________________ प्रकाशकीय निवेदन संपादन-संशोधन : परमपूज्य सिद्धान्तमहोदधि कर्मसाहित्य निष्णात सुविशालगच्छाधिपति स्वर्गत आचार्यदेवेश श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहेब के शिष्यत्न परमपूज्य गीतार्थ निस्पृहतानीरधि आचार्य देवेश श्रीमद् विजयहीरसूरीश्वर म सा. के शिष्यरत्न प. पू. मुनिराज श्री ललितशेखरविजयजी म. सा. के शिष्यरत्न प. पू. मुनिराज श्री राजशेखरविजयजी म. सा के शिष्यरत्न प. पू. मुनिराज श्री वीरशेखरविजयजी म.सा, ने कर्मसाहित्य के नव निर्माण के विराट कार्य को करते हुअ भी अपने अमूल्य समय का भोग देकर इस प्राचीन चार कर्मग्रन्थों और सप्ततिकाटिप्पणक तथा सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण का संशोधन कर, हस्तलिखित प्रत्यादि के साथ मिलानादि करके यन्त्र टिप्पणकादि बनवा कर संगदन किया है। संपादन-पद्धति : मूलग्रन्थ-टीकाग्रन्थ-साक्षिग्रन्थ-प्रतीक-टिप्पणी आदि के लिये विभिन्न छोटे बड़े खुले व गहरे एवं विविध प्रकार के टाइप पसंद कर अभ्यास कर्ताओं की अनुकूलता बनाए रखने का ठीक प्रयत्न किया है, जैसे मूल ग्रन्थ 20 पोईन्ट ब्लेक टाईपों में, टीकाग्रन्थ 16 पोईन्ट सामान्य टाईप में, प्रतीक 16 पोईन्ट जेक टाईप में टिप्पणी 12 पोईन्ट चालु टाईप में, साक्षिग्रन्थ 16 पोईन्ट जेक ट ईप में, चतुर्थग्रन्थ की अंतिम दो टीकाग्रन्थ के और सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण की टिप्पण तथा वृत्तिग्रन्थ के साक्षिग्रन्थ 12 पोईन्ट सामान्य टाईप में, दूसरे परिशिष्ट में छ कर्मग्रन्थ की मूलगाथाएँ और कर्मस्तवषडशीति-शतक-सप्ततिका प्रकरण की भाष्यगाथाएँ तथा सप्ततिकासार की गाथा और सूक्ष्माथविचारसारप्रकरण की मूल गाथा तथा भाष्यगाथा 16 पोईन्ट सामान्य टाईप में, विषयानुक्रम और शुद्धिपत्रक 12 पोईन्ट सामान्य टाईप में रखे है। शुद्धिपत्रक में सहायक : प्रन्थमुद्रित हो जाने के बाद में भी अनाभोग मुद्रणदोषादि के कारण रही हुभी अशुद्धियों के समार्जन के लिये शुद्धिपत्रक में प. पू. स्व. आचार्यदेव के शिष्यरत्न प. पू. आगमप्रज्ञ आचार्यदेव श्रीमद् विजयजम्बुसूरिश्वरजी म.सा. तथा प. पू. वीरशेखरविजयजी म. सा. और जैन श्रेयस्कर मंडल पाठशाला मेहसाणा के अध्यापक सुश्रावक श्रीयुत पुखराजभाई ने श्रीयुत वसंतभाई आदि द्वारा सहयोग.दिया है यह शुद्धिपत्रक ग्रन्थ के अंत में दिया गया है। तरनुसार ग्रन्थ सुधार कर . ढने का ध्यान रग्बने की ज्ञान-पिपासु वाचकों से हार्दिक अपील है। कृतज्ञता प्रदर्शन : अंत में सबसे पहले स्व. परम गुरुदेव सिद्धान्तमहोदधि कर्मसाहित्य निष्णात आचार्यदेवेश श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी म. सा. का जितना उपकार और भामार माने उतना कम है। क्योंकि उनकी ही परमकृपा और प्रभाव से इस समिति का उत्थान और कर्मसाहित्य का विशाल सर्जन हो सका है। साहित्य की इस इमारत की नींव की इंट तो आरही हैं। साथ में हस्तलिखित प्रतियां भादि के साथ में मिलाकर टिप्पणियां बनाकर, षडशीति प्रकरण के सब पदार्थों के ग्यारह (11) यंत्रों बनाकर उनका प्रथम परिशिष्ट और टिप्पणियुक्त पांवों प्राचीन कर्मग्रन्थ तथा सप्ततिकानाम के षष्ठ कर्मग्रन्थ की मूलगाथा. द्वितीय-चतुर्थ पञ्चम षष्ठ कर्मग्रन्थ की माष्वगाथा तथा सप्ततिकासार को गाथा और सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण की मूलगाथा तथा माध्य माथा का दूसरा परिशिष्ट बनवाकर जो-तोड परिश्रम से जिन्होंने इस प्रन्थरत्न का सपादन किया है वह पज्य मनिराजश्री वीरशेखरविजयजी म सा. के भवर्णनीय उपकार के हम चिर ऋणी है।