________________ 24 ] बन्धस्वामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः . तिरितियउज्जोऊणं, पणुवीसं 'मोत्तु सुरनराउजुयं / चउहत्तरं तु मीसा, बंधहिँ कम्माण पयडीओ // 48 // . तित्थयरसुरनराउयसहिया अजयम्मि होइ सगसयरी / देसाइनवसु ओघो, भव्वेसु वि सो अभव्य मिच्छसमा // 49 // ओघो वेयगसम्मे, अजयाइचउक्क खाइगेवोघो। अजयादजोगि जाव उ, ओघो उवसामिए होइ // 50 // 'उवसम्मे वट्टता, चउण्हमिकपि आउयं 'नेय / बंधंति तेण अजया, सुरनरआऊहिँ ऊणं तु // 51 // ओषो देसजयाइसु, सुराउहीणो उ जाव उवसंतो।। ओघो सण्णिसु नेओ, मिच्छाभंगो असण्णीसु // 52 // साणे वि असण्णिस्सा, भंगा "सण्णुब्भवा मुणेयव्वा / / आहारगेसु ओघो, इयरेसु य "कम्मणो भंगो // 53 // इय पुव्वसूरिकय 'पगरणेसु जडबुद्धिणा "मए रइयं / बंधस्सामित्तमिणं, नेयं कम्मत्थयं सोउं // 54 // ॥समाप्तश्चायं बन्धस्वामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थ :, 1 "मुत्त" इत्यपि / 2 "उवसंते' इत्यपि / 3 “नेव" इत्यपि / 4 "सन्निब्भवा"इत्यपि / “कम्मुणो". इत्यपि / 6 "पगरणाउ" इत्यपि / 7 "मया" इत्यपि /