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________________ अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् मवादी-मा खल त्व हे देवानुप्रिय । यावत् सहर, व खलु हे देवानुपिय । लवणसमुद्रे आत्मपाठस्य पण्णा रवानां मागं 'पियराहि ' वितर-देहि, स्वयमेन खल्लह द्रौपद्या देव्या 'कर' प्रत्यानयनकतुं गच्छामि, ततः खलु स सुस्थितो अथवा-आपकी आजा हो तो नगर, सैनिक, और वाहन सहित पद्म नाभ राजो को लवण समुद्र में अषा दे सकता हूँ (तण्ण कण्हे वासुदेवे सुहिय देव एव चयाती) जन कृष्णवासुदेव ने उस स्वस्तिक देव से इस प्रकार करा-(माण तुम देवाणुप्पिया ! जाव साहराहि तुम ण देवाणु पिया! लवणसमुद्दे अप्पट्ठस्स छण्ड रहाण लषणसमुद्दे मांग विय राहि सयमेव ण अह दोवईए क्रय गच्छामि, तण्ण से सुटिए देवे कण्ट वासुदेव एव वयासी, एव होड, पचहि पडवेहिं सद्धिं अप्पछहस्स उपह रहाण लवणममुद्दे मग्ग वियरड तण्ण से कण्हे वासुदेवे चाउरगिणी सेण पडिपिसज्जेइ, पडिविसज्जिता पचहिं पडवेहि मद्धि अप्पटे छहिं रहेहिं लवणसमुद मज्ज्ञ मझेण वीट्वयइ, बीदवइत्ता जेणेच अमर कको रायहाणी, जेणेब अमरककाए अगुज्जाणे तेणेव उवागच्छद) हे देवानुप्रिय ! तुम ऐसा मत करो-अर्थात् पद्मनाभ के भवन से द्रौपदी देवी को हरण मत करो, और न पद्मनाभ राजा को नगर, सैनिक एव वाहन सहित लवणसमुद्र में प्रक्षिप्त करो, तुम तो केवल हे देवानुप्रिय ! हमारे छहों रथों दो लवणसमुद्र में मार्ग दे दो। मैं તમારી આન હોય તો નગર, મિનિટ અને વાહન સહિત પૂનાભ રાજાને सवसमुद्रमा माडी म छु (तएण कण्हे वासुदेवे सुद्विय देव एव वयासी ) त्यारे -वासुदेव ते ३रित वने प्रभाग ४ : ( माण तुम दवाणुप्पिया ! जाव साहराठि तुम णं देवाणुप्पिया ! लवणसमुझे अप्पछस्म उण्ह रहाण लवणसमुद्दे मग्ग वियराठि सयमेव ण अह दोवईए व गच्छामि, तएण से सुटिए देवे कण्ह वासुदेव एव क्यामी, पव होउ, पचहि पडवेहिं सद्धि अप्पउट्ठस्स छण्ह रहाण लवणममुद्दे मग्ग पियरइ, तण्ण से कण्हे वासुदेवे चाउरगिणी सेण पडिविसज्जेट, पडिविसज्जित्ता पचहिं पडयेहि सद्धि अप्पछठे छहि रहेहिं लपणसमुद मज्ज्ञ मज्झेण वीइवयइ, वीडवइत्ता जेणेव अमररका रायहाणी, जेणेच अमरककाए अरगुजाणे तेणेव उवागन्द) હે દેવાનુપ્રિય! તમે આ પ્રમાણે કરવાની તસ્દી લે નહિ એટલે કે પદ્મનાભના ભવનમાથી દ્રૌપદી દેવીનું હરણ કરો નહિ તેમજ પનાભ ગજાને નગર, સેનિક અને વાહન સહિત લવણ સમુદ્રમા ફેક પણ નહિ તમે તે : : --“શ છએ માટે લવણ સમુદ્રમા માર્ગ આપો
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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