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धर्मकथा भापाते-पूर्वमाहारसमय नो भद्रक मानि=पिशिष्टादादिलाभो न भवति किन्त ततः पश्चा-भतणप्रियामानन्तर परिणम्यमानानि २ रसादिरूपेण परिणतानि मूलफन्दादीदि शुभरूपतया-गस्तया भूयो भूय परिणमन्ति ।
अथोपनय दर्शयन् मुधर्मस्वामी मार-मामेये 'स्पादिना । 'एवामेव ' एवमेव अनेनै पूर्वोक्तप्रकारेण हे आयुपान्तः श्रमणाः ? योऽस्माक निर्ग्रन्यो का निर्मन्थी या 'जार' यावत्-आचार्योपाध्यायानामन्ति के मुण्डा भूत्वा मनजितस्ते पामुपदेशं श्रद्दधानः सन् पश्चन यामगुणेपु-शब्दादिविषयेषु 'नी सज्जेइ' नो कों को यावत् कदों को खाया और उनकी छाया में विश्राम किया। (तेसि ण आवाए णो भए भया, तो पच्छा परिणयमाणा २ सुह रूवत्ताए भुज्जो २ परिगमति, एवामेव समणाउसो जो अम्ह निग्गयो घा निग्गंथी वा जार पचसु कामगुणेसु नो सज्जेह, नो रज्जेइ, से ण इहभवे चेव यहण समणाण ४ अच्चणिज्जे परलोए नो आगच्छ, जाव वीईवयस्सइ, जहा चा ते पुरिमा) परन्तु इन पुरुपोंको उनके मूला दिकों के खाने के समय विशिष्ट स्वादादि को प्राप्तिरूप भद्रक का लाभ तो नहीं हुआ-किन्तु उसके बाद जप खाये हुए उन भूलादिकों का रसादि रूप से परिणमन हुआ तब उन्हें पार २ शुभ रूप परिणमन होने से आनन्द आया और जीवन सुरक्षित रहा-अय सुधर्मास्वामी इसका उपनय ( दृष्टात के अर्थ को प्रकृति में जोडना ) दिग्वलाते हुए कहते हैं कि इसी तरह से हे आयुष्मन्त श्रमणो । जो हमारे निग्रन्थ श्रमण एवं श्रमणियाजन हैं वे आचार्य उपाध्यायके पास मुडित होकर दीक्षिन हो जाते हैं और उनके उपदेश को श्रद्धा आदि का विषयभूत
(तेसिंण आवाए णो भए भवइ, तो पच्छा परिणममाणा २ सुहरुव ताए भुज्जो २ परिणमति, एनामेव समगाउमो जो अम्द निग्गयो वा निग्गथी वा जाव पवसु कामगुणेसु नो सज्जे, नो रज्जे से ण इहमवे चेा बहूण समणाण४ अच्चणिज्जे परलोए नो आगच्छइ, जाव वीइवयस्मइ जहा वा ते पुरिसा)
તે માણસને વૃક્ષોના મૂળ કદ વગેરે ખાતી વખતે સવિશેષ સ્વાદ વગે રની અનુભૂતિ તે થઈ શકી નહિ પણ ખાધા પછી તે મૂળ ક & રસ વગેરે રૂપમાં પરિણત થયા ત્યારે તેમને સુખ મળ્યું અને સાથે સાથે તેમના જીવન પણ સુરક્ષિત રહ્યા સુધર્મા સ્વામી હવે એજ વાતને દષ્ટાન્તના રૂપમાં સ્પષ્ટ કરતા કહે છે કે હે આયુષ્મત શ્રમશે! આ પ્રમાણે જ જે અમારા નિગ્રંથ જમણી, આચાર્ય તેમજ ઉપાધ્યાયની પાસે મુતિ થઈને,