________________ * प्रकाशकीय निवेदन * यह सूचित करते हुए हमें अन्यन आनंद हो रहा है कि अल्प समय में परमपूज्य सिद्धांतमहोदधि कर्मसाहित्य निष्णात स्वर्गताचार्यदेवेश श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा की परम पावनी निश्रा में उनकी ही परमकृपा दृष्टि से संकलित किया हुआ और श्लोकबद्ध प्राकृत भाषा में रचे हुए मूलग्रन्थ तथा संस्कृत भाषा में रचे हुओ टीका ग्रन्थ रूप लाखोश्लोक प्रमाण कर्म साहित्य का सर्जन हो चुका है, और मी सर्जन चालु है जिनके वोल्युम (महामन्थ) ग्रन्थरत्न हमारी संस्था द्वारा आपके कर कमलों में पहुंच चुके हैं और प्रन्थों का मुद्रण कार्य चालु है। जिसे यथा समय आप प्राप्त कर सकेंगे। इसके अलावा इस कर्मसाहित्य विषयक मुनिचन्द्रसूरि विरचित टिप्पनक से युक्त पूर्वाचार्यकृत चूर्णि और उदयप्रममूरि विहित टिप्पनक इन दोनों से विभूषित किया हुआ ऐसा पूर्वधर वाचक श्रीशिवशर्मसूरिप्रणीत "बन्धशतकम्" नाम का प्राचीन ग्रन्थगन भी इस समिति द्वारा प्रकाशित किया गया है। उसी तरह पूर्वाचार्य कृत मूल टीका सहिन "चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः” नाम का प्राचीन प्रन्थरत्न हमारी संस्था द्वारा प्रकाशित हो चूका है / ठीक उसी तरह प्रस्तुत प्रन्थरत्न मी प्रकाशित हो रहा है। ___इनमें प्राचीन 4 कर्मग्रन्थों पैकी प्रथम कर्मग्रन्थ परमपूज्य गगेमहर्षि विरचित 168 गाथा प्रमाण है। उनमें एक पूर्वाचार्यकृत और दूसरी पूज्य परमानन्दसूरि रचित टीकाओं हैं। दूसरा कर्मग्रन्थ प्राचीनाचार्यविहित 55 आर्या प्रमाण है। उसमें श्रीमद् गोविन्दगणि रचित टीका है / तीसरा कर्मग्रन्थ जिसके रचयिता का नाम का उल्लेख नहीं मिलता है वह पूर्वकालीन महर्षि ने रचा हुआ 54 गाथा प्रमाण है। उस में श्रीमद् हरिभद्रसूरि म. ने टीका लिखी हुई है। चतुर्थ कर्मग्रन्थ को श्रीमद् जिनवल्लभगणि ने 86 आर्या में बनाया है उस पर की हुी 4 टीकाों यहां दी गई है। श्री हरिभद्रसूरिकृत टीका और श्री मलयगिरिसूरि विहित टीका दोनों साथ में दी गई है। बाद में तीसरी श्रीयशोभद्रसूरि प्रणीतवृत्ति ली गयी है। अंत में श्री रामदेवगणि की चौथी टीका जो प्राकृत भाषा में है वह दी गई है / प्राचीना. चार्यरचित सप्ततिकाख्य षष्ठ कर्मग्रन्थ 72 गाथा प्रमाण है / उनमें रामदेवगणिकृत विभिन्नप्रकार की दो टिप्पणी प्राकृतमाषा में श्लोकबद्ध है। श्रीमद् जिनवल्लभगणि प्रणीत सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण 151 गाथा प्रमाण है। उनमें प्रथम रामदेवगणिकृत टिप्पणी और दूसरी वृत्ति है। दोनों प्राकृत भाषा में गद्य में निबद्ध है। इसमें चतुर्थ कर्मग्रन्थ की दो टीका तक के 5 कर्मग्रन्थों के पृष्ट क्रमांक एक साथ में दिये है। जिन में प्रथम कर्मग्रन्थ के पृष्ट 1 से 8. तक दूसरे कर्मग्रन्थ के पृष्ट 89 से 126 तक, तीसरे कर्मग्रन्थ के पृष्ट 127 से 153 तक तथा चतुर्थ कर्मग्रन्थ के 154 से 262 तक है। बाद में तीसरी श्री यशोभद्रसूरि कृत टीका युक्त चतुर्थ कर्मग्रन्थ के 1 से 58 बाद श्री रामदेवगणि विहित प्राकृतवृत्ति साहित्य चतुथे कर्मग्रन्थ के 1 से 35 पृष्ट है बाद में टिप्पणसहित सप्ततिकाग्रन्थ के 1 से 84 पेज है, उनके बाद में सूक्ष्मार्थविचारसार टिप्पण के 1 से 58 पेज है अंत में सूक्ष्मार्थविचारसार प्रकरणवृत्ति के 1 से 48 पेज है इन में से अन्तिम चतुर्थ कर्मग्रन्थ की दो टीकाओं को छोडकर प्राचीन चारों कर्मग्रन्थ पहले मुद्रित हो चूकने पर भी ग्रन्थ के पृष्ट जीर्ण हो जाने से और इनकी जेसलमेर के भंडार की हस्त लिखित प्रत के साथ में मिलान की हुी प्रत मिलने से तथा श्रीमदयशोमद्रसूरि कृत टीकायुक्त और श्री रामदेवगणिकृत टीकायुक्त चतुर्थ कर्मग्रन्थ और रामदेवगणिकृत टिप्पणक युक्त . सप्ततिकाख्य षष्ठ कर्मग्रन्थ तथा रामदेवगणिरचित टिप्पणक और वृत्ति सहित सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण मुद्रित नहीं होने से तथा उनकी हस्तलिखित प्रत एवं प्रेस कॉपियां मी मिलने से इन प्राचीन चार कर्मग्रन्थों आदि का मुद्रण आवश्यक बन गया था।