Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
bhhhhhhhhd
जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर-पूज्यश्री - घासीलालजी - महाराजविरचितया अनगारधर्मामृतवर्षिण्यारयया व्यारयया समलङ्कृत हिन्दी - गुर्जर भाषाऽनुवादसहितम् - श्री - ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम् ।
SHREE GNATADHARMA KATHANGA SOOTRAM (तृतीयो भागः )
नियोजक
संस्कृत - प्राकृतज्ञ -- जैनागमनिष्णात- प्रियव्याख्यानि - पण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी महाराज'
प्रकाशक
'मद्रास निवासी श्रीमान्-शेठ- ताराचंदजी - साहेब गेलडा ' तत्प्रदत्त - द्रव्यसाहाय्येन ज० भा० भ्वे० स्था० जैनशास्त्रद्वारसनितिप्रमुख श्रेष्ठिश्री शान्तिलाल - मङ्गलदास भाई -महोदयः मु० राजकोट
प्रथमा - आवृत्ति प्रति १२००
घीर - सघत् २४८९
मूल्यम् - रू० २५-०-०
विक्रम संवत्
२०२०
sheshachar
ईसवीसन्
१९६३
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
दक्षिण भारत में जैन समाज के प्रखर नेता दानवीरशेठ स्व० श्रीमान ताराचंदजी साहेब गेलडाकी
जीवनझलक दक्षिण भारत के प्रवास पर आये हुए किसी भी व्यक्ति के दिलमे, मद्रास जैसे शहर के जैन समाज की शिक्षण और-वैद्यकीय सस्थाओं का सुव्यवस्थित क्रम और भय देखकर आनद हुए विना नहीं रह सकता । और स्वतः ही जैन समाज की दान-दिशा को इस ओर ले जाने वाले व्यक्तिके रूपमे दानवीर शेठ स्व० श्रीमान् ताराचदजी साहेब गेलड़ाका नाम व व्यक्तित्व नजरमे आये विना नहीं रहता।।
मध्यम कदका इकहटा वदन, खादीकी धोती, खादीका कुरता और खादी की टोपी, पैरमे केन्वास के पादत्राण हाथमे छोटीसी लकडी-चमकती तेज आखे और ७० वर्ष की अवस्थामे भी जवानों की तेजी-ये आप के अभिन्न गुणों के सूचक थे। उनके यह सादगी अत समय तक भी कायम रही थी।
सन १९३७ मे आप राजकोट पधारे थे वहा अनेक शिक्षण संस्थाओंको देखकर आपने अपने मनमे तय किया कि मैं मद्रास जाकर शिक्षाकी ऐसीही सस्थाएँ वनाउगा । उनके विचारों की पुष्टि के रूपमे श्रीमान् विरदीचदजी सा मलेचाने ५०००० रूपया दान दिया और यहाकी श्री एस एस.जैन एज्युकेशन सोसायटी की स्थापना हुई । इस सोसायटी के विकास के लिये आपने अपने व्यापार से भी-निवृत्ति ले ली और-क्रमशः इसका विकास करते रहे । इस सोसायटी के तत्वावधानमे क्रमशः प्रायमरी स्कूल, गोडिंग होम, हाईस्कूल एव कॉलेज भी स्थापित हुए और आज भी सुचारु रूपसे चल रहे है । जब तक ये सस्थाएँ पूर्णरूपसे आत्म-निर्भर नही हुई तबतक आप सोसायटी के प्रारभ कालसे मत्री बने रहे । इतनाही नही प्रत्येक सस्था के लिये आपने दान दिया था ही-किन्तु वाराचद गेलडा जैन विद्यालयके लिये ३१००० रु का भव्य दान दिया। इसके उपरात भी २२००० रू. का और दान आपका होनेसे आप
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
મળવાનું ઠેકાણુ श्री म. सा. ३. स्थानवासी
न सोद्धार समिति, है. शख्यिा ३१॥ रोड, श्रीन व पासे, सोट (सीराष्ट्र)
Published by Shri Akhil Bharat ss Jun Shastroddharn Samiti, Garedha Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W Ry, India
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवक्षा, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो घय निरवधिर्तिपुला च पृथ्वी ॥१॥
UR चा
हरिगीतच्छन्दः
करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये। जो जानते है तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तल इससे पायगा। है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥
મૂય . ૨૫=oo
પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત ૨૪૮૯ विम सपत् २०१८ ઇસવીસન ૧૯૬૩
મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ઘી કાટ રેડ, અમદાવાદ
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
__७८ वर्ष की आयुमें आपका पडित-मरण हुआ जो आपके यशस्वी जीवन की यशफल्गी के समान था । अर्थात् यशस्वी पुरुपो के शिरोमणि थे । ___ आपके सुपुत्र श्रीमान् भागचंदजी सा गेल्डा भी कर्मठ कार्यकर्ता है । जैन एन्ड नेशनल सोसायटी के आप सदस्य एव पदाधिकारी रह चुके है-वर्तमानमें आप सोसायटीके सभापति है । गोसेवा और पाजरापोल के कार्य के लिये आप घर २ जाकर चंदा करने में सकोच महमूस नहीं करते और निगत आठेक वर्षों से आप मद्रास पाजरापोलके मत्री है और उसका बहुत ही विकास किया है । द्वितीय पुत्र श्री नेमचदजी स्वर्गवासी हुए है किन्तु आप भी औषधालय निमित्त दस्ट करके गये है। तृतीय पुत्र श्री खुशालचदजी व्यापार-कुशल है और कार्यमार सम्हाले हुए हैं।
इस यागम प्रकाशन के लिये जन आपके पास डेप्यूटेशन पहुंचा तब इन सुपुत्रोंने उदारता से ५००१) रू दिये है एतदर्य धन्यवाद है। अन्य सज्जन भी उनका अनुकरण करे यही अभ्यर्थना है ।
सेकेट्री शास्त्रोद्धार समिति
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
सोसायटी के पेइन ( सरक्षक ) बने । सन १९५६ में अर्थों को भी कार्य संचालन का अनुमान हो एतर्थ आप निच हुए, किन्तु अव समय तक सोसायटी के प्रत्येक कार्य के लिये आप सलाह देते रहे और वह समान का गौरव था कि आप जैसे कुशल एव विचक्षण सलाहकार मिले |
दानके प्रवाह को शुभ मार्गमै नहाने का आप का प्रयास अत्यंत अनुकरणीय रहा । और मद्रास के जैन समाजने वैदकीय राहत क्षेत्रमें "जैन मेडिकल रिलीफ सोसायटी " स्थापित की - जिसके तचापमानमे कई डीसपेंसरिया और एक प्रसूतिगृह चल रहा है । आप उसकी कार्य कारिणी के पदाधिकारी व सदस्य रहे ।
इतनाही नही आपने अपने व्यापार क्षेत्रको नहीं भूला ओर सैदापेट (भूदान) शुद्ध आयुर्वेदिक औषधलय - जिनेश्वर औषधालय खोला जिसके साथ भागे जा कर अपनी पत्नी के नामपर राममुरजनाई गेलडा प्रभूतिगृह भी खोला । एतदर्थ आपने अपने द्वितीय पुत्र स्व. नेमीचदजी की इच्छा के अनुसार अलग ट्रस्ट बना दिया है ।
आपने अपनी जन्मभूमि कुचेरा के लिये भी कुछ करने के विचार से वहा पर भी छात्रालय शुरू १९४२ मे करवाया और उसके मारम्भकाल से आपकी ओर से २५० मासिक सहायता उसे दी जा रही है जो अन भी चालू है ।
तदुपरात ताराचंद गेलडा टस्ट भी आपने कायम किया जिससे कई उदीय मान जैन समाज के विद्यार्थिओं की आशाओ को प्रोत्साहन दिया गया और दिया जा रहा है ।
उनके अदम्य उत्साह और जोश के साथ उनके दृढ मनोबल का परिचय न दिया जावे तो उनका व्यक्तित्व अधूरा रहेगा । वे अपने आप आगे वढने वाले थे । बहुत ही छोटी उम्र मे उन्हों ने व्यापार किया और ताराचंद गेलडा एन्ड सन्स, टीची ज्वेलरीज एव महेन्द्र स्टोर्स आदि व्यापारिक फर्म चले | सामान्य पूजीसे लेकर वे लाखोपति वने । सामान्य शिक्षा ज्ञान के बाद भी चार भाषा की जानकारी और प्रपल व्यापारिक ज्ञान आपकी विशेषता थी ।
आजीवन खादीनत, हाथवटी का पीसा हुआ धान और गायका दूध-घी कठिन व्रत वे आजीवन निभाते रहे। समान सुधारणा भी आपने कई मकार से की।
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७ द्वितीय श्रुतस्क का उपक्रम प्रथम वर्ग - पहला अध्ययन
१८ कालीदेवीका वर्णन
{
दूसरा अध्ययन
१९ रात्रीदेवीका वर्णन
२० रजनी दारिका के चरित्रका निरूपण दूसरा वर्ग
२१ शुभानि शुभादि देवीयोंके चरित्रका वर्णन तीसरा वर्ग
२२ भकादि देवियोंके चरित्रका वर्णन
चौथा वर्ग
२३ रूपादि देवियों के चरित्रका वर्णन
1
तीसरा अध्ययन
सातवा वर्ग
२६ सूरमभादि देवियों के चारित्रका वर्णन
आठवा वर्ग
२७ चन्द्रमभादि देवियों के चरित्रका वर्णन
नववा वर्ग
२८ पद्मादिदेवियों के चरित्रका वर्णन
दशवां वर्ग
७६१-८०५
२९ कृष्णादि देवियोंके चरित्रका वर्णन ३० शास्त्र प्रशस्ति
८०६-८१०
पाचवा वर्ग
२४ कमलादि देवियों के चरित्रका वर्णन
छडा वर्ग
२५ उत्तरदिशा के इन्द्र महाकाल आदिकोंकी भग्रम डिपियों का वर्णन ८३४ -८३५
८११-८१४
८१५-८१९
८२०-८२५
८२५-८२८
८२९-८२३
८३६-८३८
८३९-८४२
८४२-८४५
८९६-८५१
८५२
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रं तृतीय भा की विषयानुक्रमणिका
१
विषय
क्रमाङ्क
चौदहवा अभ्ययन
१ तेलीपुत्र मधानके चारित्रका वर्णन
पंद्रहवा अध्ययन
२ नदिफलके स्वरूपका निरूपण
सोलहवा अध्ययन
३ धर्मरूचि अनगारके चरित्र निरूपण
४ सुकुमारिका के चरित्रका वर्णन
५ द्रौपदी के चरित्रका निरूपण
६ द्रौपदी पूजा चर्चा
७ द्रौपदी के चरित्रका वर्णन
सत्रहवा अध्ययन
८ नावसे व्यापार करने वाले वणिजका वर्णन
९ नाव नियमक का दिड्मुढ होनेका कथन १० कालिक द्वीपमें सुवर्ण आदिका वर्णन ११ कालिक द्वीपमें हिरण्य आदि से पोतकाभरना १२ कालिक द्वीपमे रहे आकीर्णावों का वर्णन
१३ आकीर्णाश्वके द्रष्टातको दान्तिक के साथ योजना
अठारहवा अध्ययन
१४ सुसमा दारिका के चारित्रका वर्णन
उन्नीसवां अध्ययन
१५ पुडरीक - कडरीक मुनिके चरित्रका वर्णन
द्वितीय श्रुतस्कध
१६ द्वितीय श्रुतस्कप का मङ्गलाचरण
पेज
उन्ह
G ११-१३१
१३२-१८२
१८३-२५१
२५२-२९६
२९७-४२६
४२७-५८५
1
५८६-५९०
५९१-५९५
५९५–५९६
५९७-६००
६०१-६१९
६२०-६३७
६३८-७०७
७०८-७५२
७५३-७६०
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७ द्वितीय श्रुतस्कंधका उपक्रम प्रथम वर्ग - पहला अध्ययन १८ कालीदेवी का वर्णन
१९ रात्री देवीका वर्णन
२० रजनी दारिका के चरित्रका निरूपण दूसरा वर्ग
२१ शुभानि शुभादि देवीयोंके चरित्रका वर्णन तीसरा वर्ग
२२ अादि देवियोंके चरित्रका वर्णन चौथा वर्ग
२३ रूपादि देवियों के चरित्रका वर्णन
1
दूसरा अध्ययन
तीसरा अध्ययन
सातवा वर्ग
२६ सुरमभादि देवियों के चारित्रका वर्णन
आठवां वर्ग
२७ चन्द्रमभादि देवियों के चरित्रका वर्णन
नववा वर्ग
२८ पद्मादिदेवियों के चरित्रका वर्णन
दशवां वर्ग
७६१-८०५
२९ कृष्णादि देवियोंके चरित्रका वर्णन ३० शास्त्र प्रशस्ति
८०६-८१०
पाचवा वर्ग २४ कमलादि देवियों के चरित्रका वर्णन छट्ठा वर्ग
_८२९-८२३
२५ उत्तर दिशा के इन्द्र महाकाल आदिकोंकी अग्रमहिपियों का वर्णन ८३४-८३५
८११-८१४
८१५-८१९
८२०-८२५
८२५-८२८
८३६-८३८
८३९-८४२
८४२-८४५
८४६-८५१
८५२
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
તા ૧૫-૭-૬૩ ના રાજ ક્લાસવાર
મેમ્બરાની સંખ્યા.
૨૭
૩ર
૧૩૩
૫
૪૯
૨૭
આદ્ય મુખ્ખીથી, ૫૦૦૦ થી વધુ રકમ ભરનારા મુરબ્બીશ્રી, ૧૦૦૦ થી વધુ રકમ ભરનારા સહાયક મેમ્બરે, ૫૦૦ થી વધુ રકમ ભરનારા લાઇફ મેમ્બરે, ૨૫૦ થી વધુ રકમ ભરનારા બીજા ન ભરના જુના મેમ્બરા, ૧૫૦ થી વધુ રકમ ભરનારા કુલ મેમ્બરશ
રૂપિયા ખસેા પચાસ તથા રૂપિયા પાચસે વાળા મેમ્બર લેવાનુ હવે મધ છે ફક્ત શ ૧૦૦૧ થી મુરખ્ખીશ્રી માટે ૭૦ સીતેર જગ્યા ખાલી છે અને આદ્ય સુરખીશ્રી રૂા ૫૦૦૧ થી દાખલ કરવામા આવે છે
મેશ્માની સખ્યા પૂરતા જ શાઓ છપાય છે જેથી પાછળથી દાખલ થનારને સૂત્ર મળવા મુશ્કેલ છે માટે જીજ્ઞાસુ ભાઈઓ તથા બહેનેાને અમારી વિનતી છે કે તે મુરખ્ખીશ્રી અથવા આદ્ય મુરખ્ખીશ્રીમા પેાતાનુ નામ જલ્દી માકલી આપે
રાજકોટ
તા ૧૫-૭-૬૩
નમ્ર સેવક, સાકરચંદ ભાઈચંદ રોકે મી
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
****************米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米
或
,
#
,
术*公***於***********************
मद्रास शेठ साहेवश्री ताराचदजी साहेब. गेलडा
whiu
Helle Helle **********************米米米米米米
,
11
不不不
“
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
આવિમુરબ્બીશ્રીઓ
(અ) શ્રી હરખચંદ કાલીદામ પારિઆ
ભાડ
વાહી હાવિદ ચાદભાઈ
૨ાજકેટ,
ર
શેઠશ્રી શાતિવાલ મ ગળદાસભાઈ
અમદાવાદ
1
" } -
છે
-
ના
() શેઠશ્રી વાળીભાઈ જીણલાલ ()રકશ્રી ઇગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર બારસી
અમદાવાદ
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
આમુરબ્બીશ્રીઓ
| | '
સ
:
,
1
(અ) . રાજીભાઈએહનલાલ શાહ
અમદાવાદ
એ શ્રીમાન શ્રી મુકનચદ બાલયા પાલી મારવાડ,
મા
(અ)
શ્રી દિનેશભાઈ કાતિલાલ શાહ
અમદાવાદ
શ્રી નેમિગભાઈ પાચાલાલભાઈ
અમદાવાદ
સ્વ
શ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમ'ના,
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
આદ્યમુર-ખીશ્રીએ
つ
(+) ગેઠશ્રી શામજીભાઇ વેવજીભાઈ વીરાણી
રાજકોટ
ગેશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી રાકેાટ.
(+) વિનેદાર વીની રાજકાય. (દીક્ષા લીધા પહેના શાશ્ત્રાભ્યાસ કરતા)
ગેશ્રી મિશ્રીવાલજી લાલચ છ સા લેણિયા તથા ગેઠશ્રી જે-તાજજી લાલચ દૃષ્ટ સાં
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
It
આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ
ઞ. શ્રીમાન ગેમી મુ-નચદજી મા ખાલિયા પાણી મારવાડ
:
શેઠશ્રી જૈમિગભાઈ પાચાલાલભાઈ
અમદાવાદ
(૧) ગેઝ - ગજીભાઈ માહનલાલ શાહુ
અમદાવાદ
(+) શેઠશ્રી દિનેશભાઈ કાતિલાલ શાહુ
અમદાવાદ
નવી નોટ પ
ઞગેશ્રી આમાગમ માણેલ્લા
અમદાવાદ.
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
આધમરીશ્રીઓ
નાસાર
'
- દર
I
.
,
IT
.
.
અને
રક સાહેબ શ્રી કિશન દઈ સાહેબ
જોહરી દિલ્હી
સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનેપચદ શાહ
ખ ભાત
-
-
*"
* *
૧ વચ્ચે બેઠેલા મોટાભાઇ શ્રીમાન
મૃચ દજી જવાહરલાલજી બરાડયા જ બાજુમાં બેઠેલા મિશ્રીલાલજી
બરડિયા ૨ ઉભેલા સૌથી નાનાભાઈ પૂનમચંદ
બરડિયા
શ્રી વૃજલાલ દુલભજી પારેખ
રાજકેટ
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीवीतरागाय नमः॥ श्रीजैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालप्रतिविरक्तिया अनगार.
धर्मामृतपिण्याख्यया व्याख्यया समलकृत श्री-ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम्
तृतीयो भागः
अथ चतुर्दशा ययन प्रारभ्यते अस्य व्यख्यायमानचतुर्दशाध्ययनस्य व्याख्यातेन त्रयोदशेना ययनेन सहायममिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन् नभ्ययने सता गुणाना गुणाभिनकमद्गुरूपदेशरूपसामग्यभाये हानिरुक्ता, रहतु-तथाविधसामग्रीसद्भावे गुणसपदुपजायते, इत्यभि धीयते, इत्येव पूर्वेण सहाभिमवद्धस्यास्येदमादिसूनम्-'जयण भते इत्यादि ।
मूलम्-जइणं भते । समणेणं भगवया महावीरेण जाव संपत्तेण तेरसमस्त णायज्झयणस्त अयमढे पण्णत्ते, चोदसमस्स णं भते । णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेण के अहे पण्णते? एव खलु जबू । तेणं
चौदहवा अध्ययन प्रारभःइस चौदहवें अध्ययन का तेरहवें अध्ययन के साथ इस प्रकार का सर्वन्ध है-तेरहवें अध्यन में जो यह बात कही गई है कि आत्मा में सम्यग्दर्शन आदि प्रकट भी हो गये, हो परन्तु यदि उन को बढाने वाली सद्गुरु आदि की उपदेश रूप मामग्री का अभाव रहे तो उन गुणों की हानि हो जाति है । इस अध्ययन में अब सूत्रकार यह स्पष्ट करेंगे कि यदि जीव को तथाविध सामग्री प्राप्त होती रहती है तो गुण सपत्ति भी बढती रहती है.-'जडण भते' इत्यादि ।
ચૌદમુ અધ્યયન પ્રારભચૌદમાં અધ્યયનને તેમાં અધ્યયનની સાથે આ જાતને ન બ ઘ છે કે તેરમા અધ્યયનમાં જે આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામા આવ્યુ છે કે આત્મામાં સમ્યગ્દર્શન વગેરે પ્રગટ પણ થઈ ગયા હોય છતા જે સદ્ગુરુ વગેરેની ઉપ દેશ રૂપ તેમનું વર્ધન કરનાર સામગ્રી હેય નહિ તે તે ગુણોની હાનિ થઈ જાય છે આ અધ્યયનમાં સૂત્રકાર હવે એ જ વાત સ્પષ્ટ કરવા માગે છે કે જીવને જે તથવિધ સામગ્રી મળતી રહે છે તે ગુણ સંપત્તિ પણ વધની ગહે છે
'जइण भंते । इत्यादि
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताधर्मकपास फालेणं तेणं समएण तेयलिपुरं नाम नगरं पमययणे उजाणे कणगरहे राया । तस्स कणगरहस्स पउमावई देवी। तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णाम अमच्चे सामदंड. दक्खे । तत्थ ण तेयलिपुरे कलादे नाम मूसियारदारए होत्था अड्डे जाव अपरिभूए । तस्स ण भदा नाम भारिया । तस्स ण कलायस्स मूसियारदारयस्स धूया, भदाए अत्तया पोहिला नाम दारिया होत्था स्वेण य जोवणेण य लावपणेण य उकिटा उकिहसरीरा । तएणं पोहिला 'दारिया अन्नया कयाइ पहाया सव्वालकारविभृसिया चेडियाचक वालसपरिवुडा उप्पि पासायवरगया आगासतलगंसि कणगमएण तिदूसएण कीलमाणी विहरइ ॥ सू०१॥'
टीका-जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु भदन्त श्रमणेन भगवता: महाधीरेण यावत्समाप्तेन त्रयोदशस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञात चतुर्दशस्य खल भदन्त ! ज्ञाताध्ययनस्य श्रमणेन भगवता महागरेण यावत्सम्पाप्तेन कोऽय
टीकार्थ-जबू स्वामी पूछते हैं कि ( भते-जहण समणेण भगवया महावीरेण जाय सपत्तण) हे भदत यदि श्रमण भगवान महावीरने कि जिन्होंने सिद्धिगति नाम का स्थान प्राप्त कर लिया है (तेरसमस णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते चोद्दसमस्स णभते! णायज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरे ण जाव सपत्तण के अहे पण्णत्त) तेरहवें ज्ञाताध्ययन का पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रज्ञप्त किया है-तो हे मदत | चौदहवें ज्ञाताध्ययन का उन्ही श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ निरूपित किया
साथ- स्पाभी पूछे छे (भते । जइण समणेण भगवया महा पीरेण जाव सपत्तेण) 3 ! श्रभर मावान महावीरे- सा सिद्ध ગતિ સ્થાનને મેળવી ચૂકયા છે.
(तेरसमस णायज्झयणस्स अयमद्धे पण्णत्ते, चोदसमस्स ण भैते । णायज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जान सपत्तेण के अटे पण्णत्ते)
તેરમા જ્ઞાતાધ્યયનને પૂર્વોક્ત રૂપે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તે હે ભદતા તે અમ ભગવાન મહાવીરે જ આ ચૌદમા જ્ઞાતાધ્યયનને શું અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે?
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतपिणो टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानधरित्तवर्णनम् पानमः । सुधर्मा स्वामी कथयति-एव ग्खलु जम्बू! । तस्मिन् काले तस्मिन् समये तेतलिपुरं नाम नगरम् आसीत् । तर प्रमदवन नाम उद्यानमासीत् । तस्य नगरस्य फनकरथो नाम राजाऽसीत् । तस्य खलु कनकरयस्य गज्ञः पद्मावती नाम देवी । तस्य खलु कनकरयस्य राज्ञः तेतलिपुत्रो नाम अमात्यः 'सामदडक्खे ' साम दण्डदक्ष अन सामदण्डग्रहणाद् दानभेदयोरपि ग्रहण तेन सामदानभेददण्डात्मकपतुर्वियोपायनिपुण इत्यर्थः भासीत् ।
तर खलु तेतलिपुरे कलादो नाम 'मूसियारदारए ' भूपीकारदारका सुवर्णकारदारकः, ' भूपी' इति भूपापर्यायः, गौरादित्वाद्डीप यत्र सुवर्णादि है ? ( एव खल जन् ! तेण कालेण तेण समएण तेयलिपुर नाम नगर पमयवणे उजाणे कणगरहे राया, । तस्स ण कणगरहम्स पउमावई देवी) श्री सुधर्मा स्वामी अव श्री जनू स्वामी के इस प्रश्न का उत्तर देने के अभिप्राय से करते है-जबू! सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार से है-उस काल और उस समय में तेतलिपुर नाम का नगर था। उस में प्रमदवन नाम का उद्यान या । उस नगर के राजा का नाम कनक रय था। इस कनफरथ राजा की रानी का नाम पद्मावती देवी 'था। (तस्स ण कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णाम अमच्चे सामदडदक्खे । तत्य पा तेयलिपुरे कलादे नाम मुसियारदारए होत्या अड्डे जोव अपरिभूए) उस कनक रथ राजा का अमात्य या जिस का नाम तेतलि पुत्र था। यह साम, दान, भेद और दड इन चार प्रकार की राजनीति में विशेष, पटु निपुण था। उसी तेतलिपुर मे कल्पद नाम का
(एव खलु जवू । तेण कालेण तेण समएण तेयलिपुर नाम नगर पमयत्रणे उज्जाणे कणगरहे राया। तस्स ण कणगरहस्स पउमावई देवी) * * છે શ્રી સુધર્માસ્વામી હવે શ્રી જબૂસ્વામીને આ પ્રશ્નોના જવાબ આપવાની - ઈચ્છથી કહે છે કે હું જ બૂ! સાભળો તમારા પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે તેતલિપુર નામે નગર હતું તેમાં પ્રમદવન નામે ઉદ્યાન હતુ તે નગરના રાજાનું નામ કનકરથ હતુ તે કનડરથ રાજાની રણનું નામ પદ્માવતી હતુ
' (तस्सण कणगरहस्स तेयलि पुत्ते णाम अमन्चे सामदडदखे। तत्य गं तेयलिपुरे फलादे नाम मृसियारदारए होत्या अड़े जाव अपरिभूए)
' તે કનકરથ રાજાને એક અમાત્ય (મંત્રી) હતિ જેનું નામ તેતિલપુત્ર • હતું તે સામ, દાન, ભેદ અને દડ એ ચારે પ્રકારની નીતિમા સવિશેષ નિપુણ-કુશળ હતું તે તેતલિપુરમાં કલાદ નામે મૂવીકાર દારક (સોનીને પુત્ર)
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
माताधर्मकथासूत्रे
काले तेणं समएण तेयलिपुर नाम नगरं पमयवणे उज्जाणे कणगरहे राया । तस्स णं कणगरहस्स पउमावई देवी । तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णाम अमच्चे सामदंडदक्खे । तत्थ णं तेयलिपुरे कलादे नामं मूसियारदारए होत्था अड्डे जाव अपरिभू । तस्स ण भद्दा नाम भारिया । तस्स णं कलायस्स मूसियारदारयस्स धूया, भद्दाए अत्तया पोहिला नाम दारिया होत्था रूत्रेण य जोव्वणेण य लाव-, पणेण य उक्किट्ठा उक्किडसरीरा । तपणं पोहिला दारिया अन्नया कयाइ पहाया सव्वालकारविभूसिया चेडियाचकवालपरिवुडा उप्पि पासायवरगया आगासतलगंसि कणगमएणं तिंदूसपणं कीलमाणी हिरइ ॥ सू० १ ॥ *
टीका - जम्बूस्वामी पृच्छति यदि खलु भदन्तः श्रमणेन भगवता । महावीरेण यावत्प्राप्तेन त्रयोदशस्य- ज्ञाता ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्त चतुर्दशस्य खलु भदन्त ! ज्ञाताध्ययनस्य श्रमणेन भगवता महारीरेण यावत्सम्प्राप्तेन कोर्थ
टीकार्थ- जब स्वामी पूछते हैं कि ( भते - जइण समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण) हे भदत ! यदि श्रमण भगवान् महावीरने कि जिन्होने सिद्धिगति नाम का स्थान प्राप्त कर लिया है (तेरसमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते चोदसमस्स ण भते ! णाघज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण के अट्ठे पण्णत्ते ) तेरहवें ज्ञाताध्ययन का पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो हे भदत ! चौदहवें ज्ञाताध्ययन का उन्ही श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ निरूपित किया
>
टीअर्थ - ४णू स्वामी पूछे छे ( भवे । जइण समणेण भगवया महा वीरेण जाव सपत्तेण ) डे लहत ! ले श्रम लगवान महावीरे - भेो। सिद्ध ગતિ સ્થાનને મેળવી ચૂકયા છે
1
( तेरसमस णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, चोदसमस्स ण भंते ! णायज्झ यणस्स समणेण भगत्रया महावीरेण जान सपत्तेण के अट्ठे पण्णत्ते )
તેરમા જ્ઞાતાધ્યયનના પૂર્વોક્ત રૂપે અથ નિરૂપિત કર્યાં છે તે હે ભદત ! તે ક્ષમણુ ભગવાન મહાવીરે જ આ ચૌદમા જ્ઞાતાધ્યયનના ચેા અથ નિરૂપિત કર્યો છે ?
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतपिणी टोका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् 'चेडियाचकवालसपरिवुडा' चेटिकाचकवालसपरिहता चेटिकाम् दास्यस्तासा यचक्रवाल मण्डल तेन सपरिटता-सहिता दासीसमूहपरिवेष्टितेत्यर्थ., उपरिमासादवरगता प्रासादोपरिस्थिता-आकाशतले अनाटतमदेशे 'छत्त' इति प्रसिद्ध कनकमयेन स्वर्णनिर्मितेन 'विदसएण' तिन्दूसकेन कन्दुकेन क्रीडन्ती २ विहरति ॥ म्० १॥
मूलम्-इमं च ण तेयलिपुत्ते अमचे पहाए आसखंधवरगए महया भडचडगरवदपरिक्खित्ते आसवाहणियाए णिन्जायमाणे कलायस्स मुसियारदारगस्त गिहस्स अदूरसामंतेण वीइवयह। तएण सेतेयलिपुत्ते मूसियारदारगस्स गिहस्स अदूरसामनेणं वीइवयमाणेरपोटिलंदारिय उप्पि पासायवरगय आगासतलगंसि कणगतिदूसएणं कीलमाणी पासइ, पासित्ता पोहिलाए दारियाए रूवे य जाव अज्झोववन्ने कोडुबियपुरिसे सदावेइ, सहावित्ता । एवं वयासी - एसा णं देवाणुप्पिया । कस्स दारिया ? किं नामधेज्जा । तएण कोडवियपुरिसा तेयलिपुत्तं एवं वयासी-एसा ण सामी । कलायरस मूसियारदारगस्स धूया, भद्दाए अत्तयापोहिला नाम दारिया रूवेण यजाव उकिटसरीरा।तएणं से तेयलिपुत्ते आसवाहणियाओ पडिनियत्ते समाणे विभूसिया चेडियाचस्कवालसपरिबुडा उपि पासायवरगया आगास तलगसि कणगमएण तिंदूसरण कीलमाणी २ विहरह) एक दिन की बात है कि यह स्नान कर के तथा समस्त आभरणों से विभूणित हो करके अपनी दासियों के साथ प्रासाद के ऊपर छत पर सुवर्ण निर्मित कन्दुक (गेंद ) से फ्रीडा कर रही थी। सूत्र ॥ १ ॥
એક દિવસે તે સનાન કર્યા બાદ પિતાના બધા અને ઘરેણુઓથી શણગારીને પિતાની દાસીઓની સાથે મહેલની ઉપરની અગાશીમાં સેનાથી मनापामा मावेली हीथी २भी रही ती ॥ सत्र ""
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
बताया गाल्यते सा, तां करोति-साधनमामग्रीत्वेन निप्पादयति, इतिव्युत्परपा पीकारइति सुवर्णकारे योगारूढोऽय शब्दः । होत्था ' आसीत् । पो हि आढयो यावदपरिभूतः । तस्य खलु कलादस्य मूपिकारदारकस्य दुहिता भद्राया आत्ममा पोटिला नाम दारिका आसीत् , याहि रूपेण च-माकन्या, यौवनेन च तारुण्येन च लावण्येन च-शरीरोत्कृप्टकान्ति विशेपेण उत्कृष्टा अाएक उत्क्रप्टशरीरासीत् । ततः खलु पोटिला दारिका अ यदा कदाचित् स्नावा सालङ्कारविभूषिता भूपीकार दारक-सुवर्णकार का पुत्र-रहता था। भूपी शब्द का अर्थ सांचा है । इस मे सुवर्णादि द्रव्य पिघलाये जाते है । इस सांचे को जो बनाता है उस का नाम भूपीकार है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह शब्द सुवर्णकार (सोनार ) मे योगाट हुआ है । यह मूषीकार दारक आढय यावत् अपरिभूत था। (तस्स ण भद्दा नाम भारिया, तस्त कलायस्स मूसियारदारयस्त धूया, भद्दाए अत्तया पोटिला नाम दारिया होत्या, स्वेण य जोधणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किा सरीरा) इस मूपिकार दारक कलाद-सौनी की अत्यन्त प्रिय पोहिला नाम की लडकी थी जो इस की पत्नी भद्रा को कुक्षि से उत्पन हुई थी । यह आकृति से, यौवन से एव लावण्य से शारीरिक उत्कृष्ट काति 'से-बहुत ही अधिक मनोहर थी-अत' इस का शरीर बहुत अधिक 'उत्तम था। (तएण पोटिला दारिया अन्नया कयाइ व्हाया सवालकारરહેતે હતે “મૂણી” શબ્દનો અર્થ સાચે (બીબુ ) છે તેમાં સોનું વગેર દ્રવ્ય ઓગાળવામાં આવે છે આ સાચાને બનાવનારનું નામ મૂવીકાર છે આ વ્યુત્પત્તિને લઈને આ શબ્દ સુવર્ણકાર (સોની) માટે ભેગારૂઢ થઈ ગયેલ છે તે મૂષિકારદારક આય (ધનવાન) યાવત્ અપરિભૂત હતું
(तस्स ण भदा नाम भारिया तस्स ण कलायस्स मूसियारदारयस्स धूया भदाए अत्तया पोटिला नाम दारिया होत्था, स्वेण य जोवणेण य लावणेणं य उक्मिहा उक्झिट्टसरीरा)
તે મષિકારદારક કલાદ સનીની ખૂબ જ વહાલી પિદિલા નામે પુત્રી હતી જે તેની પાની ભદ્રાના ગભ થી ઉત્પન્ન થઈ હતી તે આકૃતિથી, યૌવનથી, ' લોવર્યશી-શારીરની ઉજવેલ-કાતિથી બહુ જ મનહર હતી, એથી તેનું શરીર ખૂબ જ ઉત્તમ હતુ
(तएण पोटिलादारिया अन्नयाकयाइ हाया सबलकारविभूसिया पेडिया 'चकवालसपरिवुडा उप्पिं पासायवरगया आगासतलगसि कणगमएण सिंदुस'एण कीलमाणी २ विहरह)
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगारधर्मामृतयपिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम्
रदारयस्स गिहाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्वमित्ता, जेणेव तेयलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता, तेयलि: पुत्तस्स अमच्चस्स एयमह निवेदेति ॥ सू० २ ॥
टीका- 'इम च ण' इत्यादि । अस्मिथ खलु समये तेतलिपुत्रोऽमात्यः स्नातः 'आसग्वधरगए' =अवन्धवरगतः = अथारूढः 'मध्या भडचडगरवदपरिक्खित्ते' महाभटचट करनृन्दपरिक्षिप्त महान्तो भटचटारा: भटसमृहाः तेपा वृन्दैः = समूहे परिक्षिप्त = परिवृत' सन् ' आसवादणियाए ' अश्ववाहनिकाये = अश्ववाहनेन क्रीडनाथं ' णिज्जायमाणे =निर्यान्= निर्गच्छन् कलादस्य मृपीकारदारकस्य गृहस्य अदूरसामन्तेन पार्श्वभागेन 'चीइवयड ' = व्यतित्रजति = गच्छति । 'तत' खलु स daayat nivartate गृहस्थ अदूरसामन्तेन व्यतित्रजन् पोडिला दारिकाम् हम च ण तेयलि पुत्ते अमच्चे ' इत्यादि ।
"
$
2
टीकार्थ - (इमच ण) इसी समय (तेयलिपुत्ते अमच्चे पहा आमखधवरगए महया भटचडगरवदपरिक्वित्ते आसवारणियाए णिज्जायेंम कलास मूसियारदारगस्स गिहस्स अदुरसामतेण वीइवग्रह ) तेनलि पुत्र अमात्य स्नान से निनट कर घोड़े पर चढा हुआ घडे २ भट समूहों के वृन्दों से घिरा होकर अभ्वक्रीडा के लिये भूपीकारदारकं कलादके) (सोनार) मकान के पास से निकला । (तरण से तेयलिपुत्ते मूसि यारदारगस्स गिरस्स अदूरसामतेण वीइवयमाणे २ पोहिल दारिय उपि पासायचरगय आगासतलगसि कणगतिंदूसपणं कीलमाणी (पास) भूपीकार दारक कलाद के मकान के पास से होकर जाते हुए इम च ण तेयलिपु अमच्चे' इत्यादिटीडार्थ - ( इम पण ) ते वमते
( तेयलिपुत्ते अमच्चे पढाए आसखधवरगए महया भटचडगरवदपरिक्खित्ते आसत्राहाणियाए जिन्जायमाणे कायस्स मूसियारदारगस्स गिहस्स अदूरसामतेण वीवयइ )
તેતલિપુત્ર અમાત્ય સ્થાનથી પરવાીને ઘેાડા ઉપર સવાર થયા)અને "ત્યારપછી વિશાળ ભટા (ચેઢ્ઢાએ ) ના સમૂહેાથી વીંટળાઇને અશ્વકીયા માટે મૃષીકારદારક કલાદના ઘરની પાસે થઇને નીકળ્યા
★
1
*
T
"i
(तपण से तेयलिपुत्ते भूमियादारगस्स गिटस्स अदूरसामतेश वीयमाणे २ पोट्टिल दारिय उपि पासायचरगय आगासतलगसि कणगर्तिदुसरण कीलमाणी पासइ)
}
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ताधर्मकथा अम्भितरहाणिज्जे पुरिसे सदावेइ, सदावित्ता, एव वयासीगच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया । कलादस्स मूसियारदारयस्स धूयं भद्दाए अत्तय पोटिलं दारियं मम भास्यित्ताए बरेह । तएणं ते अभंतरहाणिज्जा पुरिसा तेतलिणा एव वुत्ता समाणा हतुट्ठा करयलपरिग्गहिय सिरसावत्त मत्थए अलि कह तहत्ति किच्चा जेणेव कलायस्स मूसियारस्स गिहे तेणेव उवागया। तएणं से कलाए मूसियारदारए ते पुरिसे एजमाणे पासइ, पासित्ता हट्टतुट्टे आसणाओ अब्भुट्टेइ, अन्मुहिता सत्तटुपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता, आसणेणं उवणिमंतेइ उवणिमतित्ता, आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासीसदिसंतु ण देवाणुप्पिया ! किमागमणपओयण ? तएण ते 'अभितरट्ठाणिज्जा पुरिसा कलाय मूसियदारयं एव वयासी
अम्हे णं देवाणुप्पिया । तव धूय भदाए अत्तय पोटिल दारिय तेलिपुत्तस्स भारियत्ताए वरेमो, त जइ जं जाणसि देवाणु. प्पिया । जुत्तं वा पत्त वा सलाहणिज्ज वा सरिसो सजोगो ता 'दिजउण पोटिला दारियातेयलिपुत्तस्स, तो भण देवाणुप्पिय । "किंदलामो सुक ? तएण कलाए मूसियारदारए ते अभितरट्राणिजे पुरिसे एव वयासी-एस चेव पं देवाणुप्पिया ! मम सुके, जन्न तेयलिपुत्ते मम दारिया निमित्तेणं अणुग्गह करेइ । ते अभितरठाणिजे पुरिसे विपुलेणं असणपाणखाइमसाइभणं पुप्फवत्थ जाव मल्लालकारेण सकारेइ, सम्माणेइ, सका रिक्षा सम्माणित्ता पडिविसज्जेई । तएणं ते' ।
.
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ०१४ तेतलिपुनप्रधानचरितवर्णनम् यावत्-उत्कृष्टशरीरा अस्ति । तत सलु स तेतविपुत्र अश्वपाहनिकायाः प्रति निहत' प्रत्यागत सन् ' अभितरद्वाणिज्जे ' अभ्यन्तरस्थानीयान् अन्तरङ्गप्रेष्य पुरुपा शदयति, पदायित्ला एवमरदन-गन्रतालु यूयं देशानुप्रिया: कलादस्य मूपीकारदारपस्य दुहितर भद्रारा आत्मना पोटिला दारिका मम भार्यात्वेन वृणुत । हे देवानुमिमा यय नया प्रयत रम् , यथा समृपीकारदारकः स्वदुहितर मम भार्यात्वेन मद्य दयादितिनाउ । तत. खलु ते आभ्यन्तरस्थानीया पुरुषास्तेतटिना एपमुक्ताः सन्तो हप्ट तष्टा करतलपरिगृहीत शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलि कृत्या, 'तहति' तथेति तथा परिप्यामीति 'फिया कृत्यापीकृत्य यत्रीय कला इस का नाम पोटिला है। रूप आदि से यह बहुत ही उत्कृष्ट शरीर वाली है । (तरण से तेयलिपुत्ते आसवाणिओ पडिनियत्त समाणे अभितरठाणिज्जे पुरिसे सहावेड, महावित्ता एव चयासी, गच्छणं तम्भे देवाणुप्पिया ! कलादस्म मनियारदारयस्म धूय भद्दा अत्तय पोट्टिल दारिय मम मारिवत्ताप वरे ) इस के बाद वह तेतलि पुत्र अमात्य, अन्ववाहनिका रो पीछे पात्र लौटा तो लौटते ही उसने अपने अन्तरग प्रेप्य एम्पो को बुलारा-और गुलाकर उनसे इस प्रकार कहाहे देवानुमियों ? तुम लोग जाओ-और मपीकार दारक कलाद की पुत्री जिसका नाम पोहिला है, जो भद्रा की कुक्षि से उत्पन्न हुई है उसे मेरी भार्गरूप से वरआओ। तात्पर्य उस का यह है कि तुमलोग वहा जाकर ऐसा प्रयत्न करो कि जिस से वह मृपीकारदारक कलाद अपनी पुत्री को पत्नी के रूप में मुझे दे देव । (तपण ते अमतरठाणिज्जा पुरिसा तेतलिणा एव युत्ता समाणा हट्ट तुटा कर चल परिगरिय सिरसा છે તેનું નામ પદિલા છે તે રૂપ વગેરેથી ખૂબ જ ઉત્કૃષ્ટ પારીરવાળી છે
(तएण से तेयलिपुत्ते आसवाहणियाओ पडिनियते ममाणे अम्भितरठाणिज्जे पुरिसे सदा सावित्ता एर क्यामी गच्छह ण तुम्भे देवाणुपिया क्लादस्स मूसियारदारयस्स धूय भदाए अत्तय पोट्टिल दारिय मम भारियत्ता वरेह )
ત્યારપછી તે તેતલિપુત્ર અભાવ અશ્વવાહનિકાથી વેર પાછા આવ્યા ત્યારે આવતાની સાથે જ તેણે પિતાના-અન્તર શ્રેષ્ઠ પુરૂને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ' તમે જાઓ અને મૂવી કારદારક લાદની પુત્રી છે-કે જેનું નામ પે ફ્રિલા છે, અને જે ભદ્રાના ગભ થી ઉત્પન્ન થઈ છે–તેને ભાર્યા રૂપમાં મને આપો તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે તમે લે ત્યાં જઈને એની ગિગ કરો કે જેથી તે મૂવીકારદારક કલાદ પિતાની પુત્રીને પત્ની રૂપમા મને આપી દે
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
हातामो उपरि मासादधरगतामागाशतले कनकनिन्दसकेन फ्रीडन्ती पश्यति, घना, पोधि लाया दारिकाया रूपेच योवने चलारण्ये च 'जार अमोरान्ने' यावत्-मूगिता, मृद्ध , प्रथित', अध्युपपन्न = अत्यन्नसक्ताइत्यर्य कोदुम्धिमपुरुषार शब्दयति, शब्दयिता, एउमवदत्-एपा खलु देवानुप्रियाः ! यम्य दारिका किं नामोया । रातः खलु कौटुम्पिापुरुपा तेतलिपुत्रम् एपमयदन्-एपा सल स्वामिन् ' कलादस्य सुपीकारदारकस्य दुहिता, भद्राया आत्मजा पोटिला नाम दारिका रूपेण व
से तेतलिपुत्र अमात्य ने प्रासाद के ऊपर छत पर सुवर्ण की कक (गेंद ) से क्रीडा करती हुइ उस पोट्टिला दारिका को देवा । (पामित्ता पोहिलाए दारियाए रुवे य जार अझोवपन्ने कोटु यियपुरिसे मदावेह सावित्ता एव वयासी-रसाण देवाणुप्पिया कस्स दारियां ? किं नाम धैजा) देख कर वह उस पोटिला दारिका के रूप, यौवन एव लावण्य में मूर्छित, गृद्ध, नथित धनकर उस पर अत्यन्त आसक्ति से युक्त हो गया। उसी समय उस ने कौटुम्यिक पुरुषों को बुलाया-बुलाकर उन से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो! कहो यह कन्या किसकी है और इसका नाम क्या है ? (तएण कोपियपुरिसा तेयलिपुत्त एवं घयासी-एसा ण सामी! कलायस्स मूसियारदारगस्म धूया भहार अत्तया पोट्टिला नोम दारिया स्वेण य जाव उक्किट्ठसरीरा) उन कौटुम्यिक पुरुषों ने तेतली पुत्र से ऐसा कहा-हे स्वामिन् ! यह मूषीकार दारके फलाद की पुत्री है जो भद्रा भार्या की कुक्षि से उत्पन्न हुई है। * , મૂષિકારદારક કલોદને ઘરની પાસે થઈને જતા તે તેતલિપત્ર અમાત્યે મહેલના ઉપરની અગાશી ઉપર સોનાની દડીથી રમતી તે પદિલા દારિકાને જોઈ (पासित्ता पोट्टिलाए दारिआए रूवे य जाव अज्झोववन्ने कोडवियपुरिसे सदावेइ सदायित्ता एवषयासी एसा ण देवाणुप्पिया कस्स दारिया' कि नामधेज्जा')
તે પિફ્રિલા દારિકાને જોઈને તે તેના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યમાં મૂચ્છિત ગૃહ, શકિત બનીને અત્ય ત આસક્ત થઈ ગયો તરત જ તેણે કૌટુંબિક પુરૂને લાવ્યા અને બોલાવીને તેણે તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દવા નુપ્રિયે ! બેલે, આ કન્યા કેની છે અને એનું શું નામ છે?
(तएण कोड्डवियपुरिमा तेयलिपुत्त एव वयासी-एसा ण सामी। कलायस्स ममियारदारगस्स धूया, भदाए अत्तया पोहिला नाम दारिया स्वेण य जाव उक्किट सरीरा)
તે કૌટુંબિક પુરૂએ તેતલિપુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામિન! તે મૂષિકારદારક કલાની પુત્રી છે અને સાભાર્થીના ગર્ભથી તેને જન્મ થયે
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतापिणी टी० १० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् यावत्-उत्कृष्टगरीरा अस्ति । नत सलु न तेतरिपुत्र अश्वपादनिकायाः पति निवः प्रत्यागत सन् ' अमितरद्वाणिज्जे' अभ्यन्तरस्थानीवान् अन्तरगमेष्यपुरुपा शदयति, शन्वयिता एमपदव-गत लु यूय देशानुप्रिया कलादस्य मृपीकारदारसम्य ददितर भारा आत्मना पोटिला दारिका मम भार्यात्वेन वृणुन । हे देवानुप्रिया यय नया प्रयत पम् , यथा स मपीकारतारक स्त्रदुहितर मम भार्यात्वेन मा दयानिनिनाद । तत गलु ते जाभ्यन्तरपानीया पुरुषास्तेतरिना एवमुक्ताः मन्नो हप्ट तुष्टा' करतलपरिगृहीत गिर आवर्त मस्त केऽञ्जलि कृत्या, 'तहत्ति' तथेति तथा फरिप्यामीति 'फिचा' मत्वामीकृत्य यत्रीय क्या इम का नाम पोटिला है। स्प आदि से पर बहुत ही उत्कृष्ट शरीर वाली है। (तपण से तेयरि पुत्ते आसवारणिगो पडिनियत्ते ममाणे अभितरठाणिज्जे पुरिसे मद्दावेड, मदायित्ता एव ययासी, गण तम्भे देवाणुप्पिया । कलादस्म मनियारदारयस्म धृय भद्दा अत्तय पोट्टिल दारिच मम भारिपत्ता बरेत ) स के बाद वह तेतलि पुत्र अमात्य, अविवारनिया से पीछे जर लौटा तो लौटते ही उसने अपने अन्तरग प्रेग्य पुम्पो को चुराग-और गुलाकर उनसे इस प्रकार कहाहे देवानुमियों ? तुम लोग जाओ-और मपीमार दारक कलाद की पुत्री जिमका नाम पोटिला है, जो मद्रा की कुक्षि से उत्पन्न हुई है उसे मेरी भार्गरूप ले वरआओ। तात्पर्य उस का यह है कि तुमलोग वहां जाकर गेला प्रयत्न करो कि जिस से वह मपीकारदारक कलाद अपनी पुत्री को पत्नी के रूप में मुझे दे देव । (तपण ते अम्मतरठाणिज्जा पुरिसा तेतलिणा एव चुत्ता समाणा हट्ट तुट्टो कर चल परिग्राहिय मिरमा છે તેનું નામ પહિલા છે તે રૂપ વગેરેથી ખૂબજ ઉતર વાળી છે
(तएण मे तेयलिपुत्ते आमवाहणियाओ पडिनियत्ते नमाणे अभितरठाणिज्जे पुरिसे सदाट मनावित्ता एर वयामी ग ण तुम्भे देवाणुप्पिया ' क्लादस्स मृसियारदारयस्म घृय भगए जत्तय पोट्टिल दारिय मम भाग्यित्ताए परेड )
ત્યારપછી તે તેતલિપુત્ર અમારવ અધવા-નિકાથી વેર પાછા આવ્યા ત્યારે આવતાની સાથે જ તેણે પિતાના-અન્તર છે પ્રેગ્ધ પુરુષોને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનપ્રિયે ! તમે જઓ અને મરી કારદારક કલાદની પુત્રી છે-કે જેનું નામ પે દિલા છે, અને જે ભદ્રાના ગમથી ઉત્પન્ન થઈ છે તેને ભાર્યા રૂપમાં મને આપે તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે તમે લેકે ત્યાં જઈને એવી ગિરા કરો કે જેથી તે મરીકારદારફ કલાદ પિતાની પુત્રીને પત્ની ૩પમા મને આપી દે
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
हाताधर्मकथा दस्य मूपीमारदारकस्य गृह तर आगना। ता सलु म कलाटो भूपी सरदारक: तान् अभ्यन्तरस्थानीयान् पुरुपानेजमानान् पश्यति, हारतुप्टोऽतिशयप्रमुदितः आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय तान सम्मानयितु नेपामभिमुष समापदानि वत्त मत्था अजलि कटु तहत्ति रिपचा जेणे करायस्म मृसियारस्स गिहे तेणेव उवागया ) इस प्रकार तेतलि पुत्र के मारा कहे गये वे अन्तरग प्रेष्य पुरुप हष्ट तुष्ट होते हुए वहा से निकल कर मृपीकार फलाद का जहा घर था या आये । आते समय उन्होंने तेतलि पुत्र को दोनों हाथों की अजलि घनोकर और उसे मस्तक पर रख कर नम स्कार किया-और हम ओपने जैसा कहा है वैसा ही करेंगे इस घात को उसे आश्वासन देकर स्वीकार किया था। (तरण से कलाए मुसिधारदारए ते पुरिसे एजमाणे पासइ, पासित्ता हट्ट तुटे आसणाओ अन्भुटेइ, अन्भुद्वित्ता सत्तहपयाड अणुगच्छड, अणुगचित्ता आसणे ण उणिमतेइ, उपणिमनित्ता आसत्ये पीसन्थे सुहासणवरगा एव वयासी सदिसतु ण देवाणुप्पिया। फिमागमणपओयण-तएण ते अ. भितरठाणिजा पुरिसा कलाय मसियदारय एव वधासी) जब उस मूपीकार दारककलादने उन पुरुपों को आपने घर की ओर आते हुए देखो-तो वह देखकर इष्ट तुष्ट हो अपने आमन पर से उठ बैठा-उठ
(तएण ते अन्भनरठाणिज्ना पुरिसा तेतलिणा एव वुत्ता समाणा हट्ठा करयलारिंग्गहिय सिरसावत्त मत्थए अजलि तहति किचा जेणे कलायस्स मूसियारस्स गिहे तेणेन उवागया)
આ રીતે તેતલિપુત્રે જેઓને આદેશ આપે છે એવા તે અતર પ્રેગ્ય પુરૂષ હુ તુષ્ટ થતા ત્યાથી રવાના થઈને મૃષીકાર કલાદનુ જ્યા ઘર હતુ ત્યા પહેચ્યા તેતલિપુત્રની પાસેથી પાછા ફરતા તેઓએ બંને હાથની અ જલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કર્યો અને અમે આપે જેમ હુકમ કર્યો છે તેનો યથાવત પાલન કરીશુ આ રીતે તેમની આજ્ઞા તેઓએ સ્વીકારી
(तएण से कलाए भूसियारदारए ते पुरिसे एज्नमाणे पासइ, पासित्ता हहत आसणाओ अभुटेइ, अभुद्वित्ता सत्तहपयाइ अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता आसणेण उपणिमतेइ, उवणिमतित्ता आसत्थे महासणवरगए एव वयासी सदिसतु ण देवाणुप्पिया । किमागमणपओयण-तएण ते अभितरठाणिज्मा पुरिसा कलाय मूसियदारय एस बयासी)
મૂવીકારદારક કલાદે જયારે તે પુરૂને પિતાના ઘર તરફ આવતા જોવા ત્યારે તે જોઈને હૃષ્ટ તુષ્ટ થઈને પિતાના આસન ઉપરથી થઈ ગયે અને
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ११ गत्वा तानग्रे कृत्वा स्वयम् 'अणुगच्छइ' अनुगन्छति, तेपा पृष्ठवर्तीभूत्वा गच्छति, अनुगम्य, आसनेन उपनिमन्त्रयति आसनदानेन तान् पुरुपानुपवेशयति, उपनि मन्य, आसप , विस्वस्थः एतेपाममात्यपुम्पाणा मत्कारो यथावजात इति हेतोः स्वस्थमनाः भूला सुग्वासनपरगतः स्वयमपि सकीयासने मुग्वोपविष्टः सन् एनमवदत्-सदिशतु खलु हे देशानुप्रियाः! भवताफिमागमनप्रयोजनम् १ ततः खलु ते पाभ्यन्तरस्थानीयाः पुरुषाः कलाद मूपीकारदारकम् एमवदन्-चय खलु देवानुप्रिय ! तब दुहितर भद्राया आत्मना पोट्टिला दारिका तेतलिपुत्रस्य भार्यात्वेन वृणुम , तद् यदि ग्वलु व 'जाणसि' जानासि मन्यसे, हे देवानुप्रिय! यद् अस्माकमेतत्चत्कन्याविषयक पाचन ' जुत्त वा' युक्त वा-उचितम् 'पत्त वा' प्राप्त वा मनसिसलग्न वा 'सलाहगिज्ज पा' श्लाघनीय वा-प्रशसनीय वा अपिच 'सरिसो वा सजोगो' सदृशो वा सयोगः तेतलिपुरोग सह तव कन्याया वैवाहिक कर फिर वह सात आठ डग प्रमाण आगे उन का सत्कार करने के लिये गया। वहा से उन्हें आगेकर के वह स्वय उनके पीछे २ आया।
आकर के फिर उसने उन्हें आसनों पर बैठाया-घेटा कर आश्वस्त विश्वस्त होकर याद में वह स्वय दूसरे अपने आसन पर शान्ति पूर्वक पैठ गया। बैठ जाने के बाद फिर उसने इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! कहिये-किस कारण से आप यहा पधारे है-आपलोगों के आने का क्या प्रयोजन है-इस प्रकार उसके पउने पर उन अभ्यन्तर स्थानीय पुरुषों ने उस सुवर्णकार के पुत्र कलाद से इस प्रकार कहा ( अम्हे ण देवाणुप्पिया। तव धृय भद्दारा असय पोटिल दारिय तेयलिपुत्तस्स भारियत्ताए परेमो, त जइण जाणसि देवाणुप्पिया! जुत्त वा पत्त वा सलाहणिज्ज वा सरिसो वा सजोगो ता दिज उण पोट्टिला दारिया तेयलि ઊભે થઈને તેમના સ્વાગત માટે સાત આઠ પગલા સામે ગયો ત્યારથી તેણે આવનારાઓને આગળ કરીને એટલે કે પિતે તેઓની પાછળ પાછળ ચાલતો ત્યાં આવ્યું અને આવીને તેણે તેઓને આમને ઉપર બેસાડયા ત્યારપછી આશ્વસ્ત વિશ્વસ્ત થઈને તે પિતે બીજા આસન ઉપર શાતિપૂર્વક બેસી ગયે બેસીને તેણે તેઓએ વિનય પૂર્વક કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! બેલે, તમે શા કારણથી અહીં આવ્યા છે ? તમે શા પ્રયજનથી આવ્યા છે ? આ રીતે કલાદ ( સુવકાર ) ની વાત સાંભળીને તે આ૫તર સ્થાનીય પુરૂએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(अम्हेण देवाणुप्पिया! तव धृय भदाए अत्तय पोटिल दारिय तेयलि पुत्तस्स मारियत्ताए बरेमो, त जइण जाणसि देवाणुप्पिय ! जुत्त वा पत्त वा सलाइणिज
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
দাম सम्बन्धो योग्यो भरतीति, यदि जानासि तमा दीयता पलु पोष्टिय दारिका तेत. लिपुनाय 'तो' तर्हि भण-हि, हे देवानुमिय ! दमः पलम् सम्मानपुरस्कार भवते किं समययामः । ततः खलु काटो मृपीरदारक' नायतरम्यानीयान् पुरुपान् एवमवदत्-एतदेव खलु दशानुपिया: 1 मम शुरयम् , यतवलु तेतत्रिपुत्रो मम दारिकानिमित्तेन अनुग्रह दया करोति । त्युसमाऽपातान् अभ्य तरस्थानी. पुत्तस्स तो भण देवाणुप्पिया! किं दामो सुस्कतपण कलाप मूसि यार दारए ते अभितरठाणिज्जे पुरिस प यासी) हे देवानुप्रिय हम लोग तुम्हारी पुत्री पोटिला दारिका को कि जो भद्राकी वक्षि से उत्पन्न हुई है तेतली पुत्र अमात्य की वा भार्या ने इस रूप से वरण करने के लिये आये हुए है-तो यदि तुम हे देवानुप्रिय ! हमारी इस याचना को उचित, प्राप्त, और लापनीय-प्रशसनीय मानते हो और यह सम झते हो कि यह तेतलिपुत्र के माध तुम्हारी कन्या का वैवाहिक मवध योग्य है-तो पोट्टिला दारिका तेतलि पुत्र के लिये प्रदान कर दो और साथ में यह भी कर दो कि हम आपके लिये इस निमित्त क्यो सम्मान पुरस्कार देवें । इस प्रकार उन सब की ऐसी बाते सुनकर उस सुवर्ण कार पुत्र कलादने उन आये हुए अभ्यतर स्थानीय पुरुपों से इस प्रकार कहा-(एस चेव ण देवाणुप्पिया ! मम सुस्के जन्न तेरिपुत्तेमम दारिया निमित्तेण अणुग्गर करेइ, ते अम्भितरहाणिज्जे पुरिसे वा सरिसो वा सजोयो ता दिज्जउण पोट्टिला दारिया तेयलिपुत्तस्स तो भण देवाणुपिया ! दिलामो सुक्क तएण कलाए मूसियारदारए ते अमितरठाणिज्जे पुरिस एव चयासी)
' હે દેવાનુપ્રિય ! તમારી ભદ્રા ભાર્યાના ગર્ભથી જન્મ પામેલી તમારી પિટિલા દારિકા અમાત્ય તેટલીપુત્રની ભાર્યા થાય આ જાતની માગણી કરવા અમે તમારી પાસે આવ્યા છીએ હે દેવાનુપ્રિય ! તમે તેતલિપુત્રની માગ ઉચિત, શ્લાઘનીય અને પ્રારા સનીય માનતા હોય તેમજ એમ પણ તમને થતું હોય કે અમાત્ય તેતલિપુત્રની સાથેને આ લગ્ન સબધ યોગ્ય છે તે તમે અમાત્ર તેતલિપુત્રને પદિલદારિકા આપી દે અને એની સાથે તમે અમને એમ પણ જણાવી દે કે તમને અમે એના બદલ સન્માન પુરરકારના રૂપમાં શ આપીએ આ રીતે તેઓ બધાની વાત સાંભળીને તે સુવર્ણકારના પુત્ર કલાદે આ તર સ્થાનીય પુરૂને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(एस चेव ण देशाणुप्पिया ! मम सुक्के जन तेयलिपुत्ते मम दारिया
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
'अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी०अ० १४ तेतलिपुत्रप्रानचरितवर्णनम्
यान् पुरुषान् विपुलेन जशनपानखायस्यायेन पुण्यगन्धमाल्याकारेण च सत्क रोति, सम्मानयति, सत्कृत्य सम्मान्य, प्रतिविसर्जयति । तत- खलु ते = आभ्यन्तर स्थानीया पुरपा कास्य मूवीकारदाररस्य गृहात् प्रतिनिष्क्राम्यन्ति, प्रतिष्क्रिम्य पतलिनमात्मनैनोपान्ति, उपागत्य तेतलिपुत्राय जमात्याय ' एय मह' एतमर्थम् = विवाहस्य स्वीकृतिरूपमर्थ निवेदयन्ति ।। सू०२ ॥
१३
विपुलेण असणपाणखाउमसाहमेण पुष्पचत्य जाव मल्लालकारेण सक्कारेइ, सम्माणे, सक्कारिता, सम्माणित्ता पडि विसज्जेह । तएणं ते कलायस्म मृमियारदारयस्स गिहाओ परिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव तेयलिपुत्ते अमच्चे, तेणेत्र उचागच्छति, उचागच्छित्ता तेयलिपुत्तस्स अमच्चस्स एयमह निवेदेति ) हे देवानुप्रियो । मेरा सन्मान पुरस्कार यही है कि जो तेतलि पुत्र दारिका के निमित्त से मेरे ऊपर ऐसी दया कर रहे है- अर्थात् मेरी पुत्री को जो वे अपनी पत्नी बनाने की चाहना कर रहे यही सन से बडा उन की ओर से मेरे लिये सन्मान पुरस्कार प्रदान किया जा रहा है । इस प्रकार कह कर उस कलाद ने उन अन्यतरस्थानीय पुरुषों का विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से एव पुष्प, वस्त्र, गध माला एव अलकारों से खूब सत्कार किया - सन्मान किया । सत्कार एवं सन्मान करने के बाद फिर उसने उन्हें विसर्जित कर दिया । वहा से विसर्जित होकर वे अभ्यंतर स्थानीय निमित्तेण अशुग्गह करेड, ते अभितरहाणिज्जे पुरिसे विलेण असणपाणखाइमसाइमेण पुप्फनत्थ जान मल्लालकारेण सत्कारेइ, सम्माणेट, मक्कारिता, सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ । तएण ते कलायस्म मूसियारदारयस्स गिहाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता जेणेत्र तेयलिपुत्ते अमच्चे, तेणेव उपगच्छति, आग-च्छित्ता तेयलिपुत्तस्स अमयtस एयम निवेदति )
1
હૈ દેવાનુપ્રિયે ! અમાત્ય તેતલિપુત્ર મારી દારિકાને સ્વીકારવા રૂપ જે મારા ઉપર દયા ખતાવી રહ્વા છે તે જ ખરેખર મારા માટે સન્માન અને પુરસ્કારની જ વસ્તુ છે એટલે કે તેએ મારી પુત્રીને પાતાની પત્ની પત્ની તરીકે ઇચ્છી રહ્યા છે, એજ તેમના તરફથી મારા માટે સન્માન અને પુરસ્કાર રૂપ છે. આ રીતે કહીને તે કલાદે આભ્ય તર સ્થાનીય પુરૂષને વિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાદ્યથી અને પુષ્પ, વસ્ત્ર, ગ ધ, માળા અને અલ કારાથી ખૂબ જ સરસ રીતે સત્કાર કર્યાં અને તેમનુ સન્માન કર્યાં સત્કાર અને સન્માન કર્યાં પછી તેણે તેમને વિદાય આપી ત્યારપછી તે આભ્યતર સ્થાનીય પુરૂષ તે સુવણુ
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwmarademiummaNameememomdanemamaramanawresentapuranaarmone
- मला मनिय मा क्याई IrAATEIमि -- मामबा .
.:: सीबई सातो beti नि :. : - मसीए नेरलीपुर
marsh - उजगन्छ, उवा. .
सनेर भारियत्ताए
भारियताए उव. Re.n. म
हा . दूरहित्ता ...: ..
.मजावित्ता आग्गि.::.:
, करिता पोहिलाए .... डिलेगं असगपाणखाइम ,
हा एग से तेयलिपुत्ते पोट्रि२. जरालाई जाब विहरेडासू०३॥
... दो मोकारारक अन्पदा कदाचित . . . . .
निसरतमुहतमि तिथिनक्षत्रमुहत्वं
" घर से निकले और निकल कर जहा १. E
-परा आफर उन्होंने तेतलि पुत्र अमो रिकी वर दी। सूत्र ॥२॥
areerगिरदारए ' इत्यादि । sant इतने परमृसियारदारए ) मूपीकार दारकने
हात
+
.
नित
...! .
(अम का किसी एक सय
पने साथी ज्या समात्य तेतविपत्र तो
तमामे २७तस स्वी
1 yeart at
) भृl२ ६२ ( अन्नया
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणो टी०अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् पोट्टिला दारिका स्नता सर्वालङ्कारभृपिता 'सोय' शिरिका दूरोहयति प्रारोहयति, दूरोह्य-भारोह्य मित्तणाइ सपरिचुडे' मित्रज्ञाति सपरिटत =मिरजाति स्वजनसन्धिप रिवेष्टितः, सर्वान् वैवाहिकान् मभारान्-विवाहसस्कारोचित सामग्रीन गृहीत्या सकाद् गृहात् मतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य 'सन्विट्टीए सद्धिया सर्वकारिकया ऋदया सह 'तेयलिपुर' तेतलीपुरम्य म-यम येन निर्गच्छन् यो तेतले ह तय उपा गच्छति, उपागत्य पोहिला दारिमा तेतलिपुत्राय स्वयमेव भार्याचेन ददाति । तत ग्वलु तेतलिपुत्रोऽमात्य. पोटिला दारिका समात्वेिन 'उषणीय ' उपनीपोटिल दारिय हाय सचालकारविभूमिय मीय दुम्बर) शुभ तिथि नक्षत्र, मुहर्त में पोटिला दारिको को स्नान करा कर समस्त अलकारों से विभूपित किया और विभूपित कर के फिर उसे शिविका पर बैठा दिया-(दुरूहित्ता मित्त गाड सपरिवुडे सातो गिहाओ पडिनिस्वमइ, पडिनिक्खमित्ता सविडीए तेयली पुर मज्न मज्झे ण जेणेव तेयलिस्त गिहे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता पोटिल दारिय तेयलिपुत्तस्स सयमेव भारियत्ताए दलयइ ) बैठा कर फिर वह मित्र, जाति, स्वजन, सरन्धी परिजनों से परिवेष्टित होकर एव वैवाहिक समस्त सामग्री को लेकर अपने घर से निकला । निकल कर सर्व प्रकार की अपनी ऋद्वि के साथ तेतलि पुर के बीच से होता हुआ जहा तेतलि का घर था वहा पहुँचा। वहा पर च कर उसने अपनी पुत्री पोहिला दारिका को तेतलि पुत्र को अपने आप से भार्या रूप से प्रदान कर दी । (तरण
(सोहणसि तिहिनरखत्तमुहुत्त सि पोट्टिल दारिय हाय सबाट कार, भूसिय सीय दुरुहइ)
શુભ તિથિ નક્ષત્ર, મુહુર્તામા પિફ્રિલા દારિકાને સ્નાન કરાવીને બધી જાતના અલકારથી બણગારીને તેને પાણીમાં બેસાડી દીધી
(दुरुहिता मित्तणाइसपरिसुडे सातो गिठाओ पडि निक्खमद, पडिनिक्ख मित्ता सबिडीए तेयलीपुर मज्झ मज्झेण जेणे तेयलिस्म गिहे तेणे उवागच्छइ, उवागरिउत्ता पोट्टिल दारिंग तेयलिपुत्तस्स सयमेव भारियत्ता दलयइ )
બેસાડીને તે પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન, સ બ ધી અને પરિજનેની સાથે લગ્નની બધી સાધન સામગ્રી લઈને વેરથી નીકળે નીકળીને તે સર્વ પ્રકારની પિતાની કઢિની સાથે તેતલિપરની વચ્ચે થઈને જ્યા તેતલિંક ઘર
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
झाताधर्मकयास मूलम्.-तएणं कलाए मूसियारदारए अन्नया कयाई सोहणंसि तिहिनखत्तमुहुत्तसि पाहिलं दारयं पहाय सव्वा. लकारभूसियं सीय दुरूहइ, दुरुहित्ता मित्तणाइसंपीरबुडे सातो गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिस्वमित्ता सविडीए तेयलीपुरं मज्झ मज्झेण जेणेव तेयलिस्लगिहे, तेणेव उवागच्छद, उवा. गच्छित्ता, पोटिल दारिय तेयलिपुत्तस्स सयमेव भारियत्ताए दलयइ । तएण तेयलिपुत्तं पोटिल दारियं भारियत्ताए उव. णीय पासइ, पासित्ता पोहिलाए सद्वि पट्टयं दूरूहह, दूरूहित्ता सेयपीएहि कलसेहि अप्पाण मज्जावेइ, मज्जावित्ता अग्गिहोम करावेइ, करावित्ता पाणिग्गहण करेइ, करिता पोटिलाए भारियाए मित्तणाइ जाव परिजण विउलेणं असगपाणखाइम साइमेण पुप्फ जाव पडिविसज्जेइ। तएण से तेयलिपुत्ते पोटिलाए भारियाए अणुरत्ते अविरत्ते उरालाइ जाव विहरेइ॥सू०३॥
टीका-'तएण' इत्यादि, तत खलु कलादो मूपी कारदारक' अ यदा कदाचित् 'सोहणसि' शोभनेशुभारहे विवाहयोग्ये 'तिहिनम्म्यत्तमुहुतमि' तिथिनक्षत्रमुहूर्ते पुस्प उस सुवर्णकार पुत्र कलाद के घर से निकले और निकल कर जहा तेतलि पुत्र अमात्य या वहा आये-वहां आकर उन्होंने तेतलि पुत्र अमो त्य को विवाह स्वीकृति रूप अर्थ की खबर दी। सूत्र ॥२॥
"तएण कलाए मूसियारदारए" इत्यादि । टीकार्य-(तरण) इस के याद (मूसियारदारए ) मूषीकार दारक ने (अन्नया कयाइ) किमी एक समय (सोरणसि तिहिन रखत्तमुत्तसि કાર પુત્ર કલાદના ઘરથી નીકળ્યા અને ત્યાથી જવા અમાત્ય તેતલિપુત્ર હતા ત્યા પહોચ્યા અમાત્ય તેતલિપુત્રની પાસે જઈને તેઓએ રક્તસ બ ધ સ્વીકા રવા રૂપ ખબર આપી સૂત્ર “ર” છે
तएण कराए मूसियारदारए' इत्यादिस14-(तएण) त्या२५ (मूसियारदारए) भूषी २ २ ( अन्नया याइ)
मते
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७
अनगारधर्मामृतारिणी टी० अ०१४ तेनलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् 'पुप्फनाव' पुष्पयानम्-पपत्रादिना यान्माल्यालडागदिना सत्कारय ति, सत्कार्य ' पडिनिमज्जे ' प्रति निमर्जपति । तत' खलु स तेतलिपुत्रोऽमात्यः पोटिलाग भार्यायाम् 'जणुरते' अनुरक्तामक्तः अपिरते ' अविरक्ता= अत्यन्तानुरक्त इत्यर्थ , 'उरा-13 जाा' उगगन पावत्-उदारान् भोगभोगान्= विषयभोगान् भुनानो विहरति ।। म०२ ॥
मूलम्-तएण से कणगरहे राया रज्जे य रट्रेय वले य चाहणे य कोमे य कोटानारे य अतेउरे य मुच्छिए जाए पुत्ते वियगेइ, अप्पेगडयाण हत्यगुलियाआ छिदइ, अप्पेगइयाणं हत्यगुट्टए छिदड, एव पायगुलियाओ पायगुट्टएवि, कन्नसकुलीएपि, नासापुडाह फालेड, अगमगाइ वियंगेइ । तएणं तीसे पउमावईए देवोए अन्नया पुव्यरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवं अज्झस्थिए५ समुप्पज्जित्था एव खल्लु क्णगरहे राया रजे य जाव पुत्ते वियगेइ, जाव अंगमगाइ वियगेइ । त जइ अह दारय पयायामि, सेय खल्ल ममं
त दारग कणगरहस्त रहस्तिय चेव सारक्खेमाणीए संगोपोटिला भार्या के मित्र, जाति, स्वजन सपन्धि परिजनों का अशन, पान, ग्वाय एव स्वाय स्प चतुर्विध आहार से तथा पुष्प, वस्त्र यावन . माल्य अलकार आदि से सत्कार करवाया, सत्कार करवाने के बाद फिर उन सर को वहां से विदा कर दिया। इसके पश्चात् पोटिला भार्या में आसक्त एव अनुरक्त बने हुए इभ तेतलि पुत्र अमात्य ने उसके साथ पचेन्द्रिय सबन्धी सुग्बो का अनुभव करने लगा। मूत्र ॥ ३ ॥ પોદિલ ભાર્યાના મિત્ર જ્ઞાતિ, સ્વજન મળધી અને પરિજનને અશન, પાન, ખાઘ અને ઘ રૂપ ચ ર જાતના આહારથી તેમજ પુષ્પ, વસ્ત્ર થાત્ માલ્ય અલકાર વગેરેથી સત્કાર કરાવડાવ્યું અને મસ્કાર કરાવડાવ્યા પછી તેણે બધાને પિતાના ઘેરથી વિદાય આપી ત્યારપછી પોલ્ફિલા ભાર્થીમા આસક્ત અને અનુ રક્ત થયેલે તે અમાત્ય તેતલિપુત્ર તેની સાથે પચેન્દ્રિય સ બધી સુખને
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
সাথায় ताम् उपनयनीकता पति, दृष्ट्वा पोष्टिलपा साढे पटक दर्गति, सुरुहा - सेय पीएहि ' श्वेतपीते ' रजतसुनर्गनिर्मित. 'कलमेहिं । पलो घटे आत्मान 'मज्जावेइ 'मजतिपयति, मज्जयित्वा अग्निसासिको विवाह उति हेतोः 'अग्गिहोम करावेइ ' अग्निहोम कारयति, कारयिता 'पाणिग्गरण ' पाणिग्रहण विवाह करोति, कत्वा पोहिल्या भार्यायाः 'मित्त गाइ नार परिनण' मित्र ज्ञातिस्वजनसमन्धिपरिजनम् विपुलेन अशनपान बायस्यायेन चतुर्विधाहारेण तेयलिपुत्ते पोटिल दारिय भारियत्ता उरणीय पासा, पामित्तो पोष्टि राए मद्वि पट्टय दुरूह ) तेतलिपुत्र अमात्य ने पोहित दारिका को अपनी भार्या म्प से अपने लिये प्रदान की दुई देना तो देप कर वह उस पोहिला दारिका के साप पटक पर बैठ गया। (दुहिता सेनरीह कलसेहि अपाण मज्जावेह, मजाविता अग्गिहोम करावेड, करावित्ता पाणिग्गरण करेइ करित्ता पोटिलाप भारिया मित्त गाइ जार परिजण विश्लेण असण पाण स्वाइम साइमेण पुष्फ जाव पटिसिज्जेड । तण्ण से तेयलिपुत्ते पोटिला भारिया अणुरते अविरत उरालाइ जाव विहरेह ) बैठ कर फिर उसने रजत एव सुवर्ण से निर्मित कलशों द्वारा अपना अभिषेक करपात्रा। अभिषेक करवा कर " अग्नि साक्षिक विवाह होता है " इस रयाल से फिर उसने अग्नि मे होम करवाया। करवा कर बाद में उसने उस पोहिला दारिका का पाणि ग्ररण कर लिया । विवाह हो चुकने के अनन्तर फिर उस तेतलि पुत्र अमात्य ने
(तएण तेयलिपुत्ते पोहिल दारिय भारियत्ताए उवणीय पासइ, पामित्ता पोहिलाए सद्धिं पट्टय दुरूहड)
તેતલિપુત્ર અમાત્યે પિટ્ટિવા દારિકાને તે રી ભાર્યા રૂપમાં આપેલી જોઈને તે પોદિયા દરિમની સાથે પઠ્ઠક ઉપર બેસી ગયો
(दुरुहित्ता सेयपीएहिं कलसेहि अपाण मज्जावेइ, मज्जावित्ता अग्गिहोम करावे करापित्ता पोटिलाए भारियाए मित्तणाइ जाव परिजण विउलेण असण पाण खाइम साइमेण पुष्फ जार पडिविसज्जेइ । तएण से तेयलिपुत्त पोट्टिलाए भारियाए अणुरते अविरत्ते उरालाइ जार विदरेइ) ।
બેસીને તેણે ચાદી અને નાના કળશે વો પિતાને અભિષેક કરાવડાવ્યે અભિષેક કરાવડાવીને તેણે ‘અનિ સાક્ષિક લગ્ન થાય છે' આમ વિચારીને તેણે અગ્નિમાં હવન કરાવડાવ્યો દયારપછી તેણે પોદિલા રિકાનું પાણિ ગ્રહણ કર્યું લગ્નની વિધિ પૂરી થયા બાદ ” અમા
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १४ तेतलिपुत्र प्रधान वरितवर्णनम्
ફ્
,
करोतीति व्यङ्गयति महीनान् करोति । 'विइते ' इति पाठे विकर्तयति छिनत्ति इत्यर्थौबोध्य । तत्मकारमाह-अध्ये केपा= केपाचिदुत्पन्नाना पुत्राणा दस्ता मुलीछिनत्ति, अप्येकेप = केपाचित् बालाना हस्तानुष्ठान् छिनत्ति । एवं पादाङ्गुलिकाः पादाङ्गुष्ठान् अपि, एव 'कण्णसकुलीए त्रि' कर्णशष्कुलीरपि = कर्णानपि तथा नासापुटानि च ' फालेर ' पाटयति = छिनत्ति इत्यर्य । जनेन प्रकारेण एवं कनकरथो राजा गलानाम् ' अगमगा गानि अगानि सम्यङ्गानि व्ययति = छिनत्ति । तत खलु अनेन प्रकारेण समुत्पन्नाना पुत्राणा विनाशानन्तरम् ' तीसे ' तस्याः कनकरथस्य राज्याः पद्मावत्या देव्या अन्यदा' पुत्ररत्तावरतकालसमयसि ' पूर्वराजा पररात्रकालममये = रागेः पश्चिमे भागे अयमेतद्रूप आयात्मिकः = आत्मगतो उत्पन्न हुए अपने पुत्रों को अगहीन कर देता । ( अप्पेगइयार्ण हत्थ गुलियाओ छिंदह, अप्पेगइयाण त्वगुण, छिंदह, एव पायगुलियाओ पायगु वि कन्नम+कुलीए वि, नासापुड़ाइ फालेड, अगमगाइ वियगेइ ) किननेक नालकों के वह हाथो की अगुलियों को छेद देता था, किननेक बारको के हाथो के अगूठों कोकाट देता था, इसी तरह वह पैरो की अगुलियो को पैरों के अगुष्ठों को, कानों को नासा पुटों को छेद देता था । इस तरह यह कनक रथ राजा बालको के अगो का भगकर देता था । (तएण तीसे पाउमावईए देवीए अन्नया पुत्ररत्तावरन्तकालसमयसि अयमेयात्वे अज्जस्थिए ५ समुजित्था ) इस प्रकार समुत्पन्न पुत्रों के विनाश के बाद उस कनकरथ राजो की रानी पद्मावती देवी के किसी एक समय रात्रि के पश्चिम भाग में यह इस प्रकार का आभ्यात्मिक यावत् मनोगत सकल्प उत्पन्न ( अप्पेगइयाण इत्यगुलियाओ जिंद अप्पेगइयाण इत्यगृहए जिंद, एव पायगु लियाओ पाease किन्नमाकुलिए कि, नासा पुडाइ फालेइ, अगमगाइनियँगेइ) કેટલાક પાળકોની તે હાથેની આગળીએ કપાવી ન ખાવતા હતા, કેટલાક ખાળકેના હાયેાના અગૂઢાએ કપાવી નખાવતા હા, આ રીતે તે પગાની આગળીઆને, પગાના અંગૂઠાએને, કાનાને, નાકને કપાવી નખાવતા હતેા. આમ તે કનકરથ રાન્ત માળાના અગેઞનુ તે ટેકન કરાવી ન ખાવતા હતા
(तरण तीसे पाउमाईए देवीए अन्नया पुत्ररत्तानरत्त कालममयसि अयमेनारूने अज्जत्थित ५ समुप्पज्जित्था )
આ પ્રમાણે જન્મેલા પુત્રાના વિનાશ પછી તે કનરથ રાજાની રાણી પદ્માવતી દેવીને કોઈ એક સમયે રાત્રિના છેલ્લા પહેરમા આ જાતના આધ્યા ત્મિક યાવતુ મનેાગત સ્રકલ્પ ઉત્પન્ન થયા કે
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
__माताधर्मकथा वेमाणीए विहरित्तए तिकटु एव सपेहेइ, संहिता तेयलि. पुत्त अमञ्च सदावेइ, महावित्ता पर क्यासी पव खलु देवाणुपिया | कणगरहे राया रजे य जाब वियगेड, त जइणं अहं देवाणुप्पिया | दारगं पयायामि । तएण तुम देवाणुप्पिया | कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुत्रेणं सारक्खेमाणे सगोवेमाणे सवड्देहि । तएणं से दारए उम्मुकत्राल. भावे जोवणगमणुप्पत्ते तव य मम य भिखाभायणं भविस्सइ । तएण मे तेयलिपुत्ते पउमावईए एयमह पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता पडिगए ॥ सू० ४ ॥
टीका-तएण से' इत्यादि । तत. खलु स कनारथी राना राज्ये चराष्ट्र च-देशे वले सैन्ये च, पाहने अवादिषु च कोशे भाण्डारे च धान्यादीना कोष्ठागारे च अन्तः पुरे च, 'मुच्छिए ' भूच्छिता मोह माप्त, गृद्ध आसक्तः प्रथिताम्नविशेषेणासक्त', अ युपपन्न -सर्वथा तत्परायण , जाए २-जातान २= उत्पन्नान २ पुनरान् पियगेइ ' व्यगायतिविगतानि अङ्गानि येपा तान् व्यङ्गान
'तएण से कणगरहे राया' इत्यादि। टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (से कणगरहे राया रज्जे य रहे य बले र पाहणे य कोसे य कोडागारे य अतेउरे य मुच्छिण ४ ) वह कनकरथ राजा राज्य में राष्ट्र में सैन्य में अश्वादि वाहन में, धान्यादिकों के कोष्टागार में एवं अन्तः पुर में मूति गृद्ध अ यन अनुरक्त एव अध्युपपन्न-सर्वथा तत्परायण यन गया । सो (जाए पुत्त वियगेइ )
वएण से कणगरहे राया इत्यादि-- (तएण) त्यामा
साथ-( से कणगरहे राया रज्जेय रहे य वले य पाहणे य कोडागारे य अतेउरे य मुच्छिए ४)
તે કનકળ્યુ રાજા રાજ્ય રાજ્યમાં, રાષ્ટ્રમા, સન્યમાં, અશ્વ વગેરે વાહ નેમા, ધાન્ય વગેરેની બાબતમાં, કાગારમાં અને રણવાસમાં મૂઠિત, ગૃહ, ઘણા જ આસક્ત અને અધુપપન્ન સંપૂર્ણપણે તત્પર થઈ ગયે એથી (જાણ पुच वियगेइ) ते भेजा पाताना पुत्राने अगहीन नापी हेत)
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
__ अनगारधर्मामृतपिणी टी० म० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् 'अणुपुषेण ' आनुपूर्येण यथाक्रमम् सरक्षन् भूपटष्टयादितः सगोपायन भूपकृतो पद्रवात् त दारक 'सार' सार्द्धय, तस्य पालस्य दृद्धिमुपनय । ततः खलु स दारक' 'उम्मुकमालभारे' उन्मुक्तालभाव उन्मुक्त परित्यक्तो वालमावो वालय येन स , ' जोधणगमणुप्पत्ते ' यौवनकमनुप्राप्त प्राप्ततारुण्यः तव मम च ण सारखेमाणे सगोवेमाणे सवड्डेहिं । तएण से दारए उम्मुक्कवाल भावे जोधणगमणुप्पत्ते तव य मम य भिक्खामायण भविस्सइ तएर्ण से तेयलिपुत्ते पउमावइए ण्यम पडिसुणेट, पडिसुणित्ता पडिगए) तो यदि मेरे यहां पुत्र उत्पन्न होता है-मैं पुत्र को उत्पन्न करती हैतो मुझे यही योग्य है कि में राजा कनकरय को खबर न पडे इस रूप से उसकी रक्षा करूँ-उनकी दृष्टि से -उसे बचाकर रखू-ऐसा उसने मन से विचार किया। विचार कर फिर उसने अमात्य तेतलिपुत्र को घुलाया-धुलाकर उस से ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! कनकरय राजा राज्य आदि में इतना अधिक मूर्षित गृद्ध-अत्यत अनुरक्त एव अध्यु पपन बना हुआ है जो वह उत्पन्न हुए चालको को अग हीन कर देता है-उनके हाथों की अगुलियों आदि अङ्गों को काट देता है। तो हे देवा नुप्रिय ! यदि में पुत्र को उत्पन्न करती हूँ तो देवानुप्रिय तुम उसे राजा को खबर न पडे इस रूप से रक्षित करते हुए और उनकी दृष्टि से बचाते र कमश. वृद्धिगत करो। जर वह बालक-क्रमश. सर्मित होता हुआ बाल्यावस्था से ररित होकर यौवनावस्था वाला बन जायगा माणे सगोवेमाणे सत्रदेहि । तएण से दारए उम्मुक्क पालभावे जोव्यगगमणु पत्ते तव य मम य भिक्खाभायण भनिस्मद तएण से तेयलिपुत्ते पउमावइए एयम पडिसुणेइ पडिसुणित्ता पडिगए)
હવે મને પુત્ર ત્પન્ન થવાનું જ છે, તે મને એજ યોગ્ય લાગે છે કે કનકરથ રાજાને ખબર પડે નહિ તે રીતે બાળકની રક્ષા કરૂ તેમની કુદષ્ટિથી તેને બચાવુ આ પ્રમાણે તેણે મનમાં વિચાર કર્યો વિચાર કરીને તેણે અમાત્ય તેતલિપુત્રને બોલાવ્યો અને બોલાવીને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! રાજા કનકરથ રાજ્ય વગેરેના કામમાં આટલો બધે મૂછિત, વૃદ્ધ-ખૂબજ આસક્ત અને અષ્ણુપપન્ન થઈ પડે છે કે તે જન્મેલા બાળકોના અગ કપાવી નાખે છે તેમના હાથની આંગળીઓ વગેરે અગોને કપાવી નાખે છે જે હે દેવા નુપ્રિય! હુ પુત્રને જન્મ આપે તે દેવાનુપ્રિય તમે રાજાને ખબર પડે નહીં તેમ તેમની કુદષ્ટિથી બાળકની રક્ષા કરતા તેનુ ભરણ-પોષણ કરજે, જો તે
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
নাযাথা विचारो यावत् मनोगत सारपः, ' सगुप्पन्नित्या ' गगुपयत । सम्ल्पप्रार माद-एन खलु' इत्यादि-ए। खलु कनकरयो रामा राज्ये च यापत् व्यद्यति । यारत् अङ्गानि अगानि व्यगयति जनेन प्रसारण गितगारेण मारयति । तदि
खलु अह दारक 'पयायामि ' प्रननयामि, सेय सलु मम त दारग पणगरहस्स . रहस्सिय चेव सारखेमागीए सगारेमाणीए रिहरित 'अय. पलु मम त दारक कनकरथस्य ' रहस्सिय चेन ' रहस्थिरुमे गुप्तमेर आपद सरलत्या ' सरक्ख माणीए' सरक्षन्त्या. भूपए वादे, 'सगोमागीए' सगोपायत्या भूपतोपद्रवार विहर्तुम् , 'तिटु' इति कृत्वाति मनसि कता एर समेक्षते-एव विचारयति सप्रेक्ष्य=पिचार्य तेतलिपुरममात्य प्रगान शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-ए। खलु देवानुप्रिय ! कनकरयो राजा ' रज्जेय जार पियंगेइ' राज्ये च यापद् व्यगयति-राज्यादिपु च मूच्छितो जातान पुनान् विकृवाङ्गान करोति एव तेपामगोपाङ्गानि खण्डयति । नया रोत्या पुत्रान्मारयति, तद्यदि खलु अह देवानुप्रिय दारक प्रजनगामि । तत खलु व कनकरयरय रहस्यिकमेव हुआ-(एव खलु कगगरहे राया रज्जे य जार पुत्ते पियगेड, जाव अङ्ग मगाइ वियगेइ) यह कनकरय राजा राज्य आदिमें मूर्षित गृद्ध, अत्य. न्त अनुरक्त एव अभ्युपपन्न अत्यन्त तत्पर बन कर पुत्रों को काट देता हैं-धुरी तरह से उन्हें मार डालता है (तजह अह दारय पायायामि, सेय खलु मम त दारग कणगरहस्स रस्सिय चेव सारक्खेमाणीए सगोवेमाणीए विदरित्तए त्ति कटूटु एक सपेहेइ, सपेरित्ता, तेयलिपुत्त अमच्च सद्दावेइ, सदाचित्ता एव क्यासी-एव खलु देवाणुप्पिया । कण गरहे राया रज्जे य जाव वियगेइ त जइण अह देवाणुपिया! दारगंप' योयोमि, तएण तुम देवाणुप्पिया! कण रहस्स रहस्मिय चेव अणुपुब्वे (एव खलु कणगरहे राया रज्जे य जार पुत्ते वियगेइ, जार अग मगाइ वियगेइ) કનકરથ રાજા રાજ્ય વગેરેની બાબતમાં મૃતિ ગૃદ્ધ, ખૂબજ આસક્ત અને અધ્યપપન્ન–અત્યન્ત તત્પર થઈને–પુત્રને અ ગહીન કરાવી નાખે છે યાવત્ તેમના અગેને કપાવી ન ખાવે છે અને ખરાબ હાલતમાં તેઓને મરાવી ન ખાવે છે
(त जइ अह दारय पायायामि, सेय खलु मम त दारग कणगरहस्म रहस्सिय चेव सारक्खेमाणीए सगोवेमाणीए बिहरित्तए तिरहु एव सपेहेद, सपेहिता तेयलिपुत्त अमच्च सदावेइ, सदाशीत्ता एव क्यासी-एव खलु देवाणुप्पिया! फणगरहे, राया रज्जे य जाब वियगेई त जण अह देवाणुपिया । दारग पया यामि, वरण तुम देवाणुप्पिया 1 कणगरहस्म रहस्सिय चेव अणुपुग्वेण सारखे
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
__ अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् 'अणुपुन्ग ' आनुपू]गम्यथाक्रमम् सरक्षन् भूपटष्टयादिनः सगोपायन भूपकृतो पद्रवात् त दारक 'सबड़े सबर्द्धय, तम्य पालस्य वृद्धिमुपनय । ततः खलु स दारक' 'उम्मुकपालभारे' उन्मुक्त रालभार =उन्मुक्त परित्यक्तो पालमावो पालव येन स', 'जोधणगमणुप्पत्ते' यौनसमनुप्राप्त प्राप्ततारुण्य. तर मम च ण सारक्खेमाणे सगोवेमाणे सवड्देहिं । तगण से दारए उम्मुक्कयाल भावे जोवणगमणुप्पत्ते तव यमम य भिग्वाभायण भविस्सइ तएर्ण से तेयलिपुत्ते पउमावटए ण्यम पडिसुणेड, पडिसुणित्ता पडिगए) तो यदि मेरे यहां पुत्र उत्पन्न होता है-में पुत्र को उत्पन्न करती हैतो मुझे यही योग्य है कि मे राजा कनकर य को ग्बवर न पडे इस रूप से उसकी रक्षा करूँ-उनकी दृष्टि से -उसे बचाकर रखू-ऐसा उसने मन से विचार किया। विचार कर फिर उसने अमात्य तेतलिपुत्र को घुलाया-बुलाकर उस से ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय | कनकरय राजा राज्य आदि में इतना अधिक मूर्षित गृद्ध-अत्यत अनुरक्त एव अध्यु पपन्न बना हुआ है जो वह उत्पन्न हुए पालको को अग हीन कर देता है-उनके हाथो की अगुलियों आदि अङ्गों को काट देता है। तो हे देवा नुप्रिय ! यदि में पुत्र को उत्पन्न करती हूँ तो देवानुप्रिय तुम उसे राजा को खर न पडे इस रूप से रक्षित करते हुए और उनकी दृष्टि से रचाते हा क्रमश. वृद्धिंगत करो। जब वह बालक-क्रमशः सवर्तित होता हुआ बाल्यावस्था से रहित होकर यौवनावस्था वाला बन जायगा माणे सगोवेमाणे सबहिं । तएण से दारण उम्मुक्क वालभावे जोधगगमणु पत्ते तव य मम य भिक्खाभायण भविस्मद तएण से तेयलिपुत्ते पउमावइए एयमह पडिसुणेइ पडिसुणित्ता पडिगए)
હવે મને પુત્ર ત્પન્ન થવાનો જ છે, તે મને એજ એગ્ય લાગે છે કે કનકરથ રાજાને ખબર પડે નહિ તે રીતે બાળકની રક્ષા કરૂ તેમની કુદષ્ટિથી તેને બચાવુ આ પ્રમાણે તેણે મનમાં વિચાર કર્યો વિચાર કરીને તેણે અમાત્ય તેતલિપુત્રને બોલાવ્યો અને બોલાવીને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! રાજા કનકરથ રાજ્ય વગેરેના કામમાં આટલે બધે મૂરિકત, વૃદ્ધ-ખૂબજ આસક્ત અને અદ્ભુપપન્ન થઈ પડે છે કે તે જન્મેલા બાળકોને અને કપાવી નાખે છે તેમના હાથની આંગળીઓ વગેરે અગોને કપાવી નાખે છે જે હે દેવા નુપ્રિય ! હુ પુત્રને જન્મ આપે તે દેવાનુપ્રિય તમે રાજાને ખબર પડે નહીં તેમ તેમની કુદષ્ટિથી બાળકની રક્ષા કરતા તેનું ભરણ-પોષણ કરજો, જે તે
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
25
धर्मकथासू
' भिक्खाभाषण' भिक्षामा ननम् = भिक्षाया आधारभूतो गरिष्यति । ततः खलु स तेवलिपुत्र पद्मावत्याः परम प्रतिशृणोति=स्पीकरोति, प्रतिश्रुत्य = स्त्रीकृत्य पद्मावत्या समीरात् प्रतिगत स्वगृहे गतवान् ॥ १०४ ॥
मूलम् - तएण पउमाई य देवी पोहिला य अमच्ची सयमेव गव्र्भ गिण्हइ, सयमेव परिवहइ । तएण सा पउमावई नवह मासाणं जाव पियदसणं सुख्ख दारग पयागा, जरयणि व पणं पउमावई दारय पयाया तं स्यणि च ण पोहिला वि अमच्ची नवण्ह मासाणं विनिहाय मावन्न दारिय पयाया । aणं सा परमावई देवी अम्मधाइ सहावे सदावित्ता एव वयासी- गच्छहणं तुमे अम्मो । तेतलिगिहे तेतलिपुत्तं अमच्च रहस्सियं चैव सहावेह । तएणं सा अम्मधाई तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता अंतेउरस्स अवद्दारेण णिग्गच्छइ, णिगच्छित्ता, जेणेव तेतलिस्स गिहे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता करयल जाव एव वयासी- एव खलु देवाणुप्पिया। पउमाई देवी सहावे । तएणं तेतलिपुत्तं अम्मधाईए अतिए एयम सोच्चा हट्टतुट्टे अम्मधाईए सद्वि साओ गिहाओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता अतेउरस्स अवदारेण रहस्सियं चेव अणुष्पविसइ, अणुष्पविसित्ता जेणेव परमावई देवी तेणेव
तो हमारे तुम्हारे दोनों के लिये भिक्षा पात्र - भिक्षा का आधार भूतघन जायगा इस प्रकार पद्मावती के इस कथन रूप अर्थ को उस तेत लिपुत्र अमात्यने स्वीकार कर लिया । और स्वीकार करके फिर वह पद्मावती देवी के पास से अपने घर पर चला आया ।। सू० ४ ॥
"
બાળક આખરે માટે થઈ જશે અને બચપણુ વટાવીને જુવાન થઈ જશે તે મારા અને તમારા બનેને માટે ભિક્ષાપાત્ર ભિક્ષાના આધારભૂત થઈ જશે આ રીતે પદ્માવતીના આ કથન રૂપ અને તે તેલિપુત્ર અમાત્યે સ્વીકાર કરીને તે પદ્માવતી દેવીની પાસેથી વિદાય લઇને પેાતાને ઘેર આવી ગયા સૂ ૪
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् उवागए करयलपरिग्गहियं दसणह सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं क्यासी-सदिसतु णं देवाणुप्पिया | जमए कायवं तएणं पउमावई तेतलिपुत्त एवं क्यासी-एवं खल्लु कणगरहे राया जाव वियगेइ, अहं च णं देवाणुप्पिया ! दारग पयाया त तुम णं देवाणुप्पिया । एयं दारग गेण्हाहि जाव तव मम य भिक्खाभायणे भविस्सइ तिम्डु तेतलिपुत्तं दलयइ । तएणं तेतलिपुत्ते पउमावईए हत्थाओ दारग गेण्हइ गिण्हत्ता उत्तरिज्जेणं पिहेड,पिहिता अतेउरस्त रहस्तियं अवदारेणं जिग्गच्छा, णिग्गच्छित्ता, जेणेव सये गिहे जेणेव पोहिला भारिया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोटिल एव वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया। कणगरहे राया रजे य जाब वियगेड, अय च णं दारए कणगरहस्तपुत्ते पउमावईए अत्तए, त ण तुम देवाणुप्पिया । इम दारग कणगरहस्स रहस्सिय चेव अणुपुत्वेणं सारक्खाहि य सगोवाहि य सवड्डेहि य । तएणं एस दारए उमुक्कबालभावे तव य मम च पउमावईए य आहारे भविस्तइ त्ति कटु पोट्टि. लाए पासे णिविखवइ, णिक्खिवित्ता, पोहिलाओ पासाओ विनिहायमावन्निय दारिय गेण्हइ, गेण्हित्ता उत्तरिजेण पिहेइ, पिहिता अतेउरस्स अवदारेण अणुप्पविसइ अणुप्पविसित्ता जेणेव पउ. मावई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमावईए देवीए पासे ठावेइ, ठावित्ता जाव पडिणिग्गए । तएण तीमे पउमा. वईए अगपरियारियाओ पउमावड़ देवि विणिहायमावन्न च
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
HTTधर्मकथा 'भिक्खामायण' भिसामाननम्-भिमाया आधारभूतो गरियति । ततः बलु स तेतलिपुत्र पमापत्या. एकम प्रतिशृणोति-धीररोति, प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य पमानत्या समीगत् भतिगत म्यगृहे गतवान् ।।०८।।
मूलम्-तएणं पउमावई य देवी पाहिला य अमच्ची सय. मेव गभं गिण्हइ, सयमेव परिवहह । तएण सा पउमावई नवण्ह मासाणं जाव पियदसणं सुरुवं दारग पयाया, ज रयणि च णं पउमावई दारय पचाया त रयणि च ण पोहिला वि अमच्ची नवण्ह मासाण विणिहायमावन्न दारिय पयाया। तएणं सा पउमावई देवी अम्मधाइं मदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह ण तुमे अम्मो। तेतलिगिहे तेतलिपुत्त अमच्च रहस्सियं चेव सदावेह । तएण सा अम्मधाई तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता अतेउरस्स अवद्दारेण णिग्गच्छा, णिगच्छित्ता, जेणेव तेतलिस्स गिहे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव एव वयासी-एव खलु देवाणुप्पिया। पउमावई देवी सदावेइ । तएण तेतलिपुत्त अम्मवाईए अंतिए एयम सोच्चा हट्टतुटे अम्मधाईए सद्धि साओ गिहाओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता अतेउरस्स अवदारेण रहस्सियं चेव अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव
तो हमारे तुम्हारे दोनों के लिये भिक्षा पात्र-भिक्षा का आधार भूतबन जायगा इम-प्रकार पद्मावती के इस कथन रूप अर्थ को उस तेत लिपुत्र अमात्यने स्वीकार कर लिया। और स्वीकार करके फिर वह पद्मावती देवी के पास से अपने घर पर चला आया । सू०४॥ બાળક આખરે મોટે થઈ જશે અને બચપણ વટાવીને જુવાન થઈ જશે તે મારા અને તમારા બંનેને માટે ભિક્ષાપાત્ર ભિક્ષાને આધારભૂત થઈ જશે આ રીતે પદ્માવતીના આ કથન રૂપ અને તે તેતલિપુત્ર અમાત્યે સ્વીકાર કરીને તે પદ્માવતી દેવીની પાસેથી વિદાય લઈને પિતાને ઘેર આવી ગયે સૂ ૪
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् २३ उवागए करयलपरिग्गहियं दसणह सिरसावत्त मत्थए अंजलि कटु एव वयासी-सदिसतु णं देवाणुप्पिया 1 ज मए कायव्वं' तएणं पउमावई तेतलिपुत्त एवं वयासी-एव खल्लु कणगरहे राया जाव वियगेइ, अहं च ण देवाणुप्पिया | दारग पयाया त तुम णं देवाणुप्पिया । एय दारग गेण्हाहि जाव तव मम य भिक्खामायणे भविस्तइ तिरहु तेतलिपुत्तं दलयइ । तएणं तेतलिपुत्ते पउमावईए हत्थाओ दारग गेण्हइ गिण्हत्ता उत्तरिज्जेणं पिहेड,पिहित्ता अतेउरस्त रहस्तिय अवदारेणं गिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता, जेणेव सये गिहे जेणेव पोहिला भारिया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोहिल एव वयाती-एवं खलु देवाणुप्पिया। कणगरहे राया रजे य जाब वियगेड, अय च णं दारए कणगरहस्सपुत्ते पउमावईए अत्तए, त ण तुम देवाणुप्पिया । इम दारग कणगरहस्त रहस्सियं चेव अणुपुत्वेण सारक्खाहि य सगोवाहि य सवड्डेहि य । तएणं एस दारए उमुक्कवालभावे तव य मम च पउमावईए य आहारे भविस्तइ त्ति कटु पोटि. लाए पासे णिविखवइ, णिविखवित्ता, पोहिलाओ पासाओ विनि हायमावन्निय दारिय गेण्हइ, गेण्हित्ता उत्तरिनेण पिहे, yिer अतेउरस्स अवदारेण अणुप्पविसइ अणुप्पविमिनादर,
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
माया दारिय पासति, पासित्ता जेणे कणगरह राया तेणेव उवाग च्छति उवागच्छित्ता परयलपरिग्गहिर दामनह सिरसावत्तं म. स्थए अजलि कटु एव वयाप्ती एव सी सामी! पउमावई देवी मइल्लियं दारियं पाया । ताणं क्णगरहे राया तीसे मइल्लियाए दारियाए नीहरण करेइ, वहणि लोइयाई मयकि च्चाइ करेइ करित्ता कालेण विगयसोए जाए । तएण से तेत. लिपुत्ते कोडुबियपुरिसे सहावेड, सदावित्ता, एक वरासी-खिप्पामेव चारगसोहण जाव टिइवडिय, जम्हाण अम्ह एस दारए कणगरहस्स रजे जाए, त होउ ण दारए, नामेण कणगाए जाव भोगसमधे जाए ॥ सू० ५ ॥
टीका-'तएण' इत्यादि । तत खलु पद्मावती चदेवी पोटिला च अमात्यो सममेव गर्भ गृहाति, सममेरगर्भ परिवहतिधारयति । तत मलु सा पमारती 'नवण्ड मामाण जाव' नपाना मासाना नासु मासेसु व्यतीतेपु यावत् सत्सु 'पियदसण' पियदर्शनम्-पिय चेतोहर दर्शनमवलोकन यस्य त - दर्शकजनचेतोहादजनक सुरूप दारक ‘पयाया' प्रमाता-मजनितवती । यस्या रजन्या च
'तण्ण पउमावई य देवी' इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इसके बाद ( पउमावई य देवी पोहिलाय अमच्ची सयमेव गम्भ गिरइ) पद्मावती देवी और पोटिला अमात्यी ने साथ ही गर्भ धारण किया। (तएण सा पठमावई नवण्द मासाण जाव पियद सण सुरूव दारग पयाया) पद्मावती देवी ने जब नौ मास अच्छी तरह गर्भ के समाप्त हो चुके तय दर्शकजन चित्तालाद जनक अच्छे रूप शाली पुत्र को जन्म दिया। (ज रयणि च ण पउमोबई दारय पयाया 'तण्ण पउमावइ य देवी' इस्यानि
- तएण) त्या२५७ी (पउमावइ य देवी पोट्टिला य अमची मयमेव गम જિ) પદ્માવતી દેવી અને દિલા અમાત્યીઓ સાથે સાથે જ ગર્ભધારણ કર્યો (तएण सा पउमाई नावग्ह मासाण जार पियदसण सुरून दारग पयाया)
જ્યારે નવ માત્ર સારી રીતે પસાર થઈ ગયા ત્યારે પદ્માવતી દેવીએ જોનારાઓ જોઈને પ્રસન્ન થઈ જાય એવા રૂપાળા પુત્રને જન્મ આપે
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम
५
-
खलु पावती दार प्रजाता तस्या रजन्या च खलु पोटिलापि अमात्यी 'नवण्डमासाण' नवाना मासानाम्नासु मासेपु व्यतीतेपु 'विणिहायमावन 'मिनिधातमापन्नाम्-मृताम् दारिका प्रजाता-जनितरती । 'तएण' तन खलु पुत्रजन्मा नन्तर सा पमारती देवी अम्मधात्री गन्दयति, शब्दयित्वा एवमनदत्-गच्छत खल यूयमम्ब ! 'तेतनिगिदे ' तेतलिगृहे तेतलेरमात्यस्य गृहे तेतलिपुत्रममात्य रहस्थिकम् अन्यैरपरिज्ञातमेव शब्दयत आवयत । तनः खलु सा अन्नधात्री तथेति प्रतिशृगोति, अङ्गीकरोति, मतिश्रुत्य अन्त पुरस्य ' अवदारेण ' अपहारेण-पृष्ठद्वारेण निर्गच्छति, निर्गत्य, यौर तेतले हम् , यौव तेतलिपुत्रस्तोत्र उपा गच्छति, उपागत्य करनल यानद् अञ्जलिपुट कृत्वा एवमवादीत्-एवं खलु हे त रयणि च ण पोहिलावि अमची नवण्ह मोसाण विणिवायमावन्नं दारिय पपाया) जिस रात्रि में पद्मावती देवी ने पुत्र को जन्म दिया था उसी रात्रि में पोटिला अमात्यी ने भी नौ माल व्यतीत हो जाने पर एक मरी हुइ कन्या को जन्म दिया (तण्ण सा परमावई अम्मधाय सहावेह, सदायित्ता एव बयासी गहण तुमे अम्मो । तेतलिगिहे तेतलीपुत्त अमच्च रस्सिय चेव सद्दावेह) इम के बाद उस पद्मावती ने अम्बधात्री को बुलवाया और बुलवाकर उससे ऐसा कहा हे अम्म ! -तुम तेतलि अमात्य के घर पर जाओ। और किसी को पत्ता न पड़े इस रूप से तुम तेतलि पुत्र अमात्य को बुला लाओ। (तएण सा अ ग्मधाई तहत्ति पडितुणेइ पडिप्लुणित्ता अतेउरस्स अवद्दारेण णिग्गछह जिग्गन्डित्ता जेणेव तेतलिस्सगिहे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवा गच्छह, उचागचित्ता करयल जाव एव वयामी एव खलु देवाणुप्पिया
(ज रयणिं च ण पउमाई दारय पयाया त रयणि च ण पोहिला नि अमच्ची नवण्ह मासाण विणिहायमावन्न यारिय पयाया)
જે રાત્રિએ પદ્માવતી દેવીએ પુત્રને જન્મ આપે તે જ રાત્રિએ દિલા અમાત્યીએ પણ નવ માસ પૂગ ચવાથી એક મરેલી કન્યાને જન્મ આપ્યો . (तएण सा पउमावई अम्मवाय सावेट, सद्दारिता एवं वयासी गच्छह ण तुमे अम्मी । तेतलिगिहे तेतलिपुत्त अमञ्च रहस्सिय चेर सदानेह) ।
ત્યારપછી તે પદ્માવતીએ આ બધાત્રીને બોલાવી અને બોલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું અ! તમે તેતલિ અમાત્યને ઘેર જાઓ અને કોઈને ખબર પડે નહિ તેમ તેતલિપુત્ર અમને તમે અહીં બોલાવી લાવે 7 (तपण सा अम्मधाई तहत्ति पडिमुणे, पडिसुणित्ता जोउरस्स अवदारण णिगच्छ जिग्गच्छित्ता जेणेष ततलिस्स गिहे जेणेच तेतलिपुत्ते नेणेव उवा
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
MATNA देवानुप्रिय ! पद्यावती देवी गान्त गन्दगति । यतः पलु तलिपुत्रः 'अवधाए अतिए ' अम्पधाच्या अन्तिरे-अपधायाः महाशात् पतमथं श्रुत्वा इष्टतृष्टोऽम धाग्या सादं सकाद् गृहाद निर्ग छति, निर्गत्य अन्तपुरस्य अपद्वारेण रहस्थिक मेव-प्रच्छन्नमेव अनुमविशति, अनुमरिश्य, योर पगारती देवी तर 'आगए' उपागतः समाप्तः करवलारिगृहीत दशनख शिरसात मन्त केऽसलिकत्ता एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आदत- सदिसतु ' मदिशनु-आशापयतु स हे देशानुप्रिये ! पउमावई देवी सद्दावेह । तरण तेतलिपुत्ते अम्मघाईग अंनिए एयमा सोच्चा न तुठे अम्मधाईए मदि सामो गिहाओ णिग्गच्छड) पमा वती देवी के इस प्रकार बचन सुनकर उस अम्बधात्री ने तयेति 'कह कर उसकी आज्ञा को स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर के फिर वह अतः पुर के अपहार से-पीछे के दरवाजे से याहिर निकली-निकल कर जहाँ तेतलि का घर और उसमें भी जहा तेतलिपुत्र था वध गई। वहा जाकर पहिले उसने तेतलिपुत्र अमात्य को दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार किया याद में चोली-हे देवानुप्रिय ! आपको पद्मावती देवी खुला रही हैं । अम्मधात्री के मुख से इस प्रकार वचन सुन कर व तेतलि पुत्र हर्षित एव तुष्ट होता हुआ अम्याधात्री के सार ही अपने घर से निकला। (णिग्गच्छित्ता अतेउरस्स अवदारेण रस्सि य चेव अणुप्पविसह, अणुप्पविसित्ता जेणेच पउमावई देवी तेणेव उवागए करयलपरिग्गहिय दसणह सिरसावत्त मत्थए अजलि कट्टु एव वया गच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव एव बयासी-एव खलु देवाणुपिया ! पउमावई देवी सदावेइ । तएण वेतलिपुत्ते अम्मधाईए अतिए एयमह सोचा हद्वतुट्टे अम्म धाईए सद्धि साओ गिहाओ णिगच्छइ ) ।
આ રીતે પદ્માવતી દેવીની વાત સાંભળીને આ બધાવીએ “ તથતિ” (સારૂ) આમ કહીને તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી સ્વીકારીને તે રણવાસના પાછલા બારણેથી બહાર નીકળી અને નીકળીને જ્યા તેતલિપુત્રનું ઘર અને તેમાં પણ
જ્યા તેતલિપુત્ર અમાત્ય હતા ત્યાં પહોંચી ત્યા પહેચીને તેણે સૌ પહેલાં અને હાથ જોડીને તેતલિપુત્રને નમસ્કાર કર્યા અને ત્યારપછી તેણે કહ્યું કે હું દેવાનપ્રિય! તમને પદ્માવતી દેવી બોલાવે છે આ બંધાત્રીના મુખથી આ જાતની વાત સાંભળીને તેતલિપુત્ર હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થતે આ બધાત્રીની સાથે સાથે જ તે પિતાના ઘેરી રણવાસ તરફ રવાના થયે
(णिगच्छित्ता अतेउरस्स अवदारेण रहस्सिय चेन अणुप्पविसइ अणप पिसिना जेणेव पउमाई देवी तेणेव उवागए, 1 -दमणइ सिर
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगा
पपिपी टी०म० १४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम्
२७
6
'ज भए कायन्त्र ' यन्मया कर्तव्यम्, ततः खलु पद्मावती देवी तेवलिपुत्र मेत्रमत्रदत् ' एव खलु कणगरहे राया वियगे ' एव खलु कनकरथो राजा व्यङ्गर्यात= हे देवाणुप्रिय ! मया पूर्वमेनकथित - यत्कनकरथ उत्पन्नान्पुनान् विकृताऽङ्गान् कृत्वा मारयति । अह च खलु देवानुप्रिय | दारक प्रजाता = मजनितवती, तस्मात् कारणात् त्व खलु देनानुमिय । एत दारक गृहाण यावत् तत्र च मम च सी संदिसतु णं देवाप्पिया ! जंमए कायन्च ? तरणं परमावई तेतलि पुतं एव वयासी एवं ग्वलु कणगरहे राया जाव वियगेड, अह चणं देवाप्पिया दारग पयाया त तुम णं देवाणुप्पिया । एय दारग गेण्हाहि ) चलकर वह अतः पुर के पृष्ठ भाग के द्वार से किसी को आने का पता न लगे इस रूप से वहा प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर जहाँ पद्मावती देवी थी वहां गया । वहा जाकर उसने दोनों हाथ जिसमें जुडे हुए हैं और दशोंनख जिसमें है ऐसी अजलिको दक्षिण तरफ से घुमाकर बाये तरफ लेजाकर और मस्नकपर अजलि को रखकर कहा - अर्थात् नमस्कार कर पूछा हे देवानुप्रिये ! जो मुझे करने योग्य कार्य है उस के करने की आप आज्ञा दीजिये । इस के बाद पद्मावती देवी ने तेतलिपुत्र से इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिय ! मैंने तुमसे पहिले ही कह रक्खा है कि कनकरथ उत्पन्न हुए पुत्रों को विकृत अग बनाकर मार डालता है। और मैंने हे देवानुप्रिय पुत्र को उत्पन्न किया है । इसलिये तुम हे देवा
ਰ
सावत्त मत्थए अजलिं वट्टु एव वयामी-स दिसतु पण देवाणुपिया ! जंमए करज्जितएण परमानी देनी क्यामी - एन सलु कणगरहे राया जार वियगेई अह चण देवानुमिया | दारग पयाया त तुम णदेवाणुपिया ! एव दारग गेण्हाहि )
ત્યા પહેાચીને રણવાસના પાછલા બારણેથી કાઈને ખખર પડે નહિ તેમ રણવાસમા પ્રવિષ્ટ થઈ ગયા પ્રવિષ્ટ થઈને તે જ્યા પદ્માવતી દેવી હતી ત્યા પહેાગ્યે ત્યા પહેાચીને તેણે દશે નખે જેમા છે એવા અને હાથ જોડીને અજલિ મનાવીને તેને જમણી માજીથી ફેરવીને ડાબી બાજુ તરફ લઇ જઇને મસ્તક ઉપર અજલિ મૂકીને આ પ્રમાણે કહ્યુ-એટલે નમસ્કાર કરીને પૂછ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિયે ! મારે લાયક જે કઈ પણ કામ હોય તે મને કહે! ત્યાર પછી પદ્માવતી દેવીએ તૈલિપુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હું દેવાનુપ્રિય 1 તમને મે પહેલેથી કહી રાખ્યુ છે કે રાજા કનકરથ ઉત્પન્ન થયેલા પુત્રાને અગહીન કરી નાખે છે અને હે દેવાનુપ્રિય ! મારે પુત્ર થયા છે કે દેવાનપ્રિય ! એ ભાળકને તમે લઈ જા.
"
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
-
-
-
সায়ম भिक्षाभाननमिव भिक्षामानन, यथा भिक्षामाननं जीन नियति तयाऽयमपि जीवननिर्वाहको भविष्यति तिरुटु' इति कताः इत्युका लिपुत' तेवक पुत्राय प्राकृतत्वादन द्वितीया ददातितेतलिपुत्रम्य हस्ते दारफमर्पयति । तत. खड तेतलिपुत्रः परित्या हस्ताम्यां दारक गृहानि, गृहीत्या उरीयेण-उत्तरीयक्ष
'पिहेइ' पिदधाति आच्छादयति. 'पिहिया 'पिधाय अन्त:-पुरस्य रहस्सिी रहस्पिरमच्छन्न यथा स्यात्तथा अपद्वारेण निर्गनि, निर्गत्य यौव स्वका यव पोटिला भार्या तत्रैर उपागति, उपागत्य पोटिलामेरमवादी-एर सक हे देवानुमिये । कनारयो रामा राध्ये च या पद्यति स्वपुत्रान् मारयसि अय च खलु मम हस्तस्थितो दारक कनकरयस्य पुत्रः पद्मावत्या आत्मनो मया नानीतः, 'त' तस्मात् कारणात् खलु हे देशानुमिरे ! हमें द्वारक 'कणगरहस्स नुप्रिय! इम पालक को लेलो (जाव तर मम य भिम्पाभायणे भाषि संइत्ति कट्टु तेतलिपुत्त दलयह) यावत् यह हमारे तुम्हारे लिये भिक्षा का भाजन हो जायगा जिस प्रकार भिक्षा भाजन जीवन निर्वाहक होता है-उसी तरह यह भी जीवन निर्वाहक होवेगा इस प्रकार करकर उसमे तेतलिपुत्र के हाथमें आपने पुत्र को दे दिया । (तपण तेतलिपुत्ते पउमाघई हयाओ दारंग गेई ) तेतलिपुत्र ने भी पद्मावती देवीके रायसे पालक को ले लिया। (गिण्डित्ता उत्तरिज्जेण पिहेइ, पिहिता अते उरसरहस्तिय अवदारेण णिग्गच्छाणिग्गच्छित्ता जेणेव सरा गिहे जेणेव पोटिला भारिया-तेणेव उवागच्छद, उयागच्छित्ता-पोहिल एव वयासी एव खलु देवोणुप्पिया ! कणगरहे राया रज्जे य जाब वियगेइ, अम (जाव तब मम य भिक्खाभायणे भनिस्सइत्तिक१ तेतलिपुत्त दलयइ)
એ મારા અને તમારા માટે ભિક્ષાભાજન' થશે એટલે કે જેમ ભિક્ષાનું પાત્ર જીવનને ટકાવનાર હોય છે તેમજ આ બાળક પણ જીવન નિર્વાહક થશે “આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેતલિપુત્રના હાથમાં પોતાના નવ જાત પુત્રને સધી દીધે (तएण तेतलिपुत्ते पउमाईए हत्थाओ दारग गेण्हइ)
તેતલિયુગે પણ પદ્માવતી દેવીના હાથમાથી બાળક લઈ લીધુ
(गिव्हित्ता उत्तरिज्जेण पिहेड पिहिता अतेउस्स्स रहस्सिय अवदारेण णिगच्छइ, णिग्गन्धित्ता जेणेव सए गिहे जेणेष मोटिला भारिया-तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, पोहिल एव पयासी, एव 'खलु देवाणुप्पिया रहे रापा रज्जे य जाब वियगेइ, अय च ण 'दारए यणगरहस्सपुत्ते 'परमाईए अलए
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतवपिणी टीका स. १४ तेतरिपुनप्रधानचरितवर्णनम् ६ रहस्सिय वेव' कनारथस्य रहस्यिकमेव-कनकरथो यया न जानीयात्तथैव अणुसुन्वेणं' आनुपूण-अनुक्रमेण तस्कृतोपद्रवतच 'सारक माहि य सरक्ष्य कनकरथन. पष्टितः संगोपाय च तत्कृतोपद्रवतः, तथा सबड़हिय' समर्षय च-स्तन्यपानादि नाऽस्य पालस्य दिमुपनय ! ततः खलु एप दारकः उन्मुक्तमालमावःतब च मम च पद्मावत्याश्च 'आहारे' आधार =आधारस्वरूपो भविष्यति ' तिकटु' इतिकृत्वा
च ण दारए कणगरहस्स पुत्ते पउमावई अत्तए, त णं तुम दारर्ग कणगरहस्स रहस्सियं चेत्र अणुपुव्वेण सारक्खाहिं य संगोवाहि य सवड्देहि य) लेकर फिर उसे अपने दुपट्टे से ढक लिया और ढककर प्रच्छन्न गुप्तरूप से अतः पुर के पीछे के दरवाजे से बाहर निकल गया। निकल कर जहा अपना घर और पोट्टिला भार्या थी वहा गया। वहाँ जाकर उसने पोटिला भार्या से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिये । कनक रथ राजा राज्य आदि में इतना अधिक मूच्छित हो रहा है कि वह उत्पन्न पुए अपने पालकों को अङ्ग विच्छेद कर मार डालता है। यह जो पुत्र मेरे हाथ में है वह कनक स्य राजा का पुत्र है यह पद्मावती देवी की कुक्षि से उत्पन्न हुआ है। इसलिये हे देवाणुप्रिये ! तुम इस पुत्र को कनक रय को खबर न पडे इस तरह प्रच्छन्न रूप से 'क्रमशः रक्षित करती रहो-पालती रहो उसकी दृष्टि से बचाती रहो और स्तन्यापान
आदि से बढाती रहो। (तएणं एस द्वारए उम्मुकपालभावे तव य तणं तुम देवाणुप्पिया ! इम दारंग कणगरहस्स रहस्मिय चेव अणुपुत्वेण सारक्खाहिं य सगोवाहि य संवदेहिय)
લઈને તેણે ખેસમાં ઢાકી દીધુ, અને ઢાકીને છુપી રીતે રણવાસના પાછલા બારણેથી બહાર નીકળી ગયે બહાર નીકળીને જ્યા પિતાનું ઘર અને દિલા ભાર્થી હતી ત્યાં ગયો ત્યાં પહોંચીને તેણે પિઠ્ઠિલા ભાર્યાને એમ કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! રાજા કનરથ રાજ્ય વગેરેની બાબતમાં એટલે બધે આસક્ત થઈ ગયે છે કે તે જન્મ પામેલા પિતાના બાળકોના અને કપાવીને મારી નાખે છે મારા હાથમાં જે બાળક છે તે પણ કનડરથ રાજાને જ પુત્ર છે પદ્માવતી "દેવીના ગર્ભમાથી આને જન્મ થયે છે એથી હે દેવાનુપ્રિય ! કનકરથ રાજાને જાણ થાય નહિ તે પ્રમાણે તમે છુપી રીતે આ પુત્રનું રક્ષણ કરતા રહે, છેષણ કરતા રહે, રાજાની કુદણિથી એને દૂર રાખતા રહે અને તે પાન એટલે કે દૂધ વગેરે પીવડાવીને એને માટે કરો
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
Wায়াখা इत्युक्त्या पोहिलायाः पार्थे ' गिरिवर ' नितिपति स्थापयति, तया पोति लायाः पार्थात् ता 'पिणिहायमायण विनियातमापनातां दारिता गृहाति, गहीत्या उत्तरीयेण पिदधाति, पिधाय मनः पुरस्य अपद्वारेण अनुममिति, मनु प्रविश्य यौर पद्मावती देवी तप उपागमति, उपागत्य पात्याः देव्या: पार्वे स्थापयति, स्थापयित्वा तापत् 'पडिगिगारा प्रतिनिर्गतः प्रतिनिध र्य स्वर मम य पउमावईए य आहारे भविस्स:त्ति फटु पोहिला पासे णि क्खिवह, णिक्खिवित्ता पोहिलाओ पासाओ गिनिहायमावन्नियं दारिय गेण्हइ, गेमिहत्ता उत्तरिज्जेणं पिहेह पिहिता, अंतेउरस्स अवहारेण अणुप्पविसइ) इस तरह क्रमश. पृद्धिंगत होता हुआ यह पालक जय बाल्यावस्था से रहित हो जायेगा तो हमारा तुम्हारा और पद्मावती देवी का आधार होगा, ऐसा कहकर उस तेतलिपुत्र अमात्य ने उस पुत्र को पोहिला के पास रख दिया। और पोहिला के पाम से मरी हुई कन्या को उठा लिया-उठाकर उसे अपने उत्तरिय वस्त्र से ढंक लिया, ढक कर फिर अतः पुर के पिछले दरवाजे से वहा आया (अणुप्परिसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागच्छद, उवागचित्ता पउमावई देवीए पासे ठावेइ, ठोवित्ता जाव पडिनिग्गए ) वहा आकर जहां पद्मावती देवी थी घना पहुंचा, वहीं पहुँच कर उसने उस मृत कन्या को पद्मावती दवी के
(तएण एस दारए उम्मुक्कालभावे तब य मम य पउमावईए य आहारे भविस्सइ त्ति कटु पोट्टिलाए, पासे णिशिववद, णिक्खिवित्ता पोट्टिलाओ पासाओ विनिहायमावनिय दारिय गेण्हइ, गेण्हित्ता उत्तरिज्जेगं पिहेड, पिहिता, अतेउरस्स अवदारेण अणुप्पविसइ)
અને આ રીતે અનુક્રમે માટે તે આ બાળક જયારે બચપણ વટાવીને જુવાન થઈ જશે ત્યારે આ માટે, તમારો અને પાવતી દેવીને આધાર થશે આ પ્રમાણે કહીને તે તેતવિપુત્ર અમાયે તે બાળકને પિદિલાની પાસે મૂકી દીધું અને પદ્દિલાની પાસેથી મરી ગયેલી બાળકીને ઉપાડી લીધી પાડીને તેને પિતાના ખેસથી ઢાકી દીધી અને ત્યારપછી તે રણવાસના પાછલા બારણેથી પદ્માવતી દેવીના મહેલમાં ગયા
(अणुप्पविसित्ता जेणेष पउमाई देवी तेणेव उवागन्छइ, उचागच्छित्ता, पउमावईए देवीए पासे ठावेइ, ठावित्ता जार पडिनिग्गर)
ત્યાં જઈને જ્યા પાવતી દેવી હતી ત્યા ગયે અને ત્યાં પહોંચીને તેણે તે મરી ગયેલી બાળકીને પદ્માવતી દેવીના પડખામાં મૂકી દીધી અને ત્યા મૂકીને તે ત્યાંથી પાછા ફર્યો અને ત્યારપછી તે પોતાને ઘેર આવી ગયે
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १४ ते तलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् गतवान् । 'तरण' तन खलु तस्याः पद्मावत्याः 'अगपडियारियाओ' रङ्गपतिचारिका' दाम्य' पद्मावतीदेवी गिनिधातमापन्ना पाणरहिवां दारिका च पश्यन्ति, दृष्ट्वा यौव कनकरयो राजा, तोच उपागन्छति, उपागत्य तिलपरिगृहीत दर्शनख शिर आवर्त मस्त केऽन्नलिं कृत्वा 'ए' = वक्ष्यमाणरीत्या अवदत्-हे स्वामिन् ! पद्मावतीदेवी 'मल्लिया 'मृता दारिका 'पयाया' प्रजाता-प्रजनितवती । 'तएग' इति, तन सलु दामीमुग्वान्मृतपालिकाज मयगानन्तर फनफरयो राजा तस्या 'मइल्लियाए ' मृतायाः दारिफाग ' नीहरण' निर्हरण' निष्काशन 'फरेइ' कगेति, कृत्वा बहूनि लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति, कृत्वा 'कालेण' पास रख दिया। और रखकर फिर वह वहा से चल दिया चलकर अपने घर आ गया। (तण तीसे परमावई अगपरियारियाओ पउमावड देवि विणिहायमावन्न दारिय पासति, पासित्ता जेणेव कणगरहे राया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्तो करयलपरिग्गहिय दसनह सिरसावत्त मत्यरा अजलिं कटु एव वयासी एव खलु सामी पउमावई देवी महल्लिय दारिय पयाया) इसके बाद पद्मावती देवी की अगपरिचारिकाओंने पद्मावती देवी को और मरी हुई उस कन्या को देग्वा देग्व कर वे सब जहा कनक रथ राजा थे वहीं गई-वहा जाकर उन्होंने दो नों हाथों की अजलि बना कर और उसे मस्तक पर घुमाकर-अर्थात् नमस्कार कर इस प्रकार का हे स्वामिन ! पद्मावती देवी ने मृत कन्या को जन्म दिया है । (तपण कणगरहे राया तीसे मइलियाए दारियाए नीहरण करेड,यणि लोहयाइ मयकिच्चाइ करेड करित्ता कालेण विगयसोए जाए) इस प्रकार उन के मुग्व से सुनकर कनक रथ राजाने उस मृत
(तएण तीसे पउमालईए अंगपरियारियाओ पउमापड देवि विणिहायमावन्न दारिय पासंति पासित्ता जेणेव कणगरहे राया तेणेर उवागच्छति, उत्रागनिउत्ता करयलपरिग्गहिय दसनह सिरसावत्त मत्यए अंजलि कट्टु एव वयासी-एर खलु सामी पउमावईदेवी मडल्लिय दारिय पयाया)
ત્યારબાદ પદ્માવતી દેવીની અગ-પરિચારિકાઓએ પદ્માવતી દેવી તેમજ તે મરેલી કન્યાને જોઈ જોઈને તેઓ બધી જ્યા કનકરથ રાજા હતા ત્યાં ગઈ અને ત્યાં જઈને તેણે બંને હાથેથી આ જલિ બનાવીને અને તેને મસ્તક ઉપર ફેરવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામી! દેવી પદ્માવતીએ મરેલી કન્યાને જન્મ આપે છે
(तएण रणगरहे राया तीसे मदल्लियाए दारियाए नीहरण करेइ, नहणि रोइयाइ मयकिच्चाइ करेइ करित्ता कालेणं गियसोए जाए)
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
to
भा
इत्युक्त्वा पोहिलायाः पार्श्वे ' निक्सिर निक्षिपति=स्थापयति, तथा पोहि लायाः पार्थात् वा 'रिणिहायमारण' विनित्रातमा पन्त दारिया गृह्णावि, गहीत्वा उत्तरीयेण पिद्धति, विधाय अन्तःपुरस्य अपाण अनुमतिशति, अनु प्रविश्य पद्मावती देवी व उपागच्छति, उपागत्य त्या देव्याः पार्श्वे स्थापयति, स्थापयित्वा वास्तु 'पडिगिए' प्रविनिर्गतः प्रतिनि स्वग्रह मम य पमावईए य आहारे भविस्सरति कट्ट पोहिल्लाए पासे णि क्खिवह, णिक्खिनिता पोहिलाओ पासाओ विनियमावनय दारिय गेन्दह, गेष्टित्ता उत्तरिज्जेण पिछेह पिहिता, अतेरस्स अवहारेण अणुपसिह ) इस तरह क्रमशः वृद्धिंगत होता हुआ यह बालक जब बाल्यावस्था से रहित हो जावेगा तो हमारा तुम्हारा और पद्मावती देवी का आधार होगा, ऐसा कहकर उस तेतलिपुत्र अमात्य ने उस पुत्र को पोहिला के पास रख दिया । और पोहिला के पास से मरी हुई कन्या को उठा लिया-उठाकर उसे अपने उत्तरियवस्त्र से ढँक लिया, ढँक कर फिर अत. पुर के पिछले दरवाजे से वहा आया (अणुप्पनिसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागच्छद्र, उद्यागचित्ता पत्रमाचईए देवीए पासे ठावे, ठविता जाव पडिनिग्गए ) वहा आकर जहा पद्मावती देवी थी वरा पहुँचा, वहाँ पहुँच कर उसने उस मृत कन्या को पद्मावती देवी के
1
(तरण एस दारए उम्वकालभावे तव य मम य पउमावईए य आहारे भविस्सर ति कट्टु पोट्टिलाए, पासे णिक्खिवर, णिक्सिविता पोट्टिलाभ पासाओ विनिहाय माननिय दारिय गेन्दछ, गेव्हित्ता उत्तरिज्जेग पिछेड, पिहिता, अतेउरस्स अवदारेण अणुष्पविस )
અને આ રીતે અનુક્રમે મેટા થતા આ ખાળક વાર ચપણુ વટાવીને જુવાન થઇ જશે ત્યારે આ માશ, તમારા અને પદ્માવતી દેવીના આધાર થશે. આ પ્રમાણે હીને તે તેતવિપુત્ર અમાત્યે તે ખાલકને પેટ્ટિયાની પાસે મૂકી દીધે અને પાટ્ટિલાની પાસેથી મરી ગયેલી બાળકીને ઉપાડી લીધી ઉપાડીને તેને પેાતાના ખેસથી ઢાકી દીધી અને ત્યારપછી તે રણવાસના પાછલા ખારોથી પદ્માવતી દેવીના મહેલમા ગયા
(अणुष्पविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागन्छ, उवागच्छित्ता, पउमावईए देवीए पासे ठावेइ, ठावित्ता जान पडिनिग्गए )
ત્યા જઈને જ્યા પદ્માવતી દેવી હતી ત્યા ગયા અને ત્યા પહેચીને તેણે તે મરી ગયેલી બાળકીને પદ્માવતી દેવીના પડખામા મૂકી દીધી અને ત્યા મૂકીને તે ત્યાથી પાછા ફર્યાં અને ત્યારપછી તે પાતાને ઘેર આવી ગયે
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टीका १० १४ तेतलिपुनमधानचरितवर्णनम ३६ अस्माकमेप दारकः स्नकरयरय राज्ये जात., 'त' तस्मान् भवतु खलु दारको नाम्ना ' निधन ' इति । अनन्तरममौ दारका क्रमेण वृद्धिं गन्छन् यावद् 'भोगसमत्ये जाए' भोगसमयों जात =तारुण्य प्रात इत्यर्थ ॥ मु०५ ॥
मूलम्-तएणं सा पोटिला अन्नया कयाई तेतलिपुत्तस्स अणिठा ५ जाया यावि होत्था,णेच्छड य तेतलिपुत्ते पोहि लाए नाम गोत्तमवि सवणयाए, किपुणदरिसणं वा परिभोग वा ? | तरण तीसे पोटिलाए अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जिस्था-एव खल्लू अह तेतलिस्स पुधि इट्टा ५ आलि इयाणि अणिट्ठा ५ जाया, नेच्छइ य तेतलिपुत्ते मम नाम जाव परिभोग वा ओहयमणसकप्पं जाव झियायइ । तएण तेतलिपुत्ते पोहिल ओहयमणसकप्प जाव झियायमाणि पासइ, पासित्ता एव वयासी-मा णं तुम देवाणुप्पिया । ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहि । तुम च णं मम महाणससि विउल
असणपाणखाइमसाइम उवक्खडावेहि,उवक्खडावित्ता वहणं भारी उत्मव किया । तया भोजन आदि द्वारा मित्र ज्ञाति द्वारा प्रमुख जनों का सत्कार सन्मान करके फिर उसने उनके समक्ष इस प्रकार कहा-यह हमारा पुत्र कनक रय राजा के राज्य में उत्पन्न हुआ है-इस लिये यह "कनकध्वज" इम नामसे प्रसिद्ध होवे । इस के बाद यह पुत्र क्रमश वृद्धिंगत हुआ यावत्-भोग समर्थ हो गया-अर्थात् जवान युवा-बन गया । सू०५॥ સુધી ભારે ઉત્સવ ઉજવ્યો તેમજ ભેજન વગેરેથી મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પ્રમુખ લેકેને સાકાર અને ગુન્માન કરીને તેણે તેની સમક્ષ આ પ્રમાણે કહ્યું કે આ અમારે પુત્ર રાજા કન-5ના રાજ્યમાં ઉતન્ન થયે છે એથી એ“કનકદ વજ” નામે પ્રસિદ્ધ થાય ત્યાર પછી તે કનકધ્વજ સમય પસાર થતા ધીમે ધીમે મોટે થતા યાવત ભોગ સ થે થઈ ગયે એટલે કે જુવાન થઈ ગયે સૂર ૫ n
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालेन समये व्यतीते ' विगयसो ' गितगोर-शोरगीतो जात' । तन' स तेतलिपुत्र कौटुम्पिकपुरुषाग दास्यति, शन्दयिता पपमादन-'विपापेर' क्षिपमेर 'चारगसोहण' चारसयोवन धन्दीजनमोठण गान्मानो मानना पुत्रजन्मोत्सवनिमित्तक राजकर्मचारिणां वेतनाद्धयादिना सकारमम्मानन्दन कुरुतेः इत्येवरूपामाज्ञां दत्वा सय 'लिडिय 'म्पिनिपतिता कुलमर्यादान्तर्गत पुनजन्मनिंदशदिवससाध्यमहोत्सरस्पा ममिया करोति । पुनश्राशनाग्निा मित्र 'ज्ञातिप्रमुग्वान् सत्कृत्य सम्मान्य त पुरंत एर पथयति-'जन्दाण' यस्मात्सल कन्या का निर्हरण-उमशान में ले जाना-किया। निरण कर के फिर अनेक लौकिक मृतकृत्य किये। मृत कृत्य कर चुकने के बाद धीरे २ घे विगत शोक हो गये। (तएणसे तेतलिपुत्ते कोरियपुरिसे सदा घेह, सदायित्ता एव पयासी-सिप्पामेघ चारगमोहण जार टिइख्यि जम्हाण अम्हें पस दारए कणगरहस्मरले जाए त होउण दारए नामेण कणगज्झए जाव भोगसमत्थे जाग) इस के पाद तेतरि पुत्र अमात्यने कोटुम्पिक पुस्पो को धुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा-शीघ्र 'ही तुम लोग चारक शोधन करो-पन्दीजनों को मुक्त करो यावत् माना
मन का बर्द्धन, और पुत्र जन्मोत्सव के निमित्त को लेकर राज कर्म 'चोरिथ के घेतन की घृद्धि आदि करके उनके सन्मान का वर्द्धन करो'इस प्रकार आज्ञा देकर स्वयं उस तेतलिपुत्र अमात्यने अपनी कुल मर्यादा के अनुसार पुत्र का जन्म होने के कारण दश दिवस तक पड़ा - આ છે તે તેમના મુખથી આ વાત સાંભળીને કનકથ રાજાએ તે મરેલી કન્યાને મશાનમાં પહોંચાડી અને ત્યારબાદ તેણે મરણ પછીની ઘણી ક્રિયાઓ પૂરી કરી મરણ ક્રિયાઓને પતાવ્યા પછી રાજા કનકરથ ધીમે ધીમે શોક અહિત થઈ ગયા
त्तिएणें से तेतलिपुत्ते कोई वियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एव वयासीविप्पामेव चारगमोहण जाव ठिडवडिय,जम्हाणं अम्ह एस दारए कमगरहस्स ज्जे जाए त होउणे दारए नामेण क्णगज्झाए जाव भोगसमत्ये जाए)
ત્યારબાદ તેતલી પુત્ર અને પિતાના કૌટુંબિક પુરુષને બોલાવ્યા “અને બેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે–તમે લેકે સત્વરે ચારક શોધન કરે એટલે કે જેલખાનામાથી કેદીઓને છેડી મૂકે ચાવતું માનેન્માનનું ઉદ્ધન તેમજ પુત્ર જન્મોત્સવ બદલ રાજકર્મચારીઓના પગાર વગેરેની વૃદ્ધિ કરીને તેમના સમાનનું વર્લૅન કરે આ રીતે કટબિક પુરુષને આજ્ઞા આપીને તેતલિપુત્રે જાતે પિતાની કુલ મર્યાદા મુજબ પુત્ર જન્મ લેવા બદલ દશ દિવસે
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवपिणी टी० १० १४ तेतलिपुतप्रधानचरितवर्णनम् त्तकालसमए' पूर्वरात्रापररात्रकालसमा पश्चिमे भागे 'इमेयारूचे ' अप मेतद्रूपाक्ष्यमाणप्रकारः 'अज्झथिए जार' आध्यात्मिको यावत् मनोगत सकल्पः 'समुप्पनित्था' ममुदपद्यत, सरल्पमकारमाह-एर खलु अह ' तेतलिस्म' तेतले तेतलिपुत्रस्यामात्यस्य पूर्वम् इटा, कान्ता, प्रिया, मनोज्ञा, मनोऽमा 'आसि' आसम् , परन्तु 'इयाणि ' इदानीम् अनिष्टा यावद्-अमनोऽमा जाता। नेच्छति च तेतलिपुत्रः मम नाम यारत् परिभोग वा-मम नाम गोत्रमपि श्रोत नेच्छति किंपुन मम दर्शन मया सह परिभोग गा । इत्यमेपा पोहिला 'ओहय. मणसाप्पा' अपहतमनः सकल्पा-अपहतो-दुःखावेगवशाद् रुद्धो, मनः सकल्पोमानसिको रिचरो यस्या सा, 'जावझियायइ ' यावद् ध्यायति-यावताभ्यान करोति । ततः खलु तेतलिपुत्र पोट्टिलामपहतमनः सकल्पा 'जाव झियायमाणि' या कयाइ पुव्यावरत्तकालसमयसि इमेयास्वे अजस्थिर जाव समुप्पजित्या ) जर पोहिलाने अपनी तरफ तेतलि पुत्र अमात्य की इतनी अधिक उपेक्षा-अनादरता देवी तो एक दिन किसी समय उसे रात्रि के मध्यभाग में इस प्रकार का आयात्मिक यावत मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ-(एव खल अह तेतलिस्स पुन्वि इट्टा ५ आसिं, इयाणि अणिद्वा ५ जाया नछह य तेतलिपुत्ते मम नाम जाच परिभोग वा ओ हयमणसकप्पा जाव झियायड) में तेतलि पुत्र अमात्य के लिये पहिले इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम थी, परन्तु इस समय मे-उन्हे अनिष्ट योवत् अमनोम बन रही हैं। वे तेतलि पुत्र अमोत्य देखने और परिभोग करने की तो बात मौन कहे मेरे नामगोत्र तक को भी सुनना पसद नहीं करते है। इस तरह वह अपहतमनसकल्प होकर यावत् अत्यत्थिए जाच समुपनिया)
જ્યારે અમાત્ય તેતલિપુત્રને પિટિટલા એ પોતાના પ્રત્યે આટલી બધી ઉપેક્ષા અને અનાદરતા જોઈ ત્યારે કોઈ વખતે એક દિવસ રાત્રિને મધ્યભા ગમાં તેના મનમાં આ જાતને આધ્યાત્મિક કાવતું મને ગત સ૮૫ ઉત્પન્ન ચેથા કે
(एव खलु अह तेतलिस्स पुब्धि हा ५ आर्मि इयाणि अणिट्ठा ५ जाया नेच्छइ य तेतलिपुत्ते मम नाम जार मियायइ ) ।
પહેલા હુ તેતલિપુત્ર અમાત્યને માટે છે, કાત, પ્રિય, મને અને મનેમ હતી પણ હમણા હુ તેમના માટે અનિષ્ટથાવત અમનેમ થઈ પડી છુ તેતલિ પુત્ર અમાત્ય જ્યારે મારું નામ શૈત્ર સુદ્ધા સાભળવુ ઈછતા નથી ત્યારે મારી સામે જોવાની અને મારી સાથે પરિભેગની તો વાત જ શી કરવી ? આ રીતે તે પાટિયા અપહત મન સકલપ થઈને યાવત આન ધ્યાન કરતી બેઠી હતી
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानाधर्मकया समणमाहण जाव वणीमगाणं देयमाणी य दवावमाणी य विहराहि।तएण सा पोट्टिला तेतलिपुत्तेणं एवं वुत्तासमाणा हट्ठतुट्ठा तेयलिपुत्तस्त एयमंट पडिमुणित्ता, फ्ल्लाकल्लि महाणससि विपूल असण जाव दवावेमाणी विहरड ।।सू०६॥
टीका-'तएण' इत्यादि । ततः बल म पोटिला भयदा कदाविद केनापि कारणेन तेतलिपुत्रस्य अनिश, अकान्ता, अमिया, अमनोज्ञा, अमनोऽमा जाता चाप्यऽभवत् । नेच्छिन्ति च तेतलिपुनः पोहिलाया नाम गोतमपि 'सवण याए ' श्रवणतायै श्रूयतेऽनेनेति श्रवणं कर्म, तस्य कर्म असणवा तस्य, अषण विषयोकर्तुम् इत्यर्थ किं पुन तस्या ' दरिसग या दर्शन पा तया महपरिमोग वा, वान्छेत् , अपितु न । तत खलु तस्याः पोहिलाया अन्यदा कदाचित पुन्यरत्तावर
तण्ण सा पोटिला इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (सा पोहिला) वह प्रधानकी स्त्री पोहिला (अन्नया कयाइ) किसी समय-कोई निमित्त को लेकर-किसी भी कारण से-(तेतलिपुत्तस्स अणिट्ठा जाया यावि होत्था) तेतलिपुत्र के लिये अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज एव अमनोम बन गई । (णे च्छह तेतलिपुत्ते पोटिलाए नाम गोत्तमवि सवणयाए किं पुणदरिसण वा परिभोग वा) इस प्रकार वह तेतलिपुत्र उस पोहिला के नाम गोत्र तक को भी सुननो पसद नहीं करता तो फिर उसके देग्वने और परि• भोग पास जाने की तो बात ही क्या है। (तएण तीसे पोहिलाए अम
तएण सा पोट्टिला इत्यादि ॥
हाथ-(तएण) त्या२ पछी (सा पाहिला) ते समात्यनी पत्नी पाहिली (अ नया कयाइ) मते गमेत पारणे (तेतलिपुत्तस्स अणिट्ठा ५ जाया यावि होत्था) तेतलि पुत्रने माटे मनिष्ट, मन्त, मप्रिय आमना सन અમનેમ થઈ પડી
(णेच्छ तेतलिपुत्ते पोट्टिलाए नाम गोत्तमवि सवणयाए कि पुगदरिसण वा परिभोग वा )
એથી તેતલિપુત્ર અમાત્યને તેનું નામ ગેન સુદ્ધા સાભળવુ પણ પસંદ પતું ન હતું ત્યારે તેને જોવાની અને તેની પાસે જવાની તે વાત જ શી ?
(तएण तीसे पोहिलाए अन्नया कयाड पुधावरतकालममयसि इमेयारूचे
fy
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनेगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० ४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम्
,
पोट्टिला तेतलिपुत्रेण 'एन' पूर्वोक्तमकारेण उक्ता सती हृष्टतुष्टा तेतलिपुत्रस्य " एयमट्ट ' एतमर्थम् = अन्नदानरूपमभिप्राय 'पडिसुम' मतिशृणोति = स्वीकरोति, डिणित्ता ' मतिश्रुत्य = सोकृत्य, 'कलाकलि ' कल्याल्पि=मतिदिनम्, महानसे विपुलम् ' असण जाव' अशन यात्=अशनपानखाद्यस्वाद्य चतुर्निधमाहार पुस्कार्य ददती च ' दवावेमाणी ' दापयन्ती च विहरति ॥ ६ ॥
७
मूलम् - तेणं काले तेणं समएणं सुव्वयाओ नामं अज्जाओ ईरिया समियाओ जाव गुत्तवभयारिणीओ वहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुव्वि०चरमाणागामाणुगाम दुइजमाणा जेणामेत्र तेतलिपुरे जयरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता, अहापडि - रूवं उग्गहं उग्गिण्हंति, उग्गिहित्ता, सजमेणं तवसा अप्पाण भावेमाणिओ विहरति । तएण तासि सुव्त्रयाणं अजाण एगे संघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झाय करेइ जाव अडमाणे तेतलिस्स हि अणुपविट्टे । तएण सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एजमाणीओ पासइ, पासित्ता, हट्टतुट्टा आसणाओ अब्भुट्टेह, अब्भुट्टित्ता, वदइ, णमसइ, वदित्ता णमसित्ता, विउल असण जाव पडिलाभेइ, पडिलाभित्ता, एव वयासी - एवं खलु अहं अज्जाओ तेतलिपुत्तस्स पुत्रं
से दिलवाओ। इस तरह तेतलिपुत्र अमात्यने जब उस पोट्टिला से कहा- तो वह बहुत अधिक प्रसन्न एव सतुष्ट हुई । और उसने तेतलि - पुत्र की इस बात को मान लिया । मान करके वह प्रतिदिन भोजन शाला चारो प्रकार का आहार बनवा कर उसे श्रमण, माण आदि जनों के लिये स्वय देने लगी और दूसरों से दिल्वाने लगी | सू० ६ ॥
યાવર્તી યાચકે ને પાતે આપે અને બીજાએને હુકમ કરીને અપાવેા તેલિ પુત્ર અમાન્યે જ્યારે આ પ્રમાણે પેટ્ટિલાને કહ્યુ ત્યારે તે ખૂબજ પ્રસન્ન તેમજ સ તુષ્ટ થઈ ગઈ અને તેણે તેતલિપુત્રની આ વાત સ્વીકારી લીધી અને તે દરરાજ ભાજન શાળામા ચારે જાતના હારા બનાવડાવીને શ્રમણ બ્રાહ્મણુ વગેરે ને પાતે આહાર આપવાલાગી અને ખીજાએ દ્વારા અપાવવા લાગી સૂર
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
এখায় यावद् श्यायन्तीम्यादात यान फर्म तो पश्यति, ना मादन्-मा खडत हे देवानुप्रिये ! अपहनमनः सारपा 'जाम शियाहि यापदाया=यादातम्यान माकुरु । हे देवि च खलु मम 'महागसमि' महानसे-भोजनशालापान विपुलम् ' असण जार' अशन यार-मशनपान सादिम सादिम चतुर्विधमाघारम्
उवाखडावेहि ' उपस्कारय, ' उपरखडापित्ता' उपकार्य महण समण मारण जाव वणीमगाणं ' बहुभ्य बाणनामग याद नीपकेभ्य न्यारकेभ्यः, सय देयमाणी ' ददती च, अन्यैः 'दारेमागी' दापन्ती च विर। तत' खलु सा आर्तध्यान कर रही थी-(तरण तेतलिपुत्ते पोटिल ओत्यमणसंकप्प जाव शियायमाणि पासह, पासित्ता पत्र वयासी माण तुम देवाणुपिया ओहयमणसकप्पा जाव झियाहि, तुम च ण मम महाणससि विउल असणपाण खाइम साइम उवरसडाहि, उचरसदायित्ता यहण समः ण माण जाप वणीपगाण देयमाणी य दवावेमाणी य विराहि, ताणं सा पोट्टिला तेतलीपुत्तेण एव वुत्ता समाणा हद तुहा तेयलिपुत्सस्स एयमह पडिस्तुणेइ, पडिसुणित्ता कल्लाकल्लि महाणससि विपुल असण जाव दवावेमाणी विड) इतने मे तेतलिपुत्र ने उस अपहतमनः सकल्प होकर आर्तध्यान करती हुइ पोटिला को देखा तो देखकर उसने उससे कहा-हे देवानुप्रिये तुम अपहतमन सकल्प होकर आर्त यान मत करो-तुम तो मेरी भोजनशाला में विपुलमात्रा में अगन, पान, खादिम एच स्वादिम इस तरह चतुर्विध अहार बनवाओ धनवाकर उसे अनेक श्रमण ब्राह्मण यावत् याचकजनों के लिये स्वय दो और दूसरों
(तएण तेतलिपुत्त पोटिल ओहयमणसमप्प जाव झियायमाणि पासइ पासित्ता एव चयावी माण तुमे देवाणुप्पिया ओहह्यमणसकप्पा जाव झियादि, तुम चण मममहागससि निउल अमणपाण खाइम साइम उपक्खडादेहि, उवक्खडावित्ता बहूण समणमाहण जाव वीपगाण देयमाणी य दवावेमाणी य विहराहि तएण सा पोटिला तेतलिपुत्तेण एव वुत्ता समाणा हद्वतुद्वा तेयतिपुतस्स एयमह पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता कल्लाकाल्लि महागससि विपुल असण जार दवावेमाणी विहरह)
આટલામા અપહતમાન સંકલ્પ થઈને આર્તધ્યાન કરતી તે પિહિલાને અમાત્ય તેતલિપુત્રે જોઈ અને જોઈને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે-હે દેવાનુપ્રિયે! તમે અપહતમનસ ૧૫ થઈને આર્તદાન કરી નહિ-તમે મારી ભોજન શાળામા જઇને પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમ આમ ચાર જાતના આહાર બનાવડા અને બનાવડાવીને તેને ઘણા ,
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनेगारधर्मामृतपिणी टी० म०४ तेतलिपुत्रप्रघानचरितवर्णनम् ७ पोट्टिला तेतलिपुत्रेण एव ' पूर्वोक्तमकारेण उक्ता सती हटतुष्टा तेतलिपुत्रस्य 'एयमट्ठ' एतमर्थम् अन्नदानरूपमभिमाय पडिसुमई' प्रतिशृणोति-नीकरोति, पडिसृणिता' प्रतिश्रुत्य-स्वीकृत्य, 'कलाकलिं' कल्यालिप प्रतिदिनम् , महानसे विपुलम् ' असण जाव' अशन यानत् अशनपानवावस्त्राद्य चतुर्विधमाहार मुपस्कार्य ददती च ' दयावेमाणी ' दापयन्ती च विहरति ।। ६ ॥
मूलम्-तेण कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नाम अज्जाओ ईरियासमियाओजाव गुत्तवभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओपुवाणुपुवि०चरमाणागामाणुगाम दुइज्जमाणाजेणामेव तेतलिपुरे पयरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता, अहापडि. रूव उग्गहं उग्गिण्हंति, उग्गिणिहत्ता, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणिओविहरति । तएण तासिं सुव्वयाणं अजाण एगेसघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झाय करेइ जाव अडमाणे तेतलिस्त गिहं अणुपविट्रे। तएणसा पोट्रिलाताओअज्जाओ एजमाणीओ पासइ,पासित्ता, हट्टतुट्टा आसणाओ अन्भुट्टेड, अन्भुट्टित्ता, वदइ, णमसइ, वदित्ता णमसित्ता,विउलं असण जाव पडिलाभेइ, पडिलाभित्ता,एव वयासी-एवं खलु अहं अजाओ तेतलिपुत्तस्स पुरुवं से दिलवाओ । इस तरह तेतलिपुत्र अमात्यने जप उम पोट्टिला से कहा-तो वह बहुत अधिक प्रसन्न एव सतुष्ट हुई । और उमने तेतलिपुत्रकी इस यातको मान लिया। मान करके वह प्रतिदिन भोजन शाला में चारो प्रकार का आहार बनवा कर उसे श्रमण, माण आदि जनोंके लिये स्वय देने लगी और दूसरों से दिलवाने लगी ॥ सू० ६॥ થાવત્ યાચકોને પોતે આપે અને બીજાઓને હુકમ કરીને અપાશે તેૉલિ પુત્ર અમાત્યે જ્યારે આ પ્રમાણે પિદિલાને કહ્યું ત્યારે તે ખૂબ જ પ્રસન્ન તેમજ સતુષ્ટ થઈ ગઈ અને તેણે તેતલિપુત્રની આ વાત સ્વીકારી લીધી અને તે દરરોજ ભેજન શાળામાં ચારે જાતના આહારે બનાવડાવીને શ્રમણ બ્રાહ્મણ -22 .... माडा२ मा भने मीना दास अपार सी सूर
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
હૃદ
ताकाच
इा ५ आसि, इयाणि अणिट्टा जान दसण वा परिभोगं वा, तंतुभेणं अज्जाओ सिक्खियाओं बहुनायाओ बहुपढियाओ बहूणि गामागर जाव अहिउह वढूणं राईसर जाव गिहाई अणुपविसह, त अस्थि आइ भे अजाओ । केइ कहिंचि चुन जोए वा मंतजोए वा कम्मणजोए वा हिय उडावणे वा काउ डवणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा कोउयकम्मे वा भूइकम्मे वा मूले कदे छल्ली वल्ली, सिलिया वा गुलिया वा ओसहे वा भेसजे वा उवलद्धपुत्रे वा नेणाह तेतलिपुत्तस्स पुणरवि इट्टा ५ भवेज्जामि । तएताओ अज्जाओ पोहिलाए एव बुत्ताओ समाणीओ दो वि हत्थे कन्ने ठवेंति ठवित्ता, पोहिल एव वयासी - अम्हे ण देवाणुप्पिया । समणोओ निग्गंथिओ जाव गुत्तवभयारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्ह एयप्पयारं कन्नेहि वि णिसामेत्तए, किमग पुण उबदिसित्तए वा आयरित्तए वा ? अम्हेणं तव देवाणुप्पिया । विचित्त केवलि - पन्नत्त धम्म पडिकहिज्जाम । तएण सा पोटिला ताओ अज्जाओ एव वयासी - इच्छामि अज्जाओ। तुम्ह अतिए केवलिपन्नत्त धम्म निसामेत्तए, तएण ताओ अजाओ पोहिलाए विचित्त धम्म परिकहति । तएण सा पोट्टिला धम्म सोच्चा निसम्म
तुट्टा एव वयासी - सद्दहामि णं अज्जाओ । निग्गंथ पात्रयण जाव से जहिय तुब्भे वयह, इच्छामि ण अह तुम्भ अतिए पचाणुव्वइय जाव गिहिधम्म पडिवज्जित्तए, ot तरण "
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतर्षिणी टीon० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ३९ सा पोटिला तासि अज्जाण अतिए पचाणुब्वइय जाब गिहिधम्म पडिवज्जड, ताओ अज्जाओ वंदइ णमसइ, वर्दित्ता - मंसित्ता पडिविसज्जेड । तएणं सा पोटिला लमणोवासिया जाया जाव पडिलाभेमाणी विहरड ॥ सू०७ ॥ ___टीका--'तेण लेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये सुत्रतानाम आर्या ईर्यासमिता यावद् गुप्तवमचारिण्यो बहुश्रुता नहुपरिवाराः 'पुवाणुन्धि' पूर्वानुपूर्ध्या तीर्थकरपरम्परया विचरन्त्य 'जेगामेव ' यो तेतलिपुर नगर तौगो. पागच्छति, उपागत्य 'अहापडिरूव' यथामतिस्पम् यथाऊल्पम् 'उग्गह' अवग्रहम् धमत्यर्थमाज्ञाम् 'उग्गिण्डति' अपगृहन्ति याचन्ते, अनगृह्य 'सनमेण' सयमेन सप्तदशनिन, 'तवसा' तपसा द्वादशविधेन आत्मान भावयन्त्यो
तेण कालेणं तेण समएणं' इत्यादि । टीकार्थ-(तेणं कालेण तेण समएण) उस काल और उस समय में (सुव्ययाओ नाम अज्जाओ ईरिया समियाओ जाव गुत्तवभयारिणीओ पहुस्याओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुग्वि०जेणामेव तेयलिपुरेणयरेतेणेच उवागच्छद) सुव्रता नामकी आर्या तीर्थकर परपरा के अनुसार विहार करती हु उस तेतलिपुर नगर में आई । ये ईर्यासमिति आदि पाच समितियों की पालक थी-गुप्त ब्रह्मचारिणी थीं। बहुश्रुत थी। अनेक परिवार से युक्त थी । ( उचागच्छित्तो अहा पडिरूव उग्गह उग्गिण्ठंति, उग्गिण्डित्ता सजमेण तवसो अप्पाण भावेमाणीओ विहरति तण्णं
ते कालेण तेणं समपणे इत्यादि ॥
टी--(वेण कालेण वेण समण) a णे भने ते सभये (मुव्ययाभो नाम अज्जाओ ईरिया समियाओ जाव गुत्ताभयारिणीभी वहुस्सु याओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुन्धि० जेणामेव तेवलिपुरे णयरे तेणेव उवागच्छइ)
સુનતા નામની આર્યા તીર્થકર પર પરા મુજબ વિહાર કરતી તેતલિપુર નગરમાં આવી તે ઈસમિતિ વગેરે ૫ (પાંચ) સમિતિઓનું પાલન કરનારી હતી તેમજ ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી હતી તે બહુશ્રત તેમજ ઘણા પરિવારે થી વીટળાયેલી હતી • (नागच्छित्ता अहापडिस्व उग्गह उग्गिण्हति, उग्गिण्डित्ता मजमेणं तवमा
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापकणा इटा ५ आसि, इयाणि अणिट्टा५ जाप दसण वा परिभोगं वा, तं तुम्भेणं अज्जाओ सिक्खियाआ बहुनायाओ बहुपीढयाओ वहणि गामागर जाव आहिडह बहणं राईसर जाव गिहाइ अणुपविसह, त अस्थि आइ भे अजाओ । केह कहिंचि चुन्न जोए वा मतजोए वा कम्मणजोए वा हिय उड्डावणे वा काउ अवणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा कोउयकम्मे वा भूइकम्मे वा मूले कदे छल्ली वल्ही, सिलिया वा गुलिया वा ओसहे वा भेसज्जे वा उवलद्धपुवे वा जेणाह तेतलिपुत्तस्स पुणरवि इट्टा ५ भवेज्जामि । तएणं ताओ अज्जाओ पोहिलाए एव वुत्ताओ समाणीओ दो वि हत्थे कन्ने ठति ठवित्ता, पोटिल एव वयासी-अम्हे ण देवाणुप्पिया। समणीओ निग्गथिओ जाव गुत्तवभयारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्ह एयप्प. यार कन्नेहि वि णिसामेत्तए, किमग पुण उवदिसित्तए वा आयरित्तए वा ? अम्हेणं तव देवाणुप्पिया । विचित्त केवलि. पन्नत्त धम्म पडिकहिज्जामो। तएण सा पोटिला ताओ अज्जाओ एव वयासो-इच्छामि णं अज्जाओ। तुम्ह अतिए केवलिपन्नत्त धम्म निसामेत्तए, तएणं ताओ अज्जाओ पोहिलाए विचित्त धम्म परिकहति । तएण सा पोहिला धम्म सोच्चा निसम्म । हट्टतुट्ठा एव वयासी सदहामि णं अज्जाओ । णिग्गंथ पावयण जाव से जहिय तुम्भे वयह, इच्छामि ण अह तुब्भ अतिए । पचाणुव्वइय जाव गिहिधम्म पाडवाजत्तए, ; तएण ।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
आमगारमामृतावणी टी० भ० ४ तेतरिपुषप्रधानचरितवर्णम नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा, विपुलमशनपानखाद्यस्वरूपं चतुर्विधमाहार 'पडिलाभेड' प्रतिगम्भयविन्ददाति, पतिलम्म्य, एवमनदत्-एप खलु अहं हे आर्याः ! तेवलिपुत्रस्य पूर्वमिष्टा, कान्ता, प्रिया, मनोज्ञा, मनोऽमा, आसम् , परन्तु 'इयाणि' इदानीम् ' अणिहार जाव दंसणं परिभोगं वा' अनिष्टा५ यावत् दर्शन परिभोग वा साम्मत तेतलिपुत्रस्याऽहमनिष्टा अान्ता, अमिया, अमनोज्ञा, अमनोऽमा जाता, तस्मादेप तेतलिपुत्रो मम नामगोत्रमपि श्रोतु नेच्छति, कि पुनई आर्याः ! स मम दर्शन मया सह परिभोग या कथ पाञ्छेत् ? । 'त तुम्मेण मुठेइ ) देखकर वर परत अधिक प्रमन्न हुई, और अपने स्थान से उठी (अन्भुट्टित्ता वदह णमसइ, पदित्ता, णमसिसा विउल अमण जाव पडिलाभित्ता एव चयासी) उठकर उसने उसको घदना की-नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके फिर उसने उन्हें विपुल मात्रा में अशन पान आदि चतुर्विध आहार दिया-और दे कर वह इस प्रकार करने लगी-( एव खल अह अज्जाओ। तेतलिपुत्तरस पुन्च इट्ठा५ आसि, इयाणि अणिहा ५ जाघ दसणं घा परिभोग घा-स तुम्भेणं अज्जाओ सिक्खियाओ योनायाओ घाटुपठियाओ यहणि गामागार जाव अहिंउह, यहणं राईसर जाच गिहाइ अणुपविसइ ) हे आर्याओ! पहिले मैं तेतलिपुत्र अमात्य के लिये बहुत ही इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एव मनोम थी परन्तु अब इस समय में उनके लिये अनिष्ट, अकान्त,
अप्रिय, अमनोज एव अमनोम बन रही हैं। वे मेरा नाम गोत्र तक 'भी सुनना पसद नहीं करते है तो फिर मेरे साथ परिभोग करने की
(अभुट्टिना उदइ णमसइ, वदित्ता, णमसित्ता विउल असण जार पडिलाइ 'पडिलाभित्ता एव वयासी)
ઊભી થઈને તેણે તેમને નમન કર્યા વદન અને નમન કરીને તેણે તેમને પુષ્કળ પ્રમાણમાં અપાન, પાન વગેરે ચાર જાતના આહાર આપ્યા અને આપીને તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગી કે
(एव विलु अह अज्जाओ । तेतलिपुत्तस्स पुन्य इहा ५ आसि, इयाणि ५ दसण या पग्भिोग वा त तुम्भेण अज्जाओ सिक्खियाओ पहुनायाओ वहुपढि___ पामो मणि गामागर जाव अहिंडइ, वहूण राईसर जाव गिहाइ अणुपविसइ)
હૈ આઓ ! હું પહેલા તેતલિપુત્ર અમાત્યના માટે ખૂબ જ ઈદ, કાત, પ્રિલ, મનજ્ઞ અને મનેમ હતી પણ હવે હું તેમને માટે અનિષ્ટ, અકાત, અપ્રિય, અમનેશ અને અમનેમ થઈ પડી છુ તેઓ મારા નામ ગોત્ર સુદ્ધા સાભળના ઈરતા નથી ત્યારે મારી સામે પરિભેગ કરવાની અને મને જોવાની
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
सावधान विहरन्ति । तत खलु तासा मुततानामाांगामे का सघाटकः प्रथमाया पौरुभ्याम् स्वाध्याय-ग्रनमूलपठनरूप ररोति, 'जाप गडमाणे ' यापदटन्त्याः , याव दाद 'द्वितीयस्यां पौम्या मनाचिन्तनरूप ध्यान करोति, उतीयस्था पौरुष्या सुव्रतामा मापन्य उच्चनी मध्यमकुलेषु गृहमामुदानिकभिक्षार्थमटन इत्ययों बोध्यः, तेतले हमनुमविष्टः । तत खलु सा पोटिला ताः सचटकन्या. आर्या एजमानाः पश्यति, दृष्ट्वा, हृष्टतष्टा आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युन्याय पन्दते तासि सुनायाण अजाणं गगे सपाइए पढमाए पोरिमीप सज्मायकरेड, जाव अउमाणे तेतलिस्स गिहं अणुपवि) वहा आ कर उन्होंने यधाकल्प ठहरने की आज्ञा मागी-मांगकर फिर वे १७ सतरर प्रकारके सयमऔर १२ बारह प्रकार के तपसे अपने आपको वामित करती हुई ठहर गई। इन सुबता आर्या का एक सघाटक था जो प्रथम पोरुपी में स्वाध्याय करता-द्वितीय पौरपीमें सूत्रार्थका चिन्तनरूप ध्यान करता और तृतीय पौरुषीमें सुव्रता आर्या की आज्ञासे ऊँच नीच एव मध्यम कुलोंमें भिक्षा के लिये अटन करता । इस तरह वह सघाटक (सघाडा)तृतीय पौरपीमें इन उच्चादि घरों मे भिक्षार्थ अटन करता हुआ तेतलिपुत्र अमात्य के घर पर आया (तएणं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पा सइ) इतने में उस पोटिलाने उन सघाटकस्थ आर्याओ को ज्यों ही 'अपने घर पर आया हुआ देखा तो (पासित्ता हतुहा आसणाओ अ
अप्पाण भावेमाणीओ विहरति तएण तासिं सुबायाण अजाण एगेसघाडए -पढमाए पोरिसीए सज्झाय करेइ जाव अडमाणे तेतलिस्स गिह अणुपनिटे)
ત્યાં આવીને તેમણે થાક૫ (સાધુકલ્પ પ્રમાણે) રહેવાની આજ્ઞા માગી અને ત્યારપછી તે ૧૭ જાતના સ યમ અને ૧૨ જાતના તપ વડે પિતાની જાતને વાસિત કરતા તે ત્યા રેકાઈ સુનતા આર્યાને એક સ ઘાટક હને જે પ્રથમ પિરૂવીમા સ્વાધ્યાય કરતે હ, દ્વિતીય પરૂપીમાં સૂત્રાર્થેનું ચિ તન ૩૫ ધ્યાન કરતે અને તૃતીય પૌરૂષીમાં સુનતા આર્યાની આજ્ઞા મેળવીને ઊંચા, નીચા અને મધ્યમ કુળમાં ગોચરી માટે જતા હતા આ પ્રમાણે તે સ ઘાટક તૃતીય
વીમા ઉપરેત Cચા વગેરે કુળોના ઘરોમાં ગેચરી માટે ફરતા ફરતા ! ततनिधुन अमात्यने त्या मान्यो (तएण सा पोटिला ताओ अजाओ एज माणी मो पासइ) पाहिलाये ॥२ सपाट २५ मार्यामाने पाताने घेराबी न त्यारे त (पासित्ता हट्ट तुट्ठा आसणाओ अभुठेह) नन मार પ્રસન્ન થઈ અને પિતાના આસનથી ઊભી થઈ ?
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
मगारधामृतपाणी टी० म० ४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णसम नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा, विपुलमशनपानखाद्यस्वाधरूप चतुर्विधमाहार “पडिलाभेइ ' प्रतिलम्भयतिन्ददाति, प्रतिलम्य, एवमवदत्-पप ग्वलु अह हे आर्याः ! तेतलिपुत्रस्य पूर्वमिष्टा, कान्ता, प्रिया, मनोज्ञा, मनोऽमा, आसम् , परन्तु 'इयाणि' इदानीम् ' अणिहार जाव दसणं परिभोग वा' अनिष्टा५ यात् दर्शन परिभोग वा साम्मत तेतलिपुत्रस्याऽहमनिष्टाअकान्ता, अमिया, अमनोज्ञा, अमनोऽमा जाता, तस्मादेप तेतरिपुत्रो मम नामगोत्रमपि श्रोतु नेच्छति, किं पुनई आर्याः । स मम दर्शन मया सह परिभोग या कथ वाञ्छेत् १ । 'त तुम्मेण मुटेइ ) देखकर वह यहुत अधिक प्रमन्न हुई, और अपने स्थान से उठी (अन्भुहिता चदा णमंसइ, पदित्ता, णमसित्सा विउल असण जाय पडिलाभित्ता एव चयासी) उठकर उसने उसको बदना की-नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके फिर उसने उन्हें विपुल मात्रा में अगन पान आदि चतुर्विध आहार दिया और दे कर वह इस प्रकार करने लगी-( एव खल अह अज्जाओ। तेतरि पुत्तरस पुष्व इन्हा ५ आसि, इयाणि अणिवा ५ जाव दसणं या परिभोग वा-सं तुम्भेण अज्जाओ सिक्खियाओ पहुनायाओ घाटपढियाओ घडणि गामागार जाव अहिंडह, यदृण राईसर जा गिहाइ अणुपषिसह ) हे आर्याओ! पहिले मैं तेतलिपुत्र अमात्य के लिये बहुत ही इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज एव मनोम थी परन्तु अघ इस समय में उनके लिये अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज एच अमनोम धन रही हूँ । वे मेरा नाम गोत्र तक भी सुनना पसद नहीं करते हैं तो फिर मेरे साथ परिभोग करने की __ (अन्भुट्टित्ता बदह णमसइ वदित्ता, णमसित्ता विउल अमण जार पडिलाभेइ पडिलाभित्ता एव वयासी)
ઊભી થઈને તેણે તેમને નમન કર્યા વદન અને નમન કરીને તેણે તેમને પુષ્કળ પ્રમાણમાં અરાન, પાન વગેરે ચાર જાતના આહારો આપ્યા અને આપીને તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગી કે
(एव खलु अहं अज्जाओ । तेतलिपुत्तस्स पुष इट्टा ५ आसि, इयाणि ५ दसण मा पग्भिोग वा त तुन्भेणं अज्जाओ सिविखयाओ बहुनायाओ बहुपदियाभो ब्राणि गामागर जाव अहिंडड, वहण राईसर जाव गिहाइ अणुपविसइ)
આઓ! હું પહેલા તેતલિપુત્ર અમાત્યના માટે ખૂબ જ ઈચ્છ, કાત, પ્રિન, મન અને મમ હતી પણ હવે હું તેમના માટે અનિષ્ટ, અકાત, અપ્રિય, અમન અને અમનેમ થઈ પડી છુ તેઓ મારા નામ નેત્ર સુદ્ધા સાભળવા ઇરતા નથી ત્યારે મારી સામે પરિભેગા કરવાની અને મને જોવાની
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
_ rent अज्जाओ' इति, तस-तस्मात् कारणात् यूयं खस आर्याः ! 'सिविषयामो' शिक्षिता शिक्षा माता, 'पहुणायाभो ' परमाणा-अनेकशास्त्रज्ञाननिपुणा 'यहूपढियाओ' बहुपठिता नानाविधविधाकुशलाः स्थः पुनः 'यहणि गामागर जार अहिंडह ' यानि नामाकर 'यायत् भादिण्डय-बापु ग्रामारनगरादिपु परि भ्रमण कुरुथ । तथा च 'यहण राईसर जाप गिहाइ अशुपधिगइ रहना राजेपर यावद् गृहाणि अनुमयिशय-हे आर्याः । यूय बाना राजेश्वर तलपरष्ठि सेना पत्यादीना गृहे मवेश फुरुथ, 'त'तत्-तस्मात् कारणात् 'अस्थि अइ मे अज्जाभो। अस्ति भाइ युप्मायमार्या ! 'भाइ' इति वाक्यालड़ारे देशी शतः। हे आयो। अस्ति 'केइ कहि चि' कोऽपि कुत्रचित-युप्माफ ज्ञानविपये 'चुभनोए वा' चूर्णयोगो वा-चूर्णाना द्रव्यचूर्णानां योगः, स्तम्भनादिकर्मकारी, 'मतजोए का" मन्त्रयोगो वा-मन्त्राणां योगो व्यापारी का वशीकरणादि मन्त्रयोग 'कम्मणजोए
और देखने की उनकी पात ही क्या कहूँ इस लिये हे आर्याओ। भाप सब तो शिक्षित हैं, पहज्ञाता है-अनेक शास्त्रों के ज्ञानसे निपुण हैंबहुपठित हैं-नाना प्रकार की विद्याओं में कुशल हैं-अनेक ग्राम, आकर
आदि स्थानों में विहार करती रहती है, अनेक राजेश्वर आदिको के घरो में आती जाती रहती हैं (त अस्थिआइ भे अजाओ) तो हे आर्याओ ! (देह कहिं चि चुन्नज्जोएवा) की कोई चूर्ण योग-द्रव्य चूर्णा का स्तम्भनादि कर्मकारी योग (मतजोए वो कम्मणजोए वा हिय उड्डानणे वा, काउड्डावणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा, कोउयकम्मे वा, भूइकम्मे चा मूले, कदे छल्ली, घल्ली, सिलिया, वा, गुलिया वा, ओसहे वा, भेसज्जे वा, उवलद्धपुत्वे वा जेणाह तेतलिपुत्त स्स पुणरवि इट्ठा ५ भवेज्जामि) मत्र योग-वशीकरण आदि मत्रों का તો વાત જ કયા રહી? એથી હું આ તમે સી શિક્ષિતા છે, બહાતા છે એટલે કે ઘણા શાસ્ત્રોના જ્ઞાનથી નિપુણ છે, બહુપ ડિતા છે-અનેક જાતની વિદ્યાઓમાં કુશળ છે, ઘણું ગામ, આકર રથમાં વિહાર કરતા રહે છે, भने घय राजेश्वर पगेन भसामा मा ४२॥ २२॥ छ। ( त अस्थिआइ भे अजाओ) तो मायाय।। (केइ कहि चिचुन्नज्जोएवा) या ગમે તે ચૂર્ણ ચગ-દ્રવ્ય ચુણેને સ્ત ભન વગેરેને રોગ,
(मतजोएवा कम्मणजीए वा हिय उड्डावणे वा, काउडावणे वा अभि भोगिए वा वसीकरणे वा, कोउयकम्मे वा, भूइकम्मे वा मूले कदे छल्ली पल्ली सिलिया, या गुलिया वा, मोसहे वा, मेमज्जे या उबलद्धपुग्वे वा जेणाह तेतलि पुनस्स पुणरवि इवा भवेन्जामि)
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टो० अ० ४ तेतलिपुत्रप्रधानधरितवर्णनम् वा' कार्मणयोगो वा उच्चाटनादिकर्मयोगो वा, 'हिय उट्ठावणे वा 'हृदयोड्रायन पा-चित्ताकर्षकवस्तुविशेपो वा 'काउड्डायने या' कायोडायन वा शरीराकरस्तुविशेगो या 'आभियोगिए गा' आभियोगिको पा, पराभवकरणयोगो गा, वमोकरणे वा ' रशीकरण पावशीकरणयोगों वा, कोउयकम्मे वा' कौतुकधर्म वा-मीमाग्यवर्द्ध कस्नानादि या 'भूइकम्मे वा' भूतिकर्म वा मन्त्राभिमन्त्रितभस्ममलेपण वा तया-औपपीना 'मूले' मूलम् ‘कदे' कन्दः 'छल्ली ' त्वर 'पल्ली' लता - सिलिया या' शिलिका-तृणविशेषः, 'गुलिया' गुलिका गुटिका 'मोसहे वा भेसज्जे वा' औषध वा भैपज्य वा, इत्यादिक वस्तुजात युष्माभिः उपलद्धपुब्वे ' उपलब्धपूर्वम्-माप्तपूर्वम् , हे आर्याः भवत्य एषु किमपि उपलब्धपूर्वा अवश्य भवेयुः, तत्कृपया मह्यमर्पय, 'जेगाह' येनादम् , यत्सेवनादह तेतलिपुरत्य पुनरपि इप्टा कान्ता मियामनोज्ञामनोऽमा भवेयम् । ततः खलु ता आर्याः पोट्टिलाया एवमुक्ता. सत्यो द्वानपि हस्तौ कणे स्थापयन्ति, स्थापयित्वा योग कामेण योग-उच्चाटन आदि मत्रो का योग हृदयोड्डीयनचित्तारुर्पक वस्तु विशेप का योग, कायोडायन-शरीराकर्षक वस्तु विशेपका योग, आभियोगिक-पराभव करन का योग, वशीकरणवशीकरण योग, कौतुक कर्म-सौभाग्यवर्द्धक स्नान आदि का योग, भूति कर्म-मत्रादि से अभिमत्रित भस्म के प्रक्षेपण करने रूप योग तथा
ओपधियों के मूल, कद त्वक-छाल तथा लता, शिलिका-तृण विशेष गोली, औषध-भज्य इत्यादि वस्तुओं का योग आरके देखने में अमर आया शेगा-इस लिये कृगकर इनमें से कोई न कोई योग आप हम अवश्य-अवश्य प्रदान करे कि जिसमे म-जिम के सेवन से मैं-तेत लिपुत्र को पुनरपि इट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एव मनोम बन जाऊँ (तएण ताआ अज्जाओ पाहिलाए एव वुत्ताओसमाणाओ दावि हत्थेकन्ने ठवे ति,
મત્રોગવશીકરણ વગેરે મિત્રોને ગ–કામણગ, ઉચ્ચારણ વગેરે મત્રને યોગ, હદયેહાવન-ચિત્તાકર્ષક વસ્તુ વિશેષને વેગ, આમિગિકપરભવ કરવાની યોગ, વશીકર-વશીકરણ ગ, કૌતુકકમ–સૌભાગ્યવક સ્નાન વગેરેને યોગ, ભૂતિર્મ–ત્ર વગેરથી અભિમંત્રિત કરીને ભસ્મ (રાખેડી) નું પ્રક્ષેપણ રૂપ યોગ તેમજ ઔષધીઓના મૂડી, કદ, વક (છાલ) તેમજ લતા, રિલિકા-તૃણ વિશેષ ગેળી, ઓષધ, દૈવજન વગેરે વસ્તુઓને
ગ તારા જોવામાં વાક્કસ ભાગ્યે જ હરો એટલા માટે તમે કૃપા કરીને એમાવા ગમે તે યોગ અને ચોક્કસ આપે કે જેને તેનાથી હું ફરી તેતવિ પતની ઈટ માત પિય સમાન છે અને મનેમ થઈ જાઊં
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३
• Arrernardo verspend
.
1
3
,
अज्जाथी' इति, तत= तस्मात् कारणात् यूथ सह हे आर्याः । मिक्खियाओ ? शिक्षिता = शिक्षां माप्ता, बहुणायाओ' पहुशाराः = अनेकशास्त्रज्ञाननिपुणा! 'बहूपढियाओ' बहुपठिता'=नानाविधविधाकुशलाः स्थः पुनः ' धणि गामागर जाड' बहूनि ग्रामाकर यावद आद्दिण्डप=यहुपु ग्रामाकरनगरादिषु परि भ्रमण कुरुथ । तथा च ' ग्रहण राईसर जाव गिहाई अणुपत्रिम' हूना राजेश्वर यावद् गृहाणि अनुमविशथ = हे आर्याः । यूय बहूना राजेश्वर तपरश्रेष्ठ सेनापत्यादीना गृहे प्रवेश कुरुथ, ' व ' तत् = तस्मात् कारणात् 'अत्थि भइ मे अज्जाओ ।' अस्ति आइ युष्माकमार्या ! ' थाइ ' इति वाक्यालङ्कारे देशी शब्दः । हे आयोः ! अस्ति ' केइ कहिं चि ' कोऽपि कुत्रचित् युष्माक ज्ञानविषये ' 'घुम्नजोए बा चूर्णयोगो वा चूर्णाना द्रव्यचूर्णानां योगः स्वम्भनादिकर्मकारी, 'मतजीए वा मन्त्रयोगो वा मन्त्राणां योगो व्यापारो वा वशीकरणादि मन्त्रयोग 'कम्मणजोर और देखने की उनकी बात ही क्या कहूँ इस लिये हे आर्याओ ! आप सब तो शिक्षित हैं, पहुज्ञाता है-अनेक शास्त्रों के ज्ञानसे निपुण हैंबहुपठित हैं - नाना प्रकार की विधाओं में कुशल हैं- अनेक ग्राम, आकर आदि स्थानों में विहार करती रहती है, अनेक राजेश्वर आदिकों के घरों में आती जाती रहती हैं ( त अत्थिआइ भे अज्जाओ ) तो हे आर्याओ | ( वेइ कहिं वि चुन्नज्जोएवा) करो कोई चूर्ण योग - द्रव्य चूर्णा का स्तम्भनादि कर्मकारी योग ( मतजोए वो कम्मणजोए वा हिय उड्डाणे वा, काउड्डावणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा, कोकम्मे वा, भूइकम्मे वा मृले कदे छल्ली, बल्ली, सिलिया, वा, गुलिया वा ओसहे वा, भेसज्जे वा, उवलद्धपुन्वे वा जेणाह तेतलिपुत्त स्स पुणरवि इट्ठा ५ भवेज्जामि ) मत्र योग - वशीकरण आदि सत्रों का
તે વાત જ કયા રહી ? એથી હું આર્યોએ તમે સૌ શિક્ષિતા છે, મહુજ્ઞાતા છે એટલે કે ઘણા શાસ્રોના જ્ઞાનથી નિપુણ છે, બહુપડિતા અનેક જાતની વિદ્યાએમા કુશળ છે, ઘણા ગામ, આકર રચાનામા વિહાર કરતા રહા છે, અને ઘણા રાજેશ્વર વગેરેંના મહેલામા` આવજા કરતા રહે છે. ( સ અરિય आइ में अज्जाओ ) तो हे आयगी । ( केइ कहि चिचुन्नज्जोएवा ) કાક ગમે તે ચૂ યાગ-દ્રષ્ય ચૂર્ણાના સ્તભન વગેરેને ચેાગ,
अभि
( मतजोएवा कम्मणजोए वा हिय उड्डावणे वा काउड्डाणे ओगिए वा वसीकरणे वा, कोउयक्म्मे वा, भूइकम्मे वा मूले कदे छल्ली वल्ली सिलिया, वा गुलिया वा, ओसहे वा, भेमज्जे वा उबलद्वपुब्वे वा जेणाह तेतलि पुनस्स पुणरपि इट्ठा ५ भवेज्जामि )
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगरधर्मामृतपिणी टी० अ० ४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम्
४३
,
}
वा' कार्मणयोगो वा उच्चाटनादिकर्मयोगो वा 'दिय उड्डावणे वा हृदयोडायन वा = चित्ताकर्षक वस्तु विशेषो वा 'काउट्टायने वा' कायोड्डायन वा शरीरा कस्तुविशे'आभियोगिएन' आभियोगिको ना, = पराभव करणयोगो 'करणे वा शीकरण =शीकरण नोगो वा, 'कोउयकम्मे वा 'कौतुकधर्म वा = मौभाग्यवर्द्धकस्नानादि वा 'भूइकम्मे वा' भूतिकर्म ना = मन्त्राभिमन्त्रितभस्मगलेपण वा तथा औपनीना 'मूळे ' मूलम् ' कदे ' क्रन्दः ' छल्ली ' त्वरु 'बल्ली ' लता ' सिलिया वा शिलिका = तृणविशेषः, ' गुलिया ' गुलिका= गुटिका' जोस वा भेज्जे वा औषध वा भैषज्य वा, इत्यादिक वस्तुजात युष्माभिः ‘उअलद्धपुच्चे ' उपपूर्वम्-माप्तपूर्वम्, हे आर्याः । भवत्य एषु किमपि उपलब्धपूर्वा अवश्य भवेयुः, तत्कृपया मद्यमर्पय, 'जेगाह' येनाहम्, यत्सेवनादह तेतलिपुत्य पुनरपि इष्टा कान्ता प्रियामनोज्ञामनोऽमा भवेयम् । ततः खलु ता आर्या पोट्टिलाया एवमुक्ता सत्यो द्वानपि हस्तो कर्णे स्थापयन्ति, स्थापयित्वा योग कार्मण योग- उच्चाटन आदि मंत्रो का योग हृदयोडीयनचित्ताकर्षक वस्तु विशेष का योग, कायोडायन - शरीराकर्षक वस्तु विशेषका योग, आभियोगिक पराभव करन का योग, वशीकरणवशीकरण योग, कौतुक कर्म - सौभाग्यवर्द्धक स्नान आदि का योग, भूति कर्म-मत्रादि से अभिमन्त्रित भस्म के प्रक्षेपण करने रूप योग तथा औषधियों के मूल, कद त्यक-छाल तथा लता, शिलिका-तृण विशेष गोली, औषध- नवज्य इत्यादि वस्तुओं का योग आपके देखने में अब आया होगा- इस लिये कृपाकर इनमें से कोई न कोई योग आप हम अवश्य - अवश्य प्रदान करे कि जिसमे में जिम के सेवन से मैं-तेतलिपुत्र को पुनरपि इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एव मनोम बन जाऊँ (तएण ताओ अज्जाओ पाहिलाए एव वुत्ताओ समाणाओ दावि हत्थे कन्ने ठवे ति,
ܕ
મત્રયાગ-વશીકરણ વગેરે મત્રાના યાગ કામ ણુયેગ, ઉચ્ચારણુ વગેરે મત્રાનેા યા, હૃદયાાવન–ચિત્તાકર્ષક વસ્તુ વિશેષના ગ, આક્રિયાગિકપરાભક્ષ્ય કરવાના યાગ, વાંકરજી—વશીકરણ ચેાગ, કૌતુક-સૌભાગ્યવ ક
સ્નાન વગેરેને ચેાગ, ભૂનિકમ-ત્ર વગેરેથી અભિમત્રિત કરીને ભમ્મ (रामोडी) नु अक्षेप ३५ योग तेभर मो धोना भूग, ४६, १५ ( छास ) तेन बता, रिसिभ तृषु विशेष गोजी, सोषध, लैपन्नू वगेरे वस्तुमाना ચેગ તનારા જોવામાં ચોક્કસ આવ્યા જ હરો એટલા માટે તમે કૃપા કરીને એમાય ગમે તે યાગ મને ચાન આપી ઠં જેના સેવનથી હુ કરી તેતાલે ધનની ક્રિત, ત્રિય, મનાજ્ઞ અર્ન મનામ થઈ જાઊં
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
कमाल पोहिलाम् एवमवदन-पय खलु हे देवानुप्रिये ! श्रमण्यो निम्रप , पायाभ्यन्तरग्रन्धि रहिता , यारद् गुप्तवानवारिण्यः, नो खलु कल्पतेऽस्मारम् 'एयप्पयार' एतत्यकार-कोरपि 'गिसामेत्तए' निशामयितु-श्रोतु न पल्पत इति पूर्वेण सम्बया। 'अङ्ग इति सम्मोधने ' हे पोहिले ! किथ पुन, 'उपदिसित्तए वा ' उपदेष्टुम् वा, स्वयम् 'आयरित्तए पा' आचरितु या कल्पते । न कल्पतात्पर्यः, उप स्खल तव हे देवानुप्रिये विचित्र केलिपशप्तं धर्म परिकथयामः । ततः सल सा पोहिला ठावित्ता पोट्टिल एव चयासी-अम्हेण देवाणुप्पिया समणीओनिग्गयीओ जाव गुत्तयभयारिणीओ, नो खलु फप्पई अम्ह एयप्पयारकन्नेहि वि निसामित्तए किमग उचदिसित्तए वा, आयरिता वा। अम्र ण तब देवाणुप्पिया ! विवित्त केवलिपन्नत्त धम्म पडिकरिज्जामो) इस प्रकार उस पोहिला के द्वारा कहीं गई उन आर्याओं ने अपने दोनों कानोंपर हाथ रख लिये-और रख कर पोहिला से इस प्रकार करने लगी। -देवानुप्रिये ! हम तो निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ है, नव कोटि से पूर्ण ब्रह्मचर्यको हम पोलती हैं। हमें तुम्हारी ऐसी याते कानों से सुनना भी कल्पित नहीं हैं तो फिर हे पुत्रि ! हम इनका उपदेश तुम्हें कैसे दे सकते हैंऔर स्वय भी इनका आचरण कैसे कर सकता हैं। अर्थात् इन बातों का उपदेश देना और स्वय इनको अपने आचरण में लाना यह सब हमारे कल्प के अनुसार निषिद्ध है । हम तो हे देवानुप्रिये तेरे हिसके __ (तएण ताओ अज्जाओ पोहिलाए एवयुत्ताओ समाणीओ दो वि हत्थे कन्ने उचति, ठावित्ता पोट्टिल एप वयासी अम्हेण देवाणुप्पिया ! समणीओ निग्गथीओ जाव गुत्तवभयारिणीओ, नो ग्वलु कैप्पड अम्ह एयप्पयारकन्नेहि वि निसामित्तए किमग उदिसित्तए वा, आयरित्तए ना! अम्ह ण तब देवाणुपिया विचित्त केवलिपन्नत्त धम्म पडिकहिज्जामो)
આ પ્રમાણે પિહિલાની વાત સાંભળીને તે આર્થીઓએ પિતાના અને કોને ઉપર હાથ મૂકી દીધા અને મૂકીને એમ કહેવા લાગી હે દેવાનુપ્રિયે ! અમે તે નિર્ચ થ શ્રમણીએ છીએ નવવાડ સહિત બ્રહ્મચર્યનું અમે પાલન કરીએ છીએ કે પુત્રિ' તમારી એવી વાતે અમારા માટે કાનથી સાભળવી પણ ચેોગ્ય લેખાય નહિ ત્યારે તેના વિશે ઉપદેશની વાત તો સાવ અગ્વજ છે અમે આ વિશે તમને કોઈ પણ જાતને ઉપદેશ પણ આપી શકીએ નહીં તે પછી જાતે આનું આચરણ કેવી રીતે કરી શકીએ ? એટલે કે આ બાબ તને ઉપદેશ આપવો તેમજ પોતે આનું આચરણું કરવું તે , રાકલ્પ
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधाममणिो टीका १०८ ते तलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ४५ ता आर्या एवमवादीत्-इन्छामि खलु हे आर्याः ! युष्माकमन्तिके केवलिप्रज्ञप्त धर्म निशामयितुम् श्रोतम् । ततः खलु सा पोट्टिला धर्म श्रुत्या 'निसम्म' निशम्य हृदयेनाधायें हप्टतुप्टा एमवादी-श्रद्दधामि खलु हे आर्या ! नग्रन्थ्य प्रवचन यापन् ' से ' तत् तथैव ययैतद् यूय वदथ । हे आर्याः ! 'इन्छामिण' इच्छामि खलु अह युष्माकमन्तिके 'पचाणुन्बय जाब गिहिधम्म' पञ्चाशुप्रतिक यावत् गृहिधर्म 'पडिवज्जित्तए' प्रतिपत्तु-स्वीकर्तुम् । अनन्तर ता आर्या एवमवा लिये विचित्र केलि प्रज्ञप्त धर्मका उपदेश कहते हैं ( सो त सुन)(तएण सा पोहिलाताओ अज्जाओ एव वयासी इच्छामि ण अज्जाओ तुम्ह अतिर केरिपन्नत्ते धम्म निसामेत्तए-ताण ताओ अज्जाभो पोटिलाए विचित्तधम्म परिकति ) उनकी इस प्रकार यात सुन कर उस पोटिलाने उनसे कहा-हे आर्याओ! मैं आप लोगों के मुग्व से केवलि मज्ञप्त धर्म सुनना चाहती हु । पोहिला की ऐसी प्रार्थना सुन कर उन आर्याओं ने उस पोहिला के लिये विचित्र केवलि प्रजप्त धर्म सुनाया (तएण सा पोटिला धम्म सोच्चा निसम्म तुट्ठा एच वयानी ) उन के मुखसे केवलि प्रजप्त धर्म सुन कर और उसे अपने हृदयमे अवधृत कर अत्यन्त हर्षित एव सतुष्ट हुई उस पोहिलाने उनसे ऐसा कहा (सहशामिण अज्जाओ।णिगंथ पावयणं जाव से जहिय तुम्मे चयह, इच्छामि ण अह तुम्भ अतिए पचाणुव्वइय जाव गिहिधम्म पडिवजि त्तए-अहासुह, तएण सा पोटिला तासिं अजाण अतिए पचाणुग्वइय મુજબ અગ્ય ગણાય છે કે દેવાનુપ્રિયે ! અમે તે તારા હિત માટે વિચિત્ર કેવળિપ્રજ્ઞસ ધર્મને ઉપદેશ આપીએ છીએ તેને તું સાભળ. ___ (तएण सा पोटिला ताओ अज्जाओ एव क्यासी इच्छामि ण अज्जाओ ! तुम्हें अतिए केवलिपनत्ते धम्म निसामेत्तए-त्तएण ताओ अज्जाओ पोहिलाए विचितं धम्म परिकहति)
તેમની આ જાતની વાત સાંભળીને તે પિદિલાએ તેમને એમ કહ્યું કે હે આર્થીઓ ! તમારા મુખથી હું કેવળી પ્રજ્ઞસ ધમને સાંભળવા ઈચ્છું છું પિહિલાની એવી વિનતી સાભળીને તે આર્થીઓએ તેને વિચિત્ર કેવળિ પ્રજ્ઞમ धमन। पहेश माध्य। (तएण सा पोट्टिला धम्म सोच्छा निसम्म हट-तटा एव वयासी) तमना भुमची जी प्रशस धनु श्रवधु शन तेनेयमा ધારણ કરીને ખૂબ જ હર્ષિત અને સંતુષ્ટ થતી તે પક્િલાએ તેમને એમ કહ્યું કે
(सदहामिण अज्जाओ । णिग्गय पावयण जाव से जहिय तुम्मे वयह, जामि न अनि नाणुचाइयं जाव गिहिधम्म पडिज्जित्तए-भहा
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
MTATÓK WITH.
<
77
"
पोहिलाम् एवमवदन- जय खलु देवानुमिये । श्रमण्यो निर्द्वन्ध्याभ्यन्तरग्रन्थि रहिता यावद् गुब्रह्मचारिण्यः, नो खलु परपतेऽस्माकम् 'पयप्पयार ' पतत्मकार = णोरपि 'जिसामेचर' निशामयितु=श्रोतु न वल्पत इति पूर्वेण सम्बन्धः । 'अङ्ग इति सम्बोधने' हे पोहिले कि पून' उपदिसित्तर 7 ' उपदेष्टुम् वा, स्वयम् ' आयरितए वा ' आचरितु या कल्पते । न फल्पतत्यर्थः, वय खल तव हे देवानुमिये ! विचित्र के लिमाप्तं धर्म परिवपामः । ततः खल सा पोहिला ठाविता पोट्टिल एव वयासी- अम्हेण देवाणुप्पिया ! समणीओ निग्गधीओ जाव गुत्तभघारिणीओ, नो खल कप्पई अस्ट एथप्पयारकन्नेहि वि निमित्त किमग उचदित्तिए वा आयरिश वा । अम्ह णं तब देवापिया ! वित्ति के लिपन्नत्त धम्म पडिकरिज्जामो ) इस प्रकार उस पोट्टिला के द्वारा कहीं गई उन आर्याओं ने अपने दोनों कानोंपर हाथ रख लिये - और रख कर पोहिला से इस प्रकार करने लगीं - हे --देवानुप्रिये । हम तो निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ है, नव कोटि से पूर्ण ब्रह्मचर्यको हम पालती है। हमें तुम्हारी ऐसी याते कानों से सुनना भी कल्पित नहीं हैं तो फिर हे पुत्र ! हम इनका उपदेश तुम्हें कैसे दे सकते हैंऔर स्वय भी इनका आचरण कैसे कर सकता है। अर्थात् इन बातों का उपदेश देना और स्वयं इनको अपने आचरण में लाना यह सब हमारे कल्प के अनुसार निषिद्ध है । हम तो हे देवानुप्रिये ! तेरे हितके
1
(तरण ताओ भज्जाओ पोलाए एवबुत्ताओ समाणीओ दो निहत्थे कन्ने Difa, ठावा पोलिएन वयासी अम्हेण देवाणुपिया ! समणीओ निग्गंथीओ जात्र गुत्तभयारिणीओ, नो ग्लु कप्पड़ अम्छ एयप्पयारकन्नेहिवि निसामित्तए किमग उवदिति वा, आयरितए ना ! म्ह ण त देवाणुपिया ' विवित्तं केवलिन धम्म पडिक हिज्जामो )
3
આ પ્રમાણે પાટ્ટિલાની વાત સાભળીને તે આર્યાએએ પાતાના અને કાના ઉપર હાથ મૂકી દીધા અને મૂકીને એમ કહેવા લાગી દેવાનુપ્રિયે ! અમે તે નિથ શ્રમણીએ છીએ નવવાડ સહિત પ્રાથનુ અમે પાલન કરીએ છીએ. હું પુત્રિ તમારી એવી વાના અમારા માટે નથી સાભળવી પણ ચેગ્ય લેખાય નહિ ત્યારે તેના વિશે ઉપદેશની વાત તે સાવ અયેાગ્નજ છે અમે આ વિશે તમને કોઇ પણ જાતના ઉપદેશ પણ આપી શકીએ નહીં તે પછી જાતે આનુ આચરણ કેવી રીતે કરી શકીએ ? એટલે કે આ માખ તને ઉપદેશ આપવા તેમજ પોતે આાનુ અાચરણુ કરવું તે મધુ અમારા કપ
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
मगमातापिणी का० अ० ४ तरिषुप्रधानधरितवर्णनम् ४७
मूलम्-तएणं तीसे पोहिलाए अन्नया क्याई पुज्वरतावरतपालस्मयसि बुडवजागरिय जागरमाणीए अयमेग्रारूचे अध्झस्थिए जाव समुप्पन्न । एव खल्लु अह तलिपुत्तस्म पुग्वि इटा ५ आसि, इथाणि अणिहा ५ जाब परिभोग वा, त संय खल्लु मम सुव्बयाणं अजाणं अतिए पवइत्तए, एव सपोइ, सपेहित्ता, कल जाव पाउपभायाए जेणेव तेथलिपुत्ते तव उवागच्छद, उवागच्छित्ता, · करयलपरिग्गयि दसनहं सिरसावत्त मत्थए अंजलिं कटु एवं बयासी - एव खल देवाणुप्पिया | मए सुब्बयाण अज्जाण अंतिए धम्मे णिसते जाव अब्भन्नाया पवइत्तए । तएण तेयलिपुत्ते पाहिले एव वयासी-एव खलु तुमं देवाणुप्पिए । मुंडा पवइया समाणी कालमासे काल किच्चा अन्नतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववजिहिसि, तं जइ णं तुम दवाणुप्पिए । मम ताओ देवलो याओ आगम्म केवल पन्नत्त धम्मे चोहि, तोह विसज्जमि, अह गं तुम मम ण सवोहेसि, तो ते ण विसज्जेमि । तएण सा पोटिला तेयलिपुत्तस्स एयम पडिसुणेइ । तत. वल्लु नेतलिपुत्ते विपुल असण४ उबक्खडावेइ, उवभरवडावित्ता, मित्तणाई जाव आमतेइ, आमतिता,, जाव सम्माणेइ, सम्माणित्ता, पो. टिल पहाय जाब पुरिससहस्सदाहिणि सोय दुरूइ, दुरूहत्ता । लाभेमाणी विहरह) इस प्रकार श्रमणोपामिका बनी हुई वह पोहिला निर्ग्रन्थ श्रमणजनोंकोएन निर्मन्य अमणियो को दान-चारों प्रकार का आहार देती हुई अपना समय गतीत करने लगी। मृ०७। नियम) and non anushna in तना माला-24 पता
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिपुः- अहामुह ' यथा सुग्व, हे दयानुमिये । । उत खलु सा पाहिला तासा मार्याणामतिके पश्चाणुनतिक यारद् गृहिधर्म मतिपयते, पुनस्ता आर्या वन्दते नमस्पति, वन्दित्ता नमस्थित्या प्रतिपिसर्गयति । ततः सा पोहिलाश्रम गोपासिका जाता, ' जार पडिलाभेमागि ' यावत् प्रतिलम्मयन्तीनिधन्येभ्य• श्रमणेभ्यः श्रमणीभ्यश्च चतुर्विधमाहार ददती विहरति ।। मृ०७॥ जाव गिरिधम्म पडिवज्जेइ, ताओ अज्जाओ वदह, णमसह व दिसा णमसित्ता पडिविसाजेई ) हे आर्याओ! में इस निर्ग्रन्य प्रवचन पर श्रद्धा करती है यावत् सा मानती है कि यह निर्यन्य प्रवचन जैसा आप कहती है वैसा ही है । अतः हे आओ! अय में आपके पास पचाणु व्रत मात शिक्षावन आदि रूप १२ यारहे प्रकार का गृरस्थ धर्म को धारण करना चाहती है। इम तरह पोटिला की भावना जान कर उन आर्या पो ने उससे कहा-यथा सुख देवानुप्रिये! तसे जिस तरह सुस्त्र हो वैसा तू कर-श्रयस्कर कार्य में विलम्प करना योग्य नहीं हैं-इम प्रकार उन आर्याजनोंआज्ञो प्राप्त कर उस पोहिलाने उन्हीं आर्याओं के पाम से गावकधर्म पच अणु एवं मान शिक्षाबलों को धारण कर लिया। इस प्रकार श्रमणोपोसिंका बनी हुई उस पोटिला ने उन आर्यामी को वन्दना एव नमस्कार की-चन्दना नमस्कार करके फिर उन्हें विस जित कर दिया । (तएण सा पोहिला समणोवासिया जाया जावे पडि मुह तएण सा पोहिला तासिं अजाण आतए पाणुमय जाब गिहिधम्म पडि बज्जेइ ताओ अज्जाभी बदई, णमसइ वदित्ता णमसित्ता पडिविसज्जेइ )
આર્યાઓ ! આ નિગ્રંથ પ્રવચન ઉપર હું શ્રદ્ધા કરે છું યાત આ નિગ્રંથ વચન જેવુ નમે કહે છે તેવું જ છે એથી હું આર્યાએ ! હવે હું તમારી પાસેથી પાચ વ્રત વગેરેને ગૃહસ્થ ધર્મ ધારણ કરવા ઈચ્છું છું આ રીતે પિફ્રિલાના વિચારે જાણન તે 'અર્ધાઓએ તેને કહ્યું કે 'यथासुखम्' मेट वानुप्रिये । तन मा सुम प्रास थाय तु ४२ સાર કામમાં વિલંબ કરે જોઈએ નહિ આ પ્રમાણે તે આર્યાની આજ્ઞા મેળવીને તે પદિલાએ તે આર્થીઓની પાસેથી શ્રાવક-ધર્મપાય અણુવ્રતે અને સાત શિક્ષાત્રતેને ધારણ કરી લીધે આ રીતે શ્રમણે પાસિકા થઈ ગયેલી તે દિલાએ તે આર્થીઓને વદન તે જ નેમ, કર્યા અને વદન તથા नभन न तेमन वि.lय मापा (तरण “स पाहे समगोमालिया जाया पाय पहिउभिमाणी विहा) मा शत श्रमभिः । AU12 पारिता
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतषिणी टी०म०१४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् रिप जागरमाणीए ' कुटुम्मनागरिका, जाग्रत्या अयमेतद्रूप, अज्झथिए जाव' आध्यात्मिको. यावत् आध्यात्मिक'-आत्मगतो यावन्मनोगत, सम्ल्यू समु-पन्नः । सरल्पप्रकारमाह-एव खलु अहं तेतलिपुत्रस्य पूर्वम् इष्टा कान्ता मिया मनोना मनोऽमा, आमम् , इदानीमनिष्टा, अशान्ता, अप्रिया, अमनोज्ञा, अमनोऽमा, यावत् परिभोगं वा । अस्याभिमायः-अहो मनुष्याणा मनोवृत्तेर स्थिरतो । पूर्व यस्यादम् इष्टा झान्ता प्रियाऽदिकाऽसम् । सेवाहमस्यानिष्टाऽकान्ताऽमियादिका जाताऽस्मि । अय. तेवलिपुत्रो मम नाम गोनश्रवणमपि नेच्छति किं पुनर्ममदर्शन मया सह परिभोग वान्छेत् अपितु नेत्यर्थः । 'त' तत्-तस्मात्कारणात् । सेय' यसि ) रात्रि के पिछले भागमें (कुरजागरिय-जागरमाणीप अयमेयारुवे अज्झस्थिय जाव ममुप्पन्ने ) मुद्धा की, चिन्ता से जाग रही थी इस प्रकार का आध्यात्मिक यावन्मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ-(एक खलु अह तेयलिपुत्तरस, पुब्धि हो ५ आसि इयाणि अणिट्ठा ५ जाव परिभोग वा, त सेय स्खल मम सुव्रयाण अजाण अतिए पइत्तप), मैं पहिले तेतलिपुत्र को पात ही अधिक इष्ट, कान्त प्रिय, मनोज्ञ एव मनोम धी-परन्तु अप मैं ऐसी नहीं रही ह-अनिष्ट आदि पन गई है। और थानों की पात ही क्या है-वे तो अय मेरा मुख तक नहीं देखना चाहते है-देखो मनुष्यों की मनोवृत्ति कितनी अस्थिर है-पूर्व में जिसे इष्ट, कान्त, प्रिय, आदि रूप थी-अप वही में उसके लिये अ. निष्ट अप्रिय आदि पन गई है। यह तेतलिपुत्र तो मेरो नाम गोत्र तक भी सुनना नहीं चाहता है तो फिर मेरे साथ रहने की तो चाहना ही આધ્યાત્મિક યાવત મગત સકલ્પ ઉદ્દભવ્યું કે । (एक खलु अह तेयलिपुत्तस्स पुधि इट्ठा ५ आसि इयाणि अणिट्ठा ५ जाउ परिभोग वा तु सेय खलु मम मुनुयाण अज्माण अतिए पत्तए)
પહેલા હુ તેતલિપુત્રને ખૂબજ ઇણકાત, પ્રિય, મનેઝ અને મનેમ હતી પણ હવે હું તેમના માટે તેવી રહી નથી અનીષ્ટ વગેરે થઈ પડી છે મા સાથે વાતચીતની વાત તે દર ૨હી પણ તેઓ મારૂ છે પણ જોવા માગતા નથી ખેરખર પુની મનોવૃત્તિ કેટલી બધી ચચળ હોય છે ? જેને પહેલા જે હુ ઈન્ટ, કેત, પ્રિય, વગેરેના રૂપમ હતી, હવે તેને તેજ હું અનિષ્ટ અવિવ વગેરે થઈ પડી છુ આ તેતલિપુત્ર મારા નામોત્ર સુદ્ધા સાભ થવા માગતા નથી ત્યારે મને જોવાની અને મારી સાથે રહેવાની છે તેમને
१७११ ५२मा ( कुडु उजागरिय जागरमाणीए अयमेयारूवे अशथिए जाव - समुपन्ने ) ५२-हन्याना पिया२७२ती ती २४ ती सारे- naat
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
wwwwww
मित्तणाइ जाव संपरिवुडे सव्विड़िए जाव रत्रेणं नेयलिपुरस्स मज्झ मज्झेणं जेणेव सुब्वयाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ । पोहिला सीयाओ पच्चोरुहइ । तेतलिपुत्ते पोट्टिलं पुरओ कहु जेणेव सुव्वया अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बंद नमसइ, वदित्ता नमसित्ता एवं बयासी एवं खलु देवाणुपिया । मम पोहिला भारिया इट्ठा ४, एसणं संसारभउन्त्रिगा जाव पत्रइत्तए, पडिच्छतु र्ण देवाणुप्पिया ! सिस्सिणीभिक्खं अहासुहं मा पडिवध करेहि । तएण सा पोहिला सुन्वयाहि अज्जाहि एवंवृत्ता समाणा हट्टतुट्टा उत्तरपुरत्थिम दिसीभाग अवक्कमड़, अक्कमित्ता सयमेव आभरणमालालकार ओमुयइ, ओमुइत्ता, सयमेव पचमुट्टिय लोयं करेइ, करिता, जेणेव सुन्वयाओ तेणेव उवागन्छ, उवागच्छित्ता वदइ, णमसइ, वदित्ता णमसित्ता, एव वयासी-आलित्ते णं भते । लोए एव जहा देवाणदा जात्र एक्कारसअगाइ अहिज्जइ, बहूणि वासाणि सामन्न परियागं पाउणइ, पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेत्ता सहि भत्ताइ अणसणाए छेदित्ता, आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे काल किच्चा अण्णतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णा ॥ सू०८॥
3
टोका - ' तएणं तीसे ' इत्यादि । तत खलु तस्या पोट्टिलाया. 'पुन्त्र रतावरच कालसमय सि' पूर्वरात्रापररात्र कालसमये = रात्रे पश्चिमे भागे 'कुडव जाग
तरण - 'नीसे पोहिलाए' इत्यादि ।
टोकार्थ - (तरण) इसके बाद (तीसे पोहिलाएं ) उम पोट्टिला के जब कि वह ( अन्नया क्या किसी एक दिन (पुवारतकालमम
'तएण -तीस पोट्टिलालाए' इत्यादि ।
टीअर्थ - (तरण ) त्यार पछी ( तीसे पाहिलाए ) ते पोट्टिनाने हैं क्यारे ते ( अन्नया कथाइ ) जेहा मेऊ हिवसे િ
"1
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगारधर्मामृतपणी टी० अ०१४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम्
४९
रिय जागरमाणीए ' कुटुम्नजागरिकां जाग्रत्या अयमेतद्रूप 'अज्झत्थिष जाव, ' आध्यात्मिको यात= माध्यात्मिक = आत्मगतो यावन्मनोगत, सकल्प समुत्पन्नः । स्क्ल्पप्रकारमाह-एव खलु अहं तेवलिपुनस्य पूर्वम् इष्टा कान्ता मिया, मनोवा मनोमा आमम्, इदानीमनिप्टा, अकान्द्रा, अप्रिया, अमनोज्ञा, अमनोमा यावत् परिभोग वा । अस्याभिमान' - अहो मनुष्याणा मनोवृत्तेर स्थिरता । पूर्व यस्यादम् इष्टा करता मियाऽदिकासम् सैवाहमस्या निष्टाऽकान्ताऽभियादिका जाताऽस्मि । अय वेवलिपुत्रो मम नाम गोत्रश्रवणमपि नेच्छति किं पुनर्मदर्शनं मया सह परिभोग बाच्छेत् अपितु नेत्यर्थ' । 'त' तुम तस्मात्कारणात् 'सेय
,
सि) रात्रि के पिछले भागों (कुडनुजागरिय जागृरमाणी अयमेयारु अझ थिए जाममुप्पन्ने ) हृदय की चिन्ता से जाग रहो धी इस प्रकार का आध्यात्मिक यावन्मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ- ( एव
अह ते लिपुत्तस्स पुचि हा ५ आसि इयाणि अशिट्टा ५ जाव परिभोग वा तसे खलु मम सुन्नयाण अजाण अतिए पन्त), पहिले वेतलिपुत्र को बहुत ही अधिक इद, कान्त प्रिय, मनोज्ञ एव मनोम थी परन्तु अप में ऐसी नहीं रही ह-अनिष्ट आदि पन गई
1 और बातो की बात ही क्या है - वे तो अब मेरा मुख तक नही देखना चाहते हैं- देखो मनुष्यों की मनोवृत्ति कितनी अस्थिर है--पूर्व मैं जिसे इष्ट, कान्त, प्रिय, आदि रूप थी अब वही मैं उसके लिये अनिष्ट अभिय आदि पन गई है। यह तेतलिपुत्र तो मेरो नाम गोत्र तक भी सुनना नहीं चाहता है तो फिर मेरे साथ रहने की तो चाहना ही આધ્યાત્મિક યાવત અનાગત સ કલ્પ ઉદ્ભવ્યો કે
( एत्र खलु अह तेयलिपुत्तस्स पुनि हट्ठा ५ आसि इयाणि अण्डा ५ जा परिभोग वा त सेय खलु मम व्वयाण अज्माण अतिए पचहत्तर)
પહેલા હુ તેતલિપુત્રને ખૂમજ ઇષ્ટકાત, પ્રિય, મનોજ્ઞ અને મનેમ હતી પણ્ હવે હું તેમના મટે તેવી રહી નથી અનીષ્ટ વગેરે થઇ પડી છુ મારી સાથે વાતચીતની વાત તો દૂર રહી પણ તેએ મારૂ મા પણ જેવા માગતા નથી ખેરખર પુષાની મનેવૃત્તિ કેટલી બધી ચચળ હેાય છે ? જેને પહેલા S ઇષ્ટ, કાત, પ્રિય, વગેરેના રૂપમાં હતી, હવે તેને તેંજ હુ અનિષ્ટ અપ્રિય વગેરે થઈ પડી છુ આ તૈલિપુત્ર મારા નામગેાત્ર સુદ્ધા સાભ ળવા માગતા નથી ત્યારે મને જોવાની અને મારી સાથે રહેવાની તે તેમને माछा पडेग्मी ( बुडु जागरिय जागृरमाणीए अयमेयारूवे अज्ज्ञत्थिए जाव समपन्ने ) २ रीना रियार-रती लगी रही उती लारे या लतनो
>
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
4
मातामच चारसूत्रे श्रेयः उचितं खलु मम सुव्रतानामार्याणामन्ति के मनजितुम्, पर समक्षते - विचार यति, सप्रेक्ष्य विचार्य 'कल्ल जान पाउप्पभाषाए ' कल्य यावत् प्रादुष्णभावा याम् = मातः सूर्योदयसमये यत्र तेतलिपुत्रस्तत्रैन उपागच्छति उपागन्य करयलपरि० ' करतलपरीगृहीत मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एरमवदत् - एक सल हे देवामिय मया सुनतानामार्याणामन्तिके धर्मः ' णिसते' निशान्तः श्रुत, 'जार अम उसे कैसे हो सकती है । इस लिये मुझे अघ यही उचित है कि मैं सुव्रता आर्यिका के पास प्रवजित हो जाऊँ । ( एव सपेहेर, सपेरिसा कल्ल जाव पाउप्पभाषाए जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उचागच्छद्द) इस प्रकार जब वह विचार कर चुकी तो विचार करके फिर जन प्रात काल हुआ और सूर्य का उदय हो चुका तब जहाँ तेतलिपुत्र था वहा पहुची ( उवागच्छित्ता करयल० एव वयासी- एव खलु देवोणुप्पिया ! भए सुव्वाण अजाणं अतिए धम्मे णिसते जाव अन्भणुन्नाया पञ्चइन्तए, तएण तेयलिपुत्ते पोटिल एव वयासी- एव खलु तुम देवाणुप्पिए ! मुंडा फव्वइया समाणी काल्मासे काल किच्चा अन्नयरेसु देवलोएस देवत्ताए उववज्जिहिसि त ज णतुम देवाणुप्पिए । मम ताओ देवलो याओ आगम्म, केवलिपन्नत्ते धम्मे बोहेहि तो ह विसज्जेमि ) वहा जा कर उसने दोनों हाथ जोड कर उस को नमस्कार किया - बाद मे वह इस प्रकार उससे कहने लगी देवानुप्रिय । बात ऐसी है कि मैंने દરકાર જ શી હેય ? એથી મને હવે એજ મૈગ્ય લાગે આયિકાની પાસે પ્રત્રજિત થઇ જાઉં
हे
છે કે હુ સુન્નતા
( एव सपेहेइ, सपे हित्ता कल्ल जाव पाउप्पभायाए जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ )
આ રીતે જ્યારે તેણે ચાક્કસ વિચાર કરી લીધે ત્યારે તે સવારે સૂર્યાંય થતા જ્યા તૈતલિપુત્ર અમાત્ય હતેા ત્યા પહેચી
>
( उवागच्छित्ता करयल० एव वयासी- एव खलु देवाणुपिया ! मए सुन् या अजाण अति धम्मे सिते जान अन्भणुन्नाया पव्त्रइत्तए, तएण तेथलिपुत्ते पोट्टिल एव वयासी - एव खलु तुम देवाणुप्पिए । मुडा पव्वइया समाणी कालमा से काल किया अन्नतरे देवलोएस देवत्ताए उववज्जिहिंसि त जइणं तुम देाणु पिए मम ताओ देवलोयाओ आगम्म, केवलिपन्नत्ते धम्मे बोहेहि तो ह विसज्जे मि) ત્યા જઈને તેણે તેમને ખને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યાં અને ત્યારપછી તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગી કે હે દેવાનુપ્રિય । મે સુન્નતા
पासेधी
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मातर्पणी टीका अ० १४ तेतरिपुत्रप्रधान चरितवर्णनम्
५१
"
"
णाया पाइए ' यादभ्यनुज्ञाता मनजितुम् स धर्मो मम मनसि रुचितः तस्माद् भवताऽभ्यनुज्ञातासती मनजितुमिच्छामीतिभावः । ततः खलु तेतलिपुनः पोहिलामेवदत्-एव खलु व देवानुप्रिये । मुण्टा मनजिता सती कालमासे कार्ल कृत्वाऽन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्स्यते । 'त' तदा यदि खलु स्व देवानु मिये ! मा ततो देवलोकादागत्य के लिमाप्त धर्म बोधये, ' वोहं ' तदाऽह त्वा विसज्जेमि' प्रजितुमाज्ञापयामि । 'अह ण' अथ खलु यदि खलु त्वमा'ण सवोदेसि ' न सोधयसि = केवलिमरूपित धर्मं नोधयितु प्रतिज्ञ न करोपि 'तो' तदा 'ते' वा न विसृजामि मनजितु नाज्ञापयामि । 'तरण ' तव खलु तेतलिपुनस्य एतद्वचनश्रवणानन्तम्, सा पोहिला तेतलिपुत्रस्य 'एयमट्ट ' एतमर्थ = धमं प्रति बोधनरूपमर्थ ' पडिमुणेइ' प्रतिशृणोति=स्वीकरोति । ततः खलु तेतलिपुत्रो विपुलमशनपानखायाव चतुर्निधमादारम् ' उत्रकवडावे ' उपस्कारयति= निपादयति, 'उखडावित्ता' उपस्कार्य ' मित्तणाड जाव आमतेइ ' मित्रज्ञाति सुत्रता आर्यिका के पास धर्म का उपदेश सुना है वह धर्म मुझे बहुत ही अधिक रुचिकर प्रतीत हुआ है । इस लिये मैं आपसे आज्ञा लेकर दीक्षित होना चाहती हूँ । पोट्टिला की ऐसी बात सुन कर तेतलिपुत्रने उससे कहा -- देवानुप्रिये ! वात ऐसी है कि तुम दीक्षित हो कर जब काल अवसर काल करोगी ( यह निश्चित है ) अन्यतर देवलोक में देवता की पर्याय से उत्पन्न होओगी तब यदि देवानुप्रिय । मुझे वहां से आ कर तुम केवलिप्रज्ञप्त धर्म समझाओ तो मैं तुम्हे प्रब्रजित होने के लिये आज्ञा दे सकता हूँ ( अह् ण तुम मम ण सोहेसि तो ते ण विस ज्जेमि तरण सा पोट्टिला तेयलिपुत्तस्स एयमट्ठ पडिसुणेइ, ततः खलु तेयलिपुनिपुल असण ४ उवक्डावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तणाइ जाव
ધર્મના ઉપદેશ સાભળ્યેા છે અને તે મને ગમી ગયા છે, એટલા માટે હુ તમારી આજ્ઞા મેળવીને દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ઇચ્છુ છુ. પેટ્ટિલાની આ જાતની વાત સાંભળીને તેલિપુત્રે તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દીક્ષિત થઇને જ્યારે કાળના સમયે કાળ કરશેા અને અન્યતર દેવલાકમા દેવતાના પર્યાયથી જન્મ પામશે ત્યારે જો તમે હૈ દેવાનુપ્રિયે ! ત્યાથી આવીને મને કેવળિ પ્રાપ્ત ધર્મ સમજાવે તે હું તમને અત્યારે ખુશીથી પ્રનજીત થવાની આજ્ઞા આપી શકું તેમ છુ
( अहण तुम मम णं सवोहेसि तो ते ण विसज्जेमि तरणं सा पोहिला तेयलिपुरास्स एयम पडणे, तत. खलु तेतलिपुत्ते विपुल अमण ४ उत्रक्खडावे, अक्खडावित्ता, मित्तणाई जान आमते, आमंतिता, मित्तणाइ सम्माणित्ता पोहिल्ल
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
•
मातामहचारet श्रेयः उचितं खलु मम सुवतानामार्याणामन्ति के मनजितुम्, पत्र समक्षते-विचार यति, सप्रेक्ष्य विचार्य 'कल्ल जान पाउप्पमायाए ' कल्य यावत् मादुपभावा याम् = मातः सूर्योदयसमये यत्र तेतलिपुत्रस्तत्रैव उपागच्छति उपागत्य करयल परि० ' करतलपरीगृहीत मस्तकेऽञ्जलि कृत्या एमदद - एन खलु हे देशमिय मया सुनानामार्याणामन्तिकेधर्मः ' णिसते ' निशान्तः=श्रुत, 'जार कमणु उसे कैसे हो सकती है । इस लिये मुझे अप यही उचित है कि मैं सुत्रता आर्यिका के पास प्राजित हो जाऊँ । ( एव मपेहेह, सपेरिसा कल्ल जाव पाउप्पभायाए जेणेच तेयलिपुत्ते तेणेव उचागच्छद्द) इस प्रकार जब वह विचार कर चुकी तो विचार करके फिर जय मान काल हुआ और सूर्य का उदय हो चुका तब जहाँ तेतलिपुत्र था वहा पहुंची ( उवागच्छित्ता करयल० एव वयासी- एव सलु देवोणुप्पिया | मए सुव्वाणं अजाणं अतिए धम्मे णिसते जाव अन्भणुन्नाया पञ्चडत्तए, तएण तेयलिपुत्ते पोटिल एवं वयसी-एव खलु तुम देवाणुप्पिए । मुडा पव्वइया समाणी काल्मासे काल किच्चा अन्नयरेसु देवलोसु देवत्ता उववज्जिहिसि, त ज णतुम देवाणुप्पिए । मम ताओ देवलो याओ आगम्म, केवलिपनत्ते धम्मे बोहेहि तो ह विसज्जेमि ) वहा जा कर उसने दोनों हाथ जोड कर उस को नमस्कार किया बाद में वह इस प्रकार उससे कहने लगी हैं देवानुप्रिय ' बात ऐसी है कि मैंने દરકાર જ શી હાય ? એથી મને હુવે એજ ચેાગ્ય લાગે છે કે હુ સુન્નતા આયિકાઓની પાસે પ્રત્રજિત થઇ જાઉં
( एव सपेहेइ, सहित्ता कल्ल जाव पाउप्पभायाए जेणेन तेयलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ )
આ રીતે જ્યારે તેણે ચેક્કિસ વિચાર કરી લીધેા ત્યારે તે સવારે સૂદિય થતાં જ્યા તૈતલિપુત્ર અમાત્ય હતા ત્યા પહેાચી
·
1
( उवागच्छित्ता करयल० एव व्यासी- एव खलु देवाणुपिया ! मए सुन्न या अजाण अति धम्मे जिसते जान अन्भणुन्नाया पव्त्रइत्तए, तएण तेयलिपुत्ते पोट्टिल एव वयासी - एव खलु तुम देवाणुप्पिए । मुडा पव्त्रइया समाणीकालमासे काल किया अनतरे देवलोपसु देवत्ताए उववज्जिहिसि त जइणं तुम देना प्पिए ' मम ताओ देवलोयाओ आगम्म, केवलिपन्नत्ते धम्मे वोहे हि तो ह विसज्जे मि) ત્યા જઈને તેણે તેમને અને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યો અને ત્યારપછી તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગી કે હું દેવાનુપ્રિય 1 મે સુત્રતા આ ११ પાસેથી
/
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतषिणी टी० भ०१४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् दोह्य-आरोह्य · मितणाइ जाव सपरिखुडे ' मित्रज्ञाति पारत् सपरिवृतः मित्रशातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनादिभिर्युक्तः 'सविडोए ' सर्वदर्थी 'जार रवेणं' याबद्रवेण मर्यादिनिनादेन सह तेतलिपुरस्य मयमध्येन यौरे सुनतानामुपाय स्तत्रैव उपागच्छति । सा पोटिला शिपिकातः 'पंचोरुहइ' मत्यवरोहति अवतरति। तत स तेतलिपुत्र पोटिला पुरतः कृत्वा यत्र 'मुनता आर्या तर उपागन्छति, उपांगत्य, चन्दते नमस्यति, वन्दिता नमस्यित्वा एसमवदत्-एवं खलु हे देशानुप्रियाः मम पोट्टिलोमार्या इष्टा कान्ता मिया 'मनोज्ञा मनोऽमा, वर्तते, पैठा कर मित्र, जाति स्वजन सनन्धी परिजनों से युक्त होकर अपनी समस्त विभूति के अनुसार गाजे बाजेके साथ तेतलिपुर नगर के बीचो'पीच चल कर वह जहां सुव्रता आर्यिका का उपाश्रय या वहा पहुँचा। ('पोटिला सीयाी पच्चोल्हइ, तेतरि पुत्ते पोटिल पुग्ओ कटु जेणेव सुंया अज्जाओ तेणेव उवागच्छंइ, उवागच्छित्ता,वंदद नमसड बदित्ता नमसित्ता एच वयानी, एव खलु देवाणुप्पिया मम पोटिला मारिया हा ५ एसण ससारभविग्गा जाव पव्वइत्तए पडिच्छतु ण देवाणुप्पिया! सिस्सिणीभिक्ख अहासुहमा पडियध करेहि ) पोहिला शिपिका से उत्तरी-तेतलिपुत्र पोटिलाको आगे करके जहाँ सुव्रता आर्यिका थी वहां गया। जा कर उसने उनको चंदनाकी नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर इस प्रकार कहने लगी हे देवानुप्रिये ! यह मेरी पोहिला नाम की पत्नी है । यह मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम है । इसने પાલખીમાં બેસાડીને મિત્ર, જ્ઞાતિ, વજન સબ ધી પરિજનોને સાથે લઈને તે પિતાની સમસ્ત વિભૂતિ મુજબ ગાજાવાજાની સાથે તેતલિપુર નગરની વચ્ચેવચ્ચે થઈને જ્યાં તે સુવ્રતા આર્થિક ઉપાશ્રય હતો ત્યાં પહો पोडिला सीयाओ पचोव्हइ, तेतलिपुत्ते पोटिल पुरओ कट्टु जेणेव सुब्धया अन्नाओ तेणेर उवागच्छइ, उवागचित्ता, बदइ, नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एव वयासी एव खेलु देवाणुप्पिया' मम पोट्टिला भारिया इट्टा ५ एसण ससारभउन्विग्गा जाव पचहत्तए पडिच्छतण देवाणुपिया। सिस्सिंणीभिक्ख अहासुहमा पडिवर्धकरहि) પિર્ફિલા પાલખીમાથી નીચે ઉતરી પડી, તેતલિપુત્ર ‘અમાત્ય પહિલાને આગળ રાખીને જ્યા સુબ્રતા આર્થિક હતી ત્યાં ગમે ત્યાં જઈને તેણે તેમને "વદન તેમજ નમસ્કાર કર્યો, વદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! આ પદિલા બામે મારી પત્ની છે મને એ ઈ કાંત પ્રિય, મન અને મનેમ છે એણે તમારી પાસેથી ધર્મનુ શ્રવણું કર્યું છે
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
माताधर्मकार यांदामन्नयति, मित्रज्ञातिस्पर्जनसम्बन्धिपरिजनान् आमन्त्रपति, ' भामंतित्ता' आमन्व्य 'जार समाणे:' यावत्-समानयति-प्रशनानादि चतुर्विधाहारण समान्य, 'पोटिल हाय जावं पुरिमसहस्स पाहिणि सीम' पोटिला स्नाता यावत् पुरुषसहस्रवाहिनी शिरिकाम् , ' दोहेइ' द्रोहपति-भारोडपति, ' दुरुहिता' आमतेई आमतित्ता जाव मम्माणड, सम्माणित्ता पोहिल हाय जीव पुरिसंसहस्सवारिणि मीय दुरूहेड, दुरित्ता मित्तणांह जाव मपरिचुडे सव्विड्डीरा जाव रवेण तेलि पुरस्स मज्झ मझेणं जेणेव सुव्व्याण उर्वस्सप तेणेव उवागच्छइ ) यदि तुम मुझे सपोधित नहीं करोगी अर्थात् केवलि प्रजप्त धर्म को मुझे समझाने की प्रतिज्ञा नहीं करोगी तो मैं तुम्हे दीक्षित होने की आजा नहीं दूंगा-इस प्रकार के तेतलिपुत्रके इस कथनको उस पोहिलाने स्वीकार कर लिया । अर्थात् में देवलोक में जाऊँगा तो वहा से आ कर आप को प्रतियोध देंगी इस प्रकार जय पोहिला ने स्वीकार कर लिया। इस के पांद तेतलिपुत्र ने विपुल मात्रा अनशनादि रूप चारों प्रकार का आहार निप्पन्न कराया-करवा करके फिर उसने अपने मित्र, ज्ञाति, आदि जनो को आमनित किया । मित्र, जाति, स्वजन सबन्धी परिजनोंको मित्रित करके यावत् अशन पानी 'दिरूप इस चतुर्विध आहार से उनका सन्मान करके उसने पोहिलाको स्नान करवा कर यात् उसे 'पुरुप संहस्रवाहिनी शिथिको पर बैठाया, प्रहाय जाब पुरिससहस्साहिणि सीय दुरूहइ दुरुहिता मित्तणाइ जान संपडिबुडे सविडोए जाव रवेण तेयलिपुरस्स मज्झ मज्झेण जेणेव सुन्धयाण उवस्सए तेणेव उवागच्छद)
જો તમે મને સ બધશે નહિ એટલે કે જે તમે મને કેવળ પ્રાપ્ત ધર્મને સમજાવવાની પ્રતિજ્ઞા કરશે નહિ તે તમને હું કઈપણ સગેમ પણ દીક્ષા સ્વીકારવાની આજ્ઞા આપીશ નહિ આ રીતે કહેવાથી પિટ્ટિવાએ તિતલિપુત્રને કથનને સ્વીકારી લીધુ એટલે કે પિદિવાએ તેમને આ પ્રમાણે પ્રતિજ્ઞાબદ્ધ થઈને કહ્યું કે હું દેવલેકમાં જઈશ અને ત્યાથી આવીને તમને ધન બધ આપીશ આમ જ્યારે પિહિલાએ સ્વીકારી લીધુ, ત્યારપછી તેતલિપુત્રે પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરેને રૂપમાં ચાર જાતના આહીરો બનાવડાવ્યા એને ત્યારબાદ તેણે પોતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, વગેરે જોને આમંત્રણ આપ્યું મિત્ર, જ્ઞાતિ, રવજન સ બધી પરિજને આમંત્રણ આપીને યાવતું અને પાન વગેરે ચાર તને અહારથી તેમનું સન્માન કરીને તેણે પિદુિલાને સ્નાન કરાવડાવ્યું અને ચાવત તેને પુરુષ સહસવાહિની પલ
सा
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतपिणी टी० म०४ सेतलिपुत्रप्रधानवरितवर्णनम् द्रोह्य-आरोह्य · मित्तणाइ जाव सैपरिखुडे ' मित्रज्ञाति यावत् सपरितः मित्रमातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनादिभिर्युक्तः 'सन्चिड्रोए ' सर्वद्धर्या 'जार रवेण' यावद्रवेण=मेर्यादिनिनादेन सह तेतलिपुरस्य म यमध्येन यौन सुतानामुपाश्रय स्तनैव उपागच्छति । सा पोटिला शिविकातः 'पंचोरुहह' प्रत्यवरोहति अवतरति । तत स तेतलिपुत्र पोहिला पुरतः कृता यत्र सुनता आर्या तर उपागच्छति, 'उपांगत्य, चन्दते नमस्यति, वन्दित्ता नमस्यित्वा एरमवदत्-एवं खलु हे देशानुपियाः मम पोट्टिलाभार्या इष्टा कान्ता प्रिया मनोज्ञा मनोऽमा, वर्तते, पैठा कर मित्र, जाति स्वजन सन्धी परिजनों से युक्त होकर अपनी समस्त विभूति के अनुसार गाजे बाजेके साथ तेतलिपुर नगर के बीचों'बीच चल कर वह जहाँ सुव्रता आर्यिका का उपाश्रय था वहा पहुँचा। ('पोटिला सीयाओ पच्चोरुहह, तेतरि पुत्ते पोहिल पुग्ओ कटु जेणेव 'सुव्यया अज्जाओ तेणेव उवागच्छंद, उवागच्छित्ता,वंदद नमसह वदित्ता नमसित्ता एच वयासी, एवं खलु देवाणुप्पिया मम पोटिला भारिया द्विा ५ एसण मसारभउन्विग्गा जाव पव्वइत्तए पडिच्छतु ण देवाणुप्पिया! सिस्सिणीभिक्ख अहाहमा पडियध करेहि ) पोट्टिला शिपिका से उतरी-तेतलिपुत्र पोहिलाको आगे करके जहां सुव्रता आर्यिका थीं वहां गया। जा कर उसने उनको चंदनाकी नमस्कार किया। वदना नमस्कार करके फिर इस प्रकार कहने लगी हे देवानुप्रिये यह मेरी पोहिला नाम की पत्नी है । यह मुझे इष्ट. कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम है । इसने પાલખીમાં બેસાડીને મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન સ બ ધી પરિજનોને સાથે લઈને તે પિતાની સમસ્ત વિભૂતિ મુજબ ગાજાવાજાની સાથે તેતલિપુર નગરની વચ્ચે વચ્ચે પૈઈને જ્યાં તે સુત્રતા આર્થિક ઉપાશ્રય હતા ત્યા પહો. (पोट्टिला सीयाओ पचोरूहइ, तेतलिपुत्ते पोटिल पुरओ कटु जेणेव सुब्धया अन्जामो तेणेर उवागन्छन, उवागठित्ता, बदइ, नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एव पयासी एव खलु देवाणुप्पिया ! मम पोट्टिला भारिया इट्टा ५ एसग ससारभउधिग्गा जाव पञ्चइत्तए पडिच्छतु ण देवाणुप्पिया ! सिसिणीभिक्ख अहामुहमा पडिवध करेहि ) પિઠ્ઠિલા પાલખીમાંથી નીચે ઉતરી પડી, તેતલિપુત્ર અમાત્ય પિફિલાને આગળ રાખીને જમા સુવ્રતા આર્થિક હતી ત્યાં ગમે ત્યાં જઈને તેણે તેમને 'વંદન તેમજ નમસ્કાર કર્યો, વદના અને નમસકાર કરીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! આ પદિલા ધામે મારી પત્ની છે મને એ ઈ કાંત, પ્રિય, મને અને મનેમ છે એણે તમારી પાસેથી “ધર્મનું શ્રવણ કર્યું છે
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाताधर्मपा एपा खलु भवतीना ममीपे धर्म शुचा, धर्माणनितपैराग्यशाद समारभयो द्विग्ना 'जाव पवइत्तए ' यावत् भानितुम् मीता जन्म मरणेभ्यो मातीनामन्तिके प्रव्रज्या ग्रहीतुमिच्छति, तस्मात् 'पडिन्छनु' प्रतीच्छन्तु सीकुर्वन्तु खलु देवानु पियाः ! इमा शिष्यामिक्षाम् । सुनतार्या माह-ययामुग्यम् मा प्रतिबन्ध कुरुष्व । तत. खलु सा पोट्टिला मुतामिरार्याभिरेवमुक्ता सती हटतुष्टा उत्तरपौरस्त्य दिग्भागम् ईशानकोगम् अवकाम्पति-गच्छनि, अाक्रम्य स्वयमेव आभरणमाल्या लकारमवमुञ्चति, अवमुन्य स्वयमेव पञ्चमुष्टिक लोच करोति, हवा यत्रत्र मुत्रता आर्यास्त उपागच्छति, उपागत्य वन्दते नमस्यति, इन्दित्ला नमस्पित्ता एवमर दत्-' आलित्तेण भते । लोए ' आदीतः खलु भदन्त ! लोका-हे आयें । एप लोकोजन्म नरामरणादिभिर्दु ख प्रज्वलित., 'एच' बनेन प्रकारेण 'जहा देवाणदा' यथा देवानन्दा-देवानन्देव एपाऽपि मुव्रतानामन्तिके प्रवमिता, यानत्-एकादश अङ्गानि अधीते, बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयति, पालयित्वा मासिक्पा आपके पास धर्म सुना है सो उसके प्रभाव से यह ससार भय से उद्विग्न हो कर जन्म मरण से भीत, त्रस्त हो कर आपके पास दीक्षित होना चाहती है । इसलिये हे देवानुप्रिये ! आप मेरे द्वारा दी गई इस शिष्य भिक्षाको अगीकार कीजिये । तव सुव्रता आर्यिका ने कहायथा सुख मा प्रतिबंध कुरुष्य-(तएण सा पोटिला-सुन्वयाहिं अबाहिं एव वुत्ता समाणा हद्वतुहा उत्तरपुरस्थिम दिमीभार्ग अवकमइ, अवक मित्ता सयमेव आभरणमल्लालकार ओमुयइ, ओमुहत्ता सयमेव, पच मुट्ठिय लोय करेह, करित्ता जेणेव सुब्वयाओ तेणेव उवागच्छद, उवा गच्छित्ता वदइ नमसइ, वदित्ता णमसित्ता एवं वयासी-अलित्ते ण भते । रोए एव जहा देवाणदा जाव एक्कारसअगाइ अहिजह, बहूणि તેના પ્રભાવથી એ સસારભયથી વ્યાકુળ થઈને જન્મ-મરણથી ભીત અને વ્યસ્ત થઈને તમારી પાસેથી દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ઈચ્છે છે એટલા માટે હે દેવાનું પ્રિયે ! મારા વડે અપાતી આ શિષ્યા રૂપી ભિક્ષાને સ્વીકાર કરે ત્યારે
पासमा सुनता भाविहाय तेन यु ' यथासुस मा प्रतिबध कुरुष्य' (तएण सा पोटिला सुब्बयाहि अज्जाहिं एव वुत्ता समाणा हतुट्ठा उत्तर पुरथिमं दिसी भाग अबक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्लालकार ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव, पचमुट्ठिय लोय करेर, करित्ता जेणेव सुब्धयाओ तेणेव उपागच्छा, उवागन्छित्ता वदह नममइ, बदित्ता, णमसित्ता एव वयासोभलित्तेग मते ! लोए एव जहा देवाणंदा जार एक्कारसभंगाह अहिज्जइ, वहणि
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
जगारधामृतव पिणी टी० अ० १४ तेवलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ५५ स लेखनया आत्मान जुष्ट्वा पप्ठि भक्तानि अनशनेन छित्त्वा, बालोइयपडिकता' आलोचित मनिक्रान्ता 'समाहिपत्ता' समाधिप्राप्ता कारमासे पाल कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपन्ना । सू०८ ॥ घासाणि मामनपरियाग पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए सलेहणाए अत्ताण झोसेत्ता सहिभत्ताइ अणसणाए छेदित्ता आलोयपडियकता समारिपत्ता, कालमासे काल किच्चा अण्णतरेसु - देवलोएस्सु देवत्ताए उववण्णा ) इस प्रकार सुव्रता आर्यिका के द्वारा कही गई वह-पोटिला बहुत अधिक हष्टतुष्ट हुई। बाद में वह ईशान कोणमें गई । वहां जाकर उसने अपने हाथों से शरीर पर रहे हुए आभरण, माल्य एव अल कारों को उतार दिया। उतार कर अपने आप पंचमुप्टिक देशों का लुचन किया-लुचन कर फिर वह जहां सुव्रता आर्या थी वहां आई। आते ही उसने उन्हें वन्दना एव नमस्कार करके फिर वह इस प्रकार बोली-हे भदन्त ! यह लोक जरा मरण आदि दु.खों से प्रज्वलित हो रहा है, इस प्रकार से देवानदा की तरह यह सुव्रता आर्या के पास दीक्षित हो गई। यावत् उसने ११ अगों का अध्ययन भी कर लिया। पहुत वर्षो तक श्रामण्य पर्याय को पालन किया। प्रीतिपूर्वक अन्त में एक मास की सलेखना धारण कर ६०, भक्तों का अनशन द्वारा छेद वासाणि सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए सलेहणाए अत्ताण झोसेत्ता सहि भत्ताद अणसणाए छेदिचा आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता, कालमासे काल किच्चा अण्णतरेसु देवलोएम देवताए उववण्णा)
આ રીતે સુવ્રતા આર્થિકા વડે આજ્ઞા અપાયેલી પદિલા ખૂબ જ હાઈતુષ્ટ થઈ ગઈ ત્યારપછી તે ઈશાન કોણ તરફ ગઈ અને ત્યાં જઈને તેણે પિતાના હાથથી જ શરીર ઉપરના આભરણે, માળાઓ અને અલ કારને ઉતાર્યા અને ઉતારીને પોતાની મેળે જ પાચ મુઠી કેશનુ લુચન કર્યું લુચન કર્યા પછી તે જ્યા સુત્રતા આર્યા હતી ત્યા આવતી રહી ત્યાં આવીને તેણે તેમને વદન અને નમસ્કાર કર્યો, ૧દના અને નમસ્કાર કરીને તે આ પ્રમાણે વિનતી કરવા લાગી કે હે ભદન્ત ! આ સ સાર જરા (ઘડપણ) મરણ વગેરે દુખોથી સળગી રહ્યો છે આ રીતે પદિલા દેવાન દાની જેમ સુનતા આની પાસે દીક્ષિત થઈ ગઈ અને અનુક્રમે તેણે અગિયાર અગોનુ અદાયન પણ કરી લીધુ તે ઘણા વર્ષો સુધી ગ્રામરય પર્યાનું પાલન કર્યું છેવટે પ્રીતિપૂર્વક એક ચાની લેખના ધારણ કરીને અનશન વડે સાઠ ભક્તોનું છેદન કયા
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाताधर्मपाल एपा खलु भवतीना समीपे धर्म अवा, धर्मगजनितराग्यशात् समारमयो द्विग्ना 'जार पन्नइत्तए ' यावत् मानितम् मोता जन्म मरणेभ्यो भरतोनामन्तिके मव्रज्या ग्रहीतुमिन्छति, तस्मात् 'पडिन्तु ' प्रतीच्छन्तु स्वीकुन्तु बलु देवानु पियाः । इमा शिष्यामिक्षाम् । सुरतार्या प्राइ-पयामुग्पम् मा प्रतिबन्ध कुरुष । तत. खलु सा पोट्टिला मुत्रतामिराभिरेवमुक्ता सती दृष्टतुष्टा उत्तरपारस्प दिग्भागम् ईशानकोणम् अवकाम्पति-गच्छति, अरक्रम्य स्वयमेव आभरणमाल्या लकारमयमुञ्चति, अवगुन्य सयमेय पञ्चमुष्टिक लोच करोति, कृपा यो मुव्रता आर्यास्तम उपागच्छति, उपागत्य चन्दते नमस्यति, पन्दित्ला नमस्थित्या एवमत्र दत्-' आलितेण भते ! लोए ' आदीप्तः खलु भदन्त ! लोका-हे आयें । एप लोको जन्म नरामरणादिभिर्दु खैः प्रज्वलितः, 'एव' अनेन प्रकारेण 'जहा देवाणदा' यथा देवानन्दा-देवानन्देव एपाऽपि सुबतानामन्ति के प्रवामिता, यावत्-एकादश अगानि अधीते, बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयति, पालयित्वा मासिक्या आपके पास धर्म सुना है सो उसके प्रभाव से यह ससार भय से उद्विग्न हो कर जन्म मरण से भीत, त्रस्त हो कर आपके पास दीक्षित होना चाहती है । इसलिये हे देवानुप्रिये ! आप मेरे द्वारा दी गई इस शिष्य भिक्षाको अगीकार कीजिये । तय सुव्रता आर्यिका ने कहायथा सुख मा प्रतिवध कुरुष्व-(तएण सा पोटिला-सुव्वयाहिं अजाहिं एव वुत्ता समाणाहतुहा उत्तरपुरस्थिम दिमीभार्ग अवकमइ, अवक मित्ता सयमेव आभरणमल्लालकार ओमुयह, ओमुहत्ता सयमेव, पच मुट्ठिय लोय करेह, करित्ता जेणेव सुब्धयाओ तेणेव उवागच्छट, उवा गच्छित्ता वदइ नमसइ, वदित्ता णमसित्ता एव वयासी-अलित्ते ण भते । रोए एव जहा देवाणदा जाव एक्कारसअगाइ अहिजइ, बहणि તેના પ્રભાવથી એ સ સારભયથી વ્યાકુળ થઈને જન્મ-મરણથી ભીત અને વ્યસ્ત થઈને તમારી પાસેથી દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ઈચ્છે છે એટલા માટે હે દેવાનું પ્રિયે ! મારા વડે અપાતી આ શિષ્યા રૂપી ભિક્ષાને સ્વીકાર કરો ત્યારે
ran सुनता मावि तेन यु है' यथासुख मा प्रविध कुरुष्प' (तएण सा पोटिला सुधयाहिं अजाहिं एव वुत्ता समाणा हतुट्टा उत्तर पुरस्थिम दिसो भाग अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्लालकार ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव, पचमुट्ठिय लोय करेइ, करिता जेणेव सुब्धयाओ तेणेव उपागच्छा, उवागच्छित्ता बदइ नममइ, वदित्ता. णमसित्ता एव वयासोभलितण भंते ! लोए एव नहा देवाणंदा जाव एक्कारसअगाइ अहिज्जइ बहणि
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टीका ७० १४ वेतलिपुभप्रधानचरितवर्णनम् ५७ जाव उवणेइ, उवणिता, एवं क्यासी-एस णं देवाणुप्पिया। कणगरहस्त रण्णो पुत्ते पउमावईए अत्तए कणगज्झए नाम कुमारे अभिसेयारिहे रायलक्खणसंपन्ने मए कणगरहस्स रन्नो रहस्तियं सवड़िए, एयं णं तुम्भे महया२ रायाभिसेएणं अभिसिचह । सव्व च से उटाणपरियावणिय परिकहेइ । तएणं ते 'ईसर० कणगज्झयं कुमार महयार रायाभिसेएणं अभिसिचंति। तएणं से कणगज्झए कुमारे राया जाए, महया हिमवंत मलय. वण्णओ जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ । तएणं सा पउमा. वई देवी कणगज्झय रायं सदावेइ, सहावित्ता, एवं वयासीएस णं पुत्ता | तब रज्जे य जाव अतेउरे य० तुम च तेतलि. पुत्तस्स अमच्चस्स पहावेण, तं तुमं ण तेयलिपुत्तं अमच्चं आढाहि परिजाणाहि सकारेहि सम्माणेहि इत अन्भुदेहि, ठियं पज्जुवासाहि, वयंत पडिससाहेहि, अद्धासणेणं उवणिमंतेहि भोग च से अणुरहि । तएणं से कणगज्झए राया पउमावईए देवीए तहत्ति पडिसुणेइ जाव भोगं च से अणुवड्डइ ॥सू० ९॥
टीका-'तएण से ' इत्यादि । ततः खलु स फनकरथो राजा अन्यदा कदाचित् । ' काल यम्मु गा स जुत्ते' कालवर्मेण स युक्त = मृतश्चाप्यभवत् । तत'
'तएण से कणगरहे राया' इत्यादि।
टीकार्थ-(तरणं ) इसके बाद ( से कणगरहे राया अन्नया कयाइ) घह कनफरथ राजा किसी एक दिन काल कवलित हो गया (तण्ण ' तएण से कणगरहे राया' इत्यादि 4-(तएण) त्या२५७ (से फणगरहे राया अन्नया कयाइ) तन४२५
- કવલિત થઈ ગયે એટલે કે મૃત્યુ પામે
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०
-
-
-
-
-
हाताist मूलम्-तएण से कणगरहे राया अन्नया कयाई कालधम्मुणम सजुत्ते यावि होत्था । तरण राईसर जाव जोहरणं करेति, करित्ता, अन्नमन्न एव वयासी-एव सल्ल देवाणुप्पिए । कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्त वियगित्था, अम्हेणं देवाणुप्पिया। रायाहीणा रायाहिहिया रायाहीणकज्जा अय च णं तेतली अमच्चे कणगरहस्स रन्नो सबट्ठाणेसु सबभूमियासु लद्धचए दिनवियारे सबकज्जवडावए यावि होत्था, त सेय खल्ल अम्ह तेतलिपुत्त अमच्चं कुमार जाइत्तएत्ति कटु अन्नमन्नस्स एयभट्ट पडिसुणेति, पडिसुणित्ता, जेणेत्र तेतलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता, तेतलिपुत्त अमच्च एव वयासी-एव खल्लु देवाणुप्पिया । कणगरहे राया रज्जे य रहे य जाब वियगेइ । अम्हे यणं रायाहीणा जाव रायाहीणकज्जा, तुम च णं देवाणुप्पिया । कणगरहस्स रपणो सबढाणेसु जाव रज्जधुराचितए, तं जइण देवाणुप्पिया। अस्थि केइ कुमारे रायलक्खणसपन्ने अभिसेयारिहे, तणणं तुम अम्ह दलाहि । जाणं अम्हे महयार रायाभिसेएणं अभिसिचामो । तएणं तेतलिपुत्ते तेसिं ईसर० एयम पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता, कणगज्झय कुमार पहाय जाव सस्सिरीय करेइ, करित्ता तेसि ईसर दिया। छेद कर आलोचित प्रतिक्रान्त बनी हुई यह समाधि प्राप्त रो गई और काल अवमर काल कर अन्यतर देवलोकमें देवता की पर्याय से उत्पन्न हो गई ।सू. ८॥ છેદન કરીને આચિત પ્રતિકાત બનેલી તે સમાધિ પ્રાપ્ત થઈ ગઈ અને કાળ અવસરે કાળ કરીને અન્યતર વિક્રમા દેવતાના પર્યાયથી જન્મ પામી સ “ઢ
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
भनगारधर्मामृतवपिणी टीका ४० १४ तेतलिपुत्रप्रधानवरितवर्णनम् ५७ जाव उवणेइ, उवणित्ता, एवं क्यासी-एस ण देवाणुप्पिया । कणगरहस्स रपणो पुत्ते पउमावईए अत्तए कणगज्झए नाम कुमारे अभिसेयारिहे रायलखणसंपन्ने मए कणगरहस्स रन्नो रहस्तियं सवड़िए, एयं णं तुन्भे महया२ रायाभिसेएणं अभि. सिचह । सव्व च से उटाणपरियावणिय परिकहेइ । तएणं ते 'ईसर० कणगज्झयं कुमारं महयार रायाभिसेएणं अभिसिचंति। तएणं से कणगज्झए कुमारे रायाजाए, महया हिमवंत मलय. वण्णओ जाव रज्जे पसासेमाणे विहरइ। तएणं सा पउमा. वई देवी कणगज्झय रायं सदावेइ, सदावित्ता, एव वयासीएस णं पुत्ता । तव रज्जे य जाव अंतेउरे य० तुम च तेतलि पुत्तस्स अमच्चस्स पहावेण, त तुमं ण तेयलिपुत्त अमच्चं आढाहि परिजाणाहि सकारेहि सम्माणेहि इंत अन्भुट्रेहि, ठियं पज्जुवासाहि, वयं पडिससाहि, अद्धासणेणं उवणिमंतेहि भोग च से अणुबहेहि। तएणं से कणगज्झए राया पउमावईए देवीए तहत्ति पडिसुणेइ जाव भोग च से अणुवडे ॥सू० ९॥
टीका-तएण से ' इत्यादि । ततः खलु स कनकरथो राजा अन्यदा कदाचित् । ' काल पम्मु गा स जुत्ते' कालवर्मेण स युक्तः मृतश्चाप्यभवत् । तत'
'तएण से कणगरहे राया' इत्यादि।
टीकार्य-(तरणं ) इसके बाद ( से कणगरहे राया अन्नया कयाड) वह कनकरथ राजा किसी एक दिन काल कवलित हो गया (तरण
'तएण से कणगरहे राया' इत्यादि ____ -(तएण) त्या२पछी (से फणगरहे राया भन्नया कयाइ) ते ४४२५ મજા કઈ દિવસે કાલકવલિત થઈ ગયે એટલે કે મૃત્યુ પામ્યા
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwwwwwwww
५८
खलु ' राईसर जार ' = राजेश्वर० यावत् = राजेश्वरतल परमानिककौटुम्बिका दि सार्थवाहमभृतयः तस्य ' णीहरणं' निहरण मृतकरुत्य कुर्वन्ति, कसा अन्यो ऽन्यमेवमदन - एवं खल हे देवानुमियाः । कन्करबो राना 'रज्जे य जाव ते ' राज्ये च यावत् पुनान राज्यादिषु मूर्च्छित उत्पनात् पुत्रान् 'नियगित्या' अव्यङ्गयत्= विकृताङ्गान् कृतवान मारितानित्यर्थः । ' अम्हेण ' वय खलु देवानु मिया !' रायाहीणा ' राजाधीना: = राज शरर्तिनः, ' रायाहिट्टिया ' राजाऽघि ठिता- राजाश्रिता इत्यर्थ', 'रायाही गुरुज्जा ' राजाधीन कार्याः, रामामधीन कार्य
राईसर जाव णीश्रण करे नि, करिता अन्नमन्न एव वयासी- एव म्बलु देवापिए | कणगरहे राया रज्जे यजाव पुत्ते वियमित्था ) राजेश्वर, तलवर, माडम्पिक, कौटुम्बिक, सार्थवाह आदि व्यक्तियों ने मिल कर उसका दाह संस्कार किया । दाह संस्काररूप मृतक कृत्य करने के बाद फिर उन लोगों ने परस्पर में इस प्रकार का विचार किया । हे देवानु प्रियो ! देखो कनक्रथ राजाने तो राज्य आदि में मूच्छित हो कर उत्पन्न हुए समस्त पुत्रों को विकृत अग करके मार डाला है ( अम्हे f देवापिया | रायाहीणा रायाहिडिया रायाणकज्जा अय चण तेत लीअमच्चे कणगरहस्स रनो सन्वट्टाणेसु-सञ्चभूमियासु द्वपच्ए, दिन्नवियारे - सन्वकज्जवढाचए यावि होत्या ) अब इस समय कोई राजा है नही अतः हमलोगों का क्या होगा क्यो कि हम लोग तो हे देवा नुप्रियो ' राजा वशवर्ती है, राजा के आश्रित ही रहते आये हैं, हमारा
(तएण राईसर जाव णीहरण करेंति, कारिचा अन्नमन्न एव वयासी - एव खलु देवाणुप्पिए ! कणगरहे राया रज्जे य जान पुत्ते वियगित्या )
રાજેશ્વર, તલવર, માખિક કૌટુમિક, સાવાહ વગેરે લેાકેાએ મળીને તેના અગ્નિ-સસ્કાર કર્યું અગ્નિ-સસ્કાર આદિ મૃત્યુ વિધિ પતાવીને તે લેકાએ પરસ્પર મળીને આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો કે હે દેવાનુપ્રિયા 1 જુઓ, રાજા કનકરશે તેા રાજ્ય વગેરેની ખાખતમા લાલુપ તેમજ મેાહિત થઈને ઉત્પન્ન થયેલા પેાતાના બધા પુત્રાના અંગે કાપીને મારી નાખ્યા છે
( अम्हे देवाणुपिया ! राया हीगा रायाहिद्विया रायाहीणकज्जा, अय च ण तेतलीअमच्चे कणगरहस्स रनो सट्टा सन्नभूमियासु लद्धपच्चए, दि
विचारे सव्वकज्जवड्ढावए यावि होत्था )
હવે અત્યારે કાઈ રાજા છે જ નહિ તે અમારી શી દશા થશે? દેવાનુપ્રિયા ! અમે તે રાજાના વશવર્તી છીએ, રાજાને અધીન રહેવામા જ
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनामतपरिगो टी० अ० १४ सेतलिपुनप्रधानपरितवर्णनम् .. ५९ येषा ते तथा, सर्वमस्माक कृत्य राजाधीन वर्तते दवि भावः । अय च खलु तेतलि रमान्यः कनकरयस्य राज ' सहाणेसु' सर्वस्थानेपु-स धिविग्रहादिपु सर्वेषु फाउँप, 'सबभूमियामु' सर्वभूमिकामु = स्वाम्यमात्यगादुर्गकोपपलमुहृत्पौरश्रेणिरूपाष्टविधासु ' रद्धपञ्चए 'लव्यत्यय -लब्धा प्राप्त प्रत्ययो विश्वासों यस्य सः, सकलजनविश्वासपात्रमित्यः , 'दिनवियारे' दत्तविचारः, दत्ता राजे वितीर्णः, विचार-शोभनो विचारो येन म , लोकोपकारि पिचारदायक इतिभावः, 'सचफज्जवट्टावए' सर्वकार्यवईक राज्ये समस्तकार्यसम्पादस्थापि 'होत्या' अस्ति । 'व' वत्-तस्मात् कारगात् 'सेय' श्रेया-उचित खलु अस्माकं तेतलिपुनममात्य कुमार 'जाइत्तए' याचितुम् , अयमभिमाय'-यदयममात्यो राज्ञ सकलकार्यनिर्वाहकः, अतस्तत्समीपे गत्वा 'कोऽपि राजलक्षणस पन्न कुमारो राजपदे स्थापनीय. ' इति वार्तालापमुपक्रम्य, समागते प्रसङ्गे, तत्पुत्रो रानपदे स्थापयितु याचनीय., 'ति' इति कृत्वा इति मनसि कृत्वा अन्योऽन्यस्य एतमर्थ 'पटिसुगति' प्रति पृण्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति, 'पडिमुणित्ता' प्रति श्रृत्य, यौव तेतलिपुत्रोऽमात्यस्तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य, एवमवदन्-एव खलु जितना भी कार्य होता है वह सब राजाधीन ही होता आया है। इस लिये तेतलिपुत्र जो अमात्य है चलो उनके पास चले क्यों कि वे ही कनकरय राजाके लिये सधिविग्रह आदि समस्त कार्यों में एव स्वामी, अमात्य, राष्ट्, दुर्ग कोश, घल, सुटत् और पौरश्रेणीरूप आठ भूमियों में विश्वसनीय थे । राजा के लिये ये ही लोकोपकारी कार्यो में सलाह दिया करते थे और ये ही राज्य में समस्त कार्यों के संपादक हैं (त सेय खलु अम्ह तेतलिपुत्त अमच्चकुमार जादत्तए त्तिकट्टु अनमन्नस्स एय मट्ट पडिम्पुणेति, पडिप्लुणित्ता जेणेव तेनलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता तेतलिपुत्त अमच्च एव वयासी-एच खलु देवाणुટેવાઈ ગયેલા છીએ અમારા બધા કામો રજાધીન જ હોય છે એથી ચાલે આપણે સૌ મળીને અમાત્ય તેતલિપુત્રની પાસે જઈએ, કેમકે તેઓ જ રાજા કનકરથના સ ધિવિગ્રહ વગેરે બધા કામમાં અને સ્વામી અમાત્ય, રાષ્ટ્ર , કેરાબળ, સુહુત અને પર શ્રેણિરૂપ આઠ ભૂમિઓમા તે વિશ્વસનીય છે કેના પ્તિ માટે તેતલિપુત્ર અમાત્ય જ સલાહ આપતા રહેતા હતા તેમજ રાજ્યના બધા કામને પાર પાડનારા પણ તેઓ જ છે
(तसेय खलु अम्ह तेतलिपुत्त अमन्च कुमारंजाइत्तए ति कटु अन्नमन्नस्स एयमह पडिमुणेति, पडिमुणिता जेणेव तेतलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छति, - उबाराजिता तलिपत्त अमच्चं एव वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
tartere
हे देवानुप्रिय ! कनकरथो राजा राज्ये च राष्ट्रे च यावत् व्यजयति जय च खलु हे देवानुप्रिय ' राजाधीना यावद् राजाधीनकार्याः, स्व च स हे देवानुप्रिय ! पिया ! कणगरहे राधा रज्जेय रहे य जाप वियगेह, अम्हे य ण राया हीणा जाव रायरीणकज्जा, तुम च ण देवाणुपिया । कणगरहस्स रण्णो सासु जाव रज्जधुरा चितए-त जण देवाणुप्पिया । अस्थि केह कुमारे रायल+खणसपन्ने अभिसेयारिहे, तएण तुम अम्ह दलाहि ) इसलिये हमको उचित है कि हम तेतलिपुत्र अमात्य से कुमार की याचना करें। तात्पर्य इस का यह है कि ये तेतलिपुत्र अमात्य राजा के सकल कार्य निर्वाहक हैं इसलिये उनके पास चलकर " कोई राज लक्षण सपन्न कुमार राजपद में स्थापनीय है " इस बात की हम चर्चा करें। इस चर्चा के प्रसग में उनसे यह भी निवेदन करेगे कि आप अपने पुत्र की ही राज पद में स्थापित कर दीजिये । इस प्रकार का विचार उन्होंने किया । जब विचार स्थिर होचुका-तब सबने इस बात को एक मत से स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर के फिर वे सबके सब जहा अमात्य तेनलिपुत्र थे वहा गये । वहा जाकर उन्होंने ऐसा कहा - हे देवानुप्रिय ! कनक रथ राजाने राज्य और राष्ट्र आदि में विशेष मू च्छित बनकर उत्पन्न हुए अपने समस्त पुत्रो को अगभग कर मारढाला
राया रज्जेय रद्वे य जाव वियगेई, अम्हे य ण देवाणुपिया ' कगगरहस्स रण्गो सट्टासु जाव रज्जधुराचितए-त जडण देवाणुप्पिया | अत्थि केइ कुमारे रायलक्खणसपन्ने अभिसेयारिहे, तष्ण तुम अम्ह दलाहि )
એથી અમને એ ઉચિત લાગે છે કે અમે તેતલિપુત્ર અમાત્યની પાસે જઈને રાજકુમારની યાચના કરીએ કારણ કે તેતલિપુત્ર અમાત્ય રાજાના ખધા કામેાને સારી રીતે પાર પાડનારા છે, એટલા માટે તેમની પાસે જઇને રાજા થવા ચૈાગ્ય રાજ–લક્ષણ યુક્ત કાઈ કુમાર મળી શકે તેમ છે કે કેમ ? તે વિશે ચર્ચા કરીએ. આ જાતની વિચારણા કરતા કરતા અમે બધા તેમને એવી વિનતી પણ કરીશું કે તમે પેાતાના પુત્રને જ રાજગાદીએ બેસાડી દે। આમ
લેાકેાએ મળીને વિચાર કર્યું . આમ વિચાર પાર્ક થઈ ગયે ત્યારે સૌએ એકમત થઈને તેને સ્વીકારી લીધે સ્વીકાર કરીને તેએ બધા ત્યાથી જ્યા અમાત્ય તતલિપુત્ર હતા ત્યા ગયા, ત્યા જઈને તેમણે તેતલિપુત્રને વધુ કે હુ દેવાનુપ્રિય ! કનકરથ રાજાએ રાજ્ય અને રાષ્ટ્ર વગેરેમા સવિશેષ મૂતિ એશ્લે કે માહવશ થઇને જન્મ પામેલા પેાતાના ખધાજ પુત્રોના આ ગા કાપીને ને મારી
ܢܟ
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधामृतपिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानवरितवर्णनम् फनकरयस्य राज्ञः सर्वस्थानेषु यावत् 'रज्जधुराचिंतए' राज्यस्य धूः राज्यधुरा, तस्याश्चिन्तकः, राज्यभारनिर्वाहयामि, तद् यदि खलु देवानुप्रिय! अस्ति कोऽपि कुमारो राजलक्षणस पनः — अभिसेयारिहे' अभिषेकाझै राज्याभिषेफयाग्यः, 'तण' त खलु त्वमस्मभ्य 'दलाहि' देहि 'जो' यस्मात् 'ण' त 'अम्हे' वय महता २ 'रायाभिसेएण' राज्याभिषेकेण=राजयोग्येनाभिपेकेण अभि पिञ्चामः राज्ये स्थापयाम इत्यर्थः। ततः खलु तेतलिपुत्रः तेपाम् 'ईसर० ईश्वर = ईश्वरतलपरमाडम्निकादि सार्थवहप्रभृतीनाम् एतमर्थे ' पडिमुणेड' परिश्रृगांति स्वीकरोति, प्रतिकृत्य स्वाकृत्य, पना वज कुमार 'हाय सस्सिरीय ' स्नात यावत् सश्रीक, स्नात-कृतस्नानम् , यावत् मश्रीक्म्स लिङ्कारविभूपित शोभासमन्वित च करोति, कृत्वा तेपाम् 'ईसर जार' ईश्वर यावत् ईश्वरादीना सम्मुखे 'उरणेद' उपनयति, उपनीय एपमनादीद-एप खल हे देवानुपिया। है। अब इस समय राज पद में कोई नहीं है । हमलोग तो है देवानुप्रिय। राजाधीन यावत् राजाधीन कार्य वाले हैं । और देवानुप्रिय ! कनक रथ राजा के लिये सधि विग्रह आदि समस्त स्थानों मे एव स्वामी अमा. त्य आदि आठ भूमियों में विश्वसनीय रहें हैं। राजो के लिये लोशेप. कारी कार्यो में आप सलाह देते रहे हैं। और आप ही राज्य भार के निर्वाहक है । इसलिये हमारी आपसे यह प्रार्थना है कि हे देवानुप्रिय! यदि राज्यलक्षण सपन्न कोई कुमार राज्य पद मे अभिषेक करने के योग्य होवे तो उसे आप हमें देवे । (जो ण अम्हे मयार रायाभिसे एण अभिसिंचामो। तएण तेतलिपुत्ते तेसि ईसरएयम पडिसुणेह, पडिसुगिता कणगन्झय कुमार पहाय जाव सस्मिरीय करेह, करिता तेसि ईसर जाच उवणेइ, उवणित्ता एव वयासी) कि जिससे हम उसे નાખ્યા છે હવે અત્યારે રાજપદ માટે કોઈ રહ્યું નથી તે દેવાનપ્રિય | અમે લેકે તે રાજાધીન રહીને જ રહેતા આવ્યા છીએ અને હે દેવા નુપ્રિય ! તમે રાજા કનકરથના સધિવિગ્રહ વગેરે plધા કામમાં એટલે કે સ્વામી અમાત્ય, વિગ્રહ વિગેરે તમામ કામમાં હમેશા વિશ્વાસપાત્ર રહ્યા છે, લેકહિતની બાબતમાં તમે રાજાને સલાહ આપતા રહ્યા છે, અને તમે જ
જ્યના બધા કામને પાર પાડતા આવ્યા છે એથી અમે તમને એવી વિનતિ કરીયે છીએ કે હે દેવાનુપ્રિય ! રાજ-લક્ષવાળા અને અભિષિક્ત થઈને રાજગાદીએ બેસવા ગ્ય કેઈ કુમાર હેય તે તેને તમે અમને તો (जे " अम्हे महया २ रायाभिसेएण अभिसिंचामो । तएण तेतलिपुचे तेसि ईमर एयमह पडिमुणेइ, पडिसुणेता कणगझय कुमार हाय जान सस्सिरीये कर६, करिता तेसि ईसर नाच उत्रणेइ, उवणिता एव चयासी)
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
શેર
श्रातापानं रें
1
कनकरथस्य राज्ञ' पुनः पद्मावत्या देव्या आत्मन' कनकम्पनी नाम कुमारः अभि का राजलक्षण सम्पन्नो मया कनकरथस्य रातो 'रहस्तिय रहस्थि=मन्त यथा स्यात्तथा सर्द्धित, एत खलु यूय महता २ राजाभिषेकेण अभिश्चित | पुनः स स च ' से ' तस्य 'उद्वाणपरियारणिय ' उत्थान परियापनिम्म्=
राज योग्य अभिषेक द्वारा अभिषिक्त कर राज्य में स्थापित करें। इस तरह के उन ईश्वर, तलवर, माडम्पिक आदि सार्थ ale के इस कथन रूप अर्थ को उस तेतलिपुत्र अमात्य ने स्वीकार कर लिया और स्वीकार करके कनक वज कुमार को उसने नहीं बुवाकर मर्नालकारों से विभूषित किया । विभूषिक करके फिर वह उसे उन ईश्वर तलवर आदिको के समक्ष ले आया । लकर के उनसे उसने ऐसा करा- (एस or देवानुपिया ! कणगरहस्स रण्णो पुत्ते पउमाईए अत्तर कणगज्झए णाम कुमारे अभिसेयारिहे रायस्वणसपन्ने मए कणगररस्सरण्णो रहस्य सर्वाढिए एय ण तुम्मे महया मया रामाभिसेएण अभिि च) हे देवोनुप्रियो ! यह कनकरथ राजा का पुत्र है जो पद्मावती की कुक्षि से जन्मा है। इसका नाम कनक चज कुमार है । अभिषेक के योग्य है और राजलक्षण सपन्न है । मैंने इसको कनकरथ राजा से छिपा कर पापा है और वृद्धिगत किया है। इसे आपलोग बडे भारी राजयोग्य अभिषेक के साथ राज्य में स्थापित कीजिये । (सव्व च से
કે જેથી અમે તેને રાજ્યાસને અભિષેક કરી શકીએ આ રીતે અમાત્ય તેતલિપુત્રે તે ઈશ્વર, તલવર, માળિક, સાવાર્હ વગેરેના કથનને સ્વીકાર્યું અને સ્વીકારીને તેણે કનકધ્વજ કુમારને નોન કરાવ્યુ અને ત્યારપછી બધા અલકારીથી તેને ાણુગાર્યા ત્યારખાદ અમાત્ય તેલિપુત્રે સુમનજ થયેલા કુમારને ઇશ્વર, તલવર વગેરેની સામે લાગ્યે અને તેને કહ્યુ કે~
( एस देवाशुपिया | कणगरहस्त रण्णो पुते परमावईए अत्तए कणगज्झए णाम कुमारे अभिसेयारिहे रामलक्खणसपने मुए कणगरहस्स रष्णो रहस्तिय सत्रडिए एय ण तुम्भे महया महया रायाभिसेएण अभिसिंचद )
હૈ દેવાનુપ્રિયે ! આ કનકરથ રાજાને પુત્ર છે અને પદ્માવતી દેવીના ગથી આના જન્મ થયા છે. કનધ્વજ કુમાર આનુ નામ છે આ કુમાર રાજ્યાસને બેસાડવા ચેાગ્ય તેમજ રાજલમણાથી યુક્ત છે. રાજા કનકરયને આ ખાખતની જાણુ નથી, મે આનુ પાલન તેમજ રક્ષણ છુપી રીતે કર્યું છે તમે ભારે મહેાસવની સાથે આ કૃમીરને રાજગાદીએ બેસાડી
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
भणी टोका भ० १४ तलिप्रप्रधान चरितवर्णनम्
,
उत्थान = जन्म, परियापनिका = जन्मानन्तरमयावधिका सार्द्धनादिपरिस्थितिः, उत्थान च परियापनिका च = उत्थानपरियापनिकम् = जीवनचरित परिकथयति । तत खलु ' ईसर ० ' ईसरतलवरमाडम्बिकादयः कनकध्वज कुमार महता २ राजाभिषेकेण अभिपिचन्ति । ततः खलु स कनकध्वज' कुमारो राजा जातः, स च कनकध्वजो राजा' महया हिमवत्त० महाहिमवद्० =महाहिमवन्महामलय मन्दर महेन्द्रसारः 'महाहिमवन्महामलयमन्दर महेन्द्राणा सार इन सारो यस्य सः,
,
उद्वाणपरियाणिय परिकहेइ, तएण ते ईसर० कणगज्ञ्जय कुमार महया २ रायाभिसेपण अभिसिचति । तएण से कणगज्झ कुमारे राया जाए, महया हिमवत मलय० वण्णओ जाव र पसासेमाणे बिरह, तरण मा पउमावई देवी कणगज्झय राय सहावेह, सद्दावित्ता एवं वासी ) ऐसा कहकर फिर उन तेतलिपुत्र अमात्य ने उस कनकम्वज कुमार का उत्थान - जन्म और परियापनी का जन्म से लेकर अभी तक की समस्त पालन पोषण सवर्द्धन आदि परिस्थिति रूप- जीवन चरित्र - उन्हें कह सुनाया- इस के बाद उन ईश्वर, तलवर, मानिक एव कौटु म्पिक आदिकोंने कनकध्वज कुमार का बड़े जोर शोर के साथ राज्या भिषेक किया। राज्य में अभिषिक्त होने के बाद वे कनकध्वज कुमार अन राजा बन गये । इसका सरि-यल लोकमर्यादा कारी होने के कारण मरा हिमवत् जैसा, यश और कीर्ति के फैलाव के कारण महामलय
(सव्वच से उाणपरियारणिय परिकहे, तएण ते ईसर० कणगज्झयं कुमार महया २ रायाभिसेएणं अभिसिचति । तएण से कणगज्ज्ञए कुमारे राया जाए, महया हिमवता मलय० वण्गओ जान रज्ज पसासेमाणे विहरइ, तएण सा पउमावई देवी कणगज्झय राय सहावे, सद्दावित्ता एव वयासी )
આ પ્રમણે કહીને તેતલિપુત્ર અમાત્યે તે કનકધ્વજ કુમારનુ ઉત્થાનજન્મ અને પરિયાનિકા એટલે કે જન્મથી માડીને અત્યાર સુધીની પેષણ સવર્ડ્સન વગેરેની જીવન ચરિત્ર સત્ર ધી બધી વિગત અથથી ઇતિ સુધી કહી સભળાવી ત્યારબાદ તે ઈશ્વર, તલવર, મારુબિક અને કૌટુબિક વગેરે લેાકાએ કનકજ કુમારને બહુ જ મોટા પાયા ઉપર ઉત્સવ ઉજવીને રાજ્યાભિષેક કર્યાં અભિષિકત થવા બાદ ફનકજ રાજા થઈ ગયા હતા તેમનુ ખળ લેાક મર્યાદાને રક્ષનાર ડાવા બદલ મહાહિમવત જેવુ હતું તેમના યશ અને કીર્તિ ચામેર પ્રસરેલા હતા તેથી તે મહામલય જેવા હતા તેમજ તે દૃઢ પ્રતિ
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
mari लोकमर्यादाकारित्वेन महाहिमरत्सन, ममतपश: कीवित्वेन महामलयतुल्य , हदप्रनिसत्वेन तिव्यदिग्दर्शकत्वेन च मन्दरमहेन्दतुल्य', 'याणभो वर्णक विशेष रूपेण अन्यतोऽबसेयः, 'जार रज्ज पमासेमाणे ' यााज्य प्रशामद् विहरति राज्य कुर्वन्नास्ते । ततः खल सा पभारतीदेवी कनरचन गनान शब्दयति, शब्दयित्ता एमवदत्-एतत् खलु हे पुत्र ! तर 'रज्जे य जाप अतेउरे य.' राज्य च यापदन्तः पुर च एतस्सव तेतलिपुनस्प प्रमावेन वर्तते 'त' तव-कार णात् त्व सलु तेतलिपुनममात्य 'आदाहि' आदियस्व-आदर कुरुप 'परि जाणाहि , परिजानाहि-अवेक्षस्व तदनुमस्या सर्व कार्य सम्पादयेत्यर्थः सत्तारय वखादिना, सम्मानय माल्यादिना, 'इत' यन्तम् मागन्छन्तमेत तेतलिपुत्रम् 'अभुदेहि ' अभ्युत्तिष्ठ अभ्युत्थानादिना विनय पदर्शयेत्यर्थ 'ठिय पज्जुवासाहि' स्थिन पर्युपास्स सेवन, 'वयत ' ग्रनन्त-गच्छन्तम् 'पडिसंपाहेडि ' प्रतिसंमा धय-अनुगमनादिना प्रसादय, तथा 'अद्धामणेण उवणिमतेहि ' अर्भासनेन उपनि मन्त्रय स्वस्यासने तमुमवेपप, भोग-सुखसामग्रीरूप च 'से' तस्य अनुवर्तय। ततः स कनकध्वज 'पउमावईए देवीए' पपावत्या देव्याः वचन ' तहत्ति' के जमा, दृढप्रतिज्ञा चाले एक कर्तव्य का दिग्दर्शन कराने वाले हाने के कारण मन्दर महेन्द्र-मेरू के जैसा था। और भी इन राजा के विषय का विशेष वर्णन दूमरों शास्त्रों से जान लेना चाहिये। यावत् इस तरह ये कनक वज कुमार अपने राज्य के शासन करने में तत्पर बन गये। इसके बाद उस राजमाता पद्मावतीदेवो ने उन कनकध्वज राजाको अपने पास बुलाया और बुलाकर फिर उनसे उसने इस प्रकार कहा-(तएण पुत्ता! तव रजे य जाव अतेउरेय. तुमच तेतलिपुत्तस्स अमच्चस्स पहा वेण, त तुम ण तेतरि पुत्त अमच्च आढाहि,परिजाणाहि,सकारेहि,सम्मा
हि, इत अब्भुटेहि ठिय पज्जुवासाहि, वयत पडिससाहेरि, अद्धामणेण સાવાળા અને કર્તાને બતાવનાર હોવા બદલ મન્દર મહેન્દ્ર-મેરુ જેવા હતા રાજા કનકવજ વિશે સવિશેષ વર્ણન બીજા શાસ્ત્રોમાં વર્ણવ્યું છે, જીજ્ઞાસુઓએ ત્યાથી જાણી લેવું જોઈએ આ પ્રમાણે તે કનકદેવજ કુમાર પોતાના રાજ્યના વહીવટને સંભાળવા માટે સાવધ થઈ ગયા ત્યારપછી ૨ જમાતા પદ્મ વતીદેવીએ કનકધ્વજ રાજાને પોતાની પાસે બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(तएण पुत्ता ! तब रज्जे य जाव अतेउरेय० तुम च तेतलिपुत्तस्स अमवस्त पहावेण, त तुम ण तेतलिपुस अमच्च आढाहि, परिजाणाहि. सक्कारेहि. मा
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधर्मामृतदपिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम्
६५
तथेति = 'तथास्तु' इतिकृत्वा प्रतिशृणोति स्वीकरोति प्रतिश्रुत्य तथैन कुण यावद् भोगं च तस्य अनुवर्द्धयति ॥ ९ ॥
उवणिमतेहि, भोगंच से अणुवड्डेहि । तएण से कणगाए राया परमावईदेवी तहत पडणे, जाव भोगंच से अणु ब्रेड) हे पुत्र | यह तुम्हारा राज्य और अतः पुर तथा तुम स्वय यह जो कुछ है वह सब तेतलिपुत्र अमान्य के प्रभाव से ही है इसलिये तुम तेतलिपुत्र अमात्य का आदर करते रहो, उनकी अनुमति से काम किया करो उनका वस्त्रादि द्वारा समय २ पर सत्कार करते रहो, अभ्युत्थानादि सन्मान करते रहो और जब तेतलिपुत्र तुम्हें आते हुए दिग्वलाई दे तो तुम उठकर इनके प्रति अपना विनय प्रदर्शित किया करो। जन ये जावे-तत्र तुम बैठ कर इनकी सेवावृत्ति किग्रा करो, जब ये चलने लगे तो तुम इनके पीछे २ घोड़ी दूर तक अपने महलों में पहुँचाने जाया करो, अपने बैठने के आसन पर इन्हें अर्धभाग में बैठाया करो और जो भी सुख साधनकी सामग्री है यह इनकी बढ़ा दो । इमे प्रकार राजमाता पद्मावती देवी के चनों को "तथास्तु" कहकर कनक वज राजाने स्वीकार कर लिया । हि
इत अभुडेहि ठिय पज्जुवासादि वय त पडिससादेहि, अद्वामणेण उवणिम तेहि भोग च से अणुहि । तएण से क्णगज्झए राया पउमानईए देवीए तहत्ति पडिसुणेइ, जाव भोग च से अणु बढेर )
દેખાય ત્યારે તમે
જ્યારે તેએ જવા
હે પુત્ર ? આ તમારૂ રાજ્ય રઘુવાસ તેમજ તમે પાતે આ બધુ જે કઈ છે, તે સર્વે તૈતલિપુત્ર અમાત્યના પ્રભાવથી જ છે એથી તમે તેન લિપુત્ર અમાત્યને સદા આદર કરતા રહે, દરેક કામ તેમની આજ્ઞાથી કરતા રહે, સ્રો વગેરે આપીને યથા સમય તેમના સત્કાર કરતા રહે, તેમનુ સન્માન કરતા રહા અને અમાત્ય તેતલિપુત્ર તમને આવતા ઉભાઈને તેમના પ્રતિ વિનય યુક્ત થઈને વ્યવહાર કરે! તૈયાર થાય ત્યારે તમે એસીને તેમની સેવા કરતા રહે અને જ્યારે તેઓ ચાલવા માટે ત્યારે તમે તેમની પાછળ પાછળ ઘેાડે દૂર સુધી પેાતાના મહેલ માજ વિદાય આપવા માટે તેમનુ અનુસરણ કરતા જાએ તમે તેમને પાતાના આસનના અૉભાગ ઉપર બેસાડા અને તેમની બધી સુખસગવડની સામગ્રી મા વધારા કરી આપે। આ રીતે રાજમાતા પદ્માવતી દેવીની આજ્ઞાને નક देवलको 'तथास्तु' हीने स्वीमरी सीधी, वीजय पडी तेयाथ ते
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
STARWER
,
1
लोकमर्यादाकारित्वेन महाहिमस्सा, मतपत्रः कीर्तित्वेन महामलयतुल्य, प्रतितत्वेन कर्तव्य दिग्दर्शकत्वेन च मन्दर महेन्द्रस्यः, 'ष्णभो 'वर्णकविशेष रूपेण अन्यतोऽवसेयः, ' जात्र रज्ज पमासेमाणे ' याज्य प्रशासद् विहरति राज्य कुर्वन्नास्ते । ततः खलु सा पद्मावतीदेवी फनरुपन गजान शब्दयति, शब्दयिला एवमवदत् - एतत् खलु हे पुत्र ! तर ' रज्जे य जान अउरे य० राज्य च यावदन्त' पुर च एतत्सर्वं तेतलिपुत्रस्य प्रभावेन ने 'त' तदकार णात् त्व खलु तेवलिपुत्रममात्य 'आद्रादि आदिय=भादर कुरुप परि जाणाहि, परिजानाहि = अवेक्षस्व तदनुमस्या सर्व कार्य सम्पादयेत्यर्थः सत्कारय वखादिना सम्मानय माल्यादिना, 'इव' यन्तम् = मागन्छन्वमेव तेवलिपुत्रम् ' अम्भुदेहि ' अभ्युत्तिष्ठ = अभ्युत्थानादिना विनय प्रदर्शयेत्यर्थ 'ठिय पज्जुवासादि ' स्थित पर्युपास्य सेवन, 'वगत ' प्रजन्त गच्छन्तम् ' पडिसपाहि ' प्रतिसंमा धय अनुगमनादिना प्रसादय, तथा 'अद्धामणेण उवणिमतेहि ' अर्धासनेन उपनि मन्त्रय= स्वस्यासने तमुमचेपप, भोग = सुखसामग्रीरूप च ' से ' तस्य अनुवर्द्धय । ततः स कनकध्वज' ' पउमावईए देवीए पद्मावत्या देव्याः वचन 'तहत्ति '
,
६४
के जैसा, दृढप्रतिज्ञा वाले एव कर्तव्य का दिग्दर्शन कराने वाले हॉने के कारण मन्दर महेन्द्र- मेरू के जैसा था । और भी इन राजा के विषय का विशेष वर्णन दूसरों शास्त्रों से जान लेना चाहिये। यावत् इस तरह ये कनकध्वज कुमार अपने राज्य के शासन करने में तत्पर बन गये । इसके बाद उस राजमाना पद्मावतीदेवो ने उन कनकध्वज राजाको अपने पास बुलाया और बुलाकर फिर उनसे उसने इस प्रकार कहा - (तएण पुत्ता ! तव रज्जेय जाव अतेउरेय तुमच तेतरिपुत्तस्स अमचस्स पहा वेण त तुम ण तेतलिपुत्त अमच्च आढाहि, परिजानाहि, सकारेहि, सम्मा हि, इत अभुट्ठेहि ठिय पज्जुवासाहि, वयत पडिससाहेरि, अद्धासणेण
જ્ઞાવાળા અને બંને તાવનાર હાવા બદલ મન્દર મહેન્દ્ર-મેરુ જેવા હતા રાજા કન-વજ વિશે સવિશેષ વર્ણન ખીજા શાસ્ત્રોમા વણૅવ્યુ છે, જીજ્ઞાસુએ એ ત્યાથી જાણી લેવું જોઇએ આ પ્રમાણે તે કનકધ્વજ કુમાર પેાતાના રાજ્યના વહીવટને સ ભાળવા માટે સાવધ થઈ ગયા ત્યારપછી ૨ જમાતા પદ્મ વતીદેવીએ કનકધ્વજ રાજાને પોતાની પાસે ખેલાવ્યા અને ખેાલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યુ
કે
(तरण पुत्ता ! तत्र रज्जे य जाव अतेउरेय ० तुम च तेतलिपुत्तस्स अमच पहावेण त तुम ण तेतलिपुच अमच्च आदाहि, परिजाणार, सक्कारेहि, सम्मा
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारमोदिगो टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितनिरूपणम् ६७ अन्भुट्टेइ, अणाढायमाणे, अपरियाणमाणे, अणभुट्ठायमाणे, परम्नुहे संचिट्ठइ । तएणं तेतलिपुत्ते कगगझ यस्स अजलिं करेइ । तएणं से कणगज्झए राया अणाढायमाणे तुसिणीए परम्मुहे संचिठ्ठइ । तएण तेतलिपुत्ते कणगज्झय विप्परिणयं जाणित्ता भीए जाव संजायभए एव वयासी-स्ट्रेण मम कणगज्झए राया हीणे णं मम कणगज्झए राया, अवज्झाए णं ममं कणगज्झए, राया त ण नजइ णं मम केणइ कुमारेण मारेहिइ त्ति कटु भीए तत्थे५ जाव सणियर पञ्चोसकाइ, पच्चोसकित्ता, तमेव आसखध दुरूहेइ, दुरूहित्ता, तेतलिपुर मज्झमझेणं जेणेव सए गिहे, तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तएणं तेतलिपुत्त जे जहा ईसर जाव पासंति, ते तहा नो आढायति नो परियाणति नो अब्भुटेंति नो अंजलिपरिग्गह करेंति, इटाहिं जाव णो संलवति नो पुरओ य पिटुओ य पासओ य मग्गओ य समणुगच्छति । तएण तेतलिपुत्ते जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता जाविय से तत्थ बाहिरिया परिसा भवइ, त जहा-दासेइ वा पेसेइ वा भाइल्लएइ वा सावि य णं नो आढाइ नो परियाणाइ नो अब्भुटेइ,जाविय से अविभतरिया परिसा भवइ, त जहा - पियाइ वा मायाइ वा जाव सुण्हाइ वा सावि य ज नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुटेइ । तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव वासघरे जेणेव सए सयणिजे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, सयणिजति णिसी.
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
Merrart ___मूलम् तएणं से पोटिले देवे तेतलिपुत्तं अभिरवण २ केवलिपन्नत्ते धम्मे संवोहेइ, नो चेवणं से तेतलिपुत्ते संबु ज्झइ । तएणं तस्स पोटिलदेवस्स इमेयारूबे अज्झस्थिए५ एवं खलु कणगज्झए राया तेतलिपुत्तं अढाइ जाव भोग च से वड्डे तएणं से तेतलीपुत्ते अभिक्खणं सोहिजमाणे विधम्मे नो संबुज्झइ, त सेय खलु मम कणगज्झय रायं तेतलिपुताओं विपरिणामेत्तए तिकटु एव सपहेइ, सपेहिता, कणगज्झयं तेतलिपुत्ताओ विप्परिणामेइ । तएणं तेतलिपुत्ते कहं बहाए जात्र पायच्छित्ते आसखधवरगए वहहि पुरिसहि सपरिचुडे साओ गिहाओ णिग्गच्छइ,णिग्गच्छित्ता जेणेव कणगज्झए राया तेणेव पहारेथए गमणाए । तएणं० तेतलिपुत्त अमञ्च जे जहा बहवे राईसरतलवर जाव पभियाओ पासति, ते तहेव आढायंति, परिजाणति, अन्भुटेंति, आढाइत्ता, परिजाणित्ता, अभुद्वित्ता, अंजलिपरिग्गहं करेंति, इटाहि कंताहि जाव वग्गूहि आलवेमाणा य सलवेमाणा य पिटुओ य पासओ य भग्गओ य समणुगच्छति तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव क्णगज्झए राया तेणेव उवागच्छइ । तएणं से कणगज्झए राया तेतलिपुत्त एजमाणं पासइ, पासित्ता, नो अढाइ, नो परियाणाइ, नो स्वीकार करके फिर उन्होंने वैसा ही सब कुछ करते हुए तेतलिपुत्र अमात्य की यावत् सुख साधन सामग्नी बढा दी ॥ सू० ९॥ પ્રમાણે જ બધુ કરતા તેતલિપુત્ર અમાત્યની સુખસગવડ વગેરેની સામગ્રીમાં વધારે કરી આપે છે સૂ૦ ૯.
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतार्पणी टी० म० १४ तेतलिपुत्रप्रधानपरितवर्णनम् १९ रिए, तत्य वि से धारा ओपल्ला को मेयं सदहिस्सइ । तेतलिपुत्तेणं पासगं गीवाए बंधेत्ता जाव रज्जू छिन्ना को मेय सदहिस्सइ? तेतलिपुत्तेणं महइमहालयं जाव बंधित्ता अत्थाहे जाव उदगति, अप्पामुक, तत्थ वि य णं थाहे जाए को मेयं सहहिस्सइ १ तेतलिपुत्तेणं, सुक्कसि तणकूडसि अगणिकायं पक्खिवित्ता अप्पामुक्को तत्थ वि से अगणिकाए विज्झाए, को मेयं सदहिस्सइ १ ओहयमणसंकप्पे जाव झियाइ ॥ सू० १०॥
टीका-'तएण से पोहिले ' इत्यादि । तत खलु स पोट्टिलोदेवस्तेतलिपुत्रम् 'अभिरखग २' अभीक्ष्णम् २-पुनः पुनः केवलिप्रज्ञप्ते धर्मे सनोपयति । परन्तु नो चैन खलु स तेतलिपुत्र 'सधुज्झइ' सम्बुध्यतेप्रतिबोध प्राप्नोति । ततः ग्वल तस्य पोटिलदेवस्य 'इमेयारूपे' अयमेतद्रूपः=पुरउच्यमानः 'झ थिए ' ५ आध्यात्मिकः विन्तितः प्रार्थितः मनोगत सकल्प. समुदपद्यत । सकल्पमकारमाह-' एव खलु' इत्यादि । एर खल कनक वजो राजा तेतलिपुत्र आद्रियते यावत् भोग च सनर्द्धयति, उत• खलु स तेतलिपुरोऽभीक्ष्ण २ मया
'तएण से पोटिले' इत्यादि । टीकार्य-(तएण) इसके याद (से पोटिले देवे) यह पोहिलाका जीव देव (ततलिपुत्त अभिरखण २ केवलिपमत्त धम्मे संयोहेइ, नो चेव ण से तेनलिपुत्ते सघुझाइ) तेतलिपुत्र अमात्यको बार बार केवलिप्रज्ञप्त धर्ममें प्रतियोधित करने लगा परन्तु तेतलिपुत्र प्रतियोध को प्राप्त नहीं हुआ। (तएण तस्स पहिलदेवस्स इमेयाख्वे अज्झथिए ५-एक खलु कणज्झए राया तेतलिपुत्त अढाइ, जाव भोग च स वड्डेइ, तएण से तेनलिपुत्ते अ.
तएण से पोहिले इत्यादि ॥ सार्थ-(सएण) त्या२ पछी ( से पोट्टिले देवे) ते पाहताना १३५ (तेतलिपुत्त अभिक्खण २ केवलिपनचे धम्मे सबोहेइ नो चेरण से तेतलि पुत्ते संयुज्झइ)
તેતલિપુત્ર અમાત્યને વારવાર કેવળિ પ્રાપ્તધર્મમાં પ્રતિબંધિત કરવા લાગે પણ તેતલિપુત્રને પ્રતિબંધ પ્રાપ્ત થયે નહિ
(तएण तस्स पोहिलदेवस्स इमेयारूवे अज्जस्थिए ५-एव खलु कणगज्झए राया तेतलिपु च आढाइ, जाव भोग च संवड़े, तपूर्ण से तेतलिपुत्ते अभिक्खणं
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
मालाधर्मका
६८
यइ, णिसीइत्ता, एवं वयासी- एव खलु अहं सयाओ गिहाओ णिग्गच्छामि, त चेव जाव अभितरिया, पुरिसा नो आढाइ नो परिजाणाइ, नो अब्भुहे, तं सेयं सलु मम अप्पार्ण जी वीयाओ वक्रोक्त्तिएत्तिकट्टु, एवं सपेहेइ, संपेहित्ता तालउडं विसं आसगंसि पक्खिवइ, से य विसे णो संक्रमइ । तपणं तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव असि खधंसि ओहरइ, तत्थ विय से धारा ओपल्ला । तएण से तेतलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासगं गीवाए बधइ, वधित्ता अप्पानं मुयइ, तत्थ विय से रज्जू छिन्ना । तपणं से तेतलिपुत्ते महइ महालय सिल गीवाए वधइ, वंधत्ता अत्थाहम तारमपोरिसियस उदगंसि अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि से थाहे जाए | तएर्ण से तेतलिपुत्ते सुक्कंसितणकूडसि अगणिकाय पक्खिवइ, पक्खिचित्ता मुयइ, तत्थ वि से अगणिकाए विज्झाए । तएण से तेतलोपुत्ते एव व्यासी - सद्वेय खलु भो समणा वयंति, सद्धेय खलु भो माहणा वयति, सद्धेय खलु भो समणामाहणा वयति, अह एगो असद्धेयं वयामि एव खलु अहं सहपुत्तेहिं अपुत्ते को मे सहहिस्से ? सहमित्चेहि अभित्ते, को मेय सद्द हिस्सा, एव अत्थेणं दारेण दासेहिं परिजणेणं एव खलु तेतलिपुत्तेर्ण अ॒मच्चे कणगज्झएणं रन्ना अवज्झायणं समाणेणं तेतलिपुत्त्रेणं तालपुडगे विसे आगसि पक्खित्ते, से वि य णो कमइ को मेय सदहिस्लइ ? तेतलिपुते नीलुपल जात्र खुसि, ओह.
T
1
11
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपाणी टी० १० १४ तेतलिपुत्रप्रधानपरितयर्णनम् रिए, तत्थ वि से धारा ओपल्ला को मेयं सदहिस्सइ । तेतलिपुत्तेणं पासगं गीवाए वधेत्ता जाव रज्जू छिन्ना को मेयं सदहिस्सइ तेतलिपुत्तेणं महइमहालयं जाव बंधित्ता अत्थाहे जाव उदगसि, अप्पामुक, तत्थ वि य णं थाहे जाए को मेयं सहहिस्सइ ? तेतलिपुत्तेणं, सुकसि तणकूडसि अगणिकायं पक्खिवित्ता अप्पामुक्को तत्थ वि से अगणिकाए विज्झाए, को मेयं सद्दहिस्सइ ' ओहयमणसंकप्पे जाव झियाइ ॥ सू० १०॥
टीका-तएण से पोटिले' इत्यादि । तत खलु स पोट्टिलोदेवस्तेतलि पुत्रम् 'अभिभावण २' अभीक्ष्णम् २-पुनः पुनः केवलिप्रज्ञप्ते धर्मे समीपयति । पान्तु नो चैव खलु स तेतलिपुन 'संयुज्झइ' सम्युध्यते मतिरोध प्राप्नोति । ततः ग्वलु तस्य पोहिलदेवस्य 'इमेयारूवे' अयमेतद्रूप =पुरउच्यमानः 'झथिए' ५=आध्यात्मिक चिन्तितः प्रार्थितः मनोगत सकल्प. समुदपद्यत । सकल्पप्रकारमाह-' एव खलु' इत्यादि । एर खलु कनक वजो राजा तेतलिपुर आद्रिय ते यावत् भोग च सर्द्धयति, ततः खलु स तेतलिपुगेऽभीक्ष्ण २ मया
'तएण से पोहिले ' इत्यादि । टीकार्य-(तएण) इसके बाद (से पोटिले देवे) वह पोहिलाका जीव देव (तेतलिपुत्त अभिरखा २ केवलिपमत्त धम्मे संबोहेइ, नो चेव ण से तेनलिपुत्ते मयुज्झइ) तेतलिपुत्र अमात्यको बार यार केवलिप्रजप्त धर्ममें प्रतियोधित करने लगा परन्तु तेतलिपुत्र प्रतिबोध को प्राप्त नहीं हुआ। (तएण तस्स पहिलदेवस्स इमेयारूवे अज्झथिए ५-एव खलु कणज्झए राया तेतलिपुत्त अढाइ, जाव भोग च स वड्डे, तएण से तेनलिपुत्ते अ
तएण से पोष्टिले इत्यादि ॥ At-(तएण) त्या२ ५छ ( से पोट्टिले देवे) ते पाहिलाना ७५ ३५ (तेतलिपुत्त अभिक्खण २ केवलिपन्नत्ते धम्मे सबोहेइ नो चेव ण से तेतलि पुत्ते संधुज्झइ)
તેતલિપુત્ર અમાત્યને વારવાર કેવળિ પ્રજ્ઞસમમાં પ્રતિબંધિત કરવા લાગ્યા પણ તેતલિપુત્રને પ્રતિબંધ પ્રાપ્ત થયો નહિ
(तएण तस्स पोटिलदेवस्स इमेयारूवे अज्जस्थिए ५-एव खलु रणगज्झएँ राया तेतलिपु त आढाइ, जाव भोग च संवडेड, तएणं से तेतलिपुते अभिक्खणे
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
___
'समाडिनमाणधि' संबो यमानोऽपि धर्मों नो सयुःपते पविवोध न प्राप्नोति । 'तं तत् समान कारणात् श्रेयः सलु मम पनपज रागान तेतलिपुनगइ विरि णमयितुम् तलिपुरिपये कनक धनस्य मानसिको माग यया रिपरिणतो भवे तथा कर्तुपुनितम् , उतिकताइति मनमि पिचार्य 97 समेलते विचारयति सप्रेक्ष्य कनक वज तेतलिपुत्राद् विपरिणमयति-रिपरीत फरोति । ततः खल तेतलिपुत्रः 'मल्ल ' यल्ये द्वितीयस्मिन् दिने प्रायः 'हाए जात्र पायरिछते' स्नानो यावत् मायवित्त स्नात कृतस्नान: यात पदन कृतरलिफर्मामाकादि निमित्त कृतानभाग कृतकोतकमागल्यप्रायश्चित्ता-कतानि कौतुकानि दुःस्वप्नादि दोपनिमारणार मपीपुण्ड्रादीनि-मागल्यादीनि = मगरकारकाणि दक्षितादीनि
पायश्चित्तपदवश्यं कर्तव्यानि येन सः, 'आमरसधग्गए ' अवस्कन्ध वरगत अश्वारूढ पहुभि पुस्पै सपरितः स्वस्माद् गृहाद निर्गन्छति, निर्गस्य भिक्खण २ स योहिन्जमाणे वि धम्मे नो सयुज्झइ, त सेय पलु मम कणगज्झय राय तेतलिपुत्ताओ प्पिरिणमेत्तए त्ति कटु एव सपेहे।) तब उस पाहिल देवको ऐमा आ यात्मिक यावत् मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ कनकध्वज राजा तेनलिपुत्र अमात्यका आदर करते हैं यावत् वे उनके सुप साधनकी सामग्री बढा दिया है-इसलिये मेरे द्वारा चार बार प्रतियोधित करने पर भी वे धर्म में प्रतियुद्ध नही बन रहे है-प्रतिरोध को प्राप्त नहीं हो रहे हैं। इमलिये मुझे अय ऐसो करना चाहिये कि जिससे तेतलिपुत्र के विषय में कनकध्वज राजा का मानसिक विचार घदन जावै । इस प्रकार का विचार उस देवके मनमें जगा (सपेरित्ता कणगज्झय तेतलिपुत्ताओ विपरिणामेइ, तएण तेतलिपुत्ते कल्ल हाए २ समोहिज्जमाणे पि धम्मे नो सबुझइ, त सेय खलु मम कणगज्मय राय तेतलिपुत्ताओ विप्परिणामेत्तए ति कट्ठ एव सपेहेइ)
ત્યારે તે દેવરૂપ પિફ્રિલાના જીવ દેવને એવો આધ્યાત્મિક યાવત મને ગત સક૬૫ ઉ ભવ્ય કે રાજા કનકધવજ અમાત્ય તેતલિપુત્રને આદર કરે છે થાવત તેઓએ તેમની બધી જાતની સુખસગવડની સામગ્રીમાં વધારો પણ કરી આવે છે, એથી મારવડે વારંવાર પ્રતિબંધિત કરવા છતાએ તેઓ ધર્મમાં પ્રતિબુદ્ધ થઈ જતા નથી એટલે કે તેમને વાર વાર પ્રેરણ આપવા છતા પ્રતિબંધ થયું નથી એટલા માટે હું હવે એ પ્રમાણે કઈક ણ કે જેથી રાજા કનકદેવજના માનસિક વિચારે અમાત્ય તેતવિપુત્રને માટે પ્રતિકૂળ થઈ જાય તે દેવે મનમાં આ જાતને વિચાર કર્યો
(सपेहित्ता प्रणगज्झय तेतलिपुत्ताभो विपरिणामेइ तएण तेतलिपुत्ते कल्ले साए मार पायच्छित्ते आसखयवरगपु, बहूहि परिसेहि सपरिपुडे, गिहाओ,
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगर मृतयपिणी शे० ८० १४ सेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम्
पत्रैव कनकध्वजो राजा तौर 'पहारेत्य गमगाए ' माधारयद् गमनाय - प्रस्थितबानू । तव खलु तेत लिपुनममात्य 'जेजहा ' ये यथान्येन प्रकारेण बहवो 'राई सरतलबरजात्रपभियओ 'राजेश्वर तलवर यात्मभृतयः, राजेश्वरतरवरा यः पश्यन्ति, ते तवैव तममात्यमाद्रियन्ते नमस्कारादिना परिजानन्ति =शुभ, मनमित्यनुमोदयन्ति, अभ्युत्तिष्ठन्ति = अभ्युत्थान कुर्वन्ति, आहत्य परिज्ञाय, अभ्युत्थाय अखलिपरिग्रह कुर्वन्ति तथा इष्टाभिः कान्ताभि यात्- मियाभिर्मनोज्ञाभिर्मनोऽमाभिः ' जाव पायच्छित्ते आसखधवरगए, यहहिं पुरिसेहिं सपरिवुडे, साओ गिराओ, णिग्गच्छह, मिग्गचिप्ता जेणेव कणगज्झए राया तेणेव पहारेत्थ गमणार, तण्ण० तेतलिपुत्त अमच्चं जे जहा पहये राईसरत लवर जाव पभियाओ पासति ते तहेव आढायति परियाणति, अब्भुहैन ) इस विचार के आते ही उस देवने कनकवज राजा को पुत्र अमात्य के प्रति विपरीत परिणमादिया । जन द्वितीय दिन प्रातः काल स्नान कर बलिकर्म, कर- काकादि निमित्त अन्न का विभाग कर, कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त कर- दुःस्वप्न आदि दोषो को निवारण करने के लिये मी पुण्ड्रादि और मंगल कारक दूर्वाक्षतादि तथा प्रायश्चित्तकी तरह आवश्यक कृत्य समाप्त कर वह तेतलिपुत्र अमात्य घोडे पर बैठ कर जन अनेक पुरुषों के साथ साथ अपने घर से निकला तब निकल कर वह ऊस ओर गया जहा कनक वज राजा थे । तेतलिपुत्र अमात्य को ज्यो ही राजेश्वर आदि को ने आता हुआ देखा तो उन्होंने पहिले की तरह ही उसका आदर किया, उसके आगमन की सराहना की णिगन्डिइ णिग्गच्छित्ता जेणेत्र क्णगज्झए राया तेणेत्र पहारेत्थ गमणार, तपनं ० तेतलिपुत्त अमन्च जे जहा वहवे राईसर तलवर जाव पमियाओ पासति ते तद्देव आढायति पमियाणति, अभुर्डेति )
આ જાતને વિચાર ઉત્પન્ન થતાજ તે ધ્રુવે અમાત્ય તેનપુત્રને માટે રાજા કનકધ્વજને પ્રતિકૂળ મનાવીદીધા બીજા દિ ને સવાર થતા સ્નાન, બ વિ કમ, ( ક ગડા વગેરે પક્ષાએ માટે અવભાગ અપ ૬ ) પૌતુક, મ ગળ, પ્રાય ચિત્ત-એટલે કે ૬ સ્ત્રમ વગે॰ના દોષાના ઉત્તરામન માટે મથી પુર, વગેરે તેમજ મગળકારક દુર્વા અક્ષત ( ચાખા ) વગેરેથી પ્રાયશ્ચિત્ત ની આવશ્યક પતાવાને ઘા પુરુષાથી વીંટળઈને અમાત્ય તેનેપુત્ર ઘેાડા ઉપર સવાર થઈને જ્યા કનકૂધ્વજ રજા હતા ત્યા ગયા અમાત્ય તેનપુત્રને આ વતા જોતની સાથે જ રાજેશ્વર વગેરે લેાકેાએ પહેલાની જેમ જ તેમને આદર ર્યા તેગ્ના જવાનની સરાહના કરી અને બધાએ ઉભાથઈને તેમનેવધાવી લીધા
વિધિ
60
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
'सपाहिज्जमाणेसिंगो यमानोऽपि धर्मों नो सयुध्यतेप्रतिगोप न प्राप्नोति । 'तं तत्र मान कारणात् श्रेयः सल मम पनरुपज रान तालिगुवाइ विपरि Fणमयितुम् तरिपुरिपये कनक धनस्य मानसिको माग यया रिपरिणतो भवे त्तथा तु नितम् , इतिस्ता इति मनसि पिचार्य ए7 सगते विचारयति सप्रेक्ष्य कनक बज तेतलिपुत्राद् विपरिणमयति-रिपरीत करोति । ततः खलु तेतलिपुत्र मल्ल 'पल्ये द्वितीयस्मिन् दिने माप. 'हा जान पायउत्ते' स्नानो यावन् मायवित्त =मनात कृतस्ना यापन पदेन हतालियर्मारामादि निमित कृतानभाग कृतमीतकमागल्यमायभित्ता-कतानि कौतुमानि दु स्वप्नादि दोपनिमारगार मपीपुण्ड्रादीनि-मागल्यादीनि = मलकारमाणि दलितादीनि मायश्चित्तपदवश्यं कर्तव्यानि येन सः, 'आमरखधारगए ' अवस्कन्धघरगतः अश्वारूढ बहुभि पुम्पै सपरितः स्वस्माद् गृहाद निर्गति, निर्गत्य भिक्खण २ सयोहिजमाणे वि धम्मे नो स बुज्यइ, त सेय विलु मम कणगज्झय राय तेतलिपुत्ताओ विप्परिणमेत्तए त्ति फट्टु एन सपेहेर) तब उस पोट्टिल देवको ऐमा आयात्मिक यावत मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कनकध्वज राजा तेतलिपुत्र अमात्यका आदर करते हैं यावत् उनके सुग्व साधनकी सामग्री वढा दिया है-इसलिये मेरे द्वारा यार पार प्रतियोधित करने पर भी वे धर्म में प्रतिद्ध नही बन रहे हैं-प्रतिवोध को प्राप्त नहीं हो रहे हैं। इमलिये मुझे अब ऐसा करना चाहिये कि जिससे तेतलिपुत्र के विषय में कनकध्वज राजा का मानसिक पिचार घदन जावे । इस प्रकार का विचार उस देवके मनमें जगा (सपेरित्ता, कणगज्झय तेतलिपुत्ताओ विपरिणामेइ, तएणं तेतलिपुत्ते कलं पाए २ संमोहिज्जमाणे नि धम्मे नो सबुझइ, त सेय खलु मम कणगज्य राय तेतलिपुताओ विप्परिणामेत्तए ति कटु एवं सपेहेइ)
ત્યારે તે દેવરૂપ પિફ્રિલાના જીવ દેવને એ આધ્યાત્મિક યાવત મને ગત સક૫ ઉ ભ છે કે રાજા કનકધવજ અમાત્ય તેતલિપુત્રને આદર કરે છે થાવત્ તેઓએ તેમની બધી જાતની સુખસગવડની સામગ્રીમાં વધારે પણ કરી આપે છે, એથી મારાવડે વાર વાર પ્રતિબંધિત કરવા છતાએ તેઓ ધર્મમાં પ્રતિબુદ્ધ થઈ જતા નથી એટલે કે તેમને વાર વાર પ્રેરણા આપવા છતા પ્રતિબંધ થયે નથી એટલા માટે હું હવે એ પ્રમાણે કઈક કરૂ કે જેથી રાજા કનવજના માનસિક વિચારે અમાત્ય તેતલિપુત્રને માટે પ્રતિકુળ થઈ જાય તે દેવે મનમાં આ જાતને વિચાર કર્યો
(संहिता पणगज्झय तेतलिपुत्ताभो विष्परिणामेइ तएणं तेतलिपुत्ते कल्ले हाए जार पायच्छित्ते आसखयवरगपु, बहूदि पूरिसेहि सपरिडे, गिहाओ,
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १४ तेतलिपुनप्रधानचरितवर्णनम् ७३ मात्रुवत् 'अपरिजाणमाणे ' अपरिजानन , तदागमनमननुमोदयन् अनभ्युतिष्ठन अभ्युत्थानाधकुर्वन् 'परम्मुहे ' परामुग्वःविमुग्व सन् सतिष्ठने । ततः खलु तेतलिपुत्रः जनघनस्य रातः सखे भञ्जलिं करोति । 'तएण' ततः खलु तेतलिपुत्रेण अवलिकरणानन्तरमपि स कनक वनो राजा जनाद्रियमाणः, अपरिजानन् , अनभ्युत्तिष्ठन् तप्णीक परागुवः सतिप्ठते । तत' खलु तेतलिपुत्रः कनक वन विपरिणत=विपरीत ज्ञाता ' भीग जार सजायभए ' भीतो यावत् सनातभय , एवमवदत्-मनस्यकथयत्-रुष्टः खलु मम मम विपये कन जो राजा, उसका कोई आदर क्यिा-न उसके आनेकी कोई सराहना की और न उठकर उसे लिया ही। इस तरह अनादर अननुमोदन एव अनभ्यु. स्थान करते हुए वे रोजा प्रत्युत उस ओरसे अपना मुंह फेर कर बैठ गये। (तगण तेतलिपुत्ते कणगज्म रस्स अजलिं करेइ) तेतलिपुत्र ने आते ही राजा कनकध्वज को नमस्कार किया-(तण्ण से कणगज्झए राया अणाढायमाणे तुमिणीय परम्मुहे सचिड) तो भी उन कनक ध्वज राजा ने उस अजलि करने का भी कोई आदर नहीं किया केवल चुप चाप ही विमुख बना हुआ बैठा रहा-(तएण तेतलिपुत्ते कणगप्रय विप्परिणय जाणित्ता भी० सजायभए एव चयासी) तब तेतलिपुत्र ने कनक वज राजा को विपरीत जानकर भीत (भय पाया हुओ) यावत् सजात भय होकर मनमें ऐसा विचार किया-(स्तु ण मम कणगन्नए राया) कनक वज राजा मेरे ऊपर रुष्ट हो गये हैं। (वीणे ण मम कणઆદર ન કર્યો. તેમના આવવાની સરાહના ન કરી અને ઉભા થઈને તેમને સત્કાર્યા પણ નહિ આ રીતે અનાદર, અનનુમોદન અનભુત્થાન કરતા તે રાજા
भना तन थी मा ३२वीन भी गया (तएण तेतलिपुत्ते कणगज्झयास अज्ञडिं करेइ ) ततलिपुत्रे सावतानी सारा ने नमार या
(तएण से कणगज्झए राया अणाढायमाणे तुसिणीए परम्मु हे सचिट्ठह) છતાએ રાજા કન દવજે તેમના નમસ્કારને પગ ઉચિત સત્કાર કર્યો નહિ ફત તેઓ ચુપચાપ ફેરવીને બેસી જ રહ્યા
(तपण तेतलिपुत्ते कणगज्झय पिप्परिणय जाणित्ता भीए जार सजायभए एव चयामी)
ત્યારે તેતલિપુત્ર અમાત્યે રાજા કનકધ્વજને પ્રતિકુળલથઈ ગયેલા (નારાજ થયેલા, જાણીને ભયભીત યાવત સજાતભય વાળા થના મનમાં વિચાર ४ , (रुटेण मम कणगझए रोया ) 0 PIN भा। ५२ नारा
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
घाग्भिः आलपन्त' सलपन्तष ओलाप समापणे, साप परस्परस मारणे कुर्वन्तश्च पुरतः अग्रप पृष्टतापमाभागतच, पार्थता पार्धमागतश्र, मार्ग यस्मान्मार्गात् तेतरिपुनो निर्गन्छति, तन्मार्गतम 'समणुगन्छति' समनुग च्छन्ति । तत खलु स तेवलिपुनो योर कनकधजस्त व उपागच्छति । तवा खलु स पनक वनो राना तेतलिपुत्रमेजमान पश्यति, दृष्ट्वा नो माद्रियते, नो परिजानाति, नो अभ्युत्तिष्ठति । अनन्तर आणादायमाणे 'अनामिाग::स्मादरे सरने उठकर उसे लिया-(आदाइत्ता, परिजाणित्ता अमुहिता अजलि परिगर करेंनि, इटाहिं फंनारि जाय वग्गहिं आलाणा य सलवे माग य पुरओ य पिओ य पासो य मग्गो य समणुग छति तएण से तेतलिपुत्ते जेणेच कणगज्झए राया तेणेव उवागह, ताण से कणगज्झए गया तेतलिपुत्त एज्जमोण पासह, पासित्ता नो आवाइ नो परियाणाइ, नो अद्वेद, अणाढायमाणे अपरियाणमाणे अणमु हायमाणे परम्मुहे सचिट्ठह) आदर देकर शुभागमन की अनुमोदनाकर तथा उठकर उन सपने फिर दोनों रायो की अजलि जोडकर ऊस नमस्कार किया । याद में इष्ट, कात यावत् प्रिय-मनोज-मनोम घाणियों से आलाप -संभाषण, सराप परस्पर मभाषण- करत हुए वे सबआगे, पीछे आजूबाजू होकर जिस मार्ग से वह आरा था उसी मार्ग से उसके साथ साथ चले आये ।चलते २ तेनलिपुत्र अमात्य जहां कनक-वज राजा यैठे थे वहां आया। कनकावज राजा ने उन्हें आता हुआ देग्वा-तौभी पहिले की तरह देग्वकर न
(अढाइत्ता, परिजागिता अभुद्वित्ता अजलि परिगह करेंनि उद्रार्टि. काहि जाव वग्गूर्हि आलवेमाणा य सलेंवेमाणा य पुग्ओ य, पिडओ य, पासओ य, मग्गओ य, समणुगन्छति तरण से तेतलिपुत्ते जेणेत्र कणगज्झए राया तेणेत्र उवागच्छइ, तएण से कणगज्झए राया तेतलिपुत्त एज्जमाण पासद, पासिता नो आढाइ, नो परियाणाद, नो अन्भुटे, अणाढयमाणे अपरिमाणमाणे अणभु हायमाणे परम्मुहे सचिट्ठ)
તેમને આદર આપીને, શુભાગમનને અનુદિત કરીને તેઓ બધા ઉભા થયા અને ત્યાર પછી બંને હાથની અજળિ બનાવીને તેમને નમસ્કાર ક્ય ત્યાર બાદ ઈદ, કાંત, યાવત્ પ્રિય, મને જ્ઞ અને મનેમ વાતોથો આલાપસ ભાષણ સલાપ-પરસપર સ ભાષણ કરતા તેઓ સર્વે બાગળ, પાછળ અને તેમની બંને બાજુએ થઈને જે માર્ગથી તેઓ આવતા હતા તે માર્ગથી જ તેની સાથે સાથે ચાલવા લાગ્યા તેતવિપુત્ર અમાત્ય ચાલતા ચાલતા જ્યા રાજા કનકવજ બેઠા હતા ત્યા આવ્યા પણ કનકધ્વજ રાજાએ તે તેમને જે
मना
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् मात्रुवन् 'अपरिजाणमाणे ' अपरिजानन , तदागमनमननुमोदयन् अनभ्युत्तिष्ठन्अभ्युत्थानाधकुर्वन् 'परम्मुहे ' पराङ्मुवा-विमुग सन् सतिष्ठते । ततः खलु तेतलिपुत्रः सनाधनम्य राज्ञः खे पञ्जलिं करोति । 'तएण' ततः खलुतेवलिपुत्रेण अवलिकरणानन्तरमपि प जनक बनो राजा जनाद्रियमाणः, अपरिजानन् , अनन्युत्तिष्ठन् तूप्णीक परामुखः सतिप्ठते । तत' खलु तेतलिपुत्रः कनकध्वज विपरिणत-विपरीत ज्ञाला ' भीग जार सजायभए ' भीतो यावत् सजातभय , एनमनदत्-मनस्यकथयत्-म्प्टः खलु मम मम पिपये कन जो राजा, उसका कोई आदर किया-न उसके आनेकी कोई सराहना की और न उठकर उसे लिया री। इस तरह अनादर अननुमोदन एच अनभ्युस्थान करते हुए वे रोजा प्रत्युत उस ओरसे अपना मुंह फेर कर बैठ गये। (तपण तेतलिपुत्ते कणगज्झरस्स अजलि करेड) तेतलिपुत्र ने आते ही राजा कनकध्वज को नमस्कार किया-(तएण से कणगज्झए राया अणाढायमाणे तुमिणीप परम्मुहे सचिट्ठइ) तो भी उन कनक ध्वज राजा ने उस अजलि करने का भी कोई आदर नहीं किया केवल चुप चाप ही विमुग्व बना हुआ पैठा रहा-(तएण तेतलिपुत्ते कणगन्मयं विप्परिणय जाणित्ता भी सजायभए एव चयासी) तय तेतलिपुत्र ने कनक वज राजा को विपरीत जानकर भीत (भय पाया हुओ) यावत् सजात भय होकर मन में ऐसा विचार किया-(रुटे ण मम कणगज्नए राया) कनक वज राजा मेरे ऊपर रुष्ट हो गये हैं। (हीणे ण मम कणઆદર ન કર્યો, તેમના આવવાની સરાહના ન કરી અને ઉભા થઈને તેમને સત્કાર્ય પણ નહિ આ રીતે અનાદર, અનનમેદન અનભુત્થાન કરતા તે રાજા तेभनी त२५ थी मी श्वान भी गया (तएण तेतलिपुत्ते कणगज्झयास अजलिं करेइ ) ततलिपुत्रे मारतानी साथै or शत नयने नमा२ यो
(तएण से कणगज्झए राया अणाहायमाणे तुसिणीए परम्मु हे सचिइ) છતાએ રાજા કનકધ્વજે તેમના નમસ્કારને પશુ ઉચિત સત્કાર કર્યો નહિ ફક્ત તેઓ ચુપચાપ મફેરવીને બેસી જ હ્યા
(तपण तेतलिपुत्ते कणगज्झय विप्परिणय जाणित्ता भीए जार सजायभए एव वयासी)
ત્યારે તેતલિપુત્ર અમાત્યે રાજા કનકધ્વજને પ્રતિકળવથઈ ગયેલા (નારાજ થયેલા) જાણીને ભયભીત યાવતું સજાતભય વાળા થતા મનમાં વિચાર ४. उ (मटेण मम कणगमए राया ) ४६५४ २ion भास 6५२ नारा
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
मातापासू होणे ण' हीनः खलु-प्रीतिहीनः सल ममोपरि सनक जो रागा 'ग्याप' अपध्यात =दुर्भातमम्पनो जात सलु मम विपये गानो राजा 'त' तत्तस्मात् 'न नज्जई न नायते सलु पप मा केनको टोन मारेण-तिगतेन मारेण 'मारेदिइ' मारयिष्यति 'तिरुट्टु' इति कत्वाइनि पिरित्य भीतमस्तः यावत्प्रसितः, उद्विग्न', सजातभय मन् 'मणिय गन' 'पयोगयो मत्यवस्वफते
प्रत्यासर्पति-पश्चाद्न्छनि प्रत्यास्तस्य, तमेव 'आसमा 'अयसन्न दरोहति, दह्य ' तेतलिपुर ' अब पष्ठययं द्वितीया, तेतरिपुरस्येत्यर्थः, मध्यम येन यौय स्त्रक गृह तत्रैव प्राधारयद् गमनार । ततः बलु त तेतलिपुत्र 'जेजहा' गन्झए राया) कनकध्वज राजा मेरे ऊपर प्रीति से रहित हो गये है। (अवज्माए ण मम कणगज्झा राया) कनकध्वज राजा मेरे विषय में सद्भाव रहित बन गये हैं। (त ॥ नन्नइ ण मम केण कुमारेण मारे हिइ त्ति कट्टु भी तत्ये पूजावमणिय २ पचोमघाड ) तो न मालूम यह मुझे फिस कुत्सित मरण से मरवा डाले, ऐसा विचार कर वह भीत (भययुक्त) हो गया त्रस्त यारत् सजात भयवाला यन गया। और धीरे २ वहां से पीडाहट कर चला आया-(पच्चोसभित्ता तमेव आसखध दुरुहेइ, दुरुहिता तेतलिपुर माझ मज्झेण जेणेव सगहे तेणेव पहारेत्य गमणाप) आकर के वह अपने उसी घोडे पर बैठकर तेतलिपुर के बीच से होता हुआ अपने घर की ताफ चल दिया (तएण तेतलिपुत्त जे जहां ईसर जाव पासति ते तहा नो आढायति, नो परिया
गया छ (होणेण गम कणगज्झए शया) gar शान। २ भास 6५२ प्रेम २यो नयी (अवज्झाए ण मम मणगझर राया) ४४ २०न મારા પ્રત્યે સદ્દભવના રહિત થઈ ગયા છે
(त ण नज्जइ ण मम केणइ कुमारेण मारेहिइ ति कट्ट भीए वत्ये जाव सणिय २ पच्चोमक्का)
તે કોણ જાણે ક્યારે તેઓ મને કમેતે મરાવી ન ખાવે આ રીતે વિચાર કરીને તે ભયભીત થઈ ગયે, તે ત્રસ્ત યાવત સ જાત ભયવાળ થઈ ગયે અને ધીમેધીમે ત્યાથી પાછા ફરીને આવતો રહ્યો
(पच्चोसत्तिा तमेव आसखध दुरूहेइ, दुरूहिता तेतलिपुर मज्झ मज्झेण जेणेव सए गिहे तेणेर पहारेत्थ गमणाए)
ત્યાથી આવીને તે પિતાના ઘડા ઉપર સવાર થઈને તેતલપુરની વચ્ચે થઈને પિનાના ઘર તરફ રવાના થયે
तएणं तेतलिपुत्त जे जहा ईसर जाप पासवि ते तहा नो ... नो
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारी टो० अ०१४ तेनलिपुत्रवधानचरितवर्णनम्
"
तस्य तत्थ
ये यथा=ये यथास्थिताः ' ईमरजान ' ई वर यावत्-ईश्वरतलवरमाडम्बिकादयः पश्यन्ति ' ते तत्र ' ते तथा स्थिता एव सन्तो नो आद्रियन्ते, नो परिजानन्ति, नो अभ्युत्तिष्ठन्ति नो अञ्जलिपरिग्रह कुन्ति, इष्टाभिर्नाविवाग्भिर्नोसलपन्ति, नो पुस्तथ पृष्ठतथ पार्श्वथ मार्गतथ समनुगच्छन्ति । तत खलु तेतलिपुत्रो से ' taar गृह ala उपागच्छति । यापि च वन भने नद्या परिषद् भवति, तद् यथा-' दासाइ वा ' दासाइति वा, पति, नो अभुति) मार्ग में तेतलिपुत्र को आते हुए जिन ईश्वर तल्वर, माडम्पिक आदिको ने देखा तो उन्होंने अन पहिले की तरह न उसका आदर किया न उसके आगमन की अनुमोदना की और न उसे देखकर वे उठे ही (नो अजलिपरिग्गह करेति इहाहिं जाव णो सलवति नो पुरओ य पिटुओय पासओय मग्गओय समणुग० ) और न उसे हाथ जोड कर नमस्कार ही किया । न इष्ट प्रिय वाणियों से उससे आलाप, सलोप किया, और न आजू बाजू से होकर वे उसके साथ मार्ग मे ही चले । (तएण तेनलिपुत्ते जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ ) इस तरह चलता हुआ वह तेनतिपुत्र अमात्य अपने घर पर आ गया । उवागच्छित्ता जावि से तत्व बाहिरिया परिसा नवइ, तजहा दोसेइ वा पेसेव वा भाइलण्ड वा सा वि य ण नो आढाह, नो परियाणाइ, नो अभुट्ठे ) वहा पर भी जो दास घर के कोम काज करने परियाणति, नो जन्भुति )
*
મામા જતા તેતલિપુત્રને ઇશ્વર તલવર માડબિક વગેરે લેાકાએ જોયા પશુ કેાઇએ પહેલાની જેમ તેને આદર ન કર્યાં, તેના આગમનની અનુમેદના ન-કરી અને તેને જોઇને તેઓ ઊભા ન થયા
(नो अजलि परिग्गह करेंति, इट्ठाहिं जाणो सलव ति नो पुरओ य पिओ य पासओ य मग्गओ य समणुग० )
4
"
ঊद
અને તેઓએ હાથ જોડીને તેને નમસ્કાર પણ ન કર્યાં ઈષ્ટ, પ્રિય, વચનાથી તેઓએ તેની સાથે આલાપ ન કર્યાં, મલાપ ન કર્યાં અને મને માજુએ થઇને તેએ મામા તેની સાથે સાથે ચાલ્યા પશુ નહિ ( જ્ઞř तेतलिपुत्ते जेणेत्र सएगिहे तेणेत्र आगच्छ ) या प्रमाणे यासतो यासतो તેતલિપુત્ર અમાત્ય પેાતાને ઘેર આવી ગયા
(उवागच्छित्ता जाव से तत्थ बाहिरिया परिसा भवड, व जहा दासे वा पासे वा भाइरल वा, सावियण नो आहार नो परिमाणाइ, न अग्भुड्ड ) ત્યા પણ જે દાસેા-ઘરમા કામ કરનારા નાકરા, ધ્યે ઘરના કામ માટે
,
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
برقی
aratuitureसूत्रे
'होणे ण' हीनः खलु प्रीतिहीन सगमोपरि राजा 'अप अपध्यात = दुर्भासम्पन्नो जात समजो राजा 'त' तत्= तस्मात् 'न नज्जई' न नायते स प मा केन न मारेण कुलितेन मारेण 'मारेहि' मारयिष्यति 'चि' इति कति विदित्य भीतमन्तः यारत्श्रसितः, उद्विग्न', सञ्जातभय मन् 'सनियर' नः 'गोद' प्रत्यवस्वपते = प्रत्यवसर्पति=पथाद्गच्छति मेरो
1
इति, दुरुह ' तेतलिपुर ' अत्र पष्ठयर्थे द्वितीया, तेतपुिरस्येत्यर्थः, मध्यमध्येन गृह तत्रैवमाधारयद् गमनात्र । तत तु तनि 'जेनहा गज्झए राया ) कनकध्वज राजा मेर ऊपर प्रीति स रहित हो गये है। ( अवज्झाए ण ममं कणगज्जत राया ) कनकध्वज राजा मेरे निपय में सद्भाव रहित बन गये है। (त ण नज्जइ ण मम केणह कुमारेण मारे हि त्ति कट्टु भीए तत्ये पूजानमणिय २ पचोमपाइ ) तो न मालूम यह मुझे किस कुत्सित मरण से मरवा डाले, ऐसा विचार कर वह भीत ( भययुक्त) हो गया बस्त यावत् सजात भयनाला घन गया । और धीरे २ वहां से पीडाहट कर चला आया - (पच्चीस कित्ता तमेव आसखध दुरुहेइ, दुरुहित्ता तेतलिपुर मज्झ मज्झेण जेणेव सगिहे तेणेच पहारेत्य गमणाए ) आकर के वह अपने उसी घोडे पर बैठकर तेतलिपुर के बीच से होता हुआ अपने घर की तरफ चल दिया (तएण तेतलिपुत्त जे जो ईसर जात्र पासति ते तहा नो आदापति, नो परिया
थ गया छे ( हीणेण मम कणगज्झए राया ) उनउध्वन शमन वे भारा उपर प्रेम रह्यो नथी ( अवज्झा ण मम कणगज्झर राया ) ४०४६०४ राम મારા પ્રત્યે સદૂભવના રહિત થઈ ગયા છે
"
(तण नज्जइण मम केणइ कुमारेण मारेहि त्ति कट्ट भीए तत्ये जाव सणिय २ पच्चमक्कइ )
તેા કાણુ જાણે યારે તેએ મને કમેાતે મરાથી ન ખાવે આરીતે વિચાર કરીને તે ભયભીત થઈ ગયા, તે ત્રસ્ત યાવત સજાત ભયવાળા થઈ ગયા અને ધીમેધીમે ત્યાથી પાછે! ફરીને આવતા રહ્યો
(पच्चोसरिता तमेव आसखध दुरुहेइ, दुरूहित्ता तेतलिपुर मज्झ मज्झेणं जेणेव सए गिहे ते पहारेत्थ गमनाए )
ત્યાથી આવીને તે પેાતાના ઘેાડા ઉપર સવાર થઈને તેતિપુરની વચ્ચે થઇને પાનાના ઘર તરફ રવાના થયા
नो
aण तेतलिपुत्त जे जहा ईसर जान पासति ते तहा नो
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृत परिणी टी० अ०१४ तेलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम् ____७५ ये यया ये यथास्थिताः 'ईसरनार ' ई-वर यावत्-ईश्वरतल्बरमाडम्बिफादयः पश्यन्ति, 'ते तहेव ' ते तथा स्थिता सन्तो नो आद्रियन्ने, नो परिजानन्ति, नो अभ्युत्तिष्ठन्ति, नो सञ्जलिपरिग्रह कुन्ति, इष्टाभिविवाग्भिों सम्पन्ति, नो पुरतश्च पृष्ठनय पार्थाच मार्गत व समनुगच्छन्ति । तत खलु तेतलिपुत्रो या सक .गृह तौव उपागच्छति । यापि च ' से' तस्य ' तत्थ । तत्र भरने माद्या परिषद् भवति, तद् यथा-'दासाइ वा ' दासाइति वा, णति, नो अन् ति ) मार्ग में तेतलिपुत्र को आते हए जिन ईश्वर तल्वर, माडम्बिक आदिको ने देखा तो उन्होंने अर पहिले की तरह न उमका आदर पिया न उसके आगमन की अनुमोदना की और न उसे देवकर वे उठे ही (नो अलिपरिग्गह करेति, इट्टाहिं जाव णो सलवति नो पुरओ य पिट्टओघ पासओय मग्गओय ममणुग० ) और न उसे हाथ जोड कर नमस्कार ही क्यिा। न इष्ट प्रिय वाणियों से उससे आलाप, संलोप किया, और न आजू बाजू से होकर वे उनके साथ मार्ग मे ही चले । (तपण तेनलिपुत्ते जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छह) इस तरह चलता हुआ वह तेततिपुत्र अमात्य अपने घर पर आ गया। उचागठित्ता जाबि से तत्व पाहिरिया परिसा भवड, तजही दोसेड वा पेसेइ वा भाइहएइ वा सा वि य ण नो आढाड, नो परियाणाइ, नो अन्भुट्टेद) वहा पर भी जो दास पर के कोम काज करने परियाणति, नो अब्भुति )
મામા જતા તેતલિપુત્રને ઈશ્વર તલવર માડ બિડ વગેરે લોકોએ જોયો પણ કેઈએ પહેલાની જેમ તેનો આદર ન કર્યો, તેના આગમનની અનમેદના ન કરી અને તેને જોઈને તેઓ ઊભા ન થયા
(नो अजलि परिग्गह काति, हार्दि जार णो सलब ति नो पुरओ य पिट्टो य पासओ य मग्गओ य समणुग०)
અને તેઓએ હાથ જોડીને તેને નમસ્કાર પણ ન કર્યા ઇષ્ટ, પ્રિય, વચનાથી તેઓએ તેની સાથે આલાપ ન કર્યો, એ લપ ન કર્યો અને બને બાજુએ થઈને તેઓ માર્ગમાં તેની સાથે સાથે ચાલ્યા પણ નહિ ( ago तलिपुत्ते जेणेव सएगिहे तेणेच वाग ) मा प्रभारी यासतो यासतो તેતલિપુત્ર અમાત્ય પિતાને ઘેર આવી ગયો
(उवागच्छित्ता जापि से तत्थ नाहिरिया परिसा भवड, त जहा दासेडवा पासेइ वा भाइल्टएद या, सा वि य ण नो आहाइ नो परियाणाइ, न अन्मुष्ट) ત્યાં પણ જે દાસ-ઘરમાં કામ કરનારા ને રે, પ્રે-ઘરના કામ માટે
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
_शाताधर्मकथाङ्गले दासाः गृहकार्यकारिणीभृत्या', पेमाहा' प्रैग्याइनिया, प्रयाः गृहकार्य फर्तमन्यत्र प्रेपणीया भृत्याः, 'माइलपति वा भाइलाइति या, 'माईल' इनि देगीशब्द हालिका मागिनश्चेति तदर्थः हालिका' भूमिकर्षणार्थ नियुक्ता भृत्याः, मागिना, स्वव्ययेनाऽ न्यस्य क्षेत्रे कृपि कृत्वा उपजातान्नस्यार्घभाग ग्राहिण , पापा या परिपत् साऽपि च एत नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अम्युत्तिष्ठते । याऽपि च तस्य आभ्य न्तरिको परिपद् भवति, 'त जहां तद् यथा 'पियाइ वा पिताइति ना, 'मायाइ वा' माता इति वा, 'जार मुण्हाइ वा' यानत् स्नुपाइति वा, स्नुषा =पुत्रपत्र , तपूचापि च परिपद् एन नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अभ्युत्तिष्ठति । तत खलु स तेतलिपुनो यौव वासगृह यौव स्वरु शयनीय तनै उपागच्छति,उपागत्प, वाले नौकर प्रैप्य, घर के काम के लिये जिन्हे घोहर भेजा जाता है ऐसे भृत्य, तथा भाईल्ल-हालिक-भूमि कर्पणार्थ नियुक्त भृत्य, अथवा भागी दार-अपने व्यय से अन्य के खेत में कृषिकरके उत्पन्न अन्न के अर्ध भोग को लेने वाले घटियाजन इनरूप जो पाय परिपत् थी उमने भी उसका आदर नही किया, उसके आगमन की अनुमोदना नहीं की और न वह उसके आने पर अपने अधिष्ठित स्थान से उठे। (जाविय से अभितरिया परिसा भवइ-तजहा-पियाइ वा मायाइ वा जाव सुहाइ 'वा सावि य ण नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुट्टेड) इसी तरह जो उसकी अन्तरग परिपद थी जसे पिता माता यावत् स्नुपा-पुत्रवधू आदि जन इन्होने भी उसका आदर नहीं किया, आगमन का अ नुमोदन नहीं किया और न ये कोई भी उसके आने पर अपने स्थानसे જેઓને બહાર મોકલવામાં આવે છે તે ભ, તથા ભાઈલ-હાળી એટલે કે ખેડવા માટે નિયુક્ત કરાયેલા ભ્રત્યે અથવા તે ભાગીદારો-કે જે પિતાના ખર્ચે જ બીજાના ખેતરોમાં અનાજ વાવે છે અને વળતરમા ખેતરના માલિક પાસેથી અભાગ મેળવે છે–એવા જે બાહ્ય પરિષત સ બ ધી લોકે હતા તેઓ એ પણ તેને આદર કર્યો નહિ, તેના આગમનને અનુમોદન આપ્યું નહિ અને ન તેના આવવા બદલ પોતાના સ્થાનેથી સત્કાર માટે તેઓ ઊભા થયા (जा विय से जभितरिया परिसा भवइ-त जहा-पियाइ वा मायाइ वा जाव मुण्डाइ वा सा वि य ण नो जाढाइ, नो परियाणाइ, नो 'अब्भुट्टेड) અને આ પ્રમાણે જ તેની અતરગ પરિષદના લેક જેમ કે પિતા માતા યાવત્ નુષા–બેટા વહુ-વગેરે લેકેએ પણ તેને આદર કર્યો નહિ, તેના આગમનને અનુમોદન આપ્યું નહિ અને તેમાથી કોઈ પણ તેના આવવા બદલ પિતાના નથી ઊભા થયા નહિં.
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपंणो टोका अ० १४ लिवानचरितवर्णनप
७७
शयनीये निषीदति, निपय, एवमादत् = मनस्वक्थयन् - एन खलु = यथा अद्य तथैवान्यस्मिन्नपि से, अह स्वाद् गृहात् निर्गच्छामि, ' त चेत्र जो अभितरिया परिला नो आढाइ, नो परियाणा नो अभुड्डेड ' तदेन यावत् आभ्यन्तरिकी परिषद् नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अभ्युत्तिष्ठति, अस्यायमभिमाय:पूर्वस्मिन् दिवसे राज्ञि प्रसन्ने मा दृष्ट्वा राजेश्वरादयः सर्वे आद्रियन्ते स्म, परिजानान्ति स्म अभ्युत्तिष्ठन्मि स्म, अयाऽपि गृःनिर्गत मां ते तथैव सत्कारयन्तिस्म । परन्तु राज्ञि अकस्मात् अमसन्ने राजेश्वरतलनरमाडम्पिककौटुम्बिकमभृतयः तथा मदीय वाद्याभ्यन्तरा च परिपदपि सर्वेऽपि च मा नाद्रियन्ते, नो परिजानन्ति, नो उठे । (तरण से तेतलिपुत्ते जेणेव वासघरे जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छ ) इस तरह घर पर आकर वह तेतलिपुत्र अमात्य जहा अपना वासगृह और उसमें भी जहा अपनी शय्या थी वहां गया (उवागच्छित्ता सयणिजसि निसी, निसीहत्ता एव व्यासी) वहा जाकर वह उस पर बैठ गया और मनही मन विचार करने लगा - ( एव खलु अह् सयाओ गिहाओ णिग्गच्छामि, त चेव जाव अभितरिया पुरिसानो आढाह, नो परिजाणाह नो अब्भुट्ठेह-तं सेय खलु मम अप्पाण जीवियाओ चवरोवित्तरत्ति बडु एव सपेहेह ) पहिले के दिनों में जब मैं अपने घर से निकलतो था तो लोग-राजेश्वर आदि समस्त जन मुझ पर राजा की प्रसन्नता होने के कारण आता जाता हुआ देखकर मेरा आदर करते थे- मेरे आगमन आदि की अनुमोदन करते थे ठ कर अपने विनय प्रदर्शित करते थे तथा आज भी जब मै घरसे निकल (तएण से तेतलिपुत्ते जेणेन बालघरे जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ ) આ રીતે ઘેર આવીને તૈતલિપુત્ર અમાત્ય જ્યા તેની રહેવાની ઓરડી अने तेभाय ज्या पोतानी पथावरी ती त्यां गयो (उत्रागच्छित्ता सयणिब्जसि निसीयद्द, णिसीइत्ता एन वयासी ) त्याने ते तेना उपर भी गये। અને મનમા જ વિચાર કરવા લાગ્યા કે
( एव खलु अहसनाओ गिहाओ णिग्गच्छामि, त चैव जान अभितरिया परिसा नो आढाइ, नो परिजागाइ, नो अब्भुडे-त सेय खलु मम अप्पाण जीवि - याओ वनरोवित्तम् त्ति कट्टु एव सपेहेइ )
પહેલા જ્યારે હુ ઘેરથી મહાર નીકળતેા હતા ત્યારે લાકા-રાજેશ્વર વગેરે બધા લેા-રાજા મારા ઉપર ખુશ હતા એટલે-આવતા જતા ોઇને મારા આદર કરતા હતા, મારા આ મનનુ અનુમૈાદન કરતા હતા તેમજ ઊભા થઇને વિનય પ્રદર્શિત કરતા હતા અને આજે પણ હું જ્યારે ઘેરથી નીકળનિ
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
छंद
भाषाधर्मकथासू
"
9
,
अभ्युत्तिष्ठन्ति । व' वत=तस्मात् कारणात् श्रेयः स मम आत्मान जीवि ताद् व्यपरोपयितृम् इति कृत्या, एन समेक्षते, संमदय तात्रपुट दिपम् ' आफ सि आस्येमुखे प्रक्षिपति, सिनाम्पतिरपत्येन नो परिणमति । ततः खलु स तेतलिपुनो' नीलुप्पन जान असि ' नीलोत्पल यापदर्सि=नीलोत्पल गवलगुलिकसमप्रभु=नीलोत्पल-नीलकमलम् गर= माहिप शृङ्गम्, 'गुलिक' नीलरङ्ग विशेष, तै. समा प्रभातेतलि कान्तिर्यस्य स तादृश यावदसि तीक्ष्ण खड्ग 'खो' स्कन्धे=ण्ठमूळे 'ओदरइ' अपहरति निपातयति । तत्राऽपि च
1
कर राजा के पास गया तब भी इन सपलोगों ने पूर्ववत् मेरा आदर आदि सप कुछ किया परन्तु अकस्मात राजा के कष्ट होने पर जब मै वहा से लौटकर वापिस अपने स्थान पर आने लगा तो किमी ने भी मेरा आदर आदि कुछ भी सत्कार नहीं किया। यहां तक कि जो मेरी बाह्य और आभ्यन्तर परिपद है-भीतर बाहरके नौकर चाकर एन माता 'पिता आदि जन है-उसने भी आज इस समय आने पर मुझे कुछ नहीं समझा-अत. मुझे अब ऐसी स्थिति से मरना ही उत्तम है। इस प्रकार का उसने अपने मन मे विचार किया - ( सहित्ता तालउड विस आसगसि पखवह, सेय विसे णो सकमह, तष्ण से तेनलिपुत्ते नील प्पल जाव असिं खसि ओहरइ, तत्य विय से धारा ओपल्ला, तएण से तेतलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उ० १) विचार करके उसने ताल
विष को अपने मुख मे डाला - परन्तु उसने अपना कुछ भी प्रभाव
રાજાની પાસે ગયા ત્યારે પણ એ બધાએ પહેલાની જેમજ મારા ભાદર વગેરે બધુ કર્યું હતું પણ એર્ચિતા રાજાને નારાજ થઈ જવા બદલ જ્યારે હુ ત્યાથી પાછા ફરીને પેાતાને ઘેર આવવા લાગ્યા ત્યારે કાઈએ પણ મારા આદર કે સત્કાર કર્યો નહિ મારી ખાહ્ય અને આભ્યતર પરિષદ એટલે કે બહારના નેકરા–ચાકરા અને માતા પિતા વગેરે-છે તેઓએ પણ આજે અત્યારે મારા આવવા ખલ કઈ પણ કિંમત કરી નહિ એથી એવી પરિસ્થિતિમા મારૂ મરણ જ ઉત્તમ ઉપાય છે
(सपेहित्ता वालउड विस आसगति पक्खिवइ, सेय बिसे णो सकमद, तरण सेतलिपुत्ते नीलप्पल जान अर्मि खधसि ओहरइ, तत्यत्रिय से वारा ओपल्ला, तरण से तेतलिपुते जेणेत्र असोगणिया तेणे उ० )
આ જાતના વિચાર કરીને તેણે તાલપુર વિષ ( ઝેર
7
"
+
न
1
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ०१४ तेतलिपुत्रवधानचरितवर्णनम्
GK
' से ' तस्य वद्गस्य धारा 'ओपल्या ' कुण्ठिता, ' ओपल्ल' इति देशी शब्द: तल्पुटेन निपेण, कण्ठे निपातितेनामिनाऽपि च तदभिरपित मरण न जातम् । ततः खल= तदनन्तर स तेतलिपुत्र नै अशोकवनिका = अशोकपटिका तचैव उपागच्छति, उपागत्य पाक ग्रीवाया नघ्नाति, नदूधना 'ख' क्ष 'रुड, दुरो इति = आरोहति, दूरुस, पाश वृक्षे नाति, पद्धा आत्मान 'सुयइ' मुञ्चति = अधः पातयति । ' तत्थवि ' तनाऽपि = एतस्मि मरणोपाय कृतेऽपि च ' से ' तस्य रज्जुन्डिन्ना=म यत एव पाशखटिन । ततः सल स तेतलिपुत्र: ' महइमहालय ' महातिमहतीम् = अति विशाला शिल्ला ग्रीवाया यन्नाति बधना 'अत्थाइमतारमपोमियसि ' 'अस्तानातागपौम्पेये= नास्ति स्ताव' यस्य तन् जस्तानम् = नहीं दिसलाया-अर्थात् वह विष रूप से परिणत नही हुआ। इसके याद उस तेन लिपुत्र ने नीलोत्पल गवल, गुलिक की प्रभो जैमी प्रमावाली अत्यन्त नीलवर्ण वाली ऐसी तलवार को कि जिसकी धार बहुत तीक्ष्ण थी - अपनी गर्दन पर रखा - अर्थात् उसे गर्दन पर चलाई - परन्तु उसने भी अपना काम नहीं किया वह भी कुटित हो गई-इम तरह जब इन दोनों वस्तुओ से अपना अभिलपित मरण मा य नही हुआ अन वह तेनलि रिपुत्र जहा अशोकवनिका-अशोक वाटिका थी वहा गया (उवागच्छित्ता पसगवाए वह वहा जाकर उसने अपनीं ग्रीवामे फदा डोला- वाघा (वधित्ता अप्पाण मुयट तत्ववि से रज्जू जिन्ना ) बान्ध कर फिर वह वृक्ष पर चढ़ गया और वहा से अपने आपको नीचे लटका दिया परन्तु यश पर भी उसकी रज्जू बीच में से टूट गई (तरण से तेनलिपुत्त
મુખમા નાખ્યુ. પણ તેણે કઇ અસર બતાની ડુિ એટલે કે તે વિધ રૂપમા પરિણમ્યું નહિ ત્યાર પછી તે તૈતલિપુત્રે, નીલેાત્પલ ગવલ, ગુલિકના જેવી પ્રભાવાળી તેમજ તીક્ષ્ણ ધારવાળી તથવાગ્યે પેાતાની ડાક ઉપર મૂકી એટલે કે તેના વડે તેણે પેાતાની ડાક ઉપર ઘા કર્યો પણ તેનાથી પણ કઈ કામ થયુ નહિ એટલે કે તરવાર પણ મૂડી થઈ ગઈ હતી 'ओपट्स ' આ કુતિ ( ખૂડી ) અર્થ માટે વપરાયેલે દેશી શબ્દ છે જ્યારે આ રીતે તે અને વસ્તુઓથી તેની ઈચ્છા પૂરી થઇ નહિ એટલે કે તેનુ મરણુ થઈ રાશ્રુ નહિ त्यारे ते त्या अशा वनिज-अशोक वाटिन-हती त्या गयो ( उवागच्छित्ता पोसग गोवाए वध ) त्याने तेथे पोतानी अज्मा
( वधित्ता अप्पाण मुयइ तत्य वि ચઢી ગયા અને ત્યાથી પોતાની ટ્રાસાનુ દારડ વચ્ચેથી તૂટી ગયુ હતું
से रज्जु छिन्ना ) મેળે જ તે લટકી
शो लेवीने माध्या णाधीने ते वृक्ष ५२ ગયા પરંતુ અહીં પશુ
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
আসামগ্র भन्युत्तिष्ठति । 'त' तत्-तस्मात् कारणात् , या खटु मम आरमान जीवि ताद् व्यपरोपयितुम् , इति कत्या, पर समेक्षते, संप्रेक्ष्य तार पुट विषम् ' आसगसि' आस्ये-मुखे प्रक्षिपति, पि नो मनाम्यति-पित्वेन नो परिणमति । ततः खलु स तेवलिपुगो' नीलुप्पट जार असि' नीलोत्पल यापदमिनीलोत्पल गालगुलिकसममभ-नीलोत्पल-नीलकमलम् गार-माहिप शृङ्गम् , 'गुरिक' नीलरङ्गविशेष, तै. समा प्रभातेतलि कान्तिर्यस्य स त ताश यादसि तीक्ष्ण खड्ग 'खो' स्कन्धे-अण्ठमछे 'ओहरइ ' अहरतिनिपातयति । तमाऽपि च कर राजा के पास गया-तप भी इन सपलोगों ने पूर्ववत् मेरा आदर आदि सप कुछ किया-परन्तु अफरमान राजा के मष्ट होने पर जब में वहा से लौटकर वापिम अपने स्थान पर आने लगा तो किमी ने भी 'मेरा आदर आदि कुछ भी सत्कार नहीं कियो । यहा तक कि जो मेरी बाह्य और आभ्यन्तर परिपद है-भीतर वाहरके नौकर चाकर एपमाता पिता आदि जन है-उसने भी आज इस समय आने पर मुझे कुछ नहीं समझा-अतः मुझे अब ऐसी स्थिति से मरना ही उत्तम है । इस प्रकार का उसने अपने मन मे विचार किया-(सपेहिता तालउड विस आसगसि परिखवइ, सेय विसे णो सकमह, तरण से तेतलिपुत्ते नील प्पल जाव असिं खसि ओहरद, तत्य विय से धारा ओपल्ला, तरण से तेतलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उ०) विचार करके उसने ताल पुटविष को अपने मुख में डाला-परन्तु उसने अपना कुछ भी प्रभाव રાજાની પાસે ગમે ત્યારે પણ એ બધાએ પહેલાની જેમજ મારે આદર વગેરે બધુ કર્યું હતું પણ ચિંતા રાજાને નારાજ થઈ જવા બદલ જ્યારે હું ત્યાથી પાછા ફરીને પિતાને ઘેર આવવા લાગે ત્યારે કોઈએ પણ મારે આદર કે સરકાર કર્યો નહિ મારી બાહ્ય અને આભ્ય તર પરિષદ એટલે કે બહારના નેકર-ચાકરો અને માતા પિતા વગેરે છે તેઓએ પણ આજે અત્યારે મારા આવવા બદલ કોઈ પણ કિંમત કરી નહિ એથી એની પરિસ્થિતિમાં મારૂ મરણ જ ઉત્તમ ઉપાય છે
(सपेहिता तालउड विस आसगसि पविखवइ, सेय विसे णो सकमइ, तरण से तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव अमि खसि ओनरइ, तत्यवि य से धारा ओपल्ला, तपण से तेतलिपुत्ते जेणेच असोगणिया तेणेउ०)
, આ જાતને વિચાર કરીને તેણે તાલપુટ વિષ (ઝેર) ને પિતાના
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
रं
antaraft टी० म० १५ नेतलिपुत्रप्रधान चरितवर्णनम् दीद= चित्त सोय मनस्येनमकथयत्-भो चित्त ! श्रमणा यद् वदन्ति तत्खलु श्रद्धेय = श्रद्धा योग्य, श्रद्धेय सलु योः ब्राह्मणा वदन्ति श्रद्धेन खलु भोः ! श्रमण ब्राह्मणादन्ति । अय भाप - आत्मपरलोकाद्यर्थ प्रतिरोधक श्रमणादीना वचन श्रद्धेय भवति, अतीन्द्रियस्याप्यात्म परलोकादिरवरूपस्यानुपानादि प्रमाणविषयतया श्रद्वायत्वात् । परन्तु अमेरो असहायः अश्रद्धेयम् अविश्वमनीय वदामि । यद्यपि मदीय वचन सर्वथा सत्यम्, तथापि असम्भाव्यतया जनैः प्रस्येतुमशक्यम् । तदेवाह - ' एव ग्लु ' इत्यादिना ' एन खलु ' मयि अश्रद्धेय यीच ही में बुझ गई । इस तरह इन समस्त अनुभवनों की सभवना के बाद तलिपुत्र अपने आपको संबोधित करते हुए मन मे विचार किया - हे चित्त ! भ्रमणजन जो कहते हैं यह श्रद्धेय है । ब्राह्मणजन जो कहते है वह श्रद्धेय है इसी प्रकार भ्रमणमाणजन जो कहते है वह श्रद्धेय है। इसका भाव यह है कि आत्मा, परलोक आदि पदार्थ जो कि अतीन्द्रिय हैं वे अनुमान आदि प्रमाण कि विषयभूत हो जाते है-इसलिये ये श्रद्धाके विषय बन जाते है अतः इन अतीन्द्रिय आत्म, परलोक आदि पदार्थों को प्रतिपादित करने वाले श्रमण माण आदिकों के वचन भी श्रद्धेय हो जाते हैं, परन्तु में जो कह रहा है वह अश्रद्धेय कर रहा हूँ एक असहाय है - इसलिये- मुझे इस विषय में किसी को भी सहायता मिलने वाली नही है । उन श्रमण माण आदिजनो के वचनो के सहायक तो अनुमान आदि प्रमाण है परन्तु मेरा सहायक कोई प्रमाण ही नहीं होता है, यद्यपि में सर्वथा सत्य कहता हूँ परन्तु वह मेरा वचन असभवित असहाय होने की वजह से मनुष्यो के लिये श्रद्धेय नहीं वन
આ રીતે આા બધા અસભવનેાની મભાનના આદતે તલિપુત્રે પેાતાની જાતનેજ સમેાધિત કરતા મનમા વિચાર કર્યું કે હેચિત્ત 1 શ્રમણુજના જે કઈ કહે છે તે શ્રદ્ધેય છે, બ્રાહ્મણે જે ઈ કહે છે તે શ્રધ્ધેય છે આ પ્રમાણે શ્રમણ માહણુજના જે કઈ કહે છે તે શ્રદ્ધેય છે . આના ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે આત્મા પરલેાક વગેરે પાર્થ જેએ - અતીન્દ્રિય છે-તેએ અનુમાન વગેરે પ્રમાણના વિષયભૂત થઈ જાય છે એટલા માટે તે પાથૅ શ્રદ્ભાના વિષય અની જાય છે એવી મા બધા અતીન્દ્રિય આત્મ, પરલેાક વગેરે પથાનુ પ્રતિપા ન કરનાર શ્રમણુ માહણુ વગેરેના વચને પણ શ્રદ્ધે થઈ જા છે, પણ હું જે કઈ કહી રહ્યો છે તે અશ્રદ્ધેય કહી રહ્યો છુ એક અસહાય છુ એથી મને આ બાબતમા કેાઈની મદદ પણ મળી રાકે તેમ નથી તે શ્રમણુ માણુ વગેરેના વચનેાના સહાયક તે અનુમાન વગેરે પ્રમાણે છે પણ મારા કથનનું સહાયભૂત થાય તેવુ કેઈ પ્રમાણુ જ નથી જે કે હુ જે કઈ પણ કહી રહ્યો છુ તે સ પૂ રીત યથા ! મારા તે વચને અસભવિત અસહાય ડાવા બદલ
2015
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानधर्मकथा
1
1
$
अतरस्पर्शि, अतारम्= तरणीयम् अपौरुषेयम् = पुरुष मनाणं यस्य तत् प न पौरुषेयम् = अपार पेयम् = पुरुषममाण र रितम् एतेषां धर्मधारय तस्तिन अतिमम्भीरे इत्यर्थः उदके आत्मान मुति । तत्राऽपि तस्मिन्नुदकेऽपि न ' से ' तस्य = तेतलिपुत्रस्य ' थाहे ' स्ताघो जातः । तत तु स तेतलिपुत्रः शुष्केो तृणकूटे = तृणपुञ्जे ' अगणिकाय ' अग्निकाय मक्षिष्य, तत्र आमान मुञ्चति । तत्रापि शुके तृणेऽपि सो ऽग्नियो 'विज्झा' निध्यात = उपशान्त | 'तरण' ततः खलु=एतस्य सर्वम्य असम्भाव्यस्य सम्भावनानन्तरम् स तरिपुन एवमत्रा महइमहालय सील गीना-चघर पधित्ता अत्यार मनारमपोरिमियसि उद्गसि अप्पाण सुयइ, तत्थ वि से धाहे जाए ) इसके बाद उस तेल लिपुत्र ने एक बहुत विशालकाय शिला को अपने गले में बाधा और घाघ कर अपने आपको अधार-अतार एव अपुप प्रभाग जल में छोड़ दिया परन्तु वह जल भी उसके लिए रताध थार युक्त बन गया - (तएण से तलते सुकसि तणकृसि अगणिकाय परिववह परिखविता मुह, तत्थ वि से अगणिकाण विज्झाए-तरण से तेतलिपुत्ते वयासी - सद्धेय खलु भो समणा वयति सद्वेय - खलु भो माहणा दयति, सद्धेय खलु भो समणमाणादयति, अह एगो असद्वेय वयामि एव खलु अह सह पुत्तर्हि अपुत्ते को मे सद्दहिस्स १ सहमित्ते हि अमिते को मेय सद्दहिसर ) इसके बाद तेतलिपुत्रने शुल्क घासके ढेर में अग्नि लगाई और उसमें अपने आपको डाल दिया परन्तु वह भी (तएण से तेतलिपुत्ते महइ महालय सिल गीवाए वध, वरित्ता अत्याहमतारम पोरिसियसि उदगसि अप्पाण मुयइ, तत्य वि से थाई जाए )
-
ત્યાર પછી તે તેનપુત્રે એક બહુ મેાટી ભારે શિવા ( પથરા ) તે પાતાની જાતને અથાહુ–અતાર અને અપુરુષ પ્રમાણે પાણીમા નાખી દીધી પરંતુ તે ઊઠુ પાણી પણ તેના માટે થાહ વાળુ એટલે કે છીછરુ થઈ ગયુ
( तण से तेतलिपुत्त सुक्कसि तणक्रडम अगणिकाय पक्विवर, पक्खिवित्ता तत्व से अगणिकाए विज्झाए-चरण से तेतलिपुत्ते एव वयासी सद्धेय खलु भो समणा यति सद्वेय - खलु भो माहणा यनि, सद्धेय सलु भो समण माणा वयति, अह एगो असदूधेय वयामि ए खलु अह सह पुतेहिं अपुत्ते को मे सदस्सिर ? सह मित्तर्हि अमित्ते को मेय सदस्सिर )
ત્યાર પછી તે પુત્રે સૂકા ઘાસના ઢગલામા અગ્નિ પેાતાની જાતને તેમા નાખી દીધી પરંતુ તે પશુ વચ્ચેથી જ
co
પ્રગટાવ્યા અને
! ગઇ
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणो टी० १० १४ नेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ॥ दीत-चित्त समोय मनस्येनमकप्रयत्-मो चित्त ! श्रमणा यद् वदन्ति तस्खलु श्रद्धेय श्रद्धा योग्य, श्रद्धेय गलु गोः ब्राह्मणा वदन्ति, श्रद्धव खलु भोः ! श्रमण ब्राह्मणा वदति । अय भार-जात्मपरलोकाय प्रतियोधक अमणादीना वचन श्रद्धेय भवति, अतीन्द्रियस्याप्यात्म परलोकादिरवरूपस्यानुमानादि प्रमाणविषयतया श्रद्वाविषयत्वात् । परन्तु अमेरो असहायः अश्रद्धेयम् अविश्वमनीय वदामि । यद्यपि मदीय वचन सर्वथा सत्यम् , तथापि असम्भाव्यतया जनैः प्रत्येतुमशक्यम् । तदेवाह-' एव ग्लु' इत्यादिना ‘एर खलु' मयि अश्रधेय यीच ही में घुस गई । इम तरह इन समस्त अनभवनों की सभवना के पाद तेतलि पुत्रने अपने आपको सपोधित करते हुए मन मे विचार किया-हे चित्त ! अमणजन जो कहते है यह श्रद्धेय है । ब्राह्मणजन जो कहते है वह अद्वेय है इसी प्रकार श्रमणमाहणजन जो करते है वह श्रद्धेय है। इसका भाव यह है कि आत्मा, परलोक आदि पदार्थ जो कि अतीन्द्रिय हवे अनुमान आदि प्रमाण कि विपघसूत हो जाते है इसलिये ये श्रद्धाके विषय बन जाते हैं अतः इन अतीन्द्रिय आत्म, परलोक आदि पदार्थों को प्रतिपादित करने वाले अमण मारण आदिकों के वचन भी श्रद्धेय हो जाते हैं, परन्तु में जो कह रहा है वह अश्रद्धेय कह रहा है एक असहाय है-इसलिये-मुझे इस विषय में किसी को भी सहायता मिलने वारी नहीं है। उन श्रमण माहण आदिजनों के वचनों के सहायक तो अनुमान आदि प्रमाण है-परन्तु मेरा सहायक कोई प्रमाण ही नहीं होता है, यद्यपि में सर्व गा सत्य कहता हूँ परन्तु वह मेग वचन असभवित असहाय-होने की वजह से मनुष्यो के लिये श्रद्धय नहीं बन આ રીતે આ બધા અસ ભવનોની મ ભાવના બાદતે તલિપુત્રે પિતાની જાતને જ સ બેષિત તા મનમાં વિચાર કર્યો કે હે ચિત્ત 1 શ્રમણુજનો જે કઈ કહે છે તે શ્રેય છે બ્રાહ્મણે જે કઈ કહે છે તે શ્રધય છે આ પ્રમાણે છે પણ માહણને જે કઈ કહે છે તે અઢય છે આનો ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે આત્મા પરલોક વગેરે પદાર્થો જેઓ કે અતીન્દ્રિય છે-તેઓ અનુમાન વગેરે પ્રમાણુના વિષયભૂત થઈ જાય છે એટલા માટે તે ૫ થે શ્રદ્ધાના વિષય બની જાય છે એવી આ બધા અતીન્દ્રિય આત્મા, પરલોક વગેરે પાથોનું પ્રતિપાન કરનાર શ્રમણ માહણ વગેરેના વચને પણ શ્રદ્ધવ થઈ જાય છે, પણ હું જે કઈ કહી રહ્યો છે તે - અશ્રય કહી રહ્યો છું એક અસહાય છુ એવી મને આ બાબતમાં કોઈની મદદ પણ મળી રાકે તેમ નથી તે શ્રમણ માહણ વગેરેના વચનના સહાયક 1 અનુમાન વગેરે પ્રવે છે પણ મારા કથનનુ સહાયભૂત થાય તેવું કોઈ પ્રમાણુ જ નથી જે કે હું જે કઈ પણ કહી રહ્યો છું તે સંપૂર્ણ રીત યથાર્થ સત્ય-કહી રહ્યો છું પણ મારે તે વચને અસભવિત અસહાય હાવા બદલ
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
মামধাব अपने सती यदि अहमेवभूत सत्यमपि पदामि, यत्-अह 'सहपृतेहि अपुन' सहपुरैरपि अपुन:पुत्रो विद्यमाने पि भह पुत्रादित पामिनास्तत्वात का 'मेय ' ममेद इद मदीय बन 'मास्मि अदाम्यनित्य पति, न कोऽपि, तथा अह 'सहमिहिअमित' सहमिरमिर मिशेष विमानेपपि - मित्ररहितोऽह ' को 'मेद ' ममेद चिन श्रद्धाम्यति । पम् अनेन प्रशारणैर अर्थेन दारै दास. परिजनेन च महितोऽपि, त रहितोऽस्मि, इद मदीय पचन फ. अदा स्पति, अपितु न कोऽपि । 'एच ' अमुना प्रकारेण स यद्यह प्रीमियत 'तेतलिपुगे' तेतलिपुत्र नामधेये खलु मयि अमात्ये कनक यजेन राजा 'अशाएणं समाएण' अपध्यातेनश्चिन्त केन सता, अर्थात् कनकध्वजो रागा सकता है जैसा मैं यह सल भी कहूँ कि में पुत्रों के विद्यमान होने पर भी अपुत्र पुत्र रहित है, तो पौव मेरी हम बात को श्रद्धा से देखेगा इसी तरह में यह कहूँ कि मैं मित्रों के विद्यमान होने पर भी मित्र रहित है-तो कौन मेरे इन वचनों पर विश्वास करेगा-(एव अत्थे गं दारेण दासेहिं परिजणेण पर ग्वलु तेतलिपुत्तण अमच्चे कणगज्झएण रन्नाअवज्झाएण समाणेण तेतलिपुत्तेण तालपुडगे घिसे आसगसि पक्खित्ते से चि यणो कमइ को मेय सद्दहिस्मइ? तेतलिपुत्तेण नीलुप्पल जाव खसि ओहरिण तत्व वि से धारा ओपला को मेय सहहिस्सइ) इंस तरह अर्थ, दारा, दास, परिजन, इन से युक्त होने पर भी में-इन से रहित हैं, कौन मेरे इस वचन को मानेगा? अर्थात् कोई नही मानेगा इसी तरह यदि में ऐसा कहूँ कि मुझे तेतलिपुत्र अमात्य के ऊपर कनक માણસે માટે શ્રદ્ધય થઈ શકે તેમ નથી જેમ કે હું અત્યારે આ જાતની સાચી વાત પણ કહ્યું કે પુત્ર હોવા છતાએ હુ પુત્ર વગર છુ તે કોણ મારી આ વાતને શ્રદ્ધાની દષ્ટિએ જોશે ? આ પ્રમાણે જ હુ કહું કે મિ હોવા છતા હુ મિત્ર વગરને છુ તે કણ મારી આ વાત ઉપર શ્રદ્ધા ધરાવી
(एव अत्येण दारेण दासेहि परिजणेण एर सलु तेतलिपुत्तेण अमच्चे कण गज्झएण रत्ना अवज्झाएण समागेण तेतलिपुत्तेण तालपुडगे पिसे आसगास पक्खित्ते से वि य णो क्मइ, को मेय सहहिस्सइ १ तेतलिपुत्तेण नीलुप्पल जाव खधसि ओहरिए तत्थ पि से धारा ओपला को मेय सदहिस्सइ)
माशते म (धन), हरा (पत्नी) हाम, पति से मचा डावा છતા પણ હું એમના વગર છુ મારી આ વાત ઉપર કણ વિશ્વાસ મૂકવા તૈયાર થશે ? એટલે કે કોઈ પણ વિશ્વાસ કરશે જ નહિ આ રીતે જ ને હું આમ કહ્યું કે મારા ઉપર ગાડનઃ બ્રિજ નારાજ થઈ ગયા હતા એટલા માટે
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगर
टीका ० १ तेलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम्
८३
་
तष्टिपुत्रे दुचिन्तको जात' इतिदेतो:, तेनलिपुत्रेण तालपुटक निपम् 'आसगसि ' आस्ये = मुखे प्रक्षिप्तम्, ' से विय' तदपि च विष नो 'कमड न क्राम्यति त्रिपस्वेन न परिणमति को जन ' मेद ' मपेट मत्यमपि वचन श्रद्धास्यति न कोऽपि, तथा ' तेतचित्ते ' नीलुप्पल जान खरसि ओहरिए ' तेतलिपुत्रेण नीलोत्पल यावत् स्कन्धे अपहतः = तेतलिपुत्रेण नीलोत्पलगवलगुलिकममप्रभाऽसि 'स्कन्धे कण्ठमूले ' अवहृत ' प्रहृतः ' तत्वनि ' तत्रापि तस्मिन् मरणोपाये कृतेऽपि च ' तस्य असेः धारा ओपल्ला=कुण्ठीभूता को 'मेद ममेद श्रद्धास्यति । एवमेव यह ब्रूयाम् यन्मया ' तेतलिपुत्रेण पामर्ग गीवाए नत्ता जाव रज्जू छिना को मे सदस्सितपुत्रेण पाशक ग्रीवाना वा यात् रज्जु उन्ना, को ममेद श्रद्वास्यति ? तपुत्रेण अतिविशाला गिला यावद् वद् वा अस्ताधयात्रवज राजा दुश्चित बन गये इसलिये मने तालपुट विष मुख में डाल दिया परन्तु वह विषरूप से परिणमित नहीं हुआ । मेने विप खाया - पर मैं मरा नही - कौन मनुष्य मेरी इस सत्य बात को श्रद्धा की दृष्टी से देखेगा । तथा मैंने नीलोत्पल, गवल एव गुलिका की प्रभा 'जैसी प्रभाव चाली तीक्ष्ण तलवार अपनी गर्दन पर मरने के लिये चलाई परन्तु वह भोटी घरवाली बन गई - कुण्ठित हो गई उससे मेरी गर्दन नही फटीकौन मेरी इस बात को मानने के लिये तैयार हो सकेगा ( तेतलिपुत्तेणं पास इत्यादि) उसी तरह यदि मे यह कह कि मुझ तेतलिपुत्रने अपने गले में पाशक डाला और वृक्षपर चढकर वहा से नीचे में लटक पड़ा और फदा बीच में से टट गया तो कौन इन वचनो पर विश्वास करेगा। (तलिपुत्ते महहमाल्य जाव यधित्ता अवाह जाव उद्गसि अप्पा
મે તાલપુ વિષ ( ઝેર ) ખાધુ હતુ પણ તે વિષના રૂપમા પરિણત થયુ નથી એટલે કે વિષ ભક્ષણ કરવા છતાએ હુ મરણ પામ્યા નહિ આ વાત ઉપર કા માણસ વિશ્વાસ મૂકવા તૈયાર થશે ? તેન્જ નીલેત્પલ, ગવલ અને જુલિકાના જેવી પ્રભાવાળી તીક્ષ્ણ ધાવાળી તવારના મે મરવા માટે મારી ડાક ઉપર ઘા કર્યો પણ તે તરવાર જ મૂડી ધારવાળી થઈ ગઈ-મુક્તિ થઈ ગઈ તેનાથી મારી ડાક કપાઈ નહિ મારી આ વાત ઉપર ાણુ વિશ્વામ કરવા તૈયાર થશે ? ( वेतपुित्ते पासग इत्यादि ) मा रोते हु आम उडु } भे तेतनिपुत्रे પેાતાના ગળામા ગામા નાખ્યા અને વૃક્ષ ઉપર ચઢો વૃક્ષ ઉપર ચઢીને ત્યાથી નીચે લટકી પડો પણ ક્ાસે વચ્ચેી જ તૂટી ગયે તે કાણુ મારી આ વાત ઉપર વિશ્વાસ મૃકશે ?
( तेवलित्तेण महइमहालय जाव वधित्ता अत्याह जाव उदगसि अप्पा मुके,
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
हाताधर्मकथा दुदके आत्मा मुक्तः, तनापि च खलु रतायो जातः, को ममेट श्रदास्यतिन्मया स्वकण्ठे महाशिला बद्धा अगाये उदके आत्मा मुक्त, परन्तु तस्मिन्नुदकेऽपि मम तलस्पर्शो जातः, इति मम वचन कः अदास्यति ? पुनश-तेतलिपुशेण मया शुष्के तणकटेशृणपुजेऽग्निकाय प्रतिप्य प्रज्वलिते पस्मिन् आत्मा मुक्त , परन्तु सोऽग्नि काय 'पिआए 'विध्याता-उपशात, इत्येवस्पमपि मदीय वचन कः श्रद्धास्यति ? न कोऽपि, इत्येव स तेतलिपुन. औडयमणसकप्पे ' अपरतमनः सकल्प =भग्नोत्साह' सन् यावद् ध्यायति आर्तध्यान करोति |मू० १०॥ मुक्को,तत्यविण धाहे जाए को मेय सहिस्सह तेलिपुत्तण सुक्कसि तणकूडसि अगणिकाय परिखवित्ता अप्पा मुयो तत्व वि से अगणिकाए विज्झाए को मेय सद्दहिस्सह ? ओत्यमणसकप्पे जाव झियायड ) मुझ तेतलिपुत्रने एक बहुत बड़ी शिला को गलेमें वाधी और बाद में अथाह अतार अपुरुष प्रमाण जल में कूद पड़ा परन्तु वह जल कूदते री थाह घाला बन गया अथाह नहीं रहा मेरी इस सत्य पात पर भी कोन श्रद्धा करेगा। इसी तरह मुझ तेतलिपुत्रने एक बडे भारी शुष्क घास के ढेर में अग्नि लगाई और उस में अपने आप को प्रक्षिप्त कर दियापरन्तु वह अग्नि वुझ गई उसने मुझे भस्म नहीं किया मेरी इसबात को फौन श्रद्धा रूप से स्वीकार करेगा। इस प्रकार अपहत मन संकल्प वाला बन कर-उत्साह रहित होकर वह तेतलिपुत्र अमात्य आतध्यान में पड़ गया ॥ सू० १०॥ तत्थ रिण थाहे जाए को मेय सदहिस्मइ ! तेतलिपुत्तेण सुक्कसि तणकूडंसि अगणिकाय पक्खि वित्ता अप्पा मुक्को तत्थवि से अगणिकाए विज्झाए को मेय सदहिस्सइ ? ओहयमणसकप्पे जान झियायइ )
મે તેતલિપુત્રે એક બહુ ભારે મોટી શિલા ( પથરો ) ગળામાં બાધી અને ત્યાર પછી હું અથાહ (ઊડા) અતાર અપુરુષ પ્રમાણુ જેટલા પાણીમાં કૂદી ગયે પણ કૂદતાની સાથે જ પાણી થાહવાળુ (છીછરું ) થઈ ગયુ, અથાણું (ઉડુ) રહ્યું નહિ મારી આ વાત ઉપર પણ કેણ વિશ્વાસ મૂકશે ? આ પ્રમાણે જ મે તેતલિપુત્રે એક બહુ મોટા ભારે સૂકા ઘાસના ઢગલામાં અગ્નિ પ્રગટાવ્યા અને તેમાં મે પોતાની જાતને ઝપવાવી દીધી પણ તે અગ્નિ ઓલવાઈ કા તેણે મને ભસ્મ કર્યો નહિ મારી આ વાતને કેણ શ્રદ્ધેય માનીને સ્વીકારવા તૈયાર થશે? આ રીતે તે અપહતમન સકતવાળે (હતાશ) થઈને निरुत्साही मानी गयो भने मात ध्यानमा रूपी गयो ॥ " , , ॥
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधामृतपिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ८५
मूलम्-तएणं से पोहिले देवे पोटिलास्व विउव्वइ, विउवित्ता, तेतलिपुत्तस्म अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी-ह भो । तेतलिपुत्ता । पुरओ पवाए पिट्टओ हथिभयं, दुहओ अचक्खुफासे, मज्झे सराणि वरिसंति, गामे पलिते रन्ने झियाइ, रन्ने पलित्ते गामे झियाइ । आउसो तेतलिपुत्ता । कओ वयामो १, तएणं से तेतलिपुत्ते पोट्टिलं एव वयासीभीयस्स खलु भो | पवजा सरणं, उक्काठियस्स सदेसगमणं छुहियस्स अन्न, तिसियस्स पाणं, आउरस्स भेसज्ज, माइयस्स रहस्स अभिजुत्तस्स पच्चयकरणं, अद्धाणपरिसंतस्त वाहणगमणं, तरिउकामस्स पवहणकिच्चं, पर अभिउजिउ कामस्स सहायकिच्चं खतस्स दतस्स जिइदियस्त एत्तो एगमवि णं भवइ । तएणसे पोटिले देवे तेयलिपुत्तं अमच्च एव वयासी-सुट्ठ णं तुम तेयलिपुत्ता। एयम आयाणाहि त्तिकटु दोच्चपि तच्चपि एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिस पाउन्भूए, तामेव दिस पडिगए ॥ सू० ११ ॥
टीका-'तएण से' इत्यादि । 'तएण' तत खलु तेतलिपुत्रो आर्तध्यान रते सति स पोहिलोदेर 'पोट्टिलारूव' पोटिलारूप विकुर्वति क्रियशक्त्या
'तएण से पोहिले देवे' इत्यादि ।
टीकार्य-(तएण) इसके चोद (से पोहिले देवे ) उस पोहिल देवने (पोट्टिला स्व विउव्वड) पोटिला के रूप की विकुर्वणा की-अर्थात् वैक्रिय शक्ति के प्रभाव से उसने पोट्टिला का रूप धारण किया (विउन्वित्ता
'तएण से पोट्टिले देवे' इत्यादि
24-(तएण) त्या२ ५७ (से पोट्टिले देवे) ते पाहिलवे (पोट्टिला रूव विठव्वइ) पाहिलाना ३५नी Aget sी मेट १३ तिन प्रभावी
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
साताधर्मकथासू दुदके आत्मा मुक्तः, तत्रापि च खलु तानो जातः को श्रदास्यति मया ममे स्वकण्ठे महाशिला दूधा जगावे उदके आत्मा मुक्त, परन्तु तस्मिन्नुदकेऽपि मम तलस्पर्शो जातः इति मम वचन क श्रद्वाम्यति ? पुनत्र - तेतलिपुत्रेण मया शुष्के तृण = तृणपुजेऽग्निकाय पक्षिष्य प्रज्वलिते तस्मिन् आत्मा मुक्त, परन्तु सोऽग्निकाय 'निजाए' विध्यातः-उपशात इत्येवमपि मदीय वचनं कः श्रद्धास्यति ? न कोऽपि इत्येव स तेवलिपुत्रः ओहयमणसरुप्पे अपहृ तमनः सकल्प =भग्नोत्साह' सन् यावद् ध्यायति = आर्त्तध्यान करोति ॥ मु० १०॥ मुक्को, तत्थणि बाहे जाए को मेरा सहिस्सह । तेन लिपुत्त्रेण सुक्कसि तणकृडसि अगणिकाय परिचित्ता अप्पा मुझे तत्थ वि से अगणिकाण विज्झाए को मेघ सद्दहिस्सह । ओश्यमणसरुप्पे जाय झियायइ ) मुझ तेतलिपुत्र ने एक बहुत बड़ी शिला का गलेमें नाधी और बार में अधाह अतार अपुरुष प्रमाण जल में कूद पडा परन्तु वह जल कूदते री थाह वाला बन गया अथाह नहीं रहा मेरी इस सन्य घात पर भी कौन श्रद्धा करेगा। इसी तरह मुझ तेतलिपुत्रने एक बडे भारी शुल्क घास के ढेर में अग्नि लगाई और उस में अपने आप को प्रक्षिप्त कर दियापरन्तु वह अग्नि वुझ गई उसने मुझे भस्म नहीं किया मेरी इसबात को कौन श्रद्धा रूप से स्वीकार करेगा । इम प्रकार अपहृत मन संकल्प वाला बन कर - उत्साह रहित होकर वह तेतलिपुत्र अमात्य आर्तध्यान में पड़ गया || सू० १० ॥
4
स्थणि था जाए को मेय सदहिस्मइ । तेतलिपुत्त्रेण सुक्कसि तणकूडंसि अगणिकाय पक्खिवित्ता अप्पा मुक्को तत्थवि से अगणिकाए विज्झाए को मेय सहहिस्सइ ? ओडयमणसकप्पे जान झियाय )
અથાહે
મે તેલિપુત્રે એક બહુ ભારે મેટી શિલા ( પથશે ) ગળામા ખાધી અને ત્યાર પછી હું અથાહ ( ઊંડા ) અતાર અપુરુષ પ્રમાણ જેટલા પાણીમા કૂદી ગયા પણુ કૂદતાની સાથે જ પાણી થાહવાળુ ( છીછરું ) થઈ ગયુ, ( ઊંડુ) રહ્યુ નહિ મારી આ વાત ઉપર પણ કાણુ વિશ્વાસ મૂકશે ? આ પ્રમાણે જ મે તેલિપુત્રે એક બહુ મેટા ભારે સૂકા ઘાસના ઢગલામા અગ્નિ પ્રગટાવ્યે અને તેમા બે પેાતાની જાતને ઝપલાવી દીધી પણ તે અગ્નિ ઓલવાઇ ગયે તેણે મને ભસ્મ કર્યો નહિ મારી આ વાતને કાણુ શ્રદ્ધેય માનીને સ્વીકારવા તૈયાર થશે ? આ રીતે તે અપહતમન સ પાળેા ( હતાશ ) થઈને નિરુત્સાહી બની ગયા અને ધ્યાનમા ડૂબી ગયે॥
८८
॥
(+
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतपणी टी० अ०१४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम्
८७
मेवमवादीत् ' भो' हे पोट्टिले । भीतस्य खलु माज्याशरण भावि तन दृष्टान्तमाह-यथा-' उन डियस' उत्कण्ठिनग्य= परदेशपर्तिवाद सुकस्य प्रदेशगमन,
1
+
"
forer ' सुनितस्य जन्नम् ' तिसियम्म' ठपितस्य पान, 'आउरस्म आतुरस्य - रोगिण' 'भेमज' भैषज्य 'मायिम्म' मायिकम्य = मायाविन रहस्य = गोपनम्, अभिजुनस्म' अभियुक्तम्य = दोपापपादयुक्तस्य ' पचपकरण = प्रत्यय करण तन्निराकरणेन स्वपि निर्दोपिता प्रतीत्युत्पादनम्, 'अद्वाणपरिसतस्स' ज वपरिक्षान्तस्य=मार्गगमन परिसिन्नस्य 'पाणगमण' वाहनगमन, शकटादिना गमन ' तरि तेतलिपुत्ते पोट्टिल एव वयामी-भीत्तस्म खलु मो पवज्जा-सरण - उक्केडियस्म मदेसगमण मुहियस्म अन्न, तिमियस्स पाण, आउरम्स भेस ज्ज, माइग्रस्स रहस्स, अभिजुत्तस्स पच्चयकरण, अद्वाण परिसतस्स वाणगमण, तरिउकामस्स पहवणकिच्च पर अभिउजिङकामस्स सहायकिच्चं सतस्म दनस्म जिउदियस्स एतो एगमवि ण भवइ ) इस प्रकार पोहिला की बात सुनकर तेतलिपुत्र अमात्य ने उससे ऐसा कहा हे पाहिले ! भीन ( भय युक्त) के लिये प्रव्रज्या शरण भूत होती है, जैसे - परदेश वर्ती उत्सुक व्यक्ति के लिये स्वदेश गमन शरण भूत होना है, भूखे के लिये अन्न शरण भूत होना है प्यासे के लिये पानी, आतुरं रोगी के लिये पज्य, मायावी के लिये मायाचारी, अभियुक्तदोपापवाद वाले के लिये दोषों के निराकरण से अपने विषय मे निर्दोपता की प्रतीति का उत्पादन, शरण भूत होता है। मार्ग श्रान्त के लिये वाहन से गमन करना शरण भ्रन होता है, तैरने की इच्छा वाले के
"
(aण से तेतलिपुत् पोट्टिल एव पयासी - भीतस्म खलु भो पवज्जा संगण उडियस सगमण छुहियरस अन्न निसियस्स पाण, जाउरस्स भेसज्ञ, माइयस्स रहस्स, अभिजुत्तस्स पच्चयकरण, अद्धाणपरिसतस्स वाहणगमण, तरिउ कामस्स सहायकिच्च सतस्स जिइदियस्स एतो एगमविण भव )
આ રીતે પેાટ્ટિલાની વાત સાભળીને તેતલિપુત્ર અમાત્યે તેને કહ્યુ કે કે પેટ્ટલે ભ-ભીત થયેલાને માટે પ્રજા શરણુ ભૃત હાય છે-જેમ-પરદેશમા રહેતી ઉત્સુક વ્યક્તિને માટે પેાતાને ઘેર પાછા ફરવુ શરણુ ભૂત હાય છે ભૂખ્યા ને માટે અન્ન શરણુ ભૃત હેાય છે આ પ્રમાણે જ તરસ્યાને મટે પાણી, આતુરરાગ–ને માટે ભૈષજ્ય-દવા, માયાવીને માટે માયા ચરી અભિયુક્ત--દોષાપનાદ વાળાને માટે દેપાના ાિકરણથી પોતાના વિષે નિર્દયતાની પ્રતીતિનુ ઉત્પાદન શરણુ ભૂત હાર છે. મામા ચાલતા થાકી ગયેલાને માટે વાહનને ઉપયેાશ ારણ ભૂત હાય છે, તરવાની ઈચ્છા ધરાવતા માણુસને માટે નાવ વગેરે જલયામ
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
| আমাথায় धारयति, निर्विया तेतनिपुत्रस्य अदरमामन्त नादिरे नातिनिटे स्थिता एवमगादीत्-डभो तेतलिपुत्र ! 'हमो' इत्यामन्त्रणे, हे वेवलिपुत्र ! 'पुरओ' पुरता अग्रतः ''पनाए ' प्रपात:-गत., अतो निर्गमनमसम्मति, पृष्ठतः इस्ति भयम् , अतो प्रत्यावर्तन चासमति, 'दुहमो ' उभयता-उभयत =उभयोः पार्श्वयोः ' अचासुफासे' अस्पर्श अन्धकार, 'मजो'मये या यमास्महे तत्र ' सराणि' शरा माणा, 'रिसति' वर्षन्ति-निपतन्ति । 'गामे पलिते' ग्रामे मदीप्ते प्रज्वलिते सति रणे' आण्य-धन 'झिया' ध्यायति गन्नु चिन्तयति, अरण्ये प्रदीप्ते ग्राम ध्यायनि-गन्नु चिन्तयति, 'आउमो तेतलिपुता' हे आयुष्मन् तेतलिपुत्र । ' उभोरठिते 'उभयत प्रदीप्ते-उमयस्मिन् प्रज्वलिते वय ' कओ वयामो' कुतो नाम' कगन्छाम । ततः यलु स तेलिपुत्रः पोटिला तेतलिपुत्तस्स अदूरसामते टीच्चा एच बयासी) धारण कर के वह तेतलिपुत्र के समीप गयी। वहाँ जाकर उसने उसमे इस प्रकार कहा-(ह भो तेतलिपुत्ता ! पुरओ पवार पिट्ठो हत्यिभय ) अरे ओ तेतलिपुत्र ! आगे प्रपात ग्वड्डा है और पीछे हाथी का भय है। (दुरओ अचक्खुफासे, मज्झे सराणि परिसति) दोनों ओर अन्धेरा है और जहा हमलोग ठहरे हुए हैं बहा वाणों की वृष्टि हो रही है । (गामे पलिते रण्णो झियोइ, रनो पलित्ते गामे झियाइ) ग्राम में आगलगने पर मनुष्य जगल में चले जाने को सोचता है-और जगल में आग लगने पर ग्राम मे चले आने के लिये विचारता है। (आउसो तेतलि पुत्ता ! उभओ पलिते कओ वयामो) परन्तु जर दोनो में आग लग जावे तो हे आयुष्मन तेतलिपुत्र ! कहो! हम कहा जावे (तएण से त पाहिलानु ३५ पार ४यु (विउव्यित्ता तेतलिपुत्तस्स अदूरसामते ठीच्या एव वयासी ) धा२९। उसने ते तेतलिपुत्रनी पासे 5 त्या न तो तेने मा प्रमाणे उखु (ह भो तेतलिपुत्ता ! पुरओ पवा पिट्टओ हथिभय ) मरे, એ! તેતલિપુત્ર! તમારી સામે પ્રપાત-ધંધ છે અને તમારી પાછળ હાથીને - सय छ (दुहओ अचासुफासे, मज्झे सराणि परिसति ) भने त२५ अघा३
छ भने क्या अभे ना छीमे त्या ती। वर्षी रह्या छ (गामे पलिते रणो झियाइ रनो पलिते गामे जियाइ) गाममा माt anता माथुम सभा નાસી જવાને વિચાર કરે છે અને જગમાં આગ લાગતા ગામમાં આવતા रवाना किया२ ४२ छ ( आउसो तेतलिपुत्ता उभओ पलिते को क्यामो) પણ જ્યારે બંને તરફ આગ સળગી ઉઠે ત્યારે તે આયુષ્યન્ત તેતલિપુત્ર! 'नासो, अमे या मे ?
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतयर्पिणी टी० अ० १४ तेतरिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम्
८७
मेवमवादीत् ' भो' हे पहिले ! भीतस्य खलु माज्याशरण भवति तत्र दृष्टान्तमाह-यथा- 'उडियस' उत्कण्ठिनस्य परदेर्तिवाद सुरस्य स्वदेशगमन, छुoिrer ' क्षुधितस्य जन्नम्, 'तिसियम्म' वपितस्य पान, ' आउर आतुरस्य - रोगिण' 'भेमज' भैषज्य 'मायिम्म' मायिकस्य =मापादिनः रहस्य = गोपनम् ' अभिजुनस्य' अभियुक्तम्य = दोपापवादयुक्तस्य 'पचयकरण = प्रत्यय करणं तन्निराकरणेन स्वविषये निर्दोपिता प्रतीत्युत्पादनम्, 'अद्वाणपरिसतस्स' अ परिश्रान्तस्य=मार्गगमनपरिखिन्नस्य 'पाहणगमण' चाहनगमन शकटादिना गमन ' तरि
'
तेतलिपुत्ते पोट्टल एव वयामी-भीत्तस्म खलु भो पवजा-सरण - उक्केडियरस सटेसगमण छुहियस्म अन्न, तिमिस्स पाण, आउरस्स भेस ज्ज, माइग्रस रस्स, अभिजुत्तस्म पन्चयकरण, अद्वाण परिसतस्स चाणगमण, तरिउकामस्स पहचणकिच्च पर अभिउजिङकामस्स सहायकिच्च सतस्स नस्म जिउदियस्म एतो एगमवि ण भवइ ) इस प्रकार पोहिला की बात सुनकर तेतलिपुत्र अमात्य ने उससे ऐसा कहा हे पाहिले ! भीन ( भय युक्त) के लिये प्रव्रज्या शरण भूत होती है, जैसे - परदेश वर्ती उत्सुक व्यक्ति के लिये स्वदेश गमन कारण भूत होना है, भूखे के लिये अन्न शरण भूत होता है प्यासे के लिये पानी, आतुर रोगी के लिये मैपज्य, मायावी के लिये मायाचारी, अभियुक्तदोषापवाद वाले के लिये दोपों के निराकरण से अपने विषय मे निर्दोपता की प्रतीति का उत्पादन, कारण भून होता है । मार्ग श्रान्त के लिये वाहन से गमन करना शरण भृत होता है, तैरने की इच्छा वाले के
(तएण से तेतलिपुत्ते पोट्टिल एव क्यासी-भीतस्म खलु भो पत्रज्जासं उक्कडियम ससगमण छुहियस्स अन्न निसियस्स पाण, आउरस्स भेसज्ञ, माइयस्स रहस्स, अभिजुत्तस्स पच्चयकरण, अद्धाणपरिसतस्स वाढणगमण, तरिउ कामस्त सहायकिच्च सतस्स जिइदियस्स एत्तो एगमत्रिण भवइ )
આ રીતે પેટ્ટિલાની વાત સાભળીને તેતલિપુત્ર અમાત્યે તેરે કહ્યું કે હું પેટ્ટલે! ભભીત થયેલાને માટે પ્રશ્નજના રાણું ભૂત હાય છે-જેમ-પરદેશમા રહેતી ઉત્સુક વ્યક્તિને માટે પેાતાને દેશ પાછા ફરવુ શરણ ભૂત હાય છે ભૂખ્યા ને માટે અન્ન શરણુ ભૃત હોય છે આ પ્રમાણે જ તરસ્યાને મટે પાણી, આતુર– રાગ–ને માટે ભૈષજર-દવા, માનાવીને માટે માયા ચ રી અભિયુક્ત દોષાપવાદ વાળાને માટે દોષાના રાકરણથી પેાતાના વિષે નિકિતાની પ્રતીતિનુ ઉત્પાદન શરણુ ભૂત હાય છે . મામા ચાલતા યાકી ગયેલાને માટે વાહનને ઉપયેગ રારણ ભૂત હાય છે, તરવાની ઈચ્છા ધરાવતા માણસને માટે નાવ વગેરે જલયાન
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
९०
माताधर्मयामो समेणं कम्मरयविकरणार अपुवकरण परिहस्स केवलवर. णाणदसणे समुप्पणे ॥ सू० १२ ॥ , टीका- 'तरण तस्म' इत्यादि । ततः म सम्प तेतलिपुनस्य शुमेन परिणामेण जातिस्मरणम्-पूर्वमान सग पन्नम् । तत' ग्यलु तस्य तेतलिपुत्रम्य अयमेतदूप आध्यात्मिक मार्थिनःगिन्तिा: कल्पितो मनोगतः सरम्पः समुद्रपद्यत एवं खेलु अहम् इहैव जम्बूद्वीप द्वीपे महानिदेहे वर्षे पुग्लायती पिनये पुण्डरी पिण्या राजधान्या महापनो नाम राजा आसम्। ततः खलु अह म्यनिराणामन्तिके मुण्डो भूत्वा यावर ' चौहमपुयाउ०' चतुर्दशपूणिचतुर्दशपूर्वागि अधीत वान् , बहूनि वर्षाणि 'सामनपरियाय:' श्रामण्यपर्याय चारित्रपर्याय पालित
'तण्ण तस्स तेतलिपुत्तस्स' इत्यादि । टीकार्थ-(तण्ण) इसके बाद (तेतलिपुत्तस्स) तेनलिपुत्र को (सुमेण परिणामेण जाइ सरणे समुपन्ने)शुभपरिणाम से जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। (तएण तस्स तेतलिपुत्तरस अयमेयारूवे अज्झत्यिरा ५ समु प्पज्जित्था-एच सलु अह इहेव जबूद्दोवे दीवे महाविदेहे वासे पोक्खला वई विजए पोडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे नाम राया होत्था) उसके प्रभाव से उसने अपने पूर्व भव को जान लिया-उसने जाना कि में इसी जबूद्वीप नामके द्वीप मे महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावनी विजय में पुण्डरीकिणी नामकी राजधानी मे महापद्म नाम का राजा था (तएण अह थेराण अतिए मुडे भवित्ता जाव चोद्दमपुयाइ. बहणि . 'तएण तरस तेतलिपुत्तरस' इत्यादि
ट'-(तएण) त्या२६ (तलिपुत्तस्स) ततलिपुत्रने (सुभेण परिणामेणं जाइ सरणे समुप्पन्ने ) शुभ परिणामथी गति भ२६५ ज्ञान ५ य आयु , (तएण तस्स तेतलिपुत्तस्स अयमेयारूवे अज्झथिए ५ समुप्पज्जित्था-एक खलु अह इहेच जबूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे पोक्खलावई विजए पोडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे नाम राया होत्था)
તેના પ્રભાવથી તેણે પોતાના પૂર્વ ભવને જાણી લીધે તેને આ જાતનું જ્ઞાન થયું કે તે આ જ બૂઢીપ નામના દ્વીપમાં મહા વિદેહ ક્ષેત્રમાં પુષ્ક લાવતી વિજ્યમા પુડરીકિ નામની રાજધાનીમાં માપ નામે રા ન હતે !
(तएण अह येराणमविए मुडे भवित्ता जाव चोस पुवाइ० बहुणि वासाणि
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतयषिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम ११ वान् । अनन्तरं मासिक्या सलेखनया कालमासे काल कृत्वा ' महामुक्के कप्पे' महाशुक्रे कल्पे-सप्तमे देवलोके ' देने' देव -देवत्वेनोत्पन्न । ततः खलु अह तस्माद् देवलोकात् ' आयुक्खएण : ' आयुः क्षयेग ३-आयुभवस्थिति सयानन्तरम् इहैव तेतलिपुरे तेतलेरमात्यस्य भद्राया माया 'दारगत्ताए ' दारकन्वेन= पुनतया ' पच्चायाए ' प्रत्यायात उत्पन्नः, तत्-तस्मात् श्रेयः खलु मम पूर्वदृष्टानि-पूर्वभवपालितानि 'महत्ययाड' महानतानि पञ्चमहानतानि स्वयमेव उपसंपद्य विहर्तुम् , एव सप्रेसते समेत्य स्वयमेव महाव्रतानि आरोहनि स्पीकरोति, मारुह्य, या प्रमदवनम् उद्यान तोर उपागच्छति, उपागत्य असोगवरपायवासाणि सामन्नपरियाय० मासियाए मलेरणाए महातुक्के कप्पे देवेतएण अह ताओ देवलोयाओ ओयुस्वागण ३ इव तेतलिपुरे तेतलि स्स अमच्चस्स भद्दारा भारिपा दारगत्ताए पच्चाया) वहां मेने - विरों के पाम मुडित होकर दीक्षा धारण की थी और ग्यारह अगों को अध्ययन कर विशिष्ट तपस्या की थी अन्त में अनेक वर्षांतक श्रामण्य पर्यायंका पालन कर एक मासकी सलेखना धारण कर में काल अवमर काल कर सातवा मराशुक्र करपमेदवकी पर्यायसे उत्पन्न हो गया। वहीं की आयुष्य स्थिति भवस्थिति स्थितिके क्षयके अनन्तर में वहांसे चलकर इस तेतलिपुर में तेतलि अमात्य के यहा भद्रा भार्या की कुक्षि से पुत्र रूप में अवतरित हुआ। (त सेय खलु मम पुचदिहाइ महवाइ सयं मेव उवसपज्जित्ताण वितरित्तए-एव सपेहेइ, सपेरित्ता सयमेव मन्च याइ आमहेह, आरुहिता जेणेक पमयवणे उजाणे तेणे उवागच्छ, सामनपरियाय० मासियाए सलेहणाए महासुक्के कप्पे देवे-तएण अह तामओ देवलोयाओ आयु वएण ३ इहेब तेतलिपुरे तेतलिस्स अमचस्स भदाए भारियाए दारगत्ताए पञ्चायाए)
ત્યા મે મુડિત થઈને સ્થવિરોની પાસેથી દીક્ષા ધારણ કરી હતી અને અગિયાર અગોનું અધ્યયન કરીને વિશિષ્ટ તપસ્યા કરી હતી જેવટે ઘણુ વર્ષે સુધી ગ્રામર્થ્ય પર્યાયનું પાલન કરીને એક મહિનાની સલેખન ધારણ કરી અને ત્યાર પછી કાળ અવસરે કાળ કરીને માતા મહા શુક કપમા દેવ ના પર્યાયથી હું જન્મ પામ્યા ત્યાની ભવસ્થિતિ ૩ (ત્રણ) ના ક્ષય થવા બદલ હુ ત્યાથી આવીને આ તેતલિપુરમાં તેતલિ અમાત્યને ત્યા ભદ્રા ભાર્યાના ગર્ભથી પત્ર રૂપમાં જન્મ પામ્ય
(त सेय खलु मम पुनदिदाइ महन्तयार सयमेव उपमपन्जिताण विटगि एव सपेहेइ, सपेहित्ता सयमेव महब्धयाइ आम्हेइ, आर हित्ता जेणेव पमयवणे
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
3
,
storeisure वस्स ' अशोकपरपादपस्य अशोकवृक्षस्य ' अह अधः परिणतिशिलोपरि 'सुह निसन्नस्स' सुखनिपष्णस्य मुखोपविष्टस्य 'अणुचितमाणम्म ' अनुचिन्तयत = पूर्वमचे कृतमध्ययनादिक स्मरत 'पुव्वाहीयाड' पूर्गधीतानि पूर्वमने पठितानि सामायिकादीनि चतुर्दशपूणि स्वयमंत्र 'अभिसमन्नागयः अभिमन्यागतानि= ज्ञानविपयतया सजातानि । तत. सलु तस्य तेवलिपुत्रस्य अनगारस्य शुभेन परि णामेन 'जान' यावत्-मशस्तैरस्य साथै प्रशस्ता गिर्लेश्ामि विशुद्धयमानाभिः ' तयावरणिज्जाण ' तदापरणीयाना = ज्ञानावरणीयादीना वर्मणा 'सयोवसमेण ' उवागच्छित्ता असोगवरपापवस्स अहे पुढविपिसि सुनिसनस्स अणुचित्तैमाणस्स पुन्वाहीयाह सामाइयमाहयाड चोदवा सयमेव अभिसमन्नागयाह ) इसलिये अब मुझे यही उचित है कि मैं पूर्व भव में पालित किये पच महाव्रतो को अपने आप धारण करलू | ऐसा उसने विचार किया। विचार करके फिर उसने अपने आपही महानतों को धारण कर लिया । धारण करके फिर वह जहाँ प्रमदवन नामका उद्यान था वहाँ चला गया। वहां जाकर वह अशोक वृक्ष के नीचे रक्खे हुए पृथिवी शिलापटक पर पटाकार से परिणत शिला के ऊपर-आनन्द के साथ बैठ गया और पूर्व भव में कृत अध्ययन आदि का बार२ चिन्तवन करने लगा। । इस तरह विचार करते? उसके पूर्व भव में पठित सामायिक आदि चौदह पूर्व ज्ञान के विषय भूत न गये । (aण तस्स तेतलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेण परिणामेण जाव तयाउज्जाणे तेणेव उवागच्छद, उनागच्छित्ता असोगवरपाTER अहे पुढविसिला पट्टयसि सुहनिसन्नस अणुर्चित्तेमाणस्स पुनाहीयाइ सामाइयमाइयाइ चोदस goat सयमेव अभिसमन्नागयाइ )
એટલા માટે હવે મને એજ ચેાગ્ય લાગે છે કે પૂર્વ ભવમા જે પાચ મહાવ્રતાને મે ધારણ કરેલા તેને પેાતાની મેળે જ ધારણ કરી લઉં આ રીતે તેણે વિચાર કર્યાં વિચાર કર્યાં બાદ તેણે પોતાની મેળે જ પાચ મહાનતા ધારણ કરી લીધા ધારણ કર્યાં પછી તે જ્યા પ્રમદવન નામે ઉદ્યાન હતું ત્યા જતા રહ્યો ત્યા જઈને તે અશે... વૃક્ષની નીચે મૂકાયેલા પૃથિવી શિલા પટ્ટક ઉપર-પટ્ટાકાર રૂપથી પરિણત શિલા ઉપર–આનદ અનુભવતા એસી ગયા અને પૂર્વ ભવમા જે કઈ પ્રયન કર્યુ હતુ તેનુ વારંવાર ચિંતન કરવા લાગ્યું। આ રીતે ચિંતન કરતા કરતા પૂર્વભવમા ભળેલા સામાયિક વગેરે ચૌદ પૂર્વજ્ઞાન તેને વિષયભૂત થઈ ગયા バ
-2
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंगारधर्मामृर्धापणी टीका० अ० १४ तेतलिपुत्रवधानचरितवर्णनम्
क्षशोपशमेन - उदिताना कर्मणा क्षयेण अनुदिताना कर्मणामुपशमेन = निरुद्धोदयत्वेन 'कम्मरयविकरणकर ' कर्मरजो विकरणकरम् ' अपुव्त्रकरण' अपूर्वकरणम् = अष्टम गुणस्थानम् प्रविष्टस्य तस्य केवल रज्ञानदर्शन समुत्पन्नम् ||०१२||
मूलम् - तएण तेतलिपुरे नयरे अहा संनिहिएहि वाणमंतहि देवेहि देवी हि देवदुंदुभीओ समाहयाओ, दसवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिव्वे देवगीयगधव्वनिनाए कए यावि होत्था । तपणं से कणगज्झए राया इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे एव वयासी - एव खलु तेतलिपुत्ते मए अवज्झाए मुंडे भत्ता पत्रइए त गच्छामि ण तेतलिपुत्तं अणगार वंदामि नम॑सामि वदित्ता नमसित्ता एयमट्ट विणएणं भुजो २ खामेमि, एव संपेहेइ, सपेहित्ता पहाए० चाउरगणीए
वरणिजाण कम्माण खओवसमेण कम्मरयवितरणकर अपुष्वकरण पविहस्स केवलवर नाणदसणे समुप्पण्णे ) इस प्रकार शुभ परिणामों से यावत् प्रसस्त अभ्यवसायों से विशुद्वमान लेश्याओं से, उसके ज्ञानावरणी आदि कर्मों का क्षयोपशम-उदित कर्मों का क्षय एव अनुदित कर्मो का उपशम हो गया सो इस के प्रभाव से वे कर्मरज को दूर करने वाले अष्टम अपूर्व करण नामके गुणस्थान में प्राप्त हो गये । याद में बाहरवे गुणस्थान के अत में और तेरहवे गुणस्थान के प्रारभ में उन्हें केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हो गया ॥ ० १२ ॥
(तएण तस्स तेतलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेण परिणामेण जान तयावरणिजाण कम्माण खओ समेण कम्मरयविकरणकर अपुव्नकरण पविस्स केवलबरनादसण समुपणे )
આ રીતે શુભ પિરણામેાથી, યાવત્ પ્રશસ્ત અધ્ય વસાચેાથી, વિશુદ્ધમાન લેશ્યાએથી તેના જ્ઞાનાવગ્ગીય વગેરે કર્મોના ક્ષયાપશમ-ઉદિત કર્માંના ક્ષય અને અનુદિત કર્માંના ઉપશમ થઈ ગયા એના પ્રભાવથી તેઓ કરજને વિકરણ કરનારા અષ્ટમ અપૂર્ણાંકરણ નામના ગુણુસ્થાનમા પ્રાપ્ત થઈ ગયા ત્યાર પછી ખારમા ગુણુસ્થાનના અતમા અને તેરમા ગુણુસ્થાનના પ્રારભમા તેમને દેવળજ્ઞાન અને કેવળ દર્શન ઉત્પન્ન થઈ ગયા ! સૂત્ર १२ " ।।
66
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
भाताधकथा वस्स ' अशोकवरपादपस्य अशोरक्षम्य 'अहे ' अधः परिणतशिलोपरि 'मुह निसनस्स' सुखनिपण्णस्य-मुखोपपिप्टम्य ' अणुचितमाणम्ग ' अनुचिन्तयत - पूर्वमचे कृतमध्ययनादिक स्मरत 'पुल्याहीयाड' पूधिीतानि-पूर्वमरे पठितानि सामायिकादीनि चतुर्दशपूर्वाणि स्वयमेव 'अभिसमन्नागय? ' अभिमगन्यागतानि ज्ञानविपयतया सजातानि । तत. खलु तस्य तेतलिपुत्रस्य अनगारस्य सुभेन परि णामेन 'जाव' यावत्-प्रशस्तैरध्ययसाया, मशस्वागिर्लयामि विशुद्धयमानाभिः 'तयावरणिज्जाण' तदापरणीयाना-मानापरणीयादीनां धर्मणा ' खयोवसमेण' उवागच्छित्ता असोगवरपायवरस अहे पुढनिसिलापट्टयसि सुहनिसनस्स अणुचित्तमाणस्स पुन्धाहीयाइ सामाइयमाझ्याइ चोदसपुन्वाह सयमेव अभिसमनागयाइ) इसलिये अब मुझे यही उचित है कि में पूर्व भव में पालिन किये पच महावतो को अपने आप धारण करलू । ऐसा उसने विचार किया। विचार करके फिर उमने अपने आपही महानतो को धारण कर लिया। धारण करके फिर वह जर्दा प्रमदवन नामका उद्यान था वहाँ चला गाया। वहा जाकर वह अशोक वृक्ष के नीचे रक्खे हुए पृधिवी शिलापटक पर पटाकार से परिणत शिला के ऊपर-आनन्द के साथ बैठ गया और पूर्व भव में कृत अध्ययन आदि का बार२ चिन्तवन करने लगा। इस तरह विचार करते२ उसके पूर्व भव में पठित सामायिक आदि चौदह पूर्व ज्ञान के विषय भृत बन गये। (तण्ण तस्स तेतलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेण परिणामेण जीव तयाउज्जाणे तेणेव उवागच्छद, उवागन्छित्ता असोगवरपायास्त अहे पुढविसिला पट्टयसि सुहनिसनस्स अणुचित्तेमाणस्स पुमाहीयाइ सामाइयमाइयाइ चोइस पुवाइ सयमेव अभिसमन्नागयाइ)
એટલા માટે હવે મને એજ એગ્ય લાગે છે કે પૂર્વ ભવમાં જે પાચ મહાવ્રતને મે ધારણ કરેલા તેને પિતાની મેળે જ ધારણ કરી લઉં આ રીતે તેણે વિચાર કર્યો વિચાર કર્યા બાદ તેણે પિતાની મેળે જ પાચ મહાવ્રતે ધારણ કરી લીધા ધારણ કર્યા પછી તે જ્યા પ્રમવન નામે ઉદ્યાન હત ત્યાં જતા રહ્યા ત્યાં જઈને તે અશક વૃક્ષની નીચે મૂકાયેલા પૃથિવી શિલા પદક ઉપર-પટ્ટાકાર રૂપથી પરિણત શિલા ઉપર--આનદ અનુભવતા બેસી ગ અને પૂર્વ ભવમાં જે કઈ અધ્યયન કર્યું હતુ તેનુ વાર વાર ચિંતન કરવા લાવો આ રીતે ચિંતન કરતા કરતા પૂર્વભવમાં ભણેલા સામાયિક વગેરે ચૌદ પૂર્વજ્ઞાન તેને વિષયભૂત થઈ ગયા
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
अमगारधर्मामृतयपिणी टी० अ० १४ सेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् दशार्द्धवर्णानि पञ्चपर्णाणि चित्तपुष्पाणि निपातितानिअर्पितानि, दिव्या मनो हरः गीतगवर्य निनादः कृतश्चापि अभवत् । ततः खलु स कनकध्वजो राजा 'इमीमे कहाए लद्धटे ममाणे ' यस्याः कथाया लयार्थः मया दुष्टचिन्ता विषयी कुनस्तेतलिपुनः अमात्य' प्रव्रज्य प्रमदपने केवलपरज्ञानदर्शनसम्पन्नो गत इति वृत्तान्ताभिज्ञः सन् एरामवादी-एव खलु तेतलिपुत्रो मया 'अर-झाए ' अपध्याता दुष्टचिन्तारिपयीकृतः सन् मुण्डो भूखा प्रबनितः 'त' तत्=तम्मात् कारणात् नमस्यित्वा 'एयमह' एतमर्थ-मया कृतमपमानरूपमर्थं विनयेन भूयो भूयः 'सामेमि' क्षमयामि, एव सप्रेक्षते सप्रेक्ष्य 'हाए ' स्नातः कृतस्नानः 'चाउ रगिणीए सेणाए ' चतुरङ्गिण्या सेनया साई यौव प्रमदान उद्यान यौव तेतलिहोत्या) या सनिहित आमन्न भृत हुए वाण, व्यन्तर देवो ने और दवियों ने आकाश में देवदुन्दुभिया यजाई। पचवर्ण के अचित्त कुसुमो की पुष्टि की । मनोहर गीत गवर्व निदान भी किया। (तण्ण से कण, गझए राया हमीसे कहाए लद्धटे समाणे एव वयामी) जब यह समाचार कनक वज राजा को ज्ञात हुआ मेरो दुष्ट विचारणा के विषय भूत बने हुए, तेतलिपुत्र अमात्य ने दीक्षित होकर प्रमदवन में केवल ज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर लिया है-इस प्रकार का वृत्तान्त जय उसे मालूम पड़ा-तब उसने अपने मन में विचार किया (एव खलु तेत लि पुत्ते मए अवज्झाए मुडे भवित्ता पवार, त गच्छामि ण तेतलिपुत्त अणगार वदामि नमसामि, वदित्ता नमसित्ता ण्यमट्ट विणण्ण भुज्जोर खामेमि एव सपेहेड--सपेहित्ता पहारा०चाउरगिणीए सेणाप जेणेव पमय वणे उज्जाणे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छद, उवागनिहा लेनलि
યથા સનિહિત આસન્નભૂત થયેલા વાણુથ તર દેવેએ અને દેવીએ એ આકાશમાં દેવદુમિઓ વગાડી, પાચ રગના અચિત્ત પુપિની વર્ષા કરી અને भनाई त निना (नि) पY ४यो (ताण से कणग ज्ञए राया इमोसे कहाए लद्धटे समाणे एर वयासी ) क्यारे मा सभायारोनी न કનક વજને થઈ કે મારી દુષ્ટ વિચ રણને લીધે તેતલિપુત્ર અમાત્ય દીક્ષિત થઈને અમદવનમાં કેવળજ્ઞાન અને કેવળ દન પ્રાપ્ત કરી લીધા છે મારે તેણે મનમાં વિચાર કર્યો કે
(एव खलु तेतलिपुत्ते मए अज्झाए मुडे भनित्ता पचहए त गच्छामिण तेनलिपुत्त अणगार पदामि नमसामि, वदित्ता नमसित्ता एयमट्ट विणएण भुज्जो २ खामि ए मपेहेद-सपेहित्ता हाए० चाउरगिणीए सेणाए जेणेव पमयाणे उजनाणे जेणे तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता तेतलिपुत्त अणगार
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
মাসামগঞ্জ सेणाए जेणेव पमयवणे उज्जाणे जेणेव तेतलिपुत्तं तेणव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तेतलिपुत्ते अणगार वदड नमंसह वंदित्ता नमसित्ता एयमट्ट विणएण भुज्जोर खामेइ, नच्चासन्ने जाव पज्जुवासई । तएणसे तेतलिपुत्ते अणगारे कणगञ्झयस्म रन्नो तीसे य महइमहालयाए०धम्म परिकहेइ। तर्पणं से कणगज्झए राया तेतलिपुत्तस्स केवलिस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म, पचाणुव्वडयं सत्तसिम्खावइयं सावगधम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता समणोवासए जाए जात्र अहिगये जीवाजीवे । तएणं तेतलिपुत्ते केवली वहणि वासाइ कैलिपरियाग पाउणित्ता जावं सिद्धे । एव खलु जंबू ।
समणेणं भगवयां महावीरेणं जाव सपत्तेणं चोदसमस्स fणायज्झयणस्स अयमहे पण्णत्ते तिमि ॥ सू० १३ ॥
- ॥चउद्दस अज्झयणं समतं ॥
टीका-'तएण' इत्यादि । तत खलु तेतलिपुरे नगरे 'अहासनिहिऐहि' यथा सनिहितैः आसन्न. ' वाणमतरेहि ' वाणव्यन्तरे. देवै देवीमिश्च देवदुन्दुभय समाहिता कोशे देवैः देवोभिश्च देवदुन्दुभयो वादिता इत्यर्थ , दंसद्धपण्णे कुसुमे निवाडिए' दर्शावणे कुसुम निपातितम् , अत्र जाति विवक्षायामेकवचनम् , , 'तएण तेतलिपुरे नयरे ' इत्यादि ॥
टीकार्थ- (तएण) इसके बाद (तेतलिपुरे नयरे तेतलिपुर नगरमें (अहासनिहिएहिं वाणमतरेहिं देवेहिं देवीहिय देवदुदुभीओममायाओं, दसवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिव्ये देवगीयगधचनिनाए करें यावि
'तएण तेतलिपुरे नयरे' इत्यादि21-(सएण ) त्यार पछी ( तेतलिपुरे नयरे ) aalaपुर नगरमा
हा संनिहिहिं वागमतरेहिं देवहिं देवीडिय देवदु दुभीभो समाहयात्री. दसवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिव्वे देवगौयगंधचनिनीए कए ।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधामृतपिणो टी० ० १४ सेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम दशार्द्धवानि-पञ्चवर्णाणि -चित्तपुष्पाणि निपातितानि वर्षितानि, दिव्या मनो हरः गीतगन्धर्ष निनादः कृतश्चापि अभवत् । ततः खलु स कनकध्वजो राजा 'इमीसे कहाए लखट्टे ममाणे ' यस्याः कथाया लल्यायः मया दुष्टचिन्ता विषयी कृतस्तेतलिपुत्र. अमात्यः प्रव्रज्य प्रमदरने केलवरतानदर्शनसम्पन्नो गत इति वृत्तान्ताभिज्ञः सन् एमयादीत्-एव खलु तेतलिपुत्रो मया 'अमज्झाए ' अपध्याना-दुष्टचिन्तामिपयीकृतः सन् मुण्डो भूखा पत्र जितः 'त' तत्-तम्मान कारणात् नमस्यित्वा 'एयमह' एतमर्थ-मया कृतमपमानरूपमर्थ विनयेन भूयो भूयः 'सामेमि' क्षमयामि, एव सप्रेक्षते सप्रेक्ष्य ' हाए ' स्नातः कृतस्नान. 'चाउरगिणीए सेणाए ' चतुरभिण्या सेनया साई यौव प्रमदान उद्यान यौव तेतलिहोत्या) यथा सनिहित आसन्न भृत हुए वाण, व्यन्तर देवो ने और दवियों ने आकाश में देवदुन्दुभियां बजाई। पचवर्ण के अचित्त कुसुमो की वृष्टि की। मनोहर गीत गधर्व निदान भी किया। (तण्ण से कण गज्झए राया इमीसे कहा लढे समाणे एव पयामी) जर यह समाचार कनक वज राजा को ज्ञात हुआ मेरो दुष्ट विचारणा के विषय भूत बने हुए, तेतलिपुत्र अमात्य ने दीक्षित होकर प्रमदवन में केवल ज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर लिया है-इस प्रकार का वृत्तान्त जप उसे मालूम पड़ा-तब उसने अपने मन में विचार किया (एवं खलु तेत लि पुत्ते मए अवज्झाए मुडे भवित्ता पन्वटप, त गच्चमि ण तेतलिपुत्त अणगार वदामि नमसामि, वदित्ता नमंसित्ता एयम विणण्ण भुज्जोर खामेमि एव सपेहेड-सपेहिता ण्डागचाउरगिणीए सेणाए जेणेव पमय वणे उज्जाणे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छड, उवागविता तेनलि
યથા સનિહિત આસન્નભૂત થયેલા વાણ, તર દેએ અને દેવીએ એ આકાશમાં દેવદ દમ વગાડી, પાચ રગના અચિત્ત પુની વર્ષા કરી અન भना त ध निना (नि) ५ - (तएण से कणगए राया इमोसे कहाए लद्धटे समाणे एष वयासी ) यारे मा समायानी तसत કનક વજને થઈ કે મારી દુષ્ટ વિચ રણાને લીધે તેતલિપુત્ર અમાત્યે દીક્ષિત થઈને અમદવનમાં કેવળજ્ઞાન અને કેવળ દન પ્રાપ્ત કરી લીધા છે ત્યારે તેણે મનમાં વિચાર કર્યો કે . (एव खलु तेतलिपुत्ते मए अवज्झाए मुडे भनित्ता पबदए त गच्छामिण तेनलिपुत्त अणगार वदामि नमसामि, वदित्ता नमसित्ता एयमट्ट विणएण भुज्जो २ खामेमि ए मपेहेट-सपेहिता हाए० चाउरगिणीए सेणाए जेणेव पमयाणे उजाणे नेणे तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेतलिपुत्त अशगार
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
६
पुत्रोऽनगारस्तत्रीय उपागच्छति, उपागत्य तेतरिपुत्रमनगार न्दते नमस्यति, वन्दिता नमस्पिश्या एामर्थ=सतापरावळण विनयेनभूयो भूयः क्षमयति= क्षर्मा कास्यति, तथा 'नच्चासन्ने० ' नात्यामन्ने नातिदूरे यात् पर्युपास्ते= सेर्वा करोति । ततः खलु म तेतलिपुत्रोऽनगारः कनकाय राजे तहाच पुत्त अणगार चदइ, नममह, चदित्ता नममित्ता मग्रट्ट विणण भुज्जो २ खामेह नच्चामन्ने जाव पज्जुनाम ) मैंने तेनलिपुत्र को अपनी दुष्ट चिन्ता का विषयभूत बनाया है सो वह मुद्रित होकर दीक्षित हो गया है । इसलिये में अब उनके पास जाऊँ और उन तेतलिपुत्र अनगार को वदना करूँ - नमस्कार करूँ । वदना नमस्कार कर में अपने द्वारा किये अपमान रूप अपराधकी पढे विनय के साथ पार२ उनसे क्षमा मागूइस प्रकार ज्योही उसने विचार किया कि उसी समय वह उठा और स्नान कि बार में अपनी चतुरगीनी सेना के साथ जहा प्रमदवन था - उसमें जहा तेतलिपुत्र अनगार विराजमान थे वहा पहुँचा वहाँ पहुँच कर उसने तेतलिपुत्र अनगार से वदना की नमस्कार किया । वदना नमस्कार करके फिर अपने द्वारा कृन अपमान रूप अपराध की बडे विनय के माथ बार २ उनसे क्षमा कराई और समुचित स्थान पर बैठ कर उनकी सेवा सुश्रूषा की (तरण से तेन लिपुत्ते अणगारे कणगज्झ वद, नमम, दित्ता नमसित्ता एगमट्ठ विगएण भुज्झो २ खामेइ नच्चासन्ने जाव पज्जुवामइ )
છે
વિષયભૂત ( લક્ષ્ય ) એટલા માટે હવે નમસ્કાર કરૂ વદના
તેતલિપુત્ર અમાત્યને મે પેાતાની દુષ્ટ ચિંતાના ખનાવ્યા છે તેથી જ તે મુક્તિ થઈને દીક્ષિત થઈ ગયે હું તેની પાસે જાઉં અને તેનેિપુત્ર અનગારને વદન કરૂં અને નમસ્કાર કરીને હુ મારા વડે થઈ ગયેલા અ માન રૂપ અપગધ બદલ બહું જ નમ્રપણે તેમની પાસેથી ક્ષમા યાચના કરૂ આ રીતે વિચાર થતાની સાથે તરત જ તે ઊભેટ થયા અને સ્નાન કર્યું ત્યાર પછી પોતાની ચતુર ગિણી સેનાને સાથે જ્યા પ્રમદવન હતુ અને તેમા પણ યતેતલિપુત્ર અનગાર વિરાજમાન હતા ત્યા પહેચ્યા તા પહેચીને તેણે તૈતલિપુત્ર અનગારને વદના કરી અને નમસ્કાર કર્યાંવના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેના વડે થઈ ગયેલા અપમાન રૂપ અપરાધની બહુ જ નમ્રપÒ ક્ષમા માગી અને ત્યાર પછી તેણે ઉચિત સ્થાન ઉપર બેસીને તેમની સેવા તેમજ સુશ્રૂષા કરી
(तरण से तेतलिपुत्ते अणगारे कणगज्झयस्स रण्गा वीसे य महइ महाल याए० धम्म परिकर )
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतयपिणी टो० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् 'महइमहालयाए० ' महातिमहत्या परिपदि धर्म ‘परिरहेड' परिकथयतिउपदिशति । ततः ग्वलु स स्ना पनो राजा तेतलिपुत्रस्य केवटिनोऽन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य पञ्चाणुवतिक सप्तशिक्षागतिक टत्येव द्वादश विव ानकधर्म प्रतिपघते, मतिपय श्रमणोपासको जातः । कीदृश ?-अभिगत जीवा-जीवा परिज्ञातयस्स रपणो तीसे य मातमहाल पाप धम्म परिकहेइ ) इसके बाद उन तेतलिपुत्र अनगार केवली ने कनस्वजराजा को उपस्थित परिपद को विशाल धर्म का उपदेश दिया-(तएण से कणज्झमण राया तेतलिपु तस्स केवरिस्स अतिए यम्म सोच्चा णिसम्म पचाणुव्वय मत्तसिक्खावइय सावगवम्म पटिवजा परिवजित्ता स्मणोवासए जाए जोव अहिगयजीवाजीवे | ताण तेतलिपुत्ते केवली पट्टणि वासाइ केवलिपरियाग पाउणित्ता जाव सिद्धे । एव ग्वल जन् । समणेण भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेण चोदसमस्स णाय अयणरस अयमढे पण्णत्ते त्ति वेमि) उपदेश सुनने के बाद कनकावज राजाने तेतरि पुत्र केलि के समीपश्रुनचारित्ररूप धर्म के प्रभाव से प्रेरित होकर और उस श्रुन धर्म का अच्छी तरह हृद्य से विचार कर पाच अणुव्रत एव सात शिक्षा रूप श्रावक धर्म धारण कर लिया। धारण करके वे श्रमणोपासक बन गये-यावत् जीव और अजीव तत्त्व का क्या स्वरूप है इसके भी वे ज्ञाता रो गये। बाद में तेतरि पुत्र केवलीने अनेक वर्षा तक केवलि
ત્યાર પછી તે તેતલિપુત્ર અનગાર કેવળીએ કનકધ્વજ રાજાને તેમજ ઉપસ્થિત પરિષદને સવિસ્તર ધર્મ વિષે ઉપદેશ આપ્યો
(तएण से वणगज्झए राया तेतलिपुत्तस्म केवलिस्स अतिए धम्म सोच्चा णिसम्म पचाणुव्वडय सत्तसिक्खावश्य सावग सम्म पडिविज्जड पडि विसज्जित्ता समणोवासए जाए जाव अहिगयजीवाजीवे । तएण तेतलिपुत्ते केलि वहूणि वासाइ केलिपरियाग पाउणित्ता जाय सिद्धे । एव खलु जवू । समणेण भगवया महावीरेण नार सपत्तेण चोदसमस्स णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते तिबेमि!)
ઉપદેરા સાભળીને કનડmજ રાજાએ તેતલિપુત્ર કવળના થતચારિત્રરૂપ ધર્મના પ્રભાવથી પ્રેરાઈને તે શ્રતચારિત્ર રૂપ ધર્મ વિષે મનમાં સારી રીતે વિચાર કરીને તેમની પાસેથી પાચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષારૂપ શ્રાવકધમ ધારણ કરી લીધા ધારણ કરીને તેઓ શ્રમણોપાસક થઈ ગયા અને યાવત્ જીવ તેમજ અજીવતત્વનું સ્વરૂપ શું છે ? તેનું પણ તેઓને જ્ઞાન થઈ ગયુ ત્યાર પછી તેતલિપુત્ર કેવળીએ ઘણું વર્ષો સુધી કેવળી પર્યાયનું પાલન કર્યું અને આમ તેઓએ યાવત સિદ્ધપદ
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
সােথ पुत्रोऽनगारस्तीय उपागच्छति, उपागत्य तेतरित्रमनगार इन्दने नमस्पति, पन्दिता नमस्यिमा एमय प्रतापरावलक्षण नियनभूयो भूय समयतिक्षमा कारयति, तथा 'नच्चासन्ने० 'नात्यासन्ने नातिरे यारत् पर्युपास्तेसेवा करोति । ततः खलु म तेतलिपुत्रोऽनगारः कनकपनाय राज्ञे तस्या च पुत्त अणगार वदड, नमसइ, वदित्ता नमित्ता पमयट्ट विणण भुज्जो २ खामेइ नच्चामन्ने जाय पज्जुवामह ) मैंने तेतरि पुत्र को अपनी दुष्ट चिन्ता का विपयभूत बनाया है-सो वह मुहित होकर दीक्षित हो गया है। इमलिये में अब उसके पास जाऊँ और उन तेतलिपुत्र अनगार को घदना करूँ-नमस्कार करूँ। वदना नमस्कार कर मैं अपने द्वारा किये अपमान रूप अपराधकी पडे विनय के माय पार२ उनसे क्षमा मागूइस प्रकार ज्योही उसने विचार किया-कि उसी समय पर उठा ओर स्नान किया बाद में अपनी चतुरगीनी सेना के साथ जहा प्रमदयन था -उसमें जहा तेतलिपुत्र अनगार विराजमान ये वहा पहुँचा-वहाँ पहुँच कर उसने तेतलिपुत्र अनगार को वदना की नमस्कार किया। वदना नमस्कार करके फिर अपने द्वारा कुन अपमान रूप अपराध की बडे विनय के माथ बार २ उनसे क्षमा कराई और समुचित स्थान पर बैठ कर उनकी सेवा सुश्रूषा की (ताण से तेतलिपुत्ते अणगारे कणगा वदइ, नममइ, वदित्ता नमसित्ता एगमह विगएण भुज्झो २ खामेइ नच्चासन्ने जाव पज्जुसइ)
તેતલિપુત્ર અમાત્યને મે પિતાની દુષ્ટ ચિતાને વિયભૂત (લય) બનાવ્યા છે તેથી જ તે મુનિ થઈને દીક્ષિત થઈ ગયે છે એટલા માટે હવે હું તેની પાસે જાઉં અને તેતલિપુત્ર અનગારને વદન કરૂ નમસ્કાર કરૂં વદના અને નમસ્કાર કરીને હું મારા વડે થઈ ગયેલા આ માન રૂપ અપરાધ બદલ બહુ જ નમ્રપણે તેમની પાસેથી ક્ષમા યાચના કરૂ આ રીતે વિચાર થતાની સાથે તરત જ તે ઊભો થયો અને સ્નાન કર્યું ત્યાર પછી પિતાની ચતુર ગિણી સેનાને સાથે જ્યા પ્રમદવન હતુ અને તેમાં પણ જય, તેતલિપુત્ર અનગાર વિરાજમાન હતા ત્યા પહેઓ ત્યાં પહોચીને તેણે તેતલિપુત્ર અનગારને વદના કરી અને નમસ્કાર કર્યા વદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેના વડે થઈ ગયેલા અપમાન રૂપ અપરાધની બહુ જ નમ્રપણે ક્ષમા માગી અને ત્યાર પછી તેણે ઉચિત સ્થાન ઉપર બેસીને તેમની સેવા તેમજ સુશ્રુષા કરી
(तरण से तेतलिपुत्ते अणगारे कणगज्झयस्स रगा तीसे य महइ महाल याए० धम्म परिकहेइ)
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
'
॥ अथ पञ्चदशमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ .
गत चतुर्दशमध्ययन सम्मति पञ्चदशमारभ्यते, पूर्वा ययनेऽपमानाद् विपयत्यागः मदर्शितः, अत्र तु स जिनोपदेशाद् भवतीति प्रतिपादयिप्यतेऽतस्तस्य सद्भावेऽर्थमाप्तिः, असदभावेत्वर्थमाप्तिर्भवतीत्येव पूर्वेण सम्बन्धः तत्रेदमादिसूनम् -' जइण भते ' इत्यादि ।
मूलम् - जइणं भते । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेणं चोदसमस्स नायज्झणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते पन्नारसमस्स णं भंते णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेण जाव संपत्तेण के अट्टे पन्नत्ते १, एवं खलु जंबू । तेण कालेणं तेणं समएणं चपा नाम नयरी होत्था, पुन्नभद्दे चेइए जियसत्तू राया । तत्थ ण चपाए नयरीए धण्णे णामं सत्यवाहे होत्था अड्ढे जाव अपरिभूए । तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नाम नयरी होत्था,
-: नन्दिफल नामका पन्द्रहवा अध्यायन प्रार -:
चौदहवाँ अध्ययन समाप्त हो चुका अब पन्द्रहवा अध्ययन प्रारंभ होता है। पूर्व अध्ययन में तेतलि प्रधान के आख्यान द्वारा अपमान से भी विषयों का त्याग कर दिया जाता है यह बात समझाई गई है । इस अध्ययन में यह विषय त्याग जिनके उपदेश से होता है यह कहा जावेगा । इस लिये उसके सद्भाव में अर्थ प्राप्ति और असद्भाव में अनर्थ प्राप्ति होती है इस तरह से पूर्व अ ययन के साथ इसका सबन्ध घन जाता है. - जइण भते ! समणेण इत्यादि ॥
નદિફળ નામે પદરમું અધ્યયન પ્રાર ભ
ચૌદમુ અધ્યયન પુરૂ થયુ છે હવે પદરમુ અધ્યયન શરૂ થાય છે પહેલાના અધ્યયનમા તૈતલિપ્રધાનના આખ્યાન વડે એ વાત સમજાવવામા આવી છે કે અપમાનથી પશુ ત્રિયાને યાગ કરવામા આવે છે આ અધ્યયનમાં આ વિષય ત્યાગ જેમના ઉપદેશાથી થાય છે તે વિષે કહેવામા આવશે. એટલા માટે તેના સદ્ભાવમા અર્થ પ્રાપ્ત અને અમદ્ભવમા અનČ પ્રાપ્તિ હોય છે, આ રીતે પૂર્વ અધ્યયનની સાથે આના સબંધ સમજી નાકાય છે
टीडार्थ - 'जइण भवे ! समणेण' इत्यादि ।
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
$4
ज्ञातार्थमेकचा
सकलजी जीवताऽपि जातः । ततः खलु तेतलिपुत्रः केवली बहूनि वर्षाणि केवलपर्याय पालयित्वा यावत् सिद्ध =मोक्ष गन
सुधर्मास्वामी माह एवं खलु हे जम्मूः । श्रमणेन भगवता महारीरेण चतुर्दशस्य ज्ञाताध्ययनस्य 'अयमद्वे' अयमर्थः पूर्वोक्तो भार माप्त =प्रपित, 'त्ति बेमि' इवि ब्रवीमि = भगवत्समीपे यथा श्रुत तथा त्वा प्रतिकथयामि । एतेन अध्ययनेन इदमायात यत् प्राणिनो यावद् दु खं मानभ्रश च न मानुनन्वि ताप बहुश प्रचोधिता अपि धर्मे न स्त्रीकुर्वन्ति, यथा तेतलिपुनः ॥ ०१३ ॥
इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-मसिद्धचकपञ्चदशभापाकलित कलितकलापालापक-मविशुद्धगयपद्यनेकग्रन्यनिर्मापक-पादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छ त्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराज गुरु-पालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिनाकर पूज्यश्री-घासीलाछविविरचिताया ' ज्ञाताधर्मकथा ' सूनस्यानगारधर्मामृतव पिंण्याख्याया व्याख्यायां चतुर्दशमभ्ययन सपूर्णम् ||१४||
पर्याय का पालन कर यावत् सिद्ध पद प्राप्त कर लिया। सुधर्मास्वामी करते हैं - हे जबू ! श्रमण भगवान महावीर ने इस चौदहवे ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से भाव अर्थ प्ररूपित किया है । सो जैसा मैंने उन भगवान के समीप में सुना है यह वैसा ही तुमसे कहा है । इम अध्य धन से हमें यह ज्ञान हो जाता है कि समार में तेतलिपुत्र की तरह ऐसे भी प्राणी हैं कि वे जब तक दुख और अपमान को नहीं पालते हैं तब तक अनेक बार प्रतियोगित करने पर भी धर्म को स्वीकार नहीं करते हैं । सू० १३ ॥
श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथाङ्गमूत्र " की अनगारधर्मामृनर्वार्षिणी व्याख्याका चौदवा अध्ययन समाप्त ॥ १४ ॥
મેળવી લીધુ સુધર્મા સ્વામી કહે છે કે હું જ ભૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ ચૌદમા જ્ઞાતાધ્યયના પૂર્વોક્ત રૂપથી ભાવ-અનિરૂપિન કર્યાં છે જેવા અથ મૈં તેઓશ્રી પાસેથી સાભ્રત્યેા છે તેવાજ તમને કહ્યો છે. આ અયનથી અમને આ જાતનું જ્ઞાન થાય છે કે સ સરમા તેતલિપુત્રની જેમ એવા પણ પ્રાણી આ છે કે તેઓ જયા સુધી દુખી અને અપમાનિત થતા નથી ત્યા સુધી ઘણા વખત પ્રતિમાષિત કરવા છતા ધમ ને સ્વીકારતા નથી ।। સૂત્ર ૧૩૦ || મી જૈનાચાય ઘાસીવાલજી મહારાજ કૃતજ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મોંમૃતવર્ષિણી व्याभ्यानु यौधभु अध्ययन समाप्त ॥ १४ ॥
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
܂
ܐܘܕ
M
E
मा० १५ नदिफलस्वरूपनिरूपणम् ऽर्थः प्राप्त : सुधर्मस्वामी कथयति-एवं खलु हे जम्मूः ! ये चम्पा नाम नगर्दासीत् । तत्र पूर्णभद्र चैत्य जितशत्रू 3 चम्पाया नगर्या बन्यो नाम सार्थवाह आसीत् । स तो यापद् अपरिभूतः मभूतशक्तिशालीत्यर्थः । तस्या खल रस्त्ये दिग्भागे अहिच्छत्रा नाम नगर्यासीत् । सा कीदृशी?मेद्धा' ऋद्धस्तिमितसमृद्धा, तत्र श्रद्धा-नभः स्पशिबहु1 = स्वपरचक्रभयरहिता, समृद्धा धनधान्यादि परिपूर्णा, परी वर्णनपाठोऽवाच्य , स तु ओपपातिम्मूत्रादवसेयः। f नगर्या कनककेतुर्नाम रानाऽऽसीत् । 'महया वण्णओं' । ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ निरूपित किया है। पण कालेण तेण सम्राण चपानाम नयरी होत्था)
मी के प्रश्न के समा पान निमित्त श्री सुधर्मा स्वामी क जबू! सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है“स समय में चंपा नाम की नगरी थी (पुनभद्दे चेहए
तत्य ण चपाए नपरीए धण्णे नामे सत्यवाहे होत्था भूण) पूर्णभद्र नाम का उसमें उद्यान था। जितशत्रु ममें रहता था। उसी चपा नगरी में धन्य नामका सार्थ
या। यह जन धन धान्यादि सपन्न था। एव लोकमान्य मी वित्र
ण चपाए नयरीए उत्तर पुरथिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता इस अ स्था, रिद्वत्थिनिय समिद्धा वन्नओ-तत्यण अहिच्छत्ताए जावेगा जबू! तेण कालेण तेण समएण चपा नाम नयरी होत्था) अनर्थ
જ બૂસ્વામીના પ્રશ્નના સમાધાન માટે શ્રી સુધર્મા સ્વામી पन કે હે જ બૂ સાભળો, તમારા પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે
અને તે સમયે ચપા નામે નગરી હતી दए जियसत्तू राया, तत्थ ण चपाए नयरीए धण्णे नामे सत्थवाडे 1 अपरिभूए)
| | ભદ્ર નામે ઉઘાન હતુ તેમાં જિતશત્રુ નામે રાજા રહે આવી
- હ પણ તે ચપા નગરીમાં જ રહેતા હતા તે જન, આ !
હત, તેમજ લોક માન્ય પણ હતો માટે
उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नाम नयरी न्नओ-तत्थणं अहिच्छत्ताए नयरीए कणगळेउ
માં
૨
:
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
Dece
१००
arधमकथा रिद्धस्थिमियसमिद्धा वनओ । तत्थ णं अहिच्छत्ताए नय. रीए कणगकेऊ नाम राया होत्था, महया बन्नओ। तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालस. मयसि इमेयारूचे अन्झस्थिए चिंतिए पत्थिए कप्पिए मणो-, गए सकप्पे समुप्पज्जित्थासेय खलु मम विपुल पणियभंड. मायाए अहिच्छत्त नगरि वाणिज्जाए गमित्तए, एव संपेहेइ सपेहित्ता गणिमच४ चउव्विह भड गेण्हइ, सगडीसागड सज्जेइ सजित्ता सगडीसागड भरेति२ कोडुचियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एव वयासो-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया। चंपाए नगरीए सिघाडग जाव पहेसु घोसणं घोसेह ॥ सू० १॥
टीका-जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महा चीरेण यावत् सिद्धिगतिमानधेय स्थान सम्प्राप्तेन चतुर्दशस्य ज्ञाताध्ययनस्य अय मर्थ =पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्त' तर्हि पञ्चदशस्य ज्ञाताभ्यनस्य श्रमणेन भगवता महा
टीकॉर्थ-जबूस्वामी पूछते हैं कि (जइण भते । समणेण भगवया महा वीरेण जाव सपत्ते ण चोद्दसमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते पन्नरसमस्सण भते जायज्ञयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जावसपत्ते 'ण के अहे पण्णत्ते) भदत ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने कि जो मोक्षप्राप्त कर चुके है चौदहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रतिपादित किया है-सो हे भदत! मुक्ति प्राप्त हुए उन्ही श्रमण भगवान
જબૂ સ્વામી પૂછે છે કે– (जइण मते ! समणेण भगवया महावीरेण जार सपत्तेण चोदसमस्स नायझयणस्स अयमढे पणत्ते पन्नरसमस्स ण भते णायज्झयणस्त समणेण भगक्या महावीरेण जाव सपत्तेण के अटे पण्णत्ते)
' હે ભદત 'જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેઓ મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી ચૂક્યા છે-ચૌદમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપથી અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે તે હું ભદત! મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલા તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પદરમાં જ્ઞાતાધ્યયનને શો અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १५ नदिफलस्वरूपनिरूपणम्
१०३
1
1
वीरेण यावत्समाप्तेनकोऽर्थः महत सुधर्मस्वामी कथयति एवं खलु हे जम्मूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगर्नासीत् । तत्र पूर्णभद्र चैत्य जितशत्रू राजा चाभवत् । तत्र खलु चम्पाया नगयी वन्यो नाम सार्थवाह आसीत् । स कीदृश इत्याह- आढयो यावद अपरिभूतः मभूतशक्तिशालीत्यर्थः । तस्या खल चम्पाया नगर्या उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे अहिच्छत्रा नाम नगर्यासीत् । सा कीदृशी ? - स्याह - रिद्धत्थिमियममिद्धा ' मुद्धस्तिमितसमृद्धा, तत्र श्रद्धा = नभः स्पशिबहुमासादयुक्ता, स्तिमिता = स्वपरचक्रभयरहिता, समृद्धा = धनधान्यादि परिपूर्णा, 'वण्णओ ' वर्णकः = नगरी वर्णनपाठोपाच्य स तु औपपातित्रादवसेयः । तत्र खलु अहिच्छत्रा नगर्यां कनककेतुर्नाम राजाऽऽसीत् । ' महया वण्णओं ' महावीर ने पन्द्रहवें ज्ञानाध्ययन का क्या अर्थ निरूपित किया है । ( एवं खलु जबू ! तेण कालेण तेण समण्ण चपानाम नयरी होत्या) इस प्रकार जब स्वामी के प्रश्न के समाधान निमित्त श्री सुधर्मा स्वामी उन से कहते हैं कि जबू । सुनो- तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार हैउस काल और उस समय में चंपा नाम की नगरी थी ( पुन्नभद्दे चेहए जियसत्तू राधा, तत्य ण चपाए नयरीए धण्णे नामे सत्यवाहे स्था अड्डे जाव अपरिभू) पूर्णभद्र नाम का उसमें उद्यान था । जितशत्रु नामका राजा उसमें रहता था । उसी चपा नगरी में धन्य नामका सार्थवाह भी रहता था । यह जन धन धान्यादि सपन्न था। एव लोकमान्य भी था । (तीसे ण चपाए नगरीए उत्तर पुरत्विमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नामं नयरी होत्या, रिद्धत्थिमिय समिद्धा वन्नओ-तत्यण अहिच्छत्ताए
( एव खलु जबू ! तेण कालेन तेण समएण चपा नाम नयरी होत्था )
આ રીતે જ વ્યૂ સ્વામીના પ્રશ્નના સમાધાન માટે શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હું જ ઝૂ ! સાભળેા, તમારા પ્રશ્નને! જવાબ આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે ચપા નામે નગરી હતી
(पुन्नभ चेइए जियसत्तू राया, तत्य ण चपाए नयरीए धण्णे नामे सत्थवाहे होत्या अड्डे जाव अपरिभूए )
તેમા પૂર્ણ ભદ્ર નામે ાન હતુ તેમા જિતશત્રુ નામે રાજા રહેતા હતા. ધન્ય નામે એક સાવાહ પણ તે ચપા નગરીમા જ રહેતા હતા તે જન, ધન, ધાન્ય, વગેરેથી સ પન્ન હતેા, તેમજ લેક માન્ય પણ હતા
( तीसेण चपाए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नाम नयरी हत्था, रिद्धत्थिमिय समिद्धा बन्नओ-तत्थण अहिच्छत्ताए नयरीए कणगक्रेड 'नाम राया होत्था महया वन्नओ )
1
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०५
ज्ञाताधर्मकथाह
"
महो० वर्णक = स च ' महयादिम तमतमलयम हरम हिंदसारे ' महाहिमवन्महाम लयमन्दर महेन्द्र सार, इत्यादिरूपोऽत्र विज्ञेयः । तस्य धन्यस्य सार्थवाहस्य अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररान कालसमये - रात्रे पश्चिमे महरे अयमेतदूप आध्यात्मिकचिन्तितः प्रार्थितः कल्पितो मनोगतः सकल्पः = विचारः समुदपयत-श्रेयः = उचित खलु मम त्रिपुल=मचुर 'पणियभर्ड' मणितमाण्ड= गणिमादिक्रय विक्रयवस्तुभाण्डम् 'आयाए ' आदाय = गृहीत्वा अहिच्छत्रा नगरीं वाणिज्याय गन्तुम्, गणिमादि पण्यवस्तुजात गृहीत्वा व्यापारायाहिच्छना नगयीं मया गन्तव्यमिति भावः । एष ' संपेहे ' सप्रेक्षते= विचारयति, समक्ष्य गणिम ४ - गणिम धरिम मेय परिछेध चेत्येवरूप चतर्निध भाण्ड = पण्यवस्तुजात गृहाति, गृहीला 'सगढीसागड' शकटी नघरीए कणगकेऊ नाम राया होत्या, महया वन्नओ) उस चपा नगरी के ईशान कोण में अहिच्छत्रा नामकी नगरी थी । यह नभस्तलस्पर्शी प्रासादों से युक्त स्वचक्र और परचक्र के भयसे रहित तथा धन धान्य आदि विभव से विशेष समृद्ध थी। नगरी के वर्णन का पाठ औपपा तिक सूत्र में जैसा नगरी का वर्णन किया गया है वैसा ही यहा जनना चाहिये । उस अहिच्छत्रा नगरी में कनककेतु नामका राजा रहना था । इस राजा के वर्णन में " मया हिमवतमहतमलयमदर महिंदसारे इत्यादिरूप पाठ यहा लगा लेना चाहिये । ( तस्स धन्नस्स सत्यवहस्स अन्नया कयाह पुव्वरन्तावरप्तकालममयसि इमेयाख्वे अज्झत्थिए चितिए पत्थिए, कप्पिए, मणोगए सकप्पे समुप्पजित्था - सेय खलु मम विउल पणियभडमायाए अहिच्छत्त नयरिं वाणिज्जाए गमित्तए, एव सपेहेर, सपेहित्ता गणिमच४ चउच्चिह भडे गेण्हइ, सगडी सागड सज्जेह म
"
તે ચપા નગરીના ઈશાન કેાણુમા અહિચ્છત્રા નામે નગરી હતી. આકાશને સ્પર્શીતા એવા ઊંચા પ્રાસાદાથી આ નગરી યુક્ત હતી તેમજ સ્વચક્ર અને પરચઢ ના ભયથી રહિત તથા ધન ધાન્ય વગેરે વૈભવથી આ નગરી સવિશેષ સમૃદ્ધ હતી ઔપાતિક સૂત્રમા નગરીના વિષે જેવુ વર્ણન કરવામા આવ્યુ છે તેવું જ અહીં પણ જાણી લેવુ જોઇએ તે અહિચ્છત્રા નગરીમા કનકકેતુ નામે રાજા रहेन। हतो, या रामना पनि भाटे ( मध्या हिमवत - महत - मलय- मदरमहिंदुसारे) वगेरे था। महीं समन्वो लेखे
(तस्स धन्नस्स सत्यबाहूस्स अन्नया क्याहू, पुव्यरत्तावरत्तकालसमयसि इमेयारूवे अज्झथिए चिनिए, पत्थिए कप्पिए, मणोगए सकप्पे समुज्जित्था - सेय खलु मम विल पणियभडमाया अहिच्छुत्त नयरिं वाणिज्जाए गमित्त एव सपेहेर, सपेदिचा गणिम च ४ चव्विह मढे गेहइ सगडीसा
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
रवि टी० अ० १५ नदिफलस्वरूपनिरूपणम
१०३
शाकट= लघुमहच्छक्टसमूह सज्जयति, मगुणी करोति सज्जयित्वा शकटीशाकट भरे वि, भृत्वा कम्पुरुषान् शब्दयति श्रद्दयति, आहूय एमवादीत् गच्छत खलु यूय हे देवानुमिया ! चम्पाया नगर्या 'सिंघाडगजानपदेसु ' शृङ्गाटकत्रिकचतुष्क चत्वरमहापयपयेपु घोषणाम् घोषयत ॥ मु० १ ॥
जित्ता सगडीमाग भरेह भरिता कोडुनियपुरिसे मदावेद, सदावित्ता एव वयासी- गच्छरण तुम्भे देवाणुपिया । चपाए नयरी सिंगाडग जाव पसु घोसण घोसेर) एक दिन की बात है कि उस धन्यसार्थवाह को रात्रि के पश्चिम प्रहर में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक चिन्तित, प्रार्थित कल्पित मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं गणिमादि रूप विपुल, पण्य वस्तु को लेकर व्यापार के लिये जो अहिच्छत्रा नगरी में जाऊँ तो बहुत अच्छी बात है । इस प्रकार उसने विचार किया - ऐमा विचार करके उसने गणिम, धाग्मि, मेय और परिच्छेद्य रूप चार प्रकार का भाण्ड लिया । भाण्ड लेकर फिर उसने गाड़ी और गाड़ों को तैयार करवाया जब वे गाडी गोड़े तैयार हो चुके तब उसने उम पण्य (विक्रेय बस्तु) को उनमें भरा-भर कर फिर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उसने ऐसा कहा - हे देवानुप्रियों । तुम लोग जाओऔर चपा नगरी के श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ इन सब मार्गों में घोषणा करो। क्या घोषणा करना - यह बान नीचे के सूत्र से सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं । मृ० १ ॥
सगडीसागड भरेइ, भरिता कोडु वियपुरिसे सहावे सदावित्ता एव वयासी गच्छद्दण तुभे देवाणुपिया । चपाए नयरीए सिंघाडग जाव पहेसु घोसणं घोसेह) એક દિવસે તે ધન્ય સાવાર્હને રાત્રિના છેલા પહેારમા આ જાતના माध्यात्मि४, शितित, आर्थित, उस्थित, मनोगत सत्य उत्पन्न थयो } युष्ड પ્રમાણમા ગણિમ વગેરે વેચાણુની વસ્તુએ લઇને વેપાર ખેડવા માટે જે અહિચ્છત્રા નગરીમા જાઉ તા બહુ સારુ થાય આ રીતે તેણે વિચાર કર્યો આવે! વિચાર કરીને તેણે ગણિમ, ધરમ, મેય અને પરિચ્છે. રૂપ ચાર પ્રકારની વસ્તુએ વાસસ્થેામા ભરી ચાર જાતની વસ્તુએ વાસણૈામા ભરીને તેણે ગાડી તેમજ ગાડાઓને તૈયાર કરાવ્યા જ્યારે ગાડી અને ગાડાઓ તૈયાર થઈ ચૂકયા ત્યારે તેણે તે વેચાણુની વસ્તુઓને ગાડી અને ગાડાએમા મૂકી ત્યાર પછી તેણે પાતાના કૌટુમિક પુરુષોને ખેલાવ્યા અને ખેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કધુ કે હે દેવાનુંનિચે ! તમે જાએ, અને थ पा नगरीना श्रृगार, त्रि, ચતુષ્ટ, ચત્વર, મહે પથ આ બધા માર્ગોમા ઘાષણા કરી ઘાષણા કરતા જી કહેવું તે નીચેના સૂત્ર વડે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે " સૂત્ર ૧ LL
""
"
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
+
,
घोपणास्वरूपमा एव य' इत्यादि ।
मूलम् एव खलु देवाणुपिया | धण्णे सत्यनाहे विउलं पणिय मायाए इन्छइ अहिच्छत्त नयरिं वाणिजाए गमित्तए
+
त जो णं देवाशुप्पिया । चरए वा श्रीरिए वा चम्मसडिए
4
वा भिच्छुडे वा पडुरगे वा गोयमे गोव्वइए वा गिहिधम्मचितए वा अविरुद्ध विरुद्धमावगरत पडनिग्गथप्पभिइपासडत्थे वा गिहत्थे वा घण्णेण सत्यवाहेण सहिं अहिच्छत नगरि गच्छइ तस्स. पणं धपणे सत्यवाहे अच्छत्तगस्त छत्तर्ग' दलाइ अणुवाहणस्स उवाहणाओ दलयह अकुडियस्स कुडियं 'दलगइ अपत्थयणस्स पत्थयण दलयइ अपनखेवगस्स पक्खेव
oes अंतरावि से पडियस्स वा भग्गलुग्गस्स साहेज्ज' 'दयइ सुहसुहेण च पण अहिगन्छत्त सपावेइ तिक्हु दोच्चपि • तच्चपि' घोसेह घोसित्ता मम एयमाणत्तिय पच्चविणह,
h
J
वाताधर्मकथासूत्रे
तएणं ते कोडबिय पुरिसा जाब एव व्यासी- हदिसुणंतु भवतो
1
पान गरीवत्थव्वा बहवे चरगा य जाव पच्चपिणति ॥ सू०२ ॥
टीका - एव खलु हे देवानुमियाः ! धन्य' सार्थवाह विपुलान्पणितभाण्डान्
'आयाए' आदाय इच्छति अहिच्छत्रा नगरी ' वाणिज्जाए ' वाणिज्याय =
x
6
एव खलु देवाणुपिया ' इत्यादि ।
टीकार्थ - ( एव खलु देवाणुपिया ! धण्णे सत्थवाहे विल पणिय मायाए इच्छह' अहिच्छत्त नयरिं वाणिजाए गमित्तए) हे देवाणुप्रियो !
·
एव खलु देवाणुनिया इत्यादि ।
( एव खलु देवाणु पिया । घण्णे सत्यवाई विल पणिय मायाए इच्छ अहिच्छत्त नयरिं वाणिज्जाए गमित्तए )
दे
હૈ દેવાનુપ્રિયા ! તમે લોકો શ્રૃંગાટક વગેરે માર્ગોમા આ જાતની ઘેાષણા
1
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
- अनगारधर्मामृपिणी टीका अ० १५ नदीफलस्वरूपनिरूपणम्
१०५
व्यापाराय गन्तु तत् = तस्मात् य. खलु हे देवानुप्रिया ! कोऽपि धन्येन सार्थवाहेन सार्द्धमहिच्छना नगरी 'गच्छती' त्युचरेण सम्बन्धः कोऽमी, यस्तेन सार्द्धं गच्छेदित्याह - 'चरए ' इत्यादिना 'चरए ना' चरक = गृहस्थस्य गृहे निष्पन्नस्यौदनादे र्योऽग्रभागो दानार्थं पृथकृत्य स्थाप्यते तरय भिक्षावृत्त्याग्राहक, 'चीरिए वा ' चीरिकमार्ग पतितशटितची वर परिचारक', 'चम्मखडिए वा ' चर्मण्वण्डिकः चर्म धारक', 'भिच्छुडे ना 'भिक्षोण्ड =अन्यानीतभिक्षान्नभोजी, 'परगे वा ' पाण्डुराङ्गः = भस्म लिप्तशरीरः, 'गोयमे ना' गौतमः नृपमधिकृत्य कणभिक्षाग्राही, 'गोइए वा ' गोना = गोचर्यानुकारी यथा यथा गौ स्थानासनादिक्रिया करोति तथा तथा सोऽपि करोतीति भाग, ' गिहिधम्मत्रितए वा ' गृहिधर्मचिन्तक:= गृहिणो=गृहस्थस्य धर्मो गृहिधर्मस्त चिन्तयतीति तथा, 'गृहस्थधर्मएवश्रेयान् नान्यः ' उक्तञ्च
तुम लोग शृगाटक आदि मार्गो में खडे होकर इस प्रकार की घोषणा करना - कि धन्य सार्थवाह विपुल मात्रा मे पणित ( विक्रय वस्तु ) को -लेकर अहिच्छत्रा नगरी में व्यापार के लिये जाना चाहता है ( त जो ण देवाणुपिया | चरए वा चीरिए वा चम्मखडिए वा भिच्छुडे वा - परगे वा गोयमे गोन्डए वा गिरिधम्मचिंत वा अविरुद्ध विरुद्ध बुड्डू - सावगरत्तपडनिग्गथप्पभिडपासउत्थे वा गिहत्थे वा धण्णेण सत्थवा सद्वि अहिच्छन्तनयरिं गच्छइ तस्म ण धण्णे सत्यवाहे अच्छन्तछत्त दाइ ) इसलिये हे देवाणुप्रियो ' जो भी कोई धन्य सार्थ"बाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी जाना चाहता हो चाहे वह चरक हो "चीरिक हो, चर्मखडपारी हो, भिक्षोण्ड हो, पाण्डुरङ्ग शे, गौतम रो, गोत्रतिक हो, गृहस्थधर्म चिन्तक हो, अविरुद्व हो, विरुद्ध हो, वृद्ध
કરા કે ધન્ય સાવાર્હ પુષ્કર પ્રમાણમા પણિત ( વેચાણુની વસ્તુએ ) લઇને અહિચ્છત્રા નામે નગરીમા વેપાર ખેડવા માટે જવા ઈચ્છે છે
(त जो ण देवाणुपिया । चरए वा चीरिए वा चम्मखडिए वा भिन्छुडे वा पडुरंगे वा गोन्बइ वा गिहिवम्मर्चितए वा अनिन्द्ध विरुद्धबुडूसावगर तपड निग्गथ भिइ पासडत्ये वा हित्थे वा घण्णेण सत्यनाहेण सद्धिं अहिच्छत्त नयरिं गच्छछसण पणे सत्यवाहे अच्छत्तगस्स उत्तम दलाइ )
એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! ઇન્ય સાર્થવાહની સાથે જે કોઈ જવા ઈચ્છતા હાય-ભલે તે ચરક હાય, ચીરિક હાય, ચમ ખડ ધારી હોય, ભિક્ષેાડ होय, पाडुरग हाय, गौतम हेय, गोवति! होय, गृहस्थ धर्म थित होय,
का १४
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
हाताधर्मया
घोपणास्वरूपमाह-एप ग्यालु' इत्यादि । । मूलम्-एव खल देवाणुप्पिया | धपणे सत्यवाहे विउलं पणियं मायाए इच्छइ अहिच्छत्त नयरिं वाणिजाए गमित्तए त जो णं देवाणुप्पिया । चरए वा चीरिए वा चम्मसडिए वा भिच्छडे वा पंडुरंगे वा गोयमे गोव्वइए वा गिहिधम्मचिंतए वा अविरुद्ध विरुद्वयुद्धमावगरत्तपडनिग्गयप्पभिइपासंडत्थे वा गिहत्थे वा धण्णेण सत्थवाहेण सहि अहिच्छत्त नगरि गच्छइ तस्स. णं धणे सत्यवाहे अच्छत्तगस्स छत्तर्ग' दलाइ अणुवाहणस्स उवाहणाओ दलयइ अकुडियस्त कुडिय * दलाइ अपत्थयणस्त पत्थयण दलयइ अपक्खेवगस्तपरखेव दलयइ अतराऽविय से पडियस्त वा भग्गलुग्गस्स साहेज' दलयइ सुहसुहेण य ण अहिगन्छत्त सपावेइ तिक्टु दोच्चपि -तच्चपि घोसेह घोसित्ता मम एयमाणत्तिय पच्चपिणह, तएण ते कोडुबिय पुरिसा जाब एवं बयासी-हदिसुणतु भवतो चंपानगरीवत्थत्वा वहवे चरगाय जाव पच्चपिणति ॥सू०२॥ ' टीका-एव खलु हे देवानुपियाः धन्य' सार्थवाह विपुलान् पणितभाण्डान् 'आयाए ' आदाय इच्छति अहिच्छत्रा नगरी 'वाणिज्जाए' वाणिज्याय' ' एव खलु देवाणुप्पिया' इत्यादि ।
टीकार्थ-( एव खलु देवाणुप्पिया! धण्णे सत्यवाहे विउल पणियं मायाए इच्छइ'अहिच्छत्त नयरि वाणिजाए मित्तए ) हे देवाणुप्रियो ।
एवं खलु' देवाणुप्पिया इत्यादि । (एव खलु देवाणुपिया ! धणे सत्यवाहे विउल पणिय मायाए इच्छा अहिच्छत्त नयरिं वाणिज्जाए गमित्तए)
કે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેકે મૃગાટક વગેરે માર્ગોના આ જાની શેષણ
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
3
""अनगारधर्मामृतवपिणो टोका अ० १५ नदीफलस्वरूपनिरूपणम् १०५ व्यापाराय गन्तु तत्-तस्मात् यः खलु हे देशानुप्रिया ! कोऽपि धन्येन सार्थवाहेन सार्द्धमहिना नगरी 'गन्छतो' त्युतरेण सम्बन्धः, कोऽसौ, यस्तेन सार्द्ध गच्छे. दित्याह-'चरए' इत्यादिना 'चरए ना' चरक -गृहस्थस्य गृहे निष्पन्नस्यौदनादे 'योऽग्रभागो दानार्थ पृथत्य स्थापते तरय भिक्षात्याग्राहक , ' चीरिए वा' चीरिकमार्गपतितशटितपीपरपरिवारक', 'चम्मखडिए वा' चर्मग्वण्डिका धर्म धारक', 'भिच्छुडे या' भिक्षोण्ड =अन्यानीतभिक्षानभोजी, 'पटुरगे वा' पाण्डरागः भस्म लिप्तशरीरः, 'गोयमे पा' गौतमः कृपभमधिकृत्य कणभिक्षाग्राही, 'गोवइए वा ' गोत्रति का गोचर्यानुकारी यथा यथा गौः स्थानासनादिक्रियां करोति तथा तथा सोऽपि करोतीति भार, 'गिहिधम्मातिए वा' गृहिधर्मचिन्तका गृहिणो गृहस्वस्य धर्मो गृहिधर्मस्त चिन्तयतीति तया, 'गृहस्थधर्मएव'श्रेयान् नान्यः । उक्तत्र- तुम लोग शृगाटक आदि मार्गों में बडे होकर इस प्रकार की घोषणा
करना-कि धन्य सार्थवाह विपुल मात्रा में पणित (विक्रय वस्तु ) को - लेकर अहिच्छत्रा नगरी में व्यापार के लिये जाना चाहता है ( त जो
ग. देवाणुप्पिया ! चरए वा चीरिए वा चम्मखडिए वा भिच्छुडे वा - पहरगे वा गोयमे गोव्वइए वा गिरिधम्मचिंता वा अविरुद्धविरुद्ध बुद्ध
सावगरत्तपडनिग्गथप्पभिडपासउत्थे वा गिहत्थे वा चण्णेणं सत्थवाहण सद्धि अहिच्छत्त नयरिं गच्छह तस्मण धणे सत्थवाहे अच्छत्तगस्स छत्तग दलाइ ) इसलिये हे देवाणुप्रियो । जो भी कोई धन्य सार्थ“वाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी जाना चाहतो हो-चाहे वह चरक हो चीरिक हो, चर्मखडधारी हो, भिक्षोण्ड हो, पाण्डुरङ्ग हो, गौतम हो, गोव्रतिक हो, गृहम्धधर्म चिन्तक हो, अविरुद्ध हो, विरुद्ध हो, वृद्धકરો કે ધન્ય સાર્થવાહ પુષ્કર પ્રમાણમાં પણિત ( વેચાણની વસ્તુઓ ) લઈને અહિચ્છત્રા નામે નગરીમાં વેપાર ખેડવા માટે જવા ઈચ્છે છે (त जो ण देवाणुप्पिया' चरए वा चीरिए वा चम्मरबडिए वा भिन्छुडे व पडुरंगे वा गोव्यइए वा गिहिधम्मचिंतए वा अविरुद्धविरुद्धवुडसावगरतपडनिग्गथ प्पाभइ पासड़त्थे वा गिहत्थे वा धण्णेण सत्थवाहेण सद्धि अहिच्छत्त नयरिं गच्छावस्स ण ण्णे सत्यवाहे अन्उत्तगस्स छत्तग दलाइ)
એટલા માટે હે દેવાનપ્રિયે! ઇન્ય સાર્થવાહની સાથે જે કઈ જેવા ઈછતે હેય-ભલે તે ચરક હોય, ચીરિક હોય, ચર્મ ખ ડ ધારી હોય, ભિક્ષેડ હોય, પાડુંરગ હોય, ગૌતમ હે ર્યગેબ્રતિક હોય, ગૃહસ્થ ધર્મ ચિતક હોય,
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
पानाधण्या घोपणास्वरूपमाह-एर पलु' इत्यादि । । मूलम्-एव खल देवाणुप्पिया धपणे सत्यवाहे विउलं पणिय मायाए इच्छइ अहिच्छत्तं नयरिं वाणिजाए गमित्तए त जो णं देवाणुप्पिया । चरए वा चोरिए वा चम्मसंडिए वा भिच्छुडे वा पडुरगे वा गोयमे गोव्वइए वा गिहिधम्मचिंतए वा अविरुद्ध विरुवुद्धसागरत्तपडनिग्गथप्पभिइपासडत्थे वा गित्थे वा धण्णेणं सत्थवाहेण सहि अहिच्छत्त नगरि गच्छइ तस्स. णं धपणे सत्यवाहे अच्छत्तगस्स छत्तगं दलाइ अणुवाहणस्स उवाहणाओ दलयइ अकुडियस्त कुडिय दलगइ अपत्थयणस्त पत्थयण दलयइ अपक्लेवगस्त परखेव 'दलयइ अंतराऽविय से पडियस्स वा भग्गलग्गस्स साहेज्ज दलयइ सुहंसुहेण य णं अहिगन्छत्त सपावेइ तिक्हु दोच्चपि तंच्चपि घोसेह घोसित्ता मम एयमाणत्तिय पच्चप्पिणह, . तएणं ते कोडुबिय पुरिसा जाब एव बयासी-हदिसुणतु भवतो
चंपानगरीवत्थव्वा वहवे चरगा य जाव पच्चपिणति ॥सू०२॥ ' टीका-एव खलु हे देवानुपियाः धन्य सार्थवाह विपुलान पणितभाण्डान 'आयाए,' आदाय इच्छति अहिच्छता नगरी 'वाणिज्जाए' वाणिज्याय' ' एव खलु देवाणुप्पिया' इत्यादि ।
टीकार्थ-( एव खलु देवाणुपिया ! धणे सत्थवाहे विउल पणिय मायाए इच्छइ'अहिच्छत्त नयरि' वाणिजाए मित्तए ) हे देवाणुप्रियो । । एव खलु' देवाणुपिया इत्यादि ।
( एव खलु देवाणु पिया ! धण्णे सत्यवाहे विउल पणिय मायाए इच्छा अहिच्छत्त नार वाणिजाए गमित्तए)
હું દેવાનપ્રિયે! તમે લેકે શ્રગટક વગેરે માગૅમા આ જાતની ઘોષણા
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
माधर्मामृत टीका ० १५ नदिफलस्वरूपनिरूपणम्
२०७
अथवा
त्रुटिन हस्तपादाद्यत्रयवाय रुग्णाप = रोगाकान्वाय रोगग्रस्ताय वा 'साहेज्ज ' साहाय्यम् = औषधो
भग्गलुग्गस्स भग्नरुग्णाय भग्नाय -
=
पचारादि करणरूप ददाति तथा मुग्व - सुखेन : सुखपूर्वक चम् महिच्छत्रा नगरीं ' सपावेड समापयति=पमापयिष्यतीत्यर्थः । ' तिरहु ' इति कृत्वा मुच्चार्य द्वितीयमपि तृतीयमपि नार घोषयत, घोषयित्वा मम ' एय माणत्तिये ' एतामाक्षप्तिकाम् = एवद्रूपा ममाज्ञा ' पच्चपिगह ' प्रत्यर्पयत = मदुक्ता घोषणा पुन निवेदयतेत्यर्थः । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः 'तथास्तुसुरण अहिच्छन्त सपावेह, त्ति कट्ट दोच्चपि तच्चपि घोसेह) पद प्राण (जूना) रहित है तो जूना (पदत्राण ) देगा जलपात्र रहित होगा उसे जलपान देगा, कलेवा (भोजन) रहित है तो कलेवा (भोजन) देगा, शम्प लपाथेय पूरक द्रव्यसे रहित है तो उसे शम्पल पाथेय-भाता पूरक द्रव्य देगा, अर्थात् चलते२ बीच मार्गमे ही जिसका कलेवा (भोजन) समाप्त हो जावेगा उसे उसके योग्य द्रव्यप्रदान करेगा, मार्ग के मध्य में चलते२ यदि वह घोड़े से गिर गया होगा, अथवा पैदल चलते२ यदि वह पैर फिसल कर गिर गया होगा और इस तरह से उनके हाथ पैर आदि टूट गये होंगे तो उसकी सार समाल करेगा-रोगी की दवाई करेगा, और घड़े आनन्द के साथ उसे अहिच्छत्रा नगरी में पहुँचा देगा । इस प्रकार की इस घोषणा को तुम लोग दो तीन बार करना । और ( घोसित्ता मम एयमाणत्तिय पत्रपिणह ) करके फिर हमे पीछे इसकी खनर देना (तएण ते कौडुनियपुरिसा जाव एव वयामी हृदि सुणतु भवतो चपा भग्गुलुग्गस्स साहेज्ज दलय, सुह सुहेणं अहिच्छत्त सपावे, तिकट्टु दोच पि वच्चपि घोसेह )
"
1
-
જોડા વગરના હશે તેને જોડા આપશે, જમવાની સગવડ હશે નહિ તેને જમવાની સગવડ કરી આપશે શખ–પાથેય-પૂરક દ્રવ્ય વગરને હશે તેને શ ખલ-પાથેય~પૂરક દ્રવ્ય આપશે. એટલે કે મામા અધવચ્ચે ભાતુ ખલાસ થઈ ગયુ હશે તેને ચેાગ્ય ધન આપશે મામા અધવચ્ચે ચાલતા ચાલતા જો તે ઘોડા ઉપરથી પડી જશે અથવા પગે ચાલતા ચાલતા જો તે પગ લપસવાથી પડી જશે અને તેથી તેના હાથ પગ વગેરે ભાગી ગયા હશે તે તેની તે સુશ્રૂષા કરશે-રોગની દવા કરશે અને સુખેરી તેને અહિચ્છત્રા નગરીમા પહેાચાउसे मारीते तभे मे त्रयु वमत घोषणा रो भने ( घोसित्ता मम एयमाण त्तिय पच्चत्पिण ) घोषणा उरीने अमने अमर भा
1 !
(तरण ते कोड बियपुरिसा जाब एव वयासी इदि सुणतु भवतो चपानयरी
+
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૦.
" गृदाधमसमो धर्मो न भूतो न भविष्यति । पालयत्ति नराः शूराः होना पापण्डमाश्रिताः ॥ १ ॥
11
statधमंत्र थाह
,
इत्यभिसन्धाय तथा चिन्तनशील, 'अनिरुद्धमा नगरपड निर्णयडिपाडा' अनिरुद्रदान करक्त स्टनिर्ग्रन्यप्रभृतिपापण्डस्थः तंत्र'अविरुद्ध' अनिरुद्ध' विरुद्ध स्नादपीत्यविरुद्ध =ग्नियवादी क्रीयावादीत्यर्थः, परलोकाभ्युपगमात् 'विरुद्ध' विरुद्ध विरुद्ध = निरुद्धनादोऽस्यास्तीति-अर्थं आदित्वादच द्विवादी आक्रियावादीत्यर्थः परलोकानभ्युपगमात्, 'युद्धभावग' वृद्धभावः ब्राह्मण, वृद्धकालिको यः थापक सः भरतादिराले पूर्व श्रावसश्वेन पथाद् ब्राह्मगलभारात्, 'रक्तपड ' रक्तपट= रिकाखधारीपरि ब्राजक', 'णिग्गयप्यभिङ' निर्ग्रन्यमभृति = सानुप्रभृतिरन्यः कोऽविकपिलादि - पापण्डस्थो वा गृहस्थो वा, इति यदि एपु यः कोऽपिन्छेत् तस्मै खलु धन्यः सार्थवाह अच्छाकाय = छारहिताय छत्रक ददानि=दास्यतीति भान', एत्र सर्वत्र विज्ञेयम् ' अणुवाहणस्स ' अनुपान हे = पादत्राणरहिताय ' उपाहणाओ' उपानहौ ददाति, अकुण्डिकाय = जलपानरहिताय कुण्डिका = जलपात्र ददाति । ' अपत्यय 'स' अपथ्यदनाय शम्मलरहिताय ' पत्ययण ' पथ्यदन = शम्बल ददाति । 'अपक्खेवगस्स ' अप्रक्षेपकाय, प्रक्षेपकः = पूर्तिद्रव्य, तद्रहिताय मध्यमार्गे न्यून शम्पलाय प्रक्षेपक = शम्पलपूरक द्रव्य ददाति । ' अतरानिय ' अन्तराऽपि चं= मार्गानरालेऽपि च ' से ' तस्मै पतिताय = वाहनाद् पादादिस्खलनेन वा वा= श्रावक हो, गैरिकवस्त्रधारी परिव्राजक हो, निर्ग्रन्थ हो, पाखडी हो, चाहे गृहस्थ हो कोई भी क्यों न हो, उसके लिये धन्य सार्थवाह यदि वह छत्ररहित है तो छत्र देगा ( अणुवाहणस्स उवारणाओ दलयह कुडियस्स कुंडिय दलयह अपत्ययणस्स पत्ययण दलयइ अपक्खेवगस्स पक्खेव दलयइ अतराऽविय से पडियस्स वा भग्गलुग्गस्म साहेज्जं दलयइ,
अ
(
"
અવિરુદ્ધ હાય, વિરુદ્ધ હાય, વૃદ્ધ શ્રાવક હોય, ગરિક વસ્ત્ર ધારી પરિવ્રાજક હેાય, નિગ્ન થ હાય, પાખડી હેાય અને ગૃહસ્થ હાય કાઈ પણ કેમ ન હેાય તેના માટે જો તે છત્ર વગરના હોય તેવાને અન્ય સાથે વાહ છત્ર આ શે
"
( अणुत्राणस्म उवाहणाओ दलयर, अकुडियम्म कुडिय दलयइ अपत्ययणस्स पत्ययण दल यह अपक्खेनगरस पक्खेन दल्या अतरानिय से
वा
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
माधर्मामृतपिणी टीका अ० १५ नदिफलस्वरूपनिरूपणम्
अथना
" भग्गलुग्गस्म भग्नरुग्णाय भग्नाय = त्रुटितहस्तपादाद्यवयाय रुग्णाय = रोगाक्रान्ताय रोगग्रस्ताय वा 'साहेज्ज ' साहाय्यम् = औषधो पचारादि करणरूप ददाति तथा सुग्घ - सुखेन = सुवपूर्वक च तम् महिच्छत्रा नगरी ' सपावे: ' समापयति = समापयिष्यतीत्यर्थः । ' तिक्हु' इति कृत्वा एवमुच्चार्य द्वितीयमपि तृतीयमपि चार घोषयत, घोषयित्वा मम ' एय माणत्तिये' एतामाज्ञप्तिकाम्-एतद्रूपा ममाज्ञा ' पच्चपिगह ' प्रत्यर्पयत - मदुक्ता घोषणा न निवेदयतेत्यर्थः । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः 'तथास्तुसुरसुण अहिच्छत्त सपावेइ, त्ति कट्टु दोच्चपि तच्चपि घोसेह) पद त्राण (जूना) रहित है तो जूना (पदत्राण ) देगा जलपान रहित होगा उसे जलपान देगा, कलेवा (भोजन) रहित है तो कलेवा (भोजन) देगा, शम्प लपाथेय पूरक द्रव्य से रहित है तो उसे शम्पल पाथेय-भाता पूरक द्रव्य .. देगा, अर्थात् चलते२ बीच मार्गमें ही जिसका कलेवा (भोजन) समाप्त हो जावेगा उसे उसके योग्य द्रव्यप्रदान करेगा, मार्गके मध्य में चलते२ यदि वह घोड़े से गिर गया होगा, अथवा पैदल चलते२ यदि वह पैर फिसल कर गिर गया होगा और इस तरह से उनके हाथ पैर आदि टूट गये होंगे तो उसकी सार समाल करेगा- रोगी की दवाई करेगा, और घड़े आनन्द के साथ उसे अहिच्छत्रा नगरी में पहुँचा देगा । इस प्रकार की इस घोषणा को तुम लोग दो तीन बार करना । और ( घोसित्ता मम एयमाणत्तिय पच्चपिणह ) करके फिर हमे पीछे इसकी खपर देना (तएण ते कौडनियपुरिसा जाब एव वयामी हदि सुणतु भवतो चपा भग्गुलुग्गस साहेज्ज दलयर, सुह सुहेण अहिच्छत्त सपावे, त्ति कछु दोच पि तच्चपि घोसेह )
6
3
-
१०७
જોડા વગરના હશે તેને જોડા આપશે, જમવાની સગવડ હશે નહિ તેને જમવાની સગવડ કરી આપશે રાખન-પાથેય-પૂરક દ્રવ્ય વગરના હશે તેને શબલ-પાથેય--પૂરક દ્રવ્ય આપશે. એટલે કે મામા અધવચ્ચે ભાતુ ખલાસ થઈ ગયુ હશે તેને ચેાગ્ય ધન આપશે મામા અધવચ્ચે ચાલતા ચાલતા જો તે ઘોડા ઉપરથી પડી જશે અથવા પગે ચાલતા ચાલતા જો તે પગ લપસવાથી પડી જશે અને તેથી તેના હાથ પગ વગેરે ભાગી ગયા હશે તે તેની તે સુષા કરશે-રોગની દવા કરશે અને મુખેરી તેને અહિચ્છત્રા નગરીમા પહેાચાउसे या शेते तमे मे त्रय वमत घोषणा उसे भने ( घोसित्ता मम एयमाण तिय पचणिह ) घोषणा हरीने अमने अमर
(तपण ते कोड नियपुरिसा जात्र एव व्यासी इदि सुणतु भवतो चपानयरी
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
माटाका
વ્ય
"
इत्युक्त्वा चम्पानगर्या शृङ्गाटकादिमरापपयेषु समागम्ययमनादिपुः-' इदि इत्यामन्त्रणे तेन हे लोकाः । शृण्वन्तु-भयन्तः यत् चम्पानगरी स्वच्या वहनः 'चरगाय जान ' इति चरकचीरिकादयो धन्येन सार्थवाहन सार्द्धमहिना नगरों गच्छन्ति तेभ्यो धन्यः सार्थनादनादिक सर्व दास्यति, मार्गे च स्वलितेम्यो रोगादिग्रस्तेभ्यश्च औषधोपचारादिना साहाय्य करिष्यति सुखपूर्वकम हिच्छत्रा नगरीं प्रापयिष्यति च इत्यव - घोपयिला धन्यमार्थवाहाय पच्चप्पिणति ' प्रत्यर्पयति = निवेदयन्ति ॥ सू० २ ॥
"
नगरीवत्या वह चरगा य जाव पच्चष्पिणति ) हम प्रकार धन्यसा-वाह की बात को उन कौटुम्बिक पुरुषों ने "तथास्तु" कहकर स्वीकर लिया और चपानगरी में गोदक आदि महापथ पर्यतके समस्त मार्गो में जाकर इस प्रकार की घोषणा की, हे लोको ! सुनो-जो कोई चपा नगरी का निवासी चरक आदि जन धन्य सार्ववाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी को जाना चाहता हो उसके लिये धन्यसार्थवाह छत्रादि सब देगा तथा जो मार्ग में पतित हो जायेंगे अथवा रोगाक्रात बन जायेंगे उनकी औषधि आदि द्वारा सहायता भी करेगा और इस तरह वह उनके लिये सकुशल अहिच्छत्रा नगरी में पहुंचा देगा - इस प्रकार की घोषणा करके उन लोगों ने इसकी खबर धन्य सार्थवाह के पास भेज दी । गृहस्थ के घर निष्पन्न हुए औदनादिक खाद्य वस्तुओं का जो सर्व प्रथम हिस्सा दानके लिये पृथक कर रख लिया जाता है, उस वत्थव्वा बहवे चरगा य जाव पच्चपिति )
1
આ રીતે ધન્ય સાČવાહની આજ્ઞાને તે કૌટુબિક પુરુષાએ સ્વીકારી ન લીધી અને ચપા નગરીના શ્રગાટક વગેરે મહાપથેામા જઈને આ રીતે તેઓએ ઘાષણા કરી કે હું લેાકેા ! સામળા, ચપા નગરીમા રહેનાર ચરક, વગેરે ગમે ते માણસ અન્ય સાર્થવાહની સથે અહિચ્છત્રા નગરીમાં જ તેને ધન્ય સાથૅવાહ છત્ર વગેરે બધુ આપશે, તેમજ માÖમા કઈ પડી જશે અથવા તા માદા થઈ જશે તે ધન્ય સાથવાહની તેની ખરાખર માવજત કરાવીને તેની” સહાય, કરશે અને તેને સકુશળ અહિચ્છત્રા નગરીમા પહાચાડશે આ રીતે ઘાષણા કરીને તે લેાકાએ ધન્ય સાવાહને ઘાષણુનુ કામ પુરૂ થઈ જવાની ખપ્પર આપી ગૃહસ્થને ઘેર તૈયાર કરાયેલા ભાત વગેરે ખાઘ વસ્તુઓને જે સૌ પહેલા દાન માટે જૂદો કરીને રાખવામા આવે છે તે ભાગને જે ભીખ સાગીને લઈ,જાય છે તેને ચરિક કહે છે મામા પડેલા ફાટેલા વો જે
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
मृणी टी० अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम्
२०६४
•
,
हिस्से को जो भिक्षावृत्ति से ले जाते है उनका नाम वरिक है । मार्ग में गिरे हुए फटेचिटे वस्त्र को लेकर जो परिनते हैं उनका नोम चीरिक है । चमड़े को जो अपने पहिरने के उपयोग में लाते हैं वे धर्म खडिक है । दूसरे के द्वारा लायी गई भिक्षा से जो अपना निर्वाह करते हैं वे भिक्षोण्ड हैं। अपने शरीर पर जो भस्म लपेटे रहते हैं वे पांडुरंग हैं। बैल को लेकर जो दूसरों के घरों से अनाज मांगते हैं वे गौतम है। दिलीप राजा की तरह जो गायकी सेवा करने में लगे रहते-जय वर बैठती है तब वे बैठते हैं वह खड़ी होती है तो वे भी खड़े जाते हैं इत्यादि रूप से गोचर्यानुकारी जो जन होते हैं वे गोव्रतिक हैं। गृहस्थ धर्म ही श्रेष्ठ है, इस प्रकार मान कर जो उसमें रह रहते हैं वे गृहिधर्म चिन्तक है । जैसे- गृहस्थाश्रम के समान धर्मन हुआ है और न आगे होगा ही । जो शूरवीर मनुष्य होते हैं वे ही इसे पालते हैं । पापड धर्म को पालने वाले मनुष्य शूरवीर नहीं हैं किन्तु वे तो क्लीन- नपुंसक है। ऐसी इनकी मान्यता होती है !. भविरुद्ध शब्द का अर्थ विरुद्ध नहीं रहते हैं सबका समानरूप से विनय करते हैं । विरुद्ध शब्द का अर्थ अक्रियावादी है । ये अक्रिया बादी पर ' પહેરે છે તેનુ નામ ચીરિક છે. ચામડાને જે વસ્ત્ર તરીકે પહેરવામા કામમા લે છે તે ચમ ખડિત છે ખીજાએ વડે લાવવામા આવેલી ભિક્ષાથી જે.. પેાતાનુ ઉદર પાષણ કરે છે તે ભિક્ષાય છે. પેાતાના શરીર ઉપર જે રાખ ચાળે છે તે પાડુરગ છે બળદને સાથે લઈને જેએ બીજાઓના ઘરથી અનાજ માગે છે તેએ ગૌતમ કહેવાય છે રાજા ઝિલીપની જેમ જેએ ગાયની સેવા ઢરવામા વ્યસ્ત રહે છે–જ્યારે ગાય બેસે છે ત્યારે તે બેસે છે, જ્યારે ગાય ઊભી થાય છે ત્યારે તેઓ પશુ ઊભા થઈ જાય છે વગેરે રૂપમા જેએ ગ્રેચ યૌનુકારી જન હેાય છે તે ગેાત્રતિક કહેવાય છે. ગૃહસ્થ ધર્મજ ખરેખર ઉત્તમ ધમ' છે આમ ચાક્કમ પણે માનીને તેમા દત્ત ચિત્ત રહે છે તે ગૃહિધમ – ચિંતક છે. જેમકે —ગૃહસ્થાશ્રમ જેવા ધમ થયેા નથી અને આગળ ભવિષ્યમા થવાની સભાવના પણ નથી જે શૂરવીર માણસે હાય, છે તે જ આ ધર્મનુ પાલન કરે છે પાખડ ધર્મને પાલન કરનારા માણુમા શૂરવીરા નથી પશુ તેઓ તે નપુંસક છે ગૃહસ્થીઓની આ જાતની માન્યતા હાય છે અવિરુદ્ધ રાખ્તને અથ ક્રિયાવાદી છે કેમ કે એએ કોઈ પણુ માણુસથી વિરુદ્ધ આચરણ કરતા નથી તેએ બધાની સાથે સરખી રીતે વિનયપૂર્ણ વ્યવહાર કરે છેવિરુદ્ધ શબ્દના અર્થ અક્રિયાવાદી છે. અક્રિયાવાદી લેકેપરલેાક જેવી વસ્તુમાં
J
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताका इत्युक्त्वा चम्पानगर्या शृगाटकादिमहापथपये समागम्य-एवमयादिषुः-'हदि' इत्यामन्त्रणे तेन हे लोकाः । शृण्वन्तु-मान्त'-पत् चम्पानगरी पास्तव्या माना 'चरगाय जार' इति चरकचीरिकादयो धन्येन मार्यवाहन सादमहिन्यां नगरों गच्छन्ति तेभ्यो धन्यः सार्थवाहादिक सौ दाम्यति, मागे च समलितेभ्यो। रोगादिग्रस्तेभ्यश्वः औषधोपचारादिना माहाग्य परिप्पति, सुखपूर्वकमहिच्छत्रांत नगरी भापयिष्यति च, इत्येय घोपयित्वा धन्पमार्थनाहाय 'पन्चप्पिणति', प्रत्यर्पयति-निवेदन्ति ।। सू० ॥ नगरीवत्यमा वरचे घरगा य जाव पच्चप्पिणति ) इस प्रकार धन्यसा र्थवाह की बात को उन कौडम्पिक पुम्पों ने "तथास्तु" करकर स्यीकर लिया और चपानगरी में शृगोटक आदि महापथ पयंतके समस्त मागों में जाकर इस प्रकार की घोषणा की, हे लोको ! सुनो-जो कोई चंपा. नगरी का निवासी चरक आदि जन धन्य सार्थवाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी को जाना चाहता हो उसके लिये धन्यसार्थवाह छत्रादि सब देगा तथा जो मार्ग में पतित हो जायेंगे अथवा रोगामात बन जावगे उनकी औषधि आदि द्वारा सहायता भी करेगा और इस तरह वह जनके लिये सकुशल अहिच्छत्रा नगरी में पहुंचा देगा-इस, प्रकार की घोषणा करके उन लोगों ने इसकी खबर धन्य सार्थवाद के पास भेज दी। गृहस्थ के घर निष्पन्न हुए औदनादिक खाद्य वस्तुओं का जो सर्व प्रथम हिस्सा दानके लिये पृथक कर रख लिया जाता है, उस वत्थव्या वहवे चरगा य जाब पच्चप्पिणति)
આ રીતે ઘન્ય સાર્થવાહની આજ્ઞાને તે ટુ બિક પુરુષોએ સ્વીકારી , લીધી અને ચ પ નગરીના શ્રાટક વગેરે મહાપમાં જઈને આ રીતે તેઓએ ઘોષણા કરી કે હે લોકે ! સાભળે, ચપા નગરીમાં રહેનાર ચરક, વગેરે ગમે તે માણસ ધન્ય સાર્થવાહની સાથે અહિરછત્રા નગરીમા જ તેને ધન્ય, સાર્થવાહ છત્ર વગેરે બધુ આપશે, તેમજ માર્ગમાં કોઈ પડી જશે અથવા તે માટે થઈ જશે તે ધન્ય સાથવાહની તેની બરાબર માવજત કરાવીને તેની’ સહાય કરશે અને તેને સકુશળ અહિચ્છત્રા નગરીમાં પહોંચાડશે આ રીતે, ઘોષણા કરીને તે લેકે એ ધન્ય સાર્થવાહને શેષણનું કામ પુરૂ થઈ જવાની ૮ ખબર આપી ગૃહસ્થને ઘેર તૈયાર કરાયેલા ભાત વગેરે ખાદ્ય વસ્તુઓને જે સો પહેલા દાન માટે જૂદે કરીને રાખવામા આવે છે તે ભાગને જે ભીખ માગીને લઈ જાય છે તેને ચરિક કહે છે માર્ગમાં પડેલા ફાટેલા વસ્ત્રો જે
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगारधर्मामृतयपिणी टी० अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् १०५ हिस्से को जो भिक्षा वृत्ति से ले जाते हैं उनका नाम चरिक है । मार्ग में गिरे हुए फटेनिटे वस्त्र को लेकर जो परिनते हैं उनका नोम. चीरिक है। चमड़े को जो अपने पहिरने के उपयोग में लाते हैं वे धर्म खडिक है । दूसरे के द्वारा लायी गई भिक्षा से जो अपना निर्वाह करते हैं वे भिक्षोण्ड है। अपने शरीर पर जो भस्म लपेटे रहते हैं ये पांडुरग हैं । वैल को लेकर जो दूसरों के घरों से अनाज मांगते हैं वे गोतम है। दिलीप राजा की तरह जो गायकी सेवा करने में लगे रहतेहै-जप वह पैठती है तब वे बैठते हैं-वह खड़ी होती है तो वे भी खडे हो जाते हैं इत्यादि रूप से गोचर्यानुकारी जो जन होते हैं वे गोव्रतिक है। गृहस्थ ,धर्म ही श्रेष्ठ है, इस प्रकार मान कर जो उसमें रह रहते हैं वे गृहिधर्म चिन्तक है। जैसे-गृहस्थाश्रम के समान धर्म न हुआ है और न आगे होगा ही। जो शूरवीर मनुष्य राते हैं वे ही इसे पालते हैं। पापड धर्मको पालने वाले मनुष्य शरवीर नहीं है किन्तु वे तो क्लीय-नपुसक हैं। ऐसी इनकी मान्यता होती है।. अविरुद्ध शब्द का अर्थ विरुद्ध नहीं रहते हैं सवका समानरूप से विनय करते हैं । विरुद्ध शब्द का अर्थ अक्रियावादी है । ये अक्रिया चादी परપહેરે છે તેનું નામ ચીરિક છે ચામડાને જે વસ્ત્ર તરીકે પહેરવામાં કામમા લે છે તે ચમ ખડિત છે બીજાઓ વડે લાવવામાં આવેલી ભિક્ષાથી જેપોતાનુ ઉદર પિષણ કરે છે તે ભિક્ષેડ છે પિતાના શરીર ઉપર જે રાખ એળે. છે તે પારગ છે બળદને સાથે લઈને જેઓ બીજાઓના ઘરેથી અનાજા - માગે છે તેઓ ગૌતમ કહેવાય છે રાજા લીપની જેમ જેઓ ગાયની સેવા કરવામાં વ્યસ્ત રહે છે-જ્યારે ગાય બેસે છે ત્યારે તેઓ બેસે છે, જ્યારે ગાય કભી થાય છે ત્યારે તેઓ પણ ઊભા થઈ જાય છે વગેરે રૂપમાં જેઓ ગોચન ,
નુકારી જન હોય છે તેઓ ગોઘતિક કહેવાય છે ગૃહસ્થ ધર્મજ ખરેખર-ઉત્તમ ધર્મ છે આમ ચકકસ પણે માનીને તેમાં દર ચિત્ત રહે છે તેઓ ગૃહિધર્મચિતક છે જેમકે -ગૃહસ્થાશ્રમ જે ધર્મ થયું નથી અને આગળ ભવિષ્યમાં થવાની સંભાવના પણ નથી જેઓ શૂરવીર માણસ હોય છે તેઓ જ આ છે યમનું પાલન કરે છે પાખડ ધર્મનું પાલન કરનારા માણુઓ શુરવીરો નથી પશુ તેઓ તે નપુંસક છે ગૃહસ્થીઓની આ જાતની માન્યતા હોય છે અવિરુદ્ધ શબ્દનો અર્થ ક્રિયાવાડી છે કેમ કે એ કઈ પણ માણસથી વિરુદ્ધ આચરણ કરતા નથી તેઓ બધાની સાથે સરખી રીતે વિનયપૂર્ણ વ્યવહાર કરે છે વિરુદ્ધ શબ્દનો અર્થ અક્રિયાવાદી છે અકિયાવાદી લેકોપરલોક જેવી વસ્તુને
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
airat त्युक्त्वा चम्पानगीं शृगाटकादिमहापथपयेषु समागत्य-प्रमादिपु -'हटि' त्यामन्त्रणे तेन हे लोकाः । शृण्वन्तु-मपन्त:-यत् चम्पानगरी पास्वव्या बहना
चरगाय जाया' इति-चरकचीरिफादयो धन्येन गार्थवाहन सादमहिन्छां नगरी गच्छन्ति तेभ्यो धन्यः सार्थह त्रादिक सौ दास्यति, मार्गे च स्पलितेभ्यो रोगादिग्रस्तेभ्यश्च औषधोपचारादिना माहाग्य परिप्पति, सुखपूर्वकमाहिच्छत्रा नगरी मापयिष्यति च, इत्येव घोपयित्वा धन्पमार्थाहाय 'पन्चप्पिणति' प्रत्यर्पयति-निवेदन्ति ॥ सू०२॥ नगरीवत्थव्या वरवे चरगा य जाव परचप्पिणति ) हम प्रकार धन्यसार्थवाह की यात को उन कौटुम्यिक पुरुपों ने "तथास्तु" कहकर स्वीकर लिया और चपानगरी में शृंगोटक आदि महापध पर्यतके समस्त मार्गो में जाकर इस प्रकार की घोपणो की, हे लोको ! सुनो-जो कोई चपा, नगरी का निवासी चरक आदि जन धन्य सार्थगाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी को जाना चाहता हो उसके लिये धन्यसार्थवाह छत्रादि सब देगा तथा जो मार्ग में पतित हो जायेंगे अथवा रोगाक्रान्त बन जावगे उनकी औषधि आदि द्वारा सहायता भी करेगा और इस तरह वह उनके लिये सकुशल अहिच्छन्ना नगरी में पहुंचा देगा-इस प्रकार की घोषणा करके उन लोगों ने इसकी खबर धन्य सार्थवाह के पास भेज दी। गृहस्थ के घर निष्पन्न हुए औदनादिक खाद्य वस्तुओं का जो सर्व प्रथम हिस्सा दानके लिये पृथक कर रख लिया जाता है, उस चत्थव्वा बहवे चरगा य जाव पच्चप्पिात )
આ રીતે ધન્ય સાર્થવાહની આજ્ઞાને તે કટ બિક પુરુએ સ્વીકારી ન લીધી અને ચપા નગરીના શ્રાટક વગેરે મહાપથમાં જઈને આ રીતે તેઓએ છેષણ કરી કે હે લેકે સાભળે, ચપા નગરીમાં રહેનાર ચરક, વગેરે ગમે, તે માણસ ધન્ય સાર્થવાહની સાથે અહિચ્છત્રા નગરીમાં જ તેને ધન્ય, સાર્થવાહ છત્ર વગેરે બધુ આપશે, તેમજ માર્ગમાં કોઈ પડી જશે અથવા તે મા થઈ જશે તે ધન્ય સાથ વાહની તેની બરાબર માવજત કરાવીને તેની સહાય, કરશે અને તેને સંકુશળ અહિ-છત્રા નગરીમાં પહોંચાડશે આ રીતે, ઘોષણા કરીને તે લોકેએ ધન્ય સાર્થવાહને ઘેષણનુ કામ પુરૂ થઈ જવાની - ખબર આપી ગૃહસ્થને ઘેર તૈયાર કરાયેલા ભાત વગેરે ખાદ્ય વસ્તુઓને જે સો પહેલા દાન માટે જુદે કરીને રાખવામા આવે છે તે ભાગને જે ભીખ માગીને લઈ જાય છે તેને ચકિ કહે છે માર્ગમાં પડેલા ફાટેલા, વસ્ત્રો જે
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतयपिणी टोका अ० १५ नदिफलस्वरूपनिरूपणम् जणवय मज्झ मझेणं जेणेव दसम्गं तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सगडीसागड मोयावेइ मोयावित्ता सस्थणिवेस करेइ करित्ता कोडवियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एव क्यासी-तुभेणे देवाणुप्पिया। मम सत्थनिवससि महया महया सदेणं उग्घासेमाणा २ एव वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया । इमीसे आगमियाए छिन्नावायाए दीहमदाए अडवीए बहुमज्झदेसभाए वहवे गंदिफला नाम रुक्खा पन्नत्ता किण्हा जाव पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिजमाणा सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणा चिट्टति मणुण्णा बन्नेणं जाव मणुन्ना फासेणं मणुन्ना छायाए, त जो णं देवाणुप्पिया । तेसि नदिफलाण मूलाणि वा कद० तय० पत्त० पुप्फ० फल० वीयाणि वा हरियाणि वा आहारेइ छायाए वा वीसमइ तस्रणं आवाए भद्दए भवइ तओ पच्छा परिणममाणा२ अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेति, तं माणं देवाणुप्पिया । केइ तेसि नदिफलाणं मूलाणि वा जाव छायाएं वा वीसमउ, मा णं सेऽवि अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजिस्सइ, तुम्भेणं देवाणुप्पिया | अन्नेसि रुक्खाण मूलाणिया जाव हरियाणि य आहारेह छायासु वीसमहत्ति घोसणं घोसेह जाव पच्चप्पिणति, तएण से धपणे सत्थवाहे सगडीसागड जोएइ२ जेणेव नदिफला रुक्खा तेणेव उवागच्छई उवागच्छित्ता तेसिं नदिफलाण अदूरसामते सत्थणिवेस करेइ करिता दोच्चपि तच्चपि कोडविय परिसे सहावेद मटावित्ता
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
street
मूलम् तपणं तेर्सि कोडुबिय पुरिमाण अतिए एयमई सोच्चा णिसम्म चंपानयरी वस्थव्वा वहवे चरगा य जाव गिहत्था य जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति तपणं से धण्णे सत्थवाहे तेसि चरगाण य जाव गिहत्थाण य अच्छत्तगस्स छत्त' दलयइ जात्र पत्थय ण दलाइ दलइत्ता एव व्यासीगच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया । चपाए नयरीए वहिया अग्गुजाणंसि मम पडिवालेमाणा चिट्टह, तरणं ते चरगा य जाव गिहत्था य घण्णेणं सत्थवाहेणं एव वृत्ता समाणा जाव चिट्ठति, तणं घण्णे सत्यवाहे सोहणासि तिहिकरणन+खत्तसि विउल असणं- ४ उबक्खडावेइ उवम्खडावित्ता मित्तनाइ० आमतेइ आमंतित्ता भोयणं भोयात्रेइ भोयाचित्ता आपुच्छर आपुच्छित्ता सगडी सागड जोयावेइ जोयावित्ता चपानगरीओ निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता चरगा य जाव गिहत्था य सद्धि घेतूण णाइवि प्पट्ठेहिं अद्धाहि वसमाणेर सुहेहि वसहि पायरासेहि अंग
११०
21
लोक नहीं मानते हैं । वृद्धश्रावक - ब्राह्मण- अर्थ का वाचक है। क्योंकि ये पहिले भरत चक्रवर्ती के समय में श्रावक थे- पश्चात् ब्राह्मण बन गये इसलिये " वृद्धकालिको यः श्रावकः " इस व्युत्पत्ति के अनुसार वृद्धश्रावक शब्द ब्राह्मण अर्थ का वाची बन जाता है । वाकी अवशिष्ट शब्दों का अर्थ स्पष्ट है | सू० २ ॥
વિશ્વાસ કરતા જ નથી. વૃદ્ધ શ્રાવક-બ્રાહ્મણુ અને સ્પષ્ટ કરે છે કેમ કે એ પહેલા ભરત ચક્રવર્તીના વખતે શ્રાવક હતા ત્યાર પછી એમે! બ્રહ્મણ થઈ ગયા એટલા માટે वृद्ध कालिको य श्रावक स वृद्ध श्रात्रक ' आ व्युत्पत्ति મુજબ વૃદ્ધ શ્રાવક શબ્દ બ્રાહ્મણુ અર્થના વાચક થઈ જાય છે બીજા શેષ शुण्डाना अर्थ तो स्पष्ट ०४ छे ॥ सूत्र "" २ ” ॥
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृत पिणी टीका म०१५ नन्दिफलस्वरूपनिरूपणम् ११३ निग्गंथी वा जाव पव्वइए पचसु कामगुणेसु सज्जेइ सज्जित्ता जाव अणुपरियहिस्सइ जहा वा ते पुरिसा ।। सू० ३ ॥ ___टीका-'तएण तेर्सि' इत्यादि । तत सलु तेपा कीटुम्मिकपुरषाणामन्ति के एतमय-पूर्वोक्तमहिन्उत्रानगरीगमनाघोपणास्पै भान' श्रुला-कर्णविपयोकृत्य, निशम्य-हावार्य चम्पानगरी पाम्तव्या अदिच्छवानगरीगन्तुकामा बहनश्वरकाश्च यापन गृहस्थाश्य यौन धन्य सार्थवाह-स्तत्रैवोपागन्छन्ति । ततः खल स धन्यः सार्यवाहस्तेपा चरकागा च यावद् गृहस्थाना च मरे अच्छत्रकाय. उजददाति यावत पय्यदन-गम्पल ददाति, एनमानीत् कथयति गंछत खलु यूप हे देवानुप्रिया. 1 चम्पाया नगर्या पहि ' अग्गजाणमि' अग्र्योद्याने मा पडिवालेमाणा' प्रतिपाल्यन्त =मतीक्षमाणास्तिष्ठत । तन' खलु ते चरकाच-तएण मि इत्यादि
। टीकार्थ-(तएण) इसके पाद (तसि कोडुपियपुरिसाण अतिए एयम? सोच्चा णिसम्म चपानगरी वत्यव्या वो चरगाय जाव गिहत्था य जेणे धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति) उन कौटुम्विक पुरुपों के मुख से इस घोपणारूप अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में धारणकर चपी नगरी निवानी अनेक चरक से लेकर गृहस्थ पर्यंत मनुष्य जहां धन्य सार्थवाहक'था वहा आये (तएण से धणे सत्यवाहे तेसिं चरगाणे य जाव गिरस्थाण अच्छत्तगस्त छत्त दलद जाव पत्थयण दलाइ दलहत्ता
एवं वयासी-गच्उह ण'तुम्भे देवाणुप्पिया । चपाए नयरीए पारिया अ. _गुज्जासि मम पडिचाले 'माणा चिठूह ) इसके बाद धन्य सार्थवीर
'तरण सिं ' इत्यादि । AI -( तरुण ) यार पछी (तेसि कोडुपिय पुरिसाण अतिए एयमह सोच्चा णिसम्म चपानगरी क्त्यव्या बहवे चरगीय जार निहत्था य जेणेष धण्णे सत्थना तेणेष उपागच्छति)
તે કોગિક પુરુષના મુખથી આ શેષણરૂપ અથને-સાભળીને અને તેને હૃદયમાં ધાર કરીને ચ પ નગરીના ઘણુ ચકથી માડીને ગડથ સુધીના બધા માણસે જ્યા ધન્ય સાર્થવાહ હતા ત્યા આવ્યા - ---
(तएण से धण्यो सत्यपाहे तेसिं चरगाण य जाव गिहत्थाण अच्छत्तगस्स __ छत्त 'दलयर. नाव पत्थयण दलाह. दलहत्ता एव वयामी-गच्छह ण तब्भे देवाणु
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
माता एव वयासी-तुभेणं देवाणुपिया -मम सत्यानिवतंति महया • महया सदेणं उग्घोसेमाणा२ एव वयह-एएणं देवाणुप्पिया! ते मंदिफला रुक्खा किण्हा जाव मणन्ना छायाए त जो देवाणुप्पिया एएसिं णदिफलाण खाण मूलाणि वा कंद० पुप्फ० तय० पत्त० फल० जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेइ, त-माणं तुम्भे जाव दूरे दूरेणं परिहरमाणा वीसमह, मा •ण-अकाले चेव जीवियाओ ववरोविस्सइ, अन्नसिं रुक्खाण *,मूलाणि य जाव वीसमहत्तिकङ घोसणं जाव पञ्चप्पिणति, तस्थ रणे अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स. सत्यवाहस्स एयम सदर्हति + पत्तियंति रोयति एयमह सदहमाणा३'तेसिं नंदिफलाणं० दूर
रेण परिहरमाणार अन्नसि रुक्खाण मूलाणिय जाव वीसमति तेसि णं आवाए-नो-भद्दए-भवइ, तओ पच्छा' परिणममाणार १.सुहरूवत्ताए झुंज्जा२- परिणमति, एवामेव समणाउसो। जो --अम्ह निग्गंथोनिग्गथी वा जावपचसुकामगुणेसु नो सजेइ नो . रज्जेइ से ण इहभवे चेव वहणं समणाणं अच्चणिज्जे ५ पिरलोए नो आगच्छइ जाच वीइवइस्सइ, जहान्य ते पुरिसा तस्थ गं अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्त सत्थवाहस्त एयमट्ठ नो सद्दहति३ घण्णस्स एयम? असदहमाणा३ जेणेव ते नदिफला- तेणेव उवागच्छति-उवागच्छित्ता तेसिा नदिफलाण मूलाणि य जाव -वीसमति तसिंण आवाए भदए भवइ तओ पच्छा परिणममाणा जाव ववरोबाति, एवामेव समणाउसो । जो अमन • •
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृत पिणी टीका म० १९ नन्दिफलस्वरूपनिरूपणम् ११३ निग्गंथी वा जाव पव्वइए पचसु कामगुणेसु सज्जेइ सज्जित्ता
जाब अणुपरियहिस्सा जहा बा ते पुरिसा ॥ सू०३ ॥ ___टीमा-'तपण तेर्सि' इत्यादि । तत सलु तेपा कीटुर्मिकपुमपाणामन्तिके एतमय पूर्वोक्त महिन्छत्रानगरीगमनार्थमोपणारूप भार' श्रुत्वाकर्णविपयोकृत्य, निशम्य द्यावार्य चम्पानगरी पास्तव्या अदिच्छवानगरीगन्तुकामा वहनश्वरकाश्च यावद गृहस्थाश्च यौन धन्य सार्थवाह-स्तत्रैवोपागन्छन्ति । तता खल स धन्यः सार्थवाहस्तेपा चरकागा च यापद् गृहस्थाना च म ये अच्छाकाय. छत्र ददाति यावत् प वदन शम्बल ददाति, एमाढीत-कथयति गन्छत खलु यूय हे देवानुप्रिया' ! चम्पाया नगर्या रहि ' अगुज्जाणमि' अग्र्योद्याने मां 'पटियालेमाणा' प्रतिपाल्यन्त =प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन । तत' खलु ते चरकाच
-एण मि इत्यादि:टीकार्थ-(तएण) इसके याद (तसिं कोडबियपुरिसाण अतिए ण्यम? सोच्चा णिसम्म चपानगरी वत्यव्या वहवे चरगाय जाच गिहत्या य जेणेव घण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छनि) उन कौटुम्निक पुरुषों के मुख से इस घोपणारूप अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में धारणकर चपी नगरी निवामी अनेक चरक से लेकर गृहस्थ पर्यंत मनुष्य जहां धन्य सार्थवाहक'था वा आये (तरण से धणे सत्यवाहे तेसिं घरगाण ये जावं गिरस्थाण अच्छत्तगस्स छत्त दलद जाव पत्ययेण दलाउ दलहत्ता एवं वयासी-गच्छह ण तुम्भे देवाणुप्पिया । चपाए नयरीए यारिया अगुज्जासि मम पडिवाले 'माणा चिठेह) इसके बाद'धय सार्थवा
'तपण तेसि ' इत्यादि ।
Astथ -( तरण ) त्यार पछी (तेसि कोडुपिय पुरिसाण अतिए एयमह सोच्चा णिसम्म चंपानगरीयस्थव्या वहवे चरगीय नाव गिहत्या य जेणे धणे सत्थमाहे तेणेन उजागति )- તે કૌટુંબિક પુરુના મુખથી આ શેષ રૂપ અર્થને- સાભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને ચ પ નગરીના ઘણું ચરકથી માડીને ગડબ્લ્યુ સુધીના બધા માણસે ક્યા ધન્ય સાર્થવાહ હતા ત્યા આવ્યા - ---- __(तएण से धणे सत्यवाहे तेसिं चरगाण य जान गिहत्थाण अच्छत्तगस्स
छत्त 'दलयर, जाव पत्थयण दलाइ, दलइत्ता एव 'ययामी-गच्छह ण तुम्भे देवाणु- पियर्या चपाए नयरोए वाहिया अगोन्नाणसि मम पडियालेमाणा चितह )th
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
बताया घरकादयो यावद् गृहस्था धन्येन सार्थवाहेन-एपमुक्ता साना 'जा' यावदपन्य सार्थवाह प्रतीक्षमाणान्विति । तत सल धन्यः माशाह शोभने तिथि फरणनक्षोशुभदिवसे विपुलमशनादिक चतुर्विधाहारम् उपस्कारयतिम्-निष्पादयति उपस्कार्य मित्रज्ञातिस्वननसम्बन्धिपरिजनान आमन्त्रयति, भोजन मोजयतिकार ने उन चरक आदि से लेकर गृहस्थ पर्यन्त के मनुष्यों में जिसके पास छत्ता आदि नही या उसे छत्ता दिवा यारत् जिस के पास कलेवा नही था उसको कलेवा-मार्ग भोजन-दिया। पाद में उसने उन सबसे कहा हे देवानुपियों ! तुम यहां से चलो और मुरय उद्यान में मेरी प्रतीक्षा फरते हुए ठहरे रहो-(तपण ते घरगाय जाव मिहत्या य धण्णेण सत्य घाहेण एव वुत्ता समाणा जाव चिटनि, ताण घण्णे सत्यवाहे मोहणसि त्तिहिकरणनम्वत्तसि विउल असण ४ उवम्बडावेह, उचवडाविता मित्तनाइ० आमतेइ, आमत्तित्ता भोयण भोयावेड, भोयायित्ता आपु च्छइ, आपुच्छित्ता सगडीसागड जोयावेड, जोयवित्ता चंपानगरीओ निग्गच्छह ) इस प्रकार धन्यसार्यवाह के द्वारा कहे गये वे चरकादि गृहस्थ पर्यन्त समस्तजन वहा से चलकर मुख्य उद्यान में गये-और धन्यसार्थवाह की प्रतीक्षा करते हुए वहां ठहर गये । धन्यसार्थवाह ने शुभ तिथि, करण, एव नक्षत्र में विपुल मात्रा में अशन आदि रूप चारों प्रकार का आहार निष्पन्न करवाया। जय आरार निष्पन हो
ત્યાર પછી ધન્ય સાર્થવાહે તેઓ ચરક વગેરેથી માડીને ગૃહસ્થ સુધીના બધા માણસેમાથી જેની પાસે છત્રી વગેરે ન હતી તેને છત્રી વગેરે અને જેની પાસે માર્ગ માટેનું ભેજન ન હતું તેને ભોજન આપ્યું ત્યાર બાદ તેણે બધા ને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! તમે અહીંથી મુખ્ય ઉદ્યાનમાં જાઓ અને ત્યાં મારી પ્રતીક્ષા કરો
(तएण ते चरगाय जार गिहत्थाय धण्णेण सत्थनाहे ण एव वुत्ता समाणा जाव चिट्ठति, तएण धण्णे सत्यवाहे सोहणसि तिहिकरणनक्खत्त सि विउल असण ४ उवक्खडवेइ, उपक्खडावित्ता मित्तणाइ आमतेइ, आमतित्ता भोयणं भोयावेइ, भोयावित्ता आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सगडीसग्गड जोयावेइ, जोयावित्ता चंपानगरीओ निग्गच्छद)
આ રીતે ધન્ય સાર્થવાહ વડે આજ્ઞાપિત થયેલા ચરક ગૃહસ્થ વગેર બધા માણસો ત્યાથી મુખ્ય ઉડાનમાં ગયા અને અન્ય સાથ વાહની રાહ જોતા तमा त्या शया - सापाई शुभ तिथि, ४२६), अने
। પુષ્કળ પ્રમાણમા અશન વગેરે રૂપ ચારે જાતના આહારે *
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारप्रमामृतवपिणी टीका म० १५ नन्दिफलस्वरूपनिरूपणम् पति, मोजयित्वा आपुच्छइ ' आपन्छति--विदेशगमनार्थमाज्ञा प्रार्थयति, आपु. उप-आज्ञा प्राप्य शकटीशाक्ट योजयति, योजयत्या चम्पा नगरीतो निर्ग छति=निस्सरति, निर्गत्य चरकान् यावत् गृहस्थांश्च साई गृहीत्वा 'नाइविप्पगिठेहि' नातिविपकृष्टेपु-नातिरेषु यथोचितेषु' अद्धाणेहि' अध्वसु-मार्गेषु 'वसमाणे २' वसन्-वसन स्थाने स्थाने निवास कुर्वन् 'सुहेहिं ' शुभैः प्रशस्तै. ' वसहिपायरासेहि' वसतिप्रातराशेः = निवासस्थाने प्रातःकालीनलघुभोजन सह अगजनपदस्य-अगदेशस्य मय-मध्येन यौव देमग ' देशाग्य अङ्गदेशसीमा वर्तते तत्रयोपागच्छति, उपागत्य शरटीशारट मोचयति, मोचयित्वा 'सत्यनिवेस' सायनिवेश करोति, कृत्वा कौटुम्पिकपुरुपान् शब्दयति-आध्यति शब्दयित्वाआय एनमनादी-" हे देवानुपियाः ! यूय खलु मम सार्थनिवेशे महता-महता शन्देन-उच्चस्वरेण उद्घोपयन्ता-सन्तः एवम्यक्ष्यमाणप्रकारेण बदत-कथयत-- धुका-तर उसने अपने मित्र, ज्ञाति आदि परिजनोको आमत्रित किया। आमत्रित करके फिर उन सबको उसने उस चतुर्विध आहारको भोजन कराया भोजन कराके फिर उन सबसे परदेश गमन करने की उसने आज्ञा मांगी। आजाप्राप्त करके उसने गाडी और गाड़ों को जुनवाया जुतवा कर फिर वह चपा नगरी से बाहिर निकला। चरकादि गृहस्थ पर्यन्त समस्त जन को अपने साथ में ले लिया-(निग्गचित्ता चरगाय जाव गिरत्थाय सद्धिं घेतण णाइविप्पगिटेहिं अद्वाणेणि समाणेर सुहेहिं वसहिपायरासेहि अग जणवय मज्झ मज्झेण जेणेव देमर्ग तेणेव उवागच्छद, उचागच्छित्ता मगडीसागड मोयावेह मोयावित्ता सत्यणिवेस करेड करित्ता कोडचियपुरिसे सद्दावेइ सहवित्ती एवं वयासी - तुम्भेण देवाणुप्पिया ! मम सत्यनिवेससि मया २ આહારે તૈયાર થઈ ગયા ત્યારે તેણે પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે પન્જિનને આમત્રિત કર્યા આમ ત્રિત કરીને તેણે બધાને ચારે જાતના આહારે જમાડ્યા ત્યાર પછી તેણે સૌની પાસેથી પરદેશ જવાની આજ્ઞા માગી આમ તેણે બધાની પાસેથી આજ્ઞા મેળવીને ગાડી તેમજ ગાડાઓ જોતરાવ્યા અને ત્યાર પછી તે ચ પ નગરી થી બહાર નીકળે તેણે ઉગાનમા રાહ જોનારા બધા ચરક ગૃહસ્થ વગેરે માણસને પણ સાથે લઈ લીધા હતા
(निग्गन्छित्ता चरगाय जाय गिहत्था य सद्धिं घेत्तुग णादपिप्पगि?हिं अद्धार्णहि वसमाणे २ सुहेहि वसहिपायरासे हिं अग जणवय मज्झ मज्झेण जर्णव देसग्ग तेणेव उपागच्छद, उवागन्छित्ता सगडीसागड मोयावेइ, मोयावित्ता मशग - रिचा कौडु वियपुरिसे सदावेइ, सदाविचा
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
माता एत्र खल देवानुमिया ! 'इमोसे' भम्याः ' अगामियाप' - ग्रामरहिवापा: छिन्नमायाए 'छिमपातायाः छिन आपाती = जगरामागे यत्र सा, तस्या जनसञ्चाररहितायाः 'दीहमदाए' दीर्याधाया -दी पहुकारगम्य! अध्यामागों यन सा, तस्या:-चिरकाल लहनीयायाः, एतादृश्या अटव्या बहुमध्यदेश भागे-प्रतिमध्यभागे, 'एत्य ण' अत्र सलु पहको नदिफनामरक्षाः प्रनयीलोक , कविता. । कीदृशास्ते ? इत्याह-रिहा' इत्यादि-कृष्णा-कप्णवर्णा, कृष्णावमासाअतिनीलत्वेन कृष्णन्छटासम्पनाः यात्-नीलादिवर्णयुक्ता,
सहेण उग्धोसेमाणार एव वयह पत्र पल देवाणुप्पिया! हमीसे अगा ...मियाए छिन्नावायाए दीमादाए अहवी यमसदेमभा यावे णादिफ -लानाम रुपया पन्नत्ता फिणा जाव पत्तिगा,पुफिया, फलियो हरियगरेरि जमाणा मिरीए अईवर उचसोभेमाणा चिट्ठति) निकल कर नाति विप कृष्ट-यथोचित-मागीमें ठहरता और वहांरप्रातः कालीन कलेचा करता हुआ वह जहा अगदेश की सीमा थी वहा पर आया। वहां आकर के उसने अपने शकटी शकटों को ढील दिया और ढील करके फिर अपने साथै को ठहरा,दिया । ठहरा देने के बाद फिर उसने अपने कौटुम्बिक -पुरूषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियों तुम लोग हमारे सार्थनिवेश में बडे जोर २ से घोषणा करते हुए ऐसा कहो कि हे देवानुप्रियो ! सुनो जन सचार रहित दीर्ध मार्ग वाली इस आगे
की अटवी के मध्यभाग में लोग कहते है कि अनेक नदीफल नाम के * एव वयासी.- तुब्भेण देवाणुप्पिया ! मम सत्य निवेससि. महया,,२ सद्देण उग्धोसेमाणा २ एव वयह-एव खलु देनाणुप्पिया ! इमीसे अगामियाए छिन्नावायाए दीहमद्धाए, अडवीए बहुमज्ज्ञदेसभाए यहवे णदिफलानाम रुक्खा पन्नत्ता किण्हा जाब पत्तिया, पुफिया फलिया, हरियगरेरिज्जमाणा सिरीए अईव २ उपसोभेमागा चिट्ठति)
!
} , * ત્યાથી રવાના થઈને તે માર્ગમાં યથાકથાને નજીક નજીકના સ્થળ ઉપર વિશ્રામ કરતા અને ત્યા સવાર થતા જલપાન ( નાસ્ત ) વગેરે કરતે તે અગદેશની હદ ઉપર પહેલા પહોચીને તેણે ગાડી અને ગાડાઓને
છી માયા અને ત્યા પિતાના સાર્થને રે રોક્યા પછી તેણે પિતાના , કૌટુંબિક પુરુષને બોલાવ્યા અને બેલાવીને તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે કરવાનુપ્રિયે! અમારા સાથે સ નિરેશમાં તમે લેકે મેટેથી આ પ્રમાણેની
શાષવા કરતા કહે કે હે દેવાનુપ્રિયે! સાભળે ! હવે આગળ આવતાર ” લાખ માગવાળા નિર્જન વનમા લેકે એમ કહે છે કે તેમા ઘણુ નેદિકળ
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगारधर्माणो टीका अ० १५ नदिफलस्वरूपनिरूपणम्
૨૭
'
"
'
-
1
तथा-' पत्तिया पंडिताला 'पुफिया पुष्पिता' = पुप्पनहुलाः, 'फेलिया' फलिताः = फलनहुला हरियगरेरिज्जमागा' हरितकरारज्यमाना हरित केन= हरितवर्णेन भृश शोभमाना 'सिरीए त्रिया हरितपल्लवादिशोभया ' अंती ती उपशोभमानास्तिष्ठन्ति = वर्त्तन्ते । पुन कीदृशास्ते इत्याह- मनोज्ञावर्णेनं, 'जात्र' यावत्-गेन, रसेन स्पर्शेन, मनोज्ञा यया रम्यपर्णादिना रम्प छायया च युक्ता इत्यर्थ, ' त' तत् तस्मात् नन्दिभाणा सौन्दर्यादिकारणपैशात् 'जोण ' यः खलु हे देवानुप्रिया ! तेपा नन्दिफलाना = नन्दिफलाभिधान हसाणा मूलानि नाकन्दानि वा चोवा, पत्राणि वा, पुष्पाणिवा, फलांनि वा, बीजानि वा, हरितानि वा ' आहारेड ' आहास्यति, तेपा छायाया वा 'वीसम ' विश्राम्यति तस्य खलु आवाए' आपाते = पूर्व भणादि समये ' मद्दए वृक्ष हैं। ये वृक्ष कृष्ण वर्णवाले है और देखने पर भी अति हरित होने के कारण कृष्ण ही प्रतीत होते हैं । पत्र, पुष्प एव फलों से वे युक्त है। वे ररित वर्ण से बडे सुहावने लगते ह । उनके पल्लव आदि न हरे २ है। इससे उन की शोभा बडी नीराली बनी हुई है। ("मेण्णा वन्नेण - ४ जाव मणुन्ना फासेण मणुन्ना प्रयात, त जो ण देवाणुपिया 'सि नदिफला रुकवाण मूलाणिवा कद० तय० पत्त० पुप्फ० फल० वीर्याणि = व हरियाणि वा आहारेह, जयाए वा वीसमंह, तस्म णं आवाएं महए भुवः, तओ पच्छा परिणममाणा २ आकाले चैव जोबियाओं व वरी ति) वर्ण, रस, गंध एव स्पर्श से वे बड़े मनोज्ञ हैं । छाया भी उनकी यटी मनोज्ञ है। इस लिये हे देवानुप्रियो । जो कोई ईन की सुन्दरता आदि कारण के वशसे आकृष्ट होकर इन नदिफल वृक्षों के मूलों को कटों को छालों को, पत्रों को, फलो को बीजों को अथवा हरित अकुरों
,
2
નામે વૃક્ષો છે તે વૃક્ષો કૃષ્ણ વવાળા છે અને ખૂબજ લીલા હાર્વાથી કૃષ્ણુ વના જેવા જ લાગે છે પત્ર, પુષ્પ અને કળાથી તેએ સમૃદ્ધ છે લીલા છમ હેવાથી તે અત્યંત સુદર લાગે છે તેમના પત્રા વગેરે અષા લીલા છે તેથી તેમની શેાભા એકદમ અનેાખી છે
1
( मणुष्णा वन्नेग ४ जाव मणुन्ना फासेण मणुन्ना डायाए त जो ण देवाणु'पिया' तेर्सि नदिफलाण रुक्खाण मूलाणि वा कद्र० तय० पं० पु०, फल० वीयाणि वा हरियाणि वा आहारेह, छायाए वा वीमेम तस्स ण आवाए महर भव, तुम पच्छा परिमाणा २ अठे चेत्र जोत्रियाओ वरीवेति) ખૂબજ મજ્ઞ છે. છાયડા પશુ તેમના અત્યત મનાત્ત છે એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! કાઈ પણ માલુસ તેમની સુંદરતા વગેરે કારણોથી આકર્ષાઇને તે નળિ વૃક્ષોના મૂળાને, કાને છાલને પાદડાઓને, પુષ્પાને, બિયાને અથવા તેા લીલી કૂપળાને ખાશે કે
વ, રસ, ગધ અને સ્પશથી તે
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
माताधर्म यूय, खल हे देवानुपिया. । मम मानिशे महता-हता शमन उद्घोपसन्तार एव पदत-"एते खलु हे दशानुपियाः ! ते इमो नदिफलामाः यदर्थ, पूर्व पदिष्टम् कृष्णा यात्-मनो जायगा, तर यो सलु हे देशानुपियाः । एतेषा नन्द्रिफलाना माणा मूलानि वा कन्दानि या पुपागि वा सो वा, पनागि बा, फलानि वा, यावत्-तानि मूलान्दादीनि त जीरिताद व्यपरोपपन्ति, तत् मा खलु यूय ' जाव' यात्-तेग मूलकन्दादीनि मा आहारयत, मा च तैपा छापा विश्राम्यत किन्तु तान दर-दरेण-दरत पर परिसरमाणा' परिहरन्त वर्जयन्त तीन वार घुलाया-बुलाकर उसने ऐसा कहा-हे देवानुप्रिया तुम मेरे साध निवेश में जाकर जोर २ से ऐमी घोषणा करो-कि हे देवानुप्रियो ज़िन नदिफल वृक्षों के विपत्र में परिले सूचना दी गई है-वे येही कृष्ण यावत छाया से मनोज नदिफल वृक्ष है त जो ण देवाणुप्पियाँ। पुरसिं दिफलाण खाण मूलाणिवा कंद पुरफ० तय० पत्त० फल जाव अकाले चेव जीवियाओ वयगेवेइ, त माण तुम्भे जार दूरे दूरण परिहरमाणा वीसमह माण अकाले चेव जीवियाओ वरोविस्सइ, अ नेसि रुकवाण मूलाणि यजाव बीसमहत्ति कहद घोमण जाव पच्च पिणंति ) इस लिये हे देवानुप्रियो । तुम लोग में से कोई भी व्यक्ति इन नदिफलवृक्षोंके नूगेको, कंदोंको, पुष्पोंको, छालोंको, फलोंको नहीं खावे और न वह इनकी छांयामे विश्राम ही करे-नहीतो वह अकालमै ही काल कवलिन अर्थात् मर जावेगा हो जावेगा। इस लिये इन्हे बहुत दूर छोडकर दूसरी जगह तुम लोग विश्राम करो इससे जीवन से रहित મીરા સાથે નિવેશમાં જઈને મેટેથી તમે આ પ્રમાણે છેષણ કરો કે દેવાનુપ્રિયે ! જે દિફળ વૃક્ષોના વિષે પહેલા તમને જાણ કરવામા આવી હતી તે એજ કૃણ તેમજ છાયાથી મનેસ લાગતા નદિફળ વૃક્ષો છે . (त जो ण देवाणुप्पिया ! एएसि प्रदिफलाण रुक्खाण मूलाणि वा कद गुप्फ० तय० पत्त० फल जाव,अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेइ त' माणं तुम्भ जाव दर दूरेण परिहरमाणा वीममह,माण अकाले चेव जीवियाओ ववरोविस्सइ, अन्नेसि रुक्खाण मूलाणि य जार, चीसमहत्ति कटु घोसणं जाव पच्चप्पिणति) , એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમારામાંથી કોઈ પણ માણસ નદિફળ વસોના મૂળને, કદને, પુષ્પને, છાલને, ફળને ખાય નહિ અને તેમની કથામાં પણ વિમા લે નહિ, નહિતર તે અકાળે જ મુકે છે એટલા
मनाथी भूम ४ २ २ही विसामो शा
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतविणी टी० १० १५ नदिफलस्वरूपनिरूपणम् सन्तोऽन्यत्र 'वीसमद ' विश्राम्यत-विश्राम कुरुत तेन न सलु यूय जीविताद् व्यपरोपिप्य वे, तथा-अ येषां वृक्षाणा मूलानि च यावत्-न्दादीनि आहारयत, छायास विश्राम्यत" नि कृत्वा पणा घोपयत, गायत्-ते घोपणा घोपयित्वा धन्यसार्थवाहाय तदाता प्रन्यर्पयन्ति । तत्रालु साथै अप्येके पुरुपा धन्यस्य सार्थ वाहस्य एनमर्थम्प पदेश अदधति, प्रतिगति-रोचयन्ति, एतमय श्रद्दधाना:श्रद्धाविपयिकुर्वाणाः प्रतियन्त रोचयन्त तेपा नन्दिफलताणा मृलादीनि छायो च दूर -रेण दतएन परिहरन्तः परिवर्जयन्तोऽन्येपा वृक्षाणा मूलानि च यावत्कन्दादीनि आहारयन्ति, जन्यवृक्षाणा डायाम् च विश्राम्यन्ति, तेपां खलु नहीं होओगे । तथा इनसे अतिरिक्त और जो दूसरे वृक्ष हैं उनके मूलों को यावत् कन्दादको को ग्वाओ और उनकी छाया मे विश्राम करो। इस प्रकार की घोषणा कर दो-उन्हों ने धन्य सार्थवाह की आज्ञानुसार वैसा ही किया और इसकी उसे ग्वार भी दे दी। (तत्य ण अप्पेगइया परिसा वगस्स सत्यवाहस्स ण्यम सद्दति, पत्तियति रोयति, एयमह सद्दहमाणाड तेसि नदिफलाण. दूर दूरेण परिहरमाणा २ अंनास रग्वाण मृलाणि य जाव वीसमति) चहा सार्य में के कितने के मनुष्यों ने धन्य सार्थवाहके इस सूचना रूप अर्थको स्वीकार कर लिया। उस पर श्रद्धा जमाई उसे अपनी प्रतीति का विषय बनाया तथा उन्हें वह बात अच्छी तरह रुचि कर भी हुई । इसलिये इस बात पर श्रद्धा आदि सपन पने हा उन लोगों ने उन नदि फल वृक्षों के म्लादिकों की और उनकी छाया को पटत दूर से छोडकर अन्य वृक्षों के मुलादि પણ મુશ્કેલી નડશે નહિ તેમજ આ વૃક્ષો સિવાયના બીજા વૃક્ષો છે, તેમના મૂળ કદ વગેરે તમે ખાવ અને તેમના છાયડામા વિશ્રામ કરે તેઓએ ધન્યસાર્થવાહની આજ્ઞા પ્રમાણે જ ઘેષણ કરીને તેને ખબર આપી
(तत्थ ण अप्पेगठया पुरिसा धण्णस्स सत्यवाहस्स एयमद सद्दहति, पत्तिपति, रोयति, एयमट्ट सदहमाणाइ तेर्सि नदिफलाण दूर दरेण परिहरमाणा २ अन्नेमि रुक्खाण माणि य जाव चीसमति) ।
ત્યા સ ર્થમાં આવેલા કેટલાક માણનોએ ધન્યસાર્થવાહની સૂચના રૂપ આ વાતને સ્વીકારી લીધી અને તેને શ્રદ્ધાની અપેક્ષાએ પિતાના હદયમાં સ્થાન આપતા બરોબર તેની પર પ્રતીતિ કરી લીધી તે લેકેને તે વખત રૂચિકર પણ થઈ પડી આ રીતે શ્રદ્ધાયુક્ત થયેલા તે લોકોએ તે ન દિફળ
લોના મૃળ વગેરેથી અને તેમની છાયાથી ખૂબ જ દૂર રહીને બીજા વૃક્ષોની મૂળ તેમજ કર તેમને ખાધા તથા તેમની છાયામાં વિસામે લીધે
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
हाताधर्मsaet यूय खल हे देवानुपिया ! मम मानिदेशे महना-महता शब्दन उद्योपयन्तार एव दत-" एते खलु हे देशानुमिया. ! ते इमो नदिफलासाः यदर्थ, पूर्वर पदिष्टम् क्रष्णा यानत्-गनो छायगा, तर यो सर हे देवानुपिया. 1 एतेषी नन्द्रिफलाना घृक्षाणा मूलानि का फन्दानि मा पुगिसो वा, पागि वा, फलानि वा, यावत्-तानि मूलान्दादीनि त जीरिता “यपरोपगन्ति, तत् मा खल यूय ' जार' या पत्-तेरा मुकन्दादीनि मा आहारयत, मा च तेपा गयास विश्राम्यत स्न्तुि तान दर-दरेण-दत पर 'परिहरमाणा' परिहरन्त बजेयन्त तीन बार घुलाया-धुलाकर उसने पेसा करा-हे देवानुप्रिया! तुम मेरे सार्थ निवेश में जाकर जोर २ से ऐमी घोपणा करो-कि हे देवानुप्रियो जिन नदिफल वृक्षों के विपत्र में पहले सूचना दी गई है-वे येही कृष्ण यावत छाया से मनोज नदि फल वृक्ष है। त जो ण देवाणुप्पिया। पुरसि गंदिफलाण वखाण मूगणिया कद० पुष्फ० तय० पत्तः फल जाव अकोले चेव जीवियाओ वगेवेइ, त माण तुम्भे जोर दूरे रेण परिहरमाणा वीसम माण अकाले चेव जीवियाओ वरोविस्तइ, अ न्नेसि सकग्वाण मूलाणि यजाव बीसमहत्ति की घोमण"जाव पञ्च पिणति ) इस लिये हे देवानुप्रियो । तुम लोग में से कोई भी व्यक्ति इन नदिफलवृक्षोके नरोको, कदोंको, पुष्पोंको, छालोंको, फलोंको नहीं खावे और न वह इनकी यामे विश्राम ही करे-नहीतो वह अकालमें ही कालावलिन अर्थात् मर जावेगा हो जावेगा। इस लिये इन्हे बहुत दूर छोडकर दूसरी जगह तुम लोग विश्राम करो इससे जीवन से रहित મારા સાથે નિવેશમાં જઈને મેટેથી તમે આ પ્રમાણે પણ કરો કે છે દેવાનુપ્રિયે ! જે નદિફળ વૃક્ષોના વિષે પહેલા તમને જાણ કરવામા આવી હતી તે એજ કૃષ્ણ તેમજ છાયાથી મને લાગતા નદિફળ વૃક્ષો છે
(त जो ण देवाणुप्पिया! एएसि णदिफलाण रुक्खाण मूलाणि वा कद पुप्फ० तय० पतफल जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेइ त माण तुभे जाव दर रेण परिहरमाणा वीममह,माण अकाले चेव जीवियाओ ववरोविस्सइ अन्तेसि रुकवाण मूलाणि य जार बीसमहत्ति कट्टु घोसणं जाव पच्चप्पिणति) [, એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે! તમારામાંથી કોઈ પણ માણસ ને દિફળ વૃક્ષના મૂળને, કદોને, પુષ્પને, છાલને, ફળને ખાય નહિ અને તેમની યામાં પણ વિસામો લે નહિ, નહિતર તે અકાળે જ મૃ૧છે એટલા * એમનાથી ખૂબ જ દૂર રહીને વિસામો લેશે તેથી ?'', કે
.
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधर्मामृतरविणी टी० अ० १५ नदिफलस्वरूपनिरूपणम्
k
,
सन्तोऽन्यत्र 'श्रीसमद्द ' विश्राम्यत-विश्राम कुरुत तेन न सलु यूय जीविताद् व्यपरोपिप्यवे, तथा - पापानि च यावत् कन्दादीनि आहारयत, छाया विश्राम्यत" रतिहता पण घोषयत, गावपणा योषयित्वा धन्यसानादाय तदा प्रत्यर्पयन्। तत्र सार्वे जप्येके पुरुषा धन्यस्य सार्थ वाहस्य एतमर्थम् =पदेश श्रदधति, प्रतिगति - रोचयन्ति एतम श्रद्दधानाः श्रद्धाविपकुर्वाणाग्रतियन्त' रोचयन्त तेपा नन्दिफलक्षाणा मुलादीनि छाय च दूर -दूरेण दूरतएन परिहरन्तः = परिवर्जयन्तोऽन्येषा वृक्षाणा मूलानि च यावत्कन्दादीन आहारयन्ति जन्यवृक्षाणा डायासु च विश्राम्यन्ति तेषां खलु नहीं होओगे । तथा इनसे अतिरिक्त और जो दूसरे वृक्ष हैं उनके मूलों को यावत् कन्दादिको को वाओ और उनकी छाया मे विश्राम करो। इस प्रकार की घोषणा कर दो-उन्हों ने धन्य सार्थवाह की आज्ञानुसार वैसा ही किया और इसकी उसे ग्वनर भी दे दी । ( तत्थ पण अप्पेया परिसा वण्णस्स सत्यवाहस्स एयमठ्ठ सदहति, पत्तियति रोयति, एमट्ट सहरमाणाइ तेसि नदिफलाण० दूर दूरेण परिहरमाणा २ असि वाण लाणि य जाय वीसमति ) वहा सार्थ में के कितने क मनुष्यों ने धन्य सार्थवाहके इस सूचना रूप अर्थको स्वीकार कर लिया। उस पर श्रद्धा जमाई उसे अपनी प्रतीति का विषय बनाया तथा उन्हें वह बात अच्छी तरह रुचि कर भी हुई। इसलिये इस बात पर श्रद्धा आदि सपन बने हुए उन लोगों ने उन नदि फल वृक्षों के मूलादिकों hi और antarata दूर से छोडकर अन्य वृक्षों के मूलादि પણ મુશ્કેલી નડશે નહિ તેમજ આ વૃક્ષો સિવાયના બીજા વૃક્ષો છે, તેમના મૂળ કદ વગેરે તમે ખાવ અને તેમના છાયડામાં વિશ્રામ કરી તેઓએ ધન્યસાવાતુની આજ્ઞા પ્રમાણે જ ઘેષણા કરીને તેને ખખર આપી
( तत्थण पेगडया पुरिसा धण्जस्त सत्यवादस्स एयम सद्दहति, पत्तियति, रोयति एयम सहमाणाइ तेर्सि नदिफलाण दूर दूरेण परिहरमाणा
२ अन्नेमिं रुक्खाण मूलाणि य जाव वीसमति )
ત્યા મમા આવેલા કેટલાક માણુનેએ ધન્યસા વાહની સૂચના રૂપ આ વાતને સ્વીકારી લીધી અને તેને શ્રદ્ધાની અપેક્ષાએ પેાતાના હૃદયમા સ્થાન આપતા ખાખર તેની ઉપર પ્રતીતિ ની લીધી તે લેાકાને તે વત રૂચિકર પણ થઈ પડી આ રીતે શ્રદ્ધાયુક્ત થયેલા તે લેાકેાએ તે ન ફળ વૃક્ષોના મૃળ વગેરેથી અને તેમની દયાથી ખૂમ જ દૂર ચ્હીને ખીજા વૃક્ષોના એને ખાધા તથા તેમની છાયામા વિસામેા લીધે
มาก สิ่ง
१०
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२९
धर्मकथा भापाते-पूर्वमाहारसमय नो भद्रक मानि=पिशिष्टादादिलाभो न भवति किन्त ततः पश्चा-भतणप्रियामानन्तर परिणम्यमानानि २ रसादिरूपेण परिणतानि मूलफन्दादीदि शुभरूपतया-गस्तया भूयो भूय परिणमन्ति ।
अथोपनय दर्शयन् मुधर्मस्वामी मार-मामेये 'स्पादिना । 'एवामेव ' एवमेव अनेनै पूर्वोक्तप्रकारेण हे आयुपान्तः श्रमणाः ? योऽस्माक निर्ग्रन्यो का निर्मन्थी या 'जार' यावत्-आचार्योपाध्यायानामन्ति के मुण्डा भूत्वा मनजितस्ते पामुपदेशं श्रद्दधानः सन् पश्चन यामगुणेपु-शब्दादिविषयेषु 'नी सज्जेइ' नो कों को यावत् कदों को खाया और उनकी छाया में विश्राम किया। (तेसि ण आवाए णो भए भया, तो पच्छा परिणयमाणा २ सुह रूवत्ताए भुज्जो २ परिगमति, एवामेव समणाउसो जो अम्ह निग्गयो घा निग्गंथी वा जार पचसु कामगुणेसु नो सज्जेह, नो रज्जेइ, से ण इहभवे चेव यहण समणाण ४ अच्चणिज्जे परलोए नो आगच्छ, जाव वीईवयस्सइ, जहा चा ते पुरिमा) परन्तु इन पुरुपोंको उनके मूला दिकों के खाने के समय विशिष्ट स्वादादि को प्राप्तिरूप भद्रक का लाभ तो नहीं हुआ-किन्तु उसके बाद जप खाये हुए उन भूलादिकों का रसादि रूप से परिणमन हुआ तब उन्हें पार २ शुभ रूप परिणमन होने से आनन्द आया और जीवन सुरक्षित रहा-अय सुधर्मास्वामी इसका उपनय ( दृष्टात के अर्थ को प्रकृति में जोडना ) दिग्वलाते हुए कहते हैं कि इसी तरह से हे आयुष्मन्त श्रमणो । जो हमारे निग्रन्थ श्रमण एवं श्रमणियाजन हैं वे आचार्य उपाध्यायके पास मुडित होकर दीक्षिन हो जाते हैं और उनके उपदेश को श्रद्धा आदि का विषयभूत
(तेसिंण आवाए णो भए भवइ, तो पच्छा परिणममाणा २ सुहरुव ताए भुज्जो २ परिणमति, एनामेव समगाउमो जो अम्द निग्गयो वा निग्गथी वा जाव पवसु कामगुणेसु नो सज्जे, नो रज्जे से ण इहमवे चेा बहूण समणाण४ अच्चणिज्जे परलोए नो आगच्छइ, जाव वीइवयस्मइ जहा वा ते पुरिसा)
તે માણસને વૃક્ષોના મૂળ કદ વગેરે ખાતી વખતે સવિશેષ સ્વાદ વગે રની અનુભૂતિ તે થઈ શકી નહિ પણ ખાધા પછી તે મૂળ ક & રસ વગેરે રૂપમાં પરિણત થયા ત્યારે તેમને સુખ મળ્યું અને સાથે સાથે તેમના જીવન પણ સુરક્ષિત રહ્યા સુધર્મા સ્વામી હવે એજ વાતને દષ્ટાન્તના રૂપમાં સ્પષ્ટ કરતા કહે છે કે હે આયુષ્મત શ્રમશે! આ પ્રમાણે જ જે અમારા નિગ્રંથ જમણી, આચાર્ય તેમજ ઉપાધ્યાયની પાસે મુતિ થઈને,
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
गारधर्मामृत
टीका ० १५ नदिफलपनिरूपणम्
१२३
स्वजते = आसक्तो भवति, 'नो रज्जेइ ' नो रज्यते नो अनुरक्तो भवति म खलु इह भवएव बहूना श्रमणाना श्रमणीना नहूना साधूना साधीना मध्ये-अर्चनीय'= माननीयः सन परलोके भवान्तरे नो आगच्छति = जन्म न प्राप्नोति किन्तु - यावत्-अस्मिन्नेव भवे चातुरन्त समारकाचार व्यतिप्रनिष्यति = उल्लङ्घयिष्यति, मोक्ष प्राप्स्यतीत्यर्थः 'जहा वा ते पुरिसा' यथा वाते पुरुषा:- यथा वायेन प्रका रेण धन्यसार्थनापदेया तेनन्दिफलमूलकन्दादि परिवर्जनेन तत्कथनानुमारसमाचरणशीलाः पुम्पाः = सार्थपुरुपा सुखपूर्वकमहिच्छत्रा नगरीं प्राप्स्यन्ति तत्यर्थः । अथ श्रद्धा रहितान् वर्णपति- 'तत्थ ण' इत्यादि । तत्र खलु सार्थे अप्येकेन्ये तेचित् पुरुषाः धन्यस्य सार्थवाहस्य एतमर्थ नन्दिफलभक्षणादि निषेधरूप बनाते हुए पात्र काम गुणों में- शब्दादि विषयों में आसक्त नहीं बनते हैं अनुरक्त नहीं बनते हैं वे इस भवमें ही अनेक साधु और साध्वियों के में माननीय होते हुए परलोक में जन्म से रहित हो जाते हैंअर्थात् पुन उन्हें जन्म धारण नहीं करना पडता है । कारण वे इसी भव में चतुर्गति रूप इस संसार कान्तार को पार करने वाले बन जाते हैं - उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जायेगा ऐसे वे तैयार हो जाते हैं । जिस प्रकार धन्य सार्थवाह के उपदेश पर श्रद्धा करने से ये सार्थ के कितनेक पुरुष नदि वृक्षों के मूलकंदादिकों का परिहार-त्याग करते हुए और उसके कथनानुसार अपना आचरण बनाते हुए सकुशल अहिच्छत्रा नगरी को प्राप्त कर लेंगें ऐसे बन गये । अन जिन्होंने धन्य सार्थवाह के वचनों पर श्रद्वा नही की उनकी क्या दशा हुई इस बात का वर्णन सूत्रकार करते हैं - (तत्थ ण अप्पेगडया पुरिमा धण्णस्म सत्यवाहस्स एयયુક્ત થઇને પાચ કામ ગુણેામા શખ્વાદિ વિષયમા–અનાસક્ત રહે છે એટલે
સ સાર
અનુરક્ત થતા નથી, તેએ આ ભવમા જ ધણા સાધુએ તેમજ સાધ્વીઓની વચ્ચે સન્માનનીય થતા પરલેાકમાં જન્મરહિત થઈ જાય છે. એટલે કે ફરી તેઓના જન્મ તેા નથી કેમકે તેઓ આ ભવમા જ ચતુતિ રૂપ આ કાત્તારને પાર કરવા લાયક સામર્થ્ય મેળવી લે છે તેએ મેક્ષ મેળવવા ચેગ્ય થઇ જાય છે, જેમ ધન્યસાવાહના ઉપદેશ ઉપર શ્રદ્ધા મૂકીને સાધના કેટલાક પુરૂષાએ નદિ વૃક્ષોના મૂળ કદ વગેરેને ત્યજીને તેની સૂચના મુજબ આચ રણુ કરતા અહિચ્છત્રા નગરીમા પહેાચી શકે તેવા થઈ ગયા હવે જે પુરૂષાએ ધન્યસાથૅવાહની વાત ઉપર શ્રદ્ધા મૂકી નહિ તેની શી હાલત થઈ તેનુ વર્ણન કરતા સૂત્રાર કહે છે—
(तत्यण अप्पेगइया पुरिसा धण्गस्स सत्यवाहस्य एयमट्ठ नो सदहवि ३
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
माताr नो श्रदधति नो रोचयन्ति नो प्रतियति। ने धन्यस्य-नमा अवश्याना अरोच यन्तः, अमतिगन्न योर नदिफला लागायोपाग उन्ति, उपागत्य तपां नन्दि फलाना मूलानि 7 यात्-कन्दादीनि आहारयन्ति, ताजायागु नविश्राम्यन्ति तेपां खलु आपाते-पूर्व फलमक्षणादिममरे भटक मानिम्मम्पादादिलामोमबति किन्तु 'तो पच्छा' ततः पधातू फलमसणायनन्तर परिणम्यमाना साटिरूपेण मह नो महाति ३ धागस्म एयमह असामाणाणे ते नदिफना तेणेव उवागच्छिति उवागचिता तेसि नदिफलाण मृलाणि य जाम वीसमति, तेसि ण आपाप महा भरड, तओ पच्छा परिणममाणा जाव वररोति एवामेव समणाउरगे! जो अम्हं निग्गयो वा निगगी चा जाच पन्चइए पचतु कामगुणेसु मज्जेड, मनित्ता जार अणुपरिय हिस्सइ जहा वा ते पुरिसा) वहा पर कितनेक पुरुषों ने धन्यसार्थवाह के इस कथन को कि नदिफल वृक्षो के कदमूलादि नहीं साना चाहिये और न उनको आयामें ती विश्राम करना चाहिये अद्वाकी दृष्टि से नहीं देखा उस पर अपनी श्रद्धा नहीं जमाई, उसे अपनी रुचि का प्रतीति का विषय नहीं पनाया-ये पुरप- धन्यसार्थवाह के इस कथन को अश्र द्वेय आदि मानकर जहा पर नदिफल वृक्ष थे- वहा गये वहा जाकर उन्होंने उनके मूल कदादि कों को खाया उनकी छाया में विश्राम किया उस समय उन्हें घड़ा आनन्द आया- स्वाद जन्य कोई अपूर्व सुख मिला -किन्तु जर उनका परिपाक काल आया जब वे खाये हुए मृलकन्दादि धण्णस्त एयम? असदहमाणा : जेणेव ते णदिफला तेणेन उवागच्छ ति, उवा ग्रच्छित्ता तेसिं नदिफलाण मूलाणि य जार वीसमति, तेसि ण आनाए भइए, भवइ, तभी पच्छा परिणममाणा जार वरोति एपामेव समणाउसो । जो अम्ब निग्गयो वा निग्गथी वा जाव पचइए पचमु कामगुणेसु सज्जेइ, सज्जित्ता जाव अणुपरियहिस्सद, जहा या ते पुरिमा)
ત્યા કેટલાક માણસોએ ધન્યસાર્થવાહના નવિફળ વલોના કદમૂળો વગેરે ખાવા જોઈએ નહિં તેમજ તે વૃક્ષોની છાયામાં પણ વિસામે લે નહિ આ જાતના કથન પ્રત્યે શ્રદ્ધાવાન થયા નથી, તેના ઉપર વિશ્વાસ મૂકે નહિ અને પ્રતીતિપૂર્વક તેમાં પિતાની અભિરૂચી બતાવી નહિ તે માણસ ધન્યસાર્થવાહના કથન અશ્રદ્ધેય માનીને જ્યા ન દિફળ વૃક્ષો હતા ત્યા ગયા ત્યાં જઈને તેમણે તેમના મૂળ કદ વગેરે ખાધા અને તેમના છાયડામા વિસા લીધે તે સમયે તે તેમને ખૂબ જ આનંદ પ્રાપ્ત થયે, ફળના સ્વાદમાં અપૂર્વ સુખ મળ્યું, પણ જ્યારે તેઓની પાચન ક્રિયા થવા માડી, એટલે કે ખાધે વગેરે
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंगारधर्मामृतपिणी टीका अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम
१२५
,
परिणाम प्राप्नुवन्तः सन्तः धन्दादय यावत् तान् जीनिनाद् व्यपरोपयन्ति । 'एमेव ' एन=न प्रकारेण हे आयुष्मन्त' श्रमणाः योऽस्माक निर्ग्रन्थों वा निर्ग्रन्थीना यावत् मनजितः सन पञ्चमु रामगुणेपुच्द्रादिकामभोगेषु स्वजते, रज्यते - कामभोगासक्तो भवति यावत् स खलु भवे बहूना रामण-श्रमणीना, ना श्राकानिकाना मध्ये हिल्नीयो, निन्दनीय', विसनीयो भवति, परलोके च भवान्तरे चातुरन्त ससारकान्तारम् अनुपर्यदिष्यति चातुर्गतिरससार एव स्थास्यति न तु मोक्ष प्राप्स्यतीत्यर्थं । येन प्रकारेण ते=धन्योपदेशमश्रद्दधानाः पुरुषाः = सार्थस्थिता जना नन्दिवृक्षमूलकन्दादिभक्षणेन तत्रैव म्रियन्ते नतु अहिच्छना नगरीं प्राप्नुत्रन्तीति भावः ॥ मु०३ |
मूलम् — तएण से धण्णे सत्थवाहे सगडीसागड जोयावेइ जोया वित्ता जेणेव अहिच्छत्ता नयरी तेणेव उवागच्छड़ उवारसादिरूप से पणिमने लगे-तब वे सब अपने जीवन से रहित हो गये. - मर गये | इसी तरह हे आयुष्मत श्रमणो । जो हमारा निर्ग्रन्य व निर्ग्रन्धी साध्वीजन नाचत प्रवजित होकर पचकाम गुणो मे - -पचड न्द्रियों के शब्दादि विषयों मे-आसक्त बन जाता है-अनुरक्त हो जाता है, वह इस भवमें अनेक श्रमण श्रमणियों के नीच हीलनीय, निंदनीय एव खिसनीय होता है एव वह भवान्तर में भी इस चतुर्गति रूप ससार कान्तार में ही घूमता रहेगा-मोक्ष प्राप्त नही करेगा । जिस प्रकार धन्य सार्थवाह के उपदेश पर श्रद्धा नही करने वाले सार्थ के ये कितनेक पुरुष नदिफल वृक्षों के मूलादि के खाने से वहीं पर मर गये - अहिच्छत्र नगरी नहीं जा सके || सू० ३ ॥
રસ વગેરે રૂપમા પરિણત થવા લાગ્યા ત્યારે તેએ બધા નિર્જીવ થઈ ગયા, મૃત્યુ પામ્યા આ પ્રમાણે જ હે આયુષ્મત શ્રમણે!! જે અમારા નિથ સાધુએ કે નિગ્રંથ સધિએ પ્રનજીત થઈને પાચ કામ ગુણેામા અર્થાત્ પાચે ઇન્દ્રિયાના શાદિ વિષયામા આસક્ત થઇ પડે છે-એટલે કે અનુરક્ત થઈ જાય છે, તે આ ભવમા ઘણા શ્રમણા અને ઘણી શ્રમણીએની વચ્ચે હીલનીય, નિંદનીય, અને ખસનીય હાય છે અને ખીજા ભવમા પણુ-આ ચતુČતિ રૂપ સ સાર–કાતારમા જ ભ્રમણ કરતે રહેશે તેને મેક્ષ પ્રાપ્ત થશે નહિ ધન્યસા વાહુના ઉપદેશને શ્રદ્ધેય ન માનનારા કેટલાક માણસે જેમ નિ ફળ વૃક્ષોના મૂળ વગેરે ખાઇને ત્યાને ત્યાજ મરણ પામ્યા, અહિચ્છત્રા નગ રીમા. પહેાચી રાકયા નહિ, તેમજ તેની પણ સ્થિતિ થાય છે સૂ ૩૫
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
प्रासाघमायाम नों श्रदधति नो रोषयन्ति नो प्रतियति। ते धन्यस्प-पनमा प्रधाना अरोच पन्तः, अपतिपन्त योग नन्दिफला मामयोपागान्ति, उपागत्य तपा नन्दि फलाना मूलानि च यावत्-कन्दादीनि आहारयनित, तग लाया न विश्राम्यन्ति तेपा सल आपाते-पूर्व फलमक्षणादिममा भद्रक माति-भुगापादादिलामोमाति किन्तु 'तो पन्छा' ततः पश्राद=फलमभणाधनन्तर परिणम्यमाना =रसादिरूपेण मह नो मदहति ३ धगस्म एयम असाइमाणाणेच ते नदिफना तेणेव उवागच्छिति उपगचिता तेसि नदिफागण मृलाणि य जाब वीसमति, तेसि ण आपाप महा भड, तओ पच्छा परिणममाणा जाव करोति एवामेव समणाडगे! जो अम्ह निग्गयो चा निग्गी वा जाव पन्चहरा पचप्लु कामगुणेसु मज्जेड, मनित्ता जार अणुपरिय हिस्सइ जहा था ते पुरिसा) वहा पर कितनेक पुरुषों ने धन्धसार्थवाह के इस कथन को कि नदिफल वृक्षो के कदमूलादि नहरों साना चाहिये
और न उनकी शयामें ही विश्राम करना चाहिये श्रद्धाकी दृष्टिसे नहीं देखा उस पर अपनी श्रद्धा नहीं जमाई, उसे अपनी रुचि का प्रतीति का विषय नहीं पनाया-वे पुरुप- धन्यसार्थवाह के इस कथन को अश्र द्धेय आदि मानकर जहा पर नदिफल वृक्ष थे- वहा गये वहा जाकर उन्होंने उनके मूल कदादि कों को साया उनकी छाया में विश्राम किया उस समय उन्हें बड़ा आनन्द आया-स्वाद जन्य कोई अपूर्व सुख मिला -किन्तु जब उनका परिपाक काल आया जब वे खाये हुए मृलकन्दादि धण्णस्स एयम अमदहमाणा ३ जेणेव ते णदिफला तेणेव उवागच्छ ति, उवा गच्छित्ता तेर्सि नदिफलाण मूलाणि य जार वीसमति, तेसि ॥ आनाए भदए, भवइ, तो पच्छा परिणममाणा जार वरोति एवामेव समणाउसो । जो अम्ह निग्गयो वा निग्गथी वा जाव पचडए पचमु कामगुणेसु सज्जेइ, सज्जित्ता जाव अणुपरियहिस्सड, जहा या ते पुरिसा)
ત્યા કેટલાક માણસોએ ધન્યસાર્થવાહના નદિફળ વૃક્ષોને કદમૂળ વગેરે ખાવા જોઈએ નહિ તેમજ તે વૃક્ષોની છાયામાં પણ વિસામે કે નહિ આ જાતના કથન પ્રત્યે શ્રદ્ધાવાન થયા નથી, તેના ઉપર વિશ્વાસ મૂકે નહિ અને પ્રતીતિપૂર્વક તેમા પિતાની અભિરૂચી બતાવી નહિ તે માણસો ધન્યસાર્થવાહના કથન અશ્રદ્ધેય માનીને જ્યા ન દિફળ વૃક્ષો હતા ત્યા ગયા ત્યાં જઈને તેમણે તેમના મન કદ વગેરે ખાધા અને તેમના છાયડામાં વિસામે લીધે તે સમયે તો તેમને ખૂબ જ આન દ પ્રાપ્ત થયે, ફળના વાદમાં અપૂર્વ સુખ મળ્યું, પણ જ્યારે તેઓની પાચન ક્રિયા થવા માંડી, એટલે કે ખા) છે वगेरे,
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणो टीका २० १५ नदिफलस्वरूपनिरूपणम १२७
टीका-'तएण से' इत्यादि । ततः खलु म ध यः सार्यवाह. शकटीगास्टं योजयति, योजयित्वा यौवादिच्छना नगरी तगोपागच्छति, उपागन्य अहिच्छ प्राया नगर्या पहिः अग्योद्याने मुख्योद्याने मार्यनिवेश करोति, कृत्वा शकटीशास्ट मोचयति । ततः खलु स धन्य सार्यवाहः 'महत्य' महाय-महामयो जनक. 'महग्ध' महाघ महामूल्य, 'महरिह' माई-महता योग्य 'रायरिह' राजा-राजयोग्य प्राभूत गृहाति, रीत्या बहुभिः पुरुपै. साई सपरित अहिच्छत्रा नगरी म-यम येन अनुमविशति, अनुपविश्य यऔर कनफेतू गजा कोपागच्छति, उपागत्य 'करयल जार वद्धावे.' करतल यापद् वर्धयति-कर
'तएण से धण्णे सत्यवाहे' इत्यादि।
टीकार्थ-(तण्ण) इसके बाद (से घण्णे सत्यवाहे) उस धन्यमार्थवाहने (सगडी सागड जोयावेह जोयावित्ता जेणेव अहिरूठत्ता णयरी तेणेव उवागच्छद) वहा से अपने गोडी और गाडों को जुनवाया और जुतवा कर जरा अहिच्छत्रा नगरी थी उस ओर चल दिया। (उवागचिन्ता अहिच्छत्साए नयरीए पहिया अगुजाणे सनिवेस करेइ ) धीरे धीरे अहिच्छत्रा नगरी में वह पहुँच गया। वहा पहुँच कर उसने बाहर रहे हुए प्रधान पगीचे में अपने सार्थ को ठहरा दिया। (करित्ता सगडी सागड मोयावेइ ) और वही पर अपनी गाडी और गाडों को ढील दिया। (तरण से धण्णे मत्यवाहे महत्व ३ रायारिह पातुड गेण्हइ, गणिहत्ता याहिं पुरिसेहिं सद्वि सपरिचुडे अहिच्छत्त नयरि मज्झ मज्से ण अणुप्पविसह, अणुप्पविसित्ता जेणेव कणगकेज राया तेणेव उवाग
तएण से धण्णे सत्यवाहे इत्यादि
AtE-(तएण ) त्या२१६ (से धण्णे सत्यवाहे ) ते धन्यसाथ वाडे (सगडी सागडं जोयावेइ जोयावित्ता जेणे अहिच्छत्ताणपरो तेणेव उवागन्छ। ત્યાથી પિતાની ગાડીઓ અને ગાડાઓને જોતરાનીને જે તરફ અહિચ્છત્રા नगरी ती तशा त२५ थाना थया (उद्यागन्छित्ता अहिन्छत्ताए भयरीए पहिया अगुज्जाणे सत्थनिवेस करेइ ) सने धीमे धीमे मनिछत्रा नारीमा પહોચી ગયે ત્યા પહેચીને તેણે નગરીની બહાર આવેલા પ્રધાન ઉદ્યાનમાં पाताना साना मुम नाय (करित्ता सगढीसागड मोयावेइ) भने ત્યાં જ પોતાની ગાડીઓ અને ગાડાઓને છોડાવી નાખ્યા
(तएण से धण्णे सत्याहे महत्थ ३ रायरिह पाहुड गेण्हइ, गेण्डित्ता यहुर्हि पुरिसेहिं सद्धि सपरिखुढे अहिच्छत्त नयरिंमा मझेण अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६
watered
गच्छित्ता अहिच्छत्ताए णयरीए बहिया अग्गुज्जाणे सत्यनिवेसं करेइ करिता सगडीसागड मोयाइ, तपण से घण्णे सत्थबाहे महत्थं३ रायरिहं पाहुड गेण्हइ गेव्हित्ता बहुहि पुरिसंहिं सद्धि संपरिवुडे अहिच्छत्त नयरिं मज्झ मज्झेणं अणुष्पविसद्द अणुष्पविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेन उपगच्छइ, उवागच्छित्ता 'करयल जाव वृद्वावेइ, वद्वानित्ता तं महत्य३ पाहुड उवणेइ, तएण से कणगकेऊ, राया हट्टतुट्ट० घण्णस्स सत्यवाहस्स तं महत्थ३ जान पडिच्छइ पडिच्छित्ता धण्ण सत्थवाह सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारिता सम्माणित्ता उस्सुक्क वियरइ २ पडिविसज्जेइ । तएण से धणे सत्यनाहे भडविणिमयं करेइ करिता पडभड गेण्हइ गेव्हिन्ता सुहसुहेण जेणे चपानयरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता भित्तनाइ० अभिसमन्नागए बिउलाई माणुस्सगाई कामभोगाई भुजमाणे विहरड़, तेण कालेन तेणं समएण थेरागमणं घण्णे सत्थवाहे धम्मे सोच्चा जेट्टपुत्ते कुडुत्रे ठावेत्ता पत्रइए सामाइयमाइयाइ एक्कारसअगाइ वहूणि वासाणि सामण्णपरियाग पाउणइ पाउणित्ता मासियाए सं० अन्नतरेसु देवलोपसु देवत्ताए उववन्ने महाविदेहे वासे सिज्झिहि जाव अतं करेहिइ । एव खलु जंबू । समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते तिमि ॥ सू० ४ ॥
|| पन्नरसमं नायज्झयण समन्त ॥
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
मतगारधर्मामृतवर्षिण टीका २० १५ नदिफलस्वरूपनिरूपणम
१२७
टीस' तरण से ' इत्यादि । ततः खलु म धन्यः सार्ववाह शकटीशास्ट योजयति, योजयित्वा यनाच्छिना नगरी तत्रोपागच्छति, उपागत्य अहिच्छ श्रायां नगर्या नहिः अभ्योद्याने = मुख्योद्याने सार्थनिवेश करोति, कृत्वा शकटीशास्ट मोचयति । ततः खलु सधन्य सार्ववाह: ' मत्य' महार्थ = महाप्रयो जनक. 'महग्घ' महार्घ महामूल्य, ' महरिह ' माई = महता योग्य 'रायरिह ' राजा = राजयोग्य मामृतात टीला बहुभिः पुरुषै अहिच्छत्रा नगरी मध्यम येन अनुविशति, जनुप्रविश्य यौन तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य ' करयल जाप चद्रावेड' करतल या
,
सार्द्धं सपरिवृत
नस्तु राजा पति-कर
4
तरण से धणे सत्यनाहे' इत्यादि ॥ टीकार्थ - (तरण) हमके नाद (से धपणे मत्यना है) उस धन्यमार्थवाहने (सगडी सागर जोया जोयावित्ता जेणेव अहिच्छत्ता पायरी तेणेव उबागच्छद्द ) वहा से अपने गोडी और गाडो को जुनवाया और जुनवाकर जहां अहिच्छत्रा नगरी थी उस ओर चल दिया। (उदागच्छिता अहिच्छत्ताए नगरीए बहिया अगुजाणे सत्यनिवेस करेइ ) धीरे धीरे अहिच्छत्रा नगरी में वह पहुँच गया। वहा पहुँच कर उसने बाहर रहे हुए प्रधान पगीचे में अपने सार्थ को ठहरा दिया । ( करिता सगड़ी सागड मोयावेह ) और वहीं पर अपनी गाडी और गाड़ों को ढील दिया । (aण से or सत्वा महत्व ३ रायारिह पाहुड गेव्हह, ताप पुरिसे सहि सपरिवुडे अरित नयरिं मज्झ मज्झे 'अणुष्पविसह, अणुष्पविसित्तो जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवाग
ण
तरण से धण्णे सत्था इत्यादि
अर्थ - (तरण ) त्यारणाह ( से घण्णे सत्यवाहे ) ते धन्यसार्थ वाडे (सगडी सागडं जोयावेड़ जोयाचित्ता जेणेव अहिच्छत्ता णपरी तेणेव उवागच्छ ત્યાથી પેાતાની ગાડી અને ગડાએને ખેતરાનીને જે તરફ અહિચ્છત્રા नगरी डती ते हिया तर रवाना थये। ( उनागच्छित्ता अहिच्छत्ताए नयरीए पहिया अगुजाणे सत्यनिवेस करेइ ) अने धीमे धीमे अहिछत्रा नगरीभा પહેાચી ગ। ત્યા પહેાચીને તેણે નગરીની બહાર આવેલા પ્રધાન ઉદ્યાનમા पोताना सार्थना सुाभ नाभ्यो ( करिता सगडी सागड मोयाइ ) अने ત્યા જ પેાતાની ગાડીએ અને ગાડાએને ઈંડાવી નાખ્યાં
(तरण से घण्णे सत्यवाहे महत्थ ३ रायरिह पाहुड गेव्ह, गण्डित्ता बहु पुरिसेहिं सद्धि सपरिपुडे अहिच्छत नपरि मज्जा मज्मेण अणुष्पविम, अणुष्पविसित्ता
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
MAITHI तलपरिगृहीत शिरभावत स मानक SATHI रामान जयविजयानन्देन चर्द्धगति, पबपि तन्महा मार्य माई मागृतम् उपनगनिभा समीपे स्था पपति । तत खलु म निरन राना बतायोकाविगहन्यो धन्यस्य सार्थवादस्य तमहार्य ३ यारत् मा। 'पवित्र' प्रतीनि:स्वीकरोति, प्रतीप्य धन्य मासह सत्तायनिमम्मानति, गाय गम्मान्य सम्म उस्मृक' उच्छुला-शुल्कामापन केनापि राजपुर पेशामासरीन ग्रा:' इत्येतरूपमा शापत्र पितरनिन्ददाति वितीय त प्रतिरिसर्गपति ।
छह, उवागरिउत्चा करयल जान पावेत, पदायित्ता तमत्त्व ३ पाहुई उवणेइ ) इस के बाद उस धन्य मात्रा ने मरा मारक, मामूल्य एव महा पुरुपों के योग्य मामृत-भेट यो माय में लिया, और टेकर अनेक पुरुषो के साथ २ अपिउन्ना नगरी में बीच से होता हुआ प्रविष्ट हुआ। नगरी में प्रविष्ट होकर यह जहा कनक वेतु राजा ये वहा गया यहां जाकर उसने राजा को दोनों हार जोड कर नमस्कार किया, और जय विजय शब्दो को उच्चारण करते हुए उन्हें बधाई दी बधाई देकर उसने फिर राजा के समक्ष अपनी भेट रखदी। (ताण से कणगकेऊ राया ४ तुट्ठ० घण्णरस सत्यवाहस्त तमस्य ३ जाव पडिच्छद पडि च्छित्ता घण्ण सत्यवाह साकारेह सम्माणेड, सकारिता सम्माणित्ता उस्लुक्क वियरह २ पडिविसम्जेइ) कन सकेनु राजाने रर्पित एव सतुष्ट होकर धन्यसायगह की उस मार्थ साधक महामृल्य राज योग्य भेट जेणेव वणगकेउ राया तणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता करयल जाव चद्धावेइ, बद्धाविता त महत्थ३ पाहड उवणेइ)
ત્યારપછી તે ધન્યસાર્થવાહે મહાઈ સાધક બહુ કિંમતી અને મહા પુરૂ ને યોગ્ય ભેટ સાથે લઈને ઘણુ માણુનોની સાથે અહિચ્છત્રા નગરીની વચ્ચેના ભાગે ( રાજમાર્ગ) થઈને નગરીમાં પ્રવિષ્ટ થયા નગરીમાં પ્રવેશીને તે જયા કનકતુ ૨ જા હતા ત્યાં ગો ત્યા જઈને તેણે રાજાને બને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યા અને જય વિજય શબ્દ ઉચ્ચારણ કરતા તેમને વાઈ આપી વધાઈ આપ્યા પછી તેણે રાજાની સામે પિતાની ભેટ મૂકી દીધી
(तएण से कणगकेऊ राया हट्ट तु४० घण्गस्स सत्थवाहस्स त महत्व ३ जार पडिन्छ। पडिच्छित्ता घण्ण सत्यवाह समारेद सम्माणेइ, सरकारिता सम्मा णित्ता उस्सुक्क वियर २ पडिविसज्जेई)
કનકકેતુ રાજાએ હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થઈને મહાઈ સાધક મહામૂલ્ય વાળી અને રાજાને માટે યોગ્ય ભેટ સ્વીકારી લીધી સ્વીક- * બાદ
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन गारधर्मामृतवपिणी री० अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् १२९
ततः खलु सधन्य सार्थवाहस्तत्र 'भडविणिमय ' भाण्डविनिमय भाण्डानाम्याणकवस्तूनां विनिमयम् आदानप्रदानं करोति, कृत्वा 'पडिभड ' प्रतिभाण्डविनिमयेन प्राप्त वस्तुजात गृहाति, गृहीत्वाशकटीशाकटे भरति भृत्वा शकटीगाकट योजयति, योजयित्वा सुखं सुखेन पुखपूर्वक यौन चम्पानगरी स्वनिवासस्थाने तोवोपागच्छति, उपागत्य मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धि परिजनै सह अभिसमन्नागए' अभिममन्वागत समिलितो विपुलान् मानुप्यकान कामभोगान् भुझानो निहरति । को स्वीकार कर लिया। म्वीकार करके फिर उन्हों ने धन्यसार्थवाह का सत्कार एवं सन्मान किया। सत्कार मन्मान करके "किसी भी राज पुरुप को इन से कर नहीं लेना चाहिये इस प्रकार का शुल्क भाष विषयक आज्ञा पत्र" उसके लिये प्रदान किया और प्रदान करके बाद में उसे वहा से विदा कर दिया। (तंएण से धणे सत्यवाहे भडविणिमयं करेह, करित्ता पडि मड गेण्हह, गेमिहत्ता सुहं सुहेण जेणेव चपा नयरी तेणेव उवागच्छड ) इसके बाद धन्यसार्थवाह ने वही रह कर अपनी भयाणक वस्तुओं का विक्रय किया और उससे प्राप्त द्रव्य से और दूसरी वस्तुओ को खरीदा । ग्वरीद कर उसने उन्हें गाडी और गाडों में भरा भरकर उन्हें जुनवाया और जुनवाकर फिर वह वहां से चपानगरी की ओर शेपिस चल दिया। (उवागच्छित्ता मित्तनाइ० अ मिसमन्नागए विउलाइ माणुस्सगाइ कामभोगाइ भुजमाणे विहरह) તેમણે ધન્યસાર્થવાહનો સત્કાર તેમજ સન્માન કર્યું સત્કાર અને સન્માન કરીને રાજાએ “ઇપણ રાજપુરૂષ તેમની પાસેથી રાજકર લે નહિ” તે પ્રમ
ની વ્યવસ્થા કરતા તેમને પુષ્પ માફીનુ આજ્ઞાપત્ર લખી આપ્યું ત્યારપછી તેને ત્યાથી જવાની આજ્ઞા આપી .. (तएण से धण्णे सत्यवाहे भडविणिमय करेइ, करित्ता पडिभड गेण्इ, गेण्हिता सुह सुहेण जेणेव चपानयरी तेणेव उबागच्छइ )
- ત્યારબાદ ધન્યસાર્થવાહ ત્યાં રહીને પિતાની કથાર્થક વસ્તુઓને વેચી અને તેનાથી જે ધન મળ્યું તેનાથી બીજી વસ્તુઓ ખરીદી લીધી વસ્તુઓની ખરીદ કરીને તેણે બધી વસ્તુઓની ખરીદી કરીને તેણે બધી વસ્તુઓને ગાડી તેમજ ગાડાઓમા ભરી અને ત્યારપછી ગાડી અને ગાડાઓને જેતરાવીને ત્યાથી ચા નગરી તરફ પાછો રવાના થયે । (आगच्छिता मित्नाइ० अभिसमन्नागए विउलाइ माणुस्सगाइ ,काम मोगाई शमाणे विहार
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
बातापकथा तस्मिन् काले तम्मिन् समये स्थपिरागमनम् । पन्या सार्थनाणे धर्म भवा मवियुद्धः सन् ज्येहपुर अटुम्रे स्थापयित्ता मयनिता, सामायिकादीनि पाया मान्यधीते । यहनि वर्षाणि बामण्यपर्याय पालयति, पालयिता मासिध्या सर खनया ऽऽत्मानं जुष्टा पष्टि मक्तानि अनशनेन रिचा कालमामे बाल कलाचपानगरी में आकर वह अपने मित्र, जाति, ग्यजन, मबन्धी परिजनों से मिलो और विपुल मनुष्य भव सपाधी फाम भोगों को मोगने लगा (तेण कालेण तेण ममाण थेरागमण, धपणे सत्यवाहे धम्म सोना जेह पुत्त कुड़वे ठयेत्ता पन्चहण, सामाहयमाइयाइ एकारस अगाड बहाण -पासाणि सामण्णपरियाग पाउणित्ता मासिया सलेरणा अभतरेस देवलोएस्सु देवत्ता उचवन्ने महाविदेहे वासे सिजिरिइ जाच अत फरेहिइ । एव ग्वल जवू ! समणेण भगवया मरावीरेणं जाव संपण परसमस नायज्झयणस्स अपमठे पण्णत्त तिवेमि) उसी काल और उसी समय में वहा पर स्थविरों का आगमन हुआ। धन्यसार्थवाहन उनसे धर्म का व्याख्यान सुना सुनकर वर प्रतिबद्ध हो गया और प्रतिवुद्ध हो करके फिर वह कुटुय में अपने ज्येष्ठ पुत्र को रखकर दीक्षित होकरके उसने सामायिक आदि ग्यारह अगांका अध्ययन किया। अनक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर १ माल की सलेखना से ६° भक्तों का अनशन द्वारा छेदन करके काल अवसर काल करके देव
ચ પા નગરીમાં આવીને તે પિતાના મિત્ર જ્ઞાતિ, સ્વજન, સ બધી પજિનેને મળે અને વિપુલ મનુષ્ય ભવના કામ ભેગવવા લાગ્યા
(तेणं कालेण तेण समपण थेरागमण धण्णे सत्यवाहे धम्म सोच्चा जट्ट पुत्त कुडने ठवेत्ता पन्धइए, सामाइयमाझ्याइ एक्कारसअगाइ बहणि वासारण सामण्णपरियाग पाउण, पाउणित्ता मासियाए सलेहणाए अन्नतरे देवलोएसु देवताए उवपन्ने महाविदेहे चासे सिज्झिहिइ, नाव अत करेहिइ । एव खलुजबू! समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण पन्नरसमस अयमहे पण्णत्ते त्ति बेमि) તે કાળે અને તે સમયે તે નગરીમા સ્થવિરો પધાર્યા ધન્યસાર્થવાહે તેઓના મુખથી ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાભળ્યું અને સાંભળીને તેને પ્રતિબોધ થયો પ્રતિબુદ્ધ થઈને તેણે પિતાના કુટુંબના વડા તરીકે પિતાના મોટા પુત્રની નીમણુક કરીને દીક્ષા ગ્રહણ કરી દીક્ષા ગ્રહણ કર્યા બાદ તેણે સામાયિક વગેરે અગિયાર અગોનું અધ્યયન કર્યું અને ઘણા વર્ષો સુધી શામgય પર્યાયનું પાલન કરીને એક માસની સ લેખનાથી ૬૦ ભક્તોનું અનશન વકે છેદન કરીને વખતે
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टोको अ० १५ नेवीफलस्वरूपनिरूपणम् ___१३१ अन्यतरेषु देवलोकेपु 'देवताए । देवतया-देवत्येन उपपनः । महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत्-सर्वदुःखानामन्त करिष्यति । एव खलु हे जम्बू । श्रमणेन भगवता महागीरेण यावद-मिद्धिगतिनामय स्थान सम्माप्तेन पञ्चदशस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थ =पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञाप्त 'तिमि' इनि ब्रवीमि व्याख्या पूर्ववत् ।०४।
इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपश्चदशभाषाकलितललितकलापालापफ -परिशुद्धगयपवनैकग्रन्थनिर्मापक-पादिमानमर्दक
श्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूपितकोल्हापुरराजगुरु-पालब्रह्मचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालप्रतिविरचिताया श्री ज्ञाताधर्मकथागसूत्रस्यानगारधर्मामृ
तवपिण्याख्याया व्याख्याया पञ्चदगमध्ययन समाप्त ॥१५॥ लोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हो गया। महाविदेह क्षेत्र से यह सिद्ध अवस्था कोप्राप्त करेगा-यावत् समस्त दुःखो का अन्त करने वाला होगा इस प्रकार हे जवू ! श्रमण भगवान महावीर ने फि जो सिद्धगति नाम के स्थान को प्राप्त करचुके हैं इस पद्रवे ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त भाव प्रज्ञप्त किया है। ऐसा मैंने उनके मुख से सुना है सो यह वैसा तुमसे कहा है ।। सू० ४ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराजकृत " ज्ञाताधर्मकथासूत्र"की अनगारधर्मामृतवर्पिणी व्याख्याका पद्रहवां
अध्ययन समाप्त ॥ १५॥ કાળ કરીને દેવલેન્ડમા દેવના પર્યાયથી જન્મ પામે મહાવિદેહ ક્ષેત્રથી તે સિદ્ધ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે યાવત બધા દુખેને તે અન્ત કરનાર થશે આ રીતે હે જ બૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે જેઓએ સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને મેળવી લીધુ છે–આ પદરમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત ભાવ નિરૂ પિત કર્યો છે કે જે પ્રમાણે તેઓશ્રીના મુખથી સાભળ્યું છે તે પ્રમાણે જ तमा भाग २ ४यु छ ॥ सूत्र ४॥
જૈનાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાધ્યયન સૂત્રની અનગારધર્મામૃતવવિણું વ્યાખ્યાનું પદરનું અધ્યયન સમાસ ૧૫
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
mmmmdo
जाताममेकपा स्मिन् काले तस्मिन् मग शरिरागमनम् । मन्यः सार्वगो धर्म भया मतियुद्धः सन् ज्येष्यपुत्र कुटुम्रे स्थापयिता मयनिता, सामायिवादीनि पाशा मान्यधीते । यहनि वर्षाणि बामण्यपर्याय पालयति. पालयिता मागित्या सर खनया ऽऽत्मान जुष्टा पटि भक्तानि अनगनेन किया कामासे बाल कलाचपानगरी में आकर वह अपने मित्र, जाति, ग्यजन, मयन्धी परिजनों से मिलो और विपुल मनुष्य भय मयन्धी काम भोगों को भोगने लगा (तेण फालेणं तेण ममण्ण थेरागमण, घण्णे मत्थवाहे धम्म मोला जेह पुत्त कुड़वे ठवेत्ता पचहए, सामाइयमाइयाइ एकारम अगाइ बहाण घासाणि सामण्णपरियाग पाउणिता मासिया सलेरणा अमतरेस देवलोएस देवत्ता उववन्ने महाविदेहे वासे सिनियरिड जाव अत फरेदिइ । एव खलु जवू ! समणेण भगवया मरावीरेणं जाव सपत्तण पन्नरसमस नायज्झयणस्स अयम पण्णते त्तिमि) उसी काल आर उसी समय में वहा पर स्थविरों का आगमन हुआ। धन्यमार्थ वाहन उनसे धर्म का व्याख्यान सुना सुनकर वर प्रतिवुद्ध हो गया और प्रतिबद्ध हो करके फिर वह कुटय में अपने ज्येष्ठ पुत्र को रखकर दीक्षित होकरके उसने सामायिक आदि ग्यारह अगोका अध्ययन किया। अनक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर १मान की सलेखना से ६० भक्तों का अनशन द्वारा छेदन करके काल अवसर काल करके देव
ચપા નગરીમાં આવીને તે પોતાના મિત્ર જ્ઞાતિ, સ્વજન, સ બ ધી પરિજનને મળે અને વિપુલ મનુષ્ય ભવના કામો ભોગવવા લાગ્યા
(तेणं कालेण तेण समपण थेरागमण धण्णे सत्यवाहे धम्म सोचा जेह पुत्त कुडुबे ठवेत्ता पव्वइए, सामाइयमाझ्याइ एक्कारसअगाइ वहणि वासाणि सामण्णपरियाग पाउणड, पाउणित्ता मासियाए सलेहणाए अन्नतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने महाविदेहे वासे सिज्झिहिड, जाव अत करेहिइ । एव खलुजबू' समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण पन्नरसमस्म अयमपण्णते ति बेमि) તે કાળે અને તે સમયે તે નગરીમા સ્થવિરો પધાર્યા ધન્યસાર્થવાહ તેઓના મુખથી ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાભળ્યું અને સાંભળીને તેને પ્રતિબધ થયે પ્રતિબુદ્ધ થઈને તેણે પિતાના કુટુંબના વડા તરીકે પોતાના મોટા પુત્રની નીમણુક કરીને દીક્ષા ગ્રહણ કરી દીક્ષા ગ્રહણ કર્યા બાદ તેણે સામાયિક વગેરે અગિયાર અગોનું અધ્યયન કર્યું અને ઘણા વર્ષો સુધી ગ્રામય પર્યાયનું પાલન કરીને એક ભાસની સ લેખનાથી ૬૦ ભક્તોનું અનશન વડે છેદન કરીને વખતે
/
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
% 3D
गतिमाहविजीटी० ० १६ धर्माच्यनगारवरितवर्णनम् सुकुमाल जाव तेसि णं माहणाणं इहाओ ५, विपुले माणु. स्सए जाव विहरति । तएण तेसिं माहणाण अन्नया कयाई एगयओ समुवागयाणं जाव इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजिस्था, एव खलु देवाणुप्पिया । अम्हं इमे विउले धणे जाव सावतेज्जे अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवसाओ पकाम दाउं पकाम भोत्तु पकामं परिभाएउ त सेय खल्लु अम्हं देवाणुप्पिया । अन्नमन्नस्स गिहेसु कल्लाकल्लि विउल असण पाण खाइम साइमं उवक्खडाविउ उवक्डावित्ता परिभुज'माणाणं विहरित्तए, अन्नमन्नस्स एयम पडिसुणेति परिसु. णित्ता कल्लाकल्लिं अन्नमन्नस्स गिहेसु विपुल असण४ उवक्खडावति, उवक्खडावित्ता परिभुजमाणा विहरति, तएणं तीसे नागसिरीए माहणीए अन्नया भोयणवारएजाए यावि होत्था, तएण सा नागसिरी विपुल असणंट उवक्खडेति उवक्खडित्ता'एगं महंसालइय तित्तालाउय बहुसभारसंजुत्तं णेहावगाढ उवक्खडेइ उवक्खडित्ता एग विदुय करयलसि -आसाएइ आसाइत्ता त खारं कडुयं अक्खन अभोज्ज विसंम्भूय जाणित्ता एवं वयासी-धिरत्थु ण मम नागसिरीए अहन्नाए अपुन्नाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभगणिवोलियाए जीएणं मए'सालइए बहुसंभारसभिए नेहावगाढे -उवक्खडिए, सुवहुदबक्खए, नेहक्खए य कए, तं जइणं मम
जाउयाओं जाणिस्सति तो णं मम खिसिस्सति त जाव .: ताव समजाउयाओ णाजाणंति ताव मम सेय एयं साल.
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
९.
|| अथ पोडशाध्ययनं प्रारभ्यते ॥
उक्त पञ्चदशाध्ययनम्, तनयोऽनर्थस्य कारणमित्युपदिष्टम् इह मोडें शाध्ययने तु तद्विषयनिदानमनर्थस्य मूल मातीत्युच्यते, इत्येव सम्बन्वेन सः माप्तस्यास्याध्ययनस्य प्रथम सूत्रमाह- जण भते !' इत्यादि ।
-
•
मूलम् - जइ णं भते । समणेण भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेण पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते सोलसमस्त णं भते णायज्झयणस्स णं समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तेणं के अड्डे पण्णत्ते ?, एवं खलु जबू I तेणं कालेणं तेणं समएण चपा नामं नयरी होत्था, तीसेणं चपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थि मे दिसिभाए सुभूमिभांगे उज्जाणे होत्था, तत्थ णं चंपा नयरीए तओ माहणा भायरो परिवसंति, तं जहा- सोमे सोमदत्ते सोमभूई, अड्डा जाव अपरिभूया रिउव्वेय जाव सुपरिनिडिया, तेसि ण माहणाणं तओ भारियाओ होत्था, त जहा नागसिरी भूयसिरी जंक्खसिरी
सोलहवा अध्यन प्रारंभ
पन्द्रहवा अध्यन समाप्त हो चुका - अब सोलहवा अध्यन प्रारंभ होता है । द्रहवे अन में विपर्यसंघ 'अनर्थ का कारण कहा गया 'है-अप सोलहवे अध्यन ' में 'विषय' निदान 'अनर्थ का कारण होता है 'यह स्पष्ट किया जायेगा । इस संबन्ध से आया हुआ इस अध्ययन का यह प्रथम सूत्र है'' जण 'भते । " इत्यादि ।
સાળનુ અધ્યયન પ્રારભ
પંદરમું “અધ્યયન પુરૂ થાય છે હવે સાળખુ અધ્યયન પ્રાર ભ થાય છે પદરમા અધ્યયનમાં વિષયંસ ગને અનથ નુ કારણુ ખતાવવામા આવ્યુ છે હવે સાળમાં અધ્યયનમા વિષય-નિદાન અનનુ કારણ હાય છે, આ વાત સ્પષ્ટ કરવામા આવશે. આ વિષયને લગતુ આ અધ્યયનનુ પહેલું સૂત્ર આ છે - इण भवे इत्यादि-f",
-
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३५
भनगारधर्मामृणि टोका थ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम्
श्रीस्वामी कथयति -' एव खलु जनू' इत्यादि । एव खलु हे जम्मूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी आसीत्, तस्याः खलु चम्पाया नगर्या चरुित्तरपारस्त्ये दिग्भागे सुभूमिभागनाममुद्यानमासीत्, तत्र खल चम्पाया नगर्यां त्रयो ब्राह्मणा भ्रातरः परिचसन्ति तद् यथा - (१) सोम, (२) सोमदत्त, (३) सोमभूतिः, ते किंभूताः - आदानवन्त' यानद् - अपरिभूता., तथा-' रिउब्वेय जान ' कग्वेद-यजुर्वेदमामवेदाथर्ववेदेषु साहोगङ्गेषु सुपरि निष्टिता । तेषा खलु ब्राह्मणाना तिस्रोमार्यां आसन्, तद् यथा - (१) नागश्रीः, सोलहवे जातायन का ह भदंत ? उन्ही श्रमण भगवान महावीरने कि जो सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं क्या भाव अर्थ प्रतिपादित किया है ? इस प्रकार के जंत्र स्वामी के प्रश्नका उत्तर देते हुए 'सुधर्मास्वामी उनसे कहते हैं कि अबू ' (तेणं कालेण तेग समएण चपा नाम नगरी होत्या, तोसेण चपाए वहिया उत्तरपुरस्त्विमे दिनिभाए सु भूमिभागे उज्जाणे, होत्या, तत्य ण चपाए नयरीए तओ माहणा भाय रा परिवसति ) उस काल और उस समय मे चपा नोमकी नगरी थी । उस चपा के बाहिर ईशान कोण मे सुभूमि भाग नाम का उद्यान था । उसी चपा नगरी में तीन ब्राह्मण भाइ रहते थे ( त जहा ) उनके नाम ये हैं - (सोमे सोमदत्त सोमभूई) सोम, सोमदत्त, और मोमभूति
(
t
अड्डा जाव अपरिभूया ) ये सन धन धान्यादि सपन्न एवं जन मान्य (रिवेय, जाव सुपरिनिट्टिया ) ये सबके सब ऋग्वेद आदि चारों वेदों મહાવીરે-કે જેઓ સિદ્ધિગતિ મેળવી ચૂકયા છે-સાળમા જ્ઞાતાયનના શા અ નિરૂપિત કર્યાં છે ? આ રીતે જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાભળીને સુધર્મો સ્વામી તેમને ઉત્તર આપતા કહે છે કે હે જમ્મૂ 1
( तेण कालेन तेण समएण चपा नाम नयरी होत्था, तीसेण चपाए after उत्तरपुरत्थि मे दिसिभाए सभूमिभागे उज्जाणे, होत्था तत्थ ण नगरीए तओ माणा भायरा परिवमति )
તે કાળે અને તે સમયે ચા નામે નગરી હતી તે ચ ા નગરીની બહાર ઇશાન કોણમા સુભૂમિભાગ નામે ઉદ્યાન હતુ તે ચપાનગરીમા ત્રણ प्राक्ष लाओ रहेता हता ( तजहा ) तेमना नाम था प्रभाऐ हे - ( सोमे सोमदत्ते सोभूमई ) सोम, सोमहत्त, अने सोमभूति ( अड्ढा जाव अपरिभूया ) ते तु धनधान्य वगेरेथी सपन्न तेभन नमान्य हुना ( रिउब्वेय, जान सुपरिनिट्टिया ) तेथे नये भाभूह मेरे यारे देशना भारा ज्ञाता ईता तेसि सेा ण तभो भारियाओ होत्या त जहा - नागसिरी, भूयसिरी
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
Pemaram
जातामा इयं तित्तालाउ य बहुसंभारणेहकयं एगते गोवेत्तए अन्न सालइयं महरालाउयं जाव नेहावगाढं उवक्सडेत्तए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता त सालइय जाव गोनेइ, अन्न सालइयं महुरालाउयं उवरखडेइ, तेसिं माहणाणं व्हायाणं जाव सुहासणवरगयाण तं विपुलं असणं४ परिवसेह, तएणं ते माहणा जिमियभुत्तुत्तरागया समाणा आयंता चोरसा परमसुइभूया सकम्मसपउत्ता जाया यावि होत्या, तएण ताओ माहणोओ पहायाओ जाव विभूसियाओ त विपुल असणं ४ आहारेति आहारित्ता जेणेव सयाइ२ गेहाइ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सकम्मतपउत्ताओ जायाओ ॥२०॥
टोका-श्रीजम्बूस्वामी श्रीसुधर्मस्वामिन पृच्छति-यदि खलु हे भदन्त - हे भगवन् श्रमपोन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनाम य स्थान समाप्तेन पञ्चदशस्य अयम्-उक्तरूप., अर्थः प्रज्ञप्तः, पोडशस्य खलु ज्ञाताध्ययनस्य श्रमणेन भगवता महानीरेण यावत् सिद्धिगविनामधेय स्थान समाप्तेन कोऽयः प्रज्ञप्तः,
• टीकार्थ-(जइण भते । समणेण भगवया मरावीरेण जाव सपत्तेण पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयम? पपणत्ते सोलसमस्स ण भते? णाय ज्झयणस्सण समणेण भगवया महावीरेण जाव सात्तण के अद्वे पण्णत्त? एवं खलु जनू ?) श्री जवू स्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि भदत । श्रमण भगवान महावीरने जो कि सिद्वि गति नामक स्थानको प्राप्त हो चुके हैं पन्द्रहवें ज्ञानाध्ययनका यह पूर्वोक्तरूपसे अर्थ निरूपित किया है तो
साथ-( जइण भते ! समणेण भगवया महावीरेण नाव सपत्तेणे पनरस. मस्त नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते सोलसमस्सण "भते ! णायज्झयणस्स ण समणेण भगवया महावीरेण जाच सपतेण के अटे पण्गत्ते ? एव ग्वलु जबू!)
શ્રી જ બૂ સ્વામી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે હે ભદત! શ્રમણ ભગ 'વાન મહાવીરે કે-જેઓ સિદ્ધિગતિ નામક સ્થાન મેળવી ચુકયા છે-૧દરમાં જ્ઞાાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તે તે,
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३७
अन गारघामृतपरिणी N० अ०१६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् मकाम दातु, मकाम भोक्तु मकाम परिभाजयितुम् ततः = तस्मात् श्रेय = श्रेयस्कर खलु अस्माक हे देवानुमिया ! अन्योन्यस्य = परस्परस्य गृहेषु ‘कलाफ़ल्लिं' कल्याफल्य प्रतिदिवस विपुल = Tहुलम् , अशन पान खाद्य स्वायं 'उवखडाउ ' उपस्कार्यपरिभुजानानां विहर्तुम् । अन्योन्यस्य परस्परस्य एतमर्थ ते त्रयो भ्रातरो ब्राह्मणाः मतिश्रृण्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति प्रतिश्रुत्य 'कल्लारल्लिं' घसाओ पफाम दाउ पाम भोत्तु पकाम परिभाएउ-त सेय खलु अम्ह देवाणुप्पिया । अन्नमन्नस्स गिहेसु कहाकल्लि विउल अमण पाण साइम साहम उवक्सडाविउ) हे देवानुप्रियो । अपने पास विपुलमात्रा में, गणिम, धरिम, मेय, एव परिच्छे यरूप चारों प्रकार का धन है, यावत् पद्मराग आदिरूप स्वापत्य भी हैं, कनक,सुवर्ण,रत्न,मणिमौक्तिक आदि सब कुछ है-और वह इतना अधिक है कि सात पीढी तक भी यदि खूब दान दिया जावे, पैठ २ खूब खाया जावे-और उसका हिस्सा भाग भी कर दिया जावे-तो भी वह समाप्त नही हो सकता है। इसलिये हम लोगों को उचित है कि हम लोग प्रति दिन एक दूसरे के घर पर अशन, पान, वाद्य एव स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार विपुल मात्रा में बनवावे और (उचरखडावित्ता परिभुजमाणाण विहरित्तए ) घनवा कर उस का भोजन करे । ( अन्नम नम्स एयम पडिखणेति ) इस प्रकार का आपस का विचार उन्होंने एक दूसरे का स्वीकार कर लिया। जार आसत्तमाभो कुल्यमोओ पकाम दाउ पराम भोत्त पकाम परिभाएउ त सेय ग्वल्लु अम्ह देवाणुप्पिया ! अन्नमानस्म गिहेसु कल्लामल्लिं विउल असण पाण खाइम साइम उवाबडाविउ)
હે દેવાનુપ્રિયેઆપણી પાસે પુષ્કળ પ્રમાણમાં ગણિમ, ધરિમ, મેય, અને પરિવ રૂપ ચારે જાતનુ ધન છે યાવત્ પારાગ વગેરે રૂપ સ્વાપત્ય પણું છે કનક સુવર્ણ, રત્ન, મણિ, મેતી, વગેરે બધુ છે-અને જે કઈ છે તે એટલું બધું છે કે સાત પેઢી સુધી પણ જે પુષ્કળ પ્રમાણમાં દાન કરવામાં આવે છતા તે ખૂટશે નહિ એથી અમને એ ગ્ય લાગે છે કે અમે બધા દરરોજ એકબીજાને ઘેર અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદરૂપ ચાર જાતના माला। पुतण प्रभामा मनापापी मने ( स्वासहाविचा परिभुजमाणाण विहरितर) नावीन. तभी ( अन्नमन्नस्स एयमट्ठ पम्सुिणे जि) मारीत બધાએ એકમત થઈને વાત સ્વીકારી લીધી
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
माताधर्मकथा
(२) भूतश्री, (३) यक्षश्रीश्र, ताः किं भूताः - सुकुमारपाणिपादा, गावन - सर्वाङ्ग सुन्दर्यः तेपा खलु मामगानामिष्टाः कमनीयाः, विपुलान मानुष्यकान यात् कामभोगान् भुञ्जाना विहरन्ति ।
ततः खलु तेषा ब्राह्मणानामन्यदा यदानिदेकतः समुपागताना यावत् अब मेतद्रूप. = वद यमाणस्वरूप', मिथ = परस्पर, कथाममुलाप:- पावलापः समुद्रप धत एव खलु हे देवानुमिया: । अस्माकमिद विपूल पन गणिमघरिममेयपरिच्छेद्य भेदान्चतुर्निध यावत् ' सावतेज्जे ' स्वापतेय - पद्मरागादिस्प ना, अब यावत्पदोष्य-वन सुवर्णरत्नादिक तथा मौक्तिकादिफ चरिथते, किंभूत वृदि त्याह-‘अलाहि ' पर्याप्त=परिपूर्ण यात्रत् - आसप्तमात् कुलवशात् = सप्तमवापर्यन्त
के अच्छे जानकार थे । ( तेसिण माहणाण तभो भारियाओ त्या-त जहा - नागसिरी, भूयसिरी, जससिरी, सुकुमाल जाव तेर्सि ण मारणा इहाओ ५ निपुले मा० जाव विहरति ) इन तीनो ब्राह्मणों की तीन स्त्रिया थी । उनके नाम ये हैं | नाग श्री, भून श्री, और यक्ष श्री, ये सब सुकुमार करचरणवाली थी यावत् सर्वाङ्ग सुन्दर थीं। ये तीनों ब्राह्मण इनके साथ मनुष्यभव सबन्धी काम भागों को भोगते हुए आनद से रहते थे । (तरण तेसि माहणाण अन्नया कमाई एगय ओ समुवागयाण जाय हमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था ) एक दिन की बात है कि जब ये तीनो भाई एक जगह बैठे थे तब -इनका परस्पर में इस प्रकार का विचार चला - ( एव खलु देवाणुपिया | अम्ह इमे विउले धणे जाव सावतेज्जे अलाहिजाव आसत्तमाओ कुल
हुए
जक्खसिरी, सुकुमार जात्र तेसिण माद्दणाण इट्ठाओ५ विपुले मा० जाव विहरति ) આ ત્રણે બ્રાહ્મણેાને ત્રણ સ્ત્રીએ! હતી તેમના નામે આ પ્રમાણે છે નાગશ્રી, ભૂતશ્રી, અને યક્ષશ્રી તેઓ ત્રણે સુકેમળ હાથ અને પગવાળી હતી અને બધા અગે તેમના સુદર હતા ત્રણે બ્રાહ્મણેા તેમની સાથે મનુષ્ય ભવના કામલેગે! ભગવતા સુખેથી રહેતા હતા
( तएण तेर्सि माहणाण अन्नया कयाई एगयओ समुत्रागयाण जान इमेयारूवे मिट्टी कासमुलावे समुप्पज्जित्था )
એક દિવસની વત છે કે તેઓ ત્રણે ભાઈ એક સ્થાને બેઠા હતા ત્યારે તે પરસ્પર આ જાતના વિચાર કરવા લાગ્યા કે
-खल देनाशुपिया | अहं इमे विणेा
+
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
तपर्णनम्
१३५.
भोगारधर्मामृतथपिणी टी० १०.६ धर्मरुच्यनमारचरितवर्णनम् आस्वादयति, नस्वाय तत् क्षार कटुकमस्सायमभोज्य विपभूत ज्ञाखा एवमवादीतू-- धिंगस्तु मा नागश्रियमरन्यामपुण्या दुर्भगा 'दुभासत्तार' दुर्भगसत्वा दुर्भग-निष्फल सत्त्व-बल यस्याः सा वा व्यपरिषमामिन्यर्थः 'दृभगणिपोलिए ' दुर्भगनिम्ब गुलिका निम्नफलिका, तद्वद् दुर्भगा ताजनैरनादरणीयामित्यर्थः, जन द्वितीयार्थे पष्ठी माकृतत्वात् , 'जीए' यया खलु मया शारदिक बहुसभारद्रव्यसभृत स्नेहार(ज्वरसडित्ता एग बिद्धय करयलसि आसाएट) जब वह तैयार शाक हो चुका-तब उसने उसमें से एक मिन्दु मात्र शाफ अपनी हथेली पर रखा और फिर उसे चबा-(आसाइत्ता त खार कडय अक्सज अभोज विसम्भूय जाणित्ता एव चयामी-घिरत्यु ण मम नागसिरीए अहन्नाए, अपुनाए दुर मगाए दुभगमत्ता दुभगणियोलियाए जीएणामए सालइए पहुसभारसमिरा नेतावगादे उवरखडिए) चखकर उसे ज्ञात हुआ कि यह शाफ तो चरन ग्वारा है, पहुत अधिक कडुआ है। खाने के योग्य नही है भोजन में लेने के लायक नहीं है, यह तो विप जैसा है एसा जानकर उसने मन ही मन विचार किया उस विचार मे उसने कहा-मुझ नागश्री को धिकार है, में अधन्या और अपुण्याहैं। जनो कदारा ओदर पाने योग्य नहीं है। मेरे इस पल को पार २ धिक्कार श-मेरा यह पल बिलकुल निष्फल हे मेने जो इस शाक के बनाने में इतना उद्यम किया है वह मेरा सर्वथा निष्फल गया। जिस प्रकार नीम
उ५२ ही तरतु नु (उपसडिता एग बिदुय करयल सि आसाएइ ) ज्यारे શાક તૈયાર થઈ ગયું ત્યારે તેણે તેમાથી ફક્ત એક ટીપા જેટલુ શાક પિતાનીહથેળી ઉપર લઈને ચાખ્યું
(आसादत्ता त खार कड्डय अखज्ज अभोज्ज विसन्भूर्यं जाणित्ता एव पयासी-धिरत्थु ण मम नागसिरीए अहन्नाए, अपुन्नाए, दुरभगाए' भेगसत्ताए भगणिपोलियाए जीएण मए सालइए बहुसभारसभिए नेहावगाढे उवक्खडिए)
ચાખવાથી તેને લાગ્યું કે આ શાક તો ખૂબ જ ખારૂ છે, ખૂબ જ કડવું છે, ખાવાલાયક નથી, ભેજનમાં કામ લાગે તેવું નથી, આ તે ઝેર જેવું છે આમ જાણીને તેણે પિતાના મનમાં જ વિચાર કર્યો અને વિચાર કરતા તેણે પિતાની જાતને જ આ પ્રમાણે કહ્યું કે-અને-નાગથીને-ધિક્કાર છે, હુ ખરેખર અધન્યા તેમજ અપુણ્યા શુ હુ લેકે દ્વારા આદર મેળવવા લાયક નથી મારા આ બળને વારવાર ધિક્કાર છે, મારા આ બળ સાવ નકામુ છે શાક તૈયાર કરવામાં જેટલે મે શ્રમ કર્યો છે તે બધું નકામો ગયો જેમ લીમ
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
माताधर्मकथा
Le
या अन्या
फरसाकल्यं = मविदिनसम् अन्योन्यरयमनादिरुमुपस्कारयन्ति । उप कार्य परिजाना विहरन्ति । ततः स तस्या नागथियो कदाचिदन्यस्मिन् समये 'भोषणशरण' भीमनवारक =भोजयितु नियमित भोजनवारक जात:- समायातथाप्यभाव, ततः सत्रु सा नागश्री: त्रिपुत्रमनं पान खाद्य स्नायमुपस्करोति-निष्पादयति, उपस्कृत्य एक महत्' साला ' सारचित-सारेण रसेन चित युक्त गढा शारदिक शरहतुमर' विचालाउ ' विक्कालापुक= निम्नादिवत् तिक्तरसयुक्ततुम्बीफल, सभारसयुक्त = हुमि अनेकविधैः समारद्रव्यैः शाकादौ स्वादगन्धरिशेपार्थ टिशुमेथिकाजीर कादीनि व्याघारद्रव्याणि निक्षिष्यन्ते, तैर्मिश्रित, 'हानगाढ' स्नेागतादिलावि तम् (युक्तम्) ' उकखडे ' उपस्करोति, उपस्कृत्येक विन्दुक परवले समादाय ( पडिणित्ता कल्ला कलि अन्नमन्नस्स गिहेसु चिउल अमण ४ उवक्ख डावेति ) स्वीकार करके अब वे एक दूसरे के घर पर विपुल मात्रा में निप्पन्न हुए अशनादिरूप चतुर्विध आहार को खाने पीने लगे। (तरण तीसे नागसिरीए मारणीय अन्नया भोषणवारए जाए यावि होत्या) किसी एक दिन नागश्री ब्राह्मणी की भोजन घनाने की बारी आई (तरण सा नागसिरी विउल असण ४ उक्सडेंति ) मो उस दिन उसने विपुल मात्रा मे चारो प्रकार का आहार बनाया (उबवडिता एग मर सालइय तिचालाउअ बहसभारसजुत्त रावगाढ उबक्खडे) आहार बनाकर फिर उसने शरदऋतु में उत्पन्न हुई अथवा रस से सरस बनी हुई तिक्तरसतुबी का शाक बनाया और उसमें स्वाद एवं सुधि के निमित्त हीग, मैथी, जीरे आदि का वधार दिया। उसे खूब अधिक घृत में छोका था इसलिये घृत उसके ऊपर तैर रहा था । ( पडिणित्ता कल्ला कलि अन्नमनस्स गिदेसु विउल असण ४ उवक्खडावेंति ) સ્વીકારીને તેએ એકખીજાને ઘેર પુષ્કળ પ્રમાણુમા અશનપાન વગેરે ચાર જાતના આહારીને ખાવા-પીવા લાગ્યા
( वरण वीसे नागसिरीए माहणीए अन्नया भोयणवारए जाए यावि होत्था ) કાઈ એક દિવસે નાગશ્રી બ્રાહ્મણીને લેાજન તૈયાર કરવાના વારા આવ્યા ( तएण सा नागसिरि चिउल असण ४ स्वकडे ति ) तेषु ते हिवसे पुष्पुण પ્રમાણમા ચારે જાતના આહારા મનાવ્યા (अवक्खडिता एग मह सालइय तित्तालाउअ बहुसंभार सजुत्त આહાર બતાવીને તેણે શરદ્ ઋતુમા ઉત્પન્ન થયેલી સરસ થયેલી તિક્તરસવાળી તુખીનું શાક બનાવ્યુ અને સુધીના માટે હીંગ, મેથી, જીરૂ વગેરેના વઘાર દ્વીધે
/t
हावगाढ उपखडे इ) અથવાતા રસથી તેમા સ્વાદ અને
તે
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतयपिणी टी० म०.६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् आस्वादयति, नस्वाय तत् क्षार कटुफमस्सायमभोज्य विपभूत ज्ञाता एवमवादीतू-- धिगस्तु मा नागश्रियमपन्यामपुण्या दुर्भगा 'दुभासत्ताए' दुर्भगसत्ला दुर्भग-निष्फल सत्त्व-घल यस्याः सा ता व्यर्थपरिश्रमामिन्यर्थः 'दृमगणिनोलिए' दुर्भगनिम्बगुलिका निम्पफलिका, तद्वद् दुर्भगा ता-जनैरनादरणीयामित्यर्ध, जन द्वितीयार्थे पष्ठी प्राकृतत्वात् , 'जीए' यया खलु मया शारदिक बहुसभारद्रव्यसभृत स्नेहाव(ज्वस्खटित्ता एग बिंदुय करयलसि आसाएड) जब वह तैयार शाक हो चुका-तब उसने उसमें से एक मिन्दु मात्र शाक अपनी हथेली पर रखा और फिर उसे चखा-(आसाइत्ता त खोर कडय अक्खज्ज अभोजः विसन्भूय जाणित्ता एव वयासी-धिरत्यु ण मम नागसिरीए अहनाए, अपुनाए दुर भगाए दुभगसत्तारादुभगणियोलियाए जीएण मए सालइए' घनसभारसमिए नेहावगाढे उवरखडिए) चखकर उसे ज्ञात हुआ कि यह शाक तो बन पारा है, बहुत अधिक कडुआ है। खाने के योग्य नही है भोजन में लेने के लायक नहीं है, यह तो विष जैसा है ऐसा जानकर उसने मन ही मन विचार किया उस विचार मे उसने कहा-मुश नागश्री को धिक्कार है, मे अधन्या और अपुपया है। जनों के द्वारा ओदर पाने योग्य नहीं हूँ। मेरे इम बल को पार २ धिक्कार हो-मेरा यह पल बिलकुल निष्फल है मैने जो इस शाक के बनाने में इतना उद्यम किया है वह मेरा सर्वथा निष्फल गया। जिस प्रकार नीमः ७५२ घी तरतु तु (अस्सडिता एग पिदुय करयल सि आसाएइ) न्यारे શાક તૈયાર થઈ ગયું ત્યારે તેણે તેમાથી ફક્ત એક ટીપા જેટલું શાક પિતાની હથેળી ઉપર લઈને ચાખ્યું
(आसाइत्ता त खारं कड्डय अखज्ज अभोग्न विसम्भूय जाणित्ता एव वयासी-धिरत्यु ण मम नागसिरीए अहन्नाए, अपुनाए, दूरभगाए' भगसत्ताए भगणिवोलियाए जीएण मए सालइए बहुसभारसभिए नेहावगाढे उपक्खडिए)
ચાખવાથી તેને લાગ્યું કે આ શાક તે ખૂબ જ ખારૂ છે, ખૂબ જ કડવું: છે, ખાવાલાયક નથી, ભજનમાં કામ લાગે તેવું નથી, આ તે ઝેર જેવું છેઆમ જાણીને તેણે પિતાના મનમાં જ વિચાર કર્યો અને વિચાર કરતા તેણે પિતાની જાતને જ આ પ્રમાણે કહ્યું કે-અને-નાગશ્રીને-ધિક્કાર છે, હું ખરેખર અધન્યા તેમજ અપુયા છુ હું લોકે દ્વારા આદર મેળવવા લાયક નથી મારા આ બળને વારવાર ધિક્કાર છે, મારૂ આ બળ સાવ નકામુ છે શાક તૈયાર - . . મે શ્રમ કર્યો છે તે બધ નકામો ગયો જેમ લીમ
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
নামটঙ্কথা गाढमुपस्कृत, तेन मुरादग्यायः-हिनीर कादिवानाशा, स्नेहसया-घृतादि क्षयश्चकृतः, तत्-तस्मात् यदि खउ मग 'गाउयाभो' यानाः, देवरमार्याः शास्यन्ति, 'तोण' तर्हि खलु मम 'खिसिस्मति' सिनियन्ति-निन्दा कोप च करिष्यन्ति, तत्-तस्मात् याउनमम यातका न जानन्ति, तान्मम श्रेयः-उचित एतत् शारदिक तिक्तालापुक पहुगमारस्नेहकतम् एकान्ते 'गोवेत्तए 'गोपयितुम् , अन्यत् शारदिक मधुरालायुक मधुरतुम्मीफल यात् स्नेहायगारमुपस्कर्तम् । एवं की नियौली फिसी मनुष्य की दृष्टि में आदर पाने योग्य नहीं होती है उसी प्रकार में भी जनो मारा अनादरणीय पनी है। जो मने शरद कालिक अथवा सरस इस तुयी फल का हिड्गु, जीरकादि द्रव्यों से युक्त और घृतादि से युक्त शाक पनाना है (सुरहदयरस, नेहक्खए य कए) इस के पनाने में मैंने व्यर्थ ही परत से हिड्गु जीरे मेथी आदि द्रव्य का और घृत का विनाश किया है। (त जहण मम जाउयाओं जाणिस्सति, तो, ण मम सिसिस्सति) इस पात को यदि मेरी देवरानी जाने गी तो वे मेरे ऊपर गुस्सा होगी और मेरो निदा करेगी। (त जाव ताच मम जाउयाओ ण जाणति ताव मम सेय एय सालइयं तित्ता लाग्य बहुसभारणेह कय एगते गोवेत्तए) इसलिये मुझे अय यही उचित है कि में इस शारदिक तिक्तोला के शाक को जो यहत सभार एव घृत डालकर बनाया हैं किसी एकान्त स्थान में छुपाकर रख दूं और ડાની લીંબોળી માણસોની સામે આદર મેળવવા ગ્ય ગણાતી નથી તે પ્રમાણે હુ પy માણસે દ્વારા આદર પ્રાપ્ત કરવા લાયક રહી નથી એટલે કે હું લોકેની સામે અનાદરણીય થઈ ગઈ છે કે શરદ કાલિક અથવા સરસ બીના ફળનુ હીંગ, જીરૂ વગેરે દ્રવ્યેથી યુક્ત અને ઘી વગેરેથી યુક્ત શાક मनाव्यु छ (सुबहु व्वक्ख ए नेहक्स ए य कए) सने तैयार ४२वामा में વ્યર્થ હીંગ, જીરૂ, મેથી વગેરે તેમજ ઘી વગેરે વસ્તુઓને દુર્વ્યય કર્યો છે (त जइण मम जाउयाओ जणिस्स ति, तो मम खिसिस्स ति) व भाश દેરાણીને આ વાતની જાણ થશે તે તેઓ ચોક્કસ મારા ઉપર ગુસ્સે થશે અને મારી નિદા કરશે
(त जाव ताव मम जाउयाओ ण जाणति ताव मम सेय एय सालइय वित्तीलाउय वहु सभारणेहकय एगते गोवेत्तए)
એથી અત્યારે મને એ જ ચોગ્ય લાગે છે કે આ શારદિક તિકતે લાબુ ( કડવી તબડી) ના શાક ને-કે જે ખૂબ જ સરસ ઘી નાખીને વઘારવામાં આવ્યું છે-એક તરફ છુપાવીને મૂકી દઉં અને તેની જગ્યાએ વાવ
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतर्वापणी टी० अ० १६ धर्मपच्यनगारचरितवर्णनम्
४ सपेक्षते-विचारयति, सप्रेक्ष्य तत् शारदिक यावद् तिक्तालायुक गोपयति-कचित् समाच्छाद्य धरति अन्यत् शारदिक मधुरालाजुममुपस्करोतिरन्धयति शेशारा दिभिः संस्करोति । तेपा बामणानां यावत् मुखासनवरगताना निननिजामने. मुखोपविष्टाना तद् विपुलमशन पान साध स्वाध परिवेपयति-नेपा भोजनावसरे भोजनपाने ददातीत्यर्थः । ततः खलु ते ब्रह्माणाः 'जिमियभुत्तुत्तरगया' जिमितउसके र गनपर (अन्न सालय महुरालाउय जाव नेहावगाढ उवक्ख डेत्तए) दूसरी शारदिक मधुर तुंपड़ी का शाक हीग, जीरे और मेथी का बघार लगाकर घृत में तैरता हुआ धनानू (एव सपेहेइ, सपेहित्ता त सालइ य जाव गोपेइ अन्न सालइ महरालाउय उवग्वडेइ तेसिं महणाण पायाण जाव सुहासनवरगयाण त विपुल असण ४ परिवे सेह) ऐसा उसने विचार किया-विचार करके उस शारदिक कडधी तुपटी के बहुत सभार एब घृत युक्त शाफ एकान्त में छुपाकर रख दिया-और दूसरी शारदिक मधुर तुंबडी- का शाक हींग जीरे
आर मेथी का वघार लगाकर घृत में तैरता हुआ बना लिया। इनने में वे तीनो ब्राह्मण स्नान आदि से निपट कर भोजन शाला मे आकर अपने २ आसन पर शाति के साथ बैठ गये। उनके बैठते ही उसने उन्हें अशन आदिरूप चारो प्रकार का आहार यालो मे परोमा (तएण त माणा जिमिय भुत्तुत्तरागया समाणा आयता, चोक्खा परम सुइमहुरालाउय जाव नेहावगाढ उपक्सडेत्तए) भी श६ भीही तूमडीनु ઘી ઉપર તરી રહ્યું છે એવું શાક હીંગ, જીરૂ અને મેથીમા વધારીને બનાઉં _(एव सपेहेइ, सपेहिता त सालाइ य जाच गोवेइ, अन्न सालइय महुराला. उप उवरखडेइ, तेसिं माहणाणं व्हायाणं जाय सुहासनवरगराण त विपुल असण ४ परिवेसेइ)
આ જાતનો તેણે વિચાર કર્યો, વિચાર કરીને તે શાક કડવી ખૂબ ડીના સરમ ઘીમાં વઘારેલા શાકને એક તરફ છૂપાવીને મૂકી દીધું અને બીજી શારદિક મીઠી સુખડી-દૂધીનુ હીગ, જીરૂ અને મેથીને વઘાર કરીને ઉપર ઘી તરતું શાક બનાવ્યું એટલામાં તે તેઓ ત્રણે બ્રાહ્મણે નાન વગેરેથી પરવારીને ભોજનશાળામાં આવીને પોતપોતાના આસન ઉપર શાતિથી બેસી ગયા તેમને બેસતા જ તેણે તેઓને અશન વગેરે રૂ૫ ચારે જાતને આહાર થાળીમાં પીર
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
गादमुपस्कृत, तेन गुपद्रग्गामा-हिणीदिना क्षयकाः , तत्-तस्मात् यदि सउ मग 'गाउपाभो' या शास्यन्ति, 'तोग' तर्हि स मग 'सिसिस्मति ' विगिया करिष्यन्ति, तत्-तस्मात् गारमग गारका न जाननित, ताग एतत् शारदिक तिक्तालापुक पगमारस्नेहकनम् एकानो 'गोपेत अन्यत् शारदिक मधुगलावुक मधुरतम्यीफल यापन् सोहागाटमुन की निवौली किसी मनुष्य की दृष्टि में आदर पाने योग्य है उसी प्रकार में भी जनो धारा अनादरणीर पनी है। जो कालिक अथवा सरस इस तुयी फल का रिगु, जीरकादि युक्त और घृतादि से युक्त शाक पनाग है (सुपटदायरस, य कए। इस के यनाने में मने व्यर्थ ही बहुत से हिड्गु जीरे र द्रव्य का और घृत का विनाश किया है । (त जहण मम : जाणिस्सति, तो, ण मम सिसिस्सति) इस पात को यदि मेरी जाने गी तो वे मेरे ऊपर गुस्सा होगी और मेरो निंदा करेगी ताव मम जाउयाओ ण जाणति ताव मम सेयं एय सालइर लाउय बहुसभारणेह कय एगते गोवेत्तए) इसलिये मुझे अय य है कि मैं इस शारदिक तितोला के शाक को जो यहुत स घृत डालकर घनाया हैं किसी एकान्त स्थान मे छुपाकर र ડાની લીંબોળી માણસની સામે આદર મેળવવા યોગ્ય ગણતી નથી હુ પણ માણસે દ્વારા આદર પ્રાપ્ત કરવા લાયક રહી નથી એ લેકેની સામે અનાદરણીય થઈ ગઈ છુ કે શર૮ કાલિક અ તુંબીને ફળનુ હીંગ, જીરૂ વગેરે દ્રવ્યથી યુક્ત અને ઘી વગેરેથી मनाप्यु छ (सुबहु दव्वक्स ए नेहक्स ए य कए ) मे तैयार વ્યર્થ હીંગ, જીરૂ, મેથી વગેર તેમજ ઘી વગેરે વસ્તુઓને દુ(त जइण मम जाउयाओ जणिस ति, तो ण मम सिसिरस ति) દેરાને આ વાતની જાણ થશે તે તેઓ કેસ મારા ઉપર ગુસ્સે મારી નિંદા કરશે
(त जाव ताव मम जाउयाओ ण जाणति ताव मम सेय एर तितोलाउय बहु सभारणेहकय एगते गोवेलए)
એથી અત્યારે મને એ જ યોગ્ય લાગે છે કે આ શારદિક તિ (કડવી ત બડી) ના શાક ને-કે જે ખૂબ જ સરસ ઘી નાખીને ૦ આવ્યું છે-એક તરફ છુપાવીને મૂકી દઉં અને તેની જગ્ય
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतर्वापणी री० अ० १६ धर्मपच्यनगारवरितवर्णनम् समेतते-विचारयति, सप्रेक्ष्य तत् शारदिक याद तिक्तालावुक गोपयति कचित् समाच्छाद्य धरति जन्यद शारदिक मधुरालासमुपस्करोतिम्रत्ययति शेशारा दिभिः संस्करोति । तेपा बापणानां यावद मुग्यासनवरंगताना निजनिनामनेसुग्वोपविष्टाना तद् पिपुलमशन पान साध स्वाध परिवेषयति-नेपा भोगनावसरे भोगनपाने ददातीत्यर्थः । ततः खलु ते व्रमाणाः 'जिमियमुत्तुत्तरगया जिमितउसके र रानपर (अन्न सालल्य महुरालाउय जाब नेहरावगाढ अवश्ख उत्तए) दूसरी शारदिक मधुर तुपड़ी का शाक हींग, जीरे और मैंथी का वधार लगाकर घृत में तैरता हुआ बनानू (एक सपेहेद, सरिता त सालइ य जाव गोपेड अन्न सालइर महरालाडय उवग्बडेह तेसिं महणाण पायाण जाव सुहासनवरगयाण त विपुल असण ४ परिवे सह ) ऐसा उसने विचार किया-विचार करके उस शारदिक कउयों कुपटा क यत सभार एवं घृत युक्त शाक एकान्त में छुपाकर रख दिया और दूसरी शारदिक मधुर तुंबडी - का शाक हींग जीरे भार मेयी का वधार लगाकर छत में तैरता हुआ चना लिया। इनने में पताना ब्राह्मण म्नान आदि से निपट कर भोजन शाला में आकर अपने २ आसन पर शाति के साथ बैठ गये। उनके बैठते ही उसने उन्हें अशन आदिरूप चारो प्रकार का आहार याला में परोमा (तएण त मारणा जिमिय भुत्तत्तरागया समाणा आयता, चोक्खा परम सुइ
महुरालाउय जाप नेहावगा असडेत्तए) भी शा िभीही तू છે ઉપર તરી રહ્યું છે એવું શાક હીંગ, જીરૂ અને મેથીમા વધારીને બનાઉ
(एच सपेहेइ, सपेहिता त सालाइ य जाव गोवेइ, अन्नं सालदय महुरालाउप उरक्खडेइ, तेसिं माहणाणं हायाणे जाव सुहासनवरगाण त विपुल असण ४ परिवेसेड)
આ જાતને તેણે વિચાર કર્યો, વિચાર કરીને તે શારદિક કડવી ખૂબ ડાના સરમ ઘીમાં વઘારેલા શાકને એક તરફ છૂપાવીને મૂકી દીધું અને બીજી શારદિક મીઠી તુંબડી-દૂધીનુ હીંગ, જીરું અને મેથીને વઘાર કરીને ઉપર થી તરતું શાક બનાવ્યું એટલામાં તે તેઓ ત્રણે બ્રાહ્મણે નાન વગેરેથી પરવારીને ભેજનશાળામા આવીને પોતપોતાના આસન ઉપર શાતિથી બેસી ગયા તેમને બેસતાં જ તેણે તેઓને અશન વગેરે રૂપ ચાર જાતને આહાર
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
tva
মাথায়গায় गाढमुपस्कृत, तेन मुरादन्या:-दिनीरादिपनाशः, स्नेहसयाम्घृतादि क्षयश्चकृतः, तत्-तस्मात् यदि खउ मा 'जाउयाभो' याना, देवरमार्याः ज्ञास्यन्ति, 'तोण' तर्हि खलु मा खिसिसमतिसिनियन्ति-निन्दा कोप व करिष्यन्ति, तत्-तस्मात् यारगम यातका न जानन्ति, तावन्मम श्रेयः-उचित एतत् शारदिक तिक्तालावुक हुममारस्नेहकतम् एकान्ते 'गोवैतए 'गोपयितुम् , अन्यत् शारदिक मधुरालाघुफ मधुरतम्बीफल यापत् स्नेहापगादमुपस्पतम् । एव की नियौली किसी मनुष्य की दृष्टि में आदर पाने योग्य नहीं होती है उसी प्रकार में भी जनों द्वारा अनादरणीय पनी है। जो मने शरद कालिक अथवा सरस इस तुयी फल का रिगु, जीरकादि द्रव्यों से युक्त और घृतादि से युक्त शाक पनाया है (
सु चवण, नेहक्खए य कप) इस के बनाने में मने व्यर्थ ही पटत से हिड्गु जीरे मेथी आदि द्रव्य का और घृत का विनाश किया है । (त जहण मम जाउयामा जाणिस्सति, तो, ण मम सिसिस्सति) इस पात को यदि मेरी देवरानी जानेगी तो वे मेरे ऊपर गुस्सा होगी और मेरो निदो करेगी। (त जाव ताच मम जाउयाओ ण जाणति ताच मम सेय एय सालइय तित्ता लाउय पहुसभारणेह कय एगते गोवेत्तए) इसलिये मुझे अब यहीउचित है कि में इस शारदिक तिक्तोला के शाक को जो पछत सभार एवं धुत डालकर बनाया है किसी एकान्त स्थान में छुपाकर रख दूं और ડાની લીંબોળી માણસેની સામે આદર મેળવવા ગ્ય ગણાતી નથી તે પ્રમાણે
પણ માણસે દ્વારા આદર પ્રાપ્ત કરવા લાયક રહી નથી એટલે કે હું કેની સામે અનાદરણીય થઈ ગઈ છુ એ શર કાલિક અથવા સરસ Cબીના ફળનુ હીંગ, જીરૂ વગેરે દ્રોથી યુક્ત અને ઘી વગેરેથી યુક્ત શાક मनायुछ ( सुबहु दव्वक्स ए नेहक्स ए य कए) मेने तेयार ४२वामा में વ્યર્થ હીંગ, જીરૂ, મેથી વગેરે તેમજ ઘી વગેરે વસ્તુઓને દુર્વ્યય કર્યો છે (त जइण मम जाउयाओ जणिस ति, तो मम खिसिम्स ति) ने भा। દેરાણીને આ વાતની જાણ થશે તે તેઓ ચોક્કસ મારા ઉપર ગુસ્સે થશે અને મારી નિંદા કરશે
(त जाव ताव मम जाउयाओ ण जाणति ताव मम सेय एय सालइय वित्तोलाउय बहु सभारणेहकय एगते गोवेत्तए)
એથી અત્યારે મને એ જ યોગ્ય લાગે છે કે આ શારદિક તિકલાબુ ( કડવી તબડી) ના શાક ને-કે જે ખૂબ જ સરસ ઘી નાખીને વઘારવામાં આવ્યું છે–એક તરફ છુપાવીને મૂકી દઉં અને તેની જગ્યાએ તે જાણ
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
माधर्मापपणी टी० ४० १६ मेध्यन् गारचरितवर्णनम् उजाणे तेणेव उवागच्छति २ अहापडिरूवं जाव विहरति, परिसा निग्या, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया, तरणं तेसिं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी धम्मरुई नाम अणगारे ओराले जाव तेउलेस्से मासं मासेणं खममाणे विहरइ, तपणं से धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसाए सज्झाय करेइ वीयाए पोरिसीए एव जहा गोयमसामी तहेव उग्गाहेइ उग्गाहित्ता तहेव धम्मघोसे थेरं आपुच्छइ जाव चपाए नयरीए उच्चनीयमज्झिमकुलाई जाव अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपविट्ठे, तरण सा नागसिरी माहणी धम्मरुई एजमाण पासइ पासित्ता तस्स सालइयस्स बहुसंभारसंभियस्त णेहावगाढस्स वित्तकडुयरस पट्टणट्टयाए हट्टतुट्ठा उट्टाए उहे उट्टित्ता जेणेव भत्तवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता त सालइय तित्तकडुय च बहुसंभारसंभिय हावगाढ धम्मरुइस्स अणगारस्त पटिग्गहसि सव्वमेव निसिरइ, तपणं से धम्मरुई अणगारे अहापजत्तमितिकट्टु णागसिरीए माहणीए गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता चपाए नयरीए मज्झ मज्झेणं पडिनिक्खमइ जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मघोसस्स अदूरसामते अन्नपाण पडिले पडिलेहित्ता अन्नपाण करयलसि पडिद मेड, तरणं ते धम्मघोसा थेरा सालइयस्सं जाव नेहानगावस्स गवेणं
१४३
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
भुक्तोत्तरगताः भोजनानन्तरं रहिरागना: मन्तः 'मायना' आता: तनुलकाः ' चोक्खा ' चोखामसालितहम्नमवार परमपिभूताः 'सम्मसपउत्ता' स्वकर्मसमयुक्ता-स्वस्वकार्यसलग्ना नानाप्यमन् । ततः सनु ताः ब्रामण्यः स्नाता यावत् खालकारविभूपितास्तद् विपुलमशन पान खाए स्वायम् आहार यन्ति आहारकुन्ति भुञ्जते स्म । आइत्य, यौन समानि सानि गृहाणिआवासभवनानि तौगोपाग-उन्ति, उपागस्य सर्मम प्रयुक्ता जावा ॥ सू० १ ।।
मूलम्-तेण कालेणं तेणं समपणं धम्मघोसा नाम थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नाम नयरी जेणे सुभूमिभागे भूया सकम्मसपउत्ता जाया गावि त्या) आर जय परोसा जा चुका तय उन सपने उसे साया पीया-और सा पीकर जर ये निपट चुके तर उन्होंने फुल्ला आदि कर अपने मुंह का प्रक्षालन किया और हाथो को साफकर वे अपने,२ कार्य में लग गये। (तण्ण ताओ माइ. णीओ पहोचाओ जाव विभूसियाओ त विपुल असण ४ आहारे ति। आहारित्ता जेणेव सयाइ-२ गेहाइ तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सम्म सपउत्ताओ जायाओ) इसके बाद उन ब्रमणियोंने जो कि पहिले से ही स्नान कर चुकी थी और अपने.२ शरीर को सुन्दर वेष भूषा से सुसज्जित किये हुए थी, उस विपुल अशनादिरूप चतुविध आहार को खाया-और खाकर के फिर वे अपने २ चासभवनों में चली गई-वहा जाकर अपने २ वे सब काममें लग गई ।। स्त्र १॥
(तएण, ते माहणा निमिय भुत्तुत्तरागया समाणा आयता, चोक्खा परममा भूया सफम्मसपउत्ता जाया याति होत्था)
આહાર જ્યારે પીરસાઈ ગયે ત્યારે તેઓ ત્રણે જમ્યા અને જમી પર વારીને કોગળા વગેરે કરીને હાથ મે સાફ કર્યા અને હાથ મે સાફ કરીને તેઓ ત્રણે પિતતાના કામમા પરવાઈ ગયા (तएण ताओ माहणीओ व्हायाओ जाब विभूसियाओ त विपुल असण४आहारिता जेणेव सयाइ२ गेहाइ तेणेप उवागच्छति, उवागच्छित्ता सकम्मसपउत्ताओ जायाओ)
- ત્યારબાદ તે પ્રાણીઓએ-કેજેઓએ પહેલા સ્નાન કરીને પિતાના શારીરને સુંદર વસ્ત્રોથી શણગાર્યું હતુ-તે પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવવામાં આવેલે , એશન વગેરે રૂપ ચાર જાત આહારે કર્યો આહારથી પરવારીને તેઓ પિતાપિતાના વાસભવનમાં જતી રહી અને ત્યા જઈને તેઓ સર્વે તિપિતાના કામ પરવાઈ ગઈ સૂ૦૧
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
मनगारधाम तपरिणी 200 ROI च्यागारचरितधानम् उजाणे तेणेव उवागच्छति २ अहापडिरूवं जाव विहरति, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया, तएण तेसिं धम्मघोसाण थेराणं अंतेवासी धम्मरई नाम अणगारे ओराले जाव तेउलेस्से मासं मासेण खममाणे विहरइ, तएणं से धम्मस्ई अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसएि सज्झाय करेइ वीयाए पोरिसीए एव जहा गोयमसा. मी तहेव उग्गाहेइ उग्गाहित्ता तहेब धम्मघोसे थेरं आपुच्छइ जाव चंपाए नयरीए उच्चनीयमज्झिमकुलाइं जाव अडमाणे जणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपविटे, तएण सा नागसिरी माहणी धम्मरुई एज्जमाण पासइ पासित्ता तस्स सालइयस्त वहुसंभारसभियस्स हावगाढस्स तित्तकडुयस्स पट्ठवणट्टयाए हद्वतुट्ठा उट्टाए उट्टेइ उद्वित्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छई, उवागच्छित्ता त सालइय तित्त कडुय च बहुसंभारसंभिय हावगाढ धम्मरुइस्स अणगारस्स पडिग्गहसि सव्वमेव निसिरइ, तएण से धम्मई अणगारे अहापजत्तमितिकटु णागसिरीए माहीए गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता चपाए नयरीए मज्झ मञ्झेणं पडिनिक्खमइ जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मघोसस्स अदूरसामते अन्नपाण पडिलेहेइ पडिलेहिता अन्नपाण करयलसि पडिदमेड, तएणं ते धम्मघोसा थेरा सालइयरस जीव' नेहानगाढस्स गधेण
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९४२
-
-
-
-
-
मुक्तोमागताः भोजनान तरं हिंगगता' : 'आग' आनra तनुलका 'चोक्खा ' चोसम्मानिना ' परमपिभूताः गाम्ममपउत्ता' स्वर्मसमयुक्ता पसाराग्ना मायमार तासलु ताः प्रालयः स्नाता यावत् खालकारगिभूपिताम्नद पिपुलमगन पान पार स्नायम् आहार यत्ति आहारान्ति भुजते स्म । आइत्य, गौर यानि सानि गृहाणिक आवासभानानि रायोपाग उन्ति, उपागत्य पार्मस प्रयुक्ता जाता ॥ सू० १ ।।
मूलम्-तेणं कालेण तेणं समपण धम्मघोसा नाम थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चपा नाम नयरी जेणेन सुभूमिभागे भूया सकम्मसपउत्ता जागा मावि त्या) आरोर जय परोसा जा चुका-तब उन सबने उसे पाया पीया-और पापीकर जर ये निपट चुके तर उन्होंने फुल्ला आदि पर अपने मुंह का प्रक्षालन किया और हाथों को साफकर वे अपने २ कार्य में लग गये। (तपण तामो माह णीओ पहोराओ जार विभूसियाओ त विपुल असण ४ आहारे ति। आहारित्ता जेणेव सयाइ-२ गहराई तेणेन उवागच्छति उचागच्छित्सा सकरम सपउत्ताओ जायाओ) इसके बाद उन ब्रमणियोंने जो कि पहिले से ही स्नान कर चुकी थी और अपने.र शरीर को सुन्दर वेष भूपा से सुसजित किये हुए थी, उसाविपुल अशनादिरूप चतुविध आहार को खाया-और खाकर के फिर वे अपने २ वासभवनी में चली गई-वहा जाकर अपने २ वे सब काममें लग गई ॥ सूत्र १॥
(तएण ते माहणा, जिमिय भुत्तुत्तरागया समाणा आयता, चोक्खा परममा भूया सफम्मसपउत्ता,जाया यानि होत्था)
આહાર જ્યારે પીરસાઈ ગયો ત્યારે તેઓ ત્રણે જમ્યા અને જમી પર વારને કોગળા વગેરે કરીને હાથ મે સાફ કર્યો અને હાથ મેં સાફ કરીને તેઓ ત્રણે પિતતાના કામમાં પરોવાઈ ગયા (तएण ताभो माहणीओ पहायाओ जाव निभूसियाओ त विपुल असणं४आहारित्ता जेणेव सयाइ२ गेहाइ,तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सम्मसपउत्ताओ जायाभो)
ત્યારબાદ તે બ્રાહ્મણીએ-કે જેઓએ પહેલા સ્નાન કરીને પિતાના શારીરને સુદર વસ્ત્રોથી શણગાર્યું હતુ-તે પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવવામા આવેલ
એશન વગેરે રૂપ ચાર જાતને આહાર કર્યો આહારથી પરવારીને તેઓ પિતાના વાસભવનમાં જતી રહી અને ત્યાં જઈને તેઓ સર્વે પતતાના સામાં પરોવાઈ ગઈ સૂ૦૧
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारामतपरिणी 20 HOTE #यगारचरितवर्णनम् उज्जाणे तेणेव उवागच्छति २ अहापडिरूवं जाव विहरति, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगा, तएणं तेसिं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी धम्मरुई नाम अणगारे ओराले जाव तेउलेस्से मासं मासेणं खममाणे विहरइ, तएणं से धम्मरूई अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसएि सज्झाय करेइ वीयाए पोरिसीए एव जहा गोयमसा. मी तहेव उग्गाहेइ उग्गाहित्ता तहेव धम्मघोसे थेर आपुच्छइ जाव चपाए नयरीए उच्चनीयमज्झिमकुलाइं जाव अडमाणे जणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपविटे, तएण सा नागसिरी माहणी धम्मरुई एज्जमाण पासइ पासित्ता तस्स सालइयस्त बहुसंभारसंभियस्स हावगाढस्स तित्तकडुयस्स पट्ठवणट्टयाए हतुट्ठा उट्टाए उठेइ उद्वित्ता जेणेव भत्तवरे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता त सालइय तित्तकडुय च बहुसभारसभियं णेहावगाढ धम्मरुईस्स अणगारस्स पटिग्गहसि सब्वमेव निसिरड, तएणं से धम्मई अणगारे अहापजत्तमितिकट्टणागसिरीए माहीए गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ताचपाए नयरीए मज्झ मज्झेणं पडिनिक्खमइ जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मघोसस्स अदूरसामते अन्नपाणं पडिलेहेइ पडिलेहिता अन्नपाण करयलसि पडिदड़, तएणं ते धम्मघोसा थेरा सालइयाँस जाव नेहापगाढस्स गधेण
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापमेण्या अभिभूया समाणा तओ सालइयाओ जाव नेहावगाढाओ एग बिंदुर्ण गहाय करयलासि आमापइ । तित्तगं सारं कडुय अखज्जं अभोज्जं विसभूयं जाणिता धम्मस्इ अणगारं एवं क्यासी-जइणं तुमं देवाणुपिया! एच सालइय जाव नेहावगाढ आहारेसि तो गं तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि, त मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं जाव आहारेहि, मा णं तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जेहि, त गच्छ णं तुम देवाणुप्पिया! इमं सालइयं एगंतमणावाए अच्चित्ते थडिले परिष्वेहि परिदृवित्ता अन्न फासुय एसणिज्ज असणंपाण खाइमं साइमं पडिगहिता आहार आहारेहि ॥ सू० २ ॥
टीका-'तेण कालेण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धर्मघोषा नाम स्थविग यावत्-बहुपरिमारा.-पहुसाधुपरिवारेण सहिता यर चम्पा नाम नगरी, यौव सुभूमिभागमुद्यान तोवोपागच्छन्ति, अत्र 'धर्मघोपा' इति बहुवचनमादरार्थ प्रयुक्तम् , उपागत्य यथा प्रतिरूप यावन्-अवगहमवगृह्य स यमेन
तेण कालेण तेण समएण इयदि ॥ टीकार्य-( तेण कालेण तेण समएण) उस काल और उस समय में (धम्म बोसा नाम थेरा जाव पहपरिवारा जेणेव चपा नाम नयरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेय उवागच्छद, उवागाच्छित्ता अहापडिरूव जाव विहरति-परिमा निग्गया, धम्मो कहिओ परिसा पडिगया-तएण तेसिं धम्मघोसाण थेराण अतेवाप्ती धम्मरूई नाम अणगारे ओराले ( ते ण कालेण तेण समएणं ) इत्यादि ।
E -( तेण कालेण तेण समएण) a णे मने त सभये (धम्मघोप्सा नाम येरा जार वहुपरिवारा जेणेर चपा नाम नयरी जेणेच सुभूमिमागे उजाणे तेणेव उवागन्छ, उवागच्छिता अहापडिरूव जाप विहरति परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसापडिगया, वएण तेर्सिस थेराण
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनारधर्मामृतवती टी० १० १६ धर्म रुच्यनगारचरितवर्णनम्
२४५
तपसाऽऽत्मान भावयन्तो विहरति आसतेस्म । परिषद् निर्गता धर्गः कथित धर्मकथा कविता परिषत् प्रतिगता धर्मकथा श्रवणानन्तर प्रतिनिवृत्ता । ततः खलु तेषा धमघोषाणा स्थविराणामन्तेवासी धमरुचिन मानगारः उदारः प्रधानो याद सक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः सविता शरीरान्त सकोचिता, विपुला अनेक योजन ममितक्षेत्र स्थित स्तुदहनसमर्धा, तेजोलेश्या विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषो येन सः जाव उस्से मास मासेण खममाणे विहरइ) धर्म घोष नामके स्थविर यावत् अनेक परिवार से युक्त शेकर जहा चपा नगरी, ओर उसमे जहां वह सुभूमिभाग नाम का उम्यान था वहां आये । वहा आकर के उन्हों नेवरों ठहरने के लिये अपने करपानुसार आज्ञा मांगी बाद मे वे वहा सयम और तप से आत्माको भावित करते हुए ठहर गये । चपानगरी के समस्त जन उनको चढ़ना एव धर्मकथा सुनाने के लिये वहाँ आये । उन्होंने चरित्र रूप धर्मका उपदेश दिया । उपदेश श्रवण कर परिषद अपने २ स्थान पर पीछे गई। इसके अनन्तर इन धर्मोप स्थविर के अतेवासी जिनका नाम धर्महचि अनागार या बडे उदार प्रकृति के थे शिष्ट averओं को किया करते थे- उसके म मात्र से इन्हें तेजोलेश्या की प्राप्ति हो गई थी और वह तेजोलेश्या इन्होंने अपने शरीर के भीतर for trataी इस तेजोवा का यह स्वभाव होता है कि जब वह शरीर मे वाहिर निकलती है तो अनेक योजन प्रमित क्षेत्र में रही
वस्तुओ को मकर देती है । नास क्षपण की उपवास रूप तपस्या अंतेवासी धम्मरूई नाम अणगारे ओराले जाव तेउलेस्से मास मासेण सममाण विहरइ
ધર્માંદ્યાય નામના સ્થવિર પાતાના ઘણા પરિવારાની સાથે જ્યા ચા નગી અને તેમા પણુ જ્યા તે સુભૂમિભાગ નામે Cદ્યાન હતુ ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેણે ત્યા રોકાવાની પોતાના આચાર મુજબ આજ્ઞા માગી ત્યાર છી તે ત્યા પેતાના આત્માને તપ અને સ યમથી ભાવિત કરતા રહેવા લાગ્યા. ચપા નગરીના બધા લેાકે તેમના વદન તેમજ ધર્મોથા શ્રવણુ માટે ત્યા આન્યા. તેશ્રીએ શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મના ઉપદેશ આપ્યા ઉપદેશ સાભળીને લેક પાતપાતાના નિવાસ સ્થાને જતા રહ્યા ત્યારપછી ધર્મ પ થિવરના તેવાસી-જેમનુ નામ ધર્મચિ અનગાર હતુ, જેએ ખૂબ જ ઉદાર પ્રકૃતિના હતા, વિશિષ્ટ તપસ્યા કરતા રહેતા હતા જેના પ્રભાવની એમણે તેએલેશ્યા મેળવી હતી અને તેોલેસ્યાને તેમણે પેાતાના શરીરમા જ સકાચી રાખી હતી. આ તેંત્ત-લેશ્યાના પ્રભાવ આ જાતના હૈય છે કે જ્યારે તે શરીર્ય બહાર નીકળે છે ત્યારે ધણા ચાર્જના સુધીના ક્ષેત્રમ્પ મૂકેલી વસ્તુઓને રમ કરી નાખે છે.માસક્ષપણુની ઉપવાસ રૂપ તપસ્યાથી તે
३ २२.
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रानाधर्मकथा
अभिभूया समाणा तओ सालइयाओ जाव नेहावगाढाओ एगं बिंदुर्ण गहाय करयलसि आसाएइ । तित्तगं सार कडुयं अखज्जं अभोज्जं निसभूयं जाणित्ता धम्मरुइ अणगार एवं वयासी - जइणं तुमं देवाणुपिया ! एव सालक्ष्य जाव नेहावगाढ आहारेसि तो णं तुमं अकाले चेन जीवियाओ ववरोविज्जसि, तं मा ण तुम देवाणुप्पिया ! इमं सालइय जाव आहारेहि, माणं तुमं अकाले चेव जीवियाओ वत्ररोविज्जेहि त गच्छ णं तुम देवाणुप्पिया ! इम सालइय एगंतमणावाए अच्चित्ते थडिले परिवेहि परिवित्ता अन्न फासुय एसणिज्ज असणंपाण खाइम साइम पडिगहित्ता आहारं आहारेहि ॥ सू० २ ॥
१४४
टीका- ' तेण कालेन ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धर्मघोषा नाम स्थविरा यावत् परिवारा. - बहुसाधुपरिवारेण सहिता येनैव चम्पा नाम नगरी, यत्रैव सुभूमिभागमुद्यान वोमोपागच्छन्ति, अत्र 'धर्मयोपा' इति बहु चचनमादरार्थं प्रयुक्तम्, उपागत्य यथा प्रतिरूप यावत् - अवगहमवगृह्य स यमेन
तेण कालेन तेण समएण इत्यदि ॥
टीकार्थ-( तेण कालेन तेण समरण) उस काल और उस समय में (धम्म ऐसा नाम थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चपा नाम नयरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छ, उवागाच्छित्ता अहापडिरूव जाव विहरति-परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ परिसा पडिगया-तरण तेर्सि धम्मघोसाण थेराण अतेवासी घम्मरुई नाम अणगारे ओराले
( ते ण कालेन तेण समएण ) इत्यादि ।
टीअर्थ - ( तेण कालेन वेण समएण ) ते अजे भने ते समये ( धम्मघोसा नाम धेरा जान बहुपरिवारा जेणेन चपा नाम भूमिभागे उज्जाणे तेणेन आगच्छा, उनागच्छित्ता अहापडि परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसापडिया, पण तेर्सि
नयरी जेणेब जान विहरति राण
་
*
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
૧૩
वारपणी टी० अ० १६ धर्मध्यनगारचरितवर्णनम्
यावत्-पाया नगर्यामुञ्चनीचमध्यमकुलानि यावदटन् यचैव नागश्रिया ब्राह्मण्यां निष्टः ।
+
ततः खलु सा नागश्री ब्राह्मणी धर्मरुचिमनगारम् एजमानम् - आगच्छन्त 'पश्यति, दृष्ट्वा तस्य ' सालइयस्स ' शारदिकस्य तिक्तकटुकस्य = तिक्त दुकतुम्न कस्य नहुस भारस भृतस्य स्नेहावगाढस्य ' पट्टणट्टयाए ' प्रस्थापनार्थ = परिष्ठा'पनार्थ प्रतुष्टा 'उट्टाए' उत्यया उत्थान कियना उत्तिष्ठति, उत्थाय यौव भक्तगृह तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तद् शारदिक तिक्तकटुकतुम्बक वहुमभारसभृत स्नेहनगड धर्मरुवेरनगारस्य 'पडिग्गहसि ' पतदग्रहे - पात्रे, सर्वमेव 'निसिर '
जिस प्रकार गौतम स्वानो श्री महावीर स्वामी से पूछकर आहार लेने के लिये जाते थे उसी प्रकार इन्होने वर्मघोष स्थविर से आहार लाने 'के लिये आज्ञा मागी । आज्ञा प्राप्तकर ये चंपानगरी में उच्च नीच एवं मध्यमकुलो मे भ्रमण करते हुए जहाँ नागश्री ब्राह्मणी का घर था वहां गये । नागश्री ब्राह्मणी ने इन्हें ज्योती आते हुए देखा (पासित्ता तस्स सालइयस्स वह सभारसभिवस्स हावगाढस्त तित्तकडुयस्त पडवण
पाए ह तुट्ठा उडाए उट्ठेइ उट्ठित्ता जेणेव भक्तवरे तेणेव उवागच्छइ ) त्योहीं यह बहुमार सभृत एव स्नेहावगाढ उसकडवी तुनडीका आहार देने के लिये उत्थान किया द्वारा-उठी- अर्थात् अपने में रही हुई उठने की शक्ति से उठी और हृष्ट तुष्ट होनी हुई जहां भोजन - गृह था वहा गइ | ( उवागच्छित्ता तं सालइयतित कडुय च बहुसभार सभिय णेहागाई म्यस्त अणगारस्स पडिग्गरसिं सत्यमेव निसिरइ ) वहां
સ્વામીને પૂછીને આહાર લાવવા માટે નીકળતા હતા તેમજ તેએએ પણ આહાર લાવવા માટે ધમ ઘેષ સ્થવિરની પાસે આજ્ઞા માગી આજ્ઞા મેળવીને તેઓ ચ પા નબીમાં ઉચ્ચનીચ અને મધ્યમ કુળમા ભ્રમણ કરતા જ્યા નાગશ્રી બ્રાહ્મીનુ ઘર હતુ ત્યા ગયા નાગશ્રી બ્ર ાણીએ તેઓને આવતા જૅયા " ("पामित्ता तस्म सालइयस्स बहुतभारसभियस्त हानागास्त तितकडुयस्त पट्टणट्टयाए हट्टनुद्रा उडाए उट्ठे, उद्वित्ता जेणेव भत्तधरे तेणेव उवगच्छ ) ‘ત્યારે તરત જ સરસ વધારેલા ઘી તરના કડવી તુખડીનેા આહાર આપવા માટે ઉત્થાન ક્રિયા વડે ઊભી થઈ એટલે કે પેાતાનામા રહેવી ઊભા થવાની તાકાતથી તે ઊભી લઈ અને હૃષ્ટ તેમજ તુષ્ટ થતી જ્યાÀાજનશાળા હતી ત્યા ગઈ
( नागच्छित्ता व सालइय तिक्तकुंडय च बहुमभारसभिय दावगाव भ म्म यस्स अणगारस्त पडिग्गहसिं सन्नमेव नितिरइ )
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
মাখা तया, मास-त्रिंशदोराप्रात्मक काल मासेन-मास पणन मागोपासरूपतपः पर्मणा 'खममाणे'क्षपयन-यापयन् विहरति । नतः बल म धर्मचिनिगारो मासक्षपणपारण के प्रथमाया पौमाया जाये' पाण्याय मूत्रपाठप करोति, द्वितीयाया पौरुप्या ध्यानम् बाचिन्तनरूप ध्यायनि-करोनि, पर यया गौतम स्वामी, तथैव गौतमस्वामी पन तृतीयपौरपा भाजनसाणिपमार्जनति, ममार्य भाजनानि 'उग्गाहेइ' अहाति, नाटप यत्रय धर्मघोरस्थापित नोपागउति, उपागत्य तथैव श्रीमहावीरस्वामीन गौतमस्यामिपदेश धर्मघोष स्थविरमापति, से,ये अपने त्रिशत अहोरात्रात्मक काल को उस समय व्यतीत कर रहे थे । अर्थात् एक महीने की तपस्या इन्होंने उस समय कर रखे थे(तएण से धम्मम्इ अणगारे मासयमणपारणगसि पढमाए पोरिसीए सज्झाय करेइ यीयारा पोरिसीए एव जहा गोयमसामी तहेव उग्गाहे, उगमाहितातहेव धम्मघोस थेर आपुच्छह, जार चपाप नयरी उच्च नीय मज्झिमलाइ जाव अदमाणे जेणे नागसिरीए मारणीय गिह तेणेव अणुपविटे, तण्ण सा नागसिरी मारणी धम्म एउजमाण पासइ) ये धर्मरुचि अनगार मासक्षपण की पारणा के दिनप्रथम पौरुषी में सूत्रपाठ रूप स्वा याय, द्वितीय पौरपी में सूत्रार्थ चिन्नन स्प ध्यान
और तृतीय पौरुपी में गौतम स्वामी की तरह वस्त्रपात्रों का प्रमार्जन करते। इस तरह इन्होने तृतीय पौरुपी में रख पात्रो का प्रमाजेन कर अपने पत्रों को उठाया और उठकर ये धर्मघोप स्थविर के पास गये। પિતાના ત્રિશત્ અહિરત્રાત્મક કાળીને તે સમયે પસાર કરી રહ્યા હતા-એટલે કે તેઓ તે સમયે એક માસની તપસ્યા કરી રહ્યા હતા
(तएण से धम्मरूइ अणगारे मासखमणपारणगसि पढमाए पोरिसीए स ज्झाय करेइ, वीयाए पोरीसए एव जहा गोयमसामो तहेव उग्गाहेड, उग्गाहित्ता तहेव धम्मघोस थेर आपुच्छइ, जाव चपाए नयरीए उच्चनीय मज्झिमकुलाइ जाव अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपनिहे, तरण सा सागसिरी माहणी धम्मइ एज्जमाण पासइ)
ધર્મચિ અનગાર ગૌતમ સ્વામીની જેમ પ્રથમ પૌરુષીમાં સપડ રૂપ સ્વાધ્યાય, દ્વિતીય પક્ષમાં સૂવા ચિતન રૂ૫ ધ્યાન અને તૃતીય પગમાં વસ્ત્ર અને પાત્રનુ પ્રમાર્જન કરતા હતા, માસક્ષપણના પિતાના પારણાના દિવસે પણ તેઓએ તૃતીય પૌરુષોમાં વસ્ત્ર-પિતાનું પ્રમાર્જન કરીને પોતાના પાત્રાને લીધા અને લઈને તેઓ ધર્મઘોષ સ્થવિરની પાસે – ગૌતમ
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
--
-
-
-
-
| মাথায় स्था, मास-त्रिंशदोरात्रात्मक फाल मासेन गासपणेन मामोपचासरूपतप: पर्मणा 'खममाणे 'क्षपयन्स्यारयन् हिरति । ततः स म धर्मरुचिरनगारो मासक्षपणपारणके प्रथमाया पौमाया 'राजा'पाध्याय मुत्रपाठप करोति, द्वितीयाया पौरुप्या ध्यानम् स्वार्थचिन्तनरूप यायनि-कारोनि, पर यया गौतमस्वामी, तथैव गौतमस्वामी त उनीयपीमाया मानाखाणिपमार्जवति, प्रमा भाजनानि 'उग्गाहेह' अपगृहाति, जयप यो धर्मघोपस्यविनोपागन्छति, उपागत्य तथैव श्रीमहावीरस्वामीन गौतमस्यमिदेव धर्मोष स्थपिरमापति, से ये अपने विंशत अरोरानात्मक फाल को उम समय व्यतीत कर रहे थे । अर्थात् एक महीने की तपस्या इन्होंने उस समय कर रखे थे(तएण से धम्ममइ अणगारे मासपमणपारणगसि पढमा पोरिसाए सज्झाय करेइ पीयाए पोरिसीए एव जता गोयमसामी तहेव उगाहे, उगगाहित्ता तहेव धम्मघोस थेर आपुच्छ, जार चपाए नयरी उच्च नीय मज्झिमकुलाइ जाच अडमाणे जेणे नागसिरी मारणीय गिह तेणेच अणुपवितु, तण्ण सा नागसिरी मारणी धम्मस्इ एज्जमाण पासइ) ये धर्मरुचि अनगार मासक्षपण की पारणा के दिनप्र म पौरुषी में सूत्रपाठ रूप स्वा"याय, द्वितीय पौरपी में सूत्रार्थ चिन्तन रूप ध्यान और तृतीय पौरुपी मे गौतम स्वामी की तरह वनपात्रो श प्रमार्जन करते । इस तरह इन्होंने तृतीय पौरुपी में रख पात्रो का प्रमार्जन कर अपने पत्रों को उठाया और उठकर ये धर्मघोप स्थविर के पाम गये। પિતાના વિંશત્ અહેરાત્રાત્મક કાળને તે સમયે પસાર કરી રહ્યા હતા-એટલે કે તેઓ તે સમયે એક માસની તપસ્યા કરી રહ્યા હતા
(तएण से धम्मरूइ अणगारे मासखमणपारणगसि पढमाए पोरिसीए स ज्झाय करेइ, बीयाए पोरीसए एव जहा गोयमसामो तहेव उग्गाहेइ, उग्गाहित्ता तहेच धम्मघोस थेर आपुच्छइ, जाव चपाए नयरीए उचनीय मज्झिमकुलाइ जाव अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपनिटे, तरण सा नागमिरी माहणी धम्मरूइ एज्जमाण पासइ)
ધર્મરુચિ અનગાર ગૌતમ સ્વામીની જેમ પ્રથમ પૌરુષીમા પાક રૂપ સ્વાધ્યાય, દ્વિતીય પસ્વીમા સ્વાર્થ ચિંતન રૂપ ધ્યાન અને તૃતીય પરીમાં વસ્ત્ર અને પાનું પ્રમાર્જન કરતા હતા, માસ ૫ણુના પિતાના પાણીના દિવસે પણ તેઓએ તૃતીય પામ વસ્ત્ર–પિતાનું પ્રમાર્જન કરીને પિતાના પાત્રને લીધા અને લઈને તેઓ ધમ ઘોષ સ્થવિરની પાસે છે જેમ ગૌતમ
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
मातागो टो० अ० १६ धर्मरुध्यनगारवरितवर्शनम् रुचिमनगारमेवमवदन् यदि सल स हे देशोनुप्रिय । एतद् शारदिकं यावत्विक्तरुटुकतुम्क यारत् स्नेहारगाहम् जाहारयसि आहार करिप्यसि, तर्हि खलु लमकाले एव जीविताद् व्यपरोपिप्यसे' एतदशनेन मरणमवश्य प्राप्स्यसीत्यर्थ । वत्-तस्मात् मा खलु त्वं हे देशानुप्रिय '! एतद् शारदिकं यावदाहाग्ग, मा खलु निकल कर चपानगरी के बीचो बीचसे होकर चल दिये सो जहा सुभूमिभाग नाम का उयान था वहा आ गये | वा आकर वे अपने आ चार्य धर्मघोप स्थविर के पास आये वहा आकर उन्होंने भिक्षामें प्राप्त हुआ आसार बताया और बताने के पाद उस शारदिक कडवी तुरडी के यावत् स्नेहावगाड शाक की गध से अभिभूत होते हुए उन धर्मघोष आचार्य ने उस शारदिक यारत् स्नेहारगाढ शाफ में से एक पिन्दु मात्र को अपने हाथ की हथेली पर रख कर चखा (लित्तग खार कडुय अखज्ज अभोज्ज विसभ्यं जाणित्ता धम्मस्ड अणगार एव वयासी इण तुम देवाणुपिया। एय सालइय जाव ने हावगाह आहारेमि तो ण तुम अकोले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि ) चन्वते ही " यह तिक्त हैं क्षार से युक्त है कटुक है अखाद्य एव अभोज्ज है तथा विपभूत है" ऐसा जानर धर्मरुचि अनगार से उन्होंने ऐमा कहा हे देवानु प्रिय ! यदि तुम शारदिक कडवी तु बडी के पह सभार सभृत एवं स्नेहारगाढ इम शाक का आहार करोगे-तो निश्चय से विना मृत्यु के
નીકળીને ચ૫ નગરીની વચ્ચેના માર્ગથી પસાર થતા ના સુમિભાગ નામે ઉઘાન હતું ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેઓ પિતાના આચાર્ય ધર્મઘોષ
વિરની પાસે આવ્યા અને ત્યાં આવીને તેમણે ભિક્ષામાં પ્રાપ્ત થયેલા આહારને બતાવ્યો અને બતાવીને તે શારદિક કડવી તૂ બડીના સરસ વઘારેલા થી તરતા શાકની સુવાસથી અભિભૂત થતા તે ધર્મઘોષ આચાર્યો તે શારદિક સરસ વઘારેલા ઘી તરતા શાકને હવેળી ઉપર મૂકીને ચાખ્યું
(तत्तग खार कडुय आवज्ज अभोज्न त्रिसभूय जाणित्ता धम्मरूइ अगगार एव पयासी-जइण तुम देवाणुप्पिया ! एय सालइय जाच नेहानगाढ आहारेसि तो तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि)
ચાખતા જ “આ તિકત છે, ખારૂ છે, કડવું છે, અખાદ્ય તેમજ અ ન્ય છે તથા વિધભૂત છે ” આવુ જાણીને ધર્મચિ અનગારને તેઓએ આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! જે તમે શારદિક કડવી ખૂબડીને સરસ વધા રેલા વીતરતા શાકને આહાર કરશે તે ચોક્કસ તમે કમોતે મરી જશે.
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४.
शातायात निएजति-परिष्ठापयति । ततः ग
नगार' 'आपनर' यथा पर्याप्तम्-उदरपूर्तये पूर्णमेतद् इति कन्या इति मनसि विमान्य, नागश्रिया प्रामग्या गृहात् प्रतिनिष्कामति-निर्गति प्रतिनिधम्प पम्पायानगर्या मपम ऐन प्रति निष्काम्यति प्रतिनि कम्य यीन मुभूमिभागापान नमैत्रोपाग उति, उपागत्य धर्म घोपस्य स्यविरस्य 'अदरसामन्ते नातिदरे नातिममीपे, मनपान पडिलेहे प्रति लेखयति मतिलेरय गनपान गरतले पात्र म्ला मतिदर्शयति। नतासलु ते धर्मोपाः स्थविरास्तस्य शारदिकस्य विक्तागुम्बाम्य यारत् स्नेहारगादम्य गावेनाऽमि भूतासन्तस्तस्माच्छारदिकाद् यापद् स्नेहारगाढादेक विन्दुक गृहीत्वा करतले कृत्वा आस्वादयति । तिक्तक क्षार पटुकम् अग्वाद्यमभोज्य विपभूत जावा धर्मजाकर उसने उत्त शारदिक कहयी तुपडी का या सभार सभृत एव स्नेहावगाढ शाक धर्मरचि अनागार के पात्र में सप का सर डाल दिया (तएण सेधम्मरुइ अणगारे अहापज्जत्तमित्तिकहहु णागसिरीए माहणीए गिहाओ पडिनिक्खमइ ) इसके पाद वे धर्मरुचि अनगार " यह उदर पूर्ति के लिये पर्याप्त है" ऐसा मन में समझ कर नागश्री ब्राह्मणी के घर से बाहर निकले पडिस्रािमित्ता चपाए नयरीए मज्झ मझेण पडिनिक्खमइ, जेणेच सुभूमिभागे उज्जाणे - तेणेव उवागच्छइ, उवागछित्तो धम्मघोसस्स अदुरसामते अन्नपोण पडिलेहेइ, पडिले हित्ता अपणपाण करयललि पन्दिसेइ, तण्ण से धम्मघोसा येरा तस्स सालइस्स जाव नेहावगाढस्त गधेण अभिभूया समाणा ताओ साल इयाओ जाव नेहावगाढाओ एग बिंदुग गहाय करयलसि आसाएइ)
- ત્યાં જઈને તેણે તે શારદિક કડવી તુ બડીનું ખૂબ જ સરસ રીતે વઘા રેલુ તેમજ ઘી તરતુ શાક લઈ આવી અને ત્યારપછી ધર્મચિ અનગારના પાત્રમાં બધુ નાખી દીધુ
(तएण धम्मरूई अणगारे अहापज्जत्तमित्ति क्टु णागसिरीए महिणीए गिहाओ पडिनिक्खमई)
ત્યારપછી તે ધર્મરુચિ અનગાર છે આ ઉદર પિષણ માટે પર્યાપ્ત છે” એવું જાણીને નાગશ્રી બ્રાહ્મણના ઘેરથી બહાર નીકળ્યા
(पडिनिवखमित्ता चपाए नयरीए मल्झ मज्झेण पडिनिक्खमइ, जेणेव सुभूमि भागे उज्जाणे-तेणेव उवागन्छ, आगच्छित्ता धम्मघोसस्स अदरसामते अन्न पाण पडिलेहेइ, पडिलेहिता अण्णपाण करयलसि पडिदसइ, तएण से धम्म• घोसायेरा तस्स सालइस्स जाब नेहावगाढस्स गधेणं अभिभूया समाणा तओ सालइयाओ जाव नेहावगादाभो एग बिंदुग गहाय
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगरपनाहगी टी० १० १६ धर्मरुध्यनगारचरितमानम् रुचिमनगारमेवमवदन् यदि सलु व हे देवोनुप्रिय । एतद् गारदिक यावत्तिक्तम्टुकतुम्नक यारत् स्नेहारगाहम् पाहारयसि आहार फरिप्यसि, तर्हि खलु लमकाले एव जीविताद् व्यपरोपिष्यसे' एतदशनेन मरणमवश्य प्राप्त्यसीत्यर्थ । वत्-स्मात् मा खल त्व हे देवानुप्रिय ! एतद् शारदिकं यावदाहाग्ग, मा खलु निकल कर चपानगरी के बीचो बीचसे होकर चल दिये सो जहा सुभूमिभाग नाम का उद्यान था वहा आ गये। वहा आकर वे अपने आचार धर्मोप स्थविर के पास आये वहा आकर उन्होंने भिक्षामें प्राप्त हुआ आहार घताया और बताने के बाद उस शारदिक कडी तुपडी के यारत् स्नेहायगाढ शाक की गध से अभिभूत होते हुए उन धर्मघोष आचार्य ने उस शारदिक यात् स्नेहावगाढ शाफ मे से एक चिन्दु मात्र को अपने हाथ की हथेली पर रख कर चखा (तित्तग खार काय अखज्ज अभोज्ज विसभूय जाणित्ता धम्मरह अणगार एव वयासी -इण तुम देवाणुपिया। एय सालइय जार ने रावगाह आहारेमि तो ण तुम अफोले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि ) चग्यते ही " यह तिक्त हैं क्षार से युक्त है कटुक है अग्वाद्य एव अभोज्ज है तथा विपभूत है" ऐसा जानर धर्मरुचि अनगार से उन्होंने ऐमा कहा हे देवानु प्रिय ! यदि तुम शारदिक कडवी तु घडी के यह सभार सभृत एवं स्नेहावगाढ इस शाक का आहार करोगे तो निश्चय से विना मृत्यु के
નીકળીને ચ પ નગરીની વચ્ચેના માર્ગથી પસાર થતા જા સુમિભાગ નામે ઉઘાન હતુ ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેઓ પિતાના આચાર્ય ધમાલ
વિરની પાસે આવ્યા અને ત્યાં આવીને તેમણે ભિક્ષામાં પ્રાપ્ત થયેલા આહારને બતાવ્યું અને બતાવીને તે શારદિક કડવી તુ બડીના સરસ વઘારેલા ઘી તરતા શાકની સુવાસથી અભિભૂત થતા તે ધર્મ આચાર્યે તે શારીરિક સરસ વઘારેલા ઘી તરતા શાકને હથેળી ઉપર મૂકીને ચાખ્યું
(तत्तग खार कड्डय आवज्ज अभोज विसभूय जाणिचा धम्मरुइ अगगारं एवं वयासी-जइण तुम देवाणुप्पिया ! एय सालइय जान नेहानगाढ आहारेसि तो तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि)
ચાખતા જ “આ તિકત છે, ખાસ છે, કડવું છે, અખાદ્ય તેમજ અન્ય છે તથા વિષભૂત છે” આવું જાણુને ધમરુચિ અનગારને તેઓએ આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય છે જે તમે શારદિક કડવી ખૂબડીના સરસ વઘા
* આહાર કરશે તે ચોક્કસ તમે કમેતે મરી જશે,
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
साकारएर जीरिताद् व्यपरोपमा निगरानामा गन्छ खल वं 'हे देनानुमिय । इद शारदिक 'एगतमणा ' शन्तेऽनापाते-एकान्तेनिर्जनस्थाने, अनापाते-आपात.-जीन्द्रियादिमाणिनां सयोगम्ननिते, अभिनेजीवरहिते, स्थण्डिले भूमी परितोहि परिधापग, परिधाप्पान्यत् प्रामुकमेपणीय द्वाचत्वारिंशदोपरहित, शुद्धम् अरानपानखाधस्वायम् मतिरका माहारमाहारय।०२।।
मूलम्-तएणं से धम्मरुई अणगारे धम्मघामेण थेरेणं एवं वुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अंतियाओ पडिनिक्संमइ, पडिनिक्खमित्ता सुभूमिभागाओउज्जाणाओ अदूरसामते थडिल्ल मरजाओगेत मा ण तु देवाणुपिया। इमं सालइय जारआहारेहि मोण तुम अकाले चेर जीवियाओ चयरोविजहि त गच्छण तुम देवाणुपिया ! हम साराइयं गगनमणावा अच्चित्ते घडि पडिहवेहि .परिहवित्तो अन्नं फार एसणिज्ज असण पाण ग्बाइम साइम पडि गाहेत्ता आहार आरेहि) इमलिये हे देवानुप्रिय ! तुम शारदिक कॅडवी तुबडी के शाफ किसी एकान्त स्थानमें कि जहा डोन्द्रियादि प्राणियोंको सचरण नहो-और जो अचित्त हो ऐसी भूमि पर परिष्ठापना कर आओ। और परिष्टापना करके फिर प्रामुक एपंणीय -४२-दोपो से रहित शुद्ध अशन, पान खाद्य स्वाध रूप दुर्मरे आहार को लेकर भोजन कर लो।। सू०२॥
(त माणं तुम देवाणुपिया ! इम सालइय जाव आहारेहिमाण तुम अकाल वेव जीवियाओ वरोविजहि त गाडण तुम देवाणुपिया । इम सालय एग तमेगावाए अचित्ते यडिले 'पडिटरेहि, परिद्वपित्ता'भन फाBय एमणिज्ज असणे पाण खाइमें साइम पडिंगाहिता ओहार आहारेहि )
એથી હે દેવાનુપ્રિયા તમે આ શારદિક તબડના શાકને ખાશે નહિ તેથી અકાળે તમૉરૂ મરણ પણ થશે નહિ માટે હે દેવાનુપ્રિય! તમે આ આ શારદિક કડવી ખૂબડીના શાકની કોઈપણ એકાત-નિર્જન સ્થાનમાં કે અન્ય દિર્નિયાદિ પ્રાણીઓનું સચરણ હેય નહિ અને જે અચિત્ત હેય એવી ભૂમિ ઉપર પરિધાન કરી આવો અને પરિપકર્યા બાદ પ્રાસુક એષણીય ૪૨ *रावाथी ३क्षित शुद्ध'मन, पान, माध-alu ३५ जाने AIRP पीते HER भय ३० ॥ २॥
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतयपिणी टीका0 ४१० १६ धरुध्यन्गारचरितवर्णनम् १५॥ पडिलेहेइ, पडिलेहिता तओ सालाइयाओ, एग- विदुग गहेइ गहित्ता थंडिलंसि निसिरह तो गं. तस्स सालइयस्स तित्तक्डुयस्रा वहुनेहावगाढस्स गंधेण वहूणि पिपीलिगासहस्साणि पाउभूयाइ जा जहा य णं पिवीलिका आहारेइ सा तहा अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जइ तएणं तस्स धम्मरुइस्स अणगारस्स इमेयारूवे अज्झथिए ५ जाव ताव इमस्स सालइयस्त जाब एगमि विदुर्गमि पक्खित्तमि अणेगाइं पिपीलियासहस्साई ववरोविजति तं जइ णं अह एय सालइय थडिलसि सव्व निसिरामि तएणं बहूण पाणाणं ४ वहकारणं भविस्सइ, त सेय खलु ममेय सालइय जावगाढ सयमेव आहारेत्तए, मम चैव एएणं सरीरेणं णिजाउत्तिकट्ठ एव संपेहेइ सपेहिता मुहपोत्तिय पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता ससीसोवरियं का पमज्जेइ२ तं सालइय तितकडुयं बहुनेहावगाढ बिलमिव पन्नगभूनणं अप्पाणेणं सब सरीरकोटसि पक्खिवइ, तएणं तस्स धम्मरुइस्स त सालय जाव नेहावगाढ आहारियस्ल समाणस्त मुहत्ततरेण परिणममाणसि सरीरगंसि वेयणापाउन्भूया उज्जलाजाव दुरहियासा, तएण से धम्मरुची अणगारे अथामे अवले अवीरिए अपुरिसकारपरकमे आधारणिज्जमितिकटु आयारभडग एगंते ठवेइ ठवित्ता थडिल्ल पडिलेहेइ, पटिलहित्ता दभसथारगं संथारेइ सथारित्ता दव्भसंथारंग दुरूहइ, दुरूहिता पुरस्थाभिमुहे सपलियकनिसन्ने करयलपरिग्गहिय एव वयासी-नमोऽत्थु
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
मेया "वाकालएर जीविनाद् प्यपरोप्यायमा विगत । सन्माद् गच्छ खलुतं 'हे देनानुपिय । इद शारदिक 'एगतमणा' पायान्तेऽनापाते एकान्तेनिर्जनस्थाने, अनापाते-भापात:-द्वीन्द्रियादिमाणिनां सयोगस्तद्वनिते, अधिन'जीपरहिते, स्वण्डिले भूमौ 'परिद्वहि परिष्टापग, परिष्टाप्यान्यत् प्रारकर्मपणीयद्वाचवारिंशदोपरहित, शुदम्-अशनपानखाघस्सायम् मतिर आहारमाहारयामू०२॥
मूलम्-तएण से धम्मरुई अणगारे धम्मघोसेण थेरेण एवं वुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अतियाओ पडिनिक्खमई, पडिनिक्खमित्ता सुभूमिभागाओउज्जाणाओ अदूरसामते थडिल्ल मरजानोगे-( त मा ण तुमें देवाणुप्पिया । इम'सालय जाव आहारहि माण तुम अकाले चेर जीचियाओ वयरोविजहि त गठण तुम 'देवाणुपिया | इम सालइय एगतमणावा अच्चित्ते घडि पडिहवेदिक -परिट्ठवित्तो अन्न फासुय एसणिज्ज असण पाण वाडम माइम पडि गाहेत्ता आहार आहारहि) इमलिये हे देवानप्रिय! तुन शारदिक कंडची तुपडी के शाक किसी एकान्त स्थानमें कि जरा दोन्द्रियादि "प्राणियोको सचरण नहीं-और जो अचित्त हो ऐसी भूमि पर परि 'ष्ठापना कर आओ। और परिष्ठापना करके फिर मास्सुक एपणीय ४ ४२ -दोपो से रहित शुद्ध अशन, पान-खाद्य स्थांद्य रूप दुमरे आहार को लेकर भोजन कर लो ॥ सू० २ ॥
(त माणं तुम देवाणुप्पिया ! इम सालइय जाव आहारेहि माण तुम अकाल वेव जीवियाओ पवरोविजहि त गच्छण तुम देवाणुप्पिया इम सालइय एग. तमंगोवाए अचित्ते यडिले पडिट्ठरोहि, परिद्वपित्ता'अनफासुप एमणिज्ज असण पाण खाइम साइम पडिंगाहित्ता आहार आहारेहि)
એથી હે દેવાનુપ્રિય ! તમે આ શરદિક તુંબડીને શાકને ખાશે નહિ "તેથી અકાળે તમાંરૂ મરણ પણ થશે નહિ માટે હે દેવાનુપ્રિય! તમે આ શારદિક કડવી તુ બડીના શાકની કેઈપણ એકાત-નિર્જન સ્થાનમાં કે જ્યા દ્વિત્તિયાદિ પ્રાણીઓનુ સચરણ હોય નહિ અને જે અચિત્ત હોય એવી ભૂમિ ઉપર પરિણાપના કરી અને પરિપન કર્યા બાદ પ્રાસુક એષણીય જર દેથી રહિત શુદ્ધ અથન, પાન, ખાદ્ય-રંવધિ રૂપ બીજે આહાર જવી તે मासार अक्षय |. ॥ २ ॥२॥
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ धर्म रुच्यनगारचरितनिरूपणम् १५३ तिक्तकटकस्य तुम्नस्य बहुसमारसभृवस्य स्नेहायगाढस्य गन्धेन बहूनि पिपीलिकासहस्राणि मादुर्भूतानि, या यथा च 'ण' त-गारदिकस्य तिक्तकटक तुम्बकस्य विन्दुक पिपीलिका आहरति, सा तथा अफाले एव "जीवियानो ववरोविज्जइ' जीविताद् व्यपरोप्यते-माणेभ्यो वियुज्यते ‘म्रियते' इत्यर्थः, ततः ग्यल-पिपी लिकाविराधनमवलोक्य धर्मरुचेरनगारस्यायमेतद्रूपा वक्ष्यमाणस्वरूपः आध्या मिका-५ यात्मगतः चिन्तितः स्मरणरूपः, मार्थित: अभिलापरूपः, कल्पिता फ्ल्पनारूपः, मनोगता अन्तः प्रकाशितः सकल्पो विचारः समुदपधत यदि तावदस्य शारदिकस्य यावत्-तिक्त तुम्बकस्य एकस्मिन् रिन्दुके मक्षिप्ते सति, अनेकानि पिपीलिकासहस्राणि 'ववपरोविज्जति' व्यपरोप्यन्ते-माणेभ्यो वियुज्यते म्रियन्ते । स्स पहनेहायडाढस्स गधेण पट्टणि पिपीलिगासहस्साणि पाउन्भूयाइ जा जहायण पिपीलिका आहारे सातहा अकाले चेव जीवियओ ववरो विज्जइ) और आकर के उन्होंने सुभूमिभाग उद्यान से न अतिदूर
और न अति समीप भूमि की प्रतिलेखना की। प्रतिलेखना करके फिर उन्होंने उस शारदिक-तिक्तकटु-तुबडी के शाक में से एक विन्दुमात्र शास लिया-और लेकर उसे भूमि पर डाल दिया। तो इतने में ही शारदिक तिक्तकडवी तुयडी के उस यहुस्नेहाचगाढ शाक की गध से वहा हजारों कीडिया एकही एकत्रित हो गई । उनमें से जिस कीडीने जिस समय उसे खाया यह कीडी उसी समय वहां मर गई । (तएणं तस्स घम्मरुइयस्स अणगारस्स इमेयाख्वे अज्झथिए ५-जह ताव इम
स सालइयस्स जाय एगमि विन्दुमि पक्खित्तमि अणेगाइ पिपीलिया सहस्साणि पाउन्भूयाइ जा जायण पिपीलिका आहारेइ सा तदा अकाले वेव नीरियाओ ववरोविज्जइ)
અને આવીને તેમણે અમિભાગ ઉદ્યાનથી વધારે દૂર પણ નહિ અને વધારે નજીક પણ નહિ એવા સ્થાને ભૂમિની પ્રતિલેખના કરી પ્રતિલેખના કરીને તેઓએ તે શારદિક-તિકત કડવી તુ બડીના રાકમાથી એક ટીપ જેટલું શાક લીધુ અને લઈને તે ભૂમિભાગ ઉપર નાખી દીધું નાખતાની સાથે જ ત્યા શારદિક તિકત-કડવી તુંબડીના ઘી તરતા શાકની સુવાસથી હજારે કીડીએ એકઠી થઈ ગઈ એમાંથી જે જે કીડીએ તે શાકને ખાધું હતું તે તે તરતજ ત્યા મરી ગઈ
तएण तस्स धम्मरदयस्स अणगारस्ए इमेयारवे अज्झथिए ५ जइ ताव इम. स्स साळगा या "मि विदुगमि परिखतम्मि अणेगाइ पिपीलिया सहस्साह
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
मसाधर्मपाल णं अरहताण जार संपत्ताणं, णमोऽत्यु पं धम्मघोसाणं थेराणे मम धम्मायरियाण धम्मोवएसगाणं, पुस्विपिणं मए धम्म. घोसाणं थेराण अतिए सव्वे पाणाइयाए पञ्चरसाए जावजीवाए जाय परिग्गहे, इयाणिपि ण अह तेसिं चेव भगवंताण अंतियं सव्व पाणाइवाइ पच्चरसामि जाव परिग्गह पच्चासामि जावजीवाए, जहा संदओ जाव चरिमेहिं उस्सासेहि वोसिरामितिकटु आलोइयपडिवते समाहिपत्ते कालगए ॥ सू० ३ ॥ ____टीका-तन खलु स धर्मरुचिरनगारो धर्मयोपेण स्थविरेणैवमुक्त. सन् धर्म घोपस्य स्थविरस्यान्तिका-समीपात् प्रतिनिझामति, प्रतिनिरभ्य सुभूमिभागो द्यानाद् अदरसामन्ते-नानिदरे नातीसमीपे स्थण्डिल मतिलेपयति, प्रतिलेख्य तत स्माद् शारदिकात् निक्तरुदुत् तुम्नमादेक रिन्दुक गृहाति, होला स्थण्डिले भूमो 'निासरइ ' निसजति परिठापयति । ततः खलु तस्य शरदिकस्य
तएण से धम्मरुई अणगारे इ यादि । __टीकार्थ-(तएण) इसके बाद ( से धम्मरई अणगारे धम्मघोसे ण थेरेण एव कुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अनियाओपटिनियमइ) वे धर्म रुचि अनगार धर्म घोप से इस प्रकार कहे जाने पर पर्नघोप के पास से चले आये (पडिनिकग्वमित्ता सुभूमिभागाओ उजाणाओं अदर सामते थडिल पडिलेहेह,पडिलेहितानओसालइयाओ एग बिंदुग गहेत, गरित्ता थडलसि निसिरह, तो ण तस्स सालइयस्स तित्त बडुयः त एण से धम्मरूई अणगारे इत्यादि
थ-( त एण) त्या२पछी ( से धम्मई अणगारे धम्मघोसेग थेरेण एव वुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अतियाओ पडिनिरखमइ )
તે ધર્મરુચિ અનગાર ધમષની આ વાત સાંભળીને તેમની પાસેથી આવતા રહ્યા
(पडिनिस्खमित्ता मुभूमिभागाओ उज्जाणाओ अदूरसामते वडिल पडिले. हेड, पडिलेहिता तो सालझ्याओ एग बिंदुग गहेइ, गहित्ता थडिलमि निसरह, तो ण तस्म सालइयस्स तितकडुयस्स वहुनेहारगाढस्स गधेण पिनीलिगा
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवाणी टी० १० १६ धर्म रुच्यनगारचरितनिरूपणम् (१५३ तिक्तकदुकस्य तुम्बकस्य यहुसमारसंभृवस्य स्नेहावगाढस्य गन्धेन वहूनि पिपीलिकासहस्राणि मादुर्भूतानि, या यथा च 'ण' त-शारदिकस्य तिक्तकटुक तुम्बकस्य विन्दुकं पिपीलिका आहरवि, सो तथा अकाले एव "जीवियाओ ववरोविज्जइ' जीविताद् व्यपरोप्यतेमाणेभ्यो वियुज्यते म्रियते' इत्यर्थः, ततः खल्लु-पिपी लिकाविराधनमवलोक्य धर्मरुचेरनगारस्यायमेतद्रूप वक्ष्यमाणस्वरूपः आध्या मिका-५ आत्मगतः चिन्तितः स्मरणरूपः, मार्यितः अभिलापरूपः, कल्पिता कल्पनारूपा, मनोगता अन्तः प्रकाशितः सकल्पो विचारः समुदपधत यदि तावदस्य शारदिकस्य यावत्-तिक्त तुम्बकस्य एकस्मिन् पिन्दुके प्रक्षिप्ते सति, अनेकानि पिपीलिकासहस्राणि 'ववपरोविज्जति' व्यपरोप्यन्ते-माणेभ्यो वियुज्यते म्रियन्ते । स्स पहनेहायडाढस्स गधेण पट्टणि पिपीलिगासहस्साणि पाउन्भूयाइ जा जहायण पिपीलिका आहारेह सातहा अकाले चेव जीवियओ ववरो विज्जइ) और आकर के उन्होंने सुभूमिभाग उद्यान से न अतिदूर
और न अति समीप भूमि की प्रतिलेखना की। प्रतिलेखना करके फिर 'उन्होंने उस शारदिक-तिक्तकटु-तुपडी के शाक में से एक विन्दुमात्र शोक लिया और लेकर उसे भूमि पर डाल दिया। तो इतने में ही शारदिक तिक्तकडवी तुयडी के उस यहुस्नेहावगाढ शाफ की गध से वहा हजारों कीडिया एकट्ठी-एकत्रित हो गई । उनमें से जिस कीड़ीने जिस समय उसे खाया वह कीडी उसी समय वहां मर गई । (तएण तस्स घम्मरुइयस्स अणगारस्स इमेयारुवे अज्झथिए ५-जह ताव इमरस सालइयस्स जाव एगमि विन्दुम पक्खितमि अणेगाइ पिपीलिया सहस्साणि पाउन्भूयाइ जा जहायण पित्रीलिका आहारे सा तहा अकाले घेव जीरियाओ ववरोविज्जा)
અને આવીને તેમણે સુબમિભાગ ઉદ્યાનથી વધારે દૂર પણ નહિ અને વધારે નજીક પણ નહિ એવા સ્થાને ભૂમિની પ્રતિલેખના કરી પ્રતિલેખના કરીને તેઓએ તે શારદિક-તિકત કડવી તુંબડીના શાકમાથી એક ટીપા જેટલું શાક લીધુ અને લઈને તે ભૂમિભાગ ઉપર નાખી દીધું નાખતાની સાથે જ ત્યા શારદિક તિક્ત-કડવી તુંબડીને ઘી તરતા શાકની સુવાસથી હજારો કીડીઓ એકઠી થઈ ગઈ તેમાંથી જે જે કીડીએ તે શાકને ખાધું હતું તે તે તરતજ ત્યા મરી ગઈ
तएण तस्स धम्ममइयस्स अणगारस्ए इमेयारूचे अज्झत्यिए ५ जइ ताव इमस्स सालइयम्म जाव एगमि विंदुगमि पक्खिवम्मि अणेगाइ पिपीलिया संहस्साह
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
सद-तस्माद् यदि खल्वहमेत गारदिक पंडिलंसि' स्पण्डि-भूमौ सर्व 'निसिरामि' निराजामि-परिठापयामि, 'तोण' तर्हि खलु यहां माणानापाणाः सन्त्येपामिति प्राणा:माणपन्तस्तेपा, उयाभूताना जीवाना तत्-तस्माद् श्रेया श्रेयस्करं खलु ममेदं शारदिफ तिक्तरुटुकालाघुकं यारद-स्नेहावगाट स्वरमेव आहारयितु-भोवतुम् , ममेर 'एण्ण' एतेन-तिक्तनुम्यकाबारेण ' सरीरेन' शरीर खल 'णिज्जाउ' निर्यात-निर्गनु नश्यतु 'ति' इति कृत्वा इति मनसि निधाय परम्भनेन प्रकारेण सप्रेक्षतेन्पुनः पुनर्विचारेण शरीरनिर्याण का 'सहस्साई ववरोविज्जति, त जहणं अह एप सालइय घडलसि सन्ध 'निसिरामि तएण पष्ठुण पाणाण ४ या कारण भविस्सह त सेय स्खल ममेय सालइय जाच गाढ सयमेव आहारेसए) इस तर पिपीलिकाओं की विराधना ,देखकर धर्मरूचि अनगार को इस प्रकार आध्यात्मिक यावत् मनोगत सकल्प-विचार हुआ-यहा सफरपके चिन्तित, प्राधित, कल्पित इन तीन विशेषणों को ग्रहण कर ने के निमित्त सत्र में ५ का
अक दिया है । जप इस शारदिक तिक्त कडधी तुवडी की शाक की 'एक विन्दु मात्र जमीन पर डालने पर अनेक पिपीलिका सरस्र प्राणी से वियुक्त हो जाती हैं तो मै जब इस शारदिक तिक्त कटवी तुषी के शाकको पूरेरूपमें जमीन पर परिष्ठापित कर दूँगा तो अनेक प्रणियों? के वह विराधना का कारण होगा इसलिये मुझे उचित है कि में ही इस शारदिक तिक्त कडवी तुबडी के इस पटुत मसालेदार एव स्नेहा घगाढ बहुत घृतसे युक्त शाक को स्वय आहार कर जाऊँ। (मम चव एएण सरीरेण णिज्जाउत्तिकटु एवं सपेहेइ सपेहित्ता मुहपोत्तिय २ ववरोविज्जति, त जइण अह एय सालइय थडलसि सव्वं निसिरामि तएर्ण बहुणे पाणाण४वह कारणं भविस्सइ त सेय खलु ममेय सालइय जाव गाढ सयमेव आहारत्तए
આ પ્રમાણે કીડીઓની વિરાધના જેઈને ધર્મરુચિ અનગારને આ જાતની આધ્યાત્મિક યાવતું મને ગત સકત૫-વિચાર-ઉદુભ અહીં સક૫ના ચિતિત, પ્રાથિત, કલ્પિત આ ત્રણે વિશેષણેના ગ્રહણ માટે સૂત્રમાં ૫ ને અક આપ વામાં આવ્યું છે-કે જ્યારે આ શારદિક તિક્ત કડવી ખૂબડીના શાકના ફક્ત એક ટીપાને પૃથ્વી ઉપર નાખવાથી ઘણી કીડીઓ હજારો પ્રાણેથી વિયુકત થઈ જાય છે ત્યારે હુ શારદિક કડવી તુ બડીના બધા શાકને પૃથ્વી ઉપર નાખીશ ત્યારે તે અનેક પ્રાણીઓ ૪ ની વિરાધનાનુ કારણ થશે એથી મને એજ ચગ્ય લાગે છે કે હું આ શારદિક તિકત કડવી તૂ બડીના આ સરસ મસાલાવાળા અને ઘી તરતા શાકને પોતે જ ખાઈ જાઉં, *
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतषिणो टी० म० १६ धर्मरच्यनगारचरितवर्णनम् निचिनुते । सप्रेक्ष्प- मुहपोत्तिय ' मुखपोत्तिका सदोरकमुखस्त्रिका रजोहरणं च मतिलेखयति, प्रतिलेख्य 'ससीसोररिय' सशीपोपरिक-चरणतलाद् मस्तकोपरिमागर्यन्त काय-शरीर, 'पमज्जेह' प्रमार्जयति, प्रमाज्यं तद् शारदिक तिक्तकटुक बहुसमारसभृत स्नेहावगाढ विलमिव पन्नगभूतेन आत्मना सर्वे शरीरकोष्ठके उदरे भक्षिपति मुखस्य पार्श्वद्वयस्पर्शरहितमाहारयतीत्यर्थः । ततः खलु तस्य धर्मरुचेस्तद् पडिलेहेड, पडिलेहिता ससीसोवरिय काय पमज्जेह पमजित्ता तं सालक्ष्य तित्तकडय वहुनेहावगाढ बिलमिच पन्नगभूएण अप्पाणेण सर्व सरीरकोसि पक्खिवइ) मेरा ही शरीर इस तिक्त कटु तुबडी के आरार से नाश होवे इस प्रकार उन्होंने अपने मनमें चार २ सोचा सोचकर अपने शरीर के निर्याण करने का उन्होंने निश्चय कर लिया। निश्चय करने के अनन्तर सदोरक मुखवस्त्रिका एव रजोहरण इनकी उन्होने प्रतिलेखना करके फिर वे चरण तल से लेकर मस्तकोपरिभाग पर्यन्त तक के समस्म अपने शरीर की प्रमार्जना करके उन्होंने उस शारदिक तिक्त कडपी तुयडी के बहुत मसाला से युक्त एव स्नेहावगाढ बहुत घी से युक्त समस्त शाक का आहार कर लिया-जिस प्रकार सपे जय यिल में प्रविष्ट होता है तय बिल के दोनों पर्श्वभागों को सरी नहीं करता हुआ उसमें सीधा प्रविष्ट हो जाता है-उसी तरह वह शाक रूप सर्प भी मुख रूप पिल के दोनों पार्श्वभागों को स्पर्श नहीं करता हुआ सीधा गले से होकर पेट में चला गया । (तएणं तरस
(मम चेव एएण सरीरेण णिज्जाउत्ति कटु एव सपेहेइ, सपेहिता मुहपोत्तिय २ पडिलेहेइ, पडिलेहिता ससिसोवरिय काय पमज्जेइ पमज्जित्ता त सालइय तित्ताड्डय वहुनेहावगाढ विलमिव पनगभूएण अप्पाणेणं सब सरीर कोहसि पक्खिवई)
મારૂ શરીર જ આ તિકત કડવી તુ બડીના આહારથી નષ્ટ થાય આ રીતે તેણે પિતાના મનમાં વારંવાર વિચાર કર્યો વિચારીને પિતાના શરીરને નષ્ટ કરવાને તેમણે મક્કમ વિચાર કર્યા બાદ તેણે સદેરક મુખવસ્ત્રિકા અને રહરણની તેમણે પ્રતિલેખન કરી પ્રતિલેખના કરીને તેમણે પગના તળિયાથી માંડીને મસ્તક સુધીના પિતાના આખા શરીરની પ્રમાર્જના કરી ત્યારે તેમણે તે શારદિક તિકત કડવી તુંબડીના સરસ મસાલાવાળા અને ઉપર ઘી તરતા બધા રાકને આહાર કરી લીધે જેવી રીતે સાપ જયારે દરમાં પ્રવેશે છે ત્યારે દરના બને પાર્શ્વભાગને સ્પર્શ કર્યા વગર તેમાં સીધે પ્રવિણ થઈ જાય છે તેમજ તે શાક રૂપી સાપ પણ મુખ રૂપી દર અને પાશ્વભાગને સ્પર્યા વગર સીધું ગળામાં થઇને પેટમાં જતું રહ્યું.
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
यत् तस्माद् यदि सत्यमेत गारदिक 'डिलसि' स्थण्डिले भूमौ सर्व 'निसिरामि' नियनामि-परिछापयामि, तोणं' हि पल पहना प्राणानामाणाः सन्त्येपामिति माणा-माणपन्तस्येपा, वयाभूतानां जीवानां तन्तस्माद श्रेया श्रेयस्कर खलु ममेदं शारदिक तिक्ताटुकालापुर यापद-स्नेहावगाह सपा मेव आहारयितु-भोवतम् , ममेर 'पण्ण' एतेन-तिक्तनुम्पकाहारेण सरीरेन' शरीर खलु 'णिज्जाउ' निर्यात-निर्गनु नश्यतु 'ति' इति कृत्वा इति मनसि निधाय एवम् भनेन प्रकारेण सप्रेसते-पुन' पुनर्विचारेण शरीरनिर्माण गर्नु
सहस्साई चवरोविज्जति, त जाणं अहं पय सालय धंदलसि सन्ध 'निसिरामि तएण पष्ठुण पाणाण ४ घर कारण भविस्सा त सेय स्खल
ममेय सालइय जाव गाढ सयमेव आहारेरा) इस तरह पिपीलिकाओं ' की विराधना देखकर धर्मरूचि अनगार को इस प्रकार आध्यारिमक यावत् मनोगत सकल्प-विचार हुआ-यहा सफरपके चिन्तित, प्राथित, कल्पित इन तीन विशेषणों को ग्रहण कर ने के निमित्त सूत्र में ५ का अक दिया है । जय इस शारदिक तिक्त कडवी तुचडी की शाक की • एक बिन्दु मात्र जमीन पर डालने पर अनेक पिपीलिका सरस्र प्राणा से वियुक्त हो जाती हैं तो मैं जय इस शारदिक तिक्त कटवी तुषी के शाकको पूरेरूपमें जमीन पर परिष्ठापित कर दंगा तो अनेक प्रणियो के वह विराधना का कारण होगा इसलिये मुझे उचित है कि में ही इस शारदिक तिक्त कडवी तुबडी के इस यष्टुत मसालेदार एव स्नेहा खगोढ बहुत धृतसे युक्त शाक को स्वय आहार कर जाऊँ । (मम चव एएण सरीरेण णिज्जाउत्तिकटु एवं सपेहेइ सपेहित्ता मुहपोत्तिय २ ववरोविज्जति, त जइण अह एय सालइय थडलसि सव्व निसिरामि तएर्ण बहुण पाणाण४वह कारणं भविस्सइ त सेयखलु ममेय सालइय जाव गाढं सयमेव आहारत्तए
આ પ્રમાણે કીડીઓની વિરાધના અને ધર્મરુચિ અનગારને આ જાતના આધ્યાત્મિક યાવત મનોગત સકલ્પ-વિચાર-ઉદભવ્ય અહીં સ કલ્પના ચિંતિત, પ્રાર્થિત, કલ્પિત આ ત્રણે વિશેષણના ગ્રહણ માટે સૂત્રમાં ૫ ને અક અપ વામા આવ્યું છે કે જ્યારે આ શારદિક તિકત કડવી ખૂબડીના શાકના ફત એક ટીપાને પૃથ્વી ઉપર નાખવાથી ઘણી કીડીઓ હજારો પ્રાણેથી વિયુકત થઈ જાય છે ત્યારે હુ શારદિક કડવી તુ બડીના બધા શાકને પૃથ્વી ઉપર નાખીશ ત્યારે તે અનેક પ્રાણીઓ ૪ ની વિરાધનાનું કારણ થશે એથી મને એજ ચોગ્ય લાગે છે કે હું આ શારદિક તિક્ત કડવી (બડીના આ સરસ મસાલાવાળા અને ઘી તરતા શાકને પોતે જ ખાઈ જાઉં, 1
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
टीका न० १६ धर्मदेच्यागार रितवर्णनम्
१५७
मित्यर्कः, एकान्ते
यति साना सडक तार भूमि प्रति देवर्यात, प्रतिलेख्य दर्मन स्वारक 'सधारेड' सस्तृणाति=तृत ज्गेनि सस्तीर्य, दर्भसस्तारक दूरीइनि=नारोदति, दूस्य पौरस्त्य मिमुस पूर्वदिभिमुख', 'मपलियंकमन्ने' पनिपणापासनमनिवि रालपरिटडीत गोजिवहस्त तद्वय मला एवागमकारेण नारीत्वमायुक्तवान्, 66 नमोsयुग अग्हाण जात्र सपत्ताण, -
――
9
+
-
- णमोत्युण धम्मप्रसाण चेराण मम वम्मायरियाणम्मोत्रमयाण " नमोऽस्तु स यो समय नमोस्तु ख धर्मपोषेभ्यः स्वनिरेभ्यो मम चार्थेभ्यो नमो के य., पूर्वमपि वीणापि खलु या घोषा स्थविराणामन्तिके सर्व भागानिपात मत्यारपातो यावज्जीव 'यावत् परिग्रहः' अत्र यावच् उदेन सनी मृपावाद सर्वमदत्तादान माँ मैथुन च प्रत्याख्यातम्, तथा पर्व परिग्रह प्रत्यारात । इदानीमपि राह तेपामेव भगवतामन्तिकेन प्राणानिपातं प्रत्यास्यामि या त् परिह प्रारयामि याव प्रतिलेखना की प्रतिलेखना करके फिर उनके ऊपर उन्होने दर्णसस्तारक को पाकर फिर वे उसपर बैठकर फिर पूर्वदिशा की और सुखकर पर्यङ्कान से उस पर विराजमान हो गये विराजमान होकर उन्होंने अपने दोनो हाथों को जोड़ा ओर मस्तक पर उसकी अजलि कर इस प्रकार अपने मन ही मन वे कहने लगे( नमोत्थूण अरिताण जाव सरत्ताण, णमोत्थुण वम्मघोसाण थेराण मम धम्मायरियाणमोवणागाग पुनिपि ण गए वम्मयोसाण थेराण अति सव्ये पाणायाम पच्चत्वार जावजीवर जान परिग्गहे इयाणि पि अह् तेसिचेन भगवताण अतिय सव्व पाणाइवान पञ्चक्खामि जाव ભાડડને–વસ્ત્ર પાત્ર વગેરેને એકાંનમા મૂકી દીધા મૂકયા બાદ તેઓએ સસ્તા રક ભૂમિની પ્રતિલેખના કરી પ્રતિલેખના કરીને તેની ઉપર તેમણે દ સસ્તા રક કર્યો દઞસ્તારક પાથરીને તે તેની ઉપર બેસીને પૃ་દિશા તરફ્ મુખ કરીને પ નાસનયા તેની ઉપર વિરાજમાન થઈ ગયા વિરાજમાન થઈને તેઓએ પેાતાના મને હાથેાને તેડયા અને તેમની અજલી બનાવીને મસ્તક ઉપર મૂકી અને પેાતાના મનમા જ કહેવા લાગ્યા
( नमोत्यु ण जरिताण जान सपत्ताण णमोत्थुण धम्मघोसाण वेराण मम धम्मायारियाण धम्मो एसगाण पुपि पि ण मए धम्मघोसान थेराण जतिए सवे पच्चखाए जान जीवाए जात्र परिग्ग, इयाणि पि अह वेसि चैव
५
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
madand शारदिफ यावत्-स्नेहारगाढम् आहारिगस्य धुक्तता, सो मुन्तिरेण परिणम्यमाने आहारे परिणाम माप्ते सति शरीरे वेदना मादुर्भवा, साकीशी ? त्यारउज्ज्वला तीवा, यारर 'दुहियासा' दुरध्यासारभिसा-अमन्यः । ततः खल्ल स धर्मरुचिरनगारो ऽस्यामा, टीनपराकमा, अरला मनोपलरहितः बीये इतोत्साहः अपुरुपकारपराक्रमः,-पुरुषार्थदीनः, 'अपारणिज्जमितिका अधार णीयमिति कत्या-धारयितुमचरपमिद गरिमितिमनमि रिचार्य 'भापारमडग' आचारभाण्डकम्-आचागय आचारपानार्य माण्डकमाण्डोपकरणं पत्रपात्रादिक धम्ममइस्स त सालय जाव नेहावगाह आहारियम ममाणस्स मुहूत्त तरेण परिणममाणसि सरीरगंमि पेयणा पाउम्भूया उजलो जाव दुरहियासा-तरण से धम्ममई अणगारे अथामे अपले अवीरिए अपुरिस फ्भारपरकमे अधारगिज्जमित्ति कटु अपारभडग पगते ठवेह, ठवि ता यडिल्ल पडिलेहेइ, पडिलेरित्ता दाभसधारग सथारेइ, सवारिसा दन्भतथारग, दुरुहह, दुरुहिता पुरत्वाभिमुहे सरलियकनिसन्ने कर यल परिग्गहिय एवं चयासी) शाक उन धर्ममचि अनगार के पेट में पहुंचते ही एक मुहर्त के बाद जय वह पचने लगा तय उनके शरीर में उज्ज्वल यावत् दुरधिध्यास वेदना प्रकट हुई। इस से वे धर्मवि अनगार पराक्रम से होन, मनोपल से विहिन, हतोत्साह होकर पुरु पार्थ रहित यन गये। यह शरीर अब धारण करने से अशक्य हो रहा है ऐसा जय उन्होंने प्रतीत होने लगा तय उन्होंने अपने आचारभांडक पविध आचार पालने के लिये जो- वस्त्र-पाचादिक ये उनको -एकान्त में रख दिया-रग्वकर फिर उन्हों ने सस्तारफभूमि का
(तएण तस्स धम्ममइस्स त सालइय जाव नेहावगाढ आहारियस्स समा जस्स मुहुत्ततरेण परिणममाणसि सरीरगसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा-तएण से धम्मरूई अणगारे अथामे, अपले अवीरिए अपुरिसकारपर क्कमे अधारणिज्जमित्ति कटु आयारमडग एगते ठवेइ, ठवित्ता थडिल्ल पडि लेहेइ, पडिलेहित्ता दुभसथारग सथारेइ, सथारिचा दमसथारग दुरुहइ, दुरुहित्या पुरस्थाभिमुहे सपलियकनिसन्ने करयलपरिग्गहिय एच चयासी ) શાક તે ધર્મરુચિના પેટમાં પહોંચતા જ એક મુહૂર્ત પછી જ્યારે તેનું પાચન શરૂ થયુ ત્યારે તેમના શરીરમાં ઉજવલ યાવત્ દુરભિધ્યાસ વેદના થવા માંડી તેથી તે ધર્મરુચિ અનુગાર પરાક્રમ વગર, મનોબળ વગર હૉત્સાહી થઈને પુરુષાર્થ વગર બની ગયા હવે આ શરીર ટકવું અશકય થઈ પડયું છે એવી જ્યારે તેઓને પ્રતીતિ થવા લાગી ત્યારે તેમણે પે ' આચાર,
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारपापिणो टीका १० १६ धर्मरच्यागारचरितवर्णनम् १५७ मित्यर्थः, एकान्ते सापयति, स्थापरित्या सदिराला भूमिं प्रतिवर्यात, प्रतिलेख्य दर्गम स्वारक स थारेड ' सस्तृणाति मातृत नगेनि सस्तीर्य, दर्भसस्तारक दुरोटनिमारोहति, दख्य पौररत्याभिमुख -पूर्व दिगभिमुग्यः, 'सपलियंफनिमन्ने ' सपल्या निपणापमामनसनिविट', रालपनिीत-मोजिवहस्त तलद्वय माकेऽतलि कला एव समागप्रमाग जातीवन्तम म्युक्तवान् , __ " नमोऽत्युण अगताण नाव सपत्ताण,__-मोऽत्युण धन्मयोसाण गग मम यमायरियाण पम्मोवएसयाण " नमोऽस्तु सलु नइयो भगवदग्यो गान् गमाप्तम्य, नमोस्तु खलु धर्मघोपेभ्यः स्थविरेभ्या मम प्राचार्य यो मोपडेगकेन्य, पूर्वमपि दी राहणाकालेऽपि खलु मया धर्मघोनागा स्थनिराणामन्ति के सर्व भागातिपात प्रत्याचातो पापज्जीव 'यावत् परिग्रहः' अन यावच्छन्देन-सनो मृगपाद सर्वमदत्तादान म मैथुन च मत्यारयातम् , तथा-मत्र परिग्रह प्रत्यार पातः । इदानीमपि सद नह तपामेन भगत्रतामन्ति क प प्रामानिपान प्रत्यायामि या त परिगह मायामि याच प्रतिलेखना की प्रतिलेबना करके फिर उसके अपर उन्होने दर्णसस्तारक को विजया-पिगातर फिर वे उसपर बैठकर तिर पूर्वदिशा की और मुसकर पर्यशामन से उस पर विराजमान हो गये विराजमान होकर उन्होंने अपने दोनो हायो को जोड़ा ओर मस्तक पर उसकी अजलि रख कर इन प्रकार अपने मन ही मन दे करने लगे(नमोत्युण अरिहताण जाव सपत्ताण, जसोत्धुण धम्मघोसाण थेराण मम यम्मायरियाण पम्मोवागाग पुधिपि ण गए पचोलाण थेराण भतिए सन्दे पाणाइयाए पच्चरत्राप जारजी जार परिग्गहे च्याणि पि अह तेसिचेत भगवताण अतिय समय पाणाडवापरचक्खामि जाव ભાડ-વસ્ત્ર પાત્ર વગેરેને એકાંતમાં મૂકી દીધા મૂક્યા બાદ તેઓએ સસ્તા રક ભૂમિની પ્રતિલેખના કરી પ્રતિલેખના કરીને તેની ઉપર તેમણે દર્ભ સસ્તા રક કર્યો દર્ભનસ્તાક પાથરીને તેઓ તેની ઉપર બેસીને પૂર્વ દિશા તરફ સુખ કરીને પર્યકાસનથી તેની ઉપર વિરાજમાન થઈ ગયા વિરાજમાન થઈને તેઓએ પિતાના બને હાથને જેડયા અને તેમની આ જલી બનાવીને મસ્તક ઉપર મૂકી અને પિતાના મનમાં જ કહેવા લાગ્યા
(नमोत्यु ण जरिहताण जाव गपत्ताण णमोत्थुण धम्मघोसाण राण मम धम्मायारियाण धम्मोवएसगाण पुब्धि पि ण मए धम्मपोसाण थेगण अतिए सन्दे पाणाइवाए पच्चरवाए जान जीपाए जाव परिग्गहे, इयाणि पि अह तेसिं चेव
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्जोय, यथा-सन्दा भन्दापन यापचारम-रसामः, 'नोसिरामितिक' व्युत्मजामि-शरीर परित्पनामि' इति कथा 'भारोप पटिगते' आलोचितपति फान्तःपूर्वकत यस्ती शारजाव तदालाचित, पुनरकरणमतिझया मनिकान्तं येन त तथाभूतः समाधिमाप्त: आत्मसमाधियुक्तः कालगतामरण प्राप्त ॥३॥
मूलम्-तएण ते धम्मघोला थेरा धम्मरुई अणगारं चिरं गय जाणित्ता समणे निग्गथे सदाति सदायित्ता एव वयासी
परिग्गर पच्चस्वामि जान जीपाए जहा पदओ जारचरिमेरि उस्सा सेहिं चोसिरामित्ति कहह आलोहय पहिस्ते समाहिपते कालगए) यावन् मिद्विगति नामक स्थान को प्राप्त हुए अरिहन भगतो के लिप मेरा नमस्कार हो-धर्मोपदेशक मेरे धर्माचार्य श्री धर्मोपस्थविर के लिये मेरी नमस्कार हो मैंने पहिले दीक्षा ग्रहण के समय उन धर्म गोष स्थविर के समीप ममस्त प्राणातिपात, समस्त मृपावाद, समस्त अद त्तादान, समस्त मैथुन तथा समस्त परिग्रह जीवन पर्यन्त प्रत्याख्यान कर दिया है। अब भी मैं उन्हीं भगवतो के समक्ष समस्त प्राणातिपात यावत् समस्त परिग्रह का यावज्जीर प्रत्यख्यात करता हूं। यावत् अन्तिम श्वोसोतक स्कन्दककी तरह इस शरीरका परित्याग करता हूँ। इस प्रकार मन ही मन कर कर वे धर्मरूचि अनागार आलोचित प्रति क्रान्त पनकर आस्मसमाधिमें तल्लीन होते हुए मरण प्राप्त हुवे सू० भगवताण अतिय सव्य पागाइझाय पच्चक्खामि जाव परिग्गड पच्चक्खामि जान जीवाए जहा खदओ जाव चरिमेहिं उस्सासेहि वोमिरामित्ति कटु आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालगए )
ચાવત્ સિદ્ધગતિ મેળવેલા અરિહંત ભગવતેિના માટે મારા નમસ્કાર છે ધર્મોપદેશક મારા ધર્માચાર્ય શ્રી ધર્મઘોષ સ્થવિરના માટે મારા નમસ્કાર છે પહેલા દીક્ષા ગ્રહણ કરતી વખતે મે તે ધર્મઘોષ સ્થવિરની પાસે સમસ્ત પ્રાણ તિપાત, સમસ્ત મૃષાવાદ, સમસ્ત અદત્તાદાને સમસ્ત મૈથુને તથા સમસ્ત પરિગ્રહનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું હતું અત્યારે પણ તે જ ભગવતેની સામે સમસ્ત પ્રાણાતિપાત યાવત્ સમસ્ત પરિગ્રહનુ યાજજીવ પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ જીવનના છેલ્લા શ્વાસ સુધી અદકની જેમ આ શરીરને ત્યાગ કરૂ છુ આ રીતે પિતાના મનમાં જ કહીને તે ધર્મ-રુચિ અનગાર આચિત પ્રતિકાત થઈને "मामसमाधिमा तीन यता भ२५ पाभ्या ॥ सूत्र "3" "
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
3-
D
अनगारधामृतषिणी टीका अ० ६६ धर्मरच्यनगारचरितवर्णनम १५९ -एव खलु देवाणुप्पिया | धम्मरई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइयस्स जावगाढस्साणासरणट्टयाए बहिया निग्गए चिरगए त गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया । धम्मरुइस्स अणगारस्स सच्चओ समंता मग्गणगवेसणं करेह, तएणं ते समणा निग्गंथा जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता धम्मघोसाणं थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्वओ समता मग्गणगवेसणं करेमाणा जेणेव थंडिल्लं तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता धम्मरुइस्स अणगारस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेझैं जीव विप्पजढं पासंति पासित्ता हा हा अहोअकज्जमितिकडु धम्मरुइस्स अणगारस्स परिनिच्चाणवत्तिय काउस्सग करेति करित्ता घम्मरुइस्स आयारभडग गेण्हति गेण्हित्ता जेणेव धम्मघोसा थेरा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता गमणागमणं पडिक्कमति पडिक्कमित्ता एव वयासी-एव खल्लु अम्हे तुभ अतियाओपडिनिस्वमामोर सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स परिपेरतेण धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्व जाव करमाणे जेणेव थडिल्ले तेणेव उवा०२ जाव इह हव्वमागया, त कालगए णं भते । धम्मरुई अणगारे इमे से आयारभडए, तएणं ते धम्मघोसा थेरा पुठवगए उवओग गच्छति गच्छित्ता समणे निग्गथे निग्गथीओयसदावेति सदावित्ता एव वयासी -एव खलु अजो ! मम अतेवासी धम्मरुची नाम अणगारे
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
#medented
जीव, यथा-स्कन्दकः = कन्दावन् गारमेन्गेः 'नो मिरामितिक' पुत्सृजामि=शरीर परित्यनामि' इति कृत्वा 'भारोप पढिकने' आलोचितप्रति फान्तः पूर्वकृत यदती राव वदालाचित, पुनरकरणमतितया प्रतिक्रान्तं येन स तथाभूतः समाधिमाप्त = आत्मसमाधियुक्तः कालगतः मरण प्राप्त ॥ ५०३||
मूलम् - तएण ते धम्मघोसा थेरा धम्मरुइं अणगारं चिर गय जाणित्ता समणे निग्गंधे सहावेति सदावित्ता एव वयासी
परिग्गर पच्चामि जान जीवा जहा पदओ जान परिमेहि उस्सा सेहिं सिरामित्ति कट्ट आलोय पदिक्कते समाहिपते कालगए ) यावत् सिद्विगति नामक स्थान को प्राप्त हुए अरिहन भगवानो के लिये मेरा नमस्कार हो धर्मोपदेशक मेरे धर्माचार्य श्री धर्म योपस्थविर के लिये मेरी नमस्कार हो मैंने पहिले दीक्षा ग्रहण के समय उन धर्मगोष स्थविर के समीप ममस्त प्राणातिपात, समस्त मृपावाद, समस्त अद तादान, समस्त मैथुन तथा समस्त परिग्रह जीवन पर्यन्त प्रत्याख्यान कर दिया है । अब भी मैं उन्हीं भगवतो के समक्ष समस्त प्राणातिपात यावत् समस्त परिग्रह का यावज्जीन प्रत्यख्यात करता हूँ । यावत् अन्तिम श्वासोत स्कन्दककी तरह इस शरीरका परित्याग करता हूँ । इस प्रकार मन ही मन कह कर वे धर्मरूचि अनागार आलोचित प्रति क्रान्त वनकर आत्मसमाधिमें तल्लीन होते हुए मरण प्राप्त हुवे ||सू०३ || भगवताण अतिय सन पागाइझाय पच्चक्खामि जात्र परिग्गह पच्चक्खामि जान जीवाए जहा खइओ जाब चरिमेहिं उसासेहि वोमिरामित्ति कट्टु आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालगए )
યાવત્ સિદ્ધગતિ મેળવેલા અરિહંત ભગવતાના માટે મારા નમસ્કાર છે ધર્મોપદેશક મારા ધર્માચાય શ્રી ધર્માંદ્યાપ સ્થવિરના માટે મારા નમસ્કાર છે પહેલા દીક્ષા ગ્રહણ કરતી વખતે મે તે ધર્મઘેષ સ્થવિરની પાસે સમરત પ્રાણુ! તિપાતા, સમસ્ત મૃષાવાદો, સમસ્ત અદત્તાદાના સમસ્ત મૈથુના તથા સમસ્ત પરિગ્રહાનુ પ્રત્યાખ્યાન કર્યું હતું. અત્યારે પણ તે જ ભગવતાની સામે સમસ્ત પ્રાણાતિપાત યાવત્ સમસ્ત પરિગ્રહનુ યાત્રીવ પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ નના છેલ્લા શ્વાસ સુધી સ્પન્દની જેમ આ શરીરના ત્યાગ કરૂ છુ પેાતાના મનમાં જ કહીને તે ધમ-રુચિ અનગાર આલેાચિત પ્રતિકાત થઇને “આત્મસમાધિમા તત્ત્વીન થતા મરણુ પામ્યા ॥ સૂત્ર 3
જીવ
આ રીતે
66 79 11
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगारधर्मामृतवदिणो टोका भ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम्
१६१
शब्दयित्ना, एच = वक्ष्यमाणप्रकारेण, जवादिपुः उक्तवन्तः एव सल हे देनानुपियाः ! धर्मरुचिरनगारो मासक्षमणपारण के शारदिकस्य तिक्त दुस्तुम्बकस्य यावत् - स्नेहावगाढस्य 'णिसिरणट्टयाए ' निसृजनार्थं पहिर्निर्गतश्चिरगतः तस्मिन् गते सति बहुतरः रालो व्यतीत इत्यर्थः । तत्-वस्माद् गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! धर्मरुचेरनगारस्य सर्वत' समन्ताद् मार्गणगवेपण = सम्यगन्वेषण कुरुत । तत खलु ते श्रमणा निर्ग्रन्या यावत् प्रविष्यन्ति=तथा करिष्यामीत्युक्त्वा तामाज्ञां स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य धर्मघोषाणां स्वनिगणामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनि बयासी एव सलु देवाणुप्पिया ! वम्मरई अणगारे मासखमणपारण गति साहस जाव गाढस्स णिमिरणहपाए चहिया निग्गए-चिरगए, त गच्छरण तुम्भे देवाणुप्पिया ! धम्मरुइयस्स अणगास्स सव्वओ समता गवेसण करेह ) भ्रमण निर्ग्रन्थो को बुलाया | बुलाकर उनोने ऐसा कहा - हे देवानुप्रियो ! धर्मरुचि अनगार आन मासखनण की पारणा के दिन शारदिक तिक्त कवी तुनडी का यहु सभार सभृत शाक कि जिसके ऊपर घृत तैर रहा या लाये थे - मैने उसे परिष्ठापन के लिये उन्हें आज्ञा दिया सो वे उसे परिष्टापन करने के लिये यहां से बाहिर चले गये गये उन्हें बहुत देर हो गई वे अभीतक नही आये इसलिये हे देवानुप्रियो । तुम लोग जाओ और वर्मरुचि अनोगार की सन तरफ चारों दिशाओं मे मार्गणा एव गवेषणा करो । ( नरण ते समणा निगवा जाव पडिसुणेति, पडि सुणित्ता धम्मघोसण
( समणे निग्गथे सदादेति सदावित्ता एन क्यासी ऍन खलु देवाणुपिया 1 धम्मखई जणगार मामखमणपारणगसि सालइयस्स जान गाहस्स णिसिरणट्टयाए चहिया निग्गयाए-चिरगए, त गच्छद ण तुभे देवाणुपिया | धम्मरुइस्म अणुगारस्स सनओ समता मग्गणगवेसथ करेह )
1
શ્રમણ નિ થાને લાવ્વા એકલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું-જે હું દેવાનુપ્રિયા ! ધર્મચિ અનગાર આજે માસ ખમણુની પાણાના દિવસે શાર દિક તિકત કડવી તૂબડીનુ સરસ વધારેલુ ઉપર ઘી તરતું નાક આહાર માટે લાળ્યા હતા તેઓને મૈ પ્રતિષ્ઠાપાનની આજ્ઞા આપી છે, તેએ પરિક્ષાપન માટે અહીંથી મહાર ગયા છે તેઓને ખહાર ગયાને બહુ જ વખત થયા છે, હજી તેએ આવ્યા નથી એથી હે દેવાનુપ્રિયા । તમે લેકે જાઓ અને ધચિ અનગારની ચેામેર રાણા તેમજ ગવેષણા કરૉ
(तरण ते समणा निग्गथा जान पटिगुणेति, परिसुणित्ता धम्मघोसाण
का २१
'
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
पगइभदए जाप गिणीप मान मानेणं अगिरिग्वत्तेण तवो फम्मेण जाव नागसिरीप माहणीए गिहे अशुपतिह, तपणे सो नागसिरी माहणी जाय निसीरड, तरण से धम्मरई अणगारे अहापजत्तमितिरहु जाय काल अणनग्नमाणे वि. हरति, से ण धम्मरुई अणगारे रहणि वासाणि सामन्नपरियाग पाउणित्ता आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे काल किवा उथ सोन्मजाय सबसि महामाणे देव. ताए उनबन्ने, तस्य अजहण्णमणुकांसेणं तेतील सागरोवमाइ टिई पन्नता, तत्य धम्मरुइसनि देवम्स तेत्तीसं सागरोबसाइ ठिई पण्णता से ण धम्नई देव ताओ देवलोगाओ जाय महाविदेहे बामे सिज्झिहिड त वित्थुणं अज्जो । णागलिरीए माहणीए अधन्नाए अपुन्नाए जाप णि बोलियाए जाए ण तहारूवे साह धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगमि सालइएण जाप गाढेण अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए । सू० ४ ॥
टोका-'तएणं त' इत्यादि । ततः खलु-इत्तश्च ते धर्मघोषा स्थविरा धर्मरचिमनगार चिर गत काटना गत ज्ञात्वा श्रमणान् निग्रन्थान् शब्दयति,
तरण ते भम्मघोसा येरा इत्यादि ॥ टीकार्य-(लएण ) इसके बाद (ते धम्नघोसा थेरा) उन-धर्मघोष स्थविरने( सम्म अगार ) धर्मचि अनगार को (चिरगय जाणित्ता) बहुत देर के गये हुए जानकर (नमणे निग्गथे सदावेंति, सहावित्ता एव
तपण ते धम्मघोमा थेरा इत्यानि टी-(तण्ण) स्यामा (a धम्मोसा थेरो) a मा५ न्यविरे (धम्म रुइ अणगार ) मयि मनमाने (चिर गय जाणित्ता) मई ५तथी महार ગયેલા જાણીને
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणो रोका ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् शब्दयित्वा, एव-वक्ष्यमा प्रकारेण, नादिपुः उक्तवन्तः, एव खलु हे देवानुपियाः । धर्मरुचिरनगारो मासक्षपणपारणके शारदिकस्य तिक्तकदुस्तुम्बकस्य यावत्-स्नेहारगाढस्य ‘णिसिरणट्ठयाए ' निसृजनार्थ पहिनिर्गतश्विरगतः तस्मिन्।' गते सति बहुतर सालो व्यतीत इत्यर्थः । तत्-तस्माद् गच्छत खलु यूय हे देवानुमिया: ! धर्मरुचेरनगारस्य सर्वत समन्ताद् मार्गणगवेपण-सम्यगन्येपण कुरुत ।। तत खलु ते अमणा निर्यन्या यावत् प्रतिशृण्वन्ति तथा करिष्यामीत्युक्त्वा तामाज्ञा स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य धर्मोपाणां स्पपिराणामन्तिकात् प्रतिनिष्कामन्ति, प्रतिनि वद्यासी-एव ग्दलु देवाणुप्पिा ! चम्नरई अणगारे मासखमणपारण गसि सालयस्स जाव गाढम्स णिमिरणयाए पहिया निग्गए-चिरगए, त गच्चर ण तुम्भे देवाणुप्पिया ! धम्मरुइयस्त अणगास्स सव्वओ समता गवेसण करेह ) श्रमण निग्रेन्यो को बुलाया । वुलाकर उनोंने ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो ! धर्मरुचि अनगार आन मामखनण की पारणा के दिन शारदिक तिक्त पडवी तुरटी का यहु समार सभृत शाक कि जिसके ऊपर घृत तर रहा या लाये थे-मैने उसे परिष्ठापन के लिये उन्हें आज्ञा दिया मो वे उसे परिष्टापन करने के लिये यहां से पाहिर चले गये-नये उन्हें बहुत देर हो गई-वे अभीतक नहीं
आये इसलिये हे देवानुप्रियो । तुम लोग जाओ और धर्मरचि __ अनोगार की सर तरफ चारो दिशाओ मे मार्गणा एच गवेपणा करो। (नएण ते समणा नि गथा जाव पडिसुणेति, पडि सुणित्ता धम्मघोसाण
(समणे निग्गथे सदाति सदायित्ता एर वयासी-एर खलु देवाणुप्पिया! धम्मरूई जणगार मामखमणपारणगमि सालइयस्त जार गाढस्स णिसिरणयाए पहिया निग्गयाए-चिरगए, त गन्छ ण तुम्भे देवाणुपिया । धम्मदस्म अणगारस्स सपनो समता मग्गणगोसग करेह )
શ્રમણ નિર્ચ શોને બોલાવવા બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિયો ! ધર્મચિ અનગાર આજે મા ખમણની પાણીના દિવસે શાર દિક તિકત કડવી ખૂબડીનું સરસ વઘારેલુ ઉપર ઘી તરતું ગાક આહાર માટે લાવ્યા હતા તેઓને મે પ્રતિષ્ઠા પાનની આજ્ઞા આપી છે, તેઓ પરિબાપન માટે અહીંથી બહાર ગયા છે તેઓને બહાર ગયાને બહુ જ વખત થયો છે, હજી તેઓ આવ્યા નથી એવી હે દેવાનુપ્રિયો ! તમે લેરો જાઓ અને ધર્મચિ અનગાની ચોમેર માર્ગણ તેમજ વેષણ કરો
(तपण ते समणा निग्गथा जार पडिमणेति, पडिमुणित्ता धम्मघोसाण
प्रा २१
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
पगइभदा जाब विणीप माम मालेण अणिमियत्तेणं तयो. फम्मेणं जाव नागसिरी माहणीए गिह अणपबिहे, तरणे सो नागसिरी माहणी जार नितीग्ड, नरण से धम्मई अणगारे अहापजत्तमितिफट जार काल अणकरमाणे वि. हरति, से ण धम्म अणगारे यहणि साणि सामन्नप. रियाग पाउणित्ता आलोइयपडित समाहिपत्ते कालमासे काल फित्रा उसामजाव सनसिह महातिमाणे देव. ताए उनबन्ने, तत्य | अजाणमणुकांसेण तेतील सागरोवमाइ टिई पन्नता, तस्य धम्मरुटसति देवस्स तेत्तीसं सागरोक्साइ ठिई पपणत्ता से ण धम्मदं देव ताओ देवलोगाओ नाव गहाविदेह बासे सिज्झिहिइ त वित्थुणं अज्जो । जागसिरीए माहणीए अधनाए अपुनाए जान णि चोलियाए जाए ण तहारूवे साह धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणामि सालइएण जान गाढेण अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए ।। सू० ४ ॥
टोश- तरण ते' इत्यादि । ततः खलु-इतश्च ते धर्मघोपा स्थविरा धर्मरचिमन्गार चिर गत बहालनो गत ज्ञात्वा अमणान निग्रन्थान् श दयति,
तएण ते गम्ममोसा येरा इत्यादि ॥
टीकार्य-(तएण) इसके बाद (ते धम्नयोसा थेरा) उन-धर्मघोप स्थविरने( बम्मन अणार ) धर्मरुचि अनगार को (चिराय जाणित्ता) बहुत देर के गये जानवर (ममणे निग्गथे सहावेंति, सहावित्ता एव
तपण ते धम्मघोमा थेरा इत्यादि साथ-(तपण) त्या२मा ( धम्मोसा धेरो) ते ५५ स्यविरे (धम्म रुइ अणगार ) भनि सन-2 (चिर गय जाणित्ता) तथा बहार ગયેલા જાણીને
।
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधामृतपिणी टो० अ० १६ धर्मरच्यनगारचरितवर्णनम् इतिकृत्वा-इतिखेद कृत्वा धर्मरुचेरनगारस्य ‘परिनिब्वाणवत्तिय ' परिनिर्वाणमत्ययिक परिनिर्वाण मरणं तत्र यन्मृतशरीरस्य परिष्ठापन तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययोहेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्ययिका त तथा, मृतपरिष्ठापननिमित्तकमिस्यर्थः कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, कन्वा धर्मरुचेरनगारस्याऽऽचारभाण्डकं वस्त्रपात्रादिक गृहन्ति गृहीत्वा यत्रैव धर्मघोपाः स्थविरास्तत्रैवोपागच्छन्ति,उपागत्य गमनागमनम् इर्यापधिको प्रतिकामन्ति, प्रतिकाम्यैवमवादिषुः एव खलु हे स्वामिन् । वय युष्माकमन्तिकात् प्रतिनिष्कामामा प्रतिनिर्गता, प्रतिनिष्क्रम्य सुभूमिभागस्योद्यानस्य इस प्रकार कहकर उन्होंने वहीं पर मृत शरीर को वोसराने रूप कायो.
सर्ग किया । ( करित्ता० उवागच्छ० ) कायोत्सर्ग करके फिर उन्होंने उन धर्मचि अनागार के आचार माडको को वस्त्र पात्रादिकों को उठा लिया-उठाकर वे जहा घर्मघोष स्थविर थे-वहा आये ( उवागच्छित्ता गमणागमण पडिक्कमति, पडिक्कमित्ता एव वयासी-एव खलु अम्हेतुम अतियाओ पडि निक्खमामो २ सुभूमिमागस्स उज्जाणस्स परिपेरतेण धम्मरुहस्स अगगारस्त सव्य जाव करेमाणे जेणेव यडिल्ले तेणेव उचा० २ जाव इह हबमागया, तं कालगण भत्ते ! चम्मई अणगारे इमे से आयारभडए-तएणं ते धम्मघोसा थेरा पुन्धगए उवओग गच्छति गच्छित्ता समगे निग्गंथे निग्गयोओ य सदावे ति-सदावित्ता एव क्यासी) आकर के उन्होंने ईयांपथिक प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रनग करके फिर इस प्रकार वे कहने लगे हे स्वामिन् ! हम लोग आपके पास से यहा से गये-और जाकर सुमिभाग उद्यान की चारों રીતે કહીને તેમણે ત્યાજ મૃત શરીરને વસરાવા રૂપ કાયોત્સર્ગ કર્યો (कारत्ता० उवागच्छ०) अयास उशन तमामे धमकाय भानगारा मायार ભાડકાને તેમજ વસ્ત્રોને લઈ લીધા અને લઈને જ્યા ધર્મઘોષ સ્થવિર હતા ત્યા આવ્યા (उवागच्छित्ता गमगागमग पडिक्कमति, पडिक्कमित्ता एव वयासो-एव खलु अम्हे तुम्म अवियाओ पडिनिस्वनामो २ मुभूमिभागस्त उज्माणस्स परिपेरतेगं धम्मरुइस्स अगगारस्त सब जाव करेमाणे जेणेत्र थडिल्ले तेणेन उवा० जाव इह हन-मागया त कालगरणं मते ! धम्मरुई अणगारे इमे से आयारभंडए तरण त धम्मपोसा थेरा पुधगए उपभोग गच्छति गच्छिता समणे निगाये निग्गयीओ य सदावेति-सदा वित्ता एवं वयासो) ત્યાં આવીને તેમણે ઈપથિક પ્રતિક્રમણ કર્યું પ્રતિક્રમણ કરીને તેઓ આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હે સ્વામિન્ ! અમે લેકે અહીંથી આપની પાસેથી ગયા અને જઈને સુભભિભાગ ઉદ્યાનની ચેમર ફરતા ફરતા ધર્મરુચિ
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
माताधर्मकयात्र
कम्य धर्मरुचेरनगारस्य सर्वत समन्वाद गागंणगयेपणं कुर्यन्तो यस्य= स्थलं धर्मरुचेरनगारस्य फाल्करणस्थान कौरोपागच्छन्ति, उपागत्य धर्मकरनगारस्य शरीरक ' निप्पाण' निम्माण = माणरहित, ' निन्चेट ' निश्रेष्ट = पेटारहितं ' जयविप्पजट ' जीत्र विपतञ्जीरहीन पश्यन्ति दृष्ट्वा हा हा! अहो ! इति खेदे, 'अरुज्जं' अकार्यम् अनिष्ट जात धर्मरुचिनगारी मृतः, 'विरुद्ध' घेराण अतिधाओ पटिनिक्समति, पटिनिक्यमिता धम्मक इस्सअणगाहस्स सव्वाओ समता मग्गणगवेक्षण करे माणा जेणेव थंडिल्ल तेणेव उचागच्छति, उद्यागच्छित्ता धम्ममइस्स अणगारस्म सरीरग निष्पाण निच्चे जीवविष्पजढ पासति, पासिता शहा अकज्जमिति कट्टु धम्मरुइस्स अणगारस्स परि निव्वाणवत्तिय काउस्मग्ग-करें ति ) उन निर्ग्रन्थ श्रमणों ने अपने धर्माचार्य की इस आज्ञा को यावत् स्वीकार कर लिया । और स्वीकार करके फिर वे धर्मघोष स्थविर के पास से निकले निकल कर उन्होंने धर्मरुचि अनागार की चारों दिशाओमें सब प्रकार से मार्गणा गवेषणा की। इस तरह मार्गण गवेषणा करते हुए जहां वह स्थण्डिल था - धर्मरुचि अनागार की मृत्यु होने का स्थान थावहां आये वहां आकर के उन्होंने धर्मरुषि अनगोर के शरीर को प्राणरहित, चेष्टो रहित और जीव रहित देखा। देखकर के सरसा उनके मुख से हाय हाय यह खेद सूचक शब्द निकल पड़ा वे कहने लगे यह वडा अनिष्ट हुआ-जो धर्मरूचि अनागार का देहावसान हो गया ।
राण अतियाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता धण्मरुइस्स अणगारस्स सन्न ओ समता मग्गणगवेसण करेमाणा जेणेव थडिल्ल तेणेन उवागच्छति उवागच्छित्ता धम्मरुहस्स अणगारस्स, सरीरंग निप्पाणं निच्चेट्ठ जीव विप्पजढ पासति, पासिता दाहा अकज्जमित्ति वटु धम्मरुइस्स अणगारस्त परिनिव्वाण वत्तिय काउ रसग्ग करेंति )
તે નિથ શ્રમણેાએ પેાતાના ધર્માંચાની આજ્ઞાને સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તે ધમઘાય સ્થવિરની પાસેથી નીકળીને ધમ રુચિ અનગારની
બધી રીતે ચામર માગણા તેમજ ગવેષણા કરવા લાગ્યા આ રીતે માગણુ ગવેષણ કરતા જ્યા તે સ્થલિ હતુ ધમ રુચિ અનગારના મૃત્યુનુ સ્થાન હતું ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેઓએ ધમ રુચિ અનગારના શરીરને નિષ્ઠાણુ નિશ્ચેષ્ટ અને નિર્જીવ જોયુ આ દૃશ્ય જોતાની હાય 1 હાય! ના ખેદ સૂચક શબ્દો નીકળી પડયા મા બહુ જ ખાટુ થયુ છે ધમ રૂચિ અનગારનું
સાથે જ
તેએના મુખથી
તે
4
કહેવા લાગ્યા
P
यु
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १६ धर्मरव्यनगारचरितवर्णनम्
१६३
इतिकृत्वा - इतिखेद कृत्वा धर्मरुचेरनगारस्य ' परिनिव्वाणवत्तिय परिनिर्वाणप्रत्ययिकं = परिनिर्वाण मरण तत्र यन्मृतशरीरस्य परिष्ठापन तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययो हेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्ययिकः त तथा, मृतपरिष्ठापननिमित्तकमिस्पर्थः कायोत्सर्गे कुर्वन्ति कृत्वा धर्मरुचेरनगारस्याऽऽचारभाण्डक - वस्त्र पात्रादिकं गृहन्ति, गृहीत्वा यनैव धर्मघोषाः स्थबिरास्तनैवोपागच्छन्ति, उपागत्य गमनागमनम् = इर्यापथिक प्रतिक्रामन्ति प्रतिक्राम्यैवमवादिपुः एव खलु हे स्वामिन् । वय युष्माकमन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामामः = प्रति निर्गता, प्रतिनिष्क्रम्य सुभूमिभागस्योद्यानस्य इस प्रकार कहकर उन्होंने वही पर मृत शरीर को वोसराने रूप कायो
किया । (करिता ० उयागच्छ० ) कायोत्सर्ग करके फिर उन्होंने उन धर्ममचि अनागार के आचार भाडको को वस्त्र पात्रादिकों को उठा लिया-उठाकर वे जहां धर्मघोष स्थविर ये वहा आये ( उवागच्छित्ता गमणागमण पडिक्कमति, पडिक्कमित्ता एव वयासी- एव खलु अम्हेतुम्भ अतियाओ पडि निक्खमामो २ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स परिपेरतेण धम्मरुहस्स अगगारस्त सव्व जाव करेमाणे जेणेव वडिल्ले तेणेव उवा० २ जाव इह ह。त्रमागया, तं कालगणं भत्ते ! धम्मरुई अणगारे इमे से आधारभडए तएण ते धम्मघोसा थेरा पुव्वगए उवओग गच्छति गच्छत्ता समजे निग्गथे निग्गयोओ य सदावेति-सदावित्ता एव वयासी) आकर के उन्होंने ईपिथिक प्रतिक्रमण किया । प्रतिक्रमण करके फिर इस प्रकार वे कहने लगे हे स्वामिन् | हम लोग आपके पास से यहा से गये और जाकर भूमिभाग उद्यान की चारों
-
,
રીતે કહીને તેમણે ત્યાજ મૃત શરીરને વાસરાવા રૂપ કાયૅત્સગ કર્યાં (कारता उवागच्छ० ) अयोत्सर्ग उरीने तेथे धर्मरुथि अनगारना आयार ભાડકાને તેમજ વસ્ત્રોને લઈલીધા અને લઈને યા ધર્મ ઘેષ સ્થવિર હતા ત્યા આવ્યા ( उवागच्छित्ता गमगागमग पडिक्कमति, पडिक्कमित्ता एव वयासी - एव खलु अम्हे तुमं अवियाओ पडिनिक्खनामो २ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स परिपेरतेग धम्मरुस्त अगगारस्स सच जान करेमाणे जेणे थडिल्ले तेणेन उवा० जाव इह हव्व-मागयात कालगणं भंते ! धम्मरुई अणगारे इसे आया भंडe aणं त धम्मबोसा येरा पुत्रगए उपयोग गच्छवि गच्छता समणे निग्थे निग्गयोओ य सदार्वेवि - सदावित्ता एवं क्यासी ) ત્યા આવીને તેમણે ઈર્ષ્યા પથિક પ્રતિક્રમણ કર્યું પ્રતિક્રમણ કરીને તે
આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હૈ સ્વામિન્ ! અમે લોકો અહીંથી આપની પાસેથી ગયા અને જઈને સુભૂમિભાગ ઉદ્યાનની ચામર ફરતા ફરતા ધરુચિ
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
धामाधर्मकचाइल
१६२
कम्य धर्मरुचेरनगारस्य सर्वत समन्वाद मागंणगवेषणं कुर्वन्तो यत्रे स्थ स्थलं धर्मरुचेरनगारस्य फाल्करणस्थान सौरोपागच्छन्ति उपागत्य धर्मकर'नगारस्य शरीरक ' निप्पाण' निष्माण=माणरहितं, ' निन्चेट ' निश्रेष्ट = वेष्टारहितं ' जयनिपजद 'जीर रित्यक्त= जीवद्दीन पश्यन्ति, दृष्ट्रा हा ! हा ! अहो ! इति खेदे, 'अरुज्जं' अकार्यम् अनिष्ट जात यदधर्मरु चिनगारी मृतः, 'विरुद्ध घेराण अतियाओ परिनियमति, पटिनिक्यमित्ता धम्मरुदस्सअणगारस्स सव्वाओ समता मग्गणगवेमण करे माणा जेणेव थंडिल्ल तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता धम्मरुहस्स अणगारस्म सरीरग निष्पाण निच्चे जीवविप्पजढ पासति, पासिता हा हा अकज्जमिति कट्टु धम्मरुइस्स अणगारस्म परि निव्वाणवत्तिय काउस्सग्गं करे ति ) उन निर्ग्रन्थ श्रमणों ने अपने धर्माचार्य की इस आज्ञा को यावत् स्वीकार कर लिया । और स्वीकार करके फिर वे धर्मघोष स्थविर के पास से निकले निकल कर उन्होंने धर्मरुचि अनागार की चारों दिशाओंमें सब प्रकार से मार्गणा गवेषणा की। इस तरह मार्गण गवेषणा करते हुए जहां वह स्थण्डिल था - धर्मरुचि अनागार की मृत्यु होने का स्थान थावहा आये वहा आकर के उन्होंने धर्मरुचि अनगोर के शरीर को प्राणरहित, चेष्टा रहित और जीव रहित देखा। देखकर के सरसा उनके मुख से हाय हाय यह खेद सूचक शब्द निकल पड़ा वे कहने लगे यह वडा अनिष्ट हुआ-जो धर्मरूचि अनागार का देहावसान हो गया ।
राण अतियाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता धण्मरुइस्स अणगारस्स सन्न ओ समता मग्गणगवेसण करेमाणा जेणेव थडिल्ल तेणेन उपागच्छति उवागच्छित्ता धम्मरुहस्स अणगारस्स, सरीरंग निष्पाण निच्चे जीव विप्पजढ पास वि, पासित्ता हाहा अरुज्जमित्ति कट्टु धम्मरुइस्स अणगारस्स परिनिव्वाणवत्तिय काउ सग्ग करेंति )
તે નિથ શ્રમણેાએ પેાતાના ધર્માચાય ની આજ્ઞાને સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તે ધમઘાષ સ્થવિરની પાસેથી નીકળીને ધમ રુચિ અનગારની
અધી રીતે ચામેર માગણુા તેમજ ગવેષણા કરવા લાગ્યા આ રીતે માણુ ગવેષણ કરતા જ્યા તે સ્થડિલ હતુધરુચિ અનગારના મૃત્યુનુ સ્થાન હતું ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેઓએ ધમરુચિ અનગારના શરીરને નિષ્પ્રાણ નિશ્ચેષ્ટ અને નિર્જીવ જોયુ આ દૃશ્ય જેતાની સાથે જ તેઓના સુખથી હાય 1 હાય ! ના ખેદ સૂચક શબ્દો નીકળી પડયા મા બહુ જ ખૈટુ થયુ છે-ધમ રુચિ અનગારનુ
તેઓ કહેવા લાગ્યા
J PAIN TBALL
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
শামােয় परिपेरतेण' परिपर्यन्तेन च परिभ्रमन्तो धर्मगनगारस्य ' सबजार' सर्वतः समन्ताद मार्गणगरेपण तो यार स्थापिटल तत्रोपागामा, उपागस्प यावद् इह एव्यमागताः गफारगाः बल हे गदाधर्मविरनगारः, इमानि
से 'वस्य, भाचारभाउपानि । ततः स ते धर्मरोषा स्थराि: 'पुनगए' । पूर्वगतेष्टिपादान्तर्गतमुताधिकार विशेष उपयोग गन्ति लगपन्ति का धर्मरुचिराहारमानेतु नगर्यो गतस्तदा यस्य रहे गत ? पेनेदमाहारदत्त ' मित्यादि ज्ञातु स्वकीयोपयोग नयन्तीत्यर्थ , गत्या-समीयोपयोग लगपिना, अमणान् निर्ग्रन्यान् निन्धीक्ष शन्दयति, शब्दयित्वा एनमवाढी-पर खलु ह आर्याः । ममान्तेनासी-शिष्यः, धर्मचिनीमाऽनगारः 'पगमए' मतिभियाप्रकृत्या दिशाओ में फिरते २ धर्मरचि अनगार की सर्व प्रकार से मार्गण, गवे पणा करने लगे। मार्गणा, गवेप गा करते हुए हम लोग फिर उस स्थान पर पहुंचे जहा धर्ममचि अनगार का शर पहा हुओ था वहा से अभी २ हम लोग आरहे है । हे भदत! वे धर्ममचि अनगार कालगत हो गये है-ये उनके आचार भाण्टक बस्न पात्र हैं। इस के बाद उन धर्मघोप स्थविर ने दृष्टि याद के अतर्गत अनाधिकार विशेप में अपना उपयोग लगाया-तो उन्हे यह ज्ञात हो गया कि जर धर्मरुचि आहार लेने के लिये नगरी में गये तो वे किसके घर गये, किस ने यह आहार उन्हें दिया इत्यादि । अपने उपयोग से इस बात को जानकर उन्हान निर्ग्रन्थ श्रमणों और निम्र ध अमणियों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-(एव खलु अजो मम अतेवासी, धम्मरूई, णाम અનગારની બધી રીતે માર્ગણ ગવેષણ કરવા લાગ્યા માર્ગ તેમજ ગવે પણ કરતા અમે લોકે તે જગ્યાએ પહોચ્યા જ્યા ધમરુચિ અનગરનુ મડદુ પડ્યું હતુ અમે લેકે અત્યારે ત્યાથી જ આવી રહ્યા છીએ હે ભરત! તે ધર્મરુચિ અનગાર મરણ પામ્યા છે તેઓશ્રીના આ આચાર ભાડ વસ્ત્રાત્રે છે. ત્યારપછી તે ધર્મઘોષ સ્થવિરે દષ્ટિવાદના અતર્ગત શતાધિકાર વિશેષમાં પિતાનો ઉપયોગ લગાવ્યો તેમાથી તેઓને આ વાતની જાણ થઈ કે જ્યારે ધર્મરુચિ આહાર લાવવા માટે નગરીમાં ગયા હતા, ત્યારે તેઓ કોના ઘેર ગયા હતા, આ આહાર તેમને કોણે આપે તે વગેરે પિતાના ઉપગથી આ બધી વિગત જાણું. તેમણે નિગ્રંથ શ્રમણે અને નિઝ થ શ્રમણને પતાની પાસે બેલાવી અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(एव खल अज्जो मम अतेवासी, धम्मलई पाम अणगारे ।
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० म० १६ धर्मच्यनगारचरितवर्णनम्
१६५
स्वभावेन भद्राः शान्तः, यावद् यावत् करणादिद द्रष्टव्यम् - पगह उनसते, पग - पणु कोइमाणमायालोहे, मिउमदवसपणे, आलीणे, भद्दए, इति । प्रकृत्युपशान्त', प्रकृति प्रतनुक्रोधमानमाया लोभः, मृदु मार्दवसपन्नः, आलीनः भद्रः, इति । विनीतः 'माम मासेण' मास व्याप्य मासेन मामक्षपणनामकेन, अनिक्षिप्तेन = अन्तरहितेन, अविश्रान्तनेत्यर्थः तप कर्मगा विचरन् पारणकदिने यावत्नागश्रिया ब्राह्मण्या गृहमनुपविष्टः ततस्तदनन्तर सा नागश्री ब्राह्मणी यावत्शारदिकं तिक्कालाबुक 'निसिरइ ' निस्सृजति=पात्रे निक्षिपतिस्म । ततः धर्मरुचि
अणगारे पग भद्द जाव विणीए मास मासेण अणिग्वित्तेण तवोकमेण जाव नागसिरीए माहणी गिहे अणुपविट्टे तएण सो नागमिरी मारणी जाव निसीरइ, तरण से धम्मरुई अणगारे अशपज्ञत्तमित्ति कट्टु जाव कोल अणवकखेमाणे विहरड, सेण धम्मरुई अणगारे चणि वासाणि सामन्नपरियाग पउणित्ता आलोइयपडिक्कते समाहि पत्ते कालमासे काल किया उड्ढ सोहम्म जाव सव्वसिद्धे महाविमाणे देवता वन्ने ठिई पण्णत्ता ) आर्यो ! सुनो बात एसी है मेरे अन्ते वासी शिष्य- धर्मरुचि अनगार स्वभाव से ही भद्र परिणामी थे । यावत् शब्द से इस पाठ का यहा सग्रह हुआ है " पगह उचसते पगइ पगणु कोरमाणमाया लोहे मउमदवसपणे आलोणे भद्दए "। ये अविश्रान्त अतर रहित - मास मामखमण पारणा करते थे । आज उनके पारणा का दिन था - सो गोचरीके लिये भ्रमण करते हुए ये नागश्री ब्राह्मणीके घर
पिणी मास मासेण अणिक्खितेण तवो कम्मेण जात्र नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपविट्टे तण सा नागसिरि माहणी जाव निसीरह, तरणं से धम्मई अणगारे अहापज्जमित्ति कहु जाव काल अणवकखेमाणे विहरइ, सेणं धम्मरूई अणगारे बहूणि वासाणि सामन्नपरियाग पडणित्ता अलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा उडू सोहम्म जाव सव्वसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उनबन्ने ठिई पण्पत्ता) આર્યાં! સાભળે, વાત એવી છે કે સારા અતેવાસી શિષ્ય-ધમ રુચિ અનગાર સ્વભાવથી જ ભદ્ર પરિણામી હતા યાવતા શબ્દથી અહીં આ પાઠના सथहु थये। छे-" पगइ उत्रसते" (पगइपयणु को हमाणमायालोहे मिउमरव सपणे आलिणे मद्दए ) तेथे अविश्रात अतर रहित - ( निरतर ) भास अभय કરતા રહેતા હતા આજે તેમને પારણાનેા દિવસ હતા, તે આહાર માટે ભ્રમણુ કરતા નાગશ્રી ખ઼ાહ્મણીના ઘેર ગયા હતા. બ્રાહ્મણીએ ચારદિક તિકત
1
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
बताया रनगारो यधापर्यासमितिकृत्वा धानित पूर्णमिति मका यावत्-कालम् 'अत्रणरुखेमाणे' अननकाट्नमाणः विहरति, स पलु धर्मरुचिरनगागे पनि वर्षाणि अमण्यपर्याय पालपित्ता, आलोचित मतिका तः समाधिप्राप्तः कालमासे काल कृला जाई ' सोहम्म जाव सबसिदे' सौधर्मादयो द्वादशदेश्लोकाः, वत उधं नवयकानि तदुपरि यानत् सर्वार्थसिद्ध, महायिमाने देवत्वेनोपपम-देवमय प्राप्तान् । तन-तस्मिन् सर्भिसिरिमाने, सल 'मनागमणुफोसेण' अजरन्यानुत्कृष्टेन जघन्योत्कृष्टनितेन तत्र हि सपा देवानां स्थितिः समानेव भवति न तु न्यूनाधिककालनया रिपमेतिमाः। त्रपत्रिशन सागरोपमानि स्थितिः ममता, वन धर्मरुचेरपि देवस्य त्रयस्त्रिंशत् सागरीपमानि स्थितिः प्राप्ता, स स धर्मरुचि देवस्तस्माद् देवलोका-सार्थसिद्धरिमानाद् यावद् च्युत सन् यापद महाविदा वर्षे सिज्झिहिद' सेत्स्यति, सिद्धि प्राप्स्यति । तत्=तस्माद् दिगस्तु खलु । पहुंचे। यावत् उसने शारदिक तिक्त फटवे तुवे की शाक उनके पात्र में बोहराया धनरुचि अनगार ने उसको सुगानिवृत्ति के लिए पर्याप्ति मान कर लिया। उन धर्मरूचि अनगारने अनेक वर्षों तक श्रमण्य पर्याय का पालन किया और पालन करके आलोचित प्रतिकान्त होकर वे समाधि में लीन हो गये। काल अवसर काल करके अब वे सोवन आदि १२ देवलोको से ऊपर नववेय को से मी आगे जो सर्वार्थसिद्वि नाम का विधान है कि जिसमें ३३ सागर की स्थिति है-और यह स्थिति जहा सय देवा की सनान हैं उसमें ३३ सागर की स्थितिवाले देव हुए हैं। " अजहण्णमणुझोसेग" जध न्य और उत्कृट तेत्रीस सागरोपम की स्थिति है। ( से ण धम्मा देवे ताओ देवलोगाओ जाव महाविदेहे-वासे सिजिझदिह, त घिरत्यु કડવી ખૂબડીનુ શાક તેમના પાત્રમાં વહેરાવ્ય ધર્મરુચિ અનગારે તેને ક્ષધા નિવૃત્તિ માટે પપ્ત જાણીને તેને સ્વીકારી લીધુ તે ધર્મચિ અનગારે ઘણું વર્ષો સુધી શ્રાપથ પર્યાયનું પાલન કર્યું છે અને, પાલન કરીને આચિત પ્રતિકાત થીને તેઓ સમાધિમાં લીન થ5 ગયા છે કાળ સમયે કાળ કરીને હવે તેઓ સૌધર્મ વગેરે બાર દેવલેકેથો ઉપર ન શ્રેયકથી પણ આગળ જે સર્વાર્થસિદ્ધિ નામે વિમાન છે કે જેમાં ૩૩ સાગરની સ્થિતિ છે અને આ સ્થિતિ જવા બધા દેવોની સરખી છે, તેઓ તેમાં ૩૩ सागरनी स्थितिमा १ था छ "अजहण्णमणुकासेण" ruन्य मन जट 33 सागरोपभनी स्थिति छ ।
( सेण धम्मरूई देवे ताभो देवलोगाभो नाव महाविदहे-चासे सिझिदिन,
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतर्वापणी टी० ५० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् ___ १६७ आर्या:! नागश्रिय ब्रामणीमधन्यामपुण्या यावद् दुर्भग निम्बालिकाम् , यथाखल्ल नागश्रिया ग्रामण्यातथारूप प्रकृतिभद्रत्वादिगुण युक्तः साधु धर्मरुचिरनगारो मासक्षपणपारणके शारदिकेन विक्तालावुकेन यावत् स्नेहायगादेनाऽकाल एव जीविताद् व्यपरोपितः ॥मू०४॥
मूलम्-तएणं ते समणा निग्गंथा धम्मघोसाणं थेराण आंतए एयमढें सोचा णिसम्म चंपाए सिंघाडगतिग जाव बहुजणस्स एवमाइक्खंति-धिरत्थु णं देवाणुप्पिया । नागसिरीए माहणीए जाव णिवोलियाए जाए णं तहारूवे साह साहरूवे सालइएणं जीवियाओ ववरोवेइ, तए णं तेसिं समणाण अतिए एयम सोचा णिसम्म वहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एव भासइ ण अबो । नागसिरीए माणीए अधन्नाए, अपुनाए, जाव णियोलियाए जाए णं तहारूवे साह धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगसि साल हए णं जाव गाढेण अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए) वे धर्मरुचि देव इस देवलोक से चवकर यावत् माविदेह क्षेत्र से सिद्धिको प्राप्त करेंगे आर्यो । अधन्य, अपुण्य यावत् दुर्भग निम्यगुलिका जैसी अनादरणीय उस नागेश्री ब्राह्मणी को धिक्कार हो-कि जिसने तथारूप, प्रकृति भद्रस्वादि गुणों से सपन्न सोधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पोरणा के दिन शादिक तिक्त कडवी तुपी का शाक यावत् स्नेहावगाढ स्नाकर दिया-कि जिससे वे अकाल में मरण को प्राप्त हुए॥ तू. ४॥ त घिरत्थुण अज्जो ! नागसिरीए माहणीए अपनाए, अपुन्नाए, जाव णिवोलि याए जाए ण तहारूवे साहू धम्मरूई अणगारे मासखमणयारणगसि सालइएण जाव गाढेण अकाले चेव जीवियाओ बरोविए)
તે ધર્મરુચિ દેવ તે દેવલેથી ચવીને ચાવતું મહાવિદેહ ક્ષેત્રથી સિદ્ધિને મેળવશે છે આ ! અધન્ય, અપુણ્ય, યાવત દુભગ નિંબગુલિકા જેવી અનાદરણીય તે નાગશ્રી બ્રાહ્મણીને ધિક્કાર છે કે જેણે તથારૂપ, પ્રકૃતિ ભદ્રત્વ વગેરે ગુણોવાળા સાધુ ધર્મરુચિ અનગારને માસ ખમણના પારણાના દિવસે શારદિક તિકત કડવી તુંબડીનું શાક-કે જે સરસ વઘારેલું, જેની ઉપર ઘી તરતું 4d- यु, नदी मे तेसानु भ२५ यमु. ॥ सून "" !
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
जागा
धिरत्थु णं नागसिरीय माहणीए जाप जीरियाओ ववशेत्रिए, तएर्ण ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म आसुस्ता जान मिसिमिसेमाणा जेणेन नागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छंति उनगच्छिता णागसिरी माहणी एव वयासी - हं भो । नागमिरी । अपत्थिय पत्थिय दुरंत पतलक्खणे हीणपुण्णचाउदसे धिरस्थु णं तत्र अधन्नाप अपुन्नाप जाव निंबोलियाए जावा तुमं तहारू साहू साहूरूचे मासखमणपारणसि सालइएणं जाव वबरोविए, उच्चावयाहिं अकोसणाहि अक्कोसेंति उच्चावयाहिं उसणाहि उद्धसेंति उच्चावयाहि णिव्भत्थणाहि णिव्भत्यति उच्चावयाहि णिच्छोडणाहि निच्छोडेंति तज्जेति तालेंति तज्जेत्ता तालेत्ता सयाओ गिहाओ निज्छुभंति, तएण सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूढा समाणी चंपाए नगरीए सिघाडगतियचउक्कचच्चर चउम्मुह० बहुजणेणं हीलिनमाणी खिसिजमाणी निंदिजमाणी गरहिजमाणी तज्जिज्जमाणी पञ्चहिनमाणी धिक्कारिजमाणी थुक्कारिजमाणी कत्थइ ठाणं वा निलय वा अलभमाणी२ दडिखडनिवसणा खडमलयखडघड गहत्थगया फुटहडाहडसीसा मच्छियाचडगरेण अन्निज्जमानमग्गा गेह गेहेणं देह बलियाए वित्त कप्पेमाणी विहरइ, तएण तीसे नागसिरीए माहणीए तम्भवति चेत्र सोलस रोयायका पाउन्भूया, त जहा - सासे कासे जाणिसूलं जाव कोढे, तएण सा नागमिरी माहणी
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतषिणी सी० म०१६ धर्मरच्यनगारचरितवर्णनम् सोलसहि रोयायकेहि आभिभ्या समाणी अट्टदुहद्दवसहा कालमासे काल किच्चा छठ्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमट्टिइएसु नेरएसु नेरइयत्ताए उववन्ना ॥ सू० ५ ॥ ____टीका-'तएण ते ' इत्यादि । ततः खलु ते श्रमणाः निर्ग्रन्था धर्मघोषाणां स्थविराणामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य चम्पायां शृशाटक-यावन्महापथेषु बहुजनस्य एवमारव्यान्ति धिगस्तु खलु हे देवानुप्रियाः ! नागश्रिय ब्रामणी यावद दुभंगनिम्मगुलिकाम् , यया खलु तथारूपः साधुः साधुरूपो धर्मरुचिरनगारः मार; दिकेन यायत्तिक्तालावुकेन जीविता व्यपरोपितः। ततः खलु तेपाश्रमणानामन्तिके
'तएण ते समणा निग्गंधा ' इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएण) इमके याद (ते समणा निग्गथा धम्मघोसा थेराण अंतिएएयम सोचा निसम्म चपाए सिंघाडगतिग जाव बहुजणस्स एव माइक्खति-धिरत्थुणं देवाणुप्पिया! नागसिरीए जाव णिवालियाए जाएण तहारवे साह सादस्वे सालइएण जीवियाओ चवरोवेइ) उन श्रमण निर्ग्रन्थोंने धर्मघोप स्थविर के मुख से इस समाचार को सुनकर और उसका हृदय में विचार कर चपानगरी में शृगाटक यावत् महापथो में पहजनों से ऐसा कहा हे देवानुप्रियो ! ब्राह्मणी नागश्री को धिक्कार है यावत् निम्य की निगोली जैसी अनादरणीय है कि जिसने तथा रूप साधु-साधुरूप धर्मरुचि अनगार को शारदिक यावत् कडवे तुम्ने का शाक देकर जीवन से रहित कर दिया है । (तएणं तेसि समणाण अं.
'तएण ते समणा निग्ग था ' इत्यादि, ___टा (तएण) त्या२मा
(ते समणा निराथा धम्मघोसा थेराण अतिए एयमह सोचा निसम्म चपाए सिंघाडगतिग जाव बहुजणास्स एव माइनखति-धिरत्युण देवाणुप्पिया! नारा सिरीए माहणीए जाव णिवोलियाए जाए ण तहारूवे' साहू साहूरूवे सालइएण जीवियाओ वयसेवेइ)
તે શ્રમણ નિથાએ ધગશેષ સ્થવિરના મુખથી આ વાત સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને અપાનગરીમાં શ્રાટેક મહાપા વગેરેમાં ઘણું માણસોને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! બ્રાહ્મણી નાગથીને ધિક્કાર છે અને તે લીમડાની લી બોળાની જેમ અનાદનીય છે કેમકે તેણે તથારૂપ સાધુ સાધુ રૂપ ધમ રૂચિ અનગારને શારદિક કડવી તબડીનું શાક આપીને મારી નાખ્યા છે
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
एतम श्रुत्वा निशम्य पहुजनोऽन्योन्यस्प-परम्परग माग्याति-पत्र मारते एव मशापयति, एव मरूपयति धिगस्तु पल नागभिया ग्रामण्या, पया धर्मगविरमगार शारदिकेन यापन जीविता पपरोपितः । ततः ग्यलु ते प्रामणा पाया नगया बहुजनस्पान्तिके एतमय शुत्वा निग्रम्प, आशुभताभी क्रोपारिश यावत् मिसमिसन्त =क्रोधानठेन प्रज्वलत ,परनागश्रीवर्तामणी तीवीपागन्छन्ति, तिए एयमह सोचा परजणे अन्नमसस्स एवमाउरखा, एवं भासा घिरत्युणं नागसिरीए मारणीए जाय जीवियाओ ववरोविए, तणं हे माहण चंपाए नयरीए पहुजणस्स अतिण एपम सोच्चा निसम्म आसुरत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेय नागसिरी मारणी तेणेव उवाग
छति) उन श्रमणजनों के मुस से इस समाचार को सुनकर और पसे हृदय में धारण करके अनेक मनुष्य आपम में इस प्रकार कहने लगे घोलने लगे प्रज्ञोपना करने लगे प्ररूपणा करने लगे कि ब्राह्मणी नागश्री को धिकार है जिसने धर्मरुचि अनगार को शारदिक-तिक्त कडवे तुंवे के शाक से जीवन रहित करदिया है । इस प्रकार उन ब्राह्मणों ने तथा सोम, सोमदत्त, सोमभूति आदि ने जय चपानगरी में अनेक मनुष्यों के मुख से इस बात को सुना-तो वे सुनकर और उसे अपने २ हृदय में धारण कर इकदम क्रोध से तम तमा उठे और यावत् क्रोधानल से जलते हुए जहा नागश्री ब्राह्मणी थी वहा आये(तएणं तेसिं समणाणं अतिए एयमह सोचा यहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइ क्खइ, एव भासइ धिरत्युण नागसिरीए माहणीए जाच जीवियाओ ववरोविए, तएण ते माहणा चपाए नयरीए बहुजणस्स अतिए एयभट्ट सोचा निसम्म आसु रत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव नागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छति) તે શ્રમણ લોકેાના મુખથી આ સમાચાર સાભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને ઘણુ માણસે એકબીજાની સાથે આ રીતે વાતચીત કરવા લાગ્યા, પ્રજ્ઞાપના કરવા લાગ્યા, પ્રરૂપણ કરવા લાગ્યા કે બ્રાહ્મણી નાગશ્રીને ધિક્કાર છે જેણે ધર્મચિ અનગારને શારદિક-તિકત કડવી તૂ બડીના શાકથી મારી નાખ્યા આ રીતે તે બ્રાહ્મણેએ એટલે કે સામ, સોમદત્ત અને સોમભૂતિએ
ત્યારે ચપા નગરીના અનેક માણસોના મુખથી આ વાત સાંભળી ત્યારે તેઓ સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને એકદમ ધાવિષ્ટ થઈ ગયા અને કાયરૂપી અગ્નિમા સળગતા જ્યાં નાગશ્રી બ્રાહ્મણી હતી ત્યા આવ્યા.
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
- ममगारधर्मामृतवर्षिणी दी० २०१६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम्
--१७१
,
उपान्त्य नागयि ब्राह्मणीमेनमवादिपुः उक्तवन्तः, ह भो ! नागश्रीः । अमार्थित प्रार्थिके ! मरणामित्रापिणि । दुरन्तमान्तलक्षणे ! हीनपुण्यचातुर्दर्शिके । धिगस्तु खलु तत्र अघन्यायाः अपुण्यायाः यावद् - दुर्भगनिम्बगुलिकायाः अत्र द्वितीयायें षष्ठी आत्वात्, यया खलु त्वया तथारूपः साधु साघुरूपो धर्मरुचिरनगारो मासक्षपणपारण के शारदिकेन तिक्तालानुकेन यापद् व्यपरोपितः, 'उच्चावयाहिं ' उच्चावचाभिः=उच्चनीचाभिः ' अकोसणाहि ' आक्रोशनाभिः = निन्दावचैः नीचा सिलमित्यादिभिर्वचनैः ' अक्कोसति ' आक्रोशन्ति-फटकारयन्ति उच्चावचाभिः उद्धं सनाभि' दुष्कुलोत्पन्नाऽसित्यादिवचनैः, ' उसेंति' उद्धसयन्ति = कुलादि( उवागच्छित्ता णागसिरी माहणों एव वयामी) ह भो ! नागसिरी ! अपत्थियपत्थिय दुरतपतलक्खणे, हीण पुण्णचाउद्दसे घिरत्युण तव अधभाए अपनाए जोवणि पोलिवाए जाए ण तुमे तहारूवे साह साहरूवे मास खमणवारणसि सालइएण जाव ववरोविए उच्चावण्याहिं अक्कोसणाहि अकोसति उद्ध सेति) वहा आकर न्होंने नागश्री ब्राह्मणी से कहा अरीओ नागश्री ! अरी अप्रार्थित प्रार्थके हे दुरन्तप्रान्त लक्षणे । ओ हीन पूण्य चातुर्दशि के | तुझ अपुण्य अधन्या को धिक्कार हो ! तू दुर्भग निम्नगुलिका जैसी अनादरणीय है जो तूने मासखमण के परिणा के दिन घरपर आहार लेने के निमित्त आये हुए तथा रूप साघुरूप धर्मरुचि अनगार को शारदिक तिक्त कडवे तुंने का शाक देकर जीवन से रहित कर दिया है। तू बडी नीच है इत्यादि रूप ऊँच नीच आक्रोश निन्दा - वचनों से उन्हों ने उसे फटकारा तू नीच खानदान की ( उवागच्छित्ता णागसिरीं माहणीं एव व्यासी-ह भो ! नागसिरी । अपत्थि य पत्थिय दुरतपवलक्खणे, हीनपुण्णचाउद से घिरत्थु ण तव अपनाए अपुन्नाए जात्र गिवोलियाए जाए ण तुमे तहारूवे साहू साहूरूवे मासखमणपारणंसि सालइएण जान ववरोविए उच्चावयाहिं अक्कोसणाहिं अक्कोसति उद्धसे ति) ત્યા આવીને તેમણે નાગશ્રી બ્રાહ્મણીને કહ્યુ કે કે સુઈ એ નાગશ્રી ! અપ્રાર્થિત પ્રાથકે ! હે દુરત પ્રાત લક્ષણે ! એ હીનપુણ્ય ચાતુર્દશિકે! તારા જેવી પાપણી અધન્યાને ધિકકાર છે તુ દુંગ નિખગુલિકા (હિંમાળી જેવી અનાદરણીય છે. કેમકે તેણે માસ-ખમણુના પારણાના દિવસે ઘેર આહાર લેવા માટે આવેલા તથારૂપ સાધુ સાધુરૂપ ધરુચિ અનગારને શારદિક તિકત કડવી તુ.બડીનુ શાક આપીને મારી નાખ્યા છે તુ સાવ નીચ છે, આમ પણા ઉચ-નીચ આક્રોષ-નિદાના વચનેાથી તેઓએ તેને ફીકારી તુ નીચે
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२ गौरवात्पातयन्ति, उगानामिनिमन्सनामि TATTIनः 'णिमरयति' निमन्सयन्ति, उचारचामि• गिनोरणाह' निकोटनामिः अस्मद् गृहामी निस्सर इत्यादि बने 'निच्छोटेंवि ' निजीटयनि गृादित्यागमयोता दनेन भीषयन्ति, ' तज्जेति' तर्जयन्ति 'साम्पसि पापे इत्यादिवाश्यरमुली प्रदर्शनपूर्वक ताडनमय मदर्शयन्ति, साति' ताउँगन्ति चपेटादिमिः, नयित्वा ताडयित्वा, स्वाद हा निमंति' नितिपन्ति = पहिनि -सारयन्ति । ततस्तदनन्तर सा नागश्रीः म्याद गृहार 'निराठा समाणा' निसिप्तामवीन सरितासंती,चम्पापा नगर्दा बाटक त्रिकचनुपर्नेतरचतुर्मुपमहापयपयेषु यत्र यत्र है इस तरह की ऊंची नीची घाणियों से उसे भली धुरां कहा कुलादि के गौरव से उसे पतित की। (उचापयारिणिमत्यणारिणिन्मत्यति उच्चावयाहिं णिच्छोडणाहिं निच्छोदत्ति, तज्जेंति, तालति, तज्जेता तात्ता सयाओ गिहा निच्छुभनि) ऊँचे नीचे कठोर वचनों से उसका तिरस्कार किया। भले पुरे पचनो से उसे डरवाया-हमारे घर से तू बाहिर निकलें जा इत्यादि भयोत्पादक शब्दों से उसे भय दिखलाया । ओ पापिनी! तूजे मालूम पड जायगा, इत्यादि वाक्यों से - अगुली दिखा २ कर उसे मारने को भय दिखलाया और चपेटा-यप्पर
आदि से उसे पीटा भी । और पीटपाट कर उसें उन्होंने फिर अपने घर से बाहिर निकाल दिया। (तएणं सा नांगसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूडा समाणी चंपा नगरीए सिंघाडगतिगचउक्कचंचरचउम्मुह ખાનદાનની છે, આ જાતના ઉચા નીચા વચનોથી તેણે બેટ ખરી સભળાવી કેળ વગેરેના ગૌરવથી તેણે પતિતા કહ્યું
(उच्चवियाहि णिमेस्थणाहि णिभत्थति, उच्चावयाहिं णिच्छोडणाहि निछो ति, तज्जेति, तोलेंति तज्जेत्तों तालेत्ता सयाओ गिहाओ निच्छुभति )
ઉચા નીચા વચનથી તેને તિરસ્કાર કર્યો, બેટા ખરા વચનેથી તેને બીવડાવી “અમારા ઘરથી તુ બહાર નીકળી જા” વગેરે ભત્પાદક વચનથી તેણીને બીક બતાવી “એ પાપણી! તને મા બતાવવી દઈશું ?' વગેરે વિચ નથી સામી આગળી કરીને તેને મારી નાખવાની બીક બતાવવા લાગ્યા અને ઇપડ લાફા વગેરેથી તેને માર પણ મા, મારપીટ કરીને તેઓએ તેને પિતાના ઘેરથી બહાર કાઢી મૂકી
(तएण सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूडा समाणी चपाए नगरीए सिंघाडगतिगचक्कचच्चरचउम्मुह० बहुजणेण ।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मामृतपिणी टीका अ० १६ धर्मरुच्यनगारच रिपर्णनम्
१७३
गच्छति तत्र तत्र सर्वन बहुजनेन ' हीलिज्जगापी' ढील्यमाना- जात्याद्यद्घाटन, 'खिसिज्ज माणी' रिस्यमाना - परोक्षम्सनेन, 'निंदिज्जमाणी' निन्द्यमानातपरोक्षम् ' गर हिज्जमाणी ' गमाना- तत्समक्षमेत्र 'वज्जिजमाणी' वर्ज्यमानाअमुलचालनेन भयमुत्पादनमाना 'पन्नहिज्ज माणी ' मव्ययमाना यष्ट्यादिताडनेन 'परिज्माणी 'नियमाणा 'रिज्माणी' युक्तियमाणा कुत्रापि
बहुजणेण हीलिज्माणी खिसिज्जनाणी निद्दिज्जमाणी, गरहिज्जमाणी, तज्जिज्जमानी, पञ्चहिज्ज माणी, विद्यारिजमाणी, धुक्कारिज्जमांणी, काह ठाण वा निलय वा अलममाणी २ दडि खडा नियमणा खंड खडमल्लय सेंड खंड प्रथा फुडार मीसा मच्याउगरैणं अभिज्ञ्जमा गग्गा गेट गेरेण देह लियाए वित्तिक पेमाणी विहर) अपने घर से बाहर निकल कर वह नागश्री चपानगरी के गाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर चतुर्मुख महापय आदि मार्गो पर जा २ गई, व २ सर्वत्र अनेक जनो ने उसकी " यह नीचजाति की है " इत्यादिरूप से हीलना की । सन के सन उसपर बहुत होधित हुए सने उसकी परोक्ष में निंदा की। सामने सबने उसे मला बुरा कहा । अगुली संचालन पूर्वक उसे मारने पीटने का भय दिग्वया । किन्हीं २ ने उसे Mast आदिसे मारा पीटा भी। अनेको उसे धिक्कारा। कितने क जनों ने उसे देखकर उसपर थूक भी दिया। इस तरह की परिस्थिति निंदिज्जमाणी, गरहिज्जमाणी, वज्जिज्जमाणी पव्यहिज्जमाणी, निक्कारिज्जमाणी, थुक्करिज्माणी, कत्थs ठाण वा निलय वा अभमाणी २ दडिखडा निव सणा खडमल्लय खड खड घगहत्थगया फुडाइडसीसामच्छियाचउगरेणं अभिज्ञमाणमंगा गेह गेहेणं देह oियाए वित्ति कप्पेमाणी विes )
ઞાતાના ઘેરથી બહાર નીકળીને તે ના શ્રી ચ પા નગરીના શૃગાટક, ત્રિક, ચતુ, ચશ્વ, ચતુર્મુખ, મહાપથ વગેરે માર્ગો ઉપર જ્યા ગઈ ત્યા ત્યા મધે ઘણા માસાએ તેની “આ નીચ જાતની છે” વગેરે વચનેાથી હીલના કરી અધા માણુન્સ તેની ઉપર ખૂબજ સ્સે થયા તેની ગેર હાજ રીમા લેકેએ તેની મુખ નિંદા કરી, તેની સામે તેને ખધાએ ખરી ખાટી સભળાવી, આગળી ચી ધી ચી ધીને તેની સાથે મારપીટ કરવાની બીક ખતાવવા લાગ્યા કઈ ફાઇએ તેા તેને લાકડી વગેરેના ફેંટો પણ માર્યો, ઘણા એએ તેને ટિકારી, કેટલાક માણુસેાએ તેને જોઇને તેની ઉપર ચૂકી કીજું.
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४ स्थानं ग निवासाध निम्य पा-मन्पराशामार्थस्थानम् , अनममाना २८मा प्नुपती २, 'दढीखडनिसगा' दण्डियष्टनियमना-डि-कनमन्मान जीवना, तस्य सण्ड, तदा निपसन-परिधान यस्पाः सा तया, 'खटमल्लपरखडपडगारक गया' खण्डगल्लफ-सण्डपटरदस्तगतामायण्टमरल मिह शराबण्ड सरपट कर पानायें घटरखण्ड, तद् दय हस्तगत यस्पा सा तथा, 'इटाडाइसीसा' स्फुटिवाड़ाइनशीप-स्फुटित स्फुटितफेश 'डाहरुम् ' बायर्थ शीर्ष शिरो यस्याः सा तथा, रिकीर्णकेशवतीत्यर्थ मच्छिमावडगरेण अभिज्जमाणमग्गा' मालिका चटकरेण अन्वीयमानमार्गा मक्षिकासमूहेन अनुगम्यमानमार्गा शरीरवनादीना मरिनवान् मक्षिकास्तत्पृष्ठतो धारतीत्यर्थः गेह गेहेण देह बलियाए' गृह योग देहपलिकया प्रतिगृह देहनिदिहेतोः उदरपूर्वयमेवेत्यर्थ:-त्ति ' फापेमागी' फलप्यमाना-कुर्वाणा सती विहरति । ततस्तदनन्तर खल वस्या नागश्रिया प्राण्या स्वस्मिन् भवे एव पोडश रोगातहाः मादभूता, तद्यथा-(१) श्वासः, (२) कास , (३) ज्वरः, 'जायढे ' यावत्-कुष्ठम् , (४) दाह , (५) कुक्षिशूलम् , (१) का सामना करती हुई वह कहीं पर भी बैठने के लिये स्थान को, और ठहरनेके लिये-विश्राम करनेके लिये-जगह भी को नही प्राप्त करती फरे हुए जीर्ण वस्त्र के टुकड़े को पहिरे हुए भिक्षा के लिये मिट्टी के खपर को और पानी के लिये फूटे घडे के टुकडे को हाथ में लिये हुए इधर उधर एक घर से दूसरे घर पर उदर पूर्ति के लिये फिरने लगी। इसके शिर के चाल ईधर उधर बिखरे हुए रहते थे। शरीर और वस्त्रादिको के मैले कुचैले होने के कारण मक्षिकाओं का समूह इसके पीछे पीछे २ भागता रहता था। (तएण तीसे नागसिरीए मारणीए तम्भवसि चेक सोलसरोयोयका पाउन्भूया- त जहा सासे कासे जोणिसूले, जाव આવી પરિસ્થિતિને મુકાબલે કરતી કોઈ પણ સ્થાને બેસવાની કે રોકાવાની કે વિશ્રામ કરવાની જગ્યા તે મેળવી શકી નહિ, અને છેવટે ફાટેલા જૂના વસ્ત્રોના કકડાને વીંટાળીને ભિક્ષાના માટે માટીનુ ખપ્પર અને પાણીના માટે ફટી માટલીના કકડાને હાથમાં લઈને પેટ ભરવા માટે આમતેમ એક ઘેરથી બીજે ઘેર ભમવા લાગી તેના માથાના વાળે આમ તેમ અસ્ત વ્યસ્ત રહેતા હતા, શરીર અને વસ્ત્રો વગેરે મેલા હોવાને લીધે માખીઓના ટેળેટેળા તેની પાછળ પાછળ ભમતા રહેતા હતા
(तएण तीसे नागसिरीए माहणीए तम्भवसि चेर सोलसरोयायंका पार अध्या-त जहा सासे कासे जोणिस्ले, जाव कोढे तएण सा
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतषिणी टीका १० १६ धर्म रुच्यनगारचरितवर्णनम १७५ भगन्दर , (७) अर्शः, (८) योनिशूलम् , (९) दृष्टिशूलम् , (१०) मूर्धशूलम् , (११) अरुचिः, (१२) अक्षिवेदना, (१३) कर्णवेदना, (१४) कण्ड , (१५) जलोदरम् , (१६) कुष्ठम् । ततस्तदनन्तर सा नागश्री ब्रामणी पोडशभी रोगातकरभिभूतासती आतंदुःखावशा शारीरिकमानसिकदुःखनुक्ता कालमासे कालं कृत्वा पठया पृथिव्याम् 'उकोसेण ' उत्कृष्टता, द्वाविंशति सागरोपमस्थितिकेपु नर केषु-नरकावासेपु नारकत्वेन उपपन्ना-उत्पन्ना ॥ सू०५ ।।
मूलम्-सा णं तओऽणतरंसि उव्वद्वित्तामच्छेसु उववन्ना, तत्थ णं सस्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोसाए तेत्तीस सागरोवमट्टिई एसु
नेरइएसु उववन्ना, सा णं ततोऽणंतरं उबठित्ता दोच्चपि कोढे तएण सा नागसिरी मारिणी, सोलसहिं रोयायकेहिं अभिभूया समाणी अदुहवसहा कालमासे काल किच्चा छडीए पुढवीए उक्कोसे ण यावीससागरोवमहिइएप्सु नरएसु नेरइयत्ताए उघवन्ना) उस नागश्री बाह्मणी को उसी भव में ये सोलह रोगातक प्रकट हो गये-(१) श्वास (२) कास (३) ज्वर (४) दाह (५) कुक्षिशल (६) भगन्दर (७) अर्श (८) योनिशूल (९) दृष्टिशल (१०) मूर्धशूल (११) अरूचि (१२) अक्षिवदना (१३) कर्णवेदना (१४) कण्डू (१५) जलोदर (१६) कुछ । इन १६ सालहरोगातंको से अत्यन्त दुःखित हुई-शारीरिक एव मानसिक व्य थाओं से व्यथित ई-वह नागश्री काल अवसर कारकर छठी पृथिवी में २२ सागर की उत्कृष्ट स्थितिवाले नरकावासों नरयिक को पर्यायसेमें उत्पन्न हुई। सू० ५॥ सोलसहि रोयायकेहि अभिभूया समाणी अट दुइझमहा कालमासे काल किच्चा छटोए पुढवीए उक्कोसेण वावीससागरोवमहिइएसु नेरइयत्ताए उवचना)
તે નાગશ્રી બ્રાહણને તેજ ભવમાં આ સેળ રોગાતકો પ્રકટ થયા (1) वास (२) अस (3) ४५२ (४) हाड (५) क्षित () MIR (७) मथ (८) योनिस (6) १ (१०) भूधशूल (11) 24३थि (१२) અક્ષિદના (૧૩) વેદના (૧૪) કરડૂ (૧૫) જલોદર (૧૬) કુક આ સોળ ગાકેથી અતીવ દુખી થયેલી શારીરિક તેમજ માનસિક વ્યથાઓથી વ્યથિત થતી તે નાગશ્રી કાળ અવસરે કાળ કરીને છઠ્ઠી પૃથિવીમા બાવીસ સાગરની ઉલ્દક સ્થિતિવાળા નરકાવામાં રિયિકની પર્યાયથી જન્મ પામી ! સૂ ૫
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
___पालामा मच्छेसु उववजाइ, तत्थ दियण सत्यनिमा दाहयातीप दोच्चंपि अहे सत्तमी पुटपीप उक्कोस तेजीसमागरोवमट्रिईएसु नेरहामु उमरजई, साणं तओस्तिो जाव उन्वद्वित्ता तच्चपि मन्छेसु उन्ना तस्य पिय णं सत्ययज्झा जाव काल फिच्चा दोन्चपि छट्ठीप पुढवो उस्कोमेणं० तओऽणंतर उन्नहित्ता मच्छेसु उरगमु पव जहा गोसाले तहानेयव्व जाव रयणप्पभाओ सत्तसु उनवन्ना तओ उज्व. द्वित्ता जाई इमाइ राहयर रिहाणाइ जाव अदुत्तरं च णं खर बायर पुढविकाइ यत्ताते तेसु अणेगसतसम्स खुत्तो ॥सू०६॥
टीका-'साण' त्यादि।सा-नागो ग्रामगी पलु तव पठया पृथिव्या अनन्तरम् आयुर्मपस्थितिक्षये गति ' उव्यट्टित्ता' उदय-निम्मत्य मत्स्येपूपमा, वन खलु मत्स्यभवे सा 'सत्यमा' शस्त्रविद्धा 'दाहवाकनीए' दाइव्युत्ता न्या-दाहोत्पत्त्या, काठमामे कामयाऽघ मातम्या प्रदिव्योमुत्कटतस्त्रयस्त्रिश सागरोपमस्थिति केभु' नेहपुनरयिकेपु उत्पन्ना । सा सल तत'-सप्तम्या: पृथिव्याः अन तरमुवयं द्वितीयवारमपि मत्स्येयूत्पयने । तनापि च खलु शख
'सा ण तओ' इत्यादि।
टीकार्थ-(सा) वह नागी (तोऽणतरसि) उस उट्ठी नरककी भन्न स्थिति समाप्त होने पर ( उपद्वित्ता ) वहा से निकली-और निकलकर ( मच्छेतु उववन्ना तत्थण सत्यवमा दावश्कतीए कालमासे काल फिच्चा अहे सत्तमीए पुढवी उकोसा तेनीस सागरोबमहिइण्ड नेरइएसु उववन्ना, सा ण ततोऽणतर उपद्वित्ता दोच्चपि मन्छेमु उवव
‘सा ण तओ' इत्यादि
सार्थ-(सा) ते नमश्री (ओत्तरसि) a sी न२४ी लपश्थिात पूरी या ा ( उअद्वित्ता ) त्याशी नीजी अने नागीन
(मच्छेसु उयवना रात्थ ण सत्याज्झा दाह वकतोए कालमासे काल किच्चा अहे सत्तमीए पुढवीए उक्शेगाए तत्तीस मागरोनमहिइए नेरहएसु उववभा साण उपवजह)
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
%3
___नारामृतदिनोटी०४० १६ घमरच्यनगारचरितवर्णनम् १७७ विद्धा दाव्युत्क्रान्स्या द्वितीयवारमपि अधः सप्तम्या पृथिव्यामुत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सा. गरोपमस्थितिकेपु नैरयिकेपूपपद्यते, सा खलु ' तओहितो' तस्याः सप्तम्या: पृथिव्याः, यावद् उद्वर्त्य ' तच्चपि' तृतीयवारमपि मत्स्येषु उत्पन्ना । तत्रापि च सलु शस्त्रविद्धा 'जाव काल किन्चा' यापत् दाहव्युत्क्रान्त्या कालमासे काल कृत्या द्वितीयवारमपि पप्ठ्या पृथिव्यामुत्कृष्टतो द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु नरके पुत्पन्ना, सा सलु तत =पप्ठयाः पृथिव्या अनन्तर ' उवहिता' उद्वर्त्य - निस्सृत्य उर:परिसर्पपृत्पन्नाः, तत्र शवन्या दाहव्युत्क्रान्त्यामुत्कृष्टतः सप्तदशसागरोपमस्थितिकेपृत्पन्ना । एव यथा गोशरलकस्तथा ज्ञातव्यम्-गोशालकनदस्याज्जई) तिर्यश्चगति में मच्छ की पर्याय से उत्पन्न हो गई । वहां वह मत्स्य के भव में शस्त्र से विदा होकर दाह की उत्पत्ति से काल अवसर काल कर मरी सो नीचे सप्तम नरक में ३३ तेतीस सागर की उत्कृष्ट स्थितिवाले नरकावास में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। वहां से निकलकर फिर वह मत्स्य की पर्याय से उत्पन्न हुई। (तत्व वि य णं सत्यविज्झादारवक्कतीरा दोच्चपि अहे सत्तमीए पु०) वहां वह शस्त्र से पुनः विद्ध होकर दाहकी व्युत्क्रान्ति से मरी और मरकर वित्तीयवार भी सप्तम नरक में ( उक्कोम तेतीससागरोवमट्टिइण्सु नेग्इए उवव ज्जइ ) उत्कृष्ट-तेतीस सागर की स्थिति लेकर नैरयिक की पर्याय में उत्पन्न हुई। (सा ण तओ हिं तो जाव उववद्वित्ता तच्चपि मच्छेसु उव. पना, तत्थ वि य णं सत्वज्झा जाव कालं किच्चा दोच्चपि उट्टीए पुढघोरा उक्कोसे ण तओऽणतर उवहित्ता मच्छेसु उरएसु एव जहा गोसाले
તિ ચ ગતિમા મરછથી પર્યાયની જન્મ પામી ત્યા તે મત્સ્યના ભાવમાં શસ્ત્ર વડે વી ધાઈને દાહથી પીડાઈને કાળ અવસરે કાળ કરીને મરણ પામી અને નીચે સાતમા નરકમાં ૩૩ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ નિથતિવાળા નરકાવાસમાં નૈરયિકની પર્યાયથી જન્મ પામી ત્યાથી નીકળીને ફરી તે મત્સ્યના પર્યાયથી જન્મ પામી (तस्थ वि य ण सत्थविज्झा दाहवक्कतीए दोच्चपि अहे सत्तमीए पु०) ત્યા તે ફરી શસ્ત્ર વડે વિદ્ધ થઈને દાહથી પીડાઈને મરી અને મારીને बी० मत पशु सतमा न२४मा ( उक्कोस तेतीमसागरोवमद्विइएसु नेरइए उव. पज्जइ) ४ 33 सागरनी स्थिति बन ने.विनी पर्यायमा भ पाभी (सा ण तोहिं तो जार उव्यद्वित्ता तच्चपि मच्छेसु उपवना, तत्व विय गं संस्थवज्झा जाय काल रिच्चा दोन्चपि छडीए पुढनीए उक्कोसेण तमोऽणंवर
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
-
-
धर्णनं पोध्यमित्यर्यः, 'गारयणपगाए गए सामा' पारद रत्नममायां सम सूत्पन्ना-अयं मार-उर परिसर्पयो नि यत्य पयायो धमपभाया पृथिया मुस्कृष्टतः सप्तदशसागरोपमस्थितिकेपुनरपिकवल्पमा, तो नि मृत्य द्वितीय पारमुर परिसपत्पपते, तप्रापि पूचित् काले कला द्वितीय परमपि पनन्या पृषि संहा नेयव्ध जाव रयणपभाभो सत्तसु उचया, तो उपद्विशा आइ ईमाइ खटायर विहाणा जार अदुत्तर पण परवापर पुचिकाइयत्ता ते तेसु अणेगसतसारस्त खुत्तो) वहां से भर स्थिति ममाप्त होते ही यह निकली-निफल फर तीसरी पार भी मत्स्य की पर्याय में उत्पन हुई । वहां शस्त्र विद्ध होकर दाह फी ज्युकान्ति से मरी मो मर कर दुयारा भी छठी ही पृथिवी में २२ पावीम सागर की उत्कृष्ट स्थिति से कर उत्पन्न हुई । वहाँ की भवस्थिति समाप्त कर जय वह वहां से निकली तो उर परिसर्प की पर्याय में उत्पन्न हुई। वहां पर भी वह शस्त्र विद्ध होकर दाह की व्युत्क्रान्ति से-उत्पत्ति से काल अवसर काल कर धूमप्रभा नाम की पचम पृथिवी में नैरयिक की पर्याय से उत्पन हुई । वहा सत्तरह सागर की उत्कृष्ट-स्थिति इसकी हुई। गोशालक की तरह इसका वर्णन जानना चाहिये। तात्पर्य इसका इस प्रकार है१७ सागर की उत्कृष्ठस्थिति वाले पचम नरक से निकल द्वितीय बार भी वह उरः परिसर्प की पर्याय से उत्पन्न हुई। वहा से पूर्व की तरह उन्वद्वित्ता मच्छेसु उरएसु एत्र जहा गोसाले तहा नेयञ्च जाव रयणप्प भाओ सत्तसु उववन्ना, तो उव्वद्वित्ता जाइ इमाइ खयरविहाणाड जाव अदुत्तर, च ण खरवायरपुढविकाइयत्ता ते तेस अणेगसतसहस्सखुत्तो) ત્યાની ભાવસ્થિતિ પૂરી થતા જ તે ત્યાંથી નીકળી અને નીકળીને ત્રીજી વાર પણું માછલીના પર્યાયમાં જન્મ પામી ત્યા શસ્ત્રથી વી બાઈને તથા દાહથી પીડાઈને મરણ પામી અને તે વખતે પણ છઠી પૃથિવીમા ૨૨ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ લઈને ઉત્પન્ન થઈ ત્યાની ભવસ્થિતિ પૂરી કરીને જ્યારે તે ત્યાંથી નીકળી ત્યારે તે ઉર પરિસર્ષના પર્યાયમા જન્મ પામી ત્યા પણ તે શસ્ત્રથી વી ધાઈને અને દાહથી પડાઈને કાળ અવસરે કાળ કરીને ધૂમપ્રભા નામની પચમ પૃથિવીમા નૈરયિકના પર્યાયથી જન્મ પામી ત્યા ૧૭ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ તેની થઈ ગોશાલકની જેમ આનું વર્ણન જાણી લેવું જોઈએ મતલબ આની આ છે કે ૧૭ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા પચમ નરકથી નીકળીને બીજી વખત પણ તે ઉર પરિસર્પના પર્યાયથી જન્મ પામી ત્યાથી પણ પહે લાની જેમજ કાળ અવસરે કાળ કરીને બીજીવાર પણ આ, પથિવીમા
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवर्पिणी टीका अ० १६ धर्म गच्यनगारचरिसवर्णनम् व्यामुत्कृष्टनः मतदशसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेपूत्पन्ना । ततो नि स्मृत्य तृतीयारमपि उरः मतिसर्यपृत्पद्यते, अत्र पूर्ववत् कालं कृत्वा चतुया पङ्कप्रभायां पृथिव्यामुत्कृष्टतो - दशसागरोपमस्थितिकैपु नैरयिकेपूत्पन्ना, ततो निःसृत्य सिंहपू.पवते,गनापि पूर्ववत् कालं कृत्वा द्वितीयवारमपि चतुर्था पृथिव्यामुत्कृष्टतो दरामागरोपमस्थितिकेपु नैरयिकेपूत्पन्ना। ततश्चताः पृथिव्या निःसृत्य द्विती. यतारमपि रिहेपुत्पद्यते, तत्र पूर्ववत् काल कृत्ला तृतीयाया बाहुप्रमाया प्रधि व्यामुत्कृष्टत सप्तमागरोपमस्थितिकेपु नैरयिके पूत्पन्ना, ततो निः सृत्य पक्षि पूत्पद्यते, वन पूर्ववत् काल कृत्वा द्वितीयवारमपि तृतीयाया पृथिव्यामुस्कृष्टतः काल कर द्वितीयवार भी यह पचम पृथिवी मे १७ सागर की उत्कृष्ट स्थितिवाले नरकों में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। वहां की स्थिति समाप्त कर जर यह वहां से निकली-तो तीसरी बार भी यह उरः परिसपों में उत्पन्न हुई । वहाँ से पूर्व की तरह काल कर चौथी पक प्रभा पृथिवी में कि जहा १० सागर की नरयिको की उत्कृष्ट स्थिति है वर्श नैरयिक की पर्याय से उत्पस्न हुई। वहा से निकल कर यह सिंह की पर्याय में उत्पन्न हुई । पहिले की तरह वहा से भी मर कर दितीय बार भी यह चतुर्थ नरक में दश सागर की स्थिति वाले नरक में नैरपिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। चतुर्थ नरक से निकल कर यह दुवोरा भी सिंह को पर्याय से उत्पन्न हुई। वहां से अपने समय पर मर कर फिर यह चालका प्रभा नाम की तीसरी पृथिवी में सात सागर की उत्कृष्ट स्थिति लेकर नैयरिक की पर्याय में उत्पन्न हुई। वहां से निकल कर फिर यह पक्षियों के कुल मे उत्पन्न हुई । यहा से मर कर ૧૦ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા નરમા નિરયિકના પર્યાયથી જન્મ પામી ત્યાની સ્થિતિ પૂરી કરીને જ્યારે તે ત્યાથી નીકળી તે ત્રીજી વાર પણ તે ઉર પરિસર્ષમાં ઉત્પન્ન થઈ ત્યાથી પહેલાની જેમ કાળ કરીને ચોથી પક પ્રભા પૃથિવીમા-કે જ્યાં દશસાગરની નિરયિની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છે, ત્યા નૈર યિકની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ, ત્યાથી નીકળીને તે સિંહના પર્યાયથી જન્મ પામી પહેલાની જેમ ત્યાથી પણ મરણ પામીને બીજીવાર પણ ચતુર્થી નરકમા દશ સાગરની સ્થિતિવાળા નરકમાં રયિકના પર્યાયથી જન્મ પામી ચતુર્થ નથી નીકળીને તે ફરી સિંહના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ ત્યાથી મરણ પામીને ફરી તે વાલુકાપ્રભા નામની ત્રીજી પૃથિવીમા સાત સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ લઈને જોર યિકની પર્યાયમા જન્મ પામી, ત્યાથી નીકળીને તે ફરી તે પક્ષીઓના કુળમાં
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८०
wmaware
सप्तसागरोपमस्थितिकेषु नेरपिन्ना । ततस्वनीयायाः पृथिव्यानि मृत्य द्वितीयामपि पक्षियते, तत्रापि पूर्वा द्वितीयाया पृथिव्यां शर्करम गायामुत्कृष्टत ख्रिसागरोपमस्थितिकेषु नैरथिरे पूत्पन्ना । ततो निस्सृत्य सरीपेत्पद्यते, तत्रापि शम्रभ्यादान्या कामासे काल कला द्वितीयवारमपि द्वितीयायां पृथिव्याकृष्टतखिगागरोपमस्थितिकेषु नैरथिकेपूत्पन्ना | वो द्वितीयायाः पृथिव्याः नि सत्य द्वितीयामपि सद्यते, तत्रापि पूर्ववत् फाल कृत्वा मथमाया पृथिव्या ग्लभाषाशुकृष्टत एकमागरोपमस्थितिकेषु नरयिकेपूत्पन्ना, ततो निः ग्रत्य तिषु ततो निः सत्यासत्यते, ततो निः फिर यह पुनः तीसरे नरक में सात सागर की उत्कृष्ट स्थिति वाले र यिकों में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई । यहा से निकल कर पुनः यह पक्षियो के फुल में उत्पन्न हुई। यहां से मर कर फिर यह दूसरी पृथिवी जो शर्करा प्रभा है और जिसके नरकावासों में तीन सागर की उत्कृष्ट स्थिति है वहां नैरयिको की पर्याय से उतनी स्थिति लेकर उ स्पन्न हुई। वह से निकल कर सरीसृपों में यह दाह की व्युत्क्रान्ति से मरी तो मर कर द्वितीय बार भी द्वितीय पृथिवी के नरकावासों में तीन सागर की उत्कृष्ट स्थिति लेकर उत्पन्न हुई । द्वितीय पृथिवी से निकल कर दुबारा यह सरीसृप में उत्पन्न हुई । वहा से अपने समय पर मर कर रत्नप्रभा नामकी प्रथम पृथिवी में उत्कृष्ट एक सागर की स्थिति वाले नरकावासों में नैरधिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। जहां की भवस्थिति समाप्त होने पर यह वहा से निकलकर सजी जीवो में वहां
જન્મ પાર્મી ત્યાથી મરણ પામીને ફરી તે ત્રીજા નરકમા સાત સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા નૈરયિકામા નૈરિયનના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ ત્યાથી નીક ળીને કરી તે પક્ષીઓના કુળમા ઉત્પન્ન થઈ ત્યાથી મરણુ પામીને ફરી તે ખીછ પૃથિવી જે શર્કરામભા છે અને જેના નરકાવાસામા ત્રણ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છે ત્યા નૈરયિકાના પર્યાયથી તેટલી જ સ્થિતિ લઈને જન્મ પામી ત્યાથી નીકળીને સરીસૃપામા તે ઉત્પન્ન થઈ ત્યા શસ્ત્રથી વી ધાઈને તથા દાહથી પીડાઈને મરણુ પામી અને ત્યારપછી ખીજીવાર પણ શ્રીજી પૃથિવીના નરકા વાસેમા ત્રણ સાગર જેટલી ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ લઈને ઉત્પન્ન થઈ બીજી પૃથ્વિથી નીકળીને ખીજીવાર તે સરીસૃપમા ઉત્પન્ન થઈ ત્યાથી યથા સમય મરણ પામીને રત્નપ્રભા નામની પ્રથમ પૃથ્વિમા ઉત્કૃષ્ટ એક સાગરની સ્થિતિવાળા નરકા વાસામા જૈયિકના પર્યાયતી ઉત્પન્ન થઈ ત્યાની ભવસ્થિતિ પૂરી કરીને તે ત્યાથી નીકળીને સુશી-વામા, ત્યાથી પણ મરણુ પામીને
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
सगरमामृतपिणो टीका २० १६ धर्मरुधनगारचरितवर्णनम् १८५ सृत्य द्वितीयमारमपि प्रथमाया पृथिव्या पल्योपमस्याऽसर येयभागस्थितिकेषु नैरयिकेपु नैरयिकतयोत्पन्ना' इति । . 'तओ उपष्टित्ता' तत उद्वयं-रत्नप्रभातो निः सृत्य यानि इमानि 'खहयररिहाणाइ ' खचरविधानानि चर्मपक्ष्यादीनि भवन्ति तेषु, यावत् जयोत्तर च खलु यानीमानि खरवादरपृथिवी कायिकरिधानानि तेषु खरसादरपृथिवीमायिकतयाऽनेकशतसहस्रकृत्वः समुत्पन्ना ।। सू०६ ॥
मूलम्-सा णं तओऽणंतरं उबट्टित्ता इहेब जंबूदोवे दीवे भारहेवासे चंपाए नयरीए सागरदत्तस्ल सत्थवाहस्स भहाए भारियाए कुच्छिसि दारियत्ताए पच्चायाया तएणं सा भद्दा सस्थवाही णवण्हं मासाणं० दारियं पयाया सुकुमालकोमलिय गयतालुयससाण, तीसे दारियाए निव्वत्तवारसाहियाए अम्मापियरो इमं एयारूवं गोन्न गुणनिप्फन्न नामधेनं काति-जम्हा णं अम्हं एसा दारिया सुकुमाला गयतालुयसमाणा त होउणं अम्हें इमीसे दारियाए नामधेज्जे सुकुमालिया, तएण तीसे दारियाए अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति सूमालियत्ति, तएणं सा सूमालिया दारिया पंचधाई परिग्गहिया तं जहा-खीरधाईए से भी मर कर असजी जीवों मे और फिर वहा से मर कर फिर दुधारा भी प्रथम प्रथिवी में १ एक पल्य के असख्यात वे भाग प्रमाण स्थितिवाले नरकावासों में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई । उस रत्न ममा पृथिवी से निकल कर फिर यह जितने ये पक्षिभेद हैं-चर्म पक्षी आदि हैं-उनमें और उनके बाद जो ये सर-बादर-पृथिवीकायादि भेद है उनमें खरथादर पृथिवीकायिकरूपसे लाखों वार उत्पन्न हुई ।।सू०६॥ અને ફરી ત્યાથી મરણ પામીને બીજીવાર પણ પહેલી પૃવિમાં ૧ એક પલ્યના અસ ખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ સ્થિતિવાળા નરકાવાસમાં નરયિકના પર્યાયથી જન્મ પામી તે રત્નપ્રભા પૃથ્વિથી નીકળીને ફરી તે જેટલા પક્ષી ભેદ છેચર્મ પક્ષી વગેરે છે તેમાં અને ત્યારપછી ખર-બાદર પૃથ્વિીકાય વગેરે ભેદ છે તેમાં ખર-આદર પ્રકિાયિકના રૂપમાં લખે વાર જન્મ પામી જૂ, ૬
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृत पिणो टी० ० १६ धर्मध्यगारचरित निरूपणम्
Res
(
' पयाया' प्रजाता = मजनितवती, किं भूता दारिकामित्याह - 'सुकुमालकोम लिय ' सुकुमारकोमलाम्- अविमृदुलम् गजतालुकसमाना अगस्यातिकोमलतया गंजतातुल्यामित्यर्थः । तस्या दारिकाया 'निव्यसवारसाहियाए ' नि चद्वादशा दिकाः सम्प्राप्तद्वादशदिनसाया. अम्नापितरौ मातापितरौ इदमेतद्रूप 'गोणं' गौणं गुणेभ्य आगत = प्राप्त गुण निप्पन्न = गुणबोधकं नामधेय कुरुतः कर्त्तुं विचारयतः तथाहि यस्मात् खलु अस्माकमेपा दारिका सुकुमारा गजतालुकसमाना जाता, तद् = तस्मात् भवतु खलु अस्माकमस्या दारिकाया नामधेयं ' सुकुमारिका ' इति । ततः विचारकरणानन्वर खलु तस्या दारिकाया अम्मपितरौ नामधेय कुरुतः 'सुकुमारिका' इति । तज खलु सा सुकुमारिका दारिका पञ्चधानीपरिगृहीतापञ्चसंख्यकाभि र्घात्रीभिः= उपमातृभिः सुरक्षिता जाता, तद् यथा=तासा पञ्चानां धानीणा नामानि दर्शयति ' खीरधाईए जान गिरकदर ' इति । क्षीरधात्र्या स्तन्यवाहिके गर्भ के नौ मास तथा साढे सात दिन रात पूर्णरूप से व्यतीत हो चुके तय उसने पुत्रीको जन्म दिया । यह पुत्री अत्यन्त कोमल अगबाली थी इसी लिये गजका तालु भोग जिस प्रकार मृदुल होता है यह वैसी ही कोमल थी । जब यह १२ घारह दिन की हो चुकी-तप इस के मातापिताने इसका 'यथा नाम तथा गुण' इस कहावत के अनुसार गुणों को लेकर नाम सस्कार करने का विचार किया । विचार करने के बाद उन्होंने इस ख्याल से कि यह हमारी पुत्री अत्यन्त सुकुमार और गज तालुका के जैसी मृदुल है अतः इसका नाम सुकुमारिका रहे (तएण तीसे दारियाए अम्मा पियरो नामधेज्ज करेति समालियत्ति ) उस कन्या का नाम सुकुमारिका रख दिया (तएण सा सुकुमारियदारिया
ભદ્રા સાથૅવાહીના ગર્ભના નવ માસ અને સાઢા સાત દિવસ રાત પૂરા થઇ ચૂકયા ત્યારે તેણે પુત્રીને જન્મ આપ્યા આ પુત્રી અતીવ મળાગી હતી હાથીના તાળવાના ભાગ જેવા સુકેમળ હાય છે, તે તેવીજ કામળ હતી જ્યારે તે બાર દિવસની થઈ ગઈ ત્યારે તેના માતાપિતાએ જેવું નામ તેવા ગુણવાળી એ કહેવત મુજબ ગુણ્ણાના આધારે તેના નામ સસ્કાર કરવાને વિચાર કર્યાં વિચાર કર્યા બાદ તેએએ પેાતાની પુત્રીની સુકેામળ દૃષ્ટિ સમક્ષ રાખીને એટલે કે તેઓએ આ પ્રમાણે વિચારીને કે આ મારી પુત્રી હાથીના તાળવા જેવી સુકામળ છે માટે એનુ નામ સુકુમારી રાખીએ
(तएण तीसे दारियाए अम्मानियरो नामधेज्ज करेंति समालियति ) તે કન્યાનુ નામ સુકુમારી રાખ્યુ
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२
Brekene
जात्र गिरिकंदरमालीणा इन पपकल्या निव्वाण निव्वाघायंसि जाय परिवइ, तपणं मा सूमालिया दारिया उम्मुधचालभाषा जाव रुवेण य जोवणेण य लावण्णेण य उक्किट्टा उक्कड सरीरा जाया यावि हत्था || सू० ७ ॥
टीका- ' सा ण तओ ' इत्यादि । साप नागश्री. वतन तरम् उद्वर्त्य जम्बूद्वीपे दीपे भारते वर्षे चम्पाया नगर्थी सागरदत्तस्य सार्थवादस्य भद्राया भार्यायाः कुक्षौ ' पचायाया ' प्रत्यायाता गर्भसमागता । ततः ख मा महा सार्थवाही नवसु मासेषु बहुमतिपूर्वेणु अष्टमेषु रात्रिन्दिवेषु व्यतिक्रान्तेषु सत्सु दारिको
1 साण तओतर' इत्यादि ।
टोकार्थ - (सा ण तओsणतर उचट्टित्ता) इसके बाद वह नागश्री खर पृथ्वी कायिका से निकल कर ( इहेब जनदीवे दोघे भारहे वासे चपाए नयरीए सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स भद्दाए भारिया कुच्छिसिदारित्ताए प्रच्चायाया ) इसी जबूदीप नाम के द्वीप में स्थित भारतवर्ष नामके क्षेत्र में वर्तमान चपानगरी में सागरदत्त सेठ की धर्मपत्नी- भद्रा की कुक्षि में पुत्रीरूप से अवतरी (तएण सा भद्दा सत्यवाही नवग्रह मासाण दारिय पयासा सुकुमालकोमलिय गयनालुयसमाण तीसे दारियाए निव्वन्त वारिसाहियाए अम्मापियरो हम एयारूव गोन्नं गुणनिष्पन्न नाम घेज्ज करेति, जम्हाण अम्ह एसा दारिया सुकुमाला गयतालुय समाणा त होउण अम्ह इमीले दारियाए नामधेज्जे सुकुमालिया ) भद्रा सार्थ
'सा ण तओऽनंतर उवट्टित्ता' इत्यादि -
अर्थ - (साण तओऽणतर उबद्वित्ता) त्यारपछी ते नागश्री भर पृथ्विा विस्थी नीणीने (इहेत्र जबूद्दीवे दीवे भारहे वासे चपाए नयरीए सागरद तस सत्थवाहरू भद्दाए भारियाए कुच्छिसि दारिया पच्चायाया ) એ જ જ મૂઠ્ઠીપ નામના દ્વીપમા આવેલા ભારતવર્ષ નામના ક્ષેત્રમા વિધનાન ચ પાનગરીમા સાગરદત્ત શેઠની ધમ પત્ની ભદ્રાના ઉદરમા પુત્રી રૂપમા અવતરી (तएण सा भद्दा सत्यवाही नवन्द मासाण० दारिय पयाया सुकुमालकोम लिय गयतालयसमाण तीसे दारियाए निव्वत्तवारिसाहियाए अम्मापियरो इमे एयारूव गोन्न गुणनिफन्न - नामधेज्ज करेंति, जम्हाण अम्ह एसा दारिया - माला गयतालुयसमाणा'त होउण अम्द इमी से दारियाए
A
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
मगारधर्मामृतवर्षिणी टी० म०_१६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् .. भवई तो णं अहं सागरस्स दारगस्स सूमालियं दलयामितएणं से जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरदारगं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-एवं खल पुत्ता | सागरदत्ते सत्थवाहे मम एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया । सूमालिया | दारिया मम एगा एगजाया इट्टा त चेव तं जइ ण सागरदारए मम घरजामाउए भवइ ता दलेयामि, तएण से सागरए दारए जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए, तएण जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाई सोहणसि तिहिकरणदिवसणखत्तमुहत्तसि विउले असंणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावित्ता मित्तणाइ० आमतेइ जाव सम्माणित्ती सागरं दारगं पहायं जाव सव्वालंकारविभूसिय करेइ, करिती पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता मित्तणाइ जाव सपरिवुडे सव्विड्डीए साओ गिहाओ निग्गच्छद, निग्गच्छित्ता चंपानयरि मझमझेण जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहावेइ, पच्चोरुहावित्ता सागरगं दारगं सागरदत्तस्त सत्थ० उवणेइ, तर्पण सौंगरदत्ते सत्थवाहे विपुल असणपाणखाइमसाइम उवक्खडावेइ उवक्खडवित्ता जाव संम्माणेत्ता सागरगं दारंग सूमालियाए दारियाए सद्धिं पट्टय दुरूहावेइ दुरूहावित्ता सेयापीएहि कलसेहिं मज्जावेइ मज्जावित्ता अग्गिहोम करावेइ करोवित्ता सागर दारयं सूमालियाए दारियाएं पाणिं गिण्हावेइ ॥ सू०८॥
AAP
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
से ?, तएणं ते कोडुबियपुरिसा जिणदत्तेण सत्यवाहेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट करयल जाव एवं वयासी-एस णं देवाणुप्रिया ! सागरदत्तस्स सत्यवाहस्त धृया भदाय अत्तया सूमा लिया नाम दारिया सुकुमालपाणिपाया जाव उक्किट्ठसरीरा ताणं से जिणदत्ते सत्थवाहे तेर्सि कोडुपियाण अंतिए एयमद सोच्चा जणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता हाप जाव मित्चनाइ परिखुडे पाए. जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेष उवागच्छइ, तएणं सागरदत्ते सत्यवाहे जिणदत्तं सस्थवाई एजमाणं पासइ पासित्ता आसणाओ अभुट्टेइ अब्भुद्वित्ता आसणेणं उवणिमतेइ उवणिमंतित्ता आसत्थं वीसत्थं सुहासणवरगयं एवं वयासी-भण देवाणुप्पिया | किमागमाणपओयण १, तएण से जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तं सस्थवाहं एवं वयासी-एव खल्ल अह देवाणुप्पिया । तव धूर्य भदाए अत्तियं सूमालिय सागरस्स भारियत्ताए वरेमि, जइ ण जाणाह देवाणुप्पिया । जुत्तं वा पत्त वा सलाहणिजं वासरिसो वा संजोगो दिजउण सूमालिया सागरस्स, तएणं देवाणुप्पिया कि दलयामो सुक्क सुमालियाए?, तएण से सागरदत्ते त जिणदत्त एव वयासी-एव खलु देवाणुप्पिया सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इटा जाव किमग पुण पासणयाए त नो खल्लु अह इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं तजइण देवाणुप्पिया! सागरदारए मम घरजामाउए
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
गरिममितवर्षिणी टी० म०_१३ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् _____ भवइ तो णं अहं सागरस्स दारगस्स सूमालियं दलयामितएण से जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवोगच्छित्तो सांगरदारगं सहावेइ सदावित्ता एवं वयासी-एवं खल्ल पुत्ता । सागरदत्ते सत्थवाहे मम एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया। सूमालिया । दारिया मम एगा एगजाया इट्ठा तं चैव त जइ णं सागरदारए मम घरजामाउए भवइ ता दलयामि, तणं से सागरए दारए जिणदत्तेणं सस्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणोए, तएण जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाई सोहणसि तिहिकरणदिवसणखत्तमुहुत्तसि विउले अर्सगपाणखाइमसाइम उवक्खडावित्ता मित्तणाइ० आमंतेइ जाव सम्माणित्ता सागरं दारगं पहायं जाव सव्वालंकारविभूसिय करेइ, करिती पुरिससहस्तवाहिणि सीयं दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता मित्तणाइ जाव सपरिवुडे सठिवड्डीए साओ गिहाओ निग्गच्छद, निग्गच्छित्ता चंपानयरि मझमझेणं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोहावेइ, पच्चोरुहावित्ता सागरगं दारगं सागरदत्तस्स सस्थ० उवणेइ, तर्पण सीगरदत्ते सत्थवाहे विपुलं असणपाणखाइमसाइम उवक्खडा. वेई उबक्खडवित्ता जाव सम्माणेत्ता साँगरगं दारंगें सूमालियांए दारियाए सद्धि पट्टय दुरूहावेइ दुरूहावित्ता सेयापीएहि कलसेहिं मज्जावेइ मज्जावित्ता अग्गिहोम करावेइ करावित्ता सागर दारयं ममालियाए दारियाए पाणिं गिण्हावे ॥ सू०८॥
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
१६४
Rame टीका-'तत्य ण चपाप' म्यादिना गउ गम्पायां नगा मिनतो नाम सार्थ राह आयो गापद अपरिगत भागीन् । तस्य जिनदनस्य महा माया भासोत्-मा फिम्भूता-समारा या गाठ मानुपान् पचणुभवमाणा' मत्यनुभयन्ती विहरति । तस्य सजिनदरम्य प्रभो भटाया मायाया आमना
आजातः, सागरो नाम दारकः आगीत् स किंम्भूतः-हमारपाणिपादः, सबै लक्षगसम्पन्न यावन्-गुरुपः । तत पल म निनदरामार्थवाहः अयदा कदाचित
'तत्य ण चपाप' इत्पादि ।
टीका-(तत्य णं चपा नगरीए जिणदत्ते नाम सत्यवाहे ओ, तस्स णजिणदत्तस्स भदा भारिया, ममाला हा जान माणुस्सए काम भोए पच्चणुम्भवमाणा बिहरह) उम चपा नगरी में जिनदत्त नामको एक सार्थवाह ररता था जो धनधान्य आदि से विशेष परिपूर्ण एव जन मान्य था। इसकी धर्मपत्नी का नाम भद्राधा । यह माग सुन्दरी थी। समस्त अग और उपाग इसके पडे ही सुकुमार थे। यह अपने पतिको अत्यन्त इष्ट प्रिय थी। पति के साथ मनुष्य भव सम्पधी काम भोगा को भागती हुई यह आनद के साथ अपने समय व्यतीत किया करती थी (तस्स ण जिणदत्तस्त पुते भदाए भारियाए अत्तए सागरए नाम दारए सुकुमाले जाव सुरूवे) भद्रा भार्या से उत्पन्न हुआ जिनदत्त सार्थवाहके एक पुत्र था-जिसका नाम सागर था। यह सुकुमाल यावत्
तत्थण चपाए इत्यादिदार्थ-(तत्थण चपाए नयरीए जिगदत्ते नाम सत्यवाहे अड़े तस्सण जिग दत्तस्स भदा भारिया, समाला इट्ठा जाव माणुस्सए काममोए पच्चणुभवमाणा विहरह) या नगरीमा लत नामे से सावा हेतो तो ते धन ધાન્ય વગેરેથી સવિશેષ સ પન્ન તેમજ સમાજમા પૂછાતે માણસ હતા તેની ધર્મપત્નીનું નામ ભદ્રા હતુ, તે સર્વાગ સુ દરી હતી તેના બધા અંગો અને ઉપાગે બહુ જ સુકેમાળ હતા, તે પિતાના પતિને બહુજ વહાલી હતી પતિની સાથે મનુષ્ય ભવના કામો ભોગવતી તે સુખેથી પિતાને વખત પસાર કરી રહી હતી
(तस्सणं जिणथत्तस्स पुत्ते भदाए भारियाए अत्तए सागरए नाम दारए मुकुमाले जाव सुरूवे)
ભદ્રાભાર્યાથી ઉત્પન્ન થયેલે ભદ્રાભાર્યાને એક પુત્ર હતો તેનું નામ સાગર કન તે સકમાર યાવત મુ દર રૂપવાન હતા,
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ सुफुमारिकाचरितवर्णनम् स्वकाद् गृहात् प्रतिनिष्कामति-निर्गछति, प्रतिनिझम्य, सागदत्तस्य गृहस्य 'अहसामन्ते 'नातिदरे नातिसमीपे 'वीइवया' व्यतिवनति गच्छति, 'इमचण' अस्मिन् समये सुकुमारिका दारिका स्नाता-कृतस्नाना 'चेडियासघपरिपुड़ा' चेटिकासघपरिवृता-दासीसमूहमध्यगता, उपरि नाफाशतलके-प्रासादस्याहालिकोपरि 'कणगतेंदुसकेण' कनकतेंदुससयेन 'तेंदुसय' इतिदेशीशब्दः, सुवर्णमयकन्दुकेन 'कीलमागी २' विहरति, ततः खलु स जिनदत्तः सार्थवाहः मुकुमारिका दारिका पश्यति, दृष्ट्वा सुकुमारिकाया दारिकाया रूपे च यौवने च लावण्ये च 'जार विम्हए' यावत् विस्मिता आश्चर्ययुक्तः सन् कौटुम्निकपुरुपान्= आज्ञाकारिण पुम्पान् शब्दयति, शब्दयिता एवमवादी-एपा स्वल हे देवानुमिया. ! कस्य दारिका किंवा नामधेय ' से ' इति तस्या' ?, ततः खलु ते अच्छे रूपवाला था । (तएणं से जिणदत्ते सत्यवाहे अन्नया कयाई साओ गिहाओ पडिनिक्खमह पडिनिरखमित्ता सागरदत्तस्स गिहस्स अदूर सामतेणं वीईचयई ) एक दिन जिनदत्त सार्थवाह अपने घरसे निकला और निकलकर सागरदत्तके घरके पाम से होकर जा रहा था। (इम च ण सूमालिया दारिया पहाया चेडियासघपरिवुडा उपिआगा सतलगसि कणगतेदसएणं कीलमाणी२ विहरइ । इसी समय सुकुमारिका दारिका नहा धो कर अपने प्रासाद की छत पर दासी समूहके साथ २ सुवर्णमय कदुक (गेंद ) से खेल रही थी। (तपण से जिण दत्ते सत्यवाहे समालिय दारिय पासइ पासित्ता सूमालिया दारियाए ख्वय ३ जाय विम्हए कोडविध पुरिसे सदावेद, सहावित्ता एव वयासी एसण देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया किं वा-नामधेज्ज से ? तण्ण ते ...तएणं से जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया फयाई साओ गिहाओ पडिनिक्खमा पाडानक्वमित्ता सागरदत्तस्स गिहस्स अदरसामतेण वीईवयई)
એક દિવસે જનદત્ત સાર્થવાહ પિતાને ઘેરથી બહાર નીકળે અને નીકળીને સાગરદત્તના ઘરની પાસે થઈને જઈ રહ્યું હતું
(इम च णम्मालिया दारिया व्हाया चेडियासघारिबुडा उपि आगास. तलगसि कणगतेदूसरण कीलमाणी २ विहरह)
તે વખતે સકુમારિકા દારિકા સ્નાન કરીને પિતાના મહેલની અગાશી ઉપર દામી સમૂહની સાથે સુવર્ણમય ક૬૦ (દડી) રમતી હતી
.(तएण से जिणदत्ते सत्यवाहे सूमालिय दारिय पासइ पासित्ता मूमालियाए दारियाए रूवेय ३ जाय विम्हए कोड निय पुरिसे सदावेइ, सहावित्ता एव वयासी सण देवाणप्पिया ! कस्स दारिया किं वा नामधेज्ज से ' तरण ते कोड विय
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
टीका-'तत्य ण चंपास्यामिग मम्मापां नगा मिनायो नाम सार्थ शाह भायो गापद अपरिभूत भागीन् । तस्य जिनदत्तम्य भद्रा मायाँ आमोद-सा फिम्भूता-हमारा गान मानुष्यान् पचणुम्भवमाना' मत्यनुभान्ती विहरति । तस्य गजु जिनदत्तम्य पुत्रो माया मार्गाया आरमाआजातः, सागरो नाम दारकः भागीत् स फिम्मूत:-हमारपागिपाट, सई लक्षगसम्पन्नः यावन्-गुरूपः । तत ग्बल म निनदत्तमायाहः अन्पदा कदाचित
'तत्य णं चपाण' इत्यादि।
टीकार्थ-(तत्य ण चपाए नयरी जिणदत्ते नाम सत्यवाहे अड्डे तस्त णजिणदत्तस्स भहा मारिया, ममाला इट्टा जार माणुस्सा काम भोपच्चणुभवमाणा विहरह) उस चपा नगरी में जिनदत्त नामको एक सार्थवाह रहता था जो धनधान्य आदि से विशेष परिपूर्ण एव जन मान्य था। इसकी धर्मपत्नी का नाम भद्राथा । या मर्वाग सुन्दरी थी। समस्त अग और उपाग इसके पढे ही सुकुमार थे। यर अपने पतिका अत्यन्त इष्ट प्रिय थी। पति के साथ मनुष्य भव सम्बन्धी काम भोगा को भोगती हुई यह आनद के साथ अपने समय व्यतीत किया करती थी (तस्स णं जिणदत्तस्स पुत्ते भदाए भारियाग अत्तर सागरए नाम दारए सुकुमाले जाव सुरूवे) भद्रा भार्या से उत्पन्न हुओ जिनदत्त सार्थवाहके एक पुत्र था-जिसका नाम सागर था। यह सुकुमाल यावत्
तत्यण चपाए इत्यादि
साथ-(तत्थण चंपाए नयरीए जिगदने नाम सत्यवाहे अड़े तस्सण जिग दत्तस्स भद्दा भारिया, सूमाला इट्टा जाव माणुस्सए काममोए पच्चणुन्भवमाणा विहरह) या नगरीमा नहत्त नाम से सायं वा २४ता त धन ધાન્ય વગેરેથી સવિશેષ સ પન્ન તેમજ સમાજમા પૂછાતે માણસ હતું તેની ધર્મપત્નીનું નામ ભદ્રા હતું, તે સર્વાગ સુ દરી હતી તેના બધા અ ગો અને ઉપાશે બહુ જ સુકેમાળ હતા, તે પિતાના પતિને બહુજ વહાલી હતી પતિની સાથે મનુષ્ય ભવના કામભેગો ભગવતી તે સુખેથી પિતાને વખત પસાર કરી રહી હતી
(तस्सणं जिणथत्तस्स पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सागरए नाम दारए मुकुमाले जाव सुरूवे)
ભદ્રાભાર્યાથી ઉત્પન્ન થયેલે ભદ્રાભાર્થીને એક પુત્ર હતું તેનું નામ સાગર હતું તે સુકુમાર યાત્ સુ દર રૂપવાન હતા
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
अमगारधर्मामृतवाणी टी० ० १६ सुफुमारिकाचरितवर्णनम् वाहस्तेषा कौटुम्बिकानामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा यत्रैव स्वक्र गृह तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्नातो यावद् मित्रज्ञातिपरिटतश्चम्पाया नगर्या मध्ये भूत्वा यत्रैव सागरदत्तस्य गृह तत्रयोपागच्छति, ततस्तदनन्तरम् सागरदत्तः सर्थवाह खलु जिनदत्त सार्यवाहम् एजमानम् आगच्छन्त पश्यन्ति, दृष्ट्वाऽऽसनादुत्तिष्ठति, उत्थाय 'आम गेणं उपणिमंतेइ ' आसनेनोपनिमन्त्रयति आसन उपवेशनाथ प्रार्थयति, उपनि मन्न्य, आसनोपर्युपवेशनानन्तरम् ,आस्सस्थ-मार्गश्रमापगमात् श्रान्तिरहित, विस्वस्थ-विशेपतो विश्रान्तिमुपगतं, मुखासनवरगत-सुखेन विशिष्टासनोपविष्ट, ते अतिए एयमह सोच्चा जेणेच सए गिहे तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता यहाए, जाव मित्तणाइपरिघुडे चंपाए जेणेव मागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छा, तएणं सागरदत्ते सस्थवाहे जिणदत्त सत्यवाह एज्जमाणं पासइ, पासित्ता आसणाओ अम्भुइ, अन्भुद्वित्ता आसणेणं उवणिमतेइ उवणिमत्तित्ता आसत्य सुहासणवरगय एव चयासी) जिनदत्त सार्थवाहने उन कौटुम्बिक पुरुपो के मुख से जप इस अर्थ को सुना तो सुनकर वह पहिले अपने घर गया-वहां जा कर उसने स्नान किया। यावत् फिर वह अपने मित्र, जाति आदि परिजनों के साधर चपानगरी के बीच से हो कर जहां सागरदत्त का घर या वहा पहुँचा-सागरदत्तने ज्यों ही अपने घर पर आते हए जिनदत्त सार्यवाहको देखा तो वह जल्दीसे अपने स्थान से उठा-और उठकर " आप यहा पैठिये। इस प्रकार उनसे कहने लगा जब वे यथोचित स्थान पर बैठ चुके और आस्व
(तएण से निणदत्ते सत्यवाहे तेसि कोड वियाण अतिए एयमट्ट सोच्चाजेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, नागच्छित्ता हाए, जाव मित्तणाइ परिखुडे
पाए. जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, तएण सागरदत्ते सत्यवाहे, जिणदत्त सत्थवाह एज्जमाण पासइ, पासित्ता आसणाओ अन्भुटेइ, अम्भुद्वित्ता आसण उवणिमतेइ उवणिमतित्ता आसत्य पीसत्थ सुहासणवरगय एव वयासी)
જનદત્ત સાર્થવાહે તે કૌટુંબિક પુરૂના મુખથી આ વાત સાભળીને સૌ પહેલા તેઓ પિતાને ઘેર ગયા ત્યાં પહોંચીને તેમણે નાન કર્યું યાવત પછી તે પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે પન્જિનોની સાથે ચપા નગરીની વચ્ચે થઈને જ્યાં સાગરદત્તનું ઘર હતું ત્યાં પહોચ્યા સાગર દત્ત જીનદત્ત સાર્થવાહને પિતાને ઘેર આવતા જોઈને ત્વરાથી તે પિતાના આસન ઉપરથી ઊભો થઈ ગયે અને ઊભે થઇને “તમે અહીં બેસે”
maina
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
ho
कोनिका जिनचन सार्वमुक्ताः-अनिमुदिताः 'करे यल जान' करतरपरिगृहीतं घिर आते दानव मस्तकेऽञ्जलि का पत्रमा दिपुः - हे देवानुप्रिया ! एपा सागरदनस्य सार्थशहस्य 'घूया ' दुहिता-पुत्री, भद्राया आत्मना गृहमारिश नाम दारिका शुमारपाणिपादा याद रूपेण च योजनेन च लावण्येन च उत्कृष्ट उत्कष्ट शरीश । ततः खलु स जिनदतः सार्व
कोडविय पुरिमा जिणवत्तेन सत्यवाहेणं एव युत्तासमाणा हट्ट करपल जाव एव वयासी-सर्ण देशणुपिया ! मागरदन्तम्म सत्यवारस्स घ्या भद्दा अतिया समालिया नाम दारिया सुकुमालपाणिपाया जाय उकि सरोरा ) सेटती हुई उस कुमारिका दारिका को जिनदत्त माधवाह मे देखा देखकर वे सुकुमारिका दारिका के रूप यौवन एव लावण्य में आश्चर्यचकित हो गये और आश्चर्य से युक्त होकर उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया - बुलाकर वे उनसे इस प्रकार करने लगे- हे देवानुं प्रियो ! यह कन्या किमकी है इसका नाम क्या है । जिनदत्त सार्थवाह के द्वारा पूछे गये उन कौटुम्बिक पुरुषों ने हर्षित हो कर और अपने दोनों हाथो जोड़ कर बडे विनय के साथ उनसे ऐसा कहा - हे देवानुप्रियं ! यह पुत्री सागरदत्त सार्थवाहकी है । भद्रा भार्या को कुक्षि से यह जन्मी है | इसका नाम सुकुमारिका है । इसके कर चरण बडे ही सुकुमार हैं यावत् रूप, यौवन एव लावण्यसे यह सर्वोत्कृष्ट है और सर्वाङ्ग सुन्दरी है । (तएण से जिणदत्ते सत्यवाहे तेसि कौडुबियाणं पुरिपाणिदत्तेन सत्थान एव कुत्ता समाणा हट्ट करयल जाव एव वयासीएस देणुनिया | सागरदस्त सत्यवास्स घूया मदार अतिया समालिया नाम दारिया सुकुमालपाणिपाया जात्र, उक्किदुसरीरा )
મતી સુકુમાર દારિકાને જીનદત્ત સાથેવાડે જોઈ જોઈને તેઓ સુકુમાર દારિકાના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યમા આશ્ચય ચકિત થઈ ગયો અને ત્યાર પછી તેમણે કૌટુંબિક પુરૂષને ખેલાવ્યા અને ખેલાવીને તે તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હે દેવાનુપ્રિયા ! આ કન્યા કેાની છે એનુ નામ શું છે ? જીનદત્ત સાથૅવાહ વડે એવી રીતે પૂછાએલા તે કૌટુ બેક પુરૂષોએ હિમંત થઈને પેાતાના અને હાથ જોડીને બહુ વિનયની સાથે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! સાવાર્હ સાગરદત્તની આ પુત્રી છે. ભદ્રાભાર્યાંના ઉદરથી આના જન્મ થયેા છે. સુકુમારિકા આનુ નામ છે એના હાથપગ ખૂબ જ સુા सुदरी, મળ યાવત્ રૂપ, યૌવન અને લાવવુંનથી આ સૌ દૃષ્ટ છે
7
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतषिणो टीका भ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् पात्र कन्या योग्योऽय मत्पुनः सागर ' इति, 'सलाइणिज्जं वा' श्लाघनीयंप्रशसनीय मा 'सरिसो वा सजोगो ' सदृशो या संयोगः-अय कन्यावरयो वैवादिकः सम्बन्धः कुलेन रूपेण गुणेन वा तुल्य इति, 'तो' तर्हि 'दिज्जउ ददातु भान् खलु सुकुमारिका दारिकां सागराय-मत्पुत्रायेतिभावः । ततः खलु हे देशनुपिय ! चूहि-किं दम- िदयां, शुल्क-संमानार्थ द्रव्य सुकुमारिकाया दारिकायाः ? ततः सल स सागरदत्तः सार्थवादस्त जिनदत्तमेवमवादी-एव खलु हे देवानुभिय ! सुकुमारिका दारिका ममैका एकजाता=एकैनोत्पन्ना, तया-इष्टाअनुकूला, यावत्-कान्ता ईप्सिता, प्रिया-पीतिपात्रा, मनोज्ञा-मनोगता तथाकन्या के योग्य है यह सपन्ध प्रशसनीय है, कन्या और वर का यह वैवाहिक सबन्ध कुल स्प और गुणो के अनुरूप है तो आप अपनी पुत्री सुकुमारिका को मेरे पुत्र मागर के लिये प्रदान कर दीजिये-(तएण देवाणुपिया । किं दल्यामो सुक्क सुमालियोए ?) हे देवानुप्रिय ! साथ में यह भी करदीजिये कि सुकुमारिका दारिका के समानार्थ हम क्या द्रव्य देवे (तएण से सागरदत्ते त जिणदत्त एव वयासीएवं ग्वल देवाणुप्पिया ! सूमालिया दारिया मम एगा, एगजाया ईट्ठा जाव किमगपुण पासणयाए त नो खलु अह इच्छामि, समालियाए दारियाण खणमवि चिप्पओग त जण देवाणुप्पिया ! सागरदारए मम धरजामाउरा भवइ, तोण अह सागरस्त सूमालिय दलयामि ) साग रदत्तए ने जिनदत्त से तय इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! यह सुकमारिका पुत्री मेरे यहा एक ही लड़की है और यह एक ही उत्पन्न हुई છે, આ સ બ ધ સારે છે, કન્યા તેમજ વરને આ લગ્ન સબ ધ કુળ રૂપ અને ગુણેને અનુરૂપ છે તે તમે તમારી પુત્રી સુકુમારિકાને મારા પુત્ર સારને भाटे माप (एण देवाणुपिया ! किं दल्यामो सुफ सुमालियाए १) हेपाનુપ્રિય! સાથે સાથે એ પણ અમને જણાવે સુકુમારી દારિકાના સમાનાર્થ અમે શુ દ્રવ્ય રૂપમા આપીએ ? . (तपण से सागरदत्ते त जिणदत्त एवं क्यासी एव खलु देवाणुप्पिया! सूमालिया दारिया मम एगा एग जाया इट्ठा भाव फिमगपुण पासणयाए त नो खलु अह इच्छामि मूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओग त जइण देवाणुप्पिया । सागरदारए मम घरजामाउए भरड, तो ण अह सागरस्स दारगस्स सुमालिय
दळयामि ) त्यारे सास नत्तने मा प्रभार ह्यु ३ वानुप्रिय ! मा - કુમારિકા દારિક મારે એકની એક પુત્રી છે અને આ એક જ જન્મી છે
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२
-
e
neurnakalume
-
--
-
-
मानाsama जिनदत्त सार्थयारोप-यक्ष्यमाणपकारणातील हे देवानमिय! भणय,किमा. गमनमयोजनम् कम्मै भयोगाय मागतो ममान ? ततः गरा जिनदत्तः सार्ष वाद सागरदत्त गार्य गहमेप-क्ष्यमागमकारेगामात-एय गाउ अहो देवानु मिय ! तर दुहितर-पुत्री, मटाया मात्मनां सुकुमारियां-कुमारिकानाम्नी सगरस्य सगरनामझम्य मत्पुत्रस्य मार्यात्येन 'परेमि' पृणोमि-पान्यामि, यदि खलु व जानीहि हे देशानुप्रिय । 'जुला ' युक्त पायोग्य पा-'एतद कार्य समुचित भरति ' ति 'पत्त या' माप्त पापतन पार्य पुलमर्यादामनुमाप्त वा स्थविश्वस्थ पन चुके-तय विशिष्ट आसन पर शासिके माध यैठे हुए उन जिनदत्त सार्धवार से उसने इस प्रकार पूजा-(मण देवाणुप्पिया! किमागमणपओयण ) फरिये देवानुप्रिय ! यहा पधारने का आपका क्या प्रयोजन है ? किस प्रयोजन से आप यहा आये है-कहिये-(तरण से जिणदत्तसत्यवाहे सागरदत्त सत्यवार एव चयासी-एव खलु अह देवाणुप्पिया ! तव धूय भाग अतिय सूमालिय सागरस्स मारयताए घरेमि जडण जाणाह देवाणुप्पिया! जुत्त चा पत्त वा सलाहणिज्ज या सरिसोवा सजोगो दिज्जउण समालिया सोगरस्स) जिनदत्त सार्थवा हने सागरदत्त सार्थवाहसे तय इस प्रकार का हे देवानुप्रिय ! में आपको सुभद्रा की कुक्षिसे उत्पन हुई सूमालिका पुत्री को अपने पुत्र सागर का भार्या बनाना चाहता है। यदि आप इसे स्वीकार करे कि यह कार्य योग्य है-उचित है-कुल मर्यादा के अनुसार है अथवा मेरा पुत्र आपकी આ રીતે તેમને કહેવા લાગે ત્યારે તેઓ ઉચિત સ્થાને બેસી ગયા અને આસ્વસ્થ વિશ્વસ્થ થઈ ચૂકયા ત્યારે વિશિષ્ટ આસન ઉપર શાતિપૂર્વક બેઠવા त हत सार्थवाहन तेथे मा प्रभारी यु-(भण देवाणुप्पिया! किमोगमण पओयण) देवानुप्रिय । मता। सही पधारपानी पा७१ मापन । उतु છે? કયા પ્રોજનથી આપ અહીં આવ્યા છે?
(तएण से जिणदत्त सत्थवाहे सागरदत्त सत्यवाह एव वयासी-एव खल अह देवाणुप्पिया' तव धूय भदाए अतिय समालिय सागरस्स भारियत्ताए वरेमि । जइण जाणाह देवाणुप्पिया 1 जुत्त वा पत्त वा सलाहणिज्ज वा सरिसो वा सजोगा दिज्जउ ण सूमालिया सागरस्स)
જનદત્ત સાર્થવાહે સાગરદન સાર્થવાહને ત્યારે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું દેવાનુપ્રિય! હું તમારી સુભદ્રાના ઉદરથી જન્મ પામેલી સુમાલિકા પુત્રીને મારા પુત્ર સાગરની પત્ની બનાવવા ઇરછુ છુ આપ જે મારી માગણી કચિત સમ જ છે, કુળ-મથી ચાગ્ય તેમજ મારો પુત્ર તમારી, માટે થાય
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतषिणो टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् पात्र' कन्या योग्योऽय मत्पुत्रः सागर ' इति, 'सलाहणिज्ज वा ' श्लाघनीयंमशसनीयं वा 'सरिसो वा सजोगो' सहगो पा संयोग:-अय कन्यावरयो वैवा. दिकः सम्बन्धः कुलेन रूपेण गुणेन वा तुल्य इनि, 'तो' तहि 'दिज्जउ' ददातु भवान् खलु सुकुमारिका दारिकां सागराय-मत्पुनायेतिभावः । ततः खलु हे देवानुप्रिय ! बहि-किंदा-किं दद्या, शुल्क-समानार्थ द्रव्य सुकुमारिकाया दारिकायाः १ ततः यलु स सागरदत्तः सार्यवाहस्त जिनदत्तमेवमवादी-एव खलु हे देवानुभिय ! मुकुमारिका दारिका ममैका एकजाता-एफैलोत्पन्ना, तया-इष्टाअनुकूला, यावद-कान्ता-ईप्सिता, प्रिया-धीविपात्रा, मनोज्ञा-मनोगता तथाकन्या के योग्य है यह संयन्ध प्रशसनीय है, कन्या और चर का यह वैवाहिक सवन्ध कुल स्प और गुणों के अनुरूप है तो आप अपनी पुन्नी सुकुमारिका को मेरे पुत्र नागर के लिये प्रदान कर दीजिये-(तएण देवाणुप्पिया । किं दलयामो सुक्क सुमालियोए १) हे देवानुप्रिय ! साय में यह भी कत्दीजिये कि सुकुमारिका दारिका के समानार्थ हम क्या द्रव्य दे (तएण से सागरदत्ते तं जिणदत्त एव वयासीएव खलु देवाणुप्पिया! सूमालिया दारिया मम एगा, एगजाया ईट्ठा जाव किमगपूण पासणयाए त नो खलु अह इच्छामि, समालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं त जणं देवाणुप्पिया ! सागरदारए मम घरजामाउए भवई, तो ण अह सागरस्त सूमालिय दलयामि) साग रदत्तए ने जिनदत्त से तब इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! यह सुकुरमारिका पुत्री मेरे या एक ही लड़की है और यह एक ही उत्पन्न हुई છે, આ સબ ધ સારે છે, કન્યા તેમજ વરને આ લગ્ન સબધ કુળ રૂપ અને ગુણેને અનુરૂપ છે તે તમે તમારી પુત્રી સુકુમારિકાને મારા પુત્ર સાગરને भाटे माप (तएण देवाणुप्पिया! किं दल्यामो सुक सुमालियाए १) - નુપ્રિય ! સાથે સાથે એ પણ અમને જણાવે કે સુકુમારી દારિકાના સમા નાર્થે અમે શુ દ્રવ્ય રૂપમાં આપીએ ? । (तएण से सागरदचे त जिणवत्त एव वयासी एव खलु देवाणुप्पिया ! सूमा पलया दारिया मम एगा एग जाया इट्टा जाब किमगपुण पासणयाए त नो खल अह इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमवि पिप्पओग त जइण देवाणुप्पिया ! सागरदारए मम धरजामाउए भरद, तो " अह सागरस्स दारगस्स सुमालिय
दलयामि ) त्यारे मागत हत्तन मा प्रभार पानुप्रिय ! मा - કુમારિકા દારિકા માટે એકની એક પુત્રી છે અને આ એક જ જન્મી છે
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधका
1
C
}
मनोमा - मतसः स्थानभूता कि पहना उम्बरपनि 'लुम्बरपुष्पकेनापि 'इतिरत् श्रारिपयत्येन सा दमा, विमा ! पुन-दर्शनविषयतया, त तस्माद् नो खेल अहमिच्छामि सुकुमारियाया दारिकायाः क्षणमपि विप्रयोग = वियोगम्, तत्तस्माद यदि सद हे देवानुप्रिय ! मागावासो मम 'घरजामा उप गृदामाकगृहवासीजामाता मपति 'कोण' वर्दि ख भद्द सागराय दारकाय कुमारि ददामि । यतः खन्द से जिनदत्तः सागराः सागरदन anantara ar at स्वयं गृपागच्छति, उपागस्य समरदार= स्वपुत्र शब्दयति, शन्दयित्वा परमशदीद पर खल हे पुत्र । सगारदत्तः सार्व मम मति, सम्बन्धसामान्ये पष्ठी एवं वध्यमाणप्रकारेण अवादीवएव खलु हे देवानुमिय ! सुकुमारिका दारिका ममेका एक जाता इष्टा ' त चेद' है। यह मेरे लिये ईष्ट यावत् मनोम है-कान्त है, प्रिय है और मनोश है । अनुकूल होने से इष्ट, ईप्सित होने से कान्त प्रीतिपात्र होने से fararathed वाली होने से मनोज्ञ एव मन का स्थान भूत होने से मनोज्ञ है । ज्यादा क्या कहूँ यह तो हमें बहुवर पुष्प के समान दर्शन दुर्लभ थी -सुनने की तो बात ही क्या। अत' मैं इसे देना नहीं चाहता हूँ । कारण इस सुकुमारिका दारिका के बिना मैं एक क्षण भी नही रह सकता हूँ इसलिए हे देवानुप्रिय | सागर यदि घरजमाई पन कर रहना चाहें तो मैं उन्हें यह अपनी सुकुमारिका पुत्री दे सकता हूँ । (तरण से जिदत्ते सवाह सागरदन्तेण सत्यवाहेण एवं युत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छद्द उवागच्छित्ता सागरदारग सहावे, सदावित्ता एव वयासी - एव ग्लु पुत्ता | सागरदन्ते सत्थवाहे मम एव
આ મને ઋષ્ટ યાત્ મનેામ છે-એટલે छत छे, प्रिय छे, अने भनाम छे અનુકૂળ હાવા બદલ ઇષ્ટ, ઇપ્સિત હૈાવાથી થાત, પ્રીતિપાત્ર હોવા બદલ પ્રિય અને મનને ગમે એવી હોવાથી મનેજ્ઞ તથા મનના આશ્રય હાવાથી મનામ છે વધારે શુ કહુ ! આ તે અમને દુખ પુષ્પની જેમ દર્શીન-દુર્લભ હતી સાભળવાની તો વાત જ શી કરવી! એથી આને હુ આપવા ઈચ્છતા નથી કારણ કે એના વગરે હુ ક્ષજીવાર પણ રહી શકતા નથી એટલા માટે હે દેવા સુપ્રિય ! સાગર જો ઘર જમાઈ થઈને મારી પાસે રહેવા ઈચ્છતા હાય તે હુ આ મારી સુકુમારીકા પુત્રી તેમને આપી શકે તેમ છુ
(तरण से जिणदत्ते सत्यवाहे सागरदते णं सत्पवाहेण एव कुत्ते समाणे जेणेवं सर गिहे तेणेव उपागच्छछ, उवागच्छित्ता सागरदारग सदावेह, सद्दावित्ता एव वयामी - एव खलु पुत्ता 1 सागरदत्ते सत्थवाहे मम
(
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकापरितधर्णनम् १९५ तदेव-पूर्वोक्तवर्णनमेवानयोध्य यावत्-तस्माद् नो खल्यहमिच्छामि सुकुमारिकाया दारिकायाः क्षणमपि विप्रयोग, तत्-तस्माद् यदि खलु सागरदारको मम 'घरजामाउए ' गृहजामातृका: गृहवासी जामाताभवति, तर्हि ददामि । ततः खलु त सागरको दारको जिनदत्तेन तार्थ चाहेनैवमुक्तः तन् तूष्णीका मौनावलम्बी सन् सतिष्ठते ।
वयासी-एव खलु देवाणुपियो ।सूमालिया दारिया मम एगो एगजाया इटा त चेव जडण सागरदाररा मम घरजमाउए भवह ता दलयामि) इस प्रकार सागरदत्त सार्यवहके कहे जाने पर जिनदत्त सार्थवाह जहा अपना घर था वहाँ आया-वहां आकर उसने अपने सागर पुत्र को बुलाया । युला कर फिर उससे उसने ऐसा कहा-हे पुत्र-सागरदत्त सार्थवाह ने मुझसे ऐसा कहा है कि आपका पुत्र सागर यदि मेरे घर जमाई यन कर रहना चाहें तो मैं अपनी सुकुमारिका उन्हें दे सकता है। उनका घरजमाई बनाने का कारण यह है कि यह सुकुमारिका पुत्र पुत्री उसके एक ही पुत्री है-और एक ही उत्पन्न हुई हैं । यह उसे बहुत ही अधिक इष्ट यावत् मनोम है। इस तरह सोगरदत्त का कहा हुआ समस्त कयन जिनदत्त ने अपने पुत्र सागर को सुना दिया। इसलिये वह उसका एक क्षण भी वियोग सहन नहीं कर सकता है । अतः वह देवाणुप्पिया ! मूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्ठा त चेव जइण सागरदारए मम घरजमाउए भनइ ता दलयामि ) ' આ રીતે જીનદત્ત સાર્થવાહ તેમની આ વાત સાંભળીને તે નદત્ત સાર્થવાહ ત્યા પિતાનું ઘર હતુ ત્યા આવ્યા. ત્યાં આવીને તેણે પોતાના સાગરપુત્રને છેલા બોલાવીને તેણે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્ર! સાગરદત્ત સાર્થવાહે મને આ પ્રમાણે કહ્યુ છે કે તમારે પુત્ર સાગર જે મારે ઘર જમાઈ રહેવા કબૂલ હોય તે હું મારી પુત્રી સુકુમારિકા તેમને આપવા તૈયાર છુ તેઓ તમને ઘર જમાઈ બનાવવા એટલા માટે ઈચ્છે છે કે સુકુમારિક દારિકા તેમની એકની એક પુત્રી છે તે તેમને અતીવ ઈષ્ટ યાવત મનમ છે આ રીતે સાગરદત્ત જે કઈ કહ્યું હતું તે બધું તેમણે પોતાના પુત્ર સાગર આગળ રજૂ કર્યું અને છેવટે કહ્યું કે એટલા માટે જ તે એક ક્ષણ પણ પિતાની પુત્રીને વિગ સહી શકતું નથી તમને તે આ કારણથી જ ઘર જમાઈ બનાવવા ઇરછે છે
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
Itu
मनोमा = मतसः स्थानभूता, किंबहूना उदयम्बरपुष्यं केनापि म्' इविरत् श्रणयित्सामा विन दर्शनविषयतया, द तस्माद् नो खलु अहमिच्छामि सुकुमारियाया दारिकायाः क्षणमपि विप्रयोर्ग= वियोगम्, तद् = तस्माद्यदि राल हे देवानुमिय | सागरदारको मम 'घरजामा उए ' गृहजामातृका गृहासीनामाना मयति 'योण' वर्दि सन्द्र अहं सागराय दारकाय सुकुमारिका ददामि । यतः खन्द्र से जिनदत्तः सार्थवाहः सागरदतेन सार्थवाहेनैव मुक्त सन् यय सरु गृह तत्रत्रोपागच्छति, उपागत्य सगरदारस्वपुत्र शब्दयति, शन्दयिला परमशदीद पत्र खल हे पुत्र । सगारदतः सार्व बांदी मममा मति, 'सम्बन्धसामान्ये पष्ठी' एव पक्ष्यमाणमकारेण अवादीद एव खलु हे देवानुमिय ! सुकुमारिका दारिका ममेका एक जाता इप्टा ' त चेन' है। यह मेरे लिये ईष्ट यावत मनोम है-कान्त है, प्रिय है और मनोज है । अनुकूल होने से इष्ट, ईप्सित होने से कान्त प्रीतिपात्र होने से for arat रुचने वाली होने से मनोज्ञ एव मन का स्थान भूत होने से मनोज्ञ है । ज्यादा क्या कहूँ यह तो हमें उदुयर पुष्प के समान दर्शन दुर्लभ थी -सुनने की तो बात ही क्या। अत' मैं इसे देना नहीं चाहता हूँ । कारण इस सुकुमारिका दारिका के बिना मैं एक क्षण भी नही रह सकता हूँ इसलिए हे देवानुप्रिय | सागर यदि घरजमाई बन कर रहना चाहें तो मैं उन्हें यह अपनी सुकुमारिका पुत्री दे सकता हूँ । (तएण से जिनदन्ते सत्यवाहि सागरदत्तेण सत्थवाहेणं एवं बुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उद्यागच्छइ उचागच्छित्ता सागरदारग सहावे, वित्त एव वासी एव खलु पुत्ता ! सागरदत्ते सत्यवाहे मम एव આ મને ઇષ્ટ યાવત્ મનામ છે એટલે કે કાત છે, પ્રિય છે, અને મનેામ છે અનુકૂળ હટવા ખદલ ઈષ્ટ, ઇપ્સિત હાવાથી કાત, પ્રીતિપાત્ર હાવા ખદલ પ્રિય અને મનને ગમે એવી હાવાથી મનેાજ્ઞ તથા મનના આશ્રય હોવાથી મનામ છે વધારે શુ કહુ ! આ તે અમને દુખર પુષ્પની જેમ દર્શીન-દુર્લભ હતી સાભળવાની તા વાત જ શી કરવી! એથી અને હુ આપવા ઈચ્છતા નથી કારણ કે એના વગર હુ ક્ષણવાર પણ રહી શકતા નથી એટલા માટે હે દેવા નુપ્રિય ! સાગર જો ઘર જમાઈ થઈને મારી પાસે રહેવા ઈચ્છતા હાય તેા હુ આ મારી સુકુમારીકા પુત્રી તેમને આપી શકે તેમ છુ
-
(तएण से जिणदत्ते सत्यवाहे सागरदत्ते ण सत्यवादे ण एव कुत्ते समाणे जेणेव सर गिहे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता सागरदारग सहावेह, सद्दावित्ता एव वयामी - एव खलु पुत्ता ! सागरदत्ते सत्यवाहे मम एक
कार्यकमात्र
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतपिणी टीका भ०१६ सुफुमारिकापरितपणनम् तदेव-पूर्वोक्तवर्णनमे पानयोध्य यापद-तस्माद् नो खल्यहमिच्छामि सुकुमारिकाया दारिकायाः क्षणमपि विप्रयोग, वत्-तस्माद् यदि खलु सागरदारको मम 'घरजामाउए ' गृहजामातृका गृहवासी जामाताभवति, तर्हि ददामि । ततः खलु त सागरको दारको जिनदत्तेन तार्यवाहेनैवमुक्तः तन तूष्णीका मौनावलम्बी सन् सतिष्ठते । वयासी-एव खलु देवाणुप्पियो सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्टा त चेव जइण सागरदारए मम घरजमाउ भवइ ता दलयामि ) इस प्रकार सागरदत्त सार्यवहके कहे जाने पर जिनदत्त सार्थवाह जहा अपना घर था वहां आया-वहां आकर उसने अपने सागेर पुत्र को बुलाया । चुला कर फिर उससे उसने ऐसा कहा-हे पुत्र-सागरदत्त सार्थवाह ने मुझसे ऐसा कहा है कि आपका पुत्र सागर यदि मेरे घर जमाई घन कर रहना चाहें तो में अपनी सुकुमारिका उन्हें दे सकता है। उनका घरजमाई बनाने का कारण यह है कि यह सुकुमारिका पुत्र पुत्री उसके एक ही पुत्री है-और एक ही उत्पन्न हुई हैं। यह उसे बहुत ही अधिक इष्ट यावत् मनोम है। इस तरह सोगरदत्त का कहा हुआ समस्त कयन जिनदत्त ने अपने पुत्र सागर को सुना दिया। इसलिये वह उसका एक क्षण भी वियोग सहन नहीं कर सकता है। अतः वह देवाणुपिया ! सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्ठा त चेव जइणं सागरदारए मम घरजमाउए भपइ ता दल यामि)
આ રીતે જીનદત્ત સાર્થવાહ તેમની આ વાત સાંભળીને તે જીનદત્ત સાર્થવાહ ત્યા પિતાનું ઘર હતુ ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેણે પિતાના સાગરપુત્રને બેલા બોલાવીને તેણે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્ર! સાગરદન સાર્થવાહે મને આ પ્રમાણે કહ્યુ છે કે તમારે પુત્ર સાગર જે મારે ઘર જમાઈ રહેવા કબૂલ હોય તે હું મારી પુત્રી સુકુમારિકા તેમને આપવા તૈયાર છુ તેઓ તમને ઘર જમાઈ બનાવવા એટલા માટે ઈચ્છે છે કે સુકમારિક દારિકા તેમની એકની એક પુત્રી છે તે તેમને અતીવ ઈષ્ટ યાવતું મનેમ છે આ રીતે સાગરદને જે કઈ કહ્યું હતું તે બધુ તેમણે પોતાના પુત્ર સાગર આગળ રજૂ કર્યું અને છેવટે કહ્યું કે એટલા માટે જ તે એક ક્ષણ પણુ પોતાની પુત્રીને વિગ સહી શકતું નથી તમને તે આ કારણથી જ ઘર
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९४
कामाक
1
मनोमा = मतसः स्यानभूता कि यहूना उदग्रयुग्यमिय दुम्बरपुष्प रम्' इविरत् श्ररणविषयत्वेन सा दुर्मभा, विमा | पुनर्दर्शनविषयतया, तस्माद् नो खंतु अंधमिच्छामि युद्धमारिया दारिकायाः क्षणमपि विप्रयोर्ग= वियोगम्, तत् तस्माद्यदि सल हे देवानुमिय | सागरदारको मम 'घरजामा उए ' गृहजामातृकः=गृहवासीजामाता भवति 'तोन' वर्दिल अह सागराय दारकाय सुकुमारिका ददामि । ततः खलु से जिनदत्तः सार्थवाहः सागरदन सार्थवाहने मुक्त सन् यय स्वक गृह वयोपागच्छति, उपागस्य सगरदार स्वपुत्र शब्दयति, शन्दयित्वा परमादीवर खल हे पुत्र । सगारदतः सार्य माहो ममं मां मवि 'सम्बन्धमामान्ये पष्ठी एव वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्एव खलु दे देानुमिय! सुकुमारिका दारिका ममेका एफ जाता उप्टा' त चेव' है । यह मेरे लिये ईष्ट यावत मनोम है-कान्त है, मिय है और मनोज्ञ है। अनुकूल होने से इष्ट, ईप्सित होने से कान्त प्रीतिपात्र होने से for arat रुचने वाली होने से मनोज्ञ एव मन का स्थान भूत होने से मनोज्ञ है । ज्यादा क्या कहूँ यह तो हमें उदुयर पुष्प के समान दर्शन दुर्लभ थी- सुनने की तो बात ही क्या। अतः मैं इसे देना नहीं चाहता हूँ । कारण इस सुकुमारिका द्वारिका के विना मैं एक क्षण भी नही रह सकता हूँ इसलिए हे देवानुप्रिय | सागर यदि घरजमाई बन कर रहना चाहें तो मैं उन्हें यह अपनी सुकुमारिका पुत्री दे सकता हूँ । ( तण से जिदन्ते सत्वाहे सागरदन्तेण सत्यवाहेणं एवं बुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरदारग सहावे, सद्दावित्ता एव वयासी - एव खलु पुत्ता ! सागरदन्ते सत्वा मम एव
આ મને ઇષ્ટ યાવતુ મનેામ છે-એટલે કે કાત છે, પ્રિય છે, અને મનેામ છે અનુકૂળ હોવા બદલ ઇષ્ટ, ઇપ્સિત હેાવાથી કાત, પ્રીતિપાત્ર હાવા ખદલ પ્રિય અને મનને ગમે એવી હોવાથી મનેાજ્ઞ તથા મનના આશ્રય હાવાથી મનેમ છે વધારે શુ હુ! આ તે અમને ઉર્દુ બર પુષ્પની જેમ દન દુ"ભ હતી સાભળવાની તે વાત જ શી કરવી! એથી આને હુ આપવા ઈચ્છતા નથી કારણ કે એના વગર હું ક્ષણવાર પણ રહી શકતા નથી એટલા માટે હે દેવા સુપ્રિય ! સાગર જો ઘર જમાઈ થઈને મારી પાસે રહેવા ઈચ્છતા હાય તે હુ આ મારી સુકુમારીકા પુત્રી તેમને આપી શકું તેમ છુ
(तएण से जिदत्ते सत्यवाहे सागरदते ण सत्यवादे ण एव बुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता सागरदारग सहावेह, सद्दावित्ता एव वयामी - एव खलु पुत्ता 1 सागरदत्ते सत्थवादे मम
11
'
-
केनापि
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
असार मृत पिणो टोका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् १९७ सम्मानयति समान्य सागर दारक स्नात यावत् सर्मालङ्कारविभूपित कारयति, कारयित्वा पुम्पसहस्रवाहिनीं शिविकां दूरोहयति-आरोहयति, दूरोह्य मित्रज्ञाति स्वजन-सम्पन्धिभिर्यावत् परितः सद्धर्था सफलविभवेन स्त्रकाद् गृहाद् निर्ग: च्छति, निर्गत्य चम्पाया नगर्या म यमयेन मध्ये भूना यत्रैव सागरदत्तस्य गृह तत्रयोपागच्छति, उपागत्य शिविकातः 'पञ्चोरुहायेई' प्रत्यवरोहयति, सागरदारकं स्वपुत्र प्रत्यवतारयति, प्रत्यवरोध सागरक दारक सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य उप नयति-ममीपमानयति ।
ततः खलु सागरदत्तः सार्थवादो विपुलमशन पान खा स्वाद्य-चतुर्विधमाहारम् उपस्कारयति=निप्पाढयति, उपस्कार्य यावत् = मित्रादिसहित जिनदत्तमामन्त्र्य भोजयित्वा, सत्कृत्य, समानयति, समान्य सागरक दारक सुकुमारिकया दोरिकाया सार्थ 'पट्टय' पहक 'दुरूहावेड ' दरोहयति-आरोहयति, दुरुह्य श्वेतपीत : सवका वस्त्रादिक से सत्कार किया सत्कार करके फिर उनका स्वागत यचानादिको द्वारा सन्मान किया- । सन्मान कर के बाद में उसने अपने सागरपुत्रको स्नान कराया- । स्नान कराकर उसने उसे समस्त अलकारो से विभूपित कराया । विभृपित कराकर बाद में उसने उसे पुरुष सहस्रवाहिनी शियिका पर चढाया चढाकर मित्र, ज्ञाति, स्वजन सवधियो को साथ लेकर फिर वह सकल विभवके अनुसार अपने घर से निकला -निकलकर चपानगरी के बीचो बीच से होता हुआ सागरदत्त का जहां घर था वहाँ पहुँचा । ( उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहावेइ, पच्चोरुहावित्ता सागरग दारग सागरदत्तस्स सत्थ० उवणेड, तएण, सागरदत्ते सत्यवाहे विपुल असणपाण खाइम साइम उवक्खडावेइ, उवक्खडाक्त्तिा जाव सम्माणेत्ता सागरग दारग सूमालियाए दारियाए सद्धि पय ડીને બધાને વસ્ત્રો વગેરે આપીને સત્કાર કર્યો, સત્કાર કરીને તેણે તેમનું સ્વાગત વચને વડે સન્માન કર્યું સન્માન કર્યા બાદ તેણે પોતાના સાગર પુત્રને સ્નાન કરાવ્યું સ્નાન કરાવીને તેણે તેને બધા અવકારોથી શણગાર્યો, શણગારીને તેણે તેને પુરૂષ-સહસ્ત્રવાહિની પાલખીમાં બેસાડયે ત્યારપછી મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન સ બ ધીઓને સાથે લઈને તે પિતાના સ પૂર્ણ વૈભવની સાથે પોતાના ઘેરથી નીકળ્યો-નીકળીને ચ પ નગરીની વચ્ચે થઈને તે જ્યા સાગરદત્તનું ઘર હતું ત્યાં પહોચે
(उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहावेइ, पच्चोरुहाविचा सागरग दारग सा. गरदत्तस्स सत्य० उवणेइ, तएण, सागरदत्ते सत्यवाहे विपुलअसणपाणखाइम साइम उवक्खडावेद, उवक्खडावित्ता जाव सम्माचा सागरग दारग सूमालियाए
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
तवः सलु निन नार्थ याही या पदानि भोमने भूमकारक तिथिकरणनक्षगगुरतं पिपुलमान गाय मायमुपपारयति, निपादयवि, उपस्कार्य मित्रशातिप्रभृतिनामन्त्रयति, मामला 'जार मामाणे ' गायत् सम्मा नयति भोजयति, भोजयिता मादिमि मकरोति, मकस्य स्वागताननादिना तुम्हें घरजमाई पनाना पारना । (तपणं से मागरण दारण जिणदत्ते ण सत्यवाहेणं पनुत्तेममाणे तुमिणी मन्दिर, ताणं जिणदत्ते सत्य चाहे अन्नया फयाइ सोहणसि तिहिकरणदिघमणगत्तमुहत्तसि विउल असण पान पाइम माहम उमपहावे, उवम्पदायित्ता मित्तणाह.आमतेह, जार मम्माणित्ता मागर दारग हाय जाव मव्या लकारविभूसिय करेह, फरिता पुग्मिमरस्म पारिणि सीय दुरूहावेह, दुरूहावित्तामित्तणाह जाय सपरिचुढे सम्बिद्धी साओ गिहाओ निग्ग च्छइ निगचित्ता चपा नयरिं मम मशेण जेणे मागरदत्तस्स गिरे तेणेव उवागच्छद) जिनदत्त मागाह के द्वारा इस प्रकार करा जाने पर वह सोगर दारक चुपचाप रह गया उमने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। एक दिन जिनदत्त ने शुभ, तिधि फरण, दिवस नक्षत्र मुहर्तमें विपुल मात्रा में अशन, पान, ग्वाद्य और स्वाधरूप चतुर्विध आहार बनवाया -धनवाकर उसने अपने मित्र ज्ञाति आदिग्न्धुओं को आमत्रित किया आमत्रित करके फिर उसने उन सबको भोजनकराया-भोजन कराकर
(तएणं से सागरए दारए जिणदत्ते ण सत्यवाहे ण एव वुत्ते समाणे तुसि णीए सचिटइ, तएण निणदत्ते सत्यवाहे अन्नया कयाइ सोहणसि तिहिकरणदिव सणखत्तमुहूत्तसि, विउल असणपान खाइम साइम उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तणाई आमतेइ, जाव सम्माणित्ता सागर दारग हाय जाव सबालकारविभू सियं करेइ, करित्ता पुरिससहस्मवाहिणि सीय दुरूहावेई, दुरूहावित्ता मित्तणाइ जाव सपरिवुड सब्बिड्डीए साओ गिहाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता चपा नयार मज्झ मज्झेण जेणेच सागरदत्तस्स गिहे तेणेच उवागच्छइ)
જીનદત્ત સાર્થવાહ વડે આ પ્રમાણે કહેવાયેલે સાગર પુત્ર એકદમ ચૂપ થઈને બેસી જ રહ્યો તેણે કઈ પણ જાતને જવાબ આપે નહિ એક દિવસ
નદત્તે શુભતિથિ, કરણ, દિવસ, નક્ષત્ર મુહૂર્તમાં પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ રૂપ ચાર જાતને આહાર બનાવડાવ્ય બનાવડાવીને તેણે પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે સ બ ધીઓને આમંત્રિત કર્યા આમત્રિત કરીને તેણે તે બધા આવેલા સ બ ધીઓને જમાડયા જમા
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
--
ममगारधामृतावणी टी० १० १६ सुपुमारिकाचरितवर्णनम् १९९
मूलम्-तएण सागरदारए सूमालियाए दारियाए इम एयारूवं पाणिफास पडिसंवेदेइ से जहा नामए असिपत्तेइ वा जाव मुम्मुरेइ वा एत्तो अणिटुतराए चेव० पाणिफासं पडिसंवेदेइ, तएणं से सागरए अकामए अवसव्वसे मुहतमित्तं सचिटुइ, तएणं से सागरदत्त संस्थवाहे सागरस्स दारगरस अम्मापियरो मित्तणाइ० विउलेण असणपाणखाइमसाइमं पुप्फवस्थ जाव सम्माणेत्ता पडिविसज्जइ, तएणं सागरए दारए सूमालियाए सद्धिजेणेव वासघरे तेणेव उवागगच्छइ उवागच्छित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धि तलिगंसि निवज्जइ, तर्पण से सागरए दारियाए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूव अगफास पडिसवेदेइ, से जहा नामए असिपत्तेइ वा जाव अमणामयराग चेव अगफास पच्चणुभवमाणे विहरइ, तएणं से सागरए अगफास असहमाणे अवसव्वसे मुहत्तमित्तं सचिटुइ,तएण से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सूमालियाए दारियाए पासाउ उद्देइ, उद्वित्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणीर्यास निवज्जइ, तएणं सूमालिया दारिया तओ मुहुत्ततररस पडिबुद्धा समाणी पइव्वया पइमणुरत्ता पतिं पासे अपस्समाणी तलिमाउ उद्देइ, उद्वित्ता जेणेव से सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ती सागरस्स पासे एवज्जइ, तएण से सांगरदारए सूमालियाए दारियाए
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
१५८ राजतसौवर्ण फलश = परिपूर्णटेमनगति - ग्नपति, मउयितया अमिहोत्रं फारयति, कारयित्वा माग बारमगुरुमारिकाया दारिताया पाणि प्राध्यति८॥ दुरुहावेह, दुरूपायित्ता सेयोपीहिं फलसेहिं मज्जार, मज्जावित्ता अग्गिहोम फरोह, फरायित्ता सागर दारय ममालिपा दारियाए पाणि गिण्हावेइ ) वहा पहुँचकर उसने अपने पुत्र सागर को पालावी से नीचे उतारा और उतारकर सागरदस सार्थयार के पास उसे लेभाया। साग रदत्त सार्थवार ने भी पदिलेसे हो पिपुलमात्रा में अशन, पान, स्वाथ, एव स्वायरूप चतुर्विध आहार तयार करयालियो था मो उमसे मित्रादि सहित जिनदत्त सार्थवाह को आनद के माय पिलाया पिलाकर सबका सत्कार किया सन्मान किया । सत्कार सन्मान करने के बाद फिर सागरदत्तने सागर दारक को अपनी पुत्री सुकुमारिका के साथ एक पदक पर बैठाया-यैठाकर सुवर्ण चांदी के कलशोंसे उनका अभिषेक फराया अभिपेक हो जाने के पाद अग्निहोम कराया 'अग्निहोम जब हो चुका तय सागरदत्तने अपनी पुत्री सुकुमारिका का सागर के राथ में हस्तमिलाप किया-अर्थात् लग्न कर दिया ।। सू०८॥ दारियाए सद्धि पट्टय, दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता सेयापीएहि कलसेहि मज्जावे। मज्जावित्ता अग्गिहोम करावेइ, फराषित्ता सागरदारय भूमालिगाए दारियाए पाणि गिण्हावेइ)
ત્યા પહોંચીને તેણે પિતાના પુત્ર સાગરને પાલખીમાથી નીચે ઉતાર્યા અને ઉતારીને સાગરદત્ત સાર્થવાહની પાસે લઈ ગયે સાગરદત્ત સાર્થવા પણ પહેલેથી જ પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદ્ય અને પદ્ય રૂપ ચાર જાતને આહાર તૈયાર કરાવીને રાખ્યું હતું તેણે મિત્ર વગેરે કોની સાથે જનદત્ત સાર્થવાહને આનદની સાથે જમાડયા અને ત્યારપછી તેણે સૌને અત્કાર તેમજ સન્માન કર્યું સત્કાર અને સન્માન કર્યા બાદ સાગરદત્તે સાગર દારકને પિતાની પુત્રી સુકુમારિકાની સાથે એક પટ્ટક ઉપર બેસાડે બેસાડીને સોના-ચાદીના કળશથી તેમને અભિષેક કરાવડાવ્યે અભિષેકનું કામ પૂરું થયા બાદ તેણે અગ્નિહામ કરાવ્યે અગ્નિની વિધિ પૂરી થઈ ગઈ ત્યારે સાગરને પોતાની પુત્રી સુકુમારિકાને સાગરની સાથે હસ્તમેળાપ કરાવી દીધે , એટલે કે લગ્ન કરાવી દીધા | સૂ ૮
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगार धर्मामृतावणी टी० १० १६ र पुमारिकाचरितवर्णनम्
१९ मूलम्-तएण सागरदारए सूमालियाए दारियाए इम एयारूवं पाणिफास पडिसंवेदेइ से जहा नामए असिपत्तेइ वा जाव मुम्मुरेइ वा एत्तो अणिटुतराए चेव० पाणिफास पडिसंवेदेइ, तएणं से सागरए अकामए अवसव्वसे मुहतमित्तं सचिट्ठई, तएणं से सागरदत्ते संस्थवाहे सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मित्तणाइ० विउलेण असणपाणखाइमसाइमं पुप्फवत्थ जाव सम्माणेत्ता पडिविसज्जइ, तएणं सागरए दारए सूमालियाए सद्धिं जेणेव वासघरे तेणेव उवागगच्छइ उवागच्छित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धि तलिगंसि निवज्जइ, तर्पण से सागरए दारियाए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूव अंगफासं पडिसवेदेइ, से जहा नामए असिपत्तेइ वा जाव अमणामयराग चेव अगफास पच्चणुभवमाणे विहरइ, तएणं से लागरए अगफास असहमाणे अवसव्वसे मुहुत्तमित्तं सचिटइ,तएण से सागरदारए सूमालिय दारिय सुहपसुत्तं जाणित्ता सूमालियाए दारियाए पासाउ उट्टेइ, उद्वित्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणीयसि निवज्जइ, तएणं सूमालिया दारिया तओ मुहुत्ततरस्स पडिवुद्धा समाणी पइव्वया पइ. मणुरत्ता पति पासे अपस्समाणी तलिमाउ उट्टेइ, उद्वित्ता जेणेव से सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरस्स पासे णुवज्जइ, तएण से सागरदारए सूमालियाएदारियाए
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
दुच्चपि इमं एयार अंगफासं पडिसंह जार अकामए अवसव्वसे मुहत्तमित्तं संचिद्रा, तपणं सेसागरदारपसूमा लियं दारियं सुहपमुत्तं जाणित्तासयणिज्जाओ उडेड उद्विता वासघरस्स दार विहाडेइ विहाडित्ता मारामुक्के विव काए, जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए ॥ सू०९।।
टीका-'वएणं' इत्यादि । ततः ग्यल सागरदारसः मुगुमारिसाया दारि काया इममेतपक्ष्यमाणमकार पाणिम्परी-फरम्प प्रतिसदयति अनुभवति, कीदृशः स परस्पर्श' इति सष्टान्तमा:-' से नहानामए' इत्यादि । तद् यथा नामरम्म्यया टान्तम्-पृष्टान्त प्रदर्शयति-'असिपत्तेदवा' इत्यादि । मसि पत्रमिति पा=असिपत्र-खनः, यथा खाधारायाः स्पर्शः सोहमशस्यस्तद्वद सुक मारिका दारिकायाः करस्पर्श प्रतिसवेद्यत इति भारः । 'आप मुग्मुरे इ वा.' यावत् मुर्मुरेति या अत्र यावत् करणादिद योभ्यम्-'करपतेइ वा सुरपत्तेड वा
'तएण सागरदारए ' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद-अर्थात् सागरदारकने जय हस्तमिलाप किया तप (सागरदारण) उस सागर को (समालिया दारियाण) सुकुमारिकादारिकाका (पागिपास) वह हस्तका स्पर्श (इम एयारूप पोडसव देह ) इस प्रकार से रगा (से जहानामा असिपत्तेड या जाव मुम्मुर इवा, एत्तो अणितराए चेव० पाणिफास पडिसवेदेइ) जैसे वह असिपत्र तलवार का स्पर्श हो यावत् अग्नि कणमिश्रित भस्म कास्पश हो । यहा यावत् शब्दसे "कर पत्तेह" वा खुर पत्तेइवा, कलम चीरिया
'तएण सागरदारए' इत्यादि ટીકાર્થ–(M) ત્યારપછી એટલે કે સાગરદારકે જ્યારે હસ્તમેળાપ કર્યો ત્યાર (सागरदारए) ते सामने (सूमालियाए दारियाए) सुमार हाशिमा (पाणि पास) सायन। २५ (इमएया स्व पडिसवेदेइ) मा प्रभारी साय 3
(से जहा नामए असि पत्तेइ वा जाव अम्मरेइ वा, एत्तो अणिद्वत्तराए चव पाणिफास पडिसवेदेइ)
જાણે તે અસિપત્ર-તરવારને સ્પર્શ ન હોય, યાવત્ અગ્નિક૭ મિશ્રિત ભમને સ્પર્શ ન હોય અહીં યાવત” શબ્દથી
(करपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा, कलबचीरियापत्तेइ वा सत्ति,. . .
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधर्मामृतांषणी री०म० १६ सुकुमारिफाचरितवर्णनम् २०१ पलंघचीरियापत्तेह वा सत्तिअग्गेइ वा कोतग्गेइ वा तोमरग्गेइ वा भिंडिमालग्गेइ वा सूचिकलावएइ या विच्छुयडकेड वा कविकन्ट्रइ वा इगालेइ वा मुम्मुरेइ वा अच्चीइ वा जालेड वा आलाएइ पा सुद्धागणीइ वा भवेयास्वेसिया ?, नो इणढे समहे, करपत्रमिति वा क्षुरपत्रमिति वा कदम्वचीरिकापत्रमिति वा शक्त्यग्रमिति वा कुन्ताग्रमिति वा तोमराग्रमिति वा भिन्दिपालयनमिति वा विस्दश इति वा फपिकच्छुरिति वा अङ्गार इति वा मुर्मुर इति वा अचिरिति वा ज्वालेति वा, अलातमिति वाशुद्धाग्निरिति या भवेदेतद्रूप -स्यात् १, नायमर्थः समर्थ, इति । तत्र करपत्रक क्रकचं 'करवत् ' इति प्रसिद्ध क्षुरपनम्' उस्तरा' इति प्रसिद्धम् , कदम्पची. रिकापत्रम्-पदम्पचीरिका-तृणविशेप , अम्या अग्रभागोऽतितीक्ष्णो भवति तस्य पत्र, गक्तिा शस्त्रविशेपः-निशुल वा तस्या अग्रभागः स्व कुन्तः 'भाला' इति मसिद्ध शस्त्रविशेषः, तदग्रभागः, तोमरः बाग विशेषस्तदग्रभाग', मिन्दिपाला शस्त्रविशेषः सूचीकलाप सूचीसमूहस्तस्याग्रभागः, वृश्चिकदशा-वृश्चिक कण्टका, कपिकच्छुः-खर्चकारी बनस्पतिविशेषः, अङ्गारस-यालारहितोऽग्नि , मुर्मुर' अग्निपत्तेह वा, सत्ति अग्गेडवा कोतग्गेइवा तोमरग्गेइ वा, भिडिमालग्गे चा सूचिकलावएडवा विच्छुय डकेड वा कवि कच्छूइया इगालेइ वा मुम्मुरेइ वो अच्चोइ वा जालेइ वा आलाइ वा सुद्धागणीह वा भवेयारू वेषिया ? नो इणटे सम?) कर पत्र-कर वत, सुर पत्र-उस्तरा कदम्पचीरिका पत्र छुरिया घास-जिसका अग्रभाग अधिक तीक्ष्ण होतो है शक्ति-अग्र -शक्ति-विशूल अथवा आयुधविशेप का अग्रभाग कुन्ताग्र भाले की नोफ तोमराग्र-वाण की अनी भिन्दिपाल-शस्त्र विशेप-का अग्रभागसूची कलापका अग्रभाग-बिच्छु का डक कपिकच्छु-करेच-जिसके स्पर्श होनेपर खुजली आती है-ज्वाला रहित अग्नि, मुर्मुर-अग्निकमिश्रित तोमरग्गेइ वा, भिडिमालग्गे वा सूचिकलावएड या पिच्छुय डकेइ वा, विकच्छुइ वा इगालेइ वा, मुम्मुरेइ वा अच्चोइ वा जालेइ वा, आलाइ वा सुद्धागणीइ या भवेयारूवे सिया ? नो इणद्वे समढे)
કરપત્ર-કરવત, સુરપત્ર - અસ્ત્રો, કદ બચરિકા પત્ર-શુરિકા કે જેને અગ્રભાગ એકદમ તીર્ણ હોય છે, શકિત-અગ્ર-શકિત, -ત્રિશૂળ અથવા આયુધ વિશેષને અગ્રભાગ, કુતાગ્ર–ભાલાની અણી, મરાતીરની અણ, ત્રિદિવાલવિશેષને અગ્રભાગ, સૂચકલાપને અગ્રભાગ, વન ડખ, કવિછુ-કવચજેના સ્પર્શથી ખજવાળ આવે છે, જવાળા રહિત અગ્નિ, મુર્મર-અશિણ મિશ્રિત ભરમ, અચિં–લાકડાઓથી સળગતી વાળા, જવાળા-લાકડા વગરની
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
मानाचा
दुच्चपि इमं एा अंगकास पडिसनेदेड जान अकामए अवसव्वसे मुहुत्तमित्तं संधिट्ट, तएण मेसागरदारए सूमालियं दारियं सुहपमुत्तं जाणित्ता सयणिज्जाओं उट्ठेद्द उट्टिसा वासघरस्स दार रिहाइ बिहाडित्ता मारामुक्के विकाए जामेव दिसिं पाउच्भूपु तामेव दिसि पडिगए ॥ सू०९ ॥
टीस - 'वर्ण' इत्यादि । ततः खलु सागरदारकः शुद्धमारिया दारि काया इममेव प=क्ष्यमाणमार पाणिम्परम्पर्श प्रविसपेदयति = अनुभवति, पीदृशः स परस्पर्शः इवि रारान्तमाह:-' से जहानामए ' इत्यादि । तद् यथा नामम्=यथा ष्ष्टान्तम् दृष्टान्त दर्शयति-'असिपत्ते इत्यादि । असि पत्रमिति वा = असिपत्र - खङ्गः, यथा खाधारायाः स्पर्शः सोहमशयस्तद्वत् मुकु मारिया दारिकायाः परस्पर्श प्रतिसंवेद्यत इति भावः । ' जान मुग्मुरे वा० यावत् मुर्मुरेति या=भन यावत् करणादिद वोभ्यम् परपचेड या सुरपत्ते वा
3
2
'तएण सागरदारए ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरण) इसके बाद अर्थात् सागरदारकने जब हस्त मिलाप किया तब ( सागरदारण) उस सागर को (मालिया दारिया) सुकुमारिकादारिकाका (पागिपास) वह हस्तका स्पर्श (हम एयारुव पडिसने देइ ) इस प्रकार से लगा ( से जहा नाम असिपत्तेइ वा जान मुम्मुरेइवा, एतो अतिराए चेव० पाणिफास पडिसवेदेह ) जैसे वह असिपत्र तलवार का स्पर्श हो यावत् अग्नि कणमिश्रित भस्म का स्वर्ण हो । यहा यावत् शब्दसे " कर पत्ते " वा खुर पत्तेइया, कलन चीरिया
'तएण सागरदारए' इत्यादि
ટીકા (તન) ત્યારપછી એટલે કે સાગરદારકે જ્યારે હસ્તમેળાપ કર્યાં ત્યારે ( सागरदारए) ते सागरने ( सूमालियाए दारियाए ) सुकुमार हारिनो ( पाणि पास ) ते हाथना स्पर्श ( इमएया रूप पडिसवेदेइ ) या प्रमाणे साग्यो
( से जहा नामए असि पत्ते वा जाव मुम्मुरे वा, एतो अणिट्ठत्तराए चैव पाणिफास पडिसवेदे )
જાણે તે અસિપત્ર-તરવાર ને! સ્પર્શી ન હાય, યાવત્ અગ્નિકણુ મિશ્રિત ભસ્મના સ્પર્શ ન હેાય અહીં યાવત 'शहथी
( करपते वा खुरपतेइ वा, कलवचीरियापत्तेइ वा सत्ति
वा. कवग्गे
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनतारचर्मामृतदिगी टी० अ० १६ सुकुमारिकारितवर्णनम्
रिजनाथ त्रिपुनाशनपानखायस्वायेन पुष्पगन्धमाल्यालङ्कारेण सत्करोति समानयति सत्कृत्य समान्य प्रतिनिसर्जयति = प्रस्थापयति । ततः खलु सागरको दारकः सुकुमारिकया सार्धं यौन वासगृह - शयनगृहं तत्रैवोपागच्छति उवागत्य सुकुमारिकया दारिकया सारे 'तलिमसि' तलिमे देशीयोऽयशब्दः तल्पे - शयनीये 'निवड' निषीदति । ततः खलु स सागरदारकः सुकुमारिकाया दारिकाया इममेतदूपमगर पशु प्रतिवेदयति तद् यथानामक तत् प्रतिसवेदन दष्टान्तोपन्या सपूर्वक प्रदर्श्यते - असिपत्र था या अमनोमतरमेन सुकुमारिकाया अगस्पर्श अम्मापि मित्तणाइ० विउटेण असण पाणखाहम माइम पुफ्फवत्थ जाव सम्माणेत्ता पडिविसज्जति ) अतः वह सागर उसमें अभिलापा से रहित बन गया । फिर भी वहा विवश होकर वह कुछ समय तक ठहरा रहा। सागरदत्त सार्थवाह ने सागर दारक के मातापिता का तथा उसके मित्र, ज्ञाति स्वजन, सबन्धी परिजनो का विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वायरूप चतुर्विध आहार से एर्ने पुप्प वस्त्र, गन्ध, माला तथा अलकार से खूप सत्कार किया-सम्मान किया । सत्कार सन्मान करके फिर उसने सबको अपने यहां से विदा कर दिया । ( तरणं सागरए दारए समालिपाए सद्धि जेणेव वासगिहे तेणेच उवागच्छह उपागच्छता मानिवाए दारियाए सद्वि तलिगसि निवज्जह, तण से सागरए दारए सूमालियाए दारियाए इम एयास्व अगफास पडिसवेदे से जरानाम असि पत्तेश्वा जाव अमणामपरागचेच अगफास गरदत्ते सत्या सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मित्तणाइ० विउलेण अमण पाण खाइम साइम पुष्करत्थ जाव सम्माणेता पडिवि सज्जति )
એટલા માટે તે સાગર તેના અભિવાાથી રહિત મુની ગયા છતાએ તે ત્યા લાચાર થઈને થાડા વખત સુધી રાયે સાગરદત્ત સાÖવાણે સાગર દારકના માતાપિતાને તેમજ તેના મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન, સખી પરંજનાને વિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ રૂપ ચાર જાતના આહારથી અને પુષ્પ વજ્ર, ગધ, માળા તેમજ અલકારાવી અહુ સત્કાર અને સન્માન કર્યું સત્યાર તેમજ સન્માન કરીને તેણે સૌને પાતાને ત્યાથી વિદાય કર્યા
(तएण सागरए दारए सूमालियाए सद्धिं जेणेव वासगिहे तेणेव उवागच्छ नागच्छिता सूमालियाए दारियाए सद्वि तलिगसि निज्जर, वर्ण से सागरए दार मालिया दारियाए हम एयारून अगफास पडिमवेदे से जहा नामए -सपना-जान अनगामपराग चैत्र अवकास पच्चममाणे विहरइतपूर्ण
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
Cot
श्राशाभमेकवाद
पणमिश्रितभस्म अनि = इन्धन विषया पारा, जापा समू=मुद्धामा । असिपत्रादि-शुद्धपर्यन्ताना स्पर्श इय सुकुमरियायाः परम्पर्शो गयेयम् नागम समर्थयष्टतममूर करस्पर्श साम्य मातुं न समर्थः नः उत्पाद 'भनेत्र एतरमा असिपादीना स्पर्शदनिष्टतरक, अपान्ततस पत्र = अत्यन्तमरु मनीय एर, अमियतरक एय= मतिः गजमवण्य अमनोज्ञतरविशेयेन मनो विकृतिकारगण्य अमनोमतरपपरभविनयेन मनः मरिमेम्भूर्त पाणिस्पर्श सुकुमारिकादारिकायाः परम्पर्श प्रतिपेदयति = अनुभावि ।
1
तत खलु स सागरदारकः अकामक: = निरभिलापः 'असन्यसे' अपस्ववश:= 'अपगतस्थातन्त्र्यः विवशः सन् मुहूर्तमान = स्वोककाल सतिष्ठते ( ततः खलु स सागरदत्तः सार्थवाह सागरम्य दाररस्य अम्नापितरौ मिशा विस्वजनसम्बन्धिप
भस्म अर्चि - इन्धन प्रतिपद् ज्वाला, ज्वाला- इन्धन से रहित ज्वाला - अलात-उल्मुक शुद्धाग्नि- रोहपिण्डस्य अग्नि । इन असिपत्र से लेकर शुद्धअग्नि पर्यन्त पदार्थों का स्पर्श जैसा होता है वैसा ही सुकुमारिका के कर का स्पर्श हो सकता था परन्तु यहा यह अर्थ समर्थित नहीं है -अर्थात् उसके सुकुमारिका के कर स्पर्श में इन इष्टान्तों के स्पर्श की समानता नही मिल सकती है क्यों कि वह स्पर्श तो इनके स्पर्श से भी अधिक अनिष्टतर हीथा, अकान्ततरक ही था- अत्यन्त अक्मनीय था, अप्रिय तरकही था - अत्यन्त दुःखजनक ही था, अमनोज्ञतरक ही था - अत्यन्त मनो विकृतिजनक ही था, अमनोमतरक ही था - अपन 'मनः प्रतिकूल ही था । (aer से arate ratn अवसवसे मुहुत्तमित्त सचिss, तएण से सागरदत्ते सत्थवाहे सागरस्स दारगरस
જ્વાળા, અલાત-ઉત્સુક, શુદ્ધ અગ્નિ-લેાહડિસ્થ અગ્નિ-આટલી વસ્તુએનુ ગ્રહણ રવુ જોઇએ આ અસિપત્રથી માડીને શુદ્ધ અગ્નિ સુધીના પદાર્થોના જે જાતને સ્પર્શ હોય છે તેવા જ સુકુમારિકાના હાથને પણ સ્પર્શ હતા
પણ હકીકતમા તે આ વસ્તુઓની સમાનતા પણ તેના તીક્ષ્ણ સ્પશનીસાથે કરી શકાય તેમ નથી કેમકે તેના હાથના સ્પર્ધા તે ઉકત વસ્તુઓના સ્પર્શે કરતા પણ વધારે અનિષ્ટતર હતેા, અકાતતરક હતા, તીવ્ર કમનીય હતેા, અમિયતરક હતા, અત્યંત દુ ખજનક હતા, અમનામતરક હતા, ખૂબજ મને વિકૃતિજનક હતા, અમનામ તરક હતા, અહુ જ મન પ્રતિકૂળ હતા
(तरण से सागर अकामए सबसे मुहतमित्त सए से सा
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनारधर्मामृतदिगी टी० म० १६ सुकुमारिकारितवर्णनम् २०३ रिजनांश्च विपुलेनाशनपानखायनायेन पुप्पवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण सत्करोवि समानयति सत्कृत्व समान्य प्रतिविसर्जयति = प्रस्थापयति । ततः खलु सागरको दारकः मुकुमारिकया साध यनै वासगृह-शयनगृहं तत्रैवोपागच्छति उवागत्य सुकुमारिकया दारिफया साध तलिमसि तलिमे देशीयोऽयशब्दः तल्पे-शयनीये 'निवज्जड ' निपीदति । तत' खलु स सागरदारका सुकुमारिकाया दारिकाया इममेतमद्रूपमगस्पर्श प्रतिसवेदयति-तद् यथानामक तत् मतिसवेदन दष्टान्तोपन्यासपूर्वक प्रदयते-असिपत्र पा यावद् अमनोमतरमेन सुकुमारिकाया अगस्पर्श अम्मापियरो मित्तलाइ० विउटेण असण पाणखाहम साइम पुफ्फवस्थ जाव सम्माणेत्ता पडिविसज्जति ) अतः वह सागर उसमें अभिलाषा से रहित बन गया। फिर भी वहा विवश होकर यह कुछ समय तक ठहरा रहा । सागरदत्त सार्थवाह ने सागर दारक के मातापिता का तथा उसके मित्र, ज्ञाति स्वजन, संपन्धी परिजनों का विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चतुर्विध आहोर से एव पुष्प वस्त्र, गन्ध, माला तथा अलकार से खूब सत्कार किया-सन्मान किया। सत्कार सन्मान करके फिर उसने सपको अपने यहा से विदा कर दिया । (तपणं सागरए दारए सूमालियाए सद्धिं जेणेव वासगिहे तेणेव उवागच्छह उवागछिता समालिपारा दारिपाए सद्धि तलिगसि निवज्जइ, तरण से सागरए दारए सूमालियाए दारिया इम एयारूव अगफासं पडिसवेदेह से जहानामए असि पत्तेइवा जाव अमणामयरागचेव अगफास गरदत्ते सत्यवाहे सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मित्तणाइ० विउलेण असण पाण खाइम साइम पुप्फरत्थ जाव सम्माणेता पडिवि सज्जति)
એટલા માટે તે સાગર તેના અભિવાષાથી રહિત બની ગયો છતાએ તે ત્યા લાચાર થઈને છેડા વખત સુધી રેકા સાગરદત્ત સાર્થવાહે સાગર દારકના માતાપિતાને તેમજ તેના મિત્ર, જ્ઞાતિ, વજન, સબ ધી પરિજનને વિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારથી અને પુષ્પ વ, ગધ, માળા તેમજ અલ કારોથી બહુ સત્કાર અને સન્માન કર્યું સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તેણે સૌને પિતાને ત્યાંથી વિદાય કર્યા
(तएण सागरए दारए सूमालियाए सद्धिं जेणेव वासगिहे तेणेव उवागच्छद्र उवागच्छित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धि तलिगसि निरज्जइ, तएणं से सागरए दारए मूमालियाए दारियाए इम एयारूप अगफास पडिस वेदे से जा नामए सपने ना जाव अमगामपराग वेव गास पञ्चगुमरमाणे विदरइ तरणं
.
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४ मपत्नुमान् हिरति । समागलुग सागरानमा प्रापममरमानोऽपस
भागा सानका', गन मात्र मतिष्ठा म मागरदारका सुकुमारिको दारिका गुम्वानुमाया गुमारिकागदारिकायाः पात उतिष्ठति, उत्थाय या स्कमपनी कोपागति, उपागप अपनीये, “निवार निपीदवि सरितीत्यर्थः । तत गल सामारिका दामिनो मूर्तान्तरे भतिघुदा नागरिता सति पवित्रता परमगुरगा' प्रयनुरक्ता सपति प्रश्पनुरागिनी, पार्थे पतिमपश्यन्ती ' नलिमाउ सल्यावशयनीयात् उनिप्ठिति, उत्थाय यत्र पच्चणुभनमाणे विरतण से मागरण अगफार्म अमरमाणे अब सबसे मुहत्तमित्त मपिट्टः) इसके बाद मागग्दारक सुकुमारिका के साध जहा वासगृह-ठायन पर-या वहां गया परा जाकर वर उस सक मारिकाके साधर क शप्यापर पेट गयापिठ जाने पर उसमागरदारक को सुकुमारिका दारिकाका अगस्पर्श इमरूपसे प्रनीतgआ-जैसे माना असिपत्र आदिका स्पर्श हो । इन अमिपत्र (वगको यावत्) आदिका के स्पर्श से भी उसका वह अगस्पर्श यावत् अननामतरक ही था। इस 'प्रकार का उसका अगस्पर्श अनुभवता हुआ वह सागरदारक विवरण यनकर वहा कुछ समय तक ठहरो बाद में जय उससे सहन नहीं हआ तो । (तएण से सागरदारए समालिय दारिय सुरपयुक्त जाणित्ता सूमालियाए दरियाए पालाउ उठेह, उहित्तां जेणेव सए सय णिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागत्तिा सयणीयसि निवज्जइ, तण्ण समालिया दारिया तओ मुदत्ततरस्स पडियुद्धा समाणी पइन्वया पर से सागरए अगफास असहमाणे अवसबसे मुहृत्तमित्त सचिट्ठइ)
ત્યારપછી સાગર દારક સુકુમારિકાની સાથે ક્યા વાસગ્રહ-શનિઘર ઉત ત્યા ગયે, ત્યાં જઈને તે સુકુમારિકાની સાથે એક શખ્યા ઉપર બેસી ગયા બેઠા બાદ તે સાગર દારકને સુકુમારિકા દારિકાના અગસ્પર્શ એવા પ્રકારની જણાયે કે તે અસિપત્ર – તરવાર વગેરેને સ્પર્શ ન હોય ! અસિપત્ર વગેરે કરતા પણ તેને અગ સ્પર્શ યાવત અમનેમતરક હતો આ રીતે તેના અગ સ્પશને અનુભવ સાગર દારક લાચાર થઈને ત્યાં શેડા વખત સુધી રકા અને ત્યારબાદ જ્યારે તેને તે સ્પર્શ અસહ્ય થઈ પડે ત્યારે
(तएण से सागरदारए स्मालिय दारिय सुहपमुत्त जाणिता सूमालियाए दारियाए पासाउ उद्देइ, उद्वित्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छप, आ. जान्छिता सयणीयसि निवज्जइ, तएण सूमालिया ।
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृत पपिणी टी० भ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २०६ ' से ' तस्य शयनीयं तगोपागच्छति उपागत्य सागरदारकस्य पार्श्व ( निवज्जई) निपीदति-स्वपिति । ततः खलु स सागरदारका सुकुमारिकाया दारिकाया 'दुच्चपि ' द्वितीयवारमपि इममेतद्रूपम् पूर्वोक्तमकारसम् अगस्पर्श प्रतिसवेदयति यावद्-अकामकोऽपस्वपशो मुहतमात्र सतिष्ठति, ततः खलु स सागरदारका सुकुमारिका दारिका मुखप्रसुप्ता ज्ञात्वा शयनीयात् गग्यात उत्तिष्ठति, उत्थाय वासगृहस्य-शयनगृहस्य द्वार 'विद्दाडेड' घिाटयति = उद्घाटयति विघाटय 'मारामुक्के चित्र काए' मारामुक्त इव काफ:-मायन्ते माणिनो यस्या सा मारा मणुरत्ता पति पासे अपस्समाणी तलिमाउ उद्वेइ उद्वित्ता उवागच्छह ) वह सागरदारक उस सुकुमारिका दारिका को सुखसे सोई हुई जानकर उस सुकुमारिका दारिका के पास से उठ बैठा-और उठकर जहां अपनी शय्या थी वहां चला गया। वहां आकर उस पर पड़ गया इतने मे ही एक मुहर्त के बाद वह पति में अनुरक्त धनी हुई पतिव्रता सुकुमारिका दारिका जग गई और अपने पास पति को न देखकर अपने पलग से उठ बैठी । उठकर यह जहा सागरदारक का पलग था वहा गई। (उवागच्छित्ता सागरस्स पासे णुवज्जइ ) वहा जाकर वह उसके पास सो गई । (तएण से सागरदारए सुमालियाए दारियाए दुच्चपि इम एयारूवं अगफासं पडिसवेदेइ जाव अकामए अवसव्वसे मुहत्त मित्त सचिट्टइ, तएण से सागरदारए सूमालिय दारिय सुहपसुत्त पडियुद्धा समाणी पइन्चया पइमणुरत्ता पत्तिपासे अपस्समाणी तलिमाउ उद्वेइ उद्वित्ता आगज्छद)
તે સાગર દારક તે સુકુમારિકા દારિતાને સુખેથી સૂતેલી જાણીને તેની “પાસેથી ઉઠશે, અને ઉઠીને જ્યા પિતાની સચ્ચા હતી ત્યાં જ રહ્યો ત્યા જઈને તે તેની ઉપર પડી ગયે એટલામાં એક મુહૂર્ત પછી પતિમા અનુરકત બનેલી પતિવ્રતા સંકમારિક દારિકા જાગી ગઈ અને પિતાની પાસે પતિ ન જેતા પિતાની શયા ઉપરથી ઉઠી અને બેઠી ગઈ ત્યારપછી તે ઉઠીને જ્યા સાગર ६॥२४शल्या ती त्या ७ (वागछित्ता सागरस्स पासे णुवज्जइ) सां જઈને તે તેના પડખામાં સૂઈ ગઈ
__ (तएण से सागरदारए सूमालियाएदारियाए दुच्चपि इम एयारून अंगफासं __पडिसवेदेइ जाय कामए अवसबसे मुहुत्तमित्त सचिट्टइ,तएण से सागरदारए समा
लिगरियं मुहपसुत्त जाणिवा सयगिज्जाओ उद्देइ,उद्वित्ता वासयरस्स दार विहा.
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
kou प्रयत्नुमार हिरति । नागलुग सागराकाम्या प्रार्गमगामानोऽपस TRENTगा सानका , गा गरमा गनिष्ठी ग ग सागरदारका सुकुमारिको दारिका गुममगुप्तांगा गुमारिकामा दारिकायाः पाधन उतिष्ठनि, उत्थाय यौन सा अपनीयं तौगोपागमति, उपाग पनपनी', 'निनग्जा' निपीदति स्थापितीत्यर्थः । तापलु घरमारिशस दामिनो मूर्तान्तरे प्रतियुद्धा-नागरिता सति पवित्रता परमगुरगा' प्रपनुगत सपति प्रत्यनुरागिनी, पार्थं पतिमपश्यन्ती नरिमाउ ' तगान शयनीगाइ उतिष्ठिति, उयाय यन्त्र पच्चणुन्भरमाणे पिर नाण से मागगा अगफाम अमरमाणे अब सबसे मुहत्तमित्त मपिट) इसके बाद मागरदारक मुमारिका क साथ जहा वासगृह-शयन पर-पाच गया कहा जाकर पर उस सुक मारिकाके साथ 7 शय्यापर पेठ गया। पट जाने पर उसमागरदारक को सुमारिका दारिकाका अगस्पर्श इमरूपसे प्रनीत आ-जसे माना असिपत्र आदिका स्पर्श हो । इन अमिपत्र (पदगको यात) आदिका के स्पर्श से भी उसका वह अगस्पर्श यावन् अमनामतरक ही था। इस प्रकार का उसका अगस्पर्श अनुभपता हुआ वह सागरदारक विवश पनकर वहा कुछ समय तक ठारी याद में जय उससे सहन नहा हुआ तो । (तएण से मागरदारण सूमालिय दारिय सरपसुत जाणित्ता सूमालियाए दरियाए पालाउ उदेड, उद्वित्तां जेणेव सए सय णिज्जे तेणेव उवागच्छ, उवागत्तिा सयणीयसि निवज्जइ, तए समालिया दारिया तओ मुदत्ततरस्स पडियुद्धा समाणी पइन्वया पर से सागरए अंगफास असहमाणे अवसन्यसे मुहत्तमित्त संचिट्टइ)
ત્યારપછી સાગર દારક સુકુમારિકાની સાથે ક્યા વાસગૃહ-શયનઘર ? ત્યા ગયા, ત્યાં જઈને તે સુકુમારિકાની સાથે એક શખ્યા ઉપર બેસી ગયા બેઠા બાદ તે સાગર દારકને સુકુમારિકા દાંરિકાને અગસ્પર્શ એવા પ્રકારની જણાયે કે તે અસિપત્ર - તરવાર વગેરેને સ્પર્શ ન હોય! અસિપત્ર વગેરે કરતા પણ તેને અગ સ્પર્શ યાવત અમને મારક હતે આ રીતે અગ સ્પશને અનુભવ સાગર દારક લાચાર થઈને ત્યાં થોડા વખત સુ રોકાયે અને ત્યારબાદ જ્યારે તેને તે સ્પર્શ અસહ્ય થઈ પડે ત્યારે
(तएण से सागरदारए सूमालिय दारिथ सुहपमुत्त जाणिता सूमालिका हारियाए पासाउ बढेइ, उहित्ता जेणेव संए समणिग्जे तेणेव उवागच्छइ, आ गच्छित्ता सयणीयसि निवज्नइ, तएण समालिया ने
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
मनगारधामृतवाणी टी० अ० १६ सुकुमारिकायरितवर्णनम् २०६ से ' तस्य शयनीय तगोपागन्छति उपागत्य सागरदारकस्य पार्श्व ( निवजई) निपीदति-स्वपिति । ततः खलु स सागरदारकः सुकुमारिकाया दारिकाया 'दुचपि ' द्वितीयवारमपि इममेतद्रूपम् पूर्वोक्तपकारस्म् अगस्पर्श मतिसवेदयति याबद्-अकामकोऽपस्वाशो मुहूर्तमान सतिष्ठति, ततः खलु स सागरदारका सुकुमारिका दारिका सुखप्रसुप्ता ज्ञात्वा शयनीयात्-शग्यात उत्तिष्ठति, उत्याय वासगृहस्य-शयनगृहस्य द्वार 'विहाडेड' विघाटयति - उद्धाटयति विघाटय 'मारामुक्के चित्र काए' मारामुक्त इस काफमायन्ते माणिनो यस्या सा मारा मणुरत्ता पति पासे अपस्समाणी तलिमाउ उद्वेइ उद्वित्ता उवागच्छद) वह सागरदारक उस सुकुमारिका दारिका को सुखसे सोई हुई जोनकर उस सुकुमारिका दारिका के पास से उठ बैठा-और उठकर जहा अपनी शय्या थी वहीं चला गया। वहाँ आकर उस पर पड़ गया इतने मे ही एक मुहर्त के बाद वह पति में अनुरक्त बनी हुई पतिव्रता सुकुमारिका दारिका जग गई और अपने पास पति को न देखकर अपने पलग से उठ येठी । उठकर यह जरा सांगरदारक का पलग था वहा गई। (उवागच्छित्ता सागरस्स पासे गुवज्जह ) वहा जाकर वह उसके पास सो गई । (तण्ण से सागरदारए सुमालियाए दारियाए दुच्चपि इम एयारुव अगफास पडिसवेदेइ जाव अकामए अवसव्यसे मुहत्त. मित्त सचिट्ठइ, तएण से सागरदारए सूमालिय दारिय सुहपसुत्त पडियुद्धा समाणी पइन्चया पइमणुरत्ता पत्तिपासे अपस्समाणी तलिमाउ उठे उद्वित्ता आगज्छ।)
તે સાગર દારક તે સુકુમારિક દારિકાને સુખેથી સૂતેલી જાણીને તેની પાસેથી ઉઠ, અને ઉઠીને જ્યા પિતાની શય્યા હતી ત્યાં જતો રહ્યો ત્યા જઈને તે તેની ઉપર પડી ગ એટલામાં એક મુહૂર્ત પછી પતિમા અનુરક્ત બનેલી પતિવ્રતા સુકુમારિકા દારિકા જાગી ગઈ અને પિતાની પાસે પતિ ન જોતા પિતાની શય્યા ઉપરથી ઉઠી અને બેઠી ગઈ ત્યારપછી તે ઉઠીને જ્યાં સાગર 61२४ी शय्या ती त्या ४ (वान्छित्ता सागरस्त्र पासे गुवज्जइ) Ri જઈને તે તેના પડખામાં સૂઈ ગઈ
(तएण से सागरदारए समालियाए दारियाए दुच्चपि इम एयारून अंगफास पडिसवेदेइ जाव अकामए अवसबसे मुहुत्तमिच सचिइतएण से सागरदारए सूमा लिय दारिय सुहपसुत्त नाणिचा सयगिज्जाओ उद्देइ,उद्वित्ता वासघरस्स दार विहा
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०३
-
-
-
and rama शूना पम्यान, तस्याको निगा कामा -
मामा कम्पादयतः नियुक्त पिटिकाको यथा गती निर्गति , पस्था पर दिशः प्रादुर्भूतस्वागेर दिन मतिगतः ॥ १०॥
मूरम्-तएर्णसूमालिया दारिया तओ मुहत्तरस्स पडिबुद्धा पइवया जाव अपासमाणी मयणिनाओ उटेड सागरस्स दारियाए सबओ समता मग्गणगसणं करमाणोर वासघ रस्स दार विहाडियं पासइ पासित्ता एवं बयासी-गए. से जाणित्ता सयणिज्जाओ उठेर, उहिता वासघरसर दार विहाढेई, विहाडेत्ता मारामुरके रिका जामेय दिमि पाऊभू तामेव दिसि पडिगए) सागरदारक को सुकुमारिका दारिका का अगरराग दुवा राभी वैसा ही पूर्भेक्तरूप से अनुमर में आया-अन. उसके पास सोने की इच्छा न रोने पर भी वर विवशहोकर कुर समय तक उसके पास सोता रहा-जर वह अच्छी तरह सो गह-तम वह उसे सुस प्रसुप्तजा नकर उसके पास से उठो-और उटकर उसने उस वास गृह के दरवाजे को खोला सोलकर जिस प्रकार 'मारामुक्त' फाफ पढ़े वेगसे निकलता है -उसी तरह यह भी पहुत जल्दी वहा से निकलकर जिस दिशा से प्रकट हुआ था-उसी दिशा तरफ चोपिस चला गया। जिस मे प्राणी मारे जाते हैं उसका नाम मारा-शुना- वधस्थान है। इस मारा से निकला हुआ अथवा मारनेवाले पुरुप के हाथ से छूटा हुआ-ऐसे ये दी अर्थ " मारमुक्त" इस शब्द के हो सकते है। सू० ९ देई,विहाडित्तामारामुक्के विव काए जामेव दिसि पाउन्भूए तामेदिसि पडिगए)
સાગર દારકને સુકુમારિકાને બીજીવાર અને સ્પર્શ પણ પહેલાની જેમજ લાગે એટલા માટે તેની પાસે સૂવાની ઈચ્છા ન હોવા છતા એ તે વિવશ થઈને ડીવાર સુધી તેની પાસે પડી રહ્યો જ્યારે તે સારી રીતે સૂઈ ગઈ ત્યારે તે તેને સુખેથી સૂતી જાણીને તેની પાસેથી ઉઠો અને ઉઠીને તેણે તે વાસગૃહના બારણાને ઉઘાડયું ઉઘાડીને જેમ મારા-મુક્ત કાગડે જદી નીકળી જાય છે તેમજ તે પણ બહુ જ ત્વરાથી ત્યાંથી નીકળીને જે દિશા તરફથી આવ્યું હતું તે જ દિશા તરફ પાછો જતો રહ્યો જે સ્થાને પ્રાણીઓ મારી નાખવામાં આવે છે તેનું નામ “મારા” (વધસ્થાન) છે આ “મારા થી
ને આમ બે અર્થો “મારામુક્ત” શબ્દના થઈ શકે છે | સત્ર ૯ છે
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०७
मनगारधर्मामृतवषिणी टी० भ०,१६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् सागरे तिकट्ट ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ, तएणं सा भद्दा सस्थवाही कल्लं पाउ० दास चेडियं सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम देवाणुप्पिए । वहुवरस्त मुहधोवणियं उवणेहि, तएण सा दासचेडी भदाए एवं वुत्ता समाणी एयम तहत्ति पडिसुणति, मुहधोवणिय गेण्हइ गेण्हित्ता जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं जाव झियायमाणि पासइ पासित्ता एवं वयासी - किन्नं तुम देवाणुप्पिया। ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहिसि , तएणं सा सूमालिया दारिया तं दासचेडी एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया | सागरए दारए मम सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उद्वेइ उद्वित्ता वासघरदुवार अवगुणइ जाव पडिगए तएण तओ अह मुहत्तंतरस्स जाव विहाडियं पासामि, गए ण से सागरएत्तिक
ओहयमण जाव झियायामि, तएण सा दासचेडी सूमालियाए दारियाए एयम? सोच्चा जेणेव सागरदचे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरदत्तस्स एयम निवेएइ, तएणं से सागरदत्ते दासचेडीए अतिए एयमट्ट सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जेणेव जिणदत्तस्स सत्थवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जिणदत्तं एव वयासी-किण्णं देवाणुप्पिया | एव जुत्तं वा पत्तं वा कुलाणुरूत्र वा कुलसरिसं वा जन्न सागरदारए सूमालियं दारिय अदिट्ठदोस पइवयं
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८
नाणा विप्पजहाय इहमागओ बहुर्हि सिजणियाहि य कंटणियाहि य उवालभइ, तपणं जिणदत्ते सागरदत्तस्स एयम सोचा जेणेव सागरण दारए तेणे आगच्छद उवागठित्ता सागरयं दारयं एवं वयासी-ट्टणपुत्ता! तुमे कय सागरदत्तस्स गिहाओ इह हव्यमागते, तेणं तं गच्छह णं तुमं पुत्ता ! एवमवि गए सागरदत्तस्स गिहे, तणणं से सागरए जिणद एव वयासी-अवि आइ अह ताओ । गिरिपडणं वा तरुप डणं वा मरुप्पवायं वा जलप्पवेस वा जलगप्पवेसं वा विसभक्खणं वा सत्थोवाडण वा वेहाणस वा गिद्धापिट्ट वा पवज वा विदेसगमण वा अन्भुवगच्छिन्नामि नो खल्लू अहं सागरदत्तस्त गिहंगच्छिज्जा, तएण से सागरदत्ते सत्थवाहे कुड्डतरिए सागरस्स एयम निसामेइ निसामित्ता लजिए विलीए विड्डे जिणदत्तस्स गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालिय दारिय सद्दावेइ सदावित्ता अके निवेसेइ निवेसित्ता एव वयासी-किपण तुम पुत्ता | सागरएण दारएणं मुक्का १, अहणं तुम तस्स दाहामि जस्स णं तुम इहा जावे मणामा भविस्ससित्ति सूमालिय दारिय ताहि इट्टाहि वग्गूहि समासासेइ समासासित्ता पडिविसज्जेइ ॥ सू० १०॥
टीका-'तएण' इत्यादि । ततातन्निर्गमनानन्तर खलु सुकुमारिका वारिका तनो महान्तरे प्रतिबुदा जागरिता सवो पतिव्रता यावत् पतिमपश्यन्ती
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम्
२०९ शयनीयात् शय्यात उत्तिष्ठति, उत्थान सागरस्स दारकस्य सर्वतः समन्ताद् मार्ग णगवेपण कुर्वती२ वासगृहस्य-शयस्य द्वार विवाटितम् उद्घाटित पश्यति, दृष्ट्वा एवमयादीत्-गतः स सागरताः , इति कृपा 'ओहयमणस कप्पा' अपह तमनः सकल्पा-नष्टमोरपा, यावर ध्यायति आर्तभ्यान करोतिस्म । त्तस्तदन न्तर भद्रा सार्थवाही 'रल 'कल्ये द्वितीय दिवसे प्रादुः प्रभातायां रजन्या यावत् तेजसा ज्वलति-दीप्यमाने सूर्य उदिते दामचेटी-दामपुरी शब्दयति, शवयित्वा
तएण समालिआ दारिया' इत्यादी । टीकार्थ-(तराण) उसके बाद नमालिश दारिवा) सुकुमारिका दारिका (तओ मुहत्ततरस्स पडिबुट्टा पडक्या जाव अपासमाणा) एक मुहूर्त के याद जग पडी-सो उन्म पतिव्रता ने कहा अपने परिको जप नहीं देखा तप (सयणिज्जाओ उठेइ, सागरस्स दारगस्ल मव्याओ समता मग्गण गवेसण करेमाणी २ वास परम्स दार विहोडिय पामड, पामित्ता एव क्यासी) पलग से उठी उठकर उसने सागर दारक की वहीं पर सय और घार २ मार्गण गवेषणा की- । जब उसने शयन गृह के दरवाजे को उबड़ा हुआ देर ।-तय उसे विचार आया कि ( गये से सागरे त्ति कटु ओत्यमणसकपा जाव नियायइ, तराण सा महासत्यवाही कल्ल पाउ० दासचेडिय समावेह ) कि सागर चले गये है । इस प्रकार अपहतमनःसकल्प होकर वह विचार में पड गई, इतने मे भद्रा सार्थवा
( तएण सूमालिया दारिया इत्यादि
टी14-( तएण ) त्या२मा (सूमालिया दारिया ) सुपर हारि (तओ मुहु तत्तरस्स पडिसुद्धा पइचया जाव अपासमाणी ) से मुड़त छ। જાગી ગઈ તે પતિવ્રતાએ ત્યાં પોતાના પતિને જ્યારે જોયા નહિ ત્યારે
(सयणिज्जाभी उटेड, सागरस्स दारगस्स सपओ समता मग्गणगवेसण करेमाणी २ वासघरस्म दार विहाडिय पासइ, पासित्ता एव वयासी)
રચ્યા ઉપરથી ઊભી થઈ અને ત્યારપછી તેણે ત્યાજ આસપાસ મેર સાગર દારકની માર્ગણ-ગવેષણ કરી જ્યારે તેણે શયનગૃહના બારણાને ઉઘાડેલું જોયું ત્યારે તેને વિચાર આવ્યું કે
( गए से सागरे तिकटूटु ओहयमणमाप्पा जाब झियापड, तण्णं मा __ भदा सत्यवाही कल पाउ दामचेडिय सद्दावे)
સાગર જતા રહ્યા છે. આ રીતે અપહત મન સકત્પવાળી થઈને તે
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
New
२००
तामा विपजहाय इहमागओवरहि सिज्जणियाहि य टणियाहि य उबालभइ, तगणं जिणदत्ते सागरदत्तस्स एयमह सोचा जेणेव सागरए दारए तेणेर उवागच्छद यागन्धित्ता सागरयं दारयं एवं वयासी-दट्टण पुत्ता! तुमे कयं सागरदत्तस्स गिहाओ इहं हव्यमागते, तेणं तं गच्छह णं तुमं पुत्ता ! एवमवि गए सागरदत्तस्स गिहे, ताणं से सागरए जिणदत्तं एव वयासी-अधि आइ अह ताओ ! गिरिपडणं वा तरुप डण वा मरुप्पवाय वा जलप्पवेस वा जलगप्पवेस वा विसभक्खण वा सत्थोवाडण वा वेहाणसं वा गिहापिट्ट या पवज वा विदेसगमण वा अन्भुवगच्छिन्नामि नो खल्लु अहं सागरदत्तस्स गिहंगच्छिज्जा, तएण से सागरदत्ते सत्थवाहे कुड्डतरिए सागरस्स एयम निसामेइ निसामित्ता लजिए विलीए विड्डे जिणदत्तस्स गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालिय दारिय सदावेइ सदायित्ता अके निवेसेइ निवेसित्ता एव वयासी-किणं तुम पुत्ता ! सागरएण दारएणं मुका १, अहंणं तुम तस्स दाहामि जस्त णं तुम इहाजाव मणामा भविस्ससित्ति सूमालिय दारिय ताहि इटाहि वग्गूहि समासासेइ समासासित्ता पडिविसज्जेइ ।। सू० १०॥
टीका-तएण ' इत्यादि । ततः तन्निर्गमनानन्तर खल सुकुमारिका धारिका तो बहुन्विरे प्रतिवद्धा जागरिता सतो पतिव्रता यावत् पतिमपश्यन्ती
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २०९ शयनीयात्-गव्यात उत्तिष्ठति, उत्याप सागरस्स टारकस्य सर्वतः समन्ताद् मार्ग णगवेपण कुती वासगृहस्य-शयास्य द्वार विवाटितम् उद्घाटित पश्यति, दृष्ट्वा एवमवादीत्-गतः स सागरनामा, इति कृपा 'ओहयमणसम्पा ' पद तमनः सकल्पा-नष्टमोरथा, यावर ध्यायति-आते यान करोतिस्म । ततस्तदन न्तर भद्रा सार्याली ' मल्ल 'कल्ये-द्वितीयदिवसे प्रादुः प्रभातायाँ रजन्या यावत् तेजसा ज्वलति-दीप्यमाने सूर्य उदिते दामचेटीका दामपुीं शब्दयति, शब्दयित्वा
तएण समालिआ दारिया' इत्यादी । टीकार्य-(तण्ण) इसके बाद (मालिया दारिता) सुकुमारिका दारिका (तओ मुहत्ततरस्स पडिवुढा पडवया जाय अपासमाणो ) एक मुहूर्त के बाद जग पड़ी-सो उस पतिव्रता ने वहा अपने पनिको जव नही देवा तप (सयणिज्जाओ उष्टेड, सागरस्स दारगस सव्वाओ ममता मगण गवेसण सरेमाणी २ वास परस्म दार विरोडिय पामड, पालित्ता एव वयासी) पलग से उटी उठफर उसने सागर दार की वहीं पर सर और घार २ मार्गण गवेपणा की- । जर उसने शयन गृह के दरवाजे को उघड़ा हुआ देर ।-तब उसे विचार आया कि ( गये से सागरे त्ति कह ओयमणसका जाव झियायद, तएण सा महासत्यवाही कल्ल पाउ० दासचेडिय सहावेइ ) कि सागर चले गये हैं। इस प्रकार अपहतमनःसकल्प होकर वर विचार में पड़ गई, इतने मे भद्रा सार्थवा
(तएण सूमालिया दारिया इत्यादि
टीबाय-( तरण ) त्यारा (सूमालिया दारिया ) सुपर हारि। (तओ मुहततरस्स पडिसुद्धा पइवया जाव अपासमाणी ) ४ भुत पछी જાગી ગઈ તે પતિવ્રતાએ ત્યા પિતાના પતિને જ્યારે જોયા નહિ ત્યારે __ (सयणिज्जाओ उठेइ, सागरस्स दारगस्स सव्यओ समता मग्गणगवेसण करेमाणी २ पासघरस्स दार विहाडिय पासइ, पासित्ता एव वयासी)
શયા ઉપરથી ઊભી થઈ અને ત્યારપછી તેણે ત્યાજ આસપાસ મેર સાગર દાગ્યની માર્ગણ-ગવેષણ કરી જ્યારે તેણે શયનગૃહના બારણાને ઉઘાડેલુ જોયુ ત્યારે તેને વિચાર આવે કે
(गए से सागरे तिकटूट ओहयमणमाप्पा जाब झियायड, तणं मा ___ भदा सत्यवाही कह पाउ दामचेडिय सदावे) - સાગર જતા રહ્યા છે. આ રીતે અપહત મન સકત્પવાળી થઈને તે
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०१
विप्पजहाय इहमागओ बर्हि रिवजणियाहि य कंटणियाहि य उबालभइ, तपणं जिणदत्ते सागरदत्तस्स एयमह सोचा जेणेव सागरए दारए तेणेव उपागच्छद यागन्छित्ता सागरयं दारय एवं वयासी-दृढणं पुत्ता! तुमे कय सागरदचस्स गिहाओ इह हव्यमागते, तेणं तं गच्छह णं तुमं पुचा ! एवमवि गए सागरदत्तस्स गिहे, तपणं से सागरए जिणदत्त एवं वयासी-अवि आइ अह ताओ! गिरिपडणं वा तरुप डण वा मरुप्पवायं वा जलप्पवेसं वा जलणप्पवेस वा विसभक्खणं वा सत्थोवाडण वा वेहाणस वा गिद्वापिट या पवज वा विदेसगमणं वा अन्भुवगछिजामि नो खल्लु अहं सागरदत्तस्त गिहं गच्छिज्जा, तएण से सागरदत्ते सत्थवाहे कुड्डतरिए सागरस्स एयम निसामेइ निसामित्ता लजिए विलीए विड्डे जिणदत्तस्स गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालिय दारिय सदावेइ सहावित्ता अके निवेसेइ निवे. सित्ता एव वयासी-किण्णं तुम पुत्ता | सागरएण दारएणं मुक्का १, अहंणं तुम तस्स दाहामि जस्स णं तुम इहा जावं मणामा भविस्ससित्ति सूमालिय दारिय ताहि इटाहि वग्गूहि समासासेइ समासासित्ता पडिविसज्जेइ ॥ सू० १०॥
टीका-'तएण' इत्यादि । ततः तन्निर्गमनानन्तर खलु सुकुमारिका द्वारिका ततो मुहूर्वान्तरे प्रतिबुद्रा जागरिता सतो पवित्रता यावत् पतिमपश्यन्ती
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगराधर्मामृतवाणी टीका० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २११ हे देवानुप्रिये ! हे मुकुमारिके ! किं=कुतः खलु लम् पहतमनः सकल्पा यावत् ध्यायसि ?, ततस्तदनन्तर सा सुकुमारिका दारिका ता दामचेटीमेवमयादीत-हे देशानुप्रिये ! एव खलु सागरको दारको मा सुसपसुप्ता ज्ञात्वा मम पादुत्तिष्ठति, उत्थाय वासगृहद्वारम् ' अवगुणइ ' जागुणयति अपाणोति उद्घाटयति, 'यावत् प्रतिगत ' यस्याः एव दिशः मादुर्भूतस्तामेव दिश प्रतिगत । ततस्तदनन्तर खलु 'तो' ततो मुहूर्तान्तरेऽह यानत्-प्रतियुद्धा सती सागरदारकमपश्यन्ती शयना दुत्तिष्ठामि, उत्थाय तम्य मार्गणगवेपण कुर्वती नासगृहस्य द्वार विराटित पश्यामि गतः खलु स सागरकः' इति कृत्वा इति हेतोरहम् अपठतमनः माल्पा यावद्चिता मग्न देखा-देखकर उसने उससे पूछा कि हे देवानुप्रिये ! क्या कारण है जो आप अपहतमन' सकल्पा होकर चिन्ता मग्न बनी हुई हो' इस दासचेटी के प्रश्नको सुनकर उस सुकुमारिका ने उस से कहा-देवानुप्रिये-सुनो-सागरदारक मुझे सुप प्रलुप्त जानकर मेरे पास से उठे और उठकर वासगृह के दरवाजे को गोलकर जहा से आये थे वहां चले गये है। (तए ण तओ अह मुहत्ततरस्म जाव विहाडिय पासामि गएण से सागरण त्तिक ओत्यमाण जाव झियायामि, तए ण सा दामचेडी सूमालिया दारियाए एयमट्ठ मोच्चा जेणेव सागरदत्ते तेणेव उयागच्छह ) उसके बाद ज्योही में जगी-तो मैंने जब सागर दारक को अपने पास नहीं टेग्वा-तो में शय्या से उठ बैठी-और उठकर मेने उनकी यही पर सर तरफ आर्गण गवेपणाकी उसमे मेने वासगृह के दरवाजे उघडा पाया-तन में समझ જઈને તેણે સકુમારિકા દારિતાને ચિંતામાં ગમગીન જોઈ જોઈને તે રસ પૂછયું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! શા કારણથી તમે અપહત મન સ તલપા થઈને ચિતામા બેઠા છે ? દાસચેટીના પ્રશ્નને સાભળીને તે સુકુમારિકાએ તેને કહ્યુંકે હે દેવાનુપ્રિયે ! સાભળે, સાગર દાર મને સુખેથી સૂતી જાણીને મા પાસેથી ઉભા થયા અને ઉભા થઈને વાસગૃહના બારણાને ઉઘાડીને જ્યાથી આવ્યા હતા, ત્યાં જતા રહ્યા છે
(तएण तओ अह मुहुत्ततरस्म नाव पिदाडिय पासामि गएण से सागरए त्ति कटु ओहयमण जार झियायामि, तएण सा दासचेडी, ममालियाए दारियाए एयम सोच्चा जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागन्छड)
- ત્યાર પછી જ્યારે હું જાગી ત્યારે મે સાગર દાર ને મારી પાસે જે નહિ, હું શા ઉપર ઉડૉ અને બેઠી થઈ ગઈ અને ત્યાર પછી મે અહીં જ _ તેમની બધે માર્ગણ–ગવેવણ કરી મે જ્યારે વાસગૃહના બારને ઉઘાડુ જોયુ
કે તેઓ ચાલ્યા ગયા છે આ વિચારથી જ હું અપહત
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१०
नये!' 'समी 'होपणेरि 'उपनय= माषय |
"
ततः
1
,
समद्र पतमर्थम् = एतद्वचन तथा अनुमति मतिय मुम्ब धान, गृह, उपागत्य कुमारिकां दारिकामेकाकिनीयात् ध्यायती-मार्च यान पश्यति कामनाहीने द्वितीय दिन प्रातः काल होते ही दामपुत्री को उलवा ( मद्दावित्ता यासी तुम देहिपनि उति तण सादामठी एत्ता समाणी एटत्तिपछि सुणति मुहघोषयि गेण्डर, उनागच्छित्ता, मालिय दारिय जाव झियायमाणि पाम, पासिता यामी फिन तुम देवगणुप्पिया ! ओरमणमरुपा जान शिवाहिति ? तण मा मालिया दारिया त दासचेडीं एव वयासी देवाणुपिया मागरण दारण मम सुहृपसुत्त जणित्ता मम पासोओ उद्देह, उद्वित्ता वासघरदुवार अवगु इ, जाव पडिगए) बुलाकर उससे ऐसा कहा कि हे देवाणु प्रिय 'तूजा, और पधूवर के पास इस दन्त धावन आदिरूप मुग्व भावनिका को ले जा भद्रा के इस कथन को उस दासचेटी ने " तहति " कहकर स्वीकार कर लिया और मुख धावनीका को ले लिया और लेकर फिर वह जहा वासगृह था वहा गई । वहा पहुँचकर उसने सुकुमारिका दारिका कों ચિંતામા ગમગીન થઈ ગઈ એટલામા બીજા દિવસે સવારે ભદ્રાસા વાહીએ દાસપુત્રીને લાવી
(सदावित्ता एव वयासी गच्छद ण तुम देवाणुप्पिए । बहवरस्म मुहधोवणिय उवणेहि, तपूर्णं सा दासचेडी भद्दाए एनवत्ता समाणी एयमंड तहत्ति परिणति मुधोवर्णिय गेण्es, गेण्हित्ता जेणेव वासघरे तेणेत्र आगच्छड, उवागच्छित्ता, सुमालि दारिय जाव झियायमार्णि पासइ पासित्ता एव वयासी - किन्न तुम देवाप्पिया ओहमणसऋप्पा जाव झियाहिसि ? तरण सासूमालिया दारिया त दासवेडी एव व्यासी- एव खलु देवाणुप्पिया ! सागरए दारए मम सुहपसुत जणित्ता मम पासाओ उडेइ, उद्वित्ता वासघरदुवार अनगुण, जात्र पडिगए) ખેલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તુ વરવધૂની પાસે આ દતધાવન વગેરે મુખધાનિકા લઇ જા ભદ્રાના આ કથનને સાભળીને તે દાસચેટીએ 'તડુત્તિ ” કહીને તેને સ્વીકારી લીધુ અને મુખધાનિકા ( દાતણુ ) ને લઈ લીધું અને લને નૈ જ્યાં વામગૃહ હતુ ત્યા ગઈ ત્યા
1
-
जाता
1
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी दो० भ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम्
२१३
विमाय त्यक्ता इहागतः कथमेतद् युक्त, यत् निर्दोषा सुकुमारिका विहाय सागरदारकोडन समायात इति । एव रहीभिः 'खिज्जणियाहि य' खेदनिका मि खेदपूर्णाभिस्तथा ' स्टणियाहि य = स्टणियामिव देशीयोऽय शब्दः, रोदनक्रियायुक्ताभिः वाग्भिः उपालभते = सागरदत्तो जिनदत्तस्य उपालम्भ करोतीत्यर्थ. ।
रात खलु जिनदत्तः सार्थवाह सागरदत्तस्य सार्थवाहम्यान्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निभ्य सागरदास्वनैवोपागच्छति, उपागत्य सागरक दारकं स्वपुत्रमेव = वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीव-हे पुत्र ! त्या खलु दुष्ठु शोभन कृतम् यद-सागदत्तस्य सार्थवाहस्य गृहादिव हव्यमागतः तव = तस्माद् गच्छ खलु त्व हे पुत्र ! एवमपि यथास्थितस्तवैन सागग्दत्तस्य सार्थवाहस्य गृहम् । सागरदारको जिनदत्तं सार्थवाहमेवमवादीत - हे तात! अपि निश्श्येन' आइ' इति वाक्यालकारे अह
दारिय अदिस पहचय विष्पजाय इट मागओ बहहिं खिज्जणियाहि य रुट्टणियाहि य उबालभइ ) हे देवानुप्रिय ! क्या पर बात योग्य हैअथवा कुलमर्यादा के लायक है, या कुल की योग्यता के अनुसार है। या कुल को शोभित करे ऐसी है, जो सागरदारक विना किमी दोपके देखे- पतिव्रता सुकुमारिका दारिका को छोड़कर यहा आ गया है इस प्रकार अनेक खेदपूर्ण एव रोदनक्रिया युक्त वचनोंसे सागरदत्तने अपने सनधी जिनदत्तको ठपका उलाहना दिया। (नणं जिणदत्ते सागरदत्तस्स यह सोच्चा जेणेव सागरए दारए तेणेच वागच्छद्द, उवागच्छित्ता सागरय दारय एवचयासी दुहुण पुत्ता तुमे कय, सागरदत्तस्स गिहाओ इह हुव्वमागए, तेण त गच्छत् ण तुम पुत्ता ! एवमविगण, सागरदत्तस्स गिहे, तरण से मागरए जिणदत्त एव वयासी-अत्रि आइ अह ताओ !
હૈ દેવાનુપ્રિય 1 શુ આ વાત વાખી છે ? કુળ મર્યાદાને લાયક છે ? અથવા તેા કુળની ચે!ગ્યતા મુજખ છે ? કુળને શૈાભાવનારી છે ? કે જે સાગર દારક કેઈ પણ જાતના દેષ જોયા વગર પતિવ્રતા સુકુમારીના દારિકાને ત્યજીને અહીં આવી ગયેા છે? આ રીતે મનને દુભાવનારા તેમજ ગળગળા થને રડતા રડતા ઘણા વચનાથી સાગરત્ત પેાતાના વેવાઇ જિનદત્તને ઠપકા આપ્યા (तरण जिनदत्ते सागरदत्तम्स एयमह सोचा जेणेन सागरए दारए तेणेत्र उवागच्छड, उनागच्छित्ता सागरय दास्य एन पयामी-दुण पुत्ता तुमे कय सागरदत्तस्स गिदाओ इद्द हव्यमागए, तेण त गच्छ ण तुम पुत्ता । एवमविगए, सागरदचस्स गिहे, तरण से सागरए जिणदत्त एव वासी - अवि आइ अह
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
aan
e munmunmun
.
aunwal-
Aawaamananema
२१२
| সাগমখায় आर्तध्यानध्यायामि । ततः ब सागरेटी गुमारिकागा रिफाया अन्ति के एतमर्थ श्रुतता, सागर सागर गुमारिकाया पिता, तोवोपा गच्छति, उपागलग त सागरदनसमय नियति । ततस्तदनन्तर स सागरदत्ता सार्यवाहो दासवेटयामन्ति के पसर्ग श्रुत्ला निशम्य आशुरप्तानीघ्र क्रोधाविष्टः सन यत्र जिनदत्तस्य गार्यवाहस्य गृह संयोपागछति, उपागत्य जिनदत्त सार्थबाइमेग्मगादीव-दे देवानुमियाय सतु पय युक्तम्-उमिन या प्राप्त फुलमर्यादामनुप्राप्त ना कुलातुरप-गुलयोग्यतावासमा कुलमहरा-कुलगाम्यापन्न वा, यत् सलु सागरो दारसः मुमारिका रिकामदीपा-निर्दोपा पतित्रता गई कि वे चले गये है हम विचार से में अपरतमनः सारप होकर आर्त योन-चिता-मे पड़ रही है। इस प्रकार सुकुमारिका की बात सुनकर वह दामचेटी बहुत सोच विचार करके वहा से सागरदत्त के पास आई । ( उबागच्छिता सागरदत्तस्स ण्यम निवेण्ड-तण्ण से मागरदत्ते दासचेडीए अतिए ण्यमट्ट मोच्चा निसम्म आसुरत्त जेणेच जिणदत्तस्स सत्यवाहस्स गिहे तेणेच उचागच्छद-उवाच्छित्ता जिणदत्त एव वयासी) वहाँ आफर उसने सगरदत्त से इस बात का कहा- इस तरह दासचेटी के मुग्व से इस घोत को सुनकर और उस हृदय में धारण कर सागरदत्त बहुत अधिक-युद्ध हुआ और उसो समय जहा जिनदत्त सायचार का घर था वहा गया । वहा जाकर उसने जिनदत्त से इस प्रकार कहा-(किण्ह देवाणुप्पिया ! एव जूत्त वा पत्त वा कुलाणुरूव वा कुलसरिस वा जन्न सागरदारए सूमोलिय મન સંકલ્પ થઈને આતંદયાન-ચિંતા-મા પડી છે આ રીતે સમારકાની વાત સાભળીને તે દાસ ચેટી ખૂબજ વિચાર કરીને ત્યાથી સાગરદત્તની પાસે ગઈ
उवागच्छित्ता सागरदत्तस्य एयमह निवेएइतएण से सागरदत्ते दासचेडाए अतिए एयम सोचा निसम्म आसुरुत्ते जेणेन जिणदत्तस्स सत्थवाहस्स गिई तेणे उपागच्छइ-मागच्छित्ता जिणदत्त एव पयासी)
ત્યા આવી ને તેણે સાગરદત્તને આ વાત કરી આ રીતે દાસ ચેટીના મુખથી બધી વિગત સાભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને સાગર દત્ત અત્યત ગુસ્સે થયો અને તરત જ ક્યા જિનદત્ત સાર્થવાહનું ઘર હતુ ત્યા ગમે ત્યાં જઈને તેણે જિનદત્ત સાથે વાહને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(किण्ण देवाणुप्पिया ! एव जुत्त वा पत्त वा कुलाणुख्त्र वा कुलसरिस वा जन्न सागरदारए ममालिथ दरियं अदिवदोस पइय विपनहाय इहमागओ वहहि खिज्जणियाहि य रुदृणियाहि य उवालभइ)
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टी० १० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् विप्रहाय त्यक्त्वा इहागतः-कथमेत्तद् युक्त, यत् निर्दोपा सुकुमारिका निहाय सागरदारकोऽत्र समायात इति । एव वहीभिः 'खिज्जणियाहि य' खेदनिकामिःखेदपूर्णाभिस्तथा ' रुटणियाहि य 'स्टणियाभिश्च देशीयोऽय शब्दः, रोदनक्रियायुक्ताभिः वाग्भिः उपालभते सागरदत्तो जिनदत्तस्य उपालम्भ करोतीत्यर्थः ।
तत खलु जिनदत्तः सार्थवाह सागरदत्तस्य सार्थवाहस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशभ्य यौव सागरदारकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सागरक दारक स्चपुत्रमेव वक्ष्यमाणपकारेण अबादीत्-हे पुत्र ! त्वया खल दुष्ठ अशोभन कृतम् यत्-सागरदत्तस्य सार्थवाहरय गृहादिह हव्यमागतः, तत्-तस्माद् गन्छ खलु त्व हे पुत्र ! एवमपि यथास्थितस्तथैव सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य गृहम् । सागरदारको जिनदत्तं सार्थवाहमेवमवादीत्-हे तात ! अपि-निश्चयेन — आइ' इति वाक्यालकारे अह दारिय अदिट्टदोस पइवय विप्पजहाय इह मागओ वहहिं खिज्जणियाहि य रुट्टणियाहि य उचालभइ ) हे देवानुप्रिय ! क्या यर बात योग्य हैअथवा कुलमर्यादा के लायक है, या कुल की योग्यता के अनुसार है या कुल को शोभित करे ऐसी है, जो सागरदारक विना किसी दोषके देखे-पतिव्रता सुकुमारिका दारिका को छोड़कर यहा आ गया है इस प्रकार अनेक खेदपूर्ण एव रोदनक्रिया युक्त वचनोंसे सागरदत्तने अपने सबधी जिनदत्तको ठपका-उलाहना दिया। (नएणंजिणदत्ते सागरदत्तस्स ण्यम सोच्चा जेणेच सागरए दारए तेणेच उवागच्छद, उवागच्छित्ता सागरय दारय एवषयासी-दुहुण पुत्ता तुमे कय,सागरदत्तस्स गिहाओ इह व्वमागए, तेण त गच्छह ण तुम पुत्ता ! एवमविगए, सागरदत्तस्स गिहे, तएण से मागरए जिणदत्त एव वयासी-अवि आइ अह ताओ!
હે દેવાનુપ્રિય! શું આ વાત વાજબી છે? કુળ મર્યાદાને લાયક છે ? અથવા તો કુળની ચોગ્યતા મુજબ છે ? કુળને શોભાવનારી છે ? કે જે સાગર દારક કઈ પણ જાતના દેવ જોયા વગર પતિવ્રતા સુકુમારીકા દારિકાને ત્યજીને અહીં આવી ગયો છે ? આ રીતે મનને દુભાવનારા તેમજ ગળગળા થઈને રડતા રડતા ઘણા વચનથી સાગર પોતાના વેવાઈ જિનદત્તને ઠપકે આ (तएण जिणदत्ते सागरदत्तस्स एयमह सोचा जेणे सागरए दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरय दारय एव वयासी-दुटुण पुत्ता तुमे फय सागरदत्तस्स गिहामो इह हव्यमागए, तेण त गच्छह ण तुम पुत्ता ! एवमविगए, सागरदत्तस्स गिहे, तएण से सागरए जिणदत्त एव वगासी-अवि आइ अह
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
लावण्यास ताया गिरिपतन पान या गप्पा निगरदेशगमन या जगप्रपात पागाधनले पतन पा, चलनवेश जादग्नी प्रांग या शिक्षणं वा, * सत्योपाडण ' गवारपाटन ग रितारण या, “हाणम वा'
हायस या पाण्ठे पाशरग्रहण ना, तया-पृष्ठ-2ी पानं मया गोप्दा दीना कलेपरे मवेशितस्य गरीरस्य मात्रामाग, च्या प्रवज्या II, विटश गिरिपडण घा तमपण चा मनपवाया रपयेम पारणपवेस वा विसमस्यण वा सत्योपाउण या पेशागम या निद्रापिट वा परज्ज वा विदेसगमण वा अन्भुवगछिनामि. नो पल्टु अर मागग्दत्तस्न गिह गच्छिज्जा) जिनदत्त सागरदत्त के म उलाहन रूप अब को सुन फरके जहां सागरदारक था वहां गगा-यां जाकर उसने मागर दारक से इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! यर तुमने अच्छा नही किया-जो तुम सागरदत्त के घर से या इतने जरदी आ गये। हमलिये हे वेटा। तुम जैसे यहा धैठे हो वैसे ही सागरदत्त के घर चले जाओ। तब सागरदारकने अपने पितो जिनदत्त से इस प्रकार कहा-पितोजी में आपकी आज्ञा से पर्वत से गिरना स्वीकार कर सकता है, वृक्ष से नीचे पड़जाना स्वीकारकर सकता-मरुप्रपात-निर्जलप्रदेश में जाना अगीकारकर सकता है, अगाधजल में कर सरसकता हैं तथा जलती हुई अग्नि में प्रवेश करना, विपकाभक्षण करना, शस्त्र से शरीर का ताओ । गिरिपडण वा तरुपडणं या मरुप्पनाय वा जलप्पवेस वा जल्णप्पवेस वा विसमक्खण वा सत्थोबाडण वा वेहाणस वा गिद्धापि हवा परज्ज वा त्रिदेसगमण वा अन्भुवगच्छिज्जामि, नो खलु अह सागरदत्तस्स गिह गच्छिज्जा) જિનદત્ત સાગરદત્તના આ ઠપકાને સાંભળીને જ્યાં સાગર દારક હતો ત્યાં ગયો અને ત્યા જઈને તેણે સાગર દારકને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્ર! તમે આ જે કઈ કર્યું છે, તે સારું ન કહેવાય તમે સાગરદત્તના ઘેરથી આટલા જલદી આવતા રહ્યા આ ઠીક નથી એથી હે બેટા! તમે અત્યારે જેવી સ્થિતિમાં છે તેવી જ સ્થિતિમાં સાગરદત્તને ઘેર જતા રહે ત્યારે સાગર દારકે પિતાના પિતાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પિતાશ્રી ! તમારી આ નાથી હુ પર્વત ઉપરથી નીચે ગબડી પડવું સ્વીકારી શકુ છુ, વૃક્ષ ઉપરથી નીચે પડી જવું સ્વીકારી શકુ છુ, મરુખપત-નિર્જળ પ્રદેશમાં જવું સ્વીકારી શકુ છુ, ઊંડા પાણીમાં ડૂબીને મરી શકુ છુ, તેમજ સળગતા અગ્નિમા પ્રવેશવુ, વિષનું ભક્ષણ કરવું, શસ્ત્રના ઘાથી શરીર ને કાપવું, ગળા તા'
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टी० १० १६ सुफुमारिकाचरितवर्णनम गमन वा अभ्युपगच्छामि स्वीकरोमि किंतु खलु-निश्चयेन मागरदत्तस्त्र सार्थवाहस्य गृहे नैवगच्छामि । ततस्तदा-स सागरदत्तः सार्यवाहः कुडयान्तरित = मित्तिव्यवधानेन स्थितः सागरस्य दारकस्य एतमर्थम्-उक्त पचन निशामरति-पृणोति, निशाम्य लज्जित स्वय, वीडितः परतः 'रिडे 'पिडादेशीयोऽय शब्द: स्वपरतोलज्जितः, जिनदत्तम्प गृहात् प्रतिनिष्कामति-निर्गच्छति । प्रतिनिष्क्रम्य यत्र स्त्रक गृह तगोपागच्छति, उपागत्य सुकुमारिका दारिका शब्दयति, शब्दपित्वा अड्के-उत्सदे निवेसेड 'निवेगयति= उपवेशयति, निवेश्य एपमपादीत-हे पुत्री 'किंकेन कारणेन सलु त माग ण दारकेग ' मुश' मुक्ताम्यता।
विदारण करना गले में फानी लगाकर मरजाना, गज, उद आदि के मृतकलेवर मे मैं अपने आपको प्रविष्ट कराकर उस शरीरको तयुद्धि की कल्पना से गृद्ध पक्षियों द्वारा मक्षण करवाना हसन में स्वीकार कर सकता, इमी तरह दीक्षागृरण करना अवमा विदेश में चलेजाना भी स्वीकारकर सकता है-परन्तु मैं सागरदत्त के घरजानास्वीकार नहीं कर सकता हूँ । अर्थात् ये सब पूर्वोक्त आपकी आजार मुझे विना किसी सकोचके या विचारके माय है परन्तु सागरदत्तके घरजाना मुझे मान्य नहीं है । (तपण से सागरदत्ते सत्यवाहे कुडतरिए सोगरम्स एयम नि सामेइ, निसामित्तालज्जिए, रिलीए, वि? जिनदत्तस्स गिहाओ पटिनिक्वमह पडिनिक्खमित्ता जेणेवसागिहे तेणेव उवागच्छह, उवाच्छिता सुकुमालियं दारिय सदावेइ, सदायित्ता अकेनिवेसेह, निवेसित्ता एव वयासी, किण्ण तुम पुत्ता सागरएण दारएण मुक्का? अह ण तुम तस्स
ભેરવીને મરવુ, હાથી ઊટ વગેરેના મરેલા શરીરમાં પ્રવેશ કરી મારા શરી રને મૃતબુદ્ધિની કલ્પનાથી ગીધ પક્ષીઓને ખવડાવવુ આ બધુ હુ સ્વીકારી શકુ તેમ છુ, તેવી જ રીતે દીક્ષા ગ્રહણ કરવી અથવા તે પરદેરામાં જતા રહેવું પણ હું સ્વીકારી શકું છું પણ હું સાગરદત્તના ઘેર જવું સ્વીકાગ્યા તૈયાર નથી એટલે કે આ બધી ઉપરની તમારી આજ્ઞાએ મને કઈ પણ જાતની વિચાર કર્યા વગર માન્ય છે, પણ સાગરને ત્યાં જવુ માન્ય નથી (तएण से सागरदत्ते सत्यवाहे कुहुतरिए सागरस्स एयमट्ठ निमामेड, निसामित्ता लज्जिए, रिलीए, विइडे, जिनदत्तम्म गिदाओ पडिनिक्वमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेन सए गिहे तेणेव उनाग उद, उजागन्छित्ता सुकुमालिय दारिय सदावेड, समाविता के निसेइ, निवेसित्ता एव वयाती मिण पुत्ता सागरपण दारएण
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानाका तराया गिरिपतन ससाना मम्मपाल निर्गगगमन या जम्भपात पाअगाधनले पतन पा, चलाये जायग्नी मग या पिमक्षगं वा, 'सत्योपाडण पासवारपाटन
नग रपाया, 'दाणम वा' वैहायस ना यण्ठे पाशा तपा-टायटन पन मया गोष्ट्रा दीना कलेपरे मवेगितस्य गरीरस्थ मारामाग, या प्रवन्या गा, विदन गिरिपडण वा तमपण या मनप्पवाय बाजारपयेम या कालगणवेस या चिमभषण वा सत्योपाउण वा पेशागम या निद्रापिट वा पवाज वा विदेसगमण चा अभुगन्टिनामि, नो पटु अ मागरदत्तस्म गिह गच्छिज्जा) जिनदत्त सागरदत्त के इस उलारने रूप अर्थ को सुन करके जहां सागरदारक था चरा गया-
वजाकर उमने सागर दारक से इस प्रकार कहा-दे पुत्र ! यर तुमने अच्छा नहीं किया-जो तुम सागरदत्त के घर से यहा इतने जल्दी आ गये । इमलिये हे बेटा! तुम जैसे यहा घेटे हो वैसे ही सागरदत्त के घर चले जाभो । तम सागरदारकने अपने पिता जिनदत्त से इस प्रकार कहा-पितोजी ! में आपकी आज्ञा से पर्वत से गिरना स्वीकार कर सकता है, वृक्ष से नीचे पड़जाना स्वीकारकर सकता-मरुप्रपात-निर्जलप्रदेश में जाना अंगीकारकर सकता हूँ, अगाधजल में धूमकर मरसता हूँ तथा जलता हुई अग्नि में प्रवेश करना, विपकामक्षण करना, शस्त्र से शरीर का ताओ । गिरिपडण वा तरुपडणं गा मरुप्पाय वा जलप्पयेस वा जलणप्पवेस वा पिसभरग्वण वा मत्थोवाडण वा बेहाणस वा गिद्धापि हवा पवन वा विदेसगमण चा अभुवगच्छिज्जामि, नो खलु अह सागरदत्तस्स गिह गच्छिज्जा) જિનદત્ત સાગરદત્તના આ ઠપકાને સાંભળીને જ્યા સાગર દારક હતા ત્યા ગયે અને ત્યાં જઈને તેણે સાગર દારકને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્ર! તમે આ જે કઈ કર્યું છે, તે સારુ ન કહેવાય તમે સાગરદત્તના ઘેરથી આટલા જલ્દી આવતા રહ્યા આ ઠીક નથી એથી હે બેટા ! તમે અત્યારે જેવી સ્થિતિમાં છે તેવી જ સ્થિતિમાં સાગરદત્તને ઘેર જતા રહે ત્યારે સાગર દારકે પિતાના પિતાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પિતાશ્રી ! તમારી આ જ્ઞાથી હુ પર્વત ઉપરથી નીચે ગબડી પડવું સ્વીકારી શકુ છુ, વૃક્ષ ઉપરથી નીચે પડી જવું સ્વીકારી શકુ છુ, મરુખપત-નિર્જળ પ્રદેશમાં જવું સ્વીકારી શકુ છુ, ઊંડા પાણીમાં ડૂબીને મરી શકુ છુ, તેમજ સળગતા અગ્નિમા
જ પ્રવેશવુ, વિષનું ભક્ષણ કરવું, શસ્ત્રનાઘાથી શરીર ને કાપવું, ગળામા
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम्
जाव अन्निजमाणमग्ग, तएण से सागरदत्ते को डुवियपुरिसे सहावे सदावित्ता एवं बयासी तुम्भेण देवाणुप्पिया । एय दमगपुरिस विउलेण जमणपाणखाइमसाइम पलोभेहि पलोभित्ता हि अणुपवेसेह अणुष्पवेसित्ता खडगमलग खडघडग ते एगते एडेह एडित्ता अलकारियकम्म कारेह कारिता पहाय कयवलि० जाव सव्वालकारविभूसिय करेह करिता मणुष्णं असणपाणखाइमसाइम भोयावेह भोयावित्ता मम अतिय उवणेह, तएण कोडुवियपुरिसा जात्र पडिसुर्णेति पडिसृणित्ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवा गच्छद उवागच्छित्ता तं मग असण उवप्पलोर्भेति उवप्पलोभित्ता सय हि अणुपवेसिति अणुपवेसित्ता त खडगमलग खडगघडग च तस्स दमगपुरिसस्स एगते एडति, तएण से दम तसि खडमलगंसि खडघडगंसि य एते एडिज्ज माणसि महयार सण आरसइ, तएण से सागरदत्ते तस्स दमगपुरियस त महयार आरसियसद्द सोच्चा निसम्म कोडबियपुर से एव वयासी - किण्ण देवाणुप्पिया । एस दमपुरिसे महया महया सण आरसइ ' तएण ते कोडवियपुरिसा एव वयासी-एस णं सामी । तसिखडमलगम खडघडगसि एगते एडिनमाणसि महया महया सदेण आरसइ, तएण से सागरदत्ते सत्थ ते कोडुविपुरिस एव वयासी- मा ण तुम्भे देवाणुपिया । एयस्त दमगस्स त
२१७
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
मह खलु ता दास्पामि गम्प पर मिग-भिलपिता माना निगा मनोहा मनोमा मनोगता भविपनि गुमारिकाकारि गागिरिशामियांग्मि' 'समामासे' समाश्वास पनि गमाभाग पीमिर्जपनि मायापनि ॥ १० ॥
मूलम्-तपण से मागरढते एग महं दमगपुरिस पासइ दडिसडनिवसणसउगमलगघटगहत्थगयं मच्छियासहस्सेहि दहामि जस्स ण तुम हाजार मणामा मचिम्ममित्ति समानिय दारिय ताहि महाहि : ममामासेट, मानासित्ता पडिसिजेड ) वरी भित्ति के पीछे छुपाएमा नागरदत्त मार्यवार मागर-के उन पचनी को सुन रहा था । सो सुनकरके स्वय यहा लज्जित एा तथा दूसरोंसे भी उसे घड़ी शर्म आई इस तग' स्स और पर से लगाता हुआ वह जिन दत्त के घर से बाहर निकल गया। और जाकर अपने घर पहुँचा। वहा पहुँच कर उसने अपनी पुत्री सुगमारिका दारिमा को बुलाया -गुलाने पर जय पर आ गई तप उसे उसने अपनी गोदी में बैठा लिया पैठानेके बाद फिर उसने उमसे पूछा बेटी। मागरने तुम्हें किस कारण से छोड़ दिया है मैं तुम्हें उसी के द्गा । कि जिम के लिये तुम अच्ची तरह इष्टा, कान्ता, प्रिया, मनोजा एव मनोमा होओगी, इस प्रकार उसने सुकुमारिका दारिकालो उन२ इष्ट वचनों द्वारा अच्छी तरह आश्वासन दिया-धैर्य धाया-और आश्वासन देकर उसे विसर्जिन करदिया।सू०१०
मुक्का ' अह ण तुम तस्स दाहामि जस्सण तुम इट्टा जार मणामा भविस्ससित्ति सुमालिय दारिय ताहिं इटाहिं गृहि समासासेइ, समासासित्ता पडिविसज्जेइ )
ત્યા જ ભીંતની પાછળ છુપાઈને સાગરદત્ત સાથે વાત સાગરની તે બધી વાતને સાભળી રહ્યો હતે સાભળી તે બહુજ લજિજત થયે તેમજ બીજા એથી પણ તે ખૂબજ લજિત થયો આ રીતે જાતે અને બીજાઓથી લજાતો તે જિનદત્તના ઘેરથી બહાર નીકળી ગયા અને નીકળીને પિતાને ઘેર પહો ત્યાં જઈને તેણે પિતાની પુત્રી સુકુમારિકા દારિકાને બોલાવી જયાર તે સુક્રમારિકા દારિકા આવી ગઈ ત્યારે તેને પિતાના ખોળામાં બેસાડી લીધી બેસાડીને તેણે તેને પૂછ્યું છે બેટી! શા કારણથી સાગરે તને ત્યજી છે? તને હ તે પુરુષને જ આપીશ કે જેના માટે તુ સારી રીતે ઈટા, કાતા પ્રિયા, મનેાના અને મનોમાં થશે આ રીતે તેણે સુકુમાર દારિકાને પિતાના ઈટ વચ નથી સારી રીતે આશ્વાસન આપ્યું અને ત્યાર પછી તેને વિદાય આપી - ૧
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टी० म० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २१७ जाव अन्निजमाणमग्गं, तएण से सागरदत्ते कोडवियपुरिसे सहावेइ सदावित्ता एव दयासी--तुम्भ णं देवाणुप्पिया । एयं दमगपुरिस विउलेण जमणपाणखाइमसाइम फ्लोभेहि पलोभित्ता गिह अणुप्पवमेह अणुप्पवेसित्ता खडगमल्लग खडघडग ते एगते एडेह एडित्ता अलकारियकम्म कारेह कारिता पहाय कयवलि० जाव सव्वालकारविभृसिय करेह करित्ता मणुणं असणपाणखाइमसाइम भोयावेह भोयावित्ता मम अतिय उवणेह, तएण कोडुवियपुरिसा जार पडिसुणेति पडिसुणित्ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवा गच्छद उवागच्छित्ता त दमग असण उवप्पलोभेति उवप्पलोभित्ता सय गिह अणुपवेसिति अणुपर्वसित्ता त खडगमल्लग खडगघडग च तस्स दमगपुरिसस्स एगते एडति, तएण से दमगे तसि खडसलगंसि खडघडगंसि य एगते एडिजमाणसि मह्या२ सद्देण आरसइ, तएण से सागरदत्ते तस्स दमगपुरिरास्त तं महया२ आरसियसद्द सोचा निसम्म कोडवियपुरिसे एव क्यासी-किपणं देवाणुप्पिया । एस दमगपुरिसे महया महया सद्देण आरसइ तएणं ते कोडुवियपुरिसा एव क्यासी-एस ण सामी । तसिखडमल्लगमि खंडघडगसि एगते एडिजमाणसि महया महया सदेण आरसइ, तएण से सागरदत्ते सत्थ० ते कोडुविधपुरिस एव क्यासी-मा ण तुम्भे देवाणुपिया ! एयस्त दमगस्त त
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
TANERAL संड जाव एडेट पासे ठगे जहाण पत्निय भवा, ते वि __ तहेर ठविति. ताणं ते फोवियपुरिसा तस्स दमगरस
अलंकाग्यिम्म करेंति करित्ता सयपागसहमपागेहि तिहिं अब्भगेंति अभंगिए सगाणे सुरभिगधुव्यहणेणं गाय उव्यहिति२ उसिणोदगेणं गधौदगेण सीतादगेणंहाणेति पम्हल सुकुमाल गंधकासाइयाए । गाराइ गृहति लूहित्ता हमल. क्खणं पसाडगं परिहति परिहित्ता सम्बालकारविभूसियं करेंति करिता विउल असणपाणखाइमसाइमं भोयाति भोयावित्ता सागरदत्तस्स उवणेति, तए पागरदते सूमालिय दारिय पहाय जाव सव्वालकारविभूमियं करिता त दमगपुरिस एव वयासी-देवाणुप्पिया। मम धूया इट्टा एय णं अह तव भारियत्ताए दलामि भदियाए भद्दओ भविजासि, तएण से दमगपुरिसे सागरदतस्स एयमट्ट पडिसुगति पडिसुणिता सूमालियाए दारियाए सद्धिं वासघर अणुपविसइ अणुपविसित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धि तलिमलि निवज्जइ, तएण से दमगपुरिसे सूमालियाए इम एयारूव अगफास पडिसवेदेइ, सेसं जहा सागरस्स जाव सयणिज्जाओ अब्भुढेइ अब्भुद्वित्ता वासघराओ निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता खंडमल्लग खडघडगं च गहाय मारामुक्के विव काए जामेव दिस पाउन्भूए तामेव दिस पडिगए, तएण सा सूमालिया जाव गएणं से दमगपुरिसे तिकडे ओहयमण जाव झियाइ ॥ सू० ११ ॥
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
, अनगारधर्मामृताणी टी० अ० १६ सुकुमारिफाचरितवर्णनम् २१९
टीका-'तएण से ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु स सागरदत्त सार्थया होऽन्यदा-अन्यस्मिन् कस्मिश्चित् काले 'उपि आगासतलगसि' उपरि आकाशवल्के मासादोपरिभागे , सुहनिसण्णे ' मुखेनोपविष्टः, राजमार्गमनलोकमानः २ तिष्ठति । तत खलु स सागरदत्त एक महान्त ' दमगपुरिस' द्रमनपुरुष 'दमग ' इति देशीयः शब्दः दरिद्रपुरुप पश्यति, किम्भूतम् ? इत्याह-'दडिखंड निवसण ' दण्डिग्यण्डनिवसन-दण्डि-कृतसन्धान जीर्णवस्त्र तस्य खण्ड तदेव निव सन परिधानवस्त्र यस्य स दण्डिखण्ड निवसनस्तम्, क्या-, खडमछग घडगहत्थगय' खण्डमल्लघटकहस्तगत सण्डमल्लम-खण्डशराब स्कुटितशराव भिक्षापात्र, तथा खण्डघटकश्व-खण्डरूपो घट' स्कुटितस्य घटस्य भागः स एव जलपात्र, एतद् द्वय इस्तगत यस्य तम्, 'मच्छियामहस्सेहिं जाव अन्निज्जमाणमग्ग' मक्षिकास इस्र वित् अन्वीयमानमा, शरीरवस्त्रादेर्मलिनत्वात् तत्पृष्ठतो मक्षिका आप
'तएण से सागरदत्ते' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएण से सागरदत्त)इसके बाद सागरदत्तने किसी एक समय " उप्पि आगासतलगसिं" अपने प्रासाद के ऊपर सुख पूर्वक बैठी हुई स्थिति में राजमार्ग का अवलोकन करते समय ( एग मह दमगपुरिस पासइ) एक अत्यत दरिद्र पुरूप को देखा ( दडिखडनिवसण खंडगम ल्लगघडगहत्यगय मच्छियासहस्सेहिं जाव अनिज्जमाणमग्ग) जो जीर्णवस्त्र के जुड़े हुए चियडे को पहिने था और जिसके हाथ में खडमल्लकथा-फुटा हुआ मिटि के खप्पर था - तथा पानी पीने के लिये फुटे हुए घट का एक खप्पर या । हजारो मक्खिया जिसके पीछे पीछे, शरीर और वस्त्रो के मलिन होने से भिन्न २ करती हुई उड़ रही
'तएण से सागरदत्ते' इत्यादि ॥
-(तएण मे सोगरदत्ते) त्या२ मा साह 35 मत (पिआगा सतलगसिं) पाताना भरनी १५२ सुथी मेसीन सभागनु माइनरत तो त्यारे तेरे (एग मह दमगपुरिस पासइ) 25 भूण हरिद्र-01-५२पने या (दडिखड निवसण खडगमल्लगडगहत्यगय मन्च्यिासहस्सेहिं जाव अनिज्जमा. णमग ) तो जूना पखना थीथायी परेसा ता भने तेना साथमा
ખડમલ્લક હતુ ” એટલે કે ફુટી ગયેલા માટીના વાસણુને એક કકડે હવે તેમજ પાણી પીવા માટે કુટેલી માટલીનુ એવુ ખપ્પર હતુ હજારો માખીઓ તેની પાછળ પાછળ-શરીર અને વસ્ત્રોની ભલીનતાને લીધે ઉડી રહી હતી,
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
ताधर्म कयास तन्तीत्यर्थः । ततः स ग मागरदा मानिसमा यति, दागिता परमादीत् हे देशानुभियाः ! गृय गनुगत मानपुरा, पिपुलेन अभ नपानसाधान भलोगयत मलोप गामनुमोगा, अनुमोश्य खडकमला खण्डगराव खण्डपटक-मानीयपान से' तम्प मापुरगम्य फान्ते-पकान्त स्थाने ' एढेह । निक्षेपयत, निक्षप्य अलारिकफर्म = कंगनसदनादिक नापितादिमिः पाग्यत, पायित्वा स्नाव उतररियर्माण यापन् सलिङ्कारथी। (तए ण से सागरदत्ते कोदुपियारिसे सहारेड, महावित्ता एवं वयासी-तुम्भे ण देवाणुप्पिया! पय दमगपुरिम पिउलेण अमणपाणसोहम साइम पलोमेह, परोभित्ता गिह अणुपयेसेट, अणुपवेसित्ता खडगमल्लग बढघटगत गते पढेर एहिता अरंकारिकम्म कारेह कारिता हाय करयलि. जाय मन्चालफारविभूसिर फरेस करित्ता मणु पण असणपाणपाहममाहम भोयावेह, मोयोवित्ता मम अतियउवणेह) इसके बाद सागरदत्तने आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाया। गुलाकर उसने इस प्रकार कहा देवानुप्रियो। तुम लोग इस दरिद्र पुरुपको पिपुल अशन, पान,खाद्य और स्वाग्ररूप चतुर्विध आहारका प्रलोभन दो-प्रलोभन देकर फिर इसे घर में भीतर फरलो । जब यह घरके भीतर हो जावेगा तष तुमलोग इसके ये खडमल्ल (फटी लगोटी) और खडघटक इससे छुड़ा कर किसी एकान्त-सुरक्षित स्थान में रखयो । बाद में नापित (नाई । को बुलाकर इसके सुन्दर ढग से पाल पनवाओ नखआदि जो वढ़ रह (तएण से सागरदत्ते कोडवियपुरिसे सद्दावेइ, सदायित्ता एव वयासी-तुम्भेण देवा नुपिया!एय दमगधुरिस विउलेण असणपागखाइमसाइम पलोभेइ,पलोभित्ता गिह अनुप्पवेसेह, अणुप्पवेसित्ता खडगमल्लगखड धडगत एग ते एढेह, एडित्ताअल कारिकम्म कारेहकारित्तापहायकयरलिजाब सवालकारविभ्रसिय करेह करिता मणुण्ण असणपाणखाइमसाइम भोयावेह, भोयावित्ता मम अतिय उवणेह) ત્યારપછી સાગરદત્ત આજ્ઞાકારી પુરૂષને બેલાવ્યા બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લોકો આ દરિદ્ર પુરૂષને પુષ્કળ પ્રમાં
મા અશન,પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારની લાલચ આપી લાલચ આપીને તેને ઘરની અંદર બેલાવી લે ત્યારે તે ઘરમાં આવી જાય ત્યારે તમે તેની પાસેના ખડમલ અને ખડઘટક લઈને તેને એકાત સુરક્ષિત સ્થાનમાં મૂકી દો. ત્યારપછી હજામને બોલાવીને તેના સરસ રીતે વાળ કપાવી નાખો અને વધી ગયેલા નખ વગેરેને કપાવી નાખે ત્યારે – તેને સ્નાન
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतयपिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाच रितवर्णनम्
"
विभूपित कुरुत कृत्वा ' मणुष्ण ' मनोज्ञ = रुचिरम् अशनपानखाद्यस्याद्य भोजयत भोजयित्वा ममान्तिक-समीपमुपनयत । ततः खलु कौटुम्बिकपुरुषा यावत्-प्रतिशृण्वन्ति=' तथाऽस्तु ' इति कृत्वा तदाज्ञा स्वीकुर्वन्ति मतिश्रुत्य यनैव सद्रमपु रुपः=रट्ङ्कपुरुष', तनैवोपागच्छति, उपागत्य व द्रमक रुचिरेण विपुलेनाशनादिना प्रलोभयन्ति मलोभ्य स्वक गृहमनुप्रवेशयन्ति, अनुप्रवेश्य त खण्डकमलक खण्डकघटक च तस्य द्रमकपुरुपस्यैकान्ते ' एडति ' निक्षेपयन्ति, तत खलु समक स्तस्मिन् खण्ड मल्ल खण्डपटकेच एकान्ते एडिज्नमाणसि' निक्षेप्यमाणे सति महता २ शब्देन आरसइ ' आक्रन्दति । ततः खलु स सागरदत्तस्तस्य द्रमकपुरुपस्थ त महान्त ' आरसियर सद ' आनन्दनन्द श्रुत्वा निशम्य कौटु हैं उन्हें कटवाओ | उसके पश्चात् इसे स्नान कराओ। बाद मे इससे पशु पक्षी आदिको अनादिका भागरूप बलिकर्म आदिकरवाओ जब यह लिकर्म आदिकर चुके तन तुमलोग इसे समस्त अलकारो से विभूषित करो, विभूषित करके फिर इसे मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य, एव स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार खिलाओ - खिलाकर के बाद मे फिर हमारे पास इसे ले आओ । (तएण कोड बियपुरिसा जाव पडिसुर्णेति, पडिणित्ता, जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छड, उचाग च्छित्ता त दमग असण उवप्पलोभेति, उवप्पलो भित्ता सय गिट अणुपवेसिंति अणुपचिसित्ता त खडमल्लग खडगघडग च तस्स दमपुरिसस एगते एडेंति, तएण से दमगे तसि खडमल्लगसि, खड घटगसि य एगते एडिजमाणस महया २ संदेणं आरसइ, तएण से सागरदन्ते तस्स दमगपुरिसस्म त महयार आरमियस६ सोच्चा
કરાવેા સ્નાન કરાવ્યા ખાદ તેના હાથેથી પશુ-પક્ષી વગેરેના અન્ન વગેરેના ભાગ આપવા રૂપ અલિકમ કરાવડાવેા જ્યારે અલિકની વિધિ પતી જાય ત્યારે તમે લેાકા એને ખષી જાતના અલ કારાથી શણગારે। શણગારીને તેને મનેાજ્ઞ, અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ રૂપ ચાર જાતના આહારી જમા જમાડયા પછી તેને અમારી પાસે લઈ આવે
(तएण कोडुनियपुरिसा जान पडिसुगति, पडिणित्ता जेणेन से दमगपुरिसे तेणेव उपागच्छ नागउिता त दमग असण उप्पलोमेंते उप्पलोभित्ता सयगिह जणुपवेसिंति, अणुपविसित्ता, त खडगमल्लग खडगधडग च तस्स दमग पुरिसस एगते एडेंति तपण से दमगे तसि खउमललगसि, खडघडगसि य एगते एडिज्माणसि महया २ राहेण आरराइ, वपूण से सागरदत्ते तस्स दमगपुरिसस्स व मद्दया २ आरसियसद सोचा निसम्म फोडुमिपुरिसे एव वयासी)
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
Retai sarees
पा पुरुष निपुन अ
२२०
तन्तीत्यर्थः । ततः खष्टम सागर शयति
मादी
मियाः । नपानाद्यस्यानेन प्रयोगयन मलोय गृहम
खण्डगराव खण्डग्रटक=पानीयपान ' से ' म्प
पुरुषस्य एकान्ते एकात
,
स्थाने ' एडेe ' forपगत, निक्षेप्य अकारिक = फेशनसल्येनादिक नापितादिभिः फाग्यत, कारयियास्नाव रयिर्माण यावत् सर्वालङ्कार
H
श्री । ( त ण मे सागरदत्ते फोडपिपुरिसे सहानेह, महाविता एव वयासी तुम्भेण देवाणुपिया ! य दमगवुरिम त्रिणं अमणपाण सोहम साहम पलोमेट, पलोभित्ता हि अणुपसेट, अणुपवेमित्ता खडगमल्लग गडघटगत गते परित्ता अल्कारिकम्म कारेह कारिता व्हाय कायलि० जाय मन्याल्फारविभूसिय करेह करिता मणु ण्ण असणपाणग्ग्राहमसाहम भोगावेह, भोयोरित्ता मम अनियउवणेह ) इसके बाद सागरदत्तने आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाया | बुलाकर उसने इस प्रकार कहा देवानुप्रियो । तुम लोग इस दरिद्र पुरुषको निपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चतुर्विध आहारका प्रलोभन दो- प्रलोभन देकर फिर इसे घर में भीतर फरलो । जन यह घरके भीतर हो जावेगा तब तुमलोग इसके ये खडमल्ल ( फटी लगोटी ) और खडघटक इससे छुड़ा कर किमी एकान्त-सुरक्षित स्थान में रखो | नाद में नापित (नाई ) को बुलाकर इसके सुन्दर ढंग से बाल घनवाओ नखआदि जो वह रहे (तएण से सागरदत्ते को नियपुरिसे सहावे, सदावित्ता एव वयासी-तुमेण देवा
पिया । एय दमगरिस विउलेण असणपागखाइमसाइम पलोभेइ, पलोभित्ता गिह अनुपवेसेह, अणुष्पवेसित्ता खडगमल्लग खड धडगत एग ते एडेह, एडित्ता अल कारिकम्म कारेह कारिचाण्हाय कयनलि० जान सन्चालकारविभूसिय करेह करिता मणुण्ण असणपाणखाइमसाइम भोयावेह, भोयारिता मम अतिय उवणेह ) ત્યારપછી સાગરદત્ત આજ્ઞાકારી પુરૂષને ખેલાવ્યા એલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યુ-ડે હે દેવાનુપ્રિયા ! તમે લેકે આ દરદ્ર પુરૂષને પુષ્કળ પ્રમા ણુમા અશન,પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારની લાલચ આપી લાલચ આપીને તેને ઘરની અદર મેલાવી લે ત્યારે તે ઘગ્મા આવી જાય ત્યારે તમે તેની પાસેના ખડમલ અને ખડઘટક લઈને તેને એકાત સુરક્ષિત સ્થાનમા મૂકી દે ત્યારપછી હજામને ખેલાવીને તેના સરસ રીતે વાળ કપાવી નાખો અને વધી ગયેલા નખ વગેરેને કપાવી નાખે! ત્યારપછી તેને સ્નાન
1
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतयपिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम्
२२१ विभूपित कुरुत कृया ' मणुण्ण ' मनोज-रुचिरम् अशनपानखाद्यस्वाध भोजयत __ भोजयित्वा ममान्तिक-समीपमुपनयत । ततः खलु पौटुम्मिकपुरुपा यावत्-मति
शृण्वन्ति=' तथाऽस्तु ' इति कृत्वा तदाज्ञा स्वीकुर्वन्ति प्रतिश्रुत्य यत्रैव स द्रमकपु रुपा रङ्कपुरुष', तनैवोपागच्छति, उपागत्य त द्रमा रुचिरेण विपुलेनाशनादिना मलोभयन्ति प्रलोभ्य स्वक गृहमनुप्रवेशयन्ति, अनुप्रवेश्य त खण्डकमल्लक खण्डकघटक च तस्य द्रमकपुरूपस्यैकान्ते ' एडति ' निक्षेपयन्ति, तत खलु स द्रमकस्तस्मिन् खण्डमल्लके खण्ड पटके व एकान्ते 'एडिज्जमाणसि' निक्षेप्यमाणे सति महता २ शब्देन 'आरसइ ' आक्रन्दति । ततः खलु स सागरदत्तस्तस्य द्रमापुरुषस्व त महान्त ' आरसियइ सद्द ' आक्रन्दनशन्द श्रुत्वा निगम्य कौटु. हैं उन्हें कटवाओ । उसके प्रश्चात् इसे स्नान कराओ। बाद मे इससे पशु पक्षी आदिको अनादिका भागरूप बलिकर्म आदिकरवाओ-जब यह पलिफर्म आदिकर चुके तय तुमलोग इसे समस्त अलंकारो से विभूपित करो, विभूपित करके फिर इसे मनोज अशन, पान, खाद्य, एव स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार खिलाओ-ग्विलाकर के बाद में फिर हमारे पास इसे ले आओ। (तएण कोड नियपुरिसा जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता, जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छइ, उवाग च्छित्ता त दमगं असण उवप्पलोभेति, उवप्पलोभित्ता सयं गिहं अणुपवेसिति अणुपविसित्ता, त खडमल्लग खडगघडग च तस्स दमगपुरिसस्स एगते एडेंति, तण्ण से दमगे तसि खडमरलगसि, खड घटगसि य एगते एडिजमाणसि मया २ सद्देणं आरसइ, तएण से सागरदत्त तस्स दमगपुरिसस्स त मया२ आरमियसद सोच्चा કરાવો સ્નાન કરાવ્યા બાદ તેના હાથેથી પશુ-પક્ષી વગેરેને અન વગેરેને ભાગ આપવા રૂપ બલિકર્મ કરાવડાવે જ્યારે બલિકર્માની વિધિ પતી જાય ત્યારે તમે લેકે એને બધી જાતના અલકારોથી શણગારે શણગારીને તેને મનેજ્ઞ, અાન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારે જમાડો જમાડયા પછી તેને અમારી પાસે લઈ આવે __ (तएण फोडवियपुरिसा जाच पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छद उवागचिउत्ता त दमग असण उवप्पलो ते उवप्पलोभित्ता सयागेह अणुपवेसिति, अणुपविसित्ता, त खडगमल्लग खडगधडग च तस्स दमगपुरिसस्स एगते एडेंति तएण से दमगे तसि खडमल्लगसि, खडघडगसि य एगते एडिज्जमाणसि महया २ सद्देण आरसड, तएण से सागरदत्ते तस्स दमगपुरिसस्म त महया२ आरसिय सद्द सोचा निसम्म कोइवियपुरिसे एव वयासी)
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
bab
पा
स्पिरुपाने मारी
1
देशमियाः नारणेन तुमपुरषो महता २ शब्देन भारसविन्भारन्दति । ततः स ते पॉपुरुषां मन-ए खामिनमा निक्षयमाणे महता २ शब्देन आरमतिमानन्दी | गतः स स मागग्नः सार्थवाह स्तान् कौटुम्बिकपुरुषान् मान्नुया ! मा सलु ग्रुप तस्म निसम्म फोडनपुरिसे ग्रामी) इस प्रकार की उन कौटुम्बिक ने सागरदत्त सेट की इस आज्ञा को अच्छी तरह स्वीकार लिया और स्वीकारकर वहा जाकर उन्होंने उस दमक को अडान पान आदिरूप चतुर्विध आहार से पार २ लुभाया लुमाकर ने उसे अपने पर तक ले आये और अत में अपने घर में उसे प्रवेश कराया। बाद में उन लोगोंने उस दमक पुरुष के फटे हुए मिट्टी के दीपक के सडको, तथा फूटे हुए घड़े के सप्पर को उससे लेकर किसी सुरक्षित स्थान में रख दिया । जब उस दमकपुरुष अपने सडमल्लक, फटी लगोटी) को और खडघटकको अपने से लेकर एकान्त स्थान में रखा जाता हुआ देखा तो वह जोर जोर से रोने लगा उसके उस रोनेकी आमाजको सुनकर और उसे अपने चित्त में धारण कर सागरदत्तने कौटुम्बिक पुरुषो से इस प्रकार का - ( किor देवाणुपिया | एमदमगपुरिसे महया २ सणं आग्स ३ तण ते कौड नियपुरिसा एव वयासी एसण सामी ! तर्सि खडमल्लगसि खडबडगसि एगते एडिज्जमाणसि महया २ सद्देण આ જાતની સાગરદત્તની આજ્ઞાને તે કૌટુબિક પુરૂષાએ સારી રીતે સ્વીકારી લીધી સ્વીકાર્યાં આદ તેએ ઇન્દ્રિ માણુસની પાસે ગયા ત્યા જઈને તેમણે તેને લાન્ચે અને અશન, પાન વગેરે રૂપ ચાર જાતના આહારની વાર વાર લાલચ આપી લલચાવીને તેએ તેને ઘર સુધી લઈ આવ્યા અને છેવટે તેને ઘરમા દાખલ કરી દીધે। ત્યારપછી તે લેાકેાએ તે દરિદ્ર માણુસની પાસેથી ફૂટેલા માટીના વાસણના કટકા તેમજ ફૂટેલા માટલાના ખપ્પરને લઈને સુરક્ષિત સ્થાને મૂકી દીધુ . જ્યારે તે દરિદ્ર માણસે પે તાના ખડમત્લકને અને ખડઘટને પાતાની પાસેથી છીનવીને એકાત સ્થાનમા મૃતા જોયુ ત્યારે તે માટેથી ઘાટા પાડીને રડવા લાગ્યા તેના રડવાના આવાજને સાભળીને અને તેને પાતાના ચિત્તમા ધારણ કરીને સાગરદત્તે કૌટુબિક પુરૂષોને આ પ્રમાણે કહ્યુ ( किष्ण देवाणुपिया ! एस दमगपुरिसे महया २ सण आरसा, तरण ते कोड बियपुरिसा एव वयासी एसग सामी । तसि खडमल्लगसि खडघडगसि एगते एडिज्जमानसि महया २ सण आरस, वरण से
/
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतषिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २२३ द्रमकपुरुषस्य तत् ग्वण्डमल्लक ग्वण्डघटक यावत्-एकान्ते 'एडेह' निक्षेपयत अस्य परोक्षे मा स्थापयतेत्यर्थ, स्न्तुि पाश्चे स्थापयत, यथा खलु ' पत्तिय ' प्रत्यय विश्वामो भाति । तेऽपि कोटम्पिकपुरुपास्तयेव स्थापयन्ति । तत खलु ते कौटुआरसह, ताण से सागरदत्त मत्थवाहे ते कोडविय पुरिसे ण्व वयासी) हे देवानुप्रियो ! क्या कारण है जो यह दमक पुरुप जोर २ से रो रहा है ' तर उन कोम्पिक पुरुषों ने ऐसा कहा कि हे स्वामिन् ! इसने ज्योही अपने खडमल्लक को और घटखड को लेकर एक ओर सुरक्षित स्थान में रखे जाते हुए देग्या वैसे ही यह बडे जोरर से रोने लगा है । ऐसा सुनकर मागरदत्त ने उन कौटुम्मिक पुरुषो से इस प्रकार कता(माण तुम्भे देवाणुप्पिया! एपस्त दमगस्म त पट जाव ण्डेह, पासे ठवेह, जहाण पत्तिय भवइ, तेचि तहेर ठति, तरण ते कोड विय पुरिसा तस्स दमगा अलकारियकम्म करेनि, करिता सपोग सहस्तपागेहिं तिल्लेहिं अ०भगेति, अमगिए समाणे सुरभिगधुन्चदृणेण गाय उव्यर्टिति, २ उरिणोदगेण गधोदगेण सीतोदगेण पहावेंति) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग इस दमक पुरुप के फूटे हुए मिट्टी के दीपक के खड को और फूटे हुए घडे के खप्पर को इससे लेकर परोक्ष मेंअदृश्य स्थान में-मत रग्बो किन्तु इस के पास में ही-समक्षरखो, जिससे इसे अपनाविश्वास बना रहे । इस प्रकार सागरदत्त की बात फोड पिय पुरिसे एव एव वयासी)
હે દેવાનુપ્રિયે ! શા કારણથી આ દરિદ્ર માણસ મોટેથી ઘાટા પાડી પાડીને રડી રહ્યો છે ? ત્યારે તે કૌટુંબિક પુરૂષોએ આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું વામિન્ ! પિતાના ખડમલક અને ખડઘટકને તેની પાસેથી લઈને બીજા સુરક્ષિત સ્થાને લઈ જતા જોઈને આ દરિદ્ર માણસ મોટેથી રડવા લાગ્યો છે આ પ્રમાણે સાભળીને સાગરદને કૌટુંબિક પુરૂષને આ પ્રમાણે કહ્યું કે_ (माण तुम्मे देवाणुप्पिया ! एयस्स दमगस्स त खड जार एडेह पासे ठवेह, जहाण पत्तिय भवइ, ते वि तदेव ठति, तरण ते फोडुचियपुरिसा तस्स दमगस्म अलकारियफम्म करेंति, करित्ता सयपागसहस्मपागेहिं तिल्लेहि अमगेति अभगिए समाणे सुरभिगधुव्वट्टणेण गाय उवाहिति २ उसि णोदगेण गधोद्गेण सीतोदगेण ण्हावेंति )
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લોકે આ દરિદ્ર પુરૂષના ફૂટેલા માટીના દીપકના કટકાને અને કૂટેલા ઘડાના ખપ્પરને એની પાસેથી લઈને દર એકાતમાં મૂકશો ----નહિ પણ એની પાસે જ-એની સામે જ મૂકી રાખો જેથી એને વિશ્વાસ રહે
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
निकपुरपाने मातीत देशानुप्रिया पारणेन पर पाटमा पुग्यो महता २ शब्देन आररानि-भारतति ? 1 गटने कोम्बिापुरमा एम मवदन्-एप खलु ई सामिा ! तरिमा के गडपट पान्ते निशेषमाणे महता २ मादेन भाररातिप्रानन्दनि । म गलुग गागदत्ता गार्यवाह स्तान कौटुम्मिय पुरुषान् पामयान-पानुप्रिया ! गा पल गुण पतरस निसम्म कोरियपुरिसे पर घगामी )स प्रकार को उन कौटुम्पिक ने सागरदत्त सेठ की हम आजा को अगली तर स्वीकार लिया और स्वीकार कर वहा जाफर उन्होंने उस दमक को अशन पान आदिरूप चतुर्विध आहार से पार २ माया लुमाकर ये उसे अपने घर तक ले आये और अत में अपने घर में उसे प्रवेश कराया। बाद में उन लोगोंने उस दमक पुम्प के फटे हुए मिट्टी के दीपक के पद को, तथा फूटे हुए घटे के सप्पर को उससे लेकर किसी सुरक्षित स्थान में रख दिया। जब उस दमकम्पने अपने सहमालक.फटी लगोटी) को और खडघटकको अपने से लेकर एकान्त स्थानमें रखा जाता हुआ देखा-ता घर जोर जोरसे रोने लगा-उसके उस रोने की आवाजको सुनकर और उसे अपने चित्त में धारण कर सागरदत्तने कौटुम्पिक पुम्पो से इस प्रकार कहा-(किण्ण देवाणुप्पियो ! एसदमगपुरिसे मया २ सण आग्सइ ३ तएण ते कोड पियपुरिसा एव वयासी एसण सामी ! तास खडमरलगसि खडडगसि एगते एउिज्जमाणसि महया २ सण આ જાતની સાગરદત્તની આજ્ઞાને તે કીટ બિક પોએ સારી રીતે વીકારી લીધી સ્વીકાર્યા બાદ તેઓ દરિદ્ર માણસની પાસે ગયા ત્યાં જઈને તેમણે તેને બોલાવ્યું અને અશન, પાન વગેરે રૂપ ચાર જાતના આહારની વાર વાર લાલચ આપી લલચાવીને તેઓ તેને ઘર સુધી લઈ આવ્યા અને છેવટે તેને ઘરમાં દાખલ કરી દીધું ત્યારપછી તે લોકોએ તે દરિદ્ર માણસની પાસેથી ફૂટેલા માટીના વાસણને કટકે તેમજ ફૂટેલા માટલાના ખપ્પરને લઈને સુરક્ષિત સ્થાને મૂકી દીધું જ્યારે તે દરિદ્ર માસે પિતાના ખડકને અને ખ ડઘટકને પિતાની પાસેથી છીનવીને એકાત થાનમાં મૂકતા જોયુ ત્યારે તે મેટેથી ઘાટા પાડીને રડવા લાગ્યો તેના રડવાના અવાજને સાભળીને અને તેને પિતાના ચિત્તમાં ધારણ કરીને સાગરદત્ત કૌટુંબિક પુરૂને આ પ્રમાણે કહ્યું (किण्ण देवाणुप्पिया ! एस दमगपुरिसे महया २ सद्देण आरसइ, तएण ते कोडुपियपुरिसा एव वयासी एसण सामी ' तसि खडमल्लगसि खडघडगसि एगते एडिज्जमाणसि महया २ सद्देण आरसइ, तएण से सागरदत्ते सत्यवाहे ते
"
.
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगरघमृतafगणी टोका अ० १६ सुकुमारिकाच रितवर्णनम्
ખ
रूक्षयित्वा 'हंसरूण ' इसलक्षण = हसस्वरूप तदिव शुक्ल स्वरूप यस्य तत्, परसाडर्ग' पहाट+ = क्षौमवस्त्र 'परिर्हेति ' परिधापयन्ति परिधाप्य सर्वालंकारविभूषित कुर्वन्ति, कृपा विपुलमशनपानखाद्यस्वाद्य भोजयन्ति, भोजयित्वा सागरदत्तस्योपनयन्ति । ततः खलु सागरदत्तः सुकुमारिका दारिश स्नाता यावत्defear ara मकपुरुषम् एव = वक्ष्यमाणमकारेण अनादीव-हे देवानुप्रिय ! एषा खलु मम दुहिता दृष्टा, एता खलु अह तच भार्यात्वेन ददामि पहाड परिर्हेति, परिहित्ता सन्चालकारविभूसियं करेंति, करिता विल असनपाणसाइमसाइम भोयावेनि, भोया वित्तो सागरदत्तस्त उवर्णेति ) जब शारीरिक प्रत्येक अवयव ठीक २ अच्छी तरह से पोंछाजा चुका तब फिर उन्होने रेंस चिह्नवाला अथवा हँस के जैसा शुभ्रपशाटक-क्षौमवल उसको पहिराया। क्षौमवस्त्र पहिराकर फिर उसको विपुल, अशन, पान, खाद्य एव स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार का भोजन कराया । भोजन कराकर फिर वे उमको सागरदत्त के पास ले गये (तएण सागरदत्ते समालिय दारिय व्हाय जाव सव्चालकार विभू सिय करिता त दमगपुरिस एव वयासी - एसण देवाणुपिया ! मम धूया दहा एय ण जह तव भारियताए दलामि ) सागरदत्त ने अपनी सुकुमारिका दारिका को स्नान कराकर यावत् समस्त अल कारो से विभूषित करके उम दमक पुरुष से इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रिय ' पर मेरी लड़की है । और मुझे बहुत ही अधिक इष्ट, प्रिय, कान्त ( लूहित्ता हसलकणपट्ट साडग परिहति, परिहिता, सव्वालकारविभूसिय करे वि, करिता पिउल सनपाणसाइमसाइम भोयावेंति, भोयानित्ता, सागरदतस्स उवर्णेति) જ્યારે શરીરના ખવા અગા સરસ રીતે લુછાઈ ગયા ત્યારે તેઓએ હૅ સચિત્રિત અથવા તે। હમ જેવુ સ્વચ્છ ધાળુ પટ્ટરાટક -સૌમ વસ્ત્ર પહેરાવ્યુ ક્ષૌમ વસ્ત્ર પહેરાવીને તેને ત્રિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારી જમાડયા જમાડયા પછી તેએ તેને સાગરદત્તની પામે લઇ ગયા
1
1
(तएण सागरदत्ते समालिय दारिय व्हाय जान सव्यालकारनिभूसिय करिता त दमगपुरिस एव वयासी-एसण देवाणुपिया । मन ध्या इट्टा एय ण अइ तत्र भारत्ताए दलामि )
માગગ્દત્ત પેાતાની સુકુમારિકા દારિકાને સ્નાન કરાવીને યાવત્ બધી જાતના અલકારેથી શણગારીને તે દરદ્ર માણસને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હૈ દેવાય 1 આ મારી પુત્રી છે અને મને બહુ જ ઈષ્ટ, પ્રિય, કાત, નાગ
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
२२४
আসামগয়ে म्पिापुमास्ताप गाम्परहारपण मासिकान गारपिया शत पाक मामपरिस्मलहनिगगि । अगतिः गा गरनिगाहर्तनेनसुगन्धिपिष्टोन गायन,
न गमोदन गीतोदकेन स्नपयन्ति, पयित्वा पालगुमागामाया' प.महमारगरफापायिका-पम TETमसी मोरगुता मा मारा गया कारण रक्ता साटी शामिरा नया गात्रानि लसी' T प्रोगपति, सुनकर उन आदेशकारी पुरुषों ने माही किना-अर्थात उमके मल्लक पद और पटपर दोनो गोही उसके ममक्ष उनीने ग्ग दिया। इसके बाद उन काटुम्पिन पुरुषोंने उस दमक पुरुपका भालकारिक कर्म फरवाया । अप उनका अन्टी तरह अलकारिक फर्म निप्पन हो चुकातर उसके बाद उम दमक पुरुष केशरीर की उन लोगों ने शतपाक ओर मरन पाकवाले तैल से मालिश की मालिश करने के पश्चात् , सुगन्धि पिष्टम-सुगधितपिटी-से उसके शरीर का उपटन किया उम सुगधित पिटी को उसके शरीर पर रगड़ २ कर मला इससे जो उसके शरीर पर मल जमा हुआ या वह चिकनारट के सबन्ध से उस पिटीद्वारा निकल गया। जय उनके शरीर का उदर्तन हो चुका-तन फिर उन लोगों ने उसे उष्णोदक से गंधोदक से, एच शीतोदक से स्नान कराया। स्नान कराकर बाद में उसका शरीर (पहलसुमारगधकासाइयाए गायाइ लहति) पक्ष्मल-रूचाली-मृदरोमयुक्त-सुकुमार-नरम, रंगी हुई ट्वाल से-अगोडी-से-तौलिया से पोंछा। (हित्ता हसलकवण આ રીતે સાગરદત્તની વાત સાંભળીને તે આજ્ઞાકારી પુરૂએ તે પ્રમાણે જ કર્યું એટલે કે તેના મલખડ અને ઘટખડને તેની સામે જ મૂકી દીધા ત્યારપછી તે કૌટુંબિક પુરૂએ તે દરિદ્ર માણસને વાળ અને નખ કપાયા જ્યારે આકામ સરસ રીતે પુરૂ થઈ ગયું ત્યારે તેઓએ દરિદ્ર માણસની શરીરને શતપાસ અને સહસ્ત્રપાકવાળા તેલથી માલિશ કર્યા બાદ સુગ લિપિષ્ટ સુગંધિત પીઠી-તેના શરીરે ચોળીને ઉપટન કર્યું એથી તેના શરીર ઉ૫ર જેટલો મેલ હતું તે પીડીની સ્નિગ્ધતાને લીધે સાફ થઈ ગયો જ્યારે તેના શરીરે પીઠી ચોળાઈ ગઈ ત્યારે તે લોકોએ તેને ગરમ પાણીથી, સુવાસિત પાણીથી અને ઠંડા પાણીથી સ્નાન કરાવ્યું સ્નાન કરાવ્યા બાદ તેના शरीरने (पम्हल सुकुमार गध कोसाइयाए गायाइ लहति ) पक्ष्भस-३ वाटाणा સુકોમળ, નરમ ૫ગીન ટુવાલથી લૂછ્યું
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवपिणी टोका अ० १६ सुकुमारिकाच रितवर्णनम्
२२५
रूक्षयित्वा '
3 इसल्वरण इसलक्षण =
हमस्वरूप तदिव शुक्ल स्वरूप यस्य तत् पहाडगं पहाट+= क्षौमवख 'परिर्हेति' परिधापयन्ति परिधाप्य सर्वालंकारविभूषित कुर्वन्ति कृपा विपुलमशनपानखाद्यस्वाद्य भोजयन्ति, भोजयित्वा सागरदत्तस्योपनयन्ति । ततः खलु सागरदत्तः सुकुमारिका दारिका स्नाता यावत्सर्वालङ्कारभूषिता कृत्वा त म पुरुषम् एव = वक्ष्यमाणप्रकारेण अनादीत - हे देवानुप्रिय ! एपा खलु मम दुहिता द्दष्टा, एता खलु अह तच भार्यात्वेन ददामि पहाडगं परिहंति, परिरिता सन्चालकारविभूसियं करेंति, करिता विउल असनपाणगाइमसाइम भोयानि, भोयावित्ता सागरदत्तस्स उवर्णेति ) जब शारीरिक प्रत्येक अवयव ठीक २ अच्छी तरह से पोंछाजा चुका तब फिर उन्होने ऐस चिह्नवाला अथवा हँस के जैसा शुभ्रपशाटक- क्षौमवख उसको पहिराया । क्षौमवस्त्र पहिराकर फिर उसको विपुल, अशन, पान, खाद्य एव स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार का भोजन Fराया । भोजन कराकर फिर वे उसको सागरदत्त के पास ले गये (तएण सागरदन्ते मालिय दारिय पहाय जाच सव्चालकार विभू सिय करिता त दमगपुरिम एव वयासी - एसण देवाणुपिया ! मम धूा इट्ठी एय ण अह तव भारिमत्ताए दलामि ) सागरदत्त ने अपनी सुकुमारिका द्वारिका को स्नान कराकर यावत समस्त अल कारो से विभूषित करके उस दमक पुरुष से इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिय ' यह मेरी लड़की है । और मुझे बहुत ही अधिक इष्ट, प्रिय, कान्त (लहित्ता हसनपट्टाडग परिंदेति, परिहिता, सव्वाकारविभूमिय करे वि करिता व असनपाणसाइमसाइम भोयावेंति, भोयानित्ता, सागरदत्तस्स उवर्णेति) જ્યારે શરીરના અવા અગે સરસ રીતે લુછાઈ ગયા ત્યારે તેઓએ હું સચિત્રિત અથવા તે! હમ જેવુ ૠચ્છ ધેાળુ પટ્ટરાટ સૌમ વસ્ત્ર પહેરાવ્યુ સૌમ વસ્ત્ર પહેરાવીને તેને વિપુલ અગન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહાર જમાડયા જમાડયા પછી તેએ તેને માગગ્દત્તની પાને લઇ ગયા
"
(तरणं सागरदत्ते मालिय दारिय व्हाय जाव सव्यालकारविभूसिय करित्ता त दमगपुरिस एव वयासी-एसण देवाणुपिया । मम ध्या इहा एय ण अर तब भारित्ताए दामि )
માગરદત્ત પોતાની સુકુમારિકા દારિકાને સ્નાન કરાવીને યાવત્ ખધી જાતના અલ કારાથી શણગારીને તે દિદ્ર માણુસને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે દેવાનપ્રિય 1 આ મારી પુત્રી છે શ્મને મને બહુ જ ઈષ્ટ, પ્રિય, કાત, મનેાજ્ઞ
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
Kinnar
_MAIकया 'भरियाप गहिकया भागारियानामपि भटतो भाग्यशाली भविष्यसि । ततः खल समय पुरुः गागर समय मणिोनिजीरगेति, प्रतिश्रुत्य सुकुमारिक या दारिपगा साधं पासमानप्रतिमनि, सामारिययादारिश्या सार्य 'तरिगसि' तस्ये गयनीय जीनिपीटाति उपशिनि । नत' पल मद्रमक पुरुप सुकुमारिताया मोक्तम् Amतारपा अाप पटिमोटर प्रतिसवेदयनि-प्रत्यनुगाति शेपं यथा सागरस्प-शेपवर्णन मागस्ताकद गोध्यम् , यावत्-अत्र या दादिद दृश्यम्-गिपत्रादीना स्पादिप्यनिष्टतर तदा स्पर्श ज्ञाचा सागरदारप पद् दम्पपुरपोऽपि न मारिया मुबमामा मात्रा शयनीयादतिष्ठति, अभ्युत्थाय गगहाद निर्गति, निर्गन्य स उमटरमार्टि मनोज्ञ एच मनोम है । मैं अपनी इम पुत्री को तुम्ने तुमारी भायों के रूप में प्रदान करता है (भरिया भाभो भविजमि, ताण से दमग पुरिसे सागरदत्तस्म एयम पनि०२ समारिया दारिया सदि वास घर अणुपचिसइ, अणुपरिसित्ता समारियाए तारिया मद्धि तलिंगास निवजह ) इस भाग्यशालिनी से तुम भी भातशाली पनजाओगे। दमकपुस्प ने सोगरदत्त के इस फायनरूप अर्थ को अगीकार करलिया,
और फिर चर एस सुकुमारिका दारिका के साय चासगृह में प्रविष्ट हुआ। वहा जाकर वह उस सुकुमारिका दारिका के साथ साथ एक हा पल ग पर-रैठ गया-सोगया (तपण से टमगपुरिसे सूमालिया इम एयारूच अगफास पडि सवेदेड सेम जहा सागररम जाच सयणिज्जाओं अन्भुद्देइ, अभिहित्ता वासघराओ निग्गच्छड, निग्गचित्ता खडमल्लग
અને મનેમ છે હુ મારી આ પુત્રીને તમને તમારી પાનીના રૂપમાં આપું છું भदियाए भद्दओ भपिज्जसि, तएण से दमगपुरिसे सागरदत्तस्स एयम पहि० २ सूमालियाए दारियाए सद्धिं वासघर अणुपविसइ, अणुपविसित्ता सुमालियाए दारियाए सद्धि तल्गिसि निपज्जा)
આ ભાગ્યશીલાથી તમે પણ ભાગ્યશાળી થઈ જશે તે દરિદ્ર પુરૂષ સાગરદત્તની એ વાતને સ્વીકારી લીધી અને ત્યારબાદ તે સુકુમારિક દારિકાની સાથે વાસગૃહમાં પ્રવિણ થયે ત્યાં જઈને તે દરિદ્ર માણસ મુકુમારિક દારિ કાની સાથે એક જ શયા ઉપર બેસી ગયે
(तएण से दमगपुरिसे मूमालियाए इम एयारूप अगफास पडिसवेदेइ, सेस जहा सागरस्म जान सयणिज्जाओ अब्भुट्टेड, अभुद्वित्ता वासघराओ निग्ग छह निग्गच्छित्ता खडमल्ल्ग वडघडग च गहाय म
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मातयर्पिणी टो० ० ११ सुकुमारिकाचरितवर्णनम्
૨૧૭
तभिक्षापान, खण्डवटक-स्फुटित पानीयपात्र च गृहीत्वा 'मारामुरके विन काए ' मारामुक्तइन काकः मारा-शूना प्राणिपधरनान ततो मुक्तः निःसृतः कारु इव, अथवा - माराद् - मारक गुरुमात् तदीयहस्तादित्यर्थ. मुक्त-विच्छुटित काक इव शीघ्रतया यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतस्त्वामेन दिश प्रतिगतः । ततः खलु सा सुकु मारिका याद् - ततो मुन्तिर प्रतिबुद्धा सती पतिमपश्यन्ती शयनीयादुत्तिष्ठति, उत्थाय मकपुरुषस्य मार्गणगवेपण कुर्वाणा वासगृहस्य द्वार विवादित पश्यति
"
सडपडग च गहाय मारामुन के दिन काए जामेव दिस पाउवभू तामेव दिन पडिए) उस समय उस दमक पुरुष को उस सुकुमारिका दारिका का वह पूर्वोक्त तथा पूर्वोक्त स्वरूपवाला अगस्पर्श अनुभव मे आया । शेष वर्णन सागरदारककी तरह जानना चाहिये । इस तरह वह दमक पुरुष भी असिपत्रादिकों के स्पर्श से भी अधिक अनिष्ट उसके अगस्पर्श को जान करके, सागरदारक की तरह, सुग्च प्रसुप्त उस सुकुमारिका दारिका को जान उसे छोडने के लिये पलग से उठा और उठकर उस वास घर से नाहिर निकला-निकलकर खउमरलक-फूटे हुए भिक्षापात्र को तथा खडक-फूटे हुए पानी पीने के पात्र को लेकर वयस्थान से अथवा मारक पुरुष के हाथ से मुक्त हुए काककी तरह वह बहुत जल्दी जहा से आया था उसी ओर चलदिया (तरण सा गूमालिया जाव गएर्ण से दमपुरिसे त्ति कह ओश्यमण जाव झियाग्रह ) इसके घोडीदेर बाद वह सुकुमारिका दारिका जगी और पतिको अपने पास न दिस पाउ भूतामेन दिन पडिगए)
તે વખતે તે ઇન્દ્રિ માણસને સુકુમારિકા દારિકાના અગાના સ્પરા પહેલા વર્ણન કરવામા આવ્યા પ્રમાણેના કઠોર જ લાગ્યા (અહીં સાગરદારક જેવું જ વર્ષોંન સમજી જવુ જોઇએ) આ રીતે તે ઇન્દ્રિ માણસ પણ તરવારના પશ કરતા પણ વધારે અનિષ્ટકર તેને સ્પર્શી જાણીને સાગર દારકની જેમજ સુખેથી સૂઇ ગયેલી તે સુકુમારિકા દારિકાને અેને, તેના ત્યાગ કરવા માટે પલગ ઉપરથી ઊભેા થયા અને ઊભેા થઈને વાસગૃહની બહાર નીકળ્યો અને નીકળીને ખટમલક-ફૂટેલા ભિક્ષાપાત્ર તેમજ ખડઘક-ફૂટેલા પાણી પીવા માટેના પાત્રને લઈને વધસ્થાનથી અથવા તેા માક (હિંમક ) પુરૂષના હાથથી મુક્ત થયેલા નાગડાની જેમ તે વરાથી જ્યાથી તે આળ્યેા હતા તે તરફ જ જતા રહ્યો (तपण सासूमालिया जान गएण से दमगपुरिसे चि कट्टु ओहमण जान झियायइ ) ઘેાડા વખત પછી તે સુકુમારિકા દ્વારિકા જાગી અને પતિને પેાતાની પાસે ન નૈઇને
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२१
मानापमंकयाह
'भरिया' भरिया भाग्यामपि भाग्यवादी भरिष्यमि । यतः खन्द्रसमपुरुषः मागसमेत प्रतियोरिति प्रतिश्रुत्य मारिया दारिया सात
मायदाखिया सार्व
'तरिगसि' तत्ये= यनीये 'निपनि उप । न समक पुरुष गुहमारिकाया इम= पूर्वोक्तम् एकम्परम् अहम् पमिदे' प्रतिसंवेदयति मत्यनुगर विशेष पयासागरस्य पवन सोध्यम्, यावत् अनादि व्यम् - पानां स्पर्शादिष्यनिष्टतर उद स्पर्श झाल्या सागरदारपद्मय पुरुषोऽपि ता गुगुमा मावा, शयनीयादतिष्ठति, अभ्युत्थाय रामगृहाद नियति, निर्गत्य फुटि
4
मनोज्ञ एवं मनोम है। मैं अपनी हम पुत्री को तुम्हे तुम्हारी भार्या के रूप में प्रदान करता हूँ (भरिया भएओ भविज्जसि, तरणं से दमग पुरि से सागरदन्तस्म मह परि०२ समालिया दारिया सर्दिवास घर अणुपचिस, अणुपविसित्ता समालिया रिया सहि तरिगंसि निज्जइ ) इस भाग्यशालिनी से तुम भी भाग्यशाली बनजाओगे । दमकपुरुष ने सोगरदत्त के इस कानरूप अर्थ को अगीकार कर लिया, और फिर वह उस सुकुमारिका दारिका के साथ वासगृह में प्रविष्ट हुआ। वहा जाकर वह उस सुकुमारिका दारिका के साथ साथ एक ही पलंग पर बैठ गया- मोगया (तणं से दमगपुरिसे सूमालियाए इम एयाख्व अगफास पडि सर्वेदेव, सेम जहा सागररस जाय सयणिज्जाओ अन्भुट्टे, अभुट्टिता वासघराओ निग्गच्छर, निच्छित खडमल्लग
અને મનેામ છે હું મારી આ પુત્રીને તમને તમારી પત્નીના રૂપમાં અપું છુ भद्दियाए भद्दओ भनिज्जसि, तएण से दमगपुरिसे सागरदत्तस्स एयम पडि० २ सूमालियाए दारियाए सद्धिं वासघर अणुपरिसर, अणुपविसित्ता सुमालियाए दारियाए सद्धि गिसि निज्जइ )
આ ભાગ્યશીલાથી તમે પણ ભાગ્યશાળી થઈ જશે તે દરિદ્ર પુરૂષ સાગરદત્તની એ વાતને સ્વીકારી લીધી અને ત્યારબાદ તે સુકુમારિકા દ્વારિકાની સાથે વાસગૃહમા પ્રવિષ્ટ થયેા ત્યા જઈને તે દરિદ્ર માસ સુકુમારા દાદર કાની સાથે એક જ શય્યા ઉપર બેસી ગયા
(तएण से दमगपुरिसे युमालियाए इम एयारूत्र जगफास पडिसवेदेइ, सेस जहा सागरस्स जान सयनिज्जानो जन्भुट्टे, अमुट्ठित्ता वासघराओ निम्ग च्छइ निरंगच्छित्ता खडमल्ल्ग खडघडगं च गहाय मारामु के
ज
"
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतयषिणी टी० म० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् तेजसा ज्वलति सूर्ये-उदिते दासवेटी शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादी-यावत सागरदत्तस्यैतमय निवेदयति, अत्र यापच्च्ब्दे न पूर्वस्त्रोक्तवर्णनमनुमन्येयम् , तथावधूवरयोर्मुखधावनिकामुपनयेति । एवमुक्तासती दासचेटी वासगृहमुपागत्य सुकु मारिकामार्तध्यान ध्यायन्ती पश्यति, दृष्ट्वा एवमनादीद-हे देवानुप्रिये । किं खलु त्वम् अपहतमन सकल्पा ध्यायसि ? ततः सुकुमारिका ता दासचेटीमेवमवा दीत्-स द्रमगुरुपो मा मुरामसुप्ता ज्ञात्वा मम पार्शदुत्थार निर्गत., ततोमुहूर्तान्तरेऽहमुत्थाय तमपश्यन्ती ' गतः स द्रमकपुरुप , इति कृत्वाऽऽत-यान ध्यायामि सद्दावेइ, सहावित्ता एव वयासी जाव सागरदत्तस्स एयम निवेदेइ ) सुकृमारिका दारिकाकी माता उस भद्रा ने द्वितीय दिन जब प्रातः काल हो गया था और सूर्य उदित हो चुका या-तर अपनी दासचेटी को पुलाया-चुलाकर उससे ऐसा कहा-यहा यावत् शब्द से यह पूर्वसूत्र गत वर्णन जोडलेना चाहिये जैसे, भद्राने बुलाकर उससे ऐसा कहा कि तू वधू और वर के लिये यह मुख धोने की सामग्री दतौन आदि -लेजा जन भद्रा ने उससे ऐसा कहा तर वह दासचेटी वासगृह में गई -और वहां जाकर उसने सुकुमारिका को आर्तध्यान करती हुई देखा तय देखकर उसने उससे ऐसा कहा-देवानुप्रिये । क्या कारण है जो अपत्तमनः संकल्प होकर तुम आर्त यान कर रही हो-तय सुकुमा रिका दारिका ने उस दासचेटी से इस प्रकार कहा-वह दमक पुरुष मुझे यहा सुख प्रसुप्त जान छोडकर चला गया है ! जर मै थोडी देरवाद उठी तो मैने उसे अपने पास नहीं देखा, वासभवन का दोर खुला हुआ वित्ता, एव वयासी जाव सागरदत्तरस एयम निवेदेइ) सुभारिहारानी भाता ભદ્રાએ બીજા દિવસે જ્યારે સવાર થઈ ગયું અને સૂર્ય ઉદય પામે ત્યારે તેણે દાસીને બોલાવી અને બોલાવીને આ પ્રમાણે કહ્યું–અહીં થાવત શબ્દથી પહેલાના સૂત્રની જેમ જ વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ જેમકે ભદ્રાએ તેને બોલાવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે વધુ અને વરના મુખ પ્રશાસન માટે દાતણ વગેરે લઈ જ જ્યારે ભદ્રાએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે તે દાસી વાસગૃહમાં ગઈ અને ત્યાં જઈને તેણે સુકુમારિકા દારિકાને આર્તધ્યાન કરતી જોઈ ત્યારે આ પ્રમાણે તેની હાલત જોઈને તેણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! શા કારણથી તમે અપહતમન સક૯૫ થઈને આર્તધ્યાન કરી રહ્યા છે ત્યારે સુકુમાર દારિકાએ તે દામીને આ પ્રમાણે કહ્યુ–કે તે દરિદ્ર માણસ મને અહીં સુખેથી સૂતેલી છેડીને જતો રહ્યો છે જ્યારે થોડા વખત પછી હું જાગી ત્યારે મે તેને મારી પાસે જે નહિ અને મે વાસગૃહના બારણાને પણ ખુદ
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८
भातापर्मकणारे दृष्ट्वा एपमादीत् ' इति का भागमन गाया यापद-आतेप्यान ध्यायति ।। गु० ११ ॥
मूलम्-तएणं सा भद्दा काल पाउ० दासचडि सहावेइ सदावित्ता एवं वयासी जाव सागरदत्तस्स एयमह निवेदेइ, तपणं से सागरदत्ते तहेब संभते समाणे जर वासहरे तेणेव उवा गच्छइ उवागच्छित्ता सूमालिय दारिय अक निवेसेइ निवेसित्ता एवं वयासी-अहो ण तुम पुत्ता! पुरा पोराणा णं जाव पचणुभवमाणी विहरसि त मा ण तुम पुत्ता । ओहयमण जाव झियाहि तुम ण पुत्ता मम महाणससि विपुल असण? जहा पुहिला जाव परिभाएमाणी विहराहि, तएण सा सुमालिया दारिया एयम पडिसुणेइ पडिसुणित्ता माहणससि विपुल असणं जाव दलमाणो विहरइ ।। सू०११ ॥
टीका-'तएण सा' इत्यादि । ततः खलु सा भद्रा सार्थवाही-मुकुमारिका दारिकाया जननी 'कल्ल' कल्ये द्वितीय दिवसे प्रादुः प्रभाताया रजन्या यावददेखकर पल ग से उठी । उठकर उसने उस दमकपुरुपकी मार्गणा एव गवेषणा की। उसमें उसने वासगृह के द्वार को सुला हुआ देखा। देख कर उसने विचारा कि वह दमक पुरूष अब चला गया है। ऐसा सोचकर वह अपहत मन. सकल्प होकर यावत् आत यान करने लगी।सू०११॥
'तएण सा भद्दा कल्ल ' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (सा भद्दा कल्लं पाउ० दासचेडि શા ઉપરથી ઊભી થઈ ઊભી થઈને તેણે તે દરિદ્ર માણસની શોધ ખોળ કરી તેણે વિચાર કર્યો કે તે દરિદ્ર માણસ તે જતો રહ્યો છે આ રીતે વિચાર કરીને તે અપહતમન સંકલ્પ થઈને યાવત આર્તધ્યાનમાં ડૂબી ગઈ છે સૂત્ર ૧૧ છે
'तपण सा भद्दा कल्ल ' इत्यादि an-(तएण) त्या२४ (सा भद्दा कल्ल पाउ० दासचेडिं. . सदा
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० भ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम्
२५९
तेजसा ज्वलति सूर्ये - उदिते दासचेटीं शब्दयति, शब्दयित्ना एवमवादीत् - यावत् सागरदत्तस्यैतमर्थं निवेदयति, अत्र यानच्छदेन पूर्वसूत्रोक्तवर्णनमनुमन्येयम्, तथावधूवरयोर्मुखधावनिकामुपनयेति । एवमुक्तासती दासचेटी वासगृहमुपागत्य सुकु मारिकामार्तध्यान ध्यायन्तीं पश्यति, दृष्ट्वा एवमनादीव-हे देवानुप्रिये ! किं खलु त्वम् अपहतमन सकल्पा ध्यायसि ? ततः सुकुमारिका ता दासचेटीमे मचा दीव - समकम्पो मा मुसमप्ता झाला मम पार्श्वादुत्थान निर्गतः, ततोमुहूर्त्तान्तरेऽहमुत्थाय तमपश्यन्ती ' गतः सद्रमपुरुष इति कृत्वा ऽर्त - यान ध्यायामि
1
सद्दा, सद्दावित्ता एव बघासी जाव सागरदत्तस्स एयमठ्ठ निवेदेइ ) सुकुमारिका द्वारिकाकी माता उस भद्रा ने द्वितीय दिन जब प्रातः काल हो गया था और सूर्य उदित हो चुका थान्तर अपनी दासचेटी को बुलाया - बुलाकर उससे ऐसा कहा यहां यावत् शब्द से यह पूर्वसूत्र गत वर्णन जोडलेना चाहिये जैसे, भद्राने बुलाकर उससे ऐसा कहा कि तू वधू और वर के लिये यह मुख वोने की सामग्री दतौन आदि -लेजा जन भद्रा ने उससे ऐसा कहा तब वह दासचेटी वासगृह में गई - और वहां जाकर उसने सुकुमारिका को आर्तध्यान करती हुई देखा तब देखकर उसने उससे ऐसा कहा -देवानुप्रिये । क्या कारण है जो अपहतमनः संकल्प होकर तुम आर्तभ्यान कर रही हो तब सुकुमा रिका दारिका ने उस दासचेटी से इस प्रकार कहा- वह दसक पुरुष मुझे पहा सुख प्रसुप्त जान छोडकर चला गया है । जब मै थोडी देरवाद उठी तो मैने उसे अपने पास नही देखा, चासभवन का दोर खुला हुआ वित्ता, एव वयासी जाव सागरदन्तरस एयमट्ठ निवेदेइ ) सुठुभारि हारिानी भाता ભદ્રાએ ખીજા દિવસે જ્યારે સવાર થઈ ગયુ અને સૂર્યાં ય પામ્યા ત્યારે તેણે દાસીને ખેલાવી અને મેલાવીને આ પ્રમાણે કહ્યુ–અહીં યાવત્ શબ્દથી પહેલાના સૂત્રની જેમ જ વર્ણન સમજી લેવુ જોઈએ જેમકે ભદ્રાએ તેને ખેલાવીને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે વધુ અને વરના મુખ પ્રક્ષાસન માટે દાતણ વગેરે લઈ જા જ્યારે ભદ્રાએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યુ ત્યારે તે દાસી વાસગૃહમા ગઇ અને ત્યા જઈને તેણે સકુમારિકા દારિકાને આ ધ્યાન કરતી જોઈ ત્યારે આ પ્રમાણે તેની હાલત જોઇને તેણે કહ્યુ કે હું દેવાનુપ્રિયે ! શા કારણથી તમે અતિમનસ કલ્પ થઈને આત ધ્યાન કરી રહ્યા છે ત્યારે સુકુમાર દારિકાએ તે દાસીને આ પ્રમાણે કહ્યુ−કે તે દરિદ્ર માણસ મને અહીં સુખેથી સૂતેલી છેાડીને જતા રહ્યો છે જ્યારે ચેકડા વખત પછી જાગી ત્યારે મેં તેને મારી પાસે જોયા નહિ અને મેં વાસગૃહના બારણાને પણ ખુલ્લું
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
त. सा दासचेटी सागरदारप सार्थ ग गीपमा म निपदगतीति योजना योपावत प3 गाम 'गो' राधान्त =उदिग्ना सन् यी गागगृतगोपागजति उपागल्य गुमारितामाग्विाम निपश्यति, निवेश्य माटी-भो ! राणे पलु है पुनित 'पुग' पुरामयेषु 'पोराणाण । पुरानागतीकालकनगात्र याद योध्यम्-'दुगिगाणं दुप्पाप बाग पहा पाHIT माग पाग पनवित्ति देसा तप में समझ गई किघर यहा से गा गया है। इस प्रकार में चिन्ता में पड़ रही है। सुकुमारिमा कोमपाम को सुनकर दामटी ने उगी समय यता से वापिस आकर मागरदत्त कोइम पान की खपर दी-" इस प्रकार यह पूर्ण पाठ यहा लगा लेना चाहिये-(तराण से सागरदत्त तदेव सभते ममाणे जेणेव चामरे तेणेव उजगह उवागच्छिता समालिय दारिय अके निवेसेड, निमित्ता एव चयासी, अरोण तुम पुत्ता पुरा पोराणाणजार पच्चणुगमरमागी विहरमित माण तुम पुत्ता ओरयमण जार शियाहि-तुम ण पुत्ता मम महाणससि विपुल असण४ जहापुटिला जार परिभाषमाणो पिहराहि) इसके बाद वह साग रदत्त पहिले जैसा उद्विग्नचित्त होकर जहावासगृह या परागया। यहां जा कर उसने सुकुमारिकादारिकाको अपनी गोद में बैठा लिया और पैठाकर कहने लगा-हेपुत्रि! तुमने पहिले भगों में जो दुश्चीर्ण दुष्पराकान्त, (कठिन ताईसे भोगने योग्य व कृत ज्ञानावरणीय आदि अशुभ कर्म उपाजित જોયું ત્યારે મને એકસપણે ખાત્રી થઈ ગઈ કે તે અહીંથી ચાલ્યા ગયા છે આ રીતે હુ ચિંતામાં પડી છુ સુકુમારિકાની આ વાત સાંભળીને દાસીએ તરત જ સાગરદત્તને ખબર આપી આ રીતે અહી પહેલાનો પાઠ જાણી લેવું જોઈએ तएण से सागरदत्ते तहेव समते समाणे, जेणेच वासहरे तेणेव उवागच्छइ,उवाग ििच्छत्ता सूमालिय दारिय अके निवेसेइ,निवेसित्ता एव क्यासी अहो ण तुम पुत्ता। पुरा पोराणाण जाव पच्चणुभवमाणी विहरसि त माण तुम पुत्ता ओहयमण जाच "झियाहि-तुम ण पुत्ता मम महाणससि विपुल असण ४ जहा पहिला जाव परिभाए माणी विहराहि)
ત્યારપછી સાગરદત્ત પહેલાની જેમ વ્યાકુળ ચિત્તવાળો થઈને ત્યાં વાસ ગૃહ હતુ ત્યાં આવ્યું ત્યાં આવીને તેણે સુકુમારિક દારિકાને પિતાના મેળામાં બેસાડી લીધી અને બેસાડીને કહેવા લાગ્યા કે હે પુત્ર! તે પહેલા ભવમાં જે કઈ દુશણું, દુષ્પરાક્રાત અને કુતજ્ઞાનાવરણીય વગેરે, મેં ઉપા
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारच मृतयपिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम
"
विसेस ' इति दुखीर्णाना- दुरिताना मनोजनित मृपानादादिकर्मणामित्यर्थः, किं भूताना तेपा? दुष्पराक्रान्ताना- कायिकानां माणिहिंसाऽदत्तादानादीना, कृताना प्रकृतिस्थित्यनुभागम देशभेदेन बद्धाना पापाना=अशुभाना कर्मणा ज्ञानावरणी यादीना पापकम् - अशुभ, फलटत्तिविशेषम्, प्रत्यनुभवन्ती = वेदयन्ती विहरसिन्न उसे तत्= तस्माद् मा खलु स्व हे पुत्र ! अपहृतमनःम क्ल्पा यानद्ध्याय= आर्तमान मा कुरु इत्यर्थः, खलु हे पृत्रि ! मम " महाणस सि ' महानसे - पाक्शालाया पिपुलमशन पान खाय स्वाद्य यथा पोट्टिला यावत् परिभाजयन्ती= श्रमणादिभ्यः प्रतिभाग कुर्वती ' विहराहि ' विहर=तिष्ठ । ततः खलु सा सुकुकिये - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से बांधे है उन्हीं पुराने अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के तुम अशुभ फल विशेष को इस समय भोग रही हो । पूर्व भदों में जो पाप किये हे वेही यहां " 'पुराण " शब्द से गृहीत हुए हैं। पाप शब्द यहा अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बोधक है। ये अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्म जीव अशुभ मन, वचन और काय की प्रवृत्ति से जन्य मृपावाद आदि क्रियाओ से, तथा प्राणिहिंसा, अदत्तादान आदि कुकृत्यों से बाधता है। बांधते समय इनमें प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश वधरूप विभाग हो जाता है | अधिक स्थिति और अधिक अनुभाग चव इनमें सक्लेश परिणामो से पडता है । इसलिये हे पुत्र । तुम अपतमन' सकल्प होकर यावत् आर्तव्यान मत करो। तुम तो मेरी भोजन शाला चतुआहार तैयार करा कर पोहिला की तरह श्रमण आदि ચિંતા-ર્યા હતા-પ્રકૃતિ, સ્થિતિ, અનુભાગ અને પ્રદેશ ખધના ભેટથી ખવ્યા છે અત્યારે તુ તેજ પહેાના અશુભ જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્મોના અશુભ ફળ વિશેષને ભાગવી રહી છે. પૂર્વ ભવમા જે પાપ કરવામા આવ્યા હોય તેને भडा પુરાણ ” શબ્દયી ગ્રહણ કરવામા આવ્યા છે અહીં પાપ રાખ્ત અશુભ જ્ઞાનાવરીય વગેરે કર્માને સ્પષ્ટ કરે છે આ બધા અશુભ જ્ઞાનાવરણી વગેરે કર્મો જીન અશુભ–મન, વચન, અને કાયની પ્રવૃત્તિથી જન્ય મૃષાવાદ વગેરે ક્રિયાએથી તેમજ પ્રાપ્ડીએ ની હિંસા, અદત્તાદાન વગેરે કુકર્મોથી બાધે એ બાધતી વખતે એએમા પ્રકૃતિ, સ્થિતિ, અનુભાગ અને પ્રદેશ અધરૂપ વિભાગ થઇ જાય છે અધિક સ્થિતિ અને અધિક અનુભાગ બધ તેએમા સકવેશ પરિણામેાથી પડે છે. એથી કે પુત્રિ ! તમે અપડૂત મન સક પ થઈને યાવત્
२३१
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
मामाचा
२५०
गतीति
•
'
1
ततः सा दासपेटी सागरदास्य सारस्य समीप योजना योध्या। वत उस मागचा 'समये रामाप्त = उद्विग्नः सन् यौन परामगृह तोपगति उपागत्य युगारि दारिम नियि निवेश्य एवमादीन् भो | पुरा पूर्वमत्रेषु हे ' पोराणाण पुगणानाम् = अतीतकाल नाना यातुमत्र गाउनेद बोध्यम् -' दुनिगाण दुष्परताना पानाम् पाग फरव देसा तप में समझ गई कि परया से चला गया है । इम प्रकोर में चिन्ता में पड़ रही हूँ। कुमार की सपा को सुनकर दामबेटी नेमी समय से वापस आकर माग्दत्त को इस पान की खपर दी -" इस प्रकार यह पूर्वक पाठ यश लगा देना चाहिये - (तएण से सागरदत्ते तव सभते समाणे जेणेव बामहरे तेन उवागच्छ वागा समापि दारिय अके निवेश, निवेमित्ता एव वयामी, अहोण तुम पुत्ता पुरा पोरागाण जान पच्चणुग्भमागी विहरसित माण तुम पुत्ता ओमण जान शिवारि-तुम णं पुत्ता मम महाणमसि विपुल असण४ जहा पुहिला जान परिमाणमाणो विहराहि) उसके बाद वह साग रदत्त पहिले जैसा उद्विग्न चित्त होकर जहा या सगृह या वहा गया। वहाँ जा कर उसने सुकुमारिकादारिका को अपनी गोद में बैठा लिया और बैठाकर कहने लगा- हे त्रि । तुमने परिले भनों में जो दुवोर्ण दुष्पाराकान्त, (कठिन ताई से भोगने योग्य एव कृत ज्ञानावरणीय आदि अशुभ कर्म उपार्जित
જોયુ ત્યારે મને ચાક્કસપણે ખાત્રી થઈ ગઈ કે તે અહીંથી ચાલ્યે! ગયા છે મા રીતે క్ర ચિંતામા પડી છુ . સુકુમારિકાની આ વાત સાભળીને દાસીએ તરત જ સાગરદત્તને ખબર આપી આ રીતે અહીં પહેલાના પાઠ જાણી લેવા જોઈ એ तण से सागरदत्ते तत्र समते समाणे, जेणेन त्रासहरे तेणेव उवागच्छर, उवाग 'च्छित्ता मालिय दारिय अ के निवे सेइ, निवेसित्ता एक वयासी अहो ण तुम पुत्ता पुरा पोराणाणं जाव पच्चन्भनमाणी विहरसि त माण तुम पुत्ता ओडयमण जात्र झियाहि-तुमण पुत्ता मम महाणससि विपुल असण ४ जहा पुट्टिला जाब परिभाष माणी विहराहि )
1
ત્યારપછી સાગરદત્ત પહેલાની જેમ વ્યાકુળ ચિત્તવાળા થઈને જ્યા વાસ ગૃહ હતું ત્યા આવ્યે ત્યા આવીને તેણે સુકુમારિકા દ્વારિકાને પેતાના ખેાળામા બેસાડી લીધી અને એસાડીને કહેવા લાગ્યા કે હૈ પુત્ર! તે પહેલા ભવમા જે કંઈ દુશ્રીણું, દુપ્પુરાકાત અને કૃતજ્ઞાનાવરણીય વગેરે
માઁ ઉપા
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगर
टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम
रिसेस' इति दुखीणीना - दुश्चरिताना मनोजनित मृपानादादिकर्मणामित्यर्थः, किं भूताना तेपा' दुष्पराक्रान्ताना- कायिकाना पाणिहिंसाऽदत्तादानादीना, कृतानां प्रकृतिस्थित्यनुभागम देशभेदेन बद्धाना पापाना=अशुभाना कर्मणा ज्ञानावरणीयादीना पापरम्-अशुभ फलवृत्तिविशेषम् प्रत्यनुभवन्ती = वेदयन्ती विहरसिन् से तत् तस्माद् मा खलुत्व हे पुत्र ! अपहतमनःम क्ल्पा यानद् ध्यायन आर्त' यान मा कुरु इत्यर्थः, न खलु हे पृनि ! मम महाणस सि ' महानसेपाकशालाया विपुलमशनं पान खाद्य स्वाद्य यथा पोट्टिला यावत परिभाजयन्ती = श्रमणादिभ्यः प्रविभाग कुर्वती ' विहराहि ' हिर=तिष्ठ । ततः खलु सा सुकु
,
?
२३१
किये - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश वध के भेद से बांधे है - उन्हीं पुराने अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के तुम अशुभ फल विशेष को इस समय भोग रही हो । पूर्व भवों में जो पाप किये हैं वेही यहा
"
ܕܕ
पुराण " शब्द से गृहीत हुए हैं। पाप शब्द यहां अशुभ ज्ञानावरणी आदि कर्मों का बोधक हे । ये अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्म जीव अशुभ मन, वचन और काय की प्रवृत्ति से जन्य मृपावाद आदि क्रियाओ से, तथा प्राणिहिंसा, अदत्तादान आदि कुकृत्यों से गधता है | बांधते समय इनमें प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश वधरूप विभाग हो जाता है। अधिक स्थिति और अधिक अनुभोग व इनमें सक्लेश परिणामो से पडता है । इसलिये हे पुत्र । तुम अपहृतमनः सकल्प होकर यावत् आर्तध्यान मत करो। तुम तो मेरी भोजन शाला में आहार तैयार करा कर पोहिला की तरह श्रमण आदि
ચિંત કર્યાં હતા–પ્રકૃતિ, સ્થિતિ, અનુભાગ અને પ્રદેશ ખધના ભેદથી ખાધ્યા છે અત્યારે તુ તેજ પહેલાના અશુભ જ્ઞાનાવણીય વગેરે કર્મોના અશુભ ફળ વિશેષને ભગવી રહી છે. પૂર્વ ભવમા જે પાપ કરવામા આવ્યા હોય તેને अड्ड" પુરાણુ ” શબ્દથી ગ્રહણ કરવામા આવ્યા છે અહીં પાપ ગબ્દ અશુભ જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્માને સ્પષ્ટ કરે છે આ બધા અશુભ જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્મો જીવ અનુભ-મન, વચન, અને કાયની પ્રવૃત્તિથી જન્ય મૃષાવાદ વગેરે ક્રિયાએથી તેમજ પ્રાપ્તીઓની હિંસા, અદત્તાદાન વગેરે કુકર્મોથી બાધે છે બાધતી વખતે એએમા પ્રકૃતિ, સ્થિતિ, અનુભાગ અને પ્રદેશ ખવરૂપ વિભાગ થઈ જાય છે અધિક સ્થિતિ અને અધિક અનુભાગ બધ તેએમા સવેશ પરિ હ્યુામેથી પડે છે. એથી કે પુત્રિ ! તમે અપર્યંત મન સક પ થઈને યાવત્
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२
ताप मेहमान मारिका दारिका पनार्थ मनिगोतियोररोनि, मरिश्रत्य महान में रिपुरमा नपानसाय ग्याप यारर 'दमाणी 'ददी विदरनिआस्गे म || २०१२॥
मूलम्-तेण कालेण तेणं सनाणं गोगालियाओ अनाओ पहुस्सुयाओ एवं जहेव तेयलिणाए सुब्धयाओ तहेर सनोप्स हाओ तहेव संघाडओ जान अणुपनिटे तहेव जाव सूमालिया पडिलाभित्ता एव क्यासी-एवं सल अनाओ। अह सागरस्स अणिहा जाव अमणामा नेइ णं सागरण मम नाम वा जाव परिभोगं वा, जस्स २ वि य णं दिजामि तस्त २ पिय अणिट्रा जाव अमणामा भवामि, तुम्भे य णं अजाओ । बहु नायाओ एव जहा पुहिला जाच उबलद्धे जे ण अह सागरस्स दारियाए इट्टा कता जाव भजामि, अजाओ तहेव भणंति तहेब साविया जाया चिता तहेव सागरदत्त सत्यवाहं आपु. च्छइ जाव गोवालियाणं अतिए पव्वइया, तएण सा सूमाजनों के लिये वितरण करती रहो (तपण सासूमालिया दारिया एय मह पडिसुणेइ पडिसुणिता माणससि चिपुल असण जार दलमाणी विहरइ ) इस तरह पिता सागरदत्त के समझाने पर उम सुकुमारिका दारिका ने अपने पिता के इस कथन को स्वीकार कर के यह महानस भोजन शाला में निप्पन्न चतुर्विध आहार को श्रमणादि जनों के लिये वितरण भी करने लगी ॥ सूत्र १२ ॥ આર્તધ્યાન કરીશ નહિ તુ મારી ભેજન શાળામાં ચાર જાતના આહાર તૈયાર કરાવડાવીને પિદિલાની જેમ શ્રમણ વગેરે જેને આપતી હે
(तएण सा सूमालिया दारिया एयमह पडिमुणेड, पडिसुणित्ता महाणससि विपुल असण जाव दलमाणी विहरह)
આ રીતે પિતા સાગરદત્ત વડે સમજાવવામાં આવેલી તે સુકમાક દારિ કાએ પિતાના પિતાના કથનને સ્વીકારી લીધું અને સ્વીકારીને તે ભેજનશાળામાં તૈયાર થયેલા ચારે જાતના આડારાને બમણ વગેરેને આપવા સ ૧૨
-
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतषिणी टी० ५० १६ सुफुगारिकारितपर्णनम्
२३३ लिया अजा जाया ईरियासमिया जाव गुत्तवंभयारिणी बहहिं चउत्थछट्टम जाव विहरइ, तएणं सा सुमालिया अज्जा अन्नया कयाइ जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता बदइ नमसइ वदित्ता नमंसित्ता एववयासीइच्छामि णं अज्जाओ। तुम्भेहि अभणुनाया समाणी चंपाओ वाहि सुभूमिभागस्स उज्जाणस्त अदूरसामंते छठंछटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमुही आयावेमाणा विहरित्तए, तएण ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालिय एवं वयासोअम्हे ण अज्जे । समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव गुत्तवभयारिणीओ नो खल्लु अम्ह कप्पइ वहिया गामस्स जाव सपिणवेसस्स वा छट्ट२ जाब विहरित्तए, कप्पइ ण अम्ह अतो उवस्सयस्स विइपरिविखत्तस्स सघाडिवद्धियाए णं समतल पइयाए आयावित्तए, तएणं ला सूमालिया गोवालियाए एयमह नो सहहइ नो पत्तियइ नो रोएइ एयमढें अ०३ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्त अदूरसामतेछ? छटेणं जाव विहरइ ।।सू०१३॥
टीका-' तेण कालेण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'गोवालियाओ अज्जाओ' गोपालिका-गोपालिकानाम्न्यः आर्या:साध्यः, हसमुयाओ' रहश्रुता -तपारगामिन्य , एवम् अनेन प्रकारेण यथैव तेतरिणाए। तेतलिज्ञाते-चतुर्दशे तेतलिपुत्राध्ययने वर्णिताः ' सुन्चयाभो' मुता:मुव्रता.
'तेण कालेण तेण ममएण' इत्यादि ॥
टीकार्थ-(तेण कालेण-तेण समाण) उम काल और उस समय में (गोवालियाओ अजाओ बहुस्सुयाओ एव जहेव तेयलिणाए सुव्वधाओ
'वेण कालेण-तेण समएण ' इत्यादि-- टी -(तेण कालेण-वेण समएण ) ते णे मने से सभये (गोगठियाभो अग्नाओ रहुस्सुयाओ एर जहेर तेयलिणाए मुन्धयाओ
arta
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
माता पा मारिका दारिका एनपर्थ मनिगारिपोरोनि, मनिश्रय मान में गिपूरमध नपानसाय खाय यावर 'दमाणी 'पदती विहरति आस्रो म ॥ ०१२॥
मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समाणं गोवालियाओ अजाओ बहुस्सुयाओ एवं जहेव तेयरिणाम सुव्वयाओ तहेर समोस डाओ तहेव संघाडओ जार अणुपनिटे तव जार सूमालिया पडिलाभित्ता एव पयासी-एवं सल अजाओ! अह सागरस्स अणिहा जाव अमणामानेच्छद णं सागरए मम नामं वा जाव परिभोग वा, जस्स २ वि य णं दिजामि तस्त २ वि य गं अणिटा जाव अमणामा भवामि, तुम्भे य णं अजाओ । बहुनायाओ एव जहा पुहिला जाव उवलद्वे. जे णं अह सागरस्स दारियाए इट्टा कता जाव भवेजामि, अज्जाओ तहेव भणति तहेव साविया जाया चिता तहेव सागरदत्त सत्थनाहं आपुच्छइ जाव गोवालियाणं अतिए पव्वइया, तएणं सा सूमा जनों के लिये वितरण करती रहो (तपण सा सूमालिया दारिया एय म पडिसुणेइ पडिस्सुणित्ता माणससि विपुल असण जार दरमाणा विहरइ) इस तरह पिता सागरदत्त के समझाने पर उम सुकुमारिका दारिका ने अपने पिता के इस कथन को स्वीकार कर के यह महानस भोजन शाला में निप्पन्न चतुर्विध आहार को श्रमणादि जनों के लिये वितरण भी करने लगी। सूत्र १२ ॥ આર્તધ્યાન કરીશ નહિ તુ મારી ભજન શાળામાં ચાર જાતના આહારી તૈયાર કરાવડાવીને પિહિલાની જેમ શ્રમણ વગેરે જનેને આપતી હે
(तएण सा सूमालिया दारिया एयम पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता महाणसास विपुल असण जाव दलमाणी निहरइ)
આ રીતે પિતા સાગરદત્ત વડે સમજાવવામાં આવેલી તે સુકુમાક દારિ કાએ પિતાના પિતાના કથનને સ્વીકારી લીધું અને સ્વીકારીને તે ભોજનશાળામાં તૈયાર થયેલા ચારે જાનના આડારાને શમણ વગેરેને આપવા લા’ સ ૧૨
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
मगारधर्मामृतपिणी टी० स० ११ सुकुमारियाचरितवर्णनम्
२३३
लिया अज्जा जाया ईरियासमिया जाव गुत्तबंभयारिणी वहूहिं चउत्थछट्टम जाव विहरइ, तपणं सा सूमालिया अजा अन्नया कयाइ जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ वदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासीइच्छामि णं अज्जाओ। तुम्मेहि अम्भणुन्नाया समाणी चंपाओ चाहि सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते छछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमुही आयावेमाणा विहरित्तए, तएण ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालिय एवं वयासीअम्हे ण अज्जे । समणीओ निग्गंथीओ ईरियासमियाओ जाव गुत्तवंभयारिणीओ नो खलु अम्ह कप्पड़ वहिया गामस्स जाव सपिणवेसस्स वा छर जाव विहरित्तए, कप्पड़ पण अम्ह अतो उवस्सस्स विइपरिविखत्तस्स संघाडिवद्धियाए णं समतल पइयाए आयावित्तए, तरणं सा सूमालिया गोवालियाए एयमह नो सदहइ नो पत्तियइ नो रोएइ एयमटू अ०३ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्ल अदूरसामते छुट्ट छट्टेणं जाव विहरइ ॥ सू०१३॥
टीका- ' तेण कालेन ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये ' गोवालियाओ अज्जाओ ' गोपालिमा = गोपालिकानाम्न्यः आर्या:=साध्न्यः, ' हुस्सुयाओ' पहुश्रुता = श्रुतपारगामिन्य एवम् अनेन प्रकारेण यथैव ' तेवलिणाए ' तेतलिज्ञाते = चतुर्दशे तेतलिपुनाध्ययने वर्णिताः 'सुन्वयाथो' सुनताः = सुत्रता
1
"
तेण कालेन तेण समएण ' इत्यादि ॥
टीकार्थ- (तेण कालेन तेण समरण) उस काल और उस समय में (गोवालियाओ अजाओ बहुस्सुयाओ एव जहेब तेलिणार सुब्बयाओ
' सेण कालेन -वेण समएण ' इत्यादि
अर्थ - ( तेण काण - वेण समएण ) ते जणे खते ते सभये ( गोनालियाओ अज्जाओ नहुस्सुयाओ पर जदेव तेयरिणाए मुव्रयाओ
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापक
२३४
गोपालिकाः या अनुप
विष्ट
नाभ्य साध्यः, 'गोगाजी समागता । ' तच संवाद त्रष्यति गोपालानामार्याणामेनागृहमारिया रहेऽनुमरिष्टः । तथै पारत् कुमारिता आर्या अनादिना मतिरम्य ययमाणमका रेण भादीत् है आर्या ! सागरस्य वारस्यानिष्टा यातू अकान्ता अप्रिया जमनोगा अमनोमा मन गिलु साग रको मम नाम गोना श्रोतुम् गया मा परिभोग ग, यत्र मम नामाऽपि श्रोतु नेच्छतिवन का परिभोगस्थ, भतेन सर्वथा परि स्यक्तेति भावः । अपि च यस्मै यमै च । विजामि दीये सपना प्रदत्ता भवामि, तस्य तस्यापि च खलु अनिष्टा या अमनोमा मनः महिला मामि हे आर्याः । यूयं न खलु 'बहूनापानी' जाताः ज्ञानाविशययुक्ताः ' एवं
न
1
"
तव समोमताओ तब सपाउओ जान अणुपचिछे तहेन जाव समा लिया पडिलभित्ता एप बत्रासी) गोपालिका नामकी आर्यिका जो श्रुत पारगामिनी धीं इस प्रकार से कि जिस प्रकार से तेतलि प्रधान नामक चौदहवे अभ्ययन में सुनता साध्वी वर्णित हुई है-धीं- वे उसी तरह से वहा आई । इनका एक सगाडा था, यावत् सुकुमारिका के घर में गोचरी के लिये प्रवेश किया । सुकुमारिका ने बड़ी भक्ति के साथ उन्हें आहार पानी दिया और देकर यह फिर इस प्रकार से उनसे कहने लगी- ( अजाओ ! अह सागरस्स अणिट्टा, जाव अम गामा, नेच्छहण सागरण मम नाम वा जाव परिभोग वा जस्स २ वि या दिजामि तस्स - तस्स वियण अणिट्टा, जाव अमणामा भवामि तुन्भे यण अजाओ ! बहुनागाओ, एव जहा पहिला जाव उचलद्वे तब समोसाओ तन सघाडओ जाव अणुपविट्टे त जाव मालिया पडि लभित्ता एव वयासी )
ગોપાલિકા નામે આયિકા કે જે શ્રુત પારગામિની હતી તેતલીપાન નામના ચૌદમા અધ્યયનની સુનતા માથ્વી જેવી હતી તેવાં જ તે પણ હતી સુન્નતા સાધ્વીની જેમ જ તે યાવત્ સુકુમારિકાના ઘેર તે ગેાચરી માટે ગઇ સુકુમારિકાએ ખૂબ જ ભક્તિ-ભાવથી તેમને આહારપાણી આપ્યુ અને આપીને તે તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગી~~
( एव खलु अज्जाओ अह सागरस्स अणिट्ठा, जाव अमणामा नेच्छण सागरए मम नाम वा जाव परिभोग वा जस्स २ वियण दिज्जामि तस्स वस्स बि य ण अणिवा, जान अमणामा भवामि तुभे पण
""
117
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
माधर्मामृतविणो टी० अ० १६ सुकुमारिकानिरुपगम्
२३५
या पोहिल् याद् उपलब्धम् अयमर्थ: यथा तेन लिपुत्रभार्या पोहिला स्वभ वशीकरणोपमदर्शनार्थ सुनता साधी पृच्छतिरुम, तथा सुकुमारिका दारिका गोपालका पृष्ठती, ताट्श चूर्णयोगादिनमुपज्ञात ? येनाह सागरम्य दारकस्येष्टा कान्ता यावद् भवेय जार्यास्तथैव भणन्ति यथा पोट्टिलि जे नागररस दारगस्स हट्टा कता जाव भवेज्जामि, अज्जाओ तत्र मगति, तहेव सावित्रा जाया, तहेव चिंता, तहेव सागरदत्त सत्यवार आ जाव गोवालियाण अनिए पञ्चहा) हे आर्याओं । में अपने पति सागर दारक के अनिष्ट नोट यावत् अकान्त अप्रिय अमनोज्ञ एव अमनोम मनः प्रतिकूल बनी हुई है । वे मेरा नाम गोत्र कुछ भी सुनना नही चाहते है । तो फिर उनके साथ परिभोग करने की तो बात ही क्या है। मुझे तो उन्होने सर्वया ही रोड दी है। अपि च- मेरे पिता मुझे जिस २ व्यक्ति के लिये देते ह-मैं उस २ व्यक्ति के लिये भी जनिष्ट आदि बन जाती है । हे आओ ! आप तो बहुश्रुत ह अनेक शास्त्रो की ज्ञाता है-ज्ञान के अतिराय से सपन्न है । इस प्रकार उस सुकुमारिका ने पोट्टिला की तरह अपने पति को वश में करने के विषय मे उनसे उपाय पूछा पोहिलाने अपने पति तेतलिपुत्र को वश करने को पहिले जैसे सुव्रता साध्वी के समासे उपाय पूछा था और कहा आपको यदि कोई ऐसा चूर्ण आदि का प्रयोग उपलब्ध
एन जहा पहिला जान उनलवे जेग अह सागरस्स दारगस्स इडा कता जात्र भवेज्जामि, अज्जाओ तहेव भगति, तदेव सानिया जाया, तदेव विता, तब सागरदत्त सत्यवाद जपुच्छर जाव गोवालियाण जरिए पाइया) હું આર્યોએ ! મારા પતિ સાગદારક માટે હુ અનિષ્ટ થઈ ગયેલી છુ યાવત્ અકાત, અપ્રિય, અમનેાજ્ઞ અને અમનેામ થઈ ચૂકી છુ તે મારા નામ ગાત્ર કઇ પણુ સાભળવા ઈચ્છતા નથી ત્યારે તેમની માથે પરિભેગ કરવાની તે! વાત જ શી કરવી તેઓએ મને એકદમ જ જે છેડી દીધી છે અને મારા પિતાએ મને જે જે માણુસને આપે છે તે બધા માટે પણ હું અનિષ્ટ વગેરે થઈ જાઉં છુ હું આર્યોએ!! તમે તે બહુશ્રુત છે, ઘણા શાઓને જાણેા છે, જ્ઞાન સ પન્ન છે આ રીતે પેટ્ટિયાની જેમ જ સુકુમારિકા દાદરકાએ પણ પતિને વશમા કરવા માટેના ઉપાયેાની પૂછપરછ કરી પેટ્ટિલાએ પેાતાના પતે તેતિપુને વશમા કરવા માટે પહેલા સુનના સાવીના સઘા ટાથી જેમ ઉષાયેા પૂછા હતા તેમજ તેશે પશુ તેમને કહ્યુ કે-જો એવા
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
माया फया पृष्टा गुयतायाः सगटफस्थिताः मागतामोचन , ता गोपालिका सपाटरयाः आर्या गनिमत सो न । 'हेर गाविणा नाया' तर श्रापिग नाता=पोहिल्य यन् गुमारिका दारिवापि श्रारिका जाता । तथेच चिन्ता-पोहिलापदेव पशावयाग्रहीत frar गुमारिकाया मनसि माद भूता । गुरुमारिका सागरदरा सार्य दम्पपितर वयेरन्यया स्वपति पोटिला, तद् आपृच्छति, याद गोगारियानामयिक मनितान्दीश गुपीताती । ततः खलु सा सुकुमारिका आर्या-साधी नाता सा किना-यांसमिता या गुप्त हो तो भी यता दीजिये फि निमसे में अपने पति सागरदारक को इष्ट, कान्त यावत् मनोम पनजा। गोलि का के सघाडे की इन आर्याओं ने सुकुमारिका को, पोहिला को सुबना साधी की तरह समझाया-वर उसी तररसे प्राधिका पन गई । पोहिला की तरह इस सुकुमारिका ने भी पाद में दीक्षा देने का मन में विचार किया-1 पोहिलाने जिस तरह अपने पति से आज्ञा लेकर दीक्षा धारण की थी-उसी प्रकार इस सुकुमारिका ने भी अपने पिता सागरदत्त से पूछकर गोपालिका आर्या के समीप दीक्षा धारण कर ली। (तण्ण सा सूमालिया अन्ला जाया ईरिया समिया जार गुतयभयारिणो यहाह घउथ छहम जाव विहरइ, तएण सा सूमालिया अजा अनया कयाह जेणेव गोवालिया अजाओ तेणेव उवागर) इस तरह वह सुकुमा रिका आर्या बन गई। वह ईर्याममिति आदि का पालन करने लगा કઈ ચૂર્ણ વગેરેને પ્રવેગ મળી શકે તે પણ મને બતાવી દો કે જેથી 8 મારા પતિ સાગરદારકના માટે ફરી ઈષ્ટ, કાત, યાવત્ મનેમ થઈ જશે ગોપાલિકા સ ઘાડાની તે આર્યોએએ-મુત્રતા-સાધ્વીએ જેમ પિફ્રિલાને સમ જાવી તેમજ સમજાવી અને છેવટે તે શ્રાવિકા બની ગઈ પઢિલાની જેમજ તે સુકુમારિકાએ પણ ત્યારપછી દીક્ષા લેવાને મનમાં મક્કમ વિચાર કરી લીધી પિટ્ટેિલાએ જેમ પોતાના પતિની આજ્ઞા લઈને દીક્ષા ધારણ કરી હતી તેમજ સુકુમારિકાએ પણ પિતાના પતિ સાગરદત્તને પૂછીને ગપાલિકા આર્યાની પાસેથી દીક્ષા ધારણ કરી લીધી
(तएण सा सूमालिया अज्जा जाया इरिया जाव गुत्तबभयारिणी बहूाह चउत्थ छट्ठम जाच विहरह, तएण सा ममालिया अज्जा अन्नया कयाइ जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छद) આ રીતે ? ' આર્યા થઈ ગઈ, તે ઈર્થી સમિતિ વગેરેનું પાલન
મહાવ્રતની રક્ષા
કરવા લાગી,
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
मेनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाच रितवर्णनम् २३७ ब्रह्मचारिणी सा बहुभिश्चतुर्थपप्ठाप्टमभक्तैर्या गत्-तप कर्मभिरात्मान भावयन्ती विहरतिभाम्तेस्म । तनः खलु सा सुकुमारिका आर्या अन्यदा कदाचिद् यत्रैम गोपालिका आर्यास्तायोपागच्छति उपागत्य वन्दते नमस्यति, पन्दित्वा नमस्यित्वा एपमवादीत् हे आर्या ! इच्छामि खलु युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती चम्पानगर्या वहिः सुभूमिभागस्योद्यानस्यादूरसामन्ते = नातिदूरे नातिनिकटे पष्ठपण्ठेन-पप्ठभक्तानन्तर पुन पष्ठभनतेन ' अणिक्वित्तेण ' अनिप्तेिन =अविश्रान्तेन-अन्तररहितेन, तप.कर्मणा ' सुराभिमुही' सूर्याभिमुग्वी ' या वेमाणो ' आतापयन्ती-आतापना कुर्नती विहर्तुम् ' इति । ततस्तदनन्तर ता गोपालिका आर्याः सुकुमानिकामार्यामेवमनादिपुः-हे आर्ये ! पय स्खलु अमण्यो और नौ कोटी ब्रह्मचर्य से महाव्रत की रक्षा करने लगी। अनेक चतुर्थ, पष्ठ, अष्टम, भक्त आदि तपस्याओं से अपने आपको भावित भी करने लगी। एक दिन की बात है कि वह सुकुमारिका आर्या साध्वी-जा गोपालिका आर्या विराज मान थी वहा गई-(उवागच्छित्ता वइ, नमसह, वदित्ता नमंसित्ता पर वयासी, इच्छामि ण अ. ज्जाओ! तुम्भेहिं अमणुन्नाया समाणी चपाओ वाहिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदर सामते छट्ट छटेण अणिक्खित्ते णं तवोकम्मे ण सरा भिमुही आयावेमाणी विहरित्तए) वहां जाकर उसने उन्हें वदना की, नमस्कार किया' वदना एव नमस्कार कर फिर वह इसप्रकार कहने लगी-हे भगत ! मे आप से आजा प्राप्त कर चपा नगरी से घाहिर सुभूमिभाग नाम के उद्यान के समीप अतररहित छ? छट्र की तपस्या से सूर्याभिमुखी होकर आतापना करना चाहती हैं। (तएण ताओ गोवालियाओ अजाओ सूमालिय एवं चयासी-अम्हेण ચતુથ, વર્ણ, અષ્ટમ ભક્ત વગેરે તપસ્યાઓથી પિતાને ભાવિત પણ કરવા લાગી એક દિવસની વાત છે કે તે સુકુમારિકા આર્યા સાધ્વી જ્યા ગપાલિકા माया विरमान ती त्या 15 (उपगच्छित्ता व दइ, नम सइ, प दित्ता, नमः सिचा एय क्यासी, इच्छामि ण अज्जाओ | तु भेहिं अन्भणुन्नाया समाणी च पाओ वाहिं सुभूमिभागस्त उज्जाणरस अदूरसामते छ? छटेण अणिक्सित्तेणं वो फम्मेण सूराभिमुही आयावेमाणि विहरित्तए) त्या ईन तर तेभने पहनाश નમસ્કાર કર્યા વદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદત ! આપની આજ્ઞા મેળવીને હું ચ પ નગરીમાં બહાર સુભૂમિભાગ નામના ઉદ્યાનની પાસે અતર રહિત છઠ્ઠ છઠ્ઠની તપસ્યા કરતા સૂર્યાભિમુખી થઈને Raivat ४२१ २ छु (तएण ताओ गोवालियाओ अग्जाओ सूमालियं
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३६
कथा
या पृष्टा मनायाः सपाटकस्थिताः सा तामपोनन् नगपालिका । गारिया जाया
}
न
सघाटग्या' आर्या भणन्निव श्रारिश जावा पोहि चत् गुमारिका दारिशऽपि श्रासि जाता । चैत्र चिता-पोहिला देव पधात्वय गरी दिन्या मारिकाया मनमि मा र्भूता । कुमारिका मागरदन सार्थवादतिर धेरन्यथा स्वपतिं पहि तद् आपूति यावद्गोमन्तमाया गृहीत ततः खलु सा सुकुमारिका आर्या-माधी जाता सा किं बूताईसमिना या गुप्त हो तो भी पता दीजिये कि जिससे में अपने पनि सागरदारक इष्ट, कान्त यावत् मनोम पनजाऊं । गोपालिका के सघाड़े की इन आर्याओं ने सुकुमारिका को, पोहिश को सुनना सानी की तरह समझाया- वह उसी तरहसे श्राविका पन गई । पोटिला की तरह इस सुकुमारिका ने भी पार में दीक्षा देने का मन में विचार किया -1 पोट्टिलाने जिस तरह अपने पति से आज्ञा लेकर दीक्षा धारण की थी उसी प्रकार इस सुकुमारिका ने भी अपने पिता सागरदत्त पूछकर गोपालिका आर्या के समीप दीक्षा धारण कर ली। (तरण सा सूमालिया अज्जा जाया ईरिया समिया जान गुत्तत्रभवारिणी वहहिं 'उत्थ छम जाव विहरह, तएण सा समालिण अज्जा अन्नया कयाइ जेणेव गोवालिया अजाओ तेणेव उवागच्छ ) इस तरह वह सुकुमा रिका आर्या न गई । वह ईर्यासमिति आदि का पालन करने लगी
से
કાઈ ચૂણુ વગેરેના પ્રયાગ મળી શકે તે પશુ મને ખતાવી દો કે જેથી હુ મારા પતિ સાગરદારકના માટે ફ્રી ઇષ્ટ, કાત, યાવત નામ થઈ જાઉં ગપાલિકા સ ઘાડાની તે આર્યોએએસન્નતા સાધ્વીએ જેમ પાટ્ટિલાને સમ જાવી તેમજ સમજાવી અને છેવટે તે શ્રાવિકા બની ગઇ પાટ્ટિલાની જેમજ તે સુકુમારિકાએ પણ ત્યારપછી દીક્ષા લેવાના મનમા મક્કમ વિચાર કરી લીધે પાટ્ટિલાએ જેમ પાતાના પતિની આજ્ઞા લઈને દીક્ષા ધારણ કરી હતી તેમજ સુકુમારિકાએ પણ પાતાના પતિ સાગરદત્તને પૂછીને ગાલિકા આર્યોની પાસેથી દીક્ષા ધારણ કરી લીધી
(तरण सासूमालिया अज्जा जाया इरिया जान गुत्तभयारिणी बहू उत्थ छम जाव विरह, तरण सा सूमालिया अज्जा अभया कयाइ जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तैणेव उवागच्छर )
આ રીતે સુકુમારિકા માર્યો થઈ ગઈ, તે ઈર્ષ્યા સમિતિ વગેરેનું લિન કરવા લાગી અને નવકાટીથી બ્રહ્મચ મહાવ્રતની રક્ષા
મા
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
मेनगारधर्मामृतविण टी० अ० १६ सुकुमारिकाच रितवर्णनम्
૨૭
ब्रह्मचारिणी सा बहुभिचतुर्थपष्ठाष्टमभक्तैर्यास्त्-तप कर्मभिरात्मान भावयन्ती विहरति=भास्तेस्म । ततः खलु सा बुकुमारिका आर्या अन्यदा कदाचिद् यत्रैन गोपालका आर्यास्तत्रोपागच्छति उपागत्य वन्दते नमस्यति, पन्दित्वा नमस्त्विा वमनादीत् = दे आर्या ! इच्छामि खलु युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती चम्पानगर्या वहिः सुभूमिभागस्योद्यानस्यादूरसामन्ते = नातिदूरे नातिनिकटे पृष्ठपण्ठेन - पष्ठभक्तानन्तर पुन पष्ठभक्तेन ' अणिक्खित्तेण ' अनितिप्तेन =अविश्रान्तेन-अन्तररहितेन, तप कर्मणा ' सराभिमुही 'सूर्याभिमुखी 'आया वेमाणी ' आतापयन्ती - आतापना कुनैती विहर्तुम् ' इति । ततस्तदनन्तर ता गोपालिका आर्याः सुकुमानिकामार्यामेवमादिषु . - हे आये ! नय खलु श्रमण्यो और नौ कोटी ब्रह्मचर्य से महाव्रत की रक्षा करने लगी। अनेक चतुर्थ, पठ, अष्टम, भक्त आदि तपस्याओं से अपने आपको भावित भी करने लगी । एक दिन की बात है कि वह सुकुमारिका आर्या साध्वी- जहा गोपालिका आर्या विराज मान थी वहा गई - ( उयागच्छित्ता वदह, नमसह, वदित्ता नमसित्ता एक वयासी, इच्छामि पण अज्जाओ ! तुमेहिं अन् मणुन्नाया समाणी चपाओ वाहिँ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूर सामते छट्ठ छट्टेण अणिक्खित्ते णं तवोकम्मे ण सुरा भिमुही आयावेमाणी विहरितए) वहा जाकर उसने उन्हें वदना की, नमस्कार किया ! वदना एवं नमस्कार कर फिर वह इसप्रकार कहने लगी- हे भक्त ! मे आप से आज्ञा प्राप्त कर चपा नगरी से बाहिर सुभूमिभाग नाम के उद्यान के समीप अतररहित छट्ट छ की तपस्या से सूर्वाभिमुखी होकर आतापना करना चाहती हूँ । (तएण ताओ गोवा लियाओ अजाओ सूमालिय एव वयासी अम्हेण अतुर्थ, प४, अष्टभ ભક્ત વગેરે તપસ્યાથી પાતાને ભાવિત પણ કરવા લાગી એક દિવસની વાત છે કે તે સુકુમારિકા આર્યો સાધ્વી જ્યા ગેાપાનિકા भार्या विरामान ती त्या गाई ( आगच्छित्ता व दइ, नम सइ, व दित्ता, नमसिता एप वयासी, इच्छामि ण अज्जाओ ! तुभेहिं अभणुन्नाया समाणी च पाओ बाहि सुभूमिभागस्स उज्जाणरस अदूरसामते छट्ठ छट्टेण अणिक्सित्तेर्ण पवो कम्मेण सूराभिमुही आयावेमाणि विहरित्तए ) त्या काने तेथे तेभने पहना उरी નમસ્કાર કર્યાં વદના તેમજ નમન્કાર કરીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હું ભદત! આપની આજ્ઞા મેળવીને હુ ચ પા નગરીમા અઢાર સુભૂમિભાગ નામના ઉદ્યાનની પાસે અતર રહિત રૢ છઠ્ઠની તપસ્યા કરતા સૂર્યાભિમુખી થઇને अज्जाओ स्मालियं
1 ઈચ્છુ છુ
( तपण वाओ गोवालियाओ
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
nadaKARN
440mmmmmore-R
EAD
२६८ नि.प. गिरिधागांगति ',
गारिष स्म.. तस्माद् नो खलु TETI FM-'परिमा' यति-प्रामाद गा रानिवभाद् पप्ठ पाठेन 'जार शिरिन पारद गित प्रामाद दि पद गाजीना स्थितिशीलगादिकारण मातीति भार: Ifमरते सलु मम्मारम् 'ना' अन्तः अभ्यन्तर ' उसयस' माश्यस्यगतः, शिम्भूतस्य 'नितिपरि विखतरस' पृविपरिसितम्य-मित्यादिना सभा समाहास्य, 'माडिपटियाए' सवाटिका प्रतिपदापा: मतिपदशाटिकायाः मर्ययाऽनुमाटिनगाया 'त्पर्य 'समतलपइयाए ' समतपदिकापा =भृमो समतलच्या स्थापित परणयुगलाया आयापित्तए' आतापयितुम् भातापना क मन्यते इति पूर्वण मम्पन्नः । ततः अज्जे ! समणीमा निग्गीआइरियासामयामो जार गुत्तपमचारि णीओ,नो सलु अम्म कम्पपरियागामस्त जारसविणवेसम्म वा छ४० जाय चिररित्तण) इस प्रकार सुकुमारिका साधी का कथन सुनकर गोपारिफा आर्या ने उस सुकुमारि का आर्या से हम प्रकार कहा है आयें ! हम लोग निन्य श्रमणिया है। ईर्मा आदि समितियो का पालन करती हैं । और नौ कोटि से नमचर्य की रक्षा करती है । इस लिये हम लोगो को ग्राम से यावत् सनिवेश से बाहिर रह कर षष्ठ षष्ठ की तपस्या करना यावत् सूर्याभिमुखी होकर आतापन योग धारण करना कल्पित नहीं है । कारण-ग्रामादि के पाहिरी प्रदेश में साध्विया का रहना शीलभा आदि का निमित्त पन जाता है। (कप्पड़ ण अम्ह अंतो उवस्सयस्स विपरिक्खित्तस्स सघाडिद्धियाए ण समतल पई याए आयावित्त ) हमें तो यही कल्पित है कि हम लोग उपाश्रय के एव क्यासी-अम्हेण अजे ! समणोओ निग्गधीओईरिया सामियाओ जाव गुत्त बभचारिणीओ, नो खलु अम्ह फापइ बहिया गामरस जाब सण्णिवेसरस वा छ? जाव विहरित्तए ) मारीत सुभारि साध्वान ४थन सामजीने गोपाtat આર્યાએ સુકુમારિકા આયીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે આર્યો ! આપણે નિગ્ન થ શ્રમણીએ છીએ ઈર્યા વગેરે સમિતિઓનું પાલન કરીએ છીએ, અને ન કેટિથી બ્રહ્મચર્યનું રક્ષણ કરીએ છીએ એથી આપણે ગામથી થાવતું સન્નિવેશથી બહાર રહીને પણ વણની તપસ્યા કરવી યાવતુ સૂર્યાભિમુખી થઈને આતપન ગ ધારણ કરવું કવિપત નથી કારણ કે-ગામ વગેરેથી બહારના પ્રદ शमा सानीमाये २७ शासन बिरेनु निमित्त 45 on छ (कप्पा ण अह अतो उवस्मयस्स विपरिस्खित्तस्स समाधिदियाए ण समतलपड्याए आया . विचए) मापनेता पित, आप भीत, १ वार
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
__ मागारधर्मामृनषिणी टी० अ०१६ सुफुमारिकाचरितनिरूपणम्
२३९ खलु सा मृयुमारिका गोपारियानामार्याणामेतमर्थ नो श्रद्दधाति 'नो पनियइ' नो मत्येति-नो विश्वसिति, 'नो रोएइ ' नो रोचते, एतमर्थम् अश्रदधाना अपत्यिन्ती, अरोचमाना सति स्मृमिभागम्य उद्यानग्य अदरसामन्ते पष्ठ-पाठेन यावत्-तप रमणा गर्याभिमुखी भूत्वा-आतापना कुर्वती विहरति ।। मृ० १३ ॥
मूलम्-तत्थ णं चंपाए ललिया नाम गोट्टी परिवसइ, नरवइ दिण्णवियारा अम्मापिइनिययनिप्पिवासा वेसविहा. रक्यनिकेया नाणाविहअविणयप्पहाणा अड्डा जाव अपरिभूया, तत्थ ण चपाए देवदत्ता नामंगणिया होत्था सुकुमाला जहा अंडणाए, तएणं तीसे ललियाए गोट्टीए अन्नया पच गोट्रिलगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स कि जो भित्ति आदि से सब तरफ से परिक्षिप्त है भीतर ही अपने शरीर को शाटिका से अच्छी तरह सवृत्त करती हुई और भूमि पर दोनों चरणो को घरार स्थापित कर आतापना ( ताण सा समारिया गोवाल्यिाए एम नो सहरह, नो पत्तियइ नो गए। एयम अ० ३ मुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामते छठ छ8ण जाव विरइ ) इस गोपालिका आर्या कथन ऊपर उस सुकुमारिका आर्या को श्रद्धा नही जमी उस पर उसे विश्वास नहीं आया, वह उसे कचों नहीं । इस तरह वह उसे अश्रद्धा अप्रतीति और अरुचि का विपय यनाती हुई सुभूमिभाग नामक उद्यान के पास पष्ट पष्ठ की तपस्या करती हुई वह सूर्याभिमुख होकर आतापना करने लगी ।। सू० १३ ॥ પરિક્ષિત ઉપાશ્રયની અંદર જ પિતાના શરીરને શાટિકા-સાડીના મારી રીતે ઢાકીને અને ભૂમિ ઉપર બને ચરણને બરાબર પિત કરીને આપના
ये (तण्ण सा सूमाल्यिा गोवालियाए एयमट्ठ नो सहइ नो पत्तियह नो रोएइ, एयम? अ० ३ सुभूमिभागास उज्जाणम्स अदरसामते दु टुण जाव विहरइ) गोपा१ि७। मार्याना उन 6५२ सुमा२ मार्याने पद्धा 25 -8, તેના ઉપર તેને વિશ્વાસ થયો નહિ તે તેને ગમ્યુ પણ નહિ આ રીતે તે તે કથન પ્રત્યે અશ્રદ્ધા, અપ્રતીતિ અને અરુચિ ધરાવતી સભૂમિભાગ નામના ઉદ્યાનની પાસે પણ થઇની તપસ્યા કરતી સૂર્યાભિમુખી થઈને આતાપનાં કરવા લાગી છે સૂત્ર ૧૩ |
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
--
-
-
-
main
মামলা निकपः ईगिरिधागांममिति, गा- रिपः म्म, तस्माद् नी ग्यलु माफ ET-बरिया' पति-प्रामाद या सनिवेशाद् पप्ठ पाठेन जारितए । याद गिग ग्रामादे पद पर गाधीना स्थितिः शीलमाटिकारण गातीति भारः पुगपते पलु अमाम् 'तो' अन्तः अभ्य तर 'उसासा' उपाययः , शिम्भूनस्य 'पितिपरि क्विनस्स' पृतिपरिक्षिप्तस्य-मित्यादिनानः समात्नस्य, 'समाडिरदियाए' सवाटिका मतिरामा प्रतिरदशाटिकायाः गयाऽनुसाटिनगाभारा 'त्यये 'समतलपइयाए ' समतलपदिकाया भूमो समतलाया म्यापितवरणयुगलाया आयारित्तए' जातापितम् भातापना रत्न पल्पते रति पूषण मन्त्रः । ततः अज्जे ! समणीमो निगयोआ ईरियासमियागो जान गुत्तरमचारि णीभो,नो सलु अम्म कप्पायरियागामस्तजारमणिवेसस्म वा छह जाव चिहरित्तए) इस प्रकार सुकुमारिका साध्वी का कथन सुनकर गोपारिका आर्या ने उस सुकामारि का आर्या से उम प्रकार कहा है आर्ये । हम लोग निर्ग्रन्य श्रमणिया है । ईर्या आदि समितियों का पालन करती हैं । और नौ कोटि से ब्रह्मचर्य की रक्षा करती है । इस लिये हम लोगो को ग्राम से यावत् मनिवेश से थाहिर रह कर पष्ठ षष्ठ की तपस्या करना यावत् सूर्याभिमुखी होकर आतापन योग धारण करना कल्पित नहीं है । कारण-नामादि के पारिरी प्रदेश में साध्विया का रहना शीलभग आदि का निमित्त पन जाता है । (कप्पइ ण अम्ह अंतो उपस्सयस्स विइपरिक्खित्तस्स सघाडियद्धियाए ण समतल पई याए आयावित्तण ) हमें तो यही कल्पित है कि हम लोग उपाश्रय के एव पयासी-अम्हेण अग्जे ! समणीओ निग्गथीओईरिया सामियाओ जाव गुत्त बभवारिणीओ, नो खलु अम्ह कापद बहिया गामरस जाय सण्णिवसरस वा छ जाव बिहरित्तए ) मा शते सुधमासिवान थन साजीन शादst આર્યાએ સુકુમારિકા આયને આ પ્રમાણે કહ્યું કે આર્યો ! આપણે નિથ શ્રમણીએ છીએ ઈર્યા વગેરે સમિતિઓનું પાલન કરીએ છીએ, અને નવ કોટિથી બ્રહાચર્યનું રક્ષણ કરીએ છીએ એથી આપણે ગામથી થાવત સન્નિવેશથી બહાર રહીને પણ ષષની તપસ્યા કરવી યાત્ સૂર્યાભિમુખ થઈ આતપન યોગ ધારણ કરે કલ્પિત નથી કારણ કે-ગામ વગેરેથી બહારના પ્રદ शमा सावीमाये २ शासन विरेनु निमित्त यई छ (कप्पाहण अम्ह अतो उवस्सयस विपरिस्खिचस्स सबाबिनदियाए ण समतलपड्याए आया वित) मायनतात. भापति
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधामृतवार्षिी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् ४१ वेश्याविहारकृतनिकेता - वेश्यागृहकृतनिवासा, तथा-' नाणाविहअविणयप्पहाणा' नानाविधाऽविनयप्रधाना, तया-भादया धनधान्यसम्पना, यावद् अपरिभूता-परैरनभिभूता, आसीत् । तारलु चम्पाया नगयों देवदत्ता नाम 'गणिया' गणिकान्वेश्या, आसीत् , सा किम्भूतत्याह-मुकुमारपाणिपादा, चतुप्पष्टिकला. विशारदा 'जहा आडणाए' यथा भण्डनाते अण्डनामके तृतीये ज्ञाता-ययने यथाऽस्यावर्णन तद्वदिह वोध्यम् । ततः सलु तस्या ललिताया गोठया अन्यदाअन्यस्मिन् कस्मिंश्चित्समये, पञ्च 'गोहिल्गपुरिसा' गोष्ठिकपुरुपा-मण्डलीपुरुषाः समानवयस्का इत्यर्थः देवदत्तयागणिकयामा सुभूमिभागस्योद्यानस्योद्यानश्रिय उद्यानशोभा मत्यनुभवन्तो विहरन्ति । तर खलु एको गोष्ठिकपुरुषो देवदत्ता नाणाविह अविणयप्पाराणा, अनाजाय अपरिभूया) इसने अपनी सेवासे राजाको प्रसन्न कर रखा था-लो उसकी कृपा से यह बिलकुल स्वच्छद थे। अपने माता पिता आदि कुटुम्पी जनो की यह परवाह नहीं किया करते थे-उनको इन पुरुषों से बिलकुल भय नरी था। वेश्याओं के घर में पडे रहना-यी इनका एक काम थी। अनेक प्रकार के अविनय प्रधान रूप अनाचारों का सेवन करना यही उनका काम था। पैसे की-द्रव्यकी उनके- पाम कमी नही थी। कोई इनको कुछ कह सुन नही सकता धा । (तत्य ण चपाए देवदत्ता नाम गणिया होत्या, सुकुमाला, जता अडणाए, तरण तीसे ललियाए गोट्ठीए अन्नया पच 'गोहिल्लगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धि सुभूमिभागस उज्जा. णस्स उज्जाणसिरि पच्चणुभषमाणा विहरति) उसी चपा नगरी में जाव अपरिभूया) ते भी तानी मेवाथी राजन प्रसन्न ४२सा तो તેમની કૃપાથી તે મ ડળી એકદમ સ્વચ્છ દપણું આચરતી હતી પિતાના માતા પિતા વગેરે કુટુંબી લો ની પણ તેઓ દરકાર કરતા ન હતા તેઓને આ વડીલેની કોઈપણ જાતની બીક હતી નહિ, વેશ્યાઓના ઘેર પડયા રહેવુ ફક્ત એજ એમનું એક માત્ર કામ હતું અનેક પ્રકારના અવિનયપૂર્ણ આચરણ કરવા એજ તેઓના જીવનનું મુખ્ય કામ હતું ધનની તેઓની પાસે ખોટ હતી નહિ કેઈપણ નાગરિકની એટલી પણ તાકાત નહોતી કે તેઓ તેમને કઈપણ કહે! (नत्य ण च राए दे दत्ता नाम गणिया होत्या, मुकुमाला, जहा अहणाए, तरण तीसे सल्यिाए गोद्रीए मन्नया पच गोद्विल्गपुरिसा देवदत्ता गणियाए सदि सुभूमिभागस्स उजनागरस उन्नाणसिरिं पच्चणु भवमाणा विहर ति) ते ५५
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
उजाणस्स उजाणसिरिं पचणभषमाणा विहरति, तरथ णे एगे गोहिलगपुरिस देवदत्तं गणियं उन्चंग धरइ एगे पिट्ठओ आयात्त धइ एगे पुप्फपुरयं नगर एगे पाप पर पगे चामरुस्से करेइ तपण मा समालिया अजा देवदत्तं गणिय तेहिं पंचहि गोहिष्टपुरिसहि सम उसलाई माणुस्सगाई भोगभोगाइ भुंजमाणी पासइ तपण तीसे इमेयास्पेसंकप्पे समुप्पज्जित्था-अहोणंइमाइस्थिया पुरापोराणार्ण कम्माणं जाव विहग्इ, तं जइ णे इमस्स सुचरियरस तव. नियमभचेतासरूम मल्लाणे फलवित्तिविममे अस्थि तो णं अहमति आगमिस्मेणं भागहणेनं इमेयारूपाइ उरा. लाइ जाव विहरिज्जामि त्तिह नियाणं करेइ करिता आयावणभूमिओ पचोरुहइ ।।सू० १४॥
टीका-' तत्थ ण चपाए' सादि । तन खलु चम्पाया नगयां ललिता नाम्नी ' गोट्ठी' गोष्टी मण्डली परिवसति किं भूतो सा गोष्ठीत्याइ-'नरवइदिग्ग नियारा' नरपतिदत्तविचारा नरपतिना दत्तो विचार. समतिर्यस्यै सा तथा-सेवा दिना सन्तुष्टानरपतेर्लब्धस्मतन्त्रता, तथा - ' अम्मापिइनिययनिप्पिवासा' अम्बापितृनिकनि पिपासा-मातापिनादि निरपेक्षा, 'वेसविहारकय निकेया'
'तत्य ण चपाए ललिया नाम ' इत्यादि ।
टीकार्य-(तत्य ण चपाए ललिया नाम गोही परिवसइ) उस चपानगरीमें 'ललिता' इस नामकी गोष्ठी-मडली रहती थी । ( नरव दिण्णवियारा, अम्मापिद नियय निप्पिवासा वेसविहोरकयनिकेया,
' तयण चपाए ललिया नाम' इत्यादि
साथ-(तत्यण चपाए ललिया नोम गोदी परिवसइ) ते या नगदीमा 'लिता' नामे ही भजी ती ती (नरवइ, दिण्णवियारा अम्मापिद निययनिस्पिवासा, वेसविहारकयनिकेया, नाणाविहअविणयप्पहाणा, अड्डा
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगार नियपिणी टीका २०६६ सुमारिकापरितवर्णनम् २४३ पुती मामुदारान-अष्टान् भोगान् मुञ्जाना-पुर्वी पश्यति, तत्त्वरणाः मुखमा रिफायण जयमेतरण सत्यमाणग्ररूपः संग्लपिचारः समुत्पद्यत-अहो ! खलु इन सो पग-पूर्वमवे 'पोरागाण' पुरागानाम्-पुराननाना मचिताना कर्मा पुनर्मगा पार कत्तिविशेष मत्लनुगमन्ती विहरति तन्-तस्मात् कारणाद् यदि सलु कोऽप्यस्न नुचरितम्य तपोनिमब्रह्मचयामस्य रल्याण उप्टः गुभरूप , फल्गृत्तिविशेषः अस्ति, 'तो' तर्हि खलु अमपि 'नागमिस्सेण' जागामिना भनरहणेन इमान् एतद्रूपान् उदारान् भोगान् यापद् भुजाना 'विहउस पर चार बोरे। इस तरह से उस सुमारिका आर्या ने उन मडली के पाच पुरुषो के माय उस देवदन्ता गणिका को उदार मनुष्य भव सपन्धी काम भोगों को नोगते हुए देग्या । (तएण तीसे इमेयास्वे सकप्पे मनुपन्जिया-अहो ण इमा इस्यिया पुरा पोराणाण कम्माण जाब विहरह) ता उम सुकुनारिका आर्या को इस प्रकार का यह विचार उत्पन्न आ-नहो ! इम स्त्री ने पूर्वभव में जो पुण्य कर्म कमाये हैं उन्हीं पुराने पुण्य कर्मों के यारत् फत्ति विशेष को यह भोग रही है । (त जइण केइ इमस्त तुचरियस्ल नव नियमभचेरवासस्त कलाणे फलवित्तिरिसेसे अस्थि तो ण अहमवि आगमिस्संग भवरगहणेण इमेरारूवाइ उसलाइ जार विहानामि, तिकटू नियाण करेड, करिता आयाबगभूमिमी पच्चोल्हइ ) इसलिये यदि इन पालिन तप, नियम एवं ब्रह्मपचे व्रता का कोई शुभरूप फलफ्रात्त विशेय है तो में भी आगामी मब में इसी तरह के उदार मनु य भव सम्धी काम भोगों ઢળ્યા આ રીતે તે સુકુમારિ આર્યોએ મંડળીના પાચે માણસની સાથે તે हेपत्ता पाने २ अनुभ्यसपना अभाग लागवता लेया (तएण तीसे इमेयाहने सकप्पे समुप्पन्जित्या- अहो ण इमा इत्यिया पुरा पोराणाण पम्माण जाव विहरह) त्यारे ते सुधभार मायाने मतना पिया CEભવ્ય કે અહે? આ સ્ત્રીએ પૂર્વભવમા જે પુણ્યકર્મ કર્યા છે તેમને લીધે જ એટલે કે તે જ પૂવ ભવના પુણ્ય-મે ના યાવત ફળવિશેષને આ ભોગવી રહી छ (त जइ ण कैइ इमास सुचरियस दर नियम उभरवासस्म कन्लाणे फट वित्तिविसेसे अस्थि तो ण अहनदि आगमि से ण भरग्गड्गे ण इभेयारूलाइ उरा लाइ जाव विहरितामि, ति कटु नियाण करेइ, फरित्ता आपराव गभूमिओ पच्चोरुहः) मा मा भारा व मायामा मावस त५, नियम भने બ્રહ્મચર્ય વ્રતનુ શુભ ફળ છે તે હું પણ આવતા ભવમાં આ જાતના જ ઉદાર મસબ ધી કામગોને ભેગવુ આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેણે નિદાન
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
गणिफागुत्स धरति पर 'पिभो' : 'मान' आपार घाति, एफ: 'पुप पूरयं' पप-पापा नापि ' पति, पर पादो-अत्तयादिनाशयति । - नामसारी' नामरसीजन फरोति । तत' ग्लु गा गृहमारा माणा गनिका ने पाभिगा एक देवदत्ता नाम की एक गणिका सती धी। यानामा पलाओं में निष्णात थी। इसके राय पर आदि मपी अपयर परत ती अधिक सुकुमार थे। मयूर अउ नाम के तृतीय जाताध्ययन में उमरा जैसा वर्णन किया गया है-धैमा ही वर्णन सपा मां जानना चाहिये । एक समय की पात है कि गोष्ठी ५, रूप किलो ममान चरसवाड़े थे देवदत्ता गणिका के साथ उस सुभमिभाग उपान में आये-आर घहा की उद्यान की शोभा का निरीक्षण करते इधर-उधर घूमन लगे-(तस्थ ण एगे गोहिल्ग पुरिसे देवदत्त गणि उच्चगे घरह, एग पिट्टओ आयवत्त धरेह, एगे पुप्फपय गण्ड, गे पाए रगड, एगे घामस्वखेव परेछ, तपण सा समारिया अज्जा देवदत्त गणिय तेहि पचर्हि गोहिल्लगपुरिसेहि सद्धिं उगला माणुस्तगाह मोगभोगाइ भुज माणी पासह ) वहा एक उस मडली के पुस्प ने देवदत्ता गणिका का अपनी गोदी मे पैठाया, एक दूसरे-मटली के पुरप ने उसके पास उमके ऊपर छत्तो ताना, एक तीसरे पुरुपने उसके निमित्त पुप्पों का रचना रची, चौथे पुरुप ने उसके दोनों पैरों में मादर रगात्रा पाचवं न નગરીમાં દેવદત્તા નામે એ ગણિકા રહેતી હતી તે ૬૪ કળાઓમા નિપુણ હતી, તેના હાથ–પગ વગેરે બધા અને અતીવ સુકોમળ હતા મયૂરી અડ નામના ત્રીજા અધ્યયનમા દેવદત્તાનું જેવુ વાન કરવામાં આવ્યું છે તેવું જ વર્ણન અહી પણ જાણી લેવું જોઈએ એક દિવસની વાત છે કે ગણી–મડળીના પાચ માણસો કે જેઓ સરખી ઉંમરવાળા હતા–દેવદત્તા ગણિકાની સાથે તે સુભૂમિભાગ ઉદ્યાનમાં ગયા અને ત્યાની ઉદ્યાન શોભાનું નિરીક્ષણ કરતા આમ तभ ५२१ बाय (तत्थण एगे गोद्रिगपुरिसे देवदत्त गणिय उच्छगे धरइ, एगे पिओ आयवत्त घरेइ, एगे पुप्फपूरय रएइ, एगे पाए रएइ, एगे चामरक्खे व करेइ तएण सा सूमालिया अा देवदत्त गणिय तहिं पचहि गोट्टि पुरि सेहि सद्धि उरालाइ माणुस्सगाइ भागभोगाइ भुजमाणी पासइ) त्यो त भड ળીના એક માણસે દેવદત્તા ગણિકાને પિતાના ખોળામાં બેસાડી બીજા માણસે તેની ઉપર છત્રી તા, ત્રીજા માને તેના માટે પુપ ની રચના કરી, ચેથા માણસે તેના પગમાં લાલ રંગ લગાબે, પાચમા માણસે તેના ઉપર ચામર
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
arrant टीकाम० १६ सुकुमारिकानिरूपणम्
२४५
माणीए इमेयारुवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था, जयाणं अह अगारवा समझे वसामि तया णं अह अप्पवसा, जया णं अह मुंडे भविता पव्वइया तथा णं अहं परवसा, पुत्रि च णं ममं समाणीओ आढायतिर इयाणि नो आढतिर त सेयं खलु मम कल पाउ० गोवालियाण अतियाओ पडिनिक्खमित्ता पाडिएक उवस्तय उत्रसंपज्जित्ताण विहरित्तए तिकट्टु एव संपेइ संपेहित्ता कह पा० गोवालियाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता पडिएक्कं उवस्सय उवसपज्जि - नाणं विहरइ, तणं सा सूमालिया अज्जा अणोहट्टिया अनिवारिया सच्छदमई अभिक्खण अभिक्खणं हत्थे धोवेइ जाव एइ तत्थ वि य णं पासत्था पासत्यविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीलार संसत्तार बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ अद्धमासियाए सलेहणाए तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिक्कंता कालमासे काल किच्चा ईसाणे कप्पे अण्णयरसि विमाणसि देवगणियत्ताए उबवण्णा, तत्थेगइयाण देवीणं नव पलिओ माई ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं सूमालियाए देवीए नव पलिओ माईं ठिई पन्नता ॥ सू० १५ ॥
टीका -- 'तएण सा' इत्यादि । ततः खलु सा सुकुमारिका आर्या 'सरीर
'
तएण सासूमालिया अजा ' इत्यादि ॥
टीकार्थ - (तएण ) इस के बाद (सा मूमालियाए अज्जा सरीर घरसा
“
तएण सासूमालिया अज्जा' इत्यादि
- (तरण) त्यारपट्टी ( सा सूमालिया अज्जा सरीरधउता जाया यावि
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
कमायो रिज्जामिति बटु' । विरामि पनि कया 'निगाण ' निदान करोति, कृत्वा भातापनभूमितः प्रत्यारोति-भावापना परिन्गी ॥ १०१४॥
मूलम्-तएणं सा सूमालिया अज्मा सरीरबउसा जाया यावि होत्था, अभिषण अभिक्रसणंर हत्थे धोवेइ पाए धोकेह सीसं धोरे मुहं धोइ थणंतगड धोवेइ करसंतराइ धोवेइ गोज्झतराइ धोवेइ जस्थ णं ठाणं वा सेज वा निसीहियं वा चेएइ तत्थ वि य णं पुयामेव उदएणं अन्भुस्खइत्ता तओ पच्छा ठाणं वा३ चेइए, तएणं ताओ गोवालियाओ सूमालियं अज एव वयासी-एव खलु देवाणुप्पिया। अज्जे अम्हे समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव चमचेरधारिणीओ नो खल्लु कप्पइ अम्हं सरीरवाउसियाए होतए, तुम च ण अजे! सरीरवाउसिया अभिरखणं अभिक्खण हत्थे धोवेसि जाव चेएसि, तं तुम णं देवाणुप्पिए । तस्स ठाणस्त आलोएहि जाव पडिवज्जाहि, तएण सा सूमालिया गोवालियाण अज्जाणं एयम नो आढाइ नो परिजाणइ अणादायमा अपरिजाणमाणी विहरइ, तरण ताओ अज्जाओ सूमालिय अज्जं अभिक्खणं अभिक्खणं अभिहीलति जाव परिभवति, अभिक्खणं अभिक्खण एयमह निवारेति, तएणं तीए सूमा लियाए समणीहिं निग्गंथीहि हीलिज्जमाणाए जाव वारिज्ज. को भोगू । ऐसा विचार कर उसने निदान घध किया और करके फिर वह आतापन भूमि से आतापना लेकर अपने स्थान आगई ।। सू०१४॥ બધ કર્યો અને કરીને તે આતાપન ભૂમિથી આતાપના લઇને પિતાના સ્થાને
આવી ગઈ છે સત્ર ૧૪ |
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारयामापिणी टीकाम० १६ सुकुमारिकानिकपणम् २४५ माणीए इमेयारवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था, जयाणं अह अगारवासमझे वसामि तया णं अह अप्पवसा, जया णं अहं मुंडे भवित्ता पम्वइया तया णं अहं परवसा, पुवि च णं मम समाणीओ आढायति२ इयाणि नो आढतिर त सेयं खल्लु मम कल्ल पाउ० गोवालियाणं अतियाओ पडिनिस्खमित्ता पाडिएक उवस्सयं उसपज्जित्ताण विहरित्तए तिकटु एव संपेहेइ संपेहित्ता कलं पा० गोवालियाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ पडिनिस्खमित्ता पडिएकं उवस्सय उवसपज्जिताणं विहरइ, तएण सा सूमालिया अज्जा अणोहट्रिया अनिवारिया सच्छदमई अभिक्खण अभिक्खणं हत्थे धोवेइ जाव चेएइ तत्य वि य णं पासत्या पासत्यविहारी ओसण्णा ओसण्गविहारी कुसीलार संसत्तार वणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ अद्धमासियाए सलेहणाए तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिकंता कालमासे काल किच्चा ईसाणे कप्पे अण्णयरलि विमाणसि देवगणियत्ताए उबवण्णा, तत्थेगइयाणं देवीणं नव पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं सूमालियाए देवीए नव पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता ॥ सू० १५ ॥
टोका-'तएण सा' इत्यादि । ततः खलु सा सुकुमारिका आर्या सरीर 'तएण सा सूमालिया अन्जा' इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इस के बाद (सा सूमालियाए अज्जा सरीर परसा 'तएण सा सूमालिया अज्जा' इत्यादि
-(तरण) त्यारपछी (सा सुमालिया अम्जा सरीरयउता जाया चावि
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
रिज्जामिति पहिरामि पनि कानिगाणं ' निदान परोति, कुत्रा आतापनभूमिय' प्रत्यारोदति भागापना पग्रिी०१४॥
मूलम्-तएण सा सूमालिया अज्जा सरीरवउसा जाया यावि होत्था, अभिक्खण अभिक्सण२ हत्थे धोवह पाए धोवेइ सांसं धोत्रेड मुह धोद धणंतगड धोवेड करसतराई धोवेड गोज्झतराइ धोवेइ जत्थ ण ठाणे वा सेज वा निसीहियं वा चेएइ तत्व विय णं पुयामेव उदएणं अव्भुस्खइन्ता तओं पच्छा ठाणं वा३ चेइए, तएण ताओ गोवालियाओ सूमालिय अज एव क्यासी-एव खल्ल देवाणुप्पिया। अजे अम्हे सम. णीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाब वभरधारिणीओ नो खल्ल कप्पइ अम्हं सरीरवाउसियाए होतए, तुम च णे अजे! सरीरवाउसिया अभिरखण अभिक्खणं हत्थे धोवेसि जाव चेएसि, तं तुम ण देवाणुप्पिए । तस्स ठाणस्त आलो. एहि जाव पडिवज्जाहि, तएण सा सूमालिया गोवालियाण अज्जाणं एयम8 नो आढाइ नो परिजाणइ अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ, तएण ताओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं अभिक्खणं अभिक्खणं अभिहीलति जाव परिभवति, अभिक्खणं अभिक्खण एयम निवारेति, तएणं तीए सूमा लियाए समणीहिं निग्गंथीहिं हीलिज्जमाणाए जाव वारिज
को भोगू । ऐसा विचार कर उसने निदान बध किया और करके फिर वह आनापन भूमि से आतापना लेकर अपने स्थान आगई ॥ सू०१४॥ બધ કર્યો અને કરીને તે આતાપન ભૂમિથી આતાપને લઈને પિતાના સ્થાને આવી ગઈ ! સત્ર ૧૪ છે
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
भागारधामृतपरिणी टीका १० १६ सुकुमारिकाचरितनिरूपणम् २४७ . ततः सलु गोपारिमा आयोः सुकुमारिकामार्शमेवमवादिपुः एर पलु हे देवानुप्रिये ! आर्थे ! ३य श्रमण्य -तपस्विन्यः निन्थ्यः वायाभ्यन्तरग्रन्थिरदिताः ईसमिता यावद् गुप्तब्रह्मचर्यधारिण्य' स्म', नो सलु बलातेऽम्मास सरीसारसिगाए ' शरीरमशिरा होतए' भवितुम् इति स्व च खल हे आर्ये । शरीरमाशिका जाता अमोण-पुन पुनरतिगयेन हस्तौ धापमि प्रक्षालयसि, यावत्-स्थान वा शाया वा म्यान्यायभूमि वा जलेनाभ्युक्ष्य 'एसि' चेतयसि स्नादिक करोपीत्यर्थः । तम्-तस्मात् त्व खलु दे देवानु मिये । तत् स्थानम् ' आरोगहि ' आलोचय, शतिचार प्रकाशयेत्यर्थः । यावद 'पड़िानाहि प्रतिपयस्व-प्रायश्चित्त स्वीकुरु ' इत्यर्थः । ततः खलु सा सुखलिका आर्या ने उस सुरुमारिका ओर्या से कहा-(एच खलु देवाणुप्पिया! अज्जे अम्हे समणीओ निग्गंधीओ ईरियोसमियाओ जाय यभचेर धारिणिओ, नो ग्वलु कप्पह अम्ह सरीरयाउलिया होत्त, तुमच णं अज्जे मरीरमाउसिया, अभिवण २ हत्ये धोबेसि, जाव चेसि ) हे देवानप्रि! हम आर्या निन्ध अमणिया हें। ईयां आदि पांच समिनित्रोंदा पालन करती हैं। नोमोटि ब्रह्मचर्य सहिलमरोवतको पालन करती ह। अत. हम लोगों को अपने शरीर के संस्कार करने में परायण पनना बल्पित नहीं है। हे आयें ! तुम शरीर संस्कार करने में परायण बन चुकी हो । चार २ तुम हायों को धोनी हो यावत् स्थानको शय्या को, और स्वाध्याय भूमि को पहिले से ही पानीसे वोकर नियत करती हो (त तुम ण देवाणुप्पिए । तस्स ठागस्म आलोएहिं, जाव पडिज्जाहि) इस लिये हे देवानुप्रिये ! तुम उस स्थान की आलोचना करो-अपने अतिचारों को प्रकाशित करो पावत् उनका प्रायश्चित्त लो।
मारित मायाने या प्रमाणे द्यु -( सलु दवाणुपिया । अग्ने अम्हे समणीओ निग्गवीमो ईरियाममियाओ जाव चमचे धारिणिो ने सलु कप्पा अम्हे मरीरवारसियाए होत्तए, तुम च ण अज्जे सरीग्याउसिया, अभिकरण २ हत्थे धोवेसि जार एनि) व नुप्रिये ! मे शामिा नियम
એ છીએ, ઈર્યા વગેરે પાચ સમિતિઓનું અને પાલન કરીએ , નવ કેટિવી બ્રહ્મચર્ય મહાવ્રત ધાર કરીએ છીએ એવા પોતાના ગરીરને સત્કાર કરે એ આપણા માટે ચોગ્ય ગણાય ન૩િ હે આ ! તમે રાત્રીના સા રમા પરાયણ બની ચૂકી છે તમે વારવા હાથને ધુએ દેયાવત્ સ્થાનને, શાને અને સ્વાયભૂમિને પહેલેથી જ પાણીથી ઘેઈને નક્કી કરી લે છે त तुम.पा देवाणुधिए ! तरस ठाणस आलोपहि, नाव परिवग्नाहि ) सेवा
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
--
--
-
-
সথায় घउसापारीयात शरीरमकायम ना नाना , मीदग २ पुनः पुनः सौ पाह' पारतिमालगी, पाटी पापति सीम' गोप-शिर' धापति, गु धापति, 'मगारा' रामि धारति माह ' मा न्तराणि पानि, 'गोगा गुशान्तराणि गपपदेश भी, यम 'ठाण वा 'म्यानम्-उप रानार्थ स्थान मज पामय्या 'निसोरिया नषेधिकी स्त्री यायभूमि या 'चेपर' चायति-यगेनि, तत्रापि च मङपूमपोटकेन 'अभुक्खइत्ता' अभ्युत्य समिति, ना पगात् 'ठाण तासान या शय्या वा पेधिरी पाए' चेतपति-परोति । जाया यानि होत्या-अभिसण २ रत्ये गोड, पाप धोवेड, मीस धोवेह, मुह घोवेह, श्रणतराइ धोवेह, पात्रातराइ धोवर, गोमतराइ घोवेइ) वह सुकुमारिका आर्या शरीर सस्कार करने में भी तत्पर बन गई। पार २ यह शोध गोने लगी, पैर धोने लगी, शिर धोन लगी, मुग्य धोने लगी, स्तनातरों को धोने रगी, पक्षाओं को धोने लगी और गुख प्रदेश को धोने लगी। (जत्य ण ठाण या सन्न या निसीहिय वा चेएइ तत्व वियण पुयामेव उदएणअमुस्खइत्तो तओ पच्छा ठाण घा ३ चेएइ, तएण ताओ गोवालियाओ अन्नाओ सूमालिय अज एव पयासी) इसी तरह वह जहां अपना धैठने के लिये स्थान बनाती शग्या-पाथरती, स्वाध्याय स्थान करती, वहा भी वह पहिले से ही उसे जल से सींच देती-तब जाकर वहां पर अपना स्थान, शया एवं स्वाध्याय भूमि नियत करती। इस प्रकार की परिस्थिति देख कर गोपा होत्या-अभिक्खण २ हत्थे धोवेइ, पाए धावेह, सीस धोवेइ, मुह धोवेइ, थणराइ धोवेइ, फक्सतराइ धोवेइ गोज्झतराइ धोवेइ) सुकुमारि सार्या शरी२-२२४१ રના કામમાં પરોવાઈ ગઈ વારવાર હાથ ધોવા લાગી, પગ ધોવા લાગી, માથું છેવા લાગી, મુખ દેવા લાગી, તનેના વચ્ચેના સ્થાનને ધોવા લાગી,બગલેને धावा asil, मने शुस स्थानान घोपा हामी (जस्वर्ण ठाण वा सेज्जवा निसी हिय वा चेएह तत्यवि य णं पुव्यामेव उदएण अभुक्खइत्ता तो पच्छा ठाण षा ३ चेएइ तए ण ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालिय अज्ज एवं बयासी) આ પ્રમાણે જ તે જરા પિતાનુ બેસવાનું સ્થાન નકકી કરતી, કે પથારી પાથરતી અથવા તે સ્વાધ્યાય માટે બેસવાનું સ્થાન નક્કી કરતી ત્યા પહેલેથી જ તે સ્થાનને પાણું છાટતી હતી અને ત્યારપછી તે ત્યા પિતાનું સ્થાન-શપ્યા અને સ્વાધ્યાય સ્થાન નક્કી કરતી હતી આ જાતની પરિસ્થિતિ જોઈને ગે પાલિકા તે
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपणी टीका थ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम्
२४९
1
र्भूतः, यदा=यावत् काल खलु अमगारवा समभ्ये वमामि, तदा तावत् काल खल्नह ' अप्पासा' आत्मवशा स्वाधीना आसम् यदा खल्वह मुण्डा भूला प्रब्रजिता तदा खरद परवशा पराधीना जाता । 'पुत्रि पुरा पूर्वस्मिन् काले च खलु 'मम' मा श्रमण्यः ' आढायति ' २ आद्रियन्त तथा परिजानन्ति इदानीं नो आद्रियन्ते नो परिजानन्ति, 'त' तत्तस्मात् श्रेयः खलु मम कल्ये मादुर्भूत प्रभातया रजन्या यावज्ज्वलति सूर्ये अभ्युदते गोपालिकानामार्याणामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रम्प 'पाडिएक पार्थक्य पार्थक्याश्रय पृथग्भूतम् अन्यमित्यर्थः ' उब
,
'
यह आध्यात्मिक यावत् मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ - ( जयाण अम्ह आगारचासमझे वसामि तयाण अह अप्पवसा जयाण अह मुडे भविता या तयाण अह परवसा पुचि चण मम समणीओ आढायंति, इयाणि णो आढति २ तं सेय खलु मम रूरल पोउ०गोवालिया अतियाओ पडिनिमित्ता पडिक्क उवस्सयं उवसपज्जित्तानं विहरितपत्ति फट्ट एव सपेहेड ) जन तक मे घर में रही तब तक स्वाधीन रही और अब जब से मुंडित होकर प्रव्रजित हुई है तब से पराधीन बन रही हूँ । पहिले ये श्रमणिया मेरा आदर करती थी- मेरी बात मानती थी परन्तु अथतो कोई मी न मेरा जादर करती है और न मेरी बात ही मानती है । इस लिये मुझे अब वही उचित होगा कि में दूसरे दिन जब प्रातः काल होने पर सूर्य प्रकाश से चमकने लगेतव में गोपालिका आर्याके पास से निकल कर किसी दूसरे भिन्न उपा
રીક ટીક કરી ત્યારે તેને આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવત્ મનૅગન મ કલ્પ
भव्यो ( जयान अम्ह आगारवासमज्झे वमामि तयाण अह अप्पासा जयाण अह मुळे भवित्ता पव्वइया तयाण अह परवमा पुत्रि च ण मम समणीओ आदाय ति, इयाणि णो आढति त सेय सलु मम पाठ गोवालियाण अति याओ पढिनिक्खमित्ता पडिक्क उपस्थय उवसपज्जित्ताण विहरितए त्ति कट्ट एव सपेहेइ ) त्या सुधी हु घरमा रही त्या सुधी स्वाधीन रही पशु न्यारथी મુતિ થઈને પ્રત્રજીત થઇ છુ ત્યારથી પરાધીન થઈ ગઈ છુ શ્રમણી મારે। આદર કરતી હતી, મારી વાત માનતી હતી તા કાઈ પણ મારા આદર નથી કરતુ અને મારી વાત પણ માનતુ નથી તેથી મારે માટે એ જ ઉચિત છે કે ખીજે દિવસે સવારે સૂર્ય ઉડ્ડય પામતા જ પાલિકા આર્યોની પાસેથી નીકળીને કાઇ બીન ઉપાશ્રયે જતી રહ तो तेथे विचार ये ( सपे हिचा ) विचार हरीने ते ( कल पाο
પહેલા આ
પણ અત્યારે
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
Re
भ्रमाचा
(
नो
मारिका आर्या गोपालिकानामार्याणामेन 'नो भादा' नाहियते, नो परिजानी ते उपने ध्यान न दर्शनि, । अनाद्रियमाणा=मनार कुती अपरि जानाना=पानपदानावर ता: गोपालि आर्याः शुकुमारिकामार्यागभीक्ष्णं=पुनः पुनरभिदी विसंगति निपात्र परि भरन्ति । अभीक्ष्ण= पुनः पुनः एम् उक्त शोमाकरण जलमक्षेपादिक निवारयन्तिप्रतिषेति । 'ती' सम्याः सुकुमारि काया श्रमणीभिर्निग्रन्यीभिः टील्यमानाया या सर्यमाणाया अयमेतभूष वक्ष्यमाणस्वरूप' आध्यात्मिक यामनोगतः सन्पी - विचारःममुपधत मा (तरण सा समालिया गोवालियाण अजाण ण्यण्ड नो आहार, परिजाना, अणादागमाणी, अपरिजानमाणी, विहर) सुकुमारिका आर्या ने गोपालिका आर्या के हम कपन रूप अर्थ को आदर की दृष्टि से नही देखा, उनके चचनों पर उसने कुछ भी ध्यान नही दिया। इस तरह उनके वचनो का अनादर और उन पर ध्यान नही देती हुई वह रहने लगी (तणं ताओ अज्जाओ सुमालि अज्ज अभिक्खण २ यमद्व निवारेंति, तण्ण तीसे तुमालिया समणीति नियीएिं हीलि ज्जगणीए जाव चारिज्जमाणीत इमेयाख्वे अज्मस्थि जाय समुपज्जि हथा ) इस के पश्चात् उन गोपालि का आर्या ने उस खुकुमारिका आर्या की वार २ अवहेलना की, उस पर वे गुस्सा भी हुई उसकी निंदा भी की यावत् उसका तिरस्कार भी किया । यार २ उसे शरीर की शोभा करने से और जल का सिंचन करने से रोका। तब उसे इस प्रकार का હે દેવાનુપ્રિયે1 તમે તે સ્થાનની આલાચના કરા–પેાતાના અતિચારને પ્રકા शित मु। यावत् तेना भाटे प्रायश्चित्त रे! (तएण सा सुमालिया गोवालियाण अनाण एमट्ट नो आढाइ, नो परिमाणाइ, अणादायमाणी अपरिमाणमाणी, विहरइ ) सुकुमारि भार्याो गोवाति भार्याता मा अधनय अर्थने व्याहरनी દૃષ્ટિથી જેયા નહિ, તેમના વચનેા ઉપર તેણે કઈ પણ વિચાર કર્યાં નહિ આ રીતે તેમના વચનનેા અનાદર અને તે પ્રત્યે બેદરકાર થઈને તે પાતાના वध्यत असार ४२१ा लागी ( तरण ताओ अज्जाओ सूमालिय अज्ज अभिक्वण २ एयमट्ठ निवारे ति, तएण तोसे सुमालियाए समणीहि निग्गयोहि होलिज्जमा णी जाब वारिज्जाणीव इमेयावे अज्जत्थिए जान समुप्पज्जित्था ) त्या२पछी તે ગેાપાલિકા આર્યોએ તે સુકુમારિકા આર્યાની વારવાર અવહેલના કરી, તેની તરફ તેમણે ગુસ્સા પણ બતાયૈા, તેના નિંદા કરી યાવતુ તેના તિરસ્કાર પણ કર્યો તેને વારવાર શરીરને શેલાવવા ખદલ તેમજ જળનુ
ખાલ
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधर्मपाल ससय ' उपाश्रयम् उपपय मिनिक पर गंप्रेक्ष्य पन्ये मादर्भुतममा, ताया रजन्या यायमलनिय उगि निगोपासिकानामार्गाणामन्तिा प्रति , निजामति, प्रतिनिधम्म पाठिएर 'मार्यय-गगभगमन्यमुपायपमुपसपय..
खलु विहरति-आन्त समा ____तवः खल्ल ता गुरुमारिका भार्या ' गोष्टिया' गप्पष्टिका अपवार .. रहिता-उपगला अविनयमगीति यान ' अनिवाग्यिा' अनिवार्या दुर्निवारा 'सच्छदई स दमति:-नास्त्रिधर्मानुगेधरहितमा, अमीन-पुनः पुन - ईस्तो धावति-प्रक्षालयनि गायत् स्थान पागण्या मानेपेधिती या जलेनाम्युक्ष्य - घेतयति-स्थानादिक करोतीत्यर्थः । तत्रापि च खल पार्यन्या, पार्धम्यविहारिणी, श्रय मे चली जाऊ इस प्रकार का उमने विचार फिया (महिला) ऐसा विचार फरके (करल पा० गोवालियाण अजाण) दूसरे ही दिनप्रातः काल जर सूर्योदय रोगया-तप वह गोपालिका आर्या के (अतियाओ) पास से (पउिनिस्वमित्ता) निकल कर-(परिपक) भिष, दूसरे (ज्यस्सय) उपाश्रय फो (उयसपज्जिताण विएरइ) प्राप्तकर, वहा रहने लगी-अर्थात् दुसरे उपाश्रय में चली आई। (तण्ण सा सूमालिया'अज्जा अणोहहिया अनिवारिया सच्छदमई अभिरखण अभिक्खण हत्थे धोवेद जाव चेण्ड) घरा घर सुकुमारिका आर्या विना, किसी रोक टोक के स्वच्छद पनकर रहने लगगई। वहाँ उसे-का रोकने वाला रहा नहीं सो जो मन में आया वह करने लगगई-इस, तरह वह चोरित्र धर्म के भाव से रहित यन गई । पार २ अपने हाथों को धोती यावत् स्थान, शय्या, और स्वाध्याय की भूमि को धोकर वा गोलियाण अज्जा) पार हिपसे सवारे न्यारे सूय य पाभ्ये। त्यारे त मापालिका आयांना (अतियाओ) पाथी (पडिनिक्समित्ता) नीतीन (पडिएक) मीन ( उवस्सय ) Gपाश्रयने ( उयसपजिलाण विहरइ ) भगवान त्या २७१! aail, मीn 6श्रयमा ती ही (त एण सा सूमालिया अज्जा अणोहट्टिया अनिवारिया सच्छदमई अभिक्खण इत्थे धोवेइ जाव चेएइ) त्या તે સુકુમારિકા આય કેઈપણ જાતની રોક ટોક વગર સ્વચ્છ તાપૂર્વક રહેવા લાગી ત્યાં તેને કેઈ રેક-ટોક કરનાર હતું નહિ એટલે જે પ્રમાણે તેની ઈચ્છા થતી તે પ્રમાણે જ તે આચરતી હતી આ રીતે તે ચારિત્ર ધર્મના ભાવથી રહિત બની ગઈ વાર વાર તે પિતાના હાથને ધોતી હતી યાવત્ સ્થાન, પથારી અને સ્વાધ્યાયના સ્થાનને ધોઈને ત્યા પિતાનું સ્થાન નક્કી કરતી હતી
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
tantratafort टीका ग० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम्
રે
अवसन्ना, अवमन्त्रविदारिणी, कुशी कुशीलविहारिणी, समक्ता, ससक्तविहारिणी, बहूनि वर्षाणि नामव्ययपय पालयति, पालयित्वा अर्धमामिक्या सलेखनयान्तस्य स्थानस्याऽनालोचिता जरविकान्ता काल्मासे काल कृत्वा, ईशाने कल्पेऽन्यत मस्मिन् विमाने माधुर्यादि वाचनाममये आचार्याणा विमानसख्याया विस्मरणेन 'निश्रयाभावादन्यतमस्मिनित्युक्तम् देवगणतया उपपन्ना | कोकै कासा- देवरीना नवल्योपमानि पितिः मता ॥ ० १५ ॥
"
E
अपना स्थान नियत करती । इस प्रकार ( तत्ध्र वियण पासत्या पासस्थ बिहारी, ओसरणा ओसण्णविहारी कुमीलार ममत्ता२ बणि वासाणि सामण्णपरियाग पाउण्ड ) वहा उस सुकुमारिका ने पार्श्वस्था पार्श्वस्थ विशेरिणी, अवसन्ना, अवसन्न विहारिणी, कुशीला, कुशील विहारिणी, समक्ता, ससक्त विहारिणी बनकर अनेक वर्षो तक श्रमण्य पर्याय का पालन किया ( पाणिन्ता अमासियाए) पालन करके वह अर्धमास की सलेखना धारण कर ( कालमोत ) अपनी मृत्यु के अवसर (काल किच्चा ) पर मरी-सो मरकर ( अणालोइय अपडिक्कता) अपने पापों की अनालोचना करने से वह प्रतिक्रान्त नही बन सकने के कारण (ईसाणें कप्पे ) ईशानकल्प में ( अण्णयरसि विमाणसि ) किसी एक विमान में ( देवगणयत्ता उबवण्णा) देवगणिका के रूप में उत्पन्न हुई । ( तत्थेगइयाण देवीण नवपलिओचमाइ ठि पण्णत्ता, तत्थण सुमालियाए देवीए नव पलिओमाई ठिह पण्णत्ता ) वहा कितनिक देवियों
या रीते ( तत्थ विचण पासत्था पासत्यविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीलाsसत्ता २ ऋणि वासाणि सामण्णपरियाग पाउणइ ) त्या ते सुभु મારિકાએ પામ્યા, પાર્શ્વસ્થ વિહારિણી, અવસન્ના, અવસન્ત વિહારિણી, કુશીલા, કુશીલ વિહારિણી, ઞ સકતા, સ સત વિહારિણી થઈને ઘણા વર્ષો सुधी श्राभय पर दिनु पालन यु ( पाउणित्ता अद्धमासियाए ) पासन जरीने ते अर्धभाभिनी सोमना धार जरीने ( कालमासे ) पोताना मृत्यु भजे (काळ किच्चा ) ते भर भाभी भने भर पाभीने (अणालोइय अपडिकता) પેાતાના પાપાની આલેાચના ન કરવાથી પ્રતિકાત ન ખની શકવાના કારણે તે ( ईसाणे कापे ) शान दमा ( अण्णयर सि विमाणसि ) अर्थ मेड विभा ना ( देवगणयता उबवण्णा) हेवालिअना ३५भा न्म पाभी ( तत्थे
"
या देवी नवपलिओवमाइ ठिई पण्णत्ता, तत्थण सूमालियाए देवीए नव पलिवार उई पण्णत्ता) त्या डेटली हेवी योनी स्थिति 'नव पयोधनंनी अ
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
मूलम् तेणं कालेणतण समगणं इहेर जहीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएमु कपिटपुरे नाम नयरे होत्या, वन्नओ तत्व णं दुवए नाम राया होत्था, पन्नओ, तस्स णं चुलणीदेवी धट्ठज्जुणे कुमारे जुवराया, ताणं सा सूमालियादेवी ताओ देवलोयाओआउत्खपणंजाब चइत्ता इव जंबुदोरे होवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएसु कपिल्लपुरे नयरे दुपयस्त रपणो चुल. जीए देवी कुच्छिसि दारियत्ताए पञ्चायाया, तपण सा चुल. णीदेवी नवण्ह मासाण नाव दारियं पयाया, तएणं सा तीस दारियाए निम्वत्तवारसाहियाए इम ण्याख्व गोणंगुणणिफण्ण नामधेज जम्हाण एस दारिया दुवयस्स रणो धूया चुलणाए देवीए अत्तया त होउ अम्ह इमीले दारियाए नामधिज्जे दोवई, तएणं तीसे अम्मापियरो इम एयारूव गुण्ण गुणनि प्फन्न नामधेज्ज करिति दोबई, तएण सा दोवई दारिया पंच धाइपरिग्गहिया जाय गिरिकदरमल्लीण इव चपगलया निवाय की स्थिति नौ पल्योपम की कही गई है-सो इस सुकुमारिकादेवी का वहा नौ पल्योपम की स्थिति हुई। यहा जो" किसी एक विमान में ऐसा अनिश्चयात्मक पदआयो है उसका तात्पर्य यह है कि माधुर्यादि वाचना के समय में आचार्यों को विमान सख्या का विस्मरण हो जान से उसका निश्चय नहीं रहा । अतः ऐसा कहा गया है । सू० १५ ।। વામાં આવી છે તે તે સુકુમારિકા દેવીની પણ ત્યા નવપલ્યોપમની સ્થિતિ થઈ અહીં જે “કેઈ એક વિમાનમા” આ જાતનું અનિશ્ચયાત્મક પદ આવ્યું છે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે માથર્યાદિ વાચનાના સમયે આચાર્યોને વિમાન સખ્યાનું વિસ્મરણ થઈ જવાથી તે વિશે નિશ્ચય રહ્યો નહિ એથી આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે એ સૂત્ર ૧૫ .
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५३
भनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० म० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् निवाघायंसिसुहंसुहेणं परिवइ । तएणं सा दोबई रायवरकन्ना उम्मुकवालभावा जाव उकिसरीरा जाया जावि होत्था,तएणं तं दोबई रायवरकन्नं अण्णया कयाई अंतेउरियाओ पहायं जाव विभूसिय कति करित्ता दुवयस्स रपणो पाएवंदिउं पेसति तएण सा दोवइ राय० जेणेव राया तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता दुवयस्स रपणो पायग्गहण करेइ, तएणं से दुबए राया दोबइ दारिय अके निवेसेइ निवेसित्ता दोवइए रायवरकन्नाए रूवेण य जोवणेण य लावणेण य जायविम्हए दोवइ रायवरकन्नंएव वयासी जस्तणं अह पुत्ता। रायस्त वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि तत्थ ण तुम सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि, तएण मम जावजीवाए हिययडाहे सविस्सइ, तं ण अहं तव पुत्ता । अज्जयाए सयंवर विरयामि, अज्जयाए ण तुम दिपणसयवरा जणं तुम सयमेव रायं वा जुवराय वा वरेहिसि से ण तव भत्तारे भविस्तइ तिकटु ताहि इट्राहिं जाव आसाइ आसासित्ता पडिविसज्जेइ ।। सू० १६॥
टीका- तेण कालेण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे भारत वर्षे पञ्चालेषु जनपदेषु काम्पिल्यपुर-काम्पिल्यपुरनामक नगर
'तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि ।।
टीकार्य-(तेण कालेण तेण समएण) उस काल और उस समय में (इहेव जयुद्दीवे भारहे वासे पचासु जणवएसु कपिलपुरे नाम नयरे होत्या) इसी जदीप में भारत वर्ष में पांचाल जनपद में
तेण कालेण तेण समएणं इत्यादि
Atथ-(तेण कालेण सेण समएण) ते णे मन ते सभये (इहेव ज हीवे भारहेवासे पचालेसु जणवएसु कपिलपुरे नाम नयरे होत्या) मा मूद्वीपमा मारत भी पाया पहा पित्यपुर नाम ना तु (वनओ) मा નગરનું વર્ણન ઔયપાતિક સૂત્રમા કરવામાં આવ્યું છે ત્યાથી પાકકોએ જાણું
--
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५४
आताधर्मका
% % Allah mag the grea
गासीत्, वर्गक=अर नगरस्य वर्णनगरपालिका बोध्यम् । तत्र स्वच
•
पद नाम राजासीत्,
नानात्वतपुत्रः घ
ज्जुणे' धृघुम्नो नाम कुमारी गुररानोऽमान् ।
उतः खन्दमा रहमारिका देवी तम्मा
लोक
यावत्
युवा जीपेठीपे भारत में पाल जनपदेषु कापियपुरे नगरे सुपदस्य चुन्या देव्याः कुक्षौ दारितया=पुत्रीत्वेन ' पणायाया' प्रया याता= नमुत्पन्ना । तत खट सा चुनीदेवी नाना मोगानां मतिपूणाना दारिश पुत्र मनाता = प्रजनितवती । नव लुगा तस्या दारिकाया कापिल्यपुर नाम का नगर था । ( वनओ) उस नगर का वर्णन और पातिक सूत्र में किया गया है मो से जान लेना चाहिये । (तत्थ ण दुए नाम राया हा नओ तस्म ण घुग्णोदेवी, घट्ट, जुणे कुमार जुवराया, तण मा मृमालिया देवी ताओ दवाओ जान चहत्ता इहेव जनुद्दीने दीवे, मारहे वासे पचास जण ए कपि ल्लपुरे नगरे दुस्स रण्णो चुलणी देवी कुच्छिसि दारियताए पच्चा घाया ) . वहा के राजाका नाम, दुपद था । राजाका वर्णन भी पहिले जैसा ही जानना चाहिये। इस की रानी का नाम जलनीदेवी था । कुमार का नाम धृष्टद्युम्न था - पर युवराज था । वर सुकुमारिका आर्या का जीव उस दूसरे ईशान देवलोक से आयु आदि क्षय शे जाने के कारण चक्कर इसी जबूद्वीप नाम के द्वीप में भरत क्षेत्र में, पाचाल जनपद में कॉपित्यपुर नगर में ब्रुपद राजा की चुलनीदेवी की कुक्षि में पुत्री रूपसे अवतरित हुआ । (तएण सा चुलणीदेवी नवण्ह मासाण जाव
1
1
1
1
I
सेवु लेध्यो ( तत्थ ण दुवए नाम राया होत्था, वन्नओ, तरसण चुलणी देवी धट्टज्जुणे कुमारे, जुवराया, तपण सा सूमालिया देवी ताओ देवलोयाओ आ - उक्खएण जाव चइत्ता इहेव जबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पचासु जणवएस कपिल्ल
पुरे नयरे दुवयस्स रण्णो चुरणीए देवीए कुर्च्छिसि दायित्ता पच्छायायो ) त्वाना રાજાનુ નામ દ્રુપદ હતું કlજાનુ વર્ણન પણ ઔપપાતિક સૂત્રમા વણિત કોણિક ----- राजनी बेमन लागी सेवु लेहो - तेनी, राशीनु नाम युझनी, हेवी हर्तु तेना
(
+
* પુત્રનુ નામ પૃથુન હતુ ધૃષ્ટદ્યુમ્ન યુવરાજ હના, સુકુમારિકા આર્યાના જીવ । તે ખાજા દેવલાકથી આયુ વગેરે ક્ષય થવા બદલ ચવીને આ જ બૂઢીપ नाभना, द्वीपभा, भरत क्षेत्रभा, पायादय श्नयुहमा अडियपुर नगरमा द्रुष रामनी थुसनी देवीना उरमा पुत्री ३ये अवतरित थये। ( त एणं सा चटणी
HIN
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगारधर्मामृतपिणी टी० ० १६ औौपदीचरितवर्णनम्
२५५
निव्वतारसाहियाए ' निरृचद्वादशाहिकाया = द्वादशेऽहनि समाप्ते इदमेतद्रूप नाम कृतवती यस्मात् ग्वल एषा द्वारिका झुपदस्य राज्ञो ' धृया ' दुहिता- पुनी चुलन्या देव्या ' अत्तिया ' आत्मजा=अगजाता, तस्माद् भरतु खल्वस्माकमस्या दारिकाया नामधेय 'द्रौपदी' इति । ततः खलु तस्या अम्वापितरौ रममेतद्रूप गोणं गुणमाप्त गुणनिष्पन्न = गुणसपन्न, नामधेय कुरुतः। ततः सा द्रोपदी बारिका पञ्चधात्रीभिर्यारद् गिरिकन्दरमालीने चम्पकता निर्वाननिर्व्याघाते सुखसुखेन परिवर्धते स्म |
17
"
दारिय पाया तण सा तीसे दारिया निन्वत्तरारसाहियाए इम ण्या रूप गोण गुणणिष्ण नामवेज्ज जम्हाण एस दारिया दुत्रयस्सरण्णो धूया बुलणीए देवीए अन्तया त होउण-अम् इमीसे दारिया नामधिज्जे दोवई ) गर्भ के जब नौ मास अच्छी तरह समाप्त हो चुके तब, चुलनीदेवी ने एक पुत्री को जन्म दिया । पुत्री को उत्पन्न हुए १२ वां दिन लगा-तब चुलनी मानाने उसको इस रूप से गुणनिष्पन्न नामरक्खा क्यों कि यह द्रुपदराजा की पुत्री है और मुझ चुलनी के उदर से उत्पन्न हुई है, इसलिये इस हमारी कन्या को नाम दुपटी रहो इस तरह के विचारसे (तीसे अम्मा पियरो ) माता पिता ने उसका ( इम एयास्व गुण्ण गुणनिफन्न नामघेज्ज करिनि दोवई ) इस तरह का गुणनिष्पन्न नाम द्रौपदी रख दिया । ( तण ) इसके बाद - ( सा दोवई दारिया पचधाह परिगहिया जाव गिरिकदरमल्लीणइव चपगलया निवापनिव्वाघायसि सुह सुहेण परिवडे) वह द्रोपदी द्वारिका पाच घामाताओं से मुक्त देवी नवह माम्राण जाब दोरिय पयाया तपण सा तीसे दारियाए निव्वतवार सोहियाए इम एयारूव गोण गुणणिष्वण्ण नामघेज्ज जम्माण एस दारिया दुवय॑स्स् रणो धूया चूलणीए देवीए अत्तया त होउण अम्ह इमी से दारियार नामधिज्जे दोवई ) गर्सना नवभास क्यारे 'सभ्य समाप्त थया त्यारे
ચૂલની દેવીએ એક પુત્રીને જન્મ આપ્યા પુત્રીના લૅન્મ પછી જ્યારે અગિ ચાર દિવસ પૂરા થયા અને મારા ક્વિસ શરૂ થયા ત્યારે ચુલની માતાએ વિચાર કર્યો કે દ્રુપદ રાજાની આ કન્યાપુત્રી છે અને મારા ગર્ભથી જન્મ પામી છે. આ પ્રમાણે આનુ નામ દ્રૌપદી રાખીએ તે સારૂ આમ વિચારીને ( तो से अम्मापयारो) भातापिताओ ' ( इम एयान्व गुण्ण गुणनिफन्न नाम घेज्ज करिति' दोवई ) या ते ते उन्यानु शुशु निष्यन्न नाम द्रीयही पाइयु (तरण ) त्यापडी ( सा दोषई दारिया पंचवाइपरिगदिया जाव गिरिकंदर -- सालीण इव तपगळ्या निवाय निश्वाधाराय यां
1
गली
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५४
धर्मका
1
मासीत्, पर्णफा=जरग नगरस्य वर्णनात बोभ्यम् । तत्र स्वच्छ पदो नाम राजाऽसीत्, कनीनाम्नी देवी मात्तस्य पुत्रः षट्ठ ज्जुणे' धृष्टद्युम्नो नाम कुमारी युवराजोऽगात् ।
+
1
T
वतः खद्मा कुमारिका देवी सम्मा देवपादाग यावत्युवा व जीपेठीपे भारत पालेषु जनपदेषु पित्यपुरे नगरे पदस्य राजन्याव्या. कुक्षौ दतिया=पुत्रीम्पन 'पधायाया' माया याता=मुत्पना । तत गट साचुनीदेवी नाना मागानां पतिपुर्णाना या दारिया पुत्र नता=मननित | नत' खलु गातम्या दारिकाया कापिल्यपुर नाम का नगर था । ( घन्नओ) उस नगर का वर्णन औष पातिक सूत्र में किया गया है मन में जान लेना चाहिये | ( तत्थ ण दुबए नाम राया होन्या बन्नओ तस्म ण चुरणीदेयी, घट्टजुणे, कुमारे जुवराया, तण्ण मा समालिया दवी ताओ दलोयाओ आण्ण जाय चहत्ता इव जीवे दीये, मारते वासे पचास जणवर कपि ल्लपुरे नगरे दुवग्रस्म रण्णो चुलणी देवी कुच्छिसि दारियताए पच्चापाना) वहा के राजाका नाम पद था । राजाका वर्णन भी पहिले ,जैसा ही जानना चाहिये । इस की रानी का नाम, उलनीदेवी था । . कुमार का नाम धृष्टद्युम्न था-यर युवराज था । वरं सुकुमारिका आर्या का जीव उस दूसरे ईशान देवलोक से आयु आदि क्षय हो जाने के कारण चवकर इसी जबहीप नाम के द्वीप में भरत क्षेत्र में, पाचाल - जनपद में कांपिल्पपुर नगर में द्रुपद राजा की चुलनीदेवी की कुक्षि में पुत्री रूपसे अवतरित हुआ । (तएण सा चुलणीदेवी नवण्ह मासाण जाव बेवु लेहो ( तत्थ ण दुवए नाम राया होत्था, वन्नमो, तरसण चुलणी देवी धट्टज्जुणे कुमारे, जुवराया, तएण सा सूमालिया देवी ताओ देवलोयाओं आ उक्खण जाव चइत्ता इहेव जबुद्दीवे दीवे भारहे वासे प चालेसु जणवए कपिल्ल पुरे नयरे दुवयस्स रण्णो चुरणीए देवीए कुच्छिमि दायित्ता पच्छायाया ) त्याना રાજાનુ નામ દ્રુપદ હેતુ નાજાનુ વર્ણન પણ ઔપપાતિક સૂત્રમા વણિત કોકિ -કુદ્ર રાજાની જેમજ જાણી લેવુ જોઇએ –તેની રાણીનુ નામ ચુલની દેવી હતું તેના ! પુત્રનુ નામ ધૃષ્ટઘમ્ન હતુ ધૃષ્ટદ્યુમ્ન યુવરાજ હના, સુકુમારિકા આર્યાના જીવ । તે ખાજા દેવલાકથી આયુ વગેરે ક્ષય થવા બદલ ચવીને આજ જમૂદ્રીપ नामना: द्वीपभा, भरत क्षेत्रमा, पायादय-नयहमा, पिट्यपुर नगरमा द्रु राजनी युसनी देवीना उरमा पुत्री इथे अवतरित थये। ( त एणं सा चुडणी
2
r
4
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
__ अनगारधर्मामृतवपिणी टी० १० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
२५७ निवेगयति, निवेश्य द्रौपद्या राजवरसन्यायो रूपेण च योवनेन च लापण्येन च 'जायविमए' जातविस्मय आश्चर्य प्राप्तः स द्रुपदो द्रौपदी राजवरकन्या मेवमवादी-हे पुनि ! यस्य खलु अह राज्ञो वा युवराजस्य वा भार्यात्वेन स्वय मेव दास्यामि, तत्र खलु त्व सुखिता वा दुःखिता या भविष्यसि, तत खलु मम
जाव जीवाए ' यापज्जीव 'हिययडाहे ' हदयदाहः-मनोदुःख भविष्यति । तएण से दुवए राया दोवड दारिय अके निवेसेइ, निवेसित्ता, दोवईए रायवरकन्नाए स्वेण य जोवणेण 7 लावण्णेण य जायविम्हए दोबड, रायवरकन्न एच वयासी) सो वह राजवर कन्या द्रौपदी जहा द्रुपद राजा था वहा आई। वहा आकर उसने वदना करने के लिये द्रुपद राजा के घोही दोनों पैरो को पकड़ो कि इतने में उम द्रुपद राजाने उस द्रौपदी दारिका को अपनी गोदमें बैठा लिया। द्रौपदी के बैठते ही वह राजा उस राजवर कन्या द्रौपदी के रूप, यौवन और लावण्य से विशेष विस्मित हुआ-सो विस्मित होकर उसने उस राजवर कन्या द्रौपदी से इस प्रकार कहा-(जस्स ण अह पुत्तो! रायस्स वा जुवरायरस वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि,तत्य ण तुमसुहिया वा दृक्खिया वा भवि जासि तएण मम जाव जीवाए हिथयडाहे भविस्मड) हे पुत्रि ! मैं स्वय तुम्ह जिस राजा को, अथवा युवराज को भार्या के रूप में दूंगा वहां तुम सुखी और दुःश्वी दोनो भी हो सकती हो। तो इससे मुझे यावज्जीव हृदय दाह-मानसिक दु.ग्व रहेगा। (त ण अह पुत्ता! से दुवए राया दोवइ दारिय अ के निवेसेइ, निवेसित्ता, दोवईए रायवरकन्नाए स्वेण य जोवणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवइ रायवरकन्न एव पयासी) તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદી જ્યા રાજા દ્રુપદ હતા ત્યા ગઈ ત્યા જઈને તેણે દ્રુપદ રાજાને વદન કરવા માટે બને પગે પકડયા ત્યારે તેઓએ દ્રૌપદી દારિકાને પિતાના ખોળામાં બેસાડી દ્રૌપદી જ્યારે મેળામાં બેસી ગઈ ત્યારે રાજા તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીના રૂપ, યૌવન અને લાવયથી સવિશેષ વિસ્મિત થશે અને વિસ્મિત થઈને તેણે તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને આ પ્રમાણે કહ્યું – (जरस ण अह पुत्ता! रोयस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सवमेव दुलइस्सामि, तत्थण तुम मुहिया वा दुक्रिया वा भरि जासि तरण मम जाव जीयाए हिय यडाहे भविस्सइ), युति तने शान यु१२४ने मायान। ३५मा આપીશ ત્યા તું સુખી પણ થઈ શકે તેમ છે અને દુખી પણ તેથી મને
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
तन खल साटोपदी राजयरपनमा उन्मुक्ताभारा गारद मष्टा उमर परीरा जाता नाप्यमए । सन. गलुवा रानामन्यामन्यदा कदाविद 'ओ उरियाभो' आन्त पुस्यि अना: पूरपनिया नियः स्नाता गारन्-वधा फकारविभूपितां कुन्ति मापदम्य राम पाटी पन्दित ' पेमति ' प्रेषयन्ति, ततः सलु मा द्रौपदी राजवरसन्या गप पदो राना तमोपागति, उपागत्य द्रुपदस्य रामः पादग्रहण करोति, तनः खलु म मुपटी गाना द्रौपदी टारिकामह होकर इस तरह पलने पुपने लगी किसिम र गिरि की कदरा के प्रदेशमें उत्पन हुई चपलता वापरहित निरूपदर स्थान में आनन्द के साध पर ती पुपती है । (तरण मा दोवर्ष राययरका उम्मुक्कपाल भावा, जाय उपिकसरीरा जाया यायि होत्या, ताण त दोवा राया रकन्नं अण्णया कयाई अते उरियाओ हाय जाव विभूसिय करीत करिता दुवयस्स रपणो पाए पदिउ पेसति ) यह राजयर पन्या पदा पालभाव रहित होकर जप योयन अवस्था चालीरो चुकी तप इस के शरीर में लायण्य फी चमक से विपय सौन्दर्य आ गया-अत: उस समय यह विशेषरूप से उत्कृष्ट शरीर वाली पनगई। किसीक दिन की पात है कि अत. पुर की स्त्रियों ने द्रौपदी को स्नान कराकर यावत् वस्खाल कार से विभूपित किया और विभूपित कर के द्रुपद राजा की चरण वंदना करने के लिये भेज दिया (तपण सा दोयह राय० जेणेव दुवए रापा तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता, वयस्स रणो पायग्गहण कर દારિક પચિ ધાયમાતાઓથી મુક્ત થઈને આ પ્રમાણે લાલિત પાલિત થઇ માડી જેમકે પર્વતની કદરાના પ્રદેશમાં ઉપન્ન થયેલી ચપકલતા નિવ;િ नि३५द्रव स्थानमा सुणेथी भारी थती न खाय । (६एण सा दोवई रायवर कन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव उकिसरीरा जाया याचि होत्या, तरण त दावा रायवरकन्न अण्णया कयाई अते उरियाओ पहाय जाव विभूसिय करे ति करिता दुवयस्स रण्णो पाए दिन पेस ति) ते १२ न्या, द्रौपदी मय५ वटावान જ્યારે યુવાવસ્થા સંપન્ન થઈ ગઈ ત્યારે તેના શરીરમાં લાવયના ચમકથી સવિશેષ સૌદર્ય દીપી ઉઠયું તેથી તે વખતે તે વિશેષ રૂપથી ઉત્કૃષ્ટ શરીર વાળી થઈ ગઈ હતી કે એક દિવસની વાત છે કે રણવાસની સ્ત્રીઓએ દ્રોપ દીને સ્નાન કરાવ્યુ યાવત્ વસ્ત્રાલ કારેથી વિભૂષિત કરી અને વિભૂષિત કરીને ६५६ रानी य२९५ १६ ४२१। भाट भेदी (तएण सा दोवइ राय जेणेष दुवए राया तेणेष वागच्छइ, उवागच्छित्ता, दुवयस्न रण्णो पार वपण
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
૨૭ निवेशयति, निवेश्य द्रौपद्या राजघरकन्यायो रूपेण च यौवनेन च लापण्येन च 'जायविह्मए' जातविस्मया आश्चर्य प्राप्त स द्रुपदो द्रौपदों राजवरकन्या मेवमवादीत-हे पुत्रि ! यस्य खलु अह राज्ञो वा युवराजस्य या भार्यात्वेन स्वय मेव दास्यामि, तत्र खलु व सुसिता वा दुःखिता या भविष्यसि, तत. खलु मम 'जाव जीवाए ' यानज्जीव 'हिययडाहे' हदयदाहः-मनोदुःख भविष्यति । तएण से दुवए राया दोवड दारिय अके निवेसेड, निवेसित्ता, दोवईए रायवरकन्नाए स्वेण य जोधणेण य लावण्णेण य जायविम्हा दोवड, रायवरकन्न एव वयासी) सो वह राजवर कन्या द्रौपदी जहा द्रुपद राजा था बहा आई। बहा आकर उसने वदना करने के लिये द्रुपद राजा के ज्योती दोनो पैरो को पकड़ो कि इतने मे उम दुपद राजाने उस द्रौपदी दारिका को अपनी गोदमें बैठा लिया। द्रौपदी के बैठते ही वह राजा उस राजवर कन्या द्रौपदी के रूप, यौवन और लावण्य से विशेप विस्मित हुआ-सो विस्मित होकर उसने उस राजवर कन्या द्रौपदी से इस प्रकार कहा-(जस्स ण अह पुत्तो ! रायस्स वा जुवरीयस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि,तत्य ण तुम सुहिया वा दुक्खियाचा भविजासि तएण मम जाव जीवाए दिययडाहे भविस्मड) हे पुत्रि ! मैं स्वयं तुम्हे जिस राजा को, अथवा युवराज को भार्या के रूप में दंगा वहां तुम सुखी और दुःखी दोनो भी हो सकती हो। तो इमसे मुझे यावज्जीव हृदय दाह-मानसिक दुव रहेगा। (न ण अह पुत्ता! से दवए राया दोवइ दारिय भ के निवेसेइ, निवेसित्ता, दोवईए रायवरकन्नाए रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवइ रायवरकन्न एव वयासी) તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદી જ્યા રાજા દુપદ હતા ત્યા ગઈ ત્યાં જઈને તેણે દ્રુપદ રાજાને વદન કરવા માટે બને પગ પકડયા ત્યારે તેઓએ દ્રૌપદી દારિકાને પિતાના ખોળામાં બેસાડી દ્રૌપદી જ્યારે ખેાળામાં બેસી ગઈ ત્યારે રાજા તે રજવર કન્યા દ્રૌપદીના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી સવિશેષ વિસ્મિત છે અને વિસ્મિત થઈને તેણે તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને આ પ્રમાણે કહ્યું(जरस ण अह पुत्ता। रोयरस वा जुबरायस्स ना भारियत्ताए सवमेव दुलइस्सामि, तत्थण तुम मुहिया वा दुक्खिया वा भविग्जासि तएण मम जाव जीवाए हिय यदोहे भविस्सइ) पुनितने साने युवरारीने मायाना ३५मा આપીશ ત્યા તું સુખી પણ થઈ શકે તેમ છે અને દુખી પણ તેથી મને
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५६
natasures
तत खलु सा द्रोपदी राजस्व या उन्मुक्तषाम्भारा यावा, उत्कष्ट शरीरा जाता चाप्यमत्रम् । ततः पलु तां द्रोपदी राजकन्यामन्या काचिद 'ओ उरियाओ' आन्द वियन्तःपुरवर्तिन्यः श्रियः नाव यात्रा फफारविभूपिता कुर्वन्ति न्यायपादित 'पेमंत 'प्रेपन्ति वतः खलु सा द्रौपदी राजनराय राजा सोपागच्छति, उपागत्य प्रुपदस्य राज्ञः पादग्रहण करोति, ततः खलु समुपडी गजा द्रौपदी टारिकामके
KW
होकर इम तरह पलने पुपने लगी कि जिम तरह गिरि की कदरा के के प्रदेशमें उत्पन्न हुई चपकलताना रहित निरुपस्थान में आनन्द साथ पल्ती पुपती है । (तरण मा दोवई रामपरका उम्मुक्त्रमाल भावा, जाव फिटसरीरा जाया याथि होस्था, तण्ण त दोवड़ रायब रकन्न अण्णया कयाई अते उरियाओ पहाय जाव विभूतिय करेंति, करिता डुवयस्स रण्णो पाए वदिउ पेसति ) यह राजवर कन्या द्रौपदी के बालभाव रहित होकर जय यौवन अवस्था वाली हो चुकी तथ इस शरीर में लावण्य की चमक से विषय सौन्दर्य आ गया-अतः उस समय यह विशेषरूप से एत्कृष्ट शरीर वाली पनगई। किसी एक दिन की बात है कि अत. पुर को त्रियों ने द्रौपदी को स्नान कराकर यावत् खाल कार से विभूषित किया और विभूषित कर के पद राजा की चरण वंदना करने के लिये भेज दिया ( तण सा दोवह राय० जेणेव दुवए राधा तेणेव उद्यागच्छइ, उवागच्छित्ता, दुबधस्स रण्णो पायगण करे, દારિકા પાચ ધાયમાતાએથી યુક્ત થઇને આ પ્રમાણે લાલિત પાલિત થવા માડી જેમકે પર્યંતની કદરાના પ્રદેશમા ઉત્પન્ન થયેલી ચ પલતા નિર્વાત निपद्रव स्थानमा सुणेथी भेोटी थती न होय ! ( ६एण सा दोवई रायवर कन्ना उम्मुक्कथालभावा जाव उकिट्टसरीरा जाया यानि होत्या, तपण त दोवई रायवरकन्न अण्णया कयाई भते उरियाओ पहाय जाव विभूसिय करेति करिता दुवयस्सरणो पाए व दिन पेस ति) ते शनवर ४न्या, द्रौपदी भयथायु वटावीने જ્યારે યુવાવસ્થા સ પન્ન થઈ ગઈ ત્યારે તેના શરીરમા લાવણ્યના ચમકથી સવિશેષ સૌદર્યાં દીપી ઉઠયુ તેથી તે વખતે તે વિશેષ રૂપથી ઉત્કૃષ્ટ શરીર વાળી થઈ ગઇ હતી કાઈ એક દિવસની વાત છે કે રણવાસની સ્ત્રીઓએ દ્રૌપ દીને સ્નાન કરાવ્યુ યાવત્ વજ્રલ કારાથી વિભૂષિત કરી અને વિભૂષિત કરીને हुयह शन्ननी यश्शु १ हा ४२वा भाटे भोली (तएण वा दोवइ राय जेणेव दुवए राया तेणेब खबागच्छइ, वागच्छित्ता, दुबयश्च रण्णो पाए।
वपण
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
२५७ निवेशयति, निदेश्य द्रौपद्या राजवरसन्यायो रूपेण च यौवनेन च लापण्येन च 'जायविह्मए' जातविस्मया आश्चर्य प्राप्त. स द्रुपदो द्रौपदी राजवरकन्या मेवमवादीत-हे पुत्रि ' यस्य खलु अह राज्ञो वा युवराजस्य या भार्यात्वेन स्वय मेव दास्यामि, तत्र खलु व सुखिता वा दुखिता या भविष्यसि, तत खलु मम 'जाच जीवाए ' यानज्जीव 'हिययडाहे' हदयदाह:-मनोदुःख भविष्यति । तएण से दुवए राया दोवड दारिय अके निवेसेड, निवेसित्ता, दोबईए रायवरकन्नाए स्वेण य जोवणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवड, रायवरकन्न एव चयासी) सो वह राजवर कन्या द्रौपदी जहा द्रुपद राजा था वहां आई। वहा आकर उसने बदना करने के लिये द्रुपद राजा के ज्योंही दोनो पैरो को पकड़ा कि इतने मे उम दुपद राजाने उस द्रौपदी दारिका को अपनी गोद में बैठा लिया। द्रौपदी के बैठते ही वह राजा उस राजवर कन्या द्रौपदी के रूप, यौवन और लावण्य से विशेष विस्मित हुआ-सो विस्मित होकर उसने उस राजवर कन्या द्रौपदी से इस प्रकार कहा-(जस्स ण अह पुत्तो ! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि,तत्य ण तम सुहिया वा दृक्खिया वा भविजासि तएण मम जाव जीवाए दिययडाहे भविस्मड) हे पुत्रि ! मैं स्वयं तुम्हे जिस राजा को, अथवा युवराज को भार्या के रूप में दूँगा वहां तुम सुखी और दुःश्वी दोनो भी हो सकती हो। तो इससे मुझे यावज्जीव हृदय दाह-मानसिक दुश्व रहेगा। (तं ण अह पुत्ता! से दुवए राया दोवइ दारिय अ के निवेसेइ, निवेसित्ता, दोवईए रायवरकन्नाए रूवेण य जोव्यणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवइ रायवरकन्न एव वयासी) તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદી જ્યા રાજા દ્રુપદ હતા ત્યા ગઈ ત્યા જઈને તેણે દ્રુપદ રાજાને વદન કરવા માટે અને પગ પકડયા ત્યારે તેઓએ દ્રૌપદી દારિકાને પિતાના ખોળામાં બેસાડી દ્રૌપદી જ્યારે ખેાળામાં બેસી ગઈ ત્યારે રાજા તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી સવિશેષ વિસ્મિત થશે અને વિમિત થઈને તેણે તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને આ પ્રમાણે કહ્યું – (जरस ण अह पुत्ता । रोयस्स वा जुवरायस्स या भारियत्ताए सवमेव दलइस्लामि, तत्थण तुम सुहिया वा दुक्सिया चा भरिग्जासि तएण मम जार जीवाए हिय याहे भविस्सइ) 0 युनिने 2 ने युपने मान ३५ આપીશ ત્યા ને સખી પગ થઈ શકે તેમ છે અને દુખી પણ તેથી મને
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
Aniपादन
मतदतस्मात् पल्पद में पुत्रि! ' या' गपापा-पपु दिसेगु अपेषु दिनेषु इत्यर्थः स्वयंवर पगामि-पारगामि माया मम्पटिसेच मनु त 'दिग्णसय परा' तयरामनियत इति पर, पन्यमा भय रतः पयवर, स दत्त कन्याया पित्रादिना गस्पै । दत्तम्यरा नायितीनि गाः । 'दत्तस्त्रय वरा' इचिपद व्याक्षाण पर्यात-जण तुम' इत्यादि । य पलु व स्वयमेव रा जान वा युवराज पा रिप्यसि, स सलु तर म भरियति' इविक्रवारयुपत्वा तामिरिष्टामिर्याय माम्भिरावासपति,गाधाम्य प्रनिधिमर्जयति ।। मू०१६।
मूलम्-तएण से दुवए गया दूयं सदावइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छ ण तुम देवाणुप्पिया । वारवइ नयरि तत्थ ण तुम कण्ह वासुदेवं समुदविजयपामोरखे दस दसारे बलदेवपामुक्खे पचमहावीरे उग्गसेणपामोरसे सोलसरायसहस्से पज्जुण्णपामुक्खाओ अधुटाओकुमारकोडीयोसवपामोरखाओ अज्जयाए सयवर विरयामि, अजयाए ण तुम दिण्ण सयवरा जपण तुम सयमेव राय वा जुवराय चा वरेहिसि सेण तव भत्तारे भविस्सह त्ति कटु ताहिं इटाहिं जाव आसासेइ, असासित्ता पटिविसज्जेह) इस लिये हे पुत्रि ! मैं थोडे ही दिनों में तुम्हारा स्वयवर करवान वाला हूँ। तुम इन दिनों मे दत्तस्वयवरा हो जाओगी, सो तुम जिस राजाको या युवराज को अपनी इच्छानुसार वरोगी वही तेरा भता बन जायगा । इस तरह कहकर राजा ने अपनी पुत्री को इष्ट आदि विशेषणो वाली वाणी से आश्वासित किया और फिर आश्वासित करके उसे वहां से भेज दिया। सू० १६॥
वन पर्यन्त म थया ४२शे ( त ण अह पुत्ता ! अज्जयाए सयवर विर यामि, अज्जयाए ण तुम दिग्णसयवरा जण्ण तुम सयमेव राय वा जुवराय या वरेहिसी से ण तर भत्तार भविस्सइ, ति कटु ताहि इटाहिं जाव आसासेइ आसासित्ता पडिविसज्जेइ) युनि! था। हिसामा हु तमा। भाट સ્વયે વર કરવાને છું ત્યારે તુ ય વરમા દત્ત સ્વય વરા થઈ જશે જે રાજા કે યુવરાજને તું તારી પસંદગી આપશે તેજ તારા પતિ થશે આ પ્રમાણે કહીને રાજાએ પિતાની પુત્રીને ઈષ્ટ વગેરે વિશેષણોથી યુક્ત વચને વડે આશ્વાસનથી આશ્વાસિત કરીને તેને ત્યાંથી વિદાય કરી છે સત્ર૧૬
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५९
भनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् सहि दुदंतसाहस्सीओ वीरसेणपामोक्खाओ इक्वीसं वीरपुरिससाहस्सीओ महसेणपामोक्खाओ छप्पन्नं वलवगसाहस्सीओ अन्ने य वहवे राईसरतलवरमाडंवियकोडुवियडन्भसिट्टिसेणावइसत्थवाहपभिइओ करयलपरिग्गहिय दसनह सिरसावत्त अंजलि मत्थए कटु जएण विजएण वद्धावेहि वद्धावित्ता एव वयाहि-एव खलु देवाणुप्पिया | कपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रणो धूयाए चुल्लणीए देवीए अत्तयाए धट्टज्जुणकुमारस्स भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयवरे भविस्सड त ण तुम्भे देवाणुप्पिया । दुवयं राच अणुगिण्हेमाणा अकालपरिहीणं चेव कपिल्लपुरे नयरे समोसरह, तएण से दूए करयल जाव कडु दुवयस्स रणो एयमट्ट पडिसुणेति पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कोडुवियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एव वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया। चाउग्धंट आसरह जुत्तामेव उवट्टवेह जाव उवटवेति, उवट्ठवित्ता तएण से दूए पहाए जाव अलकार० सरीरे चाउग्घंट आसरह दुरुहइ दुरुहित्ता बहूहि पुरिसेहि सन्नद्ध जाव गहियाऽऽउह पहरणेहि सदि सपरिवुडे कपिल्लपुर नयरं मज्झ मज्झेणं निग्गच्छद पचालजणवयस्स मज्झ मज्झेण जेणेव देसप्पते तेणेव उवागच्छइ, सुरद्वाजणवयस्स मज्झमज्झेणंजेणेव वारवइ नयरी तेणेव •
उवागच्छइ उवागच्छित्ता वारवइ नयरिं मज्झ मज्झेण अणुप. विसइ अणुपविसित्ता जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स वाहिरिया
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
storeisuret
उवद्वाणसाला तेणेन उपागच्छति चाउघंट आसरहं ठो ठवित्ता रहाओ पच्चोड पचीरुहित्ता नस्सागु रापरिक्खित्ते पायविहारचारेण जेणा कण्हे वासुदेवे तेणेत्र उवागच्छइ उवागन्छित्ता कण्हें वासुदेवे समुदविजयपामुक्खे दस दसारे जाव बलवगसाहसीओ करयल तं चैव जान समोसरह । तएण से कहे वासुदेवे तस्त दूयस्स अतिए एयम सोच्चा निसम्म हट जाव हियएतं दूय सको इ सम्माइ सम्माणित्ता पडिविसज्जे ॥ सू० १७ ॥
२६०
टीका- 'तएण से ' इत्यादि । तदनन्तर से पदो राजा दूत शब्द यति, शब्दविला एवमादीन् देवानुमिय | भारती द्वारकां नगरीम्, तत्र खलु त्य कृष्ण देन समुद्रविजयममा दश दशार्धन, वलदेव ममुखान् पञ्च महावीरान, उग्रसेनममुखान् पोडश राजसहखाणि मनुन्नममुखाः अर्ध चतुर्थी. कुमार कोटीप्रमुखान् सार्वत्रिकोटिराजकुमारान् साम्बप्रमुखाः पष्टिदुर्दान्तसाहस्री = साम्नप्रमुखान् पष्टिसहस्रदुर्दान्तान, वीरसेनममुखान् एक विंशतिवीरपुरुषसाहस्री'वीरसेनममुग्वान एकविंशतिसहस्रवीरपुरुषान, महासेन
-
,
'से दुव' इत्यादि ॥
टीकार्थ- (तएण से हुए राया दूय सहावेह, सद्दावित्ता एव वयासी गच्छतुम देवाणुपिया ! बार वह नयरिं-तत्थण तुम कण्ह् चासुदेव सम्दविजय पामोक्खे दसदसारे पलदेव पामोक्खे पचमराबीरे उग्गसेन पामो क्खे सोलसरायसहस्से पज्जुण्णदामो+खाओ अद्धाओ कुमारकोडीओ सपपामोक्खाओ सहि दुद्दत साहस्सीओ वीरसेन पामोक्खाओ इक्कीसं
"
तएण से दुध ' इत्यादि --
टी अर्थ - (तएण से दुवए राया हूय सहावेइ सहावित्ता एव वयासी - गच्छ तुम देवाणुप्पिया ! वारवइ नयरिं - तत्थण तुम कण्ह वासुदेवसमुद्द विजयपामो खे सारे पोक्खे पच महावीरे उसेनपामोक्खे सोलसरायव्हरसे पज्जुण्ण पामुक्खाओ अधुट्टाओ कुमारकोडीओ सबपामोक्साओ सट्ठि दुद्दत वाहस्तीओ वीर सेr पामोक्खाओ फीस वीरपुरिससाहसीओ म
बलव
-
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
!
1
प्रमुखाः पट्पञ्चाशत् वलवत्साहस्रीः = महासेनममुखान् पट्पञ्चाशत्सहस्रममितवल वतो राज्ञः, अन्याय हुन् राजेश्वरतलनग्माडनिककौटुम्बिकेभ्यश्रेष्ठि सेनापति सार्थप्रभृतीन् करतलपरिगृहीत दशनख शिर आवर्तमञ्जलिं मस्तके कृत्वा जयेन विजयेन=जयविजयशब्देन ' चद्धावेहि ' वर्धय जमिनन्दय वर्धयित्वा एव ब्रूहि - हे मिया ए खल काम्पिल्यपुरे नगरे दुपस्य राज्ञो दुहितुः पुत्र्या, चुन्या देव्या आत्मजाया वृष्टद्युम्न कुमारस्य भगिन्या द्रौपत्रा राजवरकन्यकाया स्वय वीर पुरिससाहसीओ महसेनपामोक्ग्बाओ छप्पन्न वलवगसाहस्सी ओ अन्नेय घहवे राई सरतलचरमाडत्रियको टुंबियइन्भसेट्टि सेणावह सत्वात्पभिइओ करयलपरिग्गरिय दसनर सिरसावत अजलिं मत्थर कट्टु जण्ण विजगण वद्भावेहि वद्रावित्ता व वयाहि ) इस द्रुपद राजाने अपने एक दूत को बुलाया और बुलाकर उससे ऐसा कहा- देवानुप्रिय । तुम द्वारका नगरीको जाओ वहा तुम कृष्ण वासुदेव को, समुद्र विजय प्रमुख दश दशार्हो को, बलदेव प्रमुख पाच महावीरों को, उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार राजाओ को प्रद्युम्न प्रमुख ३ || ) साढ़े तीन करोड राजकुमारों को ६० हजार दुर्दान्त साम्य प्रमुखो को २१ हजार वीरसेन प्रमुख वीरों को ५६ हजार महासेन प्रमुख लिष्ठ राजाओ को, तथा और भी अनेक राजेश्वर तलवर, माडनिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदिको को दोनों अपने हाथो की दशनखो वाली अजलि बनाकर और उसे मरतक से घुमाकर नमस्कार करना तथा "जय विजय " शब्दोच्चारण करते हुए उन्हें बधाई देना- उनका अभिनन्दन करना । बधाई देकर के फिर उन से ऐसा
"
.
२६१
साहस्सोओ अन्नेय यहवे राईसरतलवरमाडनिय कोड नियइव्भसेट्ठि सेणावइसत्यवह पभिइओ करयल परिग्गहिय दसनह सिरसावत्त अजलिं मत्थए कट्टु जएण विज एण वद्भावेहि, वद्धावित्ता एव वयाहि ) त्यास्यही दुयह शब्नये पोताना भेड તને ખેલાવ્યે અને મેલાવીને તેને કહ્યુ કે હૈ દેવાનુપ્રિય । તમે દ્વારકા નગરીમા જાએ ત્યા તમે કૃષ્ણવાસુદેવને, ખળદેવ પ્રમુખ પાચ મહાવીરાને, ઉગ્રસેન પ્રમુખ સેળ હજાર રાજાઓને, પ્રદ્યુમ્ન પ્રમુખ સાડા ત્રણ કરોડ રાજ કુમારને, ૬૦ હજાર દુર્દતસામ પ્રમુખાને, ૨૧ હજાર વીરસેન પ્રમુખ વીરાને, ૫૬ હજાર મહાસેન પ્રમુખ બલિ રાજાઓને તેમજ ખીજા પણ બધા રાજેશ્વર, तसवर, भाइभिङ, भेटु मिउ, ल्य, श्रेष्ठि, सेनापति, साथ वार्ड वगेने पोताना અને દશ નખાવાળા હાથેાની અજલિ મતાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કરશે તથા જય વિજય' શબ્દોચ્ચારણ કરતા બધાને તમે અભિન તિ
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
arresentat
pk
उट्ठाणसाला तेथेन उपागच्छ उबागरित्ता चाउघट आसरहं ठोइ ठविता रहाओ पच्चीरुहरु पत्रोरहित्ता नम्वगुपरिक्खिते पायविहारचारणं जेणन कण्हे वासुदेव तेणेव उवागच्छइ उवागन्छित्ता कण्हे वासुदेवे समुदनिजयपामुक्खे य दस दसारे जाव चलवगसाहसीओ कग्यल त चेव जान समोसरह । तएण से कण्हे वासुदेने तस्स दूयस्त अतिए एयमह सोचा निसम्म हट जान हियएत दूय सको इ सम्माणेइ सम्माणित्ता पडिविसज्जेड || सू० १७ ॥
२६०
टीका तए से ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर से पदो राजा दूत शब्द यति, शब्दयित्वा मराठी रानुमिय | द्वारपती द्वारका नगरीम्, तत्र सलु व कृष्ण वासुदेव, समुद्रविजयममुखान् दश दशार्शन, वलदेव प्रमुखान् पञ्च महावीरान् उग्रसेनममुग्वान् पोढश राजसहखाणि मनुन्नममुखाः अर्ध चतुर्थी. कुमार कोटी :=प्रद्युन्नममुखान् सार्वत्रिकोटिराजकुमारान, साम्बप्रमुखाः पष्टिदुर्दान्तमादस्री. = साम्यप्रमुखान् पन्टिसहस्रदुर्दानवान्, वीरसेनममुग्लान् एक विंशतिवीरपुरुषमाहत्री = वीरसेनममुम्वान एकविंशतिसहस्रवीरपुरुषान, महासेन
2
6
तएण से दु' इत्यादि ॥
टीकार्थ- (तएण से दुबए राया दूय सहावेह, सद्दावित्ता एव वयासी गच्छण तुम देवाणुपिया ! नारवइ नयरिं-तत्वण तुम कण्ह वासुदेव समु दविजय पामोक्खे दसद सारे बलदेव पामोक्खे पत्र महावीरे उग्गसेन पामो क्खे सोलसरायसरस्से पज्जुण्णपामो+खाओ अराओ कुमारकोडीओ सपामोक्खाओ सहिदुद्दत सारस्सीओ वीरसेन पामोक्खाओ इक्कीस
' तएण से दुवर ' इत्यादि --
•
अर्थ - (तएण से दुवए राया हूय सहावेइ, सहाबित्ता एव क्यासी - गच्छ तुम देवाणुपिया 1 वारइ नयरिं-तत्यण तुम कण्ह वासुदेवसमुद्द विजयपाभोक्खे दसदसारे बदेवपाभोक्खे पच महावीरे उगासेनपामोक्खे सोलसरायमहस्से पज्जुण्ण पामुक्खाओ अधुट्ठाओ कुमारकोडी जो सनपामोक्साओ सट्ठि दुद्दत साहस्सीओ वीर सेन पामोक्खाओ इकत्रीस वीरपुरिससाहसीओ महसेनपामोक्खाओ छप्पन बलव
·
to
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
२६३
अत्र
स्नावः यावत् सर्वालङ्कारविभूपितशरीरचतुर्घण्टमश्वरथ दुरुहद्द' दुरोदति-आरो इति । दुरुह्य बहुभि. पुरुपैः कीदृशैः पुरपैरित्याह- ' सन्नद्ध जाच गहिया ' इति देनैवोध्यम् - सन्नद्धवद्भवम्मियका एहि, उप्पीलियस रासनपट्टगेहिं, पिणद्धगेविज्जगद्धा विद्धनिमलवरचिन्धपटेर्दि, गहियाऽऽउहपरणेहिं छति । सन्नद्धउद्धवर्मितकवचैः उत्पीड़ितशरासनपट्टके, पिनद्धयैवेयक व विद्धनिमलवर चिह्नपट्टेः गृहीतायुधमहरणे, सन्नद्धाः सज्जीकृता बढा' = कशान्धनेन बद्धा, वर्मिता. = भने परिडिताः कवचा यैस्ते सभद्धबद्धार्मिकवचास्तै, तथा - उत्पीडि तशरासनपट्टकै उत्पीड़ितानि = गुणारोपणेन वक्रीकृतानि शरासनपट्टानि धनुः प्रकाण्डानि यैस्ते उत्पीडितशरासनपट्टका रज्ज्वारोपणवक्री कृतधनुर्धारिणस्तैः,
.
वह जहा अपना घर था वहां आया। वहा आकर उसने कौटुम्बिक पुरुषो को बुलाया बुलाकर उनसे ऐसा कहा हे देवानुप्रियों ! तुम लोग शीघ्र ही चार घटों से युक्त अश्वरथ को घोडे जोतकर यहा ले आओ। उन्होंने आज्ञानुसार ऐसा ही किया। वे चार घटा वाले उस रथ में घोडे जोतकर उसे वहा ले आये (तएण से दूए पहाए जाव अलकार० मरीरे चारग्घर आसरह दुम्ह, दुरुहित्ता बहहिं पुरिसेहि सन्नद्ध जाव गहियाऽऽउपरणेहिं सद्धि सपरिबुडे कपिलपुरनयर माझ मजे निगच्छ ) इस के बाद दूतने स्नान किया, यावत् अपने शरीर को समस्त अलकारों से विभूषित किया। बाद में वह उस चतुर्घट वाले अन्वरध पर सवार हो गया। उस के साथ सजाकर अपने शरीर पर कवच पहिर रखा है ऐसा अनेक पुरुष थे ज्यापर घाण को आरोपित करने से बक्री भूत हुआ धनुष जिनके हाथों में है ऐसे अनेक धनुर्धारी
୯
પેાતાનુ ઘર હતુ ત્યા આવ્યે ત્યા આવીને તેણે કૌટુબિક પુરૂષને ખેલાવ્યા અને મેલાવીને તેમને કહ્યુ કે હું દેવાનુપ્રિય ! તમે સત્વરે ચાર ઘટડીઓવાળે અશ્વરથ શ્વેતરીને અહીં આવે. કૌટુબિક પુરૂષાએ તેમજ કર્યુ ચાર ઘટડી ઓવાળા અશ્વરથોતરીને ત્યા લઈ આવ્યા ( तण से दूए व्हाए जाव अलकार० सरीरे चाउरपट आसरह दुरुहर, दुरुहित्ता बहूहिं पुरिसेहिं सनद्ध जाव गहियाss उपहरणे हिं सिद्धिं सपरिवुडे कपिल्लपुरनयर मज्य मज्झेण निगच्छइ ) त्यारभाह इते स्नान यु यावत् पोताना शरीरने मधी ललना અલકારેાથી ગણુગાયું ત્યારપછી તે ક્રૂત ચતુર્થ તવાળા અશ્વરથ ઉપર સવાર થઇ ગયા તે દૂતની નાચે અખતરથી સુસજ્જ થયેલા ઘણા પુરૂષે હતા પ્રત્યથા ઉપર પ્રાણુ ચઢાવવાથી વક્ર થઈ ગયેલા ધનુષા જેમના હાથેામા છે
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
irmire परो भविष्यति, तत् तम्मान सन्तु गुय देशानुमिगाः पट राजानमनुशान्त 'गरपरिहीण चेरपालविरहिममेर याम्पियपुर नगरे गमगरत, ततः खल्छ स नः करवल गान-बलि मन मा परस्प रातम प्रति शृणोति, प्रतिश्रुत्व यो सा गृह तपोपाग रति उपागर गौमिापुरुषान् शब्दयति गदयिया एपमाटोत्-शिपमेागो देशानुप्रिया चतुर्घट-पटाचतु प्टययुक्तम् अश्वस्थ युक्तमयोपस्यापयत । यापन उपम्यापपनि । तन मन म दृतः करना-(ध पल देवाणुपिया ! फपिहपुर नपरे दुययस्म रगो ध्याग चुल्लीणीप देवी अत्तया घरजुणकुमारम्म भगिणी दोपहरा रायबर कण्णाए सयरे मस्सिा , त ण तुम्भे देवाणुप्पिया दुधय राय अणु गिपहे माणा अकालपरितीण चेष कपिल्लपुर नयरे ममोसरह) हे देवा नुप्रियो ! कापिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, घुरनी देवी की आत्मजा, धृष्टशुम्न कुमार की भगिनी गजवर कन्या द्रौपदी का स्स्यवर होनेवाला है, इसलिये है देवानुगियों ! आप लोग दुपद राजाके ऊपर अनुग्रह करके बहुत ही शीघ्र कापिल्यपुर नगर में पधारे । (तण्ण स दए करयल जान कटु दुवयस्स रगो यमह पडिसुर्णेति पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेप उवागच्छद, उवागचिता कोइपिय पुरिस सहा वेइ, सावित्ता एव पयासी, सिप्पामेच मो देवाणुप्पिया ! चाउग्घट आसरर जुत्तामेव उवट्टवेह जाव उपद्रवेति ) दतने द्रपद राजा के इस कयन को दोनों हाय जोडकर स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर કરજે અભિન દિત કર્યા બાદ તમે તેને આ પ્રમાણે વિનતી કરજે (વ सलु देवाणुप्पिया ! कपिल्लपुरे नयरे दुवयास रपणो धूयाए चुह्मणीए देवीए अत्तयाए धट्टज्जुणकुमारस्य भगिणीए दोवईए रायरफण्णाए सयवरे भविरसई, त ण तुम्भे देवाणुपिया ! दुवय राय अणुगिण्हेमाणा अकालपरिहीण चेव कपिल पुरे नयरे समोसरह ) देवानुप्रिये! पित्यधुर नगरमा ५६ शनी yal ચુલની દેવીની આત્મજા, ધૃષ્ટદ્યુમ્નકુમારની બહેન રાજવર કન્યા દ્રોપદીને સ્વયવર થવાનું છે એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્રુપદ રાજા ઉપર કૃપા કરીને सत्तरे पिय नगरमा ५पारी (तपण से दुए करयल जाव कटु दुवयास रणो ण्यम पडिसुणे ति, पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव बागच्छइ, उवा गच्छित्ता कोडु वियपुरिसे सदावेह, सहावित्ता एव वयासी बिप्पामेन भो देवा णुप्पिया । चाउग्घ आसरह जुत्तामेव उववेद जाव उबटुति) दु५६ राना આજ્ઞાને દત બને હાથ જોડીને સ્વીકારી લીધી સ્વીકાર કર્યા તે ન્યા
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
२६३ नातः यावत्-सर्वालङ्कारविभूपितशरीरश्चतुर्घण्टमश्वरय · दुरुहइ' दोहति-आरोइति । दुरुह्य बहुभिः पुरुपैः कीदृशैः पुस्पैरित्याह-' सन्नद्ध जाच गहिया' इति अत्र यानन्दे नैव चोध्यम्-सन्नद्धबद्धवम्मियकाएहि, उप्पीलियसरासनपट्टगेहि, पणद्धगेविज्जगवद्धाविद्धविमलवरचिन्धपहिं, गहियाऽऽउहपरणेहि इति । सन्नद्धचद्धवर्मितकवचैः उत्पीड़ितशरासनपट्टकै , पिनौवेयकवद्धविद्धविमलपरचिह्न पट्टः गृहीतायुधपहरणैः, सन्नद्धा. सज्जीकृता, बद्धा कशाबन्धनेन सरद्धा, वमिताभड़े परिहिताः कवचा यै स्ते सनद्धवद्धचर्मितकवचास्तै , तथा-उत्पीडितशरासनपट्टकै, उत्पीडितानि-गुणारोपणेन वक्रीकृतानि शरासनपट्टानि धनुः प्रकाण्डानि यैस्ते उत्पीडितशरासनपट्टका रज्ज्वारोपणनक्रीकृतधनुर्वारिणस्तैः, वह जहा अपना घर था वहाँ आया। वहां आकर उसने कौडम्बिक पुरुषो को बुलाया बुलाकर उनसे ऐसा कहा हे देवानुप्रियों! तुम लोग शीघ्र ही चार घटों से युक्त अश्वरथ को घोडे जोतकर यहा ले आओ। उन्होंने आज्ञानुसार ऐसा ही किया। वे चार घटा वाले उस रथ में घोडे जोतकर उसे वहा ले आये (तएण से दृए हाए जाव अलकार सरीरे चाउग्घट आसरह दुरुड, दुरुहित्ता यहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाऽऽउहपहरणेहिं मद्धिं सपरिबुडे कपिल्लपुरनयर माझ मज्जे ण निग्गइ ) इस के बाद इतने स्नान किया, यावत् अपने शरीर को समस्त अलकारों से विभूपित किया। बाद में वह उम चतुर्घट वाले अवरथ पर सवार हो गया। उस के साथ सजाकर अपने शरीर पर कवच पहिर रग्वा है ऐसा अनेक पुरुष थे ज्यापर योण को आरोपित करने से वक्री भूत हुआ धनुष जिनके हाथो में हैं ऐसे अनेक धनुर्धारी પિતાનું ઘર હતુ ત્યા આવ્યું ત્યાં આવીને તેણે કૌટુંબિક પુરૂને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! તમે સત્વરે ચાર ઘટડીઓવાળો અધરથ જેતરીને અહીં આવે કૌટુબિક પુરૂએ તેમજ કર્યું ચાર ઘટડી सापाणी मश्वरथ तरी त्या माव्या (तएण से दूर पहाए जाव अलकार० सरीरे चाउग्घट आसरह दुरुहाइ दुरुहित्ता यहूहिं पुरिसेहि सनद्ध जाय गहियाऽऽउहपहरणे हिं सिद्धिं सपरिवुडे कपिल्लपुरनयर मज्झ मज्झेण निग्गच्छइ ) त्या२ माइते नान यु यापत् पाताना शीरने या ततना અલકારેથી શણગાર્યું ત્યારપછી તે દૂત ચતુર્ઘટવાળા અશ્વરથ ઉપર સવાર થઈ ગયો તે દૂતની નાચે બખતરથી સુસજજ થયેલા ઘણા પુરૂ હતા પ્રત્યચા ઉપર બાણ ચઢાવવાથી વક્ર થઈ ગયેલા ધનુષ જેમના હાથમાં છે
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
पाताचा परो भविष्यति, तत् तम्मान रानु गय देशानुप्रिया पट राजानमनुराहत 'बाल्परिटीण घेर' का विम्बरदिनगर काम्पित्यपुरे नगरे समवसरत, ततः खलु स दतः करतल. पारन-अमलि मनके प्रयापदम्प राज तमय प्रति शृणोति, प्रतिश्रुत्व गा सर गृहनगोपाग रति उपागर पौटुमिकपुरुषान शब्दयति गन्दयित्या परमपादीत्-निमय गो देशानुमिगा. चतुर्घट-घटाचतु प्टययुक्तम् अश्वरयं युक्तमेवोपस्यापयन । यायन-उपस्थापनि । तन ग्यास दूत. करना-(ज्य पल्ट देवाणुप्पिया ! फपिटपुरे नयरे दुश्यस्म रगो धूपात चुल्लीणीप देवीए अत्तया धज्जुणकुमारम्म मगिणी टोरई गयवर कपणा मयबरे भविस्सा, न ण तुम्भे देवाणुप्पिया ! दुवय राय अणु गिण्हे माणा अकालपरिहीण चेन कपिलपुरे नयरे ममोमरर) हे देवा नुप्रियों ! कापिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, चुरनी टवी की आत्मजा, धृष्टगुम्न कुमार की भगिनी गजपर कन्या द्रौपदी का श्यवर होनेवाला है, इसलिये है देवानुगियों ! आप लोग दुपद राजाके ऊपर अनुग्रह करके बहुत ही शीघ्र कापिल्यपुर नगर मे पधारे । (तएण से दुए करयल जाप कटु दुवयस्स रगो यमट्ट पडिसुणेति पडिसुणित्ता जेणेव सा गिहे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता कोडुपिय पुरिसे सहावेह, सद्दावित्ता एव वयासी, खिप्पामेव मो देवाणुप्पिया ! चाउग्घट आसर जुत्तामेव उववेह जाव उवट्ठवेति ) दतने द्रपद राजा के इस कथन को दोनों हाथ जोडकर स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर ४२० मलिनहित र्या माह तमे तेयाने या प्रभारी विनती ४२२ ( एव सलु देवाणुप्पिया ! कपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रणो धूयाए चुलणीए देवाए अत्तयाए धट्टज्जुणकुमारस्य भगिणीए दोनईए रायवरफण्णाए सयवरे भविरसई, ते ण तुन्भे देवाणुपिया ! दुवय राय अणुगिण्हेमाणा अकालपरिहीण चेव कोपल्ल पुरे नयरे समोसरह ) ३ वानुप्रिये ! अपिल्यधुर नाभा दुपहरानी yal ચુલની દેવીની આત્મજા, દૃષ્ટદ્યુમ્નકુમારની બહેન રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને ધય વર થવાનો છે એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્રુપદ રાજા ઉપર કૃપા કરીને सपरे पित्य नगरमा ५धारा (तपण से दुए करयल जाव कटु दुवयस्स रणो एयमट्ठ पडिसुणे ति, पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेष उबागच्छइ, उवा गच्छित्ता कोड बियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एव वयासी खिप्पामेव भो देवा णुप्पिया | चाउग्घट आसरह जुत्तामेव उववेह जाव उवद्ववेंति ) ६५६ सनी આજ્ઞાને તે બંને હાથ જોડીને સ્વીકારી લીધી સ્વીકાર કર્યા બાદ તે ન્યા
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका 10 १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् बाहिरुपस्थानशाला-आरथानमण्डपः, तरैयोपागच्छति, उपागत्य चातुर्घण्टमथस्थ स्थापयति, स्थापयित्या ' रहाओ' रथात् ' पचोरुहइ ' प्रत्यवरोहति-प्रत्यवतरति, मत्यवरा 'मनुम्सवग्गुरापरिरिखत्ते ' मनुष्यवागुरापरिक्षिप्त मनुष्यसमूह परिवृतः, स ततः पादविहारचारेण पादाभ्या गमनेन यौर कृष्णवासुदेवस्तत्रैवो पागच्छति, उपगत्य कृष्ण नामदेव ममुद्रविजयप्रमुखाश्च दशदशाहीन यावत् घलपत्साहसी', परतल्परिगृहीतदशनख गिरआवर्त मस्तके अअलि कृवा एपमवादी-'त चेत्र' तदेव-अत्र पूर्वोक्तमेव वर्णन गोयम् यावत्-समवसरत वासुदेवस्स बाहिरिया उबट्टाण साला तेणेव उवागच्छद, उवागछित्ता चाउ घट आसरह ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहद, पच्चोरित्ता मणुस्सवरगुरापरिक्खित्ते पायविहारचारेण जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागइ ) वहा आकर द्वारावती नगरी में बीचोंबीच के मार्ग से होता हुआ प्रविष्ट हो कर वह जहां कृष्ण वासुदेव की चाहिर में उप स्थानशाला-सभामडप या वहा गया । वरी पहचकर उसने अपने चार घटावाले अश्वरथ को खड़ा कर दिया। रोक दिया-उसके मुकते ही वह उससे नीचे उतरा । उतर कर वह मनुष्योके सनहसे परिक्षित (युक्त)हो कर पैदल ही जहा कृष्ण वासुदेव थे वहा गया । ( उवागच्छित्ता कण्ह वासुदेवनमुद्दविजयपामुक्खे य दन दसारे जार यलवगसाहस्सीओ करयल त चेव जाव नमोसरह) वहां जा करके उसने कृष्ण वास्तुदेव को समुद्रविजय प्रमुख दश दशा को यावत् महासेन प्रमुख५६, हजार य. लिष्ट राजाओको दोनो हाथों की अजलिकर और उसे मस्तक पर रग्वकर देवस्स बाहिरिया उपादाणमाला तेणेव उपागन्छइ, उमागत्तिा चाउघट आस रह ठवेड, ठवित्ता रहाओ पचोरुहइ पचोरहित्ता मणुस्सवगुरापरिस्सित्ते पाय विहारचारेण जेणेव कण्हे नासुदेवे तेणेच आगच्छद्र ) त्या न तदा વતી નગરીના મધ્યમાગ થઈને નગરમાં પ્રવિણ થયે અને ત્યારપછી તે ન્યા કૃષ્ણ-વાસુદેવની બાહ્ય ઉપસ્થાનશાળા-દીવાને આમ-(સભા મડ૫) હતી ત્યાં ગ ત્યા પહેચીને તેણે પોતાના ચાર ઘટડીઓવાળા રથને ઊભે રાખે અને પિતે નીચે ઉતર્યો ઉતર્યા પછી તે પોતાના નોકરો–સેવકની સાથે જવા
शु-पामुद्देष ता त्या भयो (आगन्ठित्ता कण्ह वासुदेवसमुद्दविजयपामुस्खे य दस दसारे जार ल्यगमाहस्सोओ करयल त चेत्र जार ममोसरह) त्या જઈને તેણે કુણ-વાસુદેવને સમુદ્ર વિજય પ્રમુખ દશાને યાવત મહાસેન પ્રમુખ ૫૬ હજાર બલિ રાજાઓને બને હાથની આજલિ બતાવીને તેને
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
AAIजया तथा-पिनद्रप्रेयस्वदापिमिलाप - पिनानि - परिश्तानि वय फाणि-यण्टभूपणानि ये ते रथा, 7.भारोपित योगिनः भाविद्ध' मस्त परिश्त. मिलाना . Tr: :-पोधारिल : येस्ते तया, ततो द्विपदकर्मधारयः, तया-गहीनायुमागण. मायुधानि अत्राणि, प्रहरणानिरासाणि गृहोनानि यस्ते गृहीतायुधमारणा म्ने, सार्थ संपरितः काम्पिल्यपर नगर मध्यम येन मध्यमार्गेण निर्गच्छति, पालमपदम्य मयमा पन योव 'देसप्पते । देशमान्त-सीमा नगगोपागति , उपागत्य 'सुरद्वाजण श्याम' सौराष्ट्रमनपदस्य ग यग येन गत्रा जारी नगरी वोपागमति उपागत्य द्वारसती नगरी मध्यम येन अनुमरिगति, अनुपविश्य यगेर कप्पाग्य वासुदेवस्य पुरुप थे, जिन्होंने गले में आभूपों को पहिरससे है और मस्तक के ऊपर स्वच्छ, स्वपक्षपोधक चिह धारण किया है ऐसे अनेक व्यक्ति थे। तथा आयुध पच प्ररणों को लेकर अनेक सैनिक जन इसके आसपास हो कर चल रहे थे । मो घर दूत इन सय के साथ २ उस कोपिल्यपुर नगर के बीचोंबीच से होकर निकला। (पचालजणवयस्स मझ महोण जेणेव देसप्पते तेणेच वागच्छइ-सुरहा जणरयरस मजा मज्ञण जेणेव पारवहनयरी तेणेव उवाग )चरते २ वह पाचाल जनपद के धीचोंबीच से शेता एआ जहा पर अपने देशकी सीमा का अन्त था वहा आया । वहा आकर वह सौराष्ट्र देशके बीचसे निक लता हुआ जहा द्वारावती नगरी थी वर्श आया-(उधागडित्तो बार बइ नयरी मजा मज्झेण अणुपविसह, अणुपतिसित्ता जेणेव कण्हस એવા ઘણું ધનુધરે તેની સાથે હતા, જેઓએ ગળામા આભૂષણે પહેરેલા અને મસ્તક ઉપર સ્વચ્છ સ્વપક્ષ બેધક ચિઠ્ઠ પટે બાધી રાખેવા એવા પપ્પ અનેક પુરુષે તેની સાથે હતા આયુધ અને પ્રહરને ઉચકીને પણ ઘણા સિનિકે તેની બને બાજુએ ચાલી રહ્યા હતા આ રીતે તે દૂત તેઓ બધાની સાથે पिटयपुर नानी १२ये यन नीया ( पचाल जणवयस्त मज्झ मज्झेण नेणेव देसाप ते तेणेव उपागच्छइ सुग्दा जणवयास मज्झ मज्झेण जेणेव पारवइ नयरी तेणेव उवागग्छइ ) साभ पातानी यात्रा पूरी शन इत पायle नाना વચ્ચે વચ્ચે જ્યા પિતાના દેશની હદ પૂરી થતી હતી ત્યાં આવ્યો ત્યાં આવીને તે સૌરાષ્ટ્ર દેશની વચ્ચે થઈને જવા દ્વારાવતી નગરી હતી ત્યાં આવ્યો (૩થા च्छित्ता धारवइ, नयरिं भाझ मझेग, अणुपविसह, ,
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टोका १० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
૬૧
2
,
"
बादिस्पस्थानशाला - आस्थानमण्डपः, कौमोपागच्छति, उपागत्य चातुर्घण्टमश्वरयं स्थापयति, स्थापयित्वा ' रहाओ ' स्यात् ' पच्चोरुहइ ' मत्यन रोहति - प्रन्यवतरति प्रत्यय ' मनुम्सागुरापरिक्खित्ते ' मनुष्यवागुरापरिक्षिप्तः = मनुष्यसमूह परिवृतः स दूत' पादरिहारचारेण = पादाभ्या गमनेन यचैव कृष्णवासुदेवस्तत्रैवोपागच्छति, उपगत्य कृष्ण वासुदेव समुद्रविजयप्रमुखा दशदशाहीन यावत् बलात्साहसी, वरतरपरिगृहीतदशनख गिरआवर्त मस्तके अञ्जलिं कृवा एनमनादी - 'त चैव तव अत्र पूर्वोक्तमेव वर्णन योन्यम् यावत् सभवसरत वासुदेवरस बाहिरिया उवद्वाण साला तेणेव उचागच्छइ, उवागच्छत्ता चावट आसरह टवेह, टचित्ता रहाओ पच्चोरुड, पच्चोरित्ता मणुस्वग्गुरापरिविग्वत्ते पायविहारचारेण जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेच उवागच्छइ ) वहां आकर द्वारावती नगरी में बीचोंबीच के मार्ग से होता हुआ प्रविष्ट हो कर वह जहा कृष्ण वासुदेव की बाहिर में उप स्थानशाला सभामंडप या वहां गया । वहाँ पहुंचकर उसने अपने चार घटावाले अश्वरथ को खड़ा कर दिया। रोक दिया- उसके कते ही वह उससे नीचे उतरा । उत्तर कर वह मनुष्योके नमूह से परिक्षित (युक्त) हो कर पैदल ही जहां कृष्ण वासुदेव थे वहा गया । ( उचागच्छित्ता कण्ह वासुदेवम मुद्दविजयपामुवसे य दम दमारे जान पलवगसाहस्सीओ करयल त चेव जाव नमोसरह) नहीं जा कर के उसने कृष्ण वासुदेव को समुद्रविजय प्रमुख दश दशाहको यावत् महासेन प्रमुख ५६ हजार बलिष्ट राजाओको दोनों हाथों की अजलिकर और उसे मस्तक पर रग्वकर देवरस बाहिरिया आणिमाला तेणेत्र आगच्छइ, आगच्छित्ता चाउचट आमरह उds, ठवत्ता रहाओ पनोरुह पनोरुहित्ता मणुस्स वग्गुरापरिक्सित्ते पाय विहारचारेण जेणेव कदे नासु तेन आगच्छ ) त्या भानीने ते द्वारा વતી નગરીના મધ્યમાગ થઈને નગરમાં પ્રવિષ્ટ થયા અને ત્યારપછી તે ન્યા કૃષ્ણ-વાસુદેવની ખાદ્ય ઉપસ્થાનશાળા-દીવાને આમ-( સભા મડર) હતી ત્યા ગયા ત્યા પહોંચીને તેણે પાતાના ચાર ઘટીએવાળા રથને ઊભા રાખ્યા અને પેાતે નીચે ઉતર્યા ઉતર્યા પછી તે પેાતાના નેક-સેવકની માથે ના दृष्यु- वामुदेवता त्या गये। ( आगच्छत्ता वण्ड् वासुदेवसमुद्दविनयपामुक्खे यदम दुसरे जाव न साहस्सोओ करयल त चेन जान ममोसरह) त्या જઈને તેણે કૃષ્ણુ-વાસુદેવને મમુદ્ર વિજય પ્રમુખ દશા?ને યાવત્ મહાસેન પ્રમુખ ૫૬ હાર ખલિ રાજાઓને ખતે હાથની અજલિ બતાવીને તેને
इ.३५.
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
More
इति पर्यन्तम्, अयमर्थ' - फाम्पिन्यपुर नगरे पम्प पुन्या द्वीपचाः राजानमनुरुन्त पालविनम्वरहितं
स्वयपरो भविष्यति, तस्माद् ग्रूप काम्पिल्यपुरे नगरे समागच्छते वि स दून प्रोक्रा' इति ।
ततः खलु स कृष्णो देवस्य दूतम्पान्तिकं गतमर्थ श्रुत्वा निशम्य तुष्टः यात्-दर्पशेन रिसस्त दूत गताम्यति तया समानपवि सत्कार्य समान्य प्रतिनिमर्जयति ॥ ०१७ ॥
मूलम् - तएण से कण्हे वासुदेवे कोडुवियपुरिसे सदावेद सद्दावित्ता एव वयासी- गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया । सभाए सुहम्माए सामुदाइय भेरिं तालेहि, तरण से को डुबियपुरिसे कर यल जाव कण्हस्स वासुदेवस्स एयम पडिसुणेड पडिसुणित्ता नमस्कार किया । यहा पर देवाणुपिया' से लेकर ममोसरह "तकका पूर्वोक्त पाठ इसके द्वारा कहा गया लगा लेना चाहिये - जिसका तात्पर्य यह है कि कांपिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयवर होने वाला है मो आपलोग हुपद राजा के ऊपर कृपा कर के उसमें शीन पधारे। इस प्रकार (तरण से कण्हे वासुदेवे तम्स दूयस्स अतिए एयमह सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हिगए त इस सकारेइ सम्मा
सक्कारिता सम्मानित्ता परिचिसज्जेड) कृष्ण वासुदेव ने उस दूत के मुखसे जब इस समाचार को सुना तो वे सुनकर और उसे हृदय में धारण कर बहुत ही अधिक हर्पित एव सतुष्ट हुए। दूतका उन्होंने सत्कार किया, सम्मान किया। बाद मे उसे वहा से विसर्जित कर दिया । सू० १७॥
भस्तद्वै भूडीने नमस्सार यो भर्डी ' एन सलु देवाणुपिया' थी समोसरह ' સુધીના પાઠ ત વડે કહેવામા આવેલા છે એમ સમજી લેવુ જોઇએ તેની મતલખ એ છે કે કાપિલ્યુપુર નગરમા દ્રુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીના સ્વયંવર થવાના છે તેા આપ સૌ દ્રુપદ રાજ ઉપર મહેરબાની કરીને તેમા સાત્વરે पधारे। आा रीते (तएण से कण्हे वासुदेवे तस्स दूयरस अतिए एयम सोचा निसम्म हट्ट जाव हियए त दूय सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसउनेइ ) कृष्ण-वासुदेवे इतना भुभथी या लतना सभाया। सालज्या ત્યારે સાભળીને અને તેને બરાબર હ્રદયમા ધારણ કરીને અત્યંત હર્ષિત તેમજ સતુષ્ટ થઈને તેમણે તના સત્કાર તેમજ સન્માન કર્યુ ત્યારપછી તેમણે તને વિદાય કર્યાં | સૂત્ર ૧૦ ॥
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
पारधर्मामुतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरिरावर्णनम् जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाइया भेरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सामुदाइय भेरि महया महया सदेणं तालेइ तणं ताए सामुदाइयाए भेरीए तालियाए लमाणीए समुदविजयपामोक्खा दस दसारा जाव महसेणपामुक्खाओ छप्पणं वलवगसाहसीओ पहाया विभूसिया जहा विभव इसिकारसमुदणं अपेगइया जाव पायविहारचारेण जेणेव कप हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता करयल जाव कण्हे वासुदेवे जपणं विजएणं वद्धावेति, तएर्ण से कहे वासुदेवे को डुविपुरिसे सदावेइ सावित्ता एव वयासी- खिप्पामेव भो । देवाणुपिया | अभिसेक्क हत्थिरयण पढिकप्पेह हयगय जाव पञ्चपिणंति, तरणंसे कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे जात्र अंजणगिरिकूडसन्निभ गयवइ नरवई दुरूढे, तरणं से कहे वासुदेवे समुद्दविजयपामुखेहि दसहि दसारेहि जाव अणंगसेणापामुक्खेहि अणेगाहि गणियासाहस्सीहि सद्धि सपरिवुडे सव्विड्डीए जाव रखेण वारवइनयरि मज्झं मज्झेण निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता सुरद्वाजणवयस्स मज्झं मज्झेण जेणेव देसप्पते तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंचाल जणवयस्स मज्झ मज्झेण जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० १८ ॥
२६७
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
"२८
--
माता remee r -wormeramananengere.
टीका-'तपण से हत्या गल गयो पानदेयः शैम्भिक पुरुष शब्दयति, गटयिता मादी-गाय त्या देशानुपिय ! समाया सुधर्माया सामुदाय' सामुदायिक मेरि गाउय, नगरस पौम्बिक पुरुष फरतर० गद्-मस्त केनिया गान् गस्य वामदेवस्पतमर्थ प्रतिशणोति, मतिश्रुत्य योगमाया गुणांया 'मामुइया' सामुदायिकी भेरी तगोपागच्छति, उपागन्य मादागिणी भरी माना गदेन वाटयति, पन महाशब्दो भवति, नधा मेरी नायनि मेत्यर्थ., ततस्तदनन्तर खलु तस्या _ 'ताण से कण्हे यासुदे त्यादि ।
टीका-(तण्ण इसके पाद (से करे वासुदेवे) उन कृष्ण वासुदेवन (कोइयियपुरिस साह ) अपने कौटुम्पिक पुरुप को बुलाया, धुला कर ( एव वयासो) उनसे ऐसा कहा-(गच्छर तुम देवाणुपिया। समाग सुहम्माए मामुदाहय भेरि तालेहि ) हे देवानुप्रिय तुम सुधमा ममामें जाओ और यहा जाफर सामुदाय की भेरी को यजाभो (तण्ण से कोषिष पुरिसे करयल जाव कण्हस्त वासुदेस्स एयम पाड सुणेइ, पडिसुणित्ता जेणे सभाए सुरम्माए सामुदाझ्या भेरी तेणव उवागच्छद, उबागत्तिा सामुदाय भेरि मत्या सद्देण तालेह ) इस प्रकार की कृष्ण वासुदेव की आज्ञा को उस पुनप ने पड़े विनय के साथ अपने दोनों हाथों को मस्तक पर रखकर स्वीकार कर लिया और स्वीकार करके फिर वह सुधर्मा सभा मे जहा यह सामुदायिकी भरा था वा आया। वहा आकर उसने उस सामुदायिकी भेरी को इसतरह 'तपण से कण्हे वासुदेवे' इत्यादि
थ-(तएण) त्या२पछी (से कण्हे वासुदेवे) -वासुदेव (कोड बिय पुरिस सहावेइ) पोताना श्री ५३पान मा भने मोलाचीन (एव षयासी) भने म प्रभा उखु -( गच्छह ण तुम देवाणुप्पिया! सभाए मुहम्माए सामुदाइय भेरि तालेहि) वानुप्रिय ! तमे सुधर्मा सलाम! मा मन त्याने सामुदायि: लेश १॥ (तएण से कोडु बियपुरिसे कर यल जाव कण्हस्स वासुदेवस्त ण्यममद पडिसुणेइ पडिसुणित्ता जेणेर समाए सुहम्माए सामुदाइया मेरी तेणे आगच्छइ उबागठित्ता सामुदाइय भेरि महया २ सद्देण तालेइ)- सतनी शु-पासुवनी माज्ञान त ३षे पूना न पो मने
ને મૂકીને સ્વીકારી લીધી, સ્વીકાર કર્યા પછી તે ત્યાંથી ** ભેરી હતી ત્યાં જઈને તે માટે અવાજ
408 (तएण ताए
ल्या सु
થાય
भेरीप
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
3-
--
--
-
भगारधर्मामृतवर्पिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
२६९ सामुदायिक्या भेया ताडिताया सत्या समुद्रविजयप्रमुखा दश दशार्दा यावत्-- महासेन प्रमुखा पट्पञ्चाशद्वलयत्साहस्रया पट्पञ्चाशव-सहस्रममिता बलवन्तो राजानः स्नाता यापद्-सलिकारविभूपिता यथाविभवद्धिसत्कारसमुदयेन 'अप्पेगइया ' अन्यके-यापदन्केचिद् हयारूढा अश्वारूढाः केचिद् गजारूहाः, केचिद् रथारूढा. केचिद् पादविहारचारेण यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तीवोपाग न्छति, उपागत्य करतल० यावत् कृष्ण नासुदेन जयेन विजयेन-जयविजय शब्देन वर्धयन्ति । ततः खलु कृष्णो वासुदेव कौटुम्बिफपुरुपान शब्दयति, शब्दयित्वा एमवादीन-भो देवानुप्रियाः ! क्षिप्रमेन ' अभिसेक्कं ' आभिषेक्य गज बढे बल से बजायी कि जिससे उससे बडी भारी आवाज निकली (तरण ताए सामुदाइयाए भेरीए तालिया समाणीए समुदविजय पामोक्खा दस दसारा जाव महासेण पामुक्खाओ छप्पण बलवंगसाह स्सीओ पहाया जाव विभूसिया जहा विभव इड्रो सक्कारसमुदएण अत्थेगाया जाब पायविहार चारेण जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवाग च्छति ) इस तरह उस सामुयिकी भेरी के बजने पर समुद्रविजय आदि दश दशा? ने यावत् ५६ हजार महासेन प्रमुख बलिष्ठ राजाओ ने स्नान किया। यावत् समस्त अलकारों से विभूषित होकर एवं सबके सब अपने विभव मद्धि और सत्कार के अनुसार जहा कृष्ण वासुदेव थे वहा आये । इनमे कितनेक घोडों पर कितनेक हाथियों पर कितनक रथों पर बैठकर आये और कितनेक पैदल ही चलकर आये (उवागच्छित्ता करयल जाव कण्ह वासुदेव जएण विजएण बद्वाति, तएण से कण्हे वासुदेवे कोडुपिय पुरिसे सदावेह सद्दवित्ता एव वयासी, खिप्पामेव तालियाए समाणोए समुदविजयपामोक्ता दस दसारा जाव महासेण पामु एखाओ छप्पण बलगमाहरसीओ व्हाया जाय विभूमिया जदा विभव इड्ढी सकारसमुदएण अप्पेगइया जाव पायविहारचारेण जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव समागच्छ ति) मा शते ते सामुवि सेरी गाउामा मापी त्यारे समुद्र विजय વગેરે દશ દશાહે એ યાવત ૫૬ હજાર મહાસેના પ્રમુખ બલિષ્ઠ રાજાઓએ નાન કર્યું યાવત તેઓ સર્વે સમસ્ત અલ કારેથી સુસજજ થઈને પિતાના વિભવ અને સંસ્કારની સાથે જ્યાં કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા ત્યાં ગયા આમા કેટલાક ઘોડા ઉપર, કેટલાક હાથીઓ ઉપર, કેટલાક રથ ઉપર સવાર થઈને ત્યાં પહેચ્યા હતા તે કેટલાક પગે ચાલીને જ કૃષ્ણુ-વાસુદેવની પાસે હાજર થયા संता (बागच्छिवा करयल जाब कण्ड वासुदेव जएग विजरग बद्धाव दि तपण से कण्हे वासुदेवे कोडु पियपुरिसे सदावेह सदाविचा एक क्यासी खिप्पा
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
"२६८
तामा टीका-'तरण से ' इत्यागि पागुदेशः पादुनिक पुरुष गन्दयति, शदयिता पाटीन-
गगल वा देगनुमिग । समाया सुधर्माया' मागुदाय' सामुदायिक भरि नाउय, नतः गग पौखिक पुरुष फरत २० यापद्-मस्तकानि कन्या गारगम्य वासुदेवस्यतमर्थ मतिमणोति, मतिश्रुत्य यही समाया गर्माया 'गामुदाइमा' सामुदापिका भेरी नगगोपागति, उपागन्य मा हुदायिकी भरी महता २ गटन वाडयति येन महागन्दो भाति, तथा भेरी नायनि मे ' त्यर्थ., नतम्तदनन्तर सलु तस्या
'तण्ण से कण्हे घासुदे' इत्यादि ।
टीकार्य-(तण्ण उसके बाद (से करे वासुदेवे) उन कृष्ण वासुदेवन ( कोडयियपुरिस माह ) अपने कौटुम्पिक पुरुप को बुलाया, घुला कर ( ण्व वयासो ) उनसे ऐसा कहा-(गच्छर ण तुम देवाणुपिया सभाप सुहम्मा मामुदाहय भेरि तालेहि ) हे देवानुप्रिय तुम सुधमा समामें जाओ और वहा जाकर मामुदाय की भेरी को यजाओ (तएण से को१निय पुरिसे करयल जाच काहस्स पाउदेस्स एयम पाड सुणेड, पडिमुणित्ता जेणेष सभा सुरम्माण सामुदाझ्या भैरी तेणव उवागच्छद, उवागच्छित्ता सामुदाइय भेरि मत्या सर्वेण तालेह ) इस प्रकार की कृष्ण वासुदेव की आज्ञा को उस पुरुप ने पड़े विनय के साथ अपने दोनों हाथों को मस्तक पर रग्वकर स्वीकार कर लिया-आर स्वीकार करके फिर वह सुधर्मा समा मे जहा वह सोमुदायिकी भरा था वहा आया। वहा आकर उसने उस सामुदायिकी भेरी को इसतरह
'तएण से कण्हे वासुदेवे' इत्यादि
टी -(तएण) त्या२पछी (से कण्हे वासुदेवे) १-वासुदेव (कोडु विय पुरिस सदावेइ) पातानामि ५३पान माता भने मावापान (एव पयासी) भने मा प्रमाणे -(गच्छह ण तुम देवाणुप्पिया। सभाए मुहम्माए सामुदाइय भेरि तालेहि ) देवानुप्रिय । तमे सुघर्भा सलामा त भने त्याने सामुदायिकी देश पगा(तएण से कोडु बियपुरिसे कर यल जाव कण्हरस वासुदेवस्स एयममद पडिसुणेइ पडिसुणित्ता जेणेव समाए सुहम्माए सामुदाइया भेरी तेणेव मागन्छआगच्छित्ता सामुदाइय भेरि मयार सर्वेण तालेइ) 0 तनीश-वासवनी माज्ञान ते ३षे पूमा नम्र પણું અને હાથીને મસ્તકે મૂકીને સ્વીકારી લીધી, સ્વીકાર કર્યા પછી તે ત્યાથી
જ્યા સુધર્મા સભામા સામુદાયિકી લેરી હતી ત્યાં જઈને તેણે માટે અવાજ थाय तम त सामुदायिलेशन बाडी (तएण ताए
भेरोष
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृनर्पिणो टी० अ० १६ द्रोपदीचरितवर्णनम् वासुदेव समुद्रविजयममुग्वेदशाह वित् अनसेनाप्रमुग्वाभिरनेवाभिर्गणिका साहस्रीभि' साध सपरितः सद्धर्चा-छनादिराजचिहरूपया यावत्-शङ्खपणवपटहभेर्यादिरवेण द्वारवती नगर्या मध्यमध्येन-निर्गच्छति, निगत्य सौराष्ट्रजनपदस्य मध्यमध्येन यौव देशप्रान्त-देशमीमा ततैयोपागछति, उपागत्य पञ्चालजनपदस्य मध्यमध्येन यौव शम्पित्यपुर नगर तत्रैव माधारयद् गमनायगतु प्रत्त' ।। सु०१८॥ कृष्ण वासुदेव जहा स्नान घर थो चहा गये-चहा जाकर उन्होने मुक्ताओं सहित गवाक्षो से शुन्दर उम स्नान घर में स्नान किया-स्नान करके फिर सर्व अलकारो से विभूपित होकर वे नरपति अजन गिरि के शिखर जैसे-विशाल कृष्णवर्ण चाले गजपति पर आरूढ रो गये । (तएणं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खेहिं दसहिं दसारहिं जाव अणग सेणा पामुक्खेहि अणेगाहिं गणिया साहस्सीहि सद्धिं सपरिवुडे सन्ध डीए जाव रवेण पारवहनयरिं मझ मज्झेण निग्गच्छद, निग्गच्छित्ता सुरहा जणवयस्म मन्श मज्झेण जेणेव देसप्पते तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता पचाल जणक्यस्स मज्झ मझेण जेणेव कपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्य गमणा ) आरद होकर वे कृष्ण बासुदेव समुद्र विजय आदि दश दशा? यावत् अगसेना प्रमुख हजारों गगिकाओ के माथ २ उन आदि राज चिहरूप विभूति से युक्त होकर शख, पणय, पटह, भेरी आदि भाजो की तुमुल ध्वनि पूर्वक द्वारावती नगरी के बीच से ત્યારપછી તે કૃષ્ણ-વાસુદેવ ક્યા સ્નાનઘર હતુ ત્યા ગયા ત્યાં જઈને તેમણે મોતી જડેલા ગવાક્ષોથી રમણીય લાગતા સ્નાનઘરમાં સ્નાન કર્યુ અને ત્યાર પછી બધા અલ કારોથી વિભૂષિત થઈને--નરપતિ આ જનગિરિના શિખર જેવા विशार ०६ वा गपति 6५२ १३१२ 45 गया (तण्ण से कण्हे वासुदेवे समुद्दविनयपामोक्सेहि रमहि दमारेहि जाव अण गसेणा पामुग्येहि अणेगाहिं गणियानादरसीहिं सदि सपरिदुडे सबिडीए जाव रवेण बारवइ नयरि मज्झ मज्झेण निगच्छइ निग्गन्धित्ता सुग्हा जणवयम्स मझ मज्झेण जेणेव देसम्पते तेणेप आगन्छ आगच्छित्ता पचालजगवयस्म म झ मग जेणे। क पिल्लपुरे नवरे तेणेप पहारेत्य मणाए ) मार 45 ने तो समुद्र विय વગેરે દશ દશા યાવત્ અગસેના પ્રમુખ હજાર ગણિકાઓની સાથે છત્ર વિગેરે રાજચિત્ર ૩૫ વિભૂતિથી યુક્ત થઈને શખ, પણવ, પટવું, ભેરી વગેરે તુમુવ કાનિ સ્થાને તારવતી નગરીની વચ્ચે વઈને પસાર થયા ત્યાથી પસાર
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
•R.CO
आता यात्रे
रत्नममस्तिन परिरह सज्जीत, एवमाशात टिपा: 'तथास्तु' उत्पत्या तदाशासीत्य सर्व सपान पाहन पल यावत् प्रत्यर्वपन्ति = निरेद्रयन्ति
मस्माभिरिति सज्जन
का गृह काँचोपाग उति, मज्जनगृह व्यमित्याह-' 'समु तमालाकुलाभिराम गुक्ताभिः मरिवाति जारानि गराराम्रागुक्तमवग मिराम सुन्दरम् उपागत्य तत्र स्नान कला यावत्-मलकारविभूषित, अन्ननगिरिकृटसनिभम् = उत्तर श्यामवर्णमित्यर्थ, गनपनिम्ति गुग्ग हल्लिन नरपति=श्री कृष्णपासुदेव. '' ततः उसको
,
मो देवालिया । अभिसेक हरियण पटिकप्पर, स्थगग जाव पच्चपिणति ) वा आकर उन्होने दोनों हाथ जोड़कर कृष्ण वासुदेव को नमस्कार करते हुए जय विजय शब्दो द्वारा बधाई दी - इसके बाद उन कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया-पुलाकर उससे इस प्रकार कहा-भो देवानुप्रियो । तुमलोग शीघ्र ही मेरे मुग्य हाथी को सजाओ-तथा-य, गज, रथ और पदातिरूप चतुरंग युक्त सेना को भी सजाकर तैयार करो | पीछे हमको इसको ग्वायर दो । इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुषो ने - " तथास्तु " कहकर उनकी आज्ञा को स्वीकार लिया और स्वीकार करके बल और चार सय हमने सज्जित कर दिये हैं इस प्रकार की खबर उन्हें पीछे कर दी । (तरण से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छ, उचागच्छित्ता समुत्तमालाकुलाभिरामे जाव अजणगिरि कृडसन्निभ गयवह नरवई दुरूढे ) इसके पश्चात् वे
"
मेव भो देत्राणुप्पिया ! आभिसेक हस्थिरयण पडिकप्पेह, हयगयजात्र पचविणति ) ત્યા જઈને તેઓએ બને હાથ જેડીને જયવિજય ' શબ્દોથી કૃષ્ણ વાસુદેવને નમસ્કાર કરતા અભિન ત કર્યાં ત્યારપછી કૃષ્ણ-વાસુદેવે કૌટુ બિક પુરૂષને ખાલાવ્યા અને ખેલાવીને તેએને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિયે ! સત્વરે તમે મારા મુખ્ય હાથીને તેમજ ખીજી પણ ઘેાડા, હાથી, રથ અને પાયદલની થતુગિણી સેનાને સુસજ્જ કરશ અને સેના સુમજ થઈ જાય ત્યારે અમને ખખર આપે। ત્યારપછી કૌટુંબિક પુરૂષાએ ‘તથાસ્તુ ’ કહીને તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તેએ પાતાના કામમા પરોવાઈ ગયા જયારે કામ થઇ ગયું ત્યારે તેઓએ “ સેના અને વાહન તૈયાર છે ” આ જાતની ખખર આપી (तरण से कहे वासुदेवे जेणेत्र मज्जणघरे तेणेव उarगच्छs उनागच्छिता तजालाकुलाभिरामे जाव अ जण गिरिकूडसन्तिम गयबइ नरवई दुरूढे )
/
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
जनगारधर्मामृनयपिणो टी० अ० १६ द्रोपदीचरितवर्णनम् वासुदेव समुद्रविजयममुखैदशाहे वित् अनइसेनाप्रमुग्वाभिरनेवाभिर्गणिका साहसीभिः सार्ध सपरिटतः सद्धर्या-छवादिराजचिहरूपया यावत्-शङ्खपणवपटहभेर्यादिरवेण द्वारन्ती नगर्या मध्यमध्येन-निर्गच्छति, निर्गत्य सौराष्ट्रजन पदस्य मध्यमध्येन यो देशप्रान्त-देशमीमा तत्रोपागति, उपागत्य पश्चालजनपदस्य मध्यमध्येन योर साम्पिल्यपुर नगर तथैव माधारयद् गमनाय: गतु मत्तः ॥ सू०१८॥ कृष्ण यासुदेव जहां स्नान घर थो वहा गये-वहा जाकर उन्होंने मुक्ताओं सहित गवाक्षों से सुन्दर उम स्नान घर में स्नान किया-स्नान करके फिर सर्व अलकारो से विभूपित होकर वे नरपति अजन गिरि के शिखर जैसे-विशाल कृष्णवर्ण वाले गजपति पर आरूढ हो गये} (तण्ण से कण्हे वासुदेवे ममुद्दविजयपामोरसेहिं दसहिं दमारेहिं जाय अणंग सेणा पामुक्खेहि अणेगाहिं गणिया माहस्सीहि सहि सपरिबुडे सम्ब ड्रीए जार रवेण बारवहनपरि मझ मज्झेण निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता सुरष्टा जणवयस्त मज्झ मज्झेण जेणेव देसप्पते तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता पचाल राणवयस्स मज्झ मझेण जेणेघ कपिलपुरे नयरे तेणेव पहारेत्व गमणाण) आरट होकर वे कृष्ण वासुदेव समुद्र विजय आदि दश दशा: यावत अगमेना प्रमुग्व हजारों गगिकाओं के माय २ उन मादि राज चिह्नरूप विभृति से युक्त होकर मारन, पणय, पटर, भेरी आदि बाजो की तुमुल बनि पूर्वक द्वारावती नगरी के बीच से ત્યારપછી તે કૃષ્ણ-વાસુદેવ ક્યા નાનઘર હતુ ત્યા ગયા ત્યાં જઈને તેમણે મોતી જડેલા ગવાથી રમણીય લાગતા સ્નાનઘરમાં સ્નાન કર્યું અને ત્યાર પછી બવા અવારથી વિભૂષિત થઈને-નરપતિ અજનગિગ્નિા રિખર જેવા विनय वाणा पति 6५२ माया गया (ताण से कण्हे वामुन्वे समुद्दविजयपामोक्सेहि सहि दसारेहि जार अण गसेणा पामुग्येहि अणेगाहिं गणियामाइस्सीहि सद्धिं सपरिबुडे सबिडीय जाव रयेण बारइ नयरि मज्झ मज्झेण निग्गन्छइ निगानिउत्ता सुट्ठा जण्यास मझ मज्झेण जेणेव देसप्पते तेणे वागन्छ। आगच्छिता पचालनणवयस्म मस मग जेणे क पिर पुरे नयर तेणेर पहारेत्य गमणा ) भार ५४ २ तेयो ममुद्र विय વગેરે દશ દશાર્દો યાવત્ અગમેના પ્રમુખ હજાર ગણિકાઓની માથે છત્ર વિગેરે રાજચિહ્ન રૂપ વિભૂતિથી યુક્ત થઈને શખ, પણવ, પટ, ભેરી વગેરે તુમન ઇવનિ સ્થાને દ્વારવતી નગરીની વચ્ચે વઈને પસાર થયા ત્યાંથી પસાર
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाताधर्मकथाह
मूलम् -तरण से दुबए राया दोघं दूयं सहाने साविता एव वयासी- गच्छ णंतुमं देशणुप्पिया ! हरिथणार नयरं तरण तुमं पंडुरायं सपुत्तय जुहिटिल्लं भीमण अज्जुण नउल महदेव दुज्जोहणं भाइसयसमग्ग गंगेव विदुर टो जयद्दह सउणी किवं आमत्थाम क्रयल जाव कटु तहेव समीसरह, तएण से दूर एव व्यासी जहा वासुदेवे नवर भेरी नत्थि जाव जेणेव कपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए२ । एएणेव कमेणं तच्चं दूय चंपानयरिं तत्थ णं तुमं कण्ह अगराय सेल नदिराय करयल तहेव जाव समासरह । चउत्थ दूय सुतिमइ नयरिं तत्थ ण तुमं सिसुपाल दमघोससुय पचभाइसयस परिवुड करयल तहेव जाव समोसरह | पंचमग दूय हत्थसनियर तत्थ पण तुमं दमदत राय करयल तहेच जाव समोसरह । छट्ट दूयं महुर नयरिं तत्थ ण तुम घरं राय करयल जाव समोसरह | सत्तम दूयं रायगिहं नयंर तत्थ ण तुम सहदेव जरासिधुसुय करयल जाब समोसरह । अट्टम दूय कोडिण्ण नयर तत्थ ण तुम रुप्पि भेसगसुय करयल तहेव जाव समो सरह | नवम दूय विराडनयर तत्थ ण तुम कीयग भाउसय समग्गं करयल जाव समोसरह । दसमं दूय अवसेसेसु य गामागार होते हुए निकले । निकलकर वे सौराष्ट्र देश के बीचो बीच से चलकर आये जहाँ देश की सीमा थी । उस सीमा पर आकर के फिर वे पहा पाचाल जनपद के मध्य से होते हुए जश कापिल्य पुर नगर था उस और चल दिये ।'
।
1
२०२
થઈને
า
१५
ચ્ચે થઈને પોતાના દેશની હદ સુધી પહે થઈ ને જતા કાપિત્થપુર નગર હતુ તે
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७३
मगारधामृतषिणी टी० १० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् नगरेसु अणेगाइ रायसहस्साड जाव समोसरह । तएण से दूए तहेव निग्गच्छइ जेणेव गामागर जाव समोसरह। तएण ताई अणेगाई रायसहस्साइ तस्स दूयरस अतिए एयमट्ट सोञ्चा निसम्म हट० तं दृय सकारेंति सकारिता सम्माणति सम्माणित्ता पडिविसजिति, तएणं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तय२ व्हाया सन्नद्रहस्थिखंधवरगया हयगयरह० महया भडचडगररहपहकर० सएहितोर नगरेहितो अभिनिग्गच्छति२ जेणेव पंचाले जणवए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० १९ ॥
टीका-'तएण से' इत्यादि । तत खलु स द्रुपदो राजा द्वितीय दूत शब्दयति, शन्दयित्वा एवमयादीत्-गर मलु व पाण्डु राज मपुत्रर पुरै महिन
'तण्ण से दुवा राया' उत्यादि ।
टीकार्य-(तएण) उस के बाद (से दुव राया ) उस द्रुपद राजाने (दोच्च दृय सद्दावेइ) अपने दूनरे दूनको बुलायो (महावित्ता व वयामी) बुलाकर उनसे ऐसा करा-गच्छण तुम देवाणुप्पिया हत्यिणाउर नयर तत्थ ण तुम पडराय मपुत्तय जुहिडिल्ल भीमसेण अज्जुण नउल महदेव दुजोहण भाइमयममग्ग गगेय विदुर दोण जयदह मउणीकिन आसत्थाम करयल जाव कटु नहेव समोसरह) बुलाकर उससे ऐसा कहा हे देवानुप्रिय । तुम हस्तिनापुर नगर जाओ-वहा जाकर तुम पुत्र
'तएण से दुबा राया' इत्याति
शा-(तएण) त्यापी (से दुवए राया) ते ५६ RANA (सोच दूय सद्दावेइ ) याताना मी इतने मदाव्य (सोवित्ता एस वयासी) all पान तेने मा प्रभारी 3 ( गच्छह ण तुम देवाणुप्पिया हत्यिणाउर नयर, तत्य ण तुम पडुराय सपुत्तय जुहिट्टिाल भीमसण अजुर्ण नटल सहदेव दुज्जो हण भाइसयसमग्ग गगेय विदुर दोण जयदह सउणी किन आसत्थाम करयल नार कट्टु तहेव समोसरह ) ३ आनुप्रिय ! तमे तिनाथु नगरमा
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
जानापमैत्रचामरे
मूलम् - तण से हुए गया दोघं दूयं सहाने सावित्ता एव वयासी- गच्छ णंतुमं देशणुप्पिया ! हरिथणाउर नयरं तत्थ णं तुम पंडुराय सपुक्तय कुहिदिन्ल भीमणं अज्जुण नउल महदेव दुज्जोहणं भाइसयसमग्गं गंगेयं विदुर दोर्ण जयद्दह उणी किव आमत्थाम करयल जाव क तहेच समो सरह, तएण से दूग एव व्यासी जहा वासुदेवे नवर भेरी नत्थि जाव जेणेव कपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमनाए २ । एएव कमेणं तच्चं दूय चंपानयरिं तत्थ णं तुमं कण्ह अंगराय सेट नदिराय करयल तहेव जाव समोसरह । चउत्थ दूय सुत्तिमइ नयरिं तत्थ णं तुम सिसुपाल दमघोससुय पंचभाइ सयसपgिs करयल तहेव जात्र समोसरह । पचमग दूय हत्थसीसनयर तत्थ पण तुम दमदत राय करयल तहेच जाव समोसरह । छट्ट दूयं महुर नयरिं तत्थ ण तुम घर राय करयल जाव समोसरह । सत्तम दूय रायगिहं नयर तत्थ ण तुम सहदेव जरासिधुसुय करयल जाव समोमरह | अट्टम दूय कोडिण्ण नयर तत्थ ण तुम रुप्पि भेसगसुय करयल तहेव जाव समो सरह | नवम दूय विराडनयर तत्थ णं तुम कीयग भाउसय समग्गं करयल जाव समोसरह । दसम दूय अवसेसेसु य गामागार
३७२
होते हुए निकले । निकलकर वे सौराष्ट्र देश के बीचो बीच से चलकर वहा आये जहाँ देश की सीमा थी। उस सीमा पर आकर के फिर वे पाचाल जनपद के मध्य से होते हुए जहा कापिल्य पुर नगर था उस और चल दिये ।' सू० १८
થઈને તેઓ સૌરાષ્ટ્ર દેશની વચ્ચે થઈને પેાતાના દેશની હદ સુધી પહે ત્યાથી તે પાચાલ જનપદની વચ્ચે થઈને ના કાત્રિપુર નગર હતુ તે
તરફ રવાના થયા ! સૂત્ર ૧૮ ॥
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
पण टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
૨૭૧
नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए २ एएणेव कमेण तच्च दूय चपानयरिं तत्थण तु कण्ण अगराय सेल्ल नदिराय करयल तहेव जाव समोसरह चवत्थदूय सुत्तिम नयरिं, तत्थण तुम सिसुपाल दमघोमसुय पचभाइसय परिवुड करयल तहेच जाव समोसरह) इस के बाद दूत अपने राजा की आज्ञा प्रमाण कर वहा से हस्तिनापुर को चला गया । वहाँ पहुँच कर उसने पांडुराजा आदि से बडे विनय पूर्वक इस प्रकार कहा- कापिल्यपुर में द्रौपदी का स्वयवर होगा- सो आप सन कृपाकर शीघ्रातिशीघ्र वहा पारे । उस तरह के समाचार देकर वह दूत पाडुराजा आदि से सम्मानित होकर वहा से वापिस हो गया । पाडुराज आदि स्नान कर सर्वालकारो से विभूषित होकर गजारूढ हो, चतुरगिणी सेना के साथ अपनी ऋद्धि आदि के अनुसार यावत् जहा कापिल्यपुर नगर था उस ओर चल दिये। इस तरह कृष्ण वासुदेव की तरह यहां पर सब पाठ लगा लेना चाहिये । उस पाठ से इस मे विशेषता केवल इतनी है कि वे सब जब द्वारावती नगरी से कापिल्यपुर नगर को जाने के लिये निकले तो उनके साथ भेरी थी- यहा वह नही है । इसी क्रम से द्रुपद ने तीसरे दूत को बुलाया - बुलाकर उससे भी इसी प्रकार से
पुरे नयरे तेणेत्र पहारेत्य गमणाए २ एएणेत्र कमेण तच्च दूय चपानयरिं तत्थ तुम कण्ण अगराय सेल्ल नदिराय करयल तदेव नाव समोसरह चवत्थ दूय सुतिमइ नयरिं तत्थण तुम सिसुपाल दमवोससुय पचभाइनयम प खिड करयल तद्देव जात्र समोसरह) त्यारपछी इत पोताना राजनी आज्ञा પ્રમાણે ત્યાથી હસ્તિનાપુર તરફ રવાના થઇ ગયા ત્યા પહેાચીને તેણે પાડુ રાજા વગેરે રાતને નમ્રપણે આ રીતે વિનતિ કરી કે-કાપિલ્યપુરમા દ્રૌપદીને સ્વયંવર થશે તે આપ સૌ કૃપા કરીને સત્વરે ત્યા પધારો આ રીતે સમાચારો આપીને તે દૂત પાડુરાજ વગેરેથી સન્માન પામીને ત્યાથી પાછા ફર્યો પાડુરાજ વગેરે બધાએ પણ સ્નાન વગેરેથી પરવારીને તેમજ સર્વાં લકારાથી સુમજ્જ થઈને હાથીઓ ઉપર સવાર થયા અને પાત પોતાની ચતુરગિણી સેના તેમજ ઋદ્ધિની સાથે યાવત્ જે તર કાપિલ્યપુર નગર હતું તે તરફ રવાના થયા. આ પ્રમાણે કૃષ્ણુ-વાસુદેવની જેમજ અહીં પણ વન સમજી લેવુ જોઈએ. કૃષ્ણ-વાસુદેવના પાઠમા પાડુરાજ કરતા એટલી વિશેષતા હતી કે તેઓ જ્યારે દ્વારાવતી નગરીની બહાર નીકન્યા ત્યારે તેમની સાથે લેરી પણ હતી, પાડુરાજની સાથે ભેરી ન હતી આ પ્રમાણે દ્રુપદ રાજાએ ત્રીજા તને એટલાન્યા અને તેને પણ આ રીતે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
winist भ्रमः
૨૪
युधिष्ठिर भीमसेनम् अर्जुनदर्योधन सहित, गामीण, हिरो' किया अपत्यामान करत गाउनु मा पूर्व सत्र 'समरत' इतिपर्यन्तम्यम् भय गार:- जयविनय ेन पथवा एव ब्रूहि काम्पिल्यपुरे नगरे पदस्य राशः पापयाः पयारो भविष्यति तस्माद् खलु हे देवानुमियाः । युग पत्र राजानमनुगृन्त. कारविरम्बार हितमेन पापिल्यपुरे नगरे रामनगर । तत तस्य वचनमीत्य हस्तिना पुरत्या पाण्डुराजादि मे मादीद=' राम्पिन्यपुरे पधारो भविष्यति तत्र शीघ्रमागच्छत ' इति ततोऽसौ दत' पाष्टराजादिना सम्मानितो निमर्जितश्व जहा वासुदेवे ' यथा-सदेव' कृष्णस्तदनापि विज्ञेयम्- 'नगर' विशेषस्तु ' मेरी नत्थि ' भेरीनारित, कृष्णवासुदेव र पाराजादिः स्नात मलकार विभूषितो गजादचतुरसेनया सपरित सड युक्तो यान्तु यौन पापिल्य पुर नगर व माधारष्ट्र गमनाय गन्तु प्रवृत्त' |
८
सहित पाडुराज को, युधिष्टिर को, भीमसेन को, अर्जुन को नक्कल को, सहदेव को, सौभाईयों सहित र्योधन को, गाय भीष्म पितामह को विदुर को, द्रोण को जयद्रथ को शकुनि को, कृपाचार्य को, और द्रोणा चार्य के पुत्र अश्वत्थामा को पहिले दोनों हाथों की अजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर नमस्कार करना उन मनको जय विजय आदि शब्दों से या देना । चधाकर फिर इस प्रकार कहना कि कॉपिल्य पुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयवर है, इस लिये है देवानुप्रियों ! आप सन हुपद राजा के ऊपर कृपा करके विना किसी विलय के शीघ्रही कापिल्यपुर नगर में पधारें। (तएण से दृए एव वयासी जहा वासुदेवे नवर भेरी नत्थि, जाव जेणेव कपिलपुरे અને ત્યા જઈને તમે પુત્રા સહિત પાડુરાજને, યુધિષ્ઠિરને, ભીમસેનને, અજુ નને નકુલને સહદેવને, સેા ભાઇએ સહિત દુર્ગંધનને, ગાગેય ભીષ્મ પિતા भडने, विहरने, द्रोने, नयद्रथने, शत्रुनिने, हैपायार्यने भने द्रोणायार्थ ना પુત્ર અશ્વત્થામાને સૌ પહેલા કરદ્ધ થઈને અજલિ બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કરો અને જય વિજય ′ શબ્દેથી તેઓને અભિનદિત કરો ત્યારપછી તમે તેમને આ પ્રમાણે વિન તી કરો કે કાસ્પિયપુર નગરમા દ્રુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીના સ્વયંવર થવાના છે એથી હે દેવાનુપ્રિયા ! આપ સૌ દ્રુપદ રાજા ઉપર મહેરબાની કરીને સત્વરે કાપલ્ય ન
"
પદ્માર
( तपण से दू० एव वयासी - जदा वासुदेवे नगर भेरी नत्थि
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७५
-
-
गारमतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् नयरे तेणेव पहारेत्य गमणाए २ एएणेव कमेण तच्च द्य चपानयरिं तत्य ण तुम कण्ण अगराय सेल्ल नदिराय करयल तहेव जीव समोसरह चात्य दूयं सुत्तिमा नयार, तत्थ ण तुम सिसुपाल दमघोमस्य पच भाइसयसपरिबुड करयल तहेव जाव समोसरह ) इस के बाद दूत अपने राजा की आज्ञा प्रमाण कर वहा से हस्तिनापुर को चला गया । वहाँ पहुँच कर उसने पांडराजा आदि से बडे विनय पूर्वक इस प्रकार कहा-कापिल्यपुर में द्रौपदी का स्पयवर होगा-सो आप सर कृपाकर शीघ्रातिशीघ्र वहा पधारे। इस तरहके समाचार देकर वर दूत पाडुराजा आदि से सम्मानित होकर वहां से वापिस हो गया। पाडुराज आदि स्नान कर सर्वालकारो से विभूषित होकर गजारूढ हो, चतुरगिणी सेना के साथ अपनी ऋद्धि आदि के अनुसार यावत् जहा कापिल्यपुर नगर था उस ओर चल दिये । इस तरह कृष्ण वासुदेव की तरह यहा पर सय पाठ लगा लेना चाहिये। उस पाठ से इस मे विशेषता केवल इतनी है कि वे सब जय द्वारावती नगरी से कापिल्यपुर नगर को जाने के लिये निकले तो उनके साथ भेरी थी-यहा वह नही है । इसी क्रम से द्रुपद ने तीसरे दूत को बुलाया-चुलाकर उससे भी इसी प्रकार से पुरे नयरे तेणेव पहारेत्य गमणाए २ एएणेच कमेण तच्च दूय च पानयरिं तत्थ ण तुम कण्ण अगराय सेल्ल न दिराय करयल तहेर जार समोसरह उत्थ
द्य सुत्तिमइ नयरिं तस्थण तुम सिसुपाल दमघोसय पचभाइचयपखुिड करयल तहेव जाव समोसरह ) त्या२५ इतपताना रानी साक्ष। પ્રમાણે ત્યાથી હસ્તિનાપુર તરફ રવાના થઈ ગયા ત્યાં પહોંચીને તેણે પાડ રાજા વગેરે રાજાઓને નમ્રપણે આ રીતે વિન તિ કરી કે-નાપિલ્યપરમાં દ્રૌપદીને વયવર થશે તે આપ સૌ કૃપા કરીને સત્વરે ત્યાં પધારે આ રીતે સમાચાર આપીને તે દૂત પાડુરાજ વગેરેથી સન્માન પામીને ત્યાથી પાછો ફર્યો પાડુરાજ વગેરે બધાએ પણ સ્નાન વગેરેથી પરવારીને તેમજ સર્વા લકારથી સુસજજ થઈને હાથીઓ ઉપર સવાર થયા અને પિત પિતાની ચત ૨ગિણે સેના તેમજ ઋદ્ધિની સાથે યાવતુ જે તરફ કાપિલ્યપુર નગર હતું તે તરફ રવાના થયા આ પ્રમાણે કૃષ્ણ વાસુદેવની જેમજ અહીં પણ વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ કૃષ્ણ-વાસુદેવના પાઠમા પાડુરાજ કરતા એટલી વિશેષતા હતી કે તેઓ જ્યારે દ્વારાવતી નગરીની બહાર નીકળ્યા ત્યારે તેમની સાથે ભેરી પણ હતી, પાડુરાજની સાથે લેરી ન હતી આ પ્રમાણે કુપદ રાજાએ ત્રીજા તને બેલા અને તેને પણ આ રીતે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય તમે
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७१
आतापमान पनेर प्रमेण उतीय दा भन्दगान, आमिरादीन-गन्छ पल्लल हे मानुप्रिय ! गगानगर्गम , वर्ण अर्णनागाग-भारानम् प्रदेश स्याधिपति, तथा ' लोगो पनामा नन्दिगमम्नन्दिदेगाधिप परतल परिगृहीत नशनग्य गायन-मनोलिया ग जियेन पिता एवं हि-तरेर नय-
पून मोयम्-त गरा-"काम्पिन्यपुरे नगरे द्रुपदस्य रान' पुञ्या द्रौपाया वयारी भरिष्यनि, नरमाद् गट हे देशानुमियाः ! यूप द्रुपद राजानमनुएम त गीप्रमेर फाम्पियपुर नगरंगमरमरत" इति पर द्रुपदी राजा चतुर्थ दत गटयित्वा परमवादी-गम सन्तु स शुक्तिमती नगरी, तत्र ग्पलु व शिशुपाल दमपोपमुरा पथभ्रातामपरिटत करतय. यारन्मस्तकेऽञ्जलि कत्वा हि-' तथैव यावत् समरमरत' यथा पूर्वमुक्त तत्र ' गमवसरत ' इति कहा-कि हे देवानुप्रिय ' तुम पानगरी जाओ वा अगदेश के अघि पति कर्ण गना को तथा नन्दिदेवा के अधिपनि शेयराजा को कर तल परिगृहीत दशनमवाली अजलि मस्तक पर रखकर नमस्कार करना पाद में जय विजय शन्दो से उन्हें बधाई देकर पूर्व की तरह ऐसा फरना-कि कापिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयवर होने वाला है, सो हे देवानुमियों ! आपलोग उपद राजा पर कृपा करके जरदी से जल्दी कापिल्यपुर नगर पधारे । इसी तरह द्रुपद ने चौथे दत को बुलाकर उससे ऐसा ही कहा कि तुम शक्तिमती नगरी में जाओं वहा जाकर दमघोष के पुत्र तथा पाचसी अपने भाइयों से युक्त शिशुपाल राजा से करतल परिगृहीत दशनम्वचाली अजलि मस्तक पर रखकर कहना, पहिले की तरह ऐसा कहना कि कापिल्यपुर नगरम ચ પ નગરીમાં જાઓ, ત્યા અગ દેશના અધિપતિ કણે રાજાને તેમજ નાદિ દેશના અધિપતિ તૈત્યરાજને હાથની અ જલિ બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કરજો અને જય-વિજય શબ્દોથી તેમને અભિન દિત કરશે ત્યારપછી તેમને વિનતી કરજે કે કપિલેપુર નગરમાં દ્રપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીને વય વર થવાને છે તે છે દેવાનુપ્રિયો તમે સી કુપદ રાજા ઉપર કૃપા કરીને અવિલ બ કાપત્યપુર નગરમાં આવે આ રીતે દુપદ રાજાએ ચોથા ક્રતને બિલા અને તેને પણ આ પ્રમાણે કહ્યું કે તમે શક્તિમતી નગરમાં જાઓ અને ત્યાં જઈને દમષના પુત્ર શિશુપાલ રાજાને જ પોતાના પાસે ભાઈઓ સહિતકરબદ્ધ થઈને અ જલિ મસ્તકે મૂકીને વિન તે આ પ્રમાણેના સમાચાર આપજે કે કાપિયપુર નગરમાં પદ ર
--------
-
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
गगारधर्मामृतवाणी टी० म०१६ द्रौपदीचरितवर्णनम् पर्यन्त बाध्यमित्यर्थ । एष द्रुपदो राजा पञ्चमक दूत शब्दयित्वा एवमगदीदगन्छ खलु व हस्तिशीपनगर, तर खल त्व दमदन्त-दमदन्तनामक राजान करतल्परिगृहीतदशनम्व यावन्मस्त केऽवलिं कृत्वा बहि-' तथैव यावत् समवसरत' इति पूर्ववदेवानापि 'समवसरत' इतिपर्यन्त वान्यम् एव स द्रुपदो राजा पाठ दूत शब्दयित्वाऽवादीत्-गच्छ खलु व मथुरा नगरी, तत्र ग्वलु त्व धर-परनामक राजान करतल० यावत् समवसरत' अनापि पूर्वदूतगमनादिक वोन्यम् , एव सप्तम दूत शब्दयित्वा एवमवदत्-गच्छ खलु त्व राजगृह नगरम् , तन मलु ल सहदेव जरासिन्युसुतु ' करतल० यावत् समवसरत' इति पूर्ववत्-द्रौपद्याः स्वयवरस्य पाती कथयित्वा 'काम्पिल्यपुरे नगरे समवमरत ' इति ब्रूहि । तपास द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयवर होने वाला है-सो आप कृपा करके शीघ्र ही वहा पधारें। (पचमग दूय हथिसीसनयर तत्व ण तुम दमदत राय करयल तहेव जाप समोसरह छट दूध महुर नयरिं तत्य ण तुम घर राय करयल जाव समोसरह सत्तम य रायगिह नयर तत्यण तुम सरदेर जरासिंधुसुय करयल जाव समोसरह, अट्टम दूय कोडिपणं नयर तत्यण तुम रुप्पि भेसगस्लुय करयल तहेव जाव समोसरह, नवम य विराडनघर तत्य णं तुम कीयग भाउसयसमग करयल जाव समोसरह, दसम दूध अवसेसेसु गामागरनगरेसु अणेगाइ रायसहरमाइ जाय समोसरह ) इसी तरह पाचवे द्त को हस्तिशीनगर में दमदन्त नाम के राजा के पास छठे दूत को मयुरा नगरी में धर राजा के पास, सातवे दूत को राजगृह नगर मे जरासिंधु के पुत्र सहदेव के पास દીને સ્વય વર થવાનું છે એથી તમે કૃપા કરીને અવિલ બ ત્યા પધારે (१चमग दूय हत्यधीसनयर तत्य ण तुम दमदत राय करयल तहेव जाव समोसरह उह दूय महुर नयार तयण तुम धर राय करयल जाव समोसरह खत्तम दूय रायगिह नयर तत्थ ण तुम सहदेव जरासिंधु सुय करयल जार समोसरह अदुम दृय कोहिण्ण नयर तत्यण तुम रूप्पि भेसगसुय करयल सहेव जाय समोसरह नवम दूय विराडनयर तत्य ण तुम कीया भाउसय समग करयल जाय समोसरह, दसम दूय अवसेसेसु गामागर नगरेमु अणेगाह रायसहस्साइ जाव समोसरह) मा प्रमाणे पायमा इतनताशी नारमा દમદન્ત નામના રાજાની પાસે, છઠ્ઠા દૂતને મયુરા નગરીમા ધર ગજાની પાસે,
સાતમા દ્વતને રાજગૃહ નગરમાં જરાસિંધુના પુત્ર સહદેવની પાસે, આઠમા - તને કૌડિન્ય નગરમા ભીષ્મકના પુત્ર રૂમિ રાજાની પાસે, નવમા દૂતને
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७५
मेजया पनि क्रमेण उतीय दन गन्दगी, मिमीन-ग पडलं
मानुपिय ! मानगरीम , गटोनागा-भरानम् प्रदेश स्याधिपति, तथा ' मेल 'गोपनामा नन्दिगानन्दिदेगाधिप करतल. परिगृहीत दानप गान्-मात करिया बन गिनयन पयिया एप चूरि-नरेतरत्र गया- गणा-"पाम्पिल्यपुरे नगरे दुपदस्य रानः पुच्या द्रौपायाः स्वयारी भरिपति, तस्माद गद देवानुप्रिया. गूप द्रुपद राजानमनुशतः शीघर काम्पियपुर नगरे गम मरत" इति पत्रुपदो राजा चतुर्य दुत शन्दयित्मा परमादी-गम गलत शुक्तिमती नगगे, तत्र ग्यलु त्वं शिशुपाल दमपोपमुप पचभ्रातामपरिगृत करतय० यानन्मम्तकेऽचलि कन्या दि- तथैव यानत् समयमरत ' यया पूर्वमुक्त तदा 'गमसरत ' इति करा-कि हे देवानुप्रिय ' तुम पानगरी जाओ पहा अगदेश के अधि पति कर्ण गना को तथा नन्दिदेश के अधिपति शेयराजा को कर तल परिगृहीत ददशनमवाली अजलि मस्तक पर रखकर नमस्कार करना बाद में जय विजय शन्दों से उन्हें बधाई देकर पूर्व की तरह ऐसा फरना-कि कापिरयपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयवर होने वाला है, सो हे देवानमियों ! आपलोग द्रपद राजा पर कृपा करके जत्दी से जल्दी कापिल्यपुर नगर पधारे । इसी तरह द्रुपद ने चौथे दत को बुलाकर उससे ऐसा ही कहा-कि तुम शक्तिमती नगरी में जाओं वहा जाकर दमघोप के पुत्र तधो पाचसी अपने भाइयों से युक्त शिशुपाल राजा से करतल परिगृहीत दशनम्वचाली अजलि मस्तक पर रखकर कहना, पहिले की तरह ऐसा कहना कि कापिल्यपुर नगरम ચ પ નગરીમાં જાઓ, ત્યાં આગ દેવાના અધિપતિ કણે રાજાને તેમજ નાદિ દેશના અધિપતિ શૈવ્યરાજને હાથની અ જલિ બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કરો અને જય-વિજ્ય શબ્દથી તેમને અભિન દિત કરે ત્યારપછી તેમને વિનતી કરજો કે કાપિલ્યપુર નગરમાં કુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીને સ્વયે વર થવાનું છે તે હે દેવાનુપ્રિયે તમે સૌ દુપદ રાજ ઉપર કૃપા કરીને અવિલ બ કાપિયપુર નગરમાં આવે આ રીતે દુપદ રાજાએ ચોથા ક્રતને બોલાવ્યું અને તેને પણ આ પ્રમાણે કહ્યું કે તમે શક્તિમતી નગરમા જાઓ અને ત્યાં જઈને દમષના પુત્ર શિશુપાલ રાજાને જ પોતાના પાસે ભાઈઓ સહિતકરબદ્ધ થઈને અ જલિ મસ્તકે મૂકીને વિનતી કરતા આ પ્રમાણેના સમાચાર આપજે કે કાપિઠ્યપુર નગરમાં પદ
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
सनगारधर्मामृतवर्षिणी शेषा म० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम
२७९
4
सरति, निर्गत्य यत्रैव ग्रामाकरनगरेषु अनेकानि राजसहस्राणि तत्रैवोपागच्छति उपागत्य यावत्-समत्रसरत, समवसरत ' इति पर्यन्त दूतवाक्य पूर्ववद् बोध्यम् । ततः खलु तानि अनेकानि राजसहस्राणि तस्य दतम्यांन्तिके पतमर्थ वा निशम्य हृष्टतुष्टाः सन्तः दूत सत्कारयन्ति = सत्कृत्त कुर्वन्ति समानयन्ति, सत्कार्य, समान्य प्रतिविसर्जयन्ति ।
ततः खलु ते वासुदेवप्रमुखा वहुसहस्रसरयका राजानः, = प्रत्येक २ स्नाताः जेणेव गामागर जाव समोसरह ) वह दशवा दूत उसी तरह से - पहिले के दूतों के समान कापिल्य नगर से निकला और निकल कर जहां ग्राम आकर और नगर थे वहा पर अनेक राजसहस्त्रों के पास गया वहा जाकर शिष्टाचार पूर्वक उसने सब से इस प्रकार कहा कि काम्पिल्यपुर नगर में हुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयवर होने वाला है- सो आपमन लोग डुपद राजा के ऊपर कृपा करके जल्दी कांपिल्य पुर नगर पधारे (तएण ताइ अणेगाइ रायसहस्सा तस्स दृयस्स अतिए एयम सोच्चा निसम्म हट्ठ० त दूय सत्कारेति, सक्कारिता सम्माणेति, सम्मानित्ता पडिविसज्जे ति ) इस प्रकार वे अनेक सहस्र राजा उस दूत के मुग्व से इस समाचार को सुन कर और उसे अपने अपने २ हृदयों में अवधारित कर बहुत ही अधिक आनन्द से प्रमुदित बनकर परम संतोष को प्राप्त हुए। उन्होने उस दून का सत्कार किया सत्कार कर के सम्मान किया और सन्मान करके फिर उसे पीछे विसर्जित कर दिया - भेज दिया । (तएण ते वासुदेव पामुक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तेय
समोसरह) ते दृशभो इत मधानी प्रेम अभीक्ष्य नगरथी नीउज्याने નીકળીને જ્યા ગ્રામ આકર અને નગર હતા ત્યા અનેક સહસો રાજાની પાસે ગયા ત્યા જઈને નમ્રપણે તેણે સહુને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે પિલ્ય નગરમાં દ્રુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીના સ્વયંવર થવાના છે તે આપ સૌ દ્રુપદ राम पर या उरीने अक्सिम जपिस्य नगरमा पधारो ( तरण ताइ अगणाइ रायमहस्साइ तस्स दूयस्स अतिए एयमट्ट सोचा निसम्म हट्ट० त दूर सकारे ति मकारिता, सम्माणे ति, सम्माणित्ता, पडिनिस जे ति ) मा राते સહસ્રો રાત તે તના મુખથી આ સમાચાર સાભળીને અને તેને પેાતાના હૃદયમાં ધારણ કરીને ખૂમજ પ્રસન્ન તેમજ પરમ સતુષ્ટ થયા તેઓએ તને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું ત્યાપછી તને તેઓએ વિદાય (तरण वे वासुदेवमुक्या बहवे रायसहरसा पत्य २ दाया
[
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
MATHA TET मपदो राना अहम दा शगिलागीन- गत कालिम्पनगर तत्र खलु समिममिणमिनामक मोममुग परतल तर गारन् समय सरत पूपिन् ' ममामन ' इति पर्य- ाम् । समुपदी राना नाम दुत शम्भपित्यादीत-न्य राय पिराटनगर, नगर कीपग' कीय:फीसनामक राजान समारमदित फरवल गायन समामा आपि व्याख्या पूर्ववत् । म उपदो रागा दान न पियाजादीन-भरपगुच ग्रामार नगरेपु अनेकानि रानमात्राणि गायन् गमगरत, भाषि ध्याग्या पूर्ववत् । ततस्तदनन्तर सल सदनम्तीक्तिद्न निर्गति काम्पियनगरता नि. में आठवें रत को कौण्डिल्य नगर में मीमक के पुत्र मस्मि राना के पास में नौवें दन को विराट नगर में मो भाइयों से युक्त फीचक के पाम में, और दश दनो को अपशिष्ट ग्रामों में आकरों में " नगरी में हजारों राजाओं के पास जाने के लिये कर।। हम दतों को राजा द्रुपद ने यह समझादिया कि तुम लोग जर न राजाओं के पास जाओ तय पहिले उन्हे दानों हार जोड़कर नमस्कार करना और कहना कि कापिल्य पुर नगर मे दुपदकी पुत्री द्रौपदी का स्वयपर होने वाला है सो आप लोग उस में द्रुपद राजा उपर दया कर के शीघ्र से शीघ्र पधारें। राजाकी आज्ञानुसार तीसरे दूतसे लेकर नौवें दूत तक समस्त दूत जिन्हे २ जा २ जाने को कहा था-वेवहार चले गये। वहा जाकर उन्हों ने जैसा द्रुपद राजा ने इन से करने एच करने को कहा था-वैसा ही उन्हो ने वहा र किया और कहा । इस तरह पहिले की तरह यहाँ तक मय व्याख्या समझलेनी चारिये। (तण्ण से दए तहेव निगच्छद, વિરાટ નગરમા સે ભાઈઓથી યુક્ત કીચકની પાસે અને દશમા દૂતને બાકી રહી ગયેલા બીજા ગ્રામોમાં આકરોમાં અને નગમા હજારે રાજાઓની પાસે જવા હુકમ કર્યો આ બધા તેને રાજા દ્રુપદે જતા પહેલા આ વાત સરસ ીિતે સમજાવી દીધી હતી કે જ્યારે તમે રાજાઓની પાસે જાઓ ત્યારે સૌ પહેલા પોતાના બને હાથ જોડીને તેઓને નમસ્કાર કરજો અને ત્યારપછી તમે તેમને વિનતી કરજો કે કપિલ્ય નગરમાં દ્રપદની પુત્રી દ્રૌપદીને વય વર થવાને છે તે આપ સૌ ૬૫ રાજા ઉપર કૃપા કરીને અવિલ બ ત્યા પધારે રાજાની આજ્ઞા મુજબ ત્રીજા કૂતથી માડીને નવમા દત સુધીના બધા તે જગ્યા જ તેઓને જવાનું હતું ત્યાં ત્યાં પહોંચ્યા ત્યા પહેચીને તેઓએ દ્રુપદ રાજાએ જેમ આજ્ઞા કરી હતી તેમજ તેઓએ કર્યું અને કહ્યું, અહી --ની જેમજ समान (तएण से दूप तहेव निगच्छइ,
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
समगारधामृत पिणी का अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम २७० सरति, निर्गत्य यत्रैव ग्रामाकरनगरेषु अनेकानि राजसहस्राणि, तत्रैवोपागच्छति उपागत्य यानत्-समवसरत, ' समवसरत' इति पर्यन्त दतवाक्य पूर्ववद बोध्यम् । ततः खलु तानि अनेकानि राजसहस्राणि तस्य दतम्यान्तिके एतमर्थ श्रु वा निशम्य हृष्टतुष्टाः सन्तः दूत सत्कारयन्ति-सत्कृत कुर्वन्ति समानयन्ति,सत्कार्य, समान्य प्रतिविमर्जयन्ति ।
ततः खलु ते वासुदेवप्रमुखा बहुसहस्रसस्यका राजान', प्रत्येकं २ स्नाता: जेणेज गामागर जाव समोसरह) वह दशवां दूत उसी तरह सेपहिले के दूतों के समान कापिल्य नगर से निकला और निकल कर जहां ग्राम आकर और नगर थे-वहां पर अनेक राजसहस्त्रों के पास गया-वहा जाकर शिष्टाचार पूर्वक उसने सब से इस प्रकार कहा कि काम्पिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्त्रयवर होने वाला है-सो आपमय लोग द्रुपद राजा के ऊपर कृपा करके जल्दी कांपिल्य पुर नगर पधारे (तएण ताइ अणेगाइ रायसहस्साइ तस्स दयस्स अतिए एयमद्र सोच्चा निसम्म ० त दय सरकारेंति, सक्कारित्ता सम्माति, सम्माणित्ता पडिविसज्जे ति) इस प्रकार वे अनेक सहस्त्र राजा उस दूत के मुख से इस समाचार को सुन कर और उसे अपने अपने २ हृदयों में अवधारित कर हत ही अधिक आनन्द से प्रमुदित बनकर परम सतोप को प्राप्त हुए। उन्होंने उस दून का सत्कार किया सत्कार करके सन्मान किया और सन्मान करके फिर उसे पीछे विसर्जित कर दिया-भेजदिया । (तएण ते वासुदेव पामुक्खा बरवे रायसहस्सा पत्तेय समोसरह ) a शमी त मधानी में पास्य नाथी नीयो भने નીકળીને જ્યાં ગ્રામ આકર અને નગર હતા ત્યા અનેક સહુ રાજાઓની પામે ગમે ત્યાં જઈને નમ્રપણે તેણે સહુને આ પ્રમાણે કહ્યું કે કપિલ્ય નગરમાં દ્રુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીને સ્વય વર થવાનું છે તો આપ સૌ દ્રુપદ
५२ ५॥ उशने अभिपिय नगरमा ५वा (तएण ताइ अगाइ रायसहरसाइ तस्त दूयस्स अतिए ण्यम? सोचा निसम्म हट० त दूर सकारे ति समारित्ता, सम्माणे ति, सम्माणित्ता, पडिसिजे ति ) मा शते સહસ્ત્રો રાજાએ તે દૂતના મુખથી આ સમાચાર સાભળીને અને તેને પિતાના હૃદયમાં ધારણ કરીને ખૂબ જ પ્રસન્ન તેમજ પરમ સંતુષ્ટ થયા તેઓએ દૂતને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું ત્યારપછી તને તેઓએ विहाय आपा (एण वासुदेवसामुमा रहने रायसहस्सा पत्तेय २ वाया
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८० समदरदरमितमाला यापद गीतामरणा' निमयरगता हगनस्थ महामटनटारमापरिनियमहायुमटमापरिगना., सभ्यः सके यो भिनिर्गन्नि, भगिनिर्गना गा पागे जनपदरता माधाग्यन गमनाय-गन्तु मागाः ।। सू०१९ ।।
मूलम्-तरण से दुबाए राया कोडुपियपुरिमे महावेइ सदा वित्ता एव बयासी-गच्छहणं तुम देवाणुप्पिया । कपिटल. पुरे नयरे वह्यिा गगाए महानदीए अदूरसामते एग मह सयवरमंडव करेह अणेगवंभसयसन्निविट्ठ लीलद्विय साल भजिआग जाव पञ्चप्पिणति, तण्ण से दुवए राया दोच्चपि कोडुबियपुरिले सदावेइ सहावित्ता एवं बयासी-खिप्पामेव २पाया सनद्वतियारधरगया सय गयरत. माया भटचडगररहप हकर मस्तिो २ नगरेरितो अमिनिगमति २ जेणेव पाचोले जण वा तेणेव पहारस्थ गमणा ) यादमें जर दुर समाचार देकर वापिस कापिल्य पुर नगर में ओचुके तर वासुदेर प्रमुख वे अनेक शास्त्र राजा प्रत्येक स्नान से निपटे, और मनाकर अपने शरीर पर पहिरा, यावत् प्रायुध और प्रहरणों को अपने २ साय लिया, अपने २ प्रधान हाधिबा पर चढ़े और गथी घोडे रथ और महाभों क समुदाय स चिर हए होकर ये सब अपने राज महलोंसे नगरों से-निकले-निलकर जरा पांचाल जनपद या उस ओर चल दिये । सू०१९
सन्नद्धहरियसवपरगया हयगयरहा महया भइचडगररहपहकर० सहिता - नगरेहिती अभिनिग्गच्छति २ जेणेव पाचाले जणवए तेणेष पहारेत्य गमणाए । ત્યારપછી જ્યારે બધા ફતે સમાચાર આપીને કપિલ્યપુર નગર પાછો આવી ગયા ત્યારે વાસુદેવ પ્રમુખ ઘણું હારે રાજાઓએ સ્નાને જ અને ત્યારબાદ પિતાના શરીર ઉપર કવચ્ચે ધારણ કર્યા યાવતું આયુધ અને પ્રહરણને પિતાની સાથે લીધા ત્યારપછી તેઓ બધા પિતાપિતાના પ્રધાન હાથીઓ ઉy ' અને હાથી, ઘેડ, રથ અને મહામના સમુ
-નગરેથી નીકવા અને નીકળીને જ્યા પાચાલ
ना यया ॥ सूत्र १८ ।
દાયની સા
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारामृतषिणी टी० अ० १६ दौपदीचरितवर्णनम् भो देवाणुप्पिया। वासुदेवपामुक्खाण वहणं रायसहस्साणं आवासे करेह तेवि करेत्ता पच्चप्पिणति, तएण दूवए वासुदेवपामुक्खाण वहणं रायसहस्साण आगम जाणेत्ता पत्तेयर हस्थिवध जाव परिवुडे अग्घ च पज च गहाय सवि. डिए कपिल्लपुराओ निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव ते वासुदेवपामुक्खा वहव रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ताइ वासुदेवपामुक्खाइ अग्घेण य पज्जेण य सकारेइ सम्माइ सक्कारिता सम्माणित्ता तेसि वासुदेवपामुक्खाण पत्तेय२ आसे वियरह, तएणं ते वासुदेवपामाक्खा जेणेव सवार आवासा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता हस्थिखधाहितो पच्चोरहति पच्चोरुहिता पत्तेय खधावारनिवेस करेंति करित्ता सए२ आवासे अणुपविसति अणुपविसित्ता मएसुर आवासमु य आसणेसु य लयणेसु य सन्निसन्ना य सतुयहा य बहहि गधवेहि य नाडएहि य उवगिजमाणा य उवणच्चिज्जमाणा य विहरति, तएणं से दुवए राया कपिल्लपुर नगर अणुपबिसड अणुपविलित्ता विउल असण४ उवक्खडावेइ उववखडावित्ता कोडुवियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एव वयासी-गच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया | विउल असण सुर च मज्ज च मम च सीधु च पसपण च सुबहुपुप्फवस्थगंधमल्लालकार च वासुदेवपामोक्खाण रायसहस्साण आवासेसु साहरह, तेवि साहरति, तएण त वासुदेवपामुक्खा त विउलं
बा ३६
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८.
सनदादामितमामा मापद हीनापुरमाणाः निफरगता यगनरव महामटमटारमकररनपरिक्षामनगमायुगटममा परिणता, बकेश्य: सके योममिनिर्गछन्नि, भगिनिर्गग यसपमालो जनपस्तव प्राधाग्यन् गमनाप-गन्तु मात्ताः ॥ ०१९ ।।
मूलम्-तपण से दुवा राया कोडंबियपुरिमे महावेइ सदा वित्ता एव क्यामी-गच्छहण तुम देवाणुप्पिया। कपिल्ल पुरे नयरे वह्यिा गंगाए महानदीप अदूरसामंते एग मह सयररमडव करेह अणेगवंभसयसन्निविट्ठ लीलट्ठिय साल भजिआग जाव पञ्चप्पिणति, तण्णं से दुवए राया दोच्चपि कोडवियपुरिसे सदावेड सहावित्ता एव वयासी-खिप्पामेव २ण्डाया मन हल्थियवरगया जय गयरह० माया भटचढगररहपहकर मतो २ नगरेरितो अमिनिन्गच्छति २ जेणेव पाचोले जण व तेणेच पहारेत्य गमणाण ) यादमें जन दून समाचार देकर वापिम कापिल्प पुर नगर में ओचुके तर वासुदेव प्रमुग्ब वे अनेक शास्त्र राजा प्रत्येक स्नान से निपटे, और मजार अपने२ गरीर पर क्यच पहिरा, यारत् मायुध और प्रारणों को अपने २ साय लिया, अपने २ प्रधान हाधियों पर चढ़े और हाथी घोडे रथ और महाभदों क समुदाय स घिरे रए होकर ये सर अपने राज महलोंसे-नगरों से-निकले-निलकर जरा पांचाल जनपद या उस ओर चल दिये ॥ सू०१९ सनद्धहरियसवरगया हयगयरह० महया भडचडगररहपहकर० सरहितो . नगरेहितो अभिनिग्गच्छति २ जेणेव पाचाले जणवए तेणेर पहारेत्य गमणाए) ત્યારપછી જ્યારે બધા તે સમાચાર આપીને કપિલ્યપુર નગર પાછા આવી ગયા ત્યારે વાસુદેવ પ્રમુખ ઘણું હજારે રાજાઓએ સ્નાન કયા અને ત્યારબાદ પિતાના શરીર ઉપર કવચ ધારણ કર્યા યાવતુ આયુ અને પ્રહરને પિતાની સાથે લીધા ત્યારપછી તેઓ બધા પિતા પોતાના પ્રધાન હાથીઓ ઉપર સવાર થયા અને હાથી, ઘેડ, રથ અને મહા માટેના સમુ દાયની સાથે પિતાના રાજમહેલથી-નગરોથી નીકા અને નીકળીને જયા પાચાલ જનપદ હતા તે તરફ રવાના થયા છે. સૂત્ર ૧૯ છે -
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोमतपिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् काई आसणाई अत्थुयपच्चत्थुयाइ रएहर एयमाणत्तिय पच्चपिणह, ते वि जाव पच्चप्पिणति, तएणं ते वासुदेवपामुक्खा वहवे रायसहस्सा कल्ल पाउ० पहाया जाव विभूलिया हत्थिसंधवरगया सकोरट० सेयवरचामराहि हयगय जाव परिवुडा सव्विड्डीए जाव रवेणं जेणेव संयंवरे तेणेव उवागच्छद उवाग. छित्ता जणुपविसति अणुपविसित्ता पत्तेय२ नामकिएसु आस
सु निनीयति दोवड रायवरकण्ण पडिवालेमाणा चिट्टति, नएण से पडुए राया कल्ल हाए जाब विभूलिए हथिखधवरगए सकोस्ट० हयगय कपिलपुरे मज्झमझेण निग्गच्छंति जेणेव सयवरमडवे जेणेन वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उबागच्छद उवागच्छित्ता तेसि वासुदेवपामुक्खाण करयला वहावेत्ता कण्हस्त वासुदेवस्ल सेयवरचामर गहाय उवधीयमाणे चिट्ठति ॥ सू० २०॥
टीमा-तएग से ' इत्यादि । ततः खलु स द्रुपदो राजा कौटुम्बिकपुरु पान् शयति, शहायला एवमयादीत-गच्छन खलु यूय ह देवानुपिया. ! काम्पिल्यपुरस्य नगरस्य यहि प्रदेशे गङ्गाया महानया अदसामन्ते-नाविदर नातिमनापे एक महान्त स्वयम्बरमण्डा कुरुत कोशनित्याह--' अणेग' इत्यादि।
'तरण से वए राया कोडुपिय पुरि से ' इत्यादि ।
टीकार्थ(तएग) इसके बाद (द्वए राया) द्रुपद राजा ने (कोडग्रिय पुरिसे सदावे) कौटुम्बिापुरुषो को बुलारा (सदाविता एव वयाली) बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा-(गच्छह ण तुम देवाणुप्पिया कपिछारे नयरे धहियागगाए महानईए अदूरसामते एग मह सयवरमडव करेह,
'तएण से दूपए राया कोडु विय पुरिसे' इत्यादि
Aslथ-(तपण ) त्या२५जी (दूरए राया) ६५.२ नये (कोडु वियपुरिसे सहावे) पि ५३वाने मावा. ( सदारिता र क्यासो) मानावाने तमन मा प्रभार (गन्छह ण तुम देवाणुपिया। कगिल्लारे नयरे महिया गगाए महानईए अदूरसामवे एग मद पवरमस करेह, अणेगनमस
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
PECIENTINUPaizDEATHTTm
२८२ .
लामकासरे असण४ जाव पसन्नं च आसागमाणा विहगति, जिमियाभुत्तुत्तरागया विय णं समाणा आयता जाय सुहासणवरगया वहाहि गधव्वेहि जाब विधानि, ताणं मे दुवा गया पुव्यावरोहकालसमयसि कोडवियरिस सदावेद सदायित्ता व वयासी गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया। कपिल्ल पुर सगरग जाव पहे वासुदेवपामुक्खाण य रायसहसाण आवासेस हस्थिखधवरगया महया२ सद्देण जाव उग्घोसमाणा एव बदह-एव खल्लू देवागुप्पिया क्ल्ल पाउ० दुवयस्स रप्णो धूयाए चुलणीए देवीए अत्तयाए घटज्जुण्णस्स भगिणीए दोवईए रायवरकपणाए सयवरे भविस्सइ, त तुभे ण देवाणुप्पिया । दुवय रायाणं अणुगिण्हेमाणा व्हाया जाय विभूसिया हथिखवरगया सकोरट० सेयवरचामर० हयगयरह० महया भडचडगरेण जाव परिक्खित्ता जेणेव सयवरमटवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पत्तेय २ नामकिएसु आसणेसु निसीयह२ दोवइ रायकण्ण पडिवालेमाणा२ चिटुह, घोसण घोसेह२ मम एयमाणत्तियं पच्चपिणह, तएण ते कोडुबिया तहेव जाव पच्चप्पिणति, तएण से दुवए राया कोडुवियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एव वयासी -गच्छह ण तुन्भे देवाणुप्पिगा । सयवरमडप आसियसमजिओवलितं सुगंधवरगंधियं पंचवपणपुप्फपुजावयारकलिय कालागरुपवरकुदुरुकतुरुक जाव गवटिभूय मंचाइमचकलिय करेह करित्ता वासुदेवपामुक्खाण वहूण रायसहस्साण
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापमान अगस्तम्मामनिविभATERTAIN लीरहिगगालमनिमाग' लोला स्थितशालमतिपनीमाणिमाक्षिा -पुलिस गम्मिस्ताहणं, पारद'तथास्तु' पनि सात पापियामा वीरग त्या सपाय, प्रत्यर्पयन्ति-मण्डपोनिर्मित उति नियनित गपो राजा 'दाचाप' द्वितीयगरमपि कौटुम्मिापुरपात पति, दपिया परमादीव-हे दवानु मियाः । भिप्रमेव गसुदेवमगाणा या रामगदाणाम् भागास-घामस्थान कुरत-चपत, तऽपि यौटुम्निमपुरा परमा'पापामुदेशदीना निवामाथ पृयर पृथा योग्य वासस्थान विधाय मरगतिपाय तो थियन्ति । ततः अणेग गभसयसन्निविष्टलटियसाल मजियागजारपच्चप्पिणति) हे दे वानुमियों ! तुमलोग जाओ-और कापिल्यपुर नगरहिर नामहा नदी के नअतिदुर ओर न अनि ममीप-उचित स्थान में एक बड़ाभारा स्वयवरमाप यनाओ। जो अनेक नाटोंहाभोंसे युक्त होतया जिसम विविध प्रकार की क्रीडा करती दई पुत्तलिका सजा फर लगाई गई हो । यावत् "तथास्तु" कर फर उन लोगों ने राजा की इस आजा का मान लिया और उसी आजाके अनुमार स्वयर महप बना कर इसका खर राजाको कर दी । (तएण से दूर राया दोच्चपि कोदुयिय पुरिस सदावेद सद्दावित्ताण्व चयासी-खिप्पामेव देवाणुपिया! वासुदेव पाठ क्खाण ऋण रायसहस्ताण आवासे करेह ते पि करत्ता पच्चप्पिणात इसके बाद द्रुपद राजा ने दमरे कादम्भिक पुरुषों का बुलाया-गुलाकर उनसे ऐसा कहो-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शीवातिशीघ्र वासुदेव यसन्निविट्ठ लोद्वियसालभजिआग जाव पच्चरिणति) आनुप्रिये ! ॥५८य પુરનગરની બહાર મહા નદી ગગાથી વધારે દૂર નહીં તેમજ વધારે નજીક પણ નહિ એવા ગ્ય સ્થળે એક ભારે વિશાળ વય વર મડપ તૈયાર કરે કે જે ઘણા સેકડા થાભલાઓવાળ હોય, તેમજ જેમાં અનેક જાતની કીડા કરતી પૂત બીએ સજાવીને મૂકવામાં આવી હોય તે લોકોએ પણ “તથાસ્તુ ” કહીને રાજાની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી અને ત્યારપછી તેમની આજ્ઞા મુજબ જ સ્વય १२ भ७५ तैयार ४शन सनने तेनी मापी (तएण से दुवए राया दोच पि कोइ मियपुरिसे सद्दावेद, सदारिता एष वयाती सिमामेव देवाणुप्पिया' वासुदेव पामुक्खाणं बहूण रायसहस्साण आवासे करह, वे पि करेत्ता पचविण ति) ત્યારપછી દુપદ રાજાએ બીજા કૌટુંબિક પુરૂષને લાવ્યા અને બેલાવીને તેમને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેકે અવલ બ વાસ
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
२८५
खलु नुपदो राजा वासुदेवमुवाणा नहूना राजसहस्राणाम् आगम = आगमन ज्ञात्वा प्रत्येक २ इस्तिस्कध रगतः इयगजरथ महाभटममूहपरिटत जयं पानार्थं जल पाद्यं = चरणमाळनार्थमुदक च गृहीत्वा सद्वर्या छत्रचामरादिरूपया काम्पिल्यपुरतो निर्गच्छति, निर्गत्य यौन ते वासुदेवप्रमुखा हुसहस्रमरूपकाराजानस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य तानि वासुदेवममुखाणि बहूनि राजम" स्राणि= वान् बहुसहस्रसख्याकान् वासुदेवप्रमुखान् राज्ञः, अर्येण च पायेन च सत्कारप्रमुख अनेक सहस्र राजाओ को बैठने के लिये पृथक स्थान बनाओ । उन्होंने राजाकी आज्ञानुसार वैसा ही किया और इसकी खबर राजा को कर दी । (तरण दूव वासुदेव मुक्खाण ऋण रायसहस्साण आगम जाणेत्ता पत्ते २ हत्विसव जाव पडिवुडे अग्घ च पज्ज च गहान सव्वि डीए. कपिल पुगओ निग्गच्छ, निगच्छित्ता जेणेव ते वासुदेव पामोक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छद, उनागच्छिता ता वासुदेवरामु क्खाद अग्घेण य पज्जेण य सक्कारेह, सम्माणे ) इसके बाद दुपद रोजा वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं का आगमन जानकर अपने प्रधान हस्ती पर आरूढ हो हय, गज, रथ तथा महामटो के समृह के साथ २ प्रत्येक राजा के लिये अर्ध-पीने के लिये पानी, पाय - चरण प्रक्षालन के जल-लेकर छत्रचामर आदि अपनो राजविभूति से युक्त होकर कापिल्य पुर नगर से निकले निकलकर जहा वासुदेव प्रमुख हजारों राजा ये वहा गये । वहा जाकर उन्होंने उन वासुदेव प्रमुख हजारा राजाओ का अर्ध्य
હારા રાજાઓને બેસવા માટે જીત જુદા સ્થાન તૈયાર કરો તે લેાકાએ પણુ રાજાની આજ્ઞા મુજા જ બનુ કામ પતાવી દીનુ અને કામ થઈ ગયાની ખમર शब्द सुधी पडोथाडी हीघी ( तहग दुन वासुदेवपामुकखाण बहूण राय सहस्साण आगम जाणेता पतेय २हत्यिसव जाव पडिजुडे अग्व च पज्ज्ञ च गहाय सन्त्रिडूढोए कपिल्लपुराआ गिगच्छ, निगच्छिता जेगन ते वासुदेव मोक्सा बहवे रायसहस्सा वेणेत्र आगच्छछ, आगच्छिता ताइ वासुदेवपामुक्साइ अग्वेण य पज्जेण य सकारे, सम्मागेइ ) त्यारा वासुदेव प्रभु हजरे। રાજાઓનુ આગમન સાલને દ્રુપદ રાજા પોતના પ્રધાન હાથી ઉપર સવાર થયા અને ઘેાડા, હાથી, નવ તેમજ મહાભઢાના સમૂહની સાથે દરેકે દરેક રાજાને માટે અર્ધા–પીવા માટે પાણી-લઈને છત્ર ચામર વગેરે પેાતાની રાજ વિભૂતિથી યુક્ત થઈને કાપિલ્લપુરથી બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યા વાસુદેવ પ્રમુખ દ્વારા રાજાએ હતા ત્યા પાત્યા જ ને તેમણે તે
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
Emaiयासो यति, समानगनि, रामार्ण गवार का नामदेव जाना प्रत्यार पृथर - जागतिर1ि1 ने देवमामा यीन पका २=निमा २ गावालानपान, मानिसमा सरोदन्ति अत्याला प्रत्येक म-धागारनियम gif, T-1 के पक नापामेऽनुमति शन्ति, अनुपविश्य पु चमा नामागे-भागा न गयनेगु च सनिपणा उपशिष्टान तथा 'मनुवा सा परिसतिया निर्णयाच 'नाड एहि ग' नाटी ' अगितमागान ' उपगीयमाना, 'अगचिनमागाय'
और पाप से मत्कार शिया-मम्मान किया । (मस्मारित्ता, मम्माणित्ता, तेसिं वासुदेवोमुरपाण पत्तय २ आपसे विचरत, तपण ते वासुदव पामुरा जेणेसा २ आगामातणे मागसागरिता स्थि सपाहि तो पच्चोमहति, पच्चोमरित्ता पत्तेय याचारनियम प्रेत ) सत्कार सन्मान करके उनॉन उन मय वासुदेव प्रमुखों का प्रत्येक के लिये पृथरुर आगाम-स्थान-दिया। इसके पश्चात् पे वासुदेवप्रनुसराजा जहा अपना २ स्थान निया या-दरा गये । वा जाफर के अपने २ हाथियों पर से नीचे उतरे और उतर करके उनोंने अपनी २ स्कन्धा चार स्थापित कर दो-अर्थात् सैन्य को ठहरा दिना । (करिता सर २ आगले अणु०) ठररा कर फिर वे अपने २ आवासों में प्रविष्ट हुए (अणुपविसित्ता सएस्तु २ आवासेसु य आसणेतु य सयणेसु य सन्नि सन्ना य सतुपट्टा य बाहिं ग पवेहि य नाडारि य उवगिज्जमाणा य વાસુદેવ પ્રમુખ હજાર રાજાઓનું અર્થ અને પાદ્યથી સરકાર તેમજ સન્માન
यु (सफारिचा सम्माणिता तेनि वासुदेवनामुम्साण पत्ते। २ आरासे बिगरह, सएण ते वासुदेवपामुम्सा जेणेव सया २ आवासा तेणेन बापच्छइ, आ गच्छिता हथिसधाहितो पच्चोरुह ति, पच्योरुहिता पतेय सधागारनिवेस करे ति) स२ तभन्न सन्मान अरीने तेभए वासुदेव प्रभुभ १२३ ४२३ રાજને જુદુ જુદુ આવાસ સ્થાને આવ્યું ત્યારપછી વાસુદેવ પ્રમુખ રાજુએ
જ્યા પિતપતાનુ આવાસ સ્થાન નકકી કરવામાં આવ્યુ હતુ ત્યા ગયા ત્યા જઈને તેઓ પોતપોતાના હાથીઓ ઉપરથી નીચે ઉતર્યા અને ઉતરીને તેઓએ પાતપિતાની કન્યાવાર-છાવણી સ્થાપિત કરી એટલે કે સેનાને પડાવ નાખ્યા (करिता सए २ आवासे अणु०) छपा नाभीनता पातपाताना मावास स्थानमा प्रविष्ट च्या (अणुपविसिचा सएसु २ आवासेसु य आसणेसु य सयणे सय समिसन्ना य सतुयट्टा य बर्हि गधवेहि य नाइएहि य
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
धनगारधर्मामृताची री स० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् उपनृत्यमानाच गीत श्राध्यणाच, नृत्य दर्यमानाश्च विहरन्ति । ततः रु दुपदो राजा पिल्यपुर नगरमनमविशति, अनुप्रविश्य विपुलम्-अश्न खाद्य ग्वाद्यम् उपचारयति. सम्यारयति. उपसार्य कौटुग्विापुस्पान् ॥ ८५ शब्दयित्वा एवम गठीत-गच्छत र लु यय हे देवानुप्रियाः पुरम , अरन ५ स्वाध स्वाद्य सुरा च मय च मासं च सीधु च प्रसन्ना च सीधुः प्रसन्ना च मदि विजणे, तया सुनह पुष्पवर धमाल्यारपार च वासदेवण्मुसाणा राज आवासेपु 'साहरह सहरत-उपनयत, तेऽपि कौटुम्बिर पुस्पास्तथैव सहरन्ति उवणचिजमाणा य विहरति तणं से दुवा राया कपिल्लपुर । अणुपविसह, अणुपविमित्ता विउल असण ४ उवरवडावेह) . होकर के वे अपने अपने आवास स्थानों में आसनों पर एव वितर पर जाकर अच्छी तरह बैठ गये लेट गये। वहाँ लेटे हए उनकी जो गधोंने, अनेक नाटयतारों ने स्तुति की-उनकी प्रशसा के गीत गाण, नाटक दिखलाया । दमके बाद दुपद राजा कापिल्यपुर नगर के भीतर आये-वहा आकर के उन्होंने विपुल मात्रा में अशन, पान, खान्य एव स्याद्यरूप चतुर्विध आहार तैयार करवाया-पकयोया। (उरक्खडाविता कोचियपुरिसे सद्दावेह मदायित्ता एर बयानी-(गच्छत् णं तु मे देवाणु प्पिया ! विउल अलण ४ सुर च मज्ज च सीयु च परपण च सुरतु पुप्फरत्य गधम गलकर च वासुदेवपामोग्वाण रायसरम्माण आवासे सुसारह ) तैयार करवा कर फिर उन्होने कौन्त्रिक पुम्पों को बुलाया चुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे दबानुप्रियो तुमलोग जाओ और इस
अणचिजमाणा य दिएर ति, ताण से दुरए राया क पिकपुर यर अणुप विमइ अणुपविसित्ता विउल असणष्ट ग्यासटावेइ) प्रवेशीने तेगा पातपाताना આસન ઉપર ભારી રીતે બેસી ગયા, સુઈ ગયા ત્યા સુઈ ગયેલા તેઓની ઘણા ગવએ, ઘણા નાટયકારે સ્તુતિ કરી, તેમની પ્રશમા ગીત ગાયા અને નાટકો ભજવ્યા ત્યારપછી દ્રપદ ગજા કાપિલ્યપુર નગરમાં આવ્યા ત્યા આવીને તેઓએ પુeળ પ્રમાણમાં અશન, પાન ખાવ અને સ્વાદ્ય રૂ૫ ચાર गतने गातार तयार १५८यो ( उडारित्ता मोडविरपुरिसे सदाइ सदायित्ता एय ययामी गन्ह ण तुमे दमाणुपिया ! विउल असण / मुर च मज च मसं च सी च पसण्ण च सुरहुपुप्फरत्यगवमहाल कार घ चास
देपामोकवाण रायसहाराण आगासेसु मारह) तयार ४समान मन DIE | સરૂને બેલાગ્યા અને બોલાવીને તેઓને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
narainथासूत्रे
२८६
यति समानयति का सत्कार समान्य र
पृ २'' रिति । ततः स ते
२ = निजा २ आवामा नेपागन्छन्ति उपागन्य निस्कनात रोन्ति प्रत्यय प्रत्येक स्कन्नरविषेश कुर्वन्ति
सानु शन्ति, अनुपविश्य वकेषु सक्षु जानासेषु - आमनेषु च शयनेषु सनिषण्णा उपविष्टा तथा 'सपा' सम्मति परिवर्तिवराहून 'नाड एहि य' नाटक 'नगिज्नमागा' उपगीयमाना ' अचिमाणा य
1
www
और पाथ से सत्कार किया-मन्मान किया। (नक्कारिता, सम्माणित्ता, तेसिं वासुदेवमुक्ाण पत्तय २ आवासे विवरण, तर ते वासुदेव पामुक्या जेणे या २ आनामा णेन उद्याग, उपागता धाहि तो पच्चोति पच्चोकहित्ता पत्तेष
क
सत्कार सन्मान करके उन्होंने उन सय वासुदेव प्रमुखों को प्रत्येक के लिये पृ व आवास-स्थान दिया । इसके पश्चात् वे वासुदेवमनुराजा जहा अपना २ स्थान नियत या दहा गये । वहा जाकर के अपने २ हाथियों पर से नीचे उतरे और उतर करके उन्होंने अपनी २ स्कन्धावार स्थापित कर दी - अर्थात् सैन्य को ठहरा दिया । ( करिता सर २ आवासे अणु० ) ठहरा कर फिर वे अपने २ आवासों में प्रविष्ट हुए ( अणुपविसित्ता सएल २ आवासेसु य आसणेषु य सघणेतु य सन्निसन्ना य सतुपट्टा य बहूहिं गवेहिं य नाडहि य उवगिज्जमाणा य
વાસુદેવ પ્રમુખ હજારે રાજાએનુ અધ્ય અને પાઘથી સત્કાર તેમજ સન્માન यु ( सकारिता सम्माणित्ता तेनिं वासुदववा मुक्सान पत्ते । २ आज से वियर, सरण ते वासुदेवमुक्सा जेणेन सया २ आवासा तेणेन उवागच्छ, आ गच्छिवा हत्थिसधाहितो पन्चोरुहति, पच्चोहहित्ता पतेय सवावारनिवेस રેતિ) સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તેમણે વાસુદેવ પ્રમુખ દરેકે દરેક રાજાને જુદુ જુદુ આવાસ સ્થાન આવ્યુ ત્યારપછી વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાએ જ્યા પાતપેાતાનુ આવાસ સ્થાન નક્કી કરવામાં આવ્યુ હતુ ત્યા ગયા ત્યા જઈને તેઓ પેતપેાતાના હાથીઓ ઉ૫૨થી નીચે ઉતર્યા અને ઉતરીને તે એ પાતપાતાની સ્કન્ધાવાર છાવણી સ્થાપિત કરી એટલે કે સેનાને પડાવ નાખ્યા ( करिता सए २ आवासे अणु० ) छावी नामीने तेथे पोतपोताना भाषास स्थानमा अनिष्ट थया ( अणुपविसिता सत्सु २ आवासेसु य आसणेसु य सयणे यसनिनाय सतुयद्दाय बहूहिं गधव्वेद्दि य नाहि य
स
य
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
मगराधागृतवपिसी टीका० १० १६ द्रौपतीचरितवर्णनम्
२८२, पविष्टा बहुभिर्गन्धर्यापद् नाटश्योपगीमाना उपन्टत्वमानाच विहरन्ति भासते स्म इत्यर्थः।
तत रलु स दुपदी राजा पूर्वापरासालसमये कौटुम्बिर गुरुपान् शब्दयति, जन्दयित्वा एयमनादीत-गन्छत खलु हे देशानुमियाः ! काम्पित्यपुरे नगरे शृङ्गाएक यावत्-निश्चतुरचतर मापथपयेपु वासुदेवप्रमुखागा च रामहस्राणामावा सेपु भागसमीपेपु हन्तिसन्चयरगता महता २ शब्देन उचः चरेण यावद् उद्घोष पन्तः २ पच नदत्त-एा बलु हे देवानुमियाः क्ल्थे-आगामी नि दिनीय गों ने नाना प्रकार के स्तुत्यात्मक गीत गाये और नाटयकारो ने नृत्य दिग्वलाये। (ताण से दया रोया पुव्वावरतकालममामि कोड वियपुरिसे सहावेत,महावित्ता एव क्यासी, गच्चरण तुमे देवाणुपिया। करिल्लपुरे पिंघोटग जार पहेसु थाप्लु विरामुरसाण य राय महस्माण य आवासेसु ति घरगया माया मोण जाव उग्रोसेमाणा २ एव चटर, पया देवाचप्पिया! रल पार० दुवर स रपगो धूयाग चुलगी देनी अत्तयारा धजुण्णम भगिणीए दोवईए रायबरकन्ना सयबर भविारा3 ) इम्म के गद द्रुप गाजा ने पूर्वापाल के समय में कौद्धस्विक पुरुषों को बुलवाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवान निशे । तुमरोग हाथी पर देकर सापित्यपुर नगर में जाओ और बगशृगादक रायत् नि तुपक चत्तर मापय आदि मार्गों में जो वासुदेव प्रमुफ राजा के आगसस्थान है उनके समीप बडे जोर २ ઉપર શાતિપૂર્વક બેસી ગયા તેમના મને-વિદ માટે ગધએ અનેક જાતના તુન્યા મર ગીતો ગાયા અને નાટયકારે નૃત્ય કરી બતાવ્યા
(तएण से दूरए राा पुवारण काल समयसि कौटुपियपुरिसे मदावे, सदापित्ता, एव जगामी, गन्ह ण तुमे देवाणुप्पिया 'कपिल्लपुरे सपाटग नाव पहेसु नासुदेवपासनाण य महवा मद्देण ना उग्धोसेमाणा • एच बदह, एव खलु देवाणप्पिया काल्ल पाउ० वयस्म रगो धूयाए चुलणो देवीए अत्याए यजुग्णम्स भागणीए दोनईए रायवर कन्नाए सरवर भविस्मइ)
ત્યારપછી ૫ રાજએ પૂવપરાદ્ધ કાળના સમયે કોટ બિડ પુરૂને બોલાવ્યા અને બેલા પીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિ ! તમે
કે હાથી ઉપર બેસીને વાપિતયપુર નગરમાં જાઓ અને ત્યાના 8 ગાટક જતુ ત્રિક ચતુષ્ક ત્વર મહાપથ વગેર માર્ગોમા-કે માર્ગોની પાસે વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાઓના આવાસ ઘરા છે તે ની પાને બહુ મોટા સાદે આજાતની
था ३७
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
খাবার ततः खलु ते वासुदेवप्रमुखास्तद् विपुलम् , असन पान खाद्य स्वाध यावद मसनां च ' आसायमाणा' आस्वादन्तो विहरन्ति, अपि च खलु 'निमिया' जिमिता:-भुक्तवन्तः, ' भुत्तुनमगया ' गुनोत्तरागताः मुक्तोचरगोजनानन्तरम् आगताः भुक्तेश्यत्र भावे तभोगनस्थानादासाननदेगे गुग्यमक्षालनार्थमागताः सन्न 'आयता ' आचान्ताः-फतचुल्लुमा , यावत्-मुखामनारगता आगनपरे सुग्योअशन, पान, वाद्य स्वाधरूप चतुर्विध आहार को सुरा मन्य, मीधु और प्रसन मदिरा को और अनेक विध इन पुप्पों को वस्त्रों को गधमाल्य एव अलकारो को वासुदेव प्रमुस राजसहस्रों के आगम स्थानों पर ले जाओ। (ते वि साहरति ) राजा की आज्ञानुसार वे सन उन अशनादिवस्तुओं को वहा पर ले गये। (तएण ते वासुदेवपामु. क्खा त विउल असण ४ जाव पसन्न च आसाएमाणा ४ चिहति) इसके बाद उन चासुदेव प्रमुग्व राजाओं ने उस आनीत विपुल अशनादिरूप प्रसन्ना महिरा तक की आहार की सामग्री को ग्वाया (जिमिरा भुत्तुत्तरागया वि य ण समाणा जार सुडामणवरगया बहि गधन्यहिं जाव विहरति ) खा पी कर जब वे निश्चिन्त हो चुके और मुग्च प्रक्षालन के लिये भोजन स्थान से उठकर दूसरे निकट स्थान पर आये-तब उन्होंने कुल्ला किया-और फिर सुन्दर अपने २ आसनों पर शाति पूर्वक आकर बैठ गये। इनके बैठते ही मनोविनोद के लिये લે જાઓ અને આ અરાન, પાન, ખાધ, સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહા રને સુરા, મધ, માસ, મીઠું અને પ્રસન્ન મદિરાને અને ઘણી જાતના આ પુને, વસ્ત્રોને, ગધમાન્ય અને અલ કારને વાસુદેવ પ્રમુખ રાજમહસ્ત્રોના मावास स्थान पाया। (ते वि साहर ति) राननी माज्ञा प्रमाणे तसा બધાએ તે ખાદ્ય પદાર્થોને રાજાઓના આવાસ સ્થાને પહોંચાડી દીધા (Rum से वासुदेवपामुक्सा त विउल असण ४ जाव पसन्न च असाएमाणा ४ विहर ति ત્યારપછી તે વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાઓએ ત્યાં પહોચાડવામાં આવેલા પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરેથી માડીને પ્રસન મદિરા સુધીને બધી જાતના આહાર સામગ્રી વગેરે ખૂબ રૂચિપૂર્વક પાન કર્યું
(जिमिया भुत्तुत्तरागया वि य ण समाणा आयता जाच सुहामणवरगया वहरि गधन्येहि जाब विहरति)
જમી પરવારીને જ્યારે તેઓ નિશ્ચિત થઈ ચૂક્યા ત્યારે તેઓ મુખ પ્રક્ષાલન માટે જન સ્થાનથી ઊભા થઈને બીજ પાસેના તે એ કેગળા કર્યા અને ત્યારપછી તેઓ ફરી પિત
त्या
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
अमगारघमोमतपपिणी टी० म० १६ गौपटीचरिणयर्णनम्
२९१ मण्डपस्तौगोपागत. उपागत्य प्रत्येक ' नामकिएसु' नामाङ्कितेषु स्व स्त्र नामा,सरयुक्तेपु आमनेपु निपीदत, निपद्य द्रौपदी राजकन्या 'पडिवालेमाणा २' प्रतिपालयन्त. २ प्रतीक्षमाणा २ तिष्ठत इति घोपणा घोपयत, घोपयित्वा ममैतागज्ञतिका प्रत्यर्पयत, ततः खलु ते काटुम्निकारतवैव यानत् प्रत्य यन्ति । तन' सलु स द्रुपदो राना कौटुम्बिापुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादी-गच्छा सल यूय हे देवानुप्रियाः ! स्वयवरमण्डपम् " आमियसमजियोपलिा" आसिक्तसमार्जितोपलिप्तम्-आसिक्तम्-जयप्रक्षेपेणार्टीकत, समा जित-कचरायपनयनेन सशोधितम् , उपलिप्त-मृद्गोमयादिभिरनुलिप्त, तयासुगमवागावर सुगमपरगन्धित-मगुरुगुग्गुठकरसरलदादादिजनितमुगन्धयुक्त, 'पञ्चवर्गपुग्फानोवयारकलिय' पञ्चवर्णपुप्पपुञ्ज पचारकठिन । 'कालागुरुपवरकु रु -गाय ग-वाटिभूय' कालागुरुपवरकुन्दुरु' कतुरुष्क-यावद्-गन्यवर्ति
भूत, नत्र यानन्देन-डझनमनगन्युयाभिराम ' इति पोध्यम् । सर न साय हो । मडप में आकर प्रत्येक जन अपने अपने नामवाले आसन पर बैठजावें । धैठकर फिर वहा वह राजवर कन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करें । (घोसण पोसेर २ मम ण्यमाणत्तिय पच्चप्पिणह) इस प्रकार की घोषणा करो और जर तुमलोगेसी घोपणा कर चुको तय इसकी हमें पीछे खयर दो। (तएण ते फोटुनिया तहेव जाव पच्च पिणति ) उन कोद्धानिक पुरुषों ने नृपाज्ञानुमार ऐमा ही किया-बाद में हमलोग आपकी आज्ञानुसार घोषणा कर चुके हैं ऐसी सूचना राजा के पास भेज दी। (तएण से दुव राया काडचिय पुरिसे सहोवेड. सदायित्ता एव वयासी-गच्छह ण तुम्भे देवाणुप्पिया | सयवरमडव आसियानमज्जिवलित्त सुगंधवरगधिय पचवण्गपुप्फपुजोश्यारकलिय कालागरुपवरकुरुक्कतुरुक जार गधटिभूध मचाइमचकलियं મડપમાં આવીને દરેકે દરેક પિતપોતાના નામવાળા આસન ઉપર બેસી જાય त्यामेभान तसा श२४न्यापहीना मागमननी प्रतीक्षा ४२ (घोसण घोसेह २ मम एयमाणत्तिय पच्चप्पिगह ) मारीने तमे । ४२। मन माम थ य त्यारे भने भ५२ माचो (तएण ते कोडु विया तहेव जाव पञ्चपिण ति) ते सीमि ५३३॥ रानी माज्ञा प्रमाणे १ ५ आम પતાવી દીધું અને “અમે લોકેએ આપની આજ્ઞા અનુસાર શેષકરી છે એવા ખબર નાની પાસે પહોંચાડી દીધી
(तरग से दवर राया कोडु वियपुरिने सदावे, सदावित्ता एवं वयामीगडद ण तुभे देवाणुपिया ! मारमा आमिरसमन्जिभोवलितं मुगपवर. गधिय परमपुजापपारफलिप कालागुरुपवरकुदरुस्कनुरुक्क जाव गहिः
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
मागास दिवसे प्रादुर्भूतमभाताया रज या तेन्सा परति सर्येऽन्यद्गते पदम्य राम्रो दुहिता-पु-या', चुलायादेव्या आत्मजाया, पम्नाय गगिन्या द्रौपद्या रागार फ्न्याया स्वययरो भनियति, समाव रतु दे देवानुपिया. ! ग द्रुपद राजानानुराहतः रमाता यावत-सर्गर द्वारविभूषिता-स्तिम्म रगताः सको. रप्टमाल्यदाग्ना छोण ध्रियमाणेन श्वेतपरचामरैरदगमानश्च युक्ताः हयगजरथमहा टकरेण चतुरङ्गवलेन याच परिक्षिप्ता -परिटता याच स्वयवरसे ऐसी घोषणा करते हुए कहो-फि हे देवानुप्रिय ! बल नदिय होने पर द्रुपद राजा की पुत्री चुरनी देवी की आरमजा और धृष्टद्युम्न की यहिन राजवर कन्या-द्रौपदी का स्वयबर होगा (त तुम्भेण देवाणुप्पिया! दुपय रायाण अणुगिहेमाणा हाया जाय विभूसिया हस्थिधवरगया सकोरण्ट० सेयवर चामर० य गयरह. मस्या भटचटगरेण जाव परिचिखत्ता जेणेव सयवर मटवे तेणेव ज्यागच्छर, वागच्चित्ता पत्तयर नामकिएस आसणेतु निसीयह २ दोवा रायकपण पउिचालेमाणा २ चिट्ठह ) इस रिये हे देवानुप्रियो ! आपलोग दुपदराजा के ऊपर कृपो करके स्नान आदि से निबट कर एव समस्त अरकारो से विभूपित होकर जहाँ स्वयवर मडप है वहा पधारे । आते समवाधियों पर बैठकर आवे । कोरण्ट पुष्पों की मालाओ से सुशोभित छन्त्र उम समय आप सब के ऊपर तने हों और श्वेत सुन्दर चामर पर बोरे जा रहे हों। हर, गज, रय एव महाभटो का समूहरूप चतुरगदल आप ઘેષણ કરે કે હે દેવાનુપ્રિયે ! આવતી કાલે સવાર થતા દુપદ રાજાની પુત્રી ચુલની દેવીની આત્મા અને પ્રદ્યુમ્નની બહેન રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને સ્વય વર થશે
(त तुम्भेण देवाणुप्पिया । दुवय रायाण अणुगिण्देमाणा व्हाया जाय विभू सिया हत्थिरखधवरगया समोरण्ट० सेयवरचामर० हय गय रह० महया भडचडगरेण जार परिक्खित्ता जेणेव सयपरमडवे तेणेन उवागह, उवागच्छिता पत्तेय नामपिएसु आसणेसु निसीयह २ दोबइ रायफण पडिवाले माणा२चिट्ठह)
એથી હે દેવાનુપ્રિયે! તમે લેકે દ્રુપદ રાજા ઉપર મહેરબાની કરીને સ્નાન વગેરેથી પરવારીને તથા સમસ્ત અલ કારેથી વિભૂષિત થઈને જ્યા વય વર મડપ છે, ત્યાં હાથીઓ ઉપર સવાર થઈને પધારો કોરટ પુની માળાઓથી શોભતુ છત્ર તે વખતે તમારા ઉપર તાણેલુ હોવુ જોઈએ અને સફેદ ચમરો પણ તમારા ઉપર કેળાના હોવા જોઈએ હાથી, રથ અને મહા ભાના સમૂહ રૂપ ચતુર ગિણી સેના તમારી સાથે હેવી
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामुतवर्षिणी टी० ० १६ हौपटोचरितयर्णनम्
२९१
मण्डपस्वनैोपागच्छत. उपागत्य प्रत्येक ' नाम किए ' नामाङ्कितेषु स्त्र स्व नामाक्षरयुक्तेषु आसनेषु निपीदव, निपद्य द्रोपदी राजकन्या ' पडिवालेमाणा २' प्रतिपालयन्न २ प्रतीक्षमाणा २ तिष्ठन इति घोषणा घोपयत, घोपयित्वा मनामाज्ञतिका प्रत्यर्पयत ततः खलु ते कौटुम्बिकास्तथैव यात् प्रत्य पयन्ति । ततखल्लुस हुदो राजा कॉम्मिन्पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एमवादीत् गच्छन खलु यूय हे देवानुमिया ! स्वयवरमण्डपम् " आमियसमजियोलिन" आसिकस मार्जितोपलिप्तम् = सिक्कम् - जन्म क्षेपेणार्द्रीकृत, समा र्जित - रायपनयनेन सशोधितम् उपलिप्त - मृद्गोमयादिभिरनुलिप्त, तथागवन सुगन्धित - गुरुगुग्गु कर्पूरतरलदाहादिजनितसुगन्धयुक्त, 'पञ्चवर्गपुफपुजोवारकलिय पञ्चवर्णपुत्पपुञ्जःपचारचित । 'कालागुरुपवरकुदुरपुर नगरहिभूय' काल गुरुवरकुन्दुरुतुरुष्क - यावद् - गन्धवर्तिभूत, जनादेन ज्याभिराम ' इति गोध्यम् ।
,
-
ܕ
कसा हो । मडप में आकर प्रत्येक जन अपने अपने नामवाले आसन पर बैठजायें | बैठकर फिर वहा वह राजवर कन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करें। ( घासण घोसेट २ मम एयमाणत्तिय पच्चप्पिण) इस प्रकार की घोषणा करो और जब तुमलोग ऐसी घोषणा कर चुको तब इसकी हमें पीछे खपर दो । ( तण ते कोडुनिया तहेब जाव पच्च पिणति ) उन कौटुम्बिक पुरुषों ने नृपाज्ञानुसार ऐसा ही किया बाद मे हमलोग आपको आज्ञानुसार घोषणा कर चुके हें ऐसी सूचना राजा के पास भेज दी । (तएण से दुबए राम्रा काड बिय पुरिसे सोवेइ, सदावित्त एव वयासी-गच्छह ण तुम्भे देवाणुपिया । सयवरमडव आसिप समज्जिवलित सुगंधवरगधिय पचवण्गपुष्कपुजोवयारकलिय कालगरुपवरकुङ्कुरुतुरुक्क जान गधवट्टिभूय मचाइमचकलियं
મડપમા આવીને દરેકે દરેક પોતપેાતાના નામવાળા આસન ઉપર એસી જાર त्या मेभीने तेथे राष्ट्रवर अन्या द्रौपतीना आगमननी प्रतीक्षा करे ( घोसण घोसे २ मम एयमाणत्तिय पच्चपिगह ) भा रीते तमे घोषणा भने आम थर्म लय त्यारे भने अमर आयो ( तएण ते कोडु विया तदेव जान पन्चपिगति ) ते टुमि पुरा राजनी माज्ञा अमाशे मधु अभ પતાવી દીધુ અને ‘ અમે લેાકાએ આપની આજ્ઞા અનુસાર ઘેાષણા કરી છે એવી મુળ રાજાની પાસે પહાચાડી દીલી
सदावे, सदावित्ता एवं वयामीआनिमज्जिवलित सुगनवर
पिचक जानयारकलिप काळानुरुपवरकुरुवतुरुक्क जाव राहि
(तरग से दूर राया को नियपुर तुभेदेपिया !
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९२
धूपदवमानमघमघायमानगन्दोघृताभिराम, र कालागुरु जणागुम., प्रार. कुन्दुरु-चीडानामको गभद्रव्यविशेषः, तुरुपकच सिरक, रथ गद्रव्य सयो गन इति द्वन्दु', यता-तमन्ननी यो धूपम्नस्य दयमानस्य य सुरमिपमा यमाना-प्रतिशमान , गन्ध उत्तम्तेनागिरामो रमणीर स तया त क्यागालिग सात-
ग टेकानगुन-स्सलामीहपातिशयान तया' मचाइगचकलिय ' मनातिमश्चलित फुरत, त्या वामदेवममुन्वागा बहना फरेह, करित्ता वालुदेव पानुस्खाग पग रायसहस्ताण पतेप २ नाम काइ आस गाइ असुपरब्धयुयाइरएह २ एयमाणत्तिा पच्चपिणह) इसके पाद दुपदराजा न कोम्भिक पुरमा को बुलाया और युलाकर उनसे ऐसा कहा-है देवानुनिया! तुमलोग जामा-और स्पयवर मडप को आसिक्त कर-जलसिवन से जाई कगे, समाजित कराकचकर आदि को उससे वाहिर कर उसे साफ करो एवं उपलिप्त करोमि. तथा गार से उसे लोपी। सुगमरगचित करो उसमेअगुरु, गुग्गुल, कपूर आदि को जलाकर उनकी गर से उसे सुगध युक्त बनाओ पचग के पुमा क पुज उसने जगर २ रखो। कृष्णागुरु प्रवर कुन्दरक, तुरुपक लोगान इनके पूर्ण को वहां आग्न में खूब जलाकर उनके जप से उसे बहुत हो अधिक मनोभिराम बनाभा ज्यादा स्या-उस एसा करदा किजिसस ऐसा ज्ञान हा कि यह एक सुगपित द्रव्या को चर्तिका है। वहा मचा के ऊपर मयो को भूर भचाइमवाले। करह, जारत्ता वासुदेवरामुखाग बहूग रायसहस्साण पत्तेय २ नामकाइ आसाइ जत्युयपच युनाइ रए र एयमागत्तिा पचापगह )
ત્યારપછી ૬૫૮ રાજાએ કૌટુંબિક પુરૂને લાગ્યા અને બેલાવીને કહ્યું કે હે હેવાનુપ્રિયે ! તમે લોક જાઓ અને વયવર મડપને આનિત કરા-પા છાટે, સમાજિત કરે, કચરા વગેરે સાફ કરે, અને ઉપલિપ્ત કરો, એટલે કે માટી તેમજ છાણથી લીપ સુગધર ગધિત કરો એટલે કે તે સ્થાને અનુરૂ, ગુગ્ગલ, કપૂર વગેરેને ધૂપ કરીને તેની સુગધથી તે સ્થાનને સુવાસિત કર પચવર્ણના પુષ્પપુજના સમૂહ સ્થાને સ્થાને બેઠવીને તમે મડપની શોભામાં અભિવૃદ્ધિ કરે કૃષ્ણગુરૂ, પ્રવર, કુદરૂન્ડ, તુરૂષ્ક, લેબાન આ ભાષા પદાર્થોના ચૂર્ણને અગ્નિમાં નાખીને તે વાનને સુમધથી ખૂબ જ રમ રય બનાવી દે તે સ્થાનને તમે એવું માસ સુગ ધમય બને ? * છે જેથી તે સધિત દ્રવ્યની વર્તિકા (અગરબત્તી) જેવું લાગે તે
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
खेनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० १६ द्रौपदीवरितवर्णनम्
२१३ राजमहताणा प्रत्येक २ नामाद्विान्यासनानि 'नत्युयपचत्युपाइ ' आस्त मत्यवस्तृतानि-आच्छादिन मत्याच्छादितानि 'रएह ' रचयत, रचयिचा एतामा ज्ञप्तिका प्रत्यर्पयत, तेऽपि कौटुम्बिापुरुषाः, यारत् प्रत्यायन्ति । 'तएण ते' वासुदेशमनग्याः बहुमहसपल्पकाराजान 'फल' कल्ये मादुर्भूतपमानाया रजन्या यावत् तेजमा अति सूर्यभ्युद्गते स्नाता यावत् सील कारविभूषिता हस्तिसायबरगता सकारटमाल्यदाम्ना छोग प्रियमाणेन वेतपरचामरगमयमानैव उक्ता हय गज-यापन-शपदानिममृत परिखता सबर्ग या 'शरणापट हादीनां रवेण यो स्थाने स्वयनर मण्डपस्त गोमागन्छन्ति, उपागत्यानुपविशन्ति, अनुपविश्य मत्येक २ 'नामकिएमु ' नामाङ्किनेषु-स्वरसनामाक्षरयुक्तेषु नापनेषु निपीदन्ति-उपविशन्ति, निपा द्रोपती राजपरकन्या ' पडिमालेमाणा' पतिपालएन्त प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्ति । रखो। उन पर वासुदर प्रमुख राजाओ के प्रत्येक के नाम क आसनो को आरत-शुभ्रवस्त से ढककर प्रत्यवस्तृत-और रितीव शुन्नवस्त्र से आच्छादित कर रसो। रस कर फिर हमें पीछे इस सब कार्य के समाप्त होने की खबर दो। (ते नि जाव पच्चप्पिणति ) इस प्रकार गजा की आजानुमार उन कौटुम्बिक पुस्पों ने सर कार्य उचित रूप में करके पीछे राजा को "नच कार्य आज्ञानुसार यथोचित हो चुका है" ऐसी खबर करदी। ( ताण ते वासुदेवपामुरमा पवे रायसहस्सा उल्ल पाउ० पहाया जाय विभ्रमियो हविग्वधवागना सकोरट० सेयरचामराहिं रय गय जाव परिचुडा सचिड्डीए जाव रवण जेणेव सयवरे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता अणुपविसति, अणुपविसित्ता पत्तेय नामकिएउ आसणेतु निसीयति, दोवइ रायवर रुपण पडिवालेमाणा २ મેચોની ગોઠવણ કરે ત્યા તમે વાસુદેવ પ્રમુખ દરકે દરેક રાજાના નામથી અકિત થયેવા આસને આસ્તૃત-સ્વરછ વસ્ત્રથી ઢાકીને, પ્રત્યાવસ્તૃત અને બીજા સ્વર વસ્ત્રથી ઢાકો આ બધુ કામ પતાવીને તમે અમને ખબર આપે (ते वि जाव पन्चप्पिण ति) मा शनी माज्ञा मामणीन अमि પરાએ તે મુજબજ બધુ કામ પતાવી દીધું અને ત્યારપછી “તમારી આજ્ઞા મુજબ કામ બધુ પતી ગયુ છે ” એવી ખબર રાજાની પાસે પહોંચાડી
(तएण ते वासुदेवपामुक्खा वहवे रायसहस्सा कल्ल पाउ० पहाया जाव विभूसिया हत्यिखधवरगया समोरट० सेयवरचामराहिं हय गय जार परिखुडा
सचिडीए जाव रवेण जेणेव सयवरे तेणेव आगच्छइ, उवागच्छित्ता अणुपवि - सति, अणुपतिसिचा पत्तेय नामफिएसु भासणेसु निसीयति, दोवइ रायवरकण्ण
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
sीताधर्मकपाशा यवः सटु 'पदए' पाण्टु नामको राजा ' कल 'पल्य-मात. काठे स्नाती यान राबलिधारभूपितो स्तिस्सन्यारगर सकोरण्टमारपदाम्ना छत्रेण प्रिय माणेन श्वेतपरचामरैरुधूयमानेश युक्ती हयगगरथपदातिसमूहेन परिटत. सर्व दर्या यार-रग काम्पिल्यपुरस्य नगरम्प मध्यम येन म भूत्वा निर्गति, निर्गत्य कौर स्पयरमण्डपो योर वासुदेवप्रमुखा हुननसरयका राजानम्त
वोपागच्छति, उपागत्य तेपा वासुदेवमाखाणा करतल्पग्गृिहीतदशनस चिति) इस के बाद वे वासुदेव प्रमुग्व रजारों राजा दूसरे दिन जय रात्रि समाप्त हो चुकी प्रातः काल हो गया-सूर्य उदित हो चुका तय स्नान यारत् समस्त अलकारों से विभूपित होकर, हाथियों पर चढे हुए प्रियमाण कोरट पुप्पों की माला से चिराजिा छत्र से युक्त होते हुए उधूयमान श्वेन वरचामरो से चीज्यमान होते हुए एव हय, गज यावत् स्य पदाति समूह से परिवृत्त होते हुए अपनी राज विभूति के जनुमार यारत् शय पणव पटर आदि के साथ २ जरा वह स्त्रयवर मंडप धा-बहो आये। वा आकर वे सन उसके भीतर प्रविष्ट हुए। प्रविष्ट होकर वे प्रत्येक जन अपने २ नाम से अकिन आसनों पर पृथक २ घेठ गये और राजवर कन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करने लगे। (तएण से पहा राया कल्ल पहाए जार विभूसिए सकारट० हयगय कपिल्लपुर मज्न मज्झेण निगच्छति-जेणेव मयवरमडवे जेगेर वाढेर पानु माया हवे रायमस्मा तेणेच उवागच्छइ,उवागचित्ता तेमि वासुदेव पटियाले मागा २ चिट्ठति )
ત્યારપછી વાસુદેવ પ્રમુખ હજારે રાજાએ બીજા દિવસે જ્યારે રાત્રિ પસાર થઈ ગઈ અને સવાર થતા સૂર્ય ઉદય પામે ત્યારે સ્નાન વગેરેથી
તારીને પિતાના શરીરને બધા આભૂષણેથી શણગારીને, હાથોઓ ઉપર વાર થઈને, સુગ ધિત કેરટ પુષ્પની માળાઓથી શોભિત અને છ થી યુક્ત
ઉત્તમ શ્વેત ચામરેથી વીજયમાન થતા તેમજ ઘોડા, હાથી યાવત્ રથ રાતિ સમકથી પરિવૃત થતા પિતાના રાજી વૈભવ અનુસાર યાવત્ શખ કાકાવ પરહ વગેરે વા" છે. સાથે જતા વય વર મડવ હતો ત્યાં ગયા ત્યાં જઈને તેઓ
છે પ્રવિણ થશે અને પ્રવિણે થઈને તેઓ પિત
એને ઉપર બેસી ગયા અને રાજવર કન્યા પિરીની
नार विभूसिए हत्यिखधारगए सको
पामुक्खा वहवे रायमहम्सा तेणे
પિતાના ન -
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
नारधर्मामृतपिणी टी० रा० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
쑥쑥부
शिर आदतं मस्तकेऽञ्जलिं कुला जयेन विजयेन वर्षयित्वा कृष्णस्य वासुदेवस्य चार गृहीचा उपवीयमाणे ' उपवीजयन् चामराननेन सेवमान स्तिष्ठति ॥ म्र० २१ ॥
t
पानग्याण कालबद्धावित्त वरस वासुदेवरस सेयवरचाम्र गहाय उववीयमाणे चिति) इस के बाद पाटु नामक राजा प्रातः काल स्नान से निपट पर और समस्त अलकारो से विभूषित होकर अपने पट्ट गजराज पर चढ कर कापिल्य पुर नगर के बीच से होते हुए उस स्वयवर मटप में आये । जत्र ये गजराज पर चढे हुए आरहे थे उस समय इन के ऊपर कोरट पुष्पों की माला से विरजित छत्र, छत्रधारियों ने तान रखा था। चामर ढोरने वाले शुभ्र चामर ढोर रहे थे। हय, गज, रथ एक पदादि समृहस्प चतुरगिणी सेना इनके माथ चल रही थी । राज्सी दाद से ये सुसज्जित थे । विविध राजे साथ में बजते हुएआरहे थे। मंडप में आकर ये जहां वासुदेव प्रमुख हजारों राजा बैठे हुए थे - वश गये । वहा जाकर उन्होंने उन वमुदेव प्रमुच हजारो राजाओं को दोनों हाथ जोड वर वडी नम्रता के साथ नमस्कार किया। जय विजय शब्दों द्वारा उन्हें बधाई दी । चधाई देकर फिर ये कृष्ण वासुदेव के ऊपर श्वेतचामर लेकर ढोरते हुए वहा चैठ गये ।। सू० २० ॥
उवागन्छ, उनागच्छित्ता तेमिं वासुदेवपामुक्खाण करयल०पढावेत्ता ऋण्टम्स वासुदेवम्म सेयरचामर महाय उपनीयमाणे चिट्ठति )
.
ત્યારપછી પાડુ નામક રાજા સવારે સ્નાનથી પરવારીને સમન્ત અલ કૉરેથી પેાતાના રારીરને શગારીને અને પેાતાના મુખ્ય ગજરાજ ઉપર સવાર થઈને ડાલ્થિપુર નગરની વચ્ચે ? પમાર થઈનેય વર મડપમા આવ્યા જ્યારે તેએ ગજરાજ ઉપર બેસીને આવતા હતા ત્યારે કોર્ટ પુષ્પોની માળા એથી શેભિત છત્ર ત્રધારીઓએ તાણેલુ હતુ ચામર ઢાનારાએ શ્વેત ચામર ઢાળી રહ્યા હતા, ઘેાડા, હાથી, રથ અને પદાતિ સમૂહ રૂપ ચતુર ગિણી સેના તેમની સાથે સાથે ચાલી રહી હતી રાજમાં ઠાઠથી તેએ સુસજ્જિત હતા, અનેક બતના વાળએ વાગી રહ્યા હતા મડપમા આવીને તેઓ જ્યા વાસુદેવ પ્રમુખ હારા રાજાએ બેઠેલા હતા ત્યા ગયા જરા વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાએ બેઠેલા હતા ત્યા તેમની પાસે જઇને એએ વાસુદેવ પ્રમુખ સ રાજાને ખૂબ જ નમ્રપણે બને હાથ જોડીને નમમ્હાર કર્યા જય વિજય શબ્દોથી તેએને અભિત ફ્તિ કર્યો અભિનદિત કર્યાં બાદ તેએ કૃષ્ણ વાસુદેવની ઉપર શ્વેત ચામર ઢળતા ત્યા મેસી ગયા ' સૂત્ર ૨ ||
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૪
छाताधर्मश्चाङ्गसूत्रे
ततः स ' पड़ए ' पाण्ड नामको राजा ' कल 'गल्ये - मा. काले स्नातो यात् सर्वालङ्कारभूषितो हस्विन्याराव कोरण्टमाल्यदाम्ना ने जिय माणेन श्वेत रचामरैरुद्धूयमानेन युक्ती हयगजरथपदातिसमूहेन परितः सर्व दर्जा यात्ररोग काम्पिल्यपुरस्य नगरस्य मध्यम येन म भूला निर्गच्छति, निर्गत्य यौन स्परमण्डपो देखा महाराजानस्तशैवोपागच्छति उपागत्य तेपा वासुदेवमसाणा करतपरिगृहीतत्शनस चिट्ठति ) इस के बाद वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजा दूसरे दिन जब रात्रि समाप्त हो चुकी प्रातः काल हो गया-सूर्य उदिन हो चुका तय स्नान यावत् समस्त अलकारो से विभूषित होकर, हाथियों पर चढे हुए प्रियमाणकोट पुष्पों की माला से विराजित छत्र से युक्त होते हुए उद्धूयमान श्वेत वरचामरो से वीज्यमान होते हुए एक हय, गज यावत् स्व पदाति समूह से परिवृत्त होते हुए अपनी राज विभूति के अनुसार यावत् शस्त्र पण पदर आदि के साथ २ जहा वह स्वयवर मंडप था वही आये । वहा आकर वे सन उसके भीतर प्रविष्ट हुए प्रविष्ट होकर वे प्रत्येक जन अपने २ नाम से अकिन आसनों पर पृथक २ बैठ गये और राजवर कन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करने लगे । (तएण से पहुए राधा कल हा जात्र विभूसिए सकारट० हयगय० कपिल्लपुर मज्ज्ञ मज्झेण निग्गच्छति जेणेव मयनरमडवे जेगेन वासु पानु क्खा बहवे रायमहस्सा तेणेव उवागच्छह, उवागच्छत्ता तेमिं वासुदेव पडिवालेमागा २ चिह्नति )
I
ત્યારપછી વાસુદેવ પ્રમુખ હજારા રાજાએ ખીજા દિવસે જ્યારે ગત્રિ પસાર થઈ ગઈ અને સવાર થતા સૂર્ય ઉદય પામ્યા ત્યારે સ્નાન વગેરેથી પરવારીને પેાતાના શરીરને બધા આભૂષણેાથી શણગારીને, હાથીએ ઉપર સવાર થ ને, સુગધિત કાર ૮ પુષ્પની માળાએથી શૈાલિત અને છતથી યુક્ત થઈ ઉત્તમ શ્ર્વેત ચામરેથી વીજયમાન થતા તેમજ ઘેાડા, હાથી યાવત્ થ પાતિ સમૂહથી પવૃિત થતા પેાતાના રાજ્ય વૈભવ અનુસાર યાવત્ શખ પશુવ પ વગેરે વાજાએાની સાથે નવા સ્ત્રયવર મડર હતેા ત્યા ગયા ત્યા જઈને તે બધા મડપમા પ્રવિષ્ટ થવા અને પ્રવિષ્ટ થઈને તેએ પાત પાનાના નામાકિત જુદા જુદા ગામના ઉપર પ્રેમી ગા અને રાજવ કન્યા કોપીની પ્રતીક્ષા કરવા લાગ્યા
(नएण से पहुए राया क्ल्ल पठाए जाव विनूसिए हरिगए सको ० दय गय० सयवरमडवे जेणेव वासुदेव पामुक्खा वहवे
2
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
__RATUमामृतपिती ०१० १६ ट्रोपदीपरितवर्णनम् शिर भारत मस्तनलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयित्म कृष्णस्य चामुदेवम्य श्वेतवरचामर गृहीचा 'उचीयमाणे ' उपवीजयन् चामराद्धननेन सेवमान स्तिष्ठति ॥ म० २१॥ पामुरग्वाण कारयल बद्धावित्ता परम वासुदेवरस सेयवरचामर गाय उववीरमाणे चिट्टति ) इस के बाद पाटु नामक राजा प्रातः काल स्नान से निबट पर और समरत अलमारो से विभूपित्त होकर अपने पट्ट गजराज पर चढ़ कर कांपिल्य पुर नगर के पीच से होते हुए उस स्थयवर मटप में आये । जब ये गजराज पर चढ़े हुए आरहे थे उस समय इन के ऊपर कोरट पुप्पों की माला से विरजित छत्र, छत्रधारियों ने तान रखा था। चामर ढोरने वाले शुभ्र चामर ढोर रहे थे। हय, गज, रथ एक पदादि समस्प चतुरगिणी सेना इनके माय चल रही थी। राज्सी ढाटगट से ये सुसज्जित थे। विविध राजे साय में रजते हएआरहे थे। मटप में आकर ये जहा वासुदेव प्रमुख हजारों राजा ठे हुए थे- वहां गये। पता जाकर उन्होंने उन वनदेव गमुन्य हजारो राजानों की दोनों हाय जोउ र बटी नम्रता के साथ नमस्कार किया। जय विजय शब्दो द्वारा उन्हें च पाई दी। वधाई देकर फिर ये कृष्णा बासुदेव के ऊपर वेतचामर लेकर टोरते हए वा बैठ गये। म० २०| उवागठन, उपागनित्ता तेमि रासुदेवपामुस्खाण करयलयद्वात्ता इण्टम्स वासुदेवस्म सेयरचामर गदाय उयनीयमाणे चिट्ठति)
ત્યારપછી પાડુ નામક રાજા સવારે સ્નાનથી પરવારીને સમસ્ત અલ કારેવી પિતાના હરીરને શણગારીને અને પિતાના મુખ્ય ગજરાજ ઉપર સવાર થઈને કપિલ્યપુર નગરની વચ્ચેથી પસાર થઈને વય વર મડપમાં આવ્યા જ્યારે તેઓ ગજરાજ ઉપર બેસીને આવતા હતા ત્યારે કોર ટ પુપિની માળા આથી શોભિત છત્ર ત્રવારીઓએ તાવ્યું હતું ચામર ઢાળનારાએ 24 ચામર ઢળી પડ્યા હતા, ઘેડા, હાથી, 4 અને પદાતિ સમૂન ૨૫ ચતુરગિણે એના તેમની સાથે સાથે ચાલી ગહી હતી ગજમાં ઠાઠથી તેઓ મુસજિત હતા, અનેક જાતના વાજા વાગી રહ્યા હતા મડપમાં આવીને તેઓ જ્યા વાસુદેવ પ્રમુખ હજારો રાજાઓ બેઠેલા હતા ત્યા ગયા ત્યા વાસુદેવ પ્રમુખ અજાઓ બેઠેલા હતા ત્યા તેમની પાસે જઈને તેઓએ વાસુદેવ પ્રમુખ સવ
એને ખૂબ જ નમ્રપણે બંને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યા જય વિજય બ્દથી તેઓને અભિન દિત કર્યા અભિન દિત કર્યા બાદ તેઓ કૃષ્ણ વાસુ ની ઉપર શ્રત ચામર ઢળતા ત્યા બેસી ગયા ! સૂત્ર ૨૦ /
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
ar ततः सल 'पहर' पाद नामका राना 'पट 'ग-47 राणे स्नाती यावत् रालिङ्कारविभूपितो स्तिसन्या गव. सकोरण्टमारपाना प्रेण प्रिय माणेन श्वेतारचामरुधूयमानेभ युक्ता इयगमस्थपदातिनमूहन परिटतः मत्र
र्या यारद-रण काम्पिल्पपुरस्य नगरम्य मध्यम येन मभूत्वा निगलति, निर्गत्य यौन स्पयरमण्डपो योर वासुदेवमापा यमरमसर यका राजानम्त
वोपागच्छति, उपागत्य तेषा पासम्ममुरसाणा सरनपरिगृहीत शनस चिट्ठति ) इस के बाद वे वासुदेव प्रमुग्य रजारों राजा दूसरे दिन जय रात्रि समात हो चुकी प्रातः काल से गया-सूर्य उदिन हो चुका तय स्नान यारत् ममस्त अलकारो से विभूपित होकर, हाथियों पर चढे हुए घियमाण कोरट पुप्पों की माला से चिराति उत्र से युक्त होते हुए उधूयमान वेन वरचामरो से वीज्यमान होते हुए एच हय, गज यावत् रथ पदाति समूह से परिवृत्त होते हुए अपनी राज विभूति के अनुमार यारत् शव पणव पटह आदि के साथ २ जरा वह स्यवर मडप था-वतो आये। घरा आकर वे सर उसके भीतर प्रविष्ट हुए। प्रविष्ट होकर वे प्रत्येक जन अपने २ नाम से अकिन आसनो पर पृथक २ धैठ गये और राजबर कन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करने लगे। (तएण से पडए राया कल्ल हार जान विभूसिए सकारट० हयगय कपिल्लपुर मझ मज्झेण निगच्छति-जेणेव मयवरमडवे जेगेर वापुरेप पानु कवा बहवे रायमहस्सा तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छित्ता तेसि वासुदेव पडिबाले मागा २ चिट्ठति)
ત્યારપછી વાસુદેવ પ્રમુખ હજાર રાજાઓ બીજા દિવસે જ્યારે રાત્રિ પસાર થઈ ગઈ અને સવાર થતા સૂર્ય ઉદય પામ્યું ત્યારે નાન વગેરેથી પરવારીને પોતાના શરીરને બધા આભૂષણોથી શણગારીને, હાથીઓ ઉપર સવાર થઈને, સુગધિત કેરટ પુપેની માળાઓથી શેભિત બને છથી યુક્ત થઈ ઉત્તમ વેત ચામરોથી વીજયમાન થતા તેમજ ઘડા, હાથી ચાવત રથ પદાતિ સમૂહથી પરિવૃત થતા પિતાના રાજા વૈભવ અનુસાર યાવત્ શખ પણુવ પરહ વગેરે વાજાઓની સાથે જ સાયવર મડર હતો ત્યાં નવા
ત્યાં જઈને તેઓ બધા મડપમાં પ્રવિણ થયા અને પ્રવિટ થઈને તેઓ પિત પિતાના નામાંકિત જુદા જુદા ભારને ઉપર બેસી ગયા અને રાજવર કન્યા કીપરીની પ્રતીક્ષા કરવા લાગ્યા
(नएण से पहुए राया क्ल्ल ण्डाए नाव विभूसिए हरियखधारगए सको रंद० इय गव० सयवरमडवे जेगेर वासुदेर पामुक्खा
तेर
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
अनगारधर्मामृतषिणी ० ० ६ प्रोपदीपर्चा
२९७ वस्त्राणि परिधाय ' जिणपरिमाण अचणं करेड ' जिनप्रतिमाना, कामदेव प्रतिमानामर्चन करोति विवाहविधि निर्विघ्न सपनार्य मिति भावः 'करिता' कृत्वा 'जेणेव अतेहरे देणेव उवागाछ?' यौवा.तापुर तत्रैवो- पागच्छति ।।सू०२१।।
द्रौपदीचर्चा यत्तु-" जिणपटिमाण अणं करेइ , इति पाठ समाश्रित्य भगवतोऽहंतः पूजन जैनधर्मानुयायिभि' पर्त यमित्याहस्तमिल्यात्वविलसितम् , अस्य पाठस्य चरितानुवादस्पत्वेन विधायकत्वासम्भवात् । विधियाक्य हि जिनाज्ञाया वोधक स्वेन विधायकं भवति, यथा-भगमता विधेयतयोपदिष्ट पदविधावश्यक चतुर्विधजिन प्रतिमा का कामदेव की प्रतिमा का निर्विन विवाह कार्य के लिये अर्चन करती है अर्चन कर के फिर वह (जेणेव अते उरे तेणेव उवागच्छड ) जहाँ अत पुर था वहा चली गई ॥ सू० २१ ॥
द्रौपदी चर्चा जो "जिणपडिमाण अवर्ण करे।" इस पाठका आश्रय लेकर प्रतिमापूजन की उपयोगिता कहते हए यह कहते हैं, कि " अर्हत भगवान की प्रतिमा की पूजा जैनधर्म के पाल को को करना चाहिये" यह उनका कथन मिथ्यात्व का विलास ही है। क्यो कि यह " जिनपरिमाण "' इत्यादि वाक्य चरित का ही अनुवादक है-अतः ऐसे वाग्य विसी मुरय अर्थ के विधायक नहीं आ करते हैं। चारितानुवाद से तो मिर्फ जिस व्यक्ति ने जो २ आचरण किया है उसका ही बोध होता है। शास्त्र विहित मार्गके निर्देशक विधिवाक्य हुआ करते हैं क्यों कि कि ऐसे वाक्य जिन भगवान की आज्ञाके विधायक होते हैं। जिस प्रकार पर પ્રતિમાનુ કામદેવની પ્રતિમાનું નિવિને વિવાહનાર્ય સંપન્ન થવાના હેતુથી मर्थन ४३ छ, भयंन ान ( जेणे अतेउरे तेणेव उवागच्छद ) જ્યાં રણવાસ છે તે તરફ જતી રહી છે સૂત્ર ર૧
पही या Zeal "जिणपहिमाण अचण करेइ" मा पाउना माधारे प्रतिमा पूरा નની ઉપયોગિતા સિદ્ધ કરતા આ પ્રમાણે કહે છે કે “અહંત ભગવાનની પ્રતિમાનું પૂજન જૈનધર્મ પાલન કરનારાઓએ કરવું જોઈએ” તેમનું આ કથન સત્યથી બહુ દૂર છે એટલે કે આ વાત સાવ અસત્યથી પૂર્ણ છે કેમકે मा "निनपहिमाण" वगैरे पाय यतिना अनुमा छे भेटमा भारी એવા વચને કઈ વિશેષ અથ ને સ્પષ્ટ કરનારા હોતા નથી ચરિતાનુવાદથી તે ફક્ત જે માગે છે તે આચરણ કર્યું છે, ફક્ત તેનુ જ જ્ઞાન થાય તેમ છે શાસ્ત્રવિહિત માર્ગને બતાવનારા તે વિધિ વાક જ થાય છે જેવી રીતે
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९६
____ मूलम्-तरण सा दोवइ रायवरफन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेर उवागरछइ उवागच्छिना बहाया कयवलिम्मा कयकोउयमगलपायच्छित्ता सुद्धप्पामाइ मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिया जिणपडिमाण अच्चण करेइ, करित्ता जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ । सू० २१ ॥
टीका-'तएण सा' इत्यादि । ततस्तदनन्तर सा द्रौपदी राजघरसन्या यो मज्जनगृह तगोपागन्छति, उपागत्य स्नाता 'क्यालिसम्मा' कृतवलि का अन्नादिपु पायसादिप्राणिनां सविभागो पतिकर्म तन् त यया सा तथा कृतीकमगलप्रायविता 'सुप्पामाइ ' शुद्धप्रवेश्यानि शुद्धानि स्वचानि प्रवेशानि-सभाया प्रष्टु योग्यानि, यत्परिमानेन सभाया लोकाः मोष्टमहन्ती त्यर्थः, मालानि-शुभानि वस्त्राणि 'पपरपरिहिय' प्ररपरिरिता-प्रारविधिना प्रवरेण शोभाकारेण विपिना परिहिता-परिधान धृताती आपत्वात् नरिक्तः,
'तएण सा दोरई रामवर ' इत्यति ॥
टीका-(तषण ) इस के बाद (गा दोवई रावर कन्न) वह गजवर बचा दौपदी (जेणे मजणारे) जहा स्नान घर या (तेणे उबागच्छइ) उस ओर गई (उवागच्छित्ता पहाया कयरलिकम्मा भयकोडरमगल पायच्छित्ता) यता जासर २ उसने स्नानघर में स्नान किया, रताकर फिर उमने काम पक्षि आदि को अन्नोदि का भाग देने रूप लिकर्म किया कौतुक मगल प्रायश्चित्त किये। (सुदूप्पावेमाइ मगल्लाइ वत्याइ पर परिरिया) सभा में प्रवेश के योग्य ५ शुद्ध स्वच्छ मालिक वस्त्र अच्छी तरह विधि के अनुसार पहिरी हुई (जिणपडिगाण भचण करेद)
'तपण सा दोवईरायवरकना । इत्यादि
टी -(तएण) त्यसपछी (सा दोषई रायवरकन्ना) ते रावर अन्या द्रोपही (जेणेव मानणरे) l स्नानघर तु (ठणेव उनागच्छद) त्याग (उबागतिछता व्हाया कयरलिकम्मा कय कोउयमगलपायच्छि ता ) त्याने તેણે નાનઘરમાં સ્નાન કર્યું હનાન બાદ તેણે કાગડા વગેરે પક્ષીઓને અન્ન વગેરેને ભાગ અને બલિકમ કર્યું કૌતુક મ ગળ પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યા (सद्धप्पावेमार मगरलाइ वत्थाइ पारपरिहिया मजणधराओ पडिनिक्खमइ) સભામાં પ્રશેશવા યોગ્ય સ્વચ્છ માંગલિક વસ્ત્રો તેણે સરસ રીતે પહેર્યા, त्या२५० ते नानपरथी मा२ नlkrit (जिणाडिमाण अचण : -
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
2
चत्राणि परिधाय ' जिणपरिमाण अक्षणं करेड ' जिनप्रतिमाना, कामदेव प्रतिमानामर्चन करोत विवाहविधि निर्चिन सपन्नार्थ मिति भाग: ' करिता ' कृत्वा ' जेणेव अतेरे तेणेव उवाग छह ' यत्रैवान्तःपुर तत्रैवो- पागच्छति ॥ ०२१ ॥ द्रौपदीचर्चा
1
यत्तु - " णिपरिमाण ऊच्चण करेइ " इति पाठ समाश्रित्य भगवतोऽर्हतः पूजन जैनधर्मानुयायिभि वर्तन्यमित्याहुस्तन्मिथ्यात्वविलस्तिम् अस्य पाठस्य चरितानुवादरूपत्वेन विधायकत्वासम्भवात् । विधिवाक्य हि विनाज्ञाया बोधक त्वेन विधायक भवति, यथा- भगवता विधेयतयोपदिष्ट पइविधावश्यक चतुर्विधजिन प्रतिमा का कामदेव की प्रतिमा का निर्विघ्न विधारकार्य के लिये अर्चन करती है अर्चन कर के फिर वह ( जेणेव अते उरे तेणेव उवागच्छइ ) जहाँ अत पुर था वहां चली गई ॥ सृ० २१ ॥ द्रौपदी चर्चा
जो "जिणपडिमा अञ्चणं करेइ" इस पाठका आश्रय लेकर प्रतिमापूजन की उपयोगिता कहते हुए यह कहते हैं, कि " अर्हत भगवान की प्रतिमा की पूजा जैनधर्म के पालको को करना चाहिये" यह उनका कथन मिथ्यात्व का विलास ही है। क्यो कि यह " जिन डिमाण "" इत्यादि वाक्य चरित का ही अनुवादक है अतः ऐसे वाक्य किसी मुरय अर्थ के विधायक नहीं हुआ करते हैं । चारितानुवाद से तो मिर्फ जिस व्यक्ति ने जो २ आचरण किया है उसका ही बोध होता है। शास्त्र विहित मार्गके निर्देशक विधिवाक्य हुआ करते हैं-क्यों कि कि ऐसे वाक्य जिन भगवान की आज्ञाके विधायक होते हैं। जिस प्रकार पट् પ્રતિમાનુ નામદેવની પ્રતિમાનું નિવિઘ્ન વિવાહકા સ પન્ન યવાના હેતુયી शमर्थन उरे छे, अर्थन जरीने ( जेणेव अतेउरे तेणेव उवागच्छइ ) જ્યા રણવાસ છે તે તરફ જતી રહી ! સૂત્ર ૨૧ !!
દ્રૌપદી ચર્ચો
डेंटला "जिण डिमाण अचण करेइ” भ
પાઠના આધારે પ્રતિમા પૂજ નની ઉપચાગિતા સિદ્ધ કરતા આ પ્રમાણે કહે છે કે “ અર્હત ભગવાનની પ્રતિમાનુ પૂજન જૈનધમ પાલન કરનારાઓએ કરવું જોઇએ ’” તેમનુ આ થન સત્યથી મહુ દૂર છે એટલે કે આ વાત સાવ અસત્યથી પૂર્ણ છે કેમકે जिन डिमाण " वगेरे वाड्य शक्तिना ४ अनुवाद छे भेटला भाटे એવા વચના કાઈ વિશેષ અને સ્પષ્ટ કરનારા હાતા નથી ચિરતાનુવાદથી તે ફક્ત જે માશુસે જે તે આયરણ કર્યું છે, ફક્ત તેનુ જ જ્ઞાન થાય તેમ છે શાસ્ત્રવિહિત માર્ગને બતાવનારા તે વિધિ વાચે જ થાય છે જેવી રીતે
આ 66
३८
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९६
धर्मकयारो मूलम्-तएणं सा दोरइ रायवरफन्ना जेणेव मजणघरे तेणेर उवागच्छद उवागच्छित्ता बहाया कयवलिकम्मा कय. कोउयमंगलपायच्छित्ता सूचप्पासाइ मंगल्लाई थाइ पवरपरिहिया जिणपटिमाण अच्चण करेइ, करित्ता जेणेय अतेउरे तेणेव उवागच्छइ ॥ सू० २१ ॥
का-'तएण सा' इत्यादि । ततस्तनन्तर सा द्रोपदी राजसन्या यौप मज्जनगृह त योपागन्छति, उपागत्य स्नाता 'क्यालिसम्मा' कृतालि का अनादिपु पायसादिप्राणिना संविभागो पलिकर्म तत् कत यया सा तथा कृतकौतुफमङ्गलप्रायशिता 'सुप्पामाइ 'शुद्धप्रश्यानि शुदानि स्वन्डानि मवेशानि-सभाया प्रपेटु योग्यानि, यापरिधानेन समाया लोकाः प्रवेष्टमन्ती त्यर्थ., मालानि-शुभानि वस्त्राणि 'पपरपरिहिय' प्रयापरिस्तिा-प्रविधिना प्रवरेण शोभाकारेण विविना परिहिता=परिधान धृताती आपत्वात् पर्नरिक्तः,
'तपण सा दोरई रायबर २' इत्यदि ॥
टीका-(तण्ण ) इस के बाद (गा दोवई रायवर कन्न) यह गजवर कन्या दौपदी (जेणेच मज्जणारे) जहा स्नान घर या (तेणेच उवागच्छइ) उम ओर गई (उवागच्छित्ता पहाया क्यालिकम्मा कयकोउमगल पायच्छित्ता) यहा जासर २ उसने स्नानघरमें स्नान क्रिया, नहाकर फिर उसने काफ पक्षि आदि को अन्नोदि का भाग देने रूप परि वार्म किया कौतूक मगल प्रायश्चित्त किये। (सुप्पावेमाइ मगलाइ वत्या पर परिहिया) सभा मे प्रवेश के योग्य ५ शुद्ध स्वच्छ मागतिक वस्त्र अच्छी तरह विधि के अनुसार पहिरी हुई (जिणपडिपाण पचण करेह)
'तपण सा दोवईरायवरकना' इत्यादि
टार्थ-(तएण) त्य २५०ी (सा दोवई रायवर कन्ना) ते २०४५२ 3न्या द्रोपही (जेणेव मानणरे ) aril नान५२ तु (ठणेव उजागइ) त्या व ( उजागन्छिता बहाया कय रनिकम्मा कय कोउयमगलपायन्छिता ) त्या भने તેણે સ્નાનઘરમાં સ્નાન કર્યું નાન કર્યા બાદ તેણે કાગડા વગે પક્ષીઓને અન વગેરેને ભાગ અને બલિકમ કર્યું -કૌતુક આગળ પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યા ( मुद्धप्पामाइ मगल्लाइ पत्याइ पारपरिहिया मज्जणधराओ पडिनिय समइ) સભામા પ્રશેશવા યોગ્ય સ્વચ્છ માગતિક વસ્ત્રો તે સરસ રીતે પહેર્યા, सार५० ते नानयरथी मा२ नाजी (जिणाडिमाण अच्चण करेइ) ७२
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा
चारितानुवादवचनस्य विधायकत्वाङ्गीकारे सूर्याभदेवचरिते शस्त्रादिवस्तूनामचनस्य श्रयमाणतया तन्मते तदपि विधेय स्यात् ।
द्रौपasपि न स प्रतिमाया भगनतोऽर्हत. पूजन न कृतम्, जैनमवचने प्रतिमापूजनस्य विधानाभावात्, प्रतिमापूजनस्य पट्कायजीवहिंसासा -यतया जैन धर्मत्वाभावाच्च ।
तथाहि — प्रतिमापूजाऽङ्गीकारे तदर्थ पट्कायहिंसाऽवश्यभाविनी, एव च जाता है कि वह उन्हीं में चित्त लगाकर और मन को तन्मय करके इसे उभय काल में अवश्य करें ।
चरित के अनुवादक कथन करने वाले वाक्य को यदि विधेय रूप से स्वीकार किया जाय तो सूर्याभदेवके चरित में सङ्गादि शस्त्र आदि वस्तुओं की भी पूजा सुनी जाती है-अन' उनमें भी पूज्यता आजानी चाहिये और इस प्रकार से पूजन के पक्षपातियों को उनका पूजन भी विधेय कोटि में मानलेना चाहिये ।
द्रौपदी ने भी वहा प्रतिमा में जो भगवान अर्हत की पूजन नहीं को उसका कारण यह है कि एक तो जैन प्रवचन मे प्रतिमा पूजन विधान का अभाव है और दूसरे पर प्रतिमा पूजन पटू काय के जीवों की विराधना द्वारा साध्य होती है, इसलिये इस प्रतिमा पूजन मे जिने - न्द्र द्वारा प्रतिपादित-धर्म आत्मकल्यणसोधकरूप सम्यग्दर्शनादिक का अभाव है । पट् काय के जीवों की विराधना से जो साध्य हुआ करता है वहा सच्चे धर्म के दर्शन तक भी दुर्लभ हैं अतः प्रतिमा पूजन ન હાય તેની એ ફરજ થઇ પડે છે કે તે તેએમા જ પેાતાનુ ચિત્ત પરાવીને મનને તલ્લીન કરીને તેને ખને કાળમા અવશ્ય આચરે
ચરિતને અનુવાદક રૂપે ખતાવનાર વાકયને જે વિધેય રૂપમા સ્વીકારવામા આવે તે સૂર્યોભદેવના ચરિતમા શસ્ર વગેરે વસ્તુઓની પણુ પૂજાની વાત સાભળવામા આવે છે એથી તેમનામા પણ પૂછ્યતા આવી જવી જોઈએ અને આ રીતે પૂજનના પક્ષપાતીઓએ તેમની પૂજા પણ વિધેયના રૂપમા માન્ય કરવી જોઈએ
દ્રૌપદીએ પણ ત્યા પ્રતિમામા ભગવાન અર્હુતનુ પૂજન કર્યું નથી તેનુ કારણુ એ છે કે પ્રથમ તા જૈન પ્રવચનમા પ્રતિમા–પૂજનનુ વિધાન નથી અને ખીજું આ પ્રતિમા પૂજન ષટ્કાયના જીવાની વિરાધના દ્વારા સપન્ન હેાય છે, તેથી આ પ્રતિમા પૂજનમા જીનેન્દ્ર વર્ડ પ્રતિપાદિત ધર્મ-આત્મકલ્યાણ સાધક રૂપ સમ્યગ્—દન વગેરેને અભાવ છે પકાયના જીવાની વિરાધનાથી
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधा सघस्य कर्तव्य भवति ।
तथा चोक्तम्-समणेण सापण्ण य अस्सकायव्यय इद जम्हा।
अतो अहोनिसरस य, तम्हा आरम्मय नाम ॥ १॥ इति (अनुयोगद्वा०) छाया-श्रमणेन श्रावकेण च पश्यक-व्यक भाति यस्मात् ।
अन्तेऽहनिशस्य च तस्माद् आवश्यक नाम ।। १ ॥ "ज इम समणे चा समणी पा सारए पा सारिया गा।
तचित्ते तम्मणे जान उभओकाल छबिह आवस्सय करेंति (अनु०) छाया-यदिद श्रमणो वा श्रमणी वा बायको पा श्राविका पा।
तचित्तः तन्मना यापद् उभयकाल पइविधमाश्श्यक नाम ।। २ ।। आवश्यक कार्यों को प्रतिपादन करने वाले चास्य जिन प्रभु की आज्ञा के निर्देशक होने से साधु साध्वी श्रावक श्राविकाररूप चतुर्विध संघ को उपादेय माने जाते हैं । शास्त्र में भी यही पात कही गई है 'समणे ण सापण्णय' इत्यादि
शास्त्र विहित पटू आवश्यक कर्तव्य चतुर्विध श्रीसघ को रात्री ___ एव दिनके अतिम भागमें अवश्य करन चोहिये । उनके किये बिना मुनि 'का मुनिपन नही और श्रावकका आवकपन नही । अत' पटू आवश्यक कार्य अवश्य करने योग्य होनेसे आवश्यक रूप से प्रतिपादित हुए हैं। __ "ज इम समणे वा समणी या सोवए वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे वा जाव उभओ काल" इत्यादि।
इसलिये जब ये आवश्यक हैं तब चाहे साधु हो या साध्वी हो श्रावक हो यो आविका हो कोई भी क्यो न हो उसका यह कर्तव्य हो છ આવશ્યક કાયોના પ્રતિપાદન કરનારા વાક્યો પ્રભુની આજ્ઞાના નિર્દેશક હેવાને કારણે સાધુ સાધવી શ્રાવક શ્રાવિકા રૂપ ચતુર્વિધ સંઘના માટે ગ્ય ગણાય છે. શાસ્ત્રમાં પણ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે –
" समणेण सावरण य ' त्यादि શાસ્ત્રવિહિત છ પ્રકારના આવશ્યક કર્ત ચતુર્વિધ સઘને રાત્રિ તેમજ દિવ સના અતિમ ભાગમાં ચોક્કસ પણે આચરવા જોઈએ તેના આચરણ વગર મુનિનું મુનિપણું નથી અને શ્રાવકનું શ્રાવકપણું નથી એટલા માટે છ આવશ્યક કાર્ય ચોક્કસ કરવા યોગ્ય હોવાથી આવક રૂપથી પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યા છે
"ज इम समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा तञ्चित्ते तम्मणे जाव उमओ काल इत्यादि-मा प्रभारी न्यारे ते 'आवश्य', त्यारे लखे સાધુ હોય કે સાધ્વી હોય તેમજ શ્રાવક હોય કે શ્રાવિકા હોય તેમ
.
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारेधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीच
૨૬
चारितानुवादवचनस्य विधायकत्वाद्गीकारे सूर्याभदेवचरिते शस्त्रादिवस्तूनामर्चनस्य श्रूयमाणतया तन्मते तदपि निवेय स्यात् ।
ates सलु प्रतिमाया भगनतोऽईत. पूजन न कृतम्, जैन प्रवचने प्रतिमापूजनस्य विधानाभावात्, प्रतिमापूजनस्य पट्कायजीवहिंसासा - यतया जैन धर्माभावाच ।
तथाहि — प्रतिमापूजाऽङ्गीकारे तदर्थे षट्कार्यहिंसाऽवश्यभाविनी, एव च जाता है कि वह उन्हीं में चित्त लगाकर और मन को तन्मय करके इसे उभय काल में अवश्य करें ।
चरम के अनुवादक कथन करने वोले- वाक्य को यदि विधेय रूप से स्वीकार किया जाय तो सूर्याभढवके चरित में सद्गादि शस्त्र आदि वस्तुओ की भी पूजा सुनी जाती है अतः उनमें भी पूज्यता आजानी चाहिये और इस प्रकार से पूजन के पक्षपातियों को उनका पूजन भी विधेय कोटि मे मानलेना चाहिये ।
द्रौपदी ने भी वहा प्रतिमा मे जो भगवान अर्हत की पूजन नहीं की उसका कारण यह है कि एक तो जैन प्रवचन में प्रतिमा पूजन के विधान का अभाव है और दूसरे - यह प्रतिमा पूजन षट् काय के जीवों की विराधना द्वारा साध्य होती है, इसलिये इस प्रतिमा पूजन मे जिनेन्द्र द्वारा प्रतिप्रादित-धर्म आत्मकल्यणसधिकरूप सम्यग्दर्शनादिक का अभाव है। पहू काय के जीवों की विराधना से जो साध्य हुआ करता है वहा सच्चे धर्म के दर्शन तक भी दुर्लभ हैं अतः प्रतिमा पूजन ન હાય તેની એ ફરજ થઇ પડે છે કે તે તેમા જ પેાતાનુ ચિત્ત પરાવીને મનને તલ્લીન કરીને તેને ખને કાળમા અવશ્ય આચરે
ચરિતને અનુવાદક રૂપે બતાવનાર વાકયને જે વિધેય રૂપમા સ્વીકારવામા આવે તા સૂર્યાંભદેવના ચરિતમા શસ્ર વગેરે વસ્તુએની પણુ પૂજાની વાત સાભળવામા આવે છે. એથી તેમનામા પણ પૂન્યતા આવી જવી જોઇએ અને આ રીતે પૂજનના પક્ષપાતીઓએ તેમની પૂજા પણ વિધેયના રૂપમા માન્ય કરવી જોઈએ
દ્રૌપદીએ પણ ત્યા પ્રતિમામાં ભગવાન મર્હુતનુ પૂજન કર્યું નથી તેનુ કારણુ એ છે કે પ્રથમ તા જૈન પ્રવચનમા પ્રતિમા–પૂજનનુ વિધાન નથી અને ખીજું આ પ્રતિમા પૂજન ષટ્કાયના જીવાની વિરાધના દ્વારા સપન્ન ય છે, તેથી આ પ્રતિમા પૂજનમા જીનેન્દ્ર વડે પ્રતિપાદિત ધ-આાત્મકલ્યાણ સાધક રૂપ સમ્યગ્-દર્શન વગેરેને અભાવ છે. કાયના જીવાની વિરાધનાથ
+
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
हाताचा
सघस्य कर्तव्य भवति ।
तथा चोक्तम्-समणेण सायएण य अस्सकायव्यय पर जम्हा।
अतो अहोनिसस्स य, तम्हा आवम्सय नाम ॥ १॥ इति (अनुयोगद्वा०) छाया-श्रमणेन श्रावकेण च अवश्यकर्त्तव्यक भाति यस्मात् ।
अन्तेऽदनिशस्य च तस्माद् आवश्यक नाम ।। १ ॥ "ज इम समणे या समणी पा सापए या सापिया पा।
तच्चित्ते तम्मणे जाव उभओकाल छबिह आरम्सय करेंति (अनु०) छाया-यदिद श्रमणो वा श्रमणी वा पारको पा श्राविका पा।
तचित्तः तन्मना यापद् उभयकाल पइविधमावश्यक नाम ॥२॥ आवश्यक कार्यों को प्रतिपादन करने वाले वाक्य जिन प्रभु की आज्ञा के निर्देशक होने से साधु साध्वी श्रारक श्राधिकास्प चतुर्विध संघ को उपादेय माने जाते हैं। शास्त्र में भी यही पात की गई है 'समणे ण सापण्ण य' इत्यादि।
शास्त्र विहित पटू आवश्यक कर्तव्य चतुर्विध श्रीसघ को रात्री एव दिनके अतिममागमे अवश्य करना चाहिये। उनके किये विना मुनि 'का मुनिपन नही और श्रावकका आवकपन नही । अत पटू आवश्यक कार्य अवश्य करने योग्य होनेसे आवश्यक रूप से प्रतिपादित हुए हैं ।
"ज इम समणे वा समणी या सोवरा वा साविया वा तच्चित्त तम्मणे वा जाव उभओ काल" इत्यादि।
इसलिये जब ये आवश्यक हैं तब चाहे साधु हो या साध्वी हो श्रावक हो यो आविका हो कोई भी क्यो न हो उसका यह कर्तव्य हो છ આવશ્યક કાયોના પ્રતિપાદન કરનારા વાક જીન પ્રભુની આજ્ઞાના નિર્દેશક હોવાને કારણે સાધુ સાધવી શ્રાવક શ્રાવિકા રૂપ ચતુર્વિધ સંઘના માટે ચોગ્ય ગણાય છે. શાસ્ત્રમાં પણ આ પ્રમાણે કહેવામા આવ્યુ છે –
"समणेण सावएण य ' त्यहि શાસ્ત્રવિહિત છ પ્રકારના આવશ્યક કર્તવ્ય ચતુર્વિધ સઘને રાત્રિ તેમજ દિવ સના અતિમ ભાગમાં ચોક્કસ પણે આચરવા જોઈએ તેના આચરણ વગર મુનિનું નિપણુ નથી અને શ્રાવકનું શ્રાવકપણું નથી એટલા માટે છ આવશ્યક કાર્ય ચક્કસ કરવા ચોગ્ય હોવાથી આવશ્યક રૂપથી પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યા છે
"ज इम समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा तचित्ते तम्मणे जाव उभओ काल इत्यादि-मा प्रभारी न्यारे तेस। 'मावश्य' छे, त्यारे म સાધુ હોય કે સાધ્વી હોય તેમજ શ્રાવક હોય કે શ્રાવિકા હોય કેમ
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतर्पिणी टोफा अ० १६ द्रौपदीचर्चा . २९
चारितानुवादवचनस्य विधायकत्वाद्गीकारे सूर्याभदेवचरिते शस्त्रादिवस्तूनामर्चनस्य श्रूयमाणतया तन्मते तदपि विवेय स्यात् ।
द्रौपद्यऽपि तत्र सलु प्रतिमाया भगरतोऽईत. पूजन न कृतम् , जैनप्रवचने प्रतिमापूजनस्य विधानाभावात् , प्रतिमापूजनस्य पट्कायजीवहिंसासा-यतया जैन धर्मत्त्वाभावाच ।
तथाहि-प्रतिमापूजाऽङ्गीकारे तदर्थ पट्कायहिंसाऽवश्यभाविनी, एव च जाता है कि वह उन्हीं मे चित्त लगाकर और मन को तन्मय करके इसे उभय फाल में अवश्य करें।
चरित के अनुवादक कथन करने वोले-वाक्य को यदि विधेय रूप से स्वीकार किया जाय तो सूर्याभदेवके चरित में सड़्गादि शस्त्र आदि वस्तुओ की भी पूजा सुनी जाती है-अन• उनमें भी पूज्यता आजानी चाहिये और इस प्रकार से पूजन के पक्षपातियों को उनका पूजन भी विधेय कोटि मे मानलेना चाहिये।।
द्रौपदी ने भी वहा प्रतिमा मे जो भगवान अर्हत की पूजन नहीं को उसका कारण यह है कि एक तो जैन प्रवचन में प्रतिमा पूजन के विधान का अभाव है और दूसरे-यह प्रतिमा पूजन षट् काय के जीवो की विराधना द्वारा साध्य होती है, इसलिये इस प्रतिमा पूजन मे जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित-धर्म आत्मकल्यणसोधकरूप सम्यग्दर्शनादिक का अभाव है। पटू काय के जीवों की विराधना से जो साध्य हुआ करता है वहा सच्चे धर्म के दर्शन तक भी दुर्लभ हैं अतः प्रतिमा पूजन ન હોય તેની એ ફરજ થઈ પડે છે કે તે તેમાં જ પિતાનું ચિત્ત પરેવીને મનને તલ્લીન કરીને તેને અને કાળમા અવશ્ય આચરે
ચરિતને અનુવાદક રૂપે બતાવનાર વાકયને જે વિધેય રૂપમાં સ્વીકારવામાં આવે તે સૂર્યાભદેવના ચરિતમાં શા વગેરે વસ્તુઓની પણ પૂજાની વાત સાભળવામાં આવે છે જેથી તેમનામાં પણ પૂજ્યતા આવી જવી જોઈએ અને આ રીતે પૂજનના પક્ષપાતીઓએ તેમની પૂજા પણ વિધેયના રૂપમાં માન્ય કરવી જોઈએ
દ્રૌપદીએ પણ ત્યા પ્રતિમામા ભગવાન અહંતનું પૂજન કર્યું નથી તેનું કાર એ છે કે પ્રથમ તે જૈન પ્રવચનમાં પ્રતિમા–પૂજનનુ વિધાન નથી અને બીજુ આ પ્રતિમા પૂજન ષકાયના જીવોની વિરાધના દ્વારા સંપન્ન હોય છે, તેથી આ પ્રતિમા પૂજનમા જીતેન્દ્ર વડે પ્રતિપાદિત ધર્મ–આત્મકલ્યાણ સાપક રૂપ સમ્યગૃ-દર્શન વગેરેને અભાવ છે પકાયના જીવોની વિરાધનાથી
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
५००
मातार्थमेकचाजसूर्य
प्राणातिपात विरमणयतिना सुनीना मविमानोपदेशे स्वधर्मस्य मूत्ररोच्छेद स्या देव । अत एव - जिनमणीतागमे प्रतिमापूजायानिधिर्नोपलभ्यते । मतिमास्थापनार्थ अगीकार करने में उस पूजन के समय में पट्ट काय के जीवों की विरा धना जय अवश्यभावी है तप भला । हम इसे विधेय मार्ग कैसे मान सकते हैं, और कैसे यह स्वीकार किया जा सकता है कि इस पूजन का कर्त्ता सच्चे धर्म का उपासक है तथा प्रतिमापूजन को धर्म माना जावे तो एक बड़ा भारी दोप यह भी आकर उपस्थित होता है कि सर्व प्रकार के हिंसादिक पापों से सर्वथा विरक्त महाव्रती मुनिजन जब इस प्रतिमापूजनरूप धर्म का उपदेश करेंगे तब वे भी कारितादिरूप कराने आदि रूप से इसके कर्त्ता होने के कारण अपने मुनिधर्म के मूलतः ही विध्वसक माने जायेगे । मुनिजन हिंसादिक सावय व्यापारों के कृत, कारित एव अनुमोदना इन तीन करण एव तीन योग से त्यागी हुआ करते हैं । जब ये प्रतिमापूजन रूप धर्म का गृहस्यो के लिये व्याख्यान देंगे तब उनके व्याख्यान से प्रेरित हो गृहस्थ जन उस ओर अपनी प्रवृत्ति चालू करने वाले होंगें, और उस प्रकार के उनके व्यवहार से इस कार्य में पट्ट्काय के जीवों की विराधना होने से उस विराधना જે સાઘ્ય થાય છે તેમા તેા સાચા ધર્મના દર્શન સુદ્ધા દુર્લભ છે એટલા માટે પ્રતિમા-પૂજન સ્વીકારવામા તે પૂજન કરતી વખતે વિરાધના જ્યારે ચક્કસપણે થવાની છે ત્યારે અમે તેને વિધેય મા કયા આધારે માન્ય કરીએ અને એની સાથે સાથે અમે એ પણ કેવી રીતે સ્વીકાર કરીએ કે આ જાતનુ પૂજન કરનાર સાચા ધર્મોના ઉપાસક છે? જે પ્રતિમા પૂજનને ધર્મ રૂપે સ્વીકારીએ તે એમ એક ભારે દોષ એ છે કે સ` પ્રકા ૨ના હિંમા વગેરે પાપાથી સવથા વિરક્ત મહાવ્રતી મુનિજના જ્યારે આ પ્રતિમા પૂજન રૂપ ધર્મના ઉપદેશ આપશે ત્યારે તેઓ પણ કારિતાદિ રૂપ કરાવવા વગેરે રૂપથી એના કર્તા રૂપે હાવા બદલ પેાતાના મુનિ ધર્મના મૂલત વિશ્વ સક ગણાશે મુનિજના હિંસા વગેરે સાવદ્ય વ્યાપારના કૃત, કારિત અને અનુમેાદના આ ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચેાગના ત્યાગી હાય છે જ્યારે તે પ્રતિમા-પૂજન રૂપ ધર્માંતુ ગૃહસ્થાને માટે વ્યાખ્યાન આપશે ત્યારે તેમના વ્યાખ્યાનથી પ્રેરાઈને ગૃહસ્થે તે પ્રમાણે આચરશે જ અને આ જાતના તેમના આચરણૈાથી આ કામમાં યૂકાય જીવેાની વિરાધના હૈાવાથી તે વિરાધનાને કરાવનારા આ ઉપદેશક મુનિએ જ ગણાશે ત્યારે એમના અહિંસા વગેરે મહા થતા ત્રયેાગ અને ત્રિકરણ વિશુદ્ધ રૂપે કેવી રીતે રહી શકશે ? એથી. ધમ લાલને ઇછતા પણ તેએ આ જાતના વિચારાની ભૂલમાં જ
ષટ્રકાયના જીવેાની
2,
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०१
अनवारय विगी टीका अ० १६ द्रौपदीयचो देवायतनमतिमाऽऽरामकृपादिकरणे तदुपदेशदाने च पृथिवी कायहिंसाया जबश्यम्भावः । देवयतनादिकरणे पूजागतयास्नान प्रतिमास्नपनास्त्रक्षालनाटिकरणे च तदुपदेशदाने चाप्कायपिरापनमपि, तथा-पूजागधूपदीपारानिकसम्पादन चाग्निकायविराधनया पिना न सभवति, वायुकायहिंसन तु धूपदीपारात्रिका के कराने वाले ये उपदेशक मुनिजन माने जायेगे-तब इनके अहिंसादि महाव्रत त्रियोग और त्रिकरण विशुद्ध कैसे रह सकेंगे? अतः लाभ की चाहना में इन विचारों की भृल में ही बढी भारी भूल शेने से ये अपने धर्म के सच्चे आराधक नहीं माने जा सकेगे। इसलिये यह घात अवश्य माननी चाहिये कि जिन प्रणीत आगम में प्रतिमापूजन की विधि नही पाई जाती है।
इसी प्रकार प्रतिमा स्थापन, प्रतिमा प्रतिष्ठा करवाना, मदिर वगैरह पनवाना एव उस प्रतिमा की पूजा निमित्त वगीचा तथा कुआ आदि का करवाना ये बाते पृथिवी कायिक जीवों की हिंसा के कारण हैं अतः त्याज्य है। इनके बनवाने आदि का जो उपदेश करते है वे भी पृथिवीमायिक जीवों की हिंसा से मुक्त नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार पूजन का अग होने से स्नान, प्रतिमा के अभिपेक तथा पूजन के वस्त्रों के धोने साफ करने मे और उसके उपदेश देने में अप्काय के जीवो की विराधना होती है, वृपखेना, दीपक जलाना, आरती उतारना ये सय याते अग्निकायिक जीवों की विराधना के विना नहीं हो सकती है अर्थात् इनमें अग्निकायिक जीवो की विराधना अवश्यभाविनी है । બેસશે અને તેઓ પિતાના ધર્મના સાચા આરાધક ગણાશે નહિ એટલા માટે આ વાત એકસપણે માની જ લેવી જોઈએ કે “જીન પ્રત” આગમમા પ્રતિમા–પૂજનની વિધિ મળતી નથી
मा प्रभारी प्रतिभा-स्थापन, -प्रतिमा-प्रतिष्ठा ४२4पी, महि२ मेरे બનાવવા અને તે પ્રતિમાની પૂજા માટે ઉદ્યાન તેમજ વાવ વગેરે તૈયાર કરાવવા એ પૃષ્યિ-કાયિક જીની હિંસાના કારણ છે-એટલા માટે ત્યાજ્ય છે તેને બનાવવા માટે જે લેકે ઉપદેશ આપે છે તેઓ પણ પૃથ્વિ-કાયિક જીવની હિંસાથી મુક્ત થઈ શકતા નથીઆ રીતે જ પૂજનને માટે સ્નાન, પ્રતિમાને અભિષેક તેમજ પૂજનના વસ્ત્રોને દેવામાં અને તેના ઉપદેશમાં પણ અપકાયના જીવોની વિરાધને હોય છે ધૂપ કર, દીપક કરે, આરતી ઉતારવી આ બધી વિધિઓ અગ્નિ-નાયિક જીવની વિરાધના વગર સભવી શકે તેમ નથી એટલે કે તેમાં અગ્નિ-કાયિક જીવની વિરાધના ચોક્કસપણે
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाताom प्राणानिपातविरमणप्रतिना मुनीना प्रतिमापूनोपदेशे स्वधर्मस्य मूलोच्छेद स्या देव । अत एप-जिनमणीतागमे प्रतिमापूजायाविधि पलभ्यते । प्रतिमास्थापनार्थ भगीकार करने में उस पूजन के समय में पद फाय के जीवों की विरा धना जय अवश्यभावी है तप भला! रम से विधेय मार्ग कैसे मान सकते हैं, और कैसे यर स्वीकार किया जा सकता है कि इस पूजन का कर्त्ता सच्चे धर्म का उपामक है तथा प्रतिमापूजन को धर्म माना जावे तो एक बड़ा भारी दोप यह भी आकर उपस्थित होता है कि सर्वे प्रकार के हिंसादिक पापों से सर्वधा विरक्त महावती मुनिजन जय इस प्रतिमापूजनरूप धर्म का उपदेश करेंगे तर वे भी कारितादिरूप कराने आदि रूप से इसके कर्ता होने के कारण अपने मुनिधर्म के मूलत. ही विध्वसक माने जायेगे। मुनिजन हिंसादिक सावध व्यापारों के कृत, कारित एवं अनुमोदना इन तीन करण एव तीन योग से लागी हुआ करते हैं। जब ये प्रतिमापूजन रूप धर्म का गृहस्थो के लिये व्याख्यान देंगे तब उनके व्याख्यान से प्रेरित हो गृहस्थ जन उस ओर अपनी प्रवृत्ति चालू करने वाले होंगें, और उस प्रकार के उनके व्यवहार से इस कार्य में पट्काय के जीवों की विराधना होने से उस विराधना જે સાથે થાય છે તેમાં તે સાચા ધર્મના દર્શન સુદ્ધા દુર્લભ છે એટલા માટે પ્રતિમાપૂજન સ્વીકારવામાં તે પૂજન કરતી વખતે પકાયના જીની વિરાધના જવારે ચોક્કસપણે થવાની છે ત્યારે અમે તેને વિધેય માર્ગ કયા આધારે માન્ય કરીએ અને એની સાથે સાથે અમે એ પણ કેવી રીતે સ્વીકાર કરીએ કે આ જાતનું પૂજન કરનાર સાચા ધર્મને ઉપાસક છે? જે પ્રતિમા પૂજનને ધમ રૂપે સ્વીકારીએ તે એમા એક ભારે દેશ એ છે કે સર્વ પ્રકા રના હિંસા વગેરે પાપથી સર્વથા વિરક્ત મહાતી મુનિજને જ્યારે આ પ્રતિમા પૂજન રૂપ ધર્મને ઉપદેશ આપશે ત્યારે તેઓ પણ કારિતાદિ રૂપ કરાવવા વગેરે રૂપથી એના કર્તા રૂપે હવા બદલ પિતાના મુનિ ધર્મના મૂલત વિદવ સક ગણશે મુનિજતો હિંસા વગેરે સાવઘ વ્યાપારના કૃત, કારિત અને અનુમોદના આ ત્રણે કરણ અને ત્રણ વેગના ત્યાગી હોય છે જ્યારે તેઓ પ્રતિમાપૂજન રૂપ ધર્મનુ ગૃહસ્થને માટે વ્યાખ્યાન આપશે ત્યારે તેમના વ્યાખ્યાનથી પ્રેરાઈને ગૃહસ્થ તે પ્રમાણે આચરશે જ અને આ જાતના તેમના આચરણથી આ કામમાં પટકાય જીવોની વિરાધના હોવાથી તે વિરાધનાને કરાવનારા આ ઉપદેશક મુનિએ જ ગણાશે ત્યારે એમના અહિંસા વગેરે મહા બતે વિગ અને ત્રિકરણ વિશુદ્ધ રૂપે કેવી રીતે રહી શકશે એથી ધર્મ લાભને છતા પણ તેઓ આ જાતના વિચારોની ભૂલમાં જ
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
नारायविंगी टीका २०१६ द्रौपदीचा
३०१ देवायतनमतिमाऽऽरामकूपादिकरणे तदुपदेशदाने च पृथिवी कायहिंसाया अबश्यम्भावः । देवायतनादिकरणे पूजागतयास्नान प्रतिमास्नपनरस्त्रक्षालनादिकरणे च तदुपदेशदाने चाप्कायपिरायनमपि, तथा-पूजाग यूपदीपारानिकसम्पादन चाग्निकायविराधनया विना न सभवति, वायुकायहिंसन तु धूपदीपारात्रिका के कराने वाले ये उपदेशक मुनिजन माने जायेगे-तब इनके अहिंसादि महाव्रत त्रियोग और त्रिकरण विशुद्ध कैसे रह सकेंगे? अतः लाभ की चाहना मे इन विचारों की भूल में ही बड़ी भारी भूल रोने से ये अपने धर्म के सच्चे आराधक नहीं माने जा सकेगे। इसलिये यह घात अवश्य माननी चाहिये कि जिन प्रणीत आगम में प्रतिमापूजन की विधि नहीं पाई जाती है।
इसी प्रकार प्रतिमा स्थापन, प्रतिमा प्रतिष्ठा करवाना, मदिर वगैरह पनवाना एव उस प्रतिमा की पूजा निमित्त वगीचा तथा कुआ आदि का करवाना ये बाते पृथिवी कायिक जीवों की हिंसा के कारण हैं अतः त्याज्य है। इनके बनवाने आदि का जो उपदेश करते है वे भी पृथिवीकायिक जीवों की हिंसा से मुक्त नहीं हो सकते है। इसी प्रकार पूजन का अग होने से स्नान, प्रतिमा के अभिपेक तथा पूजन के वस्त्रों के धोने साफ करने में और उसके उपदेश देने में अप्काय के जीवो की विराधना होती है, धूपखेना, दीपक जलाना, आरती उतारना ये सब बातें अग्निकायिक जीवों की विराधना के बिना नहीं हो सकती है अर्थात् इनमें अग्निकायिक जीवो की विराधना अवश्यभाविनी है । બેસશે અને તેઓ પોતાના ધર્મના સાચા આરાધક ગણાશે નહિ એટલા માટે આ વાત એકસપણે માની જ લેવી જોઈએ કે “જીન પ્રણેત” આગમમાં પ્રતિમા–પૂજનની વિધિ મળતી નથી
આ પ્રમાણે પ્રતિમા–સ્થાપન, –પ્રતિમા–પ્રતિષ્ઠા કરાવવી, મદિર વગેરે બનાવવા અને તે પ્રતિમાની પૂજા માટે ઉદ્યાન તેમજ વાવ વગેરે તૈિયાર કરાવવા એ પૃથ્વિ–કાયિક જીવોની હિંસાના કારણ છે–એટલા માટે ત્યાજય છે તેને બનાવવા માટે જે લેકે ઉપદેશ આપે છે તેઓ પણ પ્રવિ-કાયિક
ની હિંસાથી મુક્ત થઈ શક્તા નથી આ રીતે જ પૂજનને માટે સ્નાન, પ્રતિમાને અભિષેક તેમજ પૂજનના વસ્ત્રોને જોવામાં અને તેના ઉપદેશમાં પણ અપકાયના જીવોની વિરાધના હોય છે ધૂપ કર, દીપક કરવો, આરતી ઉતારવી આ બધી વિધિઓ અગ્નિ-કાયિક જીની વિરાધના વગર સભવી શકે તેમ નથી એટલે કે તેઓમાં અગ્નિ-કાયિક જીની વિરાધના ચક્કસપણે
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
पोताधकथा दिभियामरादिवीजनैत्यगीतवादिश्च सविशद माति, वनस्पतिशायपिरापन मतिमापूनानिमित्त केऽनन्तकायकोमलपिरिधफर पुष्पपत्रसपदे नियत भवति । पृथि. वीकायायाधिता यहुविधनिरपगधहीनदीनदुलप्रकृतिमीसगोपिशरीरा द्वीन्द्रि यादि पञ्चेन्द्रियान्तास्त्रमा जीया अपि छेदाभेदनस्वागगनिनाराजनितानन्तदुग्व स्तीतरवेदनामुपलभ्येतस्तवः स्वलितपतिता म्रियन्ते । धूपकेधु आ से, दीप तथा आरती की ज्योति से घमर आदि के दोरने से, नृत्य करने से, गीत गाते समय मुस से निकले हुए गर्म चायु से, एव वाजों के पजाने से वायुकायिक जीवों की विराधना होती हुई स्पष्ट मालूम देती है । वनस्पति फायिक जीवों की विराधना भी उस समय इस प्रकार से होती है, कि-मूर्ति पूजन के लिये उसके पूजक अनन्त कायिक ऐसे कोमल अनेक प्रकार के फल, पुप्प और पत्रों का सग्रह जो करता है इस प्रकार इस पूजन में पट्कायिक जीवों को हिंसा का आरभ स्पष्ट देखा जाता है । तथा उस कायिक जीवों का भी इसके निमित्तहनन होता है और वह इस प्रकार से-कि जा पृथिवीकायि कादि जीवों का आरभ प्रतिमा आदि के निर्माण में या देव आयतन (मन्दिर ) आदि के कराने में किया जाता है तो उस समय उसके आश्रित जो बहुत से अनेक जाति के निरपराधी, हीन, दीन, दुर्यल, प्रकृति से भयशील तथा सगोपित शरीरवाले ऐसे दीन्द्रियादिकसे लेकर पचेन्द्रिय तक जितने भी उस जीव रहते हैं वे सय के सर छेदन, भेदन, एव स्वाश्रय के विनाश जनित अनत दुःखों से सतप्त होकर થવાની જ છે ધૂપના ધુમાડાથી દીપક અને આરતીની તધી ચમર વગેરેને ઢળવાથી તેમજ વાજાઓ વગાડવાથી વાયુકાયિક જીવોની વિરાધના થાય છે તેની દરેકને સ્પષ્ટ પ્રતીતિ થતી જ રહે છે વનસ્પતિ-કાયિક જીવોની વિરા પના પણ તે વખતે આ પ્રમાણે થાય છે કે મૂર્તિ-પૂજન માટે પૂજા કરનારાઓ અનત-કાયિક એવા કેમળ ઘણું જાતના ફળે, પુછે અને પત્રોને એકઠા કરે છેઆમ આ પૂજામાં પડૂ-કાયિક જીવોની હિંસા સ્પષ્ટપણે દેખાય છે ત્રસ–કાયિક જીનુ પણ તેને લીધે હનન હોય છે જેમકે જ્યારે પૃથ્વિ-કાયિક વગેરે ને આર ભ પ્રતિમા વગેરેના નિર્માણમા અથવા તે દેવ-આયતન
મદિર) વગેરે બનાવવામાં કરવામાં આવે છે ત્યારે તેના આશ્રિત જે ઘણા અનેક જાતના નિરપરાધિ, હીન, દીન, દુર્બલ, પ્રકૃતિથી બીકણુ તેમજ સગે પિત શરીશ્વાળા એવા હીન્દ્રિયાદિકથી માંડીને પચેન્દ્રિય સુધીના 5 વસ જ રહે છે તે સર્વે વેદન, દન અને સવાશ્રયના -
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधामृतपिणी टी० अ० १६ पदीया
धर्मस्य लक्षण हि-जिनाज्ञाम योज्यप्रवृत्तियत्वम् , " आणाए मामग धम्म" इति भगवद्वचनात् , किंच-अगारानगारभेदेन धर्मस्य दैविध्यमभिधाय-भगवता-" अणगारधम्मो ताब" इत्यादिना सर्वमाणातिपातविरमणादि-रात्रिभो जनान्तान् अनगारधर्मानुपदिश्य तदनन्तरमिद कथितम्
'अयमाउसो ! अणगारसामइए धम्मे पण्णत्ते एयरस धम्मस्स सिक्खाए उव हिए निग्गथे वा निग्गयी चा विडरमाणे आणा ए आराहए भवइ' (औपपातिसूत्रम्)
अयमायुप्मन् ! अनगारसामायिका अनगारसिद्धान्तविपयः, धर्मः प्रज्ञप्त । एतस्य धर्मस्य शिक्षायामुपस्थितः 'आराधकः, निग्रंथो वा निम्रयी वा विहारऔर वहा से गिर पड़कर अन्त में मर जाते है।
जिनेन्द्र की आज्ञा में प्रवृति करना यही धर्म का लक्षण है । भगवान का भी आचारागसूत्र अ.६उ २ सू-८ में यही कथन है " ओणाए मामग धम्म” इति । प्रभु ने जिस समय धर्म का उपदेश दिया उस समय उन्होने इस धर्मके दो भेद कहे हैं इनमें एक१ सागारी गृहस्थका धर्म और दूसरा अनगार-मुनिका धर्म । " अनगार यम्मो ताव " इत्यादि सूत्र से समस्त जीवों की विराधना आदि से विरक्त होना यहा से लगाकर रात्रिभोजन का सर्वेधा परिहार करना यहा तक जो कुछ कहा है वह मय अनगार धर्म को लेकर कहा गया है उसके बाद उन्होंने औपपातिक सूत्र में यह कहा है कि " अयमाउसो अणगारसामडरा धम्मे पण्णत्त, एयरस धम्मस्स सिक्खाप, उवहिए निग्गये वा निग्गथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भव" हे आयुग्मन् ! यह अनगारसामायिक-मुनियो का सिद्धान्त विपयक ૬ ખેવો મત થઈને અને ત્યાથી પડી જઈને, ભ્રષ્ટ થઈને અને મૃત્યુને ભેટે છે
જીનેન્દ્રની આજ્ઞા પ્રમાણે અનુસરવું એ જ ધર્મનું લક્ષણ છે આચારાગ सूत्र 4-6, 6-२, ९-८ मा ५५ लगवाने या प्रमाणे उधु छ " आणाए मामग धम्म इति" प्रभुमे न्यारे धर्म व 6हेश आये त्यारे तभी આ ધર્મના બે ભેદ બતાવ્યા છે ૧ સાગાર ગૃહસ્થને ધર્મ અને ૨ અનાર मुनिना धर्म " अनगारधम्मो तार" वगेरे सूत्रथी समस्त वानी विरा ધના વગેરેથી વિરક્ત થવુ અહીંથી માડી રાત્રિ-ભેજનને સપૂર્ણપણે ત્યાગ હવે અહીં સુધી જે કઈ કહ્યું છે તે બધુ અનગાર ધર્મને ઉદ્દેશીને કહેવામાં આવ્યું છે ત્યારપછી પપાતિક સૂત્રમાં તેઓશ્રીએ આ પ્રમાણે કહ્યુ છે કે(अयमाउसो अणगारमामइए धम्मे पण्णते, एयरस धम्मस्स सिम्साए, उदिए निगथे पा निग्गथो पा विहरमाणे आणाए आराए भवइ) मायुषभन्।
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
নায়থাল दिभिधामरादिवीजनैत्यगीववान्त्रैिश्च सविशद माति, उनम्पतिकायनिराधन च प्रतिमापूजानिमित्त केऽनन्तकायकोमलविविधफलपुष्पपरसपहे नियत भवति । पृयि वीकायायाश्रिता बहुविधनिरपराधहीनदीनदुर्गपतिमीसगोपितगरीश द्वीनियादि पञ्चन्द्रियान्तास्त्रमा जीया अपि छेदनभेदनस्वाभयनिनागजनितानन्तदु ग्व स्तीतरवेदनामुपलभ्येतस्ततः स्वलितपतिता म्रिपन्ते । धूपकेधु आ से, दीप तथा आरती की ज्योति से घमर आदि के ढोरने से, नृत्य करने से, गीत गाते समय मुग्म से निकले हुए गर्म वायु से, एव वाजों के पजाने से वायुकायिक जीवों की निराधना होती हुई स्पष्ट मालूम देती है । वनस्पति फायिक जीवों की विराधना भी इस समय इस प्रकार से होती है, कि-मूर्ति पूजन के लिये उसके पूजक अनन्त कायिक ऐसे कोमल अनेक प्रकार के फल, पुष्प और पत्रों का सग्रह जो करता है इस प्रकार इस पूजन में पटकायिक जीवों को हिंसा का आरभ स्पष्ट देखा जाता है। तथा घस कायिक जीवों का भी इसके निमित्तहनन होता है और वह इस प्रकार से-कि जर पृथिवीकाधिकादि जीवों का आरभ प्रतिमा आदि के निर्माण में या देव आयतन (मन्दिर) आदि के कराने में किया जाता है तो उस समय उसके आश्रित जो बहुत से अनेक जाति के निरपराधी, हीन, दीन, दुर्यल, प्रकृति से भयशील तथा सगोपित शरीरवाले ऐसे दीन्द्रियादिकसे लेकर पचेन्द्रिय तक जितने भी उस जीव रहते हैं वे सब के सब छेदन, भेदन, एव स्वाश्रय के विनाश जनित अनत दुःखों से सतप्त होकर થવાની જ છે ધૂપના ધૂમાડાથી દીપક અને આરતીની તધી ચમર વગેરેને ઢળવાથી તેમજ વાજાઓ વગાડવાથી વાયુકાયિક જીની વિરાધના થાય છે તેની દરેકને સ્પષ્ટ પ્રતીતિ થતી જ રહે છે વનસ્પતિ-કાયિક જીવોની વિરા પના પણ તે વખતે આ પ્રમાણે થાય છે કે મૂર્તિ-પૂજન માટે પૂજા કરનારાઓ અન ત-કાયિક એવા કમળ ઘણું જાતના ફળ, પુષ્પ અને પત્રને એકઠા કરે છે. આમ આ પૂજામા ષડૂ-કાયિક જીવેની હિંસા સ્પષ્ટપણે દેખાય છે ત્રસ-કાયિક જીવન પણ તેને લીધે હનન હોય છે જેમકે જ્યારે પૃથ્વિ-કાયિક વગેરે જીવેને બાર ભ પ્રતિમા વગેરેના નિર્માણમાં અથવા તે દેવ-આયતન
મદિર) વગેરે બનાવવામાં કરવામાં આવે છે ત્યારે તેના આશ્રિત જે ઘણા અનેક જાતના નિરપરાધિ, હિન, દીન, દુર્બલ, પ્રકૃતિથી બીકણ તેમજ સગે પિત શરીરવાળા એવા હીન્દ્રિયાદિકથી માડીને પચેન્દ્રિય સુધીના જેટલા ત્રસ જ રહે છે તે સર્વે છેદન, ભેદન અને સ્વાશ્રયના વિનાશથી અનત
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतविणी टी० अ० १६ पदीया
धर्मस्य लक्षण हि-जिनाज्ञाम योज्यप्रवृत्तियत्वम् , " आणाए मामग धम्म" इति भगवद्वचनात् , किंच-अगारानगारभेदेन धर्मस्य द्वैविध्यमभिधाय-मगवता-" अणगारधम्मो ताव " इत्यादिना सर्वप्राणातिपातविरमणादि-रात्रिभो जनान्तान् अनगारधर्मानुपदिश्य तदनन्तरमिद कथितम्
'अयमाउसो ! अणगारसामइए धम्मे पण्णत्ते एयरस धम्मस्स सिक्खाए उव हिए निग्गये वा निग्गथी वा विहरमाणे आणा ए आराहए भवइ' (ओपपातिसूत्रम्)
अयमायुप्मन् । अनगारसामायिका अनगारसिद्धान्तविपयः, धर्मः प्रज्ञप्त । एतस्य धर्मस्य ' शिक्षायामुपस्थितः 'आराधकः, निग्रंथो वा निमेथी वा विहरऔर वहा से गिर पड़कर अन्त में मर जाते हैं।
जिनेन्द्र की आज्ञा में प्रवृति करना यही धर्म का लक्षण है। भगचान का भी आचाराङ्गमत्र अ.६ उ २ सू- ८ में यही कथन है " ओणाए मामग धम्मं" इति । प्रभु ने जिस समय धर्म का उपदेश दिया उस समय उन्होने इस धर्मके दो भेद कहे हैं इनमें एक१ सागारी गृहस्थका धर्म और दूसरा अनगार-मुनिका धर्म । " अनगार यम्मो ताव " इत्यादि सूत्र से समस्त जीवों की विराधना आदि से विरक्त होना यहा से लगाकर गत्रिभोजन का सर्वथा परिहार करना यहा तक जो कुछ कहा है वह सब अनगार धर्म को लेकर कहा गया है उसके बाद उन्होंने औपपातिक सूत्र में यह कहा है कि " अयमाउसो अणगारसाम3ए धम्मे पण्णत्त, एयम्स धम्मस्स सिक्खाप, उचहिए निग्गथे वा निग्गथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भव" हे आयुग्मन् ! यह अनगारसामायिक-मुनियो का सिद्धान्त विषयक ૬ ખેથી સતત થઈને અને ત્યાથી પડી જઈને, ભ્રષ્ટ થઈને અને મૃત્યુને ભેટે છે
જીનેન્દ્રની આજ્ઞા પ્રમાણે અનુસરવું એ જ ધર્મનું લક્ષણ છે આચારાગ सत्र २५-६, 6-२, सू-८ मा ५ लगवाने २मा प्रमाणे उखु छ “ आणाए मामग धम्म इति" प्रभु क्यारे धर्म विधे पदेश माया त्यारे तेभरे આ ધર્મના બે ભેદ બતાવ્યા છે ૧ સાગાર ગૃહસ્થને ધર્મ અને ૨ અનગાર भुनिन। म " अनगारधम्मो ताव " वगेरे सूत्रथा समस्त ७वानी वि। ધના વગેરેથી વિરક્ત થવું અહીંથી માડી રાત્રિભોજનને સપૂર્ણપણે ત્યાગ કર અહીં સુધી જે કઈ કહ્યું છે તે બધુ અનુગાર ધર્મને ઉદ્દેશીને કહેવામાં આવ્યું છે ત્યારપછી ઔપપાતિક સૂત્રમાં તેઓશ્રીએ આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે(अयमाउसो अणगारमामइए धम्मे पण्णत्ते, एयरस धम्मस्स सिक्साए, उदिए निगथे पा निरगथी या विदरमापो आणाप आराहप भव) हे मायुभन्।
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
| জান্ধব दिभिवामरादिवीजनैत्यगीतवाहिश सरिशद भाति, वनस्पतिकानिराधन व मतिमापूनानिमित्त केऽनन्तकायकोमलपिरिसफलपुष्पपत्रसप्रद नियत भाति । पृयि वीकायायाश्रिता बहुविधनिरपराधहीनदीन मतिमीसगोपियारीरा द्वीलि. यादि पञ्चेन्द्रियान्तात्रमा जीवा अपि छेदाभेदनायविनाशननितानन्ताव स्तीपतरवेदनामुपलभ्येतस्तवः स्वलितपतिता म्रिपन्ते । धूपकेधु आ से, दीप तथा आरती की ज्योति से घमर आदि के दोरने से, नृत्य करने से, गीत गाते समय मुप से निकले हुए गर्म वायु से, एव वाजों के पजाने से वायुकायिक जीवों की विराधना होती हुई स्पष्ट मालूम देती है । वनस्पति फायिक जीवों की विराधना भी इस समय इस प्रकार से होती है, कि-मूर्ति पूजन के लिये उसके पूजक अनन्त कायिक ऐसे कोमल अनेक प्रकार के फल, पुष्प और पत्रों का सग्रह जो करता है इस प्रकार इस पूजन में पटकायिक जीचों को हिंसा का आरभ स्पष्ट देखा जाता है। तथा घस कायिक जीवों का भी इसके निमित्तहनन होता है और वह इस प्रकार से-कि जर पृथिवीकायि कादि जीवों का आरभ प्रतिमा आदि के निर्माण में या देव आयतन (मन्दिर) आदि के कराने में किया जाता है तो उस समय उसके आश्रित जो बहुत से अनेक जाति के निरपराधी, हीन, दीन, दुर्यल, प्रकृति से भयशील तथा सगोपित शरीरवाले ऐसे द्वीन्द्रियादिकसे लेकर पचेन्द्रिय तक जितने भी त्रस जीव रहते हैं वे सब के सब छेदन, भेदन, एव स्वाश्रय के विनाश जनित अनत दुःखों से सतप्त होकर થવાની જ છે ધૂપના ધૂમાડાથી દીપક અને આરતીની તથિી ચમર વગેરેને ઢાળવાથી તેમજ વાજાઓ વગાડવાથી વાયુકાયિક જીવેની વિરાધના થાય છે તેની દરેકને સ્પષ્ટ પ્રતીતિ થતી જ રહે છે વનસ્પતિ-કાયિક જીવોની વિરા પના પણ તે વખતે આ પ્રમાણે થાય છે કે મૂર્તિ-પૂજન માટે પૂજા કરનારાઓ અનત-કાયિક એવા કોમળ ઘણું જાતના ફળ, પુપિ અને પત્રોને એકઠા કરે છે. આમ આ પૂજામાં કાયિક જીવોની હિંસા સ્પષ્ટપણે દેખાય છે બસ-કાયિક જીવેનુ પણ તેને લીધે હનન હોય છે જેમકે જ્યારે પશ્વિ-કાયિક વગેરે જેને આરભ પ્રતિમા વગેરેના નિર્માણમા અથવા તે દેવ–આયતન (મદિર) વગેને બનાવવામાં કરવામાં આવે છે ત્યારે તેના આશ્રિત જે ઘણા અનેક જાતના નિરપરાધિ, હીન, દીન, દુર્બલ, પ્રકૃતિથી બીકણ તેમજ સગે પિત શરીરવાળા એવા હીન્દ્રિયાદિકથી માડીને પચેન્દ્રિય સુધીના જેટલા વસ જ રહે છે તેઓ સવે છેદન, ભેદન અને સ્વાશ્રયના વિનાશાથો અનત
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगारघमामृतवर्षिणी टी० १० १६ दौपदीचचर्चा
छाया-अयमायुष्मन् ! अगारसामयिको धर्मः प्रज्ञप्तः, एतस्य धर्मस्य शिक्षायामुपस्थितः'आराधकः श्रमणोपासको वा श्रमणोपासिका वा विहरमाणा आज्ञाया आराधको भवति । इति ।।
अत्रापि एतस्य द्वादश विधस्य धर्मस्याराधक एव श्रमणोपासक आज्ञाया आराधक इति वोधयताऽऽत्र धर्मस्य मूलमिति योधितम् ।
आचारागसत्रेऽपि मथमा ययने तृतीयोदेशे भगवताऽभिहितम्-"जाए सद्धाए णिक्खते तमेवमणुपालिज्जा-विजहित्ता विमोत्तिय पुनसंजोग ! पणया वीरा महावीदि । लोग च आणाए अभिसमेचा अकुतोभय ।" इति आयुप्यमन् ! यह गृहस्थ का धर्म कहा गया है । इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित-श्रमणोपासक-मुनिजनों के भक्त ऐसे श्रावकजन अथवा श्राविकाजन तीर्थकर प्रभु की आज्ञा के आराधक माने जाते हैं। इस सूत्र में भी यही प्रकट किया गया है कि इस १२ प्रकार के धर्म का ओराधक ही श्रमणोपासक-प्रावक, श्राविका तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का आराधक है इस प्रकार समझानेवाले श्री जिनेन्द्र देव ने आज्ञा ही धर्म का मूल है यह समझाया है। ___ आचाराग मुत्र के प्रथम अ ययन के तृतीय उद्देशे में भगवान ने यह कहा है “जोग महाग णिस्वते तमेव मणुपालिज्जा विज हित्ता चिसोत्तिय पुष्पसजोग । पणया वीरा महावोहिं लोग च आणाए अभिसमेचा अकुतोभय' कि जिस श्रद्धा उत्साह से "अहंत प्रभु द्वारा प्रतिपादित सम्यग्दर्शनादिक मोक्षके मार्ग है या नहीं है" इस प्रकार सर्व आणाए आराहए. भव" उभायुमन्त ! भ्य धर्ममतापामा माव्या છે આ ધમની શિક્ષામાં ઉપસ્થિત શ્રમણોપાસક મુનિઓના ભક્તજન-શ્રાવકે અથવા તો શ્રાવિકા તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞાના આરાધક ગણાય છેઆ મૂત્રમાં પણ આ પ્રમાણે જ સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યુ છે કે ૧૨ પ્રકારના ધર્મના આરાધો જ પ્રમાણે પામક શ્રાવક શ્રાવિકા તીર્થ કર પ્રભુની આજ્ઞાને આરાધકે છે આ રીતે સમજાવનારા શ્રી જીતેન્દ્રદેવે આજ્ઞા જ ધર્મનું મૂળ છે આમ સમજાવ્યું છે
આચારાગ સૂત્રના પહેલા અધ્યયનના ત્રીજા ઉદ્દેશકમાં ભગવાને આ પ્રમાણે उखु छ-" जाए साए णिसते तमेवमणुपालिज्जा विजहिता विसोत्तिय पुव्य सजोग। पणया वीरा महावीहिं लोग च आणाए अभिसमेन्चा अकुतोभय " है જે શ્રદ્ધા-ઉત્સાહથી “ અહંત પ્રભુ વડે પ્રતિપ્રાદિત સમ્યગ્દર્શન વગેરે માથાના ભાગે છે કે નહિ ” આ રીતે સર્વ આગમ વિષયક ઋ શકા તેમજ
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४
वाताधर्मकथा
"
माण आज्ञाया आराधको भाति । एतस्य धर्मस्याTET पवाहाया आराधक इत्युक्त्वाऽऽज्ञेय धर्मस्य प्रकाशकता मूलमिति रोधितम् । तदनन्तर च भगवाअगारधम्म दुनालसहि आइखः । व जहा - पत्र अणुनयार, तिष्णिगुणव्ययाइ चचारि सिक्खावयाइ" इत्यादिना द्वादशविधं धर्मे निरुप्य कथितम् । 'अयमाउमो ! अगारसामइए धम्मे पण्णत्ते एयस्स धम्मम्स सिक्साए उव ट्ठिए समणोवास वा समणोपरासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवः" इति ।
'
धर्म कहा गया है- अर्थात् मुनियों का यह धर्म करा गया है। इस धर्म की शिक्षा में जो उपस्थित होता है अर्थात् जो इम धर्म कीआराधना करते हैं- चाहे वे साधु हो चाहे साध्वी हो कोई भी हो ये जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा के आराधक होते है । इस धर्म की आरा धना करनेवाला जीव ही जिनेन्द्र की ओज्ञा का आराधक माना गया है इस कथन से " जिस बात में भगवान की आज्ञा हो वही धर्म का मूल है अन्य आज्ञा विरुद्ध प्रवृत्ति हे " यह बात समझाई गई है इस के बाद भगवान ने " अगारधम्म दुवालसविह आहह तं जहा-पच अणुव्वयाइ, , तिष्णिगुणञ्जयाह चत्तारि सिक्खाचयाइ" इस सूत्र से यह प्रकट किया है कि गृहस्थ का धर्म १२ प्रकार का है ५ अणुव्रत, ३ गुण व्रत और ४ शिक्षाव्रत । इस प्रकार से कथन कर " अयमाउसो अगार सामइ धम्मे पत्ते एयस्स घमस्स सिखाए, उबट्ठिए, समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ " इति हे
આ અનગાર સામાયિક મુનિયાના સિદ્ધાન્ત વિષયક ધમ કહેવામા આવ્યા છે એટલે કે આ મુનિએને ધમ કહેવામા આવ્યેા છે આ ધમની શિક્ષામા જે ઉપસ્થિત હાય છે એટલે કે આ ધર્મની આરાધના કરે છે-ભલે તે સાધુ હાય કે સાધ્વીએ ગમે તે કેમ ન હેાય તેમે જીનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધકે હાય છે આ ધમની આરાધના કરનારા જીવ જ જીનેન્દ્રના આરા ધક ગણાય છે આ કથનથી એ વાત સમજાવવામા આવી છે કે જે વાતમા ભગવાનની આજ્ઞા હાય તે જ ધર્મ છે, આજ્ઞા વિરૂદ્ધ ખીજું આચરણ અધ છે ત્યારપછી ભગવાન વડે ८" अगारधम्म दुवालसविह आइक्खइ त जहा पच अणुव्वाइ, तिणि गुणन्त्रयाइ चत्तारि सिक्खावयाइ” या सूत्र द्वारा से स्पष्ट કરવામા આવ્યુ છે કે ગૃહસ્થના ધમ ૧૨ પ્રકારના છેપ અણુવ્રત, ૩ ગુણુત अने ४ शिक्षाव्रत आ रीते " अयमाउसो अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते एयरस धम्मस्स सिक्खाए उनदिए, समणोत्रासए वा समणोनासिया वा
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
जनतारधर्मामृतवदिली टी० ० १६ द्रौपदीचर्चा
३०५
छाया -- अयमायुष्मन् ! अगारसामयिको धर्मः प्रज्ञप्तः, एतस्य धर्मस्य शिक्षायामुपस्थितः = आराधकः श्रमणोपासको वा श्रमणोपासका वा विहरमाणा आज्ञाया आराधको भवति । इति ॥
अत्रापि एतस्य द्वादशविधस्य धर्मस्याराधक एव श्रमणोपासक आज्ञाया आराधक इति बोधयताऽऽज्ञैन वर्मस्य मूलमिति बोधितम् ।
आचाराद्गमुत्रेऽपि प्रथमा ययने तृतीयोदेशे भगनताऽभिहितम् - " जाए सद्वाए णिक्खते तमेवमणुपालिज्जा - विजहित्ता विमोत्तिय पुत्र संजोग । पणया वीरा महावीहिं | लोग च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभय ।" इति
आयुष्यमन् यह गृहस्थ का धर्म कहा गया है । इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित - श्रमणोपासक मुनिजनों के भक्त ऐसे श्राचकजन अथवा श्रोत्रिकाजन तीर्थंकर प्रभु की आज्ञा के आराधक माने जाते हैं । इस सूत्र में भी यही प्रकट किया गया है कि इस १२ प्रकार के धर्म का ओराधक ही श्रमणोपासक - प्रावक, श्राविका तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का आराधक है इस प्रकार समझानेवाले श्री जिनेन्द्र देव ने आज्ञा ही धर्म का मूल है यह समझाया है ।
आचाराग सूत्र के प्रथम अ ययनके तृतीय उद्देशे में भगवान ने यह कहा है " जोए महाए णिवते तमेव मणुपालिज्जा विज हित्ता विसोत्तिय पुन्त्रसजोग । पणया चीरा महावीहिं लोग च आणाए अभिसमेचा अकुतोभय' कि जिस श्रद्धा उत्साह से "अर्हत प्रभु द्वारा प्रतिपादित सम्यग्दर्शनादिक मोक्षके मार्ग है या नहीं है" इस प्रकार सर्व
आणाए आराहर भवइ" हे आयुष्मन्त | या गृहस्थ धर्म तत्ववामा आयो છે. આ ધર્મની શિક્ષામા ઉપસ્થિત શ્રમણેાપાસ મુનિઓના ભક્તજન-શ્રાવકે અથવા તે શ્રાવિકા તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞાના આરાધક ગણાય છે આ મૂત્રમા પશુ આ પ્રમાણે જ સ્પષ્ટ કરવામા આવ્યુ છે કે ૧૨ પ્રકારના ધર્મના આગધ જ શ્રમણેાપામ૰ શ્રાવક શ્રાવિકા તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞાને ભાગવકા છે મા રીતે સમજાવનારા શ્રી જીનેન્દ્રદેવે આજ્ઞા જ ધતુ મૂળ છે આમ સમજાવ્યુ છે આચારાગ સૂત્રના પહેલા અધ્યયનના ત્રીજા ઉદ્દેશકમા ભગવાને આ પ્રમાણે ४ छे-“ जाए सद्भाए पिक्सते तमेवमनुपालिज्जा विजहित्ता विसोत्तिय पुव्व सजोग । पणया चीरा महावीहिं लोग च आणाए अभिसमेन्वा अकुतोभय " है જે શ્રદ્ધા-ઉત્સાહથી - અહુ ત પ્રભુ ૧૩ પ્રતિષ્ઠાદિત સમ્યગ્ દર્શન વગેરે માતા ભાગી છે કે નહિ” આ રીતે સવ માઝમ વિષયક સૂત્ર રાફા તેમજ
--
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
पालका माण आज्ञाया आराधको भाति । एतस्य धर्मस्याराधक पयामाया आराधक इत्युक्त्वाऽऽय धर्मस्य प्रकाशकतया मूलमिति योधितम् । तदनन्तर च मगरता__ "अगारधम्म दुवालसरिह आइनखः । त जहा-पर अणुचयाउ, तिष्णिगुणव्ययाइ चत्तारि सिक्खापयाइ" इत्यादिना द्वादशविध धर्म निरूप्य कथितम् ।
'अयमाउमो अगारसामइए धम्मे पण्गत्ते ' पयस धम्मस्स सिरसाए उव हिए समणोवासए वा समणोपामिया या पिहरमाणे आणाए आराइए भवड" इति । धर्म कहा गया है-अर्थात् मुनियों का यह धर्म का गया है। इस धर्म की शिक्षा में जो उपस्थित होता है अर्थात् जो इस धर्म कीआराधना करते है- चाहे वे साधु हरों चाहे सांघी हों कोड भी हो ये जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा के आराधक होते हैं । इस धर्म की आरा धना करनेवाला जीव ही जिनेन्द्र की आज्ञा का आराधक माना गया हे इस कथन से "जिस बात में भगवान की आज्ञा हो वही धर्म का मूल है अन्य आज्ञा विरुद्ध प्रवृत्ति है " यह यात समझाई गई है इस के घाद भगवान ने " अगारधम्म दुवालमविह आइरखह त जरा-पच अणुव्चयाइ, तिण्णिगुणव्वयाह चत्तारि सिक्खावयाइ" इस सूत्र से यह प्रकट किया है कि गृहस्थ का धर्म १२ प्रकार का है ५ अणुवत, ३ गुण व्रत और ४ शिक्षाप्रत । इस प्रकार से कथन कर " अयमाउसो अगार सामइए धम्मे पण्णत्ते एयरस घमस्स सिक्खाए, उवहिए, समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भव" इति-हे આ અનગાર સામાયિક મુનિને સિદ્ધાન્ત વિષયક ધર્મ કહેવામાં આવે છે એટલે કે આ મુનિઓને ધર્મ કહેવામાં આવ્યો છે આ ધર્મની શિક્ષામાં જે ઉપસ્થિત હેય છે એટલે કે આ ધર્મની આરાધના કરે છે–ભલે તેઓ સાધુ હોય કે સાધ્વીઓ ગમે તે કેમ ન હોય તેઓ જીનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક હોય છે આ ધર્મની આરાધના કરનારા જીવ જ જીનેન્દ્રના આરા ધક ગણાય છે. આ કથનથી એ વાત સમજાવવામાં આવી છે કે જે વાતમાં ભગવાનની આજ્ઞા હોય તે જ ધર્મ છે, આજ્ઞા વિરૂદ્ધ બીજુ આચરણ અધર્મ छे त्यारपछी मगवान डे " अगारधम्म दुवालसविह आइक्खइ त जहा पच अणुव्वयाइ,तिणि गुणत्रयाइ चत्तारि सिक्खावयाइ" या सूत्र दास से पट કરવામા આવ્યુ છે કે ગૃહસ્થને ધમ ૧૨ પ્રકાર છે-પ અણુવત, ૩ ગુણનત भने ४ शिक्षाबत साशते " अयमाउसो अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते एयरस धम्मस्स सिक्खाए उपढ़िए, समणोवासए वा समणोवामिया वा माणे
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०७
मनानाविगो टोका १६ द्रौपदीचर्या 'पगया' प्रणता प्राप्ताः कठिनतरतप सयमाराधनेन प्राप्तवन्त इत्यर्थः । अय मेष मागा मोहापाप्तिकरोऽशेपसपमिसेवियत्वात् , तीर्थङ्करादिमहापुरुषा अपि मार्गगिममनुशीलितपन्त इति विश्वसनीयतया शिष्याणा श्रद्धापूर्वक प्रत्तिर्यथा स्यादितिमात्र ।
कश्चिन्मन्दधीः शिष्योऽनेकदृष्टान्तों यमानोऽपि अपकायादिजीवेषु न अदधातीति तमुदिश्य कथयति-हे शिष्य । तब मतिर्यद्यपि अपफायजीनविपये न वीर दो प्रकार के होते है ? द्रव्यवीर और दूसरे भाववीर । सयम के अनुष्ठान करने में जो शक्तिसप न हैं वे भाववीर ह ! ये जीव सम्यग्दशन आदि लक्षगरूप इस महाविस्तृतमार्ग को कि जो महापुरुपो द्वारा सेवित हुआ है कठिनतर तप और सयम की आराधना से प्राप्त कर लिया करते हैं। कहनेका सार यही है कि भाववीर यही अपने चित्तमें विचार किया करते हैं कि मम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यगचोरित्र और सम्परतप रूप ही मार्ग है क्योकि इसी से मुक्ति की प्राप्ती होती हैइसीलिये इस मार्गका समस्त सयमीजीवोंने पूर्व में सेवन किया है और तो क्या स्वर तीर्थकर प्रभु ने भी इसी मार्ग की परिशीलना की है। इसलिये इस मार्ग में प्रवृत्ति सर्वहित विधायी है इस प्रकार यह मार्ग विश्वास योग्य होने से शिष्यजन भी श्रद्धापूर्वक इसमे प्रवृत्ति करे ।
कोई मन्दबुद्विवाला शिष्य अनेक दृष्टान्तो द्वारा समझाये जाने पर भी यदि अप्काय आदि जीवों की श्रद्धा से रहित होता है तो उसे ૧ દ્રવ્ય-વીર, ૨ ભાવ-વીર સ યમના અનુષ્ઠાનમા જે શક્તિશાળી છે તે ભાવ વીર છે આ બધા જ સમ્યગદર્શન વગેરે લક્ષણ રૂ૫ આ વિસ્તૃતમાને કે જે મહાપુરૂ વડે સેવવામાં આવ્યુ છે-કઠણ તપ અને મયમની આરા. ધનાથી મેળવી લે છે. કહેવાનો મતલબ એ છે કે ભાવ-વીરે પિતાના મનમાં આ પ્રમાણે જ વિચાર કરતા રહે છે કે ખરી રીતે સમ્યમ્ જ્ઞાન, સમ્યગ દર્શન, સમ્યગ ચારિત્ર રૂપ જ માને છે કેમકે મુક્તિની પ્રાપ્તિ એનાથી જ થાય છે એટલા માટે જ પહેલા થઈ ગયેલા બધા જીવોએ આ માર્ગનુ જ અનુસરણ કર્યું હતું તીર્થંકર પ્રભુએ જાતે પણ આ માર્ગની જ પરિશીલતા કરી છે એથી બા માર્ગમાં પ્રવૃત્ત થવું તે બધી રીતે હિતાવહ છે આ પ્રમાણે આ માર્ગ વિશ્વસની હવા બદલ શિષ્ય પણ શ્રદ્ધા રાખીને તેમાં પ્રવૃત્ત થાય
કેઈક મદ બુદ્ધિ ધરાવનાર શિષ્ય ઘણું દુખતે વડે સ્પષ્ટ કરવામાં આવવા છતા પણ જે અષ્કાય વગેરે જેની શ્રદ્ધાથી રહિત દેય છે તે
AR
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
माकपास यया श्रद्रया-सम्यरत्येन 'पिगोशिय' विमोसिस गह-सशहां देश शडा चेत्यर्थः, यथा-'किमाईतो मोक्षमागोऽस्ति न पा' इति सर्वागमनिपयिका शङ्का सर्वशङ्का, तथा-" किमप्कापा-यो जीपाः सन्ति न पा" इनि देगशङ्का । तथा 'पुन्यसनोगं ' पूर्वसंयोग-मातापित्रादिसम्पन्धं धनधान्याननादिसम्बन्ध वा, इदमुपलक्षण-तेन पचासयोगमपि श्वशुरादिकत, 'पिजरिया' शिराय परि त्यज्य 'णिकरखते' निष्क्रान्तः पनजितः । 'त' श्रद्धाम् ' अणुपालिग्ना एव' अनुपालयेदेव-निरतिचार रक्षेदित्यर्थः । ___अथ-' परिशीलितमार्गोऽनुगम्यते' इति लोपरीत्या शिष्यश्रद्धादीकरणाय पूर्वमहापुरुषाचरितोऽय मार्ग इति ।
वीराः-~-भाववीराः संयमानुष्ठाने वीर्यवन्तः । महानीहिं' महावीथिक महाचीथि -सम्यग्दर्शनादिलक्षणो महामार्ग• महापुरपसे पितत्वाव , तामहाबीपि आगम विषयक सर्वशका का तथा " अपू कायिकादिक जीव हैं या नहीं" इस प्रकार की देशका और माता पिता आदि के साथ के सबधरूप पूर्व सयोग एव धन, धान्य, स्वजन आदि सघध, उपरक्षण से श्वशुर आदिरूप प्रश्चात् सयोग का परित्याग कर यह जीव ससार आदि पदार्था को हेय समझ उनसे सर्वथा विरक्त हो जाता है उस श्रद्धा का अतिचार आदि को से रक्षा करनी चाहिये-उस श्रद्धा का अतिचार रहिक होकर मुनि को पारन करना चाहिये । जो मार्ग परि. शीलित होता है उस पर अनेक प्राणी चलते हैं यह लौकिकरीति है। इसीरीति के अनुसार शिष्यो की श्रद्धा को दृढ करने के लिये " यह मार्ग पूर्व में महापुरुषों द्वारा सेवित किया गया है "हमें समझाने के लिये सूत्रकार "पणया वीरा महावीहिं" इस अश का कथन करते हैं “અચ્છાયિક વગેરે જીવે છે કે નથી ” આ જાતની દેશ શકો અને માતા પિતા વગેરેની સાથેના સ બ ધ રૂપ પૂર્વ સ ગ અને ધન, ધાન્ય, સ્વજન વગેરે સ બ ધ ઉપલક્ષણથી “ શ્વસુર” વગેરે રૂપ પશ્ચાત્ સાગને પરિત્યાગ કરીને આ જીવ સસાર વગેરે પદાર્થોને હેય સમજીને તેમના તરફ સપૂyપણે વિરત થઈ જાય છે તે શ્રદ્ધાની અતિચાર વગેરેથી રક્ષા કરવી જોઈએ તે શ્રદ્ધાનું પાલન મુનિએ અતિચાર વગર થઈને કરવું જોઈએ જે માગ પરિ શલિત હોય છે તે તરફ ઘણું પ્રાણીઓ જાય છે, આ લૌકિક પ્રથા છે આ પ્રથા પ્રમાણે શિષ્યોની શ્રદ્ધાને મજબૂત બનાવવા માટે “ આ માગ મહા પુરો વડે સેવવામાં આવ્યા છે ” આ વાત સમજાવવા માટે સત્રકાર "पणया वीरा महावीहि " मा क्यनने टाई छे चीर मे ।
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
मातागो टीका ० १६ द्रौपदीचर्चा
२०७ 'पण्या' प्राणता प्राप्ताः कठिनतरतप सयमाराधनेन प्राप्तवन्त इत्यर्थः । अय भेव मागों मोसामाप्तिकरोऽशेपसयमिसेवितत्वात् , तीर्थङ्करादिमहापुरुषा अपि मार्गमिममनुशीलितपन्त इति विश्वसनीयतया शिष्याणा श्रद्धापूर्वक प्रत्तिर्यथा स्यादितिमात्र ।
कश्चिन्मन्दधीः शिष्योऽनेकदृष्टान्तोन्यमानोऽपि अपकायादिजीवेपु न श्रदधातीति तमुद्दिश्य कथयति-हे शिष्य । तर मतिर्यद्यपि अप्कायजीनविषये न वीर दो प्रकार के होते हैं ? द्रव्यवीर और दूसरे भाववीर । सयम के अनुष्ठान करने में जो शक्तिसपन्न हैं वे भाववीर ह ! चे जीव सम्यग्द शेन आदि लक्षगरूप इस महाविस्तृतमार्ग को कि जो महापुरुपो द्वारा सेवित आ है कठिनतर तप और संयम की आराधना से प्राप्त कर लिया करते हैं। कहने का सार यही है कि भाववीर यही अपने चित्तमें विचार किया करते हैं कि मम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यगचोरित्र और सम्यग्तप रूप ही मार्ग है क्योंकि इसी से मुक्ति की प्राप्ती होती हैइसीलिये इस मार्गका समस्त सयमीजीवोंने पूर्व में सेवन किया है और तो क्या स्वर तीर्थकर प्रभु ने भी इसी मार्ग की परिशीलना की है। इसलिये इस मार्ग में प्रवृत्ति सर्वहित विधायी है इस प्रकार यह मागें विश्वास योग्य होने से शिष्यजन भी श्रद्धापूर्वक इसमे प्रवृत्ति करे ।
कोई मन्दबुद्विवाला शिष्य अनेक दृष्टान्तो द्वारा समझाये जाने पर भी यदि अपकाय आदि जीवो की श्रद्धा से रहित होता है तो उसे ૧ દ્રવ્ય-વાર, ૨ ભાવ--વીર સયમના અનુષ્ઠાનમાં જે શક્તિશાળી છે તે ભાવ વીર છે આ બધા જ સમ્યાગદશન વગેરે લક્ષણ રૂપ આ વિસ્તૃતમાગને કે જે મહાપુરૂ વડે સેવવામા આવ્યુ છે-કઠણ તપ અને સયમની આરા ધનાથી મેળવી લે છે કહેવાની મતલબ એ છે કે ભાવ-વિરે પિતાના મનમાં આ પ્રમાણે જ વિચારો કરતા રહે છે કે ખરી રીતે સમ્યગ જ્ઞાન, સમ્યગ દર્શન, સમ્યગ ચારિત્ર રૂપ જ માર્ગ છે કેમકે મુક્તિની પ્રાપ્તિ એનાથી જ થાય છે એટલા માટે જ પહેલા થઈ ગયેલા બધા જીએ આ માર્ગનુ જ અનુસરણ કર્યું હતું તીર્થંકર પ્રભુએ જાતે પણ આ માર્ગની જ પરિશીલતા કરી છે એથી ના માર્ગમાં પ્રવૃત્ત થવું તે બધી રીતે હિતાવહ છે આ પ્રમાણે આ માર્ગ વિશ્વસનીમ હવા બદલ શિષ્યો પણ શ્રદ્ધા રાખીને તેમાં પ્રવૃત્ત થાય
કેઈક મદ બુદ્ધિ ધરાવનાર શિષ્ય ઘણું દૃષ્ટા વડે સ્પષ્ટ કરવામાં આવવા છતા પણ જે અષ્કાય વગેરે જેની શ્રદ્ધાથી રહિત હોય છે તે
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाताधा परिस्फुरति, तद्विपये विशेषज्ञानामापात् , तथापि मगरदाया श्रद्धा नितरां विधेयेत्याशयेनाह-" लोग च आणाए अभिसमेधा आतोमग " इति ।
"लोग" लोकम् अत्र लोकगन्देन प्रकरणशादफाय लोक एर गृपते, तमकायलोक, च शब्देन अन्याधापकायाश्रितान् जीपान " आगाए " आजया तीर्थकर वचनेन " अभिसमेचा " अमिसमेत्य आभिमुग्ज्वेन सम्यगवावा, अप फायादयो जीवा सन्तीत्येरमायु येत्यर्थः, "अकुतोमय " नास्ति कुतश्वित् समझाने के लिये सूत्रकार करते हैं कि हे शिष्य ! तुम्हारी बुद्धि अप्का यिक आदि जीवोकी श्रद्धा करने में उन विषयक विशेषज्ञानके अभावसे यदि समर्थ नहीं है, तो भी भगवान की आज्ञा से तुम्हें उनके विषय में अपनी श्रद्धा को दूपित नरी होने देना चाहिये-अर्थात भगवान की आज्ञा प्रमाण मानकर तुम्हें उनके विषय में अपनी अतिशय अद्धा जाग्रत करनी चाहिये । सूत्रकार इसी अभिप्राय से करते है कि " लोग च आणाए अभिसमेच्चा अकुताभय" इति । अप्काय रूप लोक को तथा " च" शब्द से अन्य अफ्फाय के अश्रित जीवों को तीयकर प्रभु की आज्ञा से अच्छी तरह जानकर उनकी आज्ञानुसार उनका अस्तित्व मानकर आत्मकल्याण के अभिलापी मुनियों को सयम का पालन करना चाहिये। सूत्रस्थलोक शब्द यहा प्रकरण के वश से अपू काय का बोधक है। "च" शब्द से तदाधित अन्य जीवों का ग्रहण हुआ है। "अकुतोभय " शब्द का अर्थ सयम है कहीं से भी किसी તેને સમજાવવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે હે શિષ્ય! તમારી બુદ્ધિ અષ્કાયિક વગેરે જેની શ્રદ્ધા કરવામાં તેમના વિશે સવિશેષ જ્ઞાનના અભાવના લીધે જે સમર્થ નથી તે પણ ભગવાનની આજ્ઞાથી તે પ્રત્યે તમે પિતાની શ્રદ્ધાને દૂષિત થવા દેશે નહિ એટલે કે ભગવાનની આજ્ઞા પ્રમાણુ માનીને મદ બુદ્ધિવાળા શિષ્યોએ તેમના પ્રત્યે પિતાની વધારેમાં વધારે શ્રદ્ધા MAत ४२वी. मे सूत्रा२ मा प्रयोगनयी ४ ४३ छ , "लोग व आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभय " इति । अपाय ३५ जाने तमा 'च' शन्थी બીજા અષ્કાયાશ્રિત જીવને તીર્થ કર પ્રભુની આજ્ઞાથી સારી પેઠે સમજીને તેમની આજ્ઞા મુજબ તેમનું અસ્તિત્વ માનીને આત્મકલ્યાણને ઈચ્છનાર મુનિઓએ સયમનું પાલન કરવું જોઈએ સૂત્રમાં આવેલે “લેક' શબ્દ અહીં પ્રકરણ વશાત્ અકાયને વાચક છે “” શબ્દથી તદાશ્રિત બીજા જીવન अक्षय थयु छ ' अकृतोमय " शनी म सयम छ पy ॥ એથી કોઈ પણ રીતે જીવેને જેનાથી ભય હોતું નથી તે અ.
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारधर्मामृतपिणी टी० म० १६ द्रौपदीचचां
३०९
केनापि प्रकारेण प्राणिना भय यस्मात् सोऽकुतोभयः = सयमस्तम्, “अणुपालिज्जा' अनुपालयेत् इति पूर्वोक्तेन सम्बन्ध | सर्वदा जीवाभिरक्षणरूपसयमानुपालने सावनतया यत्नः कार्यः इत्यर्थः ।
अत्र "जार सद्वार क्विने तमेवमणुपालिज्जा विजहित्ता विसोत्तियं पुत्रसजोग " इत्यनेन श्रद्धाया नाराध्यत्वे जिनाज्ञायाः सद्भावात् श्रद्धाया धर्मस्व सिद्धम् ।
श्रद्वाकरणमपि च धर्मस्तदर्थं " पणया वीरा महानीहिं " इति भगवदुप देशस्य सद्भावात् ।
" लोग च आणाए अभिसमेच्चा " इत्यनेनाज्ञायाः पद्मायजीवतत्त्वज्ञानहेतुत्वेन वर्णनात्वज्ञानस्य धर्मलम् ।
भी प्रकार से जीवो को जिससे भय नहीं होता है वह अकुतोभयसयम हे भाव इसका यही है कि आत्म कल्याण के इच्छुक मुनियों को जीवों के सरक्षण रूप सयम की आराधना करने में सावधानता पूर्वक प्रयत्नशील रहना चाहिये । यहा " जाए सद्वाए निक्खते तमेवनणुपालिना, विजहिता विसोत्तिय पुत्र्वसजोग " इस सूनाश से यह बात समझाई गई है कि श्रद्धा की आराधना में जिनेन्द्र की आज्ञा का सद्भाव है अतः वहा धर्म है । अपि च श्रद्धा की दृढता करना यह भी धर्म है । इसी निमित्त "" पणया वीरा महावाहि " यह भगवान का उपदेश है । लोग च अणाए अभिसमेचा " इस सुत्राश से यह प्रकट होता है कि जय जिनेन्द्र की आज्ञा पर कायिक जीवों के वास्तविक ज्ञान होने में हेतुरूप से वर्णित हुई है तो इस स्थिति मे तत्वज्ञान धर्म है ।
$6
44
છે મતલબ એ છે કે આત્મકલ્યાણુ ઈચ્છનારા મુનિને જીવાની રક્ષા રૂપ સયમની આગધના કરવામા સાવધાન થઇને પ્રયત્ન કરતા રહેવુ જોઈએ અહીં जाए सद्वाए निक्सते तमेत्रमणुपालिज्जा, विजहित्ता विठोत्तिय पुन्नजोग " આ સૂત્રાશ વડે આ વાત સ્પષ્ટ કરવામા આવી છે કે શ્રદ્ધાની આરાધનામા જીનેન્દ્રની આજ્ઞાને સદ્ભાવ છે એટલા ધર્મ છે અને શ્રદ્ધાને મજબૂત બનાવવી તે પણ ધમ છે આ पणया वीरा महावीदि આ ભગવાનને ઉપદેશ છે
માટે તેજ નિમિત્તે જ
"
66
66
लोगच आणाए अभिसमेच्चा " मा सूत्राश वडे आ पात स्पष्ट थाय છે કે જ્યારે જીનેન્દ્રની આજ્ઞા ષટ્કાયિક જીવા વિષે વાસ્તવિક જ્ઞાન કરાવવા માટે જ કરવામા આવી છે ત્યારે આવી પરિસ્થિતિમા તત્વજ્ઞાન ધર્મ છે.
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
११
साधका परिस्फुरति, तद्विपये पिशेपशानाभावात् , तथापि मगरदाया श्रद्धा नितरां विधेयेत्याशयेनाह-" लोग न आणाए अभिसमेधा अतोमग " इति ।
"लोग" लोकम् अत्र लोकगन्देन प्रकरणशादफाय लोक पप गृपते, तमप्कायलोक, च शब्देन अन्यायापकायाश्रितान् जीयन "आणाए " आजया तीर्थकर वचनेन " अभिसमेचा" अमिसमेत्य आभिमुग्न्येन सम्यगशाला, अप कायादयो जीया सन्तीत्येवमपर येत्यर्थः, " अातोमय " नास्ति फुतश्वित् समझाने के लिये सूत्रकार कहते है कि हे शिण ! तुम्हारी बुद्धि अप्का यिक आदि जीवोकी श्रद्धा करनेमें उन विपयक विशेपजानके अभावसे यदि समर्थ नहीं है, तो भी भगवान की आज्ञा से तुम्हें उनके विषय में अपनी श्रद्धा को दूपित नहीं होने देना चाहिये-अर्यात भगवान की आज्ञा प्रमाण मानकर तुम्हें उनके विषय में अपनी अतिशय श्रद्धा जाग्रत करनी चाहिये । सूत्रकार इसी अभिप्राय से कहते है कि "लोग च आणाए अभिसमेच्चा अकुताभय " इति । अप्काय रूप लोक को तथा "च" शब्द से अन्य अपकाय के अश्रित जीवों को तीर्थकर प्रभु की आज्ञा से अच्छी तरह जानकर उनकी आज्ञानुसार उनका अस्तित्व मानकर आत्मकल्याण के अभिलापी मुनियों को सयम का पालन करना चाहिये। सूत्रस्थलोक शब्द यहा प्रकरण के वश से अप् काय का बोधक है। "च" शब्द से तदाधित अन्य जीवों का ग्रहण हुआ है। "अकुतोभय" शब्द का अर्थ सयम है कही से भी किसी તેને સમજાવવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે હે શિષ્યતમારી બુદ્ધિ અાયિક વગેરે જેની શ્રદ્ધા કરવામાં તેમના વિષે સવિશેષ જ્ઞાનના અભાવના લીધે જે સમર્થ નથી તે પણ ભગવાનની આજ્ઞાથી તે પ્રત્યે તમે પિતાની શ્રદ્ધાને દૂષિત થવા દેશો નહિ એટલે કે ભગવાનની આજ્ઞા પ્રમાણુ માનીને મદ બુદ્ધિવાળા શિષ્યોએ તેમના પ્રત્યે પિતાની વધારેમાં વધારે શ્રદ્ધા बयत ४२वी ने सूत्रा२ मा प्रयोजनयी ४ छ है "लोग व आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभय " इति । सय ३५ ३२ तेमा 'च' शपथी બીજા અષ્કાયાશ્રિત જીને તીર્થ કર પ્રભુની આજ્ઞાથી સારી પેઠે સમજીને તેમની આજ્ઞા મુજબ તેમનુ આસ્તિત્વ માનીને આત્મકલ્યાણને ઈચ્છનારા મુનિઓએ સયમનું પાલન કરવું જોઈએ સૂત્રમાં આવેલ “લેક” શબ્દ અહીં પ્રકરણ વશાત્ અખાયને વાચક છે “' શબ્દથી તદાશ્રિત બીજા જીતુ अक्षय थयु छ ' अछुतोभय " शहना अर्थ सयम छे पY . એથી કઈ પણ રીતે અને જેનાથી ભય હેતું નથી તે છે
યમ
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका ० १६ द्रोपदोचर्चा
३११
सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सब्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हतव्त्रा न अज्जा चेयच्या, न किलायच्या, न उद्दवेयन्त्रा ।
एस धम्मे सुद्धे णितिए सासए समेच्चा लोयं खेय ने हिं पवेइए । आई धर्मएव द्वेय इति बोधयितु श्रीसुधर्मास्वामी माह " से बेमि " इत्यादि । तोयरे स्वस्वनिध्येभ्यो यत् सम्यवत्वमुक्त तदह ब्रवीमि । यद्वा' से ' इत्यस्य 'स' इविच्छाया । येन मया भगदतः श्री वर्धमानर वामिनस्तीथपरस्य सकाशे तद्वचनतरसवज्ञान लब्ध, सोsह प्रवीमि । - भगदुक्तार्थमेष कथयामि, तस्मान्मम वाक्य श्रद्धेयमितिभावः ।
पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न ह्तव्या, न अज्जावेयेव्या, न परिघेत्तव्वा, न परितावेयव्धा न किलामेयच्या, न उद्दवेयच्चा । एम धम्मे सुद्धे णिति समेच्चा लोय खेद्यन्नेहिं पवेइए" (आ. सू० अ४ १ ० १ ) श्री सुधर्मा स्वामी इम सूत्र द्वारा जम्बूस्वामी को यह समझाते है कि अप्रभु द्वारा प्रतिपादिन धर्म ही श्रद्धा करने योग्य हैं - वे इसमें करते हैं कि तिथंकर देवो ने अपने २ शिष्यों के लिये जिस सम्यक्त्व का कथन किया है वही तत्व उन तीर्थंकर प्रभुके वचनो द्वारा श्रवण कर मैं तुम्हें समझाता हूँ अर्थात् में अपनी निजी कल्पना से इस विषय में कुछ भी न कह कर जो कुछ तुम्हें समझाउँगा वह तीर्थकर प्रभु की मान्यतानुसार ही समझाऊँगा अत इस में सदेह के लिये थोडी सी भी जगह नहीं है - इसलिये इस मेरे कथन का मूलस्रोत जय श्री तीर्थकर प्रभु का उपदेशश्रवण है तब यह श्रद्धेय-श्रद्धा करने योग्य आवश्य है भगवान् का यह आदेश है कि जितने भी पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हतन्या, न अज्जावेयन्ना, न परिधेत्तव्या न परितावेयव्वा, न किलामेयव्वा, न उद्दवेयव्या । एस धम्मे सुद्धे जितिए सभेन्चा होय सेयनेहि पवेइए " ( आ सू अ ४ उ १ सू १ ) શ્રી સુધર્મા સ્વામી આ સૂત્ર વડે શ્રી જખૂ સ્વામીને આ પ્રમાણે સમજાવે છે કે અહુત પ્રભુ વડે પ્રતિપાતિ ધમ જ શ્રદ્ધેય છે, તેએ આ સૂત્રમા કહે છે કે તીર્થંકર દેવાએ પેાતપાતાના નિષ્યા માટે જે સમ્યકત્વનું નિરૂપણ કર્યુ છે તે જ તત્ત્વ તીર્થંકર પ્રભુના મુખથી શ્રવણ કર્યા ખાદ
તમને સમજાવી રહ્યો
છુ એટલે હુ પેાતાની મેળે આમા કઈ પણ ઉમેર્યાં વગર તીર્થંકર પ્રભુની માન્યતા મુજખ જ તમને સમજાવીશ એવી અમા રાકાને માટે સહેજ પણ સ્થાન નથી આ પ્રમાણે જ્યારે મારા કથનના મૂળ સ્રોત શ્રી તીર્થંકર પ્રભુનુ ઉપદેશ --- છે ત્યારે તે શ્રદ્રેય જ છે ભગવાનની આ પ્રમાણે આજ્ઞા છે કે
46
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
साताधर्मपाल अकृतोगय' इत्यस्य-" अणुपालिज्जा" इत्यनेनावयाद आतोमर्यसयमम् अनुपालयेदित्यपि भगरदार, तथा च सयमस्याऽऽराध्यतया सिरानात् सयमस्य धर्मत्व वो यम् ।
अपर च-उत्तराध्ययनमूने-"धम्माण कासगो मुह " इत्युक्तम् " धम्माण" धर्माणा श्रुतधर्माणां चारित्रमागा च "कासमो"काश्यपः काश्यपगोत्रीयः श्रीमहावीरवर्धमानस्वामी " मुह " मुख वक्ता पर्वते ।।
अहिंसादौ खलु भगरतोऽईत आशा वर्तते, पश्यागमेपु । यथा-आचारागसत्र___ "से घेमि-जे य अतीता, जे य पदुष्पन्ना, जे य आगमिस्सा अरहता भगवतो, ते सव्वेवि एपमाइग्खति ए भासति एस पण्णति एप परवेति'अकुत्तोभय' इस पद का “ अणुपालिला" इस क्रियापद के साथ अन्वय करने से यह अर्थ होता है कि अकुतोभयरूप सयम का पालन करना चाहिये, यह भी जय भगवान को आज्ञा ही है तो इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भगवान को आज्ञा से सयम आराधन करने लायक होने से धर्म रूप है। अपर च-उत्तरा ययन सूत्र में "धम्माण कासवो मुह" यह कहा है इसका भाव यह है कि श्रुत एव चारित्र धर्मों के मुख-वक्ता-काश्यय गोत्रीय श्री महावीर वर्धमान स्वामी हैं। देखो उन्हो ने आगमों में अहिंसादिक महावतो के पालने का मुमुक्षुओं मोक्षाभिलाषियो के लिये इस प्रकार आजा प्रदान की है "से वेमि-जे य अतीता जे य पड़प्पना जे य आगमिस्सा अरहता भगवतो ते सव्वे वि एवमाइकावति एव भासति एव पण्णवेति एव परुति” सम्वे 'अकुतोभय " म पहने। 'अणुपालिज्जा' मायापहनी साथै अन्य ४२ વાથી આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે કે અકુભવ રૂ૫ સયમનું પાલન કરવું જોઈએ આ પણ ભગવાનની જ આજ્ઞા છે તે એનાથી આ વાત સ્પષ્ટ થઈ જાય છે કે ભગવાનની આજ્ઞાથી સમ” આધવા ચગ્ય હોવાથી ધર્મરૂપ छ भने वणी उत्तराध्ययन सूत्र'मा " धम्माण कासवो मुह" मामा
નો ઉલ્લેખ છે એનો અર્થ એમ થાય છે કે શ્રુત અને ચારિત્ર ધર્મેના મુખ્ય–વતા-કાશ્યપ ગોત્રીય શ્રી મહાવીર વર્ધમાન સ્વામી છે તેઓશ્રીએ અહિંસા વગેરે મહાવ્રતના પાલન કરનારા મેક્ષ ઈચ્છનારા લોકોને માટે આગમામ આ જીતની આજ્ઞા કરી છે કે –
"से मि-जे य अतीता जे य पहुवन्ना जे य आगमिस्सा अरहता भगवती हे सन्चे वि एवमाइस्खति एवं भासति एव पण्ण वि एव । सम्बे
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममता रचर्मामृतपचिणी टो० ० १६ प्रौपदीचर्चा
३१५
तयोरपि ग्रहणम्, तथा च ' एवमाचख्यु, एवमाख्यास्यन्ति ' इत्यपि योजनी • यम् । एवं सर्वासु क्रियान योजनीयम् । तथा एव "भासंति " भाषन्ते=सुरनरपरिपदि सर्वजीवाना स्वस्वभाषापरिणामिन्याऽर्धमागध्या भापया ध्रुवन्ति । तथा - एव" पण्णत्रेति " प्रज्ञापर्यात हेतुदृष्टान्तादिना प्रकर्षेण बोधयन्ति । तथाएव 'पति' रूपयन्ति तत्तद्भेद मदश्य मरुर्पेण निर्णयन्ति ।
ननु सर्वेऽप्यन्तो भगवन्तः - किमाख्यान्तीत्यादिजिज्ञासायामाह -' सच्चेपाणा ' इत्यादि । सर्वे निरपशेपाः प्राणाः = प्राणिनः पृथिव्यादयः स्थावरा
"
(C
"
कर परिग्रह रूप से सग्रह करने योग्य, अन्न, पान आदि के निरोध एव गर्मीसर्दी आदिमें रखने से कभी भी पीडा पहुँचाने योग्य और विषप्र दान एव शस्त्र के आयात से विनाश करने योग्य नहीं है । सूत्र आइक्वति - आख्यान्ति यह वर्तमानकालिक-क्रिया पद अतीत और अनागतकालिक क्रियापद का उपलक्षक है | अतः इस से यह अर्थ प्रतीत होता है कि उन तीर्थकर प्रभुओ ने वर्तमान में जैसा कहा है वैसा ही उन्हों ने या अन्य भूत कालिक तीर्थकरों ने भूत काल में भी कहा है एव आगामी कालमे भी वे वैसा ही कहेंगे । इसी प्रकार " भासति पण्णवेंति" इत्यादि क्रियापदो के साथ भी अतीत और अनागत कालिक क्रियादोंका सबध कर लेना चाहिये । इस कथन से सूत्रकार ने उनके कथन में परस्पर में विरुद्ध अर्थकी प्ररूपणा का अभाव प्रदर्शित किया है जो कुछ उन्हो ने कहा है । वह भूत, भविष्यत और वर्तमान काल में से किसी भी काल में किसी भी
એવુ સમજીને પરિગ્રહ રૂપથી સગ્રહ કરવા ચૈાગ્ય, કે અન્ન, પાન વગેરેના નિરાધ અને ગર્મી, ઠંડી વગેરેમા રાખીને કાઇ પણુ વખતે પીડિત કરવા ચેાગ્ય અને વિષ આપીને તેમજ શસ્રના આઘાતથી વિનાશ કરવા યાગ્ય નથી
सूत्रमा " आइक्सति भारयान्ति " मा वर्तमानासि द्वियायः व्यतीत તેમજ અનૌગત કાલિક ક્રિયાપદનુ ઉપલક્ષક છે એથી એના વડે આ જાતના અર્થની પ્રતીતિ થાય છે કે તે તીર્થંકર પ્રભુએએ વમાનકાળમા જે પ્રમાણે કહ્યુ છે, તે પ્રમાણે જ તેઓએ અથવા તે બીજા ભૂતકાલિક તીર્થંકરાએ ભૂતકાળમા પણુ કહ્યુ છે અને ભવિષ્યકાળમાં પણ તે તે પ્રમાણે જ કહેશે આ રીતે " भासवि, पण्णवे वि " वगेरे हियापहोनी साथै पशु अतीत भने अनाગત કાલિક ક્રિયાપદેશના સબધ જોડવે જેઈએ આ કથનથી સૂત્રકારે તેમના કથનમાં પરસ્પરમા વિરૂદ્ધ અર્થની પ્રરૂપણાના અભાવ બતાયૈ છે તેમણે જે
था ४०
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
storeisurel
9
भगवदुक्तार्थमाह-" जे य अतीता" इत्यादि । ये च अतीताः = अतीतका लिया, ये च ' पड़प्पना प्रत्यु नाः= वर्तमानारिकाः पश्च भरतेषु पर वतेषु पञ्चमाविदेहेषु वर्तमानाः ये घ" आगमिस्या " आगामिनः - भविष्यत् कालमाविनः, ते सर्वेऽपि अर्हन्तो भगवन्तः ए = पक्ष्यमाणमारेण " भवखति " आख्यान्ति = परमनानसरे पथयन्ति । अत्र वर्तमानग्रहणमुपलक्षणं तेनातीतानागभूतकाल में तीर्थकर हुए है, वर्तमान काल में भी पांच भरत, पाच ऐरवत तथा पांच महाविदेह सम्पन्धी जितने भी तीर्थकर है और भविष्यत काल मे जो तीर्थकर रोंगे उन मय ने जब उनसे किसी ने प्रश्न किया, तो एक यही उत्तर दिया है देव एव मनुष्यों की सभा में अपनी सर्व भाषा में परिणमित हुई अर्धमागधीरूप दिव्यध्वनि द्वारा उन्हो ने समस्त जीवो को यही समझाया है, और हेतु दृष्टान्नो द्वारा इसी बात की पुष्टि की है। वक्तव्य विषय के भेद और प्रभेदों को प्रकट करते हुए उन्हों ने अच्छी तरह से यही प्ररूपणा की है कि समस्त प्राणी पृथिवी आदिक एकेन्द्रिय स्थावर जीवों से लेकर द्वीन्द्रि यादिक पचेद्रिय जीव पर्यन्त त्रस जीव, चतुर्दश भूतग्रामरूप समस्त भूत, नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति एव देवगति के समस्त जीव, एव अपने द्वारा किये गये कर्मों के उदय के फल स्वरूप सुख दुख आदि का अनुभव करने वाले समस्त सत्व दण्ड आदि द्वारा कभी भी ताइन करने योग्य, घात करने योग्य, ये मेरे आधीन हैं ऐमा ख्याल
३१२
ભૂતકાળમા જેટલા તીર્થંકર થયા છે, વર્તમાનકાળમાં પણ પાંચ ભરત, પાચ ઐશ્વત તથા પાચ મહાવિદેહ સાધી જેટલા તી કરે છે અને ભવિષ્યકાળમાં જેટલા તીર્થંકર થશે તે અયામાથી જ્યારે કોઈએ પ્રશ્ન કર્યો ત્યારે એક જ ઉત્તર આપ્યા છે, દેવ અને માણસેાની સભામા પેાતાની સર્વ ભાષામા રિ સુમિત થયેલી અધ માગધી રૂપ દિવ્યનિમા તેએએ બધા જીવેાને એજ વાત સમજાવી છે અને હેતુ તેમજ દૃષ્ટાતા વડે આ વાતનુ જ સમર્થાંન કર્યું છે વક્તવ્ય વિષયના ભેદ અને પ્રભેદને સ્પષ્ટ કરતા તેઓએ સરસ રીતે એજ પ્રરૂપણા કરી છે કે સમસ્ત પ્રાણીએ પૃથ્વિ વગેરે એકેન્દ્રિય સ્થાવર જીવેથી માડીને ઢીદ્રિય વગેરે ૫ ચેન્દ્રિય જીવ સુધીના ત્રસ જીવ, ચતુર્દશ ભૂતગ્રામ રૂપ સમસ્ત ભૃત, નરક ગતિતિયાઁચ ગતિ, મનુષ્ય ગતિ અને દેવ ગતિના ખધા જીવા, અને પેાતાના વડે કરવામા આવેલા કર્મોના Cયના ફળ સ્વરૂપ સુખ દુખ વગેરેને અનુભવતા ધા સર્વે ઇડ कोई प्य ખત તારન કરવા ચેમ્પ કે પાત વૈશ્ય, કે એએ
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टी० १० १६ द्रौपदीचर्या तयोरपि ग्रहणम् , तथा च-' एपमाचख्यु , एवमाख्यास्यन्ति' इत्यपि योजनी. यम् । एवं सर्वासु क्रियामु योजनीयम् । तथा-एव " भासंति " भाषन्ते-सुरनरपरिषदि सर्वजीवाना स्वस्वभापापरिणामिन्याऽर्धमाग या भापया त्रुवन्ति । तथा-एव" पण्णवेति " मज्ञापयन्ति हेतुदृष्टान्तादिना प्रकण गोधयन्ति । तथाएव परुति ' प्ररूपयन्ति-तत्तद्भेद मदर्य प्रकर्षण निर्णयन्ति ।
ननु सर्वेऽप्यहन्तो भगवन्त:-किमाख्यान्तीत्यादिजिज्ञासायामाह-' सव्वेपाणा ' इत्यादि । सर्व-निरवशेपाः, प्राणा: प्राणिनः, पृथिव्यादयः स्थावरा कर परिग्रह रूप से संग्रह करने योग्य, अन्न, पान आदि के निरोध एव गर्मासर्दी आदिमें रखने से कभी भी पीडा पहुँचाने योग्य और विपप्रदान एव शस्त्र के आपात से विनाश करने योग्य नहीं है।
सूत्र में “आइरखति-आख्यान्ति " यह वर्तमानकालिक-क्रिया पद अतीत और अनागतकालिक क्रियापद का उपलक्षक है। अतः इस से यह अर्थ प्रतीत होता है कि उन तीर्थ कर प्रभुओ ने वर्तमान में जैसा कहा है वैसा ही उन्हों ने या अन्य भूत कालिक तीर्थ करों ने भूत काल में भी कहा है एच आगामी कालमे भी वे वैसा ही कहेंगे। इसी प्रकार "भासति, पण्णवेति" इत्यादि क्रियापदों के साथ भी अतीत और अनागत कालिक क्रियादोंका सबध कर लेना चाहिये। इस कथन से सूत्रकार ने उनके कथन में परस्पर में विरुद्ध अर्थकी प्ररूपणा का अभाव प्रदर्शित किया है जो कुछ उन्हो ने कहा है। वह भूत, भविष्यत और वर्तमान काल में से किसी भी काल में किसी भी એવુ સમજીને પરિગ્રહ ૩૫થી સંગ્રહ કરવા ચોગ્ય, કે અન્ન, પાન વગેરેને નિરોધ અને ગમી, ઠડી વગેરેમાં રાખીને કોઈ પણ વખતે પીડિત કરવા ગ્ય અને વિષ આપીને તેમજ શાસ્ત્રના આઘાતથી વિનાશ કરવા યોગ્ય નથી
सूत्रमा “ भाइक्सति आरयान्ति " A1 पतमानात याप४ मतीत તેમજ અનાગત કાલિક ક્રિયાપદનુ ઉપલક્ષક છે એથી એના વડે આ જાતના અર્થની પ્રતીતિ થાય છે કે તે તીર્થંકર પ્રભુઓએ વર્તમાનકાળમાં જે પ્રમાણે કહ્યું છે, તે પ્રમાણે જ તેઓએ અથવા તે બીજા ભૂતકાલિક તીર્થંકરએ ભૂત કાળમાં પણ કહ્યું છે અને ભવિષ્યકાળમાં પણ તેઓ તે પ્રમાણે જ કહેશે આ रीत " भासति, पण्णवे वि" कोरे हियापोनी साये ५९ मतीत अने भनाગત કાલિક ક્રિયાપદનો સબંધ જેડ જોઈએ આ કથનથી સૂત્રકારે તેમના કથનમા પરમ્પરમા વિરૂદ્ધ અર્થની પ્રરૂપણાનો અભાવ બતાવ્યો છે તેમણે જે
या ४०
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
१२
पातामा भगवदुक्तार्थमा-"जे य अतीता" इत्यादि। ये च अतीता अतीतका लियाः, ये च ' पहप्पना प्रत्युत् नाः चर्तमानकारिफाः पचभरतेपु पोर बतेपु पञ्चमहाविदेहेपु वर्तमानाः, ये च " आगमिस्मा" आगामिना भविष्यत् कालभाविनः, ते सर्वेऽपि अन्तिो भगवन्तःक्ष्यमाणप्रकारेण "आइवखति" आख्यान्ति-परमश्नावसरे पथयन्ति । अत्र वर्तमानग्रहणमुपरक्षण तेनातीतानामभूतकाल में तीर्थ कर छुप है, वर्तमान काल में भी पांच भरत, पाच ऐरक्त तथा पाच माविदेर सम्बन्धी जितने भी तीर्थकर हैं और भविष्यत काल मे जो तीर्थकर होंगे उन मय ने जय उनसे किसी ने प्रश्न किया, तो एक यही उत्तर दिया है देव एव मनुष्यों को समा में अपनी सर्वभाषा में परिणमित हुई अर्धमागधीरूप दिव्यावनि हारा उन्हो ने समस्त जीवों को यही समझाया है, और हेतु, दृष्टान्तो धारा इसी रात की पुष्टि की है। वक्तव्य विषय के भेद और प्रभेदों को प्रकट करते हुए उन्हों ने अच्छी तरह से यही प्ररूपणा की है कि समस्त प्राणी पृथिवी आदिक एकेन्द्रिय स्थावर जीवों से लेकर द्वीन्द्रि यादिक पचेन्द्रिय जीव पर्यन्त स जीव, चतुर्दश भूतग्रामरूप समस्त भूत, नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुप्यगति ण्य देवगति के समस्त जीव, एव अपने द्वारा किये गये कर्मों के उदय के फल स्वरूप सुख दुख आदि का अनुभव करने वाले समस्न सत्व दण्ड आदि द्वारा कभी भी ताडन करने गेग्य, घात करने योग्य, ये मेरे आधीन हैं ऐसा ख्याल ભૂતકાળમાં જેટલા તીર્થ કર થયા છે, વર્તમાનકાળમાં પણ પાચ ભરત, પાચ ઐવત તથા પાચ મહાવિદેહ સબ ધી જેટલા તીર્થ કરે છે અને ભવિષ્યકાળમાં જેટલા તીર્થ કરે થશે તે બધામાથી જ્યારે કોઈએ પ્રશ્ન કર્યો ત્યારે એક જ ઉત્તર આપે છે, દેવ અને માણસોની સભામાં પિતાની સર્વ ભાષામાં પરિ સુમિત થયેલી અર્ધમાગધી રૂ૫ દિવ્યવનિમા તેઓએ બધા ને એજ વાત સમજાવી છે અને હેતુ તેમજ દષ્ટાતે વડે આ વાતનું જ સમર્થન કર્યું છે વક્તવ્ય વિષયને ભેદ અને પ્રભેદને સ્પષ્ટ કરતા તેઓએ સરસ રીતે એજ પ્રરૂપણ કરી છે કે સમસ્ત પ્રાણીઓ પૃથ્વિ વગેરે એકેન્દ્રિય સ્થાવર જીથી માડીને તીવ્રય વગેરે પચેન્દ્રિય જીવ સુધીના ત્રસ જીવ, ચતુર્દશ ભૂતગ્રામ રૂપ સમસ્ત ભૂત, નરક ગતિ તિર્યંચ ગતિ, મનુષ્ય ગતિ અને દેવ ગતિના બધા છે, અને પિતાના વડે કરવામાં આવેલા કર્મોના ઉભા ફળ વરૂપ સુખ દુખ વગેરેને અનુભવતા બધા સ દડ વ1...કોઈ પણ વખત તાડન કરવા લાગ્યા કે વાત કરવા પ્રેગ્ય,કે એઓ -
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
मनगारधर्मामृतयपिणी टी० अ० १८ प्रौपदीचर्या तयोरपि ग्रहणम् , तथा च-' एवमाचख्यु , एवमारयास्यन्ति' इत्यपि योजनी. यम् । एव सामु क्रियामु योजनीयम् । तथा-एच “ भासंति " भाषन्ते-सुरनरपरिपदि सर्वजीवाना स्वस्वभापापरिणामिन्याऽर्धमागध्या भापया त्रुवन्ति । तथा-एव" पग्णवेति" प्रज्ञापयन्ति हेतुदृष्टान्तादिना प्रकण गोधयन्ति । तथाएव परुति ' प्ररूपयन्ति-तत्तद्भेद मदर्य प्राण निर्णयन्ति ।
ननु सर्वेऽप्यन्तिो भगवन्तः-किमाख्यान्तीत्यादिजिज्ञासायामाह-' सम्वेपाणा' इत्यादि । सर्वे निरवशेषाः, प्राणा: प्राणिनः, पृथिव्यादयः स्थावरा कर परिग्रह रूप से संग्रह करने योग्य, अन्न, पान आदि के निरोध एव गर्मीसर्दी आदिमें रखने से कभी भी पीडा पहुँचाने योग्य और विषप्र दान एव शस्त्र के आरात से विनाश करने योग्य नहीं है।
सूत्र में “आइक्खति-आख्यान्ति " यह वर्तमानकालिक-क्रिया पद् अतीत और अनागतकालिक क्रियापद का उपलक्षक है। अतः इस से यह अर्थ प्रतीत होता है कि उन तीर्थ कर प्रभुओ ने वर्तमान में जैसा कहा है वैसा ही उन्हों ने या अन्य भूत कालिक तीर्थ करों ने भूत काल में भी कहा है एच आगामी कालमे भी वे वैसा ही कहेंगे। इसी प्रकार "भासति, पणति" इत्यादि क्रियापदों के साथ भी अतीत और अनागत कालिक क्रियादोंका सबध कर लेना चाहिये । इस कथन से सूत्रकार ने उनके कथन में परस्पर में विरुद्ध अर्थकी प्ररूपणा का अभाव प्रदर्शित किया है जो कुछ उन्हो ने कहा है। वह भूत, भविष्यत और वर्तमान काल में से किसी भी काल में किसी भी એવુ સમજીને પરિગ્રહ રૂપથી સંગ્રહ કરવા યોગ્ય, કે અન્ન, પાન વગેરેને નિરોધ અને ગમી, ઠડી વગેરેમાં રાખીને કઈ પણ વખતે પીડિત કરવા યોગ્ય અને વિષ આપીને તેમજ શઆના આઘાતથી વિનાશ કરવા ગ્ય નથી
सूत्रमा “ भाइक्सति आरयान्ति " मा पतभानानि याप: मतीत તેમજ અનાગત કાલિક ક્રિયાપદન ઉપલક્ષક છે એથી એના વડે આ જાતના અર્થની પ્રતીતિ થાય છે કે તે તીર્થ કર પ્રભુએ વર્તમાનકાળમાં જે પ્રમાણે કહ્યું છે, તે પ્રમાણે જ તેઓએ અથવા તે બીજા ભૂતકાલિક તીર્થકરોએ ભૂત કાળમાં પણ કહ્યું છે અને ભવિષ્યકાળમાં પણ તેઓ તે પ્રમાણે જ કહેશે આ शत “ भासति, पण्णवे ति" पोरे यापहोनी साये ५ अतीत अने मना ગત કાલિક ક્રિયાપદનો સબધ જોડવે જઈએ આ કથનથી સૂત્રકારે તેમના ૩થનમાં પરસ્પરમાં વિરૂદ્ધ અર્થની પ્રરૂપણાનો અભાવ બતાવ્યા છે તેમણે જે
.
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञाताधर्मकथा
,
दीन्द्रियादिपशेन्द्रियपर्य तारसायेत्यर्थः इन्द्रियादिमाणाना यथासम्भवधार नात् तेषु प्राणिश्वमस्तीति भावः । तथा स ' भूया ' भूताः = भान्ति भविष्यन्त्यभून्निति भूताः - चतुर्दशभूतग्रामरूपाः, तथा सर्वे जीवश =जीवन्ति जीवियत्त्यजीनिषु रितिजीवाः- नारक तिर्यद् मनुष्य देवाः, तथा - सर्वे "सत्ता "सया:= प्रमाण द्वारा वाधित नही हो सकने से पूर्वापर निरोध रहित ही कहा है । " प्राण शब्द से सूत्रकार ने स और स्थावर प्रणियों का ग्रहण किया है। क्यो कि १० द्रव्य प्राणो में से इनको अपने २ योग्य प्राणो का सद्भाव पाया जाता है । अत इनके सद्भाव से ही ये प्राणी कहे जाते हैं । " भवन्ति, भविष्यन्ति, अभूवन् " यह भूत शब्द की व्युत्पत्ति है । इसका भाव यही है कि जो वर्तमान में सत्ता विशिष्ट है, आगामी काल में सत्ता विशिष्ट रहेंगे एव भृतकाल में भी जो सत्ता विशिष्ट थे । इस व्युत्पत्ति से सूत्रकार ने यह प्रदर्शित किया है कि प्रत्येक जीवादिक पदार्थ किसी भी काल में उत्पाद और व्यय धर्म विशिष्ट होते हुए भी अपनी सत्ता से रहित नहीं होते हैं। क्योंकि द्रव्य का " उत्पादव्ययधौव्य सत् " उत्पाद, व्यय और धव्य ये स्वभाव है । इससे यह बात निश्चित कोटि में आता है कि किसी भी नवीन पदार्थ का उत्पाद नहीं होता है और न सत् पदार्थ का विनाश ही होता है।" सतो विनाश. असतश्चोत्पादो न " जीवन्ति, जीविष्यन्ति, अजीचिपु " यह जीव शब्द की व्युत्पत्ति है। કઈ કહ્યુ છે તે ભૂત ભવિષ્યત અને વર્તમાનકાળમાથી કોઈ પણ કાળમા ગમે તે પ્રમાણુ દ્વારા બાધિત નહિ હોવા અદ્દલ પૂર્વીપર વિરાધ રહિત જ કહ્યુ છે,
"
66
३१७
"
39 प्राण શબ્દ વડે સૂત્રકારે ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણીઓનુ ગ્રહણ કર્યુ છે કેમકે ૧૦ દ્રવ્ય પ્રાણામાથી એમનામા પાતપેાતાને ચૈાગ્ય પ્રાણાના સદૂભાવ भजे छे येथी शोभना सहूलावथी ? तेथे आणी हेवाय छे" भवति, भविष्यति, अभूवन् આ ભૂત શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે. એના અથ આ પ્રમાણે છે કે વર્તમાનકાળમા જે સત્તા વિશિષ્ટ છે, તેએ ભવિષ્યકાળમાં સત્તા વિશિષ્ટ રહેશે અને ભૂતકાળમા પણ જે સત્તા વિશિષ્ટ હતા. આ વ્યુત્પત્તિ વડે સૂકારે એ બતાવ્યુ છે કે દરેકે દરેક જીવ વગેરે પદાર્થ કાઈ પણ કાળમા "ને વ્યયધમ વિશિષ્ટ હાવા છતાએ પેાતપેાતાની સત્તાથી રહિત હૈાતા
या " उत्पादव्ययधौव्य सत्" उत्पाद, व्यय भने श्रीव्य એથી એ વાત ચેાક્કસ રીતે સ્પષ્ટ થાય છે કે કોઈ પણ નવીન
થતા નથી અને સત્ પદાર્થના વિનાશ પણ થતે નથી असतधोत्पादो न " " जीवन्ति, जीविष्यन्ति, अजीविषु " मा
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवर्षिणी ठोका अ० १६ द्रौपदीची
३१५ स्वकृतमर्मजन्यमुखदुःसानुभविनः । अत्र सर्वप्राणिपु पुन पुनर्दयाकरणाय पर्यायशब्दप्रयोगः । ___'न हतन्या' न हन्तव्याः दण्डादिभिर्न ताडयितव्या इत्यर्थ , "न अज्जावेयया" नानापयितन्या:-न पातयितव्या इत्यर्थः, " न परिघेत्तव्या" न परिग्रहीवव्या इमे ममायत्ता इति कृत्वा परिग्रहरूपेण न स्वीकर्तव्या, "न परिताजो जीते है, जीवेंगे और जिये है, इस कथन से मूत्रकार ने जीव में त्रिकाल में भी जीवनत्व धर्म का अभाव नहीं होता है यह प्रदर्शित किया है चाहे जीव एक इन्द्रिय अवस्थावाला भी हो तो भी वह जीवन अवस्था से रहित नहीं होता है इससे वृक्षादिको में अचेतनता मानने वाले घौद्ध आदिकों का मन्तव्य खडित होता है।
सूत्र में प्राणी, भूत, और सत्त्व इन एकार्थक पर्यायवाची शब्दों का जो सूत्रकार ने प्रयोग किया है उनका मुख्य प्रयोजन “समस्त जीवों में पारवार दया करनी चाहिये "है।। ___ यह वीतरागप्रभु द्वारा प्रतिपादित प्राणातिपातविरमणरूप धर्मशुद्ध पापानुबन्ध रहित है । इस कथन से सूत्रकार ने इस बात की पुष्टि की है जो अवीतराग-शाक्य आदि द्वारा धर्मरूप से प्रतिपादित हुआ है तथा जिसे उन्होंने धर्मरूप से स्वीकार किया है वह वास्तविक धर्म नहीं है । कारण कि इनमें हिंसादिक दोपो का सद्भाव पाया जाता है इनके જીવ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે જેઓ જીવે છે, જીવશે અને જીવ્યા છે આ કથન વડે સૂત્રકારે જીવમા ત્રિકાળમાં પણ જીવનવ ધર્મને અભાવ થતું નથી આ વાત સ્પષ્ટ કરી છેભલે તે જીવ એક ઈન્દ્રિય અવસ્થાવાળો હોય છતાએ તે જીવન અવસ્થાથી રહિત થતું નથી આ કથનથી વૃક્ષ વગેરેમા અચેનતા માનનારા બૌદ્ધ વગેરેના મતનુ ખડન થઈ જાય છે
સૂવારે સૂત્રમાં જે પ્રાણી, ભૂત અને સત્વ આ બધા એકાઈક પર્યાય વાચી શબ્દોને જે પ્રયોગ કર્યો છે તેનું ખાસ કારણ “બધા છોમા વારવાર સદાય રહેવું જોઈએ ” તે જ છે
વીતરાગ પ્રભુ વડે પ્રતિપાદિત પ્રાણાતિપાત વિરમણું રૂપ આ ધર્મ શુદ્ધ પાપાનુબન્ધ રહિત છે આ કથનથી સૂત્રકારે એ વાતને પુષ્ટ કરી છે કે જે અવીતરાગ-શાય વગેરે દ્વારા ધર્મ-રૂપથી પ્રતિપાદિત થયો છે તેમજ તેમણે જેને ધર્મ–રૂપથી સ્વીકાર્યો છે તે ખરેખર ધર્મ નથી કેમકે તેમાં હિંસા વગેરે દેને સદૂભાવ છે અસર્વજ્ઞ તથા રાગયુક્ત લોકે દ્વારા પ્રતિપાદિત હેવાને
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापण्या द्वीन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यताबसायेत्यर्थः, द्रियाटिमाणानां यथासम्भधारणात् तेषु माणिस्वमस्तीति भावः । तथा-सरें भूया' भूताः भान्ति भविष्यन्त्यभूवन्निति भूता:-चतुर्दशभूतग्रामरूपाः, तथा-सर्ये जी जीवन्ति जीवि प्यत्यजीविपु रिति जीवाः-नारकतिर्यमनुष्यदेवाः, तया-सर्व "सत्ता" सत्ताक प्रमाण द्वारा नाधित नही हो सकने से पूर्वापर विरोध रहित हरी कहा है। "प्राण' शब्द से सूत्रकार ने इस और स्थावर प्रणियो का ग्रहण किया है। क्यो कि १० द्रव्य प्राणो में से इनको अपने २ योग्य प्राणो का सद्भाव पाया जाता है। अत' इनके सदाय से ही ये प्राणी कहे जाते हैं। " भवन्ति, भविष्यन्ति, अभूवन् "यह भूत शब्द की व्युत्पत्ति है । इसका भाव यही है कि जो वर्तमान में सत्ता विशिष्ट हैं, आगामी काल में सत्ता विशिष्ट रहेंगे एव भूतकाल में भी जो सत्ता विशिष्ट थे । इस व्युत्पत्ति से सूत्रकार ने यह प्रदर्शित किया है कि प्रत्येक जीवादिक पदार्य किसी भी काल में उत्पाद
और व्यय धर्म विशिष्ट होते हुए भी अपनी सत्ता से रहित नहीं होते हैं। क्यों कि द्रव्य का " उत्पादव्ययधौव्य सत् " उत्पाद, व्यय
और ध्रौव्य ये स्वभाव है । इससे यह यात निश्चित कोटि में आता है कि किसी भी नवीन पदार्य का उत्पाद नहीं होता है और न सत् पदार्थ का विनाश ही होता है। "सतो विनाश. असतश्चोत्पादो न" " जीवन्ति, जीविष्यन्ति, अजीविपु" यह जीव शब्द की व्युत्पत्ति है । કઈ કહ્યું છે તે ભૂત ભવિષત અને વર્તમાનકાળમાથી કોઈ પણ કાળમાં ગમે તે પ્રમાણ દ્વારા બાધિત નહિ હોવા બદલ પૂર્વાપર વિરોધ રહિત જ કહ્યું છે, "प्राण" श४ १3 सूत्ररे उस भने स्था१२ प्राणीभानु अहए युं छे કેમકે ૧૦ દ્રવ્ય પ્રાણેમાથી એમનામા પોતપોતાને ગ્ય પ્રાણોને સદ્દભાવ भने छ मेथी मना समाथी तसा प्राणी उपाय छ " भवन्ति, भविष्यन्ति, अभूवन " मा भूत शहनी व्युत्पत्ति छे मन मयमा प्रमाणे છે કે વર્તમાનકાળમાં જેઓ સત્તા વિશિષ્ટ છે, તેઓ ભવિષ્યકાળમાં સત્તા વિશિષ્ટ રહેશે અને ભૂતકાળમાં પણ જેઓ સત્તા વિશિષ્ટ હતા આ વ્યુત્પત્તિ વડે સૂત્રકારે એ બતાવ્યું છે કે દરેકે દરેક જીવ વગેરે પદાર્થ કોઈ પણ કાળમાં ઉત્પાદ અને વ્યયધર્મ વિશિષ્ટ હોવા છતાએ પિતાની સત્તાથી રહિત હોતા नयी भो दयनी " उत्पादव्ययध्रौव्य सतू " Gult, व्यय मन धोव्य સ્વભાવ છે એથી એ વાત ચોક્કસ રીતે સ્પષ્ટ થાય છે કે કોઈ પણ નવીન પદાર્થને ઉત્પાદ થતું નથી અને સત્ પદાર્થને વિનાશ પણ તે નથી "सतो विनाश असतधोत्पादो न" " जीवन्ति, जीविष्यन्ति,
मा.
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपंणी ठोका म० १६ द्रौपदीचच
३५
स्वकृत कर्मजन्यसुखदुःसानुभविनः । अन सर्वप्राणिषु पुन पुनर्दयाकरणाय पर्यायशब्दप्रयोगः |
' न इतन्त्रा ' न हन्तन्याः = दण्डादिभिर्न ताडयितव्या इत्यर्थ, "न अज्जावेयना " नावापयितव्याः-न पातयितव्या इत्यर्थः, " न परिवेत्तत्रा " न परिग्रहीतव्या = हमे ममायत्ता इति कृत्वा परिग्रहरूपेण न स्वीकर्तव्या, न परिता
46
जो जीते हैं, जीवेंगे और जिये है, इस कथन से सूत्रकार ने जीन में त्रिकाल में भी जीवनत्व धर्म का अभाव नही होता है यह प्रदर्शित किया है चाहे जीव एक इन्द्रिय अवस्थावाला भी हो तो भी वह जीवन अवस्था से रहित नही होता है इससे वृक्षादिको में अचेतनता मानने वाले बौद्ध आदिकों का मन्तव्य खडित होता है ।
सूत्र में प्राणी, भूत, और मत्त्र इन एकार्थक पर्यायवाची शब्दों का जो सूत्रकार ने प्रयोग किया है उनका मुख्य प्रयोजन "समस्त जीवों में चारवार दया करनी चाहिये " है ।
यह वीतरागप्रभु द्वारा प्रतिपादित प्राणातिपात विरमणरूप धर्मशुद्ध पापानुवन्ध रहित है । इस कथन से सूत्रकार ने इस बात की पुष्टि की है जो अवीतराग - शाक्य आदि द्वारा धर्मरूप से प्रतिपादित हुआ है तथा जिसे उन्होंने धर्मरूप से स्वीकार किया है वह वास्तविक धर्म नही है । कारण कि इनमें हिंसादिक दोषो का सद्भाव पाया जाता है इनके
જીવ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે. જેએ જીવે છે, જીવશે અને જીવ્યા છે આ કથન વર્ક સૂત્રકારે જીવમા ત્રિકાળમા પણુ જીવનત્વ ધના અભાવ થતા નથી આ વાત સ્પષ્ટ કરી છે. ભલે તે જીવ એક ઇન્દ્રિય અવસ્થાવાળા હાય છતાએ તે જીવન અવસ્થાથી રહિત થતા નથી આ કથનથી વૃક્ષ વગેરેમા અચેનતા માનનારા બૌદ્ધ વગેરેના મતનુ ખડન થઈ જાય છે
સૂત્રકારે સૂત્રમા જે પ્રાણી, ભૂત અને સત્વ આ બધા એકાક પર્યાય વાચી શબ્દોના જે પ્રયોગ કર્યાં છે તેનુ ખાસ કારણુ “ બધા જીવેામા વારવાર સય રહેવુ જોઈએ ” તે જ છે
વીતરાગ પ્રભુ વડે પ્રતિપાદિત પ્રાણાતિપાત વિરમણુ રૂપ આ ધર્મ શુદ્ધ પાપાનુમન્ત રહિત છે આ સ્થનથી સૂત્રકારે એ વાતને પુષ્ટ કરી છે કે જે અવીતરાગ–શાય વગેરે દ્વારા ધર્મ-રૂપથી પ્રતિતિ થયા છે તેમજ તેમણે જેને ધ–રૂપથી સ્વીકાર્યા છે તે ખરેખર ધર્મ નથી કેમકે તેમા હિંસા વગેરે દોષાના સદ્દભાવ છે. અસજ્ઞ તથા રાગયુક્ત લેાકેા દ્વારા પ્રતિપાદિત હોવાને
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
এখানকাথায়
वेयव्या" न परितापयितव्या अन्नपानाघरोधनेन मीमातपादी स्थापनेन च न पीडनीयाः, "न फिलामेयया" नसामयितव्या-न खेदयितव्यान विष शस्त्रादिना मारयितव्याः। ___ एपः अनन्तरोक्तः सर्डिनगात्मरूपितः, धर्मः सर्गमाणिप्राणातिपातविरमण रूपः, शुद्धा निर्मल:-पापानुबन्धरहित-इत्यर्य । आईतवर्मादन्यस्तु धर्मत्वेन यः शाक्यादेरभिमतः स खल असशसरागोपदिष्टत्वेन हिंसाटिदोपसहावेन च न शुद इति भाषः । अत एव-एप नित्यः अविनाशी, सर्वदा पञ्चमु महानिदेहेषु सद्भाव का कारण उसमें असर्वज्ञ और मरागियों द्वारा प्रणीतता ही है पूर्ण ज्ञानीयो द्वारा प्रदर्शित मार्ग ही शुद्ध होता है इसका कारण उनमें राग देप का सर्वथा अभाव ही होता है। असर्वन या रागढेपकलपित. चित्तवालों द्वारा प्रदर्शित मार्ग इसलिये शुद्ध नहीं होता है कि वे एक तो उस विषय के पूर्ण ज्ञाता नहीं होते, दसरी अपनी रागदेपमयी प्रवृ. त्ति को पुष्ट करने के लिये उसकी अन्यथा भी प्ररूपणा कर देते हैं। ऐसा धर्म शाश्वतिक निल नहीं होता है-क्यों कि ऐसा धर्मका विशिष्ट ज्ञानियों केवलज्ञानियो द्वारा जीवों का कल्याण की कामना से निराक रण कर दिया जाता है । वीतरागप्रतिपादित धर्म ही अविनाशी रहता है, और उसीसे जीवों का सदा कल्याण होता रहता है । इसमे अन्य थाप्ररूपणाके लिये थोडी सी भी जगह नहीं मिलती है। पच महाविदेह क्षेत्रों में अब भी इस शुद्धधर्मका सद्भाव है। इसी अपेक्षा इसे सत्रकारने नित्य-अविनाशी कहा है । शाश्वतगतिरूप मुक्ति का कारण होने से લીધે જ તેમાં હિંસા વગેરે સદેષતા છે પૂર્ણજ્ઞાનીઓ વડે પ્રદર્શિત માર્ગે જ શુદ્ધ હોય છે કેમકે તેઓમા સ પૂર્ણ પણે રાગદ્વેષને અભાવ જ હોય છે અસર્વજ્ઞ કે રગદ્વેષ કલુષિત ચિત્તવાળા લોકે વડે પ્રતિપાદિત માર્ગ શુદ્ધ એટલા માટે હેત નથી કે તેઓ પ્રથમ તે તે વિષયને સ પૂર્ણ પણે જાણતા નથી અને બીજુ તેઓ પિતાની રાગદ્વેષમયી પ્રવૃતિને પુષ્ટ કરવા માટે તેની અન્યથા પ્રરૂપણ પણ કરી બેસે છે એ ધર્મ શાશ્વતિક–નિત્ય હેતે નથી કેમકે એવા ધર્મનું વિશિષ્ટ જ્ઞાનીએ-કેવળજ્ઞાનીઓ-વડે જીવની કલ્યાણ કામનાથી પ્રેરાઈને નિરાકરણ કરવામાં આવે છે વીતરાગ પ્રતિપાદિત ધર્મ જ અવિનાશી રહે છે, અને તેથી સર્વદા જીવનું કલ્યાણ થતું રહે છે આમા અન્યથા પ્રરૂપણા માટે અવકાશ જ નથી અત્યારે પણ પચવિદેહ ક્ષેત્રમાં આ શદ્ધ ધર્મનો સભાવ છે આ ધમને આ દૃષ્ટિથી જ સરકારે નિ, ? કહ્યો છે. શાશ્વત ગતિ રૂપ મુક્તિને હોવાથી આ ધ
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोहीका अ० १६ द्रौपदीयों सद्भावात् । तथा-शाश्वतः शाश्वतगतिकारणत्वात् । यद्वा-यतो नित्यस्तस्माच्छाश्वत हति । अयमेर धर्मः श्रद्धेयो ग्राह्यश्चेत्यत्र हेतु प्रदर्शयन् विशेषणान्तरमाहसमेत्य इत्यादि । लोक पटू जीननिकाय दुःखदावानलान्त पतित, समेत्य केवलज्ञानेन प्रत्यक्षतया विज्ञान, खेदजैः सर्वप्राणिदुःखाभिस्तीर्थकरैः प्रवेदितः= आदिष्ट । 'प्रवेदित' इत्यनेन धर्मोऽय मया न स्वमनीपया कल्पितः' इति च मुधर्मस्वामिना शिष्यमुधिष्य सूचितम् । अनुयोगद्वारेयह शाश्वत माना गया है अथवा हेतु हेतुमद्भाव से भी यों कह सकते है कि जिस कारण से यह नित्य है इसी कारण से यह शाश्वत माना गया है । अतः प्रत्येक मुमुक्षु जीवों द्वारा यह धर्म श्रद्धेय श्रद्धा करने योग्य एव ग्राह्य-आरापन करने योग्य है इस विषय मे पूर्वोक्तरूप से सूत्रकार हेतु का कथन कर उस धर्म की प्ररूपणा करने के कारण का प्रदर्शन करते हुए " समेत्य लोक खेदज्ञैः प्रवेदितः" कहते है कि समस्त प्राणीयों के दुखों के वेत्ता केवलज्ञानी प्रभु ने इस पटजीव निकायरूप लोक को प्रत्यक्षरूप से साक्षात् दुःखरूपी दावानल से जलता हुआ देखकर इस शुद्ध, शाश्वतिक धर्म का कथन किया है ।
भावार्थ-अनत सासारिक दुखो से सतत समस्त ससारी जीवों को साक्षात् हस्तामलकवत् देखकर दुःखो से उनके उद्धार के निमित्त वोतराग केवलज्ञानियोंने ही इस धर्म की प्ररूपणा की है। मैं ने अपनी ओर से इसका कथन नहीं किया है। इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बस्वामी को समझाते है। વામા આવે છે અથવા હેતુ-હેતુ મદુભાવથી પણ એમ કહી શકાય છે કે જે કારણને લઈને આ નિત્ય છે તે કારણથી જ આ શાશ્વત માનવામાં આવ્યું છે એથી દરેક મોક્ષને ઈચ્છનારા છ વડે આ ધમ શ્રદ્ધય-શ્રદ્ધા કરવા
ગ્ય અને ગ્રાહ્ય આરાધવા યોગ્ય છેઆ વિષે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત રૂપે હેતુનું ४थन प्रशने त धर्मनी ५३५ ४२ता “ समेत्य लोक खेदझे प्रवेदित " 3 છે કે બધા પ્રાણીઓના દુ ને જાણનારા કેવળજ્ઞાની પ્રભુએ આ વર્જીવ નિકાય રૂપ લેકને પ્રત્યક્ષ રૂપમાં સાક્ષાત દુ ખ રૂપી દાવાનળમાં સળગતા જોઈને શુદ્ધ, શાશ્વતિક ધર્મનું કથન કર્યું છે–
ભાવાર્થ–સ સારના બધા જીને અને તે સાસારિક દુખેથી હસ્તા મલકાવત્ સતત જોઈને તેમના ઉદ્ધાર માટે વીતરાગ કેવળજ્ઞાનીએ એ જ આ ધર્મનું નિરૂપણ કર્યું છે કે પિતાની મેળે આ કથન કર્યું નથી શ્રી સુધર્મા મચ્છામી પોતાના શિષ્ય જન્ સ્વામીને આ પ્રમાણે સમજાવે છે
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
এwথায় वेयधाम परितापयितव्या अन्नपानाघरोधनेन ग्रीष्मातपादी स्थापनेन च न पीडनीयाः, " न फिलामेया" नसामयितव्याम्न रोदयितव्याःम्न विष शस्त्रादिना मारयितव्याः। __ एपअनन्तरोक्ता सहिगत्मरूपित., धर्म: ममाणिप्राणातिपातत्रिरमण रूप., शुद्धा निर्मल:-पापानुवन्धरहित-इत्यर्थ । आईतवर्मादन्यस्तु धर्मस्वेन यः शाक्यादेरभिमतः स खलु असनिसरागोपदिएत्वेन हिंसादिदोपसद्भावेन च न शुद इति भावः । अत एर-एप नित्यः अविनाशी, सर्वदा पश्चम महाविदहेषु सद्भाव का कारण उसमें असर्वज्ञ और सरागियों द्वारा प्रणीतता ही है पूर्ण जानीयो द्वारा प्रदर्शित मार्ग ही शुद्ध होता है इसका कारण उनमें राग देप का सर्वथा अभाव ही होता है। असर्वज या रागढेपकलुपित. चित्तवालों द्वारा प्रदर्शिन मार्ग इसलिये शुद्ध नहीं रोता है कि वे एक तो उस विषय के पूर्ण ज्ञाता नहीं होते, दसरी अपनी रागद्वेपमयी प्रवृ. ति को पुष्ट करने के लिये उसकी अयया भी प्ररूपणा कर देते हैं। ऐसा धर्म शाश्वतिक नित्य नहीं होता है क्यों कि ऐसा धर्मका विशिष्ट ज्ञानियों केवलज्ञानियो द्वारा जीवों का कल्याण की कामना से निराकरण कर दिया जाता है । वीतरागप्रतिपादित धर्म ही अविनाशी रहता है, और उभीसे जीवों का मदा कल्याण होता रहता है। इसमे अन्य थाप्ररूपणाके लिये थोडी सी भी जगह नहीं मिलती है । पच महाविदेह क्षेत्रों में अब भी इस शुद्ध धर्मका सद्भाव है। इसी अपेक्षा इसे सूत्रकारने नित्य-अविनाशी कहा है। शाश्वतगतिरूप मुक्ति का कारण होने से લીધે જ તેમાં હિંસા વગેરે સદેષતા છે પૂર્ણજ્ઞાનીઓ વડે પ્રદર્શિત મા જ શુદ્ધ હોય છે કેમકે તેમાં મ પૂર્ણપણે રાગદ્વેષને અભાવ જ હોય છે અસર્વિસ કે રાગદ્વેષ કલુષિત ચિત્તવાળા લેકે વડે પ્રતિપાદિત માર્ગ શુદ્ધ એટલા માટે હોતો નથી કે તેઓ પ્રથમ તે તે વિષયને સપૂર્ણપણે જાણતા નથી અને બીજી તેઓ પિતાની રાગદ્વેષમયી પ્રવૃત્તિને પુષ્ટ કરવા માટે તેની અન્યથા પ્રરૂપણ પણ કરી બેસે છે એ ધર્મ શાશ્વતિક-નિત્ય હેતે નથી કેમકે એવા ધર્મનું વિશિષ્ટ જ્ઞાનીઓ-કેવળજ્ઞાનીઓ-વડે જીવોની કલ્યાણ કામનાથી પ્રેરાઈને નિરાકરણ કરવામા આવે છે વીતરાગ પ્રતિપાદિત ધર્મ જ અવિનાશી રહે છે, અને તેથી સર્વદા જીવનું કલ્યાણ થતું રહે છે આમ અન્યથા પ્રરૂપણા માટે અવકાશ જ નથી અત્યારે પણ પચવિદેહ ક્ષેત્રમાં આ થઇ ધર્મને સદભાવ છે આ ધર્મને આ દૃષ્ટિથી જ સૂત્રકાર મિ, - ૧ કહ્યો છે. શાશ્વત ગતિ ૫ મુકિતને ક હવાથી આ ધર્મ *
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
टीका० अ० १६ द्रौपवच
सद्भावात् । तथा शाश्वतः शाश्वत गतिकारणत्वात् । यद्वा-यतो नित्यस्वस्माच्छाश्वत इति । अयमेव धर्मः श्रद्धेयो ग्राह्यथेत्यत्र हेतु प्रदर्शयन् विशेषणान्तरमाह - समेत्य इत्यादि । लोक पट् जी निकाय दुःखदावानलान्त पतित, समेत्य = केत्रज्ञानेन प्रत्यक्षतया विज्ञान, खेदज्ञैः सर्वमाणिदुः साभिज्ञैस्तीर्थकरेः प्रवेदितः= आदिष्ट । ' प्रवेदित: ' इत्यनेन धर्मोऽय मया न स्वमनीपया कल्पितः' इति च धर्मस्वामिना शिष्यमुद्दिष्य सूचितम् | अनुयोगद्वारे -
३१७
यह शाश्वत माना गया है अथवा हेतु हेतुमद्भाव से भी यों कह सकते हैं कि जिस कारण से यह नित्य है इसी कारण से यह शाश्वत माना गया है | अतः प्रत्येक मुमुक्षु जीवों द्वारा यह धर्म श्रद्धेय श्रद्धा करने योग्य एव ग्राह्य-आराधन करने योग्य है इस विषय मे पूर्वोक्त रूप से सूत्रकार हेतु का कथन कर उस धर्म की प्ररूपणा करने के कारण का प्रदर्शन करते हुए "समेत्य लोक खेदज्ञः प्रवेदित' " कहते है कि समस्त प्राणीयों के दुखों के वेत्ता केवलज्ञानी प्रभु ने इस पट्जीव निकायरूप लोक को प्रत्यक्षरूप से साक्षात् दुःखरूपी दावानल से जलता हुआ देखकर इस शुद्ध, शाश्वतिक धर्म का कथन किया है ।
भावार्थ अनत सासारिक दुखो से सतप्त समस्त ससारी जीवों को साक्षात् हस्तामलकवत् देखकर दुःखो से उनके उद्धार के निमित्त वीतराग केवलज्ञानियोंने ही इस धर्म की प्ररूपणा की है। मैं ने अपनी ओर से इसका कथन नहीं किया है । इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी को समझाते है ।
વામા આવ્યે છે અથવા હેતુ-હેતુ મદ્ભાવથી પણ એમ કહી શકાય છે કે જે કારણને લઈને આ નિત્ય છે તે કારણથી જ આ શાશ્વત માનવામા આવ્યે છે. એથી દરેક મેાક્ષને ઇચ્છનારા જીવે વડે આ ધમ શ્રદ્ધેય-શ્રદ્ધા કરવા ચેગ્ય અને ગ્રાહ્ય આરાધવા ચેાગ્ય આ વિષે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત રૂપે હેતુનુ उथन हरीने ते धर्मनी प्र३यथा ४२ता " समेत्य लोक खेदज्ञे प्रवेदित " जडे છે કે બધા પ્રાણીઓના દુખાને જાણનારા કેવળજ્ઞાની પ્રભુએ આ ષટ્ઝવ નિકાય રૂપ લેકને પ્રત્યક્ષ રૂપમા સાક્ષાત્ દુખરૂપી દાવાનળમાં સળગતા જોઈને શુદ્ધ, શાશ્વતિક વર્મનું કથન કર્યું છે~~~
ભાવા—સુ સારના બધા જીવાને અન ત માસારિક ઃ ખેાથી હસ્તા મલકત સત્તમ જોઈને તેમના ઉદ્ધાર માટે વીતરાગ કેવળજ્ઞાનીએ એ જ આ ધર્મોનું નિરૂપણુ કર્યુ છે. મેં પેાતાની મેળે આ કથન કર્યું નથી શ્રી સુધાં સ્વામી પોતાના શિષ્ય જમ્મૂ સ્વામીને આ પ્રમાણે સમજાવે છે
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाताधर्मयाको "जह मम ण पिय दुक्ख जाणिय एमेरस जीवाण ।
न हणइ न हणावेइ य, सममणइ तेण सो समणो । इति" छाया-यथा मग न प्रिय दुःख, शात्वा एउमेर सर्वगीयानाम् ।
न हन्ति न घातयन्ति च समम् अगति तेन स समणः ।।
च शब्दात् घ्नतश्चान्यान समणुजानीत इत्यनेन प्रकारंण 'सममणति' ति सर्वजीवेपु तुल्य वर्तते यतस्तेनासौ श्रमण इति गाथार्थ ।
'एस धम्मे सुद्धे' इत्यनेन आईत धर्मस्य हिंसादि दोपाभानाङ्गगता शुद्ध स्वमुक्तम् । शुद्धधर्मबोधकत्वान्च द्वादशागयाः प्रपनत्वमागमत्व सर्वोत्कृष्टत्व च सिध्यति । प्राचनस्य स्वरूप माहात्म्य चाऽगमेयु भगवाऽभिहितम् ।
अनुयोगद्वार मेंजह मम ण पिय दु.स जाणिय प्रमेव सन्धजीवाण ।
न हणइ न हणावेइ य सममणह तेण सो समणो॥ इति । जिस प्रकार दुःख मुझे इष्ट नहीं है, उसी तरह वह दु.ख किसी भी ससारी जीवो को इष्ट नहीं है ऐसा समझ कर जो जीवो की विराधना स्वय नहीं करता और न दूसरों से करवाता है तथा समस्त जीवों में तुल्यता की भावना रखता है वही श्रमण है। श्रमण होने में ये पूर्वोक्त बाते हेतु-कारण हैं। __ " एस धम्मे सुद्धे " इस सूत्राश से श्री सुधर्मास्वामी ने तीर्थकर कथिन वर्म में हिंसादिक दोपो के अभाव से शुद्धता का कथन किया है । इप्त शुद्ध धर्म का बोधक-बोध करानेवाली होने से ही द्वादशागी में प्रवचनता, आगमता एव सर्वोत्कृष्टता सिद्ध होती है। भगवान ने मनुयोगबारमा~जह मम ण पिय दुस जाणिय एमेव सव्यजीवाण ।
न हणइ न हणावेइ य सममणइ तेण सो समणे ॥ इति । જેમ મને દુખ ગમતું નથી તેમજ તે દુ ખ સ સારના કેઈ પણ જીવને ગમે જ નહિ આમ સમજીને જેઓ જીની વિરાધના પિતે કરતા નથી અને બીજાઓથી કરાવતા નથી તેમજ બધા જ મા તુત્યતા (સમાનતા) ની દૃષ્ટિ રાખે છે તેઓ જ “શમણું છે આ ઉપરની વાતે શ્રમણ થવા માટે હેતુ કારણું છે
___ "एस धम्मे सुद्धे " मा सूत्राशयी श्री सुधा स्वाभीमे ती ४२ अथित ધર્મમા હિંસા વગેરે દેશના અભાવથી શુદ્ધતાનું કથન કર્યું છે આ શુદ્ધ ધર્મને બાધક-ધ કરાવનારી હોવાથી જ દ્વાદશાગમાં પ્રવચનતા આગ, ૧ સર્વોદતા સિદ્ધ થાય છે ભગવાને આગમાં પ્રવચનનું સરરૂપ
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतयदिणी टीका ० १६ द्रौपदीच
यथा भगवतीस
1
पचयण भते । पत्रयण, पात्रयणी पवयण ? । " गोयमा ! अरहा ताव णियमा पावयणी । पत्रयणं पुण दुवालसँगे गणिपिडगे । त जहा - आयारो० जाव दिहिवाओ । इति, ( श० २० उ०८ )
"
भते ! हे भदन्त ! }} पचयण प्रवचन - कि प्रवचन, उत - " पात्रयणी " प्रवचनी प्रवचनम् ? 1 " गोयमा ! " हे गौतम ! ' अरहा ' अन् ' तान ' तावत् नियमात्मवचनी । प्रवचन पुन 'वालसगे ' द्वादशाङ्गी " गणिपिडगे " गणिपिटकम् । तद् यथा - " आयारो जात्र दिट्टिवाओ " आचाराङ्गादि यावत् दृष्टिवादः । इति,
पुनस्तत्रैव - " से नृण भते ! तमेव सच्च नीसक ज जिणेहिं पवेश्य १ । प्रवचन का स्वरूप और उसका प्रभाव-माहत्म्य आगमों में कहा है । जैसे भगवती सूत्र में " पवयण भते । पवयण, पावयणी पवयण १ गोयमा ! अरहा ताव नियमा पावयणी । पवयण पुण दुवालसगे गणिपिडगे । त जहाँ - आयारे जाच टिट्टिवाओ । इति ( श० २० उ०८ )
३१५
भावार्थ - गौतमस्वामी पूछते हैं हे भगवन् ! प्रवचन प्रवचन है-या प्रवचनी प्रवचन है ? इस अश का समाधान करते हुए भगवान् कहते हैं - हे गौतम | गणिपिटक जो आचारांग से लेकर दृष्टिवाद तक द्वादशाग आगम है वह समस्त प्रवचन है । इस प्रवचन को अर्थत प्रकट करनेवाले श्री तीर्थकर प्रभु प्रवचनी हैं । उसी भगवती सूत्र में और भी यह कहा है कि " से नृण भते । तमेव सच्च निसक ज जिणेहिं पवेश्य | हता गोधमा । तमेव सच्च से नृण भते । एव मणे
માહાત્મ્ય કહ્યો છે જેમકે ભગવતી સૂત્રમા "" पवयण भते ! पवयण पावयणी पत्रयण ? गोयमा ! अरहा ताव नियमा पावयणी । पवयण पुण दुवारसगे गणि पिढगे । त जहा - आयारो जाव दिट्टिवाओ । इति ( श २० ८ )
ભાવા—ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે કે હું ભગવન્ ! પ્રવચન પ્રવચન છે કે પ્રવચની પ્રવચન છે? આ શાનુ સમાધાન કરતા ભગવાન કહે છે કે હે ગૌતમ ! ગણિપિટક-કે જે આચારાગથી માડીને દૃષ્ટિવાદ સુધી દ્વાદશાગ આગળ છે તે સમસ્ત પ્રવચન છે અત્યંત આ પ્રવચનને પ્રન્ટ કરનારા શ્રી તીર્થંકર પ્રભુ પ્રવચની છે તે ભગવતી સૂત્રમા જ આ પ્રમાણે કહેવામા આવ્યુ છે કે( से नूण भते तमेव सच्च नीस क ज जिणेहि पवेइय ! हता गोयमा । रामेन सन्च से नूण भवे । एर मणे घारेमाणे एव पकरेमाणे आणाए आराहप
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
भाताधर्मस्यामा "जह मम ण पिय दुक्ख जाणिय एमेर मायनीवाण ।
न हणइ न इणायेइ य, सममणइ तेण सो समणो । इति" छाया-यथा मग न प्रिय दुःख, शात्वा एरमेय सगीरानाम् ।
न हन्ति न घातयन्ति च समम् अणति तेन स समणः ॥
च शब्दात् घ्नतयायान समणुनानीत इत्यनेन प्रकारेण 'सममणति ' त्ति सर्वजीवेषु तुल्य वर्तते यतस्तेनासो अमण इति गाथार्थ । __ 'एस धम्मे मुद्धे' इत्यनेन आईत धर्गस्य हिंसादि टोपामानाङ्गता शुद्ध स्वमुक्तम् । शुद्धधर्मोधकरवाच्च द्वादशाङ्गयाः प्रपनत्यमागमत्व मस्कृिष्टत्व व सिध्यति । प्राचनस्य सरूप माहात्म्य चाऽऽगमेयु भगवताऽमिहितम् ।
अनुयोगद्वार मेंजह मम ण पिय दुःख जाणिय एमेव सव्वजीवाण ।
न हणइ न हणावे य सममणइ तेण सो समणो ॥ इति । जिस प्रकार दुःख मुझे इष्ट नहीं है, उसी तरह वह दु.ख किसी भी ससारी जीवो को इष्ट नहीं है ऐसा समझ कर जो जीवों की विराधना स्वय नहीं करता और न दूसरों से करवाता है तथा समस्त जीवों में तुल्यता की भावना रखता है वही श्रमण है। श्रमण होने में ये पूर्वोक्त याते हेतु-कारण हैं।
" एस धम्मे सुद्ध" इस सूत्राश से श्री सुधर्मास्वामी ने तीर्थकर कथिन वर्म मे हिंसादिक दोपो के अभाव से शुद्धता का कयन किया है। इस शुद्ध धर्म का योधक-बोध करानेवाली होने से ही द्वादशागी में प्रवचनता, आगमता एव सर्वोत्कृष्टता सिद्ध होती है। भगवान ने मनुयोगबारभा-जह मम ण पिय दुख जाणिय एमेव सबजीवाण ।
न हणइ न हणावेइ य सममणइ तेण सो समणे ।। इति । જેમ મને દુખ ગમતું નથી તેમજ તે દુ ખ સ સારના કેઈ પણ જીવને ગમે જ નહિ આમ સમજીને જેઓ જીની વિરાધના પિતે કરતા નથી અને બીજાએથી કરાવતા નથી તેમજ બધા જ મા તુલ્યતા (સમાનતા) ની દૃષ્ટિ રાખે છે તેઓ જ “શ્રમણ છે આ ઉપરની વાત શ્રમણ થવા માટે હેતુ કારણ છે
" एस धम्मे सुद्ध" मा सूत्राशथी श्री सुधर्मा स्वाभास ती ४२ प्रथित ધમમાં હિંસા વગેરે દેશના અભાવથી શુદ્ધતાનું કથન કર્યું છે આ શુદ્ધ ધર્મને એક-બેધ કરાવનારી હોવાથી જ દ્વાદશાગીમાં પ્રવચનતા આગમતા અને સર્વેકતા સિદ્ધ થાય છેભગવાને આગમાં પ્રવચનનું સ્વરૂપ અને વઝ
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
मantraर्मामृतपिणी टी० अ० १६ पदोस
३२१
छाया -- इदमेव निर्ग्रन्थ माचन सत्यम् अनुत्तर, कैनलिक, मतिपूर्ण, नैयाकि, सशुद्ध, शल्यकर्त्तन, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्गः, निर्याणमार्गः, निर्माणमार्गः, अवितथम्, अमन्दिग्धम्, अन स्थिता जीवाः सिद्ध्यन्ति, बुध्यन्ते, मुच्यन्ते, परिनिर्वान्ति, सबै दु खानामन्त कुनैन्ति ।
अन्यच्च -- इमं च ण सव्त्रजगजीवरक्खणदयट्ठाए पावयण भगवया सुकहिय " इति ( प्रश्न० सवर ० )
छाया- इद च खलु सर्वजगज्जीवरक्षणदयार्थाय प्रवचन भगवता सुकथितम्' इति ।
धर्मध्यानस्याऽऽज्ञाविचयादि भेदेन चातुर्विध्य प्रदर्शयता भगवता - प्राधान्यादानाविचयः मोम्येन प्रोक्त
भावार्थ - इस का स्पष्ट है। इसमें सूत्रकार ने मुख्यरूप से यही बात प्रकट की है कि इस निर्ग्रन्थ प्रवचन मार्ग में स्थित जीव अष्ट कर्मोंका विनाश कर सिद्धदासपन्न हो जाते है । इस अवस्थाकी प्राप्ति होना ही जीवों के समस्त दुःखों का विनाश है।
अन्यच्च - इमं च ण सव्वजगजीवरक्खणट्टयाए पावयण भगवया सुकहिय " इति - ( प्रश्न संवर० )
इस प्रवचन की प्ररूपणा करने का श्री तीर्थकर प्रभु का यही एक उद्देश रहा है कि समस्त ससारीजन इस प्रवचन के अभ्यास से सर्व जगत के जीवों की रक्षा करे और उनकी दया पालें ।
ध्यान का वर्णन करते हुए भगवान ने उस ध्यान के ४ भेद कहे हैं । उनमें धर्मध्यान के आज्ञाविचय आदि जो ४ पाये प्रकट किये આ કથનના ભાવાર્થ સ્પષ્ટ છે આમા ખાસ કરીને સૂત્રકારે એ જ વાત સ્પષ્ટ રીતે ખતાવી છે કે આ નિથ પ્રવચન મામા સ્થિત જીવ અષ્ટ કાંના વિનાશ કરીને સિદ્ધિ દશા સપન્ન થઈ જાય છે આ અવસ્થા મેળ વવી એ જ જીવેાના સઘળા દુખના વિનાશ છે
अन्यच - इम च ण सव्व जगजीवरक्खणदयट्टयाए पावयण भगवया सुकहीय " इति - ( प्रश्न सबर० )
શ્રી તીર્થંકર પ્રભુને! મા પ્રવચનની પ્રરૂપણા કરવાને એ જ ઉદ્દેશ રહ્યો છે કે બધા સસારીજના આ પ્રવચનના અભ્યાસથી જગતના સર્વ જીવાની ક્ષા કરે અને તેમની દયા પાળે
ધ
ધ્યાનનું વર્ણન કરતા ભગવાને તેના ચાર ભેદો 'ના આજ્ઞા-વિચય વગેરે ચાર ઉપભેદે સ્પષ્ટ
વર્ણવ્યા છે તેમા કરવામાં આવ્યા છે
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२०
जातामकथा इता गोयमा ! तमेव सच्चं । से नूण मते ! एर मणे धारेमाणे एन परेमाणे आणाए आराइए भवइ । हता गोयमा । त चेर" ति।
छाया-अथ नून भदन्त । तदेव सत्य निश्शड्डू यजिनः मवेदितम् ? । इन्त गौतम ! तदेव सत्यम् । अथ नून भदन्त ? एव मनसि धारयन एव प्रकुर्वन् आशाया आराधको भाति १ त गौतम ! तदेव" इति । ___ आवश्य सूत्रेऽपि--"इणमेव निग्गय पावयण सच्च अणुत्तर केवलिय पडि. पुन नेयाउय समुद्ध सल्लगत्तण सिदिमग्ग मुत्तिमग्ग निज्जाणमग निवाणमग्ग अवितहमसदिद्ध । इत्थठिया जीरा सिझति घुज्झति मुच्चति परिणिवाएति सन्चदु खाणमंत करति । धारेमाणे एव परेमाणे आणाए आरोहए भवइ । इता गोयमा ! त चेव इति " इस सूत्र का भावार्थ यह है कि प्रत्येक मुमुक्षु (मोक्षाभि लापी) जन को अपने हृदय में इस बात का पूर्णदृढ विश्वास रखना चाहिये कि जो जिनेन्द्र देव ने प्रतिपादित किया है वही वास्तविक तत्त्व है-उसमें किसी भी प्रकार की शका के लिये स्थान नहीं है इस प्रकार के दृढ विश्वास से उसे अपने मन में धारण करनेवाला और उसके अनुसार ही अपनी प्रवृत्ति करनेवाला मोक्षाभिलापीजन तीर्थकर प्रभुकी आज्ञाका आराधक होता है आवश्यक सूत्र में भी यही बात कही गई है ___ "इणमेव निग्गय पावयण सच्च अणुत्तर केवलिय पडिपुन्न नेया उय ससुद्ध सल्लगत्तण सिद्धिमग्गं मुत्तिमरगं णिज्जाणमग्ग निव्वाणमग्ग अवितहमसदिद्ध । इत्थ ठिया जीवा सिज्झति घुझ ति मुच्चति परिणि बाएति सव्वदु खाणमत करति। भवइ । हता गोयमा । त चेव इति ) मा सूत्रन भावार्थ मा प्रभारी छ । દરેક મેક્ષ ઈછનારી વ્યક્તિને પિતાના હૃદયમાં સંપૂર્ણપણે આ વાતની ખાતરી થવી જોઈએ કે જે જીતેન્દ્ર દેવે પ્રતિપાદિત કર્યું છે તે જ વાસ્તવિક તત્વ છે તેમા લગીરે શ ા નથી આ જાતના દઢ વિશ્વાસથી તેને પિતાના મનમાં કરનાર અને તે મુજબ જ આચરણ કરનારી મોક્ષને ઈરછનારી વ્યક્તિ પ્રભુની આજ્ઞાની આરાધક હેાય છે આવશ્યક સૂત્રમાં પણ એ જ વાત કહેવામાં આવી छ-(इणमेव निग्गय पावयण सच्च अणुत्तर केवलिय पडिपुन नेयाउय ससुद सल्लगत्तण सिद्धिमग मुत्तिमगा णिज्जाणमग्ग निव्वाणमग अवितहमम दिद्ध ! इत्य ठिया जीवा सिन्झति बुज्झति मुच्च ति परिणिवाएति सव्वा . करति ।
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ मनगारधर्मामृतषिणी रो० म० १६ द्रौपदोधरा
छाया-इदमेव निर्ग्रन्य मपचन सत्यम् अनुत्तर, कैलिक, प्रतिपूर्ण, नैयायिक, समृद्ध, शल्यकर्तन, सिद्धिमार्ग', मुक्तिमार्गः, निर्याणमार्गः, निर्वाणमार्गः, अवितथम् , अमन्दिग्धम् , अन स्थिता जीवाः सिद्धयन्ति, बुध्यन्ते, मुच्यन्ते, परिनिर्वान्ति, सर्व दु खानामन्त कुर्वन्ति ।
अन्यच्च-इम च ण सन्चजगजीवरक्खणदयट्ठाए पावयण भगवया सुरु हिय" इति (प्रश्न सर०)
छाया- इद च खलु सर्वजगज्जीवरक्षणदयार्याय भवचन भगवता मुकथितम्' इति । धर्मध्यानस्याऽऽक्षाविचयादि भेदेन चातुर्विध्य प्रदर्शयता भगवता-प्राधान्या. दानाविचयः प्राथम्येन प्रोक्त ।
भावार्थ-इस का स्पष्ट है। इसमें सूत्रकार ने मुख्यरूप से यही यात प्रकट की है कि इस निर्ग्रन्य प्रवचन मार्ग में स्थित जीव अष्ट काँका विनाश कर सिद्धदशासपन्न रो जाते हैं। इस अवस्थाकी प्राप्ति रोना ही जीवों के समस्त दुःखो श विनाश है। ___अन्यच इमं च ण सव्वजगजीवरक्खणट्टयाए पावयण भगवया सुकहियं" इति-(प्रश्न सवर०)
इस प्रवचन की प्ररूपणा करने का श्री तीर्थकर प्रभु का यही एक उद्देश रहा है कि समस्त ससारीजन इस प्रवचन के अभ्यास से सर्व जगत के जीवों की रक्षा करे और उनकी दया पालें।
ध्यान का वर्णन करते हुए भगवान ने उस ध्यान के ४ भेद कहे हैं। उनमें धर्मध्यान के आज्ञाविचय आदि जो ४ पाये प्रकट किये
આ કથનને ભાવાર્થ સ્પષ્ટ છે આમા ખાસ કરીને સૂત્રકારે એ જ વાત સ્પષ્ટ રીતે બતાવી છે કે આ નિગ્રંથ પ્રવચન માર્ગમાં સ્થિત જીવ અષ્ટ કર્મોને વિનાશ કરીને સિદ્ધિ દશા સપન થઈ જાય છે. આ અવસ્થા મેળા વવી એ જ જીવોના સઘળા દુખને વિનાશ છે
अन्यत्र-इम पण सव्व जगजीवरक्क्षणदयद्वयाए पावयण भगवया सुकहीय " इति-(प्रश्नः सपर०)
શ્રી તીર્થ કર પ્રભુને આ પ્રવચનની પ્રરૂપણ કરવાને એ જ ઉદ્દેશ રહ્યો છે કે બધા સુમારીને આ પ્રવચનના અભ્યાસથી જગતના સર્વે જીની રક્ષા કરે અને તેમની દયા પાળે
ધ્યાનનું વર્ણન કરતા ભગવાને તેના ચાર ભેદે વર્ણવ્યા છે તેમાં
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाताधर्मकणार इता गोयमा ! तमेव सच्च । से नूण भते ! मणे धागेमाणे पर पकरेमाणे आणाए आराइए भाइ । इता गोयमा । त चेव" ति ।
छाया-अथ नून भदन्त । तदेव सत्य निश्शक यज्जिनः प्रवेदितम् । हन्त गौतम । तदेव सत्यम् । अथ नन भदन्त १ एव मनसि धारयन एवं प्रकुर्वन् आशाया आराधको भाति १ त गौतम ! तदेव" इति ।
आवश्य सूत्रेऽपि-"इणमेव निग्गय पावयण सच्च अणुत्तर केलिय पडिपुन्न नेयाउय ससुद्ध सल्लगत्तण सिद्धिमग्ग मुत्तिमग्ग निज्जाणमग्ग निव्वाणमन्ग अवितहमसदिद्ध । उत्थठिया जीया सिझ ति युज्झति मुच्चति परिणिवाएति सव्वदु खाणमंत करति। धारेमाणे एव पकरेमाणे आणाए आरोहए भवइ । ता गोयमा ! त चेव इति " इस सूत्र का भावार्थ यह है कि प्रत्येक मुमुक्षु (मोक्षाभि लापी) जन को अपने हृदय में इस बात का पूर्णदृढ विश्वास रखना चाहिये कि जो जिनेन्द्र देव ने प्रतिपादित किया है वही वास्तविक तत्त्व है-उसमें किसी भी प्रकार की शका के लिये स्थान नहीं है इस प्रकार के दृढ विश्वास से उसे अपने मन में धारण करनेवाला और उसके अनुसार ही अपनी प्रवृत्ति करनेवाला मोक्षाभिलाषीजन तीर्थकरप्रभुकी आज्ञाका आराधक होता है आवश्यक सूत्रमें भी यही बात कही गई है
" इणमेघ निग्गय पावयण सच्च अणुत्तर केवलिय पडिपुन्न नेया उय ससुद्ध सल्लगत्तण सिद्धिमगं मुत्तिमार्ग णिज्जाणमग्ग निव्वाणमग अवितहमसदिद्ध । इत्थ ठिया जीवा सिज्झति घुझ ति मुच्चति परिणि याएति सव्वदुःखाणमत करति । भवइ । हता गोयमा । त चेव इति ) मा सूत्री मावा या प्रभारी छ । દરેક મેક્ષ ઇચ્છનારી વ્યક્તિને પિતાના હદયમા સ પૂર્ણ પણે આ વાતની ખાતરી થવી જોઈએ કે જે જીતેન્દ્ર દેવે પ્રતિપાદિત કર્યું છે તે જ વાસ્તવિક તત્વ છે તેમા લગીરે શ કા નથી આ જાતના દઢ વિશ્વાસથી તેને પિતાના મનમા કરનાર અને તે મુજબ જ આચરણ કરનારી મોક્ષને ઈરછનારી વ્યક્તિ પ્રભુની આજ્ઞાની આરાધક હેય છે આવશ્યક સૂત્રમાં પણ એ જ વાત કહેવામા આવી छ-(इणमेव निग्गय पावयण सन्च अणुत्तर केवलिय पडिपुन नेयाज्य ससुद्ध सलगत्तण सिद्धिमा मुत्तिमगा मिज्जाणमग निव्वाणमग अवितहमस दिद्ध ! इत्य ठिया जीया सिज्म ति बुज्नति मुन्च ति परिणिवाएति सव्व ८ रति ।
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२५
मनगारधामृतवर्षिणी टी० १० १६ प्रौपदीपा
छाया-इदमेव निर्ग्रन्थ प्रश्चन सत्यम् अनुत्तर, कैवलिक, प्रतिपूर्ण, नैयायिक, सशुद्ध, शल्यकर्तन, सिद्धिमार्गः, मुक्तिमार्गः, निर्याणमार्गः, निर्वाणमार्गः, अस्तिथम् , अमन्दिग्धम् , अत्र स्थिता जीवाः सिद्धयन्ति, बुध्यन्ते, मुच्यन्ते, परिनिर्वान्ति, सर्व दु खानामन्त कुर्वन्ति । ___ अन्यच्च-इम च ण सबजगजीवरक्खणदयट्ठाए पावयण भगवया सुकहिय" इति (प्रश्न० सपर०)।
छाया-' इद च खलु सर्वजगज्जीवरक्षणदयार्याय प्रवचन भगवता मुकथितम्' इति । धर्मध्यानस्याऽऽज्ञाविचयादि भेदेन चातुर्विध्य प्रदर्शयता भगवता-प्राधान्यादाज्ञाविचयः प्राथम्येन मोक्त ।।
भावार्थ-इस का स्पष्ट है। इसमें सूत्रकार ने मुरयरूप से यही यात प्रकट की है कि इस निर्घन्य प्रवचन मार्ग में स्थित जीच अष्ट कौंको विनाश कर मिद्धदशासपन्न हो जाते हैं। इस अवस्थाकी प्राप्ति रोना ही जीवों के समस्त दुःखों का विनाश है।
अन्यच्च-इम च ण सव्वजगजीवरक्खणट्टयाए पावयण भगवया सुकदिय" इति-(प्रश्न सवर०)
इस प्रवचन की प्ररूपणा करने का श्री तीर्थकर प्रभु का यही एक उद्देश रहा है कि समस्त समारीजन इस प्रवचन के अभ्यास से सर्व जगत के जीवों की रक्षा करे और उनकी दया पालें।
ध्यान का वर्णन करते हुए भगवान ने उस ध्यान के ४ भेद कहे है। उनमें धर्मध्यान के आज्ञाविचय आदि जो ४ पाये प्रकट किये
આ કથનને ભાવાર્થ સ્પષ્ટ છે આમાં ખાસ કરીને સૂત્રકારે એ જ વાત સ્પષ્ટ રીતે બતાવી છે કે આ નિગ્રંથ પ્રવચન માર્ગમાં સ્થિત છવ અષ્ટ કને વિનાશ કરીને સિદ્ધિ દશા સપન્ન થઈ જાય છે. આ અવસ્થા મેળ વવી એ જ ના સઘળા દુખનો વિનાશ છે ... अन्यच-इम च ण सव्व जगजीवरक्षणदयट्टयाए पावयण भगवया सुकहीय “इति-(प्रश्न: स वर०)
શ્રી તીર્થ કર પ્રભુને આ પ્રવચનની પ્રરૂપણ કરવાને એ જ ઉદ્દેશ રહ્યો છે કે બધા સમારીને આ પ્રવચનના અભ્યાસથી જગતના સર્વે જીવોની રક્ષા કરે અને તેમની દયા પાળે
વ્યાનનું વર્ણન કરતા ભગવાને તેના ચાર ભેદ વર્ણવ્યા છે તેમાં ધર્મધ્યાનના આજ્ઞા-વિચય વગેરે ચાર ઉપભેદે સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યા છે
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२० हता गोयमा ! तमेर सच्च । से नृण भते ! एप मणे धारेमाणे ण्य परेमाणे आणाए आराहए भाइ ? | हता गोयमा ! त चे" ति।
छाया-अथ नून भदन्त । तदेव सत्य निश्शङ्क यज्जिनः भवेदितम् ? । हन्त गौतम ! तदेव सत्यम् । अथ नून भदन्त १ एव मनसि धारयन् एव प्रकुर्वन् आज्ञाया आराधको भाति १ हन्त गौतम ! तदेव" इति । ___ आवश्य सूत्रेऽपि-"इणमेव निग्गय पारयण सच्च अणुत्तर केवलिय पडिपुन्न नेयाउय ससुद्ध सल्लगत्तण सिदिमग्ग मुत्तिमम्ग निज्जाणमग निव्वाणमग अवितहमसदिद्ध । रत्याठिया जीरा सिझति पुज्झति मुच्चति परिणिचाएति सन्ददु खाणमत करति । धारेमाणे एवं परेमाणे आणाए आरोहए भवइ । हता गोयमा ! त चेव इति " इस सूत्र का भावार्थ यह है कि प्रत्येक मुमुक्षु ( मोक्षाभि लाषी) जन को अपने हृदय में इस बात का पूर्णदृढ विश्वास रखना चाहिये कि जो जिनेन्द्र देव ने प्रतिपादित किया है वही वास्तविक तत्त्व है-उसमें किसी भी प्रकार की शका के लिये स्थान नही है इस प्रकार के दृढ विश्वास से उसे अपने मन में धारण करनेवाला और उसके अनुसार ही अपनी प्रवृत्ति करनेवाला मोक्षाभिलापीजन तीर्थकरप्रभुको आज्ञाका आराधक होता है आवश्यक सूत्र में भी यही यात कही गई है _ "इणमेव निग्गय पावयण सच्च अणुत्तर केलिय पडिपुन्न नेया उय ससुद्ध सल्लगत्तण सिद्धिमग्ग मुत्तिमग्गं णिज्जाणमग्ग निव्वाणमग्ग अवितमसदिद्ध । इत्थ ठिया जीवा सिज्झति घुझ ति मुच्चति परिणि वाएति सम्वदुःखाणमत करति । भवइ । हता गोयमा । त चेव इति ) मा सूत्रन भावाय ॥ प्रभार छ । દરેક મેક્ષ ઈચ્છનારી વ્યક્તિને પિતાના હદયમા સ પૂર્ણપણે આ વાતની ખાતરી થવી જોઈએ કે જે જીતેન્દ્ર દેવે પ્રતિપાદિત કર્યું છે તે જ વાસ્તવિક તત્વ છે તેમા લગીરે શક નથી આ જાતના દઢ વિશ્વાસથી તેને પિતાના મનમાં કરનાર અને તે મુજબ જ આચરણ કરનારી મોક્ષને ઈરછનારી વ્યક્તિ પ્રભુની આજ્ઞાની આરાધક હોય છે આવશ્યક સૂત્રમાં પણ એ જ વાત કહેવામાં આવી छ-(इणमेव निग्गथ पावयण सन्च अणुत्तर केवलिय पडिपुन नेयाउय ससुद सलगचण सिदिमा मुत्तिमग णिज्जाणमग्ग निव्वाणमग अवितहमस दिद्ध ! इत्य ठिया जोया सिन्झ ति बुज्झति मुच्च ति परिणिवाएति सव्वद र ति।
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० स० १६ पदो
ફેર
छाया -- इदमेव निर्ग्रन्थ मान सत्यम् अनुत्तर, कैनलिक, प्रतिपूर्ण, नैयायिक, सशुद्ध, शल्यकर्त्तन, सिद्धिमार्गः, मुक्तिमार्गः, निर्याणमार्गः, निर्वाणमार्गः, अवितथम्, अमन्दिग्धम्, अन स्थिता जीवाः सिद्ध्यन्ति, गुध्यन्ते, मुच्यन्ते, परिनिर्वान्ति, सर्व दुखानामन्त कुर्वन्ति ।
अन्यच्च -- इम च ण सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठाए पावयण भगवया सुकदिय " इति ( प्रश्न० सवर० )
छाया- इद च ग्लु सर्वजगज्जीवरक्षणदयार्थाय प्रवचन भगवता सुकथितम्' इति ।
धर्मध्यानस्याऽऽज्ञाविधयादि भेदेन चातुविंध्य प्रदर्शयता भगवता - पाधान्यादाज्ञाविचयः प्राथम्येन प्रोक्त |
भावार्थ - इस का स्पष्ट है। इसमें सूत्रकार ने मुख्यरूप से यही यात प्रकट की है कि इस निर्ग्रन्य प्रवचन मार्ग में स्थित जीव अष्ट कर्मोका विनाश कर सिद्धदशासपन्न हो जाते हैं । इस अवस्थाकी प्राप्ति होना ही जीवों के समस्त दुःखों का विनाश है।
अन्यच - इमं च ण सव्वजगजीवरक्खणट्ट्याए पावयण भगवया सुकहिय " इति - ( प्रश्न संवर० )
इस प्रवचन की प्ररूपणा करने का श्री तीर्थकर प्रभु का यही एक उद्देश रहा है कि समस्त ससारीजन इस प्रवचन के अभ्यास से सर्व जगत के जीवों की रक्षा करे और उनकी दया पालें ।
ध्यान का वर्णन करते हुए भगवान ने उस ध्यान के ४ भेद कहे हैं । उनमें धर्मध्यान के आज्ञाचिचय आदि जो ४ पाये प्रकट किये આ કથનના ભાવાથ સ્પષ્ટ છે આમા ખાસ કરીને સૂત્રકારે એ જ વાત સ્પષ્ટ રીતે બતાવી જે આ નિગ્રંથ પ્રવચન માગમા સ્થિત જીવ અષ્ટ કમેનિા વિનાશ કરીને સિદ્ધિ દશા સપન્ન થઈ જાય છે આ અવસ્થા મેળ વવી એ જ જીવેાના સઘળા દુખને વિનાશ છે
अन्यच्च - इम च ण सव्व जगजीवरक्त्रणदययाए पावयण भगवया मुकहीय " इति - ( प्रश्न सवर० )
શ્રી તીર્થંકર પ્રભુને આ પ્રવચનની પ્રરૂપણા કરવાના. એ જ ઉદ્દેશ રહ્યો છે કે બધા સમારીજના આ પ્રવચનના અભ્યાસથી જગતના સર્વે જીવેાની રક્ષા કરે અને તેમની દયા પાળે
ધ્યાનનું વર્ણન કરતા ભગવાને તેના ચાર ભેદા ધર્મધ્યાનના આજ્ઞા-વિચય વગેરે ચાર ઉપભેદો સ્પષ્ટ
વર્ણવ્યા છે તેમા કરવામાં આવ્યા છે
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
माताका
हता गोयमा ! तमेव सच्च । से नूण मते ! ए मणे धारेमाणे पत्र पकरेमाणे आणा आराए भगइ । इता गोयमा । त चेत्र " ति ।
छाया-अथ नून भदन्त । तदेव सत्य निःशङ्क यज्जिनेः मवेदितम् ? | हन्त गौतम ! तदेव सत्यम् | अथ नून भदन्त १ एव मनसि धारयन् एव प्रकुर्वन् आज्ञाया आराधको भवति १ हन्त गौतम । तदेव " इति ।
आवश्य सुनेऽपि - " इणमेच निग्गय पावयण सच्च अणुत्तर के लिय पडिपुन नेयाउय समुद्ध सलगत्तण सिद्धिमग्ग मुत्तिमग्ग निज्जानमग्ग निव्वाणमन्ग अतिमसद्धि । इत्थठिया जोग सिझति पुण्झति मुच्चति परिणिन्यापति सव्वदु खाणमत करति ।
धारेमाणे एव पकरेमाणे आणाए आरोहए भवह । हता गोयमा ! त चेव इति " इस सूत्र का भावार्थ यह है कि प्रत्येक मुमुक्षु ( मोक्षाभि लाषी ) जन को अपने हृदय में इस बात का पूर्णदृढ विश्वास रखना चाहिये कि जो जिनेन्द्र देव ने प्रतिपादित किया है वही वास्तविक तस्व है - उसमें किसी भी प्रकार की शका के लिये स्थान नही है इस प्रकार के दढ विश्वास से उसे अपने मन में धारण करनेवाला और उसके अनुसार ही अपनी प्रवृत्ति करनेवाला मोक्षाभिलापीजन तीर्थकर प्रभुकी आज्ञाका आराधक होता है आवश्यक सूत्र में भी यही बात कही गई है।
" इणमेव निग्गय पावयण सच्च अणुत्तर के लिय पडिपुन्न नेया उय समुद्ध सलगत्तण सिद्धिमग्ग मुत्तिमगं णिजाणमग निव्वाणमग्ग अवितमसद्धि । इत्थ दिया जीवा सिज्झति घुज्झति मुच्चति परिणि वाएति सव्वदुःखाणमत करति ।
1
भवइ । छता गोयमा । त चेव इति ) मा सूत्रनो भावार्थ या प्रभा छे દરેક મેાક્ષ ઇચ્છનારી વ્યક્તિને પેાતાના હૃદયમા સપૂર્ણ પણે આ વાતની ખાતરી થવી જોઈએ કે જે જીનેન્દ્ર દેવે પ્રતિપાદ્રિત કર્યુ છે તે જ વાસ્તવિક તત્વ છે તેમા લગીરે શકા નથી આ જાતના દૃઢ વિશ્વાસથી તેને પેાતાના મનમા કરનાર અને તે મુજમ જ આચરણ કરનારી મેાક્ષને ઈચ્છનારી વ્યક્તિ પ્રભુની આજ્ઞાની આરાધક હાય છે આવશ્યક સૂત્રમા પણ એ જ વાત કહેવામા આવી छे- ( इणमेव निग्गथ पावयण सच्च अणुत्तर केवलिय पडिपुन नेयाश्य ससुद्ध सहगवण सिद्धिमग मुत्तिमग निज्जाणमग्ग निव्वाणमग भक्तिमय दिद्ध ! इत्थठिया जीवा सिज्झति युज्झति मुन्चति परिणिवाएति सव्व दु वरति ।
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतर्यापणी दी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा है, अनवद्य है, हम में प्रत्येक जीवादिक पदार्थ का विवेचन यष्ठुत ही अच्छी तरह से किया गया है अतः यर मार्थ है इसका प्रभाव भी अदितीय है इसकी छत्रछाया में आने से प्रत्येक भव्य जीव आस्मक ल्याण के अपने अन्तिम लक्ष्य की मिद्धि कर लिया करते हैं। इस में प्रतिपादित तत्व सामान्यजन नही ज्ञात कर सकते हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयरूप दो दृष्टिया जिनके पास है-वे ही इसमें प्रतिपादित विषय को अच्छी तरह ज्ञात कर सकते हैं। इसमें जो भी कुछ कथन सर्वज्ञ भगवान ने किया है वह इन्ही दो दृष्टियो को सामने रखकर किया गया है यदि एक दृष्टि को ही प्रधान रखकर इसके तत्व को समझने की चेष्टा को जाय तो वह प्रतिपाद्य विपय ठीक २ नही सम झा जा सकता है। तथा इस प्रकार की प्ररूपणा अन्यया भी ज्ञात होने लगती है इसलिये दूसरी दृष्टि को सामने रखकर ही वह विषय ठीक २ रीति से समझ में आ सकता है, अन इसी अभिप्रायसे इसे निपुण जनवेद्य कहा है तथा इस में प्रत्येक पदार्थ को उत्पादन व्यय और ध्रोन्य आत्मक कहा गया है-वह भी द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से ही कहा गया है द्रव्य की अपेक्षा से प्रत्येक जीवादिक पदार्थ धौव्यरूप
અતીવકુશળ છે દર દરેક જી ને આ હીતકારી છે અનવદ્ય છે, એમાં દરેકે દરેક જીવ વગેરે પદાર્થનું વિવેચન બહુજ સૂક્ષમતા પૂર્વક કરવામાં આવ્યુ છે એથી આ મહાઈ છે અને પ્રભાવ પણ અદ્વિતીય છે, આની છત્ર-છાયામા આવવાથી દરેક ભવ્યજીવ આત્મકલ્યાણ વિષયક પિતાની અતિમ લક્ષમની સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી લે છે આમાં પ્રતિપાદિત તત્વ સામાન્ય લેકે જાણી શકતા નથી
વ્યાર્થિક તેમજ પર્યાયાર્થિક નયરૂપ બે દૃષ્ટિએ જેની પાસે છે તેઓ જ આમાં પ્રતિપાદિત વિષયને સારી પેઠે સમજી શકે છે સર્વજ્ઞ ભગવાને આમાં જે કઈ કહ્યું છે તે બધુ આ પુકત બને દષ્ટિએ ને પિતાની સામે રાખીને જ કહ્યું છે જે એક-દૃષ્ટિને જ પ્રધાન સમજીને તેના તત્વને જાણવાની ચેષ્ટા કરવામા આવે તે તે પ્રતિપાદ્ય વિષય યથાવત્ સમજી શકાય જ નહિ તેમજ આ જાતની પ્રરૂપણું અ યથા પણ માલુમ થવા માંડે છે એથી બીજી દષ્ટિને પોતાની સામે રાખીને જ વિચાર કરીએ તે વિષય સરસ રીતે સમજી શકાય તેમ છે. આ પ્રજનથી જ આને “નિપુણજન-વેધ કહેવામાં આવે છે તેમજ આમા જે દરેક પદાર્થને ઉત્પાદ, વ્યય અને પ્રૌવ્ય આત્મક કહેવામાં આવ્યો કે તે પણ દ્રવ્ય અને પર્યાયની અપેક્ષાથી જ કહેવામાં આવ્યું છે દૂષ્યની
છે
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२२
भ्राताधर्मकथा
यथा भगवती सूत्रे -- (श० २५ ३०७ )
" धम्मे झाणे चउन्निहे पष्णते, त जहा-भणानिचर " अवायविचर, विवागविचए, सठाणविचए ।
छाया - धर्मध्यान चतुर्विध मतम् । तद् यथा-आमाविचयः, अपाय विचय, विपाकविचयः, सस्थानविचयः ।
अत्र प्रसङ्गवशाद् आशा विचय एव व्याख्यायते-
आज्ञाविचयश्च- आज्ञायाः पर्यालोचन, आज्ञा-सक्षमणीत आगम', तामाझा मित्य विचिनुयात् पर्यालोचयेत् पूर्वापर विशुद्धमविनिपुणामशेपजी व कार्याहिता
--
उन में सर्व प्रथम आज्ञाविधय को जो कहा है उसका कारण यही है कि शेष तीन पायों (भेदों) में प्रधान है। भगवती सूत्र श. २५ उ७ में देखो यह वर्णन इस प्रकार से हुआ है-धम्मे झाणे चउच्चिहे पण्ण ते त जरा आणाविध, अवायविचए, विवागविचण, सठाणदिश्च ॥
अर्थ - धर्मध्यान ४ प्रकार की है (१) अज्ञाविचय (२) अपायविश्वय (३) विपाकविचय (४) सस्थान विचय ।
प्रसंगवश यहां आशविचय पर विवेचन किया जाता है- तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का विषय-पर्यालोचन-विचार करना सो आज्ञाविषय है सर्वज्ञ कथित आगम का नाम आज्ञा है। इस आगमरूप आज्ञा का इस प्रकार से विचार करना चाहिये यह प्रभु प्रतिपादित आगम पूर्वापर विरोध रहित होने से विशुद्ध है, प्रत्येक सूक्ष्म अन्नरित और दूरार्थ के प्रतिपादन करने में अतिनिपुण है, प्रत्येक जीवों का यह हितकारी તેઓમા જે સૌ પ્રથમ આજ્ઞા વિચયના જે ઉલ્લેખ કરવામા આવ્યા છે તેનુ કારણ એ જ છે કે બાકી રહેલા ત્રણ ઉપભેદોમા તે મુખ્ય છે. ભગવતી સૂત્ર શ ૨૫ ૭ મા એના માટે જોવુ જોઇએ . ત્યા આનુ વર્ણન કરવામાં આવ્યુ छे-धम्मे झाणे चउविहे पण्णत्ते, त जहा - आणाविचए, अवायविचए, विवाग विचए, स ठाणविचए ॥
अर्थ--धर्मध्यानना यार प्रहार छे (१) माज्ञा- विथय, (२) अपाय वियय, ( 3 ) विधा विथय, (४) सस्थान पियय
પ્રસ ગવશ અહીં જ્ઞાવિચય વિષે વર્ણન કરવામા આવે છે. તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞાને વિચય-પૌલેચન-વિચાર કરવા તે આજ્ઞાવિષય છે સવ રાકથિત આગમનુ નામ આજ્ઞા છે તે આગમરૂપ આજ્ઞાને આ રીતે વિચાર કરવા જોઈએ કે આ પ્રભુ પ્રતિપાદિત આગામ પૂર્વાપર વિશષ ૨ પાત્ર વિશદ્ધ છે, દરેક સૂક્ષ્મ અરિત અને દુરાના
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
गर्नारधर्मामृतपिणी 100 १६ द्रौपदोपर्चा है, अन पद्य है, हम में प्रत्येक जीवादिक पदार्य का विवेचन बहुत ही अच्छी तरह से किया गया है अतः यह मार्थ है इसका प्रभाव भी अमितीय है इसकी छनाग में जाने से प्रत्येक भव्य जीव आत्मक ल्याण के अपने अन्तिम लक्ष्य की सिद्धि कर लिया करते हैं। इस में प्रतिपादित तत्व सामान्यजन नही ज्ञात कर सकते हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायाधिक नयल्प दो दृष्टिया जिनके पास हें-ये ही इसमें प्रतिपादित चिपय को अच्छी तरह ज्ञात कर सकते हैं। इसमें जो भी कुछ कथन सर्वज भगवान ने किया है वह इन्ही दो दृष्टियो को सामने रखकर किया गया है यदि एक दृष्टि को ही प्रधान रखकर इसके तत्व को समझने की चेष्टा को जाय तो घर प्रतिपाद्य विपय टीक २ नही समझा जा सकता है। तथा इस प्रकार की प्ररूपणा अन्यया भी ज्ञात होने लगती है इसलिये दूसरी दृष्टि को सामने रखकर ही वह विषय ठीक २ रीति से समझ में आ सकता है, अन इसी अभिप्रायसे इसे निपुण जनवेद्य कहा है तथा इस में प्रत्येक पदार्थ को उत्पादन व्यय और ध्रोग्य आत्मक कहा गया है-वह मो द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से ही कहा गया है द्रव्य की अपेक्षा से प्रत्येक जीवादिक पदार्थ ध्रौव्यरूप
અતીવકુશળ છે દરેકે દરેક ને આ હીતકારી છે અનવદ્ય છે, એમાં દરેકે દરેક જીવ વગેરે પદાર્થનું વિવેચન બહુજ સૂક્ષમતા પૂર્વક કરવામાં આવ્યુ છે એથી આ મહાર્થ છે અને પ્રભાવ પણ અદ્વિતીય છે, આની છત્રછાયામાં આવવાથી દરેક ભવ્યજીવ આત્મકલ્યાણ વિષયક પિતાની અતિમ લહની સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી લે છે. આમાં પ્રતિપાદિત તત્વ સામાન્ય લેકે જાણી શકતા નથી
વ્યાર્થિક તેમજ પર્યાયાર્થિક નયરૂપ બે દષ્ટિએ જેની પાસે છે તે જ આમાં પ્રતિપાદિત વિષયને સારી પેઠે સમજી શકે છે. સર્વજ્ઞ ભગવાને આમ જે કઈ કહ્યું છે તે બધુ આ પૂકત બને દષ્ટિએ ને પિતાની સામે રાખીને જ કહ્યું છે જે એક-દૃષ્ટિને જ પ્રધાન સમજીને તેના તત્વને જાણવાની ચેષ્ટા કરવામાં આવે છે તે પ્રતિપાદ્ય વિષય યથાવત્ સમજી શકાય જ નહિ તેમજ આ જાતની પ્રરૂપણું અન્યથા પણું માલુમ થવા માંડે છે એથી બીજી દષ્ટિને પિતાની સામે રાખીને જ વિચાર કરીએ તે વિષય સરસ રીતે સમજી શકાય તેમ છે. આ પ્રજનથી જ આને “નિપુણજન-વેધ કહેવામાં આવ્યા છે તેમજ આમાં જે દરેક પદાર્થને ઉત્પાદ, વ્યય અને રૌવ્ય આત્મક કહેવામાં આવ્યો છે તે પણ દ્રવ્ય અને પર્યાયની અપેક્ષાથી જ કહેવામા આવ્યો છે દૂથની
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
. साधर्मकथा मनवद्यां महायी महानुभाग निपुर्णजनविज्ञेया द्रव्यपर्यायमपञ्चवतीमनायनि धनाम् । अस्य प्रवचनस्याऽऽधन्तरहितत्व च भगता नन्दीमूने निगदितम् --
" इच्चेइय दुगालसग गणिपिडग न कयाइ णासी ॥ "
इत्येतद् द्वादशाङ्ग गणिपिटक न कदापि नासीत् ।। इत्यादि। है और पर्याय की अपेक्षा से उत्पादन व्ययरूप है, इसलिये भी जिन प्रतिपादित आगमरूप आज्ञा स्त्रय द्रव्य और पर्याय के विस्तार वाली है। अथवा जीवादिक ममम्त ६ द्रव्यो की त्रिकालची समस्त पर्याय इसमे प्रतिपादित हुई हैं, अथवा कोई भी द्रव्य कभी भी पर्याय रहित नहीं हो सकता है-स्वभाव पर्यायें और व्यञ्जन पर्याये, विभाव पर्याये और अर्थपर्याये प्रत्येकक्षण में समस्तद्रव्यों में होती रहती हैं, इत्यादिरूप से द्रव्य और पर्यायो का प्रतिपादन इस आजा में भगवान ने प्रदर्शित किया है इस अपेक्षा भी यह द्रव्य और पर्याय के विस्तार वाली मानी गई है तथा यह अनादि अनन्त है न कभी इस आज्ञा की आदि हुई है और न कभी इसका विनाश होगा। नदीसूत्र में भी प्रवचन की अनादि अनन्तता के विषय मे " इच्चेद्य दुवाललग गणिपिडिग न कयाइनासी" यही कहा है-ऐसा कोई सा भी काल नहीं था कि जिस काल में इस दोदशागरूप गणिपिटकका सद्भाव नहीं था। અપેક્ષાથી દરેક જીવ વગેરે પદાર્થ પ્રીવ્યરૂપ છે અને પર્યાયની અપેક્ષાથી ઉત્પાદ પયરૂપ છે એટલા માટે પણ જિન પ્રતિપાદિત આગામરૂપ આજ્ઞા પિતે દ્રવ્ય અને પર્યાયના પ્રપ ચ (વિસ્તાર) વાળી છે અથવા તે જીવ વગેરે બધા ૬ દ્રવ્યના નિકાલ વર્તા સમસ્ત પર્યાયે આમાં પ્રતિપાદિત થયા છે, અથવા કઈ પણ દ્રવ્ય કેઈ પણ દિવસે પર્યાય રહિત થઈ શકતું નથી સ્વભાવ પર્યા અને વજન પર્યા, વિભાવ પર્યાય અને અર્થ પર્યાયે દરેક ક્ષણમાં બધા દ્રમા થતી રહે છે ઇત્યાદિ રૂપથી દ્રવ્ય અને પર્યાયોનું પ્રતિ દિન આ આજ્ઞામા ભગવાને બતાવ્યું છે આ અપેક્ષાથી પણ આ દ્રવ્ય અને પર્યાયના પ્રપચ (વિસ્તાર) વાળી માનવામાં આવી છે તેમજ આ અનાદિ અનત છે કેઈ દિવસ આજ્ઞાની આદિ થઈ નથી અને કઈ પણ દિવસે આને વિનાશ थरी नलि नहीसूत्रमा ५ अपयननी मनाहि मनताने साती (इच्चे इय दुवालसग गणिपिडग न कयाइनासी) मे पात सेवामा माया , એ કોઈ પણ કાળ હતો નહિ કે તે કાળે આ દ્વાદશાગ રૂપે ગણિપિટકનો સદભાવ હતું નહિ આ રીતે આ આગમની મત્તા અથવા તે
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२५
भगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
इत्य चागममादात्म्य पर्यालोचनरूपस्य धर्मध्यानस्याss - र्हताऽऽज्ञाविषयवाद् धर्म यानस्य धर्मस्व सिद्धम् । तथा हिंसादि-दोपलेशेनाप्यस पृक्तस्य शुद्ध धर्मस्य वोधकत्वादहिंसामधानस्य प्रवचनस्य श्रद्धेयत्व च सिद्धम् ।
अहिंसायामतो भगवत आज्ञा प्रदर्शिता, एव सयमेपि तदाज्ञा वर्तते । यथा -शावाधर्मकथासूत्रे - ( प्रधमा ययने )
"तपण समणे मगन महावीरे मेह कुमार सयमेव पव्नावेद, जान सयमेव आयार जाव धम्ममाइझख एव खलु देवाणुपिया ! गतव चिट्टियन्त्र णिसीइयन्त्र इस प्रकार इस आगम की महत्ता अथवा उसके महात्म्य का विचार करना ही आज्ञावित्रय नामक धर्मध्यान का प्रथम भेद है। इस ध्यान में प्रभु की आज्ञा का ही विचार होता है - अतः इस ध्यान मे उन की आज्ञा का विषय करनेवाला होने से धर्मरूपता सिद्ध है तथा हिंसादिक दोप के देश से भी रहित ऐसे शुद्ध धर्म का बोधक होने से अहिंसाप्रधान इस प्रवचन मे श्रद्धेयता सिद्ध होती है ।
इस पूर्वोक्त प्रकार से अहिंसा में अर्हत भगवान् की आज्ञा का प्रदर्शन कर अब सयममें भी उनकी आज्ञा इसी प्रकार को है यह प्रकट करने के लिये सर्वप्रथम ज्ञातोधर्मकयाङ्ग सूत्र से इस विषय की पुष्टि करते हुए सूत्रकार कहते हैं ।
..
जाव
तएण समणे भगव महोवीरे मेहकुमार सयमेव पञ्चावेइ, धम्ममाइक्खड, एव सलु देवाणुपिया | गतव्व चिट्ठियन्त्र णिसीત્મ્યને લગતા વિચાર કરવા એ જ આજ્ઞા-વિચય નામક ધર્મધ્યાનને પ્રથમ ભેદ છે આ ધ્યાનમા અર્હત પ્રભુની આજ્ઞા વિષેજ વિચાર હાય છે તેથી આ ધ્યાનમા તેમની આજ્ઞાને વિષય પ્રતિપાદિત થયા છે માટે આમા ધમ રૂપતા સિદ્ધ છે તેમજ હિંસા વગેરે દોષોથી પણ રહિત શુદ્ધ કર્માંના એધક હોવાને કારણે અહિંસા પ્રધાન આ પ્રવચનમા ચંદ્રેયતા સિદ્ધ થાય છે આ પ્રમાણે પૂર્વોક્ત રીતે અર્હત ભગવાનની અહિંસાના બતાવીને હવે આગળ સૂત્રકાર સયમ માટે પણ તેએાશ્રીની આજ્ઞા આ રીતે જ છે. આ વાત સ્પષ્ટ કરવાને માટે સૌ પ્રથમ જ્ઞાતા—ધર્મકથાનૢ સૂત્રથી આ વિષયની પુષ્ટિ કરતા કહે છે~~
વિષે આજ્ઞા
1
८८
तण समणे भगव महावीरे मेहकुमार सयमेव पव्वावे, जाव मय मैत्र आया जाव धम्ममा इक्वद ए खलु देवाणुपिया ! गतव्य चिट्टि -
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
शाताधर्मकथा तुपरिगण्य भुजियम्य मासियथ्य, पत्र उद्वाय उद्याय पाणेहिं भूयेदि जीवेहिं सत्तेहि सजमेण राजगियां, अस्ति च ण अ णो पमायन " इति ।
„
ततः खलु श्रमणो भगवान महावीरो मेघ कुमार स्वयमेव प्राजयति यावत् स्वयमेव आचार यावद् धर्ममारयाति - ए खल हे देवानुप्रिय ! गन्तव्य, स्थातव्य' निपत्तव्यवितव्य भोक्तव्य भाषितव्यत्, एग्मुत्थाय उत्थाय प्राणेषु भूतेषु जीवेषु सच्चेषु सयमेन सयन्तव्यम्, अस्मिन खल्ल अर्धे नो प्रमादयितव्यम् । इति, दवैकालिक सूनेऽपि -
"
जय चरे जय विजयमासे जय सए ।
जय भुंजतो भासतो पानकम्म न वधई ॥ "
यन्त्र तुट्टियन्य भुजियन्न भासिक एवं उद्दाय उहाय पाणेति भूयेहि जीवहिं सत्तारं सजमेण सजमियन्य, अस्सिंच ण अट्टे णो पमाण्यव"
श्रमण भगवान महावीर ने स्वय अपने ही हाथों से मे कुमारको जय भागवती दीक्षा प्रदान की उनके लिये मुनि विषयक आचार आदि का जब उन्हो ने उपदेश दिया तब उन्होने उसे यही समझाया कि हे देवानुप्रिय ! चलते ठहरते, बैठते, लेटते, आहारकरते और बात समय प्राणियो, भूतो, जीवो, और नत्वो में सदा सयम से ही प्रवृत्ति करनी चाहिये। मुनि का यही कर्तव्य है कि वह प्रत्येक शारीरिक एव वाचनिक क्रियाओ में, सयमित प्रवृत्ति करें। इस प्रकार की प्रवृत्तिशील होने से ही मुनि द्वारा अपने सयम की रक्षा होती है इस विषय में मुनि को कभी भी प्रमाद नही करना चाहिये । दशवे कालिक सूत्र में भी यही कहा है-" जय चरे जय चिट्टे जयमासे जय
यब्व णिसीइयव्व तुयट्टियन्त्र भुजियव्य, भासियव्व, एन उट्ठाय उट्टाय पाणेहि भूयेहि जावेहि सत्तहि सजमेण सजमियव्व अरिंस चण अट्ठे णो पमायच्व
27
શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે જાતે પેાતાના હાથથી જ મૈકુમારને જ્યારે આપ્યું ત્યારે તેઓશ્રીએ તેને ઉપદેશમા એ જ વાત સમજાવી કે હે દેવાનુ ભાગવતી દીક્ષા આપી અને તેને સુનિવિષયક આચાર વગેરેને લગતા ઉપદેશ પ્રિય ! ચાલતા ઊભા રહેતા, બેસતા, સૂઈ જતા, આહાર કરતા અને વાતચીત કરતા પ્રાણીએ, ભૂતા, જીવે અને સત્ત્વામા હંમેશા સયમથી જ પ્રવૃત્તિ કરતા રહેવુ જોઈએ મુનિની એ જ ફરજ છે કે તે દરેક શારીરિક અને વાચનિક ક્રિયા આમા સયમિત પ્રવૃત્તિ કરે આ રીતે પ્રવૃત્તિશીલ થઇને રહેવાથી જ મુનિઓ
આ ખાખતમા મુનિએ કાઈ પણ દિવસે પ્રમાદ
થડે સયમની રક્ષા થાય છે
छे
કરવા જોઇએ નહિ દશવૈકાલિક સૂત્રમા પણ એજ વાત કહેવામા जय विद्वे जयमासे जयखप, जय भुजतो भास तो
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारपर्मामृत पापणी aler R० १६ छीपदीया
छाया-यत चरेत् यत निष्ठेत, यतमासीत यत शयीत । गत मुखानो भापमान पापर्म न वनाति ॥ १ ॥ इति । तत्रैव-' संनम निहुओ चर" इत्यादि । छाया-सयम निभृतश्वर' इति ।
सयमे तीर्थकरस्याज्ञा प्रदर्शिता, इदानीं तपसि तदाशा प्रदश्यते । यथा-दश कालिक सूत्रो-(द्वितीयाध्ययने)
" आयाश्याही चय सोगमष्ट " इति । “ आयावयाही" आतापय आता. पनारूपतपोधर्माराधनेन तनु मोपय, " सोगमल्ल " सौकुमायं " चय" त्यज परिहर । सण, जय भुजतो भासतो पावफम्म न बधई" सकल सयमियो को पूर्ण सावधान तापूर्वक ही चलना चारिये और पूर्ण सावधानतापूर्वक ही पैठना चाहिये । उठने बैठने में तथा आहारादि क्रिया करने और योलने चालने म सदा उसे अपनी यानाचारमय प्रवृति पर ही रक्ष्य रग्बना चरिये। इस प्रकार की प्रवृत्ति करने से वह साधु पापकर्म का बध नहीं करतो है । इस लिये हे मेघकुमार ! तुम "सयम निभृतश्चर" इस सकल सयम की अच्छी तरह से-यत्नाचारमय प्रवृत्ति से रक्षा करो-पालन करो। इस प्रकार से सयम की आराधना में तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का प्रदर्शन सत्रकार ने किया है। अब तप के आराधन करने में उनकी क्या आज्ञा है-वे यह स्पष्ट करते है " आयावयारी चय मोगमल्ल" (दशकालिक दितीय अध्ययन) 'हे मुने! सुकुमालपने को छोड़ आतापनाळे' आतापनारूप तपधर्म की आराधना से मुनि को चाहिये બધા સયમી લોકોએ સ પૂર્ણપણે સાવધાન થઈને જ ચાલવું જોઈએ અને પૂર્ણ સાવધાન થઈને જ બેસવું જોઈએ ઉઠવા બેસવામાં તેમજ આહાર વગેરે કિયા કરવામાં અને બોલવા ચાલવામાં હમેશા તેને પિતાની યનાચારમય પ્રવૃત્તિ ઉપર જ લક્ષ્ય આપવું જોઈએ આ રીતે પ્રવૃત્તિ કરવાથી તે સાધુ પાપ-કર્મનો ५५ २ते नथी थी भेषमा । तमे “ सयम निभृनश्वर " मा स४९ સયમની સારી રીતે નાચારમયી પ્રવૃત્તિ વડે રક્ષા કરો-આનુ પાલન કરો આ રીતે સૂત્રકારે સયમની આરાધના વિષે પ્રભુની આજ્ઞાનું પ્રદર્શન કર્યું છે હવે તપની આરાધના કરવામાં તેઓશ્રીની આજ્ઞા શી છે? તે નૃત્રકાર અહીં २५०८ रे छ-" आयावयाही चय सोगमल्ल " ( दशकालिक द्वितीय अध्ययन ) હે મુનિ ! સુમળતાને ત્યજીને આતાપના સ્વીકારે આતાપના ૩૫ તપધમની આરાધનાથી મુનિ પિતાના શરીરને કૃશ (દુબળ) બનાવે અને સાગરિક
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाताधर्म कथान तुहियव्य शुजियन भासियव्य, एन उहाय उद्याय पाणेहिं भुमहिं जीवेहिं सहि सजमेण सजगियन्त्र, अस्ति च ण अ णो पमायन " इति ।
ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरों मेत्र कुमार स्वयमेन प्रवाजयति यावत् स्वयमेव आचार यावद् धर्ममाख्याति - ए खल दे देनानुमिय ! गन्तव्य, स्थातव्यं' निपत्तव्य, त्वग्वर्तयितव्य भोक्तव्य भाषितव्यत्, एवमुत्थाय उत्थाय प्राणेषु भूतेषु जीवेषु सत्त्वेषु सयमेन सयन्तव्यम्, अस्मिन खलु अर्थे नो प्रमादयितव्यम् । इति, दशवेकालिक सूत्रे ऽपि ---
66 जय चरे जय विद्वे जयमासे जय सए । जय भुजतो भासतो पानकम्म न धई ॥
27
इयन्त्र तुट्टियन् भुजियव्य भासियन एवं उट्ठाय उद्दाय पाणेहिं भूयेहिं जीवेहिं सत्तेरिं सजमेण सजमियन्च, अस्मिच ण अट्ठे णो पमाएयव्व"
श्रमण भगवान महावीर ने स्वय अपने ही हाथों से मे कुमारको जब भागवती दीक्षा प्रदान की उनके लिये मुनि विषयक आचार ओदि का जब उन्होने उपदेश दिया तब उन्होने उसे यही समझाया कि हे देवानुप्रिय ! चलते, ठहरते, बैठते, लेटते, आहारकरते और बात चित करते समय प्राणियो, भूतो, जीवो, और सत्वों में सदा सयम से ही प्रवृत्ति करनी चाहिये। मुनि का यही कर्तव्य है कि वह प्रत्येक शारीरिक एव वाचनिक क्रियाओ में, सयमित प्रवृत्ति करें। इस प्रकार की प्रवृत्तिशील होने से ही मुनि द्वारा अपने सयम की रक्षा होती है इस विषय में मुनि को कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिये । दशवे कालिक सूत्र में भी यही कहा है-" जय चरे जय चिट्टे जयमासे जय
यब्य णिसीइयन्व तुयट्टियन्त्र भुजियन्त्र, भासियव्व, एन उट्ठाय उट्टाय पाणेहि भूयेहि जावेहि सतहि सजमेण सजमियव्व असि च ण अट्ठे णो पमाएयच्व
"
શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે જાતે પાતાના હાથથી જ મેઘકુમારને જ્યારે ભાગવતી દીક્ષા આપી અને તેને મુનિવિષયક આચાર વગેરેને લગતે ઉપદેશ આપ્યા ત્યારે તેઓશ્રીએ તેને ઉપદેશમા એ જ વાત સમજાવી કે હે દેવાનુ પ્રિય 1 ચાલતા ઊભા રહેતા, એસતા, સૂઈ જતા, આહાર કરતા અને વાતચીત કરતા પ્રાણીઓ, ભૂતા, જીવે! અને સવૅામા હુ મેશા સ યમથી જ પ્રવૃત્તિ કરતા રહેવુ ોઇએ. માનની એ જ ફરજ છે કે તે દરેક શારીરિક અને વાચનિક ક્રિના આમા સમિત પ્રવૃત્તિ કરે આ રીતે પ્રવૃત્તિશીલ થઈને રહેવાથી જ મુનિએ થડે સયમની રક્ષા થાય છે આ બાબતમા મુનિએ કોઈ પણ દિવસે પ્રમાદ કરવા જોઈએ નહિ દશવૈકાલિક સૂત્રમા પણ એજ વાત કહેવામા આવી છે (जय परे जय विद्वे जयमासे जय सप, जय भुजतो भास तो
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृत परिणी ar R० १६ श्रौपदीचा
छाया-यत चरेत् यत तिप्ठेत, यतमासीत यत शयीत । गत भुजानो भापमान' पापर्म न वनाति ॥ १ ॥ इति । तत्रैव-' संजम निहुओ चर" इत्यादि । छाया-सयम निभृतश्वर' इति ।
सयमे तीर्थकरस्याज्ञा प्रदर्शिता, दानी तपमि तदाज्ञा प्रदर्यते । यया-दशकालिक सो-(द्वितीयाध्ययने)
"आयावयाही चय सोगमल" इति । " आयावयाही" आतापय आता. पनारूपतपोधर्माराधनेन तनु गोपय, " सोगमल्ल " सौकुमार्य " चय" त्यजपरिहर। सण, जयं भुजतो भासतो पावफम्म न बधई" सकल सयमियो को पूर्ण सावधान तापूर्वक ही चलना चाहिये और पूर्ण सावधानतापूर्वक ही धैठना पारिये । उठने पैठने में तथा आहारादि क्रिया करने और घोलने चालने में सदा उसे अपनी यानाचारमय प्रवृति पर ही लक्ष्य रग्वना चरिये । इस प्रकार की प्रवृत्ति करने से वह साधु पापकर्म का वध नहीं करतो है । इसलिये हे मेघकुमार ! तुम "सयम निभृतश्चर" इस सकल सयम की अच्छी तरह से-यत्नाचारमय प्रवृत्ति से रक्षा करो-पालन करो। इस प्रकार से सयम की आराधना में तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का प्रदर्शन सूत्रकार ने किया है। अब तप के आराधन करने में उनकी क्या आज्ञा है-वे यह स्पष्ट करते हैं "आयावयारी चय मोगमल्ल" (दशवकाल्कि द्वितीय अध्ययन) 'हे मुने! सुकुमार पने को छोड़ आतापनाले' आतापनारूप तपधर्म की आराधना से मुनि को चाहिये બધા મયમી લોકોએ સંપૂર્ણપણે સાવધાન થઇને જ ચાલવું જોઈએ અને પૂર્ણ સાવધાન થઈને જ બેસવું જોઈએ ઉઠવા બેસવામાં તેમજ આહાર વગેરે ક્રિયા કરવામાં અને બોલવા ચાલવામાં હમેશા તેને પિતાની યનાચારમય પ્રવૃત્તિ ઉપર જ લક્ષ્ય આપવું જોઈએ આ રીતે પ્રવૃત્તિ કરવાથી તે સાધુ પાપ-કર્મને ५५ र नयी सबी भा२ । तमे “ सयम निभृतश्चर" मा सस સયમની સારી રીતે યનાચારમયી પ્રવૃત્તિ વડે રક્ષા કરો-આનુ પાલન કરો
રીતે સૂત્રકારે સયમની આરાધના વિષે પ્રભુની આજ્ઞાનું પ્રદાન કર્યું છે હરે તપની આરાધના કરવામાં તેઓશ્રીની આજ્ઞા ગી છે? તે મૂત્રકાર અહીં २५०८ 3रे छ-" आयावयाही चय सोगमल" ( दशवैकालिस द्वितीय अध्ययन ) હે મુનિ' સુકોમળતાને ત્યજીને આતાપના સ્વીકારે આતાપને ૩૫ તપધર્મના આરા - ૧ મુનિ પિતાના શરીરને કૃશ (દુબળ) બનાવે અને શારીરિક
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
माताधर्मकपा किंच श्रमणस्य शान्त्यादिदशविधे धर्मे तपसः पाठो वर्तते, तस्मात् तपोधर्म इति विज्ञायते । तयाचोक्तं समवायाजस्त्रे-(समवाय १०)
"दसविहे समणधम्मे पण्णते, व जहा-(१) खंती, (२) मुत्ती (३) अज्जवे (४) महवे (५) लाघवे (६) सच्चे (७) संजमे (८) तवे (९) चिया (१०) वंभरवासे। __ अहिंसादीना जिनाशामयोज्यपत्तिकस्वरूपस्य धर्मलक्षणस्य सद्भावाद धर्मत्व सिद्ध ।
उक्त धर्मस्य लक्षण, लक्ष्या अहिंसादयम मोक्ताः, तत्राहिंसासयमतपोरूपो धर्म उत्कृष्ट मगल योध्यम् ।
तथाचोक्तं दशवकालिकमूत्रे-(म० अ० १) " धम्मो मगलमुक्टि'अहिंसा संजमो तयो ।
देवावि त नमसति जस्स धम्मे सया मणो ॥" कि वह अपने शरीर को कृश करें एव शारीरिक सुकुमारता का मोह छोड़े। उत्तम क्षमा आदिक जो श्रमणों के दशप्रकार के धर्म कहे गये हैं, उनमें तप का भी कथन आया है, अत' तप में धर्मरूपता सिद्ध ही होती है। समवायाग सूत्र में श्रमण के दश प्रकार के धर्मों का कथन करते हुए सूत्रकार ने यही कहा है-"दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते, त जहा-खती, मुत्ती, अज्जचे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, सजमे, तवे, चियाए बभचेरवासे । ___इन अहिंसादिक महातों में धर्मरूपता इसलिये सिद्ध होती है कि वहा पर जिनेन्द्र प्रभु की आज्ञा प्रयोज्य प्रवृत्तिरूप धर्म के रक्षण का सद्भाव पाया जाता है इस प्रकार धर्म का लक्षण और उमके लक्ष्यभूत अहिमादिको का कथन है। ये अहिंसा, सयम और तपरूप धर्म ही સુકુમારતાને મેહ ત્યજી દે ઉત્તમ ક્ષમા વગેરે પ્રમાણેના દશ પ્રકારના ધર્મ કહેવામાં આવી છે તેમાં તપનું કથન છે એથી તપમાં ધર્મરૂપતા સિ & થાય જ છે સૂત્રકારે સમવાયાગ સૂત્રમાં શમણુના દશ પ્રકારના ધર્મનું કથન કરતા આ પ્રમાણે જ કહ્યું છે –
“दमविहे समणधम्मे पण्णत्ते -त जहा-खत्ती, मुत्ती, भज्जवे, महवे, लाघवे, सच्चे' स जमे, तवे चियाए बभचेरवासे ।"
આ અહિંસા વગેરે મહાવતેમા ધર્મરૂપતા એટલા માટે સિદ્ધ થાય છે કે તેમાં જીનેન્દ્ર પ્રભુની આજ્ઞા પ્રજ્ય પ્રવૃત્તિ રૂપ ધર્મના લક્ષણો સદુભાવ છે આ રીતે ધર્મનું લક્ષણ અને તેના લક્ષ્યભૂત અહિંસા
છે અહિંસા, સયમ અને તપ રૂપ ધર્મ -ઉટ મગળ
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतयपिणी टीका थ० १६ द्रौपदीय
छाया - धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टम् अहिंसा संयमस्तपः । देवा अपि त नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा मनः ॥
नन्वहिंसा - संयम - तपो - रूपो धर्मो मगलमुत्कृष्टमित्येतद्वचः किमाशासिद्धम् आहोस्विद् युक्तिसिद्धमपि ?
अत्रोच्यते-- उभयसिद्धमपि, तथाहि - जिनवचनत्या - दाज्ञासिद्धम् अनुमानमयवर्तते - ' अहिंमासयमतपोरूपो - धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टम् इति प्रतिज्ञा, ' देवादि उत्कृष्ट मगलरूप हैं दशवैकालिकसूत्र में यही कहा है “धम्मो मगलमुट्ठि अहिंसा सजमो तवो। देवा वित नमसति जस्स धम्मे सयामणो " धर्म ही उत्कृष्ट मगल है । अहिंसा सयम और तप ये ही धर्म हैं । जिसका अन्तः करण इस धर्म से सदा युक्त रहता है उसके लिये देव भी नमस्कार करते है ।
शका - अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म में जो उत्कृष्ट मगलरूपता कही है वह आज्ञासिद्ध है इसलिये कही है कि युक्ति से सिद्ध है इसलिये कही है ? भावार्थ-अहिंसादिकों में उत्कृष्टमगलता किस प्रमाण से सिद्ध है ? आगम से या अनुमान से ?
३३९
उत्तर-इनमें उत्कृष्ट मगलरूपता आगम और युक्ति दोनों से सिद्ध है । जिनेन्द्र के वचन होने से इनमें आजासिद्धता है तथा अनुमान से प्रसिद्ध होने से युक्ति सिद्धता है । " धम्मो मगलमुक्किह" इत्यादि गाथा द्वारा इनमें जिने द्रवचनरूप आगमता पूर्व में ही प्रदर्शित की जा चुकी है अनुमान प्रसिद्धता इस प्रकार है-अनुमान के पांच अग होते सूत्रभावात हेवामा खावी छे - " धम्मो मगलमुक्किटु-अहिसा सजमो तव । देवा वित नम स ति जस्स धम्मे सया मणो " धर्म ४ उत्कृष्ट भगण છે. અહિંસા સયમ અને તપ એ જ ધમ છે. જેનુ અન્ત કરણ આ ધમથી સદા યુક્ત રહે છે તેને દેવા પણ નમન કરે છે
મગળ રૂપ
શકા—અહિંસા, સયમ અને તપ રૂપ ધર્મને જે ઉત્કૃષ્ટ કહેવામા આવ્યેા છે તે આજ્ઞાસિદ્ધ છે માટે કહેવામા આવેલ છેકે યુતિથી સિદ્ધ છે એટલા માટે કહેવામા આવે છે ? ભાવા—અહિંસા વગેરેમા ઉત્કૃષ્ટ મગળતા કયા પ્રમાણુથી સિદ્ધ છે? આગમથી કે અનુમાનથી ?
ઉત્તર—મામા ઉત્કૃષ્ટ મગલરૂપતા આગમ અને યુતિ ખનેથી સિદ્ધ છે જિનેન્દ્રનાવચને હેવા આમા આજ્ઞા સિદ્ધતા છે તેમજ અનુમાનથી પ્રસિદ્ધ होवा महल युक्ति सिद्धता छे " धम्मो मगलमुक्किट्ठ ” વગેરે ગાથા વડે આમા જિનેન્દ્ર પ્રવચનરૂપ આગમતા પહેલા બતાવવામા આવી જ છે અને અનુ
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
-
माता किंच श्रमणस्य शान्त्यादिदशविधे धर्मे तपसः पाठो वर्तते, तस्मात् तपोधर्म इति विज्ञायते । तथाचोक्त समायानसूत्रे-( समवाय १०)
"दसविहे समणधम्मे पण्णते, व जहा-(१) खती, (२) मुत्ती (३) अज्जवे (४) मद्दवे (५) लाघवे (६) सच्चे (७) सनमे (८) तये (९) चिया (१०) चंभचेरवासे । ____ अहिंसादीनां जिनाशाप्रयोज्यमत्तिकस्वरूपस्य धर्मलक्षणस्य सद्भावाद धर्मत्व सिद्ध । ___ उक्त धर्मस्य लक्षण, लक्ष्या अहिंसादयम मोक्ताः, तत्राहिंसासयमतपोरूपो धर्म उत्कृष्ट मगल बोध्यम् ।
तथाचोक्त दशवकालिकमू-(म० भ०१) " धम्मो मगलमुक्ट्टि अहिंसा संजमो तवो ।
देवावि त नमसति जस्स धम्मे सया मणो ॥" कि वह अपने शरीर को कृश करें एव शारीरिक सुकुमारता का मोह छोडे । उत्तम क्षमा आदिक जो अमणों के दशप्रकार के धर्म कहे गये हैं, उनमें तप का भी कथन आया है, अत' तप में धर्मरूपता सिद्ध ही होती है। समवायाग सूत्र में श्रमण के दश प्रकार के धर्मों का क्थन करते हुए सूत्रकार ने यही कहा है-"दसविहे समणधम्मे पण्णत्त, तं जहा-खती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, सजमे, तवे, चियाए बभचेरवासे।
इन अहिंसादिक महावतों में धर्मरूपता इसलिये सिद्ध होनी है कि वहा पर जिनेन्द्र प्रभु की आज्ञा प्रयोज्य प्रवृत्तिरूप धर्म के लक्षण का सद्भाव पाया जाता है इस प्रकार धर्म का लक्षण और उसके लक्ष्यभूत अहिंमादिकों का कथन है। ये अहिंसा, सयम और तपरूप धर्म ही સુકુમારતાને મેહ ત્યજી દે ઉત્તમ ક્ષમા વગેરે પ્રમાણેના દશ પ્રકારના ધર્મ કહેવામાં આવી છે તેમાં તપનું કથન છે એથી તપમા ધર્મરૂપતા સિદ્ધ થાય જ છે સૂત્રકારે સમવાયાગ સૂત્રમાં શમણુના દશ પ્રકારના ધર્મનું કથન કરતા આ પ્રમાણે જ કહ્યું છે–
“दमविहे समणधम्मे पण्णत्ते -त जहा-खत्ती, मुत्ती, भज्जवे, महवे, लाघवे, सच्चे' स जमे, तवे चियाए बभचेरवासे । "
આ અહિંસા વગેરે મહાવ્રતોમાં ધર્મરૂપતા એટલા માટે સિદ્ધ થાય છે કે તેઓમાં જીનેન્દ્ર પ્રભુની આજ્ઞા પ્રયજ્ય પ્રવૃત્તિ રૂપ ધર્મના લક્ષણો સદુ ભાવ છે આ રીતે ધર્મનું લક્ષણ અને તેના લક્ષ્યભૂત અહિંસા વ) અહિંસા, સંયમ અને તપ રૂપ ધર્મ જ ઉ ટ મ ગળ ૨ -
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतपिणो टीका अ० १६ द्रौपदीपर्धा
" वर्माधर्मव्यवस्थाया, शास्त्रमेन नियामकम् ।
तदुक्ताऽऽसेवनाद् धर्मस्वधर्मस्तद्विपर्ययात् ॥” इति, आगम से ही जात कर सकते हैं। घटपटादिको की तरह उसे स्पष्ट रूप से देखनहीं सकते हैं । इसीलिये वह दुज्ञेय है। जो अनुमान और आगम से गम्य होता है वह अग्नि आदि की तरह किसी न किसी के प्रत्यक्ष रोता है यह स्पष्ट सिद्वान्त है। तीर्थकर प्रभु ने कि जो राग और वेप से सर्वथा रहित हैं, त्रिकालवी समस्त पदार्थों को जो हस्तामलक वत् स्पष्ट जानते हैं, ३५ वाणी के अतिशय से जो युक्त है अपने केवलज्ञान रूपी आलोक से उसे विशदरूप से जान लिया है। हम छद्मस्थों के लिये इनके वचनों के सिवाय इस विपय का नियामक और कुछ नहीं है। अतः उनके कथनानुसार ही धर्म और अधर्म का स्वरूप हम ससारी जीव जान सकते हैं या जानते हैं। "धर्माधर्मव्यवस्थाया' शास्त्रमेव नियामक, तदुक्ता सेवनात् धर्मस्त्वधर्मस्तविपर्ययात् "-धर्म
और अधर्म के स्वरूप की व्यवस्था करने वाले केवल सर्वज्ञभगवान् के वचन स्वरूप आगम ही है। अतः उनके द्वारा प्रदर्शित मार्ग का सेवन करना धर्म और उससे विपरीत मार्ग का सेवन करना अधर्म है
भावार्थ-जीवोको धर्मकी प्राप्ति सर्वज्ञ भगवान द्वारा प्रदर्शित मार्ग સમજી શકીયે છીએ ઘટ પટ' વગેરેની જેમ તેને સ્પષ્ટ પણે જોઈ શકતા નથી એથી જ તે ય છે જે અનુમાન અને આગમથી ગમ્ય હોય છે તે અગ્નિ વગેરેની જેમ કોઈને કેઈને પ્રત્યક્ષ હોય છેઆ એક સ્પષ્ટ સિદ્ધાત છે રાગ અને દેવી સ પૂર્ણ પણે રહિત એવા તીર્થંકર પ્રભુએ-કે જેઓ ત્રિકાળવતી બધા પદાર્થોને હસ્તામલાવત્ સ્પષ્ટ રીતે જાણે છે, ૩૫ વાણીના અતિશયથી જેઓ ચુકત છે-પિતાના કેવળજ્ઞાન રૂપી આકથી તેને વિશદ રૂપથી જાણી લીધુ છે અમારા જેવા સ્થાને માટે એમના વચને સિવાય આ વિષયના નિયામક બીજું કોઈ નથી એથી અમે તેમના કહ્યા મુજબ જ
म भने अमन २१३५ एणी शाये छीस " धर्माधर्म-व्यस्थाया शास्र मेव नियामक , तदुक्कासेवनात् धमस्त्वधर्म सद्विपर्ययात् " धर्म भने सपना સ્વરૂપની વ્યવસ્થા કરનાર ફક્ત સર્વર ભગવાનના વચન સ્વરૂપ આગામો જ છે એથી તેમના વડે દર્શાવવામાં આવેલા માર્ગનું સેવન કરવું એજ ધર્મ અને તેથી વિરુદ્ધ માર્ગનું સેવન કરવું અધર્મ છે ભાવાર્થ સર્વજ્ઞ ભગવાન દ્વારા
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
धर्मकथा
_मान्यत्वात् इति हेतुः । अईदादिवत् इति दृष्टान्तः इह यो यो देवादिमान्यः स स उत्कृष्ट मङ्गल यथाऽर्हदादयः, ' तथा चाय धर्मः ' इत्युपनयः, तस्माद् देवादि मान्यत्वादुत्कृष्ट मङ्गलमिति निगमनम् ।
वस्तुतस्तु धर्माधर्मस्वरूप रुमत्याच्स्थैदुर्ज्ञेय, केवल सतीन रागादिदोष र हितेन पञ्चत्रिंशद्वचनातिशयसप नेन केरलिना तीर्थकरण केवलालोकेन सुय भति । छद्मस्थानां तु भगवद्वचनमेव नियामक, तथाचोक्तम्
हैं- १ प्रतिज्ञा, २ हेतु, ३ दृष्टान्त, उपनय ४ और ५ निगमन । अर्हत भगवान की तरह देवादिकों द्वारा मान्य होने से अहिंमा, तप और सयमरूप धर्म 'उत्कृष्ट मगल हैं।
इस अनुमान वाक्य में " अहिंसा, सयम और तप रूप धर्म उत्कृष्टमगल है " यह प्रतिज्ञा है " देवादिकों द्वारा मान्य होने से " यह हेतु है । " अर्हन्त की तरह यह दृष्टान्त है पक्ष में हेतु के दुहराने से उपनय और प्रतिज्ञा के दुहराने से निगमन सिद्ध हैं जैसे -" जो जो देवादिकों द्वारा मान्य होता है वह २ उत्कृष्ट मंगल होता है जैसे अर्ह -
"
प्रभु ये भी देवादिकों द्वारा मान्य हैं । इस प्रकार पक्ष में हेतु के दुहराने रूप उपनय है इसलिये " वे भी उत्कृष्ट मगल स्वरूप हैं " इस प्रकार प्रतिज्ञा के दुहराने रूप निगमनवाक्य है ।
वास्तव में तो धर्म और अधर्म का स्वरूप सूक्ष्म होने से हम उद्म स्थों के लिये अत्यत परोक्ष है- इस लिये हम उसे सिर्फ अनुमान या માન પ્રસિદ્ધતા આ પ્રમાણે સમજવી જોઇએ અનુમાનના પાચ અગેા હાય छे- प्रतिज्ञा' १, हेतु २, हण्टात 3, उपनय ४, भने निगमन 4,
અહુત ભગવાનની જેમ દેવ વગેરે દ્વારા માન્ય હાવા બદલ અહિંસા, તપ અને સયમ રૂપ ધમ ઉત્કૃષ્ટ-મગલ છે
આ અનુમાન વાકયમા “ અહિંસા, સયમ અને તપ રૂપ ઉત્કૃષ્ટ મ ગળ છે ” આ પ્રતિજ્ઞા છે ૮ દેવ વગેરે દ્વારા માન્ય હાવાથી આ હેતુ છે અહં તની જેમ ” આ દૃષ્ટાત છે પક્ષમા હેતુને એવડાવવાથી ઉપનય અને પ્રતિજ્ઞાને એવડાવવાથી નિગમન સિદ્ધ છે જેમકે “ દેવ વગેરે દ્વારા જે જે માન્ય હાય છે તે તે ઉત્કૃષ્ટ-મ ગલ હોય છે જેમ અ`ત પ્રભુ પણ દેવ વગેરે દ્વારા માન્ય છે આરીતે પક્ષમા હેતુને એવડાવવાયી ઉપનય છે, માટે “ તેએ પણ ઉત્કૃષ્ટ મગળ સ્વરૂપ છે.” આરીતે પ્રતિજ્ઞાને બેવડાવવા રૂપ નિગમન વાય છે
વસ્તુત ધમ તેમજ અધર્મીનુ સ્વરૂપ સૂક્ષ્મ હાવાથી અમારા જેવા છાસ્થા માટે તે અતીવ પરાક્ષ છે એથી અમૈ કૃત તેને અનુમાન કે માગમથી
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगरचर्मामृतवर्षिणी टीका भ० १६ द्रौपदीचच
३३३
स्वयमेव भगवता-अहिंसासंयमतपसां धर्मत्व, तथा
-
तेषामुत्कृष्टमङ्गलस्वरूप - त्वेन प्राधान्य च नर्णित, तत्राप्यहिंसाया. सर्व मूलत्वेनान्यात् प्रथम स्थान मदत्तम् । तस्य सर्वमधानस्याऽहिंसा धर्मस्य पकायोपमर्दनसाध्ये मूर्तिपूजने मूलतः समुच्छेद केवलान्लोकेन साक्षात् पश्यन् भगवानर्हन् मूर्तिपूजनार्थमाशा मद यादित्याकाश कुसुममिनात्यन्तमसदेन वोभ्यम् ।
स्पष्ट रूप से ज्ञान के विषय नहीं हो सकते हैं । अत, ऐसे विषयो में सर्वज्ञ के वचन ही प्रमाण कोटि में अगीकार करना चाहिये ।
भगवान ने स्वय ही अहिंसा, सयम और तप में धर्मरूपता तथा उत्कृष्ट मंगलरूप होने से प्रधानता कही है । अहिंसा में जो प्रधान रूपना कही गई है उसका मुख्य कारण यह है कि वह समस्तवर्मो का मूल है और इसीलिये उसे उन्हो ने सर्वप्रथमस्थान दिया है जन यह बात है तो विचारना चाहिये कि भगवा मूर्तिपूजा की आज्ञा कैसे दे सकते हैं। क्यों कि वह पूजा पकाय के जीवो की विराधना से साय होती है । इस विराजना में अहिंसा धर्म का मूलतः ही अभाव समाया हुआ है। अर्थात् मूर्तिपूजा में उस प्रभुप्रतिपादित अहिंसा धर्म का सर्वथा उच्छेद हो हो जाता है-मूर्तिपूजा करने वाला पूजक अहिंसा धर्म का रक्षक नही हो सकता है- प्रत्युत उसे हिंसा का ही दोप लगता है इस प्रकार स्वयं भगवान जय अपने केवल ज्ञान से इस बात को તેમ નથી એથી એવી ખાખતામા સજ્ઞ ના વચના જ પ્રમાણુ રૂપમા સ્વીકારવા જોઇએ
ભગવાનને પાતે જ અહિંસા, સયમ અને તપમા ધમ રૂપતા તેમજ ઉત્કૃષ્ટ મગળરૂપ હાવાથી પ્રધાનતા બતાવી છે અહિંસામા જે પ્રધાન રૂપતા દર્શાવવામા આવી છે, મુખ્યત્વે તેનુ કારણ આ પ્રમાણે છે કે તે બધા ધાતુ મૂળ છે અને એથી તેને મૌએ સૌ પ્રથમ સ્થાન અપ્યું છે જ્યારે એવી વાત છે ત્યારે આપણે વિચારવુ જોઇએ કે ભગવાન મૃર્તિપૂજાની આજ્ઞા જેવી રીતે આપી શકે તેમ છે ? કેમ કે તે પૂજા તે ષટ્કાયના જીવાની વિરાધનાથી સાધ્ય હાય છે આ વિરાધનામાં અહિંસા ધર્માંતે મુખ્યત્વે અભાવના જ સમાવેશ થયે છે તેમ કહી શકાય છે. એટલે કે મૂર્તિપૂજામા તે પ્રભુ પ્રતિપાદિત અહિંસા ધર્મના સપૂર્ણ પણે ઉચ્છેદ જ થઈ જાય છે. મૂર્તિપૂજા કરનાર પૂજારી અહિંસા ધર્મના રક્ષક થઈ શકતા નથી અને ખીજી રીતે તે તેને હિંસાને દોષ જ એઢવે પડે છે. આ રીતે જ્યારે પાતે ભગવાન પાતાના કેવલજ્ઞાનથી મા
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
ભાર
ता
अत•
पर चलने से ही हो सकती है, इससे विपरीत मार्ग पर चलने से नहीं। जो जीन धर्म को साक्षात्कार करना चाहते है उनका कर्तव्य है कि वे सर्वज्ञ भगवन द्वारा कथित मार्ग का सेवन करे और उस से भिन्न मार्ग का परित्याग करे। इस प्रकार की प्रवृत्ति से वे धर्म और अधर्म के स्वरूप के ज्ञाता पन जाते हैं । इस कथन से शकाकार की इस आशकाका यहाँ परिहार किया गया है कि जो उसमें पहिले यह प्रश्न किया कि अहिंसादिकों में जो उत्कृष्ट मगलरूपता है घर किस प्रमाण से है । सूत्रकारने आगम और अनुमान दोनो प्रमाणों से उनमें उत्कृष्ट मंगलता सिद्ध की है इस कथन से एक बात और हमें यह ज्ञात होती है कि सर्वज्ञ कथित सिद्धान्त की जाच के लिये जबतक तर्क का जोर चलता रहे बुद्धिमान तबतक अपनी तर्कणा की कसौटी पर उसे कसता रहे पर जब तर्क की समाप्ति हो जाये तर्कणा शक्ति कुठित हो जावेतो उस व्यक्ति का कर्तव्य है वह आगम प्रमाण से ही उस सिद्धान्त का अनुसरण करें। फिर उसे उस विषय में तर्क करने की आवश्य कता नही है क्योंकि सूक्ष्मादिक पदार्थ सर्वज्ञ के सिवाय छद्मस्थों के
પ્રદર્શિત માર્ગ ઉપર ચાલવાથી જ જીવા ને ધર્મોની પ્રાપ્તિ થઇ શકે તેમ છે એનાથી વિરુદ્ધ માના સેવન થી નહિ એથી જે જીને ધનુ પ્રત્યક્ષ દર્શન ઈચ્છતાહાય. તેમની ફરજ છે કે તેએ સજ્ઞ ભગવાન દ્વારા કથિત માતુ સેવન કરે અને તેના વિરુદ્ધ માના ત્યાગ કરે આ જાતની પ્રવૃત્તિથી તેઓ ધર્મ અને અધર્મના સ્વરૂપને જાણનારા થઈ જાય છે આ કથનથી શકાકારની એ આાશકાના અહી પરિહાર કરવામા આવ્યા છે કે જે તેમા પહેલા આ પન્ન કરવામા આવ્યા છે કે અહિંસા વગેરે મા જે ઉત્કૃષ્ટ મગળ રૂપતા છે તે કયા પ્રમાણુના આધારે છે ? સૂત્રકારે આગમ તેમજ અનુમાન અને-પ્રમાણેા થી તેઓમાં ઉત્કૃષ્ટ મળતા સિદ્ધ કરી છે. એ કથન વડે ખીજી આ વાતનું પણ જ્ઞાન થાય છે કે સર્વજ્ઞ-કથિત મિદ્ધાન્તની પરીક્ષા માટે જ્યા સુધી તર્કની શકિત કાયમ રહે બુદ્ધિમાનેા ત્યા સુધી પેાતાની તણાની કસેાટી ઉપર કસતા રહે-પણ જ્યારે તર્કની શક્તિ મહ્દ થઈ જાય-તા શક્તિ કુઠિત થઈ જાય ત્યારે તે વ્યક્તિ ની ફરજ છે કે તે આગળ પ્રમાણથી જ તે સિદ્ધાન્ત નુ અનુ સરાકરે પછી તે વિષયમા જ તેને મીનમેખ કરવી જોઈએ નહિ કેમ કે સૂક્ષ્મ વગેરે પદાથા` સત્ત સિવાય છદ્મસ્થેાના માટે સ્પષ્ટ રૂપથી જાણી શકાય
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगारधर्मामृतवर्षिणी टीका *0 १६ द्रौपदीच!
स्वयमेव भगवता-अहिंसासंयमतपसां धर्मत्व,तथा - तेपामुत्कृष्टमङ्गलस्वरूपत्वेन प्राधान्य च वर्णित, तत्राप्यहिंसाया.-सर्वधर्ममूलत्वेन प्राधान्या प्रथम स्थान मदत्तम् । तस्य सर्वप्रधानन्याऽहिंसाधर्मस्य पदकायोपमर्दनसाध्ये मूर्तिपूजने मूलतः समुच्छेद केवलालोकेन साक्षात् पश्यन् भगवानहन मूर्तिपूजनार्थमाशा पदधादित्याकाशकुसुममिवात्यन्तमसदेव गोध्यम् । स्पष्ट रूप से ज्ञान के विपय नही हो सकते है । आः ऐसे विषयों में सर्वज्ञ के वचन ही प्रमाण कोटि में अगीकार करना चाहिये ।
भगवान ने स्वय ही अहिंसा, सयम और तप में धर्मरूपता तथा उत्कृष्ट मगलरूप होने से प्रधानता कही है। अहिंसा में जो प्रधान रूपता कही गई है उसका मुख्य कारण यह है कि वह समस्तधर्मों का मूल है और इसीलिये उसे उन्हो ने सर्वप्रथमस्थान दिया है जय यह बात है तो विचारना चाहिये कि भगवा मूर्तिपूजा की आज्ञा कैसे दे सकते हैं। क्यों कि वह पूजा पकाय के जीवों की विराधना से साय होती है। इस विरापना में अहिंसा धर्म को मूलतः ही अभाव समाया हुआ है। अर्थात् मूर्तिपूजा में उस प्रभुप्रतिपादित अहिंसा धर्म का सर्वथा उच्छेद हो हो जाता है-मूर्तिपूजा करने वाला पूजक अहिंसा धर्म का रक्षक नही हो सकता है-प्रत्युत उसे हिंसा का ही दोप लगता है इस प्रकार स्वय भगवान जय अपने केरल ज्ञान से इस बात को તેમ નથી એથી એવી બાબતોમાં સર્વર ના વચને જ પ્રમાણ રૂપમાં રવીકારવા જોઈએ
ભગવાનને પિતે જ અહિંસા, સયમ અને તપમ ધમ રૂપતા તેમજ ઉત્કૃષ્ટ મગળરૂપ હોવાથી પ્રધાનતા બનાવી છે અહિંસામાં જે પ્રધાન રૂપતા દર્શાવવામાં આવી છે, મુખ્યત્વે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે તે બધા ધમેનુ મૂળ છે અને એથી તેને સૌએ સૌ પ્રથમ સ્થાન આપ્યું છે ત્યારે એવી વાન છે ત્યારે આપણે વિચારવું જોઈએ કે ભગવાન મૂર્તિપૂજાની આજ્ઞા કેવી રીતે આપી શકે તેમ છે ? કેમ કે તે પૂજા તે પકાયના જીવોની વિરાધનાથી સાધ્ય હોય છે આ વિરાધનામાં અહિંસા ધર્મતે મુખ્યત્વે અભાવને જ સમાવેશ થયે છે તેમ કહી શકાય છે એટલે કે મૂર્તિપૂજામાં તે પ્રભુ પ્રતિપાદિત અહિંસા જમના સંપૂર્ણ પણે ઉકેદ જ થઈ જાય છે. મૂર્તિપૂજા કરનાર પૂજારી અહિંસા મના રક્ષક થઈ શકતું નથી અને બીજી રીતે તે તેને હિંસાને દેવ જ મહિલા પડે છે. આ રીતે જયારે પોતે ભગવાન પિતાના કેવલજ્ઞાનથી આ
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
জায়গায় पर चलनेसे ही हो मफती है, इससे विपरीत मार्ग पर चलने से नहीं। अतः जो जीव धर्म को साक्षात्कार करना चाहते हैं उनका कर्तव्य हे कि वे सर्वज्ञ भगवन द्वारा कथित मार्ग का सेवन करें और उस से भिन्न मार्ग का परित्याग करे। इस प्रकार की प्रवृत्ति से वे धर्म और अधर्म के स्वरूप के ज्ञाता पन जाते हैं। इस कथन से शकाकार की इस आशकाका यहाँ परिहार किया गया है कि जो उसमें पहिले यह प्रश्न किया कि अहिंसादिकों में जो उत्कृष्ट मगलरूपता है पर किस प्रमाण से है। सूत्रकारने आगम और अनुमान दोनों प्रमाणों से उनमें उत्कृष्ट मगलता सिद्ध की है इस कथन से एक पात और हमें यह ज्ञात होती है कि सर्वज्ञ कथित सिद्धान्त की जाच के लिये जबतक तर्फ का जोर चलता रहे बुद्विमान तपतक अपनी तर्कणा की कसौटी पर उसे कसता रहे-पर जय तर्क की समाप्ति हो जावे-तर्कणा शक्ति कुठित हो जावेतो उस व्यक्ति का कर्तव्य है वह आगम प्रमाण से ही उस सिद्धान्त का अनुसरण करें। फिर उसे उस विपय में तर्क करने की आवश्य कता नहीं है क्यों कि सूक्ष्मादिक पदार्थ सर्व के सिवाय छद्मस्थों के પ્રદર્શિત માર્ગ ઉપર ચાલવાથી જ છે ને ધર્મની પ્રાપ્તિ થઈ શકે તેમ છે , એનાથી વિરુદ્ધ માર્ગના સેવન થી નહિ એથી જે જે ધર્મનું પ્રત્યક્ષ દર્શન ઈચ્છતા હોય તેમની ફરજ છે કે તેઓ સર્વજ્ઞ ભગવાન દ્વારા કથિત માર્ગોનું સેવન કરે અને તેના વિરુદ્ધ માર્ગને ત્યાગ કરે આ જાતની પ્રવૃત્તિથી તેઓ ધર્મ અને અધમના સ્વરૂપને જાણનારા થઈ જાય છે આ કથનથી શકાકારની એ આશકાને અહી પરિહાર કરવામાં આવ્યું છે કે જે તેમા પહેલા આ પશ્ન કરવામાં આવ્યું છે કે અહિસા વગેરે માં જે ઉત્કૃષ્ટ મગળ રૂપતા છે તે કથા પ્રમાણના આધારે છે? સૂત્રકારે આગમ તેમજ અનુમાન બને–પ્રમાણે થી તેઓમાં ઉત્કૃષ્ટ મ ગળતા સિદ્ધ કરી છે એ કથન વડે બીજી આ વાતનું પણ જ્ઞાન થાય છે કે સર્વજ્ઞ--કથિત સિદ્ધાન્તની પરીક્ષા માટે જ્યા સુધી તેની શક્તિ કાયમ રહે બુદ્ધિમાન ત્યા સુધી પિતાની તર્કણની કસોટી ઉપર કસતા રહે-પણ જ્યારે તર્કની શકિત મદ થઈ જાય-તર્ક શક્તિ મુઠિત થઈ જાય ત્યારે તે વ્યકિત ની ફરજ છે કે તે આગળ પ્રમાણુથી જ તે સિદ્ધાન્ત નુ અનું સરણ કરે પછી તે વિષયમાં જ તેને મીનમેખ કરવી જોઈએ નહિ કેમ કે ભૂમિ વગેરે પદાર્થો સર્વજ્ઞ સિવાય છઘરના માટે સ્પષ્ટ રૂપથી જાણી શકાય
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्माभृतयरिंगी टीका में० १६ द्रौपदीचर्या
स्वयमेव भगवता-अहिंसासंयमतपसां वर्मत्व,तथा - तेपामुत्कृष्टमङ्गलस्वरूप त्वेन प्राधान्य च वर्णित, तत्राप्यहिंसाया -सपर्ममूलत्वेन प्राधान्यात् प्रथम स्थान मदत्तम् । तस्य सर्वप्रधानन्याऽहिंसाधर्मस्य पटूकायोपमर्दनसाध्ये मूर्तिपूजने मूलत. समुच्छेद केवलालोकेन साक्षात् पश्यन् भगवानहन मूर्तिपूजनार्थमाज्ञा प्रदधादित्याकाशकुसुममिवात्यन्तमसदेव वो यम् ।। स्पष्ट रूप से ज्ञान के विषय नहीं हो सकते है । अत. ऐसे विषयों में सर्वज्ञ के वचन ही प्रमाण कोटि में अगीकार करना चाहिये।
भगवान ने स्वय ही अहिंसा, संयम और तप मे धर्मरूपता तथा उत्कृष्ट मगलरूप होने से प्रधानता कही है। अहिंसा में जो प्रधान रूपता कही गई है उसका मुख्य कारण यह है कि वह समस्नधर्मों का मूल है और इसीलिये उसे उन्हो ने सर्वप्रथमस्थान दिया है जब यह बात है तो विचारना चाहिये कि भगवा मूर्तिपूजा की आज्ञा कैसे दे सकते हैं। क्यों कि वह पूजा पटूकाय के जीरो की विराधना से साय होती है। इस विरापना में अहिंसा धर्म को मूलतःही अभाव समाया हुआ है । अर्थात् मूर्तिपूजा में उस प्रभुप्रतिपादित अहिंसा धर्म का सर्वथा उन्ले हो हो जाता है-मूर्तिपूजा करने वाला पूजक अहिंसा धर्म का रक्षक नही हो सकता है-प्रत्युत उसे हिंसा का ही दोप लगता है इस प्रकार स्वयं भगवान जब अपने केवल ज्ञान से इस बात को તેમ નથી એથી એવી બાબતમાં સર્વ ના વચને જ પ્રમાણુ રૂપમાં સ્વીકારવા જોઈએ
ભગવાનને પિતે જ અહિંસા, સ યમ અને તપમા ધર્મ રૂપતા તેમજ ઉત્કૃષ્ટ મગળરૂપ હોવાથી પ્રધાનતા બનાવી છે અહિંસામાં જે પ્રધાન રૂપતા દર્શાવવામાં આવી છે, મુખ્યત્વે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે તે બધા ધર્મોનુ મૂળ છે અને એથી તેને મૌએ સૌ પ્રથમ સ્થાન આપ્યું છે જ્યારે એવી વાત છે ત્યારે આપણે વિચારવું જોઈએ કે ભગવાન મૂર્તિપૂજાની આજ્ઞા કેવી રીતે આપી શકે તેમ છે ? કમ કે તે પૂજા તે પકાયના જીવોની વિરાધનાથી સાધ્ય હોય છે આ વિરાધનામાં અહિંસા ધર્મતે મુખ્યત્વે અભાવને જ સમાવેશ થયો છે તેમ કહી શકાય છે એટલે કે મૂર્તિપૂજામાં તે પ્રભુ પ્રતિપાદિત અહિંસા ધર્મને સપૂર્ણ પણે ઉછેદ જ થઈ જાય છેમૂર્તિપૂજા કરનાર પૂજારી અહિંસા ધર્મને રક્ષક થઈ શકતું નથી અને બીજી રીતે તે તેને હિંસાને દેવ જ એ પડે છેઆ રીતે જયારે પિતે ભગવાન પિતાના કેવલજ્ઞાનથી આ
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
श्रताधर्मकथा
एव लक्ष्याः समालोचिताः इदानीमरक्ष्या उच्यन्ते - हिंसादी जिनाशाविरुद्धा _मचिर्भवति लोकाना तम्मादधर्मा हिंसादय एव तस्य धर्मलक्षणस्यालक्ष्या मवन्ति। धर्माध स्वरूपोधनार्थं हि भगवान के नाम-स्थापनाद्रव्यभाव मे देन चतुर्विधो निक्षेपः प्रदर्शितः । तत्र भावाश्यके एन तीर्थंकराशायाः सद्भावाद् साक्षात् जानते हैं तो फिर वे ही मूर्तिपूजा करने की आज्ञा देंगे यह मान्यता आकाशपुष्प की तरह सर्वधा असत्य ही है यह स्य समझने जैसी बात है जहाँ हिंसा है वहा धर्म नहीं है अहिंसा ही सच्चाधर्म है ।
इस प्रकार धर्म के लक्ष्यभूत अहिंसा आदि का यहां तक विचार किया। अब उससे विपरीत हिंसादिकों का विचार करते है
हिंसा आदि पाप हैं-इन में प्रवृत्ति कने की आज्ञा जिन भगवान ने नही दी है फिर भी जो प्रवृत्ति करते हैं वे उस आज्ञा से बहिर्भूत हैं। अत. जिनाज्ञा से विरुद्ध प्रवृत्ति होने से जीवों के लिये धर्म प्राप्ति के इनसे अधर्म की हो प्राप्ति होती है। जिन से जीवों को अधर्म की प्राप्ति होती हो, वे स्वयं अधर्म है। हिंसादिक पापो में अधर्मता होने का कारण उनमें धर्म के लक्षण का अभाव है । इसीलिये ये धर्म के लक्षण के अलक्ष्य हुए है । इस धर्म और अधर्म के स्वरूप को समझाने के लिये भगवान ने आवश्यक सूत्र में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव
વાતને સ્પષ્ટપણે પ્રત્યક્ષરૂપમા જાણે છે તે પછી તે જ મૂર્તિપૂજા કગ્ગાની આજ્ઞા આપે એવી માન્યતા આકાશ પુષ્પની જેમ સ પૂર્ણપણે અસત્ય જ સિદ્ધ થાય છે આપણે પાત્તે પણ આ વાત સમજી શકીએ તેમ છીએ કે જ્યા હિંસા છે ત્યા ધર્મ નથી અહિંસામા જ સાચા ધમ છે
આ રીતે ધર્માંના લક્ષ્યભૂત અહિંસા વગેરે ને માટે અહીં સુધી વિચાર કરવામા આન્યા છે હવે આગળ તેથી વિરુદ્ધ હિંસા વગેરેની ખાખતમા વિચાર રવામા આવે છે
હિંસા વગેરે પાપ છે–આમા પ્રવૃત્ત થવાની આજ્ઞા જિન ભગવાનને કાઇને પણ આપી નથી છતા જેઓ તેમા પ્રવૃત્તિ કરે છે તે તે આજ્ઞાથી બહિભૂત છે. એથી જિનાજ્ઞાની પ્રતિકૂળ પ્રવૃત્તિ હેાવાથી જીવાને ધમ પ્રાપ્તિના સ્થાને એમનાથી અધમની જ પ્રાપ્તિ થાય છે. જીવાને જેનાથી અધમ ની પ્રાપ્તિ થાય છે તે પોતે અધમ છે હિંસા વગેરે પાપામા અધમતા હાવાને લીધે તેમા ધર્મના લક્ષણના અભાવ છે. એટલા માટે જ તે ધર્મના લક્ષણુથી અલક્ષ્ય થયા છે. આ ધર્મ અને અધમના સ્વરૂપને સમજાવવા -
R
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मामृतणी टी० न० १६ द्रौपदीचच
धर्मम्, अन्यविधेष्वावश्यकेपु रागद्वेप हिंसादिदोपसद्भावेन मोक्षमार्गोपदेशे प्रवृत्तस्य तीर्थंकरस्य चाऽऽज्ञाया अभावेन न तत्र धर्मलक्षण समनुगच्छति, तेपां मोक्षसाधत्वाभावादजैनधर्मपद लब्धु-मनर्द्दत्वात् । तथाचोक्तमनुयोगद्वारे --
"से कि त नामासय ? | नामापरसयं जरस ण जीवरस वा अजीवरस वा के भेद से ४ चार निक्षेपों का कथन किया है उनमें नाम स्थपना और द्रव्यरप धर्म निक्षेप के आराधन करने की भगवान ने जीवों को आज्ञा नहीं दी है क्योकि इनसे नीचों को धर्म की प्राप्ति नहीं होती है । धर्म की प्राप्ति कराने वाला केवल भाव निक्षेपरूप आवश्यक है। इसकी आरामना से ही जीवों को धर्म प्राप्त हुआ करता है - अतः इस में ही धर्मरूपता प्रकट की गई है बाकी के इसके अतिरिक्त निक्षेपों में आवइयको में रागद्वेष और हिंसा आदि दोषों का सद्भाव होने से एव मोक्ष मार्ग के उपदेशप्रदान करने में प्रवृत्त तीर्थकरो की इनके आराधन करने में आज्ञा का अभाव होने से धर्म के लक्षण का समन्वय ही नही होता है। मुक्ति का जो माधक होता है वही जैन-धर्म है । इन ३ निक्षेपरूप आवश्यकों में मुक्ति की साधकता का अभाव है इसलिये ये जैनधर्म के पदको स्वम में भी प्राप्त नही कर कते हैं।
२३५
अनुयोगद्वार में यही बात कही गई है-
से किं त नामावरसय ? नामावस्सय जस्स ण जीवस्स अजीवरस આવશ્યસૂત્રમાં નામ, સ્થાપના દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી ચાર નિક્ષેપા નુ કથન કર્યું છે તેમા નામ, થાપના, અને દ્રવ્યરૂપ ધર્માં નિક્ષેપને આગધવાની ભગવાને જીવેને આજ્ઞા આપી નથી કેમ કે એમનાથી જીવેને ધર્મની પ્રાપ્તિ ચતી નથી ધર્માંની પ્રાપ્તિ કરાવનારા કેવળ ભાવનિક્ષેપરૂપ આવશ્યક છે એની આરાધનાથી જ જીવાને ધર્મોની પ્રાપ્તિ થાય છે. એથી આમા જ ધર્મરૂપતા બતાવવામા આવી છે એના સિવાયના ખીન્ત નિક્ષેપામા–આવશ્યઽામા-રાગદ્વેષ અને હિંસા વગેરે દોષાના સદ્દભાવ હાવાથી અને મે ક્ષ માના ઉપદેશ આપ વામા પ્રવૃત્ત તીર્થંકરાની એમની આરાધના કરવાની આજ્ઞાના અભાવ હેાવાથી ધર્મના લક્ષણને સમન્વય જ થતા નથી મુકિતને! જે સાધક હાય છે તે જ જૈન ધર્મ છે આ ૩ નિક્ષેપરૂપ આવશ્યકેમા મુક્તિની સાધકતાના અભાવ છે માટે એએ જૈન ધર્મના પદને સ્વપ્રમાયે મેળવી શકે તેમ નથી
અનુયાગઢરમા એ જ વાત કહેવામા આવી છે~~
से किं त नामावस्य ? नामावस्मय जस्स व जीवरस अजीबस्स वा जीवाण वा
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५३
माताधर्मकथा जीवाण वा अजीवाण या तदुभयस्म पातदुभयाण या आवस्सपत्ति नाम फज्जा से त नामावस्सय।
अथ किं तत् नामावश्यक ? नामाप-पस्य खल्ल नीरस्य वा अनीवस्य या जीवाना वा अजीयानां या, तदुभयस्य या तदुभयेपाना आवश्यकमिति नाम क्रियते तदेतनामावश्यकम् । ___“से कि त ठवणायरसय २ १ जण कटपम्मे वा पोत्थाम्मे या चित्तकम्मे वा लेपयम्मे वा गथिमे वा वेदिमे चा पूरिमे वा सघामे या अवखे वा वराडए वा एगो वा अपोगो वा सम्भावठवणा वा असन्भावटवणा या आवस्सएत्ति ठपणा ठविज्जह, से त ठवणावस्सय ।
छाया-अथ मि तत स्थापनापश्यम् स्थापनावश्यक यत खलु काप्ठकम वा पुस्तकम वा चित्रम वा लेप्यम वा ग्रन्थिम वा वेटिम वा परिम वा सहातिम वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयरस वा तदुभयाण वा आवस्सए त्ति नाम कजइ से त नामावस्सय।
से कि त ठवणावग्सय १ जण कट्टपम्मे था पोत्थकम्मेवा चित्तकम्मे वा लेपकम्मे वा गथिमे वा वेढिमे वा परिमे वा सघामे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा सम्भावठवणा वा असन्भावठवणा वा आवस्सए त्ति ठवणा ठविन्नड, से त ठवणावस्सय ___भावार्थ-जीव, अजीव अथवा तदुभय स्वरूप आदि पदार्थो में " यह आवश्यक है " इस प्रकार नाम सस्कार करना वह जीव अजीव
आदि नाम आवश्यक है इस नाम आवश्यक में आवश्यक के वास्त विक गुणादि कुछ भी नहीं होते हैं-सिर्फ लोक व्यवहार के लिये ही इस प्रकार की वहा पर निक्षेपविधि करली जाती है काष्ठ, पुस्तक चित्र अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सए त्ति नाम कज्जइ से त नामावस्सय ।
से कि त ठवणावस्सय १ जण्ण कट्टकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्प कम्मे वा गथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा सघाइभे वा अवखे वा वराडए वा एगो वा अणेगो पा सम्भावठवणा वा असम्भावठवणा वा भावस्सएत्ति ठवणा ठविज्जइ, सेत ठवणावस्सय ।
ભાવાર્થ-જીવ, અજીવ અથવા તદુભય સ્વરૂપ વગેરે પદાર્થોમાં “ આ આવશ્યક છે ” આ રીતે નામ મસ્કાર કરો ને જીવ અજીવ વગેરે “ નામ આવશ્યક છે આ નામ આવશ્યકમાં આવશ્યક ના વાસ્તવિકગુણ વગેરે કોઈ જ હતા નથી ફકત લેકવ્યવહાર ના માટે જ આ જાતની ત્યા નિક્ષે
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीच
या अक्ष वा वराटक चा एकोपा अनेको वा सद्भावस्थापना वा असद्भावस्थापना या ' आवश्यक - मिति स्थापना स्थाप्यते, तदेतत् स्थापनावश्यकम् ।
३७
भावावश्यकस्वपन्ये गोपाल्दारकादी आवश्यकेति नामकरणे नाम्नानाममात्रेणावश्यक नामावश्यक गोपाल्दारकादिर्भवति । स्थापनाऽपि भावावश्यक एव अक्ष - शतरज की गोटी आदि में एक अथवा अनेक आवश्यक क्रिया करने वाले श्रावक आदि को तदाकार अथवा अतदाकार लिखित चित्र स्थापना आवश्यक ( निक्षेप ) है यह स्थापना दो प्रकार की है एक सद्भाव स्थापना और २ दूसरी असद्भावस्थापना ! सज्ञान स्थापना में जिसकी स्थापना की जाती है उसकी सर्व आकृति कोतरी रहती है - असद्भूत स्थापना में इस प्रकार की आकृति आदि नही रहती है वशं पर केवल संकेत ही है जैसे शतरज की गोटिया में यह प्यादा है यह घजीर है, यह हाथी है इत्यादि सिर्फ कल्पना ही कल्पना रहती है- वहां उनका कोई भी आकार कोतरा नहीं रहता है। नाम निक्षेप में जिस प्रकार नाव आवश्यक शून्यता रहती है उसी प्रकार स्थापना में भी यही बात रहती है किसी गोपाल (ग्वालिये) के लड़के का आव इक " इस प्रकार का नाम जिस प्रकार भाव आवश्यक रहित नाम निक्षेप में है उसी प्रकार भाव आवश्यक के स्वरूप से शून्य स्थापना निक्षेप में भी " ग्रह आवश्यक है " यह स्थापना निक्षेप है ।
"
भावे छे, ४४, पुस्त, चित्र भने अक्ष-रातरन नी सोगही वगेरेमा भे} અનેક આવશ્યક ક્રિયા કરનાર શ્રાવક વગેરંતુ તદાકાર કે અતદાકાર લેખિત चित्र-स्थापन यात्रश्य ( निशेष ) छे આ સ્થાપના એ પ્રકારની છે. એક સદ્દભાવ સ્થાપના અને ખીજી અમદ્ભાવ સ્થાપના સદ્ભાવ સ્થાપનામા જેની સ્થાપના કરવામા આવે છે તેની આકૃતિ સ પૂર્ણ પણે કતરેલ હોય છે સદ્ ભૂત સ્થાપનામાં આ જાતની કૃતિ વગેરે રહેતી નથી ત્યા ફક્ત મ કેત જ છે. જેમ ચૈતરજની સેાગડીએમા આ પાયદળ છે, આ વજી છે, આ હાથી છે વગેરે ફક્ત કેરી ફલ્પના જ હોય છે તેમા તેમની કાઇપણુ જાતની આકૃતિ કાતરેલી હાતી નથી નામ નિક્ષેપમા જેમ ભાવ આવશ્યક શૂન્યતા રહે છે તેમજ સ્થાપનામા પશુ એ જ વાત હોય છે. કોઇ ગાવાળિયાના ક્ર્મક' આ જતનું નમ જેમ ભાવ આવશ્યક રહિત નામ પ્રમાણે જ ભાવ આવશ્યકતા સ્વરૂપથી શૂન્ય સ્થાપના નિક્ષેપમા પણ આવશ્યક છે” આ સ્થાપના નિક્ષેપ છે
6 પુત્રનુ આવ નિક્ષેપમા છે તે
भा
मा ४३
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
wateisure
स्वरूपशून्ये काष्ठकर्मादौ क्रियते । अतो भाव्ये त्रियमाणत्वाविशेषादनयो नस्ति कश्चिद् भेद इत्याशयेनाह-
"नामवाण को परविसेसो | छाया-नामस्थापनयोः यः प्रतिविशेषः ।। अत्रोत्तरमुच्यते-
'णाम आपकविअ, ठाणा इतरिआ था होज्जा आपदिया जा ' ॥ छायानाम - यावत्कथिक स्थापना - इत्यरिका वा भवेद यावत्कथिका वा ।
' णाम आवकहिय ' नाम यावत्कथिक स्वाथ्र्यद्रव्यस्यास्तित्वकथा याव दनुवर्तते इत्यर्थः, स्थापना तु ' इत्तरिया ना' इत्वरित वा सल्पकारस्थायिनी बा' होज्जा' स्यात् यावत्कथिका वा, अथ भावः - काचित् स्थापना स्वाथ्र्य द्रव्यस्य सद्भावेऽपि, मध्यकाल एव निवर्तते, काचित्तु तत्सत्ता यावदतिष्ठते
"
शका - जिस प्रकार भाव आवश्यक के स्वरूप से शून्य गापाल के लड़के आदि में " आवश्यक " इस प्रकार का नामनिक्षेपरूप आवश्यक है उसी प्रकार भाव आवश्यक के स्वरूपसे शून्य काष्टधर्म आदिकों में भी यही बात है । अतः भाव आवश्यकके स्वरूप की शून्यता की अपेक्षा से इन दोनो में कोई भी अन्तर नही है । तो फिर इन दोनों में क्या भेद है ! उत्तर- "णाम आवकहिय ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिओवा इम प्रकार की शका ठीक नहीं क्यों कि नाम यावत्कथित होता है स्थापना इत्वरिक और यावत्कथिक दोनों प्रकार की होती है । अपने आश्रयभूत द्रव्यका जबतक अस्तित्व-सद्भाव रहता है तबतक नामनि क्षेप रहता है ! इत्वरिक शब्द का अर्थ अल्पकालीन है चित्र एव अक्ष आदिकों में यह स्थापना अल्पकालीन होती है। इस प्रकार नाम और
39
८८
""
શકા—જેમ ભાવ આવશ્યકના સ્વરૂપથી શૂન્ય ગેાવાળિયાના પુત્ર વગે રેમા આવશ્ય આ જાતનુ નામ નિક્ષેપ રૂપ આવશ્યક છે તેમજ ભાવ આવશ્યકના સ્વરૂપથી શૂન્ય કાષ્ટકમ વગેરેમા પણ એ જ વાત છે એથી ભાવ આવશ્યકના સ્વરૂપની શૂન્યતાની દૃષ્ટિએ આ ખનેમા કોઈ પણ જાતના તફાવત નથી, ત્યારે આ ખનેમા ભેદ શે! છે?
होज्जा ओवकहिआ वा ) સ્થાપના ઈરિક અને
उत्तर--- ( णाम आवकहिय ठवणा इत्तरिया वा શકા ચેાગ્ય નથી કેમકે નામ યાવત્ કથિત હોય છે યાવત્કથિત અને પ્રકારની હોય છે. પાતાને આશ્રયભૂત દ્રવ્યનુ જ્યા સુધી સકૂ ભાવ-અસ્તિત્વ રહે છે ત્યા લગી નામ નિક્ષેપ રહે છે! ઇરિક શબ્દના અર્થ અલ્પકાલીન છે. ચિત્ર અને અક્ષ ( રમવાના પાસા ) વગેરેમા એ સ્થાપના અલ્પકાળ માટે હોય છે આ રીતે નામ અને સ્થાપનામા
7
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
भनगारधर्भातपिणी टी० अ० १६ प्रोपदीचर्चा इति । एव च-नामस्थापनयोपिशून्यत्वेनाधारसाम्येऽपि भेदः स्वस्त्रावस्थानकालकृत एस भगवता प्रदर्शित । यद्यपि गोपालदारकादौ विद्यमानेऽपि कदाचिदनेकनामपरिवर्तन लोके याचिद् दृश्यते, तथा च कालकृतोऽपि भेदो नास्ति, तथापि-बहुशः स्थले नाम्नो यावत्कयित्वमेव दृश्यते, नाम्नः परावर्तन तु क्वचिद्विरलतयोपल यते । अतोऽल्पस्थलव्यापित्वेन नाम्न इत्वरिकता भगवता न विरक्षिता । नाम्नोऽल्पकालिस्तारल्पने तुत्सूत्रप्ररूपणापत्तिरिति बोध्यम् । स्थापनामें भावनिक्षेपकी शुन्यताकी अपेक्षासे समानता आती है तो भी अपने२ फालकी अपेक्षासे इनमें इस प्रकार भेद-अन्तर माना गया है।
शका-नामनिक्षेप में जो यावत्कधिकता प्रदर्शित की गई है, वह ठीक नही है-कारण कि हम देखते है नामवान द्रव्य-गोपालदारक आदि के विद्यमान रहते हुए भी उस में अनेक नोमो का परिवर्तन होता रहता है । कभी उसका "आवश्यक" यह नाम होता है, तो "इन्द्र" यह नाम रख लिया जाता है। फिर "आवश्यक" इस नाम निक्षेप में यावत्कधिकता कैसे आ सकती है ?
उत्तर-शका ठीक है इस प्रकार से विचार करने पर कालकृत अन्तर यद्यपि उन दोनों में नहीं मालूम होता है तो भी इस बात की यहां पर विरक्षा नहीं है इसका कारण यही है कि यह नामपरिवर्तन अल्पस्पलवर्ती होनेसे व्याप्य है। यह बात सब जगह नहीं होती। कहीं २ ही होती है यहा सामान्यकथन है-विशेष नही । सामान्यरूप से नाम શૂન્યતાની અપેક્ષાથી સમાનતા આવી જાય છે, છતાયે પિતાપિતાના કાળની અપલાવી તેમાં આ જાતને ભેદ અખ્તર માનવામાં આવ્યો છે
શકા––નામ નિક્ષેપમા જે યાવસ્કથિકતા બતાવવામાં આવી છે, તે ઉચિત નથી કારણ કે નામવાળ ગોપાળદારક વગેરેના વિદ્યમાન રહેતા પણ તેમા અનેક નામોનુ પરિવર્તન થતું રહે છે કેઈ વખતે તેનું નામ “આવશ્યક રાખવામા આવે છે તે કોઈ વખત “ઈન્દ્ર” નામ રાખવામા આવે છે તે પછી આવશ્યક' આ નામ નિક્ષેપમા યાવસ્કથિત કેવી રીતે આવી શકે છે?
ઉત્તર–શકા ઉચિત છે આ રીતે વિચાર કરવાથી જે કે કાળકૃત અતર તેઓ બનેમાં જણાતું નથી છતાયે આ વાતની અહીં વિવેક્ષા નથી એનું કારણે આ પ્રમાણે છે કે આ નામ પરિવર્તન અ૫–સ્થલવ લેવાથી વ્યાપ્ય છે, આ વાત બધે સ્થાને હોતી નથી કેઈક કોઈક સ્થાને જ હોય છે અહીં
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्राताधर्म कथा यत्तु उपलक्षणमात्र चेद पालमदने तयोर्भेदकवनम् - अपरस्यापि चमकारभेदस्य सम्भवात् इत्युक्त वदुत्सूत्रमरूपणम् यथोत्त्पभियानामनिक्षेपे इत्वरिकताया. काचित् सभवेऽपि भगवानुत्यादुपलक्षणमिति न स्वीकृत तथैव स्थापनाया कालातिरिक्तस्य भेदहेतोः कल्पनेऽप्युत्तम स्पण प्रसज्येत कालान्यकृत
यावत्कधिक ही होता है । इसी अपेक्षा को लक्ष्य में रखकर भगवान ने उसमे इत्वरिकता का कथन न कर केवल यावत्कधिकता का ही कथन किया है यदि नाम में जो केवल इत्वरिकता ही मानी जावेगी तो यह बात सिद्धान्त से वहिर्भूत होने से मानने वाले के लिये उत्प्ररूपणा करने की आपत्ति का दोष आवेगा- क्यों कि शास्त्र में भगवान ने नाम निक्षेप में केवल यावद्रव्य भविता ही प्रदर्शित की है ।
""
जो व्यक्ति इस शका का इस प्रकार से समाधान करते हैं कि काल के भेद से जो नाम और स्थापना मे भेद कहा गया है वह केवल उपलक्षण मात्र है - इससे अन्य अनेक प्रकारों से भी इन दोनों में परस्पर भेद है यह बात जानी जोती है" सो उनका यह कथन शात्रमर्यादा के विरुद्ध है जिस प्रकार नाम निक्षेप में कही २ इत्वरिकता होने पर भी भगवान द्वारा स्वीकृत न होने से वह उपलक्षगरूप से स्वीकृत नही की गई है-उसी प्रकार स्थापना में भी कालकृत भेद के
સામાન્ય કથન છે વિશેષ નહિ સામાન્ય રૂપથી નામ યાવત્ કથિત જ હાય છે. આ વાતને સામે રાખીને જ ભગવાને તેમા ઇત્વરિકતાનું કથન ન કરતા ફક્ત યાવત્કથિકતાનું કથન કર્યુ છે જે નામમા ફકત ઇંવરિકતા જ માનવામા આવશે તે! આ વાત સિદ્ધાન્તની બહાર હોવાથી માનનાર માટે ઉત્સૂત્ર પ્રરૂ પા કરવા રૂપ દોષ આપશે કેમકે શાસ્ત્રમા ભગવાને નામ નિક્ષેપમાં ફક્ત ચાવનૢ-દ્રવ્ય-ભાવિતા જ મતાવી છે
જે માંણસે આ શકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે કરે છે કે “ કાલના ભેદથી જે નામ અને સ્થાપનામા તફાવત ખતાવવામા આવ્યા છે તે ફક્ત ઉપલક્ષણ માત્ર છે. એથી બીજા અનેક પ્રકારાથી પણ આ ખનેમા પરસ્પર તફાવત છે આ વાત સ્પષ્ટ થાય છે “ જેથી તેમનુ આ કહેવું શાસ્ત્ર-મર્યાદાથી વિપરીત છે. જેમ નામ-નિક્ષેપમા કાઈક કાઇક ઠેકાણે ઈત્રરિકતા હૈાવા છતાયે ભગવાન વડે સ્વીકૃત ન હેાવાથી તે ઉપનક્ષણુ રૂપથી સ્વીકારવામા આવી નથી, તેમ સ્થાપનામા પન્નુ કાલકૂત લેક સિવાય બીજા લૂટે
1
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारयामृतर्पिणी टोका म० १६ द्रौपदीचर्चा
५४१ भेदस्य भगरतानुक्तत्वात् । एतेन-" यत् कैश्चिदुक्त यथा प्रतिमारूपस्थापनादर्शनाद भावः समुल्लसति नै नामश्रवणमादिति नामन्यापनयोर्भेदः, यथा चे द्रादे' प्रतिमारूपम्थापनाया,लोकस्योपयाचितेन्छा पूजामति समीहितलाभादयोदृश्यन्ते,नैव नामेन्द्रादी, इत्यपि तयोर्भेदः । एवमन्यदपि वाच्यमिति तदुत्सूत्रप्ररू सिवाय अन्य द्वारा अन्तर भेद मानने में उत्सन प्ररूपणा करने का दोप आता है, कारण कि भगवान ने काल कृत भेदके सिवाय स्थापना निक्षेप में अन्य और किसी दूसरी अपेक्षा से भेद का कथन नहीं किया है इस प्रकार के कथन से " यह बात भी जो दूसरों ने कही है कि नाम और स्थापना में इस प्रकार से भी भेद है-कि "जिस प्रकार अहत की प्रतिमारूपस्थापना के देग्वने-दर्शन करने से भावों की जागृति होती है, उस प्रकार नाम निक्षेपरूप अहं त नाम के सुनने से मावों की जागृति नहीं होती है। अथवा-इन्द्रादिक फी प्रतिमारूप स्थापना में जिस प्रकार से लौकिकजनों की उस प्रतिमा से कुछ भागने की इच्छा उसके पूजन करने की भावना और उस प्रतिमा द्वारा उनके अभिलपितमनोरयों की पूर्ति होती हुई देखी जाती है उस प्रकार नामरूप इन्द्र में उनकी इस प्रकार की प्रवृत्ति और अभिलपित मनोरथो की पूर्ति रोनी हुई नहीं देखी जाती है। इसी तरह और भी ऐसी कई याने हैं जो नाम और स्थापना में अन्तर कराती है। यह सय कालकृत भेद के सिवाय ઉત્સવ પ્રરૂપણ રૂપ દેષ થઈ જાય છે કારણ કે ભગવાને કાલકૃત ભેદ સિવાય સ્થાપના નિક્ષેપમા બીજી કોઈ અન્ય દષ્ટિએ ભેદ-કથન કર્યું નથી આ જાતના કથનથી “આ વાત પણ જે બીજાઓએ કહી છે કે નામ અને સ્થાપનામાં આ રીતે પણ તફાવત છે કે “જેમ અહં તની પ્રતિમા રૂપ સ્થાપનાને જેવા એટલે કે દર્શન કરવાથી ભાવોની જાગૃતિ થાય છે, તેમ નામ નિક્ષેપ રૂપે અહંતના નામને સાભળવાથી પણ ભાવની જાગૃતિ હોતી નથી અથવા તે ઈન્દ્ર વગેરેની પ્રતિમા રૂપ સ્થાપનામાં જેમ લૌકિક માણની તે પ્રતિમાથી કંઈક માગણી કરવાની ઈચ્છા, તેની પૂજા કરવાની ભાવના અને તે પ્રતિમા વડે તેમના અભિલવિત મનોરથોની પૂર્તિ થતી દેખાય છે તેમ નામ રૂપ ઈન્દ્રમાં તેમની આ જાતની પ્રવૃત્તિ અને અભિવષિત મનેરથાની પૂર્તિ થતી જોવામાં આવતી નથી આ પ્રમાણે બીજી પણ ઘણી બાબત છે જે નામ અને સ્થાપ મામા અતર કરાવે છે.
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापमेयाल पणा जनितानन्तसमारजनकम् । आगमे यदिदमुरउभ्यते-"तहास्वाण अरहताण भगवताण नामगोयमवणयाए महाफलं।" इति, तर नास्ति नामनिक्षेपस्य विषयः। " अरहताण भगताण " इत्युक्त्या तस्मिन्नथें प्रयुक्तस्य नाम्न पर श्रवणेन महा फलसभवात् , गोपालदारकादौ प्रयुक्तस्य नाम्न आणेन तु गोपालद्वारकाधर्थ स्यैव गोधादात्मपरिणामधुद्धितत्व तस्य नास्तीति । नामनिक्षेपस्यले भगतोऽ हेतः स्मरणासभव., तस्य भावशून्यत्वात् , अन तु नामगोत्राभ्या गगनदहतः सम्बन्ध पष्ठयन्तपदपयोगादेव दर्शयता भगाता नामनिक्षेपो न विवक्षितः । भावजिन नाम और स्थापना में भेद करपना का कथन उत्सूत्र प्ररूपक शेने से अनन्त ससार का जनक है अतः हेय है। " तहाल्याण अरहताण भगवताण नामगोपसवणयाए महाफल" आगम में जो यर सूत्र लिम्वा हुआ देखा है उसका अभिमाय नामनिक्षेप परक नहीं है । अर्थात्-इस सूत्र से नाम निक्षेप की पुष्टि नहीं होती है। यदि सूत्रकार को इस सूत्र से जो नामनिक्षेप की पुष्टि करना इष्ट होता तो "अरहताण भगव तोण इस पद के स्वतन्त्र देने की कोई खास आवश्यकता नहीं थी। अतः यह यान माननी चाहिये कि अरहत भगवान के ही नामगोत्र के श्रवण से महाफल होता है। किसी गोपाल के लड़के में निक्षिप्त "अरहत" इस नाम के सुनने से नहीं। उस में प्रयुक्त भी उस नाम के श्रवण से तो केवल उस गोपाल दारकरूप अर्य का ही योष होता है । "अरहत " यह नाम जिसरूप के सकेत से अरि
આ બધુ કાલકૃત ભેદ સિવાય નામ અને સ્થાપનામા ભેદ કલ્પનાનું કથન ઉસૂત્ર પ્રરૂપક હેવાથી અનત સંસારનુ જનક છે એથી ત્યાજ્ય છે " तदारुवाण अरह ताण भगवताण नाम गोयसवणयाए' महोफलं " भागमा જે આ સૂત્ર મળે તેને અભિપ્રાય નામનિક્ષેપપરક નથી એટલે કે આ સૂત્ર વડે નામ નિક્ષેપ-પુષ્ટિ થતી નથી જો સૂત્રકારને આ સૂત્ર વડે નામ-નિલેપની पुष्टि ४२ ट स ततो " अरह ताण भगवताणं " मा पहन स्वतत्र રૂપમાં મૂકવાની કઈ ખાસ આવશ્યકતા હતી નહિ એથી આ વાત માની લેવી જોઈએ કે અહિત ભગવાનના નામ ગેત્ર-શ્રવણુથી મહાફળ પ્રાપ્ત હોય છે કઈ ગોપાળના પત્રમાં નિક્ષિપ્ત “અરહત” આ નામને સાભળવાથી નહિ તેમાં પ્રયુક્ત પણ તે નામના શ્રવણથી તે ફક્ત તે ગોપાળના પુત્ર રૂપ અર્થ नानाथ सा4 छ " अरहत" म नाम २ ३५ना मतथी महत પ્રભુમાં સ કેતિત થયું છે તે રૂપના સંકેતથી જ ગોપાળના
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधमनृतवदिनी का ० १६ द्रौपदीचच
१४३
हंत प्रभु में भकेतित हुआ है-उसी रूप से सकेत से गोपाल के पुत्र में केतित नहीं हुआ है। लौकिक व्यवहारके लिये ही केवल "अरहत" ऐसा उसका नाम कर लिया गया है। नाम निक्षेप में जिसका निक्षेप किया जाता है उस जाति के द्रव्य, गुण और कर्म - क्रिया आदि निमित्त की अनपेक्षा रहती है इम निमित्त के सद्भाव में वह नाम निक्षेप की विपत्र नही माना जाता है। भाव निक्षेप का ही वह विषय होता है अतः यह निश्चित होता है कि अरस्त भगवान के ही नाम गोत्र के श्रवण के महाफल सूत्रकार ने प्रकट किया है यदि नामनिक्षेप से यह फल प्राप्त होने लगता तो फिर भावनिक्षेप की आवश्यकता ही क्या थी । उसके श्रवण मात्र से ही जीवों के आत्मिक भावों में शुद्धिरूप महाफल का लाभ होने लगता । तथा जिसका " अरिहन " यह नाम है वह स्वय अरिहत प्रभु की तरह महापवित्र, ३४ अतिशयों सहित ८ प्रातिशर्य आदि विभूति सपन्न हो जाना। परन्तु ऐसा नहीं होता है अत: यह मानना चाहिये कि यह सूत्र भावनिक्षेप की ही पुष्टि विधायक है - नामनिक्षेप का नहीं । नामनिक्षेप से भगवान अरिहत की स्मृति भी नही कराई जाती है कारण कि वह नामनिक्षेप स्वय उस प्रकार के भावों से शून्य है। अनुभूत पदार्थ की स्मृति हुआ करती
66
થયુ નથી લૌકિક વ્યવહાર માટે ફક્ત અરહે ત '' આવુ નામ પાડવામાં નામનિક્ષેપમા જૈને નિક્ષેપ કરવામા આવે છે તે જાતિના દ્રવ્ય, ગુણ અને કમક્રિયા વગેરે નિમિત્તની અપેક્ષા રહે છે આ નિમિત્તના સદ્ભાવમા તે નામ-નિક્ષેપના વિષય માનવામા આાવતા નથી ભાવ નિક્ષેપને જ તે વિષય હાય છે એથી એ સિદ્ધ થાય છે કે અરહત ભગવાનના જ નામ ગોત્રના શ્રવણથી જ સૂત્રકારે મહાફળ ખતાવ્યુ છે જો નામનિશ્ચેષથી આ ળ મળી શકયુ હાત તેા પછી ભાવનિક્ષેપની આવશ્યતા જ, શી હતી ? તેના ઋણુ માત્રથી જ જીવેની આત્મિક ભાવામા શુદ્ધિ રૂપ મહાફળના લાભ થવા માડતા તેમજ જેનુ “અરિષ્ઠ ત ” આ નામ છે તે પોતે અરિહંત પ્રભુની જેમ મહા પવિત્ર, ૩૪ અતિશયા સહિત, ૮ પ્રતિહાય વગેરે વિભૂતિએથી સપન્ન થઇ જાત, પણ આવું થતુ નથી એથી એમ સમજી લેવુ જોઇએ કે આ સૂત્રથી ભાવનિક્ષેપની જ પુષ્ટિ થાય છે-નામ નિક્ષેપની નહિ નામ નિક્ષેપથી ભગવાન અરિહંતની સ્મૃતિ પણ કરવામા આવતી નથી કારણ કે તે નામ-નિક્ષેપ જાતે તે જાતના ભાવાથી રાહત છે અનુભૂત પદાર્થનુ માણુ થયા કરે છે જેનુ
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
भानाधर्मकथा है जिसका "अरिहंत" यह नाम रखा गया है उसके देखने से अरिहंत की स्मृति हो भी कैसे सकती है-स्मृति तो अरिहंत की जय से मकती कि जब उसमें उनकी स्मृति के पिह होते-घर स्वय उस प्रकार के हेतु हो सकती है माना कि श्रवण फर्ता शास्त्र आदिको में अरिहरप्रभु के गुणों का वर्णन पढकर चित्त में उकेर कर भले ही "अरिश्त" इम नामके श्रवण से उनका स्मरण कर सकता है। पर तु गोपालदारकादी में का नाम से उनका स्मरण उसे नहीं हो सकता-उस नाम से तो उसमें ही सकेतित उस शब्द से उस गोपाल दाररूप अर्थ का ही उसे घोध शेगा। यदि अरिस्त नाम के सुनने से सुनने वाले को अरिहत पदार्थ का भान होता हैतो वह नाम निक्षेप का विषय नहीं माना गया है भावनिक्षेप का ही वर विपय है। थोड़ा घहत भी किमी अपेक्षा से सादृश्य होने पर एक पदार्य को देखकर सदृश मरे पदार्थ का स्मरण हो जाता है परन्तु प्रकृत मे गोपालदोकरप अरित्त नामनिक्षेप में ऐसा कोन सा सादृश्य है जो वर अरिहत का स्मरण करा सके। अत' नाम
और गोत्र के साथ साक्षात् भगवान अरिहत का सब पष्ठी विभक्ति द्वारा प्रर्शित करने वाले सूत्रकार ने इस सूत्र में नामनिक्षेप का कोई
અરિહ ત” આ નામ રાખવામાં આવ્યું છે તેને જોવાથી અહિત સ્મૃતિ પણ કેવી રીતે થઈ શકે તેમ છે? સ્મૃતિ તે અરિહતની ત્યારે જ થઈ શકે કે જ્યારે તેમા તેમની સ્મૃતિના ચિહ્નો હોય, તે પોતે આ જાતના ભાવોથી રહિત થયેલ હોય ત્યારે તે કેવી રીતે તેમની સ્મૃતિનું કારણ થઈ શકે છે આ વાત આપણે સ્વી કારી કાકીએ તેમ છીએ કે શ્રવણ-કન્તુ શાસ્ત્ર વગેરેમા અરિહત પ્રભુના ગુણેનું વર્ણન વાચીને ચિત્તમા ધારણ કરીને ભલે “અરિહત આ નામના શ્રવણથી તેમનું સ્મરણ કરી રોકે છે પણ ગોપાળદારક વગેરેમાં કૃત નામથી તેનું સ્મરણ થઈ શકતું નથી તે નામ વડે તે તેમા જ સ કેતિત તે શખથી તે ગોપાળદારક રૂપ અર્થને જ તે બોધ થશે જે અરિહત નામ શ્રવણથી સાભળનારને અરિહંત પદાર્થોનું જ્ઞાન થાય છે ત્યારે તે નામનિસેપનો વિષય માનવામાં આવ્યો નથી ભાવનિક્ષેપને જ તે વિષય છે કોઈ પણ રીતે થોડુ પણ સરખાપણું હોવાથી એક પદાર્થને જોઈને તેના સરખા બીજા પદાર્થનું સ્મરણ થઈ જાય છે પણ પ્રકૃતમાં ગોપાળદારક રૂપ અરિહત નામનિક્ષેપમા એવુ કઈ જાતનું સરખાપણું છે કે જે તે અરિહંતનું સ્મરણ કરાવી શકે? એથી નામ અને ગોવાની સાથે સાક્ષાત ભગવાન અરિહંતને સ બ પ પછી વિભકિત વડે દર્શાવનારા સૂનકારે આ સૂત્રમાં નામનિસેપને કઈ પણ વિષય પ્રતિપાનિત કર્યો નથી –'
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
यनगराधामृतषिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
३५५ वोधकम्य नाम्न एव श्रवणेन महाफममयः । एष स्थापनापि भावरूपार्यशून्या, स्थापनया भावस्पायरय नास्ति कोऽपि सम्बन्ध । भावजिनशरीरवर्तिनी याऽऽकृतिरामीत , तस्या आगाश्रयिमा मरम्मन्यो भागनिनेन सह तदानी पियमान आसीन । या भावजिन पश्यास्तदानी भाषोल्लासोऽपि कस्यचित् सजातः, भी विपर प्रतिपादित नहीं किया है। भावनिक्षेप काही विषय इसमे कहा है इसलिये भावजिन का बोध कराने वाले जिन 'अरिहत्त' आदि नामों के सुनने से ही महाफल होता है ऐसा मानना चाहिये।
इसी प्रकार स्थापना निक्षेप भी भावरूप अर्थ से शून्य है कारण कि इसका उसके मान कोई सच नहीं है भावजिन की अवस्था की आकृति पापाण आदि की मृति मे "यह वही है" इस प्रकार की कल्पना करने का नाम स्थापना है तीयकर प्रकृति के उदयसे समवस रणादि विभूति सहित आत्मा का नाम भाव जिन है हम मोय जिन के शरीर की जो आकृति है उसका सबध विचारिये उस पापाण आदि की प्रतिमा में कैसे आमकता है । क्यों कि इस आकृति का सवध आश्रय आश्रयी मावसे वे जिन जिसकाल मे थे उसी काल में उनके साथ था। उनके नही रहने पर पापाण आदि मे इस तरह का आश्रय आश्रयी भाव सबंध मानना उचित कैसे कहा जा सकता है, भावजिन के सहार मे जिम प्रकर उनके साक्षात् दर्शन से प्राणियो को एक प्रकार ને જ વિષય તેમા બતાવ્યા છે એથી જીનને બંધ કરાવનાર જીન “અરિ હત” વગેરે નામ શ્રવણથી મહાફળ પ્રાપ્ત હોય છે આમ સમજવું જોઈએ
આ પ્રમાણે સ્થાપના નિક્ષેપ પણ ભાવ રૂપ અર્થથી રહિત છે કારણ કે આનો તેની સાથે કોઈ પણ જાતને સ બ વ નથી ભાવજીનની અવસ્થાની આકૃતિ પથ્થર વગેરેની મૂર્તિમાં “આ તેઓ જ છે ” આ જાતની કલ્પના કરવાનું નામ સ્થા ના છે તીથે કરની પ્રકૃતિના ઉદયથી સમવસરણ વગેરે વિભૂતિ સહિત આત્માનું નામ ભાવજીન છે આ ભાવજીનને શરીરની જે આકૃતિ છે તેના વિશે આપણે પણ વિચાર કરીયે કે પથ્થર વગેરેની પ્રતિમામાં તેને સબધ કેવી રીતે આવી શકે છે કેમકે તે આકૃતિને સ બ ધ આશ્રય આશ્રયી ભાવથી તે જીન જે વાળમાં હતા તે કાળમાં જ તેમની સાથે હતો તેમની ગેરહાજરીમાં પથર વગેરેમાં આ જાતને આશ્રય-આશ્રયી ભાવ સબબ માન્ય રાખો કેવી રીતે યોગ્ય કહી શકાય તેમ છે? ભાવજીનના દાવમાં જેમ તેમના સ લાત નથી પ્રાણીઓમાં એક જાતને ભોલારા દવા
शा ५५
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
माताधर्मकथा तथा भक्त्या तामाकृति स्मरतो जनस्य भाषोल्लासः सभवा, तदाऽऽतेर्भावजिनेन समन्धात् , परतु स्थापनाया आश्रयाययिभावसम्बन्धो नास्ति भारजिनेन सह । भावजिनात्मनस्तनाबाहन स्थापनंतु जिनामाराध पाचनविद फतुमशक्य, कथ तहि-भावजिनसम्पन्धाभावे प्रतिमा भारजिन तद्गुण पा स्मारयितु शक्ता भवेत् । का भावोल्लास होता है, उमी प्रकार से भक्ति के आवेश से भी उनकी उस आकृति का उस समय स्मरण करने वाले प्रोणी को उस प्रकार के भावोल्लास का सद्भाव हो सकता है। इसका निपेध नही है। क्यों कि स्मृति के आधारभूत जिन परमात्मा उस काल में स्वय विद्यमान हैं । उन के अभाव में उन्हें नहीं देग्वने वाले प्राणियोंको भी उनकी उस प्रतिमा से उसी प्रकार का भौगोहास होता है यह मान्यता केवल एक कल्पना मात्र है वास्तविक नहीं। इसके समाधान के निमित्त जो यह कहा जाता है कि उस पापाण प्रतिमा में जिन भगवान की आत्मा का मत्रादिकों द्वारा आह्वान किया जाता है अत. उस प्रतिमा के दर्शन से साक्षात् भाव जिनके ही दर्शन होते है सो यह मान्यता सर्वथा असत्य है-कारण कि मोक्ष में प्राप्त आत्माओं का पाषाण आदि प्रतिमाओं में अपनी मान्यता सिद्ध करने के लिये आह्वान आदि मानना गया जिनसिद्धान्त से विरुद्व है मोक्ष प्राप्त आत्माऍ कही पर भी किसी भी काल में आह्वान करने से नही आती हैं ऐसी जिन शासन की आजा है इस तरह से उस पापाण आदि की आत्माओं का છે. તેમ ભકિતના આવેશથી પણ તેમની એ આકતિન તે સમયે સ્મરણ કરનાર પ્રાણુને તે જાતને ભાલાસની અનુભૂતિ થઈ શકે છે અને નિષેધ નથી કેમકે સ્મૃતિમાં તે આકૃતિના આધારભૂત જીન પરમાત્મા તે કાળમા જાતે વિદ્યમાન છે તેમના અભાવમાં તેમને નહિ જેનારા પ્રાણીઓને પણ તેમની તે પ્રતિમાથી તે પ્રમાણે જ ભાલ્લાસ થાય છે, આ માન્યતા ફક્ત એક કેરી કલ્પના જ છે, વાસ્તવિક નથી એના સમાધાન માટે જે આમ કહેવામાં આવે છે કે તે પથ્થરની પ્રતિમામાં જીન ભગવાનના આત્માનું મત્રે વગેરેથી આવાહન કરવામાં આવે છે, એથી તે પ્રતિમાના દર્શનથી પ્રત્યક્ષ ભાવન ના જ દર્શન થાય છે, તે આ માન્યતા સાવ અસત્ય છે કારણ કે મોક્ષમાં પ્રાપ્ત આત્માઓનું પથ્થર વગેરે પ્રતિમાઓમાં પોતાની માન્યતા સિદ્ધ કરવા માટે આહ્વાહન વગેરે માનવું છે તે જન સિછાતથી સાવ વિરૂધ્ધ છે મોક્ષ પ્રાપ્ત આત્માઓ કોઈ પણ સ્થાને અને કોઈ પણ કાળે આવાહન કરવાથી આવતા નથી, એવી જીન રાસનની આજ્ઞા છે. આ રીતે તે પથ્થર -
મા
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
__अनगारधर्मामृतयपिणी टी० म० १६ द्रौपदीयर्चा
३४७ सर्वया कुपारचनिकद्रव्यावश्यमवत् प्रतिमापूजन कुर्वन्तः कारयन्तश्च मिथ्यादृष्टित्व प्राप्नुवन्ति न तु सम्परत्वमिति ।
द्रव्यावश्यक-द्विविध-आगमतो नोआगमतश्च । यस्य जन्तोरावश्यकशास्त्र शिक्षितादिगुणोपेत भवति, स जन्तुस्तनावश्यकशास्त्रे शिष्याध्यापनरूपया वाचनया गुरु प्रति प्रश्नलक्षणया मच्छनया, पुनः पुनः सूत्रार्थाभ्यासरूपया परावर्तनया, तथा अह्वान होने से आना मान लिया जाय तो फिर उस प्रतिमा में सजीवता मानने में क्या दोप है इसलिये यह स्वीकार करना ही चाहीये । कि भावजिन के अभाव में वह प्रतिमा भावजिन एव उनके गुणों का स्मरण करवाने में सर्वधा समर्थही है। जब यह निश्चित मिद्धान्त है तो फिर इसकी पूजनादि करने कराने से जो मनुप्य समकित की प्राप्ति होना मानते हैं वे उस विधवा कि दशा जैसे है जो अपने पति की फोटो या मूर्ति के दर्शन एव सहवास आदि से सन्तान की उत्पत्ति की कामना करती हो। इसलिये कुमावनिक द्रव्य आवश्यक की तरह यह प्रतिमापूजनादि कर्म करने कराने वाले दोनों ही जन मिथ्यात्वरूप दृष्टि के ही पात्र हैं, सम्यक्त्व के नहीं।
द्रव्य निक्षेपरूप आवश्यक, आगम और नोआगम के भेद से दो प्रकार का है। उसमे जिस प्राणी के आवश्यक शास्त्र शिक्षितादिगुणों से युक्त है वह प्राणी उस आवश्य शास्त्र में, शिप्यों का पढानेरूप તે આત્માઓનું આવાહન હોવાથી આવવું માની લઈએ તે પછી તે પ્રતિ માને સજીવ માનવામા શે વધે છે એટલા માટે આપણે આ વાત ખ્વીકા રવી જ જોઈએ કે ભાવજનના અભાવમાં તે પ્રતિમા ભાવજીન અને તેમના ગુણનું સ્મરણ કરાવવામા - પૂર્ણપણે સમર્થ જ છે જ્યારે આ સિદ્ધાન્ત નિશ્ચિત રૂપે માન્ય થયેલ છે ત્યારે તેનું પૂજન વગેરે કરાવવાથી જે લેકે સમકિતની પ્રાપ્તિ થવી માને છે તેમની તે વિધવા જેવી દશા છે કે જે પોતાના પતિની છબી કે મૂર્તિના દર્શન અને સહવાસ વગેરેથી સતાન મેળવવાની ઈચ્છા કરતી હાય! એટલા માટે પ્રવચનિક દ્રવ્ય આવશ્યકની જેમ આ પ્રતિમા પૂજન વગેરે કાર્ય કરનાર તેમજ કરાવનાર અને માણસે મિથ્યાત્વ રૂપ દૃષ્ટિના જ પાત્ર છે, સમ્યકત્વના નથી
દ્રવ્ય નિક્ષેપ ૩પ આવશ્યક આગમ તેમજ આગમના ભેદથી બે પ્રકાર છે તેમાં જે પ્રાણી આવશ્યક રાસ શિક્ષિત વગેરે ગુણોથી યુક્ત છે તે માણી તે આવશ્યક શાસ્ત્રમાં શિને ભણાવવા રૂપ વાચનાથી, ગુરૂમતિ તદ્દ
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४८
Garrर्मकथासूत्रे
धर्मकथा वर्तमानप्यनुपयोगे सति आगमतो द्रव्यावश्यकम्, 'नत्र ओगो दव्व' इति वचनात् । अनुपयोगो भावशून्यता ।
वाचना से, गुरु के प्रति तद्विषयक प्रश्न लक्षणरूप पृच्छना से बार बार सूत्र और अर्थ के अभ्यासरूप परावर्तन से तथा धर्मकथा से वर्तमान होता हुआ भी अनुपयुक्त अवस्थासपन्न होने से आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है | अनुपयोग का नाम ही द्रन्य है ।
भावार्थ - " भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारण तु यलोके तहव्यम् " यह द्रव्यनिक्षेप का लक्षण है। भूतपर्याय या भविष्यत् पर्याय का जो कारण आधार होता है, वह द्रव्य है जिस प्रकार किसी राजा के युवराज को राजा कह दिया जाता है यद्यपि वह अभी वर्तमान में राजारूपपर्याय से युक्त नहीं है-आगे उसे राजपर्याय प्राप्त होगी, परन्तु फिर भी उसे व्यवहार में लोग राजा कहते है । यह भविष्यत पर्याय की अपेक्षा द्रव्य निक्षेपका विषय है । जो पहिले राजा था - कारण वश जन वह राजगद्दी का परित्याग कर देता है तब भी लोग उसे राजा कहते हैं । यहा उस राजा में यद्यपि वर्तमान समय मे राजपर्याय से युक्तता नही है तौ भी भूतकाल की अपेक्षा से ही उसे राजा कहा जाता है। यह भूतकाल की अपेक्षा से राजपर्याय का आधार होने के कारण द्रव्य निक्षेप का विषय है प्रकृत मे इस निक्षेप की आयोजना इस प्रकार से
27
વિષયક પ્રશ્ન લક્ષણ રૂપ પૃચ્છનાથી, વારવાર સૂત્ર અને અના અભ્યાસ રૂપ પરાવતનથી તથા ધયાથી વર્તમાન હોવા છતાયે અનુપયુક્ત અવસ્થા સ પન્ન હાવાથી આગમની અપેક્ષા દ્રવ્ય આવશ્યક છે, અનુપયેાગનુ નામ જ દ્રવ્ય છે भावार्थभूतस्य भाविनो वा भावत्यहि कारण तु यल्लाके तद् द्रव्यम् આ દ્રવ્ય નિક્ષેપનુ લક્ષણ છે. ભૂત-પર્યાય કે ભવિષ્યત પર્યાયને જે કારણ આધાર હાય છે, તે દ્રવ્ય છે જેમ કેાઈ રાજાના યુવરાજને રાજા કહી દેવામા આવે છે. જો કે તે વમાનમાં રાજા રૂપ પર્યાયથી યુકત નથી આગળ તેને રાજ પર્યાય પ્રાપ્ત થશે, છતાયે તેને વ્યવહારના લેકે રાજા કહે છે આ ભવિષ્યત પર્યાયની અપેક્ષા દ્રવ્ય નિક્ષેપને વિષય છે જે પહેલા રાજા હતા પણ કાઈ કારણુસર રાજગાદિને તે પરિત્યાગ કરી દે છે, ત્યારે પણ લોકો તેને રાજા કહે અહીં તે રાજામા ને કે વર્તમાન સમયમા રાજ પર્યાયથી ચુતતા નથી છતાયે ભૂતકાળની અપેક્ષાથી તેને રાજા કહેવામા આવે છે આ ભૂતકાળની અપેક્ષાથી તેને રાજા કહેવામા આવે છે આ ભૂતકાળની અપેક્ષાથી રાજપર્યાયના આધાર ડાવા બદલ દ્રવ્પ નિક્ષેપના વિષય છે પ્રકૃત્તમા આ
___
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतापिणी टी० १० १६ द्रौपदीचर्चा
३४२ जब नो नागमतो द्रव्यावश्यकाान्यते-आ नो गन्द सर्वथा प्रतिपेधे देशतः प्रतिपेयेऽपि च वर्तते । तथा च सर्वथा-नागमाभावमाश्रित्य द्रव्यावश्यक, तथा होती है कि जो वर्तमान में आवश्यक शास्त्र का जाता नही है आगे भविष्यत् काल में उस शास्त्र का जाता होंगे उसे तथा जो मृतकाल में उस शास्त्र का ज्ञाता था अर वर्तमान काल में उसका ज्ञाता नहीं हैउसे आवश्यक इस प्रकार जानना या कहना यहव्यनिक्षेप की अपेक्षा आवश्यक है। इसके मूल में दो भेद हैं ? आगम द्रव्य निक्षेप और दूसरा नोआगमद्रव्यनि । आवश्यक शास्त्र आदि का जो जाता हो, शिष्यों को जो उसे पढाता हो, उस चिपयफ गुम आदि के निकट जो तात्विक चर्चा आदि भी करता हो इस प्रकार वाचना, प्रच्छना-पर्यटना अनुप्रेक्षा और धर्मोपदेशरूप पाचो प्रकार के स्वाध्याय से जो उसकी पर्यालोचना कर रहा है परन्तु उसमे उपयोग नहीं है-अनुपयुक्त है वह जागम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है। इसमें आवश्यक शब्द के अर्थ का ज्ञान ही आगमरूप से विवक्षित है । अतः आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता होता हुआ भी उसमे अनुपयुक्त आत्मा आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है यह बात निश्चित हुई।
नो आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक इस प्रकार है-जा आगम का सर्वथा अभाव या आगम के एक देश का अभाव विवक्षित होता જના એ રીતે હોય છે કે વર્તમાનમાં જે આવનાયક શાસ્ત્રને રાતા નથી, ભવિષ્યકાળમા તે શાસ્ત્રને જ્ઞાતા થશે તેને તેમજ જે ભૂતકાળમાં તે રાજને જ્ઞાતા હતે હમણું વર્તમાનકાળમાં તેને રાતા નથી તેને, “આવશયક ? આ રીતે જાણવું કે કહેવુ આ દ્રનિલેપની અપેક્ષાએ આવશ્યક છે એના મા રૂપે બે ભેદ છે-૧ આગમ દ્રવ્ય નિલેપ અને બીજે નોખાગમ દ્રવ્ય નિફો આવસ્યક રાસ્ત્ર વગેરેને જે જ્ઞાતા હોય, જે શિષ્યને ભણાવતે હોય. તદ વિષયક ગુરૂ વગેરેની પાસે જઈને જે તાત્વિક ચર્ચા વગેરે પણ કરતે હોય. આ રીતે વાચના, પ્રર ના, પર્યટના, અનુપ્રેક્ષા અને ધર્મોપદેશ ઉપ પાચે જાતના સ્વાધ્યાયથી જે તેની પોલચના કરી રહ્યો છે, પણ તેમા તેને ઉપર
ગ નથી, અનુપયુકત છે, તે આગમની અપેક્ષાદ્રવ્ય “ આવશ્યક ” છે એમા આવશ્યક રાબ્દના અર્થનું જ્ઞાન જ આગમ રૂપથી વિવક્ષિત છે એવી આવશ્યક શાસ્ત્રના જ્ઞાતા હોવા છતાયે તેમાં અનુપયુકત આત્મા આગમની અપેક્ષા દ્રવ્ય આવશ્યક છે, આ વાત સિદ્ધ થઈ છે
નોઆગમની અપેક્ષા દ્રવ્ય આવશ્યક એ પ્રમાણે છે કે જ્યા આગમને સંપૂર્ણપણે અભાવ કે આગમને એડ દેશને અભાવ વિવલિત હોય છે તે નો
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
রামক্ষমা धर्मकथया वनमानीप्यनुपयोगे सति आगमतो द्रव्यापश्या , 'प्रणुपनोगो दव्य' इति वचनात् । अनुपयोगी मानशून्यता । वाचना से, गुरु के प्रति तलिपयक प्रश्न लक्षणरूप पृचना से बार बार सूत्र और अर्थ के अभ्यासरूप परावर्तन से तथा धर्मकया से वर्तमान होता हुआ भी अनुपयुक्त अस्थासपन्न होने से आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है । अनुपयोग का नाम ही द्रव्य है।
भावार्थ-" भूतस्य भाविनोबा भावस्य हि कारण तु यल्लोके तद्र व्यम्" यह द्रव्यनिक्षेप का लक्षण है। भूतपर्याय या भविष्यत् पर्याय का जो कारण आधार होता है, वह द्रव्य है जिस प्रकार किसी राजा के युवराज को राजा कह दिया जाता है यन्यपि वह अभी वर्तमान में राजारूपपर्याय से युक्त नहीं है-आगे उसे राजपर्याय प्राप्त होगी, परन्तु फिर भी उसे व्यवहार में लोग राजा करते है। यह भविष्यत् पर्याय की अपेक्षा द्रव्य निक्षेपका विषय है । जोपहिले राजा था-कारण वश जर वह राजागदी का परित्याग कर देता है-तब भी लोग उसे राजा करते हैं। यहां उस राजा में यद्यपि वर्तमान समय मे राजपर्याय से युक्तता नही है तो भी भूतकाल की अपेक्षा से ही उसे राजा कहा जाता है। यह भूतकाल की अपेक्षा से राजपर्याय का आधार होने के कारण द्रव्य निक्षेप का विषय है प्रकृन मे इस निक्षेप की आयोजना इस प्रकार से વિષયક પ્રશ્નના લક્ષણ રૂપ પૂછનાથી, વારંવાર સૂત્ર અને અર્વના અભ્યાસ રૂપ પરાવર્તનથી તથા ધર્મકથાથી વર્તમાન હોવા છતાયે અનુપયુક્ત અવસ્થા સંપન્ન હોવાથી આગમની અપેક્ષા દ્રવ્ય આવશ્યક છે, અનુપગનું નામ જ દ્રવ્ય છે
लापार्थ--" भूतस्य भाविनो वा भावत्य हि कारण तु यल्लाके तद् द्रव्यम्" આ દ્રવ્ય નિક્ષેપનું લક્ષણ છે ભૂત-પર્યાય કે ભવિષ્યત પર્યાયને જે કારણ આધાર હોય છે, તે દ્રવ્ય છે જેમ કેઈ રાજાના યુવરાજને રાજા કહી દેવામાં આવે છે જે કે તે વર્તમાનમા રાજા રૂપ પર્યાયથી યુકત નથી આગળ તેને રાજ પર્યાય પ્રાપ્ત થશે, છતાયે તેને વ્યવહારના લોકો રાજા કહે છે આ ભવિષ્યતા પર્યાયની અપેક્ષા દ્રવ્ય નિક્ષેપને વિષય છે જે પહેલા રાજ હતું પણ કોઈ કારણસર રાજગાદિને તે પરિત્યાગ કરી દે છે, ત્યારે પણ લે કે તેને રાજા કહે છે. અહીં તે રાજામા જે કે વર્તમાન સમયમાં રાજ પર્યાયથી યુકતતા નથી છતાયે ભૂતકાળની અપેક્ષાથી તેને રાજા કહેવામાં આવે છે આ ભૂતકાળની અપેક્ષાથી તેને રાજા કહેવામાં આવે છે આ ભૂતકાળની અપેક્ષાથી રાજપર્યાયને આધાર હવા બદલ ૫ નિક્ષેપને વિનય છે પ્રકૃતમા આ
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
ફેર
धनगारधर्मामृतवर्षिण ० ० १६ द्रौपरीचर्चा
1
नोभागमतो व्यावश्यकमुच्यते- या नो शब्द सर्वथा प्रतिषेधे देशतः प्रतिषेधेऽपि च वर्तते । तथा च सर्वथा - जागमाभावमाश्रित्य द्रव्यावश्यक तथा होती है कि जो वर्तमान मे आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता नही है आगे भविष्यत् काल में उस शाल का ज्ञाता होंगे उसे तथा जो भूतकाल में उस शास्त्र का ज्ञाता था अत्र वर्तमान काल मे उसका ज्ञाता नहीं हैउसे आवश्यक इस प्रकार जानना या कहना यहद्रव्यनिक्षेप की अपेक्षा आवश्यक है। इसके मूल मे दो भेद हैं ? आगम द्रव्य निक्षेप और दूसरा नोआगमद्रव्यनिक्षेप | आवश्यक शास्त्र आदि का जो ज्ञाता हो, शिष्यों को जो उसे पढाता हो, उस विषयक गुरु आदि के निकट जो तात्विक चर्चा आदि भी करता हो इस प्रकार वाचना, प्रच्छना - पर्यeer अनुप्रेक्षा और धर्मोपदेशरूप पाचो प्रकार के स्वाध्याय से जो उसकी पर्यालोचना कर रहा है - परन्तु उसमे उपयोग नहीं है-अनुपयुक्त है वह आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है । इसमें आवश्यक शब्द के अर्थ का ज्ञान ही आगमरूप से विवक्षित है । अतः आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता होता हुआ भी उसमे अनुपयुक्त आत्मा आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है यह बात निश्चित हुई ।
नो आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक इस प्रकार हे जरा आगम का सर्वथा अभाव या आगम के एक देश का अभाव विवक्षित होता જના એ રીતે હાય છે કે વર્તમાનમા જે આવશ્યક શાસ્ત્રના જ્ઞાતા નથી, ભવિષ્યકાળમા તે રાઅને જ્ઞાતા થશે તેને તેમજ જે ભૂતકાળમા તે શાસ્ત્રના જ્ઞાતા હતેા હમણા વર્તમાનકાળમા તેને જ્ઞાતા નથી તેને, ‘ આવશ્યક રીતે જાણ્યુ કે કહેવુ આદ્રયનિક્ષેપની અપેક્ષાએ આવશ્યક છે એના મૂળ રૂપે એ ભેદો છે-૧ આગમ દ્રવ્ય નિક્ષેપ અને બીજો નાઆગમ દ્રવ્ય નિક્ષેપ આવશ્યક રસાસ્ત્ર વગેરેને જે જ્ઞાતા હોય, જે શિષ્યાને ભણાવતા હોય, ત વિષય ગુરૂ વગેરેની પાસે જઈને જે તાત્વિક ચર્ચા વગેરે પણ કરતા હાય,
આ
ના રીતે વાચના, પ્રશ્નના, પટના, અનુપ્રેક્ષા અને ધર્મોપદેશ રૂપ પાચે જાતના સ્વાધ્યાયથી જે તેની પર્યાલાચના કરી રહ્યો છે, પણ તેમા તેને ઉપ યાગ નથી, અનુપયુકત છે, તે આગમની અપેક્ષાદ્રવ્ય ‘ આવશ્યક ? છે એમા આવશ્યક રાખ્યના અર્થનું જ્ઞાન જ આગમ રૂપથી વિવક્ષિત છે એવી આવશ્યક ગામના જ્ઞાતા હોવા છતાયે તેમા અનુપયુકત આત્મા આગમની અપેક્ષા દ્રવ્ય આવશ્યક છે, આ વાત સિદ્ધ થઇ છે
નાઆગમની અપેક્ષા દ્રવ્ય આવશ્યક એ પ્રમાણે છે કે જ્યા આગમના સપૂર્ણ પણે અભાવ કે આગમના એક દેશને અભાવ વિવક્ષિત હોય છે તેને
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
शानाधर्मकथासूत्रे
२५०
देशत आगमामानमाश्रित्य - नागमतम्।तत्-त्रित्रि धम्- ज्ञशरीरद्रव्यानश्यक, भव्यशरीरयापश्य तद्वयनिरिक्त द्रव्याश्या चेति । है - वह नो आगम की अपेक्षा से द्वय आवश्यक माना गया है। " नो आगम " में नो शब्द सर्वथा आगम के अभाव का अपना उसके एक देश के अभाव का घोधक है । हमके शारीरद्रत्यायक, भव्यशरीरद्रव्यावश्यक, और तद्व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक, इस प्रकार तीन भेद हैं। आवश्यक शास्त्र का जो पहिले (भूतकाल में ) ज्ञाता तथा दूसरों के लिये इस शास्त्र का उपदेश आदि भी जिसने पहिले दिया है ऐसे जीव का अचेतन शरीर शरीरद्रव्यावश्यक हे जो जीव इस समय आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता नही है भविष्यत् काल में उसका ज्ञाता बनेगा उसका वह सचेतन शरीर भविष्यत् काल में आवश्यक शास्त्र के ज्ञान का आधार होने की अपेक्षा से, भव्यशरीरद्रव्यावश्यक है। तद्व्यतिरिक्तद्रव्यावश्यक लौकिक कुप्रापचनिक और लोकोत्तर के भेद से ३ प्रकार का है। लौकिकजनों द्वारा आचरित आवश्यक कर्म लौकिक द्रव्य आवश्यक है । जैसे राजसभा मे जाने वाले राजा, युवराज, ar (कोहपाल ) आदि जन प्रातः काल मे उठकर राजसभा मे जाने के लिये प्रथम प्राभातिक विधियो से निपटते है-मुग्ख धोते है, दानों को
तल
भागभनी अपेक्षाथी द्रव्य आवश्यक भानवाला साच्यो छे " नोआगम " भा ને શબ્દ આગમના સ પૂર્ણપણે અભાવના કે તેના એક દેશના અભાવને આધક છે. તેના જ્ઞશરીર દ્રાવક્ષ્ય, ભ~શરીર દ્રવ્યાગશ્યક અને તકૃતિ રિકત દ્રવ્યાવશ્યક આ પ્રમાણે ત્રણ ભેદે છે આવશ્યક શાસ્ત્રને જે પહેલા ( ભૂતકાળમા ) જ્ઞાતા હતા તેમજ ખીજાઓ માટે આ શાસ્ત્રને ઉપદેશ વગેરે પણ જેણે પહેલા આપ્યા છે એવા જીવનુ અચેતન શરીર જ્ઞ શરીર દ્રષ્યાવશ્યક છે જે જીવ અત્યારે આવશ્યક નાસ્ત્રના જ્ઞાતા નથી, ભવિષ્યકાળમા તેના જ્ઞાતા થશે તેનુ તે સચેતન શરીર ભવિષ્યકાળમાં આવશ્યક શાસ્ત્રના જ્ઞાનને આધાર હાવાને કારણે ભવ્ય શરીર દ્રવ્યાવશ્યક છે તથ્યતિરિકત દ્રવ્યાવશ્યક લૌકિક કુપ્રાવનિક અને લેાકેાત્તર એમ ત્રણ પ્રકારના છે લૌકિક માણુસા વડે આચરિત આવશ્યક કમ લૌકિક દ્રવ્ય આવશ્યક છે જેમ રાજસભામા જનારા રાજા, યુવરાજ, તલવર (કૈટ્ટપાલ) વગેરે લે સવારે ઉઠીને રાજ સભામા જવા માટે પ્રથમ પ્રાભાતિક વિધિયેથી પરવારે છે, મુખ એ છે,
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
--
अनगारधामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचचर्चा
ज्ञातगनिति-ज्ञ, तस्य शरीर जगरीर नदेव न्यावश्यकमिति विग्रहः । जीव परित्यक्तमावश्यकशासगानवतः गरीर जगरीरद्रव्यावश्यम् । यः कश्चिद् जीवः जन्मकालादारभ्य अनेनैव आतेन - गृहीतेन शरीरसमुन्द्रग, निनोपदिप्टेन भावेन आवश्यकमित्येतत् पद-शास आगामिनि काले शिभिप्यते न तादन्छिपते, तज्जीवाधिष्ठित शरीर भव्यगरीरद्रव्यापश्यामिति । गरीर-भव्यशरीरव्यति रिक्त द्रव्यावश्यक त्रिवियम्-लोरिक, कुमारचनिक, लोकोत्तरिक चेति ।
लौकिक द्रव्यावश्यम् ' ये राजेश्वरतलबरादय प्रभातसमये-मुखधावनदन्तप्रक्षालन-तेल-कङ्कतक-मर्पप-दुर्वा-दर्पण-धूप-पुष्प-मात्य-गन्ध-ताम्यूल
वनादिकानि द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति, कृत्वा पश्चाद् रामकुलदेवकुलादौ गच्छन्ति, तत्-तेपा सम्बन्धिमुग्वधापनादि ।
कुमावनिक द्रव्यावश्यकम् ' ये इमे चरकचीरिकादयः पापण्डम्था , इन्द्रस्कन्द-रुद्र-शिर-चैश्रवण-टेव-नाग-यक्ष-भूत-मुकुन्दाऽऽर्या-दुर्गा- कोट्टक्रिया णाम् - उपलेपनसमार्जनाऽऽपणधूपपुप्पगन्धमाल्यादिकानि द्रव्यापश्य कानि कुर्वन्ति तेपा तद् इन्द्रस्कन्दादेरुपलेपनादि । कुत्सित मवचन येपा ते कुप्रवचना स्तेपामिद कुमावचनिकम् । उपलेपन चन्दनपङ्केन, समार्जन-स्नपनानन्तर वस्त्रेण जलपोन्छनम् आवर्पण-गन्धोदकेन, 'गुलाबजल ' इत्यादि भापापसिद्धेन । _ नामावश्यम्-आवश्यफ्नामको गोपालदारकादिः, स्थापनावश्यकम्-आव साफ करते ह, स्नान करते है। सुगधित तेल लगाते हे इत्यादि आवश्यक कार्य करते हैं। पीछे राजसभा मे या देवकुल मे जाते है। उनका यह मुख धावन आदि कार्य लौकिक द्रव्य आवश्यक है। चरक चीरिक आदि पाखडियो द्वारा जो इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, वैश्रवण, देव, नाग और यक्षादिकों की मृतियो का चदन से लेपन, अभिषेक कराने के बाद वस्त्र से मूर्तिस्थ जल का पोछना मदिर में या उन मूर्तियो पर गुलाव जल का छिडकाव आदि करना ये सब कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक है। દાત સાફ કરે છે, સનાન કરે છે, સુગધિત તેલ લગાવે છે, વગેરે આવશ્યક કાર્યો કરે છે ત્યારપછી રાજસભામા અથવા તે દેવકુળમાં જાય છે તેમના મુખ પૈવુ વગેરે કામ લૌકિક-દ્રવ્ય આવશ્યક છે ચરક ચીરિક વગેરે પાખ ડિઓ વડે જે ઇન્દ્ર, અન્દ, રૂદ્ર, શિવ, વૈશ્રવણ દેવ, નાગ અને યલો વગેરેની મૃર્તિઓનુ ચદનથી અભિષેક કરાવ્યા બાદ વસ્ત્રથી મૂર્તિના પાણીને લૂછ્યું, મદિરમાં કે તે મૂર્તિઓ ઉપર ગુલાબજળનું સિંચન વગેરે કરવું આ બધુ કુપાવચનિક દ્રાવશ્યક છે. આ પ્રમાણે નામ સ્થાપના અને દ્રવ્યને ભેદથી આ
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५२
माताधर्म कथा
इकक्रिया कस्यचित् कर्मादिषु प्रतिकृतिः याच आवश्य कोपयोगनन्या देहानमक्रिया यावश्यकेषु उपयोगागापेन चरणगुणरहितत्वेन च कर्मनिर्जराजन कलामावादाग चत्वन जिनाला नास्ति, तस्मादेतत्मान यक धर्मपाच्य न भवतीति निश्रयादयमेव । कोतसियाकपत्र
1
तीन
इस प्रकार नाम, स्थापना और द्रव्य के भेद से यह प्रकार का होता है। किसी गोपाल के पुन का "( आवश्यक " इस प्रकार का कृतनाम सस्कार नाम आवश्यक है। आवश्यक स्याओ से युक्त किसी व्यक्ति की काष्ठ आदि में तदाकार रूप से या अनदाकाररूप से प्रतिकृतिको कल्पना करना या उसे बनालेना यह स्थापना आवश्यक है। आवश्यक में उपयोग से शून्य प्राणी को जो भी आगम और नो आगम की अपेक्षा से क्रियाएँ है वे सन द्रव्य आवश्यक हैं। इन तीनों आव इको मे उपयोग - भावरूप - आवश्यक के अभाव से तथा चारित्रगुण तदनुकूल प्रवृत्ति के आचरण से रहित होने से कर्मो की निर्जग कराने में साधकपना नहीं है । अत' जिनेन्द्रदेव ने इनके आराधन करने की आज्ञा प्रदान नही की है। धर्म को ही आराधन करने की उन्होंने आज्ञा दी है क्योंकि वही कर्मो की निर्जरा कराने में साधक है। इन तीनों में कर्मो की निर्जरा कराने का अभाव होने से धर्मस्वरूपता नही है । धर्मपद वाच्य भी ये नही हैं । इसीलिये ये तीनो धर्म के लक्षण से शून्य होने से उसके अलक्ष्य है, ऐसा समझना चाहिये । लोकोत्तरिक द्रव्य આવશ્યક ત્રણ પ્રકારનુ હાય છે કાઈ ગાપાળના પુત્રને આવશ્યક मा રીતે કરેàા સસ્કાર નામ આવશ્યક છે. આવશ્યક ક્રિયાએથી યુકત કેઇ વ્યકિતની કાઇ વગેરેમા તદાકાર રૂપથી કે અતદાકાર રૂપથી પ્રતિકૃતિની કલ્પના કરવી કે પ્રતિકૃતિનુ નિર્માણ કરવુ તે સ્થાપના આવશ્યક છે. આવશ્યકમા ઉપયાગથી રહિત પ્રાણીની જે કપણુ આગમ અને ના આગમની અપેક્ષાથી ક્રિયાએ છે તે બધી દ્રવ્ય આવશ્યક છે આ ત્રણે આવશ્યકામા ઉપયેગ ભાવ રૂપ આવશ્યના અભાવથી તેમજ ચારિત્રગુણ તદનુકુળ પ્રવૃત્તિના આચરણ વગર થઈ જવાથી કર્મોની નિરા કરાવવામા સાધકપણુ નથી તેથી જીનેન્દ્ર દેવે તેમના આરાધનની આજ્ઞા આપી નવી ધર્મની આરાધના કરવાની જ તેએ શ્રીએ આજ્ઞા આપી છે કે કે વજ કર્મોની નિર્જરા કરાવવામા સાધક છે આ ત્રણેમા કર્મોની નિરા કરાવવાને અભાવ હોવાને કારણે ધ સ્વરૂપના નથી એ ધમ પદ્ય વાચ્ય પણ નથી તેથી આ ત્રણે ધર્મોના લક્ષણથી રહિત હાવાને કારણે તેના અલક્ષ્ય છે એમ સમજવુ ોઇએ. સામાયિક વગેરે લાફે
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
चनोक्त सदपि जिनाज्ञानाथै सच्छन्द निहारिभिर्मूलोत्तरगुणरहिते पकायनिरनु फम्पैरनुपयोगपूर्व क्रियमाण सामायिकादिकम् तच धर्मपदवाच्य न भवितुमर्हति, वनापि निर्जराजनकत्वाभावेन निवेयल्या जिनाज्ञाया आभावात् ।
३५३
एवमेन नामजिन' स्थापनाजिनस्तथा द्रव्यजिनश्च निर्जराजनत्त्वाभावा दाराध्यत्वेन जिनाज्ञाया अभावात् । तदारान धर्मपदवाच्य न भवितुमईति । आवश्यक समायिक आदि है इनके करने का विधान यद्यपि प्रवचन शास्त्र में विहित है तो भी उसे जो धर्म का अलक्ष्य बताया गया है उसका कारण यह है कि ये जन जिनदेव की आज्ञा से वहिर्भूत बने हुए, स्वेच्छाचारी, मृलगुण और उत्तर गुणो से रहित एव पकाय के जीवों की रक्षा करने में आसावधान मनुष्यो द्वारा अनुपयोगपूर्वक करने में आते हैं तन ये द्रव्य आवश्यकरूप से कहे जाते हैं । और इसीलिये ये धर्मपद के वाच्य नही है अर्थात् धर्मरूप नहीं हैं । जहा धर्मरूपता नही है वहा कर्मों की निर्जरा कारकत्व भी नही है । यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है। भगवान ने जो इम अवस्था में इन्हें विधेय नहीं कहा है उसका यही कारण है । अतः जिस प्रकार नाम आवउपक, स्थापना आवश्यक और द्रव्य ओवश्यक ये तीन निक्षेप आरा
रूप से तीर्थकर प्रभु ने अनविधेय कहे है, उसी प्रकार से नामजिन स्थापनाजिन तथा द्रव्यजिन भी आरा य नही हैं । इनकी आराधना करने में जो धर्म की प्राप्ति होना कहते है या मानते हैं उन्हें जिन
ત્તર દ્રવ્ય આવશ્યક છે પ્રવચન શાસ્ત્રમા એમના આચરણનુ વિધાન વિહિત છે છતાયે એને જે ધર્મના અલક્ષ્ય રૂપમા બતાવવામાં આવ્યે છે તેની મત લખ એ છે કે જ્યારે તે જીનદેવની આજ્ઞાથી હિભૂત ખનેલા સ્વેચ્છાચારી, મૂળગુણુ તેમજ ઉત્તરાથી રહિત અને ષટકાય જાની રક્ષા કરવામાં અસાવધાન માણસે વડે અનુપયોગ પૂર્વક આચરવામા આવે ત્યારે તે દ્રશ્ય આવશ્યક રૂપમા કહેવાય છે એથી તે ધર્મ પઢ વાચ્ય નથી એટલે કે ધમ રૂપ નથી જ્યા ધર્મરૂપતા નથી ત્યા કર્મીની નિરા કારતા પણ નથી આ સમા ય સિદ્ધાન્ત છે ભગવાને જે આ અવસ્થામા એમને વિધેય કહ્યા નથી તેનુ કારણ પણ એ જ છે. એટલા માટે જેમ નામ આવશ્યક, સ્થાપના આવશ્યક અને દ્રવ્ય આવશ્યક આ ત્રણ નિક્ષેપે ને આરાવ્ય રૂપથી તીયકર પ્રભુએ અવિધેય કહ્યા છે, તેમજ નામ જિન, સ્થાપના જિત તેમજ દ્રવ્યજિન પણ આરાધ્ય નથી એમની આરાધના કરવામા જે ધર્મોની પ્રાપ્તિ થવી ખતાવવામા આવે છે કે માનવામા આવે છે, તેમને જિન ભગવાનની
श्रा ४५
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
মায় एव च प्रतिमापूजनमपि धर्मलक्षणस्य लक्ष्यं न भवति. तत्र धर्मत्वामाष निश्चयात् । मोक्षकागो जिनप्रतिमा पूजयंत' इत्येवमहतो भगवन आशायाः प्रवचनेऽनुपलब्धः । धर्मविपये सर्वर भगवदाशोपलभ्यते-दृश्यते हि आवश्ययार्थ मगर भगवान की आज्ञा से परिभूत समझना चाहिये । यदि इन निक्षेपों की या स्थापनानिक्षेप की आराधना करने से आरोधक जीवों को धमे का लाभ होता तो वे उनकी आराधना करने का मव्य जीवों को अब श्य २ उपदेश देते। इस प्रकार की स्वमनः करिपत प्रवृत्ति से उनकी पूजा आदि करने में पटूकाय के जीवों की कितनी विरापना होती है यह एक स्वानुभवगम्य बात है। अतः जहाँ आरभ है वहा धर्म नहीं है। जहा धर्म नहीं है उसकी आराधना से कर्मो की निर्जरा भी नहीं हो सकती है। इस प्रकार से नाम स्थापना और द्रव्यजिन आदि तीन निक्षेप भी धर्म के लक्षण से शून्य रोने से उसके अलक्ष्य माने गये है । जय स्थापना जिन ही उसफा अलक्ष्यभूत है, तो फिर जिन की प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा आदि कार्य भी धर्मलक्षण से शून्य होने से वह भी उसका अलक्ष्य है ऐसा निश्चित हो जाता है भगवान ने इस प्रकार की आज्ञा शास्त्र में कहीं भी नही दी है " मोक्षकामो जिन प्रतिमा पूजयेत्” कि मुक्ति की अभिलाषा वाला प्राणी जिन प्रतिमा की पूजा करें। धर्मकी आराधना करने की ही उन्हों ने आगम में आज्ञा આજ્ઞાથી બહિભૂત જ સમજવા જોઈએ આ નિક્ષેપોની કે સ્થાપના નિક્ષેપની આરાધના કરવાથી આરાધક જીવોને ધમને લાભ થતું હોય ત્યારે તો તેઓ તેમની આરાધના કરવા માટે ભવ્ય જીને ચેકસ ઉપદેશ આપતા આ રીતે પિતાના મનથી જ કલ્પના કરીને તેમની પૂજા વગેરે કરવામાં ષટુકાય જીની કેટલી બધી વિરાધના હોય છે તે જાતે જ અનુભવવા જેવી વાત છે એટલા માટે જ્યા આર ભ છે ત્યા ધર્મ તો નથી જ અને ક્યા ધર્મ નથી તેની આરા ધનાથી કર્મોની નિર્જરા પણ થઈ શકે તેમ નથી આ રીતે નામ સ્થાપના અને દ્રવ્ય જિન વગેરે ત્રણ નિક્ષેપ પણ ધર્મના લક્ષણથી રહિત લેવા બદલ તેને અલક્ષ્ય માનવામાં આવ્યા છે જ્યારે સ્થાપના જિન જ તેના માટે અલક્ષ્યરૂપ છે, ત્યારે જિનની પ્રતિમા બનાવીને તેની પૂજા વગેરે કાર્યો પણ ધર્મલક્ષણથી રહિત હોવાથી તે પણ તેના માટે અલક્ષ્યરૂપ છે આવી ચોક્કસ ખાત્રી થઈ જાય છે ભગવાને આ જાતની આજ્ઞા શાસ્ત્રમાં કોઈ પણ સ્થાને કરી નથી " मोक्षकामो जिनप्रतिमा पूजयेत् " भाक्षी छ! रामना। प्रा लिन પ્રતિમાનું પૂજન ફરે ધર્મની આરાધના કરવાની જ તેઓશ્રીએ આજ્ઞા
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
-
--
-
--
भनगारधर्मामृतपिणी टी० १० १६ द्रोपदीचर्चा दाज्ञा, दर्शनार्थ ज्ञानार्थं च भगवदाना पुनरहिंसासपमतपसारादिविधिरपि शाख्ने प्रदर्शितः परतु प्रतिमापूजनार्धमाज्ञा क्यापि नोपलभ्यते शास्त्रेषु, प्रत्युत कुप्रावनिकद्रव्यावश्यकलक्षणाक्रान्तत्वेन प्रतिमापूजन जैनागमविरुद्धमिति सुचितम् । इन्द्रादिपूजन हि कुपावनिकस्य नोआगमतो द्रव्यावश्यकस्योदाहरणतया भगवता भदर्शितम् । तेन सर्व मतिमापूजन कुमावनिचक तादृशद्रव्याव श्यके भगरता निक्षिप्तमिति मुस्पष्ट प्रतीयते । पट्कायहिंमासा-यायाः पूजाया प्रदान की है जैसे-आवश्यक, दर्शन और ज्ञान की आराधना प्रत्येक मोक्षामिलापी भव्य जन को करना चाहिये-इस प्रकार के आवश्यक
आदि की आराधना करने का स्पष्ट उल्लेख आगमो में मिलता है-तथा जिस प्रकार उन्होंने अहिंसा, सयम, तप और सवर आदि की विधि शास्त्रों में प्रदर्शित की है-उस प्रकार न तो उन्होने प्रतिमा पूजन की कहीं न आज्ञा प्रदान की है और न उस की विधि ही कही है कुमावचानिक द्रव्य आवश्यक के लक्षण से युक्त होने से प्रत्युत प्रतिमापूजन को जैन आगम से विरुद्ध ही सूचित किया है। कुप्रापचनियों द्वारा मान्य इन्द्रादिकों के पूजन को भगवान नो आगम की अपेक्षा से द्रव्य आवश्यक के उदाहरण रूप में प्रकट किया है इससे ही यह यात स्पष्ट हो जाती है कि उन्होंने अन्य समस्त प्रतिमा पूजन को भी इसी कुमापचानक द्रव्य आवश्यक की तरह द्रव्य आवश्यक में रखा है। प्रवचन में कुत्सितता-खोटापन कुशास्त्रता हिमादिक माध्य पूजा आदि कार्यो કરી છે જેમ આવશ્યક, દર્શન અને જ્ઞાનની આરાધના દરેકે દરેક મોક્ષ ઈટ કનારા ભવ્ય જનને કરવી ઘટે છે જેમ આવશ્યક વગેરેની આરાધના કરવા વિષેને ઉલેખ આગમમાં મળે છે, તેમજ જેમ તેમણે અહિંસા, સયમ, તપ અને સવર વગેરેની વિધિ શાસ્ત્રોમાં બતાવી છે તેમ તેમણે કોઈ પણ સ્થાને પ્રતિમા પૂજનની આજ્ઞા કરી નથી અને તેની વિધિ પણ બતાવી નથી
તમાં પૂજાને કુપ્રવચનિક દ્રવ્ય આવશ્યકના લક્ષણથી યુક્ત હવા બદલ જૈન આગમથી વિરૂદ્ધ જ બતાવવામાં આવી છે કુપ્રાથનીઓ વડે માન્ય ઇન્દ્ર વગેરેના પૂજનને ભગવાને આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્ય આવશ્યકના ઉદાહરણ રૂપમાં બતાવ્યું છે એથી આ વાત સ્પષ્ટ સમજી શકાય તેમ છે કે તેમણે છ પણ બધી પ્રતિમા પૂજાને પણ આ કુપ્રવચનિક દ્રવ્ય આવશ્યકની જેમ
આવશ્યકમાં જ સ્થાન આપ્યું છે પ્રવચનમાં કુત્સિતતા કુશાસ્ત્રતા હિમા PR સાધ્ય પૂજા વગેરે કાર્યોની પુષ્ટિ કરવાથી જ સ ભવે છે બીજા ચર
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
| কামক্ষম विधायकतया मपचनस्य कुत्सितत्व, तेनैव चेन्द्रादिपूजनस्य कुमारचनिस्त्वं भवति । एत्र प्ररूपयतो भगरतोऽईतः प्रतिमाया पूजनस्य प्रमग पर तदानी नासीत्-हिंसामयत्वात्पूजनस्य, तेन प्राचने भगाता मतिमापूजनमतिपेधो विशिष्य नोक्त । प्रतिपेवनाक्य हि तदैव सार्थक, यदापतिपेयम्पोऽर्थः कयचित् मसक्तो भाति । जिनमतिमापूजन हि न तारलौकिक न्यावश्यक, नापि लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक , जिनो हि लोकोत्तरी देवस्तत्पूजनमपि स्यान्चेत् लोकोतरिकमेव की पुष्टि करने से ही आती है। अन्य चरक आदि समस्त प्रवचनों में इन्ही हिंसादिक कर्मों के करने का विधान स्पष्टरूप से पाया जाता है। इसीलिये ये कुप्रवचन माने गये हैं। इनके द्वारा प्रदर्शित इन्द्रादिक पूजन भी इसी निमित्त से कमावनिक कहा गया है। जैन शास्त्रों में प्रतिमापूजन के निपेध का स्पष्ट उल्लेख जो देखने में नहीं आता है, उसका यह कारण है कि जिस समय प्रभु ने इन्द्रादिक के पूजन का कुप्रावनिक रूप मानकर निषेध किया उस समय उनके समक्ष अहंत की प्रतिमा के पूजन का प्रसग ही नहीं था, नहीं तो इसका भी वे स्वतन्त्र रूप से निषेध करते-दूसरे-प्रतिमा पूजन कार्य हिंसामय काय है-भगवान ने धर्म के लिये भी हिंसा करने का आदेश नहीं दिया है अत' जब वीतराग शास्त्र में हिंसा का विधान ही नहीं है-तर इसका भी विधान कैसे वे करते प्रतिषेध वाक्य उसी समय सार्थक माना जाता है जब प्रतिपेध्यरूप पदार्थ किसी भी रूप से प्रसक्त होता है । ચીરિક વગેરે બધા પ્રવચનમાં એ જ હિંસા વગેરે કર્મોને કરવાનું વિધાન સ્પષ્ટ રૂપ જોવામાં આવે છે એથી આ બધા કુમારચનિક માનવામા આવે છે એમના વડે પ્રદર્શિત ઈદ્ર વગેરેનું પૂજન પણ આ કારણને લીધે જ કુખાવચ નિક કહેવાય છે જૈન શાસ્ત્રોમાં પ્રતિમા પૂજનના નિષેધને સ્પષ્ટપણે જે ઉલેખ જોવામાં આવતું નથી તેનું કારણ પણ એ છે કે જયારે પ્રભુએ ઈન્દ્ર વગેરેના પૂજનને કુપાવચનિક રૂપ માનીને નિષેધ કર્યો ત્યારે તેમની સામે અર્વતની પ્રતિમાને પૂજનની વાત જ ન હતી, નહિતર તેઓશ્રી એ તેને પણ સ્વતંત્ર રૂપથી નિરોધ કર્યો હત બીજી વાત એ છે કે પ્રતિમા પૂજનનું કાર્ય હિંસા મય છે, ભગવાને ધર્મના માટે પણ હિંસા કરવાની આજ્ઞા કરી નથી એટલા માટે જ્યારે વીતરાગ શાસ્ત્રમાં હિંસા વિધેનુ વિધાન જ નથી ત્યારે આનુ વિધાન પણ તેઓ કેવી રીતે કરે પ્રતિષેધ વાય ત્યારે જ સાર્થક છે જ્યારે પ્રતિધ્યરૂપ પદાર્થ કે પશુ રૂપથી પ્રસક્ત હોય છે ?
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
बनेगारधामृतवपिणी टोका स० १६ द्रौपदीचर्या
३५७ सात् लोके तु तस्य समावेशानहतया रौकिकत्वासभात् । प्रवचने भगरता यत् सामायिकादि पइरिधावश्यक प्ररूपित तदेव स्वच्छन्दविहारिभिः पटकाहिसर्जिनाज्ञापये क्रियमाण लोकोत्तरिक-द्रव्यावश्यकम् । तत्र पदवियावश्यक निनप्रतिमा पूजनस्य प्रवेशात् तस्य लोकोत्तनिद्रव्यावश्यके समावेशो न सभवति। यर प्रतिमापूजनरूप कार्य न लौकिक द्रव्य अवश्यक है और न लोको त्तर द्रच अवश्यक ही है।
शका-प्रतिमा पृजन लौकिक द्रव्य आवश्यक नहीं है यह तो आप का कहना ठीक है, क्यों कि यह लौकिक द्रव्य आवश्यको से सर्वथा भिन्न है। परन्तु इसे रोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक मानने में आपको क्या विवाद है। क्यो कि प्रभु स्वय लोकोत्तर देव माने जाते अतः उनका पूजन भी लोकोत्तरिक ही मानना चाहिये
उत्तर-प्रवचन में भगवान जो सामायिक आदि छह प्रकार के आवश्य कों का वर्णन किया है-वे जर जिन आज्ञा पाद्य-स्वच्छन्दविहारी और पटकाय की विराधना करने में निरत अनुपयुक्त पुरुपों द्वारा करने में आते हैं लोकोत्तरिक द्रव्य आसश्यक रूप से प्रतिपादित किये गये हैं। इन पप्रकार के आवश्यकों में प्रतिमापूजन का कोई अधिकार ही नहीं है। अत: इसे कैसे लोकोत्तरिक आवश्यक माना जा सकता है। પૂજનરૂપ કાર્ય માટે ન તે લૌકિક દ્રવ્ય આવશ્યક છે અને ન તે લકત્તર દ્રવ્ય આવશ્યક છે
પાકા –પ્રતિમા પૂજન લૌકિક દ્રવ્ય આવશ્યક નથી તમારી આ વાત તે ઉચિત છે કેમ કે આ લૌકિક દ્રવ્ય આવશ્યકોથી સ પૂર્ણપણે ભિન્ન છે પણ એને લકત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યક માનવામાં તમને શે વાધે છે ? કેમકે પ્રભુ જાતે લેકોત્તર દેવ મનાય છે ત્યારે તેમનું પૂજન પણ લેકેનરિક જ માનવું જોઈએ?
ઉત્તર-પ્રવચનમાં ભગવાને જે સામાયિક વગેરે છ જતના આવશ્યકોનું વર્ણન કર્યું છે તેઓ જ્યારે જિન-આજ્ઞા બાહ્ય સ્વચ્છ દ વિહારી અને વટકાયની વિરાધના કરવામાં નિરત અનુપયુકત પુરુષો વડે આચરવામાં આવે છે લેરરિક દ્રવ્ય આવશ્યક રૂપથી પ્રતિપાદિત કરવામાં આવે છે આ છ જાતના આવશ્યકોમાં પ્રતિમા પૂજનને કેઈ અધિકાર જ નથી એટલા માટે કેરિક આવશ્યક કેવી રીતે માની શકાય ?
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
सात
२५६
भाताधर्मकथा विधायकतया पाचनस्य कुमितत्व, तेर चन्द्रादिपूजनस्य कुभावचनिश्त्त भवति । एष मरूपयतो भगनतोऽहंतः पतिमाया पूजनस्य प्रगन पर तदानों नासीत्-हिंसामयत्वात्पूजनस्य, तेन प्रायने भगाता मतिमापूजनमतिपधो विशिष्य नोक्त । प्रतिपेधमाश्य हि तदैव सार्थक, यदाप्रतिपेयम्पोऽर्थः फयचित् प्रसक्तो मनति । जिनमतिमापूजन हि न तापलौकिक द्रव्यावश्यक, नापि लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक , जिनो हि लोकोत्तरी देवस्तत्पूजनमपि स्यान्चेत् लोकोत्तरिकमेव की पुष्टि करने से ही आती है। अन्य चरक आदि समस्त भवचनों में इन्ही हिंसादिक कर्मों के करने का विधान स्पष्ट रूप से पाया जाता है। इसीलिये ये कुप्रवचन माने गये हैं। इनके द्वारा प्रदर्शित इन्द्रादिक पूजन भी इसी निमित्त से अमावनिक कहा गया है। जैन शास्त्रों में प्रतिमापूजन के निपेध का स्पष्ट उल्लेग्न जो देखने में नहीं आता है, उसका यह कारण है कि जिस समय प्रभु ने इन्गदिक के पूजन का कुमावनिक रूप मानकर निषेध किया उस समय उनके समक्ष अहेत की प्रतिमा के पूजन का प्रसग ही नहीं या, नही तो इसका भी वे स्वतन्त्र रूप से निपेध करते-दसरे-प्रतिमा प्रजन कार्य हिंसामय कार्य है-भगवान ने धर्म के लिये भी हिंसा करने का आदेश नहीं दिया है अतः जब वीतराग शास्त्र में हिंसा का विधान ही नही है-तब इसका भी विधान कैसे वे करते प्रतिपेध वाक्य उसी समय सार्थक माना जाता है जब प्रतिषेध्यरूप पदार्थ किसी भी रूप से प्रसक्त होता है। ચીરિક વગેરે બધા પ્રવચનમાં એ જ હિંસા વગેરે કર્મોને કરવાનું વિધાન સ્પષ્ટ રૂપ જોવામાં આવે છે એથી આ બધા કુપાવચનિક માનવામા આવે છે એમના વડે પ્રદતિ ઇન્દ્ર વગેરેનું પૂજન પણ આ કારણને લીધે જ કુપાવચ નિક કહેવાય છે જેને શાઓમાં પ્રતિમા પૂજનના નિષેધને સ્પષ્ટપણે જે ઉલ્લેખ જવામાં આવતો નથી તેનું કારણ પણ એ છે કે જ્યારે પ્રભુએ ઈન્દ્ર વગેરેના પૂજનને કુખાવચનિક રૂપ માનીને નિષેધ કર્યો ત્યારે તેમની સામે અર્વતની પ્રતિમાના પૂજનની વાત જ ન હતી, નહિતર તેઓશ્રી એ તેને પણ સ્વતંત્ર રૂપથી નિષેધ કર્યો હોત બીજી વાત એ છે કે પ્રતિમા પૂજનનું કાર્ય હિંસા મય છે, ભગવાને ધર્મના માટે પણ હિંસા કરવાની આજ્ઞા કરી નથી એટલા માટે જયારે વીતરાગ શાસ્ત્રમાં હિંસા વિષેનું વિધાન જ નથી ત્યારે આનું વિધાન પણ તેઓ કેવી રીતે કરે પ્રતિષેધ વાય ત્યારે જ સાર્થક ગણાય છે જ્યારે પ્રતિધ્યરૂપ પદાર્થ કઈ પણ રૂપથી પ્રસક્ત હોય છે ,
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतापिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचर्चा
३५९ चित्रादय इति मलपितम् । एर च जिनपूनन-कुप्रावचनि-नोआगमतो द्रव्यावश्यक प्रतिमाया क्रियमाणत्वात् , इन्द्रादिपूननवत् ,इन्यनुमानेनापि कुमावनिक द्रव्यावश्यतया धर्मपदवाच्य न भवतीति । __उत्तर-यद्यपि प्रवचन में प्रतिमा पूजा का विधान स्वतन्त्ररूप से नहीं किया गया है, तो भी कामपरक प्रणियों के मनोरय को पूर्ण करने वाले-मनुष्य के मृत-निर्जीव देर की पूजा की तरर प्रतिमा में होती हुई पूजा भी कुप्रावचननि की है। ___ इस प्रकार हम अनुमानसे कह सकते हैं। उसमें प्रवचनमें पूजाके आधार का निर्णय करते समय सामान्यरूप से पूजा के आधारभूत जितने भी प्रतिमा चित्र आदि पूज्य हैं वे सर गृहीत हुए है। इस प्रकार प्रतिमा की मर्व पूजा का आधार प्रतिमा और चित्र आदि है। इसलिये वह कुप्रावनिक है । इस प्रकार हम करते है । इस कथन से यह व्याप्ति सिद्ध होती है कि इन्द्रादिक पूजन की तरह प्रतिमा में जो जो पूजाएँ की जाती हैं वे सर कुमावनिकी है। अत जिन पूजन भी प्रतिमा में किये जाने पर नोआगम की अपेक्षा से कुपावनिक द्रव्य आवश्यक ही है, और इसीलिये वह धर्मपद का वाच्य नहीं है यह बात स्पष्टरूप से सिद्ध हो जाती है इसमें अनुमान गयोग उप प्रकार से करना चाहिए।
ઉત્તર –જે કે કુપ્રવચનમાં પ્રતિમા પૂજનનું વિધાન સ્વત રૂપમા કર વામાં આવ્યું નથી છતાય માનવીના મનોરથોને પૂર્ણ કરનારા-માણસના મૃત નિજીવ શરીરની પૂજાની જેમજ પ્રતિમાની કરવામાં આવેલી પૂજા પણ કુમા વચનિકી છે આમ અમે અનુમાનથી કહી શકીએ છીએ તે કુપ્રવચનમા પૂજાના આધારને નિર્ણય કરતી વખતે સામાન્ય રૂપથી પૂજાના આધારભૂત જેટલા પ્રતિમા ચિત્ર વગેરે પૂજ્ય છે તેઓ સર્વેનું ગ્રહણ થયુ છે
આ રીતે પ્રતિમાની સર્વ પૂજાને આધાર પ્રતિમા અને ચિત્ર વગેરે છે એટલા માટે તે કુબાવચનિક છે આમ અમે કહી શકીએ છીએ આ કથનથી એ વ્ય પ્રિસિદ્ધ થાય છે કે ઇન્દ્ર વગેરેના પૂજનની જેમ પ્રતિમાઓમાં જે જે પૂજાઓ કરવામાં આવે છે તેઓ સર્વે કુપાવચનિકી છે એટલા માટે જિન પૂજા પણ પ્રતિમામાં આવતી હોવાથી આગમની અપેક્ષાથી કુકાવચનિક દ્રવ્ય આવશ્યક છે અને એથી તે ધર્મપ વાય નથી આ વાત સ્પષ્ટપણે સિદ્ધ થઈ જાવ છે આમા અનુમાનપ્રયોગ આ પ્રમાણે કહી શકાય તેમ છે
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीधर्मकथासूत्रे
कृमवचनेऽर्हत पूजाविधान विशिष्य नाका तथापि रामपूर मृत मनुष्यपूजनवत् तस्य पूजा प्रतिमाया क्रियमाणा कुमान पनि कीति वक्तु शक्यते । तस्मिन् कुप वचने हि पूजाधारनिर्णयावसरे सामान्यन' पूज्यम्य सर्वस्यापि पूजाधारः प्रतिमा
३५८
भावार्थ - शकाकार ने प्रतिमापूजन को लोकोत्तरिक आवश्यक मानकर द्रव्य आवश्यक में जो उसका समावेश करना चाहा है सो उसकी इस आशका का समाधान करते हुए सूत्रकारने यह कहा है कि जिन आज्ञा पाह्य एव सामायिक आदि में अनुपयुक्त पुरुषो द्वारा किये गये सामायिक आदि पटू विन आवश्यक कार्य ही लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक में परिगणित किये गये है । इनमें प्रतिमा पूजा को कोई सवध ही नहीं है - प्रतिमा पूजा पहुविध आवश्यक कार्यों में परिगणित ही नही हुई है । अत उसका वहा पर किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होने से उसे लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक में नही गिना जा सकता है अत इसका समावेश केवल कुमानचनिक द्रव्य आवश्यक में ही हुआ है ऐसा मानना चाहिये ।
शका - कुप्रवचन में इन्द्रादिशों की पूजा करने के विधान की तरह प्रतिमा पूजा का विधान तो पाया नहीं जाता है फिर आप इसे कुप्रा वचननिक में अन्तर्भूत कैसे कह सकते है ?
ભાવાર્થ રાકાકારે પ્રતિમા પૂજનને લેાકેાન્તરિક આવશ્યક માનીને દ્રવ્ય આવશ્યકમાં તેના સમાવેશ કરવાની જે ઈચ્છા ખતાવી છે તેની તે શકાનુ સમાધાન કરતા સૂત્રકારે આ પ્રમાણે કહ્યુ છે કે જિન આા ખાદ્ય અને સામાયિક વગેરેમા અનુપયુક્ત પુરુષો વડે કરવામા આવેલા સામાયિક વગેરે છ જાતના આવડ્યક કાર્યો જ લાકાન્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યકમા પરિગણિત કરવામા આવ્યા છે એનાથી પ્રતિમા પૂજાના ફોઇ સબધ જ નથી પ્રતિમા પૂજા વૅિધ આવશ્યક કાર્યામા પગિણિત જ થઈ નથી એટલા માટે ત્યા તેને કોઈ પણ રીતે સ ય્ ધ નહિ હોવાથી લેાકેાન્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યકમા તેની ગણુના થઈ શકે તેમ નથી એથી ફક્ત દ્રવ્ય આવશ્યકમા જ થયેા છે આમ માની લેવુ જોઈએ
શકા —કુપ્રવચનમાં ઇન્દ્ર વગેરેની પૂજા કરવાના વિધાનની જેમ પ્રતિમા પૂજાનુ વિધાન તેા મળતુ નથી ત્યારે તમે એને કુપ્રવાચનિકમા કેવી રીતે ક્ષમાવિષ્ટ કરી શકે ?
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगर टोका अ० १६ द्रौपदीचर्चा
३५९
चित्रादय इति रूपितम् । एव च जिनपूजन-कुप्रावचनिक- नोआगमतो द्रव्यामनमाया क्रियमाणत्वात् इन्द्रादिपूजनवत्, इत्यनुमानेनापि कुमात्रचनिक द्रव्याश्रुतया धर्मपदवाच्य न भक्तीति ।
1
उत्तर - यद्यपि कुमचचन में प्रतिमा पूजा का विधान स्वतन्त्ररूप से नही किया गया है, तो भी कामपुरक प्रणियों के मनोरथ को पूर्ण करने वाले मनुष्य के मृत-निर्जीव देह की पूजा की तरह प्रतिमा में होती हुई पूजा भी कुमावचननि की है।
इस प्रकार हम अनुमान से कर सकते हैं । उसमें प्रवचन में पूजा के आधार का निर्णय करते समय सामान्यरूप से पूजा के आधारभूत जितने भी प्रतिमा चित्र आदि पृज्य है वे सन गृहीत हुए है । इस प्रकार प्रतिमा की सर्व पूजा का आधार प्रतिमा और चित्र आदि है । इसलिये वह कुप्राचनिक है । इस प्रकार हम कहते है । इस कथन से यह व्याप्ति सिद्ध होती है कि इन्द्रादिक पूजन की तरह प्रतिमा में जो जो पूजा की जाती हैं वे सन कुमावचनिकी है । अत जिन पूजन भी प्रतिमा में किये जाने पर नोआगम की अपेक्षा से कुप्रावचनिक द्रव्य आवश्यक ही है, और इसीलिये वह धर्मपद का वाच्य नही है यह बात स्पष्टरूप से सिद्ध हो जाती है इसमें अनुमान प्रयोग उस प्रकार से करना चाहिए ।
ઉત્તર ~જો કે ફુપ્રવચનમા પ્રતિમા પૂજનનુ વિધાન સ્વતંત્ર રૂપમા કર વામા આવ્યુ નથી છતાય માનવીના મનેરથાને પૂર્ણ કરનારા~માણુમના મૃત નિશ્છવ શીરની પૂજાની જેમજ પ્રતિમાની કરવામા આવેલી પૂજા પણ કુપ્રા વચનિકી છે આમ અમે અનુમાનથી કહી શકીએ છીએ તે કુપ્રવચનમા પૂજાના આધારને નિણ્ય કરતી વખતે સામાન્ય રૂપથી પૂજાના આધારભૂત જેટલા પ્રતિમા ચિત્ર વગેરે પૂજ્ય છે તેએ સર્વે ગ્રહણ થયુ
છે
આ રીતે પ્રતિમાની સર્વ પૂજાનેા આધાર પ્રતિમા અને ચિત્ર વગેરે જે એટલા માટે તે કુપ્રાવથનિક છે આમ અમે હી શકીએ છીએ આ સ્થનથી એ વ્ય મિસિદ્ધ થાય છે કે ઇન્દ્ર વગેરેના પૂજનની જેમ પ્રતિમાઓમા જે જે પૂજા કરવામા આવે છે તેએ સર્વે કુપાવાનકી છે એટલા માટે જિન પૂજા પણ પ્રતિમામા આવતી હોવાથી આગમની અપેક્ષાથી કુપ્રાયચનિક દ્રવ્ય આવસ્યક છે અને એથી તે ધમ પ વાચનથી આ વાત સ્પષ્ટપણે સિદ્ધ થઈ જાવ છે. આમા અનુમાનપ્રયાગ આ પ્રમાણે કહી શકા4 તેમ છે
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
३१०
ताधर्मकथा अथ भारावश्यकमन्यते-रिवमितक्रियानुभयुक्तो योऽर्धन मात्र, भाव तद्वतोरभेदोपचाराद् मारः। यथा-ऐश्वर्यस्पायाइन्नक्रियाया अनुभवाव इन्द्रो भाव उच्यते । भावशासी आवश्यक च, भावमाश्रित्य ा आवश्यक भागवश्यकम् । ___ "जिनपूजन नो आगमतो कुमावनिक द्रव्याच्या प्रतिमायां क्रियमाणत्वान् इन्द्रादिपृजनवत् "। अतः इम समस्त प्रोक्त कथन से यह यात स्पष्ट हो जाती है कि वह प्रतिमापूजन कार्य लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक रूप से भी प्रसक्त होता तो भगवान् इसका अवश्य प्रति पेध करते।
अथ भावारश्यकमुच्यते - अर भाव आवश्यक क्या है इसका कथन सूत्रकार करते हैं-वर्तमान समय में उस विवक्षितरूप पर्याय से युक्त द्रव्य का नाम भाव है। भाव यथपि वर्तमान क्रिया रूप माना गया है, फिर भी यहां पर उन क्रिया से युक्त द्वन्ध को जो भाव कहा है उसका कारण द्रव्य और पर्याय का अभेद सबध है। भगवान द्रव्य के विना नहीं रह सकता है। भाव द्रव्य की एक पर्याय है, वह निराश्रय होती नहीं है-अत: जिस द्रव्य के आश्रय वर रहेगी उन दोनो में अभेदोपचार से उस पर्याय से उपलक्षित उस द्रव्य को ही भाव कह दिया है। जिस प्रकार ऐश्वर्यरूप ददन (देदीप्यमान होना)
" जिनपूजन नो आगमतो कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक मतिमाया क्रियमाण त्वात् इन्द्रादिपूजनयत् "
એટલા માટે આ પૂર્વોકત કથનથી આ વાત સ્પષ્ટ થાય છે કે તે પ્રતિમા પૂજન કાર્ય લકત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યક પણ નથી જે તે લકત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યકરૂપે પણ પ્રસત હોત તે ભગવાન તેને ચક્કસ પ્રતિષેધ કરત
'अथ भावावश्यकमन्यते ' - मावश्य शु छ मेनु २५टी४२९ સૂત્રકાર કરે છે વર્તમાન સમયમાં તે વિવક્ષિત રૂપ પર્યાયથી યુક્ત દ્રવ્યનું નામ ભાવ છે જે કે ભાવ વર્તમ ન ક્રિયારૂપ માનવામાં આવ્યા છે, છતાય અહીં તે કિયાથી યુક્ત દ્રવ્યને જ ભાવ બતાવ્યો છે તેનું કારણ દ્રવ્ય અને પર્યાયને અભેદ સ બ ધ છે ભાવ ભગવાન દ્રવ્ય વગર રહી શકતો નથી ભાવ દ્રની એક પર્યાય છે, તે નિરાશ્રય હતી જ નથી એથી જે દ્રવ્યના આશ્રયે તે રહેશે તેઓ બંનેમા અભેદપચારથી તે પર્યાયથી ઉપલક્ષિત તે દ્રવ્યને જ ભાવ કહી દીધું છે જેમ એશ્વર્ય ઈદન (દેદીપ્યમાન થવું) કિયાના અનુભ
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० १६ द्रौपदचच
तद् द्विनिधम्- (१) बागमनागममाश्रित्य, (२) नोभागमत: आग माभावमाश्रित्य ।
आगमतो भानावश्यकमाह
" से कि त आगम पो भाषा,स्सर ? भागमो भावावस्सय जाणए उपउत्ते, सेत आगमी भानावस्सय" । (अनुयोग०)
अथ किं तागमतो मोबावश्यकम् ?, उत्तरमाह-" गायक उपयुक्त" आगमतो भारावश्यकम् ।
अघमर्य'-यावश्यकपदार्यज्ञम्तजनिनसवेगेन विशुध्यमानारिणामस्ता चो पयुक्त सावादिरागमतो मानायकम् , अनावश्यका ज्ञानरूपन्यागमस्यात्र क्रिया के अनुभव से उपलक्षित शचीपनि भाव इन्द्र कहा जाता है। इसी प्रकार जो आवश्यक रूप किया के अनुभवसे युक्त हे वही आत्मा भावारश्यक जलाता है। भावरूप जो आवश्यक वर, अयया भाव को आश्रय करके जो आवश्यक है यह भावावश्यक है। ___ यह भार आवश्यक भी दो प्रकार का है-१ आगम की अपेक्षा भाव ओवश्यक और दमरा नो आगम की अपेक्षा भाव आवश्यक । इनमें "ज्ञायक उपर्युक्त' आगमतो भावावश्यक "ज्ञायक उपयुक्त
आत्मा आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक माना गया है। आवश्यकरूप पदार्थ का जो जाता है उसका नाम ज्ञायक है । आवश्यकरूप पदार्थ के जान से जनित सवेग द्वारा विशुद्ध हुए परिणामो को नाम उपयोग है । इम उपयोग से विशिष्ट जो साबु आदि जन हैं वे आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक है । क्यों कि इनमें आवश्यमरूप पदार्थ વથી ઉપલક્ષિત શચીપતિ ભાવ ઇન્દ્ર કહેવાય છે તેમજ જે આવશ્યકરૂપ ક્રિયાના અનુભવથી યુક્ત છે તે આત્મા ભાવાવશ્યક કહેવાય છે ભાવરૂપ જે આવશ્યક છે તે અથવા ભાવને આશ્રય કરીને જે આવશ્યક છે તે ભાવાવશ્યક છે
આ ભાવ આવશ્યક પણ બે પ્રકાર છે-૧, આગમનની અપેક્ષા ભાવ मावश्य: भने २,न। मागभननी अपेक्षा माप मापश्य समनामा "ज्ञायक उपयुक्त भागमतो भावावश्यक " हाय उपयुक्त मामा मागमन अपेक्षाया ભાવ આવશ્યક માનવામાં આવ્યું છે આવશ્યકરૂપ પદાર્થને જે જ્ઞાતા છે તેનું નામ જ્ઞાયક છે આવસ્યકરૂપ પદાર્થને જ્ઞાનથી જનિત સવેગવડે વિશુદ્ધિ પામેના પરિણામેનુ નામ ઉપગ છે આ ઉપયોગથી વિશિષ્ટ જે સાધુ વગેરે લોકો છે તેઓ આગમની અપેક્ષાથી ભાવ આવશ્યક છે કેમકે તેઓ આવ
छा ४६
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
--
भाताधर्मकथा सत्त्वात् , भानावश्यकता चात्राश्याशानमनितोपयोगपरिणामनाभा • मारित्यापश्यामिति व्युत्पते । इमुक्त भत्ति आरश्यकार्यगस्य आवश्यकोप योगपरिणाम आगमतो भाषावश्यक, मागादिस्तु ताशपरिणामागदागमतों भावावश्यकगुच्यते । इदमावश्यकोपयोगपरिणामम्प भा वश्यक धर्मपदयाच्य, श्रुतधर्मान्तर्गततात् , भर मिनाजागाः सचात् ।।
नोभागमतोमानावश्यक विविध-लौकिक, कुमायनिक, लोकोतरिक चेति
लौरिक भागवश्यक पूर्वाले भारतस्य वाचन अपण वा, अपराहे रामायणस्य के ज्ञानरूप आगम का मार पाया जाता है। इसलिये साधु आदि जनों में आगम की अपेक्षा से आवश्यकता और इस आवश्यक के अर्थ ज्ञान से जनित उपयोगरूप परिणामों की विशिष्टतो रोने से भाव रूपता आती है । अत. " भार को आश्रित करके जो आवश्यक है वह भोध आवश्यक है " यह कथन लुसगत हो जाता है
भावार्थ-'आवश्यक" इस पद के अर्यज्ञान से विशिष्ट तथा तद् नुकूल उपयोग परिणति सपन आत्मा ही आगम की अपेक्षा से भावावश्यक कहा गया है । ये भावावश्यक साघु आदि हैं। क्यों कि ये ही उस प्रकार की परिणति वाले रोते हैं । अतः श्रुतधर्म के अन्तर्गत होने से यह नागावश्यक ही धर्म पद का वाच्य कहा गया है और ऐसे ही धर्म की आराधना करने की भगवानने आज्ञा प्रदान की है।
नो आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक तीन प्रकार का माना गया है । (१) लौकिक (२) कुप्रावनिक और लोकोत्तरिक । पूर्वाह्न में
શ્યકરૂપ પદાર્થના જ્ઞાનરૂપ આગમને સદભાવ મળે છે એટલા માટે સાધુ વગેર લેકે મા આગમની અપેક્ષાથી આવશ્યકતા અને આ આવશ્યકતાના અર્થ જ્ઞાનથી જનિત ઉપયોગરૂપ પરિણામોની વિશિષ્ટતા હોવાથી ભાવરૂપતા આવે છે એટલા માટે “ભાવને આશ્રિત કરીને જે આવશ્યક છે તે ભાવ આવશ્યક છે ” આ કચ સુસ ગત થઈ પડે છે
ભાવાર્થ –“આવશ્યક” આ પદના અર્થ જ્ઞાનથી વિશિષ્ટ તેમજ તદ નકળ ઉપગ પરિણતિ સ પત્ર આત્મા જ આગમની અપેક્ષાએ ભાવ આવશ્યક સાધુ વગેરે છે કેમકે એ લેકે જ આ જાતની પરિણતિવાળા હોય છે એથી શ્રતધર્મના અતિગત હોવા બદલ આ ભાવાવશ્યક જ ધમ પદવા કહેવામાં આવ્યું છે અને આ જાતના ધર્મની આરાધના કરવાની ભગવાને પણ આજ્ઞા કરી છે
ને આગમની અપેક્ષાએ ભાવ આવશ્યકના ત્રણ પ્રકારે છે -(૧) લૌકિક (२) धापयनित (3) मने तरिs पूर्वाहमा मारतनु पा, १५
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
येनेगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा वाचनं अरण पा । लोके हि भारतस्य पावन अपण पूर्गझे एर क्रियमाणं दृश्यते, तथा रामायणस्य वाचन श्रषणमपरान ए क्रियमाणं दृश्यते, परीत्ये दोपदर्श नात् । ततश्चेत्थ लोकेऽवश्यकरणीयतयाऽऽवश्यकत्व तवाचकस्य तुश्च तदर्थोंपयोगपरिणामसत्त्वाद् भावत्व, तहाचक पुस्तकपत्रादिपरावर्तनरूपया इस्ताभिनयरूपया च क्रियया युक्तो भावि, श्रोतापि च गानसयतत्व-करसंपुटीकरणादि
भारत का वाचना अथवा सुनना, अपराह में रामायण का वाचना या सुनना ये सय लौकिक भाव आवश्यक हैं । लोक में भारत का वाचना अथवा सुनना पूर्वाह्नमें ही किया जाता है । गमायणका वाचन और श्रवण अपराह में ही होता हुआ देखा जाता है। इससे विरुद्ध प्रवृत्ति करने से अनेक प्रकार के दोपो का भोजन बनना पडता है, इस प्रकार लोक में भारतादिक ग्रन्थों का वाचना आदि कार्य नियमित समय में अवश्य करने योग्य होने की वजह से आवश्यक रूपमें माना गयो है । अतः इसमे इस प्रकार से आवश्यकपना आ जाता है। तथा इनके वाचने वालो मे या सुनने वालो में उनके अर्थ के प्रति उपयोगात्मक परिणाम के सद्भाव से भावरूपता आती है । क्यों कि जबतक उनके वाचने चाले में उनके अर्थ के प्रति उपयोगात्मक परिणाम की जागृति नहीं शेगी तब तक वे उन पुस्तको के पत्रों आदि का पराव. तेन करने रूप किया और श्रोताओं को अनेक अर्थ की सगति बैठाने के लिये हस्त आदि के सचालनरूप अभिनय किया का उपयोग ही
અપરામાં રામાયણનું વાચન કે શ્રવણ આ બધુ લૌકિક ભાવ આવશ્ય છે લાકમાં ભારતનું વાચન અથવા તો શ્રવણ પૂર્વાહમાં જ કરવામાં આવે છે રામાયણનું વાચન અને શ્રવણ અપરમા જ થતું જોવામાં આવે છે એથી વિરુદ્ધ આચરણ કરવાથી માણસ ઘણી જાતના દેશોને પાત્ર થઈ પડે છે આ પ્રમાણે ભારત વગેરે ગ્રંથોનું વાચન વગેરે કાર્યો નિયમિત સમયમાં આવશ્યક કરવા યોગ્ય હોવા બદલ આવશ્યક રૂપમાં માનવામાં આવે છે એથી આમા આ રીતે આવશ્યક પણ આવી જાય છે તેમજ એમનું વાચન કરનારાઓમાં તેમના તરફ ઉપગાત્મક પરિણામના સદૂભાવથી ભાવરૂપતા આવે છે કેમકે જ્યા સુધી તેમનું વાચન કરનારાઓમાં તેમના અર્થ પ્રત્યે ઉપયોગાત્મક પરિણામની જાગૃતિ થશે નહિ, ત્યા સુધી તેઓ તે પુસ્તકના પત્ર વગેરેગ્ના પરાવર્તન કરવારૂપ ક્રિયા અને પ્રેતાઓના માટે અનેક જાતના અર્ધની સગતિ બેસાડવા માટે હાથ વગેરેના હલનચલનરૂપ અવિનય ક્રિયા ઉપયોગ જ કેવી રીતે કરી શકે,
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६४
माताधर्मक्या क्रियावान् भाति, एव तयोः मियाम्पेन नोआगमन, "किरियाऽऽगमो नहोइ" इति वचनात् । क्रियारूपे देशे आगमाभावाद नोआगमनमपि, अन नो शब्दस्य देशनिषेधयोधकत्वात् । लोके भारतादापागमा च्यारियते, तस्माइदेशत आगमो ऽस्त्यपि । तस्माद पूऽिपराहे ययानिदिएकाले भारताद्यपयुक्तो यदयश्य भारतादि बाचयति शृणोति पा, तद् वाचन पण च लोकिक मागाश्ययमिति बोध्यम् । कैसे कर सकते हैं। परन्तु उस समय इस प्रकार की समस्त क्रियाएँ उनमें प्रत्यक्ष ही देसने में आती है। इसी प्रकार श्रोताजन भी अटल होकर उनके सुनने मे तन्मय हो जाते है । ममय २ पर हाथ जोड़ने रूप क्रियाएँ भी करते है । इस प्रकार की मियाएं मे युक्त होने से उन सुनने वाचने वालो में नो आगमता भी है क्यो कि " किरिया आगमो नहरोइ" किया आगम नही मानी जाती है ऐसा मिद्धात का कथन है। "नो आगम" में नो शब्द आगम के एक देश का वाचक है। इसलिये क्रियारूप एक देश में पूर्णरूप से आगम का अभाव होने से आगम की एक देशता उसमें मानने में आती है। भारतादिक पुस्तकों में आगमता का कथन लोक की अपेक्षा से ही किया गया जानना चाहिये । क्यो फि लोक में अन्य व्यवहारी जन इनमें आगमता का व्यवहार करते हुए देखे जाते है । इस प्रकार पूर्वाह्न या अपराग में किसी भी निर्दिष्ट समय मे भारतादिक ग्रन्धो का ज्ञाता उनमें उपयुक्त होकर जो उनका वाचना आदि कार्य करता है या जो श्रोताजन उप
પણ તે વખતે આ જાતની આ બધી ક્રિયાઓ તેઓમાં પ્રત્યક્ષરૂપે જોવામાં આવે છે. આ રીતે શ્રોતાઓ પણ તcલીન થઈને સાભળવા માટે છે ચોગ્ય સમયે તેઓ હાથ જોડવારૂપ ક્રિયાઓ પણ કરે છેઆ જાતની ક્રિયાઓથી યુક્ત હવા બદલ તે વાચનારા તેમજ સાભળનારાઓમાં ને આગમતા પણ छ भ" किरिया आगमो न होइ" या मागम मानवामा माती नयी मा सिद्धान्तनु ४थन छ “नो आगम" माना २७६ मागमन मेशन। વાચક છે એટલા માટે ક્રિયારૂપ એકદેશમાં આગમને સંપૂર્ણ પણે અભાવ હોવાથી તેમાં આગમની એકદેશતા માનવામાં આવે છે ભારત વગેરે ગ્રંથોમાં આગમતાનું કથન લોકની અપેક્ષાથી જ કરવામાં આવ્યું છે કેમકે લોકમાં બીજી વ્યવહારી લોકે પણ એમા આગમતારૂપ વ્યવહાર કરતા જોવાય છે આ રીતે પૂર્વાદ્ધ કે અપરાહમાં કોઈ પણ નિર્દિષ્ટ સમયમાં ભારત વગેરે થે ને જ્ઞાતા તેઓમાં ઉપયુક્ત થઈને જે તેમનું વાચન વગેરે કાર્ય કરે છે . તે
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा
कुमारचनिक भागावश्यम्मुन्यते--ये इमे चरकचीरिकादयो यावत् पापण्डस्था उपयुक्तो यथावसर यदश्यम्-ईज्या-जलि-होम-जपो-न्दुरुक्नमस्कारादिक भाव रूपमावश्यक कुर्वन्ति तपा तत् कुपावनिक भाषावश्यकम् ।
तर-उज्या-सन्ध्योपासनम् , अञ्जलि'-जलाजलि. सूर्याय दीपते, होम'नित्यहानम् , जप -गायचा., उन्दुरुक-अय देशीयः गन्द धूपार्यकः, नमस्कारः चन्दनम् , एतेपा चरकादिभि पापण्डस्थैरवश्य क्रियमाणत्वादापश्यकत्यम् । तदर्थोपयोगश्रद्वादिपरिणामसद्भावात् भारत्वम् । चरकादीना तदर्थोपयुक्त होकर उन्हें सुनते हैं वह सर वाचना सुनना आदि कार्य नो आगम की अपेक्षा से लौकिक भाव आवश्यक है।
जो चरक चीरिकादि जन उपयुक्त होकर अपने आवश्यक कार्य स्वरूप इज्या, नजलि, होम जप, उन्दुरुक, और नमस्कार आदि भाव रूप आवश्यक करते हैं, उनके ये सर कार्य कुमावनिक भाव आव श्यक है स-या की उपासना करना इन्चा है, सूर्य के लिये जलकी अजलि देना अन्तलि है, निल हवन करना होम, गायत्री का पाठ करना जन, धूप का खेना उन्दुरुक और नमस्कार करना वन्दना कमे ह। ये सर कार्य चरकोदि जनो द्वारा प्रतिदिन अवश्य करने योग्य होते हैं-अतः इनमें उन्ही की मान्यतानुसार आवश्यकपना कहा गया है इनके करने में उनके अन्तः कारण में उनके अर्थ के प्रति उपयोग एव श्रद्धा ओदिरूप परिणति का सद्भाव पाया जाता है । इस જે શ્રોતાઓ ઉપયુકત થઈને તેમનું શ્રવણ કરે છે તે બધુ વાચન શ્રવણ વગેરે કાર્ય નો આગમની અપેક્ષાએ લેકિક ભાવ આવશ્યક છે
જે ચરક ચારિક વગેરે લોકે ઉપયુકત થઈને આવશ્યક કાર્યસ્વરૂપ ઈજ્યા, આલિ, હેમ, જપ, ઉદ્કક અને નમસ્કાર વગેરે ભાવરૂપ આવશ્યકો કરે છે, તેઓના આ બધા કાર્યો કુમારચનિક ભાવ આવશ્યક છે એ ધ્યાની ઉપાસના કરવી એ ઈજ્યા છે, સૂર્યને માટે પાણીની અંજલિ આપવી તે આ જલી છે, દરરોજ હવન કરવું તે હામ, ગાયત્રો પાઠ કરવો તે જપ અને ધૂપ કરવો તે ઉત્ત્વક અને નમસ્કાર એ વદના કર્મ છે આ બવા કાર્યો ચરક વગેરે લોકો વડે હમેશા અવશ્ય કરવા” હોય છે એટલા માટે આમાં તેમની માન્યતા મુજબ જ આવશ્યકપણું કહેવામાં આવ્યું છે એમને આચરણથી તેમના હૃદયમાં તેના અર્થ પ્રત્યે ઉપગ અને શ્રદ્ધા વગેરે રૂપ પરિણતિ ને સદુભાવ મળે છે આ અપેક્ષાએ ત્યા ભાવતા અને
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६६
प्राताधर्म या योगरूपो देश आगम , करशिरः सयोगामियारूपो देगन्तु नोआगम , तथा च दैशिकागमामामालित्य नो आगमत्वमपि, नोशन्दस्यात्रापि देगनिए धपरत्वात् ।
लौफिक कुमारचनिक च नोआगमतो भावावश्यक न धर्मपटवान्यम् , तत्र निनाज्ञाया अभागादिति यो यम् ।
अय किं लोकोत्तरिक नोभागमतो भाषावश्यकम् ? उच्यते अनुयोगद्वारे ।
"जण्ण इमे समणे या समणी ग सापभो या साविया ना तचित्ते तम्मणे अपेक्षा से पर्दा भावता और एकदा से आगमता भी है। क्यों कि हाथों का जोडना नमस्कार करना आदि रूप जो भी किया है वे मय नो आगम है। इस अपेक्षा इनमें पूर्णरूप से आगमपनो न होकर आगम की एक देशता री है चरक चीरीकादि द्वारा मान्य ग्रन्थों की निर्दिष्ट क्रियाओं का ही वहा सझाव है और उन्ही के अर्थ में उनका उपयोगादिरूप परिणाम है। इसलिये ये मन चरक चीरीकादि की क्रियाएँ नो आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक है। यहा पर भी नो शब्द देश निषेध परक है अर्थात् आगम के एक देश का वाचक है ये लौकिक और कुप्रावनिक जिन्हें नो मागम की अपेक्षा से भावावश्य करूप में प्रकट किया गया है धर्मपद के वाच्य नहीं है। क्यों कि इन की आराधना से जीवो के कर्मो की निर्जरा नही होती है। अत तीर्थ कर प्रभु ने इनके आरावन करने की आज्ञा प्रदान नहीं की है।
नो आगम की अपेक्षो से लोकोत्तरिक भाव आवश्यक इस प्रकार એકદેરાથી આગમતા પણ છે કેમકે હાથ જોડવા, નમસ્કાર કરવા વગેરે રૂપ જે ક્રિયાઓ છે તે સર્વે નોઆગમ છે આ દષ્ટિએ એમનામાં આગમતા સપૂણ પણે નથી ફકત આગમ એકદેશના જ છે ચરક ચીરિક વગેરે વડે માન્ય ગ્રથોની નિર્દિષ્ટ કિયાઓને જ ત્યા સદભાવ છે અને તેમના જ અર્થમાં તેમને ઉપયોગ વગેરે રૂપ પરિણામ છે એટલા માટે આ બધા ચરક ચરિકા વગેરેની ક્રિયાઓ નો આગમની અપેક્ષાથી ભાવ આવશ્યક છે અહી પણ ના શબ્દ દેશનિષેધ પરક છે એટલે કે આગમના એકદેશને વાચક છે આ લૌકિક અને કુપ્રવચનિકો જેમને ને આગમની દૃષિ એ ભાવાવશ્યક રૂપમાં પ્રગટ કર વામાં આધ્યા છે- ધર્મપદના વાગ્ય નથી કેમકે એમની આરાધનાથી જવાના કર્મોની નિર્જરા થતી નથી, એટલા માટે તીર્થકર પ્રભુએ એમને આરાધવાની આજ્ઞા કરી નથી
નો આગમની અપેક્ષાએ લોકેતરિક ભાવ આવશ્યક આ પ્રમાણે છે – जण्ण इमे समणे का समणी वा सावो वा साविया वा तच्चित्ते तल्लेसे
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६७
अनगारधर्मामृतपिणी टोका १० १६ द्रौपदीचर्चा
,
ना
तल्लेसे तरज्य मिए तनिव्वज्रमाणे तदद्रोपते तदपियकरणे तभावगा भाfor sorte कत्थ मण रेमाणे उभभोपाल आवसाय करेड, से व लोगु तरिय भाव से त नोआगमतो भावास्य से त भावावसय ॥ छाया-यत् श्रमणो न श्रमणी वा श्राविका तचित्तस्तन्मनस्कस्तल्लेश्यस्तदप्रासितस्तत्तीना पवसायस्तदर्योपयुक्तस्तदर्षित करणस्तद्भावनाभावित अन्य कुन चिन्मनोऽकुर्वन् उमरकाल यत् आवश्यक सामायिकादि करोति तेषां तल्लोकोत्तरिक भागास्यम् । तेषां तद् नोआगमतो भावाश्यकम् तदेतद्भावावश्यकम् ।
★
अनावश्यकरणी लावावश्यक व तरयोगादिपरिगामन्य सहापद्मावत्वम् रजो मार्जि माव्यापारयथारात्नि कान्दनतरणानन्तर सविधि है - जण इमे समणे वा समगी वा सापओ वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे तल्ले से तदज्जयमिए ततिव्यवसाणे तो उत्ते तदपि अकरणे तभारणामाविए अण्णत्थ कल्वइ मण अकरमाणे उभओकाल आवम्मय करेति, से त लोगुत्तरिय भावावस्मय से त नो आगमतो भावावस्मय से त भावावस्तय (अनुयोगद्वार )
श्रमण अथवा श्रमणी श्रापक अथवा श्राविका जो सामायिक आदि आवश्यक कियाओं को तच्चित होकर ( उनमें ही चित्त लगाकर ) तनन होकर उनमे ही अन्त करणको एकाग्ररत्यादि सूत्र कति विधिके अनुमार दोनों बालों मे करतेहें वह उनका कार्य नो आगम की अपेक्षा से लोकोत्तरिक भाव आवश्यक है । ये सामायिक आदि क्रियाएँ अवश्य करने योग्य होने से आवश्यक है । कर्त्ता का उनके अर्थ में उपयोग रूप एव श्रद्रा आदि रूप परिणाम का मद्भान होने से उनमें तदज्झबसिए तत्तित्र्वज्झनसाणे तदट्ठोपउत्ते तदपि करणे उभारणाभावि जगत्थ कत्थ मण करेमाणे उभोकाल आसय करेंति मे त ठोगुत्तरिय भावावस्सय, से त नो आगमतो भावावस्य मे त भावा (अनुयोगद्वार ) ।
શ્રમણ અથવા શ્રમણી શ્રાવક અથવા ગાવિા જે સામાયિક નોક આવ ત્યક ક્રિયાને તશ્ચિત્ત થઇને ( તેમનામા મન પાવીને ) તબ્બીન 4 મે તેમનામા જ મન લગાવીને વગેરે સૂત્રમા થિતનિધિ જમ અને વતે કર છે તેમનુ તે કાય ના આગમની અપેક્ષાએ લેટેનરિક વ છે. આ સામાયિક વગેરે ક્રિયાએ અવય વા યે વાત બ કોંના તેમના અર્થમા ઉપયેારૂપ પાિનને વવ વી ધ भावता पशु छे स्नेहश्या भूमि वगेरेनु प्रभा
2214
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
૧૬૬
ras
योगरूपो देश आगम, करशिरः योगादिपापो देदास्तु नोबागम, तथा च दैशिकागमामानमाश्रित्य नी आगमत्यमपि
नोशन्दस्याचापि देशनिष
Aish
धपरत्वात् ।
लौकिक कुमानि च नोभागमतो भावावश्यक न धर्मपत्यम्, तत्र जिनाशाया अभावादिति नोभ्यम् ।
"
अथ किं लोकोतरिक नोभागमतो भावावश्यकम् ? उच्यते अनुयोगद्वारे । जग इमे समणे वा समणी नासानओवा सावियाना तच्चिते तम्मणे अपेक्षा से वह भावता और एकदश से आगमता भी है। क्योंकि हाथों का जोडना नमस्कार करना आदि रूप जो भी क्रियाएँ है वे मघ नो आगम हैं । इस अपेक्षा इनमें पूर्णरूप से आगमपना न होकर आगम की एक देशता ही है चरक चीरकादि द्वारा मान्य ग्रन्थों की निर्दिष्ट क्रियाओं का ही वहा सा है और उन्ही के अर्थ मे उनका उपयोगादिरूप परिणाम है। इसलिये ये मन चरक चीरकादि की क्रियाएँ नो आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक है । यहा पर भी नो शब्द देश निषेध परक है अर्थात् आगम के एक देश का वाचक है ये लौकिक और कुप्रावचनिक जिन्हें नो जागम की अपेक्षा से भावावश्य करूप में प्रकट किया गया है धर्मपद के वाच्य नहीं है । क्यों कि इन की आराधना से जीरो के कर्मो की निर्जरा नही होती है । अत तीर्थ कर प्रभु ने इनके आरावन करने की आज्ञा प्रदान नहीं की है।
नो आगम की अपेक्षो से लोकोत्तरिक भाव आवश्यक इस प्रकार એકઢેરાથી આગમતા પણ છે કેમકે હાથ જોડવા, નમસ્કાર કરવા વગેરે રૂપ જે ક્રિયાઓ છે તે સર્વે ને!આગમ છે. આ દૃષ્ટિએ એમનામા આગમતા સ પૂર્ણ પણે નથી ફકત આગમની એકદેશના જ છે. ચરક ચીકિ વગેરે વડે માન્ય ગ્રંથોની નિર્દિષ્ટ ક્રિયાએના જ ત્યા સદૂભાવ છે અને તેમના જ અથમા તેમના ઉપયેાન વગેરેરૂપ પરિણામ છે. એટલા માટે આ પધા ચરક ચીરિકા વગેરેની ક્રિયાઓ ને આગમની અપેક્ષાથી ભાવ આવશ્યક છે અહી પણ ના શબ્દ દેશનિષેધ પરક છે એટલે કે આગમના એકદેશના વાચક છે આ લૌકિક અને કુપ્રાવચનિકો જેમને ના આગમની એ ભાવાવશ્યક રૂપમા પ્રગટ કર વામા આવ્યા છે-ધર્મપના વાસ્થ્ય નથી કેમકે એમની આરાધનાથી જીવાના કર્મીની નિર્જરા થતી નથી, એટલા માટે તીર્થંકર પ્રભુએ એમને આરાધવાની આજ્ઞા કરી નથી
ના આગમની અપેક્ષાએ લેાકેાન્તરિક ભાવ આવશ્યક આ પ્રમાણે છે जण इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविया वा तच्चिते तल्ले से
-
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधाम्रापिणी टीका ETo F द्रौपदीचचर्चा उल्लेसे ताज्यामिप तनियशरमाणे तो उत्ते तदपियकरणे तभानमा भाविए अगत्य सत्य मण गरेमाणे उमाल आवास करेट, से त लोगु तरिय भागास्सर, से त नोनागमतो भाषाम्सय, से त भाषासम्सय ॥'
छाया-यताप्लु अमणो पा अमणी पापाको वा पारिका पातचित्तस्तन्मनमस्तल्लेश्यस्तट पारितन्ततीना-यवसायत्तदर्योपयुक्तम्तदातरणरतद्भावनाभावित अन्चन कुत्रचिन्मन्गेजर्मन उमरकाल यत् आवश्यक सामायिकादि करोति तेपां तल्लोकोत्तरिक भावाश्ययम् । तेपा तदु नोआगमतो भानावश्यकम् तदेतनावश्यकम् ।
भाग्यवश्य करणीरत्वादारश्या , तदर्थोपयोगदादिपरिगामन्य गनाबाद मावत्यम् , रजो रणपमानिमाव्यापारयथारातिस्पन्दनकरणानन्तर समिति है-जण्णा इमे ममणे वा ममणी चा सारओ चा साथिया था तचित्ते तम्मणे तल्लेसे तदामि तत्तिवाससाणे तदवोपउत्ते तदपिभकरणे तवभाउणामाविप अपणत्य कत्या मण अकरमाणे उभओकाल आवमय करति, से त रोगुत्तरिय भावावस्सय, ले त नो आगमतो भावावस्मय से त भावावस्मर (अनुयोगबार)
श्रमण अथवा श्रमणी प्रारक अथवा प्राविका जो सामायिक आदि आवश्यक क्रियाओ को तचिन शेकर ( उनमें ही चित्त लगाकर ) तन्नन होकर उनमे ही अन्त करणको एसाग्रसर इत्यादि सूनमे कथित विधिके अनुमार दोनों कालों में करतेह वह उनको कार्य नो आगम की अपेक्षा सलाकोत्तरिक भाव आवश्यक है। ये सामायिक आदि क्रियाएँ अवश्य करने योग्य होने से आवश्यक है। कर्ता का उनके अर्थ में पप स्प एच आना आदि रूप परिणाम का मद्धार होने से उनमें सासिए तत्तिव्यज्झरसाणे तदोपउत्ते तदप्पिारणे तब्भावणाभापिए त्य पत्थड मण करेमाणे उभओकाल आवम्सय करेंति, से त लोगुत्तरिय सय, स त नो भागमतो भावावस्सय, से त भाषाम्सय (अनुयोगद्वार)। એમણ અથવા શ્રમણી શ્રાવક અથવા શ્રાવિકા જે સામાવિક વગેરે આવા કિયાએને તચિત્ત થઈને (તેમનામાં મન પરોવીને ) તcલીન વડને મા જ મન લગાવીને વગેરે સત્રમા કથિત વિધિ - ૫ અ ને વખત ' તેમનું તે કાર્ય ને આગમની અપેક્ષાએ લેકોરિક ભાવ આવક - સામાયિક વગેરે કિયાઓ અવશ્ય કરવા ચોગ્ય હોવાથી આવશ્યક છે - તેમના અર્થમાં ઉપપ પરિણામનો સદભાવ હોવાથી તેમનામાં * છે જેહરણથી ભૂમિ વગેરેનું પ્રમાર્જન કરવુ, વદના વગેરે કૃતિ
भावार
છે આ સામાયિક
ભાવતા પણ છે જેહરણી '
Page #542
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
mamminen
माताधर्मका पद्रविधायपकरणर पायाः क्रियाया अनागम गत नोभागमय मेयम् अत्रापि
नो-गदपगा: मविरोधात्यात् । इदम् ओसारिक नो आगमतो मात्र इयक धर्मपदपा पान पिपराया भगतो भातारा:महारान् । अन्येऽपि धर्मक्षणमेरमा -
" मादरिद्राग-दनुपात गोपिनम् ।
मेव्यादिमागममि तदम इति कर्पते ॥ १ ॥ भारता भी है रसोरण से भूमि आदि का प्रमार्जन करना, बदना आदि कृति फर्म करना आदि विधि पूर्वक जो पर विर आवश्यक करने रूप फ्रिया सय किरिया आगमो नद" इस नियम के अनुमार आगमन अत इन में आगम के गरु देश अभाव की अपेक्षा से नो आगमता है। यहां पर भी नो पद सम्पूर्ण रूप से आगमका प्रतिपेपन र उसके एक देग काही प्रतिपेयक है। अन घे सामाजिक प्रालि पनि आवश्यक नोआगम की अपेक्षा से लोकात्तरीक भार आप है' और इनके री आराधन करने की जिनेन्द्र देवने मर जीवों को आज्ञा दी है। कारण कि ये धर्मपट के वाच्य है की आराधना से मन्यजीवों के कर्मों की निर्जरा होती है। दमरों ने भी पम प्रकार धर्म का लक्षण नहा है
वाचनादविद्वापानुष्ठान यथोदितम् ।
मेगानिमारममित्र तदुर्म इति कीत्यं ते ॥ કર્મ આચ વા વગેરે વિધિપૂર્વક જે કવિધ આવશ્યક કરવારૂપ ક્રિયાઓ છે तेसेस "किरिया आगमो न होई" मा नियम भुषण मागम नयी टस માટે એમનામાં આગમન એકદેશ અભાવની અપેક્ષાથી ને આગમતા છે અહી પણ નો શબ્દ સ પૂર્ણ રૂપથી આગમન પ્રતિષેધ પરત નથી પણ તેના એકદેશને જ પ્રતિષેધક છે એટલા માટે સામાયિક વગેરે આ વિધ આવ શ્યા નો આગમની અપેક્ષા એ લેકોરિક ભાવ આવશ્યક છે અને જિને દ્ર દેવે એમની આરાધના કરવાની જ ભવ્ય અને આજ્ઞા કરી છે કે આ બધા ધમપ ના વાશ્ય છે એમની આરાધનાથી ભવ્ય જીના કર્મોની નિજરે થાય છે
એ પણ આ રીતે ધર્મનું લક્ષણ બતાવ્યું છે।५ विरुधन यथोदितम् ।।
भासमिन तद्धर्म इति कोय॑वे ।।
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधामृतवपिणी टोका १0 १६ द्रौपदीची
___ ३६९ अस्यव्यारया वचनादिति ब्यालोपे पञ्चमी, वचनमनुसृत्येत्यर्थः । वचनम् = अमागः । कीदृशाद वचनादिन्या'- अनिरुद्धात्-यपछेदतापेषु अविघटमानात , तत्र विधिप्रतिपेपयोलिनोपर्ण पशुदि', परे पटे तद्योगक्षेमकारिकियोपदर्शन छेदद्धिः, निधिपतिपेवतद्विषयाणा जीपादिपदार्थाना च स्याद्वादपरीक्षया याधात्म्येन समर्थन नापशुद्धि । तन्वाविरुद्ध पचन जिनप्रणीतमेश, निमित्तशृद्धेः __अविरुद्ध आगम से चयादित एव मैत्री आदि भावनाओ से मिश्रित
जो अनुष्ठान र धर्म है। पिष्टार्थ-वचन शब्द का अर्थ आगम है। आगम में अविस्तृता कप, ताप, और छेद द्वारा परीक्षित होने पर ही आती है। जिस प्रकार सुवर्ण की परीक्षा कप-कमोटी पर करने से ताप-भग्नि मे तपाने से और छेद छैनी वगैरह द्वारा काटने से होती है, उसी प्रकार आगन की शुद्धि की परीक्षा भी इन तीन उपायों द्वारा की जानी है। विधि और प्रतिपेव का घरलता से जिस शास्त्र में वर्णन है, वह शास्त्रकप से शद्ध करा जाता है। पट पद पर जिस शास्त्र में उनके योग और क्षेमकरि क्रियाओ का कथन किया गया मिलता है यह शाला छेदसे शुद्धमाना जाता है। विधि एव प्रतिपेध तथा इन के विषयभूत जीवादिक पदार्थो का स्याडाद ढग से जहा पर यथार्थ समयन किया जाता है सप्तभगी द्वारा जहा पर उनका सुन्दर शैली से विवेचन करने में आता है वह शास्त्र तप उपायद्वारा शुद्ध माना जाता
અવિરુદ્ધ આગમથી ચદિત અને મિત્રી વગેરે ભાવનાઓથી મિશ્રિત જે અનુષ્ઠાન છે તે વર્મ છે ૫છા–વચન શબ્દને અથ પગમ છે આગ મમાં અવિરુદ્ધતા, પ, તાપ અને છેદ વડે પરીક્ષિત થયા પછી જ આવે છે જેમ સોનાની પરીક્ષા કષ-સેટી ઉપર સવાથી તા૫ અગ્નિ ઉપર તપાવવાથી અને છેદ-છીણી વગેરેથી કાપવાથી હોય છે, તેમજ આગમની શુદ્ધિની પરીક્ષા પણ આ ત્રણે ઉપ વડે કરવામાં આવે છેવિધિ અને પ્રતિષેધનું મોટા પ્રમાણમા જે શાસ્ત્રમાં વર્ણન છે, તે શાસ્ત્ર કષથી શુદ્ધ કહેવાય છે ડગલે ને પગલે જે શાસ્ત્રણ એમને રોગ અને સેકરિ યિાઓનું કથન કરવામાં આવ્યું છે તે વાસ્ત્ર છેદથી થદ્ધ માનવામાં આવે છે વિવિ અને પ્રતિષેધ તેમજ એમના વિયભૂત જીવ વગેરે પદાર્થોને સ્થાવાદના રૂપથી ક્યા યથાર્થ વર્ણન કરવામાં આવે છે, મHભગી વડે જ્યા સુદર રૌલીમાં એમનું વિવેચન કરવામાં આવે છે, તે શાસ્ત્ર તપ ઉપાયવડે શુદ્ધ માનવામાં આવે છેઆ ત્રણે
छा४७.
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
मामाको पइविधायककरणस्पाया क्रियाया अनागम गत नोभागमन्त्र गोयम् , अापि नो-गदम्य देशनः मनिपधारवान । उदग लोकोरिक नो आगमतो भावार श्यक धर्मपदयाच्यम् नन पिगतया भगतोऽर्डर आ गहागन् । अन्येऽपि धर्मलक्षणमेपमाहु'--
" रचनादविरुद्वाय-दनुठान यथोपिनम् । मैयादिभाषममिश्रं तद्धर्म इति यीयते " ॥ १ ॥ भावता भी है रजोहरण से भूमि आदि का प्रमार्जन करना, बदना आदि कृति कर्म करना आदि विधिपूर्वक नो पद विध आवश्यक करने रूप क्रिया : वेनर "फिरिया आगमो न हो" हम नियम के अनुमार आगम नही है। अत इन में आगम के एक देश अमात्र की अपेक्षा सेनो आगमता। यहां पर भी नोट सम्पूर्ण रूप से आगमका प्रतिपेर पनि होकर उसके एक देश काही प्रतिपेरक है। अन घे मामायिक आदि पनि आवश्यक नोआगम की अपेक्षा लोकोत्तरीक भाव आवश्यक है, और इनके ही आराधन करने का जिनेन्द्र देवने भन्य जीवों को आज्ञा दी है। कारण कि ये धर्मपद के वाच्य है इनकी आराधना से भन्यजीवों के कर्मो की निर्जरा होती है। दूमरों ने भी इस प्रकार धर्म का लक्षण नहा है
वाचनादविरुद्धायदनुष्ठान यथोदितम् ।
मेगानिभारसमित्र तदर्म इति कीयते ॥ કર્મ આચ વા વગેરે વિધિપૂર્વક જે કવિધ આવશ્યક કરવારૂપ ક્રિયાઓ છે त म स "किरिया आगमो नहो" मा नियम भुस मागभ नथी मटका માટે એમનામાં આગમના એકદેશ અભાવની અપેક્ષાથી ના આગમતા છે અહીં પણ નો શબ્દ સ પૂર્ણ રૂપથી આગમને પ્રતિષેધ પરક નથી પડ્યું તેના એકદેશને જ પ્રતિષેધક છે એટલા માટે રસ માયિક વગેરે આ પવિધ આ શ્યક ને આગમની અપેક્ષા એ લોકોત્તરિક ભાવ આવશ્યક છે અને જિનેન્દ્ર દેવે એમની આરાધના કરવાની જ ભવ્ય જીને આજ્ઞા કરી છે કમકે આ બધા ધર્મપ ના વાશ્ય છે એમની આરાધનાથી ભવ્ય જીવોના કમની નિર્જરા થાય છે બીજાઓએ પણ આ રીતે ધર્મનું લક્ષણ બતાવ્યું છે –––
वाचनादविरद्धाद्यदनुष्ठान यथोदितम् ।। मैच्यादि म क्समिश्न तद्धर्म इति कोय॑वे ।।
Page #545
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा कारणस्वरूपानुपियायि कार्य, तन्न दुष्टकारणाऽऽरव्य कार्यमदुष्ट भवितुमर्हति, निम्नीमादिक्षु यप्टिरिवेति । अन्यथा-कारणव्यवस्थोपरमप्रसङ्गात् । __ यच्च-यहच्छापणयनमत्तेषु तीर्थान्तरीयेषु रागादिमत्स्वपि घुणाक्षरोकिरण रागदेपमोहरूपान् अन्तरगरिपून् इति जिनः" राग द्वेष आदिक जो अन्तरग शत्रु है इन पर जिसने विजय पायी है वे ही जिन कहलाते है जिस प्रकार तपन (सूर्य) दहन (अग्नि) आदि शब्द ययोनाम तथा गुण वाले हुआ करते है, इसी प्रकार “जिन" यह नाम भी यथा नाम तथा गुण वाला है यथा नाम तथा गुण का होना ही नाम की सार्थकता है। जिन्हों ने इन अन्तरग शत्रुओं को परास्त नहीं किया उनके वचनो में परस्पर अविरुद्धार्थता नही आसकती है-क्यो कि वहा पर निमित्त की शद्धि नहिं हैं। इसीलिये अजिन प्रणीत वचन अविस्द्ध नहीं होते हैं। लोक में भी जिस प्रकार नीम के बीज से इक्षु की उत्पत्ति देखने में नहीं आती उसी प्रकार सदोप कारण से उत्पन्न हुभा कार्य भी निर्दोष नहीं होता है । कार्य में निर्दोपता कारण कि निर्दोपता पर आधार रग्बती है। न्याय शास्त्र का भी यही सिद्धान्त है "कोरण स्वस्पानुविधायि कार्य" कि कार्य, कारण के स्वरूप का अनुविधायक होता है। यदि इस प्रकार की व्यवस्था न मानी जावे तो फिर कार्य कारण भाव की व्यवस्था ही नहीं बन सकती है। हर एक पदार्थ "जयति रागद्वेपमोहरूपान् अतर गरिपून् इति जिन " रागद्वेष कोरे र અતર ગ શત્રુઓ છે તેમના ઉપર જેમણે વિજય મેળવ્યું છે તે જ જિન કહેવાય છે જેમ તપન (સૂર્ય) દહન (અગ્નિ) વગેરે શબ્દો નામ જેવા જ ગુણવાળા હોય છે, તે પ્રમાણે જ “જિન” આ નામ પણ નામ પ્રમાણે જ ગુણવાળું છે એવું નામ તેવા ગુણે હેવા એ જ નામની સાર્થકતા છે જેમણે આ અતર ગ શત્રુઓને હરાવ્યા નથી તેમના વચનોમાં પરસ્પર અવિરુ દ્વાર્થતા આવી શકતી નથી કેમ કે ત્યા નિમિત્તની શુદ્ધિ નથી એટલા માટે અજિન પ્રણીત વચનો અવિરુદ્ધ હોતા નથી લેકમા પણ જેમ લીમડાના બીજથી શેરડીની ઉત્પત્તિ જોવામાં આવતી નથી તેમજ સદેષ કારણથી ઉત્પન્ન થયેલું કાર્ય પણ નિર્દોષ હેતુ નથી કાર્યમાં નિર્દોષતા કારણની નિર્દોષતા ઉપર આધારિત હોય છે न्यायाने ५ मे सिात छ, “ कारणावरूपानुविधायिका" : आय ४१२ યુના સ્વરૂપને અનુવિધાતા હોય છે જે આ જાતની વ્યવસ્થા માનવામાં આવે
Page #546
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
३७०
जाताधर्मकथा वचनस्य डि वक्ता निमित्तमन्तरङ्गम् , तस्य परागपमोहपारगन्यमशुद्धिः, तेभ्यो वितथपचनप्रत्ते, न चेपाऽशुद्धिर्जिने भगाति, जिनवनिरोधात् , जयति रागद्वेष मोहरूपान्तरज्ञान रिपूनिति शब्दार्यानुपपत्ते. तपनदानादिशात् , अन्वर्थतया चास्याभ्युपगमात् , निमित्तशृदयभागाद् नाजिनमणीतपचनमविगद्धम् । यतहै । इन तीनों उपायों से परीक्षित आगम ही परिशुद कहा गया है। अविरुद्व वचन का नाम ही आगम है। __इन कपादिकों से जो आगम में शुद्धता आती है उसका कारण निमित्त की शुद्धि है। निमित्त शुद्ध जिन प्रणीत वचन ही हैं। अन्य प्रणीत वचन नहीं। निमित्त में भी शुद्धि का कारण राग, उप और मोह का अभाव है। बचने का अन्तरग कारण वक्ता ही हुआ करता है वक्ता की प्रमाणता से ही वचन-ओगम में प्रमाणता आती है इसी लिये राग द्वेष आदि से कलुपित व्यक्तियों के वचन प्रमाण कोटि में नहीं आते हैं। क्यों कि राग ढेप आदिक सद्भाव में वचनों में परस्पर विरुद्ध अर्थ की प्ररूपकता स्वय ही आ जाती है अत: यह निश्चित सिद्धान्त है कि जहां पर इनका सर्वथा अभाव है वही सच्चा आगम का प्रणेता हो सकता है। और उसी आगम में अविद्वता है। ऐसा अवि. रुद्ध आगम जिन प्रणीत ही हो सकता है क्यो कि उनमें पूक्ति राग द्वेष आदि द्वारा अशुद्धि का सर्वथा अभाव हो चुका है इस के सवेथा दर होने से ही वे " जिन" इस प्रकार की सज्ञा वाले रए हैं। "जयर्यात ઉપાથી પરીક્ષિત આગમ જ પરિશુદ્ધ કહેવામાં આવ્યો છે અવિરુદ્ધ વચનનું નામ જ આગમ છે કષ વગેરેથી આગમમાં જે શુદ્ધતા આવે છે તેનું કારણ નિમિત્તની શુદ્ધિ છે જિન પ્રણીત વચનો જ નિમિત્તશદ્ધ છે બીજાઓ વડે પ્રણીત વચને નહિ નિમિત્તમાં પણ શુદ્ધિનું કારણ રાગ દ્વેષ અને મહિને અભાવ છે વચનનું અતર ગ કાણુ બોલનાર જ હોય છે બેલનાર (વક્ત) ની પ્રમાણુતાથી જ વચન-આગમમાં પ્રમાણતા આવે છે એટલા માટે જ રાગ
વગેરેથી કલુષિત માણસોના વચન પ્રમાણે કટિમાં આવતા નથી કેમકે રાગદ્વેષ વગેરે સદુભાવ વચમાં પરસ્પર વિરુદ્ધ અર્થની પ્રરૂપતા જાતે જ આવી જાય છે એટલા માટે આ નિશ્ચિત સિદ્ધાત છે કે જ્યાં એમને સંપૂર્ણ અભાવ છે તે જ સાચા આગમન પ્રણેતા થઈ શકે છે અને તે આગમમાજ અવિરુદ્ધતા છે એવું અવિરુદ્ધ આગમ જિનપ્રણીત જ થઈ શકે છે કેમકે તેમનામાં પૂર્વોક્ત રાગદ્વેષ વગેરે વડે અશુદ્ધિ અપૂર્ણપણે અભાવ થઈ ચૂક છે અશુદ્ધિ સર્વ રીતે મટી જવાથી તેઓ “જિન” સંજ્ઞા
Page #547
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मापी टो० अ० १६ द्रौपदीचच
३३
7
की मनुष्ठान धर्म इत्याह-' प्रयोदितम् ' यथा येन प्रकारण कारावा राजनानुसाररूपेण - उदित=मतिपादित, नैनिरुद्धवचने इति गम्यम् ।
अन्यच-
जो जहनाय न कुण, मिच्छादिट्टी तो उ को नो । वढे मिन्टत्त परस्त सक जणेमाणो || इति ।
छाया - यो यथावाद न करोति, मिध्यादृष्टिस्वतस्तु कोऽन्यः । वर्धयति मिथ्यात् परस्य शङ्काजनयन् ॥ इति ।
**
33
पुनरपि कीदृशमित्यार - ' मंत्र्यादिभाव समित्रम् ' इति । मेध्यादय: = मैत्री मुदिता करुणा मान्यरवलवणा ये भावाः = अन्त. मरणपरिणामा, तत्पूर्वका न्याय से करी २ अविरुद्ध अर्ज प्रतिपादकता सो वह उनकी निज की घर की वस्तु नही है उसका मूल सोत अविरुद्ध अर्थ का प्ररूपक जिन प्रणित आगम ही है । यही नात मार्गानुसारी बुद्धिवाले व्यक्ति मे भी समझ लेनी चाहिये | वह जो कुछ नी सत्यार्थ करता है उसका मूल कारण जिनप्रणीत आगन का महारा ही है । श्लोक कथित “यथोदित" पद इस बात का समर्थन करता है कि देश काल आदि की आराधना के अनुसार जो आचार-अनुष्ठान प्रतिपादित किया गया है। उससे जो अविरुद्व कहा गया है - वही धर्म हे इससे विपरीत नही । 'मैत्र्यादि भाव समिश्रम् इस पद द्वारा सूत्रकार यह प्रतिपादित करते है कि वर अनुष्ठान मैत्री, मुदिता, करुणा और माध्यस्य इन चार लक्षणों से युक्त होता है । ये धर्म के बाह्य चिह्न है । इनके सहाय से आत्मा मे અર્થ પ્રતિપાદકતા પણ છે તે તેમની પેાતાની વસ્તુ તે નથી જ કેમકે તેના મૂળિયા તે1 અવિરુદ્ધ અર્થના પ્રરૂપક જિનપ્રણીત આગમમા જ છે એ જ વાત માર્ગાનુસારી બુદ્ધિવાળી વ્યક્તિમા પણ સમજી લેવી જોઈએ તે જે કઈ પશુ સત્યાર્થ કહે તેનુ મૂળ કારણ જિન પ્રણીત આગમ જ કે બ્લોક કથિત · ચચાદિત ” પદ આ વાત ને સ્પષ્ટ કરે છે કે દેશકાળ વગેરેની આરાધના મુજબ જે આચાર—નુષ્નન પ્રતિપાદિત કરવામા આવ્યા છે, તેનાથી જે અવિરુદ્ધ કહેવામા આવ્યુ છે તે ધમ છે એનાથી વિપરીત નહિ भाव समिश्रम् આ પવડે સૂત્રકાર આ વાત સ્પષ્ટ કરે છે કે તે અનુષ્ઠાન ચૈત્ર, મુદિતા, કરુણા અને માધ્યસ્થ આ ચાર લક્ષણૈાથી યુક્ત હાય છે આ બધા ધર્મોના બાહ્ય ચિન્હો છે. એમના સદ્ભાવથી આત્મામા ધનુ અસ્તિત્વ
मैत्रयादि
,
८८
Page #548
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
प्रांताधर्मष थाने व्यवहारेण क्वचित् किंचिदपिद्धपि चनमुपर पते, मार्गानुसारिबुद्धौ वा माणिनि यचित् । तदपि जिनमणीतमेश, तन्मूलकत्वात् तम्य । हर एक का कार्य और कारण हो जायगा। अतः आगमम्प कार्य की शुद्धि के लिये निमित्त रप कारण शुद्धि का रोना अवश्य आवश्यकीय माना गया है।
प्रन-आपने जो कहा कि आगम में अविद्वता उसके कारणभूत प्रणेता के अधीन है-मो यह बात में मान्य है। परन्तु इससे यह यात तो सिद्ध नहीं होती है कि वे अविरुद्ध वचन जिन भगवान के ही है' अन्य के नहीं-कारण कि अन्य सिद्धान्तकारों के वचनों में भी किसी अशसे अविसद्वार्थता देवी जाती है। अत. उन्हें सदोप मान कर आप जो उनमें अनाप्तता सिद्ध करते है नो यर यात कैसे मान्य हो सकती है?
उत्तर-शका तो ठीक है-परन्तु विचार करने से इनका उत्तर भा सहजरूप में मिल जाता है। अन्य सिद्वान्तकारो ने जो कुछ रचनाए की हैं-वे सब उन्हों ने अपनी इच्छानुसार ही की है। अपनी निज कल्पना में जो कर उन्हें सूझा वही उन्होंने लिखा है। उनकी रच नाओ में पूर्वापर विरोध स्पष्ट प्रतीत होता है इससे उनमें रागादिक दोपों का अस्तित्व सिद्ध होता है । अब रही उनके वचनों में धुणाक्षर નહિ તે કાર્ય કારણ ભાવની વ્યવસ્થા બની શકે તેમ નથી દરેક પદાર્થ કરે કનુ કાર્ય અને કારણ થઈ જશે એટલા માટે આગમરૂપ કાર્યની શુદ્ધિ માટે નિમિત્તરૂપ કારણ શુદ્ધિ થવી ચોક્કસપણે આવશ્યકીય માનવામાં આવી છે
- પ્રશ્ન –- તમે કહ્યું કે આગમમાં અવિરદ્ધતા તેના કારણભૂત પ્રણ આધીન છે–એ વાત એમને માન્ય છે પણું એનાથી આ વાત તે સિદ્ધ થવા નથી કે તે અવિરુદ્ધ વચને જિન ભગવાનના જ છે, બીજાઓના નહિ કેમક બીજા સિદ્ધાતકારોને વચનમાં પણ કોઈ પણ અશે અવિરુદ્ધાર્થતા જોવામાં આવે છે એટલા માટે તેમને દોષયુક્ત માનીને તમે જે તેમનામાં અનાપ્તતા સિદ્ધ કરે છો આ વાત કેવી રીતે માન્ય થઈ પડે તેમ છે !
ઉત્તર -કાકા તો ઠીક છે, પણ વિચાર કરવાથી આને જવાબ પણ સરળ રીતે મળી શકે તેમ છે બીજા સિદ્ધાતનાએ જે રચના કરી છે તે બધી તેમણે પોતાની ઈચ્છા મુજબ જ કરી છે પિતાની કલ્પનાથી જે કઈ તેમને ચાગ્ય લાગ્યું કે તેમણે લખ્યું છે તેમની રચનાઓમાં પૂર્વાપર વિરોધ પષ્ટ રીતે દેખાઈ આવે છે એનાથી તેઓમા રાગ વગેરે દોષો છે એવી વાત સિદ્ધ થાય છે હવે ઘુણાક્ષર ન્યાયથી કઈક કોઈક સ્થાને તેમના ખ
Page #549
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतपणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
पञ्चमी, तथा च वचनप्रयोज्यप्रवृत्तिरत्व लक्षणमिति न कुनाप्यव्याप्तिदोपावराशः मीति भक्त्यसद्गानुष्ठानानामपि वचनप्रयोज्यत्वाऽनपायादिति ।
किं च-- हिंसादिपापपरिहारो धर्मसिद्धेर्लिङ्गमित्यार्हता स्वीकुर्वन्ति । तथा चोक्तम्
औदार्य दाक्षिण्य पापजुगुप्साऽथ निर्मलो नोधः ।
लिङ्गानि धर्मसिद्धेः प्रायेण जनमियल च ॥ इति ।
"
पापजुगुप्सा=पापपरिहारः ।
३७५
पकाधमाध्य प्रतिमापूजन कुर्वता धर्मसिद्धि कध स्यादिति विचारयन्तु
सुधिय । अपर च
-
प्रतीत नहीं होता है क्योंकि वचनानुष्ठान धर्म का अर्थ वचन के अनुसार होने वाला अनुष्ठान धर्म है उसमें कोई जातका दोप नहीं आता है । "
f
है
किंच हिंसादिक पांच पापों का परित्याग वर्म सिद्धि इस प्रकार की मान्यता जैनियों की है। शास्त्रान्तर में यही बात प्रकट की गई है
औदार्य दाक्षिण्य पापजुगुप्साऽथ निर्मलो वोधः ।
--
लिङ्गानि धर्ममिद्धे प्रायेण जनप्रियत्य च ॥ ( पोडश-ग्रंथ ४ प्रकरण) उदारता - हृदय की विपालता, दाक्षिण्य - सर्व जीवो के अनुगल प्रवृत्ति, पापजुगुप्सा- पाप का परित्याग, निर्मलबोध-तत्त्वज्ञान, और जनयित्व ये ५ धर्मसिद्धि के लक्षण हैं । अब यहा पर विचारने की बात यह है कि जब पाप का परिहार करना यह धर्मसिद्धि का लक्षण આવસ્યકતા જણાતી નથી કેમકે વચનાનુષ્ઠાન ધર્મના અર્થ વચન મુજબ થનાર અનુષ્ઠાન ધમ છે. આમા ઇ પણ જાતના દોષ નથી
કિચ—હિંસા વગેરે પાચ પાપાને પરિત્યાગ ધમ સિદ્ધિતુ ચિહ્ન છે આ જાતની માન્યતા જૈનીઆની છે શાસ્ત્રા તરમા પણ એ જ વાત સ્પષ્ટ વામા આવી છે
औदार्थ दाक्षिण्य पापजुगुप्साऽय निर्मलो बोध |
लिङ्गानि धर्मसिद्धे प्रायेण जिनप्रियत्व च ॥ ( पोडशप्र य ४ प्रकरण ) ઉદારતા—હૃદયની વિશાલતા, દાક્ષિણ્ય-ખધા જીવાને અનુકૂળ થઈ પડે तेवी प्रवृत्ति, पाय नुगुप्सा याचना त्याग, निर्माण बोध तत्त्वज्ञान, गने જિનપ્રિયત્ન આ પાચે ધમસિદ્ધિના લક્ષણા છે, હવે આપણી સામે આ વાત વિચાર હરાયેાગ્ય છે કે જ્યારે પાપના પરિહાર ફરવા એ વસિદ્ધિનુ લક્ષણ
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
D
s...
.
....
.
......
Parmer e
४.
तामकथा बाहयचेष्टाविशेषाः, ते समिश्र-सयुक्त, मेमादिगाना नि श्रेयसाभ्युदयधर्मम् लत्वेन शास्त्रान्तरेषु प्रतिपादनात् । तत्परिधमनुष्ठान धर्म उति कीत्यते शब्धते सुधीभिरिति ।
नन्वेर रचनाऽनुष्ठान धर्म इति माप्त, तया 7 मीविभक्त्यसङ्गानुष्ठानेष्व व्याप्तिरिति चेन्न-रह तु वचनादित्यत्र पंगत् चिरित्या प्रयोज्यत्वार्थिका धर्म का अस्तित्व जाना जाता है अन्य सिद्धान्तकारों ने भी इ. नि. श्रेयस और स्वर्ग के कारणभूत धर्म का मूल का है । अतः जो आगम से अविरुद्ध है, काल ओदि की आराधना के अनुसार जो आराधित होता है और जो मैत्री आदि चार भावनाओ से गर्मित है ऐसा अनुष्ठान ही धर्म है । ऐसे ही धर्म की जारापना करने का गण धर आदि का आदेश है।
भावार्थ-तीर्थकर कथित आगम के अनुमार होने वाले अनुष्ठान का नाम धर्म है । इसका फलितार्थ यही है कि जिस अनुष्ठान मे तीर्थंकर प्रभु मारा कथित आगम से विरोध नहीं आना है वही धर्म है । तथा च-प्रीति भक्ति और असग रूप अनुष्ठानों में इस लक्षण की अप्राप्ति नही होती है क्योंकि वहा पर भी इस लक्षण का सद्भाव पाया जाता है" वाचनानुष्ठान धर्मः" इस प्रकार के कधन मे "वेदात प्रवृत्तिः" की तरह प्रयोज्य अर्थ में पचमी विभक्ति हई है अत जिस प्रवृत्ति का प्रयोज्य वचन है वह धर्म है। (वचनानुष्ठान धर्म ) यहा से लेकर (प्रीति भक्ति असगानुष्ठान इत्यादि तक) लिखने की आवश्यकता જાણવામાં આવે છે બીજા સિદ્ધાતકારોએ પણ આ બાને નિ શ્રેયસ અને સ્વર્ગના કારણભૂત ધર્મનું મૂળ બતાવ્યુ છે એથી જે આગમથી અવિરુદ્ધ છે કાળ વગરની આરાધના મુજબ જે આરાધિત હોય છે અને જે મૈત્રી વગેરે ચાર ભાવનાઓથી યુકન છે એવું અનુષ્ઠાન જ ધર્મ છે એવા જ ધર્મની આરાધના કરવા માટે ગણધર વગેરેનો આદેશ છે
ભાવાર્થ –તીર્થંકર કથિત આગમ મુજબ આચરાયેલા અનુષ્ઠાનનું નામ ધર્મ છે એને અર્થ આ પ્રમાણે ફવિત થયે છે કે જે અનુષ્ઠાનમા તીર્થંકર પ્રભુ વડે કથિત આગમથી વિરોધ જણાતું નથી તે જ ધર્મ છે તેમજ પ્રીતિ, ભક્તિ અને અસ ગ રૂપ અનુષ્ઠાનમાં આ લક્ષણની અપ્રાપ્તિ પણ હોતી નથી भ या प म सक्षएन। समाप भणे छ “ वाचनानुष्ठान धर्म " भा जतना ४थनमा " वेदात प्रवृत्ति । ना २ प्रयोय. अर्थमा ५यभी विla थ छ मेरा भाटे २ प्रवृत्तिनु प्रयाय क्या छ त धर्म छ (वचना नुष्ठान धर्म ) माथी भान प्रीति भक्ति असगानुष्ठान पोरे ' -भवानी
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७५
अमगारधर्मामृतपणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा पञ्चमी, तथा च-पचनप्रयोज्यप्रवृत्तिमत्त्व लक्षणमिति न कुत्राप्यव्याप्तिदोपावकाशः प्रीतिभक्त्यसद्गानुष्ठानानामपि वचनप्रयोज्यत्वाऽनपायादिति ।
कि च--हिंसादिपापपरिहारो धर्मसिद्धेलिङ्गमित्याहता' स्वीकुति । तथा चोक्तम्
औदार्य दाक्षिण्य पापजुगुप्साऽथ निर्मलो बोधः ।
लिङ्गानि धर्मसिद्ध, प्रायेण जनप्रियत्व च ॥ इति । पापजुगुप्सा-पापपरिहारः। पदकायवधमाध्य प्रतिमापूजन कुर्वता धर्मसिद्धि कप स्यादिति विचारयन्तु मुधिय । अपर च-- प्रतीत नहीं होता है बयों कि बचनानुष्ठान धर्म का अर्थ वचन के अनुसार होने वाला अनुष्ठान धर्म है इसमे कोई जातका दोष नहीं आता है।" . किंच-हिंसादिक पांच पापों का परित्याग धर्म सिद्धि का चिह्न है इस प्रकार की मान्यता जैनियो की है। शास्त्रान्तर मे यही यात प्रकट की गई है
_ औदार्य दाक्षिण्य पापजुगुप्साऽध निर्मलो बोधः।। लिङ्गानि धर्मसिद्धेः प्रायेण जनप्रियत्व च ॥ (पोउश-ग्रय ४ प्रकरण)
उदारता-हृदय की विपालता, दाक्षिण्य-सर्व जीवो के अतुल प्रवृत्ति, पापजुगुप्सा-पाप का परित्याग, निर्मलगोध-तत्वज्ञान, और जन प्रियत्व ये ५ धर्मसिद्धि के लक्षण हैं। अब यहा पर विचारने की घात यह है कि जब पाप का परिहार करना यह धर्ममिद्धि का लक्षण આવશ્યકતા જણાતી નથી કેમકે વચનાનુષ્ઠાન ધર્મને અર્થ વચન મુજબ થનાર અનુષ્ઠાન ધર્મ છે આમાં કોઈ પણ જાતને દોષ નથી
કિચ–હિંસા વગેરે પાચ પાપને પરિત્યાગ ધમસિદ્ધિનું ચિહ્ન છે આ જાતની માન્યતા જેનીઓની છે શાસ્ત્રા તરમાં પણ એ જ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે —–
औदार्य दाक्षिण्य पापजुगुप्साय निम लो बोध ।
लिङ्गानि धर्मसिद्धे प्रायेण जिनप्रिवत्व च ॥ ( पोडशम थ ४ प्रकरण) - ઉદારતા–હદયની વિશાલના, દાક્ષિણ્ય-બધા જીવોને અનુકળ થઈ પડે તેવી પ્રવૃત્તિ, પાપ જુગુસા–પાપને ત્યાગ, નિર્મળ બોધ – તત્ત્વજ્ઞાન, અને જનપ્રિયત્વ આ પાચે ધમ સિદ્ધિના લક્ષણે છે, હવે આપણી સામે આ વાત વિચાર ફરવાયેગ્ય છે કે જ્યારે પાપને પવ્હિાર ફરે એ ધર્મસિદ્ધિનુ લક્ષણ
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
माताधर्मकपाल एकेद्रियाम्पिजीवनिकायजीवाना रक्षणं धर्मा मृलमिति तामता पस्कायविराधनासाध्यायाः प्रतिमापूगाया भगीयारे नागर नश्यति, जन धर्मस्य मूलतस्तत्र गमुन्छदात् । ___ तथा चोक्तम्-जीवदयसच्चायण, परधणपरिसज्जण सुसील च।
सती पटियनि-ग्गहो य धम्मग मृलाइ ॥ दर्शनशुद्धि-२ तत्व) है तो प्रति मा का पूजन करने वाले के एसका परिहार कसे हो सकता है। क्योंकि यह पहिले ही प्रकट किया जा चुका है कि यह प्रतिमा पूजन कार्य पद काय के आरभ के पिना साप होती नही ममता। अतः प्रतिमापूजन वाले को धर्ममिति का लाभ मानना यह एक मनग ढन कल्पना ही है-शास्त्रीय कल्पना नहीं। शास्त्र में तो यही जिनेन्द्र देव की आजा है कि एकेन्द्रिय आदि पर निकाय के जीवों की रक्षा करना ही प्रत्येक जैन मात्र का कर्तव्य है, और वही धर्म का मूल है जर इस प्रकार की वीतराग प्रभु की आज्ञा है-तो फिर यह तो सोचो की पनिकाय की विरापना से साध्य इस प्रतिमापूजन की मान्यता में जैनत्व का रक्षण ही कैसे हो सकता है। प्रत्युत जैनधर्म का दम प्रकार की मान्यता मे सम्लत नाश ही हो जाता है।
जी रदयसच्चवयण परधनपरिवजण सुसीलच ।
खनी पचिंदिय निग्गहोय म्मरस मलाइ।। (दर्शन शु२ तत्व) છે ત્યારે પ્રતિમાની પૂજા કરનારાઓ માટે અને પરિહાર કેવી રીતે થઈ શકે તેમ છે, કેમકે આ વાત પહેલા જ પ્રગટ કરવામાં આવી છે કે આ પ્રતિમા પૂજન કાર્ય ષકાયના આરભ વગર સાધ્ય થઈ શકે તેમ નથી એથી પ્રતિમા પૂજનવાળા માટે ધર્મસિદ્ધિનો લાભ સમજી લે આ એક બેટી કલ્પના માત્ર છે. શાસ્ત્રીય કલ્પના નથી રાસ્ત્રમાં તે જિનેન્દ્રદેવની એ જ આજ્ઞા છે કે એકેન્દ્રિય વગેરે ષકાયના જીવોની રક્ષા કરવી જ દરેકે દરેક જૈનનું કર્તવ્ય છે અને એ જ ધર્મનું મૂળ છે જ્યારે આ જાતની વીતરાગ પ્રભુની આજ્ઞા છે ત્યારે આ વાત ઉપર તે વિચાર કરીએ કે શકાય નિકાયની વિરાધનાથી સાધ્ય આ પ્રતિમા પૂજનની માન્યતામાં જૈનનનું રક્ષણ જ કેવી રીતે થઈ શકે છે આ જાતની માન્યતાથી તે જૈન ધર્મને મૂળરૂપે વિનાશ જ થઈ જાય છે
जीपदयसच्चवयण परधनपरिवत्रण मुमील च ।। सती पचि दियनिग्गहोय धम्मस्स मुलोइ ॥ ( दर्श- -तत्त्व)
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणा टीका अ० १६ द्रौपदी चर्चा
३७७
जीवाननादिलिङ्गव्यद्या एकेन्द्रियादय तेषा दया = रक्षणं जीवदयेति । स्वत्व प्राकृतप्रभम् । धर्ममूल भवतीति सर्वन क्रियाऽध्याहारः कार्यः ।
I
प्रतिमापूजन विशुद्धपरिणामन रत्यादुपादेयमिति कथन निर्मूलम् -- धर्माङ्गेषु दयायाः प्रावान्यात् प्राथभ्य वर्तते । हिंसासाम्याया मतिमापूजाया दयाया अभावाद्य न मियति । तथा च विशुद्धात्मपरिणामरूप धर्म प्रति कारणत्व प्रतिमापूजनस्य न सभवति । अन्यन्च
――
इस लोक में यही बात कही गई है। जीवों की दया करना सत्य बोलना, पर धन के हरण करने का त्याग करना, कुशील का त्यागना, क्षमाभाव रखना, पाचों इद्रियों को वश में रसना ये सन धर्म के मूल है । जिस प्रकार विना मूल जड़ के वृक्ष की स्थिति आदि नहीं हो सकती है उसी प्रकार उनके बिना भी धर्मरूपी महावृक्ष की जीवात्मा ओ में स्थिरता नही हो सकती है जो व्यक्ति " प्रतिमा के पूजने से विशुद्ध परिणामो की आत्मा में जागृति होती है " इस बात का समचन करते हुए उपयोगिता सिद्ध करते हैं उनका यह कथन बिलकुल ही निर्मूल है क्योकि में सर्वप्रथम स्थान दया को ही दिया गया है जीवों की हिंसा से साध्य इस प्रतिमापूजन में उस दया का सरक्षण ही नही होता है - इसलिये उसे धर्म का अग कैसे माना जा सकता है जो धर्म का ही अग नहीं बनता है उससे कैसे परिणामो में विशुद्धता की जागृति हो सकती है अतः यह प्रतिमापूजन धर्म प्राप्ति में कारण नहीं है ऐसा मानना चाहिये ।
મધા
આ ટંકમા એ જ વાત ખતાવવામા આવી છે કે જીવ ઉપર યા કરવી, સત્ય ખેલવુ, પારકાના ધનને લઈ લેવાની વૃત્તિને દૂર કરવી, કુશીલને ત્યાગ કરવેા, ક્ષમાભાવ રાખવે, પાચ ઇન્દ્રિયેટને વશમા રાખવી આ ધર્માંના મૂળ છે જેમ મૂળ-જડ વગરના વૃક્ષની સ્થિતિ વગેરે જ થઈ શકે તેમ નથી તેમજ એમના વગર પણ ધ રૂપી મહાવૃક્ષની જીવાત્માઓમા સ્થિરતા થઈ ગડે તેમ નથી જે વ્યક્તિ “ પ્રતિમાના પૂજનથી વિશુદ્ધ પરિણામેાની આત્મામાં જાગૃતિ થાય છે ” આ વાતને ચેાગ્ય માનીને આની ઉપયોગિતા સિદ્ધ કરે છે, તેમનુ આ કથન સાવ નિર્મૂળ-બ્ય છે કેમકે ધર્મોમા સૌ પ્રથમ સ્થાન દયાનેજ આપવામા આવે છે જીવાની હિંસાથી સાધ્ય આ પ્રતિમા પૂજનમા તે દૃયાની રક્ષા જ થતી નથી એટલા માટે આને ધનુ અગ કેવી રીતે માની શકીચે અને જે ધર્મનુ જ અગ થઈ શકતું નથી તેનાથી કેવી રીતે પરિણામેામા વિશુદ્ધતાની જાગૃતિ થઈ શકે એટલા માટે આ પ્રતિમાપૂજન ધ પ્રાપ્તિમા કારણુ નથી આમ માની લેવુ જોઈએ
वा ४८
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाताधर्मपाल धर्मालम्पनानि स्थानानम् भगवा प्राप्तानि-- "धम्म चरमाणस्स पर निस्साठाणा पणता। त जहा-उपाया, गणो, राया, गिडवई, सरीर " ॥ इति ।
भगाता धर्मालम्चनानि पश्चय कथितानि । तत्र "छपाया" इत्युक्त्या गणराजादीनामपि सग्रहे सत्यपि पुनस्तेपापिशिष्योपन्यासः प्राधान्यग्योपनाधेः
अन्यच-"धम्म चरमाणस्स पच निस्साटाणा पण्णत्ता-तजहा-छ काया, गणो, राया, गिवई, मरीर" इति-भगवान ने धर्म के छरकाय, गण, राजा, गाधापति और शरीर इस प्रकार ये छह आलम्बन स्थान स्थानासूत्र में कहे है। इनमें जिन प्रतिमा का कथन नहीं किया है-इससे यर भलीभाति विदित हो जाता है कि जिन प्रतिमा और उसका पूजन धर्म का अवलम्पन रूप नहीं है यदि जिन प्रतिमा का पूजन कार्य धर्म का अवलम्बनरूप सिद्धान्तकारों की दृष्टि में मान्य होता तो वे अवश्य इन स्थानों के कथन करते-जिस प्रकार छहकाय, गण, राजा इत्यादि का कथन किया है। यद्यपि "छकाय" इस एक पद से ही गण,राजा आदि का स्वतः कयन सिद्ध हो जाता है, क्यो की इन सबका समावेश उसी एक पद में हो जाता है। फिर भी इनका भिन्न २ रूप से जो नाम निर्देष किया है उसका कारण ये धर्म के प्रधान आलम्बन रूप हैं इस बात को प्रकट करने के लिये ही किया गया है । इसी प्रकार
सन मा ५ ५घुछे “धम्म चरमाणस्स पच निरसाठाणा पण्णता-त जहा काया, गणो, राया, गिहवई, सरीर " इति, सगवान धना ७ ४ाय, ગણ, રાજા, ગાથાપતિ અને શરીર આ રીતે છ આલ બનસ્થાન સ્થાનાગ સૂત્રમાં કહ્યા છે. આ બધામાં જિન પ્રતિમાનું કથન કરવામાં આવ્યું નથી એનાથી આ સ્પષ્ટ રીતે જણાય છે કે જિનપ્રતિમા અને તેનું પૂજન ધર્મનું અવલ બને નથી જે સિદ્ધાન્તકારની દષ્ટિમાં જિન પ્રતિમાના પૂજનનું કાર્ય ધર્મના અવ લબના રૂપમાં માન્ય હેત તે તેઓ ચોક્કસ આ સ્થાનના કથનની સાથે સાથે તેમનુ પણ કથન જેમ છે કાય, ગણુ રાજા વગેરેનું કથન કર્યું છે તેમ કહ્યું હત જે કે “પાય” આ એક પદથી જ ગણ, રાજા વગેરેનુ સ્વત કથન સિદ્ધ થઈ જાય છે, કેમકે આ બધાને સમાવેશ તે એક પદમાં જ થઈ જાય છે, છતાય આ બધાને સ્વતંત્ર રૂપમાં જે નામ નિર્દેશ કરવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ એ છે કે તે સર્વે ધર્મના પ્રધાન આલબનરૂપ છે, આ વાતને પ્રગટ કરવા માટે જ કરવામા આવ્યો છે આ પ્રમાણે જે ! પણ
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
૩૭૬
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा दर्शनचन्दनपूजनादिना जिनप्रतिमायाः सम्यक्त्वशुद्धिहेतुत्वाऽष्टकर्म क्षयहेतुत्व स्वीकारे तु अस्या अपि निश्रास्थानत्वेन निश्रास्थानेषु विशिष्य तदुपन्यासमकृत्वा "पच निस्साठाणा पणत्ता " इति कथन पिरुध्यते । तस्मात् जिनप्रतिमाया निश्रास्थानेष्वनभिधानात् प्रतिमाया धर्मालम्पनत्व न सिध्यति । एव च तत्पूजन कुशलात्मपरिणामविशेपस्य धर्मस्य कारण नास्तीति विश्वसनीयम् ।
प्रतिमापूजायामारम्भः परिग्रहश्वावश्य भावी । ताभ्या विना पूजाया अस भवात् तथाऽपि-प्रतिमापूजोपदेशकाः एव वदन्ति-- यदि जिन प्रतिमा भी दर्शनवन्दना और पूजादिक द्वारा सम्यक्त्वशुद्धि एव अप्टकों के क्षय का कारण होती तो उसका भी धर्म का आल म्यनरूप होने से यहा पर विशेषरूप से शास्त्रकार को कथन करना चहिये था ! परन्तु ऐसा तो सूत्रकार ने किया नहीं है। फिर भी यदि उसे धर्म का अवलम्पनरूप स्वीकार किया जाय तो इस सूत्र में प्रतिपादित 'पाच ही निवास्थान हैं " इस कथन से विरोध आता है कारण कि उन स्थानों से अतिरिक्त एक और जिनप्रतिमापूजन धर्म का आलम्यन रूप स्थान बढ जाता है अतः 'पच निस्साठाणा पण्णत्ता' इस सूत्र प्रदर्शित उपन्यास से यह यात पुष्ट होती है कि जिन प्रतिमा धर्म को आलम्बन स्थान नही है । यह तो उस के पक्षपातियो के ही दिमाग का एक उटपटाग सूझ है यह जानते हुए भी कि जिनप्रतिमापूजन में आरभ और परिग्रह अवश्यभावी है, इनके विनो वह कथमपि साध्य ही नही सकती है, तो भी जिनपूजाके उपदेशक खेद है कि जनता को દર્શન વન્દના અને પૂજા વગેરે વડે સમ્યકત્વ શુદ્ધિ અને અષ્ટ કર્મોના ફાયનું કારણે હેત તે ધર્મના આલ બનરૂપ હોવા બદલ અહી વિશેષરૂપમાં શાસ્ત્ર વાર વડે તેનું કથન કરવું જોઈએ પણ સૂત્રકારે આવું કઈ કર્યું નથી છતાય છે તેને ધર્મના અવલ બનરૂપે સ્વીકારીયે તે આ સૂત્રમાં પ્રતિપાદિત “પાચ જ નિશ્રાથાનો છે “આ કથનથી વિરાધ ઊભું થાય છે કેમકે તે સ્થાનેથી અતિરિક્ત એક બીજા જિનપ્રતિમા પૂજન ધર્મના આલ બનરૂપ स्थाननी वृद्धि लय छ मेथी “पच निस्साठाणा पण्णत्ता” मा सूत्र પ્રદર્શિત ઉપન્યાસથી આ વાત પુષ્ટ થાય છે કે જિનપ્રતિમા ધર્મનું આલ બન સ્થાન નથી આ તો ફક્ત તેના તરફદારીઓના મસ્તિષ્કની જ વ્યર્થની કલ્પના ર જિનપ્રતિમા પૂજનમા આર ભ અને પરિગ્રહ અવશ્ય ભાવી છે એના વગર ત કેઈ પણ સ જેગે સાધ્ય થઈ શકે તેમ નથી આવુ જાણવા છતા બહું हम साये ४ ५७ छ न भूलना पहेश सभाका "पूयाए काय
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८
धर्मकपा धर्मालम्पनानि स्थानास्त्रे भगाता प्राप्तानि-- "धम्म ण चरमाणस्स पर निस्साठाणा पगला । त जहा-उपाया, गणो, राया, गिडपई, सरीर" ॥ इति ।
भगवता धर्मालम्मनानि पश्चर कवितानि । तत्र " माया" इत्युक्त्या गणराजादीनामपि सग्रहे सत्यपि पुनस्तेपा पिशिष्योपन्यासः प्राधान्यर योपना
अन्यच-"धम्म चरमाणस्म पच निस्माठाणा पण्णत्ता-तजाहा-छ काया, गणो, राया, गिवई, सरीर"इति-भगवान ने धर्म के घर काय, गण, राजा, गाधापति और शरीर इस प्रकार ये छह आलम्यन स्थान स्थानासूत्र में कहे है। इनमें जिन प्रतिमा का कथन नहीं किया है-इससे यह भलीभाति विदित हो जाता है कि जिन प्रतिमा और उसका पूजन धर्म का अवलम्मन रूप नहीं है यदि जिन प्रतिमा का पूजन कार्य धर्म का अवलम्चनरूप सिद्धान्तकारों की दृष्टि में मान्य होता तो ये अवश्य इन स्थानों के कथन करते-जिस प्रकार छरकाय, गण, राजा इत्यादि का कथन किया है। यद्यपि "छरकाय" इस एक पद से हीगण, राजा आदि कास्वतः कयन सिद्ध हो जाता है, क्यो की इन सब का समावेश उसी एक पद मे हो जाता है। फिर भी इनका भिन्न २ रूप से जो नाम निर्देय किया है उसका कारण ये धर्म के प्रधान आलम्बन रूप हैं इस बात को प्रकट करने के लिये ही किया गया है। इसी प्रकार
भने मी पाय धुछ है "धम्म चरमाणस पच निस्साठाणा पण्णत्ता-त जहा उफाया, गणो, राया, गिहवई, सरीर " इति, मनपाने मना ७ अय, ગણુ, રાજા, ગાથા૫તિ અને શરીર આ રીતે છ આલ બનસ્થાન સ્થાનાગ સૂત્રમાં કહ્યા છેઆ બધામાં જિન પ્રતિમાનું કથન કરવામાં આવ્યું નથી એનાથી આ સ્પષ્ટ રીતે જણાય છે કે જિનપ્રતિમા અને તેનું પૂજન ધર્મનું અવલ બને નથી જે સિદ્ધાન્તકારની દષ્ટિમાં જિન પ્રતિમાના પૂજનનું કાર્ય ધર્મના અવ લખન રૂપમાં માન્ય હેત તો તેઓ ચોક્કસ આ સ્થાનના કથનની સાથે સાથે તેમનુ પણ કથન જેમ છ કાય, ગણુ રાજા વગેરેનું કથન કર્યું છે તેમ કર્યું હેત જે કે “ષકાય” આ એક પદથી જ ગણ, રાજા વગેરેનું સ્વત કથન સિદ્ધ થઈ જાય છે, કેમકે આ બધાને સમાવેશ તે એક પદમાં જ થઈ જાય છે, છતાય આ બધાને સ્વતંત્ર રૂપમાં જે નામ નિર્દેશ કરવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ આ છે કે તે સર્વે ધર્મના પ્રધાન આલબનરૂપ છે, આ વાતને પ્રગટ કરવા માટે જ કરવામા આવ્યો છે આ પ્રમાણે જે છે પણ
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
४८३ 'दो हाणाइ' द्वे स्थानेन्द्र प्रस्तुनी 'अपरियाणिता' अपरिनास-परितया 'एतापारम्भपरिग्रहायनर्थाय ' इत्यविशाय अल ममाभ्यामिति परिहाराभिमुख्यद्वारेग प्रत्याख्यानपरिनपा अप्रत्यारयाय च ब्रह्महत्ता तयो प्रत्तः, 'जाया' आत्मा जीर, नो के गलि प्रज्ञप्त-निनोक्त धर्म लभेत श्रमातया-श्रवणभानेन श्रोतुमित्यर्थः । जैन धर्मश्रयणान) भवतीति भावः । तद् यथा आरम्भः-प्राणा तिपातादिरूप , पापस्थानम् परिग्रह.-वनधान्यादिसग्राः ।
द्वे स्थाने अपरिज्ञाय - उपरिनयाऽनर्थकारणमक्षात्वा प्रत्याल्यानपरिज्ञया अप्रत्याख्याय च तर प्रतः 'आया' आत्मा-जीवः केनल पोधि अर्थात् सम्परत्व न बुध्येतन प्राप्नुयादित्यर्थ । पाने के भी योग्य पन सकती है" यह सूत्र हमे यह शिक्षा देता है कि भलो जिस परिग्रह और आरभयुक्त आत्मामें केवलि प्रज्ञप्त धर्म सुनने तक की भी योग्यता नहीं है और न जिसमें सम्यक्त्व का अनुभव है, है उस आत्मा में " वह प्रतिमा सम्यक्त्व की शुद्धि का कारण होता " इस प्रकार की मान्यता आकाश के फूल के समान एक कल्पना
मात्र ही है । अतः यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि इस प्रतिमापूजन __ मे न तो धर्म के कोई मौलिकतत्त्व का समावेश हे और न धर्म का कोई ___ अग ही है। यह न तो धर्म का आलम्पनरूप है और न धर्म के लक्षण
से री युक्त है। फिर भी इसे धर्म पद का वाच्य मानना केवल स्पष्ट रूप से उतरत्र गरूपणामात्र है इस प्रकार शास्त्रीयमर्यादा के विरुद्ध इस प्रतिमा पृजन का उपदेश देने वाले तथा प्रतिमापूजन कराने वाले उपબની શકે તેમ નથી “આ સૂત્ર અમને આ જાતની ભલામણુ કરે છે કે જે પરિગ્રહ અને આર ભયુક્ત આત્મામાં કેવલિ પ્રજ્ઞાવ ધર્મ સાભળવા સુધીની પણ ગ્યતા નથી અને જેમા સમ્યત્વની અનુભૂતિ પણ નથી તે આત્મામાં “તે પ્રતિમા સમ્યતૃત્વની શુદ્ધિનું કારણ હોય છે.” આ જાતની માન્યતા આકા શના પુની જેમ એક પેટી કલ્પના માત્ર જ નથી તે બીજુ શુ છે ? એટલા માટે એ સિદ્ધાન્ત નિશ્ચિત થાય છે કે આ પ્રતિમાપૂજનમાં ધર્મના ન કોઈ મૌલિક તત્ત્વોનો સમાવેશ છે અને ન તો તે વર્ષનું કોઈ પણ એક અગ છે આ ધર્મનું આવ બનરૂપ નથી અને ધર્મના લક્ષણથી યુક્ત પણ નથી છતાય તેને ધમપદાચ માનવું તે સ્પષ્ટ રીતે ઉસૂત્ર પ્રરૂપણ માત્ર છે. આ રીતે શાસ્ત્રની મર્યાદાથી વિપરીત આ પ્રતિમા પૂજનને ઉપદેશ આપનારાઓ તેમજ પ્રતિમા
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८०
ताधर्मया अपि च-" पूयाए फायदो, पडिगठो सो उ किंतु जिणपूया ।
सम्मत्तमुद्भिदेउ, ति भापणीया उणिवा ॥१॥ छाया-पूजाया कायपधः प्रतिगष्ट सान्तुि जिनपूना । सम्यक्त्वशुद्धिहेतु-रिति भावनीया त निरपया ॥१॥ समेतदुत्सूनमरूपणम्---श्रूयतां प्राचन तार--
दो हाणाइ अपरियागिता आया णो केलिपनत्त धम्म लमेज्न सगयाए । त जहा-आरभे चेत्र परिग्गहे चेन । दोहाणाइ अपरियाणित्ता आया णो केवल वोहिं युज्झिज्जा। त जहा-आर मे चेव परिग्गहे चेर ।। (म्या २ ठा १3.)इति " पूयाए कायरहो पडिकुट्टो सो उ किंतु जिणपूपा । सम्मत्तसुद्धिहउ, त्ति भावणीया उणिरवजा ॥१॥ इस प्रकार की उत्सूत्र प्ररूपणा द्वारा भ्रम में ही डालते रहते हैं। हमें तो धुद्धि पर तरस आता है कि वे क्या नही इस सिद्धान्त को समझने की चेप्टा करते है कि-"दोहाणाइ अप रियाणित्ता आया णो केवलिपण्णत्त धम्म लभेज सवणयात जहाआरभे चेव परिगाहे चेव । दोहाणाइ अपरियाणित्ता आया णो केवल बोधि वुझिज्जा त जहा-आरभे चेव परिग्गहे चेय (स्था २ ठा १३.) ये दो धनधान्य आदि रूप परिग्रह और प्राणातिपात आदि रूप आरभ स्थान अनर्थ के कारण है । जप तक आत्मा परिज्ञा से इन्हें जान कर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से इनका परित्याग नही कर देती है तब वह ब्रममदत्त की तरह केवलि द्वारा कथित धर्म के सननेका अधिकारी नही हो सकती है और न इन दोनों के त्याग किये विना वक्र सम्यस्त्व की वहो पडिकुटो सोउ किं तु जिणपूया। सम्मत्तसुद्धिहेउ, त्ति भावणीया उपर चज्जा ॥ १ ॥ मा तनी सूत्र ३५६ : अभभा. नामा राम । અમને તે તેમની બુદ્ધિ ઉપર દયા આવે છે કે તેઓ આ સિદ્ધાંતને સમ जवानी रोशिश भ नडि ४२ता जाय १ मत “दो द्वाणाइ अपरियाणिता
याणो केवलिपण्णत्त धम्म लभेज्ज सवणयाए । त जहा-आर भे चेर परिग्गहे चेव । दो द्वाणाइ अपरियाणित्ता आया णो केवलिकोधि चुज्झिज्जा त जहाआर मे चेव परिग्गहे चेव (स्था० २ ठा० १०) मा मे धन धान्य कार રૂપ પરિગ્રહ અને પ્રાણાતિપાત વગેરે રૂ૫ આર ભ સ્થાન અનર્થના કારણે છે
જ્યા સુધી આત્મા જ્ઞ પરિજ્ઞા વડે એમને જાણીને અને પ્રત્યાખ્યાન પરિઝાવડે એમને પરિત્યાગ કરતી નથી ત્યા સુધી તે બ્રહ્મદત્તની જેમ ફેવલિવડે કથિત ધર્મને સાભળવા માટે અધિકારી (યોગ્ય પાત્ર) ગણાઈ રે” નથી અને તે બનેને જ્યાં સુધી ત્યાગ કરે નહિ ત્યા સુધી તે સમ્સ'
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
-
अगगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा _ 'दो द्वाणाइ' द्वे स्थानेदं वस्तुनी 'अपरियाणित्ता' अपरिज्ञायज्ञपरिज्ञया 'एतावारम्भपरिग्रहानाय' इत्यविज्ञाय अल ममान्यामिति परिहाराभिमुख्य हारेग प्रत्याख्यानपरिजमा अप्रत्यारयाय च ब्रह्महत्ता तयो प्रवृत्तः, 'जाया' आत्मा-जीर , नो केलिमज्ञप्त-निनोक्त धर्म लभेत यातया-श्रणभावेन श्रोतुमिलयः । जैन धर्मश्रवणानह) मातीति भावः । तद् यथा आरम्भः-प्राणा तिपावादिरूप , पापस्थानम् परिग्रह:-चनधान्यादिसग्रहः ।
द्वे स्थाने अपरिज्ञाय - उपरिनयाऽनर्थकारणमज्ञात्वा प्रत्यायानपरिज्ञया अप्रत्याख्याय च तर प्रतः ‘आया' आत्मा-जीवः केवल पोषि-अर्थात् सम्यक्त्व न युध्येत-न प्राप्नुयादित्यर्थ । पाने के भी योग्य घन मरुती है" यह सूत्र हमें यह शिक्षा देता है कि भलो जिल परिग्रह और आरभयुक्त आत्मामें केलि प्रज्ञप्त धर्म सुनने तक की भी योग्यता नहीं है और न जिसमें सम्यक्त्व का अनुभव है, है उस आत्मा में " वह प्रतिमा सम्परत्व की शुद्धि का कारण होता " इस प्रकार की मान्यता आकाश के फल के समान एक कल्पना मात्र ही है । अतः यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि इस प्रतिमापूजन में न तो धर्म के कोई मौलिकतत्त्व का समावेश हे और न धर्म का कोई अग ही है। पहन तो धर्म का आलम्पनरूप है और न धर्म के लक्षण से ी युक्त है। फिर भी इसे धर्म पद का वाच्य मानना केवल स्पष्ट रूप से उत्त्र रूपणामात्र है इस प्रकार शास्त्रीयमर्यादा के विरुद्ध इस प्रतिमा पूजन का उपदेश देने वाले तथा प्रतिमापूजन कराने वाले उप
બની શકે તેમ નથી “આ સૂત્ર અમને આ જાતની ભલામ_ કરે છે કે જે પરિગ્રહ અને આર ભયુક્ત આત્મામાં ડેવલિ પ્રજ્ઞવ ધર્મ સાભળવા સુધીની પણ ગ્યતા નથી અને જેમાં સમ્યત્વની અનુભૂતિ પણ નથી તે આત્મામા
તે પ્રતિમા સમ્યકત્વની શુદ્ધિનું કારણ હોય છે.” આ જાતની માન્યતા આડાશના પુની જેમ એક ખાટી કલ્પના માત્ર જ નથી તે બીજુ શુ છે ? એટલા માટે એ સિદ્ધાન્ત નિશ્ચિત થાય છે કે આ પ્રતિમાપૂજનમાં ધર્મના ન કેઈ મૌલિક તને સમાવે છે અને ન તો તે વર્ષનું કઈ પણ એક અગ છે આ ધર્મનું આલ બનરૂપ નથી અને ધર્મના લક્ષણથી યુક્ત પણ નથી છતા ય તેને ધમપદવાણ્ય માનવું તે સ્પષ્ટ રીતે ઉત્સુત્ર પ્રરૂપણ માત્ર છે. આ રીતે શાસ્ત્રની મર્યાદા' વિપરીત આ પ્રતિમા પૂજનને ઉપદેશ આપનારાઓ તેમજ પ્રતિમા
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधकथा अपि च-" पूयाए फायपदो, पडिगट्ठो सो उकित जिणपूया ।
सम्मत्तमुद्भिदेउ, ति मारणीया उणिरयजना" ॥१॥ छाया-पूजाया कायवधः प्रतिष्ठः सनु किन्तु मिनपूना । सम्यक्त्वादिहेतु-रिति भाग्नीया त निरपया ॥१॥ समेतदुत्सूनमरूपणम्--धूयतां प्रपचन तार--
दो हाणाइ अपरियाणित्ता आया णो केलिपनत्त धम्म लमेज्ज सरगयाए । त जहा-आरभ चे परिग्गहे थे। । दोहाणाइ अपरियागिता आया णो केवल वोहिं युज्झिज्जा । त जहा-आर भे चेत्र परिग्गहे चेव ॥ (स्या. २ ठा १3 )इति " पूयाए कायरो पडिकुट्टो सोउ किंतु जिणपूया। सम्मत्तसुद्धिहेउ, त्ति भावणीया उ णिरवजा ॥ १ ॥ इस प्रकार की उत्सूत्र प्ररूपणा द्वारा भ्रम में ही डालते रहते हैं। हमें तो पुद्धि पर तरस जाता है कि वे क्या नही इस सिद्धान्त को समझने की पेप्टा करते है कि-"दोहाणाइ अप रियाणित्ता आया णो केवलिपण्णत्त धम्म लभेज सवणया | त जहाआरभे चेव परिगाहे चेव । दोहाणाइ अपरियाणित्ता आया णो केवल बोधि बुज्झिज्जा त जहा-आरभे चेव परिगहे चेव (स्था २ ठा १ उ.) ये दो धनधान्य आदि रूप परिग्रह और प्राणातिपात आदि रूप आरन स्थान अनर्थ के कारण है । जय तक आत्मा ज्ञ परिज्ञा से इन्हें जान कर
और प्रत्याख्यान परिज्ञा से इनका परित्याग नही कर देती है तब वह ब्रह्मदत्त की तरह केवलि द्वारा कथित धर्म के सुननेका अधिकारी नहीं हो सकती है और न इन दोनों के त्याग किये विना वक्र सम्यक्त्व का वहो पडिकुट्ठो सोउ किं तु जिणपूया। सम्मत्तमद्धिहेउ, त्ति भावणीया उ णिर वज्जा ॥ १ ॥ मा कतनी सूत्र ३५ प प्रभभा. नामी रा छ અમને તો તેમની બુદ્ધિ ઉપર દયા આવે છે કે તેઓ આ સિદ્ધાંતને સમ
पानी उशिश भ नडि ४२ डाय ? भो " दो द्वाणाइ अपरियाणिता भायाणो केवलिपण्णत्त धम्म लभेज सवणयाए । त जहा-आर भे चेव परिग्गई चेव । दो द्वाणाइ अपरियाणित्ता आया णो केवलिगोधि बुझिज्जा त जहा-- आर मे चेव परिग्गहे चेव (स्था० २ ठा० १ ० ) 02 धन धान्य वार રૂપ પરિગ્રહ અને પ્રાણાતિપાત વગેરે રૂપ આર ભ સ્થાન અનર્થના કારણ છે જ્યા સુધી આત્મા જ્ઞ પરિજ્ઞા વડે એમને જાણીને અને પ્રત્યાખ્યાન પરિઝાવડે એમને પરિત્યાગ કરતી નથી ત્યા સુધી તે બ્રહ્મદત્તની જેમ ફેવલિવડે કથિત ધર્મને સાભળવા માટે અધિકારી (યોગ્ય પાત્ર) ગણાઈ રાકે તેમ નથી અને તે બનેનો જ્યા સુધી ત્યાગ કરે નહિ ત્યા સુધી તે સમ્યફત * - ચોગ્ય
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपणी टीका थ० १६ द्रौपदीचर्चा
३८३
तथा - सम्यक्त्वशुद्यर्थ कर्मक्षपार्थं च प्रतिमापूजने मटत्तस्य जीवस्य पट्कायो पमर्दनसाध्य पूजया ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मणो वृद्धी सत्या सम्य
केमियाऽपि प्राप्तिः कालत्रयेऽपि न सभवति किंपुन कर्मक्षयाशा सम्यक्त्वमात्मनः क्षायोपशमिको भावः । प्रतिमा तु न क्षयोपशमस्वरूपा, न चापि क्षयोपगमहेत, ज्ञानावरणीयदर्शनमोहनीय कर्मनिर्जराजनकत्वाभावात्, देशतः कर्मक्षयो हि निर्जरा ता प्रति तपस एत्र कारणत्यात् । उक्त चोत्तराध्ययनम्रो
प्रकार सम्यक्त्व की शुद्धि अथवा कर्मों का विनाश प्रतिमापूजनसे नहीं होता है, प्रत्युत जिम प्रकार वह विरयुक्त वस्त्ररुधिर से साफ किये जाने पर अधिक मलिन हो जाता है उसी प्रकार पद्माय की विराधना साध्य इस प्रतिमापूजन में लवलीन जीव भी ज्ञानावरणीय और दर्शन मोहनीय कर्म की वृद्धि करता हुआ अधिकाधिक मलिन होता रहता है वह कभी भी इनकी वृद्धि में सम्यक्त्व और केवलि प्रज्ञप्त धर्म का पाने वाला नही बन सकता है । इसलिये कर्मों के क्षय करने की आशा से प्रतिमापूजन में लवलीन मनुष्य अपने कर्मों का इस कार्य से क्षय करता
यह एक दुराशामात्र है अरे ! जन इस कार्य से जीच सम्यक्त्व और केवलिप्रज्ञप्त धर्म तक के भी लाभ से सदा वचित रहता है तो उससे फिर कर्म क्षय मानना यह कोरी कल्पना मात्र ही है । सम्यक्त्व यह जीव का क्षायोपशमिक भाव है। प्रतिमा न क्षयोपशम स्वरूप है और न उस क्षयोपशम में कारण रूप ही है। कारण कि इस से ज्ञानावरणीय और दर्शनमोहनीय कर्म की निर्जरा नही होती है । कर्मों का
ખરડાયેલુ વસ્ત્ર લેાહીવટ માર્ કરવાથી મલિન થઈ જાય છે તેમજ ષટ્કાયની વિરાધના સાધ્ય આ પ્રતિમાપૂજનમા તલ્લીન થયેલા જીવ પણ જ્ઞાનાવરીય દન મેહનીય કર્મીની વૃદ્ધિ કરતા કરતાવધારે વધારે મલિન થતા જાય છે. તે કાઇ પણ સમયે એમની વૃદ્ધિમા સમ્યક્ત્વ અને કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મને મેળવી શકનાર થઈ શકતા નથી એટલા માટે કર્મને ક્ષય કરવાની આશાથી પ્રતિમા પૂજનમા તલ્લીન માણસ પેાતાના કર્માને આ ય ( પ્રતિમાપૂજન ) થી ક્ષય કરવા માગે છે તે ફક્ત દુરાશા માત્ર છે જ્યારે આ કાયથી જીવ સમ્યવ અને કેવલિપ્રશ્ન ધર્માંના લાભથી પણુ સદા દૂર રહે છે ત્યારે તેનાથી મ ક્ષયની આશા રાખવી તે ખોટી કલ્પના માત્ર જ છે સમ્ય જીવને! ક્ષા પામિક ભાવ છે. હવે ન તે પ્રતિમા ક્ષયે પશમ સ્વરૂપ છે અને ન તે શમમા કારણ રૂપે છે કેમકે એનાથી જ્ઞાનાવરણીય અને દર્શનમેાહનીય
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४२
साधका ___ यत्र के रलिप्रज्ञप्तधर्मस्य प्राणायापि योगना न भवति, सम्यक्त्यम्य च नानु भवः, तत्र सम्यक्त्वशदिहेतृत्व गगनासुमपन्मनोविकपमानम् । यस्य प्रतिमा पूजनस्य नास्ति धर्ममूलत न चास्ति धागिल, नापि धर्मालम्बनत्य, न चापि धर्मलक्षणसमन्वित, तस्य धर्मपदान्यत्वात्पने - गुस्पष्टमेनोमूत्रमरूपणम् । भगवताईता-भाचने अनुपविष्टस्य प्रतिमापूजनस्योपदेशकरणेन भ्रान्ति जनयता प्रतिमापूजन कारयताच फा गतिः स्यादिवि समालोचनीय मुधीमि'। अपर च
दोहि ठाणेहि माया केलिपन्नत्त धम्म लभेज्जा सवणयाए त जहा खएण वेच उपसमेण चेय एव जार मणपज्जानाण उप्पादेमा त जहा-खएण चेर उव समेण चेव । ( स्था० २ ठा० ४ ३०) ___ "खएण वेव" इति ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मण उदय प्राप्तस्य क्षयेण, अनुदितस्य चोपगमेनक्षयोपशमेनेत्यर्थः । अत्र पदद्वयेन क्षयोप शमरूपोऽर्थों गृह्यते । यावत् करणा-"केवल पोहि युज्झेज्जा ।"
केलिप्रज्ञप्तधर्मस्य श्रवण तथा सम्यक्त्व च ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मण, क्षयोपशमादेव लभ्यते इति भगरता प्रतियोधितम् । इदमत्रबोध्यम् नहि रुधिरलिप्तवत्रस्य रुधिरेण प्रक्षालने शुद्धिर्भवति प्रत्युत मलिनतरत्वमेव, देशक तथा प्रेरक की वास्तविक वस्तस्थिति से जनता को अधकार में रखने के कारण क्या गति होगी यह स्वय बुद्विमानों को विचार न जैसी बात है।
अपर च-दोहिं ठाणेहिं आयाके वलिपन्नत्त धम्म लभेजा सवण याए-त जहा इत्यादि सूत्र
इसका भावार्थ यह है-जीव केवलियों द्वारा प्रजप्त धर्म का अवण तथा सम्यक्त्व का लाभ ज्ञानाचरणीय और दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय और क्षयोपशम से ही करता है प्रतिमापूजन से नही। जिस प्रकार रुधिर से मैले वस्त्र की सफाई रुधिर में ही धोने से नहीं होती, उसी પૂજન કરાવનારા ઉપદેશકે પ્રેરકરૂપ થઈને યથાર્થ વસ્તુસ્થિતિથી સમાજને અ ધારામાં રાખે છે તે બદલ તેમની શી દશા થશે તે વિદ્વાન સમજી શકે છે
भने यीशु ५ -दोहि ठाणेहिं ओया केबलिपन्नत धम्म लभेज्जा सवणयाए-त जहा-त्या सूत्र
અને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે કેવલિઓ વડે પ્રજ્ઞસ ધર્મનુ શ્રવણ તેમજ સમ્યક્ત્વને લાભ જીવ જ્ઞાનાવરણીય અને દર્શન મેહનીય કેર્યના ક્ષય અને ક્ષપશમથી કરે છે પ્રતિમાપૂજનથી નહિ જેમ લેહીથી ખરડાએલા વસ્ત્રની સાફસૂફી લેહી વડે ધવાથી થતી નથી તેમ જ સભ્યત્વની શુદ્ધિ અથવા તે કમેને વિનાશ પ્રતિમાપૂજનથી થતું નથી કે જેમ તે લેહથી
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणो टीफा २० १६ द्रौपदीचर्चा
३८३ तथा-सम्यक्त्वशुद्वयर्थ कर्मक्षयार्थ च प्रतिमापूजने मत्तस्य जीवस्य पट्कायो पमर्दनसाध्यपूजया ज्ञानापरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मणो वृद्धौ सत्यां सम्यक्त्वम्य केवलि मनप्तपर्मस्याऽपि प्राप्तिःकालत्रयेऽपि न सभनति किं पुन कर्मक्षयाशा
सम्यक्त्वमात्मनः क्षायोपशमिको भाषः । प्रतिमा तु न क्षयोपशमस्वरूपा, न चापि क्षयोपशमहेत , ज्ञानापरणीयदर्शनमोहनीयर्मनिर्जराजनकत्वाभावात् , देशतः कर्मक्षयो हि निर्जरा ता प्रति तपस एव कारणत्वात् । उक्त चौत्तराध्ययनमूनेप्रकार सम्यक्त्व की शुद्धि अथवा कर्मों का विनाश प्रतिमापूजनसे नहीं होता है, प्रत्युत जिस प्रकार वह रूधिरयुक्त वस्त्ररुधिर से साफ किये जाने पर अधिक मलिन हो जाता है उसी प्रकार पटकाय की विराधना साध्य इस प्रतिमापूजन में लवलीन जीव भी ज्ञानावरणीय और दर्शन मोहनीय कर्म की वृद्धि करता हुआ अधिकाधिक मलिन होता रहता है वह कभी भी इनकी वृद्धिमे सम्यक्त्व और केवलि प्रज्ञप्त धर्म का पाने वाला नहीं बन सकता है । इसलिये कर्मों के क्षय करने की आशा से प्रतिमापूजन में लवलीन मनुष्य अपने कर्मों का इस कार्यसे क्षय करता है यह एक दुराशामात्र है अरे ! जय इस कार्य से जीव सम्यक्त्व और केवलिप्रज्ञप्त धर्म तक के भी लाभ से सदा वचित रहता है तो उससे फिर कम क्षय मानना यह कोरी कल्पना मात्र ही है। सम्यक्त्व यह __ जीव का क्षायोपशमिक भाव है। प्रतिमा न क्षयोपशम स्वरूप है और
न उस क्षयोपशम में कारण रूप ही है । कारण कि इस से ज्ञानावरणीय और दर्शनमोहनीय कर्म की निर्जरा नहीं होती है । कर्मों का ખરડાયેલું વસ્ત્ર લોહીવડે સાફ કરવાથી મલિન થઈ જાય છે તેમજ પકાયની વિરાધના સાથે આ પ્રતિમાપૂજનમાં તલ્લીન થયેલે જીવ પણ જ્ઞાનાવરણીય દર્શન મેહનીય કર્મની વૃદ્ધિ કરતો કરતો વધારે વધારે મલિન થતું જાય છે તે કોઈ પણ સમયે એમની વૃદ્ધિમા સમ્યત્વ અને કેલિપ્રજ્ઞમ ધર્મને મેળવી શકનાર થઈ શકતું નથી એટલા માટે કર્મોને ક્ષય કરવાની આશાથી પ્રતિમા પૂજનમાં તકલીન માણસ પોતાના કર્મોને આ કાર્ય (પ્રતિમાપૂજન) થી ક્ષય કરવા માગે છે તે ફકત દરાશા માત્ર છે જ્યારે આ કાર્યથી છવ સમ્યતૃત્વ અને કેવલિરૂખ ધર્મના લાભથી પણ સદા દૂર રહે છે ત્યારે તેનાથી કમ ક્ષયની આશા રાખવી તે ખોટી કલ્પના માત્ર જ છે સમ્યત્વ જીવને ક્ષ પશમિક ભાવ છે હવે ન તે પ્રતિમા શોપશમ સ્વરૂપ છે અને ન તે ક્ષે પમમાં કારણ રૂપે છે કેમકે એનાથી જ્ઞાનાવરણીય અને દર્શનમોહનીય
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४
माताधर्म का "भकोडीसंगिय कम्ग तासा निजरिजनह" ( ३०, ना ६) तधार्थ सूत्रेऽपि
"तपमा निर्जरा च" (ज० ९ १०४।
अन चकारः सपरामुख्यायः । ममितिगुतिधर्मानप्रेक्षापरीपतनयचारित्र सबरी भाति, तपसा तु निर्जरा सारोमिचेति मात्र सम्यक्त्रम सम्यग्दर्शन, तच स्थानानम्- (स्था० २७० १) द्विवित्र मोक्त । मिर्गसम्यग्दर्शनम् अभिगमसम्यग्दर्शन चेति । निसर्गतः समारत:- परोपदेशतो यदुत्पपते, तनिमर्गसम्यग्दर्शनम् । अभिगमात् - मद्गुर पदेशतो गत्परते, तदभिगम सम्यगार्शनम् । एक देश क्षय रोना निर्जरा है । इस निर्जरा के प्रति कारणता तो तप में पतलाई गई है। देवो उत्तराध्ययन सूत्र में यही पात कही है
गयकोडी सचिध कम्म तपसा निजरिजा" करोडों भजों में सचित कर्मों की जीव तप से निर्जरा कर दता हे । तत्वार्थ सूत्र में भी " तपसा निर्जरा च" इस सूत्र द्वारा यही बात कही गई है-तप से निर्जरा और सवर दोनों होते हैं। सूत्रम्य "" शब्द से सवर का
ग्रहण ओ है। ___भावार्थ-इसका यही है कि पाच समिति, 3 गुप्ति, १० यतिधर्म १२, अनुप्रेक्षा, २२ परोपहों का जीतना एव ५ प्रकार का चारित्र पालनाइनसे सबर होता है और तप से सबर एव निर्जरा दोनों ही होते हैं। स्थानाङ्गसूत्र में सम्मग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है-१ निसर्ग કર્મના નિજ ર થઈ શકે તેમ નથી કર્મોના એકદેશને ક્ષય થવે તે નિર્જરા પ્રત્યે કારણુતા તે તપમાં બતાવવામાં આવી છે, જુઓ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં એ જ વાત સ્પષ્ટ કરી છે –
" भवकोडी सचिय कम्म तपसा निजरिज्जइ" शेड लवामा सथित भाना नि तपथी ४॥ नामे तपाय सूत्रमा ५y " तपसा निर्जरा च" मा सूत्रपडे से वात उवामा मापी छ उ तपथी (ना। તેમજ સ વર અને થાય છે “સૂત્રમાં આવેલ “” શબ્દથી સવરનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે
ભાવાર્થ-આને આ પ્રમાણે છે કે પાચ સમિતિ, ૩ ગુપ્તિ, ૧૦ યતિધર્મ, ૧૨ અનુપ્રેક્ષા ૨૨ પરીષહને જીતવા અને ૫ પ્રકારના ચારિશ્વનું પાલપ કરવું આ બધાથી આ વર થાય છે અને તપથી સ વર અને નિર્જરા બને થાય છે સ્થાનાગસૂત્રમાં સમ્યગ્દર્શન બે પ્રકારનું બતાવવામાં આવું
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृनपणी टोका अ० १६ द्रौपदीचर्चा
दन्ति तन्मोहनीयमेदयविम्
केचित्तु -- जत्राभिगमशन्दार्थो निमित्तमपि तच्च प्रतिमादिति अभिगममम्यग्दर्शने हि प्रतिमानिमित्तल न सभवति श्रवणादिना योपशमहेतोरेन सद्गुरूपदेशस्यानाभिगमन और दूसरा अभिगम । जो सम्पग्दर्शन जीवों को स्वभाव से होता है। सद्गुरु के उपदेश से जो जीव को प्राप्त होता है वह अभिगम सम्यग्दर्शन है । निसर्ग और अभिगम में अन्तरग कारणदर्शन मोह नीच कर्म का क्षयोपशम आदि समान है परन्तु इसके होने पर भी जो जीव को मदगुरु के उपदेश से प्राप्त होता है वह अभिगम और जो इसके बिना प्राप्त होता है वह निसर्ग सम्यग्दर्शन कोर्ट २ व्यक्ति अभिगम शब्द का अ निमित्त परक भी करते है और वह निमित्त " प्रतिमा जादि है " ऐसा मानते है । परन्तु यह उनका कथन केवल मोह कर्म का ही है क्योकि अभिगम सम्यग्दर्शन में प्रतिमा स्प निमित्त क्ला सभक्ति नही होती है-वश तो श्रवण आदि से दर्शन मोहनीय कर्म के क्षयोपशम के कारणरूप सद्गुण के उपदेश का ही अभिगम शब्द से ग्ररण हुआ है । यदि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में वह कारण होता तो उस का ग्रहण निमित्तस्प से होता परन्तु ऐमा तो होता नही है-रण कि वह अचेतन है उस से प्रवचन के अर्थ का उपदेश होता नही है । प्रवचन के अर्थ के उपदेश सनेविना श्रोताओं को प्रवचन का अर्थ ज्ञान कैसे हो सकता है ? अर्थज्ञान हुए बिना
--
३८५
છે ૧ નિસર્ગ અને ૨ અભિગમ સદગુરુના ઉપદેશથી નહિ પણ વેને સ્વભાવથી જ જે સમ્યગ્દર્શન થાય છે તે નિસર્ગ સમ્યગ્દર્શન છે સદ્દગુરુના ઉપદેરાથી જે જીવને સમ્યગ્દર્શન પ્રાપ્ત થાય છે તે અભિગમ સમ્યગ્દર્શન છે નિસ અને અભિગમમા અતરગ કારણ દર્શનમાહનીય ક્રમના ક્ષયેાપશમ વગેરે સમાન જ છે પણ એના હાવા છતાય જીવને જે સદ્ગુરુના ઉપદેશથી મળે છે તે અભિગમ અને જે એના વગર મળે તે નિસર્ગ સમ્યગ્દન છે કેટલીક વ્યક્તિએ અભિગમ શબ્દને અથ નિમિત્ત પર પણ કરે છે અનેતે નિમિત્ત “ પ્રતિમા વગેરે છે” એવુ માને છે પણ આવુ કથન તેમના રૃક્ત મેહ કમને। જ વિલાસ છે કેમકે અભિગમ સમ્યગ્દર્શનમા પ્રતિમા ૩૫ નિમિ ત.તા. સવિત થઈ શકે તેમ નથી ત્યા તા શ્રવણ વગેરેથી દનમાહનીય કેના લયે પામના કાન્નુરૂપ સદગુણના ઉપદેશનું જ અભિગમ ગબ્દથી ગ્રહણુ થયુ છે જે મમ્યાનની ઉત્પત્તિમા તે ાણુ હત તે તેનુ ગ્રહણ નિમિત્ત રૂપવી થાત પા આવુ તુ નથી કેમકે તે અચેતન છે તેનાથી પ્રવચનના અર્થને C તરા થઈ શના નથી. પ્રવચનના અર્થના ઉપદેશ સાભળ્યા વિના
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८६
%ES
आतापमंकणारे शब्देन ग्रहणात् सम्पावं हि तत्वाश्रवानस्पं, तच पाचनार्थज्ञानादेव, पर चनार्थज्ञान च निर्जरामूला, निर्जरा नियोयायस्वाध्यायस्पतपोविशे पेभ्य , तत्र च गद्गुरुपदेग गरण, न तु प्रतिमा। सोहि गद्गुरुयत् प्रावनायें मुपदेष्टुमसमर्धा, तम्या जडत्वात , । नापि सा निर्जराहेतु', नियादितपोरूप कर्मा की निर्जरा नहीं हो सकती है। निर्जग के अमात्र में दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय उपशम आदि रूप मम्चात्य की उत्पत्ति समवित नहीं है। अतः अभिगम मम्यग्दर्शन में मदगुरु का उपदेश ही निमित्त माना गया है और उसीका ग्रहण वहा पर उस शब्द से हुआ है प्रतिमा का नही-सी का खुलाशा " सम्यक्त्व हि तत्वार्थश्रद्धानरूप, तच्च प्रवचनार्थज्ञानादेव, प्रवचनाजान च निर्जरामूलक - निर्जरा च विनय वैयावृत्यस्वाध्यायरूपतपोविकोपेभ्य , तत्र च सद्गुस्पटेशः कारण न तु प्रतिमा" अर्थ इन पक्तियों में लिखा गया है। तत्वार्य का श्रद्वान करना सम्यक्त्व है। वह श्रद्धान प्रवचन के अर्थज्ञान से ही होता है
और उस अर्थज्ञानका मूल कारण निर्जरो मानी गई है अपना प्रतिपक्षी कर्मो की निजैरा हुए विना तत्त्वज्ञान हो ही नहीं सकता है विनय, वैयावृत्य, स्वाध्यायरूपतप विशेष निर्जरा के कारण हैं तप की आरा धना में सद्गुरू का उपदेश कारण है इस प्रकार परम्परा सबंध स अभिगम सम्यग्दर्शन में सदगुरु का उपदेश ही निमित्तरूप से गृहीत हुआ है प्रतिमा नहीं-कारण वह सद्गुरु के उपदेश की तरह प्रवचन શ્રોતાઓને પ્રવચનનું અર્થજ્ઞાન કેવી રીતે થઈ શકે અનાન વગર ની નિર્જરા પણ થઈ શકતી નથી નિર્જરા વિના દર્શન મેહનીય કર્મના ક્ષય ઉપશમ વગેરે રૂ૫ સમ્યક્ત્વની ઉત્પત્તિ સભવિત નથી એટલા માટે અભિગમ સમ્યગ્દર્શનમાં સદૂગુરુને ઉપદેશ જ નિમિત્તરૂપે માનવામાં આવ્યું છે અને તે શબ્દથી તેનુ જ ગ્રહણ થયું છે પ્રતિમાનું નહિ આનું જ સ્પષ્ટીકરણ “सम्यक्त्व हि तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप, तच्च प्रवचनार्थज्ञानादेव, प्रवचनायज्ञान निर्जरामूलक निर्जरा च विनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायरूपतपोविशेपेभ्य , तत्र व सद्गुरूपदेश कारण न तु प्रतिमा" माना अर्थ मा प्रभारी छे, त તત્વાર્થનું શ્રદ્ધાન કરવું તે સમ્યકત્વ છે તે શ્રદ્ધાન પ્રવચના અર્થ જ્ઞાનનું મૂળ કારણ નિર્જરા જ માનવામા આવે છે પિતાના પ્રતિપક્ષી કર્મોની નિર્જરા થયા વગર તત્ત્વજ્ઞાન થઈ જ શકતુ નથી વિનય, વિયાવૃત્ય, સ્વાધ્યાય રૂપ તપ વિશેષ નિર્જરાના કારણે છે તપની આરાધનામાં સદગુરુને ઉપદેશ કારણ છે આ રીતે પરપરા સ બ ધથી અભિગમ મ નમાં સદ્દગુરુનો ઉપદેશ જ નિમિત ૩૫માં ગૃહીત થશે કે નહિક પ્રતિમા કેમકે તે સદગુરુના ઉપદેશની જેમ
Page #567
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
३८७ वाभावात् , कथ तहि सम्यमत्व मतिमायाः सभवति ? क्थमपि नहि । अत एवो पदेशस्य सम्यक्त्व पति कारणत्व प्रदर्शयन भगवानवादी-उत्तराध्ययनमूत्रे(०२८ गा० १५)
"तहियाण तु भागाण सम्भारे उमएमण ।
भावेण सद्दहतस्स सम्मत्त त वियाहिय ॥ इति । छाया-त. याना तु भावाना सद्भार उपदेशनम् । ___ भावेन श्रद्दधत सम्यस्त्व तद् व्यारयातम् ॥
जीवाजीवादिपढार्थाना सद्भावे यद् उपदेशन-गुरोरुपदेशः, तद् भावेन__ अन्तःकरणेन अन्त मोहनीयकर्मण' क्षयेण क्षयोपशमेन ना याऽभिरुचिरुत्पद्यते, तत् सम्यक्त्व तीर्थकरैर्व्याख्यातम् । के अर्थ का उपदेश करने में अचेतन होने से सर्वथा असमर्थ हे कर्मों की निर्जरा में भी वह हेतु स्प नहीं होती है-कारण कि कर्मों की निर्जरा के हेतु तो विनयादिक तप ही माने गये हैं, प्रतिमा विनयादि तप स्वरूप नही है । अत प्रतिमा में सम्यक्त्व की उत्पत्ति मे कारणता किसी भी प्रकार सभवित नरी होती है-उत्तरा पयन सत्र में सद्गुरु के उपदेश को सम्यक्त्व के प्रति कारण प्रकट करते हुए सिद्धान्तकार कहते है फि-तरियाण तु भावा ण सम्भावे उवएसण |
भावेण सदहतस्स सम्मत्त त वियाहिय ॥ इति ॥
जीव और अजीव आदि पदार्थो का सद्गुरु ने जो यथावस्थित स्वरूप प्रकट किया है, उसका उसीरूप से अन्तः करण से श्रद्धान करने वाले प्राणी के दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम પ્રવચનના અર્થને ઉપદેશ કરવામાં અચેતન હોવા બદલ સ પૂર્ણપણે અસમર્થ છે કારણ કે કર્મોની નિર્જરાના હેતુ તે વિનય વગેરે તપ જ માનવામાં આવ્યા છે પ્રતિમા વિનય વગેરે તપ સ્વરૂપ નથી, એટલા માટે પ્રતિમામાં સમ્યકત્વની ઉત્પત્તિમા કારણતા કોઈ પણ રીતે સંભવી શકે તેમ નથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં સશુરૂના ઉપદેશને સમ્યકત્વના પ્રતિ કારણું બતાવતા સિદ્ધાન્તકાર કહે છે –
तहियाण तु भावाण सम्भावे उपएसण । ___ भावेण सहहतरस सम्मत्त त वियाहिय ॥ इति ॥
જીવ અને અજીવ વગેરે પદાર્થોનુ જે યથાવસ્થિત સ્વરૂપ સદ્દગુરૂએ પ્રકટ કર્યું છે તેનું તે રૂપથી અત કરણથી શ્રદ્ધા ન કરનારા પ્રાણીના દર્શન મેહ નીય કર્મના લય કે ક્ષપરામથી જે રૂચિ ઉત્પન્ન થાય છે, તેનું નામ જ
Page #568
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८६
माता कथासूत्रे
,
शब्देन ग्रहणात् सम्यक्त्वहितार्थानरूप तच्च पचनार्थज्ञानादेव, म चनार्थज्ञानं च निर्जरामूलक, निर्जरा न नियोगात्याच्या पतपोविशे पेभ्य, तत्र च सद्गुरुपदेश न तु प्रतिमा । सा हि सद्गुरुप्रवचनार्थ मुपदेष्टुमसमर्था, तस्या जडत्वात् । नापि सा निर्जराहेतु', विनयादितपोरूप कर्मा की निर्जरा नहीं हो सकती है। निर्जग के जमाव में दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय उपशम आदि रूप सम्यक् की उत्पत्ति स भवित नही है | अतः अभिगम सम्यग्दर्शन में सदगुरु का उपदेश ही निमित्त माना गया है और उसीका ग्रहण वहा पर उस शब्द से हुआ है प्रतिमा का नहीं इसी का खुलाशा "सम्यक् हि तत्यार्थश्रद्धानरूप तच प्रवचनार्थज्ञानादेव, प्रचचनार्थज्ञानच निर्जरामृल्क - निर्जरा च विनय वैयावृत्यस्वाध्यायरूपतपोविशेपेभ्य, तत्र च मद्गुरुपदेशः कारण न तु प्रतिमा " अर्थ इन पक्तियो में लिखा गया है। तत्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है । वह श्रद्वान प्रवचन के अर्थज्ञान से ही होता है और उस अर्थज्ञानका मूल कारण निर्जरा मानी गई है अपना प्रतिपक्षी कर्मों की निर्जरा हुए ना तत्त्वज्ञान हो ही नहीं सकता है विनय, वैयात्य, स्वाध्यायरूपतप विशेष निर्जरा के कारण हैं तप की आरा धना मे सद्गुरू का उपदेश कारण है इस प्रकार परम्परा संबध से अभिगम सम्यग्दर्शन में सद्गुरु का उपदेश ही निमित्तरूप से गृहीत हुआ है प्रतिमा नही - कारण वह सद्गुरु के उपदेश की तरह प्रवचन શ્રોતાઓને પ્રવચનનુ અજ્ઞાન કેવી રીતે થઇ શકે? અર્ધજ્ઞાન વગર કર્મીની નિર્જરા પણ થઇ શકતી નથી નિર્જરા વિના દર્શનમેાહનીય કમના ય ઉપશમ વગેરે રૂપ સમ્યક્ત્વની ઉત્પત્તિ સભવિત નથી એટલા માટે અભિગમ સમ્યગ્દર્શનમા સદ્ગુરુના ઉપદેશ જ નિમિત્તપે માનવામા આખ્યા છે અને તે શબ્દાં તેનું જ ગ્રહણ થયુ છે પ્રતિમાનું નહિં આનુ જ સ્પષ્ટીકરણ सम्यक्त्व हि तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप तच्च प्रवचनार्थ ज्ञानादेव, प्रवचनार्थ ज्ञान निर्जरामूलक निजरा च विनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायरूपतपोविशेपेभ्य तत्र च सद्गुरूपदेश कारण न तु प्रतिमा " मानो अर्थ था प्रभारी थे, તત્ત્વાર્થનું શ્રદ્ધાન કરવુ તે સમ્યકૃત્વ છે તે શ્રદ્ધાન પ્રવચના અજ્ઞાનનુ મૂળ કારણ કે નિર્જરા જ માનવામા આવે છે. પેાતાના પ્રતિપક્ષી કર્મીની નિરા થયા વગર તત્ત્વજ્ઞાન થઈ જ શકતુ નથી વિનય, વૈયાવૃત્ય, સ્વાધ્યાય રૂપ તપ વિશેષ નિર્જરાના કારણ છે તપની આરાધનામા સદગુરુના ઉપદેશ કારણ છે આ રીતે પર પરા સ અ ધથી અભિગમ માનમા સદ્ગુરુના ઉપદેશ જ નિમિત્ત ૩૫મા ગૃહીત થયે કે નહિં કે પ્રતિમા કેમકે તે સદ્ગુરુના ઉપદેશની જેમ
66
,
Page #569
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतयपिणी टी० अ० १६ द्रौपदी चर्चा
३८७ खाभावात् । कथ तहि सम्यक्त्व मतिमायाः मभवति ? पथमपि नहि । अत एवो पदेगस्य सम्यक्त्व प्रति कारणव प्रदर्शयन् भगवानवादी-उत्तरा-ययनसूत्रे(अ० २८ गा० १५)
" तहियाण तु भानाण सभावे उपएमण ।
भाषेण सद्दहतस्स सम्मत्त त वियाहिय ॥ इति । छाया-तय्याना तु भानाना सद्भाव उपदेशनम् ।
भावेन अदधतः सम्यक्त्व तद् व्यारयातम् ।।
जीवाजीवादिपढार्याना सद्भावे यद् उपदेशन-गुरोरुपदेश., तद् भावेनजन्त करणेन श्रद यत मोहनीयकर्मणःक्षयेण क्षयोपशमेन ना याऽभिरुचिरुत्पद्यते, तत् सम्यक्त्व तीर्थकरैयाख्यातम् । के अर्थ का उपदेश करने में अचेतन होने से सर्वथा असमर्थ है कर्मों की निर्जरा में भी वह हेतु स्प नहीं होती है-कारण कि कर्मों की निर्जरा के हेतु तो विनयादिक तप ही माने गये हैं, प्रतिमा विनयादि तप स्वरूप नहीं है। अत प्रतिमा में सम्यक्त्व की उत्पत्ति मे कारणता किसी भी प्रकार सभवित नही होती है-उत्तरा चयन सूत्र में सद्गुरु के उपदेश को सम्यक्त्व के प्रति कारण प्रकट करते हुए सिद्धान्तकार कहते हैं कि-तहियाण तु भावा ण सम्भावे उवएसण ।
भावेण सदस्तस्स सम्मत्त त वियारिय ॥ इति ॥
जीव और अजीव आदि पदार्थो का सद्गुरु ने जो यथावस्थित स्वरूप प्रकट किया है, उसका उसीरूप से अन्तः करण से श्रद्धान करने वाले प्राणी के दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम પ્રવચનના અર્થને ઉપદેશ કરવામા અચેતન હોવા બદલ સ પૂર્ણ પણે અસમર્થ છે કારણ કે તેની નિર્જરાના હેતુ તે વિનય વગેરે તપેજ માનવામાં આવ્યા છે પ્રતિમા વિનય વગેરે તપ સ્વરૂપ નથી, એટલા માટે પ્રતિમામાં સમ્યકત્વની ઉત્પત્તિમા કારણતા કોઈ પણ રીતે સંભવી શકે તેમ નથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં સદ્દગુરૂના ઉપદેશને સમ્યકત્વના પ્રતિ કારણ બતાવતા સિદ્ધાન્તકાર કહે છે–
तहियाण तु भावाण सम्भावे उवएसण | भावेण सदहतरस सम्मत्त त वियाहिय ॥ इति ॥
જીવ અને અજીવ વગેરે પદાર્થોનું જે યથાવથિત સ્વરૂપ ગુરૂએ પ્રકટ કર્યું છે તેનું તે રૂપથી અત કરણથી શ્રદ્ધા ન કરનારા પ્રાણના દર્શન મેહ નીય કર્મના ક્ષય કે પશમથી જે રૂચિ ઉત્પન્ન થાય છે, તેનું નામ જ
Page #570
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૦૦
माताधर्मकथासूत्रे
यदि मतिमाऽपि या निमित्त स्याचरि भगाता स्थानाद्रमु प्रतिमानिमित्तत्वेन सम्पन्नस्य तृतीयभेदोऽपि वान्य, तस्यानुक्तत्वात् प्रतिमायाः सम्याला निमित्तत्र नास्तीति यो यम् । किंच
प्राणातिपातसा याया प्रतिमापूजायाः सम्यस्त्वशुद्धिहेतुः स्त्र दुर्गतिं न पश्यन्ति मोहान्धाः स्वानाने हि मागातिपातस्य दुर्गविहतुत्व प्रदर्शितम्
"
पचहि ठाणेहिं जीवा दुग्गड़ गच्छति । त तहा-पाणाडनाएण, मुसानाएण, अदिन्नादाणेण, मेहुणेण, परिग्गहेण " इति । (स्था ५ ठा १ उ )
से जो रुचि उत्पन्न होती है उसी का नाम नम्यग्दर्शन है ऐसा तीर्थकर प्रभुने कहा है यदि सम्यक्त्व की प्राप्ति में प्रतिमा निमित्त होती तो स्थानाङ्ग सूत्र में जो " दोहिं ठाणेहिं आया केलि पमत्त वम्म लभेज्जा सवणयाग " ऐसा कहा है वहा यदि सम्यक्त्व के लाभ में प्रतिमा भी निमित्त होती तो उसके निमित्त होने से दो स्थानों की जगह सम्यक्त्व की प्राप्ति में तीन स्थानो का कथन सूत्रकार को करना चाहिये था परन्तु वहा दो स्थानो के अतिरिक्त तृतीयस्थान का कथन हुआ नहीं है, अतः इससे यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि सम्यक्त्व के लाभ में प्रतिमा निमित्त नही है । फिर भी प्राणातिपात द्वारा साध्य प्रतिमा पूजन को मोह के आवेश से ऊधे हुए व्यक्ति सम्यक्त्व की शुद्धि का कारण बत लाते हुए अपनी दुर्गति का कुछ भी ख्याल नही करते ह यही एक बडे आर्य की बात है देखो प्राणातिपात को स्थानाङ्ग सूत्र मे दुर्गति
સમ્યગ્દર્શન છે, આમ તીર્થંકર પ્રભુએ કહ્યુ છે જે સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિમા निमित्त ३ये होत तो स्थानाग - सूत्रमा ? " दोहि ठाणेहिं आया देवलिपन्नत्त धम्म भेज्जा सवणयाए આ પ્રમાણે કહ્યુ છે, ત્યા જો સમ્યકત્વના લાભમાં પ્રતિમા પણ નિમિત્ત થઈ શકત તા તેને નિમિત્ત રૂપે થવા અદ્દલ બે સ્થાનાની જગ્યાએ સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિમા ત્રણ સ્થાનાનુ કથન સૂત્રકારે કરવુ જોઈતુ હતુ, પણ ત્યા તેા બે સ્થાને સિવાય ત્રીજા સ્થાનનુ થન થયું જ નથી એથી આ સિદ્ધા તની ખાત્રી થાય છે કે સમ્યકત્વના લાભમાં પ્રતિમા નિમિત્ત નથી છતા ચે પ્રાણાતિપાત વડે સાધ્ય પ્રતિમા પૂજનને અજ્ઞાનની નિદ્રામા પડેલી
વ્યક્તિએ સભ્યત્વની શુદ્ધિનુ કારણુ ખતાવતી પેાતાની દુરવસ્થા તરફ સહેજ પણ જોતી નથી તે એક બહુ નવાઈ જેવી વાત છે જીએ પ્રાણાતિપાતને સ્થાનાગસૂત્રમાં ક્રુતિનુ જ अरथु ताववाभा माव्यु छे - ( प चहि ठाणेहि
ܕܕ
Page #571
--------------------------------------------------------------------------
________________
गारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचर्चा
૩૮૦
किं च यथा लोके सुनाना वर्णमात्रसाम्येना शुद्धसुवर्णेऽपि प्रवृत्तिमवलोक्य शुद्धाशुद्धपरीक्षणान विचक्षणः रुपच्छेदतापा आद्रियते तथाऽनापि परीक्षणीये श्रुतचारिणे वर्मे म्पादय समादरणीया भवन्ति ।
पाणिपादीना पापस्थानाना यस्तु शास्त्रे प्रतिपेन', तथा स्वाध्यायध्यानादीना यत्र तत्र विधि स धर्मरूप | माणिवमपर्कनति पूजने तु धर्मलबुद्धिर्मोहवशादेन भवति, शास्त्रे माणिवयस्य प्रतिषेधात् । अनस्तत्र नास्ति काशुद्धिः ।
1
का ही कारण कहा है " पचहि ठाणेहिं जीवा दुग्गह गच्छति-त जहा - पाणीडवाएण, मुनाषाणं, अदिन्नादाणेण मेहुणेण, परिग्गहेण इति । (५ठा १ ) उन पाचो स्थानो से जीव दुर्गति के पात्र बनते है - प्राणातिपान से, मृपावाद से अदत्तादान से मैथुन से और परिग्रह से । किच-लोक में जिस में जिस प्रकार भोले भाले व्यक्तियो की सुवर्णमात्र की समानता से अशुद्ध स्वर्ण में भी यह सच्चा सुवर्ण है इस प्रकारकी प्रवृत्ति को देखकर सुवर्णपरीक्षक जन उसके सम्यक्त्व और असम्पत्स्व परीक्षाके लिये कप छेद और तप रूप उपायों का अवलम्बन करते है उसी प्रकार परीक्षणीय इस श्रुतचारित्ररूप धर्म की परीक्षा के लिये सूत्रकारों ने कपादिक परीक्षा के साधनो का उपयोग किया हे प्राणिवादिक पापस्थानो का शास्त्र में जो निषेध का विधान हुआ है तथा स्वायाय एव अध्ययन आदि का जो वहा पर विधान किया गया है यही धर्म का रूप है पूजन में यह धर्म कप नहीं है क्यों कि वह प्राणि वध के सपर्क से दूषित है अतः फिर भी जो उसमे धर्म जीवा दुग्गगइ गच्छति-त जहा-पाणाइना एण, मुसावारण, अदिन्नादाणेण मेहु णेण परिग्गहेण इति ) ( स्था ५, ठा १ उ ) आ पाये स्थानोथी व दुग તિને ચેાગ્ય ઠરે છે-પ્રાણાતિપાતથી, મૃષાવાદથી, અદત્તાદાનથી, મૈથુનથી અને પરિગ્રહુથી અને ખીજી પણ કે લેાકમા જેમ ભેળા માણસાની સુવર્ણ માત્રની સમાનનાયી અશુદ્ધ સુષમા પણ આ સેનુ ખરૂ છે, ' આ જાતની પ્રવૃત્તિ જોઈને સુવણુ પરીક્ષકે તેના ખરા-ખાટાની પરીક્ષા માટે કપ, છે અને તાપ રૂપ ઉપાયાના આસરા લે છે તેમજ પરીક્ષણીય આ શ્રુતચરિત્ર રૂપ ધર્માંની પરીક્ષા માટે સૂત્રકારોએ કષ વગેરે પરીક્ષાના સાધનના ઉપયેગ કર્યાં છે પાÇિ વધ વગેરે પાપસ્થાનાનુ શાસ્ત્રમા જે નિષેધ ૩૫ વિધાન થયુ છે તેમજ સ્વાધ્યાય અને અધ્યયન વગેરેનુ જે ત્યા વિધાન કરવામા આવ્યુ છે તે જ ધની કસોટી-કષ છે. પૂજનમા આ ધર્મ ક નથી કેમકે તે પ્રાણિવધના સ પથી દૂષિત છે છતા ય. તેમા ધત્વની બુદ્ધિ રાખવામા આવે છે તે ફક્ત
Page #572
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
___साधकथानसी ____ या पिधि गतिपेधाति दय कदाचित् सम्पती परीत्यन याति, जादस्था याय यानादी नियमतः प्रत्त्या निधिपरिशुद्धिः, तथा हिमादो नियमतो निटत्या प्रतिपेधपरिशुद्धिर्भवति, स धाद उच्यते । प्रतिमापूजाया तु नास्ति छेदशुद्धिः, तम्याः पट्कायोपमर्दनसाम्यत्वेन प्रतिपपपरिशुद्धपभावात् ।
मपचने जीवाजीवादीना तचाना यथास्थितम्घस्पनिरूपा मोसगाधक मित्येव निश्चयस्तापशुद्धिः । यथा यहाँ तापनेन सुवर्णरय यथापस्थितम्मरूपावि र्भाव तथा-प्रवचनोक्ततचानुमन्यानेन धर्मस्य सम्पमानिर्भवति । अत्र प्रतिमा पूजायां प्रवचनोस्तस परनिर्जरातचलक्षणानाक्रान्तत्यानास्ति वाप द्धिः । स्वकी बुद्धि होती है वह केवल मोर का ही आवेग है। प्राणिवध शास्त्र से निपिद्ध है। जहां पर विधि और प्रतिपेध ये दोनों कभी भी अपने स्वरूप से विपरीतपने को प्रोप्त नहीं होते है बा पर छेद से शुद्धि मानी जाती है जिस प्रकार स्वाध्याय और अध्ययन आदि शुभ कार्यों में नियम से शास्त्र में प्रवृत्ति प्रदर्शित की गई है और हिंसादि साया से उसमे नियम से निवृत्ति कही गई है। प्रतिमा पूजन में यह छेद शुद्धि नही है । क्यो कि इसमें प्रतिपे से परिशुद्धि का अभाव है इस को कारण यह है कि चन् पट्काय के जीवों के घात से साध्यकार्य है। प्रवचन में जीव और अजीव आदि तत्वो के यथावस्थित स्वरूप का वर्णन ही मोक्षका साधक है इस प्रकार का निश्चय ही ताप शुद्वि है। जिस प्रकार अग्नि मे तपाने से स्वर्ण का यथावस्थित स्वरूप प्रकट होता है। उसी प्रकार प्रवचन कथित तत्त्वो के अनुसन्धान से धर्म के स्वरूप का अविर्भाव होता है इस प्रतिमापूजन मे धर्मतत्त्वके अविर्भाव करने અજ્ઞાનને જ ઊભરે છે પ્રાણિ વધ શાસ્ત્રનિષિદ્ધ છે જ્યા વિધિ અને પ્રતિષેધ આ બને કોઈ પણ વખતે પિતાના સ્વરૂપથી વિપરીતાવરથામાં પરિવર્તિત થતા નથી ત્યા છેદથી શુદ્ધિ માનવામાં આવે છે જેમ સ્વાધ્યાય અને અધ્યયન વગેરે શુભ કાર્યોમાં નિયમથી શાસ્ત્રમાં પ્રવૃત્તિ બતાવવામાં આવી છે અને હિંસા વગેરે કાર્યોથી તેમા નિયમથી નિવૃત્તિ બતાવવામાં આવી છે પ્રતિમા પૂજનમાં આ છેદ શુદ્ધિ નથી કેમકે આમાં પ્રતિષેધથી પરિશુદ્ધિને અભાવ છે આનુ કારણ આ પ્રમાણે છે કે તે પકાયના જીવન ઘાતથી સાધ્ય કાર્ય છે પ્રવચનમાં જીવ અને અજીવ વગેરે તેના યથાવસ્થિત સ્વરૂપનું વર્ણન જ મોક્ષનુ સાધક છે આ જાતને નિશ્ચય જ તાપ શુદ્ધિ છે જેમ અગ્નિમાં તપા વવાથી સેનાનુ યથાવસ્થિત સ્વરૂપે પ્રગટ થાય છે તેમજ પ્રવચન કથિત તના અનુ ધાનથી ધર્મના સ્વરૂપને આવિર્ભાવ થાય છે આ
ધર્મ
Page #573
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतयपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
३९१ एभिः कपादिभिः परिशुद्धस्यैर पर्मत्व समरति तादृशस्यैर धर्म फल जनस्त्यात् ।
या-नागार्मादिदोपदापिताहारादिदाने धर्मयुद्धया क्रियमाणे धर्मव्याघात', यथा वा इन्द्रादिपजादी धर्म व्याघातः, तथैव धर्मबुद्ध मा प्रनिगपूजनेऽपि धर्मव्याघातः स्यात् । तस्य जीवोपत्रातहेतुत्वात् ।
“मतिमापूना-धर्मव्याघातपती, नागमोक्तन्यायनिगमतत्वात् , अयोग्यप्रवज्यादानपत् , इन्द्रादिपजावद वा" इत्याद्यनुगानेनापि प्रतिमापूजाया धर्मव्याघातो भवतीति विश्थमनीयम् । उक्त च-- की योग्यता तक भी नही है। कारण कि यह प्रवचन कथित मवर और निर्जरा तय के लक्षण से युक्त नहीं है-अत उसमें तार शुद्धि भी नहीं है। इन कपादिको छोरा परिशुद्ध हुई वस्तु ने ही वर्मना आती है और वही यथार्थ मे धर्म के फलका प्रदाना होता है। प्रतिमा जन मे यह बात नही हे-अत. वह धर्मस्प नहीं है।
किंच-वर्मबुद्धि से बनाये गये, परन्तु आ पाकर्म आदिदोषों से दूपित ऐसे आहार के दान में तथा इन्द्र आदिको का पूजन करने में जिस प्रकार धर्म का व्यापात माना गया है, उसी प्रकार धर्मपुद्धि से की गई प्रतिमा का पूजन में भी जीवो का घात होने से धर्म का व्यागत होता है। इमलिये आगम कथित मिद्धान्त के अनुसार यह प्रतिमापूजन उपोदेय कोटि में नहीं आना है। फिर भी जो इसे करते है-कराते है-वे आगम कयित मिद्वान्त से सर्वथा पाय ह-और धर्म का व्याघात करતત્વને આવિર્ભત કરવા સુધીની પણ ક્ષમતા નથી, કેમકે આ પ્રવચન કથિત સ વર અને નિર્જરા તવના લક્ષણથી ચુકત નથી એટલા માટે આમા તાપ શુદ્ધિ પણ નથી આ નવ વગેરે વડે પરિશુદ્ધ થયેલી વસ્તુમાં જ ધર્મતા આવે છે અને તે જ સાચા સ્વરૂપમાં ધર્મના ફળને આપનાર છે પ્રતિમા પૂજનમાં આ વાત નથી એથી તે ધર્મ રૂપ નથી
ધર્મબુદ્ધિથી સિયાર કરવામાં આવેલા, પણ આધાકર્મ વગેરે દે ૧૩. દૂષિત એવા આહારના દાનમાં તેમજ ઈદ્ર વગેરેની પૂજા કરવામાં જેમ ધર્મને વ્યાઘાત માનવામાં આવ્યું છે, તેમ જ ધર્મબુદ્ધિ રાખીને કરવામાં આવેલા પ્રતિમા પૂજનમાં પણ જીવને ઘાત હોવાથી ધર્મને વ્યાઘાત હોય છે એટલા માટે આગમ કથિત સિદ્ધાન્ત મુજબ આ પ્રતિમા પૂજન ઉપાદેય કેરિમા આવતુ નથી છતા કે જે આને કરે છે, કરાવે છે તેઓ આગમ પ્રતિ સિદ્ધા તથી સર્વથા બાહ્ય છે અને ધર્મના વાઘાતક છે એવી અાગ્યને આપેલી
Page #574
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९२
winter arrest
"मायादिविधाने च वातोक्तन्यायाधिते ।
द्रव्यादिभेदतो यो धर्म पत्रात पत्र हि "|| हारिद्राष्टकम् य - जिनमतिमाया दर्शन न चापमेन गानामिति पन्नाधा भक्तपान न करने तेपामित्याहुस्तनिर्मूलम्
अहोरानन्येषु माथुरल्पेषु जिनमतिमादर्शनादेरनुक्तलात् । शृणु तादोरात्र
कृत्य माधुनाम्~~
नेवाले है अतः अयोग्य को दीक्षा दान की तरह जब इन्द्रादिक के पूजन की तरह यह प्रतिमापूजन आगमोक्त व्याय से निराकृत होने से धर्म का व्याघात करनेवाला है ऐसा विश्वास करना चाहिये । तथाच अनुमानप्रयोगोऽय-प्रतिमापूजा वर्मव्यापानपती आगमोक्ल्याप निराकृ तत्वात् अयोग्यप्रव्रज्या दोन्चत इन्द्रादिपूजन पहा । इस अनुमान में दिया गया हेतु असित नही है क्यो कि " माज्यादिनिधाने च शस्त्रोक्तन्या यवाधिते - द्रव्यादिभेदतो ज्ञेयो धर्मव्यायात एव हि " दृष्टान्त में इस हेतु का इस लोक द्वारा कथित प्रकार से सद्भाव पाया ही जाता है।
जो यह कहा जाता है कि जिनमनमा के दर्शन चन्दन किये बिना साधुओं को आहार पानी करना कल्पनीय नहीं है-अत. उसका दीन वन्दन करना साबुओ के लिये आवश्यक है वह बिलकुल निर्मूल हैकारण कि दिनरात साधी जितने भी साबुओं के कल्प है उन में इस बात का कही भी कथन किया हुआ नही मिलता है - दिनरात मधी साधुओं के ये कृत्य है—
દીક્ષાની જેમ અથવા તેા ઇન્દ્ર વગેરેની પૂજાની જેમ આ પ્રતિમાપૂજન આગમ કથિત ન્યાયથી નિરાકૃત હાવા ખદલ ધર્મો નાશ કરનારૂ છે આમ માની જ सेवु ले " तथा च अनुमानप्रयोगोऽय प्रतिमापूजा धर्मव्याधातवती आगमो क्तन्यायनिराकृतत्वात् अयोग्य प्रव्रज्यादानात् इन्द्रादिपूजनयद्वा । या अनुमानभा आपेस हेतु असिद्ध नथी, आशु -प्रब्रज्यादिविधाने च शास्त्रोक्त न्यायवाधिते - द्रव्यादिभेदतो ज्ञेयो धर्मव्याघात एव हि । दृष्टातभा भा हेतुना था ૐ જે કથિત પ્રકાર છે તેના સદ્ભાવ મળે છે
જે એમ કહેવામા આવે છે કે જીન પ્રતિમાના દર્શન કર્યાં વગર સાધુ એને આહાર પાણી કરવુ ચેાગ્ય નથી એથી તેના દર્શન વન્દન કરવા સાધુ એના માટે આવશ્યક છે તે સાવ ખેાટી વાત છે. કેમકે દિવસ અને રાત્રિને લગતા સાધુએને માટે જેટલા કપ છે તેમા આ વાતનુ કથન કયાયે નથી દિવસ અને રાત્રિના સાધુઓના આ નીચે લખ્યા મુજખ ત્યા
Page #575
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचया
३९३ पढम पोरिसि सज्झायं, पीए झाण झियायए । तइयाए भिवस्वायरिय, चउत्थीए पुणो नि सज्झाय ॥ पढम पोरिमि सज्झाय, पीए झाण झियायए। तइयाए नि मोरख च, चउत्थीए पुणो वि सज्माय ॥ इति,
(उत्तराध्ययनमत्रे २६ अ ) किं च-सामायिकाद्यावश्यकेपपि प्रतिमादर्शनादेरनुक्तत्वाद् जिनाज्ञाया एव च धर्ममूलत्वातस्य धर्मत्व न सि यति । __यत्तु-पुप्पादिसमभ्यर्चन क्षणो द्रव्यस्तवः साधुना हेय एन श्रावकेण तु उपादेयोऽपि तथा चाह-माष्यकार:
अकसिणपरत्तगाण, पिरयाविरयाण एस खलु जुत्तो।
ससारपयणुकरणो दपत्थए रुवदिहतो ( भाप्यकारः ४२) पढम पोरिसि सज्झाय धी माण जियायए । तट्याए भिवायरिय चउत्थीए पुणो वि सज्झाय ।। पढम पोरिसि मज्झाय बीए झाणं झियाय । तइयार निद्दमोरख च च उत्थीए पुणो वि सज्झाय ॥
(उतरा सून २६ अ.) अर्थस्पष्ट है । इसी प्रकार सावुओं के जो सामायिक आदि आवश्यक कृत्य है, उनमें भी प्रतिमा के दर्शन आदि करना नहीं कहा है। धर्म का मूल तो जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा की आरोपना करने में है इसलिये दर्शन वगैरह ये धर्म के मूल नहीं हैं। भाष्यकारने जोइस गाया द्वारा "अकसिण पवत्तगाण विरयोविरयाण एस खलु जुत्तो। ससार पयणुकरणो दव्यथए वदितो" (भाष्यकार ४२) यह कहा है कि
पढमे पारिसि सज्झाय बीए झाण झियायए । तइया भिक्खायरिय चउत्यिप पुणो वि सज्ज्ञाय ।। पढमे पोरिसि सज्झाय बीए झाण झिया। तइयाए निमोक्ख च चउथिए पुणो वि सज्झार ॥ (उत्तरासूत्र-२६ अ)
અર્થ સરળ જ છે આ રીતે સાધુઓના જે સામાયિક વગેરે આવશ્યક કૃત્યા છે તેમનામાં પણ પ્રતિમાના દર્શન વગેરે કરવાની વાત કહી નથી ધમનું મૂળ તે જીનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાને આરાધવામાં આવે છે માટે દર્શન पर २ मा भनाभा नथी माव्यारे ने पाया 43-(अकसिण पवनगाण पिरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । ससारपयणुकरणो दव्यत्थए
सा ५०
Page #576
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९४
माताधर्मकथा अकृत्स्नमपर्वकानां पातनसयमममिता ग्विापिरताना देगपिरतीना श्रावकाणाम् एप द्रव्यस्तर' रालु युक्त एष । विभूनोऽयमित्याह-ससार प्रतनु फरण-समारक्षयकारकः इत्यर्थ। ननु गायोग महामुन्दर: सक्थ श्रापकाणा युक्त ? । इत्यारादायाह-कृपाप्टान्त इति___यथा लोके केऽपि जलागावतातणाग. पिपामापनोपनार्थप सनन्ति ते कृपसनका मृत्तिकारमादिगिय मल्गिा भवन्ति, पथात् तदम्पेन जलेन तेपा तृप्णायास्तथा मृदमगलस्य च नागो भाति तदनन्तरमपि ते तदन्ये च श्रवणों के लिये उपादेय भी पुष्प आदिको द्वारा भगवान की पूजा स्व रूप द्रव्यस्तव साधुओं के लिये हेयी है। क्यों कि साधु नर्व आरम और परिग्रह के सर्वमा त्यागी है-पाक नही वे देश विरति सपन्न हैं । अतः उनके लिये द्रव्यस्तव ससार का क्षय कारक माना गया है कृप का दृष्टान्त देकर मायकार ने हमशका का परिवार किया है कि जिस प्रकार जल के अभाव से पिपासा को दर करने के लिये कोई २ मनुष्य कूप को खोदते है और उसे खोदते समय मिट्टी और कीचड से मलिन भी हो जाते हैं परन्तु पश्चात् उस कूप में निकले हुए जल से वे उस कीचड और लगी हुई मिट्टी को साफ कर देते हैं और समय २ पर अपनी पिपासा की भी शाति करते रहते ह । दमरे और भी लोक उससे लोभ उठाते है। इस प्रकार उस जलयुक्त कुएँ से खोदने वाले व्यक्तियों को तथा और भी अन्यजनों को समय २ पर अनेक प्रकार से लाभ होता रहता है। ठीक इसी तरह इस द्रव्यस्तव मे जो कि सयम कृवदिट्ठतो।) (भाष्यकार ४२ ) म प्रभारी डधु श्रावहीन भाटे 6॥ દેય હોવા છતા પુષ્પ વગેરે વડે ભગવાનની પૂજા સ્વરૂપ દ્રવ્યતવ સાધુઓના માટે તે ત્યાજ્ય જ છે, કેમકે સાધુ સર્વ આર ભ અને પરિગ્રહના સપૂર્ણપણે ત્યાગી હોય છે. શ્રાવક નથી, તેઓ દેશ વિરતિ સંપન્ન છે એટલા માટે તેમને સામે રાખીને વિચાર કરીએ તે દ્રવ્યન્તવ સસારને ક્ષય કરનાર માનવામાં આવ્યા છે ફૂપનું દાત આપીને ભાષ્યકારે આ શાને દૂર કરી છે કે જેમ પાણના અભાવને લીધે પીડાઈને તરસ મટાડવા માટે કેટલાક માણસે વાવ
દે છે અને તે વખતે તેઓ માટી અને કાદવથી ખરડાઈ જાય છે પણ ત્યાર પછી વાવમાથી નીકળતા પાણીથી જ તેઓ કીચડ તેમજ શરીરે ચટેલી માટીને સાફ કરી નાખે છે અને વખતો વખત પોતાની તરસ પણ મટાડે છે બીજા પણ કેટલાક લોકે તેનાથી લાભ મેળવે છેઆ રીતે તે પાણી ભરેલી વાવથી
Page #577
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारच मृतपिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा
३९५
लोका जलेन सुसिनो भवन्ति एव तद्यप्यमयमो मरति तथापि तत एव सा परिणामशुद्धिर्भनति, या तद् असयमोपार्जितमन्यच निरवशेष क्षपयति इति । " तम्मादनिरताः रेप द्रव्यस्त कर्तव्य । शुभानन्त्री मभूतनिर्जराफल इति कृपा " उत्युक्तम् -
तदसत् - मंत्र हि कृपदृष्टान्तो न सघटते कृपग्वननेन जलमुत्पद्यते इति सफल लोकप्रत्यक्ष, किन्तु पलायन कुर्वतः कारयतश्च धर्ममूलभूताया दयाया एव की रक्षा नही होती है, तो भी यह कर्त्ता को परिणामों में शुद्धि का हेतु होता है । इससे कर्त्ता उस द्रव्यस्तव के करने मे उद्भूत असयम द्वारा उपार्जित पापो का सम्पूर्णरूप से विनाश कर देता है । इसलिये विरताविरत ( एकदेश सयम की आराधना करनेवाले पचमगुणस्थानवर्ती श्रावको द्वारा यह द्रव्यस्तव कर्तव्य कोटि में आने से उपादेय है । कारण कि यह उनके लिये शुभानुनवी और कर्मों की अधिक निर्जरा रूप फल का प्रदाता होता है " यह सब भाष्यकार का कथन ठीक नही है। कारण कि उन्हो ने जो कूप का दृष्टान्त देकर इस विषय की पुष्टि करनी चाहिये, उससे प्रकृत विषय की वास्तविक पुष्टि नही होती है । यह तो प्रत्येक लौकिक जन के प्रत्यक्ष अनुभव मे आने जैसी बात है कि कृप के खोदने से जल निकलता है उम्र में तो विवाद की कोई जरू रत ही नहीं है, किन्तु प्रतिमा की पूजा करने और करानेवालो से षट्
ખેાદનાર લેાકાને તેમજ બીન્હ પણ ઘણા માણમેને વખતે વખત ઘણી રીતે લાભ થતા રહે છે. ઢી. આ પ્રમાણે જ દ્રવ્યન્તવમા જે કે સમની રક્ષા થતી નથી, છતાય તે કર્તાના માટે પરિણામમા શુદ્ધિનુ ારા હોય છે તેનાથી કર્તા તે દ્રવ્યસ્તવના કવ્વામા ઉર્દૂભૂત અસયમ વડે મેળવેલા પાપાના મ પૂર્ણ પણે વિનાશ કરી નાખે કે એથી વિરતાવિરત ( એકદેશ સ યમની આરાધના કરનાર પચમ ગુણસ્થાનવી ) શ્રાવકો વડે આ દ્રવ્યસ્તવ બ્યકોટિમા આવવાથી ઉપાદેય છે કારણ કે તે તેમના માટે શુભાનુળ ધી અને કર્મોની વધારે નિર્જરા ફળને આપનાર છે ભાષ્યકારનું આ બધુ કથન ચેગ્ય નથી, કારણ કે તેઓએ જે વાવનુ દૃષ્ટાત આપીને આ વિષયની પુષ્ટિ કરવા પ્રયત્ન કર્યો છે, તેનાથી પ્રકૃત વિષયની વાસ્તવિક રૂપમા પુષ્ટિ વતી જોવામા આવતી નવી દરેકે દરેક માણુના માટે આ તે એક પ્રત્યક્ષ અનુભવ કરી શકાય તેવી હકીકત છે કે વાવ ખેાદવાથી પાણી નીકળે છે, આમા તે ચર્ચાની ફેઈ વાત તજયંગભી થતી નથી પણ પ્રતિમાની પૂજા કરનાર અને કરાવનારાએથી
Page #578
--------------------------------------------------------------------------
________________
हाताधर्मकथा काय के जीयो की रक्षा नी रो सफनी है-उनसे उनकी चिराधना होती है। ऐसी परिस्थिति में धर्म के मूलभूत सिद्धान्त का ही जय वहां अभाव है तब उस पूजन कार्य के उनके परिणामों में शुद्धि मानना यह कथन शास्त्र से विरुद्ध और प्रत्यक्ष आदि समस्त प्रमाणों से बाधित होता हुआ किसी भी समझदार व्यक्ति को मान्य नहीं हो सकता है प्रतिमा पूजनके पक्षपाती जो इस प्रकार अपने पक्षमें तर्क करते है कि
सम्यक स्नात्वोचिते काले सस्नाप्यच जिनान् फ्रमात् । पुप्पाहारस्तुतिभिश्च पूजयेदिति तहिधिः॥
तथा-जिनप्रभसूरिस्कृतपूजाविधी-सरससुररिचदणेण अगेतु पूअ काऊण पचगकुसुमेहि गपचासेहिं च पृएड सढणे सुगधिभिः सरसैरभूपतितैर्विकाशिभिरसहितदलै' प्रत्यग्रेश्च प्रकीर्ण नाप्रकारप्रथि तैर्वा पुष्पैः पूजयेत्" इति-तथा-कुसुमक्सयगधपईवधूयनेवेजफलज लेहिं पुणो अविकम्मदलनी अठ्ठपयारा हवड पूया" इति किञ्च
जिनभवन जिनपिम्न जिनपूजा जिनमत च यः कुर्यात्। तस्य नरामरशिवसुखफलानि करपल्लवस्थानि ॥ કાય જીવોની રક્ષા થઈ શકતી નથી, તે કાર્યથી તે તેમની વિરાધના જ હોય છે. આવી પરિસ્થિતિમાં ધર્મના મૂળભૂત સિદ્ધાન્તને જ જ્યારે અભાવ છે ત્યારે તે પૂજા રૂપ કાર્યથી તેમના પરિણામમાં શુદ્ધિ માનવી આ વાત શાસ્ત્રથી વિરૂદ્ધ અને પ્રત્યક્ષ વગેરે બીજા બધા પ્રમાણેથી બાધિત થતી કઈ પણ સમજુ માણસના માટે તે માન્ય થઈ પાકે તેમ નથી પ્રતિમા પૂજનની તરફદારી કરનારા પિતાની વાતને પુષ્ટ કરવા માટે જે આ જાતની ખાટી દલીલ સામે મૂકે છે કે –
सम्यक् स्नात्वोचिते काले सस्नाप्य च जिनान् क्रमातू । पुष्पाहारस्तुतिभिश्च पूपयेदिति तद्विधि ॥
तथा-जिनप्रभृसूरिकृतपूजाविधौ-सरस-सुरहिच दणेण अगेसु पूअ काउण पचगकुसुमेहि गधवासेहि य पूएइ सतणे सुगधिभि सरसैरभूपतितैर्विकाशिभिरसहित दलै प्रत्यप्रैश्च प्रकोणैर्नानाप्रकारगथितैर्वा पुष्पै पूजयेत् । इति तथा कुसुमक्सयगधपईवधूयनेवेनफलजलेहि पूणो अदुविहकम्मदलनी अटुपयारा हवा पूया" इति किश्च
जिनभवन जिनविम्ब जिनपुजा जिनमत च य कुर्यात् । तस्य नरामरशिवसुखफलानि करपल्लवस्थानि ॥
Page #579
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
३९७ ममुन्छेदार परिणामशुद्धिरत्पद्यत इति प्रवचनविरुद्ध कल्पन सर्वममाणाधित कस्यानुमत भवेत् । अपि तु न स्यापि ।
(आचारागमूने भगवताऽभिहितम् (ज १ उ १) "हमस्म चेव जीवियम्स परिवदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुकश्यपडिघायहेउ से सयमेव पुढविसत्य समारभड, अण्णेहिं वा पुढविमत्य समारभावेइ,
भावार्थ-पृजक उचित समय में अच्छी तरह स्नान करके जिनेन्द्र का अभिषेक कर पुष्प आदिकों से उन की पूजा करे । जिनप्रभसूरि द्वारा विरचित पूजाविधि मे भी पूजा के विपय में रही विधि प्रदर्शित की गई है सरस सुगधिन चदन से भगवान के नव अगो में तिलकरूप पृजन कर पूजक सुगधित, जमीन पर नहीं गिरे हुए, पत्र विनाके ताजे पच जाति ते पुप्पो दाग प्रभु की पूजा करें। पुष्प, अक्षत, गध, प्रदीप, धृप, नैवेद्य फट और जल इन आठ द्रव्यो से आठ कर्मों को नाश कर नेवाली अघ्यकारी पूजा होती है। जिनमदिर, जिनप्रतिमा जिनपूजा
और जिनमत को जो करता है, उस मनुष्य के हाथ मे मनुष्यगति देवगति और मोक्ष के सुख आ जाते है-अर्थात वह मनुष्य इन गतियो के सर्वोत्तम सुख भोग कर मोक्षसुख का भोक्ता पन जाता है-सो इस प्रकार का यह पूजन विपयक समस्त कयन प्रवचन सिद्ध ही है क्योंकी आचारोगसूत्र में भगवान ने "इमस्स चेव जीवियस्स परिवदण माणण प्रयणाए जाइमरणमोयणोए दुपखपरिघायहेउ से सयमेव पुढविस
ભાવાર્થ–પૂજા કરનાર ચોગ્ય સમયે સારી રીતે સ્નાન કરીને જીનેન્દ્ર અભિષેક કરે તેમજ પુષ્પ વગેરેથી તેમની પૂજા કરે જીનપ્રભસૂરિ વડે વિર ચિત પૂજાવિધિમાં પણ પૂજાના વિષયમાં આ વિધિ જ બતાવવામાં આવી છે સરસ સુગણિત ચદનથી ભગવાનના નવ અ ગેમા તિલક રૂપ પૂજન કરી પૂજા કરનાર સુવાસયુકત, જમીન ઉપર પડેલા નહિ, પત્ર વગના તાજા, પાચ જાતિના પુષ્પથી પ્રભુની પૂજા કરે પુપ, અક્ષત, ગ ધ, પ્રદીપ, ધૂપ, નૈવૈદ્ય, ફળ અને પણ આ આઠ દ્રવ્યોથી આઠ કર્મોને નષ્ટ કરનારી અષ્ટ પ્રકારની પૂજા હોય છે જીન મદિર, જન પ્રતિમા, જીન પૂજા અને જીન મતને જે કરે છે, તે માણસની પાસે મનુષ્ય ગતિ, દેવગતિ અને મોક્ષના સુખે આવી જાય છે એટલે કે તે માણસ આ ગતિઓના સર્વોત્તમ સુખ ભોગવીને મેક્ષ સુખને ભગવનાર બની જાય છે, માટે આ જાતનુ આ પૂજનને લગતુ બધુ કથન प्रपयन मि छ, भले माया सूत्रमा भगवाने-( इमस्स चेव जीवि यस्स परिव दण माणणपुयणाए जाइमरणमोयणाए दुस्सपरिघायहेउ से
Page #580
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९८
माया अण्णे या पुटनिमन्ध समारगते समणुजाण । त से अदियाप त से योगीए । इति
जीयः कस्म भयोजनाय पृथिवीरापस्प ममारम्भ करोतीत्या:-" उमस्स चेव" इत्यादि । अस्यै रमणगरस्य, "जीरिया" जीपमस्य-नीचनस्याथे, तथा परिपन्दनमाननपूजनाय-परिसदन प्रशसा, तदर्थ यथाऽऽर्यगृहाटिकरणे, मानन=सत्कारः तदर्थ, यया कीर्तिस्वम्भादिकरणे, पूनसान ! प्रतिमापूजन च, तर स्वपूजन-पत्ररत्नादिपुरस्कारलाभस्तदर्थ, तया-प्रतिमापूजनाः च प्रति मादिरचने तथा जातिमरणमोचनाय, तथा दुयमविधातहेतु-दु खपि गाय । त्य समार मह, अण्णेहिं चा पुढविसत्य ममारभावेत, अण्णे चा पुढवि सत्य समोरभते समणुजाण । त से अहियाए त से अमोरिय" इतिइस सूत्र में "जीच किस प्रयोजन के लिये पृधिवीगार का समारभ करता है" इस प्राको उत्तर देते हा यह कहा है कि यह जीय इस क्षणभगुर जीवन के लिये परिवन्दन-प्रशंसा के लिये-आश्चर्योत्पादक गृह आदि वनवा न दें मान-सत्कार के लिये कीर्तिस्तभ आदि कराने में, अपनी प्रतिष्ठा के लिये वस्त्र रत्नमाल आदि पुरस्कार में तथा प्रतिमापूजन के लिये प्रतिमादि बनवाने मे तया जाति--परलोक में सुख के लिये देवमन्दिर आदिके बनवानेमे, भरण-जिगकी नृत्यु हो चुकी है ऐसे अपने पिता आदि की स्मृति के लिये स्तूप आदि की रचना कराने ने मे, मोचन मुक्ति प्राप्ति के लिये देव प्रतिमा आदि बनवाने अथवा अनेक प्रकार के दुःखों के विनाशके लिये वर्तमानकालमे स्वय भी पृथिवी सममेव पुढविसत्थ समार भइ, अण्णेहि वा पुढविसत्य समार भावेइ, अण्णेवा पुढविसत्थ समार भते समणुजाणइ त से अहियाप त से अमोहिए ) इति“ જીવ શા માટે પૃથ્વિીકાયને સમાર ભ કરે છે એ સવાલનો જવાબ આપતા આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે કે આ જીવ આ ક્ષણભંગુર જીવન માટે પરિવદન-પ્રશસા માટે આશ્ચર્યોત્પાદક ઘર વગેરે બનાવવામાં, માન–સંસ્કાર માટે કીર્તિસ્તા વગેરે તૈયાર કરાવવામાં, પિતાની પ્રતિષ્ઠા માટે વસ્ત્ર, રન, કામળ વગેરે રૂપ પુરસ્કાર તેમજ પ્રતિમા પૂજન માટે પ્રતિમા વગેરે બના વવાને જાતિ પરલકમાં સુખ પ્રાપ્તિ થાય તેના માટે દેવમંદિરો વગેરે તૈયાર કરાવવામા, મરણ-જેઓ મરણ પામ્યા છે તેવા પિતાના પિતા વગેરેની યાદમાં કપ, સમાધિ વગેરે બનાવવામાં, મેચન-બુકિત મેળવવા માટે દેવ-પ્રતિમા વગેરે બનાવવામાં અથવા તે ઘણી જાતના દુખેના વિનાશ માટે વર્તમાન કાળમાં પિતે પણ પૃથ્વિીકાયના વિના સ્વરૂપ દ્રવ્યભાવ પાપાર
Page #581
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
३०९ सः जीवनपरिचन्दनमाननपूजनाद्यर्थ जनः स्वयमेन पृथिवीशस्त्र समारभते =पृथिव्युपमर्दक द्रव्यभावशस्त्र व्यापारयति । अन्यैर्या पृथिवीशस समारम्भयति
उयोजयति । पृथिवीशस समारममाणान् अन्यान समनुजानाति अनुमोन्यति । एवमतीतानागता-या, तथा मनोवाकायश्च पृथिवीशस्त्रसमारम्भभेदा पवगन्तव्याः। पृथिवीगस समारभमाणः कि फल प्राप्नोतीत्याह-"त से अढियाए" इत्यादि । "त 'तत्-पृथिवीकायसमारम्भण, "से" तस्य-पृथिवीशस्त्र समारभमाणस्य "जहिया" भहिताय अराणाय भवतीति शेपः। 'त' तत् = तदेव च पृथिवीकायसमारम्भणमेव च "से" तस्य पृथिवीशस्त्र समारभमाणस्य "जयोहीए " अपोषये सम्यक्त्वालाभाय जिन धर्मप्राप्त्यभावाय च भरति ।
पृथिवीरायरामारम्भण हि-कृतकारितानुमोदितभेदेन निविवम् , तरयातीतकाय के विनाशस्वल्प द्रव्य भाव शत्रका व्यापार करता है, इसरों से कराता है और इन शस्त का प्रयोग करने वाले प्राणियोकी अनुमोदना करता है इसी प्रकार भूत और भविष्यत काल में मनवचन और काय से(त्रियोग और त्रिकरणके सरवरे) यह जीव पृथिवी कायका समारम्भ करने गला हुआ है और रोगा। अतः जिस प्रकार वर्तमान में त्रियोग
और त्रिकरण के सर से इस पृधिरी काय समारम के भेद होते है उसी प्रकार भूत और भविष्यत काल मे भी उनके सध इसके भेद जानलेना चाहिये। यह प्रथिवी काय का समारभरूप शस्त्रका प्रयोग प्रयोका जीवको कभी भी कल्याण एब लम्बात्य के लाभ जिन धर्म की प्राप्ति की प्रासि कराने वाला नहीं होता है। _भावार्थ-पृथिवीकाय का ममारम्भ ठूल, कारित और अनुमोदना ( નાય) કરે છે, બીજાઓ પાસે કરાવે છે અને આ નમ્ર પ્રગ કરનાર પ્રાણીઓની અનુમોદના કરે છે આ પ્રમાણે ભૂત અને ભવિષ્ય ળમાં મન. વચન અને કાયથી ( ત્રિગ અને ત્રિકરણના અબ ધથી) આ જીવ પ્રષ્યિ કાયને સમાર ભ કરનાર થયે છે અને થશે એટલા માટે જેમ વર્તમાનકાળમાં વિગ અને ત્રિકરણના સ બ ધથી આ પૃવિનાય સમાર ભના ભેર (પ્રકાર) હોય છે તેમજ ભૂત અને ભવિષ્યત કાળમાં પણ તેમના સ બ ધ તેમજ ભેદ જાણી લેવા જોઈએ આ પૃથ્વિલાયના સમારભ રૂપ શસ્ત્રને પ્રયોગ પ્રયતા જીવના માટે કદાપિ કલ્યાણ સમ્યકત્વનો લાભ તેમજ જીન ધર્મની પ્રાપ્તિ કરાવનાર થતો નથી - ભાવાર્થ-બૃધ્ધિકાને સમાર ભકૃત, કાતિ અને અનુમોદનાના ભેદથી ત્રણ પ્રકારનો છે અતીત અને અનાગત કાળના ભેદથી તેના બીજા ત્રણ ત્રણ
Page #582
--------------------------------------------------------------------------
________________
% 3D
३९८
माताधर्मकयाret अण्णे या पुरविसन्थ समारगते सगणुजाणइ । त से अदिया त से अमोठीए । इति
जीयः कस्मै प्रयोजनाय पृथिवीमायस्य समारम्भ करोतीत्याद-" उमस्स चेव" इत्यादि । अस्यैर-मणगपुरस्य, "जीरियस्म" जीनस्य-जीवनम्याथे, तथा परिपन्दनमाननपूजनाय परिषदन प्रशसा, तदर्थ यथाऽऽधर्य हादिकरणे, मानन-सत्कारः तदर्थ, यया कीर्तिस्वम्मादिकरणे, पूजनम् सपूजन प्रतिमापूजन च, तन स्वपूजन-पत्ररत्नादिपुरस्कारलाभस्तदर्थ, तथा-मतिमापूजनार्थ च प्रति मादिरचने तया-जातिमरणमोचनाय, तथा दु समविघातहेतु-उगविश्यमा । त्य समारमह, अण्णेहिं वा पुचिसत्य नमारभावेड, अण्णे चा पुढवि सस्य समारभते समणुजाणइ । त से अहियाप त से अमोनिए" इतिइस सत्र में "जीव किस प्रयोजन के लिये प्रधिवीमाय का ममारभ करता है " इस प्रश्नको उत्तर देते हुए यह कहा है कि यह जीव इस क्षणभगुर जीवन के लिये परिचन्दन-प्रशंसा के लिये-आश्चयोत्पादक गृह आदि बनवा न दें मान-सत्कार के लिये कीर्तिस्तभ आदि कराने में, अपनी प्रतिष्ठा के लिये वन रत्नमाल आदि पुरस्कार में तथा प्रतिमापूजन के लिये प्रतिमादि यनवाने में तथा जाति-परलोक मे सुख के लिये देवमन्दिर आदिके बनवानेमे, मरण-जिनकी मृत्यु हो चुकी है ऐसे अपने पिता आदि की स्मृति के लिये स्तूप आदि की रचना करान ने मे, मोचन-मुक्ति प्राप्ति के लिये देव प्रतिमा आदि बनवानेमे अथवा अनेक प्रकार के दुःखों के विनाशके लिये वर्तमानकालमे स्वय भी पृथिवा
सममेव पुढविसत्थ समार भइ, अण्णेहि वा पुढविसत्य समार भायेइ, अण्णेता पुढविसत्थ समारभते समणुजाणइ त से अहियाए त से अमोहिए ) इति“ જીવ શા માટે પૃથ્વિીકાયનો સમારભ કરે છે” એ સવાલનો જવાબ આપતા આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે કે આ જીવ આ ક્ષણભંગુર જીવન માટે પશ્વિદન-પ્રશ સા માટે આશ્ચર્યોત્પાદક ઘર વગેરે બનાવવામા, માન-સત્કાર માટે કીર્તિસ્ત સે વગેરે તૈયાર કરાવવામાં, પિતાની પ્રતિષ્ઠા માટે વસ્ત્ર, રન, કામળ વગેરે રૂપ પુરસ્કાર તેમજ પ્રતિમા પૂજન માટે પ્રતિમા વગેરે બના વવામાં જાતિ પરલેકમાં સુખ પ્રાપ્તિ થાય તેના માટે દેવ-મદિર વગેરે તૈયાર કરાવવામા, મરણ–જેઓ મરણ પામ્યા છે તેવા પિતાના પિતા વગેરેની યાદમાં
, સમાધિ વગેરે બનાવવામા, મોચન-મુકિત મેળવવા માટે દેવ-પ્રતિમા વગેરે બનાવવામાં અથવા તે ઘણી જાતના ૮ ના વિનાશ માટે વર્તમાન કાળમાં પોતે પણ પૃથ્વિીકાયના વિનાશ સ્વરૂપ દ્રવ્યભાવ
પાર
Page #583
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतषिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
४०१ मलभ्य, किं पुनस्तन पटकायसमारम्भणे स्वर्गापगलामस्य सभव । परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ दु'खप्रतिघातार्थ च ये जीवाः पृथिवीकायादिसमारम्भ कुन्ति, ते तत्फल विपरीतमेन लभन्ते यतोऽसौ समारम्भः अबोधिमहित चोत्पादयतीत्युक्त भगवता । परतु तत्र प्रतिमापूजसा शास्त्रविरुद्धमेव कथयतिप्रतिमापूजाया स्वाभ्युदयमोक्षार्थ क्रियमाणः पट्झायसमारम्भः खलु अपोधिमजीन के लिये यह अफेला पृथिवीकाय का समारभ ही अहित का कर्त्ता
और मोक्ष के मार्ग से वचित रग्वनेवाला कहा गया है तो भला किस कार्य में पट्काय के जीवों को समारभ होता है, उस कार्य से अथवा उस प्रकार के समारभ से जीवों को स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) का लाभ कैसे हो सकता है ? अर्थात् किमी तरह नहीं हो सकता।
जो मनुष्य परिवदन मानन और पूजन के निमित्त तथा जाति और मरण के मोचन के निमित्त एव दु'ग्वो के विनाश करने के निमित्त पृथिवीकाय आदि को समारभ करते है, वे उसका विपरीत ही फल भोगते हैं यह बात अच्छी तरह से प्रकट की जा चुकी है। क्यों कि प्रतिमापूजा चोध एव रित प्राप्ति के लक्ष्य को लेकर के ही की जाती है -परन्तु इस लक्ष्य की सिद्धि न होकर उससे उल्टा कर्ता जीव अबोध एव अहित का प्रापक ही होता है ऐसा श्री महावीर प्रभु का कयन है। फिर भी इसके पक्षपाती जन इस बात पर ध्यान न देकर शास्त्र विरुद्ध ही कथन करते है-वे यह कहते हैं " कि इस प्रतिमापूजन में माना कि માર્ગથી દૂર ફેકી દેનાર બતાવવામાં આવ્યો છે ત્યારે કયા કાર્યમાં પડાયના જીને સમારભ હોય છે, તે કાર્યથી અથવા તે તે જાતના સમાર ભથી જીવને વર્ગ અને અપવર્ગ (મોક્ષ) ને લાભ કેવી રીતે સંભવી શકે તેમ છે ? એટલે કે કોઈ પણ કાળે જીવને આ કાયથી સ્વર્ગ કે મેક્ષને લાભ થઈ ગકતો નથી
જે માણસ પરિવદન, માનન અને પૂજનના માટે તેમજ જાતિ અને મરણના મેચન માટે અને દુખોના વિનાશ માટે પૃશ્વિનાય વગેરેને સમ ૨ ભ કરે છે, તેઓ તેનુ ઉલટુ ફળ ભેગવે છે આ વાત સારી રીતે સમ જાવવામાં આવી છે, કેમકે પ્રતિમા પૂજા બેધ તેમજ હિત પ્રાપ્તિના લક્ષ્યને લઈને જ કરવામાં આવે છે પણ આ લક્ષ્યની સિદ્ધિ ન થતા તેનાથી સાવ વિપરીત કર્તા જીવ અધ અને અહિતને મેળવે છે એવું જ શ્રી મહાવીર પ્રભુએ કહ્યું છે છતા ય પ્રતિમા પૂજાના કેટલાક તરફદારીઓ આ વાતને લક્ષ્યમાં ન રાખતા શાસ્ત્ર વિરૂદ્ધ જ કથાને વળગી રહે છે તે આ પ્રમાણે કહે છે
Page #584
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
রানাঘাঁথা चर्तमानानागतभेदेन प्रत्येक यिष्ये नवधा भाति । नाविधस्यापि पृथिवीकाय समारम्भगस्य मनोवापाययोगभेटेन प्रत्येक नि गतिाि भाति । एव विधधियीकायसमारम्भपरत्तः सलु पदकायारम्गसंपातजन्यधोरतन्दुरितार्जनन दुरन्तससारदानलमालान्तःपात पाप्यान तनरकनिगोदादिदुग्यमनुभान् न पदाचित् कल्याण शाश्वतमुखमन मोक्षमार्ग मामोतीतिभार ||
भगाता पृथिवीकायसमारम्भणनदपकायादिसमारम्भणमप्यहितायागोषये च भवतीत्यपि तौर प्रपितम् । यत्रकस्य पृथिवीरायस्य समारम्मणे सम्यक्त्व के भेद से तीन प्रकार का है-इसके अतीत और अनागत काल के भेद से तीन ३ प्रकार का और हो जाते है इस प्रकार यह तीनो कालों की अपेक्षा से ९ प्रकार का है। इन नव प्रकारों के सोय-मन वचन और काय इन तीनो का गुणा करने से यह २७ प्रकार का माना गया है इस प्रकार त्रिकरण और त्रियोग के सर से २७ प्रकार के इस पृथिवीकाय के समारभ में प्रवृत्त जीन पटकाय के आरभ के सपात जन्य घोरतर पापों के अर्जन से तुरन्त समार रूपी दावानल की ज्वाला के मध्य में निमग्न बन अत में अनन्न नरक निगोदादिकों के दुःसो का अनुभव करता हुआ कभी भी निज करयाण का भोता एच शाश्वत सुख को प्रदान करने वाले मोक्ष के मार्ग का पथिक नहीं बन सकता है पृथिवी काय के समारम्भ की तरह अपफाय आदि का समारम भी इस जीवात्मा को सदा अहितकारी और अयोध का दाता है यह बात भी वर्श पर (आचाराग सूत्र में ) भगवान ने कही है अब विचारिए जब ભેદ થઈ જાય છે. આ રીતે આ ત્રણે કાળની અપેક્ષાએ નવ પ્રકાર છે આ નવ પ્રકારની સાથે મન, વચન અને કાર્યો અને ત્રણેને ગુણાકાર કરવાથી આ ૨૭ પ્રકારનું માનવામાં આવ્યો છે આ પ્રમાણે ત્રિકરણ અને ત્રિયોગના સબ ધથી ૨૭ પ્રકારના આ પૃવિનાયના સમારંભમાં પ્રવૃત્ત જીવ ષટકાયના આર ભના સ પતિ જન્મ ઘરતર ( ભય કર) પાપેને કારણે દુ૨ત સ સાર રૂપી દાવાનલના અગ્નિમાં પડીને છેવટે અન ત નરક નિગદ વગેરે ૮ ને અનું ભવતે કદ પિ પોતાના કલ્યાણને ભકતા થઈને અને શાશ્વત સુખને આપનાર મેક્ષ માને પથિક (વટેમાર્ગ) બની શક નથી પૃશ્ચિકાયના સમા ભની જેમ અપૂકાય વગેરેને સમારભ પણ આ જીવાત્મા માટે હમેશા અહિતકારી અને અધ (અજ્ઞાન) આપનારો છેઆ વાત પણ આચારાગ સૂત્રમાં ભગવાને કહી છે. હવે આટલું તે આપણે પણ સમજી શકીએ છીએ કે જ્યારે જીવના માટે ફક્ત પૃષ્યિકાય સમારભ જ જયારે અહિત કરનાર અને મોક્ષના
Page #585
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगारधर्मामृतपिणी टीका अ० १६ दोपदीयर्चा
४०३ समाग्भमाण अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विसिति । एषः पृथिवीशस्त्रसमारम्भः खलु निश्चयेन ग्रन्याय यतेचध्यते जीवोऽनेनेति ग्रन्यः, अष्टविधर्मनन्धः, चन्वजनकत्वाद् ग्रन्थ इत्युच्यते । तया-एप मोहः विपर्यास वीपरीतनानरूप इत्यर्थ तथा-एप मार:-निगोदादिगरणरूपः । तया-एप सल नरका-नारक जीवाना दगविषयातनास्थानम् । इत्यर्थम्-एतदर्थ कर्मवन्य-मोह मरण-नरकरूप पोर दुःसफलं प्राप्य पुन पुनरेतदर्थमेव लोक. अज्ञानाशी जीनः गृहः-लिप्मुरस्ति । यद्यपि विषयभोगासक्तो लोक शरीरादिपरिपोषणार्थ परिपन्दनमाननपूजनार्य जातिमरणमोचनाय दुखप्रतिघातार्थ च पृथिवीशसममारम्भ करोति, तथापि तत्फल र्मरन्धमोहमरणनरकरूपमेन लभते, अतः पृथिवीकर्मसमारम्भस्त्र तदेव फल भवतीति भान । तदेव प्रपचनविरुद्धमरूपण कराने वाला होने से ग्रन्यस्वरूप, विपरीत जान का जनक होने से मोहरूप, निगोदादि जीवों का इस मे मरण होता है-इसलिये मार स्वरूप तथा नारकियो की दश प्रकार की यातनो का हेतु होने से यह नरकरूप माना गया है। इस प्रकार यह जीव इम पृथिवीकाय के समारभरूप शस्त्र के फलस्वरूप कर्मचन्च, मरण और नरकरप घोरतर दुःखों को भोगता हुआ भी अज्ञान के आधीन होकर उसी शस्त्र के प्रयोग करने का फिर भी अमिलापी हो रहा है। पद्यपि विषय भोगों में आसक्त बना हुआ यह जीव शरीर आदि की पुष्टि परिवटन, मानन, पृजन एव जाति और मरण के मोचन के लिये तथा दुःखो के विनाश के लिये पृयिवीकार के समार मरूप शस्त्र का प्रयोग करता है-परन्तु फिर भी इसका वह कर्मचन्ध, मोह, मरण, नरकरूप फल का ही भोक्ता बनता જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્મોને બધ કરાવનાર હોવા બદલ ગ્રન્થ સ્વરૂપ, વિરુદ્ધ જ્ઞાનને ઉત્પન્ન કરનારૂ હોવાથી મેહ રૂપ, નિગોદ વગેરે જીવેનુ આમ મરણ વાય છે માટે માર સ્વરૂપ તેમજ નારકીઓની દશ પ્રકારની યાતનાનું કારણ રૂપ હોવાથી આ નરક રૂપ માનવામાં આવ્યુ છે આ રીતે આ જીવ આ પૃથ્વિકાયના સમારભ રૂપ શસ્ત્રના ફળ સ્વરૂપ કર્મળ ધ, મરણ અને નરક રૂપ ઘારતર હુ ને ભોગવવા છતા પણ અજ્ઞ નવરા થઈને તે જ રાઝને પ્રયોગ કરવા માટે ફરી તૈયાર થઈ રહ્યો છે જે તે વિષય ભેગોમા આસક્ત બનેલ આ જીવ શરીર વગેરેની પુષ્ટિ પરિવદન, માનન, પૂજન અને જાતિ મરણના મેચન માટે તેમજ ૬ ખેને દૂર કવ્વા માટે પૃથ્વિલાયના સમારભ રૂપ શસ્ત્રને પ્રયોગ કરે છે પણ છતા એ તે કમબન્ધ, મોહ, મણ અને નરક રૂપ ફળને ભાગવનાર જ બને છે એટલા માટે આપણે ચોક્કસ કહી શકીએ તેમ છીએ
Page #586
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨
हित नोत्पादयति, मत्युत प्रधि नरामरस्पति च सम्यग्र जनयतीति, तदेतत् साक्षात् मनविरुद्धमिति ।
किं च आचाराने पृथिवीकायसमारम्भस्य फला नगरता पुनरभिहि तम् -' एम सलु गये, एस सलु मोहे एस सद मारे, एम तु पिरये, उन्चत्य गढिए लोए, जमिण विरूपरनित्ये निम्मसभारंभेग पुढविसत्य समा रममाणे अण्णे अणेगरूने पाणे निडिंग । ' ( आ० १ अ० २ उ० )
,
छाया - एप खलु ग्रन्थः, एष खलु मोह एप वन्दु मारः, एष सल नरक' इत्यर्थं गृद्धो लोकः, यदिम विरूपस्पै' शतैः पृथिवीममारम्भेण पृथिवीशत्र पट्काय का समारंभ होता है परन्तु यह समारंभ स्वाभ्युदय एव मुक्ति प्राप्ति के निमित्त ही किया जाता है अतः यह कर्त्ता जीवों को न अहित काही उत्पादक होता है और न नोधि के लाभ से वचित रखता है प्रत्युत यह उन्हें योधि एव नर अमर और मोक्ष के सुग्व स्वरूप हित का प्रदान करने वाला ही होता है " सो इस प्रकार का उनका यह कथन साक्षात् शास्त्र से विरुद्ध ही है यह वान आचाराग सूत्र से भली भांति पुष्ट होती है उसमें पूर्वोक्तरीति से पृथिवीकाय के समारंभ का फल कह कर फिर यह कहा गया है--"एम खलु गधे, एस ग्लु मोहे, एस ग्लु मारे, एम खलु नरये, एच्चस्थ गढिए लोए, जमिण विरूवरूवेति सत्थेहि पुढविकम्म समारभेण पुढविसत्य समारभमाणे अण्णे अणेगम्ब्वे पाणे विहिंसह " ( आ १ अ- २ उ ) यह पृथिवीकाय का समारभरूप शस्त्र निश्चय से जीवो को अष्टप्रकार के ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बन्ध કે-માપણે થાડા વખત માટે આમ પણ માની લઈએ કે આ પ્રતિમા પૂજ નમા ષટ્કાયના સમારભ થાય છે-પણ આ મમાર ભ સ્વાભ્યુદય અને મુકિતની પ્રાપ્તિ માટે જ કરવામા આવે છે. એટલા માટે મા કર્તા જીવેાના માટે અહિ તનેા ઉત્પાદક પણ હાતા નથી અને મેધના લાભથી પણ તેને વચિંત રાખતા નથી આ તા તેમને મેાધિ અને નર અમર અને મેાક્ષના સુખ સ્વરૂપ હિંતને આપનાર જ હોય છે પણ તેમનુ આ કથન પ્રત્યક્ષ રૂપમા શાસ્ત્રથી વિરૂદ્ધ જ છે આ વાત આચારાગ સૂત્રથી સારી પેઠે પુષ્ટ થઈ જાય છે તેમા પૂર્વોક્ત રીતથી પૃથ્વિકાયના સમારલનું ફળ મતાવીને આ પ્રમાણે કહ્યુ છે~ एस सलु गये, एस सलु मोहे, एस सलु मारे एस सलु नरये, ण्ञ्चत्थ गइदिए लोए जमिण विरूवरूवेहि सत्येहि पुढविकम्मसमार भेण पुढविसत्य समारभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहि सह " ( आ १ अ २ उ ) આ પૃશ્વિકાયનુ મમાર ભ રૂપ શસ્ત્ર ચાક્કસ જીનેના
પ્રકારના
Page #587
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा
४०५
यत्तु - नाह्मीलिपिरित्र प्रतिमा अन्धा, 'नमो भीए विीए " उतिपद यद् व्यायामनप्रादानुपन्यस्त तन ब्राह्मी लिपिरवरजिन्यास', सा यदि श्रुतज्ञानस्याss कारस्थापना, तदा तद्वन्द्यले साकारस्थापनाया भगवत्मतिमाया. स्पष्टमेन जन्यलम् तुल्यन्यानादित्युक्तं तन्मोहनीय कर्मोदयविलमितम् -
श्रुतज्ञानरूपस्य भारतस्य स्थापना - श्रुतज्ञानवत, श्रुतपठनादिक्रियावत' सानादिक भरति श्रुतद्वत्तोरभेदोपचारात् सा बादि श्रुतमुच्यते । स्थापनावश्यकस्य स्थापनाश्रुतस्य च तथैवानुयोगद्वारे भगवता वर्णनात् । यदेव लिपिः श्रुतज्ञानम्य स्थापनारूपत्य न मानोति । तस्मात् प्रतिमाया ब्राह्मीलिपिदृष्टान्त प्रदर्शनमुत्मृत्रमरूपणम् ।
किश्च - प्रतिमापूजन की पुष्टि के लिये " नमो वभीए लिवीए " व्याख्याप्रज्ञप्ति की आदि में लिसे हुए उस सूत्र के बल पर जो उसके पक्षपाती जन यह कहते हैं-" कि अक्षर विन्यासरूप ब्राह्मीलिपि जिस प्रकार श्रुतज्ञान के आकार की स्थानपारूप होकर वन्द्य-वन्दनीय मानी गई है उसी प्रकार साकार स्थापनारूप भगवान की प्रतिमा में भी बन्द - नीयता स्पष्ट ही है " तो यह कथन विचार करने पर ठीक नही बैठता है ।
तथाहि - श्रुतज्ञानरूप भावश्रुत की स्थापना - श्रुतज्ञानसंपन्न, और श्रुत के पठन की क्रिया विशिष्ट ऐसे जो साबु आदिजन है उनके चित्र आदि स्वरूप पडती है अर्थात् श्रुतज्ञानी सोधु आदि के चित्रस्वरूप ही श्रुतज्ञानरूप भावश्रुतकी स्थापना होती है । ब्राह्मीलिपि अक्षर विन्यास है । वह श्रुतज्ञान की स्थापना है । यहां श्रुतज्ञानी साधु आदि को जो
"
भने जीन्नु पशु -प्रतिमा पूग्ननी पुष्टि भाटे " नमो बभीए-लिजीए " વ્યાખ્યા પ્રજ્ઞપ્તિની શરૂઆતમા આવેલા આ સૂત્ર મુજખ જે તેની તરફદારી કરનારા માણુમે આમ કહે છે કે “ અક્ષર વિન્યાસ રૂપ પ્રાજ્ઞિ લિપિ જેમ શ્રુતજ્ઞાનના આહારની સ્થાપના રૂપ થઈને વન્ધ-વદનીય માનવામા આવી છે, તેમજ આહાર-થાપના રૂપ ભગવાનની પ્રતિમામા પણ વનીયતા પૃષ્ઠ દેખીતી વાત જ છે પરતુ આ કવનને પણ વિચાર કર્યાં બાદ ચેાઞ લાગતું નથી તેમજ શ્રુતજ્ઞાન રૂપ ભાવાતની સ્થાપના-શ્રુતજ્ઞાન સ પન્ન અને શ્રુતના પાનની કિયા વિશિષ્ટ એવા જે સાધુ વગેરે લે છે તેમના ચિત્ર વગેરે સ્વરૂપ હોય છે એટલે કે શ્રુનજ્ઞાની સાધુ વગેરેના સ્વરૂપ જ શ્રુતજ્ઞાન રૂપ ભાવશ્રુતની સ્થાપના હાય છે પ્રાહ્વિ-લિપિ અક્ષર વિન્યાસ છે તે શ્રુતજ્ઞાનની સ્થાપના છે અહીં શ્રુતજ્ઞાની માધુ વગેરેને જે ભાવદ્યુત રૂપ કહેવામા આવ્યે છે તે તજ્ઞાન
Page #588
--------------------------------------------------------------------------
________________
Vor
जाताधर्म कथा पराः सर्पदोपनिर्मुनत शुदमद्वितीयमनन जैनधर्म सापानोपडेगेन पावचनि फोपमेय कुन्तिः ससारदागनले जनान् पातयन्तः पय च मोहनीयकदियवशा दन्धा इस सन्मार्गतो निपतन्तः सामानमहितेन मिथ्यात्वेन च पुनः पुनः सयो जयन्ति । यदि मृगरणाऽपि पारिन पिपासालानां स्वजलपारावाहिनी भवेत् , तदा प्रतिमापूनापि तेपा द्रव्यलिगिना परिणामशुद्धि सपादिनी अष्टत्रि धर्मदलनी नरामरशिवमुखविधायिनी भवेदिति गोयम् । है। अतः प्रतिमापूजन का उपदेश निश्चित है कि प्रवचनमार्ग से विरुद्ध है। इस विरुद्ध प्ररूपणा करने में तत्पर मनुष्य सर्व दोपों से ररित, शुद्ध और अद्वितीय एव अनवद्य इस जैनधर्म को सारा पूजा के उपदेश से कुप्रावनिक की तरह मलफित-सदोप कर ससाररूपी दावानल में भोले भाले प्राणियो को डाल रहे है और स्वय मी मोहनीय कर्म के उदय से अन्ध की तरह घन कर सन्मार्ग से चिमुस होते हुए अपनी आत्मा को अहित और मिथ्या के कलक से कलुपित कर रहे है। अरे-कहीं मृगतृष्णा से भी प्यासे व्यक्तियों की प्यास बुझती हैं ? योद नहीं, फिर मृगतष्णा तल्य इस प्रतिमा प्रजन से कर्त्ता की सम्यक्त्व और हित की प्राप्ति होने रूप प्यास कैसे घुस सकती है-सोचो। हा यदि ऐमा होता कि मृगतृष्णा स्वच्छजल की धारा बहाकर प्यास प्राणियो की तृषा को शांत करती-तो यह प्रतिमा पूजन भी द्रव्योलाज यों के परिणामो में शुद्वि करती हई उनके अष्टकर्मों को टलने वाला और उन्हें नर, अमर एव शिवसुख प्रदान करने वाली भी हो सकता। કે પ્રતિમા પૂજનને ઉપદેશ પ્રવચન માર્ગથી વિરૂદ્ધ છે આ જાતની વિરૂદ્ધ પ્રરૂપણ કરવામા તત્પર માણસ બધા દેથી રહિત, શુદ્ધ અદ્વિતીય અને અનવદ્ય આ જૈન ધર્મને સાવદ્ય પૂજાના ઉપદેશથી કમાવચનિકની જેમ કલકિત દોષયુક્ત બનાવીને સંસાર રૂપી દાવાનલમાં ભેળા પ્રાણીઓને ન ખી રહ્યો છે અને જાતે પણ મોહનીય કર્મના ઉદયથી આધળાની જેમ થઈને સન્માર્ગથી દૂર થતા પિતાના આત્માને અહિત અને મિથ્યાત્વના કલકથી કલુષિત કરી રહ્યો છે મૃગજળથી પણ કઈ દિવસે તરસ્યા માણસોની તરસ મટી શકી છે " જે આવું નથી તે પછી મૃગજળ જેવી આ પ્રતિમા પૂજનથી કર્તાની સભ્ય કવિ અને હિતની પ્રાપ્તિ થવા રૂપ તરસ કેવી રીતે મટી શકે તેમ છે મૃગજળ નિર્મળ પાણી ઝરે થઈને તરસ્યા પ્રાણીઓની તરસ મટાડી શક્ત તે આ પ્રતિમા પૂજા પણ દ્રવ્યલિંગિઓના પરિણામમા શુદ્ધિ કરનારી તેમના આ કર્મોને નષ્ટ કરનારી અને નર, અમર અને શિવ-સુખ આપનારી
Page #589
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा
चाराङ्गादिक प्रतिपूर्णपोप कण्ठोष्ठनिममुक्त पठितपत सानादेस्तदर्थज्ञानाभावे सति द्रव्यश्रुत भाति तथैवानुयोगद्वारे द्रव्यश्रुतस्य वर्णनात् । वर्णसकेतरूपा लिपिस्तु न शब्दात्मिका, यतो वर्णस्येवरोच्चारणमुपपद्यते, न तु तत्समेतस्य लिपिमत पुस्तादेस्तु श्रुत विक्षित यावद् वाचनोपगत न भवितुमर्हति जतस्तस्य पतन समातिय पुनस्तद्गत दिपेस्तत्समनः ? कमपि नहि ।
किं च द्रव्यस्य त्वमेव नास्ति, अनुपयुक्तत्वाच्चरणगुणशून्यत्वाच्च, तस्माद् भावतस्यै वन्यत्वमाप्तौ द्रव्यश्रुतनमस्कार कल्पन भ्रान्तिग्रलकमेव | 'नमो नभए लिपीए' अस्यायमर्थ ' - वर्णात्मकभापास के तरूपा लिपिर्ब्राह्मी लिपिः
४०७
प्रकार द्रव्यश्रुत का वर्णन अनुयोगद्वार में किया गया मिलता है। अकार आदि वर्णरूप से सकेतित लिपि मे शब्दात्मकता आभी नही सकती है क्योकि वर्ण का ही उच्चारण होता है उसके सकेत का नही । लिपियुक्त पुस्तकादि में मी वाचना आदि कुछ नहीं होता है। क्यों कि वह जड है-चेतन में ही ये वाचना पृच्छना आदि होते है । अतः उस में द्रव्यश्रुतता मानना सर्वथा अयुक्त है इसलिये यह निश्चित होता है कि अकार आदि वर्णरूप से सकेतित लिपि में और इस लिपि विशिष्ट पुस्तकादिक में पता किंचित मात्र भी सभावित नही है ।
किब-अनुपयुक्त होने से और चरणगुण शून्य होने से द्रव्यश्रुत में बघता आ ही नही सकती है । भारत में ही उपयोग सहित और चरणगुण युक्तता होने से बदता आती है-अत द्रन्यत मे नमस्कार करने की कल्पना करना केवल भ्रान्तिमूलक ही है " नमो बभीए
આ રીતે દ્રવ્યૠતનુ વર્ણન અનુયાગ દ્વારમા કગ્વામા આવ્યુ છે અકાર વગેરે વણુ રૂપથી સ કેતિત લિપિમા શખ્વાત્મકતા આવી શકે તેમ નથી કેમકે ઉચ્ચા રણ તે દ્રવ્યનુ જ થાય છે, તેના સ કેંતનુ નહિં લિપિ યુક્ત પુસ્તકા વગેરેમા પણ વાચના વગેરે કંઈજ હોતુ નથી કેમકે તે જડ છે, ચેતનમા જ વાચના પૃચ્છના વગેરે થાય છે એથી તેમા દ્રશ્રુતતા માનવી માત્ર અયેઞ છે એથી એ વ ત ચાકસ થાય છે કે અકાર વગેરે વર્ણ રૂપથી સ કેતિત લિપિમા અને આ લિપિ વિશિષ્ટ પુસ્તક વગેરેમા શ્રુતતા ચાડી પણ સ ભવિત નથી અને બીજી પણ કે-અનુપયુકત હાવાથી અને ચરણુગુણ શૂન્ય હાવાથી પશ્રુતમા બધતા આવી જ રાતી નથી ભાવશ્રતમા જ ઉપયાગ સહિત અને ચરણુગુણ ચુક્તતા હેાવાથી વઢના આવે છે એટલા માટે દ્રવ્યચ્છુનમા નમસ્કાર ફરવાની લ્પના કરવી ભ્રાતિમૂલક જ છે " नमो वभीए विीए " माने। अर्थ
Page #590
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०६
--
HITधर्मकथा ___यत्तु-अभयदेवीयत्ता ससाक्षरस्प द्रव्य अत नमनार-मो समीए लिपीए' इत्युक्त तद् भ्रान्तिमृल्पम् पुस्तकार्तिन्या जमारादिवर्णसकेतस्पाया लिपेद्रव्य श्रुतल न समाति यत श्रुत नाम बादशाबीरपमहत्मवचन शास्त्र यस्य कस्यचिजीनस्य शिसित स्थित नित यावद् वाचनोपगत भाति म जन्तुम्तत्र वाचनामन्छनादिमिवर्तमानोऽपि अतोपयोगाभापावागममाश्रित्य द्रव्यश्रुतम् । आ भावश्रुतरूप कहा गया हे-चर अतमान और अनजान में अभेद के उपचार से ही कहा गया समशाना चाहिये । इसी रूप से ही भगवान ने अनुयोग द्वार में रथोपना आवश्यक और स्थापना भूत का कथन किया है। अत. लिपि में भारत की कल्पना से शुतज्ञान की स्थापना मानना कथमपि युक्ति सगत नहीं है। इसी प्रकार लिपि न यता भी नहीं आती है। क्यो कि बादशागीरूप अहंत प्रवचन का नाम श्रुत है। श्रुतज्ञान का ज्ञाता जर उसमे अनुपयुक्त अवस्थानवाला है । तर वही आगम की अपेक्षा द्रव्यश्रुत कहा जाता है। सज्ञा अक्षर रूप आकृति को द्रव्यश्रुत नहीं कहा है। इस कथन से इस बात की पुष्टि होती है कि-अभयदेव विरचित वृत्ति मे " णमो वभी लिपीग" इस पद का अर्थ सज्ञो अक्षररूप द्रव्य त परक मानकर जो नमस्कार किया गया है -वह भ्रान्तिमूलक है, क्यो कि पुस्तक में रही हुई मकेतित अकार आदि वर्ण की आकृति मे द्रव्यश्रतता सभवित नहीं होती है। वाचना, पृच्छना आदि से अधिगत अंत में अनुपयुक्तज्ञाता री द्रव्यश्रुत है इसी અને યુવાનમાં અભેદેપચારથી જ કહેવાયેલે સમજવું જોઈએ આ રૂપથીજ ભગવાને અનુગદ્વારમાં સ્થાપના આવશ્યક અને સ્થાપના શ્રતનું કથન કર્યું છે એટલા માટે લિપિમાં ભાવથતની કપનાથી થતજ્ઞાનની સ્થાપના માનવી કઈ પણ રીતે યંગ્ય નથી આ પ્રમાણે જ લિપિના દ્રવ્યતતા પણ આવતી નથી કેમકે દ્વાદશાગી રૂપ અહંત પ્રવચનનું નામ શ્રત છે આ કૃતજ્ઞ અને જ્ઞાતા જ્યારે તેમાં અનુપયુકત અવસ્થાવાળા હોય છે ત્યારે તે આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યથુત કહેવાય છે સજ્ઞા અક્ષર રૂપ આકૃતિને કથન કહી નથી मा ४थनथी मा वातनी पुष्टी थाय छे समय विशित वृत्तिमा " णमो ब भीए लिवीए " मा ५.ने। म सा पक्ष२ ३५ १०५ श्रुत५२४ मानीन જે નમસ્કાર કરવામા આવ્યા છે તે જાતિમય છે, કેમકે પુસ્તકમાં રહેલી સ કેતિત અકાર વગેરે વર્ણની આકૃતિમા દ્રવ્યથતતા સભવિત નથી હોતી વાચના, પૂરન વગેરેથી અગિત શ્રતમાં અનુ યુકત જ્ઞાતા જ થત છે
Page #591
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रोपदीचच
૪૦૨
भावलिपिं प्रति समुपजातभक्तिः श्रीसुधर्मा स्वामी लिपिज्ञानस्य माहात्म्य प्रकटयन् भावत मति मानलिपे' कारणतयाऽभ्यर्हितत्वेन तत पूर्व भागलिपिवन्दन कृतवान्, तत्पचाद् भावश्रुत नमस्कुर्वनवादीत् ' नमः सुयस्म ' इति ।
यत्तु - अभयदेवसरिणा स्वकृत टीकायामुक्तम् ' जिणपडिमाण अच्चण +रेट ' ति एक्या वाचनायामेतावदेव दृश्यते । वाचनान्तरे तु -' व्हाया जाव सव्नाल कारविभूसिय मज्जणघराओ पडिनिक्सम पडिनिक्खमित्ता जेणामेव जिणवरे तेणामेन आग उगच्छित्ता जिनपर अणुपसिह २ चा, जिणपडिमाण समरूप जिन की भक्ति
के माहात्म्य को प्रकट करते हुए भावयुत को नमस्कार करने के पहिले भावलिपि को ही नमस्कार करते हे क्यों कि भावत के प्रति भाव लिपि को ही कारणता है, और इसी निमित्त से यह उसकी अपेक्षा पूज्य मानी गई है मावलिपि को नमस्कार करने के पश्चात् ही उन्हो ने
66
नम -सुग्रस्स" भावशुन को नमस्कार इस सूत्र द्वारा किया है । " जिणपडिमाण अञ्चण करेह " इस पाठ को लेकर जो टीकोकार अभयदेव सूरि ने जिनप्रतिमा कि पूजन करने की बात कही हे सो ठीक नही है । क्यों कि मालूम होता है, कि उन्हें मूल पाठ का निश्चय ही नही हुआ है - कारण कि एक वाचना मे तो यही पाठ मिलता है- -तत्र कि दूसरी वाचना में " व्हाया जाव सन्चालकारविभूसिया मज्जणन ओ पनि, २ जेणामेव जिणघरे तेणामेव उवागच्छट, २ પ્રતિપાદન કરનારા શબ્દોના સમૃહુરૂપ શ્રુતને લિપિબદ્ધ કરવાની ઈચ્છાથી શ્રીસુધર્માં સ્વામી-કે જેમની ચુતબેાધક ભાલિપિ પ્રત્યે ભક્તિ ઉત્પન્ન થઇ એ-લિપિ જ્ઞ નના માહાત્મ્યને પ્રગટ કરતા ભાવદ્યુતને નમસ્કાર કરતા પહેલા ભાવવલિપ ને જ નમસ્કાર કર્યા છે. કેમકે ભાવશ્રુત પ્રત્યે ભાવલિપિ જ કાણુતા છે અને આ કારણથી જ આ તેના કરતા પૂજ્ય માનવામા આવી છે ભાવિવિષેને નમ સ્કાર કયા બાદ જ તેમણે 46 नम सुयरस આ સૂન વડે ભાવશ્રતને નમ २४२ छे " जिणपडिमा अञ्चण करइ " मा पाउना साधारे ने टीકાર અભવદેવસૂરિએ જીનપ્રતિમાની પૂજાની વાત કહી છે તે ચૈન્ય નથી કેમકે તેમને મૂળ પાઠને નિશ્ચય૪ થયેા નથી એમ જણાઇ આવે છે કારણ કે એક વાચનામા તે એ જ પાઠ મળે છે ત્યારે ખીજી વાચનામા –
27
को लिपिनद्ध करने की इच्छा से श्री सुधर्मास्वामी कि भावलिपि के प्रति जागृत हुई है लिपिज्ञान
(व्हाया जान सव्याल कारविभूसिया मज्जणघराओ पडिनिस्समई २ जेणा मेव जिरे णामेव आगच्छई, २ जिणधर अणुपविसइ, जिणपरिमाण आटोए
ड ५०
Page #592
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०८
बाताधर्मकथासूत्रे
ब्राह्मीशस्य भाषार्थकत्वात्, उरव चामरकोशे -'नामी तु भारती भाषा गीग् पाणी सरस्वती' इति । यद्वा-अकारा लिपि श्रीमन्नाभेय जिनेन ब्राह्मीना मिका स्वता पदर्शिता तस्मात् सा लिपनीत्युच्यते । त्रिविज्ञानस्य श्रुतज्ञा पयोगिता पारूप भावलिपिमा श्री स्वा मी माह- 'नमो भए लिपीए' इति । श्रुतज्ञान प्रति निविज्ञान कारण, यतो लिपिज्ञानेन वत्स के तितशब्दस्मरण, तवस्तदर्थज्ञान जायते । तस्माद् भगवदुक्ता स्यमतिपोधनाय दोषपदावरूप लिपिवद्ध कामतोषिका
लिबीए " इसका अर्थ इस प्रकार से सगन बैठना है-असर जादि वर्णा त्मक भाषा के सकेतरूप लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि है-त्राह्मी शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है अमर कोप में भी यही बात कही है-"नामी तु भारती भाषा गीर्वागू वाणी सरस्वती " । अथवा श्री आदिनाथ प्रभु ने अपनी ब्राह्मी नाम की पुत्री को १८ प्रकार की लिपि कही थी इसलिये भी उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि इस प्रकार से पड़ गया है। श्रुतज्ञान में उपयोगी होने से हम लिपि के ज्ञान को भावश्रुन का कारण माना है । इसलिये लिपि ज्ञानरूप भाव लिपि को बदन करते हुए श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं " नमो भी लिवीए " । श्रुतज्ञान के प्रतिलिपि ज्ञान कारण है क्यों कि लिपि के ज्ञान से अकारादि वर्णा हम लिपि रूप से सकेतित उस उस शब्द का स्मरण होता है और उससे उसके अर्थ का ज्ञान होता है । अतः भगवान द्वारा प्रतिपादित अर्थ को समझाने के लिये उस अर्थ का प्रतिपादन करने वाले शब्दों के
આ પ્રમાણે સુસ ગત એસી શકે છે કે-અકાર વગેરે વર્ણાત્મક ભાષાના સ કેત રૂપ લિપિનુ નામ બ્રહ્મી લિપિ છે. બ્રાહ્મી શબ્દ , 'लापा આ અર્થમા પ્રયુકત थयो छे अमरमेशमा पशु सेवात डेवामा भाची " ब्रह्मी तु भारती भाषा गोगवाणी सरस्वती " अथषा तो श्री महिनाथ अलुखे पोतानी બ્રાહ્મી નામની પુત્રીને અઢાર પ્રકારની લિપિ મતાવી હતી એટલા માટે પશુ આ લિપિનુ નામ બ્રાહ્મી લિપિ પડી ગયુ છે શ્રુતજ્ઞાનમા ઉપયેગી હાવાથી
આ લિપિના જ્ઞાનને ભાવદ્યુતનુ કારણ માનવામા આવ્યુ છે એથી લિપિજ્ઞાન ३५ लावसिपिने वहन उरता श्रीसुधर्मास्वामी हे छेडे "नमो व भीए लिवीए” શ્રનજ્ઞાનના પ્રતિ લિપિજ્ઞાન કારણ છે કેમકે લિપિના જ્ઞાનથી અકર વગેરે વર્ણાત્મક લિપિ રૂપથી સ કેતિત તે શનુ સ્મરણ થાય છે અને તેનાથી તેના અર્થાંનુ જ્ઞાન થાય છે એટલા માટે ભગવાન્દ્વારા પ્રતિપાદિત અને સમજાવવા
Page #593
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंगराघमृनपणी टीकt० अ० १६ द्रौपदीचन
કાર
तदनन्तर पुन• प्रतिमापूजकैः स्त्रीकृते - मूलपाठे - ' विस्सुतो मुद्रा वरणियसि नमेड ' इति यते, 'नमेइ' इत्या टीकाकारः - ' निवे सेइ ' इति लिखित्या निवेशयतीत्यर्थ उक्त', तेनान - मूलपाठस्य स्वस्नकपोलकल्पितत्व सि यति, द्रौपद्यारिटीकाकुमदेव रिणा पुनरीदृशः पाठो :
'ईसि पच्चुन्नमति २त्ता, करन जान कट्ट एन क्यामी - नमोत्यु ण अरिहतान मगनताण जाव सपत्ताण दइ नमसहर जिपत्ररानो पडिनिनखमह ' इति इस पाठ टीकाया बिलिरय टीकासर ग्राह
'तत्र यन्दते = चैन्यवन्दनविना प्रसिद्धेन, नमस्यति पश्चात् मणि नानावियोगेनेति टद्धा' । न च द्रौपद्या प्रणिपातदण्ड कमान चैत्यन्दनममिति बने इनि त्र में जैसा पाठ रचा है उसने उसी प्रकार मूल पाठ में जिन कल्पना का पाठ प्रक्षिप्त करके पाठ भेद कर दिया है। अतः स्वकपोलकल्पित होने से असली मूल पाठ का निश्चय ही नहीं होता है, द्रौपदी के चरित में टीकाकार अभयदेवसूरि को इस प्रकार को पाठ उपलब्ध हुआ-ईसि पच्चुन्नमति २, करयल० जाव कट्टु एव वयासी- नमोत्युण अरिहताणं भगवताण जाव सपत्ताण चदड, नमसह २, जिणधराओ पडिनिस्खमह इति " पाठ को लिखकर उन्हो ने टीका की । वन्दते नमस्यति पद के अर्थ का खुलाशा करते हुए वे कहते है कि प्रसिद्ध चैत्यवंदन विधि के
अनुसार नमन करना वदता और इसके बाद प्रणिवान आदि के योग से नमस्कार करना नमन है ऐसा सिद्धान्तों का है। सूत्र मे जन द्रौपदी का प्रणिपात हण्डर मात्र चैपादन कहा है- अर्थात् दण्ड की तरह प्रणाम करने रप चैत्यवदन जहा गया है तो उसी से यह
કઈ ઉમેરી ઝરીને પા ભેદ કરી નાખ્યા એટલા માટે સ્વપાલકલ્પિત હાવા બદલ અસલ મૂળપાટને નિશ્ચય જ થઇ શકે તેમ નથી દ્રૌપદી ચરિતમા रीजज़ार अलयहेवसूरिनो मा लतना या भज्यो - ( ईसि पच्चुनमन्ति २, करयल० जान कट्टु पन वयासी - नमोत्थूण अरिह ताण भगव ताण जाव पताण न दइ, नमस २, निणवराओ पडिनिसमइ इति ) मा पाउने समीने તેમણે ટીકા કરી છે वन्वे ' ' नमस्यति' पढना अर्थ स्पष्टता તેએ કહે છે કે પ્રમિન્દ્વ ચૈત્ય વન વિધિ ગુજમ્ નમન કરવુ વદના અને ત્યારપછી પ્રણિધાન વગેરેના ચેત્રથી નખત્કાર કરવે નમન છે, વૃદ્ધોને આ જાતને સિદ્ધાન્ત છે. મૂત્રમા જ્યારે પ્રણિપાત દડ- માત્ર ચૈત્યવદન કહ્યું છે ત્યારે એનાથી જ આ વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે કે જા શ્રાવકાને પણુ આ
Page #594
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
४१०
बालाघमंकथाम आलोए पणाम करेइ २ ला, लोमहत्यय परामुमा • ता, जहा मृरियामो जिणपडिमाओ अन्चेइ तदेव भाणिजा धूम उड' नि । तेन मूल्पाठस्य निश्यत्तस्य नाभूरिति विशागते ।
अत' पर च-माम जाणु अर दारिण जाणु धरनियलगि णिसेइ २' इति प्रतिमापूजन यीनो मृल्पाटस्ता वर्तते, टीकाकारस्तु-'दाक्षिण जाणु धरणीतलसि निहट्ट' :ति पाट टोकाया पिलिय निगदति-निहट्ट' निहत्य स्थापपिनत्यर्थ', 'णिवेसेट ' उत्यन-निव' इति पाठभेद' क्तः । तेना प्येतद् विदित भाति-यस्य यादृश मनम्यभिरुचित स तामिह मूरपाठ पर ल्पयति स्म इति । जिणघर अणुपविसह जिगपडिमाण आलोग पगाम करेठ, २ लोमहत्यय परामुसह, २ एव जहालूरियामो जिनपडिमाओ अच्चे तहेच माणि यव्य जाब धूव इ" ति यह पाठ मिलता है । इसके बाद "वाम जाणु धरणियलनि णिवेसेड " ऐसा पाट मिलता है और यही पाठ प्रतिमा पूजको को समत है। परन्तु टीकाकार श्री अभयररि ने "दारिण जाणु धरणीतलसी निटूट 'ऐमा पाठ टीकामें रखकर 'निहट्टु' इस पद की टीका "स्थापना करके" ऐसी की है। इस प्रकार "णिवेमेइ" की जगह 'निहट्ट' ऐसा पाठ भेट किया गया है। इसी प्रकार प्रतिमा पूजको धारा स्वीकृत "तिम्खुत्तो मुद्धार्ण वरणियलसि नोड" इस मूल पाठ में भी परिवर्तन "नमेड किया पद में निवेशयति" इस रूप से कर दिया है। इससे यह बात निश्चित होती है कि जिस के मन पणाम करेइ, २ लोमहत्यय परामुसइ, २ एव जला सूरियामो जिनपडिमाओं अच्चेइ तहेव भाणियव्य जार धून उदइ ) त्ति,
21 भणे छे त्यारपछी “वाम जाणु धरणियल सि णिवेसेड २" આ જાતને પાઠ મળે છે અને એ જ પાઠ પ્રતિમા પ્રજાના તરફદારીઓને માટે समत ३५ छ परीश्री मलयवसूरिश " दाहिण जाणु धरणीवल सो निहटु” 24 तने। 18 मा ग " निहटु " २३॥ पहनी Astस्थापना शेने या प्रमाणे उगछे मारीत “णिवेसेइ" ना स्थान " निहटु " म जतनपा० से ४२वामा साच्या छ । नत प्रतिभा पूजना तहारी। 43 वीकृत (तिस्सुत्तो मुद्धाण धरणीतल सि नमेइ) मा भूगामा पy "नमेइ" यापहमा “निवेशयति "'t andनु 40 વર્તન કરી નાખ્યું છે આથી આ વાતની ખાત્રી થ ય છે કે જેના મનમાં જે પાઠ ગમે તેણે તે પ્રમાણે જ ફાવે તેમ પોતાની કલy; પામાં
Page #595
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ० १६ द्रौपदीचर्चा
४१३
नानि विपिन साधकानि भवन्ति अन्यथा सूर्यादेवादिवक्तव्यताया हूनां शस्त्रादि वस्तूना मर्चन इति तदपि निवेय स्यात् ' |
अत्रेद से यम्- 'न च द्रौपया प्रणिपातदण्टकमान चेयवन्दनमभिहित सून' इत्यादि पारसन्दर्भेण टीकाकारेणाभयदेवसूरिणा द्रौपद्या वन्दनमेव कृत न तु पूजनादिकमिति योधयता तावानेन पाठः स्त्रीकृत इति । तरमाद् विधिरूपेण प्रति मापूजनाय भगनतोऽर्हत आज्ञा न लभ्यते इति वादस्तानदास्ताम्, चरितानुवादरूपेणापि शास्त्रे भगतार्हदमतिमापूजन कापि नोक्तमिति सिद्धम् । एव चायमेहै चरितानुवादरूप वाक्य में विधि और निषेध वोधकता सभवित नही होती है इसी व्येय से " न च चरितानुवादवचनानि विधिनिषेध साधकानि भवन्ति " ऐमा माना जाता है नही तो फिर, सूर्याभदेव द्वारा जिस प्रकार बहुत शस्त्र आदि वस्तुओं का पूजन करना सुना जाता है उसी प्रकार प्रतिमा पूजकों के लिये भी इनका पूजन विधेय मान लेना चाहिये |
भावार्थ - " न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्र चैत्यवदनमभिरित सूत्रे " इत्यादि वाक्य के द्वारा टीकाकार अभयसूरि ने इतना ही पाठ स्वीकृत किया है कि द्रौपदी ने सिर्फ चढ़ना ही की है, पतिमापूजन नही इसलिये इससे यह बात सिद्ध हो जाती है जब चरितानुवाद रूप से भी शास्त्र में कही भी भगवान ने अहंन की प्रतिमा का पूजन नही कहा है | तच विधिरूप से प्रतिमा पूजन के लिये भगवान अर्हत की आज्ञा है ऐसी मान्यता कोरी कल्पनामात्र ही है । इस प्रकार स्थानक
કાઇ પણ સ્થાને ફરી નથી શ્તિાનુવાદ રૂપ વાકયના વિધિ અને નિષેધ बोधन्ता सलवित थती नथी रमा व्येयथी ( न च चरितानुवादवचनानि विधि निषेधसाधकानि भवन्ति ) सेभ मानवामा आवे छे नहितर यही सूर्यालदेव વડે જેમ ઘણા શસ્ત્રો વગેરે વસ્તુઓની પૂજા કરેલી વાત સભળાય છે તેમજ પ્રતિમા પૂજકોના માટે પણ એમની પૂજા વિધેય રૂપમા માની લેવી જોઈએ
लावार्थ –“ न च द्रौपद्या प्रणिपातदण्डकमान चित्या दनमभिहित सूत्रे " વગેરે વાકય દ્વારા ટીકાકાર અભયદેવસૂરિએ આટલા પાઠને જઞીકાર કી છે કે દ્રૌપદીએ ફક્ત વદના જ કરીએ પ્રતિમા પૂજા નહિ એથી આ વાત સ્પષ્ટ રીતે સિદ્ધ થઈ જાય છે કે મારે ચિતાનુવાદ રૂપથી પણ શાસ્ત્રમા કઈ પણ ન્થાને ભગવાને અહંતની પ્રતિમાના પૂજન વિષે કહ્યુ નથી ત્યારે વિધિ રૂપથી પ્રતિમા પૂજન માટે ભગવાન અદ્વૈતની આજ્ઞા છે એવી માન્યતા ફક્ત કુદ “ માત્ર જ છે. આ પ્રમાણે સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયની આ માન્યતા
+ 1 }
Page #596
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨
शाताधर्म कथा मामाण्यादन्यस्यापि श्रापवादेस्तावदन वदिति मन्तव्य, चरितानुरादरूपत्वादस्य, इति । न चेत्यस्य मन्तव्यमित्यनान्ययः । द्रौपदी मणिपातमात्र दण्डात्मणा ममात्ररूप चैत्यन्दन-प्रतिमानन्दन कृतवतीत्यर्थ उपयोपिक एतत्सून माणमाश्रित्य तावदेव तत् मणिपातदण्डकमात्र नन्दन कुर्यादिति न मन्तव्यम्, तत्र कारणमाह 'चरितानुपादस्य ' इति । अस्य तत्सूत्रस्य चरितानु पादरूपत्वात् ज्ञातप्रदर्शकतया यथाटत्तस्य वत्तन्वरितस्यानुरूपतात्, न तु भगवता ' जय चरे जय चिह्न ' इत्यादिवत् कचिदाना मदत्ता |
तम्मादस्य विधिनिषेधस्य न समतीत्याह-' न च चरितानुवादवच बात भी सिद्ध हो जाती है कि अन्य श्रावकों को भी इसी प्रकार चन्दन नमन करना चाहिये-सो इस प्रकार का करन ठीक नही है । कारण कि यह चरितानुवाद रूप है ।
भावार्थ- कोई अन्य नायक जन ऐसा समझकर कि सूत्र मे जन द्रौपदी ने दण्डकी तरह होकर चैत्यवदन किया है तो इमी सूत्रकी प्रमाणता लेकर हमें भी इसी तरह से प्रणाम करना चाहिये सो इस प्रकार की मान्यता उनकी ठीक नही है कारण कि यह चरित का ही अनुवादक है । चरितका अनुवादक वाक्य विधेयरूप से मान्य नहीं होता है । यह सूत्र चरित का अनुवादक रूप है - इसका यह भाव है कि यह वाक्य ज्ञात अर्थ का प्रदर्शक होने से पहिले जो जो बातें २ जिस २ रूपमें हो चुकी हैं उन सब का अनुवादक रूप है । " जय चरे जय चिट्ठे " इत्यदि सूत्र की तरह यह विधि वाक्य नही है । इसीलिये भगवान ने प्रतिमा के पूजन और वदना, नमन करने आदि की आज्ञा कही भी सूत्र में नही दी પ્રમાણે જ વદન નમન કરવા જોઈએ તેા આ જાતનુ કથન ચેાગ્ય નથી, કેમકે આ ચિતાનુવાદ રૂપ છે
ભાષા—ગમે તે શ્રાવક આમ સમજીને કે સૂત્રમા~ ૨ દ્રૌપદીએ દડાકારે થઇ? ચૈત્ય વદન કર્યું કે તે! આ સત્રને જ પ્રમાણુ સ્વરૂપ માનીને અમારે પણ આ પ્રમાણે જ પ્રણામ કરવા જોઇએ તે તેમની આ વાત પણ ઠીક કહી શકાય તેમ નથી, કેમકે આ ચરિતના જ અનુવાદક છે. રિતનુ અનુવાદક વાકય વિધેય રૂપમા માન્ય હાતુ નથી આ સૂત્ર તિને અનુ વાદક રૂપ છે. આના ભાવ એ છે કે આ વાય. સાત મના પ્રદર્શક હાવાથી જે જે વાતે જે રૂપમા થઈ ચૂકી છે તે ખધાનુ અનુવાદક રૂપ છે| जय चरे जय चिद्रे " इत्याहि सुननी प्रेममा विधिवार
ካ
jal
Page #597
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगारधर्मामृतयपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा नानि विपिनिपेवसाधकानि भवन्ति जन्यथा सूर्यादेवादिवक्तव्यताया पहना शस्त्रादिवस्तूनामर्थन भूयते इति तदपि विधेय स्यात् ।
अद यो यम्-' न च द्रौपचा प्रणिपातदण्टकमान चत्यान्दनमभिहित सूत्र इत्यादि वाक्यसन्दर्भेण टीकाकारेणाभयदेवमरिणा द्रौपद्या वन्दनमेव कृत न तु पूजनादिकमिति गोधयता तावानेर पाटः स्वीकृत इति । तस्माद् विधिरूपण प्रति मापूजनाय भगतोऽर्हत आज्ञा न लभ्यते इति नादम्तापदास्ताम् , चरितानुवादरूपेणापि शास्त्रे भगवताऽहमतिमापूजन कापि नोक्तमिति सिद्धम् । एव चायमेहै चरितानुवादरूप वाक्य में विधि और निषेध योधकता सभवित नहीं होती है इसी व्येय से " न च चरितानुवाद्वचनानि विधिनिषेधमाधकानि भवन्ति " ऐमा माना जाता है नहीं तो फिर, सूर्याभदेव द्वारा जिस प्रकार बहुत शस्त्र आदि वस्तुओं का पूजन करना सना जाता है उसी प्रकार प्रतिमा पूजकों के लिये भी इनका पूजन विधेय मान लेना चाहिये।
भावार्थ-" न च द्रौपद्या. प्रणिपातदण्डकमात्र चैत्यवदनमभिहितं सूत्रे" इत्यादि वाक्य के बारा टीकाकार अभयस्मृरि ने इतना ही पाठ स्वीकृत किया है कि द्रौपदी ने सिर्फ वदना ही की है, पतिमापूजन नहीं इसलिये इससे यह बात सिद्ध हो जाती है जब चरितानुबाद रूप से भी गोत्र में कही भी भगवान ने अहंन की प्रतिमा का पूजन नहीं कहा है । तव विधिरूप से प्रतिमा पूजन के लिये भगवान अर्हत की आज्ञा है ऐनी मान्यता कोरी कल्पनामात्र ही है। इस प्रकार स्थानक કાર્ડ પણ સ્થાને કરી નથી ચઢિાનુવાદ રૂપ વાયા વિધિ અને નિષેધ मोध तो समर्पित यती नथी २॥ व्येयथा (न च चरितानुयादवचनानि विधिनिपेघसाघकानि भान्ति ) म भानपामा मावे छे नडितर पछी सूर्यालय વડે જેમ ઘણુ શસ્ત્રો વગેરે વસ્તુઓની પૂજા કરેલી વાત સંભળાય છે તેમજ પ્રતિમા મૂકેના માટે પણ એમની પૂજા વિધેર રૂપમાં માની લેવી જોઈએ
मावाय-" न च द्रौपद्या प्रणिपातदण्टकमान चैत्य दनमभिहित सने" વગેરે વાય દ્વારા ટીકાકાર અભયદેવસૂરિએ આટલા પાઠને જ સ્વીકાર કર્યો છે કે દ્રૌપદીએ ક્ત વદ ૫ જ કરી છે પ્રતિમા પૂજા નહિ એથી આ વાત સ્પષ્ટ રીતે સિદ્ધ થઈ જાય છે કે જ્યારે ચરિતાનુવાદ રૂપથી પણ શાસ્ત્રમાં કે પણ સ્થાને ભગવાને અહંતની પ્રતિમાના પૂજન વિષે કહ્યું નથી ત્યારે વિધિ રૂપથી પ્રતિમા પૂજન માટે ભગવાન અહંતની આજ્ઞા છે એવી માન્યતા ફક્ત કપના માત્ર જ છે આ પ્રમાણે સ્થાનકવાસી સ પ્રદાયની આ માન્યતા
Page #598
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१४
माताधर्मकथासूत्रे
• स्थानका सिना सिद्धान्तः शायानुकूल सत्य इवि निषीयताम् । छन्द नमपि द्रौपया न कृतमित्यग्रे सममाण निव्ययिष्याम' |
किं च प्रतिमापूजकाना प्रमाणभृते महानिशीथनेऽपि ' प्रतिमापूजायाः सातया तदर्थ जिनालयविधान सभाति मत्याः पृष्टेन कुवलयप्रभनाम्नाऽनगरेण निगम ना मानेगाव " इति । तदेवमनेन भगतासतासीरामगीन स्मतिम् । भाषीक भोदधिः । ततस्तैः सर्वैरेकमत कृत्वा तस्य नामाचार्य इति नाम दत्त प्रसि द्विनीत च । इति प्रतिनोधितम् ।
वासी सप्रदाय की यह मान्यता निर्दोष एन शास्त्रानुकूल और सत्य है कि अर्हत की प्रतिमा बनाकर पूजना शान्न हिनमार्ग से विपरीत मार्ग है । अहंत की प्रतिमा की चन्दना भी द्रौपदी ने नहीं की है इस बात को भी हम आगे प्रमाण देऊर पुष्ट करेंगे ।
किञ्च - प्रतिमापूजको द्वारा प्रमाणरूप से स्वीकृन महानिशीथ सूत्र में भी यही समझाया गया है कि प्रतिमापूजन स्वयं एक सावध कर्म है, उसके निमित्त जनालय आदि बनवाना भी सावचकर्म है। ऐसा सम झकर - कुवलयप्रभनामक आचार्य ने द्रव्य लिंगियों द्वारा पूछे जाने पर यही उत्तर दिया है कि ये सब सावयकर्म है, में अपने वचनों से भी इस विषय का जरा भी मन नहीं कर सकता ह" इस प्रकार कहने वाले उन कुवलयप्र सनामक आचार्यने तीर्थकर नाम गोत्र कर्म उपार्जन करके एकभवावतारी बने । साधकर्म निषेध करने वाले होने से
નિર્દોષ તેમજ શાસ્ત્રાનુકૂલ અને સત્ય છે કે અહતની પ્રતિમા મનાવીને પૂજવી શાસ્ત્રવિહિત માથી ઉલટા મા` કે અ`તની પ્રતિમાની વદના પણ દ્રૌપ દીએ કરી નથી, આ વાતને પણ અમે આગળ સપ્રમાણસિદ્ધ કરવા પ્રયત્ન કરીશુ
અને મીજી પણ કે-પ્રતિમા પૂજક વડે પ્રમાણ રૂપે સ્વીકૃત મહાનિશીથ સૂત્રમા પણ એ જ વાત સમજાવવામા આવી છે કે પ્રતિમા પૂજન જાતે એક સાવદ્ય કર્મ છે તેના નિમિત્તે જીનાલય વગેરે બનાવવા તે પણ સાવદ્ય કર્યું છે એમ જાણીને જ કુવલયપ્રભુ નામના આચાર્યે દ્રવ્યલિંગિએ વડે પૂછાએલા પ્રશ્નના ઉત્તરમા આ પ્રમાણે જ કહ્યુ કે આ બધુ સાવધ છે. હું મારા ષચનાથી પશુ આ વિષયનુ જરાય પણ મડન કરી શકુ તેમ નથી આ રીતે કહેનાર તે કુવલયપ્રભ નામક આચાર્ય તીથ કર નામ ગોત્રકમ ઉપાત કરીને એક ભવાવતારી અન્યા સાવદ્યકમ નિષેધ કરનાર હેાવાથી તે
Page #599
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१५
अनगारधामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
भगवान् श्री पर्वमानस्मामी गौतम प्रति कथयति-'जस्या ऋपमादिचतुर्विशतिमायाः पाक अतीतकालेन याऽतीता चतुर्विशतिका, तरया मत्सरश सप्तहस्ततनुर्धर्मगीनामा चरमतीर्थदरो भून तस्मिश्च तीर्थकरे सप्ताश्चर्याणि अभूवन् । असयतपूजाया प्रत्तायामने के आदेभ्यो गृहीतद्रव्येण स्वस्वकारितचैत्यनिवासि नोऽभवन , तत्रैको मरकत उपिः सुपलयमभनामाऽनगारो महातपरती उग्रविहारी शिष्यगणपरिटत' समागात , तैनन्दित्वोक्तम् , तदेव तलमकरण प्रदर्यते, तथा हि--महानिगीयम ने पञ्चमा ययने - ___जहाण भया । जड तुममिहार एगवानारतिय चाउम्पासिय पउजियताणमिन्छाए अणेगे चेइयालया गनति नूण तज्झाणणतीए ता कीरउ अणुग्गहमम्हाण उन चैत्यवासियो ने मिसार उनका नाम 'सावयाचार्य' रस दिया,
और प्रसिद्ध भी कर दियो । जैसे-भगवान् श्री वर्षमानस्वामी गौतम प्रति करते हैं-इस पभादि चौवीसी के पहले भूतकालमें जो चोवीसी होगई है उस चौपीनीमे मेरे जैसा सात हायप्रमाण शारीर वाला धर्म श्री नामका अतिम तीर्थकर हो गया है, उस तीर्थकर के सत्रयमे सात आश्चर्य हुए थे, उनमे " असयतपूजा" नामका एक आश्च यथा । उस असयनजोकी प्रवृत्ति होनेपर बहुतले साबु श्रावको के पैसो रो अपने अपने बनवाये उवे चैत्यो में निवास करते थे अर्थात् चत्यवासी हो गये थे, यता पर एक आम कांतिवाले कुवलयप्रभ नाम के मुनि महातपस्वी उग्रविहारी शिज्यपरिवार सहिन पधारे थे, उनको उन चत्यदासियो ने वदना कर के जो कहा सो इस प्रकार है । जिस पाठ का यह कथानक है वह पाठ इस प्रकार हैતેમનું નામ “સાવદ્યાચાર્ય ” એ પ્રમાણે રાખ્યું અને પ્રસિદ્ધ પણ કર્યું જેમકે ભગવાન શ્રી વર્ધમાનસ્વામી ગૌતમને કહે છે કે–આ ઋષભાદિ ચીની સીના પહેલા ભૂતકાળમાં જે વીમી થઈ ગઈ છે તે વીશીમા મારા જેવા સાન હાથ પ્રમાણ શરીરવાળા ધર્મશ્રી નામના છેલ્લા તીર્થ ડર થઈ ગયા છે. તે તીર્થંકરના સમયમાં સાત આશ્ચર્યો થયા હતા, તેમાં “અસ થતપૂજા” નામનુ એક આશ્ચર્ય હતુ તે અમથત પૂજાની પ્રવૃત્તિ થઈ ત્યારે અનેક સાધુશ્રાવકોના પૈસાથી પિતપોતાના માટે બનાવરાવેલા ચમા વાસ કરતા હતા અર્થાત્ ત્યવાસી થઇ ગયા હતા ત્યા એક ગ્યામ વર્ણવાળા કુવલયપ્રભ નામના મુનિ મહારાજ કે જેઓ મહા તપસ્વી, ઉગ્ર વિહારી હતા, તેઓ પોતાના શિષ્ય પરિવાર સહિત ત્યાં પધાર્યા હતા તેમને તે મૈત્યવાણીએ વદના કરીને જે કહ્યું તે આ પ્રમાણે છે –
Page #600
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१६
माताधर्मकथासूत्रे
।
इहेर चाम्पासिय । ताहे मणिय तेण महाणुभागेण गोषमा जक्ष भो भो । पियरए ! जह विनिणाय तथा रिसावज्जमिण वाह नायामिचेण पि आयरिज्जा | पत्र न समपसारपर तल पट्टि अविपरीत गीमक गणनाणेण तेर्सिन्छदिद्विलिंगीण साहसधारीण मज्झे गोगमा ! आरारलिय निश्ययर नामस्म्मगोय तेणं कुलयप्पण, एगमवार मीर जो मनोयही ॥ इति ।
-
1
छाया यथा खलु भगवन् । यदि यमिहापि एकपत्रिचानुर्मासिक प्रयो स्वणामिच्छया अनेके चत्पाल्या भवन्ति नून | तद्यानाप्या तस्मात् करोतु अनुग्रहमस्मा चातुर्मागरम् । उदा भणित तेन महानुभागेन - गौतम । यथा भाभो प्रिया' । यद्यपि जिनालय, तापि सामना माने णापि आचरामि । एव च समयमारनर तत्र यथास्थितम् अविपरीत निशङ्क भगवा नेवा मिपालिङ्गिना साधुवेपधारिणा मध्ये गौतम आसकलित तीर्थ करनामरुगगोत्र तेन कुयमभेण एकमवावशेषीकृतो भो ॥ इति
"
जहा ण भयव ? जह तुममिहाह एकासारतिय चाउम्मा सिय पर जियताणमिच्छात अणेगे चेहयालया भवति तृण तज्झाण पत्तीए, ता कीरउ अणुहमम्शण इहेव चाउम्मानिय । ताहे भणिय तेण महाणुभागेण गोत्रमा ! जहा भो भो विश्व जवि जिणालए तहा वि सावज्जमिण णाह वायानित्तेण पि आयरिना । एव च समयमार पर तत्त जट्ठिय अविपरीत णीसक भणमाणेण तेर्सि मिच्छदि हिलिंगीण साइवेसधारीण मज्ये गोयमा ! आसकलिय तित्थयरनाम गोन्त तेण कुवलयप्पण एगभवावसेसीकओ भवोयही । इति (महा निशीय पश्चम अध्ययन ) इस सूत्र का भावार्थ इस प्रकार है
हे भगवन् 1 आप यहा एक वर्षारानिक चार महिने ठहरे
66
1
तज्झाणत्तिए ता कीरउ महाणुभागेण गोयमा ।
जहा ण भयन इ तुमभिहाइ एकनासारतिय चाउम्मासिय पठ जिय ताण मिच्छाए, अणेगे चेइयालया भवति नूण अणुग्गहम्माण इहेत्र चाम्पासिय । ताहे भणिय तेण जहा भो मो पियवए जइपि जिणालए तावि सावज्जमिण नाह वायामितेण पि आयरिज्ना । एव णीसक च समयसार पर तत्त जट्ठिय अविपरीत भाणमाग तेसि मिच्छदिट्ठिलि गीण साहुवेसधारण मज्झे गोयना ? आसकलिय तित्थयरनामगोत्त तेण कुवलययमेण एगभवाव मेसीकओ भतोयही । इति ( महानिशीथ पञ्चम अध्ययन ) मा सूत्रनो लावार्थ था प्रभाऐं छे
Page #601
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
४७ हेभगवन् ! ह यदि या सलु त्वम् एकपराविक चातुर्मामिक तिष्ठसि प्रयोक्तृणाम् प्रवर्तकानाम् दया-आज्ञया अनेके चैत्यालया नून भवन्ति भनिप्पन्ति, तत् नम्माद् निवासार्यमाशामुपादाय इहेर चातुर्मासिक दुरु तावदस्माक मनुग्रह कुरु भवदीयाज्ञया वहाचैत्याल्या भविष्यन्ति । ततश्चास्माकमुपकारः क्रियतामिति भावः । तदा तेपा साधनाया प्रवृत्ताना द्रव्यलिगिना वचन श्रुत्वा तेन महानुभावेन कुवलयमभनाम्नाऽनगारेण भणितम्-उक्तम् , यथा-भो भो प्रिय बदा । भो देवानुपिया' । यद्यपि जिनालय , तथापि सावद्यमिद जिनभवने कृते -अर्थात् यही पर चौमामा व्यतीत करे । प्रचर्नकों की आज्ञा से यहां पर अनेक चैत्यालय न जायेगे । उस लिये आप यही पर चौमासा व्यतीत करने का अनुग्रह करें। हमारे ऊपर आपका वडा ही अनुग्रह होगा । आपके उपदेश से निश्चय समझिये अनेक चैत्यालयों का निर्माण हो जायगा। इस प्रकार से उन व्यलिंगियो से प्रार्थित होने पर महानुभाव अवलयप्रभ आचार्य ने कहा कि हे देवा नुप्रिय । यपि तुम जिनालय के विषय मे कहते हो-परन्तु-में इस कार्य को परवाने में श्रेय नहीं देखता हूं-कारण कि यह सावद्यकार्य है जिन भवन बनवाना और उसके बनवाने की प्रेरणा करना इन दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों में पृथिवीकाय आदि छह प्रकारके जीवों की विराधना होती है इसी प्रकार से पूजन करने में भी पटकाय के जीव निकायों का आरभ अक्यभावी है। इसलिये अनेक प्रकार के पटकाय के जीयो के विधात का हेतु होने से पूजन के निमित्त भी जिन भवन का बनवानामावद्यनर कार्य है ऐसे सावद्यतर कार्य का मैं किसी भी प्रकारसे उपदेश नहीं दगा । में कभी भीऐसा उपदेश नही द्गाकि તમે અહીં એનવરાત્રિ –ચાર માસ–રોકાઓ-એટલે કે અહીં તમે ચોમાસ પર કરે પ્રવર્તકની આજ્ઞાથી અહીં ઘણા રીયાલયે બની જશે એથી તમે અહીં જ ચોમાસુ પુરૂ કરવાની કૃપા કરો, અમારા ઉપર તમારો ભારે અનુગ્રહ થશે તમારા ઉપદેશથી અમને ચેકસ ખાત્રી છે કે ઘણા ત્યાલયનું નિર્માણ થઈ જશે આ રીતે દ્રવ્ય લિગઓની પ્રાર્થના સાભળીને મહાનુભાવ કુવલયપ્રભ આચાર્યે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! જે તમે જીનાલયના વિશે કહે છે, પણ મને આ કામ કરાવવામાં ન લાગતુ નથી, કેમકે આ સાવદ્યકમ છે જીન ભવન બનાવવું અને તેને બનાવવાની પ્રેરણા આપવી આ બને જાતની પ્રવૃા ત્તિઓમાં પ્રવુિકાય વગેરે છ જાતના જીવોની વિરાધના થાય છે આ રાતે પૂજા કરવામાં પણ થયના જીવનિકાને આર ભ અવશ્ય ભાવી છે એટલા માટે ઘણી જાતના પડાયના જીવોના વિઘાતના માટે હતુરૂપ હોવા બદલ પૂના માટે પણ જીનભવન બનાવવું સાવઘતર કાર્ય છે એવા સાવઘાર કાર્ય
Page #602
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाताधर्मकथा फारिते च पृथिवी कायापिरलीनिकायगिधना, नयर गिन्पूनायामगि तस्मात् पूनार्यस्त्वाजिनमानविधान साधतर, रामायणगोपघानहेतुत्वात नाह वाइमात्रेणाऽपि उपदेशदानरपेण गाम्योगमात्रेणापि आगमिग तिनाग्य रतु मुपदेशन करिप्यामीत्याय च-अनेन पकांग्णा, ममयमारपर मायसिद्धात साराऽशेष श्रेष्ठ तवनिकरणनियोग प्राणातिपातो पनीर रत्यारिरप य स्थित यथावस्थितस्वरूप प्रमाणभूत, विपरीत विपर्यशानापिपग -मायनित वचन भणता यता, तेपा गि गारपिलिनिना मि राष्टप. अतीथिकान्तद्वनी योपघातकाग्णिासाधुपचारिणामध्ये हे गौतम ! बासमलितम् सन्या सर हीतम् उपानितमित्यर्थ । पिमुपानिनमित्याह-ती करनामगो7 नेन कुवल्या भेण, एकमवावगेपी कतो भयोदधिः । सुगममेतत् । जिस में जिनालय बनवाने का विधान रो। इस प्रकार प्रबचन सिद्धा न्त की सारभूत वस्तुस्थिति को यधार्य रूप से वित्ता किसी सकोच के प्रकट करने वाले उन मुनिराज ने उन सायुप धारी द्रव्यलिंगिया क बीच कि जो मिथ्याष्टियो की तरह जीवों की हिंसा करने मे प्रवृत्त थे उनके सामने इस प्रकार शुद्ध प्ररूपणा करनेसे है गौतम! तधिकर नाम गोत्र कर्म का वध किया-और सलार भी उनका एक भव मात्र घाकी रह गया इस उदरण से गरी समझना चाहिये-कि जय प्रतिमा पूजन के लिये भी मदिर नवाना सावध कर्म है और इस सावधकार का उपदेश देना भी साप के लिये वर्जनीय है-इसी अभिप्राय स कुवलयप्रभ सृरि ने इस कार्य को निषेध किया-इस निबंध स ९ तीर्थकर नाम-गोत्र कर्म को धआ और समार भी उनका एकभव मात्र बाकी बचा-तो फिर सर्व प्रकार से सावध कर्मो का परित्याग માટે હું કઈ પણ રીતે ઉપદેશ આપવા તૈયાર નથી, હું આ જાતને ઉપદેશ કોઈપણ વખતે આપવા તૈયાર નથી કે જેમાં જીના ય બતાવવાનું વિધાન સરખુ ય હેય આ રીતે પ્રવચન સિદ્ધાતની સારભૂત વસ્તુસ્થિતિને સાચા રૂપમાં વગર કોઈ પણ જાતના સ કે–પ્રગટ કરનારા તે મુનિરાજે તે સાધુ વધારી દ્રવ્ય લિગિઓની સામે કે જેઓ મિથ્યાષ્ટિવાળાઓની જેમ જીની હિમા કરવામાં પ્રવૃત્ત હતાશ ૮ પ્રરૂપણા કરી આ રીતે વધ પ્રરૂપણ કરવાથી ગૌતમ! તીર્થંકર નામનો કર્મને ન ધ કર્યો અને ન માર પણ એક ભવ જેટલો જ શેષ રહ્યો આ ઉદાહરણથી આપણે એજ વાત સમજવી જોઈએ કે જ્યારે પ્રતિમા પૂજન માટે પણ મદિર બનાવવુ માવ કર્મ છે અને આ સાવદ્યકાર્યને ઉપદેશ કરે પણ સાધના માટે થાય છે આ હેતુથી જ કુવલયપ્રભસૂરીએ આ કાર્યને નિષેધ કર્યો છે આ નિર્ણયથી તે કર
Page #603
--------------------------------------------------------------------------
________________
थेनगारधर्मामृतवपिणी टोफा अ० १६ द्रौपदीचर्चा ___अद्र गोध्यम्-यन प्रतिमापूजार्थ निपमाणस्य जिनाल यस नाचोपदेशारण सापथगिति जानता तत्परिवर्जने कृते तीर्थकर नामगोत्र कर्म ममुपार्जित, तत्र सर्वथा मावद्यमार्ग परिवर्जनता सर्वप्राणिरक्षणार्थमदिसा गर्म सर्वतः प्रचारयता प्रवचन-सिद्धान्तसार विजानतां सयममार्गे प्रवृत्तिमता सम्यक्त्वशुद्धिमता प्रतिमापूजामकुर्वता तन्निपेक्यता नि नामात्मनः रल्याणकर कार्यमनशिष्टम् , इति ।
अब विवाहसमये द्रौपदी सम्यस्त्वाती नासीदिति पय॑ते-जैनागमाना विद्वास सम्यगिट बदन्ति-सनिठानम्य जीवस्य निदानफलप्राप्तिर्यावन भवति, तारदसौं सम्यक्त्वपश्चिता जैनधर्माद् दुर एवावतिष्ठते । करने वाले, समस्त प्राणियो को रक्षा के निमित्त अहिंसाधर्म का प्रचार करने वाले, प्रवचन सिद्धान्त के सार को जानने वाले, सयममार्ग मे प्रवृत्ति बाले, सम्यरत की शुद्धि से विशिष्ट और प्रतिमा की पूजा नही करने वाले पब उसका निपेप करने वाले ऐसे सयमियों का अव और कौनसा ऐसा कार्य बाकी रहा है जो उनकी आत्मा के लिये कल्याण का साधन न हो।
अब पा इस बात का वर्णन किया जाता है कि विचार के समय द्रौपदी सम्यक्त्ववाली नहीं थी।
जैन आगमों का भलीभॉति परिशीलन करने वाले विद्वान उस याको अच्छी तरह जाते है कि जिम जी ने जो निदान किया हैजबतक उसके फल की प्रापि उस जीव को नही हो जाती-तबतक वह जीव सरपक्व से चचित राफर जिन वर्म से दूर ही रहता है। નામ-ગોત્ર તમને બવ વ અને સ સાર પણ તેમને માટે એકભવ જેટ લે જ શેષ રહ્યો હતો તો પછી સર્વ રીતે સાવદ્યકર્મોને પરિત્યાગ કરનારા બધા પ્રાણીઓની રક્ષાના નિમિત્તે અહિંસા ધર્મને પ્રચાર કરનારા પ્રવચન સિદ્ધાતના ગરને જાણનારા, સયમ માગ મા પ્રવૃત્તિ કરનારા, સમ્યકત્વની શુદ્ધિથી વિશિષ્ટ અને પ્રતિમા પૂજા નહિ કરનારા અને તેને નિષેધ કરનારા એવા સયમીઓનુ એવુ કયુ કામ શેષ રહ્યુ છે કે જે તેમના આત્માને કયાણનું સાધનરૂપ ન હોય ? - હવે અહીં આ વાતનું વર્ણન કરવામાં આવે છે કે લગ્નના વખતે દ્રૌપદી સમ્યકત્વવાળી ન હતી
જૈન આગમનુ સારી રીતે પરિશીલન કરનાર વિદ્વાને આ વાતને સારી પેઠે જાણે છે કે જે જીવે જે નિદાન કર્યું છે જ્યા સુધી તેના ફળની પ્રાપ્તિ તે જીવને થઈ જતી નથી ત્યા સુધી તે જીવ સમ્યકત્વથી વંચિત રહીને જીન ધર્મથી દૂર રહે છે.
Page #604
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२०
माताधण्यास ___ " पुष्पायनियायेण चोर-जमाणी२ जेणेच पच पच्या तेणेव आगन्छ, उवागन्छित्ता ते पच पडये तेण दराद्धपणेण रामदामेण आढियपरिवढिय करेइ, करित्ता, एर पयासी-एप गमए पच परवा परिया। ' इति सूत्रपाठ प्रामाण्याद् पिपाहसमये पूर्वतिनिदानाधीनतया सम्याराहित्य द्रौपद्या आसीद अतस्तस्यास्तदानी आकिवन सिध्यति युगपद पनाना पतीना उरणेन तस्यो पूर्वसस्कारोदयशाद् विपुल मुखभोगलारसाऽपि सामापिकी, जत सा कोमारे वयसि श्रारिका नासीदिति युक्तिसिद्धस्यास्यापलापः केन शक्यते कतुम् ।
द्रीपदी रस्य पूजन कृतातीति निशामाया निर्णीयते-- __ " पुचकयनिव्याणेण चोइज्जमाणी • जेणेव पच पडा तेणेव उवागच्छह, उवागचित्ता ते पच पडो तेण दसद्धयण्णेण कुसुमदामण आवेढिय परिवेढिय करे । करित्ता पच वयासी-एण मरा पंच पंडवा वरिया" इस प्रकार के इस प्रमाणिक सूत्र पाठ से यह स्पष्टरीति से विदित हो जाता है कि विवाह के समय पूर्व निदान के अचान होने से द्रौपदी सम्यक्त्व रहित थी इसी लिये उस समय उसम श्राविकापना भी सिद्ध नहीं होता है। तया एक ही साय पार पाडवा को पतिरूप से चरण करने से उसके पूर्व सस्कार के उदय से विपुल सुख भोगने की लालसा भी स्वमाविकी ज्ञात होती है इसलिये वह कुमार अवस्था में श्राविका नहीं थी इस युक्ति सिद्ध अर्थ का अपलाप कौन कर सकती है । द्रौपदी ने किस की पूजा की इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर
" पुचकयनियाणेण चोइजमाणी २ जेणेन च पडवा तेणेव आगच्छ, उवागचित्ता, ते पच पडवे तेण दसद्धरणेण कुसुमदामेण आवेढियपरिवोदय करेइ । करिता एप बयासी-एएण मए पच पडवा वरिया"
આ જાતના આ પ્રામાણિક સૂત્રપાઠથી આ સ્પષ્ટ રૂપમાં માલુમ થઈ જાય છે કે લગ્નના વખતે પૂર્વકૃત નિદાનને સ્વાધીન હોવાને કારણે દ્રોપદી સમ્યકત્વ રહિત હતી એટલા માટે તે સમયે તેમાં શ્રાવિકા પણ સિદ્ધ થઈ શકે તેમ નથી તેમજ એકી સાથે પા પાડીને પતિરૂપમાં વરણ કરવાથી તેના પૂર્વ સંસ્કારોના ઉદયથી વિપુલ સુખ ભોગવવાની ઈચ્છા પણ સ્વાભા વિકી માલુમ થાય છે એથી તે કુમાર અવસ્થામાં શ્રાવિકા હતી નહિ આ યુક્તિ અને પરિહાર કેણું કરી શકે તેમ છે
દ્રૌપદીએ કોની પૂજા કરી આ જાતની જીજ્ઞાસાને સામે
Page #605
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधामृतवपिणी टी० १० १६ द्रोपटीचर्चा
५२१ __ अखण्डसौभाग्यप्रचुरभोगकामनया कामदेवस्यैव पूजन तदानीमुपपद्यते । कामपूजन विवाहोत्सवे निस्तस्तो भवतीति लोके प्रसिद्वमस्तीति प्रतिमापूजकोऽपि श्री वर्धमानमरि प्रोक्तमान् । स्पप्ट चैतत् तद्विरचिते आचारदिनारे द्वितीयविभागे--" परममये गणपतिकन्दर्प स्थापनम् । गणपतिकन्दर्पस्थापन सुगम लोक्मसिद्धम् । " इति । टीकाकार निर्णय करते है____ अखड सौभाग्य एव प्रचुर भोग की इच्छा से कामदेव का ही पूजन उस ममय द्रौपदी ने किया है-यही यात सगत वैठती है। लोक मे भी यही व्यवहार देग्वा जाता है कि विवाह के समय अच्छी तरह गाजे बाजे के सार काम देवका पूजन लोग किया करते हैं। इस बात को वर्धमान मरि भी जो प्रतिमापूजन के पक्षपाती है स्वीकार करते हैं और ऐसा ही करते है। इमी बात का स्पष्टीकरण उन्हों ने स्वनिमित आचारदिनकर के द्वितीय विमाग मे किया है-वे लिखते हैं कि
- परसमये गणपतिकदर्पस्थापनम् । गणपतिकदर्पस्थापन सुगम लोकप्रसिद्धम्" इति ।
लौकिक शास्त्र में गणपति एव दर्प (कामदेव ) की स्थापना होती है अत' गणपति और कन्दर्पका स्थापन करना सुगम और लोकप्रसिद्ध है। કાર નિર્ણય કરતા કહે છે કે –
અખડ સૌભાગ્ય તેમજ પ્રચુર ભોગની ઈચ્છાથી જ તે સમયે દ્રૌપદીએ કામદેવનુ જ પૂજન કર્યું છે, આ વાત જ એગ્ય લાગે છે લોકમાં પણ આ જાતને જ વહેવાર જોવામાં આવે છે કે લગ્નના વખતે વાજા એની સાથે સારી રીતે કામદેવનું પૂજન લેરો કરતા રહે છે. આ વાતને વર્ધમાનસૂરિ પણ કે જેઓ પ્રતિમા પૂજનના તરફદાર છે-સ્વીકાર કરે છે અને આ પ્રમાણે જ કહે છે આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ તેમણે સ્વનિર્મિત આચાર દિનકરના બીજા વિભા ગમાં કર્યું છે તેઓ લખે છે કે
“परसमये गणपतिकदर्पस्थापनम् । गणपतिकदर्पस्थापन सुगम लोक प्रसिद्धम् ” इति ।
લૌકિક શાસ્ત્રમાં ગણપતિ અને કદર્પ (કામદેવ) ની સ્થાપના થાય છે તેથી ગણપતિ દર્પની સ્થાપના કરવી તેજ સુગમ અને લેવપ્રસિદ્ધ છે.
Page #606
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२२
"निणपडिमाण अपरह" मनिनन्दरामदे परः । जिन दस्य यहयोऽर्था• कोशादी मसिद्धा. सन्ति । यथा
अनपि जिनो जिन मामान्यपली।
कन्दपोऽपि नियन, मिनो नारायणो हरिः ॥ इति (मी नाममा) विजयगच्छीयः श्रीगुणसागरपरिरपि बारमागरनाम याव्ये पप्टपण्डे द्रौपद्या पूज्यदेव निीतवान् । उक्त च तेन
करि पूना कामटेरनी भारो द्रुपदी नार।
देव दया करी मुझने मठो देगो गरतार ॥ १ ॥ अर्हन् सकलकर्म कपायमोहपरीपान जपतीति नित उच्चरी । सामान्य
"जिनपडिमाण अच्चण करे । इस सत्र में जिन शब्द जिनेन्द्र भगवान का बाचक नहीं है, किन्तु कामदेव का वाचक है क्यों कि जिन शब्द के अनेक अर्थ कोपातिक अन्यों में प्रसिद्ध-यया
अपि जिन जिन सामान्य केली। कदपोऽपि जिनश्चैव जिनो नारायणो हरिः॥
दति (हेमीय नोममाला विजय गच्छीय श्री गुणसागर सूरि ने भी " ढालसागर " नाम के काव्य में छठवें सड मे द्रौपदी के आराध्य देव का निर्णय किया है। उन्होंने लिखा है
करि पूजा कामदेव नी भाखे दुपटी नार।
देव दया करी मुझने भलो देजो भरतार ॥१॥ इस सतले अन्त भगवान को जिा' इसलिये कहा गया है " जिनपटिमाण अच्चण करेइ"
આ સત્રમાં જન શબ્દ જુનેદ્ર ભગવાનને વાચક નથી પણ કામદેવને વાચક છે કેમકે જીન શબ્દના ઘણા અકોષ વગેરે પ્રકામાં પ્રસિદ્ધ છે જેમડે
अईन्नपि जिनश्चैव जिन सामान्यक्वली । कदोऽपि जिनश्चैव जिनो नारायणो हरी ॥ इति (हेमीय नाममाला ) વિજયગીય શ્રી ગુણસાગરસૂરિએ પણ “ઢાલસાગર” નામના કાવ્યના છઠ્ઠા ખડમાં કોપદીના આરાધ્યદેવનો નિર્ણય કરતા તેમણે કહ્યું છે કે—
करि पूजा कामदेवनी भाखे दुपदिन र ।
देव ! दया करी मुझने भलो देशो भरतार ॥ १ ॥ આ સૂત્રમાં અહંત ભગવાનને “જીન” એટલા માટે છે કે તેમણે
Page #607
--------------------------------------------------------------------------
________________
गारधर्मामृतवपिणी टीका २० १६ द्रौपदी चर्चा
४२३
केली घातककर्म तुष्टय जयतीति जिन उच्यते । विष्णुः स्वभुजपलेन खण्डजय जयतीति जिन उच्यते । निस्यापि मगतः, यत ससा रिणामदेवर्तिन लोकजगारित्वाज्जिनत्व कामस्योपपद्यते । रूपरहित स्यापि सिद्धम्य प्रतिमा ज्ञानेन शाखानुक्तामपि प्रतिमापूजकाः प्रकल्पयन्ति, तदनङ्गस्यापि मनोमसिद्ध तद्वद्यानमनुसृत्य प्रतिमा मस्ल्प्यत इति कि उन्होंने मनम्न कपाय, वर्क्स, मोर और परीपों को जीता है । सामान्य केवली 'जिन' इसलिये कहे गये हैं कि उन्हों ने चार घनघो निया को को अपनी आत्मा से सम्रल पष्ट कर दिया है। विष्णु 'जिन' इसलिये कहलाये उन्होने अपने सुजल से भरतरखड के छह खड़ों में से तीन खों को अपने वश किया है इसी लिये ये अर्द्धचकी भी कहलाते है। समदेन को 'जिन' उस लिये करा गया है कि इसके वश समात त्रिलोक हे त्रिलोक में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं चचा कि जिसे इस ने अपने वश मे न किया हो ।
शका - द्रौपदी ने कानदेव की मूर्ति की पूजो की आप की यह नात उस समय मानी जा सकती-जन कि कामदेव की मूर्ति बन सकती होती ? परन्तु कामदेव की स्मृर्ति तो बच नहीं सकती क्यों कि वह तो अमृर्तिक- अशरीर - आर है। अगवाले की सूर्ति बनती है - अनग की नहीं |
આવા કષાય ક, મેહ અને પિરષÈાને ત્યા છે. સામાન્ય કેવી “જી” એટલા માટે દેવામા આવ્યા છે કે તેમણે ચાર ધનપતિઓના કર્મોને પેાતાના
<
આત્માથી મમૂળ નષ્ટ કરી નાખ્યા છે. વિષ્ણુ · જીન ' એટલા માટે કહેવાય છે કે તેમણે પેાતાના ભુજ મળથી ભતખંડના છ ખટામાથી ણુ ખડાને પેાતાને વશ કર્યાં છે એથી તેએ અદ્ધ ચકી પણ કહેવાય છે કામદેવને ‘જીન’ એટલા માટે કહેવામા આવ્યે છે કે તેના વશમા ત્રો લે છે. ત્રણે લેકમા એવુ ઇ પ્રાણી રહ્યુ નથી કે જેને કામદેવે પેાતાના વામા કર્યું ન હેાય
शा- દ્રૌપદીએ કામદેવની સૃર્તિની પૂજા કરી તે તમારી આ વાત ત્યારેજ યેાગ્ય કહી શકાય કે જ્યારે કામદેવની મૂર્તિ ખની રાતી હુંય ? પણ કામદેવની મૂર્તિ તે તૈયાર થઈ શકે તેમ નથી કેમકે તે તે અમૂર્તિ-અશરીર અન ગ છે અગવાળાની જ મૂર્તિ અને કે, અનગની નહિ
Page #608
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२४
Fair us
नास्त्यत्र सशय । लक्ष्मी गौर्यादिदेव्या नवि स्वामीष्टपतिमाहिकामनया पूजन लोके मसिद्धमस्ति । लौकिकमा मन्त्रत्नमवजपापा कामदेवारा वनस्यामी ष्टपतिमदेतुल निगदितम् --
"कन्यामिष्टामवाप्नोति सापीष्ट पतिमाप्नुयात् ॥ " इति । अधुनाऽपि परिणयनगमये कुल्देवपूजन लोके क्रियमाणदृते । कामदेवोऽपि उत्तर - यह करना ठीक नहीं है क्योकि मूर्ति प्रजक जन अन - सिद्धों की भी तो मृर्ति बनाकर उसकी प्रजा किया करते है। यि सिद्धों की मूर्ति बनाने की आज्ञा शाखो में नही गई है तो भी नर्तिपूजक जन अपनी कल्पना से उनकी भी मूर्ति बनाकर पूजा करते ही हैं
उसी प्रकार लैकिकशास्त्र प्रसिद्ध अन कामदेव की भी लोग अपनी कल्पनासुर मूर्ति धनाकर पूजते है । इस में आपत्ति की कौनसी बात है ।
लक्ष्मी, गौरी आदिदेत्रियों को भी पूजा लोक में अपने को अभि लपि पनि प्राप्ति की कामना से स्त्रियो द्वारा की री जाती है । लौकिक मन्त्र शस्त्र में मंत्ररत्नमजूना में कामदेव का आराधन- " कन्यामिष्टा मवाप्नोति सापीष्ट पतिमाप्नुयात् ' इस लोकार्धद्वारा इच्छित पति प्राप्ति का कारण कहा गया है ।
-
वर्तमान समय में भी देखो ! विवाह के समय में लोक में कुल देवता का पूजन किया ही जाता है यह कुल देवता का पूजन ही एक ઉત્તર~~~આ વાત યેાગ્ય નથી, કેમકે મૂર્તિ પૂજા કરનાશ લેકે અનગ સિદ્ધોની સ્મૃતિ બનાવીને તેની પૂજા કરતા રહે છે ને કે શાસ્રોમા સિધ્ધાની મૂર્તિ બનાવવાની આજ્ઞા કરવામા આવી નથી છતાય મૂર્તિ પૂજક લેકે પોતાની ૫નાથી તેમની પણ મૂર્તિ ખનાવીને પૂજા કરે જ છે. તેમજ લૌકિક શાસ્ત્ર પ્રસિદ્ધ અન ગ કામદેવની પણ લેકે પાાની કલ્પના મુજબ મૂર્તિ બનાવીને તેને પૂજે છે, આમા વાધા જેવી કોઈ વાત નથી
લક્ષ્મી, ગૌરી વગેરે દેવીએની પૂજા લેકમા પેાતાની ઇચ્છા મુજમ પતિ મેળવવાની કામનાથી સ્ત્રીએ વડે કરવામા આવે જ છે. લૌકિક મત્ર શાસ્ત્રમા भन्न रत्न भनूषामा अभद्देवनु आराधन " कन्यामिष्टामवाप्नोति साभीष्ट पति माप्नुयात्" भी अर्द्धश्बोड वडे इच्छित प्रतिभासिनु जरय मताववाभा आयु વર્તમાન સમયમા પણુ આપણે જોઈએ તે લગ્નના સમયે લેાકમા કુળ દેવતાનુ પૂજન કરવામા આવે જ છે આ કુળદેવતાનુ પૂજન * રીતે
Page #609
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
मनगारधामृतवपिणो टो० अ० १६ द्रौपदीचर्चा रागवता गृहस्थाना कुलदेवत्वेन व्याहिरमाण आसीत् । द्रौपधाऽपि स्वकुरदेवः पूजित इति युक्तमुत्पश्यामः ।
अा-" नमोऽत्यु ण गरिहताण " इति पाठस्तु प्रवचनविन्द एव वर्तते, लौकिरकुलदेवप्रतिमाऽर्चनप्रकरणे लोकोत्तरस्य भगवतोऽहत• प्रमङ्गाभावात् । पूर्वभवकृतनिदानवत्या रामभोगानुरपत्या द्रौपद्या नामदेवार्चनसमये कामभोग चिरतस्य वीतरागमार्गोपदेशकम्य पीतरागम्य भगवतोऽहतो वदन नैव शास्त्रानु
लम् । अत्र परिणयारसरे कुल देवपूजनासदे भगवतोऽईत प्रसङ्गएव नास्ति, तरह से कामदेव का पूजन अनुसरण है। एक समय या कि जब कामदेव ही, रागशाली गृहस्थ जनो के लिये कुल देवता के रूप से वैवाहिक व्यवहार में मान्य होताया। नौपदीने भी उस समय जो कुल देवता का पूजन किया-वह कामदेव का ही पूजन किया यदी युक्ति मगत पैठती है। इस पूजन के प्रकरण में जो " नमोत्युण अरिहनाण" यह पाठ आता है वह प्रवचन बिन्द ही हे क्यों कि लौकिक कुलदेवता की प्रतिमा के अर्चन-प्रकरण में लोकोत्तर अहत भगवान के प्रकरण का सबध ही क्या है । उस समय जब कि वर पूर्व भव में किये गये निदान से युक्त थी-और कामभोग में अनुरक्त हृदयवाली थी उस के लिये कामदेवका अर्चन (पूजन) करनेका समय ही स्पष्टरूपसे ज्ञात होता है कामभोगों से विरत वीतराग मार्ग के उपदेशक वीतरागप्रभु अर्ह त भगवान की पूजन चदना का नहीं। यही सिद्धान्त शास्त्रनुकूल है-अन्य नहीं। अरे कहीं કામદેવના પૂજનનું અનુસરણ કે એક વખત એ હતું કે જ્યારે કામદેવજ, રાગવાળી ગૃહસ્થ લેવાને માટે કુળ દેવતાના રૂપમાં લગ્ન–સ બ ધી વ્યવહારમાં માન્ય ગણાતું હતું. દ્રૌપદીએ પણ તે સમયે જે કુળ દેવતાનું પૂજન કર્યું તે કામદેવનુ જ પૂજન કર્યું હતું એ જ વાત બરોબર લાગે છે આ પૂજનના
२मा २ नमोत्थुण अरिह ताण " A1 8 मा छे ते अपयन વિરૂદ્ધ જ છે કેમકે લૌકિક કુળદેવતાની પ્રતિમાના અર્ચન-પ્રકરણમાં કોત્તર અહંત ભગવાનના પ્રકારણને સ બ ધ જ શી રીતે યોગ્ય કહી શકાય તે વખતે કે જયારે તે પૂર્વ ભવમા કરેલા નિદાનથી યુક્ત હતી અને કામગમાં અનુ રક્ત હૃદયવાળી હતી એવી સ્થિતિમાં તે તેના માટે કામદેવની અર્ચના કર વાને વખત જ સ્પષ્ટ રૂપે જણાઈ આવે છે કામગોથી વિરત વીતરાગ માર્ગના ઉપદેશક વીતરાગ પ્રભુ અઠત ભગવાનની પૂજા કદના માટે તે વખત થાય કહી શકાય નહિ આ સિધ્ધાંત જ શાસ્ત્રનુકૂળ છે બીજે નહિ યુદ્ધમાં
Page #610
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२४
जाताधर्मशास्त्र नारत्यन सशय । लक्ष्मीगौर्यादिदेच्या गरि सामीपतिमाहिकामनया पूजन लोके मसिद्धमस्ति । लाफिरमन्त्रशारो मानमाजपारा कामदेवागधनस्यामी प्टपतिगमहेतृत्व निगदितम्
"कन्यामिष्टामवाप्नोति, सापीट पतिमाप्नुयात् ।। " इति । असुनाऽपि परिणयनममये कुलदेवपूजन लोके किरमाग दृश्यते । कामदेवोऽपि
उत्तर-घर कसना ठीक नहीं है क्योकि मनि जक जन अनङ्ग -सिद्धों की भी तो मनि घनाकर उसकी पूजा किया करते है । स्वपि सिद्धों की मूर्ति बनाने की आजा मात्रा में न गी गई है-तो भी नर्तिपूजक जन अपनी कल्पना से उनको भी मूर्ति बनाकर पूजा करते ही हैउसी प्रकार रौकिकशास्त्र प्रसिद्द अन कामदेव की भी लोग अपनी सानासुर मूर्ति बनाकर पूजते है। इस में आपत्ति की कौनसी बात है।
लक्ष्मी, गौरी आदि देवियों को भी पूजा लोक में अपने को अभि लपित पनि प्राप्ति की कामना से स्त्रियों द्वारा की जाती है। लौकिक मन्त्र शस्त्र में मत्ररत्नमजूपा में कामदेव का आराधन-"कन्यामिष्टा मवानोति सापीष्ट पतिमाप्नुयात् ' इम श्लोकाधंढारा इच्छित पति प्राप्ति का कारण कहा गया है।
वर्तमान समय में भी देखो ! विवाह के समय में लोक में कुल देवना का पूजन किया ही जाता है यह कुल देवता का पूजन ही एक
ઉત્તર–આ વાત યોગ્ય નથી, કેમકે મૂર્તિ પૂજા કરનારા લોકે અનગ સિદ્ધોની મૂતિ બનાવીને તેની પૂજા કરતા રહે છે જે કે શાસ્ત્રોમાં સિની મૂર્તિ બનાવવાની આજ્ઞા કરવામાં આવી નથી છતાય મૂર્તિ પૂજક લેકો પોતાની કલ્પનાથી તેમની પણ મૂર્તિ બનાવીને પૂજા કરે જ છે તેમજ લૌકિક શાસ્ત્ર પ્રસિદ્ધ અન ગ કામદેવની પણ લોકે પિતાની કલ્પના મુજબ મૂર્તિ બનાવીને તેને પૂજે છે, આમાં વાધા જેવી કઈ વાત નથી
લક્ષ્મી, ગૌરી વગેરે દેવીઓની પૂજા કમા પિતાની ઇચ્છા મુજબ પતિ મેળવવાની કામનાથી સ્ત્રીઓ વડે કરવામાં આવે જ છે લૌકિક માત્ર શાસ્ત્રમાં भत्र न भयामा भवन माराधन “कन्यामिष्टामवाप्नोति साभीष्ट पति माप्नुयात्" 241 सश्वाड 438छि प्रतिप्रालिनु ४॥२८॥ तापामा मा०Y छ
વર્તમાન સમયમાં પણ આપણે જોઈએ તે લગ્નના સમયે લેકમાં કુળ દેવતાનું પૂજન કરવામા આવે જ છે આ કુળદેવતાનું પૂજન એ રીતે
Page #611
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
भनगारधामृतपिणो टो० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
४२५ रागवता गृहस्थाना कुलदेवत्वेन व्याडिमाण आसीत् । द्रोपद्यापि स्वकुलदेवः पूजित इति युक्तमुत्पश्यामः ।।
आ-" नमोऽस्यु णं अरिहताण " इति पाठस्तु प्रवचनविन्द एव वर्तते, लौकिरकुलदेवमतिमाऽर्चनमारणे लोकोत्तरस्य भगवतोऽहंत• प्रमङ्गाभावात् । पूर्वभवकृतनिदानवत्या नामभोगानुरवत्या द्रौपद्या नामदेवार्चनसमये कामभोगचिरतस्य वीवरागमार्गोपदेशकम्य वीतरागस्य भगवतोऽहतो बदन नेव शास्त्रानुकूलम् । अत्र परिणयारसरे कुलदेवपूजनमसने भगवतोऽहत प्रसङ्गएव नास्ति, तरर से कामदेव का पूजन अनुसरण है। एक समय या कि जब कामदेवी, रागशाली गृहस्थ जनो के लिये कुल देवता के रूप से वैवाहिक व्यवहार में मान्य होताया। नौपदीने भी उस ममय जो कुल देवता का पूजन किया-वह कामदेव कानी पृजन किया यही युक्ति मगन पैठती है। इस पूजन के प्रकरण में जो "नमोत्युण अरिहताण" यह पाठ आता है वह प्रवचन विरुद्ध ही है क्यो कि लौकिक कुल देवता की प्रतिमा के अर्चन-प्रकरण में लोकोत्तर अहत भगवान के प्रकरण का सबध ही क्या है। उस समय जब कि नर पूर्व भव में किये गये निदान से युक्त थी-और कामभोग में अनुरक्त हृदयवाली थी उस के लिये कामदेवका अर्चन (पूजन) करनेका समय ही स्पष्टरूपले ज्ञात होता है कामभोगों से विरत वीतराग मार्ग के उपदेशक वीतरागप्रभु अई त भगवान की पूजन वदना का नहीं। यही सिद्धान्त शास्त्रनुकूल है-अन्य नहीं। अरे कहीं કામદેવને પૂજનનું અનુસરણ છે એક વખત એ હતું કે જ્યારે કામદેવજ, રગતાળી ગૃહસ્થ લોકોને માટે કુળ દેવતાના રૂપમાં લગ્ન-સ બ ધી વ્યવહારમાં માન્ય ગણાતે હતે દ્રૌપદીએ પણ તે સમયે જે કુળ દેવતાનું પૂજન કર્યું તે કામદેવનુ જ પૂજન કર્યું હતું એ જ વાત બરાબર લાગે છે આ પૂજનના प्रभा २ “नमोत्थुण अरिह ताण " मा ५४ मा छे त अपयन વિરૂદ્ધ જ છે કેમકે લૌકિક કુળદેવતાની પ્રતિમાના અર્ચન-પ્રકરણમાં લેકેત્તર અહંત ભગવાનના પ્રકારણને સ બ ધ જ શી રીતે યોગ્ય કહી શકાય તે વખતે કે જ્યારે તે પૂર્વ ભવમાં કરેલા નિદાનથી યુક્ત હતી અને કામગ અનું ૨ક્ત હૃદયવાળી હતી એવી સ્થિતિમાં તે તેના માટે કામદેવની અર્ચના કર વને વખત જ સ્પષ્ટ રૂપે જણાઈ આવે છે કામગોથી વિરત વીતરાગ માના ઉપદેશક વિતરાગ પ્રભુ અહ ત ભગવાનની પૂજા વદના માટે તે વખત ભાગ્ય કહી શકાય નહિ આ સિદ્ધાંત જ શાસ્ત્રાનુકૂળ છે બીજે નહિ યુધમાં
Page #612
--------------------------------------------------------------------------
________________
સફ
श्रामक पात्र
द्रौपद्याः पूर्वमत्र त निदानफलमापत्यभावेन सम्यावर हितव्यात् । यस्य पूजने तस्यैव उन्नतु न्यायोपपन्न भवति, अत्र पूजन पृलदेवतायाः, चन्दन तु बीवरा गस्याईत इति लोकन्यायविरुद्धम् । तस्माः द्रौपद्या वीतरागस्यावो वन्दनमपि तदानीं न कृतमिति सर्वममाणसिद्धम् ।
अनाभयदेवसूरिणा सकतटत्तौ यदुक्तम् पम्यां नाचनायामेतावदेन दृश्यते " जिणपडिमाण अच्चण करे " इति ।
वीररस के मिचाय युद्ध में जानेवाले वीर के लिये मल्हारराग मी आनददायी हो सकता है ? | कभी नहीं परिणम-विवार के अवसर में कुलदेवता की ही पूजा करने का प्रसंग होता है-न कि भगवान अर्हत की । अतः इस प्रकार का प्रसग माननो एक Harea कल्पना मात्र ही है ! क्यों कि इस समय द्रौपदी पूर्वभव में किये हुए निदान की फल प्राप्ति के अभाव से सम्यक्त्व रहित थी, फिर उसे उस समय कामदेव की श इच्छित फल प्राप्ति के लिये पूजा की सूझेगी, या उसके अभाव को करने वाले जिन भगवान की पूजा की। यह स्वय विचारने जैसी बात है जिस का पूजन किया जाता है उसी की बदना की जाती है-पूजन तो हो कुलदेवतारूप कामदेव का और वदनो की जाय वीतराग प्रभु श्री देवकी । इस प्रकार की मान्यता तो लौकिकरीति से भी विरुद्ध पडती है। इसलिये सर्व प्रभागों से पर सिद्ध होता है कि द्रौपदी ने जिनप्रतिमा का पूजन नही किया ।
જનાર લડવૈયા માટે વીર રસ સિવાયને મલ્હાર રાગ પણુ છુ આનંદ પમાં ડનાર થઈ શકે છે ? નહીજ લગ્નના સમયે તા ભગવાન અહ તની પૂજા કરતા તે કુળદેવતાની પૂજા કરવાને પ્રસ ગજ ચેાગ્ય લેખાય છે એટલા માટે આ જાતના પ્રસગની વાત માનવી એ મનમાની કલ્પના માત્રજ છે. કેમકે આ સમયે દ્રૌપછી પૂર્વભવમાં કરેલા નિદાનની ફળ પ્રાપ્તિના અભાવને લીધે સમ્યકત્વથી રહિત હતી અને એવી સ્થિતિમા ઇચ્છિત ફળ પ્રાપ્તિ માટે તેને કામદેવની પૂજા કરવાની ઈચ્છા થાય કે તેનાથી વિરૂધ્ધ ફળ આપનાર જીન ભગવાનની પૂજાની ? આ જાતે વિચાર કરવા ચેાગ્ય વાત છે જેની પૂજા કરવામા આવે છે તેને જ વદના કરવામા આવે છે. પુખ્ત તે કુળ દેવતારૂપ કામદેવની થાય અને વદના વીતરાગ પ્રભુ શ્રી અરિહંત દેવની કરવામા આવે. આ જાતની માન્યતા તા લૌકિક રીતિથી પણ વિરૂધ્ધ કે આ પ્રમાણે બધી રીતે વિચારતા આ સિધ્ધ થાય છે કે દ્રૌપદ્મીએ જીન પ્રતિમાનુ પૂજન કર્યું નથી.
Page #613
--------------------------------------------------------------------------
________________
हा अ० ६६ द्रौपदीवरितनिरूपणम्
वाचनान्तरे तु ' व्हाया ' इत्यादि, तथा द्वीपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्र चैत्यवन्दनमभिहित मृते इति, तदप्यत्र पाठे मिद्धान्तविरुद्ध पाठप्रक्षेपसभावनां मद्योतयति । अत्र यद्वाच्य तत्मागेव निगदितम् ।
मूलम् - तएण तं दोवइरायवरकन्नं अतेउरियाओ सव्वालंकारविभूसिय करेंति कि ते ? वरपायपत्तणेउरा जाव चेडियाचक्कवालमयहरगविदपरिक्खित्ता अतेउराओ पडिणिक्खमइपडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्टाणसाला जेणेव चाउघटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धि चाउग्धंटं आसरह दुरूहइ, तएण से धट्टज्जुणे कुमारे दोवईए कण्णाए सारत्थं करेइ, तएण सा दोवई रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नयर मज्झ मज्झेण जेणेव सयवरमडवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता रह ठवेइ रहाओ पञ्च्चोरुहs पच्चरु
अभयदेव सूरि ने स्वरचित वृत्ति में जो यह कहा है कि एक वाचना में " जिनपडिमा अञ्चण करेह " दूसरी अन्य वाचना में " व्हाया इत्यादि - तथा द्रौपद्याः प्रणिपात दण्डकमात्र चे चवदनमभिहित सूत्रे इति" सो यह उनका कन इस बात की सभावना को प्रकट करता है कि इस पाठ में सिद्धान्त से विरुद्व पाठ का प्रक्षेप हुआ है । इस विषय में जो कुछ हमें समाधान करना या वह हमने पहिले ही कर दिया है । || द्रौपदी पूजाचर्चा समाप्त ॥
અભયદેવસૂરિએ સ્વરચિત વૃત્તિમા જે એ કહ્યુ છે
या
" जिनपरिमाण अच्चग करे " जील वायनाभा प्रणिपातदृण्डका चै यत्र दनमभिहित सूने इति । " વાતને પ્રકટ કરે છે કે આ પાઠમા સિ વાન્તથી વિરૂધ્ધ
તે
થયે છે કરી દીધુ છે
આ વિષે જે કઈ ચાગ્ય સ્પષ્ટીકરણ કરવાનુ
દ્રૌપદી પૂજા ચર્ચા સમાપ્ત
"
घर
કે એક વાચનામા
इत्यादि - तथा द्रोपद्या
તેમનુ આ કથન આ
એવા પાર્કને પ્રક્ષેપ હતુ તે અમે પહેલા
Page #614
--------------------------------------------------------------------------
________________
ve
ताधर्मकथा हित्ता किड्डावियाए लोहियाए य सद्धिं सयंवरमंडपं अणुपविसड अणुपविसित्ता करयल तेसि वासुदेवपामुम्वाण बहूर्ण रायवरसहस्साणं पणाम करेइ, तरण सा दोवई रायवर० एग मह सिरिदामगंड किं ते १ पाडलमटियचपय जाब सत्तच्छयाइंहि गंधद्वाणि मुयत परमसुहफास दरिसणिजं गिण्हइ, तरण सा किड्डाविया जाव सुरुवा जाव वामहत्थेणं चिलग दप्पण गहेऊण सललिय दप्पणसकतविवसदसिए य से दाहिणेण हत्थेण दरिसए पवररायसीहे फुडविसयविसुद्धरिभियगभीर महुरभणिया सा तेसि सब्वेसि पत्थिवाण अम्मापिऊण वससत्तसा मत्थगोत्तविकतिकति बहुविह आगममाहप्परूवजोवणगुण लावण्णकुलसीलजाणिया कित्तण करेड, पढम ताव वण्हिपुगवाणं दसदसारवीरपुरिसाण तेलोक्कवलवगाण सत्तुसयसहस्समाणावमद्दगाण भवसिद्धिपवरपुडरीयाण चिल्लगाण बलवीरियरूवजोवणगुणलावन्नकित्तिया कित्तण करेइ, ततो पुणो उग्गसेणमाईणं जायवाण, भणइ य-सोहागरूवकलिए वरेहि वरपुरिस. गधहत्थीणं । जो हु ते होइ हिययदइओ, तएणं सा दोवई रायवरकन्नगा यहूण रायवरसहस्साणं मज्झ मज्झेण समतिच्छ. माणी२ पुवकयणियाणेण चोइज्जमाणी २ जेणेव पच पडवा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ते पचपडवे तेण दसवण्णेण कुसुमदामण आवेढियपरिवढिय करेइ करिता एव क्यासीएएण मए पच पडवा वरिया, तएणं तेसि ..
Page #615
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृत
टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
he
बहूणि रायसहस्साणि महयारसदेणं उग्घोसेमाणा२ एव वयति सुवग्यि खलु भो । दोवड़ए रायवरकन्नाएर तिक्हु सयवरमडवाओ पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता जेणेव सया आवासा तेणेन उवागच्छइ उवागच्छित्ता, तएण घट्टज्जुण्णे कुमारे पच पडवे दोबई रायवरकण्ण चाउग्घट आसरह दुरूहइ दुरुहित्ता कपिलपुर मज्झ मज्झेण जाव सय भवण अणुपविस, तरणं दुवए राया पच पडव देवइ रायवरन पट्ट दुरूहेइ दुखहित्ता सेया परिहि कलसेहि मजात्रेइ मज्जावित्ता अग्गिहोम कारवेइ पचन्ह पडवाण दोवईए य पाणिग्गण करावेइ तएण से दुबए राया दोवई रायवरकण्णयाए इम एचारुवं पोईदान दलबइ, त जहा - अट्ट हिरण्णकोडीओ जाव अट्ट पेसणकारीओ दासचेडीओ, अण्ण च विउल धणकणग जाव दलयइ तएण से दुवए राया ताइ वासुदेवपामाक्खाणं विउलेणं असण वत्थव जान पडिविसज्जेइ ॥ सू० २१ ॥
टीका- 'तएण त' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु ता द्रौपदी राजवरकन्यां 'अते उरियाओ' आन्तः पुरिक्य = अन्तःपुरसर्विन्य स्त्रियः सर्वान्कारविभूपितां कुर्वन्ति, 'किं ते ' तन्- तत्सौन्दर्य किं वर्णयामि त नाचाऽभिलपितु न
तर ण त दोवर रायवरकन्न इत्यादि ।
कार्य- (ए) इसके बाद (त दोवह रायवरकन्न ) उस गजवर कन्या पदी को ( अउरियाओ मव्वालकारविभूतिय करे ति ) अतः पुर समस्त अकारो से विभूषित किया । (किंते ) उस समय
की
सण त दोवर रायवरकन्न इत्यादिटीअर्थ - (सण) त्याग्पी ( दो
रायवरकन्न) ते
न्या
शुत्राभना सीखे खे સમયના તેના સૌનુ વધુ ન
કોદીને ( अ ते उरियाओ - ववाल कारविभूसिय करति ) સમસ્ત મૃતકારોથી શણગારી ( તે ) તે
Page #616
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
शक्यत इत्यर्थः ।
प्रातधमकथासूत्रे पयपराणेउरा नपादासन पुरावरणस्थापित मशस्त नूपुरा यात्- चेडियाचा वापर गन्दिपरिक्खिता चेटिकाचनालमहतरक रन्देन - अनेकदा सीमदत्त रममूहेन परिक्षिप्ता-परिटता, अन्तःपुरात् मतिनिष्क्रामति - निःसरति, मतिनिष्क्रम्य यौनः मदेशस्था ' उपकाणसाला ' उप स्थानशाला = आस्थानमण्डप -सभामण्डइत्यर्थः, यंत्रेन चातुष्टोऽश्वरथस्तोत्रोपाग च्छति, उपागत्य 'किड्डानियाए ' कीड़िकया -क्रीडनपाच्या कीदृइया की डिकया इत्याह ' लेहियाए ' इति लेखिका = राजकुलपशनामादिपरिचारिका स के उसके सौन्दर्य का हम क्या वर्णन करें। पर वाणी द्वारा कहने के योग्य नहीं है अर्थात् वाणी से उसका वर्णन नहीं हो सकता है । ( वर पापणेरा जान चेडियाचा वालमयरग विदपरिक्खित्ता अते
C
ओ पडिणि+सम ) चरणों में स्थापित किये गये है- पहिराये गये हैं- प्रशस्तनपुर जिसको ऐसी वर द्रौपदी यावत अनेक समझदार दासियों के महामहिम समूह से परिक्षिप्त होकर अतपुर से बाहिर नकली | (पाि जेणेव बाहिरिया उवहाणसाला जेणेव चाउटे आसरहे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छिता किडावियाए लेरि पाए सद्धि चाउरघट आसरह दुरूह ) बाहिर निकलकर वह जहाँ बाहिर में सभामंडप और उसमें भी जहा चारघटो वाला अश्वरथ था वहा आई । वहा आकर वह अपनी क्रीडनधात्री के कि जो लेखिका राजकुल, घश नाम आदि की परिचायिका यी साथ उस चारघवाले
1
આપણે કેવી રીતે કરી શકીયે વાણી વડે તેનુ વર્ણન અશક્ય છે એને કે વાણીમા એટલી રાક્તિ નથી કે તેના સૌદર્યાંનુ સંચાટ વર્ણન કરી શકે (बरपायपत्तणेउरा जाव चेडिया चक्क वालम यह र गर्विदपरिक्खित्ता अते उराओ पडिणिक्खमड़ )
પગેમા જેણે સુદર નૂપુર પહેર્યા છે એવી તે દ્રૌપદી ઘણી ચતુર દાસી આથી વીંટળાઇને રણવાસથી બહાર નીકળી
( पडिनिक्खमित्ता जेणेन बाहिरिया उवहाणमाला जेणेत्र चाउटे आसर हे तेव उत्रागच्छ, उनागच्छिता किड्डावियाए लेहियाए सर्द्वि चाउम्घट आसरह दुरुइइ)
બહુાર નીકળીને તે જ્યા બહારના સભા-મ ડપમા ચાર ઘટવાળા અશ્વ શ્ય હતા ત્યા આવી ત્યા આવીને તે પાતાથી કીડન ધાત્રી-કે જે લેખિકા રાજકુલ, વા નામ વગેરેની પરિચારિકા હતી તેની સાથે તે ચાર ઘટવાળા અક્ષર ઉપર સવાર થઈ શ
Page #617
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
४३१ चातुर्घण्टमश्वरयं ' दुरुहड' दूरोहति आरोहति । ततस्तदनन्तरं धृष्टद्युम्नः कुमारो द्रौपयाः कन्यायाः 'सारत्य' सारथ्य-सारथिम करोति, ततः खलु सा द्रौपदी राजवरकन्या काम्पिल्यपुरस्य नगरस्य मध्यमध्येन यौव स्वयम्परमण्डपस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य रथं स्थापयति रथात् प्रत्यारोहति प्रत्यवस्ह्य क्रीडिकया लेसिकया च साध स्वयवरमण्ड पम् अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य करतलपरिगृहीत दशनख शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा तेपां वासुदेवप्रमुखाणा ग्रहण राजवरसहअश्वरथ में सवार हो गई। (तएण से धट्ठज्झुण्णे कुमारे दोबई कमाए सारत्य करेड, तण्ण सा दोवइ रायवरकण्णा कपिल्लपुर नयर मज्झमज्झेण जेणेव सयवरमंडवे तेणेव उवागच्छद) उस के सवार होते ही धृष्टद्युम्न कुमार ने उस द्रौपदी कन्या का मारथ्य किया-उमके रथ पर सारथि का काम कियो-द्रौपदी के रथ को हाका। इस तरह घृष्ट द्युम्न के द्वारा हाके गये रथ पर बैठी हुई वह राजवर कन्यो द्रौपदी कांपिल्य पुर नगर के बीच से होकर जहा स्वयवर-मडप या उस ओर चल दी। ( उवागच्छित्ता रह ठवेड रहोओ पच्चोम्ड, पच्चोरुहित्ता किड्डाविया लेहियाए सहि सयवरमडव अणुपविसह, अणुपविसित्ता करयल तेसिं वासुदेवपामुक्खोण यहण रायवरसहस्साण पणाम करेड) वहां पहुचकर उसने रथ को खड़ा करवा दिया-रथके खड़े होते ही वह उससे नीचे उतरी, नीचे उतर कर वह उस लेखिका क्रीडन धात्री के साथ स्वयवर मडप में प्रविष्ट हुई। प्रविष्ट होकर के उसने अपने दोनों होयों को जोड कर उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओ को प्रमाण __ (तएण से धट्ठज्जुण्णे कुमारे दोईए पनाए सारत्व करेड, तएण सा दोपद गयवरकण्याकपिल्लपुर नगर मज्झ मज्झेणे जेणेव सयवरमडवे तेणेव उवागच्छड)
જ્યારે તે સવાર થઈ ગઈ ત્યારે કુમાર ધુને તે દ્રૌપદી રાજવર કન્યાના રથ ઉપર બેસીને સારથીનું કામ સંભાળ્યું આ પ્રમાણે ધૃષ્ટ વડે હાકવામાં આવેલા તે રથ ઉપર સવાર થઈને તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદી કપિધપુર નગરની વચ્ચે થઈને જ્યા સ્વયે વર મડપ હતું ત્યા રવાના થઈ
(उवागच्छित्ता रह ठवेड रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरु हत्ता रिहावियाए लेहियाए सदि सयपरमडव अणुपविसद, अणुवविसित्ता करयल तेसि वासुदेव पामुक्साण वहण रायवरसहस्साण पणाम करेइ) - ત્યા પહેચીને તેણે રથને ભાવડા, જ રે રથ થંભ્યો ત્યારે તે થે ઉપરથી નીચે ઉતરી, નીચે ઉતરીને તે લેખિકા કીડન ધાત્રીની સાથે સ્વય વર મડપમાં પ્રવિણ થઈ પ્રવિણ થઈને તેણે વાસુદેવ પ્રમુખ હજાર રાજાઓને પિતાના બને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યા
Page #618
--------------------------------------------------------------------------
________________
UR
-
mins माणा प्रणाम करोति, ततः पन्लु गा द्रौपदी रामरकन्या पक महन् श्रीदामकामं मिते' किंतत-तत्सौन्दर्यमोग-यन फिरोमि ? न अपूर्वमितिमावः । 'पाडलमल्लियचपय गार मत ल्याईहिर पाटलपछिकारक-यारद सापक दादिभिः 'गदागिन्धधाणिगन्धनति'मुयनं मुमाबत प्रमादित्ययः परमसुग्वस्पर्श दर्शशीग गृहाति । तत' गल गा पीरिकीटनवारी यारद मुरूपा जार'नामरत्येण निटग दप्पण' या नामस्तन विष्टग दर्पणम् अत्र यावच्छन्देनेद को यम्-सामारियषप्त चोहनणम्म उस्मुयकर विचित्तमणिरयण पदच्उरुह ' इति । साभाविध सामानिको नेमगिको घर्षों धर्पण या स तथा त दर्पणमित्यन्मयः । समानादेव पिणमित्ययः, नथा-पतुर्दगजनस्योत्स्स्यारतरुणलोररय प्रेक्षणाभिटापजनक, तया-पिचिनमणिरत्नबद्ध स्क-विचित्रमाण रत्नद्धः छरुको-मुष्टि ग्राणम्यान, यस्य स नया त, तया-चिल्लग' देदीप्य मान, दर्पण-वामहस्ते " गहे उण " गृहीत्वा 'सललिय' गललित 'दप्पण किया (
त मा दोबई रायबरकता एग मह मिरिदामगड विते' पाडलमलियचार जाय सत्तच्च्याईहि गधन्दाणि मुयत परमसुरपास दरिमणिज्ज गेण्ड ) उसके गोद उस राजवर कन्या द्रौपदी ने एक यडा विस्तृत श्री दामकाड-जिस की सुन्दरता और सुगधि का हम क्या वर्णन करें-जो अपूर्व था-पाटक-गुलार के पुप्पों से, मल्लिका-मोघरा के पुष्पों से यावत् सप्तच्छद वृक्ष के पुष्पो के गथा गया था और जिस म से नासिका को तृप्ति करने वाली गप निकल रही थी। जिसका स्पर्श परम सुख नाक था-तथा जो दर्शनीय था अपने हाथ में लिया (तग्ण मा फिडारिया जाव सुख्खा जाय योमहत्थेण चिल्लग दप्पण गहेऊग मललिय दप्पणसकतविसदसिए य से दाहिण
(तए ण सा दोबई रायवरकन्ना एग मह सिरिदामगड किं ते ! पाडलम लिलय चपय जाब सत्तच्छयाईहिं गधद्धाणि मुयत परमसुहफास दरिसणिज्ज गेण्इइ)
ત્યારપછી તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીએ એક બહુ મોટો ભારે શ્રીદામકાંડને કે જેની સુંદરતાનું વર્ણન થઈ શકે તેમ નથી અને જે અપૂવ હતેા-પાટલ ગુલાબના પુપથી, મક્ષિકા–મગરોના પુરપાથી, ચપ્પાના પુષ્પોથી યાવતું સદ ગ્રંથના પુપેથી તે તૈયાર કરવામા આવ્યો હતો અને જેમાથી નાસિકાને તૃપ્તિ થાય તેવી સુવાસ પ્રસરી રહી હતી જેને સ્પશ અત્યંત સુખકારી તેમજ જે દર્શનીન હો-હાથમાં લીધો
(तएण सा पिडा पिया जान सुरूषा जाव वामहत्थेण चिल्लग दप्पण गहे कण सललिय दप्पणसस्तविंयसदसिए य से दाहिणेण इत्षेण वरिसए पर
Page #619
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टोका अ० १६ द्रौपदी चरितनिरूपणम्
४३३
"
सफत निवसदसिए य दर्पणमक्रान्तविग्नसदर्शिवान् = दर्पणे संक्रान्तानि यानि शता निम्बानि-प्रतिनिनानि तैः सदर्शिताः प्रतिबोधितास्ताश्च प्रवरराजसिंहान सिंहसहज शूरान् श्रेष्टनृपान् दक्षिणेन दस्तेन ' से ' तस्या' द्रौपद्या 'दरिसए ' दर्शयति इद्द कर्मणः सम्वन्धमात्रविवक्षाया पष्ठी । तथा-' फुडनिसयविमुद्धरिभियगभीरमहरभणिया स्फुटनिशद विशुद्वरिभिवगम्भीरमधुरभणिता = अर्थत' हत्येण दरिस पवररायसी फुडविसय विशुद्धरिभियगभीरमपुरभणिया सा तेसि नन्वेसिं पत्थिवाणं अम्मापिऊण वससत्तसामत्थगोत्तचित्र कतिकतिहुवि आगम महप्परूवजोन्वणगुणलावण्ण कुल जाणिया कित्तण करेs ) इसके बाद उस क्रीडन धाय ने अपने हाथ में एक चमकता हुआ दर्पण लिया । यहा दर्पण के इन और विशेषणो का यावत् शब्द से ग्रहण हुआ है वे विशेषण ये हैं 'सामाविधघसं चोदरजणस्स उस्सुयवर विचित्तमणिरयणवद्धहरु " इनका अर्थ उस प्रकार है - यह दर्पण स्वभावतः चिकना था । तथा तरुणजनों के चित्त में अपने को देखने की अभिलाषा का जनक था । मुष्टि से पकडने का जो इसका स्थान था वह विचित्र मणि-रत्नों से निर्मित था । उस दर्पण में जिन २ सिंह जैसे शूरवीर राजाओं के उस समय प्रतिविघ्न पड़े हुए थे उन प्रतिनिम्नों को लेकर उस घायने उन श्रेष्ठ राजाओं को उस द्रौपदी के लिये अपने दक्षिण हाथ से बतलाया । बतलाते समय उन्हें दिखाते समय वह बिलकुल अर्थ की अपेक्षा स्फुट एव वर्ण रायसी फुडसयविसुद्वरिभियगभीरमहुरभणिया सा तेसिं सव्वेसिं पस्थि वाण सम्मापिऊण ससत्तसा मत्थगोत्तविक्कतिकतिबहुविहआगम महापरून जोन्त्रण गुणलावण्ण कुलजाणिया कित्तण करेह )
-
ત્યારપછી તે ક્રીડનધાત્રીએ પોતાના હાથમા એક ચમકતા અરીસા લીધે અહીં · અરીસા · માટે ચ વત્ શબ્દથી નીચે લખ્યા મુજખ વિશેષણેનુ પણ ગૃહેણુ સમજવુ જેઈએ ( मामोवियधस चोदहजणस्स उस्सुयकर विचित्त मणिरणत्ररुह ) मा विशेपशनु स्पष्टीपुर या प्रमाणु छे-ते खरी સ્વાભાવિક રીતે લીમે હતેા, તેમજ તરુણુ સ્ત્રીઓના ચિત્તમા તેને જેવાની સહજ ભાવે ઈચ્છા જાગ્રત થાય તેવા હતા તે અરીસાને હાથે। વિચિત્ર મણીરત્નાથી જહેલા હતેા તે અરીસામા સિંહ જેવા શુરવીર જે જે શા દેખાયા તે ધાત્રીએ તે રાજાઓને પેાતાના જમણા હાથથી સ કેતકીને બતાવ્યા મતાવતી વખતે અને સમજાવતી વખતે તે ખાય અની અપેક્ષાથી
BY M
,
Page #620
--------------------------------------------------------------------------
________________
माताधर्मकथासूत्रे फरश-दार्थदीपरदिन, रिमित-परयुक्त गम्भीर
1
,
नियत् मधुर-मिश्रणमुराद, भणित भाषित यस्या त्रीडिकाया सा तथा, सा क्रीटिका पासा पार्थिवान ' अम्मापिऊण मातापित्रोः ' व ससतसामत्यगोत्तविषनि कति भागममाष्परूपणगुणलाचकुरसी लजाणिया ' प्रशसनसाम गतिविधिगममादारम्परूपयौवनगु णलापण्यकुलशीलशायिका=वेश-रिनादिक, राचम् - आपत्सु धैर्यम् सामर्थ्य = पल गोत्र = गौतम गोत्रादि, विकानि-निकम, पान्तिममा, घाम अनेक शास्त्रविशारद, माहात्म्य - महानुभावता, तथा-रूपयोनगुणानण्यानि च तथाकुल-वगस्यानान्तरभेद, शील समानच जानाति या मा 'कित्तण ' कीर्तन = वशादिवर्णन करोति स्म । प्रथम तारत्-' पण्डिपुत्राण रष्णिपुङ्गवाना 'दस दसारवीरपुरिसाण ' दशाना दशाहणा समुद्रविजयादिना वीरपुरुषाणा, 'तेलोग पलवगाण' त्रैलोक्यनलपता 'समय सदस्समाणा महगाण' शत्रुशतसहस्रमानात्र मर्दकाना, तथा - 'भन सिद्धिय रपुडरीयाण ' भरसिद्धितपुण्डरीकाणा=सरवि की अपेक्षा विवाद ऐसी विशुद्ध शब्दार्थ दोष रहित-स्वर युक्त ध्वनि समान गभीर मधुर वाणी से भाषण करती जाती थी । उस भाषण मे वह उन सन राजाओं के माता, पिता, बरा, सच्च, सामर्थ्य, गोत्र, विक्रम, काति, अनेक शास्त्रों का ज्ञातृत्व, माहात्म्य, तथा रूप, यौवन गुण, लावण्य, कुल एव शील की ज्ञाता होने के कारण इन सब का वर्णन करती जाती थी । वश से हरिवश आदि का और कुल से वशके अवान्तर भेद का कथन होता है । ( पढम ताव वहिपु गवाण दसदसारवीरपुरिसाण तेल्लोकवलवगाण सत्तसयसहस्रमाणाव मद्दगाण भवसिद्धिपवरपुडरीयाण चिरलगाण चलवीरियरूवजोव्वण
:
४३४
स्फुट,
એકદમ સ્ફુટ અને વર્ણની અપેક્ષાથી વિશદ એવી વિશુદ્ધ એટલે કે શબ્દાર્થ દોષરહિત-સ્વરયુક્ત, મેધ્વળને જેવી ગંભીર મધુરવાણીનું ઉચ્ચારણ કરી રહી હતી પેાતાના ભાષણ વડે તે ધાય બધા રાજાના માતા પિતા વ શ, સત્વ, सामर्थ्य, गोत्र, विज्भ, अति, शास्त्रज्ञान, महात्म्य तेभर ३५, यौवन, गुए, લાવણ્ય, કુળ અને શીલ વગેરેની ખાખતમા ાણકાર હતી એટલે ખધુ વર્ણન કરતી જતી હતી વશથી રિવશ વગેરે અને કુળથી વ ાને અવાન્તર લેઇનુ ન્યૂન થયુ છે
( पदम तान हिपुगण दसदसारवीरपुरिसाण तेलोक्कवल्वगाण स सय सदस्समाणावमदगाण भासिद्धिपवरपुडरीयाण चिल्लगाणं वलवरियरूत्र
Page #621
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगरधर्मामृतणी टो० ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
४३५
भाविनी सिद्धिर्येपा, ते भवसिद्विकास्तेषा मध्ये नरपुण्डरीकाणी येष्टास्ते तथा तेपा, तथा ' चिलगाणं ' तेजसा देदीप्यमानाना ' चिल्लग ' इति देशी शब्दः । तथा - ' पलनीरियरूप जोयणगुणलावन्नकित्तिया ' बलवीर्यरूपयौवनगुगलानण्य कीर्तिकाल - कायिक, वीर्यम् - उत्साहः, रूप-सौन्दर्य, यौन तारुण्य, गुणान् - ओदार्यगाम्भीर्यादीन् लागण्य-योजनायोजन्य कान्तिविशेष, कीर्तयति या सा तथा, साक्रीडिका नानी कीर्तन करोति स्मेत्यर्थ | अन पूर्वोक्तमपि विशेपण किंचिद् विशेषोधनार्थ पुनः कथितम् ।
ततस्तदनन्तर पुनः सा क्रीडनधानी ' उग्गसेणमाईण जायताण' उग्रसेना दीना यादवाना बलवीर्यादि कीर्तन करोति कृपा भणति च=सा यात्री द्रौपदी गुणलावण्ण कित्तियाकित्तणं करेड) सबसे पहिले उस कोडन धात्री ने वृष्णिवश के पुगव समुद्रविजय आदिश दशारों के कि जो त्रैलोक्य में भी विशिष्ट बलशाली माने जाते थे, लाग्यो शत्रुओ के मान को मर्दन करने वाले थे, भवसिद्धिक पुरुषों में जो श्रेष्ठ कमल के जैसे माने गये हैं, और जो अपने स्वाभाविक तेज से सदा दमकते रहते थे वल का, वीर्य का, रूप का, यौवन का, गुणो का, लावण्य का, कीर्तिका होने के कारण कीर्तन-वर्णन किया । शारीरिक शक्तिका नाम वल, उत्साह का नाम वीर्य, सौन्दर्य का नाम रूप तारुण्य का नाम यौवन है । औदार्य गाभीर्य आदि गुण है । यौवन वय से जय जो कांति शरीर में आती है वह लावण्य है ( तओ पुणो उग्गसेणमाईण जायवाण भगइ य सोह्रगख्वक लिए वरेरि घर पुरिसगधवीण जो हु ते रोड थिय दडओ, तण सा दोवई रायवरकन्नगा वह रायवरसहस्साण मज्न जोन्वणगुणलारकित्तिया कित्तण करेइ )
તે ગ્રીન પાત્રીએ સૌ પહેલા વૃષ્ણુિ વામા પુવ (શ્રેષ્ઠ) સમુદ્ર વિજય વગેરે દશ દશાાઁનુ-કે જેઓ ત્રણે લેકામા પણુ વિશિષ્ઠ શક્તિયાળી ગણાતા હતા, લાખા શત્રુઓના માનનુ મન કરનારા હતા, ભત્રસિદ્ઘિક પુરૂષામા જેઓ કમળની જેમ શ્રેષ્ઠ ગણાતા હતા અને જેએ પેાતાના સ્વાભાવિક તેજથી हमेशा अज्ञशता रहेता हता, जग, वीर्य, ३५, योवन, गुझेो, सावएय, डीर्ति વગેરેથી સપન્ન હતા—વર્ણન કયુ ગારીરિક શક્તિનુ નામ ખળ, ઉત્સાહનુ નામ વી, સૌન્દર્યંનુ નામ રૂપ અને તારૂણ્યનુ નામ યૌવન છે ઔદાર્ય, ગાલીય ગુણ્ણા છે સુવાવસ્થામા જે શીર કાતિવાળુ થાય છે તેને લાવણ્ય કહેવામા આવે છે
(तओ पुणो उग्गसेण माईण जायना भणइ य सोहगाव कलिए नरेहि पुरिसी ते होइ हिययदइओ तएण तं दोवई रायवर कन्नगा
Page #622
--------------------------------------------------------------------------
________________
ht
श्राताधर्मे कपाश
पुनराह - 'सोहगरूपकळिए ' इत्यादि, पमत्रान्ययमुखेन व्यापा- 'वरपुरि सगपत्यीण' वीरपुरुपगन्धहस्तिना =हस्तिषु गन्धास्तिन उप ये विशिष्टगुणसद्भा त्पुरुषेषु सर्वतः श्रेष्ठास्ते परस्तिनस्तेषा म ये ' मोहास्त्र कलिए ' सोभाग्यरूप कलितः - अतिशयेन सौभाग्यमौन्दर्यसमन्नित यः खलु न त हत्य दयित =हृदयमियः ' डोह' भरतित ' वरेषि' रयपतिमानेन स्वीकुरु इत्यर्थ ।
'
,
ततस्तदनन्तर खलु द्रौपदी राजपरकन्या बहूना राजारसहस्राणा मध्यमध्यन ' समइच्छमाणी २' समतिक्रामन्ती गन्तीपुत्रकणियाणेण पूर्व कर्तनि दानेन = सुकुमारिकामवे भर्तृपञ्चकाभिलापस्प निम्न कृत तेन, 'चोउज्जमाणी २' प्रेर्यमागा २ यो पञ्च पाण्डवास्तीरोपाग उति उपागत्य तान् दशार्धवनपञ्चवर्णेन कुसुमदाम्ना ' आवेदियपरिवेदिए आवेष्टितपरिवेष्टितान् करोति, मज्झेण समतिच्यमाणी २ पुग्नकमणियाणेण चोइज्जमाणी २ जेणेव पचपडवा तेणेव उवागच्छ ) इसके बाद उस कीडन धाय ने यादव वशयाले उग्रसेन आदि यादवो के बलवीर्य आदि का वर्णन कियाउसने द्रौपदी से कहा ये जैसे हाथियों में गधहस्ती श्रेष्ठ होता है उसी तरह ये पुरुषों मे विशिष्ट गुणोंके सद्भाव के कारण सर्व प्रकार से श्रेष्ठ हैं- उनके बीच में जो तुझे सौभाग्यरूप सकलित प्रतीत हो और तेरे हृदय को धारा लगे उसे तृ पनिरूप से वरले । इसके बाद वह राजवर कन्या द्रौपदी उन हजारों राजाओ के बीच से होती हुई सुकुमारिका के भव में कृत निदान के प्रभाव से बार २ प्रेरित होकर जटा पाच पाडव थे - वहा पहुँची - ( उवागच्छित्ता ते पच पाडने तेण दसणेण कुसुम दामेण आवेदियपरिवेदिय करेह, करिता व वयासी, एएण मए पच चहूण रायवरसहस्साण मज्झ मज्ज्ञेण समतिच्छमाणी २ पुव्नकयणियाणेण चोरज्जमाणी २ जेणेव पच पडवा तेणेव उवागच्छ )
ત્યારપછી ક્રીન ધાત્રીએ ઉગ્રસેન વગેરેનુ વર્ષોંન કર્યું અને કહ્યું કેહાથીઓમા જેમ ગધ હસ્તી ઉત્તમ ગણાય છે તેમજ પુરૂષામા સિવશેષ ગુણવાન એવા એએ બધી રીતે સારા છે, આ ખધામા તને જે સૌભાગ્ય શાળી લાગતા હાય અને તને એ ગમતા હૈાય તેને પતિ રૂપમા સ્વીકારી લે ત્યારપછી તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદી તે હજારા રાજાઓની વચ્ચેથી પસાર થઇને પેાતાના સુકુમારિકાના ભવમાં કરેલા અભિલાષથી પ્રેરાઈને જ્યા પાચ પાડવા હતા ત્યા પહેાચી
(उबागच्छिता ते पच पाडवे तेण दसद्धाणेणं कुसुमदामेण आवेदिय परिवेदिय करे, करिता एव वयासी, एएण मए पचपडना
Page #623
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
मनगारधर्मामृतोपणी ये० ५० १६ द्रौपदीबरितनिरूपणम् कता एवमवादी-एते सलु पञ्च पाण्डवा मया रता इति । ततः ग्वलु 'ताइ वासुदेवपामोग्वाद बहूणि रायसहस्साणि ' तानि वासुदेनममुग्वाणि बहूनि राजसहस्रसरयका नामदेवप्रमुखा राजान इत्यर्थ. । महता २ शब्टेनोोपयन्त एप वदन्ति-सुखन खलु भोः ! द्रौपद्या राजवरकन्यया इति कृत्वा-इत्युक्त्या स्वयवरमण्डपान मतिनिफामन्ति, निर्गच्छन्ति, मतिनिकम्य योव स्वमा स्त्रका आवासाम्तवोपागच्छन्ति । तत' सलु धृष्टद्युम्न' कुमारः पञ्च पाण्डवान् द्रौपदी राजवरकन्या चातुर्वण्टमथरथ ' दुरूहइ ' दुरोहयति-आरोहयति दरोद्य काम्पिपडवा परियो, तगण तेर्सि वासुदेवपामोरग्वाण यहणि राप्तहस्साणि, महया २ मद्देण उरघोसेमाणा २ एव वयति, सुबरिय खलु भो! दोव हए रायवरकन्नारा ति कट्टु सयवरमडवाओ पडिनिस्खमति, पडि निस्वमित्ता जेणेव सया २ आवासा तेणेव उपागच्छड ) वहा पट्टच कर उसने उन पाचो पाडवों को उस पचवर्णवाली माला से अवेष्टिन परिवेष्टिन कर दिया। करके फिर वह इस प्रकार कहने लगी-ये पांच पाडय मने पतिरूप से वर लिये हैं। इसके बाद उन वासुदेव प्रमुग्व हजारो राजाओं ने बडे २ जोर के शब्दो से ऐसा कहा इस राजवर कन्या द्रौपदीने बहुत अच्छे वर बरे ऐसा कहकर वे उस स्वयपर मडप से गहिर हो गये। बाहिर आकर फिर वे जहा अपने • आवास स्थान थे वहा चले आये। (उवागचित्ता तएण धज्जुण्णे कुमारे पच पडवे दोवइ रायवरकण्ण चाउग्घट आसरह दुरूहइ, दुहित्ता कपिल्लपुर तेसि वासुदेवपामोक्खाण वणि रायसहस्साणि, महया २ सद्देण उग्मोसेमाणा २ एक वयति, मुवरिय खलु भो ! दोपइए रायरमनाए २ ति बटु सयवरमड चाओ पडिनिक्खमति, पडि निक्खमित्ता जेणेर सयार आवासा तेणेव उवागच्छद)
ત્યાં પહોંચીને તેણે તે પાચ પાડને પાચ વર્ણવાળી માળાથી અવે તિ, પરિવેષ્ટિત કરી દીધા ત્યારપછી તેઓને કહેવા લાગી કે હે પાચ. પાડો . મે તમને પતિ રૂપમાં વરી લીધા છે ત્યારબાદ તે વાસુદેવ પ્રમુખ હજારે રાજાઓએ બહુ મોટા સાદથી આ પ્રમાણે કહ્યું કે આ રજવર કન્યા દ્રૌપદીએ બહુ જ સારા વરે પસંદ કર્યા છે આમ કહીને તેઓ સવે વય વર મંડપમાથી બહાર નીકળી ગયા બહાર નીકળીને તેઓ જ્યા પિતાને આવાસ સ્થાને હતા ત્યાં જતા રહ્યા
(उवागच्छित्ता तएण धज्जुण्णे कुमारे पचपडवे दोवड रायवरकण्णं चाउ ग्पट आसरह दुरूहइ, दुहिता कपिल्लपुर मज्स मज्झे ण नाव सय भवण अणु
Page #624
--------------------------------------------------------------------------
________________
यण अणुविस मीतिदान यांच्या ततः वर
भाताधर्मकथासो त्यपुरस्य मध्यमभ्यन यात स्व. भानमनुमरियति, तनः बलु छपदो राजा पश्च पाण्डवान् द्रौपदी राजारपन्या पट्टय' पटक-पक्ष्कोपरि 'दुरूहेड 'दूरो इयतिमारोहयति, दोष वेतपतिः पशः ' मज्जा' मजयति-स्नपयति अग्निहोम विवाहविधिनाऽग्नी होम पारयति, पशाना पाण्डमाना द्रौपचान पाणि यहण कारपति, अन पश्चाना पाण्डवानामिति सम्बन्धसामान्ये पप्ठी । ततः खल स पदो राजा पिया गजरकन्याया. इममेनप भीतिदान योतरदान ददाति, मज्न मज्झेण जाच सयभवण अणुपविसह, ताण दुपा राया पच पडवे दोवड रायवरकन्न पय दुख्हेह, दुरहित्ता सेयापी कलसेहि मज्जावेइ, मजारित्ता अगिहोम कारवेइ, पचण्ड पडवाण दोवा य पाणिग्गणं करावेद, ) इसके पाद धृष्टद्युम्नकुमार ने उन पाच पाडवा को पर राजवर कन्या द्रौपदी को चारघटी से युक्त उस अश्वरथ पर बैठाया-बैठाकर छापिल्पपुर नगर के बीच से होता हुआ वह जहा अपना भवन धो यहां आया वहां आकर वह उसमें उन सत्र के साथ प्रविष्ट हुआ। इसके बाद द्रपद राजा ने उन पांचो पांडवों को और राजवर कन्या उस द्रौपदी को एक पट्टक पर बैठा दिया-थैठाकर फिर उसने उनका श्वेत पीत कलशों से चादी सोने के घड़ो से अभिषेक करवाया अभिषेक करवा कर फिर उसने अग्नि होम करवाया-और उसकी मोक्षी पूर्वक पाचो-पाडयो के साथ अपनी कन्यो द्रौपदी का पाणि ग्रहण मस्कार करवा दिया 1 (ताण से दवए राया दोवइए राय पविसइ, तएण दुवए राया पच पड़वे दोघड रापारकन्न पट्टय दुरूहे, दुराहत्ता सेयापीएहिं कलसेहि मज्जावेइ मज्जापिता अग्गिहोम कारवेइ, पचण्ड पडवाण दोवइए य पाणिग्रहण करावेह)
ત્યારપછી ધૃષ્ટદ્યુમ્ન કુમારે તે પાચ પાડો અને રાજવર કન્યા કપ દીને ચાર ઘટવાળા તે અશ્વથ ઉપર બેસાડયા અને બેસાડીને કપિ ચપુર નગરની વચ્ચે થઈને જ્યાં પોતાનુ ભવન હતું ત્યાં ગયા ત્યા જઈને તેઓ સર્વે તેમાં પ્રવિણ થયા ત્યારપછી પદ રાજાએ તે પાચે પાડો અને રાજે પર કે તે દ્રૌપદીને એક પક ઉપર બેમાડી દીધા અને બેસાડીને તેણે તેમનો સફેદ, અને પીળા કળશથી-એટલે કે ચાદી અને સેનાના કળશથી અભિષેક કરાવડાવે અભિષેક કરાવીને તેણે અનિહામ કરાવરાવ્યો અને તેની साक्षीमा वातानी न्या स्ता५ तेमानी साथै ४२रावी हीधा । (तएण से
१५ इम
Page #625
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टो० अ० १६ द्रौपदीच रितनिरूपणम्
तद् यथा - अष्ट हिरण्यकोटीः यावत्=अप्ट रजतकोटी, अष्ट सुपर्णकोटी, अष्ट ' पेमणकारीओ ' प्रेपणकारिणीः, आज्ञाकारिणीः दासचेटी:- दासपुत्री, अन्न च निपुल धन+नक - यावद धन-गणिमादिक, कनकम् अघटितस्वर्ण, यानच्छदेनरत्ननि- पर्फेतनादीनि, मणयचन्द्रकान्ताद्या मौक्तिकानि च शखश्व मतीत एव शिलामनालानि च विमाणि रक्तरत्नानि - पद्मरागादीनि तान्येव सद् विद्यमान यत् सार=प्रधान सापतेयं द्रव्यं तद् ददाति स्म ।
तत' खलु स द्रुपदो राजा तान् वासुदेवममुखान् बहुसहस्रमरयकान् रातः विपुलेन जशनपानवाद्यस्वाद्येन भोजयति, भोजयित्वा वस्त्रगन्धादिभिर्यावत् सत्कायति समानयति, सत्कार्य समान्य प्रतिविसर्जयति ॥ मु० २२ ॥
४३९
-
वरकण्णयाए हम गयाख्व पीईदाण दल्यइ, त जहा- अट्ठहिरण्ण कोडीओ जाव अपेसणकारिओ दासचेडीओ, अण्ण च विउल चणकण जाव दलयह, तण्ण से दुबए राया ताइ वासुदेव पामोक्खाणं विउलेण असण४ चत्यगध जान पडिविसज्जेड) इसके बाद द्रुपद राजाने राजवर कन्या उस द्रौपदी के लिये इतना इस प्रकार प्रीति दान दिया आठ हिरण्य कोटि- चादी के बने हुए आठ करोड आभूषण, सुवर्ण के बने हुए आठ करोड आभूषण यावत् आज्ञा कारिणी ८ आठ दासियों और भी बहुत सा गणिमाटिक रूप धन, अर्घाटित सुवर्ण, कर्केतनादि रत्न, चन्द्रकान्त आदि मणि, मौक्तिक, शंख, विद्रुम, पद्मरागादि रक्त रत्न | यह मय सारभूत द्रव्य उसके लिये प्रदान किया। इसके बाद हुपदराजा ने उन वासुदेव प्रमुग्व हजारों राजाओं को अशन, पान, खाद्य एव स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार एवं वस्त्र गघ आदि से सत्कृत सन्मानित कर अपने यहा से विदा कर दिया ॥ सू० २२ ॥
यह त जहा अट्ट हिरण्णकोडीओ जाव अट्ठ पेसणकारीओ दासचेडीभो, अण्ण च विउल धणकणग जाव दलय, वरण से दुरए राया वाइ वासुदेव पामोक्खाण विउलेण अमण ८ वत्थ गध जात्र पडिविसज्जे३ )
ત્યારપછી દ્રુપદ રાજાએ રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને આ પ્રમાણે પ્રીતિદાન આપ્યુ કે આ હિરણ્ય-કેાઢિ–ચાદીના આ કરાડ આભૂષણે! યાવત્ આજ્ઞામા રહેનારી આ દામીએ અને ખીજુ પણ ઘણુ ગણિમ વગેરે રૂપ ધન, અવटित सुवाशु, उतन वगेरे रत्न, यन्द्रअत वगेरे भषि, भौति, शा વિ.૫, પદ્મગગ વગેરે રક્ત રત્ના આખ્યા આ બધુ સારભૂત ધન દ્રૌપદને આવ્યુ ત્યાપછી કૃપદ રાજાએ તે વાસુદેવ પ્રમુખ હારે રાજાએને અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાવ રૂપ ચાર જાતના આહાર અને વસ્ત્ર, ગ ધ વગેરેથી સદ્ગુત સન્માનિત કીને પોતાના નગરથી વિદાય કર્યો. ॥ સૂત્ર ૨૨ ।।
Page #626
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२८
ताधर्मकथा स्यपुरस्य म यमभ्येन यार सय भानमनुमशिति, तनः पलु दुपटी राजा पञ्च पाण्डमान द्रौपदी रामरमा पटप ' पटक-पटकोपरि 'दुम्हेइ ' दो इयति-मारोहयति, दोपवीत यश मिज्जाड' मजयति नपयति अग्निहोम निहरिधिनानी होम पारयति, पनाना पाण्डवाना दौरान पाणि ग्रहण कारयति, अब पचाना पाण्डवानामिति सम्बन्धसागान्ये पप्ठी । तत खलु स दुपदो राजा द्रौपया गारन्याया. इमर्मतम्प प्रीतिदान योगदान दात, मज्ञ मज्झेण जाच सयभवण अणुपरिमह, ताण दुवा राया पच पडवे दोवइ रायवरकन्न पदृय दुरुहेह, दुरहित्ता सेयापी कलसेहि मज्जावेइ, मजावित्ता अग्गिहोम कारवेद, पचण्ट पडवाण दोवइय पाणिराहणं फरावेह,) इसके पाद धृष्टद्युम्न कुमार ने उन पाच पाडवा को एव राजर कन्या द्रौपदी को चारघटो से युक्त उस अन्वरथ पर बैठाया-पैठाकर पापित्यपुर नगर के बीच से होता हुआ वह जहा अपना भवन पो वहां आया यहां आकर वह उसमें उन सत्र के साथ प्रविष्ट हुआ। इसके बाद द्रुपद राजा ने उन पाचो पांडवों को आर राजवर कन्या उस द्रौपदी को एक पदक पर बैठा दिया-येठाकर फिर उसने उनका श्वेत पीत कलगों से चादी सोने के घड़ो से-अभिषेक करवाया अभिषेक करवा कर फिर उसने अग्नि होम करवाया और उसकी साक्षी पूर्वक पाचो-पाटयो के साथ अपनी कन्यो द्रौपदी का पाणि ग्रहण सस्कार करवा दिया। (ताण से दुवए राया दोवइए राय पविसद, तएण दुवए राया पच पडवे दोवड रायवरकन्न पट्टय दुम्हेइ, दुलहिता सेयापीएहिं कलसेहि मज्जावेइ मजापिता अग्गिहोम कारवेई, पचण्ड पडवाण दोवइए य पाणिग्रहण करावेह)।
ત્યારપછી ઘુમ્ન કુમારે તે પાચ પાડો અને રાજવર કન્યા દ્રૌપ દીને ચાર ઘટવાળા તે અશ્વથ ઉપર બેસાડ્યા અને બેસાડીને કપિ યપુર નગરની વચ્ચે થઈને જબા પિતાનું ભવન હતુ ત્યા ગયા ત્યાં જઈને તેઓ સર્વે તેમાં પ્રવિણ થયા ત્યારપછી પદ રાજાએ તે પાચે પાડોને અને રાજ વર કન્યા તે દ્રૌપદીને એક પટ્ટક ઉપર બેસાડી દીધા અને બેસાડીને તેણે તેમને સફેદ, અને પીળા કળશેથી–એટલે કે ચાદી અને સેનાના કળશથી અભિષેક કરાવડાવ્યે અભિષેક કરાવીને તેણે અગ્નિહામ કરાવરા અને તેની સાક્ષીમાં પિતાની કન્યા દ્રૌપદીને હસ્તમેળાપ તેઓની સાથે કરાવી દીધી
(तएण से दुवए राया दोवइए रायवरकण्णयाए इम
Page #627
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपरिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
४४१ सयाइं२ आवासाइ तेणेव उवा० तहेव जाव विहरति, तएणं से पंडराया हस्थिणाउरणयरं अणुपविसड अणुपविसित्ता कोडुबिय० सद्दावेइ सहावित्ता एव वयासी-तुम्भेण देवाणुप्पिया । विउल असण४ तहेब जाव उवणेति, तएण ने वासुदेवपामोक्खा वहवे राया पहाया कयवलिकम्मा तं विउल असणं४ तहेब जाव विहरति, तएणं से पंडुराया पच पडवे दोवडे च देवि पट्टयं दुरूहेइ दुरूहित्ता सेयपीएहिं कलतेहि पहाति पहावित्ता कल्लाणकारि करेइ करित्ता ते वासुदेवपामोस्खे बढे रायसहस्से विउलेण असण? पुप्फवस्थेणराबारेइ लम्माणेइ जावपडिविसज्जेइ, तएण ताइ वासुदेवपामोरखाइ बहहि जाव पडिगयाइ ॥ सू० २३ ॥
टीका-'तरण से ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु पाण्ड राजा तेपा वासुदेव प्रमुखाणा बहूना राजमहस्राणा रतलपरिगृहीत दशनख शिर आवर्त मस्तकेञ्जलि कृस्वा एवमवादी-एव खलु हे देवानुभिया ! हस्तिनापुरे नगरे पश्चाना पाण्डवाना द्रौपद्याश्च देव्या. कल्याणकरो भविष्यति तत्-तस्मात् यूय खलु हे देवानु मियाः-मामनुगृहत , अकालपरिहीन कालविलम्बरहित-शीघ्र समरसरत-आग
'तएण से पथराया इत्यादि।
टीकार्य-(तएण) इसके याट (से पहराया) उस पांडुराजा ने (तेसिं घासुदेव पामोक्खा ण) उन वासुदेव प्रमुख (पट्टण राय० करयल एव वयासी-एच खलु देवाणुप्पियो । शत्थिणाउरे नयरे पचण्ड पडवाण दोवाए देवीए कल्लाणकरे भविस्सइ त तुम्भे ण देवाणुप्पिया! मम
तएण से पडुराया इत्यारि
Artथ-( तएण ) त्या-५ (से पडूराया ) ते पाहु नये (वे सि वासुदेवपामोक्साण ) ते वासु। प्रभु __ (वरण राय यल एरवयासी-एव खलु देवाणुपिया! हत्यिणाउरे नयरे पचण्ह पडवाणे दोनाए, देवीए पल्लाणकरे भविस्सद त तुम्भेण देवाणुप्पिया ! मम अनुगिण्डमाणा अकालपरिहीणं समोसरह )
Page #628
--------------------------------------------------------------------------
________________
माताutsures
मूलम्-तरण से पहूराया तेसिं वासुदेवपामोखाण वहूणं राय० करयल एव वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया । हत्थिनाउरे नयरे पंचन्ह पंडवाणं दोवइए य देवीए कलाण करे भविस्सइ तं तुभे णं देवाणुप्पिया । मम अणुगिरहमाणा अकालपरिहीण समोसरह, तएण वासुदेवपामोसा पतेय२ जाव पहारेत्थ गमणाए । तएणं से पंडुराया कोइवियपुरिसे सदा० २ एव व्यासी - गच्छहणं तुभे देवालिया । हत्थिनाउरे पचण्ह पडवाणं पच पासायवडिसए कारेह अब्भुग्गयमूसिय वण्णओ जाव पडिरुवे, तएण ते कोडुवियपुरिसा पडिसुणेति जाव करावेंति, तएण से पंडुए पचहि पडवेोह दोवईए देवीए सद्धिं हयगयसपरिवुडे कपिलपुराओ पडिनिक्खमइ२ जेणेव हत्थिणाउरे तेणेव उवागए, तएणं से पडुराया तेसि वासुदेवपामोक्खाणं आगमण जाणित्ता कोडुंवि० सदावेइ सद्दावित्ता एव वयासी- गच्छहण तुन्भे देवाप्पिया । हस्थिणाउरस्स नयरस्स वहिया वासुदेवपामुक्खाणं चहूण रायसहस्साण आवासे कारेह अणेगखभसय तहेव जाव पच्चप्पियति, तएणं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा जेणेव हत्थिणाउरे तेणेव उवागच्छइ, तणं से पराया तेसि वासुदेवपामोक्खाण आगमण जाणित्ता हट्ठतुट्टे हाए कयवलि० जहा दुवए जाव जहारिह आवासे जेणेव दलयइ, तण ते वासुदेव पा० बहवे
४४०
ܢ
I -
Page #629
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
४४३
मेघकुमार - प्रासादवद् वर्णन विज्ञेयम् यावद् अनेकस्तम्भशत सनिविष्टान् प्रति रूपान् = शोभा सौन्दर्य सम्पन्नान् । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषा:-' तथाऽस्तु ' इत्युक्त्वा प्रतिशृण्वन्ति =आज्ञा स्त्रीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य हस्तिनापुर गत्वा पञ्च प्रासादाका यावत् कारयन्ति । ततस्तदनन्तर पाण्डुराजा पञ्चभिः पाण्डवै द्रौपया देव्या च साधै हयगजरथपदातिसपरिवृतः काम्पिल्पपुरात् प्रतिनिष्क्रामतिप्रतिनिष्क्रम्य यौन हस्तिनापुर नगर तत्रैवोपागत ।
तत' खलु स पाण्डुराजा तेषा वासुदेवममुखाणामागमन ज्ञात्वा फौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयिला एवमनादीत् गच्छत खलु यूय हे देवानुमियाः 1 बहुत ऊँचे हो । इन प्रासादों का वर्णन प्रथम अभ्ययन में उक्त मेघ कुमार के प्रासादों जैसा जानना चाहिये । यावत् ये प्रासाद अनेक स्तभशत से युक्त हो- शोभा सौन्दर्य से सपन्न हों। (तरण ते कोडुम्बिय पुरिसा पडणेति, जा करावेति ) राजा की इस प्रकार की आज्ञा को उन कौटुम्बिक पुरुषों ने मान लिया और हस्तिनापुर जाकर उन्होंने पाच प्रासाद कथित रूपसे बनवा दिये । (तएण से पडुए पचर्हि पडवेहि दो देवीए सहिय गय सपरिवुढे कपिल्लपुराओ पडिनिक्खमइ २ जेणेव हस्थिणाउरे तेणेव उवागण ) इसके बाद वे पाडुराजा पाडवों और द्रौपदी देवी को साथ लेकर हय, गज, आदि चतुरगिणी सेना के साथ २ कापिल्यपुर नगर से चल दिये चलकर जहा हस्तिनापुर नगर था वहा आये (नण्ण से पडुराया तेसिं वासुदेवपामोक्खाण आगमणं પાચે પાડવા માટે પાચ ઉત્તમ મહેલ બનાવડાવે મહેલ ઊંચા હાવા જોઈએ આ મહેલાનુ વર્ણન પહેલા અવ્યયનમાં વર્ણવવામા આવેલા મેઘ કુમારાના મહેલા જેવુ જાણી લેવુ જોઇએ યાવત્ આ ખા મહેલેા ઘણા સે કડા થાભલા सोधी युक्त तेभन शोला तथा सौर्य सपन्न हवा लेहये ( तएण ते कोडु बियपुरिसा पडिसुणे ति जाव करावे ति ) मा लतनी रामनी आज्ञाने કૌટુબિક પુરૂષોએ સ્વીકારી લીધી અને હસ્તિનાપુર જઈને તેઓએ કહેવા મુજબ જ પાચ મહેલે! તૈયાર કરાવી દીધા
(तरण से पड़ पचर्हि पडवेहिं दोनइए देवीए मदि हयगय सपरिवुढे कपिल्लपुराओ पनि मइ २ जेणेव हस्थिणाउरे तेणेव आगए )
ત્યારપછી તે પાડુ રાજા પાચે પાડવા અને દ્રૌપદી દેવીને લઈને સાથે ઘેાડા, હાથી વગેરેની ચતુરગિણી સેનાની સાથે કાર્પિપુર નગરની બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યા હસ્તિનાપુર નગર હતું ત્યા પહાચ્યા
(तएण से पडुराया तेर्सि वासुदेवपामोक्खाण आगमण जाणित्ता कोडविय०
Page #630
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४२
मातामंकणार मन पुरत । ततः पलु रासुदेवममुखा प्रत्येक २ गायत् माधारयन् गमनायहरितनापुर नगर गातु मला इत्यर्थः।
ततः खल स पारनामको राजा पीटुम्पियपुग्णान् शब्दयति, भन्दयित्वा एवमवादी-गाउत खलु य हे देवानुपियाः ! हस्तिनापुरे पश्चानां पाण्डवानां पञ्च 'पासायाडिसए ' मासादारतंसान पारयत । कि भूतानिन्याह-' अग्भुग्गयमूसिय' अभ्युद्गतोच्छूितान-अत्युच्चानित्यर्थः । वर्णक -प्रयमाध्ययनोक्तअणुगिण्माणा अकालपरिरीण समोसरह ) हजारों राजाओं से अपने दोनों हाथों की अजलि फरके और उसे शिर पर रयकर के पड़ी नम्रता के साथ नमस्कोर करके इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियो ! रस्तिनापुर नगर में पाच पाडवों और द्रौपदी देवी का कल्याणकारी उत्सव होगा इसलिये हे देवानुप्रियों। आप सय मेरे ऊपर अनुग्रह करके शीघ्र से शीघ्र पधारें । (तण्ण वासुदेपामोसा पत्तेय • जाव पारेत्थ गम णाए) इम के याद वे वासुदेव प्रमुख प्रत्येक जन वहाँ हास्तिना पुर जाने के लिये प्रस्थित हो गये। (तपण से पडराया कोडुम्बियपुरिस सद्दावेइ • एव वयासी-गच्छह णतुम्भे देवाणुप्पिया हथिणाउरे पचण्ह पडवाण पच पासायडिसए कारेह, अभुग्गयमुसिय वण्णओ जावपडि रूवे) इतने में पाइराजा ने कौटुम्पिकपुरुपों को बुलाया ओर घुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो! तुम लोग हस्तिना पुर जाओ वहा जाकर पाचों पाडवों के लिये पांच श्रेष्ट प्रासाद बनवाओ। ये प्रासाद
હજારે રાજાઓને પિતાના બને હાથની અજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને ખૂબ જ નમ્રપણે નમસ્કાર કર્યો અને આ પ્રમાણે વિનતી કરી કે હે દેવાનુપ્રિયે ! હસ્તિનાપુર નગરમા પા પાડ તેમજ દ્રૌપદી દેવીના કલ્યાણકારી ઉત્સવ થશે એથી હે દેવાનપ્રિયે ! તમે સૌ મારા ઉપર કૃપ ४श सत्परे त्या पधारे। (तएण वासुदेवपामोक्सो पत्तेय २ जाव पहारत्य गमणाए ) त्या२५छी ते वासुदेव प्रभुम ४२४ रात त्याथी स्तिनापुर था ઉપડી ગયા
तएण से पडुराया कोड वियपुरिस सदावेइ २ एव वयासी-गच्छह ण तुम्भे देवाणुप्पिया हस्थिणाउरे पचण्ड पडवाण पच पासायव डिसए कार, अन्भुग्गयमुसिय वण्णओ जाव पडिरूवे)
તે વખતે પાડુ રાજાએ કૌટુંબિક પુરૂને લાવ્યા અને બેલાને તેઓને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે હસ્તિનાપુર જાઓ * * જઈને
Page #631
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगारधर्मामृतषिणी टीका म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४४५ उपागत्य तथैर यानद विहरन्ति । ततः ग्वल स पाण्ड राजा हस्तिनापुर नगरमनुपविशति, अनुमविश्य कौटुम्बिापुरुपान् शद्रयति, शदयित्वा एरमवादोत्यूय पलु हे दवानुप्रियाः । पिपुलम् अगनपानपानखाद्यस्वार, उपकारयत, उपकार्य यौर वामुढेवप्रमुखाम्तगोपनयत । तथैव यावद् उपनयन्ति, ततस्ते कौटुम्पिकपुरुषास्तथैव विपुलमगनादि चतुर्विधाऽऽहारमुपस्कारयन्ति उपसार्य यानद वासुदेवादीनामन्ति के-उपनयन्ति-उपस्थापयन्ति । नगर था यहा आगये। (तणं से पडुराराया तेसि वासुदेवपामोवा ण आगमण जाणित्ता हतुढे पहाए कयरलिकम्मे जहा दुव जाव जहा रिह आवासे दलयति, तएण ते वासुदेव पौ० रवे रायमस्मा जेणेव सया २ आगामाइ तेणेव उवाग० तहेव जाय विहरति) चासदेव प्रमुग्व उन हजारों राजाओं का आगमन जानकर पाडुराजाने हर्पित एव सतुष्ट होकर स्नान किया वायसादि पक्षियों के लिये अन्नादि का देने रूप लि कम किया-जिस प्रकार द्रपद राजाने यथा योग्य आवास. स्थान इन्हों के लिये दिये थे उसी तरह पाडराजा ने भी उन्हे जो जिस के योग्य स्थान था चर आवासस्थान दियो। पश्चात् वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजा जहा अपने २ ठहरने के लिये आवासस्थान थे वहा गये वहा जाकर वे उसी तरह से ठहर गये। (तएण से पराया हथिणा जर नयर अणुपविसह, अणुपविसित्ता, कोड बिय० सदावेड, सहावित्ता एव क्यासी-तुम्भेण देवाणुप्पियो । विउल असण ४ तहेव जाव उव
(तएण से पडुराया तेसिं गासुदेवपामोक्खाण आगमण जाणित्ता हद्वतहे हाए क्यालिफम्मे जहा दुवए जाव उहारिह आवासे दलयात, तरण ते वासुदेव पा० बहवे रायसहम्सा जेणेव सयाइ २ आनासाइ तेणेव उवाग० तहेव जार विहरति)
વાસુદેવ પ્રમુખ તે હજારે રાજાઓનું આગમન સાભળીને હર્ષિત તેમજ સતુષ્ટ થઈને પાડુ રાજાએ સ્નાન કર્યુ કાગડા વગેરે પક્ષીઓના માટે અને વગેરેને ભાગ અને બલિકર્મ કર્યું દુપદ રાજએ જેમ તે રાજાઓને યથા ચાગ્ય આવાસ સ્થાને રહેવા માટે આપ્યા હતા તેમજ પાડુ રાજએ પણ તેઓ બધાને ઉચિત આવાસો આપ્યા ત્યારપછી તેઓ વાસુદેવ પ્રમુખ હજાર રાજા જયા તિપિતાના રેકાવાના આવા હતા ત્યા ગયા, ત્યાં પહોચીને તેઓ ત્યા રોકાઈ ગયા
(तएण से पाइराया इस्थिणाउर नयर अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, फोइविय० सद्दावेद, सदावित्ता एव वयासी सुम्भेण देवाणुप्पिया! विउल असण
Page #632
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४४
1
तुम
हस्तिनापुरस्य नगरस्य बहिः प्रदेा पहना राजमात्राणामात्रा सान् कारयत कोटानागासान् याह-' अणेगखम' इत्यादि । अनेसम्म शतमनिविष्टान् तथैव यथाऽयासान् कारगिल पाण्टना कथित, तथेत्र कारयित्वा कोदुम्बरपुरुपायात् प्रपयन्ति निवेदयन्ति मनतः स देव ममुखा हु सहरका राजानो कौन स्वासका आमाहान्छन्ति, जाणित्ता कोहुविध० महावेह सावित्ता पर घयासी गर ण तुभे देवानुपिया | रथिणा उरस्म नगरम्स पहिया वासुदेवपामोकवाण पण रायमहस्माण आवासे कर) आकर उन पांडुराजा ने उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं का आगमन जानकर कौटुम्बिक पुरुषों को घुलाया और बुलाकर उनसे हम प्रकार कहा- हे देवानुप्रियो ' लोग जाओ और हस्तिनापुर नगर के हर वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं को ठहरने के लिये आरामों को चनाओ (अणेगग्वभसप तब जाव पच्चपिगति, ततृण ते वासुदेवपामोक्सा नहवे रायसहस्सा जेणेव हथिणाउरे तेणेव उवागच्छति ) ये आवास अनेक सेकडोंस्तभ से युक्त हो। इस प्रकार जैसे आयामों को नवाने के लिये पांडु राजा ने उन कौटुम्बिक पुरुषों से कहा था वैसे ही आवास उन कोटुम्बिक पुरुषों ने मनवादिये और पीछे कर भी राजा को _ । इयाद वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजा जहा हस्तिनापुर सदावे, सदावित्त एव वयामी-गण तुम्मे दवाणुपिया | हल्लिगारस्स नयर या वासुदेवपामोक्खाण बहूण रायसहस्ताण आवासे करेह ) ત્યા આવીને તે પાડુ રાજાએ તે વાસુદેવ પ્રમુખ હજા રાજાઓને આવી ગયેલા જાણીને પાતાના કૌટુબિક પુરૂષને એલાવ્યા અને ખેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હૈ દેવાનુપ્રિયે ! તમે લે જાએ અને હસ્તિનાપુર નગરની બહાર વાસુદેવ પ્રમુખ હતા. રાજાપાને રહેવા માટે આવાસે મનાવા
( अणेगखभस तदेव जान पञ्चपिगति, तएण ते वासुदेवपामोक्खा हवे रायसहरमा जेणेत्र इस्थिणाउरे तेणेन आगच्छति )
આ બધા આવાસે સેકટા સ્તભાથી યુક્ત હોવા જોઇએ આ રીતે પાડુ રાજાએ જે જાતના આવાના બનાવડાવવાનો હુકમ કર્યો હતા તે કૌટુ એક પુરૂષાએ તે જ જાતના આવાના બનાવડાવી દીધા અને બનાવડાવીને કામ પુરૂ થઇ જવાની રાજાને ખબર આપી ત્યારપછી તે વાસુદેવ પ્રમુખ હારા રાજાઓ યા હસ્તિનાપુર નગર હતુ ત્યા આવી ગયા
Page #633
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
સા
स्नपयित्वा ' क्लाणकारि ' कल्याणकारि - शुभकारकं कर्म कारयति, कारयित्वा तान् वासुदेवप्रमुखान् नहुसहस्रसख्यकान् राज्ञो विपुलेन अशनपानखाद्यस्वाद्येन भोजयति, भोजयित्वा पुप्पास्त्रादिभिः सत्कारयति, समानयति, सत्कार्य समान्य यावत् प्रतिविसर्जयति । ततः खलु ते वासुदेवप्रमुखा बहुसहस्रसख्यका राजानो यावत् प्रतिगताः ।। ०२३ ॥
मूलम् - तएण ते पच पडवा दोवईए देवीए सद्धि कल्लाकल्लि वारवारेण ओरालाइ भोगभोगाई जाव विहरति, तएर्ण से पड्डू राया अन्नया कयाई पचहि पडवेहि कोंतीए देवीए को और द्रौपदी देवी को एक पटक पर बैठाया-बैठाकर उन का श्वेत पीत कलशों से चादी और सोने के घडो से स्नान करवाया स्नान करवाकर फिर उसने उनका शुभकारक कर्म करवाया । (करिता ते वासुदेव पामो हवे रायसहस्से विउलेण असण ४ पुष्फवत्येण सक्कारेह सम्मोह जाव पंडिविमज्जेह, तरण ताइ वासुदेवपामोक्वाड बहि जाव पगियाड ) शुभकारक कर्म करवाकर याद में उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं का उस पाडगज ने विपुल अशन पान आदिरूप चतुर्विध आहार से एव पुष्प वस्त्रादि से खूब सत्कार किया सन्मान किया । यावत् फिर उन्हें अपने यहासे अच्छी तरह से विदा कर दिया । इसके बाद वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजा जहा २ से जो २ आये थे चहा २ चले गये || सू० २३ ॥
પાચે પાડવા અને દ્રૌપદી ધ્રુવીને એક પટ્ટક ઉપર બેસાડયા અને બેસાડીને સફેદ તેમજ પીળા કળશૈાથી એટલે કે ચાદી અને સેનાના કળશૈાથી તેમને સ્નાન કવ્યુ સ્નાન કરાવ્યા ખાદ તેમણે તેમની પાસેથી શુભ કર્મો કરાવડાવ્યા ( करिता ते वासुदेवपामोक्खे वहवे रायसहस्से विउलेण असण पुष्पवत्थे सक्कारेह, सम्माणे जाव पडिविसज्जेइ तरण ताड वासुदेवपामोक्खाइ रहूदि
जाव पडिगयाs )
શુભ કર્માં કરાવ્યા ખાદ તે વાસુદેવ પ્રમુખ હજારો રાજાને તે પાડુ રાજએ વિપુલ અશન-પાન વગેરે રૂપ ચતુવિંધ આહાચ્ચી તેમજ પુષ્પ વસ્ર વગેરેથીખૂબ જ સત્કાર કર્યાં અને સન્માન કર્યું" યાવત ત્યારપછી તેને ત્યાથી સારી રીતે વિદાય કર્યો વાસુદેવ પ્રમુખ હજારા રાજાએ પણ જ્યાથી આવ્યા હતા ત્યા જતા રહ્યા !! સૂત્ર ૨૩ ।
Page #634
--------------------------------------------------------------------------
________________
મ
प्रोमा कथाव
तव खलु ते मुदेवमुखा पो राजानः स्नाताः कृतवलिकर्माणः = काकादिजीयेभ्यः क्रतानादिसविभागाः, तद् पिपुलम् अशन पान या स्वाय तथैवादयन्तो विवादयन्त परिभुजाना या विहरन्ति = आसतेस्म | ततस्तदनन्तर म पाण्डराजा तान पञ्च पाण्डवान् द्रौपदी च देवी 'पय ' पट्ट पट्टको परि 'दुरुहे' दरोहपत्ति=मारोहयति । आरोपपतेः क्लीः स्नपयति, र्णेति, तण ते वासुदेवपामोक्खा पहवे राया पाया कययलिकम्मात चिउल असण ४ तहेन जाव विहरति-तण्ण से पट्टराग्रा पचपडवे दोबा
"
दोपि दुरूह, दुरूरित्ता सेयपी व्हावेंति, पाविता कलाण कारि करे ) इस के बाद पाडुराजा ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया प्रवेश कर कौटुम्पिक पुरुषों को बुलाया घुलाकर उनसे ऐसा कहा है देवानुप्रियो । तुम लोग विपुल मात्रा में अशनादि रूप चतुर्विध आहार बनवाओ बनवाकर फिर उसे जरा वासुदेव प्रमुग्व राजा ठहरे हुए हैं वहा ले जाओ । इस प्रकार की अपने राजाकी आज्ञानुसार उन्होने वैसा ही किया- चतुर्विध आहार बनवाया और फिर उसे वासुदेव आदि राजाओ के पास पहुँचा दिया । आहार के पहुँचने पर उन वासुदेव प्रमुख राजाओं ने स्नान किया पलिकर्म किया- कारु आदि जीवों के लिये कुन अन्नमें से विभाग देनेरूप कियाकी - बादमें उन्हों ने उस चतु विध आहार को किया । इसके पश्चात् पाडुराजा ने उन पाच पाडव ४ तहेव जाव उवर्णेति, तएण ते वासुदेवपामोक्खा बहवे राया व्हाया कयवलि कम्मा त निउल असण४ तहेव जाव विहरति-वरण से पहुराया पच पडवे दोवई च देवि पट्ट दुरुद्देइ, दुरुहिता सैयपीहि कलसेहिं व्हावेंति महाविद्या कल्लाणकारि करे )
ત્યારપછી પાડુરાજા હસ્તિનાપુર નગરમા પ્રવિષ્ટ થયા પ્રવિષ્ટ ઈને તેઓએ કૌટુબિક પુરૂષોને એટલાન્યા અને ખેલાવીને તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિયા ! તમે લેાકેા વિપુલ માત્રામા અશન વગેરે રૂપ ચાર જાતને આહાર બનાવડાવા ખનાવડાવીને તમે તે આહારને જ્યા વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાએ શકાયા છે ત્યા લઇ ાએ, આ રીતે પેાતાના રાજાની આજ્ઞા સામ ળીને તે લેાકેાએ તે પ્રમાણે જ કયુ તેએાએ ચાર ાતના આહારી અના વડાવ્યા અને ત્યારપછી તે આહારને વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાની પાસે પહે ચાડી દીધા આહાર પહેોંચાડી દીધા બાદ તે વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાએએ સ્નાન કર્યું અને કાગડા વગેરે પક્ષીઓને અન્ન ભાગ અપીને અલિક કર્યું ત્યાર પછી તેઓએ તે ચાર જાતના આહારને જમ્યા રાજએ તે
> ત્યારબાદ
Page #635
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधामृतपाणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४४९ त्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करित्ता वदइ णमसड महारहेण आसणेणं उवणिमतेइतएण से कच्छष्टनारए उदगपरिफासियाए दभोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए णिसीयइ, णिसीयित्ता पडुरायं रज्जे जाव अतेउरेय कुसलोदतं पुच्छइ,तएण से पंडराया कोंतीदेवी पच य पडवा कच्छल्लणारय आढति जाव पज्जुवासंति, तएणं सा दोवई कच्छल्लनारय असजय अविरय अपडिहयपचक्खायपावकम्मे तिकट्ट नो आढाइ नो परिचाणइ नो अब्भुहेइ नो पज्जुवासइ ।। सू० २४ ॥
टीका-'तपण ते' इत्यादि । ततस्तम्तदनन्तर खलु ते पञ्चपाण्डवा द्रौपद्या देव्या सा कहाल् ि ' कल्याफल्ये प्रतिदिवस वारवारेण उदारान् भोगभोगान् यावद् गुमाना विहरन्ति । तत खलु स पण्ड राजाऽन्यदा कदाचित पञ्चभिः पाण्डवैः कुन्त्या देव्या द्रौपद्या देव्या च सार्ध ' अतो अतेउरपरियाल'
'तएण ते पच पडवा' इत्यादि । टीकार्य-(तएण) इसके बाद (ते पच पडवा) वे पांचों पाउब (दोवईए देवीए) द्रौपदी देवी के साथ-(कल्लाकल्लिं वारवारेण ओराला भोग भोगाइ जाव विहरति-ताण से पट्टराया अन्नया कयाई पचर्ति पडवेहिं कोंतीए देवीए दोवईए देवीए य सद्धिं अतेउरपरियालसद्धिं मपरिखुडे सीहासणवरगए यावि विरट) प्रतिदिन पारी बारी से उदारकाम भोगों को भोगने लगे एक दिन की बात है-कि पाहु राजा किसी एक समय पाचों पांडवों एव अपनी पत्नी कुन्ती देवी और पुत्रवधू द्रौपदी
Axt-" तपण ते पर पहरा इत्यादि
st-(तएण ) त्या२५जी (ते पच पडवा) ते पाय 413 (ोवई देवोए ) ही वीनी साथै
(ल्लाकलिल वारवारेण ओरालाइ भोगभोगाड जाब विहरनि-तएण से पडाया अन्नया कयाई पाई पडवेदि कोतीए देवीए दोबइए देवीए य सद्धि अतेउरपरियालसद्धिं सपरिवुडे सीहामणवरगए यावि विहरइ)
દરરોજ વનફરતી ઉધાર કાલેગ ભેગવવા લાગ્યા. એક દિવસની વાત
Page #636
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४८
ज्ञाताधर्मका
दोवइए देवीए यसद्धि अंतो अंतेउरपरियालसद्धि सपरिवुडे सीहाणवरगए याचि विहरइ, इम च ण कच्छुल्लणारए दस पेण अइभद्दए विणीए अतोर य क्लुसहियए मज्झत्थोत्रत्थिए य अल्लीणसोमपियदसणे सुरूवे अमइलसगलपरिहिए काल मियचम्म उत्तरासगरइयवच्छे दण्डकमण्डलुहत्थे जडामउडदितरिए जन्नोवइयगणेत्तियमुंज मेहलवागलघरे हत्थकय कच्छभीए पियगवव्वे धरणिगोयरप्पहाणे सुवरणावरणिओवयणिउपणि लेसणीमु य सकामणिअभिओगपण्णत्ति गमणीथभणीसु य बहुसु विज्जाहरी विज्जासु विस्सुयजसे इट्टे रामस्त च वेस वरस य पज्जुन्नपईवस्वअनिरुद्वणिसढ- उम्मुयसारणगय सुमुह दुम्मुयहातीण जायवाणं अधुट्टाण कुमारकोडीण हिययदइए सथवए कलहजुद्धकोलाहलप्पिए भडणाभिलासी बहुसु य सम रसयसपराए दसणरए समतओ कलहसदक्खण अणुगवेस माणे असमाहिकरे दसारवरवीरपुरिस तिलोक्कबलवगाण आम तेऊण त भगवई पक्कमणि गगणगमणदच्छ उप्पइओ गगणमभि लघयतो गामागर नगर निगम खेडकब्बडमडबदोणमुहपट्टणासम सवाहमहस्समडिय थिमियमेइणीतल वसुह ओलोइतो रम्म हत्थि - णाउर उवागए पडुरायभवणपि अइवेगेण समोवइए, तरणं से पडुराया कच्छुल्लनारय एजमाण पासइ पासित्ता पत्रहि पडवेहि कृतीए य देवीए सद्धि आसणाओ अब्भुट्ठेइ अब्भुहिता कच्छल्लनारय सन्तष्ट्रपयाई पच्चग्गच्छ
Page #637
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतामणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५१ रइयवच्छे' कालमृगचर्मोत्तरासगरचितवक्षाः-कृष्णमृगचर्मोत्तरासङ्गेन रचित शोभित वक्षो यस्य स तथा, कृष्णमृगचर्मोत्तरीयवस्त्रधारकः । तथा-'दडकमडलुहत्थे' दण्डकमण्डलहस्त:-' जडामउडदित्तसिरए' जटामुकुटदीप्तशिरम्भः, जष्णोवदयगणेत्तियमुजमेहलावागलधरे ' यज्ञोपवीतगणेविकामुञ्जमेखलावल्कलधर-तत्र यज्ञो. पवीत यज्ञमून गणेत्रिका-रुद्राक्षकत कलाचिकाभरण, मुञ्जमेखला-मुजमय कटि पन्धनसून वल्कल क्षत्वक, तेपो धारकः स्कन्धोपरियज्ञसूत्रधारी, करमूले धृत रुद्रासमालः, मुझमयकटिसूत्रधारी, शरीरे परिधृतरस्कल इत्यर्थः । 'हत्यकयकच्छ भीए' हस्तकृतफच्छपिक:-हस्ते कृता कच्छपिका-वीणा येन स तया, 'पियगधन्वे' मियगन्धर्वः-गानपियः, 'धरणिगोयरप्पहाणे' धरणिगोचरप्रधान - धरणिगोचराणा-भूमिचारिणा जनाना मध्ये प्रधानस्तस्पा काशेऽपि विहरणशीलत्वात् चम्मउत्तरासगरयवच्छे दण्डकमण्डलहत्थे, जडामउडदित्तसिरए, जन्नो वहयगणेत्तिय मुजमेहलवागलधरे, हत्यकयकच्छभीए, पियगंधव्वे, धरणिगोयरप्पहाणे, सवरणावरणिओवयणिउप्पयणी लेसणीसुयसकामणि अभिओगपण्णत्ति गमणीयभणीसु य पहुस्सु विज्ञाहरीतु विज्जास्तु विस्लुयजसे ) इनका वक्षस्थल काले मृग के चर्म रूप उत्तरासग से सुशोभित था। दण्ड और कमण्डलु इनके हाथोमे था। जटारूपी मुकुट से इनका मस्तक दीप्त हो रहा था। यज्ञसूत्र-जनेऊ, गणेत्रिका कलाई का आभरण रूप रुद्राक्ष की माला, मुञ्जमेखला-मुज का बना हुआ कटि बन्धन सूत्र, और वृक्ष की छाल इन्हो ने धारण कररक्खी थी। हाथमें कच्छपिका-वीणा ले रखी थी। गान इन्हे बहुत प्रिय था। भूमि गोचरियों के बीच में ये प्रधान थे-क्यो कि ये आकाश मे भी विहार
(कालमियचम्मउत्तरासगरइयरच्छे दण्डकमण्डलुहत्ये जडामउडदित्तसिरए, जन्नोवइय गणेत्तियमुजमेहलवोगलधरे, इत्यकयकच्छभीए पियगधन्वे, वरणिगोयरप्पहाणे, सवरणारणिओवयणिउप्पयणिलेसणीमु य सकामणि अभिओगपण्यत्ति गमणीयमणीमुय बहुसु विज्जाहरीसु विज्जासु विस्सुयजसे )
તેમનું વક્ષસ્થળ કાળા હરણના ચર્મરૂપ ઉત્તરાસગથી શોભતુ હતુ દડ અને કમ ડળ તેમના હાથમાં હતા જટા રૂપી મુકુટથી તેમનું મસ્તક પ્રકાશિત થઈ રહ્યું હતું યજ્ઞ સૂત્ર-જાઈ ગણેત્રિકા-કાડામાં પહેરવાની આભ રણું રૂ૫ રૂદ્રાક્ષની માળા, મુ જ-મેખલા-મું જનું બનેલું કેડમાં પહાવાનુ બ ધન સૂત્ર અને વૃક્ષની છાલ તેઓએ ધારણ કરેલી હતો હાથમાં તેઓએ કચ્છ પિકા-વીણા ધારણ કરેલી હતી સગીત તેમને ખૂબ જ ગમતું હતુ ભૂમિ બેચરીએ રચે તેઓ પ્રધાન હતા કેમકે તેઓ આકાશમાં વિચરણ કરતા
Page #638
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५०
naबार अन्तः भतःपुरस्प मासादमध्ये अत:पुरपरिवारेण 'परियाल ' इति लावती यान्त साधं सपरिरतः सिंहासनारगतथापि हिरति । ' म च ' अस्मिन् समये खलु 'फन्दरलणारए' फल्लनाम्नामसिद्धो नारदः दर्शनेन 'अहमदए.' अतिभद्रका भद्रदर्शनः 'रिणी' निीताम्म्रो पारात 'अतो य ' अन्तबफलपटदयः, 'मझत्योपथिए य' मा पम्योपस्थित मानतो मध्यस्थमाव मातः 'अल्लीणसोमपियदसणे' आलीनमाम्यमियदर्शनः आलीनानामाश्रिताना सौम्यम्
आपादक, मिय = प्रीतिकारक दर्शन यस्य ग तया, मुरूपः - मुन्दराकृतिक, तथा-' अमइलसगलपरिहिए' अमलिनसपपरिहित. अमलिन सालम्-अख ण्डम् परिहित-पलकलास्वरूप परिधान यस्य स तथा, 'फालमियचम्मउत्तरासग के साथ अतःपुर के मामाद के भीतर अन्त पुरपरिवार के साथ सिंहासन पर बैठे हुए थे-कि (इमच ण) इसी समय (कच्छुल्लणारए पडरायभवणसि अइवेगेण समोवइए दसणे ण अइभद्दप, विणीए, अतोय फलुसरिया मज्झत्योवत्यिए य, अल्लीणसोमपियदसणे सुस्व अमइलसगलपरिहिए) पाढराजा के भवन में कच्छुल्लनाम से प्रसिद्ध नारद गगन-आकाश-मार्ग से बड़े वेगसे उतर कर आये। नारद देखने में अति भद्र थे। ऊपर से घडे विनीत थे। परन्तु भीतर में इनका हृदय बहुत अधिक कलुपित था। केवल ऊपर से ये माध्यस्थ भाव सपन्न थे। अपने आश्रित व्यक्तियों को इनका दर्शन आहादक एव प्रीति कारक होता था। आकृति उनकी बड़ी सुन्दर थी। इनका बल्कल रूप परिधान अमलिन-सोफ स्वच्छ और खण्ड रहित था। (कालमिय છે કે તે પાડુ રાજા કેઈ એક વખતે પા પાડો, પિતાની પત્ની કુતી દેવી અને પુત્ર વધુ દ્રૌપદીની સાથે રણવાસના મહેલની અંદર પિતાના પરિવારની साथ मिडासन ५२ ता (इम च ण) त ते
(कच्छुल्लणारए पडरायभवणसि अइवेगेण, समोवइए दसणे ण अइमदए विणीए अतोय कलसहियए मज्झत्थोवत्थिए य, अल्लीणसोमपियदसणे सुरूव अमइलसगलपरिहिए)
પાડુ રાજાના ભવનમાં કચ્છતલ નામથી પકાયેલા નારદ ગગન-આકાશ માગથી બહુ જ વેગથી ઉતરીને આવ્યા નારદ રેખાવમાં અત્યત ભદ્ર હતા ઉપર ઉપરથી તેઓ એકદમ વિનમ્ર હતા પણ અતર તેમનું મન ખૂબ જ કલુષિત હતુ ફક્ત ઉપર ઉપરથી જ તેઓ માધ્યસ્થ ભાવ સપા હતા, આશ્રિત વ્યક્તિઓને તેમનું દર્શન આહલાદક અને પ્રતિકારક હતું તેમના આકૃતિ ખૂબ જ સુંદર હતી તેમનું વકલ ૩૫ પરિધાન, એકદમ સ્વચ્છ-નિર્મળ હતું અને ખડરહિત હતુ.
Page #639
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् रइयवच्छे' कालमृगवर्मोत्तरामगरचितवक्षा:-कृष्णमृगचर्मोत्तरासङ्गेन रचित शोभित वक्षो यस्य स तथा, कृष्णमृगचर्मोत्तरीयवस्त्रपारकः । तपा-'दडकमडलुहत्ये' दण्डकमण्डलुहस्त:-' जडामउडदित्तसिरए' जटामुकुटटीप्तशिरम्का, जप्णोवदयगणेत्तियमुजमेहलावागलधरे ' यज्ञोपवीतगणेत्रिकामुञ्जमेखलावल्कलधर:-तत्र यज्ञो. पवीत यज्ञमूत्र गणेत्रिका-रुद्राक्षकत कलाचिकाभरण, मुञ्जमेखला-मुखमय कटि चन्धनसूत्र वल्कल वृक्षत्वक, तेपो धारक. स्कन्धोपरियज्ञसूत्रधारी, करमूले धृत रुद्राक्षमालः, मुझमयफटिमूत्रधारी, शरीरे परिधृतरस्कल इत्यर्थः । 'इन्यकयकच्छ भीए ' हस्तकृतकच्छपिकः-दस्ते कृता कच्छपिका-वीणा येन स तया, 'पियग धन्वे' मियगन्धर्वः-गानमिया, 'धरणिगोयरप्पहाणे' धरणिगोचरप्रधान - घरणिगोचराणा-भूमिचारिणा जनाना मध्ये प्रधानस्तस्पाकाशेऽपि विहरणशीलत्वात् चम्मउत्तरासगरहयवच्छे दण्डकमण्डलुहत्थे, जडामउडवित्तसिरए, जन्नो वड्यगणेत्तिय मुजमेहलवागलधरे, हत्यकयकच्छभीए, पियगंधव्वे, धरणिगोयरप्पहाणे, सवरणावरणिओवयणिउप्पयणी लेसणीसुयसकामणिं
अभिओगपण्णत्ति गमणीयभणीसु य यहुसु विजाहरीसु विज्जास्तु विस्तृयजसे ) इनका वक्षस्थल काले मृग के चर्म रूप उत्तरासग से सुशोभित था । दण्ड और कमण्डलु इनके हायोमें था। जटारूपी मुकुट से इनका मस्तक दीप्त हो रहा था। यज्ञसूत्र-जनेऊ, गणेत्रिका कलाई का आभरण रूप रुद्राक्ष की माला, मुञ्जमेखला-मुज का बना हुआ कटि बन्धन सूत्र, और वृक्ष की छाल इन्हो ने धारण कररक्खी थी। हाथमें कच्छपिका-वीणा ले रखी थी। गान इन्हें बहुत प्रिय था। भूमि गोचरियों के बीच में ये प्रधान थे-क्यो कि ये आकाश मे भी विहार
(कालमियचम्मउत्तरासंगरइयवच्छे दण्डकमण्डलुहत्ये जडामउडदित्तसिरए, जनावइय गणेत्तियमुजमेहलवोगलधरे, इत्यकयकच्छभीए पियगपव्वे, धरणिगोयरप्पहाणे, सवरणावरणिभोवयणिउप्पयणिलेसणोसु य सकामणि अभिओगपण्णत्ति गमणीथमणीमय वहुसु विज्जाहरीसु विज्जासु विस्सुयजसे )
તેમનું વક્ષસ્થળ કાળા હરણના ચર્મરૂપ ઉત્તરામગથી શોભતુ હતુ દડ અને કમ ડળ તેમના હાથમાં હતા જટા રૂપી મુકુટથી તેમનું મસ્તક પ્રકાશિત થઈ રહ્યું હતું ય સૂત્ર-જનેઈ, ગણેત્રિકા-કાડામાં પહેરવાની આભ રણ રૂપ રૂદ્રાક્ષની માળા, મુ જ-મેખલા-મુજનું બનેલુ કેડમાં પહેરવાનું બંધન સુત્ર અને વૃક્ષની છાલ તેઓએ ધારણ કરેલી હતી હાથમાં તેઓએ કર પિકા-વીણા ધારણ કરેલી હતી સગીત તેમને ખૂબ જ ગમતું હતું ભૂમિ ગોચરીઓને વચ્ચે તેઓ પ્રધાન હતા કેમકે તેઓ આકાશમાં વિચરણ કરતા
Page #640
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रोताच कथासूत्रे
"सरणाररणिजत्रय णिउप्पणिलेसणीसु य " मंगरण्या परवपतन्युत्पतनी श्लेषणीपुच' सारणी - सम्पान्तपनकारिणी विद्या, आगरणी - परस्यान्वर्यान कारिणी विद्या अपनी अघोऽनतरणी विद्या, उत्पतनी- गिमनकारिणी विद्या, ठेपणी - जलेपादिवत् सन्धानकारिणी विद्या, वासु तथा ' सकामणि अभि ओगपण्णत्ति गमणीयमणी य' सक्रमण्यभियोगमा प्तिगमनी स्तम्मनीषु चसक्रामणी-विद्या- विशेषः यया-परशरीरादी मवेद क्नोति सा विद्या, अभि योग. स्वर्णादिनिर्माणविद्या वशीकरणविद्या च प्रज्ञप्ति = अविदितार्थबोधिनी गमनी
४६२
करते थे। मवरणी, आवरणी अवपतनी, उत्पतनी, लेपणी इन विद्या ओ में तथा मक्रमणी, अभियोग, प्रज्ञप्ति, गमनो स्तम्भिनी इन नाना प्रकार की विद्यावर समन्धी विद्याओं में इनकी कीर्ति विरयात थी । जिस पिया के प्रभाव से अपने आपको अन्तर्धान कर दिया जाता जाता है उसका नाम मवरणी विद्या है। दूसरा जिस विद्या से अन्त धन करदिया जाता है उस विद्या का नाम आवरणी विद्या है। जिस विद्या के प्रभाव से ऊपर से नीचे उतरा जाता है उसका नाम अब पतनी और जिसके प्रभाव से उर्ध्व में गमन किया जाता है उसका नाम उत्पतनी विद्या है। वज्रलेप आदि की तरह जो चिपका देती है वह श्लेपणी विद्या है। जिस विद्या के बल से दूसरे के शरीर में प्रविष्ट होना होता है-ऐसी परशरीरप्रवेशकारिणी विद्याका नाम सक्रमणी विद्या है। स्वर्ण आदि के बनाने की जो निपुणता है-एव परको
हता सवरथी, भावरणी, अवपतनी, उत्पतनी, श्लेषाली मा जधी विद्या शोभा तेमन सभी, अलियोग, प्रज्ञप्ति, गमनी, तलनी आने જાતની વિદ્યાધર સબધી વિદ્યાએમા તેમની કીતિ ચામેર પ્રસરેલી હતી જે વિદ્યાના પ્રભાવથી પોતાની જાતને અદૃશ્ય કરી શકાય છે તે સુવરણી વિદ્યા છે જે વિદ્યાથી બીદ્ધને અદૃશ્ય કરી શકાય છે તે આવરણી કહેવાય છે જે વિદ્યાના પ્રભાવથી ઉપરથી નીચે ઉતરી શકાય છે તે અવતની અને જેના આકાશ ) મા ગમન કરી શકાય છે તે વિદ્યાનુ નામ ઉત્પ વગેરેની જેમ જે ચેાટાડી દે છે તે શ્લેષણી વિદ્યા છે જે ના શરીરમા પ્રવેશી શકાય એવી પરકાય પ્રવેશ કરિણી । એ સેાનુ વગેરે બનાવવામા જે. નિપુણતા
પ્રભાવથી ઉધ્વ
તની છે
विद्या ।
G
ge
Page #641
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीवरित निरूपणम्
४५३
- गमनपसाधिका - आकाशगामिनी च विद्याविशेषः - स्तम्भनी-स्तम्भन कारिणी विद्या, तासु सु विज्जाहरी विनासु' बहुषु नानावि रामु विद्याधरीपु-विद्याघर सम्म विद्या 'विस्मयन से' विश्रुतयशा - विद्यासु नैपुण्या=विप्यात कीर्ति, इष्ट = मियः, रामस्य = वलदेवस्य केशवस्य = कृष्णवासुदेवस्य च पुन केपा प्रियत्याह-' पज्जुन्नपईनसन अनिरुद्ध निमद उस्तुयमारणगय समुहदुम्मुहाईण जायवाण ' प्रद्युम्न प्रतीपशास्वानिनिरोत्सुकसारणगजमुखदुर्मुग्वादीना यादवानाम्, प्रद्युम्नादीना सव्यामाह-मद्युम्न, प्रतीप, शाम्बः, अनिरुद्ध, निपरः, उत्सुकः, वश मे करने कि जो शक्ति है उस विद्या का नाम अभियोग विद्या है। अविदित अर्थ जिस के प्रभाव से विदित हा जोवे वह प्रज्ञप्ति विद्या गमन प्रकर्ष की साधक तथा आकाश में गमन कराने वाली विद्या गमनी विद्या स्तम्भन कराने वाली विद्यास्तम्भिनी जिया है | ( इड्डे रामस्य केस स्सय पज्जुनपईयसन अनिरुद्धणिस उम्मुय सारण गयसुमुह इम्मुहातीण जायवाण अनुद्वाण कुमारकोडीण हिययदइए सव कलहजुद्वकोलाहलप्पिए, भडणाभिलामी, बहुसु य समर सगसपराएस दसणरण, समतओ कलहलदखण अणुगवेसमाणे, असमाहिकरे दमारवरवीर पुरिस तिलोक्कपलवगाण, आमतेऊण त भगवई परमणि गगणगमणदच्छ उप्पओ गगणमभिलघयतो गामा गरनगर निगम खेड कन्नडमउयदोणमुपट्टणासममवाह सहस्समटिय थिमियमेइगीतल वसु आलोडतो रम्म हविणार उवागए) बलदेव एव कृष्ण वासुदेव को ये इष्ट थे तथा साढे तीन करोड, प्रत्युम्न, प्रतीप, साम्य, अनिरुद्ध निषेध उत्सुक, सारण, गज सुकुमाल सुमुग्व दुर्मुख
जायवाण
વિદ્યા છે અવિદિત અ જેના પ્રભાથી જાણી શકાય તે પ્રાપ્તિ વિદ્યા, ગમન પ્રકની સાષિકા તેમજ આકાશમા ગમન કરનારી વિદ્યા ગમની વિદ્યા કહે बार छे तलन डरावनारी विद्या स्तलनी विद्या छे ( इडे रामरस य केसचरस य पज्जुन्नपईवसन अनिरुद्ध सिढ उस्सुयसारणगयसमुहदुम्मुतीण अधुट्टणकुमारकोडीग हिययदइए सथवए कलइजु कोलाहल प्पिए, भडणाभिलासी, बहुसयसमरसयस दसणरए समतओ कल सदक्खण अणुगनेसमाणे अस माहिकरे साररवीरपुरिसतिलोक्कनलवगाण, आमतेऊण त भगवई, पक्कमणि गगणगमणदच्छ उप्पइओ गगणमभिलाय तो गामागारनगर निगम खेड कडमड व दोन मुह पट्टणा समसा इस इस्सम डिय थिमिण मेइणीतल वसुद्द आलोइ तो रम्म इत्थिणावर उबाग) मनदेव तेभर कृष्ण वासुदेवने तेसो ष्टता भने भाठी त्रयु रोड अघुम्न, प्रतीय, भाग्य, अनिष्ष, निषेध, उत्सुर, सार, ग सुकुभात, भुमुख हुर्भु वगेरे વદાય કુમારને માટે તે હૃદય યિત હતા એટલે કે ખૂબ જ પ્રિય હતા એટલા
Page #642
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाचा
ર
भ
1
"सररणार जिओ णिउप्पपनिळेसी "सावरण्यपतन्युत्पतनी पीपु च सारणी-सम्पान्तपनकारिणी विद्या, आदरणी परस्यान्तर्धान कारिणी विद्या, अवपतनी अघोऽयतरणी विद्या उत्पतनी गमनकारिणी विद्या, पणी जपादिपत्सन्धानकारिणी दिवा, ताम्र, तथा ' सामणि अभि ओगपण्णत्त गमणीयमणीमु य मक्रमण्यभियोगमज्ञप्तिगमनी स्तम्भनीषु च सामणी-विद्या-विशेषः यथा-पररीरादी प्रवेशक्नोति सा विद्या, अभि योगः स्वर्णादिनिर्माणविद्या वशीकरणनिद्या च प्रशप्ति = अपिदितार्थबोधिनी गमनी करते थे। सरणी, आरणी अपतनी, उत्पतनी, श्लेपणी इन विद्या ओं में तथा मक्रमणी, अभियोग, प्राप्ति, गमनो स्तम्भिनी इन नाना प्रकार की जियार सन्धी free में raat htfर्त विख्यात थी । जिम चिया के प्रभाव से अपने आपको अन्तर्धान कर दिया जाता जाता है उसका नाम सवरणी किया है। दूसरा जिम विद्या से अन्त दिया जाता है उस विद्या का नाम आवरणी विद्या है। जिस विद्या के प्रभाव से ऊपर से नीचे उतरा जाता है उसका नाम अव पतनी और जिसके प्रभाव से उर्ध्व में गमन किया जाता है उसका नाम उत्पतनी विद्या है। वज्रलेप आदि की तरह जो चिपका देती है वह श्लेषणी विद्या है। जिस विद्या के बल से दूसरे के शरीर में प्रविष्ट होना होता है-ऐसी परशरीरप्रवेशकारिणी विद्याका नाम सक्रमणी विद्या है। स्वर्ण आदि के बनाने की जो निपुणता है एव परको
हता सवरथी, भावराखी, अवपतनी, उत्पतनी, श्लेष या अधी विद्या शोभां तेमन सउभयो, अभियोग, प्रज्ञप्ति, गमनी, तलनी भामने જાતની વિધાધર સબધી વિધાઓમા તેમની કીતિ ચામેર પ્રસરેલી હતી જે વિદ્યાના પ્રભાવથી પેાતાની જાતને અદૃશ્ય કરી શકાય છે તે સ વરણી વિદ્યા છે જે વિવાથી ખીજાને અદૃશ્ય ઠરી શકાય છે તે આવરણી કહેવાય છે જે વિધાના પ્રભાવથી ઉપરથી નીચે ઉતરી શકાય છે તે અવપતની અને જેના પ્રભાવની ઉત્ત્ર ( આકાશ ) મા ગમન કરી શકાય છે તે વિદ્યાનુ નામ ઉપ તની છે વા લેપ વગેરેની જેમ જે ચાટાડી દે છે તે શ્લેષણી વિદ્યા છે જે વિદ્યાના માંથી ખીન્તના શરીગ્મા પ્રવેશી શક઼ાય એવી પકાય પ્રદે કરિણી વિદ્યાનુ નામ સ ક્રમણી વિદ્યા કે સેાનુ વગેરે બનાવવામા જે નિપુણતા છે અને ત્રીજાને વાવી કરવાની જે શક્તિ છે તે
Page #643
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
--
नमगारधर्मामृतषिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४५५ वीराः पुरुषास्त्रैलोक्ये वलयन्त नेमिनाथापेक्षया तेपाम् , 'आमतेऊण त भगवई' आमन्य-प्रयुज्य ता भगवती-विद्या, कीदृशीं विद्यामित्त्याह-'पकमणि' प्रक मणी अकृष्टगमनशक्ति शालिनी 'गगणगमणदच्छ' गगनगमनदक्षाम् आकाशे गमने समर्थाम् 'उप्पडओ' उत्पतितः, गगनमभिलवयन् उड्डीय गमनेनाकाशतलमुल्हयन् 'गामागरनगरनिगमखेडाघडमडवदोणमुहपट्टणासमसवाहसहस्समडिय' ग्रामावर नगरनिगमखेटानटमडपद्रोणमुखपत्तनाश्रमसवाहसहस्रमण्डित, तत्र अष्टादशकरग्राह्यो ग्रामः, आफरः स्वर्गाद्युत्पत्तिभूमिः, अविद्यमानकरं नगर, निगम वणिग्ग्राम खेटधूलीपकार,कट-कुत्सितनगर, यत्र योजनान्तराले ग्रामादिनास्ति तन्मडम्ब यत्र जर स्थलमार्गाभ्या, भाण्डान्यागच्छति तत् द्रोणमुख, पत्तनन्द्वधा-जलपत्तन स्थलपत्तन, यत्र पर्वतादिदुर्गे लोका धान्यानि संवहति स सवाह एतैः सहस्रमण्डित, स्तिमितमेदिनीतल, 'वह' वसुधा भूमि 'ओलोइतो' अवलोकयन् पश्यन् रम्य हस्ति नापुर नगरमुपागत' पाण्डराजभवनेऽतिवेगेन समुपेतः गगनादवतीर्ण इत्यर्थः ।
तत सलु स पाण्डुराजा कच्छुल्लनारय ' च्छुल्लनारदम् आगच्छन्त पश्यति-दृष्ट्वा पञ्चभि पाण्डवैः कुन्त्याच देव्यासार्धमासनादम्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय दशाह थे उनके ये सदा चित्त के विक्षेप कारक बने रहते थे। गमन में विशिष्ट शक्ति प्रदान करने वाली ण्व आकाश में उठाकर ले चलने वाली उस भगवती प्रक्रमणी विद्या को प्रयुक्त करके ये आकाश में उड़ा करते थे। ये नारद, गमन से आकशतल को उल्लघन करते हुए ग्राम, आकर, नगर, निगम खेट, कर्षट, मडव, द्रोणमुख, पत्तन, सबाह इनके सहस्रों से महित हुई ऐसी स्तिमितमेदनीतलवाली वसुधा-भूमि को देखते हुए रम्य हस्तिनापुर नगर में आये और वहा से गगनमार्ग से होकर फिर ये पाडुराज के भवन में पहुंचे। ऐसा सरध यहां लगाना (तएणं से पंडराया कच्छुल्लनारय एज्जमार्ण पासइ) इम के बोद पाडुराजा ने कच्छुल्ल इन नारद को आते हुए जय देखा (पामित्ता) तो ગમનમાં વિશિષ્ટ શક્તિ આપનારી અને આકાશમાં ઉડાડીને લઈ જનાર તે પગવતી પ્રક્રમણ વિદ્યાના બળથી તેઓ આકાશમાં ઉડતા રહેતા હતા આ રીતે આ નારદ ગમનથી આકાશને ઓળગીને સહસ્ત્રો ગ્રામ, આકર નગર, નિગમ એટ કર્બટ, મડબ, દ્રોણુમુખ, પત્તન,સ બાહોથી, મ ડિત અને સ્વિમિત પૃથ્વીને જોતા મણીય હસ્તિનાપુર નગરમાં આવ્યા અને ત્યાથી આકાશ भागमा २४ने पाहुना सवनमा ५४ाच्या (तएण से पाडुराया कच्छल्ल नारय एज्जमाण पासइ) त्या२६ पासत ना२हने न्यारे भापता नया (पासिता ) त्यारे नन (पचहिं पहवेहि कुवीए देवीए सद्धि आसणाओ
Page #644
--------------------------------------------------------------------------
________________
माई
श्रापका
1
सारण', गजसुकुमाल, सुमुखः दुर्मुख इत्यादयो यादवकुमारास्तेषा 'अद्वा कुमारकोडीण' अर्धचतुर्थीनी कुमारफोटोनां च सार्धनिकोटिममिताना यादव कुमाराणामित्यर्थः ' हिययद हृदयदयितः = हृदयमियः, 'सथानए ' सस्ता पकः- यादवाना मासकः, वया-फळटयुदकोलाहल मियः== विवाद, युद्ध= शस्त्रादिभिः महरण, फोलाहलो = जनाना महाध्वनिः, पते मियाः प्रमोदजनका यस्य स तथा 'भडणामिलासी ' मण्डनाभिलाषी =भण्डन राटि - फरह 'राइ ' इति भाषाया तम्याभिलाषी तथा बहुषु च समरातमपरायेषु = समरशतसग्रामेषु दर्शनरत = दर्शनाऽऽसक्त', 'समतभो' समन्ततः सर्वमकारेण - परस्पर च कलई सदस्खण ' सदाक्षण = सर्वस्मिन क्षणे ' अणुगवेसमाणे ' अनुगवेपयन् अन्वेष यन्, ' असमाहिकरे' असमाधिकरः- चित्तविक्षेपकारकः चित्तस्यास्यैर्यकर केपा चित्तस्य विक्षपकइत्याह- दसारबरखीर पुरिसतिलोष लगाव दशाईवरवीर पुरुपत्रैलोक्य लता - दशा - समुद्रविजयादयो दशसख्या त एव वरा श्रेष्ठाः
4
"
इत्यादि यादवकुमारों के लिये ये हृदय दयित थे - अत्यत प्रिय थे। इसी कारण यादवों के प्रशंसक थे । कलर विवाद युद्ध एव मनुष्यो का कोलाहल ये सब इन्हें बहुत अधिक अच्छे लगते थे । आनन्द जनक होते थे । राइ (लडाई) के ये अभिलापी बने रहते थे । अर्थात् हर एक जगह किसी न किसी रूप में परस्पर में लोगों में तकरार, कजिया कैसे उत्पन्न हो इस घात का इन्हें विशेष ध्यान रहता था। समर शतसग्राम के देखने में इन्हें विशेष हर्षोल्लास होता था। सब प्रकार से परस्पर में सब समय में ये कलह की गवेषणा करने में ही लगे रहते थे । नेमिनाथ की अपेक्षा त्रैलोक्य में विशिष्ट बलवाली जो श्रेष्ठ वीर पुरुष समुद्र विजयादि दश
માટે જ તેએ યાદવેના વખાણુ કરનારા હતા કહે—કકાસ, વિવાદ, યુધ્ધ અને માણસાના શેરમકાર આ બધુ તેમને બહુ જ ગમતુ હતુ આ ખધાથી તેમને ખૂબ જ મજા પડતી હતી, કજીયેા તેમને ખૂબજ ગમતા હતેા એટલે કે દરેક સ્થાને ગમે તે કારણને લીધે વચ્ચે પરસ્પર કલહક કામ કજીયે કેવી રીતે શરૂ થાય આ વાતની તે તક જોતા રહેતા હતા સેકડાયુદ્ધોના બીભત્સ દૃશ્ય જોવામા તેમને ખૂબ જ આનદના અનુભવ થતે હતા તેમે બધી રીતે રાત અને દિવસ એકબીજાને લડાવવાની શોધમા જ ચાટી રહેતા હતા નેમિનાથની અપેક્ષા ત્રૈàાયમા સવિશેષ બળવાન શ્રેષ્ઠ વીર પુરૂષ સમુદ્ર વિજય વગેરે દશ દશાહો હતા તેમના ચિત્તને તે કષ્ટ -
તા.
Page #645
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
---
-
ममगारधामृतवपिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् वीराः पुरुषास्त्रैलोक्ये बलवन्त नेमिनायापेक्षया तेपाम् , 'आमतेऊण त भगवई' आमन्य-प्रयुज्य ता भगवती-विद्या, कीदृशीं विद्यामित्याह-' पक्कमणि' प्रक्र मणी-मकृष्टगमनशक्ति शालिनी 'गगणगमणदन्छ' गगनगमनदक्षाम् आकाशे गमने समर्थाम् 'उप्पडओ' उत्पतितः, गगनमभिलड्डयन् उड्डीय गमनेनाकाशतलमुल्वयन 'गामागरनगरनिगमखेडवडमडवदोणमुहपट्टणासमसवाइसहस्समडिय' ग्रामावर नगरनिगमखेटमटमडबद्रोणमुग्वपत्तनाश्रमसवादसहस्रमण्डित, तर अष्टादशकरग्राह्यो ग्रामः, आकरः स्वर्गाद्युत्पत्तिभूमिः, अविद्यमानकर नगर, निगम-वणिग्ग्राम खेटधूलीपकार कट-कुत्सितनगर, यत्र योजनान्तराले ग्रामादिनास्ति तन्मडम्प यत्र जल. स्थलमार्गाभ्या, भाण्डान्यागच्छति तद् द्रोणमुख, पत्तनं द्वधा-जल्पत्तन स्थलपत्तन, यत्र पर्वतादिदुर्गे लोका धान्यानि संवहति स संवाह एतैः सहस्रमण्डित, स्तिमितमेदिनीतल, 'वमुह' वसुधा भूमि 'ओलोइतो' अलोकयन पश्यन् रम्य हस्ति नापुर नगरमुपागतः पाण्डुराजभवनेऽतिवेगेन समुपेता गगनादवतीर्ण इत्यर्थः !
तत सलु स पाण्डराजा कच्छुल्लनारय' च्छुल्लनारदम् आगच्छन्त पश्यति-दृष्ट्वा पञ्चभिः पाण्डवैः कुन्त्याच देव्यासाधमासनादम्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय दशाह थे उनके ये सदा चित्त के विक्षेप कारक बने रहते थे। गमन में विशिष्ट शक्ति प्रदान करने वाली एच आकाश में उठाकर ले चलने वाली उस भगवती प्रक्रमणी विद्या को प्रयुक्त करके ये आकाश में उड़ा करते थे। ये नारद, गमन से आकशतल को उल्लघन करते हुए ग्राम, आकर, नगर, निगम खेट, कट, मडंय, द्रोणमुख, पत्तन, सयाद इनके सहस्रों से महित हुई ऐसी स्तिमितमेदनीतलवाली वसुधा-भूमि को देखते हुए रम्य हस्तिनापुर नगर में आये और चा से गगनमार्ग से होकर फिर ये पाइराज के भवन में पहुंचे। ऐसा सध यहां लगाना (तएणं से पैडराया कच्छुल्लनारय एज्जमाणं पासइ) इम के बोद पाडुराजा ने कच्छुल्ल इन नारद को आते हुए जब देखा ( पामित्ता) तो ગમનમા વિશિષ્ટ શક્તિ આપનારી અને આકાશમાં ઉડાડીને લઈ જનાર તે પગવતી પ્રક્રમણી વિદ્યાના બળથી તેઓ આકાશમાં ઉડતા રહેતા હતા આ રીતે આ નાદ ગમનથી આકાશને ઓળગીને સહસ્ત્રો ગ્રામ, આકર નગર, નિગમ ખેટ કર્બટ, મડબ, દ્રોણુમુખ, પત્તન, બાહથી, મડિત અને સ્વિમિત પૃથ્વીને જેતા મણીય હસ્તિનાપુર નગરમાં આવ્યા અને ત્યાથી આકાશ भाभा यधने पाना सवनमा ५४ाया (तएण से पाडुराया कच्छल्ल नारय एजमाण पासइ) त्या२मा पाइशोधनाने यारे मारता नया (पासिता) त्यारे लेने (पचहिं पडवेदि कुतीए देवीए सद्धि आसणाओ
Page #646
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मकथा
1
मारणः, गजसुकुमाल, दुर्गु इत्यादयो यादवकुमारास्तेषा 'अद्द्द्वाणं कुमारकोडीण' अर्धचतुर्थीनी कुमारोटीनां च सार्धनिकोटिममिताना याद कुमाराणामित्यर्थः ' दिपयद हृदयदयितः = हृदयमियः, 'सधानए ' सस्तारुः- यादवाना प्रशासक, तथा युद्वकोलाहल मियः = करहो = विवाद, युद्ध= शस्त्रादिभि महरण, पोलाहलो = जनाना महाध्वनिः, एते मियाः प्रमोदजनका यस्य स तथा 'भडणामिलासी ' गण्डनामिकापी=मण्डन राटि - कटह. 'राड् ' इति भाषाया तम्याभिलाषी तथा बहुषु च समरक्षतमपराये पु= समरशतसग्रामेषु दर्शनरत = दर्शनाssसक्त, 'समतभो ' समन्ततः सर्वमकारेण परस्पर च कलह ' सदस्यण सदाक्षण = सर्वस्मिन क्षणे 'अणुगवेममाणे ' अनुगवेपयन् अन्वेष यन्, ' असमाहिकरे ' असमाधिकर' - चितनिक्षेपकारकः चित्तस्यास्यैर्यकर. केपा चिचस्य निक्षपकइत्याह--दसारवरवीर पुरिस तिलोकलनगाण' दशाईवरवीर पुरुपत्रैलोक्य पलवता -दशाह. - समुद्रनिजयादयो दशसख्यका व एन वरा श्रेष्ठाः
1
इत्यादि यादवकुमारों के लिये ये हृदय दयित वे अत्यंत प्रिय थे। इसी कारण यादवों के प्रशंसक थे । कलहविवाद युद्ध एव मनुष्यो का कोलाहल ये सब इन्हे बहुत अधिक अच्छे लगते थे। आनन्द जनक होते थे । रोडू (लडाई) के ये अभिलापी बने रहते थे । अर्थात् हर एक जगह किसी न किसी रूप में परस्पर में लोगों में तकरार, कजिया कैसे उत्पन्न हो इस घात का इन्हें विशेष ध्यान रहता था। समर शतसग्राम के देखने में इन्हें विशेष हर्षोल्लास होता था। सब प्रकार से परस्पर में सब समय में ये कलह की गवेषणा करने में ही लगे रहते थे । नेमिनाथ की अपेक्षा त्रैलोक्य में विशिष्ट बलवाली जो श्रेष्ठ वीर पुरुष समुद्र विजयादि दश
માટે જ તેએ યાદવેના વખાણુ કરનારા હતા કલહુ-કકાસ, વિવાદ, યુધ્ધ અને માણુસેને શારબકાર આ બધુ તેમને બહુ જ ગમતુ હતુ આ બધાથી તેમને ખૂબ જ મજા પડતી હતી, કજીયા તેમને ખૂબજ ગમતા હતા એલે કે દરેક સ્થાને ગમે તે કારણને લીધે વચ્ચે પરસ્પર કલહ-કકામ કજીયે કેવી રીતે શરૂ થાય આ વાતની તેએ તક જોતા રહેતા હતા સેકડા યુદ્ધોના બીભત્સ દૃશ્ય જોવામા તેમને ખૂબ જ આનદને અનુભવ થતા હતા તેમે બધી રીતે રાત અને દિવસ એકબીજાને લડાવવાનીશેષમા જ ચેાટી રહેતા હતા નેમિનાથની અપેક્ષા ગૈલેકયમા વિશે. બળવાન શ્રેષ્ઠ વીર પુરૂષ સમુદ્ર વિજય વગેરે દશ દશાર્ણે હતા તેમના ચિત્તને તેઓ કન્ન -
તા.
Page #647
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् सयतस्तथा विधो न भवति यः सोऽसयता=सयमरहित इत्यर्थः, अविरत =अतीत कालिम्पापाजुगुप्सापूर्वक, भविष्यति च सरपूर्वकमुपरतो निवृत्तो विरतस्तथा विधो न भाति यः सोऽविरतः, रितिरहितः, अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा प्रतिहत वर्तमानकाले स्थित्यनुभागहासेन नाशित तथा प्रत्याख्यात-पूर्वकृतातिउनके लिये तीन चार आदक्षिण प्रदक्षिण किया-करके उनको वंदनाकी नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर उन्होंने उनसे महान् पुरुषों के बैठने योग्य आमन पर चैटने के लिये प्रार्थना की-इस के याद वे कच्छुल्ल नारद जल के छीटो से सिक्त हुए आसन पर कि जो दर्भ के अपर आस्तीर्ण या घट गये। बैठकर उन्होंने पाडु राजा से राज्य की यावत् अतः पुर की कुशल वर्ता पूली। उनके पूलने पर पांड राजाने कुन्ती देवी ने एव पांचों पाडवों ने उन कन्छल नारद को खूप आदर किया यावत अच्छी तरह से उनकी पर्युपासना की। द्रौपदी ने उन्हें असयत, अविरत एव अप्रतिहत प्रत्याख्यतपापकर्मा जानकर उनका आदर नहीं किया, उनके आगमन की अनुमोदना नहीं की और न वह उनके आने पर उठी। वर्तमान कालिक सर्व सावद्य अनुष्टान से जो निवृत्त होता है वह सयत है-ऐसा सयत जो नही होता है वह असयत कहलाता है। अतीत काल में हुए पापों से जुगुप्सा पूर्वक और भविष्यकाल में उनसे सवर पूर्वक जो उपरत होता
સામે જઈને તેમણે ત્રણવાર તેમની મેર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણું કરી ત્યારપછી તેમણે વદન તેમજ નમન કર્યા અને પછી તેમને પિતાના કરતા મોટા માણોને બેસવા ગ્ય આસન ઉપર બેસવાની વિનતી કરી ત્યારબાદ તે કરછુડલ નારદ પાણીના છાટાએથી ભીના પાથરેલા દર્ભના આસન ઉપર બેસી ગયા બેસીને તેઓએ પાડુરાજાને રાજ્યની ચાવત રણવાસની કુશળવાર્તા પૂછી પાડુરાજા, કુતીદેવી અને પાંચે પાડાએ કચ્છલ નારદને ખૂબજ આદર કર્યો યાવત્ સારી રીતે તેમની પ પાસના કરી તેમને અસયત, અવિરત અને અપ્રતિહતપ્રત્યાખ્યાતપાપકર્મા જાને દ્રૌપદીએ તેમને આદર કર્યો નહિ તેમના આગમનની અનુમોદના કરી નહિ અને જ્યારે તેઓ આવ્યા ત્યારે પણ તે ઊભી થઈ નહિ વર્તમાનકાલિક સર્વ સાવદ્ય અનુષ્ઠાનથી જે નિવૃત્ત હોય છે તે સ યત છે, આ વ્યાખ્યા મુજબ જે સ યત નથી તે અસ થત કહેવાય છે ભૂતકાળમાં થઈ ગયેલા પાપકર્મોપી જુગુપ્સાપૂર્વક અને ભવિષ્ય કાવમાં તેમનાથી સવરપૂર્વક જે ઉપરત હોય છે તે વિરત છે, એવો જે નવી તે અવિરત છે, એટલે કે વિગતિથી રહિત છે વતમાનકાળમાં જેમાં
-
Page #648
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधा फच्छुरगनारद सप्ताष्टपटानि प्रत्युतति, नारदाभिमुपमायाति,प्रत्युत्य तिक्खुचो' नि. कृत्वः - निवार, 'आयारिणपयाहिण' आदक्षिणमदक्षिण करोति, कथा वन्दते, नमस्यति गदिया, नत्या, महाग-महतो योग्येन आसनेन उपनिमन्त्र यति । उपवेशनार्य प्रार्थयति । ततः सलु म यच्युटनाग्द. 'उदगपरिफासिया' उदकपरिस्टायां जर स्टेन मिक्तायां 'दमोपरिपत्धुपाए' दोपरिमयास्त तायां कुश पर्याप्तीर्णाया'मिसियाए 'पृप्या आमननिशेपे निपीदति-उपविशति, निपद्य पाण्ड रामान राज्ये यापदन्तः पुरे न कुशलोदन्त-कुगलवार्ता पृच्छति, ततः खलु स पाण्डराजा कुन्ती देवी पाच पाण्डमा, फन्मुल्नारद 'आढति' आद्रियन्ते यावत् पर्युपासते सेवन्ते स्म । तत खलु सा द्रौपदी करछुल्लनारदम् 'असजयभविश्यअपडिहयपच खायपायाम्मे ति । असयतापिरतापतिइता प्रत्याख्यातपापति कन्या, तत्र-अमयतः-वर्तमान कालिकसमापयानुष्ठाननिवृत्तः देवकर (पचहि पउवेरि कुनी देवी मद्धिं आसणाओ अन्भुटेर) ये पाचो पाडवो एच कुन्ती के सार अपने आमन से उठे। (अभुद्वित्ता कन्छुल्लनारय मत्तग्याइ पच्चुग्गच्छह ) और उठकर सात आठ पर फच्छुलनारद के सामने स्वागत निमित्त गये ( पच्चुग्गच्छित्तो तिक्खु त्तो आयाहिणपयाहिण करेइ, करित्ता वदह नमसइ, महरिहेण आस णेण उवणिमतेइ तण्ण से कच्छुल्लनारए उदगपरिफासियाए दभोवार पच्चत्युयाए भिसीयाए णिसीयह, णिसीयित्ता पडराय रज्जे जाव अते उरे य कुसलोदत पुच्छह, तएण से पडराया कोंतीदेवी पचय पडवा कच्छल्लनारय आढति जाय प-जुवासति, तएण सा दोवई कच्छुल्ल नाग्य असजयअविरयअपडिहयपचाखायपावकम्मे त्ति कटु ना आढाइ नो परियाणइ नो अन्भुटेह, नो पज्जुवोसइ) जाकर के इन्हा न अभइ) तसा पाये पायो मन तानी साथ चाताना मासन ५२थी होला यया (अन्मुद्वित्ता कछल्लनारय सत्तट्रपयाइ पच्चुग्गच्छद) मन का થઈને કચ્છડલ નારદના સ્વાગત માટે સાત આઠ ડગલા સામે ગયા
(पच्चुग्गन्छित्ता तिक्सुत्तो आयादिणपयाहिण करेइ, करिता वदइ नमसह। महरिहेण आसणेग उवगिमतेइ, तएण से करछल्लनारए उदगपरिफासियाए दमोपरिपच्चत्युयाए भिसियाए णिसीयइ, णिसीयित्ता पडुराय रज्जे जाव अत उरेय कुसलोदत पुच्छइ तएण से पडुराया कौतीदेवी पचय पडवा कच्छुल्लनारय आढति जार, पज्जुबासति, तएण सा दोरई कच्छुल्लनारय असजयअविरयअयाडहयपचक्खायपावकम्मे ति यह नो आदाइ नो परियाणइ नो अमुद्देइ, ना पज्जुवाता)
Page #649
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतfर्षणी टोका म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
४५७
सयतस्तथाविधो न भवति यः सोऽसयतः = संयमरहित इत्यर्थः, अविरत =अतीत कालिम्पापाज्जुगुप्सापूर्वक, भविष्यति च सारपूर्वमुपरतो निवृत्तो विरतस्तथा विधो न भाति यः सोऽविरतः, निरतिरहितः, अप्रतिहतमत्याख्यातपापकर्मा प्रतिहत= वर्तमानकाले स्थित्यनुभागहासेन नाशित तथा मत्याख्यात= पूर्वकृतातिउनके लिये तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिण किया करके उनको वंदना की नमस्कार किया । वदना नमस्कार करके फिर उन्होंने उनसे महान् पुरषों के बैठने योग्य आसन पर बैठने के लिये प्रार्थना की- इस के बाद वे कच्छुल्ल नारद जल के छीटो से सिक्त हुए आसन पर कि जो दर्भ के ऊपर आस्तीर्ण वा बैठ गये । बैठकर उन्होंने पांडु राजा से राज्य की यावत् अतः पुर की कुशल वर्ता पूछी। उनके पूछने पर पांड राजाने कुन्ती देवी ने एव पांचों पांडवों ने उन कच्छुल नारद को खूप आदर किया यावत् अच्छी तरह से उनकी पर्युपासना की । द्रौपदी ने उन्हें असयत, अविरत एव अप्रतिहत प्रत्याख्यत पापकर्मा जानकर उनका आदर नहीं किया, उनके आगमन की अनुमोदना नहीं की और न वह उनके आने पर उठी । वर्तमान कालिक सर्व सावद्य अनुष्टान से जो निवृत्त होता है वह सयत है - ऐसा सयत जो नही होता है वह असयत कहलाता है । अतीत काल ਚ हुए पापों से जुगुter] पूर्वक और भविष्यत् काल में उनसे सवर पूर्वक जो उपरत होता
સામે જઈને તેમણે ત્રણવાર તેમની ચામેર દક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરી ત્યારપછી તેમણે વદન તેમજ નમન કર્યા અને પછી તેમને પેાતાના કરતા માટા માણુઓને એવા ચેાગ્ય આસન ઉપર બેસવાની વિનતી કરી ત્યારદ તે કમ્બુલ નારદ પાણીના છાટાઓથી ભીના પાથરેલા દના આસન ઉપર એમી ગયા એસીને તેએએ પાડુરાજાને રાજ્યની યાવત રણવાસની કુશળવાર્તા પૂછી પાડુરાજા, કુતીદેવી અને પાચે પાડવાએ કચ્યુલ નારદના ખૂબજ આદર કર્યો યાવત સારી રીતે તેમની પયું`પાસના કરી તેમને અસયત, અવિરત અને પ્રતિહતપ્રત્યાખ્યાતપાપકર્મો જાણીને દ્રૌપદીએ તેમને આદર કર્યું નહિ તેમના આગમનની અનુમેદના કરી નહિ અને જ્યારે તેએ આવ્યા ત્યારે પણ તે ઊભી થઇ નહિઁ વર્તમાનકાલિક સર્વ સાવધ અનુષ્ઠાનથી જે વૃિત્ત હોય છે તે સયત છે, આ વ્યાખ્યા મુજબ જે સયત નથી તે અસ યત કહેવાય કે ભૂતકાળમા થઇ ગયેલા પાપકર્મોથી જુગુપ્સાપૂર્ણાંક અને ભવિષ્ય ત્કાલમા તેમનાથી સવરપૂર્વક જે ઉપગ્સ હાય છે તે વિત છે, એવા જે નવી તે અવિગ્સ છે, એટલે કે વિતિથી રહિત છે. વર્તમાનકાળમાં જેમા
का
Page #650
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२६
resu
,
1
कच्छुलनारद सप्ताष्टपदानि मत्युच्छति नारदाभिमुगमायाति प्रत्युद्रन्य' विक्खुतो' नि. कृत्यः - निवारं, 'आयारिपगारिण' आदक्षिणप्रदक्षिण करोति, कृता वन्दते, नमस्पति प्रदित्या, नया, महान-महल योग्येन आसनेन उपनिमन्त्र यति । उपवेशनार्थं प्रार्थयति । ततः खउस च्युलना: 'उदगवरिफासियाए ' उदकपरिपृष्टाया जलच्छटेन मिक्ताया 'दम्भो रिपचत्याए टर्मोपरिमन्यवस्तु ताया कुशे पर्यातीणया ' गिसियाए 'कृप्या आसनविशेषे निषीदति=उपविशति, निपद्य पाण्डु राजान राज्ये यावदन्तः पुरे न कुशलोदन्त - कृपया पृच्छवि, ततः खलु स पाण्डराजा कुन्ती देवी पञ्च च पाण्डवा, कल्लनारद ' आढति ' आद्रियन्ते यावत् पर्युपासते = सेवन्ते स्म । ततः खलु सा द्रौपदी नारदम् 'असजय अविरयअप डिडयपचखायामे चिर असयतानिरताप विद्या प्रत्याख्यातपापकर्मेति कृष्णा, तत्र - अगयत' - वर्तमानकालिसमा धानुष्ठाननिवृत्तः देखकर (पच पडवेति कुनी देवीए सर्द्धि आसणाओ अन्भुह ) ये पाचो पाडवो एव कुन्ती के साथ अपने आसन से उठे । ( अमुट्ठिता कन्छुल्लनारय मत्तायाह पच्चुग्गच्छद) और उठकर सात आठ पैर कच्छुलनारद के सामने स्वागत निमित्त गये ( पच्चुग्गच्छित्तो निक्खु तो आधारिणपयाहिण करेइ, करिता वदह नमसइ, महरिहेण आस णेण उचणिमते तण से कच्छुलनार उदगपरिफासियाए दभोवरि पच्चत्युयाए भिसीयाए णिसीयह, णिसीयित्ता पडुराय रज्जे जाव अते उरेय कुसलोदत पुच्छर, तएण से पराया कोतीदेवी पचय पडवा कच्छुल्लनारय आढति जाव पज्जुवासति, तएण सा दोवई कच्छुल्ल नाग्य अजय अविरयअप डिपञ्चकखाय पावकम्मे ति कट्टु नो आदाइ नो परियाणइ नो अब्भुट्टेह, नो पज्जुवोसह ) जाकर के इन्होंने સમુદ્રેઙૂ ) તે પાચે પાડવેા અને તીની સાથે પેાતાના આસન ઉપરથી ઊભા થયા ( अमुट्ठित्ताच्छुलनार सतपयाइ पच्चुग्गाच्इ) मने जीभा થઇને કલ નારદના સ્વાગત માટે સાત ઠ ડગલા સામે ગયા
1
( पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाणिपयाहिण करे, करिता वदर नमस महरिहेण आसणेण उवगिमते, तरण से कच्छुल्लनारए उदगपूरिफासियाए दम्भोपरिपच्चत्युयाए भिसियाए णिसीयड़, णिसीयित्ता पडराय रज्जे नाव अ उरेय कुसलोदत पुच्छर तएण से पडुराया कोंतीदेवी पचय पडवा कच्छुल्लनारय आढति जाब, पज्जुत्रासति, तएण सा दोनई +च्छुल्लनारय असजययविरयअयडिपञ्चकखायपात्रकम्मे ति वहु नो आढाइ नो परियाणा नो अहेर, नो
पज्जुवासर )
Page #651
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारतिदिगो टी० १० १६ द्रौपदी रितनिरूपणम् जाव सरीरा त इच्छामिण देवाणुप्पिया । दोवई देवी इहमाणिय, तएणं पुवसंगइए देवीए पउमनाभं एव वयासी - नो खल्लु देवाणुप्पिया! एवं भूयं वा भव्य वा भविस्स वा जण्ण दोई देवी पचपंडवे मोत्तण अन्नेण पुरिसेणं सद्धि ओरालाई जाब विहरिस्तइ, तहा वि य णं अह तव पियट्टतयाए दोवई देवि इहं हबमाणेमित्तिक? पउमणाभं आपुच्छइ आपुच्छित्ता ताए ऊकिटाए जाव लवण लमुद्दे मझमज्झेण जेणेव हत्थिणाउरे णयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तेण कालेणं तेणं समएण हत्थिणाउरे जुहिडिल्ले राया दोवईएसद्धि उपि आगासतलंसि सुहपसुत्ते यावि होत्था, तएण से पुवसगइए देवे जेणेव जुहिहिले राया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दोवईए देवीए ओसोवणियं दलयइ दलित्ता दोवई देवी गिण्हइ गिहित्ता ताए उकिटाए जाव जेणेव अमरकका जेणेव पउमगाभस्त भवणे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता पउमणाभस्स भवणंसि अलोगवणियाए दोवइ देवी ठावेइ ठावित्ता ओसोवणि अवहरइ अवहारित्ता जेणेव पउमणाभे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता एव वयासी-एसणं देवाणुप्पिया मए हत्थिणाउराओ दोवई इह हबमाणीया तव असोगवाणियाए चिटइ, अतो पर तुम जाणसित्तिक? जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए ॥ सू० २५ ॥
Page #652
--------------------------------------------------------------------------
________________
d
शाताधर्मकथा
एउजमाणं पास पासित्ता आसणाओ अच्भुट्टेड अम्मुट्ठित्ता अग्घेणं जात्र आसणेणं उवणिमतेइ, तपण से कच्छुछनारए उदगपरिफासियाए दभोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए निसीयइ जाव कुसलोदंत आपुच्छइ, तपणं से पउमनाभे राया जियग ओरोहे जायविरहए कच्छुल्लणारयं एवं क्यासी-तुब्भं देवाणु पिया | वहूणि गामाणि जाव गेहाइ अणुपविससि त अत्थि आई ते कहिंचि देवानृप्पिया ! एरिसए ओरोहे दिट्टपुत्रे जा रिसए ण मम ओरोहे ?, तरणं से कच्छुल्लणारए पउमनाभेण रन्ना एव वुत्ते समाणे ईसिं विहसियं करेइ करिता एव वयासी - सरिसे णं तुम पउमणाभा । तस्स अगडदद्दुरस्त, केण देवापिया से अगडदद्द्दुरे १, एत्र जहा मल्लिणाए एव खलु देवाणुपिया | जबूदीवे दीवे भारहेवासे हत्थगाउरे दुवयस्स रण्णोधूया चूलणीए देवीए अत्तया पंडुस्स सुवहा पचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी रूत्रेण य जाव उक्कडसरीरा दोवईए णं देवी छिन्नस्सवि पायंगुट्टयस्स अय तत्र ओरोहो सतिमंपि कल ण अग्घतित्तिकट्टु, पउमणाभं आपुच्छर आपुच्छित्ता जाव पडिगए, तएणं से पउमणाभे राया कच्छुल्लणारयस्स अंतिए एयमट्ट सोच्चा णिसम्म दोवईए देवीए रूवे य३ मुच्छिए ४ दोवइए अज्झोववन्ने जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पोसहसाल जाव पुव्वसगइय देव एवं वयासी - एवं खलु देवाणुपिया ! जंबूदीवे दीवे भारहेवासे
Page #653
--------------------------------------------------------------------------
________________
मी० अ० १६ द्रौपदीरितनिरूपणम्
ધંધ
जाव सरीरात इच्छामिणं देवाप्पिया । दोवई देवीं इहमाणिय, तरणं पुण्वसगइए देवीए पउमनाभं एवं वयासी - नो खलु देवाणुपिया । एयं भूयं वा भव्वं वा भविस्स वा जपणं दोवई देवी पचपंडवे मोत्तृण अन्नेणं पुरिसेणं सद्धि ओरालाइ जाव विहरिस्त, तहा विय पण अह तव पियट्टतयाए दोवई देवि इहं हन्त्रमाणेमित्तिकद्दु पउमणाभं आपुच्छर आपुच्छित्ता ता ऊक्किट्ठाए जा लवणसमुद्दे मज्झमज्झेण जेणेव हत्थिणाउरे यरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तेण कालेणं तेणं समएणं हरिथणाउरे जुहिट्टिल्ले राया दोवईएसद्धि उपि आगासतलंसि सुहपसुते यावि होत्या, तरणं से पुव्वसंगइए देवे जेणेव जुहिट्टिले राया जेणेव दोवई देवी तेणेत्र उवागच्छइ उवागच्छित्ता दोवईए देवीए ओसोवणियं दलयइ दलित्ता दोवइ देवीं गिण्हइ गिण्हित्ता ताए उक्किट्ठाए जात्र जेणेव अमरकका जेणेव पउमणाभस्त भवणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पउमणाभस्त भवसि असोगवणियाए दोवइ देवीं ठावे ठावित्ता ओसोवणि अवहरइ अवहरिता जेणेत्र परमणाभे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एव वयासी-एसणं देवाणुविया मए हत्थिणाउराओ दोवई इह हव्वमाणीया तव असोगवणियाए चिट्ठा, अतो पर तुमं जाणसित्तिकद्दु जामेत्र दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए || सू० २५ ॥
Page #654
--------------------------------------------------------------------------
________________
PUR
तापमेया
टीका-'तरुण तस्मयादि । ना. गार तम्ग पालनाररस्य अपमत पःआध्यात्मिगिन्तित. माणितः पारितो मनागा. गाय मापयत, अहो ! खलु द्रौपदी देवी रूपेग या मेन र पनि पारिनुपद्धामनी मा नो आद्रियते यावत् नो पर्युपास्ते, तस्मा र पल मम द्रौपया दव्या'शि पिय फरित्तए' पिमिप फर्नु , पायकग काममानामा विवाहिता जाता
-तपण तस्स कान्लनारपस्म प्रत्यादि। टीकार्थ-(तण्ण) उसके पाद (नम्न कच्चरलनाग्यम्स) उन कन्टल नारदको (इमेयारे) यर दस सअशस्थिय, चिनिए, पत्थिए, मणी गए, सरुप्पे समुपज्जित्या) आ यात्मिक, चिन्तित, प्राधित, मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ। (महोण दोनईदची ख्वेग जाव लावण्णेग य पचहि पडवेहिं अणुपद्धा समाणी मम णो आहाड, जार नो पन्जुवासह त सेय खलु मम दोवईए देवीए रितिर फरित त्ति कटु ण्व सपेहेह। सपेहित्ता पहराय आपुच्छह आपुचिमत्ता उप्पणि विज्ज आवाहइ आवाहिता ताए उक्किहा जाब विग्जाहरगई। लपणसमुह मझ मज्झेण पुरत्याभिमुहे वीइवहउ पयत्ते याचि होत्या) देखो-यह कितने आश्चर्य की बात है कि द्रौपदी देवी ने रूप यावत् लावण्य से पाचा पाडवों के साथ भोगासक्त घनकर मेरा कोई आदर नहीं किया है यावत् किसी भी प्रकार की पर्युपासना नहीं की है। इसलिये अब मुझे यही उचित- श्रेयस्कर है कि मै इस द्रौपदी देवी का विप्रिय कर-अनिष्टकर
तएण तस्स कच्छुहनारयरस इत्यादि ॥
सार्थ-(तएण ) त्या२५छी ( तास कच्छल्लनारयस्स) छुट नाहने ( इमेयारूने) PAL तन (अन्झथिए, चितिए, पथिए, मणोगए, सकप्प समुष्पज्जित्था ) माध्यामिर, वितित, प्रार्थित, मनात १४८५ सय 3
(अहोण दोबई देवी स्वेण जाव लावण्णेण य पचहिं पडवेहिं अणुबद्धा समाणी मम णो आढाइ, जाव नो पज्जुवासइ त सेय खलु मम दोवईए देनाए विप्पिय करित्तए ति कट्ठ एव सपेदेइ, सपेहिता पडुराय आपुच्छइ आपुच्छिता उप्पयणि विज्ज आवाहेइ जावारिता ताए उकिटाए जाव विनाहरगई लग समुद्द मज्झ मज्झेग पुरत्याभिमुहे वीइवइउ पयत्ते याविहोत्था)
જુઓ, આ કેવી નવાઈની વાત છે કે દ્રૌપદી દેવીએ રૂપ યાવત્ લાવ યથી પાચે પાડવાની સાથે ભેગા થઈને મારે કોઈ પણ રીતે આદર કર્યો નથી થાવત્ કઈ પણ જાતની પથુપાસના કરી નથી એથી હવે મને એ જ ગ્ય જણાય છે કે ગમે તે રીતે દ્રૌપદીનું વિ
Page #655
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४६३ वस्मान्मदापहरणेन अस्या' प्रतिलाचरणं श्रेय इति भारः । इति कृत्वाति मनसि निधार एक सगेसते-पर्यालगेचयति, समेत्य पाण्डु राजानमापृच्छय ' उप्प यणि पिज' उन्मतनीम्-विद्याम् ' आहे' यावाहयति स्मरति आवाय, मत्वा त्या उत्कृष्टया यापद् विद्याधर गत्या लपणसमुद्रम्य मध्यमध्येन पौरस्त्याभिमुखा पूर्वदिगभिमुख', 'वीडयदउ पयत्ते' व्यतिजितु प्रवृत्तःगमनतत्परथाप्यभवत् ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समरे 'धायईमडे ' धातकीपण्डे धातकीपण्डनामके, द्वीपे 'पुरस्थिमदादिण्डभरहवासे' पोरस्त्यार्धदक्षिणार्ध-भारतप-पूर्वदिग्न तिनि दक्षिणार्धभरतक्षा अमरकका नाम राजधानी आसीत् । तत खलु अमरफकाया राजधान्या पद्मनाभो नाम राजाऽभवत् । स कीदृश इत्याह- महया हिम पतमहतमलयमदग्महिंदसारे ' महा-दिमयन्मामठयमन्दरमहेन्द्रसार महारिमवानिर तथा-महामलयमन्दरमहेन्द्रवत् सार प्रधान । अन्यनृपापेक्षयाऽधिकम हत्त्वादिगुणरिभश्वर्यसम्पन्न इत्यर्थः, पिस्तरतस्तु व्याख्यान मयमाध्ययने कृतम् , यर इस समय पाउवों द्वारा कृत सत्कार सम्मान से गर्विष्ट धनी हुई है-सो विवेक रहित बन गई है-इसलिये इसके मद को उतारनाचारिये अत इसके प्रतिफल आचरण करना यही मुझे श्रेयस्कर है। इस प्रकार मन में रखकर उन्हों ने विचार कियो-विचार करके फिर उन्हों ने पाडराज से पूछा हे राजन् एम जाते हैं-पूछकर उन्हों ने उत्पतनी नाम की विद्या का आह्वान किया स्मरण किया-स्मरण कर के उस उत्कृष्ट यावत् विद्याधर सबन्धी गति से वा से पूर्व दिशा की तरफ मुख कर के वे उडने में प्रवृत्त भी हो गये-(तेण कालेण तेण समापण धायईसडे दीवे पुरथिमदारिणभरहे चासे अमरकका णाम रायहाणी होत्या-तएणं अमरऊकाए रायहाणीरा पउमणाभे णाम राजा होत्या, मस्या हिमवत० તે આ પાડવો વડે મસ્તૃત તેમજ સન્માનીત થઈને ગર્વિષ્ઠ બની ગઈ છે તેથી તે અવિવેકી થઈ પડી છે, એથી હવે એના મદને ઉતારવો જોઈએ, એના વિરૂદ્ધ આચરવુ એ, આ પ્રમાણે તેઓએ મનમાં વિચાર કર્યો વિચાર કરીને તેમણે પાડુરાયને પૂગ્યુ કે હે ગજ ! અમે જ એ, એ પ્રમાણે પૂછીને તેઓએ ઉત્પતની નામની વિવાનુ આહાન કર્યું, આણુ કર્યું જોર કરીને તે ઉત્કૃષ્ટ યાવત વિવ વર સબંધી ગતિથી ત્યાથી પૂર્વ દિશા ભણી મુખ કરીને ઉડવા લાગ્યા (तेण काळेण तेण समएणधायईडे दीवे पुरत्यिमद्वदाहिणभरहे वामे अम
--. या तएण अमरकाए रायहाणीए पउमणाभे णाम राया
T
Page #656
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१४
माता कथा
1
वर्णक =वर्णनं पूर्वोक्तद् बोध्यम् तस्य खलु पद्मनाभस्य राक्षः ' सनदेवीमपाइ ' सप्तदेवीशतानि= देवीना राशीनां शतानि सप्तशतानिमाष: ' ओरोहे ' अवरोधे= अन्तः पुरे आसन् तस्य खलु पद्मनाभस्य राशः सुनामो नाम पुत्रो युवराजथाप्य भवत् । ततः खलु स पद्मनामो राजा अतः प्रदेशे ' अतेउरसि ' अन्त पुरे 'आरोहपरियुढे ' अपरोधसपरिटवः - श्री परिवारमपरिटत, सिंहासनवरगो विहरति - आस्ते स्म |
घण्णओ तस्ण परमनाभस्म रण्णो सत्तदेवीसयाह ओरोहे होत्या तस्स ण परमनाभस्स रण्णो सुनाभे नाम पुत्ते जुराया यावि होत्या तरण से पउमणा राया अतो अतेउरसि ओरोहमपरिघुडे सिंहोसण atre विहरs ) उस काल और उस समय में घातकी पड नाम के द्वीप मे पूर्व दिग्वर्ती दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र में अमरकका नाम की राजधानी थी। उस अमरकका नाम की राजधानी में पद्मनाभ नाम को रोजा रहता था । यह राजा महा हिमचान् पर्वत की तरह तथा महा मलय, मन्दर एवं माहेन्द्र की तरह अन्य राजाओं की अपेक्षा अधिक महत्त्वादिगुणों से विभव से एवं ऐश्वर्य से सपन्न था। इन पदों का विस्तार पूर्वक वर्णन प्रथम मेघकुमार अध्ययन में किया जा चुका है। इस राजा का वर्णन पहिले की तरह जानना चाहिये। उस पद्मनाभ राजा के अतःपुर में ७०० सात सौ रानिया थीं । सुनाभ नाम का पुत्र था जो युवराज था, पद्मनाभ राजा के यहा एक दिन की बात है होत्या, महया हिमनतव्नण्णओ, तस्सण पउमनाभस्सरण्णो सप्तदेवी समाइ ओरोहे होत्या तस्स ण परमनाभस्सरण्णो सुनाभे नाम पुत्ते जुवराया यानि होत्या तरण से पउमणाभे राया अतो अते उरसि ओरोहसपरिबुडे सिंहासन र विरह )
તે કાળે અને તે સમયે ઘાતકી ષડ નામે દ્વીપમા પૂર્વ દિશા તરફના દક્ષિણ ભરત ક્ષેત્રમા અમરકકા નામે રાજધાની હતી તે અમરક કા નામે રાજધાનીમા પદ્મનાભ નામે રાજા રહેતેા હતેા તે રાજા મહા હિમાચલ પ તની જેમ તેમજ મહામનય, મદર અને મહેન્દ્રની જેમ ખીન્ન ગજાએ કરતા વધારે મહત્વ વગેરે ગુણેાથી, વૈભવથી અને ઐશ્વર્યાંથી સ પન્ન હતા. આ પદેનુ સવિસ્તાર વર્ણન પ્રથમ મેઘકુમાર અધ્યયનમા કરવામા આવ્યુ છે આ રાજાનુ વણુન પણ પહેલાની જેમ જ સમજવુ જોઈએ તે પદ્મનાભ રાજાના રણવાસમા ૭૦૦ રાણીઓ હતી, મુનાભ નામે તેને પુત્ર હતેા, જે યુવરાજ હતા એક દિવસની વાત છે કે તે પદ્મનાભ રાજા રણવાસમા સ્ત્રી પરિવારની સાથે સિંહા
સન ઉપર બેઠા હતા
Page #657
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
मनगारधर्मामृतदपणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम
तत खलु स इच्छुल्लनारदो यत्रैवामरकङ्काराजधानी यत्रैव पद्मनाभस्य भवन तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पद्मनाभस्य राज्ञो भरने ' झत्ति' झटिति वेगेन 'समोवइए ' समुपेत आकाशादवतीर्णः । ततः खलु स पद्मनाभो राजा कन्छुल्लं नारद एजमानम्-आगच्छन्त पश्यति, दृष्ट्वा आसनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायार्येण यावदासनेन उपनिमन्त्रयति-जलमासन च ग्रहीतु प्रार्थयति । ततः खलु स कन्फुल्ल कि अत पुर के भीतर स्त्री परिवार के साथ सिंहासन पर बैठे हुए थे। (तण्ण से कच्छुल्लनारए जेणेव अमरकका रायराणी जेणेय पउम नामस्स भवणे तेणेव उवागच्छद, उवागच्उित्ता पउमणाभस्स रण्णो भवर्णमि झत्तिवेगेणं समोवइए, तएण से पउमनाभे राया कच्छुल्ल नारय एज्जमाण पासइ, पामित्ता आसणाओ अन्भुट्टेड, अभुद्वित्ता अग्घेणं जाव आमणेण उवणिमतेइ, तएण से कच्छुल्लनारए उदग परिफासियाए दभोवरिपच्चत्युयाण भिसियाए निसीयइ जाव कुस. लोदत आपुच्छइ) वे कच्छुल्ल नारद जहा अमर कसा राजधानी थी, जहा पद्मनाम का भवन या वरी आये । आकर के वे पद्मनाभ राजा के भवन में बहुत शीघ्र वेग से उतरे। पद्मनाभ राजा ने जैसे ही कच्छुल्ल नारद को आते हुए देग्वा तो देखकर के अपने आसन से उठे और उठकर के उन्हो ने उन्हे अयं यावत् आसन से आमत्रित किया।
(तएण से कच्छुल्लनारए जेणेव अमरका रायहाणी जेणेव पउमनाभस्स भवणे तेगेर उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमणाभस्स रण्नो भवणसि झत्तिवेगेण समोबदए, तएण से पउमनाभे राया कच्छुल्ल नारय एज्जमाण पासइ, पासित्ता आमणामो अमुटेइ, अमुहिना अग्ण जाव आसणेण उवणिमतेड, तएण से कछुल्लनारए उदगपरिफासियाए दभोपरिपञ्चत्युयाए भिसियारा निसीयइ जार कुसलोदत आपुन्छइ)
તે કચ્છલ નારદ જ્યાં અમર કા રાજધાની હતી, જ્યા પદ્મનાભનુ ભવન હતુ ત્યાં આવ્યા, આવીને તે પદ્મનાભ રાજના ભવનમા શી વેગથી ઉતર્યા પનામ રાજાએ જ્યારે છુcલ નાદને આવતા જોયા ત્યારે તેઓ પિતાના આસન ઉપરથી ઊભા થયા અને ઊભા થઈને તેમણે તેઓને અર્થ યાવત
घा-५९
Page #658
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६४
तापमेय पर्णक वर्णनं पूर्वोक्ताद बोध्यम् , तस्य खतु पमनामस्य राम सनदेवीमया' सप्तदेवीशतानि देवीना राशीनां शवानि-ससातानिमा 'ओरोहे ' अवरोधे: अन्तः पुरे आसन् तस्य खलु पमनाभम्प रा सुनामो नाम पुत्रो युगराजाप्य भवत् । ततः खलु स पमनामो राना गतः प्रदेगे 'जतेउरसि' अत पुरे 'आरोहसंपरिमुढे' आरोधसपरिटवः - सोपरिवारमपरिटत , सिंहासनवरगतो विहरति-आस्तेस्म । चण्णो तस्सण पउमनाभस्म रणो मतदेवीसयाइ ओरोहे होत्या सस्त ण पउमनाभस्स रपणो सुनाभे नाम पुत्ते सुरगया याचि होत्या तएण से पउमणाभे राया अतो अतेउरमि ओरोहसपरिघुढे मिहोसण घरगण विहरड) उस काल और उस समय में धातकी पड नाम के द्वीप मे पूर्व दिग्वी दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र में अमरकका नाम की राजधानी थी। उस अमरकका नाम की राजधानी में पद्मनाम नाम का राजा रहता था। यह राजा महा हिमवान् पर्वत की तरह तथा महा मलय, मन्दर एवं माहेन्द्र की तरह अन्य राजाओं की अपेक्षा अधिक महत्वादिगुणों से विभव से एवं ऐश्वर्य से संपन्न था। इन पदों का विस्तार पूर्वक वर्णन प्रथम मेघमार अध्ययन में किया जा चुका है। इस राजा का वर्णन परिले की तरह जानना चाहिये । उस पद्मनाभ राजा के अतापुर में ७०० सात सौ रानियां थीं। सुनाभ नाम का पुत्र था जो युवराज था, पद्मनाभ राजा के यहा एक दिन की बात है होत्या, महया हिमनत०३ण्णओ,तस्सण पउमनाभस्त रणो सत्तदेवी सयाइ ओरोहे होत्था तस्स ण पउमनाभस्सरण्णो सुनाभे नाम पुत्ते जुबराया यावि होत्या तएण से पउमणाभे राया अनो अते उरसि ओरोहसपरिवुडे सिंहासणवरगए विहरइ ।
તે કાળે અને તે સમયે ઘાતકી વડ નામે દ્વીપમાં પૂર્વ દિશા તરફના દક્ષિણધે ભરત ક્ષેત્રમાં અમરક કા નામે રાજધાની હતી તે અમરક કા ના રાજધાનીમાં પહાનાભ નામે રાજા રહેતો હતો તે ગા મહા હિમાચલ પર્વ તની જેમ તેમજ મહામલિય, મદર અને મહેન્દ્રની જેમ બીજી રાજાએ કરતા વધારે મહત્વ વગેરે ગુણેથી, વૈભવથી અને એશ્વર્યથી સંપન્ન હતે આ પદનું સવિસ્તાર વર્ણન પ્રથમ મેઘકુમાર અધ્યયનમાં કરવામાં અાવ્યું છેઆ રોજનું વર્ણન પણ પહેલાની જેમ જ સમજવું જોઈએ તે પાનાભ રાજાના રણવાસમાં ૭૦૦ રાણીઓ હતી, સુનાભ નામે તેને પુત્ર હતો, જે યુવરાજ હતી એ દિવસની વાત છે કે તે પવના રાજા રણવાસમાં સ્ત્રી પરિવારની સાથે સિહા સન ઉપર બેઠા હતા
Page #659
--------------------------------------------------------------------------
________________
ranी टी० ८० १६ द्रौपदीचरित निरूपणम्
- ४६७
,
,
देवानुमिय ! ईदृशोऽवरोधो दृष्टपूर्वी यादृशः खलु ममावरोधः ? ममान्तः पुरे यादृश्यः स्त्रियो पर्तन्ते, तादृश्य स्त्रियः कुनापि भवता दृष्टा इति पृच्छतीत्यर्थः । ततः खलु स कच्छुल्लनारदः पद्मनाभेन राना एवमुक्त सन 'ईपद् विहसित मन्ददास करोति, कृत्वा एवमवादीत् - हे पद्मनाभ ! सदृशस्त्वं खलु तस्य ' अगउदद्दुरस्त ' अगडदर्दुरस्य = कूपमण्डकस्य यथा कूपमण्डूकः कूपाद् वहिः प्रदेशे विद्यमान नकिमपि जानाति, तद्वत् त्वमपि स्वभवनाद वहिरन्यत्रानस्थित किमपि वस्तु न वेत्सीति भानः । कच्छुल्लनारदस्य वचन श्रुत्वा पद्मनाभः कच्छुल्लनारद पृच्छति - 'केण देवाणुविया ! से अगडदुरे ' इति । हे देवानुमिय ! कः खलु सोऽगडदर्द्धरः ? एव पद्मनाभेन राज्ञा पृष्टः सन् कच्छुल्लनारदः माह - ' एन यथा मल्लिगाए ' यथा मरिज्ञाने वर्णितमेवमत्र पोध्यम् समुद्रददु रकूपदर्दुरयोः परस्परवार्तालापो यथा सजातस्तथा कच्छुल्लनारदेन कथित इत्यर्थः । पुनः कच्छुल्ल
कहा - हे देवानुप्रिय ! तुम अनेक ग्राम यावत् से घरों में आते जाते रहते हो तो क्या हे देवानुप्रिय ! तुमने कहीं पर क्या ऐसा अतः पुर पहिले कभी देखा है- जैसा मेरा अन्त: पुर है ? पद्मनाभ राजा के द्वारा इस प्रकार पूछे गये वे कच्छुल्ल नारद कुछ हँसने लगेहँसकर तन उन्हों ने उनसे इस प्रकार कहा- हे पद्मनाभ । तुम उस कूपम ड्रक के समान हो-जो अपने निवासस्थान भूत कुए से वाहिरी प्रदेश में विद्यमान कुछभी नही जानते हो। कच्छुल नारद के वचन सुनकर के पद्मनाभ ने उन कच्छुल्ल नारद से पूछा- देवानुप्रिय । वह अगडदर का आख्यान कैसा है ? तब नारद ने उनसे कहा - मल्लि नाम के अध्ययन में कूपमडूक और समुद्र मडूक के परस्पर में वार्तालाप के रूप में यह आख्यान वर्णित किया हुआ है-सो नारद ने यह आख्यान जैसे का तैमा उन्हें सुना दिया- पुन' कच्छुल्ल नारद उनसे
કોઈ પશુ સ્થાને અને કાઈ પણ દિવસે આવેા મારા જેવા રણવાસ જોયે છે? પદ્મનાભ રાજા વડે આ રીતે પ્રશ્ન પૂછાએલા તે કમ્બુલ નારદ હુસવા લાગ્યા, હમીને તેઓએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે પદ્મનાભ ! તમે તે કૃપ મહૂક જેવા છે! કે જે પેાતાના નિવાસસ્થાન ટ્રૂપથી બહારના પ્રદેશ વિષે ચાહુ પશુ જ્ઞાન ધરાવતા નથી કમ્બુલ નારદના વચન સાભળીને પદ્મનાભે તે કમ્બુલ નારદને પૂછ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિય ! તે અગડ રકનુ આખ્યાન કેવી રીતે છે? ત્યારે નારદે તેમને મલિ નામે અધ્યયનમા વર્ણવવામા આવેલા ગ્રૂપ મ હૂક અને સમુદ્ર મહૂકના વાર્તાલાપ રૂપે તે સપૂણુ આખ્યાન તેમને કહી સભળાવ્યુ
Page #660
--------------------------------------------------------------------------
________________
Millimin
माता नारदः उदकपरिस्पृष्टायां-जलागिमिक्तायां दर्मोपरि प्रत्यास्तृतायां वृष्याम् आस नशेपे निपीदति, यारत् गुगलोदन्त-गलयाळम् आउति-एखोपविष्ट फरछुल्लनारद पानामः कुशलपाता पुरतीत्यर्थ । व सल स पद्मनाभो रामा निनकानरोरे स्त्रीपरिवारे जातविस्मयः समुत्पानगः, कल्लनारदम् एवपक्ष्यमाणक्रमेण, आदीन-हे देशानुपिय ! वं यान् ग्रामान् यापत् गृहाणि अनुः मविशति, तत्-तस्माद् अस्ति 'आइ इति पारयाद्वारे ते त्वया कुत्रचि । इसके बाद वे करलनारद जल के नीटो से सिंचित आसन पर जो दर्भ के ऊपर पिठा हुआ था पैठ गये-पैटफर उन्हों ने पद्मनाम राजा से कुशलवार्ता पूछा । पद्मनाभ राजा ने भी सुन पूर्वक येटे हुए उन फच्छुल्ल नारद से उन के कुशल समाचार पूछे। (ताण से पउमनाम राया णियगोरो हे जायविर ए फच्छुल्लणारयं एवं वयासी-तुम्भ देवाणुप्पिया! यदणि गामाणि जीव गेहाइ अणुपविससि त अस्थि आइ तेकहिं चि देवाणुप्पिया! परिसए ओरोहे दिवपुव्वे, जारिसए णं मम आरोहे 'तण्ण से कच्छुल्लणारए पउमनाभेण रत्ना एव वुत्ते समाणे इस विहसिय करेइ, करित्ता एव चयासी-सरिसेण तुम पउमणाभा तस्स अगड ददुरस्स, केणं देवाणुप्पिया! से अगडदुरे! एव जहा माल्ल णाए एव खलु देवाणुप्पिया!) इसके याद पद्मनाभ राजा ने अपन अतःपुर में विस्मित पनकर कच्छल्लनारद से इस प्रकार
આસન ઉપર બેસવા માટે વિન તી કરી ત્યારપછી તે કક્કુલ નારદ પાણીના છાટાઓથી સિંચિત દર્ભના ઉપર પાથરેલા આસન ઉપર બેસીને પદ્મનાભ રાજાને તેઓના પરિવારની કુશળતાના સમાચાર પૂછયા પદ્મનાભ રાજાએ પણ આસન ઉપર સુખેથી બેઠેલા તે કચ્છલનારદને કુશળ સમાચારે પૂછયા
(तएण से पउमनाभे राया णियगोरोहे जायविम्हए कच्छुल्लणारच एव वयासी-तुब्भ देवाणुप्पिया बहणि गामाणि जाव गेहाइ अणुविससि, त अत्थि आइ ते कहिं चि देवाणुप्पिया। एरिसए ओरोहे दिपूज्वे जारिसए ण मम ओरोहे ' तएण से कच्छुल्लणारए पउमनाभेण रन्ना एव धुत्ते समाणे इसि विह सिय करेइ, करिता एव वयासी-सरिसेण तुम पउमणाभा' तस्स अगडदद्दुत केण देवाणुप्पिया! से अगडदददरे? एव जहामल्लिणाए एव खलु देवाणुप्पिाया।
ત્યારપછી પદ્મનાભ રાજાએ પોતાના રણવાસના વૈભવને જોઈને આશ્ચર્ય થઈને કડ્ડલ નારદને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે ઘણુ ગ્રામ યાત ઘરમાં આવજા કરતા રહો છે તો હું દેવાનુપ્રિય . પહેલા
Page #661
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारामृतपिणी डी० अ० १९ प्रौपदीचरितनिरूपणम् -४६७ देवानुमिय ! ईदृशोऽवरोधो दृष्टपूर्वी यादृशः खलु ममावरोधः ? ममान्तः पुरे यादृश्यः स्त्रियो वर्तन्ते, तादृश्य स्त्रियः कुत्रापि भवता दृष्टा इति पृच्छतीत्यर्थः । ततः खलु स कन्डुल्लनारदः पद्मनाभेन राजा एवमुक्त सन् 'ईपद् विहसित' मन्दहास करोति, कृत्वा एवमवादी-हे पद्मनाभ ! सदृशस्त्वं खलु तस्य 'अगउददुरस्स' आइददुरस्य-कूपमण्ड कस्य यथा कूपमण्डूकः कूपाद् वहिः प्रदेशे विद्यमान नकिमपि जानाति, तद्वत् त्वमपि स्वभवनाद पहिरन्यत्रानस्थित किमपि वस्तु न वेत्सीति भारः । कन्छुल्लनारदस्य वचन श्रुत्वा पद्मनाभः कच्छुल्लनारदं पृच्छति- के ण देवाणुप्पिया! से अगडदद्दुरे' इति। हे देवानुप्रिय ! कः खलु सोऽगडदर्दुरः एव पद्मनाभेन राज्ञा पृष्टः सन् कच्छुल्लनारदः प्राह-एव यथा मल्लिणाए' यथा मलिज्ञाने वर्णितमेवमत्र पोध्यम् समुद्रदर्दुरकूपद१रयोः परस्परवार्तालापो यथा सजातस्तथा कच्छुल्लनारदेन कथित इत्यर्थः । पुनः कच्छुल्ल. कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम अनेक ग्राम यावत् से घरों में आते जाते रहते हो तो क्या हे देवानुप्रिय ! तुमने कहीं पर क्या ऐसा अतः पुर पहिले कभी देखा है-जैसा मेरा अन्तः पुर है ? पद्मनाभ राजा के द्वारा इस प्रकार पूछे गये वे कच्छुल्ल नारद कुछ हँसने लगे
सकर तर उन्हों ने उनसे इस प्रकार कहा-हे पद्मनाभ ' तुम उस कूपम इक के समान हो-जो अपने निवासस्थान भूत कुए से घाहिरी प्रदेश में विद्यमान कुछ भी नहीं जानते हो। कच्छुल्ल नारद के वचन सुनकर के पद्मनाभ ने उन कच्छुल्ल नारद से पूछा-देवानुप्रिय! वह अगड?र का आख्यान कैसा है ? तर नारद ने उनसे कहा-मल्लि नाम के अध्ययन में कूपमडूक और समुद्र मड़क के परस्पर में वार्तालाप के रूप में यह आस्यान वर्णित किया हुआ है-सो नारद ने यह आख्यान जैसे का तैमो उन्हें सुना दिया- पुनः कच्छुल्ल नारद उनसे કેઈ પણ સ્થાને અને કોઈ પણ દિવસે આવે મારા જે રણવાસ છે છે? પમનાભ રાજા વડે આ રીતે પ્રશ્ન પૂછાએલા તે કચ્છલ નારદ હસવા લાગ્યા, હસીને તેઓએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પદ્મનાભ ! તમે તે કૂપ મડુક જેવા છે કે જે પિતાના નિવાસસ્થાન કૂપથી બહારના પ્રદેશ વિષે થોડુ પણ જ્ઞાન ધરાવતું નથી કચ્છલ નારદના વચન સાંભળીને પદ્મનાભે તે કરશુલ નારદને પૂછ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! તે અગડ દર્દૂર નુ આખ્યાન કેવી રીતે છે? ત્યારે નારદે તેમને મ૦િ નામે અધ્યયનમાં વર્ણવવામાં આવેલા કૃપ મહૂક અને સમુદ્ર-મકના વાર્તાલાપ રૂપે તે સંપૂર્ણ આખ્યાન તેમને કહી સંભળાવ્યું
Page #662
--------------------------------------------------------------------------
________________
e
ताका
1
नारदो वदति - एव प्रक्ष्यमाणवकारेण सल दे देनानुमिय | जम्बूद्वीपे द्वीप भारते वर्षे हस्तिनापुरे नगरे पदस्य राम्रो दुहिता मूलत्या देव्या आत्मना पाण्डोः स्तुपा पञ्चाना पाण्डवाना भार्या द्रौपदी देवी रूपेण च यावद् उत्कृष्ट शरीरा वर्तते द्रौपः खलु देव्यास्यापि पादानुष्ठास्याय तनावरोध. वनात. पुरवर्तिनी काचिदपि देवी 'सतमपि कर शततमामपि कां नार्हति इति कृत्वा = एव ज्ञात्या कथयामि - द्रौपदीसदृशी नास्ति काचिदपीति । ततः नारदो गन्तुकाम कहते हैं कि हे देवानुप्रिय । सुनो-यात इस प्रकार है- (जनू दीवे दीवे भारहे वासे हविणारे दुवयस्स रण्णो घूया, चलणीए देवीए अत्तया पटुस्स सुण्डा, पचण्ड पडवाण भारिया दोवई देवी रूपेण य जाव उकिड सरा, दोवईए देवी निस्स वि पायगुहग्रस्स अय तन अवरोहो सय घ्नमपिकल पण अम्बई तिकड पउमणाभ आपुच्छह आपुच्छित्ता जाव पडि गए, तण से पमणा यो फच्छुडणारयस्म अतिए ण्यमहु सोच्चा णिसम्म दोवइए, देवीए वे यच्छिए४ दोवईए अलोववन्ने जेणेव पोस हसाला तेणेव उवागच्छइ) जबूद्वीप नाम के प्रथम द्वीप ( मध्य जबुडीप में) में भारतवर्ष में, हस्तिनापुर नाम के नगर में हुपद रोजा की पुत्री चुलनी देवी की आत्मजा, पांडु राजा की स्नुषा-पुत्रवधू -पाच पाडवों की भार्या द्रौपदी देवी है। यह रूप से यावत् उत्कृष्ट शरीर है। तुम्हारा यह अतःपुर उसके कटे हुए पैर के अगूठे के सौवें अश के बराबर અને ત્યારપછી કમ્બુલ તેમને કહેવા લાગ્યા કે હૈ દેવાનુપ્રિય ! સાભળે,
વાત એવી છે કે
( जबूद्दीवे दीवे भारहेवासे इत्थिगाउरे दुवयस्स रण्गो धूया, चूलणीए देवीए अतया पस्सू सुन्हा, पचण्ह पडवाण भारिया दोवई देवी रूत्रेण य जान उक्किसरी, दोवईए देवीए छिनस वि पायगुडस्त अप तत्र अवरोहो सयन्नमपि कण आईत्ति कट्टु पउमगाम खपुच्छ, आपुच्छिता जाव पडि गए, तण से पमणा राया कच्छुल्लगारयस्स अतिए एम सोच्चा जिसम्म दोवईए, देवीए रूवेय मुछिए ४ दोवईए अञ्झोववन्ने जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छर )
જમ્મૂ દ્વીપ નામના પ્રથમ દ્વીપમા ભારત વર્ષમા હસ્તિનાપુર નામે નગ રમા દ્રુપદ રાજાની પુત્રી ચૂવની દેવીની આત્મજા, પાડુ રાજાની સ્નુષા-પુત્રર્શ્વ પાચ પાડવાની પત્ની દ્રૌપદીદેવી છે તે રૂપથી યાવત્ ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી છે તમારા આ રણવાસ તેના કપાયેલા અગૂઠાના સામા ભાગની ખરાખર પણ નથી. આ બધુ હુ વિચારપૂર્વક કહી રહ્યો છુ દ્રોપદી જેવી
પ
Page #663
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधामृतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणन् पद्मनाभमापृच्छति, पृष्ट्वा यावत् पानाभेन राज्ञा सत्कार प्राप्य प्रतिगतः उत्पत्तनी विद्यया गगनमुड्ययन् प्रतिगत इत्यर्थः ।
तत खलु स पद्मनाभो राजा कन्ठुल्लनारदस्थान्तिके एतमयं अत्याआकये निशम्य हवार्य द्रोपद्या देव्या रूपे च यौवने च लापण्ये च मूच्छितःआसक्तः, गृद्धः = लोलुपः, ग्रथित:-निवचित्तः, अयुपपन्न. = एकाग्रचित्त सन् यत्रैव पोपधशाला तौवोपागन्छति, उपागत्य पौषधशाला प्रमाज्यं यावदप्टम मक्त कृत्वा 'पूर्वमगतिक ' पूर्वमित्र देवम् एव वक्ष्यमाणमकारेण आदीत् एव खलु हे देगनुप्रिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारत वर्षे हस्तिनापुरे पाण्डवभार्या द्रोपदी देनी यावत्-उत्कृप्टशरीरा वर्तते, तत्-तस्माद् इच्छामि खलु हे देवानुप्रिय ! भी नहीं है। ऐसा में जानकर ही कह रहा है। द्रौपदी के जैसी कोई भी नारी नहीं है । उस प्रकार कहकर वे कच्छुल्ल नारद वहा से चलने के लिये अभिलापी बन गये-तब उन्होंने पद्मनाभ राजा से जाने के लिये पूछा पूछकर यावत् वे वहा से पद्मनाभ राजा से सत्कृत होकर उत्पतनी विद्या के प्रभाव से गगन तल को उल्लंघन करते हुए वापिस चले गये। इसके बाद वे पद्मनाभ राजा कच्छुल्ल नारद के मुख से इस समाचार रूप अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर द्रौपदी देवी के रूप, यौवन एव लावण्य मे मृच्छित ४ यन गये, यावत् उनका चित्त उन में बिलकुल एकाग्र हो गया। इस तरह होकर, वे जहा पौपधशाला थी वहा गये । ( उवगच्छित्ता पोमहसालं जाव पुष्वसगड्य देव एव चयासी एव खलु देवाणुप्पिया! जद्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे जाव सरीरा त इच्छामि ण देवाणुप्पिया ! નથી આ પ્રમાણે કહીને તે કચ્છલ નારદ ત્યાંથી ચાલવા માટે તૈયા થઈ ગયા તેમણે પદ્મનાભ રાજાને જવા માટે પૂછ્યું, પૂછીને યાવત ત્યાથી તેઓ પદ્મનાભ રાજાની પાસેથી સત્કૃત થઈને ઉત્પતની વિદ્યાના પ્રભાવથી આકા શને ઓળગતા જતા રહ્યા ત્યારપછી તે પદ્મનાભ રાજા કછુcલ નારદના મુખથી આ સમાચારને સાભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને દ્રૌપદી દેવીના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી મૂછિત ૪ થઈ ગયા, યાવત્ તેમનું મન તેમા એકદમ ચાટી ગયુ આ સ્થિતિમાં તેઓ જ્યા પૌષધશાળા હતી ત્યાં ગયા
(उवागच्छित्ता पोसहसाल जाव पुन्बसगइय देव एव वयासी एव खलु देशणुप्पिया ! जयू दीवे दीवे भारहे वासे इत्थिणाउरे जाव सरीरात इच्छामि ण देवाणप्णिया! दोबई देवी इहमाणिय तएण पुरसगइए देवे पमनाभ एवं
Page #664
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५८
नारदोपदति-एव वक्ष्यमाणमकारेण खल दे देगनुमिय | जम्बूद्वीपे द्वीपे मारते वर्षे हस्तिनापुरे नगरे ग्रुपदस्य रामो दूदिता मूलया देव्या आत्मना पायोः स्नुपा पश्चाना पाण्डवाना भार्या द्रौपदी टेपी रूपेण च गारद उस्कृप्ट भरीरा वर्तते द्रौपयाः खलु देव्याटिनस्यापि पादानुष्ठास्पाय वापरोध तवान्तःपुरवर्तिनी काचिदपि देवी 'सयतमपि कर शततमामपि पला नाईति, इति कृताएव ज्ञात्वा कथयामि-द्रोपदीसदृशी नास्ति काचिदपीति । ततः कल्लनारदोगन्तुकामः कहते हैं कि हे देवानुप्रिय । सुनो-पात इस प्रकार है-(जबू दीवे दीवे भारहे वासे हत्यिणाउरे दुवयस्स रण्णो घृया, चलणी देवीए अत्तया पटुस्त सुण्टा, पचण्ड पहाण भारिया दोवई देवी स्वेण य जार उकि सरीरा, दोवईए ण देवीण छिन्नस्स वि पायगुट्टयस्स अय तर अवरोरो सय नमपि कल ण अग्बई त्तिकट्टु पउमणाम आपुच्छद आपुच्छित्ता जाव पाड गए, तण्ण से पउमणाभे रोयो कच्छुलणारयस्स अतिए ण्यम सोच्चा णिसम्म दोवइए, देवीए ख्वे यच्छिए४ दोवईए अनोववन्ने जेणेव पोम हसाला तेणेव उवागच्छद) जवूदीप नाम के प्रथम द्वीप (मध्य जवुद्धाप में) में भारतवर्ष मे, हस्तिनापुर नाम के नगर में द्रुपद रोजा की पुत्रा चुलनी देवी की आत्मजा, पांडु राजा की स्नुपा-पुत्रवधू-पाच पाड' की भार्या द्रौपदी देवी है । यह रूप से यावत् उत्कृष्ट शरीर है । तुम्हारा यह अतःपुर उसके कटे हुए पैर के अगूठे के सौवें अश के बराबर અને ત્યારપછી કચ્છલ તેમને કહેવા લાગ્યા કે હે દેવાનુપ્રિય ! સાંભળી વાત એવી છે કે___(जबू दीवे दीवे मारहेवासे हथिगाउरे दुवयस्स रण्णो धूया, चूलणाए देवीए अत्तया पडुस्स सुण्डा, पचण्ह पडवाण भारिया दोवई देवी रूवेण य जात्र उक्टिसरीरा, दोवईए ५ देवीए छिन्नस्स वि पायगुटुयस्स अप तब अबराह। सयन्नमपि कल ण अम्बई ति कह पउमणाम आपछा, आपुच्छित्ता जाच पडि गए, तएण से पउमणाभे राया कच्छुल्लगारयस्त अतिए एपमठ साचा रणसन दोवईए, देवीए रूवेय मुच्छिए दोनईए अज्झोववन्ने जेणेव पासहसाला तेणेव उवागच्छइ )
જ બૂ દ્વીપ નામના પ્રથમ દ્વીપમાં ભારત વર્ષમાં હસ્તિનાપુર નામે નગ રમાં દ્રુપદ રાજાની પુત્રી સ્વતી દેવીની આત્મજા, પાડુ રાજાની નુષા-પુત્ર પાચ પાડવાની પત્ની દ્રૌપદીદેવી છે તે રૂપથી યાવતું ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળા છે તમારે આ રણવાસ તેના કપાયેલા અગકાના સમા ભાગની બરાબર પણ નથી, આ બધુ હુ વિચારપૂર્વક કહી રહ્યો છે દ્રૌપદી જેવી નારી કોઈ પણ
Page #665
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारामृतवर्षिणी डॉ० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणन
કર
पद्मनाभमापृच्छति, पृष्ट्वा यावत् पद्मनाभेन राज्ञा सत्कार प्राप्य प्रतिगतः = उत्पतनी विद्यया गगनमुयन् प्रतिगत इत्यर्थः ।
,
तत खलु से पद्मनाभो राजा कन्ठुल्लनारदस्यान्तिके एतमर्थं युला = आकर्ण्य निशम्य त्रधार्य द्रौपद्या देव्या रूपे च यौवने च लावण्ये च मूर्च्छितः आसक्तः, गृद्धः = लोलुपः, ग्रथितः = निबद्धचित्तः, न युपपन्नः = एकाग्रचित्त सन् यौन पोपधशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पोपधशाला ममाय यावदष्टम मक्त कृत्वा ' पूर्वसगतिक ' पूर्वमित्र देव एव = पक्ष्यमाणप्रकारेण अरादीत् एव खल हे देवानुप्रिय 'जम्बूद्वीपे द्वे पे भारते वर्षे हस्तिनापुरे पाण्डवभार्या द्रोपदी देवी यावत् - उत्कृष्टशरीरा वर्तते, तत् = तस्माद इच्छामि सल हे देवानुमिय ! भी नहीं है । ऐसा मैं जानकर ही कह रहा हूँ । द्रौपदी के जैसी कोई भी नारी नहीं है । उस प्रकार कहकर वे कच्छुल्ल नारद वहा से चलने के लिये अभिलापी बन गये तब उन्होंने पद्मनाभ राजा से जाने के लिये पृछा पूछकर यावत् वे वहा से पद्मनाभ राजा से सत्कृन होकर उत्पतनी विद्या के प्रभाव से गगन तल को उल्लंघन करते हुए वापिस चले गये। इसके बाद वे पद्मनाभ राजा कच्छुल्ल नारद के मुख से इस समाचार रूप अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर द्रौपदी देवी के रूप, यौवन एव लावण्य मे मृच्छित ४ बन गये, यावत् उनका चित्त उन में बिलकुल एकाग्र हो गया । इस तरह होकर, वे जहा पौपवशाला थी वहा गये । ( उवगच्छित्ता पोमहसाल जाव पुण्वसगइय देव एव वयासी एव खलु देवाणुपिया ! जनुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्यिणाउरे जाव सरीरा त इच्छामि ण देवाणुप्पिया ! ત્રા માટે તૈરયા
નથી આ પ્રમાણે કહીને તે સ્કુલ નારદ ત્યાથી થઈ ગયા તેમણે પદ્મનાભ રાજાને જવા માટે પૂછ્યુ તેએ પદ્મનાભ રાજાની પાસેથી સત્કૃત થઇને ઉત્પતની િ શને આળગતા જતા રહ્યા ત્યારપછી તે પદ્મનાભ મુખથી આ સમાચારને સાભળીને અને તેને હૃદયમ દેવીના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી મૂક્તિ ૪ થઈ તેમા એકદમ ચાટી ગયુ આ સ્થિતિમા તે જ્યા પ
( उवागच्छित्ता पोसहसाल जाव पुत्रसगइय देव पिया ! जब वे दीवे भारहे वासे हरियणाउरे । ण देवाष्णिया । दोवई देवी इश्माणिय तरणं
યાત્ ત્યાંથી વથી આકા
Page #666
--------------------------------------------------------------------------
________________
to
मेवा
दोपदी देशीम् इह माणिय' हानाम् । ततः रामगतिको देशः पानाम नपम् एपमवादीत्-ई देशानुप्रिय ! नो गर त भूत या भाद् का भविष्य वा, यत् खलु दोपदी देवी पक्ष पासवान मुराऽन्येन पुरुष्ण सानमुहागन् मोगान यापद विहरवि, तयापि च मल भात पीत्याहीदी देशीमिह हव्यमानयामीति दोवई देशों हरमाणिव ताण पुल्चमगादे पमनाम र वासी-नो खलु देवाणुपिया। एप भूय या मर वा मविस्म वा जाग दोवई देवी पच पडरे मोत्तुग अन्लेग पुरिसेण सद्धि ओरालाइ जार विहार सह ) वहां जाकर उन्होंने उम पोपध शाला को रजोहरण से साफ किया यावत् अष्टम भक कर के पूर्व सगति दव का आगहन किया देवों के आनेपर पूर्व सगतिक देर से इस प्रकार कहा हे देवान प्रिय ! जबूढीप नाम के दीप में भारत वर्ष में हस्तिनापुर नगर में पाडवो की भार्या द्रौपदी देवी है। यह यावत् उत्कृष्ट शरीर है। इसलिये हे देवानुप्रिय ! मैं उस द्रौपदी देवी को तुमसे या ले आने के लिये चाहता है। पद्मनाभ की इस पोत को सुनकर पूर्वभव के मित्र उस देव ने उस से तब ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय । ऐसी घात द्रौपदी के साथ न पहिले हुई है, न आगे होगी-और न अप वर्तमान में हो सकती है। जो द्रौपदी देवी पाच पांडवो को छोड़कर अन्य किसी दूमरे पुरुष के साथ उदार यावत् मनुष्य भव समन्धी काम सुग्बो को भोगे (ताव वयासी नो खलु देवाणुप्पिया! एय भूय वा भव्य वा भविस्स वा जग दावर देवो पच पडवे मोत्तग अ नेण पुरिसेण सद्धिं ओरालाइ जाव, विहरिस्सइ)
ત્યાં જઈને તેમણે તે પૌષધશાળાને રજોહરણથી સાફ કરી યાવત્ અષ્ટમ ભકત કરીને પૂર્વ સગતિ દેવનું આવાહન કર્યું દેવ જનારે આવી ગયા ત્યારે તેમણે પૂર્વસ ગતિક દેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! જ ભૂપ નામના દ્વીપમાં ભારત વર્ષમાં હસ્તિનાપુર નગરમાં પાડની પત્ની દ્રૌપદીદેવી છે, તે થાવત્ ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી છે એથી હે દેવાનુપ્રિય ! તે દ્રૌપદી દેવીને તમે અહીં લઈ આવે એવી મારી ઇચ્છા છે પદ્મનાભની આ વાતને સાભળીને પૂર્વભવના મિત્રો તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ' દ્રપદ દેવીની સાથે
( ચરણ ન પહેલા થયુ છે ન ભવિષ્યમા થશે અને ન વર્લ્ડ
આ છે દ્રૌપદી દેની પાસે પાડ સિવાય બીજા
૩ નવ સ બ ધી કામસુખ ભોગવે આ
Page #667
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगरापामृतषिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम कृत्वा उक्त्वा पद्मनाभम् आपृच्छति आपृच्छय तया उत्कृष्टया देवसम्पन्धिन्या गत्या यावत् लपणसमुद्रस्य मध्यम येन-उपरिभागेन गगनमार्गण, यत्रैव हस्तिनापुर नगर तत्रै प्राधारयद् गमनाय । ___ तस्मिन् काले तस्मिन् समये हस्तिनापुरे नगरे युधिष्ठिरो राजा द्रोपद्या सार्धमुपरि आकाशतले मासादाहालिकोपरि सुसमसुप्तचाप्यासीत् , तत खलु स पूर्वसंगतिको देवो यत्र युधिष्ठिरो राजा यौव द्रौपदीदेवी तौवो पागच्छति, उपागत्य द्रौपथै यण अहतव पियट्टतया दोबइ देवी हहहन्धमाणेमि त्तिकट्टु पउमणाभ आपुन्उड, आपुच्चित्ता ताए उस्किट्ठाए जाव लघणसमुद्द मज्झं मझेणं जेणेव रत्यिणाउरे यरे तेणेव पहारस्थ गमणाए) फिर भी मैं तुम्हारी प्रीति के निमित्त द्रौपदी देवी को यहां शीघ्र लेकर आता है। ऐसा कहकर उसने जाने के लिये उन पद्मनाभ से पूछा, पूछकर फिर वह उस उत्कृष्ट देवभवसबन्धी गति से यावत् लवर्ण समुद्र के बीच से होकर जहा हस्तिनापुर नगर था उस और चल दिया ! (तेण कालेण तेण सम. एण हथिणाउरे जुहिट्टिले राया,दोवईए सद्धि उपि आगासतलसि सुहः पसुत्ते यावि होत्या, तएणं से पुष्वसगइए देवे जेणेव जुद्दिष्टिल्ले राया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छद) उस कोल और उस समय में हस्तिनापुर नगरमें युधिष्ठिर राजाके साथ द्रौपदी आकाशतलमें-प्रासाद की अहालिका के ऊपर सोये हुए थे। वह पूर्व सगतिक देव जहा वे युधिष्ठिर राजा और जहां वह द्रौपदी देवी थी वहां आया-(उयोगच्छित्ता
(तहापि य ण अह तब पियट्टतयाए दोवइ देवीं इह हव्यमाणेमि ति यह पउमणाम आपुच्छइ, आपुच्छित्ता ताए उक्म्हिाए जाव लवणसमुद मज्झ मज्झेण जेणेत्र हत्थिणाउरे णयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए)
છતાએ તમને ખુશ કરવા માટે હું દ્રૌપદી દેવીને શીધ્ર અહીં લઈ આવું છુ આમ કહીને તેણે જવા માટે પદ્મનાભ રાજાને પૂછ્યું પૂીને તે પોતાની ઉત્કૃષ્ટ દેવભવ સ બ ધી ગતિથી યાવત લવણુ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને ક્યા હસ્તિનાપુર નગર હતું તે તરફ રવાના થયે
(तेण कालेण तेण समएण हथिणाउरे जुहिहिले राया, देवईए सद्धि उप्पि जागासतलसि मुहपसुत्ते यावि होत्था तएण से पुरसगइए देवे जेणेव जुहिहिरुले राया जेणेर दोवई देवी तेणेव उवागच्छद)
તે કાળે અને તે સમયે હસ્તિનાપુર નગરમાં યુધિષ્ઠિર રાજા અને દ્રૌપદી દેવી મહેલની અગાશી ઉપર સૂતા હતા તે પૂર્વ સાગતિક દેવ જ્યા તે યુધિ કિર રાજા અને જ્યા તે હદી દિલી હતી ત્યા આ
Page #668
--------------------------------------------------------------------------
________________
दोपदी देवीम् इह माणिय' हानाम् | ना रामगतिको देवः पपनाम नपम् एमवादी-दे देवानुप्रिय ! नो मनु त भूत भार पा भविष्यद् वा यत् खलु दोपदी देवी पश पाण्डपान मुवान्यन पुरुषेण सामुदागन भोगान यापद रिहरवि, तथापि च बलु भा नामीपारसी देवीमिट हव्यपानयामीवि दोवई देशों इरमागिय ताण चमगा देवे पमनाम वासी-नो खलु देवाणुपिया ! एयभूय घा मरा मरिस्म या जाग दोवई देवी पच पडरे मोत्तुग अन्नण पुरिसेण सद्धि ओरालाइ जार विहरि स्सह ) वहां जाकर उनों ने उस पोपध शाला को रजोहरण से साफ किया यावत् अष्टम भक्त फर के पूर्व सगति देव का आवाहन किया देवों के आनेपर पूर्व सगतिक देव से इस प्रकार कहा हे देवानु प्रिय ! जंबूढीप नाम के दीप में भारत वर्ष में हस्तिनापुर नगर में पाडवो की भार्या द्रौपदी देवी है । यह यारत् उत्कृष्ट शरीर है । इसलिये हे देवानुमिया में उस द्रौपदी देवी को तमसे यहा ले आन के लिये चाहता है। पद्मनाभ की इस बात को सुनकर पूर्वभव के मित्र उस देव ने उस से तय ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! ऐसी यात द्रौपदी के साथ न पहिले हई है, न आगे होगी और न अप वर्तमान में हो सकती है। जो द्रौपदी देवी पाच पांडवो को छोड़कर अन्य किसी दूमरे पुरुष क साथ उदार यावत् मनुष्य भव समन्धी काम सुग्वों को भोगे (तहावि वयासी नो खलु देवाशुपिया! एय भय वा भन्म वा भविस्त वा जग दाइ देवो पच पडवे मोत्तम अ नेण पुरिसेण सद्धिं ओरालाइ जाव, विहरिस्सइ)
ત્યાં જઈને તેમણે તે પષધશાળાને રજોહરણથી સાફ કરી યાવત્ અષ્ટમ ભક્ત કરીને પૂર્વ સગતિ દેવનું આવાહન કર્યું દેવ જયારે આવી ગયા ત્યારે તેમણે પૂર્વસ ગતિક દેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! જ ભૂપ નામના દ્વીપમાં ભરત વર્ષમાં હસ્તિનાપુર નગરમાં પાડવની પત્ની દ્રૌપદદિશા છે, તે થાવત્ ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી છે એથી હે દેવાનુપ્રિય ! તે દ્રૌપી દેવીને તમે અહીં લઈ આવે એવી મારી ઇચ્છા છે પદ્મનાભની આ વાતને સાભળીને પૂર્વભવના મિત્ર તે દેવે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! દ્રૌપદી દેવીની સાથે આ જાતનું આચરણ ન પહેલા થયું છે ન ભવિષ્યમા થશે અને ને વર્તમાનમાં થવાની શકયતા છે દ્રૌપદી દેવી પાચે પાડ સિવાય બીજા કઈ પુરૂષની સાથે ઉદાર યાવત્ મનુષ્યભવ સ બ ધી કામસુખ ભોગવે આ વાત તદ્દન અસભવિત છે,
Page #669
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणा टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
४७३
यचैव पद्मनाभस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य एवमवादीत् एषा खल हे देनानुमिय ! मया हस्तिनापुराद् द्रौपदी इह हव्यमानीता तनाशोकवनिकाया विष्ठवि, अतः परत्व जानासि ' इति कृत्वा = उक्त्वा यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः ॥ सु०२५ ॥
मूलम् - तणं सा दोवई देवी तओ मुहुत्ततरस्स पडिबुद्धा समाणीत भवणं असोगवणियं च अपच्चभिजाणमाणी एव वयासी - नो खलु अम्हं एसे सए भवणे णो खलु एसा अम्हं सगा असोगवणिया, तं ण णज्जइ णं अहं केणइ देवेण वा दाणवेण वा किं पुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा अन्नस्स रण्णो असोगवणिय साहरियत्तिकट्टु ओहयमणसकप्पा जाव झियाय, तएण से पउमणाभे राया पहाए जाव सव्वालंकार विभूसिए अते उरपरियालं संपरिवुडे जेणेव असोगवणिया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दोवईं देवीं ओहय० जाव झियायमाणी पासइ पासित्ता एव वयासीकिष्णं तुम देवाणुप्पिया । ओहय जाव झियाहि, एवं दिया- गाढ निद्रा से रहित कर फिर वह वहाँ से जहां पद्मनाभ राजा थे वहा गया- वहा जाकर उसने उनसे ऐसा कहा - हे देवानुप्रिय ! मैं हस्तिनापुर नगर से द्रौपदी को यहा ले आया हूँ। वह तुम्हारी अशोक वाटिका में ठहरी है, अत अब तुम जानो । ऐसा कहकर वह देव जिस दिशा से प्रकट हुआ था उसी दिशा की और वापिस चला गयो । सृ- २५ કરીને તે જ્યા પદ્મનાભ રાજા હતા ત્યા ગયે ત્યા જઈને તેણે તેમને આ પ્રમાણે હ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિય ! હસ્તિનાપુર નગરથી લઈ આવ્યા છુ તે તમારી અશેકવાટિકામા છે,
દ્રૌપદી દેવીને
હુ અહીં એથી હવે તમે જાણા
આ પ્રમાણે કહીને તે દેવ જે દિશા તરફથી પ્રકટ થયેા હતા તે જ દિશા તરફ પાળેા જતા રહ્યો ! સૂત્ર ૨૫ ૫
Page #670
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७२
__mart देव्यै 'आसोपणिप ' अपमापनी नितां 'दलयर' द्वाति मुसममुप्ता द्रौपदी गादनिद्रयाऽऽफ्रान्ता कापनित्यर्थः । दत्य-गादनिद्रानी कसा द्रौपदी देवी गृहीत्वा तया उष्टया देवमम्बन्धिन्यागत्या याद कोरामरकका राजधानी यी पमनाभस्य भान कामोपागर उनि, उपागत्य पमनामस्प भाने ' असोगर णियाए ' अशोकानिकापाम् भगोकवाटिकाया द्रौपदी देवी स्थापयति, स्थापयित्वा ' आगोषगि भाहरइ ' आमापनी निद्रामपारति, अपहत्य दोघईए देवीए ओसोपणिय दलया, दलित्ता दोबई देवगिरा, गिण्हसा तीए उक्किहाए जार जेणे अमरफका जेणे पउमणाभरस भवर्ण तेणेच उचागच्छा, उचागरित्ता पउमणामस्म भवणसि असोगवाण याए दोवह देवों ठवेह ठारित्ता ओमोवणि अपहरड, अवररित्ता जेणव पउमणाभे तेणेच उवागच्छइ,उवागरिकत्ता एव व्यासी-एस ण दवाणु पिया ! मग हरियणाउराओ दोवई डर रव्यमाणीया, तब असोगवणियार चिट्ठइ, अतोपुर तुम जाणिसि तिहजामेव दिमि पाउन्भूए तामय दिसि पटिगए) पहा आकर उसने द्रौपदी देवी को गाद निद्रा म तुला दिया, सुलाकर फिर उसने उस द्रौपदी को वहा से उठाया-आर ३० कर फिर वह उस उत्कृष्ट देवभवसन्धी गति से चलकर यावत् जहा अमरकका नगरी और जहा पद्मनाभ राजा का भवन था वहा आया वा आकर के उसने पद्मनाम के भवन में अशोकवाटिका में द्रोपदा देवी को रखदिया। रग्बकर के फिर उसने उसे गाढ निद्रा से रहित कर
(उवागच्छित्ता दोईए दीवीए ओसौरणिय दलयइ, दलित्ता दोवई दान गिहा, गिणिदत्ता ताए उकिस्ट्राए जाव जेणे अमरकका जेणेर पउमणामस्स भवणे-नेणेव उपआगच्छद्र उवागन्धित्ता पउमणाभास भवणसि असागा दोवइ देवी ठवेइ ठावित्ता ओसोपणि अपहरइ, अपहरित्ता जेणेप पउमणास उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एष वयासी-एसण देवाणप्पिया मए हत्यिणाउरामा दोरई इह हयमाणीया, तब असोगवणियाए चिइ, अतोपुर तुम जाणिासात पई जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए)
ત્યા આવીને તે દ્રૌપદીને ગાઢ નિદ્રામાં સૂવાડી દીધી, સુવાડીને તે તે દ્રૌપદીને ત્યાથી ઉઠાવી અને ઉડાવીને તે ઉત્કૃષ્ટ દેવભવ સ બધા ચાલીને યાવત્ જ્યાં અમર કા નગરી અને જવા પવનાભ રાજાનું કામ છે. ત્યા આવ્યા ત્યાં આવીને તેણે પદ્દાનાભના ભવનમાં અશોકવાટિકામાં દ્રપદ
2.19
.
2
...
Page #671
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनेगारधर्मामृतषिणो टोका अ० १६ द्रौपदीयरितनिरूपणम् मेतद् भवन नो खलु एपाऽस्माक ' सगा' स्वका स्वकीया, अशोकनिका, तद् न ज्ञायते खलु-अह केनापि देवेन वा दानवेन पा किं पुरुषेण वा किंनरेण या महोरगेण वा गन्धग वा अन्यस्य राज्ञोऽशोकवनिकाया 'साहरिया' संहताआनीताऽस्मि ' इति कृत्वा इति विचार्य, अपहतमनःसकल्पा=अनिष्टयोगेन भग्नमनोरथा निपादमुपगतेत्यर्थ. यावद् ध्यायति आर्त यान करोति ।
ततः खलु पद्मनाभो राजा स्नातो यावत् सालकारविभूपितोऽन्तःपुरपरिवारसपरिवृतो यौवाशोकनिका यौन द्रोपदी देवी, तत्रयोपागन्छति, उपागत्य एसो अम्ह सगा असोगवणिया, त ण णजइ, ण अह केणई देवेणवा दाणवेण वा किं पुरिसेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गवव्वेण वा अन्नस्त रगो असोगरणिय साहरियत्ति कट्टु ओह्यमणसकप्पा जाव झियायड) यह मेरा निज का भवन नहीं है, यह मेरी निज की अशोक वाटिका नहीं है । तो पता नहीं पडना क्या मैं किसी दूसरे राजा की अशोकवाटिका में किसी देव, दानव, किंपुरुप, किन्नर महो रग अथवा, गधर्व के द्वारा हरण कर लाई गई हूँ । इस प्रकार के विचार से उस का मनः सकल्प अपहत हो गया-अनिष्ट के योग से उस का मनोरथ भग्न हो गया और वह खेदखिन्न हो गई यावत् आत-यान करने लगी। (तण्ण से पउमणाभे राया पहाए जाव सव्वालकारविभूसिए अतेउरपरियाल सपिवुडे, जेणेव असोगवणिया जेणेच दोवई देवी, तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता दोवई देवी ओत्य० जाव मिया(नो खलु अम्ह एसे सएभवणे णो खलु एसा अम्ह सगा असोगरणिया, तण णज्नड ण अह केणई देवेग वा दागवेगवा किंपुरिसेण वा किन्नरेण वा महो. रगेग वा गपव्वेण वा अ नस्स रगो असोगरणिय साहरियत्ति कटु ओहयमण सफप्पा जाव झियायड)
આ મારૂ ભવન નથી, આ મારી અશોક વાટિકા નથી કઈ ખબર પડતી નથી, શુ હુ બીજા કોઈ રાજાની અશોક વાટિકામાં કેઈ દેવ, દાનવ, કિપુરુષ કિંવર, મહેરગ અથવા તે ગ ઘર્વ વડે અપહૃત થઈને લઈ જવામાં આવી છુ આ જાતના વિચારોથી તેનું મન ઉદાસ થઈ ગયુ, અનિષ્ટના રોગથી તેને મરથ ભગ્ન થઈ ગયે અને તે ખેદ-ખિન્ન થઈ ગઈ યાવત્ આર્તધ્યાન કરવા લાગી
(तएग से पउमणाभे राया हाए जाव सबाल काररिभूसिए अते उरपरियाल संपरिखुडे, जेणेव अमोगणिया जेणे दोबई देवी, तेणे उपागच्छइ, उवाग
Page #672
--------------------------------------------------------------------------
________________
खल्ल तुम देवाणुप्पिया! मम पव्वसंगइएणं देवणं जंबूदी वाओ २ भारहाओ वासाओ हथिणापुराओ नयराओ जुहिष्टि ल्लस्स रपणो भवणाओ साहरिया त मा णं तुम देवाणुप्पिया)
ओहय० जाव झियाहि, तुमं मए सद्धि विपुलाई भोगभोगाई जाव विहराहि, तएणं सा दोवई देवी पउमणाभं एव वयासी -एव खलु देवाणुप्पिया। जंवदीने दीवे भारहे वासे बारवइए णयरीए कण्हे णाम वासुदेवे ममप्पियभाउए परिवसइ, त णे से छह मासाण मम कूब नो हव्वमागच्छइ तएणं अह देवा णुप्पिया। जं तुम वदसि तस्स आणाओवायवयणणिदेसे चिहि स्लामि, तएणं से पउमे दोवईए एयम पडिसुणित्ता२ दोवई देवि कण्णंतेउरे ठवेइ, तएणं सा दोवई देवी छट्ट छट्टेणं आन विखत्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणंतवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाण विहरइ ॥ सू० २६ ॥
टीका-'तएण सा' इत्यादि । तत स्खलु सा द्रौपदी देवी ततो मुहूतान्तर मतियुद्धा जागरिता सती तद् भवनम् अशोस्वनिका च ' अपञ्चभिजाणमाणा अप्रत्यभिजानन्ती भवनादिकमपरिचित जामन्ती एवमवादीद-नो खलु अरमान
-तएण सा दोवई देवी इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (सा दोवईदेवी) वह द्रौपदीदेवी (ताओं मुहत्ततररस पडिघुद्धा समाणी) १महत के बाद जगी सो जग कर उसने ( त भवण असोगवणिय च अपञ्चभिजाणमाणी एव वयासा. उस भवन को एव उस अशोकवाटिका को अपरिचित जानकर अपने मन में ऐसा विचार किया-नो खल अम्ह एसे सएभवणे, शाखा
तण्ण सा दावई देवी इत्यादि ।।
साथ-(तएण) त्यारपछी (सा दोवई देवी) द्रौपदी वी (ताओ मुहुत्तरस पडिबुद्धा समाणी) मे भुत पछी भने का तरे ( भवण असोगवाणिय च अपञ्चभिजाणमाणी एव वयासी) ते लपन मन त मा વાટિકાને અપરિચિત જાને પિતાના મનમાં આ જાતને
Page #673
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदोधरितनिरूपणम् खलु त्व हे देनानुप्रिये ! अपहतमनःसरल्पा यावद् ध्याय, आत-यान मा कुरु व मया साधं विपुलान् मोगभोगान् यावद् भुताना विहर-मदीयप्रासादे तिष्ठ' इति ।
तत खलु सा द्रौपदी देवी पद्मनाभमेवमादी-एर सलु हे देवानुप्रिय । जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते द्वारवत्या नगयाँ कृष्णो नाम वासुदेवो मम मित्रभातक'= मममियस्य भर्तु ता परिवमति, तद् यदि खलु म पण्णा मामाना मध्ये 'मम' मा 'कू' देशीशब्दोऽयम् , अन्वेषयितु ग्रहीन वा नो शीघ्रमागच्छति-तत खलु गई तो। इमलिये हे देवानुप्रिये ! तुम आपत्तमनासकरप बनकर यावत् आर्तध्यान मत करो। टुल तो अब मेरे साथ विपुल कान मोगों को भोगती हुई मेरे प्रासाद में रहो। (तएण सा दोबई देवी पउमणाम रव चयासी-एव खल देवाणुप्पिया जंजूदीवे दीवे मारहे वासे वारवइए णयरीए कण्हे णाम वासुदेवे ममप्पियभाउरा परिवमइ, त जहण से छण्ड मासाण मम कूव णो व मागच्छड तणं अह देवाणुप्पिया! ज तुम वदसि तस्स आणाओवायरयणणिदेसे चिट्टिस्सामि तएण से पउमे दोवईए एयमह पडिसुणे २ दोवड देवी कण्णतेउरे ठवेइ, तएण सा दोवई देवी छह उष्टेण अणिनिखत्तेण आयबिलपरिग्गहिएण तवोकम्मेण अप्पाण भावेमाणे विहरह) इसके बाद उस द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! सुनो-जबूद्वीप नाम के द्वीप में भारतवर्पमें बारावती नगरी में कृष्ण वासुदेव मेरे प्रिय पति के भ्राता रहते है। वे यदि छह मासके भीतर मुझे अन्वेषण करने के लिये या આવી છે એવી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે અપહતમન સકલ્પ થઈને યાવત આર્તધ્યાન ન કરે તમે મનુષ્યભવ સબ ધી કામ લે ગે ભોગતા મારા મહેલમાં રહે
(तएण सा दोबई देवी पउमणाभ एन वयासी एव खलु देवाणुप्पिया! जब होवे दीवे, भारहे वासे पारवइए णयरीए कण्णे णाम वासुदेवे मम पियभाउए परिवसइ, त जइण से छह मामाण मम कूच णो हद मागच्छइ, तएण अह देवाणुप्पिया ! ज तुम वदसि तस्स आणाओवायवयणणिसे चिटिस्लामि तएण से पउमे दोपईए एयमह पडिमुणित्ता २ दोवई देवीं कण्णतेउरे ठवेद, तएण सा दोरई देनी छ? छटेण अणिक्खित्तेणं आयविलपरिग्गहिएण तवोकम्मेण अप्पाण भावे माणे विहरइ)
ત્યારપછી દ્રૌપદી દેવીએ પનાભને આ પ્રમાણે કહ્યું કે દેવાનુપ્રિયા સાભળે, જ બદ્વીપ નામના દ્વીપમાં ભારત વર્ષમાં દ્વારાવતી નગરીમાં કરણ વાસુદેવ મારા પ્રિય પતિના ભાઈ રહે છે તેઓ છ મહીનાની આ દર મારી તપાસ
Page #674
--------------------------------------------------------------------------
________________
- -
- -
-
-
-
-
-
4
-
-
-
ताधर्मपाल द्रौपदी देवीमपदतमन सकरपां यानध्यायन्ती आर्व यान वीं पश्यति राष्ट्र एवम् वक्ष्यमाणमकारेण, मादीत-हे दयानुमिये ! कि खलु स 'ओहय० नाव झियाहि ' अपहतमनः सकल्पा याद ध्यायसि रिपीदसि एव खलु व हे देवानु मिये । मम पूर्वसंगविकेन देवेन जम्टीपारीपाद भारताद् दि इम्तिना पुरान नगगद् युधिष्ठिरस्य राशो भानात् संहता=अपहनाऽसि, ततस्तस्माद् मा यमाणी पासइ, पासित्ता एप बयासी, किण्ण तुम देवाणुप्पिया मम पुन्धसगहाण देवेणं जद्दीवाओ २ मारहामो वासाओ हत्यिणा राओ नयरामो जुहिहिन्लास रणो भरणाओ साहरि, त माण तुम देवाणुप्पिया ! ओरय० जार झियाहि तुम मए सद्धिं विपुलाइ भोग भोगाइ जाव विरराहि) इसके पाद पर पद्मनाभ राजा नहा धाकर यावत् सर्वाकारो से विभूपित हो अपने अत:पुर परिवार से सपार घृत होकर जहा वर अशोक वाटिका यी-और उसमें भी जहाँ वह द्रोपदी देवी पेठी धी-वहा आया-चहा आफर के उसने द्रौपदी देवास अपहत मनः सकल्पवाली यावत् आतध्यान करती हुई देखकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिये! तुम क्यों अपहत मनः सकल्प होकर यावत् आते यान कर रही हो-खेद सिन्न हो रही हो तुम यहा हे देवानुप्रिय मेरे पूर्व भव के मित्र देव के द्वारा जवढीप नाम के द्वीप से भारत के हस्तिनापुर नगर से युधिष्ठिर राजा के भवन से हरण कर ले आ च्छित्ता दोबई देवो ओहय० जाब झियायमाणी पासइ, पासित्ता एव वयास किण्ण तुम देवाणुप्पिया! ममपुधसगइएण देवेण जनूदिवाओ • भारहा वासाओ हथिणापुराओ नयरोओ जुहिडिल्लस्स रण्गो भरणाओ साहारया माण तुम देवाणुप्पिया । ओहय० जान ज्ञियाहि तुम मए सद्धि विपुलाइ माग भोगाइ नाव विहराहि)
ત્યારપછી તે પવનાભરાજા સ્નાન કરીને ચાવત સર્વાલકારોથી વિભૂષિત થઈને પિતાના રણવાસ-પરિવારને સાથે લઈને જ્યા અશોક વાટિકા હતી અને તેમાં પણ જ્યા તે દ્રૌપદી દેવી બેઠી હતી ત્યા આવ્યું ત્યાં આવીને તેણે દ્રૌપદી દેવીને અપહતમન સે કલ્પવાળી ચાવત આન્નધ્યાન કરતી જોઈ ને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે શા માટે અપહતમન સ કWા થઈને થાવત્ આર્તધ્યાન કરી રહી છે? ખેદ-ખિન્ન થઈ રહ્યા છે કે દેવાનુપ્રિય! મારા પૂર્વભવના મિત્ર દેવ વડે તમે જ બીપ નામના દ્વીપના, ભારત વર્ષના હસ્તિનાપુર નગરના યુધિષ્ઠિર રાજાના ભવનથી અપહૃત થઈને
Page #675
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० स० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
४७५
दोवइ देवी ण णजइ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा किं पुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा णीया वा अवक्खित्ता वा ', इच्छामि णं ताओ । दोवईए देवीए सव्वओ समता मग्गणगवेषणं कथं, तएण से पंडुराया कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सद्दावित्ता एवं व्यासी- गच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया । हत्थिणाउरे नयरे सिघाडगतियचउक्कचच्चरमहापहपहेसु महयार सद्देण उग्घोसेमाणा २ एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया 1 जुहिहिस्स रण्णो आगासतलगसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णजइ केइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा किपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्त्रेण वा हिया वा नीया वा अवक्खित्ता वा तं जो णं देवाणुप्पिया । दोवइए देवीए सुई वा जाव पवित्ति वा परिकहेइ तस्स णं पंडुराया विउल अत्थसपयाण दाणं दलयइ तिक्हु घोसणं घोसावेह२ एयमाणत्तिय पञ्चपिणह, तरणं ते कोडुवियपुरिसा जाव पच्चपिणंति, तणं से पराया दोवईए देवीए कत्थइ सुइ वा जाव अलभमाणे कोती देवी सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुम देवाणुपिया | वारवइ णयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयमट्ट णिवेदेहि कह णं पर वासुदेवे दोवइए भग्गणगवेसणं करेजा अन्ना न नज्जइ दोवइए देवीए सुती वा खुतीं वा पवतीं वा उवलभेज्जा, तपण सा कोंती देवी पडुरण्णा एव वृत्ता समाणी जाव पडिसुणेइ पडिणित्ता व्हाया कयवलिकम्मा हरिथखध
Page #676
--------------------------------------------------------------------------
________________
७t
अह हे देशानुप्रिय । यत् व सिम्यशिपति तग 'सत्र आणाओवापश्य णणिदेसे 'आतापाताचन निर्देश स्थास्यागि, पानारिणी सर्विनी भति प्यामीत्यर्थ , आशा-अपश्य विधेयतया आदेश', उपायान सेनापन, निर्देश - कायाणि प्रति प्रश्नेकते यग्निपतातरम् , ममाहारमः तत्र, ततः खल स पद्मनामो राजा द्रौपना पतमय मतिश्रुत्यापीत्य द्रोपती देवी मण्यतेउरे' कन्यान्तः पुरे म्यापयति, ततः गल सा दोपदीदेवी ' मटेण' षष्टपष्टेन पष्ठभक्तानन्तर पुन: पप्ठमक्तेन, अनिश्चित्तेण' अनिक्षिप्तेन-पिरामरहितन अन्तारहितेनेत्यर्थः, 'पायरिलपरिगटिपण' आयरिलपरिग्रहीनेन तपः कर्मणा आत्मान भावयन्ती विहरति । सू०२६ ।।
मूलम्-तएणं से जुहाढिल्ले रारातओ मुहत्तंतरस्त पडिबुद्ध समाणे दोबइ देवि पासे अपासमाणो सयणिजाओ उठेइ उहित्ता दोवईए देवीए सम्वओ समता मग्गणगवसण करेइ करिता दोवईए देवीए करथइ सुइ वा खुइ वा पत्ति वा अलभमाण जेणेव पडुराया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पडुरायं एवंवयासा एवं खल्लु ताओ । मम आगासतलगसि सुहपसुत्तस्त पासाआ लेने के लिये यहा जल्दी से नहीं आयेगे तो उसके बाद हे देवानुप्रिय. जैसा तुम कहोगे वैसा मैं करूंगी-तुम्हारी आज्ञा कारिणी वरावात घन जाऊँगी। ऐसा अर्थ "आणाओवायवयणणिसे" इन पदों का निकलता है। इसके बाद पद्मनाभ राजा ने द्रौपदी के इस कथन का स्वीकार करके उसे कन्या के अन्तः पुर में रखदिया। चहा वह द्राप देवी आयविल परिगृहीत छह छ? की अन्तर रहित तपस्या से अपने आप को भावित करती हुई रहने लगी। सू० २६ કરતા કરતા અહીં નહિ આવી શકે તે ત્યારપછી હે દેવાનુપ્રિય! તમે જેમ अशा तेम ४३रीश, भारी मारिए शतिनी मनी । “अणा ओवायवयणाणिदेसे" र पोथी . ! म नाणे छ त्या२५७। પદ્મનાભ રાજાએ દ્રૌપદીના તે કથનને સ્વીકારી લીધું અને તેને કયાના અઃ પુરમાં મૂકી દીધી ત્યા તે દ્રોપદી વી આ બિલ પરિગ્રહીત છ3 છઠ્ઠની અન્તર રહિત તપસ્યાથી પિતાની જાતને ભાવિત કરતી રહેવા લાગે છે
Page #677
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० स० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
४७२
दोवइ देवी ण णजइ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा किं पुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा णीया वा अवस्खित्ता वा १, इच्छामि णं ताओ । दोवईए देवीए सव्वओ समता मग्गणगवेसणं कय, तएण से पडुराया कोडुंवियपुरिसे सहावे सद्दावित्ता एवं व्यासी- गच्छह णं तुभे देवाणुपिया । हत्थिणाउरे नयरे सिघाडगतिय चउक्वचच्चर महापहप हेसु महया सद्देण उग्घोसेमाणा २ एवं बयासी एवं खलु देवाणुप्पिया 1 जुहिहिस्सरपणो आगासतलगसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण जड़ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा किपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा नीया वा अवक्खित्ता वा तं जो णं देवाणुप्पिया । दोवइए देवीए सुई वा जाव पवित्ति वा परिकहेइ तस्स णं पडुराया विउल अत्थसपयाणं दाणं दलयइ तिक्हु घोसणं घोसावेहर एयमाणत्तिय पञ्चपिणह, तरणं ते कोडुवियपुरिसा जाव पच्चपिणंति, तणं से पड़राया दोवईए देवीए कत्थइ सुइ वा जाव अलभमाणे कोंती देवीं सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुम देवापिया | वारवइ णयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयमट्ट णिवेदेहि कप णं पर वासुदेवे दोवइए भग्गणगवेसणं करेजा अन्ना न नज्जड दोवइए देवीए सुतीं वा खुती वा पवतीं वा उवलभेज्जा, तणसा कोंती देवी पडुरण्णा एव बुत्ता समाणी जाव पडिसुणेइ पडिणित्ता पहाया कय्वलिकम्मा हत्थिखध
1
Page #678
--------------------------------------------------------------------------
________________
४००
-
-
-
-
--
-
ताप वरगया हस्थिणारं माझमझेणं णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता कुरु जणवये मज्झमज्झेण जेणेव सुग्ट्रजण जेणेव वारवई णयरी जेणेव अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता हथिखधाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहिता कोडुधियपुरिसे सदावेइ सदायित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया । जेणेव वारवई णयरी तेणेव अणुपविसह, अणुपविसित्ता कण्हं वासुदेव करयल० एव वयह एवं खल्ल सामी। तुभं पिउच्छा कोती देवी हत्थिणा उराओ.नयराओ इह हत्यमागया तुभ दसणं कंखइ, तएणं ते कोडुपियपुरिसा जाव कहेंति, तएणं कण्हे वासुदेव कोडवि यपुरिसाणं अतिए सोच्चा णिसम्म हस्थिसंधवरगए हयगय बारवईए य मज्झमझेणं जेणेव कोती देवी तेणेव उवागच्छई उवागच्छिन्ता हस्थिखधाओ पच्चोरुह पच्चोरुहिता कोतीए देवाए पायग्गहण करेइ करित्ता कोतीए देवीए सद्धि हस्थिखंध दुरूहइ दुरुहित्ता बारावइए गयरीए मज्झमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सय गिह अणुपविसइ । तएणं से कण्हे वासुदेवे कोती देवि पहाय कयबलिकम्म जिमियभुत्नुत्तरागय जाव सुहासणवरगय एव क्यासी सदिसउ णं पिउच्छा । किमागमणपओयणं १, एसा कोंती देवी कण्ह वासुदेव एब क्यासी-एव खलु पुत्ता । हत्थिणाउर णयरे जुहिटिल्लस्स आगासतले सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णजइ केणइ अवहिया जाव अवक्खित्ता वा, त इच्छामि ण
Page #679
--------------------------------------------------------------------------
________________
मगारधर्माताणी टी० १० १६ प्रौपदीचरितनिरूपणम् ઇટર देवीए मग्गणगवेसणं करित्तए, तएणं से कण्हे वासुदेवे कोंती पिउच्छि एव वयासी-जं णवरं पिउच्छा। दोवइए देवीए कत्थइ सुई वा जाव लभामि तो णं अहं पायालाओ वा भवणाओ अद्धभरहाओ वासमंतओ दोवई साहत्थि उवणेमित्तिक कोंती पिउत्थि सकारेइ समाणेइ जाव पडिविसज्जेइ, तएणं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसजिया समाणी जामेव दिसि पाउ० तामेव दिसि पडिगया ॥ सू० २५ ॥
टीका-'तएण से' इत्यादि । ततः खलु स युधिष्ठिरो राजा ततो मुहूर्तान्तरे प्रतिबुद्धः सन् द्रौपदी देवी पार्वे 'अपासमाणो ' अपश्यन् अनवलोकयन् शयनीयादुत्तिष्ठति, उत्याय द्रौपद्या देव्या सर्वतः समन्ताद् मार्गणगवेपण करोति, कृत्वा द्रोपद्या देव्या ' कत्थइ ' कुत्रापि 'सुइ' झुर्ति सामान्यवृत्तान्त वा, 'सुइ ' क्षुति छिक्कादि शब्द वा ' पत्ति' प्रवृत्तिं वा विशेपटत्तान्त अलभमानो
तण्ण से जुहिहिल्ले राया इत्यादि ॥ टीकार्य-(तग्ण) इसके बाद (से जुरिडिल्ले राया) वे युधिष्ठिर राजा (तओ मुहुत्ततरस्स ) एक मुहूर्त के याद (पडिबुद्ध समाणे) जगे-और जगकर उन्होंने (दोवई देवी) द्रौपदी देवी को (पासे अपासमाणो सयणि जाओ उद्देइ, उहित्ता दोवईए सव्वओ समतो मग्गणगवेसण करेइ) अपने पास जर नही देखा तो वे अपनी शय्या से उठे और उठकर द्रौपदी देवीकी सयओरसे उन्होंने मार्गणा गवेषणाकी (करित्ता दोवईए देवीए कत्यइ सुइ वा खुइ वा पत्ति वा अलभमाणे जेणेव पडराया
'तएण से जुहिडिल्ले राया ' इत्यादि ।
साथ-(तएण ) त्यारपछी ( से जुहिटिल्ले राया) ते युधिष्ठिर रात (तओ मुहुत्त तरस्स) मे भुत माह (पडियुद्धे समाणे ) श्य! मने जाने तेभए (दोवई देवी ) द्रौपट्टी वान, ___ (पासे अपासमाणो सयणिज्जाओ उठेद, उद्वित्ता दोवईए सबओ समता मगणगवेसण करेइ)
જ્યારે પિતાની પાસે જઈ નહિ ત્યારે પિતાની શય્યા ઉપરથી ઊભા થયા અને ઊભા થઈને દ્રૌપદી દેવીની ચેમેર માર્ગ પણ કરી
(करित्ता दोवईए देवीए कत्थइ सुइ वा सुइ वा पत्तिं वा अग्भमाणे
Page #680
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाता वरगया हस्थिणाउरं माझमझेणं णिग्गच्छद णिग्गच्छित्ता कुरु जणवये मझमज्झेण जेणेव सुरजणपए जेणेव वारवई णयरी जेणेव अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता हस्थिखंधाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता कोडवियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एव वयाली-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! जेणेच वारवई णयरी तेणेव अणुपविसह, अणुपविसित्ता कण्हं वासुदेवं करयल० एवं वयह एवं खलु सामी। तुम्भं पिउच्छा कोती देवी हस्थिणाः उराओ नयराओ इह हव्वमागया तुम्भं दसणं कंखइ, तएण ते कोडवियपुरिसा जाव कहेंति, तएणं कण्हे वासुदेवे कोडुवि यपुरिसाणं अतिए सोच्चा णिसम्म हधिसंधवरगए हयगय चारवईए य मज्झमज्झेणं जेणेव कोंती देवी तेणेव उवागच्छ उवागच्छित्ता हत्थिखधाओ पच्चोरुह पच्चोरुहिता कोतीए दवाए पायग्गहण करेइ करित्ता कोंतीए देवीए सद्धि हत्थिखध दुरूहइ दुरुहित्ता बारावइए जयरीए मज्झमज्झेण जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सयं गिह अणुपविसइ । तएणं स कण्हे वासुदेवे कोती देविं हाय कयवलिकम्म जिमियमुत्तुत्त रागय जाव सुहासणवरगय एव वयासी सदिसउ णं पिउच्छा ! किमागमणपओयणं , तएणं सा कोंती देवी कण्ह वासुदेव एव वयासी-एव खल्ल पुत्ता ! हत्थिणाउरे णयरे जुहिहिल्लस्त आगासतले सुहपसुत्तस्स पासाओ टोवई देवी ण णजइ केणइ अवहिया जाव अवक्खित्ता वा, त इच्छामि गं
Page #681
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनारधर्मामृतवर्षिणी ठोका स० १६ द्रौपदीचरित निरूपणम्
ચૂંટફ
ततः खलु स पाण्डुराजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत - गच्छत खलु यूय हे देवानुमियाः । हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वरमहापथपथेषु महता महता शब्देनोद्धोपयन्त एव वदत - एव खल हे देवानु प्रिया ! युधिष्ठिरम्य राज्ञ आकाशवल के सुखमसुतस्य पार्श्वाद् द्रौपदी देवी न ज्ञायते केनापि देवेन वा दानवेन वा किं पुरुपेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा और सन प्रकार से मार्गणा और गवेषणा करना चाहता हूँ । (तए ण से पराया कोडनपुरिसे सहावेह, सद्दावित्ता एव वयासी गच्छहाण तुम्मे देवाणुपिया ! हत्थगाउरे नवरे, सिंघाडगतीय चउक्कचच्चर महा पपहे महया २ सद्देण उग्घोसेमाणा २ एव वयासी- एव खलु देवाणुपिया | जुहिल्लिम्स रण्णो आगासतलगसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णजह, केणह, देवेण वा दानवेण वा किंन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा नीया वा अवनिखत्ता वा) इस बात को सुनकर के उन पाडुराजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा हे देवानुप्रियो ! तुम लोग हस्तिनापुर नगर में जाओ और वहा के शृंगाटक, त्रिक चतुष्क, चत्वर, महापथ इन समस्न मार्गों में बडे जोर २ से ऐसी घोषणा वार २ करो कि हे देवाप्रियों ! सुनो प्रासादकी अट्टालिका पर सुखपूर्वक सोये हुए युधिष्ठिर राजा के पास से न मालूम किसी देवने या दानवने, किसी, किन्नरने, गवेण कय ) भेा भाटे हे तात ! हु येाभेर अधीरीने द्रौपती देवीना માણા અને ગવેષણા કરવા ઇચ્છુ છુ
?
(तरण से पराया को वियपुरिसे सहावे, सदावित्ता एव वयासी गच्छद ण तुभेदेपिया | हत्यिणाउरे नयरे, सिंघाडगतोयच उरकचच्चर महापदपसु महया २ सण उग्घोसेमागा २ एव वयासी ए खलु देवाणुप्पिया ! जुहिडिल्लस रण्गो आगासतलगसि सुहपमुत्तस्स पासाओ दोनई देवी ण ण, के देवेण वा दानवेर वा किंनरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेग वा वेण वा हिया या नीया वा अवक्खित्ता वा )
આ વાતને સાભળીને પાડુ રાજાએ કૌટુબિક પુરૂષોને બોલાવ્યા અને ખેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિયા ' તમે લેાકેા હસ્તિનાપુર નગરમા જાઓ અને ત્યાના શ્રૃગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક, ચવર, મહાપથ આ બધા માર્ગોમા મોટા સાદે આ જાતની ઘેાષણા કરા કે હૈ દેવાનુપ્રિયા ! સાભળેા, મહેલની અગાશી ઉપર સુખેથી સૂતા યુધિષ્ઠિર રાજાની પાસેથી ન જાણે કાઈ દેવે કે દાનવે અથવા તેા કાઈ કિન્નરે કૈં કિપુરુષે અથવા કાઇ મારગે કે
Page #682
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
यौव पा राना कोकोपागच्छति, उपागत्य पाट रामानमेवमवादीको ताव। एव खलु ममाकाशतले मासादाहारियोपरि 'सापसुपरस' सुराप्रसप्तम्य पार्थाद् द्रौपदी देशी' ण णग्जर' न मागते पेनापि देयेन या दानपेन वा किमरेण वा किंपुरुषेण वा गन्धर्वण या ता नीता भयर प्रापिठा वा अवक्षिप्ता बानो कूपगर्तादौ फुचित् पातिता पा इत्ययः, तत्-तस्माद् उमामि खल हे वातः । द्रौपद्या देव्याः सर्वत समन्ताद मार्गणगोपण गर्नुम् । तेणेव उवागह, उवागक्लित्ता परायच पामी एव खलु तामा मम आगासतल्गसि सुरपसुत्तस्म पासाओ दोवई देवी ण णज। केणइ देवेण वा दाणवेण चा किमरेण वा किंपुरिसेण वा मरोरगेण वा गधन्वेण वा रिया वा णीया चा अपरिपत्ता वा) मार्गणा गवेषणा फरके जप उसने द्रोपदी देवी की करी भी शोध, सामान्य खबर को उस के चिह्नस्वरूप जिफा आदि के शब्द को, अथवा प्रवृत्ति-विशेष वृत्तान्त को नहीं पाया तय वे जहाँ पांडराजा ये वां गये-वरा जाकर के उन्होंने पाइराजा से इस प्रकार करा-हे तात! जय में प्रासाद का अट्टालिकाके ऊपर सुखसे सो रहा था-तय मेरे पाससे न मालूम द्रापा देवी को किसी देवने, दानवने, किभरने, किंपुरुषने, महोरगने, गधवन हरण कर कहां रख दिया है।-या उसे किसी कुए में या खड़े में डाल दिया है (इच्छामिणं ताओ दोवईए देवीए सचओ समता मग गवेसण कय ) इस लिए हे तात! में द्रौपदी देवी की सय तरफ से जेणेव पडुराया तेणेर उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पडुराय एव वयासी एव खल ताओ मम आगासतलगसि मुहपमुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णज्जइ, पण देवेण वा दाणवेण वा विनरेण वा विपरिसेण वा महोरगेण वा गधवण वा हिया वा णीया वा अवक्खित्ता वा)
માર્ગ ગષણ કર્યા બાદ પણ ત્યારે તેમણે દ્રૌપદી દેવીની કોઈપણ રીતે, સામાન્ય ખબર અને ચિ સ્વરૂપ છીંક વગેરે શબ્દને અથવા તો પ્રવૃત્તિ-વિશેષ વૃત્તાત–ની પણ જાણ થઈ નહિ ત્યારે તેઓ કયા પાડુરાજા હતા ત્યા ગયા, ત્યાં જઈને તેમણે પાડુરાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું " જ્યારે હું મહેલની અગાશીમાં સૂઈ રહ્યો હતો ત્યારે મારી પાસે ન જાણે કોણે કૌપદી દેવીનું કઈ દેવ, દાનવે કે કિન્નર કે કિપુરુષે કે મહોર કે ગધવે હરણ કર્યું છે અથવા તે દ્રૌપદી દેવીને કઈયે કૂવામાં કે ખાડામાં नाभी हीधी छे (इच्छामि ण ताओ दोवईए देवीए सव्वओ मग्गण
Page #683
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम्
ततः खलु स पाण्डू राजा द्रौपद्या देव्याः कुत्रापि अति वा यावत् प्रत्तिम् अलभमानः कुन्ती देवीं शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं हे देवानुपिये ! द्वारवती नगरी कृष्णस्य वासुदेवस्य एतमय निवेदय-सुसपमुप्ता द्रौपदी केनापि हता नीता कूपादौ प्रक्षिप्ता वेति न ज्ञायते इत्येतद्रूप वृत्तान्त क्षय, कृष्णः खलु पर वासुदेवो द्रौपद्या मार्गणगवेपण कुर्यात् अन्यथा न ज्ञायते द्रोपद्या देव्याः अति वा प्रवृत्तिं वा क्षुत्तिं वा उपलभेत । पास भेजदी। इसके बाद जब पाडराजा ने द्रौपदी देवी की कही पर भी श्रुती यावत् प्रवृत्ति नहीं पाई तब उन्हो ने कुति देवी को बुलाया(सद्दावि०ए०वयासी) और बुलाकर उन से ऐसा कहा-(गच्छहण तुम देवाणुप्पिया ! वारवइ नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयम णिवेदेहि, कण्हेण पर वासुदेवे दोवइए मग्गणगवेसण करेजा-अन्नहा न नजई, दोवईए देवीए सुती वा सुती वा पवत्ती वा उवलभेन्ना) हे देवानुप्रि यो! तुम द्वारावती नगरी में कृष्ण वायुदेव के पास जाओ-और उनसे इस अर्थका निवेदन करो कि सुख प्रसुप्त द्रौपदी को किसी ने हरलिया है। हरण कर उसे कहीं पहुचा दिया है या किसी कुएँ में या खड्डे में डाल दिया है। पता नहीं पड़ता है। वे कृष्ण चोसुदेव अवश्य २ ही द्रौपदी को मार्गणा गवेपणा करेंगे। नही तो द्रौपदी देवी को श्रुति, क्षुति अथवा प्रवृत्ति हमें प्राप्त हो जावेगी-यह नहीं कहा जा सकता है।
श्रुति यावत् प्रवृत्ति भी ना त्यारे तभी तो पान मातापी (सदा __ वि० ए० वयासी) अने मोसावीन तेभने २ प्रमाणे धु
(गच्छह ण तुम देवाणुप्पिया ! वारवद नयरिं काहस्स वासुदेवस्स एयमट्ट णिवेदेहि, कण्हेण पर वासुदेवे दोवईए मग्गणगवेसण करेज्जा अन्नहा न नज्जई, दोवईए देवीए सुती वा खुती वा पबत्ती वा उवल भेज्जा)
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્વારાવતી નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવની પાસે જાઓ અને તેમને આ પ્રમાણે વિનતી કરી કે સુખથી સુતેલી દ્રૌપદીનું કોઈએ હરણ કરી લીધું છે હરણ કરીને તેને કયાક મૂકી દીધી છે અથવા તે કઈ કૂવામાં કે ખાડામાં નાખી દીધી છે ન જાણે શું થઈ ગયુ છે? કૃષ્ણવાસુદેવ મને ખાત્રી છે કે ચોક્કસ દ્રૌપદી દેવીની માગણા ગષણા કરશે નહિંતરદ્રૌપદી દેવીની ઐતિ, કુતિ અથવા પ્રવૃત્તિની જાણ અમને થશે એવી શકયતા જણાતી નથી,
Page #684
--------------------------------------------------------------------------
________________
Ves
malent गन्धर्वेण पाहता या नीता पा गाशिवाया, तत्-रमादयः बलु हे देवानु मिया द्वीपधा देव्याः शुतिमा सुविधा प्रति पा परिकथयति, तस्य खलु पाण्ड रामा पिपुलमर्थसमदान दान ददाति हरया-त्युक्ला घोषणां घोषयत, घोपयित्वा एतामाप्तिका परर्पयत । ततः खलु ते कौटुमिकामपाल धेर घोषणा कत्ता यापदाग मत्यर्पयन्ति हे सामिन् । माटामया घोषणा कृताऽस्माभिरिवि निवेदयन्ति । या किसी किंपुरुप ने या किती महोरग ने या किसी गधर्व ने द्रौपदी देवी को एरण कर लिया है-या हरणफर उसे कहीं रस दिया है अथवा किसी कुएँ में या सड़े में डाल दिया है (त जो ण देवाणुप्पिया । दोव ईए देवीप सुह या जाव पवत्तिपा परिकहेइ, तस्स ण पराया विउल अत्यसपयाण दाण दलयह,त्तिक घोमण घोसावेर २ ण्यमाणत्तिय पच्चपिणह, तरण ते कोरिय पुरिसा जार पच्चप्पिणति-तण से पद्धराया दोवईए देवीए कत्थइ सुहमा जाय अलभमाणे कोती देवी सहावेह) तो हे देवानुप्रियो ! जो कोई भी मनुष्य द्रौपदी देवी को शाध करेगा यावत् उसके विशेषवृत्तान्न को लाकर देगा-हम से आकर कहेगा, उसको पाडराजा बहुत अधिक मात्रा में अर्थ मप्रदान-दोनदेगा। इस प्रकार की तुम घोसपणा करो. और घोषणा कर के फिर हमें इसकी पीछे खबर दो। इस प्रकार राजा की आज्ञा पाकर उन कौटुम्पिक पुरुषों ने इसी प्रकारकी घोषणा करके इम की खबर राजाक ગધ દ્રૌપદી દેવીનું અપહરણ કર્યું છે કે હરણ કરીને તેને કયાક મૂકી દીધી છે કે કઈ કૃવામાં અથવા તે ખાડામાં નાખી દીધી છે
(त जो ण देवाणुप्पिया । दोवईए देवीर सावा जान पति वा परिकहेइ, तस्सण पडुराया विउल अत्यसपयाण दाण दलयइ, ति कह घोसण घोसावेइ २ यमाणत्तिय पञ्चप्पिणह, तएण ते कौडवियपरिसा नाव पञ्चप्पिणति-तएण से पडुराया दोवईए देवीए कत्था सुइ वा जाव अलभमाणे कोतीं देवा सहावइ ।
તે હે દેવાનુપ્રિયે! જે કોઈ પણ માણસ દ્રૌપદીદવાની શોધ કરશે યાવત. તેના વિષે સવિશેષ સમાચાર જાણીને અમને ખબર આપશે, અમને કહે, તેને પાડુ રાજા ખૂબ જ દ્રવ્ય-ધન આપશે આ રીતે તમે ઘેષણ કરો અને છેષણ થઈ જવાની અમને ખબર પણ આપ આ રીતે રાજાની આજ્ઞા સાભળીને તે કૌટુંબિક પુરૂષાએ આ પ્રમાણે જ છેષણ કરીને તેની ખબર રાજાને આપી ત્યારપછી ક્યારે પાડ રાજાએ દ્રૌપદી દેવીની કોઇ રસ્થાને
Page #685
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमरधामृतवर्षिणी टीका २० १६ द्रौपदीचरितं निरूपणम्
કલ
ततः खलु स पाण्डू राजा द्रौपद्या देव्याः कुनापि श्रुतिं यावत् मत्तिम् अलभमानः कुन्तीं देवीं शब्दयति शब्दयिला एवमवादीत् - गच्छ खलु त्वं हे देवानुमिये । द्वारवतीं नगरी कृष्णस्य वासुदेवस्य एतमर्थ निवेदय= सुखमसुप्ता द्रौपदी केनाऽपि हता नीता कूपादौ प्रक्षिप्ता वेति न ज्ञायते इत्येतद्रूप वृत्तान्त कथय, कृष्णः खलु पर वासुदेवो द्रौपद्या मार्गणगनेपण कुर्यात् अन्यथा न ज्ञायते द्रोपद्या देव्याः श्रति वा प्रवृत्ति वा क्षुर्ति वा उपलभेत ।
पास भेजदी | इसके बाद जब पाडुराजा ने द्रौपदी देवी की कही पर भीती यावत् प्रवृत्ति नहीं पाई तय उन्हों ने कृति देवी को बुलाया(सद्दावि० ए०वग्रासी) और बुलाकर उन से ऐसा कहो- (गच्छहण तुम देवाणुपिया ! वारवड नयरिं कण्ट्स्स वासुदेवस्स ण्यम णिवेदेहि, कण्हेण पर वासुदेवे दोवइए मग्गणगवेसण करेजा - अन्नहा न नज्जई, दोवई देवी सुती वा सुतीं वा पवत्तीं वा उबल भेजा ) हे देवानुप्रि यो ! तुम द्वारावती नगरी में कृष्ण वायुदेव के पास जाओ और उनसे इस अर्थका निवेदन करो कि सुख प्रसुप्त द्रौपदी को किसी ने हरलिया है । हरण कर उसे कही पहुचा दिया है या किसी कुएँ में या खड्डे मे डाल दिया है। पता नही पडता है । वे कृष्ण वासुदेव अवश्य २ ही द्रौपदी की मार्गणा गवेषणा करेंगे। नही तो द्रौपदी देवी की श्रुति, क्षुति अथवा प्रवृत्ति हमें प्राप्त हो जावेगी- यह नही कहा जा सकता है ।
श्रुति यावत् प्रवृत्ति भेजवी नहि त्यारे तेसो हुती देवीने गोसावी ( सहा वि० ए० क्यासी ) अने मोसावीने तेसने या असाधु
( गच्हण तुम देवाणुपिया ! वारवर नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एम णिवेदेहि, कण्ण पर वासुदेवे दोवईए मग्गणगवेसण करेज्जा अन्नदा न नज्जई, दोवईए देवी सुती वा खुतीं वा पपत्तीं वा उवलभेज्जा )
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્વારાવતી નગરીમા કૃષ્ણુવાસુદેવની પાસે જાએ અને તેમને આ પ્રમાણે વિનતી કરેા કે સુખી સુતેલી દ્રૌપદીનુઇએ હરણ કરી લીધુ છે હરણ કરીને તેને કયાક મૂકી દીધી છે અથવા તે કોઇ કૂવામા કે ખાડામા નાખી દીધી છે ન જાણે શું થઇ ગયુ છે? કૃષ્ણુવાસુદેવ મને ખાત્રી છે કે ચાસ દ્રૌપદી દેવીની માણા ગવેષણા કરશે નહિંતરદ્રૌપદી દેવીની શ્રતિ, શ્રુતિ અથવા પ્રવૃત્તિની જાણ અમને થશે એવી શકયતા જણાતી નથી.
Page #686
--------------------------------------------------------------------------
________________
vel
गन्धर्येण या हवा या नीता पा अपक्षिप्ता या, सन्माद यः खलु हे देवानु मिया । द्रौपचा देव्याः श्रुति या सुविधा प्रति या परिकययति, तस्स खलु पाण्ड राजा पिपुलमर्थसपदान दान ददाति-प्रति कत्या-त्युत्ता घोषणां घोष यत, घोपयित्वा एतामाप्तिका मर्पयत । ततः गल ते कौटुमिकास्त येर घोषणा कत्या यावदा प्रत्यर्पयन्ति-हे सामिन् ! भादाच्या घोषणा कृताऽस्माभिरिति निवेदयन्ति । या किसी किंपुरुप ने या किसी महोरग ने या किसी गधर्व ने द्रौपदी देवी को एरण कर लिया है-पाहरणकर उसे कहीं रस दिया है अथवा किसी कुएँ में या सड़े में डाल दिया है (त जो ण देवाणुप्पिया । दोव ईए देवोए सुह वा जाव पति पा परिकहेइ, तस्स ण पटुराया विउल अत्यसपयाणं दाण दलयह, त्ति कटु घोसण घोसावेह २ एयमाणत्तिय पच्चप्पिणह, तएण ते कोइनिय पुरिसा जाय पच्चप्पिणति-तरण से पडराया दोवईए देवीए कत्थह सहया जाय अलभमाणे कतिी दवा सदावेइ) तो हे देवानुप्रियो ! जो कोई भी मनुष्य द्रौपदी देवी की शोध करेगा यावत् उसके विशेषवृत्तान को लाकर देगा-हम से आकर कहेगा, उसको पाडराजा बहुत अधिक मात्रा में अर्थ सप्रदान-दानदेगा। इस प्रकार की तुम घोसपणा करो, और घोषणा कर के फिर हमें इसकी पीछे खबर दो। इस प्रकार राजा की आज्ञा पाकर उन कौटुम्पिक पुरुषों ने इसी प्रकारकी घोषणा करके इस की खबर राजाक ગધ દ્રૌપદી દેવીનું અપહરણ કર્યું છે કે હરણ કરીને તેને કયાક મૂકી દીધી છે કે કઈ કૃવામાં અથવા તે ખાડામાં નાખી દીધી છે
(त जो ण देवाणुप्पिया । दोवईए देवीए सह वा जार पति वा परिकह। तस्सण पडुराया विउल अत्थसपयाण दाण दलयइ, ति कह घोसण घासावा. हयमाणत्तिय पञ्चप्पिणह, तएण ते कौडवियपरिसा जाव पञ्चपिणति-तएण स पडराया दोवईए देवीए कत्था मुह वा जाव अलभमाणे कोंती देवों सदावई )
તે હે દેવાનુપ્રિયે! જે કઈ પણ માણસ દ્રૌપદી દેવીની શોધ કરશે યાત તેના વિષે સવિશેષ સમાચાર જાણીને અમને ખબર આપશે, અમને કહેશે, તેને પાડુ રાજા ખૂબ જ દ્રવ્ય-ધન આપશે આ રીતે તમે ઘણું કરે અને ઘોષણું થઈ જવાની અમને ખબર પણ આપે આ રીતે રાજાની આજ્ઞા સાભળીને તે કૌટુંબિક પુરૂએ આ પ્રમાણે જ છેષણ કરીને તેની ખબર રાજાને આપી ત્યારપછી જ્યારે પાડુ રાજાએ દ્રૌપદી દેવીની કોઈપણ સ્થાને
Page #687
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतपाणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् १८७ देवानुमियाः ! यसैव द्वारवती नगरी तवानुप्रविशत, अनुप्रविश्य कृष्णं वासुदेव करतलपरिगृहीतदशनग्व शिर आवर्त मरतकेऽञ्जलिं कृता एन वदत एम सल हे स्वामिन् ! युप्माफ पिचप्पसा कुन्ती देवी हस्तिनापुराद् नगराद् इह हव्यमागता युष्माक दर्शन काडूक्षति । ततः खलु ते कौटुम्बिकापुरुषा यावत् कथयन्ति कृष्णवासुदेवस्य समीपे कुन्तीकरित वचन निवेदयन्तीत्यर्थः । ततः खलु कृष्णो नामवह हाथी से नीचे उत्तरी और उतर कर के उम्ने कौडम्पिक पुरुषो को घुलाया- बुलाकर उनसे इस प्रकर कहा-(गच्छह ण तुम्भे देवाणु प्पिया! जेणेव चारवईणयरी, तेणेव अणुपचिसह, अणुपविसित्ता कण्ह वासुदेव करयल० एव वयह, एवं खलु सामी ! तुम्भ पिउच्छा कोती देवी हथिणाउराओ नयराओ इह व्वमागया,-तुभ दसण कखड, तएण ते कोडविय पुरिसाण जतिए सोच्चा णिलग रत्यिसयवरगए हयगयवारवईए य मज्झ मज्झेण जेणेव कोती देवी-तेणेव उवागच्छद) हे देवानुप्रियो ! तुम द्वाराप्ती नगरी में जाओ-चहा जाकर कृष्ण वासुदेव को दोनो हाथोंकी अजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर शिर झुकाते हुए नमस्कार करना-यादमे उनसे ऐसा कहना-कि हे स्वामिन् ! ओपकी पितृष्वसा-मुआ-क्रुती देवी हस्तिनापुर नगर से या अभी -आई है-वे आपके दर्शन करना चाहती है। उन कोटम्पिक पुरुषोने कुती देवी की इस आज्ञा को शिरोधार्य कर श्री कृष्ण રોકાઈ ત્યાં જઈને તે હાથી ઉપરથી નીચે ઉતરી અને ઉતરીને તેણે કૌટુંબિક પુરૂને લાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે–
(गच्छह ण तुभे देवाणुप्पिया ! जेणे बारवई णयरी, तेणेर अणुरविसह, अणुपविसित्ता क्ण्ह वासुदेव परयल० ण्व वयह एव सलु सामी । तुभ विउच्छा कोंती देवी हा पाउराओ नयराओ इइ हव्वमागया, तुन्म दसण कसइ, तए ण ते कोडु चियपुरिसा जाव कहे ति, तएण कण्हे वासुदेवे कोइ बिय पुरि साण अतिए सोच्चा णिसम्म हथिसधपरगए हयगय गारवईए य मज्ज्ञ मज्झेण जेणेव कोंती देवी-तेणेव उपागच्छद)।
હે દેવાનુપ્રિયે! તમે દ્વારાવતી નગરીમા જાઓ, ત્યાં જઈને કૃષ્ણ વાસુ દેવને બને હાથની અ જલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને માથું નીચે નમાવીને નમસ્કાર કરે ત્યારપછી તેમને આ પ્રમાણે વિનતી કરો કે હે સ્વામિન ! તમારી પિતૃષ્ણસાઈ કુંતી દેવી હસ્તિનાપુર નગરયો અત્યારે અહીં આવ્યા છે તેઓ તમને જોવા માગે છે તે કૌટુંબિક પુરૂએ કુતી દેવીની આ આજ્ઞાને સ્વીકારીને શ્રીકૃષ્ણ વાસુદેવને આ સમાચારની ખબર આપી
Page #688
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રંટ.
ámeredeunted सन्तीदेवानागारास यावन् प्रतिशृगोवि= पाण्यनुपस्था सीपरोलिना
मस्ति
कुरुनाम
हस्तिनापुर मानिर्गत्य कम्य देशस्य येनापती नगरी, यीबा द्यान=पत्रान्पस्थानादागतानां
वि
नम्, कोपरगति, जगत्य हस्तिन्ात्मत्यात प्रत्ययवरवि, मत्प चौडम्बरपुरपान यति लामीछत खल यूथ है
"
(तरण मा कोती देवी परावृत्ता ममाशी जान पडिसुणेड, पडिणिसा, पाया कलिकम्मा एरिया रयिणावर मंझ मज्शेण निमच्छड णिगच्छित्ता करुनणवय मज्झ मज्येण जेणेव सुर जणचण जेणेव पारवई घरी जेणेव अग्गुजाणे तेणे उपागच्छ उवा गच्छत्ता हसिनाओ पच्चोरहरु, पच्चोमरिता कोयियपुरिसे सहा वेह, सावित्ता एव चासी ) इस के बाद पालुराजा द्वारा इस प्रकार कही गई कुती देवी ने पाडुराजा की आज्ञा को स्वीकार कर लिया और स्वीकार कर के उसने स्नान किया - काक आदि पक्षियों के लिये अन्न देने रूप चलि कर्म किया। बाद में वह हाथी के ऊपर बैठकर हस्तिनापुर नगर के बीच से होकर निकली - freest ar कुरुदेश के बीच से होती हुई जहाँ सौराष्ट जनपद था और उसमें भी जहा द्वारावती नगरी थी वहा पर भी जहाँ वह अग्रउद्यान था कि जिसमें बाहर से आये हुए पथिक विश्राम के लिये ठहर जाते थे वहां गई। वहा जाकर
-
(तरण सा कोंती देवी पडुरण्णा एव चुत्ता समाणी जाव पडणे, पडिणिता, पहाया कयनलिकम्मा हस्थिसवरगया हत्थिणाउर मज्झ मज्झेण निगच्छ, णिच्छित्ता कुरुजाणवय मज्न मज्झेण जेणेव सुरजणवप जेणेव धारवई जयरी जेणेव अग्गुज्जाणे तेणेव उपागच्छ, आगच्छत्ता हत्यिवधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता कोडु बियपुरिसे सहावेइ, सावित्ता एव वयासी ) ત્યારપછી પાંડુરાજા વડે આ પ્રમાણે આજ્ઞાપિત થયેલી કુતીદેવીએ પાડુરાજાની આજ્ઞાને સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તેણે સ્નાન કર્યું કાગડા વગેરે પક્ષીએ ને અન્નભાગ અર્પીને લિમ કર્યું ત્યારપછી તે હાથી ઉપર સવાર થઈને હસ્તિનાપુર નગરની વચ્ચે થઈને નીકળી નીકળીને તે કુદેશની વચ્ચે થઈને જ્યા સૌરાષ્ટ્ર જનપદ હતું અને તેમા પણ જ્યા અગ્ર ઉદ્યાન -तेमा હતુ કે જેમા મહારથી માવનારા પથિકા વિશ્રામ માટે
Page #689
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८९
मनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम्
ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कुती देनी स्नाता कृतवलिर्माण काकादिभ्यः कृतान्नसविभागा निमित्तभुक्तोत्तरागता जिमिता-भोजन कृतवती भुक्तोत्तरागताभुक्तोत्तरकाल-भोजनोत्तरकालम्-आगता, ता तया, यावत् सुखामनवरगताम्मुख पूर्वक विशिष्टासनोपविष्टाम् एवमवादीत्-हे पितृपसः । सदिशन्तु किमागमनप्रयोजनम् ?, ततः खलु सा कुन्ती देवी कृष्ण वासुदेवमेनमवादीत्-एव खलु हे पुत्र ! हस्तिनापुरे नगरे युधिष्ठिरस्याकाशतले सुग्वप्रमुप्तस्य पार्वाद द्रौपदी देवी न ज्ञायते केनापि अपहता यावद् अवक्षिप्ता वा, तत् तस्माद् गुच्छामि खलु हे पुत्र ! चले गये । कुनी ने वहा जाकर स्नान किया बलिकर्म किया। बाद में चतुर्विध आहार को जीमकर जब वे सुखपूर्नक बैठ गई तर कृष्ण वासुदेव ने उनसे कहा ( मदिसउ ण पिउच्छा ! किमागमणपओषण ? तएण सा कोंती देवी कण्ह वासुदेव एव बयासी एच खल पुत्ता! हत्यि णाउरे जुरिडिल्लस्स अगासतले सुहपस्तुत्तस्त पासाओ दोवई देवी ण णजइ, केणइ अपहिया जाव अवस्खित्ता वा त इच्छामिण पुत्ता! दोवई ए देवीए मग्गणगवेसण करित्तए) हे भुआजी ! कहिये-किस कारण से आप यहा पधारी हैं ? इस प्रकार कृष्ण वासुदेव के पूछने पर उस कुतीने उन कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहो-पुत्र ! सुनो-आने का कारण इस प्रकार है-हस्तिनापुर नगरमें प्रासाद की अवालिका के ऊपर सुखके साथ मोये हुए युधिष्ठिर के पास से द्रौपदी देवी न मालूम किसीने हरण करली है-यावत् किसी कुए मे या खड्डे में डाल दी है।
અદર ગયા કુતીએ ત્યા પહોચીને સ્નાન કર્યું અને બલિકર્મ કર્યું ત્યાર પછી ચાર જાતના આહારો જમીને જ્યારે તે સુખેથી સ્વસ્થ થઈને બેસી ગયા ત્યારે કૃષ્પ વાસુદેવે તેમને કહ્યું કે –
(सदिसत णं पिउच्छा । किमागमणपओयण ? तण्ण सा को ती देवी फण्ह वासुदेव एव वयासी एप सलु पुना ! हथिणोउरे णयरे जुहिदिहस्स आगासतले सुइपमुत्तस्स पासाओ दोनई देवीण णन्नइ, केणइ अवहिया जाय अवक्सित्ता वा त इच्छामि ण पुत्ता ! दोवईए मग्गणगवेसण करित्तए)
કહે, શા કારણથી તમે અહી આવ્યા છો? આ રીતે કૃષ્ણ વાસુદેવના પ્રશ્નને સાભળીને કુતી દેવીએ કૃષ્ણ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્ર! સાભળે, હુ એટલા માટે અહીં આવી છુ કે હસ્તિનાપુર નગરમા મહેલની અગાશી ઉપરથી સુખેથી સૂતેલા યુધિષ્ઠિરની પાસેથી ન જાણે કોણે દ્રૌપદી દેવીનું હરણ કરી લીધુ છે યાવત કોઈ કૂવામાં એ કે ખાડામાં નાખી દીધી છે એથી
पत्र | 5 R... -ौटी वानी धमाण थवी को
Page #690
--------------------------------------------------------------------------
________________
va
देव: कौटुम्बिकपुरुषाणामति पा निशम्य निकन्याठी इजा पदातिपरितो द्वारवत्या नगर्या मध्यमभ्येन यौन कुन्ती देवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तिसन्धात् मत्यवति कृत्या देव्याः पादग्रहण करोति, कला कृत्या देव्या सार्थ दस्तिस्कन्ध दुरुः दूदवि-आरोहतीत्यर्थः । दु द्वारत्या नगर्यो मध्येन कौरव गृहं तत्रोपाग उति उपागत्य स्वक गृहमनूमविशति ।
#
में
वासुदेव के लिये इम समाचार की पथर करदी कृष्ण वासुदेव कौड चिक पुरुषों के पास से इस समाचार को सुनकर और उसे हृदय धारण कर हाथी पर पैठ, ध्यगज, रथ एप पदातियो के साथ २ द्वारा वती नगरी के पांच से रोते एए जहाँ कृतीदेवी थी यश आये। (उवा गच्छत्तारविधाओ पच्चोमहह, पच्चोरुरिता कौतीए देवीए पाय ग्गहण करेड, करिता कॉतीय देवीए सद्धि हत्यिखध दुरूङ, दुरुहिता चारचईए यरी मज्झ मज्झेणं जेणेव सहेि तेणेव उवगच्छ
कित्ता सय गिद्द अणुपत्रिसह, तरण से पन्हे वासुदेवे कोंतीदेवीं पहाय कथनलिकम्म जिमियत्तत्तरागय जाव सुहासणवरगय एव वासी) वा आकर वे हाथी पर से नीचे उतरे और उतरकर कुती देवी के चरणो में नमन किया-चरण स्पर्श करके कृतीदेवी के साथ २ हाथी पर बैठ गये-पैठ कर के द्वारावती नगरी के ठीक भीतर से होकर जहां अपना गृह-प्रासाद-था वह आप नहा आकर प्रासाद के भीतर દીધી કૃષ્ણવાસુદેવે કૌટુબિક પુરૂષેાની પાસેથી આ સમાચારા સાભળીને તેને હદયમા ધારણ કરાને, હાથી ઉપર સવાર થઈને, ઘેાડા, હાથી, રથ અને પાય દળાની માથે દ્વારાવતી નગરીની વચ્ચે થઈને જ્યા કુતી દેવી હતા ત્યા આવ્યા ( उवागच्छित्ता हत्थिसधाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुद्दि कॉवीए देवीए पायग्गण करेइ, करिता फोतोए देवीए सद्धि हथिस दुइ, दुरुहिता बारवईए जयरीए मज्झ मज्झेण जेणेव सए गिहे वेणेव उपागच्छइ, आमन्त्तिा, सय गिद्द अणु पविसइ, वरण से कन्दे वासुदेवे कोंती देवी हाय कपबलिकम्म जिमियत्तु त रागय जाव सिहासनवरगय एव वयासी )
ત્યા પહેંચીને તેએ હાથી ઉપથી નીચે ઉતર્યાં અને ઉતરીને કુંતી દેવીને પગે લાગ્યા અને પગે લાગીને કુ તી દેવીની સાથે હાથી ઉપર સવાર થા સવાર થઇને જમા પૈતાન ભણ
A
لله
Page #691
--------------------------------------------------------------------------
________________
antaranी० अ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम्
કર
ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कुती देनी स्नाता कृतनलिर्माण कामादिभ्यः कृतान्नसविभागा जिमित्तभुक्तोत्तरागता जिमिता - भोजन कृतवती भुक्तोत्तरागताभुक्तोत्तरकाल- भोजनोत्तरकालम् - आगता, ता तथा यावत् सुखामनवरगता=मुखपूर्वकविशिष्टासनोपविष्टाम् एवमनादीत् - हे पितृप्पसः । सदिगन्तु किमागमनप्रयोजनम् ?, ततः खलु सा कुन्ती देवी कृष्ण वासुदेवमेनमवादीत् एव खलु हे पुत्र ! हस्तिनापुरे नगरे युधिष्ठिरस्याकाशतले सुखप्रसुप्तस्य पार्श्वाद् द्रौपदी देवी न ज्ञायते केनापि अपहता यापद् अवक्षिप्ता वा, तत् तस्माद् प्रच्छामि खलु हे पुत्र
I
1
चले गये । कुती ने वहा जाकर स्नान किया बलिकर्म किया। बाद में चतुर्विध आहार को जीमकर जब वे सुखपूर्वक बैठ गई तन कृष्ण वासुदेव ने उनसे कहा ( सदिसउ ण पिउच्छा ! किमागमणपओयण ? तणं सा कोंती देवी कण्ट वासुदेव एवं वयासी एव खलु पुत्ता ! हत्यि णाउरे जुहिहिस्स अगासतले सहपत्तस्त पासाओ दोवई देवी पण गज्जर, केइ अबहिया जाव अवस्खित्ता वा त इच्छामिण पुत्ता' दोवई ए देवीए मग्गणगवेसण करित्तए) हे भुआजी ! कहिये किस कारण से आप यहा पवारी है ? इस प्रकार कृष्ण वासुदेव के पूछने पर उस कृतीने उन कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहो - पुत्र ! सुनो- आने का कारण इस प्रकार है - हस्तिनापुर नगर में प्रासाद की अहालिका के ऊपर सुख सान सोये हुए युधिष्टिर के पास से द्रौपदी देवी न मालूम किसीने हरण करली है - यावत् किसी कुए मे या खड्डे में डाल दी है ।
અંદર ગયા કુતીએ ત્યા પહેાચીને સ્નાન કર્યું અને લિકમ કર્યું ત્યાર પછી ચાર જાતના આહારી જમીને જ્યારે તે સુખેથી સ્વસ્થ થઈને બેસી ગયા ત્યારે કૃષ્પ વાસુદેવે તેમને કહ્યુ કે
( सदिसउण पिउच्छा । किमागमणपओयण ? तण्ण सा कोती देवी hot वासुदेव एन वयासी एव सलु घुसा ! हत्यिणाउरे णयरे जुहिट्टिहस्म आगोसतले सुइपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवीण णन्नइ, वेणइ अवदिया जाव अवक्सिचा वा त इच्छामिण पुत्ता । दोवईए मग्गणगवेसण करितए)
1
કહેા, શા કારણથી તમે અહીં આવ્યા છે. આ રીતે કૃષ્ણ વાસુદેવના પ્રશ્નને સાભળીને કુતી દેવીએ કૃષ્ણ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે પુત્ર! સાભળેા, હુ એટલા માટે અહીં આવી છુ કે હસ્તિનાપુર નગમા મહેલની અગાશી ઉપરથી સુખેથી સૂતેલા યુધિષ્ઠિરની પાસેથી ન જાણે ાણે દ્રૌપદી દેવીનુ હરણ કરી લીધુ છે યાવત ઇ થામા એ કે ખાડામા નાખી દીધી છે એથી હુ ઇચ્છુ છુ કે દ્રૌપદી દેવીની શેાધખોળ થવી જોઈએ
पुत्र !
Page #692
--------------------------------------------------------------------------
________________
nanew
तापकणार द्रौपया देन्या मार्गणगरेपणं 'पारितामति । नन' गट रा कष्णों वासु देवः कुन्ती ' पिउन्धि' पिपगारमेयमार्गन-पान : पिठयम । यदि द्रौपचा देव्या कुत्रापि श्रुति माविमति पाया मे, 'तीण' तार खल, अह पावाला मानाद ना आगरा समयान गमतान् सवतः स्थानाद्, द्रौपदी देशी 'साहयि' पस्तन अमि' उपनयामि, इति कुलाः इत्युक्त्या सुन्ती 'पिउस्थि' पिनमार मसारति समानयति, सहकार्य
इस लिये हे पुत्र ! में चारती है कि दोपदी की मार्गणा एव गवेषणा होनी चाहिये । (ताण से कण्हे वासुदेव कोनी पिउनिउ वयासोजणघर पिउच्छी दोवडा देवीग फत्पा सुइ वा जार मामितोण अह पायालाओ वा भवणाओ अदभरहाओवा. ममतओ दोवड साहोत्य उवणेमि त्ति कह कोंती पिच्छिमारेड मम्माणेह, जार पडिविस ज्जेइ, तपणं सा कोंती दवी कण्टेण वासुदेवणं परिधिसज्जियो, समा णी जामेव दिसि पाउ० तामेदिसि पटिगया) तर कृष्ण वासुदेव ने अपनी भुआ कुती देवी से इम प्रकार फरा-हे भुआ! में और अधिक तो क्या कह द्रौपदी देवी की यदि में कही पर भी श्रुतिक्षुति, आर प्रवृत्ति पा लेता है तो मैं चाहे वह पाताल में हो. या किसीके भवन : हो, या अर्ध भरत क्षेत्र में से कही पर भी क्यों न हो-उस द्रौपदी देवा को सब जगह से अपने हाथों से ला कर दूँगा। इस प्रकार कहकर उन कृष्ण चासुदेव ने अपनी पितावसा कृती देवी का सत्कार किया
-
(तएण से कण्हे वासुदेवे कोत पिउच्छि एव क्यासी ज णर पिउछा दोबइए देवीए कथिइ सुइ वा जाव लभामि तो ॥ अह पायालाओ वा भवणासा अद्ध भरहाओ वा, समतओ दोवड साहथि उवणेमित्ति कद को ती पिता सकारेइ सम्माणेइ, जाव पडिविसज्जेइ, तरण सा को ती देवो कण्हेण वासुदेवण पडिविसज्जिया समाणी जामेव दिसि पाउ० तामेव दिसि पडिगया)
ત્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવે પિતાના ફેઈ કતી દેવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું ફાઈ ! હુ વધારે શું કહુ, દ્રૌપદી દેવીની જે હ કોઈ પણ સ્થાને શ્રુતિ શુ અને પ્રવૃત્તિ મેળવી લઈશ તે ભલે તે પાતાળમાં હોય, કોઈના ભવનમાં હોય કે અધ ભરત ક્ષેત્રમાં ગમે ત્યા કેમ ન હોય તે દ્રૌપદી દેવીને ગમે ત્યાથી હું લાવી આપને આપીશ તેમ છુ આ પ્રમાણે કહીને તે કષ્ણ વાસુદેવે પોતાના ઈ પિતશ્વસ-કતીદેવીને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું ત્યારે તે ન
Page #693
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनारमृणो टीका थ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
४२१
समान्य यावत् - प्रतिविसर्जयति । ततः खलु सा कुन्ती देवी कृष्णेन वामुदेवेन प्रतिविसर्जिता सती यस्या पर दिश' प्रादुर्भूता तामेव दिश प्रतिगिता | सू०२७ ॥ मूलम् - तणं से कहे वासुदेवे कोडुवियपुरिसे सहावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी- गच्छहण तुम्भे देवाणुप्पिया। बारवह एवं जहा - पडू तहा घोसणं घोसावेति जाव पञ्चपिणंति, पंडुस जहा तएण से कण्हे वासुदेवे अन्नया अतो अंतेउरगए ओरोहे जाव विहरइ, इमं चणं कच्छुल्लए जाव समोasए जाव णिसीइत्ता कण्ह वासुदेवं कुसलोदत पुच्छर, तएणं से कण्हे वासुदेवे कच्छुल्ल एवं वयासी- तुम ण देवाएप्पिया । वहूणि गामा जाव अणुपविससि त अत्थि याई ते कहिं विदोए देवीए सुती वा जाव उवलद्धा १, तएणं से कच्छुले कण्हं वासुदेव एवं व्यासी एवं खलु देवाणुपिया | अन्नया कयाइं धायईसंडे दीवे पुरत्थिमद्धं दाहिणतृभरहवास अवरककारायहाणि गए, तत्थ णं भए पउमनाभस्स रन्नो भवणसि दोवई देवी जारिसिया दिट्ठपुव्वा यावि होत्या तएण कण्हे वासुदेवे कच्छु एवं वयासी-तुन्भ
त्रण देवाप्पिया । एव पुव्वकम्म, तएणं से कच्छुलनारए कण्हेण वासुदेवेणं एव वृत्ते समाणे उप्पयणि विजं सम्मान किया, सत्कार सन्मान कर यावत् उन्हें प्रति विसर्जित कर दिया । इसके बाद वे कुती देवी वहा से प्रतिविसर्जित होकर जिस दिशा से प्रकट हुई थी - उसी दिशा की और चली गई ॥ मृ०२७ ॥
કરીને તેમને વિદાય કર્યો, ત્યારપછી તે કુતીદેવી ત્યાથી વિદાય મેળવીને જે દિશા તરફથી આવ્યા હતા તે જ તરફ પાછા રવાના થયા ।। સૂત્ર ૨૭ ॥ तएण से कण्हे वामुदेवे इत्यादि || सून २८ ॥
Page #694
--------------------------------------------------------------------------
________________
VER
वाताधर्मका
आवाहेइ आवाहिता जामेन दिसि पाउए तामेव दिसिं पडिगए, तपणं से कण्हे वासुदेवे दूयं सदावेद सहावित्ता एव वयासी - गच्छहणं तुम देवाणुप्पिया । हत्थिणाउर पंडुस्स रन्नो एमट्ट निवेदेहि एवं सलु देवाणुप्पिया । धायइसंडे दीवे पुरच्छिमडे अवरकंकाए रायहाणीए पउमणाभभवणंसि दोवइए देवीए पत्ती उवलडा, त गच्छंतु पंच पडवा चाउरगिणीए सेणाए सद्धिं सपरिवुडा पुरत्थिमवेयालीए मम पडिवालेमाणा चिट्ठतु, तएण से दूए जाव भगइ, पडिवालेमाणा चिहह ते वि जाव चिह्नति, तणं से कण्हे वासुदेवे कोडुवियपुरिसे सहावेइ सद्दावित्ता एवं वयासीगच्छह णं तुभे देवाप्पिया । सन्नाहियं भेरि ताडेह, ते वि - तालेति, तरणं तेसि सन्नाहियाए भेरीए सद सोच्चा समुद्दविजयपामोक्खा दसदसारा जाव छप्पण्णं वलवयसाहस्सीओ सन्नद्धवद्ध जाव गहियाउहपहरणा अप्पेगइया हयगया गयगया जाव वग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धार्वेति, तएण कण्हे वासुदेवे हत्थिखधवरगए सकोरटमलदामेण छत्तेण० सेयवर० हयगय० महया भडचडगर पहकरेण वारवईए णयरीए मज्झ मज्झेण णिग्गच्छइ, जेणेव पुरत्थिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ उवागच्छिंत्ता पचहि पडवेहि सद्धि एगयओ मिलित्ताग्वच र करे
AN
Page #695
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका थ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
४९३
करिता पोसहसाल अणुपविसइ अणुपविसित्ता सुट्ठिय देवं मणसि करेमाणे २ चिटूइ, तएण कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणसि सुट्टिओ आगओ, भणदेवाणुपिया | ज मए कायव्व, तएण से कण्हे वासुदेवे सुट्ठिय एवं वयासी - एव खलु देवाणुपिया | दोवई देवी जाव पउमनाभस्त भवणसि साहरिया तण्णं तुमं देवाणुप्पिया । मम पंचहि पंडवेहि सद्धि अपछहस्स छण्ह रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि, जण्ण अह अमरकंकारायहाणा दोवईए कूवं गच्छामि, तएण से सुट्टिए देवे कण्ह वासुदेव एव वयासीकिण्ह देवाणुपिया । जहा चेव पउमणाभस्स रन्नो पुव्वसंगइएणं देवेण दोवई जाव संहरिया तहा चैव दोवईं देवि धायइडाओ दीवाओ भारहाओ जाव हत्थिणापुर साह - रामि, उदाहु पउमणाभ राय सपुरवलवाहण लवणसमुद्दे पक्खिवामि, तएण कण्हे वासुदेवे सुट्ठिय देव एव वयासी -माण तुम देवाणुपिया | जाव साहराहि तुम णं देवाशुप्पिया । लवणसमुद्दे अप्पछटुस्स छण्ह रहाण मग्गं वियराहि, सयमेव ण अह दोवईए कूव गच्छामि, तएण से सुट्ठिए देव कण्ह वासुदेव एव व्यासी- एव होउ, पचहिं पडवेहिं अप्पछट्टस्स छण्ह रहाण लवणसमुद्दे मग्गं वियर, तएण से कहे वासुदेवे चाउरगिणसिण पडिविमज्जेइ - पडिवि - सज्जित्ता पचहि पंडवेहिसद्धि अप्पछडे छहि रहेहि लवणसमुद्द
Page #696
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६२
पाताभ आवाहेइ आवाहित्ता जामेव दिसि पाउभूए तामेव दिसिं पडिगए, तएण से कण्हे वासुदेवे दूयं सदावेद सदायित्ता एव वयासी-गच्छहण तुम देवाणुप्पिया! हस्थिणाउर पंडुस्स रन्नो एयमट्ट निवेदेहि एवं खल्लु देवाणुप्पिया । धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धे अवरककाए रायहाणीए पउमणामभवणसि दोवइए देवीए पउत्ती उवलडा, त गच्छंतु पंच पंडवा चाउरगिणीए लेणाए सर्टि सपरिवुडा पुरस्थिमवेयालाए मम पडिवालेमाणा चिट्ठतु, तएण से दूर जाव भणइ, पडिवालेमाणा चिहह ते वि जाव चिहति, तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुवियपुरिसे सहावेइ सदावित्ता एवं बयासीगच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया । सन्नाहियं भेरिताडेह, ते वि -तालति, तएण तेमि सण्णाहियाए भेरीए सदं सोचा समुद्दविजयपामोक्खा दसदसारा जाव छप्पण्णं वलवयसा हस्सीओ सन्नद्धवद्ध जाव गहियाउहपहरणा अप्पेगइया हयगया गयगया जाव वग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सु हम्मा जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छड उवागच्छित्ता करयल जाव बद्धाति, तएण कण्हे वासुदेवे हस्थिखंधवरगए सकोरटमल्लदामेण छत्तेण० सेयवर० हयगय० मया भडचडगरपहकरेण बारवईए णयरीए मज्झं मझेण जिग्गच्छइ, जेणेव पुरस्थिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ उवागञ्छित्ता पचहि पडवेहि सद्धि एगयओमिलित्ता र करे
Page #697
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
वासुदेवस्स दोवई, एसणं अहं सयमेव जुज्झसज्जो णिग्गच्छामि तिक दास्यं सारहि एव वयासी केवलं भो । रायसत्थेसु दूये अवझे तिकट्टु असक्काfरय असम्माणिय अवद्दारेणं णिच्छुभावह, तरणं से दारुए सारही पउमणाभेणं असक्कारिय जाव पिच्छूढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छद्द उवागच्छित्ता करयल० कण्हं जाब एव वयासी एवं खलु अह सामी । तुम्भ चयणेण जाव णिच्छुभावेइ || सू० २८ ॥
टीका- 'तरण से ' इत्यादि । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुपान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छत खल यूय हे देवानुप्रिय ' द्वारवतीं नगरीम्, 'एन यथा पाण्डुस्तथा घोषणां गोपयत ' - यथा पाण्डू राजा हस्ति नापुरे घोषणा कारितवान् तद्वदित्यर्थः । तेऽपि कौटुम्बिकपुरुषास्तथैव घोषणा
-
- तएण से कण्हे वासुदेवे इत्यादि ।
४९५
20
टीकार्य - (तएण ) इसके बाद ( से कण्हे वासुदवे) उन कृष्ण वासुदेव ने (कोपुरिसे सहावेह ) कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया (महावित्ता) बुलाकर (एव वयासी) उन से ऐसा कहा (गच्ह ण तुभे देवाणुप्पिया पारवह) हे देवानुप्रियों । तुम द्वारावती नगर में जाओ ( एव जहा पड्डु तहा घोसण घोसावेति जाव पच्चपिणति पडुस्स जहा ) वहा पांडु राजाकी तरह घोषणा करो-अर्थात् पाडु राजाने जिस प्रकार द्रौपदी की खबर लानेवाले के लिये अर्थ प्रदान का घोषणा अपने कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा हस्तिनापुर नगर में करवाई थी - इसी प्रकार की घोषणा करने के
"
,
तरण से कण्हे वासुदेवे ' छत्याहि
रीजर्थ - (तरण) त्यारपछी (से कण्हे वासुदेवे ) ते ऋष्णु वासुदेवे (कोडु बिय पुरिसे सहावेइ ) टु मिड पुरुषाने मोसाच्या ( साविचा) गोसावीने ( एव वयासी) तेभने या प्रभा ज्धु - ( गन्छ ण तुम्भे देवाणुनिया बारपई ) हे देवानुप्रियो ! तभे द्वारवती नगरीमा लगो ( एव जहा पडु तहा घोसण घोसावे ति जाव पञ्चव्विणति पडुरत जहा ) त्या पाडु राजनी प्रेम घोषणा કરી એટલે કે પાડુ રાજાએ જેમ દ્રૌપદીની શેાધ કવા માટેની દ્રવ્ય આપ વાની ઘાષણા હસ્તિનાપુર નગરમા કરાવી હતી તે પ્રમાણે જ વાષણા કરવા
Page #698
--------------------------------------------------------------------------
________________
૫૨૩
श्रीताचा
मज्झमज्झेणं चीइवयइ चीरवत्ता जेणेव अमरकंका राय हाणी जेणेव अमरकंकाण अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छर उवा गच्छित्ता रह ठवेइ ठवित्ता दारुयं सारहिं सहानेह सावित्ता एवं वयासी - गच्छहणं तुम देवाणुप्पिया! अमरकंकारायहाणी अणुपविसाहिर पउमणाभस्स रण्णो वामेण पाएणं पायपीढ अक्कमित्ता कुतग्गेणं लेहं पणामेहि तिवलिय भिउडिं णिडाले साहहु आसुरुते रुट्टे कुठे कुविए चडिक्किए एव वयासी- हं भो पउमणाहा । अपत्थियपत्थिया दुरतपंतलक्खणा हीणपुन्नचा उदसा सिरी हिरिधी परिवज्जिया अज्ज ण भवसि किन्न तुम ण याणासि कण्हस्स वासुदेवस्स अहव णं जुद्धसने णिग्गच्छाहि एस ण कण्हे वासुदेवे पंचहि पडवेहि अप्पछट्टे दोवई देवीए कूवं हव्वमागए, तएणं से दारुए सारही कण्हेणं वासुदेवेण एवं वृत्ते समाणे तुट्टे जाव पडिसुणेह पडिसुणित्ता अमरकका रायहाणि अणुपविसइ अणुपविसित्ता जेणेत्र पउमनाहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल जाव वढावेत्ता एव वयासी - एस ण सामी । मम विणयपडिवित्ती इमा अन्ना मम सामिस्स समुहाणत्तित्तिकद्दु आसुरुते वामपाएणं पायपीढ अणुकमइ अणुक्कमित्ता कोतग्गेणं लेह पणामइ पणामित्ता जाव कूव हव्वमागए, तएणं से पउमणाभे दारुणेणं सारहिणा एव वुत्ते समाणे आसुरुते त्तिवलि भिउडि निडाले साहहु एव वयासी - णो अप्पिणामि पणं अह देवाणुपिया 1
Page #699
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरित निरूपणम्
वासुदेवस्स दोवई, एसणं अहं सयमेव जुज्झसज्जो णिग्गच्छामि तिक दास्य सारहि एव वयासी केवलं भो । रायसत्थेसु दूये अवझे rिee असकारय असम्माणिय अवद्दारेणं णिच्छुभावइ, एणं से दारुए सारही पउमणाभेणं असक्कारिय जाव निच्छूढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल० कण्हं जाव एव वयासी -- एवं खलु अहं सामी । तुम्भ वयणेण जाव णिच्छुभावेइ ॥ सू० २८ ॥
टीका- 'तएण से ' इत्यादि । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुपान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमनादीत् गच्छत खलु यूय हे देवानुप्रिय ' द्वारचत नगरीम्, 'एव यथा पाण्डुस्तथा पोषणां प्रोपयत ' यथा पाण्डू राजा हस्ति नापुरे घोषणा कारितनान् तद्वदित्यर्थः । तेऽपि कौटुम्बिकपुरुषास्तथैव घोषणा
<
४९५
- तण से कण्हे वासुदेवे इत्यादि ।
टीकार्य - (तरण) इसके बाद ( से कण्हे वासुदवे) उन कृष्ण वासुदेव (कोपुर से सावे ) कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया (महावित्ता) बुलाकर ( एव वयासी) उन से ऐसा कहा (गच्छह पण तुभे देवाणुप्पिया बारवइ ) हे देवानुप्रियो ! तुम द्वारावती नगर में जाओ (एव जहा पड्डु तहा घोसण घोसावेति जाव पच्चष्पिणति पडुस जहा ) वहा पांडु राजाकी तरह घोषणा करो-अर्थात् पाडु राजाने जिस प्रकार द्रौपदी की खार लानेवाले के लिये अर्थ प्रदान का घोषणा अपने कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा हस्तिनापुर नगर में करवाई थी - इसी प्रकार की घोषणा करने के
पण से कहे वासुदेवे ' इत्यादि
,
-
अर्थ - (तएण ) त्यारपछी (से कण्हे वासुदेवे ) ते दृष्यु वासुदेवे (कोडु बिय पुरिसे सहावे ) जैटु भित्र पुरुषाने मोसाच्या ( सदावित्ता) मोसावीने एव वयासी) तेभने या अभाये ज्यु ठे - (गन्छ ण तुम्भे देवाणुपिया बारसई ) हे हेवानुप्रियो ! तमे द्वारवती नगरीमा लगो ( एव जहा पडु तहा घोसण घोसावे ति जाव पच्चपिणति पडुरस जहा ) त्या भाडु शन्ननी प्रेम ४ घोष કરા એટલે કે પાડુ રાજાએ જેમ દ્રૌપદીની શેાધ કવા માટેની દ્રવ્ય આપ વાની ઘેાષણા હસ્તિનાપુર નગરમા કરાવી હતી તે પ્રમાણે જ રાષણા કરવા
Page #700
--------------------------------------------------------------------------
________________
तामेव्या कया 'जार पचप्पिणति' यात प्रत्यर्पयन्ति-चोपणां जया-कणस्य वासुदेव स्पान्तिके ते कौम्भिापुरपा निवेदयनित-बारपत्या नगर्या सर्वत्र घोषणाकता ऽस्माभिरिति । 'पइम्स जहा' पाडाया गया पाडो पम्प वर्णकम्तथाऽत्रापि यो यः। यथा पाण्हराना होपयाः यान मनिलम्यान, तथा कृष्णा सुदेवोऽपि द्रौपद्याः श्रुत्पारिक न प्राप्तानिनि भारः रातःगल ऊष्णो वासुदेवा अन्यदाभन्यस्मिन पगिचित् समये 'तो' अन्त:-स्यमामाद अन्तःप्रगवा बरोधे यावद विहरति । 'इम च ण' अस्मिन् समये च मल 'पल्लएका ल्मको नारदो यार समरसता गगनतलादतान कप्तममनि ममागत यावत् निपद्य-उपविश्य गगनालादातरन कागममनि ममागतः, यात् निपध-उपविश्य लिये कृष्ण वासुदेव ने अपने कौटाम्यिक पुरुपों को आदेश दिया कि वे भी द्वारावती में इसी तरह की घोषणा करें। अपने राजा की आजानु सार उन्हों ने यारावती में घोषणा करदी और इस की ग्वयर पोछे कृष्ण वासुदेव को कर दो। यहा अपशिष्ट वर्णन पांड राजा के जसा वर्णन है वैसा ही जानना चाहिये । अर्थात् घोपणा कराने पर भी द्रोपदी को किसी भी प्रकार की खघर वगैरह का कोई भी समाचार पाडु राजा नहीं मिला वैसा कृष्ण वासुदेव को भी नहीं मिला (तएण) तथ (स कण्हे वास्तुदेवे अन्नया अतो अतेउरगए ओरोरे जाव विरह इस ण कच्छुल्लए जार समोसरए) कृष्ण वासुदेव एक दिन की बात कि अपने अन्त पुर के प्रासाद के भीतर अन्त पुर की स्त्रियों के साप बैठे हुए थे कि इसी समय चे कच्छुल्ल नाम के नारद आकाश माग માટે કૃષ્ણ વાસુદેવે પિતાના કૌટુંબિક પુરુને આજ્ઞા કરી કે તેઓ પણ દ્વારાવતી નગરીમાં આ પ્રમાણે જ ઘોષણા કરે પિતાના રાજાની આજ્ઞા પ્રમા તે લેકએ તારવતી નગરીમાં છેષણા કરી અને ઘોષણાનું કામ થઈ ગયું તેની ખબર પણ કૃણ વાસુદેવની પાસે પહોચાડી દીધી અહી અવશિષ્ટ વર્ણન પાડુ રાજાનું જેવું છે તે પ્રમાણે જ સમજી લેવું જોઈએ એટલે કે ઘોષણા કર્યા પછી પણ પાડુ રાજાને દ્રૌપદી દેવીની કઈ પણ જાતની ખબર કે સમાચાર મળ્યા નહિ તે પ્રમાણે કૃષ્ણ વાસુદેવને પણ કોઈ પણ સમાચારે ઘણુ मा भन्या नड (तएण ) त्यारे (से कण्हे वासुदेवे अन्नया अतो ७ उरगए ओरोहे जाव विहरइ, इमपण कछल्लर जाव समोसरए) मे વાત છે કે તે કૃષ્ણ વાસુદેવ પોતાના મહેલની અ દર રણુવાસની આ સાથે બેઠા હતા તે વખતે કચ્છતલ નામે નારદ આકાશ મા "
सो . त्या
Page #701
--------------------------------------------------------------------------
________________
____४९७
भनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् कृष्ण वासुदेवं कुशलोदन्त-कुशलवार्ता पृच्छति, तत. खलु स कृष्णो गासुदेवः कच्छुल्ल नारदमेनमवादी-हे देवानुप्रिय ! ल खलु बहनि ग्रामाकरादीनि परिभ्राम्यसि, तत्र वहनि गृहाणि यावदनुमविशसि तत् तस्मादस्ति 'आइ ' इति वास्यालकारे ते त्वया यदि कुत्रचिद् द्रौपद्यादेव्या श्रुति यावद् उपलब्या-नाता ? सर्हि कथय' इति भावः । ततः सलु स कच्छुल्लनारद कृष्ण वासुदेवमेवमयादीत्-एर खलु हे देवानुपियाः जहमन्दाकदाचिदू धातकीपण्डे द्वीपे पौरस्त्या=पूर्वदिग्भागव वर्तिनि, दक्षिणार्धभरतवर्प-अमरककानाम्नी राजधानी गत । तत्र ग्वलु मया उतरकर वहा आये-(जाव णिसी इत्ता कण्ह वासुदेव कुसलोदत पुच्छह, तएणं से कण्हे वासुदेवे कच्छुल्ल एव वयामी-तुम ण देवाणुप्पिया! घहणि गामागर जाव अणुपविससि त अस्थि आइ ते कहिं वि दोबईए देवीए सुतीया जाय उचलद्धा तग से कच्छुल्ले कण्ह वासुदेव एव वयासी) यावत् बैठकर उन्हो ने कृष्ण वासुदेव से कुशल वृत्तान्त पूछा -कृष्णवासुदेव ने तब कच्छुल्ल नारद से ऐसा करो-हे देवानुप्रिय ! तुम अनेक ग्राम आकर आदिस्थानों में परिभ्रमण करते रहते हो-अनेक गृहादिको में आते जाते रहते हो तो करो-कही पर क्या तुम्हें द्रौपदी देवी की श्रुति उपलब्ध हुई है-उसकी तुम्हें किसी प्रकार की कोई खयर मिली है-उसका किसी भी प्रकार का कोई चिन्द उपलब्ध हुआ है ? इस प्रकार कृष्ण वासुदेव के पूछने पर कच्छुल्ल नारद ने उन कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा--(एव खलु देवाणुप्पिया । अन्नया कयाइ
भाच्या (जाव णिसीइत्ता कण्ह वासुदेव कुसलोद त पुच्छइ, तएण से कण्हे वासुदेवे फच्छुल्ल एव वयासी, तुम ण देवाणुप्पिया! बहूणि गामागर जाव अणु पविमसि त अत्यि भाइ ते कहि वि दोवईए देवीए सुती वा जाव उवलदातपण से कच्छुल्ले कण्ह वासुदेव एव वयासी) त्या भावीने मे भने ममीन તેમણે કૃષ્ણ વાસુદેવને કુશળ વાત પૂરી વાસુદેવે ત્યારે કચ્છલ નારદને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ' તમે ઘણા ગ્રામ, આકર વગેરે સ્થાનમાં પરિ ભ્રમણ કરતા રહે છે, ઘણા ઘરે વગેરેમા આવજા કરતા રહે છે તે કહે, કઈ પણ સ્થાને તમને દ્રૌપદી દેવીની કૃતિ મળી છે-તેના તમને કોઈ પણ જાતના સમાચાર મળ્યા છે, તેનું કોઈ પણ જાતનું ચિહ્ન તમને મળ્યું છે? આ રીતે કૃષ્ણ વાસુદેવના પ્રશ્નને સાભળીને કચ્છતલ નારદે તે કૃષ્ણ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે –
(एव खलु देवाणुप्पिया | अन्नया कयाइ घायईसडे दीवे पुरथिमद्ध का ६३
Page #702
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९८
बताया
पणनाभस्य रातो भरने द्रौपदरीदेवी यारी काचिद्रौपदीमशी दीपनाम रातो
1
>
चाप्यभवन् अय भावःटा तु सा मयान सम्प ज्ञाता नापि सम्परिचित इति । स कृष्णो पावन्नारदमेव मनादीत् हे भियाः युमापा' पुत्रकम्म पूर्वकर्म - पूर्वकृत कर्म, युष्माभिरेवेया गर्म पूर्व कामिप । वालु म नारदः कृष्णेन मुक्त मन उतनी विद्यामारादयति जय यस्याः एवदिशः प्रादुर्भूतस्तामेन दिशं प्रतिगतः । ततः खलु स कृष्णो देवदूत यति= धायईसठे दीवे पुरस्मद् दाहिणभरस्याम अमरका रागहाणि गए तत्थ ण मग पउमनाभस्स रण्णो भवसि दोई देवी जामिया दि पुव्वा यावि होत्या, तरण कण्हे वासुदेवे कच्युल एप वयामी-तुभ चेवण देवाप्पिया | पुत्रकम्म-तणं से कारण कण्हे वासुदेवेण एव चुत्ते समाणे उप्पयणि विज्ज आवारे, आवाहिता जामेव दिसि पाउञ्भु तामेव दिसि पडिगए) सुनो में तुम्हें बताता है - हे देवाणुप्रिय ! मैं किसी एक समय द्वितीय धातकी खड द्वीप में पूर्व दिग्भागवत दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में अमरकका नाम की राजधानी में गया हुआ था वहा मैंने पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी जैसी - और एक नारी देखी थी - परन्तु मैं उसे अच्छी तरह नहीं जान सकान उससे परिचित ही हो सका। नारद की ऐसी बात सुनकर कृष्ण वासुदेव ने उनसे कहा हे देवानुप्रिय ' आपने ही ऐसा कार्य सब से पहिले किया है - इसके बाद उन कन्उल्ल नारदने कृष्ण वासुदेव के द्वारा दाहिणद्धभरहवास अमरकका रायहाणि गर, तत्थ म प मनाभस्रो भवण स्रि दोषई देवी, जारिसिया दिट्ठबुवा यावि होत्या, तरणं कण्हे वासुदेवे कच्छुल्ल एव वयासी तुम्भ चेवण देवाणुपिया ! एव पुत्र कम्म-तरण से कच्छुल नारए कण्हेण वासुदेवेण एव वृत्ते समाणे उत्पयणि विज्ज आवाइ, आवाहित्ता जामेव दिसि पाउए तामेव दिखि पडिगए )
સાભળે, તમને હુ બધી વિગત ખતાવું છુ હું રેવાનુપ્રિય ! કાઈ એક વખતે క ધાતકી ષડદ્વીપમા, પૂર્વ દિશા તરફના દક્ષિણા ભરત ક્ષેત્રમા, અમરકકા નામે રાજધાનીમા ગયા હતા ત્યા મે પદ્મનાભ રાજાના ભવનમા દ્રૌપદી દેવી નારી જોઈ હતી. પશુ હુ તેને સારી પેઠે એળખી
ू
શકય ન કૃષ્ણવા
પરિચિત થઇ શકી. નારદની આ વાત સાભળીને
યિ ! સૌ પહેલા તમે જ આ કામ કર્યું છે પરબની આ વાત સાભળીને
3
ત્યાર
Page #703
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेगरोधामृतपिणी टीफा० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४९९ आहयति, शब्दयित्वा-एवमवादीत-गच्छ खलु त्व हे देवानुप्रियाः ! हस्तिनापुर पाण्डोराज्ञ एतमर्थ निवेदय-एव खलु हे देवानुप्रिय ! धातकीपण्डे द्वीपे 'पुरत्यिमद्धे' पौरस्त्यार्थे पूर्व दिग्भागवर्तिनि अमरककाया राजधान्या पद्मनाभभवने द्रौपधा देव्याः मवृत्तिरूपलव्या, तत्-तस्मात् गच्छन्तु पञ्च पाण्डवाश्चतुरङ्गिण्या सेनया सा सपरिता 'पुरथिमवेयालीए' 'पौरस्त्यवेलायां-पूर्व दिग्वतिनि लवणसमुद्रे मा 'पडिवालेमाणा' प्रतिपालयन्तः-प्रतीक्षमाणा स्तिष्ठन्तु, ततस्त दनन्तर स दूतो यावत् पाण्डोरग्रे गत्वा कृष्णनासुदेनोस्त पचन भणति-कथयति 'पब्बिालेमाणा चिट्ठद' अय भाष:- पातकीपण्डे द्वीपे पूर्वदिग्भागर्तिनि अमरककाया राजपान्या पपनामभरने द्रौपया' प्रवृत्तिरुपलब्धा, तस्मात् पञ्च पाण्डइस प्रकार कहे जाने पर अपनी उत्पतनीविद्याका स्मरण किया। स्मरण करके फिर वे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा की और चले गये। (तएण से कण्हे वासुदेवे दूय सहावेइ सहावित्ता एवं क्यासी गच्छण तुम देवाणुप्पिया हत्यिणाउर पडत्त रणो ण्यम निवेदेहि) इसके बाद उन कृष्ण वासुदेव ने दूत को बुलाया-बुलाकर उससे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ-वहां पाड राजा से ऐसा करना-(एव खलु देवाणुप्पिया! घायइमडे दीवे पुरित्यिमद्धे अमरककाए रायहाणीए पउमणाभभवणसि दोबईए देवीए पउती उचलद्वा-त गच्छतु पच पडवा चाउरगिणीए सेणाए सहि सपरिवुजा पुरस्थिमवेयालीए मम पडिबालेमाणा चिट्ठतु)हे देवानुप्रिय ! वह वक्तव्य विपय यह है-धातकी पंड नाम के द्वीप में पूर्व दिग्भागवर्ती दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र मे वर्तमान अमरकका नाम की राजधानी मे पद्मनाभ राजा વિદ્યાનું સ્મરણ કર્યું સ્મરણ કરીને પછી તેઓ જે દિશા તરફથી આવ્યા डता ते हि त२६ पा२वाना 25 गया (तएण से कण्हे वासुदेवे दूय सदावेइ, सदायित्ता एव पयासी-गच्छ ण तुम देवाणुप्पिया । हत्यिणाउर पडुस्त रण्णो एय? निवेदेहि ) त्या२५छी ते पर वासुदेव इतने माराव्या भने બોલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે હસ્તિનાપુર નગરમાં જાઓ-અને ત્યા પાડુ રાજાને આ પ્રમાણે કહે કે
(एव सलु देवाणुप्पिया! धायइसडे दीवे पुरथिमद्धे अमरफकाए राय हाणीए पउमणाभा भवणसि दोषईए देवीए पउत्ती उपलखा-त गच्छतु पच पडवा चाउर गिणोए सेणाए सद्धि सपरिखुडा पुरस्थिमवेयालीए मम पडिवाले माणा चितु) पानुप्रिय ! पातही ५७ नाम द्वीपमा पूर्व दिशा त२५ना क्षिाधी ભરત ક્ષેત્રના વિદ્યમાન અમરક કા નામની રાજધાનીમા પદ્મનાભ રાજાના ભાવ
me
Page #704
--------------------------------------------------------------------------
________________
माताधर्मया पानामस्य गगो भाने द्रौपदीदेवी याशी पूर्ण चाप्यमान् , अय भावःकाचिद्रौपदीमहशी दगी पमनागप राशोमा यति गा मयान सम्यग शाता नापि सम्यम्परिचिता, इति । गडकणी पायरेकः पन्मुलनारदमेव मवादी-हे देशानुभिताः युग्मामेव गनु रम्ग 'पुमाम्म' पूर्वकर्म -पूर्वकृत कर्ग, युग्मागिरवेश कर्म पूर्व कामित्पर्य । 1. सल स लनारदः कृष्णेन वामदेवेने पमुक्त गा उतनी विद्यामाराध्यति । आपाय यस्याः एवदिशः प्रादुर्भूतस्तामेर दिर्श प्रतिगतः । ततः ग्यउरा प्यो समृदेवो दन शदयतिधायईसठे दीवे पुरधिमद्ध दारिणभर वाम अमरकका गाणि गए तत्थ ण मए पउमनामस्स रपणो भरणनि दोई देवी जानिमिया दिह पुचा यावि होत्या, ताण कण्हे वासुदेव कन्जुल व वयामी-तुम्भ चेव ण देवाणुप्पिया! पर पुनम्म्म-ताण से कतुलनार कण्हेणं वासुदेवेण एव चुत्ते समाणे उप्पयणि विज्ज आवाहेड, आवारिता जामेव दिसि पाउन्भु तामेव दिसि पडिगए) सुनो में तुम्हें यताता ह -हे देवाणुप्रिय ! मैं किसी एक समय ठितीय धातकी ग्वड डीप में पूर्व दिग्भागवर्ती दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में अमरकका नाम की राजधानी म गया हुआ था वा मैंने पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी जसा एक नारी देखी थी-परन्तु मैं उसे अच्छी तरह नहीं जान मका-आर न उससे परिचित ही रो सका- नारद की ऐसी बात सुनकर कृष्ण वासुदेव ने उनसे कहा हे देवानुप्रिय आपने ही ऐसा कार्य सब से पहिले किया है-इसके बाद उन कन्छल्ल नारदने कृष्ण वासुदेव द्वारा दाहिणभरहवास अमरकका रायहाणि गए, तत्वण मए पउमनाभस्म रण्णा भवण सि दोषई देवी, जारिसिया दिवपुव्वा यावि होत्या, तरण कण्ई वासुदन फच्छल्ल एव वयासी-तुभ चेवण देवाणुप्पिया ! एव पुत्र कम्म-तरण स कछुल नारए कण्हेण वासुदेवेण एव वुत्ते समाणे उप्पयणि विज्ज आवाहेइ, आवाहिता जामेव दिसि पाउन्भुए तामेव दिसि पडिगए)
સાભળો, તમને હુ બધી વિગત બતાવું છું હે દેવાનુપ્રિય કોઈ એક વખતે હું ધાતકી ષડદ્વીપમા, પૂર્વ દિશા તરફના દક્ષિણા ભરત ક્ષેત્રમાં, અમરકકા નામે રાજધાનીમાં ગયો હતો ત્યા મે પદ્મનાભ રાજાના ભવનમાં દ્રૌપદી દેવી જેવી એક નારી જોઈ હતી પણ હું તેને સારી પેઠે એળખ શક્ય નહિ અને ન તેનાથી પરિચિત થઈ શકે નારદની આ વાત સાંભળીને કૃષ્ણ વાસુદેવે તેમને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! સૌ પહેલા તમે જ આ કામ કર્યું છે ત્યારપછી તે કચ્છતલનારદે કૃષ્ણ વાસુદેવની આ વાત સાંભળીને ?
Page #705
--------------------------------------------------------------------------
________________
terranean का अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५०१
शब्दयित्वा एवमवादीत् - गच्छत खलु यूय हे देवानुमिया सानाहिकी सैनिकानां सज्जीभवनार्थं नादो यस्यास्ता भेरीं ताडयत तेऽपि ताडयन्ति, ततः खलु तस्या सानाहिक्या भेर्याः शब्द श्रुत्वा समुद्रविजयममुखा दश दशाह यावत् ' उप्पण्ण बलवयसाहसीओ 3 पट्पञ्चाशद् बलवत्साहस्रयाः = पट्पञ्चाशत्सहस्रप्रमिता वलवन्त इत्यर्थः ' सन्नद्धवद्ध - जाव गाहियाउहपहरणा ' अन यावच्उन्देनैव द्रष्टव्यम्सन्नद्धद्धवर्मितकवचा उत्पीडितशरासनपट्टकाः पिनद्वग्रैवेयबद्धाविद्धविमल वरचिह्नपटाः गृहीतायुमहरणा इति । व्याख्याऽस्मिन्नेवा ययने पूर्वमुक्ता अप्येकिकाः = केचिद् दयगताः केचिद् गजगता यावद् वागुरापरिक्षिप्ताः = मनुष्यनृन्दैः परिवृता', यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य करतल० यानद् जयेन विजयेन वर्धयन्ति । ततः खलु कृष्णो वासुदेवो हस्तिस्कन्धवरगतः सको
उनसे ऐसा कहा - हे देवानुप्रियों । तुम सुधर्मा सभा में जाओ व जाकर तुम सानाहिकी भेरी बजाओ | कौटुम्बिक पुरुषोने ऐसा ही किया सुधर्मा सभा में जाकर उस सानाहिकी भेरीको बजाया । इस सानाहि की भेरीकी गर्जन को सुनकर समुद्रविजय आदि दश दशार्ह यावत् ५६, हजार प्रमित बलवीर पुरुष सन्नद्ध बद्धर्मित्रतकवच होकर, यावत् आयुव प्रहरणों को लेकर तैयार सुसज्जित हो गये । यहाँ यावत् शब्द से उत्पी डितशरासन पट्टकाः, "पिनद्धायैवेयद्धविद्धविमलवर चिह्नपट्टाः इस पाठ का संग्रह हुआ है । इन शब्दो की व्याख्या इसी अ ययन मे पहिले की जा चुकी है। इनमें कितनेक घोडों पर, कितनेक हाथियों पर, बैठकर अन्य मनुष्यों के समूह से परिवृत्त हो जा वह सुधर्मा सभा और जरा वे कृष्णवासुदेव थे वहाँ आये। (उबागच्छित्ता करयल जाब
: "7
કે હૈ દેવાનુપ્રિયે ! તમે સુધર્મા સભામા જાએ, ત્યા જઇને તમે સાનાહિકી ભેરી વગાડા, તે કૌટુ ખિક પુરુષાએ પણ તે પ્રમાણે જ આજ્ઞાનુ પાલન કયુ' સુધર્માં સભામા જઈને તેઓએ સાનાÌકી ભેરી વગાડીસાનાહિકી શેરીના અવાજ સાભળીને સમુદ્રવિજય વગેરે દશ દશાઈ યાવતુ ૫૬ હજાર પ્રમિત ખળવીર પુરૂષા કવચા વગેરેથી સુસજ્જ થઇને યાત્ આયુધ પ્રહરણાને લઇને तैयार थह गया खर्डी यावत शब्दथी " उत्पीडितशरासनपट्टा, पिनद्ध मैवेयक षद्धानिदविमल रचिह्नपट्टा " मी पाहता सग्रड थयो छे भी शण्होनी व्याया
આ અધ્યયનમા જ પહેલા કરવામા આવી છે. આમા કેટલાક ઘેાડાઓ ઉપર, કેટલાક હાથી ઉપર એમીને તેમજ કેટલાક માણુસેના સમૃહેથી પરિવ્રુત થઇને જવા તે સુવર્મા, સભા અને જના કૃષ્ણુ-વાસુદેવ હતા ત્યા આવ્યા
Page #706
--------------------------------------------------------------------------
________________
५..
Meen tswanememummy
माताधर्म पाश्चतुरहिण्या सेनया सार्थ सपरिवा' पौरस्त्ययेागा मा प्रतिपालगन्तस्ति
प्रन्तु ' इति । एव वृतमुखान हप्णयागुतोक्त न श्रुत्वा तेऽपिम्पशापामा __ यारत् तिष्ठन्ति । ततः खलु स कृष्णो पाया कौटुम्बिापुरुषान् सम्दयति,
के भवन में द्रौपदी देवी की गयर मिली है-मलिये पाचो पाप चतुरगिणी सेना के साथ युक्त होकर लवण समुद्र की पूर्व दिग्भाग चर्तिनी वेला पर जाकर यहाँ मेरी प्रतीक्षा करें। (तपण से दूर जाव भणह, पडिवालेमाणा विहार, ते विजार चिति, ताण से कण्हे वास देवे फोपियपुरिसे समावेश मारिता एव पयासी-गच्छह ण तुम्मे देवाणुपिया! सन्नारिय भेरि ताटे ते वि ताति, तण्णं तीसे सण्णा हियाए भेरिए सद्द मोच्चा विजयपामोरवा, दस दमारा जाव छप्पण्ण पलवयसारस्सीओ सन्नद्धयह जान गपियाउपररणा अप्पेगड्या एयगया, गयगया, जार घग्गुरा परिस्पित्ताजेणेव सभा सुहम्मा जणव कपणे वासुदेवे तेणेव उवागच्छ)स प्रकार अपने राजा कृष्णवास देव की आज्ञा लेकर वह दूत हस्तिनापुर गया वहाँ जाकर उसने इस समाचार को पाइराजा से कह दिया। वे पाचों पाटय इस समाचार दूत के मुस से सुनकर चतुरगिणी सेना के साध लवण समुद्र कप दिग्भागवर्ती तट पर जाकर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा में ठहर गया इसके बाद कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्विक पुस्पों को बुलाया-बुलाकर નમાં દ્રૌપદી દેવીના વાવડ મળ્યા છે તો હવે પાર પાડવે ચતુર ગણી સેનાના સાથે પ્રયાણ કરીને લવ સમુદ્રના પૂર્વ કિનારા ઉપર પહોંચીને મારી પ્રતીક્ષા કર
(तएण से दूर जाय भणइ, पडियाले माणा चिद्रह ते वि जाव चिट्ठति, तएण से कण्हे वासुदेवे कोडुनिय पुरिसे सद्दावेइ सहावित्ता एव वयास गच्छ ण तुभे देवाणुपिया। सन्नाहिय भेरि ताडेह वे वि ताडे ति, तएण से सण्णा हियाए भरीए सद्द सोचा समुहविजयपामोक्सा, दस दसारा जाव छपण साहस्सीओ सन्नद्धबद्धजाव गहियाउहपहरणा अप्पेगइया हयगया, गयगया, " वगुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेगेव कण्णे घासुदेवे तेणेव उन
આ રીતે પિતાના રાજા કૃષ્ણ વાસુદેવની આજ્ઞા મેળવીને તે દૂત ઉજ નાપુર તરફ રવાના થયે ત્યાં પહોંચીને તેણે પાડુ રાજાને બધા સમાચાર કહી સંભળાવ્યા પાચે પાડો ઇતના મુખથી આ સમાચાર સાભળીને પોતાના ચતુર ગિણી સેના સાથે ત્યાથી પ્રયાણ કરીને લવણ સમુદ્રના પૂર્વ કિનારા ઉપજ પહોચીને ત્યાં કૃષ્ણ વાસુદેવની પ્રતીક્ષા કરતા રોકાઈ ગયા તયારપછી કે વાસુદેવે કૌટુંબિક પુરુષોને લાવ્યા અને બોલાવીને તેમને
કઇ
Page #707
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०३
भनगारधर्मामृतर्यापणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् एकतः एकस्मिन् स्थाने मिलति, मिलिला स्कन्धावारनिवेश सैनिकानामावास करोति कृत्या पौपधशालामनुप्रविशति, अनुमविश्य " सुद्विय देन " मुस्थितसुस्थितनामान देर लमणममुद्राधिष्ठित मनसि कुर्वन् स्मरन् तिष्ठति, तत• खलु कृष्णस्य वासुटेक्स्याएमभक्ते परिणममाणे मुस्थितो देव पागतः, जागत्य वदतिहे देवानुप्रियाः ! भणन्तु कथयन्तु यन्मया कर्तव्यमिति ततः खलु स कृष्णो वासुदेव मुस्थितदेवमेवमवादी-एव खलु हे देवानुपिय ! द्रौपदी देवी यावत् पद्मनाभस्य भवने सहता, तत्-तस्मात् खलु स हे देवानुपिय ! मम पञ्चभि: पाण्ड. सार्धं 'अप्परस ' आत्मपष्ठस्य-आत्मा-जह पप्ठो या तस्य समुदायस्य-अस्माकं पण्णामित्यर्थः, पण्गा रयाना लपणसमुद्रे मार्ग वितर-देहि, येनाह ममरकडा राजपानी द्रौपद्या देव्याः 'स्व' प्रत्यानयनरत् गच्छामि । वहा पहुँचकर वे पांच पांडवों के साथ एक स्थान पर समिलित हुए। समिलित होकर उन्होंने अपनी सेना को ठहर ने का स्थान नियत किया-स्थान नियतकर के फिर वे पीपधशाला में प्रविष्ट हो गये वहां प्रविष्ट होकर उन्हो ने लवण समुद्र के अधिपति सुस्मित देय का स्मरण किया। इसके बाद जय कृष्णवासुदेव का अष्टमभक्त समाप्त हो रहा था-तय यह सुस्थित देव उनके पास आयो-और कहने लगा हे देवानुप्रिय! कहिये-मेरे लायक क्या काम है ? (तण्ण से कण्हे वासुदेवे सुट्टिय एव वयासी एव खलु देवाणुप्पिया। दोवई देवी, जार पउमनाभस्स भवणसि साहरिया, तएण तुम देवाणुप्पिया मम पवहि पडवेहि सद्धि अप्पास्स छण्ड रहाण लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि, जाण अह अमरककारायहाणी दोवईए कवं गच्छामि, तएणं से सुहिर देवे कण्हं હતું ત્યા પહેચ્યા ત્યા પહેચીને તેઓ પાશે પાની સાથે એક સ્થાને એકત્ર થયા એકત્ર થઈને તેમણે પિતાના સૈન્યના પડાવનું સ્થાન નક્કી કર્યું સ્થાન નક્કી કરીને તેઓ પૌષધશાળામાં પ્રવિણ થયા ત્યાં જઈને તેઓએ લવણ સમુદ્રના અધિપતિ સુસ્થિત દેવનું સ્મરણ કર્યું ત્યારબાદ જ્યારે કૃણવાસુદેવને અષ્ટમ ભક્ત પૂરો થઈ રહ્યો હતો, ત્યારે તે સુસ્થિત દેવ તેમની પાસે આવ્યું અને કહેવા લાગ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! બેલે, મારા લાયક કામ છે ?
(तण्ण से कण्हे वासुदेवे सुट्टिय एष वयासी एव स्खलु देवाणुप्पिया। दोनईदेवी, जाब पमनाभम्स भरणसि साहरिया, तएण तुम देवाणुप्पिया मम पचहि पडवेहि सद्धि अप्पउहस्स छह रहाण लवणसमुद्दे मग्ग पियरेहि, जण्ण अह अमरकका रायहाणी दोवईए कूव गच्छामि, तएण से मुटिए देवे कण्ह
Page #708
--------------------------------------------------------------------------
________________
mmer
ताज्या रण्टमात्यदाम्ना छत्रेण धार्यमाणेन वारचामर रायमानः, हयगतरथपदावि सपरिरतो महामटटयरप्रकरण द्वारपत्ता नगर्या गगन निगन्छति, यय पौरस्त्याला तारोपागशि उपागस्य पामि.
पासह 'एगयओ' घद्वाति, तण्ण फण्टे यासुदेरे थियधधरग मकोरटमल्लदामेण छत्तेण० सेयवर यगय०मया म गरपट करेण पार गई णयरीण मझ मझेण णिगच्छा, जेणे पुरतिवमवेयाली तेणेव उवागच्छा, उयागच्छित्ता पहिं परि मदि गयो मिरम, मिलित्ता ग्वधावा रणिवेस करेड, करित्ता पोमामाल अणुपविसह, अणुपरिसित्ता सुट्टिय देव मणसिं फरेमाणे २ चिद, तण कणम्स बासुदेवस्स अहम मतोस परिणममाणसि सुट्टिमो आगो मग देवाणुप्पिया जमए कायव्य) वा आफर उन सपने कृष्णवासुदेव को दोनो हाथ जोरफर बड़े विनय के साथ नमस्कार करते हुए जय विजय शब्दों द्वारा बधाई दी। इसक चोद वे कृपणासुदेव हाथी पर सवार सवार होते ही छनधारिया ने उन पर कोरट पुष्पों की माला से पिराजित पत्र ताना, चोमर ढोरन वालों ने उनपर श्वेत चामर ढोरना प्रारभ कर दिया। इस प्रकार त्य गज, रय, एव पैदलसेना से घिरे हुए वे क्राणवासुदेव महाभटी के समूह के साथ २ दारावती नगरी के बीच से रोकर निकले, निकलकर जहा वह लवगसमुद्र की पूर्व दिग्भागवर्तिनी वेला यी वहा पहुंचे।
(उवागच्छित्ता करयल जान पद्धाति, तरण कण्हे वासुदेवे हत्थि खध वरगए सकारटमल्लदामेग छत्तेग सेयपर हयगय महया भडचडगरपहकरण वारबईए णयरीए मज्झ मज्ज्ञेण णिगच्छद जेणेन पुरथिमवेयाली तेणेव उपा गच्छइ, उपगच्छित्ता पचहिं पडवेंहि सद्धि एगयओ मिलइ. मिलित्ता खधावार णिवेस करेइ, करित्ता पोमहसाल अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, सुट्टिय देर मणात करेमाणे २ चिट्टइ, तएण कण्हम्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तसि परिणममाणसि सुटिआ आगो भणदेवाणुप्पिया! जमए कायय)
ત્યા પહેચીને તે બધાએ બને હાથ જોડીને બહુ જ વિનમ્રતાથી નમ સ્કાર કરતા જયવિજય રાખેથી તેમને વધામણી આપી ત્યારપછી તે કૃષ્ણ વાસુદેવ હાથી ઉપર સવાર થયા સવાર થતા જ છત્રધારીઓએ તેમની ઉપર કેરટ પુષ્પની માળાથી શોભતું છત્ર તાર્યુ તેમજ ચામર ઢાળનારાઓને ચામર ઢાળવાની શરૂઆત કરી આ પ્રમાણે ઘડા. હાથી, રથ અને પાયદળ પરિવૃત્ત થયેલા તે કૃષ્ણ-વાસુદેવ મહાભટેના સમૂહની સાથે સાથે દ્વારા નગરીની વચ્ચે થઈને પસાર થયા અને જ્યા તે લવણ
Page #709
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतयपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५०५
मवादीत् मा खलु त्व हे देवानुमिय । यावत् सहर, स खलु हे देवानुमिय | लवणसमुद्रे आत्मपष्ठस्य पण्णा स्थानां मार्ग ' नियराहि ' वितर=देहि, स्वयमेन खल्वह द्रौपद्या देव्या ' क्रा' प्रत्यानयनकर्तुं गच्छामि, ततः खलु स सुस्थितो अथवा आपकी आज्ञा हो तो नगर, सैनिक, और वाहन सहित पद्म नाभ राजा को लवण समुद्र में डुबा दे सकता हूँ (तरण कण्हे वासुदेवे सुट्टिय देव एव वयासी) जय कृष्णवासुदेव ने उस स्वस्तिक देव से इस प्रकार करा - (माण तुम देवाणुपिया ! जाव साहराहि तुम ण देवाणु पिया ! लवणसमुद्दे अप्परटुस्स छण्ट रहाण लवणसमुद्दे मग्ग वियराहि सरमेव ण अर दोवईए कब गच्छामि, तरण से सुट्टिए देवे कण्ह वासुदेव एव वयासी, एव होड, पचर्हि पडनेहिं सहि अप्पट्टस्स उपह रहाणं लवणममुद्दे मग वियरड तरण से कण्हे वासुदेवे चाउरगिणी सेणं पडिविसज्जे, डिसिज्जिता पचहिं पडवेहिं मर्द्धि अप्प छरि रहेहिं लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण वीइवयइ, बीडवदत्ता जेणेव अमर कको रायहाणी, जेणेव अमरककार अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छड ) हे देवानुप्रिय । तुम ऐसा मत करो अर्थात् पद्मनाभ के भवन से द्रौपदी देवी को हरण मत करो, और न पद्मनाभ राजा को नगर, सैनिक एव वाहन महित लवणसमुद्र में प्रक्षिप्त करो, तुम तो केवल हे देवानुप्रिय ! हमारे छहों रथों को लवणसमुद्र में मार्ग दे दो । में તમારી આજ્ઞા હાય તેા નગર, નૈનિક અને વાહન સહિત પદ્મનાભ રાજાને લવણુસમુદ્રમા ડુબાડી નાકું તેમ છુ (तरण कण्हे वासुदेवे सुट्ठिय देव एव वयासी ) त्यारे - वासुदेवे ते वस्ति हेवने या प्रभा -
(माण तुम देनाणुपिया | जाव साहराहि तुम ण देवाणुपिया ! लवणसमुहे अप्पउनुस्म उन्ह रहाण लवणसमुदे मग्ग वियराठि सयमेवण अह shar कुत्र गच्छामि, तरण से सुट्ठिए देवे कण्ठ वासुदेव एव वयासी, एव होउ, पच पडवेहिं सद्धिं पट्टस्स उन्ह रहाण लवणममुद्दे मग्ग वियर, तण्ण से कहे वासुदेवे चाउरगिणी सेण पडिविसज्जेड, पडिसिज्जित्ता पचहिं पडयेहिं सद्धिं अपछडे छहिं रहेडिं लवणसमुद मज्ज्ञ मज्क्षेण वीश्वयइ, वीइवइत्ता जेणेव अमरकंका रायद्दाणी, जेणेन अमरककाए अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छर )
હે દેવાનુપ્રિય ! તમે આ પ્રમાણે કરવાની તસ્દી લે! નહિ એટલે કે પદ્મનાભના ભવનમાંથી દ્રૌપદી દેવીનુ હરણ કરેા નહિ તેમજ પદ્મનાભ ગન્તને નગર, સૈનિક અને વાટુન સહિત લવણુ સમુદ્રમા ફેકે પશુ નહિ. તમે તે હે દેવાનુપ્રિય ! ફક્ત અમારા છએ રા માટે લવણુ સમુદ્રમા મા
આપે
Su
Page #710
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०४
आताsame तत खलु स मुस्थितो देव कृष्ण नामदेग्मेरमादीद-हे देवानुप्रिय 1 किला यथैव पानामस्य रामः पूर्वरागतिकनीन द्रौपदी यापन् गहना, तथैव द्रौपदी देवी धातकीपण्डाद्वीपाद भारतार गारद निनापुर सहरामि । ' उदाइ' उतादो ! अथवा. ग्थय, पमनाम गजान मारपल पारनं जागरसनिकनाउन सहित ल्यणसाने मविपामि ? उतः रातु कयो वामदेवः सुस्थित देवम् एष घासुदेव पर ययासी किण्ह देवाणुपिया! जा चेन पउमणामस्स रसो पुन्वसगहएण देण दोवई जार सारिया, ता चे दोयई देवि घाईस डाओ दीयाओ भारराओ जागतिपणापर माहरामि, उदार पउमणाम रायमपुरयल पारण लपणसमुरे पशिाामि') तर कृष्णवासुदेवन उस सुस्थित देव से इस प्रकार फरा-रे देवानुप्रिय ! सुनो-द्रौपदी देवा योवत पमनाम के भवन में हरण कर रखी गई है इमलिये हे देवानु प्रिय ! तुम आत्मपष्ठ मेरे पाच पाटयो के माध उही रथों को लवण समुद्र में मार्ग प्रदान करो। अर्थात् पाच पाडवों के और छटे मेरे इस प्रकार हमारे उर रथों को जाने के लिये रास्ता दो-फि जिससे मैं अम रकका राजधानी में द्रौपदीदेवी को वापिस ले आने के लिये जा सकू । तप सुस्थित देव ने उन कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-हे देवानु प्रिय । जिस प्रकार पद्मनाभ राजा के पूर्व सगतिक देवने द्रौपदीदेवी का यावत् हरण किया है, उसी तरह में भी द्रौपदी देवी को धातकी खा द्वीप के भरत क्षेत्र से यारत् हस्तिनापुर में हरणकर ला सकता है वासुदेव एव वयासी किण्ह देवाणुप्पिया ! जहा चेव पउमणाभस्स रनो पुन्य सगइएण देवेण दोवई जार सहरिया, तहा चेव दोबई देवि धायइसडा दीवाओ भारहाओ जार इत्थिणापुर साहरामि, उदाहु पउमणाभ राय सपुर वाहण लपणममुद्दे पक्खियामि ?)
ત્યારે કૃષ્ણ-વાસુદેવે તે સુસ્થિત દેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનું પ્રિય ! સાભળે, દ્રૌપદી દેવી યાવત પનાભના ભવનમાં હરણું કરીને, વામાં આવી છે એટલા માટે હે દેવાનપ્રિય! તમે “આત્મષણ? મારા તેમજ પાચે પાડવાના છ રને લવણ સમુદ્રમાં થઈને પસાર થવા માટે માંગ એટલે કે પાર પાડવાના અને છઠ્ઠા મારા આમ છએ રથને પસાર થઈ માટે રસ્તે આપે જેથી હું દ્રૌપદી દેવીને પાછા લાવવા માટે અમારી 8 રાજધાનીમા જઈ શકુ ત્યારે સ્થિત દેવે તે કણ–વાસુદેવને આ પ્રમાણે કે હે દેવાનુપ્રિયા પદ્મનાભ રાજાના પ્રસ ગતિક દેવે જેમ દ્રૌપદી દેવી યાવત્ હરણ કર્યું છે, તેમજ હુ પણ દ્રૌપદી દેવીને ધાતકી ખડદ્વીપના ભરવા ક્ષેત્રમાંથી યાવત હસ્તિનાપુરમાં હરણ કરીને લાવી શકુ ” અને “
ને રાખ
Page #711
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् मवादी-मा खल त्व हे देवानुप्रिय । यावत् सहर, व खलु हे देवानुपिय । लवणसमुद्रे आत्मपाठस्य पण्णा रवानां मागं 'पियराहि ' वितर-देहि, स्वयमेन खल्लह द्रौपद्या देव्या 'कर' प्रत्यानयनकतुं गच्छामि, ततः खलु स सुस्थितो अथवा-आपकी आजा हो तो नगर, सैनिक, और वाहन सहित पद्म नाभ राजो को लवण समुद्र में अषा दे सकता हूँ (तण्ण कण्हे वासुदेवे सुहिय देव एव चयाती) जन कृष्णवासुदेव ने उस स्वस्तिक देव से इस प्रकार करा-(माण तुम देवाणुप्पिया ! जाव साहराहि तुम ण देवाणु पिया! लवणसमुद्दे अप्पट्ठस्स छण्ड रहाण लषणसमुद्दे मांग विय राहि सयमेव ण अह दोवईए क्रय गच्छामि, तण्ण से सुटिए देवे कण्ट वासुदेव एव वयासी, एव होड, पचहि पडवेहिं सद्धिं अप्पछहस्स उपह रहाण लवणममुद्दे मग्ग वियरड तण्ण से कण्हे वासुदेवे चाउरगिणी सेण पडिपिसज्जेइ, पडिविसज्जिता पचहिं पडवेहि मद्धि अप्पटे छहिं रहेहिं लवणसमुद मज्ज्ञ मझेण वीट्वयइ, बीदवइत्ता जेणेच अमर कको रायहाणी, जेणेब अमरककाए अगुज्जाणे तेणेव उवागच्छद) हे देवानुप्रिय ! तुम ऐसा मत करो-अर्थात् पद्मनाभ के भवन से द्रौपदी देवी को हरण मत करो, और न पद्मनाभ राजा को नगर, सैनिक एव वाहन सहित लवणसमुद्र में प्रक्षिप्त करो, तुम तो केवल हे देवानुप्रिय ! हमारे छहों रथों दो लवणसमुद्र में मार्ग दे दो। मैं તમારી આન હોય તો નગર, મિનિટ અને વાહન સહિત પૂનાભ રાજાને सवसमुद्रमा माडी म छु (तएण कण्हे वासुदेवे सुद्विय देव एव वयासी ) त्यारे -वासुदेव ते ३रित वने प्रभाग ४ :
( माण तुम दवाणुप्पिया ! जाव साहराठि तुम णं देवाणुप्पिया ! लवणसमुझे अप्पछस्म उण्ह रहाण लवणसमुद्दे मग्ग वियराठि सयमेव ण अह दोवईए
व गच्छामि, तएण से सुटिए देवे कण्ह वासुदेव एव क्यामी, पव होउ, पचहि पडवेहिं सद्धि अप्पउट्ठस्स छण्ह रहाण लवणममुद्दे मग्ग पियरइ, तण्ण से कण्हे वासुदेवे चाउरगिणी सेण पडिविसज्जेट, पडिविसज्जित्ता पचहिं पडयेहि सद्धि अप्पछठे छहि रहेहिं लपणसमुद मज्ज्ञ मज्झेण वीइवयइ, वीडवइत्ता जेणेव अमररका रायहाणी, जेणेच अमरककाए अरगुजाणे तेणेव उवागन्द)
હે દેવાનુપ્રિય! તમે આ પ્રમાણે કરવાની તસ્દી લે નહિ એટલે કે પદ્મનાભના ભવનમાથી દ્રૌપદી દેવીનું હરણ કરો નહિ તેમજ પનાભ ગજાને નગર, સેનિક અને વાહન સહિત લવણ સમુદ્રમા ફેક પણ નહિ તમે તે
: : --“શ છએ માટે લવણ સમુદ્રમા માર્ગ આપો
Page #712
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०४
माताधर्मशान तत खलु स मुस्पिनो देव' कष्ण वासुदेवमादीन-हे देवानमिय । किसा यथैव पानामस्य रामः पूर्वमकिन नदीपदी पापन गहना, तथैव द्रौपड़ी देवों धातकीपण्डा द्वीपाद भारताः पारद गिनापुर संहरामि । 'उदाह' उताहो ! अया. ययग, पानाम रामान गपुरपलाइन नगरंगनिकवान सहित लपणसाढ़े मविपामि ? तत' रामगो पामुदेशः मुस्थित देवम् एत्र घासुदेव र वामी किण वाणुपिया जा चे पउमणामस्स रनो पुन्यमगहाण देवेण दोवई जार मारिया, तशाचेच टोचई देविं घायईस डाओ दीयाओ भारताओ जारतियणापर मारामि, उदा पउमणाम रायसपुरपर पारण लपणसमुर पशिलवामि?) तप कृष्णवासुदेव न उस सुस्थित देव से इस प्रकार फरा-रे देवानुप्रिय! सुनो-द्रोपदी देवा योवत पानाम के भवन में हरण कर रखी गई है इमलिये हे देवानु प्रिय ! तुम आत्मपष्ठ मेरे पाच पाहयो के साथ नहीं रथा को लवण समुद्र में मार्ग प्रदान करो। अर्थात् पांच पाडवों के और छठे मेरे इस प्रकार हमारे उह रधों को जाने के लिये रास्ता दो-कि जिससे मैं अम रकका राजधानी में द्रौपदीदेवी को वापिस ले आने के लिये जा सकू । तप सुस्थित देव ने उन पण वासुदेन से इस प्रकार कहा-हे दवान प्रिय ! जिस प्रकार पद्मनाभ राजा के पूर्व सगतिक देवने द्रौपदीदेवी का यावत् हरण किया है, उसी तरह मैं भी द्रौपदी देवी को धातकी ख द्वीप के भरत क्षेत्र से यारत् हस्तिनापुर में हरणकर ला सकता वासुदेव एव वयासी किण्ह देणुप्पिया ! जहा चेव पउमणाभस्स रनो पुग्ध सगइएण देवेण दोबई जार सहरिया, तहा चेव दोबई देवि धायइसडा दीवाओ भारहाओ जाव इत्थिणापुर साहरामि, उदाहु पउमणाम राय सपुर वाहण लवणममुद्दे पक्खिवामि ?)
ત્યારે કૃષ્ણ-વાસુદેવે તે સસ્થિત દેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનું પ્રિય ! સાભળે, દ્રૌપદી દેવી યાવત પાનાભના ભવનમાં હરણ કરાઈ" "" વામાં આવી છે એટલા માટે હે દેવાનપ્રિય! તમે “આત્માણ” મારા તમે પાચે પાડવાના છ રને લવણ સમુદ્રમાં થઈને પસાર થવા માટે માગ !
આ માર્ગ આપો એટલે કે પાચે પાડના અને છ મારા આમ છએ રથને પસાર થવા માટે રસ્તો આપે જેથી હુ દ્રૌપદી દેવીને પાછા લાવવા માટે અમારી રાજધાનીમાં જઈ શકુ ત્યારે સ્થિત દેવે તે કણ-વાસુદેવને આ પ્રમાણે છે કે હે દેવાનુપ્રિય! પદ્મનાભ રાજાના પ્રસ ગતિક દેવે જેમ દ્રૌપદી દેવીની ચાવતું હરણ કર્યું છે, તેમજ હુ પણ દ્રૌપદી દેવીને ધાતકી ખડદ્વીપના ભરત ક્ષેત્રમાંથી યાવત હસ્તિનાપુરમાં હરણ કરીને લાવી શકુ ,
Page #713
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतव पणो टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम ५०७ प्रविश्य पद्मनाभस्य राज्ञो वामेन पादेन 'पायपीट' पाठपीठम् सिंहासनसलग्नसोपानम् जाक्रम्य कुन्ताग्रेण लेख पत्रिका ' पगामेहि ' अर्पय देहि अर्पयित्वा 'विवलिय ' त्रिवलिका रेखात्रययुक्ता 'मिउडि ' भ्रकुटि-णिडाले ' ललाटे 'साहट्टु' संहृत्य-उम्नीय 'आमुमत्ते' आशुरुप्तः शीघ्र क्रोधाविष्ट: ' रु?' रुप्टः 'कुद्वे' क्रुद्धः 'कुपिए ' कुपितः चडि किए' चाण्डिक्यितः-रोपयुक्तः, एवमवादीत्-ह भो ! पद्मनाभ ! 'आत्थियपत्थिया' अभार्थितमाथित !-मरणवाञ्छक ! 'दुरतपतलक्षण ।' दुरन्तप्रान्तलक्षग ! पूर्व व्याख्यातमेतत् , पायपीढ अकमित्ता कुत्तग्गेण लेह पणामेहि, तिवलियं भिउडि णिडाले साहट्टु आसुस्ते टेकुद्धे कुविए चडिक्किए एव वयासी हो पउमणाहा अपत्थियपत्थिया! दुरतपतलक्खणा! हीणपुण्णचाउद्दसा! सिरिहिरि धो परिवजिया। अज्ज ण भवसि किन्न तुम ण याणासि, कण्हस्स वासुदेवस्स अहवण जुद्वसज्जे णिगच्छारि) रथ को रोककर वहां स्थापित कर-दारुक सारथि को बुलाया बुलाकर के उससे ऐसा कहाहे देवानुप्रिय तुम जाओ-अमरकका राजधानी में जाओ वहां जाकर पद्मनाभ राजाके पादपीठको वाम पादसे आक्रमित कर कुन्त (भाला)के अग्रभाग से उसे पत्रिका दो देकर के अपनी भृकुटी को भालपर चढा. कर, इकदम गुस्से में आकर, रुष्ट, कुपित एव क्रुद्ध होकर क्रोध के आवेश से तम तमाते हुए तुम उससे ऐसा कहों-अरे ओ पद्मनाभ। अप्राधित प्रार्थित ' मरणवान्छक- दुरतप्रान्त लक्षण ! मोलुम होता है पाएण पायपीढ अहमित्ता कुत्तग्गेण लेह पणामेहि, तिवलिय भिउर्दि गिडाले साहट्ट आसुरुत्ते रुठे कुटे कुपिए चडिक्किए एवं व्यासी ह भो पउमणाहा ! अपस्थियपत्थिया ! दुरतातलरखणा ! हीणपुण्णचाउसा । सिरि हिरिधी परिवज्जिना । अज्ज ण भरसि किन तुम ण याणासि, कण्हस्स बासुदेवस्स अहवण जुद्धसज्जे णिगन्छाहि)
રથને ઊભે રાખીને, ત્યાં જ રથને મૂકીને દારૂક સારથિને બોલાવ્યો અને બોલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે અમરકકા રાજધાનીમાં જાઓ અને ત્યાં જઈને પદ્મનાભ રાજાના પાદપીઠને ડાબા પગથી આકમિત કરીને કુતના અગ્ર ભાગથી તેને પત્રિકા આ પત્રિકા આપીને તમે પિતાની ભમ્મર ચઢાવીને, એકદમ લાલચોળ થઈને રૂ, કુપિત અને કૃદ્ધ થઈને ક્રોધના આવેશમાં આવીને તેને આ પ્રમાણે કહો કે અરે એ પાનાભ! અપ્રાર્થિત પ્રાર્થિતા મરણ વાછક ! હુરત પ્રાત લક્ષ' (નીચ
Page #714
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०६
देर हप्ण वासुदेवमेवमादी-17 मावी , ततोऽमा पश्चमिः पाण्ट साधम् आत्मपष्टस्य पाणा रथानां यामागार्गनित गणो वाम देवचतुरहिणी सेना मतिरिमगति, प्रनिसिय पश्यामि पाई मारमात्म पप्ठ परभीत्यर्षणममुट गमध्यन ' या' गनिन-गलनि व्यति प्रज्य यौपामरसा रानपानी, गोगामाया अप्रोगन नागोपागन्छति, उपागत्य रच स्थापयति, स्थापयिता नायक सारविन्दयति, पित्रा एवं मवादी-गच्छ खलु च देशानुभिय । अमरकारानपानीमनुनिश, अनु
स्वयपी द्रौपदी देवी को यहा से चापिस ले आऊंगा । अथवा में स्वय ही द्रौपदी देवी को लेने के लिये जाऊंगा तय उन मुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-अच्छो ऐमा सी रो-इस प्रकार कह फर उसने आत्म पष्ट के करों रयो को रघणसमुद्र में मार्ग वितरित कर दिया। तय कृष्णवासुदेव ने अपनी चतुरगिणी सेना को वरास वापिस कर दिया वापिस कर फिर चे पाच पांडवों के साथ हो रया को-१ एक अपने रथको और पांच पायोंके रथों को लेकर लवणसमुद्रक भीतरसे रोकर चलने लगे। चलते २ चे जरा अमरकका राजधानी थाऔर उसमें भी जहां वह अग्रोधान था वहां परेचे। (उवाग्गच्छित्तारह ठवेइ) वहा पहुँच कर उन्होने अपने रथ को रोक दिया-(ठवित्ता दास्य सारहिं सदावेह, सदायित्ता एव क्यासी गच्छह ण तुम देवाणुप्पिया। अमरककारायहाणी अणुपविमारि२, पउमणाभस्स रपणो वामेण पारण ત્યાં જઈને હુ જાતે જ દ્રપદી દેવીને ત્યાંથી પાછી લઈ આવીશ એટલે કે હુ જાતે જ દ્રપદી દેવીને લેવા માટે જઈશ ત્યારે તે સુસ્થિત દેવે કૃષ્ણ વાસુદેવને કહ્યું કે સારૂ, આમ જ કરે આ પ્રમાણે કહીને તેણે આત્મષણના છએ રથને લવણ સમદ્રમાં રસ્તે આવે ત્યારપછી કર્ણ-વાસુદેવે પોતાને ચતુરાગિણી સેનાને ત્યાંથી પાછી વળાવી દીધી અને પાછી વળાવીને તેઓ પાચ પાડવાની સાથે છએ રથને-એક પિતાના રથને અને પાચ પાડાના રથાને લઈને લવણું સમુદ્રની વચ્ચે થઈને પસાર થવા લાગ્યા આમ પસાર થતા તે જયા અમરક કા રાજધાની અને તેમાં પણ જ્યા તે અગ્રોદ્યાન હતુ ત્યા પહાખ્યા (स्वागच्छित्ता रह ठवेइ) त्या पायान तभा पाताना २थने असे :
(उविचा दारुय सारहिं सद्दावेइ, सदावित्ता एव व्यासी, गाउह ग तुम देवाणुप्पिया ! अमरकका रायहाणी अशुपविसाहि २
वामेणं
Page #715
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपणो टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम ५०७ भविश्य पद्मनाभस्य राज्ञो वामेन पादेन 'पायपीह ' पादपीठम् सिंहासनसलग्नसोपानम् आक्रम्य पुन्ताग्रेण लेख पत्रिका ' पणामेहि ' अर्पय देहि अर्पयित्वा 'तिवलिय' त्रिवलिका रेखात्रययुक्ता 'भिउडि ' भूकुर्टि-'णिडाले' ललाटे 'साटु' सहत्य-उन्नीय 'आसुरुत्ते' आशुरुप्ता शीघ्र क्रोधाविष्टः ' रुट्ट' रुप्टः ‘कुद्वे ' क्रुद्धः 'कुपिए ' कुपितः चडि किए' चाण्डिक्यित:-रोपयुक्तः, एचमवादीत्-ह भो ! पद्मनाभ ! 'आत्थियपत्थिया' अप्रार्थितमाथित !-मरणवाञ्छक ! 'दुरतपतलवखण ।' दुरन्तप्रान्तलक्षण ! पूर्व व्याख्यातमेतत् , पायपीढ अक्कमित्ता कुत्तग्गेण लेह पणामेहि, तिवलिय भिरडि पिडाले साह आसुस्रो रुटे कुद्धे कुविए चडिस्किए एव वयासी हभोपउमणाहा अपत्थियपत्थिया ! दुरतपतलवणा! हीणपुण्णचाउद्दसा ! सिरिहिरि धी परिवजिया ! अन्ज ण भवसि किन्न तुम ण याणासि, कण्हस्स वासुदेवस्स अस्वण जुद्धसज्जे णिगच्छाहि) रथ को रोककर वहां स्थापित कर-दारुक सारथि को बुलाया बुलाकर के उससे ऐसा कहाहै देवानुप्रिय तुम जाओ-अमरकका राजधानी में जाओ वहां जाकर पद्मनाभ राजाके पादपीठको वाम पादसे आक्रमित करी कुन्त (भाला)के अग्रभाग से उसे पत्रिका दो देकर के अपनी भृकुटी को भालपर चढा कर, इकदम गुस्से में आकर, रुष्ट, कुपित एव क्रुद्ध होकर क्रोध के आवेश से तम तमाते हुए तुम उससे ऐसा कहों-अरे ओ पद्मनाभ ! अमार्थित प्रार्थित ' मरणवाञ्छक-! दुरतप्रान्त लक्षण ! मोलुम होता है पाएण पायपीढ अवमित्ता कुत्तग्गेण लेह पणामेहि, तिवलिय भिडिं गिडाले साह आसुरुत्ते रुठे कुद्वे कुपिए चडिक्किए एवं क्यासी ह भो पउमणाहा ! अपत्थियपत्थिया ! दुरतातलयखणा ! होणपुण्णचाउदसा । सिरि हिरिधी परिवज्जिया । अज्ज ण भासि किन तुम ण याणासि, कण्हस्स वासदेवस्स अहवण जुद्रसज्जे णिगच्छादि)
રથને ઊભે રાખીને, ત્યાં જ રથ મૂકીને દારૂ સારથિને બોલાવ્યો અને બેલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે અમરકકા ગાજધાનીમાં જાઓ અને ત્યાં જઈને પદ્મનાભ રાજાના પાદપીઠને ડાબા પગથી આકમિત કરીને કુતના અગ્ર ભાગથી તેને પત્રિકા આપે પત્રિકા આપીને તમે પિતાની ભમ્મર ચઢાવીને, એકદમ લાલચોળ થઈને રણ, કુપિત અને કૃદ્ધ થઈને ક્રોધના આવેશમાં આવીને તેને આ પ્રમાણે છે કે અરે એ પદ્મનાભ ! અમાર્થિત પ્રાર્થિત ! મરણ વાછક ! ટુરત માતા લક્ષ' (નીચ
Page #716
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०६
देव कृष्ण नाममा सा आत्मपष्ठस्य पणा स्थानमा सवा देवधरणी सेना मतिरिमर्जयति पनिविस पञ्चनिः पाण्ड सार्वमात्म पष्ट पमीरमध्मध्येन वीरः प्रतिद्यपि गच्छति व्यति ब्रज्य यौवामा राजधानी, कौरामराया अग्रीचान गोपाग उति, उपागत्य र स्थापयति, स्थापकिया वारुरु सारथि दयविला एव मवादीत् गच्छखल हे देय | राजनानीमनुपविश अनु
'
1
माया
स्वय ही द्रौपदी देवी को वहा से वापिस ले आऊँगा । अथवा में स्वयं ही द्रौपदी देवी को लेने के लिये जाऊँगा तय उस स्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार का अच्छा ऐसा से इस प्रकार कह कर उसने आत्म पष्ट के छरों रथो को लवणसमुद्र में मार्ग विनरित कर दिया । तत्र कृष्णचासुदेव ने अपनी चतुरगिणी सेना को वहा से वापिस कर दिया वापिस कर फिर वे पाच पांडवों के साथ छही रवीं को - १ एक अपने रथको और पांच पाइयों के रथों को लेकर लवणसमुद्र के भीतर से होकर चलने लगे। चलते २ वे जरा अमरकका राजधानी थींऔर उसमें भी जरा वह अग्रोधान धा वश पहुॅचे। (उवाग्गच्छित्ता रह ठबेह) वा पहुँच कर उन्होंने अपने रथ को रोक दिया- (ठवित्ता दारुप सारहिं सहावेह, सद्दावित्ता एव वयासी गच्छर ण तुम देवाणुपिया ! अमरककारायाणी अणुपवि साहि२, पउमणाभस्त रण्णो वामेण पाण
ત્યાં જઈને હુ જાતે જ દ્રૌપદી દેવીને ત્યાથી પાછી લઈ આવીશ એટલે કે હુ જાતે જ દ્રૌપદી દેવીને લેવા માટે જઇશ ત્યારે તે સુસ્થિત દેવે કૃષ્ણુવાસુદેવને કહ્યુ કે સારૂ, આમ જ કરો આ પ્રમાણે કહીને તેણે આત્માના છએ રથાને લવણુ સમુદ્રમા રસ્તે આપ્યા ત્યારપછી કૃષ્ણ વાસુદેવે પાતાની ચતુર ગિણી સેનાને ત્યાથી પાછી વળાવી દીધી અને પાછી વળાવીને તે પાચે પાડવાની સાથે છએ રથાને-એક પેાતાના રથને અને પાચ પાડાના રથાને લઈને લવણુ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને પસાર થવા લાગ્યા આમ પસાર થતા તે જ્યા અમરકકા રાજધાની અને તેમા પણ જ્યા તે અગ્રોદ્યાન હતુ ત્યા પહાચ્યા ( स्वागच्छित्ता रह ठवेइ ) त्या पोथीने तेभऐ पोताना २थने ूलो शभ्यो
( ठचित्ता दारुय सारहिं सदावेर, सदावित्ता एव वयासी, गच्छद्द ण तुम देवाणुपिया ! अमरकका रायहाणी अणुपविसाहि २
वामेण
"
Page #717
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगारघमृतवर्षिणी ठोका अ० १६ द्रौपदीर्घारितनिरूपणम्
५०१
'
'तत' खलु सदारुक सारथिः कृष्णेन वासुदेवेनैवमुक्तः सन् हृष्टतुष्टो यात् प्रतिशृणोति तथास्तु' इति कृत्वाऽऽज्ञां स्वीकरोति प्रतिश्रुत्य = नमरकङ्काराजधानीमनुनिशति, अनुप्रविश्य यत्रैव पद्मनाभस्तनैवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनख शिरआनत मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा याद् वर्धयति - जयेन विजयेन चाभिनन्दयति । वर्धयित्वा - अमिन एमवादीत् एषा खलु हे स्वामिन् । मम विनयप्रतिपत्तिः इयमन्या मम स्वामिनो विनयप्रतिपत्तिः, "समुसमाणे हट्ठतुट्ठे जाव पडिसुणेइ, पडिलुणित्ता, अमरकका रायाणि अणु पविस, अणुपविसित्ता जेणेव परमनाहे तेणेव उवागच्छछ, उबागचिन्ता, करयल जाव बद्वावेत्ता एव वयासी-एसण सामी मम विण पडिविसी, इमा अन्ना मम सामिस्स समुहाणत्ति ति कट्टु असुरुते नाम पाएण पायपीट अणुकमइ ) पाच पाडवों के साथ आत्म पष्ठ होकर द्रौपदी देवी को लेने के लिये अभी अभी आये हुए है । इस प्रकार कृष्णदासुदेव के द्वारा कहे गये उस दोरुक सारथि ने हृष्ट तुष्ट शेकर कृष्णवासुदेव की आज्ञा स्वीकार करली । स्वीकार कर के फिर वह अमरकका राजधानी में प्रवेश किया वहा प्रवेश कर वह वहा पहुँचा जहा पद्मनाभ राजा थे । उनके समीप जाकर उस ने पहिले उन्हें दोनों हाथों की अजलि बना कर और उसे मस्तक पर रखकर नमस्कार किया - जय विजय शब्दों से उन्हें बँधाया- बाद में उसने इस प्रकार कहना प्रारंभ किया - हे स्वामिन् ! यह तो मेरी विनय प्रतिपत्ति है - दूत सारही उण्हेण वासुदेवेण एव बुत्ते समाणे हनुट्ठे जात्र पडिसुनेर पडिणित्ता, अमरकका रायहाणि अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेत्र पउमनाहे तेणेव उबागच्छ, उवागच्छित्ता, करयल जान वळावेत्ता एव क्यासी- एमण सामी मग त्रिणयपडिवित्ती, इमा अन्ना मम सामिस्स समुठाणत्ति त्ति कट्टु आसुरुते वामपारण पायपीढ अणुक्कमड )
પચે પાડવાની સાથે આત્મષણ થઈને દ્રૌપદી દેવીને લેવા માટે અત્યારે આવી ગયા છે આ પ્રમાણે કૃષ્ણ વાસુદેવ વડે કહેવામા આવેલા વચને સાભળીને હૃષ્ટ-તુષ્ટ થઈને તે દારુક સારથીએ તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી સ્વીકારીને તે અમરકકા રાજધાનીમા પ્રવિષ્ટ થયેા પ્રષ્ટિ ચઈને તે જ્યા પદ્મ નાભ રાજા હતા તેમની પાસે જઇને સૌ પહેલા તેણે ખને હાથેાની અતિ બનાવીને અને તેને મન્તરે મૂકીને નમશ્કાર કર્યાં અને જય વિજય શબ્દોથી રાજાને વધામણી આપી ત્યારપછી તેણે આ પ્રમાણે કહેવાની રારૂઆત કરી કે હે સ્વામી! આ તા મારી વિનય પ્રતિપત્તિ છે દૂતની ફરજ બજાવતા મે
Page #718
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०८
HATHAN 'हीणपुनचाउपसा !'दीनपुयागिकः - मरन्धपुग्यमातुर्द निकजन्मा, चतुर्दशीमातो हि भाग्यमान गाति । तथा-'मिरी गिरिधी परिवग्गिया।" श्रीधी परिवर्मित! लक्ष्मी ना पुदिरनि !, नमामि, किम्बल त्व न जानासि, कणस्य वासुदेयम्प भगिनी दोपही सीमित हा आणमाणे.' एव्यमानयत् , 'त' तन्-तस्मान् ‘एममपि' पनामपि मानीतामपि आर पूर्व काद् इण्गों ' इत्यस्मात मत्ययः, 'भार' अया ग्वल 'जुद्ध सन्जे' युद्ध सज्मा-युद्धाय सज्जा मनतः सन् 'गिग्गालादि' निर्गल प्रतिनि.मर एष खलु कणो वासुदेवः पञ्चभिः पाण्डव. मह'अप' आत्मपष्ठ आत्मा षष्ठा यत्र स समूहे, द्रौपदी देव्या. 'कृ' मत्यानयन का हव्यमागत ।
तू अलब्ध पुण्य चातुर्दशिक जन्म वाला है-तृ-चतुर्दशी में उत्पन्न हुआ नहीं हैं-क्यों कि चतुर्दशी के दिन उत्पन आ व्यक्ति भाग्यशाला होता है किन्तु तू ऐसा नहीं है अर्थात् अभागा है त श्री ही, बुद्धिस रहित है। याद रस-या तो आज त नही है या मैं नही ह तुझे यह ख्याल नही है-कि यह द्रोपदी देवी पण वासदेव की वहिन है जिस तूने यहा हरण करवा फर मगवाई है। अतः यदि अपनी कुशल चाहता है, तो तू इस हरण करवा कर अपने यहा मगवाई गई द्रोपदा देवी को कृष्ण वासुदेव के पास जाकर पीले वापिस पहुँचा दे। नहीं ता युद्ध के लिये सज्जित होकर घर से पाहिर निकल आ। (एसण कण्ह वासुदेवे) ये कृष्ण वासुदेव (पहिं पडवेटिं अप्पर दोवई देवीए कूद हव्वमागए, तएण से दारुए सारही कण्हे ण वासुदेवे ण एव चुत
વિચારે તેમજ નીચ લક્ષણે યુક્ત ) અમને એમ લાગે છે કે તું અલ* પુણ્ય ચાતુર્દગિક જન્મવાળે છે, એટલે કે તુ ચૌદશને દિવસે જન્મ્યા નથી કેમકે ચૌદશને દિવસે ઉત્પન્ન થનારી વ્યક્તિ ભાગ્યશાળી હોય છે તુ આ અને બુદ્ધિ વગરને છે બરોબર સાભળી લે કે આજે કા તે તું નહિ કે યા છે નહિ તને એટલી પણ ખબર નથી કે આ દ્રૌપદી દેવી કૃષ્ણ-વાસુદેવના બહેન છે—કે જેને તે હરણ કરાવીને અહીં મગાવી છેહવે જે તું " ભલુ ઈચ્છતે હેય તે તુ આ હરણ કરાવીને પિતાને ત્યાં રોકી રાખેલી દ્રોપ દેવીને કૃષ્ણ-વાસુદેવની પાસે જઈને પાછી સોપી દે નહિતર યુદ્ધના મદ तैयार ४२ मडार महानमा मापी (एस ण कण्हे वासुदेवे) मा पासुन
(पचर्हि पडवेहिं अप्पछठे दोवई देवीए कूव इव्व
Page #719
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदचरितनिरूपणम्
दारुक सारथिमेवमनादीत्
1
केवल भोः ! ' रायसत्येस ' राजशास्त्रेषु राजनीतिषु दूतः ' अवझे ' अवध्यः = न हन्तव्यः इत्युक्तमस्ति तस्मात् त्या मुञ्चामि इति कृत्या इत्युक्त्वा त दत्तम् असत्कार्य, असम्मान्य अपद्वारेण ' णिच्छुभावेइ' निक्षोभयति-निकासयति, तत खल्लु स दारुकः सारथिः पद्मनाभेनासत्कार्य यावत् - ' पिच्छडे' निक्षोभितःनिःसारितः समाणे ' सन् नैव कृष्णो वासुदेवस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनख शिरआप मस्तकेऽञ्जलि कृत्वा कृष्ण यावद् एवमवादीत्जुद्धसज्जो णिगच्छामि, त्ति कटु दारय सारथ एव वयासी - केवल भो रामसत्ये दुये अवज्झे प्ति कट्टु असकारिय सम्मानि अवधारण णिच्छुभावेइ ) तब वह पद्मनाभ जब दारुक सारथि ने इस प्रकार कहा तो इकदम क्रोधित होकर त्रिवलि युक्त अकुटि को माथे पर चढा कर इस प्रकार कहने लगा हे देवानुप्रिय ! में द्रौपदी कृष्णवासुदेव के लिये अर्पित नही करता ह-पीछी नही देना हैइसके लिये मैं अभी स्वयं ही युद्ध करने को तैयार हूँ। इस प्रकार कहकर फिर उसने उस दारुक सारथि से ऐसा कहा अरे ! राजनीति के शास्त्रों में दूत अवश्य कहा गया है - इस लिये तुझे छोड़ देना है । इस तरह कहकर उसने दूत को असत्कृत और असमानित कर पीछे के दरवाजे से बाहिर निकलवा दिया । (तएण दारुण सारही परमणाभे ण असकारिय जाव णिच्छूढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेत्र उवा
५११
कण्डस्स वासुदेवस्स दोवई, एसण मह सयमेव जुद्रसज्जो णिगच्छामि ति कट्टु दारुय सारहिं एव वयासी- केवल भो ! रायसत्ये दूये अज्झेति कटु अस कारिय सम्माणिय अवधारेण णिच्छुभावेइ )
દારુક સારથિના આ પ્રમાણે વચન સાભળીને પદ્મનાભ એકદમ ક્રોધમા લાલચેાળ થઈ ગયે. અને ભમ્મરી ચઢાવીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યું કે હુ દેવાનુપ્રિય ! હુ કૃષ્ણ-વાસુદેવને દ્રૌપદી કાઇપણ સ્થિતિમા સેાપવા તૈનાર નથી એના માટે હુ અત્યારે પણ યુદ્ધ કરવા તૈયાર છુ આ પ્રમાણે કહીને તેણે દારુક સારથીને કહ્યુ અરે ! રાજનીતિના શાસ્ત્રઓમા ધૃત અવધ્ય કહેવામા આપે છે એથી તને જતેા કરૂ છુ. આ પ્રમાણે કહીને તેણે કૃતને અમસ્કૃત અને અસ માનિત કરીને પાછલા ખારઘેથી બહાર કઢાવી મૂકયા
(तपण दारुए सारही पउमणामेण असक्कारिय जात्र णिच्छूढे समाणे जेणेव कण्णे वासुदेवे तेणेन उआगच्छा, आगच्छित्ता करयल० कण्ह जान एव
Page #720
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
पणति "पाणि-ससुसेन गिधा भातक्षि:-आमा' ति कस्ता आध रुते' आशुरुषतः शीध्र गोधाविष्ट, पामपादन पादपीठ ' अशुक्मा' मनुका मति, अनुक्रम्प कुन्ताग लेग-पगिक 'पणागर' अर्पपनि । अर्पयित्वा यावत् 'फर' प्रत्यानयन काव्यमागाः । नन गल ग पानामो दारुकेग सार थिना एवमुक्त' सन् भनुमणी : शोधासात, प्रियालिमा रेखात्रययुक्ता भुकुटि-'निडाले लाटे-गालपदेगे 'साढ' गहत्य-उन्नीय, एवमवादादनो अर्पयामि पलु अब दे देशानुपिय मास्य नाटेवम्य द्रौपदीम् , एष खलु आसपर युद्धपनो निगमलामि युद्धाय पहिनि मरामि इतिकला के कर्तव्य अनुमार मेने यर आपको नमस्कार किया है जय विजय आदि शब्दों द्वाराबधाई दी है-परन्तु मेरे स्वामीकी उनके मुखसे आपके लिये जो आज्ञा दी गई है यह दुमरी है-और घर इस प्रकार है-इस प्रकार अपने मुख से करकर घर शीघ कोर से भर गया, और वामपाद स उसके पादपीठ पर चढ गया। (अपमित्ता) चढकर फिर (कतिग्गण लेर पणामह) फिर उसने उसके लिये कुन्त के अग्रभाग से पत्रिका अर्पित की। (पणामित्ता जाव कृव हत्यमागए) पत्रिका अपित करक यावत् कृष्णवासुदेव पाचो पाटों के साथ यरा द्रौपदी देवी को वापिस लेने के लिये रब्ध-अभी अभी-आये है यह मर समाचार उसे सुना दिया। (तरण से पउमणाभे दानएण सारहिणा एवघुत्ते समाणे आलु रुत्ते त्तिवलि भिउडि निडाले सारटु एच क्यासी णो अप्पिणामि " अह देवाणुप्पिया ! कण्डस्म वासुदेवस्स दोवई, एस ण अह सयमय વિનોપચાર માટે નમસ્કાર કર્યો છે તેમજ જય વિજય વિજય શબ્દો દ્વારા તમને વધામણ આપી છે પરંતુ મારા સ્વામીએ તેમના મુખથી તમારે મા જે કઈ આજ્ઞા આપી છે તે કઈક બીજી જ છે અને તે આ પ્રમાણે છે કે, દૂત આમ કહીને એકદમ ક્રોધમા લાલચોળ થઈ ગયો અને ડાબા પગલા तेना पाहासन 6५२ यदी गयो ( अवक्कमित्ता) यदी (कोतग्गेण लेह पणा मइ) तेरी ने त (मा) 11 माथी पत्रिी मापी (पणामित्ता जाव कुर हव्वमागए ) पत्रिता मापान यावत ०५-वासुदेव पाय पाउ સાથે અહીં દ્રૌપદી દેવીને લેવા માટે અત્યારે આવ્યા છે આ જાતના બધા સમાચારે તેને કહી સંભળાવ્યા
(तएण से पउमणामे दारुयेण सारहिणा एव वुत्ते समाणे आमुरुत्ते ति पलि भिउडि निडाले साइटु एव वयासी-णो अप्पिणामि
Page #721
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतयपिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५१३ एव वयासी- ह भो दारगा। किन्न तुम्भे पउमनाभेण सद्धिं जुज्झिहिह उयाहु पेच्छिहिह', तएण ते पंच पंडवा कण्ह वासुदेव एवं बयासी--अम्हे णं सामी | जुज्झामो तुम्भे पेच्छह तएणं पंच पंडवे सण्णद्ध जाव पहरणा रहे दुरूहति दरुहिता जेणेव पउमनाभे राया नेणेव उवागच्छ उवागच्छित्ता एव वयासी--अम्हे वा पउमणाभे वा रायत्तिकहु पउमनासेणं सद्धि सपलग्गा यावि होत्था, तएण से पउमनाभे राया तं पंच पडवे खिप्पामेव हयमहिय पवर निवडिय चिन्धद्धूयपडागा जाव दिसोदिसि पडिसहेइत्ति, तएणं ते पंच पंडवा पउमनाभण रन्ना हयमहियपवरनिवडिय जाव पडिसहिया समाणा अत्थामा जाव आधारणिज्जत्तिकटु जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा०, तएण से कण्हे वासुदेवे ते पच पडवे एवं वयासी--कहाणं तुम्भे देवाणुप्पिया । पउमणाभेण रन्ना सद्धिं संपलग्गा १, तएण ते पच पडवा कण्हं वासुदेव एव वयासी- एवं खल देवाणुप्पिया | अम्हे तुम्भेहि अभणुन्नाया समाणा सन्नद्ध० रहे दुरुहामोर जेणेव पउमनामे जाव पडिसेहेइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे तं पच पडवे एवं वयासो- जड णं तुम्भे देवाणु प्पिया । एव क्यता अम्हे णो पउमणाभे रायत्तिकटु पउमनाभेण सद्धि सपलग्ग ताओ णं तुम्भे णो पउमणाहे हयमहिय पवर जाव पडिसेहते, त पेच्छह ण तुम्भे देवाणुप्पिया । अहं नो पउमणाभे रायत्तिकट्ठ पउनाभेण रन्ना सहि जुज्झामि रहं
Page #722
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१२
हाताच कथा
"
भामिन् । युष्माकं नेन यावत् निद्राने 'निशोमयति= पद्मनाभः कोधाविष्टः द्रौपदी न दास्यामीत्युक्ा दूतो न हन्तव्य इति कला मामला मान्यापहारंग निःमारयति सा 'प. ॥ २८ ॥ मूलम् - तपण से पउमणाभे चलवाउय सद्दानेइ सदावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुदिया । आभिसेक हत्थिरयणं पडिकप्पेह, तयाणंतर च ण से बलवाउए छेयायरियउव देसमइविकपणा विग पेहि निउणेहिं जान उबणेइ, तपणं से पउमनाहे सन्नद्ध० अभिसेयं दूरुहइ दुरुहित्ता हयगय जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएण मे कण्हे वासु देवे पउमणाभं रायाण एजमाण पासइ पासिता त पंच पडवे
गच्छ आगच्छता करयल० कण्ट जान एवं पयासी एव ग्वल अह सामी ? तुम पण जाप णिच्छुभावेइ ) इम प्रकार जब वह दारुक सारथि पद्मनाभ के द्वारा असस्कृत यावत् होकर बाहिर निलना दिया, तब वह वहा से चलकर ज कृष्णवासुदेव थे यश आया । वहा आकर उसने दोनो हा की अजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा - हे स्वामिन् ? मैंने पद्मनाभ राजा से आपके वचन जैसे ही कहे वैसे ही उसने "क्रोध में आकर " मैं नहीं दूगा दूतमारने योग्य नहीं होता है-इत्यादि कहकर मुझे असत्कृत एवं असमानित कर अपने यहां से पीछे के दरवाजे से बाहिर निकलवा दिया है || सूत्र २८ ॥
वयासी - एव खलु अह सामी ' तुव्म वयणेण जात्र णिच्छुभावेइ )
મ
આ પ્રમાણે જ્યારે તે દારુક સારથિ પદ્મનાભ રાજા વડે અસત્કૃત યાવત અસ માનિત થઈને બહાર કઢાવી મૂકાયે ત્યારે તે ત્યાથી બહાર આવીને જ્યા કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેણે મને હાથેાથી અ જિલે ખનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને કૃષ્ણુ-વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે સ્વામી ! પદ્મ નાલ રાજાને મે જ્યારે તમારા સ દેશ કહી સભળાવ્યા ત્યારે સાભળતાની સાથે જ તે ક્રોધમા ભરાઈને હુ દ્રૌપદી દેવી પછી આપીશ નહિ, યાવત કુત અવધ્ય હોય છે ” વગેરે વચનેાથી અસદ્ભુત તેમજ અસ માનિત કરીને મને તેણે પેાતાના ભવનના પાછલા ખારશેથી બહાર કઢાવી મૂકયે
"
Page #723
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतयषिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५१३ एवं वयासी-ह सो दारगा। किन्न तुम्भे पउमनाभेण सद्धिं जुज्झिहिह उयाहु पेच्छिहिह', तएण ते पंच पंडवा कण्ह वासुदेवं एवं बयासी--अम्हे णं सामी | जुज्झामो तुभ पेच्छह तएणं पंच पंडवे सप्णद्ध जाब पहरणा रहे दुल्हति दुहिता जेणेव पउमनाभे राया नेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता एव वयासी--अम्हे वा पउमणाभे वा रायत्तिकह पउमनाभेणं सद्धि संपलग्गा यावि होत्था, तएण ले एउमनाभे राया त पंच पडदे खिप्पामेव हयमहिय पवर निवडिय चिन्धधूयपडागा जाव दिसोदिसि पडिसेहेइत्ति, तएणं ते पंच पंडवा पउमनाभण रन्ना हयमहियपवरनिवडिय जाव पडिसेहिया समाणा अत्थामा जाव आधारणिजत्तिकटु जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा०, तएण से कण्हे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं वयासी--कहपणं तुम्भे देवाणुप्पिया । पउमणाभेण रन्ना सद्धि संपलग्गा १, तएण ते पच पडवा कण्ह वासुदेव एव वयासी- एवं खल्लु देवाणुप्पिया | अम्हे तुम्भेहि अभणुन्नाया समाणा सन्नद्ध० रहे दुरुहामोर जेणेव पउमनाभे जाव पडिसेहेइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे तं पच पडवे एव क्यासो--जइ णं तुभे देवाणु प्पिया । एव क्यता अम्हे णो पउमणाभे रायत्तिकटु पउमनाभेण सद्धि सपलग्गं ताओ णं तुम्भे णो पउमणाहे हयमहियपवर जाव पडिसेहते, त पेच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया । अहं
नो पउमणाभे रायत्तिकट्ठ पउनाभेण रन्ना सहिं जुज्झामि रहे ---- ५६५.
Page #724
--------------------------------------------------------------------------
________________
Paper
दुरुहइ दुरुहिता जेणेच पउमना गया तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता सेय गोसीरहारधवल तणसीटियसिंदुवारकुदेंदुम निगासं निययनलस्स हरिसजणणं रिउमण्णविणासकर पत्र जण्णं सख परामुसइ परामुसित्ता मुहवायपुरिय करेइ, तएण तस्स पउमणाहस्स तेणं सससदेणं वलइभाए. हयजाव पडिसेहिए, तएणं सेकण्हे वासुदेवे धणु परामुसइवेढो धणु पूरेड पूरित्ता धणुसई करेइ, तएण तस्स पउमनाभस्त दोञ्चे बलइभाए तेण धणुसद्दण हयमहिय जाव पडिसेहिए, तएण से पउमणाभेराया तिभाग वलावसेसे अस्थामे अवले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जत्तिकह सिग्धं तुरिय जेणेव अमरकका तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अमरकक रायहाणि अणुपविसइ अणुप विसित्ता दाराइ पिहेइ पिहित्ता रोहसज्जे चिट्टइ, तएण से कण्ह वासुदेवे जेणेव अमरकका तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता रह ठवेइ ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहाइ पच्चोरुहिता बेउब्वियसमु ग्घाएणसमोहणइ,एगं मह णरसीहरूवविउव्वइ विउवित्ता महया महया सद्देणं पादददरयं करेइ, तएण से कण्हेण वासुदवण महया महया सद्देणं पाददद्दरएण कएण समाणेणं अमरकका रायहाणी सभग्गपागारगोपुराष्ट्रालयचरियतोरणपल्हथियपवरभवणसिरिघरा सरस्सरस्स धरणियले सन्निवइया, तएण से पउमणाभे राया अमरकक रायहाणि सभग्ग जाव पासित्ता भीए दोवईए देवीए सरणं उवेइ -सा
Page #725
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५१५
दोवईदेवी पउमनाभ रायं एव वयासी - किष्णं तुम देवाशुप्पिया । न जाणसि कण्हस्ल वासुदेवस्स उत्तम पुरिसस्स विष्वियं करेमाणे मम इहं हव्वमाणेसि, तं एवमवि गए गच्छहण तुम देवाणुपिया । पहाए उलपडसाडए अवचूलगवत्थणियत्ये अतेउरपरियालसपरिवुडे अग्गाइ वराइं रयणाई गहाय मम पुरओ काउं कण्ह वासुदेवं करयलपायपडिए सरणं उवेहि, पणिवइयवच्छला ण देवाणुप्पिया । उत्तमपुरिसा, तएणं से उसनाभे, दोवइए देवीए एयमह पडिसुणेइ पडिसुणित्ता हाए जाव सरणं उइ उवित्ता करयल० एवं वयासी - दिवाण देवाप्पियाण इड्डी जाव परक्कमे तं खामेमि णं देवाणुपिया । जाव खमंतु णं जाव णाह सुज्जोर एवं करणयाएत्तिकहु पंजलिवुडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स दोवइ देवि साहित्थि उवणेइ, तरण से कण्हे वासुदेवे पउमणाभ एव वयासी ह भो पउमणाभा । अप्पत्थियपत्थिया४ किण्ण तुम ण जाणसि मम भगणि दोवइदेवी इह हव्यमाणमाणेत एवमचि गए णत्थि ते ममाहितो इयाणि भयमस्थि तिकट्टु पउमणाभं पडिविसजेइ पडिविसज्जित्ता दोचइ देवि गिन्हइ गिन्हित्ता रह दुरूहेइ दुरुहित्ता जेणेन पच पडवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पचपहं पडवाणं दोवइ देवि ताहत्थि उवणेइ, तएण से कण्हे पचहि पंडवेहि सहि अप्पछट्टे छहि रहेहि लवणसमुद्द सझ मज्झेण जेणेत्र जवृद्दीवे दोघे जेणेव भारहे वासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सृ० २९ ॥
Page #726
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
MA
-
| নাম टीका-'तरण से' इत्यादि । तः बलु रामनाम: 'चलाउप' पार पृत-सन्पनायफ शब्दयति, गन्दयिमा एयमराठी-शिममेर-भीघ्रमेव भो देशानुप्रिय ! 'आमिसेगा' भागिपंक्य प्रगान गिरा 'पटिकापड' प्रतिक ल्पय मुसजित कुम, बदनन्तर १ स परल्यात "आयरियउवदेसमा विकप्पणागिप्पेहि "छेकाचार्यापरेशमतिपिपल्पनाविकल्पः-तर उका-निपुणः, आचार्य' पलाशिक्षक , तम्पोपटगाद या मति 'तिस्तस्या विकल्पना-विचारणा, तज्जनितो सिल्प.-विशिष्ट रचनाशक्तिर्यगांव, 'जार उपणेइ' यावद् उपत
-ताण से पउमणामे इत्यादि ।। टीपार्थ-तण्ण) इसके बाद (से पउमणा) उन पद्मनाभ राजाने (पलवाउय सदावह ) अपने सन्य नायक को गुलाया (सदायित्ता) आर घुलाकर फिर उनसे (एच बयासी) इस प्रकार कहा-(विप्पामेव भी देवाणुप्पिया! आभिसेक रत्विरयण पटिप्पे ) हे देवानुप्रिया तुम शीघ्र ही प्रधान हस्तिरत्न को सुमबित करो। (तयाणतर च ण स पलपाउरा छेयायरिय उवदेसमा विप्पणा विगप्पेरि निउणेहि जाव उवणेइ) इसके याद उस सैन्य नायक ने निपुणकला शिक्षक के उपदेश से प्राप्त घुद्वि की कल्पना से उत्पन्न एई है विशिष्ट रचना की शक्ति जिन्हों को ऐसे मनुष्य से कि जो गोमा करने में अत्यन्त निपुण थे उस हस्तिरत्न को सुसज्जित करवाया। जर उन्हो ने उस हस्तिरत्न को चम कीले निर्मल वेप से शीघ्र परिवस्त्रित-करदिया । वस्त्राच्छादन द्वारा
तपण से पउमणाभे इत्यादि
साथ-(तएण) त्या२पछी (से पउमणाभे) पानाम नये (बलवाव्य सद्दावेह ) पोताना सैन्य नायने मोसायो (सहाविता ) मन मासावीन तने ( एव वयासी) ॥ प्रभारी छु (खिप्पामेव भो देवाणुपिया! आभिसेक हत्थिरयण पडिकप्पेह) देवानुप्रिय! तमे सत्परे प्रधान स्त न सुस । ( तयाण तर च ण से बलवाउए छेयायरियउबदेसमाविकप्पणा विगप्पेहि निउणेहि जाव चणे ) त्या२पछीत सैन्य नाय निशु सशक्ष કના ઉપદેશથી જેમણે વિશિષ્ટ રચના માટે બુદ્ધિ તેમજ કપના શક્તિ મળ છે, તેમજ શ્રુગાર કલામાં જેઓ અતી ચતુર છે તેવા માણસ વડે હસ્તિરને સુસજિજત કરાવ્યું જ્યારે સત્વરે તેમણે તે હસ્તિરત્નને ચમકતા નિર્મળ વેષથી પરિવસ્મિત કરી દીધે-સારછાદન વડે આછાદિત ને સુ
Page #727
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवपिणी टीका म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
___५१७ यति-अत्र यापच्छन्देनै योध्यम्-मुनिउणेहि नरेहि हस्थिरयण परिकप्पेट, उज्नलनेवत्थ इन्वपरिवत्थिय सुसज्ज इत्यादि परिकप्पित्ता' इति सुनिपुणे शोभा करणचतुरैः, नरैई स्तिरत्न परिकल्पयति-शोभयति किं भूतं दस्तिरत्न-उज्ज्वलनेपथ्यहव्यपरिवत्रित उज्ज्वलनेपथ्येन-द्युतिमनिमल वेपेण शीत परिवस्वितः वस्त्राच्छादनमुशोभिवः, तथा-मुसज्ज-घण्टाभरणादिभि. समलत, एव परि कल्प्य सरव्यापूतः पद्मनाभनृपस्यान्ति के त हस्तिरत्नमुपनयति, आनयति । तत खलु स पद्मनाभः सन्नद्धबद्धर्मितकरच - जाभिपेक्य हस्तिरत्न दूरीहतिआरोहति दुरुह्य हयगजरयपदातिपरित यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तव मापारयद गमनाय।
तत खलु स कृष्णो वासुदेवः पद्मनाभ राजानम् एजमानम् आगच्छन्त पश्यति । दृष्ट्वा च तान् पञ्च पाण्डवान् एवमवदत-ह भो ! दारकाः भो वत्सा ! आच्छादित कर सुशोभित करदिया-अर्थात्-झूल वगैरह डालकर उसे पटुत अच्छी तरह सजा दिया, तया घटा आभरण आदि से उसे अल कृत करदिया, तर वर सैन्य नायक उस हस्ति रत्न को लेकर पद्मनाभ रोजा के पास पहुँचा (तएण से पउमणामे सन्नद्ध० अभिसेय. दूरुहाइ, दूरुरित्तो हयगर जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव पहारेत्य गमणाए, तएणं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभरायाण राजमाण पोसइ पासित्ता ते पच पडवे एव क्यासी) इसके बाद वह पद्मनाभ राजा सन्नद्ध, पद्ध, यर्मित कवच वाला होकर उस प्रधान हस्तिरत्न पर आरूढ हो गया और आरूढ रोकर स्य, गज, स्य, एव पैदल सैन्य को साथ लेकर जरा कृष्णवासुदेव थे उस और चल दिया। जब कृष्णवासुदेव ने पमनाभ राजा को आता हुआ देखा तो देखकर उन्हो ने पाच पाडवो से ऐसा कहा-(ह भो બિત કરી દીધા એટલે કે સ્કૂલ વગેરે નાખીને બહુ જ સરસ રીતે સુસજિત કરી દીધે તેમજ ઘટ, આભરણે વગેરેથી તેને અલકૃિન કરી દીધું ત્યારે તે સૈન્ય નાયક તે હસ્તિરત્નને લઈને પદ્મનાભ રાજાની પાસે ગયે __ (तएण से पउमणाभे सनद्ध० अभिसेय० दृम्हइ दुहित्ता हयगय जेणे कण्हे वासुदेवे तेणेच पहारेत्थ गमणाए, तएण से कण्हे वासुदेवे पउमणाभरायाण एज्जमाण पासइ, पासित्ता ते पच पडने एव वासी)
ત્યારપછી તે પદ્મનાભ રાજા કવચ તેમજ બીજા રાઓથી સજ્જ થઈને તે પ્રધાન હસ્તિન ઉપર સવાર થઈ ગયે અને સવાર થઈને ઘોડા, હાથી. રથ અને પાયદળ સેનાને સાથે લઈને કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા તે તરફ રવાના થો કૃષ્ણ-વાસુદેવે જ્યારે પનાભ રાજાને આવતા જોયે ત્યારે તેને જોઈને પાંચ
Page #728
--------------------------------------------------------------------------
________________
तामा टीका-'तरण से इत्यादि । तत. गल रा पानाम: 'परमाउय' बम्पर पृत-सैन्यनायक पादपति, गन्दपित्या पयमानीन्-क्षिप्रमेर-शीघ्रमेव मो देशानुप्रिय ! 'आगिसेषाभिषेप प्रगान हस्तिरत्न' पटिरपेह' प्रतिक ल्पय मुसजित पुरू, तदनन्तर न स पायात मन्नु "सायरियउवदेममा विकप्पणाविगप्पेहि " छेकाचार्योपदेशमतिविपनापिकल्पा-तत्र छका-निपुणः, आचार्य:-क्लाशिक्षक, तस्योपदेशाद् या मवि 'दिस्तस्या किल्पना-विचारणा, तज्जनितो रियल्प -विशिष्ट सनाशक्तियेगा तः, 'जाप उप्रणे' यावद् उपत
- ताण से पउमणामे इलादि । टीपार्थ-(तएण) उसके बाद (से पउमणाने) उन पद्मनाभ राजा ने (पलवाउय सद्दावे ) अपने सेन्य नायक को बुलाया (महावित्ता) और धुलाकर फिर उनसे (ए चयासी) इस प्रकार करा-(विप्पामेव मा देवाणुप्पिया! आभिसेक रत्विरयण पडिकप्पेर) हे देवानुप्रिय । तुम शीघ्र ही प्रधान हस्तिरत्न को सुसज्जित करो। (तयाणतर च ण स पलवारा छेयायरिय उवदेसमह विरुप्पणा विगप्पेहि निउणेहि जाव उवणेइ) इसके बाद उस सैन्य नायक ने निपुणफला शिक्षक के उपदश से प्राप्त बुद्धि की कल्पना से उत्पन्न एई है विशिष्ट रचना की शक्ति जिन्हों को ऐसे मनुष्य से कि जो शोभा करने में अत्यन्त निपुण थे उस हस्तिरत्न को सुसज्जित करवाया। जब उन्हो ने उस हस्तिरत्न को चम कीले निर्मल वेप से शीघ्र परिवस्त्रित-करदिया। वनाच्छादन द्वारा
तएण से पउमणाभे इत्यादि
2014-(तएण) त्या२५छी (से पउमणाभे) पानाम शलमे (बलवालय सदावेइ) पताना सैन्य नायने मसान्यो (सहाविता )सनेमासापान तन (एव वयासी) मा प्रमाणे छु (सिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसक हत्थिरयण पडिकप्पेह) देवानुप्रिय! तमे सत्परे प्रधान स्त न सुस । ( तयाण तर च ण से बलवाउए छेयायरियवदेसमइविकपणा विगप्पेहि निउणेहि जाव उनणे) यारपछी सैन्य नाय निपुट xeशक्ष કના ઉપદેશથી જેમણે વિશિષ્ટ રચના માટે બુદ્ધિ તેમજ કપના શક્તિ મેળવી છે, તેમજ શ્રુગાર કલામાં જેઓ અતી ચતુર છે તેવા માણસે વડે હસ્તિરત્નને સુસજિજત કરાવ્યું જ્યારે સત્વરે તેમણે તે હરિત્નને ચમકતા નિર્મળ વેષથી પરિવઅિત કરી દીધે-વઆચ્છાદન વડે આછાદિત * સુખ
Page #729
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवपिणी टीका म० १६ द्रौपदीयरितनिरूपणम् यति-अत्र यावच्छन्देनैव गोध्यम्-मुनिउणेहिं नहिं हत्थिरयण परिकप्पेट, उज्जलनेवत्थ इन्चपरिवस्थिय सुसज्ज इत्यादि परिकप्पित्ता' इति सुनिपुणे. शोभा करणचतुरैः, नरैईस्तिरत्न परिकल्पयति-शोभयति किं भूत हस्तिरत्न-उज्ज्वलनेपथ्यहव्यपरिवखित उज्ज्वलनेपथ्येन-घुतिमन्निर्मल वेपेण शीत्र परिवस्त्रितः वस्त्राच्छादनमुशोभिवः, तथा-सुसज्ज-घण्टाभरणादिभिः समल्ड्कत, एर परि कल्प्य सबलव्यापूतः पद्मनाभनृपस्यान्ति के त हस्तिरत्नमुपनयति, आनयति । तत खलु स पद्मनाभः सन्नदबद्धर्मितकरच - जाभिपेश्य हस्तिरत्न दूरोहतिआरोहति दुसह्य हयगजरथपदातिपरित यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तव मापारयद् गमनाय। ___तत खलु स कृष्णो वासुदेवः पद्मनाभं राजानम् एजमानम् आगच्छन्त पश्यति । दृष्टया च तान् पञ्च पाण्डवान् एवमवदत-हं भो ! दारकाः भो वत्सा ! आच्छादित कर सुशोभित करदिया-अर्थात्-झूल वगैरह डालकर उसे पात अच्छी तरह सजा दिया, तया घटा आभरण आदि से उसे अल कृत कर दिया, तर वह सैन्य नायक उस हस्ति रत्न को लेकर पद्मनाभ रोजा के पास पहुंचा (तएण से पउमणाभे सन्नद्ध० अभिसेय० दूरहइ, दूरुहितो हयगर जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव पहारेत्य गमणाए, तरण से कण्हे वासुदेवे पउमणाभरायाण एजमाण पोसइ पासित्ता ते पच पडवे एव वयासी) इसके याद वर पद्मनाभ राजा सन्नाद्ध, यद्ध, वर्मित कवच घाला होकर उस प्रधान हस्तिरत्न पर आरूढ हो गया और आरुढ रोकर त्य, गज, रय, एव पैदल सैन्य को साथ लेकर जरा कृष्णवासुदेव थे उस और चल दिया। जब कृष्णवासुदेव ने पमनाभ राजा को आता हुआ देखा तो देखकर उन्हो ने पाच पाडवो से ऐसा कहा-(ह भो ભિત કરી દીધા એટલે કે લ વગેરે નાખીને બહુ જ સરસ રીતે સુસજ્જિત કરી દીધે તેમજ ઘટ, આભેર વગેરેથી તેને અલકૃન કરી દીધું ત્યારે તે સૈન્ય નાયક તે હસ્તિનને લઈને પદ્યનાભ રાજાની પાસે ગયે
(तएण से पउमणाभे सन्नद्ध० अभिसेय० दृम्हइ दूरुटित्ता हयगय जेणेच कण्हे वासदेवे तेणेप पहारेत्य गमगाए, तएण से कण्हे वालदेवे पउमणाभरायाण एज्नमाण पासइ, पासित्ता ते पच पडरे एव वासी)
ત્યારપછી તે પદ્યનાભ રાજા કવચ તેમજ બીજા રાઓથી સજ્જ થઈને તે પ્રધાન હસ્તિન ઉપર સવાર થઈ ગયો અને સવાર થઈને ઘોડા, હાથી. રથ અને પાયદળ સેનાને સાથે લઈને કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા તે તરફ રવાના થયે કૃષ્ણ-વાસુદેવે જ્યારે પદ્મનાભ ગજાને આવતો જે ત્યારે તેને જોઈને પાંચ
The
Page #730
--------------------------------------------------------------------------
________________
-em-uae-
mi-
on
कि खल यूप पमनामेन साथ 'जुनियहिह 'गुगध ! 'यार' उताणे-अपया
पनि उदिह' मेश, ? तत: गलत पा पाडा वासुदेवमेवमया दीत-पप गल दे सागित! गुयामा, यूप मे पम् । ततः स प पाणवाः सनद पद्धर्मितारचा या गृहीतायुधमहम्णाः रथान सरयोपरि दूरी हन्ति आरोहति दरोग पर पमनामी गना पागन्ति , उपागत्य एव मनटन्-'अम्हे गा पउमगा गा गया' या गाम पमनामो वा राजा, इति दारगा! किन्न तुम्भे पउमनामेण महिं जुज्जिरि उगाह पेच्छिहिए। तपण ते पच्या कपणं वासुदेव पर यामी) हे वत्सो! क्या तुमलोग पद्मनाभ के माध युद्ध करोगे-या युद्ध को देगोगे? तय उन पाडवो ने कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा-(अम्रेण सामी! जुम्मामो, तुन्म पेच्छर, तण्ण पच पढवे सनद्ध जाव पररणा रहे दुरूहति, दुहिता जेणेव पउमणाभे राया तेणेव उवागच्छति वागरिता एव वयासी, अम्ह वा पउमणाभे वा रायत्ति फट पउमणामेण सद्धि सपरग्गा यावि होत्था) हे स्वामिन् ! हम तो युद्ध करेंगे-आप उस का निरीक्षण करें। इसके बाद वे पाचो पाउच सन्नमवर्मित कवचवाले होकर यावत् आयुध प्रहरणों को ले २ कर अपने २ रथों पर सवार हो गये। सधार होकर फिर वे जहा पद्मनाभ रोजा थे-उस और गये यहां जाकर उन्हा ने पद्मनाभ राजा से इस प्रकार कहा-या तो आज हम नहीं या पन्न पाने म! प्रमाणे घु-(ह भो दारगा। किन्न तु मे पउमनाभेण सद्धि जुझिहिह उया पेन्छिहिह ? वएण ते पच पहवा कण्ह वासुदेव एव वयासी) હે વત્સ! શુ તમે પદ્યનાભ રાજાની સાથે મેદાને ઉતરશે ? કે ફક્ત યુદ્ધન જેશે ” ત્યારે તે પાડેએ કૃષ્ણ-વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે –
(अम्हेण सामी | जुज्झामो, तुम्भे पेच्छह, तएण पच पडवे सन्नद्ध जाव पहरणा रहे दुरूहति, दुरूहित्ता जेणेव पउमणामे राया तेणेव उपागच्छति, उवा गन्छित्ता एप वयासी, अम्हे वा पउमणाभे या रायत्ति पटु पउमणाभेण सद्धि मपलगगा यादि होत्था)
હે સ્વામી! અમે તે યુદ્ધ છેડીશ, તમે અમારા યુદ્ધને જુઓ ત્યાર પછી તે પાચે પાડો કવચથી સુસજજ થઈને આયુધ પ્રહરને લઈને પs પિતાના રથ ઉપર સવાર થઈ ગયા સવાર થઈને તેઓ પદ્મનાભ રાજા તરફ ૨વાના થયા પદ્મનાભ રાજાની પાસે પહોંચીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યુ કેન્દ્ર “ આજે કા તો અમે નહિ અને કા પદ્મનાભ નહિં ” આમ કહીને એક પાનાભ રાજાની સાથે યુદ્ધ કરવા લાગ્યા
Page #731
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिंगो टी० ५० १६ द्रौपदी चरितनिरूपणम् कृत्वा इत्युक्त्वा-पद्मनाभेन साधं योधु संप्रलग्नाचाप्यभवन् , तत खलु स पध नाभो राजा तान् पञ्च पाण्डवान क्षिममेर 'इयमहियपवरनिगडियचिन्धद्धयपड़ागा' इयमथितपवरनिपतितचितध्वजपताकान्-तत्र हया'-अश्या मथिता-पीडिताः, भवरा:-प्रशस्ताः, चिह्न-वजपताका निपातिता येपा तान् , शस्त्रास्त्रप्रहारजनित माप्तान इत्यर्थः, याद दिगो दिश-सर्वतः ‘पडिसेहेइ' प्रतिपेश्यनि-प्रतिनिवर्तयति स्मेत्यर्थः । ततः खलु ते पञ्च पाण्डवाः पद्मनाभेन राजा हयमथितप्रवरनिप तित यावत् प्रतिपेधिताः सन्तः ‘अत्यामा' अस्थामानः-चलरहिता, 'जाव अधारणिज्जा' अत्र यापच्छन्देन-'अबला अभीर्या' इत्यनयोः सग्रहः । अमला:नाम राजा ही नही" ऐसा कहकर वे पद्मनाभ राजा के साथ युद्ध करने में सलग्न हो गये। (तएणं से पउमनाभे राया ते पच पडवे खिप्पामेव यमहियपवर निवडिय जाव पडिसेहिया, समाणा, अत्यामा जाव अधारणिज्ज त्ति कट जेणे कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा०, तएण से वासुदेवे ते पच पडवे एवं चयामी करणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! पउमनाभेण रन्ना सद्धि सपलग्गा? तएण ते पच पडवा कण्ह वासुदेव एव वयासी-एव खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे तुम्भेहिं अन्भणुन्नाया समाणा सनद्ध० रहे दुख्दामो २ जेणेव पउमणाभे जाय पडिसेरेइ ) तय पद्म नाभ राजा ने उन पांचो पाडवो को चतुत जरदी पीडित घोडों चाला एच निपातित प्रशस्त चिह्नध्वज पताका वाला कर दिया। यावत् एक दिशो से दूसरी दिशा में जाने से भी उन्हें रोक दिया अयवा-एक दिशा से दूसरी दिशा में ग्वदेड दिया। इस तरह वे पाचो पाडव पद्म नाम राजा के द्वारा पीडित घोडोवाले, एव निपातित प्रशस्त चिह्न ध्वज पताका वाले जर बन गये और एक दिशा से दूसरी दिशा में जाने से रोक दिये गये-अथवा खदेड़ दिये गये तब बलरहित बनकर यावत
(तएण से पउमनाभे राया ते पच पडवे खिप्पामेव हयमहियपर निरडिय जाव पडिसेहिया समाणा, अत्थामा जान अधारणिज्ज ,ति क्हटु जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेप उवा०, तएण से कण्हे वासुदेवे ते पच पडवे एव वयामी कहण्ण तुम्भे देवाणुप्पिया । पउमनाभेण रन्ना सद्धिं सपलग्गा ? तएण ते पचपडवा कण्ह वासुदेव एव यासी-एव खलु देवाणुप्पिया अम्हे तुम्भेहिं अभणुमाया समाणा सनद्व० रहे दुरूहामो २ जेणेव पउमणामे जाव पडिसेहेड )
ત્યારપછી પદ્મનાભ રાજાએ તે પાચે પડીને થોડા વખતમા જ પીડિત ઘોડાઓવાળા તેમજ નિપાતિત પ્રશસ્ત ચિઠવજ પતાકાવાળા બનાવી દીધા થાવત એક દિશામાથી બીજી દિશા તક્ જઈ શકે નહિ તેમ તેઓએ રસ્તો રોકી લીધે અથવા તે એક દિશામાથી બીજી દિશા તરફ ભગાડી મૂક્યા આવી
Page #732
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१०
बालापका सन्यहीना' अत्रीयां -मान्तरिफाक्तिहिना, उत्साहनात्या, तया-अधा रणीया भात्नान रणभूमो भागिद्यमशताः, प्रति कता-ति चिरायः यौन कागो नासुदेवकोपागनि । ततः पातु ग झगो लागस्तान् पञ्च पाण्डगन पर पक्ष्यमाणप्रकारेण, भाग-मरण' कथ पल यूप दे देवानु मियाः ! पमनाभन राना साध गोसु ममममा. ?, ताः सन्तु पत्र पाण्डवाः कृष्ण वायुगमेमागेन्- 3 देशानुमिया' ! प युप्मानिरभ्यनुज्ञाताः सतः सनद पद्धर्मितका स्थान् 'दुमहामो ' दरोदामः-आरोहामः आरुढो, आस्प व पानामस्तीप गया युद्धाय सपटनाः ततः परामय प्राप्ता यावत् पतिपेधिता' इति । तन' सह सकृष्णो वासुदेवन्तान् पा पाण्डवान् एमवा रणभूमि में अपने आपको दीका ने में भी असमर्ध जानकर जहा कृष्ण वासुदेव थेवाभाये । वहा परच तेही ऊपणवासुदेवने उनसे-उन पाँची पाडयों से-डम प्रकार फहरा-जय आपलोग पराजित हो गये तो पत्र नाम राजा के साथ युद्धरत एए-लड़े-तर उन पाचो पाडवो ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा, हे देशानुप्रिय! हमलोगो ने आप से अभ्य नुज्ञात होकर ही करच आदि से सुसज्जित हो रधों पर आरोहण किया, और आगेहग कर जहा पहानाभ राजा था वहां हमलोग पहुच । वहा पहुँचकर हमलोग उनके माय युद्धरत हो गये। याद में पराजित हो गये । और पराजित होकर फिर ऐसे बन गये जो उसने हमें एक दिशा से दूसरी दिशा में खदेड दिया या जाने से रोक दिया। (तण से कपडे वासदेवे ते प ) तय कृष्णवालदेव ने उन पाचो पाडवा પરિસ્થિતિમાં લાચાર થઈને યાવત ચુદ્ધભૂમિમા પિતાની જાતને ટકાવી શકે વામાં પણ અસમર્થ જાણીને પા પાડવે જ્યા કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા ' આવ્યા ત્યાં પહોંચતા જ કૃણ-વાસુદેવે પચે પાડાને આ પ્રમાણે કઈ ? તમે લોકે પદ્મનાભ રાજાની સાથે અદ્ધરત થઈને પરાજીત થઈ ગયા છે ? A તે પાંચ પાંડવોએ કૃષ્ણ-વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! અને બધા આપની આજ્ઞા મેળવીને કવચ વગેરેથી સુસજિજત થઈને રથો ઉપર સવાર થયા રવાર થઈને અને જ્યા પત્રનાભ રાજા હતો ત્યા ગયા ત્યાં પહેચીને અમે બધા તેની સાથે યુદ્ધ કરવા લાગ્યા અને તેને પરિણામ * હારી ગયા છીએ હાર પામીને અમે એવી ભય કર પરિસ્થિતિમાં સપડી ગયા હતા કે જેથી એક દિશા તરફથી બીજી દિશા તરફ જવામાં પણ અસર થઈ ગયા અથવા તે તેણે અમને એક દિશામાથી બીજી દિશા તરફ ભગડિી
તે પાચ भूश्या छे (तएण से कण्हे वासुदेवे ते प प ) त्यारे कृष्ण-पासु३त પાડાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
અમે
Page #733
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
मनगारधर्मामृतर्यापणी टी० १० १६ मौपदीचरितनिरूपणम् ५२१ दी-यदि खलु यूय हे देवानुपियाः ! पूर्वमेव वक्तारो भात, 'अम्हे,' णो पउनाभे राया' इति 'जय भवामः, नो पानाभो राजा' इति " वयगेवजेण्यामो न तु पद्मनाभो राजा' इत्यर्थः तया-यदि पूर्वम्-ति कृत्वा इत्येव निश्चय मनसि निवाय, पानाभेन सार्च 'सपलग्गता' युद्धाय समलग्ना भनत, ' तो ण तर्हि खलु 'तुम्भे, जो पउमणाहे ' यूय नो पानाभ म्यूयमेव जेतारो भवेत, न तु पद्मनाभः, तथा यूय त हयथितश्वरनिपतित चिह्न जपताक यावत्-पद्मनाभ 'पडिसेहते ' प्रतिपेपत-प्रतिनिवर्तयेत । तत्-तम्मात् 'पेच्छद ' प्रेक्षध्य, ग्वलु इस प्रकार कहा-(जहण तुम्भे देवाणुप्पिया! एव वयता अम्हे णो परमणाभे राय त्ति कट्टु पउमनाभेण सहि सपलग्गताओ णं तुमे णो पउमणाहे, त्य-मरिय-पवर-जाव पडिसेहते, त पेच्छह ण तुम्भे देवा णुप्पिया! अहणो पउमणाभे राय त्ति कटु पउमनामेण रन्ना सद्धि जुज्जामि, रर दुरहह, दुरुरिता जेणेप पउमणाभे राया तेणेव उवागच्छद उवागच्चित्ता सेय गोखीरहारधवलतणसोल्लियसिंदुबारकुदेदु सन्निगास निययरलरम हरिसजणण रिउसेण्णविणासकर पचजण्ण सस परामुमह) हे देवोनुप्रिय ! तुम तो पहिले ऐसा करते थे कि हम जीतेंगे, पद्मनाभ राजा नही जीतेगा और ऐसा ही मन मे विचार कर-निश्चय कर-तुमलोगों ने पद्मनाभ राजा के साथ युद्ध करना भारभ किया-तो तमलोगो को ही जीतना चाहिये था। पद्मनाभ राजा को नहीं और तुम्हीं लोग उसे पीडित घोडो वाला एव निपातितप्रा
(जइण तुम्भे देवाणुप्पिया एव वयता अम्हे णो पउमगाभे राय ति कटु पउमनाभेण सद्धिं सपलग्ग ताओण तुम्भे णो पउमणाहे, हयमहियपवर जाव पडिसेहते. त पेच्छह ण तुम्भे देवाणुप्पिया । अह णो पउमणाभे रायत्ति कह पउमनामेण रना सद्धिं जुज्झामि, रह दुरूढइ, दुरुहिता जेणेव पउमणाभे राया तेणेव उवागच्छइ, उपआगच्छित्ता सेय गोपीरहारधवलतणसोल्लियसिंदुवार कुदेंदु सन्निगास निययवलस्स हरिमजणण रिउसेण्णविणासकर पचजण सख परामुसह)
હે દેવાનપ્રિય ! તમે તે પહેલેથી જ આ પ્રમાણે કહેતા હતા કે અમેજ જીતીશુ, પદ્મનાભ રાજા છતશે નહિ અને આ પ્રમાણે વિચાર કરીને જ તમે લેઓએ પદ્મનાભ રાજાની સાથે યુદ્ધની શરૂઆત કરી હતી, આવી પરિસ્થિમા તે તમારે જીત મેળવવી જોઈએ પદ્મનાભ રાજાની જીત નહિ થવી જોઇએ તમે લોકો તેને પીડિત ઘાઠાઓવાળો બનાવત, તમને તે નહિ પણ આ બધી તમારી મનની ઇચ્છા સફળ થઈ શકી નહિ એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! હવે જુઓ,
Page #734
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૨
माताधर्मपाल यूय हे देशानुमिया: 'भानो पदमणाम गया' नो पमनामी रामा'अहमेव जेता मामि, न तु पानागो गना, मिनामेन रामा सा पुयामि, इत्युक्त्या पदुमदर' दरोनि-पाणी-गप्प बासुदेव पन्न नाभेन सह योधु रधमाधान उत्पः। माय पदनामी राजा तौलो पागच्छति, उपागत्य ' मैग' शेत-गोपीहारपाल गोदुम्मान-दाराच धवल शुगल ' तगमोल्लिपमिदारहदानिगारा । तगमोलिया। मल्लिका अय देशीयः शद मिन्दुगारो निर्गुण्डी, कुन्द-न्दनाम्ना पमिदः येतपुष्पविशेषः इन्दुभन्दस्तद्वन् सनिकारा -ममा यम्प म तं, निययालम्म' निनाम्य भएकी यसेनाय 'हरिजण पननन-पोत्पादक, 'रिउमेग पिणासार' रिपुमेन्य पिनाशकर शत्रुसन्यालहारक पाशनन्य भर पाश्चायनामक शर 'परामुमा पारा मृशति हस्ते गृहाति, पगपृश्य 'मुपायरिय करे।' मुवातपूरित मुरसाने भाव फरोति-पादयतीत्यर्थः । तत' खलु वस्य पद्मनाभस्त्र तेन गपशब्देन 'वल स्त चिहध्वज पताका चाला पनाते यह तुम्हें ऐसा नही बनाता-परन्तु ऐसा तुम लोगों का मन में धारा विगार सफली भूत नहीं हुआ अतः देवानुप्रियो । अब देगो-में उमके साथ युद्धरत होता है इसमें मेरा जीतू गा पद्मनाभ राजा नहीं । ऐसा करकर वे कृष्णवासुदेव रथपर सवार हो गये। और सवार होकर वे वहा पटेंचे जहा पदमनाभ राजा था। वहां पहुँच कर उन्हों ने अपने पाचजन्य श्वेतशख को जो अपनी सेनाको हर्ष का जनक एव शत्रु सेना का सहारक था एव गोक्षीर तथा हार के जैसा धवल वर्णवाला था उठाया। इसकी प्रमा मलिका नि कुदपुष्प एव चन्द्रमाके जैसी उज्ज्वल थी।(परामुसित्ता मुहवायपूरिय कर उसे उठाकर उन्हों ने मुंह से बजाया-(तण्ण तस्स पउमणाहस्त तण सखसद्देण बलइभाए हय जाव पडिसहित उम पदमनाभ की सेना તેની સાથે હું હવે મેદાને પડ છ આમા વિજય મને જ પ્રાપ્ત થશે, પદ્મ નાભ રાજાને નહિ આમ કહીને કૃષ્ણ-વાસુદેવ રથ ઉપર સવાર થઈ ગયા અને સવાર થઈને જ્યા પદ્મનાભ રાજા હતા ત્યાં પહોચ્યા ત્યાં પહોંચીને તેમણે પિતાના પાચજન્ય સફેદ અને-કે જે તેમની સેના માટે હત્યાક તેમજ શત્રુઓની સેના માટે સહાર રૂપ હ તથા ગાયના દૂધ અને ઉજ જે સફેદ હોહાથમાં લીધે તે શેખની કાતિ મલિકા નિ કે भने य-5 2ी ती (परामुसित्ता मुहवायरिय करेइ) ईन त भुमया qय ( तस्स पउमणाहस तेण सससदेण जाव पडिसेक्षित
તે રાજાની સેના -
T ફી કદ પપ
म
Page #735
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२३
अनगारधर्मामृतार्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् तिभाए हते ' बलविभागो इत.-सैन्यस्य तृतीयाशो हतमथित यावत दिशोदिश प्रतिपेषित-प्रतिनिवृत्तः पलायित इत्यर्थः । ततस्तदनन्तर खल स कृष्णो वासुदेवो धनु परामशति गृह्णाति, परामृश्य ' वेढो ' वेष्ट वर्णकः धनुपियक वर्णन जम्दीपप्रज्ञप्तिनो वियमित्यर्थः, 'धणु पूरेइ ' धनुः पूरयति धनुपि गुणमारो. पयति पूरयित्वा यनुः शब्द करोति तत खलु तस्य पद्मनाभस्य द्वितीयवार बल तिभाए ' बलनिभाग लस्य रीन्यस्य तृतीयोभागस्तेन धनुः शब्देन ' इयमहिय परनिगडिय वियद्धयपडागे' हयमथितप्रवरनिपतितचिह्न-बजपताको यावद् का त्रिभाग उस शख के शब्द से रत हो गया मथित हो गया यावत् एक दिशो से दूसरी दिशा की तरफ भाग गया। तएण से कण्हे वास्तुदेवे धणु परामुसइ, वेढोवणु पूरेड, पूरित्ता धणुसद्द करेद) इसके बाद कृष्ण वास्तुदेवने धनुप को उठाया। इस धनुप का वर्णन ज बूद्वीप प्रज्ञप्ति में किया गया है । मो वहा से जानना चाहिये उठाकर उन्होंने उस पर ज्या का आरोपण किया फिर उसे चढाया-सो उससे शब्द हुआ (तपण तस्स पउमनाभस्स दोच्चे लइभाए तेण धणुसहण हयमरिय जाव पडिसेहिए, तएण से पउमणाभे राया तिभागलावसेसे अस्था मे अयले, अवीरिए अपुरिमकारपरक्कमे अधारणिजत्ति कटु सिग्घ तुरिय जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छ) तब उस पद्मनाभ राजा की सैन्य का तृतीयभाग उस धनुष के शब्द से हत हो गया, मथित हो गया, उस की प्रवर चिन्ह स्वरूप ध्वजापताकाएँ सन गिर गई यावत् શથી જ હત થઈ ગયે, મછિત થઈ ગયે યાવત્ એક દિશા તરફથી બીજી [n त२५ नासी गयो (तएण से कण्हे वासुदेवे धणु परामुसइ, वेढो घणु पूरेइ, पूरित्ता धणुसद करेइ ) त्या२५छी शु-पामुद्देव धनुष व्यु मा ધનુષનું વર્ણન જ બૂઢીપ પ્રજ્ઞપ્તિમાં કરવામાં આવ્યું છે જિજ્ઞાસુઓએ ત્યાથી જાણી લેવું જોઈએ ઉઠાવીને તેઓએ તેની ઉપર પ્રત્યે ચા ચઢાવી ત્યારપછી ધનુષને ચઢાવ્યું અને તેનાથી શબ્દ થયે
(तएण तस्स पउमनाभस्स दोच्चे वलइभाए तेण धणुसदेण हयमहिय जाव पडिसेहिए, वएण से पउमणाभे राया तिभागवलावसेसे अत्थामे अगले, अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अवारणिज्जत्ति क्टु सिग्ध तुरिय जेणेव अमरकका तेणेर उवागच्छद) - તે પદ્મનાભ રાજાની સેનાને ત્રીજો ભાગ તે ધનુષના શબથી જ હત થઈ ગ, મથિત થઈ ગયે, તેની પ્રવર ચિહ-સ્વરૂપ વજા પતાકાઓ બધી પડી
Page #736
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२२
मातामा
यूप हे
1 *
1 "
मिया: । 'अद न पाया अष्टनी पद्मनामी राजा' = अमेन जेता भवामि, न तु नाभी गना, इति मनानेन राज्ञा मात्रै भ्यामित्युक्ला 'इ'रोदति-आरोपति-प नाभेन सह यो रथमा पर्थः । यमेन पद्मनाभो राजा तत्रैवो पागच्छति, उपागत्य 'सेय शेत- गोपीग्दारपाल गोदरात् शखच पत्रल शुक्ल 'तमोरिदमनगास तणमोलिया मल्लिका अप ' देशीयः शब्द. सिन्दुपारी= निर्गुण्डी, इन्द्र- उन्दनाम्ना मसिदः येतपुष्पविशेष', इन्दुश्रन्द्रस्तद्वन् सनिका7 - मभा यम्य स त निययाम्म' निजकारस्य सकी यसेनाय ' हरिमजण ' दर्पननन हर्मोत्पादक, 'रिश्मे विणासार' रिपुमैन्य विनाश कर= शत्रु सन्यनलदारक पाञ्चनन्यशः पाञ्चनत्यनामक शद 'परामु परा मृशति हस्ते गृह्णाति परामृश्य 'मुझपर करे' मुखवातखिमुनानेन मात फरोति - वादयतीत्यर्थः । ततः खलु तस्य पद्मनाभस्य तेन शब्देन व स्त चिह्नध्वज पताका घाला घनाते वह तुम्हें ऐसा नही बनाना-परन्तु ऐसा तुम लोगों का मन में धारा जिगर सफली भूत नहीं हुआ अतः देवानुप्रियो ! अय देसो-में उसके साथ युद्धरत होता है इसमें में जीतू गा पद्मनाभ राजा नहीं । ऐसा कहकर वे कृष्णवासुदेव रथपर सवार हो गये । और सवार होकर वे वहा पहुँचे जहा पद्मनाभ राजा था। वहाँ पहुँच कर उन्हों ने अपने पाचजन्य श्वेतशस्त्र को जो अपनी सेनाको हर्ष का जनक एव शत्रु सेना का सहारक था एव गोक्षीर तथा हार के जैसा धवल वर्णवाला था उठाया । इसकी प्रभा मल्लिका निर्गुठी कृद्पुष्प एव चन्द्रमा के जैसी उज्ज्वल थी । (परामुसित्ता मुहवायपूरिय करे ) उसे उठाकर उन्हों ने मुँह से बजाया - (तएण तस्स पाहस्ते सखमद्देण बलहभाए हुय जाव परिसेहिए ) तब उस पद्मनाभ की सेना
ત્યા પહેાચીને
તેની સાથે હુ હવે મેદાને પડુ છુ . આમા વિજય મને જ પ્રાપ્ત થશે, પદ્મ નાભ રાજાને નહિ આમ કહીને કૃષ્ણ-વાસુદેવ રથ ઉપર સવાર થઈ ગયા અને સવાર થઇને જ્યા પદ્મનાભ રાજી હતા ત્યા પહેચ્યા તેમણે પેાતાના પાચજન્ય સફેદ શખને-કે જે તેમની સેના માટે હુર્રોત્પાદક તેમજ શત્રુએની સેના માટે સહાર રૂપ હતા તથા ગાયના દૂધ અને હારના જેવા સફેદ હતેાહાથમા લીધે તે શખની કાતિ મત્મિકા નિઠી કુદ પુન भने यन्द्र नेवी डली ( परामुखिता मुहवायपूरिष करेइ ) सहने तेथे भुमथी वजाउये। (तरण तस्स पउमणाहस्स तेण सखस
जाव पडिदिए ) ते मते ते पद्मनाल राजनी सेनाना
Page #737
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२५
अनगारधामृतवर्षिणी टोफा अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् वासुदेवो यौवामकङ्का तोवोपागच्छति, उपागत्य रथ स्थापयति, रथात् प्रत्यय रोहति प्रत्यवरुह्य, 'वेउब्वियसमुग्घाएण' वैक्रियसमुद्घातेन क्रियशरीर निर्मातु मात्मप्रदेशाना पहिनि सारणेन खलु ' समोहणड ' समुद्घात करोति समुद्नन्ति एक महत् ' णरसीहरूब' नरसिंहरूप 'पिउच्चइ ' निकुर्वते दिव्यसामर्थेन करोति विकुळ महता २ शब्देन 'पादददरय' पादरक-भूमौ चरणाघात करोति, ततः खलु स कृष्णेन वासुदेवेन महता २ शब्देन पाददर्दरकेणभूमी चरणाघातेन कृतेन सता अमरफङ्काराज पानी 'सभग्गपागारगोपुराट्टाल्यचरियतोरणपल्हत्थिय पवरभवणसिरिधरा ' सम्भग्नपाकारगोपुराहालकचरिकातोरणपर्यस्तितपवरभवनश्रीगृहा-तत्र सभग्नानि-पाकारश्च गोपुराणि च अट्टालकाश्च चरिका जहावह अमरकका थी वहा गये( उवा० ) वहा जाकर के (रह ठवेह, ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चारित्ता वेउब्वियसमुग्याएण समोर गइ ) उन्होंने अपने रथको खडा किया-खडा करके फिर वे उससे नीचे उतरे । नीचे उतर कर वैक्रिय समुद्घोत किया। वैक्रियशरीरको निर्माण करने के लिये जो आत्मप्रदेशों का बाहिर निकालना होता है-जनको नम चैक्रिय समुद्घात है । ( एग मह णरसिहरूव विउव्वइ विउन्वित्ता महया २ सद्देण पादददरएण कएण समाणेण अमरकंका रायहागी सभग्ग पागारगोपुराहालचरियतोरण पत्थियपवरभवणसिरिघरा सरस्स रस्स धरणियले सन्निवइया) इस समुद्घातके खरा उन्होंने एक विशाल काय नरसिंहरूप की विकुर्वणा की नरसिंहरूप की विकर्वणा करके अपनी भयकर गर्जना से भूमि पर चरणों द्वारा आघात किया। इस तरह गर्जना पूर्वक किये गये चरणाघात से अमरकका राजधानी की गया (उवा०) त्या ४४ (रह ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पचोरहइ, पचोमहिना वेउब्वियसमुग्चारण समोहण) तमो पाताना २थने अम। ज्यो, al રાખીને તેઓ તેમાથી નીચે ઉતર્યા નીચે ઉતરીને તેમણે વૈકિય સમુદ્દઘાત કર્યો કિત શરીરને બનાવવા માટે જે આત્મપ્રદેશને બહાર કાઢવામા આવે છે તે વૈક્રિય સમુદ્રઘાત કહેવાય છે
(एग मह णरसिहरून विउव्वइ, विउवित्ता महया २ सद्देण पादन फएण समाणेण अमरकका रायहाणी सभग्गपागारगोपुराहालयचरियतोरण पल्हत्थियपवरभवणसिरिधरा सरस्सरस्स धरणियले सन्निवइया)
આ સમુદઘાન વડે તેમણે એક વિશાળ કાય નરસિંહ રૂપની વિકવણા કરી નરસિંહ રૂપની વિદુર્વણું કરીને પોતાની ભય કર ગજેનાથી ભૂમિ ઉપર ચરણેને આઘાત કર્યો આ રીતે ગર્જનાપૂર્વક કરાયેલા ચરણઘાતથી અમર
Page #738
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२४
माताधर्मका
"
'
दिशो दिश प्रतिपेधितः तव नामी राजा तिमागवला सेसे
त्रिभागाः परिन्यान् गर जस्थामा, अलः अर्थः, अस्थामेत्यादि मायारयातम् रकारपराक्रम- पोहापराक्रमरहितः, अधार णीयः- माणान् धारयितुमत' इति त्यति रिवार्य शीघ्र त्यति यत्रेचा मरकत तत्रैवोपागन्पति, उपागत्य अमरका राजधानीमनुप्रविशति, अनुपविश्य द्वाराणि ' विहे 'धि, रोमनि तिष्ठति, ततः स स कृष्णो
वह एकदिशा से दूसरी दिशा में भाग गया अपना भागने में असमर्थ पन गया । इस के पाद तृतीयाशावशिष्ट सेना वाला होकर वर पद्म नाभराजा वल रहित हो गया, पर्याप्त सैन्य रहित हो गया एव अन्तरिक शक्ति-उत्साह न हो गया। अतः यह पम्प पराक्रम से रहित होने के कारण रणभूमि में ठहरने के योग्य नहीं रहा । अथवा प्राणों को धारण करने में भी असमर्थ न गया। इसलिये यह वहा से शीघ्र बड़ी उतावली से जहां अमरको नगरी थी वहा आ गया। (उवाग चित्ता अमरकक रामराणि अणुपविसर, अणुपविसित्ता द्वारोह विहेह पिरिता रोहसज्जे चिह्न, तरण से कण्हे वासुदेवे, जेणेव अमरकका तेणेव उवागच्छद्द ) वहा आकर वर अमरकat राजधानी में गया। जाकर उसने दरवाजोंको यद करवा दिया। वद करवाकर फिर वह अपने दुर्ग (किल्ला) की रक्षा करता हुआ वहां ठहरा। इसके बाद कृष्ण वासुदेव
ગઈ યાવતુ તે મેનાના ભાગ એક દિશા તરથી બીજીદિશા તરફ નાશી ગયે અથવા તે! તે નાશી જવામા પણ અસમર્થ થઇ ગયેા ત્યારપછી નીજા ભાગ જેટલી સેના જ જેની પાસે રહી છે એવા તે પદ્મનાભ રાન્હ સા નિબળ થઈ ગયે, પર્યાપ્ત સૈન્ય રહિત થઈ ગયા અને આતરિક શક્તિ-ઉત્સાહ રહિત થઈ ગયે. તે પૌરૂષ પરાક્રમ વગરના થઈ તે રણભૂમિમા ટકી શકે તેમ પણ રહ્યો નહિ અથવા તે તે પ્રાણાને ધારણ કરવામા પણ અસમથ થઇ ગયે એથી તે સત્વરે જ્યા અમરકકા નગરી હતી ત્યા ભાવી ગયે
( उवागच्छित्ता अमरकक रायहाणि अणुपसिह, अणुपचिसित्ता- दाराइ पि, पिहित्ता रोहसज्जे चिह्न, तरण मे कहे वासुदेवे, जेणेव अमरकका तेणेव उत्रागच्छइ )
ત્યા આવીને તે અમરકકા રાજધાનીમાં ગયા, ત્યા જઈને તેણે દરવા જાને બધ કરાવી દીધા બધ કરાવીને તે પત્તાના દુગની રક્ષા કરતા ત્યા શકાય। ત્યારપછી કૃષ્ણ-વાસુદેવ યા તે અમરકકા નામે ન
१
त्या
Page #739
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्नगारधर्मामृतपिणी टीफा अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् वासुदेवो यौवामकका तोवोपागच्छति, उपागत्य रथ स्थापयति, रथात् प्रत्यत्र रोहति प्रत्यवरुह्य, 'वेउब्वियसमुग्घाएण' वैक्रियसमुद्घातेन क्रियशरीर निर्मातु मात्मप्रदेशाना बहिनि सारणेन खलु 'समोहणड' समुद्घात करोति समुन्ति एक महत् ' णरसीहरूच' नरसिंहरूप 'पिउबइ' चिकुर्वते दिव्यसामर्थेन करोति विकुऱ्या महता २ शब्देन 'पादददरय' पादददरक-भूमौ चरणाघात करोति, ततः खलु स कृप्णेन पासुदेवेन महता २ शन्देन पादर्दरकेण भूमी चरणाघातेन कृतेन सता अमरफाराजपानी 'संभग्गपागारगोपुराहालयचरिय तोरणपल्हत्थिय पवरभवणमिरिधरा ' सम्भग्नप्राकारगोपुराहालकचरिकातोरणपर्यस्तितपवरभवनश्रीगृहातन सभग्नानि-माकारश्च गोपुराणि च अट्टालकाच चरिका जावह अमरकका थी वहा गये( उवा० ) वहा जाकर के ( रह ठवेह, ठवित्ता रहाओ पचोरुहइ, पच्चारुहिता वेउब्वियसमुग्याएण समोहणइ) उन्होंने अपने रथको खडा किया-खडा करके फिर वे उससे नीचे उतरे । नीचे उतर कर वैक्रिय समुद्घोत किया। वैक्रियशरीरको निर्माण करने के लिये जो आत्मप्रदेशों का बाहिर निकालना होता है-जमको नम वैक्रिय समुद्घात है। (एग मह णरसिहरूवं विउघड विउन्वित्ता महया २ सद्देण पादददरएण कएण समाणेण अमरकका रायहागी सभग्ग पागारगोपुरातालचरियतोरण परहथियपवरभवणसिरिघरा सरस्स रस्स परणियले सन्निवइया) इस समुद्घातके बरा उन्होंने एक विशाल काय नरसिंहरूप की विकर्वणा की नरसिंहरूप की विकर्षणा करके अपनी भयकर गर्जना से भूमि पर चरणों द्वारा आघात किया। इस तरह गर्जनो पूर्वक किये गये चरणाघात से अमरकका राजधानी की गया (उदा०) त्या ४४ (रह ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पचोरुहइ, पचोरुहिता वेऽब्जियस मुग्चारण समोहणइ) तमधे पोताना २थने से राज्यो, हामी રાખીને તેઓ તેમાથી નીચે ઉતર્યા નીચે ઉતરીને તેમણે વૈકિય સમઘાત કર્યો વૈક્રિય શરીરને બનાવવા માટે જે આત્મપ્રદેશને બહાર કાઢવામાં આવે છે તે વૈક્રિય સમુદુઘાત કહેવાય છે
(एग मह णरसिहरून विउव्वइ, विउवित्ता महया २ सदेण पादददरएण फएण समाणेण अमरकका रायहाणी सभग्गपागारगोपुराट्टालयचरियतोरण पल्हत्थियपवरभवणसिरिधरा सरस्सरस्स धरणियले सनिवडया)
આ સમુદઘાન વડે તેમણે એક વિશાળ કાય નરસિંહ રૂપની વિફર્વણા કરી નરસિંહ રૂપની વિમુર્વણુ કરીને પોતાની ભયકર ગજેનાથી ભૂમિ ઉપર ચરણેને આઘાત કર્યો આ રીતે ગર્જનાપૂર્વક કરાયેલા ચરઘાતથી અમર
Page #740
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३६ च तोरणानि च यस्यां सा राया, नत्र गोपुराणि-मोत्यः अामा'-प्राकारो परिस्थान विशेषाः, चरिफा-नगरमागतरयासोमार्ग तया-पपम्नितानिसत. क्षिप्तानि मारमानानि श्रीराणि-माडागाराणि फोगाराणि च यम्यांसा वधा, तो विपदः कर्मधारय । कष्णमायुदेकर भूमी परणापानमन्दन अमर फकारामधान्याः मासरगोपुरादिक सिमितमिध्वर्य, तपा- सरस्सरस्स अनुकरणशब्दोऽयम् निपनन क्रियाविशेषण परमिनले सनिपतिता-अमरकंका रामधानी मरम्सरस्सेनि शन्द शाणा भूमी पतितत्यर्थः । ननः सलु स पनामी राना अमरका राजधानी समग्नमाकाराठिया यानन्-धरणितले सनिपतिता दृष्ट्वा भीतः प्रस्त , उद्विग्न', सनातभय , द्रौपद्या देव्या शरणमुपेति प्राप्नोति, ततः खलु सा द्रौपदी देवी पानाम रामानमेवमादी-कि खलु स्त्र हे देवानु प्रिय ! न जानासि कृष्णस्य वासुदेवस्योतमपुरुषस्य विप्रिय कुर्वन् मामिह अत्र गलियों को अदारियों को, चरिकाओं को, श्री गृहों को कोशागारा की श्री कृष्ण ने ध्वस परदिया। तथा वह अमरकमा राजधानी भी मरसर शब्द करती हई उस गर्जना पूर्वक किये गये चरणाघात से जमीन पर गिर पडी। (तरण से पउमणामे राया, अमरकका रापहाणि सभाग जाव पासित्ता, भीए दोवई। देवीए सरण जवेइ) तय पद्मनाभरात अमरकका राजधानी को प्राकार गोपुर आदि की ध्वस्त अवस्थावाला देखकर अत्यन्त भीत हुआ अस्त हुआ, अहिग्न हुआ। और सजात भय सपन्न होकर द्रौपदी देवी की शरण में पहुंचा। (तरण सा दोवई देवी, पउमनाम राय एव चयासी) तब उस द्रौपदी देवी ने पमनाम राजा से इस प्रकार कहा-(किण्ण तुम देवाणुप्पिया! न जाणासि कण्ह કકા રાજધાનીની શેરીઓને, અગરીઓને ચરિકાઓને, શ્રીગ્રહને, કેશા ગારને શ્રીકૃષ્ણ નષ્ટ કરી નાખ્યા તેમજ તે અમરક કા રાજધાની પણ સ સક શદ કરતી ગજનાપૂર્વક કરવામાં આવેલા ચરણાઘાતથી જમીનદોસ્ત થઈ ગઈ
(तएण से पउमणाभे राया, अमरकका रायहाणि समग्ग जाव पासित्ता, भीए दोबईए देवीए सरण उवेइ)
પદ્મનાભ રાજા અમરક કા રાજધાનીના પ્રાકાર, ગપુર વગેરેને વિનાશ જોઈને ખૂબ જ ભયભીત થઈ ગયો, ત્રસ્ત થઈ ગયે તેમજ ઉદ્વિગ્ન થઈ ગયા भने समतलय सपन्न थाने श्रीपही हवानी शशे पायो (तपण सा दावई देवी पउमनाभ राय एव वयासी) त्यारे द्रौपदी वा पानाक રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે –
Page #741
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५२७ हव्य-शीत्रम् आनयमि-आनीतवानसि तत्-तम्मात्-' एवमपि गए' एवमपि गते-इत्थंममापहरणे कृतेऽपि, गच्छ खलु त्व हे देवानुप्रिय । स्नातः 'उल्ल पडसाडए' आई पटसाटकः स्नानेनाऽऽीकृतोत्तरीयपरिधानवस्त्रपारी ' अपचलगवत्यणियन्ये' अवचूलकवस्त्रणियत्थः अपचूलपम्-अयोमुग्न नीलिम्बमान चूलवस्वाञ्चल-पखमाप्त यथा भवति तथा 'णियत्य' परिहित वस्र येन स तथा-वीगा परिवानमिव चरणपर्यन्तलम्तिवस्त्रान्त यथास्यात्तथा परिहितवस्त्र इत्यर्थः । 'अते उग्परियालसपरिपुडे' अन्त पुरपरिवारमपरिटता स्त्री परिवारेण सहितः, 'अग्गाइ ' अग्र्याणि वराणि रत्नानि गृहीत्वा मा पुरतः 'काउ' कृत्वा कृष्ण स्स वा सुदेवस्स उत्तमपुरिसस्म विप्पि र करे माणे मम इह हव्यमाणेसि) हे देवानुप्रिय ! क्या तुम उत्तम पुस्प कृष्णवासुदेव को नहीं जानते हो जो उनको अनिष्ट कर तुम मुझे यहां ले आये हो । (त एव. मविगए गच्छण तुम देवावुप्पिया! पहाए उल्लपडसाडए अब चलगवायणियत्ये अते उरपरियालसरिघुडे, अम्गड वराइ रयणाइ गहाय, मम पुरओ, काउ कण्ट् वासुदेव करयलपायपडिए सरण उहि) खैर अय इस पात को जाने दो-हे देवानुप्रिय ! तुम स्नान करो, और गीले वस्त्र पहिने हुए ही श्री कृष्णवासुदेव की शरण मे जाओ । जाते समय तुम स्त्रीयों के परिवान के समान चरण पर्यन्त लटकते हुए वस्त्र पहिनकर जाना । अकेले मत जाना किन्तु अपने अत पुर की समस्त स्त्रियों को साथ में ले जाना। रीते हाय भी मत जानो किन्तु भेट निमित्त वेश कीमती रत्नो को लेकर और मुझे आगे करके चलना ।
(पिण्ण तुम देवाणुप्पिया ! न जाणासि काहस्स वासदेवस्स उत्तमपुरिसस्स विप्पिय करेमाणे मम इह इन्चमाणेसि)
હે દેવાનુપ્રિય! શુ તમે ઉત્તમ પુરૂષ કૃષ્ણ-વાસુદેવને ઓળખતા નથી મને અહીં લાવીને તમે તેમનું જ અનિષ્ટ કર્યું છે
(त एवमविगए गच्छह ण तुम देवाणुप्पिया ! पहाए उल्लपडसाडए अर चूलगावत्थणियत्ये अतेउरपरियालसपरिवुडे अग्गाइ बराह रयणाइ गहाय, मम पुरतो, काउ कण्ह वासुदेव करयल्पायपडिए सरण उवेहि )
ખેર, છેડો એ વાતને હે દેવાનુપ્રિય ! તમે હવે સનાન કરે અને ભીના વથી જ શ્રીકૃષ્ણ વાસુદેવની શરણમા જાએ જતી વખતે તમે સ્ત્રીઓના પરિધાન (ચણિયા)ની જેમજ પગ સુધી લટકતા વસ્ત્રો પહેરીને તમે એકલા જતા નહિ પરંતુ રણવાસની બધી સ્ત્રીઓને સાથે લઈને જો તમે ખાલી હાથે તેમની પાસે જતા નહિ પણ કઈક ભેટ સ્વરૂપ કિંમતી વસ્ત્રોને લઈને
Page #742
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२८
वासुदेव 'परयलपायपदिए रतलपादपति-संगोजित करतनद्वयः, पादयोः पतिनः मन् गरण उपेरिद-प्रायम्पमामितिया उपगी भवेत्यर्थः । हे देवानु मिय! 'पणियाला' प्रणिपतितावा-गाजीपगिनिपतितानां वत्सलाः स्नेहान्त खलु उतमरुपा गान्ति प्रणामगागंण महापुरगाः प्रमीदन्तीत्यर्थः । ततस्तदनन्तर म मनामी रामा द्रौपया दपा एनम उक्तस्यनस्पमय प्रति श्रृगोति-नीकगेति, मतिथुत्य ग्नातो यापन शरणम्पति द्रौपदीवानमनुमृत्य पद्मनाभो राना मण गदसम्म शरणमुपगत इत्यर्थः। उपत्य करतलपरिगृहीत दशनाव शिर आरत मम्नलिकापसमागप्रकारेण, आदीद-दृष्टा घा पहुँच कर तुम दोनो राध जोड़ कर उनके चरणों में गिर जाना (पणिवायरच्छलो ण देवाणुप्पियो उत्तमपुरिमा ताण से पउमनामे दोबई देवीए एमट्ट पडिणेड, पढिसुणित्ता हाजार सरण उवेइ उरित्ता, करयलापरवयासी दिहाण देवानुपियाण इट्टी, जाव परक्कम त सामेमि ण देवाणुप्पिया।) हे देवाणुप्रिय! उत्तम पुरुष जो हुआ करते हैं वे प्रणि तितवत्सल छुआकरते है-प्रणाममात्रसे महापुरुष प्रमन्न हो जाया करते है-अर्थात् नमन करनेवाले को वे नहीं मारते तथ पद्मनाभ राजाने द्रौपदी देवी के इस शिक्षाप्रद कथनरूप अर्थको स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर बाद में उसने स्नान किया, यावत् वह द्रौपदीके कहे अनुसार कृष्णवासुदेव की शरणमें परच गया। शरण में पहुँच कर उसने अपन दोनों हाथों को जोडकर अजलि बनाई और आदक्षिण प्रदक्षिण करक उसे शिरपर रग्वा । फिर इस प्रकार बोला-आप देवानुप्रियकी मेंने ऋद्धि તેમજ મને આગળ રાખીને ચાલો ત્યા પહેચીને તમે બંને હાથ જોડીને તેમના પગે પડજે
(पणियाय वच्छलाण देवाणुप्यिो उत्तमपुरिसा, तएण से पउमनाभे दाव३५ देवीए एयम पडिसुणेइ, पडिसुणिता हाए जाव सरण उवेइ, उवित्ता करयल एर बयासी,दिवा ण देवाणुप्पियाण इडी जान परक्कमे त खामेमि ण देवाणुपिया
હે દેવાનુપ્રિય ! ઉત્તમ પુરૂ તેમની સામે વિનમ્ર થયેલા માણસો પ્રલ એકદમ વત્સલ થઈ જાય છે ફક્ત નમસ્કાર કરવાથીજ તેઓ પ્રસન્ન થઈ જ છે આ બધું સાંભળીને પદ્મનાભ રાજાએ દ્રોપદીના આ શિક્ષાપ્રદ કથન ?' અર્થને સ્વીકારી લીધે સ્વીકાર કરીને તેણે સ્નાન કર્યું થાવ તે પદને કહ્યા મુજબ જ કૃષ્ણ-વાસુદેવની શરણમા ગ શરણુમાં જઈને તેણે પોતાન! અને હાથ જોડીને અ જલિ બનાવી અને આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા ઉપર મૂકી અને ત્યારબાદ તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા
Page #743
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५२९
1
,
खलु देवानुप्रियाणाम् ऋद्धिर्यात् पराक्रमः- तत् = तम्मात् क्षमयामि ग्वल हे देवालुमियाः । यावत् क्षमन्तु खलु यावत् नाह भूयो भूयः एव करणतया - पुनरेव न करिष्यामि इति कृत्वा - इत्युक्त्या -' पजलिवुडे ' प्राञ्जलिपुट - सयोजितकरतद्वयः पादपतितः कृष्णस्य वासुदेवस्य द्रौपदीं ' साहत्थि ' सहस्तेन, उपनयति । ततः रालु स कृष्णो वासुदेव पद्मनाभमेवमनादीत्-ह भोः ! पद्मनाभ ! अप्रार्थितमार्थित ! हे मरणवाक ! ४ कि खलु वन जानासि मम भगिनीं द्रौपदी देवी मिहहव्यमानयन्, 'त' तत् तस्मात् ' एवमनि गए' एवमपिगते अनमारेण शरण प्राप्ते सति, नास्ति ते तव मद्भयमिदानीमिति कृत्वा प्रति विसर्जयति । प्रतिनिसृज्य द्रौपदी देवीं गृह्णाति गृहीला रथ दूरोहति=आरोहयति देखली, यावर पराक्रम देख लिया । हे देवानुप्रिय । मै अपने अपराध की क्षमा मांगता हूँ । (जाव खमतु ) यावत् आप मुझे क्षमा दें। ( जाणा ह भुज्जो एव करणाए ) अन मै पुनः ऐसा नहीं करूंगा । (त्ति कट्ट पजरिबुडे पापवडिए कण्हस्स वासुदेवस्त दोवइ देवि सा हथि उणे ) इस प्रकार कहकर वह दोनों हाथ जोड उन कृष्णवादेव के पैरों पर गिर पड़ा और अपने हाथ से ही उसने फिर उनके लिये द्रौपदी सौपदी । (तएण से कण्हे वासुदेवे परमणाभ एव वासी - भो । पमणामा' अपत्थियपत्थिया ४ किण्ण तुम ण जाणासि मम भगणि दोन इह हव्व माणमाणे त एवमविगए, णत्थि ते ममाहिंतो इयाणि स्थि त्ति कट्टु पउमणाम पडिविसज्जे, पडि सिज्जिता दो- देवं गण्ड, गिटिसा रह दुरुहेइ, दुरूहित्ता जेणेव પણ મે જોઈ લીધુ છે કે
२
1
છુ
( जाव समव ) यावत्
મે ઋદ્ધિ જોઈ લીધી છે, યાવત્ તમારૂ પરાક્રમ દેવાનુપ્રિય હુ મારા અપરાધ બદલ ક્ષમા માગુ त भने क्षमा ४३। (ण जाना जो न करणाए ) वे श्री आलु उद्यापि नहि ३ (त्ति कटु पजलिवुडे पायवडिए कण्हत्म वासुदेवरस दोवइ देवि साहत्थि उत्रणेइ ) या प्रमाणे महीने ते मने साथ लेडीने કૃષ્ણ-વાસુદેવના પગામા આળેટી ગયા અને ત્યારપછી તેશે પોતાના હાથથીજ દ્રૌપદી તેમને સેાપી ધી
(तरण से कहे नासुदेवे पउमणाभ एव वयासी -ह भो । पउभणाभा ! अपत्थियपत्थिया ४ णि तुम ण जाणासि मम भगिणि दोवड देवि इह, हव्त्र माणमाणे त एवमपि गए, णत्थि ते ममाहिंतो इयाणि भयमस्थि तिकड पउमणाम पटिनिसज्जे पडिसिज्जित्ता दोवइ देवि गिदह, गिदित्ता रह दुरुहेइ,
Page #744
--------------------------------------------------------------------------
________________
entert
५२८
'
वासुदेव ' फरयलपापटिप करत पादपति-संयोजकद्वयः पादयोः पतितः मन्दशरण उपैटि-प्रायस्यमामितिवदन् टप भवेत्यर्थः । हे देवानु मिय पणिग्याउला मणिपतिमा-पाणीपरिनिपतिताना पत्मलाः स्नेहन्त खलु उत्तमपुरा भरति मणाममात्रेण मदापुरयाः प्रसीदन्तीत्यर्थः । ततस्तदनन्तरनामो राजा द्रौपया देव्या एमपमर्थ पतिश्रृगोति-स्वीकरोति प्रतिश्रुत्य ग्नातो यावत् शरणमुपैति द्रौपदी नमनुमृत्य पद्मनाभ राजा कृष्णदेवस्य शरणमुपगत इत्यर्थः । उपेत्य करतरपरिगृहीत दर्शन शिर आप मस्त केलियागतकारण, जरादी दृष्ट्वा वहा पहुँच कर तुम दोनों हाथ जोड़ कर उनके चरणों में गिर जाना (पच्छिलो ण देवाणुपिया उत्तमपुरिमा तष्ण से परमनाभे दो देवी यम पडिसुणेड, पडिणित्ता हा जान मरण उबेड, उचित्ता, करववासी दिट्ठाण देवानुष्पिग्राण हड्डी, जाव परक्कमे तखाणि देवाणुपिया । ) हे देवाणुप्रिय । उत्तम पुरुष जो हुआ करते हैं वे प्रणितितवत्सल हुआ करते हैं-प्रणाममात्र से महापुरुष प्रमन्न हो जाया करते हैं - अर्थात् नमन करनेवालेको वे नहीं मारते तब पद्मनाम राजाने द्रौपदी देवी के इस शिक्षाप्रद कथनरूप अर्थको स्वीकार कर लिया । स्वीकार कर बाद में उसने स्नान किया, यावत् वह द्रौपदीके कहे अनुसार कृष्णवासुदेव की शरण में पहुंच गया । शरण में पहुँच कर उसने अपने दोनों हाथो को जोडकर अजलि बनाई और आदक्षिण प्रदक्षिण कर के उसे शिरपर रग्वा । फिर इस प्रकार बोला-आप देवानुप्रियकी मैंने ऋद्धि તેમજ મને આગળ રાખીને ચાલશે ત્યા પહેંચીને તમે ખને હાથ જોડીને તેમના પગે પડો
4
,
(पणिवयवलाण देवाणुरिया उत्तमपुरिसा, तरण से पउमनाभे दोवइए देवीए एयम पडणे, पडिणित्ता हाए जाव सरण उवेइ, उवित्ता करयल० बयासी, दिट्ठाण देवाणुपियाण इड्डी जान परक्कमे त खामे मि पण देवाणुपिया) હૈ દેવાનુપ્રિય । ઉત્તમ પુરૂષો તેમની સામે વિનમ્ર ચયેલા માણસા પ્રત્યે એકદમ વત્સલ થઈ જાય છે ફક્ત નમસ્કાર કરવાથીજ તેઓ પ્રસન્ન થઈ જાય છે આ મધુ સાભળીને પદ્મનાભ રાજાએ દ્રૌપદીના આ શિક્ષાપ્રદ કથન રૂપ અને સ્વીકારી લીધે સ્વીકાર કરીને તેણે સ્નાન કર્યુ ચાવત્ તે દ્રૌપદીના કહ્યા મુજબ જ કૃષ્ણુ-વાસુદેવની શરણમા ગર્ચા શરણમા જઈને તેણે પોતાના ખને હાથ જોડીને અજલિ મનાવી અને આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીઉપર મૂકી અને ત્યારબાદ તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યું કે
Page #745
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारघामृतविणाटीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५२९ खलु देवानुप्रियाणाम् ऋद्धिर्यारत् पराक्रमः-तत्-तस्मात् क्षमयामि ग्वल हे देवा नुमियाः । यावत् क्षमन्तु खलु यावर नाह भूयो भूय' एव करणतया-पुनरेव नवरिप्यामि, इति कृत्या-इत्युक्त्वा-'पनलिबुढे' प्रातलिपुट -सयोजितकरतलद्वयः पादपतितः कृष्णस्य वासुदेवस्य द्रौपदी ' साहत्थि ' स्वहस्तेन, उपनयति । ततः खलु स कृप्णो वासुदेव पद्मनाभमेवमनादीत-ह भोः । पद्मनाम । अप्रार्थितमार्थित ! हे मरणवाटक । ४ किं खल व न जानासि मम भगिनी द्रौपदी देवीमिहद्दव्यमानयन, 'त' -तस्मात 'एवमपि गए। एवमपिगते अनेन प्रकारेण शरण प्राप्ते सति, नास्ति ते तब मइयमिदानीमिति कृत्वा प्रति सिने यति । प्रतिपिसृज्य द्रौपदों देवीं गृह्णाति, गृहीत्वा रथ दूरोहति आरोहयति देखली, गवा पराक्रम देन लिया। हे देवानुप्रिय । में अपने अपराध की क्षमा मांगता हैं। (जाव खमतु) यावत् आप मुझे क्षमा दें। (ण जावणार मुज्जो २ एव करणाए) अर मै पुनः ऐसा नहीं करूगा। (त्ति कटु पजरिबुडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्ल दोवइ देवि सा हात्य उवणे) इस प्रकार का कर वह दोनों हाय जोड उन कृष्णवा सुदेव के पैरों पर गिर पडा और अपने हाथ से ही उसने फिर उनके लिये दोपदी सौ पदी । (तएण से कण्हे वासुदेवे पउमणाम एच वयासी
है भो पउमणामा। अपवियपस्थिया ४ किण्ण तुम ण जाणासि मम मागणि दोवड देविड व माणमाणे त एवमविगए, जस्थिते ममारितो इयाणि मयमस्थिति कट पउमणाम पडिविसउजेड, पडि साजता दोवद देवि गिपड, गिरिता रह दुख्हेइ, दुरूहित्ता जेणेव એ દ્ધિ જોઈ લીધી છે, યાવત તમારૂ પરાક્રમ પણ મેં જોઈ લીધું છે કે हानुप्रिया भा। अ५२५ मास क्षमा मा छु (जाव समत) यावत् " भन क्षमा ४२ (ण जाव जाह मुम्जो २ एम करणाए) व श " ३६५ ना बिटट पजलिवडे पायवडिए कण्हाम वासदेवरस दावइ दवि साहस्थि उडणे) मा प्रभारी हीन ते मन थनीने કૃણ-વાસુદેવના પગમાં આળેટી ગયે અને ત્યારપછી તેણે પિતાના હાથથીજ દ્રિૌપદી તેમને આપી દીધી
(तएण से कण्हे वासुदेवे पउमणाम एप बयासी-ह भो । पउभणाभा ! अपात्ययपत्थिया ४ मिष्ण तुम ण जाणासि मम भगिणिं दोबड देवि इह, इन्त्र माण त एवमपि गए. पत्थि ते ममाहितो इयाणि भयमथि तिर पउमपाटसिज्जेड पडिसिज्जित्ता दोवइ देवि गिण्डइ, गिण्डित्ता रह दुम्हेइ,
सय ६७
Page #746
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२८
_ताया वासुदेव 'फरयलपायपढिप' परत पादपति-योनिवरत रदयः, पादयोः पतितः मन् शरण उपैहि-त्रायस्वमामितिपदन उपगनो भवेत्यर्थः । हे देवानु मिय! 'पणियाउला' पणिपनित्तमामा-जगोपरिशिपतिवाना वत्सला स्नेहात खलु उत्तमपुरुषा भपति प्रणामगाण महापुरपा प्रसीदन्तीत्यर्थः । ततस्तदनन्तर म प्रनामो रामा द्रौपा देव्या एमा उक्त कयनन्पर्य पतिश्रृगोति-स्पीकरोति, प्रतिश्रुत्य स्नातो याद शरणमुपैति द्रौपदीपनमनुमृत्य पानामो राजा कप्ण गमुदरग शरणमुपगत इत्यर्थः। उपत्य करत उपरिगृहीत दशनग्य शिर आरतं मम्न के अकिपा ए मागप्रकारेण, आदी-दृष्ट्या वहा पहुँच कर तुन दोनों राध जोड़ कर उनके चरणों में गिर जाना (पणिवायरच्छलो ण देवाणुप्पियो उत्तमपुरिमा तरण से पउमनामे दोई देवोए म पडिसुणेड, पढिसुणित्ता हाजार सरण उवेह, उवित्ता, करयलावयासी दिहाण देवानुप्पियाण हड़ी, जाव परक्कमे त खामेमि ण देवाणुप्पिया।) हे देवाणुप्रिय ! उत्तम पुरुप जो हुआ करते हैं वे प्रणि तितवत्सल हुआ करते है-प्रणाममात्रसे महापुरुष प्रमन्न हो जाया करते हैं-अर्थात् नमन करनेवालेको वे नहीं मारते तय पद्मनाम राजाने द्रौपदी देवीके इस शिक्षाप्रद धनरूप अर्थको स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर यादमें उसने स्नान किया, यावत् वह द्रौपदीके कहे अनुसार कृष्णवासुदेव की शरणमें पहुंच गया। शरण में पहुँच कर उसने अपने दोनों हाथो को जोडकर अजलि बनाई और आदक्षिण प्रदक्षिण करके उसे शिरपर रग्वा । फिर इस प्रकार बोला-आप देवानुप्रियकी मैंने ऋद्धि તેમજ મને આગળ રાખીને ચાલજે ત્યાં પહોંચીને તમે બંને હાથ જોડીને તેમના પગે પડજો
(पणियाय वच्छलाण देवाणुप्यिो उत्तमपुरिसा, तएण से पउमनाभे दोवइए देवीए एयम पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता हाए जाव सरण उवेइ, उवित्ता करयल० एप पयासी,दिवा ण देवाणुप्पियाण इडी जान परक्कमेत खामेमि ण देवाणुप्पिया)
હે દેવાનુપ્રિય ! ઉત્તમ પુરૂ તેમની સામે વિનમ્ર થયેલા માણસે પ્રત્યે એકદમ વત્સલ થઈ જાય છે ફક્ત નમસ્કાર કરવાથી જ તેઓ પ્રસન્ન થઈ જાય છે આ બધુ સાભળીને પદ્મનાભ રાજાએ દ્રોપદીના આ શિક્ષાપ્રદ કથન રૂપ અર્થને સ્વીકારી લીધે સ્વીકાર કરીને તેણે સ્નાન કર્યું ચાવત્ તે દ્રૌપદીના કહા મુજબ જ કૃષ્ણ-વાસુદેવની શરણમ ગચ શરણમાં જઈને તેણે પિતાના બને હાથ જોડીને અંજલિ બનાવી અને આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરી* * . માથા ઉપર મૂકી અને ત્યારબાદ તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગે ?
Page #747
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगारधामृतदिगो टी० १० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
मूलम्-तेणं कालेण तेणं समएणं धायइसडे दीवे पुरस्थिमिद्धे भारहे वासे चंपाणामं णयरीहोत्था, पुण्णभद्दे चेइए, तत्थ णं चंपाए नयरीए कविले णामं वासुदेवे राया होत्था, महिया हिमवंत० वण्णओ, तेण कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्वए अरहा चपाए पुण्णभद्दे समोसढे, कपिले वासुदेवे धम्म सुणेइ तएण से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयस्स अरहओ धम्म सुणेमाणे कण्हस्त वासुदेवस्स सखसई सुणेइ, तएण तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था - किं मण्णे धायइसंडे दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पण्णे ' जस्स ण अय संखसद्दे ममपिव मुहवायपूरिए वीय भवइ,तएण मुणिसुव्वए अरहा कविल वासुदेवं एवं वयासी से णूण ते कविला वासुदेवा | मम अतिए धम्म णिसामेमाणस्त सखसद आकपिणत्ता इमेयारूवे अज्झस्थिए कि मन्ने जाव वीय भवइ, से शूण कविला वासुदेवा । अयमटे समटे हता । अस्थि, नो कावला । एव भूय वा३ जन्न एगे खेत्ते एगे जुगे समए दुवे अरहता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उप्पजिसु उप्पज्जिति उप्पज्जिस्सति वा,एव खल्लु वासुदेवा । जबूद्दीवाओ भारहाओ वासाओ हस्थिणाउरणयराओ पंडुस्स रणो पुन्व
पाच हो जहा जवृद्धीप नाम का द्वीप, जहा भरतक्षेत्र नाम का क्षेत्र था उस ओर चल दिये। सू०२९ ॥
અને લઈને લવણ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને જ્યા જ બૂઢીપ નામે દ્વીપ, અને મા પણ જ્યા ભારતવર્ષ નામે ક્ષેત્ર હતુ તે તરફ રવાના થયા છેસૂત્ર ૨૯
Page #748
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
तामण्यास आरोग या पत्र पाडास्तगोपाग जति, उपागग पनाना पाडवानां द्रौपदी देशी 'माहत्यि ' महम्नेन. उपनयनि ददानि । तत' सजग प्रष्णाः पत्रमि' पाण्डने गार्धमात्मा पहभीरपल गगमुद्रम्य म यम येन यौा जम्बूद्वीपो द्वीपः, योर भारत वर्ष और पापाग्य गमाग गतु मटतः ॥ मु०२९॥ पच पढये तेणे उपागम, उपागमत्ता पनाह पडवाण दोरइ देविं माधि उणेह ) तप ऋणासुदेव ने पदमनाभ से इस प्रकार कहा अरे ओ पदमनाभ ! तुम हम तर से अकाल में ही मरण के अभिलाषी क्यों यने ५क्यातुझे यह पना नरी था कि द्रौपदी मेरी परिन है। क्यों त इम को यहां ले आया गर-जप त हम रूप में मेरी शरण मे आचुका हे-तो अप तुझे किसी भी प्रकार का मेरी तरफ से भय नही रहा-ऐसा फरकर कृष्णासुदेव ने उसे विसर्जित कर दिया-अपने स्थान पर उसे जाने की आज्ञा देदी-| याद में द्रौपदी को माथ में लिया और लेकर वे रथ पर आम्द हुए। आरुट होकर फिर वे, पर्श आये-जहा पाचों पांडव थे वहा आकर उन्हों ने द्रौपदी को अपने शयों से पांचो पाडवों के सुपुर्द कर दिया। (तपण कण्हे पचेहिं पटवेहि सद्धि अप्पच्छे छह रहेहिं लवणसमुह मज्झ मझेण जेणेय जबद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए) इसके बाद चेमणवासुदेव पाँची के साथ आत्मपष्ट रोकर उहो रथों को ले लवण समुद्र से बीचों
५ पडवे तेणेव उवागच्छद उपागन्छित्ता पचण्ह पडवाण दोवइ
મદેવે પદ્મનાભને આ પ્રમાણે કહ્યું કે અરે એI પદ્મનાભ! મયમા જ મરણ અભિલાષી કેમ બની ગયા છે?, શુ કે દ્રોપદી મારી બહેન છે તું એને અહીં શા માટે લઈ રે આ સ્થિતિમાં મારી પાસે આવ્યો છે તે હવે તારે
જાતને ભય રાખવો જોઈએ નહિ. આમ કહીને કૃષ્ણ ને ત્યારપછી દ્રૌપદીને સાથે લઈને તેઓ રથ ઉપર તેઓ જ્યા પાચે ૫ડ હતા ત્યાં આવ્યા ત્યાં ની દ્રૌપદીને પાચે પાડાને સોપી દીધી
“सद्धि अप्प छ? छहि रहेहि लवणसार जेणेव भारहेवासे तेणेव पहारेत्य गमणाए) - પાડની સાથે આત થઈને છે
Page #749
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतविणो टी० १० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
मूलम् तेणं कालेण तेणं समएण धायइसंडे दीवे पुरस्थिमिद्धे भारहे वासे चंपाणामं णयरी होत्था, पुण्णभद्दे चेइए, तत्थ णं चपाए नयरीए कविले णामं वासुदेवे राया होत्था, महिया हिमवंत० वण्णओ, तेण कालेण तेण समएण मुणिसुव्वए अरहा चपाए पुण्णभद्दे समोसढे, कपिले वासुदेवे धम्म सुणेइ तएणं से कविले वासुदेवे मुणिसुब्वयस्स अरहओ धम्म सुणे माणे कण्हस्स वासुदेवस्स सखसई सुणेइ, तएण तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था – किं मण्णे धायइसंडे दीवे भारहे चासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पण्णे ? जस्स णं अय संखसद्दे ममंपिव मुहवायरिए वीयं भवइ,तएणं मुणिसुव्वए अरहा कविल वासुदेवं एव वयासी से गूण ते कविला वासुदेवा । मम अतिए धम्म णिसामेमाणस्स सखसद आकपिणत्ता इमेयारूवे अज्झथिए किं मन्ने जाव वीयं भवइ, से णूणं कविला वासुदेवा । अयमढे समटे हता । अस्थि, नो कविला | एक भूय वा३ जन्न एगे खेत्ते एगे जुगे समए दुवे अरहता वा चकवट्टी वा वलदेवा वा वासुदेवा वा उप्पजिसु उपज्जिति उप्पजिस्सति वा,एवं खलु वासुदेवा | जद्दीवाओ भारहाओ वासाओ हरियणाउरणयराओ पडुस्स रणो पुव्व
बीच हो जहा जबूदीप नाम का द्वीप, जहा भरतक्षेत्र नाम का क्षेत्र था उस ओर चल दिये। सू०२९ ।। રથાને લઇને લવણ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને જ્યા જ બુદ્વીપ નામે છીપ, અને તેમાં પણ જ્યા ભારતવર્ષ નામે ક્ષેત્ર હતુ તે તરફ રવાના થયા છેસૂત્ર ૨૯
Page #750
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३०
साथमेकचा
आरो यौन पञ्च पाण्डवस्तीपाग छति, उपागत्य पञ्चानां पाण्डवानां द्रीपद देवीं ' साहित्यि ' सदम्तेन, उपनयति ददाति । ततः स स कृष्ण पश्रमि पाण्डौ सार्धमात्म पढभीरथेन समुद्रस्य मध्यमभ्येन यौन जम्बुद्वीपो द्वीपः, यत्र भारत वर्ष कौर माधारयद् गमनाय = गतु मटतः ॥ ०२९॥ पंच पडवे तेणेव उनागच्छ, उवागच्छित्ता पंच पडवाण दोवर देवि साहत्यि उचणे ) तप कृष्णवसुदेव ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा अरे ओ पद्मनाभ ! तुम इस तरह से अकाल में ही मरण के अभिलाषी क्यो भने ४स्यातुझे यह पता नही था कि द्रौपदी मेरी बहिन है। क्यों तृ इस को यहां से आया ! सैर-जय तृ इस रूप में मेरी शरण में आचुका है - तो अप तुझे किसी भी प्रकार का मेरी तरफ से भय नही रहा- ऐसा करकर कृष्णवासुदेव ने उसे विसर्जित कर दिया अपने स्थान पर उसे जाने की आज्ञा देदी - 1 याद में द्रौपदी को साथ में लिया और लेकर वे रथ पर आरुढ हुए । आरूढ होकर फिर वे वहां आये जहां पाँचों पांडव थे यहां आकर उन्हों ने द्रौपदी को अपने हाथों से पांचों पांडवों
सुपुर्द कर दिया। (तरण कण्हे पचेहिं पडवेहि सद्धि अप्पछडे छहि रहेहिं लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण जेणेव जबूद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे तेणेव पहारेत्थ गमणार ) इसके बाद वे कृष्णवासुदेव पांचों पांडवों के साथ आत्मपष्ठ रोकर छरो रथों को ले लवण समुद्र से बीचों दुरूहित्ता जेणेत्र पच पडवे तेणेव उवागच्छा उनागच्छित्ता पचण्ह पडवाण दोनह देवि सात्थि उवणे )
ત્યારે કૃષ્ણુ-વાસુદેવે પદ્મનાભને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે અરે એ । પદ્મનાભ તમે આ પ્રમાણે અસમયમા જ મરજીના અભિલાષી કેમ ખની ગયા છે, શુ તમને ખબર નહોતી કે દ્રોપદી મારી મહેન છે તુ એને અહી શા માટે લઈ આયૈ ? ખેર, તું જ્યારે આ સ્થિતિમા મારી પાસે આવ્યો છે તે હવે તારે મારા તરફથી કોઈ પણ જાતને ભય રાખવા જોઇએ નહિ. આમ કહીને કૃષ્ણ વાસુદેવે તેને વિદાય કર્યું ત્યારપછી દ્રૌપદીને સાથે લઈને તે રથ ઉપર સવાર થયા સવાર થઈને તેઓ જ્યા પાચે પડવા હતા ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેમણે પેાતાના હાથથી દ્રૌપદીને પાચે પાડવેને એપી દીધી
(तरण से कण्हे पचेर्हि पडवेहिं सद्धि अप्प छट्ठे छहिं रहेहिं लवणसमुद्द मज्झ मज्ज्ञेण जेणेव जबूद्दीवे दीवे जेणेत्र भारहेवासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) ત્યારખાદ તે કૃષ્ણ-વાસુદેવ પાચ પાડવાની સાથે આત્મષ્ઠ થઈ ને છએ.
Page #751
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपपिणो टीका म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् मायारि करेइ, तएण से कविले वासुदेवे जेणेव अमरकका तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अमरककं रायहाणि सभग्गतोरणं जाव पासइ पासित्ता पउमणाभं एवं क्यासी-किन्नं देवाणुप्पिया। एसा अमरकका सभग्ग जाव सन्निवइया , तएण से पउभगाहे कविलं वासुदेवं एवं वयासी-एव खलु सामी। जबदीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इह हव्वमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुम्भे परिभृए अमरकका जाव सन्निवाडिया, तएण से कविले वासुदेवे पउमणाहस्स अंतिए एयम सोच्चा पउमणाह एव वयासी हं भो। पउमणाभा। अपत्थियपत्थिया किन्न तुम नजाणसि मम सरिसपुरिसस्स कण्हस्म वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे १, आसुरुत्ते जाव पउमणाहं णिव्विसयं आणवेइ, पउमणाहस्स पुत्ते अमरकंका रायहाणीए महया महया रायाभिसेएण अभिसिचइ जाव पडिगए ॥ सू० ३०॥ ____टीका-'तेणं कालेण ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धानकी. पण्डे द्वीपे पौरस्त्यार्धे भारते व चम्पा नाम नगरी आसीत् । तस्या वहिर्भागे पूर्णभद्र नाम चैत्यम्-उद्यानम् , आसीत् । तत्र-तस्या खलु चम्पानगयाँ
'तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि । ।
टीकार्य-(तेण कालेण तेण समएण) उस कालमें और उस समयमें (धायइसडे दीवे, पुरथिमद्धे भारहेवासे चपा णाम णयरी होत्या, पुण्ण भद्दे चेहए ) धातकी षड द्वीप मे पूर्व दिग्भागवर्ती भरत क्षेत्र में चपा 'वेणं कालेण वेण समएण' इत्यादि
10-(तेण कालेण तेण समएण) ते ४॥णे मने ते समये (घायइ सडे दोवे, पुरथिमद्धे भारहेवासे चपा णाम णयरी होत्था, पुण्णभद्दे चेइए) पाती પડપમાં પૂર્વ દિગ્રભાગવતી ભરતક્ષેત્રમાં ચપા નગરી હતી, તેમાં પૂર્ણભદ્ર નામે ઉદ્યાન હતુ
Page #752
--------------------------------------------------------------------------
________________
भानाधका संगइएणं देवेण अमरकंकाणयरिं साहरिया, तएणं से कण्हे वासुदेवे पंचहि पंडवेहिं सद्धि अप्पछ? छहिं रहेहि अमरकंक रायहाणि दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए, तएण तस्स कण्हस्स वासुदेवस्ल पउमणाभेण रण्णा सद्धिं सगामे सगामेमाणस्स अय संखसद्दे तव मुहवाया० इव वीइ भवद, तएण से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं बदइ२ एवं वयासी-गच्छामि णं अह भंते । कण्हे वासुदेवे उत्तमपुरिस सरिसपुरिस पासामि, तएण मुणिसुव्वए अरहा कविले वासुदंवे एव पयासी - नो खल्लु देवाणुप्पिया । एव भूय वा३ जण्ण अरहतो वा अरहतं पासइ चकवट्टी वा चकवट्टि पासइ बलदेवा वा वलदेव पासइ वासु देवो वा वासुदेव पासइ, तहविय ण तुम कण्हस्त वासुदेवस्स लवणसमुद्द मज्झमझेण वीइवयमाणस्स सेयापीयाइ धयग्गाइ पासिहिसि, तएण से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वय बदइ नमसइ वंदित्तानमंसित्ताहत्थिखध दुरूहइ दुरूहित्ता सिग्घरजेणेव वेला उले तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवण समुद्द मज्झमझेण वीइवयमाणस्त सेयापीयाइ धयग्गाइ पासइ पासित्ता एवं वयइ एसण मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासु देवे लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण वीइवयइत्तिकटु पचजन्न सख परामुसइ परामुसित्ता मुहवायपूरिय करेइ, तएण से कण्ह वासुदेवे कविलस्त वासुदेवस्स सखसह आयन्नेइ आयन्नित्ता पचजन्न जाव पूरियं करेइ, तएण दोवि . . .
Page #753
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपपिणो टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५३३ मायारि करेइ, तएण से कविले वासुदेवे जेणेव अमरकका तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अमरकंकं रायहाणिं संभग्गतोरणं जाव पासइ पासित्ता पउमणाभं एव क्यासी-किन्न देवाणुप्पिया। एसा अमरकंका सभग्ग जाव सन्निवइया ?, तएणं से पउमगाहे कविलं वासुदेवं एव वयासी-एव खलु सामी। जंबूद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हव्वमागम्म कण्हेणं वासुदेवेण तुम्भे परिभृए अमरकंका जाव सन्निवाडिया, तएणं से कविले वासुदेवे पउमणाहस्स अंतिए एयमट्ट सोच्चा पउमणाह एवं वयासी ह भो। पउमणाभा। अपस्थियपत्थिया किन्न तुम न जाणसि मम सरिसपुरिसस्त कण्हस्म वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे १, आमुरुत्ते जाव पउमणाहं गिव्विसय आणवेइ, पउ. मणाहस्स पुत्ते अमरकंका रायहाणीए महया महया रायाभिसेएण अभिसिंचइ जाव पडिगए ॥ सू० ३० ॥
टीका- तेण कालेण ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धातकीपण्डे द्वीपे पौरस्त्यावे भारते वर्षे चम्पा नाम नगरी आसीत् । तस्या बहिर्भागे पूर्णभद्र नाम चैत्यम्-उद्यानम् , आसीत् । तत्र-तस्यां खलु चम्पानगाँ
'तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तेणं कालेण तेण समएणं) उस कालमें और उस समयमें (वायइसडे दीये, पुरथिमद्धे भारहेवासे चपा णाम णयरी होत्या, पुण्ण भद्दे चेइण) धातकी पड द्वीप में पूर्व दिग्भागवर्ती भरत क्षेत्र में चपा
'वेण कालेण तेण समएण' इत्यादि
Astथ-(तेण कालेण तेण समएण) ते ॥णे मने त समये (पायइ सडे दौवे, पुरथिमद्धे भारहेवासे चपा णाम णयरी होत्था, पुण्णभद्दे चेइ) पाdal પડદ્વીપમાં પૂર્વ દિશભાગવર્તી ભરતક્ષેત્રમાં ચપા નગરી હતી, તેમાં પૂર્ણભદ્ર નામે ઉદ્યાન હતુ
Page #754
--------------------------------------------------------------------------
________________
__
धमकपास
५३२ संगइएणं देवेण अमरकंकाणार साहरिया, तएणं से कण्हे वासुदेवे पंचहि पडवेहिं सद्धि अप्पछठे छहिं रहेहि अमरकक रायहाणि दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए, तएण तस्स कण्हस्स वासुदेवस्स पउमणाभेणं रपणा सद्धिं संगामे सगामेमाणस्स अय सखसद्दे तव मुहवाया० इव वीइ भवद, तएणं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वय वंदइ२ एवं वयासी-गच्छामि णं अहं भते । कण्हे वासुदेवे उत्तमपुरिस सरिसपुरिस पासामि, तएण मुणिसुव्वए अरहा कविले वासुदेवे एव चयासी - नो खल्लु देवाणुप्पिया । एव भूय वा३ जपण अरहंतो वा अरहत पासइ चकवट्टी वा चकवट्टि पासइ बलदेवा वा बलदेव पासइ वासु देवो वा वासुदेव पासइ, तहविय ण तुम कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुद्द मज्झमज्झेण वीइवयमाणस्स सेयापीयाइ धयग्गाइ पासिहिसि, तएण से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वय वंदइ नमसइ वदित्तानमसित्ताहत्थिखध दुरूहइ दुरूहिता सिग्ध२ जेणेव वेला उले तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवण समुद्द मज्झमज्झेण वीइवयमाणस्त सेयापीयाइ धयग्गाइ पासइ पासित्ता एवं वयइ एसण ममसरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासु देवे लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण वीइवयइत्तिकह पचजन्न सख परामुसइ परामुसित्ता मुहवायपूरिय करेइ, तएण से कण्ह वासुदेवे कविलस्त वासुदेवस्स सखसद्द आयन्नेइ आयन्नित्ता पचजन्नं जाव पूरियं करेइ, तएण दोवि 1 दे -
Page #755
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतमर्पिणी टी० अ० १६ प्रौपदीचरितनिरूपणम् ५३५ समुत्पन्न ? यस्य वासुदेवस्य सलु अयं शशब्दो ममेव मुखपातपूरित -मद्वादितशन-निरिवेत्यर्थः, 'पीय भइ' द्वितीयो भवति । तत खलु मुनिसुव्रतोऽर्हन् कपिल वासुदेवम् एव वक्ष्यमागप्रकारेण, अवादी-' से णूण इत्यादि-'से' नून ते तर हे कपिल वासुदेव ! ममान्तिके धर्म ‘णिमामेमाणस्स' निशामयतः= शृण्वतः, शटशव्दम् ' आकणित्ता' आफl=श्रुत्या 'इमेयारूवे ' अयमेतद्रूपः आ यात्मिकः सरल्पो विचारः समुदपद्यत-किमन्यो वासुदेवः समुत्पन्नः, यस्याय शशब्दो यावद द्वितीयो भवति ' से ' अथ नून हे कपिलवासुदेव ! अयमर्थ. समर्थः किं सत्य ?, कपिल वासुदेवः माह-हता! अत्थि इति इन्त ! हे प्रभो ! अयमः सत्योऽस्ति । मुनिसुव्रते भगवानाह-हे कपिल वामदेव ! नो स्लु एवम् = ईदृश, 'भूय वा' भूत वा अतीत चा, भवद् वा प्रर्तमान वा भविष्यद् वा अनागत वा कालत्रयेऽप्येव न भवतीत्यर्थः, 'जन्न ' यत् सल एकस्मिन् क्षेत्र, एक भवड) उनके पास वे कपिल वासुदेव धर्मका उपदेशसुन रहे थे। सोउस कपिल वासुदेवने मुनिसुव्रतप्रभु के पास धर्मका उपदेश सुनते हुए कृष्ण वासुदेवकी शखध्वनि सुनि । तब उस कपिल वासुदेवको इस प्रकार आध्यात्मिक यावत् मनोगत विचार उत्पन्न हुआ-क्या वातकीपड नामके बीपमें वर्तमान भरतक्षेत्र में कोई और दूसरी वासुदेव उत्पन्न हुआ है ? कि जिसके शखका यह शब्द मेरे द्वारा बजाये गये शंखके शब्द जैसा हुआ है ? (तएणं मुणि सुव्वए अरहा कविल वासुदेव एव वयासी-से गृणं ते कविला वासुदेवा! मम अतिए धम्म णिसामेमाणस्स सखस आकणित्ता इमेयारवे अज्झथिए कि मण्णे जाव वीय भवइ से गूण कविला वासुदेव !अयमटे समट्टे ? हता अस्थि, नो खलु कविला एयभूय वा३ जन्नं
તેમની પાસે તે કપિલ વાસુદેવ ધર્મોપદેશ સાભળી રહ્યા હતા તે કપિલ વાસુદેવે મુનિસુવ્રત પ્રભુની પાસે ધર્મોપદેશ સ ભળતા જ કૃષ્ણવાસુદેવના શ અને ધ્વનિ સ ભળે ત્યારે તે કપિલ વાસુદેવને આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવત મને ગત સકલ્પ ઉત્પન્ન થયો કે શું ઘાતકી ષડ નામના દ્વીપમાં વિદ્યમાન ભરતક્ષેત્રમાં કઈ બીજે વાસુદેવ ઉત્પન થયે છે? કેમકે તેના શખને આ દેવનિ મારા વડે વગાડવામાં આવેલા શખના ધ્વનિ જેવો જ છે.
(तएण मुणि सुब्बए अरहा कविल वासुदेव एव वयासी-से गृण ते कवि लावासुदेवा ! मम अतिए धम्म णिसामेमाणस्स सखसद्द आकण्णित्ता इमेयास्वे अझथिए कि मण्णे जाव वीय भवइ, से गुण कपिला वासुदेवा ! अयमद्वे समहे ' हता, अस्थि, नो खलु कविला एय भूयं वा ३ जन्न एगखेचे एगे जुगे
Page #756
--------------------------------------------------------------------------
________________
মামলার 'कविले णाम' कपिलो नाम वासुदेवो रामाऽऽसीत् ' महया हिमयत०' वष्णो ' महाहिमवानित्यादि वर्णका वर्णन पूरोक्ताद् तो यम् ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये गुनिमुनो चम्पाया नगयों पूर्णभद्रे नाम्नि चैत्पे समरसतः । तस्य ममीपे कपिलो नाम पामुदेवो धर्म शृणोति । ततः खलु स कपिलो पासदेवः मुनिमनतस्याईतोऽन्तिके धर्म शृण्वन् कृष्णस्य वासुदेवस्य शब्दशब्द शृणोति ततः स्वछ तस्य कपिलस्य वामदेवस्य अयमेतदूपा वक्ष्यमाणस्वरूप., ' यज्झत्यिए' आध्यात्मिक आत्मगतः साल्पो-विचार., यावद् समुदपयत-किम्-अन्यो धातकीपण्डे द्वोपे भारते पे द्वितीयो वासुदेव नामकी नगरी थी। उसमें पूर्णभद्र नाम का उद्यान था। (तत्थण चपाए नयरीए कपिले नाम वासुदेव राया होत्या, मया हिमवत वण्णओ तेण कालेण तेण समएण मुणिसुपए अरहो, चपाए पुण्णभद्दे समोसढे) उस चपानगरीमें कपिल नाम के वासुदेव राज्य करते थे। ये मराहिम वान् पर्वत जैसे गुणोंसे पूर्ण थे । पहिले जसा वर्णन राजाओंका भिन्न २ जगह किया गया है वैसा ही वर्णन इसका भी जानना चाहिये । उस काल और उस समय में मुनि सुव्रत तीर्थ कर चपा नगरी में इस पूर्ण भद्र उद्यान में आये हुए थे (कविले वासुदेवे धम्म सुणेइ, तएण से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयस्स अरहाओ धम्म सुणेमाणे कण्डस्स वासुदेवस्स सखसद सुणेइ, तएण तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जिया-कि मण्णे,धायहसडे दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पण्णे ? जस्सण अय सखसद्दे ममपिध मुहवायपूरिए बीय
( तत्थ ण चपाए नयरीए कपिले नाम वासुदेवे राया होत्था, महया हिमवत वण्णओ, तेण कालेण तेण समएण मुणिमुधए अरहा, चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे)
- તે ચા નગરીમા કપિલ નામે વાસુદેવ રાજ કરતા હતા તેઓ મહા હિમાવાન વગેરે જેવા બળવાન હતા પહેલા જુદા જુદા રાજાએાનુ જે પ્રમાણે વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણે આ રાજાનું પણ વર્ણન જાણી લેવું જોઈએ તે કાળે અને તે સમયે મુનિસુવ્રત તીર્થ કર ચપા નગરીમાં તે પૂર્ણ ભદ્ર ઉદ્યાનમાં પધાર્યા હતા
(कपिले वासुदेवे धम्म मुणेइ, तरण से कविले रासुदेवे मुणि सुव्ययस्त अरहाओ धम्म सुणेमाणे, हस्त वासुदेवस्स सखसद सुपाइ, तए ण तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झत्यिए समुप्पज्जित्था-कि मण्णे धायइसडे दविं भारहेवासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पणे ? जस्स ण अय सखसहे मम पिव मुहवाय पूरिए वीय भवइ)
Page #757
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतपरिणी टी० १० १६ प्रौपदीचरितनिरूपणम् समुत्पन्न ? यस्य वासुदेवस्य खलु अय शङ्खशब्दो ममेव मुखनातपूरित -मद्वादितगड्न पनिरिवेत्यर्थः, 'पीय भनइ' द्वितीयो भवति । तत खलु मुनिमुनतोऽहन् कपिल वासुदेवम् एव-वक्ष्यमागप्रकारेण, अयादीत्-' से शृण इत्यादि-'से' नून ते तव हे कपिल वासुदेव । ममान्तिके धर्म ‘णिमामेमाणस्स' निशामयतः= शृण्वत', शङ्खशब्दम् ' आकण्णित्ता' आकर्ण्य=श्रुत्या 'इमेयारूचे ' पयमेतद्रूपः आ यात्मिकः सम्ल्पो पिचारः समुदपद्यत-किमन्यो वासुदेवः समुत्पन्नः, यस्याय शङ्खशब्दो यावद द्वितीयो भवति 'से' अथ नून हे कपिलवासुदेव ! अयमर्थः समर्थ' कि सत्य ?, कपिल वासुदेवः माह-इता! अत्थि इति हन्त ! हे प्रभो ! अयमर्थः सत्योऽस्ति । मुनिसुव्रते भगवानाद-हे कपिल वासुदेव ! नो स्लु एवम् ईदृश, 'भूय वा' भूत वा अतीत वा, भवद् वा-वर्तमान वा भविष्यद वा अनागत वा काल्त्रयेऽप्येव न भवतीत्यर्थः, 'जन्न ' यत् सलु एफस्मिन् क्षेत्र, एक भवट) उनके पास वे कपिल वासुदेव धर्मका उपदेश सुन रहे थे । सो उस कपिल वासुदेवने मुनिसुव्रतप्रभुके पास धर्मका उपदेश सुनते हुए कृष्ण वासुदेवकी शखध्वनि सुनि । तब उस कपिल वासुदेवको इस प्रकार आध्यात्मिक यावत् मनोगत विचार उत्पन्न हुआ-क्या धातकीपड नामके द्वीपमें वर्तमान भरतक्षेत्र में कोई और दूसरी वासुदेव उत्पन्न हुआ है ? कि जिसके शखका यह शब्द मेरे द्वारा यजाये गये शंखके शब्द जैसा हुआ है ? (तएण मुणि सुव्वए अरहा कविल वासुदेव एव वयासी-से गुण ते कविला वासदेवा! मम अति धम्म णिसामेमाणस्स सखस आकपिणत्ता इमेयास्वे अज्झथिए कि मण्णे जाव वीय भवइ से ऋण कविला वासुदेव ! अयमटेसमटे ? हता अत्यि, नोखलु रविला एयभूय वा३ जन्न
તેમની પાસે તે કપિલ વાસુદેવ ધર્મોપદેશ સાંભળી રહ્યા હતા તે પિલ વાસુદેવે મુનિસુવ્રત પ્રભુની પાસે ધર્મોપદેશ સ ભળતા જ કૃષ્ણવાસુદેવના શ ખને ધ્વનિ સંભળે ત્યારે તે કપિલ વાસુદેવને આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવત મનોગત સકલ્પ ઉત્પન્ન થશે કે શું ઘાતકી થડ નામના દ્વીપમાં વિદ્યમાન ભરતક્ષેત્રમાં કઈ બીજે વાસુદેવ ઉત્પન્ન થયે છે? કેમકે તેના શ ખને આ ધ્વનિ મારા વડે વગાડવામાં આવેલા શખના ધ્વનિ જેવો જ છે
(तएण मुणि सुपए अरहा कविल वासुदेव एव वयासी-से गुण ते कवि लावासुदेवा ! मम अतिए पम्म णिसामेमाणस्स सखसद्द आकण्णित्ता इमेयासवे अझत्यिए कि मण्णे जाव वीय भवइ, से गुण कपिला वासुदेवा ! अयमढे समहे ' हता, अस्थि, नो खलु कविला एय भूय वा ३ जन्न एगखेते एगे जुगे
Page #758
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापमा स्मिन् युगे, एपस्मिन् समये द्वाईन्ती पाचकातिनी या बलदेवी का यासुदेवो वा 'उप्पजिम ' उदपत्रेताम् , ' उपनिति' उत्पते उपज्जिरसति ' उन्पत्स्येते चा, एर खल हे वासुदेव ! जम्द्रीपाद मारताद् दि हस्तिनापुरनगरात् पाण्डो राज्ञः 'गुण्डा ' स्नुगपुनमधुः, पश्चाना पाण्डवानां मार्या द्रौपदी देवी ता पन एगे खेत्ते गगे जुगे एगेसमा दुवे अरहता चा,चपाचट्टी चा, बलदेवा था, चासुदेवा वो उप्पजिस्सु, उपनिति, उप्पनिस्सति चा, तर मुनिसुव्रत तीर्थ कर प्रभुने उन कपिल वासुदेव से इस प्रकार का हे कपिल वास्तु देव! मेरे पास धर्म को सुनते समय तुम्ह शस शन्द शरण कर इस प्रकार का यह आध्यात्मिक सकरप-विचार उत्पन्न हुआ है, कि क्या कोई दूमरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है-जिसके शप काशद मुझे सुनाई दिया है। कहो कपिल वासुदेव ! यही यात है न' तय कपिल चासुदेवने कहा-हा प्रभो! यही बात है-ऐसा ही विचार उत्पन्न हुआ है-तर मुनिसुव्रत भगवान्ने कपिल वासुदेवसे कहा-हे कपिल वासुदेव ऐसी बात न भूतकाल में हुई है और न भविष्यकाल में होगी-न वर्त मान् मे होती है कि जो एक ही क्षेत्रमें एक ही युगमें एक ही समय में दो अहंत प्रभु, दो चक्रवर्ती, दो चलदेव, दो वासुदेव, उत्पन्न हो रहे हों, उत्पन्न हुए हो और आगे उत्पन्न हो! (एव खलु वासुदेवा! जबूद्दीवा
ओ भारहाओ वामाओ रत्थिमाउरणयरोओ, पहुस्सरण्णो सुहा एगे समए दुवे अरहता वा चाहो वा, वासुदेवा वा उप्पजिसु, उप्पजिति, उपज्जिरसति वा)
ત્યારે મુનિસુવ્રત તીર્થ કર પ્રભુએ તે કપિલ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે કપિલવાસુદેવ મારી પાસે ધને સાભળતા શખ-શબ્દ સાંભળીને તમને આ જાતને આધ્યાત્મિક સ કર-વિચાર ઉત્પન્ન થયું છે કે, શું કઈ બીજે વાસુદેવ ઉત્પન્ન થયે છે-જેના શ ખને વનિ મને સ ભળાઈ રહ્યો છે કે, કવિલ વાસુદેવે કહ્યું કે હે પ્રભુ! એ જ વાત છે મારા મનમાં એ જ જાતને વિચાર ઉદભવે છે ત્યારે મુનિસુવ્રત ભગવાને કપિલ વાસુદેવને કહ્યું કે છે કપિલ વાસુદેવ! આવી વાત ભૂતકાળમાં થઈ નથી અને ભવિષ્યકાળમાં થશે નહિ અને વર્તમાનકાળમા સ ભવી શકે તેમ પણ નથી કે જે એક જ ક્ષેત્રમાં, એક જ યુગમ, એક જ સમયમાં બે અહંત પ્રભુ, બે ચક્રવર્તી, બે બળદેવ, બે વાસુ દેવ ઉત્પન્ન થયા હેય, ઉત્પન્ન થઈ રહ્યા હોય અને આગળ ઉત્પન્ન થવાના હોય
(एव खलु वासुदेवा जघू दीवाओ भारहाओ वासाओ हथिणाउरणया राओ, पइस्सरग्णो, मुण्हा पचण्ह पडवाण भारिया दोवई देवी 14
Page #759
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् नाभस्य राज्ञः पूर्वसंगतिकेन देवेनामरकट्कानगरी ' साहरिया' सहृता आनीता, ततः खलु सः कृप्णो वासुदेवः पञ्चभिः पाण्डवैः सधं आत्मपप्ठः पड्भीरथैरमरपमा राजधानी द्रौपद्या देव्याः ‘कृव' देशी शब्दोय प्रत्यानयनार्थकः प्रत्यानयन कर्तुं इन्यमागत., ततः खलु तस्य कृष्णस्य वासुदेवस्य पद्मनाभेन राज्ञा साथ 'सगाम' संग्राम युद्ध सगामेमाणस्स' युध्यत, अय शशशब्दस्तवम खवावपूरित इव द्वितीयो भवति । ततः खल स कपिलो वासुदेवो मुनिसुव्रत वन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादी-गच्छामि खल्लु अह हे पचण्ह पडवाण भारिया दोवईदेवी तव पउमनाभस्स रपणो पुव्वसगई. एण देवेण अमरक्का नयरिं साहरिया, तएण से कण्हे वासुदेवे पचहि पडवेहिं सद्धि अप्पच्छे छहिं रहेहिं अमरकक रायहाणि दोवईए देवीए कृव हव्दमागण, तण्ण तस्स कणस्स वासुदेवस्स पउमणाभेण रण्णा सद्धि सगाम, सगामेमाणस्स अय सखसद्दे तव मुहवाया० इव. पीय भवइ) सुनो यात इम प्रकार है जबूद्वीप के भरत क्षेत्र में वर्तमान हस्तिनापुर नगर से पांडराजा की पुत्रवधू पाच पाडवो की पत्नी द्रौपदी देवी को तुम्हारे पद्मनाभ राजा को पूर्व भवीय मित्र कोई देव हरण फर अमरकका नगरी में ले आया । तर भरत क्षेत्र के वासुदेव कृष्ण पाच पांडवों के साथ आत्मपष्ठ होकर छर रथों से उस अमरकका नगरी में द्रौपदी देवी को वापिस ले जाने के लिये बहुत जल्दी आये। तय उन कृष्ण वासुदेव के, पद्मनाभ राजा के साथ युद्ध करते समय शंख का यह शब्द तुम्हारे शंख के शब्द जैसा हुआ है। (तएण से कविले वासुदेवे मुणिसुब्वय वदति, २ एव वयासी गच्छामि ण रणो पुव्यसगहएण देवेण अमरकका नयरिं साहरिया तएण से कण्हे वासुदेवे पचाई पडवे हिं सद्धिं अप्पछटे छहिं रहेहिं अमरक्क रायहाणि दोवईए देवीए कूव हन्धमागए, तरण तस्स कण्णस्स वासुदेवस्स पउमणाभेण रण्णा सद्धिं सगाम, सगामे माणस्स अय सम्वसद्दे तन मुहवाया० इव वीय भवइ )
સ ભળે, વિગત એવી છે કે જ બુદ્વીપના ભરતક્ષેત્રમાં વિદ્યમાન હસ્તિ નાપુર નગરથી પાડુરાજાની પુત્રવધુ પાંચે પાડવોની પત્ની દ્રૌપદી દેવીને તમારા પાનાભ રાજાના પૂર્વભવનો મિત્ર કેઈ દેવ હરીને અમરકકા નગરીમાં લઈ આવ્યો હતો ત્યારપછી ભરતક્ષેત્રના વાસુદેવ કૃષ્ણ પાચે પાડવાની સાથે આત્મ પણ થઈને છ રથ ઉપર સવાર થયા અને સત્વરે દ્રૌપદી દેવીને પાછા મેળ વવા માટે ત્યાં પહોચી ગયા પદ્મનાભ રાજાની સાથે યુદ્ધ કરતા કૃણવાસુદેવે જે શખદેવનિ કર્યો છે તે તમારા શખના ધ્વનિ જેવો છે. (तएण से कविले वासुदेवे मुणि मुव्यय वदति, २ एव वयासी, गच्छामि
S
Page #760
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
स्मिन् युगे, एकस्मिन् समये द्वाईन्ती मा चक्रवर्तिनी या बलदेवी पापामुदेवी या 'उप्पजिसु ' उदपवेताम् , 'उपनिति ' उत्पयेते उपज्जिस्सति ' उत्पत्स्येते वा, एव खल हे वासुदेव ! जम्बूद्वीपाद् मारताद् दि हस्तिनापुरनगरात् पाण्डो राज्ञ. ' सुण्डा ' स्नुपा-पुत्रवधूः, पञ्चाना पाण्डवाना भार्या द्रौपदी देवी तर पथ एगे खेत्ते एगे जुगे गे समए दुवे अररता वा,चपावट्टी चा, बलदेवा वा, वासुदेवा यो उप्पजिसु, उत्पनिति, उपजिस्मति वा,) तय मुनिसुव्रत तीर्थ कर प्रभुने उन कपिल वासुदेव से इस प्रकार का हे कपिल वासु देव ! मेरे पास धर्म को सुनते समय तुम्ह शप शन्द शरण कर इस प्रकार का यर आध्यात्मिक सकप-विचार उत्पन्न शुआ है, कि क्या कोई दूसरा वासुदेर उत्पन्न हो गया है-जिसके शव का शद मुझे सुनाई दिया है। कहो कपिल वासुदेव ! यही बात है न ? तय कपिल वासुदेवने कहा-हा प्रभो! यही बात है-ऐसा ही विचार उत्पन्न हुआ है-तय मुनिसुव्रत भगवान्ने कपिल वासुदेवसे कहा-हे कपिल वासुदेव ऐसी बात न भूतकाल में हुई है और न भविष्यकाल में होगी-न वर्त मान् मे होती है कि जो एक ही क्षेत्र में एक ही युगमें एक ही समय में दो अहंत प्रभु, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव, दो वासुदेव, उत्पन्न हो रहे हों, उत्पन्न शुए हो और आगे उत्पन्न हो। (एक खलु वासुदेगा! जद्दीवा
ओ भारहाओ वामाओ हथिणाउरणयरोओ, पडस्मरणो सुहा एगे समए दुवे आहता वा चकवट्टो वा, वासुदेवा वा उपज्जिसु, उप्पजिति, उप्पज्जिस्सति वा)
ત્યારે મુનિસુવ્રત તીર્થ કર પ્રભુએ તે કપિલ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે કપિલવાસુદેવ મારી પાસે ધને સાભળતા શખ-શબ્દ સાંભળીને તમને આ જાતને આધ્યાત્મિક સ કલ્પ-વિચાર ઉત્પન્ન થયે છે કે, શું કઈ બીજે વાસુદેવ ઉત્પન્ન થયો છે-જેના શખને ઇવનિ મને સંભળાઈ રહ્યો છે બેલે, -વિલ વાસુદેવે કહ્યું કે હે પ્રભુ! એ જ વાત છે મારા મનમાં એ જ જાતને વિચાર ઉદુભવ્યો છે ત્યારે મુનિસુવ્રત ભગવાને કપિલ વાસુદેવને કહ્યું કે હે કપિલ વાસુદેવ! આવી વાત ભૂતકાળમાં થઈ નથી અને ભવિષ્યકાળમા થશે નહિ અને વર્તમાનકાળમાં સમાવી શકે તેમ પણ નથી કે જે એક જ ક્ષેત્રમા, એક જ યુગમા, એક જ સમયમા બે અર્હત પ્રભુ, બે ચક્રવર્તી, બે બળદેવ, બે વાસુ દેવ ઉત્પન્ન થયા હોય, ઉત્પન્ન થઈ હ્યા હોય અને આગળ ઉત્પન્ન થવાના હેય
(एव खलु वासुदेवा । जयू दीवाओ भारहाओ वासाओ इत्थिणाउरणया राओ, पहुस्स रणो, मुण्हा पचण्ह पडाण भारिया दोवई देवी तव
Page #761
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५३७
नाभस्य राज्ञः पूर्वसगतिकेन देवेनामरकङ्कानगरी ' साहरिया' सहता = आनीता, ततः खलु सः कृष्णो वासुदेवः पञ्चभिः पाण्डवैः स आत्मपष्ठः षड्भीरथैरमरका राजधानी द्रौपद्या देव्याः ' व ' देशी शब्दोयं प्रत्यानयनार्थकः प्रत्यानयन कर्तु हव्यमागत, ततः खलु तस्य कृष्णस्य वासुदेवस्य पद्मनाभेन राज्ञा साधै ' सगाम ' संग्राम युद्ध ' समामेमाणस्स ' यु यत, अय शङ्खशब्दस्तवमु खातपूरित इव द्वितीयो भवति । ततः खलु स कपिलो वासुदेवो मुनिसुनत चन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् - गच्छामि खल अह हे पचन्ह पडवाण भारिया दोवईदेवी तव पउमनाभस्सु रण्णो पुव्वसगईएण देवेण अमरकका नयरिं साहरिया, तएण से कण्हे वासुदेवे पचहिँ पडवेहिं सद्धिं अप्प छहिं रहेहिं अमरकक रायहाणि दोवईए देवीए व हव्ह मागण, तण्ण तस्स कण्णस्स वासुदेवस्स उमणाभेण रण्णा सद्धि सगाम, सगामेमाणस्स अय सखसद्दे तव मुहवाया० इवur भव) सुनो बात इस प्रकार है जबूद्वीप के भरत क्षेत्र में वर्तमान हस्तिनापुर नगर से पांडुराजा की पुत्रवधू पाच पाडवो की पत्नी द्रौपदी देवी को तुम्हारे पद्मनाभ राजा का पूर्व भवीय मित्र कोई देव हरण कर अमरकका नगरी में ले आया। तब भरत क्षेत्र के वासुदेव कृष्ण पाच पांडवों के साथ आत्मपष्ठ होकर छह रथों से उस अमरकका नगरी में द्रौपदी देवी को वापिस ले जाने के लिये बहुत जल्दी आये । तब उन कृष्ण वासुदेव के, पद्मनाभ राजा के साथ युद्ध करते समय शख का यह शब्द तुम्हारे शंख के शब्द जैसा हुआ है । (तएण से her argha fन्वय वदति, २ एव वयासी गच्छामि णं
रण्णो पुव्वसगइएण देवेण अमरकका नयरिं साहरिया तएण से कहे वासुदेवे पचहिं पडवेहिं सद्धि अप्पट्टे उर्दि रहेहिं अमरकक रायहाणि दोवईए देवीए कू हूत्रमागए, तएण तस्स कण्णस्स वासुदेवस्स पउमणाभेण रण्णा सद्धिं सगाम, सगा माणस असवसदे तर मुहवाया इव वीय भवइ )
સભળા, વિગત એવી છે કે જ ખૂદ્વીપના ભરતક્ષેત્રમા વિદ્યમાન હસ્તિ નાપુર નગરથી પાડુરાજાની પુત્રવધૂ પાચે પાડવાની પત્ની દ્રૌપદી દેવીને તમારા પદ્મનાભ રાજાના પૂર્વભવને! મિત્ર કેાઈ દેવ હરીને અમરકકા નગરીમાં લઈ આવ્યા હતા ત્યારપછી ભરતક્ષેત્રના વાસુદેવ કૃષ્ણ પાચે પાડવાની સાથે આત્મ પઇ થઇને છ રથ ઉપર સવાર થયા અને સત્વરે દ્રૌપદી દેવીને પાછા મેળ નવા માટે ત્યા પહેાચી ગયા પદ્મનાભ રાજાની સાથે યુદ્ધ કરતા કૃષ્ણુવાસુદેવે જે શખધ્વનિ કર્યો છે તે તમારા શખના ધ્વનિ જેવા છે
(तपण से कविले वासुदेवे मुणि सुव्त्रय वदति, २ एव वयासी, गच्छामि
Page #762
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३६
meresurus
स्मिन् युगे, एकस्मिन् समये द्वान्तोना चक्रवर्तिनी
देवी वासुदेवी या
3
1
4
' उपज्जिसु उपताम् ' उपज्निति ' उत्पयेते ' उपज्जिस्सति' उत्पत्स्ये ते चा, ए खलु हे वासुदेव ! जम्बूद्वीपाद भारताद् वर्षा हस्तिनापुरनगरात् पाण्डो राज्ञः सुधा 'स्नुरा=पुनरधूः, पञ्चाना पाण्डवानां भार्या द्रौपदी देवी तर पद्म एगे खेते एगे जुगे एगे समय दुवे अररता ना चकनही था, पलदेवा वा, वासुदेवा वो उप्पलि, उप्पज्जिति, उप्पजिस्सति वा, ) तर मुनिसुव्रत तीर्थ कर प्रभुने उन कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा है कपिल वासु देव ! मेरे पास धर्म को सुनते समय तुम्ह शं शब्द श्रमण कर उस प्रकार का यह आध्यात्मिक संकल्प-विचार उत्पन्न हुआ है, कि क्या कोई दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है जिसके शय का शब्द मुझे सुनाई दिया है । कहो कपिल वासुदेव । यही बात है न ? तब कपिल वासुदेवने कहा- हा प्रभो । यही बात है-ऐसा ही विचार उत्पन्न हुआ है-तत्र मुनिसुव्रत भगवान्ने कपिल वासुदेवसे कहा- हे कपिल वासुदेव ऐसी बात न भूतकाल में हुई है और न भविष्यकाल में होगी-न वर्त मान मे होती है कि जो एक ही क्षेत्रमें एक ही युगमें एक ही समय में दो अर्हत प्रभु दो चरुवर्ती, दो पलदेव, दो वासुदेव, उत्पन्न हो रहे हों, उत्पन्न हुए हो और आगे उत्पन्न हो । ( एव खलु वासुदेवा ! जबूद्दीवा ओ भाराओ वासाओ हत्थिणाउरणयराओ, पडुस्मरण्णो सुहा एगे मम दुवे अरताना चक्की वा वासुदेवा वा उपज्जिसु, उप्पजिवि, उपज्जिरसति वा )
ત્યારે મુનિસુવ્રત તીર્થંકર પ્રભુએ તે કપિલ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે કપિલવાસુદેવ મારી પાસે ધમ ને સાભળતા શ –શબ્દ સાભળીને તમને આ જાતના આધ્યાત્મિક સ કલ્પ-વિચાર ઉત્પન્ન થયેા છે કે, શુ કેઇ ખીજે વાસુદેવ ઉત્પન્ન થયા છે જેના શ ખને બિને મને સભળાઈ રહ્યો છે ખેલે, મિલ વાસુદેવે કહ્યુ કે હા, પ્રભુ ! એ જ વાત છે . મારા મનમા એ જ જાતના વિચાર ઉદ્ભવ્યા છે ત્યારે મુનિસુવ્રત ભગવાને કપિલ વાસુદેવને કહ્યું કે હે કપિલ વાસુદેવ! આવી વાત ભૂતકાળમા થઈ નથી અને ભવિષ્યકાળમા થશે હું અને વર્તમાનકાળમા સભવી શકે તેમ પણ નથી કે જે એક જ ક્ષેત્રમાં, એક જ યુગમ, એક જ સમયમા એ અંત પ્રભુ, બે ચક્રવર્તી, એ બગદેવ, એ વાસુ દૈવ ઉત્પન્ન થયા હાય, ઉત્પન્ન થઇ રહ્યા હાય અને આગળ ઉત્પન્ન થવાના હાય
( एव खलु वासुदेवा ' जवू द्दीवाओ भारहाओ वासाओ इत्थिणाउरणया राओ, इस्सरण्णो, सुण्हा पचण्ह पडनाण भारिया दोवई देवी तर
Page #763
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् कृष्णस्य वासुदेवस्य लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजत श्वेतपीतानि-ध्वजाग्राणि 'पासिहिसि' द्रक्ष्यसि । ततः खलु स कपिलो वासुदेवो मुनि सुत्रत वन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा इस्तिस्कन्ध दुरोहति आरोहति आरा शीघ्र २ यौव 'वेलाउळे ' वेलाकूलं समुद्र वेला तट वर्तते, तौवोपागन्छति, उपागत्य कृष्णस्य वसुदेवस्य लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन ' वीइवयमाणस्स' व्यतित्रजत = गन्छत , श्वेतपीतानि ध्वजाग्राणि पश्यति, दृष्ट्वा एव वदति एसण मम सदृशपुरुषः उत्तमपुरुपः कृष्णो वासुदेवो लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन ' वीइचयइ' व्यतित्रजति गच्छति, इति कृत्वा पाञ्चजन्यं शब्स परामशति-गृहाति, गृहीत्या मुखपातपूरित करोति-कपिलमामुदेवः स्वशक वादयति । ततः खलु स कृप्णो वासुदेवः कपि चक्रवर्ती का दूसरे और चक्रवर्ती से बलदेव का दूसरे और किसी बलदेव से, वासुदेव का दूसरे और वासुदेव से कभी भी मिलाप नहीं होता है । (तह वियण तुम कण्हस्स वास्तुदेवस्स लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण वोइवयमाणस्स सेया पीयाइ घयग्गाइ पासिरिसिं)हा, इतना हो सकता है कि जब वे कृष्णवासुदेव लवणसमुद्र के बीचसे होकर जा रहे होवें तय तु मउनकी श्वेत पीत ध्वजाओंके अग्र भाग को देख सकते हा । (तएण से कवि वासुदेवेमुणिमुन्वय बदइ, नमसइ, वंदित्ता,नमसित्ता, हस्थिखध दुरुहह, दुरुहित्ता सिग्ध २ जेणेव वेलाउले,तेणेव उवागच्छइ, उवा गच्छित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुद्दमझ मज्झेण वीइवयमाणस्स सेयापीयाहिंधयग्गाइ पासह,पासित्ता ण्व वयह-एसण मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण वीइवयइत्ति कट्टु તીર્થ કરની સાથે બીજા તીર્થ કરને મેળાપ કોઈ પણ સંજોગોમાં થતું નથી એક ચકવર્તીને બીજા ચક્રવર્તીની સાથે, એક બળદેવને બીજા બળદેવની સાથે તેમજ એક વાસુદેવને બીજા કોઈ પણ વાસુદેવની સાથે કદાપિ મેળાપ થતું नया (वह वि य ण तुम कणहस्स वासुदेवरस लवण समुद्द मज्झ मज्झेण वीइ वयमाणस्स सेयापीयाइ धयग्गाइ पासिहिसिं ) , सेभ य श छ । न्यारे તે તૃષ્ણ વાસુદેવ લવ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને પસાર થતા હોય ત્યારે તમે તેમની सईद, पाणी मानी अभागन ने श। छ। (तएण से) कविले वासुदेवे मुणिसुबय वदइ, नमसइ, वदित्ता नमसित्ता हत्थिखव दुरूहइ, दुरूहित्ता सिंग्ध२ जेणेव वेलाउले, तेणेव उवागन्छइ, उवागच्छित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुद्द मन्झ मज्झेण वीइवयमाणस्स सेयापीयाहि धयग्गाइ पास, पामिन एन वयइ, एसण मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे यहे वासुदेवे
Page #764
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतापमंयथानथ
५३८
भदन्त ! कृष्ण वासुदेवमुत्तमपुरुष पश्यामि तत खलु मुनिसुव्रतोऽर्द्दन कपिलं वासुदेवम् एवमवादीत्-नो सल हे देवानुमिय एवं भूत या भवति वा भविष्यति यत् खलु भर्छन् अर्हन्त पश्यति, चक्रवर्ती वा चक्रवर्तिन पश्यति बलदेवो ना चलदेव पश्यति वासुदेवो ना वासुदेव पश्यति, तथा ऽपि च खलु त्व अह भते ! कण्ट् वासुदेव उत्तमपुरिस मरिसपुरिस पासामि ) इस प्रकार सुनकर उस कपिल वासुदेव ने मुनि सुव्रत प्रभु को बदना की - नमस्कार किया वदना नमस्कार करके फिर उनसे इस प्रकार कहा - हे भदत ! मैं जाता हूँ और उत्तम पुरुष उन कृष्णवासुदेव से कि जो मेरे जैसे पुरुष हैं - वासुदेव पद के धारक है - जाकर मिलता हूँ। (तण्ण मुणि सुव्वए अरहा कचिल वासुदेव एव वयासी) तय मुनि सुव्रत प्रभु ने उस कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा - ( नो खलु देवाणुप्पिया ! एव भूय वा ६ जण्ण अरहतो, वा अरहंत पासह, चक्कवट्टी वा चक्क af पाइ, बलदेवो वा, बलदेव पासह, वासुदेवो वा वासुदेव पासइ) हे देवानुप्रिय | ऐसी बात न हुई है, वर्तमान में न होती है और न भवि ष्यत्काल में होनेवाली है कि जो एक तीर्थंकर दूसरे तीर्थंकर से मिलें, एक चक्रवर्ती दूसरे चक्रवर्ती से मिले, एक बलदेव दूसरे बलदेव से मिलें, एक वासुदेव दूसरे वासुदेव से मिलें। ऐसा सिद्धान्त का नियम है कि एक तीर्थंकर का दूसरे तीर्थकर से कभी भी मिलाप नहीं होता है। णं अहमते ' कण्ह वासुदेव उत्तमपुरिस सरिसपुरिस पासामि )
આ પ્રમાણે સાભળીને તે કપિલવાસુદેવે મુનિસુવ્રત પ્રભુને વદન તેમજ નમન કર્યા વદન અને નમન કરીને તેમની સામે આ પ્રમાણે વિનતી કરતા કધુ કે હે ભદત! હુ જાઉ છુ અને જઇને મારા જેવા તે ઉત્તમ પુરૂષ કૃષ્ણુ વાસુદેવ કે જેઓ વાસુદેવ પદને શૈાભાવે છે-તેમને મળુ છુ ( तरण मुणि सुव्वए भरहा कबिल वासुदेव एव वयासी) त्यारे मुनिसुव्रत प्रभु ते उपस વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
-
(नो खलु देवाणुप्पिया | एव भूय वा ३ जष्ण अरहतो वा अरइत पास, चक्कट्टी वा चक्कर्हि पास, बलदेवो वा, बलदेव पासइ, वासुदेवो वा वासुदेव पास )
હે દેવાનુપ્રિય ! એવી વાત કાઈ પણ દિવસે સલવી નથી, વર્તમાનમા પણ સભવી શકે તેમ નથી અને ભવિષ્યકાળમા પણુ સભવી શકો નહિ કે એક તીર્થંકર ખીજા તીથ કરને મળે, એક ચક્રવર્તી ખીજા ચક્રવર્તીને મળે, એક બળદેવ બીજા ખળદેવને મળે આ જાતના સિદ્ધાન્તના
છે કે એક
Page #765
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगरधर्मामृतवर्षिणी टी० म० १६ द्रौपदीर्घारितनिरूपणम्
૩૨
कृष्णस्य वासुदेवस्य लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजत श्वेतपीतानि - ध्वजाग्राणि ' पासिदिसि ' द्रक्ष्यसि । ततः खलु स कपिलो वासुदेवो मुनि सुनत वन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा हस्तिस्कन्ध दरोहति = आरोहति आरा शीघ्र २ यत्र ' वेलाउळे ' वेळाकूलं समुद्र वेला तट वर्तते तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य कृष्णस्य वसुदेवस्य लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन ' वीइवयमाणस्स ' व्यतिनजत गच्छत: श्वेतपीतानि ध्वजाग्राणि पश्यति, दृष्ट्वा एव वदति एसण मम सदृशपुरुषः उत्तमपुरुषः कृष्णो वासुदेवो लनणसमुद्रस्य मध्यमध्येन ' वीइवयइ' व्यतिनजति = गच्छति, इति कृत्वा पाञ्चजन्य शङ्ख परामृशति गृह्णाति, गृहीला मुम्वनापूरित करोति=कपिलनासुदेवः स्वशङ्ख वादयति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कपि
=
चक्रवर्ती का दूसरे और चक्रवर्ती से बलदेव का दूसरे और किसी बलदेव से, वासुदेव का दूसरे और वासुदेव से कभी भी मिलाप नही होता है । (तर वियण तुमं कण्ट्स्स वासुदेवस्स लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण वोहवयमाणस्स सेया पीयाइ भयग्गाइ पासिहिसिं) हा, इतना हो सकता हैं कि जब वे कृष्णवासुदेव लवण समुद्र के बीचसे होकर जा रहे होवें तब तु मउनकी श्वेत पीत ध्वजाओके अग्र भाग को देख सकते हा । (तएण सेकचि वासुदेवेणव्वय वदह, नमसह, वदित्ता, नमसित्ता, हरिथखध दुरूहह, दुरुहित्ता सिग्ध २ जेणेव वेलाउले, तेणेव उवागच्छइ, उवा गच्छत्ता कस्स वासुदेवस्स लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण वीइवयमाणस्स पापागाइ पासह, पासित्ता एव वयह-एसण मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरसे कहे वासुदेवे लवण समुद्द मज्झ मज्झेण वीइवयइत्ति कड
તીર્થંકરની સાથે બીજા તીર્થંકરનેા મેળાપ કાઇ પણ સોગામા થતે નથી એક ચક્રવર્તીના ખીજા ચક્રવર્તીની સાથે, એક બળદેવના બીજા ખળદેવની સાથે તેમજ એક વાસુદેવને ખીજા કોઈ પણ વાસુદેવની સાથે કાજે મેળાપ થતા नथी (तह वियण तुम कणहस्स वासुदेवस्स लवण समुद्द मज्झ मज्झेण वीइ वयमाणस्व सेयापीयाइ धयग्गाइ पासिद्दिसि ) हा, सेभ या राहे छेडे न्यारे
તે કૃષ્ણવાસુદેવ લવણુ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને પસાર થતા હોય ત્યારે તમે તેમની सह, पीजी ध्वन्योना अग्रभागने लेह राओ। छो ( तएण से ) कविले वासुदेवे मुणिसुन्य वद, नमसर, वदित्ता नमसित्ता हत्थिखव दुरूहइ, दुरुदित्ता सिंग्घर जेणेव वेलाउले, तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता कण्हस्स वासुदेव लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण वीइवयमाणस्स सेयापीयाहि धयग्गाइ पास पासिता एन वय, एसन मन सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कहे वासुदेवे
Page #766
--------------------------------------------------------------------------
________________
D
૧૨૮ भदन्त ! कृष्ण वासुदेवमुत्तमपुरुष पश्यामि तत खलु मुनिगणतोऽईन कपिलं वासुदेयम् एमवादी-नो सलु हे देशानुमिय ! एव भूत या, भवति वा मविष्यति वा यत् खलु अईन् अईन्त पश्यति, चक्रवर्ती वा चक्रवर्तिन पश्यति घलदेवो वा बलदेव पश्यति वासुदेवो पा यासदेव पश्यति, तथा ऽपि च खलु त्व अह भते ! कण्हं वासुदेव उत्तमपुरिसं मरिसपुरिस पासामि ) इस प्रकार सुनकर उस कपिल वासुदेव ने मुनि सुव्रत प्रभु को बदना की-नमस्कार किया वदना नमस्कार करके फिर उनसे इस प्रकार कहा -हे भदत ! मैं जाता है और उत्तम पुरुष उन कृष्णवासुदेव से कि जो मेरे जैसे पुरुप हैं-वासुदेव पद के धारक है-जाकर मिलता। (तपण मुणि सुब्चए अरहा कपिल वासुदेव एव चयासी) तथ मुनि सुव्रत प्रभु ने उस कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा-(नो खलु देवाणुप्पिया! एव भूय वा ६ जपण अरहतो, वा अररत पासह, चकवट्टी वा चक्क वर्टि पामइ, बलदेवो वा, पलदेव पासइ, वासुदेवो वा वासुदेव पासइ) हे देवानुप्रिय ! ऐसी यात न हुई है, वर्तमानमें न होती है और न भवि प्यत्काल में होनेवाली है कि जो एक तीर्थकर दूसरे तीर्थकर से मिल, एक चक्रवर्ती दूसरे चक्रवर्ती से मिले, एक यलदेव दसरे यलदेव से मिल, एक वासुदेव दूसरे वासुदेव से मिलें। ऐसा सिद्धान्त का नियम है कि एक तीर्थकर का दूसरे तीर्थकर से कभी भी मिलाप नहीं होता है। ण अहमते ! कण्ह वासुदेव उत्तमपुरिस सरिसपुरिस पासामि) ।
આ પ્રમાણે સાભળીને તે કપિલવાસુદેવે મુનિસુવ્રત પ્રભુને વદન તેમજ નમન કર્યા વદન અને નમન કરીને તેમની સામે આ પ્રમાણે વિનતી કરતા કહ્યું કે હે ભરત! હુ જાઉ છુ અને જઇને મારા જેવા તે ઉત્તમ પુરૂષ કૃષ્ણ वासुदेव ४२॥ वासुदेव पहन समाव-तभन भन छु (तएण मुणि सुव्वए भरहा कबिल वासुदेव एव वयामी) त्यारे भुनिसुव्रत प्रभु arte વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે –
(नो खलु देवाणुप्पिया ! एव भूय वा ३ जण अरहतो वा अरहत पासह, चक्कवट्टी वा चक्कट्टि पासइ, परदेवो वा, बलदेव पासइ, वासुदेवो वा वासुदेव पासइ)
હે દેવાનુપ્રિય! એવી વાત કોઈ પણ દિવસે સ ભવી નથી, વર્તમાનમાં પણું સ ભવી શકે તેમ નથી અને ભવિષ્યકાળમાં પણ સ ભવી શકશે નહિ કે એક તીર્થંકર બીજા તીર્થ કરને મળે, એક ચક્રવતી બીજા ચક્રવર્તીને મળે, એક બળદેવ બીજા બળદેવને મળે આ જાતને સિદ્ધાન્તને નિયમ છે કે એક
Page #767
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोको अ० १६ द्रोपदीचरित निरूपणम्
५४१
ततस्तदनन्तर स कपिलो वामुदेवो यत्रैवामरखङ्काराजधानी तत्रैवोपागच्छति, उपागल्यामर राजधानी सभग्नतोरणां यावत् पश्यति दृष्ट्वा पद्मनाभमेवमवा दीत् - किं- फरमात् खलु हे देवानुमिय । एपा अमरकका समग्नतोरणा यावत्सन्निपतिता ? ततः खलु स पद्मनामः कपिल वासुदेवमेवमवादीत् एव खलु हे स्वामिन् । जम्बूद्वीपाद् द्वीपाद भारताद् वर्षाद् इह हव्यमागत्य कृष्णेन वामुदेवेन ' तुभे परिभूए ' युग्मान् परिभूय =जनादृत्य कपिलवासुदेवेन मम काऽपि हानिर्न शक्यते कर्तुमिति मनमि निधायेत्यर्थः, अमरकङ्का यावत् सनिपतिता ।
से कविले वासुदेवे जेणेव अमरकका तेणेव उवागच्छह, उचागच्छित्ता अमरककं रायहाणि सभग्गतोरण जाव पामह, पासित्ता पउमणाभ एव वयासी) तन कृष्ण वासुदेव ने कपिल वासुदेव के शख शब्द को सुना सुनकर उन्हो ने भी पांचजन्य शख को अपने मुख की वायु से पूरित किया - बजाया - इस तरह वे दोनों वासुदेव साक्षात् रूप में न मिलकर शव के शब्द से परस्पर में मिले । अन वे कपिल वासुदेव जहा वह अमरकंका नगरी थी वहां आये । वहां आकर उन्होंने अमरकका राजधानी को सभग्न तोरण आदि वाला देखा । देखकर तत्र पद्मनाम राजा से इस प्रकार कहा- ( किण्ण देवाणुपिया । एमा अमरकका सभग्ग जात्र सन्निवइया ? तएण से पउमणाहे कविलं वासुदेव एव वयासी - एव खलु सामी ? जबूद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इह् हव्वमागम्म कण्हेण वासुदेवेण तुम्भे परिभूए अमरकका जाव सन्निवाडिया ) हे देवानुप्रिय । यह अमरकका नगरी क्या कारण है- जो अमरककारायहाणि सभग्गतोरण जाव पास, पासित्ता पमणाभ एव वयासी )
જ્યારે કૃષ્ણવાસુદેવે કપિલ વાસુદેવના શખનેા ધ્વનિ સાભળ્યે ત્યારે તેમણે પણ પોતાના પાચજન્ય શ ખને મુખના પવનથી પૂતિ કર્યાં અને વગાડયા. આ રીતે તે મને વાસુદેવ પ્રત્યક્ષ રીતે નહિ પણ શ ખના ધ્વનિથી પરસ્પર મળ્યા ત્યારપછી તે કપિલ વાસુદેવ જ્યા તે અમરક કા નગરી હતી ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેમણે અમરક કા રાજધાનીને ધજાએ વગે રેથી નષ્ટ થયેલી જોઇ, જોઇને તેમણે પદ્મનાભ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે~~
(किष्ण देवाणुपिया ऐमा अमरकका संभग्ग जाव सन्भिन्या ? तएण से मणा कपिल वासुदेव एव वयासी- एव खलु सामी ! जबूदीबाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इह हन्नमागम्म कण्हेण वासुदेवेण तुम्भे परिभूए व्यमरकका जाव सन्निवाडिया )
Page #768
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४०
श्रताधर्मकथासूत्रे
लस्य वासुदेवस्य शयन्दम् ' आयन्नेा आवर्णयति तृणोति, आय पाच जन्य यावत् मुखातपूरित करोति कृष्णो वासुदन स्वकीय शक वादयति, तत खलु द्वापि वासुदेव संखसदसामायारिंशकन्दमामाचारि शङ्खशब्देन परस्परमिलन कुरुतः ।
पचयन सख परामुसह, परामुसित्ता मुहनायपूरिय करेइ ) इस प्रकार प्रभु का आदेश सुनकर उन कपिलवासुदेव ने उन प्रभु मुनिसुव्रत भगवत को वदना की, नमस्कार किया । वदना नमस्कार करके फिर वे अपने प्रधान हस्ती पर आरूढ हुए। और आरूढ होकर शीघ्र जां लवणसमुद्र का वेलातट था - वहाँ पहुँचे । वहा पहुँचकर उन्होंने लवण समुद्र के बीच से होकर जाते हुए कृष्णवासुदेव की श्वेत पीत ध्यजाओं के अग्रभाग को देखा देखकर तय मनमें विचार किया ये ही मेरे जैसे उत्तम पुरुष कृष्णवासुदेव लवणसमुद्र के नीच से होकर जारहे हैंऐसा विचार कर उन्हों ने अपने पाचज य शख को उठाया और उठा कर उसे अपने मुख की वोयु से पूरित किया (तएण से कण्हे चासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स सखसद्द आयन्नेइ, आयन्नित्ता, पचजन्ने, जाव पूरिय करेइ, तएण दो वि वासुदेवा सखसद्दसामायारिं करे, तण्ण लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण वीइवयइति कट्टु पचजन्न सख परामुसा परामुसित्ता हायपूरिय करे )
આ રીતે પ્રભુની આજ્ઞા સાભળીને તે કપિલ વાસુદેવે તે પ્રભુ મુનિસુવ્રત ભગવ તને વ દન અને નમસ્કાર કર્યાં વદન અને નમસ્કાર કરીને તેઓ પેાતાના પ્રધાન હાથી ઉપર સવાર થયા અને સવાર થઇને જલ્દી જ્યા લવણુ સમુ દ્રના કિનારે હતા ત્યા પહેચ્યા ત્યા પહેાચીને તેમણે “લવણુસમુદ્રની વચ્ચે થઈને પસાર થતા કૃષ્ણુવાસુદેવની સફેદ-પીળી ધ્વજાએના અગ્રભાગને જોયે અને જોઈને મનમા વિચાર કર્યો કે મારા જેવા ઉત્તમ પુરુષ કુષ્ણુવાસુદેવ એ જ છે કે જેએ લવણ-સમુદ્રની વચ્ચે થઈને પસાર થઈ રહ્યા છે. આમ વિચાર કરીને તેમણે પાચ જન્ય શ ખને ઉઠાન્ચે અને ઉઠાવીને પેાતાના મુખના પવનથી તેને પૂરિત કર્યો
( तएण से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स सम्वसद्द आयन्ने, आय भित्ता, पचजन्न जाव पूरिय करेइ तएण दो वि वासुदेवा सखसद सामायारिं करे, तरण से कविले वासुदेवे जेणेन अमरकका तेणेत्र
Page #769
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
--
अनगारधर्मामृतवपिणी टोको अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५४१
ततस्तदनन्तर स कपिलो वासुदेवो यत्रैयामरककाराजबानी तीवोपागच्छति, उपागत्यामरकका राजधानी सभग्नतोरणां यावत् पश्यति, दृष्ट्वा पद्मनाभमेवमवा दीत्-कि-फरमात् खलु हे देवानमिय ! एपा अमरकका सभग्नतोरणा यावत्सनिपतिता ? ततः खलु स पद्मनामः कपिल वासुदेवमेवमवादी-एव खलु हे स्वामिन् । जम्बूद्वीपाद् द्वीपाद भारताद् वर्पाद् इह हव्यमागत्य कृष्णेन वासुदेवेन 'तुम्भे परिभूए' युग्मान् परिभूय-अनाहत्य कपिलवासुदेवेन मम काऽपि हानिन शक्यते कर्तुमिति मनसि निधायेत्यर्थः, अमरकङ्का यावत् सनिपतिता। से कविले वासुदेवे जेणेव अमरकका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अमरककं रायहाणि सभग्गतोरण जाव पामइ, पासित्ता पउमणाभ एच वयासी) तर कृष्ण वासुदेव ने कपिल वासुदेव के शख शब्द को सुना सुनकर उन्हों ने भी पांचजन्य शख को अपने मुख की वायु से पूरित किया-यजाया-इस तरह वे दोनों वासुदेव साक्षात् रूप में न मिलकर शग्व के शब्द से परस्पर में मिले । अर वे कपिल वासुदेव जहा वह अमरकका नगरी थी वहाँ आये । वहा आकर उन्होंने अमरकका राजधानी को सभग्न तोरण आदि वाला देखा । देखकर तय पद्मनाभ राजा से इस प्रकार कहा-(किण्ण देवाणुप्पिया! एमा अमरकंका सभग्ग जाव सन्निवहया ? तएण से पउमणाहे कविल वासुदेव एव वयासी-एव खलु सामी? जवूद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इह हव्यमागम्म कण्हेण वासुदेवेण तुम्भे परिभूए अमरकका जाव सनिवाडिया) हे देवानुप्रिय ! यह अमरकका नगरी क्या कारण है-जो अमरककारायहाणि सभग्गतोरण जाच पासइ, पासित्ता पउमणाभ एव वयासी)
જ્યારે કૃણવાસુદેવે કપિલ વાસુદેવના શખને ઇવનિ સાભળે ત્યારે તેમણે પણ પિતાના પાચજન્ય શખને મુખના પવનથી પૂરિત કર્યો અને વગાડ આ રીતે તેઓ બને વાસુદેવ પ્રત્યક્ષ રીતે નહિ પણ શ ખના વનિથી પરસપર મળ્યા ત્યારપછી તે કપિલ વાસુદેવ જ્યા તે અમરફ કા નગરી હતી ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેમણે અમરક કા રાજધાનીને ધજાઓ વગે રેથી નષ્ટ થયેલી જોઈ, જોઈને તેમણે પદ્મનાભ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(किण्ण देवाणुप्पिया ऐसा अमरकका समग्ग जाव सन्निनडया ? एण से पउमणाहे कपिल वासुदेव एव वयासी-एव खलु सामी ! जबूदीवाओ दीवाओ भारहाभो वासाओ इह हत्यमागम्म कण्हेण वासुदेवेण तुम्भे परिभूए अमरकका भाव सनिवाटिगा।
Page #770
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
५४३
पाताधर्मया ततः खलु स फपिलो वासुदेवः पद्मनागस्पान्तिके पतमयं श्रुत्वा पचनामम् एवम्यक्ष्यमाणमकारेण, आदीत्-६ भो ! पमनाम 1 अप्रार्थित प्रार्थित ! मरण वाग्छक !, कि खल व न जानासि मम सदशपुरूपस्य पामुदेयम्य विप्रिय-विरुदं कुर्वत् ।, इत्युक्त्या आशुरुताशीघ्र शोधाऽऽकान्त , यावत् पद्मनाभं 'णिबिसयं' निर्षिपय-विपयोद स्वराज्याद् निर्गत-निष्यामित कर्तुम् ' आणवेइ ' आज्ञापयति पद्मनामस्य पुत्रममरकङ्काराजधान्या महता महता राज्याभिषेकेण अमिपिञ्चति, सभग्न तोरण आदि वाली होकर भूमिसात् रो गई है। तय पद्मनाभ राजा ने उस कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा-हे स्वामिन् ! इसका कारण इस प्रकार है-जबूद्वीप नाम के प्रथम दीप से भरतक्षेत्र मे यहाँ घहुत ही शीघ्र ओफर कृष्ण वासुदेव ने आपकी कुछ भी परवाह न करके-कपिल वासुदेव हमारी कुछ भी हानि नहीं कर सकते हैं-ऐसा अपने मन में समझ करके-अमरकका में आकर-उसे पहिले सभन्न तोरण वोली किया और बाद में विध्वस्तकर दिया । (तएण से कविले वासुदेवे पउमणाहस्त अतिए एयमट्ट सोच्चा पउमणाह एव वयासी) तष पद्मनाभ राजा के मुख से इस समाचार को सुनकर के उस कपिल घासुदेव ने उस पद्मनाभ राजा से इस प्रकार कहा-(हभो! पउम. णाभा! अपत्थियपत्थिया! किन्न तुम न जाणासि मम सरिसपुरिस स्स कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पिय करेमाणे? असुरूत्ते जाव पउमणाह णिन्विसय आणवेइ, पउमणाहस्स पुत्त अमरकका रायहाणीए महया
હે દેવાનુપ્રિય! શા કારણથી આ અમરક કા નગરીની ધજાઓ વગેરે પણ તૂટી ગઈ છે અને સંપૂર્ણ નગરી વિનષ્ટ થઈ ગઈ છે. ત્યારે પદ્મનાભ રાજાએ તે કપિલ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સવામી ! વાત એવી છે કે જ બૂદીપ નામના પ્રથમ દ્વિીપના ભરતક્ષેત્રથી અહીં બહુ જ જલદી આવીને કણુવાસુદેવે તમારી જરાએ દરકાર કર્યા વગર “ કપિલ વાસુદેવ અમારૂ ક ઈજ કરી શકશે નહિ” આ જાતને પિતાના મનમાં વિચાર કરીને પહેલા તે અમરકકાના તારણે નષ્ટ કર્યો અને ત્યારપછી આ નગરીને પણ જમીનસ્ત जश नाभी छे (तएण से कविले वासुदेवे पउमणाहस्त अतिए एयम? सोच्चा पउनणाह एव वयासो) त्यारे ५भनाम सतना भुभयी मा अधीवित सान બળીને તે કપિલવાસુદેવે તે પદ્મનાભ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(ह भो! पउमणाभा! अपत्थियपत्थिया । किन्न तुम नजाणासि मम सरिस पुरिसस्स कण्इस्स वासदेवस्स विप्पिय करेमाणे ? आमुरुत्ते नाव
Page #771
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतवर्षिणी ठोका अ० १६ द्रौपदीधरित निरूपणम्
५४३
यावत् प्रतिगत = पद्मनाभस्य पुत्र राज्येऽभिषिच्य कपिलवासुदेवो यस्यादिशः मादुर्भुवस्ता दिश प्रतिगत इति भाव ॥ सु०३० ॥
मूलम् - तए णं से कण्हे वासुदेवे लवणसमुद्द मज्झं मज्झेणं वीsaas, त पच पडवे एवं वयासी - गच्छहण तुभे देवानुप्पिया | गंगामहानई उत्तरह जाव ताव अह सुट्टियं लवणाहिवई पासामि, तए णं त पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ता समाणा जेणेव गंगामहानई तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता एगट्टियाए णावाए मग्गणगवेसणं करेति करिता एगट्टियाए नावाए गंगामहानइ उत्तरति उत्तरित्ता अण्णमण्णं एवं वयंति - पहू णं देवाप्पिया । कण्हे वासुदेवे गंगामहाणई वाहाहि उत्तरित्त उदाहु णो पभू उत्तरित्तएत्ति कहु एगट्टियाओ नावाओ
महया रायाभिसेएण अभिसिंचइ जाव पडिगए) अरेओ मरणवाञ्छक पद्मनाभ ' मेरे जैसे पुरुष कृष्ण वासुदेव का विप्रिय-अनिष्ट- करते हुए - तुमने मेरा कुछभी ख्याल नहीं किया ? इस प्रकार कह कर वे उस पर बहुत अधिक कुपित हो गये । यावत् उस पद्मनाभ राजा को उन्हों ने अपने देश से बाहिर भी निकालदिया । तथा उसका जो पुत्र सुनाभ था । उस को बडे भारी उत्सव के साथ राज्य में अभिषिक्त किया । इस प्रकार पद्मनाभ के पुत्र को राज्य में अभिषिक्त करके वे कपिल वासुदेव जिस दिशा से आये थे उस दिशाकी ओर वापिस चले गये ॥ ३० ॥
सय आणवेइ, पउमणाहस्स पुत्त अमरकका रायहाणीए महया महया रायाभिसेएण अभिसिंच, जाव पडिगए)
અરે, એ મૃત્યુને ઇચ્છનાર પદ્મનાભ ! મારા જેવા પુરુષ કૃષ્ણવાસુદેવનુ પુરૂ કરતા તે મારી પણુ દરકાર કરી નહિ ? આ પ્રમાણે કહીને તે ખૂબજ ક્રોધિત થઈ ગયા યાવત્ તે પદ્મનાભ રાજાને પેાતાના દેશથી બહાર પણ નસાડી મૂકયે। ત્યારપછી તેના પુત્ર સુનાલને ભારે ઉત્સવની સાથે રાજ્યાભિષેક કર્યાં
આ રીતે પદ્મનાભના પુત્રને રાજ્યાસને અભિષિક્ત કરીને કપિલ વાસુદેવ જે દિશા તરફથી આવ્યા હતા તે દિશા તરફ઼ે પાછા જતા રહ્યા ॥सूत्र ३० ॥
Page #772
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४४
-
माताधर्मकथा णूति मित्ता कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणार चिटुंति, तएणं से कण्हे वासुदेवे सुटियं लवणाहिबई पासइ पासित्ता जेणेव गंगामहाणई तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एगट्टियाए सव्वओ समता मग्गणगवेसणं करेइ करिता एगष्ट्रिय अपासमाणे एगाए पाहाए रहं सतुरगं ससारहिं गेण्हइ एगाए वाहाए गंगं महाणई वासहिं जोयणाइ अद्धजोयणं च विच्छिन्न उत्तरिउ पयत्ते यावि होत्था, तएण से कण्हे वासुदेवे गंगामहाणईए वहुमझदेसभार्ग सपत्ते समाणे सते तते परितते वद्धसेएजाए यावि होस्था तएण कण्हस्स वासुदेवस्स इमे एयारूवे अब्झथिए जाव समुप्पज्जित्था अहो ण पंच पंडवा महाबलवगा जेहि गंगामहाणई वासहि जोयणाई अद्धजोयणं च विच्छिण्णा वाहाहिं उत्तिपणा, इत्थभूएहि णं पचहि पंडवेहि पउमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए, तएण गगादेवी कण्हस्त वासुदेवस्स इम एयारूव अज्झस्थिय जाव जाणित्ता थाह वितरइ, तएण से कण्हे वासुदेवे मुहुत्ततर समासासइ समासासित्ता गंगामहाणइं वावर्टि जाव उत्तरइ उत्तरित्ता जेणेव पच पडवा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पच पडवे एव वयामी-अहो णं तुन्भे देवाणुप्पिया। महाबलवगा जेण तुब्भेहिं गंगामहाणई वासहि जाव उत्तिण्णा, इत्थ भूएहि तुम्भेहि पउम जाव णो पडिसेहिए, तरण ते पच पडवा कण्हेण वासुदेवेणं एव वुत्ता समाणा कण्हं वासुदेव एव वयासी-एव खल्लु देवाणुप्पिया। अम्हे तुब्भेहि विसज्जिया समाणा
Page #773
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
जेणेव महाणई तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एगडियाए मग्गणगवेसण त चैव जाव णूमेमो तुव्भे पडिवालेमाणा चिट्ठामो तण से कहे वासुदेवे तेसि पंचण्हं पांडवाणं एयभट्ट सोच्चा णिसम्म आसुरुते जाव तिवलियं एव वयासी- अहो णं जया म लवणसमुहं दुवे जोयणसयसहस्सा विच्छिण्ण वोइवइत्ता पउमणाभ हयमहिय जाव पडिसेहित्ता अमरकका संभग्ग० दोवई साहत्थि उवणीया तया ण तुम्भेहि मम महत्पं ण विष्णायं इयाणि जाणिस्सहत्तिकद्दु लोहदंडं परामुसइ, पंचण्हं पंडवाण रहे चूरे चूरिता निव्विस आणवेइ आणवित्ता तत्थ ण रह मद्दणे णाम कोडे णिचिट्टे, तएण से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खधावारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छिता सएणं खधावारेणं सद्धि अभिसमन्नागए यावि होत्था, तएण से कण्हे वासुदेवे जेणेव चारवई पायरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अणुपविसइ ॥ सू०३१॥
५४५
टीका -- तएण से इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु स कृष्णो वासुदेवो लण समुद्रस्य मध्यमध्येन व्यतित्रजति गच्छति व्यतित्रज्य तान् पञ्च पाण्डवान् एव मवादीत - गच्छत खलु यूय हे देवानुमिया " गङ्गामहानदीमुत्तरत= उत्तीर्णा भवत,
तएण से कहे वासुदेवे इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरण) इसके याद (से कण्हे वासुदेवे ) उन कृष्णवासुदेवने ( लवणसमुद्द) जय लवण समुद्र में (मज्झ मझेण वीइवयइ ) बीच से होकर वे चले जा रहे थे । (ते पच पडवे एव व्यासी) तय पाच पाडव से ऐसा कहा - (गच्छहण तुग्भे देवाणुप्पिया ! गंगामहानइ उत्तरह जाव
तरण से कष्णे वासुदेवे इत्यादि
टीडार्थ- (तएण त्यारपछी (से कण्छे वासुदेवे) ते वासुदेवे (लवणसमुद्द) है न्यारे तेथे सवधु समुद्रनी ( मज्झ मज्झेण बोधवयइ ) वश्ये थाने पसार यता इता त्यारे ( ते पच पडवे एव वयासी) पाये पाडवाने भा प्रभा
( गच्छहण उभे देवाणुलिया ! गंगा महानदिं वत्तर जाव ताव अह सुट्टिय
Page #774
--------------------------------------------------------------------------
________________
यावत् तापदह सुस्थित देव लवणाधिपति पश्यामि, मुस्थितेन देवेन सह मिलिस्ता तमापृच्छयागच्छामि, ततः खलु ते पनपाण्डवा काणेन पासुदेवेन एवमुक्ताः सन्तो यौव गद्गामहानदी तगयोपागच्छति, उपागत्य 'एगटियाए ' एकापि काया:-महानौकासमानकार्यकारिण्या 'जागर' नानौकाया मार्गणगवेषण कुर्वन्ति । कृत्वामार्गणगोषण कृत्वा नौकायामारुय ते पञ्च पाण्डवा एकाधिकया नाग गङ्गामहानदी मुत्तरन्ति, उत्तीर्य अन्योन्यम् परस्परमेव वदन्ति-' पहू' प्रभु.समर्थ , खल हे देवानुप्रियाः कृष्णो पामुदेवो गङ्गामहानदी 'बाहाहि' पाहुभ्या-भुजाभ्याम् ' उत्तरित्तए' उत्तरीतम् 'उदाहु' उताहो-अथवा नो ताव अह सुहिय लवणाहिवह पासामि) हे देवानुप्रिया ! तुमलोग जाओ-और गगानदी को पार करो तयतक में लवणसमुद्राधिपति सुस्थित देव से मिलकर और उनकी आज्ञा लेकर आता है। (तरण ते पच पडवा कण्हेण वसुदेवेण एव वुत्ता समाणा जेणेव गगा महानई तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता एगट्टियाए णावाए मग्गणगवेसण करेंति, करित्ता एगट्टियाए गगामहानइ उत्तरति) इस तरह कृष्ण वासु देव द्वारा कहे गये वे पाचों पांडव जहां गगा महानदी थी-वहा आये । वहा आकर के उन्होंने एकाधिक-महानौकासे जैसी कार्य साधक-नौका मार्गणा एव गवेषणा की, मार्गणा गवेषणा कर के वे पाचा पाडव नौका पर चढ गगा महानदीसे पार हो गये। (उत्तरित्ता अण्णमण्ण एव वयति पटूण देवाणुप्पिया कण्हे वासुदेवे गगा महानई बाहारि उत्तरिलवणाहिवइ पासामि) वानप्रिया! तमसो मा भने । નદીને એળગે ત્યાસુધી હુ લવ સમુદ્રના અધિપતિ સુસ્થિત દેવને મળીને અને તેમની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરીને આવું છુ
(तएण ते पच पडवा कण्हेण वासुदेवेण एव वुत्ता समाणा, जेणेव गगा महानई तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता एगट्टियाए णाचाए मग्गणगवेसण करेति, करित्ता एगढियाए नावाए गगा महानइ उत्तरति)
આ રીતે કૃષ્ણવાસુદેવ વડે આજ્ઞાપિત થયેલા તે પાચે પાડે ત્યા ગગા મહા નદી હતી ત્યા આવ્યા ત્યાં આવીને તેમને એકર્થિક મહાનૌકા જેવી કામમાં આવી શકે તેવી નૌકાની માગણા તેમજ ગષણા કરી માર્ગણ તેમજ ગવેષણ કરીને તે પાચે પાડવો નોકા ઉપર સવાર થઈને ગગા મહા નદીને પાર ઉતરી ગયા
(उत्तरित्ता अण्णमण्ण एव वयति पहूण देवाणुप्पिया! कण्हे वासुदेवे गगा
Page #775
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणो टी० प १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५४७ प्रभुः समर्थ उत्तरीतुम् , इति कृत्वा गङ्गामहानया वाहुभ्यामुत्तरणे कृष्णवासु. वदेस्य सामर्थ्यमस्ति, नास्ति या तद् विजानामीति विचार्य एकाथिका नाव= नौका 'मति' गोपयन्ति । गोपयित्वा कृष्ण वासुदेव 'पडियालेमाणा' प्रतिपालयन्त प्रतीक्षमाणाः तिष्ठन्ति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः सुस्थित देव लपणाविपतिं पश्यति-सुस्थितेन साफ मिलति दृष्ट्वा तमापृच्छथ यौव गङ्गामहानदी तौवोपागच्छति, उपागत्य एकाथिकाया नावा-नौकाया मार्गणगवेपणं करोति, कृत्वा, एकाथिका नावमपश्यन् एकेन वाहुना रथ सतुरग-सहाश्व, त्तए उदाहुणो पभू उत्तरित्तए तिकटूटु एगडियाओ णावाओ मेंति, शूमित्ता कण्हं वासुदेव पडिवाले माणा २चिट्ठति, तएण से कण्हे वासुदेवे सुहिय लवणाहिवइ, पसिइ, पासित्ता जेणेव गगा महाणई तेणेच उवागच्छद) जय पार होकर वे तट पर पहुंच चुके-तय परस्पर में उन्हों ने ऐसा विचार किया-हे देवानुप्रियों । देखो कृष्ण वासुदेव गगो महानदी को हाथों से तैरकर पार करने में समर्थ हो सकते हैं या नहीं हो सकते हैं ? इस प्रकार विचार करके उन्हों ने उस एकाथि नोका को कृष्ण वासुदेव के आने के लिये वापिस उस पार भेजा नहीं वहीं पर छिपा दिया। और छिपाकर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करते वे वही ठहरे रहे। उधर-कृष्ण वास्तुदेव लवणसमुद्राधिपति सुस्थित देव से जाकर मिले और उसकी आज्ञा लेकर जहां गगा नदी थी वहा आये । (उवागच्छित्ता एगढियाए सव्वओ समता मग्गणगवेसण करेई, करित्ता एगठिय अपासमाणे एगाए पाहाए रह सतुरगं ससारहिं गेण्डा महानई वाहाहि उत्तरित्तए, उदाहु णो पभू उत्तरित्तए तिकटु एगढ़ियाओ णावाओ णूमेति, मित्ता कण्ह वासुदेव पडिवालेमाणा२ चिट्ठति, तर ण से कण्हे वासुदेवे मुट्ठिय लवणाहिनइ, पासइ, पासित्ता जेणेव गगा महाणई तेणेव उवागच्छइ )
પાર ઉતરીને જ્યારે તેઓ કિનારે પહોંચી ગયા ત્યારે તેમણે પરસ્પર વિચાર કર્યો કે હે દેવાનપ્રિય! કચ્છવાસુદેવ ગગા મહાનદીને હાથો વડે તરીને પાર કરી શકે કે નહિ ? આમ વિચાર કરીને તેમણે તે “એકાર્થિ નૌકાને કૃષ્ણ વાસુદેવને લાવવા માટે પાછી મોકલી નહિ પણ ત્યાજ છુપાવી દીધી અને છુપાવીને તેઓ ત્યાજ કૃષ્ણ વાસુદેવની પ્રતીક્ષા કરતા રોકાઈ ગયા કૃષ્ણવાસુદેવ લવણ સમુદ્રાધિપતિ સુસ્થિતદેવને મળ્યા અને તેની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરીને જતાં ગગા નદી હતી ત્યાં આવ્યા
(उवागच्छित्ता एगढियाए सबभो समता मग्गणगवेसण करेइ, करिता एगट्ठिय अपाममाणे एगाए वाहाए रह सतुरग ससारहिं गेण्डइ, एगाए वाहाए
Page #776
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
५४
माताधर्मयाजा ससारथि गृहाति एकेन पाहुना गात महानहीं 'मार्टि' द्वापष्टिं योजनानि अर्धयोजन च ' वित्थिन्न ' पिम्तीर्णाम् , उत्तरित प्रपत्तथाप्यमात् , ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो गद्गामहानद्या बहुमभ्यदेशभाग सप्रातः सन् 'सते ' श्रान्तःश्रमप्राप्तः, 'तते' वान्ता खिन्न 'परितते' परितान्तपथा खिन्नः 'बद. सेए ' समाप्तस्वेदः, जातथाप्यभवत् ।
ततः खलु कृष्णस्य पासुदेवस्पायमेतप आयात्मिको यावत् मनोगत सकल्पः समुदपद्यत-अहो खलु पञ्च पाण्डया महालान्त', येर्गहामहानदी द्वापष्ठि योजनानि अर्धयोजन च वित्थिना-विस्तीर्णा पाहुभ्यामुत्तीर्गा, ' इत्यभूएहि' इत्यभूतैः-ईदृशपराक्रमशालिमि. खलु पञ्चमिः पाण्डवैः पद्मनाभो राजा यात्र नो एगाए पाहाए गगमहाणइ वासहि जोयणाइ अद्धजोयणच विच्छिन्न उत्त रिपयत्ते यावि होत्था) यहा आकर के उन्हीं ने एकाधिक नौका की सब तरफ सब प्रकारसे मार्गणागवेपणा की'मार्गणागवेषग करके जय उनके देखने में एकाधिक नौका नहीं आई, तय सारथि और घोडों से युक्त रथ को उन्हों ने एक हाथ से पकडा और एक हाथ से ६२॥, माढे वासठ, योजन विस्तीर्ण उस गगा महानदी को तैरकर पार करना प्रारभ किया। (तण्ण से कण्हे वासुदेवे गगा माणईए बहुमज्झदेस भाग सपत्ते समाणे सते, तते, परितते, पद्धसेए जाए यावि होत्था, तएण कण्हस्स वासुदेवस्स इमे एयारूचे अज्झथिए जाव समुप्पवित्था -अहोण पच पडवा महोबलवगा, जेहिं गगामहाणई वासहि जोयणाइ अद्धजोयण च विच्छिपणा पाहाहि उत्तिण्णा इत्यभूएहिं ण पचरिं पड गग महाणइ वासद्धि जोयणाइ अद्धजोयण च विच्छिन्न उत्तरिपयत्ते यावि होत्था)
ત્યાં આવીને તેમણે “એકર્થિક નૌકાની ચોમેર બધી રીતે માર્ગ ગવેષણ કરી માર્ગણ તેમજ ગવેષણ કરીને જ્યારે એકાર્થિક” નૌકા તેમના જોવામાં આવી નહિ ત્યારે સારથિ અને ઘડાથી યુક્ત રથને તેમણે એક હાથમાં ઉપાડ અને એક હાથ વડે દર જન વિસ્તીર્ણ તે ગગા મહા નદીને તરીને પાર કરવા લાગ્યા
(तएण से कण्हे वासुदेवे गगा महाणईए बहुमज्झदेस भाग सपत्ते समाण सते, तते, परितते, बद्ध सेए जाए यावि होत्या, तएण कण्हस्स वासुदे वस्त इमे एयारूवे अज्झथिए जान समुप्पज्जित्था-अहोण पच पडवा महावलवगाजाह गगा महागई वासहि जोयणाइ अद्धजोयण च विच्छिण्णा बाहाम्
Page #777
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
मनगारधर्मामृतवपिणो टी० अ० १६ द्रौपदी चरितनिरूपणम् ५४९ प्रतिषेधितानो पराजितः, इदमाश्चर्यम् , ततः खलु गङ्गादेवी कृष्णस्य वासुदेवस्य इममेतद्रूपमाध्यात्मिक यावत् मनोगत सकल्प ज्ञाला 'थाह ' स्ताघ-गाधवितरति, ददाति । ततः खलु स कृप्णो वासुदेवो मुहूर्वान्तरे ' समासासइ' समाश्व सिति-विश्राम माप्नोति समाश्वस्य गङ्गामहानदी द्वापष्ठि यावद् उत्तरति, उत्तीर्य वेहिं परमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए-तएण गंगादेवी कण्हस्स वासुदेवस्स इम एयारूच अज्झथिए जाव जाणित्ता था वितरइ ) तैरते २ जब वे कृष्णवासुदेव गंगा महानदी के ठीक मज्झ-मध्य भाग में आये-तब वहा तक आते २ वे श्रम प्राप्त हो गये, खेदखिन्न बन गये, और सर्वथा थक गये। यहा तक कि उनके शरीर भर में थकावट की पजह से पसीना २ हो गया। तय उन कृष्णघासुदेव को इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ। देखो-ये पाचो पाडव पड़े यलिष्ट है-जिन्हों ने ६२॥, योजन विस्तीर्ण इस गंगा महानदी को हाथों से तैरकर पार कर दिया परन्तु यह बड़े आश्चर्य की बात है-कि ऐसे पराक्रम से युक्त होते हुए भी इन पाडवों से वह पद्मनाभ राजा प्रतिपेधित नहीं हो सका-जीता नही जा सका। इस प्रकार के उन कृष्णवासुदेव के इस रूप इस आध्यात्मिक यावत् मनोगत सकल्प को गंगादवी ने जानकर उन्हें थाह दे दी ( अधार दिया)। (तएण से कण्हे वासुदेवे मुटुत्तत्तर समासासइ) थाह प्राप्त कर कृष्णवासुदेव ने बहा भूएहिं ण पचहिं पडवेहिं पउमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए-तएण गगादेवी कण्दस्स वासुदेवस्स इम एयारूव अज्झथिए जान जाणित्ता थाह वितरइ)
તરતા તરતા જ્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવ ગ ગા મહાનદીના એકદમ મધ્યમાં આવ્યા ત્યા સુધી આવતા આવતા તે તેઓ થાકી ગયા, ખેદખિન્ન થઈ ગયા, અને એકદમ થાકી ગયા થાકને લીધે તેમનું સ પૂર્ણ શરીર પરસેવાથી તરબોળ થઈ ગયુ ત્યારે તે કૃષ્ણ વાસુદેવને આ જાતને આધ્યાત્મિક કાવત્ મનોગત સંકલ્પ ઉદભવ્યું કે જુઓ આ પાચે પાડવો કેટલા બધા બલિષ્ટ છે કે જેમણે દર” જન વિસ્તણું આ ગગા મહાનદીને હાથ વડે તરીને પાર કરી છે 'પણ એની સાથે આ પણ એક નવાઈ જેવી વાત છે કે એવા પરાક્રમી હોવા છતાએ આ પાડવોથી તે પદ્મનાભ રાજા યાવત્ પરાજીત કરી શકાય નહિ કૃષ્ણવાસુદેવના ગગા મહાનદીએ આ જાતના આધ્યાત્મિક યાવત્ મને ગત स४६५ eी तमना भाटे या मापी (तएण से कण्हे वासुदेवे मुहत्तत्तर समासासइ) थाई भगवान प्वामुव थापार त्या विश्राम य (समासा०) વિશ્રામ કર્યા બાદ તેમણે
Page #778
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५०
St
यत्र पञ्च पाण्डवास्त रोपागच्छति, उपागत्य पत्र पाण्डरान एनमवादीत्अहो खल ग्रुप हे देवानुमियाः । महावत येन युष्माभिर्गा महानदी द्वाि योजनानि अर्धयोजन च विस्वीर्णा याद उत्तीर्णा, इत्यभूतैर्युष्माभिः पचनाभो यावत् नो प्रतिपेधित पराजय न भाषितः, ततः सलु ते पञ्च पाण्डवाः थोड़ी देर तक विश्राम किया (समासा० ) विश्राम करके फिर उन्होंने (गगा महाणइ घावहिं जाव उत्तर इ, उत्तरित्ता जेणेव पचपडवा तेणेव उवागच्छ, वागच्छत्ता पच पडवे एव वयामी - अहोण तुम्मे देवालिया ! महा लगा जेण तुम्भेहिं गंगा महाणई वासहिं जाव उत्तिष्णा, इत्थभूएहिं तुम्भेहिं पउम जांव णो पडिसेहिए, तएण ते पचपडवा कण्हेण वासु देवेण एव युक्त्ता समाणा कण्ट वासुदेव एवं वयासी- एव खलु देवाणुपिया | अम्हे तुम्भेहिं विसज्जिया समाणा जेणेव गगा महाणई तेणेव उयागच्छह, उवागच्छित्ता एगट्टियाए मग्गणगवेसणं त चेव जाव
मेमो तुम्भे पडिवाले माणा चिट्टामो) साढ़े पासठ योजन विस्तीर्ण उस गंगा महानदी को तैरकर पार कर दिया। पार करके फिर वे वहां आये - जहाँ ये पाचो पाडव थे । वहा आकर उन्हों ने उन पांचो पाडवों से इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रियों । तुमलोग बहुत ही अधिक बलशाली हो जो तुमलोगों ने ६२॥ योजन विस्तीर्ण इस गंगा महानदी को बाहुओं से तैरकर पार कर दिया। परन्तु यह आश्चर्य की बात हैं कि इतने बल शाली होकर भी जो तुम से पद्मनाभ राजा पराजित नही हो सका । ( गगा महाणइ वाट्ठि जाव उत्तर, उत्तरित्ता जेणेव पच पडवा तेंव उवागच्छह, उपगच्छित्ता पच पडवे एव वयासी- अहो तुम्भे देनाणुपिया ! महाबलवगा जेण तुम्भेहिं गंगा महाणई वासट्ठि जाव उत्तिष्णा इत्य भ्रूहि तुभेहिं पउम जाव णो पडिसेहिए, तएण ते पच पडवा कण्हेण वासुदेवेण एव वुत्ता समाणा कण्ह वासुदेव एव वयासी- एव खलु देवाणुपिया ! अम्हेतुभेहिं विस ज्जिया समाणा जेणेत्र गगा महाणई तेणेन उवागच्छर, उवागच्छित्ता एगट्टियाए मग गवेसण त चेत्र जाव णूमेमो तुन्भे पडिवाले माणा चिह्नामो )
૬૨” ચેાજન વિસ્તી તે ગગા મહાનદીને તરીને પાર પહેાચી ગયા પાર પહોંચીને તે જરા પાચે પાડવો હતા ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેમણે પાચે પાડવોને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હું દેવાનુપ્રિયે ! તમે બહુ જ ખળવાન છે. કેમકે તમે લેાકાએ ૬૨” ચેાજન વિસ્તી આ ગગા મહાનદીને હાથા વડે તરીને પાર કરી છે પણ એની સાથે આ એક નવાઇ જેવી વાત ખાટલા બધા બળવાન હોવા છતા પણ પદ્મનાભ રાજાને २।
તમે
Page #779
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधर्मामृतवपिणी टी० १० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् कृष्णेन वासुदेवेनैवमुक्ताः सन्तः कृष्ण वासुदेवमेवमवादीत्-एव खलु हे देवानुमियाः । वय युष्माभिर्विसर्जिताः सन्तो यौव गङ्गा महानदी तगैवोपागच्छामः, उपागत्य ' एगद्वियाए ' एकाथि काया नावो मार्गणगवेपण कृत्वा 'तं चेव जाव ण्मेमो' तदेव यदुक्त पूर्व तदेवान योध्यमित्यर्थः-ता नावमधिरुह्य वय गगामहानदीमुत्तीर्णाः, ततः खलु हे देवानुप्रियाः ! गङ्गा महानदी बाहुभ्यामुत्तरितु भवन्त. शक्नुवन्ति नपा, इति ज्ञातु वयमेकाथिका नौका यावद् 'मेमो' गोपयामः, युष्मान् पडिमालेमाणा' प्रतिपालयन्तः-प्रतीक्षमाणा वय तिष्ठामः।
ततः सल स कृप्णो वामदेवस्तेपा पञ्चाना पाण्डवानाम् एतमर्थ श्रुत्वा आकर्ण्य निशम्य हृयवधार्य आशुरुप्ताः-शीघ्र सनातकोप , यावत् त्रिवलिकां रेखा इस प्रकार जर कृष्णवासुदेवने उन पांचो पांडवों से कहा तब उन्हो ने कृष्णवासुदेव से ऐसा कहा हे देवानुप्रिय ! सुनिये-यात इस प्रकार है जर हमलोगों को आपने वहां से विसर्जित कर दिया-तय हमलोग जहा गगा महानदी थी-वहाँ आये-वहा ओकर हमलोगों ने एकार्थिक नौका की मार्गणा गवेषणा की-नाव के मिलते ही हमलोग उसपर चढकर यरां गंगा नदी को पार कर आये हैं। हमलोगों ने यहा आकर फिर हे देवानुप्रिय ! ऐसा विचार किया - कि - कृष्णवासुदेव गगा महानदी को हाथों से पार कर सकते है या नहीं-इसी यात को जानने के लिये हमलोगो ने उस एकाधिक नौका को यही डिपा कर रख दिया है। और आपकी प्रतीक्षा में यहा ठहरे हुए हैं। (तएण से कण्हे वासुदेव तैसि पचण्डं पाडवाण एयमट्ट सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते जाय तिवઆ રીતે જ્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવે તે પાચે પાડવોને કહ્યું ત્યારે તેમણે કૃષ્ણ વાસુ દેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! સાભળે, વાત એવી છે કે અમને બધાને તમે જયારે વિદાય કર્યા ત્યારે અમે લેકે જ્યા ગગા મહાનદી હતી ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને બધાએ એકથક નૌકાની માગણ ગવેષણ કરી નોકા પ્રાપ્ત થતા જ અમે બધા તેમાં બેસીને ગગા મહાનદીને પાર કરીને આ તરફ આવી ગયા આ તરફ આવીને હે દેવાનુપ્રિય! અમે લેકેએ આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો કે-કુણ્યવાસુદેવ ગગા મહાનદીને હાથો વડે તરીને પાર કરી શકશે કે કેમ ? આ વાત જાણવા માટે જ અમે લેકએ તે એકર્થિક નૌકાને છુપાવીને તમારી પ્રતીક્ષા કરતા અમે અહીં જ બેસી રહ્યા હતા
(तए ण से कण्हे वासुदेवे तेसिं पचण्ह पाडवाण एयमह सोचा णिसम्म भासुरूत्ते जाच विलिय एव वयासी-अहोण जया मए लवणसमुद्द दुवे जोयण
Page #780
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१०
श्रीका
यौन पञ्च पाण्डवास्तत्रोपागच्छति, उपागत्य पञ्च पाण्डवान् एनमवादीत्अहो खलु यूय हे देवानुमियाः । महालात येन युष्माभिर्गा महानदी द्वाहि योजनानि अर्धयोजन च विस्तीर्णा या उत्तीर्णा इत्थंभूतेर्गुष्माभिः पचनाभो यावत् नो मतिषेधित "पराजय न प्रापितः, ततः सल ते पञ्च पाण्डवाः थोड़ी देर तक विश्राम किया (समासा० ) विश्राम करके फिर उन्होंने (गगा महाणइ वाट्ठि जाव उत्तर इ, उत्तरित्ता जेणेव पचपडवा तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता पच पडवे पत्र व्यासी- अहोण तुभे देवालिया ! महालवगा जेण तुम्भेहिं गंगा महाणई चाहिं जाव उत्तिष्णा, इत्थभूपहिं तुम्भेहिं पउम जोव णो पडिसेहिए, तएण ते पचपडवा कण्हेण वासु देवेण एव घुत्ता समाणा कण्ट वासुदेव एव वयासी- एव खलु देवाणु पिया । अम्हे तुम्भेहिं विसज्जिया समाणा जेणेव गंगा महाणई तेजेव उचागच्छह, उवागच्छित्ता एगट्टियाए मग्गणगवेसण त चेव जाब
मेमो तुभे पडिवाले माणा चिट्टामो ) साढे घासठ योजन विस्तीर्ण उस गंगा महानदी को तैरकर पार कर दिया। पार करके फिर वे वहां आये-जहाँ ये पाचो पाडव थे । वहा आकर उन्हों ने उन पांचो पाडवों से इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रियों! तुमलोग बहुत ही अधिक बलशाली हो जो तुमलोगों ने ६२ ॥ योजन विस्तीर्ण इस गंगा महानदी को बाहुओं से तैरकर पार कर दिया । परन्तु यह आश्चर्य की बात हैं कि इतने बल शाली होकर भी जो तुम से पद्मनाभ राजा पराजित नही हो सका।
-
( गगा महाणइ वाट्ठि जान उत्तर, उत्तरित्ता जेणेत्र पच पडवा तेणेव उत्रागच्छ, उवागच्छित्ता पच पडवे एव वयासी - अहोण तुम्भे देनाणुपिया ! महाबलवगा जेण तु भेहिं गंगा महाणई वासट्ठि जाव उत्तिष्णा इत्थ भूएहिं तुम्भेहिं पउम जाव णो पडिसेद्दिए, तएण ते पच पडवा कहे ण वासुदेवेण एव वुत्ता समाणा कण्ह वासुदेव एव वयासी- एव खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे तुमेहिं विसज्जिया समाणा जेणेत्र गंगा महाणई तेणेन उवागच्छ, उवागच्छित्ता एगट्टियाए मग्गण गवेसण त चेत्र जाव णूमेमो तुम्भे पडिवाले माणा चिट्ठामो )
૬૨” ચૈાજન વિસ્તીણું તે ગગા મહાનદીને તરીને પાર પહેાચી ગયા પાર પહેાચીને તેએ જના પાચે પાડવો હતા ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેમણે પાચે પાડવોને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હું દેવાનુપ્રિયે ! તમે ખહુ જ ખળવાન છે કેમકે તમે લેાકાએ ૬૨” ચેન્જન વિસ્તીરૢ આ ગગા મહાનીને હાથેા વર્ક તરીને પાર કરી છે પણ એની સાથે આ એક નવાઇ જેવી વાત છે કે તમે આટલા બધા મળત્રાન હેાવા છતા પણ પદ્મનાભ રાજાને
า
Page #781
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
ममगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् मतिषे-य-हतमथितभार वीरघातितनिपतितचितवजपताक यावत् प्रतिषेध्य = सग्रामात् मतिनिपर्त्य-पद्मनाभ विमिन्येत्यर्थः, अमरकका राजपानी सभग्नतोरणा यावद् विनिपातिता-विधसिता,तथा-द्रौपदी सहस्तेनोपनीतामवयः प्रदत्ताः, 'तयाण' तदास्तस्मिन् समये खलु युष्माभिर्मम 'माहप्प ' माहात्म्य महत्त्व चलं, 'ण विण्णाय 'न विज्ञातम् ' इयाणि ' इदानीम्-अस्मिन् समये 'जाणिस्सह' ज्ञास्यथ, इति कृत्वा इत्युक्त्या, लोहदण्ड 'परामुसइ' परामशति-गृह्णाति पञ्चाना पाण्डमाना स्थान चूर्णयति, चूर्णयित्वा णिबिसए आणवेइ' निर्विष यान् आज्ञापयति-रिपयात् स्वदेशवो निर्गताः बहिर्याता इति निर्विपयास्तान् , यूय मम देशात् निर्षिगच्छत, इत्याज्ञापयति स्म ' इत्यर्थ । आशाप्य तत्र खलु 'रहमद्दणे णाम कोहे णिविद्वे' ग्यमर्दननामा कोष्ठो निविष्ट'-यमर्दनपुर नाम नगर स्थापितम् ।
ततस्तदनन्तर स कृष्गो पासुदेवो यत्रैव स्वकनिज , 'खधाबारे ' स्कन्धाचारः-सेनानिवेशस्तयोपागच्छति, उपागत्य स्वकेन सन्धावारेण-सोपकरणसनिकेन सार्थम् अभिममन्वागत:-मिलितश्चाप्यभवत् । ततः खलु स कृष्णो मासुदेवो यम द्वारवती नारी, तत्रोपागाउति, उपागत्य, अनुमविशति ॥१०३१॥ प्रशस्त ध्वजा पताकाओं को जमीन में मिरादिया-उस की राजधानी अमरकका नगरी को ध्वस्त कर दिया, तया उससे द्रौपदी को अपने हाथ से लाकर तुमलोगों को दिया उस समय तुमलोगो ने मेरे चल को नहीं जाना ? जो अब जानोगे-ऐसा कहकर उन वासुदेव कृष्ण ने लोह दडे को उठाया और उससे पाचो पाडवों के रथों को चूर २ कर दिया। चर २ कर के फिर उन्हें देश से पारिर हो जाने की आज्ञा देदी । आज्ञा दकर उन कृष्ण वासुदेव ने वहीं पर एक रथमर्दन नाम का नगर वसा दिया। इसके बाद वे कृष्ण वासुदेव जहां अपना स्कधावार था वहाँ જમીનtત કરી નાખી તેની રાજધાની અમરકકા નગરીને નષ્ટ કરી નાખી અને તેની પાસેથી પ્રૌપદીને લાવીને તમને સોંપી દીધી તે વખતે તમે કે મારા બળને જાણી શકયા નહિ તે હવે મારા બળને તમે જુએ-આમ કહીને તે કૃષ્ણ વાસુદેવે લોહદડને હાથમાં લીધું અને તેનાથી તેમણે પાંચે પાડવોના રવાના કેસૂકા ઉડાવી દીધા રાને નષ્ટ કરીને તેમણે પારો પાડવોને દેશથી બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા આપી આજ્ઞા આપીને તે કૃષ્ણવાસુદેવે તે સ્થળેજ એક રથમર્દન નામે નગર વસાવ્યું ત્યારપછી તે કૃષ્ણ વાસુદેવ જ્યા પિતાના સભ્યની વણી હતી ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેઓ પિતાના સૈનિકોને
Page #782
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
५५२
तामा प्रयुक्ता भुकुटि ललाटे उन्नीय प्रदर्य, एतमादीव-अहो-पाश्रय खलु 'पा' यदा-पस्मिन् समये, मया लवणसमुद्र 'दुवे जोयणसयमहमा वित्पिण्णं 'दियो जनशतसहस्रपिस्तीर्ण द्विलभयोजनपरिमित विस्तीर्ण जीवात्ता' व्यतिबन्यसमुल्लध्य, पद्मनाभ राजान ' हयमहिय-जार पडिसेहिता' इतमथित-यावत् लिय एव चयासी-अहोण जया मा लरणसमुददुवे जोयणसयसहस्सा विच्छिन्न वीइवहत्ता पउमणाम हयमहिय जार पडिसेहिसा अमरकका समग्ग० दोचई सारधि उवणीया तया ण तुम्भेहिं मम मारप ण वि. एणाय इयाणि जाणिस्सर, त्ति कटु लोहदड परामुसड, पचण्ह पर घाणं रहे चूरेइ, चूरित्ता णिन्धिसए आणवेड आणविसा तत्य ण रह मद्दणे णाम कोडूडे णिवेट्टे,तण्ण से कण्हे वासुदेवे जेणेव सा ग्वधावार, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सरण खधावारेण सद्धि अभिसमो गए यावि होत्या, से कण्हे वासुदेवे जेणेव यारवई णयरी तेणेव उवा गच्छइ, उपगच्छित्तो अणुपरिसइ) उन पाचो पाडवों के मुख से इस कथन रूप अर्थ को सुनकर और उसे अपने हृदय में अवधारित कर उन कृष्णवासुदेव को इकदम फ्रोध आ गया। त्रिवलियुक्त उनकी दोनों भृकुटिया स्लाटतट पर चढ गई। उसी समय उन्हों ने उन पाडवों से कहा यह बड़े आश्चर्य की यात है-जिस समय मैंने २ दो लाख योजन विस्तारवाले लवणसमुद्र को उल्लधन कर पद्मनाभ राजा को सग्राम में जीता-उस की सेना को हत मषित किया-राजचिन्तस्वरूप उसकी सयसहस्सा विछिन्न वीइवत्ता पउमणाम हय महिय जान पडिसेहिता अमर कका सभग्ग० दोबई साहत्थि उवणीया तयाण तुम्भेहिं मम माइप्प ण विणाय इयाणि जाणिस्सह, तिफटु लोहदद परामुसइ, पचण्ह पटवाण रहे चूरेइ, चारता णिधिसए आणवेइ आणवित्ता तत्यण रहमदणे णाम को णिवेटे, तएण से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खधावारे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सरण खधा वारेण सद्धि अभिसमन्नागए यावि होत्था तरण से कहे वासुदेवे जेणेव वारवई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अणुपविसइ)
તે પાચે પાડવોના મુખથી આ કથનરૂપ અર્થને સાભળીને અને તેને પિતાના હૃદયમાં અવધારિત કરીને તે કણવાસદેવ એકદમ કોધાવિષ્ટ થઈ ગયા વિલિયુક્ત તેમના બને ભમ્મર વક થઈ ગયા તેમ તે જ સમયે પાડવા આ પ્રમાણે કહ્યું કે આ ખરેખર નવાઈ જેવી વાત છે કે જ્યારે મે ૨ લાખ
જન વિરતી લવ સમદને એક ગીત પદ્મનાભ રાજાને યુદ્ધમાં છર્યા, તેની સેનાને મથી નાખી, રાજચિત સ્વરૂપ તેની પ્રશસ્ત વજા પતાકાઓને
Page #783
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५५३
,
प्रतिषेय इतमथितमनरवीरघातितनिपतितचिह्नभ्वजपताक यावत् प्रतिषेध्य = संग्रामात् प्रतिनिवर्त्य - पद्मनाभ विजित्येत्यर्थ, अमरकका राजधानों सभग्नतोरणा यावद् विनिपातिता- विध्यसिता, तथा द्रौपदी स्वहस्तेनोपनीता=भवद्भयः प्रदत्ता, ' तयाण ' तदा=वस्मिन् समये खलु युष्माभिर्मम 'माहप्प' माहात्म्य = महत्रं चल, 'ण विष्णाय ' न विज्ञातम् ' इयाणि इदानीम् - अस्मिन् समये 'जाणि सह ' ज्ञास्यय, इति कृत्वा = इत्युक्त्वा, लोहदण्ड ' परामुसइ ' परामृशति- गृह्णाति पञ्चाना पाण्डवाना रथान् चूर्णयति, चूर्णयित्वा ' गिव्विस आणवेइ ' निर्विप या आज्ञापयति-विपयात् स्वदेशतो निर्गताः चहियता इति निर्विषयास्तान्, यूय मम देशात् निर्विगच्छत, इत्याज्ञापयति स्म ' इत्यर्थ । आज्ञाप्य तत्र खलु 'रहमद नाम को विद्वे रथमर्दननामा कोष्ठो निविष्ट. - रथमर्दनपुर नाम
,
नगर स्थापितम् ।
ततस्तदनन्तर स कृष्णो वासुदेव स्वक=निज, 'खनावारे ' स्कन्धावार:- सेनानिवेशस्तत्रैत्रोपागच्छति, उपागत्य स्वकेन सन्धावारेण सोपकरणसैनिकेन सार्वम् अभिममन्त्रागतः = मिलितथाप्यभनत् । ततः खलु स कृष्णो वासुदेव द्वारवती नगरी, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य, अनुपविशति ॥ ०३१ ॥ प्रशस्त ध्वजा पताकाओं को जमीन में मिलादिया- उस की राजधानी अमरकका नगरी को ध्वस्त कर दिया, तथा उससे द्रौपदी को अपने हाथ से लाकर तुमलोगों को दिया उस समय तुमलोगों ने मेरे बल को नहीं जाना ? जो अप जानोगे- ऐसा कहकर उन वासुदेव कृष्ण ने लोह दडे को उठाया और उससे पाचो पाडवों के रथों को चूर २ कर दिया। चर २ कर के फिर उन्हें देश से बाहर हो जाने की आज्ञा देदी। आज्ञा देकर उन कृष्ण वासुदेव ने वहीं पर एक रथमर्दन नाम का नगर वसा दिया । इस के बाद वे कृष्ण वासुदेव जहाँ अपना स्कधावार था वहाँ
જમીનદોસ્ત કરી નાખી તેની રાજધાની અમરકકા નગરીને નષ્ટ કરી નાખી અને તેની પાસેથી દ્રૌપદીને લાવીને તમને સેાપી દીધી તે વખતે તમે લેાકો મારા બળને જાણી શકયા નહિ તે હવે મારા ખીને તમે જુએ-આમ કહીને તે તૃવાસુદેવે લાત અને હાથમા લીધે અને તેનાથી તેમણે પાચે પાડવોના રથાના ભૂકેભૂ ઉડાવી દીધા રથેાને નષ્ટ કરીને તેમણે પાચે પાડવોને દેશથી બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા વ્યાપી આજ્ઞા આપીને તે કૃષ્ણવાસુદેવે તે સ્થળેજ એક યમન નામે નગર વસાવ્યુ ત્યારપછી તે કૃષ્ણવાસુદેવ જ્યા પેાતાના સૈન્યની ધાવણી હતી ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેએ પોતાના સૈનિકોને
Page #784
--------------------------------------------------------------------------
________________
पातालमेकपा मूलम-तएणं ते पंच पडवा जेणेव हरियणाउरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता जेणे पट्ट तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता करयल एवं वयासी-एव खल्ल ताओ । अम्हे कण्हेणं णिविसया आणत्ता, तएणं पराया तपंच पडवे एव वयासीकहाण पुत्ता । तुम्भे कण्हेण वासुदेवेण णिविसया आणत्ता', तएण ते पच पंडवा पडुराय एवं वयानी-एव खलु ताओ। अम्हे अमरककाओ पडिणियत्ता लबणसमुद्द दोनि जोयणसय. सहस्साइ वीइवत्ता तएण से कण्ह अम्हे एव क्यासी-गच्छह णं तुझे देवाणुप्पिया । गंगामहाणद उत्तरह जाव चिट्टह ताव अहं एवं तहेब जाव चिट्ठामो, तएण से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं लवणाहिवइं दट्टण त चेव सव्वं नर कण्हस्स चिंता ण जुजई जाव अम्हे णिविसए आणवेइ,तएणं से पंडुराया ते पच पडवे एव वयासा दुटु णं पुत्ता कय कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पिय करेमा
हिं, तएण से पडुराया कोंति देवि सदावेइ सद्दावि त्ता एवं वयासी गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया | बारवइ कण्हस्स वासुदवस्स णिवेदेहि एव खलु देवाणुप्पिया तुम्हे पच पडना णिविसया आणत्ता तुम च देवाणुप्पिया ! दाहिणभरहस्स सामी त सदिसतुण देवाणुप्पिया पच पडवा कयर दिसि वा विदिस आये । यहाँ आकर वे अपने सैनिको के साथ मिले। याद में जहा द्वारावती नगरी थी उस ओर चल दिये वाँ पहुँच कर वे द्वारावती नगरी में प्रविष्ट हुए ॥४०३१॥ મળ્યા, ત્યારબાદ તેઓ જે તગ્સ દ્વારાવતી નગરી હતી તે તરફ રવાના થયા ત્યાં પહોંચીને તેઓ દ્વારાવતી નગરીમાં પ્રવિણ થયા છે
Page #785
--------------------------------------------------------------------------
________________
गारधर्मामृत
टीका थ० १६ द्रोपदोवरितनिरूपणम्
५५५
1
वा गच्छंतु १, तएण सा फोती पंडुणा एवं वृत्ता समाणी हत्थि - खंध दुरूहइ दुरूहित्ता जहा हेट्टा जाव सदिसतु णं पिउत्था । किमागमणपओयणं १, तएण सा कोती कण्ह वासुदेव एवं वयासी- एव खलु पुत्ता । तुम पच पंडवा णिव्विसया आणत्ता तुम च णं दाहिणड्डूभरह जाव विदिस वा० गच्छतु १, तएण से कहे वासुदेवे कोति देवि एव वयासी अपूईवयणाण पिउस्था | उत्तमपुरिसा वासुदेवा वलदेवा चक्करट्टी त गच्छतु ण देवाशुपिया | पंच पडवा दाहिणिष्ठ वेलाऊल तत्थ पडुमहुर णि`संतु मम अदिट्ठसेवगा भवतु चिकटु कोति देवि सक्कारेइ सम्माणेड़ जाव पडिविमजेइ, नएण सा कोंती देवी जान पडुस्स एयम णिवेदेइ, तणं पडू पच पडवे सहावेइ सदावित्ता एव वयासी गच्छह पण तुभे पुता । दाहिणि वेलाऊल तत्थ तुम्भे पडुमहुरं णिवेसेह, तएण एच पडवा पडुस्स रण्णो जाव तहत्ति पडिसुणेति सवलवाहणा हयगय हत्थिणाउराओ पडि णिक्खमति पडिणिक्खमित्ता जेणेव दक्खिणिले बेयाली तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पडुमतुर नगरि निवेसेति निवेसित्ता तत्थ णं ते विपुल भोगसमिति समष्णागया याचि होत्या ॥ सू० ३२ ॥
टीका --- 'तएण ते इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु ते पञ्च पाण्डवा यत्रैव हस्तिनापुर नगर तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यचैव पाण्डू राजा तत्रैवोपागच्छन्ति,
- तण ते पच पडना इत्यादि ।
टीकार्य - (तएण ) इसके बाद (ते पच पटवा) वे पाचो पाउन (जेणेन हथिणा उरे) जहा हरपापुर नगर रा ( तेथेच उपागच्छति ) वहां
वएण ते पच पडवा इत्यादि
टी अर्थ - (तपण) त्याश्यछी (वे पच पडना) ते पाये पाउलो (जेणेय हविणा
1
उरे) व्या हस्तिनापुर नगर हेतु ( वेणेत्र आगच्छति त्यागना (उषा
Page #786
--------------------------------------------------------------------------
________________
तामा उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनख शिरआपते मस्तकेऽतलि कन्या, एवम्यक्ष्य माणमकारेण, आदिपु:-एर खड हे तात ! जय माणन निर्षिपया पियार मम देशाद् पहिनिगताः आज्ञप्ता: कृष्णोऽस्मान् देशाद् यहि निगन्तुमानतानि त्यर्थः । ततः खलु पाण्ड राजा तान् पत्र पाण्डवार एमादीत-' कहग' कथ केन कारणेन खल हे पुत्र ! यय कर्णन निर्षिपया आशमा ? ततः खलु ते पञ्च पाण्डवाः पाण्डु राजानम् एवमहा-एर खलु हे तात! पगममरकङ्कातः प्रति निटत्ता लवणसमुद्र 'दोनिनोयणसय सहस्साइ 'द्वियोजनशतसहस्राणि द्विलक्ष योजनपरिमित 'बीइवत्ता' व्यतित्रनिता:-उल्लहिताः । ततः खलु स कप्पो आगए (उयोगच्छिता) चहा आफर (जेणेव पट्ट) वे जहा पांड राजा थे (तेणेच उवागच्छति ) वहां गये ( उचागचित्ता) वरा जाकर (करयलकण्व वयासी) उन्हों ने अपने २ दोनों हाथों को जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा-(ण्व खलु ताओ!) हे पिताजी ! सुनो-(अम्हे कण्हे ण णिन्धिसया आणत्ता) हमलोगों को कृष्ण वासुदेव ने देश से निकल जने को कहा है (तरण पडराया पच पडये एव चयासी) तव पाडु राजा ने उन पाचों पाडवो से इस प्रकार कहा-(करपण पुत्ता तुम्मे कण्हेण वासुदेवेण णिविसया आणत्ता) हे पुत्रो किम कारण को लेकर कृष्ण वासुदेव ने तुमलोगों को देश से याहिर निकल जाने को कहा है (नएण ते पच पडवा पडुराया एव वयासी) तर उन पांचो पाडवों ने पाड रोजा से इस प्रकार कहा-(एव खलु ताओ ! अम्हे अमरककाओ पडि णियत्ता लवणसमुद्द दोन्नि जोयणसयसहस्साइ वीइयत्ता) हे तात!
गच्छित्ता ) त्या भावाने (जेणेच पडू) ते या पाइ रात त ( तेणेव उवागच्छति) त्या गया (उवागच्छिता) त्या धन (करयल० एव वयासी) તેમણે પિતપતાના અને હાથ જોડીને તેમને આ પ્રમાણે વિનતી કરી કે (एव खलु ताओ) 8 पिता | सामणी, (अम्हे कण्हेण णिव्विसया आणत्ता) कृत्वामुवे अभने शिथी माता २९पानी याज्ञा माथी छ (तएण पडु राया पच पडवे एव वयासी) त्यारे पाई शत पाये पायोने - प्रभारी छु 8-( कहण्ण पुत्ता तुभे फण्हेण वासुदेवेण णिव्विसया आणत्ता ) 3 पुत्र। કૃષ્ણ વાસુદેવે શા કારણથી તમને દેશમાથી બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા આપી छ ? (तएण ते पच पडवा पडुराया एव वयासी ) त्यारे व पाय 43पोमे पा ने मा प्रभारी छु -( एव सलु ताओ । अम्हे अमरककाओ पडि णियत्ता लवण-समुद्द दोन्नि जोयणसयसहस्साइ वीइवइचा) 3 ' सामना,
Page #787
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
भनगारधर्मामृतपिणा टीका म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५५७ ऽस्मान् एवमवादी-गच्छत खलु यूय हे देवानुपियाः ! गङ्गामहानदीमुत्तरत, यावत् तिष्ठत । ताव अह एव तहेन 'जार चिट्ठामो' एनं यथा कृपणवासुदेवस्य वाक्य पूर्वमुक्त तथैवान गोध्यम्-तावदह सुस्थित लवणाधिपतिं पश्यामीति । 'जाव चिट्ठामो' यावतिष्ठामः-अत्र यावच्छब्देनैवं योजनीयम्-ततः खलु वय कृष्णवासुदेवेनैवमुक्ताः सन्तो नौकया गगामहानदीमुत्तीर्य, कृष्णो बाहुभ्यां गङ्गा महानदीमुत्तरितु समर्थो न वेति विज्ञातु ता नोका सगोपितपन्त , ततः कृष्ण प्रतीक्षमाणास्तिप्ठाम इति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः मुस्थित लवणाधिपति दृष्ट्वा, 'त चे सव्व ' तदेव सर्व-गडामहानयास्वटे समागत्य, एकाथिका नावसुनो-मात इस प्रकार है-जन हमलोग अमरकका नगरी से पीछे आकर २, दो लाग्य योजन विस्तार वाले लवणसमुद्र को पार कर चुके (तएण) तर (से कण्हे अम्हं एव वयासी) उन कृष्ण वासुदेव ने हमलोगों से इस प्रकार कहा-(गच्छह ण तुम्भे देवाणुपिया! गगा महाणइ उत्तरह जाव चिट्ठह-तार-अह एव तहेव जाव चिट्ठामो) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग चलो और गगा महानदी को पारकरो-तय तक में सुस्थित देव से मिलकर और आज्ञा प्राप्तकर आता है। कृष्ण वासुदेव द्वारा इस प्रकार आजप्त हुए हमलोगों ने नौका से गगा महानदी को पार करके वही पर उस नौका को छुपा दिया-इस अभिप्रायसे कि देखें कृष्ण वासुदेव अपने हाथों से तैर कर इस गगा महानदी को पार कर ने में समथे हो सकते हैं या नही । नौका को छिपाकर हमलोग वही पर उनकी प्रतीक्षा करते हुए ठहरे। (तरण से कण्हे वासुदेवे सुहिय लवणादिवइ વાત આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે અમે અમરક કા નગરીથી પાછા વળતા ૨ લાખ
જન જેટલા વિસ્તારવાળા લવણ સમુદ્રને પાર કરી ચૂકયા (તgn) ત્યારે ( से कण्हे अम्ह एव वयासी) ते शुवायुवे अभने मा प्रभारी छु है(गच्छदण तुभे देवाणुप्पिया । गगा महाणइ उत्तर ह जाव चिट्ठह-तान अह एव तहेर जाव चिट्ठामो) देवानुप्रियो ! तमे त मन मा महानहीन पार કરે તેટલામાં હું સુસ્થિત દેવને મળીને અને તેમની પાસેથી આજ્ઞા મેળવીને આવું છું આ પ્રમાણે કૃષ્ણ વાસુદેવ વડે આજ્ઞાપિત થયેલા અમે નૌકા વડે ગગા મહાનદીને પાર કરીને ત્યાં જ તે નોટાને છુપાવી દીધી નૌકાને છુપાવવા પાછળ અમારે એ જાતને આશય હતો કે કૃષ્ણ વાસુદેવ પિતાના હાથેથી તરીને ગગા મહાનદીને પાર કરી શકે છે કે નહિ? નૌકાને છુપાવીને અમે त्या तेभनी प्रतीक्षा ४२ता 15 गया (वरण से कण्हे वासुदेव सुद्रियं
Page #788
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१६
माताधर्मकथासू
उपागत्य करतलपरिगृदीतदशनख शिरआप मस्तकेवलिया, पक्ष्य माणमकारेण, अनादिपुः- ए खल दे तात ! हान निर्विषया:= पियार मम देशाद् वहिर्निर्गताः आशप्ताः = कृष्णोऽस्मार देशाद् यहि निगन्तुमावानि त्यर्थः । ततः खलु पाण्ड राजा तान् पञ्च पाण्डवार नदीत-'हग' कथ केन कारणेन खलु हे पुत्र ! यूय कृष्णेन निर्निपया आज्ञप्ताः ? ततः खलु ते पञ्च पाण्डवाः पाण्डु राजानम् एनमन एवं खलु दे तात यममरकङ्कातः प्रति निटत्ता लवणसमुद्र ' दोन्निनोगणसय सदस्सार ' द्वियोजनशतसहस्राणि द्विलक्ष योजनपरिमित 'जीवइशा' व्यक्तिजिताः-उल्लहिताः । ततः मलुस कष्णो
1
आगए (उद्योगच्छित्ता) वहा आकर के ( जेणेव पह) वे जा पांडु राजा थे (तेणेच उवागच्छति ) वहा गये ( उचागच्छित्ता) वहा जाकर ( करयल एव वयासी) उन्होंने अपने २ दोनों हाथों को जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा - ( एव सलु ताओ !) हे पिताजी । सुनो- (अम्हे कव्हे ण णिविसया आणता ) हमलोगों को कृष्ण वासुदेव ने देश से निकल जने को कहा है (तरण पडुराया पच पडवे एच वयासी) तव पाडु राजा ने उन पाचों पांडवों से इस प्रकार कहा - (कपण पुत्ता तुभे कण्हेण वासुदेवेण णिन्सिया आणत्ता) हे पुत्रो । किस कारण को लेकर कृष्ण वासुदेव ने तुमलोगों को देश से बाहिर निकल जाने को कहा है (नएण ते पच पडवा पडुराया एव वयासी ) तर उन पाचो पाडवों ने पाड्डु राजा से इस प्रकार कहा - ( एव खलु ताओ ! अम्हे अमरककाओ पि णियन्त्ता लवणसमुह दोन्नि जोपणसयसहस्साइ बीइवइत्ता ) हे तात !
गच्छित्ता ) त्या भावीने ( जेणेव पडू ) तेथे या पाडु शन्त ता (तेव उगच्छति ) त्या गया ( उवागच्छित्ता ) त्या धने ( करयल० एव वयासी ) તેમણે પોતપોતાના અને હાથો જોડીને તેમને આ પ્રમાણે વિનતી કરી કે ( एव खलु ताओ ) से पिता । सालो, ( अम्हे कण्हेण निव्विसया आणत्ता ) કૃષ્ણુવાસુદેવે અમને દેશથી બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા આપી છે (તળ ૧૬ राया पच पडवे एव वयासी) त्यारे पाडु शलये पाये पाडवोने या प्रभा मधु
- ( कण्ण पुचा तुम्भे कण्हेण वासुदेवेण निव्विसया आणत्ता ) हे पुत्री ! કૃષ્ણવાસુદેવે શા કારણથી તમને દેશમાથી બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા આપી छे ? (तएण ते पच पडवा पडुराया एव वयासी ) त्याने ते पाये पाडवोमे चाडु रामने या प्रभारी उछु - ( एव खलु ताओ । अम्हे अमरककाओ पडि णियत्ता लवण समुह दोन्नि जोयणसयसहस्साइ वोइवइचा ) हे पिता ! सामजो,
Page #789
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवपिणी टीका १० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५५९ नगरी, कृष्णम्य पामुदेवम्य निवेदय, एर खलु हे देवानुप्रियाः ! युग्माभिः पञ्च पाण्डवा निम्पियाः देशनिष्कासिता' आज्ञप्ताः, यूय च खलु हे देवानुप्रियाः ! दक्षिणावभरतस्य सामिन । 'त' तन्तस्मात् सदिगन्त कथयन्तु हे देवानु मिया ! ते पञ्च पाण्डवाः कतरा दिश विदिश या गन्छन्तु ? मननामेव सर्वे देशा, तर्हि इमे कुा गमिप्यन्तीति क्ययन्तु भन त । तत. ग्बलु रा कुन्ती पाण्डना गोषमुक्ता सती हस्तिस्कन्ध दुरोहति-आरोठयति-दुमा 'जहाडा' देवाणुप्पिा । चारवड कण्हस्त पाएदेवस्स निवेदेरि एव खलु देवाणुपिया ! तुम्हे पंच पडवा णिविमया आणत्ता, तुम च ण देनाणुप्पिया! दारिणभरहस्स मामी, त सदिसतुण देवाणुप्पिया । ते पच पडवा कयर दिसि वा विटिस वा गच्च्तु ?) तब पांड राजा ने उन पाचों पांडवों से इस प्रकार करा तुम लोगो ने यह सुन्दर काम नहीं किया जो इस प्रकार से कृष्ण वासुदेव का अनिष्ट किया-उन्हें नहीं रुचने वाला काम किया इस प्रकार कहकर पांदु राजा ने उसी समय कुती देवी को बुलाया-धुलाकर उससे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिये । तुम द्वारावती नगरी में कृष्ण वासुदेव के पाल जाओ और उनसे निवेदन करो -कि आपने पाच पाडवो को देश से बाहिर निकल जाने के लिये आज्ञा दी है-मो रेदेवानुप्रिय । आप दक्षिणा मरत क्षेत्र के अधिपति हैंअत. करें कि वे कौनसी दिशा अथवा विदिशा की ओर जायें । ज्य आपके ही सर्व देश हे-तो ये कहाँ जावें आप कहें । (तण्ण सा कोती वित्ता एप बयासी-गच्छहइ ण तुम देवाणुप्पिया वारच कण्हस्स वासुदेवस्स निवेदेहिं एव सलु देवाणुप्पिया । तुम्हे पच पडना मिबिसया आणत्ता, तुम च ण देवाणुप्पिया । दाहिणभरहस्स सामी, त सदिसतु ण देवाणुप्पिया ते पच पडवा कयर दिसि वा विदिस वा गच्छतु ?)
ત્યારે પાડુ રાજાએ તે પચે પાડવોને આ પ્રમાણે કહ્યું કે તમે લોકોએ દૃષ્ણ વાસુદેવનુ બુરૂ કરીને સારૂ કર્યું નથી તેમને અણગમતુ કામ તમે કર્યું છે આ પ્રમાણે કહીને પાડુ રાજાએ તે જ વખતે કુતી દેવીને બેલાવી બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્વારાવતી નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવની પાસે જાઓ અને તેમને વિનતી કરો કે તમે પચે પાડવોને દેશથી બહાર નીકળી જવાની આજ્ઞા આપી કે હે દેવાનુપ્રિય ' તમે દક્ષિણાર્ધ ભરતક્ષેત્રના અધિપતિ છે તે બતાવે કે તેઓ કઈ દિશા કે વિદિશા તરફ જાય જ્યારે બધા દેશો તમારા જ છે ત્યારે બનાવે કે આ લોકે કયા જાય?
Page #790
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
धर्मकणार मदृष्ट्या एकेन पाहुना रस मारग मसारथि गृहीत्या, एकन गाना गहामहानदी मुनीर्य, समागत. । 'नार या fraा न पुन्झर' नगर काय चिन्ता न पुभ्यते नार-विशेषस्तु हे तात ! नौशया सगोपिताया सस्या हणः केनोपायेन गङ्गामहानदी तरिग्यति इति चिनाऽस्माभिन बुध्यते-न क्रियतेस्म, अनेनापरा धेन 'जार अम्दे णिधिसए आणइ 'या-रवारपागार निविषयान् आशापयति । ततस्तदनन्तर रा पा राना तान पनपाण्याने गमवादी'दुग' दुष्टु-अशोमन पल हे पुत्राः । एत युग्माभिः कृष्णस्ग वामदेवस्य विप्पिय ' पिप्रियम्-मनिष्टर कुतिः , वव सलु स पाण्ट्र राजा कुन्ती देवी शब्दयति, शदयित्वा, एमवादीन-गन्छ मलु व हे देवानुप्रिये ! द्वारवती दठुण तचेव सब-नयर कण्हस्म चिंता न जुन्नति जान अम्हे णिन्वि सये आणवेह) बाद में कृष्ण वासुदेव लवणननुहाधिपति सुस्थित देव से मिलकर ज्यो ही गगा महानदी के तट पर आये-तो उन्हें वह नौका नही मिली-इस कारण ये १ एक हाथ से तुरग एप सारथि युक्त रथ को दूसरे हाथ से गगा महानदी को तैर कर जहा हमलोग थे-वहा
आ गये। “कृष्णजी किस तरह गगा महानदी को पार करेंगे" यह विचार रमयोगो ने नौका को छिपाते समय नहीं किया। इसी अपराध से उन्हों ने हमारे रथों को चकना चूर कर देश से बाहिर निकल जाने के लिये आज्ञा दी है। (तगण से पटुराया ते पच पडवा एव वयासीदुटुण पुत्ता ! कय कण्रस्त चासुदेवस्स विप्पियं करेमाणेटिं-तएण से पडुराया फोनि देवि सदावेद सहाविता एव बयासी-गच्छद ण तुम
लवणाहिबइ ठुण त चेत्र सब-नगर कण्डस चित्ता न जुन्नति जाव अम्हे णिव्विसये आणइ) त्यारपछी वासुदेव वन समुद्र मधिपति सुस्थित દેવને મળીને જ્યારે ગગા મહાનદીના કિનારા ઉપર આવ્યા ત્યારે તેમને નૌકા જડી નહિ ત્યારે તેઓ એક હાથમાં ઘોડા અને સારથિ સહિત રથને ઉચ કીને બીજા હારથી ગગા મહાનદીને તરીને જવા અમે હતા ત્યાં આવી ગયા “કૃષ્ણવાસુદેવ કેવી રીતે ગગા મહાનદીને પાર કરશે” નૌકાને છુપાવતા અમે આ વિષે વિચાર જ કર્યો નહોતે આ અપરાધથી તેમણે અમારા રથોને નષ્ટ કરી નાખ્યા અને અમને દેશની બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા કરી છે.
(तएण से पडुराया ते पच पडवे एच वयासी-दुण पुत्ता । कय कण्डहस्स वासुदेवस्स विप्पिय करेमाणेहि-तएण से पड्डुराया कोतिं देवि - 'वेइ, सदा
Page #791
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५५९
2
नगरी, कृष्णम्य वासुदेवस्य निवेदय, ए खलु हे देवानुमियाः । युष्माभि पञ्च पाण्डवा निर्विषयाः देशनिवासिताः आज्ञप्ताः यूय च खलु हे देवानुप्रियाः ! दक्षिणा भरतम्य स्वामिन ' ' तत्तस्मात् सविशन्तु = कथयन्तु हे देवानुमिया ! ते पञ्च पाण्डवाः कतरा दिश विदिशा गच्छन्तु भवतामेव सर्वे देशाः तर्हि उमेर गमिष्यन्तीति स्वयन्तु भवन्त । तत. पलु सा कुन्ती पाण्टुना गरमुक्ता सती हस्तिस्कन्ध दूरोहति - आरोहयति दून्य 'जहादेडा ' देवाणुपिया | नारवह कण्हस्ल वासुदेवस्स निवेदेति एव खलु देवाणुपिया ! तुम्हे पच पडवा णिव्विमया आणत्ता, तुम च ण देवाणुप्पिया ! दाहिणभरस्स नामी त सदिसतुण देवाणुपिया से पच पडवा करदिसि वा विटिस वा गच्छतु ? ) तब पांडु राजा ने उन पाचों पाडवों से इस प्रकार का तुम लोगो ने यह सुन्दर काम नही किया जो इस प्रकार से कृष्ण वासुदेव का अनिष्ट किया - उहे नहीं रुचने वाला काम किया इस प्रकार कहकर पांडु राजा ने उसी समय कुती देवी को बुलाया - बुलाकर उससे ऐसा कहा हे देवानुप्रिये ! तुम द्वारावती नगरी में कृष्ण वासुदेव के पास जाओ और उनसे निवेदन करो - कि आपने पाच पाउवो को देश से नाहिर निकल जानेके लिये आज्ञा दी है - मो रेवानुप्रिय ' आप दक्षिणार्व भरत क्षेत्र के अधिपति हैंअतः कहें कि वे कौनसी दिशा अथवा विदिशा की ओर जायें । जन आपके ही सर्व देश हैं तो ये कहाँ जावें आप कहें। (तरण सा कोती वित्ता एव वासी - गच्छण तुम देनाणुपिया | पास कस वासुदेवस निवेदेद्दि एव सलु देवाणुपिया । तुम्हे पच पडना गिन्त्रिसया आणता, तुम पिया | दाहिणड्रमरहस्स सामी, व सदिसतु ण देवाणुप्रिया । ते पच पडवा कयर दिसिं वा विंदिस वा गच्छतु १ )
'
ત્યારે પાડુ રાજાએ તે પાચે પાડવાને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે તમે લેકેએ કૃષ્ણવાસુદેવનુ અરૂ કરીને સારૂ કર્યું નથી તેમને અણુગમતુ કામ તમે કર્યું છે. આ પ્રમાણે કહીને પાડુ રાજાએ તે જ વખતે કુંતી દેવીને ખેલાવી બેાલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યુ,કે હૈ દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્વારાવતી નગરીમા કૃષ્ણાસુદેવની પાસે જાએ અને તેમને વિનંતી કરી કે તમે પાચે પાડવોને દેશથી બહાર નીકળી જવાની આજ્ઞા આપી કે હૈ દેવાનુપ્રિય । તમે દક્ષિણાધ ભરતક્ષેત્રના અધિપતિ છે તે બતાવા કે તેએ કઈ દિના કે વિદિશા તરફ જાય જ્યારે મધા દેશે! તમારા જ છે ત્યારે મનાવે કે આ લેાકેા કયા ન્તય ?
Page #792
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६०
मातामेकपा
-
यथा अधः यथापूर्व द्वाररतीमागता तथाऽत्रापि वोयम् यावत् सदिशन्तु अत्र यावदित्यनेनैवोध्यम् - रत नगरी मागत्य कृष्णेन गत्यता स्नाता भोजना सुवास तामात् इनि, ततस्तां कृष्ण पृच्छति सदिशन्तु =स्थयन्तु खलु हे पडणा एव चुक्ता समाणी, हत्थिग्ध दुरुहट, दुरुहित्ता जहा रेहा जब सदिसतुण पिवा । किमागमणपओगण ? तरण सा कोंती कण्ट घासुदेव एव चयामी - एव गलु पुत्ता ! तुमे पच पहना सिया आणत्ता, तुमच ण दाहिणड्डूभरह जान विदिम न गच्छतु ? तण से कण्हे वासुदेवे कोतीदेवि एवं वयामी अपूईवयणा ण पित्या ! उत्तम पुरिसा वासुदेवा, पलदेवा, चक्करही त गच्छतु ण देवाणुनिया ! पच पडवा दाहिणिल्ल वेलाउल तत्थ पडुमहर णिवेसतु मम अद्विसेवगा भवतु त्ति कटु कतीदेवि सकारेह, सम्माणेह, जान पडिसिज्जेह) पाडु के द्वारा इस प्रकार कही गई वह देवी राथी पर चढी और चढ कर जिस प्रकार पहिले यह दारवती आई थी उसी तरह अन भी यह वरा पहुँची । यहा यावत् शब्द से इस प्रकार पाठका सबन्ध लगा लेना चाहिये - जब कुनी द्वारावती नगरी में आई-तप कृष्ण वासुदेवने उनका खूब मनमाना सत्कार कियो । बडे ठाट बाट से उनका प्रवेशोत्सव मनाया | कुतीने स्नान आदि दैनिक कार्यों से निबट कर आनद के सा चतुर्वि आहार किया बाद में विश्राम के निमित्त सुग्वासन पर
(तरण सा कोंती पडणा एव वृत्ता समाणि, इत्थिख दुरूह, दुरूषिता जहा ट्ठा जान सदिसतु ण पिउत्था । किमागमणपओयण ? तरण सा कौती कण्ह वासुदेव एव वयासी- एव खलु पुत्ता ! तुमे पच पडवा णिन्निसा आणत्ता, तुम चण दाहिणड भरद जाव विदिस वा गच्छतु ? तरण से कण्हे वासुदेवे कौती देवि एव वयासी - अपूई वयणा ण पिउत्था उत्तमपुरिसा देवा, वलदेवा, चकवट्ठी गच्छतु ण देवाणुपिया ! पच पडवा दाहिणिल वेला उल्लतत्थ पडुमहुर णिवेसतु निगा भवतु तिकट्टु कौती देवि सकारे, सम्माणेइ, जान पडिविसज्जेइ)
આ પ્રમાણે પાડુ વડે આજ્ઞાપિત થયેલી કુતી દેવી હાથી ઉપર સવાર થઈ અને સવાર થઈને પહેલા જેમ તે દ્વારાવતી નગરી ગઈ હતી તેમજ અત્યારે પણ પહાચી અહીં યાવત્ શબ્દથી આ જાતને પાઠ સમજવા જોઇએ કે જ્યારે કુ તી દ્વારાવતી નગરીમા આવી ત્યારે કૃષ્ણુવાસુદેવે તેમને ખૂમ જ સત્કાર કર્યો અહુ જ ટાઢથી તેમના પ્રવેશા સવ ઉજવ્યેા કુતીએ પણ સ્નાન વગેરે નિત્યકર્મોથી પરવારીને સુખેથી ચતુર્વિધ આહાર કર્યા ત્ય
भ
Page #793
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६१
-
-
मनगारधर्मामृनयपिणी टीका १० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् पिप्पसः । किमागमनप्रयोजनम् । ततः खलु सा कुन्ती कृष्णं वासुदेवमेवमत्रादीत्-एव खलु हे पुन । त्वया पञ्च पाण्डमा निर्षिपया आजप्ता व च खलु दक्षिणार्धभरतस्य यावत् स्वामी, तत् कथय ते पञ्च पाण्डाः कतरा दिश विदिश वा गच्छन्तु ।। ततः सलु स कृष्णो वासुदेवः कुन्ती देवीमेवमयादीत्-' अपूइवयणा ण' अतिवचना:-सकृद्वचनाः खलु हे पिष्षसः | उत्तमपुरुषाः वासु देना बलदेवाश्चक्रवर्तिनः, 'त' वत्-तस्मात् गाउन्तु खलु है देवानुप्रिये । पञ्च पाण्डाः 'दाहिणिल्ल' वेलाऊल ' दाक्षिणात्य वेलाकूल-दक्षिणसमुद्रतटम् , तत्र ‘पड़महुर ' पाण्डुमथुरा नगरी ' णिवेसतु ' निवेशयन्तु, मोदृष्टसेरका भवन्तु, उन्होंने आराम किया। इतने में कृष्ण वासुदेव ने जघ चे विश्राम कर चुकी उन से पूछा-कहिये भुआ जी! किस प्रयोजन को लेकर यहां आपका आगमन हुआ है तर कुती ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा हे पुत्र । आने का प्रयोजन इस प्रकार है-तुमने जो पाचों पाडवों को अपने देश से बाहिर निकल जाने की आज्ञा दी है-सो इम विपय में यर पूछना है कि तुम तो दक्षिणार्ध भरत के अधिपति हो अत हमें समझाइये कौनसी दिशा पा विदिशा में जायें ? इस प्रकार कुतीदेवीके मुखसे सुनकर कृष्ण वासुदेव ने उससे ऐसा कहा-हे भुआ जी-उत्तम पुरुष, वासुदेव, बलदेव, एव चक्रवर्ती ये सब अपूतिवचन वाले होते ह-जो कुछ करते हैं वह एक ही चार करते हैं-उसमें परिवर्तन नहीं होता है-इसलिये रे देवानुप्रिय! पाचों पांडव दक्षिणसमुद्र पर जावे और वहा पाटु मयुरा नगरी को घसावें स्थापित करें-और मेरे अदृष्ट सेवक માટે તેમણે સુખસાન ઉપર આરામ કર્યો જ્યારે તેઓ સારી રીતે વિશ્રામ કરી ચૂકયા ત્યારે તેમને કgવાસુવે પૂછયું કે-બેલો, ફઈબા, શા કારણથી તમે અહીં પધાર્યા છે ત્યારે કુતોએ કૃષ્ણવ સુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સત્ર ! હુ એટલા માટે આવી કે તમે પા પાડને પિતાના દેશમાંથી બહાર નીકળી જવાની આજ્ઞા કરી છે તે આ વિશે મારે આ વાતનું પછી રણું કરવું છે કે તમે તે દક્ષિણાઈ ભરતના અધિપતિ છે, તો આવી પરિ સ્થિતિમાં તમે જ અમને બતા કે તેઓ કઈ દિશા કે વિદિશા તરફ જાય ? * પ્રમાણે કુ તી દેવીના મુખથી બધી વાત સાંભળીને કૃણવાસુદેવે તેમને
પ્રમાણે કહ્યું કે હે ઈબા ! વાસુદેવ, બળદેવ અને ચક્રવર્તી આ બધા જમ પુરૂ અપતિ વચનવાળા હોય છે—તેઓ જે કઈ પણ કહે છે તે એકજ ફરિ કહે છે તેમાં કોઈ પણ જાતને ફેરફાર થઈ શકતા નથી એટલા માટે 9 દેવાનુપ્રિયે ! પા પા દક્ષિણ સમુદ્ર તરફ જાય અને ત્યા પાડુ મથુરા
ST 100
Page #794
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६०
तामेकपा
यथा अधः यथापूर्व द्वाररातीमागता तथाऽत्रापि को यम् यावत् सदिशन्तु अत्र यावदित्यनेनैव गोभ्यम्-द्वारपतों नगरीमागत्य कृष्णेन सत्यता स्नाता कृतभोजना सुखासनगताभवत् इति, ततस्ता कृष्ण पृच्छति सदिशन्तु =थयन्तु खलु हे पहुणा एव युक्त समाणी, रत्विग्ध दुरुड, दुरहित्ता जा रहा जाब सदिसतु ण पित्या । किमागमणपओयण ? तरण सा कोंती कण्ह घासुदेव एव वयासी एव यलु पुत्ता। तुमे पत्र पढना णिविसथा आणत्ता, तुमचण दाहिणभरह जान विदिम वा गच्छतु । तष्ण से कण्हे वासुदेवे कोंतीदेनि एवं वयामी अपूरयणाण पित्या ! उत्तम पुरिसा वासुदेवा, पलदेवा, चारही त गच्छतु ण देशणुपिया । पच पडवा दारिणिल वेराउल तत्थ पट्टमहूर णिवेसतु मम अद्विसेवगा भवतु ति कट्टु कोंतीदधिं सपरिह, सम्माणेह, जान पडिसिज्जेह) पाडु के द्वारा इस प्रकार कही गई वह देवी हाथी पर चढी और चढ कर जिस प्रकार पहिले यह द्वारवती आई थी उसी तरह अब भी यह वा पहुंची। यहा यावत् शब्द से इस प्रकार पाठका सबन्ध लगा लेना चाहिये जन कुनी द्वारावती नगरी में आई-तप कृष्ण वासुदेवने उनका खूब मनमाना सत्कार किया। बडे ठाट घाट से उनका प्रवेशोत्सव मनाया - | कुतीने स्नान आदि दैनिक कार्यों से निबट कर आनद के सार चतुर्वि आहार किया बाद में विश्राम के निमित्त सुग्वासन पर
(तरण सा कोंती पडुणा एव बुत्ता समाणि, इत्थिखध दुरुहः, दुरूहित्ता जदा हेट्ठा जाव सदिसतु ण पिउत्था | स्मिोगमणपओयण ? तरण सा कौती कण्ह वासुदेव एव वयासी- एव खलु पुत्ता ! तुमे पच पडवा णिन्निसा आणत्ता, तुम चण दाहिणड्डू भरह जाव विदिस वा गच्छतु ? तरण से कहे वासुदेवे कौती देवि एव चयासी - अपूई वयणा ण विउत्था उत्तमपुरिसा देवा, वळदेवा, चकवडी त गच्छतु ण देवाणुपिया ! पच पडवा दाहिणिल वेलाउल तत्थ पडुमहुर णिवेसतु अनगा भवतु ति कट्टु कौती देवि सकारे, सम्माणेड़, जान पडिविसज्जेइ)
આ પ્રમાણે પાડુ વર્ડ આજ્ઞાપિત થયેલી કુ તી દેવી હાથી ઉપર સવાર થઈ અને સવાર થઇને પહેલા જેમ તે દ્વારાવતી નગરી ગઈ હતી તેમજ અત્યારે પણ પહેચી અહી યાવત્ શબ્દથી આ જાતને પાઠે સમજવા જોઇએ કે જ્યારે કુ તી દ્વારાવતી નગરીમા આવી ત્યારે કૃષ્ણુવાસુદેવે તેમને ખૂબ જ સત્કાર કર્યો અહુ જ ઠાઠથી તેમના પ્રવેશે! સવ ઉજવ્યે કુતીએ પણ સ્નાન વગેરે નિત્યકમાંથી પરવારીને સુખેથી ચતુર્વિધ આહાર કર્યો
વિશ્રામ
Page #795
--------------------------------------------------------------------------
Page #796
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६२
माताधर्मकथासूत्रे
इति कृत्वा कुन्ती देवी सत्तारयति समानयति, सत्कार्य, समान्य यावद् विम यति । ततः खलु सा कुन्ती देवी हस्तिन समार हस्तिनाग्मागता यावत् पाण्डो राश एतमर्थ निवेदयति । ततः सतु पाण्डग पापण्डान् शब्दयति शब्दयित्वा एमवादीत् गच्छा खल यूय हे पुत्रा' ! ' दाहिणिल्ल वेलाऊल' दाक्षि णात्यवेला कूल - दक्षिण समुद्रतट ता सल यूय पाणमथुरा नगरी निवेशयत । होकर रहें। इस प्रकार एकर उन्होंने कृतीदेवी का सत्कार किया सन्मान किया । सत्कार सन्मान करके फिर उन्हें अपने यहा से विदा दिया । (तण्ण मा कोंती देवी जान पस्स एयमह निवेदेह, तगण पह पच पडवे सहावे, सावित्ता एवं वयासी गन्ह ण तुम्भे पुत्ता' दारिपिल्ल वेलावल पण तुभे पटुमर गिवेसेट तण पत्र पढना पडुस्स रण्णो जायतत्ति परिसुणेति, सबलचारणा तय गज० हत्थणाउराओ पडिणिक्खमति, पडिणिनमित्ता जेणेव दणिल्ले बेयाली तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता पटुमहर नगरि णिवेसेंति, निवेसित्ता तत्थ णं ते चिउलभोगसमितिसमण्णा गया यावि होत्या) वहा से हाथी के ऊपर बैठ कर कुतीदेवी हस्तिनापुर में आगई, यात पाडुराजासे कृष्णवासुदेव के कथित आदेश को उन्होने सुना दिया। इसके बाद पाडु राजा ने पांचों पाडवों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा- हे पुत्रों- तुम यश से दक्षिण दिग्वर्ती समुद्र तट पर जाओ और वहा पाडु मथुरा નગરીને વસા અને મારા અ” સેવકે થઈને ત્યા નિવાસ કરે . આ પ્રમાણે કહીને તેમણે કુતી દેવીના સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું. સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તેમણે કુતીદેવીને ત્યાથી વિદાય કર્યો
(तएण सा कोंती देवी जान पडस एयम निवेदेड, तरण पडू पच पडवे सहावे, सदाविता एन वयासी - गच्छहण तुत्रमे पुत्ता ! दाहिणिल्ल वेलाकुल तत्थण तुभे पडुमहुर णिवे सेह तएण पच पडवा पडुस्स रण्णो जात्र तहत्ति पडि सुति, सवलवाणा हयगय हरियणाउरा पडिणिक्मति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दक्विल्लेि वेयाली ते उपगच्छ, उपगच्छत्ता पडमहुर नगरि णिवेसेति निषेसित्ता, तत्थण ते विलभोगसमितिसमण्णागया यानि होत्था ) ત્યાથી હાથી ઉપર સવાર થઈને કુંતીદેવી હસ્તિનાપુર આવી ગરા યાવતુ કૃષ્ણુવાસુદેવની જે કઈ આજ્ઞા હતી તે પાટુ રાજાને કડી સભળાવી ત્યારપછી પાડું રાજાએ પાચે પાડવેાને ખેાલાવ્યા અને એવાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે પુત્ર! ' તમે અહીંથી દક્ષિણ દિશા તરફના સમુદ્રના કિનારા ઉપ જાઓ અને ત્યા પાડુ-મથુરા નગરીને વસાએ પિતા પાડુ ૨
--આ પ્રમાશે
Page #797
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनिगारधर्मामृतपिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५६३ तत खलु पञ्च पाण्डवाः पाण्डो राशो वचन यावत्-' तहत्ति' तथाऽस्तु' इति कृत्या मतियन्ति = स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य सबलवाहना:-सैन्ययानसहिताः, हयगजर पपदातिसपरिहताः, हस्तिनापुरात् प्रतिनिफामन्ति, प्रनिनिष्क्रम्य यत्रैव 'दाहिणिल्लं वेलाऊल ' दाक्षिणात्य वेलाकल तत्रोपागच्छन्ति, उपागत्य पाण्ड्डमथुरा नगरी निवेशयन्ति निवेश्य तत्र खलु ते विपुलभोगममिति ममत्यागताश्चाप्यभयन् ।। सू०३२ ॥
मूलम्-तएणं सा दोवई देवी अन्नया कयाइ आवण्णलत्ता जाया यावि होत्था, तएण सा दोवई देवो णवण्हं मासाणं जाव सुरूव दारगं पचाया सूमालणिव्वत्तवारसाहस्ल इमं एयारूव गुणनिप्फन्न नामधिज्ज करेति जम्हाण अम्हं एस दारए पचण्ह पडवाणं पुत्ते दोवईए अत्तए त होउ अम्हं इमस्स दारगस्त णमधेज्ज पडुसेणे, तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेज कतिपडुसेणत्ति, वावत्तरि कलाओ जाव भोगसमत्थे जाए जुवराया जाव विहरइ, थेरा समोसढा परिसा निग्गया पडवा निग्गया धम्म सोचा एव ज णवर देवाणुप्पिया । दोवइ देवि आपुच्छामो पडुसेण च नगरी को बसाओ। पिता पाडु राजा की इस आज्ञा को उन पाचों पाडवा ने "तत्ति" कहकर स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर व हय, गज, रथ, एव पदातिरूप चतुरगिणी सेना से परिवृत होकर स्तिनापुर नगर से निकले और निकलकर जहा दाक्षिणात्य वेलोकूल था वहीं आये-वहां आकर उन्हो ने पाडु मयुरा नगरी को वसाया। चसाकर वहा के विपुल भोगों को भोगते हुए ररने लगे। सू०३२ ॥ આજ્ઞાને તે પાચે પાડવોએ “તહતિ” કહીને સ્વીકારી લીધી સ્વીકાર કરીને તેઓ ઘેડા, હાથી, રથ અને પાયદળવાળી ચતુરગિણી સેનાની સાથે હગ્નિના પુર નગરથી બહાર નીકળ્યા-અને નીકળીને જ્યાં દક્ષિણ દિશાને સમુદ્રને કિનારે તે ત્યાં પહોંચ્યા, ત્યા પહેચીને તેમણે પાડુ-મથુરા નગરી વસાવી : વસાવીને તેઓ ત્યાં પુષ્કળ કામગ ભેગવતા રહેવા લાગ્યા છેસૂત્ર ૩૨ છે
Page #798
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापमकथा इति कृत्या पुन्ती देवी सत्कारपनि समानयति, सन्चार्य, संमान्य यावद् विमर्ज यति । ततः खलु सा कुन्ती देवी हस्तिन गमारण हस्तिनापुरमागता यावद पाण्डो राश एतमर्थ निवेदयति । रातः खलु पाहगना पञ्च पाण्डगन् शन्द्रयति शमः यित्वा एपमवादीत-गका पलु यूय हे पुनः ! 'दाहिणिल्ल वेलाऊल' दाक्षि णात्यवेलाकूल-दक्षिणसमुद्रतट, ना खलु यूर पाइमथुरा नगरी निवेशयत । होकर रहें। इस प्रकार पाकर उनों ने फुनीदेवी का सत्कार किया सन्मान किया । सत्कार सन्मान करके फिर जो अपने यहा से विदा दिया। (ताण सा कोंती देवी जार पठस्स एयम निवेदेड, ताण पडू पच पडवे सदावेह, महापित्ताचयामी-गाणं तुम्भे पुत्ता! दाहिजिल्ल चेलाउल तत्वण तुम्भे पद्धमतर शिवसेट ताणं पच पडदा पडस्स रणो जायतत्ति पलिपुणेति, सपल चारणास्य गज० हविणाराओं पडिणिकग्वमति,पडिणिग्वमित्ताजेणेव दक्पिणिल्ले वेयाली तेणेव उवा गच्छद, उधागचित्ता पमहर नगरि णिवेसेंति, निवेसित्ता तस्थ णे ते विउलभोगसमितिसमपणागया याचि होत्या) वहा से हाथी के ऊपर बठ कर कुतीदेवी हस्तिनापुर में आगई, यावत पादुराजासे कृष्णवासुदेव के कथितआदेश को उन्हों ने सुना दिया। इसके बाद पाडू राजा ने पाचा पाडवों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा-हे पुत्रों-तुम यहा से दक्षिण दिग्व समद्र तट पर जाओ और वहा पाडु मथुरा નગરીને વસાવે અને મારા અદા સેવકો થઈને ત્યાં નિવાસ કરે આ પ્રમાણે કહીને તેમણે કુતી દેવીને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તેમણે કુતીદેવીને ત્યાંથી વિદાય કર્યો
(तपण सा कौती देवी जाव पडस्स एयमह निवेदेड, तएण पडू पच पडव सदावेइ, सदावित्ता एस वयासी-गच्छह ण तुम्भे पुत्ता ! दाहिणिल्ल वलाऊल तत्थण तुम्मे पडुमहुर णिवेसेह तएण पच पडया पद्धस्स रण्णो जार तहत्ति पाड मुर्गति, सबलवाहणा हय गय० हथिणाउराओ पडिणिस्खमति, पडिणिक्खामत! जेणेच दशिवगिल्ले वेयाली तेणेन उबागछा, उपागघिउत्ता पडुमहुर नगार णिवेसे ति निवेसित्ता, तत्थण ते विउलमोगसमितिसमण्णागया याचि होत्या)
ત્યાથી હાથી ઉપર સવાર થઈને કુતીદેવી હસ્તિનાપુર આવી ગયા ચાલતા કુણુવાસુદેવની જે કઈ આજ્ઞા હતી તે પાડ રાજાને કહી સંભળાવી ત્યારપછી પાડુ રાજાએ પાચે પાડાને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્રે 1 તમે અહીંથી દક્ષિણ દિશા તરફને સમુદ્રના કિનારા ઉપર જાઓ અને ના પાડુ-મથુરા નગરી વસાઓ પિતા પાડુ ૨ આ પ્રમાણે
Page #799
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधामृतषिणी टी० ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
टीका-'तएण सा' इत्यादि । ततः सलु सा द्रौपदीदेवी अन्यदा कदा चित् ' आवण्गसत्ता' आपन्नसचा गर्भवती जाता चाप्यभनत् । ततः खलु सा द्वौपदीदेवी नवम मासेषु संपूर्णेपु सार्थाष्टमदिवसेषु व्यतिक्रान्तेषु सत्सु यावत् सुरुप सुन्दर दारक-बालक ' पयाया' प्रजाता-जनितवती, कि भूत दारकसूमाल मुकुमारपाणिपाद, ' णिवत्तवारसाहस्स . नित्तद्वादशाहस्स-समाप्त द्वादशदिवसस्य दारकस्य इदमेतद्रूप गुगनिष्पन्न नामधेय कुर्वन्ति यरमात् खलु अस्माकमेप दारकः पञ्चानां पाण्डवाना पुत्रो द्रौपद्या पात्मनः, 'त' तत्-तस्माद्
-तण्ण सा दोबई देवी इत्यादि।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (सादोवई देवी) वह द्रौपदीदेवी (अन्नया कयाइ) किसी एक समय (आवण्णसत्ता जाया यावि होत्या) गर्भावस्थासे सपन्न हुई। (तएण सा दोबई देवी णवण्ह मासाण जाव सुरूव दारगं पयाया) जप गर्भ ९ नौमास ७॥ दिन का हो गया तर उस द्रौपदी देवी ने पुत्र को जन्म दिया। यह बालक बहुत ही अधिक सुन्दर था । (समालणिवत्तयारसाहस्सइम एयारूव गुणनिप्फन्न नामधिज्ज करेति जम्हाण अम्हं एस दारए पचण्ड पडवाण पुत्ते दोवईए अत्तए त होउ अम्दं इमस्स दारगरस णामवेज्ज पडुसेणे) इसके करच. रण आदि अवयव सब ही अधिक सुकुमार थे। जब बारहवां दिन लगा __ -तप माता पिताओ ने इस पुत्र का गुणनिष्पन्न होने से यह नाम रक्खा यस्मात्-यह पुत्र हम पाचो पाडवो का है तथा द्रौपदी की कुक्षि से
तएण सा दोबई देवी इत्यादि
साथ-(तएण) त्यारपछी (सा दोवई देवी) ते द्रोपती वा (अन्नया कयाइ) 815 मते (भावण्णसत्ता जाया यावि होत्या) साली / (तएण सा दोवई देवी णवह मासाण जाय सुरूव दारग पयाया ) न्यारे मन नप માસ છ દિવસને થઈ ગયે ત્યારે તે દ્રૌપદી દેવીએ પુત્રને જન્મ આપે, તે બાળક ખૂબ જ સુન્દર હતુ
(सूमालणिन्धत्तमारसाहस्स इम एयारूव गुणनिप्फन्न नामधिज्ज करेंति, जम्हाण अम्ह एसदारए पचण्ह पडवाणं पुत्ते दोनईए अत्तए त होउ अम्ह इमस्स दारगस्स णामधेज्जे पडुसेणे)
તેના હાથ પગ વગેરે બધા અવયવે ખૂબ જ સુકોમળ હતા જ્યારે બારમે દિવસ આવ્યું ત્યારે માતા-પિતાએ તે પુત્રનું નામ તેના ગુણે વિષે વિચાર કરતા આ પ્રમાણે રાખ્યું કે આ પુત્ર અમરા પાચે પાડે છે,
Page #800
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
-
५६४ ।
माताधर्मकथा कुमार रज्जे ठावेमो तओ पच्छा देवाणुप्पिया! अतिप मुडे भवित्ता जाव पव्वयामो, अहासुहं देवाणुप्पिया, तएणं ते पंच पंडवा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दोवइ देवि सदावेति सदावित्ता एवं वयासी एवं खल्ल देवाणुप्पिया । अम्हेहि थेराणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव पव्वयामो तुम देवाणुप्पिए ! कि करेसि ?, तएण सा दोवई देवी ते पंच पडवे एव वयासी-जइणं तुम्भे देवाणुपिया । ससारभउव्विग्गा पव्वयह मम के अपणे आलवे वा जाव भविस्सइ १, अहपि य णं संसारभउविग्गा देवाणुप्पिएहि सद्धिं पवइस्सामि, तएण ते पच पडवा पडुसेणस्स अभिसेओ राया जाए जाव रज्जे पसाहेमाणे विहरइ, तएण ते पच पडवा दोबई य देवी अन्नया कयाइ पडुसेणं. रायाण आपुच्छति, तएण से पडुसेण रायाकोडुवियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एव वयासी-खिप्पामेव भो । देवाणुप्पिया। निक्खमणाभिसेय जाव उवटवेह पुरिससहस्सवाहिणीओ सिवियाओ जाव पच्चोरुहति पच्चोरुहिता जेणेव थेरा तेणेव० आलित्तेणं जाव समणा जाया चोदस्त पुवाइ अहिज्जंति अहिज्जित्ता वहणि वासाणि छट्टमदसमदुवालसेहि मासद्धमासखमणेहि अप्पाण भावेमाणा । ॥
.
Page #801
--------------------------------------------------------------------------
________________
मगणारधामृतयषिणी टी० ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततः खलु सा द्रोपदीदेवी अन्यदा कदा चित् ' आवण्णसत्ता' आपन्नसचा गर्भरती जाता चाप्यभवत् । ततः खलु सा द्वौपदीदेवी नव मासेपु सपूर्णेषु सार्धाष्टमदिवसेपु व्यतिकान्तेषु सत्सु यावत् सुरुप सुन्दर दारकचालकं पयाया' प्रजाता-ममनितवनी, कि भूत दारकस्माल-सुकुमारपाणिपाद, ' णिवत्तवारसाहस्स ' निर्दृत्तद्वादशाहस्स-सप्राप्त द्वादशदिवसस्य दारकस्य इदमेतद्रूप गुगनिप्पन्न नामधेयं कुर्वन्ति यस्मात् खलु अस्माकमेप दारकः पश्चाना पाण्डवाना पुत्रो द्रौपद्या आत्मन', 'त' तत्-तस्माद्
-तएण सा दोवई देवी इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (सादोवई देवी) वर द्रौपदीदेवी (अन्नया कयाइ) किसी एक समय (आवण्णसत्ता जाया यावि होत्या) गर्भावस्थासे सपन्न हुई। (तएणं सा दोई देवी णवपद मासाण जाव सुरूव दारग पयाया) जप गर्भ ९ नौमास ७॥ दिन का हो गया तब उस द्रोपदी देवी ने पुत्र को जन्म दिया। यह बालक बहुत ही अधिक सुन्दर था । ( सूमालणिवत्तपारसाहस्सइम एयास्व गुणनिप्फन्नं नामधिज्ज करेति जम्हाण अम्हं एस दारए पचण्डं पडवाण पुत्ते दोवईए अत्तए त होउ अम्हं उमस्स दारगस्स णामवेज्ज पडसेणे) इमके करच. रण आदि अवयव सब ही अधिक सुकुमार थे। जन यारहवां दिन लगा -तय माता पिताओ ने इस पुत्र का गुणनिष्पन्न होने से यह नाम रक्खा यस्मात्-यह पुत्र हम पाचो पाडवो का है तथा द्रौपदी की कुक्षि से
तएण सा दोवई देवी इत्यादि
साथ-(तएण) त्या२पछी (सा दोवई देवी) ते दोपही हेवी (अन्नया कयाइ) ६ मे १मते (भाषण्णसत्ता जाया याचि होत्या) समा थ/ (तएण सा दोवई देवी णवण्ह मासाण जाव सुरूव दारग पयाया ) न्यारे गम नप માસ ના દિવસને થઈ ગયે ત્યારે તે દ્રૌપદી દેવીએ પુત્રને જન્મ આપે, તે બાળક ખૂબ જ સુંદર હતુ
(सूमालणिवत्तवारसाहस्स इम एयारुव गुणनिष्फन्न नामधिज्ज करेंति, जम्हाण अम्ह एसदारए पचण्ह पडवाण पुत्त दोनईए अत्तए त होड अम्ह इमस्स दारगस्स णामधेज्जे पडुसेणे)
તેના હાથ પગ વગેરે બધા અવયવે ખૂબ જ સુકોમળ હતા ત્યારે બારમો દિવસ આવ્યું ત્યારે માતા-પિતાએ તે પુત્રનું નામ તેના ગુણે વિષે વિચાર કરતા આ પ્રમાણે રાખ્યું કે આ પુત્ર અમારા પાચે પાડે છે,
Page #802
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६४
माताधर्मकथासूत्रे
कुमार रज्जे ठावेमो तओ पच्छा देवाप्पिया ! अतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्त्रयामो, अहासुह देवाणुप्पिया !, तपर्ण ते पंच पडवा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दोवई देवि सहावेति सदावित्ता एवं व्यासी एवं खलु देवाणुपिया | अम्हेहि थेराणं अतिए धम्मे णिसंते जाव पव्वयामो तुम देवाणुप्पिए । कि करेसि ?, तएण सा दोवई देवी ते पंच पडचे एवं वयासी-जइणं तुभे देवाणुप्पिया । ससारभउत्विग्गा पव्वयह मम के अपणे आलवे वा जाव भविस्स १, अहपि य णं संसारभउत्रिग्गा देवापिएहिं सद्धि पव्वइस्सामि, तएण ते पच पडवा पडुसेणस्स अभिसेओ राया जाए जाव रज्जे पसाहेमाणे विहरइ, तएण ते पच पडवा दोवई य देवी अन्नया कयाइ पडुसे रायाण आपुच्छंति, तएण से पंडुसेण राया कोडुवियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एव वयासी — खिप्पामेव भो । देवाणुप्पिया । निक्खमणाभिलेय जाव उवटुवेह पुरिससहस्सवाहिणीओ सिवियाओ जाव पच्चोरुहति पच्चोरुहित्ता जेणेव थेरा तेणेव० आलित्ते णं जाव समणा जाया चोदस्स पुव्वाइ अहिज्जति अहिज्जित्ता वहूणि वासाणि छट्टट्टमदसमदुवाल से हिं मासमासखमणेहिं अप्पाण भावेमाणा
-
"
,
Page #803
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टी० १० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम ५६५
अथ कदाचित् दन- येरा समोसड़ा' स्वनिगः समरसताः, परिसरगना, पाण्डमा अपि स्वपिराणा बन्दनार्य निर्गताः, धर्म श्रुबा ते पाण्डो प्रतियुद्धा. सन्त एपमदन्-यत् नपर हे देशानुप्रिया. द्रौपदी देवीमापृच्छामः, पाण्डुमेन च कुमार राज्ये स्थापयाम , ततः पश्चात् देवानुप्रियाणामन्ति के मुण्डाभूत्ता यावत् मानामः प्रज्या गृहीम., तदा स्थविरा ऊचुः-' अठासुइ देवानुप्पिया । ' हे देवानुमिया यथासुख-मुख यया भवति तथा कुरत, अल विलम्वेन इति भाव । तत खलु ते पञ्च पाण्डरा यौव स्त्रक गृह तवापागच्छन्ति, उपागत्य द्रौपदी देवीं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा, एमपदन्-एव खलु हे दनानुप्रिये ! वय स्थविराव्यतीत करने लगा। एक समय की बात है कि पाहु मयुत नगरी में स्थविरो का आगमन नआ। विरों का आगमन सुनक नगरी का समस्त जन उनकी वदना एव धर्मोपदेश सुनने के निमित्त अपने २ घर से निकले पाचों पाडव भी निकले- परिपट को आयी हुई देवकर स्थविरो ने उसे धर्म का उपदेश दिया। उपदेश श्रवण कर परिपद पीछे चली गई। पांडव लोग उस धर्म के उपदेश का पानकर प्रतियोध से प्राप्त हो गये-उसी समय उन्हों ने उन स्थविरों से कहा-हे देवानुप्रियो । हमलोग द्रौपदी देवी को पूछकर और पाटुसेन कुमार को राज्य में स्था पित कर आप देवानुप्रियो के समीपमुडित होकर यारत् प्रवज्या अगी कार करना चाहते हैं। पांडवो की इस प्रकार हार्दिक भारना देखकर उन स्थविरों ने पाडवो से इम प्रकार कहा-(अहासुर देवाणुप्पिया । तएण ते पच पडवा जेणेव मएगिहे, तेणेव उघागच्छह, उवामच्चित्ता दोवह देवि सद्दावेति, सदायित्ता एव वयासी एवं बलु देव णुपिया!
સ્થવિરો પધાર્યા સ્વવિના આગમનની જાણ થતા નગરીના બધા લેકે તેમની વદના તેમજ તેમની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળવા માટે પિતાપિતાના ઘેરથી નિકળ્યા, પાચે પાડો પણ ત્યા પહેચ્ય પરિષદને આવેલી જોઈને સ્થવિરોએ ધર્મને ઉપદેશ આ ઉપદેશ સાંભળીને પરિષદ જતી રહી પાડવો તે ધર્મને ઉપદેશ સાંભળીને પ્રતિબોધિત થઈ ગયા તેમણે તે જ સમયે વિ રેને વિનતી કરતા કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયો ! અમે દ્રૌપદી દેવીને પૂછી તેમજ પામેન કમ રને રાજ્યાસને અભિષિક્ત કરીને તમારી પાસે મુ ડિત થઈને યાવત્ પ્રવ્રજના ગ્રહણ કરવાની અભિલાષા રાખીએ છીએ પાડવોની આ જાતની હાદિક ઈરા જાણીને તે સ્થવિરેાએ તે પાચે પાડેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
( अहासुह देणुप्पिया! तएण ते पच पडवा जेणे सए गिहे, तेणे उपागाइ, उवागच्छित्ता दोवइ देवि सदाति, सदारिता एव वयासी, एव
Page #804
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञाताधर्मकयात्र
अस्माकमस्य दारकस्य नामनेय 'पाण्डमेन ' इति । ततः ख तम्प दार कस्याम्पातिरी नामधेय कुर्वन्ति 'पाण्डुसेन ' इति । 'चातरि कलाओ ' द्वाम पति फलाः शिक्षिताः, यान भोगममर्यो जातः, राजकन्या परिणीय युवराजो यावत् मानुष्यकान् भोगान् गुञ्जानो विहरति-आते ।
५६६
उत्पन्न हुआ है अतः हमारे हम पुत्र का नाम पाउसेन होना चाहिये (तएण तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्ज करेंनि पडुसेणन्ति ) इस ख्याल से उन्हों ने उस नवजात पुन का नाम पांडुसेन रख दिया। (घावतरं बलाओ जाय भोगममत्ये जाग जुबराया जाब बिहरई थेरा समोसढा, परितो निग्गया, पढचा निग्गया, धम्म सोच्चा एव वयासी ज णवर देवानुप्पिया। दोप देवि आपुच्छामो पट्टणं च कुमार रज्जे ठावेमो तओ पच्छा देवानुप्पिया ! अतिए मुढे भवित्ता जाव पव्वयामो) पाडुसेन कुमार को ७२ कलाओं में निपुण घनाने के लिये माता पिताने उसे कलाचार्य के पास भेज दिया। धोरे २ वर ७२, कलाओं में निष्णांत पन गया । यावत् भोग भोगने के लायक अवस्था सपन्न भी हो गया। राजकन्याओं के साथ इसका वैवाहिक बन्ध कर के पिताओं ने इसे युवराज पद प्रदान भी कर दिया - यावत् यह मनुष्यभव सबन्धी काम सुखो को अनुभव करता हुआ अपने समय को आनन्द के साथ તેમજ દ્રૌપદી દેવીના ગલથી તેને જન્મ થયા છે, એટલા માટે અમારા આ પુત્રનુ નામ પાંડુસેન હૈ!વુ જોઈએ
(तरण तस्म दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्ज करेंति पडुसेणत्ति ) આ વિચારથી તેમણે તે નવજાન પુત્રનુ નામ પાડુસેન રાખ્યુ ( बातरि कलाओ जाव भोगसमस्ये जाए जनराया जाय विहर, थेरा समोढा, परिसा निग्गया, पडना निग्गया धम्म सोचा एव वयासी ज णवर पिया | दोई देव आपुच्छामो पडुसेण च कुमार रज्जे ठावेमो तपच्छा देवाशुपिया | अतिए मुडे भविता जान पव्वयामो )
પાટુનેન કુમારને છર કળાએના નિપુણ બનાવવા માટે માતાપિતાઓએ કલાચાની પાસે એકયે! આમ ધીમે ધીમે તે ૭૨ કળાઓમા નિષ્ણાત અની ગયે યાવત્ તે સ સારના ભેગા ભાગવવા ચેગ્ન અવસ્થાવાળા પશુ થઇ ગયે! - રાજકન્યાઓની સાથે લગ્નો કરાવીને પિતાએએ તેને યુવરાજ પ૰ પણ સેપી દીધુ યાવત્ તે મનુષ્યભવ સખ ધી કામસુખાને અનુભવને પોતાના વખતને સુખેથી પસાર કરવા લાગ્યા. એક વખતની વાત છે કે પાડુ-મ નગરીમા
Page #805
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारघमामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरिततिपणम ५६७ ___ अथ कदाचित् दन- येरा समोसड़ा' स्थविराः समवस्ताः, परिमनिर्गता, पाण्डमा अपि स्थपिराणा बन्दनाथै निर्गनाः, धर्म श्रुत्वा ते पाण्डमा पनि युद्राः सन्त एवमदन्-यत् नबर हे देशानुप्रियाः द्रौपदी देवीमापृच्छामः, पाण्टुमेन च कुमार राज्ये स्थापयाम , ततः पश्चात् देवानुपियाणामन्ति के मुण्डाभूत्वा यात् भवनामः प्रज्या गृहीमः, तना स्थविरा ऊचुः-'अहासुह देशानुप्पिया 'हे देवानुप्रिया यथामुख-मुस यया भवनि तया कुरुत, अल विलम्चेन इति भाव । तत खलु ते पञ्च पाण्डा यो स्यक गृह तवापागच्छन्ति, उपागत्य दीपदो देवी शब्दयन्ति, शब्दचित्त्वा, एमादन्-एर खलु हे देवानुपिरे ! वयं स्थविराव्यतीत करने लगा। एक समय की बात है कि पाहु मयुत नगरी में स्थविरो का आगमन बुआ। विरों का आगमन सुनक नगरी का समस्त जन उनकी चदना एच धर्मोपदेश सुनने के निमित्त अपने २ घर से निकले पाचों पाडव भी निकले- परिपट को आयी गई देवकर स्थविरो ने उसे वर्म का उपदेश दिया। उपदेश श्रषण कर परिपा पीछे चली गई। पाडय लोग उस धर्म के उपदेश का पानर प्रतियोष को प्राप्त हो गये-उसी समय उन्हों ने उन स्थविरों से कहा-हे देवानुप्रियो ! हमलोग द्रौपदी देवी को पूरकर और पाडुसेन कुमार को राज्य में स्था पित कर आप देवानुप्रियों के समीपमुडित होकर यारत् प्रव्रज्या अगीकार करना चाहते हैं। पांडवो की इस प्रकार हार्दिक भारना देखकर उन स्थविरों ने पाडबो से इम प्रकार कहा-(अहासुर देवाणुप्पिया! तएण ते पच पडवा जेणे मएगिहे, तेणेव उवागच्छद, उवागचित्ता दोवड देवि सहावेंति, सदायित्ता एव वगसी एवं खलु देव गुपिया!
વિરે પધાર્યા વિના આગમનની જાણ થતા નગરીના બધા લોકો તેમની વદના તેમજ તેમની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળવા માટે પોતપોતાના ઘેરથી નિકળ્યા, પચે પાડવો પણ ત્યા પહેલા પરિષદને આવેલી જોઈને વિરોએ ધર્મને ઉપદેશ આપે ઉપદેશ સાંભળીને પરિષદ જતી રહી પાડો તે ધર્મને ઉપદેશ સાંભળીને પ્રતિબોધિત થઈ ગયા તેમણે તે જ સમયે સ્થવિ રેને વિનતી કરતા કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! અમે દ્રૌપદી દેવીને પૂછી તેમજ પાડુનેન કુમારને રાજ્યાસને અભિષિક્ત કરીને તમારી પાસે મુ ડિત થઈને થાવત્ પ્રવ્રજ ગ્રહણ કરવાની અભિલાષા રાખીએ છીએ પાડની આ જાતની હાદિક ઈરછા જાણીને તે સ્થવિરાએ તે પાચે પાડાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(अहासुह देवाणुप्पिया ! तएण ते पच पडवा जेणे सए गिहे. तेणेत उनागद, उवागच्छित्ता दोबइ देवि सद्दाववि, सदागिचा एव वयासी, एव
Page #806
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६८
ज्ञाताधर्मकथानसरे
नामन्तिके धर्म श्रुतवन्तो यात् मामः स दानुप्रिये । किं करोषि किं करिष्यमि ? । ततः खलु सा द्रौपढी तान् पथ पाण्डवान् एनादीन् यदि खल यूय दे देनानुमियाः । सगारभयाद्विग्ना = जन्ममरणादि साद् भीताः सन्तो यावत् मनजय, मग फोडन्य आयो यावद् मरिष्यति ?, अहमपि च खल ससारयद्विग्ना देवानुये साधं मजियामि तत सतु ते पञ्च पाण्डवाः पाण्डुसेनस्य जमि=रायामिषेक हा स्वराज्ये स्थापितवन्तः यावद् राजा जात', यावद् राज्य ममाधगन्=राजपन् विहरति=आस्तेस्म |
-
अम्हेल थेराण अति धम्मेणिमते जाव पच्योमो तुम देवाणुप्पिए । किंकरेसि) हे देवानुमियों जिस प्रकार तुम्हें सुन मिले वैमा तुम को अच्छे काम में चिलम् मत करो। इसके बाद वे पांचों पाडव जहा अपना घर था वहा आये वन आकर के उन्हों ने द्रौपदी देवी को बुलाया - बुलाकर उससे ऐसा करा हे देवानुप्रिये ! सुनो नान इस प्रकार है - हमलोगो ने स्थविरों के पास धर्मका श्रवण किया है। अन हमलोगों की भावना मुडिन होकर उनके पास प्रब्रजित होने को है। अब तुम्हारी भावना क्या है - हे देवानुविये करो तुम हमारे बाद क्या करोगी - (तणं सा दोवई देवो ते पत्र पडवे एव वयासी जह पण तुम्भे देवगणुपिया ! ससार भागा यह मम के अण्णे आलये वो जाव भविस्सह १ अपण ससारभविगा देवापिएहिं सद्धिं पञ्चहस्सामि, तरण ते पच पडना पडुप्लेणस्म अभिसेओ जाव राया जाए, जाव रज्ज पसाहे खलु ाणुपिया | अम्देर्दि थेराण अतिए घम्मे णिसते जाव पव्त्रयामो तुम देवापिए । किं रेसि )
હે દેવાનુપ્રિયે ! જેમ તમને સુખ મળે તેમ કરી સારા કામમા મૈડુ કરા નહિ. ત્યારપછી તેએ પચે પાડવા જ્યા પેતાનુ ઘર હતું ત્યા અન્યા ત્યા આવીને તેમણે દ્રૌપદ્મી દેવીને લાવી ખેાલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિયે ! સાભળે, વાત એવી છે કે અમેએ સ્થવિરાની પાસેથી ધનુ શ્રવણુ કર્યુ છે, એટલા માટે અમારી ઈચ્છા મુક્તિ થઈને તેમની પાસેથી પ્રવ્રજ્યા ગ્રહણ કરવાની છે હવે તમારી શી ઇચ્છા છે ? હે દેવાનુ પ્રિયે ! અમને કહે અમે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરી લઈશું ત્યારખાદ તમે શું કરશે ?
(तएण सा दोई देवी ते पत्र पडवे एव त्रयासी-जइण तुम्भे देवाणुपिया ! ससारभउन्ग्गिा पञ्चयह, मम के अण्णे आलवे वा जाव भविस्स, ? अह पियण सारभविग्गा, पिएहिं सद्धिं पव्बइस्मामि, तएण ते पच पडवा पडुसेणस्स अभिसेओ जात्र राया जाए, जाव रज्ज पसाहेमाणे विहरइ )
Page #807
--------------------------------------------------------------------------
________________
mantranett ० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५६९
1
ततः खलु ते पञ्च पाण्डवा द्रौपदी च देवी अन्यदा कदाचित् पाण्डुसेन राजानमापृच्छन्ति तत खलु स पाण्डुसेनो राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दपति, शब्दपिला, एवमवादीत् क्षिप्रमेन भो ! देवानुमियाः । निष्क्रमणाभिषेक दीक्षोपयोग वस्तूनि याद उपस्थापयत, पुरुषसहस्रवाहिनीः शिविका उपस्थापयत, यावत् प्रत्यवरोहन्ति =भत्र यावच्छब्देनेद बोध्यम्, तत पाण्डुसेनस्य राशोवचनमा ते माणे विरह ) इस प्रकार पाडवो का कहना सुनकर द्रौपदी देवी ने वन पाच पांडवों से इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रियों ! तुमलोग यदि ससार भय मे उद्विग्न होकर प्रत्रजित होना चाहते हो, तो फिर मेरे लिये आप के सिवाय और कौन दूसरा आलयन अथवा आधार होगा। अतः मैभी आप देवानुधियों के साथ ससार भय से उद्विग्न होकर दीक्षित होऊँगी । इस प्रकार द्रौपदी देवी का कथन सुनकर उन पांचो पांडवों ने पासेन कुमार का राज्याभिषेक करके उसे राज्यपद में स्थापिन किया। इस तरह पांडुकुमार राजा हो गया। यावत् राज्य का यह अच्छी तरह पालन करने लगा। (तरण ते पच पडवा दोवईय देवी अन्नया कयाइ पडसे णरायाण आपुच्छति, तएण से पडसेणे राया कोहुंfor पुरिसे सहावे, सदावित्ता, एव क्यासी खिप्पामेव भो देवापिया | निक्मणाभिसेयं जाव उबट्टवेर, पुरिससहस्मवाहणीओ सिविद्याओ उबटुवेद, जाव पच्चीस्कृति, पच्चरूरित्ता जेणेव थेरा उच्चा
આ પ્રમાણે પાડવાનુ કથન સાભળીને દ્રૌપદી દેવીએ તે પાચે પાડવાને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હૈ દેવાનુપ્રિયે! તમે જ્યારે સસારલયથી ઉદ્વિગ્ન થઈને પ્રવજ્યા શ્રહણુ કરવા ઇચ્છા છે ત્યારે તમારા વગર મારા માટે આ સ સારમા બીજી કયુ આલ અને અથવા તા બીજા કયા માધાર થશે ? એટલા માટે હુ પણ તારી સાથે સસારભયથી ઉદ્વિગ્ન થઇને દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ઈચ્છુ છુ પ્રસારું દ્રોપતી દેવીનું કથન સાભળીને તે પાર્ચે પાડવાએ પાડુસૈન કુમારને રાજ્યાભિષેક કરીને તેને રાજ્યાસને બેસાડી દીધા. આ પ્રમાણે પાસેન કુમાર રાજા થઈ ગયા યાલતુ તે રાજયનુ સારી રીતે રક્ષણ કરવા લાગ્યે
મા
(aण ते पच पडवा दोई देवी अन्नया कयाइ पडसेणरायाण जापुच्छति, तरण से पडसे या कोड वियपुरि से सहावे, सदावित्ता एवं वयासी, खियामेव मो देवापिया ! निक्खमाणाभिसेय जाव उवहवेह, पुरिससहनाहणीओ सिवियाओ उपद्ववेह, जाच पच्चोरुहति, पचोरुहित्ता जेणेव थेरा तेणेव उपाग० आहित्तेण जात्र समणा जाया, चोरसपुवाइ अहिज्जति अहिजिचा ि
Page #808
--------------------------------------------------------------------------
________________
--
-
-
-
-
-
-
-
५७०
पाताया कौटुम्पिकपुम्पास्तथास्तु ' इत्युक्त्या तर यादुपस्यापयन्ति, तदा ते पत्र पाण्डवा पुरुषसहस्रवाहिनीः शिविका आम्हा, पाण्डमधुराया नगर्या मध्यम येन निर्गच्छति, निर्गत्य शिरिकाम्या प्रत्यारोपति-मत्यातरति । प्रत्यवरुण, 'जेणेव' यर स्थरिरास्तगोपागच्छन्ति, उपागत्य एपमरादिपु:-'आलिते ण जाव समणा गच्छइ आलित्तण जाव समणा जाया, घोसपुयाइ अरिजति, अरिजित्ता, पणि पासाइ एहमदसमदुवालसेहिं माममासम्बम णेहि अप्पाण भावमाणा विररति) इसके पाद पाचो पाडवों ने ओर द्रौपदी देवी ने किसी एक समय पांडसेन राजा से दीक्षित रोने के लिये पूछा। तर पहिसेन राजा ने कौटुम्यिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उनसे ऐसा कहा-भो देवानुप्रियो ! तुमलोग शीघ्र ही दीक्षा में उपयोग आनेवाली वस्तुओं को लाकर उपस्थित करो-तथा पुरुप सरस्रवाहिनी शिपिकाओं को भी उपस्थित करो-इस प्रकार पाडुसेन राजा के बचन सुनकर उन कौटुम्बिक पुरुपों ने "तथास्तु" करकर उनकी आज्ञा को स्वीकार कर लिया-और दीक्षा में उपयोगी समस्त सामग्री को एष पुरुष सहस्रवाहिनी शियिकाओं को लाकर उपस्थित कर दिया। तब वे पांचो पार्डव उन पुरुप सहस्रवाहिनी शियिकाओं पर आरूढ रोकर पांड मथुरा नगरी के बीच से होकर निकले। वहा से निकलकर वे जहां स्थ. विर ठहरे हुए थे-वहां-आये-वहा आकर सयके सब शिक्षिकाओं से
वाप्साइ छढमदसमदुवालसेहि मासदमासखमणेहि अप्पाण भावमाणा विहरति)
ત્યારપછી પાચે પાડવોએ અને દ્રૌપદી દેવીએ કોઈ એક વખતે પાડુસેન રાજાને દીક્ષા ગ્રહણ કરવા માટે પૂછયું ત્યારે પાસેના રાજાએ કૌટુંબિક પુરુ પિને લાવ્યા બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લોકો દીક્ષા વખતે ઉપયોગમાં આવનારી બધી વસ્તુઓ જલદી લઈ આવી તેમજ પુરુષ સહસવાહિની પાલખી પણ લઈ આવો આ પ્રમાણે પાડુસેન રાજાના વચન સાંભળીને તે કીટ બિક પરુએ “ તથાસ્તુ' કહીને તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી અને દીક્ષા માટે ઉપચોગી એવી બધી વસ્તુઓ તેમજ પુરુષ–સહસવાહિની પાલખી લઈ આવ્યા ત્યારપછી તે પાચે પાડવો તે પુરુષ સહસ્ત્રવાહિની પાલખીઓ ઉપર સવાર થઈને પાંડ-મથુરા નગરીની વચ્ચે થઈને નીકળ્યા ત્યાથી નીકળીને તેઓ જ્યાં સ્થવિર હતા ત્યાં પહોંચ્યા, ત્યાં પહો ચીને તેઓ બધા પાલખીમાથી નીચે ઉતર્યા, નીચે ઉતરી સ્થવિરાની
Page #809
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगराधामृतवपिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीरितनिरूपणम् ५७१ जाया' आदीप्तोऽयं लोक खलु इत्यादि । यावद् श्रमणा जाताः, चतुर्दशपूर्वाणि अधीयते स्म,अधीत्य बहूनि वर्षाणि पठाष्टमदशम द्वादशैर्मासार्धमासक्षपणैस्तपोभिरात्मान भावयन्तो विहरन्ति ॥ मू९ ३३॥ ___ मूलम्-तएणं सा दोबई देवी सोयाओ पच्चोरुहइ जाव पव्वइया सुब्बयाए अज्जाए सिस्सिणीयत्ताए दलयइ, इक्कारस अंगाइ अहिज्जइ बहूणि वासाणि छट्ठट्टमदसमदुवालसेहि जाव विहरइ ॥ सू० ३४ ॥
टीका-तएणं सा' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु सा द्रोपदी देवी शिविकातः प्रत्यवराहवि मत्परतरति, प्रत्यवतीर्य यावत् प्रव्रजिता-दीक्षा गृहीतवती । 'मुन्चयाए ' सुनतायै सुव्रतानामधेयायै ' अजाए ' आर्यायै 'सिस्सिगीयत्ताए' नीचे उतरे। नीचे उतरकर स्थविरों के पास पहुँचे। वहां पहुंचकर उन्हों ने स्थविरों से इस प्रकार कहा-हे भद्त । यह समस्त लोक आदीप्त-हो रहा है इत्यादिरूप से अपनी भावना प्रदर्शित कर यावत् वे श्रमण हो गये। चौदह पूर्वो का उन्हों ने अध्ययन किया। अध्ययन करके अनेक वर्षों तक पष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश, मास अर्धमास की तपस्याओं को वे करते हुए विचरने लगे ॥ सू० ३३ ॥
'तएण सा दोवई' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तण्ण) इसके बाद (दोवई देवी) द्रौपदीदेवी (सीयाओ पच्चोरुहह) अपनी शिविका से नीचे उतरी-(जो पन्वइया, सुव्वयाए अजाए सिस्सिणीयत्ताए दलयह, इक्कारसअगाइ अहिज्जइ, घट्टणि यासाइ પાસે પહયા ત્યાં પહોંચીને તેમણે સ્થવિરોને વિનતી કરતા આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદન્ત ! આ સ પૂર્ણ જગત સળગી રહ્યું છે વગેરે રૂપથી પિતાની ભાવના પ્રકટ કરીને વાવત તેઓ શ્રમણ થઈ ગયા ચૌદ પૂર્વેનું તેમણે અધ્ય થન કર્યું, અધ્યયન કરીને ઘણા વર્ષો સુધી તેઓ પણ, અમ દશમ, દ્વાદશ, માસ અર્ધમાસની તપસ્યા કરતા રહ્યા છે. સૂત્ર ૩૩ છે
वएण सा दोबई इत्यादि
अर्थ--(तएण) त्यारपछी (दोवई देवी) द्रीयही हेवी (सीयाओ पचोरुहइ) પિતાની પાલખીમાં નીચે ઉતરી
(जा-एचइया, मुन्वयाए अजाए सिस्सिणीयत्ताए दलयइ, इककारसअगाइ
Page #810
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७०
फौटुम्पिकपुरपास्तथास्तु ' इत्युक्त्वा तथा यापदुपस्थापयन्ति, तदा ते पण पाण्डवा पुरुषसहसवाहिनी शिविका आम्हा, पाप्मयुराया नगर्या मध्यम येन निर्गच्छति, निर्गस्य शिरिकाम्य' प्रत्यपरोति-मत्यरतरति । प्रत्यवरा, 'जेणे' या स्थपिरास्तत्रयोपागच्छन्ति, उपागत्य एरमादिपुर-आलित्ते णं जाव समणा गच्छह आलित्तेण जाव समणा जाया, चोइसपुयाइ अरिज्जति, अहिजित्ता, पट्टणि पामाइ एहमदसमदुवालसेरि मासद्वमासम्बम णेहिं अप्पाण भावमाणा विररति ) इमके पाद पाचो पाडवों ने और द्रौपदी देवी ने किसी एक समय पांडुसेन राजा से दीक्षित शेने के लिये पूछा। तर पदुिसेन राजा ने कौटुम्यिक पुरुषों को बुलाया वुलोकर उनसे ऐसा कहा-भो देवानुप्रियो ! तुमलोग शीघ्र ही दीक्षा में उपयोग आनेवाली वस्तुओं को लाकर उपस्थित करो-तथा पुरुष सहस्रवाहिनी शिपिकाओं को भी उपस्थित करो-इस प्रकार पांडुसेन राजा के पचन सुनकर उन कौटुम्विक पुरुषों ने "तथास्तु" कहकर उनकी आज्ञा को स्वीकार कर लिया और दीक्षा में उपयोगी समस्त सामग्री को एव पुरुप संहस्रवाहिनी शियिकाओं को लाकर उपस्थित कर दिया। तय वे पाचो पाउंच उन पुरुप सहस्रवाहिनी शियिकाओं पर आरूढ होकर पाडु, मथुरा नगरी के बीच से होकर निकले। वरा से निकलकर वे जहा स्थ विर ठहरे हुए थे-वहां-आये-वहा आकर सयके सय शिषिकाओं से वासाइ छहमदसमदुवालसेहिं मासदमासखमणेहि अप्पाण भावेमाणा विहरात)
ત્યારપછી પાસે પાડવોએ અને દ્રૌપદી દેવીએ કે એક વખતે પાડુસેન રાજાને દીક્ષા ગ્રહણ કરવા માટે પૂછયું ત્યારે પાસેન રાજાએ કૌટુંબિક પુરુ
ને બોલાવ્યા બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયા ! તમે લેકે દીક્ષા વખતે ઉપયોગમાં આવનારી બધી વસ્તુઓ જરદી લઈ આવી તેમજ પુરુષ સહસવાહિની પાલખી પણ લઈ આવે આ પ્રમાણે પાસેન રાજાના વચન સાંભળીને તે કૌટુંબિક પુરુષોએ “તથાસ્તુ' કહીને તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી અને દીક્ષા માટે ઉપયોગી એવી બધી વસ્તુઓ તેમજ પુરુષ–સહસવાહિની પાલખી લઈ આવ્યા ત્યારપછી તે પાચે પાડવો તે પુરુષ સહસ્ત્રવાહિની પાલખીઓ ઉપર સવાર થઈને પાંડુ-ન્મથુરા નગરીની વચ્ચે થઈને નીકળ્યા ત્યાંથી નીકળીને તેઓ ત્યાં સ્થવિર હતા ત્યાં પહોંચ્યા, ત્યા પહો ચીને તેઓ બધા પાલખીઓમાથી નીચે ઉતર્યા, નીચે ઉતરીને સ્થવિરાની
Page #811
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपणी टी० ० २६ द्रौपदीयरितनिरूपणम् अन्नमन्नस्स एयमट्ट पडिसुणेति पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता थेरं भगवंतं वंदति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामो णं तुम्भेहिं अभणुनाया संमाणा अरहं अरिहनेमि जाव गमित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया । तएणं ते जुहिहिल्लपामोक्खा पंच अणगारो थेरेहिं भगवंतेहिं अन्भणुन्नाया समाणा । थेरे भगवंते बंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अतियाओ पडिणिक्खमति मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं गा. माणुगाम दुईज्जमाणा जाव जेणेव हस्थिकप्पे नयरे तेणेव उवा० हत्थिकप्पस्स घहिया सहसववणे उज्जाणे जाव विहरति, तएणं ते जुहिटिलवज्जा चत्तारि अणगारा मासख मणपारणए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेंति वीयाए एव जहा गोयमसामी णवर जुहिटिलं आपुच्छंति जाव अडमाणा वहुजणसदं णिसामेति, एव खलु देवाणुप्पिया । अरहा अरिट्ठनेमी उज्जितसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहि छत्तीसेहि अणगारसएहि सद्धि कालगए जाव पहीणे, तएणं ते जुहिडिलवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अतिए एयमढे सोच्चा हस्थिकप्पाओ पडिणिक्खमति पडिणिक्खमित्ताजेणेव सहसववणे उज्जाणे जेणेव जुहिट्ठिल्ले अणगारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता भत्तपाणं पच्चक्खंति पच्चक्खित्ता गमणागमणस्स पडिकमति पडि
Page #812
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
५७२
पाताममेकपा शिष्यातया ददाति पाण्डसेनो राना द्रौपदी मुताय शियारूपेग दत्तवानिति भाव । एकादशागानि अधीते, हनि वणि पष्ठाऽष्टमदशमद्वादशैस्तपोभिर्यात दास्मान भावयन्ती विहरति ॥९०३४॥
मूलम्-तएण थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पडुमहुराओ णयरीओ सहसंवत्रणाओ उजाणाओ पडिणिक्खमंति पडि. णिक्खमित्ता पहिया जणवयविहारं विहरति, तेण कालेण तेणं समएण अरिहा अरिटनेमी जेणेप सुरद्वाजणवए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सुरद्वाजणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरइ, तएणं वहजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ०-एवं खल्लु देवाणुप्पिया। अरिहा अरिट्ठनेमी सुरहाजणवए जाब वि०, तएणं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पच अणगारा बहुजणस्स अतिए एयमहं सोचा अन्नमन्न सदाति लद्दावित्ता एव वयासी-एव खलु देवाणुप्पिया । अरहा अरिटनेमी पुन्वाणु० जाव विहरइ, त सेयं खलु अम्ह थेरा आपुच्छित्ता अरह अरिट्टनेमि वदणाए गमित्तए छट्टहमदसमदुवालसेहिं जाव चिहरइ) नीचे उतरकर यावत् वह भी प्रबजित हो गई। पांडुसेन राजा ने उसे-द्रौपदी को सुव्रता नाम का साध्वी के शिष्यारूप से प्रदान किया। द्रौपदी आर्या ने ग्यारह अर्गा का अध्ययन किया। बाद में अनेक वर्षों तक छट्ठ अष्टम, दशम, बादश तपस्याओं से अपने आपको उसने भावित किया। सू०३४ ॥ अहिज्जइ, वहूणि बासाइ छदमदसमदुवालसेहिं जाव पिहरइ)
નીચે ઉતરીને યાવત્ તે પણ પ્રજિત થઈ ગઈ પાસેના રાજાએ દ્રૌપદીને સુવ્રતા નામની સાવીને શિષ્યાના રૂપમાં અર્પિત કરી દ્રૌપદી આયોએ અગિયાર અગેનું અધ્યયન કર્યું ત્યારપછી ઘણા વર્ષો સુધી છઠ્ઠ, અષ્ટમ દામ, દ્વાદશ તપસ્યાઓથી પિતાના આત્માને તેણે ભાવિત સૂ ૩૪
Page #813
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारधामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम् ५७५
तस्मिन् काले तस्मिन् समयेऽर्हन अरिष्टनेमियत्रत्र सौराष्ट्रजनपदस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सौराष्ट्रमनपदे संयमेन तपसाऽऽत्मान भावयन् विहरति । ततः खल बहुजनोऽन्योन्यमेवमाख्यातिप्रक्ति, एप भापते, एव मरूपयति एवं प्रज्ञापयति-एव सलु हे देवानमिय! अर्हन् अरिष्टनेमि सौराष्ट्रजनपदे यावद् विहरति । ततः खलु ते युधिष्टिरप्रमुग्या पश्चानगारा बहुजनस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्लाज्योन्य शन्दयन्ति, शब्दयित्वा एवमयदन एव खलु हे देशानुप्रिय! अईन अरिष्टनेमिः पूर्वा णाओ) उद्यान से (पडिणिक्खमति ) विहार किया (पडिणिक्खमित्ता) विहार करके (पहिया जणवयविहार विहरति) बाहिर के जनपदों में विचरने लगे (तेण कालेण तेणं समएण अरिहा अरिहनेमी जेणेव सुरट्ठा जणवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरट्ठा जगवयंसि सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरइ, तरण घट्टजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खह) उस काल में और उस समय में अईत अरिष्टनेमि प्रभु विहार करते हुए जहाँ सौराष्ट्र जनपद था-वहां आये वहा आकर के वे उस सौराष्ट्र जनपद में सयम और तप से अपने आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। जय वहा के अनेक लोगो को इसकी खयर हुई तब वे परस्पर में इस प्रकार करने लगे (एच खलु देवाणुपिया ! अरिहा । अरिहनेमी सुरहा जणवए जोव वि० तएण ते जुहिडिल्लपामोक्खा पच अणगारा बहुजणस्स अतिए एयमई सोचो अन्नणिक्सम ति ) विहार या (पडिणिसमित्ता) विडार रीने तेमा (पहियो जणवयविहार विहर वि) महारना नपोमा विडार ४२११ तान्या
(तेण काळेण तेण समरण अरिहा अरिहनेमी जेणेव सुरट्ठा जणवए तेणेव उपागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरहा जणवयसि सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे एवमाइक्खइ)
તે કાળે અને તે સમયે અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુ વિહાર કરતા કરતા ક્યા સૌરાષ્ટ્ર જનપદ હતો ત્યા આવ્યા ત્યાં આવીને તેઓ તે સૌરાષ્ટ્ર જનપદમા સ યમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા વિચરણ કરવા લાગ્યા જ્યારે ત્યાના ઘણા લેકને આ વાતની જાણ થઈ ત્યારે તેઓ પરસ્પર આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યું કે. (एव खल्लु देवाणुप्पिया अरिहा अदिट्टनेमी सुरद्वाजणवए जार वितरण ते जुडिहिल्लपामोक्खा पच अणगारा वहुजणस्स अतिए एयमट्ट सोच्चा अन्नमभ सदाति, सद्दाविना एव वयासी एव खलु देवाणुप्पिया! अरिहा अरिहनेमी
Page #814
--------------------------------------------------------------------------
________________
आताधर्मको कमित्ता एसणमणेसणं आलोएंति आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदसेंति पडिदंसित्ताएवं वयासी-एवं खल देवाणुपिया। जाव कालगए तं सेयं सल्लु अम्ह देवाणुप्पिया! इमं पुत्वगहियं भत्तपाणं परिट्रवेत्तासेतुंज पव्वयं सणियं सणियं दुरूहित्तए 'संलेहणा झुसणा झुसियाण' कालं अणवकखमाणाणं विहरित्तएत्तिक अण्णमण्णस्त एयमह पडिसुणेति पडिसुणित्ता त पुव्वगाहियं भत्तपाणं एगंते परिट्रवेति परि. टुवित्ता जेणेव सेत्तुजे पव्वए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सेत्तुजं पव्व्य दुरूहति दुरूहित्ता जाव कालं अणवकखमाणा विहरति । तएण ते जुहिडिल्लपामोक्खा पच अणगारा सामाइयमाइयाइ चोदसपुव्वाइवहणि वासाणि० दोमासियाए संलेहणाए अत्ताण झोसित्ता जस्तहाए कीरइणग्गभावे जाव तमहमाराहेति तमहमाराहिता अणते जाव केवलवरणाणदसणे समुप्पन्ने जाव सिद्धा ॥ सू० ३३ ॥
टीका-'तएण येरा' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खल स्थविरा भगवन्तोऽ न्यदाकदाचित् पाण्डुमथुरातो नगरीतो सहस्राम्रवणादुद्यानात् प्रतिनिष्क्रान्ति निर्गच्छन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य निर्गत्य, वहिर्जनपदविहार विहरन्ति ।
-तएण थेरो भगवता इत्यादि।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (थेरा भगवतो) उन स्थविर भगवतोने (अन्नया कयाइ ) किसी एक समय (पडुमहराभो) पाडु मथुरा (णय रीओ) नगरी से (सहसबवणाओ) सहस्राम्रवन नाम के (उज्जा
तएण थेरा भगवता इत्यादि
साथ-(तएण) त्या२मा (थेरा भगव तो) ते स्थविर लगता (अभया , कयाइ) ७ मे मते (पडु महुराओ) पाहु मथुरा (णयरीओ) नगराधा (सहस बवणाओ) साप्रपन नमना ( उज्बाणाओ) 60 परि
Page #815
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५७५
तस्मिन् काले तस्मिन् समयेऽर्हन अरिष्टनेमियत्रैव सौराष्ट्रजनपदस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सौराष्ट्रजनपदे संयमेन तपसाऽऽत्मान भावयन् विहरति । ततः खलु बहुजनोऽन्योन्यमेवमाख्याति=क्ति, एव भापते, एव मरूपयति एवं प्रज्ञापयति-एव खलु हे देवानुप्रिय ! अर्हन् अरिष्टनेमि सौराष्ट्रजनपदे यावद् विहरति । तवः खलु ते युधिष्टिरप्रमुवा पश्चानगारा बहुजनस्यान्तिके एतमर्थं श्रुत्वाज्योन्य शन्दयन्ति, शब्दयित्वा एवमवदन् ,एव खलु हे देशानुप्रिय! अर्हन अरिष्टनेमिः पूर्वा णाओ) उद्यान से (पडिणिस्खमति ) विहार किया (पडिणिक्खमित्ता) विहार करके (वरिया जणवयविहार विहरति) चाहिर के जनपदों में विचरने लगे (तेण कालेण तेणं समएण अरिहा अरिहनेमी जेणेव सरहा जणवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरट्ठा जणवयसि सजमेण तवसाअप्पाण भावेमाणे विहरइ, तएण यजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ) उस काल में और उस समय में अर्हत अरिष्टनेमि प्रभु विहार करते हुए जहाँ सौराष्ट्र जनपद था-वहा आये वहां आकर के वे उस सौराष्ट्र जनपद मे सयम और तप से अपने आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। जय वहां के अनेक लोगो को इसकी खयर हुई तब वे परस्पर में इस प्रकार कहने लगे (एव खलु देवाणुपिया! अरिहा । अरिहनेमी सुरहा जणवए जीव वि० तएण ते जुहिहिल्लपामोक्खा पच अणगारा बहुजणस्स अतिए एयमई सोचो अन्नणिक्सम ति) विहार ज्या (पडिणिक्समित्ता) विहार पशन तमा ( पहिया जणवयविहार विहर ति) महान तपमा विडार ४२वा साया
(तेण कालेण तेणं समएण अरिहा अरिहनेमी जेणेव सुरहा जणवए तेणेव उनागन्छइ, उवागच्छित्ता सुरहा जणवयसि सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे एवमाइक्खइ)
તે કાળે અને તે સમયે અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુ વિહાર કરતા કરતા ત્યા સૌરાષ્ટ્ર જનપદ હતું ત્યાં આવ્યા ત્યા આવીને તેઓ તે સૌરાષ્ટ્ર જનપદમા સ યમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા વિચરણ કરવા લાગ્યા જ્યારે ત્યાના ઘણા લોકોને આ વાતની જાણ થઈ ત્યારે તેઓ પરસ્પર આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યું કે
(एव खल देवाणुप्पिया ! अरिहा अदिहनेमी सुरद्वाजणवए जार वि० वएण ते जुडिहिल्लपामोक्खा पव अणगारा वहुजणस्स अतिए एयमह सोच्चा अन्नमय सदावति, सद्दावित्ता एव पयासी एव खलु देवाणुप्पिया! अरिहा अरिहनेमी
Page #816
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताधा नुपूा -तीर्थकराणां मर्यादया यापद् विहरति, 'त' वत्-तस्माद् 'सेय' श्रेषः खलु अस्माक यत् स्थपिरान आपृच्छयाईन्तमरिष्टनेमि पन्दनाय गन्तुम् । अन्योन्यस्य -परस्परस्यैतमर्थ सः पन्नानगाराः प्रतिमन्ति, स्वीकृर्षन्ति प्रतिश्रुत्य यत्र स्थ विरा भगन्तस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य तान स्थपिरान् मगातो वन्दन्ते नमस्यन्ति च पन्दित्या नमस्थित्वा एपमरादिपु-इच्छामः खल युप्मामिरभ्यनुज्ञाता: सन्तोऽहन्तमरिष्टनेमि यावद् गन्तुम् । स्थविरा ऊचुः यथामुख हे देवानुप्रिया! मन्न समाति, सदायित्ता एवं क्यासी-एव खलु देवाणुप्पिया। अरिहा अरिहनेमी पुन्वाणु जाव विहरह, त सेय सल अम्ह थेरा आपुत्तिा अरह अरहिनेमि वदणाण गमित्तए) हे देवानुमियों ! सुनो-अरंत अरि टनेमि प्रभु तीर्थकर परम्परानुसार विहार करते हुए यावत् सौराष्ट्र जन पद में आये हुए हैं। लोगों के मुख से इस यात को उन पांच युधिष्ठिर आदि अनगारो ने सुना-तप आपस में एक दूसरे को-घुलाया और धुलाकर इस प्रकार कहा-देवोनुप्रियो । सौराष्ट्र जनपद में तीर्थकर परमारा के अनुसार भगवान् अरिष्टनेमि विहार कर रहे हैं-अतः हमलोगों को स्थविरो की आज्ञा लेकर अईत अरिष्टनेमि को वदना करने के लिये चलना पहुत अच्छा है-उचित है-(अन्नमन्नस्स एयम पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवतो, तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदति णमसति, चदिसा मसित्ता एव वयासी-इच्छामो ण पुष्वाणु० जाब विहरइ, त सेय खल अम्ह थेरा आपुच्छित्ता अरह अस्टिनेमि बदणाए गमित्तए)
હે દેવાનુપ્રિયે ! સાભળે, અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુ તિર્થ કર પર પરા મુજબ વિહાર કરતા યાવતું સૌરાષ્ટ્ર જનપદમા પધારેલા છે લેકના મુખથી આ વાતને તે પાચે યુધિષ્ઠિર વગેરે અનગારાએ સાભળી ત્યારે તેઓએ પરસ્પર એક બીજાઓને બોલાવ્યા અને બેલાવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે તે દેવાનુપ્રિયે! સૌરાષ્ટ્ર જનપદમાં તીથ કર પરંપરા મુજબ ભગવાન અરિષ્ટનેમિ વિહાર કરી રહ્યા છે એથી સ્થવિરાની આજ્ઞા મેળવીને અરિષ્ટનેમિને વંદન કરવા માટે અમારે જવું જોઈએ
( अभमन्नस्स एयमट्ट पडिमुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवतो, तेणेब उवागराइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदति णमसति, बदिता णमसित्ता एव चयासी-इजमो ण तुन्भेईि अन्भणुमाया समाणा अरह अरिष्टनेमि जाव गमिचए
Page #817
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५७७
तवः खलु ते युनिष्ममुखा पञ्चानगाराः स्थविरैर्भगवद्भिरभ्यनुज्ञाताः सन्त स्थविरान् भगवतो वन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दिना, नमस्यिता स्थविराणामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, माम-मासेन 'अणिक्सित्तेण ' अनिक्षिप्तेन = अन्तररहितेन तपः तुमेहिं अणुन्नाया ममाणा अरह अरिनेमि जाव गमित्तए अहाह देवाणुपिया । तएण ते जुहिडिल्लपामोत्वा पच अणगारा घेरेहिं भग वतेहिं अन्भणुन्नाया समोणा येरे भगवते वदह ममइ वदित्ता म सित्ता घेराण अतियाओ पडिणिक्खमति, मास मासेण अणिक्खित्ते णत किम्मेण गामाणुगाम दूईज्जमाणा जाय जेणेव हत्यिकप्पे नयरे तेणेव उवा० हत्यिकप्पस्म यहिया सहसवणे उज्जाणे जाव विहरति-तएण ते जुहिल्लिज्जा चत्तारि अणगारा मासखमगपारगए पढमाए पोरमीए सज्झाय करेति, वीयाए जहा गोयमसामी, णवर जुहिट्टिल आपुच्छति जाव अडाणा यजणसद्द णिमामेंति ) इस प्रकार का परस्पर का यह विचार उन्हों ने स्वीकार कर लिया- स्वीकार करके फिर वे जहा स्थविर भगवत थे वहा गये वहा जाकर उन्हो ने उन स्थविर भगतो को वंदना की नमस्कार किया । वदना नमस्कार कर फिर उनसे इस प्रकार कहा हमलोग आप भगवतो से आज्ञा प्राप्त कर अर्हत नेमिनाथ प्रभु को बदना करने के लिये सौराष्ट्र जनपद जाना चाहते हैं । उन स्थविर भगवतो ने उनसे कहा हे देवानुप्रियों! यथासुखम् - तुम्हें जैसे सुग्व हो-वेसा करो इस प्रकार उनस्थविर भग
देवालिया ! तएण ते जुहिडिल्लपामोक्खा पच अगगारा, थेरेहिं भग चतेर्हि अमणुन्नाया समाणा रे भगते Has, दत्ता णममित्ता येराण अतियाओ पडिणिग्खमति, मासमासेण अणि खेत्तेण तवोकम्मेण गामाणुगाम दूइज्माणा जान जेणेव हस्थिरुप्पे नयरे तेणेव उ० हत्थिकष्पस्स वहिना सह सवणे उज्जाणे जात्र विहरति तएण ते जुहिट्ठिल्लवज्जा चत्तारि अणगारा मास खमणपारण पढमाए पोरसीए सज्झाय करेंति, पीयाए एव जहा गोयमसामी, गवर जुहिद्विल आपुच्छति जान अडमाणा बहुजणसद णिसार्मेति )
આ રીતે તેએએ એકબીજાના વિચારાને સ્વીકારી લીધા, સ્વીકારીને તે જ્યા સ્થવિર - ભગવત હતા ત્યા ગયા ત્યા જઈને તેમણે તે સ્થવિર ભગવતેને વદન અને નમસ્કાર કર્યા વદન અને નમસ્કાર કરીને તેમને આ પ્રમાણે વિનતી કરી કે અમે આપ ભગવતની આજ્ઞા મેળવીને અ`ત નૈમિ નાથ પ્રભુના વહન માટે સૌ ષ્ટ્ર જનપદમા જવા ઇચ્છીએ છીએ ત્યાર તે સ્થવિર ભગતાએ તેમને આ પ્રમાણે આજ્ઞા કરી કે હે દેવાનુપ્રિયા ’ તમને જે કામમા આનદ પ્રાપ્ત થાય તે કરી આ પ્રમાણે તે સ્થવિર
"
यथा
सुखम् '
109
Page #818
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाता नुपूा -तीर्थकराणां मर्यादया यापद् विहरति, 'त' तत्-तस्माद् 'सेय' श्रेप' वाट अस्माकं यत् स्थपिरान् आपूछियाईन्तमरिष्टनेमि इन्दनाय गन्तुम् । अन्योन्यस्य =परस्परस्यैतमर्थ सर्वे पश्चानगाराः प्रविशन्ति, स्वीकृति प्रतिश्रुत्य यौव स्य गिरा भगवन्तस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागस्प तान् स्परिरान् भगवतो वन्दन्ते नम. स्यन्ति च रन्दित्या नमस्थित्वा एपमादिपु-छामः खलु युप्मामिरभ्यनुनाता: सन्तोऽहंन्तमरिष्टनेमि यावद् गन्तुम् । स्थविरा ऊचु' ययामुख हे देवानुप्रिया! मन्न समाति, सदायित्ता एव चयासी-एव रालु देवाणुप्पिया अरिहा अरिट्ठनेमी पुन्वाणु जाब विररह, त सेय खलु अम्ह थेरा आपुच्छिता अरह अरहिनेमि चदणाण गमित्तए) हे देवानुप्रियो । सुनो-रंत अरिटनेमि प्रभु तीर्थकर परम्परानुसार विहार करते हुए यावत् सौराष्ट्र जनपद में आये हुए हैं। लोगों के मुख से इस यात को उन पांच युधिष्ठिर आदि अनगारो ने सुना-तप आपस में एक दूसरे को-घुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! सौराष्ट्र जनपद में तीर्थंकर पर. मारा के अनुसार भगवान् अरिष्टनेमि विदार कर रहे हैं-अतःहमलोगों को स्थविरो की आज्ञा लेकर अहंत अरिष्टनेमि को बदना करने के लिये चलनी पहुत अच्छा है-उचित है-(अन्नमन्नस्स एयम पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवतो, तेणेष उवागच्उह, उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदति णमसति, पदिसा पामसित्ता एव वयासी-इच्छामो ण पुवाणु० जाब विहरइ, त सेय खल अम्ह थेरा आपुच्छिता अरह अस्टिनेमि वद णाए गमित्तए)
હે દેવાનુપ્રિયે! સાભળે, અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુ તિર્થ કર પર પરા મુજબ વિહાર કરતા યાવતું સૌરાષ્ટ્ર જનપદમાં પધારેલા છે લોકેના મુખથી આ વાતને તે પાચે યુધિષિર વગેરે અનગારાએ સાભળી ત્યારે તેઓએ પરસ્પર એક બીજાઓને બોલાવ્યા અને બોલાવીને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે તે દેવાનુપ્રિયા ! સૌરાષ્ટ્ર જનપદમાં તીર્થ કર પરંપરા મુજબ ભગવાન અરિષ્ટનેમિ વિહાર કરી રહ્યા છે એથી સ્થવિરાની આજ્ઞા મેળવીને અરિષ્ટનેમિને વંદન કરવા માટે અમારે જવુ જોઈએ
(अममन्नस्स एयमट्ट पडिमुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवतो, तेणेव उवागइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदति णमसति, वदित्ता गमसित्ता एवं बयासी-इच्छामो ण तुम्भे अभणुमाया समाणा अरह अरिष्टनेमि जाव गमित्तए
Page #819
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीयरितनिरूपणम् ५७९ हस्तिकल्पे नगरे उचनीचम-यमकुलानि ' अडमाणा' अटन्त बहुजनशब्द निशा मयन्ति-शृण्वन्ति-कि शृण्वन्तीत्याह-' एव खलु हे देशानुमियाः ! अईन् अरिष्ट नेमिः · उज्जितसेलसिहरे ' उज्जयन्तशैलशियरे-गिरनारपर्वतोपरिभागे मासि केन भक्तेन भक्तरत्यारयानेन पानकेन-पानीयरहितेन चतुर्विधाहारपरित्यागेनेत्यर्थः 'पञ्चहिं छत्तीसेहिं जणगारसएहि' पञ्चभि पत्रिंशताऽनगारशतैः शत्रिं शदधिकपञ्चशतसख्यकैरनगारैः सार्य कालगतो यावत्-सिद्धोबुद्धः परिनित सर्वदुःखपहीणो जात ।।
'तएण' ति ' तत खलु ते युधिष्ठिरवर्भाश्चत्वरोऽनगारा बहुजनस्यातिके एतमर्थ श्रुत्वा हस्तिकल्पाद् नगरात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्र सहस्राकरप नगर में उच्च, नीच पच मधम कुलों में गोचरी के लिये आये। उस समय इन्हो ने अनेक मनुष्यों के मुख से इस प्रकार समाचार सुने (एव देवाणुप्पिया ! अरहा अरिहनेमी उजितसेलमिहरे मासिएण मत्तेण अपाणपण पचहिं छत्तीसेटिं अणगारसौ सद्धि कालगए जाव पहीणे, तण्ण ते जुहिहिल्लवजा चत्तारि अणगारा बहुजणस्त अतिए एयम मोच्चा हत्यिकप्पाओ पडिणिस्खमति ) देवानुप्रियो ! अहंत अरिष्टनेमि ऊर्जयतशैल शिखर पर-गिरनार पर्वत के ऊपर एक मास के चतुरविध आहार के परित्यागरूप भक्तप्रत्याख्यान से ५३६ अनगारो के साथ कालगत यावत् सिद्ध, बुद्ध, परिनिवृत हो कर सर्व दुखों से रहित हो गये है। इस प्रकार अनेक मनुष्यो के मुख से इस समाचार को सुनकर वे यधिष्ठिर बजे चारों अनगार उस हस्तिकरपन गर से निकले (पडिनिक्खमित्ता जेणे सरसरवणे उज्जाणे जेणेच અને મધ્યમ કુલોમા ગોચરી માટે આવ્યા તે સમયે તેમણે ઘણુ માણના મુખથી એ જાતને સમાચાર સાભળ્યા કે–
(एव देवाणप्पिया। अरहा अरिष्ट्रनेमी उजितसेलसिहरे मासिएण भत्तण अपाणएण पचहिं उत्तीसेहि अणगारसएहिं सद्धिं कालगए जाव पहीणे, तएण ते जुडिहिल्लवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयम सोचा हत्थिकप्पाओ पडिणिक्खमति)
હે દેવાનુપ્રિયે! અહં ત અરિષ્ટનેમિસ યત વિશિખર ઉપર–ગિરનાર થત ઉપર-એક માસના ગારે જાતના આહારના પરિત્યાગ રૂપ ભક્ત પ્રત્યા
ખ્યાનથી પ૩૬ અનગારની સાથે કાળમત યાવત્ સિદ્ધ, બુદ્ધ, પરિનિવૃત થઈને સર્વ દુઃખોથી મુક્ત થઈ ગયા છેઆ પ્રમાણે ઘણા માણસના મુખથી આ જાતના સમાચાર સાંભળીને તે યુધિષિર વગરના ચારે અનગારે તે હસ્તિ૫ નગરથી નીચા
Page #820
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७८
माताधर्मभयायले फर्मणा ग्रामानुग्राम 'दानमाणा' द्रात: ला, यापद योव 'हत्यिकप्पे नयरे' इस्तिरल्प नगर तमोपागच्छन्ति, उपागत्य स्तिफल्मस्य पहिः सहमा म्ररणे उद्याने यापद विहरन्ति । ततः गते युपिष्टिषधित्वारोऽनगारा मास क्षपणपारण के प्रथमाया पीया स्वाध्याय शान्ति, 'बीयाए ' द्वितीयाया पौरु प्या म्यान न्यायन्ति ठतीयाया पौरुप्यामत्वग्निमवपलममभ्रान्तमढोरसमुख पत्रिका प्रतिलेखयन्ति, भाजनप्रसागि मनिले वरयन्ति, भाननानि च-पात्राणि प्रमार्जयन्ति, भाननान्परगन्ति, गृहीत्या पर यथा गौतमयामी श्रमण महावीर मापृच्छति नपर-अयमत्र विशेषः अत्र सत्तारोऽनगाराः युधिष्ठिरमापून्छन्ति यावत् वतों से आज्ञा प्राप्त कर वे युधिष्ठिर प्रमुप पाच अनगार उन स्थविर भगवत को वंदना नमस्कार करके उनके पास से चले आये और निर न्तर मास मास समण करते हुए एक ग्राम से दमरे ग्राम में विहार करने लगे। इस तरह ग्रामानुग्राम विहार करते गा वे पांचो अनगार जहा हस्तिकर पनाम का नगर था वहा आये। वहा आकर वे हस्तिकरण नगर के पाहिर सहस्राम्रवन उद्यान में जाकर ठहर गये । इसके बाद व युधिष्टिर के सिवाय चारो अनगार मासक्षपण के दिन प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय करते, द्वितीय पौरुपी में ध्यान करते, और तृतीय पौरुषी में अत्वरित, अचपल एव असभ्रान्त होकर सदोरक मुखवत्रिकाकी प्रतिले खना करते, भाजन और वस्त्रोंकी प्रतिलेखना करते-फिर उन्हें उठातेऔर लेकर जिस प्रकार गौतम स्वामी श्रमण महावीर स्वामी से पूछकर गोचरी के लिये निकलते उसी प्रकार ये भी युधिष्ठिर से पूछ कर हस्ति ભગવતેની આજ્ઞા મેળવીને તે યુધિષ્ઠિર પ્રમુખ પાસે અનગારો તે સ્થવિર ભગવ તેને વદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમની પાસેથી આવતા રહ્યા અને સતત માસ ખમણુ કરતા એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરવા લાગ્યા અને રીતે ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરતા તે પાચે અનગારા જ્યા હસ્તિતપ નામે નગર હતું ત્યા આવ્યા ત્યાં આવીને તેઓ હસ્તિક૫ નગરની બહાર સહસ્ત્રાઅવન ઉદ્યાનમાં જઈને મુકામ કર્યો ત્યારબાદ તે યુધિષ્ઠિર સિવાયના ચારે અનગારે માસક્ષપણ પારણાના દિવસે પ્રથમ પરુષમા સ્વાધ્યાય કરતા, દ્વિતીય પૌરૂષીમાં ધ્યાન કરતા અને તૃતીય પૌરૂષીમાં ગોચરી માટે નીકળતી વખતે પણ અચપળ અસ બ્રાત થઈને સોરઠમુખવસ્ત્રિકાની પ્રતિલેખના કરતા, ભાજન અને વસ્ત્રોની પ્રતિલેખન કરતા, ત્યારબાદ તેમને ઉપાડતા અને ઉપાડીને જેમ ગૌતમ સ્વામી શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીની આજ્ઞા મેળવીને ગોચરી માટે નીકળતા તેમજ તેઓ પણ યુધિષ્ઠિરની આજ્ઞા મેળવીને હસ્તિક૫ નગરમા ઉચ્ચ, નીચ,
Page #821
--------------------------------------------------------------------------
________________
निनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीरितनिरूपणम् ५७१ इस्तिकल्पे नगरे उचनीचम यमकुलानि ' अडमाणा' बटन्त बहुजनशब्द निशामयन्ति--पृषन्ति-कि शृण्वन्तीत्याह-' एव खलु हे देशानुमियाः ! अईन अरिष्टनेमिः · उज्जितसेलसिहरे ' उज्जयन्तगेलशिखरे-गिरनारपर्वतोपरिभागे मासिकेन भक्तेन भक्तमत्यार यानेन पानकेन-पानीयरहितेन चतुर्विवाहारपरित्यागेनेत्यर्थः 'पञ्चहिं छत्तीसेहिं जणगारसएहि पञ्चभि पनिशताऽनगारशतैः शत्रिं शदधिकपञ्चगवसल्यकैरनगारैः सार्ध कालगतो यावत्-सिद्वोबुद्धः परिनित सर्वदुःखपहीणो जात ।
'तएण' ति ' तत सलु ते युधिष्ठिरवश्चित्तरोऽनगारा बहुजनस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्ला हस्तिकल्पाद् नगरात् प्रतिनिष्कामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव सहस्राकल्प नगर में उच्च, नीच एव मध्यम कुलों में गोचरी के लिये आये। उस समय इन्हों ने अनेक मनुष्यों के मुख से इस प्रकार समाचार सुने (एव देवाणुप्पिया । अरहा अरिनेमी अजितसेलसिहरे मासिएण भत्तेण अपाणण्ण पचहिं छत्ता सेहि अणगारसहिं सद्धिं कालग जाव पहीणे, तण ते जुडिहिल्लवजा चत्तारि अणगारा जणस्त अतिए एयम सोच्चा हत्यिकप्पाओ पडिणिस्खमति) देवानुप्रियो ! अहेत अरिष्टनेमि ऊर्जयतशैल शिखर पर-गिरनार पर्वत के ऊपर एक मास के चतुरविध आहार के परित्यागरूप भक्तप्रत्याख्यान से ५३६ अनगारों के साथ कालगत यावत् सिद्ध, वुद्ध, परिनित हो कर सर्व दुखों से रहित हो गये है। इस प्रकार अनेक मनुष्यो के मुख से इस समाचार को सुनकर वे युधिष्ठिर वर्ज चारों अनगार उल हस्तिफल्पन गर से निकले (पडिनिखमित्ता जेणे सहसवणे उज्जाणे जेणेव અને મધ્યમ કુલેમા ગેચરી માટે આવ્યા તે સમયે તેમણે ઘણા માણસેના મુખથી એ જાતના સમાચાર સાભળ્યા કે
(एव देवाणप्पिया ! अरहा अरिदनेमी उज्जितसेलसिहरे मासिएण भत्तेण अपाणएण पचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धिं कालगए जाब पहीणे, तएण ते जूहिडिल्लवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्त अतिए एयम सोच्चा हत्थिाप्पाओ पडिणिस्खमति)
- હે દેવાનુપ્રિયે ! અહંત અરિષ્ટનેમિઊજંયત શલશિખર ઉપર-ગિરનાર પર્વત ઉપર-એક માસના ચારે જતના આહારના પરિત્યાગ રૂપ ભક્ત પ્રત્યા ખ્યાનથી પ૩૬ અનારની સાથે કાળગત યાવત્ સિદ્ધ, બુદ્ધ, પરિનિવૃત થઈને સર્વ દુખેથી મુક્ત થઈ ગયા છે આ પ્રમાણે ઘણા માણસોના મુખથી આ જાતના સમાચાર સાભળીને તે યુધિષિર વગરને ચારે અનગારે તે હસ્તિક૫ નગરથી નીકળ્યા
Page #822
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८०
माताधर्मका
श्रवणमुद्यान यंत्रेन युधिष्ठिरोऽनगारस्तत्रैवोपाग उन्ति, उपागत्य भक्तपान 'पन्च क्खति ' प्रत्यारयान्ति = प्रत्याख्याय ' गमनागमनस्त ' गमनागमन प्रतिक्रामन्ति पथिकों कुर्वन्ति प्रतिक्रम्य 'एमणमणेसण ' एपणामनेपणाम् आलोचयन्ति, आलोच्य भक्तपान-प्रतिदर्शयन्ति युधिष्ठिरस्य पुरोऽप्रस्थाप्य प्रतिदर्शयन्ति, मति द एवादिः - एव खल दे देशनुप्रिय । यावत् कालगत: =ईन् अरिष्टनेमि क्षमाप्तः, 'त' तस्मात् श्रेयः खलु अस्माक हे देवानुमियाः । इम पूर्वगृहीत जुरिद्विले अणगारे तेणेव उपागच्छति, उचागच्छित्ता मरापाण पच्च क्खति, पच्चरित्ता गमणागमणस्स पडिकमति पक्किमत्ता एसणम नेसण आलोएँति, आलोहत्ता मत्तपाण पडिदति पडिदसित्ता एव वयासी- एव खलु देवाणुप्पिया। जान कालगए त सेय गल अम्ह देवा णुपिया । इम पुण्यगहिय भत्तपाण परिद्ववेत्ता सेतुंज पव्वय सणिय सणिय दुहित ) निकलकर वे जहाँ सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था और उस में भी जहा युधिष्टिर अनगार विराजमान थे, वहा आये । वहां आकर उन्होंने उनकी साक्षी से भक्त प्रत्याख्यान करदिया और भक्त प्रत्याख्यान करके फिर उन्हो ने ईयपथ शुद्धि की । शुद्धि करके एषणा अनेपणा की आलोचना करके फिर उन्होंने लाये हुए उस आहार को युधिष्ठिर अनगार के समक्ष रख कर दिखलाया । दिखलाकर फिर वे इस प्रकार कहने लगे । हे देवानुप्रिय ' अर्हन् अरिष्टनेमि मुक्ति को प्राप्त हो चुके है इसलिये हे देवानुप्रिय ! हमको अब यही उचित
B
( पडनिमित्ता जेणेन सहसवणे उज्जाणे जेणेव जुहिट्टिल्ले अणगारे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भत्तपाण पच्चक्खति पञ्चक्खित्ता गमणागमणस्स पडिकमति, पडिकमित्ता एसणमनेसण आलोएति, आलोइत्ता भत्तपाण पडिदर्सेति पडिदसिता एव बयासी - एव सल देवाणुपिया | जाव कालगए व सेय खल अम्हे देवाणुपिया ! इम पुन्नगहियभत्तपाण परिद्ववेत्ता सेत्तुज पव्नय सणिय सणिय दुरूहित )
નીકળીને તેએ જ્યા સહસ્રામ્રવન નામે ઉઘાન હતુ અને તેમા પણ જ્યા સુધિષ્ઠિર અનાર હતા ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેમણે તેમની સામે ભક્ત પાનનુ પ્રત્યાખ્યાન કરી દીધુ પ્રત્યાખ્યાન કરીને તેમણે યોપથની શુદ્ધિ અને અનેષણા કરી, આલેચના કરી આલાચના
કરી શુદ્ધિ કરી
તે માહારને યુધિષ્ઠિર નગારની સામે મૂકીને
કરીને તેમણે
L
"
“પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હે છે એટલા માટે
ખતાન્યા અર્હત
Page #823
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगरिधर्मामृतपणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५८१
भक्तपान परिष्ठाप्य 'सेत्तुज ' शत्रुजय - शत्रुजयनामक पर्वत शनैः शनैर्दुरोहितुम् = आरोहितुम्, तथा - ' सलेहणाझसणाइ सियाण ' संलेखना जोपणाजुष्टाना=सलेखनाया कपायशरीरकृपी करणे या जोषणा-मीतिः सेवा वा तया जुष्टा - सेवितास्तेपा=स लेखनात पःकारिणामित्यर्थः - कालम् - अनवकाङ्क्षमाणानाम् अनिच्छताम् विहर्तुम् इति कृत्वाऽन्योन्यस्यैतमर्थं प्रतिशृण्वन्ति = स्वीकुर्वन्ति, प्रति श्रुत्य तद् पूर्वगृहीत भक्तपानम् एकान्ते= मासु के स्थाने परिष्ठापयन्ति, परिष्ठाप्य यत्र शत्रुजयः पर्वतस्तनोपागच्छन्ति, उपागत्य शत्रुजय पर्वत शनैः शनैर्दुरोहन्ति आरोहन्ति, दूध यावत्-कालमननकाङ्क्षमाणा विहरन्ति ।
,
है कि हम इस पूर्व गृहीत भक्त पान का परिष्ठापन कर शत्रुजय नामके पर्वत पर धीरे धीरे चढे ( सलेहणा झूसणा झुसियाण काल अणवकख माणाण विहरित तिकट्टु अण्णमण्णस्स एयमह पडिसुणेति, पडिसुपित्तातं yaaगरिय भत्तपाण एगते परिहवेंति, परिवित्ता जेणेव सेतुज पव्वए तेणेव उवागच्छति ) और वह काय और कषाय को कृश करनेवाली सलेखना मरणाशसा से रहित होकर प्रीति पूर्वक धारण करे इस प्रकार विचार करके उन्हों ने परस्पर के इस विचार रूप अर्थ को स्वीकार कर लिया । स्वीकार करके फिर उस पूर्व गृहीत भक्त पान को उन्होंने एकान्त स्थान मे परिष्ठापित कर दिया और परिष्ठापित करके वे सब जहा शत्रुजय पर्वत या वहां चले गये (उवागच्छित्ता ) वहा जाकर के ( सेतुज पव्वय दुरूति, दुरूहित्ता जाव काल अणवહવે અમરે એ જ વાત ચેાગ્ય લાગે છે કે અમે આ પૂર્વગૃહિત ભતપાનનુ પરિષ્ઠાપન કરીને શત્રુ જય નામના પર્યંત ઉપર ધીમે ધીમે ચઢીએ
( सलेहणा झूसणा झसियाण काल अणवकखमाणाण विहरितए चिकटूड अण्णमण्णस्स एयम पडिसुर्णेति, पडिणित्ता त पुन्नगहिय भत्तपाण एगते परिति, परिचित्ता जेणेव सेत्तुज पञ्चए तेणे उपागच्छति )
અને ત્યા કાય અને કષાયને કૃશ કરનારી સલેખનાને મરણુાશ સાથી રહિત થઇને પ્રેમપૂર્વક ધારણ કરીએ આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે એક બીજાના આ વિચાર રૂપ અને સ્વીકારી લીધે। સ્વીકાર કરીને તેમણે તે પૂર્વગૃહીત ભક્તપાનને એકાંત સ્થાને પરિષ્ઠાપિત કરી દીધુ અને પરિષ્ઠાપિત ४रीने तेथे! सर्वे ज्या शत्रुभ्य पर्वत इतो त्या यादया गया (आगच्छित्ता) त्यां छते
जाव काल अणवकखमाणा विहरंति,
GRE)
-
114
Page #824
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८०
Here are
रणधान यंत्रेन युधिष्ठिरोऽनगारस्तत्रोपाग उन्ति, उपागत्य भक्तपान 'पच्च क्खति ' प्रत्याख्यान्ति = प्रत्याख्याय गमनागमनस्स गमनागमन प्रतिक्रामन्ति ईर्यापथिकों कुर्वन्ति मतिक्रम्य ' एमणमणेमण ' एपणानेपणाम् आलोचयन्ति, आलोच्य भक्तपान-प्रतिदर्शयन्ति युधिष्ठिरस्य पुरोऽयस्थाप्य प्रतिदर्शयन्ति, प्रति दमनादिः - एव खल दे देरानुमिय । यावत् कालगतः = अन् अरिष्टनेमि क्षमात, 'त' तस्मात् श्रेयः खलु अस्माक हे देवानुमिया ! इम पूर्वगृहीत जुहिहिले अणगारे तेणेव प्रयागच्छति, उयागच्छित्ता मत्तपाण पच्च क्खति, पच्चक्त्तिा गमनागमणस्स पडिक्कमति पडिकमित्ता एसणम नेसण आलोऍति, आलोहत्सा भत्तपाण पडिदसेति पडिदसित्ता एव वयासी - एव खलु देवाणुप्पिया ! जान कालगए त सेय खलु अम्ह देवा शुप्पिया । इम पुण्यगहिय भत्तपाण परिद्ववेत्ता सेन्तज पव्वय सणिय सणिय दुहित्तए) निकलकर वे जहाँ सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था और उस में भी जहा युधिष्टिर अनगार विराजमान थे, वहा आये । वहां आकर उन्हो ने उनकी साक्षी से भक्त प्रयाख्यान करदिया और भक्त प्रत्याख्यान करके फिर उन्हो ने ईर्याय शुद्धि की । शुद्धि कर के एषणा अनेपणा की आलोचना करके फिर उन्होंने लाये हुए उस आहार को युधिष्ठिर अनगार के समक्ष रख कर दिखलाया । दिखलाकर फिर वे इस प्रकार कहने लगे। हे देवानुप्रिय ' अर्हन् अरिष्टनेमि मुक्ति को प्राप्त हो चुके है - इसलिये हे देवानुप्रिय ! हमको अब यही उचित
-
1
•
( पडिनिक्खमित्ता जेणेन सहसवणे उज्जाणे जेणेव जुहिट्ठिल्ले अणगारे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भत्तपाण पच्चक्खति पच्चक्खित्ता गमणागमणस्स पडिकमति, पडिकमित्ता एसणमनेसण आलोएति, आलोइचा भत्तपाण पडिदर्सेति पडिदसित्ता एव वयासी - एव खलु देवाणुप्पिया | जाव कालगए व सेय खल अम्हे देवाणुपिया ! इम पुव्यगहियभत्तपाणं परिद्ववेत्ता सेतुज पन्नय सणिय सयि दुरूहित )
નીકળીને તે જ્યા સહસ્રામ્રવન નામે ઉઘાન હતુ અને તેમા પણ જ્યા યુધિષ્ઠિર અનાર હતા ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેમણે તેમની સામે ભક્ત પાનનુ પ્રત્યાખ્યાન કરી દીધુ પ્રત્યાખ્યાન કરીને તેમણે છંાપથની શુદ્ધિ કરી શુદ્ધિ કરીને એષણા અને અનેષણા કરી, આલોચના કરી આલેચના કરીને તેમણે લઇ આવેલા તે આહારને યુધિષ્ઠિર અનગારની સામે મૂકીને ખતાન્યા બતાવ્યા બાદ તેઓ આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હૈ અર્હત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુએ મુક્તિ મેળવી છે એટલા માટે
P
1
Page #825
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैनेगरिधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५८१
भक्तपान परिष्ठाप्य 'सेत्तुज ' शत्रुजय - शत्रुजयनामकं पर्वत शनैः शनैर्दुरोहितुम् =आरोहितुम्, तथा - ' सलेहणाझसणासुसियाण ' संलेसना जोपणाजुष्टाना=सलेखनाया कपायशरीरकृषी करणे या जोरणा - प्रीतिः सेवा ना तथा जुष्टा - सेवि तास्तेषा=सलेसनातपःकारिणामित्यर्थ' - कालम् - अनवकाङ्क्षमाणानाम् - अनिच्छताम् विहर्तुम्, इति कृत्वाऽन्योन्यस्यैतमयं प्रतिशृण्वन्ति=स्त्रोक्कुर्वन्ति, पतिश्रुत्य तद् पूर्वगृहीत भक्तपानम् एकान्ते= मासु के स्थाने परिष्ठापयन्ति, परिष्ठाप्य यत्र शत्रु जयः पर्वतस्तनेोपगच्छन्ति, उपागत्य शत्रुजय पर्वत शनैः शनैर्दुरोदन्ति आरोहन्ति, दूख्य यावत्-कालमन काङ्क्षमाणा विहरन्ति ।
है कि हम इस पूर्व गृहीत भक्त पान का परिष्ठापन कर शत्रुजय नामके पर्वत पर धीरे धीरे चढे ( सलेहणा झूसणा झुसियाण काल अणवकखमालाण विहतिए तिकड अण्णमण्णस्स एयमट्ठ पडिसुणेति, पडिसुपित्तातं पुsarहिय भत्तपाणं गते परिवेति परिहवित्ता जेणेव सेत्तुज पव्चए तेणेव उवागच्छति ) और वहां काय और कपाय को कृश करनेवाली सलेखना मरणाशसा से रहित होकर प्रीति पूर्वक धारण करे इस प्रकार विचार करके उन्हों ने परस्पर के इस विचार रूप अर्थ को स्वीकार कर लिया । स्वीकार करके फिर उस पूर्व गृहीत भक्त पान को उन्होंने एकान्त स्थान मे परिष्ठापित कर दिया और परिष्ठापित करके वे सप जहां शत्रुजय पर्वत था वहाँ चले गये (उवागच्छित्ता ) वहा जाकर के (सेज पव्य दुरुहति, दुरूहित्ता जाव काल अणवહવે અમરે એ જ વાત ચેાગ્ય લાગે છે કે અમે આ પૂર્વગૃહિત ભતપાનનુ પરિષ્ઠાપન કરીને શત્રુ જય નામના પર્વત ઉપર ધીમે ધીમે ચઢીએ
( सलेहणा सणा झुसियाण काल अणवकसमाणाण विहरिए चिकटूड अण्गमण्णस्स एयमह पडिसुणति, पडिणित्ता त पुन्नगहिय भत्तपाण एगते परिवर्थेति, परिदुत्रित्ता जेणेव सेत्तुज पाए तेणेव उपागच्छति )
અને ત્યા કાય અને કષાયને કૃશ કરનારી સલેખનાને મરણુાશ સાથી રહિત થઇને પ્રેમપૂર્વક ધારણ કરીએ આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે એક ખીજાના આ વિચાર રૂપ અને સ્વીકારી લીધે સ્વીકાર કરીને તેમણે તે પૂર્વગૃહીત ભક્તપાનને એકાંત સ્થાને પરિષ્ઠાપિત કરી દીધુ અને પરિપત पुरीने तेथे सर्वे न्या शत्रुभ्य पर्वत इतो त्या यादया गया (उत्रागच्छित्ता) त्यां धने
( सेचुन पव्त्रय दुरूहति, दुरूहित्ता जाव काल अणवकखमाणा विहरति
Page #826
--------------------------------------------------------------------------
________________
धाताधर्मकथाहर ततः खलु ते युधिष्ठिरमासाः पयानगाराः 'सामाउयमाझ्याइ 'सामायि कादीनि चतुर्दशपूर्वाणि अधीत्य हनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयि मा पठाप्ठ मादितपः कृत्या द्विमासिकया सलेम्पनयाऽऽत्मान 'झोसित्ता' जुष्टा सेविला यस्यार्थाय क्रियते नग्नमानो-निन्धभार यार तमगारापयति, आराध्य अनन्तम् अनन्तार्यविषयक योगत् ' फेलवरणाणदगणे' केरल परशानदर्शन समु त्पन्न यावत् सिद्धा'-गिदिगति प्राप्ता इत्यर्थः ।। सू०३५ ॥ कखमाणा विहरति, तरण ते जुरि हिल पामोरया पच अणगारा सामा इयमाइयाइ चोदसपुण्याइ रहणि यामागि० दो मासियाए सलेहणाए अत्ताण झोसित्ता जस्सहाए कीरह, जग्गभावे जाव तमट्टमारोहति, तमट्ठमारादित्ता अणते जार केवलपरणादसणे समुप्पन्ने जाय सिद्धो) वे शत्रुजय पर्वत पर चढ़े चढकर के उन्होंने मरणाशसा से रहित होकर सलेसना धारण करली । इस तरह उन युधिष्ठिर प्रमुख पच अनगारोने सामायिक आदिचतुर्दश पूर्वोका अध्यन करके अनेक वर्षों तक श्राम ण्य पर्याय का पालन करके तथा पष्ठ, अष्टम, आदि तपस्याओ को करके अन्त में दो मास की सलेसना से अपने आप की प्रीति पूर्वक सेवित किया और जिस निमित्त नग्न भाव-निग्रंथ अवस्था धारण की थी उस अर्थ को उन्हों ने सिद्ध कर लिया। सिद्ध करके-आरोधित कर के अनत अर्थ को विपय करने वाले केवलवरज्ञानदर्शन को उत्पन्नकर यावत् वे सिद्धि गति को प्राप्त हो गये। सूत्र ३५ ॥ तएण ते जुहिहिल्लपामोक्खा पच अणगारा सामाइयमाझ्याइ चोदसपुन्बाइ वहूणि वासाणि० दोमासियाए सलेहणाए अचाणे झोसित्ता जस्सहाए कीरइ, जग्गभावे जार तमट्ठमारोहति, तमहमाराहिता अणते जाव केवलवरणाण दसणे समुप्पन्ने जाव सिद्धा)
તેઓ શત્રુ જય પર્વત ઉપર ચઢયા અને ચઢીને તેમણે મરણશ સાથી રહિત થઈને સલેખના ધારણ કરી લીધી આ પ્રમાણે તે યુધિષ્ઠિર પ્રમુખ પાચે અનગારેએ સામાયિક વગેરે ચતુર્દશ પૂર્વેનું અધ્યયન કરીને ઘણા વર્ષો સુધી શ્રામસ્ય-પર્યાયનું પાલન કરીને તેમજ ષષ્ઠ અષ્ટમ વગેરે તપસ્યાઓને કરીને છેવટે બે માસની સલેખનાથી પ્રેમપૂર્વક પોતાની જાતને સેવિત કરી અને જે નિમિત્તને લઈને નગ્નભાવ-નિર્ચ થ અવસ્થા ધારણ કરી હતી તે અને તેમણે સિદ્ધ કરી લીધે સિદ્ધ કરીને આરાધિત કરીને અનત અર્થને વિષયરૂપ બનાવનાર કેવળજ્ઞાન દર્શનને ઉત્પન્ન કરીને યાવત તેઓએ સિદ્ધગતિ મેળવી લીધી છે સૂત્ર ૩૫ છે
Page #827
--------------------------------------------------------------------------
________________
मगारधर्मामृतपणी टीका अ० १६ द्रौपदीच रितनिरूपणम्
५८३
मूलम् - तणं सा दोवई अज्जा सुव्वयाण अजियाण अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाइ अहिज्जइ अहिजित्ता वणि वासाणि० मासियाए सलेहणाए० आलोइयपडिक्कता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए उववन्ना, तत्थ णं अत्येगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता तत्थ णं दुवयस्स देवस्स दस सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता, से णं भते । दुवए देवे ताओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झइ जाव काहिह । एवं खलु जंबू । सम णं जान सपत्तेणं सोलमस्त णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते त्तिवेमि ॥ सू० ३४ ॥ सोलसमं नायज्झयणं समत्त ॥ १६ ॥
टीका- 'तरण मा ' इत्यादि । ततस्तदन तर खलु मा द्रोपदी आर्या साधी सुव्रतानामार्थिकाणामन्ति के सामायिकादिकानि एकादशाद्गानि अधीते, अधीत्य बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयित्वा मासिक्या सलेखनया आलोचित प्रतिकान्ता कालमासे काल कृत्वा 'चलो पचमे ब्रह्मलोके देवत्वेन ' उपवन्ना
1
4
तणं सा दोवई ' इत्यादि ।
टीकार्य - (तरण) इसके बाद (सा दोवई अज्जा) उस द्रौपदी आर्याने ( सुव्वयाण अज्जियाण अति सामान्यमाइयाइ एकारसअगाह अहि ज्जइ ) सुत्रता आर्या के पास सामायिक आदि ११ अगो का अ ययन किया (अहिज्जिसा णि वासाणि० मानियाए सटेरणाए० आलोइय पटना कालमा काल किच्चा बभलोए उवचन्ना) अभ्ययन करके अनेक वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर एक मास की सलेखना
तरण सा दोवई इत्यादि --
टीजर्थ - (तएण ) त्या२पछी (सा दोवई अज्जा) ते द्रौपदी आर्या (सुब्ब याण अज्जियाण अतिए सामाइयमाइयाइ एकारसअ गाइ अहिज्नर ) सुत्रता આર્યોની પાસે મામાયિક વગેરે ૧૧ અગાનુ અધ્યયન કર્યું
(अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि० मासियाए सलेहणाए• आलोईय पडिक्कता कालमासे कालकिच्चा बभलोए उवबन्ना )
અધ્યયન કરીને ઘણા વર્ષોં સુધી શ્રામઃ। પર્યાયનુ પાલન કર્યું. ત્યાર
Page #828
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०४
छाताचर्मका उत्पन्ना, तत्र तस्मिर देवलोके स अस्त्येपा= केपादिवानाम् दशसागरोप मानि स्थिति प्रज्ञप्ता, तत्र खलु द्रौपदेवम्यस्य दशसागरोपमानि स्थितिः प्रतप्ता वत्र खलु गौतमः पृच्छति - भदन्त । स द्रौपदी देव आयुर्भरन्थिविक्षयेण 'ताओ' तस्माद्देवा गमिष्यति पुत्रोत्पत्स्यते ? भगवान् माह-' जात्र ' इति यामहा वर्षे सेत्स्यति, या सर्वदु यानामन्त करिष्यति ।
से आलोचित प्रतिक्रान्त वन वे काल अवसर फाल कर के पाचवें ब्रह्म लोक में देन की पर्याय से उत्पन्न हुई । (तत्थ ण अत्ये गहयाण देवाण दस सागरोचमा ठिई पण्णत्ता, तत्य ण दुवयस्स दवस्म दस सागरो वमाइ टिई पण्णत्ता, सेण भते ! देवे ताओ जान महाविदेहे वासे सिज्झह, जाव काहि । एवं सलु जनू । समणेण जाव सपत्तेण सोलसम स्स णायज्झयणस्स अगमट्ठे पण्णत्ते त्तिवेमि) उस देवलोक में कितनेक देवों की दश सागर की स्थिति प्रज्ञप्त हुई है। सो वहा द्रौपदी देव की दश सागर की स्थिति हुई। अब गौतम पूछते है है भदत | वह द्रौपदी देव आयु एव भवस्थिति के क्षय होने पर वहा से चव कर कहां जावे गा-कहा उत्पन्न होगा ? उत्तर में भगवान कहते हैं - हे गौतम ! वह द्रौपदी देव वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा और वहीं से सिद्ध बनेगा यावत् समस्त दुखों का अत
करेगा ।
પછી એક માસની સલેખનાથી આલેા(ચત પ્રતિકાત બનીને તેએ કાળ અવ સરે કાળ કરીને પાચમા બ્રાલેાકમા દેવના પર્યાયથી જન્મ પામી
( तत्थ ण अत्येगइयाण देना दस सागरोवमाइ ठिई पण्णत्ता, तत्थण दुवयस्स देवस्स दस सागरोवमाइ टिई पण्णत्ता, सेण भते ! दुवए देवे ताओ जात्र महाविदेहे वासे सिज्झर, जाव काहि । एव खलु जबू | "समणेण जात्र सपत्तेण सोलमस्स णायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते तिनेमि )
તે દેવલેાકમા કેટલાક દેવેની દશ સાગરની સ્થિતિ પ્રાપ્ત થઈ છે આ પ્રમાણે દ્રૌપદી દેવીની યા દશ સાગરની સ્થિતિ પ્રજ્ઞપ્ત થઈ
હવે ગૌતમ સ્વામી પ્રશ્ન કરે છે કે હે ભદ્દન્ત ! તે દ્રૌપદી દેવીની આયુ અને ભવસ્થિતિ પૂરી થયા ખાદ ચવીને ક્યા જશે ? કયા ઉત્પન્ન થશે ? તેના ઉત્તરમા ભગવાન કહેવા લાગ્યા કે હૈ ત્યાથી ચવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમા ઉત્પન્ન થશે અને યાવત્ તેઓ પેાતાના સમસ્ત દુખાને! અત કરશે
ગૌતમ ! તે દ્રૌપદી દેવ ત્યાંથી જ સિદ્ધ બનશે
Page #829
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारघामृतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
सुधर्मास्वामी कथयति-' एव खलु' इत्यादि । एव खलु हे जम्बू ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यापत् सिद्विगतिनाम पेय स्थान समाप्तेन पोडशस्य ज्ञाता ध्ययनस्याय-पूर्वकथितः अर्थः-द्रौपदीटप्टान्तरूपो भागः प्रज्ञप्तः, प्ररूपितः, इति प्रवीमि व्याख्यापूर्ववत् ।। ३४ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वहभ-प्रसिद्धवारपञ्चदशभापाकलितललितकलापालापफ-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-पादिमानमर्दक-श्रीहन्छ अपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-'जेनशास्त्राचार्य ' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैन मदिवाकरपूज्यश्री धासीलालतिविरचिताया ज्ञाताधर्मकथासूत्रस्या, नगारधर्मामृतपर्पि
ण्यारयाया व्यारयाया पोडशम ययन समाप्त ॥ १६ ॥ सुधर्मा स्वामी कहते है हे जवू ! श्रमण भगवान महावीर ने जो सिद्धि गतिनामक स्थान को प्राप्त हो चुके है इस पोडश ज्ञानाभ्ययन का यह पूर्वोक्त द्रौपदी दृष्टान्त रूप भाव अर्थ प्ररूपित किया है। ऐसा मैं उन्ही श्रमण भगवान महावीर के द्वारा कहे श्रुत उपदेश के अनुसार कहता हूँ ॥ सूत्र ३६॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत "ज्ञाताधर्मकथाङ्गमूत्र" की अनगारधर्मामृतवपिणी व्याख्याका
सोलहवा अध्ययन समाप्त ॥१६॥
સુધર્મા સ્વામી કહે છે કે હે જ બૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે જેઓ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાન મેળવી ચૂકયા છે આ સેળમા જ્ઞાતાધ્યયનનો આ પૂર્વે વર્ણવેલે દ્રૌપદી દૃષ્ટાંત રૂપ ભાવ અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર વડે કહેવાએલા શ્રત ઉપદેશ મુજબ જ તમને જ કહી વ્ર છુ સદા શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂરની અનગારધર્મામૃતવર્ષિણી
याभ्यानु माणभु अध्ययन समास ॥ १६ ॥
Page #830
--------------------------------------------------------------------------
________________
बानाधणा नाए जाव उवायमाणा२ चिति, तपण से णिज्जामए तओ मुहत्ततरस्स लद्धमइए३ अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्था, तएणं से णिज्जामए ते वहवे कुच्छिधारा य एवं वयासीएव खल्ल अह देवाणुप्पिया । लद्धमइए जाव अमूढदिसाभाए जाए, अम्हे ण देवाणुप्पिया | कालियदीवे तेणं सबूढा एसण कालियदीवे आलोकद, तएणं ते कुच्छिधारा यह तस्स णिजामगस्स अतिए एयम सोचा हटतुटा पयरिखणाणकूलेण वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता पोय वहणं लवेति लवित्ता एगट्रियाहि कालियदीव उत्तरति, तस्थ ण ते वहवे हिरण्णागरे य मुवण्णागर य रयणागरे य वइरा गरे य वहवे तत्थ आसे पासति, कि ते १, हरिरणुसोणिसुत्तगा आइण्णवेढा, तएण ते आसा ते वाणियए पासति पासित्ता तेसि गंध अग्घायंति अग्धायित्ता भीया तत्था उबिग्गमणा तओ अणेगाइ उन्भमति, तेण तत्थ पउरतणपाणिया निब्भया निरुविग्गा सुह सुहेण विहरति ॥ सू० १ ॥
टीका-जम्नूस्वामी पृच्छति-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामय स्थान सम्माप्तेन पोडशस्य ज्ञाताध्ययनस्यायमर्थ -
-जहण भते ! इत्यादि। टीकार्थ-(भते । हे भदत! (जहण समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तेण) यदि श्रमण भगवान महावीरने कि जो सिद्धिगति नामकस्थान को प्राप्तकर चुके हैं (सोलसमस्स णायज्ञयणस्स अयमढे पण्णत्ते सत्तरजइण भते ! इत्यादि
-(भते ! ) 3 महन्त ! (जइण समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण ) ने श्रम लगवान महावीरे-२-या सिद्धगति नामना स्यानने મેળવી ચૂક્યા છે
Page #831
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १७ नौकारणिग्यर्णनम्
५८९ पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मास्वामीप्राह-एव खलु हे जम्नः तस्मिन् काले तस्मिन् समये हस्तिशीपं नाम नगरमासीन् । 'अण्णो' वर्णकः= ऋद्धे' त्यादिनगरवर्णनम् पूर्वपद् विज्ञेयम् । तत्र खलु कनककेतुर्नाम राजाऽऽसीत् ‘वणी ' वर्णक:-' महयाहिमवते ' त्यादि राजवर्णन पूर्ववद् सोध्यम् । तर खलु हस्तिशी मस्स ण भते ! जायज्ञयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जाव सपतेण के अटे पणत्ते) सोलहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोतस्प से अर्थ प्ररूपित किया है तो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए उन्हीं श्रमण भगवान् महावीर ने सत्रहवें ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ प्रस्पित किया है (एव खलु जबू!) इस प्रकार जयू स्वामी के पूछने पर सुध. मा स्वामी अब उन्हें समझाते हैं-वे कहते है हे जबू! तुम्हारे प्रश्न का उत्सर इस प्रकार है:
(तेण कालेण तेण समएण हत्यिसीसे नयरे होत्या, वण्णओ, तत्य, ण कणगकेजणाम राया होत्या, वण्णओ, तत्य, ण हत्यिसीसे णयरे बहवे सजत्ता णावा वाणिगया परिवसति, अड्डा जाव घटुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था) उस काल और उस समय मे हस्तिशी नाम का नगर था। "द्ध" इत्यादि रूपसे पूर्व अध्ययनों में वर्णित पाठ की तरह इस नगर का वर्णन जानना चाहिये । उस नगर मे कनक केतु नामका राजा रहता था। इसका भी वर्णन " मया हिमवत " इत्यादिरूप से पहिले के अध्ययनोंमे वर्णित राजाओंके वर्णन जैसा ही जानना चाहिये। उस
(सोलसमस्स णायज्झयणस्स अयमहे पण्णत्ते सत्तरमस्स ण भते ! णायज्झ यणस्स समणेण भगनया महावीरेण जान सपत्तेण के अट्टे पण्णत्ते )
સોળમા જ્ઞાતાધ્યયનને પૂર્વોત રૂપે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે ત્યારે સિદ્ધ ગતિ સ્થાન મેળવી ચૂકેલા તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સત્તરમાં જ્ઞાતા ધ્યાનને શે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે
(एव सल जमू) मारी पूना प्रश्नने सालणीनतमन समन्तता અધમ સ્વામી કહેવા લાગ્યા કે હે જ બૂ! તમારા પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે –
( तेण कालेण तेण समएण हथिसीसे नयरे होत्या, वणो , तत्थण कण. गके ऊणाम राया होत्था, पण्णओ, तत्यण हत्यिसीसे णयरे हवे सजत्ता णावा वाणियगा परिचसति, अड्डा जाव बहुजणस्म अपरिभूया यावि होत्था)
ते जाणे मन त समये अस्तिशी नामे ना२ तु “ ऋद्ध" पोरे રૂપમાં પહેલાના અધ્યયનમાં વર્ણન કરવામાં આવેલા પાઠની જેમ આ નગરના વર્ણન પણ જાણું લેવું જોઈએ તે નગરમાં કનકકે નામે રાજા રહેતે હવે
Page #832
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८८
साधर्मकशाहले नाए जाव उवायमाणा२ चिटंति, तएण मे णिज्जामए तओ मुहत्ततरस्स लद्धमइए३ अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्था, तएण से णिनामए ते वह कुच्छिधारा य १ पचं वयासोएव खल्ल अह देवाणुप्पिया | लडमइए जाव अमूढदिसाभाए जाए, अम्हे गं देवाणुप्पिया । कालियदीवे तेण सबूढा एसण कालियदीवे आलोकइ, तएण ते कुच्छिधारा यह तस्स गिजामगस्स अतिए एयमट्ट सोचा हट्टतुट्टा पयस्खिणाणलेण वा. एणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता पोय वहण लवेति लवित्ता एगट्रियाहिं कालियदीव उत्तरति, तस्थ ण ते बहवे हिरण्णागरे य सुवण्णागरे य रयणागरे य वइरा गरे य वहवे तत्थ आसे पासति, कि ते , हरिरणुसोणिसुत्तगा आइण्णवेढा, तएणं ते आसा ते वाणियए पासति पासित्ता तेसि गंध अग्घायति अग्घायित्ता भीया तत्था उधिग्गमणा तओ अणेगाइ उन्भमति, तेणं तत्थ पउरतणपाणिया निब्भया निरुविग्गा सुह सुहेण विहरति ॥ सू०१॥
टीका-जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनाम पेय रथान सम्प्राप्तेन पोडशस्य ज्ञाताध्ययनस्यायमर्थ -
-जण भते ! इत्यादि।
टीकार्य-(भते। हे मदत (जहण समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तेण) यदि श्रमण भगवान महावीरने किजो सिद्धिगति नामकस्थान को प्राप्तकर चुके हैं (सोलसमरस णायज्ञयणस्त अयमढे पण्णत्ते सत्तर
जइण भते । इत्यादि
A -(भते ! ) महन्त ! (जइण समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण ) ने भए लगवान महापारे । सिद्धगति नामना स्यानन મેળવી ચૂક્યા છે
Page #833
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ निर्यामकस्यदिङ्मूढयम् माना 'सखोहिज्जमाणी २ ' सक्षोभ्यमाणा २ पुनः पुनः क्षोभ पाप्यमाणा सती तत्रैव एक्स्थान एवेतस्ततः परिभ्राम्यनि किन्तु ततः पर गन्तु न मभवतीति भावः । ततः खलु स निर्यामका नाविक ‘णहमइए' नष्टमतिक -मतिज्ञानरहितः 'णसुइए' नष्टश्रुतिक-विस्मृतनिर्यामशास्त्रः दिग्निर्णय कर्तुमशक्तत्वात् णमष्णे' नष्टसञः मार्गज्ञानन्तिः 'मूढदिसाभाए ' मूढदिग्भागः पूर्वादि दिग्रिभागज्ञानरहितः जातश्चप्यासीत् , पुनश्च स न जानाति यत् कतर क देश २ तस्येव परिभमइ, तएण से णिजामण भट्ठमइए ण? सुइए ण सण्णे मृददिसभाए जाए यावि होत्य) एक दिनकी बात है कि जब ये साया त्रिक पोत वणिक एक जगह मिलकर धैठे हुए थे तब अष्टम अध्ययन में चणित अरहनक सेठ की तरह इनका लवण समुद्र से होकर परदेश में व्यापर निमित्त जाने का विचार हुआ। विचार स्थिर होते ही ये जब नौका द्वारा लवण ममुद्र मे सैकडो योजन तक निकल चुके तर इनके लिये जिन रक्षित और जिनपालितकी तरह आकस्मिक अनेक उत्पातशत (सैकडों)हए। उस समय प्रलय कालकी तरह प्रचण्ड वायु उटी। उससे उनकी नौका थार २ डगमगाने लगी इधर से उधर फिर ने लगी। बार २ चञ्चल होकर मार २ क्षुभित होकर एक ही स्थान पर नीची ऊंची होने लगी-उससे आगे वह नहीं पढी। इससे निर्यामिक-नाविकमतिज्ञान से रहित हो गया। दिशाओं का निर्णय करने का ज्ञान उसका जाता रहा। यह मार्ग ज्ञान रहित होकर दिग्मृढ बन गया। (ण जोणह २ सखोहिज्जमाणी १ तत्ये परिभमइ, तएण से णिज्जामए णहमदए णमुसुइए पहसण्णे मूढ दिसाभाए जाए यावि होत्था)
એક દિવસની વાત છે કે જ્યારે તેઓ સર્વે સાયાત્રિક પિતવધિ એક સ્થાને એકત્ર થઈને બેઠા હતા ત્યારે આઠમાં અધ્યયનમાં વર્ણિત અરડનક શેઠની જેમ તેમને પણ લવણ સમુદ્રમાં થઈને પરદેશમાં વેપાર માટે જવાને વિચાર થયે વિચાર રિથર થતા જ તેઓ જ્યારે નૌકા વડે લવણ સમુદ્રમાં સેકડે જન સુધી પહોચી ગયા ત્યારે જીનપાલિત અને જીનરક્ષિતની જેમજ તેમના માટે પણ સેકડો એચિંતા ઉપદ્રવ ઉત્પન્ન થયા તે વખતે પ્રલય કાળના જેવો પ્રચડ વાયુ કુકાવા લાગ્યા તેથી તેમની નૌકા વાર વાર ડગ મગવા લાગી, આમથી તેમ ફરવા લાગી વારેઘડીએ ચચળ થઈને, વાર વાર કુંભિત થઈને એક જ સ્થાન ઉપર નીચે ઉપર થવા લાગી, તેનાથી આગળ વધી નહિ તેથી નિયમિક-નાવિક મહિનાથી રહિત થઈ ગયો દિશા એને જાણવાનું તેનું જ્ઞાન જતું રહ્યું માર્ગજ્ઞાનથી રહિત થઈને દિમૂઢ બની
Page #834
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०
বাখরখা नगरे पहा - समसाणापाणियगा । सयानानीरामाणिनका स-साता यात्रान्देशान्तरगमन सयाना, तत्प्रधाना नौकामाणिना-पोतमणिजा-सयात्रा नौका बाणिनकाः परिपसति कीरगाः ? इत्याह-माया यापन् 'बहुजणस्म' बहुजनस्य सम्बन्धमामान्ये पछीजनसमुदायेनेत्यर्थः 'मारिभूया' अपरिभूताः पराभवरहिता चाप्यासन् । तत खलु तेपा सयारानीका नाणिनकानाम् अन्यदाअन्यस्मिन् कस्मिभित्समय 'एगयो' एकनु एकत्रमिलिया जहा अरद्दण्णओ' यथा अईनक अगाष्टमा ययमोक्ताईनावन यापन लपणसमुद्रमनेकानि योजन शतानि 'ओगाढा' अगाढा उत्तीर्णायप्यागन् । तत तत्र सलु तेपा याद बहूनि उप्पाइयसयाइ ' औत्पातिकशतानि आकस्मिोत्पातशतानि यथा माक न्दिकदारकयो:-जिनरक्षितजिनपालितयोः सनातानि तथैवास्यापि यायद 'कालि यवाए ' कालिकातः मलयकालिकात्मचण्ड यातच तन समुत्यितः । ततः तदन न्तर खलु सा नौका तेन कालिकरातेन 'आघोलिज्जमाणी २' आघूर्णीमाना २ पुनः पुनर्भ्राम्यन्ती ' संचालिज्जमागी २' सचाल्यमाना २ पुन' पुनथाल्य हस्तिशीप नगरमें अनेक पोत वणिक (नायसे व्यापार करने वाले) रहते थे। ये एक साथ मिलकर ही परदेश में जाकर व्यापार किया करते थे। इनकी उस नगर में अच्छी प्रतिष्ठा थी-कारण ये सब के सब लक्ष्मीदेवी के विशेप रूप से कृपापात्र थे। (तण्ण तेसिं सजत्ता णोवा वाणियगार्ण अन्नया गयाओजहा अरहण्णाभो जान लवणसमुद्द अणेगाड जोयण सयाइ ओगाढा यावि होत्या, तरण तेति जाव चणि उप्पाइयसयाई जहा मागदियदारगाण जाव कालियवाए य तत्थ समुत्थिर, तएण सा तेण कलियवाण आघोलिजमाणी २ सचालिजमाणी २ सखोहिजमाणी
An And १ ५ " महया हिमवत" पोरे ३५मा पसाना मध्य યમાં વર્ણિત રાજાઓના વર્ણન જેવું જ જાણી લેવું જોઈએ તે હસ્તિશર્ષિ નગરમાં ઘણું પિતવણિકે (વહાણ વડે વેપાર કરનારા) રહેતા હતા તેઓ સર્વે એકી સાથે મળીને પરદેશમાં જતા અને ત્યાં વેપાર કરતા હતા તે નગરમા તેમની સારી એવી પ્રતિષ્ઠા હતી કેમકે ખાસ કરીને તેઓ સર્વે લક્ષ્મીના કૃપાપાત્ર હતા
(तएण तेसिं सजत्ता णारा वाणियगाण अन्नया एगयाओ जहा अरहण्णओ जान लपणसमुद्द अणेगाड जोयणसयाइ ओगाढा याचि होत्था, तएण तेसि जार वहणि उप्पाइयसयाइ जहा मागदियदारगाण जाम कालियवाए य तत्य समु थिए तएण सा णावा तेण कलियबाएण आघोलिज्जमाणी २ - ।. । .
Page #835
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपगत आकीर्णाश्विचतयता ६०१ प्रविशन्ति, अनुमयि व स्नकेत राजा तनैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यावत् तत्माभृतम् ' उपति' उपनयन्ति भूपसमीपे स्थापयन्ति ॥ ०२ ॥
मूलम् - तणं से कणगऊ राया तेसि सुजत्ताणावावाणियगाण त महत्थ जाव पडिच्छइ पडिच्छित्ता त सजत्ताणावावाणियगा एवं वयासी तुष्णं देवाशुप्पिया । गामागार जाव अहिंडह लवणसमुच अभिक्खणर पोयवहणेणं ओगाहह तं अस्थि आई केइ कहिनि अच्छेरए दिटुपुव्वे १, तणं ते सजन्ताणावावणियगा कणगरेऊ एव वयासी- एव खलु अम्हे देवाप्पिया । इहेव हत्थिसीसे नयरे परिवसामो त चैव जाव कालियदीव तेणं बूढा, तत्य ण बहवे हिरण्णागरा य जाव कणके राया तेणेव उवागच्छह, उद्यागच्छित्ता जाव उववेंति) वहाँ आकर के वे लोग उस हस्तिशीर्ष नगर के बाहर के प्रवान उद्यान में ठहर गये वहा ठहर उन्हो ने वही पर शकटी-गाडी शाकटो-गाडों की ढील - ठहरा दिया । ढीलकर के बाद में महार्थ महाप्रयोजन सावक भूत - यावत् प्राभृत भेट को उन्हों ने अपने २ हाथो मे लिया और लेकर के वे हस्तिशीर्ष नगर में प्रविष्ट हुए नगर में प्रविष्ट होकर वे जहां कनक केतु राजा थे वहा पहुँचे । वहा पहुॅचक उन्हो ने उस महाप्रयोजन साधक भूत प्राभृत को राजा के पास रख दिया ।। हृ०२ ॥
इत्थसीस नगर अणुपवसति, अणुानिसित्ता, जेणेन कणगकेक राया तेणेव उवा गच्छर, उवागच्छित्ता जाव उनवेंति )
ત્યા આવીને તે બધા તે હસ્તિથી નગની બહારના મુખ્ય ઉદ્યા નમા રાકાઈ ગયા, ત્યા શકાઈને તેમણે ત્યા જ શકટી-ગાડી અને શાકટાગાડાઓને છેડી મૂકયા ત્યારબાદ તેમણે મહા-મહાપ્રયેાજન સાધક ભૂત ચાવત્ લેટને પાતપેાતાના હાથેામા લીધી અને લઈને તેએ હસ્તિશીષ નગ રમા પ્રવિષ્ટ થયા નગરમા પ્રવિષ્ટ થઈને તે જ્યા કનકકેતુ રાજા હતા ત્યા પહેાચ્યા ત્યા પહેાચીને તેમણે તે મહાપ્રયેાજન સાધક રૂપ લેટને રાજાની સામે મૃકી દીધી ! સૂત્ર ૨૫
झा ७६
Page #836
--------------------------------------------------------------------------
________________
या दिशा विदिश का मति मे पोतवहनम् नौकायान 'मारिए ' अपहतम् महा पातेन नीतम् : इनि । इति सत्याप्रतिमनमि निधाय परतमनः सरन्यो यावर यायति मार्ग यान करोति । तत ग्पन्लु ते सिधारा-मार्थती नौका चालमाः पर्णधाराम-नागि' । 'गनिलगाय' गार्भयका नीमध्ये यथाव सर कर्मफराः, सयात्रानी का गणिनामाण्डपतयथ यम निर्यापरन्नौका धिपतिस्तोवोपागन्छन्ति, उपागत्य परम गादिपु:-कि पलु यूय हे देशानुभिया' अपहतमन सकल्पाः निरत्माहमनसा यारत् 'मियायह ध्यायथ आतध्यान कुरुथ, भारार्थे पहुवचनम् । तत खलु म निर्यामरस्तान पहन कुक्षिधाराश्च ४ फयर देम वा दिम पा चिदिस वा पोयबरणे अवहित त्ति कटु) अतः जप उसे इस बात का भी ज्ञान नहीं रहा कि यर महावीत मेरी नौका को किस दिशा अपमा चिदिशा की ओर ले गया है-तय इस प्रकार मन में विचार कर के यह (ओहयमगसरुप्पे जार मियायह) अपरत मन. सकल्पवाला पनकर यारत् आतध्यान करने लगा। (तण्ण त पहवे कुचिधारा य कण्णधारा य गम्भिल्लगा य सजत्ता जावो वाणि यगा य जेणेव से णिज्जाम तेणेच उवागच्छद) इतने में अनेक कुक्षि धर-पार्श्व में बैठकर नौका चलाने वाले कर्णधार-नाविक, गार्मेयक-नौका के भीतर ययावसर काम करने वाले और सांयात्रिक पोत वणिक जहा वह निर्यात्रिक या-वहा आये। ( उवांगचित्ता एव वयासी-किन्न तुम देवाणुपिया ओयमणसमप्पी जाय झियायह-तरण से णिज्जामए गयो (ण जाणाइ कयर देस वा दिस वा विदिस वा पोयवहणे अवहिएति क१) એથી જ્યારે તેને આ વાતની પણ ખબર રહી નહિ કે આ મહાવાત અમારી નૌકાને કઈ દિશા અથવા તે વિદિશા તરફ લઈ ગયું છે ત્યારે મનમાં આ जतन वियर शन ते (ओइयमणस कप्पे जाव झियायइ) अपडतमन સ કલપવાળો થઈને યાવત આર્તધ્યાન કરવા લાગ્યા
(तरण ते वहवे कुन्छिधारा य कण्णधारा य गम्भिल्लगा य सजत्ता णावा वाणियगा य जेणेव से णिज्जामए तेणेग उवागच्छद) એટલા મા ઘણુ કુક્ષિધર--
પામાં બેસીને નૌકા ચલાવનારા, કર્ણધાર નાવિક, ગાર્મેયક-નોકામા યથા સમયે કામ કરનારા અને સાયાત્રિકપાત વણિકો જ્યા તે નિર્ધામક હતો ત્યા ગયા
(उवागच्छित्ता एव वयासी-किन्न तुम देवाणुपिया ओइयमणसकप्पा जाव झियायह-तएण से णिज्जामए ते वहवे कुच्छिमारा य ४ एव वयासी
Page #837
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगर टी० अ० १७ कालिकद्वीपगतआकीर्णाश्विवतव्यता ६०३
य पावरणाण य नवतयाण य मलयाण य मसूराण य सिलावहाण य जाव हंसगव्भाणय अन्नेसि च फासिदिय पाउग्गाणं दव्वाणं सगडीसागड भरेति भरिता सगडीसागडं जोएति जोइता जेणेव गंभीरए पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सगडीसागडं मोएति मोइसा पोयवहणं सज्जेति सजित्ता तेसि उक्किद्वाणं सद्दफरिसरसरुवगंधाणं कटुस्स य तणस्स य पाणियस्त य तदुलाण य समियरस य गोरसस्स य जाव अन्नेति
बहूण पोयवहणपाउग्गाण पोयवहणं भरेति भरिता दक्खि णानुकूलेणं वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पोयवहणं लवेति लंवित्ता ताइ उक्किट्ठाइ सदफरिसरस रूवगधाडं एगट्टियाहि कालियदीवे उत्तारेति । जहि २ च णं ते आसा आसायति वा सयति वा चिट्ठति वा तुयहति वा तहि २ च णं ते कोडुवियपुरिसा ताओ वीणाओ य जाव वित्त वीणाओ य अन्नाणि य बहूणि सोइदियपाउग्गाणि य दव्वाणि समुदीरेमाणा चिति तेसि परिपरंतेण पासए ठवेति ठवित्ता णिच्चला णिष्फदा तुसिणीया चिति, जत्थर ते आसा आसमंति वा जाव तुयहति वा तत्थ तत्थ णं ते कोडुवियपुरिसा बहूणि किण्हाणि य ५ ककम्माणि य जाव सघाइमाणि य अन्नाणि य वहूणि चक्खिदिय पाउग्गाणि य दव्वाणि ठवेंति तेसि परिपेरतेण पास ठवेंति ठवित्ता णिच्चला णिष्कदा तुसिणीया चितिज २ ते आसा आसयति ४ तत्थ २ ण तेसि वहूणं
Page #838
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
-
-
पातापाया चहवे तत्थ आसा किं ते ?, हरिरेणु जाव अणेगाई जोयणाइ उन्भमंति, तएणं सामी अन्हेहि कालियटीवे ते आसा अच्छेरए दिपुव्वे, तएण से कणगऊ राया तेसिं सजत्तगाणं अंतिए एयम, सोचा ते सजत्तए एवं वयासी-गच्छहणं तुन्भे देवाणुप्पिया मम कोडंपियपुरिसेहि सद्धि कालियदीवाओ ते आसे आणेह, तएण ते संजत्ताणावावाणियगा कणगकेउ रायं एवं वयासी-एवं सामि तिकटु आणाए पडिसुणेति, तएणं कणगकेज राया कोडवियपुरिमे सदावेड सहावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्मे देवाणुप्पिया ! संजत्तिएहि सद्धि कालियदीवाओ मम आसे आणेह, ते वि पडिसुणेति, तएण ते कोडुविय० सगडीसागडं सजेंति सजित्ता तत्थ ण वहणं वीणाण य वल्लकीण य भामरीण य कच्छभीण य भंभाण य छब्भामरीण य वित्तवीणाण य अन्नेसि च बहूण सोतिदियपाउग्गाण दवाण सगडीसागड भरेंति भरित्ता वहणं किण्हाण य जाव सुकिलाण य कट्रकम्माण य ४ गंथिमाण य ४ जाव सघाइमाण य अन्नेसिं च वहणं चक्खिदियपाउग्गाणं दव्वाणं सगडीसागड भरेति वहणं कोहपुडाण य केयईपुडाण य जाव अन्नेसि च बहूणं घाणिदियपाउग्गाणं दव्वाण सगडीसागड भरति बहुस्स खडस्स य गुलस्स य सकराए य मच्छंडियाए य पुप्फुत्तर पउमुत्तराण य अन्नेसि च जिभिदियपाउग्गाणं दव्वाणं सगडीसागड भरेंति । बहण कोयवियाण य कबलाण
Page #839
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृनपणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपगत आकीणश्विक्तव्यता ६०५
टीका- ' तएण से ' इत्यादि । ततः खलु स कनन केनू राजा तेपा सयान - नौकावाणिजकाना तन्महार्थ यावत् माभृत 'पडिच्छड ' प्रतीच्छति=स्त्रीकरोति प्रतीप्य तान् साकाराणिजकान् एवमवाडीत् - यूय सल हे देवानुमिनाः ! गामागर जात्र अहिंडद ' ग्रामाकर यावत् ग्रामाकरनगरादिषु आहिण्डथ= गच्छत, लवणसमुद्र च अमीक्ष्ग २ पोतादनेन जवगाहने ' व ' तत् = वर्दि अस्ति 'आ' इति नाक्यालङ्कारे किमपि ' भे' युष्माभिः 'कर्हिचि' कुचित्र 'अच्छे' आश्रर्यकर्म = आश्चर्यजनानस्तु 'दिपुच्चे' दृष्टपूर्वम् ? यदि दृष्टमस्ति तर्हि क्थयतेतिभाव' । ततः सलु ते सयानौकावाणिजका कनककेतुमेत्रमत्र -:तएण से कणगऊ राया इत्यादि ।
"
टीकार्य - (तरण) इसके बाद (से कणगकेऊ राया) उस कनककेतु राजा ने ( तेसि सजता नाना वाणियगाण त महत्व जाव पडिन्छ, पडिच्छिता ते सत्ता णावा वाणियगा एव वयासी तुम्भेण देवाणुपिया गामगर जाव आहिंडर लवणसमुद्द च अभिस्वण २ पोयवहणेण ओगाहरु त अस्थिभइ केइ भे कहिंचि अच्छेरए दिट्ठपु०वे ? ) उन सायात्रिक पोतवणिक जनों की उस महार्थसाधक भेंट को स्वीकार कर लिया और स्वीकार करके फिर उन सायात्रिक पोतवणिक जनों से इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियों तुमलोग अनेक ग्राम आकर नगर आदि स्थानों में जाते रहते हो और वार २ पोनवहन द्वारा लचणसमुद्र में अवगाहन करते रहते हो तो करो कही पर तुम ने यदि कोई आश्चर्य कारी वस्तु देवी हो तो कहो - (तणं ते सजत्ता णावा वाणियगा कण तरण से कणगऊ राया इत्यादि
4
अर्थ - (तरण ) त्यारपछी ( से कणगरेऊ राया) ते नतु शलभे ( तेर्सि सजता पाना वाणियगाण व महत्व जान पडिच्छा, परिच्छित्ताते सजाता गाना वाणियगा एवं क्यासी-तुम्भेण देनाणुपिया ! गामागर जान आडिह लवणममुः च अभिक्खण २ पोयवहणेणं ओगाहह त अस्थि आइ के कर्हिचि अछेरए दिट्ठपुच्चे ? )
તે સાયાત્રિક પાતણુકનેાની તે મહા સાધક લેટને સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તે માયાત્રિક પેાતવણિકજનાને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે દેવાનુ પ્રિયા | તમે લેકે ઘણા ગામ, આકર, નગર વગેરે સ્થાનેામા આવા કરતા રહેા છે અને વહાણુ વડે લણુ સમુદ્રની વાર વાર યાત્રા કરતા રહે છે. તા અમને કહે! કે તમે કેઈ નવાઈ પમાડે તેવી અદ્દભુત વસ્તુ જોઈ છે ?
Page #840
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
भाताधमे या कोटपुडाण य जाव अन्नेसिं च बहणं घाणिदियपाउग्गाणं
जे य णियरे य करेंति करिता तेमि परिपेरंतेणंजाव चिट्ठति जत्थ २ णं ते आसा आसयति । तत्थ २ णं गुलस्स जाव अन्नोस च बहणं जिभिदियपाउग्गाय दवाणं पुंजे य निकरे य करेंति करिता विचरए खणति खणित्ता गुलपाणगस्स खंडपाणगस्स जान अन्नेसि च वहण पाणगाण वियरे भरेंति भरित्ता तेसि परिपेरतेण पासए ठति जान चिटुंति, जहिं २ च णं ते आसा आस. तहिं २ च णं ते वहवे कोयविया य जाव हसगम्भा य अण्णाणि च चहणि फासिदिय पाउग्गाई अत्धुयपच्चत्थुयाइ ठोति ठवित्ता तेसि परिपेरंतेणंजाव चिट्ठति, तएणं ते आसा जेणेव एते उक्किठा सद्दफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तत्थण अत्थेगइया आसा अपुवा णं इमे सदफरिसरसरूवगंधा इतिकटु तेसु उकिडेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु अमुच्छिया ४ तेसि उकिहाण सद जाव गंधाणं दूरदूरेणं अवक्कमति, तेणं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया "णिब्भया णिरुविन्गा सुह सुहेण विहरति, एवामेव समणाउसो
जो अम्ह णिग्गथो वा णिग्गथी वा जाव सदफरिसरसरूवगंधेसु __णो सज्जइ णो रज्जइ णो गिज्झइ, णो मुज्झइ णो अज्झोववज्जेइ
से णं इहलोए चेव वहण समणाण ४ अच्चणिजे जाव वीइवइस्सइ ॥ सू०३ ॥
Page #841
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतयषिणी टी० ० १७ कालिकद्वीपगत आकोणाश्यवक्तव्यता ६९७ कनककेतू राजा तेपा 'सजत्तिगाण' सायात्रिकाणामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा तान् सायानिकान् एवमवदत्-गन्छत खलु यूय हे देवानुप्रियाः ! मम कौटुम्बिकपुरुः सार्द्ध कालिकद्वीपात्तानश्वानानयत । ततः खलु ते सयानानौमाणिजका कनककेतु राजानमेवमादिपुः हे स्वामिन् ! एनमस्तु 'त्ति कटु' इति कृपा इत्युक्त्वा ' आणाए ' आज्ञायाः आज्ञामित्यर्थ,-'पडिसुणेति' प्रतिशृण्वन्ति कर वरासे कइ योजन दूरतक जगलमें भाग गये । अतः हे देवानुप्रिय "कालिकद्वीप में हमलोगों ने उन घोडों रूपी आश्चर्य को देखा है। (तएण से कणगऊ राधा तेसिं सजत्तगाण अतिए एयम? सोच्चा ते सजत्त एवं वयासी-गच्छह गं तुम्भे देवाणुप्पिया । मम कोडुपिय पुरिसेहिं सद्धिं कालियदीवाओ ते आसे आणेह तएण ते सजत्ता णावा वाणिगया कणगकेऊ राय एव वयासी एव सामित्ति कटु आणाए पडिसुणेति, तण्ण कणगऊ राया कोडवियपुरिसे सद्दावेह, सदायित्ता एव वयासी-गच्छह ण तुम्भे देवाणुप्पिया! सजत्तिहिं सद्धिं कारिय दीवाओ मम आसे आणेह, ते वि पडिसुणेति ) हमके बाद कनक केतु राजा ने उन सायात्रिक पोतवणिकजनो के मुग्व से इस अर्थ को स्तुनकर उन सायात्रिकों से इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियो ! तुमलोग जाओ और मेरे कौटुम्बिक पुरुषो के साथ कालिकद्वीप से उन अश्वो को लाओ। इस प्रकार सुनकर पोतवणिरु जनो ने कनक केतु राजा से ऐसा कहा વનમાં નાસી ગયા હે દેવાનુપ્રિય! અમે એ કાલિક દ્વીપમાં તે અશ્વ રૂપી અદ્દભુત વસ્તુને જોઈ છે
(तएण से कणग केऊ राया तेसिं सजत्तिगाण अंतिए एयमह सोचा ते सजत्तए एर वयासी-गच्छहण तुन्भे देवाणुप्पिया ! मम कोडुपियपुरिसेहिं सद्धिं कालियदीवाओ ते आसे आणेह, तरण ते सजत्ता णावा वाणियगा कणग केज राय एव क्यासी एव सामी त्ति कटु आणाए पटिमुणेति, तएण कणगरेऊ राया फोडु बियपुरिसे मदावेद, सद्दावित्ता एव वयासी-गच्छण तुम्भे देशणुप्पिया! सजत्तिएहिं सद्धि कालियदीवाओ मम आसे आणेह, ते वि पडिसुणेति)
ત્યારબાદ કનકકેતુ રાજાએ તે સાયાત્રિક પિતવણિકજનેના સુખથી આ વાતને સાભળીને તે સાયાવિકાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! તમે લોકે મારા કૌટુંબિક પુરુષની સાથે કાલિક દ્વીપમા જાઓ અને ત્યાથી તે અને લા આ પ્રમાણે કનકકેતુની આજ્ઞા સાભળીને તે પિતવણિકનેએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામી! તમારી આજ્ઞા અમારા માટે પ્રમાણ વરૂપ છે આમ કહીને તેમણે કનકકેતુ રાજની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી ત્યાર
Page #842
--------------------------------------------------------------------------
________________
हातापा दन्-एव खलु वय हे देशानुप्रियाः । र हस्तिशीर्ष नगरे परिपसामः, 'देव' तदेव पूक्तिवर्णन सर्वमत्र रायम् 'जार' यान् फारिकद्वीपान्ते कालिक द्वीपसमीपे सलु ' सपढा' सम्पूटा:-माता, तब पलु रहो हिरण्यापराच यावद् वडवस्तवावाः सन्ति, स्ति'किम्भूतास्ते ? इत्याह-'हरिरेणु भाव' हरिद्रेणु शोणि सूत्रकाः यापद-तेऽस्मद्गन्धमात्राय भीताः सन्तः अनेकानि योजनानि दरम् 'उन्म मति' उद्ममन्ति पलायन्ते सम, ता. खलु हे सामिन् ! अस्मामि "कालिक द्वीपे तेऽश्याः सन्ति " तर 'अन्रए' आर्यक दृमिति । ततः खलु स गकेज एव चयामी जय अम्हे देवाणुप्पिया! इहेब हस्थिसीसे नपरे वसामो त चेत्र जार कालियदीय तेण सहा तत्य ण यावेरिणागरा य जाव यावे तत्व आप्ता फितेहरिणेणु जार अणेगाह जोयणाड उन्म मति-तपण मामी अम्हें हि कोलियदी ते आसा अरेरण दिट्टपुत्रे) इस प्रकार राजा की बात सुनकर उन सांयात्रिक पोतवणिरजनों न उन कनककेतु राजा से कहा हे देवानुप्रिय ! हमलोग इसी हस्तिशीष नगर में रहते हैं। हमलोग यहा से लवणसमुद्र में होकर व्यापार के निमित्त बाहर परदेश गये हुए थे-1 मार्ग में हमलोगो को अनेक प्रकार के सैकडो उपद्रव हु-उनसे जिस किसी तरह सुरक्षित हो हमलोग कालिकद्वीप के समीप पहुँच गये। वहीं हमने अनेक हिरण्य आदि की स्वानो को एव अनेक अश्वों को कि जिनका कटिभाग हरिद्वर्णवाली धूलि से रचित कटिसूत्रसे चिन्हित या देखा, वे हमलोगों की गध को सूघ
(तएण ते सजता णामा वाणियगा कणगड एव वयासी-एव खलु अम्हे देवाणुपिया ! इहेव हथिसीसे नयरे वसामो त चेव जार, कालिअ दाव तेण सबूढा, तत्थ ण यहवे हिरण्णागरा य जाच बहवे तत्थ आसा कि ते ? हार रेणु जाव अणेगाइ जोयणाइ उम्भमति-तएण सामी अम्हेंहि कालियदीवे त आसा अच्छेरए दिहपुव्वे )
આ પ્રમાણે રાજાની વાત સાંભળીને તે સધ્યાત્રિક પિતવણિક જનોએ તે કનકકેતુ રાજાને કહ્યું કે હે દેવાનપ્રિય! અમે બધા આ હસ્તિ શીર્વ નગર મા જ રહીએ છીએઅમે બધા વ્યાપાર ખેડવા માટે અહીંથી લવણ સમુદ્રમાં થઈને બહાર પરદેશમાં ગયા હતા રસ્તામાં ઘણું જતના સેકડી ઉ૫" થયા છે. ગમે તેમ કરીને સુરક્ષિત રૂપમાં અમે બધા કાલિદીપની પાસે ગયા ત્યા અમેએ ઘણી હિરણ વગેરે ખાણને અને ઘણા અશ્વોને જેમના કટિભાગે લીલા રંગની માટીથી બનાવેલા કટિસૂત્રથી ચિહ્નિત હતા, જેયા અમારી ગધને સૂધીને તે અશ્વો ત્યાથી કેટલાક યે ' દર સુધી
Page #843
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारघामृतवपिणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६०९ 'वित्तवीणाणय' वृत्तवीणाना=गोलाकार वीणाना च-अन्येपा च बहूनां नानाविधानां 'सोइदियपाउग्गाण' श्रोगेन्द्रिय प्रायोग्याणा-कर्णेन्द्रियमुखननकाना द्रव्याणां तन्न्यादिरूपाणा शकटीशाफट भरन्ति तैर्षीणादिभिरित्यर्थ , भृत्वा बहूना 'किण्हाणय जाच मुकाणय' कृष्णाना यावत्-नीलाना पीताना रक्ताना शुक्लानां च कृष्णादिपञ्चवर्णयुक्ताना 'पट्टकम्माण य' काष्ठकर्मणा-काष्ठनिर्मितपुत्तलिकादीनाम् , ' पोत्थकम्माणय' पुस्तषु कर्मगा-पुम्तेपु-वस्त्रताडपत्रकर्गलादिपु कर्माणिलेखनकर्माणि, तेपाम् , 'चित्तकम्माण य' चित्रर्मणा-पट्टकादिषु चित्ररूपाणाम् , ' लेप्पाम्माणय' लेप्यकर्मणाम्मृत्तिकासे टिकादिना पल्ल्याद्याकाररचना विशेषरूपाणाम् , तथा-'गथिमाण य' ग्रन्थिमाना-कौशलातिशयेन ग्रन्थिसमुदायनिष्पादितानाम्-यावत्-'वेदिमाण य ' वेप्टिमाना लतादि वेष्टनतो निष्पादितानाम् , ' पूरिमाण य' पूरिमाणा-कनकादिषु पुत्तलिकावत् छिद्रादिपूरणेन के आकार जैसी वीणाओं को, भभाओं भेरियो-को, पडू भ्रामरियों को -गोलाकार वीणाओं को, तया और भी अनेक विधोत्रेन्द्रिय सुखजनक तत्री आदिरूप द्रव्यों को, भरा-भर करके फिर नीले, पीले, रक्त, शुक्ल और कृष्ण रग से रगे हुए काठ के बने हुए खिलौनों को, पुस्तकर्मो को-वस्त्र, ताडपत्र एवं कागज आदि पर लिखे विविध प्रकार के ठेग्वों को, निबन्धों को उपदेश पूर्ण-दोहे चौपाइ आदि में लिखी हुई कविता आदि को को-चित्रकों को-पटिया आदि पर उकेरे गये विविध चित्रों को-लेप्यकर्मो को-मृत्तिका सेटिका आदि से घल्ली आदि रूप में बनाये गये चित्रों को, प्रथिमों को विशेष चतुराई के साथ गांठों से बनाये गये खिलौनों को, लनाओं आदि द्वारा वेष्टित करके २ रची गई चीजों को, टोपियों को, हाथों की पैरों की अगुलियों में पहिरने योग्य જેવી વીણાઓ, ભાભાઓ-ભેરીઓ (નગારાઓ) –ભ્રામરીએ, ગોળ આકાર વાળી વીણુઓ તેમજ બીજા પણ ઘણા કણેન્દ્રિયને સુખ આપે તેવા તત્રી વગેરે સાધનેને ભર્યા ભરીને લીલા, પીળા, રાતા, સફેદ અને કાળા રંગોથી ૨ગાએલા લાકડાના બનેલા રમકડાને, પુસ્તકર્મોને-વર તાડપત્ર અને કાગળ વગેરે ઉપર લખાએલા જાતજાતના લેખોને, નિબ છેને, દૂહા, ચોપાઈ વગેરેમાં લખાએલી ઉપદેશક કવિતાઓ વગેરેને, ચિત્ર કર્મોને-ફલક વગેરે ઉપર ચિત્રિત કરેલા ઘણા ચિત્રને લેપ્ય કર્મોને, માટી સેટિકા વગેરેથી લતા વગેરે રૂપમાં બનાવવામાં આવેલા ચિત્રને, ગ્રથિમોને-વિશે. ચાતુર્યથી ગાઠેથી બનાવવામાં આવેલા રમકડાને, લતાઓ વગેરે વડે વેષ્ટિત કરીને બનાવવામાં આવેલી વસ્તુ
मा ७७
Page #844
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०८
ताधर्म स्वीकुन्ति । रातः खलु पनकत रागा फोदुम्पिकपुरान शब्दयनि, मन्दयिता एउमनादीत-गाउन स गृप हे देशानुमियाः ! गांगारिक' मा कालिग्रीपाद माघम् अधानानयत । तेऽपि नोउम्रिपुरा परिगुणनि' प्रतिगृति 'तथास्तु' इत्युक्त्वा राजाशा स्वीकान्ति । ततः खलु ते रोदुन्धिकम्पाः शक्टीशाकटं 'सज्जेति' सज्जयन्तिकालिन्द्वीपे गमनार्थ मज्नीहन्ति, सरजयित्वा तत्र खलु माकटीशापटे रहना च बहसीनां च, भ्रामरी गांव मीण य' काठमीना च'कभी' इति पच्छाकारमीणाविशेषः, मभाना भेगेगा च, पइभ्रामरीणां च, हे-स्वामिन् ! रमें आपकी आज्ञा प्रमाण है-ऐसा कहकर उन्हों ने कनक केतु राजा की आज्ञा को स्वीकार कर लिया। इसके पाद कनक केतु रा ने अपने कोम्यिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा फरा-हे देवानमियों! तुम मायात्रिक पोत पणिक जनों के साथ जाओ -और कालिपटीप से मेरे लिये घोड़ों को ले आओ। राजा की इस आज्ञा को उन लोगों ने भी स्वीकार कर लिया। (तपण ते कोडुषियपु रिसा मगटीसागड सज्जेति, मन्जिता तत्थण यहण वीणाण य वल्ल कीण य भामरीण य कच्छभीण यममाण य छन्भामरीण वित्तवीणाण य अन्नसिं च पण सोइदिय पाउमाण दवाण सगडी सागट भरंति, भरित्ता पण किण्हाण य जाव सपाइमाण य अन्नेसिं च बहण चक्सिदियपाउगाण दवाणं सगडीमागउ भरेनि) इसके पाद उन कौटुम्बिक पुरुषों ने गाड़ी और गाड़ों को मज्जित किया-सज्जित करके उनमें उन्होंने अनेक चीणाओको, वल्लकियों को, भ्रामरियों को, कच्छप બાદ કનકકેતુ નાજાએ પિતાના બિક પુરુને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાધિ તમે સાયાત્રિક પિતવણિક જનની માથે જાઓ અને કાલિક દ્વીપમાથી મારા માટે ઘડાઓને લાવો રાજાની આ આજ્ઞાને તે લેકે એ પણ સ્વીકારી લીધી
(तरण ते कोडुपियपुरिसा सगडीसागड सन्जेति, सज्जित्ता तत्थण बहण बीगाण य वल्लकीण य भामरीणय कच्छभीणय भभाण य छब्भामरीण य पित्तवीणाण य अन्नेसि च बहण सोडदियपउग्माण दव्याण संगडासागड भरेंति, भरिता रहूण किण्हाण य नाव सवाइमाण य अन्नेमि च बहूण चक्वि दियपाउग्गाण दवाण सगडीसागड भरेति )
ત્યારપછી તે કૌટુંબિક પુરુષોએ ગાડી અને ગાડાઓને જોતર્યા ત રીને તેમાં તેમણે ઘણું વીણાઓ, વાલીઓ ભ્રામરીએ, કાચબાના આકાર
Page #845
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपगत आफीश्विवक्तव्यता ६०५ 'वित्तीणाणय' वृत्तवीणाना-गोलाकार वीणाना च-अन्येषा च बहूनां नानाविधानां 'सोइदियपाउग्गाण' श्रोत्रोन्द्रिय प्रायोग्याणा-कर्णेन्द्रियमुखजनकाना द्रव्याणां तन्व्यादिरूपाणा शकटीशाकट भरन्ति तैर्वीणादिभिरित्यर्थ , भृत्वा बहूना 'विण्हाणय जाव सुकाणय' कृष्णाना यावत्-नीलाना पीताना रक्ताना शुक्लानां च कृष्णादिपञ्चवर्णयुक्ताना 'क्ट्ठकम्माण य ' काष्ठकर्मणा-काष्ठनिर्मितपुत्तलिकादी. नाम् , ' पोत्थकम्माणय' पुस्तषु कर्मगा-पुस्तेपु-वस्त्रताडपत्रकलादिपु कर्माणि= लेखनकर्माणि, तेपाम् , 'चित्तकम्माण य' चित्रर्मणा-पट्टकादिपु चित्ररूपाणाम् , 'लेप्पकम्मागय' लेप्यकर्मणान्मृत्तिकासे टिकादिना वल्ल्याद्याकाररचना विशेषरूपाणाम् , तथा-' गथिमाण य' ग्रन्थिमाना कौशलातिशयेन ग्रन्थिसमुदायनिष्पादितानाम्-यावत्-' वेढिमाण य' वेप्टिमाना लतादि वेष्टनतो निष्पादितानाम् , ' पूरिमाण य' पूरिमाणा-क्नकादिपु पुत्तलिकावत् छिद्रादिपूरणेन के आकार जैसी वीणाओं को, भभाओं भेरियो-को, पडू भ्रामरियों को -गोलाकार वीणाओं को, तया और भी अनेक विधश्रोत्रेन्द्रिय सुखजनक तत्री आदिरूप द्रव्यों को, भरा-भर करके फिर नीले, पीले, रक्त, शुक्ल और कृष्ण रग से रगे हुए काठ के बने हुए खिलौनों को, पुस्तकर्मो को-वस्त्र, ताडपत्र एव कागेज आदि पर लिखे विविध प्रकार के लेखों को, निवन्धों को उपदेश पूर्ण-दोहे चौपाइ आदि में लिखी हुई कविता आदि को को-चित्रकों को-पटिया आदि पर उकेरे गये विविध चित्रों को-लेप्यकर्मों को-मृत्तिका सेटिका आदि से बल्ली आदि रूप में बनाये गये चित्रों को, अथिमों को विशेष चतुराई के साथ गाठों से घनाये गये खिलौनों को, लताओं आदि द्वारा वेष्टित करके २ रची गई चीजों को,-टोपियों को, हाथों की पैरों की अगुलियों में पहिरने योग्य
वी वाणामा, म मामा-शमा (नारा) ५३-भाभरीमा, गो मार વાળી વીણાઓ તેમજ બીજા પણ ઘણું કન્દ્રિયને સુખ આપે તેવા તત્રી વગેરે સાધનને ભર્યા ભરીને લીલા, પીળા, રાતા, સફેદ અને કાળા રંગોથી ગાએલા લાકડાના બનેલા રમકડાને, પુસ્તકર્મોને વસ્ત્ર તાડપત્ર અને કાગળ વગેરે ઉપર લખાએલા જાતજાતના લેખેને, નિબ ધોને, દૂહા, ચોપાઈ વગેરેમાં લખાએલી ઉપદેશક કવિતાઓ વગેરેને, ચિત્ર કર્મોને-ફલક વગેરે ઉપર ચિત્રિત કરેલા ઘણું ચિત્રને લેપ્ટ કને, માટી સેટિકા વગેરેથી લતા વગેરે રૂપમાં બનાવવામા આવેલા ચિત્રને, ગ્રથિમેને-વિશેચાતુર્યથી ગાઠેથી બનાવવામા આવેલા રમકડાને, લતાઓ વગેરે વડે વેષ્ટિત કરીને બનાવવામાં આવેલી વસ્તુ
Page #846
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
६१०
मन
1
1
1
"
निष्पादितानाम्, 'माण य सङ्घातिमानां= लोटकाष्ठादिमी ग्यादिवद् ऋतुसमूदैर्निष्पादितानाम्, तथा अन्ये च ना 'गिदिपाउगाण' चरि न्द्रियमायोग्याणान्नयनानजनकाना द्रयाणा क्शाफ्ट मरन्ति । तथा बहूना ' फोडाण य' दाना = सुगन्द्रियविशेषाणां च केतीनां च यावत् एलापुटानां च उगीरपृष्टानां सम इतिभाषा प्रसिद्धसुगन्धिद्रव्याणा चटाना चेत्यादि । अन्येषां न पहना घाणेन्द्रिय प्रायोग्याणा द्रव्याणा शस्टीशास्ट भरन्ति । तथा होः सण्डस्य च गुडस्य च शर्करायाथ 'मिसरी' इति भाषा मसिद्धाया. 'मउडियार य' मत्स्यण्डिकाया'= 'काल्पी मिसरी ' इति भाषा प्रसिद्वाया, पुष्पोत्तर - पद्मोत्तरागा = गुलकन्द ' इति प्रसिद्धाना च, अन्येषा च जिनेद्रियमायोग्याणा हत्याणा शस्टीवाट भरन्ति । तथा बहूनां कोयनियाण य कोयरिकाना = स्वपूरितमानरणविशेषाणां ' रजाई ' इति प्रसिद्धानाम्, कम्पलाना = रत्न कम्पलानाम्, मावरणानामाटिकानां ' चद्दर' इति मसिद्धानाम् ' नववयाण य' नावानाम् ऊर्णा मयपर्याणानां आभूषण आदि को को पुतलिका की तरह जो सुवर्ण आदि के पतरों पर कृत छिद्रादिकों के पूरने से चित्र बनाये जाते हैं वे पूरिम है इन पूरिमों को और सघातिमों को टोहकाष्ट आदि की तरह अनेक वस्तुओं के समुदाय से निष्पादित चित्रो को तथा और भी नेत्र इन्द्रिय को सुहावने लगने वाले द्रव्यों को भरा । (चट्टण कोडपुडाण य, केवई पुडा णय जाव अन्नेमिं च वण घार्णिदिया उरगाण दव्वाणं सगडी सागड भरेति, बहुस्स खडस्स य गुल्स्स सक्कराए व मच्छंडियाए य पुप्फुत्तर परमुत्तराणय अन्नेसिं च जिविंभदिय पाउरगाण दव्वाण सगडीमागड भरेति बहण कोयविद्याण य केकाणय पावरणाण य नवतयाण य એને-ટોપીને, હાથેા, પગે અને આગળીએમા પહેરવાના આભૂષણ વગે ને પૂતળીની જેમ જે સુવર્ણ વગેરેના પતરા ઉપર કાણા પાડીને તેમને પૂરીને બનાવવામા આવેલા ચિત્રા એટલે કે પૂરિશ્માને અને સઘ તિમાને લાખડ, કાઇ વગેરેથી બનાવવામા આવેલા રથ વગેરેની જેમ ઘણી વસ્તુઓને એકત્રિત કરીને તેમના વડે મનાવવામાં આવેલા ચિત્રને તેમજ બીજા પણ ઘણા નેત્ર ઇન્દ્રિયને ગમે તેવા દ્રવ્યેાને ભર્યા
'(वहूण कोपुडा, केई पुडाण य जान अन्नेसिं च वद्दण घार्णिदिय पाउरगाण दव्वाण' सगडीसागड भरेंति, बहुस्प खडस्स य गुलस्त सक्कराए य मच्छडिया एय पुप्फुत्तग्पउत्तराण ये अन्नेसि च जिभिदिपाउग्गाण दव्वाण सगडी सागड भरेंति वहूण कोयत्रियाण य केवलण य पावरणाण
1
Page #847
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपगत सकीणश्विवक्तव्यता ६११ 'जीन ' इति प्रसिद्धानाम्, मलयाना च= मलय देशोत्पन्नवस्त्रनिशेषाणाम्, 'मसूराणय' मरकाणा = नखादिनिर्मित वृत्ताकारासन विशेषाणाम्, 'सिलावट्टाण य' शिलापट्टान = पट्टा कारचिकणशिलाना यान्त् हसगर्भाणा = इसः चतुरिन्द्रियकृमिविशेषः, गर्भः = तन्निर्वर्तित कोसि कारोरुतरूपः, तन्मयनत्राण्यपि हंसगर्भाणीत्यु
मलयाण य मसूराण य सिलावहाण य जाव हसगभाण य अन्नेसिं च फासिंदियपाउग्गाण दव्वोण सगडीसागड भरेति ) इसी तरह अनेक कोष्टपुट को सुगंधित द्रव्य विशेषों को केतकीपुटरो को सुगधित पुष्पों यावत् एलापुढो को - इलायचियों को, उखीरपुटों को खश के समुदाय को - कुकुमपुटों को तथा और भी अनेक प्राणेन्द्रिय को तृप्ति कारक द्रव्यों को उन लोगो ने गाडी और गाडो में भरा। बहुत सी खाड, बहुत से गुड बहुत सी शर्करा - मिसरी बहुत सी मत्स्यण्डी - कालपी मिसरी बहुत से गुलकद, बहुत से पद्मपाक को तथा और भी जिह्वाइन्द्रिय को तृप्ति करने वाले द्रव्यों को उन लोगों ने गाड़ी और गाडों में भरा। इसी तरह स्पर्शन इन्द्रिय को आनददेने वाले कोयविको को - रूई कपास से भरे हुए प्रावरण विशेषों को रजाइयों को कम्पलों को- रत्न कम्पलों को प्रावरण को चद्दरो को नवलको को ऊन के बने हुए पलेंचों को जीनो को मलयदेश के बने हुए वस्त्रों को, मसूरकों को वस्त्रों से बनाये हुए गोलाकार आसनों को शिलापट्टो को पट्टाकार चिकनी
M
Matte
मलयागय मयूराण य सियानहाण य जाव हगवभाग य अन्नेसिं च फार्सिदिपाउरगाण दव्वाण सगडी सागड भरेंति )
આ પ્રમાણે ઘા કષ્ટ પુઢકાને સુગધિત દ્રવ્પ-વિશેષાને, કેતકી પુટાને કેવડાના પુષ્પાને યાવત્ એલાપુટાને, એલચીઓને, ઉરીર પુટોને-ખશના સમુાયાને, કુકુમ પુટોને તેમજ બીજા પણ ઘણા ાણુન્દ્રિય ( નાક ) ને તૃપ્તિ પમાડનારા દ્રવ્યેાને તેઓએ ગાડી અને ગાડાઓમાં ભર્યાં - ખહુ જ પુષ્કી प्रभाणुभा भाड, गोम, साउर मिश्री, भत्त्य डी सी मिश्री, (थी लतनी भा४२) ગુલકન્દ, પદ્મપાક તેમજ ખીજા પશુ વણા જીદ્દાઈ ઇન્દ્રિય (જીભ) ને તૃપ્તિ આપ નાર દ્રવ્યેાને તે લેાકાએ ગાડી અને ગાડામા ભર્યાં આ પ્રમાણે સ્પર્શેન્દ્રિયને સુખ આપનારી વિવકાને રૂથી ભરેલા પ્રાવરણુ શેષાને-રજાઇઓને, કામ जोने, रत्न जमणाने, आवराने, शाहरोने, नवसोने, अनयी मनाववाभा આવેલા પવેચાએને-જીને ને-મલય દેશના વોને, મસૂરકાને-વસ્ત્રો વડે બનાવવામા આવેલા ગેળ આકાર આસનેને, વિલાપટ્ટાને-પટ્ટના આહારની
Page #848
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
६१०
भावाकपा निप्पादितानाम् , 'संघारमाण य' सहातिमानां-झोफाप्यादिगी म्यादि वस्तु समूह निप्पादितानाम् , तया-पान पहना 'शिवटियपाउग्गाण' चरि न्द्रियमायोग्याणा-नयनानन्दजनकाना द्रव्याणा शार्टीशाफ्ट भान्ति । तथा यहना कोद्वपुडाण य' योटपूटाना - गुगन्चिाविशेषाणां च केवीपुटानां च यारत्-एलापुटाना च, परमपुटाना , उगीरपृटानो' सम' उतिभाषा मसिद्धमुगन्धिद्रव्याणां च, यापुटाना चेत्यादि । अन्येषां च बहूना घ्राणेन्द्रिय प्रायोग्याणा द्रव्याणा शस्टीशास्ट मान्ति । नवा महोः खण्डस्य व गुडस्य च शर्करायाथ 'मिसरी' इति मापा मसिदाया 'मडिगाए य' मत्स्याण्डिकाया: 'काल्पीमिसरी' इति भाषा प्रसिद्धाया , पुष्पोतर-पोतरागा-गुलकन्ट ' इति प्रसिद्धाना च, अन्येपा च निस्वेन्द्रियप्रायोग्याणा द्रव्याणां शस्टीशाफ्ट भरन्ति । तथा बहूनां 'कोयरियाण य' कोषिकाना = स्तपूरितमापरणविशेषाणा 'रजाई ' इति प्रसिद्धानाम् , कम्बलाना-रत्नकम्बलानाम् , मारणाना-शाटिकाना '-चद्दर' इति प्रसिद्धानाम् , ' नवतयाण य' नान रानाम्-अर्णामयपर्याणाना आभूपण आदि फों को-पुत्तलिका की तरह जो सुवर्ण आदि के पतरों पर कृत छिद्रादिकों के पूरने से चित्र पनापे जाते हैं वे पूरिम हैं इन पूरिमों को और सघातिमों को-लोहकाप्ट आदि की तरह अनेक वस्तुओं के समुदाय से निष्पादित चिनो को तथा और भी नेत्र इन्द्रिय को सुहावने लगने वाले द्रव्यों को भरा । (पण पोहपुडाण य, केयई पुडा ण य जाव अन्नेमि च यहण पाणिदियपाउग्गाण दवाणं सगडीसागड भरे ति, बहुम्स खडस्म य गुलस्त सकराए य मच्छटियाए य पुप्फुत्तर पउमुत्तराणय अन्नेसिं च जिभिदिय पाउरमाण दव्वाण सगडीसागड भरेति बद्रण कोयपियाण य केरलाणय पावरणोण य नवतयाण य એને-પીને, હાથ, પગે અને આગળીઓમાં પહેરવાના આભૂષણ વગે ને પૂતળીની જેમ જે સુવર્ણ વગેરેના પતરા ઉપર કાણું પાડીને તેમની પૂરીને બનાવવામાં આવેલા ચિત્રો એટલે કે પરિમેન અને સઘ તિમાને લેખડ, કાણ વગેરેથી બનાવવામાં આવેલા રથ વગેરેની જેમ ઘણી વસ્તુઓને એકત્રિત કરીને તેમના વડે બનાવવામાં આવેલા ચિત્રોને તેમજ બીજ પર્ણ ઘણું નેત્ર ઈદ્રિયને ગમે તેવા દ્રવ્યને ભર્યા
(वहण कोहपुडाण य, केयई पुडाण य जार अन्नेसि च वहण घारगाइय पाउग्गाण दवाण सगडीसागड भरेंति, बहुस्म खडस्स य गुलस्स सक्कराए य मच्छडियाए य पुप्फुत्तरपउमुत्तराण य अन्नेसि च जिभिदियपाउग्गाण दवाण सगडीसागड भरति बहूण कोयश्यिाण य केवलाण य पावरणाण य नपतयाण
Page #849
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनेगारधर्मामृतवधिणी टी० १० १७ कालिकद्वीपगत आकोणाश्चरक्तव्यता ६१३ गोधूमादीनामट्टकस्य ' आटा' इति प्रमिद्धस्य, 'गोरसस्म य ' गोरसस्प-घृतादिकस्य च यावत् अन्येपा च बहूना पोतवहनमायोग्याणा द्रव्याणां पोतनहन भरन्ति, भृत्या 'दक्षिणाणुकूलेण' दक्षिणानुकलेन-सानुकूलेन वातेन यौव कालिरुद्वीपस्तौंवोपागन्छन्ति, उपागत्य तर पोतवहन 'रति' लम्पयन्ति तीरस्थापित शङ्खघु वनन्ति, पद्ध्वा तान्नौकास्थितान् उत्कृष्टान् उत्तमोत्तमान् शब्दस्पर्शरसरूपग धान् ' एगट्ठियाहि ' एकाधिकाभिः लघुनौमाभिः 'कारियदी' कालिकद्वीपे ' उत्तारेति' उत्तारयन्ति–नाकातो निस्सार्य भूमौ स्थापयति । यावत् और अनेक पोतवहन प्रायोग्य द्रव्यो को उम नौका में भरदिया। (भरित्ता दक्खिणाणुकलेण वाएण जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छड उवागच्छित्ता पोयवहण लति, लपित्ता ताइ उकिट्ठाइ मद्दफरिसरस रूप गधाई एगट्टियाहि कालियदीवे उत्तारेंनि । जहिं २ च ण ते आसा आसायति वा सयति वा चिट्ठति वा तुयदृति वा तहिं२ च ण ते कोड चियपुरिसा ताओ वीणाओ य जाव वित्तवीणाओ य अन्नाणि य चणि सेाइदिय पाउग्गाणि समुदीरेमाणा चिट्ठति) भर करके फिर ये लोग जर पीछे से आनेवाला अनुकूल वायु वा तय वहा से चलकर जहा कालिक द्वीप था वहा आये-वहा आकर के इन लोगो ने लगर डाल दिया-लगर डालकर पोत में से शब्द के साधन भूत वीणा आदिको को, अच्छे स्पर्श के साधनभूत रूई से भरे हुए रजाई आदि वस्त्रों को रसनाइन्द्रिय को सुहावने लगनेवाले वाड आदि पदार्थों को ઘઉના લોટને, ગેરસ ઘી વગેરેને યાવત્ બીજા પણ ઘણા વહાણ યાત્રામા કામ લાગે તેવા દ્રવ્યને તે નૌકામાં ભર્યા
(भरित्ता दक्विणाणुकले ण वारण जेणे कालियदीवे तेणेव उवागन्छ, उवागच्छित्ता पोयरहण लवेति, लवित्ता ताड उविरहाइ सदफरिमरमरूपगधाइ एगद्वियाहि कालियदीवे उत्तारेति । जाहि २ च ण ते आसा आसायति वा सयति पा चिट्ठति वा तुयट्ट ति वा वर्हि २ च ण ते कोडुवियपुरिसा ताभो वीणाओ य जान पित्तविणाओ य अन्नाणि य वहूणि सोइदिय पाउग्गाणि य दवाणि समुदीरेमाणा चिहति)
ભરીને તેઓ બધા જ્યારે પાછળથી વહેતે અનુકળ પવન વહેવા લાગે ત્યારે ત્યાથી રવાના થઈને જ્યા કાલિક દ્વીપ હ ત્યા આવ્યા ત્યાં આવીને તે લેકેએ લગર નાખ્યુ લ ગર નાખીને વહાણમાથી શબ્દના સાધન રૂપ વીણ વગેરેને, કોમળ સ્પર્શના સાધનભૂત રૂથી ભરેલા રજાઈ વગેરે વને. રસના (જીભ) ઈન્દ્રિયને ગમતા ખાડ વગેરે પદાર્થોને, નેત્ર ઈન્દ્રિયને આનંદ
Page #850
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१३
मानाधर्मकथासूत्रे
1
च्यन्ते तेषां कौशेयवत्राणां ' रेशमीरख ' इति भाषा प्रसिद्धानां च तथाअन्येषा च स्पर्शेन्द्रियमायोग्याणा ब्रव्याणां शकटीशास्ट मरन्ति भृत्वा स्टीशाकर्ट योजयन्ति योजयित्वा यौन गम्भीर गम्भीरनामक पोतस्थान वो पागच्छन्ति, उपागत्य शकटीशाकट मोचयन्ति, मोचपिया 'पोहणं पोतनं नोकां सज्जयन्ति, सज्जयित्वा तेषाम् 'उमिन्द्राण' उत्कृष्टाना = श्रेष्ठानां शब्दस्पर्शरसरूप गाना काष्ठस्य च पानीयस्य च तन्दुलानां च 'सामियम्म य' समीतस्य = शिलाओं को, हस गर्भों को रेशमी वस्त्रों को, तथा और भी स्पर्शन इन्द्रिय को आनन्द देने वाली वस्तुओं को उन लोगो ने गाडी और गाडों में भरा। (भरिप्ता सगढी सागढ जोएति, जोहत्ता जेणेव गभीरए पोयट्ठाणे तेणेव उपागच्छति, उवागच्छित्ता मगढीसागर मोएति, मोइत्ता पोयवरणे सज्जेंति, सजित्ता तेसिं किद्वाण सद्दफरिसरम रूवगधाण कट्ठस्स य तणस्स य पाणियस्स य तदुलाणय समियरस य गोरसस्त य जाव अन्नेसिं च पण पोयवाण पोयवरण भति) भरकर के फिर उन लोगों ने गाडी और गाडों को जोत दिया । जीतकर के फिर वे वहाँ आये-जहां गंभीर नाम का पोतस्थान था - बदरगाह था । वहा आकर के उन लोगों ने गाड़ी और गाडों को ढील-रोक दिया । और फिर नौकाओंको सजाया- तैयार किया । और तैयार कर के बाद में उन्होंने उन श्रेष्ठ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, एव गधोंको काठको तृण को पानीय द्रव्य को तदूलों को, गेहूँ के आटे को, गोरस घृतादिक - को લીસી શિલાને, હંસ ગર્લોને-રેશમી વસ્રોને તેમજ બીજી પણ ઘણી સ્પો ન્દ્રિયને સુખ પમાડે તેવી ઘણી વસ્તુઓને તે લેાકેાએ ગાડી અને ગાડાઓમા ભરી
( भरिता सगडी सागड जोएति, जोइत्ता जेणेत्र गभीरए पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सगडीसागड मोएति मोरता पोयवहण सज्जेंति, सज्जित्ता तेर्सि उक्किट्ठाण सफरिसर सरूपगधाण कटुस्स य तणस्स य पाणि यस्स य तदुलाण य समियस्त य गोरसस्स य जाव अन्नेसिं च वहूण पोयवहण पाउग्गाण पोयवहण भरेंति )
ભરીને તે લેાકેાએ ગાડી અને ગાડાઓને જોતર્યાં જેતરીને તે ત્યાથી જ્યા ગંભીર નામે પેાતસ્થાન (ખ દર ) હતું ત્યા આવ્યા તે લાકે એ ગાડી અને ગાડાઓને છોડી મૂકયા અને ત્યારપછી નૌકાઓને સુસજ્જિત કરી સુસજ્જિત કર્યાં બાદ તેમણે તે ઉત્તમ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, ३५ भने गधोने, अठने, घासने, पालीवाला द्रव्याने, तहुडो (भा) ने
ત્યા આવીને
મા
Page #851
--------------------------------------------------------------------------
________________
6
अनंगारधर्मामृतवर्षिणी टी० म० १७ काल्किद्वीपगत आकीर्णान्वितव्यता ६६३ गोधूमादीनामट्टकस्य आटा ' इति प्रमिद्धस्य, ' गोरसस्त य' गोरसस्थ=घृतादिकस्य च यावत् अन्येषा च बहूना पोतवहनप्रायोग्याणा द्रव्याणां पोतनहन भरन्ति भृत्या' दविखणाणुकूलेण ' दक्षिणानुकूलेन मानुकूलेन वातेन यनैव कालिकद्वीपस्तचैवोपागच्छन्ति, उपागत्य तत्र पोतवहन 'लति' लम्पयन्ति = तीरस्थापित चन्ति, उद्द्धा तान् = नौकास्थितान् उत्कृष्टान् = उत्तमोत्तमान् शन्दस्पर्शरसरूपगधान् ' एगडियाहि ' एकाधिकाभिः = लघुनाभि कालियदीवे' कालिकद्वीपे ' उत्तारेति ' उत्तारयन्ति = नाकातो निस्सार्य भूमौ स्थापयति । यावत् और अनेक पोतवहन प्रायोग्य द्रव्यों को उस नौका में भरदिया । (मरिता दविणाणुक्लेण चाएण जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छड
"
वागच्छित्ता पोयवरण लनेंति, लबित्ता ताइ उक्किट्ठाइ सद्दफरिसरस रूप गधाह एगहियाहि कालियदीवे उत्तारेंनि । जहिं २ च ण ते आसा आसायति वा सयति वा चिट्ठति वा तुयहति वा तरि च ण ते कोड बियपुरिसा ताओ वीणाओ य जाव वित्तवीणाओ य अन्नाणि य वणि
दिपाग्गाणि समुदीरेमाणा चिट्ठति ) भर करके फिर ये लोग जन पीछे से आनेवाला अनुकूल वायु वहा तर वहा से चलकर जहा कालिक द्वीप था वहां आये वहा आकर के इन लोगों ने लगर डाल दिया-लगर डालकर पोत में से शब्द के साधन भूत वीणा आदिको को, अच्छे स्पर्श के साधनभूत रूई से भरे हुए रजाई आदि वस्त्रों को रसनाहन्द्रिय को सुहावने लगनेवाले खाड आदि पदार्थों को ઘઉંના લેટને, ગેરમ ઘી વગેરેને ચાવત્ ખીજા પણ ઘણા વહાણુ યાત્રામા કામ લાગે તેવા દ્રબ્યાને તે નૌકામા ભર્યા
1
( भरता दणाणुले पण वारण जेणेन कालियदीवे तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता पोयनहण लवेति, रवित्ता ताइ उक्क्ट्ठिाइ सफरिसरमरूपगधाई एगडिया कालियदीवे उत्तारेति । जहिं २ च ण ते आसा जासायति वा संयति या चिद्वति वा तुयइति वा तहिं २ चण ते कोइनियपुरिसा ताभ वीजाओ य जान वित्तविणाओ य अन्नाणि य वहूणि सोइदिय पाउम्गाणि य दव्वाणि समुदीरेमाणा चिट्ठति )
ભરીને તે બધા જ્યારે પાછળથી વહેતા અનુકૂળ પવન વહેવા લાગ્યા ત્યારે ત્યાથી રવાના થઈને જ્યા કાલિક દ્વીપ હતા ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તે લેાકેાએ લગર નાખ્યુ લગર નાખીને વહાણુમાંથી શબ્દના સાધન રૂપ વીણા વગેરેને, કોમળ સ્પર્ધાના સાધનભૂત રૂથી ભરેલા રજાઈ વગેરે વસ્રોને, રસના ( જીલ ) ઇન્દ્રિયને ગમતા ખાડ વગેરે પદાર્થાને, નેત્ર ઇન્દ્રિયને આન
Page #852
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
माताधर्मकथा ज्यन्ते, तेषां कौशेयरखाणां 'रेशमीन' ति मापा पगिद्धानां च तथाअन्येया चस्पर्शेन्दिपमापोग्पाणां द्रव्याणां शकटीगास्ट मरन्ति, मृत्वा शस्टीशाकई योनयन्ति, योजयित्वायर गम्मीरमगाम्भीरनामक पोतस्थान तत्रोपागाउन्ति, उपागत्य शकटीशाकट मोचयन्ति, मोचपिया 'पोयरहण' पोतवहनम्नीका सज्जयन्ति, सज्जयित्वा तेषाम् 'उगिन्द्राण' उताना श्रेष्टाना शन्दम्पर्गरसरूप गन्धाना काष्ठस्य च पानीयस्य च तन्दुलाना च 'सामियम्स य' समीतस्यशिलाओं को, एस गो को-रेशमी वस्त्रों को, तथा और भी स्पर्शन इन्द्रिय को आनन्द देने वाली वस्तुओं को उन लोगो ने गाडी ओर गाडों में भरा। (भरित्ता सगढीसागढ जोएति, जोहत्ता जेणेव गभीरए पोयट्ठाणे तेणेव वागमति, उवागरिता मगढीसागट मोएति, मोइत्ता पोयवरणे सज्जेति, सजित्ता तेसि उकिहाण सहफरिसरम रूवगधाण कहप्स य तणस य पाणियस्स य तदुलाणय समियरस य गोरसस्स यजाव अन्नेसिंच पण पोयवाणपाडग्गा ण पोयवल भरेंति ) भरकर के फिर उन लोगों ने गाडी और गाडौं को जोत दिया। जोतकर के फिर वे यहाँ आये-जहां गभीर नाम का पोतस्थान था-यद रगाह था । वहा आकर के उन लोगों ने गाड़ी और गाडों को ढील-रोक दिया। और फिर नौकाओंको सजाया-तैयार किया। और तेयार करके बादमें उन्होंने उन श्रेष्ठ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, एवं गधोंको काष्ठको तृण को पानीय द्रव्य को तदलों को, गेहूँ के आटे को, गोरस घृतादिक-को લીસી શિલાઓને, હસ ગ-રેશમી વસ્ત્રોને તેમજ બીજી પણ ઘણી પશે ન્દ્રિયને સુખ પમાડે તેવી ઘણી વસ્તુઓને તે લેકેએ ગાડી અને ગાડામાં ભરી
(भरित्ता सगडीसागड जोएति, जोइता जेणेव गभीरए पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सगडीसागड मोएति मोइत्ता पोयवहण सजीत, सज्जिता तेर्सि उक्किट्ठाण सफरिसरसरूपगधाण बहस य तणस्स य पाणि यस्स य तदुलाण य समियस्स य गोरमस्स य जाब अन्नेसि च पहूण पोयवहण पाउग्गाण पोयवहण भरति)
ભરીને તે લેકેએ ગાડી અને ગાડાઓને છેતર્યા તરીકે તેઓ ત્યાથી જ્યા ગભીર નામે પિતસ્થાન (બ દર) હતુ ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તે લોકેએ ગાડી અને ગાડાઓને છોડી મૂક્યા અને ત્યારપછી નૌકાઓને સુસજ્જિત કરી સુસજ્જિત કર્યા બાદ તેમણે તે ઉત્તમ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, ३५ भने गधोन, आ४न, धासन,
पाद्रव्यान, तदु (1)२,
Page #853
--------------------------------------------------------------------------
________________
4
गारधर्मामृतवर्षिणी टी० ४० १७ काल्किद्वीपगत आकोणश्चित्तव्यता ६१३ गोधूमादीनामट्टकस्य ' आटा ' इति प्रमिद्धस्य, ' गोरसम्म य' गोरसस्प=घृतादिकस्य च यावत् अन्वेपाच नहूना पोतवहनमायोग्याणा द्रव्याणा पोतनहन भरन्ति भृत्या 'दविस्वणाणुकूलेण ' दक्षिणानुकूलेन = सानुकूलेन वातेन यत्रैव कालिकद्वीपस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य तत्र पोतवहन ' लšति' लम्बयन्ति = तीरस्थापित जन्ति, पद्धा तान् = नौकास्थितान् उत्कृष्टान् = उत्तमोत्तनान् शब्दस्पर्शरसरूपग धान् ' एगडियाहिं' एकाधिकाभि: लघुनाभि कालियदी' कालिकद्वीपे ' उत्तारेति ' उत्तारयन्ति =नोकातो निस्साये भूमी स्थापयति । यावत् और अनेक पोतवहन प्रायोग्य द्रव्यो को उम नौका में भरदिया । (भरिता दक्खिणाणुलेण वाएण जेणेव कालियदीवे तेणेव उचागच्छड उचागच्छिता पोयवरण लवेंति, लबित्ता ताइ उकिडाइ सद्दफरिसरस रूप गधा एड़ियाहि कालियदीवे उत्तारेंनि । जहि २ च ण ते आसा आसायति वा सयति वा चिट्ठति वा तुयहति वा तर्हि च ण ते कोड नियपुरिसा ताओ वीणाओ य जाव वित्तवीणाओ य अन्नाणि य बणि साइदिय पारगाणि समुदीरेमाणा चिट्ठति ) भर करके फिर ये लोग जन पीछे से आनेवाला अनुकूल वायु वहा तब वहा से चलकर जहा कालिक द्वीप था वहा आये वहा आकर के इन लोगों ने लगर डाल दिया-लगर डालकर पोत में से शब्द के साधन भूत वीणा आदिको को, अच्छे स्पर्श के साधनभूत रूई से भरे हुए रजाई आदि वस्त्रों को रसनाइन्द्रिय को सुहावने लगनेवाले खाड आदि पदानों को ઘઉંના લેટને, ગારસ ઘી વગેરેને યાવત્ ખીજા પણ ઘણા વહાણુ યાત્રામાં કામ લાગે તેવા દ્રવ્યેાને તે નૌકામા ભર્યા
(भरिता दविणाणुले ण वारण जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता पोयहण लवेति, लवित्ता ताइ उक्ट्ठिाइ सदफ रिसरमरूपगधाई एगट्टियाहिं कालियदीवे उत्तारेति । जहिं २ च ण ते आसा आसायति वा संयति या चिति वा तुपहति वा तर्हि २ च ण ते कोइ नियपुरिसा ताभो वीणाओ या वित्तविणाओ य अन्नाणि य बहूणि सोइदिय पाउग्गाणि य दव्वाणि समुदीरेमाणा चिट्ठति )
ભરીને તેએ બધા જ્યારે પાછળથી વહેતા અનુકૂળ પવન વહેવા લાગ્યા ત્યારે ત્યાથી રવાના થઈને જ્યા કાલિક દ્વીપ હતા ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તે લેાકેાએ લગર નાખ્યુ લગર નાખીને વહાણુમાંથી શબ્દના સાધન રૂપ વીલુા વગેરેને, કમળ સ્પર્ધાના સાધનભૂત રૂથી ભરેલા રજાઈ વગેરે વોને, રસના ( જીસ ) ઇન્દ્રિયને ગમતા ખાડ વગેરે પદાર્થોને, નેત્ર ઇન્દ્રિયને આનદ
Page #854
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१२
वाताधर्मकथाम
च्यन्ते तेषां कौशेयरखाणां ' रेशमीनस' इति भाषा पसिद्धानां च तथाअन्येपा च स्पर्शेन्द्रियमायोग्याणां द्रव्याणां शकटीशास्ट भरन्ति, भृत्वा शक्टीवाकर्ट योजयन्ति योजयिता यौन गम्भीर गम्भीरनामक पोवस्थानं तत्रोपागच्छन्ति, उपागत्य शकटीशाकट मोचयन्ति, मोचपिता 'पोपण' पोतन=नोकां सज्जयन्ति, सज्जयित्वा तेषाम् 'उडाण' उत्कृष्टाना=श्रेष्ठानां परमरूप गन्धाना काष्ठस्य च पानीयस्य च तन्दुलानां च 'सामियम्स य' समीतस्य = शिलाओं को, एस गर्भो को-रेशमी वस्त्रों को, तथा और भी स्पर्शन इन्द्रिय को आनन्द देने वाली वस्तुओं को उन लोगो ने गाडी और गाडों में भरा। (भरिता सगड़ी सागदं जोएति, जोहत्ता जेणेव गभीरए पोहाणे तेणेच उद्यागच्छति, प्रयागच्छत्ता मगढीसागड मोति, मोइत्ता पोयवरणे सज्जैति, सजित्ता तेसि उणि सदफरिसरम रूवगधाण कट्टास य तणस्स य पाणियस्स य तकुलाणय समियरस य गोरसस्स य जाव अन्नेसि च पण पोषचरणपाउरगाण पोचवण भति) भरकर के फिर उन लोगों ने गाडी और गाडों को जोत दिया । जोतकर के फिर वे वहाँ आये-जहां गंभीर नाम का पोतस्थान था - बदरगाह था । वहा आकर के उन लोगों ने गाड़ी और गाडों को ढील-रोक दिया । और फिर नौकाओंको सजाया- तैयार किया । और तैयार कर के बाद में उन्होंने उन श्रेष्ठ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, एव गंधोंको काठको तृण को पानीय द्रव्य को तलों को, गेहूं के आटे को, गोरस घृतादिक-को લીસી શિલાઓને, હંસ ગર્લોને-રેશમી વસ્ત્રોને તેમજ બીજી પણ ઘણી સ્પર્શે ન્દ્રિયને સુખ પમાડે તેવી ઘણી વસ્તુઓને તે લેાકેાએ ગાડી અને ગાડાઓમા ભરી
( भरिता सगडीमागड जोएति, जोड़त्ता जेणेत्र गभीरए पोयट्ठाणे तेणेत्र उपागच्छति, उवागच्छित्ता सगडीसागड मोएति मोइत्ता पोयवहण सज्जेवि, सज्जित्ता तेर्सि उक्किट्ठाण सफरिसररूपधाण कस य तणस्स य पाणि यस्य तदुलाण य समियस्त य गोरसस्स य जाव अन्नेसिं च वहूण पोयत्रण पाउरगाण पोयवहण भरेंति )
ભરીને તે લેાકેાએ ગાડી અને ગાડાઓને જોતર્યાં જોતરીને તેએ ત્યાથી જ્યા ગંભીર નામે પોતસ્થાન ( અંદર ) હતું ત્યા આવ્યા તે લોકોએ ગાડી અને ગાડાઓને ઘડી મૂકયા અને ત્યારપછી નૌકાઓને સુસજ્જિત કરી સુસજ્જિત કર્યાં બાદ તેમણે તે ઉત્તમ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, ३५ मने गधोने, अपने, धासने, पालीवाला द्रव्याने, तडुओ (मा) ने
ત્યા આવીને
Page #855
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१७ कालिकद्वीपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६१५ कर्माणि यावत् स पातिमानि च अन्यानि च नहनि चक्षुरिन्द्रियमायोग्याणि च द्रव्याणि स्वापर्यात= एकनी कुर्वन्ति तेषामधाना परिपर्यन्तेन= सर्जन' समन्तात् पार्श्वे स्थापयन्ति च, स्थापयित्वा ते निश्चलाः, निस्पन्दाः तूष्णीकास्तिठन्ति ।
तथा-यत्र यत्र तेऽश्वा आसते स्वपन्ति तिष्ठति त्वग्वर्त्तयन्ति च तत्र तन खलु पाहून कोष्ठपुटाना च यावद् अन्येषा च बहूनां घ्राणेन्द्रियमायोग्याणा जाव सघाइमाणि य अन्नाणि य मणि चक्खिदिय पाउग्गाणि यदव्वाणि ठति, रवित्ता तेसि परिपेरतेर्ण पास ठवेंति, ठवित्ता विचत्ला णिफदा तुसिणीया चिति) उस के चारों तरफ चारो दिशाओं मेंवीणा आदिको को स्थापित करते रहे। स्थापित करके फिर वे वही पर निश्चल-चलन क्रिया से रहित होकर हस्तादि अवयव को कपित किये विना ही चुपचाप बैठ गये ।
इस तरह - जिस धनमें वे अश्व बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहा २ उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उस आनीत बहुतसी कृष्ण, नील, पीत, रक्त, शुक्ल वर्णवाली काष्ठकर्म आदि सघातिम पर्यंत की सामग्री को जो चक्षुइन्द्रिय को आनन्दप्रद थी. तथा और भी चक्षुइन्द्रि को सुहा art लगनेवाली जो वस्तुएँ थी उन को एकत्रित किया और उन्हें उन अश्वो की चारो दिशाओ मे रख दिया। रखकर के फिर वे निश्चल, free होकर चुप बैठ गये । (जत्य २ ते आसा आसयति ४ तत्थ वि पुरिसा वहूणि किहाणि य ५ कट्ठक्रम्माणिय जान सामाणि य अन्नाणि यहूणि चखिदिय पाउग्गाणि यदव्याणि ठवेंति, ठक्त्तिा तेसिं परिपेर तेण पासप ठवेंति ठवित्ता णिच्चा, णिष्फदा तुसिणीया चिट्ठति )
તેમની ચામર, ચારે ચાર દિશાઓમાં વીણાએ વગેરે મૂકી મૂકીને તેએ વા જ નિશ્ચલ-હવન ચલનની ક્રિયાથી રહિત થઇને અગેાને હુલાબા વગર ચુપચાપ ત્યાં બેસી ગયા આ પ્રમાણે જે જે વનમા અશ્વો (ઘેાડાઓ) બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા તે તે વનમા તે કૌટુંબિક પુરુષોએ સાથે લાવેલી ઘણી કાળી, નીલી, પીળી રાતી, સફેદ ર ગની કાષ્ટકમ વગેરે સ ઘાતિમ સુધીની ખત્રી વસ્તુઓને કે જેએ ચક્ષુ ( આખ ) ઇન્દ્રિયને સુખ આપનારી હતી તેમજ મીજી પણુ ચક્ષુ ઇન્દ્રિયને સુખ આપ નારી જેટલી સારી વસ્તુઓ હતી તેમને ભેગી કરી અને અશ્વોની ચામેર તેમને ગાઢવી દીધી ગાઠવીને તેએ ત્યા જ નિશ્ચલ, નિસ્પદ થઈને ચુપચાપ
ત્યાં જ બેસી ગયા
( जत्थ २ ते आसा आमयंति ४ तत्थ २ण तेसिं हूण फोडपुटाण य जान अन्नेसिं च वण घार्गिदियपाउरगाण दत्राण पुजेय पियरे य करेति,
Page #856
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१५
तामकथामा नहिं २ च ण' यत्र यत्र च ने ग्बल ने 'मामा' अघातात्या अधा: - आसपति या' आस-उपविशन्ति 'सयंति वा शरतेसपनि वा चिट्ठति वा' तिष्ठन्ति पा, ' तुपति पासपनयन्ति-शरीर प्रसार्य स्वपन्ति वा 'तहि २ तत्र तत्र च खलु ते कौटुम्मिकपुरुषाः 'तामो' ताक्तिगी नगरादानीता गीगाच पार-वृत्तवीणाथ, तथा अन्यानि च पहनि श्रोगेन्द्रियप्रायोग्याणि च द्रव्याणि 'समुदीरमाणा' गमुदीरयन्ता मधुरधनिना नादयतः तिष्ठन्ति, तेषा मवाना 'परिपेरतण' परिपर्यन्तेन सर्वतः सम तात् चर्ति इत्यर्थ 'पासए' पार्चे समीपे पीणादीनि स्थापयन्ति, स्थापयिचा ते पुरुपाः 'निन्चला' निश्चलाः चलनक्रियारहिताः ‘णिप्फदा' निः स्पन्दा हस्तायायवमचाररहिताः 'तुसिणीया' पचन व्यापाररहिताः 'चिठ्ठति । तिष्ठन्ति । ___ तया-यत्र यत्र तेऽधाः आसते वा यारत् त्वमपन्ति लुठन्ति तत्र तत्र खलु ते कौटुम्पिकपुरुषा' पहूनि कृष्णानि च कृष्णनीलपीतरक्तशुरूपर्णानि काष्ठनेत्र इन्द्रिय को आनद देनेवाले नीले पीले आदि रगवाले चित्रो को एव घाणइन्द्रियों को सुखकारक काप्ठपुर आदि सुगधित द्रव्यों को छोटी २ नौकाओं द्वारा पोत में से उतार कर कालिक ढोप में रख दिया। बाद में जहा २ चे जाति अश्व पैठते थे मोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहा २ वे कौटुम्निक पुरुप उन हस्तिशीप नगर से लाये हुए वीणा से लेकर वृत्तवीणा पर्यन्त के साधनो को तया और भी श्रोत्र इन्द्रिय को सुहा वनी लगनेवाली साधन सामग्री को मधुर ध्वनि से बजाते हुए ठहर गये । और (तेसिं परिपेरतेण पासए ठवेंति, ठवित्ता णिच्चला, गिफदा, तुसिणीया चिट्ठति, जत्य २ ते आसा आसयति वा जाव तुयति वा तत्य र ण ते कोडग्यि पुरिसा बदणि किण्हाणि य ५ कटकम्माणि य પમાડનાર નીલા, પીળા વગેરે રગના ચિત્રોને અને ઘાણ (નાક) ઈન્દ્રિયને સુખ આપે તેવા કાજીપુર વગેરે સુગધિત દ્રવ્યોને વહાણુમાથી નાની નાના: હેડીઓમાં મૂકીને કાલિક દ્વીપ ઉપર મૂકી દીધી ત્યારપછી જ્યા તે જાતિ અશ્વો બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા ત્યા જ કૌટુંબિક પુરુષે તે હસ્તિશીર્થ નગરથી લઈ આવેલો વીણાથી માંડીને વૃત્ત વીણા સુધીના સાધનોને તેમજ બીજા પણ શ્રોત્ર (કાન) ઈન્દ્રિયને ગમે તેવી સાધન સામગ્રીને મધુર ધ્વનિથી વગાડતા ત્યાં રોકાઈ ગયા અને
(तेसिं परिपेरतेण पासए ठति, ठवित्ता णिच्चला, गिप्फदा, तुसिगाया चिति, जत्य २ ते आसा आसयति वा जाय तुयति वा तत्य २ .का
.
Page #857
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टोका ग०१७ कालिकद्वीपगत आकोणाश्यवकव्यता ६५ कर्माणि यावद् स यातिमानि च अन्यानि च वहनि चक्षुरिन्द्रियमायोग्याणि च द्रव्याणि स्थापयति एकनी कुर्वन्ति, तेपामश्वाना परिपर्यन्तेन=सर्वतः समन्ताद पार्च स्थापयन्ति च, स्थापयित्वा ते निश्चला', निस्पन्दाः, तूष्णीकास्ति ठन्निर ।
तथा-पत्र या तेऽवा आसते स्वपन्ति तिष्ठति त्वग्वर्त्तयन्ति च तत्र तत्र खलु तेपा रहूना कोष्ठयुटाना च यावद् अन्येपा च वहनां घ्राणेन्द्रियमायोग्याणा जाव संघाइमाणि य अन्नाणि य रहणि चरिखदिय पाउग्गाणि य दवाणि
वेति, ठवित्ता तेसिं परिपेरतेर्ण पालए ठवेंति, ठवित्ता णिचरला णिफदा तुसिणीया चिति) उस के चारों तरफ चारो दिशाओं मेंवीणा आदिको को स्थापित करते रहे । स्थापित करके फिर वे वही पर निश्चल-चलन क्रिया से रहित होकर हस्तादि अवयव को कपित किये विना ही चुपचाप बैठ गये।
इस तरह-जिस२ घनमें वे अश्व चैटते थे, सोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहा २ उन कौटुम्विक पुरुषों ने उस आनीत बहुतसी कृष्ण, नील, पीत, रक्त, शुक्ल वर्णवोली काष्ठकर्म आदि सघातिम पर्यंत की सामग्री को जो चक्षुइन्द्रिय को आनन्दप्रद थी. तथा और भी चक्षुइन्द्रि को सुतरा वनौ लगनेवाली जो वस्तुएँ थी उन को एकत्रित किया और उन्हे उन अश्वो की चारो दिशाओ मे रख दिया। रखकर के फिर वे निश्चल, निस्पन्द होकर चुपचार बैठ गये। (जत्य २ ते आसा आसयति ४ तस्य विय पुरिसा बहूणि किण्हाणि य ५ कट्ठझम्माणिय जाव सपाइमाणि य अन्नाणि य पहूणि चविखदिय पाउग्गाणि य दव्याणि ठति, ठवित्ता तेसिं परिपेरतेण पासए ठर्वेति ठवित्ता णिचला, णिप्फदा तुसिणीया चिट्ठति)
- તેમની ચેમેર, ચાર ચાર દિશાઓમા વીણુઓ વગેરે મૂળ મુકીને તેઓ તવા જ નિલ-હવન ચલનની ક્રિયાથી રહિત થઈને અગેને હલાવ્યા વગર ચુપચાપ ત્યાં બેસી ગયા આ પ્રમાણે જે જે વનમાં અશ્વો ઘોડાઓ) બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા તે તે વનમાં તે કૌટુંબિક પુરુએ સાથે લાવેલી ઘણું કાળી, નીલી, પીળી રાતી, સફેદ રંગની કાષ્ટકમ વગેરે સ ઘાતિમ સુધીની બધી વસ્તુઓને કે જેઓ ચબુ ( આખ) ઈન્દ્રિયને સુખ આપનારી હતી તેમજ બીજી પણ ચક્ષુ ઈન્દ્રિયને સુખ આપ નારી જેટલી સારી વસ્તુઓ હતી તેમને ભેગી કરી અને અધોની મેર તેમને ગોઠવી દીધી ગોઠવીને તેઓ ત્યાં જ નિશ્ચલ, નિસ્પદ થઈને ચુપચાપ ત્યાં જ બેસી ગયા
(जत्थ २ ते आसा आमयति ४ तत्थ २ ण तेसिं पण फोटुपुडाण य जान अन्नेसिं च बहूण धागिदियपाउग्गाण दवाण पुजेय णियरे य रेति,
Page #858
--------------------------------------------------------------------------
________________
HAMणारे नहिं २ च ण ' यत्र यत्र च मने पल ते 'मामा'अपामारपा अधाः 'आसयति पा' आस-उपविशन्ति 'सयंति । शेरतेसपनि वा' चिद्वतिया' तिष्ठन्ति ना, 'तुयति वा त्वयनयन्ति-शरीर मसार्य म्पन्ति वा ' तर्हि २ तत्र तत्र च खलु ते कौटुम्पिकपुरपाः 'तामो' ता:-हरितशीपनगरादानीता पीगान यात्-वृत्तीणाश, तथा अन्यानि च पनि श्रोोन्द्रियमायोग्याणि च द्रव्याणि 'समुदोरमाणा' गमुदीरयन्ता मधुरधनिना नादय वः तिष्ठन्ति, ठेका मचाना 'परिपेरतण' परिपर्यन्तेनसत. समतात् चतुर्दिशु इत्यर्थ 'पासए' पार्थे समीपे वीणादीनि स्थापयन्ति, स्थापयित्वा ते पुमपाः 'निन्चना' निश्चलाः चलनक्रियारहिताः । गिफदा' निः स्पन्दाहस्ताययवमचाररहिताः 'तुसिणीया' पचन व्यापाररहिताः 'विठ्ठति । तिष्ठन्ति ।
तया-यत्र यत्र तेऽन्याः आसते वा यात् त्वगर्तयन्ति लुठन्ति ता तत्र स्खलु ते कौटुमिकपुरुषा' बहूनि कृष्णानि च ५-कृष्णनीलपीतरक्तशुरूपर्णानि काष्ठनेत्र इन्द्रिय को आनद देनेवाले नीले पीले आदि रगवाले चित्रो को एव घाणहन्द्रियों को सुखकारक काष्ठपुट आदि सुगधित द्रव्यों को छोटी २ नौकाओं द्वारा पोत में से उतार कर कालिक दोप में रग्व दिया। बाद में जहा २ वे जाति अश्व पैठते थे मोते थे, टहरते थे, लेटते थे, वहा र वे कौटुम्निक पुरुप उन रस्तिशी नगर से लाये हुए वीणा से लेकर वृत्तवीणा पर्यन्त के साधनो को तया और भी श्रोत्र इन्द्रिय को सुरा वनी लगनेवाली साधन सामग्री को मधुर ध्वनि से बजाते हुए ठहर गये। और (तेसि परिपेरतेण पासण्ठति, ठवित्ता णिच्चला, गिफदा, तुसिणीया चिट्ठति, जत्य २ ते आसा आसयंति वा जाव तुयति वा तत्य र ण ते कोडबिय पुरिसा बणि किण्हाणि य ५ कट्टकम्माणि य પમાડનાર નીલા, પીળા વગેરે ૨ગના ચિત્રોને અને ઘાણ (નાક) ઈન્દ્રિયને સુખ આપે તેવા કાકપુર વગેરે સુધિત દ્રવ્યોને વહાણમાથી નાની નાના હેડીએમાં મૂકીને કાલિક દ્વીપ ઉપર મૂકી દીધી ત્યારપછી જ્યા તે જાતિ અશ્વો બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા ત્યા કૌટુંબિક પુરુષે તે હસ્તિશીર્ષ નગરથી લઈ આવેલી વીણાથી માડીને ૧૪ વિણ સુધીના સાધનોને તેમજ બીજા પય શ્રોત્ર (કાન) ઈન્દ્રિયને ગમે તેવી સાધન સામગ્રીને મધુર ધ્વનિથી વગાડતા ત્યા રોકાઈ ગયા અને--
(तेसिं परिपेरतेण पासए ठति, ठविता णिच्चला, गिफदा, तुसिगापा चिट्ठति, जत्य २ ते आसा आसयति वा जाव तुयद्वति वा तत्य २ कोड
Page #859
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०१७ कालिकद्वीपगत आकोणाश्यवक्तव्यता ११५ कर्माणि यावत् स पातिमानि च अन्यानि च रहनि चक्षुरिन्द्रियप्रायोग्याणि च द्रव्याणि स्थापयति-एकत्री कुर्वन्ति, तेपामश्वाना परिपर्यन्तेन-सत. समन्तात् पार्श्व स्थापयन्ति च, स्थापयित्वा ते निश्चलाः, निस्पन्दाः, तूष्णीकास्ति ठनि२ ।
तथा-यन यत्र तेऽवा आसते स्वपन्ति तिष्ठति त्वग्वतयन्ति च तत्र तत्र खलु तेपा बहूना कोष्ठपुटाना च यावद् अन्येपा च रहना घ्राणेन्द्रियप्रायोग्याणा जाव सघाडमाणि य अन्नाणि य सहणि चरिखदिय पाउग्गाणि य दयाणि ठति, ठवित्ता तेसिं परिपेरतेणं पासए ठवेंति, ठवित्ता निचरला णिप्फदा तुसिणीया चिट्ठति) उस के चारों तरफ चारो दिशाओं मेंवीणा आदिको को स्थापित करते रहे । स्थापित करके फिर वे वही पर निश्चल-चलन क्रिया से रहित होकर हस्तादि अवयव को कपित किये विना ही चुपचाप बैठ गये।
इस तरह-जिस२ घनमें वे अश्व बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, चहा २ जन कौडम्रिक पुरुपों ने उस आनीत बहुतसी कृष्ण, नील, पीत, रक्त, शुक्ल वर्णवाली काष्ठकर्म आदि सघातिम पर्यत की सामग्री को जो चक्षुइन्द्रिय को आनन्दप्रद थी, तथा और भी चक्षुइन्द्रि को सुहा वनी लगने वाली जो वस्तुएँ थी उन को एकत्रित किया और उन्हे उन अश्वो की चारों दिशाओ मे रख दिया। रखकर के फिर वे निश्चल, निस्पन्द होकर चुपचार बैठ गये । (जत्य २ ते आसा आसयति ४ तत्व विय पुरिसा वहूणि किण्हाणि य ५ कट्टकम्माणिय जाव सपादमाणि य जन्नाणि य पहणि चविखदिय पाउग्गाणि य दयाणि ठति, ठवित्ता तेसि परिपेरतेण पासए ठचेति ठवित्ता णिच्चला, णिप्फदा तुसिणीया चिट्ठति ) આ તેમની ચેમેર, ચાર ચાર દિશાઓમાં વીણાઓ વગેરે મૂકી મૂકીને તેઓ તવા જ નિશ્ચલ-હવન ચલનની ફિયાથી રહિત થઈને અગેને હલાવ્યા વગર ચુપચાપ ત્યાં બેસી ગયા આ પ્રમાણે જે જે વનમાં અશ્વો ઘોડાઓ બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા તે તે વનમાં તે કૌટુંબિક પુરુષો સાથે લાવેલી ઘણી કાળી, નીલી, પીળી રાતી, સફેદ ૨ ગની કાષ્ટકમ વગેરે સ ઘાતિમ સુધીની બધી વસ્તુઓને કે જેઓ ચક્ષુ ( આખ) ઈન્દ્રિયને સુખ આપનારી હતી તેમજ બીજી પણ ચક્ષુ ઈન્દ્રિયને સુખ આપ નારી જેટલી સારી વસ્તુઓ હતી તેમને ભેગી કરી અને અશ્વોની ચોમેર તેમને ગોઠવી દીધી ગઠવીને તેઓ ત્યાં જ નિશ્ચલ, નિસ્પદ થઈને ચુપચાપ ત્યાં જ બેસી ગયા
(जत्थ २ ते आसा आमयति ४ तत्य २ ण तेसि पहूण फोटपुडाण य जान अन्नेसिं च वहूण घागिदियपाउग्गाण दवाण पुजेय णियरे य करति,
Page #860
--------------------------------------------------------------------------
________________
बालकथा
•
चिणं यत्र यत्र च ने खलु ते 'आमा' अाश्वाः 'आसरांति ना' आसते उपविशन्ति 'संयंति ना' शेरतेस्पतिवा' चिद्वति वा ' तिष्ठति ना, 'तुमहति ना 'समतयत्ति शरीर सार्य स्वपन्ति वा ' तर्हि २ तत्र तत्र च खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः तामो ता:स्तिती नगरादानीता वीगाथ या वृत्तपरीणाथ, तथा अन्यानि च पनि श्रोगेन्द्रियप्रायोग्याणि च द्रव्याणि समुदरेमाणा' ममुदीरयन्त = मधुरयनिना नादयन्तः तिष्ठन्ति तेषा मवाना' परिपेरतेण ' परिपर्यन्तेन सर्वतः समन्तात् चतुर्दिषु इत्यर्थ 'पास' पार्थे समीपे परीणादीनि स्थापयन्ति, स्थापयित्वा ते पुरुषाः ' निच्चा ' निवला:=चलनक्रियारहिताः ' निष्कंदा निः स्पन्दा हस्ताद्यनपत्रमचाररहिताः 'तुसिणीया ' वचन व्यापाररहिता. 'निवृति ' तिष्ठन्ति ।
1
तथा-यत्र यत्र तेऽश्वाः आसते वा यावत् समत्तयन्ति = लुठन्ति तत्र तत्र खल ते कौटुम्बिकपुरुषा बहूनि कृष्णानि च १ =कृष्णनीलपीतरक्तशुद्ध वर्णानि का नेत्र इन्द्रिय को आनद देनेवाले नीले पीले आदि रगवाले चित्रों को एव घ्राणद्वियों को सुखकारक काष्ठपुट आदि सुगंधित द्रव्यों को छोटी २ नौकाओं द्वारा पोत में से उतार कर कालिक दोप में रख दिया। बाद में जहा २ वे जाति अश्व बैठते थे मोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहा २ वे कौटुम्बिक पुरुष उन हस्तिशीर्ष नगर से लाये हुए वीणा से लेकर वृत्तवीणा पर्यन्त के साधनो को तथा और भी श्रोत्र इन्द्रिय को सुहा घनी लगनेवाली साधन सामग्री को मधुर ध्वनि से बजाते हुए ठहर गये। और (तेसिं परिपेरतेण पास ठवेंति, रवित्ता णिच्चला, निष्फदा, तुसिणीया चिट्ठति, जत्थ २ ते आसा आसयति वा जाब तुयइति वा ते को पुरिसा बहूणि किण्हाणि य ५ कटुक्रम्माणि य પમાડનાર નીલા, પીળા વગેરે રગના ચિત્રાને અને ધ્રાણુ ( નાક ) ઇન્દ્રિયને સુખ આપે તેવા કાઇપુર વગેરે સુગધિત દ્રવ્યોને વહાણુમાથી નાની નાની હાડીઓમા મૂકીને કાર્લિક દ્વીપ ઉપર મૂકી દીધી ત્યારપછી જ્યા તે જાતિ અશ્વો ઍસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા ત્યા તે કૌટુબિક પુરુષો તે હસ્તિશીષ નગરથી લઈ આવેલી વીણાથી માડીને વૃત્ત થીગ્રા સુધીના સાધનાને તેમજ ખીજા પણ શ્રોત્ર ( કાન ) ઇન્દ્રિયને ગમે તેવી સાધન સામગ્રીને મધુર ધ્વનિથી વગાડતા ત્યા રોકાઈ ગયા અને~~
( तेसिं परिपेरवेण पासए ठवेंति, ठविता णिश्चला, गिप्फदा, तुसिगीपा चिट्ठति, जत्य २ ते आसा आसयति वा जात्र तुयइति वा तत्थ २
- कोड
4
ܕ
Page #861
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १७ कालिकद्वीपगत आकीर्णाश्चत्तव्यता ६१७
,
रए ' विवराणि गर्त्तानि सनन्ति, खनिला गुडपानकस्य खण्डपानकस्य यावद् अन्येपा च बहूना पानकाना विवराणि भरन्ति भृत्वा तेपा परिपर्यन्तेन पार्श्वे स्थापयन्ति यावत् तूष्णीकास्तिष्ठन्ति ४ ।
यत्र यत्र च खलु तेऽया आसते ४ तन तत्र च खलु ते = कौटुम्बिक पुरुषाः बहून् कोयविकान् =रूतपूरितमावरणविशेषान् यावत् इसगर्भान= कौशेयवस्त्रनिशेषान् अन्यानि च वहनि स्पर्शेन्द्रियमायोग्याणि वस्त्रादीनि ' अत्युय पञ्चत्युयाट आस्कृतप्रत्यवस्तुतानि=श्लक्ष्णमावरणमावृतानि कृत्वा स्थापयन्ति, स्थापयित्वा तेपा परिपर्यन्तेन यावत् तूष्णीकास्तिष्ठन्ति ५ ।
ततः खलु तेऽश्वा यंत्र एते उत्कृष्टाः शब्दस्पर्शरसरूपगन्धास्तत्रैवोपागच्छन्ति, द्रव्यों के पुज एव निकर लगाकर खडे कर दिये । एक ही वस्तुओंकी जो राशि होती है उसका नाम पुज तथा भिन्न वस्तुओं की राशि का नाम निकर है। बाद मे वरी पर उन्हों ने अनेक गर्त खड़े किये। गर्त करके उनमें गुडपानक खडपानक यावत् और भी अनेक पानक भर दिये । याद में वहा पर उनकी चारो दिशाओं में निश्चल - निस्पन्द होकर चुपचाप बैठ गये । इसी तरह जिन २ वनो में वे घोडे बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, एव लेटते थे, वहा २ उन कौटुम्बिक पुम्पो ने अनेक रुई के भरे हुए प्रावरणों को यावत् हसगर्भी को रेशमी वस्त्रों को तथा और भी अनेक स्पर्शनइन्द्रिय को सुखदायक वस्त्रो को चिकने प्रावरणों से ढककर रख दिया। बाद मे वे उनके चारों ओर यावत् चुपचाप बैठ गये (नएण ते आसा जेणेव एए उनिकट्टा सद्दफरिसरसख्वगंधा तेणेव उवाબિક પુરુષોએ ગાળના યાવત્ ખીજા ઘણા રસનેન્દ્રિય (જીભ) સુખ પમાડે તેવા દ્રષ્યેાના પુો અને નિકરેા લગાવીને ખડકી દીધા એક જ વસ્તુના ઢગલાને પુંજ તેમજ જુદી જુદી વસ્તુઓના ઢગલાઓને નિકર કહે છે ત્યાપછી તે લાકોએ ત્યા જ ઘણા ખાડાએ તૈયાર કર્યાં તે ખાડાએમા તેઓએ ગાળ પાન, ખાડપાન, ચાવત્ ખીજા પણ ઘણી જાતના પાના ભરી દીધા ત્યાર બાદ તેએ ત્યા જ તેમની ચારે તરક નિશ્ચલ-નિસ્પદ થઈને ચુપચાપ બેસી આ પ્રમાણે જે જે વનેમા તે ઘેાડાએ બેસતા હતા, સુતા હતા, રહેતા હતા ને આરામ કરતા હતા ત્યા ત્યા તે કોટુબિક પુરુષાએ ઘણા રૂના પ્રાવ ણેને યાવત્ હું સગર્ભાને, રેશમી વસ્રાને તેમજ બીજા પણ ઘણા સ્પર્શે ન્દ્રિયને સુખ આપે તેવા વસ્રોને લીમા પ્રાવણેાથી આચ્છાદિત કરી દીધા ત્યારપછી તેઓ બધા ચુપચાપ તેની ચારે તરફ બેસી ગયા
ગયા
(तरण ते आसा जेणेत्र एए उक्किट्ठा सदफरिसरसरूनगवा तेणेव उनाग
Page #862
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१६
ग्रामाचर्मका
द्रव्याणां पुआ एकतुमहान निरंग नानापर्वन्ति, त्या तेपामधानां परिपर्यन्तेन=सन्धुयात् तूष्णीकनिष्ठन्ति ।
यत्र यत्र च च तेऽश्वा आगते ४ तत्र तत्र गतु ठस्य यावद् अन्ये च नाजिमायोग्ाणा क्रषणा पुत्रांग निवदुर्वन्ति का 'त्रिय २ण तेमि पण फोहपुत्राणं ग जान अन्नेमिं च पण घाणिदिय पाउ गाण दव्वाण पुजेय गियरेय कांति करिता तेमि परिपेरतेण जाय चिह्नति, जल जपण ते आमा आमयति ४ २ गुलस्म जात्र अन्नेसिंघ पर्ण जिभिदिय पाउरगाण दव्याण पुंजे य नियरे य करेंति, करिता नियरण खणति, सणित्ता गुलपागगस्स वडवाणगस्त जाब अन्नेमि च बहूण पाणगाण नियरे भरेंति-भरित्ता तेमिं परिपेरतेन पाए ठवेंति जान चिहति जहि २ घण ते आमा आम० तर्हि २ण ते घहवे कोयविद्या ग जान गन्भाय अण्णाणि य ऋणि फार्मिदिपाउ गाइ अत्युष पच्चत्युयाइ ठवेंति, वित्ता तेमि परिपेरतेण जाव चिट्ठति ) जहा जहा वे घोढे पेठते थे, सोते थे, उतरते थे, लेटते थे, वहाँ २ उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उन अनेक कोष्ट पुढों के यावत् अन्य और घ्राणेन्द्रिय प्रायोग्य द्रव्यों के पुजों को निकरों को एकात्रित कर दिया और करके फिर वे उन अश्दों की चारों दिशाओं में यावत् चुपचाप बैठ गये । जहा वे घोडे बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहार उन कौटुम्बिक पुरुषो ने गुड़ के यान दूसरे और रसनेन्द्रिय आल्हादक करिता तेर्सि परिपेरतेण जान चिट्ठति, जत्थ जत्य गते आसा आसयति ४ तत्थ २ ण गुलस्स ज्ञान अन्नेमिं च वण जिभिदिय पाउरगाण दव्वाण पुजे य गियरे य करेंति, करिता चियरए खणति, खणित्ता गुलपाणगस्स खडपाणगस्स जात्र अनेमिं च बहण पाणगाण नियरे भरेंति-भरिता तेर्सि परिपेरतेनं पासए ठति जाव चिट्ठति जहि २ च ण ते आसा आस० तहि २ च ण ते वहवे कोय विया य जान गाय अण्णाणि य बहूणि फासिंदिय पउग्गाइ अत्थुयपच्चत्थु या ठवेंति, वित्ता तेमिं परिपेरतेण जाव चिट्ठति )
२
જ્યા જ્યા તે ઘેાડાએ બેસતા હતા સૂતા હતા રહેતા હતા, આામ કરતા હતા ત્યા ત્યા તે કૌટુબિક પુરુષોએ તે ઘણા કેષ્ઠ પુટકાને યાવત્ ખીજી ล પણ ઘણી ઘ્રાણેન્દ્રિય ( નાક ) ને સુખ પમાડે તેવી વસ્તુઓને પુષ્કળ પ્રમા ભુમા તા ગેાઠવી દીધી, એકઠી કરી દીધી અને એકઠી કરીને તેઓ તે ઘેાડા આને ચારે તરફ યાવત ચુપચાપ થઈને બેસી ગયા તે ઘેાડાએ જ્યાં જ્યા ખેસના હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આશમ કરતા હતા ત્યા ત્યા તે કૌટુ
Page #863
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १७ काल्कि द्वीपगत आकीर्णाश्वनव्यता ६१७ रए ' विवराणिगर्त्तानि सनन्ति, खनिला गुडपानकस्य खण्डपानकस्य यावद् अन्येपा च बहूना पानकाना विवराणि भरन्ति, भृत्वा तेपा परिपर्यन्तेन पार्श्व स्थापयन्ति या तृष्णीका स्तिष्ठन्ति ४ ।
"
यनयन च खलु तेऽथा आसते ४ तत्र तत्र च खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः बहून् कोयनिकान् = ख्तपरितमावरणविशेषान् यावत् हसगर्भान् = कौशेयवत्र निशेपान् अन्यानि च बहूनि स्पर्शेन्द्रियमायोग्याणि वस्त्रादीनि अत्युय पचत्याइ ' आस्तृतप्रत्यवस्तुतानि श्लक्ष्णमावरणमाहृतानि कृत्या स्थापयन्ति, स्थापयित्वा तेपा परिपर्यन्तेन यावत् तूष्णीकास्तिष्ठन्ति ५ ।
ततः खलु तेऽश्वा यत्रेव एते उत्कृष्टाः शब्दस्पर्शरसरूपग धास्तनैवोपागच्छन्ति, द्रव्यों के पुज एव निकर लगाकर खडे कर दिये । एक ही वस्तुओकी जो राशि होती है उसका नाम पुत्र तथा भिन्न वस्तुओं की राशि का नाम निकर है । पाद मे बरी पर उन्हों ने अनेक गर्त खड़े किये। गर्त करके उनमें गुडपानक खडपानक यावत् और भी अनेक पानक भर दिये । याद में वहा पर उनकी चारो दिशाओं में निश्चल-निस्पन्द होकर चुपचाप बैठ गये । इसी तरह जिन २ बनो में वे घोडे बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, एच लेटते थे, वहा २ उन कौटुम्बिक पुम्पो ने अनेक रुई के भरे हुए प्रावरणो को यावत् हसगर्भों को- रेशमी वस्त्रों को तथा - और भी अनेक स्पर्शनइन्द्रिय को सुखदायक वस्त्रो को चिकने प्रावरणों से ढककर रख दिया । बाद मे वे उनके चारो ओर यावत् चुपचाप बैठ गये (तएण ते आसा जेणेव एए उक्किट्ठा सद्दफरिसर सरूवगंधा तेणेव उवा
ખિક પુરુષાએ ગાળના યાવત્ ખીન્ન ઘણા રસનેન્દ્રિય (જીભ) ને સુખ પમાડે તેવા દ્રષ્યેાના પુો અને નિકરેા લગાવીને ખડકી દીધા એક જ વસ્તુના ઢળલાને પુંજ તેમજ જુદી જુદી વસ્તુઓના ઢગલાઓને નિકર કહે છે. ત્યારપછી તે લેકેએ ત્યા જ ઘણા ખાડાઓ તૈયાર કર્યાં તે ખાડાએમા તેઓએ ગાળ પાનક, ખાડપાનક, ચાવત્ ખીજા પણ ઘણી જાતના પાનકા ભરી દીધા ત્યાર ખાદ્ય તેએ ત્યા જ તેમની ચારે તરફ નિશ્ચય-નિસ્પદ થઈને ચુપચાપ બેસી ગયા આ પ્રમાણે જે જે વનામા તે ઘેાડા બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા અને આરામ કરતા હતા ત્યા ત્યા તે કૌટુંબિક પુરુષાએ ઘણા ના પ્રાવાને યાવત્ હું સગર્વાંને, રેશમી વર્ઝાને તેમજ ખીજા પશુ ઘણા સ્પર્શે ન્દ્રિયને સુખ આપે તેવા વસ્ત્રોને લીસા પ્રાવરણેાથી આચ્છાદિત કરી દીધા ત્યારપછી તેઓ બધા ચુપચાપ તેની ચારે તરફ બેસી ગયા
- (तरण ते आसा जेणेत्र एए उक्किट्ठा सदफरिसरसरूनगधा तेणेव उनाग
Page #864
--------------------------------------------------------------------------
________________
re
माताधर्मकया
'
उपागत्य तत्र खट- 'अयेगाथा' अग्न्येके केचिद् अधा-पूष्टः मे शन्दस्पर्शरस पगन्धाः सन्ति' इति यानि विचित्य तेषु उत्= आप केषु शन्दस्पर्शरम रुपगन्धेषु अन्डिया' अमूर्च्छिता = मूरक्षिता, माहेयोपादेयनिषेकाः अट्टा=अमत्तिरदिताः अपथिता:=ोभतन्तुभिरचद्धाः अनध्युपपन्ना' = तदेशप्रतारहिताः किचिन्मानमपि तेष्यासक्तिमर्वाणाः सन्तः तेषामुत्कृष्टाना 'सर जार गंधाण ' स्पर्शग्मरूपगन्धाना दरदरेण भविदूरत एव ' अनमति' अपक्रामन्ति पलायते स्म । ते च स तत्र मनुरगोचरा:= मचुरचरणभूमयः मचुरतॄणपानोया, निर्भयाः, निरुद्विग्नाः 'सुद्द गृहण ' मुख सुखेन सुसपूर्वक विहरन्ति ।
गच्छति, उद्यागच्छित्ता तत्थ पण अत्धे गया आसा अपुव्वा ण इमे सद्द फरिसर सख्यगधाइ ति ते सफरिसर सरूवगधेषु अमुच्छिया४ तेलि उद्वाण सह जान गधाण दूरं दूरेण रक्कमति ) बादमे के अश्व जरा ये पूर्वोक्त उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप गध और स्पर्शवाले पदार्थ थे वहा पर आये वहा आकर के इनमें कितनेक अश्व " ये शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गध अदृष्टपूर्व है " ऐसा विचार कर उन आकर्षक शब्द रूप, रस, स्पर्श व गधो में उन पदार्थों मे-मृच्छित नहीं वने । हेय उपादेय के विवेक से युक्त बने हुए वे कितनेक अश्व उन
आसक्ति से रहित ही रहे लोभस्ततु से बन्धे नहीं। तथा किञ्चि मात्र भी उनमे आनक्ति नही करते हुए वे उन शब्द, स्पर्श रूप, और गधों को बहुत ही दूर से छोड़कर चल दिये । ( तेण तत्थ परगोपरा च्छति, आगच्छत्ता तत्थण अत्येना आसा अपना इमे सदफरिसरसरूव तिकडे तेसु उक्किट्ठे सफरिसरसरूनगवेसु अमुच्छिया : तेर्सि उक्क्द्विाण सर नाव गधाण दूर दुरेण अक्कमति )
ત્યારપછી તે ઘેાડાએ આ બધા પૂવે મૂકેલા ઉત્કૃષ્ટ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ રૂપ અને ગધવાળા પદાર્થાં હતા ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેમાથી કેટ લાક ઘેાડાએ આ શબ્દ સ્પ, રસ, રૂપ અને ગધ અષ્ટપૂવ છે. ” આમ વિચાર કરીને તે આકર્ષક શબ્દ, રૂપ, રસ, સ્પર્શે અને ગધાવાળા તે પદા ર્થોમા સૃષ્ઠિત ( મહાધ-લેાલુપ થતા નહિ હૈય અને ઉપાદેયના વિવેકથી સાવધ બનેલા કેટલાક ઘેાડાએ તે પદાર્થોમા નિરાસક્ત જ રહ્યા તે લાભ રૂપી ઢારીથી આ ધાયા નહિ થાડી પણ આસક્તિ ખતાવ્યા વગર તે તે શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગધવાા પદાર્થોને ખૂબ દરથી જ છેડીને જતા ( तेण तत्थ पउरगोयरा पउरत्तणगणिया णिभया निरुध्विग्गा सुर
२ह्या
Page #865
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगराधमामृतापणी टी० अ० १७ कालिकद्रीपगत आकोध्वियक्तव्यता ६१६ ___अथोपनय प्रदर्शयति,–'एवामेन' एउमेर शब्दायमूर्छिताकीर्णाश्ववत् 'सम
णाउसो' हे आयुप्मन्त श्रमणा ! योऽस्माक निर्ग्रन्थी वा यावत्-आचार्योपा. ध्यायानामन्ति के मनजितः सन् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेपु 'नो सज्जइ 'नो सज्जते आसक्तिगान् न भवति ' नो रज्नइ ' नो रज्यते अनुरक्तो न भवति, नो गृ यति, न वाञ्छति, नो मुधति-न मृर्छति, नो अ युपपद्यते-न तल्लीनो भवति, स खलु इह लोक एन बहूना श्रमणादीना चतुम्धिसङ्घस्य जर्चनीयासंमाननीय. यावत् चातुरन्तससारकान्तार वीउवहस्मड ' व्यतिप्रजिष्यति-उल्लड्ययिष्यति-पारं गमिप्यतीत्यर्थ । सू०३ ॥ पउरत्तणपाणिया णिन्भया णिरुचिग्गा सुह सुहेण विहरति ) और जगल में ही जो प्रचुरचरने की जमीन थी-जिममें अधिक से अधिक मात्रा मे तृण और पानी भरा हुआ रहता था उममे ही निर्भय, निरु द्विग्न होकर सुखपूर्वक रहे। अब इस दृष्टान्त का उपनय प्रदर्शित करने के लिये सूत्रकार कहते है- (एवामेवममणाउसो ! जो अम्ह णिग्गयो वा णिग्गथी वा जाव सद्द फरिसरसरूवगयेसु णो सजह णो णो रज्जइ, जो गिज्झइ, णो मुज्झइ, णो अज्ञोववज्जेइ, से ण इह लोए चेव यहण समणाण ४ अच्चणिज्जे जाव वीदरहस्सइ) हे आयु प्मत श्रमणो! इसी तरह जो हमारा निर्ग य सायुजन एव निर्ग्रन्थी साध्वी जन अचार्य उपा-यय के पास प्रव्रजित होकर शब्द स्पर्श, रस, रूप, और गध इन पांचो इन्द्रियो के विपयो में आपक्ति युक्त नहीं होता है, अनुरक्त नहीं बनता है, उन्हें चारता नहीं है, उनमें मूर्छित नहीं होता है, उनमें तल्लीन नहीं होता है, वह इस लोक मे ही अनेक सुहेण विदर ति ) म पनमा प्रयु२ ५२वानी भीन ती, या धारेमा વધારે ઘાસ અને પાણી હતા ત્યાં જ નિર્ભય, નિરૂદ્વિગ્ન થઈને સુખથી રહેવા લાગ્યા હવે આ દષ્ટાન્તનો ઉપનય સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે –
(एकामेव समणाउसो जो अम्ह णिग्गथो वा णिग्गयी वा जान सदफरिसरसख्वगधेमु णो सज्जइ णो रज्जइ, जो गिझइ, णो मुज्झइ, णो अझोपवज्जेइ, से ण इहलोए चेव वहूण समणाण ४ अच्चणिज्जे जान वीइनइस्सइ)
આયુષ્મત શમણે! આ પ્રમાણે જ જે અમારા નિર્ચ થ સાધુઓ કે નિર્ચ થ સાધ્વીઓ આચર્યું કે ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રજિત થઈને શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગધ આ પાચે ઈન્દ્રિયોના વિષયમાં આસક્ત થતા નથી અનુરકત થતા નથી, તેમને ઈચ્છતા નથી, તેમાં મૂર્શિત થતા
Page #866
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२२
সাইবার सदस्पर्शरसरूपगन्धार ' आसेपमाणा' मासेरमानाः सत्यानुमा कुर्माणाः ते हुभि टेप पन्धनशिपः, पशि रज्यादिस्पः गलपपु-गलेपुटेषु पाटेषु च 'यज्झति ' या यन्ते-ते पौटुम्बिापुरापास्तान धान बध्नन्ति म्मेत्यर्थः । तत घोड़ों में से किननेक घोड़े से भी थे जो माघे उत्कृष्ट शब्द स्पर्श रस, रूपए गध ये पांचो इन्द्रियों के आकर्षक विषय थे आकर उन उत्कृष्ट शब्द स्पर्म आदि विपयो में मृर्मित यात् तालीन धनगये।
और उन्हें सेवन करने में प्रवृत्त भी हो गये। (तपण ते आमा ते उचिठे मह ५ आसेपमाणा तेसि पदाहिं फूटेहि य पासेरिय गलासु य पाणसु य यशति, तपण ते पोयियपुरिमा ते आसे गिरति गिहिस्सा एगट्टियाहिं य पोयवहणे सचारेंति, सचारित्ता तणस्म कट्टस्स जाव भरेंति, तरण ते सजत्ता णावा चाणियगा दरिखणाणुकलेण वारण जेणे गभीरपोयपट्टणे तेणेच उवागच्छद,उवागच्उित्तापोयवहण लयंति: लपित्ता ते आसे उत्तारैति ) इसके बाद वे घोड़े उन उत्कृष्ट शन्द पश रस, रूप, एव गध इन पाचौं इन्द्रियों के विपयों को सेवन करते हुए रज्वादिरूपन्धन विशेषों द्वारा कठों और पैरों में या पलिये गये । अर्थात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने इन घोड़ों को उस समय रस्सियो द्वारा बांध लिया। बाघ करके फिर उन कौटुम्बिक पुरुषोंने उन्हें पकड लिया पकड
જ્યા તે ઉત્કૃષ્ટ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગધ આ પાંચે ઈન્દ્રિયોના આકર્ષક વિષયે હતા ત્યાં આવીને તે ઉત્કૃષ્ટ શબ્દ, સ્પર્શ વગેરે વિષયોમાં મૃતિ (આસક્ત) યાવત્ તકતીન થઈ ગયા અને તેમના સેવનમાં પ્રવૃત્ત પણ થઈ ગયા
(तएण ते आसा ते उक्किडे सह ५ आसेवमाणा तेसिं वहूर्हि कूडेहि य पासेहिय गलएसु य पाएसु य वज्ज्ञति, तएण ते कोडु वियपुरिसा ते आत गिण्हति गिण्हित्ता एगहियाहिं य पोयवहणे सचारेति, सचारित्ता तणस्स क्स्स जान भरेंति, तरण ते सनत्ता णावा वाणियगा दक्षिणाणुकूलेग वाएण जण गभीरपोयपणे तेणेव उवागच्छा, उवागन्धित्ता पीयवहण लति-लविता । आसे उत्तारेति )
ત્યારપછી તે ઘડાઓ ઉત્કૃષ્ટ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગ ધ આ પાચે ઈન્દ્રિયોના વિષયોનું સેવન કરતા દોરડાઓ વગેરે રૂપ બ ધન વિશવથી ડેકો અને પગમા બે ધાઈ ગયા એટલે કે તે કૌટુંબિક પુરુષએ તે ઘડી એને દેરડાઓથી બાધી લીધા બાધીને તે કૌટુંબિક પુર
Page #867
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १७ आकोविदा. पयोजना खलु ते कोटुम्बिकपुरुषास्तानश्वान् गृहन्ति, गृहीला 'एगट्टियाहिं एकार्थाभि लघुनौकाभि पोत पहने = बृहन्नौकाया सचारेंति' सञ्चारयन्ति = आरोहयन्ति सञ्चार्य तृणस्य राष्ठस् च यावत् पोववहन भरति तृणकाष्ठादिभिरितिभानः । ततः खलु ते सयानोकावाणिजकाः दक्षिणानुकूलेन =स्त्रानुरुलेन पातेन यत्र गम्भीर पोत पत्तन = पोतम्म्नस्थान तत्रैनोपागच्छन्ति, उपागत्य पोतनहन 'लति ' लम्बयन्ति शकुषु वद्धा स्थापयन्ति, सम्मयिला तान्=अधान् 'उत्तारेति उत्तारयन्ति, उत्तार्य यौन हस्तिशीर्षं नगर यत्रैव कनककेतू राना तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य ' करयल जाव' करतळपरिगृहीत शिरआन दानख मस्तके
६२३
-
कर फिर उन्हें छोटी २ नौकाओ द्वारा लाकर बडी नौका में चढायाचढ़ा करके फिर उसमे तृण और काष्ट आदि को भरा। इसके बाद वे सांयात्रिक पोतवणिक दक्षिणानुकूल वायु के चलने पर जहा गभीर नामका पोषण (बन्दरगाह ) था वहा आये। वहां आकर के उन्हों ने अपने पोत को लगर डालकर ठहरा दिया । ठहरा कर उन अन्वों को उस पोत से फिर उन्हों ने नीचे उतार लिया । ( उत्तारिता जेणेव हथिसीसे जयरे जेणेव कणगऊ राया तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता करयल जाव यद्धावेति, बद्धावित्ता ते आसे उयति, तरुण से कणके तेर्सि मजत्ता णावावाणियगाण उस्लुक्क विपरs, far रित्ता सकारे समाणेह सकारिता समाणित्ता पडिविसज्जेड ) उतार कर फिर वे वहाँ उन्हें ले गये जहा हस्तिशीर्प नगर और उसमें भी
પકડી લીધા પકડીને તેમણે નાની નાની લેાડીએ વડે મેગ્ય વહેંણુમા ચઢાવ્યા ચઢાવ્યા બાદ તેઓએ તેમા ઘાસ અને કાઇ ભર્યા ત્યારપછી તે સાયાત્રિક પેાતવણિકે દક્ષિણને અનુકૃળ પવન વહેવા લાગ્યા ત્યારે ત્યાથી રવાના થઈને જ્યા ગંભીર નામે પાતપટ્ટણ ( ખદર) હતુ ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેમણે પેાતાના વહાણુને લગર નાખીને શકયુ ત્ય રખાદ તેમણે ઘેાડાઓને વહાણુ માથી નીચે ઉતાર્યાં
( उत्तारिता जेणेव इत्थिसीसे गयरे जेणेव क्णगकेऊ राया तेणेव उनागच्छति, उवागच्छित्ता करयल जान बद्धाति, बद्धापिता ते आसे उवणेति तएण से गऊ ते सत्ता णावा वाणियगाण उस्क्रु वियरह, निर्यारता सक्कारेs, समाणे, सक्करिता, समाणित्ता पडिनिसज्जेइ )
નીચે ઉતારીને તે તે ઘેાડાઓને હસ્તિી નગરમાં જ્યાં નકકેતુ રાજા હતા ત્યા લઈ ગયા ત્યા જઈને પહેલા તેમણે અને હાથ જોડીને રાજા
Page #868
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२४
ANपा जलि कसा 'पद्वाति' पर्वयत्ति नपरिजयशदेनाभिनन्दन्ति, वर्दपिस्या तान् अधान रामः समीपे ' उति ' उपनयनि । गतः न्यलु स कनाकेनू राजा तेपा सयाप्रनौशापाणिनगनाम् ' उस्का 'उगुलाम्प म्य केनापि फरो न ग्राह्य ' त्याम्पमाशाप तिरविन्ददाति. तिीर्य सत्करोति-मधुर वचनादिभि., समानपति-नादिमि , सत्कार्य सम्मान्य प्रतिषिसर्नयति ।
ततः खलु स कनककेन राना 'आसमाए' अधमर्दकान्-अश्वशिक्षकान् शन्दयति, शब्दयिथा एमादीत्-यूय खलु हे देवानुमियाः ! ममाधान 'त्रिण एह ' पिनयत शिक्षयत-गत्यादिकाशमान फुरुतेत्पर्य । ततः खलु तेऽन मर्दकाः 'तहत्ति तथेति 'तथास्तु' इत्युक्त्वा मतिशृण्वन्नि नृपाशा स्वीकृर्वन्ति, जहा कनककेतु राजा थे। यहा जाकर उन्होंने पहिले दोनों राय जोड कर राजा कनककेतु को नमस्कार किया-जय विजय शन्दों द्वारा उन्ह घधाई दी-पगई देकर पाद में उन घोहों को उनके समक्ष उपस्थित करदिया इसके पाद पनककेतु राजा ने उन सांयाधिक पोतवणिकजना के लिये निःशुल्क (फररहित ) अपस्था वितरित की इन्हों से कोई भी राज्यकर्मचारी टेक्स न ले इस प्रकार का आज्ञापत्र उन्हे लिखकर दे दिया। आज्ञापत्र लिखकर देने के बाद राजाने उनका मधुर वचना द्वारा सत्कार किया। वस्त्रादि प्रदान पूर्वक उनका सम्मान किया। फिर सत्कार म मान करके उन्हें विसर्जित कर दिया। (तएण से कणक कोडयियपुरिसे सहावेड, सहावित्ता सकारेति पडिविसज्जेइ, तरण से कणगके करारा आसमहरा सदावेद सद्दावित्ता एव वयासी तुम्भण देवानुप्पिया ! मम आसे विणए ) इस के बाद क्नककेतु राजाने का કનક તુને નમસ્કાર કર્યા અને જય-વિજય શબ્દ વડે તેમને વધામણી આપી વધામણી આપીને તેમણે તે બધા ઘડાઓને તેમની સામે ઉપસ્થિત ફયા ત્યારપછી કનકકેતુ રાજાએ તે સાયાત્રિક પિતરણિ કોને માટે કર માફી કરી આપી તેમની પાસેથી કઈ પણ રાજ્ય કર્મચારી કર (ટેકસ) લે નહિ ? આજ્ઞાપત્ર તેમને લખી આપ્યું આજ્ઞાપત્ર આપીને રાજાએ તેમને મધુર વચને વડે સત્કાર કર્યો અને વસ્ત્રો વગેરે આપીને તેમનું સન્માન કર્યું ત્યારપછી તેમને વિદાય કર્યા
(तरण से कणगऊ कोडुपियपुरिसे सहावेइ, सदावित्ता सरकारे ति° पडिविसज्जेह, तरण से कणगऊ राया आसमदए सगवेइ सदाविता " वयासी तुध्मण देवाणुप्पिया ! मम आसे विणएह ।
Page #869
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधामृतवर्षिणी टोका अ० १७ आफीश्विदान्तिक्योजना १२५ प्रतिश्रुत्य तान् अश्वान् बहुभिर्मु खान्धैश्च कर्णव वैश्च नासान पैश्च वालगन्धैश्च केशान्धैरित्यर्थः खुरचन्यैश्च ‘सलिणनधेहि य' खलीनबन्धैः ' लगाम' इति प्रमियन्यनैः, 'अहिलाणेहि य ' अभिलानेः 'जीन' इति प्रसिद्धः, पडियाणेहि ' पर्याणकै.' तग' इति मसिद्धैश्चर्ममयैरश्वोपकरणविशेपैः, 'अकणाहि य' अङ्गनाभि'=तप्तलोहगलाकादिभिरङ्कनकरणैश्च । वित्तप्पहारेहि य । वेत्रप्रहारैश्च म्भिक पुरुपो को बुलाया, बुलाकर उनका आदर सत्कार किया। फिर उन्हें विसर्जित कर दिया। इसके पश्चात् कनककेतु राजा ने अश्वशिक्ष कों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियों! तुम इन हमारे इन घोड़ों को शिक्षित वनाओ-गन्यादिकला में निपुण करो। (तपण ते आसमांगा तहत्ति पडिसुणेति, पडिसुणित्ता ते आसे पहि मुह वधेहि य अण्णय धेहि णासा बधेहि य बालबहि य खुरवधेहि य खलिणवधेहि य अहिताणेहि य पडियाणेहि य अकणादि य वित्तप्पारेहि यसप्पहारेहि य विप्पहारेहि य विणयति ) राजा कनककेतु की इस
आज्ञा को उन अश्वमर्दकों ने " तहत्ति" कहकर स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर उन्हों ने अनेक विध मुख बंधनों से, कर्णधनों से नासायधनों से लगामरूप बधनो से अभिलानों से-पलेचाओ से-पर्या णकों से तगो के कसो से-अफनों से-तप्त हुई लोहकी शलाकाओं द्वारा डाम लगाने से वेत्र के प्रनगरों से, लताओं के प्रहारोंसे, चावुकों के
ત્યારપછી કનકકેત રાજાએ કૌટુંબિક પુરુષને બોલાવ્યા, બોલાવીને તેમને સત્કાર કર્યો અને પછી તેમને વિદાય કર્યા ત્યારબાદ કનકેતુ રાજાએ અશ્વશિક્ષકને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવા નુપ્રિયે ! તમે અમારા આ ઘડાઓને શિક્ષિત બનાવે, દેડવા વગેરેની કળાએમાં નિપુણ બનાવે
(तएण ते आसमगा तहत्ति पडिसुणेति, पडिसुणिचा ते आसे वहहिं मह वधेहि य कण्ण वधेहिं पासा वधेहि य वालवधेहि य सुर वधेहि य खलिण वधेहि य अहि लाणेहि य पडियाणेहि य अरुणाहि य पित्तप्पहारेहिय लयप्पहारेहिय करूप्पहारेहि य डियप्पहारेहि य विणयति)
રાજા કનકકેતુની આજ્ઞાને તે અશ્વમ કે એ “તહત્તિ ” કહીને સ્વીકારી લીધી સ્વીકાર કરીને તેમણે ઘણું જાતના મુખ બધાથી, કશું બધાનેથી, નાસા બધાનેથી, વાળ બધાથી, ખુર બધનોથી, લગામ રૂપ બનેથી, અભિલાનોથી, પચાઓથી, પર્યાણુકેથી, તગોને કસવાથી, અનેથી, તપા વવામાં આવેલી ભેખડની સળીઓ વડે ડામવાથી, તેના આઘાતથી લતા
Page #870
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२१
mas
ere
मातामा 'लयप्पहारेहि य ' लनामहरिश, पहारेशिय' महारच 'यशा'-- घापुरु' इति मापागम् , 'चियपहारेडिय' यिामारे ममयचियामा महारथ 'रिणयति ' निति-शिक्षगन्ति, निीय-शिक्षयियापनको राज उपनयन्ति । तत' रालु सः कनाकेतु राजा तान नश्चमकान मत्सरोनि मम्मा नयति, सत्कृत्य सम्मान्य मतिविनयति । ततः सलु तेऽचाः सहुभिर्मुरसान्येश्व यावत्-डियामहारश्च रहनि शारीरमानसनि दुपानि प्राप्नुवन्ति ।
'एकामे' परमेव मान्दादिविषयमृदिशाधिपत् 'ममणाउसो' हे आयुप्मन्तः श्रमणा. ! योऽस्मा निग्रन्यो । निथी या जाचार्योपा पायानाम. न्तिके पत्र जितः सन् इप्टेपु सन्दरपरिसस्पा येषु 'मज्जइ' सज्जत आसक्तो प्रहारो से, जिपा-चर्म पी पनी एई चिकमी पागाओं के प्रहारों रो उन घोडों को शिक्षित बना दिया। (विपित्ता फणगकेसम्म रपणो उवणेति तएण से फणगकेजराया ते आममा सफारेड सरकारिता पटिविस जेइ, तरण ते आसा घहि मुरबधेखि जाब छिवप्पहारेहि य चट्टणि सारीरमानसाणी दुरयाइ पाति) शिक्षित पनाकर फिर वे उन पोटो को कनकरेतु गजा के पास ले गये । पामे राजा जनककेतु ने उन अश्वमर्दको का सत्कार सम्मान किया। मत्कार सन्मान करके फिर उन्हें विसर्जित कर दिया। वे घोडे लेकर अनेक विध उन मुग यधनों से यावत् चर्ममय चिक्कणकशाओ के प्रहारों से नाना प्रकार के शा रीरिक एव मानसिक दुबो को पाने लगे। (पयामेर समणाउस। जो अम्ह निग्गयो चा निग्गयो वा पन्ना समाणे इहेतु मद्दफरिसरस ઓના પ્રહારોથી ચાબુકના પ્રહારી, પા ચામડાના બનેલા લીસા ચાબુ કેના પ્રહારથી તે ઘેડાઓને કેળવ્યા
(पिणयित्ता वणगकेऊ राया ते आसमदए मस्कारेइ, सक्कारित्ता पडिविप्स ज्जेइ तरण ते आसा वहहिं मुह वधेहि जाय जिपहारेहि य वहणि सारीरमानसाणि दुखाइ पावेति )
કેળવીને-શિક્ષિત બનાવીને તે ઘડાઓને તેઓ કનકતુ રાજા પાસે લઈ ગયા ત્યારપછી કનકકેતુએ તે અશ્વમઈકને સવાર તેમજ અન્માન કર્યું સત્કાર અને સન્માન કરીને તેમને વિસર્જિત ઠર્યા તે ઘડાએ ઘણું મુખ બધાથી યાવતું ચામડાના લીસા ચાબુકોના પ્રહારોથી અનેક જાતના શારી રિક અને માનસિક દુખે ભેગવા લાગ્યા
(एवामेव समणाउसो ! जो अम्ह निग्गथो वा निग्गथी या पयरए समाणे इटेस सद्दफरिसरसरूवगधेसु य सज्जइ, रज्जइ, गिज्झइ, मुझ
Page #871
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मान्तपिगो टीका अ० १७ भाकोणायदाणान्तिकयोजना ६२७ भवति, रिनइ' रज्यते अनुरक्तो माति, 'गिझइ' गृध्यति-तद्वाछासक्तो भवति, 'मुज्झइ ' मुथति-मूर्छितो भाति, 'अझोवनज्न' अ-युपपद्यते-सर्वथा तल्लीनो भनति, स खलु इह लोक एव बहना श्रमणाना च यावत्-श्रमणीनां श्रावकाणा श्राविकाणा च 'होलणिज्जे' हीलनीय यावत् चातुरन्तससारकान्ता. रम् ' अणुपरियटिस्सइ ' अनुपटियति-भ्रमिप्यतीति भावः ।।सू०४॥ मूलम्-कलरिभियमहर ततीतलतालवंसकउहाभिरामेसु ।
सद्देसु रज्जाणा रमति सोइंदियवसहा ॥ १ ॥ सोइदियदुद्दन्तत्तणस अह एत्तिओ हवइ दोसो।
दीविगरुयमसहसो वहबध तित्तिरो पत्तो ॥ २॥ टीका-अवेन्द्रियासवरणदोपान् गाथामिः प्रदर्शयति-'कलरिमिय० ' इत्यादि
कलरिभितमधुरतन्धी तल तालवसककुदाभिरामेषु । रूवगधेसु य सजड, रज्जइ, गिन्झद, मुज्झइ, अज्जोरवज्जइ, सेणं इलाहे चेर रहण समणाण 7 जाव सावियाण य हीलणिज्जे जाव अणुपरियट्टिस्सह ) इसी प्रकार हे आयुष्मंन श्रमणो ! जो हमारा निर्ग्रन्थ साधुजन अथवा सा-पीजन आचार्य उपाध्याय के पास प्रवजित होता हुआ इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध इन पाचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होता है, अनुरक्त होता है, उनकी चाह से बचता है, उनमें मूञ्छित धनता है, सर्व प्रकार से उनमें तल्लीन होता है वह इस लोक में ही अनेक श्रमणजनों द्वारा श्रमणी, श्रीवक और श्राधिकाओं द्वारा हीलनीय-निन्दा का पात्र होता है यावत् यत् चतुर्गतिरूप इस ससार कान्तार में भटकना है। सू०४॥ सेण इहलोए चेन वहूण समाणाण य जाब सावियाण य हीलणिज्जे जाव अणु परियहिस्सइ)
આ પ્રમાણે હે આયુ મત પ્રમાણે ! જે અમારા નિગ્રંથ સાધુજને કે સાધ્વીજને આચાર્ય અથવા ઉપાયની પાસે પ્રત્રજિત થઈને ઈષ્ટ, શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગ ઘ આ પાચે ઇન્દ્રિયના વિષયમાં આસક્ત હોય છે, અનુરત હોય છે, તેમની ઈચ્છા કરીને તેઓમાં બવાઈ જાય છે, તેમાં મૂર્ટિન બની જાય છે, બધી રીતે તેમાં તડવીન બની જાય છે તે આ લાકમાં જ ઘણા શ્રમણે વડે તેમજ ઘણી શમણી, શ્રાવક અને શ્રાવિકાઓ
વડે હલનીય-નિન્દનીય-હે છે યાવત તે ચતુર્ગતિ રૂપ આ સંસાર-કતારમાં ---“ટકતા રહે છે કે સૂત્ર ૪ -
Page #872
--------------------------------------------------------------------------
________________
तामैया शब्देपु रज्यमाना, रमन्ते योगेन्द्रियाशारी ॥1॥ श्रोगेन्द्रियदुर्दान्तत्वस्य अप एतान माति दोषः। द्वीपिकारतमसहमानो,-धन्ध तितिर मातः ॥ २॥
श्रोत्रेन्द्रियरशारी: कर्णेन्द्रियारामिन. याः श्रागगुम्बदाः रिभिताः स्वर घोलनाविशेषयुक्ता मधुरा:-मिपा। कलरिमितमधुर पनि ननावात् नपा ये तन्त्रो तलतालपशा -पीणा-करताल रेणास्त समुहारिवत्तात्-याद'-प्रधानाः, अमि रामाः-मनोहरास्तेपु-शन्देपु रपमाना: अनुगक्ताः सन्तः रमन्ते-मोदन्ते ॥१॥ 'सोइदिये 'त्यादि । 'सोइदियदुष्टतत्तणस्म' श्रोनोन्द्रियन्तित्वस्य औरन्द्रिय दुर्दान्त यस्य स धोनेन्द्रियदुर्दान्त =ोगोन्द्रियस्य जेतुमशक्यतया तशीत्ययः, तस्य भाषस्तत्व, तस्प, श्रोनेन्द्रियाधीनताया, ' एतिओ' एतापान वक्ष्यमाण प्रकारका दोपो भवति । त सदृष्टान्त प्रदर्शयवि-दीनिगरुयमसहतो' द्वीपिपारु तमसहमान'-द्वीपिका-व्याध पचरस्थतित्तिर', तस्याः रुत शन्दम् असहमान :
कलरिभिय' इत्यादि।
अब सूत्रकार, इन्द्रियों के असरण से जो दोष उत्पन्न होते हैं उन्हें इन गाथाओं द्वारा प्रदर्शित करते हफणेन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए माणी फल-श्रवण सुग्वद, रिभित-स्वरों के घोलना विशेप से युक्त ऐसे मधुरप्रिय, तत्री-वीणा, तलताल-करताल, वशवासुरी इन से उत्पन्न होने की वजह से ककुद-अत्यन्न, अभिराम मनोहर ऐसे शब्दो में अनुरक्त होते हुए यद्यपि मुदितमन होते हैं परन्तु ओन्नेन्द्रिय उनका दुर्दमन होने के कारण-श्रोनेन्द्रिय उनकी जितनेमे अशक्य होनेके कारण तदशवर्ती बने हुए वे प्राणी जिस तरह व्याध के पजर में रही हुई तित्तिरी के शब्द को सुनकर तीतरपक्षी-कामराग के वश से आकृष्ट
' कलरिभिय । इत्यादि
સૂત્રકાર હવે ઇન્દ્રિયના અસ વરણથી જે દે ઉત્પન્ન થાય છે તેમને આ ગાથાઓ વડે પ્રદર્શિત કરે છે કણેજિયના વશમાં થયેલા પ્રાણીઓ કવશ્રવણ સુખદ, રિભિત સ્વરોને વિશેષ રૂપમાં મેળવવાથી ઉત્પન્ન થયેલા વીન) મહર-પ્રિય, ત ત્રી–વીણા, તલતાલ-કરતાળ. વશ-વાસળી એમનાથી ઉપર હવા બદલ કકુદ-અત્યત, અભિરામ-મનહર એવા શબ્દોમાં અનુરકત થતા છે કે તેઓ મુદિતમન-પ્રસન્ન થાય છે પરંતુ તેમની શ્રોત્રેન્દ્રિય (કાન), ઉંદ મનીય હોવા બદલ એટલે કે મોન્ટેન્દ્રિય ઉપર કાબુ મેળવવાનું કામ તમને માટે અશકય હોવા બદલ તેને વશ થેયેલા પ્રાણીઓ જેમ વ્યાપા-શિકારીના પીંજરામાં સપડાઈ ગયેલી તિત્તિરીના શબ્દને સાભળીને તીતર પક્ષ ની
Page #873
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंगारधर्मामृतवपिणी टीका म० १७ आकीविदाष्टान्तिकयोजना ६९ तित्तिर चध-मरण बन्ध पञ्जरादि पन्धन प्रामः-प्राप्नोतीत्यर्थः ‘अथ' वाक्यालङ्कारे ॥२॥ मूलम्-थणजहणवयणकरचरणणयणगव्वियविलासियगईसु ।
रूवेसु रज्जमाणा रमंति चक्खिदियवसहा ॥३॥ चक्खिदियदुद्दतत्तणस्स अह एत्तिओ भवइ दोसो। जं जलणंमि जलते पडइ पयंगो अबुद्धोओ ॥ ४ ॥ टीका-स्तनजघननदनकरचरणनयगर्वित विलासितगतिः ।
रूपेषु रज्यमाना,-रमन्ते चक्षुरिन्द्रियवशार्ताः ॥ ३ ॥ चक्षुरिन्द्रियदुर्दान्तत्वस्य अथ एतावान् भवति दोपः ।
यद्ज्वल ने ज्वलति, पतति पतङ्गः अशुद्धिकः ॥ ४॥ 'थणे ' त्यादि । चक्षुरिन्द्रियवशार्ताः स्त्रीणा स्तनजपनादि रूपेषु रज्यमानाः अनुरक्ता रमन्ते ॥ ३ ॥
ज्वलने अग्नौ । शेप सुगमम् ॥ ४ ॥ होकर वध और यधन को पाता है उसी तरह नाना प्रकार के वध वधनो को पाया करते है ॥ गा० १-२॥
'थणजहण, चक्खिदिय 'इत्यादि।
यद्यपि चक्षुन्द्रिय के विपय की प्राप्ति करने में व्याकुल हा प्राणी उस विषय की प्राप्ति होने पर आनन्दमग्न बन जाया करते है-वे स्त्रियों के स्तन, जघन, बदन, कर, चरण, नयन, गर्वित विलासयुक्त गमना दिरूप चक्षुहन्द्रिय के विषय को चोर बार देखकर आसक्त होते हैंपरन्तु यह इद्रिय जब दुर्दान्त बन जाया करती है-तब ऐसे प्राणी जिस આવેશમાં આવીને મૃત્યુ તેમજ બ ધનને પ્રાપ્ત કરે છે, તેમ જ અનેક જાતના
धन भणजे "गा १-२" थण जहण चक्सिदिय इत्यादि
જો કે ચન્દ્રિયોના વિષયેને મેળવવા માટે અત્યંત ઉત્સુક બનેલા પ્રાણીઓ તે વિયેની પ્રાપ્તિ થઈ જતા બાદ આનદમગ્ન થઈ જાય છે તેઓ સ્ત્રીઓના સ્તન, જઘન, મુખ, હાથ, ચણ, નયન ગર્વિત વિલાસ-યુક્ત ગમન વગેરે રૂપ ચબુદ્ધિના વિષયને વાર વાર જોઈને આસક્ત થઈ જાય છે, પરંતુ આ ઈન્દ્રિય જ્યારે દુર્દીત બની જાય છે ત્યારે એવા પ્રાણીઓ અજ્ઞાની પત ગની
-
--
-
Page #874
--------------------------------------------------------------------------
________________
| সামহােয় मूलभू-अगुरुवरपवरधूवण उउय महाणुलेषणविहीसु ।
गंधेसु रज्जमाणा रमति घाणिदियवसट्टा ॥ ५ ॥ घाणिदियदुद्दतत्तणस्स अहं एत्तिओ हह दोसो।
ज ओसहिगधणं विलाओ निहावइ उरगो ॥ ६ ॥ टीका-भगुरुपरमारपन प्रातुनमाल्यानुलेपनविधिषु ।।
गधेपु रज्यमाना,-रमन्ते घाणेन्द्रिगशार्ताः ॥ ७ ॥ नाणेन्द्रियदुर्दान्तत्वस्य जय एतार माति दोपः।
यद् औषधिगन्धेन रिलाइ निर्धापति उरगः ॥ ६ ॥ घ्राणेन्द्रियवशार्ता अगुहार-कृप्यागुमः, प्रारधुपन-दशाङ्गादिरूपो धूपः, 'उउयमल्ल ' जमाल्यानित्तदमनानपु पाणि, अनुलेपनानि-चन्दनकुङ्क मादिरूपाणि, तेपा विधयःमफारा येपु गन्धेपु तत्र रज्यमाना' अनुरक्ता• सन्ता रमन्ते ॥ ५॥
ओसहिगण । ओपधिगयेन-केतस्यादिवनस्पतिसुगन्धानुरागवशेन प्रकार अज्ञानी पतग अपने प्राणों को अग्नि में डाल देता है उसी प्रकार उसी विषय में अपने प्राणों का नाश करते हैं। गा० ॥३-४ ॥
अगुरुवर, घाणिय इत्यादि।
घोणइन्द्रिय के वशवी ने हुए प्रागी अगुरुघर-कृष्णागुरु, प्रवर, धूपन,-दशाङ्गादिरूप घूप, ऋतुजमा य-तत्तऋतु के पुष्प, अनुलेपन चन्दन कङ्कम आदि के विविध लेप रूप गंध में अनुरक्त होते हुए हषित मन होते हैं, परन्तु वे इस इन्द्रिय की दुर्दमनता का कुछ भी विचार नहीं करते हैं। जब यह इन्द्रिय दुर्दमन बन जाती है-तब ऐसे प्राणी જેમ પિતાના પ્રાણને અગ્નિમાં હોમી દે છે, તેમજ તે પણ તે વિષયમાં જ પિતાના પ્રાણેને નષ્ટ કરી નાખે છે “ગા ૩-૪”
अगुरुवर, पाणिं दिय इत्यादि ।
ઘણુઈન્દ્રિયના વશમા પડેલા પ્રાણીઓ અગુરૂવર-કૃષ્ણગુરૂ, પ્રવર, ધૂપદશાગાદિ રૂપ ધૂપ ઋતુ જ માલ્ય-તરદ ઋતુના પુપ, અનુપન ચદન-કુકમ વગેરેના જાતજાતના લેપના ગ ધમાં અનુરક્ત થઈને હર્ષિત થઈ જાય છે, પરંતુ હકીકતમા તે તેઓ તે ઇન્દ્રિયની હદમતા વિષેનો કઈ પણ જાતને વિચાર કરતા જ નથી જ્યારે તે ઈન્દ્રિય મ બની જાય છે
Page #875
--------------------------------------------------------------------------
________________
६३१
अमगारघमतिवर्षिणा टीका अ० १७ आकीर्णाश्विदान्तिक योजना उरग =सर्पः पिलात् 'निधावई ' निर्धावति= निस्सरति, ततो व उन्धन च प्राप्नो तीति भावः । शेष स्पष्टम् ॥ ६ ॥
मूलम् - तित्तकडुय कसायंवमहुखजपेज लेज्झेसु ।
आसासु य गिडा रमति जिम्भिदिवसट्टा ॥ ७ ॥ जिव्भिदिय दुद्दतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो | ज गललग्गुक्खित्तो फुरइ थरविरहिओ मच्छो ॥ ८ ॥ छाया --- तिक्तकटुककपायाम्लमधुग्च हुखाद्यपेयले ह्येषु |
आस्वादेषु च गृद्धा, रमते जिहेन्द्रियत्रार्त्ता ॥ ७ ॥ जिहेन्द्रियदुर्दान्तलस्य, अथ एतारान् भवति दोष' । यद् गललग्नोत्क्षिप्त', स्फुरति स्थल नरहितो मत्स्यः ॥ ८ ॥ टीका - मिवेन्द्रियार्त्ता तिक्त=मरीवादिक, कटुक = कारवेल्लादिक, उपाय = आमकादिकम्, अम्ल= कम्पादिक, मधुर=पोदकादिक, हुअनेकवि 'खज्ज' खाद्य कदलीफलादिक, 'पेज्ज' पेय दुरसादिक, 'लेज्य 'लेह्यदनिशर्कंगदि
4
केतकी आदि की गध से आकृष्ट बनकर जिम प्रकार चिल से निकला सर्प व धन आदि कष्टा को पाता है वैसे कष्ट पाते है ॥ गा० ५-६ ॥
1
'तित्तरुडय जिन्मिय' इत्यादि ।
जो प्राणी जिद्दाहन्द्रिय के वशवर्ती बना रहता है वह मरीच आदि के जैसे तिक्त स्वाद मे करेला के जैसे कटुक स्वाद में, आमल आदि के जैसे कपायरस में करम्नादिके जैसे अम्ल-वह रस में, मोदकादि के जैसे मधुर स्वाद में तथा विविध प्रकार के कदली फलादिक वाद्य पदार्थों में, दुग्धादि पेयपदार्थों में, एव दधि और शक्कर आदि से निष्पन्न हुए કેતકી વગેરેની ગંધથી આકૃષ્ટ થઈને જેમ દરમાર્થી નીકળેલે સાથે વધધન વગેરે મુખ્યાને પ્રાપ્ત કરે છે તેમજ કષ્ટ પ્રાપ્ત કરે છે ।। ५-६ ॥
तित्तक्य जिभिदि इत्यादि ।
જે પ્રાણી જીવા ઇન્દ્રિય (જીભ) ને વરા થયેવેા હાય છૅ, તે મન્ચુ વગેરેના જેવા તીખા સ્વાદમા, કારેલા જેવા કડવા સ્વાદમા, આમલી વગેરેના જેવા કપાય રસમા કર બાદિના જેવા અન્ત-ખોટા રસમા, લાડવા વગેરેના જેવા મધુર સ્વાદના તેમજ જાતજાતના કેળા વગેરેના ખાદ્ય પદાર્થાંમાં, દૂધ વગેરે જેવા પેય પદાર્થમા, અને દહીં તેમજ ખાય વગેરેવી તૈયાર થયેલા
Page #876
--------------------------------------------------------------------------
________________
६.२
merone निष्पन श्रीखण्डादियम् , पनेपा नन्त', तेषु आहार-आस्वायन्ते इति आस्वादाः रसास्तेपु रद्धाभासताः सन्त रमते ॥७॥
निभिदिये ' त्यादि । पूर्व गरले-मरस्यायने लान , मरम्यवेधनेन मुखे गिद्ध इत्ययः, पशाद् उक्षिप्त जगदतः इति धर्मधारयः, एचभूतो मत्स्य स्थलरिल्लित: स्यले निपातित' सन स्फुरवि व्याठो मुम्बा भूमौ लुठति । शेप स्पष्टम् ॥ ८॥ मूलम्-उउभयमाणा सुहसु य पविभवाहिययमणनिव्वुइकरम् ।
फासेसु रज्जमाणा रमंति फासिंदियवसहा ॥ ९ ॥ फासिदिय दुद्दतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो ।
ज खणइ मत्थय कुंजरस्स लोहकुसो तिखो ॥ १० ॥ छाया-नुमन्यमानमुसेपु च, सविमाहदयमनोनितिरेषु ।
स्पर्शेषु रज्यमाना, रमन्ते स्पर्शेन्द्रिय प्रशार्ताः ॥ ९॥ स्पशेन्द्रिग दुर्दान्तत्वस्य, अब एतान् भवति दोपः ।
यत् ग्यनति मस्तक कुञ्जरस्य लोहादुशस्तीक्ष्णः ॥ १० ॥ टोका-'उउभये' त्यादि । स्पर्शेन्द्रियवशार्ता -'उउभयमाणसुहेसु य' मनुभज्य मानमुखेपु ऋतुपु-हेमन्तादिपु भज्यमानानि=सेव्यमानानि मुखानि, येषु ते, श्री खड ओदि लेय पदार्थों में आसक्तमति होकर पड़ा हर्ष मनाया करते हैं । परन्तु जप इनकी यह इन्द्रिय दुर्दान्त बन जाती है तब ऐसे प्राणी जैसे मत्स्यवेधन से-मछली पकड़ने के काटे-वशी-से मुख में विद्ध हुआ मत्स्य जल में से खीचका थाहर भूमिपर डाल दिया जाता है और वह भूमिपर तड़प २ कर मर जाता है उस इन्द्रिय के विषय में फंसकर तडपू २ कर मर जाया करते हैं । गा० ७-८॥ શ્રીખડ વગેરે લેહા (ચાટીને ખાઈ શકાય તેવા) પદાર્થોમાં આસક્ત થઈને ખૂબ જ હર્ષિત થતા રહે છે પરંતુ જ્યારે તેમની આ ઈન્દ્રિય દર્દી ત બની જાય છે, ત્યારે એવા પ્રાણી જેમ મસ્યવેધનથી-માછલી પકડવાના કાટાથી મુખમાં વિદ્ધ થયેલ માછલું પાણીમાંથી બહાર છે ચીને બહાર જમીન ઉપર નાખવામાં આવે છે અને તે જમીન ઉપર તડપી તડપીને મૃત્યુવશ થાય છે, તેમજ તે ઈન્દ્રિયના વિષયમાં ફસાઈને તડપી તડપીને મત્યુવા થાય છે કે ગા ૭-૮ છે.
Page #877
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १७ आकीर्णाश्वदाप्टान्तिकयोजना ६३३. तेषु तथोक्तेपु तथा सपिभाना-सपत्तिशालिना हदयस्य मनसश्च नित्तिकरेषु सुम्बकरेपु । एव भूतेषु स्पर्शेपु रज्यमानाः अनुरक्ताः रमन्ते ॥ ९ ॥
'फासिदिये त्यादि । कुञ्जरस्य-करिणीस्पर्शलुब्धस्य हस्तिनो मस्तक तीक्ष्णोलोहाङ्कुशः खनति-विदारयति । शेप मुगमम् ।। १० ।। ५ ।। मू० ।। मूलम्-कलरिभिय महुरतंतीतलतालवसकउहाभिरामेसु ।
सदेसु जं न गिद्धा वसट्टमरणं न ते मरए ॥ ११ ॥ थणजहणवयणकरचरणनयणगव्वियविलासियगईसु । रूवेसु न रत्ता वसहमरण न ते मरए ॥ १२ ॥ अगुरुवरपवरधूवण उउयमल्लाणुलेवणविहींसु । गधेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥ १३ ॥ तित्तकडुयकसायवमहुरवहुखज्जपेज्जलेज्झेसु ।
आसाएसु न गिद्धा वसट्टमरण न ते मरए ॥ १४ ॥ (उउभयमाण, फार्सिदियबुद्दत इत्यादि,
टीकार्य-जोप्राणी स्पर्शन इन्द्रियके वशवी होते हैं वे अपनी स्पर्शनेन्द्रियकी लोलुपतासे हेमन्त आदि प्रत्येक ऋतु सबन्धी सुख भोगते हैं। तथा सपत्तिशालियों के हृदय में और मन सुखकर स्पों में अनुरक्त बने रहते हैं। इस तरह करते २ जब इनकी यह स्पर्शन इन्द्रिय दुर्दान्त बन जाती है तब वे प्राणी जिस प्रकार तीक्ष्ण रोह को अकुश करिणी (हस्तिनी) के स्पर्श करने में लन्धक बने हुए मत्त गजराज के मस्तक को विदार देता है उसी तरह इस सर्शन इन्द्रिय के द्वारा विनष्ट कर दिये जाते है । गा०९-१०॥
उ उ भयमाण, फ सिदियदुद्दत इत्यादि।
જે પ્રાણ એ પશેન્દ્રિયને વશ થાય છે, તેઓ પિતાની સ્પશેન્દ્રિયની લુપતાથી હેમત વગેરે દરેકે દરેક ઋતુઓના સુખ ભોગવે છે તેમજ પત્તિવાળાઓના હદય અને મનસુખદ સ્પશેમાં આસક્ત બનીને રહે છે આમ કરતા કરતા જ્યારે તેમની આ સ્પર્શેન્દ્રિય દુદ્દત બની જાય છે ત્યારે તે પ્રાણુંઓ (હાથિી) ને સ્પર્શવામાં ડુબ્ધ બનેલા મત્ત ગજગજના મસ્તકને વિદીર્ણ કરી નાખે છે તેમજ આ સ્પર્શેન્દ્રિય વડે વિનષ્ટ કરી નાખવામાં આવે છે ! ગા ૯-૧૦ |
८०
Page #878
--------------------------------------------------------------------------
________________
माताधर्मकथासू
उउभयमाणसुहेसु य सनिभवयियमणनिव्वुइ करेसु । फासेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥ १५ ॥ टीका -- शब्दादिपपये नागताना मरण न भवतीति पञ्चभिर्गा याभिः प्राह - करिभिय' इत्यादि ।
१३४
फलरिभिनमधुरतन्नीतलतादाभिरामेषु ।
शब्देषु येन गृद्धा - मरण न ते त्रियन्ते ॥ ११ ॥ स्तनजघन वदन ररचरणनपनगर्जितविष्यसितगतिषु । रूपेषु ये न रक्ता, शार्त्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ १२ ॥ अगुरुपरमारधूपन, कनमात्यानुलेपनविधिषु । गन्धेषु ये न वृद्धा, शार्त्तमरण न ते त्रियन्ते ॥ १३ ॥ विक्कन्दुकरुपायाम्ल, मधुरनाद्यपेय लेखेषु | आस्वादेषु न गृद्धा, -वशात्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ १४ ॥ ऋतुभज्यमानमुखेषु च सविभर हृदयमनो निर्ट तिकरेषु । स्पर्शेषु ये न गृद्धा - शार्त्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ १५ ॥ आसाम व्याख्या सुगमा ।। १५ ।। ० ६ ॥
-
( कलरिभिय, धणजहण, अगुरुवरपवर, नित्तकडुय, उउभयमाण, इत्यादि ।
इन गाथाओं द्वारा सूत्रकार यह प्रदर्शित करते है कि जो शब्दादि पांच इन्द्रियों के विषयो में आमक्त नही बनते है उनका वशार्तमरण नहीं होता है । इन गाथाओं की व्याख्या सुगम है ! जो प्राणी इन्द्रिय के वित शब्द मे, चक्षुहन्द्रिय के विष यभूत रूप में नामिका इन्द्रियके विनयभूत गध में जिह्वाइन्द्रिय के विष भूत रस में, तथा स्पर्शन इन्द्रिय के विषयभूत स्पर्श में आसक्तगृद्ध नहीं होते है || गा० ११-१५ ॥
कलरिमिय, थणजद्दण, अगुरुवरपत्रर, तित वडय उ उ भयमाण, इत्यादि । આ ગાયાએ વડે સરકાર આ વાત સ્પષ્ટ કરવા માગે છે કે જે શબ્દ વગેરે પાચે ઇન્દ્રિયાના વિષયામા આસક્ત થતા નથી, તેમનુ વશાત મરણ થતું નથી, આ ગાયાની વ્યાખ્યા સરળ છે
જે પ્રાણી ક ઇન્દ્રિયના વિષયભૂત રૂપમા, નાસિકા ઇન્દ્રિયના, વિષયભૂત ગ ધમા, જીવા ઇન્દ્રિયના વિષયભૂત રસમા તેમજ સ્પન ઇન્દ્રિયના વિષય ભૂત સ્પર્ધામા અત્યત આસક્ત-મૃદ્ધ થતા નથી, તેએ વશામરણને પ્રાપ્ત કરતા નથી ૫ ગા ૧૧–૧૫ k
Page #879
--------------------------------------------------------------------------
________________
ACEIोटो. अ० १७ आकीर्णाश्वदा न्तिकयोजना ६३५ मूलम्-सदेसु य भदयपावएसु सोयविसयं उवागएसु ।
तुट्टेण व रहेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥ १६ ।। रूवेसुय भदपावएसु चक्खुविसय उवगएसु । तुट्टेण व रुटेण व समणेण सया ण होयम्य ॥ १७ ॥ गंधेसु य भद्दपावएसु घाणविसयं उवागएसु । तुटेण व स्ट्रेण व समणेण सया ण होयव्यं ॥ १८ ॥ रसेसु य भयपावएसु जिभविसय उवगएसु । तुटेण व रुटेण व समणेण सया ण होयव्य ॥ १९ ॥ फासेसु य भयपावएसु कायविसय उवगएसु ।
तुटेण व रुटेण न समणेण सया ण होयव ॥ २० ॥ एव खल्लु जंबू । समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तरसमस्त नायज्झयणस्स अयमटे पन्नत्ते त्तिवेमि।
॥ सत्तरसम नायज्झयणं समन्त ॥ १७ ॥ टीका-अनुशल प्रतिकूल शब्दादिपु रागद्वेपवर्जन पञ्चभिर्गाथाभिः प्रतिबोध यति- सद्देनु य' इत्यादि।
शब्देपु च भद्रकपापकेषु श्रोत्रविषयगुपगतेपु । तुष्टेन वा रुष्टेन वा, शमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १६॥ सद्देसुय, फासेतुय इत्यादि।
एव खलु जबू! समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण सत्त रसमस्स णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्त तिवेमि॥
अब सूत्रकार इन पाच गाथाओं द्वारा अनुकूल प्रतिकूल शब्दादि विषयों में श्रमणजन को कमी भी रागद्वेप नहीं करना चाहिये-इस
सद्देसुय, फासेसुय इलादि एव खलु जघु ! समपोग भगवया महानीरेण जार सपत्तेण सत्तरसमस्स णायज्झयणस्स अयमहे पण ति रेमि ।।
સૂત્રકાર હવે આ પાચ ગાથાઓ વડે એ વાત સ્પષ્ટ કરવા ઈચ્છે છે કે અનુકૂળ-પ્રતિકૂળ શબ્દાદિ વિષયોમાં શમણુજનેને કદાપિ રાગ-દ્વેષ નહિ
Page #880
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
-
-
ताकपा उउभयमाणसुहेसु य सरिभाहिययमणनिव्वुइकरेसु । फासेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥ १५ ॥ टीका-शब्दादिपिपये पनामताना शामा न भवतीति पश्चभिर्गा न्याभिः प्राह-कररिभिय' इत्यादि।
फलरिमितमधुरतन्त्रीत टनाग्यशकदाभिरामेपु । शन्देपु ये न टदा-शामरण न ते नियन्ते ॥ ११ ॥ स्तनजघनगरनारचरणनपनगस्तिमिगसितगतिपु । रूपेषु ये न रक्ता,-शामरण न ते म्रियन्ते ॥ १२ ॥
गुरुवरमारपूपन,-अनुनमाल्यानुलेपननिधिषु । गन्धेपु ये न गृद्धा, शामरण न ते म्रियन्ते ॥ १३ ॥ तिक्ताटुकापायाम्ल, मधुरमसाधपेय लेन्येषु । आस्वादेयु न गृद्धा,-वशालमरण न ते म्रियन्ते ॥ १४ ॥ ऋतुभज्यमानसुसेषु च, सविभा हृदयमनोनितिकरेषु । स्पर्शपु ये न गृद्धा-वशार्तमरणं न ते म्रियन्ते ॥ १५ ॥ आसाम् व्याख्या सुगमा ॥ १५ ॥ सू०६॥ (कलरिभिय, धणजहण, अगुरुवरपर, नित्तकडय, उउभयमाण, इत्यादि।
इन गाधाओं धारा सत्रकार यह प्रदर्शित करते है कि जो शब्दादि पांच इन्द्रियों के विषयों में आमत नहीं धनते है उनका वशातमरण नहीं होता है। इन गाथाओं की व्याख्या सुगम है।
जो प्राणी कर्णइन्द्रिय केपियनृत शब्द में, चक्षुइन्द्रिय के विष यभूत रूप में नासिका इन्द्रियके विषयभूत गध मे जिह्वाइन्द्रिय के विष यभूत रस में, तथा स्पर्शन इन्द्रिय के विषयभूत स्पर्श में आसक्तगृद्ध-नही होते हैं ।। गा० ११-१५ ॥
कलरिभिय, थणजहण, अगुरुवरपवर, तित कडयउ भयमाण, इत्यादि ।
આ ગાથાઓ વડે સૂત્રકાર આ વાત સ્પષ્ટ કરવા માગે છે કે જે શબ્દ વગેરે પાચે ઇન્દ્રિયના વિષયમાં આસક્ત થતા નથી, તેમનું વશર્તમરણે થતું નથી, આ ગાથાઓની વ્યાખ્યા સરળ છે
જે પ્રાણી કર્ણ ઇન્દ્રિયના વિષયભૂત રૂપમા, નાસિકા ઈન્દ્રિયના, વિષયભૂત ગ ધમ, છહુવા ઈન્દ્રિયના વિષયભૂત રસમાં તેમજ માર્શન ઈન્દ્રિયના બિલ ભૂત સ્પર્શમાં અત્યંત આસક્ત-ગૃ થતા નથી, તેઓ વાર્તામરણને પ્રાપ્ત કરતા નથી . ગ ૧૧-૧૫
Page #881
--------------------------------------------------------------------------
Page #882
--------------------------------------------------------------------------
________________
L
माता कथा
उउभयमाणसुसु य सविभवहिययमणनिव्वुडकरेसु । फासेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते भरम् ॥ १५ ॥ टीका - शब्दादिनिपयेनामक्काना वगार्त्तमरण न भवतीति पञ्चभिर्गा थाभिः प्राह-' कररिभिय' इत्यादि ।
फलरिभिनमधुरतन्त्रीतलताय्यकाभिरामेषु ।
शब्देषु ये न टद्धा - गार्त्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ ११ ॥ स्वनजघानाश्चरणनयन गतिसितगतिषु | रूपेषु ये न रक्ता, - शार्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ १२ ॥ अगुरुवरप्रनरधूपन, - ऋतुनमाल्यानुलेपननिधिषु । गन्धेषु ये न शृद्धा - शार्त्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ १३ ॥ तिक्तकटुकरुपायाम्ल, मधुरनाद्यपेय लेयेषु । आस्वादेषु न गृद्धा, -वशात्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ १४ ॥ ऋतुभज्यमानमुखेषु च सविभन हृदयमनोनिर्ट तिकरेषु । स्पर्शेषु ये न गृद्धा-वशार्त्तमरणं न ते म्रियन्ते ॥ १५ ॥ आसाम् व्याख्या सुगमा || १५ || सू० ६ ॥
( कलरिभिय, धणजहण, अगुस्वरपवर, नित्तकडुय, उउभयमाण, इत्यादि ।
इन गाथाओं द्वारा सूत्रकार यह प्रदर्शित करते है कि जो शब्दादि पांच इन्द्रियों के विषयो में आसक्त नही बनते है उनका शार्तमरण नहीं होता है । इन गाथाओं की व्याख्या सुगम है !
शब्द मे
जो प्राणी कहन्द्रिय के हन्द्रिय के विष भूत रूप में नासिका इन्द्रिय के विपयभूत गध में जिहाइन्द्रिय के विष यभूत रस में, तथा स्पर्शन इन्द्रिय के विषयभूत स्पर्श में आसक्त - गृद्ध नही होते ।। गा० ११-१५ ॥
कलरिभिय, थणजद्दण, अगुरुवरपत्रर, तित्त वडुय उ उ भयमाण, इत्यादि । આ ગાયા વડે સૂનકાર આ વાત સ્પષ્ટ કરવા માગે છે કે જે શબ્દ વગેરે પાચે ઇન્દ્રિયાના વિષયેામા બાસક્ત થતા નથી, તેમનુ વશાત્ મરણુ થતું નથી, આ ગાથાઓની વ્યાખ્યા સરળ
જે પ્રાણી કણ ઇન્દ્રિયના વિષયભૂત રૂપમા, નાસિકા ઇન્દ્રિયના, વિષયભૂત ગ ધમા, જીવા ઇન્દ્રિયના વિષયભૂત રસમા તેમજ સ્પર્શીત ઇન્દ્રિયના વિષય ભૂત સ્પર્શમા અત્યંત આસક્ત-મૃદ્ધ થતા નથી, તેઓ વશાત મરણને પ્રાપ્ત કરતા નથી ! ગા ૧૧-૧૫ ॥
Page #883
--------------------------------------------------------------------------
________________
तो अ० १७ आकीर्णान्यदाष्टन्तिकयोजना
मूलम् -सदेसु य भक्ष्यपावएसु सोयविसयं उद्यागएसु । तुद्वेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥ १६ ॥ रूवेसु भपावसु चक्खुविलय उचगएसु । तुट्टेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयव्व ॥ १७ ॥ गधेसु य भद्दपावसु घाणविस उवागएसु । तुट्टेण व रुट्टेण व समणेण सया ण होयव्व ॥ १८ ॥ रसेसु य भद्दयावसु जिव्भविसय उबगएसु । तुट्टेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयव्व ॥ १९ ॥ फासेसु य भद्दय पावसु कायविसय उवगएसु । तुद्वेण व रुद्वेण न समणेण सया ण होयव्वं ॥ २० ॥ एव खल जंबू । समणेण भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेणं सत्तरसमस्त नायज्झयणस्स अयमट्टे पन्नत्ते त्तिवेमि ।
દવ
| सत्तरसमं नायज्झयण समत्त ॥ १७ ॥ टीका - अनुकूल मतिशब्दादि रागद्वेपवर्जन पञ्चभिर्गायाभिः प्रतिबोध यति - ' सद्देश्च य' इत्यादि ।
शव्देषु च भद्रकपापकेषु श्रयमुपगतेषु ।
तुप्टेन वा रुष्टेन वा, श्रमणे सदा न भवितव्यम् ॥ १६ ॥
सद्देसुय, फासेसुयइत्यादि ।
एव खलु जनू ! समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेणं सत्त रसमस्स णायज्झयणस्स अयमडे पण्णत्ते तिबेमि ॥
अप सूत्रकार इन पाच गाथाओ द्वारा अनुकूल प्रतिकूल शब्दादि विषयों में श्रमणजन को कभी भी रागद्वेप नहीं करना चाहिये- इस सु, फासेत्यादि
एव खलु जब् । समगं मगवया महानीरेण जान सपत्तेण सत्तरसमस्स णायज्झणस्स अयम पगते त्ति प्रेमि ॥
સૂત્રકાર હું આ પાચ ગાથાએ વડે એ વાત સ્પષ્ટ કરવા ઈચ્છે છે કે અનુકૂળ-પ્રતિકૂળ શબ્દાદિ વિષયામા શ્રમણનેને કદાપિ રાગદ્વેષ નહિ
Page #884
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
उउभयमाणसुहेसु य सरिभवाहिययमणनिव्वुइकरसु । फासेसु जे न गिहा बसहमरणं न ते मरए ॥ १५॥ टीका-शब्दादिविषये वनामक्तानां शार्गमग न भरतीति पञ्चभिर्गा थाभिः प्राइ- कारिभिय' इत्यादि ।
फलरिभिामधुरतन्त्रीतलताग्यशफादाभिरामेषु । शन्देपु ये न द्धा,-सामरण न ते म्रियन्ते ॥ ११ ॥ स्तननधनायनारचरणनपनगतिविगसिनगनिपु । रूपेषु ये न रक्ता,-शार्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ १२ ॥ अगुरुपरमारधूपन,-जमाल्यानुलेपनविधिपु । गन्धेषु ये न गृद्धा,-शामरण न ते नियन्ते ॥ १३ ॥ तिक्तस्टुकरुपायाम्ल, मधुरवासाधपेय लेह्येषु । आस्वादेषु न गृद्धा, शामरण न ते नियन्ते ॥ १४ ॥ ऋतुभज्यमानसुसेपु च, सविभर हृदयमनोनितिकरेषु । स्पर्शपु ये न गृद्धा-शामरण न ते म्रियन्ते ।। १५ ॥ आसाम् व्याख्या सुगमा ॥ १५ ॥ सू०६॥
(कलरिभिय, धणजरण, अगुरुवरपवर, नित्तकाय, उउभयमाण, इत्यादि।
इन गाथाओं द्वारा सूत्रकार यह प्रदर्शित करते है कि जो शब्दादि पांच इन्द्रियों के विषयों में आमत नही धनते है उनका वशातमरण नहीं होता है। इन गाथाओं की व्याख्या सुगम है।
जो प्राणी कर्णइन्द्रिय के निचय नृत शब्द मे, चक्षुइन्द्रिय के विष: यभूत रूप में नासिका इन्द्रिय के विश्यभूत गध में जिह्वाइन्द्रिय के विष यभूत रस में, तथा स्पर्शन इन्द्रिय के विषयमृत स्पर्श में आसक्तगृद्ध-नही होते हैं। गा० ११-१५॥
कलरिभिय, थणजहण, अगुरुवरपवर, तित कडुय उ उ भयमाण, इत्यादि ।
આ ગાથાઓ વડે સૂકાર આ વાત સ્પષ્ટ કરવા માગે છે કે જે શબ્દ વગેરે પાચે ઈન્દ્રિયના વિષયમા આસક્ત થતા નથી, તેમનું વશાર્તામરણ ચતું નથી, આ ગાથાઓની વ્યાખ્યા સરળ છે
જે પ્રાણી કર્ણ ઈદ્રિયના વિષયભત રૂપમા. નાસિકા ઇન્દ્રિયના, વિષયભૂત ગ ધમાં, જહુવા ઈન્દ્રિયના વિષયભૂત રસમ તેમજ સ્પર્શન ઈન્દ્રિયના વિષય ભૂત સ્પર્શમાં અત્યંત આસક્ત—ગૃદ્ધ થતા નથી, તેઓ વશાર્તામરણને મામ કરતા નથી કે ગા ૧૧-૧૫ છે
Page #885
--------------------------------------------------------------------------
________________
तो अ० १७ आकोर्णा वदान्तिकयोजना
मूलम् -सदेसु य भद्दयपावएसु सोयवितयं उवागएसु । तुद्वेण व रुहेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥ १६ ॥ रूवेसु भपावसु चक्खुविलय उवगएसु । तुद्वेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयन्त्र ॥ १७ ॥ गधेसु च भद्दपावएसु घाणविस उवागएसु । तुट्टेण व रुट्टेण व समणेण सया ण होयन्त्र ॥ १८ ॥ रसेसु य भावसु जिम्भविसय उबगएसु । तुट्टेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयवन ॥ १९ ॥ फासेसु य भद्दय पावसु कायनिसय उवगएसु ।
દ્વ
तुट्टेण व रुद्वेण न समणेण सया ण होयव्वं ॥ २० ॥ एव खलु जबू | समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तरसमस्त नायज्झयणस्स अयमट्टे पन्नत्ते तिमि ।
|| सत्तरसम नायज्झयणं समन्त ॥ १७ ॥ टीका - अनुकूल प्रतिकृशन्द्रादिषु रागद्वेपवर्जन पञ्चभिर्गायाभिः प्रतिबोध यति - सद्देश्च य' इत्यादि ।
शव्देषु च भद्रकपापकेषु श्रयमुपगते ।
तुष्टेन चारुदेवा, नमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १६ ॥
सद्देसुय, फासे
इत्यादि ।
एव खलु जनू | समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेणं सत्त रसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते तिवेमि ॥
अन सूत्रकार इन पाच गाथाओ द्वारा अनुकूल प्रतिकूल शब्दादि विषयों में श्रमणजन को कभी भी रागद्वेप नहीं करना चाहिये- इस इत्यादि
सुय, फासे
एव खलु जब् । समगं भगवया महानीरेण जात्र सपत्तेण सत्तरसमस्स णायपणस्स अयमट्ठे पण तिमि ||
સૂત્રકાર હવે આ પાચ ગાથાઓ વડે એ વાત સ્પષ્ટ કરવા ઈચ્છે છે કે અનુકૂળ-પ્રતિકૂળ શબ્દાદિ વિષયેમા શ્રમણુજનેને કદાપિ રાગ-દ્વેષ નિહ
Page #886
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाताधर्मकथासू
उउभयमाणसुहेसु य सनिभवाहिययमण निव्वुइकरेसु । फासेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरण ॥ १५ ॥ टीका - शब्दादिविषयेयनामक्ताना प्रशारण न भवतीति पचभिर्गा याभिः प्राह-' करिभिय' इत्यादि ।
३१४
फलरिभिनमधुरतन्त्रीत ताशककृदाभिरामेषु ।
शब्देषु ये न गृद्धा, - शार्त्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ ११ ॥ स्तनजघन न रचरणन पनगतिविसितगतिषु । रूपेषु ये न रक्ता-शार्त्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ १२ ॥ अगुरुवरप्रवरधूपन, कनुनमाच्यानुलेपनविधिषु । गन्धेषु ये न गृद्धा, - शार्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ १३ ॥ तिक्त दुरुपायाम्ल, मधुसाधपेय लेतेषु । आस्वादेषु न गृद्धा, -वशार्त्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ १४ ॥ ऋतुभज्यमानस्सेषु च सनिभर हृदयमनोनिर्ट तिकरेषु । स्पर्शेपु ये न गृद्धा - शार्त्तमरण न ते म्रियन्ते ॥ १५ ॥ आसाम् व्याख्या सुगमा ।। १५ ।। सू० ६ ॥
( कलरिभिय, धणजरण, अगुरुचरपवर, नित्तकडुय, उउभयमाण, इत्यादि ।
इन गाथाओं द्वारा सूत्रकार यह प्रदर्शित करते है कि जो शब्दादि पांच इन्द्रियों के विषयो में आमक्त नहीं बनते है उनका वशातमरण नहीं होता है । इन गाथाओं की व्याख्या सुगम है ।
जो प्राणी कर्णइन्द्रिय के वित शब्द मे, चक्षुरन्द्रिय के विष भूत रूप में नासिका इन्द्रियके विनयभूत गध मे जिह्वाइन्द्रिय के विषभूत रस में, तथा स्पर्शन इन्द्रिय के विषयभृत स्पर्श में आसक्तगृद्व नही होते है । गा० ११-१५ ।।
कलरिभिय, थणजहण, अगुरुवरपवर, तित क्डय उ उ भयमाण, इत्यादि । આ ગાયાએ વડે સૂનકાર આ વાત સ્પષ્ટ કરવા માગે છે કે જે શબ્દ વગેરે પાચે ઇન્દ્રિયાના વિષામા માસક્ત થતા નથી, તેમનુ વશાત મરણ થતું નથી, આ ગાથાઓની વ્યાખ્યા સરળ છે
જે પ્રાણી કણ ઇન્દ્રિયના વિષયભૂત રૂપમા, નાસિકા ઇન્દ્રિયના, વિષયભૂત ગધમા, જીહ્વા ઇન્દ્રિયના વિષયભૂત રસમા તેમજ સ્પેન ઇન્દ્રિયના વિષય ભૂત સ્પર્શમા અત્યંત આસક્ત-મૃદ્ધ થતા નથી, તે વશામરણુને પ્રાપ્ત કરતા નથી ! ગા ૧૧-૧૫ ॥
1
Page #887
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणो टो० अ० १७ प्राकीणश्विदाप्टान्तिकयोजना ३७ 'सदेस य ' इत्यादि, गाथा पञ्चक सुगमम् ।।
सुधर्मास्वामी पाह-' एव खलु हे खम्मूः । अमणेन भगवता महावीरेण यावत्समाप्तेन मप्तदशस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमयः पूर्वोक्तो भावः मज्ञप्ता प्रापितः। इति प्रवीमि-पाख्या पूर्ववत् ।। सू०७॥
इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक - प्रविशुद्धगयपयनैक्ग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक श्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपितकोल्हापुरराजगुरु-वालब्रह्मचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिनाकरपूज्यश्री घासीलालबतिविरचिताया श्री ज्ञाताधर्मकथानसूनस्यानगारधर्मामृ
तवपिण्यारयाया व्याख्याया सप्तदशमध्ययन समाप्त ॥ १७॥ ८ आठ प्रकार का स्पर्श चाहे वह अनुकूल हो चाहे प्रतिकल होजब २ स्पर्शन इन्द्रिय का विपर हो उसमें साधु को किसी भी तरह से कभी भी तुष्ट एव रुष्ट नहीं होनी चाहिये ॥ २० ॥
इस प्रकार हे जंबू! श्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिदिगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके है इस सत्रहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है । ऐसा में उन्ही के कहे अनुसार कह रहा है। श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत "जाता धर्मकथाङ्गमूत्र" की अनगार धर्मामृतवर्पिणी व्याख्या का सत्रहवा
अध्ययन समाप्त ॥१७॥ ૮ જાતને સ્પર્શ—ભવે તે અનુકૂળ કે પ્રતિકૂળ ગમે તે કેમ ન હોય જ્યારે જ્યારે તે સ્પર્શન ઈન્દ્રિયને વિષય હોય તેમાં સાધુને કોઈ પણ રીતે કદાપિ તુષ્ટ અને રૂષ્ટ થવું જોઈએ નહિ ! ગા ૨૦ ૫
આ પ્રમાણે હે જ બૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાન મેળવ્યું છે-આ સત્તરમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપમાં અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે આવું હું તેમના કહ્યા મુજબ જ તમને કહી રહ્યો છુ શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસવાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવર્ષિણી
વ્યાખ્યાનુ સત્તરમું અધ્યયન સમાસ | ૧૭ છે
Page #888
--------------------------------------------------------------------------
________________
पवाघमश
रूपेषु च भद्रपापके, चक्षुपियामुपगतेषु । तुप्टेन पा रुप्टेन गा, श्रमणेन सदा न गरिनव्यम् ।। १७ ॥ १-भद्रकपापकेपु-अनुकूल-पतिहऐपु। ग धेषु च भद्रकपापकेपु, प्रागविषयमुपगतेपु। तुष्टेन या रुप्टेन गा, श्रमणेन सदा न मरिचम्पम् ॥ १८ ॥ रसेपु च भद्रकपापकेपु, निहापियमुपगते । तुप्टेन गा रुप्टेन पा, श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १९ ॥ स्पर्शपु च भद्रपापकेपु, फायपियमुपगतेषु ।
तुम्टेन या रुग्टेन गा, अमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ २० ॥ विषय को समझाते हैं यहां भद्रक शब्द का अर्थ अनुकूल और पापक शब्द का अर्थ प्रतिकूल है । जय शब्द रूप चिपय श्रोत्रेन्द्रिय का हो तो उस समय चाहे वह मनोज्ञ हो या अमनोजो फैसा ही क्यों न हो उसमें श्रमण-साधु-को कभी भी तुष्ट अधया रुष्ट नहीं होना चाहिये । गा०॥१६॥
चक्षुइन्द्रिय का विपयभूतरूप जर उस इन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने में आवे-तब यह चाहे मनोज्ञ हो या अमनोज्ञ हो उसमें श्रमण जन को कभी भी हर्प विपाद-तुष्ट रुष्ट नहीं होना चाहिये । गा० १७ ॥
मनोज एव अमनोज्ञ गध जर घ्राणइन्द्रिय का विपय रो तव साधु को उस विषय में कभी भी तुष्ट रुष्ट नहीं होना चाहिये । गा० १८॥
मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ रस जिहोइन्द्रिय का विषय हो-तब उसम श्रमण जन को कभी भी तुष्ट और मष्ट नहीं होना चाहिये । गा० १९।। કરે એ અહીં ભદ્રક શબ્દનો અર્થ અનુકૂળ અને પાપક શબ્દનો અર્થ પ્રતિકૂળ છે જ્યારે શબ્દરૂપ વિષય શ્રોત્ર ઈન્ડિયન હોય તે ભલે તે મને હોય કે અમનેઝ હેય, ગમે તે કેમ ન હોય, તેમા શ્રમણ-સાધુ-ને કદાપિ તુષ્ટ કે રૂષ્ટ થવું જોઈએ નહિ એ ગા ૧૬ |
ચક્ષુ ઈન્દ્રિયને વિષયભૂત રૂપ જ્યારે તે ઈન્દ્રિય વડે ગ્રહણ કરવામાં આવે ત્યારે તે મને હોય કે અમનેઝ હોય, શ્રમણને કદાપિ તેમા હર્ષ વિષાદ-તુષ્ટ-રૂષ્ટ નહિ થવું જોઈએ . ગ ૧૭ |
મને અને અમનેશ ગધ જ્યારે પ્રાણ ઈન્દ્રિયનો વિષય હોય ત્યારે સાધુને તે વિષયમાં કદાપિ તુષ્ટ કે કૃષ્ટ નહિ થવું જોઈએ છે ૧૮ |
મને અથવા તે અમને રસ જ્યારે જીવા ઈન્દ્રિયને વિષય હોય ત્યારે તેમાં શ્રમણ-જનને કદાપિ તુષ્ટ અને રૂટ થવું જોઈએ નહિ " ૧૯
Page #889
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणो टी० अ० १७ माकोणाश्वदाष्टान्तिकयोजना ६७ 'सदेस य' इत्यादि, गाथा पञ्चक सुगमम् ।।
सुधर्मास्वामी पाह-' एव सलु हे खम्यूः । श्रमणेन भगवता महावीरेण यानसमाप्तेन सप्तदशस्य ज्ञानाध्ययनस्य अपमय:=पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्ता अमपितः। इति नवीमि-उपाख्या पूर्ववत् ।। मू०७ ।।।
इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशमापारलितललितकलापालापक - प्रपिशृद्धगापयनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक श्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पढभूपितकोल्हापुररामगुरु-वालब्रह्मचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालप्रतिविरचिताया श्री ज्ञाताधर्मकथानमूनस्यानगारधर्मामृ
तवपिण्याख्याया व्याख्याया सप्तदशमध्ययन समाप्त ॥ १७ ॥ ८ आठ प्रकार का स्पर्श चाहे वह अनुकूल हो चाहे प्रतिकल होजय २ स्पर्शन इन्द्रिय का विषय हो उसमें साधु को किसी भी तरह से कभी भी तुष्ट एव रुष्ट नहीं होनी चाहिये ॥ २० ॥ ___ इस प्रकार हे जवू ! भ्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके है इस सत्रहवें ज्ञाताभ्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है। ऐसा में उन्ही के कहे अनुमार कह रहा है।
श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत "जाता __ धर्मकथागमन " की अनगार धर्मामृतवर्पिणी व्याख्या का सत्रहवा
अध्ययन समाप्त ॥ १७॥ ૮ જાતને સ્પર્શ—ભવે તે અનુકૂળ કે પ્રતિકૂળ ગમે તે કેમ ન હોય જ્યારે જ્યારે તે સ્પર્શન ઈન્દ્રિયને વિષય હોય તેમા સાધુને કઈ પણ રીતે કદાપિ તુષ્ટ અને રૂટ થવું જોઈએ નહિ કે ગા ૨૦ |
આ પ્રમાણે હે જ બૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાન મેળવ્યું છે-આ સત્તરમાં જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપમાં અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે આવુ છુ તેમના કહ્યા મુજબ જ તમને કહી રહ્યો છુ શ્રી જૈનાચાર્ય ઘામલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવર્ષિથી
વ્યાખ્યાનુ સત્તરમું અધ્યયન સમાપ્ત ૧૭
Page #890
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अथाष्टादशमध्ययनम् ॥ अथाष्टादशमारभ्यते, अस्य च पूग महायमभिगम्पन्न - पूर्वस्मिन् अध्य यने इन्द्रियशर्तिनाम् शीतेन्द्रियाणां च अनर्यार्थी मोक्ती, इह तु लोमावि प्टानां लोभरहिराना च ताय गोयते, इत्येव पूर्वेण सह संपद्धमिदमभ्ययनम् , तस्येदमादिम सूत्रम्-' जाण भते' इत्यादि
मूलम्-जइ णं भंते । समणेणजाव सपत्तेणं सत्तरसमस णायज्झयणस्स अयमटे पण्णत्ते, अट्टारमस्त ण भंते । णायञ्झयणस्त समणेण जाव संपत्तेण के अट्टे पपणत्ते ? एवं खल्ल जंबू। तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहं णामं णयरे होत्था । वपणओ० । तत्थ णं धण्णे णाम सत्यवाहे । भद्दाभारिया तस्स ण धण्णस्स सत्यवाहस्स पुत्ता भदाए अत्तया पंचसत्थवाह
अठाररर्चा अध्ययन प्रारभ
सुसमावारिका का वर्णन सत्रहवां अध्ययन समाप्त हो चुका हैं। अब १८ वा अ-ययन प्रारभ होता है । इस अध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से सबध है-कि पूर्व अध्ययन में इन्द्रियवशवर्ती तथा वशमृत इन्द्रियवाले जीवों को अर्थ की प्राप्ति होना कहा गया है। अब इस अध्ययन में सूत्रकार यह कहेंगे कि जो लोभ कपापसे युक्त तथा लोभ कषाय से रहित जीव होते हैं वे अनर्थ और अर्थ प्राप्ति से योग्य होते हैं। इस अ ययन का सर्व प्रथम सूत्र यह है-'जइण भते ' इत्यादि।
અઢારમા અધ્યયનને પ્રારભ
સુસમાદારિકાનું વર્ણન સત્તરમું અધ્યયન પુરૂ થયું છેહવે અઢારમા અબયનની શરૂઆત થાય છે આ અધ્યયનને પહેલા અધ્યયનની સાથે આ જાતને સ બ ધ છે કે પહેલા અધ્યયનમાં ઈન્દ્રિય વશવતી તેમજ વશીકત ઈન્દ્રિયવાળા જીરને અર્થની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે વિષે કહેવામાં આવ્યું છેસૂત્રકાર હવે આ અધ્યયનમાં આ વાતનુ સ્પષ્ટીકરણ કરશે કે જે લેભકષાયથી તેમજ લેભકષાયથી રહિત હોય છે તેઓ અનર્થ અને અર્થ પ્રાપ્તિને લાયક ઠરે છે આ અણ यननु पहेतु सूत्र मा छ-जइण भते समणेण महावीरेण न्यादि
Page #891
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकावर्णनम्
६३९
दारगा होत्या, तं जहा - घण्णे धणपाले, धणदेवे, धणगोत्रे, धणरक्खिए । तस्स णं घण्णस्स सत्यवाहस्सधूया भद्दाए अत्तया पंचहं पुत्ताण अणुमग्गजातीया सुंसुमाणामं दारिया होत्था, सूमालपाणिपाया, तस्स णं धण्णस्त सत्थवाहस्स चिलाए नाम दासचेडे होत्था, अहीणपचिदियसरीरे मसोचिए बालकीलावकुसले याचि होत्था। तएणं से चिलाए दाल चेडे सुसुमाए दारियाए बालग्गाहे जाए यात्रि होत्था । सुंसुम दारिय क्डीए गिण्हइ, गिoिहत्ता, बहूहिं दार एहि यदारियाहि य वालेहि वालियाहि य डिभएहि य डिंभियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धि अभिरममाणे २ विहरइ । तएणं से चिलाए दासचेडे तेसि बहूणं दारियाण य जाव अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ, एव वह आगेलियाओ, तेदुसर, पोतुल्लए, साडोल्लए, अप्पेगइयाणं आभरणमल्लालकारं अवहरइ अप्पेगइए आउस्सइ, एव अवहसइ निच्छोडेइ, निव्भच्छेइ तज्जेइ, अप्पेगइए तालेइ । तरणं ते वहवे दारगा य ६ जाव रोयमाणा य कदमाणा य साण २ अम्मादिऊण णिवेदेति । तएणं तेसि बहूणं दारगाणय ६ जाव अम्मापियरो जेणेव धन्ने सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता धन्ने सत्थवाहे बहूहिं खिजणाहि य स्टणाहि य उबलभणाहि य खिज्जमाणाहिय रुटमाणाहि य उवलभमाणा पण एमटू णिवेदेति ॥ सू० १ ॥
Page #892
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अथाष्टादशमध्ययनम् ॥ अधाप्टादशमारभ्यते, अस्य च पूग महायमभिगम्पन्च -म्मिन, अन्य यने इन्द्रियशतिनाम् वशीक सेन्द्रियाणां च अनर्यायों मोक्ती, उह तु लोमाति प्टाना लोगरहितना च तारेयोन्यते, इस्येय पूर्वण सह संपद्धमिश्म ययनम् , तस्येदमादिम सूत्रम्-'जाण भते' इत्यादि--
मूलम्-जइ णं भते । समणेणंजाव संपत्तेणं सत्तरसमस णायज्झयणस्स अयमटे पपणत्ते, अट्रारमस्त ण भंते । णायज्झय. णस्स समणेणं जाव संपत्तेण के अटे पपणते ? एत्र खल जंबू तेणं कालेणं तेण समएणं रायगिहं णाम जयरे होत्था । वण्णओ० । तत्थ णं धपणे णाम सत्यवाहे । भदाभारिया तस्स ण धपणस्स सत्यवाहस्स पुत्ता भदाए अत्तया पचमत्थवाह
अठारर अध्ययन प्रारम
सुसमादारिका का वर्णन सत्रहवां अध्ययन समाप्त हो चुका है। अप १८ वा अध्ययन प्रारभ होता है। इस अ ययन का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से सघध है-कि पूर्व अध्ययन में इन्द्रियवशयी तथा धशकृत इन्द्रियवाले जीवों को अर्थ की प्राप्ति होना कहा गया है। अप इस अध्ययन में सूत्रकार यह कहेंगे कि जो लोम कपापसे युक्त तथा लोभ कषाय से रहित जीव होते हैं ये अनर्थ और अर्थ प्राप्ति से योग्य होते है । इस अययन का सर्व प्रथम सूत्र यह है-'जहण भते' इत्यादि।
અઢારમા અધ્યયનને પ્રારંભ
સુ સમાદારિકાનું વર્ણન સત્તરમું અધ્યયન પુરૂ થયું છેહવે અઢારમા અધ્યયનની શરૂઆત થાય છે અધ્યયનને પહેલા અધ્યયનની સાથે આ જાતને સ બ ધ છે કે પહેલા અધ્યયનમાં ઈન્દ્રિય વશવતી તેમજ વશીકત ઈન્દ્રિયવાળા ને અથની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે વિષે કહેવામા આવ્યુ છેસૂત્રકાર હવે આ અધ્યયનમાં આ વાતનુ સ્પષ્ટીકરણ કરશે કે જે છો ભકષાયથી તેમજ ભકવાયથી રહિત હોય છે તેઓ અનર્થ અને અર્થ પ્રાપ્તિને લાયક ઠરે છે આ અ3 यन्नु ५ सूत्र मा छ-जइण भते समणेण महावीरेण इत्यादि
Page #893
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० १० १८ सुसमादारिवर्णनम्
દર
धनः १ धनपाल २ धनदेवः ३ घनगोपः ४ घनरक्षितः ५ इति । तस्या खल धन्यस्य सार्थवाहस्य दुहिता भद्रायाः सार्थवाद्या आत्मजा धनादीना पञ्चाना पुत्राणाम् ' अणुमग्गजाइया' अनुमार्गजातिका जाता एव जातिका, अनुमार्ग जातिका = अनुमार्गजातिका पथाज्जाता सुम्नुमा नाम दारिम जासीत् । कीदृशी सा – ' मालपाणिपाया' सुकुमार पाणिपादा = कोमल+रचरणा । तस्य खलु धन्यस्य सार्थवाहस्य चिलातो नाम दासचेट. =दासपुत्र आसीत् । योहि 'अहिणधपणे २- घणपाले - २ धणदेवे ३, वणगोवे - ४ घणर किए - ५ ) उस काल और उस समयमें राजगृह नाम का नगर था । इसका वर्णन पहले जैसा ही जानना चाहिये। उस नगर में वन्य नामका सार्थवाह रहता था। इसकी पत्नी का नाम अहा था। इस भद्रा भार्या से उत्पन्न हुए धन्य सार्थवाद के ये पांच पुत्र थे- धन- १ वनपाल - २ वनदेव - ३ धनगोप - ४ और धनरक्षित - १ |
( तस्सण धण्णस्स सत्यवाहस्स धूया मद्दाए अन्तया पचण्ड पुत्ताणं अणुमग्गजातीया सुसुमा णाम दारिया होत्या, सूमालपाणिपाया, तस्स ण ण्णस्स सत्यवाहस्स चिलाएणाम दासचेडे होत्या, अह ण पर्चेदिय सरीरे मसोचिए, बालकीलावणकुसले याचि शेल्या ) इस धन्य सार्थ वाह के भद्रा भार्या की कुक्षि से उत्पन्न एक सुसुमा नामकी पुत्री थीजो धनादिक पाच पुत्रों के पीछे उत्पन्न हुई थी। इसके कर, चरण बड़े कोमल थे | इस धन्य मार्थवाह का एक दामचेट-दास पुत्र -धा- जिस अत्तया पच सत्थवाददारगा होत्या, त जहा - उणे १, वणपाले २, धणदेवे ३, धणगोवे - ४, धणरक्खि -५ )
તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતુ તેનુ વર્ણન પહેલાની જેમ સમજી લેવું જોઈ એ તે નગરમાધન્ય નામે સાવાહ રહેતા હતા તેની પત્નીનુ નામ ભદ્રા હતું તે ભદ્રા ભાર્યાંના ગર્ભથી જન્મ ૫ મેલા પાચ પુત્ર હતા, તેમના नाम या प्रमाऎ छे-धन-१, धनपाल - २, धनदेव- 3, धनगोण-४, अने धनरक्षित-च
( तस्स ण धष्णस्स सत्यवादस्स वूया भद्दाए अत्तया पचण्ड पुत्ताण अणु मेग्गजातीया सुसुमा णाम दारिया होत्या, सूमालपाणिपाया, तस्स ण ण्णस्स सत्यवास्स चिलाए णाम दासचेडे होत्या, जह ण पर्चेदिय सरीरे मसोचिए, बालकीलावणकुसले यानि होत्था )
તે ધન્ય સાવાહની ભદ્રા-ભાર્યોના ગભથી જન્મ પામેલી સુસુમા નામે એક પુત્રી હતી તે ધન વગેરે પેાતાના ભાઈએ બાદ ઉત્પન્ન થઈ હતી તેના હાથ-પગ બહુ જ કામળ હતા તે ધન્યમાર્થવાહના એક દાસીપુત્ર હતા. તેનું
स
Page #894
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५०
माताका
टीका' जडण गन्ते । ' इत्यादि। जम्मूमी प्रति यदि खलु महन्त ! श्रमणेन या जन्मोल समाप्तेन सप्तदशस्य गाताध्ययनस्य अयमर्थः नितेन्द्रियाऽजिते न्द्रियाणामर्थानियमातिरूपो भानः प्रपितः अष्टादशस्य तु ज्ञाताध्ययनस्प श्रमणेन यान्मोक्ष सम्मानोऽर्थः मराप्त ? स्वामी माह-ए बल है जम्मू: ! तस्मिन काले तस्मिन् समये राजगृह नाम नगरमासीत्, 'गणओ' वर्णकः = नगरपर्णन पूर्ववद् विशेयम् । तत्र सतु धन्यो नाम गार्थवादः परिवसति । तस्य भद्रा नाम भार्याऽसीत् । तस्य तु पत्यस्य सार्थवाहस्य पुत्राः, भद्राया आत्मजाः पञ्च सार्थ पाहदारका आस । तेपा नामान्याह ' त जहा ' तद्यथा
टीकार्थ-जनू स्वामी श्री सुधर्मास्वामी से पूछते है कि - ( जडण भते ! समणेण जान सपत्तेण सत्तरसमस्त णायज्ञयणस्स अग्रम पण्णत्ते अट्टारसमस्म णभते गायज्ज्ञयणास समणेण जान सपतेण के अड्डे पण्णते ? ) हे भदन्त । भ्रमण भगवान महावीर ने जो कि सिद्विगति नाम क स्थान को प्राप्त कर चुके है मन्त्रत्वे ज्ञानाम्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रजप्त किया है तो उन्हों सिद्विगति नामक स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने १८ वे ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपित किया है ? ( एव खलु जडू ! ) इस प्रकार जब स्वामी के पूछने पर सुध
स्वामी उनसे कहते है कि जंबू' सुन-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है - ( तेण कालेन तेण समण्ण रामगिहे णाम पायरे होत्या । चण्ण: गओ० ● तत्वण भण्णे णामं सत्यवाहे भद्राभारिया तस्सण धण्णस्स सत्यवाहम्स पुना महा अत्तया पत्र सत्थवाहदारगा होत्था, त जा
शार्थ- --જળ સ્વામી શ્રી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે~~
( जण भते ! समणेण जाव सपत्तेण सत्तरसमस्त नाययणस्स अयम पत्ते श्रद्धारसमम्स ण भने गायज्झयणस्स समणेण जाव सपत्ते के अट्ठे पण्णचे १) હે ભન્ત ! શ્રમણ્ ભગવાન મહાવીર કેજે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચુકયા છે-મત્તરમા જ્ઞાતાધ્યયનના આ પૂર્વોક્ત રૂપે અથ નિરૂપિત કર્યા છે તે તેજ સિદ્ધગતિ નામના સ્થાનને મેળવી ચુકેલા શ્રમણુ ભગવાન મહા વીરે ૧૮ મા જ્ઞાતાયયનના શો અથ પ્રતિત કર્યો છે?
( एव सलु जनू ! ) या प्रमाणे स्वाभीये प्रश्न पूछया त्यारणाह શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હું જ ખૂ! સાલળે, તમારા પ્રશ્નના જવાબ આ પ્રમાણે છે——
( तेण काळेण तेण समरण रायगिहे णाम णयरे होत्था ! ओ० तत्थण आसपास भाविकाor का सत्यापुत्ता भद्दार
Page #895
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टी० १० १८ सुसमादारिकावर्णनम् . . ... at धनः १ धनपाल २ धनदेवः ३ धनगोपः ४ धनरक्षितः ५ इति । तस्या खल धन्यस्य सार्थवाहस्य दुहिता भद्रायाः सार्थवाद्या आत्मजा धनादीना पञ्चाना पुत्राणाम् ' अणुमग्गजाइया' अनुमार्गजातिका-जाता एप जातिका, अनुमार्ग जातिका अनुमार्गजातिका पथानाता सुममा नाम दारिका आसीत् । कीदृशी सा ?-'सूमालपाणिपाया' सुकुमार पाणिपादाकोमलसरचरणा । तस्य खलु धन्यस्य सार्थवाहस्य चिलातो नाम दासचेटा दासपुत्र आसीत् । योहि 'अहिणधण्णे २- धणपाले-२ धणदेवे ३, धणगोवे-४ धणरक्खिए-५) उस काल और उस समयमें राजगृह नाम का नगर था। इसका वर्णन पहले जैसा हो जानना चाहिये। उस नगर में धन्य नामका सार्यवाह रहता था। इसकी पत्नी का नाम भद्रा धा। टस भद्रा भार्या से उत्पन्न हुए धन्य सार्थवाह के ये पांच पुत्र थे-धन-१ वनपाल-२ धनदेव-३ धन गोप-४ और धनरक्षित-५।।
(तस्सण धण्णस्स सत्यवाहस्स धूया महाए अत्तया पचण्ड पुत्ताणं अणुमग्गजातीया सुसुमा णाम दारिया, होत्या, समालपाणिपाया, तस्स गंधण्णस्स सत्यवाहस्स चिलाएणाम दासचेडे होत्या, अह ण पर्चेदिय सरीरे मसोवचिए, पालकीलावणकुसले याचि होत्या) इस धन्य साथै वाह के भद्रा भार्या की कुक्षि से उत्पन्न एक सुस्तुमा नामकी पुत्री थीजो धनादिक पाच पुत्रो के पीछे उत्पन्न हुई थी। इसके कर, चरणे बड़े कोमल थे। इस धन्य मार्थवाद का एक दासचेट-दास पुत्र-धा-जिस अत्तया पच सत्यवाहदारगा होत्या, त जहा-धण्णे १, धणपाले २, धणदेवे ३, घणगोवे-४, धणरक्खिरा-२)
તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતુ તેનું વર્ણન પહેલાની જેમ સમજી લેવું જોઈએ તે નગરમા ધન્ય નામે સાર્થવાહ રહેતું હતું તેની પત્નીનું નામ ભદ્રા હતુ તે ભદ્રા ભાર્યાના ગર્ભથી જન્મ ૫ મેલા પાચ પુત્ર હતા, તેમના नाम मा प्रमाणे छ-धन-1,धनपास-२,धन-3,धना -४,अने धन.क्षित-५ . (तस्स ण धण्णस्स सस्थवाहस्स ध्या भदाए अत्तया पचण्ह पुत्ताण अणुमग्गजातीया सुसुमा णाम दारिया, होत्या, समालपाणिपाया, तस्स ण धण्णस्स सत्यवाहस्स चिलाए णाम दासचेडे होत्या, अह पदिय सरीरे मसोवचिए, वालकीलावणकुसले यावि होत्था) - તે ધન્ય સાર્થવાહની ભદ્રા-ભાયના ગંભથી જન્મ પામેલી સુસુમા નામે એક પુત્રી હતી તે ધન વગેરે પિતાના ભાઈઓ બાદ ઉત્પન્ન થઈ હતી તેના હાથ-પગ બહુ જ કોમળ હતા તે ધન્યસાર્થવાહને એક દાસીપુ હવે તેને
Page #896
--------------------------------------------------------------------------
________________
ર
ग्रासावयास
पचिदियसरीरे अद्दीनपचेन्द्रियशरीरः=मतिपूर्णसमेंन्द्रिशरीरः, 'मसोचिए ' मांसोपचितः = मासैरुपचित, पुष्टशरीर इत्यर्थः पुनः बालवीलावण कुसले ' बालक्रीडनकुशलथापि आसीत् । तव खलु स दासचेट' शुशुमाया दारिकायाः 'बालग्गा हे' बालग्राहः यो हि बालक्रीडयितु नियुक्तो भृत्यः स 'बालग्राहः इत्युच्यते जावयाप्यभवत् । सहि चिलातः सुमां दारिया वटयां गृहावि, गृहीत्वा बहुभिर्दाथ दारिकामिय पाउपालिकामिश्र, डिम्मकेष डिम्मिकामिश्र कुमारथ कुमारियाभित्र सार्द्धम् दारकभिनयकुमाराणां अल्प, बहु, बहुतर कालकृत मेदो विज्ञेयः, अभिरममाणः २ = पुनः पुनः क्रीडन् विहरति । ततः खलु स चिलातो दामचेट' तेपां बहूनां ' दाराण जात्र ' दार_काणा यात्= दारकाणा दारिकाणा डिम्भराना डिम्भिकाना कुमाराणां कुमारिकाणां का नोम चिलात था । जो प्रमाणोपेत पाचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर वाला था । मासोपचित था पुष्ट देहवाला था । यह पालकों को खिलाने में विशेष कुशल था । (तएण से चिलाए दासचेडे सुसुमाए दारियाए बालग्गाहे जाए याचि होत्या सुसुमदारियं कडीए गिण्ट, गिव्हित्ता यहहिं दारएहिं य दारियाहि य विरह-तेसिं पण दारियाण य जान अप्पेगइयाण खुट्टए अवहरड, एवं वद्दए आडोलियाओ ते दुरुए पोतुल्लए साडोल्लए, अप्पेगइयाण आभरणमल्लाल्कार अवहरई, अप्पेगइयाए आउस्सह, एव अवहरह, निच्छोडेर, निम्भच्छे तज्जेइ अप्पेगइए ताह ) इसलिये वह दासचेट सुसमा दारिका के खिलाने के लिये नियुक्त हो गया । अतः वह चिलान दास चेटक सुसमादारिका को गोदी में लेकर अनेक दारक दारिकाओं के साथ बालक बालि काओं के साथ son डिभिकों के साथ और कुमार कुमारिकों
•
નામ ચિલાત હતુ તે સપ્રમાણ પાચે ઇન્દ્રિયાથી પરિપૂર્ણ શરીરવાળા હતા તે માસલ તેમજ પુષ્ટ શરીરવાળા હતા તે માળકાને રમાડવામા સવિશેષચતુર હતા
(तरण से चिलाए दास चेडे सुसुमाए दारियाए बालग्गाहे जाए यानि होत्था सुसुम दारिय कूडीए गिदड़, गिव्हित्ता बहूहिं, दारएहि य दारियाहि य विरइ तेर्सि बहूण दारियाण य जाव अप्पेगइयाण खुल्लए अवहर, एन वह आडो याओ तेंदुए पोतुल्लए, साडोल्लए, अप्पेगइयाण आभरण मल्लाल्कार अवहर, अप्पेगइए, आउस्सइ, एव अवहसर, निच्छेडेर, निव्भच्छे, तज्जेइ, अप्पेगइए ताले) તેથી તે દાસચેર સુસમા દ્વારિકાને રમાડવા માટે નિયુક્ત કરવામા આન્યા આ પ્રમાણે તે ચિલાત દાસ ચેરક સમા દારિકાને ખેાળામા બેસા ઢીને ઘણા દ્વારક ક્રારિકાઓની સાથે ખાળક તેમજ ખાળાએાની
1
Page #897
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंगारधामृतषिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकावर्णनम् ६४३ च मध्ये 'अप्येगइयाण' अप्ये केपाम् 'सुल्लए' क्षुल्लकान कपर्दक निशेपान् 'कोडी' इति भापा प्रसिद्धान अपहरति चोरयति। एव 'वट्टए' वर्तकान्-जत्वादिमयगोलकान् 'आडोलियाओ' आडोलिका इति नाम्नामसिद्धान् वाल क्रीडनवस्तुविशेपान्तट्सए' देशीशब्दोऽयम्-गेन्दुकान 'पोत्तुल्लए ' वस्त्रमयपुत्तलिकाः, 'साडोल्लए' उत्त रीयवस्त्राणि चोरयति । तथा अप्येकेपाम् आभरणमाल्यालङ्कारान् अपहरति । अनन्तरम् ' अप्पेगहए ' अप्येकमान् ‘आउस्सड ' आक्रुश्यति-निष्ठुरवचनेन ' एव' अवहमई' अपहसति अपशब्दमुचार्य हास्यं करोति, 'निच्छोडेइ 'निश्छोटयति 'यदि व किमपि वदिष्यसि तदा त्वा वहिनिष्काशयिष्यामीत्यादि शब्दस्तान् भीपयति, तथा 'णिभच्छेइ' निर्भर्सयतितेपा निर्भर्त्सना करोति, एव 'तज्जेइ ' तर्जयति ‘मया कृत किमपिकार्य यदि स्त्र मातापितभ्यो यूय वदिष्यथ के साथ वार २ खेलने में लगा रहता। खेलते २ वह चिलात दास चेटक उन अनेक दारक दारिक, डिम्भका, डिम्भिका, कुमार कुमारिकाओं में से कितने बच्चो के खेलने के साधन भूत कपर्दक विशेपों को कौडिया को चुरा लेता कितनेक के जतुके बने हुए चपेटो को, कितनेक के अडोलिक नाम से प्रसिद्ध खिलाने को, कितनेक घच्चों की गेंदे को कितनेक बच्चो की वस्त्र के बनी हुई गुडियो को, तथा कितनेक पच्चो के उत्तरीयवस्त्रों-को फरियो को बुरालेता था। कितनेक बच्चों के आभरणा को मालाओं को और अलकारो को भी चुरालिया करता था कितनेक बच्चो को गाली देता कितनेक यच्चो की वह निष्ठुर बचना को उच्चारण कर हँसी मजाक करने लग जाता था। यदि तू कुछ कहेगातो में तुझे यहीं से बाहिर निकाल दुगा इत्यादि शब्दों से कितनेक बच्चों को वह डरा दिया करता था। कितनेक यच्चों को અને ડિભિક સાથે અને કુમાર કુમારિકાઓની સાથે વાર વાર રમવામાં જ ચાટી રહેતું હતું તે ચિલાત દાસર રમતા રમતા ઘણુ દારક-દારિક, ડિંભ-હિંભિક, કુમાર-કુમારિકાઓમાથી કેટલાક બાળકોના રમવાના સાધન કપર્દક વિશેને-કોડીઓને ઘેરી લેતે, કેટલાકના લાખના બનેલા ચપેટાએને, કેટલાકના અડાલિક નામથી પ્રસિદ્ધ એવા રમકડાઓને, કેટલાક બાળ કેની દડીઓને, કેટલાક બાળકોની વસ્ત્રથી બનેલી ઢીંગલીઓને તેમજ કેટલાક બાળકોના ઉત્તરીય ઓને ચોરી જો હવે તે કેટલાક બાળકના આભરણેને, માળાઓને અને ઘરેણુઓને પણ ચેરી જેતે હતિ તે કેટલાક બાળકોને ગાળે તે અને કેટલાક બાળકોની નિષ્ફર વચને બેલીને ઠઠા-મશ્કરી કરવા લાગતો હતો “જે તું કઈ પણ બોલશે તે હુ તને અહીંથી બહાર કાઢી
Page #898
--------------------------------------------------------------------------
________________
ર
सावधा
1
I
1
पर्चिदियसरीरे ' अहीनपञ्चेन्द्रियशरीरः=मतिपूर्णसर्वेन्द्रिशरीरः, 'मसोचिए ' मांसोपचितः = मासैरुपचितः, पुष्टशरीर इत्यर्थः पुनः बालकात्रण कुसले ' बालक्रीडनकुशलथापि आसीत् । तत खलु स दासपेठ सुमाया दारिकायाः 'बालग्गाहे ' वालग्राहः यो हि बालक्रीडयितु नियुक्तो भृत्यः स 'बालवादः इत्युच्यते जावाश्रापभनत् । सहि चित्रातः गुगुमा दारिr acr गृहाति, गृहीत्वा बहुभिर्दाथ दारिकामिश्र नाथ कामिय, डिम्मकेश डिम्भफाभि कुमारथ कुमारियामिश्र सार्द्धम् = दारफडिचाकुमाराणां अल्प बहु, बहुतर कालकृत मेदो विज्ञेय, अभिरममाणः २ = पुनः पुनः क्रीडन् विहरति । ततः खलु स चिलातो दामचेट' तेपां चहना ' दाराण जात्र दार काणा यावत् = दारकाणा दारिकाणा डिम्भाना डिम्मिकाना कुमाराणां कुमारिकाणां का नोम चिलात था । जो प्रमाणोपेत पाच इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर वाला था । मासोपचित था पुष्ट देहवाला था । यह पालकों को खिलाने में विशेष कुशल था । (तएण से चिलाए दास चेडे सुसुमाए दारियाए पालग्गाहे जाए याचि होत्या सुसुमदारियं कडीए गिन्हई, गिव्हिसा यहि, दारपहिंय दारियाहि य विरह-तेसिं यहण दारियाण य जार अध्पेगइयाण खुट्टए अवहरड, एवं चद्दए आडोलियाओ ते दुए पोतुल साडोलए अप्पेगइयाण आभरणमल्लाल्कार अवहरह, अप्पे गया आउस्सह, एव अवहरइ, निच्छोडेर, निन्भच्छेइ तज्जेइ अप्पेगइए ताह ) इमलिये वह दासचेट सुसमा दारिका के खिलाने के लिये नियुक्त हो गया । अतः वह चिलान दास चेटक सुसमादारिका को गोदी में लेकर अनेक दारक दारिकाओं के साथ बालक बालिकाओं के साथ free डिभिकों के साथ और कुमार कुमारिकों
3
•
નામ ચિલાત હતુ તે સપ્રમાણ પાચે ઇન્દ્રિયાથી પરિપૂર્ણ શરીરવાળા હતા તે માસલ તેમજ પુષ્ટ શરીરવાળા હતા તે માળકને રમાડવામા વિશેષચતુર હતા
1
(तरण से चिलाए दास चेडे सुसुमाए दारियाए नालग्गा हे जाए यात्रि होत्या सुसुम दारिय कडीए गिण्हइ, गिव्हित्ता बहूर्हि, दारएदि य दारियाहि य विरइ तेर्सि हूण दारियाण य जाव अप्पेगइयाण खुल्लए अवहर, एन व आडो याओ तेदुरुए पोतुल्लए, साडोल्लए, अप्पेगइयाण आभरण मल्लालकार अवहर, अप्पे गए, आउस्स, एव अवहसर, निच्छेडेद, निन्भच्छेद, तज्जेइ, अप्पेगइए तालेइ) તેથી તે દાસચેર સુસમા દારિકાને રમાડવા માટે નિયુક્ત કરવામા ભાગ્યે આ પ્રમાણે તે ચિલાત દાસ ચેરક સુસમા દ્વારિકાને ખેાળામા બેસા ઢીને ઘણા દારક દ્વારિકાઓની સાથે બાળક તેમજ આળાએની ડિલક
Page #899
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपणी टी० ० १८ सुसमादारिकावर्णनम्
-६४५
कादीनाम्पातिर यत्रेव धन्य सार्थवादस्तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य धन्य सागर बहुभिः खिज्जणाहि य' खेदनाभिश्च खेदजनकवाग्भिः 'रुटणादि य' रोदनाभिः माथुरुदितनाग्भिः, 'उपलमणाहि ' उपालम्भनाभि' = किमेतचितम् ? भवान्ाम् ? इत्यादि वाग्भिश्व ' खेज्जमाणा ' खेदयन्तः स्वखेद प्रकाशयन्तः 'रुटमाणा य रूपन्त अलभमाणा य ' उपालम्भयन्तश्च धन्याय सार्थवाहाय एतमर्थ = चिलातकृवाऽपरावरूपमर्थं निवेदयन्ति ॥ मू० १ ॥
,
f
1
+
"
मूलम् तपणं से धण्णे सत्थवाहे चिलाय दासचेड एय मट्ट भुजो भुज्जो णिवारे, णो चेव णं चिलाए दासवेडे उवरमइ । तएण से चिलाए दासचेडे तेसि बहूणं दारगाण य ६ अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ जाव तालेइ । तएणं ते बहवे दारगा य जाव रोयमाणा य जाव अम्मापिऊणं जाव णिवेदेति । तएणं ते आसुरुता जेणेव घण्णे सत्थवाहे तेणेव
[
"
की शिकायत करने लगे । अपने २ बालकों के मुख से इस प्रकार की दामचेटक थी हरकत सुनकर उन दारक आदि को के माता पिता जहा धन्य सार्थवाह होता था वहा आते और आकर के वन्य सार्ववाह को अनेक खेदजनक वचनों द्वारा रोते २ उपलभ-उलहना दिया करते"क्या आप जैसे व्यक्तियो को यह उचित है - इस तरह से उससे कहा
करते। इस तरह वे खेदजनक तथा अश्रु भरकर कही गई वाणियों द्वारा
अपना खेदप्रकाशित करते हुए रोते हुए एव उलहना देते हुए धन्यसार्थ
वाह के लिये चिलातन अपराध रूप अर्थ की निवेदना करते || सू० १॥
7
મુખેથી આ પ્રમાણે દામ ચેટકની ખરાબ વર્તણુક વિષેની વિગત સાભળીને તે દારક વગેરૈના માતાપિતા ન્ય ધન્યમા વાઢુ હા ત્યા આવતા અને આવીને ધન્યસા વાહુને ઘણુ' કંઠાર વચનેાથી રડતાં રડતા ઠપકો આપતા રહેતા હતા ‘ શું તમારી જેવી વ્યક્તિને આ વાત શાલે છે ? ” આ પ્રમાણે તે કહ્યા કરતા હતા આ પ્રમાણે તેઓ ખેદ્યજનક તેમજ અશ્રુભીની હાલતમા કહેલી વાણીએ વડે પેાતાનુ દુખ પ્રકટ કરતા, રડતા તેમજ ઠપકે આપતા મુખ્ય સા વાહને ચિલાતે જે કઈ ખરાબ વર્તણુક કરી હોય તે બદલ ફરિયાદો કરતાં રહેતા હતા !! સૂત્ર ૧ ॥
Page #900
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४४
शताव
तदायुष्माकमाणान् हरिष्यामीत्ये रुपये लिनिर्देशक तेषु मा दयति । तथा येन चालकान 'ताले ' ताडयति चपेटादिमि । तत खल नारद कुमारिका पाला ' रोयमाणा य' रुदन्तथ ' कंद माणा य ' क्रन्दन्त = उन्चैः सरेण चीतार कुर्तन्त 'माण २' स्वेषाम् २ 'अम्माविण अनापितृभ्यामर्थं निवेदयन्ति । ततः स तेषा बहूनांदा
,
वह निर्भरित कर देता " मेरा किया हुआ कुछ मी काम यदि तुमे लोग अपने माता पिता से कहोगे तो याद रखना मैं तुम्हारे प्राणों को ले लूगा तुम्हे जान से मार डालूगा 33 हम तरह किनने पालको को वह अगुलि दिवा २ कर भयभीत कर दिया करता । किननेक बालका को वह थप्पड आदि भी मार देता । (तरण ते यहवे दारगाय जाव रोयमाणा य कमाणा य ४ साय २ अम्मापिऊण णिवेदेति, तएण तेसि चण दारगाण य६ जाय अम्मापिउरो जेणेव धण्णे सत्थचाहे तेच उपागच्छति, उवागच्छित्ता वण्ण सत्यवार परि विजनाहि य रुटणाहि य उचलभणाहि य खिज्जमाणाय रुटमाणाय उचल
माणा व घण्णस्स एयम णिवेदेति ) इस तरह वे अनेक दारक यावत् कुमारिकाएँ सब ही रो रो कर के आकइन करके उच्चस्वर से चीत् कार करके - अपने माता पिताओं से उस दामचेटक की इस वर्ताव
મૂકીશ વગેરે વનેથી કેટલાક બાળકને તે બીવડાવી દેતા હતા કેટલાક ખાળફાની તે ભસના પણુ કરતે હતા મારી કોઈ પણ વાત તમે તમારા માતાપિતાને કહેશે. તા યાદ રાખો હુ તમને જીવતા રહે છે।ડુ તમને હુ તનથી મારી નાખીશ ” આ પ્રમાણે કેટલાક બાળકોની સામે તે આગળીએ ચીધી ચીધીને ખીવડાવી દેતા હતા કેટલાક બાળકને તે તમાચા વગેરે પણ
$
લગાવી શ્વેતા હતા
( तएण ते बहवे दारगा य ६ जान रोयमाणा य कमाणा य ४ साथ २ अम्मार्पण णिवेदेति, तएण तेमिं ब्रहूण दोरगाण थ ६ जाव अम्मा पितरो जेणेय घण्णे सत्वा वेणेव उनागच्छति, उवागच्छित्ता घण्ण सत्यवाह नहूहि खिज्ज नाहि य रुणाहि यॅ उपलमणाद्दिय विजमाणाय रूपमाणा य उवल भेमार्णा व घण्णस्स एयमट्ठ णिवेदे ति )
આ પ્રમાણે તે ઘણા દારક યાવત્ કુમારિકાઓ રડતા રડતા, આક્રુ ન કરતા કરતા, મા સદે ચીત્કાર કરીને પાતપાતાના માતાપિતાને તે દાસ ચેટકની ખરામ વર્તણુંક વિષે ફરિયાદા કરવા લાગ્યા
}
પાત્તાના
Page #901
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकावर्णनम्
६४७
"
1
4
कादीना म ये अप्येकेपा 'खुल्लर' क्षुल्लकान् = कपर्दकविशेषान् अपहरति ' जाव ताले' यावत्ताड़यति पूर्वोक्तक्रमेण एव कपर्दकाद्यपहरण यावतर्जनं ताडनं च करोति । ततः खलु बहवो दारकाथ दारकादयोरुदन्तथ यावत् स्वेपा २ अम्वादिभ्यो निवेदयन्ति । तत खलु ते आगुरुप्ताः स पुत्रवचन श्रुत्वा झटिति क्रोधाविष्टमानसा यत्रैव धन्य सार्थवाहः तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य बहूभिः ' खेज्जणाहि जाव एयमष्ट खेदनाभिर्यावत् एतमर्थम् = खेदस सूचनाभिर्यावत् उपालम्भनयुक्ताभिर्वाग्भिः चिलातदास चेटक कृताऽपराधलक्षणम् अर्थम् निवेदयन्ति । ततः खलु धन्यः सार्थवाहो बहूना 'दारगाण दारकाणा ६ = दारकादीनाम् अम्बापितॄणामन्ति एतमर्थ असा निशम्य आशुरुप्तः चित्रात दासचेटम् ' उच्चावचाभिः = अनेकविधाभिः ' आउमणाहि ' आक्रोशनाभिः = कोपजन बेचनैः , आउसइ ' आक्रुश्यति = माक्षिपति ' उद्धसइ ' उद्धर्षयति=नामगोत्रादिनाऽघः पातयति - निन्दतीत्यर्थः । नेत्रमुखादि वक्रीकमणेन ' णिग्भच्छेद ' निर्भर्त्सयति= अप्पेगइयाण खुल्लए अवहरह जाव तालेह, तएण ते बहवे दारगा य जात्र रोयमाणा य जीव अम्मापिऊण जाव णिवेदेति ) इस तरह समझाने पर भी वह चिलात दासचेट उन अनेक दारको आदि में से कितने दारक आदिको के कपर्दक ( कौड़ी) विशेषों को चुराता रहा यावत् उन्हें ताडित करता रहा मारता पीटता रहा। और वे बालक आदि भी रोते हुए अपने २ माता पिताओं से उस के अपराध को जा २ कर कह देते रहे । (तएण ते आतुस्त्ता जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उबागच्छह, उवागच्छित्ता, बहहिं खेज्जाणाहिं जाव एयमट्ठ निवेदेति, तएण से धणे सत्धवाहे बहण दारगाण अम्मापिऊण अतिए एयमह सोच्चा आसुरू चिलायदासचेड उच्चावयाहिं आजमा आउस उद्धसह भिच्छेद, ) इस प्रकार अपने २ बालकों के मुख से बार २ खुप अवरइ जाव तालेइ, तपण ते यहवे दारगाय जोव रोयमाणा य जव अम्माfपऊण जाव णिवेदे ति )
આ પ્રમાણે સમજાવવા છતાએ તે ચિલાત દાસચેટક ઘણા દાકા વગે રેમા કેટલાક દારકા વગેરેની કાડીએને ચારતા જ રહ્યો યાવત્ તે ખળકાને તાડિત કરતા રહ્યો, તેમજ મારતા પીટતા રહ્યો અને તે ખાળકે વગેરે પશુ રડતા રડતા પાતપેાતાના માતાપિતાને આની ફરિયાદ્ય કરતા જ રહ્યા
(तरण वे आसुरुत्ता जेणेत्र घण्णे सत्थवाहे वेणेत्र उवागच्छछ, उपागच्छत्ता बहूहिं खेज्जणाहि जाब एयमट्ठ णिवेदेति, तरण से धण्णे सत्यवाहे बहूण दार गाण अम्मापिऊण अतिए एयमट्ठ सोचा आसुरूत्ते चिलाय दासचे उच्चावयाहि भरमणाहि आउसइ उद्धसइ, णिव्भच्छेद )
Page #902
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्राता धर्मचा
उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहूहिं सेजणाहिं जाव एयम णिवेदेति । तपणं से धण्णे सत्थना हे बहूणं दारगाणं ६ अम्मापिऊण अंतिए एयमट्ट सोच्चा आसुरुते विलाय दासखेडं उच्चावयाहि आउसणाहिँ आउसइ, उद्धसइ, णिन्भच्छेइ निच्छोडेइ, तज्जेइ उच्चावयाहि तालणाहिं तालेइ, साओ गिहाओ णिच्छुभइ । तएण से चिलाए दासचेडे साओ गिहाओ निच्छूढे समाणे रायगिहे णयरे सिंघाडग जात्र पहेसु देवकुलेसु य सभासु य पवासु य जूयखलएसु य वेसाघरेसु य पाणघरेसु य सुहं सुहेणंपरिवढइ ॥ सू० २ ||
રઘુવ
,
टीका- ' एणं से' इत्यादि । ततः खलु धन्य सार्थवाह. चिलात दास चेटम् ' एयम एतमर्थम् = एतस्मादर्थात् दारकादीनां कपर्द कापहरणादिरूपाद र्थात भूयोभूयो निवारयति । नो चैत्र खलु दासचेट एतस्माद्दुष्कृत्यादुपरमते । ततः खलु स चिलातो दासचेटः तेषां बहूना 'दाग्गाण य ' दारकाणां चन्दार
तरण से घण्णे सत्थवाहे इत्यादि ।
टीकार्य - (तएण से घपणे सत्थवाहे) इसके बाद उस धन्य सार्थवाहने ( चिलाय दासचेड ) चिलात दास पुत्र को (एयमट्ठ भुज्जो २ णिवारेह ) बालको के कपर्दक आदि चुराने रूप अर्थ से बार २ मना किया, परन्तु ( णो चैव पण चिलाए दासचेडे उवरमइ ) वह चिलात दारक उस काम से विरक्त नहीं हुआ । (तएण से दास चेडे तेसिं बहूण दारगाण य ६
तपर्ण से घण्णे सत्थवाहे इत्यादि --
टीअर्थ - (तएण से घण्णे सत्थव हे) त्यारणाह ते धन्य सार्थवाडे (चिलाय दोस खेड ) शिवात हासपुत्रने ( पयम भुज्जो २ णिवारेइ ) माणोनी हैं।डीओ! पगेरेने थोरी वा महल वारवार मनाई री परतु ( णो क्षेत्र ण चिलाए दासचैडे उवरमई) ते शिसात द्वार पोतानी पर भवर्तालु छोडीने सुषर्यो नहि (तरण से चिलाए दासचेडे तेखि बहूग दारगाण य
Page #903
--------------------------------------------------------------------------
________________
मगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकाचरितनिरूपणम् ६४२ प्रपामु-पानीयशालासु च 'जय खलएसु' तखलकेपु-यूतक्रीडनस्थानेषु च 'वेसाघरेसु ' वेश्यागृहेषु च पाणपरेसु' पानगृहेपु-मद्यपानगृहेषु च सुख सुखेन परिवइ ' परिवर्द्धतेवृद्धि प्राप्नोति ॥ सू०२॥
मूलम्-तएणं से चिलाए दासचेडे अणोहट्टिए अणिवारिए सच्छदमई सइरप्पयारी मज्जप्पसगीचोजप्पसंगी मसपसगी जुयप्पसंगी वेसापसंगी परदारप्पसगी जाए यावि
य पपासु य यखलएस्सु य वेसाघरेसु य पाणघरेसु य सुहसुहेण परिबइ) और यहाँ तक हुआ कि कभी २ वह उसे छोड़ भी देता रहा
और कमी २ त मेरे घर मे से निकल जा नही तो मै तुझे मारूँगा इस तरह के वचनों से उस को तिरस्कार भी कर देते थे। परन्तु जब इस की शिक्षाओं का या भय प्रदर्शक चास्यों का उस चिलात दासचेटक पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा तय अन्त में धन्य सार्थवाह ने हताश होकर उसे अनेक विध यष्टि मुष्टि आदिकी ताडनाओं से ताडित कर अपने घर से बाहिर निकाल दिया। इस तरह जय धन्य सार्थवाह ने इसे अपने घर से बाहिर निकाल दिया-तय यह राजगृह नगरमें शृगाटक आदि मार्गों में अवारा (स्वच्छन्दगामी) फिरने लगा और देवकुलों में सभास्थानों में, पानीय शालाओं में प्याऊ घरो में, जुआ खेलने के स्थानों में वेश्याओं के घरोंमें, और शराब पीने की जगहों में धूम फिर कर जिस किसी भी तरह से अपना पालन पोषण करने लगा स२॥
અને છેવટે આ વાત ત્યા સુધી પહોચી કે કોઈ કોઈ વખતે તે તેને બહાર પણ કાઢી મૂકતો હતું અને કોઈ કાઈ વખતે તેને આ જાતના વચનથી ઠપકો પણ આપતે રહેતો હતો કે તું મારા ઘરમાથી નીકળી જા નહિ. તર તને હુ મારી નાખીશ પર તુ જ્યારે આ જાતની શિક્ષાઓની કે ભય પ્રદર્શનની તે દાસ ચેટક ઉપર કશી અસર થઈ નહિ ત્યારે છેવટે ધન્યસાથે વાહે હતાશ થઈને તેને લાકડી, મુક્કીઓ વગેરેથી તાડિત કરીને પિતાના ઘરથી બહાર કાઢી મૂકે આ પ્રમાણે જ્યારે ધન્ય સાર્થવાહે તેને પિતાના ઘેરથી બહાર કાઢી મૂકે ત્યારે તે રાજગૃહ નગરના નાટક વગેરે રસ્તામાં રખડેલની જેમ ભટકવા લાગ્યું અને દેવકુળામા, સભાસ્થાનેમા, પરમા, જુગારના અડ્ડાઓમા, વેશ્યાઓના ઘરોમાં અને શરાબખાનાઓમાં ભટકીને જેમ તેમ કરીને પિતાનુ પાલન-પોષણ કરવા લાગે છે સૂત્ર ૨
Page #904
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
MAN तिरस्करोति, निन्छोटेइ' निलोटपति पनति, तिन्जेड' नयनि 'निस्सर मग गृहात् नोवेचा तारयिष्यामि' इत्यादि कानेन ममेयनि उचा क्याहि तालणाहिं' उच्चारचाभिहिमपाधोपरिधामिम्ताउनाभिः 'लाले' ताडयति सानो गिहाभो 'स्वस्मारगृहात णिमा निसिपति-नि सार यति । ततः खल स चिगती दामटः तेन साइन स्वस्माद् गृहात "णिन्दे ' निक्षिप्त नि. सारितः गन राजगृहे नगरे सिंघाडग जाव गहेसु श्रृङ्गाटक यारन्महापरपयेपु चतुप्पयादिपु सर्वन स्पलेपु, देवालेषु च सभासु च चिलात दासचेटक की पूर्वोक्त अपराधों को जय २ वे सुना करते तब वे गुस्से में भर २ कर जहां धन्यसार्थवाह होता वहा चले जाते रहे । और वहा जाबर पढे खेद के साथ रोते हुए अपने २ दुःखों को प्रकट करते रहे इस तरह पार २ उन दारक आदि के माता पिताओं के मुख से इस दासचेटक के दुप्कृत्य को सुनकर वह धन्य सार्थवाह क्रोध में आकर उस दामचेटक चिलात को..अनेक विधकोप जनक ऊँचे नीचे शब्दो से घिरकार ने लगते थे उसका नाम गोत्र आदि की निंदा करने लग जाते थे। नेत्र, मुग्व, आदि को टेडा करके उसका तिरस्कार भी करते थे। (णिच्छोडेड, तज्जेह, उच्चावयाहिं तालणाहिं तालेइ, साओ गिहाओ णिच्छुभह, तण से चिलाप दासचेडे साओ गिहाओ निच्छूढ़े समाणे रायगिहे णयरे सिंघाडग जाय पहेसु देवकुले जाव सभालु
આ પ્રમાણે પિતપોતાના બાળકોને મુખેથી વાર વાર ચિલાત દાસચેટકની ફરિયાદ જ્યારે જ્યારે તેઓ સાભળતા ત્યારે ત્યારે તેઓ ગુસ્સે થઈને જ્યાં ધ સાર્થવાહ હતા ત્યાં જતા હતા અને ત્યા જઈને તેઓ બહુજ-. દુખની સાથે ઉડતા રડેના પિતાપિતાને દુને પ્રકટ કરતા રહેતા હતા આ પ્રમાણે વારંવાર તે દારક વગેરેના માતાપિતાને સુખથી તે દોસટની ખરાબ વર્તણુક વિષેની વિગત સાભળીને તે ધન્યસાર્થવાહ કોધમા ભરાઈને તે દાસ ચેટક શિલાતને ઘણુ ક્રોધ ઉત્પન્ન કરે તેવા ખરાબ વચનેથી ધિક્કારવા લાગતો હતો તેમજ તેના નામ નેત્ર વગેરેની નિંદા કરવા લાગતા હતા, આખે મુખ વગેરે બગાડીને તેને તિરસ્કાર પણ કરતા રહેતા હતા ,
- (णिन्छोडेह, तज्जेइ, उच्चावयाहि तालणाहि तालेइ, साओ गिहाआ णिच्छुभइ, तएण से चिलाए दासचेडे साओ गिहाओ निच्छुढे समाणे रायगिई णयरे सिघाउग जव पहेसु देवकुलेसु जाव सभासु य पवासु य जून सलएमु य धेसा घरेसु य पाणधरेसु य सुह सुहेण परिवटइ) '
Page #905
--------------------------------------------------------------------------
________________
tantraर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकाचरितनिरूपणम्
૬૪૨
,
प्रपासु = पानीयशालासु च ' जूय सल्एसु ' द्यूतखलकेपु द्यूतक्रीडनस्थानेषु च ' वैसाघरेसु ' वेश्यागृहेषु च पाणधरेसु ' पानगृहेषु = मद्यपानगृहेषु च सुख सुखेन परिवडूड ' परिवर्द्धते = वृद्धिं प्राप्नोति ॥ ०२ ॥
मूलम् - तणं से चिलाए दासचेडे अणोहट्टिए अणिवा - रिए सच्छदमई सइरप्पयारी मज्जप्पसगी चोज्जप्पसंगी मसपसगी जुयप्पसंगी वेसापसगी परदारप्पसंगी जाए यावि
य पवासु य जूयग्वलएसु य वेसाघरेसु य पाणपरेसु य सुहसुहेण परिबड्डइ) और यहाँ तक हुआ कि कभी २ वह उसे छोड भी देता रहा और कभी २ तू मेरे घर में से निकल जा नही तो मै तुझे मारूंगा इस तरह के वचनों से उस को निरस्कार भी कर देते थे । परन्तु जब इस की शिक्षाओं का या भय प्रदर्शक वाक्यों का उस चिलात दासचेटक पर कुछ भी प्रभाव नही पड़ा तब अन्त में धन्य सार्थवाह ने हताश होकर उसे अनेक विध यष्टि मुष्टि आदिकी ताडनाओं से ताडित कर अपने घर से बाहिर निकाल दिया । इस तरह जब धन्य सार्थवाह ने इसे अपने घर से बाहिर निकाल दिया तब यह राजगृह नगर में श्रृंगाटक आदि मार्गो में अचारा (स्वच्छन्दगामी) फिरने लगा और देवकुलों में सभास्थानों में, पानीय शालाओ में प्याऊ घरो में, जुआ खेलने के स्थानों में वेश्याओं के घरोंमें, और शराब पीने की जगहों में घूम फिर कर जिस किसी भी तरह से अपना पालन पोषण करने लगा || २ ||
અને છેવટે આ વાત ત્યા સુધી પહેાચી કાઈ કાઈ વખતે તે તેને બહાર પણ કાઢી મૂકતા હતા અને કેઈ કાઈ વખતે તેને આ ાતના વચનેાથી ઠપકા પણુ આપતા રહેતા હતા કે તું મારા ઘરમાથી નીકળી જા નહિ તર તને હુ મારી નાખીશ પરંતુ જ્યારે આ જાતની શિક્ષાઓની કે ભય પ્રદર્શનની તે દાસ ચેટક ઉપર કશી અસર થઈ નહિ ત્યારે છેવટે ધન્યસાથ વાહે હતાશ થઈને તેને લાકડી, સુ'એ વગેરેથી તાડિત કરીને પોતાના ઘેરથી બહાર કાઢી મૂકયા આ પ્રમાણે જ્યારે ધન્ય સાાહે તેને પેાતાના ઘેરથી બહાર કાઢી મૂકયા. ત્યારે તે રાજગૃહ નગરના શ્રૃંગાટક વગેરે રસ્તાઓમા રખડેલની જેમ લટકવા લાગ્યે અને દેવકુળેમા, સભાસ્થાનેમા, પરખેમા, જુગારના અડ્ડાએ મા, વેશ્યાઓના ઘરોમા અને શરાખાનાઓમા ભટકીને જેમ તેમ કરીને પેાતાનુ પાલન-પાષણ કરવા લાગ્યે ॥ સૂત્ર ૨ ॥
Page #906
--------------------------------------------------------------------------
________________
MAHAR होत्था। तएणं रायगिहस्त नयरस्स अदूरसामंते दाहिण. पुरस्थिमे दिसीभाए सोहगुहा नाम चारपट्टी होत्था, विसम. गिरिकडगकोडवसंनिविष्टा, वसी कलंकपागारपरिक्खित्ता छिपणसेलविसमप्पवायफलिहोवगूढा एगदुवारा अणेगखंडी विदियजणणिग्गमपसा अभितरपाणिया सुदुल्ल भजलपेरंता सुबहुस्स वि कुवियवलस्स आयगस्स दुप्पहंसा यावि होत्था। तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए विजए णाम चोरसेणावई परिवसइ अहम्मिए जाव अधम्मकेऊ समुष्टिए वहुणगरणिग्गयजसे सूरे दृढप्पहारी साहसिए सद्दवेही । से णं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंधण्ह चोरसयाणं आहेव. च्च जाव विहरइ । तएणं से विजए तककरे चोरसैणावई वहणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य सधिच्छेयगाण यखत्तखणगाण य रायावगारीण य अणधारगाण य वालघायगाण य विसभघायगाण य जयकाराण य खडरक्खाण य अन्नेसि च बहणं छिन्नभिन्नवहिराययाण कुडगे यावि होत्था । तएणं से विजए तकरे चोरसेणावई रायगिहस्स दाहिणपुरस्थिमे जणवय बहूहि गामघाएहि य नगरघाएहि य गोग्गहणेहि य बदिग्गहणेहि 'य खत्तखणणेहि य पथकुदृणेहि य उवालेमाणे २ विद्धंसे माणे २ णित्थाणं णिद्धणं करमाणे विहरइ । तएणं से 'पिलाए दासचेडे रायगिहे बहुहि अस्थाभि सकीहि चोजामि
Page #907
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५१
मागी टी० अ० १८ मुंसमादारिका चरितनिरूपणम् संकीहि दाराभिसकीहि य धणिएहि य जूइकरेहि य परभवमाणेर रायगिहाओ नगराओ णिग्गच्छइ, णिगच्छित्ता, जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्छड़ उवागच्छित्ता विजय चोरसेणावs उवसंपजित्ताणं विहरइ ॥ सू०३ ॥
"
टीका--' तएग से इत्यादि । तत' खलु स चिलातो दासचेट: ' अणोहट्टिए ' अनपघट्टितः, यो हि दुष्कृतौ वर्तमान कमपि हस्तौ धृत्वा निवारयति, सोsपट्टकः, निवार्यमाणस्तु अपघट्टित', अय हि निवारयितुरभावात् अनपघट्टितः= निरङ्कुश ' अणिवारिए' अनिवारित', हितोपदेशकस्याभावात् अनिवारितः,
'तरण से चिलाए दासचेडे' इत्यादि ।
टीकार्य - (ण) इसके बाद (से चिलाए दासचेडे) वह चिलात दासचे ee (अणोहट्टिए अणिचारिए सच्छदमई सहर प्यारी मज्जप्पसंगी चोज्जपसगी मसप्पसगी, जूयप्पसगी, वेसापसगी, परदारप्पसंगी जाए यावि होत्था ) अनपघटित - निरङ्कुश बन गया जो दुष्कर्म में प्रचर्तमान किसी को भी हाथ पकड़कर उससे निवारित कर देता है उसका नाम अपनहक और जो दूर किया जाता है वह अपघट्टित कहलाता है । निवारण कर नेवाले का अभाव होने से यह चिलात दासचेटक अनपघट्टित इस कारण से बन गया । हितोपदेशक कोई उसका रहा नही अत यह कुत्सित काम करने से पीछे नही हटता- इसलिये यह अनिवारित होकर जो मन में आता उसे कर डालता - अत' उद्दण्ड बन गया । स्वच्छन्द
तपण से चिलाए दासचेडे इत्यादि -
अर्थ - (तपण ) त्यापछी (से चिलाए दासचेडे ) ते विसात हाथ थेट ( अणोहट्टिए अणिनारिए सच्छ दमई, सइरप्पयारी मज्नासगी, चोज्जदासगी मस पसगी, जयप्पसगी, वेसासगी, परदारप्पसगी, जाए यावि होत्या )
અનપતૢિત-સ્વ૰દ ખની ગયા, દુષ્કર્મોંમા પડેલા ગમે તેને જે હાથ પકડીને તેમાથી તેને દૂર કરે છે તેનુ નામ અપઘટ્ટ અને જે દૂર કરવામા આવે છે તે અપઘટ્ટિત કહેવાય છે ચિલાત દાસચેટકને ખેા કામેાથી દૂર લઈ જનાર-તેને નિવારણ કરનાર કંઈ હતું નહિ એથી તે અનષ્કૃિત થઈ ગયા હતા તેને કેઈ ઉતાપદેશક હુના નહિ તેથી તે કુત્સિત કામ કર વામા પણ પીછેહઠ કરતા ન હતા, ખરાબ કામેાથી તેને રોકનાર નહિ હાવાને કારણ્ તે મનમા ફાવે તેમ કરતા હતેા એથી તે ઉપ્ડ બની ગયેા હતેા તે
Page #908
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
"सच्छदमई 'सन्दमतिः साभिप्राय-उइण्डइत्यर्थः, अतएर 'सरप्पयारी' स्रमचारी = सान्दविहारी 'मनप्पसंगी' मघममङ्गी मपपायी, 'चोज्जप्पसगी' चौर्यमासही नोर्यकर्मणि परायण , ' ममप्पसंगी ' मांसमसकीमासभक्षणशीला, 'जूयप्पसगी' घृतमसही पतीरामसक्तः, 'वेसापसगी' वेश्यालम्पटः, एक 'परदारपसंगी' परदारप्रसङ्गी-परदाररतो जातश्चापि आसीत् । ततः खलु राजगृहस्य नगरस्य अदरसामन्ते दक्षिणपौरम्त्ये दिग्भागे अग्निकोणे सिंहगुहानाम चोरपल्ली आसीन् , या हि पल्ली 'सिमगिरिकउगकोडयसनिविद्वा' विपमगिरिकट ककोडम्बसनिविष्टा-पिमो निम्नोभतो यो गिरिस्टका पर्वत मध्यमागः, तम्य यः फोडम्यः प्रान्तमाग , तत्र सनिविष्टा-स्थिता आसीत् । पुनः 'वसीफल कपागारपरिचिखला' वशीक्लकमाकारपरिक्षिप्ता-वशीकलङ्का वंशजालमयी तिः , सैव प्राकारः, तेन परिसिप्ता-परिवेप्टिता-शनिर्मितजार मयमाकारः समन्तात् -परिवेष्टिता, 'ठिणसेलविसमप्पवायफलिहोवगूढा'छिन्नशैलविपममपातपरिखोपगूढा-उिन्नोऽषयमा तरापेक्षया विभक्तो य. शैलापर्वतः, तत्सम्बन्धिनो ये चिपमाः प्रपाता गर्ताः, त एव परिखा. तया उपगूढार आश्लिटा परिवप्टिता विभक्तशैलाश्यानिर्गतविपमप्रपातरूपपरिसापरिवेष्टितेत्यर्थः 'एगदुवारा ' एसद्वारा एक द्वार परेशनिर्गमरूप यस्या सा-एकप्रवेशनिर्गमा) 'अणेगखडी' अनेकग्वण्डा अनेकानि खण्डानि-विभागा रक्षातोर्यस्यां सा अनेकखण्डा, यत्र-स्वरक्षार्थ अनेकानि स्थानानि सन्ति, 'विदियजणणिग्गमपवेसा' विहारी हो गया-मद्यप्रसगी हो गया-मदिरा पीने लग गया। मास खाने लग गया, चोरी करने लगा, जुआ खेलने लगा, वेश्यासेवन करने लगा, और परदार सेवन करने मे भी लपट हो गया । (तएण रायगिहस्म नयरस्स अदूरसामते दाहिणपुरस्थिमे दिसीभाए सीहगुहा नाम चोरपल्ली होत्या-विसमगिरिकडगकोडपसन्निविट्ठा वसीकलक पागारपरिक्खित्ता छिपणसेलविसमापवायफालिहोवगूढा रग्गदुवारा, अणेगखडी, विदिचजणणिग्गमपचेसा अभितरपाणिया सुदुल्लभजल સોચ્છદ વિહારી થઈ ગયે હત, દારૂ પિનાર થઈ ગયો હતે તે માસ ખાવાલા, ચોરી કરવા લાગ્યો, જુગાર ૨મવા લાગ્યા, વેશ્યા–સેવન કરવા લાગે અને પરસ્ત્રી સેવામાં પણ લપટ થઈ ગયું હતું __ (तएण रायगिम्म नयररस अदूरसामते दाहिणपुरथिमे दिसीमाए सीहगुहा नाम घोरपल्ली होई रिकडगकोडवसन्निविदा वसीकलकपगारपरिक्सित्ता, छिण्णा
एगदुवारा, अणेगसंडी, विदियजणणिग्गमपवेसा
Page #909
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनेरधर्मामृतपिणी टो० अ० १८ सुसुमागरिकाचरितनिरूपणम् १५३ विदितनननिर्गप्रवेशा-विदितजनानामेव विश्वासवतामेव निर्गमप्रवेशौ यस्या सा= विश्वस्तजननिर्गममवेशवती ' अभितरपाणिया' अभ्यन्तरपानीयामध्यस्थित
पेरता, सुरहस्स विकूविययलस्स आगयस्स दुप्पहसा, यावि होत्या तत्थ सीहगुहाए चोरपरतीए विजए णाम चोरसेणावई परिवसई, अम्मिय जाव अहम्मके कसमुटिए बहुगगरणिग्गयजसे, सूरे दढप्पहारी सासिर सहवेही-सेण तत्य सीगुहाए चोरपल्ली पचण्ड चोर सयाण आहे वच्च जाय विहरइ) उसी राजगृह नगर के न अधिक दूर पर और न अधिक पास में दक्षिण पौरम्त्य दिग्विभाग में-अग्निकोण में-सिंहगुहा नाम की एक चोर पल्ली धी-यह चोरपरली विषम गिरिकटक के प्रान्त भाग में-निम्नोन्नतपर्वत के मध्यभाग के अन्त भाग में स्थित थी। इसके चारों ओर वासों की घाड़ थी-यह याड ही इसका प्राकार (किला ) था-उससे यह घिरी हुई थी। अवयवान्तरों की अपेक्षा से विभक्त जो पर्वत तत्मयन्धी जो विषम प्रपात खडा उन विपम ग्वनेरूप परिखा से यह परिवेष्टित थी। निकलने का और आने का इस में एक ही द्वार था। इसमें रक्षा के निमित्त चोरोने अनेक स्थान बना रखे थे। परिचित-विश्वासवाले व्यक्ति ही इसमें आ जा सकते थे।
अभितरपाणिया, सुदल्लभनलपेर ता, सुरहुस्स वि फूवियल्स्स आगयस्स दुप्पहमा, यानि होत्था तत्य सं' हगुहाए चोरपल्लीए विजए णाम चोरसेणावई परिवसई, अह म्मिय जाब अहम्मके उ समुदिए बहुणगरणिग्गयजसे, सूरे दढप्पहारी, साहसिए सहवेही सेण तत्थ सीहगुहाए चोरपहीए पचण्ड चोरसयाण अहिवच जाव विहरह)
તે રાગૃહ નગરથી ઘણે દૂર પણ નહિ અને ઘણી નજીક પણ નહિ એવી, દક્ષિણ પિરસ્ય દિગ્ગવિભાગમાં અગ્નિકેશુભા-સિંહગુહા નામે એક ચારપતી હતી તે ચારપતી ઊચી નીચી ગિરિમાળાઓના પ્રાત ભાગમા નિમ્નન્નત પર્વતના મધ્યભાગના અતભાગમાં આવેલી હતી તેની ચોમેર વાનની વાડ હતી તે વાડ જ તેને કેટ (કિલે) તે તેનાથી તે ઘેરા એલી હતી અવયવાતરની અપેક્ષાએ વિભક્ત જે પર્વત અને તમ્સ બધી જે વિષમ પ્રપાત–-તે વિષમ ખાડારૂપી પરિખાથી તે પરિવેષ્ટિત હતી આવવા અને જવા માટે તેમાં એક જ દરવાજે હતો એરોએ પિતાની રક્ષા માટે ઘણું સ્થાન બનાવેલા હતા પરિચિત વિશ્વાસુ માણસો જ તેમાં આવા કરી શક્તા હતા પાણી માટે તેની વચ્ચે એક જળાશય હતું, તેની બહાર
Page #910
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताधर्मपा जलाशया 'सुल्लगमलपेरंवा' मुमनपर्यन्ता-गुदुर्लभ जलं पर्यन्ते मान्न मागे-पहिर्मागे पस्या सा-जलरहित बहिर्मागा 'गुबहुम्स वि' मुबहोरपि कूवियलस्स 'पिकालस्य चोरगयेपकसैन्यस्य ' आगयरस' आगतस्य 'दुप्प इंसा' दुष्प चपा दुर्पणीया चापि आसीत् । तत्र खलु मिहगुहाया चोरपल्या विजयो नाम चोरसनापति -चोरनायकः परिचमति यो हि 'अहम्मिए जाव' अधार्मिको यात्म पण चरति भयार्मिकः अधर्माचरणशीला-अत्र यावत्पदेनइतभारभ्य 'घायाए हाए अच्छायणा' इत्यन्तः पाठो ग्रायः, तथाहि-' अधमिटे' अधर्मिष्ठा मर्मथा धर्मरहितः, ' अधम्मरखाई ' अधर्मारूपायी-अधर्मक थक , ' अधम्माणुगे 'अधर्मानुग अधर्मानुगामी ' अपम्मपनोई ' अधर्ममलोकीअधर्मदर्शी ' अधम्मपलग्नणे' अधर्ममरतनामपर्मानुरक्त', 'अम्मसीलसमु दायारे' अरमशीलपमुदाचार =अधर्म एव शील म्बमात्र समुदावारश्च यस्य स', पानी के लिये इसमें बीच में एक जलाशय धा-इसके बाहिरी भाग में जल नही था। अनेक भी चोर गवेषक सेनाजन यहा आजावे तो भी वे इस पल्ली का नाश नहीं कर सकते थे। इस सिंरगुहा नामकी चोर पल्ली में विजय नाम का एक चोर सेनापति रहता था। यह अधामि क यावत् अधर्म केतुग्रह जैसा उदित हुआ था। यहां यावत् शब्द से "घायाए वहाए अच्छायणाए" यहां तक का पाठ ग्रहण किया गया है-दस का खुलाशा भाव इस प्रकार है-अधार्मिक शब्द का अर्थ होता है अधर्माचरणशील-यह विजय नामका चोर अधर्माचरणशील था। अध मिष्ठ था-सर्वथा धर्मसे रहित था, अधर्माख्यायी या-अधर्मका कथन कर नेवाला था, अधर्मानुग था-अधर्म का अनुगामी था, अधर्मप्रलोकी थाअधर्म का ही देखने वाला था-अधर्मप्ररञ्जन था अधर्म में अनुरक्त था પાણી હતું નહિ ઘણા ચોરની શોધ કરતા સૈનિકે ત્યા આવે છાએ તે પલ્લીને નાશ કરી શકતા ન હતા તે સિંહગુહા નામની એરપલીમાં વિજય નામે એક ચેર સેનાપતિ રહેતો હતો તે અધાર્મિક યાત્રત અધર્મ કેતુગ્રહની भय ५। छनो अली यावत् शपथी "पायाए वहाए अच्छायणाए" અહીં સુધી પાઠ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે -અધાર્મિક શબ્દને અધર્માચરણશીલ હોય છે તે વિજય નામે ચાર અધર્માચરણશીવ હતા, અમિષ્ટ હતે, સાવ ધર્મરહિત હો, અધર્માખ્યાયી હતે, અધર્મની વાત કહેનાર હતું, અધર્માનુરાગી હતું, અધર્મને અનુગામી એટલે કે અધર્મને અનુસરનાર હતું, અધર્મપ્રલે કી હો, અધમને જ જેનાર હત, અષમપ્રર જન હતું, અધમમાં આસક્ત હતું, અધર્મશીલ
Page #911
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
मनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकाचरितनिरूपणम् ६५५ अधर्मशीलोऽधर्माचरणश्वेत्यर्थः, 'अधम्मेण चे वित्ति कप्पे माणे विहरइ ' अधर्मणैव वृत्ति कल्पयन् विहरति अपर्मेणैव सावधानुष्ठानेनैव, वृत्ति क्ल्पयन्-जीविकामुपायन् ‘विहरइ ' विहरति आस्ते । पुनः हछिंदादिवियत्तए 'जहिछिन्धि भिन्धि विकतका' हण' जहि-मारय यष्टयादिना 'डिंद ' छिन्धि छेदयखड्गादिना, 'भिंद ' भिन्धि-भेदय भल्लादिना, इतिशब्दै सानुयायिन प्रेरयन् पाणिनो विकृन्तति यः सः, जहि छिन्धिभिन्धि विकर्तक, इति, ' लोहियपाणी' लोहितपाणिः लोहितौ पाणी यस्य सः, रक्तरजितकरयुगलः 'चडे' चण्ड उत्कटरोपः ‘रुद्दे ' गैदा भयानकः 'छुल्ले ' क्षुद्र क्षुद्र कर्मचारी ' उक्ाचगवचणमायानियडिकवडकूडसाइसपयोगबहुले' उत्कञ्चनवञ्चनमायानिकृतिकपटकूटमाइसपयोग
अधर्मशील समुदाचारवाला या अर्थात् इसका स्वभाव और आचरण दोनों अधर्ममय ये-अधर्म ही इस का स्वभाव या और अधर्म ही इस का आचरण या । अतः अपनी जीविका का निर्वाह सावद्य अनुष्ठानों (अधर्म) द्वारा ही किया करता श । यष्टयादि द्वारा इसे मारो, खगादि द्वारा इसे छेदो भल्लादि द्वारा इसे भेदो इस प्रकार के शब्दो से यह अपने अनुयायियों को सदा प्रेरित करता हुआ स्वय जीवों का छेदन भेद न किया करता था। इसके दोनों हाथ रक्त से रजित रहते थे। इस का क्रोध परत प्रचड था देग्वने में यह यडा भयानक दिग्वता था। क्षुद्र कर्मकारी था।" उक्कचणवंचणमायानियडिककूवडडसाइसपओग यठुले" उत्वचन, वचन, माया, निकृति, कपट, कूट, साइ, इनका व्यव
હતે-એટલે કે તેને સ્વભાવ અને આચરણ બને અધર્મમય હતા અધર્મ જ તેને સ્વભાવ ને અને અધર્મ જ તેનું આચરણ હતુ એથી તે પિતાનું જીવન સાવવ અનુષ્ઠાને વડે એટલે કે અધર્મનું આચરણ કરીને પુરૂ કરતો હતો લાકડી વગેરથી એને મારે, તરવાર વગેરેથી એને કાપી નાખો, ભાલાઓ વગેરેથી એને ભેદી નાખે આ જાતના શબ્દોથી તે પોતાના અનુય યીઓને હમેશા હકમ કરતે રહેતે હવે તે પોતે પણ જીવનું છેદન-ભેદન કરતે રહેતો હતો તેના બંને હાથે લેહીથી ખરડાએલા રહેતા હતા તેને ક્રોધ અત્યત પ્રચડ હવે દેખાવમાં તે ખૂબ જ ભયાનક લાગતું હતું, તે મુદ્ર કર્મ કરનાર હતું
( उक्क चणवचणमायानियडिकवडकूहसाइसपओगबहुले ) G४यन, १यन, માયા, નિતિ, કપટ, કૂટ, સાઈ આ બધાને વહેવાર તેના જીવનમાં
Page #912
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
मानापा जलाशया 'सुरलागलपेरता' सुमनपर्यन्ता-गुदुर्लभ जल पर्यन्ते-मान भागे-बहिर्मागे यस्पा साजलरहित्याहिमांगा 'मुबहुम्म वि' मुरोपि कूवियरलस्स 'कूपिकवलस्य-चोरगवेपको यस्य 'आगयस्स' आगतस्य 'दुपहंसा' दुपचमा दुर्धर्पणीया चापि आसीत् । तत्र खलु सिंहगुहाया चोरपल्या विजपो नाम चोरसनापति -चोरनायका परिवसति यो डि 'अहम्मिए जार' अधार्मिको यारत् अधर्मेण चरति अधार्मिकः अधर्माचरणशील:-अत्र यावत्पदेनइतभारभ्य 'घायाए उहाए अच्छायणाए' इत्यन्तः पाठो ग्रायः, तथाहि- अध मिटे' अधर्मिष्ठ'मधा धर्मरहितः, अधम्मरसाई' अधर्माम्यायी-अधर्मक यक , ' अधम्माणुगे' अधर्मानुग अधर्मानुगामी 'अपम्मपनोई । अधर्मप्रलोकीअधर्मदर्शी ' अधम्मपलग्नणे' अधर्ममरजना अधर्मानुरक्तः, 'अपम्मसीलसमु दायारे' अधर्मशीलपमुदाचार अधर्म एर शील स्वभाव समुदाचारश्च यस्य स', पानी के लिये इसमें वीच में एक जलाशय धा-इसके बाहिरी भाग में जल नहीं था। अनेक भी चोर गवेपक सेनाजन यहां आजावे तो भी वे इस पल्ली का नाश नहीं कर सकते थे। इस सिंरगुहा नामकी चोर पल्ली में विजय नाम का एक चोर सेनापति रहता था। यह अधामि क यावत् अधर्म केतुग्रह जैसा उदित हुआ था। यहा यावत् शब्द से "घायाए वहाए अच्छायणाए" यहां तक का पाठ ग्रहण किया गया है-इस का खुलाशा भाव इस प्रकार है-अधार्मिक शब्द का अर्थ होता है अधर्माचरणशील-यह विजय नामका चोर अधर्माचरणशील था। अब मिष्ठ धा-सर्वथा धर्मसे रहित था, अधख्यिाधी था-अधर्मका कथन कर नेवाला था, अधर्मानुग था-अधर्म का अनगामी था, अधर्मप्रलोकी थाअधर्म का ही देखने वाला था-अधर्मप्ररञ्जन था अधर्म में अनुरक्त था પાણી હતું નહિ ઘણું ચેરોની શોધ કરતા સૈનિકે ત્યા આવે છાએ તે પલીને નાશ કરી શકતા ન હતા તે સિંહગા નામની ચેરપ વીમા વિજય નામે એક ચોર સેનાપતિ રહેતું હતું તે અધાર્મિક યાવત્ અધર્મ કેતુ ગ્રહની भ. G०य
प र सही यावत शपथी “धायाए वहाए अछायणाए" અહીં સુધી પાઠ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યો છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે –અધાર્મિક શબ્દને અધર્માચરણશીલ હોય છે તે વિજય નામે ચાર અધર્માચરણશીન હતું, અધર્મિષ્ટ હરે, સાવ ધર્મરહિત હતું, અધમખ્યાયી હતે, અધર્મની વાત કહેનાર હોતે, અધર્માનુરાગી હતો, અધર્મને અનુગામી એટલે કે અધર્મને અનુસરનાર હતું, અધમપ્રકી હ, અધર્મને જ જોનાર હત, અધર્મપ્રર જન હતું, અધર્મમાં આસક્ત હો, અધર્મશીલ સમુદાચારી
Page #913
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम् ६५७ विशेपप्रकारेण नाशाय, उत्सादनाय-द्विपदादिमकलजीनां सर्वथा नागाय च, 'जधम्मकेऊ समुट्ठिए ' अधर्मकेतु' समुत्थितः-अधर्म पापप्रधानो यः केतुःकेतुग्रहः, अधर्मकेतुः उत्पातरूपधूमकेतुमहाग्रहः तद्वत् समुत्थितः । वहुणगरणिग्गयजसे ' वहुनगरनिर्गतयशाः, पहुनगरेपु निर्गत जनमुखान्निःसृत यशः ख्याति यस्य सः, प्रसिद्ध इत्यर्थः, सूरः ‘दढप्पहारी' दृढप्रहारी दृढपहरण शीलः 'साहसिए' साहसिक अविमृश्यकारी 'सदवेही' शब्दवेधीशब्दश्रवणेन लक्ष्यवेधी च आसीत् । ' से ' सः = विजयश्चौर खलु तत्र सिंहगुहार्या चोरपल्ल्या पश्चानाम् चोरशतानाम् 'आहेतच्च जाव' आधिपत्य यावत्स्वामित्व कुर्वन् विहरति । ततः खलु स विजयस्तस्करः चोरसेनापति बहना चोराणा च 'पारदारियाणय ' पारदारिकाणा-परस्त्रीगामिना च 'गठिभेय गाणय' ग्रन्थिभेदकानां' सधिच्छेयगाणय' सचिच्छेदसाना-भित्तिसधि छित्त्वा ये धनमपहरन्ति ते संधिच्छेदका उन्यन्ते, तेशाम् , 'खत्तखणगाण य' क्षात्रखनकाना-सधिरहितभित्ति खनकानाम् , ' रायाचगारीणय ' राजाऽपकारिणां= पशु, पक्षी, सरीसृप आदि प्राणियोंके घातके लिये,वध के लिये,तथा उनके सर्वथा विनाशके लिये, यह अधर्मकेतुग्रह जैसा उदित हुआ था । अनेक नगरों में यह कुख्यात होचुका था । बडा शुरवीर था। इसका प्रहार बहुत गहरा होता था। विना विचारे काम करना ही इसका स्वभाव था शब्द श्रवण कर यह अपने लक्ष्य के वेधने मे बडा निपुण था। वह विजय चौर सिंहगुफा नाम की उस चोरपल्ली मे पाचसौ चोरों का
आधिपत्य यावत् स्वामित्व करता हुआ रहता था। (तएण से विजय तस्करे चोरसेणावई बट्टण चोरोण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य सधिच्छेयगाण य खत्तखणगाण य, रायावगारीण य अणधारगाण य धाद्विपक्ष, यतु०५४, भृग, पशु, पक्षी, सरीमृ५ (सा५) पोरे प्राणीमाना ઘાત માટે, વધ માટે તેમજ તેમના સર્વનાશ માટે તે અધર્મ કેતુગ્રહની જેમજ ઉદય પામ્યું હતો ઘણું નગરોમાં તે કુખ્યાત થઈ ચુક્યો હતો તે ભારે શૂરવીર હતા, તેને પ્રહાર ખૂબ જ ભારે થતો હતો વગર વિચાર્યા કામ કરવામાં જ તેને સ્વભાવ હતે શબ્દ શ્રવણ કરીને તે પિતાના લક્ષ્યને વધી નાખવામાં ખૂબ જ નિપુણ હતું તે વિજય ચાર સિંહ ગુફા નામની તે ચાર પલીમાં પાચસે ચારેને સ્વામી-યાવત્ સ્વામિત્વ ભગવતે રહેતે હતે
(तएण से विजयतमरे चोरसेणावई बहण चोराण य पारदारियाण य गठिभेयगाण य सधिच्छेयगोण य सत्तखणगाणय, रायाचगारीण य ऊण
T
"
Page #914
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानापमेण पहुलः, तर-उत्पशनम् मुग्धमनशनस्य समीपागतपिनक्षणमयात् तल वञ्चनाकरणम् पचन-प्रतारणम् , गाया परवद्धिः , नितिः मायामाद नार्थ मायान्तरकरणम् , पपटम्येपादिविपर्ययकरणम् , रुटम् तुगतोलनका दीनामन्यथाकरणम् , ' साइ' देशी गमोऽयम् , विश्वासामार, एषां समयोगों व्यवहारः स पर याला प्रचुरो यस्प सा, 'निस्सीले ' निःशीशीलरहित', 'निधए ' निता अणुताति, 'निग्गुणे' निर्गुण =गुगततरहितः, निप
चक्खाणपोसहोवकासे' निष्प्रत्यारपान पीपधोपनामा - प्रत्यार यानपापोप वासरहितः यहण दुपयचउपयमियपसुविखमरीसिमाण धायाए वहाए उच्छाय णाए' रहना द्विपदचतुष्पदमृगपशुपतिसरीठपाणा घानाय, वाय-सामान्य हार इसके पास प्रचुर था। भोलेजनों के वचन करने में प्रवृस हुआ वचक जन जय पास में आये हुए जनको भय से नहीं ठगता है इस का नाम उत्कचन है। प्रतारण (ठगना) करना इसका नाम वचन । दूसरों को वजन करने की धुद्धि का नाम माया है। अपनी मायाचारी को छिपाने के लिये जो दसरी मायाचाररूप क्रिया करनी होती है इस का नाम निकी है। चेप आदि के परिवर्तन करने का नाम कपट है। तराजू एव तोलने आदि के यारों को कमती बढती रखना इसका नाम कृट है। "साइ" यह देशीय शन्द है। इसका अर्थ विश्वास का अभाव होता है। यह निःशील था-शीलरहित था-नित था-व्रत रहित था, निर्गुण था-गुण रहित था, "प्रत्याख्यान और पौषपोपवास से वर्जित था "वण दपयचउपयमियपसपक्खिसरीसिवाण घायाए वहाए उच्छायणाग अधम्मके समुहिए" अनेक द्विपद, चतुष्पद, "" પુષ્કળ પ્રમાણમાં હતો ભેળા માણસોના વચનમાં પ્રવૃત્ત થયે વાચક જયારે પાસે આવેલા માણસને બીકથી ગત નથી તેનું નામ ઉકચન છે કતારણ ! નામ વચન છે બીજા માણસને ઠગવાની બુદ્ધિનું નામ માયા છે પિતાના માયાચારીને છુપાવવા માટે જે બીજી માયાચાર રૂપ ક્રિયા કરવામાં આવે છે તેનુ નામ નિકૃતિ છે વેશ વગેરે બદલવુ તે કપટ કહેવાય છે ત્રાજવા તેમજ જોખવાના વજનેને હલકા અને ભારે કરવા તેનું નામ ફૂટ છે “ સાઈ” આ દેશીય શબ છે તેને અર્થે વિશ્વાસને અભાવ હોય છે તે નિ શીલ હતે-શીલ રહિત હતા, નિર્વત વત રહિત હસે નિર્ગુણ હત-ગુણ રહિત
तो प्रत्याभ्यान भने पोषापवासथी पति sो “बहूण दुपयच उप्पय मियपसपस्विमरीसिवाण पायांए वहाए - उच्ायणाए
Page #915
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम्
६५७
1
विशेषप्रकारेण नाशाय उत्सादनाय - द्विपदादिसकलजीवाना सर्वथा नाशाय च, 'अधम्म के समुट्टिए ' अधर्मकेतुः समुत्थितः अधर्म पापप्रधानो यः केतुः = केतुग्रहः, अधर्मकेतु उत्पातरूपम के तुमहाग्रहः तद्वत् समुत्थितः । बहुणगरणिग्गयज से ' बहुनगर निर्गतयशाः, बहुनगरेषु निर्गत जनमुखान्निःसृत यशः ख्याति यस्य सः, प्रसिद्ध इत्यर्थः शूरः ' दढप्पहारी' दृढमहारी दृढमहरण शीलः ' साहसिए ' साहसिक = अविमृश्यकारी ' सदवेही ' शब्दवेधी - शब्दश्रवन लक्ष्यवेधी च आसीत् । ' से ' सः = विजयचौर खलु तत्र सिंहगुहाय चोरपल्ल्या पञ्चानाम् चोरशतानाम् ' आहेवच्च जाव' आधिपत्य यावत् = स्वामित्व कुन विहरति । ततः खलु स विजयस्तस्कर चोरसेनापति बहूना चोराणा च पारदारियाणय' पारदारिकाणा = परस्त्रीगामिना च ' गठिय गाण' ग्रन्थिभेदकानां ' सधिच्छेयगाणय ' सन्चिच्छेद मना=मित्तिसधिं छित्त्वा ये धनमपहरन्ति ते सविच्छेदका उन्यन्ते, तेम्, 'खत्तखणगाण य' क्षात्रखनकाना=सधिरहितभित्ति खनकानाम्, 'रायावगारीणय ' राजाऽपकारिणां =
{
पशु, पक्षी, सरीसृप आदि प्राणियों के घात के लिये, वध के लिये, तथा उनके सर्वथा विनाशके लिये, यह अधर्मकेतुग्रह जैसा उदित हुआ था । अनेक नगरों में यह कुख्यात होचुका था । बडा शुरवीर था । इसका प्रहार बहुत गहरा होता था । विना विचारे काम करना ही इसका स्वभाव था शब्द श्रवण कर यह अपने लक्ष्य के वेधने में बडा निपुण था । वह विजय चौर सिंहगुफा नाम की उस चोरपल्ली में पाचसौ चोरों का आधिपत्य यावत् स्वामित्व करता हुआ रहता था । (तएण से विजय तक्करे चोरसेणावई चट्टण चोराण य पारदारियाण य गठिभेयगाण घ सधिच्छेयमाण य खत्तखणगाण य, रायावगारीण य अणधारगाण य
घया द्विपह, यतुष्यह, भृग, पशु, पक्षी, सरीसृप ( साथ ) वगेरे प्राणीशोना ઘાત માટે, વધ માટે તેમજ તેમના સર્વનાશ માટે તે અધમ કૃતુમહની જેમજ ઉદય પામ્યા હતા ઘણા નગરે મા તે કુખ્યાત થઈ ચુકયા હતા તે ભારે શૂરવીર હતા, તેને પ્રહાર ખૂબ જ ભારે થતા હતા વગર વિચાર્યું કામ કરવામા જ તેને સ્વભાવ હતા શબ્દ શ્રવણ કરીને તે પેાતાના લક્ષ્યને વીંધી નાખવામાં ખૂબ જ નિપુણ હતા તે વિજય ચાર મિંહ શુક્ા નામની તે ચાર પક્ષીમા પાચસે ચારાના સ્વામી-યાવત્ સ્વામિત્વ ભાગવતે રહેતેા હતેા (तरण से विजयतधारे चोरसेणावई बहु चोराण व पारदारियाण य गठिभेयगाण य सधिच्छेयगोण य सत्तराणगाणच, रायावगारीण य कण
Page #916
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५१
बहुलः, वन-उलथनम् सुग्धजननमस्य समीपागतविनणमयात् तत्वे वचनाकरणम् पञ्चन=मतारणम् गाया=पररधन पुडिः, निति. =मायापच्छाद नार्थ मायान्तरकरणम्, पटम्पादिविपर्ययकरणम् =तोलनका दीनामन्यथाकरणम् साह 'देशीयम् विश्वासामार,
1
+
समयोगो
1
"
1
व्यवहारः स एन नहुः प्रचुरो यस्य सः, ' निस्सीले ' निशीत्रः = शीलरक्षित, ' निरए ' नितः = अणुतरति ' निम्गुणे ' निर्गुण = गुगवतरहितः, 'निप चचवखाणपोहोचवा से निष्प्रत्याख्यान पथोपनास प्रत्याख्यानपोषधोप वासरहित: हूण दुश्यचउपयमगपमसिना धायाए नहाए उच्छाय पाए' ना द्विपदचतुष्प मृगपशुपक्षिसरीह पाणा घाताय वाय= सामान्य
f
प्रतापवा
1
ܕ
हार इसके पास प्रचुर था। भोलेजनों के वचन करने में प्रवृत्त हुआ वचक जन जब पास में आये हुए जनको भय से नहीं ठगता है इस का नाम उत्कचन है। प्रतारण ( ठगना) करना इसका नाम बंधन है। दूसरों को घनन करने की बुद्धि का नाम माया है । अपनी मायाचारी को छिपाने के लिये जो दूसरी मायाचाररूप क्रिया करनी होती है इस का नाम निकृति है । वेप आदि के परिवर्तन करने का नाम कपट है। तराजू एव तोलने आदि के वादों को कमती चढती रखना इसका नाम फ्रूट है । "साइ यह देशीय शन्द है । इसका अर्थ विश्वास का अभाव होता है । यह निःशील था-शीलरहित था-निर्ऋत था-व्रत रहित था, निर्गुण था-गुण रहिन था, " प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से वर्जित था 66 पण दुपचउप्पयमियपसुपरिखसरीसिवान घायाए बहाए उच्छायणा" अधम्मकेऊ समुट्ठिए " अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग,
પુષ્કળ પ્રમાણુમા હતા ભેાળા માણુસેના વચનમા પ્રવૃત્ત થયેÀા વચક જ્યારે પાસે આવેલા માણસને ખીકથી ઢંગતે નથી તેનું નામ ઉત્કચન છે પ્રતારણ ! પેાતાની નામ વચન છે બીજા માણસને ઠંગવાની બુદ્ધિનુ નામ માયા માયાચારીને છુપાવવા માટે જે બીજી માયાચાર રૂપ ક્રિયા કરવામા આવે છે તેનુ નામ નિકૃતિ છે- વેશ વગેરે ખલવુ તે કપટ કહેવાય છે. ત્રાજવા તેમજ જોખવાના વજ્રનાને હલકા અને ભારે કરવા તેનુ નામ ફૂટ છે " सार्धं " આ દેશીય શબ્દ છે તેને અથ વિશ્વાસને અભાવ હાય છે તે નિ શીલ હતા, શીલ રહિત હતા, નિશ્રૃત વ્રત રહિત હતા નિર્ગુણુ હતેા-ગુણુ રહિત હતા. પ્રત્યાખ્યાન અને પૌષધેાપવાસથી ર્જિત હતા बहू दुपयच उपय मियपसुपक्खिसरीसिवाण षायाए वाप उच्छायणाए
""
23
Page #917
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम्
६५७
विशेषमकारेण नाशाय, उत्सादनाय = द्विपदादिसकलजीवाना सर्वथा नाशाय च, ' जधम्मक समुट्ठिए ' अधर्मकेतुः समुत्थितः - अधर्म पापप्रधानो यः केतुः = केतुग्रहः, अधर्म केतु = उत्पातरूपधूमकेतुमहाग्रहः तद्वत् समुत्थितः । वहुणगरणिग्गयज से ' बहुनगरनिर्गतयशा बहुनगरेषु निर्गत जनमुखान्निःसृत यशः ख्याति यस्य सः, प्रसिद्ध इत्यर्थः शुरुः ' ढढप्पहारी' दृढमहारी दृढमहरण शील: ' साहसिए ' साहसिक = अविमृश्यकारी 'सहवेही ' शब्दवेधी शब्दद्भव
1
1
न लक्ष्यवेधी च आसीत् । ' से ' सः = विजयश्वोर खलु तत्र सिंहगुहाय चोरपल्ल्या पञ्चानाम् चोरशतानाम् ' आहेरच्च जाव' आधिपत्य यावत् = स्वामित्व कुन् विहरति । ततः खलु स विजयस्तस्कर चोरसेनापति बहूना चोराणा च ' पारदारियाणय' पारदारिकाणा = परस्त्रीगामिना च ' गठिय गाण' ग्रन्थिभेदकानां ' सधिच्छेयगाणय ' सन्विच्छेदना=मित्तिसधिं छित्वा धनमपहरन्ति ते सधच्छेदका उन्यन्ते, तेनाम् ' खत्तखणगाण य' क्षात्रखनकाना = सधिरहितभित्ति खनकानाम्, 'रायात्रगारीणय ' राजाऽपकारिणां = पशु, पक्षी, सरीसृप आदि प्राणियोंके घात के लिये, वध के लिये, तथा उनके सर्वथा विनाशके लिये, यह अधर्मकेतुग्रह जैसा उदित हुआ था। अनेक नगरों में यह कुख्यात होचुका था । पडा शुरवीर था । इसका प्रहार बहुत गहरा होता था । विना विचारे काम करना ही इसका स्वभाव था शब्द श्रवण कर यह अपने लक्ष्य के वेधने में बडा निपुण था । वह विजय चौर सिंहगुफा नाम की उस चोरपल्ली में पाचसौ चोरों का आधिपत्य यावत् स्वामित्व करता हुआ रहता था । (तएण से विजय तक्करे चोरसेणावई पण चोराण य पारदारियाण य गठिभेयगाण य सपिच्छे गाण यखत्तखणगाण य, रायावगारीण य अणधारगाण य
धाद्वियह, अतुष्यद्द, भृग, पशु, पक्षी, सरीसृप ( भाप ) वगेरे आयोना ઘાત માટે, વધ માટે તેમજ તેમના સર્વનાશ માટે તે અધમ તુમહુની જેમજ ઉદય પામ્યા હતા ઘણા નગરામા તે કુખ્યાત થઈ ચુકયા હતેા તે ભારે ગૂથ્વીર હતા, તેના પ્રહાર ખૂબ જ ભારે થતા હતેા વગર વિચાર્યું કામ કરવામાં જ તેને સ્વભાવ હતા શબ્દ શ્રવણુ કરીને તે પેાતાના લક્ષ્યને વીંધી નાખવામા ખૂબ જ નિપુણ હતા તે વિજય ચાર સિંહુ શા નામની તે ચાર પક્ષીમા પાચસે ચારાના સ્વામી-યાવત્ સ્વામિત્વ ભાગવતા રહેતા હતા
(तरण से विजयतबारे घोरसेणावई घण घोराण य पारदारियाण य गठिभेयगाण य सधिच्छेयगोण य सत्तणगाणय, रायावगारीण य कण
FT 3
Page #918
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाताचा पहुलः, तन-उत्पश्चनम् मुग्धननाशनमस्य समीपागरिवक्षणमपान तम्तये वञ्चनाकरणम् यशान-मतारणम् , गाया परनयुदित, निति.मायापच्छाद नार्थ मायान्तरकरणम् , पपटम्पंपादिविपर्ययकरणम् , टम्ग तोलनका दीनामन्ययाकरणम् , ' साइ' देशी गदोध्यम् , सिधासामार., एषा सप्रयोगों व्यवहारः स एप या मगे यस्य स', 'निस्सीले' निशी शीलरहित', 'नियए' निता अणुक्तरति , 'निग्गुणे' निर्गुण गुगततरहितः, "निप च्चक्खाणपोसदोकासे' निष्प्रत्याख्यान पापभोपाम - प्रत्यार यानपोषधोप वासरहितः ' महण दुपयचउपयमियपमुमरिखमरीसिपाण धायाए पदाए उन्छाय णाए' पहना द्विपदचतुप्पटगृगपशुपतिमरीसपाणा घाताय, वाय-सामान्य हार इसके पास प्रचुर था। भोलेजनों के पचन करने में प्रवृत्त हुआ वचक जन जम पास में आये हुए जनको भय से नहीं ठगता है इस का नाम उत्कचन है। प्रतारण (ठगना) करना इसका नाम वचन है। दूसरों को घनन करने की घुद्धि का नाम माया है। अपनी मायाचारा को छिपा ने के लिये जो दसरी मायाचारप किया करनी होती है इस का नाम निकी है। वेप आदि के परिवर्तन करने का नाम कपट है। तराज एव तोलने आदि के घाटों को कमती चढती रखना इसका नाम कट है। "साद यह देशीय शन्द है। इसका अर्थ विश्वास का अभाव होता है। यह निःशील थो-शीलरहित या-नित था-व्रत ररित था, निर्गुण था-गुण रहित था, "प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से वर्जित था " यहण दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिसरीसिवाण घायाए वहाए उच्छायणाग अधम्मकेऊ समुट्रिए"अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग,
પુષ્કળ પ્રમાણમાં હો ભેળા માણસોના વચનમાં પ્રવૃત્ત થયે વાચક જયાર પાસે આવેલા માણસને બીકથી કત નથી તેનું નામ ઉત્કચન છે પ્રસારણ ! નામ વચન છે બીજા માણસને ઠગવાની બુદ્ધિનું નામ માયા છે પોતાની માયાચારીને છુપાવવા માટે જે બીજી માયાચાર રૂપ ક્રિયા કરવામાં આવે છે તેનુ નામ નિકૃતિ છે વેશ વગેરે બદલવું તે કપટ કહેવાય છે ત્રાજવા તેમજ જોખવાના વજનને હલકા અને ભારે કરવા તેન નામ કૂટ છે “ સાઈ " આ દેશીય શબ્દ છે તેને અથ વિશ્વાસનો અભાવ હોય છે તે નિ શીલ હતે --શીલ રહિત હતું, નિવ્રત વ્રત રહિત હત નિર્ગુણ હતે-ગુણ રહિત
तो प्रत्याज्यान मन पौषधोपचासथी पति तो " बहूण दुपयचय.. मियपसुपस्बिमरीसिवाण घायाए वहाप - उन्धायणाए
Page #919
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतयपिणी टी० अ०१८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम्
६५७
विशेषप्रकारेण नाशाय, उत्सादनाय = द्विपदादिमलजीनाना सर्वथा नाशाय च, ' जधम्मक समुट्ठिए ' अधर्मकेतुः समुत्थितः - अधर्म पापप्रधानो यः केतुः = केतुग्रहः, अधर्म केतु = उत्पातरूप रूमकेतुमहाग्रहः तद्वत् समुत्थितः । बहुणगरणिग्गयजसे ' बहुनगरनिर्गतयशाः, हुनगरेषु निर्गत जनमुखान्निःसृत यशः ख्यातिर्यस्य सः, प्रसिद्ध इत्यर्थः शूरः ' दढप्पहारी' दृढमहारी दृढमहरण शीलः ' साहसि साहसिक =अविमृश्यकारी ' सदवेही ' शब्दवेधी - शन्दवन लक्ष्यनेधी च आसीत् । ' से ' सः विजयश्वोर खलु तत्र सिंहगुहाय चोरपल्ल्या पञ्चानाम् चोरशतानाम् ' आहेतच्च जाव' आधिपत्य यावत् = स्वामित्व कुन् विहरति । ततः खलु स विजयस्तस्करः चोरसेनापति बहूना चोराणा च पारदारियाणय' पारदारिकाणा=परस्त्रीगामिना च ' गठिभेय गाणय' ग्रन्थिभेदकानां ' सधिच्छेयगाणय ' सन्विच्छेदना=मित्तिसधि छिवा धनमपहरन्ति ते संधिच्छेदका उन्यन्ते तेनाम्, 'खचखणगाण य' क्षात्रखनकाना=सधिरहितभित्ति खनकानाम् 'शयात्रगारीणय ' राजाऽपकारिणां =
=
"
,
पशु, पक्षी, सरीसृप आदि प्राणियोंके घात के लिये, वध के लिये, तथा उनके सर्वथा विनाशके लिये, यह अधर्मकेतुग्रह जैसा उदित हुआ था । अनेक नगरों में यह कुख्यात होचुका था । वडा शुरवीर था । इसका प्रहार बहुत गहरा होता था । विना विचारे काम करना ही इसका स्वभाव धा शब्द श्रवण कर यह अपने लक्ष्य के वेधने मे बडा निपुण था। वह विजय चौर सिंहगुफा नाम की उस चोरपल्ली मे पाचसौ चोरों का आधिपत्य यावत् स्वामित्व करता हुआ रहता था । (तएण से विजय तस्करे चोरसेणावई बहण चोराण य पारदारियाण य गठिभेयगाण य सविच्यमाणय खप्तखणगाण य, रायावगारीण य अणधारगाण य
घणा द्विपह, अतुष्यह, भृश, पशु, पक्षी, सरीनृप ( साथ ) वगेरे प्राणीयोना ઘાત માટે, વધ માટે તેમજ તેમના સનાશ માટે તે અધમ કેતુમહની જેમજ ઉદય પામ્યા હતા ઘણા નગરામા તે કુખ્યાત થઈ ચુકયા હતા તે ભારે શૂરવીર હતા, તેના પ્રહાર ખૂબ જ ભારે થતા હતા. વગર વિચાર્યા કામ કરવામાં જ તેના સ્વભાવ હુંતે શબ્દ શ્રવણુ કરીને તે પેાતાના લક્ષ્યને વીંધી નાખવામાં ખૂબ જ નિપુણ હતા તે વિજય ચાર સિંહ થ્રા નામની તે ચાર પક્ષીમા પાચસા ચેરીના સ્વામી–યાવત્ સ્વામિત્વ ભાગવતે રહેતા હતા
( तएण से बिजयतबारे चोरसेणावई बहूण गठिभेयगाण च सधिच्छेयगोण य तत्तणगाणच,
चोराण च पारदारियाण य
रायावगारीण य कण
Page #920
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
राजद्रोहिणां 'अणधारगाणय' प्रणाधाराणाम् वाग्याताना 'वीसमवायगाल य' थिम्मावानविश्वामानिना तयाकाणां 'पडसाम य ' खण्डर क्षाणां राजविरोधेन भूमिसण्डधारिणाम म् अन्गेषां च पाना 'शिअभिमाहि राहयाण' छिम्मभिन्नाहियातानाम्-रिमारिन्नम्तादिया', मिमिन्नक नासिकादिकाः, गहिराहता-रामापराधन देशनिकाशिताः, एतेगा द्वन्दः, तेषां च' फुटुगे' फुटाकुट र फुट - शयन रक्षार्धमाश्रयणीयत्वसाम्यात् पालघायगाण य बीमभवायगाण य जयकाराण य पडरक्खाण य अ न्नेसि पहण छिन्नभिन्न परिरायगाण कुडगे याचिरोत्या) वह विजय तस्कर चोर सेनापति अनेक चोरों का अनेक परस्त्री लपटों का अन्यि भेद को का, सपिच्छेदको का-मकान की भीन फोड़कर धनका अपह रण करनेवालो का, क्षात्रसनकों का सधि रहित भीत को फोडकर चोरी करनेवालों का, राजा का अपकार करने वालों का-राजद्रोहिया का, ऋण फरने वालों का पाल रत्या करने वालों का विश्वासघात करने वालों का जुआ खेलनेवालों का, राजा की आना लिये विना ही कुछ जमीन को अपने अधिकार में करनेवालो का, तथा और भी अनेक छिन्न, भिन्न पहिरास्त व्यक्तियों का यह अटक जैसा था। जिन के हाथ
आदि काटदिये गये है ऐसे प्राणी, छिन्न शब्द से जिनकी नाक आदि काट दी गई है ऐसे प्राणी भिन्न शब्द से एवं राजापराप के कारण जा देश से धारिर निकाल दिये गये हैं ऐसे मनुष्य यहां घहि आहत शब्द धारगाण य बाल्धायगाण य वीसभायगाण य जयकाराण य सडरक्खाण य अन्नेसिं बहण छिन्नभिन्नयहिराययाणं कुडगे यावि होत्या)
તે વિજય તકર ચેર સેનાપતિ ઘણા રે, ઘણું પત્રી લ પટી, ગ્રથિભેદક, સધિચ્છદક-માકેરૂ પાડીને ધનનું અપહરણ કરનારાઓ, ક્ષાત્ર ખન–સ ધિભાગ વગરની ભીતમાં બાકોરૂ પાડીને ચેરી કરનારાઓ, રાજાના અપકાર-રાજદ્રોહીએ, ાણ કરનારાઓ (દેવાદારે) બાળહત્યા કરનારાએ, બાળહત્યા કરનારાઓ, વિશ્વાસઘાત કરનારાઓ, જુગાર રમનારાઓ, રાજાના ' આજ્ઞા લીધા વગર જ થોડી જમીનને પિતાના અધિકારમા લેનારાઓ તેમજ બીજા પણ ઘણુ છિન્ન, ભિન્ન બહિરાહત લોકેના માટે તે કુક જેવી હતી જેમના હાથ પગ વગેરે કાપી નાખવામાં આવ્યા છે એવા પ્રાણીઓ, છિન્ન શબ્દ વડે જેમને નાક વગેરે કાપવામાં આવ્યા છે એવા પ્રાણીઓ, ભિન્ન શબ્દ વડે અને રાજ્યપરાધ બદલ જે દેશમાથી બહાર કાઢી મૂકવામાં આવ્યા છે એવા માણસે અહીં- “બહિ આહત ” શબ્દ વડે સ બે
Page #921
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधामृतवर्षिणी दो० अ० १८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम् ६५९ चापि अभूत् । ततः खलु स विजयस्तस्करः चोरसेनापतिः राजगृहस्य ! दाहिण पुरस्थिम ' दक्षिणपौरस्त्य अग्निकोणस्थित जनपद बहुभिः 'गामघाएहि 'ग्राम घाते यामविनाशैश्व, नगरपातैश्च, 'गोग्गहणेहिय ' गो ग्रहणे =गवां लुण्ठनैः, वदिग्गहणेहिय' वन्दिग्रहणे' लुण्ठने ये जना गृहीवास्ते बन्दिनउच्यन्ते, तेपा ग्रहणैः स्वकाराया स्थापनैः, ' खत्तखणणेहिय' क्षात्रखननैश्च एवं विधैष्दुकृत्यै से प्रतियोधित किये गये हैं। रक्षणार्य आश्रयणीय होने की समानता से इसे कुटक-वशवन-जैसा कहा गया है । (तएण से विजए तकरे चोरसेणावई रायगिहस्स दाहिणपुरस्थिमं जणवय यहिं गामधाएहिं य नगरधाएहिं य गोग्गहणेहि य दिगहणेहि य खत्तखणणेहिय, पथकु पणेहि य उवीले माणे • विद्धसणे माणे • णित्याण, णिद्वण करेमाणे विहरइ, तएण से चिलाए दासचेडे रायगिहे बहहिं अत्याभिसकीहि य चोज्जाभिसकीहि य दाराभिसकीहि य धणिएहि य जूयकरेहि य परभवमाणे २ रायगिहाओ नगराओ जिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्तो जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्उड, उवाच्छित्ता विजय चोरसेणावह अवसपजित्ताण विहरइ) चोरों का सेनापति वह विजय तस्कर राजगृह नगर के अत्रिकोण में स्थित जनपदा को, अनेक ग्राम के विनाश से नगरों के घात से, गायों के लूटने से, लूटते समय पकडे गये मनुष्य को अपने कारागार में यद करने से, क्षत्रवनन से-मकानो में खोतदेने છે રક્ષણ માટે આશ્રયણીય હોવાના સામ્યથી તેને કુટક-વાસનાવનની જેમ બતાવવામાં આવ્યું છે
(तएण से विजए तकरे चोरसेणाबई रायगिहास दाहिणपुरत्यिम जणषय यहूहि गामधार ह य नगरधाएहि य गोग्गहणेहि य व दिग्गहणे हि य सत्तसणणेहि य पथकुद्दणेहि य उबीलेम २ विद्धसणे माणे२ णि थाण, णिद्धण करेमाणे विहरह, तएण से चिलाए दास चेडे रायगिहे बहूहिं अत्यामिसकीहि य चोजाभिसकी हि य घणियेहि य जूयकरेहि य परम्भवमाणे २ रायगिहाओ नगराओ जिग्गच्छद, णिगच्छिता जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्छा, उपोगच्छित्ता विजय चोरसेणावइ उबसपन्जिताण विहरइ)
શેરને સેનાપતિ તે વિજય તસ્કર રાજગૃહ નગરના અગ્નિકેશુના જનપદેને, ઘણું ગ્રામને વિનાશ કરીને નગરને વાત કરીને ગાયને લૂટીને લૂટતી વખતે પકડી પાડેલા માણસને પોતાના કારાગારમાં પૂરી દઈને, ક્ષેત્ર ખનન કરીને, મકાનેમા ખાતર પાડીને અને મુસાફરોને મારીને નિરતર
Page #922
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६०
naras पथकुटणेडिय' पान्यष्टनः पधिकानमाग्ोत्र 'उगीलेमाणे २ ' उत्पीडयन् २सन्ततमुत्पीडन कुन्,ि 'पिद्धसमाणे १ विश्वमयन् २-सर्वदा विध्वस कुर्वन् , ' णित्याग 'निः स्थान-गृहरहित, 'गिधण निर्धनम् धनरहित कन्ि वहरति । तत' खलु स चितातो दासचेटः राजगृहे बहुभिः 'अयामिस कीडिय' अभिशविभि-भय पिलातो मदीयम होतमान , ग्रहीत्यति वा रत्यभिशान शीले 'चोज्जाभिस कोडिय चौर्याभिहिमा अप मम गृहे चाय कृतवान् करिष्यति वेत्यभिशङ्कन शीलेश्च दारामिम कीहि ' दाराभिगतिभिः अय मम दारान् पितवान् पयिष्यति चेत्यभिगनशीले तया धनिश्च धूतारैश्च परा भूयमाणः २- पुनः पुन पराभव मापमाणो राजगृहात् नगरा वहि निर्गन्छति, निर्गस्य, यव सिंहगुहा चोरपल्ली तर आगमछति, उपागत्य विनय चोरसेना पतिम् उपस पध-माप्य विहरति ।। सू०३ ॥ से, एव पथिकजनो के मारने से, निरन्तर पीडित करता विध्वस करता करता और गृह विहिन करता रहता था। इस के पश्चात् वह दासचेटक चिलात राजगृह नगर में अनेक अर्थाभिशक-इस चिलात ने रमलोगा के द्रव्य को हरण किया है तथा इसी तरह से यह आगे भी करेगा प्रकार की शमा करने वाले, चोर्याभिशंकी इसने हमलोगों के घर में घुसकर पहिले चोरी की है-तपा इसी तरह यह आगे भी करेगा-स प्रकार की आशका करने वाले, दाराभिशकी-इसने पहिले हमारी लिपी के साथ बलात्कार किया है-इसी तरह से यह आगे भी करेगा इस तरह की अपनी स्त्रियों के साथ बलात्कार करने की आशकाचाले पुरुर्षा के द्वारा तथा धनिक व्यक्तियों के द्वारा. जुआ खेलने वाले ज्वारिया के द्वारा पुनः पुनः पराभूत होता हुआ राजगृह नगर से बाहर निकला પીડિત કરને, વિશ્વ સ કર અને ગૃહવિહીન બનાવી મૂકતે હતું ત્યારપછી તે દાસચેટક ચિલાતે રાજગૃહ નગરમાં ઘણા અર્થોભિશક-આ ચિલાતે અમો દ્રવ્યનું હરણ કર્યું છે તેમજ આ પ્રમાણે ભવિષ્યમાં પણ હરણ કરી, આ જાતની શકા કરનારાઓ વડે, ચૌર્યાભિશકી–એણે અમારા ઘરમાં પૈસાને પહેલા ચોરી કરી હતી તેમજ ભવિશ્વમાં પણ તે ચોરી કરશે જ-આ જાતના ચારીની આશ કા કરનારાઓ વડે, દારાશિ કી-એણે પહેલા અમારી સ્ત્રીએ ઉપર બલાત્કાર કર્યો છે, આ પ્રમાણે ભવિષ્યમાં પણ તે ચેકસ આવુ કર શે જ, આ રીતે પિતાની સ્ત્રીઓ ઉપર બલાત્કારની આશ કાવાળા પર ન તેમજ ધનવાને વડે, જુગાર રમનારા જુગારીઓ વડે, વાર વાર
Page #923
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणो टी० अ० १८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम् ६६१
मूलम्-तएणं से चिलाए दासचेडे विजयस्स चोरसेणावइस्स अग्गे असिलदग्गाहे जाए यावि होत्था, जाहे वियणं से विजए चोरसेणावई गामघायं वा जाव पंथकोहि वा काउं वञ्चइ ताहे वि य ण से चिलाए दासचेडे सुबहुपि हु कुवियवल हयविमहिय जाव पडिसेहेइ । पुणरवि लढे कयकज्जे अणह समग्गे सहिगुह चोरपल्लि हव्वमागच्छइ । तएण से विजए चोरसेणावई चिलायं तकर बहुईओ चोरविजाओ य चोरमते य चोरमायाओ चोरनिगडीओ य सिक्खावेइ । तएणं से विजए चोरसेणावई अन्नया कयाइ कालधम्मुणा सजुत्ते यावि होत्था । तएणं ताई पंचचोरसयाइ विजयस्स चोरसेणावइस्स महया२ इड्डीसकारसमुदएणं णीहरणं क्रेति, करित्ता बहुइ लोइयाइं मयकिच्चाइ करेति, करित्ता जाव विगयसोया जाया यावि होत्था । तएण ताइ पच चोरसयाइं अन्नमन्नं सदावेंति, सदावित्ता एव वयासी-एव खलु अम्ह देवाणुप्पिया। विजए चोरसेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते, अय च ण चिलाए तकरे विजएण चोरसेणावणावहुईओ चारविजाओ य जाव सिक्खा विए, त सेय खल्लु अम्ह देवाणुप्पिया | चिलाय तकर सीहगुहाए चौरपल्लीए चोरसेणावइत्ताए अभिसिचित्तए तिकटु अन्नमन्नस्स एयमह पडिसुणेति, पडिसुणित्ता चिलाय तीए सीहगुहाए चोरसेणावइत्ताए अभिसिचति । तएणं से चिलाए
और निकल कर जहा वह सिंहगुहा नाम की चोरपरली थी वहां आया घहा आकर वह चार सेनपति के बाद रहने लगा ॥ सूत्र-३ ॥
રાજગૃહ નગરથી બહાર નીકળે અને નીકળીને જ્યાં તે સિંહગુહનામે ચેરપલી હતી ત્યાં આવ્યું, ત્યાં આવીને ચાર સેનાપતિની સાથે રહેવા લાગ્યું સૂa
Page #924
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६०
पथकुटणेडिय' पान्यटन पथिकजनमात्र 'उपीलेमाणे २ ' उत्पीडयन २८सन्ततमुत्पीडन कुन , 'रिसेमाणे २' विध्यायन् २-सर्वदा विध्वस कुन् , 'णिस्याण 'निः स्थान-गृहस्ति, 'गिधणं' निर्धनम् धनरहित उपन् विहरति । ततः खलु स चितातो दासचेटः रामदे रहुभिः 'अयामिम कीडिय' अर्थाभिशविभिन्अप पिलातो मदीयमधं गृहीतवान , ग्रहीपति वा इत्यभिशान शीले 'चोज्जामिस कोहिय' चीभिशद्विमि-अप मम गृहे चौर्य कृतवान् करिष्यति वेत्यभिशङ्कन शीलेश्च दारामिग कोहि ' दारामिगतिमिा अय मम दारान् दपितवान् पयिष्यति चेत्समिशनशील तथा धनिश्च तारेश्च परा भूयमाणः २= पुनः पुन पराभव प्राप्पमाणो रानगृहात् नगरादु वहि निर्गन्छति, निर्गत्य, यत्र सिंहगुहा चोरपल्ली तगर उपागछति, उपआगत्य विनय चौरसेना पतिम् उपस पद्य-माप्य विहरति ।। सू०३ ।। से, एव पधिकजनों के मारने से, निरन्तर पीडित करता विध्वस करता करता और गृह विरिन करता रहता था। इसके पश्चात् वह दासचेटक चिलात राजगृह नगर में अनेक अर्थाभिशक-इस चिलात ने रमलोगो के द्रव्य को हरण किया है तथा इसी तरह से यह आगे भी करगाप्रकार की शफा करने वाले, चौर्याभिशकी इसने हमलोगों के घर में घुसकर पहिले चोरी की है-तमा इसी तरह यह आगे भी करेगा-इस प्रकार की आशका करने वाले, दाराभिशकी-इसने पहिले हमारी खिया के साथ बलात्कार किया है-इसी तरह से यह आगे भी करेगा इस तरह की अपनी स्त्रियों के साथ बलात्कार करने की आशकावाले पुरुषों के द्वारा तथा धनिक व्यक्तियों के द्वारा, जुआ खेलने वाले ज्वारियो के द्वारा पुनः पुनः पराभूत होता हुआ राजगृह नगर से बाहर निकला પીડિત કરને, વિશ્વ સ કર અને ગડવિહીન બનાવી મુક્ત હતા ત્યારપછી તે દાસચેટક ચિલાતે રાજગૃહ નગરમા ઘણા અર્થોભિશક-આ ચિલાતે અમારા દ્રવ્યનુ હરણ કર્યું છે તેમજ આ પ્રમાણે ભવિષ્યમાં પણ હરણ કરશે, આ જાતની શ કા કરનારાઓ વડે, ચૌર્યાભિશ કી–એણે અમારા ઘરમાં પિસીને પહેલા ચોરી કરી હતી તેમજ ભવિષ્યમાં પણ તે ચોરી કરશે જ-આ જાતના ચેરીની આશ કા કરનારાઓ વડે, દારાશિ કી-એણે પહેલા અમારી સ્ત્રીઓ ઉપર બલાત્કાર કર્યો છે, આ પ્રમાણે ભવિષ્યમાં પણ તે ચક્કસ આવું કર શે જ, આ રીતે પિતાની સ્ત્રીઓ ઉપર બળાત્કારની આશ કાવાળા પુરૂષ વડે તેમજ ધનવાન વડે, જુગાર રમનારા જુગારીઓ વડે, વાર વાર
Page #925
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधामृतवाषणो टो० अ० १८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम् ६६१
मूलम्-तएणं से चिलाए दासचेडे विजयस्स चोरसेणावइस्स अग्गे असिलट्रग्गाहे जाए यावि होत्था, जाहे वियणं से विजए चोरसेणावई गामघायं वा जाव पथकोटि वा काउं वञ्चइ ताहे विथ ण से चिलाए दासचेडे सुबहुपि हु कुवियवल यविमहिय जाव पडिसेहेइ । पुणरवि लद्धटे कयकज्जे अणह समग्गे सहिगुह चोरपल्लि हव्वमागच्छइ। तएण से विजए चोरसेणावई चिलायं तकर वहुईओ चोरविजाओ य चोरमते य चोरमायाओ चोरनिगडीओ य सिक्खावेइ । तएणं से विजए चोरसेणावई अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्या। तएण ताई पंचचोरसयाइ विजयस्स चोरसेणावइस्स महया२ इड्डीसकारसमुदएणं णीहरणं करेंति, करित्ता बहुइ लोइयाइ मयकिच्चाइ करेति, करित्ता जाव विगयसोया जाया यावि होत्था । तएण ताइ पंच चोरसयाइं अन्नमन्नं सदाति, सदावित्ता एव क्यासी-एव खल्ल अम्हं देवाणुप्पिया। विजए चोरसेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते, अयं च णं चिलाए तकरे विजएणं चोरसेगावइणा वहुईओ चोरविजाओ य जाव सिक्खा विए, त सेयं खलु अम्ह देवाणुप्पिया । चिलाय तकरं सीहगुहाए चोरपल्लीए चोरसेणावइत्ताए अभिसिचित्तए तिकट्ट अन्नमन्नस्स एयमह पडिसुणेति, पडिसुणिता चिलाय तीए सोहगुहाए चोरसेणावइत्ताए अभिसिचति । तएण से चिलाए
और निकल कर जहा वह सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली थी वर्दा आया पहा आकर वह चार सेनपति के बाद रहने लगा ।। सूत्र-३॥
રાજગૃહ નગરથી બહાર નીકળે અને નીકળીને જ્યા તે સિંહગુહા નામે ચા૨પહલી હતી ત્યાં આવ્યું, ત્યા આવીને ચાર સેનાપતિની સાથે રહેવા લાગ્યો સૂ૦૩
Page #926
--------------------------------------------------------------------------
________________
d
बताया
1
' पथकुटणेहिय' पान्यहनैः पथिकानमात्र 'उपमाणे २ उत्पीडयन २८ सन्ततमुत्पीडन कुर्वन्, 'रिमाणे २ विश्वमन् २- सर्व विम कुर्वन्, ' णिस्याण ' निः स्थान=गृहरति, ' जिणं' निर्धनम् धनरहित कुर्वन् विहरति । ततः खलु स चित्रात दासचेट. राजगृहे बहुभिः 'अयामिम वीडिय अर्थाभिशङ्किभि=जय विलातो मदीयमान ग्रहीष्यति वा इत्यभिशङ्कन शीलै 'चोज्जाभिस कोडिय पार्याभिशभिः मम गृहे च कृतवान करिष्यति वेrयभिशङ्कन शीलेव ' दारामिन कीहि ' दाराभिशङ्किभिः = ' अय मम दारान् दुषितान् दूषयिष्यति वेत्यभिशङ्कनशीले तथा धनिषेव ठकरेव परा भूयमाणः २ = पुनः पुन पराभव प्राप्यमाणो राजगृहात् नगराद यहि निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रेव सिंहगुहा चोरपल्ली तौर उपागच्छति, आगत्य विजय चोरसेना पतिम् उपसपद्य=माप्य विहरति ॥ ०३ ॥
1
1
से, एव पथिकजनो के मारने से, निरन्तर पीडित करता विध्वस करता करता और गृह विहिन करता रहता था। इस के पश्चात् वह दासचेदक चिलात राजगृह नगर में अनेक अर्थाभिशक- इस चिलात ने हमलोगों के द्रव्य को हरण किया है तथा इसी तरह से यह आगे भी करेगाप्रकार की शका करने वाले, चौर्याभिशकी इसने हमलोगों के घर में घुसकर पहिले चोरी की है तथा उसी तरह यह आगे भी करेगा - इस प्रकार की आशका करने वाले, दाराभिशकी - इसने पहिले हमारी स्त्रियों के साथ बलात्कार किया है - इसी तरह से यह आगे भी करेगा इस तरह की अपनी स्त्रियों के साथ बलात्कार करने की आशकावाले पुरुषों के द्वारा तथा धनिक व्यक्तियों के द्वारा, जुआ खेलने वाले ज्वारियो के द्वारा पुनः पुनः पराभूत होता हुआ राजगृह नगर से बाहर निकला પીડિત કરના, વિશ્વસ કરતે અને ગૃહવિહીન બનાવી મૂકતા હતા ત્યારપછી તે ઘાસચેતક ચિલાતે રાજગૃહે નગરશ્મા ઘણા અર્થોભિશ ક-આ ચિલાતે અમારા દ્રવ્યનું હરણ કર્યું છે તેમજ આ પ્રમાણે ભવિષ્યમા પણ હરણ કરશે, આ જાતની શંકા કરનારાઓ વડે, ચૌર્યાભિશકી–એણે અમારા ઘરમા પેસીને પહેલા ચારી કરી હતી તેમજ ભવિષ્યમા પણ તે ચારી કરશે જ-આ જાતની ચેરીની આશકા કરનારાએ વડે, દારાભિશકી-એણે પહેલા અમારી સ્ત્રીએ ઉપર ખલાત્કાર કર્યાં છે, આ પ્રમાણે ભવિષ્યમા પણ તે ચાક્કસ આવુ કર આ રીતે પેાતાની સ્ત્રીએ ઉપર ખલાત્કારની આશકાવાળા પુરૂષો વડે તેમજ ધનવાને વર્લ્ડ, જુગાર રમનારા જુગારીએ વડે, વારં વાર
शेन
Page #927
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनैगारधर्मामृतवर्षिणो टी० अ० १८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम्
६६१
मूलम् - तणं से चिलाए दासचेडे विजयस्स चोरसेणावइस्स अग्गे असिलग्गा हे जाए यावि होत्था, जाहे त्रियण से विजय चोरसेणावई गामघायं वा जाव पंथकोहि वा काउं बच्चइ ताहे वियण से चिलाए दासचेडे सुबहुपि हु कुत्रियवल हयविमहिय जाव पडिसेइ । पुणरवि लट्ठे कयकज्जे अणह समग्गे सहिगुह चोरपल्लि हव्वमागच्छइ । तएण से विजए चोरसेणावई चिलायं तकर वहुईओ चोरविज्जाओ य चोरम य चोरमायाओ चोरनिगडीओ य सिक्खावेइ । तएणं से विजए चोरसेणावई अन्नया कयाइ कालधम्मुणा सजुत्ते यावि होत्था । तएण ताई पचचोरसयाई विजयस्स चोरसेणावइस्स महयार इड्डीसक्कारसमुदपणं णीहरणं करेंति, करिता बहुई लोइयाई मयकिचाई करेति, करिता जाव विगयसोया जाया यावि होत्था । तरणं ताइ पंच चोरसयाइ अन्नमन्न सदावेंति, सदावित्ता एव वयासी - एव खलु अहं देवाणुप्पिया । विजए चोरसेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते, अयं च णं चिलाए तकरे विजएणं चोरसेणावइणा बहूईओ चोरविजाओ य जाव सिक्खा विए, तं सेयं खलु अम्ह देवाणुपिया । चिलायें तकर सीह - गुहाए चोरपलीए चोरसेणावइत्ताए अभिसिचित्तए तिकड अन्नमन्नस्स एयमह पडिसुणेति, पडिसुणित्ता चिलाय तीए सोहगुहाए चोरसेणावइत्ताए अभिसिचति । तएण से चिलाए
और निकल कर जहा वह सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली थी वहां आया वहां आकर वह चार सेनपति के बाद रहने लगा || सूत्र -३ ॥
રાજગૃહ નગરથી બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યા તે સિંહગુહા નામે ચેડરપલ્લી હતી ત્યા આળ્યે, ત્યા આવીને ચાર સેનાપતિની સાથે રહેવા લાગ્યા "સૂ
Page #928
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
__ताया चोरसेणावई जाए अहम्मिए जाब विहरह। तएणं से चिलाए घोरसेणावई चोराणय जाव कुटंग यावि होरया । से ण तस्य सोहगुहाए घोरपल्लीए पचपहं चोरसयाण य एवं जहा विजओ तहेव सव्वं जाव रायगिहस्स दाहिणपुरस्थिमिल्ल जणवयं जाव नित्थाणं निद्धण करेमाणे विहाइ ।। सू०४॥ टीत ' इत्यादि । ततः खलु स पिलातो दासवेटो विजयस्य चोरसेनापतेरम्यापमान ' असिस्टग्गाहे ' अभियष्टिया असिकरवाल, यष्टि अशदण्डः, तो गृहातीति, असियष्टिग्राह. असियष्टवादिमचालनचतुरो जातथापि अभूत् । 'नाहे दियण' यदाऽपि च खलु स विजयश्रीर सेनापवि:
ताण से चिलाप दासचेडे इत्यादि।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (से चिलाप दासचेडे) वह दासचेटक चिलात (विजयस्स चोरसेणारहरस) चोर सेनापति उस विजय तस्कर का (अग्गे यावि हो०) सय से प्रधान असि, यष्टि, ग्रह-तलवार और लाठी के चलाने मे चतुर-बन गया। (जाहे वि यण से विजए चोरलेणाधईगामघाय वा जाव पथकोहि वा का बच्चा, ताहे वि यण से चिलाप दासचेडे सुरस पि कृवियपलयविमहिय जाव पडिसेहेह, पुणरवि लद्धढे कयकज्जे अणहसमग्गे सीगुह चोरपल्लि हव्वमाग छह) जब वर चोर सेनापति विजय, ग्रामो का घात करने के लिये,
(तएण स चिलाए दासचेडे इत्यादि
साथ-( तएण ) यारपछी (से चिलाए दासचेडे) त हास 223 Aard (विजयस्स चोरसेणावइस ) यार सेनापति Aru de:२ने। (अग्गे यावि हो०) सौथी प्रधान मासि, यटि (AIBA) , तरवार भने साठी ચલાવવામાં ચતુર બની ગયે
( जाहे वि य ण से विजए चोरसेणावई गामधाय वा जाव पथकोटि वा काउ बच्चइ, ताहे बिय ण से चिलाए दासचेडे सुबहु पि हू पूवियबल हयांवम हिय मात्र पडिसेहेइ, पुणरवि लढे कयाने अणहसमग्गे सीहगुह चौरपालि हव्यमागछह)
જ્યારે તે થોર સેનાપતિ વિજય પ્રામેના ઘાત માટે થાવત્ પથિકને લટવા માટે નીકળતે હતો ત્યારે તે દાસ ચેટક ચિલાત ચાર” માટે
Page #929
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०१८ सुसमाधारिकाचरितवर्णनम् ग्रामपात वा यावत् 'पयकोट्टि ' पान्यकुटिम्-पथिकमनलुण्टन पा'काउ' कर्तुं 'वच्चइ ' जति-ग उति 'ताहेवि य' तदाऽपि च खलु स चिठातो दासचेटः मुबहु अपि ' हु' इति नाक्यालङ्कारे वियपल' कूपिकाल-चोरगवेपकमैन्य 'हयविमहिय जाव' हतपिमथित यावत्-सर्वथा विध्वस्त कृत्या 'पडि से हेइ ' पतिपेधयति निवारयति । पुनरपि ' लद्दढे' लब्धार्थ ल्यः प्राप्तः, अर्थ = सामिलपित येन स'माप्तस्वाभिलपितः, अत एव 'कयकज्जे ' कृतकार्य:-कृत कार्य येन स , कृतनिजकृत्यः 'अणहममग्गे' अनवसमयाअनयम् अक्षतम्अन्तराले केनाप्यनपहन समग्र समस्त चौर्याद्यपहृतवस्तुजात यस्य सः अलुण्टित सर्वस्वः सिंहगुहा चोरपल्लि ' हव्व ' शीघ्रमागन्डति । ततः खलु स विजयश्चोरसेनापति. चिलात तस्कर वहीः चोरविद्याश्च चोरमन्त्राश्च चोरमायाश्चोरनिकृतीश्च मायायाः प्रच्छादनार्थ या माया सा 'निकृतिः ' उच्यते ता. 'सिक्खा वेड' यावत् पथिक जनो को लूटने के लिये चलता या-तर वह दास चेटक चिलात भी चोर गवेयक सैन्य को हत, विमथिन यावत सर्वथा वि-वस्त करके पीछे भगा देता या-और स्वाभिलपित अर्थ को प्राप्तकर अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लिया करता था। इस तरह वह चोरी में मिले हुए द्रव्य को सुरक्षित रखता हुआ-बीच में किसी के भी दारा द्रव्य की छीना अपटी से रहित होता हुआ उम सिंहगुहा नाम के चोरपल्ली में बहुत जल्दी लौट आता या' (तएण से विज चोर सेनावई चिलरोय तक्कर पट्टईओ चोरविनाओ र चोरमते य चोर मायाओ चोर निगडीओ य सिवावेड ) उस चोर सेनापति विजय तस्कर ने चिलात चोर के अनेक चोर विद्याओ को, अनेक चोरमत्रो को अनेक विध चोर सम्बन्धी मायाचारी को और मायो को छिपाने के આવેલા સિન્યને હત, વિમવિત યાવત્ સ પૂર્ણ રીતે વિશ્વસ્ત કરીને ભગાડી મૂકતા હતા અને પિતાના ઈચ્છિત અર્થને પ્રાપ્ત કરીને પિતાના કાર્યમાં સફ ળતા મેળવતો હવે આ પ્રમાણે તે ચોરીમાં મેળવેલા દ્રવ્યને સુરક્ષિત રાખો વચ્ચે કોઈ પણ બીજા વડે દ્રવ્યની લટ-પાટ ન થાય-તેમ પોતાની જાતને સુરક્ષિત રાખતો તે શીધ્ર સિંહગુહા નામે ચેરપલીમાં પાછા આવતે રહેતો હતો
(तपण से विजए चारसेनावई चिलाय तकर पहूईओ चोरविज्ञाशेय चोरमते य चोग्मायाओ चोरनिगडीओ य सिक्सावेह)
તે ચોર સેનાપતિ વિજય તસ્કરે ચિલાત ચેરને ઘણી ચાર વિદ્યાઓને. ઘણું ચેરમને, ઘણું ચેર સ બ ધી માયાચારીએાને અને માયાને છુપાવવા માટે બીજી માયાચારીઓ શીખવાડી
Ararima
Page #930
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨
माता धर्मका
चोरसेणावई जाए अहम्मिए जान विहरइ । तष्णं से चिलाए घोरसेणावई चीराणय जाव कुडंगे यात्रि होत्था । से णं तत्थ सोहगुहाए चोरपट्टीए पचण्ह चोरस्याण य एवं जहा विजओ तहेव सव्वं जाच रायगिहस्स दाहिणपुरथिमिल्ल जणवयं जाव नित्थाणं निज्रणं करेमाणे विहरइ ॥ सू० १ ॥
'
टीम-' aण ' इत्यादि । ततः खलु सवितो दामटो विजयस्य चोरसेनापतेरम्यः प्रान असि अनियष्टिग्राद =असि = करवालः, यष्टि =नशदण्डः, तौ गृहातीति, अमियष्टिग्राहः = असियष्ट्यादिमचालन चतुरो जावापि अभूत् । 'नानि यण' यदाऽपि च खलु स विजयचोर सेनापतिः
तण से चिलाए दामचेडे इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरण) इसके बाद (से चिलाए दासचेडे) वह दासचेटक चिलात (विजयस्स चोर सेना इस्स) चोर सेनापति उस विजय तस्कर का (अग्गे यावि हो० ) सप से प्रधान असि यष्टि, ग्रह- तलवार और लाठी के चलाने मे चतुर-बन गया । (जाहे वियणं से विज चोर सेणावई गामघाय वा जाव पथको वो काउ वच्चइ, ताहे विण से चिलाए दासचेडे सुरपि हु कृवियबल ह्यविमहिय जाव पडिसेहेर, पुणरवि लट्ठे कयकज्जे अणहसमग्गे सीहगुह चोरपल्लि हव्वमाग च्छ ) जब वह चोर सेनापति विजय, ग्रामो का घात करने के लिये,
( तरण से चिलाए दासचेडे इत्यादि
टीअर्थ - (तएण ) त्या२पछी ( से चिलाए दावचेडे ) ते हास थेट विश्वात ( विजयस्स चोरसेणावइस्स) और सेनापति ते विश्य तस्फुरनो ( अगो यावि हो० ) सोयी प्रधान भासि, यष्टि (साडी ) थाई, तरवार भने साठी ચલાવવામા ચતુર બની ગયા
( जाहे वियण से जिए चोरसेणावई गामधाय वा जाव पथको वा का वच, ताहे वियण से चिलाए दासचेडे सुबहु पिहू कूवियबल इयबिम हिय आज पडिसेद, पुणरवि लट्टे कथकज्जे अणहसमगे सीइगुह चोरपि ESCHINE)
જ્યારે તે ચાર સેનાપતિ વિજય ગ્રામાના ઘાત માટે યાવત્ થિકાને છુટવા માટે નીકળતે હતા ત્યારે તે દાસ ચેટક ચિલાત ચારે
Page #931
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारघमामृतषिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् खलु अस्माक हे देशानुप्रिपाः ! विजयचोरसेनापति कालपर्मेण संयुक्ता मृत इत्यर्थः । अय च खल दिलातः तस्करो विनयेन चोरसेनापतिना 'वहईभी चोरविज्जाओ जाव ' वहन्यः चोर विद्या यार-चोरविद्यादि चोरनिकृतिपर्यन्तासु सफलचोरशिक्षासु · मिश्विए ' शिक्षितः पारशमितः, 'त' तरमात् कारणात् 'सेय' श्रेयः खलु जस्माफ हे देनानुप्रियाः ! चिठात तस्कर मिहगुहायाश्चीरपल्ल्याथोरसेनापतितयाऽभिपिश्चितुम् , अर्थात् अय चिलोत तस्करोऽम्माभिः चोर सेनापतिपदे नियोज्य , ' तिकटु' इति कत्या=इति मनसि विधाय ' अनमन्नस्स' अन्योऽन्यस्य 'एउमट्ठ ' एतमर्यम्-चिलातस्य चोरसेनापतिपदे नियोजनरूपमर्थम् किया-(एव खलु अम्ह देवाणुप्पिया! विजा चोरसेणावई कालधम्मु णा सजुत्ते, अय च ण चिलाण तक्करे विजण्ण चोरसेणावइणा बहईओ चोरविजाओ य जाय सिक्खाविए, त सेय वलु अम्र देवाणुप्पिया! चिलाय तस्कर सीरगुहाए चोरपल्लीरा चोरसेणावहत्ताण अभिमिचित्तए त्ति करटु अन्नमन्नस्स एयमट्ठ पडिसुणेति, पडिसुणित्ता चिलाय तीसे सीहगुहाए चोरसेणावइताए अभिसिंचति) देवानुप्रियो । देखो-हमारे नायक चोर सेनापति विजय तो अब मर चुके हैं। उनहोंने इस चिलात चोर को अनेक चोर विद्यार्ग आदि सब कुछ सिखलारी दिया है। अत हमलोगों को अब ग्रही उचित है कि हमलोग चिलात चोर को सिंह गुहा नानकी इस चोर पल्ली का चोर सेनापति के रूप में नियुक्त करले अर्थात चोरसेनापति के पद पर इस चिलात चोर को नियुक्त करले इस प्रकार विचार करके उन्होने एक दूसरे के विचार रूप अर्थ को
(पव सलु अम्ह देवाणुपिगा ! विजए चोरसेणावई कालवम्मुणा सजुत्ते, अय च ण पिलाए तफरे विजएण चोरसेणायइणा चहूईओ चोर विजाओ य जाय सिक्साविए, त सेय सलु अम्ह देवाणुप्पिया ! चिलाय तफर सीह गुहार चोरपल्ली। चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचित्तए तिकटु अन्नमन्नस्स ग्यमट्र पहिसुणे नि, पडिसुणित्ता, चिलाय तीसे म्रीहगुहाए चोरसेणावहत्ताए अभिसि च ति)
હે દેવાનુપ્રિયે ! જુઓ, અમારા નાયક ચેર સેનાપતિ વિજય તે હવે મરણ પામ્યા છે તેમણે આ ચિલાન ચોરને ઘણી ચોર વિદ્યાઓ વગેરે બધું શીખવ્યુ જ છે એટવા માટે હવે અમને એ જ ચોગ્ય લાગે છે કે અમે લેકે ચિલાત ચોરને આ સિંહગુહા નામની ચોપરલીને ચોર સેનાપતિ બનાવી લઈએ એટલે કે ચોર સેનાપતિના સ્થાને આ વિવાત ચોરની નીમ શુક: _લઈએ આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે એક બીજાના વિચાર રૂપ
Page #932
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिक्षयति । ततः स म नियो गोरमेनापतिः अन्यदा कदागिन् 'कालपणा' फालधर्मग-म युना रायुनाथापि अभात मृतात्यर्थः । ततः दल तानि पात्रोर
तानि मतपरययागारा, विनयस्य वारसेनापतेः माता र सिकार समुदएण' ऋद्धिमत्तारसमुदयेन ‘णीहरण' निर्हग्ण-मशानभूमिनयन 'पति' कुति, कुन्ना पनि लौकिकानि मृतात्यानि ति, कृया यारत् विगत शोमा नानाथापि अमरन् । तनः पलु तानि पनोरमतानि अन्योऽन्य शब्द यति शब्दयित्वा एमियादिपु:-सर्वे मिनिसा परस्परमेर विचारितान्तइत्यर्थ एव लिये दूसरी और माया चारी को मिपा दिया। (तपण से विजए चोरसेणावई अनया फयाड पारधम्मुणा सजुत्ते यायि होत्या, तरण ताइ पचचोरसयाइ विजयस्स चोरसेणारहस्स मरया २ हड़ी सकार समुद्रण णीहरण गरेति फरित्ता यहड लोहयाइ मयफिच्चाइ करति, फरित्ता जार विगयसोया जाया यावि रोत्या। ताण ताइ पच चोर सयाइ अन्नमन्न सहाति, सहाविता गव वासी) इस से बाद वह चोर सेनापति विजय किसी एक दिन कालधर्मगत हो गया। तय उन पांच सौ चोरो ने चोर सेनापति विजय तस्कर को बड़े ठाट बाट के साय अर्थी-श्मशान यात्रा निकाली बादमें उन्हों ने भृत्यसपन्धी जितने भी लौकिक कृत्व होते है वे सब किये। लौकिक कृत्य करके सबके सब धीरे २ शोक रहित जन बन चुके-तप उन पांच सौ चोरो ने परस्पर में एक दूसरे को बुलायो-और बुलाकर उन से इस प्रकार कहा-विचार
(तरण से विजए चोरसेणाई अनया कयाइ कारधम्मुणा सजुत्ते यारि होत्या, तएण ताइ पच थोरसयाइ विजयस्स चोरसेणाव इरस महया २ इइढी सक्कारसमुदएण जोहरण करे ति करिना यहइ लोइयाइ मकिंचाइ करे ति, करिता जाब गियसोया जाया यानि होत्था । तण्ण ताइ पच चार सयाइ अन्नमन्न सदावे ति, सदावित्ता एव धयासी)
ત્યારપછી તે ચોર સેનાપતિ વિજય કે એક દિવસે મૃત્યુ પામ્યા ત્યારે તે પાચ ચેરેએ ચેર સેનાપતિ વિજય તકરની ભારે ઠાઠથી સ્મશાનયાત્રા કાઢી ત્યારપછી તેમણે તેના મૃત્યુ સ બધી લૌકિક ક કર્યો લૌકિક કૃત્ય પૂરા કર્યા બાદ ધીમે ધીમે જયારે બધા શાક રહિત થયા ત્યારે તે પાચ
એ પરસ્પર એકબીજાને બોલાવ્યા અને એક સ્થાને એકત્ર થઈને તેમણે આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો કે
Page #933
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधामृतषिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६६५ खलु अस्माक हे देशानुप्रियाः ! विजयभोरसेनापति कापर्मेण संयुक्ता मृत इत्यर्थः । अय च खल विठातः तस्करो विजयेन चोरसेनापतिना' बहईओ चोरनिज्जाओ जाव । यहव्यः चोरविधा यारत्-चोरविद्यादि चोरनिकृतिपर्यन्तासु सकळचोरशिक्षामु 'मिरिश्वए ' गिक्षिता पारगामितः, 'त' तरमात् कारणात् । 'सेय' श्रेय' खलु जस्माक हे देनानुप्रिया ! चिठात तस्कर मिहगुदायाश्चीरपल्ल्याथोरसेनापतितयाऽभिपिश्चितुम् , अर्थात् अय चिलोत तस्करोऽम्माभिः चोर सेनापतिपदे नियोज्य , ' निकछु ' इति कृत्वा इति मनसि विधाय ' अनमन्नस्स' अन्योऽन्यस्य 'एयम? ' एतमर्थम्-चिलातस्य चोरसेनापतिपदे नियोजनरूपमर्थम् किया-(एच खलु अम्ह देवाणुप्पिया। विजए चोरसेणावई काल यम्मु णा सजुत्त, अय च ण चिलाए तक्करे विजण चोरसेणावणा बढ़ई ओ चोरविजाओ य जाव सिक्खाथिए, त सेय खलु अम्ह देवाणुप्पिया! चिलायतस्कर सीरगुहाए चोरपडीए चोरसेणावहतार अभिमिचित्तए त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमह पडिसुणेति, पडिसुणित्ता चिलाय तीसे सीहगुए चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचंति) देवानुप्रियो ! देखो-हमारे नायक चोर सेनापति विजय तो अब मर चुके हैं। उन्होंने इस चिलात चोर को अनेक चोर बियाए आदि सब कुछ सिखलाही दिया है। अत हमलोगों को अब यही उचित है कि हमोग चिलात चोर को सिंह गुहा नानकी इस चोर पल्ली का चोर सेनापति के रूप में नियुक्त करले अर्थात चोरसेनापति के पद पर इस चिलात चोर को नियुक्त करलें इस प्रकार विचार करके उन्होने एक दूसरे के विचार रूप अर्थ को
(एच सलु अम्ह देवाणुप्पिया ! विजए चोरसेणावई काल यम्मुणा सजुत्त, अय च र्ग चिलाए तफरे विजएण चोरसेणावइणा वहूईओ चोरविनाओ य जाव सिक्साविए, त सेय सलु अम्ह देवाणुप्पिया ! चिलाय तकर सीह गुहाए चोरपल्ली चोरसेणारइत्ताए अभिसिंचित्तए तिकटु अन्नमन्नस्स ज्यम पडिसुणे ति, पटिसुणित्ता, चित्लाय तीसे सीहगुहा० चोरसेणावहत्ताए अभिसि च ति)
દેવાનપ્રિયો ! જુઓ, અમારા નાયક ચોર સેનાપતિ વિજય તો હવે મરણ પામ્યા છે તેમણે આ ચિલાત ચોરને ઘણી ચોર વિદ્યાઓ વગેરે બધું શીખવ્યુ જ છે એટવા માટે હવે અમને એ જ ચગ્ય લાગે છે કે અમે લેકે ચિલાત ચોરને આ સિંહગુડા નામની ચોરપકલીને ચોર સેનાપતિ બનાવી લઈએ એટલે કે ચોર સેનાપતિના સ્થાને આ ચિવાત ચોરની નીમ શુક કરી લઈએ આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે એક બીજાના વિચાર રૂપ
Page #934
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६६
पातामा 'पदिसुगेरि' मतिमन्ति-सीर्यन्ति, पतिथुय, चिमात तस्कर बोरसेना पतिवया अर्थात् चोरसेनापतिपदे भगिरियानि । तत' पर मनिलातः चोरसेना पतिर्जातः, फीदृशः ? इत्याह- अहम्मिए गार' अधार्मिको याचन्-विजयचोर सेनापतिवदधार्मिको यापदधर्म के सभा निरनि । ततः ग्यलु स विगतः चोर सेनापति 'चोराण य जार' चोराणा न याम्योरपारदारिकादीनां च 'कुडगे' फुडगः आत्रयस्थान नाऽपि आसीत । स स तत्र सिंहगुहायां चोर पल्ल्या पश्चाना चोरशताना च एस यथा नियन्तथर सायान् विजयवत् पश्च सताना चोराणामुरारि आधिपत्य कुर, राजगृहस्य दक्षिणपौरम्त्यम् अग्निकोणस्थ स्वीकार कर लिया। और स्वीकार कर के उस चिलात चोर को अन्त में उस सिंहगुहा नामकी चोर पल्ली का उन्हों ने चोर सेनापति के रूप में अभिषेक कर दिया। (तएण से चिलाए चौरसेणाचई जाए अहम्मिए जाव विएर तण्ण से चोर से० चोराण य जाव कुटगे यावि होत्या, से ण तत्थ सीरगुहाए चोरपल्लीए पचण्ट चोरसयाण य एवं जरा विजओ तदेव सव्व जाव रायगिरस्स दाहिणपुरथिमिरल जणवय जाव णित्याण निद्धण फरेमाणे विहरह) इस तरह यह चिलात चोर सेनापति यन गया। चोरसेनापति थनकर यह विजय चोर सेनापति की तरह अधार्मिक यायत अधर्मकेत जैसा हो गया। अतः वह चिलात चोर सेनापति चोरों का यावत् पारदारिक आदिकों का कुडग की तरह वासों के वन के समान-आश्रयस्थान बन गया और उस सिंहगुहा नामकी पल्ली में पाचसी चोरों का आधिपत्य करता हुआ विजय तस्कर અર્થને સ્વીકારી લીધો અને સ્વીકારીને છેવટે તે ચિલાત ચોરને તે સિંહગુહા નામની ચોરપલ્લીને તેમણે ચોર સેનાપતિના રૂપમાં અભિષેક કરી દીધા
(तएण से चिलाए चोरसेणावई जाए अहम्मिए जीव विहाइ तएण से चोर से० चोराण य जाव कुड गे मावि होथा, सेण तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पचण्ह चोरसयाण य एव जहा विजओ तहेव सव्व जाव रायगिहस्स दाहिण पुरथिमिल्ल जणवय जाव णित्थाण निद्धण करेमाणे विहरह)
આ પ્રમાણે તે ચિલાત ચાર ચોર સેનાપતિ થઈ ગયે ચોર સેનાપતિ બનીને તે વિજય ચાર સેનાપતિની જેમ અધાર્મિક યાવત્ અધમંકેતુ જે થઈ ગયે તેથી તે ચિલાત ચાર સેનાપતિ ચેરોને યાવત પારદારિક વગેરેને કુડગની જેમ-વાસના વનની જેમ-આશ્રયસ્થાન બની ગયે
Page #935
--------------------------------------------------------------------------
________________
गरम मृतदणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम्
૧૭
जनपद ' नित्याण निदण ' निस्थान निर्धन गृहरहित धनरहित च कुर्वन् विहरति ॥ सू०४ ॥
मूलम् - तणं से चिलाए चोरसेणावई अन्नया कयाइ विउल असणपाणखाइमसाइम उवक्खडावेत्ता पचचोरसए आमतेइ । तओ पच्छा पहाए कयवलिकम्मे भोयणमंडवंसि तेहि पचहि चोरसहि सद्धि विउल असणं पाणं खाइमं साइम सुर घ जाव पसण्ण च आसाएमाणे विहरइ, जिमिय भुत्तत्तरागए ते पच चोरस विउलेण धूवपुप्फगंधमलालकारेण सक्कारेs, सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता एव वयासी एवं खलु देवाशुपिया | रायगिहे णयरे धणे णाम सत्थवाहे अड्डे, तस्स णं धूया, भद्दा अत्तया पचण्ड पुत्ताणं अणुमग्गजाइया सुसुमा नाम दारिया या होत्था, अहीण जाव सुरूवा, त गच्छामो णं देवाप्पिया | धण्णस्स सत्थवाहस्स गिह विलुंयामो, तुम्भं विउले धणकणग जाव सिलप्पवाले मम सुसुमा दारिया । तएणं ते पंच चोरसया चिलायस्स चोरसेणावइस्स एयमहं पडिसुणेति । तएण से चिलाए चोरसेणावई तेहि पचहि चोरसहि सद्धि अल्लचम्म दुरूह, दुरूहित्ता पुव्वावरण्हकालसमयसि पंचहि चोरसहि सद्धि सण्णद्ध जाव गहियाउहपहरणे माइयगोमुहिहि फल हि णिकट्टाहि असिलट्ठीहि असगएहि तोणेहि
की तरह राजगृह नगर के बाहिर के अग्निकोणस्थ जनपदो को गृह रहित और धन रहित करने लग गया ।' सूत्र ४ ॥
નામની ચેારપલ્લીમા પાચા ચોરીના અધિપતિ થઇને વિજય તસ્કરની જેમ રાજગૃહ નગરની બહારના અગ્નિકાણુ તરફના જનપદોને ગૃહરહિત અને ધન રહિત એટલે કે ખરખાદ કરવા લાગ્યા 1 સૂત્ર ૪ ૫
Page #936
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६६
बताया पटिगेति' प्रतिशृयन्ति शीर्यन्ति, प्रतिभुत्य, चिलात तसर बोरसेना पतितया अर्थात् चोरसेनापतिपदे प्रतिनियति । ततः पल मनिलात चोरसेना पवितिः, फीरशः ? इत्याह- अहम्मिए गार' अधार्मिको यार-विजयचोर सेनापतिवदधामिको यापदधर्म केशर्मा गिरनि । तनः ब स चिलाता चोरसेनापति 'चोराण य जार' चौराणा च याम्योरपारदारिकादीनां च 'फुडगे' कुउद्गः आश्रयस्थान नाऽपि मामीन् । स पलु तर सिंहगुहायो चोर पल्ल्या पञ्चाना चोरशताना च एर यथा पिनयम्त म मान्विजयवत् पश्च शताना चोराणामरि आधिपत्य कर्मन् , राजगृहस्य दक्षिणपौरस्त्यम्-अग्निकोणस्य स्वीकार कर लिया। और स्वीकार फर के उस चिलात चोर को अन्त में उस सिंहगुहा नामकी चोर पल्ली का उन्हों ने चोर सेनापति के रूप में अभिषेक कर दिया। (तएण से चिलाए चोरसेणावई जाए अहम्मिए जाव विरह तण्ण से चोर से० चोराण य जाव कुडगे यावि होत्या, से ण तत्थ सीहगुहाए चोरपली पचण्ड चोरसयाण य एव जहा विजओ तहेव सव्व जाव रायगिहस्स दाहिणपुरथिमिरल जणवय जाव जित्थाण निद्वण फरेमाणे विहर) इस तरह या चिलात चार सेनापति यन गया। चोरसेनापति घनकर वह विजय चोर सेनापति की तरह अधार्मिक यावत् अधर्मकेत जैसा हो गया। अतः वह चिलात चोर सेनापति चोरों का यावत पारदारिक आदिकों का कुडग की तरह वासों के वन के समान-आश्रयस्थान बन गया और उस सिंहपुरा नोमकी पल्ली में पाचसो चोरों का आधिपत्य करता हुआ विजय तस्कर
અર્થને સ્વીકારી લીધું અને સ્વીકારીને છેવટે તે ચિલાત ચોરને તે સિંહગુ નામની ચોર૫લીને તેમણે ચોર સેનાપતિના રૂપમાં અભિષેક કરી દીધા
(तएण से चिलाए चोरसेणावई जाए अहम्मिए जोव विदाइ तएण से घोर से चोराण य जाव कुडगे यावि होत्था, सेण तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पचह चोरसयाण य एव जहा विजओ तहेव सव्व जाव रायगिस दाहण पुरथिमिल्ल जणवय जाव जित्थाण निण करेमाणे विहरह)
આ પ્રમાણે તે ચિલાત ચાર ચાર સેનાપતિ થઈ ગ ર સેનાપતિ બનીને તે વિજય ચાર સેનાપતિની જેમ અધાર્મિક યાવત્ અધમ કેતુ જેવા થઈ ગયે તેથી તે ચિલાત ચોર સેનાપતિ ચારો યાવતુ પારદારિક વોના કુડગની જેમ-વાસના વનની જેમ-આશ્રયસ્થાન બની ગયું
Page #937
--------------------------------------------------------------------------
________________
गारधर्मामृतfपणी टीका भ० १८ सुसुमादारिकाच रितवर्णनम्
अनुत्तरागए ' जिमितभुक्तोत्तरागत = जिमितः = कृतभोजनः भुक्तोत्तरकालमागत यावत् परमशुचिभूत. सुवासनारगतः सन् तानि पञ्च चोरशतानि विपुलेन = अत्य न 'धूवपुप्फगधमलालकारेण ' = चूप पुष्पगन्धमाल्यालका रेण= धृपः = सुगन्धित द्रव्येण उत्पन्नो धूमः, पुष्प = कुसुमम् गन्धः = चन्दनादि माल्यम् - माला, अलङ्काराणि= आभरणानि, एतेपा च समाहारद्वन्द्वः, तेन सत्करोति, सम्मानयति, सत्कृत्य सम्मान्य एवम् अवदत्-एव खल हे देवानुमिया' ! राजगृहे नगरे धन्यो
६६२
लालकारेण सकारेह, सम्माणेड, सक्कारिता सम्माणित्ता एव दयासी) विपुल मात्रा मे, अशन पान, सादिम एव स्वादिमरूप चारो प्रकार का आहार बनवा कर उन पांचसौ चोरो को आमन्त्रित किया। जन वे सब आचुके तय उस चिलात चोर ने स्नान से निवट कर और वायसादि को अनादिका भाग देनेपनलिकर्म आदि कर भोजन मडपमे बैठकर उन पाच सौ चोरो के साथ उस विपुलमात्रा में निष्पन हुए अशन, पान, सादिम, एव स्वादिमरूप चारो प्रकार के आहार को तथा सुरा, यावत् प्रसन्न मदिरा को खूद मनमाने रूप में पिया खाया जब वे सन के सन अच्छी तरह भोजन कर उत्तर काल में परमशुचिभूत होकर आनद के साथ एक स्थान पर आकर बैठचुके तब उस चिलात चोर सेनापति ने उनका वृप से सुगंधित द्रव्य से निष्पन्न हुए धूप से, पुप्पो से, चंदन आदि से, मालाओ से, और आभरणो से सत्कार किया सन्मान किया । सत्कार सन्मान करके फिर उनसे उसने इस प्रकार
પુષ્કળ પ્રમાણુમા અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમ ચારે જાતને આહાર બનાવડાવીને તે પાચસા ચારાને આમંત્રિત કર્યો. જ્યારે તેએ બધા આવી ગયા ત્યારે તે ચિલાત ચારે સ્નાન કર્યુ અને ત્યારપછી તેણે કાગડા વગેરે પક્ષીઓને અન્ન વગેરેના ભાગ અર્પીને અલિકમ વગેરે કર્યુ ત્યારખાત તેણે ભેાજન મડપમા બેસીને તે પાચસા ચારાની સાથે તે પુષ્કળ પ્રમાણુમા અનાવડાવેલા, અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમ રૂપ ચારે પ્રકારના આહા રને તેમજ સુરા યાવત્ પ્રસન્ન મદિરાને ખૂબ ધરાઇ ધરાઈને ખાધા-પીધા જ્યારે તે બધા સારી રીતે જમીને પરમશુચીભૂત થઇને આનદપૂર્વક એક સ્થાન ઉપર આવીને એકઠા થયા-બેસી ગયા, ત્યારે તે ચિલાત ચાર સેના પતિએ તેમના ધૂપથી, પુષ્પોથી, ચદન વગેરેથી, માળાએથી અને આભર ોથી સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તેણે તેમને આ પ્રમાણે કર્યું કે—
Page #938
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६८
वाताधर्मका
सजीवेहि धहि समुनिरात्तेहि सरेहि समुग्लालियाहि दीहाहि ओसारियाहिं उरुघंटयाहि छिप्पतुरेहि वज्रमाणेहि मह्या महया उक्किहसीहणायचोरफलफलरव समुदरवभूय करेमाणे सीहगुहाओ चोरपल्लीओ पडिणिक्समइ पडिनिक्स मित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहस्स नयरस्स अदूरसामते एग महं गहण अणुपरिसइ, अणुपविसित्ता, दिवस खवेमाणे चिट्टइ ॥ सू० ५ ॥
टीका - ' तरण से ' इत्यादि । वतः सलुम चितश्रोरसेनापतिः अन्यदा कदाचित् रिपुलम् अशनपानखादिमम्बादिमम् 'उपखनेचा उपस्सार्थ निप्पाय पञ्च चोग्शतानि आमन्त्रयति । ततः पश्चात् स्नात ' कयवलि कम्मे ' कृतवळि फर्मा=कृत बलिकर्म येन सः, काकादीना कृतेदच भोजनोपदारो भो ननमण्डपे तैः पच्चमि चोरशतैः सार्ध ' विउल' निपुलम् = अत्यर्थम्, अशन पान खाद्यस्वान सु च यावत् प्रसन्ना च ' आसाएमाणे ' आस्वादयन् विहरति । पुनथ ' जिमिय
Spe
"
तण से चिलाए चोर सेणावई ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तएण ) इसके बाद (चोर सेणावई चिलाए) चोर सेना पति चिलात चोर ने (अम्न्नया कयाइ) किसी एक समय (विउल असण पाणखाहमसाइम उवक्खडावेत्ता पचचोरसए आमतेइ - तओ पच्छा पहाए कययलिकम्मे, भोयणमडवसि तेहिं पर्चाहिं चोरस एहिं सद्धिं विल असण पाण ग्वाइम साइम सुर च जाव पसण्ण च ओसाए माणे ४ विहरह, जिमियमुत्तत्तरागण ते पच चोरसए बिउलेण वृवपुष्पगधम
तपण से चिलाए चोरसेणावई इत्यादि --
टीअर्थ - (तरण ) त्यारपछी ( चोरसेणावई चिलाए ) ये २ सेनापति थिसात थोरे (भन्नया कयाइ) असे ते ( विउल असणपाणसाइमसाइम उवक्सडावेत्ता पच चोरसप आमतेइतओ पच्छा पहाए क्यबलिकम्मे, भोयण खाइम साइम सुर
वसि तेहिं पचहिं चोरसहि सद्धिं विउल असण पाण चाय पणच आसाए माणे४ विहरइ, जिमिय भुनुत्तरागए ते पच चोरसए वि वयासी) ण धूव पुप्फगधमल्लाल कारेण सकारेइ, सम्माणेइ, सकारिता सम्मानित्ता"
Page #939
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम्
દુર્ગ
यावत् शिलवाल, मम खुसुमा दारिका-लुण्ठितेषु वस्तुषु मध्ये धनकनकमणिमौक्तिकशिलाबालादि वस्तुजातानि युष्मारु भवन्तु मम तु एका सुसुमा दारिका भविष्यति । तत सलु तानि पञ्च चोरशतानि चिलातस्य चोरसेनापतेः एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति = स्वीकुर्वन्ति । ततः खलु स चिलातश्च रसेनापतिः तै पञ्चभिः चोरशतैः सार्द्ध ' अल्लचम्म' आर्द्रचर्म दूरोहति, लुण्ठकाहि लुण्ठनमस्थानात् पूर्व माल्यार्थमाचर्मण्यारोहन्तीति तेपा व्यवहार, दूरा, 'पुव्वावरण्यकालसम यसि पूर्वापराहकासमये 'दिनस्य चतुर्थमहरे पञ्चमिथोरशतैः मार्द्ध सणद्ध जान गहियाउहपहरणे ' सन्नद्ध यावत् गृहीतायुधमहरण. =मन्नद्धवद्ध वर्मितकवचः = सनद्ध' = सज्जीकृतः, बद्धः = कशाबन्धनेन सद्धः, वर्मितः परि हितः कवचो येन स तथोक्तः, 'गृहीतायु महरण' ' गृहीतानि आयुधप्रहरणानि
4
लूट - जो वस्तु हम तुम लूटेंगे उनमें से तुम्हारी तो धन, कनक, मणि, मौक्तिक शिलाप्रवाल आदि चीजें होगी और मेरी केवल एच वह सुम मादारिका होगी । इस तरह उन पांचसौ चोरों ने अपने सेनापति चिलात चोर की इस बात को मान लिया । इसके बाद यह चोर सेनापति चिलात, उन पाचसौ चोरों के साथ गीले चमडे पर बैठ गया । लुटेरे लूटने के लिये जन प्रस्थान करते है तन वे पहिले गीले चमडे पर शुभ शकुन मानने के निमित्त बैठते है ऐसा उनमें व्यवहार है बैठकर फिर वह दिन के चतुर्थप्रहर में पाचसौ चोरों के साथ (सीरगुराओ चोरपत्लीओ पडिनिक्खम) उस मिगुरा नाम की चोरपल्ली से निकला। ( सण्णद्ध जाव गहियाउहपहरणे माइयगोमुहिएहि फल एहिं
-
એટલા માટે ચાલેા તૈયાર થા, હૈ દેવાનુપ્રિયા ! આપણે બધા ત્યા જઈએ અને ધન્ય સાવાહના ઘરને લુટી લઇએ, જે વસ્તુએ આપણે ખધા લુટીશું तेभाथी धन, अणु, भषि, भौतिक, शिलाप्रवास वगेरे वस्तुओ। तभारी थशे અને ફક્ત તે સુસમા દ્વારિકા મારી થશે આ પ્રમાણે તે પાચસે ચારેએ પેાતાના સેનાપતિ ચિલાત ચારની આ વાત સ્વીકારી લીધી ત્યારપછી તે ચાર સેનાપતિ ચિલાત, તે પાચસે ચારાની સાથે સાથે ભીના ચામડા ઉપર બેસી ગયા લુટારા લુવા માટે જ્યારે ઘેરથી નીકળે છે ત્યારે તે પહેલા શુભ શકુન માટે ભીના ચામડા ઉપર બેસે છે, આ જીતને તેમા રિવાજ છે ઉપર બેસીને તે દિવસના ચોથા પહેારમા પાચસા ચારાની સાથે ( सीहगुहाओ चोरपल्लीओ पडिनिक्खमइ ) ते सिडगुडा नामनी ચારપક્ષીમાથી નીકચૈા
ભીના ચામડા
Page #940
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७० नाम सार्या भात्योऽस्ति । तस्य ग्पल दुहिता मदापा आन्मना पक्षाना पुत्रा णामनुमानातिका-पश्चाना पुप्राणा जननान्तर समुपमा मुममा नाम दारिका चापि अम्ति, पीहशी मा ? 'जहोण ना गुम्बा' अहीन यापन मुम्पा अहीन पश्चेन्द्रियशरीरा याद सुरूपाती, ''ततस्माद् गालामः खलु हे देवानु मियाः । धन्पस्य मार्यहम्य गृह पिटम्पाम'टुण्ठामः, युग्माक धनकनक कहा-(एव सल देवाणुप्पिया! रायगिहे णयर धणे णाम सत्यवाहे अडे० तस्स ण धूया भाग अत्तया पचण्ड पुत्ताण अणुमग्गजाइया सुसमाणानदारिया याचि होत्या, अहोण जाव सुख्या त गच्छामीण देवाणुप्पिया! घण्णस्स सत्याहस्स गिर विलुयामो तुम विउले धणरुणग जाय सिलप्पयाले, मम सुसुमा दारिया | ताण ते पच चोरसया चिलायस्स चोरसेणईस्म एयम पडिसुणेति । तएण सेचिलाए चोरसेणावई तेरि पनि चोरसहि सद्धि अल्लचम्म दुरूहड़, दुरुरित्ता पुन्चावरणहकालसमयसि पैचर्हि चोरसएहिं सद्धि) हे देवानु प्रियो । सुनो-एक घात करना है-वर इस प्रकार है-रोजगृह नगर में धन्य नोम का एक धनिक एव सर्वजन मान्य सार्थवाह रहता है। इस की एक लड़की है। जिसका नाम सुममा है। यर उसकी पत्नी भद्रा भार्या से पांच पुत्रों के बाद उत्पन्न हुई है। यह अहीन पाचों इन्द्रियों से युक्त शरीरवाली है तथा पहुत अधिक सुकुमार एव सुन्दर है । इसलिये -चलो हे देवानुप्रियो। हम सा चलें और धन्य सार्थवाह के घर को
( एव सलु देवाणुप्पिया! रायगिहे णयरे धण्णे णाम सत्यवाहे अढे० तस्सण धूया भद्दाए अत्तया पचण्ड पुत्ताण अणुमग्गजाइया सु समा णाम दारिया यावि होत्था अहीण जाव सुरुवात गन्छामो ण देवाणुपिया । धणस सत्य पाहस गिह विल्लयामो, तुभ विउले धणकणग जाव सिर पवाले, मम सुसमा दारिया ! तएण ते पच चोरसया चिलायस्स चोरसेणावइस्स एयम पडि सुणे ति । तएण से चिलाए चोरसेण वई तेहिं प चहि चोरसएहि सद्धि अल्ल चम्म दुरूहइ, दुरूहित्ता पुव्वावरण्हकालसमयसि पचहि चोरसएहि सद्धि )
હે દેવાનુપ્રિયે! સાભળે, તમને મારે એક વાત કહેવી છે તે આ પ્રમાણે છે કે રાજગૃહ નગરમા ધન્ય નામે એક ધનિક અને સર્વજનમાન્ય સાર્થવાહ રહે છે તેને એક પુત્રી છે, તેનું નામ સુમમાં છે ધન્યની પત્ની ભદ્રાભાર્યાના ગર્ભથી તે પુત્રી પાચે ભાઈઓ બાદ જન્મ પામી છે તે અહીન પાચે ઇન્દ્રિયથી યુક્ત શરીરવાળી છે તેમજ ખૂબ જ સુક
Page #941
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम्
૬
यावत् शिलप्रवालः, मम सृसृमा दारिका - लुण्ठितेषु वस्तुषु मध्ये धनकनकमणिमौक्तिकशिलावालादि वस्तुजातानि युष्माक भवन्तु मम तु एका सृमा दारिका भविष्यति । तत खलु तानि पञ्च चोरशतानि चिलातस्य चोरसेनापतेः एतमर्थ मतिशृण्वन्ति = स्वीकुर्वन्ति । ततः खलु स चिलातश्चोरसेनापतिः तै पञ्चभिः चोरशतैः सार्द्ध ' अचम्म' आर्द्रवमं दूरोहति, लुण्ठकाहि लुण्ठनमस्थानात् पूर्व महार्थमाचर्मण्यारोहन्तीति तेपा व्यवहार, दूरा, 'पुव्वावरण्यकालसम यसि पूर्वापराह्न कालसमये 'दिनस्य चतुर्थमहरे पञ्चभियोरशतैः सार्द्धं 'सण्णड जान गहियाउहपहरणे ' सन्नद्ध यावत् गृहीतायुधमहरण = सन्नद्धवद्ध वर्मित कवचः = सनद' = सज्जीकृतः, वद्धः = कशाबन्धनेन सनद्धः, वर्मितः = अने परिहितः कवचो येन स तथोक्तः, 'गृहीतायुप्रहरण: ' गृहीतानि आयुधमहरणानि
"
लूट - जो वस्तु हम तुम लूटेंगे उनमें से तुम्हारी तो धन, कनक, मणि, मौक्तिक शिलाप्रवाल आदि चीजें होगी और मेरी केवल एच वह सुसमादारिका होगी । इस तरह उन पांचसौ चोरों ने अपने सेनापति चिलात चोर की इस वात को मान लिया। इसके बाद यह चोर सेनापति चिलात, उन पावसौ चोरों के साथ गीले चमडे पर बैठ गया । लुटेरे लूटने के लिये जन प्रस्थान करते है तन वे पहिले गीले चमडे पर शुभ शकुन मानने के निमित्त बैठते है ऐसा उनमें व्यवहार है बैठकर फिर यह दिन के चतुर्थप्रहर में पाचसौ चोरों के साथ (सीहगुहाओ चोरपल्लीओ पडिनिम) उस सिगुरा नाम की चोरपरली से निकला। ( सण्णद्ध जाव गहियाउहपहरणे माझ्यगोमुहिति फलए हिं
-
એટલા માટે ચાલે તૈયાર થાએ, હૈ દેવાનુપ્રિયે ! આપણે બધા ત્યા જઈએ અને ધન્ય સાવાહના ઘરને લુટી લઇએ, જે વસ્તુઓ આપણે ખધા લુટીનું तेभाथी धन, अणु, भषि, भौतिक, शिक्षाप्रवास वगेरे वस्तुओ। तभारी थशे અને ફક્ત તે સુસમા દારિકા મારી થશે આ પ્રમાણે તે પાચસે ચારેએ પેાતાના સેનાપતિ ચિલાત ચારની આ વાત સ્વીકારી લીધી ત્યારપછી તે ચાર સેનાપતિ ચિલાત, તે પાચસા ચારાની સાથે સાથે ભીના ચામડા ઉપર બેસી ગયા લુટારાએ લુટવા માટે જ્યારે ઘેરથી નીકળે છે ત્યારે તે પહેલા શુભ શકુન માટે ભીના ચામડા ઉપર બેસે છે, આ જાતના તેએમા રિવાજ છે ભીના ચામડા ઉપર બેસીને તે દિવસના ચોથા પહેરમા પાચસે ચારાની સાથે ( सीहगुहाओ घोरपडीओ पडिनिक्समइ ) ते सिडेगुडा नामनी ચારપલ્લીમાંથી નીકન્યા
Page #942
--------------------------------------------------------------------------
________________
H
ETAN
mata येन स', गृहीताऽयमनः, ' माश्यगोमुहिये हि मागोमुग्विने = माकानिपक्ष्ममानि, गोमुगितानि गोगुग्यापाराणि-मापानि 7 तानि गोमुखितानि तै-उदररक्षा भत्तारोमानेोग्याकरिः 'पल' फरक पहिकेति प्रमिट' 'गिहादि असिस्टीहि । निमामि• असिपष्टिमि', कोशरहिष्कतः खङ्ग, 'अंसग तोहि' असगतस्तसन्चस्थितस्तगीर', 'सनीवहिं धन्हि' सनी नुभिः कोटयारोपितमत्यचनुमि', 'ममुस्विति गरे' समुत्सितः शरैः-तूणीरसाशान्निाकाशितणः, 'समुहारियाहि दीहार्डि' समुल्लालि ताभि दीहामि समुच्छास्तिः शस्तपिशेपे 'ओमारियार्टि' आम्बरिनाभिःनादितागि ' उम्पटियाहिं ' उपण्टिकामि =विशाल बटाभि 'डिप्पतूरेडि गिमहादि असिलट्टी असगह तोणेहि मजीवेटिं घहिं, समुक्खि त्तेहिं सरेहिं समुल्लालियाहिं दीहारि, ओसारियाहिं उमपटयाहिं डिप्प तृरेहिं बजमाणेहिं मत्या२ उस्पिट्टी सीरणाये चोरकलकल रव समुदरव भूय करेमाणे) चोरपल्ली से वह किम तरह की स्थिति में निकला-यही यात सूत्रकार इन पक्तियों में कर रहे है-वे करते है कि जब वह अपनी चोरपल्ली में से निकला तो उस समय उसने अपने शरीर पर कवच को सन्नित करके कशाधन से अच्छी तरह बाध रखा था " गृही तायुधाहरण "आयुध और प्रहरण उसके दोनों हाथों में थे। रीछ के रोम से युक्त गोमुसाकार पहिका से, भ्यान से पारिर खेंची हुई तलवारों से, कधो पर लटकते हुए भायोतृणीरों-से ज्यापर चढे हुए धनुषों से, तूगीर से निकाले गये बाणों से ऊपर उछालेगये शास्त्र विशेषों से,
(सण्णद्ध जाव गहियावहपहरणे माइयगोमुहिएहि फलएहि णिकदाहि भसिलट्ठीहि असगएहि तोणेहि सजीवेहि धणूहि समुक्सित्तेहि सरेहि समुल्ला लियाहि दिहाहि ओसारियादि उपरियाहि हिप्पतूरेहि वजमाणेदि महया २ उकिट्ठसीहणाये चोरकलकलरव समुदरव भूय करेमाणे)
ચાર૫લીમાથી તેઓ કેવી રીતે બહાર નીકળ્યા એ જ વાત સૂત્રકાર આ પક્તિઓમાં સ્પષ્ટ કરી રહ્યા છે તેઓ કહે છે કે જયારે તે પોતાના ચારપનીમાથી નીકળે ત્યારે તે પોતાના શરીર ઉપર કવચ ધારણ કરીને तेने ४५ धनथी सारीश पाधी सयु तु "गृहितायुधप्रहरण આયુધ અને પ્રહરણ તેના બંને હાથોમાં હતા રીંછના રમી યુક્ત ગણું ખાકાર પદિકાથી, મ્યાનમાથી બહાર કાઢેલી તવારોથી ખભા ઉપર લટ કતા શીરથી, જયા ઉપર ચઢેલા ધનથી, તુરીરમાથી કા માં આવેલા ખાથી, ઉપર ફેકવામાં આવેલા શસ્ત્ર વિશેથી, જ
Page #943
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६७३ वजमाणेहि 'क्षिमतयः वाघमानद्रुत गायमानैः तूयः उपलक्षितः सन् ' महयामहया उकिसीहणाये चोरकल कलरव ' महामहोत्कृष्टसि हनादचोरकळकलरवअत्यन्तोत्कृष्टसिंहनादचोरक्लरलशब्दं समुद्ररवभूत-समुद्रोलापृद्धिसमये ध्वनि मिवकुर्वन् , यद्वा मन्ता महता उत्कृष्टसि हनादेन-'लुप्तवतीयान्त पदम् '
स्वकृतोत्कृष्टसि दनादेनेत्यर्थः, शेप पूर्ववत् । सि हगुहातश्चोरपल्लीतः प्रतिनिष्का । म्यति, मतिनिष्क्रम्य यत्रै राजगृह नगर तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य राजगृहस्य
नगरस्य अदूरसामन्ते एक महद् गहण ' गहनम् धनम् अनुमविशति, अनुमविश्य, दिवसम्-शेपदिवसभाग क्षपयन् व्यतियन् तिष्ठति ।। मू०५ ॥ शन्दायमान-पढे २ घटों से जल्दी २ बजते हुए बाजोंसे वह उपलक्षित -युक्त या। तथा उसके निकलने पर जो चोरों का कलकल रव हुआ-वह सिंह की गर्जना के जैसा महान उच्चस्वर था-1 तथा जिस समय समुद्र घढता है उस समय जैसा उसका शब्द होता है-वैसा ही वह कल २ रव गंभीर या । (पडिनिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवाग च्छड, उवागच्छित्ता रायगिहस्स नयरस्स अदर सामते एगं मह गहण अणुपविसइ, अणुपविसित्ता दिवस खवेमाणे चिट्ठइ) चोरपल्ली से निकलकर वह जहा राजगृह नगर या वहां आया-वहां आकर के वह राजगृह नगर के अदरसामत-न अति दूर न अति समीप रहे हुए एक महान जगल मे छिप रहे यहा छिपकर उसने अपना वह दिवस वही पर ठहर कर समाप्त कर दिया ॥ सू०५॥ જદી જદી વાગતા વાજા એથી તે યુત હતું તેમજ જ્યારે તે નીકળ્યો ત્યારે એને જે ઘંઘાટ થયે તે સિંહની ગર્જના જે મહા વનિ હતો તેમજ જ્યારે સમુદ્રમાં ભરતી આવે છે અને ત્યારે જે તેને વનિ હોય छ, a भान पनि ५ तेवा र गला ( पडिनिक्समिचा जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहरस नयरस्म अदूरसामते एग मह गहण अणुपविसइ, अणुपविसित्ता दिवस सवेमाणे चिट्ठइ) यो२५ माथी નીકળીને ત્યાં રાજગૃહ નગર હતું ત્યાં તે આવ્યું ત્યાં આવીને તે રાજગૃહ નગરથી ઘણે દૂર પણ નહિ અને ઘણા નજીક પણ નહિ એવા એક મોટા વનમા છુપાઈને રહૃાા ત્યાં છુપાઈને તેણે પિતાને તે દિવસ ત્યાં જ પસાર કરી દીધે સૂપા
Page #944
--------------------------------------------------------------------------
________________
૬૭
वाताधर्मका
मूलम् - तएण से चिलाए घोरसेणावई अहरत्तकालसमयसि निसत पडिनिसतसि पचहिं घोरस पहिंसा माझ्य गोमुहिएहि फलएहि जाव मृदआहि उरुघंटियाहि जेणेव रायगिहस्स नयरस्स पुरथिमिल्ले दुवारे तेणेव उद्यागच्छड, उवागच्छिता उदगवत्थं परामुसई, आयते चोक्खे सुइभूप तालुग्धाडणिविज आवाहेइ, आवाहित्ता, रायगिहस्स दुबारकवाडे उदएण अच्छोडेर, कवाड विहाउइ विहाडित्ता रायगिह अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, महयार सद्देणं उग्घोसेमाणे२ एवं वयासी - एव खलु अह देवाणुपिया । चिलाए णाम चोरसेणावई पचहि चोरसहि सद्धि सीहगुहाओ चोरपीओ इह हव्वमागए धण्णस्स सत्थवाहस्स गिह घाउकामे, त जोणं णवियाए माउ याएदुद्ध पाउकामे से णं णिगच्छउ तिकट्टु जेणेव धण्णस्स सत्थ वाहस्स गिह तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता घण्णस्स गिह विहा डेइ। तएण से धण्णे चिलाएणं चोरसेणावइणा पचहि चोरसाएहि सद्धि हि घाइज्जमाण पासइ, पासित्ता भीए तत्थे४ पचहि पुत्तेहि सद्धि एगंत अवक्कमइ । तएण से चिलाए चोरसेणावई धण्णस्स सत्थवाहस्स गिह घाएइ घाइत्ता, सुबहु धणकणग जाव सावएज्ज सुसुम च दारिय गेण्हइ, गेण्हित्ता, रायगिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता, जेणेव सीहगुहा तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० ६ ॥
Page #945
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ०१८ सुसुमावारिकाचरितवर्णनम् ६७५
टीका-'तएण से ' इत्यादि । ततः खलु स चिलातथोरसेनापतिः 'अद रत्तकालसमयमि' अबरानकालसमये-मध्यराने, कीदृशे 'निसतपडिनिसते'निशान्तप्रतिनिशान्ते-निशान्त-जन बनिरहित प्रतिनिशान्त प्रत्येकगृह यस्मिन् तस्मिन् , जने प्रसुप्ते सतीत्यर्थः, पञ्चभिश्वोरशतै सार्द्धम् 'माइयगोमुहिएहि' माइगोमुखितैः, उदररक्षार्थ भल्लूकरोमारतैर्गोमुखाकारः ‘फल्एहि फलकै पट्टकैः उदरवद्धकाष्ठफलकैरित्यर्थः, यानत् 'मूडआहिं उम्पटियाहि मूकिताभिरुरुपंण्टिकाभिः निः शन्दी कृताभि निशालघण्टाभिर्युक्तः यौव राजगृहस्य नगरस्य पौरस्य द्वार तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य, 'उदगपत्थि' उदकास्ति चर्ममयजलपात्रम् , 'ममक' इति प्रसिद्धम् 'परामुसइ ' परामृशति-गृह्णाति, अनन्तरम् 'आयते' आवान्त = कृतमुखादि प्रक्षालनः 'चोक्खे' चोक्षः स्वच्छः अतएव ' तालग्याडणि विज्ज'
'तएण से चिलाए गेरसेणावई ' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (चोरसेणावई से चिलाए) चोरसेनापति वह चिलात चोर (निसतपडिनिसते अद्धरत्तकालसमयसि) जय जन ध्वनिरहित प्रत्येक घर हो गया ऐसे मध्यरात्रिके समयमें (पचहिं चोर सएहिं सद्धिं) उन पांचसौ चोरों के साथ (माइय गोमुहिएहिं फल एहिं जाव मूहआहिं उरुघटियाहिं जेणेव रायगिस्स नयरस्स पुरथिमिल्ले दुवोरे तेणेव उवागच्छइ ) अपने उदर की रक्षा के निमित्त बद्धभल्लूक के रोमों से आवृत ए गोमुखाकार काष्ठफलको से यावत् निःशब्दीभूत विशाल घटिकाओ से युक्त होकर जहा राजगृह नगर का पूर्व दिशा का द्वार था वहा आया। (उवागच्छित्ता उदगवत्यि परामुसइ, आयते, चोक्खे, सुइभूए, तालुग्घाडणिविज्ज आवाहेड, आवाहित्ता रायगिहस्स
'तएण से चिलाए चोरसेणावई' इत्यादि--
10-(तएण ) त्या२मा चोरसेणारई से चिलाए) यार सेनापति ते विसात यार (निसतपडिनिसते अद्धरत्तकालसमयसि) न्यारे हरे हरे४ ઘરમાં મારો અવાજ એકદમ વધ થઈ ગયે, એવા તે મધ્યરાત્રિના समये (पचहिं चोरमएहि सद्धि ) पायो योशनी साये
(माइय गोमुहिएहि फलएहि पाव मूइआहि उरुघ टियाहि जेणेव राय गिहस्स नयरस्स पुरथिमिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छद)
પિતાના પિટની રક્ષા માટે રીછના રેમથી આવૃત્ત થયેલા ગોમુખાકાર કાઇ ફલકથી યાવત રાત થઈ ગયેલી મોટી ઘટિકાઓથી યુક્ત થઈને જ્યા रा नगनु पूर्व हिशानु द्वार हेतु त्या माव्या (उवागन्तिा उदगवत्थि परामुसइ आयते चोखे सुइभूए, तालुग्धाडणि विज्न आवाहेइ, आवाहिता
Page #946
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७४
साधर्मका
मूलग्-तणं से चिलाए घोरसंणावई अन्द्धरत्तकालसमयसि निसत पडिनिसतंसि पचहिं चोरसहि सा माझ्यगोमुहिएहि फलएहि जाव मृदआहि उमपटियाहि जेणेव रायगिहस्स नयरस्स पुरथिमिले दुवारे तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता उदगवत्थि परामुसई, आयंते चोक्से सुइभूप तालुग्धाडणिविज आवाहेइ, आवाहिता, रायगिहस्स दुबारकवाडे उद्एण अच्छोडेर, कवाड विहाउइ विहाडित्ता रायगिह अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, महयार सद्देणं उग्घोसेमाणे२ एव वयासी - एव खलु अहं देवाणुप्पिया । चिलाए णामं चोरसेणावई पचहि चोरसहि सद्धि सीहगुहाओ चोरपीओ इह हव्वमागए पण सत्थवाहस्स गिह घाउकामे, त जोण णवियाए माउ याए दुद्धं पाउकामे से णं णिगच्छउ तिकट्टु जेणेव घण्णस्स सत्थ वाहस्स गिह तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ताधण्णस्स गिह विहा डेइ। तएणं सेधपणे चिलाएणं चोरसेणावड़णा पचहि चोरसहि सद्धि हि घाइज्माण पासइ, पासित्ता भीए तत्थे४ पचहि पुतेहि सद्धि एगंत अवक्कमइ । तएणं से चिलाए चोरसेणावई धण्णस्स सत्यवाहस्स गिह घाएइ घाइत्ता, सुबहु धणकणग जाब सावएज्ज सुसुम च दारिय गेण्हइ, गेण्हित्ता, रायगिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता, जेणेव सीहगुहा तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० ६ ॥
Page #947
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५७
भनेगारधर्मामृतपिणी डी० ५० १८ मुसुमादारिकाचरितवर्णन शीघम् आगतः धन्यस्य सार्थवाहम्य गृह 'घाउकामे पातयितुमामा लुण्ठयितुकामः हे देवानुप्रियाः ! यूयं शृणुत, पञ्चशतचौरः सहाह चिलातश्चोरमेनापतिरपन्यस्य सार्थवाहस्य गृह लुण्ठयितुमागतोऽस्मीति भावः, 'त' तत्-तस्मात् कारणात् 'जो ण' यः खलु ' णवियाए माउाए ' नव्याया मानुकाया 'दुद्ध पाउकामे' दुग्ध पातुकाम =यः खलु मदीयहस्तान्मृत्यु प्राप्य पुनभाविभवभाविन्या नूतनाया मातुर्दुग्धाभिलापीभवेत् 'सेण ' स खलु ‘णिग्गन्छ ' निर्गन्तु मम समुख मागन्छनु 'त्ति कटु' इतिकृत्वा इत्यमुक्त्वा यत्र वन्यस्य सार्यवाहस्य गृह तत्र पाचसी चोरों के साथ यहा सिंहगुहा नाम की चोरपरली से आया हुआ है। मेरी इच्छा बन्यसार्थवाह के घर को लूटने की है-(त) इसलिये -(जो ण णवियाए, माउयाण, दुद्ध पाउकामे सेण णिग्गच्छउ, त्तिक जेणेव धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहे तेणेघ उपागच्छद, उवागच्छित्ता गिह विहाडेइ । तण्ण से धण्णे चिलाएण चोरसेणावणा पहिं चोरसहिं सद्धिं गिह घाइजमाण पासह, पासित्ता भीए तत्थे ४ पचहि पुत्तेहिं सद्धि एगत अवझमह, । तएणं से चिलाए चोरसेणावई वण्णस्स सत्यवाहस्स गिह घाण्ड, घाहत्ता सुबहुधणकणग जाव सावएन सुसमं चदारिय गेण्ड, गेण्डित्ता रायगिहाओ पडिणिक्खमद,पडिणिक्खमित्ता जेणेच मीरगुहा तेणेव पहारेत्य गमणीय) जो नवीन माता का दूध पीना चाहता हो-मेरे हाथ से मृत्यु को प्राप्त कर पुनः भाविभव में होनेवाली जननी का दुग्ध पान करने का जो अभिलापी बन रहा हो ચિલાત નામે ચેર છુ હમણા જ હુ પાંચસો એની સાથે અહીં સિંહગુહા નામની ચેરપલીથી આવ્યો છુ ઘન સાર્થવાહના ઘરને લૂટવાની મારી ४२७ छ (त ) माटे
(जोण णवियाए, माउयाए, दुद्ध पाउकामे सेण जिग्गाउ, त्ति पट्टा जेणेन धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहे तेणेव उपागच्छइ, उवागन्छित्ता घण्णस्स गिह विहाडेइ, तएण से धण्णे चिलाएण चोरसेणाराणा पचर्हि चोरसएहि सर्टि गिह घाइजमाण पासइ, पासित्ता भीए तत्ये४ पचहि पुत्तेहि सद्धि एगत अक्कमह । तरण से चिलाए चोरसेणापई वण्णस्स सत्यवाहस्म गिह घाएइ, घाइत्ता साह धणरणग जाव सावएज्ज सुसम च दारिय गेण्डइ, गेण्हिता रायगिहाओ पर णिक्खमइ, पडिक्खमित्ता जेणेव सीह गुहा तेणेर पहारेत्य गमणाए)
જે નવી માતાનું દૂધ પીવા ઈચ્છે છે એટલે કે મારા હાથથી મૃત્યુ પામીને ફરી બીજા ભવમાં થનારી માતાનું દૂધ પીવા જે ઇચ્છા હોય તે
Page #948
--------------------------------------------------------------------------
________________
*
"
वाताधर्मका तालोदायिनी विद्याम् 'जारादेव' आवाहयति=स्मरति ' आरान्ति' आवास= स्मृत्या राजगृहम्य द्वारकपाटानि उनकेन रोड आन्द्रोदयति=अमिषि क्षति, ' आछोडिता ' आच्छोटय= अगिपिन्य, कपाट 'रिछाडे 'विघाटयति= उद्घाटयति, विनाटय चोरे सहितः राजमनुगति, अनुप्रविश्य महता महता=अतिमहता शब्देन ' उग्घोसमाणे २ उपयन २= मुर्मुर्योपणा कुर्वन् एमवदत् घोषणामकारमाह-एव खलु अह हे देवानुमिया ! चिलातो नाम चोरसेनापतिः पञ्चभिः चोरतेः सार्द्धम् सिहगुहात थोरपल्लीत उह 'हव्य ' इव्य=
दुवारे कवाडे उद्रण अच्छोटेड फवाट रिहाटे, विशरित्ता रायगिह अणुपचिस अणुपविसित्ता महा २ मषेण उपोसेमाणे २ एव वयासी - एव ग्वल अर देवाणुपिया चिलाए नाम चोरसेणावेई पर्चाहिं चोरस एहिं सद्वि सिंहगुहाओ चोरपरलीओ माग घण्णस्स सत्यवा हस हि घाउकामे) वहां आकर के उसने चर्ममय जलपात्र को मसक को-अपने हाथ में लिया और उसके जल से आचमन किया-आचमन करके जब वह शुद्ध परमशुचीभूत हो चुका तन उसने तालोद्घाटिनी विद्या का आवाह्न किया - स्मरण कियो-और स्मरण करके राजगृह के द्वार कपाटों को उदक के छीटों से सिञ्चित किया । सिञ्चित करके फिर उसने उन किवाड़ों को सोला और खोल करके फिर वह नमस्त चोरों के साथ राजगृह नगर के भीतर प्रविष्ट हो गया । प्रविष्ट होकर के उसने वहां बड़े२ आवाज से वारवार घोषणा करते हुए इस प्रकार कहा है देवानुप्रियों ! सुनो-मै चोरसेनापति चिलात नाम का चोर हूँ-अभी २
रायगिरस दुवारकवाडे उदपण अच्छे कत्राड विडे, विहाडित्ता रायगिह अणुपविइ, अणुविसित्ता महया २ सद्दे उग्धोसेमाणे २ एव वयासी - एव खड अह देवाणुपिया चिलाए नाम चोरसेणावई पचहि चोरसहि सद्धि सिहगुहाभ चोरपल्लीओ इह हव्वमागए घण्णस्स सत्यवाहस्स गिद्द घाउ कामे )
ત્યા આવીને તેણે ચામડાની થેલી–મશક–ને પેાતાના હાથમા લીધી અને તેના પાણીથી આચમન કર્યુ આચમન કરીને જ્યારે તે શુદ્ધ પરમ શુચીભૂત થઈ ચૂકયે ત્યારે તેણે તાલેદ્ઘાટિની વિદ્યાનુ આવાહન કર્યું મરણ કર્યું, અને સ્મરણ કરીને રાજગૃહના દરવાજાના કમાડાને પાણીથી સિચિત કરીને તેણે તે કમાડાને ઉઘાડયા ઉઘાડીને તે બધા ચારેયની સાથે રાજગૃહે નગરની અદર પ્રવિષ્ટ થઈ ગયા પ્રવિષ્ટ થઈને તેણે ત્યા મેટા સાદે વાર વાર ચાર સેનાપતિ ઘાષણા કરતા આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હું દેવાનુપ્રિયે ! સાભળે
Page #949
--------------------------------------------------------------------------
________________
فی
भनेगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम शीघ्रम् आगतः धन्यस्य सार्थवाहम्य गृह 'घाउकामे पातयितुझामः लुण्ठयितुकामः हे देवानुमियाः । यूय शृणुत, पञ्चशतचौरैः सहाह चिलातश्चोरसेनापतिरनधन्यस्य सार्थवाहस्य गृह लुण्ठयितुमागतोऽस्मीति भावः, 'त' तत् तस्मान् कारणात् 'जो ण' यः खलु ' णवियाए माउभाए ' नव्याया मावकाया 'दुद्ध पाउकामे' दुग्ध पातुकाम =यः खलु मदीयहस्तान्मृत्यु प्राप्य पुनर्भाविभवभाविन्या नूतनाया मातुर्दुग्धाभिलापीभवेत् 'सेण ' स खलु ‘णिग्गन्छ ' निर्गन्छतु मम समुख मागच्छतु 'त्ति कटु' इतिकृत्वा-इत्यमुक्त्या योव धन्यस्य सार्यवाहस्य गृह तत्रैव पाचसी चोरों के साथ यहां सिंहगुहा नाम की चोरपरली से आया हुआ है। मेरी इच्छा धन्यसार्थवाह के घर को लूटने की है-(त) इसलिये -(जो ण णवियाए, माउयाए, दुद्ध पाउकामे सेण णिग्गच्छउ, त्तिकटूटु जेणेव धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता गिह विहाडेइ । तरण से धण्णे चिलाएण चोरसेणावणा पचहिं चोरसहिं सद्धि गिह घाइजमाण पासह, पासित्ता भीए तत्थे ४ पचहिं पुत्तेहिं सद्धि एगतं अवकमद, । तएणं से चिलाए चोरसेणावई घण्णस्स सत्यवाहस्स गिहं घाएइ, घाइत्ता सुबधणकणग जाच सावएज्ज सुसम चदारिय गेण्डह, गेण्टित्ता रायगिहाओ पडिणिक्खमइ,पडिमिक्खमित्ता जेणेव सीहगुरा तेणेव पहारेत्थ गमणोए) जो नवीन माता का दद्ध पीना चाहता हो-मेरे हाथ से मृत्यु को प्राप्त कर पुनः भाविभव में होनेवाली जननी का दुग्ध पान करने का जो अभिलापी बन रहा हो ચિલાત નામે ચાર છુ હમણું જ હુ પાંચસે ચેરેની સાથે અહીં સિંહગુહા નામની ચરપલીથી આ છ ધન સાર્થવાહના ઘરને લૂટવાની મારી ४२छ। छे (त ) भाटे _(जोण णपियाए, माउयाए, दुद्ध पाउफामे सेण जिग्गच्छउ, ति यह जेणेस धस्स सत्यवाहस्स गिहे तेणेष उपागच्छइ, उवागच्छित्ता धण्णस्स गिह विहाडेर, तएण से धण्णे चिलाएण चोरसेणानइणा पचहि चोरसएहि सद्धिं गिह घाइजमणि पासइ, पासित्ता भीए तत्ये४ पचहि पुत्तेहि सद्धि एगत अवक्कमइ । तएण से चिलाए चोरसेणाचई घण्णस्स सत्यवाहस्स गिह घाएइ, घाइत्ता सवड धणरणग जाव सावएज्ज सुसम च दारिय गेण्हइ, गेण्हित्ता रायगिहाओ पर णिक्खमइ, पडिक्खमित्ता जेणेव सीह गुहा तेणे पहारेत्य गमणाए)
જે નવી માતાનુ કૂધ પીવા ઈચ્છે છે એટલે કે મારા હાથથી મૃત્ય પામીને ફરી બીજા ભવમાં થનારી માતાનું દૂધ પીવા જે ઈચ્છતા હોય તે
Page #950
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
"
उपागच्छति, उपागप धन्यस्य गृह 'वि' विषायतियति । तत ख स धन्यः सार्वनाः विनेन चोरसेनापतिना पत्रभिः चोरशतैः सार्द्ध गृई घाइज्जगाण' घात्यमानष्टमान पश्यति दृष्ट्रा गीतः मय माप्तः, त्रस्तः = प्रासगतः, त्रसितः = विशेषतहास प्राप्तः 'उभिने 'उद्विग्नयममा सर्वस्व मपहरति अहमस्य किमपि यतुं न शक्नोमीति देतोः परमचिन्तामापत्रः, पञ्चभिः पुत्रैः सार्धम् ' एगव' एकान्तम् = भयरहित स्थानम् 'अनुपमइ' अपक्राम्यति= अपगच्छति । ततः खलु म चित्रात. बोरसेनापतिः धन्यस्य सार्थवाहस्य गृह घातयति = लुण्ठयति घातविला टपला गुणग जाव सावएज्जे ' धनकनक यावत् स्वापयन्धनकनकमणिमौक्तिकादिक द्रव्य मुमुमा च दारिका गृह्णाति, गृहीत्वा राजगृद्दात् प्रतिनिष्काम्पति, प्रतिनिष्क्रम्प यत्रेव सिंहगुहा तत्रैव माघारयद् गमनाय = गन्तुमुद्यतोऽभूत् ॥ ०६ ॥
भाताचा
-वही मेरे सम्मुस आवे-इस प्रकार काकर वह जहा धन्यसार्थवाह का घर था वहा गया वहा जाकर उसने धन्यसार्थवाह के घर को खोला जय बन्यसार्थवाह ने पाचसौ चोर के साथ घोरों सेनापति चिलात के द्वारा अपने घर को लूटता हुआ देखा तो देखकर वह भय को प्राप्त हो गया - और त्रस्त एव त्रसित - विशेष त्रास को प्राप्त होकर अन्त में वह उद्विग्न बन गया यह हमारा सर्वस्व हरण कर रहा है और मैं इसका कुछ भी नही कर सकता हूँ-इस यान से वह चिन्ताकुल हो गया और चिन्ताकुल होकर अपने पाचो पुत्रों के साथ वहा से निर्भय में चला गया। चोर सेनापति चिलात ने धन्य सार्थवाह को खून मनमाना लूटा और लूट करके उसमें से बहुत सा धन कनक, मणि, मौक्तिक आदि द्रव्यो को एव सुसमादारिका को ले लिया । लेकर वह राजगृह नगर से
स्थान
મારી સામે આવે. આ પ્રમાણે કહીને તે જ્યા ધન્ય સાવાહેતુ ઘર હતું ત્યા ગયા ત્યા જઈને તેણે ધન્ય સાવાહના ઘરને ઉઘાડ્યુ જ્યારે ધન્ય સાથવાહે પાચસા ચારાની સાથે ચાર સેનાપતિ ચિલાત વડે પાતાના ઘરને લુટાતુ જાયુ ત્યારે જોઈને તે ભયભીત થઇ ગયે. અને ત્રસ્ત તેમજ ત્રાસિત ( વિશેષ ત્રાસ ) પ્રાસ કરીને છેવટે દ્વિગ્ન થઈ ગયા આ અમારૂ સસ્વ હરણ કરી રહ્યો અને હુ એનુ કઈજ ખગાડી શકતે નથી આ જાતના વિચાર કરીને તે ચિંતાકુળ થઈ ગયા અને ચિંતાકુળ થઈને તે પેાતાના પાચે પુત્રાની સાથે ત્યાથી નિર્ભીય સ્થાનમા જતે રહ્યો ચાર સેનાપતિ ચિલાતે ધન્ય સાથવાહના ઘરને ખૂબ ઇચ્છા મુજખ લૂંટયુ અને લૂટીને તેમાથી ઘણુ ધન, કનક, મણિ, માતી વગેરે દ્રવ્યે તેમજ સુસમા દ્વારિકાને લઈ લીધી
ગૃહે
Page #951
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुंसुमादारिका चरितनिरूपणम्
૧૯
मूलम् - तएण से धन्ने सत्थवाहे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुबहुं धणकणगं सुसुमं च दारिय अवहरियं जाणित्ता, महत्थ महग्घं महरिह पाहुड गहाय जेणेव जगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, त महत्थं महग्घ महरिह पाहुड जाव उवर्णेति, उवणित्ता, एवं वयासी - एव खलु देवाशुपिया | चिलाए चोरसेणावई सीहगुहाओ चोरपडीओ इह हव्वमागम्म पचहि चोरसएहि सद्धि ममगिह घाएता धणकणगं सुसुमं च दारिय गहाय जाव पडिगए । त इच्छामो
देवापिया | सुसुमा दारियाए कूव गमित्तए, तुम्भ णं देवाप्पिया से विउले धणकणगे, ममं सुंसुमा दारिया । तएणं ते गरगुत्तिया धपणस्स एयमट्टं पडिसुणेति, पीडसुणित्ता संनद्ध जाव गहियाउहपहरणा महया२ उक्विट्ट० जाव समुद्दरवभूयं पिव करेमाणा रायगिहाओ णिग्गच्छति, णिग्गच्छित्ता, जेणेव चिलाए चोरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, चिलाएणं चोरसेणावइणा सद्धि संपलग्गा यावि होत्था । तपणं ते जगरगुत्तिया चिलायं चोरसेणावइ हयमहिय जाव पडिसेहेति । तएण ते पच चोरसया णयरगोत्तिएहि हयमहिय जाव पडिसेहिया समाणा त विउल धणकणगं विच्छड्डेमाणाय विप्पकिरेमाणा य सव्त्राओ चापिम निकला - और निकल करके जहा सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली थी - उस ओर चलने के लिये उद्यत हो गया । सू०६ ॥
નગરમાથી પાછે! બહાર આવ્યા અને આવીને જ્યા ચુિડા નામે ચેારપત્લી હતી તે તરફ રવાના થવા તૈયાર થઈ ગયે!!! સૂત્ર ૬
Page #952
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८०
माताधरणा समंता विप्पलाइधा । तएणं ते जगरगुत्तिया ते विउलं धण फणगं गेहति, गेमिहत्ता जेणेव रायगिहे तेणेव उवागच्छति । तएण से चिलाए त चोरसेणं तेहि जयरगुत्तिएहि हयमहिय जाव भीए तत्थे सुसुम दारियं गहाय एगं महं अग्गामियं दीहमद्ध अडवि अणुप्पविट्टे । तएणं धण्णे सत्यवाहे सुंसुमं दारिय चिलाएणं अडवीमुह अवहीरमाणि पासित्ताणं पचहि पुत्तेहि सद्धि अप्पउट्टे सन्नवद्ध० चिलायस्स पदमग्गवीहि अणुगच्छमाणे अभिगज्जते हक्कारेमाणे पुस्कारेमाणे अभितज्जेमाणे अभितासेमाणे पिट्टओ अणुगच्छइ । तएण से चिलाए तंधण्णं सस्थवाह पंचहि पुत्तेहि सद्धिं अप्पछठं सन्नद्ववद्ध० समणुगच्छ माण पासइ, पासित्ता अत्थामे अवले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे जाहे जो सचाएइ सुसुम दारिय णिवाहित्तए, ताहे सते तते परितते नीलप्पल. असि परामुसइ, परामुसित्ता सुसुमाए दारियाए उत्तमगं छिदइ, छिदित्ता, त गहाय त अग्गामियं अडवि अणुप्पविट। तएण से चिलाए तीसे अगामियाए अडवीए तहाए अभिभूए समाणे पम्हुट दिसाभाए, सीहगुह चोरपल्लि असपत्ते अतरा चेव कालगए।
एवामेव समणाउसो । जाव पव्वइए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वतासवस्स जाव विद्धसणधम्मस्स वण्णहेउ जाव आहार आहारेइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं४ हिलणिज्जे ३ जाव अणुपरियहिस्सइ, जहा व से चिलाए तक्करे ॥ सू०७॥
Page #953
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितनिरूपणम् ६८१
टीका-तएण से ' इत्यादि । तन' खलु स धन्य' सार्थहो यत्रैव स्वक गृह तौर उपागच्छति, उपागत्य सुबहु बनकनक सुसुमा च दारिकाम् अपहता ज्ञात्वा 'महत्य महग्य मदारिह ' महार्थ महार्य महार्हम्-महानर्थः प्रयोजन यस्मिन् तत्-महार्थ-प्रहापयोजनाम् , बहुमूल्य पुनः महता योग्यम् ' पाहुडं ' प्राभृत= उपायन गृहीत्या यौर णगरगुत्तिया' नगरगोप्तृका-नगररक्षका कोपालादयः तव उपागन्छति, उपागत्य तत् महार्थं यावत् महाघ महार्ह मामृतम् ' उनणेड ' उपनयति-समर्पयति, उपनीय-समर्प्य एवम पदत्-एव खलु हे देवानु
'तएण से धन्ने सत्यवाहे' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से वन्ने सत्यवाहे ) वह धन्य सार्थवाह (जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छड ) जहा अपना घर था वहाँ आया (उवागच्छिता सुपर बणझणग स्तुसम च दारिय अवहरियं जोणित्ता महत्थं माग्ध महरिय पाहुड गहाय जेणेव नगर गुत्तिया तेणेव उवागच्छ ) वहा आकरके उसने अपने घरों से बहुत सा धन कनक एव सुममा दारिका को हरण किया हुआ जब जाना तब वह महार्थ पमूल्य एव महापुरुपो के योग्य भेंट लेकर जहां नगर रक्षक -कोटपाल-आदि थे वहा गया-(उवागच्छित्ता त महत्थमग्ध महरिह पाहुड जाव उवणेति, उपणित्ता एव क्यासी) वहा जाकर उसने उस महाप्रयोजन साधक भूत बहुमूरय तथा महापुरुषों के योग्य भेंट को उनके समक्ष रसदिया-और रखकर उनसे उसने इस प्रकार कहा-(एव
'तएण से धन्ने सत्यवाहे' इत्यादि
साथ-(तरण ) त्या२५ (से धन्ने सत्थवाहे ) ते धन्य सवाल (जेणेव सरगिहे तेणेव उवागच्छइ ) ज्या पातानु ३२ संतु त्या मान्य।
(उवागच्छित्ता सुबहु धणरणग मुसम च दारिय अवहरिय जाणित्ता महत्थ महग्ध महरिय पाहुड गहाय जेणेव नगर गुत्तिया तेणेव उवागच्छद)
ત્યાં આવીને તેણે પોતાના ઘરમાથી પુષ્કળ પ્રમાણમાં ધન, કનક અને સુસમા દારિકાનું હરણ કરવામાં આવેલુ જાણીને તે બહાર્થ, બહુ કિંમતી અને મહાપુરુષોને એગ્ય ભેટ લઈને જવા નગર–રક્ષક-પાળ-વગેરે હતા ત્યા गयो ( उवागच्छित्ता त महत्य महान महरिह पाहुड जार उवणे ति, अणित्ता एन पयासी) त्याने ते ते महायान साभूत बहु भिती तमा મહા પુરુષોને ય ભેટને તેમની સામે મૂળ દીધી અને મૂકીને તેમને તેણે આ પ્રમાણે વિનતી કરતા કહ્યું કે
Page #954
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८२
मियाः । चिलातश्रोग्सेनापतिः सिराः वेः सार्द्धग् मम गृह 'घात' गाण्ठा
भाताचर्मका
पचमिवोर धनानक सुमा
दारिका गृहीला 'जान पडिगए यात् मतिगतः पत्र मिश्रोरतेः सार्धं सिंहगुहा चोरपनी प्रतिनिवृत इत्यर्थ, 'त' तन्= तस्मात् कारणात् उच्छामः खलु हे देवानुमिया. 'गुगुमा दारिया गुगुमा दारिया ' व ' प्रत्यान ने 'गमित्त ' गन्तुम् । 'तुम्मेण देवाणुखिया युष्माक सेल हे देवानु मिया ! ततु अपनिपुल धनकनम् = हे देवानुमियाः । चोराऽपहृत धनकना दिक सर्वे युमा भरत, मम सुगुमा दारिका भरतु । ततः सतु ते नगरगोप्तृका
·
खलु देवाणुपिया ! चिलाए चोरसेणा सीतगुराओ चोरपल्लीओ इह स्व्यमागम्म पचहि चोरसमिद्धि मम गित घारता, सुबहु धण कणग सुसम च दाग्यि गहाय जान पडिगए-त इच्छामो ण देवाणु पिया ! सुसमा दारिया व गमित्त तुग्भण देवाणुप्पिया । से विउले धणकणगे मम सुसमा दारिया ) हे देवानुप्रियों सुनो चोर सेनापति चिलात चोर ने सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली से यहां शीघ्र आकर पांचसौ चोरों के साथ मेरे घर पर डाका डाला है। उसमें उसने बहुत साधन, कनक एव सुममा दारिका को लूटा है और-लूटकर वह वहां वापिस अपने स्थान पर चला गया है। अतः हे देवानुप्रियो ! मै चाहता हूँ कि आप लोग उस सुसमा दारिका को लेने के लिये जावें, मिलने पर यह हृन धनकनक आदि सब आपका रहे और सुसमा दारिका मेरी
( एव खलु देवाणुपिया ' चिलाए चोरसेणावई सीहगुहाओ चोरपल्लीओ इह व्त्रमागम्म पचर्हि चोरसएहिं सद्धिं मम गिह घारत्ता, सुबहु धणकणग सुसम च दारिय गहाय जान पडिगए त इच्छामो ण देवाणुप्पिया ! सुसमा दारियाए कूल गमित्त-तुभ ण देवाशुप्पिया ! से विउले घणकणगे मम सुसमा दारिया )
હે દેવાનુપ્રિયા ! સાભળા, ચાર સેનાપતિ ચિલાત ચારે સિંહગુહા નામની ચારપલીથી એકદમ અહીં આવીને પાચસા ચોરાની સાથે મારા ઘરમા ધાડે પાડી છે તેમા તેણે ઘણું ધન, કનક અને સુમમા દારિકાની લૂંટ કરી છે લૂટ કરીને તે પાછા પેાતાના સ્થાને જતે રહ્યો છે એથી હૈ દેવાનુપ્રિયા ! મારી ઈચ્છા છે કે તમે સુસમા દારિકાને પાછી લેવા માટે જાઓ અને તેને મેળવી લીધા ખાદ તે અપકૃત કરાયેલુ ધન કનક વગેરે બધુ તમે રાખજો અને સુસમા દ્વારિકાને મને ચેપી ફ્રે
Page #955
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १८ सुंसुमादारिकाचरितनिरूपणम् ६८३ पुरुपा धन्यस्य एतमर्थ प्रति-मृण्वन्ति-स्वीकृन्ति, प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य ‘सन्नद्ध जार गहियाउहपहरणा' सन्नद्ध यावत् गृहीतायुधप्रहणाः सन्नद्धपद्धनर्मितकवचा यावद् गृहीतायुवप्रहरणा इत्यस्य व्याख्या पूर्वपद् गोव्या, ' महया २ उक्टि जान समुद्दरवभूयपिव ' महा महोत्कृष्ट यावत् समुद्ररवभूतमित्र, वेलारद्धिसमये समुद्रध्वनिमिव महाव्वनि 'करेमाणा ' कुर्वन्तो राजगृहात् निर्गच्छन्ति, निर्गत्य रहे। (तएण ते णगरगुत्तिया धण्णस्स सत्यवाहस्स एयम पडिसुणेति, पडिसुणित्ता सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणा मया २ उक्किट्ठ० जाव समुद्दरवभूयं पिवकरेमाणा रायगिहाओ णिग्गच्छति णिगच्छित्ता जेणेव चिलाए चोरे-तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता चिलाएण चोरसेणावइणा सद्धिं सपलग्गा यावि होत्या तएण ते णगरगुत्तिया चिलाय चोरसे णावइ यमयि जाव पडिसेहेति, तणं ते पच चोरसया णयरगोत्ति एहिं यमहिय जाव पडिसेहिया समाणा त विउल धणकणग विच्छइमाणा य विप्पकिरेमाणा य सवओ समता विप्पलाहस्था) धन्य सार्थवाह की इस बात को सुनकर उन नगर रक्षकों ने स्वीकार कर लिया। और स्वीकार करके उसी समय उन्हो ने अपने २ शरीरपर कवच को सजित करके कशाधन से वाध लिया यावत् आयुध और प्रहरणो को ले लिया-वेलावृद्धिके समय में जिस प्रकार समुद्र की ध्वनि होती है-उसी प्रकार की महाध्वनि करते हुए फिर वे राजगृह नगर
(तएण ते णगरगुत्तिया धण्णस्स सत्यवाहस्स एयमट्ठ पडिसुणेति, पडि मुणित्ता सम्बद्ध जाव गहियाउहपरणा महया २ उक्कि० जान समुदरवभूय पिनकरेमाणा रायगिहाओ णिग्गन्छति, गिगच्छित्ता जेणेव चिलाए चोर-तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता चिलाएण चोरसेणावणा सद्धिं सपलग्गा यावि होत्था-तएण ते णगरगुत्तिया चिलाय चोरसेणावड हयमहिय जाव पडिसेहेंति, तएण ते पच चोरसया णयरगोत्तिएहिं हयमहिय जाव पडिसेहिया समाणात विउल वणफणग विच्छडे माणा य विपकिरेमाणा य सन्नओ समता विप्पलाइत्था)
ધન્ય સાથ વાહની તે વાતને સાભળીને નગર રક્ષકેએ તેને સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તેમણે તરત જ પિતા પોતાના શરીર ઉપર કરચ પહે રીને કશા બ ધનથી બાંધ્યા યાવત્ આયુધ અને પ્રહરણને સાથે લઈ લીધા ભરતીના સમયે જે સમુદ્રને ઇવનિ હોય છે તે જ મહાધ્વનિ કરતા તેઓ રાજગૃહ નગરમાથી બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યા ચાર સેનાપતિ તે
Page #956
--------------------------------------------------------------------------
________________
माताधर्म मियाः ! चिलातधोरसेनापतिः गिगगुहापागोरप
याःगमागत्य पत्रमिवीर शतः माग मम गृह 'घाएता' पातयितालुण्ठगिन्या सुराहु धनानक सुसुमा च दारिका गृहीत्वा 'जार पडिगा' यान प्रतिगा: पत्रमिनोरनंतः साचे सिंहगुहा चोरपल्ली प्रतिनिटन इत्यर्थ, 'त' तम्मा यारणान् इच्गामा खलु हे देवानुमियाः ! 'मुगुमा दाग्यिाप मुगुमा दारिताया 'व ' प्रत्यान यने 'गमिनए ' गन्तम् । नुन्मेण देवाणुप्पिया ।' युप्माफ सल हे देवानु मिया । तत् अपहत निपूल धनानकम हे देशानुप्रियाः ! चौराऽपहृत धनकना दिक सबै युष्माफ भात, मम मुमुमा दारिश मातु । नत. सतुते नगरगोप्तका खलु देवाणुप्पिया ! चिलाए चोरसणार्ड सी गुहाओ घोरपल्लीओ इह हव्यमागम्म पहिं चोरमहं मदि मम गिह घाएत्ता, सुबहु धण कणग सुसम च दारिय गाय जार पहिगए-त मच्छामो ण देवाणु प्पिया! सुसमा दारिया व गमित्त-तुम्भ ण देवाणुप्पिया। से विउले धणकणगे मम सुसमा दारिया) हे देवानुप्रियो सुनो चोर सेनापति चिलात चोर ने सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली से यहां शीघ्र आकर पाचसौ चोरों के साथ मेरे घर पर डाका डाला है। उसमें उसने बहुत साधन, कनक एव ससमा दारिका को लूटा है और-लूटकर वह वहा वापिस अपने स्थान पर चला गया है। अतः हे देवानुपियों ! मैं चाहता है कि आप लोग उस सुसमा दारिका को लेने के लिये जावे, मिलने पर वह हृत धनकनक आदि सय आपका रहे-और सुसमा दारिका मेरा
( एव खलु देवाणुप्पिया चिलाए चोरसेणावई सीहगुहाओ चोरपल्लीओ इह हव्यमागम्म पचहि चोरसएहिं सद्धि मम गिह घाएत्ता, सुबहु धणकणग सुसम च दारिय गहाय जाव पडिगए त इच्छामो ण देवाणुप्पिया ! सुसमा दारियाए कूव गमित्तए-तुम्भ ण देवाणुप्पिया ! से विउले धणफणगे मम सुसमा दारिया)
હે દેવાનુપ્રિયે ! સાભળો, ચોર સેનાપતિ ચિલાત ચારે સિંહગુહા નામની ચરપલીથી એકદમ અહીં આવીને પાચસો ચોરોની સાથે મારા ઘરમાં ધાડ પાડી છે તેમાં તેણે ઘણું ધન, કનક અને સુમમાં દારિકાની લૂંટ કરી છે લૂટ કરીને તે પાછે પિતાના સ્થાને જતો રહ્યો છે એથી હે દેવાનુપ્રિયા ! મારી ઈચ્છા છે કે તમે સુસમા દારિકાને પાછી લેવા માટે જાઓ અને તેને મેળવી લીધા બાદ તે અપહત કરાયેલ ધન કનક વગેરે બધુ તમે રાખજે અને સુસમાં દારિકાને મને સોપી દેજે
Page #957
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६८५ नगरगोप्त कानगररक्षकात विपुल धनकनक० पनपनकादिक गृहन्ति, गृहीत्वा, यत्रय राजगृह नगर तत्रैव उपागच्छन्ति । ततः खलु स चिलातः ता चोरसेना ' इयमहिय जाव' हतमथित यावत्-हतमथितप्रवरसीरघातितनिपतित चितवजपताकाम् यावद् दृष्ट्वा भीतस्त्रस्तः सुंसुमा दारिका गृहीत्या एका मातीम् 'अग्गामिय' अग्रामिकाम् ग्रामरहिताम् 'दीहम ' दीर्घा दीर्घमार्गाम् 'अडवि' बटवीग्-अनुप्रनिष्टः । ततः खलु वन्य' सार्थवाह. सुसुमा दारिका चिलातेन 'अडमीमुह ' अटवीमुखम् अरण्यमम्मुखम् ' अबहीरमाणि' अपहिय माणाम्-नीयमाना 'पासित्ता' दृष्ट्वा पञ्चमि पुनै सार्द्धम् ' अप्पछ?' आत्गपाठ. ' सनद्धवद्ध० ' सन्नवद्ववर्मितकाचः चिलातस्य ‘पदमग्गीहिं । पद गेहति, गेण्हिता, जेणेव रायगिहे तेणेव उवागच्छति । तरण से चिलाए त चोरसेणं तेहिं णयरगुत्तिएहिं यमयि जाव भीए तत्थे सुमम दारिय गहाय एग मह अग्गामिय दीहमद्ध अनिअणुप्पविछे) उन नगर रक्षको ने उस विपुल धन कनक आदिको ले लिया और लेकर राजगृह नगर में वापिस आ गये। इस के बाद वह चिलात चोर अपनी उस सेना को नगर रक्षकों द्वारा हत मथित प्रबल वीरवाली एव घातित तथा निपतित चिन्ह बज पताका चाली देखकर त्रस्त हो गया और सुसमादारिका को लेकर एक बडी भारी ग्रामरहित अटवी में घुस गया (तण्ण धण्णे सत्यवाहे सुसम दारियं चिलाएण अडचीमुह अवहिरमाणि पासित्ता ण पचहि पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे सन्नद्धबद्ध चिलायस्स पदमग्गवीहिं अणुगच्छमाणे अभिगज्जते हाक्कारेमाणे अभितज्जेमाणे (तएण ते णयर गुत्तिया त विउल धणकणग गेहति, गेण्हित्ता, जेणेव रायगि तेणेष उपागच्छति । तएण से चिलाए त चोरसेण तेहिं णयरगुत्तिएहिं यमडिय जाव भीए वत्ये सुसमदारिय गहाय एग मह अम्गामिय दीहमद जडवि अणुप्पवित्र
તે નગર રક્ષકોએ તે પુષ્કળ પ્રમાણમાં પડેલા ધન, કના વગેરેને લઇ લીવું અને લઈને રાજગૃહ નગરમાં પાછા આવી ગયા ત્યારપછી તે ચિલાત ચરે પિતાની તે ચેર સેનાને નગર રક્ષક વડે હતમથિત તેમજ ઘાતિત અને નિપતિત ચિધ્વજ પતાકાઓવાળી જોઈને ત્રસ્ત થઈ ગયે અને સમા દારિકાને લઈને એક ભારે મોટી ગ્રામરહિત અટવીમા પેસી ગયે
(तएग यण्णे सत्यवाहे सुसम दारिय चिलाएण नडवीमुह अबहीरमाणि पासित्ता ण प पहिं पुत्तेहिं सद्धि अप्पटे सन्नद्धनद्धचिलायम पदमांगवी अणुगच्छमाणे अभिगज्जते हाक्कारेमाणे पुक्कारेमाणे अभितज्जेमाणे अभिहासे
Page #958
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८५ यत्रै चिलातभार, नगर उपागमति, उपागन्ग रिलानेन चौरसेनापतिना साध 'सपरग्गा' सारनाम्युदर पर्नु मनानापि भमान । तत बलु नगर गोप्तकाः चिलात चोरसेना यमयिक जान' इतमपित यावनतम पित प्रवरसीरयातितनिपचितमि जपतार-ता=गारिता', मथिता निश्शेषता प्राप्तिताः, प्रमरगीरा-छपीरा यम्पामो तिमथितमाशीर., पातितायातः शस्त्रादिप्रहारेण क्षतिः, म सनातोऽम्प घानितः सा इत्यर्थः, निपतिता भूमी पतिता चिध्वज पताका' यस्पासा, निपतितनिष्ट पनपताका, एतेपा कर्म धारयः, तम् , पारत् मतिषेधयन्ति नियाग्यन्ति । ततः गल ते 'पचचोरसया' पञ्चशतचौरा 'णगरगोतिएटि' नगग्गोप्ठ नगरसः पुरुपे. ' हयमहिय नार पडिसेहिया' इतमश्तियारत्मतिपेधिता प्रतिपेषिता' सन्तः तन् विपुल धनान-धनानकमणिमौक्तिकादिक 'पिउड्ढेमागा' छिर्दयन्त प्रक्षिपन्तः 'विप्पफिरेमाणा य 'रिमफिरन्तव-तस्ततो गिरिरण कुर्वन्तः 'सन्चो समता सर्वतः समन्तात-चतुर्दिशु 'पिप्पलाइत्या' विप्लायन्त -पगयिताः ततः खलु ते से बाहर निकले और निकलकर जहा चोर सेनापति पर चिलात चोर था वहा गये-वहा पहुँचते ही उनका चोर सेनापति उस चिलात चोर के साथ युद्ध होना प्रारभ हो गया-उस युद्ध में उन्हों ने उस चिलात के सैन्य को पहिले खून मारा-पीटा-बाद में उन्हें बिलकुल नष्ट भ्रष्ट कर दिया। कितनेक चोरो को उन्हों ने क्षत किया। उसकी चिह्न ध्वजपता काओं को जमीन पर डाल दिया। इस प्रकार उसे हरतरह परास्त कर दिया। जब वे पाचसौ चोर नगररक्षक पुरुपो द्वारा हर प्रकारसे हतमथित यावत् प्रतिपेधित हो चुके तय वे उस विपुल धनकनक मणिमोक्तिक आदिको छोडकर तथा इधर उधर डालकर सर्व प्रकारसे चोरो दिशाआम इधर उधर भाग गये। (तएण ते णयरगुत्तिया त विउल घणकणग ચિલાત ચેર હતું ત્યાં ગયા ત્યા જતાની સાથે જ ચોર સેનાપતિ ચિલાતની સાથે તેમનું યુદ્ધ શરૂ થઈ ગયુ યુદ્ધમાં તેમણે પહેલા તે ચિલાતની સેના સાથે ખૂબ માર-પીટ કરી અને ત્યારપછી તેને નષ્ટ-ભ્રષ્ટ કરી નાખી કેટલાક ચેરાને તે તેમણે ક્ષત (ઘવાયેલા ) કર્યા તેમની ચિઠ્ઠભૂત દવજા પતાકાઓને જમીનદોસ્ત કરી નાખી આ પ્રમાણે તેને બધી રીતે હરાવી દીધે જ્યારે તે પાંચસે ચેર નગર રક્ષક પુરુષ વડે સર્વ રીતે હત, મથિત યાવત્ પ્રતિષધિત થઈ ગયા ત્યારે તેઓ તે પુષ્કળ ધન, કનક, મણી, મેતી વગેરેને ત્યાં જ મૂકીને આમતેમ નાખીને ચારે દિશાઓમાં આમતેમ પલાયન *
Page #959
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितनिरूपणम्
६८७ पुरुपकारः पौरुपम् , पराक्रमा-मामय, तदहितः सन् 'जाहे ' यदा नो शकोति सुसुमा दारिको 'णिन्याहित्तए' निर्वाहयितु-बोढम् , ' ताहे' तदा 'सते' श्रान्तः परिश्रम गतः, 'तते ' तान्ताग्लानि प्राप्तः, 'परितते ' परितान्तः = सर्वतोभावेन खिन्नतामुपगतः, 'नीलुप्पल. ' नीलोत्पल नीलोत्पगवलगुलि कादि विशेषणविशिष्टमतितीक्ष्णम् 'असि' करवालं 'परामुसद' परामशतिकोशान्निासारयति, परामृश्य, सुसुमाया दारिकायाः ' उत्तमग ' उत्तमाङ्ग-शिरः अवीरिए अपुरिसकारपरकमे जाहे णो सचाण्ड सुसम दारिय णिवा हित्तए, ताहे सते तते परितते निलुप्पल असिं परामुसह, परामुसित्ता सुसमाए दारियाए उत्तमग छिदइ, छिदित्ता, त गहाय त अग्गामिय अटविं अणुपविटे, तएण से, चिलाए तीसे ओग्गासियाए अडवीए तण्हाए अभिभूए समाणे पम्हढदिसाभाए सीह गुहं चोरपल्लिं अस पत्ते अतराचेव कालगए ) जय चिलात चोर ने उस बन्यसार्थवाह को पाचो पुत्रों के साथ आत्मपष्ट होकर एव कवच आदि से सुसज्जित होकर अपने पीछे २ आता हुआ देखा-तब वह देख कर आत्मबल रहित हो गया। इस तरह सैन्य रहित, उत्साह रहित तथा पौरुप और पराक्रम रहित बना हुआ वह जब सुसमा दारिका को अपने पास रखने के लिये शक्तिशाली नहीं हो सका तय उसने श्रान्त, तान्त-ग्लानि युक्त और परितात सर्वतोभावेन खिन्नता को प्राप्त होकर नीलोत्पल, गवलगुलिका, आदि विशेषणो वाली अपनी तलवार को उठाया-म्यान परक्कमे जाहे णो सचाएइ सुसम दारिय णिवाहित्तए, ताहे सते तते परितते नीलप्पल० असि परामुसइ, परामुसित्ता सुसमाए दारियाए उत्तमग डिदइ, छिदित्ता, त गहाय त अग्गामियं अडवि अणुपविटे, तएण से, चिलाए तीसे आग्गामियाए अडवीए तहाए अभिभूए समाणे पम्हुट्ठदिसाभाए सीहगुह चोरपल्लि असपत्ते अतरा चेव कालगए)
જ્યારે ચિલાત ચારે તે ધન્ય સાર્થવાહને પાંચ પુત્રોની સાથે આત્મષણ થઈને તેમજ કવચ વગેરથી સુસજિત થઈને પિતાની પાછળ પાછળ આવતે જો ત્યારે તે જોઈને આત્મબળ વગરને થઈ ગયે આ પ્રમાણે સેના રહિત ઉત્સાહ રહિત તેમજ પરુષ અને પરાક્રમ રહિત થઈ ગયેલે તે જ્યારે મુસમાં દારિકાને પિતાની પાસે રાખવામાં પણ અસમર્થ થઈ ગયે ત્યારે તેણે શ્રાત, તાત, ગ્લાનિ યુક્ત અને પતિાત તેમજ બધી રીતે ખિન્નતા પ્રાપ્ત કરીને નીલેવ, ગવલ ગુલિકા વગેરે વિશેષણોવાળી પિતાની તરવારને ઉપાડી અને મ્યાનમાથી બહાર કાઢી અને બહાર કાઢીને સુસમાં દારિકાનું માથું કાપી
Page #960
--------------------------------------------------------------------------
________________
६-६
वाताधर्मकथा
1
"
•
मार्गनिधि पदमार्ग प्रचारम् = परणचिहम् 'अणुन गाणे' अनुगन्पृष्ठतो धावन 'अणुगज्जेमाणे' अनुगर्जनागर्जना 'मारेमाणे 'हमो' दुष्ट ! विष्ठ तिष्ठ इत्यादि, वाक्यैः कारभारास्न पुरिमाणे 'पूस्कारयन् ' fag २, नोचेच्या निष्यामीत्यादिना तादयन् ' अमितज्जेमाणे ' अभि तर्जन्= ' रे निर्लज्ज ' इत्यादि पायेवर्जनां कुर्तन, 'अमितासेमाणे ' अभि नासयन्त्रशस्त्रादिदर्शनेन प्रासमुत्पादयन् 'पिटुभ' पृष्ठतः = चित्रात बोरस्य पृष्ठदेशत' जनुगच्छति=प्रथाद्वावति । तत. ग्लु स चिलातः तन्य सार्थवाह पञ्चभि पुत्रैः सार्धम् ' अप मात्माष्ट 'सन्नवद्धर्मिताच यावत् समनुगच्छ त=पथाद्धावन्त पश्यति, षष्ठा 'अत्थामे ? ' अस्थामा = आत्मबल रहितः, अ: = सैन्परहित, अवीर्य' = उत्मादरहित, पुरुपकारपराक्रम सन् अभितामाणे पिट्टाओ अणुच्छ) धन्यमावार ने जब सुसमा दारिका को चिलात चोर द्वारा अटवी के मध्य में हरणकर ले जाई गई जब जाना तय वह अपने पाचों पुत्रों के साथ आत्मपष्ट होकर कवच बाघ उस चिटात के पीछे २ पद चिह्नों का अनुसरण करता हुआ, मेघ के जैसी गर्जना करता हुआ, अरे ओ दुष्ट ! ठहर ठहर इस प्रकार से कहता हुआ, पुकार करता हुआ ठहर जा ठहर जा नहीं तो में तुझे मार डालूंगा इस प्रकार के वाक्यों से उसे बुलाता हुआ रे निर्लज्ज ! इस प्रकार से उसे तर्जित करता हुआ, तथा अस्त्र शस्त्र आदि के
दिखाने से उसे त्रास उत्पन्न करता हुआ चला । (aण से चिलाए त घण्ण सत्यवाह पर्चा पुत्तेहि सद्धिं अप्पउष्ठ अन्नद्धबद्ध० समणुगच्छमाण पासह, पासित्ता अत्थामे अबले माणे पिट्ठाओ अगद्द )
જ્યારે ધન્ય સાવાડે સુમમા દારિકાને ચિલાત ચાર વડે અવીમા હરણુ કરીને લઈ જવાયેલી જાણી, ત્યારે તે પાનાના પા૨ે પુત્રાની સાથે આત્મ ષષ્ઠ થઈને કવચ ખાધાને તે ચિલાત ચારની પાછળ તેના પદ્મ ચિહ્નોનુ ઋતુ સરણ કરતા મેઘના જેવી ધ્વનિ કરી “ અરે એ દુષ્ટ ! ઊભારે, ઊભા, આ પ્રમાણે કહેતા जभारे, जिभेोरे, नडितर भरी गये। लभे" सा પ્રમાણે હાકલ કરતા, તેને ખેલાવતા અરે નિજ ! ? આમ જિત કરતે તેમજ શસ્ત્ર અસ્ર વગેરેને બતાવીને તેને ત્રસિત કરતા ચાર્લ્સે
66
"
(तरण से चिलाए त घण्ण सत्यवाह पचर्हि पुत्तेर्हि सद्धिं अवच्छ सनद बद्ध० समणुगच्छमाण पासइ, पासित्ता अत्थामे अबले
27
रिसकार
ܐܙ
Page #961
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितनिरूपणम् ६८७ पुरुपकारस-पौरुपम् , पराक्रमा-मामथ्य, तद्रहितः सन् 'जाहे' यदा नो शमोति सुसुमा दारिको ‘णिवाहित्तए' निर्वाहयितुबोढुम् , ' ताहे ' तदा 'सते' श्रान्तः परिश्रम गतः, 'तते' तान्त:लानि प्राप्तः, 'परितते ' परितान्त:सर्वतोभावेन खिन्नतामुपगतः, नीलुप्पल० ' नीलोत्पल नीलोत्पगवलगुलि कादि विशेषणविशिष्टमतितीक्ष्णम् 'असि' करवाल 'परामुसइ' परामृशतिकोशान्निःसारयति, परामृश्य, सुसुमाया दारिकायाः 'उत्तमग ' उत्तमान-शिरः अवीरिए अपुरिसकारपरकमे जाहे णो सचाण्ड सुसम दारिय जिव्वा हित्तए, ताहे सते तते परितते निलुप्पल० अमिं परामुसह, पराठसित्ता सुसमाए दारियाए उत्तमग छिदइ, छिदित्ता, त गहाय त अग्गामिय अडचिं अणुपविटे, तएण से, चिलाए तीसे ओग्गामियाए अडवीए तण्डाए अभिभूए समाणे पम्हढदिसाभाए सीह गुहं चोरपल्लिं अस पत्ते अतराचेव कालगए ) जन चिलात चोर ने उस वन्यसार्थवाह को पाचो पुत्रों के साथ आत्मपष्ट होकर एव कवच आदि से सुसज्जित होकर अपने पीछे २ आता हुआ देखा-तब वह देख कर आत्मबल रहित हो गया। इस तरह सैन्य रहित, उत्साह रहित तथा पौरुप और पराक्रम रहित बना हुआ वह जय सुममा दारिका को अपने पास रखने के लिये शक्तिशाली नही रो सका तब उसने श्रान्त, तान्त-ग्लानि युक्त और परितात सर्वतोभावेन खिन्नता को प्राप्त होकर नीलोत्पल, गवलगुलिका, आदि विशेषण वाली अपनी तलवार को उठाया-म्यान परक्कमे जाहे णो सचाएइ सुसम दारिय णिवाहित्तए, ताहे सते तते परितते नीलुप्पल० असिं पगमुसइ, परामुसित्ता सुसमाए दारियाए उत्तमग छिदइ, छिदित्ता, त गहाय त जग्गामियं अडविं अणुपविटे, तएण से, चिलाए तीसे आग्गामियाए अडवीए तहाए अभिभूए समाणे पम्डुट्टदिसाभाए सीहगुह चोरपल्लि अमपत्ते अतरा चेव कालगए )
ત્યારે ચિલાત ચારે તે ધન્ય સાથ વાહને પાચે પુત્રોની સાથે આત્મષણ થઈને તેમજ કવચ વગેરેથી સુસજિત થઈને પિતાની પાછળ પાછળ આવતો જે ત્યારે તે જોઈને આત્મબળ વગરને થઈ ગયો આ પ્રમાણે સેના રહિત ઉત્સાહ રહિત તેમજ પૌરુષ અને પરાક્રમ રહિત થઈ ગયેલે તે જ્યારે સુસમા દારિકાને પિતાની પાસે રાખવામા પણ અસમર્થ થઈ ગયો ત્યારે તેણે શ્રાત, તાત, લાનિ સુન અને પરિતાત તેમજ બધી રીતે ખિન્નતા પ્રાપ્ત કરીને નિલેમ્પલ, ગવલ ગુલિકા વગેરે વિરોણવાળી પિતાની તરવારને ઉપાડી અને મ્યાનમાથી બહાર કાઢી અને બહાર કાઢીને સુસમા દારિકાનું માથું કાપી
Page #962
--------------------------------------------------------------------------
________________
૧૨
प्रतापका
" 1
P
"
1
=
"
,
मार्गनिधि=पदमार्ग प्रचारम्= रणनिहम् 'भशुग-प्रमाणे' अन्न्पृष्ठतो भाव 'अणुगज्जेमाणे' अनुगर्जन मेगन कुर्वन् 'हारेमाणे मो' हुए ! विष्ठ तिष्ठ इत्यादि, वाक्यैः पा=मारायन ' पुारेमाणे ' पूरकारयन् ' तिष्ठ २, नोचेचा हनिष्यामीत्यायाः समाया' अभितज्जेमाणे' अभि तर्जन् = ' रे निर्लज्ज ' इत्यादि स्वर्जन कृर्तन, 'अमितासेमाणे ' अभि प्रासयन्- भखास्रादिदर्शनेन श्रासमुत्पादयन् 'पिटुभ' पृष्ठतः चित्रात बोरस्य पृष्ठदेशतः जनुगच्छति = श्राद्धावति । तन म स चित्रातः त धन्य सार्थवाह पञ्चभि पुत्रै सार्धम् 'अप्पा' आमा 'मन्नर्मितञ्च यावत् समनुगच्छन्त यथाद्धावन्त पश्यति, ष्ष्ट्वा 'अथामे ४ , अस्थामा=आत्मवल रहितः, अलः सैन्परहितः, अधीर्यः = उत्माहरहितः पुरुषशरपराक्रम सन् अभितासेमाणे पिट्टाओ अणुगच्छइ ) धन्यसार्थवाह ने जय सुसमा दारिका को चिलात चोर द्वारा अटवी के मध्य में हरणकर ले जाई गई जब जाना तय वह अपने पांचों पुत्रो के साथ आत्मपष्ट होकर कवच घाध उस चिलात के पीछे २ पद चिह्नों का अनुसरण करता हुआ, मेघ के जैसी गर्जना करता हुआ, अरे ओ दुष्ट ! ठहर ठहर इस प्रकार से कहता हुआ, पुकार करता हुआ ठहर जा ठहर जा- नहीं तो में तुझे मार डालूगा इस प्रकार के वाक्यों से उसे घुलाता हुआ रे निर्लज्ज ! इस प्रकार से उसे तर्जित करता हुआ, तथा अस्त्र शस्त्र आदि के दिखाने से उसे त्रास उत्पन्न करता हुआ चला ।
(तरण से चिलाए त घण्ण सत्यवाह पचहिं पुत्तेहि सद्धिं अप्पज्ड अन्नद्व द्व० समणुगच्छमाण पासइ, पासित्ता अत्थामे अबले
माणे पिट्ठाओ अणुगच्छद्द )
"
જ્યારે ધન્ય સાવાડે સુમમા દારિકાને ચિલાત ચાર વડે અટવીમા હરણ કરીને લઈ જવાયેલી જાણી, ત્યારે તે પેાતાના પા૨ે પુત્રાની સાથે આત્મ ષષ્ટ થઈને કવચ આપીને તે ચિલાત ચારની પાછળ તેના પત્ર ચિહ્નોનુ અનુ સરણ કરતા મેઘના જેવી નિ કરતા “ અરે આ દુષ્ટ ! ઊભારે, ઊભારે, या प्रमाणे उडेता “ अलोरे, अलोरे, नडितर भरी गये। लभे" सा પ્રમાણે હાકલ કરતા, તેને ખેલાવતા અરે નિજ ! ' આમ તર્જિત કરતે તેમજ શસ્ર અસ્ર વગેરેને ખતાવીને તેને ત્રસિત કરતા ચાલ્યું
सन्नद्ध
(तरण से चिलाए त घण्ण सत्यवाद पचर्हि पुत्तेहिं सद्धि अप बद्ध० समणुगच्छमण पास, पासित्ता अत्थामे अबले
2
Page #963
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम्
बलहेतु शरीरलब नार्थम्, 'पीरियड' वीर्यहेतुम् = आन्तरिक शक्तिसम्पादनार्थम्, (, आहारम् आहारयति, स ग्लु वह लोके एव बहूना श्रमणाना श्रमणीना श्रावणा श्रारिकाणा च ' हीलणिज्जे जाव' हीलनीयो यावत्, यावत्पदेन, निन्दनीय, विसनीय गर्हणीयो भवेत्, परलोकेऽपि दुःख प्राप्नोति यावत्चातुरन्वससारकान्तारम् ' अणुपरियहिस्स' अनुपर्यटिप्यति = भ्रमिष्यति, यथा स चिलातस्तस्करः - चिलाततस्करवदिति भाव ॥ ०७ ॥
६८९
मूलम् - तएण से घण्णे सत्थवाहे पचहिं पुत्तेहि सद्धि अप्पछट्टे चिलाय परिधाडेमाणे२ तण्हाए छुहाए य सते तते परितंते णाण ४ हीलपिज्जे ३ जाव अणुपरियहिरसह जहाय से चिलाए तकरे ) अन प्रभु इस चिलात के दृष्टान्त से निर्ग्रन्थ आदिका को सवोधित कर प्रतिघोधित करते हैं- हे आयुष्मत श्रमणों । इसी तरह जो हमारा निर्यन्य श्रमण अथवा श्रमणीजन आचार्य उपाध्याय के पास प्रब्रजित होकर वाताववाले यावत् विश्वसन धर्म वाले इस औदारिक शरीर में कान्ति विशेष प्राप्ति के लिये सौन्दर्य आदिरूप विशेष के लिये, बलव धन के लिये तथा आन्तरिक शक्ति वृद्धिके लिये आहार को लेना हैकरता है - वह इस लोक में अनेक श्रमण श्रमणी श्रावक तथा श्राविका जनों द्वारा हीलनीय यावत् निदनीय, खिंसनीय गर्हणीय तो होता ही है परन्तु पर भव में भी वह दुःखो कोही पाता है । यावत् ऐसा जीव इस चतुर्गतिरूप ससार कान्तार में चिलात चोर की तरह प्ररिभ्रमण ही करता रहता है || सूत्र ७ ||
चेव वहूण समणाण ४ हील णिज्जे २ जात्र अणुपरियडम्स, जाव से चिलाए नक्करे ) હવે પ્રભુ તે ચિલાતના દૃષ્ટન્તને સામે રાખીને નિશ્ર્વ થ વગેરેને મ માધિત કરીને આજ્ઞા કરે છે કે હું આયુષ્મત શ્રમણા ! આ પ્રમાણે જે અમારા નિષ્ર થ શ્રમણ અથવા શ્રમણીજન આચાય કે ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રત્રજિત થઇને વાન્તાસ્રવવાળા યાવત વિધ્ન સતધવાળા આ ઔદારિક શરીરમા કાતિ વિશેષની પ્રાપ્તિ માટે, સૌદર્ય વગેરે રૂપ વિશેષના માટે, મળવČન માટે તેમજ આતરિક શક્તિને વધારવા માટે આહાર ગ્રહણુ કરે છે તે આ લામા ઘણા શ્રમણ, શ્રમણી, શ્રાવક તેમજ શ્રાવિકા વડે હીલનીય યાવત્ નિંદનીય, ખિસનીય અને ગર્હણીય તા હોય જ છે પણ સાથે સાથે તે પરભવમા પણુ દુખ જ મેળવે છે યાવત એવા જીવ આ ચતુČતિ રૂપ સસાર કાતારમા
ચિલાત ચારની જેમ ભટકતા જ રહે છે
! સૂત્ર છ !
भ ८७
Page #964
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८८ दिनलि, दिया, ''उनमार गृहीमा वाम अग्रामिराम-जनावरामरहि वाम् अटीमनुमरिएपश कान | न पल निरा नस्यामामिकाया माया तहाए 'हया-पिपासमा गमि गा विदिमामा' विस्मतदिग्भागा पूर्वारिदिशारिरिकल. सर सिंगहा गोरपाटीम् ' आपल' अस
मा: 'राचेर' अन्तरामपालगा' कारगताम्मौ चोरो मृत्यु प्राप्तवान् । अस्य शावरित न्यावावयम् , शानेनु-उपयोगि चरित तारन्मार भगवतोपदिष्टम् । ____अध चिलाताप्टान्तेन भगवान नियादीत समोध्य प्रतियोधयति - एका मेर' एपमेय-अमेन कारगर समकाउमो' आयुन्तः यमणाः ! 'जाव पन्य इए समाणे' या माजितः सनस्योऽस्माक निर्मन्यो वा निबन्धी वा आचार्यों पाध्यायानां समीपे मवजितः मन् । इमस्स' अस्य 'ओरालियसरीरस्स' औदारिम्हारीरस्य वान्तासवस्य याद पिवसनधर्मरय 'रणहेउ ' वर्णहेतु कान्तिविशेगमाप्त्यर्थम् , यानन्-'हाउ ' पहेतु सौन्दर्यायर्थम् , 'वबहेउ' से बाहर किया और उठाकर सुममा दारिका के मस्तक को काट डाला। उस फटे हुए मस्तक को लेकर फिर निर्जन अटवी में प्रवेश कर गया। उस अरवी में पिपासा से व्याकुल होकर वह पूर्णदि दिशाओ के विवेक से रहित हो गया-इस तरह वह पुनः चश से पीछे चापिस अपनी सिंहगुहा नामकी चोर पट्टी में नहीं आ सका-और वीव ही में पोल कलित बन गया। इनका अशिष्ट चरित्र प्रधान्तर से जान लेना चाहिये। यहाँ तो भगवान ने जितना चरित्र इसका उपयोगी जाना तनाही उपदिष्ट किया है ।-(एषामेव समणाउसो जाव पन्च इए समाणे इमस्त ओरालियसरीरस्स वतासवत जाव विद्धसण धम्मस्स वपणहे जाच आहार आहारेई से ण इहलोए चेव बट्टण सम નાખ્યું તે કપાએલા માથાને લઈને તે નિજ ન-ભયકર અટવીમાં પેસી ગયો અટવીમા તે તરસથી વ્યાકુળ થઈને પૂર્વ વગેરે દિશાઓના વિવેકથી રહિત થઈ ગયો અને આ પ્રમાણે તે ફરી ત્યારથી તે પોતાની સિંહગુડા નામની ચાર પલીમાં કોઈ પણ દિવસે પાછા આવી શકે નહિ અને વચ્ચે જ મૃત્યુ પામ્યા તેનું બાકીનું ચરિત્ર બીજા થથમાથી જાણી લેવું જોઈએ, અહીં તે ભગવાને જેટલું ચરિત્ર તેનું ઉપયુક્ત જાણ્યું તેટલુ કહ્યુ છે.
(एमामेव समणाउसो ! जार पचहए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वतासरस्स जान विद्धसणधम्मस्स वष्णहेउ जाव आहार
Page #965
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६९१ तुम्हे ममं देवाणुप्पिया । जीवियाओ ववरोवेह, मंसं च सोणिय च आहारेइ, आहारित्ता, तेण आहारेणं अविद्धत्था समाणा तओ पच्छा इम अग्गामिय अडवि णित्थरिहिह, रायगिह च संपावेहिह, मित्तणाइ० य अभिसमागच्छिहिह, अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह । तएण से जेट्रपुत्ते धण्णेणं सत्थवाहेण एवं वुत्ते समाणे धण्ण सत्थवाहं वयासीतुम्भे ण ताओ | अम्हे पिया गुरुजण य देवभूया ठावगा पइ. डावगा सरक्खगा सगोवगा तं कहणणं अम्हे ताओ तुम्भे जीवियाओं ववरोवेमो, तुम्भे णं सस च सोणिय च आहारेमो ? त तुझे ण तातो । मम जीवियाओ ववरोवेह, मसं च सोणिय च आहारेह, अग्गामिय अडवि णित्थरह, त चेव सव्व भणइ जाव अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह । तएण धण्ण सत्थवाह दोच्चे पुत्ते एव वयासी-मा णं ताओ | अम्हे जेह भायर गुरुदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो, तुम्भे ण ताओ । मम जीवियाओ ववरोवेह जाव आभागी भविस्सह । एव पचमे पुत्ते तएण से धपणे सत्थवाहे पचण्ह पुत्ताण हियइच्छिय जाणित्ता, त पच पुत्ते एव वयासी-मा ण अम्हे पुत्ता । एगमविजीवियाओ ववरोवेमो, एसण सुसुमाए दारियाए णिप्पाणे णिच्चे? जाव विप्पजढे, त सेयं खलु पुत्ता । अम्हे सुसुमाए दारियाए मस च सोणिय च आहारेत्तए । तएण अम्हे तेण आहारेण अविद्ध, स्थासमाणा रायगिह सपाउणिस्तामो। तएण त पंच पुत्ता
Page #966
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९०
I
नो संचाएइ चिलाय चोरसेणावई साहस्थि गिरिहत्तर से र्ण तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तित्ता जेणेव सा सुसुमा दारिया चिलाएण जीवियाओ ववरोधिया तेणेन उवागच्छछ, उवागच्छित्ता, सुसुमं दारिय चिलाएणं जीवियाओ ववरोवियं पासइ, पासित्ता परसुनियत्तेव चपगवरपायवे धसत्तिधरणियलसि निवडइ । तएण से धण्णे सत्यवाहे पचहि पुतेहि सद्धिं अप्पछट्टे आसत्थे कूयमाणे कदमाणे विलयमाणे महया२ सद्देणं कुहूर सुपरने सुचिर काल बाहमोक्ख करेइ । तपणं से धण्णे सत्थवाहे पंचहि पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे चिलायं तीसे अग्गामियाए अडवीए सव्त्रओ समंता परिघाडेमाणे तपहाए छुहाए य परिभूए समाणे तसे अग्गामियाए अडवीए सव्वओ समता उद्गस्स भग्गणगवेसण करेइ, करिता सते तते परितते, णिचिन्ने, तोसे अग्गामियाए अडवीए उद्गस्स मग्गणगवेसण करेमाणे नो चेवणं उदग आसादेइ । तएण से धण्णे सत्थवाहे अप्पछडे उदग अणासाएमाणे जेणेव सुसुमा जीवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जेठ पुत्त धणदत्त सहावेइ, सद्दावित्ता एव वयासी - एव खलु पुत्ता । अम्हे सुसुमाए दारियाए अट्ठाए चिलाय तक्कर सव्वओ समता परिधाडेमाणा तण्हाए छुहाए य अभिभूया समाणा इमीसे अग्गामियाए अडवीए उदग्गस्स मग्गणगवेसण करेमाणा णो चेव ण उदगं आसादेमो, तपर्ण उद्ग, अणासाएमाणा णो सचाएमो रायगिह सपा
तण्ण
तामा
Page #967
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम्
६९१
तुम्हे ममं देवाणुप्पिया । जीवियाओ ववरोवेह, मसं च सोणियं च आहारेइ, आहारिता, तेणं आहारेणं अविद्धत्था समाणा तओ पच्छा इमं अग्गामियं अडवि णित्थरिहि, रायगिह च संपावेहिह, मिस्रणाइ० य अभिसमागच्छिहिह, अन्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह । तएण से जेटूपुत्ते धणेणं सत्थवाहेण एवं वृत्ते समाणे धण्ण सत्थवाहं वयासीतुम्भेण ताओ । अम्हे पिया गुरुजण य देवसूया ठावगा पइहावगा सरक्खगा सगोवगा तं कहण्णं अम्हे ताओ। तुम्भे जीवियाओ ववरोमो, तुम्भेण ससं च सोणियं च आहारेमो ? त तुब्भे णं तातो । मम जीवियाओ ववरोवेह, मंसं च सोणियं च आहारेह, अग्गामिय अडवि णित्थरह, त चैव सव्व भणइ जाव अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह । तएण धण्ण सत्थवाह दोच्च पुत्ते एव वयासी- मा णं ताओ। अम्हे जेड भायर गुरुदेव जीवियाओ ववरोवेमो, तुम्भे णं ताओ । मम जीवि याओ ववशेवेह जाव अभागी भविस्सह । एव पच्चमे पुत्ते तपा से सत्थवाहे च पुत्ताण हियइच्छिय जाणित्ता, त पच पुते व वयासी - माण अम्हे पुत्ता । एगमविजीवियाओ ववरोवेमो, एसण सुसुमाए दारियाए णिप्पाणे णिच्चेठ्ठे जाव विप्पजढे, त सेय खलु पुत्ता । अम्हे सुसुमाए दारियाए मस च सोणियं च आहारेत्तए । तएण अम्हे तेण आहारेण अविद्ध, त्थासमाणा रायगिह सपाउणिस्सामो । तएण त पंच पुत्ता
·
Page #968
--------------------------------------------------------------------------
________________
he 2
प्रातामकथाले
धपणेणं सत्थवाहेणं एवं वृत्ता समाना एयमहं पडिसुर्णेति । तणं धपणे सत्वा पंचहिपुत्तेहिं सद्धि अरणि करेइ, करिता, सरगं च करेइ, करिता, सरपणं अणि महेड, महिता अरिंगपाडेइ, पाडित्ता, अरिंग संधुखेड, सक्सित्ता दारुयाइ परिक्खेवेइ, परिवखेवित्ता, अग्गिपजालेड, पजालित्ता, सुंमुमाए दारियाए मंस च सोणियं च आहारेति । ते णं आहारेण अवि द्वत्था समाणा रायगिहं नयर संपत्ता मित्तणाइ० अभिसमणागया तस्स य विउलस्स धणकणगरयण जात्र आभागी जाया या होत्था । तएण से धपणे सत्थवाहे सुसुमाए दारियाए बहूइ लोइयाइ जाव विगयसोए जाए याचि होत्था ॥ सू०८ ॥
टीका- '
aण से' इत्यादि । ततः खलु स धन्य' सार्थवाहः पञ्चभिः पुत्रै सह आत्मपः चिळात ' परिधाडेमाणे २ ' परिधावन् २ = चिलात ग्रहीतुकामस्त स्पृष्ठतोऽनुधावन् 'तण्हाए छुहाए य' तृष्णया क्षुधया च ' सते ' श्रान्त, = मनसा खिन्नः, ' तते ' तान्त = शरीरेण हात', 'परितते' परितान्तः = मनमा शरीरेण च
-:तएण से धपणे सत्थचाहे । इत्यादि ।
टीकार्थ - (ए) इसके बाद (पहिं पुत्तेर्हि सद्धि अप्पछड़े से धणे सत्वा) पांचो पुत्रों के साथ उठा बना हुआ वह धन्यसार्थवाह (चिलाय परिधाडेमाणे २) चिलातचोर को पकड़ ने की इच्छा से उस के पीछे २ बार बार दौडता हुआ, (तण्हाए छुहाए य सते तते परितते नो सचाइए चिलाय चोरसेणावई साहित्यि गतिए) पिपासा और
'तएण से धणे सत्थवाहे' इत्यादि
टीडार्थ – ( तण ) त्यारपछी ( प चहि पुतेहिं सद्धि अपट्टे से धणे सत्यवाहे) पाये पुत्रानी साथै छड्डी ते धन्य सार्थवाह ( चिलाय परिधाडेमाणे २ ) ચિલાત ચારની પાછળ પાછળ તેને પક્ડી પાડવા માટે વારવાર દોડતા દોડતાં ( तहाए छुहाए य सते तवे परित ते नो सचाएह चिलाय चोरसेणावइ साहस्थि गिव्हित्तए) तस्स भने लूमधी श्रात थह गये।, जिन्न जनी गये।
થા
Page #969
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधामृतवपिणी टी० १० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६९३ खिन्नः, 'नो सचाएइ 'नो शक्नोति चिलात चोरसेनापति ' साहत्थि ' स्वह स्तेन ग्रहीतुम् । तदा स खलु 'तो' तत चिलातग्रहणव्यापारात् , 'पडिनियतह मति निवर्तते. प्रतिनित्य, यत्रैव सा सुसुमा दारिमा चिलातेन जीविताद् ‘वरोनिया' व्यपरोपिता-पृथक्कृता-मारिता सती पतिता आसीत् तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य सुसुमा दारिका चिलातेन जीविताद् व्यपरोपिता पश्यति, दृष्ट्वा ' परसुनियत्तेप' परशुनिकृत्त इव-परशुच्छिन्नो यया चम्पकवरपादपस्तद्वत् क्षुधा से प्रान्त हो गयो-खिन्न बन गया, तान्त हो गया-शरीर से मुरझा गया-परितान्त हो गया-इदम उत्साह रहित बन गया-सो वह उसे अपने हाथ से पकडने के लिये शक्तिशाली नही हो सको-(सेण तओ पडिनियत्तह, पडिनियत्तित्ता जेणेव लो सुसमा दारिया चिलाएण जीवियाओ ववरोविया-तेणेव उवागच्छद) अतः-वह वहा से लौट आयो-और लौटकर वहाँ गया जहा वह अपनी पुत्री सुसमा चिलातचोर के द्वारा-जीवन से रहित की गई पडी थी। (उधागच्छित्ता सुसमा दारिय चिलाएण जीवियाओ ववरोविय पासइ, पासित्तो परसुनियत्तेव चपगवरपायवे धसत्ति धरणियलसि निवडइ-तएणं से धणे सत्थवाहे पचर्हि पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछडे आसत्थे कूयमाणे कदमाणे विलवमाणे मया २ सद्देण कुह २ सुपरुन्ने सुचिर कालवाहमोक्ख करेइ) वहा जाकर उसने सुममा दारिका को चिलातचोर के द्वारा जीवन से रहित की गई देखा। देखते ही वह पुत्रों सहित परशु से काटे गये उत्तम
ગયે-શરીર તેનુ ચિમડાઈ ગયુ પરિતાત થઈ ગયે-સાવ નિરૂત્સાહી બની ગયે એવી હાલતમાં તે પિતાના હાથથી તેને પકડી પાડવામાં સમર્થ થઈ शय नडि (से ण तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तिता जेणेष सा सुसमा दारिया चिलाएण जिवियाओ ववरोविया तेणेव उबागच्छइ ) तेथी ते त्याथी पाछ। ફરી ગયો અને પાછા ફરીને તે જ્યા ચિલાત ચાર વડે હણાયેલી પિતાની પુત્રી સુસમાં દારિકા પડી હતી ત્યા ગયે
(उवागच्छित्ता सुसुमा दारिय चिलापण जीचियाओ ववरोविय पासह पासित्ता परसुनियत्तेव चपगवरपायवे धसत्ति वरणियलसि निवडइ,-तएण से धण्णे सस्थवाहे पवहिं पुत्तेहिं सद्धि अप्पछठे आसत्थे कूयमाणे कदमाणे विलय माणे महया २ सदेण कुहू २ सुपरुन्ने सुचिर काल बारमोक्ख फरे)
ત્યાં જઈને તેણે સુસમાં દારિકાને ચિલાત ચાર વડે હણાયેલી જોઈ જોતાની સાથે જ તે પુત્રની સાથે પરશુ વડે કપાએલા ઉત્તમ ચપક વૃક્ષની
Page #970
--------------------------------------------------------------------------
________________
he
भ्रातामकथा
धपणेणं सत्थवाहेण एत्ता समाना एयमहं पडिसुर्णेति । तणं धणे सत्वा पचहिपुत्तेहिं सद्धि अरणि करेड़, करित्ता, सरगं च करेइ, करिता, सरपणं अणि महेड, महित्ता अरिंगपाडेइ, पाडित्ता, अरिंग संधुसे, संधुनिसत्ता दारुयाइ परिक्खेवेइ, परिक्सेवित्ता, अग्गिपजाëड, पञ्जालिता, सुंसुमाए दारियाए मंस च सोणियं च आहारेति । ते णं आहारेण अविइत्था समाणा रायगिह नयरं सपत्ता मित्तणाइ० अभिसमणागया तस्स य विउलस्स धणकणगरयण जात्र आभागी जाया यावि हत्था । तएण से घण्णे सत्थवाहे सुसुमाए दारियाए बहूइ लोइयाइ जाव विगयसोए जाए याचि होत्या ॥ सू०८ ॥
टीका – ' तएण से' इत्यादि । ततः सतु स धन्यः सार्थवाह पश्चभिः पुत्रै सह आत्मपः चिलात ' परिघाडेमाणे २ ' परिधानन् २ = चिलात ग्रहीतुकामस्त पृष्ठतोऽनुधावन् ' तहाए छुहाए य ' तृष्णया क्षुधया च ' सते ' श्रान्त, मनसा खिन्नः, ' तते ' तान्त =शरीरेण लातः, 'परितते' परितान्तः = मनमा शरीरेण च
-:तएण से धपणे सत्थवाहे । इत्यादि ।
टीकार्थ -- (तएण ) इसके बाद ( पचहिं पुत्तेर्हि सद्धि अप्पछडे से धणे सत्थवाहे) पांचो पुत्रों के साथ छठा बना हुआ वह धन्यसार्थवाह ( चिलाय परिधाडेमाणे २) चिलातचोर को पकड़ ने की इच्छा से उस के पीछे २ बार बार दौडता हुआ, (तण्हाए छुहाए य सते तते परितते नो सचाइए चिलाय चोरसेणावई साहित्यि गिव्हित्तए) पिपासा और
'तएण से धणे सत्थवा हे' इत्यादि
टीअर्थ - (तरण ) त्यारपछी ( प चहि पुत्तेहिं सद्धि अपछट्टे से धणे सत्यवाहे) या पुत्रानी साथै छठ्ठी ते धन्य सार्थवाह ( चिलाय परिधाडेमाणे २ ) ચિલાત ચારની પાછળ પાછળ તેને પક્ડી પાડવા માટે વારવાર દોડતા દોડતાં ( वहाए छुहाए य सते तवे परित ते नो सचापह चिलाय चोरसेणावइ साहत्थि गिव्हित्तए) तस्स भने लूमाथी श्रात थ गयो, भिन्न जनी
थध
Page #971
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम्
६९५
1
माणे परिधावन् तृष्णया क्षुधया च ' परिभूए ' परिभूतः सन् तस्यामग्रामि कायाटव्या सर्पत. समन्तात् चतुर्दिक्षु ' उदगस्स ' उदकस्य = जलस्य ' मग्गणगवेसण ' मार्गणगवेपणम् = अन्वेषण करोति, कृत्वा श्रान्तः, तान्त, परितान्त ' णिव्विन्ने' निर्विण्ण = औदासीन्य प्राप्तः । तस्यामग्रामिकायामटव्यामुदकस्य मार्गणगवेपण कुन नो चैव खलु उदकम् ' आसादेइ ' आसादयति=माप्नोति । ततः खलु स धन्यः सार्ववाह आत्मपप्ठ उदकमनासादयन् पानीयमप्राप्नुवन् यौन सुसुमा जीविताद् व्यपरोपिता मारिता सती पतिताऽऽसीत् तत्रैव उपाग च्छति, उपागत्य ज्येष्ठ पुत्र धनदत्त शब्दयति, शन्दयित्वा, एवमवदत् - एवं खलु में चारो दिशाओ में जल की मार्गणा और गवेपणा करने लगा (करित सतते परित णिन्निन्ने तीसे अग्गामिया अडवीए उदगस्स मग्गण गवेसण करेमाणे णो चेव ण उयग आसाण्ड ) मार्गणा गवेषणा करके वह श्रान्त, मन से खिन्न, तान्तशरीर से खिन्न और परितान्त - बन गया शरीर एवं मन इन दोनो से खिन्न हो गया इस तरह उस अग्रामवाली अटवी में उदकपानी की मार्गणा और गवेषणा करते हुए भी उसे जल नही मिला (तएण से धण्णे सत्थवाहे अप्पछडे उदग अणासामाणे जेणेव सुसुमा दारिया जीवियाओ ववरोविया - तेणेव उवागउ ) तब आत्मपष्ट बना हुआ वह धन्यसार्थवाह उदक प्राप्त नहीं करता हुआ जहाँ सुसुमादारिका का शव पडा हुआ-या वहा आया - ( उवागच्छित्ता जेट्ट पुत्त धणदत्त सद्दावेह, सद्दावित्ता एव वयासी) અને ક્ષુધા ( તરસ અને ભૂખ ) થી પીડાઈને તે ગામ વગરની અટવીમા ચેામેર પાણીની માગણુા અને ગવેષણા કરવા લાગ્યા
( करिता सते तते परितते गिव्विन्ने ती से अग्गामियाए अडवीए उद्गस्म मग्गणगवेसण करेमाणे णो चेत्र ण उदग आसाएइ )
માણા તેમજ ગવેષણા કરીને તે શ્રાત, મનથી ખિન્ન, તાત શરીરથી ખિન્ન અને પરિતાત ખની ગયે। શરીર તેમજ મન આ બનેથી તે ખિન્ન થઈ ગયા આ પ્રમાણે તે મ વગરની અટવીમા ઉદક-પાણી-ની માણા ગવે ષણા કરતા તેને પાણી મળ્યું નહિ
दुई
(तरण से धणे सत्थवाहे अपछडे उदग अणासाएमाणे जेणेव सुसुमा दारिया जीवियाओ वरोनिया तेणेन उवागच्छा )
ત્યારે આત્મષષ્ઠ અનેલે તે ધન્ય સાથે વાહુ પાણી ન મેળવતા જ્યા भुसभा हारिनु भउहु पड्यु हेतु त्या याव्या ( उनान्छित्ता जेट्ट पुत्त धण दत्त साई महावित्ता एव वयासी ) त्या आवीने तेथे पोताना मोटा पुत्र ધનદત્તને એલાગ્યે અને મેલાવીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યુ કે
Page #972
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
छाताका
1
सपुत्रो धन्यः सार्थवाहः 'गति' इति पूर्वक धरणीतले निपतति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः आत्मपष्ट ' आगत्ये ' आमस्त = उच्छ्वास न सचेष्टः सन ' हमाणे फनन् = यक्ता पर्न 'कंमाणे ' क्रन्दन् उच्चस्तरेण पुनः 'माणे विनविलापन ' महया महया संदेश ' महतामहता शदेन = मत्यु चैन' २ प २ सुमन कुहू इति शब्दगुच्चापत्यर्थ रुदितः सरगुरिकाका उपर्यन्त 'वाहमोक्ख' वाप्प मोक्षम् = मथुमोचन करोति । ततः स म धन्यः सार्थवादः पञ्चभिः पुत्रैः सह आत्मपप्ठ. चिलाव तस्यामग्रामिकायाम् अटव्या सर्वत समन्तात् 'परिषा
-
चपक वृक्ष के समान 11 धस हम शब्द पूर्वक भूमिपर गिर पड़ा। बाद मे पांच अपने पुत्रो के साथ आत्मपष्ट बना हुआ वह धन्य सार्थवाह आश्वस्त, उच्छ्वास छोड़ता हुआ सचेष्ट हो गया सो अव्यक्त शब्द करता हुआ खूप जोर २ से रोने लगा, विलाप करने लगा। एव बहुत ऊँचे २ शब्दों से कुह कुष्ट करता हुआ-हाय सासे लेता हुआ बहुत से देर तक रोता रहा - अश्रुमोचन पूर्वक आक्रंदन करता रहा- (तरण घणे सत्यवाहे पहिं पुत्तरं सद्धि अप्पट्टे चिलाय तीसे अग्गामियाए अडवीए सन्चओ समता परिधाडे माणे तहाए छुहाए य परिभूए समाणे तीसे अग्गामियाए अटवीग सञ्चओ समता उदगस्स भग्गणगवेसण करेइ) इसके बाद पाचो पुत्रों के साथ आत्मपष्ठ बना हुआ वह धन्यसा र्थवाह उस अग्रामवाली अटवी में चिलातचोर के पीछे पीछे बार २ दौड़ता हुआ तृपा और क्षुधा से पीडित होकर उस अग्रामवाली अटवी જેમ “ ધમ ” શબ્દની સાથે જમીન ઉપર પડી ગયા ત્યારપછી પાચે પુત્ર તેમજ છઠ્ઠો તે ધન્યસાવાડુ આશ્વસ્ત–ઉચ્છ્વાસ છેડતા–નિસાસા નાખતા સચેષ્ટ થઈ ગયા અને અન્યકત શબ્દ કરતા ધ્રૂસકે ધ્રૂસકે ખૂબ જોરથી રડ લાગ્યા, વિલાપ કરવા લાગ્યા અને હુ મેટા સાદે ‘કુ કુદ્’ કરતા હા હાય કરીને શ્વાસેા લેને ઘણીવાર સુધી રડને રહ્યો તેમજ માસૂ પાડત
આક્રંદ કરતા રહ્યો
"
(तरण से धणे सत्यवादे पचर्हि पुत्तेहिं सद्धिं अपछडे चिलाय ती अग्गा मियाए अडबीए सव्प्रओ समता परिवाडेमाणे तव्हाए हाए य परिभूए समाणे तसे अग्रगामिया अडीए सन्त्रओ समता उद्गस्स मग्गगगवेसण करेइ ) ત્યારબાદ પાચે પુત્રાની સાથે છઠ્ઠો તે ધન્યમાલાહ તે ગામ વગરની નિર્જન અટવીમા ચિલાત ચારની પાછળ પાછળ વારવાર
> ને તૃષા
Page #973
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९७
-
-
-
-
अमगारधर्मामृतपिणो टी० म० १८ सुसुपादारिकावरितवर्णनम् मटवी ' णित्थरिहिह' निस्तरिष्यथ पारङ्गमिष्यथ, राजगृह च 'सपाविहिह" समाप्स्यथ 'मित्तणाई० य' मित्रज्ञातिञ्च मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनाने 'अभिसमागच्छिहिह' अभिममागमिष्यथ-मित्रज्ञातिप्रभृतिभिः सह सगता भवि. प्यथ, तथा च ' अत्यस्म' अर्थस्य-धनस्य च धर्मस्य च पुण्यस्य च 'आभागी' अभागिनो = भोक्तारो भविष्यथ । ततः खलु स ज्येष्ठपुनो धन्येन सार्थवाहेन एव मुक्तः = अनेन प्रकारेण कथितः सन् धन्पं सार्थवाहमेव मवदत्-हे तात ! यूय खलु अस्माक पिता 'गुरुजणदेवयभूया' गुरुजनदैवतभूता: देवगुरुजनसदृशाः ' ठावका ' स्थापकाः नीतिधर्मादौ 'पइट्ठावका' मतिष्ठापका =रानादिसमक्ष स्वपदस्थापनेन प्रतिष्ठाकारकाः तथा संरक्खगा' रिदिय रायगिह च सपावेहिह) इसलिये हे देवानुप्रियो ! तुम मुझे मारडालो और मेरे मांस और रक्त से तुम अपने प्राणोंकी रक्षाकर शरीर के विनाश होने से पचाकर इस अग्रामिक अटवी से पार हो जाओगे-एव राजगृह नगर पहुँच जाओगे। (मित्ताणाइ० य अभिसमागच्छिहिह अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह, तएण से जेटे पुत्ते) वहा पहुँचकर तुम अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सबन्धी परिजनो के साथ मिलोगे तथा धन, धर्म और पुण्य के भोक्ता भी बनोगे-इसके बाद उस ज्येष्ठ पुत्र धनदत्त ने (धण्णेणं सत्यवाहेण एव वुत्ते समाणे धण्ण सत्यवाह एव वयासी) धन्यसार्थवाह के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उन अपने पिता धन्यसार्थवाह से इस प्रकार कहा (तुम्भे ण ताओ! अम्ह पिया गुरुजणयदेवभूया ठावगा अडवि णित्थरिहिह रायगिह च समावेहिह)
એથી હે દેવાનપ્રિયા તમે મને મારી નાખે અને મારા માસ અને રક્તને ખા, પીવે ખાધા પીધા પછી તમે શરીરના વિનાશથી ઊગરી જશે અને તૃપ્તિ મેળવીને આ ગામવગરની અટવીને પાર કરી જશે અને છેવટે રાજગૃહ નગરમા પહોચી જશો
(मित्ताणाइ य अभिसमागच्छिहिह अत्थस्स य धरमरस य पुण्णस्स य आभागी भनिस्सह, तएणं से जेट्टे पुत्ते )
ત્યા પહેચીને તમે પિ ના મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન, સ બ ધી પરિજનની સાથે મળશે તેમજ ધન, ધર્મ અને પુને ઉપગ કરશો ત્યારપછી મોટા પુત્ર ધનદત્ત (धण्णेण सत्यवाहेण एव चुत्ते समाणे धण्ण सत्यवाह एव वयासी
ધન્ય સાર્થવાહ વડે આ પ્રમાણે કહેવાયા બાદ પોતાના પિતા ધન્ય સાર્થવાહને આ પ્રમાણે કહ્યું કે–
Page #974
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९६
ammerweiret
,
,
पुत्राः । त्रय गुमाया दारिकाया: 'भाव' अनिमित्तं वातरं प्रति समभो गमता सः समन्तान्पतुर्दिक्षु परिधाडेमाना' परिवारन्तः तुष्टाव उष्णया पिपाया, 'याच अभिभूत सन्तः अस्यामग्रामिका यामदत्यमुदस्य मार्गपण कुरितीनो चैत्र खल उदकमासादयाम', तस तु उदपम् अनोमादयन्तः = अलभमानाः नो शक्नुमो राजगृह समाप्तम्, उष्णतम्बर=स्मात् परिणात् वल ग्रुप मा हे देवानु प्रियाः ! जीविताद् व्यपरोपयत, मास च शोणित च ' आहा रेह ' आहारयत आहार्य शुक्ला, ' तेण जाहारेण तेन आहारेण ' अरिद्वत्था ' अविध्वस्ताः = शरीरनाशुममाप्ता सन्तः तृप्ता सतः 'तभोपच्छा' तत पश्रात् इमामग्रामिका
•
,
,
"
य
वहा आकर के उसने अपने जेष्ट पुत्र धनदस को बुलाया और बुलाकर उससे इस प्रकार कहा- ( एव तु पुत्ता! अम्हे मुसमानदारियाए अट्ठाए चिलाय तस्कर मन्त्रओ समता परिधाडेमाणा तष्टा छुहाए अभिभूया समाणा हमी से अग्गामियाए अनी उद्गस्म मग्गण गवेसण करेमाणा णो चेव ण उदग आसाएमो-तण्ण उद्ग अणासा माना जो सचा रायगिर सपावित) हे पुत्र सुनो अपने लोग सुसमा दारिका के निमित्त चिलातचोर के पीछे २ सब तरफ सब प्रकार से दौड़ते २ प्यास और भूख से इसी हो गये हैं हमने इस अग्राम वाली टी में पानी की मार्गेणा और गवेषणा भी की- परन्तु वह मिला नहीं अतः पानी की प्राप्ति के अभाव में अब राजगृह नगर में पहुँचने के लिये हम असमर्थ वन चुके है । (तएण तुम्हे मम देवाणुपिया ! जीवियाओ ववशेवेह मस च सोणिय च आहारेह, आहारिता तेण आहारेण अविद्धत्या समाणा तओ पच्छा इम अग्गामिय अडबित्ि
( एव खलु पुत्ता ! जम्हे सुसृमाए दारियाए अट्टाए चिलाय तक्कर सओ समता परिघाटेमाणा तण्हाए हाए य अभिभूया समाणा इमीसे अभ्गा मियाए अडवीए उदगम मग्गणगवेसण करेमाणा णां चैव ण उदग आसाए मोतएण उदग अणासाएमाणा णो सचाएमो रायगिह सपावित्तए )
હે પુત્ર! સાભળ, અમે સુસમા દારિકાને મેળવવા માટે ચિલાત ચારની પાછળ પાછળ આમતેમ ચારે તરફ ભટકતા ભટકના તરસ અને ભૂખથી દુખી થઇ ગયા છીએ અમાએ આ ગામ વગરની અટવીમા પાણીની માગણા અને ગવેષણા પર કરી છે, પણ અમે હજી મેળવી શકયા નથી એથી હવે પાણીના અભાવમા અમે રાજગૃહ નગરમા પહેચી શકીશુ તેમ લાગતું નથી
(तरण तुम्हे मम देवाणुप्पिया । जीवियाओ ववरोवेड, मस च सोणिय च आहारे, आहारिता तेण आहारेण अविद्धत्या समाणा तओ ● अग्गामियं
Page #975
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतपिणो टी० म० १८ सुसुपादारिकावरितवर्णनम् _ ६९७ मटवीं 'णित्थरिहिह' निस्तरिष्यथ-पारङ्गमिप्यथ, राजगृह च 'सपाविहिह' समाप्स्यथ 'मित्तणाई० य' मित्रज्ञातिश्च-मित्रज्ञाविस्वजनसम्बन्धिपरिजनान 'अभिसमागच्छिहिह ' अभिपमागमिष्यथ-मित्रज्ञातिप्रभृतिमि' सह सगता भवि. प्यथ, तथा च ' अस्थस्स' अर्थस्य-धनस्य च धर्मस्य च पुण्यस्य च 'आभागी' अभागिनो = भोक्तारो भविष्यय । ततः खलु स ज्येष्ठपुनो धन्येन सार्थवाहेन एव मुक्तः = अनेन प्रकारेण कथितः सन् धन्य सार्थवाहमेव मवदत्-हे तात ! यूय खलु अस्माक पिता 'गुरुजणदेवयभूया' गुरुजनदेवभूताः देवगुरुजनसदृशाः ' ठावका ' स्थापकाः नीतिधर्मादौ 'पइट्ठावका' मतिष्ठापका =रानादिसमक्ष स्वपदस्थापनेन प्रतिष्ठाकारकाः तथा सरक्खगा' रिदिय रायगिह च सपावेहिह) इसलिये हे देवानुप्रियो ! तुम मुझे मारडालो और मेरे मांस और रक्त से तुम अपने प्राणोंकी रक्षाकर शरीर के विनाश होने से रचाकर इस अग्रामिक अटवी से पार हो जाओगे-एव राजगृह नगर पहुँच जाओगे। (मित्ताणाइ० य अभिसमागच्छिहिह अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह, तएण से जेटे पुत्ते) वहा पहुँचकर तुम अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सयन्धी परिजनों के साथ मिलोगे तया धन, धर्म और पुण्य के भोक्ता भी बनोगे-इसके बाद उस ज्येष्ठ पुत्र धनदत्त ने (धण्णेणं सत्यवाहेण एव वुत्ते समाणे धष्ण सत्यवाह एव वयासी) धन्यसार्थवाह के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उन अपने पिता धन्यसार्थवाह से इस प्रकार कहा (तुम्भे ण ताओ ! अम्द पिया गुरुजणयदेवभूया ठावगा अडवि णित्थरिहिह रायगिह च समावेहिह)
એથી હે દેવાનપ્રિય ! તમે મને મારી નાખે અને મારા માસ અને રતને ખા, પીવે ખાધા-પીધા પછી તમે શરીરના વિનાશથી ઊગરી જશે અને કૃમિ મેળવીને આ ગામવગરની અટવીને પાર કરી જશે અને છેવટે રાજગૃહ નગરમાં પહેચી જશે
(मित्ताणाइ य अभिसमागच्छिहिह अस्थस्स य धम्मरस य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह, तएण से जेटे पुत्ते ) ત્યા પહેચીને તમે પિ ના મિત્ર,જ્ઞાતિ, સ્વજન,સબ ધી પરિજનની સાથે મળશે તેમજ ધન, ધર્મ અને પુણને ઉપલેગ કરશે ત્યારપછી મેટા પુત્ર ધનદત્ત (धण्योण सत्यवाहेण एवे वुत्ते समाणे घण्ण सत्यवाह एव वयासी
ધન્ય સાર્થવાહ વડે આ પ્રમાણે કહેવાયા બાદ પોતાના પિતા ધન્ય સાર્થવાહને આ પ્રમાણે કહ્યું કે- *
Page #976
--------------------------------------------------------------------------
________________
Imama हे पृप्राः । यय मुंगुमाया दारितापा: 'भाग' अर्याय निमित्त मिलान तम्फर पति समयो ममता' : ममन्नान-प्रट या पनर्दिषु परिधाडेमामा' परिधारन्तः सा' हणमा-पिपागा, 'पाप' या व अभिभूतो सन्तः अस्पामग्रामियायामटव्यामुदयम्य मार्गणगोपण कुन्तिी नो चेव खलु उदयमासादयामः, तत सलु उदयम् अनौसादयन्त' प्रमभमानाः नो अनुमा राजगृह समाप्तम् , ' व ' तपट-नस्मान् यारणात् बलु य मा हे देवानु प्रियाः ! जीरिताद् व्यपरोपयत, माम च पाणित व 'आहारेद' आहारयत आहार्य=मुस्त्या । तेण पाहारेण ' तेन आहारण ' भरिद्वत्या ' अविध्वस्ताशरीरनाममाता सन्तः तृप्ता सातः 'तभोपन्छा' तत पत्रात् इमामग्रामिका वहा आकर के उसने अपने जेष्ट पुन धनदरा को बुलाया और बुलाकर उससे इस प्रकार फरा-(एच पल पुत्ता। अम्हे सुसमा दारियार अट्ठाग चिलाय तस्कर मचओ समता परिधाडेमाणा ताए छुहाए । अभिभूया समाणा हमी से अग्गामियाए अडवी उदगस्स मागण गवेसण फरेमाणा णो चेव ण उदग आसाएमो-तपण उदग अणासा एमाणा णो सचाएमो रायगिह सपावित्तए) हे पुत्र सुनो अपने लोग सुसमा दारिका के निमित्त चिलातचोर के पीछे २ सय तरफ सष प्रकार से दौड़ते २ प्यास और भग्व से दापी हो गये हैं हमने इस अग्राम वाली अटवी में पानी की मार्गणा और गवेषणा भी की-परन्तु वह मिला नहीं अतः पानी की प्राप्ति के अभाव में अब रोजगृह नगर में पहुचन के लिये हम असमर्थ बन चुके है। (तपण तुम्हे मम देवाणुप्पिया जीवियाओ वरोवेद मस च सोणिय च आहारेह, आहारत्ता. आहारेण अविद्धत्या समाणा तओ पच्छा इम अग्गामिय अडवि णित
( एव खलु पुत्ता ! अम्हे सुसमाए दारियाए अट्ठाए चिलाय तक्कर सन्ना समता परिधाटेमाणा तहाए छहाए य अभिभूया समाणा इमीसे अग्गामिया अडवीए उदगस्म मरगणगवेसण करेमाणा णो चेव ण उदग आसाए मो-तए उदग अणासाएमाणा णो सचाएमो रायगिह सपावित्तए)
હે પુત્ર! સાભળ, અમે સુસમા દારિકાને મેળવવા માટે ચિલાત ચારની પાછળ પાછળ આમતેમ ચારે તરફ ભટકતા ભટકના તરસ અને ભૂખથી ૬ થઈ ગયા છીએ અમોએ આ ગામ વગરની અટવીમાં પાણીની માંગ થઇ " ગવેષણ પર કરી છે, પણ અમે હજી મેળવી શકયા નથી એથી હવે પાણનિ' અભાવમાં અમે રાજગૃહ નગરમાં પહોચી શકીશ તેમ લાગતું નથી
(तएण तुम्हे मम देवाणुप्पिया । जीवियाओ ववरोवेह, मस च सोणिय च आहारेइ, आहारित्ता तेण आहारेण अविद्धत्या समाणा तओ पच्छा अग्गामिय
प्रयाए ।
Page #977
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगोरधर्मामृतवर्षिणो टी० ० १८ सुसुमादारिका चरितवर्णनम्
६९
रह ' निस्तरत= पारगच्छत, ' तचेत्र सन्च भगह ' तदेवसर्वं भणति = यथा धन्य सार्थवाही ज्येष्ठ पुत्रमवदत् तथैवायमपि तदेन सबै स्थयति यावत् अर्थस्य नर्मस्य पुण्यस्य च भागिनो भविष्यथ । ततः खलु धन्य सार्थवाह ' दोच्चे ' द्वि तीय पुनधनपालनामा एवमवदत् मा खलु हे तात । अस्माक ज्येष्ठ भ्रातर 'गुरु देवय' गुरुदैवत = देव - गुरुसदृशम्, जीविताद् न्यपरोपयाम. = मारयाम, यूय खलु हे तात ! ' मम ' मा= नपालनामान जीविताद् व्यपरोपयत यावत् अर्थादिफलभाजो भविष्यथ । एव = अनेन प्रकारेण ' जान पचमेपुत्ते ' यावत्
書
>
57
पहुच कर वहा अपने मित्रादि परिजनों के साथ मिल सके । तथा धन धर्म एव पुण्य के भोक्ता बन सके । " त चैव सव्व भण्ड इसका तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार धन्यसार्यवाह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र, धनदत्त से कहा- उसी प्रकार धनदत्त ने भी अपने पिता से वैसाही कहा(तएण धण्ण सत्यवाह दोच्चे पुत्ते एव वयासी-माण ताओ' अम्हे जेहे भायर गुरुदेव जीवियाओ चवरोवेमो-तुम्भेण ताओ ! मम जीवि याओ ववशेवेह, मस च मोणिय च आहारेह, अग्गामिय अडविं णित्थरह त चैव सव्य भणइ जाव अत्यस्स जाव पुण्णस्म आभागी भवि सह ) इसके बाद धन्यमार्थवाह से उसके द्वितीय पुत्र ने इस प्रकार कहा- हे तात । आप हमारे गुरु देवतातुल्य ज्येष्ठ भाई को जीवन से रहित मत कीजिये किन्तु आप तो हे तात! मुझे ही जीवितसे रहितकर दीजिये और मेरे ही रक्त एव मास को आप वोईये पीईये - ताकि इस अग्रामिक अटवी से पार हो सके इत्यादि पहिले जैसा ही इसने
1
તેમજ ધન ધમ અને
આગ અથ આમ થાય
પેાતાના મિત્ર વગેરે પરિનાની સાથે મળી કે! युएना लोउता जनी शो "त चेन सव्य भणइ છ છે કે જેમ ધન્ય સાથવાહે પેાતાના મેટા પુત્ર ધનદત્તને કહ્યુ તેમજ ધનદત્તે પણ પેાતાના પિતાને કહ્યુ
(तएण धण्ण सत्यवाह दोघे पुत्ते एवं वयासी माणं ताओ ! अम्हे जे भायर गुरूदेव जीवियाओ नवरोवेमो, तुम्भेण ताओ ! मम जीवियाओ ववशेवेह, मस च सोणिय च आहारेह, जग्गामि य अडवि पित्यरह त चैव सन्त्र भणड़ जाव अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्मह )
ત્યારપછી ધન્ય સાવાર્હને તેના ખીજા પુત્રે આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે તાત ! તમે અમારા ગુરુદેવતા જેવા માત્ર ભાઈને જીવન રહિત ન કરેા પણુ હૈ તાત ! તમે મને જ મારી નાખેા અને મારા જ લેાહી અને માસને તમે ખાએ પીએ જેથી તમે આ ગામ વગરની અટકીને પાર કરી શકે, આમ
Page #978
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
-
-
MAINAR सरक्षकाः यायाम सगोगा 'सगीपा परितपटः, '' तब-तम्मात् कारणात् ' फडणं ' फय ग्पलुन प्रसारण बलु तात ! वयं गुमान् जाति वाद् व्यपरोपयामा मारयामः, युगमा पलु मांग व शोणित न करम् आरयाम ?' ' तम्माद् गृप ग्वल हे तारा! मां धनदत्तनामान जीविता व्य परोपयत-मारयत मम मोस ग नागित र आहारयत. अग्रामियामटनी ' णित्य पइट्टानगा संरक्षगा सगोयगा कण अम्हे ताओ। तुम्भे जीवियाओ पवरोवेमो तुम्भ ण मम घमोणिय घ आहारमो अग्गमिय अडवि णित्थरह त चेत्र सयभणह जाय अस्थमजार पुण्णस्त माभागी भाव स्सा) हे मात | आप हमारे पिता है इसलिये आप मेरे लिये देव, गुरु जन के स्थान भूत हैं। नीति धर्म आदि में मुझे स्थापित करते रहते हैं। राज आदि समक्ष आप अपने पट पर मुझे यंठाते है इसलिये आप मेरे लिये स्थापक एव प्रतिष्ठापक हैं यथेच्छा प्रवृत्ति से आप हमारी सदा रक्षा करते रहते है इसलिये आप मेरे मरक्षक हैं, दुश्चरित-प्रवृत्ति से आप हमे रोकते रहते हैं इसलिये आप मेरे सगोपक है, तो कैसे में है तात ! आप को जीवन से रहित कर सकता है। और कैसे आप के शोणित और मास को खा सकता है। इसलिये हे तात ! आप ही मुझे जीवन से रहित कर दीजीये और मेरे खून और मास को आप खाइय ताकि आप इस अग्रामिक अटवी को पार कर सके और राजगृह नगर
(तुम्भेण ताओ ! अम्द पिया गुरूनणयदेवभूया ठावगा पदहावगा सरक्खगा सगोवगा त कहष्ण अम्हे ताओ! तुम्भे जीवियाओ ववरोमो तुम्भ ण मस व सोणिय च आहारेमो अगामिय अडवि णित्थरह त चेव सन्म भणइ जाव अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह)
હે તાત ! તમે અમારા પિતા છે. એથી તમે અમારા દેવ અને ગુરૂના સ્થાને છે તમે મને નીતિ ધર્મ વગેરેમાં પ્રવૃત્ત પણ કરતા રહે છે. રાજા વગેરેની સામે તમે પિતાના સ્થાને મને બેસાડે છે એથી તમે મારા સ્થાપક અને પ્રતિષ્ઠાપક છો યથેચ્છા પ્રવૃત્તિથી તમે મારી રક્ષા કરતા રહો છો એથી તમે મારા સ રક્ષક છે, દુશ્ચરિત પ્રવૃત્તિથી તમે અને રોકતા રહે છે, એથી તમે મારા સ ગેપક છે તો આવી પરિસ્થિતિમાં છે તાત ! હુ તમને કેવી રીતે જીવન રહિત બનાવી શકે અને કેવી રીતે તમારા શેણિત અને માસ ભક્ષણ કરી શકુ ? એથી હે તાત ! તમે મજ ધનદત્તને જ જીવન રહિત બનાવી દે અને મારા ખૂન અને માસન તમે ભક્ષણ કરો જેથી તમે ગામ વગરની અટવીને પાર કરી શકે અને રાજગૃહ નગરમાં
Page #979
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैनगोरधर्मामृतवर्षिणो टी० म० १८ सु सुमादारिकावरितवर्णनम् ६६ रह' निस्तरत-पारगन्छन्, 'तचे सन्न भणइ ' तदेवसर्व भणति यथा धन्य सार्थवाहो ज्येष्ठ पुत्रमवदत् , तथैवायमपि तदेव सर्वे क्ययति, यावत् अर्थस्य वर्मस्य पुण्यस्य च आभागिनो भविष्यथ । ततः खलु धन्य सार्थवाह ' दोच्चे' द्वि तीय पुनधनपालनामा एवमवदत्-मा खलु हे तात ! अस्माक ज्येष्ठ भ्रातर 'गुरु देवय ' गुरुदैवत-देव-गुरुसदृशम् , जीविताद् व्यपरोपयामः-मारयाम', यूय खलु हे तात ! 'मम' मा धनपालनामान जीविताद् व्यपरोपयत यावत् अर्थादिफलभाजो भविष्यथ । 'एव =अनेन प्रकारेण 'जार पचमेपुत्ते' यावत् पहुच कर वहा अपने मित्रादि परिजनों के साथ मिल सके । तथा धन धर्म एव पुण्य के भोक्ता बन सके। "त चेव सव्व भणड " इसका तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार धन्यसार्थवार ने अपने ज्येष्ठ पुत्र, धनदत्त से कहा-उसी प्रकार धनदत्त ने भी अपने पिता से वैसाही कहा(तएण धपण सत्यवाह दोच्चे पुत्ते एव वयासी-माण ताओ ! अम्हे जेठे भायर गुरुदेवय जीवियाओ ववरोवेमो-तुम्भेण ताओ ! ममं जीवि. याओ ववरोवेह, मस च सोणिय च आहारेह, अग्गामिय अडविं णित्य. रह त चेव सन्ध भणइ जाव अत्यस्स जाव पुष्णस्स आभागी भवि स्सह ) इसके बाद धन्यमार्यवाह से उसके द्वितीय पुत्र ने इस प्रकार कहा-हे तात । आप हमारे गुरु देवनातुल्य ज्येष्ठ भाई को जीवन से रहित मत कीजिये किन्तु आप तो हे तात ! मुझे ही जीवितसे रहितकर दीजिये और मेरे ही रक्त एव मास को आप ग्वाईये पीईये-ताकि इस अग्रामिक अटवी से पार हो सके इत्यादि पहिले जैसा ही इसने પિતાના મિત્ર વગેરે પરિજનની સાથે મળી શકે તેમજ ધન ધર્મ અને पुयना सेता मनी शो "त चेर सव्य भणइ" मा म माम थाय છે કે જેમ ધન્ય સાથ વાહે પિતાના મોટા પુત્ર ધનદત્તને કહ્યું તેમજ ધનદત્ત પણ પિતાના પિતાને કહ્યું
(तएण धण्ण सत्यवाह दोच्चे पुत्ते एवं वयासी-माण ताओ ! अम्हे जेद्वे भायर गुरूदेवय जीवियाओ ववरोवेमो, तुम्भेग ताओ ! मम जीवियाओ ववरोवेह, मस च सोणिय च आहारेह, अम्गामि य अडवि गित्यरह त चेव सन्न भणइ जाव अत्यस्स जाव पुण्णस्त आभागी भविस्मह) ।
ત્યારપછી ધન્ય સાર્થવાહને તેના બીજા પુત્રે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે તાત ! તમે અમારા ગુરુદેવતા જેવા મારા ભાઈને જીવન રહિત ન કરો પણ હે તાત! તમે મને જ મારી નાખે અને મારા જ લેહી અને માસને તમે ખાઓ પીઓ જેથી તમે આ ગામ વગરની અટવીને પાર કરી શકે, આમ
Page #980
--------------------------------------------------------------------------
________________
რიო
ज्ञाताधर्मकथा
"
1
,
1
6
पञ्चमः पुत्रःवतीयो धनदेवतुर्थी घनगोप, पशमी धनादिताऽप्यवदत् । ततः इत्य तेषां वचनश्रवणानन्तरं खलु स धन्यः सार्थवादः पचपुत्राणां 'हियइच्छि हृदयेष्टम् = हृदयेप्सित माला वान् पुमार एरमवाडीद-मा गल वय हे पुत्रा. ! एकमपि अस्माकमध्ये एकमपि जीविताद् व्यपरोपगाम तत् खलु मुसुमाया दारिकायाः शरीर 'णिष्याण' निष्प्राण=माणरहितम् ' णिस्चेड ' निश्वेष्टं= चेष्टारहितम् ' जीवनिप्पजढे जी विप्रत्यक्तम् = जीवद्दीनम्, सर्वथा मृतमस्ती स्पर्थ', तच्छ्रेष = उचित खल हे पुत्राः ' अम्द ' अस्मानम् गुमुमाया दारिकाया मास च शोणित च आहर्तुम्, ततः = तदनन्तर च खलु ाय तेन आहारेण अ सपका (एव पचमे पुत्ते ) इसी तरह उससे तृतीय घनदेवने चतुर्थ धनगोपने एव पाचवे घनरक्षित ने भी कहा- (तरण से घण्णे सत्धवाहे पचण्ट पुत्ताण हियइच्छिय जाणित्ता त पचपुते एव वयासी) इस के पाद उस धन्यसार्थवाह ने पाचों पुत्रों के अभिप्राय को जानकर उन अपने पाचों ही पुत्रों से इस प्रकार का - (माण अम्हे पुस्ता । एगमवि जीवियाओ चवरोवेमो एसण सुसमाए दारियाए सरीरए निवाए णि. च्चेंट्ठे जीवचिप्पजढे-त सेय खलु पुत्ता ! अम्ह सुसमाए दारियाए मस घ सोणिय च अहारेत्तए) हे मेरे पुत्रों में एक को भी जीवन से रहित नहीं करना चाहता हूँ किन्तु यह सुसमादारिका का शरीर जो कि निष्प्राण, निष्ट, और जीवन से रहित वन गया है - इसलिये हमे उचित है कि हे पुत्रों ! हम इस सुसमदारिका का मास एव शोणित
तेथे पडेसानी प्रेमन मधु धु ( पच पचमे पुत्ते ) मा प्रभातेने ત્રીજા ધનદેવે, ચાથા ધનગેાપે અને પાચમા ધનરક્ષિતે પણ કહ્યુ (तरण से घण्णे सत्यवा हे पचण्ड पुत्ताण हियइच्छिय जाणित्ता त पच पुत्ते एव वयासी) ત્યારપછી તે ધન્ય સાવાડે પાચે પુત્રની હત્યની અભિલાષા જાણીને પેાતાના તે પાચે પુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે
( माणं अम्हे पुत्ता ! एगमवि जीवियाओ चवरोवेमो एसण सुसमाए दारि याए सरीरए णिपाणे णिच्चेट्टे जी विप्पजढे-त सेय खलु पुत्ता ! भ्रम्ह सुम माए दारियाए मस च सोणिय च आहारेत्तए)
હે મારા પુત્ર ! તમારામાથી એકને પણ હું મારવા માગતા નથી પરંતુ આ સુસમા દાર્શિકાનુ શરીર કે જે નિષ્પ્રાણ, નિશ્ચેષ્ટ અને નિર્જીવ બની ગયુ છે—એટલા માટે અમારા માટે હું પુત્રા ! એ જ ચેાય છે કે આપણે આ સુસમા દારિકાના માસ અને શેણિતને ખાઇએ
Page #981
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेगारधर्मामृतापणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकावरितवर्णनम् ७० विद्धत्था समाणा' अविश्वस्ताः-शरीरनाशमप्राप्ताः सन्त रानगृह ‘सपाउणि स्सामो' समाप्स्याम । ततः खलु ते पञ्चपुत्रा ध येन सार्थवाहेन एवमुक्ताः सन्तः 'एयमह' एतमर्थम् पूर्वोक्तरूपम् ' पडिसुणेति' प्रतिशृण्वन्ति स्वीक र्वन्ति । तत खलु स धन्यः सार्थवाहः पञ्चभिः पुत्रै सार्द्धम् 'अरगि' अरणि यस्मिन् मध्यमानेऽग्निरुत्पद्यते तत्काष्ठम् 'करेड' करोति-सगृह्णाति, कृत्वा 'मरग' सरस्म-निर्मन्थनकाष्ठ करोति-आनयति कृत्वा, सरकेण अरणि मनाति-घयति गथित्वा, ‘अग्गि पाडेइ ' पातयति मन्यनवशादग्निमुत्पादयति पाडित्ता' पात खावें । (तएण अम्हे तेण आहारेण अविद्वत्था समाणा रायगिह सपाउहिस्सामो-तएण ते पच पुत्ता धण्णेणं सत्यवाहेण एक्वुत्ता समाणा एयमट्ठ पडिसुणे ति) इस से हमलोग उस आहार से शरीर नाश को अप्राप्त होकर राजगृह नगर में पहुँच जावेंगे। इस प्रकार धन्यसार्थवाह के द्वारा कहे गये उन पाचों पुत्रो ने धन्यसार्थवाह के इस कथन को स्वी कार कर लिया । (तएण धण्णे सत्यवाहे पहिं पुत्तहिं सद्धि अरणिकरेइ, करित्ता सरगच करेइ, करित्ता सरपण अरणिं महेइ, महित्ता अ गि पाडेइ, पाडित्ता अग्गि,सधुक्सेड, सधुरिखत्ता दारुयाइ परिक्खवेइ परिक्खवित्ता अग्गि पजालेइ पजालित्ता सुसमाए मस च सोणिय च आहारे ति) इस के याद धन्यसार्थवाह ने पांचो पुत्रों के साथ मिलकर अरणिकाष्ठ को एकत्रित किया। एकत्रित कर के फिर वह सरक काष्ठ को निर्मथनकाष्ठ को ले आया-उसे लेकर के उसने उससे अरणि का घर्पण किया। इस तरह घपण से अग्नि उत्पन्न हो गई । अग्नि के
(तएण अम्हे तेण आहारेण अविद्धत्था समागा रायगिह सपाउणिस्तामो तएण ते पच पुचा धण्णेण सत्यवाहेण एव वुत्तासमाणा एयमट्ठ पणिमुणेति)
એથી આપણે બધા આ આહારથી શરીર નાશથી ઊગરી જઈને રાજ ગૃહ નગરમાં પહોચી જઈશ આ પ્રમાણે ધન્ય સાર્થવાહ વડે કહેવાયેલા પાસે પુએ ધન્ય સાર્થવાહની તે વાતને સ્વીકારી લીધી - (तएण धण्णे सत्यवाहे पचहिं पुत्तेहिं सद्धि अरणि करेइ, करित्ता, सरग च करेइ, करिता सरएण अरणि महेइ, महित्ता अग्गि पाडेइ, पाडित्ता अगि सधु
खेइ, सधुक्वित्ता दारूपाइ परिक्खवेइ, परिक्खवित्ता अरिंग पज्जालेइ, पज्जा लित्ता सुसमाए दारियाए मस च सोणिय च आहारैति)
ત્યારપછી ધન્ય સાર્થવાહ પાસે પુત્રની સાથે મળીને અરણિ કાઇને એકઠું કર્યું એકઠું કરીને તેઓ સરક કાઇનેનિમ થી કાઈને લઈ આવ્યા તેને લઈને તેણે તેથી અરણિકા કાઇનુ ઘર્ષણ કર્યું આ પ્રમાણે ઘર્ષણથી અનિ
Page #982
--------------------------------------------------------------------------
________________
δου
माताधर्मरूपाने
इत्यं
"
पञ्चमः पुत्रः =वतीयो धनदेवतुर्थी घनगोपः, पचमी धनवताऽप्यवदत् । तवः श्रणानन्तर खस धन्यः सार्थवादः पचपुत्राणां 'हियाच्छिय' हृदयेष्टम् = हृदयेप्सित झाल्या वान् पुत्रा एमवाडीद-माल वय हे पुत्रा' 1 एकमपि अस्माकमध्ये कमपि जीरिवाद् व्यपरोपयाम तत् व मुमुमाया दारिकायाः शरीर 'णिष्पाण' निष्प्राण =माणरहितम्, 'णिरुचेट' निश्चेष्टं = चेष्टा रहितम् ' जी निप्पजढे ' जीवविप्रत्यक्तम् = जीवहीनम्, सर्वथा मृतमस्ती स्व, वच्छ्रेय उचित खल हे पुत्राः ' अम्द ' अस्माहम् मुमाया दारिकाया मास च शोणित च आम्, ततः = तदनन्तर च खलु त्रय तेन आहारेण 'अ सप कहा (एव पचमे पुत्ते) इसी तरह उससे तृतीय धनदेवने चतुर्थ धनगोपने एव पांचचे घनरक्षित ने भी करा - (तण से घण्णे सत्धवाहे पच पुत्ताण इच्छय जाणित्ता त पचपुते एव वयासी) इस के बाद उस धन्यसार्यवार ने पाचों पुत्रों के अभिप्राय को जानकर उन अपने पाचों ही पुत्रों से इस प्रकार का - (माण अम्हे पुस्ता ! एगमवि जीवियाओ चवरोवेमो एसण सुसमा दारियाए सरीरए जिवाए णि च्हे जीवचिप्पजढे-त सेय खलु पुत्ता ! अम्ह सुसमाए दारियाए मस घ सोणिय च अहारेतए) हे मेरे पुत्रों ! में एक को भी जीवन से रहित नहीं करना चाहता हूँ किन्तु यह सुसमादारिका का शरीर जो कि निष्प्राण, निश्रेष्ठ, और जीवन से रहित बन गया है - इसलिये हमे उचित है कि हे पुत्रों ! हम इस सुसमदारिका का मास एव शोणित
तेथे पঊसान् प्रेम मधु धु ( एव पचमे पुत्ते ) मा प्रभातेने ત્રીજા ધનદેવે, ચેાથા ધનગેપે અને પાચમા ધનક્ષિતે પણ કહ્યુ (तएण से घण्णे सत्थवाहे पचण्ड पुत्ताण हियइच्छिय जाणित्ता त पच पुत्ते एव वयासी) ત્યારપછી તે ધન્ય સાવાહે પાચે પુત્રાની હુન્યની અભિલાષા જાણીને પેાતાના તે પાચે પુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે—
(माण अम्हे पुत्ता ! एगमवि जीवियाओ चवरोवेमो एसण सुसमाए दारि याए सरीरए णिपाणे णिच्चेट्टे जीवविप्पजढे-त सेय खलु पुत्ता ! भ्रम्ह सुतमाए दारिया मस च सोणिय च आहारेत्तए)
હે મારા પુત્ર ! તમારામાથી એકને પણ હું મારવા માગતા નથી પરંતુ આ સુસમા દારિકાનુ શરીર કે જે નિષ્પ્રાણ, નિશ્ચેષ્ટ અને નિવ બની ગયુ છે—એલા માટે અમારા માટે હે પુત્રા ! એ જ ચાગ્ય છે કે આપણે આ સુસમા દારિકાના માસ અને શેણિતને ખાઇએ
Page #983
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०३
ग
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका २० १८ सु सुमादारिकाचरितवर्णनम् मृतकस्यानि कृत्वा कालान्तरे 'विगयसोगे' विगतशोक =सुसुमामरणजनितशोकरहितो जातश्चास्यभूत् ।। सू० ८॥
मूलम्-तेण कालेणं तेणं समएणं समणे भगव महावीरे गुणसिलए चेइए समोसढे।से णं धपणे सत्थवाहे सपुत्ते धम्म सोचा पवइए, एकारसंगवी । मासियाए संलेहणाए सोहम्मे उववपणो, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। जहा वि य णं जम्बू। धण्णेण सत्थवाहेणं णो वण्णहेउ वा नो रूवहेउ वा नो वलहेउ वा नो विसयहेउ वा सुसुमाए मससोणिए आहारिए, नन्नत्थ एगाए रायगिहं सपावणट्रयाए। एवामेव समणाउसो । जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा इमस्स ओरालियसरीरस्स वता. सवस्स पित्तासवस्स सुकासवस्स सोणियासवस्स जाव अवस्सं विप्पजहियव्वस्स वा नो वण्णहेउ वा नो रूवहेउ वा नो बलहेउ वा नो विसयहेउ वा आहारे आहारेइ, नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमणसपावणट्रयाए, से णं इहभवे चेव वहणं समणाणं बहूणं समगीणं वहणं सावयाणं वहणं सावियाण अच्चणिजे जाव वीइवइस्सइ।
एव खलु जम्बू | समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्टारसमस्त णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते त्तिवेमि ॥सू०९॥
॥ अट्टारसम अज्झयण समत्तं ॥ टीका-'तण कालेण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरो गुणशिलके चैत्ये 'समोसढे' समरसृतः तीर्थकरपरम्परया सुसमा दारिका के मरणोत्तर काल में जो भी लौकिक कृत्य कियेजाते -वे सय भी उन्होने किये और धीरे • विगत शोक भी हो गए।०८। લૌકિક કૃત્ય કરવા જોઈએ તે સર્વે તેમણે પતાવ્યા અને ધીમે ધીમે તેઓ શંકરહિત પણ બની ગયા છેસૂત્ર ૮ છે
Page #984
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२.
St
'
1
या उत्पाद अग्नि'' मनुयति-उद्दीपयति, समुदय उद्दीप्य 'दाद या 'दारुणिन्नानि त 'परिस्ति परिक्षिपति, परिक्षिप्य, अम्नि मज्वालयति, ज्याय, सुमाया दारिकाया भर्जित मांस च शोणित च ' आहा रेइ' आहारयति । भन तर तेन आहारेण ' अदित्या ' अविध्वस्ताः शरीरना शममाप्ताः सन्तो राजगृह नगर समामाः मितणाई अभियमम्णागया' मित्र शाति मित्रज्ञातिबननसम्बन्धिपरिजने मह 'अभिगमगा गया' अभिसमन्वागता'= समिकताः सन्तः तस्य च विपुलस्य 'धणकणगरयण जान' उनकनक रत्न यात् =धनकनकरत्नादिकस्य ' आभागी जाया यानि होत्या ' आभागिनो जाताथा ध्यभवन् । तत. खतु स धन्य सार्थवाह माया दारिकाया बहूनि लौकिकानि उत्पन्न होने पर उसने फिर उसे घोंका उद्दीपित किया जब वह ही पित हो चुकी-तप उसने उसमें लकडियों को लगाया | इस तरह की क्रिया से जप अग्नि अच्छी तरह प्रज्वलित हो चुकी-तब उसमें सुसमा दारिका के माम को और खून को भुजा-भूजकर उसे सबने म्वाया पीया ( तेण आशरेण अविद्वत्था समाना रामहि नयर सपत्ता मित्त णाइ० अभिसमणागया तस्स य विजलस्स वणकणगरयण जाव आभागी-जाया याचि होत्या तण से घण्णे सत्थवाहे सुममानदारिया ए बहूइ लोइया जाय निगयसोए याविहोत्या) इस प्रकार उस आहार की सहायता से अविश्वस्त शरीर होकर वे वहा से चल कर राजगृह नगर में आ गये। वहां अकोर वे अपने मित्रज्ञाति आदि परिजनों से खूब हिले मिले । एव धनकनक आदि द्रव्य के भोक्ता भी बन गये । ઉત્પન્ન થઈ ગયા અગ્નિ ઉત્પન્ન થયા બાદ તેણે તેને ઉદ્દીપિત કર્યો જ્યારે તે દ્દીપિત થઇ ગયા ત્યારે તેણે તેમા લાકડીએ મૂકી આ રીતે જ્યારે સારી રીતે અગ્નિ પ્રજવલિત થઈ ગયા ત્યારે તેમા મુસમા દ્વારિકાના માસને અને લાહીને શેયા, શેકયા ખાદ્ય તેને બધાએ ખાધા-પીધા
( तेण आहारेण अविद्धत्था समाणा रायगिह नयर सपत्ता, मित्तणा अभिसमणा गया, तस्स य विउस धगकणगरयण जात्र आभागीजाया यात्रि होत्या तण से धणे सत्यनाहे सुसमाए दारियाए बहूइ लोइयाइ जाव विजय सीए यात्रि होतथा )
આ પ્રમાણે તે આહારની સહાયતાથી અવિનષ્ટ શરીરવાળા થઇને તેઓ ત્યાર્થી રવાના થઈને રાજગૃહ નગરમા આવી ગયા ત્યા આવીને તેએ પોતાના મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનાની સાથે ખૂબ ભુતદપૂર્વક મળ્યા, અને ધન, નક વગેરે દ્રવ્યોને ભાગવવા લાગ્યા મુસમા દારિકાના મ
1 જેટલા
A
Page #985
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १८ सु सुमादारिकाचरितवर्णनम्
७.३ मृतकृत्यानि कृत्वा कालान्तरे 'विगयसोगे ' विगतशोक =सुसुमामरणजनितशोकरहितो जातश्चास्यभूत् ॥ सू० ८॥
मूलम् तेण कालेणं तेणं समएणं समणे भगव महावीरे गुणसिलए चेइए समोसढे।से णं धण्णे सत्थवाहे सपुत्ते धम्म सोचा पव्वइए, एकारसंगवी। मासियाए संलेहणाए सोहम्मे उववण्णो, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। जहा वि य णं जम्बू। धण्णेण सत्थवाहेणं णो वण्णहेउ वा नो रूवहेडं वा नो वलहेड वा नो विसयोउ वा सुसुमाए मससोणिए आहारिए, नन्नत्थ एगाए रायगिहं सपावणट्रयाए । एवामेव समणाउसो । जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा इमस्स ओरालियसरीरस्स वंता. सवस्स पित्तासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासवस्स जाव अवस्सं विप्पजहियवस्स वा नो वण्णहेउ वा नो रूवहेउ वा नो वल. हेउ वा नो विसयहेउ वा आहारे आहारेइ, नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमणसपावणट्रयाए, से णं इहभवे चेव वहणं समणाणं वहणं समणीणं वहणं सावयाणं वहणं सावियाण अञ्चणिज्जे जाव वीडवइस्सइ। एव खलु जम्बू । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेणं अट्टारसमस्त णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते त्तिवेमि ॥सू०९॥
॥अटारसम अज्झयण समत्तं ॥ टोका-तण कालेण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगान् महावीरो गुणशिलके चत्ये 'समोसढे' समरस्त'तीर्थकरपरम्परया सुसमा दारिका के मरणोत्तर काल में जो भी लौकिक कृत्य कियेजाते -वे सय भी उन्होने किये और धीरे २ विगत शोक भी हो गए।०८। લૌકિક કૃત્ય કરવા જોઈએ તે સર્વે તેમણે પતાવ્યા અને ધીમે ધીમે તેઓ શેકરહિત પણ બની ગયા છે. સૂત્ર ૮
Page #986
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०४
समागतः । अनन्तर स धन्यः साधार सपुमो धर्म श्रुत्वा प्रवजित', प्रान्यान न्तरम् ' एगारमगी' कादशापिन् पादशामिनो मानः 'मासिगए' मासिश्या सरलेखनया साल कथा ' सोहम्मे सौधर्म पल्प 'उपपन्नः' । पुनः तत भव्युतः महाविदेह वर्षे सिजिाहिर' सेस्पति-मुक्ति मास्यति । सम्प्रति धन्यसार्थ पाहरष्टान्तेन नम्म्मामिन सम्मोप्य श्रीधर्मासामीपार'जहा विइत्यादिना
'तेण कालेण तेण समाण इत्यादि।
टीकार्य-(तेण फाटेण तेण समण्ण) उम काल और उस समय में (समणे भगवं मरावीरे) श्रमण भगवान् महावीर (गुणसिला चेहए समोसढे, से ण धण्णे सत्यवाहे मपुरी धम्म सोचा पवाए-का रसगवी-मामिया सलेहणाए सोहम्मे उववणे, महाविदेहे वासे सि ज्झिहिह) गुणशिलक उगान में आये। उनसे धर्म का उपदेश सुनकर वह धन्यसाचोर अपने पाचों पुत्रों सहित उनके पास प्रवजित हो गया। प्रजित होकर धीरे २ वह एकादशागों का ज्ञाता भी रो गया। अन्न समय में उसने एक मास की सलेखना धारणकर काल अवसर काल किया तो उसके प्रभाव से वर सौधर्म कल्प में उत्पन्न हो गया। वहा से चच कर अब वह महाविदेर क्षेत्र में मुक्ति को प्राप्त करेगा। इस धन्यतार्यवाह के दृष्टान्त से ज– स्वामीको सबोधितकर के श्री
तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि
stथ-(तेण कालेण तेण समएण) atणे भने त समये (समणे भागव महावीरे) श्रम लगवान महावीर
(गुणसिलए चेइए समोसढे । सेण धण्णे सत्यवाहे सुपुत्ते धम्म सोचा पाइए-एक्कारस गवी-मासियाए स लेहणाए सोहम्मे उवषण्णे, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ)
ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં આવ્યા તેમની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળીને તે ધન્ય સાર્થવાહ પિતાના પાચ પુત્રોની સાથે તેમની પાસે પ્રવૃજિત થઈ ગયા પ્રવજિત થઈને તે ધીમે ધીમે એકાદશ (અગિયાર) અને જ્ઞાતા પણ થઈ ગયા છેવટે મૃત્યુ સમયે એક માસની સલેખના ધારણ કરીને કાળ અવ સરે તેણે વાળ કર્યો તે તેના પ્રભાવથી સૌધર્મ ૮૫માં ઉત્પન્ન થઈ ગયા ત્યાથી ચવીને હવે તે મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં મુક્તિ પ્રાપ્ત કરશે આ ધન્ય સાથે વાહના દાન્તને સામે રાખીને શ્રી સુધમ સ્વામીએ જ “ સ્વામીને સંબોધિત
Page #987
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिंगी टीका २०१८ सुसुमादारिकावरितवर्णनम ७०५ जहावि य ण' यथाऽपि च खलु येन प्रकारेण खलु हे जम्यूः धन्येन सार्थवाहेननो वर्णहेतोः = नो रूपहेतो. चलहेतोःनो चिपयहेतो. सुसुमाया दारिकाया मास. शोणितमाहारितम् , एगाए रायगिहसंपावणट्टयाए' एकस्य राजगृह सप्रापणार्थताया अन्यत्र न, किन्तु-अह राजगृह समाप्नुयाम् इति हेतोरेव तेन पुगेः सह तद् आहारितमिति भाव ।
भगवानाह-एवामे' एवमेव-अनेन प्रकारेगैर समणाउसो' है आयुष्मन्तः श्रमणाः योऽस्माक निर्ग्रन्यो वा निर्ग्रन्थी वा अस्य वान्तास्रवस्य पित्तासुधर्मा स्वामी ने उनसे कहा-(जही वि य ण जव! धण्णेण सत्यवाहेण णो वण्णहेउ वा नो रूवहे वा नो बलहेउ वा नो विसयदेउ वा सुसुमाए मंससोणिए आहारिए नन्नत्थ एगाए रायगिहं संपावणट्ठयाए-एवामेव सम गाउसो। जो अम्ह निग्गयो वा निग्गंधीवा इमस्स ओरालियसरीर स्स वतासवस्स पित्तासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासवस्स जाव अव. स्स विप्पजहियवस्स नो घण्णहेउ वा नो ख्वहेउ वा नो बलहेउ वो नो विसयहेउ आहर अहारेइ, ननथएगाण् सिद्विगमणसपावणट्टयाए) हे जवू ! जिस तरह धन्यसार्यवाह ने अपने शरीर में कान्ति विशेष चढाने के लिये, बल बढाने के लिये, अथवा विषय सेवन की शक्ति घढाने के लिये सुसुमा दोरिका का मास एव शोणित नही खाया। कितु में पुत्रों के सहित राजगृह नगर में पहुँच जाऊँ इसी एक अभि प्राय से सुसुमा दारिका का अपने पुत्रों मरित मास शोणित सेवन किया-इसी तरह हे आयुग्मत श्रमणो! जो हमरा निन्ध श्रमण जन अथवा अमणी जन है-यह इस वान्तास्रववाले, पित्तानववाले, शुक्रान. કરીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(जहा वि य ण जवूधण्णेण सत्यवाहेणं णो वण्णहेउ वा नो रूवहेउ वा नो वलहेउ वा नो विसय हेउ वा सुमुमाए ममसोणिए आहारिए नन्नत्थ एगाए रायगिह, संपावणट्टयाए एवामेव समणाउसो ! जो अम्ह निग्गयो वा निग्गयी या इमस्स ओरालियसरीरस्स पासवस्स पित्तासवस्स मुक्कासवस्स सोणियासवस्स जाव अपस्से विप्पजहियन्यस्स नो वण्णहेउ वो नो ख्वहेउ वा नो वलहेउ वा नो विसयहेउ वा आहार आहारेइ, नन्नत्य एगाए सिद्धिगमणसपावणट्टयाए)
હે જ બૂ! જેમ ધન્ય સાર્થવાહે પિતાના શરીરમાં કાતિ વિશેષની વૃદ્ધિ કરવા માટે બળની વૃદ્ધિ માટે અથવા વિપપ સેવનની શક્તિના વર્ધન માટે સુસુમા દારિકાના માસ અને શેણિત નહિ ખાધા, પણ પુત્રે સહિત હું રાજ ગૃહ નગરમાં પહોચી જાઉં આ એક જ મતલબથી પિતાના પુત્રોની સાથે સુસુમા દારિકાના માન-શેણિન સેવન કર્યા આ પ્રમાણે હે આયુર્ભત શ્રમ! જે અમારા નિર્ચ થ શ્રમજન અથવા શ્રમણીજને છે તેઓ આ વાતા
Page #988
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०४
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
समागतः । अनन्तर स धन्यः सार्थयार सपुत्रो धर्म श्रुत्वा प्राजितः, प्राज्यान न्तरम् । एपारसगती' कादशामिन-एकादशामिनो जातः 'मासिगाए' मासिझ्या सलेखनया साल का ' सोहम्मे सौधर्म वल्प 'उपपन्ना' । पुनः तत अच्युतः महाविदेहे ' सिसिटिर' सेत्स्पति-मुक्ति मारयति । सम्पति धन्यसार्थ वाहरप्टान्तेन जम्भूस्वामिन सम्बोप्य श्रीसुधर्मासामीमार 'जहा वि इत्यादिना
'तेण फालेण तेण समग्ण इत्यादि ।
टीकाथ-(तेण कालेणं तेण समरणं) उस काल और उस समय में (समणे भगव महावीरे) श्रमण भगवान् महावीर (गुणसिलए चेहरा समोसढे, से णं घण्णे सत्यवाहे मपुरी धम्म सोचा पव्वइए-का रसगवी-मासिया सलेरणा सोहम्मे उबवणे, महाविदेहे वासे सि । ज्झिरिह) गुणशिलक उद्यान में आये। उनसे धर्म का उपदेश सुनकर वह धन्यसाचोर अपने पाचों पुत्रों सहित उनके पास प्रवजित हो गया । प्रत्रजित होकर धीरे २ वह एकादशागों का ज्ञाता भी हो गया। अन्न समय में उसने एक मास की सलेवना धारणकर काल अवसर काल किया तो उसके प्रभाव से वर सौधर्म कल्प में उत्पन्न शे गया। वहा से चव कर अब वह महाविदेश क्षेत्र में मुक्ति को प्राप्त करेगा। इस धन्यसार्थग के दृष्टान्त से जवू स्वामीको सबोधितकर के श्री
तेण कालेण तेण समरण' इत्यादि
A1%--(तेण कालेण तेण समएण) atणे मन ते सभये ( समणे भगव महावीरे) श्रम सगवान महावीर
(गुणसिलए चेदए समोसढे । सेण धण्णे सत्यवाहे सुपुत्ते धम्म सोचा पन्नइए-एक्कारस गवी-मासियाए सलेहणाए सोहम्मे उववण्णे, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ)
ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં આવ્યા તેમની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળીને તે ધન્ય સાર્થવાહ પિતાના પાચે પુત્રની સાથે તેમની પાસે પ્રજિત થઈ ગયા પ્રજિત થઈને તે ધીમે ધીમે એકાદશ (અગિયાર) અને જ્ઞાતા પણ થઈ ગયે છેવટે મૃત્યુ સમયે એક માસની સ લેખના ધારણ કરીને કાળ અવ સરે તેણે કાળ કે તે તેના પ્રભાવથી ધર્મ ક૫માં ઉત્પન્ન થઈ ગયા ત્યાથી ચવીને હવે તે મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં મુક્તિ પ્રાપ્ત કરશે આ ધન્ય સાથે વાહના દાન્તને સામે રાખીને શ્રી સુધર્મા સ્વામીએ જ “ સવામીને સંબોધિત
Page #989
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम्
सुधर्मास्वामी प्राह - एव ' अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण खलु हे जम्बू ! श्रमणेन भगवता महानीरेण 'जात्र सपत्तेण ' यावत् समाप्नेन =मोक्षगतेन अप्टादशस्य ज्ञाताध्ययनस्य ' अयमडे ' अयमर्थ = पूर्वोक्तरूपोऽर्थः प्रज्ञप्तः = मरूपितः, ' त्ति बेमि ' इति ब्रवीमि = अस्य व्याख्या पूर्ववत् ॥ सू० ९ ॥
इति श्री - निश्वरियात - जगद्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभा पाकलितललितक लापालापक- प्रविशुद्वगद्यपद्यनेकग्रन्थ निर्मापक- वादिमानमर्दक- श्रीशाहून्छ त्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु- बालनसवारि - जैनाचार्य - जैन धर्म दिवाकर पूज्यश्री घासीलालप्रतिविरचिताया- ज्ञाताधर्म कथाद्ग पुत्रस्यानगारधर्मामृतवर्षि व्याख्याया व्याख्यायामष्टादशम ययन समाप्तं ॥ १८ ॥
وف
जबू ! समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेन अट्ठारसमस्त णायज्झयणस्स अयम पण्णतेत्तिबेमि ) इस प्रकार से हे जत्रू । श्रमण भग वान् महावीरने जो सिद्धि गति नमक स्थान को प्राप्त हो चुके है इस अठारवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से अर्थ प्ररूपित किया है । ऐसा जो मैंने कहा है वह उन्हीं के श्री मुख निर्गतवाणी को सुनकर ही कहा है - अपनी और से इसमें कुछ भी मिलाकर नही कहा है ।। सू० ९ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथासूत्र " की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्याका अठारहवां अध्ययन समाप्त ॥ १८ ॥
एव खलु जत्र ! समणेण भगत्रया महानीरेणं जात्र सरते अहारसमस्स णायज्झयणस्स अयमडे पण्गणेतिनेमि )
છે
આ પ્રમાણે હું જમૂ! શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે-કે જે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચુકયા અઢાગ્મા જ્ઞાતાધ્યયનના આ પૂર્વોક્ત રૂપથી અથ પ્રરૂપિત કર્યાં છે આવુ જે મે કહ્યું છે, તે તેમના જ શ્રીમુખથી નીકળેલી વાણીને સાભળીને જ કહ્યું છે પેાતાના તરફથી ઉમેરીને મે કહ્યુ નથી ! સૂત્ર હું !
શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનનધમ દિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘામીલાલજી મહુ રાજ કૃત જ્ઞાતાધમ કથાઙ્ગસૂત્ર ” ની અનગારધર્મામૃતષિણી વ્યાખ્યાનુ
અઢારનુ અધ્યયન સમાસ ॥ ૧૮ ૫
(C
Page #990
--------------------------------------------------------------------------
________________
संपत्य मुकासात्य 'जार आस विपनदियास ' या आश्यं विपत्पा ज्यस्य 'बौदारिफशरीरस्य नो वर्णदेवी यां, नो रूपहतो नो पलहेतो, नो विषयहेतो , आहारमाहरतिभाहार करोति, 'एगाप मिद्विगमणसपावणट्ठयाए' एकस्याः सिद्धिगमनसमापणार्यतायाः 'नन्नत्य ' अन्यत्र न, मोक्षमाप्तिरूप प्रयो जन विहाय वर्णादिप्रयोजनेन आहार नाहरतीति भारः। सनिर्ग्रन्यो वा निग्रंथी या खलु इहमये घेर ' हमरे एमम्मिन जन्मन्पर पहना अमणानां बहनों श्रमणीना यहना पारकाणा यहना धारिफाणाम् 'अच्चणिज्जे' अर्चनीय %D आदरणीय 'जार पीसहस्सा यापद् व्यतिनियति चातुरन्तससारशान्तार मुल्लहयिष्यति-ससारपार गमिप्यतीत्यर्थः ।। वाले, यावत् अवश्य परित्याग होने की योग्यतावाले इस औदारिक शरीर में कान्ति विशेप बढाने के लिये पल बढाने के लिये, अथवा विषय की प्रवृत्ति चालू रग्वने के लिये आहार नहीं लेता है पिन्तु-एककेवल सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त करने के लिये ही आहार लेता हैं। मोक्ष प्राप्तिरूप प्रयोजन को जोड़कर और किसी कान्ति आदि बढाने के अभिप्राफरूप प्रयोजन से निन्ध श्रमण श्रमणी जन अहार नहीं लिया करते हैं-(सेण) ऐसे निर्ग्रन्थ श्रमण श्रमणी जन (इहभवे चेय यहण समणाण बहण समणीण वरण सावयाण यण सावियाण अच णिजे जाव वीइवइस्सइ) इस भव में ही अनेक श्रमण, अगणी, जना द्वारा तथा श्रावक श्राविकाओ द्वारा अर्चनीय-आदरणीय यावत् इस चतुर्गतिरूप ससार कान्तार को पारकरने वाले रोते हैं। (एव खल સવવાળા, પિત્તાસવવાળા, શુકાસવવાળા ચાવતું ચોક્કસ નષ્ટ થનારા આ
દારિક શરીરમાં કાતિ વિશેષની વૃદ્ધિ માટે, બળની વૃદ્ધિ માટે અથવા તો વિષયની પ્રવૃત્તિ ચાલુ રાખવા માટે આહાર લેતા નથી પણ ફક્ત એક જ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવવા માટે જ આહાર ગ્રહણ કરે છે મેક્ષપ્રાપ્તિ રૂપ પ્રજન વગર બીજી કઈ કાતિ વગેરેની વૃદ્ધિની અભિલાષા રાખીને નિગ્રંથ-શ્રમણીજન આહાર ગ્રહણ કરતા નથી (ખ) એવા નિથ अभय श्रमशीन
(इहभवे चेव बहूण समणाण समशीणं वगं सावयाण वह ग सावियाण अच्चणिज्जे जाव चीइवइस्सइ)
આ ભવમાં જ ઘણુ શ્રમણ શ્રમણીજને વડ તેમજ શ્ર વક-શ્રાવિકાઓ વડે અર્ચનીય, આદરણીય યાવત આ ચતુતિ રૂપ સ સાર કાતારને પાર કરી જનારા હોય છે
Page #991
--------------------------------------------------------------------------
________________
HTTरामविपिणी टीका म० १९ पुंडरीक-हरीकचरित्रम् ७०९
मूलम्-जइणं भते । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्स णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, एगूण वीसइमस्स गायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेण समएण इहेव जवूदीवे दीवे पुनविदेहेवासे सीयाए महाणईए उत्तरिल्ले कूले नीलवंतस्स दाहिणेण उत्तरि'लस्स सीयामुहवणसंडस्स पञ्चस्थिमेणं एगसेलगस्स वक्खारपवयस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं पुक्खलावई णाम विजए पन्नत्ते । तत्थ ण पुडरािगिणी णाम रायहाणी पन्नत्ता णवजोयणवित्थि पणा दुवालसजोयणायामा जाव पञ्चक्ख देवलोगभूया पासाईया दरसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । तीसेण पुडरिगिणीए णयरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए णलिणिवणे णाम उजाणे । तत्थ णं पुंडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे णाम राया होत्था, तस्स ण पउमावई णाम देवी होत्था । तस्स णं महापउमस्स रनो पुत्ता पउमावईए देवीए अत्तया दुवे कुमारा होत्था, त जहापुडरीए य कडरीए य, सुकुमालपाणिपाया० । पुडरीए जुवराया । तेणं कालेणं तेणं समएण थेरागमणं, महापउमे राया णिग्गए धम्म सोचा, पोंडरीयं रज्जे ठवेत्ता पव्वइए पोडरीए राया जाए, कडरीए जुवराया, महापउमेअणगारे चोदसपुवाई अहिज्जइ , तएण थेरा वहिया जणवयविहार विहरति , तएण से महापउमे वहूणि वासाइं जाव सिद्धे ॥ सू० १॥
Page #992
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
weewana
-
अथ एकोनविंशतितममध्ययनम्गतमष्टादशमध्ययनम् , साम्पवमेकोनशितितम न्यायायते, अस्य च पूर्वेण सह अपमगिसम्मन्या पूर्वस्पिन गयने भारतानस्य तदितरस्य च मनर्थायों उक्तों, इहत चिर सहतासोऽपि यः पशाद पथा स्थानस्य अल्पकाल सर तासरस्य च अनर्यायौं मोन्येते, इत्येर सम्पन्धनायातस्यास्पदमादिभूत्रम्-'जगण भते' इत्यादि।
॥ पुण्डदीक-फण्हरीफ नाम का उनीसवा अध्ययन प्रारम॥
अठारहवां अध्ययन समाप्त हो चुका-अर १९ वां अ ययन प्रारम होता है-इस अध्ययन का पूर्व अ ययन के साथ इस प्रकार का सब न्ध है पूर्व अध्ययन में असतानव अथवा सवृतास्रव वाले प्राणी को अर्थ एव अनर्थ की प्राप्ति रोना समर्थित किया गया है-अर्थात् अस घर वालेको अनर्थ की प्राप्ति रोती है और सवरवाले को इष्ट अर्थ की प्राप्ति होती है । अय इस अययन में सत्रकार यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि जिस प्राणी ने चिरकाल से आपको सवृत कर दिया है'परन्तु यदि वर पीछे से असतास्रव वाला बन जाता है तो उसके अनर्थ की प्राप्ति तथा अल्प काल भी जिसने आस्तन को सतकर दिया है उसके अर्थ की प्राप्ति होती है। इस संबंध को लेकर प्रारभ किये गये इस अध्ययन का यह सर्व प्रथम सूत्र है।।
પુણ્ડરીક-કારીક નામે ઓગણીસમું અધ્યયન માર ભ
અઢારમું અધ્યયન પુરું થઈ ગયુ છે હવે ઓગણીસમું અધ્યયન શરૂ - થાય છે આ અધ્યયનને એના પૂર્વના અધ્યયનની સાથે આ જાતને સબ ધ છે કે પૂર્વ અધ્યયનમાં અસ વૃતાસવ અથવા સ વૃતસવવાળા પ્રાણીને અર્થ અને અનર્થની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે વાતનું સમર્થન કરવામાં આવ્યું છે એટલે કે અસ વરવાળાઓને અનર્થની પ્રાપ્તિ હોય છે અને સવરવાળાઓને ઈષ્ટ–અર્થની પ્રાપ્તિ હોય છે. હવે આ અધ્યયનમાં સૂત્રકાર આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરી રહ્યા છે કે જે પ્રાણીઓ ચિરકાળથી એટલે કે બહુ લાબા વખતથી આમ્રવને સમૃત કરી દીધું છે, પરંતુ જે તે પાછળથી એટલે કે ભવિષ્યમાં અસ વૃત્તાસવવાળા બની જાય છે તે તેને અનર્થની પ્રાપ્તિ તેમજ થોડા વખત સુધી પણ જેણે આમ્રવને સવૃત કરી દીધું છે તેને અર્થની પ્રાપ્તિ થાય છે આ વાતને લઈને આર ભાએલા આ અવયનનું આ પહેલુ સૂત્ર છે –
Page #993
--------------------------------------------------------------------------
________________
भन गारधामृतवपिणी टीका ४० १२ पुंडरीफ पंडरीक्षा प्रम
७११ पाश्चात्ये पश्चिमेभागे 'एगसेल्गस्स' एक्शैलकस्य मध्यजम्बूद्वीपमेरुपर्वतसमीप स्थस्य एक शैलस्नामवस्य वखारपचरस्म' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरथिमेण' पौरस्त्ये-पूर्वस्या दिशि ' पत्यण' अत्र ख्लु पुप्फलावती नाम विजयः प्रज्ञप्तः । तत्र खलु पुण्डरीरिणी नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, सा ‘णवजोयणवित्थिण्णा' नवयोजनविस्तीर्णा = नवयोजनविस्तारवती 'दुबालसजोयणायामा ' द्वादश योजनायामा द्वादशयोजनानि आयामो दैनं यस्याः सा द्वादशयोजनदोघेत्यर्थ , पुन 'जाव पन्चक्ख देवलोयभूया यावत् प्रत्यक्षदेवलोकभृता-साक्षात् स्वर्गसहशा पुनः मासादीया, दर्शनीया, अभिरूपा, प्रनिरूपा । तस्या खलु पुण्डरीकिण्याः पुरस्थिीमेण एत्यण पक्खलाड़णाम विजरा पणत्त ) इस प्रकार जबस्वामी के पूछने पर सुधर्मा स्वामी उनसे करते हैं-सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है उस काल.और उस समय में इस जवूद्रीप नाम के द्वीप में पूर्व विदेह क्षेत्रमें, शीत महानदी के उत्तर दिग्वर्ती तीर पर स्थित नील पर्वत के दक्षिण दिग्भाग में, तथा उत्तर दिग्वर्ती शीतामुखवनषड के पश्चिम भाग में, तथा एक शैलक नाम वाले वक्षस्कार पर्वत की पूर्व दिशा में पुष्कलावती इस नाम का विजय है । शीतामुखवनपड का तात्पर्य यह है-कि जहां से गीतानदी नीकली है उस उद्गमस्थान पर एक वनपड है। मध्य जबूढीप और मेरुपर्वत के समीप में रहा हुआ एक शैल्क नाम का वक्षस्कार पर्वत है।-(तण्ण पुडरिगिणीणाम रायहाणी पन्नत्ता, णवजोयणविस्थिण्णा दुवालसजोरणायामा, जाव पच क्ख देवलोयभृया पासाईया, दरसणिज्जा अभिरूवा पडिख्वा) उस सीयामुहवणसडस्स पन्चत्थिमेण एगसेलगस्स क्खारपव्ययस्स पुरथिमेण एत्थण पुक्खलावद णाम रिजए पण्णत्ते)
આ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાભળીને શ્રી સુધમાં તેમને કહેવા લાગ્યા કે હે જ બૂ ! સાભળે, તમારા સવાલનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે આ જ ભૂલીપ નામક દ્વીપમાં પૂર્વ વિદેહ ક્ષેત્રમા, શીતા મહા નદીના ઉત્તર દિશા તરફના કિનારા ઉપર આવેલા નીલ પર્વતના દક્ષિણ દિગભાગમાં તેમજ ઉત્તર દિશામાં આવેલા સીતા મુખવનપડના પશ્ચિમ ભાગમા, તેમજ એક શેલક નામવાળા વક્ષસ્કાર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં પુષ્ક લાવતી નામે એક વિય છે સીતા મુખવન-વડને અર્થ આમ સમજવો જોઈએ કે જ્યાથી શીતા નદી નીકળી છે, તે ઉદ્ગમ સ્થાન ઉપર એક વનપડ છે મધ્ય જ બૂદ્વીપ અને મેરૂપર્વતની પાસે આવેલા એકલક નામે વક્ષસ્કાર પર્વત છે
(तस्यण पुडरिगिणीणाम रायहाणी पन्नता, णव जोयणवित्थिण्णा दुपालमजो यणायामा, जार पच्चरख देवलोयभूया पासाईया, दरसणिज्जा अभिरुवा पडिस्वा)
Page #994
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१०
ता
टीका' जइण भने ' इत्यादि । यदि खलु हे भदन्त ! श्रबणेन भगवता महावीरेण यावत्समाप्तेन अष्टादशस्य शाताऽवयनस्य अयमर्थः मत, पुन. खलु भदन्त ! एकोनविंशवितस्य शावाऽध्ययनस्य कोऽर्थः प्रनस ? | इति जम्बूस्वामी मश्नान तर सुर्मास्यामी कथयति एव खल हे जम्बू 1 तस्मिन् काले तस्मिन् समये हैन ' जनूदीचे दीवे ' जम्बूद्वीपे द्वीपे मध्यजम्बूद्वीपे 'पुत्रविदेवासे ' पूर्वविदेहे वर्षे शीताया महानद्याः 'उत्तरीये= उत्तरदिक् स्थिते कूले तीरे 'नील वतस्स दाहिणेग' नीळपतो दक्षिणे= नीलवतः पर्यवस्य दक्षिणेमागे 'उत्तरिल्लस्स' उत्तरीयस्य - उत्तरदिक् स्थितस्य 'सीपाहनणसण्डस्स' सीतामुख नपण्डस्थ= शीताया नद्या यन्मुखमुद्गमस्थान, तत्र यद् वनपण्डम् तस्य, पच्चत्थिमेण '
'जण भते । समणेग भगवया महावीरेण ' इत्यादि । टीकार्थ - जनू स्वामी श्री सुर्मा स्वामी से पूछते हैं कि (जन भते समणेण भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेण अट्ठारसमहस णायझ यस अयम पत्ते एगूणवीसइमस्स णापज्झयणस्स के अड्डे पण्ण देते ? ) हे भदन्त ! यदि श्रमण भगवान् महावीरने कि जो सिद्धि गति नामक मुक्तिस्थान को प्राप्त कर चुके है अठारहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोरुप से अर्थ निरूपित किया है तो उन्हीं श्रमण भगवान् महावी रने १९ वे ज्ञाताध्ययन का क्या भाव -अर्थ निरूपित किया है ? ( एव खलु जत्रू! तेण कालेणं तेण समएण इहेव' जत्रुदीवे दीवे पुब्वविदेह वासीयाए महानईए उत्तरिल्ले फूले नोलवतस्स दाहिणेग उत्तरिलस्स सीयामुहवणसडस्स पच्चस्थिमेग एगसेलग्रस्त वक्वारपव्वयस्स
I
'जइण भते ! समणेण भगनया महावीरेण - टीडार्थ- -જ બૂ, સ્વામી શ્રી સુધાં સ્વામીને પૂછે છે. કે
( जण भते ! समणेण भगाया महावीरेण जाव सपत्तेण अट्ठारस महस णायज्झयणस्स अयमठ्ठे पणते एगूणवीस मस्स णायज्झयगर्स के अहे पण्णत्ते ?)
1
હું ભાન્ત ! જો શ્રનણુ ભગવાન મહુાવીરે કે જેમણે સિદ્ધિગતિ નામક મુક્તિસ્થાનને મેળવી લીધુ છે-અઢારમા જ્ઞાતાધ્યયનના આ પૂક્તિ રૂપમાં અથ નિરૂપિત કર્યો છે ત્યારે તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ઓગણીસમા જ્ઞાતાયનના શેડ ભાવ-અ નિરૂપિત કર્યાં છે ?
( एव खलु जबू ! तेण कालेग तेण समरण इहेव जब दीवे दीवे पुत्र विदेहवा से सीयाए महागईए उत्तरिल्ले कूले नीलवतस्स
^^
उत्तरिल्लास
·
Page #995
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारामृतवाणी टीका 3० १२ पुरीफ परीक्षा प्रम् ७११ पाश्चात्ये पश्चिमेभागे 'एगसेल्गस्स' एक्शैलकस्य मध्यजम्बूद्वीपमेरुपर्वतसमीप स्थस्य एक शैलस्नामस्य 'धक्खारपब्बयस्म ' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरथिमेण' पौरस्त्ये-पूर्वस्या दिशि ' एत्थण' अत्र स्लु पुप्पलावती नाम रिजयः प्रज्ञप्तः । तत्र खलु पुण्डरीरिणी नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, सा 'णवजोयणवित्थिण्णा' नवयोजनविरतीर्णा = नवयोजनविस्तारवती 'दुवालसजोयणायामा 'द्वादश योजनायामा द्वादशयोजनानि आयामो दैर्घ यस्याः सा द्वादशयोजनदी पैत्यर्थ, पुन 'जार पन्चक्ख देवलोयभूया यावत् प्रत्यक्षदेवलोकभृता-साक्षात् स्वर्गसहशापुनः मासादीया, दर्शनीया, अभिरूपा, प्रतिरूपा । तस्या खलु पुण्डरीकिण्याः पुरस्थिीमेण एत्यण पक्खलाहणाम विजरा पण्णत्त) हम प्रकार जबस्वामी के पूछने पर सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं-सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है उस काल और उस समय मे इस जवूद्रीप नाम के द्वीप में पूर्व विदेह क्षेत्रमें, शीत महानदी के उत्तर दिग्वी तीर पर स्थित नील पर्वत के दक्षिण दिग्भाग में, तथा उत्तर दिग्वर्ती शीतामुखवनपड के पश्चिम भाग में, तथा एक शैलक नाम वाले वक्षस्कार पर्वत की पूर्व दिशा में पुष्फलावती इस नाम का विजय है । शीतामुग्ववनपड का तात्पर्य यह है-कि जहा से शीतानदी नीकली है उस उद्गमस्थान पर एक वनपड है। मध्य जबूद्वीप और मेरूपर्वत के समीप में रहा हुआ एक शैल्क नाम का चक्षस्कार पर्वत है।-(तण्ण पुडरिगिणीणाम रायहाणी पन्नत्ता, णवजोयणवित्थिण्णा दुवालसजोयणायामा, जाव पच्च क्ख देवलोयभूया पासाईया, दरसणिज्जा अभिख्या पडिख्या) उस सीयामुहवणसडस्स पन्चत्थिमेण एगसेलगस्स रक्खारपव्ययस्स पुरथिमेण एत्थण पुक्खलावद णाम पिजए पण्णत)
આ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાભળીને શ્રી સુધર્મા તેમને કહેવા લાગ્યા કે હે જ બૂ! સાભળે, તમારા સવાલનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે આ જ બૂઢીપ નામક દ્વીપમાં પૂર્વ વિદેહ ક્ષેત્રમા, શીતા મહા નદીના ઉત્તર દિશા તરફના કિનારા ઉપર આવેલા નીલ પર્વતના દક્ષિણ દિગભાગમાં તેમજ ઉત્તર દિશામાં આવેલા સીતા મુખવનવડના પશ્ચિમ ભાગમા, તેમજ એક શેલક નામવાળા વક્ષસ્કાર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં પુષ્ક લાવતી નામે એક વિજય છે સીતા મુખવન–ડને અર્થ આમ સમજો જોઈએ કે ત્યાથી શીતા નદી નીકળી છે, તે ઉદ્ગમ સ્થાન ઉપર એક વનવડ છે મધ્ય જ બુદ્વીપ અને મેરૂપવતની પાસે આવેલ એકરૌલક નામે વક્ષસ્કાર પર્વત છે
(तस्यण पुडरिंगिणीणाम रायहाणी पन्नता, णव जोयणविस्थिण्णा दुपालमजो यणायामा, जाव पच्चक्ख देवलोयभूया पासाईया, दरसणिज्जा अभिरूवा पटिख्या)
Page #996
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१२
छायाले
1
नगर्यो: उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे नलिनी नाम उद्यानम् । तत्रम् पुण्डरीकियां राजधान्यां महापद्म नाम राजाऽऽसीत् । तस्य खलु पद्मावती नाम देवी आसीत् । तस्य खलु महापद्मस्य राम पुत्री पद्मावत्या देव्या आत्मजौ द्वौ कुमारी मास्ताम् । , व जहा तथा तयोर्नामरूपे, तदाह-' पुडरीप य कडरीए य सुकुमालपाणिपाया' पुण्डरीक फण्डरी गुहमारपाणिपादौ कोमलकर चरणौ । तयो मध्ये पुण्डरी युवराजाऽऽसी । तस्मिन् काले तस्मिन् समये ' येरागमण ' पुष्कलावती विजय में पुडरी किनी नाम राजधानी थी। यह नव योजन विस्तारवाली तथा १२ योजन की लंबी है यह साक्षात स्वर्ग जैसी प्रतीत होती है । प्रासादीयचित्त एव अन्तःकरण को यह प्रमन करने वाली है, दर्शनीय- नेत्रों को तृप्ति करने वाली है, अभिरूप असाधारण रचना से युक्त हैं एव प्रतिरूप है - इसके जैसी और दूसरी कोई नगरी नहीं हैं ऐसी । ( तीसेण पुडरिगीणीण णयरीत उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए लिणिचणे णाम उज्जाणे तत्थ पण पुढरिगिणी० रामराणीए महापउमे नाम राया होत्था-तरसण परमावईणाम देवी होत्या, तस्स ण महापर मस्स रण्णो पुत्ता पउमावईए देवीए अत्तया दुवे कुमारा होत्या) उस पुडरीकिणी नगरी के उत्तर पौरस्त्य दिग्भाग में नलिनीवन नाम को एक उद्यान था । उस पुडरीकिणी राजधानी में महापद्मनाम का एक राजा रहता था । उसकी देवी का नाम पद्मावती थी। उस महापद्म राजा के या पद्मावती की कुक्षि से उत्पन्न हुए दो कुमार थे (तं जहा पुण्डरी , कडरीय - सुकुमालपाणि पाया । पुडरीए जुवराया तेण कालेन
-
તે પુષ્કલાવતી વિજયમા પુડરીકની નામે રાજધાની હતી તે નવ ચેાજન જેટલા વિસ્તા૨વાળી તેમજ ખાર યાજન જેટલી લાખી છે. તે પ્રશ્ન સ્વર્ગ જેવી જ લાગે છે તે પ્રાસાદીયચિત્ત અને અન્ત કરણને તે પ્રસન્ન કરનારી છે, दर्शनीय-आणाने ते तृप्त ४२नारी छे, लक्ष्य ते साधारण (पूर्व) રચનાવાળી છે, અને પ્રતિરૂપ એના જેવી બીજી કાઈ નગરી નથી એવા છે
( तीसेण पुडरिगिणीए जयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए पलिणिवणे गाम उज्जाणे- तत्थण पुडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे णाम राया होत्या तस्सण पउमावईणाम देवी होत्या, तरसण महापउमस्स रण्णो पुता पउमावईए देवीए अत्तया दुवे कुमारा होत्था )
તે પુંડરીકણી નગરીના ઉત્તર પૌરસ્ત્ય વિભાગમા લિંનીવન નામે રહેતા એક ઉદ્યાન હતા તે પુંડરીકણી રાજધાનીમા મહાપદ્મ નામે એક રાજા હતા તેની રાણીનુ નામ પદ્માવતી હતું તે મહાપદ્મ રાજાને ત્યાં પદ્મવતી ઢવીના ગર્ભથી ઉત્પન્ન થયેલા એ રાજકુમાર હતા
Page #997
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी०अ० १९ पुडरीक कडरीकचरित्रम्
७१३
स्थविरागमन=वस्या राजान्या नलिनी ने उद्याने स्थविराणामागमनमभूत् । महापद्म राजा धर्म श्रोतु निर्गतः, धर्मश्रुला सजातवैराग्यः पुण्डरीक राज्ये स्थापयित्वा मत्रजितः । अनन्तर पुण्डरीको राजा जात, कण्डरीको युवराजः । महापद्मनगार चतुर्दश पूर्वाणि अनीते । ततः खलु स्थविरा वहिर्जपदविहार विहरन्ति । ततः खलु स महापद्म पनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयित्वा यावद् सिद्धः ॥०१॥
तेण समरण थेरागमण, महापउमे राया णिग्गए, धम्म सोचा पोंडरीय रज्जे उवेत्ता पत्रए । पोंडरीए राया जाए, कडरीए जुवराया । महाप उमे अणगारे चोहसपुव्वाइ अहिलइ, तएण थेरा नहिया जणवयविहार विहरति, तएण से महापउसे वहणि वासाड जाव सिद्धे ) उनके नाम इस प्रकार है - १ पुडरीक और दूसरा कडरीक ये दोनो पुत्र सुकुमार करणवाले थे । पुडरीक को पिता ने युवराज पदप्रदान किया था। उस काल में और उम समय में वहा स्थविरों का आगमन हुआ। महाप
राजा धर्म का व्याख्यान सुनने के लिये अपने महल से निकलकर नलिनीवन उद्यान में आये । वहा धर्म का उपदेश सुनकर उन्हे वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया सो वे पुडरीक को राज्य मे स्थापितकर दीक्षित हो गये । पुडरीक राजा बन गया और कडरीक युवराज हो गया। महापद्मराजपि ने चौदह पूर्वो का अ ययन कर लिया। इसके बाद वहा से स्थविरो ने
( त जहा - पुडरीए य, कडरीए य-सुकुमालपाणिपाया० । पुडरीए जुन राया तेण कालेन तेण समरण थेरागमण, महापउमे राया णिग्गए, धम्म सोच्वा पोंडरीय रज्जे ठवेत्ता पत्रइए । पोडरीए राया जाए, कडरीए जुवराया | महा ° पउमे अणगारे चोहसपुन्नाइ अहिज्जइ, तएण थेग वहिया, उणवयविहार विहरति, वरण से महापउमे पहणि वामाइ जान सिद्धे )
તેમના ન મા આ પ્રમાણે છે-૧ પુડરીક, અને ૨ કડીક આ ખને પુત્રા સુકામળ હાય-પગવાળા હતા રાજાએ પુડરીકને યુવાજપદ પ્રદાન કર્યું હતું તે કાળે અને તે સમયે ત્યા વિરાનુ આગમન થયુ મહાપદ્મ રાજા ધનુ વ્યાખ્યાન સાભળવા માટે પોતાના મહેલથી નીકળીને નિલનીવન ઉઘા નમા આવ્યા. ત્યા ધર્મોપદેશ સાભળીને તેને વૈરાગ્યભાવ ઉત્પન્ન થઇ ગયે છેવટે પુડરીકને રાજ્યાસને સ્થાપિત કરીને તેએ! દીક્ષિત થઈ ગયા પુડરીક રાજા થઈ ગયા અને કડી યુયરાજ ઈ વગ મહાપદ્મ રાષિએ ચૌ, ૉનુ અધ્યયન કરી લીધું ત્યારપછી સ્થવિરા ત્યાથી બહાર જનપદોમા વિહાર
ज्ञा ९०
Page #998
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
७१२ नगर्याः उपरपोरस्त्ये दिग्मागे नलिनीन नाम टपानम् । तम बलु पुण्डरीषिभ्यां रामधान्यां महापयो नाम रानाऽऽसी । तस्य खलु पनावती नाम देवी आसीन् । तस्य खलु महापग्रस्प राम पुत्रो पमावस्या देव्या आत्मनो दोकुमारी आस्ताम् । 'त जहा' तथधा तयोर्नामरूपे, सदा-'पुउरीप य कडरीए य सुकुमाल पाणिपाया' पुण्डरीका पण्डरीरथ गुलमारपाणिपादो कोमल करचरणौ । तयो मध्ये पुण्डरीको युरानाऽऽसी । तस्मिन् काले तस्मिन समये 'थेरागमण' पुष्फलावती विजय में पुडरी किनी नाम राजधानी धी। यह नव योजन विस्तारवाली तथा १२ योजन की लगी है यह साक्षात स्वर्ग जैसी प्रतीत होती है। प्रासादीयचित्त एव अन्तःकरण को यह प्रसन्न करने वाली है, दर्शनीय-नेत्रों को तृप्ति करने वाली है, अभिरूप-असाधारण रचना से युक्त है एव प्रतिरूप है-इसके जैसी और दूसरी कोई नगरी नहीं है ऐसी। (तीसेण पुडरिगीणीप णयरीत उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए णलिणिवणे णाम उन्नोणे-तत्व ण पुडरिगिणीण रापहाणीए मरापउम णाम राया होत्या-तस्सण पउमावईणाम देवी होस्थो, तस्स ण महापर मस्स रणो पुत्ता पउमावईए देवीए अत्तया दुवे कुमारा होत्या) उस पुडरीकिणी नगरी के उत्तर पौरस्त्य दिग्भाग में नलिनीवन नाम का एक उद्यान था। उस पुडरीकिणी राजधानी में महापद्मनाम का एक रा रहता था। उसकी देवी का नाम पद्मावती थी। उस महापद्म राजा, यहा पद्मावती की कुक्षि से उत्पन्न हुए दो कुमार थे (त जहा पुडर य, कडरीए य-सुकमालपाणि पाया । पुडरीए जुवराया तेण काल - તે પુષ્કલાવતી વિજયમાં પરીકિની નામે રાજધાની હતી તે નવ જન જેટલા વિસ્તારવાળી તેમજ બાર જન જેટલી લાંબી છે તે પ્રત્યક્ષ અને જેવી જ લાગે છે તે પ્રાસાદી ચિત્ત અને અન્ત કરણને તે પ્રસન્ન કરનારી છે દર્શનીય–આખેને તે પ્રમ કરનારી છે. અભિરૂપ તે અસાધારણ (અપૂન? રચનાવાળી છે, અને પ્રતિરૂપ-એના જેવી બીજી કઈ નગરી નથી એવી છે
(तीसेण पुडरिगिणीए णयरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए णलिणिवणे णाम उज्जाणे-तत्थण पुडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे णाम राया होत्था-तस्सम पउमावईणाम देवी होत्या, तस्सण महापउमस्स रण्णो पुत्ता पउमावईए देवार अत्तया दुवे कुमारा होत्था)
તે પુંડરીકિ નગરીના ઉત્તર પરત્ર્ય દિગવિભાગમાં નલિનીવન નામ એક ઉધાન હતું તે પુંડરીકિણી રાજધાનીમાં મહાપદ્મ નામે એક રાજા રહેતા હતે તેની રાણીનું નામ પાવતી હતું તે મહાપ રાજાને ત્યાં પ વતી દેવીના ગર્ભથી ઉત્પન્ન થયેલા છે રાજકુમાર હતા
Page #999
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टी०अ० १९ पुडरीक-फडरीकचरित्रम्
७१३ स्थविरागमननस्या रान पान्या नलिनीनने उयाने स्थविराणामागमनमभूत । महापद्मो राजा धर्म श्रोतु निर्गतः, धर्म श्रुत्ला सनातवैराग्यः पुण्डरीक राज्ये स्थापयित्वा मनितः । अनन्तर पुण्डरीको राजा जातः, कण्डरीको युवराजः । महापद्मऽनगार चतुर्दशपूर्वाणि अपीते । तनः खलु स्थपिरा बहिर्जपदविहार विहरन्ति । ततः खलु स महापद्रो महानि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयित्वा यावद् सिद्धःमू०१॥
तेणं समएण थेरागमण, महापउमे राया णिग्गए, धम्म सोचा पोंडरीय रज्जे ठवेत्ता पचडए । पोंडरीए राया जाए, कडरीए जुवराया। महाप उमे अणगारे चोदसपुव्वाइ अहिलइ, तएण थेरा पहिया जणवयविहार विहरति, तएणं से महापउमे यद्दणि वासाड जाव सिद्धे ) उनके नाम इस प्रकार है-१ पुडरीक और दूसरा कडरीक-ये दोनो पुत्र सुकुमार करचणवाले थे। पुडरीक को पिता ने युवराज पदप्रदान किया था। उस काल में और उस समय मे वहा स्थविरों का आगमन हुआ। महापमराजा धर्म का व्याख्यान सुनने के लिये अपने महल से निकलकर नलिनीवन उद्यान में आये।वहा धर्म का उपदेश सुनकर उन्हे वैराग्य भात्र उत्पन्न हो गया-सोवे पुडरीक को राज्य मे स्थापितकर दीक्षित हो गये। पुडरीक राजा बन गया-और कडरीक युवराज हो गया। महापद्मराजर्षि ने चौदह पूर्वो का अध्ययन कर लिया। इसके बाद वहां से स्थविरो ने
(त जहा-पुडरीए य, कडरीए य-सुकुमालपाणिपाया० । पुडरीए जुरराया तेण कालेण तेण समएण थेरागमग, महापउमे राया णिग्गए, धम्म सोच्या पोडरीय रज्जे ठवेत्ता पपइए । पोडरीए राया जाए, कडरीए जुधराया । महा पउमे अणगारे चोदसपुयाइ अहिज्जइ, तरण थेरा वडिया, जणवयविहार विहरति, तएण से महापउमे बहणि वासाइ जात्र सिद्धे )
તેમના નામ આ પ્રમાણે છે-૧ પુડરીક, અને ૨ કડક આ બને પુત્રે સુકેમળ હાથ-પગવાળા હતા રાજાએ પુડરકને યુવરાજપદ પ્રદાન કર્યું હતું તે કાળે અને તે સમયે ત્યાં સ્થવિરેનું આગમન થયું મહાપદ્મ રાજા ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાંભળવા માટે પિતાના મહેલથી નીકળીને નલિનીવન ઉદ્યા નમાં આવ્યું ત્યા ધર્મોપદેશ સાંભળીને તેને વૈરાગ્યભાવ ઉત્પન્ન થઈ ગયે છેવટે પુડરકને રાજ્યાસને સ્થાપિત કરીને તેઓ દીક્ષિત થઈ ગયા પુરીક રાજા થઈ ગયે અને કડક યુયરાજ થઈ ગયે મહાપા રાજર્ષિએ ચી. પર્વોનું અધ્યયન કરી લીધું ત્યારપછી સ્થવિરે ત્યાથી બહાર જનપદમા વિહાર
का ९०
Page #1000
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूलम्-तएर्ण थेरा अन्नया कयाई पुगरवि पुंडरिगिणीए रायहाणीए गलिणिवणे उजाणे समोसटा, पोंडरीए राया जिग्गए । कंडरीए महाजणसह सोचा जहा महावलो जाव पज्जुवासह । थेरा धम्म परिकहेंति पुडरीए समणोवासए जाए जाव पडिगए । तरण से कडरीप उडाए. उट्टेइ, उट्टाए उट्टित्ता जाब से जहेयं तुम्भे वदह जं णवर पुण्डरीय रायं आपुच्छामि, जाव पव्वयामि । अहासुह देवाणुपिया । तएण से कडरीए जाव थेरे वदइ णमसइ वंदित्ता णमसित्ता थेराण अंतियाओं पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तमेव चाउग्घट आसरह दुरु हइ जाव पच्चोरुहइ, जेणेव पुण्डरीए राया तेणेव उवागच्छई करयल जाव पुडरीयं एव क्यासी-एवं सल्ल देवाणुप्पिया । मए थेराण अतिए जाव धम्मे निसते से धम्मे जाव अभिरुइए तपणं देवाणुप्पिया। जाव पव्वइत्तए । तएण से पुडरीए कडरीए एवं वयासी माणं तुम देवाणुप्पिया । इयाणि मुडे जाव पव्वयाहि, अह णं तुमं महयार रायाभिसेएणं अभिसिंचामि। तएण से कडरीए पुडरीयस्स रणो एयम णो आढाइ णो परिजाणइ तुलिणीए सचिटइ । तएण पुण्डरीए राया कडरीय दोच्चपि तच्चपि एव वयासी-जाव तुलिणीए सचिट्ठइ। तएणं पुण्डरीए कडयि कुमार जाहे नो सचाएइ, बहूहिं आघवणाहि बारिर जनपदों में विहार कर दियो।महापद्म अनगार ने अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालनकर योवत मिद्धपद को प्राप्त कर लिया ॥सू०१॥
માટે નીકળી પડયા મહાપા અનગારે ઘણા વર્ષો સુધી ઢામગ્ય પર્યાય પાલન કરીને યાવત્ સિદ્ધપદને પ્રાપ્ત કરી લીધુ છે સૂત્ર 1
Page #1001
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५
नगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १९ पुडरीक-कहरीकचरित्रम् य पण्णवणाहि य४ ताहे अकामए चेव एयमट्र अणुमन्नित्था जाव णिखमणाभिसेएण अभिसिचइ जाव थेराण सीसभिक्खं दलयड । पव्वइए अणगारे जाए एगारसगविऊ । तएण थेरा भगवंतो अन्नया कयाइं पुडरिगणीओनयरीओ णलिणीवणाओ उजाणाओ पडिणिस्खमति पडिणिक्खमित्ता चहिया जणवयविहारं विहरति ॥ सू० २॥ ____टीका-'तएण ते ' इत्यादि । ततः खलु ते स्थगिरा अन्यदा कदाचित पुण्डरीकिण्या राजधान्या नलिनीवने उद्याने समनमृता समगताः । तेपासमा गमन श्रुत्वा पुण्डरीको राजा तान् वन्दितु निर्गतः । अनन्तरम्-कण्डरीको ' महाजण सद्द ' महाजनशन्द-स्थविरान् वन्दितु कामाना गच्छता बहूना जनाना कोलाहल श्रुत्वा 'जहा महारले जाव पपज्जुमामइ ' यथामहावलो यावत्पर्युपास्ते । महावल इव स्थविराणा समीपे गत्वा तान् वन्दित्वा नमस्यित्वा सेवते । स्थविरा धर्म परिकहेंति' परिकथयन्ति-उपदिशन्तीत्यर्थः । तेरुपदिष्ट धर्म श्रुन्या पुण्डरीकः श्रमणोपासको जातः 'जाव पडिगए' यावत्पतिगतः स्थविरान् वन्दित्त्वा
'तएण ते येरा अन्नया कयाइ' इत्यादि।
टीकार्य:-(तएण) इसके बाद (ते थेरा) वे स्पविर (अन्नया कयाइ किसी एक समय ( पुणरवि) फिर से (पुडरिगीणीए रायहाणीए णलिणिवणे उन्नाणे समोसढा, पोंडरीए राया जिग्गए) पुडरीकिणी राजधानी में आये। वहा वे नलिनीवन उद्यान में ठहरे। पुडीक राजा उनका आगमन सुनकर धर्म सुनने की इच्छा से वहा जाने के लिये अपने महल से निकले। (कडरीए महाजणसद्द सोचा जहा महावलो जाव पज्जुवासइ, थेरा धम्म परिकहेंति, पुडरीए समणोवासए जाए जाय
'तएण ते येरा अन्नया कयाइ ' इत्यादि
साथ--(तएण ) त्या२५डी (ते थेरा) ते स्थविशे ( अन्नया कयाइ) है मत (पुणरवि) १ (पुडरिंगीणोए रायहाणीए णलिणिवणे उज्जाणे समोसढा, पोंडरीए रायाणिग्गए) Yी रामपानीमा माव्या त्या तया નલિનીવન ઉદ્યાનમા રેડયા પુંડરીક રાજા તેમનું આગમન સાભળીને ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાંભળવાની ઈચછાથી ત્યા જવા માટે પિતાના મહેલથી નીકળ્યા (कडरीए महाजणसद्द सोचा जहा महाबलो जार पग्नुवासइ, येरा धम्म परि
Page #1002
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाताधर्मकथा
मूलम्-तणं थेरा अन्नया कयाइ पुणरचि पुडरिगिणीए रायहाणीए णलिणिवणे उजाणे समोसढा, पोंडरीए राया णिग्गए | कंडरीए महाजणसद्द सोचा जहा महावलो जाव पज्जुवासइ | थेरा धम्म परिकहति पुडरीए समणोवासए जाए जाब पडिगए । तएण से कंडरीप उट्टाए उट्टेइ, उट्टाए उट्टित्ता जाब से जहेयं तुभे वदह ज णवर पुण्डरीय राय आपुच्छामि, जाव पव्वयामि । अहासुहं देवाशुप्पिया । तएणं से कडरीए जाव थेरे वंदइ णमसइ वंदित्ता णमसित्ता थेराण अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तमेव चाउग्घट आसरह दुरु हइ जाव पच्चोरुहइ, जेणेव पुण्डरीए राया तेणेव उवागच्छइ करयल जाव पुंडरीय एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया | मए थेराण अतिए जाव धम्मे निसंते से धम्मे जाव अभिरुइए तणं देवाप्पिया | जाव पव्वइत्तए । तएण से पुडरीए कडरीए एव वयासी - माणं तुम देवाणुप्पिया । इयाणि मुंडे जाव पव्वयाहि, अह णं तुमं महयार रायाभिसेएणं अभिसंचामि । तएण से कडरीए पुडरीयस्स रण्णो एयमह णो आढाइ णोपरिजाणइ तुसिणीए सचिइ । तएण पुण्डरीए राया कडरीय दोच्चपि तच्चपि एव पयासी - जाव तुसिणीए सचिट्ठइ । तएर्ण पुण्डरीप कडरीय कुमार जाहे नो सचाएइ, बहूहि आघवणाहि बाहिर जनपदों में विहार कर दियो । महापद्म अनगार ने अनेक वर्षो तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर योवत् सिद्धपद को प्राप्त कर लिया ॥ सू० १ ॥
+
७१४
માટે નીકળી પડયા મહાપદ્મ અનગારે ઘણા વર્ષો સુધી શ્રામ. પર્યાયનુ પાલન કરીને ચાવત સિદ્ધપદને પ્રાપ્ત કરી લીધુ ડા સૂત્ર ૧ ઇ
Page #1003
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधामृतपिणी टी० अ० १९ पुंडरीक कडरीकचरितम् _____७१५ य पण्णवणाहि य४ ताहे अकामए चेव एयमट्र अणुमनित्था जाव णिस्खमणाभिसेएणं अभिसिचइ जाव थेराणं सीलभिक्ख दलयइ । पव्वइए अणगारे जाए एगारसंगविऊ । तएण थेरा भगवतो अन्नया कयाइं पुंडििगणीओ नयरीओ णलिणीवणाओ उजाणाओ पडिणिक्खमति पडिणिक्खमित्ता चहिया जणवयविहारं विहरंति ॥ सू०२॥
टीका-'तएण ते ' इत्यादि । ततः खलु ते स्थविरा अन्यदा कदाचित् पुण्डरीकिण्या राजधान्या नलिनीवने उद्याने समरसता -समगताः । तेपा समा गमन श्रुत्वा पुण्डरीको राजा तान् वन्दितु निर्गतः । अनन्तरम्-कण्डरीको ' महाजणसद्द ' महाजनशब्द-स्थपिरान् वन्दितु कामाना गच्छता वहूना जनाना कोलाहल श्रुत्वा 'जहा महापलो जाव पपज्जुवामइ ' यथामहापलो यावत्पयुपास्ते । महावल इस स्थविराणा समीपे गत्वा तान् वन्दित्वा नमस्थित्वा सेवते । स्थविरा धर्म परिकहंति' परिकथयन्ति-उपदिशन्तीत्यर्थः । तैरुपदिष्ट धर्म श्रुत्वा पुण्डरीका श्रमणोपासको जातः 'जाव पडिगए' यावत्मतिगतः स्थविरान् वन्दित्त्वा
'तएण ते थेरा अन्नया कयाइ' इत्यादि।
टीकार्यः-(तएण) इसके बाद (ते थेरा) वे स्थविर (अन्नया फयाइ किसी एक समय (पुणरवि) फिर से (पुडरिगीणीए रायहाणी णलिणिवणे उजाणे समोसढा, पोडरीए रायाणिग्गए) पुडरीकिणी राजधानी में आये। वहा वे नलिनीवन उद्यान में ठहरे। पुडीक राजा उनका आगमन सुनकर धर्म सुनने की इच्छा से वहा जाने के लिये अपने महल से निकले। (कडरीए महाजणसद्द सोचा जहा महबलो जाय पज्जुवासह, थेरा धम्म परिकहेति, पुडरीए समणोवासए जाए जाव
'तएण ते येरा अन्नयो कयाइ ' इत्यादिसार्थ-(तएण ) त्या२५०ी (ते थेरा) ते स्थविश ( अन्नया कयाइ)
मे १मत (पुणरवि) २ (पुडरिंगीणीए रायहाणीए णलिणिपणे उज्जाणे समोसढा, पोंडरीए रायाणिग्गए) पुडीपी Aधानीमा आव्या त्या तमा નલિનીવન ઉદ્યાનમાં રોકાયા પુંડરીક રાજા તેમનું આગમન સાભળીને ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાભળવાની ઈરછાથી ત્યાં જવા માટે પિતાના મહેલથી નીકળ્યા (कहरीए महाजणसद्द सोचा जहा महा चलो जाव पग्नुवासइ, थेरा धम्म परि
Page #1004
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१६
वाताधर्मकथा
1
नमस्थित्वा प्रतिनित्तः । ततः खलु ारी' 'उद्यान' उत्पपा= उत्थानशक्त्या उत्तिष्ठति, उत्थया उत्थाय 'जान' यावत् स्थरिन पनिमा ए मवदत् - ' से जय तु वेद हे देवानुमिनाः । यूव यथा यद् वद, तत्तथैन, 'जणार 'नरो विशेष सचैत्रम् - यह पूर्व पुण्ड रीक राजानम् आपृच्छामि । उत सलु 'जार पत्रयामि' पावन् पव्रजामि | form ) इसके बाद करी युवराज स्वरों को बढना करने के लिये जानेवाले अनेक मनुष्य का कोलाहल सुनकर मावल राजा की तरह स्थविरो के पास गया वहा जाकर उसने उनकी वदना की - नमस्कार किया । वदना नमस्कार कर फिर उसने उनकी पर्युपासना की । स्थविरों ने धर्म का उपदेश दिया। उस उपदेश को सुनकर पुडरीक श्रमणोपा सक बन गया। बाद में वह स्थविरों को बढ़ना और नमस्कार कर अपने स्थान पर वापिस वहा से लौट आया । (तरण से कडरी उडाए उट्ठेह, उठाए उट्ठत्ता जाव से जहेय तुम्मे चदह, ज णवर पुडरीय राय आपु च्छामि, तएण जाव पव्वयामि - अहासुर देवाणुप्पिया । तरण से कडरीए जाव थेरे दह, नमसइ, वदित्ता नमसित्ता येराण अतियाओ पडिनिक्खमइ ) इसके बाद कडरीक उत्थानशक्ति से उठा - उत्थानशक्ति - उठने की शक्ति से उठकर उसने स्थविरों को वदना की - नमस्कार किया । वदनो नमस्कार करके फिर उसने उनसे इस प्रकार कहा - है
कहेंति, पुरीए समणोवासए जाए जाव पडिगए) त्यारपछी उरी युवराज સ્થવિરાની વદના કરવા માટે ઉપડેલા અનેક માણસને ઘેઘાટ સાભળીને મહાખવ રાજાની જેમ સ્થવિરાની પાસે ગયે ત્યા જઈને તેણે તેમને વદન અને નમસ્કાર કર્યો ૧૬ના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમની પ`પાસના કરી સ્થવિરાએ ધર્મોપદેશ આપ્યા, તે ઉપદેશને સાભળીને પુડરીક શ્રમણા પાસક બની ગયૈ। ત્યારપછી તે સ્થવિરેને વદન તેમજ નમન કરીતે પેાતાના નિવાસસ્થાને પાછા આવતા રહ્યો
(तरण से कडरी उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठाए उट्ठित्ता जाव से जहे य तुम्भे वदह ज णवर पुडरीय राय आपुच्छामि, तएण जाय पव्वयामि - अहासुह देवाणु पिया ! तण से कडरीए जान थेरे वदइ, नमसइ, वदित्ता, नमसित्ता थेराण अतियाओ पडिनिखमइ )
ત્યારપછી કડરીક ઉત્થાન શક્તિ વડે ઊભા થયા, ઉત્થાન શકિત-ઊભા થવાની શક્તિ વડે ઊભેા થઈને તેણે વિરાને વન તેમજ નમસ્કાર કર્યો વદના અર્ધ નમસ્કાર કરીને તેણે તેમને આ પ્રમાણે વિનતી
ૐ
Page #1005
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १९ पुडरीफ-कंडरीकचरित्रम् ७१७ इति तद् वचन श्रुत्वा ते स्थविरा' पोचु. ' अहासह देवाणुप्पिया' यथासुख है देवानुप्रिया । हे देवानुप्रिय ! यथा तव सुखकर भवेत् तथा कुरु । ततः खलु स कण्डरीको यावत् स्थविरान् चन्दते नमस्यति, पन्दित्वा नमस्यित्वा स्थविराणामन्तिका-ममीपात् प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य, तमेव 'चाउग्घट' चतुघण्ट-चतस्रो घण्टा यस्मिन् स तम्घण्टा चतुष्टयोपेतम् अवरथ दूरोहति, यारद प्रत्यबरोहति-स्थादवतरति । अवतरणानन्तर यौव पुण्डरीको राजा तत्रैव उपाग च्छति, ' करयल जाव' करतल यावत् करतलपरिगृहीत शिर आवत्तं दशनख मस्तकेजलिं कृत्वा पुण्डरीकमेवमवादोत्-एव खलु हे देवानुपिय ! मया स्थवि राणामन्तिके यावद् रर्मों निशान्त =श्रुत', स धर्मः स्थविरमोक्तो धर्मः यावत् अभिरुचित । तत् खलु हे देवानुप्रिय । 'जाव पन्नात्तए ' यावत् अजितुम्हे देवानुप्रियाः ! भवद्भिरभ्यनुज्ञातो स्थविराणामन्ति के मनजितुमिच्छामीतिभावः।
देवानुप्रियो आप जैसा कहते है-वह पैसा ही है-मेरी भावना उसे सुनकर सयम लेने की हो गई है-अतः सयम धारण करने के पहिले मैं पुडरीक राजा से इस विपय में पूछ आता है उसके बाद सयम धारणे करना चाहता हूँ। इस प्रकार उसके वचन सुनकर उन स्थविरों ने उससे कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम्हे जैसे सुख हो-तुम वैसा करो-इसके याद कडरीक ने स्थविरों को वदना की-नमस्कार किया और वदना नमस्कारकर वह उनके पास से चला आया (पडिनिक्खमित्ता) आकर के (तमेवचाउग्घट आसरह दुरुहर, जाव पचोरुहइ, जेणेव पुडरीए राया तेणेव उवागच्छद, करयल जाव पुडरीय एव वयासी एव खलु देवाणुप्पिया ! मए थेराण अतिए जाव धम्मे निसते से धम्मे जाव अभिरुइए હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે જેમ કહે છે તે ખરેખર તેમ છે આ બધું સાંભળીને સયમ ગ્રહણ કરવાની મારી ઈચ્છા થઈ ગઈ છે એટલા માટે સયમ ધારણ કરતા પહેલા હું પુડરીક રાજાને આ વિષે પૂછી આવું છું ત્યારપછી હુ સંયમ ધારણ કરવા ચાહુ છુ આ પ્રમાણે તેના વચને સાભળીને તે સ્થવિરોએ તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમને જેમાં સુખ મળે તેમ કરે ત્યારપછી ડડરીકે સ્થવિરને વદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તે તેમની પાસેથી આવી રહ્યો (पडिनिस्समित्ता) मावान,
(तमेव चाउग्घट आसरह दुरुहड, जाव पचोरुहइ, जेणेव पुडरीए राया सेणेव उवागच्छइ, करयल पुडरीय एस क्यासी एव ग्खलु देवाणुप्पिया ! मए राण अतिए जाव धम्मे निसते से धम्मे जाव अभिरूइए-वण्ण देवाणुप्पिया !
Page #1006
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८ ततः पुण्डरीका पण्डरीरमेमगीत-मा ग्यात तर हे देशानुमिय ! भ्रातः इदानीं मुण्डो यारत प्रवन माह सलु वा मदता २ रायामिसेण्ण' रामाभिषकेष 'अभिसिंचामिममिपेचयामि । तनः पलुस पण्डरीको युगजः पुण्डरीकस्य राक्ष एतमर्थ नो नादियतेस्य राज्यामिपररूपमर्थ नो मनुवे, 'नो परिजाणइ ' नौ मतिनानानिम्न स्त्रीति तुमिणीप सचिइ ' तृष्णीक -तण्ण देवाणुप्पिया ! पत्ता ताण से पुटरी कडरी एव वयासी -मोण तुम देवाणुप्पियो इयाणि मुढे जाव पव्वयाहि-अहण तुम महया २ रायाभिसेषणं अभिसिंचामि) कर वहा आया-जहा चतुघरों पेत अपना अश्वरध रया आसावरा आकर वह उमपर चढ़ गया -चढकर वह जहा पुटरीक राजा थे वीं आया-यहां आते ही वह स्थ से नीचे उतरा। नीचे उतरकर पुडरीक राजा के पास गयावहा जाफर उसने पुडरीक राजा को दोनों हाथ जोडकर नम स्कार किया-बाद में इस प्रकार कार ने रगा-हे देवानुप्रिय मैंने स्थ विरो के पास धर्म का उपदेश सुना है-वह मुझे पहन रूचा है इसलिय हे देवानुमिय! में आपसे आजापित होकर उन स्थविरो के पास सयम लेना चाहता हूँ इस प्रकार कटरीक की बात सुनकर पुडरीकने उसस इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम इस समय मुडित होकर स्थविरी के पास सयम धारण मतकरी में बडे जोर शोर के उत्सव के साथ तुम्हारा राज्याभिषेक करना चाहता है। (तएण से कडरीए पुडरीयस्स जार पन्चइत्तए ! तएण से पुडरीए क्डरीए एव वयासी-माण तुम देवाप्पया इयाणिमुडे जाव पब्धयाहि अह ण तुम महयार रायाभिसेएण अभितिचामि ।
તે ત્યાં આવ્યો જ્યા ચતુર્ઘ ટાળે પિતાને અધરવ હતો ત્યાં આવીને તે તેમાં બેસી ગયો, અને બેસીને તે જ્યા પડરીક રાજ હતું ત્યાં ગમે ત્યાં પહેચતા જ તે રથ ઉપરથી નીચે ઉતર્યો, નીચે ઉતરીને પુંડરીક રાજાની પાસે ગયા ત્યાં જઈને તેણે બંને હાથ જોડીને પડીક રાજાને નમસ્કાર કર્યો અને ત્યારપછી તેણે તેમને વિનતી કરતા આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય' મે સ્થવિરાની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાભળ્યો છે તે મને ખૂબ જ ગમી ગયેલ છે એથી હે દેવાનુપ્રિય ! હુ તમારી આજ્ઞા મેળવીને રવિરેની પાસેથી સ યમ ગ્રહણ કરવા ઈચ્છું છું આ પ્રમાણે ડરીકની વાત સાંભળીને પુંડરીકે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! તમે હમણ મડિત થઈને સ્થવિરાની પાસેથી સ યમ ધારણ કરો નહિ હુ મોટા ઉત્સવ સાથે તમારે રાજયાભિષેક કરવા છે
Page #1007
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी ठी० अ० १९ पुडरोक - कडरीफचरित्रम्
७१९
,
सतिष्ठते = तमर्थं न स्वीकृतवान् केवल मौनमवलम्ब्य स्थितः । ततः सलु पुण्डरीको राजा कण्डरीक भ्रातर द्वितीयमपि तृतीयमपि नरम् ' एवं 'पूर्वोक्तरूपेण अवादीत् - ' जाव तुसिणीए सचिहड' यावत् - तुष्णीकः सविष्ठते । तत' खलु पुण्डरीकः कण्डरीक यदा नो सचाएइ ' नो शोति = न समर्थो भवति बहुभि ' आघवणाहि य ' आख्यापनाभिव - आख्यापनाभि - माज्याविगेविभि राख्यानैः ' पण्णवणाहि य ' प्रतापनाभिश्च ' अह तव ज्येष्ठभ्राताऽस्मि तव हिवं
"
भति, तदेव कथयामि इत्यादि रूपैः प्रज्ञापनवाक्यैः एव 'विष्णवणाहि य' विज्ञानाभिः रितिगृदुनचनावलिरूपर्वाक्य प्रबन्धैः, तथा 'सण्णनणाहि य' सज्ञापनाभिः' मनज्याया महान् कष्टो भवति' इत्यादि स्वाभीप्सितसज्ञा परैर्वाक्यैश्च रणो ण्यम णो आढाइ, णी पजिाणइ, तुसिणीए सचिड, तएण पुडरी राया कडरीयं दोच्चपि तच्चपि एव वयासी जाव तुमिणीए सचिइइ, तण पुडरी कडरीय कुमार जाहे नो सचाई, नहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य ४ ताहे अकामए चेव एवम अणुमन्नित्था जात्र णिक्खमणाभिसेपण अभिसिंह जाब घेराण सीसभिख दलय ) कडरीक कुमारने पुडरीक राजा की इस बात को आदर की दृष्टि से नहीं देखा नही माना और न उसे स्वीकार ही किया केवल चुपचाप ही रहा । पुडरीक राजा ने जब कडरीक कुमार को चुपचाप देखा-तन उसने और तिबारा भी उससे ऐसा ही कहा- परन्तु उमने इस दुबारा बात पर बिलकुल ही ध्यान नही दिया केवल चुपचाप ही रहा । अतः जय पुडरीक राजा कडरीक कुमार को उसके ध्येय से विचलित करने
(तएण से कडरीए पुडरीयस्स रण्गो एयमह णो आढाइ, णो परिजागर, तुसिणीए सचिव, वरण पुडरीए राया कडरीय ढोच्चपि तच्चपि एव वयासी जात्र सिणीए सचिव, वरण पुडरीए कडरीय कुमार जाहे नो सचाई, हि आधणाहि य पणाहि य ४ ताहे जकामए चेन एयमट्ठ अणुमन्नित्या जाव णिक्खमणाभिसे एण अभिसिचर जाव येराण सीसभिक्ख दलयइ )
કડીક કુમારે પુડરીક રાજાની આ વાતનુ સન્માન કર્યું નહિ–માની દ્ધિ અને તેના સ્વીકાર પણ કર્યાં નહિ, ફક્ત તે મૂગા થઇને બેસી જ રહ્યો પુડરીક રાજાએ જ્યારે ડરીક કુમારને મૂગા મૂગે! એસી રહેલા જોયા ત્યારે તેમણે ખીજી વાર અને ત્રીજી વાર પણુ તેને આ પ્રમાણે જ કહ્યું પરંતુ તેણે
આ વાતની સહેજ પણ દરકાર કરી નહી, ફક્ત મૂંગે! થઈને બેસી જ રહ્યો છેવટે જ્યારે પુડરી રાજા `ડરીક કુમારને તેના ધ્યેયથી મક્કમ વિચારથી
Page #1008
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
७२०
मापक 'आयविनर आग्यापयित ४धापतिरोधपितु न शानौतीति पूर्वेण सम्बन्ध', 'ताहे ' तदा अगमप घेर अामा अनिए 'यम' एतम. यम्-अण्डरीकागिलपित बस्यास्पम् , 'अणुमन्निश्या' अमन्यतस्वीकृत चान् , 'जार णिस्यमणामिसेण्ण' यात नि कागामिपेकेण ' स्वीकरणानन्तर निकमणोपयोगि रस्तुजानगृपनीय सरिधि दीक्षामिगे केण अभिपिश्चति, 'जाव थेराण सीमभिन्न दलयर' यार-स्थरिभ्य शिप्यभिक्षाम् अभिषेकानन्तर स पुण्डरीको राजा पण्डरीक शिपिया समुपदेश्य महता समारोहेण सह नलिनी रने उद्याने समायाति, तत्र स्थितेभ्यः स्थपिगम्यः पठघुभ्रातर शिष्यमिता ददाति । अनन्तर सण्डरीरः प्रचमित सन अनगारो जातः । तथा 'एका रसगरिक ' एकादशगरिएकादशसानपान जातः । वत' खलु स्थविरा मग के लिये आरयापनाओं पारा, प्रज्ञापनाओं द्वारा विज्ञापनाओं द्वारा सज्ञापनाओं द्वारा समय नहीं हो सके-तर उन्होंने विना इच्छा के ही कडरीक कुमार को दीक्षा ग्रहण करने रूप अर्थ की स्वीकृति देने के पाद निष्कमणोपयोगी समस्त वस्तुओं को उन्होंने मंगवाया-जय वे आ चुकी-तय उन्होंने उसका सविधि दीक्षाभिषेक से अभिसिंचन किया। अभिपेक के बाद पुडरीक राजा कडरीक को शिथिका में बैठाकर बडे समारोह के साथ नलिनीवन में आये । वहा आकर उन्होंने स्थविरों के लिये अपने लघुभाई को शिष्य की भिक्षा रूप से प्रदान किया। इसके पाद कडरीक (पन्धइए अणगारेजाए ) अवजित होकर अनगोरावस्था सान हो गये। (एगारसगविऊ-तएण थेरा भगवतो अन्नया कयाई पुडरिगिणीओ नयरीओलिणीवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमात, વિચલિત કરવા માટે આપ્યાપનાઓ, પ્રજ્ઞાપનાઓ, વિજ્ઞાપનાએ, સણા નાઓ વડે પણ સમર્થ થઈ શકયા નહિ ત્યારે તેમણે ઈચ્છા ન હોવા છતાએ કડરીક કુમારને દિક્ષાગ્રહણ કરવાની સ્વીકૃતિ આપી દીધી સ્વીકૃતિ આ બાદ તેમણે નિષ્ક્રમણને લગતી બધી વસ્તુઓ મગાવી જયારે વસ્તુ એ આવી ગઈ ત્યારે તેમણે તેનું વિધિસર દીક્ષાભિષેક વડે અભિસિંચન કર્યું અભિષેક કર્યા બાદ પંડરીક રાજા કડરીકને પાલખીમા બેસાડીને ભારે સમારોહની સાથે નલિની વનમાં આવ્યા ત્યાં આવીને તેમણે સ્થવિરો ને પિતાના નાના ભાઈને शिष्यना ३५मा आपसीपी त्या२५ श ( पपइए अणगारे जाए। પ્રજિત થઈને અનગારાવસ્થા સંપન્ન થઈ ગયે
( एगारसगविऊ-तरण थेरा भगवतो अन्नया कयाइ ५ । नय
Page #1009
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
मनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० १९ पुडरीक-कडरीकचरित्रम्
७२१ वतो ऽन्यदा कदाचित् पुण्डरीफिण्या नगर्या नलिनीपना उद्यानात् पतिनिष्का म्यन्ति, प्रतिनिकम्य पहिर्जनपदविहार विहरन्ति ॥ मू० २ ॥
मूलम्-तएणं तस्स कंडरीयस्त अणगारस्स तेहि अतेहि य पंतेहि य जहा सेलागस्स जाव दाहबकतिए यावि विहरइ । तएणं थेग अन्नया कयाड जेणेव पोंडरिगिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, णलिणिवणे समोसढा, पोंडरीए णिग्गए धम्म सुणेई । तएणं पोंडरीए राया धम्म सोच्चा जेणेव कडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कडरीय अणगार वंदइ णमसइ वदित्ता णमंसित्ता कडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सव्वावाहं सरोय पासइ, पासित्ता, जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, थेरे भगवते वंदइ, णमंसइ, बंदित्ता णमसित्ता एव वयासी-अहण्णं भते । कडरीयस्स अणगारस्स अहा पवत्तेहि ओसहभेसज्जेहि जाव तेइच्छं आउटामि, त तुम्भे ण भते । मम जाणसालासु समोसरह। तएण थेरा भगवतो पुंडरीयस्स पडिसुणेति, पडिसुणित्ता, जाव उवसपज्जित्ताणं
पडिणिन्खमित्ता पहिया जणवयविहार विरति) धीरे २ वे ग्यारह अगोंके पाठी भी नगये इसके बाद उन स्थविर भगवतों ने किसी एक दिन पुडरीकिणी नगरी के उम नलिनीवन नामकेउद्यान से विहार किया सो विहार कर वे वाहिर के जनपदों में विचरने लगे ।। १० २।। रीमो णलिणीवणाओ उजाणाश्रो पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमित्ता पडिया जणवयविहार विहरति)
ધીમે ધીમે તેમણે અગિયાર અગોનુ અયન કરી લીધુ ત્યારબાદ તે સ્થવિર ભગવતેએ કઈ એક દિવસે પુંડરીકિ નગરીને તે નલિનીવન નામના ઉપાનથી વિહાર કર્યો, વિહાર કરીને તેઓ બહારના જનપદેમા વિચરણ કરવા લાગ્યા છે. સૂત્ર ૨ |
Page #1010
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२०
-
'आधरितर आग्न्यापयितु ४-धापतिरोधयितु न शमोतीति पूर्वेण मम्बन्धः, 'ताहे ' तदा ' असाम घेर। अपामा ए-अनि पयमा ' एतमथैम्-कण्डरीकामिलपित मनग्यास्पण, 'अणुमन्निस्था' अमन्यतस्वीकृत वान् , 'बार णिस्वमणाभिमेण 'यान निफ्रागामिपकेण' स्त्रीकरणानन्तर निक्रमणोपयोगि पशुजातमुपनीय सविधि दीनामिकेण अमिपिअति, 'जाव थेराण सीममिक्ख दलया' गाव-स्थरिभ्य शिष्यमिक्षाम अभिषेकानन्तर स पुण्डरीको राजा फण्डरीक शिपिकाया समुपदेश्य महना समारोहेण सह नलिनी पने उद्याने समायाति, तन स्थितेभ्यः म्यतिरेभ्यः स्वरधुभ्रातर शिष्यमिक्षा ददाति । अनन्तर स पण्डरीमः प्रबजित सन मनगारो जातः । तथा ' एका रसेविऊ ' एकादशागापित एकादशामानवान जातः । तत' सल स्थविरा भग के लिये आरयापनाओं द्वारा, प्रज्ञापनाओं द्वारा विज्ञापनाओं द्वारा सज्ञापनाओं द्वारा, समर्थ नहीं हो मके-तय उन्होंने विना इच्छा के ही कडरीक कुमार को दीक्षा ग्रहण करने स्प अर्थ की स्वीकृति देने के घाद निष्फमणोपयोगी समस्त वस्तुओं को उन्होंने मंगवाया-जब वे आ चुकी-तय होंने उसका सविधि दीक्षाभिषेक से अभिसिंचन किया। अभिषेक के बाद पुडरीक राजा कडरीक को शिक्षिका में बैठाकर बडे समारोह के साथ नलिनीवन में आये। वहा आकर उन्होंने स्थविरों के लिये अपने लघुभाई को शिष्य की भिक्षा स्प से प्रदान किया। इसके याद कडरीक (पच्चइए अणगारेजाए ) प्रवजित होकर अनगोरावस्था सरन हो गये। ( एगारसगविऊ-तरण थेरा भगवंतो अन्नया कयाइ पुडरिगिणीओ नयरीओलिणीवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमति, વિચલિત કરવા માટે આખ્યાપના, પ્રજ્ઞાપનાઓ, વિજ્ઞાપનાએ, સત્તા નાઓ વડે પણ સમર્થ થઈ શકયા નહિ ત્યારે તેમણે ઈચ્છા ન હોવા છતાએ કડરીક કુમારને દિક્ષાગ્રહણ કરવાની સ્વીકૃતિ આપી દીધી સ્વીકૃતિ આપ્યા બાદ તેમણે નિષ્ક્રમણને લગતી બધી વસ્તુઓ મગાવી જ્યારે વસ્તુ એ આવી ગઈ તમારે તેમણે તેનું વિધિસર દીક્ષાભિષેક વડે અભિસિંચન કર્યું અભિષેક કર્યા બાદ પુડરીક રાજા કડરિકને પાલખીમાં બેસાડીને ભારે સમારોહની સાથે નલિની વનમાં આવ્યા ત્યાં આવીને તેમણે સ્થવિરેને પિતાના નાના ભાઈને शिष्यन। ३५मा मापी दीधे। यारपछी ४३ ( पवइए अणगारे जाए) પ્રવ્રજિત થઈને અનગારાવસ્થા સ પન્ન થઈ ગયે
(एगारसगविऊ-तरणं थेरा भगवतो अन्नया कयाइ पु. ' ' नय
Page #1011
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतयपिणी टी० अ० १९ पुडरीक-फडरीकचरित्रम् ७३
टीका-'तरण तस्स ' इत्यादि । तत खलु तम्य कण्डरीकस्य अनगारस्य तैः । अतेहि य ' अन्तैश्व-बल्लचणकादिभि , ' पतेहि य' मान्तैश्च पर्युपिते., नीरसैः सादपर्जितैर्वा अशनादिभिः यथा शैलकस्य राजस्तथा ऽस्याऽपितथाविवमाहार कुर्वतो यावत्प्रकृतिमकुमारकस्य सुयोपचितस्य शरीरे वेदना प्रादुर्भूता, कीहशीत्साह - उज्ज्वला यावद् दुरधिसया = सोदुमशक्या पुन सुखलेशरहिता कण्डरीकः ‘दाहनकत्तिए ' दाहव्युत्लान्तिक दाहस्य गरीरसन्तापरूपरोगस्य व्युत्क्रान्ति =उत्पत्तिर्यस्यासी दाहव्युत्क्रान्तिक =करचरणादिज्वलनवान् चापि विहरति । तत खलु स्थपिरा धन्यदा कदाचित् यसैव पुण्डरीकिणी नगरी ताव उपागन्छन्ति, उपागत्य, नलिनीवने समवस्ताः । पुण्डरीस्तदर्शना स्वभवना
'तएण तम्स कउरीयस्स' इत्यादि। टीकार्थ-(तएण) इसके पाद (तस्स कडरीयस्त अणगास्स तेहिं अतेहिं पतेहिं य जहासेलगस्स जाब दारवक्कतिए यावि विहरइ) उस कडरीक अनगारके बल्लचणक आदि रूप अन्ताहार करनेसे तथा पर्युपित अथवा नी रस आहाररूप प्रान्तोहार करनेसे शैलक राजर्षिकी तरह प्रकृतिसे सुकुमार सुखोपचित होने के कारण शरीर में वेदना उत्पन्न हो गई । जो उज्ज्वला एव सोढुमशक्या थी । इस तरह शरीर सन्तापरूप रोग की उत्पति से वे कडरीक अनगार कर चरण आदि में जलन होने के कारण सुख के लेश से भी वर्जित हो गये। (हाण थेग अन्नया कयाह जेणेव पोडरिगिणी तेणेव उवागच्छह, उवागघिउत्ता णलिणिवणे समोसढा पोडरीए
तपण तस्म कडरीयास इत्यादि
सायं-(तएण) त्या२५४ी, (तस्स कडरीयस्स आगगारस्स तेहि अतेहिं पतेहि य जहा सेलगस्स नाव दाहवक्कतिए यानि विहरड)
તે કંડરીક અનગારના શરીરમાં લલચણક વગેરે રૂપ અ તાહાર કરવાથી તેમજ પર્યત અથવા નીરસ આહાર રૂપ પ્રાન્તાહાર કરવાથી રિવર રાજર્વિની જેમ પ્રકૃતિથી સુકુમાર અને સુચિત હવા બદલ વેદના ત્પન્ન થઈ ગઈ તે વેદના અત્યંત ઉગ્ર અને અસહ્ય હતી આ પ્રમાણે શરીર સતાપ રૂપ રોગની ઉપત્તિથી તે કડક અનગાર હાથ પગમાં બળતરાને લીધે થોડી સુખશાતિ પણ મેળવી શક્યા નહિ
(तएण थेरा अन्नया कयाइ जेणेव पोडरिगिणी तेणेव उवागन्छइ, उवाग च्छित्ता णलिणिवणे ममोसहा पोंडरीए निगाए धम्म मुणेड, तएण पौडरीए राया
Page #1012
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१२
morial विहरति। तारणं पुंडरीग गया जहा मडुप सेलागस्स आव वलियसरीरे जाए । ताणं थेरा भगतो पोंडरीय राय पुच्छति, पुच्छित्ता पहिया जणवयविहारं विहरति । तएण से कंडरीए ताओ रोयायंकाओ विप्पमुक्के समाणे तंसि मणुष्णसि असगपाणखाइमसाहमसि मुच्छिण गिद्धे गढिए अजोबवणे णो संचाएइ पोंडरीय राय आपुच्छित्ता पहिया अन्भुज्जएण जण क्यविहार विहरित्तए । तत्थेव ओसणे जाए । तएण से पोंड रीए इमीसे कहाए लट्टे समाणे पहाए. अतेउरपरियालसंप रिखुडे राया जेणेव कडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवा गच्छित्ता, कडरीयं अणगार तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिण करेइ करित्ता वदइ णमसइ वदित्ता णमंसित्ता, एवं व्याप्तीधन्नेसि णं तुम देवाणुप्पिया | तब माणुस्सए जम्मजीवियफले जे णं तुम रज्ज व जाव अतेउर चावि छड्डयित्ता जाब विगा वइत्ता जाव पवइए । अहणं अहपणे अकय पुन्नं रज्जे जान अन्तेउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए जाव अज्झा ववन्ने नो सवाएमि जाव पवइत्तए । त धन्नेसि णे तुम देवा शुप्पिया । जाव जीवियफले । तएणं से कंडरीए अणगार पुड रीयस्स एयमहणो आढाइ जाव सचिटइ । तएणं कटरीए पोंडएिणं दोच्चपि तच्चपि एव वुत्ते समाणे अकामए अवस्सवसे लज्जोए गारवेणय पोंडरीय राय आपुच्छइ, आपुच्छित्ता थराह सद्धि बहिया जणवयविहारं विहरइ ।। सू०३॥
Page #1013
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगर मृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कडरीकचरित्रम्
હરેશ
6
अनगारस्य ' अहापत्रत्तेहिं ' यथा प्रवृत्ते. =मासुनैरित्यर्थः ' ओसहमे सज्जेहि ' औपभैषज्यै: 'जावतेइच्छ' यावद चिकित्साम् ' आउहामि' आवर्तयामि = कारयामि, ' त' तत् = तस्मात् कारणात् यूय खलु हे भाव ! मम पानशालासु समत्रसरत आगच्छत । तत' ग्वलु स्थविरा भगवन्त पुण्डरीकस्य एतमर्थं प्रतिशृण्वन्ति = एतछचन स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य = स्वीकृत्य यावत् - उपसपद्य = यानशाला समाश्रित्य विहरति । ततः खलु पुण्डरीको राजा जहा मडुए सेलगस्स जात्र वलियसीरे जाए' यथा मण्डूकः शौलकस्य यावद् लिक्शरीरो जातः = कडरीयस्स अणगारस्स अरापयत्तर्हि ओसह मेसज्जेहिं जाव तेइच्छ आउट्ठामि त तुम्भे णं भते । मम जाणसालासु समोसरह-तएण थेरा भगवतो पुडरीयस्स पडिसुणेति, पडिणित्ता जाव उपसपचित्ताण विहरति ) देखकर जहा स्थविर भगवत विराजमान थे वहा पर वे आये वहां आकर उन्हों ने स्थविर भगवतों को बदना एव नमस्कार किया - 1 वदना नमस्कार करके फिर उन्हों ने उनसे इस प्रकार कहा हे भदत ! मैकडरीक अनगार की यथा प्रवृत्त - प्रातुक-औषध, भवज्यों द्वारा यावत् चिकित्सा करवाऊँगा अतः हे भदत ! आपलोग मेरी यानशाला 'यहा से विहार कर पधारें वही ठहरें । इस प्रकार पुडरीक राजा की प्रार्थना को उन स्थविर भगवतो ने स्वीकार कर लिया और वहा से विहार कर वे पुडरीक राजा की जानशाला में आकर ठहर गये । (तण्ण पुडरीए राया जहामडुए सेलगस्स जाव बलियसरीरे जाए तएण थेरा
में
गारस्स अहापत्तेर्हि ओसहभेसज्जेहिं जाव तेइच्छ आउट्ठामि व तुम्भेण भते मम जाणसालासु समोसरह - तएण थेरा भगवतो पुडरीयस्म पडिसुति, पडि सुणित्ता जा उवसरज्जित्ताण विहरति )
જોઈને તે જ્યા સ્થવિર ભગવત વિરાજમાન હતા ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેમણે કર ભગવાને વદન અને નમસ્કાર કર્યો ૧૪ન અને નમસ્કાર કરીને તેમણે તેમને આ પ્રમાણે વિનતી કરી કે હે ભદન્ત ! હું ४ डरीड अनगारनी यथाप्रवृत्त - आसुड - भोपध-लैपन्न्यो ( हवाओ ) वडे यावत् ચિકિત્સા ( લાજ ) કરવા માગુ છુ એટલા માટે હું ભઇન્ત ! તમે સૌ મહીથી વિહાર કરીને મારી યાનશાળામા આવે અને ત્યાજ કાએ આ પ્રમાણે પુડરીક રાજાની ત્રનતીને તે સ્થવિર ભગવતેએ સ્વીકાર કરી લીધા અને ત્યાથી વિષુ ૨ કરીને તેએ પુ ડરીક રાજાની યાનશાળામા આવીન રોકાઇ ગયા (तरण पुडरीए राया जहा मडुए सेकगरस जान लियसरीरे जाए तएण घेरा
Page #1014
--------------------------------------------------------------------------
________________
૯૨૫
वाताधा
निर्गत तत्र धर्म शृणोति । तव पुण्डरीको राजा धर्म मात्रै कण्डरीकोsनगारस्तार उपागच्छति उपागत्य दण्डरीक पन्दते नमस्यति, दिनमथिला पण्डरीकस्य अनगारस्य शरीर 'साह 1 सव्वाबाध= पीडासहित ' सरोय ' सरोग= रोगमन्ति 'पागा ' पश्यति यत्र स्थविरा भगवतस्तन उपागच्छति, उपागत्य स्थविर भगवतो वन्दन नमस्यति वन्दित्त्वा नमस्थिया मनादीत् -' अहग्ण भते ।' अह । कण्डरीकस्य निग्गए धम्म सुणेह, तरण पौहरीण या धम्म सोचा जेणेत्र कडरीए अणगारे तेणेत्र उनागच्छ उद्यागन्छित्ता कडरीय अणगार वदह नम सs, वदिता नमसित्ता कइरीयस्स अणगारस्न सरीरंग सव्वावाह सरोय पासह) किसी एक समय वे स्थविर पुढरीकिणी नगरी में बिहार करते हुए आये । वह आकर वे नलिनीचन नाम के उत्थान में ठहर गये | आगमन सुनकर पुडरीक राजा उन को बदना व उनसे धर्मश्र वण करने की भावना से अपने राजमहल से निकलकर उस नलिनीवन उद्यान में आये स्थविरों ने उन्हें धर्म का उपदेश दिया। धर्म का उप देश श्रवण कर फिर वे जहा कडरीक अनगार थे उनके पास आये । वहा आकर उन्हों ने उनको वदना की नमस्कार किया | वदना नमस्कार करके उन्होंने कडरीक अनगारके शरीर को पीडासहित एव रोगसरित देखा - (पासित्ता जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छद्द, उचागच्छित्ता थेरे भगवते वदइ णमसइ, वदित्ता णमसित्ता एव वयासी- अण्ण भते ! धम्म सोच्चा जेणेत्र कडरीए अणगारे तेणेत्र उबागच्छछ, उवागच्छित्ता कडरीय अणगार चदइ नमसर, दित्ता नमसित्ता कडरीयस्स अणगारस्स सरीरंग सव्वा बाह सरोय पास )
}
કોઇ એક વખતે તે સ્થવિર પુંડરીકણી નગરીમ વિહાર કરતા કરતા આવ્ય ત્યા આવીને તેએ નલિનીન નામના ઉદ્યાનમારાકાયા તેમનુ આગમન સાભળીને પુંડરીક રાજા તેમને વદન કરવા માટે તમેં તેમની પાસેથી ધર્મો પદેશ સાભળવા માટે પેાતાના રાજમહેલથી નીકળીને તે નિલનીયન ઉદ્યાનમા આવ્યા વિરાએ તેમને ધર્મોપદેશ આપ્યા, ધર્મોપદેશ સાભળીને તેઓ જ્યા કડરીક અનગાર હતા તેમની પાસે ગયા ત્યા જઈને તેમણે તેમને બદન અને નમસ્કાર કર્યો વદન અને નમસ્કાર કરીને તેમણે કડરીક અનગારના શરીરને પીડા સહિત અને રેગયુક્ત જોયુ
( पासित्ता जेणेव येरा भगवतो तेणेव उवागच्छ, उनागच्छित्ता थेरे भग वते वद, मस, वदित्ता णमसित्ता एव त्रयासी - अहण भते '
अण
!
1
Page #1015
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कडरीकचरित्रम् ____ ७५ अनगारस्य 'अहापबत्तेहिं ' यथा प्रवृत्तः मासुरित्यर्थः 'ओसहभेसज्जेहि ' औप
भैषज्यैः 'जावतेडच्छ' यावद चिकित्माम् ‘आउटामि' आवर्तयामि कारयामि, 'त' तत्-तस्मान् कारणात् यूय ग्खलु हे भात! मम यानशालासु समवसरत= आगच्छत । ततः खलु स्थपिरा भगवन्त पुण्डरीकस्य एतमथं प्रविशन्ति एत इचन स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य-स्वीकृत्य यावत्-उपसपद्य-यानशाला समाश्रित्य विहरति । ततः खल्ल पुण्डरीको राजा 'जहा मडुए सेल्गस्स जाव बलियसगैरे जाए' यथा मण्डः शौलकर याद् लिफशरीरो जातः = कडरीयस्स अणगारस्स अहापपत्तेहिं ओसहभेसज्जेहिं जाय तेहच्छ आउटामि-त तुम्भे ण भते । मम जाणसालासु समोसरह-तण्ण थेरा भगवतो पुडरीयस्म पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जाव उपसपजित्ताण विहरति ) देखकर जहा स्थविर भगवत विराजमान थे-वहा पर वे आये वहा आकर उन्हों ने स्थविर भगवतों को बदना एव नमस्कार किया। वदना नमस्कार करके फिर उन्हों ने उनसे इस प्रकार कहा हे भदत ! मैं कडरीक अनगार की यया प्रवृत्त-मासुक-औपध, भैपज्यों द्वारा यावत् चिकित्सा करवाऊंगा-अतः हे भदत ! आपलोग मेरी यानशाला में यहा से विहार कर पधारें-वहीं ठहरें- इस प्रकार पुडरीक राजा की प्रार्थना को उन स्थविर भगवतो ने स्वीकार कर लिया-और वहा से विहार कर वे पुडरीक राजा की पानशाला में आकर ठहर गये । (तपण पुडरीए राया जहामडए सेलगस्स जाव बलियसरीरे जाए तएण थेरा गारस्स महापवत्तेहिं ओसहभेसज्जेहिं जाव तेदच्छ आउट्ठामि त तुम्भेण भते मम जाणसालामु समोसरह-तएण थेरा भगातो पुडरीयस्म पडिमुणेति, पडि सुणित्ता जान उपस रज्जित्ताण विहरति)
જોઈને તેઓ જ્યા સ્થવિર ભગવત વિરાજમાન હતા ત્યા આવ્યા ત્યાં આવીને તેમણે વિર ભગવતોને વદન અને નમસ્કાર કર્યા વદન અને નમસ્કાર કરીને તેમણે તેમને આ પ્રમાણે વિન તી કરી કે હે ભદન્ત ! હું કડરીક અનગારની યથાપ્રવૃત્ત-કામુક-ઔષધ-દૈવ ( દવાઓ) વડે યાવત ચિકિત્સા (ઈલાજ) કરવા માગુ છુ એટલા માટે હે ભદન્ત ! તમે સૌ અહીથી વિહાર કરીને મારી માનશાળામાં આવે અને ત્યાજ રકાએ આ પ્રમાણે પુડરી. રાજાની વિન તને તે સ્થવિર ભગવતેએ સ્વીકાર કરી લીધે અને ત્યાથી વિહાર કરીને તેઓ પુડરીક રાજાની યાનશાળામાં આવીને રોકાઈ ગયા (तएण पुडरीए राया जहा मडुए सेलगस्स जार बलियसरीरे जाए तएण घेरा
Page #1016
--------------------------------------------------------------------------
________________
૯૧૫
धर्मका
निर्गत तत्र गत्वा धर्ममृगोति । तन तु पुण्डरीको राजा धर्म मा यत्रैव कण्डरी कोनगारस्तर उपागच्छति उपागत्य इन्दते नमस्यति, पन्दिता नमस्थिता पण्डरीकस्य अनगारस्य शरीर साह सव्यावा= पीडासहित ' सरोप ' सरोग=रोगमति 'पागा ' पश्यति दृष्ट्रा यत्र स्थविरा भगवतस्तत्र उपागच्छति, उपागत्य स्थानिशा भगत नमस्पति दिला नमस्थित्वा मनादीत् - ' अग्भते ।' अह सतु हे मन् ! कण्डरीकस्य निग्गण धम्म सुणेs, are also eat aम्म सोचा जेणेव करीत अणगारे तेणेन उपागच्छ उद्यागच्छित्ता कडरीय अणगार वदह नम मइ, वदिता नमसित्ता कटरीयस्त अणगारस्म सरीरंग सव्वावाह सरोय पासह) किसी एक समय वे स्थविर पुडरीकिणी नगरी में बिहार करते हुए आये। यहा आकर वे नलिनीवन नाम के उद्यान में ठहर गये | आगमन सुनकर पुउरीक राजा उन को बदना एवं उनसे धर्मश्र वण करने की भावना से अपने राजमहल से निकलकर उस नलिनीवन उद्यान में आये- स्थविरों ने उन्हें धर्म का उपदेश दिया। धर्म का उप देश श्रवण कर फिर वे जहा कडरीक अनगार थे उनके पास आये । वहा आकर उन्होंने उनको चढना की नमस्कार किया | वदना नमस्कार करके उन्होंने कडरीक अनगारके शरीर को पीडासहित एवं रोगसहित देखा-(पासित्ता जेणेव येरा भगवतो तेणेव उवागच्छ, उबागच्छिता थेरे भगवते वदइ णमसइ, वदित्ता णमसित्ता एव वयासी- अण्ण भते । धम्म सोच्चा जेणेत्र कडरीए अणगारे तेणेत्र उत्रागच्छ, उवागच्छित्ता कडरीय अणगार व नमस, दित्ता नमसित्ता कडरीयस्स अणगारस्स सरीरंग सा बाह सरोय पासइ)
કઇ એક વખતે તે સ્થવિર પુંડરીકણી નગરીમ વિહાર કરતા કરતા આવ્યા ત્યા આવીને તેએ નલિનીયન નામના ઉદ્યાનમા રાકાયા તેમનુ આગમને સાભળીને પુંડરીક રાજા તેમને વદન કરવા માટે તમેં તેમની પાસેથી ધર્મ પદેશ સાભળવા માટે પેાતાના રાજમહેલથી નીકળીને તે નલિનીવન ઉદ્યાનમા આવ્યા સ્થવિરાએ તેમને ધર્મોપદેશ આપ્યા, ધર્મોપદેશ સાભળીને તે જ્યા ૰ડરીક અનગાર હતા તેમની પાસે ગયા ત્યા જઈને તેમણે તેમને વદન અને નમસ્કાર કર્યો ૧૬ન અને નમસ્કાર કરીને તેમણે કડરીક અનગારના શરીરને પીડા સહિત અને રાગયુક્ત જોયુ
(पासिता जेणेन येरा भगवतो तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता थेरे भग ते वद, मसर, वदित्ता णमसित्ता एव वयासी - ब्रहण भते ' î
अग
#
$
Page #1017
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभंगारधामृतवपिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कडरीकचरित्रम् - ७३५ अनगारस्य 'अहापयत्तेहिं ' यथा प्रवृत्ते. प्रासुरै रित्यर्थः 'ओसहभेसज्जेहि' औप
भैपज्यैः 'जावतेडन्छ' यावत् चिकित्माम् ‘आउटामि' आवर्तयामिकारयामि, 'त' तत्-तस्मात् कारणात् यूय ग्वल हे भदन्त ! मम सनशालासु समवसरत= आगच्छत । ततः खलु स्थपिरा भगवन्त पुण्डरीकस्य एतमथ पति-पृश्यन्ति= एत
चन स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य यावत्-उपसपद्य-यानशाला समाश्रित्य विहरति । ततः खलु पुण्डरीको राजा 'जहा मदुए सेलगस्स जाव बलियसरीरे जाए' यथा मण्डकः शौलकस्य यानद् पलिकशरीरो जातः = कडरीयस्स अणगारस्स अहापरत्तेहिं ओसहभेसज्जेहिं जाच तेइच्छ आउट्ठामि-त तुम्भे ण भते । मम जाणसालास्तु समोसरह-तएण थेरा भगवतो पुडरीयस्स पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जाव उपसपजित्ताण विहरति ) देखकर जहा स्थविर भगवत विराजमान ये-यहा पर वे आये वहा आकर उन्हों ने स्थविर भगवतों को बदना एव नमस्कार कियावदना नमस्कार करके फिर उन्हों ने उनसे इस प्रकार कहा हे भदत! मैं कडरीक अनगार की यया प्रवृत्त-प्रासुक-औपध, भैपज्यों द्वारा यावत् चिकित्सा करवाऊँगा-अतः हे भदत ! आपलोग मेरी यानशाला में यहा से विहार कर पधारें-वही ठहरें। इस प्रकार पुडरीक राजा की प्रार्थना को उन स्थविर भगवतो ने स्वीकार कर लिया और वहा से विहार कर वे पुडरीक राजा की पानशाला में आकर ठहर गये। (तण्ण पुडरीए राया जहामडए सेलगस्स जाव चलियसरीरे जाए तएण थेरा गारस्स अहापवत्तेहिं ओसहभेसज्जेहिं जाव तेइच्छ आउट्ठामि व तुम्भेण भते मम जाणसालासु समोसरह-तएण थेरा भगवतो पुडरीयस्म पडिसुणेति, पडि सुणित्ता जाव उवसज्जित्ताण विहरति)
જઈને તેઓ જ્યા સ્થવિર ભગવત વિરાજમાન હતા ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેમણે વિર ભગવતેને વદન અને નમસ્કાર કર્યા વદન અને નમસ્કાર કરીને તેમણે તેમને આ પ્રમાણે વિનતી કરી કે હે ભદન્તહું ક ડરીક અનગારની યથાપ્રવૃત્ત-પ્રાસુક-ઔષધ–ૌષ ( દવાઓ) વડે યાવત ચિકિત્સા (લાજ) કરવા માગુ છુ એટલા માટે હે ભદન્ત ! તમે સૌ બહીથા વિહાર કરીને મારી યાનશાળામાં આવે અને ત્યાજ રકાઓ આ પ્રમાણે પુંડરીક રાજાની વિન તને તે સ્થવિર ભગવતોએ સ્વીકાર કરી લીધે અને ત્યાથી વિહ૨ કરીને તેઓ પુડરીક રાજાની યાનશાળામાં આવીને રેકાઈ ગયા (तएण पुडरीए राया जहा मडुए सेकगरस जान लियसरीरे जाए तएण थेरा
Page #1018
--------------------------------------------------------------------------
________________
यथा मारको रागा शौलाग्य रान मायभाग्यविकिरमामकारवर, वधेच पुण्डरीकोऽपि फण्डरीरस्थानगारस्य यथा योग्यगैपयमेषज्यैमिकिसा कारयतिस्म या कनियर्टिन मण्डरीको पस्तिशरीर निरामयो मातः । ततः खलु स्थविरा भगान्त. पुण्डरीक राम17 मापूनमन्ति, आपट्य परिर्जनपदवि हार विहरन्ति । तत खलु स काडरीरुः तम्मान 'गेगायकाओ' रोगाकाद विषमुकः सन् तस्मिन् 'मनुग्गमि' मनोमणीये अशनवानवायसाये चतु पिये आहारे 'मुच्छिए' भूमितामू प्राप्त आमका यर्थः, 'गिद्धे 'गृदा आकाइझावान् , 'गदिए ' ग्रन्धित रसासाद निवदमानस., ' अमोरचण्णे' भगवतो पोंडरीय राय पुति, पुत्तिा यरिया जणधविहार विह रति, ताण से कडरी ताओ रोयायकाओ विष्पमुक्के समाणे तास मणुपणसि असणपाणपादमसाइममि मुछि गिद्ध गढि अझोववाणे जो सचाहए पोटरीय राय आपुत्तिा परियो अन्भुजाण जणक्य विहार विपरित्तण) इसके बाद महक ने जिस प्रकार शैलकराजपि की प्रामुक औषध, भैपज्यों द्वारा चिकित्मा करवाई थी उसी प्रकार पुडरीक राजा ने भो कडरीक अनगार की यथायोग्य औषध भैषज्यों द्वारा चिकित्सा करवाई-इस से वे पलितशरीर निरोग रो गये। इसके अन न्तर उन स्थविर भगवतो ने वश से विहार करने के लिये पुडरीक राजा से पूरा- याद में ये वा से बाहिर जनपदों में विहार कर गये। कड रीक अनगार कि जो रोगातकसे निर्मुक्त हो चुके थे मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य, एव स्वाधरूप चतुर्विध आहार में इतने अधिक आसक्त हो गय भगवती पौडरीय राय पुन्छति, पुच्छित्ता पहिया जणवयविहार विहरति, तएण से कडरीए ताओ रोयायकाओ पिप्पमुक्के समाणे तसि मणुष्णसि-असणपाण खाइमसाइमसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अझोवरणे णो सचाएइ पोंडरीय राय आपुच्छित्ता बहिया अब्भुज्जएण जणश्यविहार विहरित्तए)
ત્યારપછી મ હૂકે જેમ શૈલક રાજર્ષિની પ્રાસક, ઔષધ અને ભેષજપે વડે ચિકિત્સા કરાવડાવી હતી તેમજ ૫ ડરીક રાજાએ પણ કડરીક અનગારા ઉચિત ઔષધ-ભેષ (દવા) વડે ચિકિત્સા કરાવડાવી તેથી તેઓ નિરોગ-સબળ બની ગયા ત્યારપછી તે સ્થવિર ભગવતીએ ત્યાથી લઈ કરવા માટે પડરીક રાજાને પૂછયું ત્યારબાદ તેઓ બહારના જનપદમાં વિહાર કરી ગયા ગાત ગાથી નિમુક્ત થઈ ગયેલા કડરીક અનગાર તે મને, અશન, પાન, ખાદ્ય અને સવારૂપ ચાર જાતના આહારમાં એટલા બધા આસક્ત થઈ ગયા-મૃદ્ધ બની ગયા, ગ્રથિત-રસના આસ્વાદનમા નિબદ્ધ માન
Page #1019
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक - फडरीकवरित्रम्
७२७
अयुपपन्नः = सर्वधा आसक्तः सन् नो शक्नोति पुण्डरोके राजानमापृच्छय' पहिया ' बहि ' अभुज्जएण ' अभ्युद्यतेन = उग्रविहारेण खलु विहर्तुम्, किन्तु 'तत्येव ' तत्रैव = यानशालायामेव 'ओसो ' अवसन्नः, शिथि साधुसमाचारवान् जातः । तत खलु स पुण्डरीको राजा 'इमी से कहाए' अस्या, कथायाः कण्डरीकोऽनगारोSवसन्नो जात: ' इति वृत्तान्तस्य लन्धार्थः सन् स्नातः ' अतेउरपरियालसपरिबुडे' अन्तःपुरपरिवारसपरिटतः यचैव कण्डरीकोऽनगारस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य, कण्डरीक त्रिः कृल आदक्षिण प्रदक्षिण करोति, कृत्वा, वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्त्विामवादीत् - धन्योऽसि खलु ल हे देवानुप्रिय । यतस्तम् ' कपडे ' कृतार्थः = विडितजीवनकृत्य कपपुन्ने' कृतपुण्यः = विनिमयनित नेपः । पुनः सुद्धे ' सुलग्य= सुष्ठुतया प्राप्त खलु हे देवानुप्रिय ! 'वत्र' या 'माणुस्सए मानुष्यक = मनुष्यसम्बन्धि, 'जम्मजीवियफळे ' जन्मजीवितफलम् - जन्म
,
6
'
,
-
-गृद्ध बन गये ग्रथित - रसास्वाद मे निगद्धमानसवाले हो गये, और अध्युपपन्न बन गये - अर्थात् सर्वथा आसक्त बन गये कि वहां से वाहिर उग्र बिहार करने के लिये उनका मन ही नही हुआ-अतः उन्हो ने पुडरीक नरेश से विहार करने की कोई बात ही नही पूछी किन्तु ( तत्थेव - ओसन्ने जाए ) वही पर वे रहते २ शिथिल साधुसमाचारीवाले न गये । (तरण से पोंडरीए इमीसे कहाए लट्ठे समाणे पहाए अं उरपरियालस परिबुडे राया जेणेव कडरीत अणगारे तेणेव उवागच्छह, उचागच्छत्ता कडरीय अणगार सिक्खुत्ती आयाहिण पयाहिण करेश, करिता वद, मह, वदित्ता णमसित्ता एव वयासी - धन्नेसिंण तुम देवापिया | कत्थे कयपुन्ने कलक्खणे मुलद्रेण देवाणुप्पिया। तब माणुस्सजन्मजीवियफले जेण तुम रज्ज च जाव अउर चावि छडइत्ता એકદમ આસક્ત તૈય ર્ થયા
સવાળા થઇ ગયા અને અણુપપન બની ગયા એટલે કે તે થઇ ગયા કે ત્યાી બહાર ઉગ્ન વિહાર કરવા માટે પણ તે નહિ એથી તેમણે પુડરીક રાજ્યને વિહાર કરવાની ખાખતમા કઈજ પૂછ્યુ नहि ] ( तत्थेव ओसन्ने जाए ) त्या ता रहेता तेथे। शिथिल साधु સમાચારી થઇ ગયા એટલે કે સાધુઓના આચારમા તેએ શિથિન થઇ ગયા
(तरण से पोंडरीए इमीसे कहाए लद्धडे समाणे पहाए अतेउरपरियालसपरिबुडेराया जेणेन कडरीए अणगारे तेणे उत्रागच्छड, उवागच्छित्ता कडरीय अणगार सिक्खुतो आयाहिण पाहण करे, करिता पद णमस, बदित्ता णमसिता एव वयासी-जन्नेसि ण तुम देवशुपिया ! कयत्ये कयपुन्ने कलक्खणे
Page #1020
--------------------------------------------------------------------------
________________
Mand यथा मण्डको रागा शीलकम्य राजर्षे प्रामुराम भगाउपशिकिग्मामकारयन्, तधेर पुण्डरीकोऽपि पण्डरीरस्थानगारस्य यया योग्य पथमेवग्यचिकिमा कारयतिस्म यापन कतिपयर्टिन फण्डरीको यन्तिनगर-निरामयो मातः । ततः । खलु स्थविरा भगन्त. पुण्डरीक रामा7 भान्ति , आपृच्छय बहिर्जनपदवि हार विहरन्ति । तत ग्बल स कण्डरीका तम्मा 'रोगायकाओ' रोगातकाद विषमुक्तः सन् तस्मिन् 'मनुग्गमि' मनोशे-मणीये जशनपानवायस्वाये चतु विधे आहारे 'मुच्छिए' मूति: मूत्री माप्त. आसक इयर्थः, 'गिद्धे 'गृदा आकाक्षावान् , 'गदिए ' ग्रन्थिता रसासाटे निदमानसः, ' अन्योववष्णे' भगवतो पोटरीय राय पुनति, पुत्तिा पहिया जणवयविरार विह रति, तरण से कढरीए ताओ रोयायकाओ विप्पमुक्के समाणे तास मणुष्णसि असणपाणपाहमसाइमसि मुछिए गिद्ध गदिए अल्झोववणे जो सचाइए पोटरीय राय आपुत्तिा परियो अब्भुजाण जणवय विहार विपरित्त) इसके बाद महक ने जिस प्रकार शैलकराजपि की प्राप्सुक औपध, भैपज्यों द्वारा चिकित्सा करवाई थी उसी प्रकार पुडरीक राजा ने भो कडरीक अनगार की यथायोग्य औषध भैषज्यों द्वारा चिकित्सा करवाई-इस से वे पलितशरीर निरोग हो गये। इसके अन न्तर उन स्थविर भगवतो ने वहा से विहार करने के लिये पुडरीक राजा से पूरा- याद मे वे वश से वाहिर जनपदो में विहार कर गये । कड रीक अनगार कि जो रोगातकसे निर्मुक्त हो चुके थे मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य, एव स्वाधरूप चतुर्विध आहार में इतने अधिक आसक्त हो गय भगवतो पौडरीय राय पुच्छति, पुच्छित्ता पहिया जणवयविहार विहरति, तएण से कडरीए ताओ रोयायकाओ विप्पमुक्के समाणे तसि मणुष्णसि-असणपाण खाइमसाइमसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोवषण्णे णो सचाएइ पौडरीय राय आपुच्छित्ता बहिया अब्भुज्जएण जणवयविहार विहरित्तए)
ત્યારપછી મ ડૂકે જેમ શૈલક રાજર્ષિની પ્રાસક, ઔષધ અને ભૈષજયા વડે ચિકિત્સા કરાવડાવી હતી તેમજ ૫ ડરીક રાજાએ પણ કડરીક અનગરના ઉચિત ઔષધ-ભષ ( દવાઓ ) વડે ચિકિત્સા કરાવડાવી તેથી તેઓ નિરોગ-સબળ બની ગયા ત્યારપછી તે રવિર ભગવતેએ ત્યાથી વિર્ષી* કરવા માટે પડરીક રાજાને પૂછયું ત્યારબાદ તેઓ બહારના જનપદોમાં વિલી કરી ગયા ગાત ગીથી નિમુક્ત થઈ ગયેલા કડરીક અનગાર તે મને અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્યરૂપ ચાર જાતના આહારમાં એટલા બધા આસક્ત થઈ ગયા-મૃદ્ધ બની ગયા, ગણિત-રસના આસ્વાદનમા નિબ૬ માન
Page #1021
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०१९ पुण्डरीक-कडरीकचरित्रम् कारणात् खलु प्रवीमि यन् धन्योऽमि स हे देनानुप्रिय ! ' जार मुलब्ध जन्म जीवितफलम् , ताः खलु स कण्डरीकोऽनगार' पुण्डरीकस्य एतमर्थ-विहाराभि पायकमर्थ, नो आठियते यावत् तृप्णीकः सतिप्ठते मौनमवलम्व्य तिष्ठति । ततः खलु कण्डरीकः पुण्डरीकेण द्वितीयमपि तृतीयमपि-द्विनिपारम् , एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण, उक्तः सन् ' अफामए ' अकामक'कामनारहितः 'अवत्सवसे ' अपदेवाणुप्पिया। जाव जीवियफले तरण से कडरीए अणगारे पुडरीयस्स ण्यम णो आढाइ जाब सचिट्ठइ, तण्ण कडरीर पोडरीएण दोच्चपि तच्चपि एवं युत्ते समाणे अकामए अवम्मवसे लजाए गारवेण य पोंड रीय आपुच्छइ, आपुच्छित्ता थेरेहिं सद्धिं यरिया जणवयविहार विहरइ) मैं अधन्य हैं अकृतपुण्य हैं। जो राज्य मे यावत् अन्तःपुर में तथा मनुष्य सरधी कामभोगों में मठित यावत् अध्युपपन्न बना हुआ है। हमीलिये प्रव्रज्या ग्रहण करने में असमर्थ हो रहा है। इसी कारण से मैं यह कर रहा है कि तुम धन्य हो, हे देवानुप्रिय । तुमने ही जन्म और जीवन का फल जो प्रव्रज्या का ग्रहण करना है-वह अच्छी तरह पा लिया है। पुडरीक राजा की विहार करने के अभिप्रायवाली इस बात को सुनकर कडरीक अनगार ने उस पर कुलम्यान नहीं दिया-उसे आदर की दृष्टि से नहीं देखा-किन्तु वे उसे सुनकर भी चुपचाप बैठ रहे। कडगेक अनगार की इस स्थिति को देखकर पुडरीक ने दूसरी पार और तीसरी तुम देवाणुप्पिया। जाव जीवियफले तएण से कडरीए अगगारे पुडरीयम्स एयमह जो आहाइ, जार सचिट्टा, तएण कडरीए पोंडरीएण दोच्चपि तच्चपि एसवुत्ते समाणे अकामए अस्मबसे लज्जाए गारवेण य पोडरीय राय आपुन्छ, आपुच्छित्ता थेरेहिं सद्धि वहिया जणश्यनिहार विहरट)
હુ તે અધન્ય અને અમૃતપુ છુ કેમકે હુ તે રાજયમા યાવત રણવાસમા તેમજ મનુષ્યભવના કામોમાં મૂછિત થાવત્ અધ્યપપન્ન બની રહ્યો છું, એટલા માટે જ પ્રવજન ગ્રહણ કરવામાં અસમર્થ થઈ રહ્યો છું એથી જ હુ આ કહી રહ્યો છું કે તમે ખરેખર ધન્ય છે કે દેવાનુપ્રિય! તમે જ જન્મ અને જીવનનું ફળ કે જે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવા રૂપ છે તે સારી રીતે મેળવી લીધુ છે તેઓ ત્યાથી વિહાર કરી જાય તે આશયથી કહેવા તે પુરી ના વચને સાભળીને કીક અનગારે તેની કશી જ દરકાર કરી નહિ તે વાતને તેમણે સન્માનની દષ્ટિએ સ્વીકારી નહિ આ બધુ સાભળીને પણ તેઓ ત્યાજ મૂગા થઈને બેસી જ રહ્ય કડરીક અનગારની આ સ્થિતિ જોઈને
Page #1022
--------------------------------------------------------------------------
________________
७-८
= जन्मजीवि
मानो उसत्तिः, जम्=ि नीचनम् =माणधारणम्, तथा फलम् = तफलम् = पवज्याग्रहमेव मनुष्यजन्मसारः, तदा स्पष्टयति-या स्लु राज्य व यादन्तःपुरच छता' उपलापता 'गो' गोष्यतिरस्कृत्य यावत् मनजितः अह तु अपन्यः अक्रतपुण्यो राज्यं यावत् अन्तः पुरे च मानुष्यकेषु च याममोगेषु मृच्छितो यावत् अध्युपपनो नो क्रोमि यावत् मत्रजितुम् = राज्येऽन्त = पुरे मानुष्यकेषु च कामभोगेषु निमग्न मानसोsह न शक्कोमि महज्या ग्रहीतुम् इति भावः । ' व ' तत् = तस्मात्
वातावकमा
विगोहत्ता जाव पत्र ) जय पुटरीफ राजा को "डरीक अनगार अवसन्न हो गये है " यह समाचार ज्ञान हुआ तो वे स्नान कर अपने अन्तपुर परिवार को साथ लेकर जहा कटरीक अनगार थे वहाँ आये वहा आकर उन्होंने कण्डरीक अनगार को तीन चार आदक्षिण प्रदक्षिण करके पदना की नमस्कार किया। बदना नमस्कार करके फिर उनसे वे इस प्रकार कहने लगे-हे देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो, तुम कृतार्थ हो, तुम कृतलक्षण हो । हे देवानुप्रिय ! तुमने मनुष्यभव सबधी जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह पालिया है। जो तुम राज्य यावत् अन्तःपुर का परित्याग एव तिरस्कार कर प्राजित हो गये थे। (अहष्ण अहणणे अकयपुन्ने रज्जे जाव अतेउरे य माणुरससु य कामभोगेषु मुच्छिए जाव अज्झोववन्ने नो सचामि जाव पव्वत्तए । त धन्नेमि ण तुम सुद्वेण देगणुप्रिया । तत्र माणुस्मर जम्म जीनियफले जेण तुम रज्न न जाव अउर चानि छड्डत्ता निगोइत्ता जाव पन्नइए )
જ્યારે પુડરીક રાજાને કડરીક અનગારના અવમન થઈ જવાના સમી ચાર મળ્યા ત્યારે તે સ્નાન કરીને પોતાના રણવાસના પિરવારને સાથે લઈને જ્યાક ડરીક અનગાર હતા ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને તેમણે કડરીક અનગારને ત્રણ વખત આક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીને વદન તેમજ નમસ્કાર કર્યાં વદન અને નમસ્કાર કરીને તેએ તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હૈ દેવાનુપ્રિય ! તમે ધન્ય છે, કૃતા' છે, કૃત-લક્ષણુ છે હૈ દેવાનુપ્રિય મનુષ્ય ભવના જન્મ અને જીવનના ફળને સારી પેઠે મેળવી લીધુ છે કેમકે તમે ખરેખર રાજ્ય યાવત્ રણવાસને ત્યજીને તેને તિરસ્કૃત થઇ ગયા છે.
કરીને પ્રજિત
( अण्णा अण्णे अयपुन्ने रज्जे जाव अतेउरे य माणुस्सरसु य काम भोगे मच्छिए जात्र अज्झोववन्ने नो सचामि जाव पव्वइत्तए । त धन्नेसि न
Page #1023
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतधर्षिणी टीका अ०१९ पुण्डरोक - कडरीक चरित्रम्
७२९
कारणात् खलु प्रमिन् धन्योऽमित्व हे देनानुप्रिय ! 'जाब सुलधं जन्मजीवितफलम्, ततः खलु स कण्डरीकोsनगार' पुण्डरीकस्य एतमर्थ = विहाराभि मायकमर्थ, नो आद्रियते यावत् तुष्णीकः सतिष्ठते मौनमवलम्ब्य तिष्ठति । ततः खलु कण्डरीक. पुण्डरीकेण द्वितीयमपि तृतीयमपि = द्विनिनारम् एव = पूर्वोक्तप्रकारेण, उक्तः सन् ' अकामए ' अकामक' = कामनारहित: ' अवस्सवसे ' अप
"
देवाशुप्पिया जाव जीविग्रफले तण से कडरी अणगारे पुडरीयस्त
1
मणो आहाइ जान सचिट्ठा, तण्ण कडरीए पोडरोष्ण दोच्चपि तच्चपि एवं वृत्ते समाणे अकामए अवम्मवसे लजाए गारवेण य पोंडरी आपुच्छर, आपुच्छित्ता थेरेहिं सद्वि रहिया जणवयविहार बिहरड ) मैं अवन्य है अनपुण्य हैं। जो राज्य में यावत् अन्त' पुर में तथा मनुष्य सधी कामभोगों में म्रति यावत् अभ्युपपन्न बना हुआ हूँ । इमीलिये प्रव्रज्या ग्रहण करने में असमर्थ हो रहा है । इसी कारण से मैं यह कह रहा हूँ कि तुम धन्य हो, हे देवानुप्रिय ' तुमने ही जन्म और जीवन का फल जो प्रव्रज्या का ग्रहण करना है वह अच्छी तरह पा लिया है । पुडरीक राजा की विहार करने के अभिप्रायवाली इस बात को सुनकर कडरीक अनगार ने उस पर कुछ पान नही दिया उसे आदर की दृष्टि से नही देखा किन्तु वे उसे सुनकर भी चुपचाप बैठ रहे । कडरीक अनगार की इस स्थिति को देखकर पुडरीक ने दूसरी बार और तीसरी
*
तुम देवाणुपिया । जात्र जीवियफले तएण से कडरीए जगगारे पुडरीयस्स एम पी आढा जान सचिह, तरण कडरीए पौडरीएण दोच्चपि तच्चापि समाणे अकामए अवस्व से लज्जाए गारवेण न पोंडरीय राय आपुच्छर, आपुच्छित्ता थेरेहिं सद्धिं वहिया जणायविहार विहार )
1$ તે અન્ય અને અકૃતપુર, છુ કેમકે S તા. રાજ્યમા યાવત્ રણવાસમા તેમજ મનુષ્યભવના કામલેગામા મૂતિ યાવત્ અ ગ્રુપપન્ન મની રહ્યા છુ, એન્લા માટે પ્રવજ્રા ગ્રહણ કરવામાં અસમર્થ થઇ રહ્યો છુ એથી જ હુ આ કડ઼ી કહ્યો છુ-કે તમે ખખ્ખર ધન્ય છે! હૈ દેવાનુપ્રિય ! તમે જ જન્મ અને જીવનનુ ફળ કે જે પ્રનત્યા ગ્રહણું કરના રૂપ છેતે સારી રીતે મેળવી લીધુ કે તેએ ત્યાથી વિહાર કરી જાય તે આશયથી કહેવા તે પુડરીકના વચને સાભીને કડરીક અનગારે તેની કશી જ દરકાર કરી નહિ તે વાતને તેમણે સન્માનની દૃષ્ટિએ સ્વીકારી નહિ આ બધુ સાભળીને પશુ તેઓ ત્યાજ મૂગા થઈને એસીજ નહ્યા કડરીક અનગારની આ સ્થિતિ તેમને
श ९२
Page #1024
--------------------------------------------------------------------------
________________
10 राशा अपगतम्मान ग. सन 'लगा रजया, 'गारवण' गौरवेणसाधुत्वगीरपेण च पुण्डरीक गमागमागमति, आपास्थविरः माई बहिर्जन पदविहार विहरति ॥ १० ॥
मूलम् तपणं से कंडरीए थेरेहि सद्धिं किंचिकाल उग्गं उग्गेणं विहरइ । तओ पच्छा समणत्तणपरितंते समणचण णिविणे समणत्तणणिभच्छिए समणगुणमुकजोगी, थेराणंअतियाओ सणियर पच्चोसमड, पच्चोसकित्ता, जेणेव पुंडरिगिणी णयरीजेणेव पुडरीयस्तभवणे नेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापयासि णिसीयइ णिसीइत्ता, ओहयमणसंकप्पे जाव झियायमाणे संचिड । तएण तस्स पोंडरीयस्स अम्म धाई जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छिता कंडरीय अणगार असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयसि ओहयमणसकप्प जाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता जेणेव पोंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोडरीय राय एव-वयासी-एव खलु देवाणुप्पिया। तव पिउभाउए कडरीए अणगारे असोगवणियाए असोगवर
वार जब उनसे पूर्वोक्त प्रकारसे कहा-तरउन्हो ने नहीं इच्छा होने पर भी स्ववशताका अभाव होने के कारण लज्जावश होकर सायुवके गौरवक ख्याल से-पुडरीक राजा से विहार करने की बात पूछी-पूछकर फिर र वहा से स्थविरोके साथ वाहिरके जनपदों में विहार कर गये ॥ ३॥ પુડરીકે બીજી અને ત્રીજી વાર પણ જ્યારે પહેવા મુજબ જ વાત કહી ત્યાર તેમણે પિતાની ઈચ્છા નહિ હોવા છતાએ લાચાર થઈને, લજિજત થઈને સાધુત્વના ગૌરવને લક્ષ્યમાં રાખીને પુડરીક રાજાને વિહાર કરવાની વાત પૂછી પૂછીને તેઓ ત્યાથી સ્થવિરેની સાથે બહારના જનપદોમાં વિહાર કરી ગયા છે
Page #1025
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनेगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक-कण्डरीकचरित्रम् ७३१ पायवस्त अहे पुढविसिलावट्टे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ । तएणं पोंडरीए अम्मधाईए एयमट्ट सोच्चा णिसम्म तहेव संभते समाणे उट्टाए उट्टेइ, उद्वित्ता, अंतेउरपग्यिालसपरिवुडे जेणेव असोगवणिया जाव कडरीगं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करित्ता, एव वयासो-धण्णेसिणं तुम देवाणुप्पिया | जाव पव्वइए । अहणणं अधण्णे३ जाव नो पवइत्तए । त धन्नेसि णं तुमं देवाणुप्पिया । जाव जीवियफले । तएणं कडरीए पुडरीएणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिटुइ, दोच्चपि तच्चपि जाव संचिट्टइ। तएणं पोडरीए कडरीय एव वयासी अठ्ठो भते । भोगेहि ? हता अट्रो तएण से पोण्डरीए राया कोडुवियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता, एव वयासी -खिप्पामेव भो देवानुप्पिया | कंडरीयस्स महत्थ जाव रायाभिसेअ उवटवेह जाव रायाभिसेएणं अभिसिचइ ॥ सू० ४॥
टीका-'तएण से' इत्यादि । तत ग्वलु स कण्डरीक स्थनिरैः साध किंचित् कालम् ' उग्ग उग्गेण ' उग्रोग्रेण-अत्युग्रेण विहारेण विहरति । ततः पश्चात् ' समणतणपरितते । श्रमणत्वपरितान्तः श्रमणधर्मपरिपालने खिन्नः पुनः __ 'तएण से कडरीए थेरेहि सद्धि' इत्यादि।
टीकार्य-(तएण) इसके बाद (से कडरीए) वे कडरीक (थेरेहि सद्धिं ) स्थविरो के साथ ( किंचिकाल ) कुछ काल पर्यन्त ( उग्ग उग्गेणं ) अत्युग्रविहार करने मे (विहरइ) लग गये (तओपच्छा समणत्तण
'तए से कडरीए थेरेहिं सद्धि' इत्यादि ।
साथ:-(तएण) त्या२५छी ( से कडरीए) ४3री (थेरेहि सद्धि ) स्थविशनी सार्थ (कि चिकाल) 21 qua सुधी तो (उग्गउग्गेण) मती G विडा२ ४२वामा (विहरह) प्रवृत्त यया ( तओ पच्छा समणचण परित)
Page #1026
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाताचा
1
'समणत्तणनिविणे' श्रमण निर्विानुमाने औदासीन्य प्राप्तः 'समण निमन्त्रि श्रमणस निर्भत्सित' =भ्रमणस निर्मति येन मानुभावा नादरपरायणः, अतएव 'समणगुणानोगी' श्रमणगुणमुतयोगी भ्रमणगुणेभ्यो मुक्त:-रहितो योग योगः मनोना फायस्य सोऽस्यास्तीतित्यक्त भ्रमण गुण इत्यर्थः, स्थविराणामन्तिकात् शनैः शनै प्रत्यवस्कने = पश्रादाग उति प्रत्यवध्वस्वय, यत्र पुण्डरीकिणी नगरी यौन पुग्रीवस्य भवन कौन उपागन्छति, उपागत्य अशोकवनिकाया.=अशोकवाटिकाया भोकरपादपस्य जन. पृथ्वीशिलापट्ट के निपीति = उपशिवि, निपद्य, 'ओहयमणसकप्पे ' अहतमनः सकल्पः = अवती मन सकल्प = मनोव्यापारी यस्य सः अपगतमानसिकव्यापार, 'जाव झियाप
૭૨
परितते) बाद में वे श्रमणधर्म के परिपालन करने में विन्न चित्त बन गये (समणत्तणणिन्त्रिणे समणत्तणणिमच्चिएसमणगुणमुक्कजोगी थेराण अतियाओ मणित्र २ पच्चीस कह, पच्चोमत्रिकत्ता जेणेव पुड रिगिणी जयरी जेणेव पुढरीयस्स भरणे तेणेव उवागच्छद्द) साधुभाव के निर्वाह करने में उदासीनता को प्राप्त हो गये- साधुभाव के प्रति उनमें अनादर भाव आ गया अत एव वे भ्रमण गुणों से मुक्त योगवाले बन गये-श्रमण के गुणों का उन्हों ने परित्याग कर दिया। इस तरह वे धीरे २ स्थविरों के पास से सिसककर एक दिन जहा पुडरीकिणी नगरी थी और उसमें भी जहा पुडरीक राजा को भवन था वहा पर आ गये -1 ( उ बागच्छित्ता असोगवणियाण असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिला पट्टयसि णिमीयइ, णिसीइत्ता ओयमणसकप्पे जाव शिवायमाणे
ત્યારપછી તે શ્રમણ ધર્મના પાલનમા ખન્નચિત્ત-ઉદાસ બની ગયા ( समणत्तणणिच्त्रिणे समणत्तणणिन्मच्छिए समणगुणमुक्कजोगी थेराण अतियाओ सणिय २ पच्चोसकर, पञ्च्चोस कित्ता जेणेव पुडरागिणी णयरी जेणेव पुडरीयस्स भरणे तेणेव उवागन्छइ )
તે સાધુભાવને નભાવવામા ઉદાસ ખની ગયા સાધુભાવ પ્રત્યે તેમ ૬ નામા અનાદર ભાવ ઉત્પન્ન થઈ ગયા, એથી તેએ શ્રમણ-ગુણેાથી મુક્ત ચેગવાળા અની ગયા એટલે કે શ્રમણના ગુણાને તેમણે ત્યજી દીધા આ પ્રમાણે તેઓ ધીમે ધીમે સ્થવિરાની પાસેથી ચુપચાપ નીકળીને એકદિવસ જ્યા પુરિકિણી નગરી હતી અને તેમા પણ જ્યા પુડરીક રાજાનુ ભવન હતું, ત્યા આવી ગયા ( उवागच्छित्ता असोगणियाए असोगवर पायवरस अहे पुढविविलाप यसि, णिस्रीयह, णिसीइत्ता ओहयमणसकप्पे जाव शिपायमाणे चिक, वपूर्ण
Page #1027
--------------------------------------------------------------------------
________________
गारधर्मामृतपणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कण्डरीकचरित्रम्
७३३
Resistaधात्री
1
माणे ' यावदध्यायन्=आ यानं कुर्वन् सतिष्ठते । तत एलु तस्य पुण्डरीकस्य अशोकवनिका तर्जन उपागच्छति, उपागत्य कण्डरीकमन गारम् अशोकवरपादपस्य अधः पृथिवी शिलापट्ट के ऽपहतमन. सकल्प यावद् ध्यायन्त पश्यति, दृष्ट्वा, यचैत्र पुण्डरीको राजा तत्रैन उपागच्छति, उपागत्य पुण्डरीक राजानमेवमवादीत् एव खलु देवानुप्रिय । तत्र ' पिउमाउए ' प्रियभ्राता कण्ड कोsनगारोऽशोकवनिकाया अशोकवरपादपस्य अधः पृ' जी शिलापट्टके अनहतमन. सकल्पो यानद्ययति । तत खलु पुण्डरीकः अमाधात्र्या एतमर्थ कण्डरीकस्य सचिहड़, तरण तस्स पोंडरीयस्स अम्मधाई जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्च्छ, उवागच्छित्ता कडरीय अणगार असोगवरपायस्स अहे पुढविसिलावयसि ओह्यमणसकप्प जान झियाग्रमाण पासह, पासित्ता जेणेव पोडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोंडरीय राय एव वयासी) वहा आकर वे अशोक वाटिका मे अशोक वृक्ष के नीचे पृथिवी शिला पट्टक पर बैठ गये । बैठकर अपहृत मानसिक व्यापारवाले होकर वे वहा आर्त्तध्यान करने लगे। इनने मे पुडरीक राजा की अम्बधात्री - धायमाता उस अशोक वाटिका मे आई वहा आकर उसने कडरीक अनगार को अशोक पादप के नीचे पृथिवीशिलो पटक पर चिन्तामग्न देखा देखकर वह जहा पुडरीक राजा थे वहा आई - वहा आर उसने पुडरीक राजा से इस प्रकार कहा - ( एच ग्खलु देवाणुप्पिया ! तब पिउभाउ कडरीए अणगारे असोगवणियाए असोगवरपायवस्त अहे पुढविसिलावट्टे ओश्यमणसकप्पे जात्र झियाग्रह ) हे देवानुप्रिय !
तरस पोंडरीयस्स अम्मधाई जेणेव असोगवणिया तेणेन उवागच्छइ, उवोगच्चित्ता फडरीय अणगार असोरपायरस अहे पुढविसिलावट्टयसि ओयमणसक पजाब झियाययाण पासइ, पासित्ता जेणेव पोंडरीए राया वेणेव आगच्छ, गच्छतपय राय एव वयासी )
ત્યા આવીને તેઓ અશાક વાટિકામા અશાક વૃક્ષની નીચે પૃથ્વિશિલા પટ્ટક ઉપર એમી ગયા ત્યા બેસીને તેએ અપહત માનમિક વ્યાપારવાળા ( ઉદાસ ) થઈને આત્ત ધ્યાન કરવા લાગ્યા. એટલામા પુડીક રાન્તની અ બ ધાત્રી ધાયમાતા-અશોક વાટિકામાં આવી ત્યા આવીને તેણે કડરીક અનગારને અશેક વૃક્ષની નીચે પૃથ્વિશિલા ઉપર માતધ્યાન કરતા જોયા જોઈને તે જ્યા પુડરીક રાજા હતા ત્યા આવીને તેણે પુડરીક રાન્તને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે ( एन स देवाणुपिया ! तब पिउभाउ कडरीए अणगारे असोगवणि थार असोगररपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टे ओहयमणस कप्पे जाव झियायइ )
Page #1028
--------------------------------------------------------------------------
________________
8 अशोकवनिकामा पगतागोरक्षाः स्थितम्मात यानम्पमर्थ श्रुत्वा नियम बधार्य तहेव' संधा-यवास्थितम्तये 'समते समाणे ' मानान्ता सन् 'ध पुनरसो समागव' इति गद्वितः गन् उत्यार उनिप्ठति अटिति उचितत्यः, उत्याय अतः पुरपरिवारसपग्टिन यौनशोकानिका यी कण्डरीकाऽनगारस्तर उपागन्छति, उपागत्य निपायुनो' त्रि कृत्वाधारप्रयम् माद क्षिणप्रदक्षिण फरोति, त्या मादीव-धणेसि ण तुम देवाणुप्पिया । जात्र पन्चइए' धन्योऽसि खलु व हे देवानुप्रिय ! यारत् प्रयनित । अह खलु 'अधण्णे ' ३ अधन्यः ३ याद नो गक्रोमि मनजितम् । 'त' तस्मात्कारमा 'धन्नेसि । धन्योऽमि गल व हे देवानमिय ! 'जार जीवियफले ' याद जीवितफलम्त्य या जन्मजीरितफ्ल मुख्यम् इति भावः। ततः खलु कण्डरीकेण एम-प्रशसापरवचनरुक्तः सन् तूपणीक सतिष्ठते, ' दोन्चपि तग ति' द्वितीय मपि तृतीयमपि पार पूर्वप्रकारेण उक्तः सन् 'जार सचिट्ठइ ' यावत् सतिष्ठतेमौनमवलम्ब्य स्थित इतिभाव 1 वत. खल पुण्डरीक कण्डरीफमेरमवादीन-अट्टो सुनिये-तुम्हारे प्रिय भाई कटरीक अनगार अशोक वाटिका में अशोक वृक्षके नीचे पृधिचीशिलापटक पर अपहतमनःसकल्प होकर यावत् चिन्ता मग्न घेठे हुए हैं (तग्ण पोंडरी अम्मधाईए एयमह सोच्चा णिसम्म तहेव समते समाणे उठाए उटेह, अद्वित्ता अतेउरपरियालसपरिघुड जेणेव असोगवणियाजाव कडरीय तिखुत्तो आयाहिणपयाहिण कर, करिता एव वयासी धण्णेसि ण तुम देवाणुप्पिया! जाव पन्चाइए अरण्ण अधण्णे ३ जाव नो पचहत्तए त धन्नेसि ण तुम देवाणुपिया' जाव जीवियफले-तरण कडरीए पुडरीएण एव वुत्ते समाणे तुसिणीए सचिट्ठा, दोच्चपि तच्चपि जान सचिह, तएण पोटरीए कडरीय एवं वयासी अठ्ठो मते ! भोगेहिं । हता अट्ठो! तएण से पोंडरीए राया कोड
- હે દેવાનુપ્રિયા સાભળે. તમારા પ્રિય ભાઈ કડરીક અનગાર અશોક વાટિકામાં અશોક વૃક્ષની નીચે પ્રષ્યિશિલા પટ્ટક ઉપર અપહરમને સક થઈને યાવત્ ચિંતામગ્ન થઈને બેસો રહ્યા છે
(तएण पोंडरीए अम्मधाईए एयम सोचा णिसम्म तहेन सभते समाण उढाए उढेइ, उद्वित्ता अतेउरपरिपाल्सपरिखुडे जेणेव असोगवणिया जाव कर रीय तिक्खुचो आयाहिणपयाहिण करेइ, करिता एव वयासी धण्णेसि ण तुम देवाणुप्पिया ! जाव पव्वइप अहण्ण अधण्णे २ जाव नो पदइत्तर त ध नेणि तम देवाणुप्पिया ! जाव जीवियफले तएण कडरीए पुडरीएण एव वुत्त समा" तुसिणीए सचिट्ठइ, दोगवि तच्च वि जार सचिइ, तएण पोंडरीय कडरीय एवं षयासी, अट्ठो/
ता अट्ठो! तएण से ९ या कोड विय
Page #1029
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक-कण्डरीकचरित्रम् ७३५ चियपुरिसे मदावेह, सहावित्ता व वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कडरीयस्स महत्व जाव रायाभिसेअ उचट्टवेर, जाव रायाभिसेएण अभिसिंचइ ) इस प्रकार अम्बाधाय के मुख से इस बात को सुनकर
और उसे चित्त मै जमाकर जैसे बैठे हुए थे उसी तरह सभ्रान्त होते हुए-ये क्यों आये है-इस प्रकार शकित चित्त होते हुए-उत्थानशक्ति से उठे घहुन जल्दी सुनते ही प्रमाण-उठे और उठकर अन्तःपुर के परिवार को साथ लेकर जहा अशोक वनिका थी-वहा पर आये-वहां आकर कडरीक अनगार के पास पहुँचे-वहां पहुँच कर उन्हो ने उन्हें तीन वार आदक्षिण प्रदक्षिण किया बाद में वे कहने लगे-हे देवानुप्रिया तुम्हें धयवाद है-जो तुम राज्य एव अन्नापुर का परित्याग कर प्रव्रजित हो गये हो इत्यादि जिम प्रकार पहिले उनसे कहा या इमी प्रकार अय भी कहा मैं अधन्य है-३-जो यावत् दीक्षित होने के लिये शक्तिशाली नहीं हो रहा है। इसलिये हे देवानुप्रिय आपके लिये वन्यवाद है-आपने जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह प्राप्त कर लिया है। इस तरह प्रशंसा परक वचनों से पुडरीक राजा द्वारा कहे गये वे कडरीक अनगार कुछ भी नहीं बोले-किन्तु चुपचाप ही बैठे रहे- जब पुडरीक राजा ने उनकी इस प्रकार की स्थिति देखी-तब दुवारा तिवारा भी उन्हो ने पुरिसे सहावेइ, सहोवित्तो एप वयामी सिप्पामेव भो देवाणुप्पिया । क उरीयस्स महत्थ जाव रायाभिसेअ उबवेह, जाव रायाभिसेएण अभिसिंचइ)
આ પ્રમાણે આ બાધાયના મુખથી આ વાત સાભળીને અને તેને મનમાં ધારણ કરીને જેવી સ્થિતિમાં તેઓ બેઠા હતા તેવી જ રિતિમા સ્તબ્ધ થઈને
તેઓ કેમ આવ્યા છે ? આ પ્રમાણે શકાયુક્ત થતા–ઉથાન શક્તિ વડે તેઓ ઊભા થયા અને ઊભા થઈને જલ્દી રણવાસના પરિવારને સાથે લઈને
જ્યા અશોક વાટિકા હતી ત્યા આ વ્યા ત્યાં આવીને કડરીક અનગારની પાસે પહોંચ્યા ત્યા પહોચીને તેમણે તેમને ત્રણવાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કર્યા બાદ કહેવા લાગ્યા કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમને ખરેખર ધન્યવાદ ઘટે છે કે જે તમે રાજ્ય અને રણવાસને ત્યાગ કરીને પ્રવજીત થઈ ગયા છો, વગેરે જેમ પહેલા કહ્યું હતું તેમજ તે વખતે પણ કહ્યુ હુ તે અન્ય ૭-૩-જે યાવત દીક્ષા ગ્રહણ કરવાનું પણ સામર્થ્ય ધરાવતા નથી એથી હે દેવાનુપ્રિય! તમને ધન્ય છે તમે ખરેખર પિતાના જન્મ અને જીવનનુ ફળ સારી રીતે પ્રાપ્ત કરી લીધું છે આ પ્રમાણે પ્રશ સાજનક વચનેથી પુડરીક રાજા વડે સબંધિત કરાયેલા તે કડરીક અનગાર કઈપણ એલ્યા નહિ, તેઓ મૂગા થઈને બેસી જ
Page #1030
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
अशोकवनिकाम पगताशी कक्षा स्थितस्यात यानरूपमर्थं श्रुला निशम्य पधार्य ' तहेव ' =यवास्थितस्तयेन समते समाणे ' मम्भ्रान्तः सन्
6
6
'
(
1
व पुनरसी समागत' इति दितः सन उत्थान उचिष्टविटिति उीित्यर्थ' उत्थाय अतः पुरपरिवारसपरित योनि यी कण्डरीको इनगारस्वगैन उपागच्छति, उपागत्य ' तिक्युतो' त्रियम् आद क्षिणदक्षिण करोति, या एयमनादीत् प्रण्णेसि ण तुम देवाणुविषा । जा पन्चइए' धन्योऽसि खलु हे देवानुमिय! यात् मत्रजित | अह खलु 'अण्णे ३ अन्य ३ यावत् नो क्रोमि मनजितम् । 'त' तम्मात्कारगार धन्नेसि ' धन्योऽमि खलु हे देशतृप्रिय ! ' जान जीनियफले ' याद जीनितफ म्= त्वया जन्मजोरितफल मुख्यम् इति भाग। ततः खलु कण्डरीकेण एन = नसा परवचनैरुक्तः सन् तूष्णीक' सतिष्ठते, ' दोच्चपि त ति ' द्वितीय मपि तृतीयमपि वा पूर्वप्रकारेण उक्तः सन् जान सचिट्ठ' यावत् सतिष्ठते= alana स्थित इतिभा । तव खलु पुण्डरीकः कण्डरीकमेवमादीन् अठो सुनिये - तुम्हारे प्रिय भाई कडरीक अनगार अशोक वाटिका में अशोक वृक्ष के नीचे पृथिवीशिलापट्टक पर अवतमनः सकल्प होकर यावत् चिन्ता बैठे हुए हैं (तपणं पोंडरीए अम्मधाईए एयमट्ठ सोच्चा णिसम्म तव समते समाणे उडाए उह, उट्टित्ता अतेउर परियालस परिबुडे जेणेव असोगणिया जाय कडरीय तितो आयाहिणपयाहिण करे, करिता एव वयासी घण्णेसि ण तुम देवाणुपिया ! जाव पञ्चइए अरण अघण्णे ३ जाव नोव्त्तत धन्नेसि ण तुम देवाणुपिया। जाव जीविधफले - तरण कडरी पुडरीएण एव कुत्ते समाणे तुसिणीए सहि, दोच्चापि तच्चापि जान सचिव, तएण पौंडरीए कडरीय एव वयासी अट्ठो मते ! भोगेहिं ! हता अट्टो 'तरण से पोंडरीए राम्रा कोड
मग्न
હૈ દેવાનુપ્રિય ! સાભળેા, તમારા પ્રિય ભાઈ કહરીક અનગાર અશેક વાટિકામા અશોક વૃક્ષની નીચે પૃથ્વિશિલા પટ્ટક ઉપર અપહનમન સર્પ થઈને યાવત્ ચિંતામગ્ન થઇને બેસી રહ્યા છે
( तएण पोंडरीए अम्मधाईए एयम सोच्चा णिसम्म तद्देन समते समाणे उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठिता अतेउरपरिपारसपरिवुडे जेणेव असोगणिया जाव क रीय तिक्खुचो आयाहिणपयाहिण करेइ, करिता एव वयासी घण्णेसि ण तुम देवाणुपिया ! जाव पव्वइ अण्ण अघण्णे २ जाव तो पाइत्तर त धन्ने सि तुम देवाणुपिया ! जाव जीवियफले तरण कडरीए पुडरीपण एव वुत्ते समाणे तुसिणीए सचिट्ठइ, दो वि, तच्च वि जाव सविदुई, तएण पोंडरीर कडरीय एवं षयासी, अट्ठो भते ! भोगेंहिं ? हता अट्टो ! तरण से पोंडरीप गया को बिय
Page #1031
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कण्डरीकचरित्रम
७३५
बियपुरिसे महावेह, सद्दावित्ता एव व्यासी- ग्विपामेव भो देवाणुप्पिया । कडरीयस्स महत्व जाव रायाभिसेअ उचट्टवेर, जाव रायाभिसेएर्ण अभिसिंचाइ ) इस प्रकार अम्नाधाय के मुख से इस बात को सुनकर और उसे चित्त मै जमाकर जैसे बैठे हुए थे उसी तरह सभ्रान्त होते हुए ये क्यों आये है - इस प्रकार शक्ति चित्त होते हुए उत्थानशक्ति से उठे बहुत जल्दी सुनते ही प्रमाण- उठे और उठकर अन्तःपुर के परिवार को साथ लेकर जहा अशोक वनिका थी वहा पर आये वहा आकर कडरीक अनगार के पास पहुँचे वहा पहुँच कर उन्हो ने उन्हें तीन चार आदक्षिण प्रदक्षिण किया बाद में वे कहने लगे- हे देवानुप्रिय | तुम्हें धन्यवाद है - जो तुम राज्य एव अन्तःपुर का परित्याग कर प्रब्रजित हो गये हो इत्यादि जिस प्रकार पहिले उनसे कहा था इसी प्रकार अब भी कहा मै अधन्य है -३ - जो यावत् दीक्षित होने के लिये शक्तिशाली नहीं हो रहा है। इसलिये हे देवानुप्रिय ' आपके लिये धन्यवाद है- आपने जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह प्राप्त कर लिया है। इस तरह प्रशंसा परक वचनो से पुडरीक राजा द्वारा कहे गये वे कडरीक अनगार कुछ भी नही बोले- किन्तु चुपचाप ही बैठे रहे । जन पुडरीक राजा ने उनकी इस प्रकार की स्थिति देखी - तथ दुवारा तिवारा भी उन्हो ने
पुरिसे सहावेइ, सावित्ता एव वयासी सिप्पामेन भो देवाणुपिया । कडरीयस्स महत्थ जाव रायाभिसेअ उबवेह, जाव रायामिसेपण अभिसिंचाइ )
આ પ્રમાણે અબાધાયના મુખથી આ વાત સાભળીને અને તેને મનમા ધારણ કરીને જેવી સ્થિતિમા તેઓ બેઠા હતા તેવી જ સ્થિતિમા સ્તબ્ધ થઇને " तेथे उभ माया छे " આ પ્રમાણે શકાયુક્ત થતા-ઉત્થાન શક્તિ વડે તેઓ ઊભા થયા અને ઊભા થઈને જલ્દી રણવાસના પિરવારને સાથે લઇને જ્યા અશેક વાટિકા હતી. ત્યા આવ્યા ત્યા આવીને કડરીક અનગારની પાસે પહાચ્યા ત્યા પહાચીને તેમણે તેમને ત્રણવાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કર્યાં ખાદ કહેવા લાગ્યા હૈ દેવાનુપ્રિય ! તમને ખરેખર ધન્યવાદ ઘટે છે કે જો તમે રાજ્ય અને રણવાસના ત્યાગ કરીને પ્રજીત થઇ ગયા છે!, વગેરે જેમ પહેલા કહ્યું હતું તેમજ તે વખતે પણ કહ્યુ હુ તેા અધન્ય ૭-૩-જે યાવત્ દીક્ષા ગ્રહણ કરવાનુ પણ સામર્થ્ય ધરાવતા નથી એથી હું દેવાનુપ્રિય ! તમને ધન્ય છે તમે!એ ખરેખર પેાતાના જન્મ અને જીવનનુ ફળ સારી રીને પ્રાપ્ત કરી લીધુ છે આ પ્રમાણે પ્રશસાજનક વચનાથી પુડરીક રાજા વડે સબધિત કરાયેલા તે ફહરીક અનગાર કઈપણુ એલ્યા નહિ, તે મૂગા થઇને એમીજ
Page #1032
--------------------------------------------------------------------------
________________
हामाया मंते ' मोहिं 'हे गदना ! भोगे ?=f मोगैः प्रयोजनमस्ति ? इति, पण्डरीक' माह-'हना ! अहो 'दन्त ! अर्थ: मोगमुपमोस्तुमानमोऽम्मीति भाः । ततः खलु-कण्डरी शामिपायानानन्तरमित्यर्थः, स पुण्डरीको राजा पौटुम्पिकपुमपान गादयति मादपति, गायित्वा, परमत्रदत् - सिममेव भो देशानुमियाः ! शण्डरीकस्य महार्धम् अत्यवम् 'जार रायाभिसेय ' यावत् राजा भिपेफम् ' उनहोइ' उपस्थापयत परिसन्पयत, 'जार रायाभिसे पण अमिति चह' यारत् राज्याभिषे केण अमिपिरति स पुण्डरीको राना कण्डरीक राजपदे स्थापयति ॥ मू० ४ ॥
मुम-तण्ण पुडरीए सयमेव पंचमुट्रियं लोय करेइ, उनसे ऐसा ही कहा परन्तु फिर भी उमों ने कुछ नहीं ध्यान दिया केवल मौन धारण कर ही पेठे रहे-तय पुनः पुडरीकने उन कडराक अनगार से इस प्रकार कहा-हे भदन्न ! क्या आप को भोगों से तात्पय है ' तय कडरीक ने कहा हा-मेरा मन भोगों को उपभोग करने के रिये हो रहा है। इस तरह कडरीक का अभिप्राय जानने के बाद पुड रीक राजो ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-भो देवानुप्रियो तुम लोग कडरीक के लिये राज्याभिषेक योग्य सामग्री एकत्रित कर लेआओ पुडरीक राजा की इस आज्ञा के अनु सार, उनलोगों ने वैसा ही किया-जब राज्याभिषेक सामग्री उपस्थित हो चुकी-तब पुडरीकने कडरीक का राज्याभिषेककर दिया-कडरीक को राजपद में स्थापित कर दिया । सूत्र ४॥ રહ્યા પુડરીક રાજાએ તેમની આવી સ્થિતિ જોઈને બીજી અને ત્રીજી વખત પણ આ પ્રમાણે જ કહ્યું પણ તેમણે તેની કોઈ દરકાર કરી નહિ તેઓ ફક્ત મુગા થઈને બેસી જ રહ્યા ત્યારે ફરી પડરીકે તે કડરીક અનગારને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભગવન્! તમને શું હજી બેગ ઉપભોગોની ઈરછા છે ત્યારે કડરીકે કહ્યું કે હા, ખરેખર મારૂ મન ભગ ઉપગમાં પ્રાપ્ત થવા કચછે છે આ પ્રમાણે ક ડરીકની ઇરછા જાણીને પુડરક રાજાએ કોટુંબ પુરુષોને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયા ' તમે લકે કડીક માટે-રાજ્યાભિષેક એગ્ય સામગ્રી ભેગી કરે પુરીક રાજાની આ પ્રમાણે આજ્ઞા સાભળીને તે લોકોએ તેમજ કર્યું જયારે રાજ્ય નિપેકની બધી વસ્તુઓ એકત્રિત થઈ ગઈવારે ૫ ડરીકે ક ડરીને રાજ્યાભિષેક કરી દી એટલે કે કડરીકને રાજ્યાસને બેસાડી દીધું છે. સૂત્ર ૪
Page #1033
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टीका भ० १९ पुण्डरीक कण्डरीकचरित्रम् करिता, सयमेव चाउजाम धम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता कडरीयस्स सतिय आयारभडय गेण्हड, गेण्हित्ता, इम एयारुवं अभिग्गह अभिगिन्हइ - कप्पइ मे थेरे वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अतिए चाउज्जाम धम्म उवसपजित्ताणं तओ पच्छा आहार आहरितए त्तिक्हु, इम च एचारूव अभिग्गह अभिगिण्हेत्ता णं पोडरिगिणीए पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खभित्ता, पुण्वाणुपुवि चरमाणे गामाणुगाम दृइज्ज माणे जेणेव थेरा भगवतो तेणेव पहारेत्थ गमनाए॥सू०५॥
टीका- 'तएण पुडीए' इत्यादि । ततः खलु पुण्डरीकः स्वयमेन पश्च मुष्टिक लोच करोति, तथा स्वयमेव ' चाउज्जाम' चातुर्याम चतुर्महानतलक्षण धर्मं प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य, ' कटरीनम्म सतिय ' कण्डरीकस्य सत्कम् = कण्डरीक सम्वन्धि इत्यर्थः, ' आयारभटय ' आचारभाण्डक आचाराय= माधोः पञ्चविधा चारपरिपालनाय पद्भाण्डक = त्रिपात्रमदो कमुखवखिकारजोहरणादिरूपम् तद्
=
७३७
'तएण पुडीए सयमेव पचमुट्ठिय' इत्यादि ।
टीकार्य - (तएण ) इसके बाद (पुरी) पुडरीक ने (सयमेव ) अपने आप ( पचमुट्ठिय लोय करेड) अपना पचमुष्टिक लोच किया( करिता लयमेव चाउज्जाम धम्म पडिचज्जड पडिवज्जिन्ता कडरीयस्स सतिय आधारभडय गेण्हइ ) और लोच करके स्वयं ही उन्होने-चातु र्याम चतुर्महाव्रत रूप धर्म को धारण कर लिया। एवं कडरीक के अनगार अवस्था मरन्धी आचार भाण्डक को - वस्त्र, पात्र सदोरक मुख वस्त्रिका, रजोहरण आदिरूप साधु चिह्नों को - ले लिया । (गेण्हित्तो इम एयाख्व अभिग्गह अभिगिव्हट, कप्पड़ मे धेरे वंदित्ता नमसित्ता 'तरण पुडरी सयमेव पचमुट्ठिय' इत्यादि ।
टीअर्थ - (तरण ) लारपछी ( पुडरीए ) चुडरीडे ( सयमेन ) चातानी જાતે જ ( पचमुट्ठिय लेाय करेइ ) पोतानु पथमुष्टिः सुधन
( करिता सयभेन चाउनाम घम्म पडिवेज्जइ, पडिवनिता कडरीयरस सतिय भायारभ दय गेण्ड्इ )
અને લુ ચન કરીને જાતે જ તેમણે ચાતુર્યામ–ચતુમ હાવ્રત રૂપધર્મને ધારણ કરી લીધે અને કડરીકની અનગાર અવસ્થા સ ખ ધી આચાર ભાડકા—વસ્ર, પાત્ર, સદરક મુખવસ્તિકા, રોહરણ વગેરે સાધુ ચિહ્નોને લઈ લીધા
शा ९३
Page #1034
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मका
1
A
हे भोगे:- मोगेः प्रयोजनमस्ति ? इति पण्डरीर' माह-' इता ! अहो 'दन्त । अर्थःपभोक्तु मानमोऽस्मीति भा?' । ततः खलुरुण्डी समिपायानानन्तरमित्यर्थः, स पुण्डरीको राजा कौटुम्बिकम्पन यतिमादयति, नन्दयिला, परमवदत् श्रयमेव मो देवानुमिया | कण्डरीकस्य महार्थम् = अत्यर्थम् ' जान रागभिसेय ' यावत् राजा भिषेकम् 'उग्र' उपस्थापयत = परिकल्पयत, 'जाव रायाभिसेएण अभिि चर' यावत् राज्याभिषेकेण अभिपिचति स पुण्डरीको राना कण्डरीकं राजपदे स्थापयति || ० ४ ॥
1
मृग्म-तणं पुडरीए सयमेव पचमुट्टिय लोग करेइ,
७३६
Out
मंते भोगे'
1
-
उनसे ऐसा ही कहा परन्तु फिर भी उन्हों ने कुछ नहीं ध्यान दिया केवल मौन धारण कर ही पैठे रहे-तप पुनः पुडरीकने उन कडरीक अनगार से इस प्रकार का हे भदन्न ! क्या आप को भोगों से तात्पर्य है ? तब कडरीक ने कहा हा-मेरा मन भोगों को उपभोग करने के लिये हो रहा है । इस तरह कडरीक का अभिप्राय जानने के बाद पुड रीक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा करा- भो देवानुप्रियो तुम लोग कउरीक के लिये राज्याभिषेक योग्य सामग्री एकति कर ले आओ पुडरीक राजा की इस आज्ञा के अनु सार, उनलोगों ने वैसा ही किया जब राज्याभिषेक सामग्री उपस्थित हो चुकी-तब पुडरीकने कडरीक का राज्याभिषेककर दिया- कडरीक को राजपद में स्थापित कर दिया || सूत्र ४ ॥
1
प्रात्त थवा
રહ્યા પુડરીક રાજાએ તેમની આવી સ્થિતિ જોઇને બીજી અને ત્રીજી વખત પણ આ પ્રમાણે જ કહ્યુ પણ તેમણે તેની કઈ દરકાર કરી નહિં તેઓ ફક્ત મૂગા થઈને બેસી જ રહ્યા ત્યારે ફરી પુડરીકે તે ક ડરીક અનગારને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે ભગવન્ ! તમને શુ હેજી 'ભાગ ઉપસેાગાની ઈચ્છા છે ? ત્યારે કડરીકે કહ્યુ કે હા, ખરેખર મારૂ મત ભોગ ઉપભાગમા કચ્છે છે. આ પ્રમાણે કડરીકની ઇચ્છા જાણીને પુ ડરીક રાજાએ કૌટુબિક પુરુષને એટલાન્યા અને મેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિયા ' તમે લેાકેા કડરીક માટે રાજ્યાભિષેક ચાગ્ય સામગ્રી ભેગી કરી પુડરીક રાજાની આ પ્રમાણે આજ્ઞા સાભળીને તે લેાકાએ તેમજ કર્યું. જારે રાજ્યા નિષેકની બધી વસ્તુએ એકત્રિત થઇ ગઈ ત્યારે પુ ડરીકે ક ડરીકના રાજ્યાભિષેક કરી દીધા એટલે કે કડરીકને રાજયાસને એમાડી દીધા ॥ સૂત્ર ૪ |
Page #1035
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतपिणी टीका अ० १९ पुण्डरीक- वण्डरोकचरित्रम्
करिता, सयमेव चाउजाम धम्म पडिवज्जइ, पडिवजित्ता कंडरीयस्स सतिय आयारभडय गेण्हइ, गेण्हित्ता, इम एयारुव अभिग्गहं अभिगिन्हइ - कप्पड़ में थेरे वंदिता मंसित्ता थेराणं अतिए वाउजाम धम्म उवसपजित्ताणं तओ पच्छा आहार आहरितए तिकट्टु, इम च एचारुव अभिग्गह अभिगिण्हेत्ता णं पोडरिगिणीए पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खभित्ता, पुव्वाणुपुव्वि चरमाणे गामाणुगाम दूइजमाणे जेणेव थेरा भगवतो तेणेव पहारेत्थ गमनाए॥ सू०५॥
4
टीका- 'तएण पुडरीए ' इत्यादि । ततः खलु पुण्डरीकः स्वयमेन पञ्च मुष्टिक लोच करोति, तथा स्वयमेव ' चाउज्जाम ' चातुर्याम= चतुर्महानतलक्षण धर्म प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य, 'क्टरीयम्म सतिय ' कण्डरीकस्य सत्कम् = कण्डरीक सम्बन्धि इत्यर्थः ' आयारभडय ' आचारभाण्डक आचाराय= माधोः पञ्चविधा चारपरिपालनाय यद्भाण्डक = त्रिपात्रसदो कमुखवखि कारजोहरणादिरूपम् तद्
७३७
"
तएण पुरी सयमेव पचमुट्ठिय' इत्यादि ।
टीकार्य - (तएण ) इसके बाद ( पुडरी) पुडरीक ने (संयमेव ) अपने आप (पचमुट्ठिय लोय करेड) अपना पचमुष्टिक लोंच किया( करिता मयमेव चाउज्जाम धम्म पडिवजह पडिवज्जिन्ता कडरीयस्स सतिय आधारभडय गेण्टइ ) और लोच करके स्वय ही उन्होने-चातु र्याम चतुर्महाव्रत रूप धर्म को धारण कर लिया। एव कडरीक के अनगार अवस्था सन्धी आचार भाण्डक को वस्त्र, पात्र, सदोरक मुख वस्त्रिका, रजोहरण आदिरूप मावु चिह्नों को ले लिया । (गेण्हिता हम एयाख्व अभिग्गह अभिगिन्ट, कप्पह मे घेरे वंदित्ता णमसित्ता
'तरण पुडरीए सयमेव पचमुट्ठिय' इत्यादि ।
टीडार्थ - (तरण ) सारपछी ( पुडरीए ) चुडरी ( मयमेन ) पोतानी જાતે જ ( पचमुट्ठिय लाय करेइ ) पोतानु प मुष्टिङ सुधन उ
( करिता सयभेन चाउनाम धम्म परिन, पडिवर्जित्ता कडरीयास सतिय भायारभर गेण्ड्इ )
અને લુ થન કરને જાતે જ તેમણે ચાતુમ-ચતુમહાવ્રત રૂપધમ ને ધારણ કરી લીધા અને કડરીકની અનગાર અવસ્થા સબંધી આચાર ભાડકા–વસ, પાત્ર, સદાર મુખવસ્તિકા, રોહરણ વગેરે સાધુ ચિહ્નોને લઈ લીધા
चा ९३
Page #1036
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३८
प्रातधर्मकमा
1
गृह्णाति गृहोश्या, इममेव = पक्ष्यमाणमभिप्रह= प्रतिज्ञाविशेषम् अभिगृह्णाति= करोति अभिग्रहस्वरुपमाद-पते में स्थगित पन्दिता नमस्त्विा स्थविराणा मन्तिके चातुर्याम धर्मम् ' उपज्जिताण ' उपसपत्र स्वीकृत्य ततः पश्चात् आहारमाहर्तुम् इनिकृत्या निखित्य मच एतदूपम् भिग्रहम् अभि खलु पुण्डरी किया प्रतिनिष्काम्यति निम्परति, प्रतिनिष्कम्य पुत्रापुत्रि पूर्वानु पूर्णा चरन, गामानुग्राम द्रयन्यत्र स्पपिग भगवन्तस्तत्रैव प्राधारयद्गम नाय गन्तु स्थित ॥ ०५ ॥
,
1
थेराण अतिए घाउज्जाम धम्म उपजित्ताण, तओ पच्छा आहार आहरित) बाद में उन्होंने इस प्रकार अग्रि धारण किया कि जबतक में स्थविर भगवतो को बदना नमस्कार कर उनके पास से चातुर्याम धर्मको धारण नहीं कर लूगा तक मैं आहार पानी ग्रहण नहीं करूँगा उनके पास चातुर्याम धर्म धारण करके ही आहार ग्रहण करूँगा (त्ति कट्टु इमच पाव अभिग्गर अभिगिष्टत्ता पण पोडरिगिणीए पडिनिक्खमइ, पडिनिक्स मित्ता पुव्वाणुपुच्चि वरमाणे गामाणुगाम दूह ज्जमाणे जेणेव धेरा भगवतो तेणेव पहारेत्व गमए) इस प्रकार का यह अभिग्रहण कर वे उस पुडरीकिणी नगरी से निकले और निकल कर तीर्थकर परम्परानुसार विहार करते हुए एवं एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरण करते एए वे उस ओर प्रस्थित हुए कि जहा स्थविर
भगवत विराजमान थे | सूत्र ५ ॥
(गेति इम एयारूप अभिग्ग अभिगिन्es, कres, मे थेरे वदिता णमसित्ता येगण अत्तिए घाउजाम धम्म उवसपज्जित्ताण तओपच्छा आहार आहरितप) ત્યારઞાદ તેમણે આ જાનને અભિગ્રઢ ધારણ કર્યો કે જ્યા સુધી હુ સ્થવિર ભગવતેને વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમની પાસેથી ચાતુર્થાંમ ધને ધારણ નહિ કરૂ ત્યા સુધી હુ આહાર પાણી ગ્રહણ કરીશ નહિ તેમની પાસેથી ચાતુમ ધર્મને ધારણ કરીને જ હું આહાર ગ્રહણું કરીશ
( ति कट्टु इम च पयारूप अभिगद अभिगिताण पॉडरिगिणीए पचिनिक्स्पमइ, पडिनिक्खमित्ता पुव्वाणुपुवि चरमाणे गामाणुगाम दूइज्माणे जेणेव थेरा भगवतो तेणेव पहारेत्थ गमनाए )
આ પ્રમાણે તે અભિગ્રહને મનમા ધારણ કરીને તેએ તે પુરીકણી નગરીની બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને તી કર પર પરા મુજબ વિહાર કરતા કરતા અને આ પ્રમાણે એક ગામથી ખીજે ગામ વિચરણ કરતા કરતા તેએએ જ્યા સ્થવિર ભગવતે વિરાજમાન હતા તે તરફ પ્રસ્થાન કર્યુ
॥सू०५॥
Page #1037
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक-फडरीकचरित्रम् ७३९
मूलम्--तपणं तस्स कडरीयस्स रपणो त पणीय पाणभोयर्ण आहारियस्स समाणस्त अतिजागरिएण य अइ भोयणप्पसगेण य से आहारे णो सम्मं परिणमइ । तएणं तस्स कंडरीयस्त रणो तसि आहारसि अपरिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि सरीरसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला विउला पगाढा जाव दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहकतीए यावि विहरइ । तएणं से कडरीए राया रज्जे य रट्रेय अतेउरे य जाव अज्झोववन्ने अमृदुहवसहे अकामए अवस्सवसे कालमासे काल किच्चा अहे सत्तमाए पुढबीए उकोसकाल ट्रिइयसि नरयसि नेरइयत्ताए उववण्णे । एवासेव समणाउसो | जाव पवइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसाए जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहा व से कडरीए राया ॥ सू०६॥
टीका-'तएणं तस्स ' इत्यादि । तत खलु तस्य कण्डरीकस्य राशस्त "पणीय' प्रणीतम् = सरस गरिष्ठ च पानभोजनम् ' आहारियस्म ममाणस्स' आहारितस्य सत' आहार कुर्वतः सत. 'अइजागरियेण य ' अतिजागरितेन च=
टीकार्य-(तण्ण) इसके बाद (तस्स कडरीयस्स रण्णो) उस कड रीक राजा के ( त पीय पोण मोयण आहारीयस्स समाणस्स अतिजा गरिएणय अइभोयणप्पसगेणय से आतारे णो सम्म परिणमह) इस प्रणीत-सरम-गरिष्ठ पान भोजन के खाने से तथा विपनों की अधिक आसक्ति के कारण अतिजागरण करने से एव प्रमाणाधिक भोजन के 'तएणं तस्स फटरीयस्स रणो' इत्यादि ।
14-(तएण) त्या२५छ(तस्स कडरीयरस रण्णो) ते ४ ४ २०नने (त पणीय पाणभोयण ओहारियस समाणस अतिजागरिएण य अईमो यणप्पसगेण य से आहारे णो सम्म परिणमइ)
તે પ્રણત-સરસ-ગરિક પાન ભજનના આહારથી તેમજ વિષયમાં વધારે પડતી આસક્તિના લીધે, વધારે જાગરણ કરવાથી, અને પ્રમાણ કરતા
Page #1038
--------------------------------------------------------------------------
________________
विपयामरतेरनिगागरणया ' प्रामायणप्पागा' अतिभोजनमान-मावाधिक मोमनेन स माहारो नो सम्पक परिणमति चयापदाहारम्प परिपाको न भवति । ततः सलु तस्य फण्डरीरस्य रामाः 'तसि ' आहारसि ' तम्मिन् आहारे ' अप रिणममाणंसि ' अपरिगमति परिपारमगति सति 'पुत्ररत्तावरत्तकालसम यसि' पूर्वराजापररात्रकारसममेमध्यमागे 'मरसि' भरीर वेदना पार भूता, कोदशीवेदना ? उज्वला-मुबलेशरहिना, विपुलामविशाला-सर्वधरीरव्यामा 'पगादा' मगादा 'जार दुरहियासा' यापद दुरधिसबा-सोलुमशक्या, पुनः स कण्डरीको राजा - पित्तज्जरपरिगयसरी ' पित्तचर परिगतभरीर =पिचवरेण परिगत व्याप्त शरीर यस्प मा-पित्तचरपग्व्यिाप्तशरीर. 'दाहकतीए ' दाह व्युत्क्रान्तिक: दाहभरपालासमाकान्त चापि हिरति आस्ते । ततः खल्ल स कण्डरीको राजा राज्ये च राष्ट्रेच अन्न'पुरे च 'जार अमोववन्ने' यावद मसग से कृत आहार का परिपाक ठीक २ नहीं होता रहा-(सएण तस्स पटरीयस्स रपणो तसि आहारसि अपरिणममाणसि पुन्धरत्तावर त्तकालसमयसि सरीरसि वेयणा पाउन्भुया उज्जला विउला पगाढा जाव दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दारवक्कतीए यावि विहरहे । इसलिये एक दिन की बात है कि उन कडरीक राजा के जब वह कृत सरस गरिष्ठ आहार अच्छी तरह नहीं पचा तय उनके शरीर में रात्रि के मध्यभागमे वेदना प्रादुर्भूत हुई। जिस वजह से वह वेदना सुख के लेश से वर्जित धी उनके समस्त शरीर भर में व्याप्त हो रहा था यहत अधिक थी-यावन वह उन्हें दरधिसद्ध हो रही थी। वित्तज्वर से व्याप्त है शरीर जिन का ऐसे वे कडरीक राजा दाहज्वर की चाला પણ વધારે ભજન પ્રસગોમા કરેલા આહારનું પાચન બરાબર થતું નહીં,
(तएण तम्स क डरीयारा रणो तसि आहार सि अपरिणममासि पुन रत्तावरत्तकालसमय सि सरीर सि वेयणा पाउन्भया उज्जला विउला पगादा जा दुरहियामा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहकतीए यावि विहरइ)
એથી એક દિવસની વાત છે કે તે કડરીક રાજાને જયારે ભજન રૂમ લીધેલા તે સરસ અને ગરિક આહારન સારી રીતે પાચન થયુ નહિ ત્યાર રાત્રિના મધ્ય ભાગમાં તેમના શરીરમાં વેદના થવા ભાડી, તેથી તેઓ ખૂબ જ દુખી થયા આ વેદનામાં માત્ર દુખ જ થતું હતું. તે વેદના તેમના સમર્થ શરીરમાં વ્યાપ્ત થા, તી પ્રમાણુમા તે બહુ જ વધારે હતી યાવત તે તેમના માટે દુર / સહ્ય) થઈ પડી હતી પિત્તજ્વરથી સાપ્ત થયેલા શરીરવાળા તે
l rqामाथी सणशी या
Page #1039
--------------------------------------------------------------------------
________________
न
मनगारधामृतवर्षिणी टो० अ० १९ पुण्डरीक कंठरोकचरितम् ७४, अध्युपपन्ना-मूच्छितो गृद्धः प्रथित अयुपपन्ना राज्यादिषु सर्वथासक्त इत्यर्थः, ' अदुइवस ' आतंदुःखार्तवशात:तचन्आर्तमनसा दु ग्वितः, दुःखात:देहदु खयुक्तः, यशातः राज्यराष्ट्रान्त. पुराधासमतेन्द्रियाशेन विषयग्ववियोगसम्भावनया पीडित =आध्यानोपगत इत्यर्थे । 'अकामए ' अफामका अनिच्छक -मरणवाञ्छारहित , ' अवस्सरसे' अपस्ववश =अपगवस्वातन्त्र्य. परा धीनः सन् कालमासे काल कृत्वा 'अहे सत्तमाए' अधः सप्तम्या पृथिव्याम् तमस्तमः प्रभाख्ये सप्तमे नरके 'उक्कोसकालटिश्यसि' उत्कृष्टकालस्थिति के नरके से भी युक्त हो गये । (तएण से कडरी राजा रज्जे य रहे 1 अतेउरे य जाव अज्झोववन्ने अदुहवसट्टे अकामए अवम्सवसे कालमासे काल किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालहिश्यसि नरयसी नेरइयत्ताए उववणे) इस तरह दुःखित बने हुए वे कडरीक राजा राज्य राष्ट्र, एव अन्तपुर में अव्युपपन्न हो गये इस प्रकार राज्यादिको में सर्वथा आस क्तिभाव से यधे हुए वे राजा मन से दुखित होकर, देह के दुःख से एकक्षण अर्तध्यान में पड़ गये। अन्त में वे, ये नहीं चाहते थे कि मेरी मृत्यु हो जावे-तो भी मासारिक स्थिति से बन्धे हुए होने के कारण या वेदनाओं से पीडित होने के कारण वे स्ववश नहीं थे परतत्र थे, इसलिये काल अवसरकाल करके मर कर नीचे तमस्तम प्रभा नाम के सातवे नरक मे कि जो उत्कृष्ट काल स्थिति प्रमाण है-अर्थात् ३३ सा
(तएण से कडरीए राया रज्जे य रटे य अतेउरे य जाय अज्झोववन्ने अट्ट दुहवसट्टे अकामए अवस्सवसे कालमासे काल किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए, अक्कोसकालदिइयमि नरय सि नेरइयत्ताए उववण्णे)
આ પ્રમાણે દુખિત થયેલા તે ક ડરીક રાજા રાજ્ય, રાષ્ટ્ર અને રણ વાસમા અયુપપન્ન થઈ ગયા એટલે કે વધારે પડતા આસક્ત થઈ ગયા. આ પ્રમાણે ગત્ત્વ વગેરેમા સ પૂર્ણ પણે આસક્ત ભાવથી બધાયેલા તે રાજા મનથી દુખિન થઈને, શારીરિક કષ્ટથી એક ક્ષણ માટે પણ મુક્તિ નહિ થવાને કારણે વિષય સુખના વિયેગની સંભાવના બ લ તેમજ રાજ્ય, રાષ્ટ્ર, રણવાસ વગેરેમા આસક્ત ઈન્દ્રિયોના વશમાં હોવાને કારણે આર્તધ્યાનમાં મગ્ન થઈ ગયા છેવટે તેઓ મૃત્યુને ઈચ્છતા નહોતા છતાએ સસારિક વાતાવરણમાં આ ધાયેલા હોવાને કારણે અથવા વેદનાઓથી પીડિત હેવાને કારણે તેઓ સ્વવશ હતા નહિ, પરવશ–પરતત્ર હતા, એથી કાળ અવસરે કાળ કરીનેમૃત્યુ પામીને-નીચે તમસ્તમપ્રભા નામના સાતમા નરકમાં કે જે ઉત્કૃષ્ટ કાલ
Page #1040
--------------------------------------------------------------------------
________________
हाताच
विपयामातेर विजागरणया ' आसीयणप्पन' अतिभोजनममन=प्रमाणाधिक भोजनेन स महारो तो सम्प परिणमति यावदादारम्य परिपाकी न भवति । ततः खलु तस्य कण्डरीक्स्य रामः ' तसि ' आहारसि तस्मिन् आहारे ' अप रिणममामि' अपरिणमति = परिवारमगच्छति सति पुनस्तारतकालसम यसि पूर्व राजापनका उपमेोर्मध्यमागे 'मरीरामे शरीरे वेदना भादु भूता फोटशीवेदना ? उज्ज्वला=सुम्बलेशरहिता, त्रिपुरा विशाला- मर्वशरीरव्या
"
vo
,
•
पगाढा ' मगाढा 'जान दुरहियासा' यानद् दुरसिया-सोदुमशक्या, पुनः स कण्डरीको राजा ' पित्तज्जरपरिगयसरी ' पित्तन्नर परिगतशरीर=पिचज्वरेण परिगत==याप्त शरीर यस्य स पित्तज्वरपरिव्याप्तशरीरः ' दाहकतीए ' दाह व्युत्क्रान्तिक= दादरयाकासमाकान्त चापि विहरति=स्ते । ततः खलु स कण्डरीको राजा राज्ये च राष्ट्रे च अन्तःपुरे च जान अझोपवने ' यात्
"
प्रसंग से कृन आहार का परिपाक ठीक नहीं होता रहा - (तरण तस्स क्टरीयस्सरण्णो तसि आहारसि अपरिणममाणसि पुण्बरतावर तकालसमयसि सरोरसि वेयणा पाऊभुया उज्जला विउला पाढा जाय दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दारचकतीए यावि विरह) इसलिये एक दिन की बात है कि उन कडरीक राजा के जब वह कून सरस गरिष्ठ आहार अच्छी तरह नहीं पचा तत्र उनके शरीर मे रात्रि के मध्यभागमे वेदना प्रादुर्भूत हुई । जिस वजह से वह वेदना सुख के लेश से वर्जित थी उनके समस्त शरीर भर में व्याप्त हो रही थी बहुत अधिक थी - यावत्र वह उन्हें दुरधि हो रही थी। रिश्तज्वर से व्याप्त है शरीर जिन का ऐसे वे कडरीक राजा दाहज्वर की ज्वाला પણ વધારે ભેજન પ્રસગામા કરેલા આહુ રતુ પાચન ખરાખર થતુ નહાતુ (तरण तस्स कडरीयस्तु रण्णो तसि आहारसि अपरिणममाणसि पुव्व रत्तावरत कालसमय सि सरीर सि वेयणा पाउब्भुया उज्जला विडला पगाढी जाव दुरहियामा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दादवक्कतीए यावि विहरइ )
એથી એક દિવસની વાત છે કે તે કડરીક રાજાને જયારે ભાજન રૂપમા લીધેલા તે સરસ અને રિષ્ઠ આહારનુ સારી રીતે પાચન થયુ નહિ ત્યારે રાત્રિના મધ્ય ભાગમા તેમના શરીરમા વેદના થવા માડી, તેથી તેઓ ખૂબજ
ખી થયા આ વેદનામા માત્ર દુઃખ જ થતુ હતુ, તે વેદના તેમના સપૂ શરીરમા બ્યાસ થઈ રહી હતી પ્રમાણમા તે બહુ જ વધારે હતી યાવત્ તે તેમના માટે દુરધસા ( અસહ્ય ) થઈ પડી હતી પિત્તજ્વરથી વ્યાપ્ત થયેલા શરીરવાળા તે કડરીક રાજા દાહવરની જ્વાળાએથી સળગી ઉઠયા
Page #1041
--------------------------------------------------------------------------
________________
الای
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कंठरोकयरितम् अध्युपपन्ना-मूच्छितो शृद्धः ग्रथित अायुपपनः राज्यादिषु सर्वथासक्त इत्यर्थः, 'अदुइवसह ' आर्तदुःखार्तवशात:-तत्र-आतः मनसा दु सित., दुःखातादेहदु खयुक्तः, पशातः राज्यराष्ट्रान्तः पुराधासक्तेन्द्रियशेन विगयस वियोगसम्भावनया पीडित =आर्तध्यानोपगत इत्यर्थे । ' अफामए ' अकाममा अनिच्छक-मरणवाञ्छारहितः, 'अवस्सपसे ' अपस्ववश अपगतस्वातन्त्र्यः परा धीनः सन् कालमासे काल कृत्वा 'अहे सत्तमाए' असा सप्तम्या पृथिव्याम तमस्तमः प्रभाख्ये सप्तमे नरके 'उकोसकालटिइयसि' उत्कृष्ट कालस्थिति के नरके से भी युक्त हो गये । (तण्ण से कडरीप राया रज्जे य रहे य अतेउरे य जाव अज्झोववन्ने अदुहवसट्टे अकामए अवस्सवसे कालमासे काल किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए उकोसकालहिश्यसि नरयसी नेरइयत्ताए उवषण्णे) इस तरह दुःखित बने हुए वे कडरीक राजा राज्य राष्ट्र, एव अन्तपुर में अव्युपपन्न हो गये इस प्रकार राज्यादिको में सर्वथा आस क्तिभाव से बधे हुए वे राजा मन से दुखित होकर, देह के दुःख से एकक्षण अर्तध्यान में पड़ गये । अन्त में वे, ये नहीं चारते थे कि मेरी मृत्यु हो जावे-तौ भी मासारिक स्थिति से बन्धे हुए होने के कारण या वेदनाओं से पीडित होने के कारण वे स्ववश नही थे परतत्र थे, इसलिये काल अवसरकाल करके मर कर नीचे तमस्तम प्रभा नाम के सातवे नरक मे कि जो उत्कृष्ट काल स्थिति प्रमाण है-अर्थात् ३३ सा
(तएण से क डरीए राया रजे य रट्टे य अतेउरे य जाव अज्झोक्वन्ने अदुहवसट्टे अकामए अवस्सवसे कालमासे काल किन्चा अहे सत्तमाए पुढवीए, अकोसकालद्विइयमि नरय मि नेरइयत्ताए उपवण्णे)
આ પ્રમાણે દુ ખિત થયેલા તે ક ડરીક રાજા રાજ્ય, રાષ્ટ્ર અને રણ વાસમા અયુપન્ન થઈ ગયા એટલે કે વધારે પડતા આસક્ત થઈ ગયા આ પ્રમાણે રાજા વગેરેમા સ પૂર્ણપણે આસક્ત ભાવથી બધાયેલા તે રાજા મનથી દખિન થઈને, શારીરિક કષ્ટથી એક ક્ષણ માટે પણ મુક્તિ નહિ થવાને કારણે વિષય સુખના વિયેગની સંભાવના બદલ તેમજ રાજ્ય, રાષ્ટ્ર, રણવાસ વગેરેમાં આસક્ત ઈન્દ્રિયોના વશમાં હોવાને કારણે આર્તધ્યાનમાં મગ્ન થઈ ગયા છેવટે તેઓ મૃત્યુને ઈચ્છતા નહોતા છતાએ સંસારિક વાતાવરણમાં બધાયેલા હોવાને કારણે અથવા વેદનાઓથી પીડિત હોવાને કારણે તેઓ સ્વવશ હતા નહિ, પરવશ–પરતત્ર હતા, એથી કાળ અવસરે કાળ કરીને -- મૃત્યુ પામીને નીચે તમસ્તમપ્રભા નામના સાતમા નરકમાં કે જે ઉત્કૃષ્ટ કાલ
Page #1042
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
श्रताचर्मका रविकता उपपन्नः एद् एान्तन भगवान महावीर माधुनुपदिशति एवमेव =अनेनैवमकारेण हे आयुष्मतः ! श्रमणाः यः पविदस्माक श्रमणो वा श्रमणी वा आचार्योपाध्यायानामत्तिके यान्यमभितः सन प्रारपि मानुष्यान कामभोगान् 'आसाण्ड ' आपादयति । स ' जा अणुरियट्टिस्मट' यानदनुपर्षटिप्यवियावत्-नातुरन्त ससारकान्तार परिभमिष्यति । ' नहेर से बडरीए राया ' यथैव स पण्डरी राजा ॥ ०६ ॥
मूरम्-तएण से पोंडराए अणगारे जेणेन थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता येरे भगवते वदइ नमसइ, वदित्ता नमसित्ता थेराण अंतिए दोघपि वाउजाम धम्मं पडिवज्जइ, छट्टक्खमणपारणगंसि पढभाए पोरिसीए सज्झाय करेइ, करिता जाव अडमाणे सीयाखं पाणभोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहित्ता, अहापज्जत्तमिति कट्टु पडिणियत
गर की जहा उत्कृष्ट स्थिति है- नारकी की पर्याय से उत्पन्न हो इसी बात को दृष्टान्त से श्री भगवान् महावीर प्रभु साधुओं को झाते है- ( एवामेव समणाउसो ! जाव पञ्चहए समाणे पुणरवि स्सए कामभोगे आमाए जाव अणुपरियटिस्मइ, जहा व से क राधा ) इसी तरह हे आयुष्मत श्रमणो । जो कोई हमारा श्रमण अर्थ श्रमणीजन आचार्य उपा याय के पास मे दीक्षित होकर के पुन मनुष् भव सन्धी कामभोगों को भोगना है वह कडरीक राजा की तरह यावत् इस चतुर्गति रूप ससार कान्नार में परिभ्रमण कयेगा ||३|
સ્થિતિ પ્રમાણુ છે-એટલે કે ૩૩ સાગરની જ્યા ત્કૃષ્ટ સ્થિત છે-નારીની પર્યાયથી જન્મ પામ્યાએ જ વાતને શ્રી ભગવાન મહાવીર પ્રભુ દૃષ્ટાંત રૂપમાં સાધુઓને સમજાવે છે કે~
एवमेव समणाउसो ! जाव पव्वईए समाणे पुणरवि माणुस्सर कामभोगे आसाए जाव अणुपरियट्टिश्वइ, जहा व से क डरीए राया )
આ પ્રમાણે હું આયુષ્મત શ્રમણે ! જે કાઈ અમારા શ્રમણુ અથવા શ્રમણીજન આચાય કે ઉપાધ્યાયની પાસે દીક્ષિત થઇને ફરી જે તે મનુષ્ય ભવના કામલેગાને ભેાગવે છે, તે કડરીક રાજાની જેમ યાવત્ આ ચતુતિ રૂપ સ સાર કાતારમાં પરિભ્રમણુ કરશે ।। સૂત્ર ૬ u
by
Page #1043
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४३
मनगारधामृतषिणी टी० १० १९ पुण्डरीक-फरीषचरित्रम् जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, भत्तपाणं पडिदसेइ पडिदसित्ता, थेरेहि भगवतेहि अन्भणुनाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणझुक्दण्णे बिल मिव पण्णगभूएणं अप्पाणेण तं फासुएसणिज्ज असणपाणखाइमसाइम सरीरकोटगंसि पक्खिवइ । तएणं तस्स पुडरीयस्स अणगारस्स त कालाइकतं अरस विसर सीयलक्ख पाणभोयण आहारियस्स समाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरिय जागरमाणस्स से आहारे णो सम्म परिणमइ । तएणं तस्स पुडरीस्स अणगारस्स सगरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिए विहरइ । तएणं से पुडरीए अणगारे अत्थामे अवलं अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे करयल जाव एव वयासी-णमोऽत्थुणं अरिहताणं जाव सपत्ताणं णमोत्थुणं थेराण भगवताण मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसयाण पुचि पि य ण मए थेराण अतिए सव्वे पाणाइवाए पञ्चक्खाए जाव मिच्छादसणसल्ले णं पच्चक्खाए जाव आलोइयपडिकते कालमासे काल किच्चा सबसिद्ध उववन्ने । तओ अणतर उध्वहित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमत काहिइ। एवामेव समणाउसो । जाव पवइए समाणे माणुस्सएहि कामभोगेहि णो सज्जइ णो रज्जड, जाव विप्पडिघायमावजइ,सेण इहमवे चेव वहूणसावगाणं०
Page #1044
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मव्या नैरपिकतया उपपनः। एन एष्टान्तन गगवान महावीर मानुपदिशति-एवमेव =अने नैवप्रकारेण हे आयुष्मात' ! श्रमणाः यः पविदस्माक श्रमणो वा श्रमणी वा आचार्योपाध्यागानागतिक यात्मनिवः सन पुनरपि मानुप्यमान कामभोगान् 'आसाइ' आचादयति । स 'जार जणुपग्यिहिस्मर' यापदनुपर्यटिष्यतियावत्-चातुरन्तरासाकान्तार परिभ्रमिष्यति । 'जह से कडरीए राया' यथेव स कण्डरीरो राना ।। मू०६ ॥
मूलम्-तएणं से पोंडरीए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदइ नमसइ, वदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चपि चाउजाम धम्म पडिवज्जइ, छक्खमणपारणगंसि पढमाए पारिसीए सज्झाय करेइ, करिता नाव अडमाणे सीयलपख पाणभोयणं पडि गाहेइ, पडिगाहित्ता, अहापज्जत्तमिति कह पडिणियत्तइ,
गर की जहा उत्कृष्ट स्थिति है-नारकी की पर्याय से उत्पन्न हो गये। इसी बात को दृष्टान्त से श्री भगवान महावीर प्रभु साधुओं को सम झाते है-(एवामेव समणाउसो! जाव पचहए समाणे पुणरवि माणु स्सए कामभोगे आमाए जाव अणुपरियहिस्मइ, जहा व से कडरी राया) इसी तरह हे आयुष्मत श्रमणो ! जो कोई हमारा श्रमण अथवा श्रमणीजन आचार्य उपायाय के पाम में दीक्षित होकर के पुन: मनुष्य भव सबन्धी कामभोगो को भोगता है वह कडरीक राजा की तरह यावत् इस चतुर्गति रूप ससार कान्नार में परिभ्रमण कयेगा ।सूत्र६।। સ્થિતિ પ્રમાણ છે-એટલે કે ૩૩ સાગરની જ્યા ભ્રષ્ટ સ્થિતિ છે-નારકીની પર્યાયથી જન્મ પામ્યા એ જ વાતને શ્રી ભગવાન મહાવીર પ્રભુ દેખાતા રૂપમાં સાધુઓને સમજાવે છે કે–
एवामेय समणाउसो! जाव पव्वईए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे भासाए जाव अणुपरियट्टिरसइ, जहा व से क हरीए राया)
આ પ્રમાણે છે આયુમ ત શ્રમણે ! જે કે અમારા શ્રમણ અથવા શ્રમજન આચાર્ય કે ઉપાધ્યાયની પાસે દીક્ષિત થઈને ફરી જે તે મનુષ્ય ભવના કામને ભેગવે છે, તે કડરીક રાજાની જેમ યાવતુ આ ચતુર્ગતિ રૂપ સસાર કાતારમાં પરિભ્રમણ કરશે કે સૂત્ર ૬ છે
Page #1045
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगर
मृतपणी टी० अ० १९ पुण्डरोक- फडरीकचरित्रम्
ક
,
पौरुपया = प्रथमे महरे स्वाध्याय करोति, कृत्या 'अडमाणे' यानत् अटन उच्चनीचमध्यमकुलेषु भिक्षार्थं परिभ्राम्यन् 'सीयलुक्ख ' शीतरूक्ष - शीत- पर्युपित, रूक्ष घृतादिरदिव पान भोजन प्रतिगृह्णावि, प्रतिगृद्य 'अहापज्जतमितिकडे यथापर्यामिति कृत्वा = उदरभरणपर्याप्तमिदमन्नमितिमनसि कृत्य ' पडिणियत्त' प्रतिपरिवज्जह, छट्टक्खमणवारणगसि पढनाए पोरिसी मज्झाय करेह करिता जाव अडमाणे सीयलुक्ख पागभोयण पडिगाहेड, पडिगारित्ता अहापज्जत्तमित्तिक पडिनियत्तइ - जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवा गच्छड, उवागच्छिता भत्तपाणं पडिदसेइ, पडिदसित्ता येरेहिं भगवतेहि अम्भणुन्नार समाणे अमुक अगिद्धे अगढिए अयुबवण्णे विल मिव पण्गगभूषण अपाणेण त फासुएस णिज्ज असणपाणखाइम साइम सरीरको गसि परिवह) वहाँ आकर के उन्हो ने स्थविर भगवतों को वदना नमस्कार किया । वदना नमस्कार करके बाद में उन्हो ने उनसे दुवाराचातुर्याम चतुर्महाव्रतरूप धर्म को धारण किया। जब पक्षपण की पारणा का समय आया उस समय वे प्रथम पौरुपी में स्वाध्याय करते - और स्वाध्याय करके फिर वे उच्च नीच मध्यम कुलों में भिक्षा के लिये परिभ्रमण करते उस समय जो उन्हें शीत - पर्युषित, रूक्ष- घृतादिरहित पान भोजन मिलता- वह वे ले लेते - और यह अन्नसामग्री उदरभरण के लिये पर्याप्त है ऐसा मन में विचार कर वहा से
पारिसीए सज्जाय करेइ करिता जाव अडमाणे सीयलुक्स पाणमोगण पडिताइ पडिगाहिता अहापज्नत्तमि त्ति कटु पडिनियत्तई - जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागन्छइ, उवागन्छित्ता भत्तपाण पडिदसेइ, पडिसित्ता थेरेहिं भगव तेहि, अन्भणुन्ना समाणे अमुच्छिर अगिद्धे अगढिर अणज्झबवण्णे विलमित्र पण्णगभूएण अप्पाणेण त पोसुएसणिज्ज असणपाणसाइमसाइम सरीरको दृगसि पक्सिवइ )
ત્યા આવીને તેમણે સ્થવિર ભગવતેને વદના અને નમસ્કાર કર્યાં વદના અને નમમ્કાર કરીને તેમણે તેમની પાસેથી ખીજીવ ૨ ચાતુર્યોમ-ચતુ મહાવ્રતરૂપ ધર્મને ધારણ કર્યાં જરારે પણ ક્ષપણુની પારણાના વખત આવ્યે ત્યારે તેઓ પ્રથમ પૌરૂષીમા સ્વાઘ્યા કરતા અને સ્વાધ્યાય કરીને તેઓ દુચ્ચ, નીચ અને મધ્યમ કુળમા ભિક્ષા માટે પરિભ્રમણ કરતા તે સમયે તેમને શીત-પર્યું ષિત, રૂક્ષ-ઘી વગરના, પાન આહાર મળને તે તેને તેએ સ્વીકારી લેતા અને આટલે આહાર ઉદર–પેષણ માટે પૂરતા છે’ આવા મનમા વિચાર કરીને ત્યાથી પાછા ફરી જતા પાછા આવીને ભિક્ષામા
४ ९४
Page #1046
--------------------------------------------------------------------------
________________
TÅ
अच्चणिजे वदणिज्जे पूयणिज्जं सबकारनिज्जे सम्माणणिखे कल्याण मंगल देवयइय पज्जुवासणिज्जेतिक परलोप वि य णं णो आगच्छड़ वहूणि दडणाणि य मुंडणाणि प तज्जणाणि य ताडणाणि य जाव घाउरत ससारकतारं जाव वीडवइस्सर जहावसे पोंडरीए अणगारे । एवं खलु जंबू | समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरण तित्थगरेणं जान सिद्धिगइणामधेज्ज ठाण मपत्तेण एगृणवीसइमस्ल नायज्झयणस्स अयमेट्टे पन्नत्ते । एव खलु जबू ! समणेर्ण भगवया महावीरेण जाव सिद्धिगणामधे ठाण संपतेगं छस्स अंगरस पढमस्स सुयक्खधस्स अयम पण्णेचे तित्रेमि ॥ सू० ७ ॥
टीका- ' तुएण से ' इत्यादि । ततः खलु स पुण्डरीकोऽनगारो यत्रैव स्थभिरन्तस्तत्रैव उपगच्छति, उपागत्य स्थविरान भगवतो वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्त्लिा स्थविराणामन्तिके' दोच्चपि द्वितीयमपवारम् चातुर्याम= चतुर्मवरूप धर्म प्रतिपते । तथा पष्ठक्षपणपारणाया समाप्ताया प्रथमाया
GV9
तण से पोंडरीए अणगारे' इत्यादि ।
टीकार्थः -- (तरण) इसके बाद (से पोंडरीए अणगारे ) वे पुडरीक अनगार (जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छ ) जहा स्थविर भग वन विराजमान थे वहा आ गये। (उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदर, नमसह, चदित्ता, नमसित्ता थेराणं अतिए दोच्चपि चाउनाम धम्म
"
(तरण से पो डरीए अणगारे ) इत्यादि ।
अर्थ -- (तरण ) त्यारमा ( से पेंहिरोए अणगारे ) ते युडरी अन गार (जेणेत्र थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छत्र) बना स्थविर लगवत त्रिश
જમાન હતા ત્યા ગયા
( उवागच्छित्ता थेरे भगव से बदह, नम सइ, व दित्ता, नम सित्ता येराण अतिए दोध्यपि चाउण्जाम, धम्म परिवers,
Page #1047
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
.
अनगारघामृतवपिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक-फडरीकचरित्रम् पौरुष्याप्रयमे प्रहरे पाध्याय करोति, कृत्या 'अडमाणे' यानत् अटन उच्चनीचम यमकुलेषु भिक्षार्थ परिभ्राम्यन् 'सीयलुक्ख' शीनरूत-शीत-पर्युपित, रूक्ष घृतादिरहित पान भोजन प्रतिगृनाति, प्रतिगृह्य 'अहापजत्तमितिकटु' यथापर्याप्तमिति कृत्वा उदरभरणपर्याप्तमिदमन्नमितिमनसि कृत्य 'पडिणियत्तइ ' प्रतिपडिवजह, छडक्वमणपारणगसि पढमा पोरिसीए मज्माय करेह करित्ता जाव अडमाणे सीयलुक्ख पागभोयण पडिगाहेड, पडिगाहित्ता अहापज्जत्तमि त्ति कट्टु पडिनियत्ता-जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पडिदसेइ, पडिसित्ता येरेहिं भगवतेहिं अभणुन्नाए समाणे अमुच्छिा अगिद्धे अगढिरा अणझुवपणे विल मिव पगगभूएण अप्पाणेण त फास्तुण्सणिज्ज असणपाणग्वाहम साइम सरीरकोहगसि पक्खिवह ) वहाँ आकर के उन्हो ने स्थविर भगवतों को वदना नमस्कार किया। वदना नमस्कार करके बाद में उन्हो ने उनसे दुवाराचातुर्याम-चतुर्महाव्रतरूप धर्म को धारण किया। जब षष्टक्षपण की पारणा का समय आया उस समय वे प्रथम पौरुपी में स्वाध्याय करते-और स्वाध्याय करके फिर वे उच्च नीच मध्यम कुलों में भिक्षा के लिये परिभ्रमण करते उस समय जो उन्हें शीत-पर्युषित, रूक्ष-घृतादिरहित पान भोजन मिलता-वह वे ले लेते-और यह अन्नसामग्री उदरभरण के लिये पर्याप्त है ऐसा मन में विचार कर वहा से पारिसीए सज्जाय करेइ करित्ता जाव अटमाणे सीयलुग्स पाणमायण पडिताहेइ पडिगाहिता अहापत्तमि त्ति कटु पडिनियत्तई-जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छइ, उवागत्तिा भत्तपाण पडिदसेइ, पडिदसित्ता थेरेहिं भगर हिं, अभणुन्ना समाणे अमुन्डिर अगिद्धे आगढिर अणझुववणे निलमित्र पण्णगभूएण अप्पाणेण त पोसुएसणिज्ज असणपाणसाइमसाइम सरीरकोढग सि पक्सिवइ)
ત્યા આવીને તેમણે સ્થવિર ભગવતેને વેદના અને નમસ્કાર કર્યા વદના અને નમસ્કાર કરીને તેમણે તેમની પાસેથી બીજીવાર ચાતુર્યામ-ચતુ મહાનત રૂપ ધર્મને ધારણ કર્યો જ્યારે પણ લપણની પારણાને વખત આવ્યું ત્યારે તેઓ પ્રથમ પૌરૂષીમા સ્વાધ્યાય કરતા અને સ્વાધ્યાય કરીને તેઓ ચ્ચ, નીચ અને મધ્યમ કુળમાં ભિક્ષા માટે પરિભ્રમણ કરતા તે સમયે તેમને શીન-પવિત, રૂક્ષ–ઘી વગરને, પાન આહાર મળને તે તેને તેઓ સ્વીકારી લેતા અને “આટલો આહાર ઉદર-પોષણ માટે પૂરતું છે? આવે મનમાં વિચાર કરીને ત્યાંથી પાછા ફરી જતા પાછા આવીને ભિક્ષામાં
Page #1048
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५
ताचा अच्चणिज्जे वदणिज्जे प्रयणिज्ज सरकारणिजे सम्माणणिजे कल्लाण मगल देवय चइय पज्जुवासणिज्जेत्तिकटु परलोए वि य ण णो आगच्छइ पहणि दडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य ताडणाणि य जाव चाउरत ससारकतारं जाव वाइवइस्सइ जहावसे पोंडरीए अणगारे । एव खल्लु जवू । समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरणं तित्थगरणं जाप सिद्धिगइणामधेज ठाण मपत्तेण एगृणवीसइमस्स नायज्झयणस्स अयम? पन्नत्ते । एव खल जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाब सिद्धिगइणामधेज ठाणं सपत्तेणं छट्ठस्स अंगरस पढमस्स सुयक्खधस्स अयमहे पण्णेत्ते तिमि ॥ सू० ७॥
टीका-'तएण से ' इत्यादि । ततः खलु स पुण्डरीकोऽनगारो यत्रव स्थविराभगवन्तस्तत्रैव गच्छति, उपागत्य स्थविरान भगवतो वन्दते नमस्यति, पन्दित्वा नमस्यिता स्थविराणामन्तिके 'दोच्चपि' द्वितीयमपिवारम् चातुर्यामचतुर्महावतरूप धर्म प्रतिपद्यते । तथा पष्ठक्षपणपारणाया समाप्ताया प्रथमाया
'तण्ण से पोंडरीए अणगारे' इत्यादि ।
टीकार्थ:-(तपण) इसके याद ( से पोंडरीए अणगारे) वे पुडरीक अनगार (जेणेव थेरा भगवनो तेणेव उवागच्छद) जहा स्थविर भग चन विराजमान थे वहा आ गये। ( उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदइ, नमसह, वदित्ता, नमसित्ता थेराण अतिए दोच्चपि चाउज्जाम धम्म
(तण्णं से पो डरीए अणगारे) इत्यादि ।
साथ-(तएण) त्या२६ ( से पंडरीए अणगारे) ते उरी मन भार ( जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छ) 40 स्थविर मत (३२॥ જમાન હતા ત્યા ગયા
(उवागच्छित्ता थेरे भगवते बदा, नम सइ, व दित्ता, नम सित्ता येराण भतिए दोस्वपि घास जाम, धम्म परिषद, छक्यमणपारणगंधि परमाए
Page #1049
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधामृतयपिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कंडरीकचरित्रम् ४७ समयमुल्लड-य प्राप्तम् , अरस विरस शीतरूक्ष पान भोजनम् ' आहारियस्स' आहारितस्य सत पूर्वरात्रापररात्रकालसमये ' धम्मजागरियं जागरमाणस्स ' धर्म जागारिका जाग्रत धर्मचिन्तनाथ जागरणा कुतः स आहारो नो सम्यक् परिणमति-नो परिपाक गच्छति । ततः खलु तस्य पुण्डरीकस्य अनगारस्य शरीरे वेदना प्रादुर्भूता ' उज्जला जार दुरहियासा' उज्ज्वला यावत् दुरविसह्या, एपा व्याख्यापूर्ववत् , तथा स पुण्डरीकोऽनगारः पितज्वरपरिगतशरीरो दाहव्युत्क्रान्तिका दाहज्वरसमाकुलश्चापि विहरति । तत. खलु स पुण्डरीकोऽनगार 'अस्थामे' अस्थामा गक्तिरहितः, अबल =शारीरिकालरहितः, 'अवीरिए' अवीर्यः उत्साहरहितः, अपुरुपकारपराक्रमः-पुरुषार्थपराक्रमरहितः 'करयल जार' करतल यावत् करतलपरिगृहीतं दशनख मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्-नमोऽस्तु खलु अद्भ्यो यावत्सप्राप्तेभ्यः मोक्ष गतेभ्यः, नमोस्तु खलु स्थविरेभ्यो भगवद्भ्यो मम धर्माचार्येभ्यो धर्मोपदेशकेभ्यः, पूर्वमपि च खलु मया स्थविराणा भोयण आहारियस समाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि धम्मजा गरिय जागरमाणस्स से आहारे णो सम्मं परिणमइ) इस तरह उन पुडरीक अनगार का कालातिकम ने खाया हुआ वह अरस, विरस, शीत, रूक्ष, पानभोजन रात्रि के मध्यभाग में धर्मचिन्तन निमित्त जाग रण करने के कारण अच्छी तरह से नहीं पचता था (तएण तस्स पुडेरीयस्स अणगारस्स सरीरगसि वेपणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवस्कतिए विहरड, तएण से पुडीए अणगारे अस्थामे, अरले, अवीरिए अपुरिसक्कारपरिक्कमे करयल जाव, एव वयासी-मोत्युण अरिहताण जाव सपत्ताण णमोत्थुण थेराण भगवताण मम यम्मायरियाण धम्मोवएसयाण पुब्धि पि य ण मए
लुक्स पाणभोयण आहारियस समाणस पुव्यरत्तोवरत्तकालासमय सि धम्मजाग रिय जागरमाणस्स से आहारे णो सम्म परिणम)
આ પ્રમાણે તે પુડરીક અનગારને કાળાતિક્રમથી કરે તે અરસ, વિરસ, શીત, રૂક્ષે પાન આહારનુ રાત્રિના મધ્ય ભાગમા ધર્મચિંતન માટે કરેલા જાગરણને લીધે સારી રીતે પાચન થતુ ન હતું
(तरण तस्स पुडरीयस्त्र अणगोरस्स सरीरगसि वेयणा पाउ भूया उज्जला गाव दुरहियासा, पित्तज्जरपरिंगयसरीरे दाहवकतिए विहरइ, तएण से पुडरीए अणगारे अत्यामे, अपले, अवीरिए अपुरिसझारपरिषमे फरयल जाव, एव षयासी-णमोत्युग अरिह ताण जाव साताण थैराण भगर ताण मम यम्मायरियाण
Page #1050
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५६ निर्वतेप्रत्यागमति, प्रनिनिय गौरगिभगवनस्तर उपागच्छति, उपागत्य, भक्तपान प्रतिदर्शयनि, प्रतिदर्य, स्थविरभंगाद्विरभ्यनुबातः सन् अपूठित अगृद्ध अग्रथित' अनध्युपपन्ना भामक्तिपग्मिनिन इतिमार', 'बिल मित्र पनगभूपण अपाणेण' मिलमिर पन्नगभूनेन आत्मना सन्यथा पन्नग भूतेन पन्नगमवमागतेन आत्गनानीन पिल प्रवियते, तथा तु 'फामएस णिज्ज' मामुकेपणीयद्वारत्वारिंगटोपानितम् अगन पानं ग्वाय सार 'सरीर फोद्वगसि' शरीरकोष्टके उदरे मतिपति, यथा सुनहो शिरम्य पार्थ भागद्वयमसम्प शन् म यभागत पात्मान रिले प्रवेशपति तथा स मुग्यम्य पाद्वयस्परहित माहार कण्ठनालाभिमुख मवेश्य आहारयतीति भार' । नत खलु तस्य पुण्डरी फस्य अनगारम्प 'कालाउपत' पालातिकान्त कालमतिक्रम्य प्राप्तम्-बुभुक्षा वापिस आ जाते-वापिस आकर फिर प्राप्त भिक्षान्न को दिखाने के लिये वे जहा स्थविर भगवत विराजमान होते वहां आते-यहां आकर प्राप्त भिक्षान्न को उन स्थविर भगवतो को दिग्पलाते-दिखालकर जब वे उस
आहार को खाने की आज्ञा देते-तर वे अमूच्छित भाव से अगृद्धचि त्तवृत्ति से, एव आसक्ति रहित परिणति से उस प्राशुक एपणीय-४२ दोषों से रहित अशन, पान, खाद्य, एव स्वाद्यरूप-आहार को जिस तरह सर्प-गिल में प्रविष्ट होता है उसी तरह से शरीर कोष्टक मेंउदर में डाल देते थे। कारण इसका इस प्रकार है-जैसे भुजग बिल के पार्श्वदय नही छूता हुआ सीधे मध्यभाग से अपने को दिल में प्रविष्ट कराता है उसी तरह वे मुनिराज मुख के पार्षद्वय के स्पर्श से ररित
आहार को सीधे कण्ठनाल में धर कर आहार करते थे (तएण तस्स पुडरीयस्स अणगारस्स त कालाइस्कत अरसविरस सियलुक्ख पाण પ્રાપ્ત આહારને બતાવવા માટે જ્યા તે સ્થવિર ભગવત વિરાજમાન હતા ત્યા આવતા ત્યાં આવીને મેળવેલા આહારને તે સ્થવિર ભગવતેને બતાવતા અને બતાવીને જ્યારે તેઓ તે આહારને ગ્રહણ કરવાની આજ્ઞા કરતા ત્યારે તેઓ અમૂછિત–ભાવથી, અJ -ચિત્તવૃત્તિથી અને આસક્તિ રહિત પરિણતિથી તે પ્રાસુક એવય-૪૨ દેથી રહિત અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્યરૂપે અહી રને જેમ સાપ દરમાં પ્રવેશે છે તેમજ શરીર કેકમા–પેટમાં નાખી દેતા હતા જેમ સાપ દરના બને પાશ્વને સ્પર્શ ન કરતા સીધે વચ્ચે થઈને પિતાની જાતને દરમાં પ્રવિષ્ટ કરાવી લે છે તેમજ તે મુનિરાજ પણ મુખના બને પાશ્વના સ્પર્શથી રહિત આહારને સીધે કઠનાળમાં મૂકીને ઉદરસ્થ કરતા હતા
(सएण तस्म पुस्मीयस्म अणगाररस त कालाइक्कत भरस विरस मिय
Page #1051
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कडरीकचरित्रम्
७३७
समयमुल्लडू-य प्राप्तम्, अरस विरस शीतरूक्ष पान भोजनम् ' आहारियस्स आहारितस्य सत पूर्वरात्रापररान कालसमये 'धम्मजागरियं जागरमाणस्स ' धर्म जागारिका जाग्रत = धर्मचिन्तनार्थ जागरणा कुर्वतः स आहारो नो सम्यक् परिणमति=तो परिपाक गच्छति । ततः खलु तस्य पुण्डरीकस्य अनगारस्य शरीरे वेदना प्रादुर्भूता ' उज्जला जान दुरहियासा ' उज्ज्वला यावत् दूरविसह्या, एपा व्याख्यापूर्ववत्, तथा स पुण्डरीकोsनगार पितज्वरपरिगतशरीरो दाहव्युत्क्रान्तिकः=दाहज्नरसमाकुलचापि विहरति । ततः खलु स पुण्डरीकोऽनगार 'अस्थामे अस्थामा = शक्तिरहित, अचल = शारीरिकनलरहितः, ' अवीरिए ' अवीर्यः = उत्साहरहितः, अपुरुपकारपराक्रमः = पुरुषार्थपराक्रमरहित: ' करयल जान ' करतल यावत् = करतलपरिगृहीतं दगनख मस्तके अञ्जलि कृत्वा एवमवादीत्-नमोऽस्तु खलु अद्भ्यो यावत्समाप्तेभ्यः = मोक्ष गतेभ्यः, नमोस्तु खलु स्थविरेभ्यो भगवद्द्भ्यो मम धर्माचार्येभ्यो धर्मोपदेशकेभ्यः, पूर्वमपि च खलु मया स्थविराणा
भोयण आहारियस समाणस्स पुव्यरत्तावरत्तकालसमयसि धम्मजागरिय जागरमाणस्स से आहारे णो सम्मं परिणमई ) उस तरह उन पुडरीक अनगार का कालातिक्रम में खाया हुआ वह अरस, चिरस, शीत, रूक्ष, पानभोजन रात्रि के मध्यभाग में धर्मचिन्तन निमित्त जागरण करने के कारण अच्छी तरह से नहीं पचता था (तएण तस्सं पुडंरीयस्स अणगारस्स सरीरगसि वेपणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहबक्कतिए बिहरड, तएण से पुडरीए अणगारे अत्थामे, अगले, अवीरिए अपुरिसक्कारपरिक्कमे कॅरयल जाव, एव वयासी - णमोत्थूण अरिहताण जाव सपत्ताण णमोत्थूण राण भगवताण मम वम्मायरियाण धम्मोचएसयाण पुव्विपि यं ण मए
लुक्स पाणभोयण आहारियस समाणस्स पुव्वरत्तविरत्तकालासमय सि वम्मजाग रिय जागरमाणस्स से आहारे णो सम्म परिणम )
આ પ્રમાણે તે પુરરીક અનગારને કાળાતિક્રમથી વિરસ, ગીત, રૂક્ષ પાન આહારનુ રાત્રિના મધ્ય ભાગમાં કરેલા જાગરણને લીધે સારી રાતે પાચન થતુ ન હતું
કરેલે તે અરસ, ધર્મચિંતન માટે
1
(तरण तस्स पुडरीयरस अणगोरस्स सरीरगसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला आव दुरहियासा, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कतिर विहरइ, तरण से पुडरीए अणगारे अत्या मे, अबले, अवीरिए अपुरिसकारपरिकमे करयल जात्र, एव पोत्थन अरिह ताण जाव सरत्ताण येराण भगन ताण मम वम्मायरियाण
Page #1052
--------------------------------------------------------------------------
________________
ઉપર
प्रतिधर्मकथना
मन्तिके सर्व माणातिपातः मत्याग्यात यात् मियादर्शनशल्यं खलु प्रत्याख्यातम् = अष्टादशपापस्यानानि प्रत्याख्यातानि इति भार, उदानीमपि तेषामेव घेरार्ण अति मध्ये पाणाहा पाए जान मिच्छाम सल्लेणं पच्चयात जाव आलोक कालमासे काल किच्या सवट्टसिद्धे वन्ने ) इस कारण पुरीक अनगोर के शरीर में वेदना प्रकट हो गई। जिसके कारण उन्हें क्षणभर भी ज्ञाता नही मिलती। घीरे २ यह समस्त शरीर में भी व्याप्त हो गई। यावत् यह उनके लिये सहन हो सके ऐसी नहीं रहीं वे उसे पड़ी कठिनता से महते। दाहज्वर ने भी इनके शरीर पर अपना प्रभाव जमा लिया। इस तरह ये दाहज्वर की ज्वाला से भी आकुल व्याकुल रहने लगे। धीरे २ इनका शरीर शक्ति रहित हो गया । शारीरिक पल भी इनका जाता रहा। उत्साह रहित एव पुरुषार्थ पराक्रम से विहीन जब ये हो गये तम करतल परिगृहीत दशनखोंवाली अजलि को इन्हों ने अपने मस्तक पर रखकर इस प्रकार का पाठ बोलना प्रारंभ किया यावत् मुक्ति प्राप्त अहंत भगवतों के लिये मेरा नमस्कार हो, मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक स्थविर भगवतों के लिये मेरा नमस्कार हो । मैंने पहिले भी स्थविर भगवतों के निकट सम स्त प्राणातिपात प्रत्याख्यान कर दिया है - यावत् मिथ्यादर्शन शल्य धम्मो सया पुत्रि पि य ण मए थेराण अतिए सव्वे पाणाइवाए पञ्चस्वाप जाव मिच्छाद सणसल्लेण पच्चम्साए जाव आलोइयपडिक्क ते कालमासे काल किच्चा सव्व सिद्धे उपवन्ने )
એથી તે પુરીક અનગારના શરીરમા વેદના પ્રકટ થઈ ગઈ તેથી તેમને એક ક્ષણ માટે પણ શાતા મળતી નહેાતી ધીમે ધીમે આ વેદના સ પૂર્ણ શરીરમા પ્રસરી ગઈ યાવત્ તે તેમના માટે અસહ્ય થઈ ગઈ, ભારે મુશ્કેલીથી તેઓ તેને ખમતા હતા દાહવરે પણ તેમના શરીર ઉપર પેાતાના પ્રભાવ જમાવી લીધા હતેા, એથી તેઓ દાહવરની વાળાઓથી પણ આકુળવ્યાકુળ રહેવા લાગ્યા. ધીમે ધીમે તેમનુ શરીર અશક્ત થઈ ગયુ. શારીરિક મળ પશુ તેમનુ નષ્ટ થઈ ગયું હતું આ પ્રમાણે જ્યારે તેએ ઉત્સાહ રહિત અને પુરૂષા પરાક્રમ વિહીન થઈ ગયા ત્યારે રતલ-પરિગૃહીત દશ નખાવાળી અજલિને તેમણે પેાતાના મસ્તકે મૂકીને આ પ્રમાણેના પાઠ બાલવા લાગ્યા કે યાવત્ મુક્તિ પ્રાપ્ત અહત ભગવાને મારા નમસ્કાર છે, મારા ધર્મોથાય, ધર્મોપદેશક સ્થવિર ભગવાને મારા નમસ્કાર છે મેં પહેલા પણુ ભગવતેની પાસે સમસ્ત પ્રાણાતિપાત કરી દીધુ છે યાવત્ મિઘ્નાદન
Page #1053
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक-कडरीकचरित्रम् अन्तिके पाणातिपात यावत् मियादशनशल्य प्रत्याख्यामि, एव 'जाव आलोइय पडिक्कते' यावदालोचितप्रतिक्रान्त' कालमासे काल कृत्वा सर्वार्थसिद्धे उपपन्नः । ततोऽनन्तरम् तत्पश्चात् सर्वार्थसिद्धात् ' उघट्टित्ता' उद्धृत्य-सर्वार्थसिद्धेनिर्गत्य महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सर्वदुःखानामन्त करिष्यति । पुण्डरीकानगारचरित दृष्टान्तेनोपदय श्रमणानुपदिशति भगवान महावीर:-' एवामेव' अनेनैवप्रकारेण हे आयुष्मन्तः श्रमणाः 'जाव पाइए ' यावत्पत्रजितः योऽस्माक श्रमणो वा श्रमणी वा आचार्योपाध्यायानामन्ति के प्राजितः सन् मानुष्य के पु कामभोगेषु नो सज्जते नो असक्तिमाश्रयते 'नो रज्जते ' नो रज्यते-नो अनु रागवान् भवति, 'जाव नो विप्पडियायमावनइ' यावत् नो विप्रतिघातमापद्यते-सयमनाश न प्राप्नोति, स खलु इह भवे एव बहूना श्रमणाना बहूना श्रमणीना बहूना श्रावकाणा बहूना श्राविकाणाम् अर्चनीयो वन्दनीयः पूजनीयः सत्कारणीयः सम्माननीयो मरति, तथा च-स सर्वेषा 'कल्लाण' कल्याण= कल्याणरूपम् ' मगल' मङ्गलम्-मगल पम् , 'देवय' दैवत-धर्मदेवरूपः, 'चेइय' चैत्यम् ज्ञानरूप पर्युपासनीयश्च भवति 'तिकडु' इति कृत्वा इति का अष्टादश पोपस्थानो का, मैंने प्रत्याख्योन कर दिया है। और अब भी उन्ही के साक्षी से प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का प्रत्याख्यान करता है। इस तरह आलोचित प्रतिक्रान्त होकर वे कालअवसर कालकर सर्वार्थ सिद्ध नामके अनुत्तर विमान में उत्पन्न हो गये। (तओ अणतर उच्चहित्ता महाविदेहे चासे सिज्झिहिह, जाव सम्वदुक्खा णमत काहिह, एवोमेव समणाउसो! जाव पव्वहए समाणे माणुस्स एहिं कामभोगेहिं णो सजइ, णो रज्जइ, जाव नो विप्पडियायमाजज सेण इह मवे चेव चढण सावियाण अच्चणिज्जे, वदणिज्जे, पूणिज्जे. सरकारणिज्जे सम्माणिज्जे, कल्लाण मगल देवय चेहय पज्जुवासપાપથાનોનુ મે પ્રત્યાખ્યાન કરી દીધુ છે અને હવે તેમની જ સાક્ષીમા પ્રાણુતિપાત યાત્ મિથ્યાદર્શન શવનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ આ પ્રમાણે આચિત પ્રતિકાત થઈને તેઓ કાળ અવસરે કાળ કરીને સર્વાર્થસિદ્ધ નામના અનુત્તર વિમાનમાં ઉત્પન્ન થઈ ગયા અને ત્યા તેમની ૩૩ સાગરોપમની સ્થિતિ છે
(तओ अणतर उध्वद्वित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, जाप सव्यदक्याणमत काहिइ, एवामेव समणाउसो । जाव पव्वइए समाणे माणुस्सएहि काम मोगेहि णो सज्जइ, णो रज्जइ, जाव नो विपडियायमावज्जइ से ण इह भवे चेय यहूण सावियाण अवणिज्जे, वणिज्जे, पूयणिज्जे, सकारणिग्ने, सम्माणजि उजे, कालाण मगल देवय चेइय पज्जुवासणिज्जे त्ति कटु परलोए वि यणं णो
Page #1054
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५८
हाताधर्मवयास मन्तिके मनः माणातिपात: प्रत्यारगातः या मियानन्य खलु प्रत्याख्यातम्भप्टादशपापस्थानानि पत्याग्यातानि प्रति मा३, इदानीमपि तेषामेव धेरार्ण अति मन्ये पाणारयाग पच्चमा जार मिच्छादमणसल्ले णं पच्चम्पाप जाव आलोहयपटियकते कालमासे काल किच्चा सम्वट्ठ सिद्धे उववन्ने ) इस कारण पुढरीक अनगार के शरीर में वेदना प्रकट हो गई। जिसके कारण उन्हें क्षणभर भी शाता नरी मिलती। धीरे २ यह समस्त शरीर में भी व्याप्त हो गई। यावत् यह उनके लिये सहन हो सके ऐसी नहीं रही-वे उसे पड़ी कठिनता से महते । दाहज्वर ने भी इनके शरीर पर अपना प्रभार जमा लिया। इस तरह ये दाइज्वर की ज्वाला से भी आकुल व्याकुल राने लगे। धीरे २ इनका शरीर शक्ति रहित हो गया। शारीरिक पल भी इनका जाता ररा। उत्साह रहित एव पुरुषार्थ परामाम से विहीन जब ये हो गये तय करतल परि गृहीत दशनवोंवाली अजलि को इन्हों ने अपने मस्तक पर रखकर इस प्रकार का पाठ पोलना प्रारभ किया याचत् मुक्ति प्राप्त अईत भगवतों के लिये मेरा नमस्कार हो, मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक स्थविर भगवतों के लिये मेरा नमस्कार हो । मैने पहिले भी स्थविर भगवतों के निकट सम स्त प्राणातिपात प्रत्योख्यान कर दिया है-यावत् मिथ्यादर्शन शल्य धम्मोवएसयाण पुब्धि पि य ण मए थेराण अतिए सव्वे पाणाइनाए पञ्चक्खाए जाव मिच्छाद सणसल्लेण पच्चक्साए जाव आलोइयपडिस्कवे कालमासे काल किच्चा सम्बद्ध सिद्ध उववन्ने )
એથી તે પુડરી અનગરના શરીરમાં વેદના પ્રકટ થઈ ગઈ તેથી તેમને એક ક્ષણ માટે પણ શાતા મળતી નહતી ધીમે ધીમે આ વેદના સ પૂર્ણ શરીરમાં પ્રસરી ગઈયાવા તે તેમના માટે અસહ્ય થઈ ગઈ, ભારે મુશ્કેલીથી તેઓ તેને ખમતા હતા દાહનવારે પણ તેમના શરીર ઉપર પિતાને પ્રભાવ જમાવી લીધું હતું, એથી તેઓ દહેજવરની જ્વાળાઓથી પણ આકુળ-વ્યાકુળ રહેવા લાગ્યા ધીમે ધીમે તેમનું શરીર અશક્ત થઈ ગયું શારીરિક બળ પણ તેમનુ નષ્ટ થઈ ગયુ હતુ આ પ્રમાણે જ્યારે તેઓ ઉત્સાહ રહિત અને પરૂષાર્થ પરાક્રમ વિહીન થઈ ગયા ત્યારે કરતલ-પરિગ્રહીત દશ નમાજ" અ જલિને તેમણે પિતાના મસ્તકે મૂકીને આ પ્રમાણુને પાઠ બોલવા લાગ્યા કે યાવત્ મુક્તિ પ્રાપ્ત અહંત ભગવતેને મારા નમરકાર છે, મારા ધર્માચાર્ય, ધર્મોપદેશક સ્થવિર ભગવ તેને મારા નમસ્કાર છે કે પહેલા પણ ભગવતેના પાસે સમસ્ત પ્રાણાતિપાત કરી દીધુ છે યાવત મિથ્યાદર્શન
Page #1055
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १५ पुण्डरीक - कडरीकचरित्रम्
eve
अन्तिके माणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य प्रत्याख्यामि एव 'जान आलीइय पडिक ' यावदालोचितप्रतिक्रान्तः कालमासे काल कृत्वा सर्वार्थसिद्धे उपपन्नः । ततोऽनन्तरम् = तत्पश्चात् सर्वार्थसिद्धात् 'उच्चट्टित्ता ' उद्धृत्य = सर्वार्थसिद्धेर्निर्गत्य महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सर्वदुःखानामन्त करिष्यति । पुण्डरीकानगारचरित दृष्टान्तेनोपदश्ये श्रमणानुपदिशति भगवान् महावीरः - ' एवामेव '
कारण हे आयुष्मन्तः श्रमणाः 'जात्र पाइए ' यावत्मत्रजितः = योऽस्माक श्रमणो वा श्रमणी वा आचार्योपाध्यायानामन्ति के मनजित सन् मानुष्यकेषु कामभोगेषु नो सज्जते नो असक्तिमाश्रयते ' नो रज्जते ' नो रज्यते=नो अनु रागवान् भवति, ' जाव नो विष्पडिघायमावज्जइ ' यानत् नो विप्रतिघातमापद्यते = सयमनाश न प्राप्नोति, स खलु इह भवे एव बहूना श्रमणाना बहूना श्रमणीना वहना श्रावकाणा बहूना श्राविकाणाम् अर्चनीयो वन्दनीयः पूजनीयः सत्कारणीयः सम्माननीयो भवति, तथा च- स सर्वेषा 'कल्ला' कल्याण = कल्याणरूपम् ' मगल ' मङ्गलम् - मङ्गल रूपम्, 'देश्य ' दैवत = धर्मदेवरूपः, 'चेइय' चैत्यम् = ज्ञानरूप पर्युपासनीयश्च भवति ' तिकट्टु ' इति कृत्वा इति का अष्टादश पापस्थानो का मैने प्रत्याख्यान कर दिया है । और अब भी उन्हीं के साक्षी से प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का प्रत्या ख्यान करता है । इस तरह आलोचित प्रतिक्रान्त होकर वे कालअवसर कालकर सर्वार्थ सिद्ध नामके अनुत्तर विमान में उत्पन्न हो गये । (तओ अणतर उच्चट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहि, जाव सव्वदुक्खा
मत काहिह, एवामेव समणाउसो ! जाव पव्व समाणे माणुस्स एहिं काम भोगेहिं णो सज्जह, णो रज्जइ, जाव नो विष्पडिघाय मावज्जह सेण इह भवे चेवण सावियाण अच्चणिज्जे, वदणिज्जे, पूर्याणिज्जे, सत्कार णिज्जे राम्माणणिज्जे, कल्लाण मंगल देवय चेहय पज्जुवास
પાસ્થાનાાનુ મે પ્રત્યાખ્યાન કરી દીધુ છે અને હવે તેમની જ સાક્ષીમા પ્રાણતિપાત યાર્વત્ મિથ્યાદર્શન શનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છુ આ પ્રમાણે આલેાચિત પ્રતિક્રાત થઈને તેઓ કાળ અવસરે કાળ કરીને સર્વાં་સિદ્ધ નામના અનુત્તર વિમાનમા ઉત્પન્ન થઈ ગયા અને ત્યા તેમની ૩૩ સાગરોપમની સ્થિતિ છે ( तओ अणतर उट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिदिइ, जाव सव्वदुक्ाणमत काहिइ, एवामेत्र समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे माणुस्सरहिं काम भोगेहि णो सज्जइ, णो रज्जइ, जाव नो विपडियायमावज्जइ से ण इह भवे चेय चहूण सावियाण अच्चणिज्जे, वढणिज्जे, पूयणिज्जे, सकारणिज्ने, सम्माणणि उजे, कलाण मंगल देवय चेइय पज्जुवासणिज्जे त्ति कट्टु परलोए वि य णं णो
Page #1056
--------------------------------------------------------------------------
________________
७/५०
हेतोः परलोकेऽपि च सानो आगच्छति न प्राप्नोति बहुनिहुविधानि दण्डनानि च मुण्डनानि च वर्जनानि च ताडनानि च यावत् चतुरन्त संसार कान्तर 'पीड' व्यति ग्रनिष्यति उद्धर्पयिष्यति, यथा स पुण्डरीकोऽनगार णिज्जे ति फट्ट परलो वि य ण णो आगच्छह, चहणि दडणाणि प मुडणाणि य तज्जणाणि य ताडगाणि य जाव वाउरत ससारकनार जाव atresसह ) हसके बाद वे उस सर्वार्थ मिद्ध विमान से चव कर महाविदेहक्षेत्र में जन्म धारण कर वहीं से सिद्धपद के भोक्ता बनेंगेयावत् समस्त दुःखों का अन्त करेंगे । इम तरह पुडरीक अनगार के चरित्र को दृष्टान्त रूप से करकर भगवान् महावीर प्रभु श्रमणजनों को उपदेश करते हैं कि इसी प्रकार से हे आयुष्मत श्रमणो ! जो हमारा श्रमण या श्रमणीजन आचार्य उपाध्याय के पास प्रब्रजित होकर मनु प्यभव समधी कामभोगों में आसक्त नही घनता है, रज्जित-अनुराग भाव सपन्न नही होना है, यावत् अपने सयम को नष्ट नहीं करता है, वह इस भव में ही अनेक श्रमण श्रमणी श्रावक एव श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय वदनीय पूजनीय सत्करणीय एव सन्माननीय होता है। तथा जगत के लिये कल्याणरूप, मगलरूप, धर्म देवरूप, और ज्ञानरूप बन जाता है। लोग उसकी उपासना करते हैं। वह परलोक में भी अनेक प्रकार के दडनरूप, दुखो को, मुडनों को तर्जनों को, ताडनाओं
-
छाताच
आगच्छइ, बहूणि दडणाणि य मुडणाणिय तज्जणाणि य ताडगाणि य जाव घार तस सारकतार जाव वीइवइस्सर )
ત્યારપછી તેઓ તે સર્વાર્થસિદ્ધ વિમાનમાથી ચવીને માવિદેહ ક્ષેત્રમા જન્મ ધારણ કરીને ત્યાથી જ સિદ્ધપદ મેળવશે યાવતુ સમસ્ત દુખાના અત કરશે આ રીતે પુ ડરીક અનગારના ચરિત્રને ધ્યાત રૂપે કહીને મહાવીર પ્રભુ શ્રમણુજનાને ઉપદેશ કરતા કહે છે કે આ પ્રમાણે જ હું આયુષ્મત શ્રમણે જે અમારા શ્રમણ કે શ્રમણીજના આચાર્યં ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રત્રજિત થઇને મનુષ્ય ભવના કામભેગામા આસક્ત થતા નથી . રતિ અનુરક્ત થતા નવી, યાવત્ પોતાના સ યમને નષ્ટ કરતા નથી તે આ ભવમા જ ઘણા શ્રમણશ્રમણી અને શ્રાવક- मोडेनीय, वहनीय, पूजनीय, सत्गुरष्ट्रीय અને સન્માનનીય દેવરૂપે અને
'
1
પણ ઘણી
જતના માટે કલ્યાણુરૂપ, મ ગળરૂપ, ધર્મ “ કે તેની ઉપાસના કરે છે, તે પરલેાકમા નાને ત
Page #1057
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवपिणी टीका म० १९ पुंडरीक-फहरीकचरित्रम् ७५१
सुधर्मास्वामी कथयति-एर खलु हे जम्बुः । श्रमणेन भगरता महावीरेण आदिकरेण तीर्थकरण यावत् सिद्धिगतिनामधेय स्थान समाप्तेन एकोनविंशतित मस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः । ज्ञातश्रुतस्कन्ध समापयन् सुधर्मा पुनः कथययि-एव खलु हे जम्यू!! श्रमणेन भगवता महापीरेण यावन् सिद्धिगतिनामधेय स्थान समाप्तेन पष्ठस्य अङ्गस्य पष्ठाइसम्बन्धिन प्रथमस्य श्रुतस्कन्धस्य अयमय: पूर्वोक्तरूपो भावः प्रज्ञप्ता भगवता कथितः । 'त्ति वेमि' इति ब्रवीमि, व्याख्या पूर्ववत् ॥ मू०७॥ को नहीं पाता है और चतुर्गतिवाले इस समार कान्तार को पुडरीक अनगार की तरह पार करनेवाला हो जाता है । (एव खलु जन् ! समणेण भगवया महावीरे ण आइगरेण तित्यगरेण जाव सिद्ध गई नामबेज्ज ठाणं सपत्तेण एगूणवीसहमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पाणत्ते, एव ग्बलु जवू ! समणेण भगवया महावीरे ण जाब सिद्धिगइणामधेज्ज ठाणं सपत्ते ण छहस्स अगस्स पढमस्स सुयक्खधस्स अयमढे पाणत्ते त्तिवेमि) अव श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जवू । आदिकर तीर्थकर. यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने १९ वे ज्ञाताभ्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है। इस तरह हे जब ! श्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिद्धिगति नामक स्थान को अच्छी तरह प्राप्त कर चुके हैं, उठे अग के प्रथम श्रुतस्कर का यह पूर्वोक्त रूप से भाव प्रतिपादित किया है। ऐमा मैंने प्रभु के कहे अनुसार ही यह हे जवू ! तुमसे निवेदित किया है। પ્રાપ્ત કરતું નથી અને થતુગતિવાળા આ સ સાર કાતારને પુડરીક અનગારની જેમ પાર કરનાર થઈ જાય છે
(एव सलु न | समणेण भगवया महावीरेण आइगरेण तित्यगरेण जाव सिद्धगई नामधेन ठाण सपत्तेण पगूणवीस इमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पगत्ते, एव खलु जनू ! समणेण भगवया महार्व रेण जाव सिद्धिगइणामधेन्ज ठणं सपत्तेण उदुस्स अगरस पढमस्स सुयक्सधस्स अयम पण्णते तिचेमि)
હવે શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છે કે હે જ બૂ! આદિકર તીર્થ કર યાવત સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચુકેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ઓગણીસમી જ્ઞાતાશ્ચયનને આ પૂર્વોક્ત રીતે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે આ પ્રમાણે હું જ બૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર કે જેમણે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને સારી રીતે પ્રાપ્ત કરી લીધુ છે-છઠ્ઠા આગના પ્રથમ શ્રુત- ધને આ પૂર્વોક્ત પમા ભાવ પ્રતિ પાદિત કર્યો છે જે જ બૂ! આવુ કે પ્રભુના કહ્યા મુજબ જ તમને કહ્યું છે ?
Page #1058
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५० हेतोः पग्लोकेऽपि च खलु सा नो आगन्छतिन प्राप्नोति बहनि-बहुविषानि दण्डनानि च मुण्डनानि च तनानि न ताडनानि च यावत् चतुरन्त संसार फान्तर 'पीइडम्पड' प्यनिमियति उहायियति, यथा म पुण्डरीकोऽनगार णिज्जे ति कटु परलो यि य ण णो आगच्छर, पहगि दडणाणि प मुडणाणि य तज्जणाणि य ताहगाणि य जाव चाउरतससारकनार जाय घीहवहस्सइ) इसके याद वे उस सर्वार्ध मिद विमान से थव कर महाविदेहक्षेत्र में जन्म धारण कर वहीं से मिद्धपद के मोक्ता बनगेयावत् समस्त दुप्पों का अन्त करेंगे। हम तर पुडरीक अनगार के चरित्र को दृष्टान्त रूप से करकर भगवान महावीर प्रभु श्रमणजनों का उपदेश करते है कि इसी प्रकार से हे आयुष्मत श्रमणो ! जो हमारा श्रमण या श्रमणीजन आचार्य उपाध्याय के पास प्रबजित होकर मनु प्यभव सबंधी कामभोगों में आसक्त नही बनता है, रज्जित-अनुराग भाव सपन्न-नहीं होता है, यावत् अपने सयम को नष्ट नहीं करता है। वह इस भव में ही अनेक श्रमण श्रमणी, श्रावक एव श्राविकाओ द्वारी अर्चनीय वदनीय पूजनीय सस्करणीय एव सन्माननीय होता है। तथा जगत के लिये कल्याणरूप, मगलरूप, धर्म देवरूप, और ज्ञानरूप घन जाता है। लोग उसकी उपासना करते हैं। वह परलोक म अनेक प्रकार के द्डनरूप, दुःखों को, मुडनों को तर्जनों को, ताटनाआ आगच्छइ, बहूणि दडणाणि य मुडणाणिय तज्जणाणि य ताडगाणि य जाव चाउर तस सारकतार जाव वीइवइस्सइ)
ત્યારપછી તેઓ તે સર્વાર્થસિદ્ધ વિમાનમાથી ચવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ ધારણ કરીને ત્યાથી જ સિદ્ધપદ મેળવશે યાવતુ સમસ્ત દુખેને અત કરશે આ રીતે પડરીક અનગારના ચરિત્રને છાત રૂપે કહીને મહાવીર પ્રજી શમણુજને ઉપદેશ કરતા કહે છે કે આ પ્રમાણે જ છે આયુમતિ શ્રમ જે અમારા શ્રમણ કે શ્રમણીજને આચાર્ય ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રજિત થઇન મનુષ્ય ભવના કામગોમાં આસક્ત થતા નથી રજિજત-અનુરક્ત થતા નથી; યાવતું પોતાના સ યમને નષ્ટ કરતા નથી તે આ ભવમાં જ ઘણુ શ્રમ શ્રમણી અને શ્રાવક-શ્રાવિકાઓ વડે અર્ચનીય, વદનીય, પૂજનીય, સત્કર* અને સન્માનનીય હેય છે તેમજ જાતના માટે કલ્યાણરૂપ, મ ળરૂપ દેવરૂપ અને જ્ઞાનરૂપ બની જાય છે કે તેની ઉપાસના કરે છે, તે પરલેકમ પણ ઘણી જાતના દડન રૂપ, દુખે, મુડને, તજે”
Page #1059
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १९ पुंडरीक-फहरीकचरित्रम् ७५१
सुधर्मास्वामी कथयति-एर खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगमता महावीरेण आदिकरेण तीर्थकरेण यावत् सिद्धिगतिनामवेय स्थान समाप्तेन एकोनविंगतित मस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थ मज्ञप्तः । ज्ञातश्रुतस्कन्ध समापयन् सुधर्मा पुनः कथययि-एव ग्वल हे जम्बू ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेय स्थान समाप्तेन पष्ठस्य अङ्गस्य-पष्ठागसम्बन्धिन प्रथमस्य श्रुतस्कन्धस्य अयम: पूर्वोक्तरूपो भावः प्रज्ञप्तः भगरता कथितः । ‘ति बेमि' इति ब्रवीमि, व्याख्या पूर्ववत् ॥ सू०७ ॥ को नहीं पाता है और चतुर्गतिवाले इस समार कान्तार को पुडरीक अनगार की तरह पार करनेवाला हो जाता है । (एवं खलु जबू' सम णेण भगवया महावीरे ण आइगरेण तित्वगरेण जाव सिद्ध गई नामधेज्ज ठाण संपत्तण एगूणवीसइमस्स नायज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते, एव ग्वलु जबू! समणेण भगवया महावीरे ण जाव सिद्धिगइणामधेज ठाण सपत्ते ण छट्ठस्स अगस्स पढमस्स सुयक्खधस्स अयम? पण्णत्ते तिवेमि) अव श्री सुधर्मा स्वामी कहते है कि हे जवू आदिकर तीयकर यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने १९ वे ज्ञाता ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है। इस तरह हे जवू ! श्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिद्धिगति नामक स्थान को अच्छी तरह प्राप्त कर चुके हैं, उठे अग के प्रथम श्रुतस्कर का यह पूर्वोक्त रूप से भाव प्रतिपादित किया है। ऐसा मैंने प्रभु के कहे अनुसार ही यह हे जनू ! तुमसे निवेदित किया है। પ્રાપ્ત કરતા નથી અને થતુતિવાળા આ સસાર કાતારને પડરીક અનગારની જેમ પાર કરનાર થઈ જાય છે
(एव सलु न । समणेण भगवया महावीरेण आइगरेण तित्यगरेण जाव सिद्धगई नामधेज्ज ठाण सपत्तेण पगूणवीस इमस्स नायज्झयणस्स अयमटे पष्णत्ते, एव खलु जवू । समणेण भगवया महा रेण जाव सिद्धिगइणामधेन ठण सपत्तेण दुस्स अगस्स पढमस्स सुयक्सधस्स अयम पण्णते तिबेमि ) ।
- હવે શ્રી સુધમાં સ્વામી કહે છે કે હે જ બૂ! આદિકર તીર્થ કર યાવત સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચુકેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ઓગણીસમાં જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રીતે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે આ પ્રમાણે હે જ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર કે જેમણે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને સારી રીતે પ્રાપ્ત કરી લીધુ છે-છઠ્ઠા અગના પ્રથમ શ્રુત–રક ધને આ પૂવેક્ત રૂપમાં ભાવ પ્રતિ પાદિત કર્યો છે જે જ બૂ! આવુ કે પ્રભુના કહ્યા મુજબ જ તમને કહ્યું છે
Page #1060
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१२
माया 'तस्से 'स्पादि, तस्य प्रयमस्य श्रुतसायम्य एकोनविंशतिर गयनानि 'एगपरगाणि' एकानि-मानोगारणानिताले उदेशग्विानि एकोन विशति दिवसेषु समाप्यने ।। गृ०७ ।
मगल मगगन : मगर गौतम' प्रह।
सुधर्मा मगल, जघूमनधर्मश्र मालम् ॥ १ ॥ इति श्री विश्वनि पात-जगदमछम-असिद्धाकपश्चदशभाषाकलिनकलितक लापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनेकग्रन्थनिर्मापक-धादिमानमर्दा-श्रीशाहूच्छ पतिकोल्हापुरराजमदत्त-'जैनशावाचार्य' पदभूपित-कोल्हापुररान गुरु-पालनमचारि जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री-बासीलारप्रतिविरचिताया 'शाताधर्मकथार' भूत्रस्यानगारधर्मामृतव
विण्याग्याया व्यार याया प्रश्मश्रुतस्कंध समाप्त ॥ इस कथन में मैंने अपनी तरफ से कोई भी कल्पना मिश्रित नहीं की है किन्तु प्रभु के मुग्य से जैमा मने इसे सुना है वैसा ही यह तुम से मैंने कहा है । "तस्से " त्यादि इस प्रथम श्रुतस्कध के अन्तराल में उद्देश रहित १९ अध्ययन है। ये अध्ययन १९ दिनों में समाप्त होते हैं।
टीकार्थ:-सासरिक समस्त जीवों के लिये यदि मगलकारी पदार्थ है-तो ये हैं भगवान महावीर प्रभु गौतमगणघर, सुधर्मास्वामी, जबू स्वामी और जैनधर्म।
इस तरह ज्ञाताधर्मकबाङ्ग सुरके प्रथम श्रुतस्कप सपूर्ण।। આ કથનમાં મે મારા તરફથી કેઇપણ જાતની કલ્પના મિશ્રિત કરી નથી, ५ प्रभुना मुमथी में सामन्यु छ तर में हुछे " तस्से " त्य આ પ્રથમ કૃતક ધના અતરાલમાં ઉદેશ રહિત ઓગણીસ અ યને છે આ અધ્યયને ઓગણીસ દિવસોમાં સમાસ હોય છે
ટીકા –બધા સાસારિક જીવેના માટે જે મગળકારી પદાર્થો છે તે તે એજ છે-ભગવાન મહાવીર પ્રભુ, ગૌતમ ગણધર, સુધમાં સ્વામી, જબ હવામી અને જૈન ધર્મ
“આ પ્રમાણે જ્ઞાતાધર્મ કથાગને જ્ઞાતા–નામે પ્રથમ કૃતક ધ સમાપ્ત થયે”
Page #1061
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अथ ज्ञातासूत्रे द्वितीयश्रुतस्कन्धविवरणम् ॥
मगलाचरणम्
(सन्ततिलकात्तम् ) आये श्रुते भगवता रुचिरैरनेकै,
तिरदायि सफलार्तिहरः सुबोध । सन्चे द्वितीयइह धर्मस्था च मामाद् , विज्ञापिता तमनिश वरद स्मरामि ॥ १ ॥
( मालिनीछन्द) गणधरगुण पार, प्राप्तमसारपारम् , भपिजनहितकार, दत्तसम्यस्त्वसारम् , । हृतसकलविकार भव्यचित्तैकहार , गिरनुखपदधार, नौमि चारिनसारम् , ॥ २ ॥
-द्वितीपश्रुतस्कधप्रारभ:आद्येश्रुते इत्यादि'-प्रथम श्रुतम्कधमे भगवान् सूत्रकार ने अनेक सुन्दर दृष्टान्तों द्वारा सकल आति (दुःख) हारक सुबोध प्रदान किया है अब वे इस द्वितीय श्रुतस्कध में साक्षात् धर्मकथाएँ प्रकट करेंगे-अतः ऐसे भगवान को मैं कि जो भव्यजीवों को कल्याण करनेवाले होते हैं उनको निरन्तर नमस्कार करता? ॥ १ ॥ ____ गणधरदत्यादि-जो गणधरो के गुणों को धारण करनेवाले हैं ससार को पार करनेवाले है, जो भव्यजनों को हितकारक है, सम्यक्त्वरूपी गुणके योधक है-सकल विकारों से रहित है, इसलिये जो भव्य जीवों
દ્વિતીય શ્રુતસ્ક ધ પ્રારભ आये तेत्यादि-प्रथम श्रुतधभा भगवान सूत्र॥२ पासुर हष्टात વડે સમસ્ત આતિ (દુખ) હાક સુવ પ્રદાન કર્યો છેહવે તેઓ આ બીજા ધમાં સાક્ષાત્ ધર્મકથાઓ પ્રકટ કરશે એટલા માટે એવા ભગ વાનને-કે જેઓ ભવ્ય જીનું કારણ કરનારા છે-હુ નિરતર નમસ્કાર કરૂ છુ ૧
ગણધર ઈત્યાદિ–જેઓ ગણધરોના ગુણોને ધારણ કરનારા છે, મસા રને પાર કરનારા છે જેઓ ભવ્યજનના હિતકારક છે, મકવ રૂપી ગુણના બેધક છે, આ બધા વિકારોથી રહિત છે, એટલા માટે જ જેઓ ભવ્ય જીના
Page #1062
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानाचा
1
'तसे' स्यादित प्रथमस्य श्रुतस्य एकोनविं] मतिरभ्ययनानि ' एगमरगाणि परुपकानिमानोकदारणानि तराले उद्देश्वरहितानि एकोन विंशति दिवसेषु समाप्यते ॥ मु० ७ १
मगलं भगवान ः मग गौतम' म' |
सुधर्मा मंगल, जनू जैनधमंत्र मलम् ॥ १ ॥ इति श्री विश्वनिपात- जगदम-मसिद्वाचकपञ्चदशभाषाक लिखखलितक लापालापक-पचिद्वगद्यपद्यनेकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दन - श्रीशाइन्छ त्रपति कोलापुररानमा- 'जैनशास्राचार्य परभूषित - कोल्हापुरराज गुरु-पालनाचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिनाकर पूज्यश्री-रासीलारअतिरिरचिताया ' शाताधर्मकथा ' सूत्रस्थानगारधर्मामृतत्र
दिव्याख्याया व्याग्याया ममयुतम् समाप्तः ॥
ફર્
J
में
इस कथन में मैंने अपनी तरफ से कोई भी कल्पना मिश्रित नहीं की है किन्तु प्रभु के मुख से जैसा मैने इसे सुना है वैसा ही यह तुम से मैंने कहा है । "तस्से " त्यादि इस प्रथम श्रुतस्कघ के अन्तराल उद्देश रहित १९ अध्ययन है । ये अध्ययन १९ दिनों में समाप्त होते हैं। - सारिक समस्त जीवों के लिये यदि मंगलकारी पदार्थ है - तो ये हैं भगवान महावीर प्रभु गौतमगणघर, सुधर्मास्वामी, जबू Farat और जैनधर्म |
इस तरह ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सुनके प्रथम श्रुतस्कर सपूर्ण
આ સ્થનમા મે મારા તરફથી કાઈપણુ જાતની કુપના મિશ્રિત કરી નથી, याशु प्रभुना भुाथी लेवु मे सामज्यु छे तेवुन मे अछे “ तहसे " त्यहि આ પ્રથમ જીત રક ધના તરાલમા ઉદ્દેશ રહિત આગણીસ અયના છે આ અધ્યયના એગણીસ દિવમામા સમાસ હાય છે
ટીકાર્યં ~~~ધા સાસારિક જીવાના માટે જે મગળકારી પદાર્થા છે તે તે એજ છે-ભગવાન મહાવીર પ્રભુ, ગૌતમ ગણુધર, સુધર્મા સ્વામી, જબૂ રવામી અને જૈન ધર્મ
હું આ પ્રમાણે સાતાધમ કથાગના જ્ઞાતા નામે પ્રથમ શ્રુતસ્ક ધ સમાપ્ત થયે '
Page #1063
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टी० श्रु २ व १ अ १ द्वितीयश्रुतस्कंधस्योपक्रम ७७ नगारशतैः सार्द्ध सपरिवृताः 'पुयाणुपुचि' पूर्वानुपूर्व्या-तीर्थङ्करपरम्परया 'चरमाणा' चरन्त =विहरन्तः ग्रामानुग्राम एकग्रामादव्यवधानेनान्य ग्रामम् ' दुइ ज्जमाणा' द्रवन्तःस्पृशन्त 'सुह सुहेण ' सुख सुखेन-सुग्यपूर्वक यथावसरमित्यर्थः विहरन्तो यौव राजगृह नगर यत्रैव गुणशिलक चैत्य यावत्-सयमेन तपसा आत्मान भावयन्तो विहरन्ति । अत्र आदरार्थ नहुपचनम् । परिपन्निर्गता। धर्मः कथितः । परिपद् यस्या एवं दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगना । तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यमुधर्मणोऽनगारस्यान्तेवासी आर्य जम्बू मान ज्जमाणा सुहसुहेण विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसिलए चेहए जाव सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणा विहरति) उस काल और उम समय में श्रमण भगवान महावीर के अतेवामी आर्य सुधर्मा नाम के स्थविर भगवत कि जो विशुद्ध मातृवशवाले थे विशुद्ध पितृ. वशवाले थे, याग्त् बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र एव लाघव सपन्न थे, चौदहपूर्व के पाठी थे-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एव मन पर्यव ज्ञान इन चारों ज्ञानों के धारक थे-पाचसौ अनगारों के साथ तीर्थकर परपरा के अनुसार विहार करते २ एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विना किसी व्यवधानके विचरण करते हुए सुख पूर्वक समय पर-जहा राजगृह नगर और उस में भी जहां वह गुणशिलक चत्य था आये। वहा वे सयम एव तप से आत्मा को भावित करते हुए उतरे (परिसा निग्गया धम्मो कहिओ परिसा जामेव दिस पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया, तेण कालेण तेण समएण अज्जसुम्मस्स अणगारस्स अतेजजमाणा सुह सुहेण विहरमाणा जेणेव रायगिहे जयरे जेणेव गुणसिलए चेइए जाव सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणा हिरति ।
તે કાળે ને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના અંતેવાસી આર્ય સુધમાં નામના સ્થવિર ભગવત કે જેઓ વિશુદ્ધ માતૃવ શવાળા હતા–વિશુદ્ધ मितृपशव ता, यावत् २, ३५, विनय, ज्ञान, शन, यानि मन લાઘવ-સંપન્ન હતા ચૌદ પૂર્વના પાડી હતા, મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન પર્યાવજ્ઞાન એ ચારે જ્ઞાનના ધારક હતા પાચસે અનગારાની સાથે તીર્થ કર પર પરા મુજબ વિહાર કરતા કરતા એક ગામથી બીજે ગામ કોઈપણ જાતના વધાન વગર સુખેથી યથા સમય ક્યા રાજગૃહ નગર અને તેમાં પણ જો તે ગુણલિક મૈત્ય હતુ ત્યા આવ્યા ત્યાં તેઓ સ યમ અને તપ દ્વારા પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા રોકાયા
(परिसा निग्गया धम्मो कहिओ परिसा जामेर दिस पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया, तेण कालेण तेण समएण अज्जसुहम्मस्स अगगारस्स अतेवासी
Page #1064
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५६
टीका-तस्मिन् काले तस्मिन समय सनम नाम नगरमासीन, 'वनभो' वर्णका-नगरपणन समिन रिशेयम् । तम्प ग्यन्नु गमगरम्य नगरस्य बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्मागे तन ग्पल गुणशिलक नाम चेत्यमासीन, 'गी' वर्ण: नेस्यवर्णन मकारः सर्गोऽत्रयान्यः । तस्मिन् काले तम्मिन समये अमणस्य भगवतो महावीर स्यान्तेवासिन आर्यधर्माणो नाम स्थविरा मगन्तः ' जाहसंपमा' जातिस म्पनामविशुद्धमाशा, कुलम पन्नाद्विपिठयशाः, 'मार' यावत्-पलरूप-विनय-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-लाघव-सम्पन्ना , इत्यादि यात्-चतुर्दपूर्विणः 'चउणाणोरगया ' चतुर्मानोपगता मतिश्रुवारधिमन. पर्यत्रज्ञानयुक्ताः पञ्चभिर
टीकार्थ-(तेण कालेण तेण समपर्ण) उस काल और उस समय में (रायगिहे नाम नयरे होत्या) राजगृह नाम का नगर था। (वणओ) नगर का वर्णन औपपातिक सूत्र में वर्णित चपा नगरी के समान जानना चारिये । (तस्स ण रायगिहम्म णयरस्स यहिया उत्तरपुरस्थिम दिसिभाए तत्थर्ण गुणसिलए णाम चेहए होत्या, वगओ) उस राज गृह नगर के बाहिर उत्तर पौरस्त्यदिग्भाग की ओर (ईशानकोण में) एक गुणशिलक नाम का चत्य-उद्यान-था। यहा पर भी सब चत्यवर्णन औपपातिक सूत्र की तरह जानना चारिये-(तेण कारेण तेण समएण ममणस्स भगवओ महावीरस्स अतेवासी अज्ज सुरम्माणाम थेरा भग वतो जाइ सपन्ना कुल सपन्ना जाव चउहसपुची चउणाणावगया पाह अणगारसहिं सद्धि सपरिवुडा पुव्वाणुपुचि चरमाणा गामाणुगाम दूर
साथ-( तेणं कालेण तेण समएण) तणेसनेत सभये (रायगिहे नाम नयरे होत्या) शड नाम नगर (वष्णओ) मा ननु पथुन ઔપપાતિક સૂત્રમાં વર્ણવવામાં આવેલા ચ પા નગરીના વર્ણનની જેમ જ જાણી લેવું જોઈએ
(तस्स ण रायगिहस्स गयरस्स वहिया उत्तरपुरथिमे दिसिभाए तत्थण गुणसिलए णाम चेहए होत्था, पण्णओ)
તે રાજગૃહ નગરની બહાર ઉત્તર રસ્ય દિગ-ભાગની તરફ એટલે કે ઈશાન કેણમાં એક ગુણશિલ નામે ચિત્ય-ઉદ્યાન-હતે અહી ચિત્ય વિર્ષનું બધુ વર્ણન પપાતિક સૂત્રની જેમ જાણવું જોઈએ
( तेण कालेण तेण समएण समणस्स भगवश्री महावीरस्स अतेवासी अन्न मुहम्माणाम थेरा भगवतो जाइसपना कुलसपन्ना जान चउद्दस पुत्री चणाणा वगया पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं सपरिखुटापुव्याणुपुचि चरमाणा गामाणुगाम ।
Page #1065
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
--
-
-
अनगारधर्मामृतर्पिणी टी० श्रु २ च १ अ १ द्वितीयश्रुतस्कंधस्योपम ७०७ नगारशतैः सार्द्ध सपरिहताः 'पुयाणुपुनि' पूर्वानुपूा -तीर्थङ्करपरम्परया 'चरमाणा' चरन्त -विहरन्तः ग्रामानुग्राम एकग्रामादव्यवधानेनान्य ग्रामम् 'दुइज्जमाणा' द्रवन्त:स्पृशन्त 'सुह सुहेण' सुख सुखेन-मुग्यपूर्वक यथावसरमित्यर्थः विहरन्तो यौव राजगृह नगर यत्रैव गुणशिलक चैत्य यावत्-सयमेन तपसा आत्मान भावयन्तो विहरन्ति । अत्र आदरार्थ बहुवचनम् । परिपन्निर्गता । धर्मः कथितः । परिषद् यस्या एवं दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिश प्रतिगना । तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यसुधर्मणोऽनगारस्यान्तेवासी आर्य जम्बूर्नामान ज्जमाणा सुहसुहेण विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसिलए चेहए जाव सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणा विहरति ) उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अतेवामी आर्य सुधर्मा नाम के स्थविर भगवत कि जो विशुद्ध मातृवशवाले थे विशुद्ध पितृ वशवाले थे, याग्त् बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र एव लाघव सपन्न थे, चौदहपूर्व के पाठी थे-मतिज्ञान, सूतज्ञान, अवधिजान एव मन पर्यव ज्ञान इन चारों ज्ञानों के धारक थे-पाचसौ अनगारों के साथ तीर्थंकर परपरा के अनुसार विहार करते २ एक ग्राम से दूसरे ग्राम मे विना किसी व्यवधानके विचरण करते हुए सुख पूर्वक समय पर-जहां राजगृह नगर और उस में भी जहां वह गुणशिलक चैत्य था आये। वहा वे सयम एव तप से आत्मा को भावित करते हुए उतरे (परिमा निग्गया धम्मो कहिओ परिसा जामेव दिस पाउभृया तामेव दिसिं पडिगया, तेण कालेण तेण समएण अज्जमुहम्मस्स अणगारस्स अते. ज्जमाणा सुह सुहेण विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणे गुणसिलए चेइए जाव सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणा विहरति ।
તે કાળે ને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના અ તેવાસી આર્ય સુધર્મા નામના સ્થવિર ભગવત કે જેઓ વિશુદ્ધ માતૃવ શવાળા હતા–વિશુદ્ધ પિતૃવ શવાળા હતા, યાવત્ બળ, રૂપ, વિનય, જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને લાઘવસ પન્ન હતા ચૌદ પૂર્વના પાઠી હા, મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન પર્યાવજ્ઞાન એ ચારે જ્ઞાનેના ધારક હતા પાસે અનગારોની સાથે તીર્થ કર પર પરા મુજબ વિહાર કરતા કરતા એક ગામથી બીજે ગામ કોઈપણ જાતના વધાન વગર સુખેથી યથા સમય ક્યા રાજગૃહ નગર અને તેમાં પણ જયા તે ગુણલિક મૈત્ય હતુ ત્યા આવ્યા ત્યા તેઓ સયમ અને તપ દ્વારા પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા રોકાયા
(परिसा निग्गया धम्मो कहिओ परिसा जामेन दिस पाउम्भूपा तामेत्र दिसि पडिगया, तेण कालेण तेण समएण अजसुहम्मस्स अणगारस्त अतेवासी
Page #1066
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५६
टीका-तस्मिन् काले तस्मिन समय गन नाम नगरमासीन्, 'नमो' वर्णकः-नगरवर्णन समर सियम् । तम्प सलु गनगरस्य नगरस्य बहिनतरपोरस्त्ये दिग्मागे तन खलु गुणशिलक नाम चैन्यमासीत् , 'गो' वर्ण-वैपायन प्रकारः सर्योऽत्र वा यः । तस्मिन् काले तम्मिन समोश्रमणम्य भगवतो महावीर स्यान्तेवासिन आर्यधर्माणो नाम स्थविरा भगान्त' 'नाइसंपमा' नातिस म्पन्ना पुद्धिमात्मा', कुलम पन्ना=रिशुद्धपिताशा, 'जात्र' याव-पलरूप-विनय-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-लाघर-सम्पन्नाः, इत्यादि यार-चतुर्वेशपूषिणः 'चउणाणो गया ' चतुर्मानोपगना =मतिश्रुवारधिमनः पर्यवनानयुक्ताः पञ्चमिर _____टीकार्थ-(तेण कालेण तेण समपर्ण) उस काल और उस समय में (रायगिहे नाम नयरे होत्या) राजगृर नाम का नगर था। (वण्णी ) नगर का वर्णन औषपातिक सत्र में वर्णित चपा नगरी के समान जानना चारिये । (तस्म ण रायगिहस्म णयरस्स यहिया उत्सरपुरस्थिम दिसिभाए तत्थर्ण गुणसिला णाम चेहरा शेत्या, वण्णओ) उस राज गृह नगर के घाहिर उत्तर पौरस्त्यदिमाग की ओर (ईशानकोण में) एक गुणशिलक नाम का चैत्य-उद्यान-धा। यहा पर भी सब चैत्यवर्णन
औपपातिक सूत्र की तरह जानना चाहिये-(तेण कालेण तेण समएण ममणस्स भगवओ महावीरस्स अतेवासी अज्ज सुरम्माणाम थेरा भा वतो जाइ सपन्ना कुल सपन्ना जाव चउदसपुची चउणाणावगया पचाह अणगारसएहिं सद्धिं सपरिवुडा पुव्वाणुपुब्धि चरमाणा गामाणुगाम दूई
-(वेणं कालेण तेण समएण) तणे मन सभये ( रायगिहे नाम नयरे होत्था) रा नामे नगर त (वण्णओ) 0 नगरनु पथन ઔપપાતિક સૂત્રમાં વર્ણવવામાં આવેલા ચપા નગરીના વણનની જેમ જ જાણું લેવું જોઈએ
(तस्स ण रायगिहस्स णयरस्स वहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए तत्यण गुणसिलए णाम चेहए होत्था, वणओ)
તે રાજગૃહ નગરની બહાર ઉત્તર પિરસ્ય દિગ-ભાગની તરફ એ કે ઈશાન કેશુમાં એક ગુણશિલ નામે ચિત્ય-ઉદ્યાન-હને અહી ચય લિ બધુ વર્ણન ઔપપાતિક સૂત્રની જેમ જાણવું જોઈએ
(तेण कालेण तेण समएण समणस्स भगवो महावीरस्स अतेवासी अज मुहम्माणाम थेरा भगवतो जाइसपन्ना कुलसपन्ना जान चउद्दस पुषी पडणाणा वगया पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं सपरिखुटापुवाणुपुचि चरमाणा गामाणुगाम १
Page #1067
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५९
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ६ २ व १ अ १ द्वितीयनस्कस्योपक्रम श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन धर्मकथाना दगवर्गाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा तानेव दर्शयति' चमरस्य चमरस्य = चमरेन्द्रस्य दाक्षिणात्यासुरकुमारेन्द्रस्य जमहिषीणा मोवर्ग १ | वल्म्सि' लिनाम्नः ' वरोयदिस्स ' पैरोचनेन्द्ररय-वि-विविध मकारैः रोचन्ते दीप्यन्ते दाक्षिणात्यासुरकुमारेभ्यो विशिष्टदीप्तिमत्वात् इति विरो चना त एन वैरोचना:- औदीन्यासुरकुमारास्ते पामिन्द्रः वैरोचनेन्द्रस्तस्य 'बहरोयणम्नो' वैरोचनराजस्य वैरोचनाधिपतेः जगमद्दिपीणा द्वितीयो वर्गः २ । अमुरेन्द्रवर्जिताना ' दाहिणिल्लाण' दाक्षिणात्याना = दक्षिणदिक्सम्बन्धिना भवनवासिनामिद्राणामग्रमहिपीणा तृतीयो वर्गः ३ । ' उपरिल्लाण' उत्तरीयाणामसु रेन्द्रवनिताना मानवासिना मित्राणामग्रमहिषीणा चतर्थो वर्ग. ४ । दाक्षिणात्याना वानव्यन्तराणामिन्द्राणामग्रमहिषीणा पञ्चमो वर्ग: ५ । उत्तरीयाणां वानव्यन्तरागामिन्द्राणामगमहिपीणा पष्ठो वर्गः ६ | चन्द्रस्याग्रमहिपीणा सप्तमो वर्गः ७ । स्वामी ने उनसे कहा- हे जबू ! सुनो यावत् मुक्तिस्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मश्याओं के दश वर्ग प्रज्ञस किये हैं- (त जहा ) वे इस प्रकार हैं- ( चमरस्स अग्गमहिसीणं पढमेवग्गे ? पलिस्स asefire asरोपणरन्नो अग्गमहिसीण घीओ वग्गो २ असुरिंदवजियाण वाहिणिल्लाण भवणवासीण इदाण अग्गमहिसीणं तडओ गो ३ उत्तरिल्लाण अमरिंदवज्जियाण भवणवासीण इदाण अग्गमहिसीण चत्यो वग्गो ४ दाहित्लिाण वाणमनराण-इदाण अग्गमहि सीण पचमो वग्गो, उत्तरित्लाग वाणमत्राण इदान अग्गमहिमीण उडो को ६, चटस्त अग्गमहिमीण सत्तमो वग्गो, सरस्म अग्गमहिसीण agar art Hearस जग्गमहिसोण णवमो वग्गो, ईमाणस्स अग्गम हिसीण दममो वग्गो) चमरेन्द्र की - दाक्षिणात्य असुरकुमारेन्द्र की -
તેમને કહ્યુ કે હું જ મૂ | સાભળે ચાવત્ મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત કરી ચુકેલા श्रम लगवान महावीरे धर्मस्थाना दृश वर्गो न यो के ( तजदा ) તેઓ આ પ્રમાણે છે
( चमरस्त अग्गमहिसीण पढनग्गे लिस वहगेयस्मि वणरन्नो अगमहिसी ओग्गो २ सुरिंदरज्जियाण दाद्दिविगण भरणत्रामीण sate अग्गमहिमीण तडओ वग्गो ३, उत्तरिल्लाण जमुरिंदरज्जियाण भरणसीइदा अग्गमहिमीण चत्वो वग्गो ४ दाद्दिजिल्लाण वाणमाराणइदान अग्गमद्दिसीण पचमो वग्गो, उत्तरिल्ला वाणमवराण इराण जन्गमि सी छट्टो नग्गो ६, चस्स अग्गहिमीण सत्तमो वगो, सरस्म अग्गमहिसीण अनुमो बग्गो, सक्कस अग्गमहिमीण णयमो वग्गो, ईसाणस्स अग्गमहिसीण दसमो वग्गो)
Page #1068
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
०५.
MIAnsar गार. यात्-'पशुपागमाणे' पर्युपासीन सेवमान. परमादत-यदि खल 'भते' भदन्त हे भगवन ! श्रमणन मगरता महापौरंग यावत्-मोष सम्मान पप्ठस्यानस्य ममम्य अतस्परम्प 'णाराण' गातानाम-माहरणानाम् अयमर्य माप्तः द्वितीयस्य खलु हे गदग! अनपाय धर्मस्थाना श्रमणेन यावत्मम्मा प्तेन-मोक्ष गतेन भगवतायोऽय प्रशा? । मुधर्मास्वामीमाह- खलु हे जम्न् ! वासी अज्ज जणाम अणगारे जा पन्जुवाममाणे राय बयासी-जहणं भते समणेण जार सपत्तेण उस्म अगस्म पढमस्म सुयवस्स णायाण अयम? पन्नते दोच्चम्म ण मते ! सुयस्वधस्न धम्मकहाण समणेणं जार सपत्तण के अढे पण्णत? एव पलु जब समणेण जाव मपत्तर्ण धम्मकहाण दमरगा पपणत्ता) गजगर नगर से परिषद वदन करने के लिये आई। सुधर्मास्वामी धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुनकर परिपद अपने २ स्थान पर पीने वरा से चली गई। उस काल में और उस समय में आर्य सुधर्मास्वामी के अतेवासी आयें जब नामक अनगार ने यावत् उनकी पर्युपासना करते हुए उनसे इस प्रकार पूछा हे भदत यावत् मुक्तिको प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीरने उठे अगक ज्ञातासूत्र प्रथम अतरूध के उदाहरणोका यह पूर्वोक्तरूप से अर्थ निरू पित किया हे-तो हे भदत । द्वितीय अतस्कन्धकी धर्मकथाओं का उन्हा श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मुक्तिस्थान को प्राप्त हो चुके हैं क्या अर्थे निखपित किया है ? इस प्रकार ज के प्रश्न को सुनकर श्री सुधमा अन्नजबू णाम अणगारे जाव पज्जुवासमाणे एव यामी-जण भते समणण जाव सपत्तण उस्स अगस्स पढमस्म सुयख धस्स णायाण अयम: ५ दोच्चस्स ण भते यख धस्म धम्मकहाण समणेण जाव सपत्तेग के अह पण्णत्ते ' एव खलु जत्रू । समणेण जान सपत्तेण धम्मकहाण दसवमा पण्णता
રાજગૃહ નગથી પરિષદ વદન કરવા માટે ત્યા આવી સુધમ સ્વામીએ ધર્મને ઉપદેશ આપે ઉપદેશ સાંભળીને પરિપદ પોતાના સ્થાને પછી જ રહી તે કાળે અને તે સમયે અર્ધ સુધર્મા સ્વામીના અ તેવામી (શિષ્ય આ જ બૂ નામના અનગારે યાવત તેમની પયું પાસના કરતા તેમને આ પ્રમાણે પૂછયું કે હે ભદન્ત ! યાવત મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલા શ્રમણ ભગવાને મેઉ વીર છઠ્ઠ આગના પ્રથમ તસ્ક ધના ઉદાહરણોને આ પૂત રૂપે એ નિરૂપિત કર્યો છે તે હે ભદન્ત ! તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર-કે જન્મ મુક્તિસ્થાનને મેળવી લીધુ છે-દ્વિતીય શ્રતસ્ક ધની ધર્મકથાઓને શે આ નિરૂપિત કર્યો છે આ પ્રમાણે જ બૂના પ્રશ્નને સાંભળીને
અ
*
Page #1069
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टी० श्रु २ च १ १ कालीदेवीवर्णनम् ७६१ राईरयणी विज्जू मेहा, जडणं भते। समणेणं जाव सपत्तण पढमस्स वग्गस्स पच अज्झयणा पण्णता पढमस्त णं भते । अग्झयणस्स समणेण जाव सपत्तण के अहे पण्णत्ते , एव खलु जवू । तेणं कालेण तेण समएणं रायगिहे जयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्लणा देवी सामी समोसरिए परिसा णिग्गया जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं काली नाम देवी चमरचचाए रायहाणीए कालवडिसगभवणे कालसि सीहासणसि चउहि सामाणियसाहस्सीहि चउहि महत्तरियाहि सपरिवाराहि तिहि परिसाहि सत्तहि अणिएहि सत्तहिं अणियाहिवईहि सोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहि वहुएहि य कालवडिसयभवणवासीहि असुरकुमारेहि देवीहि य सद्धि सपरिवुडा महया हय जाव विहरइ, इमं च णं केवलकप्प जवुद्दीव दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी२ पासइ, तत्थ समण भगव महावीर जबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिमिहत्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणं पासइ पासित्ता हट्टतुट्टचित्तमाशंदिया पीइमणा जाव हियया सीहासणाओ अभुटेइ अब्भुद्वित्ता पायपीढाओ पञ्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ ओमुइत्ता तित्थगराभिमुहा मत्तट्टपयाइ अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वाम जाणु अचइ अचित्ता दाहिणं जाणु धरणियलसि निहु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलसि निवेसेड निवेसित्ताईसिं
श
९६
Page #1070
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६०
entert
सूरस्स= सूर्यस्याग्रमपीणाममो वर्गः ८ । शक्यामी नमो वर्गः ९ । ईशानस्याग्रमहिषीणा दशमी वर्गः १० ॥ ० ॥
मूलम् - जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेण धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता पढमस्स ण भंते । वग्गस्स समणेणं जाव सपत्तेण के अट्टे पन्नत्त ?, एवं खलु जचू । समणेणं जात्र सप तेण पढमस्स वग्गस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता त जहा1-काली
अग्रमहिपियों का - पट्टदेनियों का प्रथम वर्ग, बलि नामक वैरोचनेन्द्र की अग्रमहिपियों का द्वितीय वर्ग, असुरेन्द्रको छोडकर दक्षिण दिशा सबधी भवनवासियों के इन्द्रों की अग्रमतिथियों का तृतीय वर्ग, उत्तर दिशा सधी मनवासियो के इन्द्रों की कि जिन में असुरेन्द्र छोड दिये गये हें अग्रमरियों का ४ चतुर्थ वर्ग, दक्षिण दिशा सवधी वानव्यन्तरों के इन्द्रों की अग्रमहिषियों का पंचम वर्ग, उत्तर दिशा संबंधी व्यानव्यतरोंके इन्द्रो की अग्रहियों का हा वर्ग, चन्द्र की अग्रमहिषियों का ७ वा वर्ग, सूर्यको अग्रमहिपियोका आठवा वर्ग, शक्र की अग्रमहिषियों का नवमा दर्ग, और ईशान की अग्रमहिषियों का दाम वर्ग | पैरोचन उत्तर दिशा के असुरकुमार है । ये दक्षिण दिशासबधी असुरकुमारोंकी अपेक्षा विशिष्ट दीप्तिपन होते हैं इसलिये इन्हें वरोचन कहा गया है। सू० १ ॥
ચમરેન્દ્રની-દક્ષિણના અસુરકુમારન્દ્રની-અગ્રમહિષીઓના-પટ્ટદેવીઓને પહેલા વર્ગ, લિ નામે વૈરાચનેન્દ્રની અગ્રહિષીએના બીજે વ, અસુરેન્દ્રને ખાદ કરતા દક્ષિણ દિશાના ભવનવાસીઓના ઇન્દ્રોની અગ્રહિષીઓના ત્રીજે વર્ગ, ઉત્તર દિશા સ બ ધી ભવનવાસીઓના ઈન્ડોની કે જેઓમાથી અમુરેન્દ્રોને બાદ કરી દીધા છે અગ્રહિષીએને ચેાથેા વર્ગ, દક્ષિણ દિશા સાધી વાન પતરાના ઇન્દ્રોની અગમર્હિષ્ઠીઓના પાચમા વર્ગ, ઉત્તર દિશા સખ શ્રી વાન વ્યતરાના ઇન્દ્રોની અગ્રહિાઆના સાતમા વ, સૂર્યની અમમહિષીઓના આઠમે વર્ગ, શક્રની અગ્રહીયીઓને નવમા વગ અને ઈશાનની અગ્રમહિ ષીઓના દશમે વગ વાચન ઉત્તર દિશાના અસુરકુમાર છે એ દક્ષિણુ દિશા સબધી અસુરકુમારે કરતા વિશિષ્ટ દીપ્તિ-સ પન્ન હાર છે. એથી જ એ વૈરાચન કહેવામા આવ્યા છે ! સૂત્ર ૧ !
Page #1071
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी दो० श्रु २ च १ अ १ कालीदेवीवर्णनम्
७६१
राईरयणी विज्जू मेहा, जइणं भते । समणेणं जाव सपत्तेण पढमस्स वग्गस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता पढमस्स णं भते । अज्झयणस्स समणेण जाव सपत्तेण के अट्ठे पण्णत्ते १, एव खलु जबू | तेणं कालेण तेण समएणं रायगिहे णयरे गुणसिलए
इए सेणिए राया चलणा देवी सामी समोसरिए परिसा णिग्गया जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेण तेणं समएणं काली नामं देवी चमरचचाए रायहाणीए कालवडिसगभवणे कालसि सीहासणसि चउहि सामाणियसाहस्सीहि चउहि महतरियाहि सपरिवाराहि तिहि परिसाहि सत्तहि अणिएहि सतहिं अणियाहिवईहि सोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहि वहुएहि य कालवडिसयभवणवासीहि असुरकुमारेहि देवीहि यसद्धिं सपरिवुडा महया हय जाव विहरइ, इमं चणं केवलकप्प जबुद्दीव दीव विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी२ पासइ, तत्थ समण भगव महावीर जंबुद्दीवे दीवे भार हे वासे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्गह उग्गिहित्ता संजमेण तवसा अप्पा भावेमाणं पासइ पासित्ता हट्टतुट्टचित्तमा
दिया पीडमा जान हियया सीहासणाओ अब्भुट्टेइ अभुट्ठित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ ओमुइत्ता तित्थगराभिमुहा मत्तट्टपयाइ अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वाम जाणु अचइ अचित्ता दाहिणं जाणं धरणियलंसि निहु तिक्खुत्तो मुद्वाणं धरणियलसि निवेसेइ निवेसित्ता ईसि
९६
डा
Page #1072
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६०
লামােয় सरस्स-पूर्यस्यानमारपीणामएमो : ८ । समस्याग्रमहिपीणां नमो वर्ग: ९॥ ईशानस्यापमहिपीणा दशमो वर्गः १० ॥ १० १ ॥
पूलम्--जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेण धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णता पढमस्स ण भते ! बास्स समणेणं जाव सपत्तेण के अटे पन्नत्त , एवं खल्ल जवू । समणेणं जाव संप
तेण पढमरस वगरस पच अध्झयणा पणत्ता त जहा-काली __ अग्रमरिपियों का-पटदेवियों का प्रथम वर्ग, पलि नामक वैरोचने की
अग्रमाहिपियोंका सित्तीय वर्ग, असुरेन्द्रको छोडकर दक्षिण दिशा सषधी भवनवामियों के इन्द्रों की अग्रमरिपियों का तृतीय धर्ग, उत्तर दिशा साधी नवनवासियों के उन्द्रों की कि जिन में असुरेन्द्र गेड दिये गये हैं अम्रपरिपों का ४ चतुर्थ वर्ग, दक्षिण दिशा सरधी वानव्यन्तरों के इन्द्रों की अग्रहरिपियोंका पचम वर्ग, उत्तर दिशा सयधी व्वानभ्यतकि इन्द्रों की अग्रमरिपियों का हा वर्ग, चन्द्र की अग्रमहिषियों का ७ वी वर्ग, सूर्यको अग्रमरिपियोका आठवा वर्ग, शक की अग्रमाहिषियों का नवा वर्ग, और ईशानकी अग्रमहिपियों का दशमा वर्ग रोचन उत्सर दिशाके अस्सुरकुमार हैं। ये दक्षिण दिशासबधी असुरकुमारोंकी अपेक्षा विशिष्ट दीप्तिसपन्न होते हैं इसलिये इन्हें रोचन कहा गया है।सू०१॥
ચમ રેન્દ્રની-દક્ષિણના અસુરકુમારેદ્રની–અમહિષીઓનેyદીઓને પહેલે લગ, બલિ નામે ચન્દ્રની અગ્રમહિષીઓને બીજે વર્ગ, અસુર બાદ કરતા દક્ષિણ દિશાના ભવનવાસીઓના ઇદ્રોની અગ્રમહિષીઓનો ત્રીજો વગ, ઉત્તર દિશા સ બ ધી ભવનવાસીઓના ઈરાની કે જેમાથી અફરેન્દ્રોને બાદ કરી દીધા છે અગમદિષીઓનો ચોથો વગ, દક્ષિણ દિશા સબધી વાન વાતરેના ઈન્દ્રોની અમહિણીઓને પાચમે વ, ઉત્તર દિશા સ બ ધી વાન વ્યતાના ઈન્દ્રોની બમહિલાઓને સાત વર્ગ, સૂર્યની અગમહિષીઓને આઠમે વર્ગ, શકની અમીષીઓનો નવમો વર્ગ અને ઈશાનની અઝમહિ પીએને દશમો વર્ગ વેરોચન ઉત્તર દિશાના અસરમાર છે એ દક્ષિણ દિશા સબ ધી અસુરકુમારા કરતા વિણ દીક્ષિપન્ન હોય છે એથી જ એ વિરોચન કહેવામાં આવ્યા છે ઇ સૂત્ર ૧ છે
Page #1073
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतार्षिणो टोका थु २ व १ अ १ कालीदेवी वर्णनम् ७६३ प्रथमस्य खलु हे भदन्त ! वर्गस्य श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मास्सामीमाह-एप खलु हे नम्न ! श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्रजातानि, तद्यथा-काली १, रात्रि २, रजनी ३, विद्युत् ४, मेधा ५ । जम्यूस्वामी पृच्छति-यदि खलु हे भदन्त ! अमणेन यारत्समाप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तत्र प्रथमस्य खल्लु भदन्त ! अ ययनस्प अमणेन यायत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः १ । सुधर्मा सामी कपयति. एव खलु हे जम्नू । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नगर गुणशिलक चैत्यम् , श्रेणिको रागा, चेलना देवी आसीत् । सामी-स्वामी श्रीमहावीरस्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि (भते ) हे भदत ! (जहण) यदि (समणेण जाव सपत्तेण धम्मकहाण दसवग्गा पण्णत्ता) अमण भगवान् महावीर ने जो कि मुक्तिस्थान को प्राप्त हो चुके हैं धर्मकथा के दश वर्ग प्ररूपित किये है तो (ण मते ) हे मदत (समणेण जाय सपत्तेण पढमस्स वगस्त के अटे पन्नत्ते ) उन्ही श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मोक्ष में विराजमान हो चुके है प्रथम वर्ग का क्या अर्थ प्रजप्त किया है ? (एव खलु ज समणेण जाव सपत्तण पढमस्स धागस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जइण भते । समणेणं जाव संपत्तेण पढमस्स वग्गस्स पच अज्झयणापण्णत्ता पढमस्स ण भते अज्ज्ञयणस्स समणेण जाव सपत्तण के अहे पण्णत्त एवं खलु जवू! तेर्ण कालेण तेण समएण रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्ल. णादेवी) इस प्रकार जवू स्वामी के प्रश्न को सुनकर सुधर्मास्वामी ने
यूवामी श्री सुधर्मा स्वाभान पूछे छे ( भते ) महन्त ! (जइण) २ ( समगेर्ण जाव संपतेण धम्मकहाण दसरगणा पण्णता ) श्रम ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધુ છે ધર્મકથાઓના દશ पर्णा प्रचित छ तो ( भते ) 3 लहन्त ! (समणेण जाय सपशेण पढमस्स वग्गरस क अहे पन्नते) ते श्रम समपान महावीरे ३ मा મેક્ષમાં વિરાજમાન થઈ ચૂકયા છે-પહેલા વર્ગને શું અર્થ પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે ?
(एव खलु जब समणेण जाव सपत्तेग पढमस्स वग्गरस पच अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जइण भते ! समणेण जाव सपत्तेणे पढमस्स वगरम पचअज्झयणा पगत्ता । पढणस्स पा भने, अल्झयण-म समणेणं नाव सपत्तेण के अटे पणते ! एक खलु जनू ! तेण सालेग तेण समएग रायगिहे भयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्लगा देवी)
Page #1074
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwredwungeŃ
पच्चुण्णमइ पच्चुण्णमित्ता कड्यतुडियर्थभियाओं भुयाओ साहरइ साहरिता करयल जाय कहु एवं वयासी- नमोऽस्थुर्ण अरहताणं जाव सपत्ताणं नमोऽत्थूर्ण समणस्स भगवओ महा वीरस्स जाव सपाविउकामस्त चंदामि पण भगवंतं तत्थगयं इह गया पासउ म भगव तत्थ गए इह गयत्ति वंद नमसइ वदित्ता नमसित्ता सीहासणवरसि पुरस्थाभिमुहा निसण्णा, तरणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जाव समुप्यजित्था - सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वदित्ता जाव पज्जुवासित्तएत्तिक् एव सपेहइ सपेहित्ता आभिओगिए देवे सहावेइ सद्दावित्ता एवं बयासी - एव खलु देवाणुप्रिया । समणे भगव महावीरे एव जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ जाव दिव्व सुखराभिगमणजोग्गं जाणविमाणं करेह करिता जाव पच्च पिणह, तेवि तहेव करेत्ता जाव पच्चविणंति, णवर जोयण सहसावित्थिष्णं जाणविमाण सेस तहेव, तहेव णामगोय साइत नहि उवदंसेइ जान पडिगया ॥ सू० २ ॥ टीका' जण भते' इत्यादि । जम्बूस्वामीपृच्छति - यदि खलु 'भते ' भदन्त ! हे भगवन् ! श्रमणेन यraceaeda धर्म थाना दश प्रता
७६२
-: जहणं भते । इत्यादि ।
-
टीकार्थ - ( जइण भते ! समणेण जाव सपत्तेणं धम्मको दसग्गा पण्णत्ता पढमस्स'ण भते । वग्गस्स समणेण जोव सपत्ते के अड्डे पणन्ते ? एव खलु जनू ! समणेण जाव सपत्तेण पढमस्स) जनूस्वामी श्रो
जहण भवे । इत्यादि
( जण भते । समण जात्र मरण
-
का दगा पण्णत्ता पढमस्स
समणे जात्र सपत्ते के अट्ठे पण्णत्ते ? एन खलु जब ! सम
भते ! गेण जाव सपत्तेण पढमस्स० )
Page #1075
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनंगारधर्मामृतमपिणो टोका थु २ च १ अ १ कालीदेवीवर्णनम् ७६३ प्रथमस्य खलु हे भदन्त । वर्गस्य श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मास्लामीमाह-एप खलु हे नम्यूः ! अमणेन यावत्मम्प्राप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्रनतानि, तद्यथा-काली १, रात्रि २, रजनी ३, विद्युत् ४, मेपा ५ । जम्बूस्सामी पृच्छति-यदि ग्खलु हे भदन्त ! अमणेन यात्समाप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्राप्तानि, तर प्रथमस्य खल भद त ! अ-ययनस्य अमणेन यारत् सम्प्राप्तेन कोऽय प्रज्ञप्तः १ । सुधर्मा सामी कथयति
एव खलु हे जम्नू । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नगर गुणशिलक चैत्यम् , श्रेणिको राजा, चेल्लना देवी आसीन् । सामीत्वामी श्रीमहावीरस्वामी
सुधर्मास्वामी से पूछते है कि (भते ) हे भदत ! (जहण) यदि (सम__णेण जाव सपत्तेण धम्मकहाण दसवग्गा पण्णत्ता) श्रमण भगवान्
महावीर ने जो कि मुक्तिस्थान को प्राप्त हो चुके हैं धर्मकथा के दश वर्ग प्ररूपित किये है तो (ण मते ) हे भक्त । (समणेण जाय सपत्तेण पढमस्स वग्गस के अढे पन्नत्ते) उन्ही श्रमण भगवान महावीर ने कि जो मोक्ष में विराजमान हो चुके है प्रथम वर्ग का क्या अर्थ प्रजप्त किया है ? (एव खलु जब समणेण जाव सपत्तणं पढमस्स बगस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जहण भते ' समणेणं जाव संपत्तेण पढमस्स वग्गस्स पच अज्झयणापण्णत्ता पढमस्सगं भते अज्ज्ञयणस्स समणेण जाच सपत्तण के अटे पपणत्त' एव खलु जबू! तेर्ण कालेण तेणे समएण रापगिहे णयरे गुणसिलए चेडए सेणिए राया चेल्लणादेवी) इस प्रकार जवू स्वामी के प्रश्न को सुनकर सुधर्मास्वामी ने
__ सामी श्री सुधर्मा सामान पूछे छे , ( भते ) महन्त ! (जइण) ने (समगेर्ण जार संपतेण धम्मकहाण दुसरगमा पण्णत्ता ) श्रम ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધુ છે ધર્મકથાઓના દશ पर्णा प्र३पित ४ा छ त ( भते ) 8 महन्त ! (समणेण जाय सपत्तेण पढमरस वगास्स क अढे पन्नते) ते श्रम सगवान महावीरे है या મોક્ષમા વિરાજમાન થઈ ચૂક્યા છે-પહેવા વર્ગને શો અર્થ પ્રાપ્ત કર્યો છે?
(एव खलु जब समणेण जाव सपत्तेग पढमस्स वग्गरस पच अज्मयणा पण्णत्ता, त जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जइण भते ! समणेण जात्र सपत्तेणे पढमस्स वग्गम पच अज्झयणा पण्णत्ता। पढणस्स पा भने, अल्झयण स समणेणे नाव सपण के अद्वे पण्णते ! एक खलु जब ! तेण कालेग तेण समएग रायगिहे गयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्लणा देरी)
Page #1076
--------------------------------------------------------------------------
________________
पच्चुण्णमइ पच्चुण्णमिता कउयतुडियर्थभियाजा भुयामो साहरइ साहरित्ता करयल जाप का एवं बयासी-मोऽत्पुर्ण अरहंताणं जाव सपत्ताणं नमोऽत्थुणं समणस्त भगवओ महा वीरस्स जाव सपाविउकामस्स दामिणं भगवंत तत्थगयं इह गया पासउ म भगव तत्थ गए रह गयत्तिरह वदा नमसइ वदित्ता नमंसित्ता सीहासणारंसि पुरस्थाभिमुहा निस. पणा, तएणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूव जाव समुप्पजिस्था -सेयं खलु मे समर्ण भगवं महावीर वदित्ता जाव पज्जुवासित्तएत्तिकटु एवं सपेहद सपेहिता आभिओगिए देवे सहावेइ सहावित्ता एव वयासी एव खल्ल देवाणुपिया। समणे भगव महावीरे एवं जहा सूरियाभो तहेव आणत्तिय देइ जाव दिव्य सुरवराभिगमणजोगं जाणविमाणं करेह करित्ता जाव पच्च पिणह, तेवि तहेव करेत्ता जाव पच्चप्पिणंति, णवर जायण सहस्सवित्थिणं जाणविमाण सेस तहेब, तहेव णामगाय साहेइ तहेव नविहि उवदसेइ जाव पडिगया ॥ सू०२॥.
टीको-'जवणं भते' इत्यादि । जयस्वामीपृच्छति-यदि खलु 'मत' भदन्त । हे भगवन् ! श्रमणेन यावत्समाप्तेन धर्मकथाना दशवगोः मना"
जइण भते । इत्यादि। टीकाय:--(जहण भते समणेण जाव सपत्तण धम्मकहाण दसया पण्णत्ता पढमस्स ण भतेरस समणेण जोव सपत्तण के अह पणत्त ? एव वलु जनू ! ममणेण जाव सपत्तण पढमस्म) जग्वामी श्री
जइण भते । इत्यादि(जइण भने ' समर्णण जाव सरतेश सम्मकहाण दसवग्गा पणता पढमस्त गं मते ! पग्गरम समणेणं नाव संपत्तण के अहे पणते ? एव खलु जबु । सम ण जाव सपत्तेण पढमस्स० )
Page #1077
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६३
अनगारधामृतार्षिणी टोका १ २ व १ अ १ कालीदेवीवर्णनम् प्रथमस्य खलु हे भदन्त ! वर्गस्य अमणेन यावत्सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मामामीमाह-एर खलु हे नम्मू ! अमणेन यावत्मम्माप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्राप्तानि, तद्यपा-काली १, रानि २, रजनी ३, विद्युत् ४, मेधा ५ । जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु हे भदन्त ! अमणेन यानत्समाप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययानि प्रज्ञप्तानि, तर प्रथमस्य खलु भदन्त ! अ ययनस्य अमणेन यारत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः । । सुधर्मा सामी कपयति
एव खलु हे जम्नू । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नगर गुणशिलक चैत्यम् , अणिको रागा, चेलना देगी आसीन् । सामी स्वामी श्रीमहावीरस्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि (भते) हे भदत ! (जहण) यदि (समणेण जाव सपत्रोण चम्मकहाण दसवग्गा पण्णत्ता) श्रमण भगवान् महावीर ने जो कि मुक्तिस्थान को प्राप्त हो चुके हैं धर्मकथा के दश वर्ग प्ररूपित किये है तो (ण भते ) हे भदत । (समणेण जाय सपत्तेण पढमस्स वग्गरस के अद्वे पन्नत्ते) उन्ही भ्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मोक्ष मे विराजमान हो चुके हैं प्रथम वर्ग का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है ? (एव खलु जनू समणेण जाव सपत्तण पढमस्स बगस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जहण भते समणेणं जाव सपत्तेण पढमस्स वग्गस्स पच अज्झयणापण्णत्ता पढमस्स ण भते अज्ज्ञयणस्त समणेण जाव सपत्तण के अहे पण्णत्त एवं खलु जवू! तेर्ण कालेण तेण समएणरायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्ल. णादेवी) इस प्रकार जवू स्वामी के प्रश्न को सुनकर सुधर्मास्वामी ने
भूस्वामी श्री सुघर्भा साभार पूछे है (भते ) हे महन्त ! (जइण ) २ ( समगेणं जार संरतेण धम्मकहाण दसरग्गा पण्णता) श्रभार ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધુ છે ધર્મકથાઓના દશ पर्णा ३पित ४ा छ त (ण भते ) 3 word! (समणेण जाव सपण पढमस्स वगास्स क अहे पन्नते) ते श्रम लगवान महावीरे रेया મેક્ષમાં વિરાજમાન થઈ ચૂક્યા છે–પહેલા વર્ગને શું અર્થ પ્રાપ્ત કર્યો છે ?
(एव खलु जवू समणेण जाच सपत्तेग पदमस्त वग्गास पच अन्झयणा पण्णत्ता, त जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जइण भते ! समणेण जाव सपत्तेणे पहमस्स वग्गस्म पचभज्झयणा पण्णत्ता । पढणस्स प भने, अल्झयण म समणेणं नाव सपण के अद्वे पण्णत्ते ! एव खलु जयू ! तेग कालेग तेण समएग रायगिहे गयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्लणा देरी)
Page #1078
--------------------------------------------------------------------------
________________
पच्चुण्णमा पच्चुराणमित्ता कडयतुडियथभियाओ भुयानो साहरइ साहरित्ता करयल जाव कडू एवं क्यासी-जमोऽत्युर्ण अरहताणं जाव सपत्ताणं नमोऽत्युर्ण समणरस भगवओ महा. वीरस्स जाव सपाविउकामस्स वदामि णं भगवत तस्थगयं इह गया पासउ म भगव तत्थ गए रह गयत्तिरह बंदा नमंसइ वदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरसि पुरस्थाभिमुहा निसपणा, तएणं तीसे कालीप देवीए इमेयासवे जाव समुपजिस्था
सेयं खल्ल मे समणं भगवं महावीरं वदित्ता जाव पज्जुवासित्तएत्तिकटु एवं सपेहइ सपेहित्ता आभिओगिए देवे सहावेइ सहावित्ता एवं वयासी-एव खलु देवाणुपिया। समणे भगव महावीरे एव जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ जाब दिव्य सुरवराभिगमणजोग्गं जाणविमाणं करेह करित्ता जाव पच्च पिणह, तेवि तहेब करेत्ता जाव पच्चप्पिणंति, णवर जोयण सहस्सविस्थितणं जाणविमाण सेस तहेव, तहेब णामगोय साहेइ तहेव नविहि उवदंसेइ जाव पडिगया ॥ सू० २॥.
टीका-'जण भते' इत्यादि । जम्बूस्वामीपति-यदि खलु 'भते भदन्त ! हे भगवन ! श्रमणेन यावत्समाप्तेन धर्मकथाना दशवगो: प्रज्ञता"
-जहण भते ! इत्यादि।
टीकार्थे -(जहण भते । समणेण जाव सपत्तेण धम्मकहाण दसवमा पण्णत्ता पढमस्सण भते वग्गस्स समणेण जोव सपत्तण के 8 पणते ? एव ग्वलुज ! समणेण जाव सपत्तेण पढमस्स) जबूग्वामी
जइण भते । इत्यादि(जइण भवे । समयोण जाव सरत्तण उम्मकहाणा दसवगा पण्णता पढमरस णं मते ! वग्गरम समणेणं नाव सपत्तेण में अढे पण्णत्ते ? एप खलु जङ्क सम गेण जाव सपत्तेण पदमस्स०)
Page #1079
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनंगारघर्माणि टोका २ व १ अ १ कालीदेवी वर्णनम्
७६३
?
प्रथमस्य खलु हे भदन्त । वर्गस्य श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः सुधर्मास्वामीमा एन खलु हे नस्त्र' ! श्रमणेन यावत्मम्माप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्राप्तानि तद्या काली १, रात्रि २, रजनी ३, विद्युत् ४, मेघा ५ | जम्मी पृच्छति - यदि खलु हे भदन्त ! श्रमणेन यावत्समाप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि मज्ञप्तानि तन प्रथमस्य खलु भदन्त ! अ ययनस्य श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः मज्ञप्तः । सुधर्मा स्वामी कयति-
?
एव खलु हे जनू' | तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नगर गुणशिलक चैत्यम्, श्रेणिको राजा, चेलना देवी आसीत् । सामी-वामी श्रीमहावीरस्वामी
-
सुधर्मास्वामी से पूछते है कि (भते ) हे भदत ! ( जइण ) यदि (समणेण जाव सपतेण धम्मकहाण दसवग्गा पण्णत्ता) श्रमण भगवान् महावीर ने जो कि मुक्तिस्थान को प्राप्त हो चुके हैं धर्मकथा के दश वर्ग मरूपित किये है तो (ण भते ) हे मदत । (समणेण जाव मपत्तेन पढमस्स aria के अट्ठे पन्नते ) उन्ही श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मोक्ष में विराजमान हो चुके हैं प्रथम वर्ग का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है ? ( एव खलु जनू समणेण जाव सपतेग पढमस्स वागस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जइण भते । समणेणं जाव संपत्तेण पढमस्स वग्गस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता पदमस्त णं भते अज्जयणस्स समणेण जाव सपते के अड्डे पण्णत्ते ? एव खलु जवू ! तेर्ण काले ते समएण रायगिहे णयरे गुणसिलए चेडए सेणिए राया चेल्लणादेवी ) इस प्रकार जब स्वामी के प्रश्न को सुनकर सुधर्मास्वामी ने
४ स्वाभी श्री सुधर्मा स्वाभीने पूछे छे ( भवे ) हे लहन्त ! ( जइण ) ने ( समगेर्ग जान संपतेण धम्मकाण दुसरा पण्णत्ता ) श्रम ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધુ છે ધર્મકથાએના દશ वर्गों अषित छे तो ( ण भते ) हे लढन् ! ( समणेण जाव सपन पदमरस वास् क अट्ठे पन्नते ) ते श्रम लगवान महावीरे सो મેાક્ષમા વિરાજમાન થઇ ચૂકયા છે-પહેના વર્ગના શા અર્થ પ્રજ્ઞપ્ત કર્યાં છે ? ( एव खलु जब समणेण जात्र सपत्तेग परमस्स वग्गरस पच अज्झयणा पण्णत्ता, व जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जण भते ! समणेण जात्र सपत्तेर्णं पढमस्स वग्गस्म पचअज्झयणा पण्णत्ता । पढणस्स पा भने अझयण म समोणं मात्र सपते के अपगते ! एव खलु जब ! तेग नालेग तेन समएग रायगिहे यमलर चेइए सेणिए राया चेल्लणा देवी )
}
Page #1080
--------------------------------------------------------------------------
________________
तामा पच्चुण्णमइ पच्चुण्णमित्ता कडयतुडियर्थभियाओ भुयामओ साहरइ साहरित्ता करयल जाव की पत्र वयासी-मोऽरधुर्ण अरहताणं जाव सपत्ताणे नमोऽत्युणं समणस भगवओ महा वीरस्स जाव सपाविउकामम्स बंदामि गं भगवत तरथगयं इह गया पासउ म भगव तत्थ गए इह गयत्तिरह वदा नमसइ वदित्ता नमंसित्ता सीहासणपरसि पुरत्थाभिमुहा निसपणा, तएणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूबे जाव समुपजिस्था -सेयं खल्ल मे समणं भगवं महावीरं वदित्ता जाव पज्जुवा सित्तएत्तिकटु एवं सपेहेइ सपेहिता आभिओगिए देवे सदावेइ सहावित्ता एवं बयासी--एव खल देवाणुपिया। समणे भगव महावीरे एव जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ जाव दिव्य सुरवराभिगमणजोग्गं जाणविमाणं करेह करित्ता जाव पच्च पिणह, तेवि तहेव करेत्ता जाव पच्चप्पिणंति, णवर जोयण सहस्सवित्थिणं जाणविमाण सेस तहेव, तहेव णामगोय साहेइ तहेव नट्टविहि उवदंसेइ जात्र पडिगया ॥ सू० २१,
टीको~'जदण भते' इत्यादि । जम्वृस्वामीपृच्छति-यदि खलु 'भते' भदन्त ! हे भगवन् ! श्रमणेन यावत्सपाप्तेन धर्मस्थाना दशवर्गाः प्रज्ञप्ता'
जइण भते ! इत्यादि। टीका-~(जहण भते ! समणेण जाव सपत्तण धम्मकहाण दसपना पण्णत्ता पढमस्सण भते वग्गरस समणेण जोव सपत्तण के अ६ पण्णत्त ? एच खलु जसमणेण जाव सपत्तेण पढमस्स) जग्वामी श्री
जइण भते | इत्यादि~ (जइण भते । समणेण जाव सात्तेण धम्मकहाण दसवग्गा पण्णता पढमस्त गं भते । नग्गरम समणेणं जाव सपत्ते के अढे पण्णत्ते ' एप खलु जयु' सम गेण जाव सपत्तेण पढमस्स० )
Page #1081
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृत्यपिणो टोका थु २ च १ व १ कालीदेवीवर्णनम् ७६३ प्रथमस्य खलु हे भदन्त । वर्गस्य अमणेन यावत्सम्पाप्तेन कोऽयः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मासामीमाह-एप खलु हे नम्न ! अमणेन यावत्मम्माप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्राप्तानि, तद्यपा-काली १, रात्रि २, रजनी ३, विद्युत् ४, मेगा ५ । जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु हे भदन्त ! अमणेन यात्समाप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तर प्रथमस्य खलु भदन्त ! अ यय. नस्य अमगेन यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? | सुधर्मा सामी कपयति
एव खलु हे जम्नू । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नगर गुणशिलक चैत्यम् , श्रेणिको रागा, चेहना देगी आसीन् । सामी स्वामी श्रीमहावीरस्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते है कि (भते ) हे भदत ! (जइण) यदि (समणेण जाव सपत्तेण चम्मकहाण दसवग्गा पण्णत्ता) श्रमण भगवान् महावीर ने जो कि मुक्तिस्थान को प्राप्त हो चुके हैं धर्मकथा के दश वर्ग प्ररूपित किये है तो (ण भते ) हे भदत । (समणेण जाय सपत्तेग पढमस्स वास्स के अद्रे पन्नत्ते ) उन्ही श्रमण भगवान महावीर ने कि जो मोक्ष में विराजमान हो चुके हैं प्रथम वर्ग का क्या अर्थ प्रजप्त किया है ? (एव खलु जनू समणेण जाव सपत्तण पढमस्स बागस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जइण भते ' समणेणं जाव सपत्तण पढमस्स वग्गस्स पच अज्झयणापण्णत्ता पढमस्त ण भते अज्ज्ञयणस्स समणेण जाव सपत्ता के अहे पण्णत्त एव खलु जवू ! तेणं कालेण तेणे सनएण रायगिहे जयरे गुणसिलए चेडए सेणिए राया चेल्लणादेवी) इस प्रकार जवू स्वामी के प्रश्न को सुनकर सुधर्मास्वामी ने
४ भू स्वामी श्री सुधर्मा साभार पूछे है ( भते ) महन्त ! (जइण) ने ( समगेणं जाव संरतेण धम्मकहाण दुसरग्गा पण्णता) श्रम ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધુ છે ધર્મકથાઓના દશ पर्णा प्र३पित अर्यात (ण भते ) 3 महन्त ! (समणेण जाय सपण पढमस्स वगारस के अहे पन्नते) ते श्रम सपान मडावी या મોક્ષમા વિરાજમાન થઈ ચૂક્યા છે-પહેવા વર્ગને શું અર્થ પ્રજ્ઞાસ કર્યો છે?
(एव खलु जब समणेण जाय सपत्तेग पढमस्स वग्गरस पच अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जण भते ! समणेण जाव सपत्तेणे पढमस्स वग्गस्म पचभज्झयणा पण्णता । पढणस्स ॥ भने, अन्झयण-म समणेणं
नाव सपण के अटे पण्णते ! एक खलु जयू ! तेग मालेग तेण समएग रायगिहे __णयो मिलए चेइए सेणिए राया चेल्लणा देवी)
Page #1082
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६२
हातापा
पच्चुण्णमइ पच्चुण्णमित्ता कडयतुडियर्थभियाओं भुयाओ साहरइ साहरिता करयल जान कट्टु एवं वयासी- नमोऽत्थुर्ण अरहताणं जाव सपत्ताणं नमोऽत्युण समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सपाविउकामस्त चंदामि पणं भगवत तत्थगयं इह गया पासउ म भगवं तत्थ गए इह गयत्तिक्हु वंद नमसइ वदित्ता नमसित्ता सीहासणवरसि पुरत्याभिमुहा निसपणा, तरणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जाच समुप्यजित्था - सेयं खलु मे समणं भगवं महावीर वदित्ता जाव पज्जुवासित्तएत्तिक् एव संपेइ सहित्ता अभिओगिए देवे सहावेइ सद्दावित्ता एव वयासी --एव खलु देवाणुपिया । समणे भगव महावीरे एवं जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ जाव दिव्वं सुखराभिगमणजोगं जाणविमाणं करेह करिता जाव पच्च पिणह, तेवि तहेव करेत्ता जाव पच्चप्पिणंति, णवर जोयण सहस्सवित्थिष्णं जाणविमाण सेस तहेव, तहेव णामगोय साहेइ तहेव नविहि उवदसेइ जात्र पडिगया ॥ सू० २ ॥ टीका--' जण भते ' इत्यादि । स्वामी उति - यदि खलु 'भते ' भदन्त ! हे भगवन् ! श्रमणेन यावत्समाप्तेन धर्मकयाना दशवर्गा, प्रज्ञता,
-:जण भते । इत्यादि ।
--
पण्णत्ता
टीकार्य' - (जहण भते । समणेण जाव सपत्तेर्ण धम्मकहाण दसग्गा पदमण भते । वग्गस्स समण जो सफ्ते के अड्डे पण्णत्ते ? एव खलु जत्रू ! समणेण जाव सपत्तेण पढमस्स) जयूग्वामी श्री
जइण भवे । इत्यादि --
( जण ते 'समासवण धम्माण दसग्गा पा र्ण भते । वग्गस्म समणेर्ण जान सपत्तेन के अहे पण्णत्ते ? ए खलु जब ' सम कोण जाव सपत्तेण पढमस्स० )
Page #1083
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृनपिणो टोका थु २ व १ १ कालीदेवीवर्णनम् ७६३ प्रथमस्य खलु हे भदन्त । वर्गस्य अमणेन यावत्सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मासामीमाह-एस खलु हे नम्स' ! श्रमणेन यावत्मम्माप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्रनतानि, तद्यथा-काली १, रात्रि २, रजनी ३, विद्युत् ४, मेरा ५ । जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु हे भदन्त ! अमणेन यात्समाप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्रजातानि, तत्र प्रथमस्य खलु भद त ! अध्यय. नस्य अमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थ प्रज्ञप्तः ? | सुधर्मा मामी कायति
एव खलु हे जम्नू । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नगर गुणशिलक चैत्यम् , अणिको राजा, चेलना देगी आसीन् । सामी त्वामी श्रीमहावीरस्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि (भते ) हे भदत ! (जहण) यदि (समणेण जाव सपत्तेण धम्मकहाण दसवग्गा पण्णत्ता) श्रमण भगवान् महावीर ने जो कि मुक्तिस्थान को प्राप्त हो चुके हैं धर्मकथा के दश वर्ग प्ररूपित किये है तो (ण मते ) हे मदत (समणेण जाव सपत्तेण पढमस्स वग्गस्त के अट्रे पन्नत्त) उन्ही श्रमण भगवान महावीर ने कि जो मोक्ष में विराजमान हो चुके हैं प्रथम वर्ग का क्या अर्थ प्रजप्त किया है ? (एव खलु जसमणेण जाव सपत्तेग पढमस्स बागस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जइण भते! समणेणं जाव सपत्तेण पढमस्स वग्गस्स पच अज्झयणापण्णत्ता पढमस्स ण भते अज्ज्ञयणस्स समणेण जाव सपत्ता के अढे पण्णत्त ? एव खलु जवू ! तेर्ण कालेण तेणं समएण रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्ल. णादेवी ) इस प्रकार जब स्वामी के प्रश्न को सुनकर सुधर्मास्वामी ने
यू स्वामी श्री सुधर्मा सामान पूछे छे , (भते ) महन्त ! (जइण) ने (समगेर्ण जार संरतेण धम्मकहाण दसगा पण्णत्ता ) श्रम ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધુ છે ધર્મકથાઓના દશ को प्र३पित अर्यात (ण भते) महन्त ! (समणेण जाव सपण पदमरस वास्स के अढे पन्न) ते श्रम लगवान भावी सभा મેક્ષમાં વિરાજમાન થઈ ચૂકયા છે–પહેલા વર્ગને શું અર્થ પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે ?
(एव खलु जब समणेण जाय सपत्तेग पढमस्स बग्गस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जण भते ! समणेण जाव सपत्तेणे पढमस्स बग्गरम पचअज्झयणा पगत्ता । पढणस्स पो भने, अन्झयण म समणेणं नाव सपण के अटे पण्णते ! एक खलु जबू! तेण मालेग तेण समएग रायगिहे गयरे गुणसिलए चेइए सेणिए गया चेल्लणा देरी)
Page #1084
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६२
हाताच
पच्चुण्णमड पच्चुण्णमित्ता कडयतुडियथभियाओं भुयाओ साहरइ साहरिता करयल जान कट्टु एव वयासी - णमोडरपुर्ण अरहंताणं जाव सपत्ताणं नमोऽत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सपाविउकामस्त वदामि णं भगवंत तत्थगयं इह गया पासउ म भगव तत्थ गए छह गयति वंद नमसइ वदित्ता नमसित्ता सीहासणवरंसि पुग्त्थाभिमुहा निसपणा, तरणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जाव समुप्यजित्था - सेयं खलु मे समणं भगवं महावीर वदित्ता जाव पज्जुवासित्तएत्तिक एव संपेes सपेहित्ता आभिओगिए देवे सहावे सद्दावित्ता एवं बयासी --एव खलु देवाणुनिया । समणे भगव महावीरे एव जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ जात्र दिव्व सुखराभिगमणजोगं जाणविमाणं करेह करिता जाव पच्च पिणह, तेवि तहेव करेत्ता जाव पच्चविणंति, णवर जोयण सहस्सवित्थिदण जाणविमाण सेस तहेव, तहेव णाभगोय साहे तव हि उवदंसेइ जात्र पडिगया || सू० २ ॥ टोको' जण भते ' इत्यादि । जम्बूस्वामी उति-यदि खलु 'भते ' भदन्त != हे भगवन् ! भ्रमणेन यावत्समाप्तेन धर्मकथाना दशवर्गाः मज्ञता,
,
-: जइण भते । इत्यादि ।
टीकार्य - ( जहण भते ! समणेण जाव सपत्तेर्ण धम्मका दसवा पवन्ता पढमण भते । वग्गस्स समणेण जांव सपत्तन के अड्डे पण्णत्ते ? एव खलु जत्रू ! समषेण जाव सपत्तेण पढमस्स) जनूरवामी श्री
जइण भते । इत्यादि -
( जण भते ' समषेण जाव ते धम्माण दगा पण्णत्ता पदम र्ण भते ! वग्गस्म समणेर्ण जाव सपतेण के अड्डे पण्णत्ते ? न खलु जयू 1 सम नेण नाव सपत्तेण पढ मस्स० )
१
Page #1085
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगर
टीका २ व १ अ १ कालीदेवीवर्णनम्
७६३
"
प्रथमस्य खलु हे भदन्त | वर्गस्य श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मास्सामीमा - एन खलु दे नम्' ! श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि मानि तद्यथा - काली १, रात्रि २, रजनी ३, विद्युत् ४, पा ५ | जामी उति - यदि खलु हे भदन्त ! श्रमणेन यावत्सप्राप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तत्र प्रथमस्य खलु भदन्त ! अन्ययनस्य श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः १ । सुधर्मा सामी कायति
एव खलु हे जम्नू' । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नगर गुणशिल्क चैत्यम्, श्रेणिको राजा, चेलना देवी आसीत् । सामी=त्वामी श्रीमहावीरस्वामी
!
सुधर्मास्वामी से पूछते है कि (भते ) हे भदत ' ( जण ) यदि (समपेण जाव सपरोण धम्मकहाण दसवग्गा पण्णत्ता) श्रमण भगवान् महावीर ने जो कि मुक्तिस्थान को प्राप्त हो चुके हैं धर्मकथा के दश वर्ग मरूपित किये है तो (ण मते ) हे भदत' (समणेण जाव सपत्तेण पढमस्स वगस्त के अट्ठे पन्नन्ते ) उन्ही श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मोक्ष में विराजमान हो चुके हैं प्रथम वर्ग का क्या अर्थ प्रजप्त किया है ? ( एव खलु जनू समणेण जाव सपत्तेन पदमस्स वग्गस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जण भते । समोणं जाव संपत्तेण पढमस्स वग्गस्स पच अज्झयणापण्णत्ता पढमस्स णं भते अज्ज्ञयणस्स समणेण जाव सपत्ते के अट्ठे पण्णत्ते १ एव खलु जव् ! तेर्ण कालेन तेन समपण रायगिहे णयरे गुणसिलए चेडए सेणिए राया चेल्लणादेवी ) इस प्रकार जत्रू स्वामी के प्रश्न को सुनकर सुधर्मास्वामी ने
४ स्वाभी श्री सुधर्मा साभीने पूछे छे डे ( भते ) हे लदन्त ! ( जइण ) ले (समगेणं जात्र सरतेण धम्मकाण दुसनगा पण्णत्ता ) श्रम ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધુ છે ધકથાએના દેશ वर्गों अमित तो ( भते ) हे लढन् । ( समणेण जान सक्सेन पदमरस वास के अड्डे पन्नते ) ते श्रमायु लगवान महावीर नेगो મેક્ષમા વિરાજમાન થઇ ચૂકયા છે-પહેલા વના ા અથ પ્રજ્ઞપ્ત કર્યાં છે ?
( एव खलु जत्रू समणेण जात्र सपत्तेग पढमस्त वग्गस्स पच असणा पण्णत्ता, व जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जण भते ! समणेण जात्र सपत्तेर्ण पढमस्स नग्गस्म पचअज्झयणा पण्णत्ता । पढणस्स पण भने अझयण-म समणेर्ण नाव सपते के अद्वे पगते ! एव खलु जयू ! तेग वालेग तेण समएग रायगिहे यरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्लणा देवी )
Page #1086
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६२ पच्चुण्णमड पच्चुण्णमित्ता कडयतुडियर्थभियाओ भुयानो साहरइ साहरित्ता करयल जाप कटु एवं वयासी-जमोऽरथुणे अरहताणं जाव सपत्ताण नमोऽत्धुणं समणस्स भगवा महा. वीरस्स जाव सपाविउकामस्स बंदामि गं भगवत तस्थगयं इह गया पासउ म भगव तत्थ गए इह गयन्तिाटु वंदर नमंसइ वदित्ता नमंसित्ता सीहासणपरसि पुरत्थाभिमुहा निस. पणा, तएणं तीसे काली देवीए इमेयारूबे जाव समुपजिया -सेयं खल्ल से समणं भगवं महावीर वदित्ता जाव पज्जुवा सित्तएत्तिकटु एव संपेहइ सपेहित्ता आभिओगिए देवे सहावा सदावित्ता एवं वयासी-एव खल देवाणुपिया समणे भगव महावीरे एवं जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ जाव दिव्य सुरवराभिगमणजोग्गं जाणविमाणं करेह करिता जाव पच्च पिणह, नेवि तहेब करेता जाव पच्चप्पिणंति, णवर जोयण सहस्सवित्थितण जाणविमाण सेस तहेव, तहेव णामगाय साहेइ तहेव नविहि उपदंसेइ जात्र पडिगया । सू० २ ॥
टीको-'जण भते । इत्यादि । मन्त्रस्वामीपति-यदि खलु ' मत भदन्त ! हे भगवन् ! श्रमणेन यावत्सपाप्तेन धर्मकथाना दशवर्गा. प्रज्ञप्ता,
-जइण भते ! इत्यादि।
टीकार्य-~(जइण भते ! समणेण जाव सपत्तणं धम्मकहाण दसरा पण्णत्ता पढमस्सण भतेवग्गस समणेण जोव सपत्तण के अ पण्णेत्ते? एवं खलु जन् ! समणेण जाव सपत्तण पढमस्स) जबूग्वामा
जइण भते । इत्यादि- . (जइण भते । समण नाव सात्तेण धम्मकहाण दसवग्गा पण्णता पहार णे मते ! वास्म समणेणे जाव सपत्ता के अटे पणते ? एप खलु जब सम गेला सत्तेपा पEPARAN
Page #1087
--------------------------------------------------------------------------
Page #1088
--------------------------------------------------------------------------
________________
ummamme
ता 'समोसरिए ' समयतः समागतान । 'परिमा'-परिपाजगृहनगर वास्तव्यो जनसमूह 'णिग्गया' निर्गता भगन्दनाय व स्वस्थानान्निस्मता, भगरता धर्मस्या फयिता यायद परिपद भगत पिज्जुवासा' पर्युपास्ते सेवते, तस्मिन् काले तम्मिन सगये काली नाम देगी चमरननाया राजधान्या उन्हें उत्तर देने के अभिप्राय से करा कि(पपलु जबू!) हे जबू! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है सुनो यारत समाप्त श्रमण भग चान् महार ने प्रथम वर्ग के पाच अध्ययन प्राप्त किये हैं वे ये हैंफाली १, रात्रि २, रजनी ३, विपुत् ४, और मेघा ५। अब पुनः जदू स्वामी प्रश्न करते हैं कि मदत! यात मुक्तिधान को प्रात हुए श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग के पाच अध्ययन निरूपित किये है तो में आपसे पूछना ह कि भदत यावत् मोक्ष को सप्राप्त उन्हीं श्रमण भगवान महावीरने प्रथम अध्ययनका क्या अर्थ निरूपित किया है ? इसका उत्तर उन्हें सुधर्मास्वामी इस प्रकार देते है-हे जबू! उस काल और उस समय में राजगृह नामकी नगरी धी-उम में गुणशिलक नाम का उद्यान धा-नगरी के राजा का नाम श्रेणिकया। उसकी रानी का नाम चेल्लना था। (सामी समोसरिए परिसा जिग्गया जाव परिसा पज्जु वासह-तेण कालेणं तेणं समणकाली नाम देवी, चमरवचाए रायहोणाए
આ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામી પ્રશ્નને સાભળીને તેમને ઉત્તર આપવાના शथी श्री सुधर्मा स्वाभाये छु (एर सलु ज1) 3 0 1 तभार પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે સાભળે, યાવત્ સ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન એક વિરે પહેલા વર્ગના પાચ અધ્યયને પ્રજ્ઞપ્ત કર્યા છે તે આ પ્રમાણે છે૧ કાલી, ૨ રાત્રિ, ૩ રજની, ૪ વિદ્યુત, અને ૫ મેવા
હવે ફરી કબૂ સ્વામી પ્રશ્ન કરે છે કે હે ભદન્તા યાવત મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત કરી ચુકેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પહેલા વર્ગના પાંચ અધ્યયના નિરૂપિત કર્યા છે તે હું તમને ફરી પૂછવા માંગુ છું કે હે ભદન્ત ! ચાવત, મોક્ષને પ્રાપ્ત કરી ચુકેલા તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પહેલા અધ્યય શો અથ નિરૂપિત કર્યો છે? શ્રી અધમ સ્વામી તેને ઉત્તર આપતા કહેવા લાગ્યા કે જ ! તે કાળે અને તે વખતે રાજગહ નામે એક નગરી હતી તેમાં ગુણશિલક નામે ઉઘાન હતું નગરીના રાજાનું નામ શ્રેણિક હેતુ તેના રાણીનું નામ ચેરના હતું
(सामी समोसरिए परिसा णिग्गया जार परिसा परजुवासइ-तेण कालेणे तेण समएण काली नाम देवी, चमर चचाए रायहाणीए
Page #1089
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतषिणी टी० १ २ व १ अ १ कालीदेवीवर्णनम् ७५ कालपडिसगभवणे' कालावतसकभवने काले कालाख्ये सिंहासने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीमिः, चतसृभिर्मह तरिकाभिः, सपग्विाराभिस्तिभिः बाह्याभ्य न्तरमध्यरूपाभिः परिसाहि' परिपद्धिः पारिवारिकदेवीस्पाभिः, सप्तभिः 'अणिएहिं ' अनी हयगजरवपदातिपभगन्धर्वनाट यस्पैः, अनार विवेकःकालवडिसगभवणे कालसि, मीहासणसि चहिं सामाणियामाहस्सीहिं चरहिं महरियाहिं, सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं सोलमहि आयरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहिं यहिं कालवडिमगभवणवासिहं अउरकुमारेहिं देवहिं देवीहिं य सद्धि संपरिघुडा मध्याह्य जाव विहरइ ) वहा पर श्री महावीर सामी का आगमन हुआ। लोगों को जब इनके आगमन की खबर लगी-तन समस्त राजगृह निवासी जन इन का वदना करने के अभिप्रार से गुणशिलक उद्यान में आये । भगवान् ने वर्मकथा कही-यावत् परिपदने भगवान की पर्युपासना की । उम काल में और उस समय मे काली नाम की देवी चमरचपा नाम की राजधानी में रहती थी। उसके भग्न का नाम कालावतसक धा। जिप्स सिंहासन पर यह बैठती थी उसका नाम काल था। यह उस भवन में चार हजार सामानिको की परिषद के साथ, चार हजार महत्तरिकाओं के साथ, अपने २ परिवारवाली तीन हजार पारिवारिक देवियों के साप, मान अनीकोंके-ध्य, गज, रथ, पदाति, वृपभ, गधर्व एव नाटयरूप सैय केकालसि, सीहासणसि चउहिं सामाणियसाहसीहिं चउहि महरियाहिं, सपरिचाराहि तिर्टि परिसाहिं सत्तहिं अगिएहिं सत्तहिं अणियाहिपईहिं सोलसहिं आय रक्ख देवसाहस्सीहि अण्णेहि पएहि कार्डिसयभनणवामीहि अमुमकुमारेहि देवेहिं देवीहिं य सद्धि सपरिवुडा महयाहय जाव विहरह)
ત્યા શ્રી મહાવીર સ્વામીનું આગમન થયું જયારે લેકોને તેમના આગમનની જાણ થઈ ત્યારે રાજગૃહના બધા લકે તેમને વદન કરવાના અભિ પ્રાયથી ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં આવ્યા ભગવાને ધર્મકથા કહી સંભળાવી યાવત પરિષદે ભગવાનની પર્થપાસના કરી તે કાળે અને તે સમયે કાળી નામની દેવી ચમરચ ચા નામની રાજધાનીમાં રહેતી હતી તેના ભવનનું નામ કાલા વત સક હતુ જે સિંહાસન ઉ ર તે બેસતી હતી તેનું નામ કાળ હતું તે ભવનમા તે ચાર હજાર સામાનિકાની પરિષદાની સાથે, ચાર હજાર મહત્તરિ કાઓની સાથે, પિતપોતાના પરિવારવાળી ત્રણ હજાર પારિવારિક દેવીઓની સાથે . અનીકે-ઘેડા, હાથી, રથ, પાયદળ, વૃષભ, ગંધર્વ અને નાટય
Page #1090
--------------------------------------------------------------------------
________________
'E
वाताधर्म
1
पानि राम्ग्रामाप, नाटये पुरुष मोगायेति सप्तमनोकाि विभिः, पोडशभिः भात्मरक्षा देवमिः अन्येमाणावकमनवा मिररकुमार मिश्र सार्द्धं सपरिता 'मध्याहय जार विहरण' महताऽइव यावद् विहरति-' महयानगमनाइयनीत जातु डिगर 'महागीतादिव तन्त्रीतलताल तिनादितवे तत्र - महता रयेणेतिसम्पन्न, आदतानि भन्पादनानि यानि नाटयगोवानि, तथा - त्रादितानि-तन्त्री=मीणा, तला = हस्तवाला, ताला=कास्पताला, बुद्धितानिशेपाणि तूर्यादिशानि तथा ननध्य निमादृश्याद्वन सचासों पर प्रतिति राति ततखपदो द्वन्द्वा सेवा यो रस्तेन - उपलक्षितान् दिव्यान् भोगमोगान् शब्दादीन, भुजाना विहरति । इम च' अस्मिन्नरस रेख केवलकल्प पूर्णम् जम्मूदीप नाम द्वीपप-पजन्बूद्वीप विपुलेन 'ओहिगा' अभिना=माधिज्ञानेन 'अोमाणी २' अभोगयमाना २ पश्यन्ति पुनः पुनरुपयोग ददती सती पश्यति। किं पश्पति ? उत्पाद - 'तत्य' तत्र= अधिज्ञानोपयोगे श्रमण भगवन्त महावीर जम्बूद्वीपे द्वीपे मारते वर्षे राजगृहे साथ अनीकाधिपतियों के साथ, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के साथ, तथा और भी बहुत से कालावत भवन में निवास करनेवाले असु रकुमार देवों के एव देवियों के साथ परिवृत शेकर रहा करती थी । अव्याहत ( सतत नाटयगीनों के एत्र वादिन तन्त्री, हस्त, ताल, कास्य ताक, डित आदि तृर्यादिवाद्यों के एव मेघ की ध्वनि जैसे अच्छी तरह जाये गये मृदगों के सुन्दर २ शब्दों से उपलक्ष दिव्य मोगो को भोगती हुई अपने समय को आनन्द के साथ व्यतीत किया करती थी। ( इम च ण केवलकप्प अनुद्दीन दीव चित्रण ओरिणा आमोदमाणी २ पाम, तत्थ समण भगव महावीर जब हीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे રૂપ સૈન્યની સાથે અનીકાધિપતિઓની સાથે, સેળ હાર આત્મરક્ષક દેવાની સાથે તેમજ બીજા પશુ ઘણા કાલાવતસક ભવનમા નિવાસ કરનારા અસુર કુમારદેવ અને દેવીઆની સાથે પરિવૃત થઇને રહેતી હતી તે અશ્ર (सत्त) नाट्य गीन। वाहित व त्री, दुस्ततास, मस्यतास, जुन वगेरे तूर्य वगेरे વાઘો, મેઘના ર્તિની જેમ સારી પેઠે વગાડવામા આવેલા મુદગેના સુ ાબ્દોથી ઉપલક્ષિત દિવ્ય ભાગાને ઉપભાગ કરતી પેાતાના સમયને સુખેથી
પસાર કરતી રહેતી હતી
( इम च केवलकपदीने दी विश्लेग ओहिजा आभोमामी २ पासह तथ समणभगव महावीरं जबुद्दीवे दीने भारहे
wet
Page #1091
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ६० २३० १ ० कालीदे औरणनम ७६७ नगरे गुणशिल के चैत्ये यथामतिरूप-यथाकल्पम् ' उगह ' अपग्रह असतेराज्ञाम् 'उग्गिण्हित्ता' अवगृध सयमेन तपसा आत्मान भावयन्त पश्यति, दृष्ट्वा हृष्ट तृष्टचित्तानन्दिता 'पीश्मणा' भीतिमना प्रसन्नमनस्काः 'जापहियया' यावन्हर्पशनिसर्पदहदया हर्पयशादुल्लसितहदया सिंहासनाद् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय णयरे गुणसिलए चेहए अहापडिरूवं उग्गह उग्गिण्डित्ता सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाण पासइ, पासित्ता हतुट्टचित्तमाणदिया पीहमणा जाव हियया सीहालणाओ अम्भुट्टेद, अन्भुट्टित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता पाउपाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता तित्वगराभिमुही सत्तहपयाइ अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वाम जाणु अचेह, अचित्ता दाहिण जाणुधरणियलसि निटूटु त्तिक्खुत्तो मुद्धाण धरणियलसि निवे. सेइ, निवेसित्ता कटु एव वयासी) इस अवसर में उसने केवल कल्प-सम्पूर्ण-जबूढीप नामके दीपको-मध्यजबूद्वीप को-विपुल अवधिज्ञान के द्वारा वार २ उपयोग देकर देखा-। उस समय उसने श्रमण भगवान् महावीर को जंबूद्वीपान्तर्गत भरत क्षेत्र में राजगृह नगर मे गुणशिलक चैत्य में यथाकल्प वसति की आज्ञा लेकर संयम एच तप से आत्मा को भावित करते हुए स्थित देखा। देवकर वह बहुत अधिक हृष्ट एव तुष्ट हुई । उसका मन प्रीति से भर आया। हर्ष के वश से हृदय उरलसित हो उठा । वह उसी समय अपने सिंहासन गुणसिलए चेइए अहापडिरूव उग्गह उम्पिण्डित्ता सनमेण तनसा अप्पाण भावे माण पासइ, पासित्ता हट्ट-तृढ़ चित्तमाणदिया पोइमगा जार हियया सोहा सणाओ अन्भुढेइ, अभुट्टित्ता पायपीढाओ पच्चोरुड, पच्चोरुहिता पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता तित्थगराभिमुही सत्तट्ठपयाउ अणुगच्छइ, अणुगन्छित्ता, वामजाणु अचेइ, अचित्ता दाहिज जाणु धरणियलसि निह त्तिक्खुत्तोमुराण धरणियलमि निवेसेइ निवेसित्ता कह एव वयासी)
તે સમયે તેણે કેવલક૯૫–સ પૂર્ણ-જબૂદ્વીપ નામના દ્વીપને મય જ બૂ દ્વિીપને વિપુલ અવધિજ્ઞાનના ઉપગથી વાર વાર જે તે સમયે તેણે શ્રમ ભગવાન મહાવીરને જ બુદ્વીપમાં આવેલા ભારતના રાજગૃહ નગરના ગુણ શિલ. ત્યમાં યથાકલ્પ વસતીની આજ્ઞા લઈને સયમ અને તપ દ્વારા પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા રહેતા જયા જોઈને તે ખૂબ જ હુણ અને તુષ્ટ થઈ ગઈ તેનું મન પ્રેમથી તરબોળ થઈ ગયું હર્ષાતિરેકથી હૃદય જલાસિત થઈ ગયુ તે જ વખતે પિતાના સિંહાસન ઉપરથી ઉડી અને ઉઠીને તે પાદપીઠ
Page #1092
--------------------------------------------------------------------------
________________
Arund आधपक्षणानि सम्यामाय, गानाटो पुनरूपमोगाति, सप्तमिरनीकापिए. विभिः, पोरशभिः आत्मरामदेवमाहचीमिः, अन्यमिभकालापनसकमनात भिरगुरकुमार शामिल साई सपरिता 'मायाहग जातनिहरा' महलाहस यापद विहरति-महयाऽऽदयनहगीयराइयततीतरताततरिमयगागपडप्पास पेणं महताऽऽहानाटारगीवादिव तीतल ताल डिन धनमारमादितावमा तत्र-' महता' रणेतिसम्पन्न , आदवानिभपाहतानि यानि नाटयगोतानि, तया-वादितानि-तन्त्री मीणा, तला-इस्तताला, ताला-कास्यताला, धुडि. तानिम्शेपाणि तूर्यादिश्यानि, त्या घनस मृदानध्धनिमाश्या पनपतास चासी पटु प्रादितथेति घनमृदयपटुवादितः, ततसिपदो इन्दः, तेषा यो सस्तेन-उपललितान् दिन्यान् भोगमोगान मन्दादीन् मुखाना विहरति । 'म चण' अस्मिन्नासरे खलु केलकल्प-सपूर्णम् जम्द्वीप नाम द्वीप मध्यजन्नदोष विपुलेन 'ओहिगा' माधिना भाषिक्षानेन 'अभोण्माणी २' अमोगयमाना २ पश्यन्ति पुनः पुनरुपयोग ददतीमती पश्यति। किं पश्यति 'त्याह-'तत्य' तत्र अवधिज्ञानोपयोगे श्रमण भगान्त महावीर अम्मदीपे द्वीपे भारते वर्षे राजय साथ अनीकाधिपतियों के साथ, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के साथ, तथा और भी बहत से कालावतसक भवन में निवास करनेवाले अ रकुमार देवों के एव देवियों के साथ परिवृत होकर रहा करता था। अव्यात (सतत) नाटयगीतों के एववादित तन्त्री, रस्त, ताल, कास्य ताल, डित आदि तर्यादिवाद्यो के एव मेघ की ध्वनि से अच्छी तरह पजाये गये मृदंगा के सुन्दर र शब्दों से उपलक्षित दिव्य भोगी का भोगती हुई अपने समय को आनन्द के साथ व्यतीत किया करता था। (इम च ण केवलकम्प जवुद्धीव दीव विउलेण ओरिणा आभोएमाणी २ पासइ, तत्ध समण भगव महावीर जवहीवेदीचे भारहे चासे राधामह ૩પ સિન્યની સાથે અનીકાધિપતિઓની સાથે. સોળ હજાર આત્મરક્ષક દેવના સાથે તેમજ બીજા પણ ઘણા કાલાવત સક ભવનોમાં નિવાસ કરનારા અસુર કુમારદેવ અને દેવીઓની સાથે પરિવૃત થઈને રહેતી હતી તે અચાહs (સતતં નાટય ગીતે, વાદિત ત ત્રી, હસ્તતાલ. કામ્યતા, ડિત વગેરે સૂર્ય ઉગ વાહો, મેઇન દવાનની જેમ સારી પેઠે વગાડવામાં આવેલા સંદેશાતી માં શબ્દથી ઉપલક્ષિત દિગ્ય ભોગે ઉપભોગ કરતી પિતાના સમયને સુખ પસાર કરતી રહેતી હતી
(इम च ॥ केरल कप जद्दी दी विउलेश मोहेगा आमोएमामी । पासह तस्थ समगभगर महावीर जबुद्दीने दीवे .
Page #1093
--------------------------------------------------------------------------
________________
arrrrधर्मामृतवर्षिणी टी० ० २ ० १ ० १कालीदेवीवर्णनम
૭૬૭
नगरे गुण शिल के चैत्ये यथामतिरूप = यथात्वम् ' उग्गह' अग्र= नसतेराज्ञाम् ' उग्गण्डित्ता ' अगृद्य सयमेन तपसा आत्मान भावयन्त पश्यति दृष्ट्वा हृष्ट तुष्टचित्तानन्दिता 'पीमणा ' प्रीतिमनाः = प्रसन्नमनस्का: ' जाहियया ' यावत्हानिसहदया = दर्पवशादुल्क सितह दया सिंहासनाद् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय
पयरे गुणसिलए चेहए अहापडिवं उग्गह उग्गहत्ता सजमेण तवसा अपाण भावेमाण पासइ, पासित्ता रहनुहचित्तमाणदिया पीमणा जाव हियया सीहातणाओ अब्भुट्ठेट, अन्भुट्टिता पायपीढाओ पच्चोरुह, पच्चोरुहिता पाउपाओ ओमुयइ, ओमुहत्ता तित्यगाराभिमुही सत्तपयाइ अणुगच्छर, अणुगच्छित्ता वाम जाणु अचेह, अचित्ता दाहिण जाणु धरणियलसि निहटु त्तिक्खुत्तो मुद्राण धरणियलसि निवे सेह, निवेसित्ता कट्टु एव वयासी ) इस अवसर में उसने केवल कल्प- सम्पूर्ण - जबूद्वीप नामके द्वीपको मध्यजबूद्वीप को - विपुल अवधिज्ञान के द्वारा वार २ उपयोग देकर देखा । उस समय उसने श्रमण भगवान् महावीर को जबूद्रीपान्तर्गत भरत क्षेत्र में राजगृह नगर मे गुणशिलक चैत्य में यथाकल्प वसति की आज्ञा लेकर सयम एव तप से आत्मा को भावित करते हुए स्थित देखा। देखकर वह बहुत अधिक हृष्ट एव तुष्ट हुई । उसका मन प्रीति से भर आया । हर्ष के वश से हृदय उल्लसित हो उठा । वह उसी समय अपने सिंहासन
गुणसित्रए चेइए अहापडिव उग्गह उग्गदित्ता सजमेण तपसा अप्पाण भावे माण पापड, पासिता हट्ट तुट्ठ चित्तमाणदिया पीइमगा जान हियया सीहा सणाओ अभुट्ठे, अट्ठित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहह, पन्चोरुदित्ता पाउयाओ ओमुर, ओमुत्ता तित्थगराभिमुही सत्तट्ठपयाड अणुगच्छर, अणुगच्छित्ता, वाम जाणु अचे, अचित्ता दाहिण जाणु धरणियलसि निहहु चिक्खुत्तोमुद्राण धरणिय लमि निवे सेइ निवेसित्ता कट्टु एव वयासी )
તે સમયે તેણે કૈવલકલ્પ–સ પૂર્ણ-જ ખૂદ્રીપ નામના દ્વીપને મધ્ય જમ્મૂ દ્વીપને વિપુલ અવધિજ્ઞાનના ઉપયોગથી વાર વાર જોયા તે સમયે તેÌ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને જમૃદ્વીપમા આવેલા ભરતક્ષેત્રના રાજગૃહ નગરના ગુણુ શિલક મૈત્યમાં થાકલ્પ વસતીની આજ્ઞા લઇને સયમ અને તપ દ્વારા પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા રહેતા જોયા જોઈને તે ખૂબ જ હૃષ્ટ અને દુષ્ટ ઈ ગઈ તેનુ મન પ્રેમથી તરખેાળ થઈ ગયુ હર્ષાતિરેકની હૃદય ઉલ્લાસિત થઈ ગયુ તે તે જ વખતે પેાતાના સિંહાસન ઉપરથી ઉઠી અને ઉડીને તે પાદપીઠ
Page #1094
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाबणा आधपशानि सध्यामाय, गनाटो पुनरुपमोगायेति, सप्तमिरनोकाभिषविभिः, पोउभिः भात्मरक्षरदेशमाहवामिः, अन्यत्र मिश्र कालानमकमवनवाधि भिरसुरकुमारद वैर्देश भित्र साद्धं सपरिटता ' मध्याहय नाव विहा' महताऽइस यावद् रिहरति-' महयाऽऽहयनगीयपाइयतनीतरतालतुरियपगमुगपडप्पायर पेण' महताऽऽहतनाटपगीतादिव त-नीतरताल हित घनमूहापटुवादितावेम, तत्र- महता' रणेतिसम्पन्च, आगनि-भपाहतानि यानि नाटयगीतानि, तथा-वादितानि-तन्त्रीबीणा, तला हस्तताला, ताला-कास्यताला, त्रुटि तानि-शेपाणि तूर्यादिवायानि, तया घनस मृदङ्गः नवनिमास्याद् यदा स चासौं पटु प्रमादितथेति घनमृद्रपटुमवादितः, ततखिपदी द्वन्दः, तेषा यो रसस्तेन-उपललितान् दिल्यान् भोगमोगान् शदादीन भुलाना विहरति । 'इम चण' अस्मिन्ननसरे खलु केपलकल्प-सपूर्णम जम्बुद्धीप नाम दीप-मध्यजन्बूद्वाप विपुलेन 'ओहिगा' अधिना=अवधिज्ञानेन 'अमोण्माणी २' अभोगयमाना २
पश्यन्ति पुनः पुनरुपयोग ददती सती पश्यति। किं पश्यति ' इत्याह-'तत्य' तत्र ___ अवधिज्ञानोपयोगे श्रमण भगवन्त महावीर जम्मृद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे राजगह
साथ अनीकाधिपतियों के साथ, सोलर हजार आत्मरक्षक देवों के साथ, तथा और भी बहुत से कालावतसक भवन में निवास करनेवाले असु रकुमार देवों के एन देवियों के साथ परिवृत रोकर रहा करता था। अव्याहत (सतत) नाटयगीतों के एक वादित तन्त्री,रस्त, ताल, कास्य ताल, त्रुडित आदि तृर्यादिवाद्यों के एव मेघ की ध्वनि जैसे अच्छी तरह घजाये गये मृदगों के सुन्दर र शन्दों से उपलक्षित दिव्य भोगी की भोगती हुई अपने समय को आनन्द के साथ व्यतीत किया करता था। (इम च ण केवलकप्प जद्दीव दीव विउलेण ओहिणा आभीएमाणी २ पासइ, तत्थ समण भगव महावीर जब बीवेदीवे भारहे वासे रायाग રૂપ નિન્યની સાથે અનીકાધિપતિઓની સાથે. સોળ હજાર આત્મરક્ષક દેવના સાથે તેમજ બીજા પણ ઘણા કાલાવત સક ભવનમાં નિવાસ કરનારા અક્ષર કુમારદેવ અને દેવીઓની સાથે પરિત થઈને રહેતી હતી તે અહે (સતત) નાટય ગીતે, વાદિત ત ત્રી. હસ્તકાલ. કાચતાલ, ડિત વગેરે તર્યા વગ: વાદ્યો, મેઘના દવનિની જેમ સારી પેઠે વગાડવામાં આવેલા મદ ઝાના શબ્દથી ઉપલક્ષિત દિવ્ય ભેગોને ઉપભોગ કરતી પિતાના સમયને સુખેથા પસાર કરતી રહેતી હતી ( इम चाण केलकप्प जद्दोरे दीवै विउलेग भोहिणा आभोएमामी २
. जपर . पासइ, तत्थ समणमगर महावीर जबंदीवे दीवे
Page #1095
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतषिणी टी० भु २ च १४ १ कालीदेवीवर्णनम्
७६९ खलु श्रमणाय भगवते महावीराय यावत् सिद्धिगतिनामधेय स्थान समाप्तुकामाय, वन्दे खलु भगवन्त 'तत्यगय ' तमगत जम्बूद्वीपे राजगृहनगरस्य गुणशिलको घाने समरसृतम् इहगा' इहगता-चमरचञ्चाराजधानी स्थिताऽहम् , पश्यतु मा भगवान् तरगत इहगतम् , 'त्ति कट्ट' इति कृत्वो इत्युक्त्वा वन्दते नमस्यति, पन्दित्त्वा नमस्यित्वा सिंहामनवरे 'पुरत्याभिमुही ' पौरस्त्याभिमुग्वी पूर्वदिशाभि मुखी 'निमण्णा' निपग्णा-उपविष्टा । ततः खलु तस्या काल्या देव्या अयमेतजाव संपाचिउकामस्म वदामि ण भगवत तत्थ गय इह गया पासउ म भगव तत्य गए इह गय त्तिकटु वदह नमामह, वदित्ता नमसित्ता सीहामणवरसि पुरत्याभिमुही निसण्णा तएण तीसे कालीए देवीए इमेयाख्वे जाव समुपज्जित्था) यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए अहंत भगवतो के लिये मेरा नमस्कार हो । सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने की कामनावाले श्रमण भगवान महावीर को मैं नमस्कार करती है। जबूढीप में राजगृह नगर के गुणशिलक उद्यान में इस समय विराजमान उन भगवान को मैं इस चमर चपा नाम की राजधानी में रही हुई नमस्कार कर रही हूँ। वहा पर रहे हुए वे प्रभु मुझे यक्ष पर रही हुई देखे। इस प्रकार कहकर उसने उनको वदना की -नमस्कार कियो-बदना नमस्कार करके फिर वह अपने उत्तम सिंहासन पर आकर पूर्व दिशाकी ओर मुंह करके बैठ गई। इसके बाद उस काली देवी के यर इस प्रकार का यावत् मनः सकल्प उत्पन्न हुआ. (सय खलु मे समण मगव महावीर वदित्ता जाव पज्जुवासित्तए त्ति तत्थ गए इह गय त्ति कटु वदइ नममा, दित्ता, नमसित्ता सीहामणवरमि पुरत्याभिमुही निसण्णा-तएण तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जावि समुप्पज्जित्था)
યાવત્ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલા અહંત ભગવ તેને મારા નમસકાર છે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવવાની કામનાવાળા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને હું નમાર કરૂ છુ જ બૂ દ્વીપના રાજગૃહ નગરના ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં અત્યારે વિરાજમાન તે ભગવાનને હુ આ ચમરચ ચા નામની રાજ ધાનીમાં રહેતી નમસ્કાર કરી રહી છુ ત્યા વિરાજમાન તે પ્રભુ અહીં રહેતી મને જુએ આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેમને વદન કર્યા અને નમસ્કાર કર્યા વદન અને નમસ્કાર કરીને તે પોતાના ઉત્તમ સિંહાસન ઉપર આવીને પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરીને બેસી ગઈ ત્યારપછી તે કાળી દેવીને આ જાતને યાવતું મન સકલપ ઉત્પન્ન થયે કે- शा.२५
Page #1096
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१८
पादपीठान् पचोरहा' प्रत्यरोहति भातरति, स्पानोर्य 'पाउपायो' पादुके 'ओयह ' अमुशति-पित्याति, मुस्त्या तीकराभिपुग्वी सतीसप्ता एपदानि 'अणुग 3' अनुगति -गमाप गाउति. अनुगम्य वाम जावं 'अवेइ' अश्नति-उपीरोनि, अनिता-उपत्य दक्षिण जानु धरणितले 'निदृष्टु' नित्य-स्थापयित्या 'विसुनो' निकल =निवारम् 'मदाण' मृर्धान-गस्तक धाणितले निवेशयनि-गनि, निमेश्य ईसि पचण्णमास स्वत्यानमति-रतीय शिरोनामयति, मत्यानम्प 'षडयडिययभिगाओ' कटत्रुटित स्तम्भिते पटके-करभूपणे तुत्रितेचा भूपणे ते म्नम्मिने-अप्रष्टये भुयाओ' भुजे 'माहरइ ' सहरनि=एकत्रीकरोति, सहत्य करयल जाव बहुकरतलपरि गृहीत शिर आपर्त मस्तकेऽञ्जलि का एमादीत-'नमोत्थुण' इत्यादिनमोऽस्तु खलु अर्थभ्यः यारद् सिद्धिगतिनामय स्थान सम्पाप्तेभ्यः, नमोऽस्तु से उठी-और उठकर वह पादपीट से होकर नीचे आई-नीचे आकर उसने दोनों पादुकाओं को पैरों में से उतार दिया। उतार कर फिर यह तीर्थकरराधिष्टित दिशा की ओर सात आठ पद आगे गई। वहा आकर उसने अपने चाम जानु को ऊंचा किया-ऊंचा कर के फिर दक्षिण जानु को नीचे धरणीतल मे रसा-रखकर फिर तीन यार अपने मस्तक को नीचे भूमिपर लगाया-लगाकर फिर यह कुछ शुकी-शिर को नीचेनवाया। बाद में कटक और त्रुटित से भूपित भुजाओ को एकत्रित किया-एकत्रित करके फिर उसने उन दोनों हाथोंकी अजलि बनाई-और उरो मस्तक पर आदक्षिण प्रदक्षिण कर इस प्रकार कहो (नमोत्थुण अरहताण जाव सपताण नमोत्थण समणस्स भगवओ महावारस्त ઉપર થઈને નીચે આવા નીચે આવીને તેણે બને પાદડાઓને પગમાંથી ઉતારી દીધી ઉતારીને તે તીર્થં કર જે દિશા તરફ વિરાજમાન હતા તે જ તરફ સાત-આઠ ડગલા આગળ ગઈ ત્યા જઈને તેણે પિતાના ડાબા ઢીંચશુને Gો કયે ઊંચો કરીને પછી તેણે જમણા ટીંચણને નીચે પૃથ્વી ઉપર ટેક ટેકવીને તેણે ત્રણ વખત પોતાના મ તો નીચે પૃથ્વી ઉપર ટેકવ્ય, ટેકવીને તે શેડી નમી-મસ્તકને નીચે નમાવ્યું ત્યારપછી તેણે કટક અને બુટ વિભૂષિત ભુજાઓને ભેગી કરી, ભેગી કરીને તેણે તેઓ બનેની આ જલિ બનાવી અને તેને મસ્તક ઉપર દક્ષિણ પ્રદક્ષિણ-પૂરક ફેરવીને આ પ્રમાણે છે
(नमोत्थुण अरहताण जाव सपत्ताण नमोत्थण समणस्स भगरी महा पीरस्म जान सपाविउकामस्स पदामिण भगवत तत्यगय ह गया म
Page #1097
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतषिणी टी० भु २ घ १४ १ कालीदेवीवर्णनम् ७६९ खलु अमणाय भगवते महावीराय यावत् सिद्धिगतिनामधेय स्थान समाप्तुकामाय, वन्दे खलु भगवन्त 'तत्यगय ' तनात-जम्बूद्वीपे राजगृहनगरस्य गुणशिलको घाने समरसृतम् 'इहगा' इहगता-चमरचञ्चाराजधानी स्थिताऽहम् , पश्यतु मा भगवान् तरगत इहगतम् , 'त्ति कटु' इति कृत्वो-इत्युक्त्वा वन्दते नमस्यति, पन्दित्वा नमस्यित्वा सिंहासनारे 'पुरत्याभिमुही ' पोरस्त्याभिमुग्वी पूर्वदिशाभि मुखी 'निमष्णा' निपग्गा उपविष्टा । ततः खलु तस्या काल्या देव्या अयमेतजाय मपाचिउकामस्स वदामि ण भगवत तत्थ गय इह गया पासड म भगव तत्व गए इ₹ गय त्तिकटु वदइ नममइ, वदित्ता नमसित्ता सीहामणवरसि पुरत्याभिमुही निसण्णा तरण तीसे कालीए देवीए इमेयाख्वे जाव समुपज्जित्था) यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए अहंत भगवतो के लिये मेरा नमस्कार हो । सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने की कामनावाले श्रमण भगवान महावीर को मै नमस्कार करती है। जद्वीप में राजगृह नगर के गुणशिलक उद्यान में इस समय विराजमान उन भगवान को मै इस चमर चपा नाम की राजधानी में रही हुई नमस्कार कर रही हैं। वहा पर रहे हुए वे प्रभु मुझे यहा पर रही हुई देखे। इस प्रकार कहकर उसने उनको वदना की -नमस्कार कियो-वदना नमस्कार करके फिर वह अपने उत्तम सिंहरासन पर आकर पूर्व दिशाकी ओर मुंह करके बैठ गई। इसके बाद उस काली देवी के यह इस प्रकार का यावत् मनः सकल्प उत्पन्न हुआ(सेय खलु मे समण भगव महावीर वदित्ता जाव पज्जुवासित्तए त्ति तत्य गए इह गय त्ति यदइ नममइ, दित्ता, नमसित्ता सीहामणवरसि पुरत्याभिमुही निसण्या-तएण तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जारि समुप्पज्जित्था)
યાવત્ સિદ્ધગનિ નામક સ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલા અહંત ભગવ તેને મારા નમસ્કાર છે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવવાની કામનાવાળા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને હું નમાર કરૂ છુ જ બૂ દ્વીપના રાજગૃષ્ઠ નગરના ગુણશિલક ઉધાનમાં અત્યારે વિરાજમાન તે ભગવાનને હુ આ ચમરચ ચા નામની રાજ ધાનીમાં રહેતી નમસ્કાર કરી રહી છુ ત્યા વિરાજમાન તે પ્રભુ અહીં રહેતી મને જુએ આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેમને વદન કર્યા અને નમસ્કાર કર્યા વદન અને નમસ્કાર કરીને તે પિતાના ઉત્તમ સિંહાસન ઉપર આવીને પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરીને બેસી ગઈ ત્યારપછી તે કાળી દેવીને આ જાતને થાવત્ મન સકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે
Page #1098
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१८
पादपीठात् 'पोरा' प्रयागेदनि-मातरति, प्रत्यारपत्रातोर्य पाउयातो' पादुके 'मोरयह ' अरमुभति रित्याति, मुस्त्या तीरामिपुरी सतीमाता एपदानि 'अणुग उड' अनुगच्छति-सम्पुसं गायति, अनुगम्य वाम जानु 'अवे' अश्चति उभी रंगेति, अनिता-उपत्य दक्षिण जानु धरणितले 'निष्टु' नित्य-म्यापयित्या 'तिनो 'नि कसा त्रिवारम् ' मुद्राण' मृन-गस्त घरणितले निवेशयनि-लगति, निश्य ईमि प चुग्णमइप स्वत्यानमतिम्रतीक शिरोनामयति, मत्यानम्य 'पडपटियथभियानो' टिमत्रुटित स्तम्भिते कटके करभूपणे तुत्रिते पाहुभूषणे तैः स्तम्मिा पाटये 'भुयाओ' भुजे 'साहरइ ' सहरति एकत्रीकरोति, सह-य करयल जार पहु' करतलपरि गृहीत गिर आप मस्त केलं का मादी- नमोत्धुग' इत्यादिनमोऽस्तु खलु अदम्प यारद् सिदिगतिनामधेय स्थान सम्माप्तेभ्यः, नमोऽस्तु से उठी-और उठकर वह पादपीट से होकर नीचे आई-नीचे आकर उसने दोनों पादुकाओं को पैरों में से उतार दिया। उतार कर फिर वह तीर्थकरराधिष्ठित दिशा की ओर मात आठ पद आगे गई। वहा आकर उसने अपने चाम जानु को ऊंचा किया-या कर के फिर दक्षिण जानु को नीचे धरणीतल में रवा-रखकर फिर तीन यार अपने मस्तक का नीचे भूमिपर लगाया-लगाकर फिर वह कुछ झुकी-शिर को नीचेनवाया। बाद में कटक और प्रदित से भ्रपित भुजाओं को एकत्रित किया-एकत्रित करके फिर उसने उन दोनों हाथोंगी अजलि बनाई-आर उसे मस्तक पर आदक्षिण प्रदक्षिण कर इस प्रकार कहो (नमोत्थुण अरहताणं जाय सपताण नमोत्थुण समणस्स भगवओ महावारस्त ઉપર થઈને નીચે આવા નીચે આવીને તેણે બને પાદુકાઓને પગમા ઉતારી દીધી ઉતારીને તે તીથ કર જે દિશા તરફ વિરાજમાન હતા તે દિર તરફ સાત-આઠ ડગલા આગળ ગઈ ત્યાં જઈને તેણે પિનાના ડાબા ઢીચર્સ - ઊંચો કર્યો ઉચે કરીને પછી તેણે જમણા ઢીચણને નીચે પૃથ્વી ઉપર ટેકવ્યા ટેકવીને તેણે ત્રણ વખત પિતાના મ તને નીચે પ્રથ્વી ઉપર ટેક, ટેકાન તે થોડી મી-મસ્તકને નીચે નમાવ્યું ત્યારપછી તેણે કટક અને ગુટિલ વિભૂષિત ભુજાઓને ભેગી કરી, ભેગી કરીને તેણે તેઓ બનેની અ જલિ બનાવી અને તેને મસ્તક ઉપર આદક્ષિણ પ્રક્ષિણ-પૂર્વ 4 ફેરવીને આ પ્રમાણે કહ્યું,
(नमोत्थुण अरहताण जाव सपत्ताण नमोत्युण समणस्स भगा म वीरस्म जान सपाविउकामस्र वदामिण भगवत तत्थगय ह गया .. म भगत
Page #1099
--------------------------------------------------------------------------
________________
भमगारधर्मामृतविणो टी० शु० २ घ० १ १०१ कालीदेवीवर्णनम् ७१ मत्यर्पयन्ति-तटाज्ञानुमारेण कार्य कृत्वा निवेदयन्ति । 'णार' नारं-विशेष स्त्वयम्-यत्-सूर्याभस्य यानविमान योजनशतसहस्रविस्तीर्णमस्ति, अस्यास्तुयोजनसहस्रविम्तीर्ण यानविमानमरित, शेप तथैव विनेयम् । तथैर-सूर्याभदेववदेव काली देवी स्त्रस्य नामगोत्र साधयतिमययति । तथैव-मूर्याभदेवदेव च नाटयविधिम् उपदर्शयति, उपदर्य यावत् प्रतिगतान्यन आगता तत्रैव प्रतिनिवृत्ता! मू०२॥
___ मूलम-भतेत्ति भगव गोयमे समण भगव महावीर वदइ णमसइ वदित्ता गमसित्ता एव वयासी कालिए णं भंते । देवीए सा दिव्या देविडो३ कहि गया० कूडागारसालादिद्वतो, कि जर वर विमान बनकर तैयार हो जावे-तब उसकी पीछे हमें खबर कर देना । सो उन आभियोगिक देवो ने वैसा ही किया-और पीछे इसकी वर उसे कर दी। इसमे (जोयणमम्मवित्यिण्ण जाणविमाण सेस तहेव) विशेपता इतनी रही कि सूर्याभदेव का यान विमान एक लास योजन का विस्तारवाला था। तन कि इमका यह यान विमान १ हजार योजन का विस्तारवाला था। याकी सर रचना इसकी उसी सूनाम विमान की तरह जाननना चाहिये। (तहेव णामगोय साहेब, तहेव नोटयविहिं उबदलेह जाव पडिगया) सूर्याभ देव की तरह काली देवी ने अपने नाम गोत्र का कथन किया और मर्याभ देव की तरह ही नाटयविधि को दिखलाया दिखालाकर फिर वह जहा से आई थी वहीं पर पीछे गई सूत्र २॥ વિમાન તૈયાર થઈ જાય ત્યારે તેની મને જાણ કરવામાં આવે ત્યારપછી તે આભિગિક દેવેએ તેમજ કર્યું અને વિમાન તૈયાર થઈ જવાની ખબર वीन पासे मसापी सीधी भा विमानमा (जोयणसहस्सवित्यिण जाण विमाण सेस व्हेन) विशेषता मारली ती न्यारे सूर्याभवनु यान-- વિમાન એક લાખ જન જેટલુ વિસ્તારવાળું હતું ત્યારે તેનું આ યાન-વિમાન
એક હજાર એજન જેટવુ વિસ્તારવાળુ હતુ બાકી રચના સબધી તેની બધી विगत सूर्याल-विभाननी भर aryal नये (तहेव णामगोय साहे, सहेब नाटयविहिं उबदसेइ जाव पहिगया) सूर्यासवनी म आणी पास પિતાના નામ-ગોત્રનું કથન કર્યું અને સૂર્યાભદેવની જેમ જ નાટયવિધિ બતાવી અને બતાવીને તે જવાથી આવી હતી ત્યાં જ પાછી જતી રહી છે. સૂત્ર ૨ છે
Page #1100
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५०
धर्मकथाको
1
1
1
भूपः यावत् मनः--मम श्रम भगवन महावीर पन्दिया यारत्ज्जुनामित्व पर्युपासितुम्= रिम् इनि का=अतिमनसि निधाय एवम् उक्तरीत्या 'गपेदेह' सम्प्रेयनिवारयति सम्प्रेक्ष्य विचार्य 'आभिभोगिन्दे ये' अभियोगकान देवान भयदेशयति=भापति, शन्दयित्वा = माय एम स देवानुमियाः । श्रमणो भगवान महा धीरः एव यथा सूर्यास्तत्र आज्ञापि ददाति यावत् दिव्य सुग्राभिगमन योग्य ' जाणरिमाण ' यानविमानव्यानाय गमनाथैरिमान गुरु, कसा यादमाझा ' पचपण ' प्रत्यय नियत । तेऽपदेशः तथैव कृत्वा यावत् कट्टु एवं मपेट सपेरिसा आमिओगि देवे महावैह, महावित्ता एव घयासी व सल देनाणुपिया | ममणे नगर महावीरे एव जहा सूरि याभो तव आणतिय देव जान दिन सुरवराभिगमणजोगं जाण विमाण करेल, करित्ता जान पचचपि ) मुझे अन यही उचित श्रय स्कर है कि मैं श्रमण भगवान महावीर को बदना करके यावत् उनकी पर्युपासना करूँ इस प्रकार उसने पूर्वीकरूप से विचार किया। विचार करके उसने उसी समय आभियोगिक देवों को बुलाया और बुलाकर उससे इस प्रकार कहा- हे देवानुमियों । श्रमण भगवान् महावीर राज गृह नगर के गुणशिलक उद्यान में पधारे हुए हैं- मैं उनको वदना करने के लिये जाना चाहती हूँ-अत. तुमलोग मेरे लिये दिव्य सुरवराभिग न योग्य कयान- विमान aurt at re gaार की उसने उन्हें सूर्याभ देव की तरह आज्ञा दी। और स्थान में उनसे यह भी कह दिया
(सेय खलु मे समण भगा महावीर वदित्ता जाव पज्जुवासित तिकडे एव स पेहेइ, सपेहित्ता आभिभोगिए देवे सदावे, सदारिता एव पयासी एवं खलु देवाशुप्पिया ! समणे भगव महावीरे एव जहा सूरियाभो तव आणत्तिय दे जावं दिव्व सुखराभिगमणजग्ग जाणविमाण स्नेह, करिता जाव पच्चविवह) મારા માટે હવે એ જ વાત ચેઞ છે કે હુ શ્રમણ ભગવાન મહ વીરને વદના કરીને યાવત્ તેમની પપ્પુ પાસના કરૂ, આ પ્રમાણે તેણે વિચાર કર્યો વિચાર કરીને તેણે તરત જ આભિયાગિક દેશને ખેલાવ્યા અને એલ વીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હૈ દેવાનુપ્રિયા । શ્રમણ ભગવાન મહાવીર રાજગૃહ નગરના ગુણુશિલક ઉદ્યાનમા પધારેલા છે. તેમને વદન કરવા માટે હું ત્યાં જવા ઇરછુ છુ એથી તમે અધા મારા માટે દિબ્ન સુરવરાભિગમત ચૈાગ્ય એક યાન-વિમાન તૈયાર કરો. આ પ્રમાણે તે લેાકાને તેણે સૂયૅદેવની જેમ આજ્ઞા કી, અને સાથે સાથે તેને તમે આ પ્રમાણે કહ્યું કે જ્યારે
१
Page #1101
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैनगारधर्मामृतापणी टी० श्रु० २ १० १ अ० १ कालीदेवीनर्णनम् ७७३ तएणं सा कालिया दारिया अम्मापिईहि अब्भणुन्नाया समाणी हट्ट जाव हियया पहाया कयवलिकम्मा कायकोउय मगलपायच्छित्ता सुद्धप्पवेसाइ मगल्लाइं वत्थाइ पवर परिहिया अप्पमहाग्याभरणालंकियसरीराचेडियाचकवालपरिकण्णासाओ गिहाओ पडिनिक्खाइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव वाहिरिया उवहाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता धम्मिय जाणपवरं दूरूढा, तएण सा कालो दारिया धम्मिय जाणपवरं एवं जहा दोवइ जाव पज्जुवासइ, तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महइमहालयाए परिसाए धम्म कहेइ, तएणं सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्म अतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव हियया पास अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो वदइ नमसइ वदित्ता नमंसित्ता एव वयासी-सदहामिण भते ! णिग्गंथ पावयण जाव से जहेय तुभं वयह, जं णवरं देवाणुपिया । अम्मापियरो आपुच्छामि, तएण अह देवाणुप्पियाण अतिए जाव पव्वयामि, अहासुह देवाणुप्पिए ।, तएण सा काली दारिया पासेणअरहया पुरिसादाणीएण एव वुत्ता समाणी हट्ट जाव हियया पास अरह वदइ नमंसह वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणपवर दूरुहइ दूरुहिता पासस्ल अरहओ पुरिसादाणीयस्स अतियाओ अवसालवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेव
Page #1102
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७२
state
अहो पणं भंते । काली देवी महिडिया कालिए ण भंते! देवीए सा दिव्वा देविट्टी३ किण्णा लढा किरणा पत्ता किष्णा अभि समण्णागया ?, एवं जहा सूरियाभस्त जाव एव सलु गोयमा ! तेण कालेणं तेणं समपण इहेव जबूदीचे दोने भारहे वासे आम लकप्पा नाम थरी होत्या वण्णओ अंबसालवणे चेइए जिय सत्तू राया तत्थ ण आमलकप्पाए नयरीए काले नामं गाहा वइ होत्था अड्डे जाव अपरिभूए, तस्स णं कालस्स गाहावइस्स कालसिरी णामं भारिया होत्था, सुकुमाल जाव सुरूवा, तस्स ण कालस्स गाहावइस्स घूया कालसिरीए भारियाए अत्तया काली णाम दारिया होत्था, बुड्ढा बुडुकुमारी जुष्णा जुण्णकुमारी पडि यपुयत्थणी निव्विन्नवरा वरपरिवजिया यावि होत्था, तेणं कालेणं तेण समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा वद्धमाणसामी णवरं वहत्थुस्सेहे सोलसहिं समणताहस्तीहि अट्टतीसाए अजिया साहस्सीहि सद्धि सपरिवुडे जाव अवसालवणे समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ, तपणं सा काली दारिया इमीसे कहाड़ लद्धट्ठा समाणी हट्ट जाब हियया जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ उवागच्छिन्ता करयल जाव एवं वयासी एव खलु अम्मयाओ । पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहर, तं इच्छामि ण अम्मयाओ । तुब्भेहि अब्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवदिया गमित्तए ? अहासुह देवाप्पिया । मा पडिबध करेहि,
Page #1103
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपणी टी० ० २ ० १ ० १ कालीदेवी नम् ૭૭૨ तरणं सा कालिया दारिया अम्मापिईहि अम्भणुन्नाया समाणी हट्ट जाव हियया पहाया कयवलिकम्मा कायकोउय मंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पवेसाइ मगलाई वत्थाइ पवर परिहिया अप्पमहाग्घाभरणालकियसरीरा चेडिया चक्कवालपरिकण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छन्ता धम्मिय जाणपवर दूरुढा, तएण सा काली दारिया धम्मिय जाणपवर एव जहा दोवइ जाव पज्जुवासङ, तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महइमहालया परिसाए धम्मं कहेइ, तएण सा काली दारिया पासरस अरहओ पुरिसादार्णायस्म अतिए धम्म सोच्चा पिसम्म हट्ट जाव हियया पास अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो वदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता एव व्यासी - सदहामिणभते । णिग्गंथ पावयण जाव से जहेय तुम्भ वयह, ज णवरं देवाणुपिया । अम्मापियरो आपुच्छामि, तणं अह देवाणुप्पियाण अतिए जाव पव्वयामि, अहासुह देवाणुप्पिए ।, तएण सा काली दारिया पासेण अरहया पुरिसादाणीएण एव वुत्ता समाणी हट्ट जाव हियया पास अरह वदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता तमेव धम्मिय जाणपवर दूरुहइ दूरुहित्ता पासस्त अरहओ पुरिसादाणीयस्स अतियाओ अवसालवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेव
Page #1104
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७२
am अहो णं भते ! काली देवी महिट्टिया३ कालिगण भते । देवीए सा दिव्या देविट्ठी३ किण्णा लबा किण्णा पत्ता किपणा अभि समण्णागया ?, एव जहा सरियाभस्त जाब एवं खलु गोयमा! तेण कालेणं तेणं समएण इहेव जयदीचे दोरे भारहे वासे आम लकप्पा णाम जयरी होत्था वणओ अंबसालवणे चेइए जिय सत्तू राया तत्थ णं आमलकप्पाए नयरीए काले नाम गाहा वह होत्था अड्डे जाव अपरिभूए, तस्सणं कालस्त गाहावइस्स कालसिरी णाम भारिया होत्था, सुकुमाल जाव सुरूवा, तस्स ण कालस्स गाहावइस्स धूया कालसिरीए भारियाएअत्तया काली णामं दारिया होत्था, बुडा बुट्टकुमारी जुण्णाजुण्णकुमारी पांड
स्यत्थणी णिविन्नवरा वरपरिवजियायावि होत्था, तेणं कालेणं तेण समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा बद्धमाणसामी णवर णवहत्थुस्सेहे सोलसहि समणसाहस्तीहि अट्टत्तीसाए अजियासाहस्सीहि सद्धि सपरिवुडे जाव अंबसालवण समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ, तएणं सा काली दारिया इमीसे कहाए लद्धवा समाणी हट जाव हियया जेणे अम्मापियरो तेणेव उवागच्छा उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी एव खलु अम्मयाओ। पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहरइ, तं इच्छामि ण अम्मयाओ । तुब्भहि अब्भणुनाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्सपाय वदिया गमित्तए ' अहासुह देवाणप्पिया। मा पडिवध करोह,
Page #1105
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० शु० २ ० १ ० १ कालीदेवीवर्णनम् तएण सा कालिया दारिया अम्मापिईहि अम्भणुन्नाया समाणी हट्ट जाव हियया पहाया कयवलिकम्मा कायकोउय मंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पवेसाइ मगलाई वत्थाइ पवर परिहिया अप्पमहाग्घाभरणालकियसरीश चेडिया चक्कवालपरिकिष्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव वाहिरिया उवठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता धम्मिय जाणपवरं दूरूढा, तएण सा काली दारिया धम्मिय जाणपवर एवं जहा दोवड़ जाव पज्जुवासड, तरणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य सहमहालया परिसाए धम्मं कहेइ, तरणं सा काली दारिया पासरस अरहओ पुरिसादार्णयिस्म अतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव हियया पास अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुतो बदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता एव व्यासी- सदहामि णं भते । णिग्गंथ पावयण जाव से जहेय तुम्भ वयह, ज णवरं देवाणुपिया | अम्मापियरो आपुच्छामि, तएण अह देवाणुपियाणं अतिए जाव पव्वयामि, अहासुह देवाणुप्पिए । तरण सा काली दारिया पासेण अरहया पुरिसादाणीएण एव वृत्ता समाणी हट्ट जान हियया पास अरह बदइ नम॑सः वदित्ता नर्मसित्ता तमेव धम्मिय जाणपवर दूरुहइ दूरुहित्ता पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियाओ अवसालवणाओ चेइयाओ पडिनिक्समइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेव
GSo
Page #1106
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४४
श्रीधर्मकथासू
उपागच्छर उपागच्छत्ता आमलकप्पं यरिं मज्झमज्झेणं जेणेव बाहिरिया उवहाणसाला तेथेच उपगच्छइ उवागच्छित्ता घ म्मियं जाणपत्रर ठवेइ ठवित्ता धम्मियाओं जाणप्पराओ पत्रोरुह पच्चरुहित्ता जेणेव अम्मापियरा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल० एव वयासी - एव खलु अम्मयाओं । मए पासस्त अरहओ अंतिए धम्म णिसते सेऽत्रिय मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तरणं अह अम्मयाओ । ससार भउविग्गा भीया जम्मणमरणाणं इच्छामि णं तुम्भेहि अभ णुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुडा भविता अगा राओ अणगारिय पव्नइत्तए, अहासुहं देवाशुपिया । मा पडिवध करेह, तएण से काले गाहावई विपुलं असणं४ उवक्ख डावेइ उवक्खडावित्ता मित्तणाइ णियगसयणसवधिपरियण आमतेइ आमत्तित्ता तओ पच्छा पहाए जाव विपुलेणं पुप्फत्र स्थगंधमलालंकारेण सक्कारेत्ता सम्मणेत्ता तस्सेव मित्तणाइणि यगसयणसर्वधिपरियणस्स पुरओ कालिय दारिय सेयापी पहि कलसेहि व्हावेइ हावित्ता सव्वालकारविभूतिय करेइ करिता पुरिससहस्वाहिणिय सीय दुरोहेइ दुरोहित्ता मित्तणाइणियग सयणसंबधिपरियणेणं सद्धि सपरिबुडे सन्विड्डीए जाव रवेर्ण आमलकप्प नयरि मज्झ मज्झेणं णिग्गच्छs, णिग्गच्छिता जेणेव अवसालवणे चेइए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ठाविचा छत्ताइए तित्थगराइए पास पासिता सीय
Page #1107
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतषिणी टीका ध्रु० २ ३०१ अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७७५ कालियंदारिय सीयाओ पच्चोरुहइ तएणं त कालिय दारिय अम्मापियरो पुरओ काउ जेणेव पासे अरहा पुरिसा० तेणेव उवागच्छ। उवागच्छित्ता बदइ नमसइ वदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीएव खलु देवाणुप्पिया । काली दारिया अम्ह धूया इट्टा कता जाव विमग पुण पासणयाए ', एसणं देवाणुप्पिया। ससार भउविगा इच्छइ देवाणुप्पियाणं अतिए मुडा भवित्ता जाव पव्वइत्तए, त एय णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणिभिवख, दलयामो पडिच्छतु णं देवाणुप्पिया। सिस्सिणिभिक्ख, अहासुह देवाणुप्पिया । मा पडिवधं करेह तएणं काली कुमारी पास अरह बदइ नमसइ वदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरस्थिम दिसिभाग अवकमइ अवकमित्ता सयमेव आभरणमसालकार ओमुयइ ओमुइत्ता सयमेव लोय करेइ करित्ता जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पास अरह तिक्खुत्तो चंदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता एवं वयासी-आलित्ते ण भते । लोए एव जाव सयमेव पवाविया, तएण पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेव पुप्फचूलाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए दलयइ, तएण सा पुप्फचूला अज्जा कालि दारिय सयमेव पवावेइ, जाव उवसपज्जित्ताण विहरइ, तएणं सा काली अज्जा जाया ईरियासमिया जाव गुत्तबभयारिणी, तएण सा काली अज्जा पुप्फचूलाए अजाए अतिए सामाइयमाइयाइ एकारस अगाइ अहिजइ वहहि चउत्थ जाव विहरइ॥सू०३॥
Page #1108
--------------------------------------------------------------------------
Page #1109
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतवर्पिणी टीका श्रु० २ ३०१ ० १ कालीदेवीचर्णनम् ५७५ कालियंदारिय सीयाओ पञ्चोरुहइ तएणं त कालिय दारिय अम्मापियरो पुरओ काउ जेणेव पासे अरहा पुरिसा० तेणेव उवागच्छा उवागच्छित्ता वदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता एवं वयासोएव खल्लु देवाणुप्पिया । काली दारिया अम्ह धूया इट्टा कता जाब विमग पुण पासणयाए ', एसणं देवाणुप्पिया। संसार भउव्विगा इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडा भवित्ता जाव पवइत्तए, त एय णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणिभिक्ख, दलयामो पडिच्छतु णं देवाणुप्पिया। सिस्तिणिभिक्ख, अहासुह देवाणुप्पिया । मा पडिवधं करेह तएणं काली कुमारी पास अरह वदइ नमसइ वदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसिमागं अवकमइ अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालकार ओमुयइ ओमुइत्ता सयमेव लोय करेइ करित्ता जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पास अरह तिक्खुत्तो वदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता एव वयासी-आलित्ते ण
भते । लोए एवं जाव सयमेव पवाविया, तरण पासे __अरहा पुरिसादाणीए कालि सयमेव पुप्फचूलाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए दलयइ, तएण सा पुप्फचूला अज्जा कालि दारिय सयमेव पवावेइ, जाव उवसपज्जित्ताण विहरइ, तएणं सा काली अज्जा जाया ईरियासमिया जाव गुत्तवभयारिणी, तएणं सा काली अज्जा पुप्फचूलाए अज्जाए अतिए सामाइयमाइयाइ एक्कारस अगाईअहिज्जइ बहूहि चउत्थ जाव विहरइ॥सू०३॥
Page #1110
--------------------------------------------------------------------------
________________
ভ
तथा
उपागच्छइ उवागच्छित्ता आमलकप्प णयरि मज्झमज्झेणं जेणेव बाहिरिया उचट्टानसाला तेणेव उपागच्छइ उवागच्छित्ता घ म्मियं जाणपवर ठवे ठवित्ता धम्मियाओं जाणप्पराओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता जेणेव अम्मापियरा तेणेत्र उवागच्छड़ उवागच्छित्ता करयल० एव वयासी एवं सलु अम्मयाओ ! मए पास अरहओ अतिए धम्म णिसंते सेऽवि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तएणं अह अम्मयाओ । संसार भउविग्गा भीया जम्मणमरणाणं इच्छामि णं तुम्भेहि अभ जुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुडा भक्त्तिा अगा राओ अणगारियं पव्यइत्तए, अहासुह देवाणुप्पिया । मा पडि वध करेह, तएण से काले गाहावई विपुलं असणं४ उवक्ख डावेइ उवक्खडावित्ता मित्तणाइ णियगसयणसवधिपरियणं आमंतेई आमत्तित्ता तओ पच्छा पहाए जाव विपुलेणं पुप्फत्र त्थगंधमलालकारेण सक्कारेत्ता सम्मणेत्ता तस्सेव मित्तणाइणि यगसयणसबंधिपरियणस्स पुरओ कालिय दारिय सेयापी हि कलसेहि पहावेइ पहावित्ता सव्वालकारविभूसियं करेइ करिता पुरिससहस्वाहिणिय सयि दुरोहेइ दुरोहित्ता मित्तणाइनियमसयणसंबधिपरियणेणं सद्धिं संपरिवुडे सन्विड्डीए जाव रखेर्ण आमलकप्प नयरि मज्झ मज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छिता जेणेव अवसालवणे चेइए तेणेव उवागच्छ उवागच्छित्ता छत्ताइए सित्थगराइसए पास पासित्ता सीय
ठाविता
9
Page #1111
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवपिणी टीका श्रु० २ ३०१ ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७७५ कालिय दारिय सीयाओ पच्चोरहइ तएणं तकालिय दारिय अम्मापियरो पुरओ काउ जेणेव पासे अरहा पुरिसा० तेणेव उवागच्छ। उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता एवं वयाप्तीएव खल्लु देवाणुप्पिया । काली दारिया अम्ह धूया इट्टा कता जाव विमग पुण पासणयाए ', एसणं देवाणुप्पिया। ससार भउव्विगा इच्छइ देवाणुप्पियाणं अतिए मुडा भवित्ता जाव पव्वइत्तए, त एयं णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणिभिक्ख, दलयामो पडिच्छतु णं देवाणुप्पिया। सिस्सिणिभिक्ख, अहासुहं देवाणुप्पिया | मा पडिवधं करेह तएणं काली कुमारी पास अरह बदइ नमसइ वदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरस्थिस दिसिमार्ग अवकमइ अवकमित्ता सयमेव आभरणमल्लासकार ओमुयइ
ओमुइत्ता सयमेव लोय करेइ करित्ता जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेब उवागच्छइ उवागच्छित्ता पास अरह तिक्खुत्तो बदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता एवं वयासी-आलित्ते ण भते । लोए एवं जाव सयमेव पवाविया, तएण पासे अरहा पुरिसादाणीए कालि सयमेव पुप्फचूलाए अज्जाए सिस्तिणियत्ताए दलयइ, तएण सा पुप्फचूला अज्जा कालि दारिय सयमेव पवावेइ, जाव उवसपज्जित्ताण विहरइ, तएणं सा काली अज्जा जाया ईरियासमिया जाव गुत्तवभयारिणी, तएणं सा काली अज्जा पुप्फचूलाए अनाए अतिए सामाइयमाइयाइ एक्कारस अगाइ अहिज्जइ बहूहि चउत्थ जाव विहरइ॥सू०३॥
Page #1112
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७६
प्रताप टीकाली देशीगमनानन्तर गौतमः पृच्छनि-मंतति' इत्यादि। 'भतेति' हे गदन्न । इति गम्यो य भगवान् गौनमः अमण भगवन्त महावीर पन्दते नमस्पति पन्दित्या नमस्वित्या परमवादी-कारया पलु है भदन्त ! देव्या सा-या साम्मत दर्शिता मादिगा देविटी देवदि विमानपरिवारादिरूपा 'देवजुई 'देवद्युति. शरीरामरणादीनां दीप्तिस्पा 'देवणुभावे ' देशानुभाव शक्तिभानादिम्प, पुनगता ? कुन मशि ? भगवानाह-शरीर गता, शरीरमनु
'भते ति भगव गोयमे ' इत्यादि।
टीका:-कालीदेवी के चले जाने के याद (भगव गोयमे) मग चान गौतम ने (भते त्ति) हे भदन | इस प्रकार सपोधित कर (समणं भगव महावीर यदा णममह) श्रमण भगवान् को बदना की-नमस्कार किया (वदित्ता नममित्ता एच यासी) वदना नमस्कार करके फिर उन्हों ने उनसे इस प्रकार पूरी-(कालिएण भते । देवीरा सा दिव्या देविड़ी करिं गया. हागारमालादिहतो, अशेण भते । कालीदेवी महड़िया ३, कालिराण भते। देवीप सा दिव्चा देघिडि ३ किण्णा लद्धा, किपणा पत्ता, विष्णा अभिसमण्णा गया ? एव जहा सूरियाभस्स जाव) हे भदत कालीदेवी ने जो इस ममय दिव्य विमान-परिवार आदिरूप ऋद्वि दिखलाई, शरीर, आमरण आदि की दीप्तिरूप जो देवति एवं शक्ति प्रभाव आदिरूप जो देवानुभाष दिग्चलाया-वह सब कहा चला
'भवेति भाव गोयमे' इत्यादि
साथ:-जी पीना ara Ranाई । भगव गोयमे) नान गौतम (भतेत ) BH! मा प्रभारी साधन प्रशन (समण भगव महावीर घदइ नमसइ) श्रम समपान महावी२२ 48 भने नमः।२ या (वात मसित्ता एष वयासी) पहना भने नभसार शन तभी तोश्रीन ५७यु :
(कालिएण भते ! देवोए सा दिव्या देविड़ी ३ कहिं गया० कूडागार सालादिहतो, अहोण भते । काली देवी महडिया , कालिएण भते । दवाए । दिव्या देविडि ३ किण्णा लता, किण्णा पत्ता, मिष्णा अभिसमण्णा गया ' ५५ जहा सूरियाभस्स जाव)
હે ભદત 1 કાળી દેવીએ અત્યારે જે દિયવિમાન, પરિવાર વગેરેની ત્રદ્ધિ બતાવી, સારીર, આભરણ વગેરેની દામિની જે દેવધતિ તેમજ શક્તિ, પ્રભાવ વગેરેને જે દવાનુભાવ બતાવ્યું તે બધો ક્યા અદશ્ય થઈ ગયા છે કયા પ્રવિણ થઈ ગયે?
Page #1113
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतपिणी टी0 श्रु० २ घ०१ ० १ कालीदेवीवर्णनम् - ७७७ प्रविष्टा, 'कूडागारसालादिट्ठतो ' अत्र कूटागरशाला दृष्टान्तो वोद्धव्यः । 'अहो' आश्चर्ये सलु हे भदन्त ! कालीदेवी महदिका महाद्युतिका महानुभावा वर्त्तते काल्या खलु हे भदन्त ! देव्या सा दिव्या देवद्धिः ३ 'किण्णा' कयकेन प्रकारेण 'लद्वा' लया-अर्जिता, 'किण्णा' कय केन प्रकारेण ' पत्ता' प्राप्ता स्वाधीनीकृता 'किण्या' कय-देन प्रकारेण 'अभिममन्नागया' अमि समन्वागता-उपभोगविषयतया समागता ' एवं 'जहारियाभस्स जाव' यथासूर्याभस्य यावत्यथा मूर्याभदेवरिपये गौतमस्वामिना प्रश्न कृतस्तथैवात्रापि विज्ञेयः । अथ भगवान् कालीदेवीपूर्वभवत्तान्त वर्णयति-'एर खलु ' इत्यादि । एव खलु हे गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहेन अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारत वर्षे आमलकल्या नाम नगरी आसीत् । 'वण्णओ' वर्णकनगरी वर्णनग्रन्थऔपपातिमूत्रादवसेय' । तत्र आम्रशालयन चैत्यं, जितशत्रू राजा गया-१ कहा प्रविष्ट हो गया ? इस प्रकार गौतम का प्रश्न सुनकर भगवान् ने उनसे कहा-शरीर में चला गया-शरीर में प्रविष्ट हो गया। इस विषय में कृटाकारशाला का दृष्टान्त जानना चाहिये । हे भदन्तकालीदेवी मर्दिक, महाद्युतिक एव महानुभाववाली है। इस कालीदेवी ने वह देवद्धि ३ किस प्रकार प्राप्त की अजित की किस प्रकार उसे अपने आधीन किया ? और किस प्रकार से उसने उसे अपने भोग की विपयभृत बनाई ? इस तरह गौतमस्वामी ने सूर्याभदेव के विषय में जिस तरह से प्रश्न किया उसी तरह से यहां पर भी जानना चाहिये- अय भगवान् कालीदेवी के पूर्वभव के वृत्तान्त का वर्णन करते हैं-(एवं खलु गोयमा तेण कालेण तेणं समएण-इहेव जवुद्दीवे दीवे भारहे वासे आमलकप्पा णाम णयरी होत्या-वगणओ-अवसालवणे चेहए जियसत्तू
આ પ્રમાણે ગૌતમને પ્રશ્ન સાભળીને ભગવાને તેમને કહ્યું કે શરીરમાં પ્રવિણ થઈ ગયે-શરીરમાં જતો રહ્યો આ વિષે ફૂટકારી શાળાનું દૃષ્ટાન્ત જાણવા જોઇએ હે ભદન્ત | તાની દેવી મહદ્ધિક મહાવ્રુતિક અને મહાનુભાવવાળી છે આ કાળી દેવીએ તે દેવદ્ધિ ૩ કેવી રીતે પ્રાપ્ત કરી છે, અજિત કરી છે, કેવી રીતે સ્વાધીન બનાવી છે, અને તેણે તેને કેવી રીતે પિતાના ઉપગની વિષયભૂત બનાવી છે ? આ પ્રમાણે ગૌતમ સ્વામીએ સૂયભદેવના વિશે જેમ પ્રશ્ન કર્યો હતો તેમજ અહીં પણ જાણે જોઈએ ભગવાન હવે કાળી દેવીના પૂર્વભવના વૃત્તાન્તનું વર્ણન કરે છે–
(एव खलु गोयमा । तेण कालेण तेण समएण इहेव जचुदीवे दीवे भारहे वासे अमलाप्पाणाम णयरी होत्या-वगओ-अंसालाणे चेइए जियमत्त राया
Page #1114
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाताधर्मका
4
टीका-फाली देवीगमनानन्तर गौतमः पृच्छति' भंतेति इत्यादि । भतेति ' हे भदन्त । इति सम्बोय भगवान् गौतमः श्रमण भगवन्त महावीर चन्दते नमस्पति पन्दिया नमस्त्रिला एमनादी काल्या सल हे भदन्त । देव्या साच्या साम्मत दर्शिता सा दिव्या 'देविट्टो' देवदि =विमानपरिवारादिरूपा, ' देवज्जुई 'देवघुतिः शरीरागरणादीना दीपित्पा 'देवणुभावे ' देवानुभाव'= शक्तिभावादिप, उगता ? कुत्र मष्टा ? भगवानाह - शरीर गता, शरीरमनु
,
3
७७६
"
भते त्ति भगव गोयमे' इत्यादि ।
टीकार्थ :- कालीदेवी के चले जाने के बाद (भगव गोयमे ) भग चान गौतम ने (भते त्ति) हे भदन | इस प्रकार संबोधित कर (समणं भगव महावीर चदह णममः ) श्रमण भगवान् को वंदना की- नमस्कार किया (चदित्ता णममित्ता एव वगामी) वदना नमस्कार करके फिर उन्हो ने उनसे इस प्रकार पूत्र - (कालिएण भते । देवीए सा दिव्या देवी : करि गयto कृडागारसादिनो, अशेण मते । कालीदेवी महड्डिया २, कालिगण भते । देवीए सा दिव्या देविडि ३ किण्णा लढा, किण्णा पत्ता, विष्णा अभिसमण्णा गया ? एव जहा सूरियाभस्स जाव ) हे भदत ' कालीदेवी ने जो इस समय दिव्य विमान - परिवार आदिरूप ऋद्धि दिसलाई, शरीर, आमरण आदि की दीसिरूप जो देवगुति एव शक्ति प्रभाव आदिरूप जो देवानुभाव दिग्वलाया - यह सन कहा चला
०
'भवेति भगव गोयमे' इत्यादि --
टीडार्थ-डाणी हेवीना भता रह्या माह ( भगव गोयमे ) भगवान गौतमे (भतेत ) डे अन्त ! या प्रमा सभोधन पुरीने ( समण भगव महावीर वदइ नमसइ) श्रभाशु भगवान महावीरने वहन ने नमस्कार अर्या (वदित्ता णमसिता एव वयासी ) वहना थाने नमस्कार पुरीने ते मी तेथे श्रीने पूछयु
ॐ
(कालिएण भते ! देवोए सा दिव्या देवडी ३ कहिं गया० कूडागार - सालादिहतो, अहो भते । काली देवी महट्टिया ३, बालिएण मते ! देवीए सा दिव्या देविड ३ का लद्वा, किण्या पत्ती, किष्णा अभिरामण्णा गया ? एक जहा सूरियाभस्स जान )
હે ભદન્ત 1 કાળી દેવીએ અત્યારે જે દિવ્યવિમાન, પરિવાર વગેરેની ઋદ્ધિ ખતાવી, શરીર, આભરણુ વગેરેની દીપ્તિની જે દેવવ્રુતિ તેન્જ શક્તિ, પ્રભાવ વગેરેના જે દેવાનુભાવ મતાન્યા તે અધો કયા અદય થઈ ગયે કયા પ્રવિષ્ટ થઈ ગયા ?
Page #1115
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मामृत टीका श्रु० २ ० १ ० १ कालीदेवीवर्णनम् पतितपूतस्तनी - जनतनितम्नस्तनी, ' णिच्चिन्नवरा' निर्विण्णवरावरणे विरक्ता, अतएव ' वरपरिवज्जिया' वरपसिर्जिता = पतिरहिता चाप्यासीत् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्श्वेऽर्डन पुरुपादानीय = पुरुषश्रेष्ठ. आदिकरः यथा वर्धमानसांमी तथैव पार्श्वमभुरपि ' णवर ' नवरम् - अय विशेष :- श्रीवर्द्धमानस्वामी सप्तहस्तोच्छ्रयः, पार्श्वप्रभुः ' णत्रयुस्सेहे ' नवहस्तोत्सेधः- नवहस्तपरिमितशरीरावगाहन, स पोडशभि• श्रमणसाहस्रीभि, अष्टत्रिंशता आर्यिका - जिया या होत्या) इस काल गायापति की कालश्री नाम भार्या थी । इसके हाथ पैर आदि समस्त अग उपाग विशेष सुकुमार थे। देखने में यह बडी सुन्दर थी काल गायापति के इस काल श्री की कुक्षि से उत्पन्न हुई एक काली नाम की दारिका भी थी। जो बहुत वयस्का हो चुकी थी इसका विवाह भी नही हुआ था। इसलिये कुमारी अवस्था में ही यह वृद्धा जैसी बहु उमरवाली हो गई थी। शरीर भी बहु अव स्था सपन्न होने के कारण इसका जीर्ण हो चुका था । अतः अपरिणीतावस्था में ही यह जीर्ण कुमारी बन गई थी। इसके नितम्ब और स्तन दोनों ही बिलकुल ढीले हो गये थे नीचे झुक आये थे । वरके वरण करने रूप कार्य से यह विरक्त बन चुकी थी अतः यह वरपरिवर्जित थी- पति से सर्वथा रहित थी । ( तेण कालेन तेण समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा वद्धमाणसामी णवर णवहथुस्सेहे सोलसहि समणसाहस्सीहिं अट्ठत्तीसाए अज्जिया सारस्सीहिं णिविन्नरा, वरपरिवजिया यावि होत्या )
તેના હાથ-પગ વગેરે દેખાવમા તે बहु પામેલી એક કાલી
તે કાલ ગાયાપતિની કાલશ્રી નામે ભાર્યા હતી અને અધા અગે તેમજ ઉપાગે સવિશેષ સુકેામળ હતા સુંદર હતી કાલ ગાથા પતિની આ કાલશ્રીના ગર્ભથી જન્મ નામે દારિકા ( પુત્રી ) પણ હતી તે મેટી ઉમરની થઈ ચૂકી હતી તેનુ લગ્ન પણુ થયુ નહતુ એથી કુમારિકાની અવસ્થામા જ તે ડાળી જેવી બહુ ઉમરે પહેાચેલી થઈ ગઈ હતી બહુ ઉંમરે પહેોંચેલી હાવા બદલ તેનુ શરીર પણ જીર્ણ થઈ ચૂકયુ હતુ એથી કુમારિકાની અવસ્થામા જ તે જીણુ કુમારિક ખની ગઈ હતી તેના નિતમ અને સ્તનેા અને માવ ઢીલા થઇ ગયા હતા, નીચે લટકવા લાગ્યા હતા વરને વરણુ કરવા રૂપ કાર્ય થી તે વિરક્ત ખની ગઈ હતી એથી તે વર પરિવર્જિત હતી તે એકદમ પતિ વગરની હતી
७७९
20
( तेण कालेन तेण समरण पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा वद्ध माणसामी वरं वत्थुस्सेहे सोलसहि समण साहस्सीहिं सीता अज्जिया
Page #1116
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७८
माधर्म
पासीत् । तत्र खलु भामला का नाम गायापतिशमन कीः ? इत्याह'अढे ' आढपनान्यादि समृद्धि-ममृद्ध:, ' जा ' यावत् 'अपरिविर ' भपरिभूतः =हुजनैरपि परामविमाय । तस्य ग्लु फालम्य गाथापतेः का श्रीर्नाम भार्याऽऽमीत् कीदृशीत्याह- सुकुमारपाणिपादा गावत् मुरूपा । तस्प खल फाल्स्य गायापतेर्दुदिता पालयिय भार्याया आत्मजा काली नाम दारिका=पुत्री आसीत् । सा कीदृशी ? स्याह-' उद्धा' वृद्धा=बहुस्वस्वान् बृद्धकुमारी अपरिणीतत्वात्, 'जुष्णा ' जीर्णा=जीर्णशरीरत्वात्, 'जुष्णकुमारी' जीर्णकुमारी परिणीतावस्थायामेन सजातजीर्णशरीरत्वात्, 'पडियपूयत्थणी '
=
-
राया तत्थ णं आमलकप्पा नयरी काले नाम गाराबाई होत्या, अड्डे जाव अपरिभूप) घे कहते है- गौतम सुनो- तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार है- उस काल और उस समय में इसी जत्रुदीप नामके द्वीप में भारतवर्ष में आमलकल्पा नामकी नगरी श्री । नगरीका वर्णन करनेवाला पाठ यहां पर औपपातिक सूत्र से योजित करलेना चाहिये। उस नगरी में उद्यान था जिसका नाम आम्रशालावन था। इस नगरी के राजा का नाम जितशत्रु धा । इस आमलकल्पा नगरी में काल नाम का गाथापति रहता था । यह धन धान्यादिसे विशेष समृद्ध था और लोगों में भी इस की अच्छी प्रतिष्ठा थी । (तस्स ण कालस्स गाहावइस्स कालसिरी णाम भारिया होत्या, सुकुमाल जान सुख्वा, तस्स ण कालस्त गाहावइस्स धूया कालसिरीए भारियाए अत्तया काली नाम दारिया होत्या बुड्ढा बुड्डुकुमारी, जुण्णो जुण्णकुमारी, पडियपूयत्यणी णिचिन्नवरा वरपरिव सत्यण आमलकप्पाए नगरीए काले नाम गाहावई ढोत्था अड्डे जाव अपरिभूए) તેઓ કહે છે કે હું ગૌતમ! સાભળેા, તમારા પ્રશ્નોના ઉત્તર આ પ્રમાણે છે–કે તે કાળે અને તે સમયે આ જ બુદ્વીપ નામના દ્વીપમા ભારત વર્ષમાં આમલકા નામની નગરી હતી નગરીના વર્ણન વિષેના પાઠ અહીં ઔપપાતિક સૂત્ર વડે જાણી લેવા જોઈએ તે નગરીમા એક ઉદ્યાન હતુ તેનુ નામ આમ્રશાલ વન હતું, તે નગરીના રાજાનું નામ જીતશત્રુ હતું તે આમલા નગરીમા કાલા નામે ગાથાપતિ રહેતા હતા તે ધનધાન્ય વગેરેથી સવિશે સમૃદ્ધ હતા અને સમાજમા તેની સારી એવી પ્રતિષ્ઠા હતી
4
( तस्स ण काल गाetara कालतिरीणाम ' भारिया होत्था, सुकुमाल नात्र सुरू वा, तस्स ण कालस्स गाहानइस्स वूया कालसिरीए भारियाए अत्ता काली णाम दारिया होत्या बुडा बुडूकुमारी, जुष्णा जुष्णकुमारी, पडि
Page #1117
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेगारधर्मामृतवपिणी टी० श्र. • व० १ अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७८१ हेतः पुरुषादानीयस्य पादवन्दिकायादवन्दनाशया गन्तुम् । जम्मापितरौ कथ यतः-हे देशानुप्रिये ! पुत्रि यया सुख तथा कुरु किन्तु अस्मिन् शुभकार्ये प्रतिवन्धममाद मा कुरु । ततः खलु सा कालिका दारिका अम्मापितृभ्यामभ्यनुज्ञाता सती हृष्टयारदहृदया स्नाता कृतपलिफर्मा कृतकोतुकमगलमायश्चित्ता शुद्रअन्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरओ पुरिसादाणीयस्स पायवदिया गमित्ता) लोगो को ज्योही पाच प्रभु के आम्रशालवन में आने की खबर लगी-त्योंही सब जनता प्रभु को वदना के लिये अपने २ स्थान से निकलकर उस आम्रशालवन में आने लगी। वहा आकर प्रभु का धार्मिक उपदेश सुन वह प्रभु की पर्युपासना करने लगी। इसके अन. न्तर जब यह समाचार काली दारिका को मिला तो वह बहुत अधिक
पित एव सतुष्ट चित्त हुई। बाद में वह जहा अपने माता पिता ये वहा पहुँची वहा जाकर उसने माता पिता को दोनो हाथ जोडकर चरण वदना की-और इस प्रकार कहा-हे माततात ! पुरुपश्रेष्ठ, आदिकर, ऐसे पार्श्वनाथ अहंत प्रभु आप्रशालवन में पधारे हुए हैं-इसलिये मै आपसे आज्ञापित होकर उन पुन्पश्रेष्ठ अर्हत प्रभु पार्श्वनाथ को बदना करने के लिये जाना चाहती हूँ। (अहासुर देवाणुप्पिया' मा पडिरव करेहि, तएण सा कालिया दारिया अम्मापिईहिं अन्भणुन्नाया समाणी
तुट्ट जाव दियया पहाया कयालिझम्मा कयकोउयमगलपायर्याच्छ्त्ता
गुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवदिया गपित्तए १)
પાર્શ્વ પ્રભુના આશ્રશાલવનમાં પધારવાની જાણ થતા જ બધા લોકો પ્રભુને વદન કરવા માટે પિતાપિતાના સ્થાનેથી નીકળીને તે આશ્ચરલ વનમાં આવવા લાગે ત્યાં આવીને પ્રભુને ધાર્મિક ઉપદેશ સામળીને તેઓ પ્રભુની પર્યું પાસના કરવા લાગ્યા ત્યારબાદ કાલી દારિકાને આ સમાચાર મળ્યા ત્યારે તે ખૂબ જ હર્ષિત તેમજ સ તુષ્ટ ચિત્તવાળી થઈ ગઈ ત્યારપછી તે જવા તેના માતા-પિતા હતા ત્યાં પહોંચી ત્યાં જઈને તેણે માતા-પિતાને બને હાથ જોડીને ચરણ વદના કરી અને ત્યારપછી આ પ્રમાણે વિનતી કરી કે હે માતા પિતા ! પુરુષ શ્રેષ્ઠ, આદિકર એવા પાર્શ્વનાથ અર્હત પ્રભુ આમ્રશાય વનમા પધાર્યા છે એટલા માટે હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને તે પુરુ શ્રેષ્ઠ અહિ ત પ્રભુ પાર્શ્વનાથને વદન કરવા માટે જવા ઈચ્છુ છુ
(अहा सुह, देवाणुप्पिया ! मा पडिग्ध करेहि, तएण सा कालिया दारिया अम्मापिईहिं अभणुम्नाया समाणी हट्ट जार हियया हाया कयरलिकम्मा कय
Page #1118
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८०
तापणा साहसीमि साद सपरिटतः यावत् आम्रशालाने समसमतः । परिषन्निर्गवा पार पर्युपास्ते । ततः खल सा काली टारिया अस्याः भगात्यार्थप्रभुसमागमन रूपायाः कथावाचा याः 'सदहा' लचार्या मानानासमवमतः, इत्येव स्पार्धमाता व नार हियया' इट यावद्दया-तुष्टवित्तानन्दिता प्रोतमनस्का हेर्पशविसर्पद्दया सती यवीर समापितरौ तगोपागन्छति, उपागस्य 'करपल जार' करतल्परिग्रहीत शिरारत दानव मस्तकेऽठिकस्वा एवमवादीएव खलु हे अस तातो ! पाऽईन पुरुपादानीयः आदिकरो यावत्-आप्रशाल घने चेत्ये यथा-पवित्पमरग्रहमागृप रायमेन तपमाऽऽन्मान भावयन् विहरविक आस्ते, तद् गछामि पल हे अरतातो ! युगमाभिर अनुशाता सती पार्थस्या सद्धिं सपरिघुडे जाय अपलसालपणे समोस) उस काल में और उस समय में पुरुपादानीय पुरुपश्रेष्ठ-आदिकर पार्श्वनाथ अरंत प्रभु जो श्री वर्द्धमान स्वामी जैसे थे-सोलह हजार भ्रमण के तथा ३८, हजार आर्यिकाओं के साथ तीर्थकर परपरानुसार विहार करते हुए उस आम्रशालयन में आये। भगवान महावीर और पार्श्वनाथ प्रभु की शरी रावगाहना में विशेपता केवल इतनी ही थी कि उनका शरीर सात हाथ ऊया था और पार्श्व प्रभु का शरीर ९ हाथ ऊंचाया। (परिसा णिग्गया, जाव पज्जुवासह, तपणं सा दारिया हमीसे कहाए लद्धट्टा समाणा है। जाव दियया जेणे अम्मापियरो तेणेय उवागच्छर, उवागरिकता करयल जाव एव चयासी-एव विल अम्मयाओ पासे अरहा पुरा दाणीए आइगरे जाव विदरह, त इच्छामि ॥ अम्मयाओ! तुम्भाह साहस्सीहिं सद्धि सपरिवूडे जाव असालपणे समोसढे) .
તે કાળે અને તે સમયે પુરુષાદાનીય-પુરુષ શ્રેષ-આદિકર પાર્શ્વનાથ... અહંત પ્રભુ-જેઓ શ્રી વાદ્ધમાન સ્વામી જેવા હતા-સોળ હજાર શ્રમણ તેમજ ૩૮ હજાર આયિકાઓની સાથે તીર્થકર પર પરા મુજબ વિહાર કરતા તે આશાલ વનમાં આવ્યા ભગવાન મહાવીર અને પાર્શ્વનાથ પ્રભુને શા રાવગાહનામાં વિશેષતા ફક્ત આટલી જ છે કે તેમનું શરીર સાત હાથ જેટલું ઊંચુ હતુ અને પાર્થ પ્રભુનું શરીર નવ હાથ ઉંચુ હતુ
(परिसा णिग्गया, जाव पज्जुवामड, तएण सा काली दारिया इमास कहाए लद्धट्टा समाणी हट्ट जाब हियया जेणेव अम्मापियरो तेणेर उपागच्छई, उवागच्छित्ता करयल जार एव चयासी-एव खलु अम्मयाओ पास 'पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहरइ, त इच्छामि ण अम्मयाओ
Page #1119
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु० २ १० १ अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७८३ 'जहा दोबई जाप ' यथा द्रौपदी यावत्-द्रौपदीनत् छनादीन् तीर्थरातिशयान् दृष्ट्वा धार्मिका यानप्रबरोदवतरति, पञ्चाभिगमपूर्वक भगवन्समीपे गत्वा वन्दित्वा नमस्यित्वा च भगवन्त 'पज्जुपासा' पर्युपास्ते । तत खलु पार्थोऽहंन पुस्पादानीयः काल्यै दारिकायै तस्या च महातिमहालयाया पर्पदि धर्म कथयति ततः खलु सा काली दारिका पार्श्वस्याहत पुरुषादानीयस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हष्ट यावद् हृदया पार्थ महन्त पुरुपादानीय विकृत्वो वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा
वह उस पर आरूढ हो गई। आरूढ होकर वह वहां से चली। ज्योही उसने द्रौपदी की तरह तीर्थकरातिशयरूप छचादि विभूति को देखा तो वह देखकर उस धार्मिक यानप्रवर से नीचे उतरी। और पञ्च अभिगमन पूर्वक भगवान के पास जाकर उसने उनको वटना की, उन्हें नमस्कार किया-वदना नमस्कार करके फिर उसने उनकी पर्युपासना की। (तरण पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महामहालया परिसाए धम्मो कहिओ) पुरपादानीय अहत प्रभु पार्श्वनाथने उस काली दारिकाको उस विशाल परिषदाके बीचमें धर्मकथा सुनाई। (तएण सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव दियया पास अरह पुरिसादाणीय तिरखुत्तो वदह नमसइ) पुरुषादानीय उन अहत पार्श्वनाथ प्रभु से धर्म को सुनकर और हृदय मे अवधारण कर वह काली दारिका बहुत अधिक हर्पित ત્યાથી રવાના થઈ દ્રૌપદીની જેમ તેણે જ્યારે તીર્થ કરાતિશય રૂ૫ છત્ર વગેરે વિભૂતિને જેઈ કે જેતાની સાથે જ તે ધાર્મિક યાન-પ્રવરમાથી નીચે ઉતરી પડી અને પચ અભિગમનપૂર્વક ભગવાનની પાસે જઈને તેમને વદના કરી, તેમને નમસ્કાર કર્યા વદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમની પથું પાસના કરી ત્યારપછી
(तएण पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महइमहा लयाए परिसाए धम्मो कहिओ)
પુરુષાદાનીય અહંત પ્રભુ પાર્શ્વનાથે તે કાલી દારિકાને તે વિશાલ પરિ પદાની સામે ધમકથા સંભળાવી
(तएण सा काली दारिया पासस्स अरही पुरिसादाणीयस्स अतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट जाब हियया पास अरह पुरिसादाणीय तिक्सुत्तो बदह नमसड)
પુસ્વાદાનીય તે અહં ત પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસેથી ધર્મને સાભળીને અને તેને હૃદયમા અવધારિત કરીને તે કાલી દારિક બહુ જ વધારે હર્ષિત
Page #1120
--------------------------------------------------------------------------
________________
ટેર
धोलाधर्मकथा
1
मरेपनि माहल्यानि पत्राणि मारपरिहिता महान मरणाहूनशरीरा वेटिका परि मृद् मतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यौन बा उपस्थानशाला जैन धार्मिक यानस्योपान्यति, उपागत्य धार्मिकं यान मवर दुस्दा आस्वा । ततः खलु सा पानी दारिका धार्मिक यानश्वरम् एवं सुद्धपवेसाद मगरा पत्या पवरपरिहिया अप्पमहाभाभरणालकिय सरीरा चेडिया चक्कालपरिकिष्णा साओ गिहाओ पडिनिम्मर, परिनिमित्ता जेणेव पाहिरिया उवहाणसाला जेणेव धम्मित जाण परे तेणेव उपागच्छ नागरिता घम्मिय जाणप्पवर गुरुडा, पण सा काली दारिया घम्मिय जाण पवर जहा दोवई जाय पज्जुवासर) तब माता पिता ने उससे ऐसा कहा - हे देवानुप्रिये । तुझे जिस प्रकार सुख मिले उस प्रकार तू कर इस शुभकार्य में प्रतिवय-प्रमाद मत फर । इस प्रकार माता पितासे अभ्यनुज्ञात हुई उस दारिका ने हृष्ट तुष्ट चित्त होकर स्नान किया वायसादि के लिये अन्नका मागरूप - बलिकर्म किया कौतुक, मंगल एव प्रायश्चित्त करके शुद्ध प्रवेश योग्य, मंगलकारी Eat at raat are afहिरा, और अल्पभार बहुमूल्य आभरणो से अलकृत शरीर होकर वह चेटिका चक्रवाल से युक्त हो अपने घर से निक्ली । निकलकर वह वशं गई-जरा पाय उपस्थान शाला थी उसमें जाकर वह जहा धार्मिक यानप्रवर रक्खा था- वहां पहुंची वहा जाकर कोउमगलपायच्छता सुद्धप्पबेसाड मगल्लाइ वत्थाइ पवरपरिहिया अप्पमहरवा भरणालकियसरी चेडियाचकवालपरिकिष्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खम, पडिनिक्खमिता जेणेव नाहिरिया उनाणसाला जेणेव धम्मिए जानपवरे तेथेोत्र उवागच्छइ, उनागच्छित्ता, धम्मिय जाणप्पवर दुख्दा तपण सा काली दारिया धम्मिय जाप्यवर एव जहा दोवई जाव पज्जुवास )
ત્યારે માતાપિતાએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હું દેવાનુપ્રિયે ! તને જેમ સુખ મળે તેમ તુ કર આ શુભ કાર્યમા પ્રતિબંધ–પ્રમાદ ૬૨ નહિ આ પ્રમાણે માતાપિતા વડે આજ્ઞાપિન થયેલી તે દ્વારિકાએ હષ્ટ-તુષ્ટ ચિત્ત થઇને સ્નાન કર્યું કાગડા વગેરેને અન્નભાગ આપીને લિકમાં યુ કૌતુક, મગઢ અને પ્રાયશ્ચિત્ત કરીને શુદ્ધ પ્રદેશ ચેષ્પ, મ ગળકારી વઓને સારી રાત પહેર્યા અને વજનમા હલ્કા પણ કિંમતમા બહુ ભારે એવા આભરણાથી શરીરને અલકૃત કરીને દાસીઓના સમૂહથી પરિવષ્ટિત થઇને પાતાના ઘેરથી નીકળી નીકળીને તે ત્યા પહેાથી જ્યા ખાદ્ય ઉપસ્થાન શાળા હતી તેમા જઈને તે જ્યાં ધાર્મિક યાનપ્રવર ઊભું' હતું તેમાં આરૂઢ થઈ ગઈ આ
Page #1121
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु० २ ० १ ० १ कालीदेवीवर्णनम्
'जहा दोवई जान' यथा द्रौपदी यावद - द्रौपदीत् छनादीन् तीर्थङ्करातिशयान् दृष्ट्वा धार्मिकाद् यानप्रवरोदवतरति पञ्चाभिगमपूर्वक भगवत्समीपे गत्वा वन्दित्वा नमस्थित्वा च भगवन्त ' पज्जुनास ' पर्युपास्ते । तत खलु पावोऽर्हन् पुस्पादानीयः काल्यै दारिकायै तस्या च महातिमहालयाया पर्पदि धर्म कथयति ततः खलु सा काली दारिका पार्श्वस्यार्हत पुरुषादानीयस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टया हृदया पार्श्वमर्हन्त पुरुपादानीय त्रिकृत्वो वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा
७८३
बह उस पर आरूढ हो गई। आरूढ होकर वह वहाँ से चली । ज्योती उसने द्रौपदी की तरह तीर्थकरारातिशयरूप छत्रादि विभृति को देखा तो वह देखकर उस धार्मिक यानप्रवर से नीचे उतरी । और पञ्च अभिगमन पूर्वक भगवान् के पास जाकर उसने उनको बढना की, उन्हें नमस्कार किया - वदना नमस्कार करके फिर उसने उनकी पर्युपासना की । (तपण पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महहमहालयाए परिसा धम्मो कहिओ) पुस्पादानीय अर्हत प्रभु पार्श्वनाथने उस काली दारिकाको उस विशाल परिषद के बीच में धर्मकथा सुनाई। (तएण सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्म अतिए धम्म सोच्चा णिसम्म एट्ट जाब रियया पास अरह पुरिसादाणीय तिरखुत्तो वदह नमसइ) पुरुपादानीय उन अर्हत पार्श्वनाथ प्रभु से धर्म को सुनकर और हृदय में अवधारण कर वह काली दारिका बहुत अधिक हर्पित
ત્યાથી રવાના થઈ દ્રૌપદીની જેમ તેણે જ્યારે તીર્થં કરાતિરાય રૂપ છત્ર વગેરે વિભૂતિને જોઈ કે જોતાની સાથે જ તે ધાર્મિક યાન-પ્રવરમાથી નીચે ઉતરી પડી અને પ ચ અભિગમનપૂર્વક ભગવાનની પાસે જઇને તેમને વદના કરી, તેમને નમસ્કાર કર્યો વદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમની પયુ પાસના કરી ત્યારપછી (तरण पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महमदा लयाए परिसाए धम्मो कहिओ )
પુરુષાદાનીય અદ્વૈત પ્રભુ પાર્શ્વનાથે તે કાલી દ્વારિકાને તે વિશાલ પરિ પદાની સામે ધમકથા સ ભળાવી
(तरण सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव दियया पास अरह पुरिसादाणीय तिक्सत्तो वदः नममङ) પુરષાદાનીય તે અર્હત પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસેથી ધર્મને સાભળીને અને તેને હૃદયમા આવધારિત કરીને તે કાલી દારિકા બહુ જ વધારે હિત
Page #1122
--------------------------------------------------------------------------
________________
૭.ર
wterw.dward
नमरिया एवमनादीन् श्रपाम भन्न भ्यननं यावत् तद् तथैतद् युग धन=शेयम्-यत्-भाम् अम्वापितरौ आजामि, त मातापितरौ पष्ट्वा स भ देनानुमियाणामन्तिके यावत् प्रयजामि | भगवानाह - यथाख हे देशमिये | | ततः सद्मा काली दारि पार्श्वेन अता पुरुषा
and th
हुई। उसने उन पुम्पादानीय पार्श्वनाथ भत प्रभु को तीन वार चना नमन्कार किया । याद में (चदित्ता नमसित्ता एव बयासी सद शमिण भते । णिग्गय पात्रगण जाव से जहे तुम्मे वग्रह, ज णवर देवापिया ! अम्म्मापि पुच्छामि, अर देवाणुपियाण अतिए जान फराम, अहासुर देवापि तसा काली दारिया पासेण अरमा पुरिसादाणोपणं एव वृत्ता समाणी हट जाव हियया पास अरट चदह, नमसह, चरिता नमसिता तमेव धम्मिय जाणपवर दुरु हड, दूरहित्ता पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयास अतियाओ अबसा लवणाओ चेहयाओ पविनियम पटिनिमित्ता जेणेत्र आमलकपा नयरी, तेणेच उचागच्छ ) वंदना नमस्कार करके उसने उन प्रभु से ऐसा कहा - हे मदन ! मैं आपके द्वारा प्रतिपादित निर्ग्रन्थ प्रवचन को विशेष श्रद्धा की दृष्टि से देवनी हूँ आपने जैसा यह प्रतिपादित किया है वह वस्तुतः वैसा ही है। यह मुझे बहुत रुचा है। अत' मैं माता पिता से पृछती हैं। उनसे पूछकर फिर आप देवानुप्रिय के पास आकर હૃદય થઇ તેણે તે પુરુકાદાનીય પાર્શ્વનાધુ અહત પ્રભુને ત્રણ વાર વદતા અને નમસ્કાર કર્યા ત્યારકાદ
(वदित्ता नमसित्ता एव वयासी सद्दद्दामिण भते । णिग्गथ पात्रयण जाव से जहेय तुम्भे वयह, ज णवर देवाणुपिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तरण अह पियाण अतिए जाव पन्नयामि, अहा सुह देवापिए ! तएण सा काली दारिया पासे ण अरहया पुरिसादाणीएण एव बुत्ता समाणी हट्ट जाव हियया पास अरह वदः, नमस, वदिता नममित्ता तमेन वम्मिय जाणपत्रर दुरुहई दुरूहित्ता पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयम्स अतियाओ नावणाओ वेइयाओ पडिनिस्खमई, पडिनिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेन उवागच्छर )
વદના નમકા કરીને તેણે તે પ્રભુને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે ભદન્ત 1 તમારા વડે પ્રતિપાદિત નિથ પ્રવચનને હુ વિશેષ શ્રદ્ધાની દૃષ્ટિએ જે છુ તમૈ જેવુ આ પ્રતિપાન્તિ કર્યુ કે ખરેખર તે તેવુ જ છે મને આ ખૂબ જ ગમી ગડુ છે એથી હુ માતાપિતાને પૂછી લઉ છુ તેમને પૂછીને
Page #1123
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु० २६० १ ० १ कालीदेवीवर्णनम्
७८५
दानीयेन मुक्ता सती हृष्ट यावद् हृदया पार्श्वमर्हन्त वन्दते नमस्यति वन्दित्लॉ नमस्ता देव धार्मिक यानमार दुरोहति, दुरा पार्श्वस्याईत पुरुषादानीय स्यान्तिकाद् आम्रशालात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यंत्र अमलक्ल्पा नगरी तनैवोपागच्छति, उपागत्य आमलक्ल्पाया नगर्या मध्य- मध्येन यौन वाह्या उपस्थानशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य धार्मिक यानमवर स्थापयति, स्वापयित्वा वार्मिसद् यानमारात् प्रत्यवरोहति प्रत्यवरूह्य यव अम्मा पितरौ तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य ' करतल० ' करतलपरिगृहीत मस्तकेऽञ्जलिं
}
दीक्षित होना चाहती हूँ। काली दारिका के इस अभिप्राय को सुनकरें प्रभुने उससे कहा देवानुप्रिये । यथासुखम् | इस प्रकार वह कॉली दारिका पुस्पादानीय उन अर्हत प्रभु पार्श्वनाथ से अनुमोदित होकर चित्त मे पहुत अधिक प्रसन्न हुई । उसने अर्हन्त पार्श्वनाथ प्रभु को वंदना नमस्कार किया और चदना नमस्कार करके वहा से आकर वह उसी अपने धार्मिक यान पर चढ गई चढकर वह फिर पुरुषादानीय, अत प्रभु पार्श्वनाथ के पास से और उस आम्रशालवन नामके उद्यान से बाहिर चली आई | बाहिर आकर वह जहा आमलकल्पा नगरी थी
वहा पर आ गई । (उवागच्छित्ता आमलकप्पं णयरि मज्झ मज्झेणं जेणेव बाहिरिया उबट्टाणसाला - तेणेव जयगच्छद्द, उयोगच्छित्ता धम्मिय जाणपवर ठवेड, वित्ता धम्मियाओ जाणपवराओ पच्चोरुहेइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छंई, उवागच्छित्ता करें
આપ દેવાનુપ્રિયની પાસે આવીને દીક્ષિત થવા ચાહુ છુ કાલી દારિકાના આ અભિપ્રાયને સાભળીને પ્રભુએ તેને કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિયે ! ‘યથાસુખમ્ ' આ પ્રમાણે તે કાલી દારિકા પુરુષાદાનીય તે અર્હત પ્રભુ પાર્શ્વનાથ વડે અનુમે દિત થઈને ચિત્તમા ખૂબ જ પ્રસન્ન થઈ તેણે અહુત પાર્શ્વનાથ પ્રભુને વદના નમસ્કાર કર્યો અને વદા નમસ્કાર કરીને ત્યાથી આવીને તે તેજ પાતાના ધાર્મિક યાનમા એમી ગઇ અને એસીને તે પુરુષાદાનીય અર્હત પ્રભુ પાર્શ્વ નાથની પાસેથી અને તે આમ્રશાલ વત નામના ઉચાનથી બહાર આવી ગઈ બહાર આવીને તે જ્યા આમલકલ્પા નગરી હતી ત્યા આવી ગઈ
( उवागच्छिता आमलाप णयरिं मज्झ मज्झेण जेणेत्र बाहिरिया उपद्वाणसाला- तेणेन उपागच्छर, आगच्छिता धम्मिय जोगपवर ठवेइ, ठपिता धमि याओ जाणप्पराओ पच्चोरुहर, पच्चोरुहित्ता, जेणेत्र अम्मापियरी तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता करयल० एत्र वयासी एवं खलु अम्मयाओ ! मए पासस्स
32
Page #1124
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८१
नमस्थित्या एमआदीत्-श्रदधामि गल हे महन्त । नाय प्रवचन यावन वद् तयेतद् गृय पदय नार-विशेोऽयम्-यन्-भाम् अम्बापितरौ आएगमि, वस-- मातापितरों पृष्ट्वा खजु अह देशानुप्रियाणामन्ति के यारद प्रयजामि । मगरानाहयथासुख है देवानुपिये। । ततः सलु मा काली दारिश पार्थेन आता पुगा
दय हुई। उसने उन पुरपादानीय पार्श्वनाथ मत प्रभु को तीन बार घदना नमार किया। याद में (यदित्ता नमसित्ता एव बयासी सह शमिण भते! णिग्गयं पारयण जाय से जय तुम्भे वग्रह, ज णवर देवाणुप्पिया! अम्गपियरोआपुनमामि, ताण भर देवाणुपियाण अतिए जार पचयामि, आहासुह देवाणुप्पिा!ण सा काली दारिया पासेण अरत्या पुरिसादाणीपणं पर चुत्ता समाणी हर जाव हियथा पास अरह बदह, नमसह, यदित्ता नमसित्ता तमेय धम्मिय जाणपवर दुरु . रह, दहिता पासस्स अरहओ पुरिमादाणीपास अतियाओ अंबसा लवणाओ चेडयाओपडिनिस्वमह, पटिनियमित्ताजेणेआमलकप्पा नयरी, तेणेव उवागह) चंदना नमस्कार करके उसने उन प्रभु से ऐसा कहा-हे मदत ! मैं आपके द्वारा प्रतिपादित निर्ग्रन्थ प्रवचन को विशेप श्रद्धा की दृष्टि से देवती हूँ आपने जैसा यह प्रतिपादित क्रिया है वह वस्तुतः वैसा ही है। यह मुझे यरत रुचा है। अत' में माता पिता से पूछती है। उनसे पूछकर फिर आप देवानुप्रिय के पास आकर હુદય થઈ તેણે તે પુરુપાદાનીય પાર્શ્વનાથ અર્હત પ્રભુને ત્રણ વાર વેદના અને નમસ્કાર કર્યા ત્યારબાદ
(वदित्ता नमसित्ता एव वयामी सहामिण भते । गिग्गय पावयण जाव से जहेय तुम्भे वयह, ज णवर देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि, तएण अह देवाणुपियाण अतिए जाव पव्ययामि, अहा मुह देवाणुप्पिए ! तएण सा काली दारिया पासे ण अरहया पुरिसादाणीएण एव वुत्ता समाणी हट्ठ जाव हियया पास अरह बदह, नमस३, बदित्ता नमसित्ता तमेव धम्मिय जाणपवर दुरुह दुरुहिता पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अतियाओ अवसालवणाओ चेइयाओं पडिनिक्खमई, पडिनिक्वमित्ता जेणेच आमलकप्पा नयरी तेणेन उवागच्छइ )
વદના નમસ્કાર કરીને તેણે તે પ્રભુને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદન્ત તમારા વડે પ્રતિપાદિત નિગ્રંથ પ્રવચનને હ વિશેષ શ્રદ્ધાની દષ્ટિએ જોઈ છુ તમે જેવુ આ પ્રતિપાદિત કર્યું છે ખરેખર તે તેવું જ છે અને આ ખૂબ જ ગમી ગયુ છે એથી હુ માતાપિતાને પૂછી લઉ છુ તેમને પૂછીન
Page #1125
--------------------------------------------------------------------------
________________
चनगारधर्मामृतावणी टीश यु० २ १० १ ० १ फालीदेवीवर्णनम् ७६७ भ्यनुज्ञाता सती पार्थम्याईतोऽतिके मुण्डागृत्वा आगाराद् अनगारिता पवजितुम्= स्वीकर्त्तम् । मातापितरौ कथयतः-ययामरस हे देशानुप्रिये ! यथा रोचते तथाकुरु किन्तु अस्मिन कार्ये प्रतिवन्य-प्रमाद मा कुरु । ततः पुत्र्या दीक्षानिश्चयान तर ग्वलु स कालो गायापनिर्विपुलम् अशनम् ४ अशनादि चतुर्विधमाहारम् उपस्कारयति, उपस्कार्य मित्रज्ञातिनिजस्वजनसम्पन्धिपरिजनम् आमन्त्रयति, आमन्त्र्य ततः पश्चात् स्नातः याइन् विपुलेन पुष्परगन्यमाल्यालङ्कारेण सत्कृत्य सम्मान्य तस्यैर मिनशातिनिज स्वजनसम्बन्धिपरिजनम्य पुरत: अंग्रे कालिका दारिका श्वेतपीतैः रजतमु वर्णमयै कलशै' स्नपयति, स्नपयित्या सर्मालङ्कारविभूपिता करोति, कृत्वा पुरुपमहपाहिनिका शिविका दूरोहयति आरोहयति, दरोद्य मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्पन्धिपरिजनेन सार्द्ध सपरितः सर्ववर्था यानत्-पाध के भय से उद्विग्न होकर जन्ममरण से भयभीत हो चुकी हूँ-अतः मैं चाहती हूँ कि मैं आप से आजा प्राप्त कर उन अहेत पार्वनाय प्रभु के समीप मुडित होकर अगारावस्था से अनगारावस्था स्वीकार कर लू । इस प्रकार अपनी काली दारिका की बात सुनकर माता पिता ने उससे कता-(अहाह देवाणुप्पिया! मा पडियध करेह, तरण से काले गाता वई विपुल असण ४ उचक्खडावेइ, उवरखडावित्ता मित्तणाइ णियग सयणसपधिपरियण आमतेइ आमनित्ता तओ पच्छा पहाए जाय चिउलेण पुप्फवत्यगधमरलालकारेण सरकारेत्ता मम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाइणियगसयणसवधिरिजणस्त पुरओ कालिय दारिय सेया पीएदि कलसेहिं पहावेइ पहावित्ता सवालकारविभूसिय करेइ, करित्ता पुरिससहस्सवारिणीय सीय दुरोहेड, दुरोहित्ता मित्तणाइणियगसयण શ્રવણથી હુ આ સંસારના ભયથી ઉદ્વિગ્ન થઈને જન્મ-મરણથી ભયભીત થઈ ગઈ છું એવી મારી ઈચ્છા છે કે હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને તે અહંત પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસે મુડિત થઇને અગારાવસ્થા ત્યજીને અનગારાવસ્થા સ્વીકારી લઉ આ પ્રમાણે પિતાની કાલી દારિકાની વાત સાંભળીને માતાપિતાએ તેને કહ્યું –
(अहामुह देवाणुप्पिया । मा पडिस रेह, तएग से काले गाहाई विपुल असणं ४ उपखडावेर, उबावडावित्ता मित्तणाइणियगमयणसनधिपरि यण आमतेइ आमतित्तातओ पछाण्डाए जान पिपुलेण पुप्फरत्यगमल्लालकारेणे सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणादणियगमयणसनधिपरिजणरस पुरनो कालिय दारिय सेयापीरहिं कलसेहि व्हावेइ हाचित्ता सवालमारविभूसिय करेइ, करिता
Page #1126
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८६
ज्ञाताधर्मका
हे अपनाती
या पार्श्वम्यातोऽन्तिके धर्मः
"
मे मम
इ
6
,
कृत्वा मवादीत्-पत्र 'णिसंते' निशान्तः श्रुत, सोऽपि न धर्म इच्छाविपयीभूत, पडिपि मनीष्ट =न पुनरभिलपित ' अमिर ' अभिरुचितः=भास्साधनस्तु वत्सवाभियः ततस्मात् कारणात् खच अह हे अतात! समारमयोद्विग्ना भीता जन्ममरणेभ्योऽनामि सलु युष्माभ्याम यल० एवं वयासी - एलु अम्ममयाओ । मए पासम्म अरहओ अतिए धम्मेणिसते से निय मे घम्मे हच्छिए परिचि अभिरुण-तण अहं अम्मयाओ ! ससारभविग्गा भीया जम्मणमरणाण-इच्छामि
तुम्भेहिं अन्भणुन्नाया समाणी पामरस अरहओ अतिए मुंडा भविसा अगाराओ अणगारिय पन्चहत्तर) वहां आकर के वह आमलकल्प नगरी के बीचों बीच से होकर जहां वह पाद्या उपस्थन शाला थी वहाँ आई - वहा आकर वह उस धार्मिक यानप्रवर से नीचे उतरी- नीचे उत्तर कर फिर बाद में वर जा अपने माता पिता थे-वहा गई - वहा जाकर उसने अपने दोनों हाथों की अजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर उनसे इस प्रकार कहा- हे मान तात ! सुनो मैंने अर्हत प्रभु पार्श्वनाथ के मुख से धर्म सुना है वह धर्म मुझे बहुत अच्छा लगा है, बार बार उस धर्म को सुनने की अभिलापा हो रही है । जिस प्रकार आस्वाद्य वस्तु प्रिय लगती है उसी प्रकार वह धर्म मेरे लिये सब प्रकार से प्रिय लगा है। उसके सुनने से मैं हे मात तात । इम ससार अरहओ अति धम्मेणिसते से यि मे धम्मे इच्छिए पडिन्छिए अभिरुइए-तएण अह अम्मयाओ ! ससारभउन्त्रिग्गा भीया जम्मणमरगाणी - इच्छामि ण तुम्भेहिं अन्भणुन्नाया समाणी पासम्म अरहओ अतिए मुडा भक्त्तिा जगाराओ अगगारिय पव्वइसए)
ત્યા આવીને તે આમલકલ્પા નગરીની વચ્ચે થઈને જ્યાં તે ખાદ્ય ઉપસ્થાન શાળા હતી ત્યા આવી ત્યા આવીને તે તે ધાર્મિક વાન પ્રથરમાથી નીચે ઉતરી, નીચે ઉતરીને તે જ્યા તેના માતાપિતા હતાં ત્યા ગઈ બા જઈને પેાતાના અને હાથેાની અજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું માતાપિતા 1 સામળે, અહીંત પ્રભુ પાર્શ્વનાથના મુખથી મૈં ધર્મનુ શ્રવણુ કર્યું છે, તે મને બહુ જ ગમી ગયુ છે. તે ધને વારવાર સાભળવાની ઈચ્છા થઈ રહી છે. જેમ આસ્વાદ્ય વસ્તુ પ્રિય લાગે છે તેમજ તે ધમ મારા માટે પધી રીતે પ્રિય થઈ પડયો છે. હું માતાપિતા ! તેના
Page #1127
--------------------------------------------------------------------------
________________
चनिगारधर्मामृतपिणी टीश ० २ ० १ अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७८७ भ्यनुज्ञाता सती पार्श्वम्याईतोऽतिके मुण्डामृत्या आगाराद् अनगारिता पवजितुम्= स्वीकर्त्तम् । मातापितरो कथयत.-यपामुख हे देगानुप्रिये ! यथा रोचते तथाकुरु किन्तु अस्मिन कार्य प्रतिवन्य-प्रमाद मा कुरु । ततः स्त्रपुच्या दीक्षानिश्चया नातर खलु स कालो गायापनिर्पिपुलम् अशनम् ४ अशनादि चतुर्विधमाहारम् उपस्कारयति, उपस्कार्य मिरजातिनिरस्वजनसम्बन्धिपरिजनम् आमन्त्रयति, आमन्त्र्य ततः पश्चात् स्नातः यापन विपुलेन पुपालगन्धमाल्पालङ्कारेण सत्कृत्य सम्मान्य तस्यैर मिज्ञातिनिज स्वजनसम्पन्धिपरिजनम्य पुरता अग्रे कालिका दारिका श्वेतपीतैः रजतमुवर्णमयै कलौ' स्नपयति, स्नपयित्वा सर्मालङ्कारविभू पिता करोति, कृत्वा पुरुषमहसपाहिनिका शिविका दृरोहयवि आरोहयति, द्रोह्य मित्रज्ञातिनिजस्वजनसम्पन्धिपरिजनेन सार्द्ध सपरिवृतः सद्धर्या यावत्-चाद्य के भय से उद्विग्न होकर जन्ममरण से भयभीत हो चुकी हूँ-अतः मै चाहती है कि मैं आप से आज्ञा प्राप्त कर उन अहत पार्वनाथ प्रभु के समीप मुडित होकर अगारावस्था से अनगारावस्था स्वीकार कर लू । इस प्रकार अपनी काली दारिका की बात सुनकर माता पिता ने उससे कहा-(अहाप्सुर देवाणुपिया! मा पडिवध करेह, तएण से काले गाहा वई विपुल असण ४ उवक्खडावेइ, उवग्वडावित्ता मित्तणाइ णियग सयणसबधिपरियण आमतेइ आमनित्ता तओ पच्छा पहाए जाच विउलेण पुप्फवत्यगधमरलालकारेण सरकारेत्ता मम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाइणियगरायणसवधिरिजणस्स पुरओ कालिय दारिय सेया पीएहि कलसेटिं पहावेइ पहावित्ता सवालकारविमृसिय करेइ, करित्ता पुरिससहस्सवारिणीय सीय दुरोहेड, दुरोहित्ता मित्तणाइणियगसपण શ્રવણથી હુ આ સંસારના ભયથી ઉદ્વિગ્ન થઈને જન્મ-મરણથી ભયભીત થઈ ગઈ છું એથી મારી ઈચ્છા છે કે હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને તે અહંત પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસે મુડિત થઇને અગારાવસ્થા ત્યજીને અનગારાવસ્થા સ્વીકારી લઉ આ પ્રમાણે પિતાની કાલી દારિકાની વાત સાંભળીને માતાપિતાએ તેને કહ્યું –
(अहासुह देवाणुप्पिया ! मा पडियर करेह, तएण से काले गाहाचई विपुल जसण ४ उपक्खडावेर, उपक्खडावित्ता मित्तणाइणियगसयणसवरिपरि यण आमतेइ आमनिता तओ पन्छाण्डाए जार पिपुलेण पुप्फरत्यग पमल्लालकारेणं सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणादणियगमयणसविपरिजणरस पुरनो कालिय दारिय सेयापीरहिं कलसेहिं हावेइ हारित्ता सवालकारविभूसिय करेइ, करिता
Page #1128
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८८
TATAH मानानेकविधयादिवरण मद मामलामाया नगर्गा मगमध्यन निर्गति, निर्गत्य यौवा गालान चैत्य तगोपागमति, उपागम्य आदिकान तीर्थकराति सप धिपरियणेण सदि मपरियुढे मविली जाय ग्वेण आमलकप्प नरि मजन मोणं णिग) हे देगनुप्रिये ! तुझे जिस तरह अन्या
गे पैसा तु कर-इम फार्य में प्रमाद न कर। इस तरह उस काल गाधापति ने अपनी पुत्री को दीक्षा ग्रहण करने में हद निश्चयवाली जानकर पिपुल मात्रा में अनादि रूप चतुर्विध आशर निष्पन्न कर घाया-पाद में मिन, ज्ञाति, निजक, रजन, मपन्धी परिजनों को आमत्रित किया आमनित करके पाद में उसने स्नात रोकर विपुल पुष्प, वस्त्र, गध माल्य, एब अलकारों से सत्कार सन्मान करके उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सपन्धी, परिजनों के साथ काली दारिका का श्वेत पीत कलशों द्वारा अभिषेक किया-बाद में उसे समस्त अलकारों से विभूपित किया-फिर पुरुप सहस्रचादिनी शिथिका पर उसे घडवाया। चढवाकर फिर उन मित्र, ज्ञाति निजक, स्वजन सबन्धी परिजनों से घिरा हुआ होकर वर अपनी समस्त ऋद्धि के अनुसार, वाद्यमान अनेक विध पाजो की धनि के साथ २ आमलकल्पा नगरी के ठीक बीचों पीच से होकर निकला। (गिग्गच्उित्ता जेगेष अवमालवणे चेहए पुरिससहस्सवाहिणीय सीय दुरोहेइ, दुरोहिता मित्तणाइ, गियगसयगसरधि परियणेण सद्धि सपरिवुडे सबिदीए जाव रवेण आमलकप्प नयरि मज्झ मज्ज्ञण णिगच्छइ)
હે દેવાનુપ્રિયે ! તને જેમ સારૂ લાગે તેમ કર આ કામમાં પ્રસાદ કરીશ નહિ આ પ્રમાણે તે કાલગાથાપતિએ પિતાની પુત્રીને દીક્ષા ગ્રહણ કરવાને મક્કમ વિચાર જાણીને પુકળ પ્રમાણમાં અશન વગેરે ચાર જાતના આહારે તૈયાર કરાવડાવ્યા ત્યારબાદ મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક, વજન, સબ પી પરિજનોને આમંત્રિત કર્યા આમ ત્રિત કરીને તેણે સ્નાન કરીને પુષ્કળ પુષ્પ, વસ્ત્ર, ગધ, માત્ય અને અલકાર વડે સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તે મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક, સ્વજન, સબ ધી, પરિજનની સાથે કાલી દારિકાને સફેદ, અને પીળા કળશ વડે અભિષેક કર્યો ત્યારબાદ તેને સમસ્ત અલકારા વડે વિભુ પ્રષિત કરી અને ત્યારપછી પુરુષ સહસવાહિની પાલખી ઉપર તેને ચઢાવી
ચઢાવીને તેણે મિત્ર જ્ઞાતિ, નિજક, સ્વજન સ બ ધી, પરિજનોની સાથે પરિ 1 વેષ્ટિત થઈને પિતાની સમસ્ત કદ્ધિની સાથે, ઘણા વાજા એના વનિની સાથે
સાથે આમલલ્પા નગરીની બરાબર વચ્ચે થઈને નીકળ્યો,
Page #1129
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतषिणी टी० ० ० ५० १ ० १ कालीदेधोरर्णनम् ४९ शयान् पश्यति, दृष्टा शिविका स्थापयति, स्थापयित्या कालिका दारिका शिविकातः प्रत्यवरोहयति । ततः खलु ता कालिका दारिकाम् अम्पापितरो पुरत कृत्या यत्रैव पार्थोऽईन् पुरुषादानीयस्तरैवोपागच्छति, उपागत्य वन्देते नमस्यतः, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमादिप्टाम्-एर खलु हे देवानुप्रियाः ! काली दारिका आवयोदुहिता इप्टा कान्ता यावत् उदम्परपुप्पमिव श्रवणायापि दुर्लभा किमग! पुनः तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता उत्ताइए तित्वगराइसा पासह) निकलकर वह चहा गया कि जहा वह आम्रशालयन नाम का उद्यान या। वहाँ जाकर उसने तीर्थकर प्रकृति के उदय से होनेवाले छत्रादिक अति शयों को देखा। (पासित्ता सीय ठावेड, ठावित्ता कालियदारिय सीधाओ पच्चोरुहह, ताण त कालीय दारिय अम्मापियरो पुरओ काउ जेणेव पाले अरहा पुरिसा० तेणेव उवागच्छद, उचागच्छित्ता वदह, नमसह, वदित्ता नमसित्ता एवं वयासी) देखकर उसने उस पुरुप सहनवाहिनी शिविका को खटी कर दिया। खड़ी करके उसमे से काली दारिका को नीचे उतारा बाद में वे माता पिता उस कालिक दारिका को आगे करके जहा पुम्पादानीय अहंत प्रभु पार्श्वनाथ विराजमान थे वहा गये। यहा जाकर उन्हों ने उनको वदना की-नमस्कार किया। वदना नमस्कार करके याद में उन्हों ने इस प्रकार प्रभु से कहा-(एव खलु देवाणुप्पिया! काली दारिया अम्ह धृया उवा कता, जाय किमगपुणपासणया! एस
(णिग्गच्छित्ता जेणेव असालपणे चेहए तेणेव उवागच्छइ, उपागच्छित्ता छत्ताइए तित्थगराइसए पासइ)
નીકળીને તે ત્યા ગયે કે તે આમ્રશાલ વન નામે ઉઘાન હતુ જઈને તેણે તીર્થ કર પ્રકૃતિના ઉદયથી અસ્તિત્વમાં આવતા છ વગેરે
અતિશને જોયા
(पामित्ता सीय ठावेट, ठानित्ता कालियदारिय सीयाओ पच्चोरुहइ, तएणं ते कालिय दारिय अम्मापियरो पुरओ काउ जेणेन पासे अरहा पुरिसा० तेणेव उवागच्छइ उपगच्छित्ता पदइ, नममद, वदित्ता नमसित्ता एव वयासी)
જોઈને તેણે તે પુરુષ સહસ્ત્રવાહિની પાલખીને રોકી રોકીને તેમાથી કાલી દારિકાને નીચે ઉતારી ત્યારપછી તે માતાપિતા તે કાવીક દારિકાને આગળ કરીને જ્યા પુરુષદાનીય અહંત પ્રભુ પાર્શ્વનાથ વિરાજમાન હતા ત્યા ગયા ત્યા જઈને તેમણે તેમને વદના કરી, નમસ્કાર કર્યા વદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમણે પ્રભુને વિનતી કરતા આ પ્રમાણે કહ્યું કે
( 3 देवाणुप्पिया ! कालीदारिया अम्ह धूया इटा क्ता, जाब किमग.
Page #1130
--------------------------------------------------------------------------
________________
নাময় मानानेकविधवादित्ररवेण सह आमलकल्लाया नगर्या मध्यमध्येन निर्गन्छनि, निर्गत्य यानशालपन चैत्य तत्रोपागन्छति, उपागल्य छत्रादिकान् तीर्थकराति सय धिपरियणेण सदि सपरिधुढे सबिडीप जार रवेण आमलकाप नहर मज्झ मज्झेण णिगच्छद) हे देशानुप्रिये! तुझे जिस तरह अच्छा लगे वेसात कर-इस कार्य में प्रमाद न कर। इस तरह उस काल गाधापति ने अपनी पुत्री को दीक्षा ग्रहण करने मे दृढ निश्चयवाली जानकर विपुल मात्रा में अनादि रूप चतुर्विध आहार निष्पन्न कर चाया-बाद में मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सन्धी परिजनों को
आमत्रित किया आमत्रित करके याद में उसने स्नात होकर विपुल पुष्प, __ वस्त्र, गध माल्प, एच अलकारों से सत्कार सन्मान करके उन मित्र, 'ज्ञाति, निजक, स्वजन, सबन्धी, परिजनों के साथ काली दारिका का श्वेत पीत कलशों द्वारा अभिषेक किया-याद में उसे समस्त अलकारों से विभूपित किया-फिर पुरुपसहस्रवाहिनी शियिका पर उसे चढवाया। चढवाकर फिर उन मित्र, ज्ञाति निजक, स्वजन सपन्धी परिजनों से 'घिरा हआ होकर वह अपनी समस्त ऋद्धि के अनुसार, वाद्यमान अनेक विध बाजो की वनि के साथ २ आमलकल्पा नगरी के ठीक बीचों धीच से होकर निकला। (गिग्गच्चित्ता जेणेव अवमालवणे चेइए पुरिससहस्सवाहिणीय सीय दुरोहेइ, दुरोहिता मित्तणाइ, णियगसयणसरधि परियणेण सद्धि सपरिखुडे सचिदीए जाव रवेण आमलकप्प नयरिं मज्ज्ञ मज्ज्ञेण णिगच्छइ )
હે દેવાનુપ્રિયે તને જેમ સારૂ લાગે તેમ કર આ કામમાં પ્રમોદ કરીશ નહિ આ પ્રમાણે તે કાલગાથાપતિએ પોતાની પુત્રીને દીક્ષા ગ્રહણ કરવાને મક્કમ વિચાર જાણીને પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરે ચાર જાતના આહારે તૈયાર કરાવડાવ્યા ત્યારબાદ મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક, વજન, સ બ ધી પરિજનેને આમંત્રિત કર્યો આમત્રિત કરીને તેણે સ્નાન કરીને પુષ્કળ યુપ, વસ્ત્ર, ગ ધ, માત્ય અને અલકારો વડે સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તે મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક, સ્વજન, સબ ધી, પરિજનોની સાથે કાલી દારિકાનો સફેદ, અને પીળા કળશ વડે અભિષેક કર્યો ત્યારબાદ તેને સમસ્ત અલકારા વડે વિભ બિત કરી અને ત્યારપછી પુરુષ સહસવાહિની પાલખી ઉપર તેને ચઢાવી ચઢાવીને તેણે મિત્ર જ્ઞાતિ, નિજક, સ્વજન સ બ ધી, પરિજનની સાથે પરિ વેષ્ટિત થઈને પોતાની સમસ્ત ક્ષદ્ધિની સાથે, ઘણા વાજા ઓના વનિની સાથે સાથે આમલકલ્પા નગરીની બરાબર વચ્ચે થઈને નીકળે - -
Page #1131
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधामृतषिणी टी० ० २ २० । अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ४९ शयान् पश्यति, दृष्ट्वा शिविका स्थापयति, स्थापयित्वा कालिका दारिकां शिवि कातः प्रत्यारोहयति । तत. खलु वा कालिका दारिकाम् अम्पापितरो पुरत कृत्वा यत्रैव पार्थोऽईन् पुरुषादानीयस्तयोपागच्छति, उपागत्य वन्देते नमस्यतः, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमयादिप्टाम्-एर खलु हे देवानुनिया: । काली दारिका आवयोर्दुहिता इप्टा कान्ता यावत् उदुम्बरपुप्पमित्र अषणायापि दुर्लभा किमङ्ग ! पुनः तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता उत्ताइए तिस्थगराइसए पासइ) निकलकर वह यहा गया कि जहा वह आम्रशाल वन नाम का उद्यान या। वहां जाकर उसने तीर्थकर प्रकृति के उदय से होनेवाले छत्रादिक अतिशयों को देखा। (पासित्ता सीय ठावेद, ठावित्ता कालियदारियं सीयाओ पच्चोरहह, तएण त कालीय दारिय अम्मापियरो पुरओ काउ जेणेव पाले अरहा पुरिसा० तेणेव उवागच्छइ, उचागच्छित्ता वदह, नममइ, चदित्ता नमसित्ता एवं चयासी ) देखकर उसने उस पुस्प सहनवाहिनी शिविका को खटी कर दिया। खड़ी करके उसमे से काली दारिका को नीचे उतारा बाद मे चे माता पिता उस कालिक दारिका को आगे करके जहा पुरुपादानीय अर्रत प्रभु पार्श्वनाथ विराजमान थे वहां गये। वहा जाकर उन्हों ने उनको बदनाकी-नमस्कार किया। वदना नमस्कार करके याद में उन्हों ने इस प्रकार प्रभु से कहा-(एव खलु देवाणुप्पिया। काली दारिया अम्ह धृया इहा कता, जाय किमगपुणपासणया! एस
(णिग्गच्छित्ता जेणेव असालपणे चेहए तेणेव उवागन्छइ, उनागच्छित्ता छत्ताइए तित्यगराइसए पासइ)
નીકળીને તે ત્યા ગયે કે જો તે આમ્રશાલ વન નામે ઉવાન હતુ ત્યાં જઈને તેણે તીર્થ કર પ્રકૃતિના ઉદયથી અસ્તિત્વમાં આવતા છત્ર વગેરે અતિરાને જોયા
(पासिता सीय ठावेइ, ठानित्ता कालियदारिय सीयाओ पच्चोरुहइ, तएणं त कालिय दारिय अम्मापियरो पुरओ काउ जेणेप पासे अरहा पुरिसा० तेणेव उबागच्छः उवागच्छित्ता बदइ, नमसद, व दित्ता नमसित्ता एव वयासी)
જોઈને તેણે તે પુરુષ સહસ્ત્રવાહિની પાલખીને રોકી રોકીને તેમાથી કાવી દારિકાને નીચે ઉતારી ત્યારપછી તે માતાપિતા તે કાવીક દષ્કિાને આગળ કરીને જ્યા પુરુષદાનીય અહંત પ્રભુ પાર્શ્વનાથ વિરાજમાન હતા ત્યા ગયા ત્યાં જઈને તેમણે તેમને વદના કરી, નમસ્કાર કર્યા વદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમણે પ્રભુને વિનતી કરતા આ પ્રમાણે કહ્યું કે—
(एव खलु देवाणुप्पिया! कालीदारिया जम्ह ध्या इट्टा पता, जाव किमग
Page #1132
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाताया 'पासणयाए' दर्शनाय ?, एमाखल हे देशमियाः । समारगयोद्विग्ना इच्छति देवानुपियाणामन्ति के मुण्डाभूत्वा यारत्मवनितु, तद् एता सल देवानुप्रियाणा शिप्याभिक्षा दाः, 'पडिरतु' प्रतीच्छन्न-स्वीडन्तु बलु हे देशानुप्रियाः । शिप्याभिक्षाम् । भगनानाह-ययामुग्व हे देशानुमियो !मा प्रतिपय पुस्तम् । ततः खलु काली कुमारी पार्थ महन्त मदते नमस्यति, चन्दित्वा नमस्थित्या उत्तरपोरस्य ण देवाणुप्पिया! ससारभउन्धिग्गा, इच्छा, देवाणुपियाण | अतिए मुटा भवित्ता जाच पचहत्तप, त ण्य ण देवाणुप्पियाण मिस्सिणिमिक्ख दलयामो पडिस्तु ण देवाणुप्पियासिस्मिणिभिररस) हे देवानुप्रिय। यह हमारी काली दारिका नामकी पुत्री है। यह हमें बहुत अधिक इष्टा, कान्ता यावत् उदम्बर पुष्प के समान सुनने के लिये भी दुर्लभा है-तो फिर हे अग! इसके दर्शन की तो बात ही क्या कहना है । हे देवानु प्रिय ! यह समारभय से उद्विग्न हो रही है अतः आप देवानुप्रिय के पास मुडित होकर यावत् सयम लेना चाहती है। इस लिये हम दोनों
आपके लिये शिष्या की भिक्षा दे रहे है-आप देवानुप्रिय ! हमारी इस शिष्यारूप भिक्षा को स्वीकार करें (अहासुर देवाणुप्पिया! मा पडिबध करेह ) इस प्रकार उन दोनों का कथन सुनकर प्रभु ने उनसे कहा है देवानुप्रियो ! आप को जैमा सुख हो-वैसा आप करो-इसमें विलम्ब करने से लाभ नहीं हैं। (तएण) इसके बाद (काली कुमारी पास पुण पासणयाए ? एमण देवाणुप्पिया। समारभउम्बिग्गा, इच्छइ, देवाणुप्पि याण ! अतिए मुडा भवित्ता जाप पचहत्तए, त एय ण देवाणुप्पियाण सिस्सिाण भिक्ख दलयामो पडिच्छतु ण देवाणुप्पिया! मिस्सिणिभिक्ख)
હે દેવાનુપ્રિય! આ અમારી કાલી દારિકા નામે પુત્રી છે અમારા માટે આ બહુ જ વધારે ઈષ્ટા, કાતા યાવત્ ઉદુમ્બર પુષ્પની જેમ નામ શ્રવણમાં પણ દુર્લભ છે તે પછી એના દર્શનની તો વાત જ શી કરવી ? હે દેવા નુપ્રિય! આ સમાર ભયથી ઉદ્વિગ્ન થઈ રહી છે એથી આપ દેવાનુપ્રિય પાસેથી મુડિત થઈને યાવત સ યમ ગ્રહણ કરવા ઈચ્છે છે એથી અમે મને આપના માટે આશિધ્યાની ભીક્ષા અર્પણ કરીએ છીએ આપ દેવાનુપ્રિય અમારી मा शिव्यापी निशाना स्वी२ श (अहासुह देवाणुपिया ! मा पडिबध करेह ) मा प्रभारी सामने ४५न सासणीत प्रभु तेभने ४धु 3 3 દેવાનુપ્રિયે ! તમને જેમ સુખ પ્રાપ્ત થાય તેમ કરી આમાં વિલંબ કરવાથી साल नया (तएण) त्यारपछी
Page #1133
--------------------------------------------------------------------------
________________
मगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ० २ ०१ अ० १ कालीदेवीवर्णनम्
दिग्भागम् अक्रामति, अपक्राम्य स्वयमेव = स्वहस्तेनैव आभरणमाल्यालङ्कारम् अमुञ्चति = आतारयति, अमुल्य स्वयमेव = स्वहस्तेनैव लोच= केगलुञ्चन करोति, कृत्यायन पार्थोऽर्द्दन् पुरुषादानीयस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पार्श्वमर्हन्त त्रिः कृत्वो वन्दते नमस्यति, मन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत - आदीप्तः खलु हे भद व ! लोक एनम्=अनेन मारेण यावत् एपाऽपि स्वयमेव पार्श्वप्रभुणा मन्त्राजिता ।
७११
अवक्कमट,
अरह दह, ननस, चदित्ता नमसित्ता, उत्तरपुरस्थिम दिसिभागं अवमित्ता मयमेव आभरणमल्लाल कार ओमुग्रह, ओमुत्ता, सयमेव लोय करेह, करिता जेणेव पासे अरिहा पुरिसादापीए तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता पास अरह तिक्खुत्तो व दह, नमसट, वदित्ता नमसित्ता एव वयासी) काली कुमारी ने पार्श्वनाथ अरिह त प्रभु को वढना एच नमस्कार किया । वदना नमस्कार करके फिर वह उत्तर पौरस्त्य दिग्भाग ईशान कोण की ओर गई । वहा जाकर उसने अपने आप आभरण माल्य एव अलकारों को उतार दिया। उतार कर अपने हाथो से उसने वालो का लुचन किया-लुचन करके फिर वह जहां पुरुपादानीय पार्श्वनाथ प्रभु विराजमान थे वहाँ आईवहाँ आकर उसने पार्श्वनाथ अर्हत को तीनधार बदन एव नमस्कार किया और वदना नमस्कार कर फिर वह उनसे इस प्रकार कहने लगी -(आलित्तेण भते । लोए एव जहा देवाणदा जाव सयमेव पन्त्राविया
(वाली कुमारी पास अरह वद, नमसर, वदित्ता नमसित्ता, उत्तरपुरत्थिम दिसिभाग अनकम, अक्कमित्ता, सयमेन आभरणमल्लालकार ओमुयह, ओमुइत्ता सयमेव लोग करे, करिता जेणेव पासे अरिहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पास अरह तिक्युक्त्तो वदइ, नमसर, वदित्ता नमसित्ता एन वयासी ) કાલી કુમારીએ પાર્શ્વનાથ અરિહંત પ્રભુને વદના અને નમસ્કાર કર્યો વદના અને નમસ્કાર કરીને તે ઉત્તર પૌરગ્ન્ય દિભાગ ઈશાન તેણુની તરફ ગઇ ત્યા જઈને તેણે પેાતાની મેળે જ આભરણુ, માલ્વ અને અવકાશને ઉતાર્યો તારોને પેાતાના હાયેા વડે જ તેણે વાળાનુ લુચન કર્યું સુચન કરીને તે જ્યા પુરુષાદાનીય પાર્શ્વનાથ પ્રભુ વિરાજમાન હતા ત્યા આવી ત્યા આવીને તેણે પાર્શ્વનાથ અહું તને ત્રણ વાર વદન અને નમસ્કાર કર્યા નમસ્કાર કરીને તે તેમને આ પ્રમાણે વિનતી કરવા લાગી કે
વદના અને
( आणि भते ! लोए एव जहा देवाणदा जात्र सयमेव पव्वाविया - तरण
Page #1134
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
७१२
जातामेव्या ततः खलु पार्थोऽहन् पुरुषादानीयः वाली सयमेन पुष्पचूलाये आर्याय शिष्यात्वेन ददाति । ततः खलु सा पुष्पचूला आर्या पाली दारिका स्वयमेव प्रयाजयति यात्-सा काली तदागम् उपसम्पद्य सलु विहरति । ततः सा काली-आर्या जाता, कीदृशी ' त्याह-ईयोममिता यात्-गुप्तब्रह्मचारिणी । तत खलु सा काली अर्या पुष्पचूाया आर्याया अन्ति के सामायिकालनि एकादशाहानि अघीते, तणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेव पुष्फलाए अजाए सिस्सिणियत्ता दर यह, तरणमा पुष्फला अन्ना कालिदारिय सयमेव पवावेह-जाय उवसपजित्ताण विररह) हे भदत । यह लोक आदीस हो रहा है-इस प्रकार से पार्दनाय प्रभु के द्वारा स्वय ही दीक्षित की गई। इसके बाद उन पुरुपादानीय पार्श्व प्रभु ने काली को दीक्षित करके पुप्पचूला आर्या को शिप्याणीस्प से प्रदान कर दिया। पुष्पचूला आर्या ने उसे काली को इस प्रकार दीक्षित करवा कर अपनी शिष्याणीरूप में उसे स्वीकार कर लिया-यावत् वह काली उस आयो की आज्ञानुसार अपनी प्रवृत्ति करने लग गई। (तएण सा काली अन्जा जाव) इस तरह वह काली अय आर्या हो गई। (ईरिया समिया जाव गुत्तपभयारिणी तरण सा काली अजा पुप्फचूलाए अजाए अतिए
पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेन पुप्फचलाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए दलयइ, तएण सा पुष्फचूला अज्जा कालिं दारिय सयमेव पवावेइ-जाव उपसपज्जित्ताण विहरइ)
હે ભદન્ત ! આ લેન આદીત થઈ રહ્યો છે આ પ્રમાણે આ પણ પાર્શ્વનાથ પ્રભુ વડે જાતે જ દીક્ષિત કરવામાં આવી ત્યારપછી તે પુરુષાદાનીય પાર્શ્વ પ્રભુએ કાલીને દીક્ષિત કરીને પુષ્પચૂલા આર્યાને શિષ્યાના રૂપમાં આપી દીધી પુષ્પશૂવા આર્યાએ તે વાલીને આ પ્રમાણે દીક્ષિત કરાવીને પિતાની શિષ્યાના રૂપમાં તેને સ્વીક ૨ કરી લા યાવતું તે કાલી તે આર્યોની माना भुराम तानी प्रवृत्ति ४२ सासी (तण्ण सा काली अजा जाव) આ રીતે તે કાલી હવે આ થઈ ગઈ (ईरिया समिया जाव गुत्तभयारिणी, तएण सा काली अज्जा पुष्फचलाए अज्जाए अतिए समाइयमाइयाद एकफारसअगाइ अहिज्जइ, वहर्हि १७ -' विहरइ ।
Page #1135
--------------------------------------------------------------------------
________________
%
D
अनगारधर्मामृतपपिणी टी०० २५० १ ० १ पालीदेवी घर्णनम् ७९३ बहुभिः चतुर्थ यावत्-पष्ठाप्टमदशमहादशभिस्तपाकर्मभिरात्मान भावयन्ती विहरति । सू०३ ॥
मूलम्-तएणं सा काली अजा अन्नया कयाई सरीरवाउ. सिया जाया यावि होत्था, अभिक्खणं२ हत्थे धोबइ पाए धोवइ सीसं धोवइ मुहं धोबइ थणतराइं धोवइ कक्खं तराणि धोवइ गुज्झंतराइं धोवइ जत्थर वि य णं ठाणं वा सेज वा णिसीहियं वा चेइए त पुवामेव अभुक्खेत्ता तओ पच्छा आसयइ वा सयइ वा, णिसीहइ वा, तएणं सा पुप्फचूला अज्ज कालि अनं एवं बयासी-नो खल्ल कप्पइ देवाणुप्पिया | समीणं णिग्गं थीणं सरीरवाउसियाण होत्तए तुमं च णं देवाणुप्पिया । सरीरखाउसिया जाया अभिक्खण२ हत्थे धोवसि जाव आसयाहि वा सयाहि वा णिसीहियाहि वा त तुमं देवाणुप्पिए । एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्त पडिवजाहि, तएणं सा काली
सामायमाझ्याइ एक्सारसअगाइ अरिजह, घट्टहिं चउत्थ जाव विहरइ) उसका रहन शयन आदि सय व्यवहार नियमित एव सीमित हो गया। चलती तो वह ई समिति से मार्ग का संशोधन कर चलती। यावत् वह गुप्त ब्रमचरिणी बन गई। ९ नौ कोटी से ब्रामचर्यव्रत की सरक्षिका हो गई। इसके बाद उस काली आर्या ने पुष्पचूला आर्या के पास सामायिक आदि ग्यारह अगा का अध्ययन किया-और अनेक चतुर्थ, पष्ठ, अष्टम दशम, द्वादश, तपस्याओं की आराधना से अपने आपको भावित किया। सूत्र ३॥
તેનું રહેવું, સૂવું વગેરે બધુ કામ નિયમિત અને સીમિત થઈ ગયું -ચાલતી ત્યારે તે ઇર્યા–સમિતિથી માર્ગનું સંશોધન કરીને ચાલતી યાવતું તે શત બ્રહ્મચારિણી બની ગઈ ૯ કોટિથી બહાચર્ય વ્રતની તે સરક્ષિકા થઈ ગઈ ત્યારપછી તે કાલી આયએ પુષ્પચૂલા આયી પાસે સામાયિક વગેરે અગિયાર અગેનું અધ્યયન કર્યું અને ઘણા ચતુર્થી, પણ, અષ્ટમ, દશમ, દ્વાદશ તપસ્યાની આરાધનાથી પોતાની જાતને ભાવિત કરી છે સત્ર ૩
Page #1136
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९५
अज्जा पुप्फचूलाए अज्जाए एयम नो आवाइ जाव तुसिणीया संचिटइ, तएणं ताओ पुप्फचूलाओ अज्जाओ कालि अजमभिक्खण२ हीति जिंदति खिसंति गरिहंति अवमण्णंति अभिक्खण२ एयम निवारेंति, तएणं तीसे कालीए अजाए सम णीहि णिग्गंथीहिं अभिक्खणं हीलिज्जमाणीए जाव वारिज्ज माणिए इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पन्नित्था जया णं अह अगारवासमझे वसित्था तया णं अह सयवसा जप्पि भिई च णं अह मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारिय पवइया तप्पभिई च णं अहं परवसा जाया, त सेयं खल्ल मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलते पाडिका उवस्सय उवसप ज्जित्ताणं विहरित्तएत्तिकह एव सपेहेइ सपेहिता कल्ल जाव जळते पाडिएकं उवस्तयं गिण्हइ, तत्थणं साअणिवारिया अणोहटिया सच्छदमई अभिक्खणंर हत्थे धोवइ जाव आसयइ वा सयइ वा, णीसेहेइ वा, तएण सा काली अज्जा पासत्था पासस्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीला कुसीलविहारी अहाछदाअहाछंदविहारी संसत्ता ससत्तविहारी बदणि वासाणि सामनपरियागं पाउणइ पाउणित्ताअद्धमसियाए सलेहणाएअत्ताण झुसेइ यूसित्ता तीसंभत्ताइ अणसणाए छेएइ छेइत्सा तस्स ठाणस्स अगालोइय अपडिकता कालमासे काल किच्चा चमरचपाए रायहाणीए कालवडिसए भवणेउववायसभाएदेवसणिज्जसिदेवदूसतरिए अगुलस्सअसखेज्जइ भागमेत्ताए ओगाहणाए काली वण्णा ,
Page #1137
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगरर्मामृतपिणी टीका २०२ ६०१ १०१ कालीदेवोवर्णनम्
७é५
तणं सा कालीदेवी आहुणोत्रवण्णा समाणी पंचविहाए पज्जत्तीए जहा सूरियाभो जाव भासामण पज्जतीए । तएणं सा कालीदेवी उन्हं सामाणियसाहस्तीण जाव अण्णेसि च बहूर्ण कालवर्डेसगभवणवासीण असुरकुमाराण देवाण य देवीणय आहेवच्च जाव विहरइ, एवं खलु गोयमा । कालीए देवीए सा दिव्वा देविड्डी३ लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया, कालीए णं भते । देवीए केवड्य काल लिई पन्नता १, गोयमा । अड्डाइज्जाइ पलिओत्रमाईं ठिई पन्ना, काली णं भते । देवी ताओ देवलोगाओ अनंतर उच्चट्ठित्ता कहि गच्छिहिइ कहि उववज्जिहिइ १, गोयमा । महाविदेहे वासे सिज्निहिइ, एव खलु जवू । समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते तिमि । धम्मकहाणं पढमज्झयणं समन्त ॥ सू० ४ ॥
टीका- 'तएण सा' इत्यादि - ततः खलु सा काली आर्या अन्यदा कदाचित् ' सरीरवाउसिया' शरीरा बाकुशिका शरीरसस्करणशीला जाता चाप्यासीत् । अथ सा किं करोती ? त्याह-अभीक्ष्ण२ चारनार हस्तौ धावति, पादौ धावति,
"
'तएण सा काली अज्जा अन्नया कयाइ, ' इत्यादि ।
टीकार्य - (तएण ) इसके बाद ( सा काली अज्जा ) वह काली आर्यां (अन्नया कयाइ) किसी एक समय ( सरीरवासिया) शरीर को सस्कारित करने के स्वभाववाली बन गई इसलिये वह (अभिक्खण २
'तरण सा काही अज्जा अन्नया कयाइ ' इत्यादि -
अर्थ --- ( तर्पण ) त्यारपछी ( सा काली अज्जा ) ते असी भार्या ( अन्नया कयाइ ) अक्ष मे वणते ( खरोरवाउसिया ) शरीरने सस्जरित કરવાના સ્વભાવવાળી ખની ગઈ, એટલા માટે તે—
( भर इथे घोवई, पाए धोत्रेइ खीस घोनइ, मुह धोवइ, थणतराइ धोवर,
Page #1138
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९५
पाताधर्मव्या अज्जा पुप्फचूलाए अज्जाए एयमद्रं नो आढाइ जाव तुसिणीया संचिइ, तएण ताओ पुप्फचूलाओ अज्जाओ कालि अनं अभिक्खणं२ हीलेंति णिदंति खिसंति गरिहंति अवमण्णति अभिक्खण२ एयम निवारंति, तएणं तीसे कालीए अाए सम णीहि णिग्गंथीहिं अभिक्खणं२ हीलिज्जमाणीए जाव वारिज्ज माणिए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्नित्था जया णं अहं अगारवासमझे वसित्था तया णं अहं सयवसा जप्पि. भिई च णं अह मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइया तप्पभियं च णं अह परवसा जाया, त सेय खलु मम कल्ल पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलते पाडिका उवस्तय उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तएत्तिकट्ट एवंसपेहेइ सपेहिता कल्ल जाव जळते पाडिएक उवस्सयं गिण्हइ, तत्थणं साअणिवारिया अणोहटिया सच्छदमई अभिक्खणंर हत्थे धोवइ जाव आसयइ वा सयइ वा, णीसेहेइ वा, तएण सा काली अज्जा पासत्था पासस्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीला कुालविहारीअहाछदा अहाछंदविहारी संसत्ता ससत्तविहारी बहुणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणइ पाउणित्ता अद्धमसियाए सलेहणाए अत्ताण झुसेइ झुसित्ता तीसंभत्ताइ अणसणाए छेएइ छेइत्सा तस्स ठाणस्स अगालोइय अपडिकंता कालमासे कालं किच्चा चमरचपाए रायहाणीए कालवडिसए भवणे उववायसभाए देवसर्याणज्जसि देवदूसतरिए अगुलस्सअसखेज्जइ भागमेत्ताए ओगाहणाए कालीदे त उववण्णा, .
Page #1139
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ध्रु • च अ० १ फाली देनीवर्णनम् ७७ निर्ग्रन्थीना शरीरवाऋशिका जाताऽसि, यतस्त्वम्-अभीक्ष्ण २ इम्तो धावसि यावत् 'आसयाहि वा' भास्से-उपविगमि, 'सयाहि वा ' शेपे-पयनं करोपि 'गीमीहियादि वा' निपेपयसि-स्वाध्याय करोपि, 'च' त-स्मात् पारगान व हे देवानुप्रिये ! एतत् स्थानम्-'आलोएहि' आलोचय यारत् मायचित्त प्रतिपधस्त्र । मृले-सम्बन्धमामान्ये पप्ठी । ततः खलु सा काली आर्या देवाणुप्पिया! समणी ण णिग्गयीण सरीरवाउसियागं होत्तए-तुम च ण देवाणुप्पिया! मरीरयाउसिया जाया-अभिरखणं २ हत्थे धोवसि, जाव आसयाहि वा सयाहि वा णिसीहियाहि वा त तुमं देवाणुप्पियाए ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पाच्छित्तं पडिवज्जादि) हे देवानुप्रिये! निर्गन्य श्रमणियों को शरीरवकुश होना कल्पित नहीं हैं। परन्तु तुम तो हे देवानुप्रिये शरीरवकुश यन रही हो। वार २ हाथो को धोती हो यावत् जहां तुम्हें उठना यैठना होता है, शयन करना रोता है, स्वाध्याय करना होता है उस स्थान को पहिले से ही सिंचित कर लेती हो तर जाकर वहीं उठती पैठती हो, शयन करती हो, स्वाध्याय करती हो। इसलिये हे देवानुप्रिये । तुम इस स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित्त ग्रहण करो। (तएण सा काली अज्जा पुप्फचूलाए अज्जाए एयमह नो आढाइ, जाव तुसिणीया सचिट्ठइ, तएणं ताओ पुप्फचूलाओ
(नो खलु कप्पड़, देवाणुप्पिया ! समणीण णिग्गीण सरीरवाउसियाण होत्तए-तुम च ण देवाणुप्पिया ! सरीर वाउसिया जाया अभिक्सण २ हत्थे धोवसि, जाव आसयाहि वा सयाहि वा, णिसोहियाहि वा त तुम देवाणुपिए ! एयरस ठाणस्स आलोए हि जाव पायच्छित्त पडियज्जाहि )
હે દેવાનુપ્રિયે ! નિર્ચ થ શ્રમણીઓને શરીરવકુશ થવુ કલ્પિત નથી, પરંતુ તમે તે હે દેવાનુપ્રિયે ! શરીરવકુશ થઈ રહી છે વારવાર હાથને ધુઓ છે યાવતું જ્યાં તમારે ઉઠવા બેસવાનું હોય છે, સૂવાનું હોય છે, સ્વાધ્યાય કરવો હોય છે તે સ્થાનને પહેલા તમે પાણીથી સિંચિત કરી લે છે, અને ત્યારપછી તમે ત્યાં ઉઠે-બેસે છે, સૂવે છે અને સ્વાધ્યાય કરે છે એથી હે દેવાનુપ્રિયે! તમે આ સ્થાનની આલોચના કરો યાવત્ પ્રાયશ્ચિત્ત ગ્રહણ કરે
(तएण मा काली अजा पुप्फचूलाए अज्जाए एयम? नो आढाइ जा सिणीया संचिदुई, तएण ताओ पुष्फचूलाओ मज्जाओ कालिं अन अभिः
Page #1140
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
शीर्ष धापति, मुख धापति स्तनान्तराणि धापति, पक्षान्तराणि धावति, गणान्तराणि धापति, यत्र यत्रापि च खलु 'टाणा' म्यानम्-उपवेशनस्थलम् 'सेज्ज पा' शग्या-शयनभूमिम् , 'णिसीहियं वा 'नेपधिका-स्वाध्यायभूमिम् 'चेएइ ' चेतयते-करोति 'त' तत् स्यानादिक 'पुगामेव ' पूर्वमेव-उपवेश नादि क्रियाया पूर्व ' आसयइ चा' आस्ते-उपविशति, 'समह वा ' शेतेशयनं करोति, णिसीहइ या निषेधयति स्वाध्याय करोति वा । ततः खलु सा पुष्पचूलाऽऽर्या कालीमार्यामेवमादी-नो खलु कल्पते है देवाणुपिये श्रमणीनां हत्थे धोवइ पाग धोवह, सीम धोवह मुर बोह थणतराइ धोका, करसतराणि धेचिइ, गुज्झतराइ धेोवइ, जत्थर वि य ण ठाणं वा सेज्ज घा णिसीयि चा चेहरा-त पुवामेव अभुक्ता तओपच्छा आसयइ घा सयह वा णिसीहइवा) पार २ हारों को धोने रग गई, पैरों को धोने लग गई, शिर को धोने लग गई, मुंह को धोने लग गई, स्तनान्तरों को-स्तनों के मध्यभाग को-धोने लग गई, कक्षान्तरों को-काखो के मध्यभाग को-धोने लग गई, गुह्य भागों को-गुप्तागों को धोने लग गई। जहा २ वह बैठने का स्थान, शयन, स्थान, स्वा याय करने का स्थान नियत करती उसे पहिले से ही वह पानी से सिंचित कर देती-बाद में वह वहा बैठती शयन करती, स्वाध्याय करती, (तण्ण सा पुप्फचूला अज्जा कालिं अज्ज एव वयासी) उस काली आर्या की इस स्थिति को देखकर पुप्फचूला आर्या ने उसे इस प्रकार कहा-(नो खलु कप्पह, फक्सतराणी धोवइ, गुज्झतराइ धोवइ, जत्थ२ वि य ण ठाण वा सेज वा णिसी हिय वा चेएई त पुवामेर अन्भुस्खेचा तओपच्छा आसयइ, वा सयइवा णिसीहइ वा)
વારંવાર હાથને ધોવા લાગી. પગને જોવા લાગી, માથાને ધોવા લાગી, મુખને જોવા લાગી, સ્તનાન્તરનેસ્તનના વચ્ચેના સ્થાનને ધવા લાગી, કલા તને-બગલાના મધ્ય ભાગને ધોવા લાગી, ગુદા ભાગેને-ગુલ્લાને જોવા લાગી જ્યાં જ્યાં તેને બેસવાનું સ્થાન, શયનસ્થાન, સ્વાધ્યાય કરવાનું સ્થાન નક્કી કરતી તે તેને પહેલેથી જ તે પાણીથી સિંચિત કરી દેતી, ત્યારપછી તે स्या असती, शयन ४२ती, स्वाध्याय ४२ती (तपण सा पुत्फचूला अजा कानि अन्ज एव वयासी) aaicी भान्ति पी स्थिति बने थुपयूरा माया તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે--
Page #1141
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनंगारधर्मामृतपणी टी० श्रु व अ० १ फालीदेवीवर्णनम्
७९७
<
निर्ग्रन्थीना शरीरवाकुशिका जाताऽसि, यतस्त्वम्-अभीक्ष्णं २ हस्तौ धावसि यावत् ' आसयाहि वा ' आस्से = उपविशसि, 'सयाहि वा ' शेषे = शयन करोपि णीसीहियादि वा ' निषेधयसि = स्वाध्याय करोपि, ' व ' तत् तस्मात् कारगात् स हे देवानुप्रिये ! एवत् स्थानम् -' आलोएहि ' आलोचय यानत् मायश्रित मतिपद्यस्त्र | मूले - सम्बन्धमामान्ये पष्ठी । ततः खलु सा काळी आर्या
देवापिया ! समणी ण णिग्गवीण सरीरवाउसियाण होतए-तुमच ण देवाणुप्पिया ! मरीरघाउसिया जाया- अभिक्खणं २ हत्ये धोवसि, जाव आसयाहि वा सयाहि वा णिसीहियाहि वा त तुम देवाणुप्पियाए । एयरस ठाणस्स आलेएहि जाव पार्याच्छन्तं पडिवज्जाहि ) हे देवानुप्रिये ! निर्ग्रन्थ श्रमणियों को शरीरवकुश होना कल्पित नही हैं। परन्तु तुम तो हे देवानुप्रिये शरीरवकुश यन रही हो । बार २ हाथो को धोती शे यावत् जहा तुम्हें उठना बैठना होता है, शयन करना होता है, स्वाध्याय करना होता है उस स्थान को पहिले से ही सिंचित कर लेती हो त जाकर वह उठती बैठती हो, शयन करती हो, स्वाध्याय करती हो। इसलिये हे देवाप्रिये । तुम इस स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित्त ग्रहण करो । ( तएण सा काली अज्जा पुष्कचूलाए अज्जाए एयम नो आढाइ, जाव तुसिणीया सचिड, तरर्ण ताओ पुष्फलाओ
(नो खलु कप्पड़, देवाणुध्विया ! समणीण णिग्गथीण सरीरवाउसियाण होत्तए - तुम चण देवाणुप्पिया ! सरीर वाउसिया जाया अभिक्सण २ हाथे धोवसि, जव आसयाहि वा सयाहि वा, णिसोहियाहि वा त तुम देवाणुनिए ! एस ठाणस्स आलोए हि जाव पायच्छित्त पडिवज्जाहि )
હે દેવાનુપ્રિયે ! નિગ્ર થ શ્રમણીઓને શરીરવકુશ થવું કલ્પિત નથી, પરતુ તમે તે હું દેવાનુપ્રિયે ! શરીરવશ થઈ રહી છે.
વારવાર હાયાને એ છે યાવત્. જ્યા તમારે ઉઠવા બેસવાનુ હોય છે, સૂવાનુ હોય છે, સ્વાધ્યાય કરવા હોય છે તે સ્થાનને પહેલા તમે પાણીથી સિંચિત કરી લેા છે, અને ત્યારપછી તમે ત્યા ઉઠા-એસે છે, સૂવા છે અને સ્વાધ્યાય કરે છે એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે આ સ્થાનની લેાચના કરા યાવત્ પ્રાયશ્ચિત્ત ગ્રહણ કરા
(तएण सा कलो अज्जा पुष्कचूलाए भज्जाए एयमट्ठ तो आढाइ जाव तसिणीया संचि, तरण ताओ पुप्फचूलाओ अज्जाओ कालिं अन अभि
Page #1142
--------------------------------------------------------------------------
________________
-Ge
साधर्मकर्णा चुप्पहाया आर्याया एतमय ‘नो भाडाइ' मो आद्रियतेन मन्यते यारद 'तुसिगीया' हणीका-समौनी सतिष्ठते । रातः खद ता. पुपचूला भायोः कालीमार्याय 'अभिरमणर' थमीक्षणबार चार 'हीलेंति' निम्ति जन्मकर्मों
द्घाटनपूर्वक निर्मसंवन्ति गिदति निन्दन्ति कृरिसतशमपूर्वक दोपोद्धाटनेन अना द्रियन्से, 'खिसति' खिरन्ति हस्तमुवादिनिकारपूर्वकमवमन्याते, अपमान कुन्तिी त्यर्थः 'गरिहति' गहन्ते शुदिममक्ष दोपारिकरणकतिरस्कुर्वन्ति, 'मत्रमण्ण ति' अपमन्यन्ते रसायनादिमिरपमान कुर्वन्ति, तया अभीक्ष्णमभीरणम् धारवार एतमर्य-शरीरसस्करणरूप निवारयति। ततः ग्यलु तस्याः काल्या आर्यायाः भम अज्जाभो कालि अन्ज अभिक्पण २ हीति, जिंदति, खिसति, गरिहति अवमण्णति, अभिरवण २ एयमह निधारेंति, तण्णे तासे कालीए अाए समणीहिं जिग्गथोहिं अभिसण २ रीलिज्जमाणीए जाव वारिज्जमाणीए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्या) उस काली । आर्याने पुष्पचूला आयके इस कथन रूप अर्थको नहीं माना। केवल बह यावत् चुपचापही रही। उत्तरमें जप उसने उनसे कुछ नहीं कहा-तब उस पुष्पचूला आर्या 'हीलति' काली आर्याकी वार२ जन्मकसं उद्घाटन पूर्वक भर्त्सना(तिरस्कार) करना प्रारभ करदिया। 'निंदति' कुत्सित शब्दोचारण पूर्वक दोपोद्घाटन करते हुए वे उसकी धार २ निंदा करने लगीं। 'खिसति' हस्त, मुख, आदि के विकार प्रदर्शन पूर्वक वे उसका अपमान करने लग गई । 'गरिहति ' गुरु आदिजनों के समक्ष दोषों को प्रकट करके वे उसका तिरस्कार करने लगी। तथा "अवमण्णति" रूक्षवचन आदि बोल २ कर उसका अपमान भी करने लग गई। कषर्ण २ हीले ति णि दति, खि सति, गरिह ति अधमण्णति, अभिक्खण २ एय भट्ट निवारे ति, सएण तीसे कालीए अन्नाए समणीहि णिगथीहि अभिक्खण २ हीलिज्जमाणीए जाब वारिज्जमाणीए इमेयालये अज्झथिए जव समुप्पजित्था )
, તે કાલી આર્યાએ પુ૫ચૂલા આયના આ કથન રૂપ અર્થેને સ્વીકાર કર્યો નહિ ફક્ત તે મૂગી થઈને જ બેસી રહી જવાબમાં જયારે તેણે તેમને કઈ જ કહ્યું નહિ ત્યારે પુષ્પચૂલા આર્યાએ કાલી આર્યાની વાર વાર જન્મ, કર્મ, ઉદ્ધાટનપૂર્વક ભટ્સના કરવા માડી કુત્સિત શબ્દોચ્ચારણથી દુઘાટન કરતી તે તેની વાર વાર નિંદા કરવા લાગી હાથ, સુખ વગેરેને વિકૃત કરીને તે તેમનું અપમાન કરવા લાગી ગુરુ વગેરેની સામે દેને પ્રકટ કરીને તે તેમને તિરસ્કાર કરવા લાગી તેમજ રૂક્ષ વચન વગેરે મલીને તેનું અપમાન પણ કરવા લાગી અને સાથે સાથે તે આયો તેને વારવાર શરીરસ કાર કરવાની મનાઈ પણ કરતી રહી આ પ્રમાણે નિગ્રંથ શમણુએ વડે વારવાર
Page #1143
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी ठी० २ च १ अ० १ फाली देवीवर्णनम्
८९२
ग्रीभिः मिर्ग्रन्थीभिः भभीक्ष्गममीक्ष्ण हिश्यमानायाः यावत् - वार्यमाणाया अयमेहद्रूप 'अज्झत्मिए ' आध्यात्मिकः = आत्मगतविचारः यावत् - मनोगतः सङ्कल्पः समुदपद्यत यदा खलु अहम् अगारवासमध्ये ' वसित्था' उपिनान्सयस तथा खलु अह ' सयबसा ' स्वयंपशा= स्वतन्त्रा आसम् बभृति च खलु अह गुण्डाभूला भगारात् अनगारितां मत्रजिताऽभय तत्प्रभृति च खछु अह परवशा जाताऽस्मि ' व' तत् = तस्मात् श्रेयः खलु मम कहये मादुष्प्रभातायां रजन्या यावत् सूर्ये ज्यछति = सूर्योदये सति ' पाडिक ' प्रत्येकम् = एकमात्र मिनमित्यर्थः, उपाश्रयमुपपद्म खलु विहर्तुम्, 'ति' इति कृत्वा इति मनसि निराय एव सम्मेक्षते,
1
साथ २ में वे आर्या उसे घार २ शरीर सस्कार करने से मना भी करती रही। इस प्रकार उस काली आर्या के निर्ग्रन्थ श्रमणियों द्वारा घार २ भत्सित आदि होने पर तथा शरीर सस्कार करने से निषिद्ध होने पर, उसे यह इस प्रकार का आ यात्मिक यावत् मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ । (जया णं अह अगारवासमज्झे वमित्था तथा ण अह् सयवसा, जपिभिचण अहमुडा भविता अगाराओ, अणगारिय पव्वपा तप्पभिः च ण अह परवसा जाया, त सेयं खलु मम कल्ल पाउप्पभाघाए रयणीए जाव जळते पाडिक्काश्वस्सय उवसपजित्ताण विहरिप्तए तिकड एव सपइ सपेरिता करलं जाव जलले पाडिएक्क उवस्सप गिन्छइ ) जब मैं अपने घर के बीच में रहती थी- उस समय मैं स्वतन्त्र थी। परन्तु जिस दिन से मुडित होकर अगार अवस्था से इस अमगार भवस्था में आई हूँ उस दिन से मैं परवश-पराचीन घन चुकी हैं। अतः मुझे वही श्रेयस्कर है कि मै दूसरे दिन प्रात काल होते ही जय सूर्यो લસિત વગેરે થવાથી તેમજ શરીર સસ્કારની મનાઇ હૈાવા ખદલ તે કાલી આર્યોને આ જાતના આધ્યાત્મિક ચાવતા મનેાગત સકલ્પ ઉર્દૂભવ્યે કે
( जया अइ अगारनासमझे वखित्या तयाण अ६ सयवसा जप्पभिइ घण अह मुडा भवित्ता अगाराभो अनगारिच पत्नश्या तत्पभिर्इ पण अह परसा जाया त सेय खलु मम कल पउप्पभागाए रयणीए जाव जलते पाटिका रसम उपसण बिहरितर तिकट्टु एव स्वपेदेइ, सपेहिप्ता oo are जलते पाoियक उबस्य गिoes )
જ્યારે હું ઘરમા રહેતી હતી ત્યારે હું સ્વતંત્ર હતી મુંડિત થઈને અગાર અવસ્થાને ત્યજીને અનગાર અવસ્થા હું પરવશ-પરાધીન થઈ ગઈ છુ
એથી મારા માટે બીજે દિષસે સવાર થતા જ જ્યારે સૂર્ય
પરંતુ જ્યારથી મે શ્વીકારી છે ત્યારથી હવે એ જ તૈયસ્ફુર ઉદય પામશે ત્યારે
Page #1144
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
(co
पाताया सम्मेक्ष्य फल्ये यावत् सूर्ये ज्वलति 'पाडिप' प्रत्येकम्-उपाश्रय गृहाति । तत्र खलु सा ' अणिमारिया' अनिगरिता-निमारकामानात् , ' अणोडहिया' जनवहिका यहन्छा प्रतिप्रतिरोधाभावात् , अतएर सम्छंदमई ' सच्छन्द मतिः अभीक्ष्णमभीक्ष्ण हस्तौ धारति यावत्-आस्ते वा शेते या निषेधयति वा। ततः खलु सा काली आर्या 'पासस्था' पार्थस्थानगाहकारणंविना नित्यपिण्ड भोक्त्री, अतएव पार्थ स्थविहारिणि, ' ओसणा' आगन्ना समाचारीपालनेऽवसी दय हो जावेगा-दूसरे उपाश्रय में चली जाऊँ । इस प्रकार का उसमे अपने मन में विचार किया। विचार करके फिर वह दसरे दिन प्रात: काल होते ही सूर्योदय होने पर दूसरे उपाश्रय में चली गई। (तत्य] सा अणिवारिया अणोहटिया सच्छदमई अभिरखण २ हत्थे धोवेइ, जाव आसयइ वा सय वाणीसेहेइ वा-तएण सा काली अज्जा पासस्था पासत्यविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी, कुसीला कुसीलविहारी, अहाउदा अहादविहारी, ससत्ता ससत्तविहारी यदृणि वासाणि सा माण्णपरियागं पाउणइ) वहाँ वह विना रोक टोक, यहच्छा प्रवृत्ति करने लग गई । इच्छानुसार यार २ हाथ पैर आदि धोने लग गई । उठने बैठने एव सोने के स्थान को तथा स्वाध्याय भूमि को पहिले से ही पानी से सिश्चित कर वहा उठने बैठने एव स्वाध्याय करने लगी। इस तरह की स्वच्छन्द प्रवृत्ति से वह काली आर्या पासस्था-गाढकारण के विना नित्य पिण्ड भोस्त्री-घन गई, पार्श्वस्थ विहारिणी हो गई। समाचारी બીજા ઉપાશ્રયમાં જતી રહ આ પ્રમાણે તેણે મનમા વિચાર કર્યો વિચાર કરીને તે બીજે દિવસે સવાર થતા જ સૂર્યોદય થયા બાદ બીજા ઉપાશ્રયમાં જતી રહી
(तत्थण सा अणिवारिया अणोहट्टिया सच्छदमई अभिक्खण २ हत्ये भोवेइ, जाव आसयह वा सयइ वा णीसेहेइ वा तएण सा काली अज्जा पासस्था पासत्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी फुसीला कुसीलविहारी अहा दा महाछद विहारी ससत्ता ससत्तविहारी बहूणि वासाणि सामग्णपरियाग पाउणइ)
ત્યા તે રેક-ટેક વિના સ્વચ્છદ થઈને પ્રવૃત્તિ કરવા લાગી ઈચ્છા મુજળ વારવાર હાથ-પગ જોવા લાગી, ઉઠવા-બેસવા અને સૂવાના સ્થાનને તેમજ સ્વાધ્યાય ભૂમિને પહેલેથી જ પાણી વડે સિંચિત કરીને ત્યા ઉઠવા બેસવા તેમજ સ્વાધ્યાય કરવા લાગી આ જાતની સ્વચ્છન્દ પ્રવૃત્તિથી તે કાલી આર્યા પાસસ્થા-ગાઢ કારણ વગર નિત્ય પિંડ ભકત્ર
Page #1145
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधामृतषिणो टी० ४ २ १ १ ० १ कालीदेव वर्णनम् ot दन्ती, अतएव अबसन्नविहारिणी, 'कुसीला ' कुशीला उत्तरगुणसेवया संज्वलनफपायोदये प्रवृत्ता, अतएव कुशी-विहारिणी, 'अहाच्छदा' यथान्छन्दा-- स्वाभिप्रायपूर्वकस्लमति कल्पितमार्गे प्रवृत्ता, अतएव यथा छन्दविहारिणी, 'ससत्ता' ससक्ता गृहस्थादिप्रेमवन्धनेन शिथिलमामाचारीपरत्ता सती वहूनि वर्षाणि श्रामण्य पर्याय पालपति, पालयित्वा अर्द्धमामिस्या संलेखनयाऽऽत्मान 'सेइ ' जोपयति-सेवते, झूसित्ता-जोपपिया त्रिंशद् भक्तानि 'अणसणाए ' अनशनया 'छेएह' छिनत्ति, जिचा तस्य स्थानस्य अनालोचिताऽ प्रतिक्रान्ता कालमासे काल कृत्वा चमरचञ्चाया राजधान्या कालावत सके भवने उपपातसभाया देवशयनीये देवदृप्यान्तरिते = देवप्यवस्वाच्छादिते अड्डलस्याऽसख्येयभागमात्रायामवगाहनाया कालीदेवीतया उपपन्ना । ततः खलु सा कालीदेवी अधुनोपालन करने में शिथिलता दिखलाने लगी-अवसन्न विहारिणी हो गई। कुशीला बन गई-सज्वलन कपाय के उदय होने से उत्तरगुणो की विराधना करने लगी-कुशील विहारिणी हो गई और अपनी इच्छानुसार मार्ग की कल्पना कर उसमें प्रवृत्त रहने लग गई-इसलिये वह यथाच्छन्द विहारिणी भी बन गई । गृहस्थ आदि जनों के अधिक परिचयजन्य प्रेमबंधन से अपने आचार पालन मे शिथिल बनी हुई उसने इस तरह होकर अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया और (पाउणित्ता) पालन कर (अद्धमास्यिाए सलेहणाए अत्ताण झुसेइ, झूसित्ता तीस भत्ताइ अणसणाए छेण्ड, छेइत्ता, तस्स ठाणस्स अणा रोहय अपडिक्कत्ता कालमासे काल किच्चा चमरचचाए रायहाणीए कालवाडिएस नवणे उचवायसभा देवसणिज्जसि देवदूसतरिए अगुलવિહારિણી થઈ ગઈ સમચારી પાલન કરવામાં શિથિલતાવાળી બતાવવા લાગીઅવસાન વિહારિણી થઈ ગઈ કુશલા થઈ ગઈ, સ જવલન કષાયનો ઉદય હોવાથી ઉત્તર ગુણોની વિરાધના કરવા લાગી, કુશિલ વિહારિણી થઈ ગઈ અને પિતાની ઈચ્છા મુજબ માર્ગની કલ્પના કરીને તેમાં પ્રવૃત્ત થવા લાગી એથી તે યથાસ્કન્દ વિહા_િી પણ બની ગઈ ગૃહસ્થ વગેરે લોકેના વધારે પતા પરિચયજન્ય પ્રેમળ ધનથી પિતાના આચાર પાલનમા શિથિલ થઈ ગઈ તેણે આ પ્રમાણે ઘણા વર્ષો સુધી શામણ્ય-પર્યાયનું પાલન કર્યું અને (पउणिता) पालन शन
(अद्धमासियाए सलेहणार अत्ताण झूसेइ, झूसिवा तीस भत्ताइ अणसणाए - मेगा "प ठाणास अणालोइयअपडिवकत्ता कारमासे काल किचा चमर
Page #1146
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाताच कथा
सम्परयात् सूर्य ज्यलति 'पाडिएकं ' प्रत्येकम् - उपाश्रय गृहाति । तत्र खलु सा 'अणिपारिया अनिवारिता निवारकाभावात् ' अगोहड्डिया ' अन
1
,
200
वघट्टिका यह
प्रतिमतिरोधकाभावात्, अतपत्र ' सच्छंदमई ' अच्छन्द
मतिः अभीक्ष्णमभीक्ष्ण हस्तौ धारति याद-आस्ते वा शेते वा निषेधयति वा । ततः खलु सा काली आर्या 'पासत्या पार्श्वस्था गावकारणविना नित्यपिण्ड भोक्त्री, अतएव पार्थ स्थविहारिणि, ओसरणा' अपना समाचारपालनेऽवसी
1
1
t
1
दय हो जावेगा - दूसरे उपाश्रय में चली जाऊँ । इस प्रकार का उसने अपने मन में विचार किया । विचार करके फिर वह दूसरे दिन प्रातः फाल होते ही सूर्योदय होने पर दूसरे उपाश्रय में चली गई । (तत्थणं सा अणिवारिया अणोहट्टिया सच्छदमई अभिक्खण २ रथे धोवेर, जाव आसयह वा सयइ वा णीसेहेइ वा-तएण सा काली अज्जा पासस्था पासत्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी, कुसीला कुसीलविहारी, अहाछदा अहाउदविहारी, ससत्ता ससत्तविहारी बट्टणि वासाणि सा माणपरियागं पाउण ) यहाँ यह विना रोक टोक, पढच्छा प्रवृत्ति करने लग गई । इच्छानुसार वार २ हाथ पैर आदि धोने लग गई। उठने बैठने एव सोने के स्थान को तथा स्वाध्याय भूमि को पहिले से ही पानी से सिञ्चित कर वहा उठने बैठने एव स्वाध्याय करने लगी । इस तरह की स्वच्छन्द प्रवृत्ति से वह काली आर्या पासस्था - गाढकारण के विना नित्य पिण्ड भोक्त्री वन गई, पार्श्वस्थ विहारिणी हो गई। समाचारी
ખીજા ઉપાશ્રયમાં જતી રહુ આ પ્રમાણે તેણે મનમા વિચાર કર્યાં વિચાર કરીને તે ખીજે દિવસે સવાર થતા જ સૂર્યોદય થયા ખાઈ ખીજા ઉપાશ્રયમા જતી રહી
( तत्थण सा अणिवारिया अणोहट्टिया सच्छदमई अभिक्खण २ हत्ये भोवेइ, जाव आसयइ वा सयइ वा णीसेद्देइ वा तएण सा काली अज्जा पासस्था पासत्यविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीला कुसीलविहारी अहा दा अहाछद विहारी ससत्ता ससत्तविहारी बहूणि वासाणि सामण्णपरियाग पाउणइ )
ત્યા તે શકટોક વિના સ્વચ્છંદ થઈને પ્રવૃત્તિ કરવા લાગી ઈચ્છા મુળ વારવાર હાથ-પગ ધાવા લાગી, ઉઠવા-બેસવા અને સૂવાના સ્થાનને તેમજ સ્વાધ્યાય ભૂમિને પહેલેથી જ પાણી વડે સિંચિત કરીને ત્યા ઉઠવા બેસવા તેમજ સ્વાધ્યાય કરવા લાગી આ જાતની સ્વચ્છન્દુ પ્રવૃત્તિથી તે કાલી આર્યો પાસસ્થાન્ગાઢ કારણ વગર નિત્ય પિડ એક
ચ
Page #1147
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०१
अनगारधर्मामृतषिणी टी० धु २ घ ११० १ फालीदेव'वर्णनम् दन्ती, अतएव असन्नविहारिणी, 'कुसीला ' कुशीला उत्तरगुणसेवया संज्वलनफपायोदये मटत्ता, अतएव कुशी-विहारिणी, 'अहाच्छदा' यथाच्छन्दा:स्वाभिप्रायपूर्वकस्वमति कल्पितमार्ग प्रत्ता, अतएव यथा छन्दविहारिणी. 'ससत्ता' ससक्ता गृहस्थादिप्रेमपन्यनेन शिथिलमामाचारीपटत्ता सती बहूनि वर्षाणि श्रामण्य पर्याय पालयति, पालयित्वा अर्द्वमारित्या सलेखनयाऽऽत्मान 'सेइ' जोपयति-सेवते, झूसित्ता-जोपरिना त्रिशद मक्तानि 'अणसणाए 'अनशनया 'छेएइ' छिनत्ति, ज्यिा तरय स्थानस्य अनालोचिताऽ प्रतिक्रान्ता कालमासे काल कृत्वा चमरचञ्चाया राजधान्या कालावत सके भवने उपपातसभाया देवशयनीये देवदृष्यान्तरिते = देवदूष्यवस्वाच्छादिते अङ्गुलस्याऽसंख्येयभागमात्रायामवगाहनाया कालीदेवीतया उपपन्ना | ततः खलु सा कालीदेवी अधुनोपालन करने में शिथिलता दिखलाने लगी-अवसन्न विहारिणी हो गई। कुशीला बन गई-मंज्वलन कपाय के उदय होने से उत्तरगुणो की विराधना करने लगी-कुशील विहारिणी हो गई और अपनी इच्छानुसार मार्ग की कल्पना कर उसमें प्रवृत्त रहने लग गई-उमलिये वह यथाच्छन्द विहारिणी भी रन गई । गृहस्थ आदि जनों के अधिक परिचयजन्य प्रेमयधन से अपने आचार पालन में शिथिल रनी हुई उसने इस तरह होकर अनेक चपों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया और (पाउणित्ता) पालन कर (अद्धमास्यिाए सलेणा अत्ताण झुसेइ, झूसित्ता तीस भत्ताइ अणसणाए छेराइ, छेइत्ता, तस्स ठाणस्स अणा लोइय अपडिक्कत्ता कालमासे काल किच्चा चमरचचाए रायहाणीए कालवाडिएस भवणे उपवायममाए देवसणिज्जसि देवदूसतरिग अगुलવિહારિણી વઈ ગઈ સમ ચારી પાલન કરવામા શિથિલતાવાળી બતાવવા લાગી– અવસન વિહારિણુ થઈ ગઈ કુશીલા થઈ ગઈ, સ જવલન કષાયને ઉદય હવાથી ઉત્તર ગુણોની વિરાધના કરવા લાગી, કુશિલ વિહારિણી થઈ ગઈ અને પિતાની ઈચ્છા મુજબ માગની કલ્પના કરીને તેમાં પ્રવૃત્ત થવા લાગી એથી તે યથાશ્મદ વિહાીિ પણ બની ગઈ ગૃહસ્થ વગેરે લેકેના વધારે પડતા પરિચયજન્ય પ્રેમળ ધનથી પિતાના આચાર પાલનમા શિથિલ થઈ ગઈ તેણે આ પ્રમાણે ઘણા વર્ષો સુધી શામણ્ય-પર્યાયનું પાલન કર્યું અને (परणिता) पालन गने
(अद्धमासियाए सलेहणार अत्ताण झूसेइ, झूसिचा तीस भत्ताइ अणसणाए लेण्ट रेइत्ता, तरस ठागास अणालोइयअपहिवकत्ता काल्मासे काल किच्चा चमर
Page #1148
--------------------------------------------------------------------------
________________
८००
वाताचा
सम्मेक्ष्य कल्ये यावत् सूर्य परति 'पार्डिएक ' प्रत्येकम् - उपाश्रय गृह्णाति । तत्र खलु सा ' अणिनारिया' अनिवारिता - निगरकाभावाद, ' अणोहड्डिया ' जनचट्टिका यच्छा प्रतिपतिरोधकाभावात्, अतपन ' सच्छंदमई' सच्छन्द मतिः अभीक्ष्णमभीक्ष्ण हस्तौ धारति यावत्-आस्ते वा शेते वा निषेधयति वा । ततः खलु सा कात्री आर्या 'पासत्या पार्श्वस्या - गावकारणविना नित्य विष्ट भोक्त्री, अतएव पार्श्वस्पविहारिणि, ' असण्णा' असा समाचारपालनेऽवसी
}
दय हो जावेगा - दूसरे उपाश्रय में चली जाऊँ । इस प्रकार का उसने अपने मन में विचार किया। विचार करके फिर वह दूसरे दिन प्रातः काल होते ही सूर्योदय होने पर दूसरे उपाश्रय में चली गई । (तत्थणं सा अणिवारिया अणोहटिया सच्छदमई अनिस्खण २ हत्थे धोवेर, जाय आसयइ वा सयइ वा णीसे हेइ वा-तएण सा काली अज्जा पासस्था पासत्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी, कुसीला कुसीलविहारी, अहाउदा अहाउदविहारी, ससत्ता ससत्तविहारी बणि वासाणि सा माणपरियागं पाउ गइ ) वहाँ वह विना रोक टोक, यदृच्छा प्रवृत्ति करने लग गई। इच्छानुसार वार २ हाथ पैर आदि धोने लग गई । उठने बैठने एव सोने के स्थान को तथा स्वाध्याय भूमि को पहिले से ही पानी से सिञ्चित कर वहा उठने बैठने एव स्वाध्याय करने लगी । इस तरह की स्वच्छन्द प्रवृत्ति से वह काली आर्या पासस्था - गाढकारण के विना निल पिण्ड भोक्त्री वन गई, पार्श्वस्थ विहारिणी हो गई। समाचारी ખીજા ઉપાશ્રયમા જતી રહે આ પ્રમાણે તેણે મનમા વિચાર કર્યાં વિચાર કરીને તે ખીજે દિવસે સવાર થતા જ સક્રિય થયા ખાદ બીજા ઉપાશ્રયમા જતી રહી ( तत्थण सा अणिवारिया अणोहट्टिया सच्छदमई अभिक्खण २ हत्ये धोवेइ, जाव आसयइ वा सयइ वा णीसेद्देइ वा तएण सा काली अज्जा पासस्था पासत्यविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीला कुसीलविहारी अहा दा अहछिन्द विहारी ससत्ता सवत्तविहारी बहूणि वासाणि सामण्णपरियाग पाउणइ )
ત્યા તે શક-ટોક વિના સ્વચ્છ થઈને પ્રવૃત્તિ કરવા લાગી ઈચ્છા મુજબ વારવાર હાથ-પગ ધાવા લાગી, ઉઠવા-બેસવા અને સૂવાના સ્થાનને તેમજ સ્વાધ્યાય ભૂમિને પહેલેથી જ પાણી વડે સિંચિત કરીને ત્યા ઉઠવા બેસવા તેમજ સ્વાાય કરવા લાગી આ જાતની સ્વચ્છન્ત પ્રવૃત્તિથી તે કાલી આવ્યું પાસસ્થા—ગાઢ કારણ વગર નિત્ય પિંડ ક્ષેત્ર
થ
Page #1149
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतषिणी टी० भु २ प १४० १ कालीदेवघर्णनम् दन्ती, अतएव अप्रसन्नविहारिणी, 'कुसीला ' कुशीला-उत्तरगुणसेवया संज्वलनपायोदये महत्ता, अतएव कुशी-विहारिणी, 'अहाच्छदा' यथाच्छन्दा:स्वाभिप्रायपूर्वकस्वमति कल्पितमार्गे प्रवृत्ता, अतएव यया छन्दनिहारिणी. 'ससत्ता' ससक्ता गृहस्थादिप्रेमपन्धनेन शिथिलमामाचारीमटत्ता सती पहूनि वर्षाणि श्रामण्य पर्याय पालयति, पालयित्वा अर्द्धमामिस्या सं ठेखनयाऽऽत्मान 'सेइ' जोप यति-सेवते, झूसित्ता-जोपचिना त्रिंशद् भक्तानि 'अणसणाए 'अनशनया 'छेएइ' छिनत्ति, जिचा तरय स्थानम्य अनालोचिताऽ प्रतिक्रान्ता कालमासे काल कृत्ला चमरचञ्चाया रानधान्या कालावत सके भवने उपपातसभाया देवशयनीये देवप्यान्तरिते = देवप्यवस्वाच्छादिते अङ्गुलस्याऽमख्येयभागमानायामवगाहनाया कालीदेवीतया उपपन्ना । ततः खलु सा कालीदेवी अधुनोपालन करने में शिथिलता दिखलाने लगी-अवसन्न विहारिणी हो गई। कुशीला पन गई-मज्वलन कपाय के उदय होने से उत्तरगुणो की चिराधना करने लगी-कुशील विहारिणी हो गई और अपनी इच्छानुसार मार्ग की कल्पना कर उसमें प्रवृत्त रहने लग गई-इसलिये वह यधाच्छन्द विहारिणी भी बन गई । गृहस्थ आदि जनों के अधिक परिचयजन्य प्रेमबंधन से अपने आचार पालन में शिथिल बनी हुई उसने इस तरह होकर अनेक चो तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया और (पाउणित्ता) पालन कर (अद्धमासियाए सप्टेणाए अत्ताण झसेइ, झूसित्ता तीस भत्ताह अणसणाए डेण्ड, इत्ता, तस्स ठाणस्स अणा लाइय अपडिक्कत्ता कालमासे काल किच्चा चमरचचाए रायहाणीए कालव डिएस भवणे उचवायममाए देवसयणिज्जसि देवदमतरिए अगुलવિહારિણી વઈ ગઈ સમ ચારી પાલન કરવામા શિથિલતાવાળી બતાવવા લાગીઅવસન વિહારિણી થઈ ગઈ કુશીલા થઈ ગઈ, સ જવલન તુષાયને ઉદય લેવાથી ઉત્તર ગુણોની વિરાધના કરવા લાગી, કુશિલ વિહારિણી થઈ ગઈ અને પિતાની ઇચ્છા મુજબ માગની કલ્પના કરીને તેમાં પ્રવૃત્ત થવા લાગી એથી તે યથારછન્દ વિહારિપી પણ બની ગઈ ગૃહસ્થ વગેરે લોકોના વધારે પડતા પરિચયજન્ય પ્રેમળ ધનથી પિતાના આચાર પાલનમા શિથિલ થઈ ગઈ 1ણે આ પ્રમાણે ઘણા વર્ષો સુધી કામણ્ય-પર્યાયનું પાલન કર્યું અને (परणिता) पासन और
(अद्वमासियाए सलेहणार अत्ताण झूसेइ, झूसिवा तीस भत्ताइ अणसणाए ७५३, छेइत्ता, तस्स ठाणास अणालोइयअपडिक्कत्ता कारमासे काल किचा चमर
Page #1150
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाताधर्मपाल पपन्ना-तत्काल समुत्पन्नासती पञ्चविधयापर्याप्त्या यथासूर्यामा सूर्यामदेववत् , 'जार भासामणपज्जनी' भाषामन पर्याप्या-यान-आहारपर्याप्त्या १, शरीरपर्याप्त्या २, इन्द्रियपर्याप्त्या ३, आनमाणपर्याप्त्या ४, भाषामन पर्याप्त्या ५, पर्याप्तिभाव गच्छति । पर्याप्तिपन्धाले देवानामाहारशरीरादिपर्याप्तिसमाप्ति कालान्तरापेक्षया भाषामन पर्याप्त्योः स्तोककालानरतया तयोरेकर वेन विवक्ष णात् पर्याप्तीनां पञ्चविधत्तम् । ततः खलु सा काली देवी चतमणा सामानिकसाहस्त्रीणां यावत् अन्येपा च रहना कालावतसकमानवासिनामसुरकुमारणा स्स असखेजइ, भागमेत्ता ओगाहणाण कालीदेवीरा उवषण्णा) अर्द्धमास की सलेखना से उसने अपनी आत्मा को युक्त किया। इस प्रकार उसने अनशनों द्वारा ३०भक्तोंका छेदन करने पर भी उस स्थानकी आलोचना नही की और न वह उन अतिचारों से पीछे ही रटी-अतः अनालोचित अप्रतिक्रान्त पनकर वर जय उस काल अवसर-काल कर चमरचपा नाम की राजधानी में, कालावतसक भवन में, उपातातसभाम देवदूष्यवस्त्रसे आच्छादितदेवशयनीयशग्या' ऊपर अगुलके असख्यातवें मात्र की अवगाहना से काली देवी के रूप में उत्पन्न हो गई (तण्ण सा कालीदेवी अहुणोववण्णा समाणी पचविहाए पजत्तीए जहा मूरियाभी जाव भासामणपज्जत्तीए ० तएण सा कालीदेवी चउरं समाणि य साहस्सी ण अण्णेसिं च पहणं कालवडेंसकभवणवासीण असुरकुमाराण
पचाए रायहाणीए कालवडि सए भवणे वायसभाए. देवसयणिज्जमी देवदूस तरिए अगुलम अस खेज्जइ, भागमेनाए ओगाहणाए कालीदेवीत्तए उववण्णा)
તેણે અદ્ધમાસની સ લેખનાથી પિતાના આત્માને યુક્ત કર્યો આ પ્રમાણે તેણે અનશને વડે ૩૦ ભક્તોનું છેદન કરીને પણ તે સ્થાનની આચના કરી નહિ અને તે અતિચારોના આચરણથી પણ અટકી નહિ એથી અનલચિત અપ્રતિકાત થઈને તે જ્યારે કાળ અવસરે કાળ કરીને અમરચ ચા નામની રાજધાનીમા કાલાવત સક ભવનમા, ઉપપાત સભામા દેવદુષ્ય વાથી આછits દેવશનીય ઉપર આગળીઓના અને ખ્યાતમાં માત્રની અવગાહનાથી કાલી દેવીના રૂપમાં ઉત્પન્ન થઈ ગઈ
(तएण सा काली देवी अहणोववण्णा समाणी पचविहाए पजताप जहा सूरियाभो जाव भासमणपजत्तीए । तएण सा काली देवी घउह मामा णियसाहस्सीण जाव अण्णेसिं च रहण कालवडे सकभवणवासी ॥ असुरकुमा राण देवाण य देवीणय आहेवच जाव विहरह)
Page #1151
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैनगारधर्मामृतविणो टी० श्रु २ च १ ० १ कालीदेवावर्णनम् ८०३ देवाना च देवीना च आहेबच ' आधिपत्य-स्वामित्व कुर्वन्तीपालयन्ती यावद विहरति ।
एवम्-उक्तमकारेण खलु हे गौतम ! काल्या देव्या सा दिव्या देवर्द्धिः ३, लव्या, प्राप्ता, अभिसमन्वागता ।
गौतमः पृच्छति-काल्या खलु हे भदन्त । देव्यास्तन 'केवइय' कियन्त देवाण य देवीण य आहेवच्च जाव विररह) इस प्रकार वह काली देवी अभी अभी उत्पन्न होकर पाच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त बनी है। पर्याप्तिया ६ होती है परन्तु यहा पर जो वे पाच की संख्या में निर्दिष्ट हुई हैं-उसका कारण यह है कि पर्याप्ति के वधकाल में देवों के आहार, शरीर आदि पर्याप्तियों के समासिकाल की अपेक्षा भापा और मनः पर्याय का साथ साय बध होता है, इसलिये इन दोनो को एक रूप से यहा विवक्षित किया गया है। वे पर्याप्तियां इस प्रकार है-1 (१) आहारपर्याप्ति (२) ,शरीर पर्याप्ति (३) इन्द्रियपर्याप्ति (४) श्वासोच्छ्वा . सपर्याप्ति (५) भापा एवं मनः पर्याप्ति । वह काली देवी चार हजार सामानिक देवोका यावत् और दूसरे अनेक कालावतसक भवनवासी असुरकुमार देवो का देवियो का आधिपत्य कर रही है। (एव खलु गोयमा ! कालीए देवीए सा दिव्वा देवडी ३ लद्धापत्ता अभिसमण्णा गया,
આ પ્રમાણે તે કાલી દેવી હમણા જ ઉત્પન્ન થઈને પાચ પ્રકારની પર્યાપ્તિઓથી પર્યાપ્ત બની છે પતિએ છ હેાય છે પણ અહીં જે પાચની સંખ્યામાં જ બતાવવામા આવી છે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે પર્યામિના બ ધમાલમા દેવના આહાર, શરીર વગેરે પર્યાપ્તિઓના સમાપ્તિકાળની અપેક્ષા ભાષા અને મન પર્યાતિનુ એકી સાથે બધ હોય છે એથી આ બંનેને અહીં એક રૂપમાં જ બતાવવામાં આવી છે તે પર્યાપ્તિએ આ પ્રમાણે છે(१) मा २ पति , (२) शरीर ५र्गति, (3) ४न्द्रिय पर्यासि, (४) वासी
વાસ પર્યાપ્તિ, (૫) ભાષા અને મન પર્યાપ્તિ તે કાલી દેવી ચાર હજાર સામાનિક દેવે ઉપર યાવત્ બીજા પણ ઘણું કાલાવત સક ભવનવાસી અસુર કુમાર દે, દેવીઓ ઉપર શાસન કરી રહી છે
(एष स गोयमा । कालीप देवीए सा दिव्या देविड्ढी ३ लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया, कालीए ण भते ! देवीए केवइय काल ठिई पण्णचा १ गोयमा
र इनाइ पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता)
Page #1152
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૦૧
वाताधर्मका
"
,
पपन्ना = तरकार समुत्पन्ना सती पञ्चविधयापर्याप्त्या यथासूर्यामः सूर्यामदेववत्, जार भासामणपज्जती भाषामन पर्यादया - यावत्-आहारपर्याप्त्या १, शरीरपर्याया २ इन्द्रियपर्याप्त्या ३ आनमाणपर्याप्त्या ४ भाषामन पर्याप्त्या ५, पर्याप्तिभाव गच्छति । पर्याप्तन्धाले देशनामा हार शरीरादिपर्याप्तिसमाप्ति कालान्तरापेक्षया भाषामन पर्यादयोः स्तोककान्तरतया तयोरेकस्वेन विवक्ष णात्पर्यातीना पञ्चविधनम् । ततः खलु सा काली देवी चतसृणा सामानिकसाहस्रीणां यावत् अन्येपा च न फालातसमवनवासिनामसुर कुमारणा
स्स असखेज्जइ, भागमेत्ता ओगारणाए कालीदेवीत्तए उबवण्णा ) अर्द्धमास की सलेखना से उसने अपनी आत्मा को युक्त क्रिया । इस प्रकार उसने अनशनों द्वारा ३० भक्तोंका छेदन करने पर भी उस स्थानकी आलोचना नही की और न वह उन अतिचारों से पीछे ही हटी -अतः अनालोचित अप्रतिक्रान्त बनकर वह जय उस काल अवसर-काल कर चमरचपा नाम की राजधानी में, कालावतसक भवन में, उपातातसभामें देवदूष्यवस्त्र से आच्छादित देवशयनीय' शय्या' ऊपर अगुलके असख्यातवे मात्र की अवगाहना से काली देवी के रूप में उत्पन्न हो गई (तरण सा कालीदेवी अरुणोचवण्णा समाणी पचविहाण पज्जन्तीए जहा सूरियाभो जाव भासामणपज्जत्तीए ० तएण सा कालीदेवी चउण्ट समाणि य साहस्सी ण अण्णेसि च चणं कालवडेंसकभवणवासीण असुरकुमाराण
चा राहाणी कालवडि सए भवणे उवायसभाए देवस्यणिज्जती देवदूस तरिए अगुलात अस खेज्जइ, भागमेवार ओगाहणार कालीदेवीत्तर उववण्णा ) તેણે અદ્ધ માસની સલેખનાથી પેાતાના આત્માને યુકત કર્યાં આ પ્રમાણે તેણે અનશને વડે ૩૦ લક્તોનુ છેદન કરીને પણ તે સ્થાનની આવેાચના કરી નહિ અને તે અતિચારોના આચરણથી પણુ અટકી નહિ એથી અનાલેાચિત અપ્રતિક્રાત થઇને તે જ્યારે કાળ અવસરે કાળ કરીને અમરચચા નામની રાજધાનીમા કાલાવત સક ભવનમા, ઉપપાત સભામા દેવદૃષ્ય વસ્ત્રથી આચ્છાદિંત દેવશનીય ઉપર આગળીઓના અસ ખ્યાતમા માત્રની અવગાહનાથી કાલી દેવીના રૂપમાં ઉત્પન્ન થઈ ગઈ
( तपण सा कालो देवी अणोववण्णा समाणी पचविहार पज्जलीए जहा सूरियाभो जाव भासमणपज्जतीप० । तरण सा काली देवी च साम जिवस इस्सीण जाव अण्णेसि च बहूण कालवडे सकभवणवासी ण असुरकुमा राण देवाण य देवीणय आहेवच जाव विहरइ )
Page #1153
--------------------------------------------------------------------------
________________
गारधर्मामृतपणी टीका श्रु २ १ ० १ कालीदेवीवर्णनम्
८०५
श्री सुधर्मास्वामी माह - एन सलु हे जम्मूः ! श्रमणेन यावत् - मोक्ष सम्प्राप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य प्रथमाभ्ययनस्य अयमर्थ = पूर्वोक्तो भावः शप्तः । त्तिनेमि ' इति ब्रवीमि, व्यारया पूर्ववत् ॥ सू०४ ॥
|| धर्मकयाना प्रथमवर्गस्य प्रथमाभ्ययनं समाप्तम् ॥
विदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगी और वहीं से सिद्ध होगी। अब सुर्मा स्वामी श्री जत्रू ! स्वामी से कहते हैं कि हे जब ! मुक्ति को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रज्ञप्त किया है। ऐसा मैंने उन्हीं के मुख से सुनकर यह तुमसे कहा है || सूत्र ४ ॥
-: प्रथम वर्ग का प्रथम अध्ययन समाप्त -
-
મહાવિદેહ ક્ષેત્રમા ઉત્પન્ન થશે અને ત્યાયી જ સિદ્ધ થશે હવે સુધર્માં સ્વામી શ્રી જમૂ! સ્વામીને કરું છે કે હું જ મૂ! મુક્તિપ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહા વીરે પ્રથમ વર્ગોના પ્રશ્નમ અધ્યયનના આ પૂર્વોક્ત રૂપે અથ પ્રજ્ઞા કર્યાં છે આવુ હું તેમના શ્રી મુખથી સાભળીને તમને કહી ગયા ॥ સૂત્ર ૪ ૫
""
પ્રથમ વર્ગનું પ્રથમ અધ્યયન સમાસ ”
A
FORLAG
Page #1154
--------------------------------------------------------------------------
________________
kou
ताधर्मका
काल स्थिति महप्ता ? भगवान्पाट - हे गौतम ! ' अड्डाइज्जा ' अर्द्ध तृतीये= सा द्वे पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
गौतमः पृच्छति - फाली हे भदन्त | देवरी तस्मादेवलोकाद् अनन्तरम्=आयु रस्थितिक्षयानन्तर उन्नहिता उट्टत्य = निस्टत्य कृत्र गमिष्यति कृत्रउत्पत्स्यते ? |
'
भगवानाह - हे गौतम ! सा काली देवी देवलोकान्च्युला महाविदेहे वर्षे उत्पध सेत्स्यति ।
कालीए ण भते । देवीए केचइय काल टिई गत्ता ? गोयमा अढाइ जाइ पलिओ माई ठिईपण्णत्ता ) इस तरह से हे गौतम । काली देवी नेवर दिव्य देवद्वि ३, अर्जित की हे स्वाधीन की है और उसे अपने उपभोग के योग्य बनाया है । अव गौतम पुन प्रभु से पूछते हैं कि है भदत ! कालीदेवी की कितनी स्थिति है ? उत्तर में प्रभु ने उनसे कहा- हे गौतम ! कालीदेवी की स्थिति अढाई पल्य की (प्रज्ञप्त हुई ) है ( काली कि ण भते ! देवी ताओ देवलोगाओ अणतर उचट्टित्ता कहिं गच्छहिर, उववज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहेवासे सिज्झिहिद एव खलु जबू समणेणं जाव सपत्तेण पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमठ्ठे पण्ण त्तिवेमि, धम्मकहाण पढमज्झयण समत्त ) हे भदत ! कालीदेवी उस देवलोक से आयु एवं भवस्थिति के क्षय के अनन्तर निकलकर कह जावेगी, कहा उत्पन होगी ? इस गौतम के प्रश्न का उत्तर प्रभु ने उ इस प्रकार दिया - गौतम ! वह काली देवी देवलोक से चव कर म
1
આ પ્રમાણે હે ગૌતમ 1 કાલી દેવીએ તે ક્રિષ્ન દેવર્ષિં ૩ પ્રાપ્ત છે સ્વાધીન બનાવી છે અને તેને પાતાને માટે ઉપલેગ ચેગ્ન ખતાવી હવે ગૌતમ ફરી પ્રભુને પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! કાલી દેવીની સ્થિતિ કેટ જવામમા પ્રભુએ તેમને કહ્યુ કે હું ગૌતમ ! હાલી દેવીની સ્થિતિ અઢી પત્યા (अज्ञप्त थर्ध) छे
( कालीन भते 1 देवी ताओ देवलोगाओ अनंतर उट्टित्ता कहि गच्छि हिइ, कहि उववज्जिहिइ ? गोयमा | महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, एत्र बलू जबू ! समणेर्ण जाव सपत्तेन पढमस्स वग्गस्स पदमज्झयणस्स अयभट्ठे पण्णत्ते त्ति बेमि, धम्मकहाण पढमज्झयण समत्त )
બદન્ત ! કાલી દેવી તે દેવલેાકથી આયુ અને ભવસ્થિતિને પૂરી કરીને કયા જશે ? કયા ઉત્પન્ન થશે ? આ પ્રમાણે ગૌતમના પ્રશ્નને સાભળીને પ્રભુએ ઉત્તરમા તેને કહ્યુ કે હું ગૌતમ 1 તે કાલી દેવી જે
ચીને
Page #1155
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
--
जनगारधर्मामृतवपिणी टी0 श्रु. २ ० १ ० २ रात्रीदेवीवर्धनम् ८०७ श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनाममधेयं स्थान सम्पाप्तन धर्मकथाना प्रथमस्य वर्गस्य प्रथमाध्ययनस्यायमर्थः पूर्वोक्तो भावः मज्ञप्तः, द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य श्रमणेन भगवता महातीरेण यावत् मोक्ष सम्प्राप्तेन फोऽर्थःको भावः प्रज्ञप्तः ?
सुधर्मास्वामीमाह-एव खलु हे जम्मूः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राज. गृह नगरम् । गुणशिक्षक पैत्यम् । स्वामी भगवान् महावीरः समवसतः । परिप पढमस्स वग्गस्स पढमायणस्स अयमढे पण्णत्ते विडयस्स ण भते! अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेण के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जवू । तेण कालेण तेण समएण रायगिहे णयरे गुण सिलए चेहए सामी समोसढे) यदि श्रमण भगवान महावीर ने जो कि मुक्ति स्थान को प्राप्त हो चुके है धर्मकथाके प्रथम वर्ग के प्रथम अध्यपन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है-तो हे भदत ! विसीय अध्ययन का उन्ही श्रमण भगवान महावीर ने जो कि मुक्ति को प्राप्त कर चुके हैं क्या भाव अर्थ प्रतिपादित किया है ? इस प्रकार जबू स्वामी के पूछने पर सुधर्मा स्वामी उनसे करते हैं कि हे जन् ! सुनो
तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। उसमें गुणशिलक नाम का उद्यान था। उसमें महावीर स्वामी समवसरे।-(परिसा निंग्गया-जाव पज्जुवासइ, बग्गस्स पहमज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते विदयस्स ण भते । अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जारसपत्तेण के अटे पण्णते ? एक खलुज तेण कालेण तेण समएण रायगिहे गयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे)
જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર–કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધુ છે ધર્મકથાના પ્રથમ વર્ગના પ્રવમ અધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂ૫મા અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે તે છે ભદન્ત ! તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેમણે મુક્તિ સ્થાન મેળવી લીધુ છે બીજા અધ્યયનને શે ભાવ-અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે આ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાભળીને શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જ બૂ! સાભળે, તમારા પ્રશ્નને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતુ તેમા ગુરુશિલક નામે ઉઘાન હતુ તેમાં મહાવીર સ્વામી પધાર્યા
( परिसा निग्गया-जाब पज्जुवासइ, तेण कारेण तेण समएण राई देवी
Page #1156
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ द्वितीयमध्ययनं प्रारभ्यते
मूलम् - जइ णं भंते! समणेणंं भगवया महावीरेण जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमट्ठे पण विइयस्स णं भंते । अग्झयणस्स समणेर्ण भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेर्ण के० अहे पण्णत्ते ?, एव खल्लु जंबू । तेणं कालेण तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ, तेण कालेन तेण समएणं राई देवी चमरचचाए रायहाणीए एव जहा काली तहेव आगया णहविहि उवदसेत्ता पडिगया भंतेति भगवं गोयमा । पुष्वभवपुच्छा, एवं खलु गोयमा । तेण कालेन तेणं समएण आमलकप्पा णयरी अबसालवणे
इए जियसत्तू राया राई गाहावई राईसिरी भारिया राई दारिया पासस्स समोसरण राई दारिया जहेव काली तहेव निक्खता तहेव सरीरवाउसिया तं चैव सव्वं जाव अत काहिति । एवं खलु जंबू । बिइयज्झयणस्स निक्खेवओ ॥
॥ पढमवग्गस्स वीयज्झयण समत्त ॥ सू० ५ ॥ टीका--' जइण भते ' इत्यादि । जम्बूस्वामीपृच्छति यदि खल हे भदन्त । -द्वितीय अध्ययन प्रारंभ:
-: जइणं भते ! समणेण इत्यादि ।
टोकार्थ - जयू स्वामी श्री सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि (ते) हे 'भदंत ! ( जइण समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण धम्मकहाण
ખીજું અધ્યયન પ્રારભ —
अइण भंते ! समणेण इत्यादि ---
ટીકા—જ વ્યૂ સ્વામી શ્રી સુધાં સ્વામીને પૂછે છે કે (મતે) હે ભદન્ત ! ( जइण समणेण भगनया महावीरेण जाव सपतेण
पदमस्स
Page #1157
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०७
ममगारधर्मामृतवपिणी टी० ध्रु. २ प. १ अ० २ रात्रीदेवीवर्धनम् श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनाममधेय स्थान सम्पाप्तन धर्मकथाना प्रथमस्य वर्गस्य प्रथमाध्ययनस्यायमर्य: पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः, द्वितीयस्य सलु भदन्त ! अ ययनस्य श्रमणेन भगवता महागीरेण यावत् मोक्ष सम्प्राप्तेन कोऽय:को भावः प्रज्ञप्तः ?
सुधर्मास्वामीमाह-एव खलु हे जम्मूः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राज. गृह नगरम् । गुणशिलक पैत्यम् । स्वामी भगवान महावीरः समवसतः । परिप पढमस्स वग्गस्स पढमायणस्स अयमढे पण्णत्ते विडयम ण भते । अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जवू ! तेण कालेण तेण समएण रायगिहे णयरे गुण सिलए चेहए सामी समोसढे) यदि श्रमण भगवान महावीर ने जो कि मुक्ति स्थान को प्राप्त हो चुके हे धर्म कथाके प्रथम वर्ग के प्रथम अध्यपन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है-तो हे भदत ! दिसीय अध्ययन का उन्हीं श्रमण भगवान महावीर ने जो कि मुक्ति को प्राप्त कर चुके हैं क्या भाव अर्थ प्रतिपादित किया है ? इस प्रकार जबू स्वामी के पूछने पर सुधर्मा स्वामी उनसे करते हैं कि हे जव् ! सुनो -तुम्हारे प्रश्न का उत्सर इस प्रकार है-उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। उसमें गुगशिलक नाम का उद्यान था। उसमें महावीर स्वामी समवसरे ।-(परिसा निग्गया-जाव पज्जुवासइ, घग्गस्स पहमज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते पिइयस्स ण भते ! अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जान सपत्तेण के० अढे पण्णत्ते ' एव खलु जबू' तेण कालेण तेणं समएण रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे )
જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધુ છે ધર્મકથાના પ્રથમ વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપમા અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે તે છે ભદન્ત ! તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેમણે મુક્તિ સ્થાન મેળવી લીધુ છે બીજા અધ્યયનને શે ભાવ-અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે આ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાભળીને શ્રી સુધમાં સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જ બૂ! સાભળે, તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતુ તેમા ગુલિક નામે ઉદ્યાન હતું તેમા મહાવીર સ્વામી પધાર્યા
गिया-जाव पज्जुवासइ, तेण कालेणं तेण समएण राई देवी
Page #1158
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ द्वितीयमध्ययन मारभ्यतेमूलम्-जइ णं भते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्त वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमटे पण्णत्ते विइयस्स गं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के० अहे पण्णत्ते, एव खल्ल जंबू । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ, तेण कालेणं तेणं समएणं राई देवीचमरचचाए रायहाणीए एव जहा काली तहेव आगया णहविहि उवदसेत्ता पडिगया भंतेत्ति भगवं गोयमा। पुष्वभवपुच्छा, एव खल्ल गोयमा । तेण कालेण तेणं समएण आमलकप्पा णयरी अवसालवणे चेइए जियसत्तू राया राई गाहावई राईसिरी भारिया राई दारिया पासस्स समोसरण राई दारिया जहेव काली तहेव निक्खंता तहेव सरीरवाउसिया तं चेव सव्वं जाव अत काहिति । एवं खलु जंबू । बिइयज्झयणस्स निक्खेवओ ॥
॥ पढमवग्गस्स वीयज्झयण समत्त ॥ सू० ५॥ टीका-'जइण भते ' इत्यादि । जम्बूस्वामीपृच्छति-यदि खल हे भदत ।
-द्वितीय अध्ययन प्रारभा-जण भते ! समणेण इत्यादि।
टोकार्थ.-जब स्वामी श्री सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि (भते) है भदंत ! (जहण समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण धम्मकहाण
मीन अध्ययन प्रारमजइण भंते ! समणेण इत्यादिટીકાર્થ-જ “ સ્વામી શ્રી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે (મો) હે ભદસ્ત ! (जइण समणेणं भगरया महावीरेण जाव सपत्तेण
Page #1159
--------------------------------------------------------------------------
________________
arrainी टी० श्रु. २०१० २ रात्रीदेवीवर्धनम्
८०७
श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनाममधेय स्थान सम्प्राप्तन धर्मकथाना प्रथमस्य वर्गस्य प्रथमाध्ययनस्यायमर्थः = पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः, द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अययनस्य श्रमणेन भगवता महानीरेण यावत् मोक्ष सम्प्राप्तेन कोऽर्थः = को भावः मज्ञप्तः ?
सुधर्मास्वामीमा एव खलु हे जम्बूः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नगरम् । गुणशिलक चैत्यम् । स्वामी भगवान महावीरः समवस्टतः । परिप
पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमठ्ठे पण्णत्ते विडयस्स ण भते । अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जाव सपतेण के अट्ठे पण्णत्ते ? एन खलु जबू । तेण काभ्रेण तेण समएण रायगिहे णघरे गुण सिलए चेइए सामी समोसढे ) यदि श्रमण भगवान् महावीर ने जो कि मुक्ति स्थान को प्राप्त हो चुके है धर्मकथा के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्यपन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है तो हे भदत ' द्वितीय अध्ययन का उन्ही श्रमण भगवान महावीर ने जो कि मुक्ति को प्राप्त कर चुके हैं क्या भाव अर्थ प्रतिपादित किया है ? इस प्रकार जबू स्वामी के पूछने पर सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि हे जंत्र ! सुनो - तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था । उसमें गुगशिलक नाम का उद्यान था । उसमें महावीर स्वामी समवसरे । - ( परिसा निग्गया-जाब पज्जुवासइ,
बग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमडे पण्णत्ते विदयस्स ण भत्ते ! अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जान सपत्ते के० अहे पण्णत्ते ? एव खलु जबू ' तेण कालेण तेण समरण रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे )
જે શ્રમણુ ભગવાન મહાવીર-કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધુ છે ધર્માંકથાના પ્રથમ વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપમા અથ પ્રકૃષિત કર્યો છે તે હું બદન્ત ! તે જ શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે-કે જેમણે મુક્તિ સ્થાન મેળવી લીધુ છે. ખીજા અધ્યયનના શે ભાવ-અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે આ પ્રમાણે જમ્મૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાભળીને શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જમ્મૂ ! સાભળેા, તમારા પ્રશ્નનેા ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતુ તેમા શુશુશિલક નામે ઉદ્યાન હતુ
તેમા મહાવીર સ્વામી પધાર્યાં
( परिसा निग्गया-जाब पज्जुनासह, तेण काठेण तेण समएण राई देवी
Page #1160
--------------------------------------------------------------------------
________________
अय द्वितीयमध्ययन मारभ्यतेमूलम्-जइ णं भते । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयम? पण्णते विइयस्स गं भते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के० अहे पण्णत्ते ?, एवं खल्ल जवू । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ, तेण कालेण तेण समएण राई देवीचमरचचाए रायहाणीए एव जहा काली तहेव आगया णविहि उवदसेत्ता पडिगया भंतेत्ति भगवं गोयमा पुष्वभवपुच्छा, एव खल्लु गोयमा । तेण कालेण तेण समएण आमलकप्पा गयरी अंबसालवणे चेइए जियसत्तू राया राई गाहावई राईसिरी भारिया राई दारिया पासस्स समोसरण राई दारिया जहेव काली तहेव निक्खंता तहेव सरीरवाउसिया तं वेव सव्वं जाव अत काहिति । एव खलु जबू । विइयज्झयणस्स निक्खेत्रओं ॥
॥ पढमवग्गस्स बीयज्झयण समत्तं ॥ सू० ५॥ टीका-'जइण भते ' इत्यादि । जम्बूस्वामीपृच्छति-यदि खल हे भदत ।
-द्वितीय अध्ययन प्रारभा--जहणं भते समणेण इत्यादि ।
टीकार्थ -जघु स्वामी श्री सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि (भते) ह भदंत! (जइण समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण धम्मकहाण
मीन सध्ययन प्रारमजइण भते ! समणेण इत्यादिટીકાઈ–જ બૂ સ્વામી શ્રી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે (મતે) હે ભદન્તી (जइण समणेण भगरया महावीरेण जाव सपत्तेण
पामस्स
Page #1161
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मातापिणी टी० ४०२ घ० १ अ०२ रात्रीदेवोशनम् रात्रि रिकामीत् । पार्श्वन = पार्थपभो ममवमरणम् । रात्रिहारिका चयैत्र काली तथैव निष्णाता-शरीरवाजनिका. तदेव सर्व यावत्-सर्वदु खानामन्त ररिपति । दाग्यिा पामस्म मयोमरणं राई दारिया जहेव काली-तव निक्खंता, तहेवमरीर पानिमा त चैव सच जाव अत काहिह एव खलु जबू। विडर-अयणस्स निवसेवओ) उसके चले जाने के बाद श्रमण भगवान् महागीर से गौतम ने रात्रिदेवी का पूर्वभव पूछा-प्रभु ने उनसे इस प्रकार कहा-हे गौतम ' उसकाल और उस समयमें आमलकल्पा नामकी नगरी थी। उसमें आनशाल्वन नामश उद्यान था। नगरीके राजा का नाम जितगनु था। वहां रत्रि नामका एक गाधापति रहता था। उस को भार्या का नाम रावित्री था। इन दोनों के रात्रि नाम की एक पुत्री थी जिस प्रकार काली प्रभु का उपदेश सुनकर प्रतिबोध को प्राप्त हो गई थी। उसी प्रकार पार्श्वनाथ के वरा उद्यान में आने पर भी उनसे धर्मोपदेश सुनकर प्रतिबोध को प्राप्त हो गई। अतः वह माता पिता से आजा लेकर काली की तरह बड़े टाठ बाट के साथ शियिका में वेठाकर प्रभु के समीप माता पिता ले गये। वहा वह दीक्षित हो गई। धीरे २ वह शरीर चाकुशिका बनगई । जिस प्रकार जदेव काली-तहेव निक्सता, तहेव सरीरमाउमिया त चेव सव्व जाव अत काहिड एव खलु जयू ! पिइयज्झयगस्स निक्खेवओ)
તેના ગયા બાદ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ગૌતમે રાત્રિ દેવીના પૂર્વ ભવની વિગત પૂછી પ્રભુએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ગૌતમ ! તે કાળે અને તે સમયે આમલકા નામે નગરી હતી તેમાં આમ્રશાવવન નામે ઉવાન હતુ નગરીના રાજાનું નામ જિતશડ્યું હતું ત્યા રાત્રિ નામે એક ગાથાપતિ રહેતે હતો તેની પત્નીનું નામ રાત્રિ શ્રી હતું તેઓ બનેને રાત્રિ નામે એક પુત્રી હતી જેમ કાલી પ્રભુને ઉપદેશ શ્રવણ કરીને પ્રતિબંધને પ્રાપ્ત થઈ તેમજ ત્યા ઉધાનમાં પધારેલા પાર્શ્વનાથની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળીને તે પણ પ્રતિબંધિત થઈ ગઈ એથી કાલીની જેમજ તેને પણ પિતાના માતાપિતાની પાસેથી આજ્ઞા મેળવી અને ત્યારપછી તેના માતાપિતાએ તેને પાલખીમાં બેસાડીને પ્રભુની પાસે લઈ ગયા, ત્યાં તે દીક્ષિત થઈ ગઈ ધીમે ધીમે તે પણ શરીર બાકુલિકા બની ગઈ જેમ કાલી દારિકા પણ આર્યા થઈને શરીર વાકુશિકા બની ગઈ હતી ત્યારપછી જેવી સ્થિતિ કલી આર્યાની
Page #1162
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
marateme निर्गता यावत् भगान्त पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'राई' राशि:रात्रिनाम्नी देवी चमरचवायां राजधान्याम् , एर यया काली तथैव-आगता, नाटयविधिमुपदर्य प्रतिगता।' मते नि' हे भदन्त ! इति सम्बोध्य भगवान् गौतमः 'पुन्चभवपुच्छा ' पूर्वभवपन्छा रात्रि देव्या पूर्वभर पुन्छति । भगवान् माह-एव खलु हे गौतम । तस्मिन् काले तस्मिन् समये आमलाल्पा नगरी, आम्रशालपन चैत्यम् , जितश राना, रामिर्गाधापतिः, रात्रिश्रीर्मार्या, वयो। तेण काळेण तेण समएणं राई देगी चमरचचा रायहाणी एव जहा काली-तहेव आ गया नविहि उवदसेत्ता पडिगया) प्रभु का आगमन सुनकर नगर निवासिनी समस्त जनता उन प्रभु के दर्शन करने और उनसे धर्मोपदेश सुनने के लिये उस गुणशिलक उद्यान में आई। प्रभु ने सब को धर्म का उपदेश दिया। सयने प्रभु की पयुपासना की। उस काल में और उस समय में रात्रिनाम की देवी चमरचचाराजधानी में रहती थी-जैसे वहां काली देवी रहती थी। सो वह भी प्रभु का आगमन सुनकर वहा आई। वहां आकर उसने नाटय विधि दिखलाई-और दिखलाकर फिर वह वहा से वापिस अपने स्थान पर चली गई। ( भते त्ति भगव गोयमा! पुश्वभवपुच्छा-एव खल्ल गोयमा! तेण कालेण तेण समाण आमलकप्पा णयरी अबसाल चणे चेहए-जियसत्तू राया-राई गाहावई, रायसिरी भारिया, राई चमरचचाए रायहाणीए एव जहा काली-तहेत्र आगया नट्टविहिं उवदसेत्ता पडिगया)
પ્રભુનું આગમન સાંભળીને નગરના બધા નાગરિકને તે પ્રભુના દર્શન કરવા માટે તેમજ તેમની પાસેથી ધર્મોપદે સાભળવા માટે તે ગુણશિલક દ્વદ્યાનમાં આવ્યા પ્રભુએ બધાને ધર્મનો ઉપદેશ આપે બધાએ પ્રભુની પણું પાસના કરી તે કાળે અને તે સમયે રાત્રિ નામે દેવી ચમચ ચા રાજધાનીમા કાલી દેવીની જેમ રહેતી હતી તે પ્રભુનું આગમન સાભળીને ત્યાં આવી ત્યાં આવીને તેણે નાટયવિધિ બતાવી અને બતાવીને તે ત્યાંથી પાછી જતી રહી
(भते चि भगव गोयमा ! पुयभवपच्छा-एव खलु गोयमा ! तेणं कालेण तेण समएण आमलकप्पा णयरी अवसालपणे चेइए-जियसत्तू राया-राई गाहावई, रायसिरी भारिया, राई दारिया, पासस्स
'दारिया
Page #1163
--------------------------------------------------------------------------
________________
antarafton टी० ६०२ ६० १ २०२ रात्रीदेवीघर्णनम्
८०९
रात्रिरिकाssसीत । पार्श्वस्य = पार्श्वमभोः समनमरणम् | रात्रिर्वारिका यथैव काली तथैव निष्कान्ता=तथैव शरीरवाकुशिका, तदेव स यावत् सर्वदु खानामन्त करिष्यति ।
दारिया पासस्स समोमरण राई दारिया जहेब काली- तर्हेच निक्सता, तहेवसरीर धाउसिया त चेत्र सव्व जाव अत काहिह एव खलु जबू । विणस्स निक्खेवओ ) उसके चले जाने के बाद श्रमण भगवान् महावीर से गौतम ने रात्रिदेवी का पूर्वभव पूजा-प्रभु ने उनसे इस प्रकार कहा - हे गौतम ' उसकाल और उस समय में आमलकल्पा नामकी नगरी थी । उसमें आम्रशालवन नामका उद्यान था। नगरीके राजा का नाम जितशत्रु था। वहां रत्रि नामका एक गाधापति रहता था । उस को भार्या का नाम रात्रिश्री था। इन दोनों के रात्रि नाम की एक पुत्री थी जिस प्रकार फाली प्रभु का उपदेश सुनकर प्रतिबोध को प्राप्त हो गई थी । उसी प्रकार पार्श्वनाथ के वहा उद्यान में आने पर भी उनसे धर्मोपदेश सुनकर प्रतिबोध को प्राप्त हो गई । अतः वह माता पिता से आज्ञा लेकर काली की तरह बड़े टाठ बाद के साथ शिविका में बैठाकर प्रभु के समीप माता पिता ले गये । वहा वह दीक्षित हो गइ | धीरे २ वह शरीर वाकुशिका बनगई । जिस प्रकार
जब काली - तदेव निक्खता, तत्र सरीरसाउसिया त चेत्र सव्य जाव अत काहिइ एव खलु जनू ! यज्झयणस्स निक्खेओ)
તેના ગયા ખાદ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ગૌતમે રાત્રિ દેવીના પૂર્વભત્રની વિગત પૂછી પ્રભુએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું ગૌતમ ! તે કાળે અને તે સમયે આમલકલ્પા નામે નગરી હતી તેમા આમ્રશાવવન નામે ઉદ્યાન હતુ નગરીના રાજાનુ નામ જિતશત્રુ હતું ત્યાં શત્રિ નામે એક ગાથાપતિ રહેતા હતા તેની પત્નીનુ નામ રાત્રિથી હતું તેએ અનેને રાત્રિ નામે એક પુત્રી હતી જેમ કાલી પ્રભુના ઉપદેશ શ્રવણુ કરીને પ્રતિબંધને પ્રાપ્ત થઇ તેમજ ત્યા ઉદ્યાનમાં પધારેલા પાર્શ્વનાથની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળીને તે પણ પ્રતિભાષિત થઇ ગઈ. એથી કાલીની જેમજ તેને પશુ પેાતાના માતાપિતાની પાસેથી આજ્ઞા મેળવી અને ત્યારપછી તેના માતાપિતાએ તેને પાલખીમા બેસાડીને પ્રભુની પાસે લઈ ગયા, ત્યા તે દીક્ષિત થઈ ગઈ ધીમે ધીમે તે પણુ શરીર ખાકુશિકા બની ગઇ જેમ કાલી દ્વારિકા પણું આર્યો થઇને શરીર વાકુશિકા બની ગઈ હતી ત્યારપછી જેવી સ્થિતિ કાલી આર્યોની
Page #1164
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०८
तापका
निर्गता यावत् भगवन्तं पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये ' राई ' रात्रि:रात्रिनाम्नी देवी चमरचचाया राजधान्याम्, एवं यथा काली तथैत्र आगता, नाविधपद प्रतिगता । ' भते चि ' हे भदन्त । इति सम्बोध्य भगवान् गौतमः ' पुन्वभव पुच्छा ' पूर्वभवपृच्छा रात्रि देव्या पूर्वभव पृच्छति । भगवान् माह-एन खलु हे गौतम । तस्मिन् काले तस्मिन् समये आमलकल्पा नगरी, आम्रशालान चैत्यम् जितशत्रू राजा, रात्रिर्गाथापतिः, रात्रिश्रीर्भार्या तयोः
,
तेण काळेण तेण समरण राई देवी चमरचचाए रामहाणीत एव जहा काली - तहेव आ गया नहविरिं वदसेत्ता पहिगया) प्रभु का आगमन सुनकर नगर निवासिनी समस्त जनता उन प्रभु के दर्शन करने और उनसे धर्मोपदेश सुनने के लिये उस गुणशिलक उधान में आई । प्रभु ने सब को धर्म का उपदेश दिया। सबने प्रभु की पर्युपासना की। उस काल में और उस समय में रात्रिनाम की देवी मरचचाराजधानी में रहती थी जैसे वहां काली देवी रहती थी। सो वह भी प्रभु का आगमन सुनकर वहा आई । वहा आकर उसने नाटय विधि दिखलाई - और दिखलाकर फिर वह वहा से वापिस अपने स्थान पर चली गई । ( भते त्ति भगव गोयमा ! पुग्वभवपुच्छा-एव खलु गोयमा ! तेण काळेण तेण समण्ण आमलकप्पा जयरी अबसाल वणे चेहए - जियसत्तू राया - राई गाहावई, रायसिरी भारिया, राई चमरचचाए रायहाणीए एव जहा काली - तत्र आगया नहविर्हि उवदसेत्ता पडिगया )
પ્રભુનુ આગમન સાભળીને નગરના બધા નાગરિકજને તે પ્રભુના દર્શન કરવા માટે તેમજ તેમની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાભળવા માટે તે ગુણુશિલક ઉદ્યાનમાં આવ્યા પ્રભુએ બધાને ધર્મને ઉપદેશ આપ્યા બધાએ પ્રભુની પયુ પાસના કરી તે કાળે અને તે સમયે રાત્રિ નામે દૈવી ચમનચચા રાજ ધાનીમા કાલી દેવીની જેમ રહેતી હતી તે પ્રભુનુ આગમન સાભળીને ત્યા માવી ત્યા આવીને તેણે નાટયવિવિધ પતાવી અને બતાવીને તે ત્યાથી પાછી જતી રહી
(भते त्ति भगव गोयमा ! पुव्वभवपृच्छा-एव खलु गोयमा ! तेण कालेन
तेण समरण आमलकप्पा गयरी अवसारणे चेइए - जियसत्तू राया - राई गाहावई, रायसिरी भारिया, राई दारिया, पासरस
"
दारिया
ア
Page #1165
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ध्रु०२ ५० १ १०२ राधीदेयोवर्णनम् रात्रिर्दारिकाऽऽसीत् । पार्श्वस्य = पापभोः समनमरणम् । रात्रिर्दारिका यथैव काली तयैर निष्क्रान्ता तथैव शरीरवाकुशिका, तदेव सई यावत्-मर्वदु खानामन्त करिष्यति । दारिया पासस्स समोमरण राई दारिया जहेव काली- तच निक्खंता, तहेवसरीर पाउसिया त चेव मन्च जाव अत काहिह एच खलु जवू । विइय अयणस्स निक्खेवओ) उसके चले जाने के बाद श्रमण भगवान् महावीर से गौतम ने रात्रिदेवी का पूर्वभव पृठा-प्रभु ने उनसे इस प्रकार कहा-हे गौतम उसकाल और उस समयमें आमलकल्पा नामकी नगरी थी। उसमें आम्रशालवन नामका उद्यान या। नगरीके राजा का नाम जितशत्रु था। वहां सत्रि नामका एक गाथापति रहता था। उस की भार्या का नाम रात्रिश्री था। इन दोनों के रात्रि नाम की एक पुत्री थी जिस प्रकार काली प्रभु का उपदेश सुनकर प्रतियोव को प्राप्त हो गई थी। उसी प्रकार पार्श्वनाथ के वा उद्यान में आने पर भी उनसे धर्मोपदेश सुनकर प्रतियोध को प्राप्त हो गई। अतः वह माता पिता से आज्ञा लेकर काली की तरह बड़े टाठ वाट के साथ शिरिका में वेठाकर प्रभु के समीप माता पिता ले गये। वहा वह दीक्षित हो गई। धीरे २ वह शरीर चाकुशिका यनगई । जिस प्रकार जहेव काली-तहेव निक्खता, तहेव सरीसाउसिया त चेव सव्व जाव अत काहिइ एव खलु जयू ! पिझ्यज्झयणस्स निक्खेवओ)
તેના ગયા બાદ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ગૌતમે રાત્રિ દેવીના પૂર્વ ભવની વિગત પૂછી પ્રભુએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ગૌતમ ! તે કાળે અને તે સમયે આમલકલ્પ નામે નગરી હતી તેમા આદ્મશાવવન નામે ઉદ્યાન હતુ નગરીના રાજાનું નામ જિતશત્રુ હતું ત્યા રાત્રિ નામે એક ગાથાપતિ રહેતો હતો તેની પત્નીનું નામ રાત્રિ શ્રી હતું તેઓ બનેને રાત્રિ નામે એક પુત્રી હતી જેમ કાલી પ્રભુને ઉપદેશ શ્રવણ કરીને પ્રતિબંધને પ્રાપ્ત થઈ તેમજ ત્યા તાનમાં પધારેલા પાર્શ્વનાથની પાસેથી ધર્મોપદેશ - સાંભળીને તે પણ પ્રતિબંધિત થઈ ગઈ એથી કાલીની જેમજ તેને પણ પિતાના માતાપિતાની પાસેથી આજ્ઞા મેળવી અને ત્યારપછી તેના માતાપિતાએ તેને પાલખીમાં બેસાડીને પ્રભુની પાસે લઈ ગયા, ત્યાં તે દીક્ષિત થઈ ગઈ ધીમે ધીમે તે પણું શરીર બાકુશિલ બની ગઈ જેમ કાલી દારિકા પણ આર્યા થઈને શરીર વાકુમિકા બની ગઈ હતી ત્યારપછી જેવી સ્થિતિ કાલી આર્યાની
Page #1166
--------------------------------------------------------------------------
________________
एवं खलु जम्यू!' इत्यादि द्वितीया ययनस्य निक्षेपामसारसमाप्तिमायमरन्योऽत्र छोय ॥ सू०५॥
इति मथमवर्गस्य द्वितीयाध्ययन समाप्तम् ||-१-२॥ काली दारिका आर्या होकर शरीर बाशिका बनाई थी। इसके बाद जैसी स्थिति काली आर्या की हुई-वहो सब स्थिति इस रात्रि दारिका की भी हुई-इस प्रकार सय सयन्ध यहां पर इसके विषय में लगाना चाहिये और वर सपन्ध "माविदेह में उत्पन्न होकर या समस्त दुःखों को अन्त करेगी "यरा तक जानना चारिये । इस प्रकार हे जनू। यह प्रथमवर्ग के दितीय अध्ययन का उपसहार है ।स. ५॥
प्रथमवर्ग का वित्तीय अध्ययन समाप्त ॥ થઈ તેવી જ સ્થિતિ તે રાત્રિદારિકાની પણ થઈ અહીં આ પ્રમાણે કાલિદારિકાને બધે સ બધ આના વિષે સમજી લેવું જોઈએ અને તે સ બ ધ મહાવિદેહમાં ઉત્પન્ન થઈને તે બધા ને અત કરશે” અહીં સુધી સમજે નેઈએ આ પ્રમાણે તે જ બૂ! પ્રથમ વર્ગના બીજા અધ્યયનનો આ ઉંપસ હાર છે જ
પ્રથમ વર્ગનું બીજુ અધ્યયન માસ”
Page #1167
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ तृतीयमध्ययनम् मूलम्-जइ णं भंते । तइयज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खल्लु जंधू । रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए एवं जहेब राई तहेव रयणी वि, णवरं आमलकप्पा नयरी रयणी गाहावई रयणीसिरी भारिया रयणी दारिया सेस तहेव जाव अंत काहिइ ३। एवं विज्जू वि आमलकप्पा नयरी विज्जुगाहावई विज्जुसिरीभारिया विजुदारिया सेस तहेव । ४ एव मेहा वि आमलकप्पाए नयरीए मेहेगाहावई मेहसिरी भारिया मेहा दारिया सेसं तहेव ५। एवं खल्ल जंबू | समणेणं जाव सपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्त अयम? पण्णत्ते ॥ सू०६॥
टीका-'जइण भते ' इत्यादि। यदि खलु भदन्त ! इत्यादि तृतीया ययनस्य उत्क्षेपका जम्मश्नादिरूपः मारम्भवास्यप्रन्योऽत्रमाच्यः । सुधर्मास्वामी कथ
॥ तृतीय अध्ययन प्रारभ ।। (जइण भते! तइयज्नपणस्स उपखेवओ) इत्यादि ॥
टीकार्थ:-(जहण भते! तइयज्झयणस्स उरखेवओ) अब जंबू स्वामी पुन: पूउते हैं कि हे भदन्त ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने द्वितीय अध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से अर्थ निरूपित किया है-तो तृतीय अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? इस तरह से इस तृतीय अध्ययन का जवू स्वामी का यह प्रश्न आदिरूप वाक्य प्रयन्ध उत्क्षेपक है-प्रारभक है-इस प्रश्न का उत्तर श्री सुधर्मा स्वामी
alag मध्ययन प्रारम'जइण भते ! सइयज्झयणस्स उक्खेवओ' इत्यादि
--(जण भते । तइयज्ज्ञयणरस उम्खेवओ) ७२ भूपाभी ફરી પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે બીજા અધ્યયનનો આ પૂર્વોક્ત રૂપે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તે ત્રીજા અધ્યયનને તેમણે શે અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે? આ પ્રમાણે આ ત્રીજા અધ્યયનને જ બૂ સ્વામીને આ પ્રશ્ન વગેરે રૂપ વાક્ય પ્રબંધ ઉક્ષેપક છે-પ્રારભ છે આ પ્રશ્નને ઉત્તર શ્રી ખમણવામી આ પ્રમાણે આપે છે કે –
Page #1168
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
' एवं खलु जम्यू!' इत्यादि द्वितीया पयनस्य निक्षेपमापसंगार समाप्तिाश्यमन्धोऽत्र योय ।। २०५॥
इति प्रथमवर्गस्य द्वितीयाध्ययन समाप्तम् ॥-१-२ ॥ काली दारिका आर्या होकर शरीर थाशिका बनगई थी। इसके पार जैसी स्थिति कालो आर्या की हुई-वो सप स्थिति इस रात्रि दारिका की भी हुई-इस प्रकार सय सयर यहां पर इसके विषय में लगाना चाहिये और वह सपन्ध "महाविदेह में उत्पन्न होकर यह समस्त दुःखों को अन्त करेगी " यहा तक जानना चाहिये । इस प्रकार हे जनू । यह प्रथमवर्ग के दितीय अध्ययन का उपसरार है।सू०५॥
प्रथमवर्ग का वितीय अध्ययन समाप्त ॥ થઈ તેવીજ રિથતિ તે રાત્રિદારિકાની પણ થઈ અહીં આ પ્રમાણે કાલિદારિકાને બધે સ બ ધ આના વિષે સમજી લે જોઈએ અને તે સ બ ધ “મહાવિદેહમાં ઉત્પન્ન થઈને તે બધા દુખેને અત કરશે” અહીં સુધી સમજ જોઈએ આ પ્રમાણે તે જ બૂ! પ્રથમ વર્ગના બીજા અધ્યયનને આ ઉપસ હાર છે ( ૫
પ્રથમ વર્ગનું બીજુ અધ્યયન સમાપ્ત
Page #1169
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ तृतीयमध्ययनम् मूलम्-जइ णं भंते । तइयज्झयणस्स उक्खेवओ, एव खल्ल जंधू । रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए एवं जहेब राई तहेव रयणी वि, णवरं आमलकप्पा नयरी रयणी गाहावई रयणीसिरी भारिया रयणी दारिया सेस तहेव जाव अंत काहिइ ३ । एव विज्जू वि आमलकप्पा नयरी विज्जुगाहावई विज्जु. सिरीभारिया विज्जुदारिया सेस तहेव । ४ एव मेहा वि आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहावई मेहसिरी भारिया मेहा दारिया सेसं तहेव ५ । एव खल्लु जवू । समणेणं जाव सपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्त वग्गरस अयमढे पण्णत्ते ॥ सू०६॥
टीका-'जइण भते ' इत्यादि। यदि खलु भदन्त ! इत्यादि तृतीया ययनस्य उत्क्षेपका-जम्बूमश्नादिरूपः मारम्भवास्यप्रबन्योऽयाच्यः । सुधर्मास्वामी- कथ
॥ तृतीय अध्ययन प्रारभ ॥ (जइण भते! तइयज्झपणस्स उपखेवओ) इत्यादि।
टीकार्थः-(जइण भते! तइयज्झयणस्स उक्खेवओ) अब जंबू स्वामी पुनः पूछते हैं कि हे भदन्त ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने द्वितीय अध्ययन का यह पूर्वोक्तरुप से अर्थ निरूपित किया है-तो तृतीय अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? इस तरह से इस तृतीय अध्ययन का जवू स्वामी का यह प्रश्न आदिरूप वाक्य मयन्ध उत्क्षेपक है-प्रारभक है-इस प्रश्न का उत्तर श्री सुधर्मा स्वामी
lay अध्ययन प्रार'जइण भते ! तइयज्झयणरस उक्खेवओ' इत्यादि
At-(जदण भते ! तइयज्ज्ञयणस्स उखेवओ) पाभी ફરી પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે બીજા અધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપે અર્થે નિરૂપિત કર્યો છે તે ત્રીજા અધ્યયનને તેમણે શે અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે? આ પ્રમાણે આ ત્રીજા અધ્યયનને જ ભૂ સ્વામીને આ પ્રશ્ન વગેરે રૂ૫ વાક્ય પ્રબંધ ઉક્ષેપક છે-પ્રારભ છે આ પ્રશ્નનો ઉત્તર શ્રીમવામી આ પ્રમાણે આપે છે કે –
Page #1170
--------------------------------------------------------------------------
________________
AND
mev
aramnome
यति-एव खलु हे नम्बः ! राजगृहं नगर, गुणशिटक चैत्यम् । एव यथैव राधि स्वथैवरजनी अपि, नगरम् आमलाल्पा नगरी, रजनीगाथापति , रजनीश्रीर्माया, रजनी दारिका । शेप वधैर । यावत्-सर्वदुःपानामन्त करि पति ।।
___॥इति मधमार्गस्य वतीयाध्ययनम् ।। १-३ ॥ इस प्रकार से देते हैं-(पर सलु ज! रायगिहे पयरे गुणसिलए चेहए एवं जहेव राई तहेव रयणी वि, णवर आमलकप्पा नयरी, रयणी गाहावई रयणीसिरी भारिया रयणी दारिया सेस तहेव जाव अत काहिह ३) जवू ! सुनो-उस काल में और उन ममय में राजगृह नाम को नगर था । उसमें गुणशिलक नामका उन्धान था। जिस प्रकार रात्रि प्रभु का आगमन सुनकर, गुणशिलक उत्पान में गई थी उसी तरह रजनी भी वहां गई उसने प्रभु के मुग्व से धर्म का उपदेश सुना। सुन कर ससार शरीर और भोगो से वह विरक्त हो गई। दीक्षा लेने का अपना भाव उसने प्रभु से निवेदित किया। प्रभुने यथासुख देवानोप ये करकर उसके भाव की सराहना करतेहए 'शुभस्य शीघ्र' करने का अपनी अनुमति प्रकट की-तर यर घर आई और मातासे अपना दीक्षा लेने का विचार प्रकट किया-इत्यादि सर सन्ध काली दारिका के कथानक अनुमार रजनी के साथ लगालेना चाहिये। जब रजना देवी प्रभु को बदना करने के लिये गुगशिलक उद्यान में आई और वहा
(एव खलु जबू! रायगिहे पयरे गुणसिए चेहए एव जहेव राई तहव रयणी विणवर ओमलकप्पा नयरी, रयणी-गाहाई रयणीसिरी भारिया रयणा दारिया सेस तहेव जाव अत काहि ३),
હે જ બૂ! સાભળે, તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું તેમાં ગુણશિલક નામે ઉઘાન હતુ જેમ રાત્રિ પ્રભનું આગમન સાંભળીને ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં ગઈ હતી તેમજ રજની પણ ત્યાં ગઈ તેણે પ્રભુના મુખથી ધર્મને ઉપદેશ સાભળે સાભળીને તે સ સાર, શરીર અને ગોળી વિરકત થઈ ગઈ તેણે પિતાને દીક્ષા ગ્રહણ કરવાનો ભાવ પ્રભુની સામે પ્રકટ કર્યો પ્રભુએ “યથાસુખમ” દેવાનપ્રિયે ! કહીને તેને ભાવની સરાહના કરી અને શુભ કાર્યમાં વિલંબ કરે નહિ એવી પિતાની અનુમતી દર્શાવી ત્યારે તે પિતાને ઘેર આવી અને માતાપિતાની સામે દીક્ષા ગ્રહણ કરવાનું વિચાર પ્રકટ કર્યો-વગેરે બધી વિગત કાલી દારિકાની જેમજ રજનિની સાથ પણ સમજી લેવી જોઈએ જ્યારે રજનીદેવી પ્રભુને વંદના કરવા માટે ગુણ શિક્ષક ઉદ્યાનમાં આવી અને ત્યાં તેણે નાટયવિધિનું પ્રદર્શન ત્યારબાદ
Page #1171
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृनचविणी तरीका थु २ च १ रजनीदारिकादिधरित्रनिरूपणम् ८१३
'एव विधि ' इत्यादि । एवं विद्युदपि । आमल फल्पा नगरी, विद्युत् गायापति , पियुत् श्रीर्भार्या, विद्युदारिका । शेप तथैव ।
इति प्रथमवर्गस्य चतुर्या ययनम् ॥ १-४ ॥ उसने नाट्यविधिका प्रदर्शन किया बाद में वह जर वहा से प्रभु की पर्युपासना कर वापिस अपने स्थान पर चली गई-तर प्रभु से गौतम गणधर ने उसके पूर्व भव पृछे तर प्रभु ने उनसे इस प्रकार कहा-उस काल और उस समय में आमलक कल्पा नामकी नगरी थी-उसमें रजनी नामका गायापति रहता था। रजनी श्री उसकी भोर्या का नाम था।इन दोनों के एक पुत्री जिसका नाम रजनी था। उसके विपय का अवशिष्ट कथानक " समस्त दुःखो का यह अन्त करेगी" यहां तक का काली दारिका के जैसा ही जानना चाहिये ॥ १० ६ ॥
॥ प्रथम वर्ग का तीसरा अध्ययन समाप्त ॥ . एव विज्जूवि आमलकप्पा नयरी विज्जू गाहावई ॥
विज़्जुसिरीभार्या विज्जुदारिया, सेस तहेव ॥४॥ एव मेहावि आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहावई ॥ मेहासिरी भारिया मेहा दारिया सेस तहेव ॥५॥
(एव खलु जनू ! समणेण जाव सपत्तण धम्मकहाण पढमस्स वग्ग પ્રભુની પર્યપાસના કરીને પાછી પિતાના સ્થાને જતી રહી ત્યારે ગૌતમ ગણ ધરે પ્રભુને તેના પૂર્વભવે પૂછયા ત્યારે પ્રભુએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે તે કાળે અને તે સમયે આમલક૯પા નામે નગરી હતી, તેમા રજની નામે ગાથાપતિ રહેતો હતો, રજની શ્રી તેની પત્નીનું નામ હતું તેઓ બનેને એક પુત્રી હતી જેનું નામ રજની હતુ એના વિષેની બાકીની બધી વિગત “સમસ્ત બને તે અન્ત કરશે ” અહીં સુધીની કાલી દારિકાની જેમજ સમજી લેવી જોઈએ સૂત્ર ૬ છે
પ્રથમ વર્ગનું ત્રીજુ અધ્યયન સમાપ્ત (एव विज्जूपि आमलकप्पा नयरी विज्जु गाहावई। विज्जुसिरीभार्या विज्जुदारिया, सेस तहेव ॥ ४ ॥ एव मेहा वि आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहानई। मेहासिरी मारिया मेहा दारिया सेस तहेच ॥ ५ ॥
(एर खलु जय ! समणेण जाव संपत्तेण धम्मकहाण पढमस्स वग्गस्स अयमद्दे पप्पत्ते ६)
Page #1172
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापमान 'एष मेदारि' इत्यादि । र मेघाऽपि । आमलयल्यायो नगयों मेषो गाया पतिः, मेघश्री र्या, मेघा दारिका । शेप तथैव ।।
. श्रीसुधर्मास्वामीमाह-एर खलु हे जम्मूः ! श्रमणेन यावर मोक्ष सम्प्राप्तेन धर्मकथानो प्रयमस्य वर्गस्यायमर्थ प्राप्तः ।। ०६ ॥
॥ इति मयमवर्गस्य पश्चमाभ्ययनम् ॥ १-५ ॥ अथ द्वितीयो पर्गः प्रारभ्यते-जउण मते ' इत्यादि ।
मूलम् -जइणं भंते । समणेण जाव संपत्तेणं दोच्चस्स वग्मस्म उक्खेवओ, एव खल्लुजंवू | समणेणं जाव संपत्तेणं दोबस्त स्स अयमठे पण्णत्ते ६) इसी तरह का कथानक विद्युत के विषय में भी जानना चाहिये। आमलकल्पा नगरी विद्युत गाथापति विद्युत् श्री भार्या इन दोनों के यहां विद्युत् दारिका। इस तरह नाम आदि मे ही परिव तन हुआ है। अभिधेय विपय में कुछ अन्तर नहीं है । मेघ के विषय में भी यही बात जाननी चाहिये। आमलफल्प नगरी, मेघ गाथापति, मेघ श्री भार्या, मेघा दारिका-इस प्रकार इस कथानक में इन नामों में परिवर्तन हुआ है-अभिधेय वक्तव्य-विषय में नहीं । इस प्रकार यहा तक प्रथम वर्ग के ५, अध्ययन समाप्त हो जाते हैं। विद्युधारिका का अध्ययन ४ चौथा, एष मेघ्रा दारिका का अध्ययन ५ पचम है । इस तरह हे जवू । श्रमण भगवान महावीर ने कि जो मुक्ति स्थान के अधि पति बन चुके हैं धर्मकथा के प्रथमवर्ग का यह अर्थ प्ररूपित किया है।
આ પ્રમાણેનું જ કથાનક વિદ્યુતના વિષે પણ સમજી લેવું જોઈએ આમલક૫ નગરી, વિદ્યુત ગાથા પતિ અને વિદ્યુત શ્રી ભાર્યા આ બનેને ત્યાં વિધુત દારિકા આ પ્રમાણે ફક્ત નામ વગેરેમાં પરિવર્તન થયું છે અભિધેય વિષયમાં કઈ પણ જાતને તફાવત નથી મેઘના વિષે પણ એ જ વાત સમજી લેવી જોઈએ આમલક૯૫ નગરી, મેઘ થાપતિ, મેઘ શ્રી ભાર્યા, મેઘ દારિકા આ પ્રમાણે આ કથાનકમાં પણ નામોમાં જ પરિવર્તન થયું છે-અભિધેય વક્તવ્ય વિષયમાં નહિ આ પ્રમાણે અહીં સુધી પ્રથમ વર્ગના પાચ અને પૂરા થઈ જાય છેવિદ્યારિકાનું અધ્યયન ચેણુ, અને મેઘ દારિકાનું અધ્યયન પાય છેઆ પ્રમાણે તે જ બૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેએ મુકિત સ્થાનના અધિપતિ થઈ ચૂકી છે- ધર્મકથાના પ્રથમ વર્ગને આ અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે. ૯ છે
Page #1173
--------------------------------------------------------------------------
________________
antrधर्मामृnefit टी० ० २ ० १ मा निशुंभादिदेवीवर्णनम
८१५
वग्गस्स पंच अज्झणा पण्णत्ता, तं जहा सुभा निसुंभा रंभा निरभा मयणा, जइ ण भते । समणेणं जाव सपत्तेणं धम्मकहाणं दाच्चस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, दोच्चस्स णं भंते । वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अहे पण्णत्ते, एव खल्लु जबू | तेण कालेन तेण समएण रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ, तेणं कालेण तेणं समएणं सुभादेवी वलिचंचाए रायहाणीए सुभवडेसए भवणे सुभसि सीहासणसि कालीगमएणं जाव णहविहि उवदसेत्ता जाव पडिगया, पुग्वभवपुच्छा, सावत्थी णयरी कोट्टए
इए जियसत्तू राया सुभेगाहावई सुभसिरी भारिया सुभा दारिया सेसं जहा कालीए णवर अधुट्टाइ पलिओ माई ठिई एवं खलु जवू । निक्खेवओ अज्झयणस्स एव सेसावि चत्तारि अज्झयणा सावत्थीए नवरं माया पिया सरिसनामया, एवं खलु जब । निक्खेबओ विईयवग्गस्स२ ॥ सू० ७ ॥ ॥ वीओ वग्गो समत्तो ॥
टीका - जम्बूस्वामी पृच्छति यदि खल हे भदन्त । श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन द्वितीय वर्गस्य उत्क्षेप' । सुधर्मास्वामीमाह-एव खलु हे जम्मूः श्रमणेन यावत् -: द्वितीय वर्गप्रारभः
"
जण भते ! समणेण ' इत्यादि ।
टीकार्थ. - जब स्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि (भते । जहण समणेण जाव सपत्तेण दोचस्स वग्गस्स उक्खेवओ-एव खलु
ખીજો વર્ગ પ્રાર ભ~~
-
८
जइण भते । समणेण ' इत्यादि
:--प्णू स्वाभी श्री सुधर्मा स्वाभीने पूछे छे -
( भते 1 जण समणेण जान सपत्तेण ढोचस्स वग्गस्स उक्वेवंओ - एत्र खलु
टीडार्थ -
Page #1174
--------------------------------------------------------------------------
________________
टो
श्रोता
"
एव मेहरानि' इत्यादि । एव मेघाऽपि । आमल्ल्यायां नगर्यां मेघो गावापतिः, मेघश्रीर्भार्या, मेघा दारिका । दक्षेप तथैव ।
श्रीसुधर्मास्वामी माह-एन खलु हे जम्मूः । श्रमणेन यावत् मोक्ष सम्प्राप्तेन धर्मकानां प्रथमस्य वर्गस्यायमर्थ प्राप्तः ॥ मृ०६ ॥
॥ इति मथमनर्गस्य पञ्चमाभ्ययनम् ।। १५ ।। अथ द्वितीयो वर्गः मारभ्यते ' जडण मते ' इत्यादि ।
मूलम् - जइण भंते । समणेणं जात्र सपत्तेण दोच्चस्स वग्मरूप उक्खेवओ, एव खलु जंबू ! समणेणं जाव सपत्तेण दोबस्त स्स अयमठ्ठे पण्णत्ते ६) इसी तरह का कथानक विद्युतके विषय में भी जानना चाहिये । आमलकल्पा नगरी विद्युत गाधापति विद्युत् श्री भार्या इन दोनों के यहां विद्युत् दारिका । इस तरह नाम आदि में ही परिव र्तन हुआ है। अभिधेय विषय में कुछ अन्तर नही है । मेघ के विषय में भी यही बात जाननी चाहिये । आमलकल्प नगरी, मेघ गाथापति, मेघ श्री भार्या, मेघा दारिका - इस प्रकार इस कथानक में इन नामों में परिवर्तन हुआ है-अभिधेय वक्तव्य-विषय में नही। इस प्रकार यहा तक प्रथम वर्ग के ५, अध्ययन समाप्त हो जाते हैं। विद्युद्दारिका का अध्ययन ४ चौधा, एव मेघा दारिका का अध्ययन ५ पचम है। इस तरह हे जबू | श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मुक्ति स्थान के अधि पति बन चुके हैं धर्मकथा के प्रथमवर्ग का यह अर्थ प्ररूपित किया है ?
આ પ્રમાણેનુ જ કથાનક વિદ્યુતના વિષે પણ સમજી લેવું જોઈએ આમલકલ્પા નગરી, વિદ્યુત ગાથાપતિ અને વિદ્યુત શ્રી ભાર્યાં આ ખનેને ત્યા વિદ્યુત દારિકા આ પ્રમાણે ફક્ત નામ વગેરેમા પરિવર્તન થયુ છે અભિધેય વિષયમાં કોઈ પણ જાતના તફાવત નથી મેઘતા વિષે પણ એ જ વાત સમજી લેવી જોઇએ. આમલકપા નગરી, મેઘ ગાથાપતિ, મેઘ શ્રી ભાર્યાં, મેઘ દ્વારિકા આ પ્રમાણે આ કથાનકમાં પણ નામામા જ પરિવર્તન થયુ છે-અભિધેય ષક્તવ્ય વિષયમા નહિ આ પ્રમાણે અહીં સુધી પ્રથમ વના પાચ અયને પૂરા થઈ જાય છે. વિદ્યુારિકાનુ અધ્યયન ચેાથુ, અને મેઘ દારિકાનુ અઘ્યયન પાયખુ છે. આ પ્રમાણે હું જ બૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર-કે જે મુકિત સ્થાનના અધિપતિ થઈ ચૂકયા છે-ધમકથાના પ્રથમ વર્ગના આ અથ इषित यो छे ॥ ६ ॥
Page #1175
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनगारधर्मामृतपिणी टी० ध्रु० २ ० १ शुभानिशुमादिदेवीवर्णनम् ८१५ वग्गरस पंच अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-सुभा निसुंभा रंभा निरंभा मयणा, जइ ण भंते । समणेणं जाव सपत्तेण धम्मकहाण दोच्चस्त वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णता, दोच्चस्स णं भंते । वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अठे पण्णत्ते १, एवं खल्ल जवू । तेण कालेण तेण समएण रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ, तेणं कालेण तेणं समएणं सुंभादेवी वलिचंचाए रायहाणीए सुंभवडेसए 'भवणे सुभंसि सीहासणंसि कालीगमएणं जाव णविहि उव. दसेत्ता जाव पडिगया, पुत्वभवपुच्छा, सावत्थी णयरी कोट्रए बेइए जियसत्तू राया सुभेगाहावई सुंभसिरी भारिया सुंभा दारिया सेसं जहा कालीए णवर अधुटाइ पलिओवमाई ठिई एवं खलु जवू । निक्खेवओ अज्झयणस्स एव सेसावि चत्तारि अज्झयणा सावत्थीए नवर माया पिया सरिसनामया, एवं खल्लु जब । निक्खेवओ विईयवग्गस्स२ ॥ सू० ७ ॥
___॥बीओ वग्गो समत्तो ॥ टीका-जम्बूस्वामीपृच्छति-यदि खलु हे भदन्त ! श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन द्वितीयस्य वर्गस्य उत्क्षेपकः । मुधर्मास्वामीमाह-एव खलु हे जम्मू श्रमणेन यावत्
-विसीयवर्गप्रारभ:'जण भते । समणेण ' इत्यादि।
टीकार्थ:-जवू स्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि (भते । जहण समणेण जाव सपत्तण दोच्चस्स वग्गरस उक्खेवओ-एव खलु
બીજે વર્ગ પ્રાર – ' जइण मते ! समणेण ' इत्यादिટીકા–જ બૂ સ્વામી શ્રી સુધર્મા હવામીને પૂછે છે કે(भते ! जहण समणेण जान संपत्तेण दोच्चस्स वगस्स उखेपभो-एव खलु
Page #1176
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाताधर्मकथा
6
एव मेानि इत्यादि । एप मेघाऽपि । आमल्ल्या नगय मेघो गाया
}
eta
पतिः, मेघश्रीर्भार्या, मेवा दारिका । शेष तथैव ।
श्रीसुधर्मास्वामी माह - ए खलु हे जम्मूः । श्रमणेन यात्रन् मोक्ष सम्प्राप्तेन धर्मकयानां प्रथमस्य वर्गस्यायमर्थ प्राप्तः ॥ गृ०६ ॥
॥ इति प्रथमवर्गस्य पञ्चमाभ्ययनम् ॥ १-५ ॥ अथ द्वितीयो वर्गः मारभ्यते ' जण मते ' इत्यादि ।
मूलम् - जइणं भंते । समणेण जात्र संपत्तेण दोच्चस्स वग्गरूप उक्खेवओ, एवं खलुजवू ! समणेणं जात्र संपत्तेणं दोबस्स स्स अयम पण्णत्ते ६) इसी तरह का कथानक विद्युतके विषय में भी जानना चाहिये । आमलकल्पा नगरी विद्युत गाथापति विद्युत् श्री भार्या इन दोनों के यहां विद्युत् दारिका । इस तरह नाम आदि मे ही परिव तन हुआ है। अभिधेय विषय में कुछ अन्तर नहीं है । मेघ के विषय में भी यही बात जाननी चाहिये । आमलकल्प- नगरी, मेघ गाधापति, मेघ श्री भार्या, मेघा दारिका-इस प्रकार इस कथानक में इन नामों में परिवर्तन हुआ है- अभिधेय वक्तव्य - विषय में नहीं । इस प्रकार यहा तक प्रथम वर्ग के ५, अध्ययन समाप्त हो जाते हैं। विद्युद्दारिका का अध्ययन ४ चौधा, एव मेघा दारिका का अध्ययन ५ पचम है । इस तरह हे जवू ! श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मुक्ति स्थान के अधि पति बन चुके हैं धर्मकथा के प्रथमवर्ग का यह अर्थ प्ररूपित किया है ?
આ પ્રમાણેનુ જ કથાનક વિદ્યુતના વિષે પણ સમજી લેવુ જોઇએ આમલકા નગરી, વિદ્યુત ગાથાતિ અને વિદ્યુત શ્રી ભાર્યાં. આખ નૈને ત્યા વિદ્યુતદારિકા આ પ્રમાણે ફક્ત નામ વગેરેમા પરિવર્તન થયુ છે અભિષય વિષયમાં કાઈ પણ જાતના તફાવત નથી મેઘતા વિષે પણ એ જ વાત સમજી લેવી જોઈએ. આમલકલ્પા નગરી, મેધ ગાથાતિ, મેઘ શ્રી ભાર્યો, મેઘ દ્વારિકા આ પ્રમાણે આ કથાનકમાં પણ નામામા જ પરિવર્તન થયુ છે-અભિષેય વક્તવ્ય વિષયમા નહિ આ પ્રમાણે અહીં સુધી પ્રથમ વર્ગના પાચ અયને પૂરા થઈ જાય છે વિદ્યુારિકાનુ અધ્યયન ચેાથુ, અને મેઘ દ્વારિકાનુ અાયન પાયસુ છે. આ પ્રમાણે હું જ બૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેઓ મુકિત સ્થાનના અધિપતિ થઈ ચૂકી છે-ધમ કથાના પ્રથમ વર્ગના આ અથ રૂષિત કર્યાં છે. ૫ ૯ u
Page #1177
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतवपिणी टी० शु २ घ २ शुमानिशुभ दिदेवीवर्णनम् खलु हे जम्मूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नगरम् । गुणशिलकं चैत्यम् । स्वामी बर्द्धमानस्वामी समस्त । परिपन्निर्गता यावत्पर्युपास्ते । तस्मिन् फाले तस्मिन् समये शुम्भा देवी गलिचञ्चाया राजधान्या शुम्भावतमके भवने शुम्भे सिंहासने 'कालीगमण्ण' कालीगमेन-काली देवी सदृशपाठेन यावत्नाट्यविधिमुपदय यारत-प्रतिगता । 'पुन्वभवपुच्छा' पूर्वभवपृच्छा गौतमस्वामी शुम्भा देव्या' पूर्वर पृन्छति। भगवान् कथयति-श्रावस्ती नगरी । कोष्ठक चैत्यम् । जितशयू राजा । शुम्भो गाथापतिः । शुम्भश्रीर्भार्या । शुम्मा दारिका । शेप यथा काल्या =काली दारिकाया वर्णन तयात्रापि विज्ञेयम् , नगर-विशेस्त्वके पांच अध्ययन प्ररूपित किये हैं-तो हे भदत ! द्वितीयवर्ग के प्रथम अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रतिपादित किया हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये सधर्मा स्वामी उनसे इस प्रकार करते हैं कि-हे जबू।-उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर या-उसमें गुणशिलक नाम का उद्यान धा-1 उममें वर्द्धमान स्वामी आये। प्रभु का आगमन सुनकर वहां की समस्त जनता उन्हें बदन के लिये अपने २ स्थान से चल कर उम गुणशिलक उद्यान में आई। प्रभु ने सयको धर्म का उपदेश दिया परिषद् उपदेश सुनकर प्रभु की यावत् पर्युपासना की। (तेण कालेण तेण समण्ण) उसी काल और उसी समय मे (सुभादेवी पलिचचाए रायहागीए सुभवडेसए भवणे सुभसि सीहासणसि कालीगमएण जाउ नविहिं उवदसेत्ता जाव पडिगया पुचभव पुच्छा, सारथी णयरी, कोहए चेहरा जियसनू राया,सुभे गाहावई सुभ સ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલા શ્રવણ ભગવાન મહાવીરે બીજા વર્ગના પાચ અધ્યયન પ્રરૂપિત કર્યા છે, તે હે ભદન્ત ! બીજા વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનને તેમણે શ અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે? ( આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા શ્રી સુધમાં સ્વામી તેમને આ પ્રમાણે કહે છે કે હું જ ! તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું તેમાં ગુગશિક્ષક નામે ઉઘાન હતું તેમાં વિમાન સ્વામી પધાર્યા પ્રભુનું આગમન સાંભળીને ત્યાના બધા નાગરિકો તેમને વધના કરવા માટે પિતપિતાને સ્થાનેથી નીકળીને 1 ગુણશિલક ઉધાનમાં આવ્યા પ્રભુએ બધાને ધર્માને ઉપદેશ આપ્યા परिष? यीपदेश सामान प्रभुनी यावत् ५युपासना 1 (सेण कालेण तेण समएण ) ते णे मन त सभये __.(सुभा देवी पलिचचाए रायदाणीए मुभवडेंसए भरणे सुभ सि सीदासणसि काला गमरण जान नह विहिं उबदसेत्ता जाव पडिगया, पुन्बभनपुन्छा सावत्थी या कोट्ठए चेइए जियमत्तू राया, मुझे गाहावई, सुभसिरी भारिया, सुभा
मा १०३
Page #1178
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१६
www.wawek
मोक्ष सम्प्राप्तेन द्वितीयस्य वर्गस्य पश्चाध्ययनानि महप्तानि तद्यथा-शुम्मा १, निशुम्भा २, रम्भा ३, निरम्भा ४, महना ५, । यदि यह हे मदन्त । श्रमणेन सम्मान द्वितीयस्य वर्गस्य पञ्च-अ ययनानि भक्षप्तानि द्वितीयरूप खलु भदन्त । वर्गस्य प्रथमा ययनस्य कोऽर्थः मज्ञप्तः ? | स्वामी प्राह-ए जनू | समणेण जान सपत्तेण दोघस्स वग्गस्म पच अक्षयणा पण्णत्ता) हे भदत ! मुक्ति स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने द्वितीय वर्ग का उत्क्षेपक प्रारभ किस रूप से प्ररूपित किया है-तन सुध स्वामी ने उनसे कहा- हे जयू ! सुनो यात् मुक्ति शन को प्राप्त हुए उन श्रमण भगवान् महावीर ने इस द्वितीय वर्ग के पांच अध्ययन प्ररूपित किये हैं- ( त जहा ) वे इस प्रकार हैं- (सुभा, निसुभा, रभा, निरभा मरणा, जण भते । समणेण जाव सपतेण धम्मकहाणं दोचस्स वग्ग स्स पच अज्जपणा पण्णत्ता, दोचस्सण भते वग्गम्म पढमज्झयणस्स के अड्डे से एच खलु जजू ! तेण कालेन तेण समरण रायगिहे यरे, गुणसिीलए देइए-सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवा सइ) (१) शुम्भा, (२) निशुभा (३) रम्भा, (४) निरभा (५) मदना । अब जत्रु स्वामी पुनः सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि हे भदत ! यदि यावत् मुक्ति स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीरने द्वितीयवर्ग जबू ! ममणेण जान मपत्तेण दोच्चस्स वग्गस्स पचअक्षयणा पण्णत्ता )
હું બદન્ત ! મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ખીજા વના ઉલ્લેપક-પ્રાર ભ~તયા રૂપથી પ્રરૂપિત કર્યાં છે ? ત્યારે સુધર્માં સ્વામીએ તેમને કહ્યુ કે હું જ બૂ ! સાભળેા, યાત્ મુક્તિસ્થાનને વરેલા તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ ખીન્ન વર્ગના પાચ અધ્યયના પ્રરૂપિત કર્યા છે ( त जहा ) ते या प्रभाले छे
( सुमा, निसुभा, रभा, निरमा, मयणा, जरण भते ! समणेण जान सप तेज धम्मकहाणं दोचस्प वग्गस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता, दोचस्स न भते वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अट्टे पण्णत्ते । एव खलु जबू । तेण कालेन तेण समरण रायगियरे, गुणसीलिए चेइए- सामी समोसढे परिमा णिग्गया जाव पज्जुवासइ) (१) शुला, (२) निशुला, ( 3 ) २भा, (४) निरला, (4) महना हवे સ્વામી કરી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે હૈ ભદન્ત ! જે યાવત્ મુક્તિ
જ
Page #1179
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमगारधर्मामृतपिणी टी० शु २ च २ मा निशुभ दिदेवीवर्णनम्
૭
6
खल हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नगरम् । गुणशिलकं चैत्यम् | स्वामी नर्द्धमानस्वामी समान परिपन्निर्गता यावत्पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये शुम्भा देवी पविचञ्चाया राजधान्या शुम्भावतसके भने शुम्भे सिंहासने 'कालीगमरण ' कालीगमेन = काली देवी सदृशपाठेन यावत्नाटय विधिमुपद यात् मनिगता । पुन्वभवपुच्छा' पूर्वभवपृच्छा = गौतमस्वामी शुम्भा देव्याः पूर्वपर पृच्छति । भगवान् कथयति - श्रावस्ती नगरी । कोष्ठक चैत्यम् । जितशत्रू राजा । शुम्भो गाथापतिः । शुम्भश्रीर्भार्या । शुम्भा दारिका । शेप यथा काल्या काली दारिकाया वर्णन तयात्रापि विज्ञेयम्, नगर = विशेस्त्वके पांच अध्ययन प्ररूपित किये हैं तो हे भदत ! द्वितीयवर्ग के प्रथम अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रतिपादित किया हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये सुधर्मा स्वामी उनसे इस प्रकार कहते हैं कि हे जबू | - उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था उसमें गुणशिलक नाम का उद्यान था । उसमें वर्द्धमान स्वामी आये । प्रभु का आगमन सुनकर वहां की समस्त जनता उन्हें वदन के लिये अपने २ स्थान से चल कर उस गुणशिलक उद्यान में आई । प्रभु ने सबको धर्म का उपदेश दिया परिषद् उपदेश सुनकर प्रभु की यावत् पर्युपासना की । (तेणं काणं तेण समण्ण) उसी काल और उसी समय में ( सुभादेवी चलिचचाए रामहाणीए सुभवडेसए भवणे सुभसि सीहा ससि कालीगमण जान नट्टविहि उवदसेत्ता जाव पडिगया पुग्वभव पुच्छा, साथी, कोट्ठए चेइए जियसत्तू राया, सुभे गाहावई सुभ
સ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલા શ્રવણુ ભગવાન મહાવીરે ખીજા વર્ગના પાચ અધ્યયન પ્રરૂપિત કર્યો તાહે ભદન્ત ! બીજા વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનને તેમણે શા અર્થે પ્રતિપાદિત કર્યાં છે?
આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા શ્રી સુધર્માં સ્વામી તેમને આ પ્રમાણે કહે છે કે હું જમૂ! તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું તેમા શિલ નામે ઉદ્યાન હતુ તેમા વમાન સ્વામી પધાર્યાં પ્રભુનુ આગમન માભળીને ત્યાના બધા નાગરિકા તેમને વદના કરવા માટે પોતપોતાને સ્થાનેથી નીકળીને તે શુશુશિલક ઉડાનમા આવ્યા પ્રભુએ પ્રધાને ધર્મોને ઉપદેશ આપ્ય परिषदे धर्मोपदेश सालजीने प्रभुनी यावत् पर्युपासना री ( सेण फालेण तेण समएण ) ते जे भने ते समये
(सुभा देवी चि गए रायद्राणीए सुभवडेंसए भवणे मुमसिं सीदासणसि काली गम जान नह विहिं उबद सेत्ता जान पडिगया, पुण्त्रभनपुरा सावत्थी यी को चेइए जियगत्तू राया, सुभे गाहावई, सुभसिरी भारिया, सुभा
1)१०३
Page #1180
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
ताप मोक्ष सम्माप्तेन द्वितीयस्य वर्गस्य पक्षाध्ययनानि प्राप्तानि, तपथा-शुम्मा १, निशुम्भा २, रम्भा ३, निरम्भा ४, माना ५, 1 यदि सलु हे भान्त ! श्रमणेन योवत्सम्माप्तेन द्वितीयस्य वर्गस्य पञ्च-अध्ययनानि मज्ञप्तानि, द्वितीयस्प खल हे भदन्त । वर्गस्य मथमा ययनस्य कोऽयः माप्तः ? । सुधर्मासामी माह-एव जतू । समण जार सपत्तेण दोचस्स घग्गरस पच अजयणा पण्णत्ता) हे भदत ! मुक्ति स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् मावीर ने द्वितीय वर्ग का उत्क्षेपक प्रारभ किस रूप से प्ररूपित किया है-तर सुधर्मा स्वामी ने उनसे कहा-हे जनू। सुनो यावत् मुक्तिस्थान को प्राप्त हुए उन श्रमण भगवान महावीर ने इस मितीय वर्ग के पांच अध्ययन प्ररूपित किये है-(तं जहा) वे इस प्रकार हैं-(सुभा, निसुभा, रभा, निरभा मयणा, जहण भंते ! समणेण जाव संपत्तण धम्मकहाण दोबस्त वग्गस्स पच अज्जयणा पण्णत्ता, दोचरसण भते चरमस्स पढमन्झयणस्स के अटे एपणते ? एक खलु जवू । तेण काठेण तेण समएण रायगिहे णयरे, गुणसीलए चेहए-सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवा सइ) (१) शुम्भा, (२) निशुमा (३) रम्भा, (४) निरमा (५) मदना, । अब जब स्वामी पुनः सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि हे भदत ! यदि यावत् मुक्ति स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीरने द्वितीयवर्ग जबू । समणेण जान सपत्तेण दोच्चस्स वग्गस्स पचभज्झयणा पण्णत्ता)
હે ભદન્ત' મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે બીજા વર્ગને ઉપક-પ્રાર ભડયા રૂપથી પ્રરૂપિત કર્યો છે? ત્યારે સુધર્મા સ્વામીએ તેમને કહ્યું કે હે જ બૂ ! સાભળે, યાવત મુક્તિસ્થાનને વરેલા તે શમણે ભગવાન મહાવીર આ બીજા વર્ગના પાચ અધ્યયને પ્રરૂપિત કર્યો છે ( त जहा) ते मा प्रमाणे छे
(सुभा, निसुभा, रमा, निरभा, मयणा, जदण भते । समणेण नाव सप तेण धम्मकहाण दोच्चस्म वग्गस्स पच अज्झयणा पण्णत्ता, दोचस्स ण भते वग्गस्स पहमज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते । एव खलु जब ! तेण कालेण तेण समएण रायगिहे णयरे, गुणसीलए चेइए-सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ)
(1) शुभा, (२) निशुमा, (3) २१, (४) निरा , (५) महना ७१ જ ભૂ સ્વામી ફરી સુધમ સ્વામીને પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! જે યાવત્ મુક્તિ
Page #1181
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधामृतवपिणी से० श्रु २ २ गुभानिशुमादिदेवीवर्णनम् ६
'एव सेसावि ' इत्यादि-एव शेपाण्यपि-निशुम्भा १-रम्भा २-निरम्भा ३-मदना ४ नामकानि चत्वारि अध्ययनानि श्रावस्त्या नगर्या विज्ञेयानि, नव रम्-एतावान् विशेषः-मातर पितरः सदृशनामान:दारिकासशनामानः, तथाहिनिशुम्भाया माता निशुम्मश्री, पिता निशुम्भः । रम्माया माता रम्भश्रीः, पिता रम्भः । निरम्भाया माता निरम्भश्रीः, पिता निरम्भः । मदनाया माता मदनश्रीः पिता मदनः । एते सर्वे गाथापतयः आसन् । एव खलु हे जम्बू । निक्षेपको द्वितीयवर्गस्य ॥ ७ ॥
॥ इति धर्मस्थाना द्वितीयो वर्गः समाप्तः ।। २ ॥ कालीदेवी का है वैसा ही जानना चाहिये। उसमें और इसमे केवल अन्तर इतना ही है कि कालीदेवी की स्थिति २॥ पल्य की थी और इस शुभादेवी की ३, पत्य की थी। इस प्रकार हे जवू ! इस द्वितीय वर्ग के प्रथम अ ययन का यह निक्षेपक है। इसी तरह निशु भा, रभा निरम्भा और मदना नाम के चार अध्ययन भी जानना चाहिये । इन में विशेषता केवल इतनी ही है कि यहां जो माता पिता है वे दारिका सदश नामवाले है-जैसे निशु भा के पिता का नाम निशुभ, माता का नाम निशुभ श्री, रभाके पिता का नाम रम्भ, मातामा नाम रम्भश्री, निरभा के पिता नाम निरभ माता का नाम निरभश्री, मदना के पिता का नाम मदन, और माताका नाम मदनश्री। ये सब ही गाथा. पति है । इस तरह यह द्वितीयवर्ग का निक्षेपक-उपसहार-ह।
॥द्वितीयवर्ग ममाप्त ।। લે જ છે કે કાલી દેવીની સ્થિતિ ૨ પલ્યની હતી અને આ શુભા દેવીની સ્થિતિ ૩ પાની હતી આ પ્રમાણે તે જ બૂ! આ બીજા વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનને આ નિપક છે આ પ્રમાણે જ નિશુ ભા, ૨ભા, નિરભા અને મદના નામને ચાર અદાયને પણ જાણી લેવા જોઈએ એમનામાં વિશેષતા ફક્ત એટલી જ છે કે અહીં જે માતાપિતા છે તે પુત્રીના જેવા જ નામવાળા છે જેમકે નિશુભાના પિતાનું નામ નિશુભ, માતાનું નામ નિશુ ભશ્રી, ઉભા ના પિતાનું નામ રભ, માતાનું નામ રભશ્રી નિરભાના પિતાનું નામ નિર ભ, માતાનું નામ નિર શ્રી, મદનાના પિતાનું નામ મદન અને માતાનું નામ મદનશ્રી, આ બધા ગાથાપતિઓ છે આ પ્રમાણે બીજા વર્ગને નિક્ષેપક ઉપસ હાર છે
॥मीन समास ॥
Page #1182
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१८
बताया यम्-अस्याः शुम्भादेव्याः अधुवाइ ' अ पार्शनि-सादत्रयागि पल्योपमानि स्थितिरस्ति । मुधर्मासामीमाह-हे जम्म निक्षेपका-उपहारोऽययनस्य वाच्यः ।।
॥ इति द्वितीयवर्गस्य प्रथमा ययनम् ।। सिरी भारिया सुंभादारिया, सेस जहा कारी णवर भगुहार पलिओव माई ठिई, एव गल जंबू! निक्सेवओ अज्झयणस्म एव सेसा विचसा रिअज्झयणा सावत्यीय नयर माया पिया मरिस नामया एय स्खल जबू। निरखेचओपिईयवग्गस्स पीओ चम्गो समत्तो) शुभादेवी जो यलियचा नामकी राजधानी में शुभावतसक नामके भवन में रहती थी-ओर शुभनाम के सिंहासन पर बैठती थी-वह काली देवी के प्रकरण में वर्णित पाठ के अनुसार प्रभु के समीप उनको वदना करने के लिये आई । वहीं उसने नाट्यविधिका प्रदर्शन किया यादमें फिर घर वहां से पीछे अपने स्थान पर चली गई । उसके चले जाने के याद गौतमस्वामी ने प्रभु से उस शुभादेवी के पूर्वभव की पृच्छा की-तब भगवान् ने उन से इस प्रकार कहा-श्रावस्ती नामकी नगरी थी। उसमें कोछक नामका उद्यान था, । नगरी के राजा का नाम जितशत्रु था उसमें गाया पति रहता था। जिसका नाम शुभ था। इसकी शुभ श्री नाम की भार्या थी। दारिका का नाम शुभा था। इसके पाद का इसका वर्णन दारिया, सेस जहा कालीए णार अट्ठाइ, पलिओवमाइ ठिई। एवं खलु जन् । निक्खेवगो अज्झयणस्स एव सेसा वित्तारि अज्झयणस्स सावत्थीए नगर मायापिया सरिसनामया, एवं खलु जब! निक्खेरओ-पिईयरग्गस्स पच अज्म यणा समत्ता वीओ वग्गो समत्तो)
શુભા દેવી-કે જે બલિચ ચા નામે રાજધાનીમાં ભારત સક નામના ભવનમાં રહેતી હતી અને શુભ ના સિંહાસન ઉપર બેસતી હતી-કાલી દેવીના પ્રકરણમાં વર્ણવેલા પાઠ મુજબ પ્રભુની પાસે તેમને વદના કરવા માટે આવી ત્યા તેણે નાટયવિધિનું પ્રદર્શન કર્યું ત્યારબાતે ત્યાંથી પાછી પિતાના થાને જતી રહી તેમના જતા રહ્યા બાદ ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુની શુભા દેવીના પૂર્વ ભવની પૃચ્છા કરી ત્યારે ભગવાને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે— શ્રાવસ્તી નામ નગરી હતી, તેમાં કોઇક નામે ઉઘાન હતુ નગરીના રીનું નામ જિતશત્રુ હતું તેમાં શુભ નામે ગાથાપતિ રહેતો હતો . ભશ્રી નામે તેની પત્ની હતી, તેની પુત્રીનું નામ શુભા હતા ત્યારપછીનું તેનુ શેષ વર્ણન કાલી દેવીની જેમ જ સમજી લેવું જોઈએ તેમાં અને આમાં તફાવત એટ
Page #1183
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतविणी
० २
२ मानिशुमादिदेवीवर्णनम्
રે
' एव सेसावि ' इत्यादि - एव शेपाण्यपि निशुम्भा १ - रम्भा २ - निरम्भा ३ - मदना ४ नामकानि चत्वारि अध्ययनानि श्रावस्त्या नगर्या विज्ञेयानि, नवरम् - एतावान् निशेषः- मातर पितरः सदृशनामानः दारिकासदृशनामानः, तथाहिनिशुम्भाया माता निशुम्भश्री, पिता निशुम्भः । रम्माया माता रम्भश्रीः, पिता रम्भः । निरम्भाया माता निरम्भश्रीः, पिता निरम्भः । मदनाया माता मदनश्रीः पिता मदनः । एते सर्वे गायापतयः आमन् ।
एव खलु हे जम्बू । निक्षेपको द्वितीयवर्गस्य ॥ ७ ॥
॥ इति धर्मस्याना द्वितीयो वर्गः समाप्तः ॥ २ ॥
कालीदेवी का है वैसा ही जानना चाहिये। उसमें और इसमें केवल अन्तर इतना ही है कि कालीदेवी की स्थिति २|| पत्य की थी और इस शुभादेवी की ॥, पत्य की थी। इस प्रकार हे जवू ! इस द्वितीय बर्ग के प्रथम अभ्ययन का यह निक्षेपक है। इसी तरह निशुभा, रभा निरम्भा और मदना नाम के चार अध्ययन भी जानना चाहिये । इन में विशेषता केवल इतनी ही है कि यहाँ जो माता पिता है वे दारिका सदृश नामवाले हैं- जैसे निशुभा के पिता का नाम निशुभ, माता का नाम निशुभ श्री, रभाके पिता का नाम रम्भ, माताका नाम रम्भश्री, निरभा के पिता नाम निरभ माता का नाम निरभश्री, मदना के पिता का नाम मदन, और माताका नाम मदनश्री । ये सन ही गायापति हैं । इस तरह यह द्वितीयवर्ग का निक्षेपक - उपसहार है । ॥ द्वितीयवर्ग समाप्त ॥
લાજ છે કે કાલી દેવીની સ્થિતિ રા પલ્પની હતી અને આ શુભા દેવીની સ્થિતિ ૩ પત્યની હતી આ પ્રમાણે હું જમ્મૂ ! આ ખીજા વર્ગના પ્રથમ અયનને આ નિક્ષેપક છે આ પ્રમાણે જ નિશુ ભા, ૨ભા, નિર્ભા અને મદના નામના ચાર અયના પણ જાણી લેવા જોઈએ એમનામા વિશેષતા ફક્ત એટલી જ છે કે અહીં જે માતાપિતા છે તે પુત્રીના જેવા જ નામવાળા છે જેમકે નિશુભાના પિતાનુ નામ નિશુભ, માતાનુ નામ નિશુભશ્રી, ૨ ભા ના પિતાનુ નામ ૨ભ, માતાનુ નામ ૨ભશ્રી નિરભાના પિતાનુ નામ નિરભ, માતાનુ નામ નિરભશ્રી, મદનાના પિતાનુ નામ મદન અને માતાનુ નામ મદનશ્રી, આ બધા ગાથાપતિએ છે આ પ્રમાણે બીજા વર્ગના નિક્ષેપક ઉપસ હાર છે
|| जीन्ने वर्ग सभास ॥
Page #1184
--------------------------------------------------------------------------
________________
e
माताधर्मकथा
,
यम् - अस्याः शुम्भादेव्याः 'अधुदाइ' अर्ध चतुर्थानि सायागि पल्योपमानि स्थितिरस्ति । सुधर्मास्वामीमाद हे जम्यूः ! निक्षेपकः उपहारोऽध्ययनस्य वाच्यः ॥ ॥ इति द्वितीयवर्गस्य प्रथमा ययनम् ॥
सिरी भारिया सुभा दारिया, सेस जहा फालीए गयर अगुड्डाह पलिओष माई ठिई, एव गल जंबू । निक्सेवओ अञ्झयणस्स एवं सेसा विवत्सा रिअज्झणा सावत्थीर नवर माया पिया मरिस नामया एलु जबू | निओ बिईययग्गस्स पीओ यग्गो समत्तो) शुभादेवी जो पविचा नामकी राजधानी में शुभावतस्क नामके भवन में रहती थी और शुभनाम के सिंहासन पर बैठती थी वह काली देवी के प्रकरण में वर्णित पाठ के अनुसार प्रभु के समीप उनको वदना करने के लिये आई। वहाँ उसने नाट्यविधिका प्रदर्शन किया बाद में फिर घर वहा से पीछे अपने स्थान पर चली गई । उसके चले जाने के बाद गौतमस्वामी ने प्रभु से उस शुभादेवी के पूर्वभव की पृच्छा की-तब भगवान् ने उन से इस प्रकार कहा - श्रावस्ती नामकी नगरी थी। उसमें कोष्टक नामका उद्यान था, । नगरी के राजा का नाम जितशत्रु था उसमें गाथा पति रहता था । जिसका नाम शुभ था। इसकी शुभ श्री नाम की भार्या थी । दारिका का नाम शुभा था। इसके बाद का इसका वर्णन
दारिया, सेस जहा कालीए णवर अद्धट्ठाइ, पलिओ माइ ठिई । एत्र खलु जबू । निक्खेवओ अज्झयणस्स एव सेसा वि चत्तारि अञ्झयणस्स सावत्थीए नगर मायापिया सरिसनामया, एव खलु जत्रू | निक्खेत्रओ - चिईयत्रग्गस्स पच अज्झ या समत्ता बीओ वग्गो समत्तो )
શુભા દેવી—કે જે અલિચ ચા નામે રાજધાનીમાં શુભાવત સક નામના ભવનમા રહેતી હતી અને શુભ નામે સિંહાસન ઉપર બેસતી હતી-કાલી દેવીના પ્રકરણમા વર્ણવેલા પાઠ મુજબ પ્રભુની પાસે તેમને વદના કરવા માટે આવી ત્યા તેણે નાટયવિધિનું પ્રદર્શન કર્યું ત્યારખા૰ તે ત્યાથી પાછી પાતાના સ્થાને જતી રહી તેમના જતા રહ્યા ખાદ્ય ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુની શુભા ધ્રુવીના પૂર્વ ભવની પૃચ્છા કરી ત્યારે ભગવાને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે~ શ્રાવસ્તી નામે નગરી હતી, તેમા કાઇક નામે ઉદ્યાન હતુ નામ જિતશત્રુ હતુ તેમા શુભ નામે ગાથાપિત રહેતે હતે તેની પત્ની હતી, તેની પુત્રીનું નામ શુભા હતું ત્યારપછીનુ જોઈએ. તેમા અને આમા
નગરીના રાજાનું
કાલી દેવીની જેમજ સમજી લેવું
શુભશ્રી નામે તેનુ શેષ વન તફાવત એટ
Page #1185
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृदिणी हो० श्रु २ घ २ गुमानिशुमादिदेवीवर्णनम्
રે
"
ए सेसावि ' इत्यादि -ए शेषाण्यपि - निशुम्भा १ - रम्भा २ - निरम्भा ३- मदना ४ नामकानि चत्वारि अभ्ययनानि श्रावस्त्या नगर्या विज्ञेयानि, नत्ररम् - एतावान् निशेषः- मावर पितरः सदृशनामानः दारिका सदृशनामान, तथाहिनिशुम्भाया माता निशुम्भश्री, पिता निशुम्भः । रम्माया माता रम्भश्रीः, पिता रम्भः । निरम्भाया माता निरम्भत्री, पिता निरम्भः । मदनाया माता मदनश्रीः पिता मदनः । एते सर्वे गावापतयः आसन् ।
1
एव खलु हे जम्बू । निक्षेपको द्वितीयवर्गस्य ॥ ७ ॥
॥ इति धर्मस्थाना द्वितीयो वर्गः समाप्तः ॥ २ ॥
कालीदेवी का है वैसा ही जानना चाहिये। उसमें और इसमे केवल अन्तर इतना ही है कि कालीदेवी की स्थिति २|| पत्य की थी और इस शुभादेवी की ३||, पत्य की थी । इस प्रकार हे जवू ! इस द्वितीय बर्ग के प्रथम अध्ययन का यह निक्षेपक है । इसी तरह निशुभा, रंभा निरम्भा और मदना नाम के चार अध्ययन भी जानना चाहिये । इन में विशेषता केवल इतनी ही है कि यहां जो माता पिता हे वे दारिका सदृश नामवाले हैं- जैसे निशुभा के पिता का नाम निशुभ, माता का नाम निशुभ श्री, रभाके पिता का नाम रम्भ, माताका नाम रम्भश्री, निरभा के पिता नाम निरभ माता का नाम निरभश्री, मदना के पिता का नाम मदन, और माताका नाम मदनश्री । ये सब ही गायापति हैं । इस तरह यह द्वितीयवर्ग का निक्षेपक - उपसहार है । ॥ द्वितीयवर्ग समाप्त ॥
-
લે જ છે કે કાલી દેવીની સ્થિતિ રા પલ્પની હતી અને આ ગુભા દેવીની સ્થિતિ ા પલ્પની હતી આ પ્રમાણે હૈ જમ્મૂ ! આ ખીજા વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનને આ નિક્ષેપક છે આ પ્રમાણે જ નિશુ ભા, ૨ ભા, નિરભા અને મદના નામના ચાર અયને પણ જાણી લેવા જોઈએ એમનામા વિશેષતા ફક્ત એટલી જ છે કે અહીં જે માતાપિતા છે તે પુત્રીના જેવા જ નામવાળા છે જેમકે નિશુભાના પિતાનુ નામ નિશુભ, માતાનુ નામ નિશુભશ્રી, ૨ભા ના પિતાનુ નામ ૨૫, માતાનુ નામ રભશ્રી નિરભાના પિતાનુ નામ નિર ભ, માતાનુ નામ નિર ભથ્રી, મદનાના પિતાનુ નામ મદન અને માતાનુ નામ મનશ્રી, આ બધા ગાથાપતિ છે આ પ્રમાણે ખીજા વર્ગના નિક્ષેપક
म
|| जीले वर्ग सभास ॥
Page #1186
--------------------------------------------------------------------------
________________
यम्-अस्याः शुम्भादेव्याः 'अधुवाइ ' अई घनिस्सादयागि पल्योपमानि स्थितिरस्ति । सुधर्मास्वामीमाह-हे जम्मा निक्षेपका-उपहारोऽध्ययनस्य पाध्यः॥
॥इति द्वितीयवर्गस्य प्रथमा ययनम् ॥ सिरी भारिया सुंभा दारिया, सेस जहा कालीए णवर अगुहाइ पलिओव माई ठिई, एव सलु जंबू ! निक्सेवओ अज्झयणस्म एव सेमा विपत्ता रिअज्झयणा सावत्थीप नवर मायापिया मरिस नामया एव खलु जबू। निरखेयोपिईयवग्गस्स पीओ वग्गो ममत्तो) शुभादेवी जो यलियचा नामकी राजधानी में शुभावतसा नामके भवन में रहती थी और शुभनाम के सिंहासन पर बैठती थी-वह काली देवी के प्रकरण में वर्णित पाठ के अनुसार प्रभु के समीप उनको वदना करने के लिये आई । वहाँ उसने नादयविधिका प्रदर्शन किया थादमें फिर पर वहा से पीछे अपने स्थान पर चली गई । उसके चले जाने के याद गौतमस्वामी ने प्रभु से उस शुभादेवी के पूर्वभव की पृच्छा की-तब भगवान ने उन से इस प्रकार कहा-श्रावस्ती नामकी नगरी थी। उसमें कोष्ठक नामका उद्यान था, । नगरी के राजा का नाम जितशन था उसमें गाया पति रहता था। जिसका नाम शुभ था। इसकी शुभ श्री नाम को भार्या थी। दारिका का नाम शुभा था। इसके बाद का इसका वर्णन
दारिया, सेस जहा कालीए णवर अट्ठाइ, पलिओवमाइ ठिई । एवं खलु जनू। निक्खेरमो अज्झयणस्स एव सेसा विचतारि अज्झयणस्स सावत्थीए नर माया पिया सरिसनामया, एव खलु जब! निक्खेवओ-निईयवग्गस्स पच अज्य यणा समत्ता बीओ वग्गो समत्तो)
શુભા દેવી-કે જે બલિચ ચા નામે રાજધાનીમાં શુભાવત સક નામના ભવનમાં રહેતી હતી અને શુભ નામે સિંહાસન ઉપર બેસતી હતી-કાલી દેવીના પ્રકરણમાં વર્ણવેલા પાઠ મુજબ પ્રભુની પાસે તેમને વધના કરવા માટે આવી ત્યાં તેણે નાટયવિધિનું પ્રદર્શન કર્યું ત્યારબાતે ત્યાંથી પાછી પોતાના સ્થાને જતી રહી તેમના જતા રહ્યા બાદ ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુની ફુલા દેવીના પૂર્વ ભવની પૃચ્છા કરી ત્યારે ભગવાને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે – શ્રાવસ્તી નામે નગરી હતી, તેમાં કોષ્ટક નામે ઉઘાન હતુ નગરીના રાજાનું નામ જિતશત્રુ હતું તેમાં શુભ નામે ગાથાપતિ રહતે હતે શુ ભશ્રી નામે તેની પત્ની હતી, તેની પુત્રીનું નામ શું ભા હતુ ત્યારપછીનું તેનું શેષ વર્ણન કાલી દેવીની જેમ જ સમજી લેવું જોઈએ તેમા અને આમાં ત વત એટ
Page #1187
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतषिणी टी० शु० २ ० २ अलादीदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८२३ अद्धपलिओवम ठिई सेस तहेव, एव खलु णिस्खेवओ पढमज्झयणस्स) उस काल और उस समय में राजगृर नाम का नगर था। वहां गुणशिलक नाम का उन्धान था। उसमें तीर्थकर परपरानुसार विहार करते हुए श्रमण भगवान महावीर आकर ठहरे हुए थे। नगर की परिपदा प्रभु को बदना के लिये अपने २ घर से निकल कर उस उद्यान में आई प्रभु ने सरको धर्म का उपदेश दिया। सुनकर रोगो ने यावत् प्रभु की पर्युपासना की। उसी समय वहा पर धरणेन्द्र की अग्रमहिपी अलादेवी जो धरणा राजधानी में अलावतसक इस नाम के भवन मे रहती थीऔर जिसके बैठने के सिंहासन का नाम अला या प्रभु को बदना आदि करने के निमित्त आई। वहां आकर उस ने नाटयविधि दिखलाई। दिखलाकर वह फिर वहा से पीछे अपने स्थान पर गई। उसके आते ही गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से उसका पूर्वभव पूछा तय भगवान ने उनसे इस प्रकार कहा वाणारसी नामकी नगरी थी-उसमें काम महावन नाम का उद्यान था। उसमे अलनाम का गायापति रहता था। उसकी भार्या " अल श्री" इस नामकी थी। इस की एक पुत्री थी जिसका नाम अला या। इसका-अला का शेप कथानक, कालीदेवी का वाओ, साइरेग अद्धपलिओवम ठिई सेस तहेव, एव खलु णिक्खेवओ पढमज्झयणस्स)
તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃષ્ઠ નામે નગર હતુ તેમાં ગુણૂલિક નામે ઉઘાન હતું તેમાં તીર્થંકર પર પરા મુજબ વિહાર કરતાં પધારીને શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે મુકામ કર્યો હતો નગરની પરિષદ પ્રભુને વંદન કરવા માટે પિતાપિતાને ઘેરથી નીકળીને તે ઉદ્યાનમા આવી પ્રભુએ સૌને ધર્મને ઉપદેશ આપે ઉપદેશ સાભળીને લેકોએ વાવત પ્રભુની પર્યપામના કરી, તે વખતે ત્યા ધરણેન્દ્રની અગ્રમહિષી (પાણી) અલાદેવી કે જે ધરણા રાજધાનીમાં અલાવાસક આ નામના ભવનમાં રહેતી હતી, અને જેને બેસવાના સિંહાસનનું નામ અલી હતું–પ્રભુને વદના કરવા માટે આવી ત્યા આવીને તેણે નાટયવિધિનું પ્રદર્શન કર્યું, પ્રદર્શન કરીને તે ત્યાંથી પાછી પિતાના સ્થાને જતી રહી તેના ગયા પછી તરત જ ગૌતમ સ્વામીએ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને તેને પૂર્વભવ પૂછે ત્યારે ભગવાને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે વણારસી નામે નગરી હતી, તેમા કામમહાવન નામે ઉઘાન હતુ, તેમાં અલ નામે ગાથાપતિ રહેતું હતું તેની ભાર્યાનું નામ લશ્રી હતુ * . .. હતી તેનું નામ અલી હતુ અલા વિષેનું શેવ કથાનક પહેલા
Page #1188
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातावडया
भदन्त ! श्रमणेन यावत् मोक्ष सम्पाप्नेन धर्मवाना हनीयस्य वर्गम्य चतुप्पश्चा शद् अ ययनानि प्राप्तानि, तेगु प्रथमस्य खलु हे मदन ! अ ययनम्य श्रमणेन यापत् मोक्ष सम्माप्तेन कोऽर्थः प्राप्तः ? गुधर्मस्वामी कथयति
एव खल हे जम्मूः । तस्मिन् काले तस्मिन् समरे राजगृह नगरम् , गुण शिला चैत्यम् , सामी समयमा, परिपन्निर्गता यारत्-भगवन्त पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये भलादेवी धरणेन्द्रस्याग्रमहिपी धरणाया राजरान्याम् आलापतसके भाणे अले सिंहासणे, एर कालीगमएण' कालीगमेन-काली सदृशपाठेन यान नाटयविधमुपदर्य प्रतिगता।' पुचमनपुन्छा' पूर्वमत्रपृच्छागोतमस्वामी अलादेव्याः पूर्वभव पृच्छति, भगवान् कथयति-नागारसी नगरी। काममहापन चैत्यम् । ' अले' अलनामा गायापतिः । अश्रीर्भार्या । अला दारिका । शेष 'जहाकालीए' यथा काल्या! कालीदेव्या वर्णन तथैव अला देव्या वर्णन विज्ञेयम् , नवरम्-परणस्याग्रमहिपीतयाऽस्था उपपातः, सातिरेकयावत् मुक्ति को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने धमकथा के तृतीयवर्ग के ५४ अध्ययन प्रजप्त किये हैं तो उनमे से हे भदत । उन्हीं यावत् मुक्ति प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपित किया है ? इस प्रश्न के समाधान निमित्त सुधर्मा स्वामी उनसे कहते है कि-(एव खलु जवू!) हे जव! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है( तेण कालेण तेण समएण अलादेवी धरणाए राय हाणीए अलावडसए भवणे अलंसि सीहासणसि एच कालीगमएण जाव णविहिं उदसेत्ता पडिगया, पुल्वभवपुच्छा, वाणारसी जयरी, काममहावणे चेइए अल गाहावई, अलासिरी भारिया, अलादारियासेस जा कालीप णवर धरणस्म अग्गमहिसित्ताए उववाओ, साइरेग છે કે હે ભદન્ત ! યાવત્ મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ધમક થાના ત્રીજા વર્ગના ૫૪ ચોપન અધ્યયને પ્રજ્ઞપ્ત કર્યા છે, તે તેમાથી હે ભદ ત! તે જ થાવત્ મુક્તિ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પહેલા અધ્યયનને શે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે ? આ પ્રશ્નના સમાધાનમા શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને । छे ( एव खलु जपू!) ! तमा। प्रश्न उत्तरमा प्रमाणे छ ।
(तेण कालेण तेण समरण अलादेवी धरणाए रायहाणीए अलावडसए भवणे अलसि सीहासणसि एव काली गमएग जाव गट्टविहिं उबदसेता पडिगया, पुवमापुच्छा, वाणारसी णयरी, काममहापणे चेहए, अल गाहावई, अलासिरी भारिया, अलादारिया सेस जहा कालीए णवर धरणस्स
उ.
Page #1189
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२५
tantraणी टी० श्रु०२ ६० ३ रूपादिदेवीना चरित्रवर्णनम् एन यावत् घोपस्यापि प्रोपेन्द्रस्यापि एतान्येव पड् अ ययनानि सन्ति । एवमे तानि दाक्षिणात्यानामिन्द्राणा चतुष्पञ्चाशद् अध्ययनानि भवन्ति । सर्वा अपि पूर्वो तादेव्य पूर्वभवे वाणास्या जाताः काममहानने चैत्ये भगवतः पार्श्व स्थाईतः समीपे मनजिताः, तृतीय वर्गस्य निक्षेपकः = समाप्तिवाक्यमनन्धो निज्ञेयः ॥ सू०८ | ॥ इति धर्मस्थाना तृतीयो वर्गः समाप्तः ॥ ३ ॥
अथ चतुर्थी वर्ग प्रारभ्यते - ' चउत्वस्म ' इत्यादि ।
मूलम् - वउत्थस्त उक्खेवओ, एवं खलु जंबू । समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं चउत्थवग्गस्त चउप्पण्णं अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा- पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णइमे अज्झयणे पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ एव खलु जवू । तेणं कालेणं तेन समपण रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेन तेण समएणं रूया देवी रूयाणदा रायहाणी रूयगव - वडिसए भवणे रूयगंसि सीहासणसि जहा कालीए तहा नवरं पुव्वभवे चंपाए पुण्णभद्दे चेइए रूयगे गाहावई रूयगसिरी भारिया रूया दारिया लेस तहेव, णवर भूयाणद् अग्ग महिसि
वर्णन भी धरणेन्द्र के वर्णन जैसा ही है। घोपेन्द्र के भी ये ही ६ अध्य यन इसी तरह के हैं । इस तरह दक्षिण दिशा सबन्धी इन्द्रों के० ५४ अध्ययन हो जाते हैं । ये सन देवियां पूर्व भव में चाणारसी में उत्पन्न हुई और काममहावन उद्यानमे भगवान् प्रार्श्वनाथ अर्हत प्रभुके समीप दीक्षित हुई । इस तरह से वर्मकथाका यह " तृतीय वर्ग समाप्त हुआ है । "
૬ અધ્યયને છે આ
વર્ણન જેવુ જ છે ચેપેન્દ્રના પણ આ જાતના જ પ્રમાણે દક્ષિણ દિશા સ બધી ઇન્દ્રોના ૫૪ અધ્યયના થઈ જાય છે આ બધી દેવીએ પૂર્વ ભવમા વાણુારમીમા ઉત્પન્ન થઈ હતી અને કામમહાન ઉદ્યાનમા ભગવાન પાર્શ્વનાથ અ ત પ્રભુની પાસે દીક્ષિત થઈ આ પ્રમાણે ધર્મકથાના આ નીજો વર્ગ પૂરા થયા છે
२०४
Page #1190
--------------------------------------------------------------------------
________________
R
वाताधर्मप्रचार
साधिकम् अर्द्ध पल्पोपम स्थिवि । शेष तथैव । एत्र सत्रु निक्षेपकः प्रयमाध्ययनस्य । एव क्रमात् शफा २, सतेरा ३, सौदामनी ४, इन्द्रा ५ घन६ स एता धरणस्य = धरणेन्द्रस्य अममहित्य एन । ण्ठानि पत्र अध्ययनानि वेणुदेवस्यापि । ' अनि सेसिया' अविशेषितानि निर्विशेपानि सदृशानि भवितव्यानि । जैसा कथानक पीछे वर्णित किया जा चुका है वैसा ही जानना चाहिये। उसके वर्णन में और इसके वर्णन में केवल अन्तर इतना ही है कि यह धरणेन्द्र की अग्रमहिपी के रूप में उत्पन्न हुई और इसकी स्थिति १ || पल्प से कुछ अधिक है। बाकी का इसका वृत्तान्त कालीदेवी के जैसा ही है । इस तरह यह द्वितीयवर्ग के प्रथम अध्ययन का निक्षेपक - उपसहार - है । - ( एवं कमा सक्का, सतेरा, सोयामगी, इदा, घणविज्जुया वि, सव्वओ याओ धरणस्त अग्गमहिसीओ, एन, एते ६ अक्षयणा वेणुदेवस्स वि अविसेसिया भाणियचा, एव जाव घोसस्स वि एक चैव ६ अज्झयणा, एवमेते दारिणिरलाण इदाण- चउप्पण्ण अज्झयणा भवति, सबओ विचाणारसीए काममहावणे चेहरा तहयवरगस्स णिक्खेवओ ८ ॥
(तइओ वग्गो समत्तो ) इसी क्रम से शका २, सतेरा ३, सौदा मनी ४, इन्द्रा ५, घनविद्युत् ६, ये सन देविया धरणेन्द्र की ही अग्र महिषिया थीं। इस तरह के ६ अध्ययन वेणुदेव के भी हैं । और इनका વણુંંગેલા કાલી દેવીના કથાનકની જેમજ સમજી લેવુ જોઇએ તેના અને આના વર્ણનમા તફાવત ફક્ત એટલે જ છે કે આ ધરણેન્દ્રની અપ્રમહિષીના રૂપમા ઉત્પન્ન થઇ અને આની સ્થિતિ ૧ા પદ્મ કરતા કઈક વધારે છે આનુ ખાકીનુ વર્ગુન કાલી દેવી જેવુ જ છે આ પ્રમાણે આ બીજા વર્ગના પહેલા અધ્યયનના નિક્ષેપક ઉપસાર છે
( एव कमा सक्का सतेरा, सोयामणी, इदा, घणविज्जुया वि, सन्त्रओ एयाओ धरणस्स, अग्गमहिसीओ एव एते ६ अज्झयणा वेणुदेवस्स वि अविसे सिया भाणियव्त्रा, एन जात्र घोसस्स वि एए चैव६ अज्झयणा, एवमेते दाहिणि ल्लाण इदाण - चउप्पण्ण अज्झयणा भवति, सव्वाओ वि वाणारसीए काम महा aणे चेइए तइयवग्गस्स क्खिाओ ॥ ८ ॥ तइओ वग्गो समत्तो )
આ અનુક્રમ પ્રમાણે જ શકા ૨, સતેરા ૩, મૌઢામની ૪, મુન્દ્રા ૫, ઘવિદ્યુત ૬, આ બધી દેવીએ ધરણેન્દ્રની જ અગ્રમહિષી હતી આ પ્રમાનું જ ૬ અયના વેણુ દેવીના પણ છે અને એમનુ વર્ણન પૂણેન્દ્રના
Page #1191
--------------------------------------------------------------------------
________________
गरणी टीका १०२ १०४ र पदिदेवीनां चरित्रवर्णनम्
૮૨૭
वसरण= भगवतः श्री महावीरस्वामिनः समागमन सजात, यावत् परिषद् भगवन्त पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये रूपादेवी = भूतानन्देन्द्रस्याग्रडिपी रूप कावतस के मरने रूपके सिंहासने यथा काल्या:=कालीदेव्या वर्णनं तथा तद्वत् समण्ण रायगिरे समोसरण जाय परिमा पज्जुनासह, तेण कालेन तेण समएर्ण ख्या देवी, रूयाणदा रामहाणी रूपगसि भवणे स्यगमि सीहासांसि जहा कालीए तहा नवर पुण्यभवे चपाए पुग्ण महे चेइए रुयगे गाहावर्ड रूपगमिरी मारिया, रूपा दारिया, सेस तहेव, णवर भूयाणद अभ्गमहिसित्ता उवचाओ देणं पलिओम टिई निक्खेवओ, एव सुरूवावि, रूयसावि, रूपगारावई वि रूपकना वि रूयप्पभावि, प्याओ चैव उत्तरिल्याण इदाण भाणिपव्याओ, जाव महाघोसस्स णिक्खेव चत्यवग्गस्स चडत्यो कागो ममत्तो )
प्रथम अध्ययन का है जबू । उत्क्षेपक इस प्रकार है- उसकाल में और उस समय में राजगृह नगर में महावीर स्वामी का आगमन हुआ। परिषद प्रभु को वदना करने के लिये अपने २ स्थान से निकलकर जहा प्रभु विराजमान थे वहां आई । प्रभु ने धर्म का उपदेश दिया । यावत् सनने प्रभु की पर्युपासना की। उस काल और उस समय में भृतानद इन्द्र की अग्रदेवी जिसका नाम रूपादेवी था वह प्रभु को वदना के लिये
( पढमस्स अज्झयगस्स उखाओ - एव खलु जबू ! तेण कालेग तेण समएण रायगिहे समोसरण जात्र परिसा पज्जुवासर, तेण कालेन तेण समएण रूपादेवी, रूयाणदा, रायहाणी रूयगवर्डिसए भवणे रूयगसि सीहासणसि जहा कालीए तहा नगर पुण्त्रभवे चपाए पुष्णभये चेइए स्पगे गाहावई रूपगसिरी भारिया, रूया दारिया, सेस तद्देव, णवर भूयाणद अग्गमदिसित्ताए उनवाओ देमूण पलि ओम ठिई निखेत्रओ, एव सुरूवया वि, रूयसावि, रूपगाहावई, विरूयकता विरूपभानि, एयाओ चैत्र उत्तरिल्लाण इदाण भाणियन्याओ, जाब महाघोसस्स णिक्खेओ चउत्थवग्गस्स ॥ ९ ॥ चत्थो वग्गो समत्तो )
હું જ બૂ ! પહેલા અધ્યયનના ઉલ્લેષક આ પ્રમાણે છે-તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમા મહાવીર સ્વામીનુ આગમન થયુ. પ્રભુને વદના કરવા માટે પરિષદ પેાતપેાતાને સ્થાનેથી નીકળીને જ્યા પ્રભુ વિરાજમાન હતા ત્યા આવી, પ્રભુએ ધર્મના ઉપદેશ આપ્યા યાવતુ સૌએ પ્રભુની પ્યુ`પાસના કરી, તે કાળે અને તે સમયે ભૂતાન ઈન્દ્રની અગ્રદેવી ( પટરાણી ) જેનુ નામ રૂપા દેવી હતું-પ્રભુને વદના કરવા માટે આવી તેના રહેવાના ભવનનુ
Page #1192
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
মাথায় चाए उववाओ देसूर्ण पालिओवम ठिई णिवखेवओ एव सुरुयावि रूयसावि रूयगावई वि रूयकतानि रूयप्पभावि, एयाओ घेव उत्तरिल्लाणं इंदाणं भाणियच्याओ जार महाघोसस्स, मिक्खेवओ चउत्थवग्गस्स ॥ सू० ९॥
॥चउत्थो वग्गो समत्तो ॥४॥ टीका--'चउत्थस्स-चतुर्थवर्गस्य 'उअखेवभो' उस्क्षेपक मारम्भवाक्य पाठोऽनवाच्य । सुधर्मस्वामी माह-एव खलु जम्यूः ! श्रमणेन यावत्सम्मा प्तेन धर्मकथाना चतुर्थवर्गस्य चतुप्पञ्चाशत् अ ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा प्रथम मध्ययन यारत्-चतुप्पञ्चाशत्तमम ययनम् । तेषु प्रथमस्या ययनस्य उत्क्षेपक. । सुधर्मस्वामीपाह-एप खलु हे जम्बू । तस्मिन् काले तस्मिन समये राजगृहे सम
__ चतुर्थ वर्ग मारभ:'चउत्थस्स अवासेवओ' इत्यादि ।
टीकार्थ.-(चउत्यस अवस्खेवभो) चतुर्थ वर्ग का प्रारभ किस तरह से हुआ है-इस प्रकार-जबृस्वामी के पूछने पर श्री सुधर्मास्वामी उनसे कहते हैं कि (एच सलु जबू) हे जन ! सुनो-(समणेण जाव सपत्तण धम्मकाण चउत्थवास्स चउप्पण्ण अज्झयणा पण्णत्ता त जहा पढसे अज्झयणे जाव चउपण्णाइ मे अज्मयणे) यावत् मुक्तिस्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा के चतुर्थ वर्ग के ५४ अध्ययन प्रज्ञप्त किये है-वे प्रथम अध्ययन से लेकर ५४वें अध्ययन तक हैं-(पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ एव खलु जबू! तेण कालेण तेण
ચોથે વર્ગ પ્રારંભ 'घउत्थम्स उवखेवओ' इत्यादि--
At-- ( उत्थरस उत्रम्खेवओ) यया पानी २३मात वी शत થઈ છે! આ જાતને જ બૂ સ્વામીએ પ્રશ્ન કર્યા બાદ શ્રા સુધર્મા સ્વામી तेभने ४३ छ है ( एव खलु जनू) भू । सालणा,
(समणेण जाव सपत्तेण धम्मकहाण चउत्थवग्गस्स चउप्पण्ण अज्झयणा पण्णत्ता त जग पहमे अज्झयणे जाव चउपगइमे अज्झयणे)
થાવત્ મુક્તિકાનને પામેવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ધમકથાના ચોથા વર્ગના ૫૪ અધ્યયને પ્રાપ્ત કર્યા છે તે પહેલા અદયયનથી માડીને ૫૪ મા અધ્યયન સુધી છે
Page #1193
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगारधर्मामृतवर्षिणी टीका
*
०२ १०४ उपदिदेवीनां चरित्रवर्णनम्
03
८२७
वसरण= भगवतः श्री महावीरस्वामिनः समागमन सजात, यान परिषद् भगवन्त पर्युस्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये रूपादेवी= भूतानन्देन्द्रस्याग्रमडिपी रूप कावतस के भने रूपके सिंहासने यथा काल्या: कालीदेव्या पर्णन तथा तद्वत् समणं रायगिहे समोसरण जाय परिसा पज्जुनामह, तेण कालेन तेण समपूर्ण या देवी, रूपाणंदा रायहाणी रूपगसि भवणे रूयगमि सीरासणसि जहा कालीए तहा नवर पुष्पमये चपाए पुग्णभद्दे चेse रुपगे गाहावई रूपगसिरी भारिया, रूपा दारिया, सेस तहेव, णवर भूयाणद अग्गमहिसित्ताए उबवाओ देणं पलिओम ठिई निक्खेचओ, एव सुरूपया वि, रूयसावि, रूयगाहावई वि रूपकना विस्पष्पभावि, एयाओ चैव उत्तरिल्लाण इदाण भाणियव्वाओ, जाव महापोलस्म णिक्खेव चत्यवग्गस्स चउत्यो बागो समत्तो )
प्रथम अध्ययन का हे जबू । उत्क्षेपक इस प्रकार है- उसकाल में और उस समय में राजगृह नगर में महावीर स्वामी का आगमन हुआ । परिषद प्रभु को चंदना करने के लिये अपने २ स्थान से निकलकर जहा प्रभु विराजमान थे वहां आई । प्रभु ने धर्म का उपदेश दिया । यावत् सबने प्रभु की पर्युपासना की। उस काल और उस समय में भृतानद इन्द्र की अग्रदेवी जिसका नाम रूपादेवी या वह प्रभु को चढ़ना के लिये
( पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेाओ - एव खलु जवू ! तेण कालेग तेण समएण रायगिहे समोसरण जाव परिसा पज्जुवासर, तेण कालेन तेण समएण रूपादेवी, रूयाणदा, रायहाणी रूयगवर्डिसए भवणे रूयगसि सीहासणसि जहा फालीए तहा नगर पुण्यभवे चपाए पुण्गभने चेइए रूपगे गाहावई रूपगसिरी भारिया,
या दारिया, सेम तव, णवर भूयाणद अग्गमहिसित्ताए उनवाओ देमूण पलि ओम ठिई पिओ, एव सुरूपया वि, रूपमावि, रूपगाहावई, विरूयकता वि रूयष्पभानि, एयाओ चैत्र उत्तरिल्लाण इदाण भाणियन्त्राओ, जात्र महाघोसस्स णिक्खेओ चउत्थवर गस्स || ९ || चत्थो वग्गो समत्तो )
હું જ મૂ! પહેલા અધ્યયનના ઉક્ષેપક આ પ્રમાણે છે-તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમા મહાવીર સ્વામીનુ આગમન થયુ. પ્રભુને વદના કરવા માટે પરિષદ પાતપેાતાને સ્થાનેથી નીકળીને ના પ્રભુ વિરાજમાન હતા ત્યા આવી, પ્રભુએ ધર્મના ઉપદેશ આપ્યા યાવતુ સૌએ પ્રભુની પયુ પાસના કરી તે કાળે અને તે સમયે ભૂતાન ઈન્દ્રની અગ્રદેવી ( પટરાણી ) જેનુ રૂપા દેવી હતું–પ્રભુને વદના કરવા માટે આવી તેના રહેવાના ભવનનુ
Page #1194
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मकथा रूपादेव्या अपि विजयम् , नार=विशेषोऽआयम्-मिरे चम्पाया नगया पूर्ण भद्र चैत्यम् , रूपको गायापतिः, स्पश्रीसर्या, रूपाटारिका, शेप तथैर नवर भूतानन्दायमहिपीनया तस्या उपपातः जन्म । देशोन पल्योपम स्थितिः। निक्षे पा=समाप्तिवाक्यरूपः प्रपन्धोऽत्र विशेय' । एव गुरूपाऽपि २, स्पागाऽपि ३, रूपकावत्यपि ४, रूपकान्तापि ५, स्पममापि ६ । एताया उत्तरीयाणामिन्द्राणां
आई। इसके रहने के भवन का नाम रूपकारतसक या। और जिस सिंहासन पर यर पैठती थी उसका नाम रूपक था। पीछे जिस प्रकार का वर्णन कालीदेवी का किया गया है-उसी प्रकार का इनका भी वर्णन जानना चाहिये । उस के पूर्वभव का वर्णन इस प्रकार है-यह पूर्वभव में चपा नामकी नगरी में कि जिसमें प्रणभद्र नाम का उद्यान या ओर रूपक गायापति जिस में रहता था उस गाथापति की यह रूपश्री भार्या से "रूपा दारिका" इस नाम से पुत्री उत्पन्न हुई थी। बाद में प्रभु का उपदेश सुनकर यह प्रतिषोध को प्राप्त हो गई और कालीदेवी की तरह यह आर्या बन गई इसके आगे जिस तरह का काली देवी का वृत्तान्त पना इसी तरह से इसका भी जानना चाहिये । जब यह काल अवसर काल कर गई तब यह भूतानद् इन्द्र की अग्रमरिपीरूप से उत्पन्न हुई। यहां इसकी कुलकम १, पत्य की स्थिति है। इस प्रकार रूपा देवी के कथानक का यह निक्षेपक है। इसी तरह से (२) सुरूपा (३) रूपाशा (४) रूपकावती (५) रूपकान्ता और ६ रूपप्रभा का भी वर्णन जानना નામ રૂપકાવત સક હતું અને જે સિંહાસન ઉપર તે બેસતી હતી તેનું નામ રૂપક હતુ જેમ પહેલા કાલી દેવીનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તેમજ આનું વર્ણન પણ સમજી લેવું જોઈએ તેના પૂર્વભવનું વર્ણન આ પ્રમાણે છેઆ પૂર્વભવમાં ચ પ નામની નગરીમા-કે જેમાં પૂર્ગભદ્રા નામે ઉદ્યાન હતું અને રૂપક ગાથાપતિ જેમા રહેતે હવે તે ગાથાપતિની આ રૂપશ્રી ભાર્યોથી રૂપાદારિકા ” આ નામથી પુત્રી રૂપે ઉત્પન થઈ હતી ત્યારપછી પ્રભુને ઉપદેશ સાભળીને એ બોધને પ્રાપ્ત થઈ અને કાલી દેવીની જેમ આયો થઈ ગઈ એના પછીની વિગત કાલી દેવીની હતી તેવી જ એની પણ સમજી લેવી જોઈએ જ્યારે તેણે કાળ અવસરે કાળ કર્યો ત્યારે આ ભૂતાનદ ઈન્દ્રની અગ્રમહિષી (પટરાણી) ના રૂપમાં ઉત્પ ન થઈ ત્યાં તેની છેડી ઓછી એક પત્યની સ્થિતિ છે આ પ્રમાણે રૂપાદેવીના કથાનકને આ નિપક છે मा प्रभारी । (२) भु३पा, (३) ३५॥शा, (४) ३५४.५ती, (५) ... सन
Page #1195
--------------------------------------------------------------------------
________________
गारधर्मामृतपणी टीका २० २६० ५ कमलादिदेवीना चरित्रवर्णनम् ८२९ भणितव्या=अग्रमहिष्यो वक्तव्या यावत् महाघोपस्य । महानोपेन्द्रस्य । निक्षेपकश्चतुर्थवर्गस्य ॥ स्रु०९ ॥
॥ इति धर्मकवाना चतुर्थी वर्ग समाप्तः ॥ ४ ॥ अथ पञ्चमो वर्गः मारभ्यते पचमग्गस्स ' इत्यादि ।
मूलम् - पंचमग्गस्स उक्खेवओ, एव खलु जव । जात्र वत्तीसं अज्झयणा पण्णत्ता, तजहा- कमला? कमलप्पभार चैव, उप्पला३ य सुदसणा४ । रुववई५ बहुरुवा६, सुरूवा७ सुभगावियट || १ || पुण्णा९ वहुपुत्तिया १० चेव, उत्तमा ११ तारयाविय१२ | पउमा १३ वसुमती१४ चैव, कणगा१५ कणगप्पभा१६ ॥२॥ वडेसा१७ केउमई १८ चैत्र, वइरसेणा १९ रइप्पिया२० । रोहिणी२१ नवमिया२२ चैत्र, हिरी२३ पुप्फवईइय २४ ॥३॥ भुयगा२५ भुयगवई २६ चेव, महाकच्छीSपराइया२८ | सुघोसा२९ विमला३० चैत्र, सुस्सरा३१ य सरसई ३२ ॥४॥ उक्खेवओ पढमज्झयणस्स, एव खलु जबू । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरण जाव परिसा पज्जुवासइ, तेण कालेन तेण समएण कमलादेवी कमलाए रायहाणीए कमलवडेंसए भवणे कमलास सीहासणारी सेसं जहा कालीए तहेव वरं पुव्वभवे नागपुरे नयरे सहसब
चाहिये । ये देविया भूतानद इन्द्र की तरह उत्तरीय इन्द्रो की भी अग्रमहिपिया है । और ये ही महाघोपेन्द्र की भी हैं। इस प्रकार यह चतुर्थ वर्ग का निक्षेपक ( स्वरूप ) है । ॥ चतुर्थवर्ग समाप्त ॥
(૬) રૂપપ્રભાનુ વણુન પણ સમજી લેવુ જોઈએ. આ બધી દેવીએ ભૂતાન દ ઈન્દ્રની જેમ ઉત્તરીય ઈન્દ્રોની પણ અગ્રમહિષીએ! ( પટરાણીઆ ) છે અને મહાઘાકેન્દ્રની પણ તેએજ પટરાણી છે આ પ્રમાણે આ ચેાથા વર્ગના નિક્ષેપક છે
ચેાથે વર્ગ સમાસ
Page #1196
--------------------------------------------------------------------------
________________
उरक्षेपकः प्रथमाध्ययनम्य । जम्बूस्वामिना पृष्टे सुधर्मास्वामीमाह-एव खलु हे जम्यूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे 'समोमरण' समवमरण-भग ३१, सरस्वती ३२,। (उत्खेवओ पढमायणस्स एव ग्बलु जबू! तेण कालेण तेण समण्ण रायगिहे समोसरण जार परिसा पन्जुवामा, तेणे कालेण तेणं समएण फेमला देवी, कमलाप रायहाणी कमलयडेंसए भवणे कमलसि सीहासणमि सेस जहा कालीए तहेव जवर पुन्वभवे नागपुरे नयरे सरसयवणे उजाणे कमलस्त गाहावहस्म कमलसिरीए भारियाए कमला दारिया पासस्स०अति निरसता कालरस पिसायकु. मारिदस्स असामहिसी अद्धपलिओवम ठिई, एव सेसा वि अज्मयणा दाहिणिल्लाण वाणमतरिंदाण भाणियव्वामी, सन्यो णागपुरे सहस. घवणे उजाणे माया पिया धूया सरिसनामया, ठिई अद्धपलिभोवम) इसके बाद जबूम्वामी ने श्री स्लुधर्मास्वामी से पूछा कि इनमें से कमला नामका जो प्रथम अध्ययन है उसका उत्क्षेपक किस तरह से है-इस प्रकार जबूस्वामी के पूछने पर उनसे सुधर्मास्वामी ने करा-कि हे जबु ! सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-उस काल में और उस समय में राजगृह नाममा नगर या। उसमें भगवान महावीर का आगमन हुआ। यावत् वहा की परिपद प्रभु को वदना करने के लिये आई। _( उक्खेवी पढमज्झयणस्स, एवं खलु जनू । तेण कालेण तेण समएण रायगिहे समोसरण जाव परिसापज्जुवासइ, तेण कालेण तेण समरण कमला देवी कमलाए रायहाणीए कमल पडेंसए भवणे कमलसि सीहासणसि सेस जहा कालीए तहेच णवर पुषभवे नागपुरे नयरे सहसववणे उज्जाणे कमलस्स गाहा वइस्स कमलमिरीए भरियाए कमला दारिया पासस्स. अतिए निक्खता कालस्स पिसाय कुमारिंदस्स अग्गम हिसी अद्वपलिओरमठिई, एव सेसा वि अज्झयणा दाहिणिल्लाण वाणमतरिंदाण भाणियन्चाओ, सन्याओ णागपुरे सहसबवणे उज्जाणे मायापिया धूया सरिसनामया, ठिई अद्धपलिओचम)
ત્યારપછી જ બૂ સ્વામીએ શ્રી સુધમાં સ્વામીને પૂછ્યું કે આ બધામાં કમલા નામે જે પહેલું અધ્યયન છે તેનો ઉપક કેવી રીતે છે ?
આ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામીએ પ્રમ કર્યા બાદ તેમને શ્રી સુધર્મા સ્વામીએ કધુ કે હે જ બૂ! સાભળે, તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું તેમાં ભગવાન મહાવીરનુ આગમન થયુ યાવત નગરની પરિષદ તેમને વદના કરવા માટે આવી પ્રભુએ સૌને
Page #1197
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतषिणी टी० श्रु०२ ३० ५ कमलादिदेशोना चरित्रवर्णनम् ८३३. वन् महावीरस्वामी समागमन सजात, यावत् परिपद् भगवन्त पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये कमला देवी कमलाया राजधान्यां, कमलावतमके भवने कमले सिंहासने, शेप यथा-काल्या. कालीदेव्या वर्णन तथैवाऽस्या अपि, नपर= विशेषोऽयम्-पूर्वभवे नागपुर नगर, सहस्राम्रवनमुद्यानम् , कमलस्य गाथापतेः कमलश्रियो भार्यायाः कमला दारिका पार्श्व स्याहतः पुरुपादानीयस्य अन्तिके 'निवखता' निष्क्रान्ता-पत्रजिता, कालस्य पिशाचकुमारेन्द्रस्य अग्रमहिपी। अर्द्धपल्योपम स्थितिः । एव शेपाण्यपि कमलप्रमादिनामकान्यपि एकत्रिंशद् अध्यप्रभु ने सबको धर्म का उपदेश दिया। परिपद ने प्रभु की पर्युपासना की। उस काल में और उस समय मे कमला नाम की देवी, कमला राजधानी मे कमलावतसक भवन में रहती थी। उस के सिंहासन का नाम कमला था। इसके आंगे का समस्त वर्णन कालीदेवी के वर्णन जैसा ही जानना चाहिये। परन्तु इममे जो विठोपता है वह इस प्रकार है-जब गौतमस्वामी ने उसके-अर्यात् देवी के चले जाने के बाद उसके पूर्वभव का वृत्तान्त पूडा-तर प्रभु ने उनसे इस प्रकार कहा-पूर्वभव के इसके नगर का नाम नागपुर या-उसमे सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था। उस नगर में कमल नामका गायापनि रहता था। उसकी भार्या का नाम कमला श्री था। इनके एक पुत्री थी जिस का नाम कमला था। वह कालरन्धि के आनेपर पुरुपदानीय-पुरुष श्रेष्ठ-पार्श्वनाथ अर्हत प्रभु के ममीप प्रबजित हो गई। बाद में मरने पर वह काल नाम के पिशाच कुमारेन्द्र की अग्रमहिपी पनी । वहा इसकी स्थिति अर्धपल्य की है।
ધર્મનો ઉપદેશ આપ્યો પરિષદે પ્રભુની પથું પાસના કરી તે કાળે અને તે સમયે કમલા નામની દેવી, કમલા રાજધાનીમાં કમલાવત સક ભવનમાં રહેતી હતી તેના સિંહાસનનું નામ કમાવા હતુ એના પછીનુ બધુ વર્ણન કાલ દેવીના વર્ણનની જેમ જ સમજી લેવું જોઈએ પર તુ આમાં જે કઈ વિશેષતા છે તે એ પ્રમાણે છે-કે જ્યારે ગૌતમ સ્વામીએ દેવીના ગયા પછી તેના પૂર્વ ભવ વિશેની વિગત પૂઠી ત્યારે પ્રભુએ તેમને આ પ્રમાણે કશુ-કે આના પૂર્વ ભવના નગરનું નામ નાગપુર હતું તેમાં સહસ્રામ્રવન નામે ઉદ્યાન હતુ તે નગરમાં કમલ નામે ગાયાપતિ રહેને હવે તેની પત્નીનું નામ કમલાશ્રી હતું એમને એક દિકરી હતી તેનું નામ કમલા હતુ, તે એગ્ય કાળલબ્ધિના અવ સરે પુરુષાદાનીય-પુરુષ પ્રેક-પાર્શ્વનાથ અર્હત પ્રભુની પાસે પ્રજિત થઈ ગઈ ત્યારપછી મૃત્યુ થયા બાદ તે કાલ નામના પિશાચ કુમારેન્દ્રની અગ્ર
Page #1198
--------------------------------------------------------------------------
________________
૩
wwerwdwwwwd
यानि दाक्षिणात्यानां चानव्यन्तरेन्द्राणामग्रमहिषीणा भणितभ्यानि । सर्वाश्रिताः पूर्वभवे नागपुरे नगरे सजाताः सहस्रानाने उद्याने भगवत्पार्श्व ममोः समीपे प्रवजिताः । मातापिता दुहिता सदृशनामकः । आसा स्थितिरर्द्धपक्ष्योपमम् ||५०१०॥ ॥ इति धर्मकथानां पञ्चमो वर्गः समाप्तः ॥ ५ ॥
1
मूलम् -छट्टोवि वग्गो पंचमवग्गसरिसो, नवरं महाकालादोणं उत्तरिहाणं इदाणं अग्गमहिसीओ पुग्वभवे सायनयरे उत्तरकुरु उज्जाणे माया पिया धूया सरिक्षणामया सेसं तं चैव ॥ सू० ११ ॥ ॥ छट्टो वग्गो समत्तो ॥ ६॥
बाकी जो ३१, कमलप्रभा नामके अध्ययन हैं वे दक्षिण दिशा सबन्धी घानव्यतरेन्द्रों की अग्रमहिपियों के हैं ऐसा जानना चाहिये। ये सब ही पूर्वभव में नागपुर नगर में उत्पन्न हुई और सहस्राम्रवन नामके उद्यान में भगवान् पार्श्वनाथ के समीप प्रब्रजित हुई । इन अध्ययनों में माता पिता तथा पुत्री ये सब एक सरीखे नामवाली है । जैसे कमलप्रभा नामक अध्ययन में माता का नाम कमलप्रभा श्री, पिता का नाम कमलप्रभ एच पुत्री का नाम कमलप्रभा है-इसी तरह से और अध्ययनों में भी जानना चाहिये। इन सब देवियों की स्थिति अर्धपत्य की है || १०|
-: पचमवर्ग समाप्त:
મહિષી ( પટરાણી ) ખની ત્યા તેની સ્થિતિ અપ પલ્પની છે. શેષ જે ૩૧ મલપ્રભા નામના અધ્યયને છે તે દક્ષિણ દિશા સ ખ પીવાનન્ય તરૅન્દ્રોની અગ્રમહીષીઓ ( પટરાણીએ ) ના સમજવા જોઈએ આ અધી પૂર્વભવમાં નાગપુર નગરમાં ઉત્પન્ન થઈ અને સહસ્રામ્રવન નામના ઉદ્યાનમા ભગવાન પાર્શ્વનાથની પાસે પ્રજિત થઈ ગઈ આ મધા અધ્યયનામા માતાપિતા તેમજ પુત્રી આ સર્વે એક સરખા નામવાળા છે જેમકે કમલપ્રભા નામના અધ્યય નમાં માતાનું નામ કમલપ્રભાશ્રી, પિતાનુ નામ કમલપ્રભ અને પુત્રીનુ નામ કમલપ્રભા છે એ પ્રમાણે ખીજા અધ્યયના વિષે પણ જાણી લેવું જોઇએ આ "ધી દેવીઓની સ્થિતિ અધપત્યની છે ! સૂ॰ ૧૦ ॥
પાચમા વર્ગ સમાપ્ત
Page #1199
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधर्मामृतषिणो टी० श्रु.२ व ६ कमलादिदेवोना चरित्रवर्णनम् ८३९ _____टीका-'छटोवि' इत्यादि पष्ठोऽपि वर्ग: पञ्चमवर्गसदृशः । नवरम्-एता वान् विशेष -अत्र महाकालादीनाम् उत्तरीयाणामिन्द्राणामयमहिप्यः । एताः सर्वाः पूर्वभवे साकेवनगरे उत्तरकुख्याने पार्श्वप्रभुसमीपे प्राजिताः मातरः पितरो दुहितरः सदृशनामकाः । शेप तदेन सर्व वाच्यम् ।। मू० ११ ॥ इति धर्फकथाना पप्ठो वर्गः समाप्तः ॥ ६ ॥
-:षष्ठवर्ग प्रारम:'छट्टो वि वग्गो पचमवग्गसरिसो' इत्यादि ।
टीकार्य -(छटो वि वग्गो पचमवग्गसरिसो, णवर महाकालादीण उत्तरिल्लाण इदाण अग्गमहिसीओ पुन्वभवे सागेयनयरे उत्तरकुरुड जाणे माया पिया धृया सरिसणामया सेस त चेव ११) छठा वर्ग भी पचमवर्ग के जैसे ही है। परन्तु इसमें जो उसकी अपेक्षा विशेषता है -वह इस प्रकार है-इस अध्ययन में उत्तर दिशा के इन्द्र महाकाल आदिकों की अग्रमहिषियों का वर्णन है। ये सब अग्रमहिपिया पूर्वभव में साकेत नगर (अयोध्या) में उत्तर कुरु नामके उद्यान में पार्थप्रभु के समीप प्रव्रजित हुई है। माता पिता एव पुत्रिया ये सब एक जैसा नामवाले हैं। बाकी का इनके विषय का समस्त कथन कालीदेवी के वर्णन जैसा जानना चाहिये।
-:पाठवर्ग समाप्त:
છઠ્ઠો વર્ગ પ્રારભ – 'छटो वि वग्गो पचम वसरिसो' इत्यादि(छट्ठो विवग्गो पचमवग्गसरिसो, णवर महाकालादीण उत्तरिल्लाण इदाणं अग्गमहिसीभी पुन्वभवे सागेय नयरे उत्तरकुरु उजाणे मायापिया या सरिस णामया सेस व चेव ११)
છઠ્ઠો વર્ગ પણ પાચમા વર્ગના જેવું જ છે પરંતુ આમા જે તેના કરતા વિશેષતા છે, તે એ પ્રમાણે છે કે આ અધ્યયનમાં ઉત્તર દિશાના ઈન્દ્ર મહાકાલ વગેરેની અગમહિષીઓ (પટરાણીએ) નું વર્ણન છે આ બધી અગ્રમહિષીઓ પૂર્વભવમાં સાકેત નગરમાં ઉત્તમુરૂ નામના ઉથાનમાં પાર્શ્વ પ્રભુની પાસે પ્રવૃજિત થઈ છે માતાપિતા અને પુત્રીઓ બધા એક સરખા નામવાળા છે એમના વિષેનુ બાકીનું બધુ કથન કાલી દેવીના વર્ણન જેવું જાણવું જોઈએ
છો વર્ગ સમાસ,
Page #1200
--------------------------------------------------------------------------
________________
areमेवा यनानि दाक्षिणात्यानां वानव्यन्तरेन्द्राणामग्रमहिषीणां मणितव्यानि । सविता पूर्वभवे नागपुरे नगरे संजाताः, सहस्राम्राने उद्याने भगवत्पाश्रममोः समीपे प्रवजिताः । मातापिता दुहिता सदशनामकः । आसा स्थितिरपल्पोपमम् ।।५०१०॥
॥ इति धर्मकथानां पञ्चमो वर्गः समाप्तः ॥ ५ ॥
मूलम्-छहोवि वग्गो पचमवग्गसरिसो, णवरं महाकाला. दीणं उत्तरिहाणं इदाणं अग्गमहिसीओ पुबभवे सागेय। नयरे उत्तरकुरु उज्जाणे माया पिया धूया सरिसणामया सेसं तं चेव ॥ सू० ११ ॥
॥छटो वग्गो समत्तो ॥ ६ ॥ घाको जो ३१, कमलप्रभा नामके अध्ययन हैं वे दक्षिण दिशा सबन्धी पानव्यतरेन्द्रों की अग्रमरिपियों के हैं ऐसा जानना चाहिये। ये सब ही पूर्वभव में नागपुर नगर में उत्पन्न हुई-और सहस्राम्रवन नामके उद्यान में भगवान पार्श्वनाथ के समीप प्रव्रजित हुई । इन अध्ययनों में माता पिता तथा पुत्री ये सब एक सरीखे नामवाली है । जैसे कमलप्रभा नामक अध्ययन में माता का नाम कमलप्रभा श्री, पिता का नाम कमलप्रभ एव पुत्री का नाम कमलप्रभा है-इसी तरह से और अध्ययनों में भी जानना चाहिये। इन सब देवियों की स्थिति अर्धपल्य की है ।। सू१०।
-पचमवर्ग समाप्तः-- મહિષી (પટરાણું) બની ત્યા તેની સ્થિતિ અર્ધપત્યની છે શેષ જે ૩૧ કમલપ્રભા નામના અધ્યયને છે તે દક્ષિણ દિશા સ બ ધી વાનવ્ય તરેન્દ્રોની અગ્રમહીષીઓ (પટરાણીએ) ના સમજવા જોઈએ આ બધી પૂર્વભવમાં નાગપુર નગરમાં ઉત્પન્ન થઈ અને સહસ્સામ્રવન નામના ઉદ્યાનમાં ભગવાન પાશ્વનાથની પાસે પ્રવજિત થઈ ગઈ આ બધા અધ્યયનેમા માતાપિતા તેમજ પુત્રી આ સર્વે એક સરખા નામવાળા છે જેમકે કમલપ્રભા નામના અપ્રય નમા માતાનું નામ કમલપ્રભાશ્રી, પિતાનું નામ કમલપ્રભ અને પુત્રીનું નામ કમલપ્રભા છે એ પ્રમાણે બીજા અધ્યયને વિષે પણ જાણી લેવું જોઈએ આ બધી દેવીઓની સ્થિતિ અર્ધપત્યની છે. સૂત્ર ૧૦
પાચમો વર્ગ સમાપ્ત
Page #1201
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेगारधर्मामृतवपिणी टो० भु २ च ७ सूरप्रमादिदेवीना चरितवर्णनम् ८३७ ययामरममा १, आतपा २, अचिर्मालि' ३, मभरकरा ४ । प्रथमाध्ययनस्योत्क्षे पकः । सुधर्मस्वामीमाह-एम खलु हे जम्मू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये रान गृहे समवसरणम् भगवद्वर्धमानस्नामिसमागमनम् यावत् परिपत् पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये सरप्रभादेवी, मूरविमाने, मूरमभे सिंहासने, शेप भगवान महावीर ने इस सातवें वर्ग के चार अध्ययन प्ररूपित किये हैं -(त जहा-सूरप्पभा, आयवा, अचिमाली, पभकरा, पढमज्झयणस्प्त, उम्खेवओ एव खलु जन् ! तेण कालेण तेण समण्ण रायगिहे समोसरण जाव परिमा पज्जुवासइ, तेण कालेण तेण समएण मूरप्पभा देवी. सूरसि विमाणसि सरप्प भसि सीहासणसि सेस जहा कालीए तहा) वे चार अध्ययन इस प्रकार है सूरप्रभा १, आतपा २, अर्चिमाली ३, प्रभङ्करा ४, इनमें प्रथम अध्ययन का उत्क्षेपक हे जब ! इस प्रकार हैउस काल और उस समय में राजगृह नाम के नगर मे भगवान् वर्ध मानस्वामी का आगमन हुआ था-प्रभु का आगमन सुनकर वहा की परिपद उनको वदना करने के लिये उनके समीप गई-प्रभु ने सयको धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुनकर सबने प्रभु की पर्युपासना को। उस काल और उस समय में सरप्रभा नाम की एक देवी जो सरविमान में रहती थी-और सूरप्रम सिंहासन पर बैठती थी प्रभु को वदना करने के लिये आई। इसके गद का इसका वृत्तान्त जैसा पहिले कालीदेवी
(त जहा-मूरप्पमा, आयवा, अन्चिमाली, पभरा, पढमज्झयणस्स, उक्खेवओ एव खलु जवू । तेण कालेण तेण समएण रायगिहे समोसरण जाव परिसा पज्जुबासइ, तेण काटेण तेण समएण सूरप्पभादेवी, सूरसि विमाणसि मूरप्पमसि सीहासणसि सेस जहा कालीए तहा)
- તે ચાર અધ્યયને આ પ્રમાણે છે –સૂરપ્રભા ૧, આતયા ૨, અચિંમાલી ૩, પ્રભડકરા ૪, હે જ બૂ! આ બધામાં પહેલા અધ્યયનને ઉલેપક આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામના નગરમા ભગવાન વર્ધમાન સ્વામીનું આગમન થયું પ્રભુનું આગમન સાભળીને ત્યાની પરિષદ, તેમને વદના કરવા માટે તેમની પાસે ગઈ પ્રભુએ સૌને ધર્મને ઉપદેશ આ ઉપદેશ સાંભળીને સૌએ પ્રભુની પર્યાપાસના કરી તે કાળે અને તે સમયે સૂરપ્રભા નામની એક દેવી-જે સૂર વિમાનમાં રહેતી હતી અને સૂરઝમ સિંહાસન ઉપર બેસતી હતી-પ્રભુની વદના કરવા માટે આવી એના પછી
Page #1202
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताधर्मकथा अथ सप्तमो वर्गः प्रारभ्यते-'सतमस्से ' त्यादि।
मूलम्-सत्तमस्स वग्गरस उपवाओ, एवं खलु जंबू । जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा-सरप्पमा आयवा अच्चिमाली पभकरा, पढमज्झयणस्स उरसेवओ, एव खलु जव । तेणं कालेणं तेण समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेण समएणं सूरप्पभा देवी सूरसि विमाणंसि सूरप्पभसि सीहासणंसि सेस जहा कालीए तहाणवर पुवभवे अरक्खुरीए नयरीए यूरप्पभस्स गाहाव इस्स सूरसिरीए भारियाए सुरप्पभा दारिया सूरस्स अग्गमहिसी ठिई अद्धपलिओवम पचहि वाससएहिं अभहिय सेसं जहा कालीए, एव सेसाओवि सव्वाओ अरक्खुरीए णयरीए ॥ सू० १२ ॥ ॥ सत्तमो वग्गो समत्तो ॥ ७ ॥
टीका-'सत्तमस्से 'ति-सप्तमस्य वर्गस्य उत्पः । मुधर्मस्वामीकथ यति-एव खलु हे जम्मूः । यावत् चत्वारि अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तधमा तानि
-सप्तमवर्ग प्रारभा'सत्तमस्सवग्गरस उक्खेवओ' इत्यादि ।
टीकार्थः-(सत्तमस्स वग्गस्स उक्खेवओ एच खलु जवू ! जाव चित्तारि अज्झयणा पण्णत्ता) हे भदत । सातवें वर्ग का उत्क्षेपक किस प्रकार है' इस जबूस्वामी के प्रश्न करने पर गौतमस्वामी उनसे करते हैं-कि हे जब सुनो, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-श्रमण
सातभा का प्रारस'सत्तमास वास्स उखेवओ' इत्यादि
साथ-(सत्तमरस घग्गस उम्सेवओ एवासलु जन् ! जावाचत्तारि अन्य यणा पण्णचा) : महन्त ! मातभा वगना अत्ये५ वी शत छ ?
જબૂ સ્વામીના આ પ્રશ્નને સાભળીને ગૌતમ પામી તેમને કહે છે કે હે જ બૂ! સાભળે, તમારા પ્રશ્નને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ સાતમા વર્ગના ચાર અધ્યયને પ્રરૂપિત કર્યા છે -
Page #1203
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगीरचामृतवपिणी टो• श्रु २ व ७ सूरप्रमादिदेयोना चरित्रवर्णनम् ८३७ यथासूरममा १, आतपा २, अधिर्मालिः ३, प्रभाकरा ४ । प्रथमा ययनस्योत्क्षे पका । सुधर्मस्वामीमाह-एन खलु हे जम्मू ! तस्मिन काले तस्मिन् समये रान गृहे समवसरणम्-भगवर्धमानमामिसमागमनम् यावत् परिपत् पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये मुरमभादेवी, भूरविमाने, मुरप्रभे सिंहासने, शेप भगवान महावीर ने इस सातवें वर्ग के चार अध्ययन प्ररूपित किये हैं -(त जहा-सूरप्पभा, आयवा, अचिमाली, पभकरा, पदमझयणस्त, उरखेवओ व खलु जबू! तेण कालेण तेण समण्ण रायगिहे समोस. रण जाव परिमा पन्जुवासइ, तेण कालेण तेण समएण सूरप्पमा देवी, सूरसि विमाणसि सरप्प भलि मीहासणसि सेम जहा कालीए तहा) वे चार अध्ययन इस प्रकार है सरप्रभा १, आतपा २, अर्चिमाली ३, प्रभङ्करा ४, इनमें प्रथम अध्ययन का उत्क्षेपक हे जन् ! इस प्रकार हैउस काल और उस समय में राजगृह नाम के नगर में भगवान वर्ध मानस्वामी का आगमन हुआ या-प्रभु का आगमन सुनकर वहा की परिपद उनको वदना करने के लिये उनके समीप गई-प्रभु ने सबको धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुनकर सबने प्रभु की पर्युपासना को। उस काल और उस समय में सरप्रभा नाम की एक देवी जो सूरविमान
में रहती थी-और सूरप्रभ सिंहासन पर बैठती थी प्रभु को वदना करने __ के लिये आई। इसके गद का इसका वृत्तान्त जैसा पहिले कालीदेवी
(तं जहा-सरप्पमा, आयवा, अन्चिमाली, पभारा, पढमज्झयणस्स, उखेरओ एव खलु जन् । तेण कालेण तेण समएण रायगिहे ममोसरण जाव परिसा पज्जुसइ, तेण काटेण तेण समएण सूरप्पभादेवी, सूरसि विमाणसि सूरप्पमसि सीहासणसि सेस जहा कालीए तहा) ' તે ચાર અધ્યયને આ પ્રમાણે છે --સૂરપ્રભા ૧, આતપ ૨, અચિંમાલી ૩, પ્રભડકર ૪, હે જ બૂ! આ બધામા પહેલા અધ્યયનને ઉલેપક આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામના નગરમાં ભગવાન વર્ધમાન સ્વામીનું આગમન થયું પ્રભુનું આગમન સાભળીને ત્યાની પરિષદ તેમને વદન કરવા માટે તેમની પાસે ગઈ પ્રભુએ સૌને ધર્મને ઉપદેશ આ ઉપદેશ સાંભળીને સૌએ પ્રભુની પથુપાસના કરી તે કાળે અને તે મમયે સૂરપ્રભા નામની એક દેવી-જે સૂર વિમાનમાં રહેતી હતી અને સૂરપ્રભા સિહાસન ઉપર બેસતી હતી–પ્રભુની વદના કરવા માટે આવી એના પછીનું
Page #1204
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मकथा अथ सप्तमो गः प्रारभ्यते-'सतमस्से ' त्यादि । __ मूलम्-सत्तमस्त वग्गरस उरखेपओ, एव सलु जवू । जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा-सरप्पभा आयवा अच्चिमाली पभकरा, पढमज्झयणस्स उस्खेवओ, एव खल जव । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेण तेण समएणं सूरप्पभा देवी सूरसि विमाणंसि सूरप्पभंसि सीहासणंसि सेस जहा कालीए तहाणवर पुवभवे अरक्खुरीए नयरीए सूरप्पभस्स गाहाव इस्स सूरसिरीए भारियाए सुरप्पभा दारिया सूरस्त अग्गमहिसी ठिई अद्धपलिओवम पचहि वाससएहि अभिहिय
सेसं जहा कालीए, एव सेसाओवि सव्वाओ अरक्खुरीए । णयरीए । सू० १२ ॥ ॥ सत्तमो वग्गो समत्तो ॥ ७ ॥
टीका-'सत्तमस्से ' ति-सप्तमस्य वर्गस्य उत्क्षेपः । मुधर्मस्वामीकथ 'यति-एव खलु हे जम्मूः ! यानत् चत्वारि अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यया-तानि
-सप्तमवर्ग प्रारभा'सत्तमस्सवग्गस उम्खेवओ? इत्यादि ।
टीकाथैः-(सत्तमस्स वग्गस्स उक्खेवओ एव खलु जबू' जाव चित्तारि अज्झयणा पण्णत्ता) हे भदत ! सातवें वर्ग का उत्क्षेपक किस प्रकार है। इस जबूस्वामी के प्रश्न करने पर गौतमस्वामी उनसे कहते हैं-कि हे जबू। सुनो, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-श्रमण
सातमा का प्रारम-. 'सत्तमास वग्गस्स उक्खेवओ' इत्यादि ।
टा-(सत्तमरस वगास उखेरओ एवासलु जवू | जाव चत्तारि अज्झ यणा पणत्ता ) महन्त ! सातमा पनि ३५४ वी शत छ ? છે જ બૂ હવામીના આ પ્રશ્નને સાભળીને ગૌતમ સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જ બૂ! સાભળે, તમારા પ્રશ્નને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ સાતમા વર્ગના ચાર અધ્યયને પ્રરૂપિત કર્યા છે -
Page #1205
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ६०२ ६०८ चद्रप्रभादिदेवीनां चरिश्रवर्णनम् ८३९ अथाष्टमो वर्गः मारभ्यते -' अट्टमस्से ' त्यादि ।
मूलम - अट्टमस्स उक्खेवओ, एवं खलु जम्बू । जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा - चंदप्पभा दोसिणाभा अच्चि - माली पभंकरा, पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जवू | तेणं कालेणं तेण समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदप्पभा देवी चदप्पभंसि विमाणसि चदप्पभंसि सीहासणंसि सेस जहा कालीए, णवर पुव्वभवे महुराए णयरीए भंडीरवडेंसए उज्जाणे चदप्पभे गाहावई चंदसिरी भारिया चंदप्पभा दारिया चंदस्स अग्गमहिती ठिई अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अमहिय सेस जहा कालीए, एवं सेसाओवि महुराए जयरीए मायापियरोवि धूयासरिसणामा ॥ सू० १३ ॥ अट्टमो वग्गो समत्तो ॥ ८ ॥
1
टोका -' अमस्से वि-अष्टमस्य उत्क्षेपकः । सुधर्मास्वामी प्राह-एव खलु जम्मू ! यावत् चत्वारि अभ्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा = तानि यथा - चन्द्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा २, अर्चिर्मालि: ३, प्रभङ्करा ४ । प्रथमस्या ययनस्योत्क्षेपक । एव -: अष्टमवर्ग प्रारभ-:
अट्टमस्स उक्खेवओ ' इत्यादि ।
टीकार्य - ( अट्टमस्स उक्खेवओ-एव खलु जबू ! जाव चत्तारि अज्झपणा पण्णत्ता त- जहा - चदप्पभा, दोसिणाभा, अचिमाली, पभकरा, આઠમે વગ પ્રારભ
"
अट्टमरस अखेवओ, इत्यादि
( अट्ठमस्स उक्खेवओ-एव खलु जवू ' जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता- तं जहा - चदपभा, दोसिणाभा, अच्चिमाली, पमकरा, पदमस्स अज्झयणस्स उनखे -
6
Page #1206
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६३८
धर्मक
यथा पाल्पा 'काली देव्या वर्णन तथा विनेयम्, नारम्भय विशेष: पूर्वभवे अरनगरमभस्य गाथापतेः सुरथियो भार्यायाः सूरप्रमादारिश, सूरस्य अग्रगद्दिपी स्थितिर पल्योपम पञ्चभिर्वर्षशतैरभ्यधिकम् । शेष यथा काल्या । एव शेषा अपि = आतपादिकाः देव्यो अन्या । सत्र पूर्वभवे भरपुर्या नगर्यामासन् ॥ सु०१२ ॥
॥ इति धर्मधाना सप्तमो
"
गंः समाप्तः ॥ ७ ॥
का वृत्तान्त लिखा जा चुका है वैसा ही है । उसमें कुछ अन्तर नहीं है। ( णचर) परन्तु जिन नातों में अन्तर है - वह इस प्रकार है- ( पुग्वभवे ) यह पूर्वभव में (अरक्खुरीए नयरी सूरप्पभस्स गाहाबहस्स सूरसिरीए भारियाए सूरपभा दारिया सूरस्स अग्गमहिसी ठिई अद्वपलिओम पचहिं वाससएहिं अमहिय सेस जहा कालीए एव सेसाओ वि सव्वाओ अरक्खुरीए णयरी १२ ) अरक्षर नामकी नगरी में निवास करनेवाले सूरप्रभा गाधापति की सूर श्री भार्या की कुक्षि से अवतरी थी। इसका नाम सूरप्रभा था । यह सर को अग्रमहिपी हुई । इसकी वहा पांचसौ वर्ष से अधिक अर्धपत्य की स्थिति है । और इसका इस अवस्था का समस्त वर्णन काली समान ही है । इसी तरह का आतपाआदिक ३ देवियों का भी जीवन वृत्तान्त है। ये ३ तीनों ही देवियां अपने २पूर्व भव में अरक्षुर नगरी में जन्मी थी । सू०१२ ॥ - सप्तमवर्ग समाप्तः
આનુ વર્ણન કાલી દેવીના વન જેવુ જ સમજી લેવુ જોઇએ, તેમા કાઇ પણ જાતના તફાવત નથી (નર) પરંતુ જે વાતમા તફાવત છે, તે આ अभाये छे ( पुत्रभवे ) मा पूर्वभवमा
( अरक्खुरीए नयरीए सूरप्यभस्म गाहावइस्स सुरसिरीए भारियाए सूरप्पभा दारिया सूरस्स अग्गमहिसी ठिई अद्धपलिभोत्रम पचर्हि वाससएहिं अमहिय सेस जहा कालीए, एव सेसाओ वि सव्याओ भरक्खुरीए जयरीए १२ )
અરક્ષરી નામની નગરીમા રહેનારી સૂરપ્રભા ગાચાપતિની સૂરશ્રીભાર્યાના ગાઁથી જન્મ પામી હતી, તેનુ નામ સૂરજપ્રભા હતુ તે સૂરની અમહિષી ( પટરાણી ) થઈ તેની ત્યા પાચસે વર્ષ કરતા વધારે અધપક્ષની સ્થિતિ છે તેનુ આ અવસ્થા વિષેતુ મધુ વધુ ત કાલીના જેવુ જ છે એ પ્રમાણે જ આતપા વગેરે ૩ દેવીઓનુ પણ જીવનવૃત્તાત છે આ ત્રણે દેવીએ પેાત માતાના પૂર્વભવમાં મરન્નુર નગરમાં જન્મ પામી હતી પસૢ૦૧૨ના સાતમે વર્ગ સમાસ
Pragy
Page #1207
--------------------------------------------------------------------------
________________
गनगारधर्मामृतविणी टीका भु०२००८ चन्द्रप्रभादिदेवीना चरिनवर्णनम् ८४१ विजयम् , नपर-विशेषस्त्वयम्-पूर्वभवे मयुराया न गया भण्डीरावत सामुयानम् , चन्द्रप्रभो गाथापतिः, चन्द्रश्रो र्या, चन्द्रप्रभा दारिका, चन्द्रस्याग्रमहिपी, स्थितिर पल्योपम पञ्चाशद्भिर्वर्षपौरभ्यधिकम् । शेप यथा काल्याः । एव चद्रप्रभ विमान मे रहती थी और चद्रप्रभ सिंहासन पर बैठती थीश्रमण भगवान् महावीर को वदना करने एव उनसे धर्म का उपदेश सुनने के लिये उनके निकर आई- इसके बाद का इसका वृत्तान्त कालीदेवी के वृत्तान्त जैसा ही है। उसमें कोई अन्तर नही है। जहां अन्तर है-उसका खुलासा इस प्रकार है-पूर्वभव मे यह मथुरा नगरी में जन्मी थी। वहा भडीरावतसक उद्यान था। उस नगरी में चद्रप्रभ नाम का गायापति रहता था। उसकी भार्या थी जिसका नाम चद्रश्री था। उनके यहा यह चद्रप्रभा नामकी पुत्री थी। यह चन्द्र की अग्रमदिपी चनी। (ठिई अद्धपलिओचम, पण्णासाए वाससहस्सेहिं अभत्यि सेस जहा कालीए एव से साओवि चदस्स अग्गमहिसी) पचास हजार वर्ष से अधिक इसकी स्थिति आधेपल्य की है। इसके बाद का इसका जीवन वृत्तान्त काली दारिका के जीवन वृत्तान्त जैसा ही जानना चाहिथे। इसी तरह ज्योत्स्नाभा आदिशेष ३ देवियो के सन्ध को लेकर जो अध्ययन कहे गये है-वे जानना चाहिये ये सब ज्योत्स्नाभा
વિમાનમાં રહેતી હતી અને ચદ્રપ્રભ વિમાનમાં બેસતી હતી-શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની વદના કરવા માટે અને તેમની પાસેથી ધર્મને ઉપદેશ સાંભળવા માટે તેમની પાસે આવી તેના પછીનું તેનું વૃત્તાત વલી દેવીના વૃત્તાત જેવું જ છે તેમાં કોઈ પણ જાતને તફાવત નથી જ્યાં તફાવત છે–તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે કે પૂર્વ ભવમા તે મથુરા નગરીમાં જન્મી હતી, ત્યા ભડરાવત સક ઉદ્યાન હતુ તે નગરીમા ચ દ્રપ્રભનામે ગાથાપતિ રહેતો હત ચશ્રી તેની ભાર્યાનું નામ હતું તેને ચદ્રપ્રભા નામે પુત્રી હતી આ ચન્દ્રની અગમહિલી (પટરાણી) થઈ
(ठिई अद्धपलिओचम, पण्णासाए वासपहस्सेहिं अमहिय सेस जहा कालीए एव सेसाओपि चदम्स अग्गमहिसी)
પચાસ હજાર વર્ષ કરતા આની સ્થિતિ અડધા પત્યની છે એના પછીનું આખુ જીવન વિષેનું વર્ણન કાલી દારિકાના જીવન જેવું જ સમજી લેવું જોઈએ આ પ્રમાણે નભા વગેરે બાકી ત્રણ દેવીઓના સ બ ધને લ.જે અધ્યયન કહેવામાં આવ્યા છે તેમને પણ સમજી લેવા જોઈએ
Page #1208
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाताचर्मकार
८४०
खलु हे जम्मूः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये रामगृहे श्रीमहावीरस्वामिनः समय सरण, यावत्परिषत् पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये चन्द्रमा देवी चन्द्रप्रभे विमाने चन्द्रमभे सिंहासने शेष यथा वाल्या = कालीदेव्या वर्णनं तद्वद् पढमस्स अज्झयणस्स उत्सेत्रओ-एव पलु जत्र । तेण काळेणं तेण समरण रायगिहे ममोसरण - जान परिसा पज्जुनासह, तेण कालेन तेण समण्ण चदप्पभादेवी चदप्यममि विमाणसि सीहामणमि सेम जहा फालीए, णवर पुन्चभवे महरा णपरीत भठीरवमय उज्जाणे चदप्पभे गाहावई चदसिरी मारिया चदप्पभा दारिया ) हे भदत ! आठवें वर्ग का उत्क्षेपक कैसा है ? इस प्रकार जत्रुस्वामी के पूछने पर सुधर्मास्वामी ने उनसे कहा- हे जत्रु ! सुनो तुम्हाने प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है - श्रमण भगवान् महावीर ने इस वर्ग के चार अध्ययन प्रज्ञप्त किये है - वे इस प्रकार से हैं- चंद्रप्रभा १, ज्योत्स्नामा २, अर्चिर्माली ३, प्रभकरा ४, | इनमे हे बू । प्रथम चन्द्रप्रभा अध्ययन का उत्क्षेपक इस प्रकार से है - उस काल मे और उस समय में राजगृह नामके नगर में श्री मोवीर स्वामी का आगमन हुआ था। उनसे धर्म का उपदेश प्राप्त करने के लिये वहा की समस्त धार्मिक जनता उनके पास आई थी प्रभु नेस के लिये धर्म का उपदेश सुनाया सुनाकर सबो ने उनकी यावत् पर्युपासना की । उस काल और उस समय में चन्द्रप्रभा देवी जो कि वो - एव खलु जनू | तेण कालेन तेण समरण रायगिदे समोसरण - जाव परिसा पज्जुवासर, तेण कालेन तेण समएण चदप्पभादेवी चदप्पभसि विमाणसि चदप्पभसि सीहाससि सेस जहा कालीए, णवर पुत्रभवे महुराए जयरीए भडीवडेंसए उज्जाणे चदपभे गाहावई चदसिरी भारिया चदप्पमा दारिया )
હે ભદન્ત ! આઠમા વષઁના ઉલ્લેષક કેવા છે ?
આ પ્રમાણે જમ્મૂ સ્વામીના પ્રશ્ન કર્યો બાદ સુધર્મા સ્વામીએ તેમને હ્યુ કે હે જમ્મૂ ! સાભળેા તમારા પ્રશ્નના ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ વર્ગના ચાર અધ્યયના પ્રાપ્ત કર્યો છે, તે આ પ્રમાણે છે-ચદ્રપ્રભા ૧ ज्योत्स्नाला २, मार्थिभासी 3, પ્રભુ ક૨ા જ હું જ ખૂ ! આ ચારેમા પહેલા ચન્દ્રપ્રભા નામે અધ્યયનના ઉક્ષેપક આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને સમયે રાજગૃઢ નામના નગરમા શ્રી મહાવીર સ્વામીનુ આગમન થયુ તેમની પાસેથી ધર્મકથા સાભળવા માટે ત્યાની ખધી ધાર્મિક જનતા ત્યા આવી પ્રભુએ ધમ ના ઉપદેશ સભળાવ્યે માભળીને બધાએ તેમની યાત્ * પયુ પાસના કરી કાળે અને તે સમયે ચદ્રપ્રભાદેવી-કે
.
પ્રભ
Page #1209
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मामृत
टीका भु०२६०८ चन्द्रप्रभादिदेवीना चरिनवर्णनम् ८४१ विज्ञेयम्, नगर=विशेषस्त्वयम् - पूर्वभवे मथुराया नगर्नी भण्डी रावतसमुयानम्, चन्द्रभो गावापतिः, चन्द्रयोर्भार्या, चन्द्रप्रभा दारिका, चन्द्रस्याग्रमहिपी, स्थितिरर्द्ध पल्योपम् पञ्चाशद्भिर्वपदसैरभ्यधिकम् । शेष यथा काल्याः । एव
1
चद्रप्रभ विमान मे रहती थी और चंद्रप्रभ सिंहासन पर बैठती थीश्रमण भगवान् महावीर को वदना करने एवं उनसे धर्म का उपदेश सुनने के लिये उनके निकट आई। इसके बाद का इसका वृत्तान्त कालीदेवी के वृत्तान्त जैसा ही है । उसमें कोई अन्तर नही है । जहा अन्तर है - उसका खुलाशा इस प्रकार है- पूर्वभव मे यह मथुरा नगरी में जन्मी थी । वहा भडीरावतसक उद्यान था । उस नगरी में चद्रप्रभ नाम का गाधापति रहता था । उसकी भार्या थी जिसका नाम चद्रश्री था । उनके यहा यह चद्रप्रभा नामकी पुत्री थी । यह चन्द्र की अग्रमहिपी नी । (ठिई अपलिओयम, पण्णासाए वाससहस्सेहिं अमहिय सेस जहा कालीए एव सेसाओवि चदस्त अग्गमहिसी ) पचास हजार वर्ष से अधिक इसकी स्थिति आधेपत्य की है। इसके बाद का इसका जीवन वृत्तान्त काली दारिका के जीवन वृत्तान्त जैसा ही जानना चाहिये | इसी तरह ज्योत्स्नाभा आदिशेष २ देवियो के संबन्ध को लेकर जो अध्ययन कहे गये है वे जानना चाहिये ये सन ज्योत्स्नाभा
વિમાનમા રહેતી હતી અને ચદ્રપ્રભ વિમાનમા બેસતી હતી-શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની વદના કરવા માટે અને તેમની પાસેથી ધમના ઉપદેશ સાભળવા માટે તેમની પાસે આવી તેના પછીનુ તેનુ વૃત્તાત ફાલી દેવીના વૃત્તાત જેવુ જ છે તેમા કાઇ પણ જાતને તફાવત નથી જ્યા તફાવત છે—તેનુ સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે કે પૂર્વભત્રમા તે મથુરા નગરીમા જન્મી હતી, ત્યા ભડીરાવત મક ઉદ્યાન હતુ તે નગરીમા ચદ્રપ્રભનામે ગાથાપતિ રહેતા હતા ચદ્રશ્રી તેની ભાનુ નામ હતુ તેને ચન્દ્રપ્રભા નામે પુત્રી હતી આ ચન્દ્રની અગ્રમહિષી ( પટરાણી ) થઈ
( ठिई अपलिओत्रम, पण्णासाए वासमहस्सेहिं अमहिय सेस जहा कालीए एन सेसाओपि चदस्स अग्गमहिसी )
પચાસ તુજાર વર્ષ કરતા આની સ્થિતિ અડધા પત્યની છે એના પછીનુ આનુ જીવન વિષેનુ વર્ણન કાલી દ્વારિકાના જીવન જેવુ જ સમજી લેવુ જોઈએ આ પ્રમાણે યૈાસ્નાભા વગેરે ખાકી ત્રણ દેવીઓના સ ખ ધને લઈઅે. અવ્યયનો કહેવામા આવ્યા છે તેમને પણ સમજી લેવા જેઈએ
Page #1210
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४०
me
माताकया सलु हे जम्यूः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे श्रीमाात्रीरस्वामिनः समन सरण, यात्-परिपत् पर्युपास्ते । तस्मिन् पाले तस्मिन ममये चन्द्रप्रभा देवी चन्द्रप्रभे रिमाने चन्द्रप्रभे सिंहासने शेप यथा पाल्या! कालीदेव्या वर्णन तद्वद् पढमस्स अज्झयणस्त उक्सेनो-पलु जबू! तेण काछेण तेण समरण रायगिहे समोमरण-जार परिसा पन्जुवामा, तेण कालेण तेण समाण चप्पभादेवी चदपममि विमाणसि सीहामणसि सेम जहा फालीण, णवर पुन्वभवे महुराए परी भटीरचंडमा उजाणे चदप्पभे गारावई चदसिरी मारिया चप्पभा दारिया) हे भदत ! आठवें वर्ग का उत्क्षेपक कैसा है ? इस प्रकार जबूस्वामी के पूरने पर सुधर्मास्वामी ने उनसे कहा-है ज ! सुनो तुम्हाने प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-श्रमग भगवान महावीर ने इस वर्ग के चार अध्ययन प्रजप्त किये है -वे इस प्रकार से हैं-चद्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा २, अचिर्माली ३, प्रमकरा ४,। इनमे हे जवू ! प्रथमचन्द्रप्रभा अध्ययन का उत्क्षेपक इस प्रकार से है-उस काल मे और उस समय में राजगृह नामके नगर में श्री महावीर स्वामी का आगमन हुआ था। उनसे धर्म का उपदेश प्राप्त करने के लिये वहा की ममस्त धार्मिक जनता उनके पास आई थी प्रभु ने सब के लिये धर्म का उपदेश सुनाया-सुनाकर सपा ने उनकी यावत् पर्युपासना की । उस काल और उस समय में चन्द्रप्रभा दवी जो कि वो-एव खलु जन् । तेण कालैणं तेण समएण रायगिहे समोसरण-जाव परिसा पज्जुवासइ, तेण कालेण तेण समएण चदप्पभादेवी चदप्पास निमाणर्सि चदप्पभसि सीहासणसि सेस जहा कालीए, णवर पुषभवे महुराए णयरीए भडीरवडेंसए उज्जाणे चप्पभे गाहावई चदसिरी भारिया चदप्पभा दारिया)
હે ભદન્ત ! આઠમા વર્ગને ઉન્નેપક કે છે ?
આ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્ન કર્યા બાદ સુધર્મા સ્વામીએ તેમને કહ્યું કે હે જ ! સાભળે, તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે શ્રમણ ભગવાન મહુવારે આ વર્ગના ચાર અધ્યયને પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે, તે આ પ્રમાણે છે-ચ દ્રપ્રભા ૧ સ્નાભા ૨, આર્થિમાલી ૩, પ્રભાકર ૪ હે જ બૂ આ ચારેમાં પહેલા ચન્દ્રપ્રભા નામે અધ્યયનને ઉલ્લેપક આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને સમયે રાજગૃહ નામના નગરમાં શ્રી મહાવીર સ્વામીનું આગમન • થયું તેમની પાસેથી ધર્મકથા સાંભળવા માટે ત્યાની બધી ધામિક જનતા વ્યા
આવી પ્રભુએ ધમનો ઉપદેશ સભળાવ્ય સાંભળીને બધાએ તેમની વાત “પયુ પાસના કરી તે કાળે અને તે સમયે ચંદ્રપ્રભા દેવી-કે જે દ્રપ્રભ
Page #1211
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतषिणी टीका शु०२५०८ चन्द्रप्रभादिदेवीना चरिनवर्णनम् ८४१ विनयम् , नपर-विशेषस्वयम्-पूर्वभवे मथुराया न गया भण्डीरावतसकमुबानम् , चन्द्रप्रभो गावापतिः, चन्द्रश्रो र्या, चन्द्रममा दारिका, चन्द्रस्याग्रमहिपी, स्थितिर पल्योपम पञ्चाशदिपारभ्यरिकम् । शेष यया काल्याः । एव चद्रप्रभ विमान में रहती थी और चद्रप्रभ सिंहासन पर बैठती थीअमण भगवान महावीर को वदना करने पर उनसे धर्म का उपदेश सुनने के लिये उनके निकट आई-- इसके बाद का इसका वृत्तान्त कालीदेवी के वृत्तान्त जैसा ही है। उसमें कोई अन्तर नहीं है। जहा अन्तर है-उसका खुलाशा इस प्रकार है-पूर्वभव मे यह मयुरा नगरी में जन्मी थी। वहां भडीरायतसक उद्यान या। उस नगरी में चद्रप्रभ नाम का गायापति रहता था। उसकी भार्या थी जिसका नाम चद्रश्री था। उनके यहा यह चद्रप्रभा नामकी पुत्री थी। यह चन्द्र की अग्रमहिपी बनी। (ठिई अद्धपलिओचम, पपणासाए वाससरस्सेहिं अभत्यि सेस जहा कालीए एव सेसाओवि चस्स अग्गमहिसी) पचास हजार वर्ष से अधिक इसकी स्थिति आधेपल्य की है। इसके बाद का इसका जीवन वृत्तान्त काली दारिका के जीवन वृत्तान्त जैसा ही जानना चाहिये । इसी तरह ज्योत्स्नाभा आदिवोप ३ देवियो के सरन्ध को लेकर जो अध्ययन कहे गये है-वे जानना चाहिये ये सब ज्योत्स्नाभा વિમાનમાં રહેતી હતી અને ચદ્રપ્રભ વિમાનમાં બેસતી હતી-શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની વદના કરવા માટે અને તેમની પાસેથી ધર્મને ઉપદેશ સાભળવા માટે તેમની પાસે આવી તેના પછીનું તેનું વૃત્તાત કલી દેવીના વૃત્તાત જેવું જ છે તેમાં કોઈ પણ જાતનો તફાવત નથી જ્યાં તફાવત છે–તેનું પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે કે પૂવ ભવમા તે મથુરા નગરીમા જન્મી હતી, ત્યા ભડીરાવતક ઉઘાન હતુ તે નગરીમા ચદ્રપ્રભનામે ગાથાપતિ રહે હવે ચદ્રથી તેની ભાર્યાનું નામ હતું તેને ચન્દ્રપ્રભા નામે પુત્રી હની આ ચન્દ્રની અગ્રમહિલી (પટરાણી) થઈ
(ठिई अद्धपलिओम, पण्णासाए पासमहस्सेहिं अमहिय सेस जहा कालीए एव सेसाओपि चदम्स अग्गमहिसी)
પચાસ હજાર વર્ષ કરતા આની સ્થિતિ અડધા પત્યની છે એના પછીનું આખુ જીવન વિષેનું વર્ણન કાલી દારિકાના જીવન જેવું જ સમજી લેવું જોઈએ આ પ્રમાણે જનાભ વગેરે બાકી ત્રણ દેવીઓના સ બ ધને
Page #1212
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४२
ान
शेपाः = ज्योत्स्नामादि देव्योऽपि वा । सर्वाः पूर्वमत्रे मथुरायां नग जाताः पार्श्वमसमीपे च प्रनजिता । मातापितरोऽपि दुद्द्वि सशनामान: ||मू०१३ || इतिधर्मकथानामाष्टमो वर्गः समाप्तः ॥ ८ ॥
अथ नमो वर्गः मारभ्यते-' णमम्म ' इत्यादि ।
मूलम् - णत्रमस्त उक्सेवओ, एवं खलु जंबू ! जात्र अटूअज्झयणा पण्णत्ता, त जहा पउमा सिवा सई अंजू रोहिणी नवमिया, अचला अच्छरा, पढमायणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू | तेणं कालेण तेणं समएण रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं काले तेणं समएणं पउमावई देवी सोहम्मे कप्पे पउमवडेंस विमाणे सभाए सुहम्माए पउमंसि सीहासणंसि जहा कालीए एव अट्टवि अज्झयणा कालीगमएण नायव्वा, जवर सावत्थीए दो जणीओ हत्थिणाउरे दोजणीओ कपिल्लपुरे दोजणीओ सागेयनयरे दोजणीओ पउमे पियरो विजया मायराओ सव्वाओऽवि पासस्स अंतिए पव्वइयाओ सक्कल अग्गमहिसीओ ठिई सत्त पलिओ माई महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जात्र अत काहिति ॥ सू०१४ ॥ ॥ णमो वग्गो समत्तो ॥ ९ ॥
आदि देविया पूर्वभव में (महुराए णयरीए ) मथुरा नगरी में उत्पन्न हुई और पार्श्वनाथ प्रभु के समीप दीक्षित हुई । ( माया पियरो वि० धृया सरिसणामा ) इन पुत्रियों का नाम वैसा ही नाम इनके माता पिता का है। - अष्टमवर्ग समाप्तः
मागधी ज्योत्स्नाला वगेरे हेवीओ पूर्व लवभा ( महुराए णयरीए ) भथुरा नगरीमा उत्पन्न थ मने पार्श्वनाथ प्रभुनी पामेथी दीक्षित थर्ध ( मायापियरो वि० धूया सरिणामा ) मा पुत्रीसोना नाभे। नेवा तेभना भातापिताओौना નામા પણ છે
આમે વગ સમાપ્ત
Page #1213
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैनगारधर्मामृतवर्षिणा टी० ० २०९ पद्मादिदेव चरित्रवर्णनम् ८४३
टीका' नवमस्से ' तिनमस्य वर्गस्योत्क्षेपकः । ए खलु हे जम्मूः । यानत् - अष्ट- अध्ययनानि मज्ञप्तानि तद्यथा- पद्मा १, शिवा २, शची ३ अजू ४, रोहिणी ५, नवमिका ६, अचला ७, अप्सरा ८ । एप प्रथमाध्ययनस्योत्क्षे-:नवमवर्ग प्रारंभ
-
णवमस्स उस्खेवओ इत्यादि ।
टीकार्य - ( णवमस्स उक्लेवओ - एव खलु जत्रू ' जाव अट्ठ अज्झ• यणा पण्णत्ता- जहा पउमा, सिवा, सई, अजू, रोहणी, णवमिया, अचला, अच्छरा - पढमज्झयणस्स उक्खेवओ - एव खलु जनू । तेण काळेणं तेणं समएण रायगिहे समोसरण जाव परिसा पज्जुवासह, तेण काले तेण समरण पउमावई, देवी सोहम्मे कप्पे पडमबर्डेस विमाणे सभाए सुम्माए पउमसि सीरासणसि जहा कालीए एव अट्ठवि अज्झया कालीगण नायव्वा ) हे भदत ! नौवे वर्ग का उत्क्षेपक किस प्रकार से है ? इस प्रकार जवू स्वामी के प्रश्न करने पर सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि हे जबू ! सुनो- तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस तरह से है- श्रमण भगवान् महावीर ने इस वर्ग के यावत् आठ अध्ययन प्रख पित किये वे इस प्रकार से हैं- पद्मा १, शिवा, २, शची ३, अजू ४, रोहिणी ५, नवमिका ६, अचला ७, और अप्सरा । इनमें हे जत्रू | प्रथम
-
નવમા વર્ગ પ્રાર ભ
( नमस्स उक्खेनओ - ए खलु जबू ! जान अह अज्झयणा पण्णत्ता व जहा पउमा, सिवा, सई, अजू, रोहिणी, नमिया, अचला, अच्छरा, पढमज्झयणस्त उ+खेत्रओ-एव खलु जनू ! तेण कालेन तेण समएण रायगिहे समोमरण जाव परिसा पज्जुवास, तेण कालेन तेण समएण पउमावई देवी सोहम्मे कप्पे पउम वडेंसए निमाणे समाए मुहम्माए पउमसि - सीहासासि जहा कालिए एव अवि अझयणा काली गमएण नायव्त्रा )
હે ભદ્દન ! નવમા વર્ગના ઉત્શેપક કેવી રીતે છે?
આ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્ન કર્યાં ખાદ સુધર્માં સ્વામી તેમને કહે છે કે હૈ જમ્મૂ ! સાભળેા, તમારા પ્રશ્નને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે—શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ વના યાવત્ આઠ અયના પ્રરૂપિત કર્યા છે, તે या प्रभाषे छे – पद्मा १, शिवा २, शथी 3, 24. भू ४, रोहिली ५, नव મિકા ર, અચલા ૭ અને અપ્સરા ૮
Page #1214
--------------------------------------------------------------------------
________________
be
कथा
1
पकः । एव खल हे जम्मूः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे समवसरणम् = भगवतो महावीरस्य समागमनमभृत् यावत् परिवत् पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पद्मावती देवी, सौधर्मे कल्पे पद्मावतसके रिमाने समाया सुधर्माया पो सिंहासने, यथा काल्याः । एनम् अष्टापि अध्ययनानि कालीगमन-कालीदेवी सदृशपाटेन ज्ञातव्यानि नगर=विशेषग्यम् पूर्वमने आया नगयी 'दोज
अध्ययन का उत्ष इस प्रकार से है-उस काल में और उस समय राजगृह नगर में भगवान् महावीर का अगमन हुजा था। लोगों को जय इनके शुभागमन की गनर पड़ी तो वे मन के सन उनको बदना करने के लिये और उनसे धर्मोपदेश को काम लेने के लिये उनके 'समीप पहुँचे । प्रभु ने आये हुए परिषद को नचारित्ररूप धर्म का उपदेश दिया । उपदेश सुनने के बाद उसने प्रभु की यावत् पर्युपामना की। उस काल मे और उस समय में पद्मावती देवी जो कि सौधर्मकल्प में पद्मावतक विमान में सुधर्मा सभामें रहती थी और जिसके
1
में
सिंहासन का नाम पद्म या श्रमण भगवान् महावीर को वदना करने और उनसे धर्म का उपदेश सुनने के लिये वहा आई । इसके बाद का सम्बन्ध कालीदेवी का जैसा वर्णन पहिले किया गया है वैसा ही जानना चाहिये। इसी तरह से अवशिष्ट सात अध्ययन भी जानना चाहिये । इन आठों ही अध्ययनों को पाठ जैसा कालीदेवी का पाठ है "वैसा ही है । कोई अन्तर नहीं हैं (णवर) परन्तु जहा अन्तर है वह
હું જ ભૂ ! આમા પહેલા અધ્યયનના ઉક્ષેપક આ પ્રમાણે છે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમાં ભગવાન મહાવીરનું આગમન થયુ લેને તેમના શુભાગમનની જ્યારે જાણ થઈ ત્યારે તેએ સર્વે તેમને વદન કરવા માટે અને તેમની પાસેથી ધમના ઉપદેશ સાભળવા માટે તેમની પાસે ગયા. પ્રભુએ આવેલા સલકાને શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મોના ઉપદેશ સભળાવ્યે ઉપદેશ સાભળીને લેાકાએ પ્રભુની યાવત્ પર્યુ`પાસના કરી તે કાળે અને તે સમયે પદ્માવતી દેવી-કે જે સૌધમ કલ્પમા, પદ્માવત સક વિમાનમા સુધર્માં સભામા રહેતી હતી અને જેના સિંહાસનનુ નામ પદ્મ હતુ-શ્રમણુ ભગવાન સહાવીરને વદન કરવા અને તેમની પાસેથી ધમના ઉપદેશ સાભળવા ત્યા આવી એના પછીનુ વર્ણન પહેલા કરવામા આવેલા કાલી દેવીના વર્ણનની જેમ સમજી લેવુ જોઇએ આ પ્રમાણે જ બાકીના સાત અધ્યયને વિષે પણ જાણી લેવુ જોઈએ એ આઠે નાઠ અધ્યયનના પાડે કાવી દેવીના જેવા જ
}
•
Page #1215
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतपिणी टी० श्रु २ ३० ९ पनादिदेवोना चरित्रवर्णनम् ८४५ णीभो ' द्वे जन्यौपद्मा-शिवाभिवे द्वे दारिके सजाते । एच हस्तिनापुरे द्वे जन्यौ श्रुतिः-अजः चेति, काम्पिल्यपुरे द्वे जन्यौ रोहिणीनत्रमिकानाम्न्यौ, साकेतनगरे द्वे जन्यो अचला-अप्सरा इति समाते । सर्वेपाम् ' पउमे' पद्मः पोति नामानः पितरः, विजया-विजयानाम्नो मातर आसन् । सर्वा अपि पार्थस्य पार्श्वप्रभोरन्तिके मजिताः, शक्रस्याग्रमहिप्यो जाता । तासा स्थितिः सप्तपल्योपमानि । एताः सर्वा महाविदेहे वर्षे सेत्स्यन्ति यावत्सर्वदुःखानामन्त करिष्यन्ति ।मु०१४॥
॥इति धर्मकथाना नवमो वर्गः समाप्तः ॥९॥ इस प्रकार से है-(सावत्थीए दोजणीओ) पद्मा और शिवा ये दो कन्याएँ पूर्व भवमे श्रावस्ती नगरी में उत्पन्न हुई (हत्यिणाउरे दोजणी
ओ, कम्पिलपुरे दी जणीओ सागेयनयरे दो जणीओ पउमे पियरो विजयाभायराओ सचओवि पासस्स अतिर पव्वइयाओ सकस्स अग्गमहिसीओ हिई सत्तपलिओवमाइ महाविदेहे चासे सिज्झिहिति जाव अत काहिंति १४' ) श्रुति और अजू ये दो हस्तिनापुरमें, रोहिणी, नवमिका ये दो काम्पिल्यपुरमें, अचला एव अप्सरा ये दो साकेत नगर में, उत्पन्न हुई । इन सर कन्याओके पिता का नाम पद्म और माता का नाम विजया था। ये सब कन्याएँ पार्श्वनाथ प्रभु के पास प्रव्रजित हुई है । शक की अग्रमरिपिया बनी है। इन की स्थिति सातपल्य थी। ये
छ तभ समय से नये तेभा । ५ नतना तशवत नथी (णर ) ५२ या तशत छ- २ प्रभारी ( सावत्थीए दोजणीओ) पावती અને શિવા આ બને ન્યાઓ પૂર્વભવમાં શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઉત્પન્ન થઈ
(हत्थिणाउरे दो जणीओ, कपिल्लपुरे दो जणीभो सागेय नयरे दो जणीओ पउमे पियरो विजया भायराओ सन्याओवि पामस्स अतिए पव्वदयाभो सक्कस्स अगमहिसीओ ठिई, सत्त पलिभोनमाइ महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अत काहिति “१४"।)
શ્રતિ અને અજૂ આ બને હસ્તિનાપુરમાં, રેજિણી અને નામિકા આ બને કાપિથપુરમા, અચલા અને અપ્સરા આ બને સાત નગરમાં ઉત્પન્ન થઈ આ બધી કન્યાઓના પિતાનું નામ પદ્ધ અને માતાનું નામ વિજયા હત આ બધી કન્યાએ પાશ્વનાથ પ્રભુની પાસે પ્રવજિત થઈ છે અને શકની અગ્નમહિષીઓ (પટરાણીઓ) બની છે એમની સ્થિતિ સાત પ૦ જેટલી
Page #1216
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६
মমতাজ अथ दशमो वर्ग मारभ्यते-दसमग ' इत्यादि।
मूलम्-दसमस्त उखेवओ, एवं सटु जयू | जाव अट्ट अज्झयणा पण्णत्ता, त जहा कण्हा य कण्हराई रामा तहरामरक्खिया वसू य । वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुधरा चेव ईसाणे॥१॥ पढमज्झयणस्त उक्खेवओ, एवं खलु जबू। तेणं कालेणं तेणं समएणं कण्हादेवी ईसाणे कप्पे कण्हवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए कण्हसि सीहासणंसि सेस जहा कालीए एवं अवि अज्झयणा कालीगमएणं णेयव्या, णवर पुव्वभवे वाणारसीए नयरीए दो जणीओ रायगिहे नयरे दो जणीओ सावत्थीए नयरीए दो जणीओ कोसबीए नयरीए दो जणीओ, रामे पिया धम्मा माया सव्वओऽवि पासस्ल अरहओ अंतिए पव्वइयाओ पुप्फचूलाए अजाए सिस्प्तिणीयत्ताए ईसाणस्त अग्गमहिसीओ ठिई णव पलिओवमाई महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्जिहिति मुच्चिहिति सव्वदुक्खाणं अत काहिति। एवं खलु जवू । णिक्खेवओ दसमवग्गस्त ॥ सू० १५ ॥
॥ दलमो वग्गो समत्तो ॥ १० ॥ टीका-'दसमस्से ' ति दशमस्य उत्क्षेपकः । एव खलु हे जम्मू । यावत् अष्ट-अभ्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-तानि गाथया प्रदर्श्यन्ते ' कण्हे 'त्यादि । सघ महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध अवस्था प्राप्त करेंगी-यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगी। सू०१४ ॥
॥ नवमवर्ग समास ॥ છે આ બધી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાથી સિદ્ધ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે યાવતુ સર્વ ૬ બેન અત કરશે | મૃ૧૪
| નવ વર્ગ સમાસ
Page #1217
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ०२ ०१० कृष्णादिदेवोना चरित्रवर्णनम् ८४७ कृष्णा १ च कृष्णराजिः २, रामा ३ तथा रामरक्षिका ४ व ५ वसुगुप्ता ६, वसुमित्रा ७, वसुन्धरा ८ चैत्र ईशाने ॥ १ ॥ "
(6
तत्तन्नामभिरध्ययनानि प्रसिद्धानि । तन प्रथमा ययनस्योत्क्षेपकः । एव खलु जम्मू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे नगरे भगवत श्रीमहावीर॥ दशमवर्ग प्रारंभ ॥ 'दसमस्त उम्खेवओ ' इत्यादि० "१५"
टीकार्थ - (दसमस्स उम्खेवओ एवं खलु जबू ! जाव अट्ठअज्झयणा पण्णत्ता-त जहा कण्हाय कण्ड्राई, रामा, तह रामरक्खिया वस्तृय । वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुधरा चेव ईसाणे "१" - पढमज्झयणस्स उक्खेवओ - एव खलु जनू ! ) हे भदन्त श्रमण भगवान महावीर ने दशवें वर्गका उत्क्षेपक किस प्रकार से कहा है ? इस तरह का जब ! स्वामी के प्रश्न का समाधान करने के निमित्त सुवर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि हे जबू' सुनो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है- श्रमण भगवान् महावीरने इस दशवें वर्ग के आठ अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं-वे ये हैं - कृष्णा १, कृष्णराज २, रामा ३, रामरक्षिका ४, वस्तू ५, वसुगुप्ता ६, वसुमित्रा ७, और वसुधरा । इन २ नामो द्वारा इन २ नाम वाले अभ्ययन प्रसिद्ध हुए है । इनमें प्रथम अध्ययन का हे जवू ! उत्क्षेपक દશમા વર્ગ પ્રાર ભ—
दस्समरस उक्खेवओ' इत्यादि
( दसमस्य उक्खेवओ - एव खलु जबू ! जान अह अज्झयणा पण्णत्ता-व जहा - कण्हा य कन्दराई, रामा तह रामरक्खिया वसूय । वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुधरा चेव ईसा ॥ १ ॥ पढमज्झयणस्स उक्खेवओ - एव खलु जनू 1 ) હૈ ભદન્ત 1 શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે દશમા કેવી રીતે કહ્યો છે ?
વર્ગના ક્ષેપક
આ પ્રમાણેના જ. સ્વામીના પ્રશ્નને સાભળીને તેના સમાધાન માટે શ્રી સુધર્માં સ્વામી તેમને કહે છે કે હું જ ખૂ ! સાભળા, તમારા પ્રશ્નના ઉત્તર આ પ્રમાણે છે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ દશમાવના આઠ અધ્યયના પ્રજ્ઞપ્ત કર્યાં છે, તે આ પ્રમાણે છે-તૃષ્ણા ૧, કૃષ્ણારાજિર, રામા ૩, રામરક્ષિકા ૪, વસૂ ૫, વસુગુપ્તા †, વસુમિત્રા છ અને સુવરા ૮
<
આ ઉક્ત જુદા જુદા નામેા વડે એ જ નામના જુદાજી ! અધ્યયને પ્રસિદ્ધ થયા છે હૈ જમ્મૂ ! આ બધામાથી પહેલા અ યનના ઉત્પ્રેષક
Page #1218
--------------------------------------------------------------------------
________________
R
८४८
माताधर्मकपाल स्यामिनः समयमरणं यारत् परिपत् पर्युपान्ते, तम्मिन् काले तस्मिन समये कृष्णा देवीईशाने कल्पे कप्यारतसके रिमाने सभायां सुधर्माया, करण सिंहामने, शेष इस तरह से ह-(तेण कालेण तेण समण रायगिहे समोसरण जाय परिसा पज्जुवासइ) उस काल एव उस समयमें राजगृह नगरमें भगवान् महावीर का शुभागमन हुआ था। परिपद उन को बदना आदि करने के लिये उनके समीप पहुँची। प्रभुने सबके लिये धर्म का उपदेश सुनाया। लोगोंने उपदेश सुनकर प्रभु की पर्युपामना की (तेण कालेण तेण समएण कण्हा देवी ईसाणे कप्पे कण्डब.सए निमाणे समाए सुरम्माए कण्हसि सीरासणसि सेस जहा कालिए एव अविट्टाभन्म यणा कालीगमएण णेयव्या, णवर पुन्वभवे वाणारसी नयरील दो जणीओ रायगिहे नयरे दो जणीओ, सावत्धी नयरी दो जणीओ, को सीए नयरीए दो जणीओ रामे पिया धम्मा माया सबओऽवि पानस्स अरहओ अतिए पव्वइयाओ पुप्पाचलाए अनाप सिसितणीयत्ताए ईसा. णस्स अग्गमहिसीओठिई, णवपालिओवमाइ, महाविदेहे वासे सिन्सि हिंति, बुज्झिहिति, मुच्चिहिति, सम्वदुक्खाण, अतकारिति, एव खलु जबू! णिक्खेवओ दसमवग्गस्स) उसी काल और उसी समय वहा कृष्णादेवी जो ईशान कल्प में कृष्णारतसक विमान में रहती थी-और
प्रभाव छ (तेण कालेण तेण समए रायगिहे समोसरण, जार परिसा पज्जवासइ) आजे मन त समय र नगरमा लगवान महावीरनु શુભાગમન થયુ તેમને વદન કરવા માટે પરિપદ તેમની પાસે પહોંચી મને પ્રભએ ધર્મોપદેશ સંભળાવ્યો ધર્મોપદેશસાભળીને પરિષદે પ્રભુની પર્થપાસના કરી
( तेण कालेण तेण समएणं कण्हा देवी ईसाणे कप्पे कण्हेवडेंसए विमाणे सभाए मुहम्माए कण्हसि सीहासणसि सेस जहा कालीए एव अविट्ठा अज्झयणा कालीगमएण णेयव्या, णवर पुवभवे वाणारसीए नयरीए दो जणीओ रायगिहे नयरे दो जणीओ, सावत्थीए नयरीए दो जणीभी, कोसपीए नयरीए दो जणीभो रामे पिया धम्मा माया सव्वोऽवि पासस्स आहओ अतिए पव्वझ्याओ पुप्फ चलाए अन्नाए सिस्मिणीयत्ताए ईसाणस्स अगामहिसीओ ठिई, णवपलि ओवमाइ, महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुझिहिति, मुन्चिर्हिति, सम्बदुक्खाण, जत काहिति एव खलु जनू ! णिसेवजो दसमवग्गस्स)
તે કાળે અને તે સમયે ત્યા કૃષ્ણ દેવી-કે જે ઈશાન-૮૫માં કૃષ્ણ વત સક વિમાનમાં રહેતી હતી અને જેની સભાનુ નામ - 1 તેમજ સિંહાસનનું નામ કૃષ્ણ હતુઆવી એના પછીને
Page #1219
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममगारधर्मामृतषिणी री० ० २ १० १० कृष्णादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ' यथा काल्याः। एवमष्टा कृष्णराजिप्रभृतीनि अध्ययनानि कालीगमकेन-कालीदेवीसदृशपाठेन ज्ञातव्यानि नवर-विशेप यत्-पूर्वभवे वाणारस्या नगर्या द्वेकृष्ण-कृष्णराजिनाम्न्यौ जन्यौ-दारिके सजाते । एव राजगृहे नगरे द्वेवसवमुगुप्ता नाम्न्यौ जन्यो, कौशाम्ब्या नगया देवसुमित्रा-वसुन्धरा नाम्न्यो अन्यौ-दारिके समुत्पन्ने । सर्वासा रामारामामिधः पिता, धर्माधर्माऽभिधा मावा । सर्वा अपि पावस्याहतोऽन्तिके प्रत्रजिताः, पुष्पचूलाया आर्यायाः शिष्यास्वेन पार्श्वभुणा स्वय प्रदत्ता । ईशानस्य ईशानेन्द्रस्य अग्रमहिन्यो जाताः । तत्र तासा स्थितिर्नव पल्योपमानि वर्त्तते । ततश्च्युत्वा महाविदेहे वर्षे समुत्पद्य सेत्स्यन्ति, जिसकी सभा का नाम सुधर्म तथा सिंहासन का नाम कृष्ण था आई। इस के आगे का पाठ कालीदेवी के वर्णन में जैसा पाठ कहा गया है वैसा ही है। इसी तरह से कृष्णराजि प्रभृति अध्ययन भी-कालीदेवी वर्णन में पठित पाठ के सदृश ही जानना चाहिये । कालीदेवी के पाठ में और इन आठ अध्ययनोक्त पाठों में जो अन्तर है वह इस प्रकार से है-पूर्वभव में वाणारसी नगरीमें कृष्णा और कृष्णराजि ये दो जनी' -उत्पन्न हुई, राजगृहनगर में रामा और रामरक्षिका श्रावस्ती नगरी में' घन, वस्तुगुप्ता और कौशायी नगरी में वसुमित्रा एवं, वसुधरा उत्पन्न हुई । इन सब के पिता का नाम राम और माताओं का नाम धर्मा था। ये सयकी सघ पार्श्वनाथ प्रभु के पास प्रचजित हुई । प्रभुने इन सब को दीक्षित करके पुष्पचूला आर्या की शिष्यारूप से दिया। ये सय इसा ईशानेन्द्रकी अग्रमहिषी हुई। वहां इनकी स्थिति नौ पल्योपम.की है। वहां से चवकर ये माविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगी और वहीं सेવેઈનમા જે પ્રમાણે પાઠ કહેવાય છે તે પ્રમાણે જ સમજી લેવું જોઈએ આ પ્રમાણે જ કૃષ્ણરાજ વગેરે અધ્યયને પણ કાલી દેવીના પાઠમા અને આ ઉક્ત આઠ અધ્યયનના પાઠેમા જે કઈ તફાવત છે તે આ પ્રમાણે છે-પૂર્વભવમાં વણારસી નગરીમાં કૃષ્ણ અને કૃષ્ણારાજે આ બને ઉત્પન્ન થઈ, રાજગૃહ નગરમાં રામ અને રામક્ષિકા શ્રાવતી નગરીમા વસૂ, વસુગમ અને કૌશાબી નગરીમા વસુમિત્રા અને વસુધરા ઉત્પન્ન થઈ એમના પિતાનું નામ રામ અને માતાનું નામ ધમ હતું એ બધીએ પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસે પ્રત્રજ્યા ગ્રહણ કરી હતી પ્રભુએ સને તાક્ષિત કરીને પુષ્પચૂલા આર્યાને શિષ્યાઓના રૂપમાં સોપી હતી એ બધી ઈશાનેન્દ્રની અગ્રમહિલીએ થઈ ત્યાં તેમની સ્થિતિ નવ પાયમની છે ત્યાથી ચવીને એ બધી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થશે અને ત્યાંથી જ સિદ્ધ-- --
Page #1220
--------------------------------------------------------------------------
________________
धावाधर्म
भोत्स्यन्ति, मोक्ष्यन्ति सर्व दुग्वानामन्त करिष्यन्ति । एवं स हे जम्बूः ! निले पको दशमवर्गस्य ॥ सू० १५ ॥
८५० 3
ܕ ܐ
॥ इति धर्मकथानां दशमो घर्गः समाप्त ॥ १० ॥
3
मूलम् - एवं खल जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं सयंसबुद्धेणं पुरिसोत्तमेण जाव सपत्तेण धम्मकहाणं
1
1
अयमट्टे पण्णत्ते ॥
*
॥ धम्मकासुयक्खधो समत्तो, दसहि वग्गेहिं ॥
"
॥ णायाधम्मक हाओ समत्ताओ ॥
4
{
7
- टीका - सुधर्मास्वामी कथयति-' एव खलु ' इत्यादि । एव खलु हे जम्बूः । श्रमणेन भगवता महानीरेण आदिकरेण तीर्थकरेण स्वय सम्बुद्धेन पुरुषोत्तमेन
11
सिद्ध पद की भोक्ता बनेंगी केवलज्ञानरूप आलोक से समस्त चराचर पदार्थों की ज्ञाता बनेगी । द्रव्य एव भावरूप समस्त कर्मों से छूटजावेंगी इस तरह ये वही से समस्त दुःखों का अन्त करने वाली होंगी। इस प्रकार हे जवू! यह दशवेवर्ग का निक्षेपक है।
|| दसमवर्ग समाप्त ॥
'एवे खलु जत्र !' इत्यादि ।
+ टीकार्थ - ( एव खलु जब समणेण भगवया महावीरेणं आदि : गरेण, तित्थगरेण संयसवुद्धेर्ण पुरिसोत्तमेण जाव सपत्तेर्ण धम्मकहाणं अयमट्ठे पण्णत्ते ) अब ज बूस्वामी से श्री सुधमास्वामी करते हैं कि हे
1
પ મેળવશે. એ બધી કેવળજ્ઞાન રૂપ આલાકથી સમસ્ત ચર અને અર પદાર્થોનું જ્ઞાન મેળવશે દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ બધા કર્માથી મુક્ત થઈ જશે
12
1
7
"
પ્રમાણે એ બધી ત્યાથી જ બધા ક્રુ ખાને અત કરનારી થશે. આ પ્રમાણે ’
15
આ દેશમાં વર્ગના નિક્ષેપક છે
14 31
it
દશમા વર્ગ સમાપ્ત
F
}
एव खलु जबू । इत्यादि
}
( एव खलु जबू | समणेण भगवया महानीरेण आदिगरेण तिस्थगरेण 'सय सबुदे पुरिसोत्तमेण जाव सपत्ते धम्म कहाण अयम पण्णत्ते )
{
Page #1221
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनगारधर्मामृतवाषिणी टी० शु.२५० १० कृष्णादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८५१
यावत् सिद्धिगतिनामधेय स्थान समाप्तेन धर्मकथानामयमर्थ प्रज्ञप्तः ॥
॥ धर्मकथानामको द्वितीयः श्रुतस्कन्धः समाप्त ॥ . इति श्री-विश्वविख्यात-जगवलंभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभापाकलितललितक
लापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छ. । पतिकोल्हापुरराजमदत्त-'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूपित-कोल्हापुरराज
गुरु बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलाल_FI घितिविरचिताया-ज्ञावाधर्मकथानसूनस्यानगारधर्मामृतवर्षि
ण्याख्या व्याख्या समाप्ता॥ - जबू! आदिकर, तीर्थङ्कर, स्वय सधुद्ध पुरुषोत्तम, यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए ऐसे श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा नामक द्वितीय श्रुतस्कंध का पूर्वोक्तरूप से अर्थ प्रज्ञस किया है। (धम्मकहाँसुयक्ख धो सिमत्तो दसहि वग्गेहि ) धर्मकथा नामका यह द्वितीय श्रुतस्कघ दशवर्गों में समाप्त हुआ है । इस तरह (णायाधम्मकहाओ समत्ताओ) यह ज्ञाताधर्मकथाङ्ग मंत्र समाप्त हुआ।
श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत ____ "ज्ञाताधर्मकथासूत्र "की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्या समाप्त ॥
* હવે અબૂ સ્વામીને શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છે કે છે જબ! આદિકર તેથે કર, સ્વ સે બુદ્ધ પુરૂષોત્તમ ચાવત સિદ્ધગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત છે કરી ચૂકેલા એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ધમકથા નામના બીજા કૂતરક બને पूर्वाहत ३२ अ ३पित या छे (धम्मकहा सुयक्खधो समतो दसहि बग्गेहि ) या नाम मान्ने श्रुत३४ ५ ६ मा । यया 2 24 प्रभाव (गायाधम्मकहाओ समत्ताओ) मा ज्ञाता ४५॥ सूत्र ५ ययु छ શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધર્મ દિવાકર, પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહરાજ કુત
જ્ઞાતાધર્મકથાસૂત્ર” ની અનુગારધર્મામૃતવર્ષિણી વ્યાખ્યા સમાપ્ત
Page #1222
--------------------------------------------------------------------------
________________ - -बालमस्ति :काठियावाडदेशेऽस्ति, राजकोटपुरे शुभे कोठारीहरगोविन्द काकानाम मसिविमान / सस्यास्तिमार्यापरमा सुशीला, धर्मानुरक्तागवादा। . शान्तिमिया दीनदयाभावा, नाम्ना प्रसिधा किमरिमनीसा // 2 // - दिनेशचन्द्रस्तनयोऽस्ति यस्य, कुलस्य दीपः सरलतमा।कन्या सुशीला सरला नितम-सदा-प्रमोदाय पास्तित्रिो॥३॥ व्याख्यानभवने तस्य, ज्ञाताधर्मकथानके / घासीलाछेन मुनिना कता टीका सता सदे॥४॥.. ,. द्विसहस्रचत् सख्ये, विक्रमान्दे वो दिने / ..' माघे शुक्छे च पश्चम्या, सम्पूर्णा धर्मवर्षिणी // 5 // - - - - ___- काठियावाडदेश में राजकोट नामका अच्छा नगर है। जबकोठारी हरगोविन्दकाका रहते हैं। इनका सुशीलभायोका नाम रुक्मिणी हैं। यह गृहकार्य में बहुत चतुर है। धर्मात्मा है, शान्ति प्रिया एवं दीन दुःखियों के ऊपर सदा दया भाव रखती है / काका का कुल दीपक एक दिनेशचन्द्र नाम का पुत्र और जितु नाम की कन्या है। ये दोनों माता पिता के प्रमोद के स्थान भूत है। " - IT, मुशघासीलाल, मुनिराज ने उन्ही के व्याख्यान भवन में कदर कर विक्रम संवत् 2004 दिन, रविवार माघशुक्ला पचमी, के दिन जाता धर्मकाङ्ग, सूत्र की यह टीका रचकर समाप्त की है। કાઠિયાવાડ પ્રાતમાં રાજકેટનામે એક સરસ રમ્ય નગર છે. તે કેકારી હરગોવિંદ કાકા રહે છે તેમની સુશીલ પત્નીનું નામ, રુકિમણી કે તેઓ ગૃહકાર્યમાં બહુ જ ચતુર છે, ધર્માત્મા તેમજ શાતિ પ્રિયપણ છે , તેઓ ગરીબ દુખીએના ઉપર હમેશા દયાભાવ રાખે છે કાકાને કુળદીપક એક દિનેશચદ્ર નામે પુત્ર અને જિતું નામે એક કન્યા છેઆ બંને માતા પિતાના પ્રમોદના આશ્રયસ્થાને છે. મે ઘાસીલાલ મુનિરાજે તેમના જ વ્યાખ્યાન ભવનમાં રહીને વિકમ સંવત 2004 રવિવાર માઘ શુકલા પચમીના દિવસે જ્ઞાતાધર્મથગ સત્રની આ ટીકા રચીને પૂરી કરી છે.