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अमरधामृतवर्षिणी टीका २० १६ द्रौपदीचरितं निरूपणम्
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ततः खलु स पाण्डू राजा द्रौपद्या देव्याः कुनापि श्रुतिं यावत् मत्तिम् अलभमानः कुन्तीं देवीं शब्दयति शब्दयिला एवमवादीत् - गच्छ खलु त्वं हे देवानुमिये । द्वारवतीं नगरी कृष्णस्य वासुदेवस्य एतमर्थ निवेदय= सुखमसुप्ता द्रौपदी केनाऽपि हता नीता कूपादौ प्रक्षिप्ता वेति न ज्ञायते इत्येतद्रूप वृत्तान्त कथय, कृष्णः खलु पर वासुदेवो द्रौपद्या मार्गणगनेपण कुर्यात् अन्यथा न ज्ञायते द्रोपद्या देव्याः श्रति वा प्रवृत्ति वा क्षुर्ति वा उपलभेत ।
पास भेजदी | इसके बाद जब पाडुराजा ने द्रौपदी देवी की कही पर भीती यावत् प्रवृत्ति नहीं पाई तय उन्हों ने कृति देवी को बुलाया(सद्दावि० ए०वग्रासी) और बुलाकर उन से ऐसा कहो- (गच्छहण तुम देवाणुपिया ! वारवड नयरिं कण्ट्स्स वासुदेवस्स ण्यम णिवेदेहि, कण्हेण पर वासुदेवे दोवइए मग्गणगवेसण करेजा - अन्नहा न नज्जई, दोवई देवी सुती वा सुतीं वा पवत्तीं वा उबल भेजा ) हे देवानुप्रि यो ! तुम द्वारावती नगरी में कृष्ण वायुदेव के पास जाओ और उनसे इस अर्थका निवेदन करो कि सुख प्रसुप्त द्रौपदी को किसी ने हरलिया है । हरण कर उसे कही पहुचा दिया है या किसी कुएँ में या खड्डे मे डाल दिया है। पता नही पडता है । वे कृष्ण वासुदेव अवश्य २ ही द्रौपदी की मार्गणा गवेषणा करेंगे। नही तो द्रौपदी देवी की श्रुति, क्षुति अथवा प्रवृत्ति हमें प्राप्त हो जावेगी- यह नही कहा जा सकता है ।
श्रुति यावत् प्रवृत्ति भेजवी नहि त्यारे तेसो हुती देवीने गोसावी ( सहा वि० ए० क्यासी ) अने मोसावीने तेसने या असाधु
( गच्हण तुम देवाणुपिया ! वारवर नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एम णिवेदेहि, कण्ण पर वासुदेवे दोवईए मग्गणगवेसण करेज्जा अन्नदा न नज्जई, दोवईए देवी सुती वा खुतीं वा पपत्तीं वा उवलभेज्जा )
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્વારાવતી નગરીમા કૃષ્ણુવાસુદેવની પાસે જાએ અને તેમને આ પ્રમાણે વિનતી કરેા કે સુખી સુતેલી દ્રૌપદીનુઇએ હરણ કરી લીધુ છે હરણ કરીને તેને કયાક મૂકી દીધી છે અથવા તે કોઇ કૂવામા કે ખાડામા નાખી દીધી છે ન જાણે શું થઇ ગયુ છે? કૃષ્ણુવાસુદેવ મને ખાત્રી છે કે ચાસ દ્રૌપદી દેવીની માણા ગવેષણા કરશે નહિંતરદ્રૌપદી દેવીની શ્રતિ, શ્રુતિ અથવા પ્રવૃત્તિની જાણ અમને થશે એવી શકયતા જણાતી નથી.