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श्राशाभमेकवाद
पणमिश्रितभस्म अनि = इन्धन विषया पारा, जापा समू=मुद्धामा । असिपत्रादि-शुद्धपर्यन्ताना स्पर्श इय सुकुमरियायाः परम्पर्शो गयेयम् नागम समर्थयष्टतममूर करस्पर्श साम्य मातुं न समर्थः नः उत्पाद 'भनेत्र एतरमा असिपादीना स्पर्शदनिष्टतरक, अपान्ततस पत्र = अत्यन्तमरु मनीय एर, अमियतरक एय= मतिः गजमवण्य अमनोज्ञतरविशेयेन मनो विकृतिकारगण्य अमनोमतरपपरभविनयेन मनः मरिमेम्भूर्त पाणिस्पर्श सुकुमारिकादारिकायाः परम्पर्श प्रतिपेदयति = अनुभावि ।
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तत खलु स सागरदारकः अकामक: = निरभिलापः 'असन्यसे' अपस्ववश:= 'अपगतस्थातन्त्र्यः विवशः सन् मुहूर्तमान = स्वोककाल सतिष्ठते ( ततः खलु स सागरदत्तः सार्थवाह सागरम्य दाररस्य अम्नापितरौ मिशा विस्वजनसम्बन्धिप
भस्म अर्चि - इन्धन प्रतिपद् ज्वाला, ज्वाला- इन्धन से रहित ज्वाला - अलात-उल्मुक शुद्धाग्नि- रोहपिण्डस्य अग्नि । इन असिपत्र से लेकर शुद्धअग्नि पर्यन्त पदार्थों का स्पर्श जैसा होता है वैसा ही सुकुमारिका के कर का स्पर्श हो सकता था परन्तु यहा यह अर्थ समर्थित नहीं है -अर्थात् उसके सुकुमारिका के कर स्पर्श में इन इष्टान्तों के स्पर्श की समानता नही मिल सकती है क्यों कि वह स्पर्श तो इनके स्पर्श से भी अधिक अनिष्टतर हीथा, अकान्ततरक ही था- अत्यन्त अक्मनीय था, अप्रिय तरकही था - अत्यन्त दुःखजनक ही था, अमनोज्ञतरक ही था - अत्यन्त मनो विकृतिजनक ही था, अमनोमतरक ही था - अपन 'मनः प्रतिकूल ही था । (aer से arate ratn अवसवसे मुहुत्तमित्त सचिss, तएण से सागरदत्ते सत्थवाहे सागरस्स दारगरस
જ્વાળા, અલાત-ઉત્સુક, શુદ્ધ અગ્નિ-લેાહડિસ્થ અગ્નિ-આટલી વસ્તુએનુ ગ્રહણ રવુ જોઇએ આ અસિપત્રથી માડીને શુદ્ધ અગ્નિ સુધીના પદાર્થોના જે જાતને સ્પર્શ હોય છે તેવા જ સુકુમારિકાના હાથને પણ સ્પર્શ હતા
પણ હકીકતમા તે આ વસ્તુઓની સમાનતા પણ તેના તીક્ષ્ણ સ્પશનીસાથે કરી શકાય તેમ નથી કેમકે તેના હાથના સ્પર્ધા તે ઉકત વસ્તુઓના સ્પર્શે કરતા પણ વધારે અનિષ્ટતર હતેા, અકાતતરક હતા, તીવ્ર કમનીય હતેા, અમિયતરક હતા, અત્યંત દુ ખજનક હતા, અમનામતરક હતા, ખૂબજ મને વિકૃતિજનક હતા, અમનામ તરક હતા, અહુ જ મન પ્રતિકૂળ હતા
(तरण से सागर अकामए सबसे मुहतमित्त सए से सा