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इति पर्यन्तम्, अयमर्थ' - फाम्पिन्यपुर नगरे पम्प पुन्या द्वीपचाः राजानमनुरुन्त पालविनम्वरहितं
स्वयपरो भविष्यति, तस्माद् ग्रूप काम्पिल्यपुरे नगरे समागच्छते वि स दून प्रोक्रा' इति ।
ततः खलु स कृष्णो देवस्य दूतम्पान्तिकं गतमर्थ श्रुत्वा निशम्य तुष्टः यात्-दर्पशेन रिसस्त दूत गताम्यति तया समानपवि सत्कार्य समान्य प्रतिनिमर्जयति ॥ ०१७ ॥
मूलम् - तएण से कण्हे वासुदेवे कोडुवियपुरिसे सदावेद सद्दावित्ता एव वयासी- गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया । सभाए सुहम्माए सामुदाइय भेरिं तालेहि, तरण से को डुबियपुरिसे कर यल जाव कण्हस्स वासुदेवस्स एयम पडिसुणेड पडिसुणित्ता नमस्कार किया । यहा पर देवाणुपिया' से लेकर ममोसरह "तकका पूर्वोक्त पाठ इसके द्वारा कहा गया लगा लेना चाहिये - जिसका तात्पर्य यह है कि कांपिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयवर होने वाला है मो आपलोग हुपद राजा के ऊपर कृपा कर के उसमें शीन पधारे। इस प्रकार (तरण से कण्हे वासुदेवे तम्स दूयस्स अतिए एयमह सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हिगए त इस सकारेइ सम्मा
सक्कारिता सम्मानित्ता परिचिसज्जेड) कृष्ण वासुदेव ने उस दूत के मुखसे जब इस समाचार को सुना तो वे सुनकर और उसे हृदय में धारण कर बहुत ही अधिक हर्पित एव सतुष्ट हुए। दूतका उन्होंने सत्कार किया, सम्मान किया। बाद मे उसे वहा से विसर्जित कर दिया । सू० १७॥
भस्तद्वै भूडीने नमस्सार यो भर्डी ' एन सलु देवाणुपिया' थी समोसरह ' સુધીના પાઠ ત વડે કહેવામા આવેલા છે એમ સમજી લેવુ જોઇએ તેની મતલખ એ છે કે કાપિલ્યુપુર નગરમા દ્રુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીના સ્વયંવર થવાના છે તેા આપ સૌ દ્રુપદ રાજ ઉપર મહેરબાની કરીને તેમા સાત્વરે पधारे। आा रीते (तएण से कण्हे वासुदेवे तस्स दूयरस अतिए एयम सोचा निसम्म हट्ट जाव हियए त दूय सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसउनेइ ) कृष्ण-वासुदेवे इतना भुभथी या लतना सभाया। सालज्या ત્યારે સાભળીને અને તેને બરાબર હ્રદયમા ધારણ કરીને અત્યંત હર્ષિત તેમજ સતુષ્ટ થઈને તેમણે તના સત્કાર તેમજ સન્માન કર્યુ ત્યારપછી તેમણે તને વિદાય કર્યાં | સૂત્ર ૧૦ ॥