Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [ प्रज्ञापनासूत्र [४१-उ.] बहुबीजक वृक्ष अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार से हैं [गाथार्थ-] अस्थिक, तेन्दु (तिन्दुक), कपित्थ (कवीठ), अम्बाडग, मातुलिंग (बिजौरा), बिल्व (बेल), आमलक (आँवला), पनस (अनन्नास), दाडिम (अनार), अश्वत्थ (पीपल), उदुम्बर (गुल्लर), वट (बड़), न्यगोध (बड़ा बड़), // 16 / / नन्दिवृक्ष, पिप्पली (पीपल), शतरी (शतावरी), प्लक्षवृक्ष, कादुम्बरी, कस्तुम्भरी और देवदाली (इन्हें बहुबीजक) जानना चाहिए / / 17 / / तिलक लवक (लकुच-लीची), छत्रोपक, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुरज (कुटक) और कदम्ब // 18 // इसी प्रकार के और भी जितने वृक्ष हैं, (जिनके फल में बहुत बीज हों; वे सब बहुबीजक वृक्ष समझने चाहिए। इन (बहुबीजक वृक्षों) के मूल असंख्यात जीवों वाले होते हैं। इनके कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा और प्रवाल भी (असंख्यात जीवात्मक होते हैं। इनके पत्ते प्रत्येक जीवात्मक (प्रत्येक पत्ते में एक-एक जीव वाले) होते हैं। पुष्प अनेक जीवरूप (होते हैं) और फल बहुत बीजों वाले (हैं / ) यह हुआ बहुबीजक (वृक्षों का वर्णन !) (साथ ही) वृक्षों की प्ररूपणा (भी पूर्ण हुई।) 42. से कि तं गुच्छा ? गुच्छा अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा वाइंगण सल्लई' बोंडई य तह कच्छुरी य जासुमणा / रूवी प्राढइ नीलो तुलसी तह मालिंगी य॥१६॥ कत्थंभरि पिप्पलिया अतसी बिल्ली य कायमाई या। चुच्चु पडोला' कंदलि बाउच्चा' वत्थुले बदरे // 20 // पत्तउर सीयउरए हवति तहा जसए य बोधवे।। णिग्गुडि° अक्क तूबरि अट्टइ चेव तलऊडा // 21 // सण वाण' कास मद्दग' अग्घाडग साम सिंदुवारे य। करमद्द अद्दरूसग करीर एरावण महित्थे // 22 // जाउलग माल' परिली गयमारिणि कुच्चकारिया' भंडी१२ / जावइ3 केयइ तह गंज पाडला दासी अंकोल्ले१४ // 23 // जे यावऽण्णे तहपगारा / से त्तं पुच्छा। [42 प्र.] वे (पूर्वोक्त) गुच्छ किस प्रकार के होते हैं ? पाठान्तर–१ धुडई / 2 कत्थुरी य जीभुमणा / 3 कच्छुभरी। 4 वुच्चू / 5 पडोलकदे / 6 विउवा वरचलंदेरे। 7 णिग्ग मियंग तबरि, अत्थइ चेव तलउदाडा। 8 पाण। 9 मुद्दग। 10 मोल / 11 कुव्वकारिया। 12 भंडा। 13 जोवइ / 14 अकोले। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org