाणी अणिवारिति अपरिवत्ता // 3 // मिच्छत्ता संकंती अविरुद्धा होइ सम्ममीसेसु / मीसाओ वा दं सु सम्मामिच्छं न उण मीसं // 4 // पलियाणि तिन्नि भोगावणिम्मि भवपच्चयं पलियमेगं / सोहम्मे सम्मत्तेण नरभवे सबदिरईए // 5 // मिच्छो पच्चइयाओ गेविज्जे सागराइँ इगतीसं / अंतमुहुत्तुणाई सम्मत्तं तम्मि लहिऊणं // 6 // विरयनरभवंतरिओ अणुत्तरसुरो य अयरछावट्ठी / मिस्सं मुहुत्तमेगं फासिय मणुओ पुणो विरओ // 7 // छासट्ठी अयराणं अच्चुयए विरयनरभवंतरिओ / तिरिनरयतिगुज्जोयाण एस कालो अबंधम्मि // 8 // छट्ठीए नेइओ भवपच्चयओ य अयरवावीसं / देसविरओ य भविउं पलियचउक पढमकप्पे // 6 // पुव्वुत्तकालजोगा पंचासीयं सयं सचउपल्लं / आयवथावरचउविगलतियगएगिदियअवंधो // 10 // पणवीसाएँ अबंधो उक्कोसो होइ सम्मगुणजुत्तो / बत्तीस सयमयराण हुति अहिया मणुस्सभवा // 1 // एयासि पयडीणं अबंधकालो य होइ सनिस्स / उक्कोसो विन्नेओ न उ सव्वजियाण एस विही // 12 // देवदुगं 2 नरयदुगं 2 विउव्वितिग 3 तस्स बंधणा चउरो / आहारसत्त एवं वेउव्वेक्कारसं नेयं // 13 // पण अंतरायअनापतिमि चक्खू अचक्खु दस एए / Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1] सार्द्धशतकभाष्यम् मिच्छे साणे य हवंति मीसए अंतराय पण // 14 // दसणतियनाणतियं मीसगसम्मं . च बारस हवंति / एवं च अविरयम्मि वि नवरं तहि दंसणं सुद्धं // 15 // देसे देसव्विरई . तेरसमा तह पमत्त अपमत्तो / मणपज्जवपक्खेवा चउदस अप्पुव्यकरणाओ // 16 // वेयगसम्मेण विणा तेरस जा सुहुमसंपराओत्ति / ति च्चिय उवसमखीणे चरित्तविरहेण वारस उ // 17 // खाओवसमगभावाण कित्तणा गुणपए पडुच्च कया। ओदइयभावमिहिं. ते चेव पडुच्च दंसेमि // 18 // चउगइयाई इगवीस मिच्छे साणे य हुँति वीसं च / . मिच्छेण विणा मीसे इगुणीसमनाणविरहेण // 1 // एमेव अविरयम्मी सुरनारयगइविओगओ देसे / सत्तरस हुंति ति चिय तिरिगइ अस्संजमाभावा // 20 // . पन्नरस पमत्तम्मी अपमत्ते आइलेसतिगविरहा / ति च्चिय वारस सुक्केगलेसओ दस अपुवम्मि // 21 // एवं अनियट्टिम्मि वि सुहमे संजलणलोभमणुयगई / अंतिमलेसअसिद्धत्तभावओ जाण चउभावा // 22 // संजलणलोभविरहा उवसंतक्खीणकेवलीण तिगं . / लेसाभावा जाणसु अजोगिणो भावदुगमेव // 23 // अविरयसम्मा उवसंत जाव उवसमगखड्यगा सम्मा। अनियट्टी उवसंतो जाव उवसामियं चरणं . // 24 // खीणम्मि खडयसम्मं चरणं च दुगं पि जाण समकालं / ना नव खइगा भावा जाण सजोगे अजोगे . य // 25 // जीवत्तमभव्वत्तं भव्वत्तं पि हु मुणेसु मिच्छम्मि / ' साणाई खीणंतो दुन्नि अभव्वत्तवज्जा उ // 26 // सज्जोगिअजोगम्मि जीवत्तं चेव मिच्छमाईणं / ससभावमीलणाणो भावं मुण सभिवायं तु // 27 / / // इति सार्द्धशतकमाष्यम् // Page #702 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति * परिशिष्टद्वयं * // परिसमातम् // wwwwwwwwwwwwwwwwm Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तो FEELS: 35 52 16 शुद्धिपत्रकम् पृष्ठम् पतिः अशुद्धिः शुद्धिः पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धिः शुद्धिः 2 3 मुक्ता 42 27 भवति मवति। 2 23 श्रुतं भूतं 43 14 दान/कृत दान/ कृतं 2 30 अम्य अन्य यत्ति" य"त्ति 14 वङ्गम् खड्गम पङ्ग. पाङ्ग. 10 24-25 अप्राप्प अप्राप्य परघातम् पराघातम् 11 27 छनावरण छ ताबरणं ति' भानुपूर्वी 'ति आनुपूर्वी 13 8 // // गोक्या गोवत्या 14 23 उक्ता उक्त कर्मणाः कर्मणः 15 10 सामानं समानं एकेन्द्रयो एकन्द्रियो 15 15 राक्षः राज्ञः' वेक्रिया० क्रियादि. 17 19 अङ्कमणे ०श्वङक्रमणे 51 15 ङ्गनि/अनिङ्गानि/-गानि 1. 27 संसिक मेसि० 13 'नौ' 'नो' 18 1 स्त्यादि स्त्यानर्द्धि. शरीर० शरीरा. 18. २६३षजस्यक्तरूपस्यो केवलस्योक्तरूपस्य 25 तत्त. तत्त० 16 6 ख खड्ग० 52 29 एव० एव० 19 . // 28 // 2 // 53 12 पपुर० पापुर .21 , 2 प्रधान्या० प्राधान्या० (पारमा) (पारमा०) 22 1 ०दलाक्यते ०दालोक्यते तत० नत्त. ग्मिध्यास्व००ग्मिथ्यात्व पुद्गलले पुद्गले 24 16 व्याख्या व्याख्या लां नां पस्य टस्य पठमं पढमं 2 अन्तानु० अनन्तानु० नाराया नाराचा 'इह मन्यव्य. मन्तव्य. 7 16 . . थों . उदारा उदरा 27 18 कछन्दस्तु च्छन्दस्तु दिर्णनम् दिवर्णनम् माय० माया० 65 3 सौष्ठवं सौष्ठवं 'अविरत अविरत अन्यत्रः अन्यत्र 30 12 प्रत्याख्यान प्रत्याख्यानाव० आपत० आतप० .34 7 सपित्ताश्वाचित्ताः सचित्ताचित्ताः शुभे . 37 . भेदेः भेदैः 1. पज्जत्तित्ति पज्जत्ति' त्ति 363 ०दष्टा० दृष्टा० * गृहित्वा गृहीत्वा 36 13 बिम्बानिः बिम्बानि 75 12 निप्पत्तिः निष्पत्तिः 4. 6 गन्तव्यम् व्यगन्तव्यम् 42 . 3 रऽपि येने रेऽपि येन 7. २उदा जरु...'पूहमो उदए जस्स...'पूहमओ 42 16 छवास. छ्वास. 80 6 जह .42 19 स्व. रख० 1 . भवात भवति ..........: शुमभे० ....... पा Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | মুব্রিথম पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धिः शुतिः पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धिः शुद्धिः 81 23/25/27 सघगो/सघणी सधणो/सधणी 120 1 स्वा० सवा० 2 20 जइ जह . 123 21 सन्निवि० सन्नवि. मन्नि; भवन्ति | 13 25 स्यानद्धि स्त्यनिर्द्धि 1. 12 व्शुद्विरेथी शुद्धिरा 125 11 लघुघा लघुग्घा० 11 12 चद. चंद० 128 7 सर्वसां सारिक० सर्वसासारिका 91 21 निर्वात्ति निर्वत्ति 128 9 'लेश्यः' 'लेश्याः ' 6 सङ्कमा मङकमा 128 18 दृष्टव्यम् द्रष्टव्यम् १७-१८०न्युष्टष्टा न्यु-कृशा 128 31 , (?) इ. इ. . 14 25 युगदू० युगपद्धि. 16 10.11 1314 1213 14 26 युगपद्वि० युपद्धिर 126 16 तिणूYणु तिनणूणु 55 12 कृत्स्त्र कृत्स्न 131 27 ८दृष्टो दृशो 14 तत्र भग० तत्र केवलिनो मग 135 15 केवलिनो नेहाधिकारः नेहाधिकारः 15 9 वोच्छिन्नाः॥२॥ वोच्छिन्ना॥१॥ 35 30 ख्यानांख्यानं 16 13 व्यवगत० व्यपगत० 139 22 मयतरेणं मयंतरेणं 171 सङ्ख्या सख्या 14. 10 त्रयस 101 2 नाक०/०समव. नरक०/०संभव 140 यावद्धि 25 दृष्टया 101 21 यावद्विः द्रष्टव्या 142 23 कायेंनव कायेनैव 102 1 स्त्वा० (स्तवा० 144 20 मत्य ज्ञान० मत्यज्ञान 1.3 21 नाम नामा० 146 16 सयोग्यन्तेषु। सयोग्यन्तेषु 105 26 सम्लेश संक्लेश 147 , 21 चतुष्कं चतुष्कम्, 106 20 ०विशेषात्माके विशेषात्मके 141 1 ०स्वामित्वम स्वामित्वम् 107 7-8 केश-ब. केशवा ब० 150 ८.सयत० संयत. 288 78 ०देतषा. देतेषा० 15. 11 - ओवसमं खओवसमं 108 20 प्रधान्यं प्राधान्यम्। 11 4 इत्युवता इत्युक्ता 151 6 श्रेणिव श्रेणिस्थ 106 26 रोदाकादि रौदारिकादि 152 5 कामकार्मण 101 28 वर्गण. वर्गणा. 152 20 प्रयरण प्रकरण 110 12 वर्ष वर्ष 111 22 नैकेन्द्रियाण, नेकेन्द्रियाणाम् , 555 7 किचि किंचि 111, 26 क्त्या शास्यात्००क्त्याःशङ्का स्यात् 155 57 प्रक्रन्त * प्रक्रान्त. . 113 16 शरी० . शरीरे० . 156 12 चत्र - 115 1 चामूनिन्यग्रो. चामूनि न्यग्रो. 157 1 मङ्गलादिकम मजलादिकम् . 155 12 दुस्वरं दुःस्वरं 157 17 क्षणमोह क्षीणमोह 118 11 शरी० . शरीर... 158 27 वास्तां भलं वास्ताम अलं 111 12 द्वितिय. द्वितया 158 28 मिधनं भिधानं Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F पाठः शुद्धिपत्रकम् पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धिः शुद्धिः पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धिः शुद्धिः 156 14 नुपपत्तेः नुपपत्तेः 180 22 ०सक्तानि सत्कानि 156 25 व्वारकत्व- वारकत्वा 180 26 स्थानानि स्थानानि, 160 2 भूतनि भूतानि 181 1 मर्गणा मार्गणा 160 6 चिद्र पा०प्रसंगेन चिद्र पाशप्रसङ्गेन 181 16 पयाप्तो पर्याप्तो 160 8 गुणानां स्थानानि जीवस्थानानि 181 28 भसंज्ञीनिर्दिष्ट असंज्ञी निर्दिष्ट / 160 11 गुणस्थानानि गुण• गुणानां स्था. 182 14 दर्शने दशेने नानि गुण 182 16 स्थाना, न स्थानानि 160 13 उपज्यते। छदे उपयुज्यते / छेदं 182 28 इहकश्चित्पूर्व इह व श्चित्पूर्व 160 16 नाम्नीति 'पुनाम्नी' ति 182 1 पाठ 163 28 व्याकारणे. व्याकरणे 182 11 ०णेमृत्वा० मवा० 165 निनिक विनि 186 8 वस्थाय कियत् वस्थायां वियत् 165 28 मयथा मयथा 186 15 समुद्धाते समुदाते 166 5 पर्याप्त पर्याप्ता 186 26 समुद्धात समुद्घात 166 10 केवलिणी केवलिणो 187 5-6 नियट्टि 8 अनि- निटिअनियट्टि 168 30. वादर बादर यट्टि सुहुमु१०-सुहमुत्रममखीण 13 22 मिश्रकाय० ०मिश्रकामणकाय. बसम० 11 खीण-सजोगिऽजोगिगुणा 170 . सज्ञा ०सं॥ 12 सजोगि 13 // 26 // 170 16 पर्चेदि० पंचेंदि अजोगि 14 .171 3 ज्ञानात्रिका० ज्ञानत्रिका. गुणा।।२६। . 172 7 पर्याप्तष्विति / पर्याप्तेष्विति 1.7 . पदमु पदसम० 171 17 आगा ओगा 107 17 अणायरा अण यरो 171 24 तेषा 187 24 सा/०करणा सो/करणो 172 10 वह्नययः वह्नययः 188 6 आ अंत० 172 17 संगदनं, संपादनम् , 188 12 चाराद्धा० चाराद्वा 173 7 द्वन्दः द्वन्द्वः 1895 न 574 25 सयम०/'संज्ञा संयम 110 4 गठि/बीय गंठिं/बीयं ज्या)हर' संज्ञा (इया)हारे 161 3 अमजय असंजय 175 5 इदियः' "इंदिय" 161 15 प्रव० पूर्व 175 16 ०ओहीण मोहीमण 192 3 ०ह पूर्वी व्हापूर्वी 177 8 ज/गथा० जं/गंथा. 192 4 एवं एष 17H 2. मुत्था० [मुत्था०] (०मुपस्था) 162 15 तराणी तराणि 1763 ति इति 162 18 प्रवि० प्रति 176 23 शेष 112 20 जघाया० जघन्या 179 30 पाठ पाठः 164 18 उत्वृष्टा उत्कृष्टा 18. 15 चउरा चउरो 164 29 ऽनन्त ऽन्त 180 22 स्थावरपञ्चके' 'स्थावरपञ्चके 194 30 एमेका तेषां न: शेष एवमे० Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মুন্সি पृष्ठम् पतिः अशुद्धिः शुद्धिः पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धिः शुद्धिः 196 3 ०मागामात्रं मागमात्र 226 . नयनमते न नयमतन 196 26 ०व्यवच्छेदः। व्यवच्छेदः] 226 28 रुद्राया० गाथा० 17 7 विशेषाधिकः विशेषाधिक: 220 20 ०समुद्धाता० समुवाता० 117 16 ऽन्त्र ऽन्त.. 227 27 द्वन्दुः इति द्वन्दुः षट्प देसु 158 16 बन्धाना० बन्धना तथैकेन्द्रियभूतरू 200 15 वर्गगाः वगणा दकासंशिपु इति द्वन्द्वः 200 18 उद्धवेमे उदु मे० 226 16 ०प्याकारा० प्याकाश. 202 22 अस्यांचा० अत्यां चा० 230 10 तावद्धनी तावद्वनी 211 18 न / न विद्यते सत्यं यत्र 230 17-18 भावनासंख्येय० मावनाऽसंख्येय. तद्भवत्यसत्यम् , न 231 ४१११२५००चतुस्रि० २५६१२चतुषित 217 7 तद्यथा तथा 232 3 तेइदियाणं तेइंदियाणं. 217 12 सुज्ञानात्वा० सुज्ञानत्वा 232 . पचिंदिया पंचिंदिया 217. 16 तया तथा० 232 30 पाठ। पाठः। 217 26 क्त्त्वोपा० ३०क्वोत्सा 233 11 यिा० हिया० 217 30 दृश्यतेहस्त दृश्यते हस्त 233 15 मानिनो मायिनो 218 11 ओदाकि औदारिक 234 3 अन्नान्न भन्नोन्न 218 14 समुद्धाते समुदाते 235 12 ०चक्षत. चतुर्द 216 4 समुद्धात समुद्घात 235 20 चक्षद ०चक्षुर्द 216 . इति इति 23. 21 ०लब्धैकेक लब्धैकैक० 219 8 238 6 कान्त •क्रान्ता, 219 12 वच्छाम •वगच्छाम: 238 14-16 ०क्रान्ताद्वि० •कान्ताद्वि० 216 15 वेक्रिय कि वैकिवलब्धिमतां 238 22 मर्चे सर्व. मतां किं. वैक्रि० 240 2 इत्येवं / , इत्येवं 219 20 असज्ञिनि असंझिनि 240 5 निगाया" निगोया" 219 25 समुद्धाते समुद्घाते 240 22 स्त्रीम् 219 27 कुर्व० 242 6 सम्यवत्वानां सम्यक्त्ववतां 220 4-5 व्यादी नाभिक व्यादीनामि० 242 10 तदसख० तदसंख० 221 6 अथैतस्तिष्वेव अर्थतांस्तेष्वेव 242 14 समयोवृत. 221 7. उपयागाः उपयोगाः 242 24 संख्येया संख्येय 221 25 चतुरदर्शन चक्षुर्दर्शन 242 25 ०समुद्धात समुदुघात. 224 1 नानि नास्ति 243 16 सहिस्यो० •सहितस्यो 224 3 छेदा० .. छेदो 244 1. ०दृयादि० दृष्टयादि० 224. 12 ०पण मण 245 1 हारि०) (हारि०) 25 21:23 समुद्धाते . समुद्राते 245 10-11 ०समुद्धाते. समुद्घाते. 226 4, 0 न० . ज्ञान 245 20 समुद्धाता. समुद्घाता० 226 7 ०क्षिन्नाह . क्षिपन्नाह 246 . समुद्धाते. समुद्घाते. त श्रीन् Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिः s शुद्धिपत्रकम् पष्टम् पक्तिः भशुद्धिः पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धिः शुद्धिः . 246 12 दारिद्विकं दारिकदिक 255 14 इतर हारि 246 13.14 समुद्धाता समुद्राता 255 21 झाना ज्ञान 250 10 वौक्तः वोक्तः 250 22-23 स्वरूपोः '55 3. सुहुमो स्वरूपाः सुहुमा 250 26 भानामि० अनामि० 258 20 पं / दो खीणा पंच दो खीणो 250 29 विणिहिट्ठ विणिदिट्ठ 258 3 गाए गोए 251 14 सम्मक्त्व. ०सम्यक्त्व० 260 16 पेक्षमाण प्रेक्षमाण 253 2 . मि रूपे मिश्ररूपे 261 1 गुणस्थानकव गुणस्थानके व 253 22 व्वेनोप० . वेनाप० 261 29 जतिः जातिः श्री यशोभद्रसूरिकृतवृत्तियुतषडशीतो ..1 14 सुहद्य सुहृद्य 5 5 भ्यूह्यो भ्यूद्यौ 1 20 छेदो च्छे दो 55 रंजी० सजी० . 1 20 छेदार्थ च्छेदार्थ 5 23 कामणेन कामणेन 1 21 द्रवन्ध्य . वावन्ध्यः 6 4 विषया० विजया० 1 22 छद्मः .०च्छा 6 5 मनुष्योः मनुष्ययोः 1 23 श्याद्विः . रहाद्विा 6 11 मोहूँ तिकी मौहूर्तिकी 1 23 माब.. भाष० 6 12 न स्थ नस्थि " 6 18 पूरित. •-पिता" 1 25 ०-चतिा पूरितः 74 ये गः •च्छेद योगः 2 15 बहुव्रीहीः * 22 समुद्धाते समुद्घाते 88 वचनातं वचनान्त 2 21 शोभनं रूरध्यानं शोमनरूपं ध्यान सनी" ति ..3 11 सन्ना" ति 8 12 'मणान णे' 'मणणाणे 3 13 भ्यच्या. भ्यश्च्छा- मनस्त्वेन 8 20 पुनवी 'पुढवी 66 रणा * दीरणा. 3 24 परिणामयति परिणम् यति है 10 वि ठाणाणि य चिय तिनि य ठाणाणि 3 26 सीर० शरीर० / दो षड 14 हेतुभिः हेतुभिः 4 4 भाष.न. माषानु० है .6 ०ऽऽगलिकायां बलिकायां 4 5 प्र योग्य प्रायोग्य 12. दत्ताणां पत्तागं 4 5 पालम्ब्य पालम्स्य है 23 करगेणे करणेणे मनः 10 13 भाद्य रव्याद्य 4 6 इराणां हाराणां 10 22 सम्यकचः सम्यगचा 4 6 पिह पण मत? विह पण अंत. 10 27 उतानार्थी उत्तानार्था 4 18 भ्यःप्रथम० भ्यः प्रथम 11 12 प्रायोवा. प्रायो जनवाः 5 5 एकादश समुः। एकादेशसमु. 11 6 शकल साल बहुव्रीहिः occc ac cc Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृवं शुद्धिात्रकम पृष्टम् पङ्क्तिः अशुनिः शुद्धिः पृष्ठम् पङ्कितः अशुभिः शुद्धिः 12 10 ०चारद्वारा चागद्वा 16 11 लोकाद / लोकादू 16 12 नोर्व नंदुर्च 12 27 प्रकाशो ०प्रकारो 16 13 मते नाहीं एषु / ०मतेना ऽऽद्यषु 12 30 चारकर्म वारककर्म. 16 17 नाडी बहिन नाडिबाहिक 13 1 नंतर नोत्तर 16 18 पञ्चमेवा पञ्चमे त्वा 13 1 शेषण शेषेण 16 22 भूयनिजरणं भूय निर्जरणं 13 10 कास्तदा से० कास्तदा-से. 19 22 शानन मित्यर्थः शात नमित्यर्थः 13 १०-११.निविष्ट निर्विष्ट 16 23 द्ध 12 रिकाः। कल्पं रिकाः कल्प० - 16 23 यदुक्तंम यदुकाम 13 21 पाण्मा० षण्मा० 16 27 दहिः . 'बहिः 16 13 24 गन्त्र माना गच्छन्ति गच्छमागच्छन्ति 28 क्षेत्र क्षेत्र.. .. 13 27 शमय 16 31 हैम. हेम. शमक० 13 26 शमय० शमक० 19 31 वृत्य . वृत्त्य शरीरा० 20 10 शरीर० 14 3 मुइय/ क्खाय मह. मुइयं/ क्खायं अह. 20 17 करणे करण 14 6 वु. वु. 20 16 शातयति 15 6 न्यस्था. . शातयति) त्यस्ता 14 10 नार्थता 20 27 व्ये पूरि० न्ये ऽपूरि० नार्थे तत्र पो. 14 14 वजे 21 2 चाष्टसामायिकः च ष्टसामयिका 21 . व्य.श्चत्वारः याः पन्च 14 21 सहा पसाहा 21 14 नियटा . नियटी .. 14 24 नीला 21 21 दया ०दयाद् 15 16 सांप्र० 22 1 चतुर्थ कर्मग्रन्थ चतुर्थे कर्मग्रन्थे 15 24 भेट द्वयम्, भेदद्वयम् 22 2 न निर्मि० , न-ऽनिर्मि: 16 2 यन्त्र न्यत्र 22 3 प्राप्तामत्यः प्राप्तमित्य० 16 12 बाद बादर 22 4 विशेषेण . . विशेषेण 16 116 विगल हुंति... १विगल--२ {शि 22 4 सागरा सागरो . . मनिको ...3 सन्निको 22 5 त्रिशतं . त्रिंशतं 16 17 पटेकदशे पर्दैकदेशे 5 गय क्ष यि. 6 19 पञ्चवचन पञ्च वचन 22 7 निर्व वार्थनिर्व 16 25 ग्गे रंगे 23 2 सम्याष्ट /मिथ्या सम्यग्दृ/मिया 16 27 निऊमम्मि" तिअसन्नि" 23 3 सम्यष्टष्टि सम्यग्दृष्टि 17 2 क्षायौ० क्षायो 23 3 भूत्यैव भृत्वैव 17 22 तत्रैकषडुदयो तत्रैकः षड्यो 23 4 क्रमैण .. 17 27 02 21-22 23 6 सद्ध णं सटाणं 18 29 ०प्त्यद्यागमा ज्य द्यागम 23. 27/28 मुहूत्त दीघों मुरीदीर्घा 16 10 अर्थ भथ 23 26 . द पूर्वा 0 दपूर्वी नील संप्र० क्रमेणे Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा Julimstalentedindi लेश्याषद् ०/रु, शुद्धिपत्रकम् पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धिः शुद्धिः पृष्ठम् पडिक्तः अशुद्धिः शुद्धिः 23 30 पृथीयसी प्रथीयसी 35 5 दसर्ण दंसणं 24 5 समनाया शमनाया 35 6 नायन्नाह नाय चाह२४ 7 सुमन्नां/कृता सुमतां/कृत्वा० 35 16 व्यन्तरे-ध्य -व्यन्तरेष्ट 24 १२/१३०स्थान/०ऽनेति थानम् ऽऽनेति 35 20 व्त्येव विवा० त्येवमविवार 25 22 देशकृति देराकृतिक 15 20 दशन दर्शन 25 24 कंवलि. केवलि. 35 26 जां 25 25 •यागो० व्योगो० 36 1 कम कम 25 30 निर्ति . निवृत्ति 36 6 ोगे योगे 36 8 स्र० ०न्त्र० 26 2 समुच्छिन्न समुच्छिन्न 36 14 एगिदि. 2 सन्निर एगिदि० तन्नि 36 17 सुभ०/पर्याप्तता० शुमा पर्याप्त 2 हम्ब 26 27 स्वास्वादनं सास्वादनं 36 23 ब्यमिक व्यव० 36 24 शिति रिंशति 27 ७/१००हाता०/तालो. हा/तलो० 27 15 तज्ञा 27 लेश्या षट् ०/रू ताज्ञा०/ 27 18 ज्ञानानि निानि /गर्मजः गर्भज. 37 7 : 27 ऽज्ञानात्रये नराः . / ऽज्ञानत्रये 37 20/21/23 स० ०त्र. 27 22 सामाइच. सामाध्य स्त्री/स्र० 27 28 मिथ्या० ग्मिथ्या० स्त्री०/ 3. 23 व्यास्त्रस० •द्यान्त्रस 28 वतिन . वर्तिन 38 1 गन्थे प्रन्थे 28 16 उपमातान्तानि ऽप्रमत्तान्तानि ..38 2 ऽनन्ता ऽनन्ताः 28 18 संज्ञषु संझिषु 38 5 28 22 पठमा पाक्षिका पक्षिका०/ पढमा 284 इत्याप इत्याीि . 381 प्रचरंतीति प्रचरन्तीति 38 15 किंच 26 5/14/14 सपूर्व०/यन्ते/ पूर्व/व्यते। किंचित ल्पयते ल्प्यते 38 18 पुष्पापकीण. पुष्पावकीर्ण '26 26 देसे 38 22 बहव कृण बहवः कृष्ण 302 वैक्रया क्रिया 38 23-24 एता सू एसासू 361 स्थानेष 30 11-12 मुद्धा लम्यते स्थानेष्वं मुद्घा/लभ्यते 36 16 हद दि 31 160 हठादि कार्या 31 21 मिश्री निश्री 39 23 कार्याः 31 22 षष्ट 40 13 मितिस्वल्प. मिति स्वल्प० 31 22/26/ पंचमे स्त्र पञ्चमे/त्र 40 14 काल काल० 13 गुण स्था० 33 3 विशषा विशेषा० गुणस्था 42 13 किंच किच 33 1 मेतवान मेतावन्त 43 24 पञ्चकं षष्टं। पञ्चमं षष्ठं 33 11 ल्ये 44 3. सर्णिया सर्गिण्या 33 28 यम्व. यत्व० 44 5 पृथक्वं पृथक्त्वं 34 2 केवलि केवल. / 8 मिश्रेभ्यः भिश्रेभ्यः 34 14 व क्षी. बोपशान्तक्षी 44 . (यशः) (यशो०) . 34 14 ऽन्त्यु ऽन्त्य 45 8 क्तोद्धिरतेषु तोद्धरितेषु . 34 20 सम्यग०/रू सम्यग०/१० 46 2 .ऽप्रमत० 0ऽप्रमत्ता : 35 1 यागानय० ज्यागा नय० 4 रम्य वरभ्यः MH देशे षष्ठ कल्पये Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीण. 3. 55 28 बुध. शुद्धिपत्रकम् पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धिः पृष्टम् पङ्क्तिः अशुद्धिः शुद्धिः 46. 5 भारम्म आरम्भ 52 21 पुत्वे पुंस्त्वे 6 . क्षणा० 53 27 सप्स सत्तऽ० 46 16 षष्ट षष्ठ 51 2 कम्र्मण्यु. कर्माण्युः 46 24 पायी दायो 54 7 रूदये रुदये 4. 2 प्राचिना प्राचीनाः 54 20 ०देशनद र्शन 48 86 निर्देष्टम् निर्दिष्टम् 55 16 समयेषु समये [4] 45 18/20 तदाभि० तदनाभि 55 20 स्तोका स्तोकाः 46 2 चतुरशीतेरः चतुरशीतेः निवृत्तिअ० निवृत्ति०] 49 13 एव एवः (त्वा जघन्यतोऽ 4. 16 56 26 जघन्तोऽरेन 56 30 व्यव० ण्य व० ... 5. 1924 ०नां प्राठा स बी. नां न प्रा०ा संबी० 57 4 श्रोतः श्रोत 5025 सकृ. शकृ० 57 6 मीलनेनं मीलनेन 0 25 सति. व्वा० सेति / व्वाक्च / 7 16 बुध० 51 4 श्चतुर्वि० ०श्चतुर्विक 57 16 धव्याव० धाव्यावर 51 .2 प्रत्याना प्रत्याख्याना. 57 25 दैतेय निर्दय दैतयनिर्दय 51 . 21 द्वययो० द्रययोर० 58 10 धर्मो पाय धर्मो-पाय. 55 10 अवयार्थ अवयवार्थ 58 15 सदि स.दि 52 18 राशा 58 25 श दुल . श्रीरामदेवगणिकृतटीकायुतषडशीतों 2 12 एगिदिया एगिदिया 2015 उक्त 2 18 पगणे पंगरणे 23 10 पंचेदियां पंचदिया 4 12 मेव 23 18 पत्तयं पत्तेयं 5 5 श्रोणित হাতিৰ 23 26 टंसर्ण दसणं 6 18 सणिपज सण्णिअपज 24 13 नसगर्व नपुंसगर + 20 अम वा अमावा 25 1 मागणी मार्गणा + 26 ए 25 17 चारित्र चरित्त. / 3 ठण ठाण 26 7 अंमन्व० अभब० // 24 // 26 28 पणणीसं qणवीस 1320 सजया संजय 302 चरित्रं चरितं 16 11 तेइदियं तेइंदिय 30 14 / बझति 16 23 छोओ 31 24 बंझति छे भो 16 25 हार हारग 32 15 अप्रमत्तस्स भरमत्तस्त 17 8 पुत्वत्ता 33 1 सत्त सत्ता 1718 सागरो सागारो 33 26 अधाइणो अघाइणो 19 1 गुणस्थामा 33 27 ताभ्या .. "ताभ्यां 20 / भाकखाय भक्खाय 34 22-23 अनियढी नियट्ठी अनियट्टी नियही भवे एग पुवुत्ता गुणस्थान Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिपत्रकम् सप्ततिकाभिषषष्ठकमेग्रन्थटिपनके पृष्ठम् पङ्क्तिः अंशुद्धिः शुद्धिः पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धिः शुद्धि 3 15 अणि.। मणिः। सुहुम। 52 28 पमाण प्रमाण 8 24 3 32 52 29 दा-"ssहारक-दा-ऽऽहारकसप्तकोई सप्तकोद्वर्लनं लनं कृत्वव पुनः 12 11 / 2 / / 1 / / कृत्वैव" पुन 53 20 स्थितेष्वपि स्थितिष्वपि 14 22871-74 / 70-78 (गाथा) 15 2-18 20087. .86 ( 53 24 // 206 / / दयः // 206 / / (250) ) स्थान (250) 16 12 132 133 16 14.228- 2 711 (गाथाशः) 13945 26 16 एवं एवं 55 11 भग भंग 31 5 गिदिय - एगिदि 56 20 को कस्स। को कस्स। 56 27 // 29 // (363) // 26 // (365) 57 10 बंधविवस्त्रा बंधविवज्जा 31 22 29 57 17 ठवण ठेवणा 31 24 12 50 22 देसणारण दसणावरण 32 28 "एत्तौ" : एत्तो' 62 2 विना बावना 33 24 विगल 3) विगल (3) 4 6 बा मो. पा. अप. 65 1 नेषुमोह नेषु मोह 35 5 दो दो दो दो बंध. 67 8 केलीण केवलोम 38 15 ठवणी "ठवणी 60 31 प्रती 42 23 चूर्णिकार चूर्णिकारैः 69 23. जो 43 / पञ्चम पञ्च. 72 10 // 384 // (44) 1384 // 45) 43 23 क्या संश्य 441) 43 31 मुहुत्ता मुहूर्ता 72 12 // 38 // (45) // 34 // [442) 44 14 27 37 45 3 28 73 3 उठिवा वैश्विक 1 220 240 73 14 नके) मंत्रो के) इंगतीस नत्र 48 7 जाणा वीसं भेया 3 णां ठाणी 48 18 नोतिरिओ (504) भनी 131 13617 46 11 चउसतो चउर्सता 73 16 तेरस तीसे 50 / चउवियाण चरिबियाणं 75 49 4906 80 // (563) // 40 // 563) 275 8. (564) // 41 // (564) प्रती जो [442] % Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10) शुद्धिपत्रकम् सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणटिप्पनके पृष्ठम् रक्तः अशुद्धिः शुद्धिः पृष्ठम् पक्तिः अशद्धिः शुद्धिः 3 1 प्ररूपम् प्ररुपणम / 39 24 ओर लिय मोरलिय . 3 8 पच्चस्खा पञ्चक्खाणा 40 27 गोया पन्ज गोयापज. .3 14 गध गंध 41 2 वुढो वुड्डो। 5 . त जहा तं जहा 42 2 पए / पएसा 8 4 वेइय वेइयं 43 31 षट षट 88 समवे संभवे 44 7 104 105 10 22 विवजइ. वि वजह 45 10 ०लोगास लोगागामा 10 28 गरमवयिं णाभवियं 45 21 "तकाठि" "तकायठि" . 12 5 पजतगो पाजत्तगो. 46 2 .परियडी परियट्रो 47 23 ०णि। एक ०णि एकके० . 14 16 वातं वातं 47 23 ठाणे तेण ठाणे। तेण / 16 7 निरियपु. निरियणुपु० 16 11 चउरसं चांसं 48 14 खेतं आगाससुहु-खेत्तं-आगासं सुहुमं 16 20 अपठम० अपढम मकालाओ अद्धा० कालाओ=अद्धा. 16 14 उव. खाओव. 46 3 .निव .निरूव. 20 20 अविरमंमि अधिरयम्मि 50 3 विसेसहियाई [विसेसाहियाई?] 21 3 दसेमि दंसेमि 50 22 कम्म / कम्मर 13 .विववखा विवक्खा 51 25 रयपहाए रयणमहाए 23 20 दुण्हं॥ 53 13-14 तत्तिअपमाणं (तओ परओ) 23 22 पन्नेरस पन्नास अणवद्रियपल्लं [तत्तिअपमाणं(?)] 24 4 इगसद्विसिक इगसद्विवीसिक मरित्ता अणवट्टियपल्लं 26 30 जात जाता: [भरित्ता ?)] 15 1 स्थन स्थान 55 0 . सखेजो संखेज्जो 55 15 कालो काले 55 21 41 141 35 20 मार्गर मागं; 56 3 असख 36 1 वगणा वर्गणा 56 12 पल्लाच्छे. पण्णाले० 36 22 मिठ 56 13 दोह दोह 36 23 अवाल अवले. 56 24 ०णतं/त णतं/तं 38 1 सा सार 56 26 ०णं तं / णतं/ . 1 वगणा . वर्गणा 50 11 12 151 4 दब्वग्गणा रब्बवग्गणा 60 5 कतृका कत का असंख Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं MK बंधे शुद्धिपत्रकम् सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणवृत्तौ पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुचिः शुद्धिः पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धिः शुद्धिः 1 10/21 040 कर्तृ० 20 14 ०पच० ०पंच. 2 7 गोढ गाढ० 21. 5 व्यत्ता० व्यत्त. 24 2 19 थूएमावेग 5 वंच. पंच० थूलमावेण 25 7 हुँति मे हुँतिमे 3 13 वेरविय० वेत्रिय 25 14 एवं 4 3 चउविं. चउविहं 26 25 दुग्गंध दुग्गंधं 5 7 विंसु विसुद्धं. 67 16 एगिदिग एनिदिया 5 28 वायसा० . वायस० 27 16/17 बंधति बधंत 6 1 वाल धार० ०वाल धारक 27 21 समाणु सेमाणु 7 8 अणा० दुस्सरं, अणा० 31 19 बायराणां बायराणं 2 4 असंगु० भसवगु० 8 6 मणिय मणियं 32 21 पंचिदिक पंचिंदि० 8 14 मुरो य 50 मुरोयर 50 33 5 बधे 8 15 माहारगं धणं आहारगबंधणं बंधति पंधति 8 25 नारायं वजनारायं नारायं 35 26 चालबह चालंबई 1 36 6 मुबह मुयह 12 गंध, . गंध, 926 अतर०. अंतर 2 सत्तण्हय. सत्तण्हण्णय. 10 18 त 36 20 आगस० •आगास 40 16 बध. ०बंध 10 24 निरगर निरइयार० 4. 27 वित्यि विरियं 30 लागम्मि लोगम्मि 41 8 दिसगं दिसागं 1 बन्धानानि बन्धनानि 41 18 आगासा भागासा० आगास. म 41 30 13 2.. रणग्णगं कम्मेण कमेण 2. // 21 // // 20 // 14 27 आरश्यः आरभ्य 42 28 निद्धरण्ई नि० निदधुण्डं निद्र० 14 27 गाथा म. गाथास. 43 4 इंत इति 15 10 विजय विजया० 43 14 नगुणे जंतगुणे 15 16 तणाई त्तणाई 44 16 पुणा पुणा० 16 3 विउव्यिय० ०विउव्वियः 45 1 ख पद विपाइ 16 11 ममयं सयं 45 १४.८यते यंते 17 6 बधीणं बंधीणं 46 28 याहोंति कमा य होंति कमा। 18 12 एवं। ।एवं 47 21 ०मित्त मित्तो 20 / माघाइ० अघाइ. Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्षु कामणं वृत्ती असंयम० .. भसं० सर्वाः / अद्धिपत्रका प्रथमे परिशिष्टे पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धिः शुद्धिः पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धिः 1 3 यन्त्रकानि यन्त्रकाणि 14 द्विक द्विक प्रथमाः 4 है 4 अमव्य अभव्यः 3 8 प्रथमा:४ है . कामं कार्म 3 15 तिय. तिर्य 1 12 चक्ष 3 11 सास्वादन च दशित सास्वादनं च दर्शितं / 15 शष. शेष०२ 4 3 सख्या गा है 18 सज्व संच 4 18-21 दुविध द्विविध , 30 कार्मण 4 21 अस असं 11 5 वृतौ" 4 25 ऽभिप्रायणे अभिप्रायेणे 11 8 अशुभा. अशुमा: ६/०७-२४/२२असा 12 7 असयमः 7 24 सर्वा 12 16 सर्वा सर्वाः 5 6 भणंत अनन्त 15 1 दशि . दर्शि 8 -5 भणन्त मनन्त 5 13 सर्वाल्पा सर्वाल्पाः 16 2 समविताः संभविताः है 2 कषाय कषायः असमषिताः असंभषिताः / 2 सर्वा सर्वाः 16 15 ऽमर द्वितीये परिशिष्टे 2 8 सम्मए समए / 61 12 वरिमं .०चरिमं 10 ०षययो वयवो 65 26 प्रतो प्रती 25 9 सीलस सोलस 66 28 "अपि- "अप१६ 1 वाख्योः 66 31 ऽति , स्ति 28 20 मन्स० मव्वस० 74 16 86 अमी 88 31 17 सत्तट्र० 86-88 असी सत्तट्ट 36 28 // 8 // 1159 // 80 19 नेह० . 40 22 नियहि नियट्टि 1 27 बुधु. बंधु 42 18 प्रदशितः प्रदर्शितः 83 4 // 7 // // 72 // 4. 5 // 4 // 4 // // 42 // 4 // 3 22 जां 47 29 चोयलं चोयालं 48 26 प्रस्तके : पुस्तके 4 4 4aa 46 31 स्यपि 4 28 // 51 // // 35 // 51 // 52 25 कमो / 7 16 बाहहवा० बाहवा० 5 14 सम्ल्या० सख्या. 5 13 // 18 // // 7 // 98. वाख्यो जसं M2007 इत्यपि क्रमो . Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीयप्राच्यतत्वप्रकाशनसमिति-पिंडवाडा. [राजस्थान] तरफथी प्रकाशित थनारूं कर्मसाहित्य 卐 (1) खवगसेढी (क्षपकश्रेणी) मुद्रितं किंमत रु. 21, (2) उपशमनाकरण (3) बंधविहाणं (महाशास्त्र) ** प्रथमखंड प्रकृतिबंध : (पयतिबंधो) राजसंस्करण राजाधि० भा०१ मूलपयडिबधो (मुद्रित) रु. 30. रु. 40 भा० 2 उत्तर ,,, (मुद्रित) रु. 25 रु. 30 भा० 3,,, (स्थानप्ररूपणा)। भा० 4, ( ...) भा० 5,,,, (भूयस्कारादिबंधः) * द्वितियखंड स्थितिबंधः (ठिबंधो) भा० 1 मूलपयडिठिइबंधो (मुद्रित) रु. 21. भा० 2 उत्तर, (मुद्रित) राजा. रु. 25 राजाधि. रु. 30. भा० 3, भूयस्कारादिबंधः (प्रेसमां) * तृतीय रसबन्धः (रसबन्धो) साधा-संस्करण' राजसं भा० 1 मूलपयडिरसबंधो (मुद्रित) रु. 25 भा० 2 उत्तर , , (मुद्रित) रु. 25, रु. 30 भा० 3,,,, (भूयस्कारादिबन्धः) (प्रेसमां) * चतुर्थखंड प्रदेशबन्धः (पएसबन्धो) राजाधि. भा० 1 मूलपयडिपएसबंधो (मुद्रित) रु. 25 रू. 30 भा०२ उत्तर (1) (मुद्रित) रु. 30 रु. 4 भा० 3,, , ,, (2) (मुद्रित) रु. 30 रु. 4. श्री शिवशर्मसूरीश्वरप्रणितं बन्धशतकम् (मुद्रित) पुस्तक रु. 14 प्रत चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (मुद्रित) राज. रु. 25 राजाधि. रू. 35 . , (सप्ततिकादिसह) (मुद्रित) रू. 40, रू. 55 सप्ततिका तथा सूक्ष्मार्थ-विचारसारप्रकरणम् रु. 20 सप्ततिकाभिधः ५ष्ठः कर्मग्रन्थः षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः सूक्ष्मार्थ-विचारसारप्रकरणम् आवरण दीपक प्रिन्टरी * अहमदाबाद-१ राज. म