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, अनगारधर्मामृताणी टी० अ० १६ सुकुमारिफाचरितवर्णनम् २१९
टीका-'तएण से ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु स सागरदत्त सार्थया होऽन्यदा-अन्यस्मिन् कस्मिश्चित् काले 'उपि आगासतलगसि' उपरि आकाशवल्के मासादोपरिभागे , सुहनिसण्णे ' मुखेनोपविष्टः, राजमार्गमनलोकमानः २ तिष्ठति । तत खलु स सागरदत्त एक महान्त ' दमगपुरिस' द्रमनपुरुष 'दमग ' इति देशीयः शब्दः दरिद्रपुरुप पश्यति, किम्भूतम् ? इत्याह-'दडिखंड निवसण ' दण्डिग्यण्डनिवसन-दण्डि-कृतसन्धान जीर्णवस्त्र तस्य खण्ड तदेव निव सन परिधानवस्त्र यस्य स दण्डिखण्ड निवसनस्तम्, क्या-, खडमछग घडगहत्थगय' खण्डमल्लघटकहस्तगत सण्डमल्लम-खण्डशराब स्कुटितशराव भिक्षापात्र, तथा खण्डघटकश्व-खण्डरूपो घट' स्कुटितस्य घटस्य भागः स एव जलपात्र, एतद् द्वय इस्तगत यस्य तम्, 'मच्छियामहस्सेहिं जाव अन्निज्जमाणमग्ग' मक्षिकास इस्र वित् अन्वीयमानमा, शरीरवस्त्रादेर्मलिनत्वात् तत्पृष्ठतो मक्षिका आप
'तएण से सागरदत्ते' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएण से सागरदत्त)इसके बाद सागरदत्तने किसी एक समय " उप्पि आगासतलगसिं" अपने प्रासाद के ऊपर सुख पूर्वक बैठी हुई स्थिति में राजमार्ग का अवलोकन करते समय ( एग मह दमगपुरिस पासइ) एक अत्यत दरिद्र पुरूप को देखा ( दडिखडनिवसण खंडगम ल्लगघडगहत्यगय मच्छियासहस्सेहिं जाव अनिज्जमाणमग्ग) जो जीर्णवस्त्र के जुड़े हुए चियडे को पहिने था और जिसके हाथ में खडमल्लकथा-फुटा हुआ मिटि के खप्पर था - तथा पानी पीने के लिये फुटे हुए घट का एक खप्पर या । हजारो मक्खिया जिसके पीछे पीछे, शरीर और वस्त्रो के मलिन होने से भिन्न २ करती हुई उड़ रही
'तएण से सागरदत्ते' इत्यादि ॥
-(तएण मे सोगरदत्ते) त्या२ मा साह 35 मत (पिआगा सतलगसिं) पाताना भरनी १५२ सुथी मेसीन सभागनु माइनरत तो त्यारे तेरे (एग मह दमगपुरिस पासइ) 25 भूण हरिद्र-01-५२पने या (दडिखड निवसण खडगमल्लगडगहत्यगय मन्च्यिासहस्सेहिं जाव अनिज्जमा. णमग ) तो जूना पखना थीथायी परेसा ता भने तेना साथमा
ખડમલ્લક હતુ ” એટલે કે ફુટી ગયેલા માટીના વાસણુને એક કકડે હવે તેમજ પાણી પીવા માટે કુટેલી માટલીનુ એવુ ખપ્પર હતુ હજારો માખીઓ તેની પાછળ પાછળ-શરીર અને વસ્ત્રોની ભલીનતાને લીધે ઉડી રહી હતી,