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मनगराधमामृतापणी टी० अ० १७ कालिकद्रीपगत आकोध्वियक्तव्यता ६१६ ___अथोपनय प्रदर्शयति,–'एवामेन' एउमेर शब्दायमूर्छिताकीर्णाश्ववत् 'सम
णाउसो' हे आयुप्मन्त श्रमणा ! योऽस्माक निर्ग्रन्थी वा यावत्-आचार्योपा. ध्यायानामन्ति के मनजितः सन् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेपु 'नो सज्जइ 'नो सज्जते आसक्तिगान् न भवति ' नो रज्नइ ' नो रज्यते अनुरक्तो न भवति, नो गृ यति, न वाञ्छति, नो मुधति-न मृर्छति, नो अ युपपद्यते-न तल्लीनो भवति, स खलु इह लोक एन बहूना श्रमणादीना चतुम्धिसङ्घस्य जर्चनीयासंमाननीय. यावत् चातुरन्तससारकान्तार वीउवहस्मड ' व्यतिप्रजिष्यति-उल्लड्ययिष्यति-पारं गमिप्यतीत्यर्थ । सू०३ ॥ पउरत्तणपाणिया णिन्भया णिरुचिग्गा सुह सुहेण विहरति ) और जगल में ही जो प्रचुरचरने की जमीन थी-जिममें अधिक से अधिक मात्रा मे तृण और पानी भरा हुआ रहता था उममे ही निर्भय, निरु द्विग्न होकर सुखपूर्वक रहे। अब इस दृष्टान्त का उपनय प्रदर्शित करने के लिये सूत्रकार कहते है- (एवामेवममणाउसो ! जो अम्ह णिग्गयो वा णिग्गथी वा जाव सद्द फरिसरसरूवगयेसु णो सजह णो णो रज्जइ, जो गिज्झइ, णो मुज्झइ, णो अज्ञोववज्जेइ, से ण इह लोए चेव यहण समणाण ४ अच्चणिज्जे जाव वीदरहस्सइ) हे आयु प्मत श्रमणो! इसी तरह जो हमारा निर्ग य सायुजन एव निर्ग्रन्थी साध्वी जन अचार्य उपा-यय के पास प्रव्रजित होकर शब्द स्पर्श, रस, रूप, और गध इन पांचो इन्द्रियो के विपयो में आपक्ति युक्त नहीं होता है, अनुरक्त नहीं बनता है, उन्हें चारता नहीं है, उनमें मूर्छित नहीं होता है, उनमें तल्लीन नहीं होता है, वह इस लोक मे ही अनेक सुहेण विदर ति ) म पनमा प्रयु२ ५२वानी भीन ती, या धारेमा વધારે ઘાસ અને પાણી હતા ત્યાં જ નિર્ભય, નિરૂદ્વિગ્ન થઈને સુખથી રહેવા લાગ્યા હવે આ દષ્ટાન્તનો ઉપનય સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે –
(एकामेव समणाउसो जो अम्ह णिग्गथो वा णिग्गयी वा जान सदफरिसरसख्वगधेमु णो सज्जइ णो रज्जइ, जो गिझइ, णो मुज्झइ, णो अझोपवज्जेइ, से ण इहलोए चेव वहूण समणाण ४ अच्चणिज्जे जान वीइनइस्सइ)
આયુષ્મત શમણે! આ પ્રમાણે જ જે અમારા નિર્ચ થ સાધુઓ કે નિર્ચ થ સાધ્વીઓ આચર્યું કે ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રજિત થઈને શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગધ આ પાચે ઈન્દ્રિયોના વિષયમાં આસક્ત થતા નથી અનુરકત થતા નથી, તેમને ઈચ્છતા નથી, તેમાં મૂર્શિત થતા