Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथ -सूत्रम् NISITHA - SŪTRA सम्पादक उपाध्याय कवि श्री अमर मुनि मुनि श्री कन्हैयालाल "कमल' Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ About the Book Nishtha is an important Agama text of the Jainas The Bhashya of Sthavira Pungava Shri Vishahagani Mahattara and the Churni of Jinadasa Mahattara on this, Agama text posses a great value and special significance. The Bhashya described different aspects of conduct situated to time and place. Besides, the Bhashya throws light on the cultural, Political, Social and other aspects contemporaneous with the period of Bhashyadara. Infact, Nishith is an encyclopaedia of knowledge which the Bhashya suppliments additionally. It was first published by Sanmati Gyan Peeth, Agra under the Editor-ship of Pujya Shri Amar Muni Ji Maharaj and Muni Shri Kanhaiya Lal ji. A number of scholars have written thesis on the work obtained Doctorates. With the first edition going out of print, there has been an incresing demand for the supply of this book. It is to meet this long -felt need of scholars, Universities and private Institutions that this present in the same Type reprint has seen the light of the day. Due to Flourish the name of Pujya Gurudev the limited Copies have again printed as a IInd edition. Complete set in four parts Rs.1000/ Jain Education Internationa Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविर-पुंगव श्री विसाहगणि महत्तर-प्रणीतं, सभाष्यं निशीथ-सूत्रम् आचार्य-प्रवर श्री जिनदास महत्तर-विरचितया विशेष-चूर्णी समलंकृतम् तृतीयो विभागः उद्देशकाः 10-15 सम्पादक : उपाध्याय कवि श्री अमरमुनि जी महाराज व मुनि श्री कन्हैयालाल जी महाराज “कमल" अमर पब्लिकेशन वाराणसी-1 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन : अमर पब्लिकेशन सी.के.-13/23 , सत्ती चौत्तरा वाराणसी. फोन : (0542) 2392378 मूल्य : 1200.00 (चार भाग में) संस्करण : 2005 मूद्रक : टिविन्क्ल ग्राफिक्स, दिल्ली-110088. . For Private &Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NISHITH SUTRAM (With Bhashya) Ву STHAVIR PUNGAVA SHRI VISAHGANI MAHATTAR and Vishesh Churni By ACHARYA PRAVAR SHRI JINDAS MAHATTAR PART III UDESHIKA 10-15 Edited by Upadhaya Kavi Shri Amarchand Ji Maharaj - By Muni Shri Kanhaiyalal Ji Maharaj “Kamal” AMAR PUBLICATIONS VARANASI-1 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by : AMAR PUBLICATIONS CK-13/23, Satti Chautra Varanasi. Phone : (0542) 2392376 Distributers : BHARATIYA VIDYA PRAKASHAN 1, U.B., Jawahar Nagar, Bungalow Road, Delhi-7. Phone : 011-23851570 Post Box No. 1108, Chauchari Gali, Varanasi Phone : (0542) 2392378 Price : Rs. 1200.00 (In four parts) Edition : 2005 Printed by : Twinkle Graphics, Delhi-110088. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपंण जिनकी सहज स्नेह-सिक्त चरण सेवा में इस तुच्छ सेवक ने निःश्रेयसाभिमुख गति प्रगति की जिनकी सहज सरल शिक्षा के द्वारा जीवन-क्षेत्र में यथावसर महत्वपूर्ण प्रेरणा मिलती रही, जिनकी मधुर स्मृति, महाकाल के सुदीर्घ प्रवाह में भी सहसा निमज्जित नहीं हो सकती उन्हीं सद् - गत श्रद्धेय गुरुदेव श्री प्रतापमल जी महाराज पुण्य-स्मृति में सादर सभक्ति विनीत मुनि कन्हैयालाल "कमल" Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सर्ग और अपवाद मार्ग छेद सूत्रों का मर्म स्थल जैन-साधना जैन संस्कृति की साधना, यात्म-भाव की साधना है, मनोविकारों के विजय की साधना है । वीतराग प्ररूपित धर्म में साधना का शुद्ध लक्ष्य है, मनोगत विकारों को पराजित कर सर्वतोभावेन आत्मविजय की प्रतिष्ठा । अतएव जैनधर्म की साधना का आदिकाल से यही महा घोष रहा है कि एक (आत्मा का अशुद्ध भाव) के जीत लेने पर पाँच क्रोधादि चार कषाय और मन जीत लिए गए, और पाँचों के जीत लिए जाने पर दश (मन, कषाय और पाँच इन्द्रिय) जीत लिए गए । इस प्रकार दश शत्रुओं को जीत कर, मैने, जीवन के समस्त शत्रुओं को सदा के लिए जीत लिया है। जैन-साधना का संविधान 'जैन' शब्द 'जिन' शब्द पर से बना है। जो जिन का उपासक है, वह जैन है। जिन के उपासक का अर्थ है जिन-भाव का साधक । राग द्वेषादि विकारों को सर्वथा जीत लेना जिनत्व है । अतः जो राग द्वेष रूप विकारों को जीतने के लिए प्रयत्नशील है, कुछ को जीत चुका है, और कुछ को जीत रहा है, अर्थात् जो निरन्तर शुद्ध जिनत्व की अोर गतिशील है, वह जैन है। अस्तु निजत्व में जिनत्व की प्रतिष्ठा करना ही जैन धर्म है, जैन साधना है। यही कारण है कि जैन धर्म बाह्य विधि-विधानों एवं क्रियाकाण्डों पर अाग्रह रखता हुअा भी, अाग्रह नहीं रखता है, अर्थात् दुराग्रह नहीं रखता है । साधना के नियमोपनियमों का प्राग्रह रखना एक बात है, और दुराग्रह रखना दूसरी बात है, यह ध्यान में रखने जैसा है । साधना के लिए विधि निषेध ग्रावश्यक हैं, अतीव आवश्यक हैं। उनके बिना साधना का कुछ अर्थ नहीं। फिर भी वे गौण हैं, मुख्य नहीं। मुख्य है-समाधि भाव, समभाव, ग्रात्मा की शुद्धि । अन्तर्मन शान्त रहे, कपायभाव का शमन हो, चंचलता-उद्विग्नता जैसा किसी प्रकार का क्षोभ न हो, सहज शुद्ध शान्ति एवं समाधि का महासागर जीवन के कण-कण में लहराता रहे, फिर भले ही वह किसी भी तरह हो, किसी १-एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ता गं, सव-मन जिगामह ।। - उत्तराध्ययन २३, ३६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी साधन से हो, यह है जैन साधना का अजर अमर संविधान । इसी संविधान की छाया में जैन साधना के यथादेश-काल विभिन्न रूप अतीत में बदलते रहे हैं, वर्तमान में बदल रहे हैं और भविष्य में बदलते रहेंगे। इसके लिए जैन तीर्थंकरों का शासन-भेद ध्यान में रखा जा सकता है । भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर एककार्यप्रपन्न थे, एक ही लक्ष्य रख रहे थे, फिर भी दोनों में विशेप था, विभेद था। दोनों ही महापुरुषों द्वारा प्रवर्तित साधना का अन्तःप्राण बन्धन-मुक्ति एक था, किन्तु बाहर में चातुर्याम और पंच शिक्षा के रूप में धर्म-भेद तथा अचेलक और सचेलक के रूप में लिंगभेद था, यह इतिहास का एक परम तथ्य है। माधना-एक सरिता जैन धर्म की साधना विधिवाद और निषेध वाद के एकान्त अतिरेक का परित्याग कर दोनों के मध्य में से होकर बहने वाली सरिता है । सरिता को अपने प्रवाह के लिए दोनों कूलों के सम्बन्धातिरेक से बचकर यथावसर एवं यथास्थान दोनों का यथोचित स्पर्श करते हुए मध्य में प्रवहमान रहना, यावश्यक है । किसी एक कूल की अोर ही सतत बहती रहने वाली सरिता न कभी हुई है, न है, और न कभी होगी । साधना की सरिता का भी यही स्वरूप है । एक अोर विधिवाद का तट है, तो दूसरी पोर निषेधवाद का । दोनों के मध्य में से बहती है, साधना की अमृत सरिता । साधना की सरिता के प्रवाह को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए जहाँ दोनों का स्वीकार आवश्यक है, वहाँ दोनों के अतिरेक का परिहार भी ग्रावश्यक है। विधिवाद और निषेधवाद की इति से बचकर यथोचित विधि-निषेध का स्पर्शकर समिति-रूप में बहने वाली साधना की सरिता ही अन्ततः अपने अजर अमर अनन्त साध्य में विलीन हो सकती है। उत्सर्ग और अपवाद साधना की सीमा में प्रवेश पाते ही साधना के दो अगो पर ध्यान केन्द्रित हो जाता हैं-"उत्सर्ग तथा अपवाद ।' ये दोनों अंग साधना के प्राण हैं। इनमें से एक का भी प्रभाव हो जाने पर साधना अधूरी है, विकृत है, एकांगी है, एकान्त है । जीवन में एकान्त कभी कल्याणकर नहीं हो सकता । क्योंकि वीतराग-देव संक्षुण्ण पथ में एकान्त मिथ्या है, अहित है, अशुभंकर है। मनुष्य द्विपद प्राणी है, अतः वह अपनी यात्रा दोनों पदों से ही भली-भाँति कर सकता है । एक पद का मनुष्य लंगड़ा होता है। ठीक, साधना भी अपने दो पदों से ही सम्यक् प्रकार से गति कर सकती है । उत्सर्ग. और अपवाद-साधना के दो चरण हैं । इनमें से एकतर चरण का भी अभाव, यह सूचित करेगा कि साधना पूरी नहीं, अधूरी है। साधक के जीवन-विकास के लिए उत्सर्ग और अपवाद आवश्यक ही नहीं, अपितु अपरिहार्य भी हैं । साधक की साधना के महापथ पर जीवन-रथ को गतिशील एवं विकासोन्मुख रखने के लिए- उत्सर्ग और अपवादरूप दोनों चक्र सशक्त तथा सक्रिय रहने चाहिएं-तभी साधक अपनी साधना द्वारा अपने अभीष्ट साध्य की सिद्धि कर सकता है। २-दोसा जेण निरंभति, जेण खिज्जति पुवकम्माई। सो सो मोक्खोवामो, रोगावत्थासु समणं व ॥ - निशीथ भाष्य गा० ५२५० ३ - उत्तराध्ययन, २३ वा अध्ययन, केशीगौतम संवाद । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सर्ग और अपवाद की परिभाषा उत्सर्ग और अपवाद की चर्चा बहुत गंभीर एवं विस्तृत है। प्रतः सर्वप्रथम लंबी चर्चा में न जाकर हम प्राचीन प्राचार्यो की धारणा के अनुसार संक्षेप में उत्सर्ग और अपवाद की परिभाषा पर विचार कर लेना चाहते हैं। आचार्य संघदास, उत्' उपसर्ग का अर्थ 'उद्यत' करते हैं और 'सर्ग' का 'विहार' । अस्तु जो उद्यत विहार चर्या है, वह उत्सर्ग है । उत्सर्ग का प्रतिपक्ष अपवाद है । क्योंकि अपवाद, भिक्षादि में उत्सर्ग से प्रच्युत हुए साधक को ज्ञानादि-अवलम्बनपूर्वक धारण करता है। अर्थात् उत्सर्ग में रहते हुए साधक यदि ज्ञानादि गुणों का सरक्षण नहीं कर पाता है, तो अपवाद सेवन के द्वारा उनका संरक्षण कर सकता है। प्राचार्य हरिभद्र का कथन है कि "द्रव्य क्षेत्र, काल ग्रादि की अनुकूलता से युक्त समर्थ साधक के द्वारा किया जाने वाला कल्पनीय (शुद्ध) अन्नपानगवेषणादि-रूप उचित अनुष्ठान, उत्सर्ग है। और द्रव्यादि की अनुकूलता से रहित का यतनापूर्वक तथाविध अकल्प्य-सेवनरूप उचित अनुष्ठान, अपवाद है।" भाचार्य मुनिचन्द्र सूरि, सामान्य रूप से प्रतिपादित विधि को उत्सर्ग कहते हैं और विशेष रूप से प्रतिपादित विधि को अपवाद । अपने उक्त कथन का आगे चल कर वे और भी स्पष्टीकरण करते हैं कि समर्थ साधक के द्वारा संयमरक्षा के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है, वह उत्सर्ग है । और असमर्थ साधक के द्वारा संयम की रक्षा के लिए ही जो बाहर में उत्सर्ग से विपरीत-सा अनुष्ठान किया जाता है, वह अपवाद है। दोनों ही पक्षों का विपर्यासरूप से अनुष्ठान करना, न उत्सर्ग है और न अपवाद, अपितु संसाराभिनन्दो प्राणियों को दुश्चष्टा मात्र है। ४ उज्जयम्सग्गुस्सग्गो, अववाग्रो तस्म चेव पडि वक्खो। . उस्सग्गा विनिवतिय, धरेड सालबमवाप्रो ।।३१६।। -बृहत्कल्पभाष्य पीठिका उद्यत: सर्ग:-विहार उत्सर्गः । तम्य च उत्सगंस्य प्रतिपक्षोऽपवादः । कथम् ? इति चेद् प्रताह - उत्सर्गाद् अध्वाऽवमोदर्यादिषु विनिपतितं' प्रच्युतं ज्ञानादिसालम्बमगवादो धारयति ॥३१६॥ -~-प्राचार्य मलयगिरि ५ दवादिएहिं जुत्तस्सुम्सग्गो जदुचियं अणुढा । प्रियस्स तमववाग्रो, उचियं चियरस्स न उ तस्स ॥ - उपदेश पद, गा० ७६४ ६ सामान्योक्तो विधिरुत्सर्गः । विशेषोक्तस्त्वपवाद । द्रव्यादियुक्तस्य यतदौचित्येन अनुष्ठान स उत्सर्गः, तद्रहितस्य पुनस्तदौचित्येनैव च यदनुष्ठानं सोऽपवादः । यच्चतयोः पक्षयोविपयसिन अनुष्ठानं प्रवर्तते, न स उत्सर्गोऽपवादो वा, किन्तु संसाराभिनन्दिसत्वचेष्टितमिति । --उपदेशपद-सुखसम्बोधिनी, गा० १८१-७८४ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) प्राचार्य मल्लिषेण उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण स्पष्टीकरण करते हैं- " सामान्य रूप से संयम की रक्षा के लिए नवकोटिविशुद्ध आहार ग्रहण करना, उत्सर्ग है । परन्तु यदि कोई मुनि तथाविध द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-सम्बन्धी आपत्तियों से ग्रस्त हो जाता है, और उस समय गत्यन्तर न होने से उचित यतना के साथ अनेषणीय आदि आहार ग्रहण करता है, यह अपवाद है । किन्तु अपवाद भी उत्सर्ग के समान संयम की रक्षा के लिए ही होता है ।"" एक अन्य ग्राचार्य कहते हैं- "जीवन में नियमोपनियमों की जो सर्वसामान्य विधि है, वह उत्सर्ग है । और जो विशेष विधि है, वह ग्रपवाद है ।" " कि बहुना, सभी ग्राचार्यों का ग्रभिप्राय एक ही है कि सामान्य उत्सर्ग है, और विशेष अपवाद है । लौकिक उदाहरण के रूप में समझिए कि प्रतिदिन भोजन करना, यह जीवन की सामान्य पद्धति है । भोजन के बिना जीवन टिक नहीं सकता है, जीवन की रक्षा के लिए उत्सर्गतः भोजन आवश्यक है । परन्तु अजीर्ण ग्रादि की स्थिति में भोजन का त्याग करना ही श्रेयस्कर है । किन्हीं विशेष रोगादि की स्थितियों में भोजन का त्याग भी जीवन की रक्षा के लिए आवश्यक हो जाता है । अर्थात् एक प्रकार से भोजन का परित्याग ही जीवन हो जाता है । यह भोजन सम्बन्धी ग्रपवाद है । इसी प्रकार ग्रमुक पद्धति का भोजन सामान्यतः ठीक रहता है, यह भोजन का उत्सर्ग है । परन्तु उसी पद्धति का भोजन कभी किसी विशेष स्थिति में ठीक नहीं भी रहता है, यह भोजन का ग्रपवाद है । साधना के क्षेत्र में भी उत्सर्ग और अपवाद का यही श्रम है। उत्सर्गतः प्रतिदिन की साधना में जो नियम संयम की रक्षा के लिए होते हैं, वे विशेषतः संकट कालीन अपवाद स्थिति में संयम की रक्षा के लिए नहीं भी हो सकते हैं । अतः उस स्थिति में गृहीत नियमों में परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है, वह परिवर्तन भले ही बाहर से संयम के विपरीत ही प्रतिभामित होता हो, किन्तु अंदर में संयम की सुरक्षा के लिए ही होता है । ७ आहार के लिए स्वयं हिंसा न करना, न करवाना व हिंसा करने वालों का अनुमोदन करना । आहार आदि स्वयं न पकाना, न पकवाना, न पकाने वालों का अनुमोदन करना । प्राहार आदि स्वयं न खरीदना, न दूसरों से खरीदवाना, न खरीदने वालों का अनुमोदन करना । - स्थानाङ्ग सूत्र ६,३,६८१ ८ यथा जैनानां संयमपरिपालनार्थं नवकोटिविशुद्धाहारग्रहणमुत्सर्गः । तथाविध द्रव्य-क्षेत्र काल- भावापत्सु च निपतितस्य गत्यन्तराम वे पंचकादिपतनया नेषणीयादिग्रहणमपवादः । सोऽपि च - स्याद्वाद मञ्जरी, कारिका ११ संयमपरिपालनार्थमेव । ६ सामान्योक्तो विधिरुत्सर्गः, विशेषोक्तो विधिरपवादः । - दर्शन शुद्धि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) एकान्त नहीं, अनेकान्त कुछेक विचारक जीवन में उत्सर्ग को ही पकड़ कर चलना चाहते हैं, वे अपनी सम्पूर्ण शक्ति उत्सर्ग की एकान्तसाधना पर ही खर्च कर देने पर तुले हुए हैं, फलतः जीवन में अपवाद का सर्वथा अपलाप करते रहते हैं । उनकी दृष्टि में (एकांगी दृष्टि में) अपवाद धर्म नहीं, अपितु एक महत्तर पाप है । इस प्रकार के विचारक साधना के क्षेत्र में उस कानी हथिनी के समान हैं, जो चलते समय मार्ग के एक ओर ही देख पाती है। दूसरी ओर कुछ साधक वे हैं, जो उत्सर्ग को मूलकर केवल अपवाद को पकड़ कर ही चलना श्रेय समझते हैं. जीवन-पथ में वे कदम कदम पर अपवाद का सहारा लेकर ही चलना चाहते हैं। जैसे शिशु, बिना किसी सहारे के चल ही नहीं सकता । ये दोनों विचार एकांगी होने से उपादेय कोटि में नहीं आ सकते। जैन धर्म की साधना एकान्त की नहीं, अपितु प्रनेकान्त की सुन्दर और स्वस्थ साधना है । ४८१० जैन संस्कृति के महान् उन्नायक आचार्य हरिभद्र ने प्राचार्य संघदास गणी की भाषा में एकान्त पक्ष को लेकर चलने वाले साधकों को संबोधित करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है भगवान् तीर्थंकर देवों ने न किसी बात के लिए एकान्त विधान किया है और न किसी बात के लिए एकान्त निषेध ही किया है। भगवान् तीर्थंकर की एक ही श्राज्ञा है, एक ही आदेश है, कि जो कुछ भी कार्य तुम कर रहे हो, उसमें सत्यभूत होकर रहो । उसे वफादारी के साथ करते रहो ।” आचार्य ने जीवन का महान् रहस्य खोल कर रख दिया है। साधक का जीवन न एकान्त निषेध पर चल सकता है, और न एकान्त विधान पर ही । यथावसर कभी कुछ लेकर और कभी कुछ छोड़कर ही वह अपना विकास कर सकता है । एकान्त का परित्याग करके ही वह अपनी साधना को निर्दोष बना सकता है । साधक का जीवन एक प्रवहण-शील तत्त्व है । उसे बाँधकर रखना भूल होगी । नदी के सतत प्रवहण-शील वेग को किसी क्षुद्र गर्त में बाँधकर रख छोड़ने का अर्थ होगा, उसमें दुर्गन्ध पैदा करना तथा उसकी सहज स्वच्छता एवं पावनता को नष्ट कर डालना । जीवन-वेग को एकान्त उत्सर्ग में बन्द करना, यह भी भूल है और उसे एकान्त अपवाद में कैद करना, यह भी चूंक है। जीवन की गति को किसी भी एकान्त पक्ष में बांधकर रखना, हितकर नहीं । जीवन को बाँधकर रखने में क्या हानि है ? बाँधकर रखने में, संयत करके रखने में तो कोई हानि नहीं है । परन्तु एकान्त विधान और एकान्त निषेध में बाँध रखने में जो हानि है, वह एक भयंकर हानि है । यह एक प्रकार से साधना का पक्षाघात है। जिस प्रकार पक्षाघात में जीवन सक्रिय नहीं रहता, उसमें गति नहीं रहती, उसी प्रकार विधि-निषेध के पक्षपातपूर्ण एकान्त प्राग्रह से भी साधना की सक्रियता नष्ट हो जाती है, उसमें यथोचित गति एवं प्रगति का प्रभाव हो जाता है । १० - न विकिवि प्रणुष्णातं, पडिसिद्धं नावि जिनवरिदेहि । तित्थगराणं आणा, कज्जे सच्चेण होयम्य ॥७७६॥ - उपदेश पद Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) विधि - निषेध अपने आप में एकान्त नहीं हैं । यथापरिस्थिति विधि निषेध हो सकता है और निषेध विधि | जीवन में इस ओर नियत जैसा कुछ नहीं है । आचार्य उमास्वाति प्रशमरति प्रकरण में स्पष्टतः लिखते हैं कि "भोजन, शय्या, वस्त्र, पात्र तथा प्रोषध प्रादि कोई भी वस्तु शुद्ध कल्प्य ग्राह्य होने पर भी प्रकल्प्य प्रशुद्ध - अग्राह्य हो जाती है, और प्रकल्प्य होने पर भी कल्प्य हो जाती है । " " "देश, काल, क्षेत्र, पुरुष, अवस्था, उपधात और शुद्ध भावों की समीक्षा के द्वारा ही वस्तु कल्प्य ग्राह्य होती है । कोई भी वस्तु सर्वथा एकान्त रूप से कल्प्य नहीं होती । २ वस्तु अपने-आप में न अच्छी है, न बुरी है । व्यक्ति-भेद से वह अच्छी या बुरी हो जाती है । श्राकाश में चन्द्रमा के उदय होने पर चक्रवाक दम्पती को शोक होता है. चकोर को हर्ष । इस में चन्द्रमा का क्या है ? वह चक्रवाक और चकोर के लिए अपनी स्थिति में कोई भिन्न-भिन्न परिवर्तन नहीं करता है । चक्रवाक और चकोर की अपनी मनः स्थिति भिन्न है, अतः उसके अनुसार चन्द्र अच्छा या बुरा प्रतिभासित होता है। इसी प्रकार साधक भी विभिन्न स्थिति में रहते हैं, उनका स्तर भी देश, काल आदि की विभिन्नता में विभिन्न स्तरों पर ऊँचानीचा होता रहता है । प्रतएव एक ही वस्तु एक साधक के लिए निषिद्ध अग्राह्य होती है, तो दूसरे के लिए उसकी अपनी स्थिति में ग्राह्य भी हो सकती है । परिस्थिति और तदनुसार होने वाली भावना ही मुख्य है । यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी । जिसकी जैसी भावना होती है, उसको वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है। लोक भाषा में भी किंवदन्ती है कि जाकी रही भावना जैसी, प्रभुमूरत देखी तिन तैसी । अर्थात् सत्य एक ही है, वह विभिन्न देश काल में विभिन्न मनोभावों के अनुसार विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता रहता है । निशीथ सूत्र भाष्यकार इस सम्बन्ध में बड़ी ही महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं । वे समस्त उत्सर्गों और अपवादों, विधि और निषेधों की शास्त्रीय सीमाओं की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि : " "समर्थ साधक के लिए उत्सर्गं स्थिति में जो द्रव्य निषिद्ध किए गए है, वे सब प्रसमर्थं साधक के लिए प्रपवाद स्थिति में कारण विशेष को ध्यान में रखते हुए ग्राह्य हो जाते हैं ।"१७ ११--किविच्छुद्धं कल्प्यमकल्प्यं स्यात् स्यादकल्यमपि कल्प्यम् ; पिण्ड : शय्या वस्त्र, पात्रं वा भेषजायं वा १११४५ ।। १२ -- देशं कालं पुरुषमवस्यामुपघातशुद्धपरिणामान् प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं, नेकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम् ।। १४६ ।। १३ - उस्सम्गेण णिसिद्धाणि, जाणि दव्त्राणि संघरे मुणिणो । कारकजाए जाते, सव्वाणि वि ताणि कति ।। ५२४५ ।। - प्रामरति - निशोथ भाष्य Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य जिनदास ने निशीथ चूर्णि में उपयुक्त भाष्य पर विवरण करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जो उत्सर्ग में प्रतिषिद्ध हैं, वे सब-के-सब कारण उत्पन्न होने पर कल्पनीय-ग्राह्य हो जाते हैं। ऐसा करने में किसी प्रकार का भी दोष नहीं है ।। उत्सर्ग और अपवाद का यह विचार ऐसा नहीं कि विचार जगत् के किसी एक कोने में ही पड़ा रहा हो, इधर-उधर न फैला हो। जैन साहित्य में सुदूर अतीत से लेकर बहुत आगे तक उत्सर्ग और अपवाद पर चर्चा होती रही, और वह मतभेद की दिशा में न जाकर पूर्वनिर्धारित एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ती रही । प्राचार्य जिनेश्वर अपने युग के एक प्रमुख क्रियाकाण्डी प्राचार्य हुए है । परन्तु उन्होंने ने भी शास्त्रीय विधि निषेधों के सम्बन्ध में एकान्त का अाग्रह नहीं रखा । प्राचार्य हरिभद्र के अष्टक प्रकरण पर टीका करते हुए वे चरक संहिता का एक प्राचीन श्लोक उद्धत करते हैं कि __"देश, काल और रोगादि के कारण मानव-जीवन में कभी-कभी ऐसी अवस्था भी प्रा जाती है कि जिस में कार्य कार्य बन जाता है और कार्य प्रकार्य हो जाता है । अर्थात् जो विधान है वह निषेव कोटि में चला जाता है, और जो निषेध है वह विधान कोटि में प्रा पहुंचता है।"1" उत्सर्ग और अपवाद की एकार्थ-साधनता प्रस्तुत चर्चा में यह बात विशेषरूप से ध्यान में रखने जैसी है कि उत्सर्ग और अपवाद दोनों एकार्थ-साधक होते हैं, अर्थात् दोनों का लक्ष्य एक होता है, दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं, साधक होते हैं, बाधक और घातक नहीं । दोनों के सुमेल से ही, एकार्थ-साधकत्व से ही साधक का साधनापथ प्रशस्त हो सकता है।" उत्सर्ग और अपवाद यदि परस्पर निरपेक्ष हों, अन्यार्थक हों, एक ही प्रयोजन को सिद्ध न करते हों, तो वे शास्त्र-भाषा के अनुसार उत्सर्ग और अपवाद ही नहीं हो सकते । शास्त्रकार ने दोनों को मार्ग कहा है । और मार्ग वे ही ---- - - - - - --- १४- जाणि उस्सग्गे पडिसिद्धागि, उप्पण्मे कारणे सन्वाणि वि ताणि कप्पति । ण दोसो ......... ॥५२४५॥ - निशीथ चूणि. १५ - उत्पद्यते ही सावस्था, देशकालामयान् प्रति । पस्यामकार्य कार्य स्यात, कर्म कायं च वर्जयेत् ।। - महकप्रकरण २७ - ५ टीका १६-नोत्सृष्टमन्यार्थमपोचते च ।। -प्रन्ययोगव्यवच्छेदिका, ११ वीं कारिका समर्थमेवाश्रित्य शास्त्रपूत्सर्गः प्रवर्तते, तमेवार्थमाश्रित्यापवादोऽपि प्रवर्तते, तयो निम्नोन्नतादिव्यवहारवत् परस्परसापेक्षत्वेन एकार्थसाधनविषयत्वात् । -स्यादादमडारी, का. ११ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते हैं, जो एक ही निदिष्ट लक्ष्य की ओर जाते हों, भले ही घूम-फिर कर जाएं। जो विभिन्न लक्ष्यों की ओर जाते हों, वे एक लक्ष्य पर पहुँचने की भावना रखने वाले यात्रियों के लिए मार्ग न होकर कुमार्ग ही होते हैं। साधना के क्षेत्र में उत्सर्ग भी मार्ग है, और अपवाद भी मार्ग हैं, दोनों ही साधक को मुक्ति की ओर ले जाते हैं, दोनों ही संयम की रक्षा के लिए होते हैं। एक ही रोग में एक व्यक्ति के लिए वैद्य किसी एक खाद्य वस्तु को अपथ्य कह कर निषेध करता है, तो दूसरे व्यक्ति के लिए देश, काल और प्रकृति आदि की विशेष स्थिति के कारण उसी निषिद्ध वस्तु का विधान भी करता है । परन्तु इस विधि और निषेध का लक्ष्य एक ही है-- रोग का उपशमन, रोग का उन्मूलन । इस सम्बन्ध में शास्त्रीय उदाहरण के लिए आयुर्वेदोक्त विधान है कि "सामान्यतः ज्वर रोग में लवन (भोजन का परित्याग) हितावह एवं स्वास्थ्य के अनुकूल रहता है, परन्तु वात, श्रम, क्रोध, शोक और कामादि से उत्पन्न ज्वर में लंघन से हानि ही होती है।" १७ इस प्रकार एक स्थान पर भोजन का त्याग अमृत है, तो दूसरे स्थान पर भोजन का अत्याग अमृत है । दोनों का लक्ष्य एक ही है, भिन्न नहीं। उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में भी यही बात है। दोनों का लक्ष्य एक ही है-- जीवन की संशुद्धि, प्राध्यास्मिक पवित्रता, संयम की रक्षा, ज्ञानादि सद्गुणों की वृद्धि । उत्सर्ग अपवाद का पोषक होता है, और अपवाद उत्सर्ग का । उत्सर्ग मार्ग पर चलना, यह जीवन की सामान्य पद्धति है, जैसे कि सीधे राजमार्ग पर चलने वाला यात्री कभी प्रतिरोध-विशेष के कारण राजमार्ग का परित्याग कर समीप की पगडंडी भी पकड़ लेता है, परन्तु, कुछ दूर चलने के बाद अनुकूलता होते ही पुनः उसी राज मार्ग पर लौट पाता है । यही बात उत्सर्ग से अपवाद और अपवाद से उत्सर्ग के सम्बन्ध में लागू पड़ती है । दोनों का लक्ष्य गति है, अगति नहीं। फलतः दोनों ही मार्ग हैं, अमार्ग या कुमार्ग नहीं । दोनों के यथोक्त सुमेल से ही साधक की साधना शुद्ध एवं परिपुष्ट होती है। उत्सर्ग और अपवाद कब और कब तक ? प्रश्न किया जा सकता है कि साधक कब उत्सर्ग मार्ग से गमन करे और कब अपवाद मार्ग से ? प्रश्न वस्तुत: बड़े ही महत्व का है । उक्त प्रश्न पर पहले भी यथाप्रसंग कुछ-न-कुछ लिखा गया ही है, किन्तु वह संक्षेप भाषा में है । संभव है, साधारण पाठक उस पर से कोई स्पष्ट धारणा न बना सके । अतः हम यहाँ कुछ विस्तृत चर्चा कर लेना चाहते हैं। उत्सर्ग साधना-पथ की सामान्य विधि है, अतः उस पर साधक को सतत चलना है। उत्सर्ग छोड़ा जा सकता है, किन्तु वह यों ही प्रकारण नहीं, बिना किसी विशेष परिस्थिति के नहीं। और वह भी सदा के लिए नहीं। जो साधक कारण ही उत्सर्ग मार्ग का परित्याग कर देता है, अथवा किसी अपुष्ट (नगण्य) कारण की ग्राड में उसे छोड़ देता है, वह साधक ईमानदार साधक नहीं है। वह भगवदाज्ञा का पाराधक नहीं, अपितु विराधक है। जो व्यक्ति अकारण ही ११ - कालाविरोधिनिर्दिष्ट, ज्वरादी लवन हितम् । ऋतेऽनिल-श्रम-क्रोध शोक-कामकृतज्वरात् ।। ---- स्याद्रादमरी (उद्ध त) का० ११ . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रौषधि का सेवन करता है, अथवा रोग की समाप्ति हो जाने पर भी रोगी होने का नाटक खेलता रहता है, वह मक्कार है, कर्तव्य-भ्रष्ट है । इस प्रकार के अकर्मण्य व्यक्ति अपने आप भी विनष्ट होते हैं और समाज को भी कलंकित करते हैं। यही दशा उन साधकों की है, जो बात-बात पर उत्सर्ग मार्ग का परित्याग करते हैं, अकारण ही अपवाद का सेवन करते हैं और एक बार कारणवश अपवाद में आने के पश्चात् कारण की समाप्ति हो जाने पर भी वहीं डटे रहते हैं । इस प्रकार के साधक स्वयं तो पथभ्रष्ट होते ही हैं, किन्तु समाज में भी एक गलत प्रादर्श उपस्थित करते हैं । उक्त साधकों का कोई मार्ग नहीं होता, न उत्सर्ग और न अपवाद । अपनी जघन्य वासना या दुर्बलता की पूर्ति के फेर में वे शुद्ध अपवाद मार्ग को बदनाम करते हैं। अपवाद मार्ग भी एक विशेष मार्ग है । वह भी साधक को मोक्ष की ओर ही ले जाता है, संसार की ओर नहीं। जिस प्रकार उत्सर्ग संयम मार्ग है, उसी प्रकार अपवाद भी संयम मार्ग है । किन्तु वह अपवाद वस्तुतः अपवाद होना चाहिए । अपवाद के पवित्र वेष में कहीं भोगाकांक्षा चकमा न दे जाय, इसके लिए साधक को सतत सजग एवं सचेष्ट रहने की आवश्यकता है । साधक के सम्मुख वस्तुतः कोई विकट परिस्थिति हो, दूसरा कोई सरल मार्ग सूझ ही न पड़ता हो, फलस्वरूप अपवाद अपरिहार्य स्थिति में उपस्थित हो गया हो, तभी अपवाद का सेवन धर्म होता है । और कोही समागत तूफानी वातावरण साफ हो जाय, स्थिति को विकटता न रहे, त्योंही अपवाद से उत्सर्ग मार्ग पर पुनः प्रारूढ हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में क्षणभर का विलम्ब नीनातक हो सकता है। __ और एक बात यह भी है कि जितना आवश्यक हो, उतना ही अपवाद का सेवन . करना चाहिए । ऐसा न हो कि चलो, जब यह कर लिया, तो अब इसमें भी क्या है ? यह भी कर लें। जीवन को निरन्तर एक अपवाद से दूसरे अपवाद पर शिथिल भाव से लुढकाते जाना, अपवाद नहीं है। जिन लोगों को मर्यादा का भान नहीं है, अपवाद की मात्रा एवं सीमा का परिज्ञान नहीं है, उनका अपवाद के द्वारा उत्थान नहीं, अपितु शतमुख पतन होता है । "विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ।'' उत्सर्ग और अपवार पर एक बहुत ही सुन्दर पौराणिक गाथा है। उस पर से सहज ही समझा जा सकता है, कि उत्सर्ग और अपवाद को अपनी क्या सीमाएं हैं ? और उनका सूक्ष्म विश्लेषण किस प्रकार ईमानदारी से करना चाहिए ? एक वार द्वादश वर्षीय भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। लोग भूखों मरने लगे, सर्वत्र हाहाकार मच गया। एक विद्वान् ऋषि भी भूख से संत्रस्त इधर-उधर अन्न के लिए भटक रहे थे। उन्होंने देखा कि राजा के कुछ हस्तियक ( पीलवान ) बैठे हैं, बीच में अन्न का ढेर है, सब उसी में से एक साथ ले लेकर खा रहे हैं। पास ही जल-पात्र रखा है, प्यास लगने पर बीच-बीच में सब उसी में मुंह लगा कर जल पी लेते हैं । ऋषि ने पीलवानों से अन्न की याचना की। पीलवानों ने कहा-"महाराज, क्या दें? अन्न तो जूठा है !" Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० } ऋषि ने कहा - "कोई हर्ज नहीं । जुठा है तो क्या है, आखिर पेट तो भरना ही है । आपत्ति काल में कैसी मर्यादा ? " आपत्ति काले मर्यादा नास्ति ।" ऋषि ने जूठा अन्न ले लिया, एवं एक ओर वहीं बैठ कर खा भी लिया । जब चलने लगे, तो पीलवानों ने कहा- "महाराज, जल भी पी जाइए"। इस पर ऋषि ने कहा - " जल जूठा है, मैं नहीं पी सकता" । इतना सुनना था कि सब-के-सब पीलवान् ठहाका मारकर हंस पड़े। कहने लगे-"महाराज ! अन्न पेट में पहुंचते ही, मालूम होता हैं, बुद्धि लौट आई है। भला, आपने जो ग्रन्न खाया है, क्या वह जूठा नहीं था ? अत्र पाना पीने में जूठे—सुच्चे का विचार किस आधार पर कर रहे हो ?" ऋषि ने शान्तभाव से कहा - "बन्धुप्रो, तुम्हारा सोचना ठीक है । परन्तु मेरी एक मर्यादा है । न प्रन्यत्र मिल नहीं रहा था, और इधर मैं भूख से इतना अधिक व्याकुल था कि प्राण कंठ में आ लगे थे, और अधिक सहन करने की क्षमता समाप्त हो चुकी थी । ग्रतः मैंने जूठा अन्न ही अपवाद की स्थिति में स्वीकार कर लिया । ग्रब रहा जल का प्रश्न ? वह तो मुझे मेरी मर्यादा के अनुसार अन्यत्र शुद्ध ( सुच्चा ) मिल सकता है। अतः मैं व्यर्थ ही जूठा जल क्यों पीऊ ?" उत्सर्ग और प्रपवाद कब और किस सीमा तक ? इस प्रश्न का कुछ-कुछ समाधान ऊपर के कथानक से हो जाता है । संक्षेपमें जब तक चला जा सकता है, तब तक उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना चाहिए। और जबकि चलना सर्वथा दुस्तर हो जाय, दूसरा कोई भी इधरउधर बचाव का मार्ग न रहे, तब अपवाद मार्ग पर उतर आना चाहिए। और ज्योंही स्थिति सुधर जाए, पुनः तत्क्षण उत्सर्ग मार्गपर लौट प्राना चाहिए । उत्सर्ग और अपवाद के अधिकारी उत्सर्गं मार्गं सामान्य मार्ग है, अतः उस पर हर किसी साधक को सतत चलते रहना है । " गीतार्थ को भी चलना है, और प्रगीतार्थं को भी। बालक को भी चलना है, और तरुण तथा वृद्ध को भी । स्त्री को भी चलना है, और पुरुष को भी। यहां कौन चले और कौन नहीं, इस प्रश्न के लिए कुछ भी स्थान नहीं है । जब तक शक्ति रहे, उत्साह रहे, आपत्ति काल में भी किसी प्रकार की ग्लानि का भाव न आए, धर्म एवं संघ पर किसी प्रकार का उपद्रव न हो, अथवा ज्ञान दर्शन चारित्र की क्षति का कोई विशेष प्रसंग उपस्थित न हो तब तक उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना है, अपवाद मार्ग पर नहीं । परन्तु अपवाद मार्ग की स्थिति उत्सगं से भिन्न है। अपवाद मार्ग पर कभी कदाचित् १८ - सखुड्डुग· वियत्ताणं, वाहियाणं च जे गुणा । अखंड sफुडिया कायव्वा, तं सुणेह जहा तहा ।। - दश०. ६, ६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही चला जाता है । अपवाद की धारा तलवार की धारा से भी कहीं अधिक तीक्ष्ण है । इस पर हर कोई साधक, और वह भी हर किसी समय नहीं चल सकता । जो साधक गीतार्थ है, आचारांग आदि आचार संहिता का पूर्ण अध्ययन कर चुका है, निशीथ सूत्र आदि छेद सूत्रों के सूक्ष्मतम मर्म का भी ज्ञाता है, उत्सर्ग और अपवाद पदों का अध्ययन ही नहीं, अपितु स्पष्ट अनुभव रखता है, वही अपवाद के स्वीकार या परिहार के सम्बन्ध में ठोक-ठीक निर्णय दे सकता है। जिस व्यक्ति को देश का ज्ञान नहीं है कि यह देश कैसा है, यहां की क्या दशा है, यहां क्या उचित हो सकता है और क्या अनुचित, वह गीतार्थ नहीं हो सकता। काल का ज्ञान भी आवश्यक है । एक काल में एक बात संगत हो सकती है, तो दूसरे काल में वही असंगत भी हो सकती है । क्या ग्रीष्म और वर्षा काल में पहनने योग्य हलके-फुलके वन शीतकाल में भी पहने जा सकते हैं ? क्या शीतकाल के योग्य मोटे ऊनी कंबल जेठ की तपती दुपहरी में भी परिधान किए जा सकते हैं ? यह एक लौकिक उदाहरण है। साधक के लिए भी अपनी व्रत-साधना के लिए काल की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता का परिज्ञान अत्यावश्यक है। व्यक्ति की स्थिति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । दुर्बल और सबल व्यक्ति की तनुस्थिति और मनः स्थिति में अन्तर होता है। सबल व्यक्ति बहुत अधिक समय तक प्रतिकूल परिस्थिति से संघर्ष कर सकता है, जब कि दुर्बल व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता। वह शीघ्र ही प्रतिकूलता के सम्मुख प्रतिरोध का साहस खो बैठता है। अतः साधना के क्षेत्र में व्यक्ति की स्थिति का ध्यान रखना भी आवश्यक है । देश और काल आदि की एकरूपता होने पर भी, विभिन्न व्यक्तियों के लिए रुग्णता या स्वस्थता आदि के कारण स्थिति अनुकूल या प्रतिकूल हो सकती है। यही बात व्यक्ति के लिए उपयुक्त द्रव्य की भी है। क्या मोटा ऊनी कंबल साधारणतया जेष्ठ मास में अनुपयुक्त होने पर भी, उसी समय में, ज्वर (पित्ती उछलने पर) की स्थिति में उपयुक्त नहीं हो जाता है ? किबहना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता के कारण विभिन्न स्थितियों में विभिन्न परिवर्तन होते रहते हैं । उन सब स्थितियों का ज्ञान गीतार्थ के लिए आवश्यक है। जिस प्रकार चतुर व्यापारी प्राय और व्यय की भली भाँति समीक्षा कर के व्यापार करता है, और अल्प व्यय से अधिक लाभ उठाता है, उसी प्रकार गीतार्थ भी अल्प दोष सेवन से यदि ज्ञानादि गुणों का अधिक लाभ होता हो, तो वह कार्य कर लेता है, मौर दूसरों को भी इसके लिए देशकालानुसार उचित निर्देशन कर सकता है। १६ - सुकादी-परिसुदे, सइ लाभे कुणइ वाणिप्रो चिट्ठ। एमेव य गोयत्यो, प्राय दद्दु समायरइ ।।६५२।। -वृहत्कल्पमाष्य १ एवमेव च गीतार्थोऽपि ज्ञानादिक 'माय' लाभं दृष्ट्या प्रलम्बाधकल्प्यप्रतिसेवा समाचरति, नान्यथा । वृहत्कल्प भाष्य वृत्ति, गा० ९५२ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) गीतार्थ के लिए एक और महत्त्वपूर्ण बात है-यतना की। उत्सर्ग में तो यतना अपेक्षित है ही, किन्तु अपवाद में भी यतना की बहुत अधिक अपेक्षा है । अपवाद में जब कभी चालू परम्परा से भिन्न यदि किसी प्रकल्प्य विशेष के सेवन का प्रसंग पाजाए, तो वह यों ही विवेकमूढ होकर अंधे हाथी के समान नहीं होना चाहिए। अपवाद में विवेक की आँखें खुली रहनी आवश्यक हैं। उत्सर्ग की अपेक्षा भी अपवादकाल में अधिक सजगता चाहिए। यदि यतना का भाव रहता है, तो अपवाद में स्खलना की आशङ्का नहीं रहती है। यतना के होते हुए उल्लुण्ठ वृत्ति कथमपि नहीं हो सकती। २०यतना अपने आप में वह अमृत है, जो दोष में भी गुण का प्राधान कर देता है। प्रकल्प्य सेवन में भी यदि यतना है. यतना का भाव है, तो इसका अर्थ है कि अकल्प्य-सेवन में भी संयम है। आखिर यतना और है क्या, संयम का ही तो दूसरा व्यवहारसिद्धरूप यतना है । अत: सच्चा गीतार्थ वह है, जो उत्सर्ग और अपवाद में सर्वत्र पतना का ध्यान रखता है। उसका दोष-वर्जन भी यतना के साथ होता है, और दोष-सेवन भी यतना के साथ । जीवन में सब पोर यतना का प्रकाश साधक को पथभ्रष्ट होने से बचाए रखता है। __प्राचार्य भद्रबाहु और संघदास नणी ने गीतार्थ के गुणों का निरूपण करते हुए कहा है :-"जो आय-व्यय, कारण-अकारण, आगाढ ( ग्लान)-अनागाढ, वस्तु-अवस्तु, युक्तप्रयुक्त, समर्थ-असमर्थ, यतना-अयतना का सम्यग् ज्ञान रखता है, और साथ ही कर्तव्य कर्म का फल परिणाम भी जानता है, वह विधिवान्-गीतार्थ कहलाता है ।"२) ___ अपवाद के सम्बन्ध में निर्णय देने का, स्वयं अपवाद सेवन करने और दूसरों से यथापरिस्थिति अपवाद सेवन कराने का समस्त उत्तरदायित्व गीतार्थ पर रहता है। अगीतार्थ को स्वयं अपवाद के निर्णय का सहज अधिकार नहीं है। वह गीतार्थ के निरीक्षण तथा निर्देशन में ही यथावसर अपवाद मार्ग का अवलम्बन कर सकता है। प्रस्तुत चर्चा में गीतार्थ को इतना अधिक महत्त्व क्यों दिया जाता है ? इसका एक'मात्र समाधान यह है कि कर्तव्य की चारुता और अचारुता, अथवा सिद्धि और असिद्धि, अन्ततः कर्ता पर ही आधार रखती है। यदि कर्ता अज्ञ है, कार्य-विधि से अनभिज्ञ है, तो देश, काल और साधन की हीनता के कारण अन्ततः कार्य की हानि ही होगी, सिद्धि नहीं। और यदि कर्ता विज्ञ है, कार्य-विधि का मर्मज्ञ है, तो वह देश, काल और साधनों के प्रोवित्य का भलो भाँति ध्यान रखेगा, फलतः अपने अभिलषित कार्य में सफल ही होगा, असफल नहीं । २२ २०-जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालिणी चेव । तबुडिकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा ॥७६६॥ जयणाए वट्टमाणो, जीवो सम्मत्त-णाण चरणाण । सद्धा-ब्रोहाऽऽसेवणभावणाऽराहो भणिप्रो ॥१७०॥ -उपदेशपद २१-आयं कारण गाढं, वत्थु जुत्तं ससति जयणं च । सव्वं च सपडिवक्खं, फलं च विधिवं वियाणाह ॥५१॥ -बृहत्कल्प निर्यक्ति, भाष्य, २२.--संपत्ती य विपत्ती, य हो कज्जेसु कारग पप्प । अणुवायतो विवत्ती, संपत्ती कालुवाएहिं ।।६४EL -बृहत्कल्प भाष्य Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब एक प्रश्न और है कि आखिर गीतार्थ कहाँ तक साथ रह सकता है ? कल्पना कीजिए, साधक ऐसी स्थिति में उलझ गया है कि वहाँ उसके लिए गीतार्थ का कोई भी निर्देशन प्राप्त करना असंभव है। उक्त विकट स्थिति में वह क्या करे और क्या न करे? क्या वह अपनी नवागत स्थिति के अनुकूल परम्परागत स्थिति में कुछ योग्य फेर-फार नहीं कर सकता ? उत्तर है कि क्यों नहीं कर सकता। अन्ततोगत्वा साधक स्वयं ही अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार निर्णय कर सकता है कि वह कब उत्सर्ग पर चले और कब अपवाद पर ? तत्त्वतः अपनी मति ही मति है, वही युक्त एवं प्रयुक्त की वास्तविक निर्णायिका है। यह ठीक है कि गीतार्थ गुरु, मूल पागम, भाष्य, चूर्णि और अन्य प्राचार ग्रन्थ, काफी लम्बी दूर तक साधक का निर्देशन करते हैं। परन्तु अन्ततः साधक पर ही सब कुछ छोड़ना होता है, और वह छोड़ भी दिया जाता है। एक पिता अपने नन्हे शिशु को हाथ पकड़ कर चलाता है, चलाना सिखाता है। परन्तु कुछ समय बाद वह शिशु को उसकी अपनी शक्ति पर ही छोड़ देता है न ? धर्म, प्रात्मा को साझी पर ही प्राधार रखता है । अन्त में अपने अन्तर्तम का भाव ही काम आता है ! अस्तु, साधक जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हो वैसा करे, किन्तु सर्वत्र अपनी हार्दिक प्रामाणिकता और सत्याचरणता को अखण्ड रखे । जीवन में सत्य के प्रति उन्मुखता का रहना ही सब कुछ है। कर्तव्य और अकर्तव्य, बाहर में कुछ नहीं है। इनका मूल अन्दर की मनोभूमि में है। वहाँ यदि पवित्रता है, तो सब पवित्र है, अन्यथा सब कुछ अपवित्र है। अपवाद दुषण नहीं, अपितु भूषण यद्यपि, उत्सर्ग और अपवाद दोनों का लक्ष्य एक है, इस पर काफी प्रकाश डाला चुका है। फिर भी अपवाद के सम्बन्ध में सर्व-साधारण की ओर से यह प्रश्न प्रायः खड़ा ही रहता है कि क्या उत्सर्ग को छोड़ कर अपवाद में जाने वाले साधक के स्वीकृत व्रतों का भंग नहीं होता? क्या इस दशा में साधक को पतित नहीं कहा जा सकता? यह प्रश्न व्रतों के बाह्याकार और उसके बाह्य भंग पर से खड़ा होता है। प्रायः जनता की अाँखें बाह्य के स्थूल दृश्य पर ही अटक कर रह जाती हैं , किन्तु साधक स्थूल ही नहीं, सूक्ष्म भी है, इतना सूक्ष्म कि जिसका आकार प्रकार स्थूल से कहीं बड़ा है, बहुत बड़ा है । साधक के उसी सूक्ष्म अन्तर् में उक्त प्रश्न का सही समाधान प्राप्त हो सकता है। आचार्य संघदास गणी एक रूपक के द्वारा प्रस्तुत प्रश्न का बड़ा ही सुन्दर समाधान उपस्थित करते हैं-"एक यात्री किसी अभीष्ट लक्ष्य की ओर त्वरित गति से चला जा रहा है। वह यथाशक्ति शीघ्र गति से दौड़ता है, ताकि शीघ्र ही गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाए। परन्तु चलता हुआ थक जाता है, आगे मार्ग की और अधिक विषमतामों के कारण चल नहीं पाता है, अतः वह बीच में कहीं विश्राम करने लग जाता है। यदि वह यात्री अपने अह के कारण उचित विश्राम न करे, क्लान्त होने पर भी हठात् चलता ही रहे, तो स्वस्थ नहीं रह सकता। कुछ दूर जाकर, वह इतना अधिक क्लान्त हो जाएगा कि अवश्य ही मूर्छा खाकर गिर पड़ेगा । संभव है, प्राणान्त भी हो जाए। ऐसी स्थिति में, जिस लक्ष्य के लिए तन-तोड़ दौड़ धूप की जा रही Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी, वह सदा के लिए अगम्य ही रह जाएगा। अस्तु, यात्री का विश्राम भी चलने के लिए ही होता है, बैठे रहने के लिए नहीं। वह विश्रान्ति लेकर, तरोताजा होकर पुनः दुगुने बेग से चलता है, बैठ जाने के फलस्वरूप होने वाले विलम्ब के समय को शीघ्र ही पूरा कर लेता है और लक्ष्य पर पहुँच जाता है। २३अतः व्यवहार की भाषा में भले ही विश्रान्तिकालीन स्थिति अगति हो, किन्तु निश्चय की भाषा में तो वह स्थिति भी गति ही है। साधक सहज भाव से शास्त्रनिर्दिष्ट उत्सर्ग मार्ग पर चलता है, और यावद् बुद्धि बलोदयं उत्सर्ग मार्ग पर चलना भी चाहिए । परन्तु कारणवशात् यदि कभी उसे उत्सर्ग मार्ग से अपवाद मार्ग पर पाना पड़े, तो यह उसका तात्कालिक विश्राम होगा। यह विश्राम इसलिए लिया जाता है कि साधक अपने स्वीकृत पथ पर द्विगुणित वेग के साथ सोल्लास आगे बढ़ सके और अभीष्ट लक्ष्य पर ठीक समय पर पहुंच सके। फालतार्थ यह है कि अपवाद उत्सर्ग की रक्षा के लिए ही होता है, न कि ध्वंस के लिए। अपवाद काल में, यदि बाह्य दृष्टि से स्वीकृत व्रतों को यत्किचित् क्षति पहुँचती भी है, तो वह मूलतः व्रतों की रक्षा के लिए ही होती है । जहरीले फोड़े से शरीर की रक्षा के लिए, आखिर शरीर के उस भाग का छेदन किया जाता ही है न? किन्तु वह शरीर-छेदन शरीर की रक्षा के लिए ही है, नाश के लिए नहीं। जीवन और मरण में सब मिलाकर अन्ततः जीवन ही महत्त्वपूर्ण है। 'जीवन्नरो भद्रशतानि पश्येत्' का स्वर्ण सूत्र आखिर एक सीमा में कुछ अर्थ रखता है। कल्पना कीजिएसाधक के समक्ष ऐसी समस्या उपस्थति है कि वह अपने व्रत पर अड़ा रहता है, तो जीवन जाता है और यदि जीवन की रक्षा करना चाहता है, तो गत्यन्तराभाव से स्वीकृत व्रतों का भंग होता है। ऐसी स्थिति में साधक क्या करे और क्या न करे ? क्या वह मर जाए? शास्त्रकार इस सम्बन्ध में कहते हैं कि यदि अपने धर्म की रक्षा के लिए कोई महत्त्वपूर्ण स्थिति हो, साधक में उत्साह हो. तरंग हो, तो वह प्रसन्न भाव से मृत्यु का आलिंगन कर सकता है ? परन्तु यदि ऐसी कोई महत्त्वपूर्ण स्थिति न हो, मृत्यु की ओर जाने में समाधिभाव का भंग होता हो, जीवन के बचाव में कहीं अधिक धर्माराधन संभवित हो, तो साधक के लिए जीते रहना ही श्रेयस्कर है, भले ही जीवन के लिए स्वीकृत व्रतों में थोड़ा-बहुत फेर-फार भी क्यों न करना पड़े। यह केवल मेरी अपनी मति-कल्पना नहीं है । जैन जगत् के महान् श्रुतधर आचार्य भद्रबाहु प्रोपनियुक्ति में कहते हैं कि “साधक को सर्वत्र सब प्रकार से अपने संयम की रक्षा करनी चाहिए। यदि कभी संयम का पालन करते हुए मरण होता, हो तो संयम-रक्षा को छोड़ कर अपने जीवन की रक्षा करनी चाहिए। प्राणान्त काल में अपवाद-सेवन द्वारा जीवन की रक्षा २३ -धावंतो उव्वानो, मग्गन्नू किं न गच्छइ कमेणं । किं वा मउई किरिया, न कीरए असहुमो तिक्सं ॥३२॥ -हकल्पभाष्य पीठिका Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) करने वाला मुनि दोषों से रहित होता है, वह पुनः विशुद्धि प्राप्त कर सकता है । तत्त्वतः तो उसका व्रत-भंग होता ही नहीं है ।२४ व्रत-भंग क्यों नहीं होता, प्रत्यक्ष में जब कि व्रत-भंग है ही ? उक्त शंका का समाधान द्रोणाचार्य अपनी टीका में करते हैं कि - "अपवाद-सेवन करने वाले साधक के परिणाम विशुद्ध हैं। और विशुद्ध परिणाम मोक्ष का हेतु ही होता है, संसार का हेतु नहीं।"* जैन धर्म के सम्बन्ध में कुछ लोगों की धारणा है कि वह जीवन से इकरार नहीं करता, अपितु इन्कार करता है। परन्तु यदि तटस्थ दृष्टि से गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए, तो मालूम पड़ेगा कि वस्तुतः जैन धर्म ऐसा नहीं है। वह जीवन से इन्कार नहीं करता, अपितु जीवन के मोह से इन्कार करता है। जीवन जीने में यदि कोई महत्त्वपूर्ण लाभ है, और वह स्वपर की हित-साधना में उपयोगी है, तो जीवन सर्वतोभावेन संरक्षणीय है। प्राचार्य भद्रबाहु, अपने उक्त सिद्धान्त के सम्बन्ध में, देखिए, कितना तर्कपूर्ण समाधान करते हैं-- "साधक का देह संयमहेतुक है, संयम के लिए है। यदि देह ही न रहा तो फिर संयम कैसे रहेगा ? अतएव संयम की साधना के लिए देह का परिपालन इष्ट है ।" २५ यह वाणी प्रान के किसी भौतिकवादी को नहीं है, अपितु सुदूर अतीत युग के उस महान् अध्यात्मवादी की है, जो आध्यात्मिकता के चरम शिखर पर पहुँचा हुआ साधक था। बात यह है कि अध्यात्मवाद कोई अंधा प्रादर्श नहीं है ! वह आदर्श के साथ यथार्थ का भी उचित समन्वय करता है। उसके यहाँ एकान्त पक्षाग्रह-जैसी कोई बात नहीं है। मुख्य प्रश्न है-कारण और अकारण का। प्राचार्य जिनदास की भाषा में, साधक के लिए अकारण कुछ भी अकल्पनीय अनुज्ञात नहीं है, और सकारण कुछ भी अकल्पनीय निषिद्ध नहीं है।२९ __ यदि स्पष्ट शब्दों में निश्चयनय के माध्यम से कहा जाए तो, साधक, न जीवन के लिए है और न मरण के लिए है। वह तो अपने ज्ञान, दर्शन और. चारित्र की सिद्धि के लिए है। अतः जिस जिस प्रकार ज्ञानादि की सिद्धि एवं वृद्धि होती हो, उसे उसी प्रकार करते रहना चाहिए, इसी में संयम है । २७ यदि, जीवन से ज्ञानादि की सिद्धि होती हो, तो जीवन की रक्षा २४-सव्वत्थ संजमं, संजमामो अप्पाणमेव रक्खिबा। मुबइ अइवायाप्रो, पुणो विसोही न याऽविरई ॥४६॥ न याऽविरई, कि कारणं ? तस्याशयशुद्धतया, विशुद्धपरिणामस्य च मोक्षहेतुत्वात् । -प्रोधनियुक्तिटीका, गा० ४६ । २५-संजमहेउं देहो धारिजइ सो को उ तदभावे । संजम-फाइनिमित्तं, देहपरिपालणा इट्ठा ॥४७॥ °ोधनियुक्ति २६-णिक्कारणे प्रकप्पणिज्जं न किं चि अणुण्णायं, अववायकारणे उप्पण्णे प्रकप्पणिज्ज ण कि चि पडिसिद्ध । निच्छयववहारतो एस तित्यकराणा ।..... कज्जति अववादकारणं, तेण जति पडिसेवति तहा वि सचा भवति, सबो ति संजमो ॥५२४८।। -निशीथचूर्णि २७-कज्जं जाणादीयं उस्सग्गववायत्रो भवे सच्वं । तं तह समायरंतो, तं सफल होइ सव्वं पि ॥५२४६॥ .- निशीथभाष्य -प्रोपनियुक्ति Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हुए वैसा करना चाहिए। और यदि मरण से ही ज्ञानादि अभीष्ट की सिद्धि होती हो, तो मरण भी साधक के लिए शिरसा श्लाघनीय है। उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में भी यही बात है । साधक,न केवल उत्सर्ग के लिए है और न केवल अपवाद के लिए है । वह दोनों के लिए है, मात्र शर्त है-साधक के ज्ञानादि गुणों की अभिवृद्धि होनी चाहिए । जीवन और मरण की कोई खास समस्या न भी हो, फिर भी यदि सन्मतितर्क आदि महान् दर्शन-प्रभावक ग्रन्थों का अध्ययन करना हो, चारित्र की रक्षा के लिए इधर-उधर सुदूर भू प्रदेश में क्षेत्र परिवर्तन करना हो, तब यदि गत्यन्तराभाव होने से अकल्पनीय आहारादि का सेवन कर लिया जाता है, तो वह शुद्ध ही माना जाता हैं, अशुद्ध नहीं। शुद्ध का अर्थ है, इस सम्बन्ध में साधक को कोई प्रायश्चित्त नहीं पाता ।२८ कोई भी देख सकता है, जैन धर्म आदर्शवादी होते हए भी कितना यथार्थवादी धर्म है। उसके यहाँ बाह्य-विधि विधान हैं, और बहुत हैं, किन्तु वे सब किसी योग्य गृहपति के गृह की प्राचीर के समान हैं। साधक उनमें से अंदर और बाह्य यथेष्ट आ जा सकता है। वे कोई कारागार की अनुल्लंघनीय प्राचीर नहीं हैं कि साधक उनके अंदर बन्दी हो जाय. और कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो, इधर-उधर बाहर आ जा ही न सके । जैन धर्म भावप्रधान धर्म है। उसका अनुष्ठान, सर्वथा अपरिवर्तनीय जड़ अनुष्ठान नहीं, किन्तु क्रियाशील परिणामी चैतन्य अनुष्ठान है । मूल में जैन परम्परा को बाह्य दृश्यमान विधि-विधानों का उतना आग्रह नहीं है, जितना कि अन्तरंग की शुद्ध भावनात्मक परिणति का आग्रह है। यही कारण है कि उसके दर्शनकक्ष में मोक्ष के हेतुओं की कोई बंधी बंधाई नियत रूपरेखा नहीं है, इयत्ता नहीं है। जो भी संसार के हेतु हैं, वे सब सत्यनिष्ठ साधक के लिए मोक्ष के हेतु हो जाते हैं। और जो मोक्ष के हेतु हैं, वे सब संसाराभिनन्दी के लिए संसार के हेतु हो जाते है। २९इसका २८-दसणपभावगाणं, सट्ठाणटाए सेवती जंतु । णाणे सत्तत्थाणं, चरणेसण-इत्थिदोसा वा ॥४८६॥ दसणपभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-सम्मतिमादि गेण्हतो असंथरमाणो जं प्रकप्पियं पडि. सेवति, जयणाए तत्थ सो सुद्धो अपायच्छिती भवतीत्यर्थः । जाणेति णाणणिमित्त सुत्तं प्रत्थं वा गेण्हमाणो, तत्थ वि प्रकप्पियं असंथरे पडिसेवंतो सुद्धो। परणे त्ति जत्थ खेत्ते एसणादोसा इत्थिदोसा वा ततो खेत्तातो चारित्रार्थिना निर्गन्तव्यं, ततो निम्गच्छमाणो जं प्रकप्पियं पडिसेवति जयणाते तत्य सुद्धो ॥४८६। -निशीथ चूर्णि २६-जे पासवा ते परिस्सवा, ने परिस्सवा ते प्रासवा । -प्राचा० १,४, २, १३० य एवाश्रवाः कर्मबन्धस्थानानि, त एव परिश्रवाः कर्मनिर्जरास्पदानि । -प्राचार्य शीलाङ्क। जे जत्तिया, य हेऊ, भवस्स ते चेव तत्तिया मुक्खे । गणणाईमा लोगा, दुण्ह वि पुण्णा भवे तुल्ला ॥५३॥ --प्रोपनियुक्ति सर्व एव त्रैलोक्योदरविवरवतिनो भाना रागद्वेषमोहात्मनों पुंसां संसारहेतवो भवन्ति, त एव रागादिरहितानां श्रद्धामतामज्ञानपरिहारेण मोक्षहेतवो भवन्तीति । -द्रोणाचार्य, मोधनियुक्तिटीका Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ यह है कि त्रिभुवनोदरविक्रवर्ती समस्त असंख्येय भाव अपने आप में न मोक्ष के कारण है और न संसार के कारण । साधक की अपनी अन्तः स्थिति ही उन्हें अच्छे या बुरे का रूप देती है। साधक के अन्तर्तम में यदि शुद्ध भाव है, तो अंदर-बाहर सब शुद्ध है। और यदि मधुर भाव है, तो सब अशुद्ध है। अतः कर्म-बन्ध और कर्म-निर्जरा का मूल्यांकन बाहर से नहीं, अपितु अंदर से किया जाना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि बाहर कुछ नहीं है, जो कुछ है, अंदर ही है। मेरा कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि बाहर में सब कुछ कर करा कर भी अन्ततः अंदर में ही अन्तिम मुहर लगती है । सावधान ! बाहर के भावाभाव में कहीं अंदर के भावाभाव को न भूल जाएँ ! हाँ, तो अपवाद में व्रतभंग नहीं होता, संयम नष्ट नहीं होता ; इसका एक मात्र कारण यह है कि अपवाद भी उत्सर्ग के समान ही अन्तर्तम की शुद्ध भावना पर आधारित है। बाहर में भले ही उत्सर्ग-जैसा उज्ज्वल रूप न हो, व्रत भंग का मालिन्य ही हो, किन्तु अंदर में यदि साधक निर्मल रहा है, सावधान रहा है, ज्ञानादि सद्गुणों की साधना के शद्ध साध्य पर सुस्थित रहा है, तो वह शुद्ध ही है। उत्सर्ग और अपवाद का तुल्यत्व शिष्य प्रश्न करता है-"भंते ! उत्सर्ग अधिक हैं, या कि अपवाद अधिक हैं ?" प्रस्तुत प्रश्न का बृहत्कल्प भाष्य में समाधान किया गया है कि "जितने उत्सर्ग हैं, उतने ही उनके अपवाद भी होते हैं । और जितने अपवाद होते हैं, उतने ही उनके उत्सर्ग भी होते हैं ।"3० उक्त कथन से स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि साधना के उत्सर्ग और अपवाद दोनों ही अपरिहार्य अंग हैं। जिस प्रकार उन्नत से निम्न की और निम्न से उन्नत की प्रसिद्धि है, उमी प्रकार उत्सर्ग से अपवाद और अपवाद से उत्सर्ग प्रसिद्ध है, अर्थात् दोनों अन्योऽन्य प्रसिद्ध हैं।" एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता । अस्तु, ऐसा कोई उत्सर्ग नहीं, जिसका अपवाद न हो, और ऐसा कोई अपवाद भी नहीं, जिसका उत्सर्ग न हो। दोनों की कोई इयत्ता नहीं है, अर्थात् अपने आप पर आधारित कोई स्वतंत्र संख्या नहीं है। दोनों तुल्य हैं, एक दूसरे पर आधारित हैं। उत्सर्ग और अपवाद का बलाबल शिष्य पृच्छा करता है-- "भंते ! उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों में कौन श्रेय है और कौन अश्रेय ? तथा कौन सबल है और कौन निर्बल ?" ३०-जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव हंति प्रववाया। जावड्या प्रववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव ॥३२२।। ३१-उन्नयमविक्ख निन्नस्म पसिद्धी उन्नयस्स निनामो। इय मनोनपसिद्धा, उम्सग्गऽक्वायत्रो तल्ला ॥३२१॥ -हतस्प माध्य-पीठिका Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका समाधान, हत्कल्प भाष्य में, इस प्रकार दिया गया है "उत्सर्ग अपने स्थान पर श्रेय एवं सबस है । और अपवाद अपने स्थान पर श्रेय एवं सबम है। इसके विपरीत उत्सर्ग के स्थान पर अपवाद अश्रेय एवं निर्बल है, और प्रपवाद के स्थान , पर असा प्रश्रेय एवं निर्बल है।३२ . प्रत्येक जीवन क्षेत्र में स्व-स्थान का बड़ा महत्व है । स्वस्थान में जो गुरुत्व है, वह पर स्थान में कहां? मगर, जल में जितना शक्तिशाली है, क्या उतना स्थल भूमि में भी है ? नहीं, मगर का श्रेय और बल दोनों ही स्वस्थान-जल में है। इसी प्रकार उत्सर्ग और अपवाद का श्रेय और बल भी अपेक्षाकृत है । उत्सर्ग के स्थान में उत्सर्ग और अपवाद के स्थान में अपवाद का प्रयोग ही जीवन के लिए हितकर है। यदि अज्ञानता अथवा दुराग्रह के कारण इनका विपरीत प्रयोग किया जाए, तो दोनों ही अहितकर हो जाते हैं। उत्सर्ग और अपवाद का स्वस्थान और परस्थान शिष्य जिज्ञासा प्रस्तुत करता है-"भंते ! उत्सर्ग और अपवाद में साधक के लिए स्वस्थान कौन-सा है ? और पर स्थान कौन-सा है ?" इस जिज्ञासा का सुन्दर समावान बृहत्कल्प भाष्य में इस प्रकार दिया गया है "जो साधक स्वस्थ और समर्थ है उसके लिए उत्सर्ग स्वस्थान है, और अपवाद परस्थान है । किन्तु जो अस्वस्थ एवं असमर्थ है. उसके लिए अपवाद स्वस्थान है, और उत्सर्ग परस्थान है।"33 देश, काल और परिस्थिति-वशात् उत्सर्ग और अपवाद के स्थानों में यथाक्रम स्व-परत्व होता रहता है । इस पर से स्पष्ट ही सिद्ध हो जाता है, कि साधक जीवन में उत्सर्ग और अपवाद का समान भाव से यथा परिस्थिति ग्रादान एवं अनादान करते रहना चाहिए । परिणामी, अतिपरिणामी और अपरिणामी साधक जैन धर्म की साधना न अति परिणामवाद को लेकर चलती है, और न अपरिणामवाद को लेकर ही चलती है । जो साधक परिणामी है, वही उत्सर्ग और अपवाद का मार्ग भली भांति समझ सकता है, और देशकालानुसार उनका उचित उपयोग भी कर सकता है । किन्तु अति परिणामी और अपरिणामी साधक उत्सर्ग एवं अपवाद को समझने में असमर्थ रहते हैं, फलतः ३२-सट्टाणे सट्टाणे, सेया बलिणो य हुंति खलु एए । सट्ठाण-परट्ठाणे, य हुंति वत्यूतो निष्फन्ना ।।३२३॥ -बृहत्कल्प भाष्य पीठिका ३३ - संथरमो सट्ठाणं, उस्सग्गो असहुणो परट्ठाणं । ज्य सट्ठाण पर वा, न होई वत्यू-विगा किंचि ॥३२४।। -हत्कल्प भाष्य पीठिका Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) समय पर उनका पूर्ण प्रौचित्य के साथ उपयोग न होने के कारण साधना-भ्रष्ट हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में व्यवहार भाष्य और उसकी वृत्ति में एक बड़ा ही सुन्दर रूपक पाया है - एक प्राचार्य के तीन शिष्य थे। अपने प्राचार्यत्व का गुरुतर पद-भार किसको दिया जाय ?, अस्तु तीनों की परीक्षा के विचार से प्राचार्य ने एक-एक को पृथक्-पृथक् बुलाकर कहा"मुझे अाम्र लाकर दो।" अतिपरिणामी, साथ में दूसरी और भी बहुत सी अकल्य वस्तु लाने की बात करता है। अपरिणामी कहता है-"आम्र, साघु को कल्पता नहीं है । भला, मैं कैसे लाकर दूं?" परिणामी कहता है-"भंते ! आम्र कितने ही प्रकार के होते हैं। क्या कारण है, और तदर्थ कौन-सा प्रकार अभीष्ट है, मुझे स्पष्ट प्रतिपत्ति चाहिए । और यह भी बताएं कि कितने लाऊ ? मात्रा का ज्ञान मेरे लिए आवश्यक है। कहीं ऐसा न हो कि मैं गलती कर जाऊं।" __ प्राचार्य की परीक्षा में परिणामवादी उत्तीर्ण हो जाता है। क्योंकि वह उत्सर्ग और अपवाद की मर्यादा को भली भांति जानता है। वह अपरिणामी के समान गुरु की अवहेलना भी नहीं करता, और अतिपरिणामी की तरह कारणवश एक प्रकल्प्य वस्तु मांगने पर अन्य अनेक प्रकल्प्य वस्तु लाने को भी नहीं कहता। परिणामवादी हो जैन साधकों का समुज्ज्वल प्रतिनिधि चित्र है । क्योंकि वह समय पर देश, काल आदि की परिस्थिति के अनुरूप अपनेआपको ढाल सकता है। उसमें जहाँ संयम का जोश रहता है, वहाँ विवेक का होश भी रहता है । अपरिणामी, उत्सर्ग से ही चिपटा रहेगा। और अतिपरिणामी अपवाद का भी दुरुपयोग करता रहेगा । किस समय पर और कितना परिवर्तन करना, यह उसे भान ही नहीं रहेगा। मपरिणामी, सर्वथा अपरिवर्तित क्रिया-जड़ होकर रहेगा तो अतिपरिणामी, परिवर्तन के प्रवाह में बहता ही जाएगा, कहीं विराम ही न पा सकेगा। धर्म के रहस्य को, साधना के महत्व को परिणामी साधक ही सम्यक् प्रकार से जान सकता है, और तदनुरूप अपने जीवन को पवित्र एवं समुज्ज्वल बनाने का नित्य-निरंतर प्रयत्न कर सकता है। अहिंसा का उत्सर्ग और अपवाद ____ भिक्षु का यह उत्सर्ग मार्ग है, कि वह मनसा, वाचा, कायेन किसी भी प्रकार के स्थूल एवं सूक्ष्म जीवों की हिंसा न करे। क्यों नहीं करे? इस के समाधान में दशवैकालिक सूत्र में भगवान् ने कहा है-"जगती तल के समग्र जीव-जन्तु जीवित रहना चाहते हैं , मरना कोई नहीं चाहता। क्योंकि सब को अपना जीवन प्रिय है। प्राणि वध घोर पाप है। इसलिए निन्थ भिक्षु, इस घोर पाप का परित्याग करते हैं।"७४ ३४-सब्बे जीवा वि इच्छंति, जीविउ न मरिजि। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति गं ॥ -दश० भ०६, गा० ११ । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) उपर्युक्त कथन, जैन साधना पथ में प्रथम श्रहिंसा महाव्रत का उत्सर्ग मार्ग है । परन्तु कुछ परिस्थितियों में इसका अपवाद भी होता है। वैसे तो श्रहिंसा के अपवादों की कोई इयत्ता नहीं है । तथापि वस्तुस्थिति के यत्किचित् परिबोध के लिए प्राचीन आगमों तथा टीकाग्रन्थों में कुछ उद्धरण उपस्थित किए जारहे हैं । भिक्षु के लिए हरित वनस्पति का परिभोग निषिद्ध है । यहाँ तक कि वह हरित वनस्पति का स्पर्श भी नहीं कर सकता। यह उत्सर्ग मार्ग है । परन्तु इसका अपवाद मार्ग भी है । आचारांग सूत्र में कहा गया है, कि "एक भिक्षु, जो कि अन्य मार्ग के न होने पर किसी पर्वतादि के विषम-पथ से जा रहा है । यदि कदाचित् वह स्खलित होने लगे, पड़ने लगे, तो अपने आप को गिरने से बचाने के लिए तरु को, गुच्छ को, गुल्म को, लता को, वली को तथा तृण हरित आदि को पकड़ कर सँभलने का प्रयत्न करे । भिक्षु का उत्सर्ग मार्ग तो यह है, कि वह किसी भी प्रकार की हिंसा न करे। परन्तु, हरित वनस्पति को पकड़कर चढ़ने या उतरने में हिंसा होती है, यह अपवाद है । यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाए तो यह हिंसा भी हिंसा के लिए नहीं होती है, अपितु अहिंसा के लिए ही होती है। गिर जाने पर अंग-भंग हो सकता है, फिर प्रार्त रौद्र दुर्ध्यान का संकल्प विकल्प श्रा सकता है, दूसरे जीवों को भी गिरता हुआ हानि पहुँचा सकता है । अतः भविष्य की इस प्रकार स्व-पर हिंसा की लंबी श्रृंखला को ध्यान में रख कर यह अहिंसा का ग्रपवाद है, जो मूल में हिंसा के लिए ही है । । वर्षा बरसते समय जीवों की विराधना होती है, स्पर्शमात्र भी निषिद्ध है परन्तु साथ में इसका यह प्रपवाद भी है, कि चाहे वर्षा बरस रही हो, तो भी भिक्षु उच्चार (शौच और प्रस्रवण (मूत्र) करने के लिए बाहर जा सकता है । ६ मलमूत्र का बलात् निरोध करना, स्वास्थ्य और संयम दोनों ही दृष्टि से वर्जित है । मलमूत्र के निरोध में ग्राकुलता रहती है, और जहाँ श्राकुलता है, वहाँ न स्वास्थ्य है, और न संयम । वर्षा में बाहर-गमन के लिए केवल मल मूत्र का निरोध ही अपवादहेतु नहीं है, अपितु बाल, वृद्ध और ग्लानादि के लिए भिक्षार्थं जाना अत्यावश्यक हो, तब भी उचित यतना के साथ वर्षा में गमनागमन किया जा सकता है । योगशास्त्र की स्वोपज्ञ वृत्ति में प्राचार्य हेमचन्द्र ने तणाणि भिक्षु प्रपने उपाश्रय से बाहर नहीं निकलता। क्योंकि जलीय हिंसा होती है। पूर्ण अहिंसक भिक्षु के लिए सचित्त जल का भिक्षु का यह मार्ग उत्सर्ग मार्ग है । ३५ --- से दत्थ पलमाणे वा रुक्खाणि वा, गुच्च्खाणि वा, गुम्माणि वा, लयाश्रो वा, वल्लीओ वा. हरियाणि वा भवलंबिय धवलंविय उत्तरिज्जा ' वा, - श्राचागंग, २ श्रुत० ईर्याध्ययन, उद्देश २ । ३६ - इतरस्तु सति कारणे यदि गच्छेत्- प्राचारांग वृत्ति २, १, १, ३, २० वच्या मुतं न धारए । दशवेकालिक प्र० ५, गा० १६ उच्चार-प्रश्रवणादिपीडितानां कम्बलावृतदेहानां यच्छतामपि न तथाविधा विराधना । - योगशास्त्रस्वोपज्ञवृत्ति ३ प्रकाश ८७ श्लोक । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) इस सम्बन्त्र में स्पष्ट उल्लेख किया है। यही बात मार्ग में नदी-संतरण तथा दुर्भिक्ष आदि में प्रलम्ब-ग्रहण सम्बन्धी ३. अपवादों के सम्बन्ध में भी है। ये सब अपवाद भी अहिंसा महाव्रत के हैं । जीवन, प्राखिर जीवन है, वह संयम को साधना में एक प्रमुख भाग रखता है। और जीवन सचमुच वही है, जो शान्त हो, समाधिमय हो, निराकुल हो । अस्तु, उत्सर्ग में रहते यदि जीवन में समाधिभाव रहता हो, तो वह ठीक है । यदि किसी विशेषकारणवशात् उत्सर्ग में समाधिभाव न रहता हो, अपवाद में ही रहता हो, तो अमुक सीमा तक वह भी ठीक है । अपने आप में उत्सर्ग और अपवाद मुख्य नहीं, समाधि मुख्य है । मार्ग कोई भी हो, अन्ततः समाधिरूप लक्ष्य की पूर्ति होनी चाहिए। सत्य का उत्सर्ग और अपवाद सत्य भाषण, यह भिक्षु का उत्सर्ग-मार्ग है । दशवकालिक सूत्र में कहा है"मृषावाद -असत्य भाषण लोक में सर्वत्र समस्त महापुरुषों द्वारा निन्दित है। असत्य भाषण अविश्वास की भूमि है। इसलिए निग्रन्थ मृषावाद का सर्वथा त्याग करते हैं।" । परन्तु साथ में इसका अपवाद भी है। प्राचारांग सूत्र में वर्णन आता है, कि एक भिक्ष मार्ग में जा रहा है। सामने से व्याध आदि कोई व्यक्ति आए और पूछे कि-"प्रायुष्मन् ! श्रमण ! क्या तुमने किसी मनुष्य अथवा पशु आदि को इवर आते-जाते देखा है ?" इस प्रकार के प्रसग पर प्रथम तो भिक्षु उसके वचनों की उपेक्षा करके मीन रहे। यदि मीन न रहनेजैसी स्थिति हो, या मौन रहने का फलितार्थ स्वीकृति सूचक जैसा हो, तो "जानता हुआ भी यह कहदे, कि में नहीं जानता।'' ३७-बाल-वृद्ध-ग्लाननिमित्तं वर्षत्यपि जलघरे भिक्षायै निःसरतां कम्बलांवृतदेहाना न तथाविधाकाय विराधना । -योगशास्त्र, स्वोपन वृत्ति ३, ८७ ३८-तमो संजयामेव उदमंसि पविजा । -प्राचा० २, १, ३, २, १२२ ३९–एवं श्रद्धाणादिसु, पलंबगहणं कया वि होजाहि । --निशीष भाष्य, मा० ४८७६ ४.-मुसावाप्रो य लोगम्मि, सम्य साहूहि गरिहियो । प्रविस्सासो य भूयाणं ; तम्हा मोसं विवजए । -श० भ० ६ गा.१३ ४१-"तुसिणीए उवेहेज्बा, जाणं वा नो जाणंति वएखा।" प्राचा० २, १, ३, ३, १२६ भिक्षोर्गच्छतः कश्चित् संमुखीन एतद् बयात-मायुष्मन् श्रमम! भवता पथ्यागच्छता कश्चिद् मनुष्यादिरुपलब्ध: ? तं चैवं पृच्छन्तं तूष्णीमावेनोपेक्षेत, यदि वा जाननपि नाहं जानागि इत्येवं वदेत् । -मापा०२, १, ३, ३, १२६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां पर असत्य बोलने का स्पष्ट उल्लेख है। यह भिक्षु का अपवाद मार्ग है। इस प्रकार के प्रसंग पर असत्य भाषण भी पापरूप नहीं है। निशीथचूर्णि में भी आचारांग सूत्र का उपयुक्त कथन सन्दृब्ध है।४२ सूत्रकृतांग सूत्र में भी यही अपवाद आया है । वहां कहा गया है "जो मृषावाद मायापूर्वक दूसरों को ठगने के लिए बोला जाता है , वह हेय है, त्याज्य है।"४३ __ प्राचार्य शीलांक ने उक्त सूत्र का फलितार्थ निकालते हुए स्पष्ट कहा है-"जोपरवञ्चना की बुद्धि से रहित मात्र संयम-गुप्ति के लिए कल्याण भावना से बोला जाता है , वह असत्य दोषरूप नहीं है, पाप-रूप नहीं है ।। तपनेय का उत्सर्ग और अपवाद उत्सर्ग मार्ग में भिक्षु के लिए घास का एक तिनका भी अग्राह्य है, यदि वह स्वामीद्वारा प्रदत्त हो तो। कितना कठोर व्रत है । अदत्तादान न स्वयं ग्रहण करना, न दूसरों से ग्रहण करवाना और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन ही करना ।४५ परन्तु परिस्थिति विकट है, अच्छे-से-अच्छे साधक को भी आखिर कभी झुक जाना पड़ता ही है। कल्पना कीजिए, भिक्षु-संघ लंबा विहार कर किसी अज्ञात गाँव में पहुंचता है, स्थान नहीं मिल रहा है, बाहर वृक्षों के नीचे ठहरते हैं तो भयंकर शीत है, अथवा जंगली हिंसक पशुओं का उपद्रव है। ऐसी स्थिति में शास्त्राज्ञा है कि बिना आज्ञा लिए ही योग्य स्थान पर ठहर जाएं और पश्चात् आज्ञा प्राप्त करने का प्रयत्न करें।"४६ ४२- "संजमहेउ ति" जइ केइ लुद्धगादी पुच्छंति- 'कतो एत्थ भगवं दिट्ठा मिगादी ?'.."ताहे दिढेसु वि वत्तव्वं-- वि "पासे" त्ति दिट्ट त्ति वुत्तं भवति । -निशीथ चूमि, भाष्यगाथा ३२२ ४३- "सादियं ण मुसं बूया, एस धम्मे वुसीमग्रो।" -सूत्र० १, ८, १६ ४४-यो हि परवञ्चनार्थ समायो मृषावाद: स परिहीयते। यस्तु संयमगुप्त्यर्थ "न मया मृगा उपलब्धा" इत्यादिकः स न दोषाय । - सूत्रकृतांग वृत्ति १, ८, १६ ४५-चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं ना जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्तं पि, उग्गहंसि प्रजाइया । -दश०६,१४ ४६-कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा पुवामेव प्रोग्गहं अणनवेत्ता तपो पच्छा प्रोगिण्हित्तए । मह पुण जाणेज्जा- इह खलु निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा नो सुलभे पाडिहारिए सेज्जासंथारएत्ति कटु एवं ण्हं कप्पइ पुवामेव भोग्गहं प्रोगिण्डित्ता तो पच्छा अणुनवेत्तए । 'मा वहउ मज्जो', वइ-प्रणुलोमेणं प्रणलोमेयव्वे सिया। व्यवहारसूत्र ८, ११॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २३ ) प्राचर्य का उत्सर्ग और अपवाद भिक्षु का यह उत्सर्ग मार्ग है, कि वह अपने ब्रह्मचर्य महाव्रत की रक्षा के लिए एक दिन की नवजात कन्या का भी स्पर्श नहीं करता। परन्तु अपवाद रूप में वह नदी में डूबती हुई अथवा क्षिप्तचित्त आदि भिनणी को पकड़ भी सकता है। __ इसी प्रकार यदि रात्रि आदि में सर्पदंश की स्थिति हो, और अन्य कोई उपचार का माम न हो, तो साघु स्त्री से और साध्वी पुरुष से अवमान आदि स्पर्श-सम्बन्वित चिकित्सा कराए तो वह कल्प्य है । उक्त अपवाद में कोई प्रायश्चित्त नहीं है-'परिहारं च से न पाउण।" साधु या साध्वी के पैर में कांटा लग जाए, अन्य किसी भी तरह निकालने की स्थिति न हो, तो एक दूसरे से निकलवा सकते हैं। कथित उद्धरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि साधक-जीवन में जितना महत्व उत्सर्ग का है, अपवाद का भी उतना ही महत्त्व है। उत्सर्ग और अपवाद में से किसी का भी एकान्ततः न ग्रहण है, न परित्याग । दोनों ही यथाकाल धर्म हैं, ग्राह्य हैं। दोनों के सुमेल से जीवन स्थिर बनता है। एक समर्थ आचार्य के शब्दों में कहा जा सकता है, कि " किसी एक देश और काल में एक वस्तु अधर्म है, तो वही तद्भिन्न देश और काल में धर्म भी हो सकती है।" अपरिग्रह का उत्सर्ग और अपवाद उत्सर्ग स्थिति में साधु के लिए पात्र प्रादि धर्मोपकरण, जिनकी संख्या १४ बताई है." ग्राह्य हैं। इनके अतिरिक्त अन्य सब परिग्रह हैं । और परिग्रह भिक्षु के लिए सर्वथा वर्ण्य है।" परन्तु अपवादीय स्थिति की गंभीरता भी कुछ कम नहीं है। जब कोई भिक्षु स्थविरभूमि-प्राप्त स्थविर हो जाता है, तो वह छत्रक,चर्मछेदनक प्रादि अतिरिक्त उपधि भी आवश्यकतानुसार रख सकता है।" w-हत्कल्प सूत्र स० ६ सू०७-१२ ४०-यवहार सूत्र उ०५ सू०२१ ४९हत्कल्प सूत्र उ० ६ सू० ३ ५.-पस्मिन् देशे काल, यो धर्मो भवति । स एव निमित्तान्तरेणु पधर्मो भवत्येत ॥ ५१-प्रश्न व्याकरण, संवर द्वार, अपरिग्रह निरूपण ५२- सावकामिक, चतुर्थ अध्ययन, पंचम महावत ५३-बबहार सूत्र, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचारांग सूत्र में समर्थ तथा तरुण भिक्षु को एक पात्र ही रखने की प्राज्ञा है,५४ अतएव प्राचीन काल का मात्रक, तथैव आज कल के तीन या चार पात्र अपवाद ही हैं। निशीथ चूर्णिकार ने ग्लानादि कारण से ऋतुबद्ध एवं वर्षाकाल के उपरान्त एक स्थान पर अधिक ठहरे रहने को भी परिग्रह का कालकृत अपवाद ही माना है।" यदि कोई भिक्षु विषग्रस्त हो जाए, तो विष निवारण के लिए, सुवर्ण घिसकर उसका पानी विष-रोगी को देने का भी वर्णन है । यह सुवर्ण-ग्रहण भी अपरिग्रह का अपवाद है ।५६ भिक्षु को यथाशास्त्र निर्दिष्ट पात्र ही रखने चाहिएं, यदि अधिक रखता है, तो वह परिग्रह है । परन्तु दूसरों के लिए सेवाभाव की दृष्टि से अतिरिक्त पात्र रख भी सकता है । ५. । पुस्तक, शास्त्र वेष्टन, लेखनी, कागज, मसि, आदि भी परिग्रह ही है, क्योंकि ये सब भिक्षु के धर्मोपकरण में परिगणित नहीं हैं । परन्तु चिरकाल से ज्ञान के साधन रूप में अपरिग्रह का अपवाद मानकर इनका ग्रहण होता रहा है। गृह-निषद्या का उत्सर्ग और अपवाद __ भिक्षु, गृहस्थ के घर पर नहीं बैठ सकता, यह उत्सर्ग-मार्ग है । प्रत्येक भिक्षु को इस नियम का कठोरता के साथ पालन करना होता है।५८ परन्तु जो भिक्षु जराभिभूत वृद्ध है, रोगी है, अथवा तपस्वी है, वह गृहस्थ के घर बैठ सकता है। वह गृहनिषद्या के दोष का भागी नहीं होता। ५४-तहप्पगारं पायं जे निंग्गंथे तरुणे जाव थिरसंघयणे से एग पाय घरेज्जा, नो बिइयं -प्राचा० २, १, ६, १, १ ५५-गिलाणो सो विहरिउमसमत्थो, उउबद्धं वासियंदा अइरित्तं वसेज्जा । गिलाणपडियरगा वा ग्लानप्रतिवद्धत्वात अतिरित्तं वसेज्जा। -- निशीथ चूर्णि, भाष्यगाथा ४०४ ५६-विषग्रस्तस्य सुवर्ण कनकं तं वेत्तु घसिऊण विषणिग्घायणट्ठा तस्स पाणं दिज्जति, अतो गिलाणट्ठा पोरालिय ग्रहणं भवेज्ज । -निशीथ चूर्णि, भाष्य गाथा ३६४ ५७- कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अइरेगपडि गहं अन्नमन्नस्स अट्ठाए धारेत्तए, परिम्गहित्तए वा......" - व्यवहार सूत्र ८, १५ - तश. ३, ४ । दश० ६, ८ ५८-गिहन्तरनिसेज्जा य......... ५६-तिण्हमन्नयरागस्स, निसिबा जस्म कप्पह जराए अभिभूयस्स, वाहिमस्स तवस्सिणो । -देश ६, ६. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' आधाकर्म आहार का उत्सर्ग और अपवाद २५ ) उत्सर्ग मार्ग में प्रधाकर्मिक आहार भिक्षु के लिए अभक्ष्य कहा गया है ।" वह भिक्षु की कल्पमर्यादा में नहीं है । परन्तु कारणवशात् अपवाद मार्ग में वह प्राधाकर्म आहार भी अभक्ष्य नहीं रहता । सूत्रकृतांग सूत्र का अभिप्राय है, कि पुष्टालंबन की स्थिति में प्रधार्मिक श्राहार ग्रहण करने वाले भिक्षु को एकान्त पापी कहना भूल है । उसे एकान्त पापी नहीं कहा जा सकता ।" आचार्य शीलांक, उक्त सूत्र पर विवरण करते हुए स्पष्ट लिखते हैं कि " अपवाद दशा में श्रुतोपदेशानुसार श्राधा कर्म आहार का सेवन करता हुआ भी साधक शुद्ध है, कर्म से लिप्त नहीं होता है । ग्रतः एकान्त रूप में यह कहना कि "आधाकर्म से कर्मबन्ध होता ही है, ठीक नहीं । ६३ निशीथ भाष्य में भी दुर्भिक्ष यादि विशेष अपवाद के प्रसंग पर प्रधाकर्म आहार ग्राह्य बताया गया है । ६ 3 संथारे में आहार ग्रहण का अपवाद किसी भिक्षु ने भक्त प्रत्याख्यान ( संथारा) कर लिया है अर्थात् प्रहार ग्रहण का जीवन भर के लिए त्याग कर दिया है। शिष्य प्रश्न करता है - "भंते ! कदाचित् उस भिक्षु को क्षुधा सहन न कर सकने के कारण उत्कट समाधिभाव हो जाए, और वह भक्त पान मांगने लगे तो उसे देना चाहिए, कि नहीं ?" व्यवहार भाष्य वृत्ति में इस का सुन्दर समाधान दिया गया है । प्राचार्य मलयगिरि कहते हैं- “भिक्षु को असमाधि भाव हो ग्राने पर यदि वह स्थिरचित्त न रहे और भक्त - ६० - जे भिक्खू प्राहाकम्मं भुजइ, भुजंतं वा सातिज्जइ । - निशीध सूत्र १०, ६ ६१ - ग्रहाकम्माणि भुंजंति, अण्णमण्णे सकम्मुणा । उवलिते ति जाणिज्जा, भण्वलित्ते ति वा पुणो ||८|| एएहि दोहि ठाणेहि वत्रहारो न विज्जइ । एएहि दोहि ठाणेहि, श्रणायारं तु जाणए ||६|| सूत्र० २,५ ६२ -- माघाकर्माऽपि श्रुतोपदेशेन शुद्धमिति कृत्वा भुञ्जान: कर्मणा नोपलिप्यते । तदाधाकर्मोपभोगेनावश्यकर्मबन्धो भवति इत्येवं नो वदेत् । -टीका ६३ - सिवे प्रोमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे । श्रद्वाण रोहए वा धिति पडुच्चा व माहारे ॥ - निशीथ माध्य, गाथा २६६४ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २६ ) पान मांगने लगे तो उसे भक्त पान अवश्य दे देना चाहिए। क्योंकि उसके प्राणों का रक्षा के लिए पाहार कवच है।"१४ शिष्य पूछता है, कि- "त्याम कर देने पर भी भक्त-पान क्यों देना चाहिए ?" ५५ प्राचार्य कहते हैं “भिक्ष की साधना का लक्ष्या है, कि वह परीषह की सेना को मनःशक्ति से, वचःशक्ति से और काय-शक्ति से जीते। परीषह. सेना के साथ युद्ध वह तभी कर सकता है. जब कि समाधि-भाव रहे। और भक्त पान के विना समाधि भाव नहीं रह सकता है। अतः उसे कवचभूत प्राहार देना चाहिए !"" शिष्य प्रश्न करता है-"भंते ! संथारा करने वाले भिक्षु के द्वारा भक्त-पान ग्रहण कर लेने पर यदि कोई आग्रही निन्दा करे, तो क्या होता है ? ___प्राचार्य कहते हैं- “जो उसकी निन्दा करता है,जो उसकी भत्सना करता है, उसको चार मास का गुरु प्रायश्चित्त प्राता है।" पशुभों के बन्धन-मोचन का उत्सर्ग और अपवाद भिक्षु प्रात्म-साधना में एक धारा से सतत निरत रहने वाला साधक है। वह गृहस्थ के संसारी कार्यों में किसी प्रकार का भी न" भाग लेता है, और न उसे ठीक ही समझता है। वह गृहस्थ के घर पर रहकर भी जल में कमल के समान सर्वथा निलिप्त रहता है । अत एव भिक्षु को गृहस्य के यहाँ बछड़े प्रादि पशुओं को न बांधना चाहिए और न खोलना चाहिए। यह उत्समें मार्ग है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि भिक्ष की साधना एक चेतना-शून्य जड़ साधना है। अतः कैसी भी दुर्घटना हो, वह अनुकम्पाहीन पत्यर की मूरत बन कर बैठा रहेगा । कल्पना ६४-प्रशने पानके च याचिते, तस्य भक्तपानात्मकः कवचभूत माहारो वातव्यः । व्यवहार भाष्य वृत्ति उ० १० गा० ५३३ ६५-पथ कि कारणं, प्रत्यारयाय पुनराहारो दीयते ? ६६-हंदि परीमहाचमू, जोहेयया मणेण काएण । तो मरण- देसकाले कवयभूमो उ माहारो॥ -व्यवहार भाष्य, २०, १० मा० ५३४ परीषह सेना मनसा कायेन (वाचा ब) योन बेतव्या। तस्याः पराजयनिमितं मरणदेशकामे (मरण समये) गोषस्य कवचस्त प्राहारो दीयते। -- व्यवहार भाष्य वृत्ति __६७-यस्तु तं मतपरिज्ञाव्यावातवन्तं खिसति । ( भक्तप्रत्यास्यान प्रतिभग्न एष इति ) तस्व प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा अनुयाता गुरुका: । व्यवहार भाष्य वृत्ति १० उद्देश, गा• ५५१, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) ए - आग लग जाए, बाढ़ का पानी कीजिएचढ़ ग्राए, वृकादि हिंसक पशु प्राक्रमण करने वाले हों, अथवा अन्य कोई विषम स्थिति हो, तो क्या किया जाय ? क्या इस स्थिति में भी पशुओं को सुरक्षित एकान्त स्थान में न बाँधे, उन्हें यों ही ग्रनियंत्रित घूमने दे और मरने दे ? नहीं, निशीथ भाष्यकार के शब्दों में शास्त्राज्ञा है कि उक्त अपवादपरक स्थितियों में पशुओं को सुरक्षा के लिए बाँधा जा सकता है । ६८ जो दृष्टि बाँधने के सम्बन्ध में है, वही खोलने के सम्बन्ध में भी है। गृहस्थ के प्रति चापलूसी का दीन भाव रख कर कि वह मुझ पर प्रसन्न रहेगा, फलस्वरूप मन लगा कर सेवा करेगा. गृहस्थ का कोई भी संसारी कार्य न करे। परन्तु यदि पशु श्राग लगने पर जलने जैसी स्थिति में हों, गाढ बन्धन के कारण छटपटा रहे हों, तो सुरक्षा के लिए पशुओं को खोल भी सकता है। १९ यह अपवाद पद है, जो अनुकम्पा -भाव से विशेष परिस्थिति में अपनाया जा सकता है । अतिचार और अपवाद का अन्तर प्रतिचार और ग्रपवाद का अन्तर समझने जैसा है। बाह्य रूप में अपवाद भी प्रतिचार ही प्रतिभासित होता है । जिस प्रकार प्रतिचार में दोष सेवन होता है, वैसा ही अपवाद में भी होता है, अतः बहिरंग में नहीं पता चलता कि प्रतिचार और अपवाद में ऐसा क्या अन्तर है कि एक त्याज्य है, तो दूसरा ग्राह्य है । अतिचार और अपवाद का बाहर में भले ही एक जैसा रूप हो, परन्तु दोनों की पृष्ठ भूमि में बहुत बड़ा अन्तर है । प्रतिचार कुमार्ग है, तो अपवाद सुमार्ग है । प्रतिचार अधर्म है, तो अपवाद धर्म है । प्रतिचार संसार का हेतु है, तो अपवाद मोक्ष का हेतु है । ६८ - बितिय पदमणप्पज्भे, बंधे श्रविकोविते व अप्प | विसमsगड प्रगणि भाऊ, सणकगादीसु जागमवि ॥३६८३ ॥ - निशीथ भाष्य विसमा भगड प्रगणि प्राऊयु मरिज्जिहिति त्ति, वृगादिसणप्कएण वा मा खिज्जिहि ति, एवं जागो वि बंधइ - निशीथ चूर्णि ६६ - बितियपदमण पज्झे, मुंचे प्रविकोविते व प्रप्पज्छे । जाणते वा वि पुणो, बलिपासग प्रगणिमादीसु || ३६८४ ॥ - निशीथ भाष्य बलिपासगो त्ति बंधणी, तेण घईवगाढं बद्धो मूढो वा तडप्फटेड, मरइ वा जया, तया मुंबई' प्रणिति पलवणगे बद्ध मुंचेइ मा डज्झिहिति । - निशोथ चूर्णि -- ↓ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) मूल बात यह है कि अतिचार के मूल में दपं रहता है, मोहोदय का भाव रहता है। क्रोधादि कषाय भाव से, वासना से, संसार सुख की कामना से बिना किसी पुष्टालम्बन के, उत्सर्ग संयम का परित्याग कर जो विपरीत आचरण किया जाता है, वह अतिचार है । अतिचार से संयम दूषित होता है, अतः वह त्याज्य है । यदि मोहोदय के कारण कभी अतिचार का सेवन हो भी जाता है, तो प्रायश्चित्त के द्वारा उसकी शुद्धि करनी होती है। अन्यथा भिक्षु विराधक हो जाता है, और पथभ्रष्ट होकर संसार-कान्तार में भटक जाता है। _अब रहा अपवाद। इसके सम्बन्ध में पहले भी काफी प्रकाश डाला जा चुका है। "यदि में अपवाद का सेवन नहीं करूंगा, तो मेरे ज्ञानादि गुणां की अभिवृद्धि न होगी"-इस विचार से ज्ञानादि के योग्य सन्धान के लिए जो प्रतिसेवना की जाती है, वह सालम्ब सेवना है। और यही अपवाद का प्राण है। अपवाद के मूल में ज्ञानादि सद्गुणों के अजन तथा मंरक्षण की पवित्र भावना ही प्रमुख है। . निशीथ भाष्यकार ने ज्ञानादि-साधना के सम्बन्ध में बहुत ही महत्त्वपूर्ण उल्लेख किया है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार अंध गत में पड़ा हग्रा मनुष्य लगानों का अवलम्बन कर बाहर तट पर प्राजाता है, अपनो रक्षा कर लेता है, उसी प्रकार संसार गर्त में पड़ा हुमा सावक भी ज्ञानादि का अवलम्बन कर मोक्ष तट पर चढ़ पाता है, सदा के लिए जन्म मरण के कष्टों से निजात्मा की रक्षा कर लेता है। . २ अतः उत्सर्ग के समान अपवाद भी संयम है, अतिचार नहीं। कषाय भाव से प्रेरित प्रवृत्ति अतिचार है, तो संयम भाव से प्रेरित वही प्रवृत्ति अपवाद है। प्रतएव अतिचार कर्म बन्ध का जनक है, तो अपवाद कर्मक्षय का कारक हैं। बाहर में स्थूल दृष्टि से एक रूपता होते हुए भी, अन्दर में अन्तर है, आकाश पाताल जैसा महान् अन्तर है। एक भगवान् की आज्ञा में है, तो दूसरा भगवान की प्राज्ञा से बाहर है। पुष्टालम्बन वह अद्भुत रसायन है, जो प्रकल्प को भी कल्प बना देती है, अतिचार को भी प्राचार का सुरूप दे देती है। ७०-प्रति सेवना के दो रूप हैदरका मोर कल्पिका । विना पुष्टालम्बनरूप कारण के की जाने वाली प्रतिसेवना दपिका है, और वह अतिचार है। तथा विशेष कारण की स्थिति में की जाने वाली प्रति सेवा कल्पिका है, जो अपवाद है और वह भिक्षु का कल्प है-पाचार है । या कारणमन्तरेण प्रतिसेवना क्रियते सा दपिका, या पुनः कारणे सा कल्पिका।। -व्यवहार भाष्य वृत्ति उ०१. गा० ३८ ७१---णाणादी परिवुडढी, ण भविस्मति मे प्रसेवते बिति' तेसिं पसंधणट्ठा, सालंबणिसेवगा एसा ॥४६६।। -निशोथ माष्यं ७२-संसार गड्ड-पडितो, णाणादवलंबितु समारुति । मोक्खतडं जब पुरिसो, बल्लिविताणेण विसमा उ ॥४६५।। -निशीथ भाष्य Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ( २६ ) उत्सर्ग और अपवाद छेद सूत्रों का मर्म स्थल है । अतएव भाष्यों, चूर्णियों तथा तत्सम्बन्धित अन्य प्रचार ग्रन्थों में प्रस्तुत विषय पर इतना अधिक विस्तृत विवेचन किया गया है कि यह क्षुद्र निबन्ध समुद्र में की एक नन्हीं बूँद जैसा लगता है, वस्तुतः बूंद भी नहीं । फिर भी यथा मति, यथा गति कुछ लिखा गया है, और वह जिज्ञासु की ज्ञान-पिपासा के लिए एक जल कण ही सही, किन्तु कुछ है तो सही । प्रस्तुत निबन्व का प्रक्षरशरीर कुछ पुरानी और कुछ नयी विचार सामग्री के धार पर निर्मित हुआ है, और वह भी चिन्तन के एक आसन पर नहीं । बीच-बीच में विक्षेप. पर - विक्षेप प्राते रहे, शरीर-सम्बन्धी और समाज सम्बन्धी भी । अतः लेखन में यत्र-तत्र पुनरुक्ति की झलक प्राती है । परन्तु वह जहाँ दूषण है, वहाँ भूषण भी है । उत्सर्ग और अपवाद जैसे महनातिगहन विषय की स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए पुनरुक्तता का भी अपने में एक उपयोग है, और वह कभी-कभी प्रावश्यक हो जाता है । - उपाध्याय अमर मुनि ७३ - पन्ना वि हु पडिमेवा, सा उ न कम्मोदएण जा जयतो । सा कम्मलकरणी, दप्पाऽजय कम्मजणणी उ ॥ - ब्य> भा० उद्देश १, गा० ४२ या कारणे यतमानस्य यतनया प्रवर्तमानस्य प्रतिसेवना, सा कर्मक्षयकरणी। सूत्रोक्तनीत्या कारणे यतनया बतमानस्य ततस्तत्रामा राधनात् । व्यवहार माध्य - दुति Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राङ्क विषय नवम एवं दशम उद्दे शक का सम्बन्ध १-३ आगाढ कठोर एवं परुष कर्कश वचन का निषेध प्राचार्य को कठोर वचन कहने का निषेध, कठोर के प्रकार, कठोर वचन के लिए प्रायश्चित्त नादि १ २ ३ ४ ५ विषयानुकम दशम उद्देशक ६ आधाकर्म के उपभोग का निषेध आदि ह प्राचार्य को कर्कश वचन कहने का निषेध एवं प्रायश्चित प्राचार्य को कठोर एवं कर्कश वचन कहने का निषेध प्राचार्य की प्राशातना करने का निषेध प्राशातना के चार प्रकार प्राशातना के दोष एवं प्रपवाद अनन्तकाय संयुक्त आहारादि के उपभोग का निषेध, तत्सम्बन्धी दोष, प्रायश्चित्त श्रादि ७-८ लाभालाभ सम्बन्धी निमित्त के कथन का निषेध छः प्रकार के निमित्त १० एतत्सम्बन्धी दोष शिष्य के अपहरण का निषेध अपहरण के प्रकार अपहरण सम्बन्धी प्रायश्चित्त एवं अपवाद विपरिणाम की व्याख्या गर्दा की व्याख्या एवं उसके तीन प्रकार ११ स्वकीय प्राचार्य प्रादि की दिशा को स्वयं अपहरण (परिवर्तन) करने का निषेध गामाङ्क २६०६ २६०७-२६४० २६०७-२६३८ २६३६ २६४० २६४१-२६५७ २६४१-२६४३ २६४४-२६५७ २६५८-२६६१ २६६२-२६८६ २६८७-२६६८ २६८७-२६६१ अन्य किसी के पास दीक्षित होने वाले शिष्य के परिणामोंभावों को विपरीत दिशा में मोड़ने का निषेध २६६२-२६६८ २६६६-२७२" २६६६-२७०३ . २७०४-२७१२ २७१३-२७३० २७१३-२७२० २७२१-२७३० १२ अन्यदीय शिष्य की दिशा के विपरिणमन का निषेध १३ ग्रन्य गच्छीय अभ्यागत साधु-साध्वी को बिना पूछ मछ के तीन रात्रि उपरान्त अपने पास रखने का निषेध १४ क्लेश का उपशमन किये बिना तीन रात्रि उपरान्त रहने का निषेध एवं क्लेश-सम्बन्धी विविध प्रायात २७३१-२७५७ -२७५८-२७६३ २७६४-२७७१ पृष्ठाङ्क १-७ १-६ ६-७ ७ ७-११ ७-८ ८-११ ११-१२ १२-१८ १८- २० १८-१६ १६-२० २०-२३ २१-२२ २२-२३ २३-२६ २४-२७ २७-२६ २६-३५ ३५-३६ ३६-३८ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रा १५-१८ न्यूनाधिक प्रायश्चित्त दान का निषेध १६-३० प्रायश्चित्त धारक के साथ ग्राहारादि करने का निषेध एवं तद्विषयक भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त ३१-३४ सूर्योदय एवं सूर्यास्त सम्बन्धी कुछ विधि - निषेध एवं तद्विषयक प्रायश्चित्त ३७ ३५ रात्रि अथवा शाम के समय होने वाले उगिरण ( डकार ) को पुनः निगलने का निषेध एवं तत्सम्बन्धी दृष्टान्त ३६-३९ रोगी की वैयावृत्य-सेवा-शुश्रूषा ३६ रोगी के विषय में समाचार सुन कर भी उसकी गवेषणा न करने से लगने वाले दोष रोगी के समाचार सुन कर दूसरे मार्ग से निकल जाने पर लगने वाले दोष, तत्सम्बन्धो प्रायश्चित्त, अपवाद, दृष्टान्त आदि रोगी को सेवा-शुग में संलग्न माधु-साध्वी द्वारा श्रौषधादि को प्राति न होने पर आचार्यादि को निवेदन न करने से लगने वाले दोष ३८ [ २ ] विषय तथा तद्विषयक विभिन्न अधिकारी ( अन्त में राजा गद्दभिल्ल एवं श्रार्य कालक का दृष्टान्त ) ३६ रोगी की सेवा-सुश्रूषा में संलग्न साधु-साध्वी दारा मौषधि की पूर्ण मात्रा का प्रबन्ध न करने से लगने वाले दोष ४०-४१ प्रथम पावस में ग्रामानुप्रामं विचरने का निषेध ; वर्षावास में विहार करने का निषेध ४२-४३ पर्युषणा में पर्युषणा करने एवं पर्युषणा में पर्युपणा न करने से लगने वाले दोप, तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त, अपवाद एवं दृष्टान्त ४४ पर्युपणा के दिन गोलोम मात्र भी केश रखने से लगने वाले दोप ४५ पर्युपणा के दिन किचिन्मात्र भी ग्राहार के उपभोग का निषेध ४७ ४६ अन्यतीर्थिक एवं गृहस्थ को पर्युषणा (पर्युषणाकल्प ) कराने का निषेध प्रथम समवसरण के बाद वस्त्र की याचना करने का निषेध, तत्सम्वन्धी दोष, प्रायश्चित्त, अपवाद ग्रादि गाथाङ्क २७७२-२५६० २८६१-२८६७ २८६८-२८८७ २८८८-२६३३ २६३४-२६६५ २६६६-३१२२ २६६६-२१६८ २६६६-३१०४ ३१०५-३११६ ३११७-३१२२ ३१२३-३१३६ ३१३७-३२०६ ३२१०-३२१४ ३२१५-३२१७ ३२१८-३२२१ ३२२२-३२७५ पृष्ठाङ्क ३८-६० ६०-६१ ६१-६७ ६८-८० ८०-८५ ८८ - १२१ ८८ ८८-११७ ११७-१२० १२०-१२१ १२१-१२५ १५४ - १५५ १५५-१५६ १५६-१५७ १५७-१५८ १५८ - १७० Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क १७१-१७४ १७१-१७४ १७१-१७६ १७६-१७७ १७७-१७६ १७६ १७६-१-५ १८५-१९१ एकादश उद्देशक सूत्राङ्क विषय गाथाङ्क दशम और एकादश उद्देशक का सम्बन्ध ३२७६ १-६ धातु के पात्र आदि के उपयोग का निषेध ३२७७-३२८४ १ लोहे, तांबे आदि के पात्र बनाने का निषेष ३२७७-३२८४ २ लोहे, तांबे प्रादि के पात्र रखने का निषेध ३ लोहे, तांबे आदि के पात्र में प्राहार करने का निषेध ४ लोहे प्रादि के बन्धन वाले पात्र बनाने का निषेध ५ लोह आदि के बन्धन वाले पात्र रखने का निषेध ६ लोहे आदि के बन्धन वाले पात्र में आहार करने का निषेध ७ अर्ध योजन के प्रागे पात्र-याचनार्थ जाने का निषेध ३२८५-३२६२ ८ अर्घ योजन से आगे से लाकर दिये जाने वाले पात्र के ग्रहण का निषेध ३२६३-३२६८ ६ धर्म के प्रवर्णवाद का निषेध ३२९-३३०६ १० अधर्म के वर्णवाद का निषेध ३३१०-३३१६ ११-६३ अन्यतीथिक अथवा गृहस्य के पाद आदि के प्रमार्जनादि का निषेध ३३१२-३३१३ ६४-६५ भय-सम्बन्धो निषेध ३३१४-३३३१ ६४ अपने आपको भयभीत बनाने का निषेध ६५ अन्य व्यक्ति को भयभीत करने का निषेध ६६-६७ विस्मय-सम्बन्धी निषेध ३३३७-३३४२ ६६ स्वयं विस्मित होने का निषेध ६७ अन्य को विस्मित करने का निषेध ६८-६६ विपर्यय-सम्बन्धी निषेध ३३४३-३३५२ ६८ स्वयं के सम्बन्ध में विपरीत कथन का निषेध ६६ अन्य के सम्बन्ध में विपरीत कथन का निषेध ७० मुखवर्ण-मुह के सामने स्तुति करने का निषेध ३३५३-३६५८ ७१ वैराज्य–विरुद्ध राज्य में गमनागमन का निषेध ३३५६-३३६० ७२-७७ दिवाभोजन एवं रात्रिभोजन सम्बन्धी विधि निषेध ३३६१-३४७१ ७२-७३ दिवाभोजन को निन्दा एवं रात्रि भोजन की प्रशंसा करने का निषेध ३३६१-३३६६ (०४-७७ दिन में लाये हुए भोजन का दूसरे दिन अथवा रात्रि में एवं रात्रि में लाये हुये भोजन का दिन में अथवा रात्रि में उपभोग करने का निषेध. तत्सम्बन्धी दोष, प्रायश्चित, अपवाद आदि ३३१७-३४७१ ७८-७६ आहारादि को वासी-रात्रि के समय रखने एवं इस प्रकार रखे हए अाहारादि का उपभोग करने का निषेध ३४७२-३४७८ १९१-९१२ १६२-६५ २६५-१६६ १६६-२०४ २०४-२२० २०४-२०५ २०५-२२० २२०-२२२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क २२२-२२४ २२४-२२५ २२५.-२२८ २२८ २२८-२३. २३०-२३१ २३१-२३७ २३७-२४० २४०-२५४ २५४-२५६ २५७-२५८ सूत्राङ्क विषय गाथाङ्क ८० मांसादिक, मत्स्यादिक, मांसखल, मत्स्यखल आदि के ग्रहण का निषेध ३४७६-३४८८ ८१ नैवेद्यपिण्ड के उपभोग का निषेध ३४८६-३४६१ ८२-८३ यथाच्छंद-स्वच्छन्दाचारी की प्रशंसा एवं वन्दना करने का निषेध ३४६२-३५०२ ८४ अयोग्य व्यक्तियों को प्रवजित-दीक्षित करने का निषेध ३५०३ प्रव्रज्या के लिए अयोग्य व्यक्ति एवं उन्हें दीक्षित करने से लगने वाले दोष, प्रायश्चित्त आदि ३५०३-३५०६ बाल के प्रकार ३५१०-३५१६ बाल-दीक्षा के लिए प्रायश्चित ३५१७-३५४१ वृद्ध के प्रकार एवं वृद्ध-दीक्षा के दोष, प्रायश्चित्त प्रादि ३५४२-३५६० नपंसक के भेद एवं नपंसक-दीक्षा के दोष, प्रायश्चित आदि ३५६१-३६२४ जड्ड के भेद एवं जड-दीक्षा के दोष तथा प्रायश्चित्त ३६२५-३६३६ ग्लोब के भेद एवं क्लीब-दीक्षा के दोष तथा प्रायश्चित्त ३६३७-३६४४ व्याधित के प्रकार, रोग एवं व्याधि के भेद, व्याधितदोक्षा के दोष प्रायश्चित्त आदि ३६४५-३६४६ स्तेन के प्रकार एवं स्तेन-दीक्षा के दोप तथा प्रायश्चित ३६५०-३६६२ राजापकारी का स्वरूप एवं इस प्रकार के व्यक्ति को दीक्षा देने से लगने वाले दोष तथा तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त उन्मत्त के भेद एवं उन्मत-दीक्षा के दोष व प्रायश्चित्त ३६७०-३६७१ अन्ध के प्रकार, अन्ध दीक्षा के दोष एवं प्रायश्चित्त ३६७२-३६७५ दास-दीक्षा के दोष एवं प्रायश्चित्त ३६७६ ३६८० दुष्ट के भेद एवं दुष्ट-दीक्षा के दोष तथा प्रायश्चित्त ३६८१-३६६३ मूढ के भेद एवं मूढ-दीक्षा के दोष एवं प्रायश्चित्त ३६६४-३७०२ अन्य प्रकार के अयोग्य व्यक्ति, उनके विविध भेद, उन्हें दीक्षा देने से लगने वाले दोप एवं तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त ३७०३-३७४६ ८५ अयोग्य को उपस्थापित करने का निषेध ३७४७-३७७१ ८६ अयोग्य से वैवावृत्य करवाने का निषेध ३७७२-३७७६ ८७-६०सचेलक एवं अचेलक के निवास के सम्बन्ध में विधि निषेध ३७७७-३७८७ ११ परिवासित चूर्ण आदि का उपयोग करने का निषेध ३७८८-३८०० ६२ विविध प्रकार के वालमरण की प्रशंसा करने का निषेध ३८०१-३८१० पंडित मरण का सदृष्टान्त विवेचन ३८११-३८१८ प्रवशिष्ट प्रक्षिम गाथाएं ३८१६-३६७५ २५८-२५६ २५६-२६१ २६१-२६२ २६२ २६२-२६३ २६३-२६४ २६४-२६७ २६७-२७० २७०-२७८ २७८-२८४ २८४-२८५ २८५-२८७ २८७-२६० २६०-२६२ २६२-२६६ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ » xur १ [ ५ । द्वादश उद्देशक सूत्राङ्क विषय गाथाङ्क पृष्ठाङ्क एकादश एवं द्वाश उद्देशक का सम्बन्ध ३६७६ ३१५ १-२ कारुण्यवशात् त्रस प्राणियों को बांधने अथवा छोड़ने का निषेध एवं तद्विषयक अपवाद ३६७७-३९८५ ३१५-३१७ पुनः पुनः प्रत्याख्यान भंग करने का निषेध ३६८६-३६६० ३१७-३१८ ४ परित्त-वनस्पति काय से संयुक्त आहार के उपभोग का निषेध ३६६१-३६६५ सलोम चर्म रखने का निषेध ३९६६-४०२० ३२०-३२४ परवस्त्राच्छादित तृण पीठक आदि पर बैठने का निषेध ४०२१-४०२५ । ३२४-३२६ साध्वी की संघाटी अन्य तीथिक अथवा गृहस्थ से सिलाने का निषेध ४०२६-४०३२ ३२६-३२७ ८ पृथ्वीकाय आदि की विराधना का निषेध ४०३३-४०३७ ३२७-३२८ है सचित्त वृक्ष पर चढ़ने का निषेध ४०३८-४०४१ ३२८-३२९ १० गृहस्थ के भाजन में प्राहार करने का निषेध ४०४२-४०४५ ३२६-३३० ११ गृहस्थ के वस्त्र पहनने का निषेध ४०४६-४०४७ ३३० १२ ग्रहस्थ की शय्या पर शयन करने का निषेध ४०४८-४०५३ ३३०-३३१ १३ ग्रहस्थ की चिकित्सा करने का निषेध ४०५४-४०५७ ३३१-३३२ १४ पूर्वकर्म दोष से युक्त आहारादि ग्रहण करने का निषेध ४०५८-४१११ : ३३२-३४३ १५ सचित्त पानी से भीगे हुए हाथ आदि से पाहार ग्रहण करने का निषेध ४११२-४११८ ३४३-३४४ १६ निझर, वापी, सर आदि स्थानों को देखने की अभिलाषा करने का निषेध ४११६-४१२६ ३४४-३४६ १७-२८ कच्छ, कानन, वन, पर्वत आदि स्थानों को देखने की अभिलाषा करने का निषेध ४१२७-४१३६ ३४६-३५० २६ विविध रूपों के दर्शन में ग्रासक्त होने का निषेध ४१४० ३५० ३० प्रथम प्रहर (पोरिसी) में गृहीत आहार पानी को पश्चिम प्रहर तक रखने का निषेध ४१४१-४१६६ ३५१-३५५ ३१ अर्ध योजन से आगे आहार-पानी ले जाने का निषेध ४१६७-४१९५ ३५५-३६१ ३२-३५दिन के समय गोबर ग्रहण कर रात्रि आदि के समय अथवा रात्रि के समय ग्रहग कर दिन ग्रादि के समय शरीर पर लेपन करने का निषेध ४१६६-४१६४ ३६१-३६२ ३६-३६दिन के समय पालेपन ग्रहण कर रात्रि आदि के समय लेपन करने का निषेध ४२००-४२०३ . ३६२ ४० अन्य तीथिक अथवा गृहस्थ से उपकरण उठवाने का निषेध ३६३ ४१ अन्य तीथिक अथवा गृहस्थ को आहारादि देने का निषेध ४२०४-४२०७। ४२ पांच महानदियों को महीने में दो अथवा तीन बार पार करने का निषेध ४२०८-४२५५ ३३४-३४७ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश उद्देशक सूत्राङ्क विषय गाथाङ्क पृष्ठाङ्क द्वादश एवं त्रयोदश उद्देशक का सम्बन्ध ३७५ १-८ सचित्त, सस्निग्ध आदि पृथ्वी पर बैठने, शयन करने, स्वाध्याय करने इत्यादि का निषेध ४२५७-४२६६ ३७५-३७८ ६ देहली आदि पर बैठने का निषेध ४२६७-४२७१ ३७८ १० कुण्ड, भित्ति, शिला आदि पर बैठने का निषेध ४२७२-४२७४ ३७६ खाई आदि पर बैठने का निषेध ४२७५-४२७७ १२ अन्य तीथिक अथवा गृहस्थ को शिल्प आदि कलाएं सिखाने का निषेध ४२३८-४२८२३७०-३८१ १३-१६ अन्य तीथिक अथवा गृहस्थी पर कोप करने का निषेध ४२८३-४२८६ ३०१-३८२ १७-२७ अन्य तीथिक अथवा गृहस्थ के लिए कौतुक कर्म, भूतिकर्म आदि करने का निषेध । ४२८७-४३०५ ३८२-३८५ २८ अन्य तीर्थिक अथवा गृहस्थ को पथभ्रष्ट होने पर मार्ग बताने का निषेध ४३०६-४३११ ३८६-३८७ २६-३० अन्य तीथिक अथवा गृहस्थ को धातु-विद्या एवं निधि बतलाने का निषेध ४३१२-४३१७ ३८७-३८९ ३१-४६ अपना मुंह देखने का निषेध ४३१८-४३२८ ३८६-३६२ ३१ पानी से भरे हुए पात्र में अपना मुह देखने का निषेध ३८६ ३२ दर्पण में अपना मुंह देखने का निषेध ३३ तलवार में अपना मुंह देखने का निषेध ३४ मणि में अपना मुंह देखने का निषेध ३५ कुंड आदि के पानी में अपना मुह देखने का निषेध ३६ तेल में अपना मुंह देखने का निषेध ३७ मधु में अपना मह देखने का निषेध ३८ घृत में अपना मुंह देखने का निषेध ३६ गुड में अपना मुंह देखने का निषेध ४० मज्जा में अपना मुंह देखने का निषेध ४१ वसा में अपना मुंह देखने का निषेध ४२-४४ वमन एवं विरेचन का निपेध ४३२६-४३३४ ३६२-३६३ ४५ बलादि वृद्धिनिमित्त औपध-सेवन का निषेध ४३३५-४३३६ ३६३-३६४ ४६-६३ पाश्वस्थ आदि शिथिलाचारियों को वदन करने का निषेध ४३४०-४३७४ ३६४-४०३ ४६-४७ पाश्र्वस्थ की वंदना एवं प्रशंसा का निषेध ४३४०-४३४४ ३६४-३६५ ४८-४६ कुशील की वंदना एवं प्रशंसा का निषेध ४३४५ ३६५-३६६ ५०-५१ अवसन्न की वन्दना एवं प्रशंसा का निषेध ४३४६-४३४ ३६६-३६७ १२-५३ संसक्त की वन्दना एवं प्रशंसा का निषेध ४३४६-४३५१ ३६७-३६८ ५४-५५ नियतिक-नत्यिक की वंदना एवं प्रशंसा का निषेध ४३५२ ३६८ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क ३६८-३६६ ३६६ ३६१-५.. ४००-४०३ ४०३-४२६ १०३-४०८ ४०८-४१. ४१०-४१२ ४१२-४१३ ४१६-४१८ ४१८-४१६ ४१६-४२१ ४२१-४२३ ४२३ ४२३-१२४ ४२४-४२६ सूत्राङ्क विषय गाथाढ़ १६-२७ कायिक-कथावाचक की वन्दना एवं प्रशंसा का निषेध ४३५३-४३१५ ५८-५९ पासणिय की वन्दना एवं प्रशंसा का निषेध ४३५६-१३१८ ६.-१ ममत्वी की वन्दना एवं प्रश्चंसा का निषेध ४३५१-४६० ६२-६३ संप्रसारिक की वन्दना एवं ,, , ४३६१-४३७४ ६४-७८ घात्री पिण्ड आदि के उपभोग का निषेध ४३७५-४४०२ ६४ धात्रीपिण्ड के उपभोग का निषेध ४३७५-४३६२ ६५ दूतिपिण्ड " ४३६६-४४०३ " ६६ निमित्तपिण्ड , , ४०४-४०६ ६७ माजीविकापिण्ड ., . ४१०-४४१७ ६८ वनीपकपिण्ड । ४४१८-४४३१ ६४ निकित्सापिण्ड ४४३२-४४८ ७० कोपपिण्ड ४३१-४४३ ७१ मानपिण्ड ४४४-४४५४ ७२-७५ मायापिण्ड, लोमपिण्ड विद्यापिण्ड एवं मन्त्रापण्ड के उपभोग का निषेध ७६ चूर्णपिण्ड के उपभोग का निषेध ४६२ ७७ अन्तर्धानपिण्ड , , ७. योग पिण्ड ४.६८-४९७२ चतुर्दश उद्देशक प्रयोदश एवं चतुदंश उद्देशक का सम्बन्ध १ पात्र-सम्बन्धी विधि-निषेध ४४७6 पात्र मोल लेने का निषेध ४४७४-४४८५ पात्र उधार लेने का निषेध ४४८६-४४६२ पात्र अदल-बदल करने का निषेध ४४६३-४५६६ पात्र छीनने का निगेध . ४५००-४५२३ ५ अतिरिक्त पात्र ग्रहण करने का निषेध ४५२४-४६०४ ६ अतिरिक्त पात्र समर्थ माधु साध्वियों को देने का निषेध . अतिरिक्त पात्र असमर्थ सावु-साध्वियों को न देने से लगने वाले दोष ४६१८-४६२५ ८-६ खण्डित एवं कमजोर पात्र रखने का निषेध एवं अखण्टिन तथा मजबूत पात्र रखने का विधान ४६२६-४६३१ १.-११ सुवर्ण पात्र को विवर्ग एवं विवर्ग पात्र को मवर्णबनाने का निघ ४६३२-४६३६ १२-२३ नवीन, मुरभिगंव, अथवा दुरभिगंध पात्र को विशेष प्राकर्षक बनाने का निषेध ४४०-४६४६ २४.३४ अन्तररहित सचित्त पृथ्वी, मचित रजवाली पृथ्वी. मस्निग्ध ध्वी प्रादि पर पाय को घूा में मुनाने का निपंध ४६४७-४६५१ ८२७ ४२७-४२६ ४२६-४३१ ४३१-४३२ ४३२-४३८ ४३८-४५७ ४५-४५८ ४१८-४५६ ४५६-८६१ ४६१-४६२ ४६२-८६६ ६ ६-४६८ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क ४६८-४६६ ४६६-४७१ ४७१-४७२ ४७२ ४४२-४७३ ४७३-४७५ ४७५-४७६ ४७६-४७७ ४७६ ४७६ ४७९-४८० सूत्राङ्क विषय गाथाङ्क ३५ (गृहस्थ स पात्र लेते समय) पात्र से त्रस प्राणियों को निकालने का निषेध ४६५२-४६५४ पात्र से बीज निकालने का निषेध ४६५५-४६६६ ३७ , पात्र से कन्द, मूल, पत्र, पुष्प एवं फल निकालने का निषेध ,, ३८-४० , पात्र से पृथ्वीकाय, अपकाय एवं तेजस्कार निकालने का निषेध ४६६७ ४१ पात्र कोरने-बनाने का निषेध ४६६८--४६७२ ग्रामान्तर अथवा ग्रामथान्तर से पात्र की याचना करने का निषेध ४६७३-४६८० ४३ परिषदा के मध्य में से उठाकर पात्र की याचना करने का निषेध ४६८१-४६८५ ४४-४५ पात्र की प्राशा से ऋतुबद्ध होकर रहने अथवा चातुर्मास करने का निषेध ४६८६-४६८४ पंचदश उद्देशक चतुदर्श एवं पंचदश उद्देशक का सम्बन्ध ४६६० १-४ किसी साधु को कठोर वचन कहने का निषेध ४६६१ ५- सचित्त पाम्र के उपभोग आदि का निषेध ४६६२-४६६६ १-१२ सचित्त अाम्र आम्रपेशी, अाम्रभित्त, आम्रशालक, अाम्रडालक अथवा आम्रचोयक के उपभोग आदि का निषेध (सदृष्टान्त) ४६६७-४६४८ १३-६५ अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से अपने पैर, शरीर, आँख आदि का प्रमार्जन, परिमर्दन, प्रक्षालन, अभ्यगन आदि करवाने का निषेध ४६४६-४६५२ ६६-७४ प्रागंतागार, पारामागार, गाथापतिकुल, आदि स्थानों में उच्चार-प्रश्रवण डालने का निषेध ४६५३-४६५८ ७५-७६ अन्यतीथिक अथवा गृहस्थ को अपना आहारादि । देने अथवा उससे आहारादि ग्रहण करने का निषेध ४६५६-४६६८ ७७-८६ पाश्वस्थ, कुशील आदि को ग्राहारादि देने अथवा उनसे ग्रहण करने का निषेध ४६६६-४९७६ ८७-८८ अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को वस्त्रादि देने अथवा उससे अपने वस्त्रादि लेने का निषेध ४९८०-४९८६ ८६-९८ पार्श्वस्थ आदि को वस्त्रादि देने अथवा उनसे वस्त्रादि लेने का निषेध ४६६०-५००० ६६ ज्ञापनावस्त्र अथवा निमंत्रणावस्त्र विना जांच-पड़ताल किये ग्रहण करने का निषेध ५००१-५०६० १००-१५४ शृंगार अथवा शोभा के लिए अपने पैर, शरीर, दांत, अोष्ठ आदि के प्रमार्जन, परिमर्दन, प्रधावन ग्रादि का निषेध ५०६१-५०६४ ४८१-५४८ ५४८-५५५ ५५६-५५७ ५५७-५५६ ५५६-५६२ ५६२-५६४ ५६४-५६६ ५६६-५८८ ५८८-५९४ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथ-सूत्रम् [ भाष्य सहितम् ] श्राचार्यप्रवरश्रीजिनदासमहत्तरविरचितया विशेषचूर्णा समलंकृतम् तृतीयो विभागः उद्देशकाः १०-१५ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुचिहो य होइ धम्मो, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य । सुयधम्मो सज्झाओ, चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥३२६६।। सुयधम्मो खलु दुविहो, सुत्ते अत्थे य होइ णायन्यो । दुविहो य चरणधम्मो, य अगारमणगारियं चेव ॥३३००॥ -~-भाष्यकार Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उद्देशकः उक्तः नवमोद्देशकः । इदानीं दशमः । तस्सिमो संबंधो - मा भुंज रायपिंड, ति चोइतो तस्थ मुच्छितो गिद्धो । खुज्जाती मा वच्चसु, आगाढ च उप्पती दसमे ॥२६०६॥ गुरुणा चेतितो मुच्छिय गिद्धे एकार्थवचने । अहवा - तं भुजतो संजमासंजमं ण याणति मूचितवत्, मुच्छितो अभिलाषमात्रगृद्धः । अहवा - खुजादियाणमालयं बम्नेति । चोषितो भागाढवयणं भणेज। एस उप्पत्ती प्रागाढवय. गस्त । दसमुद्देसगस्स एस संबंधो ॥२६०६॥ जे भिक्खू भदंतं आगाढं वदति, वदंतं वा सातिज्जति ॥२०॥१॥ "" इति निह से, "भिक्खू" पुग्ववणिग्री, "भदि कल्याणे सुखे च दीप्तिस्तुतिसौख्येषु वा", माहात्म्यस्म सिलोक: "भदंतो" भाचार्यः । प्रत्यर्थ गाढं पागाउँ । “वद् व्यक्तायां वाचि" अण्णं वा वदतं मणुमोदेति । णिज्जुत्ती आगादपि य दुविहं, होइ असूयाइ तह य सूयाए। एएसिं पत्तेयं, दोण्हं पि परूवणं वोच्छं ॥२६०७|| मागाढं द्विविध - अमूताए सूताए वा ।।२६०७।। 'आगाढफरुसोभयमुत्ताण तिण्ण वि इमं सरूवं - गादुत्तं गृहणकर, गाहेतुम्हें व तेण आगाढं । हरहितं तु फरसं, उभए संजोयणा गवरं ॥२६०८। गाढं उक्तं गाढुत्तं, तं केरिसं ? "ग्रहणकरं" अन्यस्यास्यातुं न शक्यते। अहवा - सरीरस्योल्मा येनोक्तेन जायते तमागाई। णेहरहियं निप्पिवासं फरसं भण्णति । गाढफरुसं उभयं, ततियसुत्ते - संजोगो दोण्ह वि ॥२६०८।। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१ . ८९ सूयासूयवयणाणं इमेहिं दारेहि सरूवं जाणियव्वं - जाति-कुल-रूव-भासा, धण बल परियाग जस तवे लाभे । सत्त-वय-बुद्धि धारण, उग्गह सीले समायारी ॥२६०६॥ दा० गा० अम्हे मो जातिहीणा, जातीमंतेहि को विरोहो णे । एस असूया सूया, तु णवरि परवत्थु-णिद्देसो ॥२६१०॥ लोकप्रसिद्धं उल्लिंगितवचनं सूचा । अत्र तादृसं न गृहीतव्यं, इह तु परं दोषेण सूचयति स्पष्ट मेव दोषं भाषतीत्यर्थः । परवत्थु -णिद्देसो णाम भदंतं चेव भणति - तुम जातिहीणो ति । अम्हे मो कुल-हीणा, को कुलपुत्तेहिं सह विरोहो णे । एस असूया सूया, तु णवरि परवत्थु-णिदेसो ॥२६११॥ अम्हे मो रूव-हिणा, सरूवदेहेसु को विरोहोणे । एस असूया सूया, तु णवरि परंवत्थु-णिद्देसो ॥२६१२।। अम्हे मो अकतमुहा, अलं विवाएण णे कतमुहेहिं । एस असूया सूया, तु णवरि परवत्थु-णिद्देसो ॥२६१३।। वाग्मी-कृतमुखः । भासाए द्वितीयव्याख्यानम् - खर-फरुस-णिठ्ठरं णे, वक्कं तुझ मिय-महुर-गंभीरं। एस असूया सूया, तु णवरि परवत्थु-णिद्देसो ॥२६१४॥ सरोसवयणमिव अकंतं खरं, प्रणय-नेह-णित्तण्हं फरुसं, जगारादियं अणुवयारं णिठुरं, "" इत्यात्मनिर्देशे, अक्खरेहि मितं, प्रत्थअभिधाणेहिं मधुरं, सरेण गंभीरं ॥२६१४॥ अम्हे मो धण-हीणा, आसि अगारम्मि इड्रिमं तुम्भे । एस असूया सूया, तु णवरि परवत्थु-णिद्देसो ॥२६१॥ एमेव सेसएसु वि, जोएयव्वा असूय-सूयाओ। आतगता तु असूया, सूया पुण पागडं भणति ॥२६१६।। अप्पणो दोसं भासति, ण परस्स एसा असूया । ण अप्पणो, परस्स फुडमेव दोसं भासति एसा सूया, सूयंतीत्ति सूया । प्रोरसबल - युक्तो 'बलवान् । परियायो प्रव्रज्याकालः । लोके ख्यातिर्महात्मा इति यशः, संजमो वा चउत्थादिप्रो तवो । आहारोवकरणादिएसु लद्धिमं लाभो । सत्वेन युक्तः शक्तो वा शक्तः । १ गाथाचतुर्थ सूचितपदव्याख्या। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उद्देशकः प्रथमे वयसि वर्तमानः त्रिदशवत् वयवं, जो वा जम्मि वए ठितो तस्स तहा गुणं भासति । उप्पत्तियादिबुद्धिजुतो बुद्धिमं । धारणा दृढस्मृतिः । बहुबहुविषक्षिप्रानिश्रितासंदिग्ध वाणां उग्गहं करेति । कोहादिणा सीलेण जुत्तो सीलवं । चक्कवालसामायारीए जुत्तो कुसलो वा एते प्रत्था सव्वे सूयासूएहिं भाणियव्वा । भाष्यगाथा २६०६-२६२२ ] एक्क्का सा दुविहा, संतमसंता य अप्पणि परे य । पच्चक्ख परोक्खा वि य, असंत पच्चक्ख दोसयरा || २६१७॥ आतगता असूया, परगता सूया । प्रसूया संतासंता य । सूया वि संतासंता य । जहत्येण ठियं संतं । श्रभूतार्थं प्रनृतं असंतं । परस्स जं पभासति तं ( परोक्खं ) पच्चक्खं वा श्रसंतं पच्चक्खं महंत दोसतरं भवति ।। २६१७।। अहवा - इमेहिं श्रप्पाणं परं वा पसंसति निंदति वा - गणिवायते बहुमुते, मेधा वायरिय धम्मकहि वादी । अप्पकसाए धूले, ते दी य मडहे य || २६१८| || म्हे खमणा ण गणी, को गणित्रसह सह विरोहो थे । एस असूया सूया, तु णवरि परवत्थु - गिद्देसो ॥२६१६॥ १ लघु । गणिं व गणिं ब्रूया, गणिं व अगणिं तु हासमादीहिं । एवं सेसपएस वि, सप्पडिवक्खं तु यव्वं ॥ २६२०॥ t सेसा पदा बहुस्नुयादिया । विचित्तं बहुयं च सुयं बहुस्सुतो । तिविधो मेघावी - गहण धारणा-मेरामेधावी य । श्रारिनो गच्छाहिवती, तत्येवं भासति श्रम्हे के प्रायरियतस्स जे सामायारि पि ण याणामो । हवा भणाति तुमं को आयरियत्तस्स, जो सामायारि पिन याणसि । चउव्विहाए श्रवखेवणिमादियाए घम्मकहालद्वीए जुत्तो । ससमयपरसमएसु कतागमो उप्पण्णप्पतिभो वादी । बहु अल्पकषायं । क्रियासु प्रदक्षः स्थूरः । तनुर्दक्षः । जड्डामो थूर देहा को तगुदेहेहि णे सह विरोहो । घट्टेमो निच्च उर्वार महसरी रेह को विरोहो थे । णिदं वा करेति श्रुती य । परमप्पणी कहंतरं जाउं परवयणपयोगवसा पच्चुत्तरमप्पणा देति ॥ २६२० ॥ एतेसामण्णतरं गाढं जो वदति तस्सिमा सोही । ३ छेदादी आरोवण, नेयव्वा जाव मासियं लहुयं । aare वसभम्मिय, भिक्खुम्मि य खुड्डए चेव || २६२१॥ आयरि आयरियं, आगाढं वयति पावइ च्छेयं । सभे छग्गुरु भिक्खुम्मि च्छलहू खुड्डए गुरुगा || २६२२|| Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मभाष्य-इणिके निशीयसूत्रे [सूत्र १ पायरिमो पायरियं आगाढं वदति छेदो। मायरिमो वसमं । प्रायरिमो मिक्खं फै। पायरियो खुडुवा ॥२६२२॥ वसभे छग्गुरुगाई, छल्लहुगा भिक्खू खुड्ड गुरुगाई । अंतो पुण सिं चउलहू, मासगुरु मासलहुश्रो य ॥२६२३।। वसभो मायरियं आगाढं वदेति ६ (यु)। वसभो वसमं ६ (ल) वसभो भिक्खु द्वा। क्सभो भिक्खू पायरियं मागाढं वदति । भिक्खू वसभं ड्रा। भिक्खू भिक्खं । भिक्खू खुडं मासगुरु । खुड्डुप्रो पायरियं प्रागाढं वदति ड्रा। खुडुग्रो वसभं डू। खुडो भिक्स मास लघु । खुड्डो खुड्यं मासलघु ॥२६२३॥ अहवा - अन्यः प्रायश्चित्तक्रमः । पंचण्हायरियाई, चेया एक्केक्क हासणा अहवा। राईदियवीसंतं, चउण्ह चत्तारि वि विसिट्ठा ॥२६२४॥ आयरिय वसभ भिक्खू थेरो खुड्डो य छेदादी बीसराइंदियाइ अंते एतेणं चेव चारणियपयोगेणं चारेयव्वं । जत्थ जत्थ चउगुरुगं तत्थ तत्थ सुत्तणिवानो दट्टब्वो ॥२६२४॥ अहवा - पुन्वुत्ताण चउण्डं च उगुरुगं तवकालविसेसियं । अहवा - सव्वेसि प्रविसिटुं चउगुरु ॥२६२४॥ जं चेव परहाणे, सायंतो उ पावए ओमं । तं चेव य प्रोमो वि य, आसाइंतो वि रायणियं ॥२६२५।। परहाणं परं प्रधान ज्येष्ठमित्यर्थः । जं सो प्रोमं प्रासादेंतो पावति, प्रोमो वि तं चेव जेहूँ प्रासादेतो पावति ॥२६२५॥ एएसामण्णयरं, आगाढं जो वदे भदंतारं । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥२६२६॥ . असंखडादयो दोसा, पक्खापक्खग्गहणे य गच्छभेदो ॥२६२६।। कारणे भणेज्जा वि - वितियपदमणप्पज्म, अप्पो वा वएज्ज खिसंतो। उवलंभट्ठा य तधा, सीयंते वा वदेज्जा हि ॥२६२७॥ प्रणवज्झो वा साहू भणेज्जा, अणवज्झो बा भदंतो भगेज्ज । अप्पभो वा भगेज खिसणपरं मदंतं । सो आयरिओ बहुस्सुमो जातिहीणो सीसपडिच्छर अभिक्खं जानिमावीहिं खिसति, सो सुसत्ये उवजीविउं न सक्केति, ताहे तस्स जातिसरणाए खिसं उवासंभं वा करेज । जो आयरियो जाइहीको "अहं ण णजामि" त्ति रणे साहू जातिमातिएहिं खिसति ॥२६२७॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६२३-२६३४] दशम उद्देशकः तस्स अण्णावदेसेण इमा खिसा - जातिकुलस्स सरिसयं, करेहि ण हि कोहयो भवे साली। श्रासललियं वरामो, चाएति न गद्दभो काउं ॥२६२८|| तुज्झ वि बं कुलं जाती वा तं अम्हेहिं परिणायं तो अप्पणो चेव जातिकुलं सरिसं करेहि। मा कोद्दवसमाणो होउ भप्पाणं सालिसरिसं भण्णतु। णो वा गद्दभसमाणेहि होउं जाती अस्सललितं काउं सक्कति ॥२६२८॥ विरूवेण खिसमाणो इमं भण्णति - रुवस्सेव सरिसयं, करेहि ण हु कोद्दवो भवे साली। आसललियं वराओ, चाएति न गद्दभो काउं ॥२६२६॥ कंठा वायगो-गणी, पायरियो वा, जेण कतो तस्सिमा खिसा - अह वायगो ति भण्णति, एस किर गणी अयं च पायरिओ। सो वि मण्णे एरिसओ, जेण को एस आयरिओ ॥२६३०॥ इमो उवालंभो खिसते । सीतंते वा - जाती-कुलस्स सरिसं, करेहि मा अप्पवेरिओ होहि । होज्ज हु ते परिवातो, गिहि-पम्खे साहु-पक्खे य ॥२६३१॥ परिवयणं परिवातो अयसो प्रगुणकित्तणं इत्यर्थः ॥२६३१॥ अहवा- इमो उवालंभो जुत्तं णाम तुमे वायएण गणिया व एरिसं काउं। आयरिएण व होउं, काऊणं किं च काहामो॥२६३२॥ जुत्तमिति युज्यते योग्यं वा, णामशब्द: पादपूरणे, इदं, नेति निर्देशे, वाचको वा पायरियस्स वा होउं किं एरिसं काऊण जुजति । अह तुम्भे चेव मजायरवखगा होतुं करेह तो अम्हे कि काहामो।।२६३२।। सीदंते वा इमो उपालंभो अहया ण मज्ज जुत्तं, भदंत एयारिसामि वो जे । गुरुभत्ति-चोइतमणो, भणामि लज्ज पयहिऊणं ॥२६३३॥ कंठा कि चान्यत् - वरतर मए सि भणितो, न यावि अण्ण पच्चुवालद्धे । छण्णे मम वेण्णणं, भणेज्ज अण्यो पगासेंतो ॥२६३४॥ प्रहं ते पच्छष्णे दोसपच्छायणं करेंतो भणामि, अण्णो पुण दोसकित्तणं करेंतो बहुजणमझे भणेज्ज, तेण वरतरं मए सि भणितो ॥२६३४॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १-४ एवं भणिज्जतो जति रूसेज तो इमं भण्णति - ___ तुम्हे मम आयरिया, हितोवएसि त्ति तेण सीसोऽहं । एवं वियाणमाणा, ण हु जुज्जति रूसिउं भंते ॥२६३५॥ जेण मे हितोवएसं देह तेण तुब्भे ममं प्रायरिया, हिरोवदेसिणो त्ति काउं प्रहं वि सीसत्तणं मे पडिवण्णो। किं च - जो जेण जम्मि ठाणम्मि ठावितो दसणे व चरणे वा, सो तं तमो चुतं तम्मि चेव काउं भवे णिरिणो । एवं वियाणमाणा तुब्भे किं रूसह ॥२६३५।। एमेव सेसएसु वि, तस्सेव हितट्ठिया वदागाढं। .. रागं कुसुंभो मुयइ ण वि हु अविकोइओ संतो ॥२६३६।। एतं पायसो खिसंत-सीदंते भणित । "सेसेसु वि" प्रणप्पज्झादिएसु तस्सेव गुरुस्स हियट्ठता वदे प्रागाद्ध। अहवा - एयं प्रागाढवयणं च भदंते भणियं, मेसेसु वि उवज्झायादिएसु हियढता वदे प्रागाढं । ' चोदगाह - जाणंतेहिं गुरु कहं प्रागाढं भण्णति ? उच्यते - कुसुभगो अविकोवितो रागं जहा ण मुंचति तहा गुरु वि एगंते जाव फुडोवदेसेण ण विकोवितो ताव अणायारसेवणं ण मंचति ॥२६३६।। कि चान्यत् - वत्थु वियाणिऊणं, एवं खिसे उवालभेजा वा। खिसा तु णिप्पिवासा, सपिवासो हो उवालंभो ॥२६३७॥ पायरिय-उवझायादिया खर-मउयसमा वा रायमाइइडि-मंता एते वत्थु जाणिऊण खिसा उवालंभो वा पयुंजियव्यो । णिठ्ठर णिण्हेहवयणं खिसा, मउयसिणेहवयणं उवालंभो ॥२६३७।। खिसा खलु ओमम्मी, खरसज्झ वा विसीयमाणम्मि । रायणिय-उवालंभो, पुव्वगुरु महिड्डि माणी य ॥२६३८॥ प्रोमे खरसझे खिसा पउनति । रातिणिो पायरिपो जेठो वा पुव्वं गुरू प्रासी सो य कम्म - भारिययाए पासरथादी जातो, उणिक्खंतो वा, रायादिमहिड्डियो वा, भणिड्डिम पि जो माणी, एतेसु उवालंभो पयुबति ॥२६३८॥ जे भिक्खू भदंतं फल्सं वयइ, वयंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२॥ जं लहुसगं तु फरसं, वितिओद्देसम्मि वण्णितं पुत्वं । ने चेव णिरवसेसं, दसमुद्देसम्मि णायव्वं ॥२६३६॥ १ तुष्ये (पा.)। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६३५ - २६४३ ] जहा बितिनो से फरुसं तहा इहं पि उस्सग्गऽववातेहिं वत्तव्वं । णवरं - इह प्रायरिये सुतणिवा ॥२६३६ ॥ जे भिक्खू भदंतं गाढं फरुसं वयह, वयंतं वा सातिज्जति | | ० || ३ | एसेव गमो णियमा, मीसगसुते वि होति नायव्वो । गाढ - फरुसगम्मि, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मी || २६४० ॥ जो एते दोसु पुन्वत्तेसु सुत्तेसु गमो सो चेव इह मीसगसुते गमो ददुव्वो । णवरं - संजोगपच्छित्तं भाणियव्वं ॥ २६४०॥ जे भिक्खू भदंतं प्रणयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएति, अच्चासाएंतं वा सातिज्जति ॥ सू०||४|| 'दसासु तेत्तीस प्रासादणा भणिता, तासि प्रणतराएं श्रासादणाए प्रासादेति । प्राङ्गित्युपसर्गो मर्यादावाचकः “सद्” विसरणगत्यवसानेषु । गुरु पडुच्च विणयकरणे ज फलं तमायं सादेतीति प्रासादणा । साय प्रसादणा चउव्विहा दशम उद्देशक: चउण्ह दव्वादियाण इमा वक्खा दव्वे खेत्ते काले, भावे सायणा मुणेयव्वा । एएसिं णाणतं वोच्छामि हाणुपुव्वी || २६४१॥ 9 १ दासुखंधे । - दवे आहारादिसु, खेत्ते गमणादिएसु णायव्वा । कालम्मि विवच्चासे, मिच्छा पडिवज्जणा भावे ॥२६४२॥ दव्वे प्राहारादिए । सेहे रानिणिएण सद्धि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा श्राहारेमाणे तत्थ मेहतराए खद्धं खद्धं प्राहारेति । सेहे राइणिएण सद्धि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिंग्गाहेत्ता तं रातिणियं प्रणापुच्छित्ता जस्स इच्छेत्ति तस्स खद्धं खद्धं दलयति । प्रदिग्गहणाम्रो वत्थादिया गुरुणो अदसिया पडिभुंजति । खेत्ते पुरतो पासतो मग्गो वा ग्रासण्णं गमणं करेति, आदिग्गहणातो चिट्ठणणिसीयणादी आसणे करेति । कालम्मि विवच्चासो णाम सेहो रातिणियस्स रातो वा वियाले वा वाहरमाणस्स प्रपडिसुणेत्ता भवति । विणयेण पडणेयव्वं । तस्स पुण विणएण प्रपडिसुणेमाणस्स उस्सुत्तं भवति, तेण विवच्चासो भवति । भावे जं गुरू भणति तं ण पडिवज्जति, प्रपडिवज्जते य मिच्छा भवति || २६४२ ॥ काले उ सुयमाणे, अपडिसुर्णेतस्स होति आसयणा । मिच्छादिफरुसभावे, अंतरभासा य कहणा यं ॥२६४३ ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-पूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-४ "काले" ति रातो वा वियाले वा गुरुणो बाहरेतस्स सुणेतो वि प्रसुणेतो विव पच्छति । एसा कालासादणा। इदाणि भावासादणा-मिच्छा पडिवत्तितो भावे ति हिसि ति वत्ता, कि तुम ति वा, फरुसं भणाति, गुरुणो वा धम्मकहं कहेंतस्स अंतरभासा एसा भावासायणा ॥२६४३।। दव्वादिएसु चउसु वि इमो अविणयरोसो गुरुवच्चइया आसायणा तु धम्मस्स मूलछेदो तु । चतुपददोसा एते, एत्तो व विसेसियं वोच्छ ॥२६४४॥ गुरुविणयकरणे कम्मक्सए जो भातो तं सादेति । अहवा - गुरुपच्चतितो गाणादिया प्रायो, तं प्रविणयदोसेण सादेति न समतीत्यर्थः । विणप्रो धम्मस्स मूलं, सो य अविणयजुत्तो 'तस्स छेदं करेति । अहवा-धम्मस्स मूलं सम्मत्तं, गुरुप्रासादणाए तस्स छेदं करेति । दव्वादिएसु चउसु वि एते सामण्णतो दोसा भणिया ॥२६४४।। एतो एक्केक्कस्स विसेसेण भणाति - सच्चित्तखद्धकारग, अविकडणमदंसणे भवे दोसा । इंगाल अविहि तेणिं, गलग्गुछूढात्ति सेसेसुं ॥२६४॥ गुरुणो प्रणालोतियं अपडिदेसियं वा जइ भुजति तो इमे दोसा - सच्चित्तं फलकंदादी मुजेज, मतिप्पमाणे वा मुंजेज, तं मजीरंतं मादेव वमेज मारेज्ज व सरीरस्स वा भकारगं मुंजेज तेण से वाही भवेज्ज, इंगालसघूमं वा भुंजे, प्रविधीए वा भुजे सुरसुरं चवचवं, दुमं विलंबितं सपरिसाडि मणवयकाएसु वा अगुत्तो भुंजे, सत्तविहालोयवज्जिते तेणियं भवति, ठाणादिसपगासणया भायणपक्खेवणया गुरुभावे सप्तविही पालोगो, सता वि जयणा सुविहियाणं । “सेप्सेसु" ति राइणिएण सद्धि सद्ध खद, गयं राय, रसियं रसियं, प्रमणुष्णं मणुष्णं इत्यादि गलए लगेबा, तुरिए अतिप्पमाणेण वा कवले उ छूट प्रायविग्रहणादिया दोसा ॥२६४५।। दबासादणा गता। इदाणि खेत्तासादणा दोसा - घट्टण-रेणु-विणासो, तिपास-ओभावणा भवे पुरतो। खेत्ते काल-पलित्ते, गिलाण असुणेत अधिकरणं ॥२६४६॥ भासणं गच्छंतस्स गुरुणा संघट्टणा भवति, पादुट्टिपरेणुना य वत्थविणासो भवति सो जति पासतो वामतो दाहिणतो मरगतो य पुरतो गच्छते मोमावणा मायरियस्स । एस खेतासादणा गता। इमे कासे रातो वियाले वा पेल्लिते मायरियस्स बाहरंतस्स अपहिसुणेमाणस्स सीसस्स गिलाणविराहणा हवेज्ज, उवकरणदाहो ना, अजंगमो वा पायरिमो मे, अपरिसुणेमाणो वा भण्णण साहुणा भणितो - कीस प्रकण्णसुरण मच्छसि ति, उत्तरादुत्तरेण प्रधिकरणसंभवो ।।२६४६।। कालासादणा गता। १ धम्मस्स । २ सम्मत्तस्स। ३ वु। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६४४-२६५० ] दशम उद्देशक: इदाणि भावासादणा - सेहादीण अवण्णा, परउत्थियगम्म परिभवो लोए । भावासायण दोसा, सम्ममणाउंटणा चेव ॥२६४७॥ सेहादिणो विचितेज्ज जहा - एते अम्हं जेद्वतरा पायरियस्स अवज्ञां करेंति तहा णज्जति णूणं एस पतितो, ते वि सेहा अवज्ञा करेज्ज, एवं ससिस्सेहिं परिभूतो परतिस्थियाण वि गम्मो भवति, लोगे य परिभूतो भवति । एते भावासादणा दोसा। गुरुणो उवदेसपदाणे 'सामणाउट्टतस्स भावासादणा चेव ॥२६४७॥ "२मिच्छा पडिवजणा भावे" त्ति अस्य व्याख्या - मिच्छापडिवत्तीए, जे भावा जत्थ होंति सब्भूया । तेसू वितहं पडिवञ्जणा य ासायणा तम्हा ।।२६४८॥ मिच्छा अनृतं प्रतिपदनं प्रतिपत्तिः, जत्येति दव्वादिएसु जीवादिपदत्थेसु वा सुत्त-ज्झयण-सुयक्खंधेसु वा, सब्भूया जे जिणपण्णता भावा, ते गुरु प्रयाणंतो परिसामझे पण्णवेति, तत्थ उवदेसो सीसो तुण्हिक्को अच्छति, जाहे उद्धिप्रो वक्खाणामो ताहे सीसो एगते गुरुणो सब्भावं साहति । अह सीसो तेसु पदत्थेसुपरिसामज्झे चेव वितहपडिवजणा एत्य वुत्याणं करेज्ज ताहे प्रविणयो भवति, अविणयपडिवत्तीए य तम्हा पासायणा मवति। अहवा - परिसामाझे गुरू चोदितो वितहपडिवज्जणं करेज्ज, न सम्यक् प्रतिपद्यतीत्यर्थः । तम्हा सीसस्स मासायणा भवति । अहवा - गुरू जाणंतो चेव अण्णहा प्रत्यं पण्णवेति, मा परप्पवादी दोसं गेण्हेज्ज जहा सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवमोगा। एगोपयोगप्रतिपादनमित्यर्थः । तं च सेहतरातो जाणति - जहा अप-सिद्धतं पण्णवेंति, तत्थ जति वितहं पडिवज्जति प्रासादणा सेहस्स ॥२६४८॥ । चोदगाह - जमत्थं पायरिमो ण याणति तमत्थं सीसो कहं जाणति ? भण्णति जंगारणगारते, सुतं तु सहसंभुतं य जं किं चि । तं गुरु अण्णहकहणे, जेवमिदं मिच्छपडिवत्ती ॥२६४६॥ जं तेण सेहतराएण गिहत्थत्तणे सुएल्लयं, अणगारते वा अण्णतो सुयं, अप्पणा वा ऊहितं, तं गुरुस्स अण्णहा कहिंतस्स सो भणेज्जा - ण एयं भवति त्ति, मिच्छापडिवत्तियो प्रासादणा भवति ।।२६४६।। एवं भणतो दोसो, इमं सुतं वऽण्णहिं मए एवं । सब्भूयमसब्भूए, एवं मिच्छाउ पडिवत्ती ॥२६५०॥ एवं गुरुपडिकूल भणतो प्रासादणा दोसो भवति । १ सम्यग् अनावर्तयतः । २ मा० २६४२ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ४-५ ग्रहवा- सीसो गुरु भणइ तुझ एवं पण्णवेंतस्स समयविराहणा दोसो भवति । मम एयं सुयं अण्णायरियसीवे । एवं पण्णविज्जेते समयविराहणा दोसो न भवति । एवं सीसस्स सम्भूयमसम्भूयए वा परिसामज्ये मिच्छापडिवत्तिश्रो प्रासादणा भवति । १० बितियं पढमे ततिए, य होति गेलण्णकज्जमादीसु । द्धणादी बिति, सण्णादी चउत्थम्मि || २६५१ ॥ बितियंति श्रववायपदं, पढमेति दव्वासायणा, ततिए त्ति कालासादणा, बितिए ति श्रद्धाणादिसु खेत्तासादणा, चउत्थे त्ति श्रोसण्णादिसु ठियस्स । तत्थ पढमततिय त्ति गेलष्णं पडुच्च बितियपदं भवति ॥२६५१॥ हो गुरुश्रो गिलाणो, अपत्थदव्वं व तं च से इटुं । विगडमसितं वा, भुंजे खद्ध व दलजा || २६५२॥ गुरु गिलाणों, तस्स य जं श्रपत्थदव्वं तं लद्धं, ताहे तं प्रवियडितं प्रदंसियं वा सयं भुंजे, अष्णस्स वा श्रणापुच्छाए खद्धं खद्धं दलयति । मा सो रातिणिम्रो सयं भुजिहिति, एवं गुरुरक्खणट्ठा अविणयं पि करेंतो सुद्धो || २६५२ ।। कंटाइ- साहणड्डा, अवथंभट्ठा वलीणो श्रद्धाणे | संबाधुवस्सए वा, विस्साम - गिलाण छेदसुए || २६५३|| खेत्तासादणं पडुच्च प्रववातो भण्णति - - श्रद्धा कंटादि- साहा पुरतो गच्छति । विसमे वा अवलंबणट्टा पासतो अल्लीणो गच्छति । गिलाणस्स वा अवयंभणट्टा अल्लीणो श्रच्छति । संबाधुवस्सए वा सण्णठितो अच्छति गच्छति वा । प्रायरियस्स वा विस्सामणं करेंतो श्रासण्णं चिट्ठति संघट्टेति वा । गिलाणस्स उव्वत्तणादी करेंतो संघट्टणादी करेति श्रासणं वा चिदूति । छेयं वा वक्खातो प्रप्पसद्दं वक्खाणेति मा अपरिणया सुणेहिति, ताहे सोतारा असणं ठविज्जति || २६५३ ॥ इमो कालाववादो काले गिलाणवावड, सेहस्स व सारियं भवे बाहिं । संबाधुवस्स वा अधिकरणाई उ (इ) मा दोसा || २६५४|| राम्रो वा दिया वा गिलाणवावडो गुरुस्स वाहरंतस्स ण देज्ज सद्दं, सेहस्स वा सागारियं बाहि अंतोठितो सुणेतो वि सद्दं ण देज्ज, मा सण्णायगा सरं पञ्चभिजाणित्ता उप्पवाहिति साहूहि वा श्रोतप्रोत संबाधुवस्सए या सज्जं प्रलंभतो उल्लंघिउं वयंतस्स वा अधिकरणादी दोसा तम्हा तत्थ ठियो चैव सद्दं करेज्जा । ग्रहवा - गिहत्य संबद्धे उवस्सए कारणठिया ण मे अधिकरणादि दोसा भविस्संति तम्हा आयरिश्रो सणियं वाहरति तं च प्रसुणतो तुसिणी सुद्धो, अधिकरणदोसभया का तुसिणीओ श्रच्छति तहा वि सुद्धो ॥२६५४॥ } Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६५१-२६५९ ] दशम उद्देशतः उल्लावं तु असतो, दाउँ गिलाणो तहेव उटुडें । तुसिणी तत्थ गोवा, सुणेज्ज सो वाहरंतस्स ।। २६५५ ।। दिवा रातो वा वाहतस्स गुरुस्स गिलाणो उल्लावं दाउमसत्तो गिलाणो तुसिणी प्रो अच्छेज्ज, उट्ठेउं वा असत्तो तत्थ गतो पडिसुणेज्ज । शब्दं ददातीत्यर्थः ॥ २६५५ ॥ इदाणि भावस्स ववादो भण्णति भणति रहे जइ एवं, हवेज णिद्दोसमिहरहा दोसा । तुझे वि ताव उहह, भणति पगासे वि दढमूढे || २६५६|| सेहतएण प्रायरिओ परिसामज्ये ण वत्तव्वो जहा तुमं पण्णवेसि एवं ण भवति ति । तो कहि तेण भाणियव्वं ? उच्यते - "रहे" एगते भणति जहाहं पण्णवेमि । जति एवं भण्णति तो णिद्दोसं । "इहरहा" जहा तुमं पण्णवेह एवं समयविराणा दोसो भवति । तुब्भे वि मयानिहितं प्रत्यं ऊहह कि घडति ण घडतीति, ताव शब्दः परिमाणवाचकः, जहा इमेण मे पहेण गंतव्वं जावतितं दट्ठ, एव इणमत्थं पुव्वावरेण ताव ऊहह जाव भवे श्रभिगो । हवा - पदपूरणे ( वा ) दढं दृढं जो मूढो भूतत्थं प्रपडिवज्जतो पगासं परिसामज्ये वि भण्णति ।। २६५६ ॥ ""प्रोसण्णादी चउत्थम्मि" अस्य व्याख्या - विरहे उ मठातं, ओसण्णं भणति परिसमज्झे वि । ण वि जाणसि हित्तादि व, नडपढियं किं तुहंतेणं || २६५७॥ - श्रोणी श्रारिप्रो, विरहे एगंते बहु भणितो - "सगोरवविरमाहि" त्ति श्रद्वायंतो श्रविरमंतेत्यर्थः, परिसामज्भे वि भण्णति - ण याणसि तुमं हितं वा ग्रहियं वा णडपढितेण वा किं तुज्झतेण पादेहिं वा संघट्टिज्जति जेण सो प्रमाणितो चितेति एते मं देवयमिव पेक्खता इदाणि मं प्रोसण्णदोसेण दासमिव पासंति तं ण एतेसि दोसो, मज्झ दोसो, उज्जमामि ।। २६५७।। जे भिक्खू अणंतकाय -संजुत्तं आहारं आहारेह, आहारेंतं वा सातिज्जति ॥ | सू० ||५|| भ्रांतकात मूलकंदो, अल्लगफलादि वा एवमादिसम्मिस्सं जो भुंजति तस्स चउगुरु । जे भिक्खू असणादी, भुंजेज्ज अनंतकायसंजुतं । सोणा णत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे || २६५८ || श्राणादिया दोसा भवंति । इमे दोसा - १ गा० २६५१ । तं कायपरिच्चयती, तेण य भुत्तेण संजमं चयती । अतिखद्ध अणुचितेण य, विहगादीणि आयाए || २६५६|| Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-६ इमा प्रायविराहणा - तेण रसालेण प्रतिखद्धेण अणुचित्तेण य विसूतियादी भवे मरेज्ज वा, अजीरते वा अण्णतरो रोगातको भवेज्ज, एवं प्रायविराहणा । जम्हा एते दोसा तम्हा ण भोत्तव्वं ॥२६५६॥ कारणे भुजेज्जा - असिवे ओमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे । अद्धाणरोहए वा, जयण इमा तत्थ कायवा ॥२६६०॥ पुर्ववत् . इमा वक्खमाण-जयणा - अोमं ति-भागमद्ध, ति-भाग आयंबिले चउत्थादी । निम्मिस्से मिस्से या, परित्तऽणते य जा जतणा ॥२६६१॥ जहा पलंबसुत्ते वक्खमाणा, जहा वा पेढे भणिया तहा वत्तव्वा । इमो से अक्खरत्थो - प्रोम एसणिज्जं भुजति तिभागेण वा ऊणं एसणिज्ज भुजति, अद्धं वा एसणिज्जं. तिभागं वा एसणिज्जं, प्रायंबिलेण वा अच्छति, चउत्थं वा करेति, ण य अणंतकायसम्मिस्सं भुजति, जाहे णिमिस्सं ण लब्भति ताहे परित्तकायमिस्सं गेहति, जाहे तं पि ण लब्भति ताहे अणंत हायमिस्सं गेहति, जा य पणगादि जयणा सा दट्ठव्वा ।।२६६१॥ जे भिक्खू श्राहाकम्मं भुंजइ, भुंजंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६॥ प्राधाकडं पाहाकम्म, तं जो भुजति तस्स च उगुरु प्राणादिणो य दोसा । तस्स आहाकम्मस्स कहं संभवो हवेज्ज ? इमो भण्णति - साली-धय-गुल-गोरस, नवेसु वल्लीफलेसु जातेसु । पुण्णट्ठ दाणसड्डा, श्राहाकम्मे निमंतणया ॥२६६२॥ कस्स ति दाणरुइणो अभिगमसड्डस्स वा णवो साली घरे पवेसितो ताहे दाणसड्डो चितेति - पुवं जतीण दाउं पच्छा अप्पणा परिभोगं काहामि त्ति आहाकम करेज्ज । जहा सालीए एवं घृते गुडे गोरसे वा तुबादिवल्लिफलेसु जातेसु पुण्णणिमित्तं दाणसड्ढाति प्राहाकम्मं काउं साहुणो गिमतेज्ज ॥२६६२।। तस्स य आहाकम्मस्स इमे दोसा - आहाकम्मे तिविहे, आहारे उवधि वसहिमादीसु । आहाराहाकम्म, चउबिधं होइ असणादी ॥२६६३॥ प्राहाकामं तिविधं - श्राहारे उवधि वसहीए य । प्रादिसद्दो णामादिभेप्रदर्शनार्थः, उत्तरभेदप्रदर्शनार्थं वा । आहाराहाकम्मं चउब्विधं असणादियं ॥२६६३।। उवही आहाकम्म, वत्थे पाए य होइ णायव्वं । वत्थे पंचविधं पुण, तिविहं पुण होइ पायम्मि ॥२६६४॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६६०-२६६७ ] दशम उद्देशक: उवधिग्राहाकम्मं दुविधं - वत्थे पादे य । तत्थ वत्थे पंचविह - जंगियं भंगियं सणियं पत्तयं तिरीडपट्टं च । पादे तिविहं - लाउय दारुय मट्टियापादं च । एतेसि वक्खाणं पूर्ववत् || २६६४॥ बसही श्रधाकम्मं, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । एक्केक्कं सत्तविहं, नायव्वं श्रणुपुव्वीए || २६६५॥ सही महाकम्म दुविध मूलगुणाहा कम्मं उत्तरगुणाहाकम्मं च । मूलगुणे सत्तविहं इमं - पट्टीवंसो दो धारणाम्रो चत्तारि य मूलवेलीश्रो । उत्तरगुणे इमे सत्त पूर्ववत् ।।२६६५ ॥ मस्स इमे एगट्टिया हा अ य कम्मे, आयाकम्मे य अत्तकम्मे य । तं पुण आहाकम्मं णायव्वं कप्पती कस्स || २६६६ || ग्राहाए णामादिचउव्विहो णिक्खेवो । दव्वाहा घणुं प्राहियं जीवा श्रग्गे श्रारोपिता इत्यर्थः, बइल्लाण वा खंघे जुगं श्राहितं । भावाहा ग्रहाकर्मग्रहणादात्मनि कर्म ग्राहितं श्रात्मा वा कर्मणि श्राहितः । भावा होकम्मं । वंसग-कडण- प्रोकंचण छावण-लेवण दुवार भूमिकम्मे य । एतेसिं वक्खाणं हे कम्मे विचव्विहो निक्खेवो । उच्चानीचे नीचतरे च द्रव्यं क्रियते तं दव्वाहे कम्मं । श्राहाकम्मरगहणतो जम्हा विसुद्धसंजमद्वाणंहितो प्रप्पाणं प्रावसुद्धठाणेसु ग्रहो हो करेति तम्हा आयाहम्मे वि चउव्विधो निवखेवो । वाम्मे अणुवत्तो पाणातिवायं करें तो । भावाते णाण दंसण चरणा, तं हणतो भावाताहम्मं । अत्तकम्मे वि चउव्विहो निक्खेवो । दव्वे प्रत्तकम्मं अणुवउत्तस्स किरिया । भावे प्रत्तकम्मं श्राहाकम्मपरिणतो परकम्मं प्रत्तकम्मी करति । ส पुण आहाकम्मं कस्स पुरिसस्स कप्पति ण कप्पति वा ? अहवा कस्स तित्थे कथं कस्स कप्पति ण कप्पति वा ? ।।२६६६।। प्रधाकम्मकारी इमं दुविधं उद्दिस्स करेज्जा - श्रोहेण विभागेण वा । सो पुण हविभागो इमेहिं चउहिं दारेहिं प्रणुगंतव्वे - - १३ संघस्स पुरम - पच्छिम - समणाणं चेव होइ समणीणं । चउन्हं उवस्सयाणं, कायन्त्र परूवणा होति || २६६७॥ ग्राहाकम्मकारी सापणेण वा विसेसेण वा संघुद्देसं करेति । एवं समण-सामण्ण-विसेसेणं वा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-६ उद्दिस्सति । चउण्हं उवस्सयाणं सामण्णेण विसेसेण वा उद्देस करेति । ते य इमे चउरो उवस्सया - पंचयामसमणाण एगो, समणीण बितिम्रो, एवं चाउज्जामियाण वि दो, एवं चउरो ॥२६६७॥ संघं समुद्दिसित्ता, पढमो बितिम्रो य समण-समणीणं । ततिश्रो उवस्सए खलु, चउत्थो एगपुरिसं तु ॥२६६८॥ प्राहाकम्मकारी सामण्णे चउरो संकप्पेउं प्राहाकम्मं करेति - एगो संघ, बितिमो समण-समणीयो, ततिम्रो उवस्सए उद्दिसिउं करेति, चउत्यो एगपुरिसं उद्दिस्सति ॥२६६८॥ जदि सव्वं उद्दिसिउं, संघं तु करेति दोण्ह वि ण कप्पे । अहवा सव्वे समणा, समणी वा तत्थ वि तहेव ॥२६६६॥ यदीत्यभ्युपगमे, सर्वमिति सामान्येन सर्वसंघ उद्दिसिउं करेति तो दोण्ह वि चउजाम-पंचजामाण न कप्पति । अहवा - दो पुरिम-मज्झिमा । अहवा - सव्वे समण-समणी य सामण्णेण उद्दिसति । तत्थे ति सामन्नुद्देसे तहेव जहा कडं संघस्स तहा समण-समणीण वि चउजाम-पंचजामाण वि सन्वेसि प्रकप्पं भवति ॥२६६६॥ विभागुद्देसे इमं विहाणं - जइ पुण पुरिमं संघ, उदिसती मज्झिमस्स तो कप्पे । मज्झिम उद्दिढे पुण, दोण्हं पि अकप्पियं होइ ।।२६७०॥ जइ पुरिमं उसभसामिसंघ उद्दिसिउं करेति तो मज्झिम-बावीस-तित्थकराण संघस्स कप्पं भवति, पच्छिमाण प्रकप्पं । अह मज्झिम-संघस्स उद्दिसिउं कडं तो दोण्ह वि पुरिम-मज्झिमाण प्रकप्पं । अहवा - चउजाम-पंचजामाणं दोण्ह वि प्रकप्पं । पच्छिमुद्दिढे पुरिम-पच्छिमाण प्रकप्पं मज्झिमाण कप्पं ॥२६७०॥ एमेव समणवग्गे, समणीवग्गे य पुव्वणिद्दिष्टे । मज्झिमगाणं कप्पे, तेसि कडं दोण्ह वि ण कप्पे ॥२६७१।। पुवमिति रिसभसामिणो तित्थे जे समणा समणीसो वा ते उद्दिसिउं करेंति, तो तेसि अकप्पं, मज्झिमाण पुण कप्पं । तेसि मज्झिमाण कडं दोण्ह वि पुरिमाण मज्झिमाण प्रकप्पं ॥२६७०॥ पुरिसाणं एगस्स वि, कयं तु सव्वेसि पुरिम-चरिमाणं । ण वि कप्पे ठवणा मेत्तगं तु गहणं तहिं णत्थि ॥२६७२।। मोहेण एगपुरिसं समुद्दिस्स जं कयं तं सवेसि पुरिम-पच्छिमाण प्रकप्पं । मज्झिमाण विसेसो - एगेण गहिएण सेसाण तत्थ कप्पं भवति । पुरिम-पच्छिमाण पुण एगेण वि गहिए सेसाण वि सम्वेसि प्रकप्पं भवति "ठवणा" इति प्रज्ञापनमात्रं नात्र संभवोऽस्तीत्यर्थः । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६६८-२६७५ ] दशम उद्देशकः अह मज्झिमगं एगं उद्दिसिउं करेति पुरिम-पच्छिमाणं समण-समणी, सव्वेसि प्रकप्पं । मज्झिमाणं पुण तस्सेवेगस्स प्रकप्पं सेसाणं भवति ॥२६७२॥ एवमुवस्सयपुरिमे, उद्दिटुं तं ण पच्छिमा भुजे । मज्झिमतव्वज्जाणं, कप्पे उद्दिद्वसमपुव्वा ॥२६७३॥ एवं जति सामणेण उवस्सयाणं करेति तो सव्वेसि प्रकप्पं भवति । अह पुरिमोवस्सए उद्दिसिउं करेति तो पुरिमाण-पच्छिमाण य सव्वेसि प्रकप्पं, मज्झिमाणं पुण कप्पं भवति । ग्रह मज्झिमोवस्सए सब्बोउद्दिसिउं करेति तो मज्झिमाण पुण पुरिम-चरिमाण य सव्वेसिं प्रकप्पं चेव भवति । "मज्झिमतव्वज्जाणं कप्पे" त्ति अस्य व्याख्या - जति मज्झिमसमणाण उवस्सए उद्दिसिउं करेति ते चेव समणे वज्जेउं मज्झिमाण चेव सेसगाण समण-समणिउवस्सगाण कप्पं भवतीत्यर्थः । "उद्दिट्ठसमपुव्व" त्ति अस्य व्याख्या - पुव्व इति रिसभसामि वा । अहवा-पंचजामा ते उदिट्ठसमा, तेषां न कल्पयतीत्यर्थः । एवं प्रायसं पुरिम-मज्झिमाण भणितं ॥२६७३॥ इमं तु प्रायसं मज्झिम-पच्छिमाणं भण्णति - सव्वे समणा समणी, मज्झिमगा चेव पच्छिमा चेव । मज्झिमग-समण-समणी, पच्छिमगा समण-समणीयो॥२६७४॥ "सव्वे समणा समणी” एत्य सामणेण भणिते सव्वेसि प्रकप्पं । "मज्झिमगा चेव" मज्झिमगाण समण-समणीण उद्दिटुं मज्झिमाण पच्छिमाण य सव्वेसि प्रकप्पं । "पच्छिमा चेव" पच्छिमाणं सव्वेसि समण-समणीण य उद्दिष्टं पच्छिमाण सव्वेसिं प्रकप्पं, मज्झिमपासावच्चिज्जाण सव्वेसि कप्पं । मज्झिम-समणाण उद्दिट्ठ मज्झिम-समणीण कप्पं, सेसाणं सव्वेसि प्रकप्पं । मज्झिम-समणीण उद्दिष्टुं मज्झिम-समणाण चेव कप्पं, सेसाण सव्वेसि प्रकप्पं । पच्छिम-समणाण उद्दिटुं पच्छिमगाण समणाण समणोण य प्रकप्पं, मज्झिमगाण दोण्ह वि कप्पं । पच्छिम-समणीण उद्दिढे वि एवं चेव भाणियव्वं ॥२६७४॥ उवसग-गणित-विभावित, उज्जुगजड्डा य वंकजड्डा य । मज्झिमग उज्जुपण्णा, पेच्छा सण्णाइयांगमणं ॥२६७।। बहूर्ण उवस्सगाणं माझे पंच इति गणिया । अमुग इति नामेहिं विभातिया गणियविभातिएसु चउभंगो कायम्बो। मज्झिमाण पढमभंगे गणियविभातिताण चेव प्रकप्प, सेसाण कप्पं । मज्झिमाण बितियभंगे जाव गणियप्पमाणेहिं ण गहियं ताव सव्वेसि प्रकप्पं, तप्पमाणेहि गहिते सेसाण कप्पं भवति । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-३ मज्झिमाण ततियभंगे जावतिया सरिसणामा सव्वेसि प्रकप्पं सेसाण कप्पं भवति । मज्झिमाण चउत्थभंगे सव्वेसि प्रकप्पं भवति । चोदग प्राह - किं कारणं-चाउज्जामाण उद्दिट्ठवज्जाण कप्पं, पंचाजामाण सम्वेसि चेव प्रकप्पं ? अत्रोच्यते - पुरिमा रिजु जड्डा य । पच्छिमा वंक जड्डा य । मज्झिमा उज्जुपण्णा णाणमंता य । तिविधाण वि साहूण णडपेच्छग-दिटुंतेण णिरिसणं कज्जति । साहूण सण्णायगकुलागयाण गिहिणो उग्गमादिदोसे करेज्ज । तत्थ वि तिहा णिदरिसणं कज्जति ।।२६७५।। नडपच्छं दठ्ठणं, अवस्स आलोयणा ण से कप्पे।। कउगाती सो पेच्छति, न ते वि पुरिमाण तो सव्वे ॥२६७६॥ गडबिलविणो णडा । पुरिमाण साहू भिक्खादिणिग्गता, गडं दळूण उज्जुत्तणेणं प्रायरियाणं प्रवस्म आलोयणं देंति, आयरिएण य भणिो ण वहृति, ण साहूण णडपेक्खणा कप्पते काउं । प्रामं ति अन्भुवगता पुणो अडतो कउआदी पेच्छति, छत्तो कउगो भण्णति, - पालोइए गुरूहि भणितो - ण तुमं पेच्छसु । सो भण्णति - णडो वारितो ण कउगो, एस मया कउनो दिट्ठो। पायरियो भणइ - कउनो वि ण कप्पते दह्र । एवं उज्जुतणेण जावतितं पडिसिज्झति तावतियं वज्जेति । जाहे ण सव्वं कप्पति त्ति वारितो ताहे सव्वे गडा वज्जेति ॥२६७६।। एमेव उग्गमादी, एक्केक्कणिवारितेतरे गिण्हे । सव्वे वि ण कप्पंति, त्ति वारिओ जा जियं चयति ।।२६७७|| एमेव पुरिमाण उग्गमादिदोस एक्केक्कं वारितो वज्जेइ, इतरं गेहति, जाहे वारिप्रो सब्वे वि उग्गमादिदोसा ण कप्पति ताहे सव्वे जावज्जीवं परिच्चयति ।।२६७७।। एवं सण्णायगा साहू वि एक्केको वारितो ठायति - सण्णातगा वि उज्जुत्तणेण कस्स कडं तुज्झ एयं ति । मम उद्दिट्ट ण कप्पति, कीतं अण्णस्स का पकरे ॥२६७८॥ जहा साहू सण्णायगावलोयणेण सण्णायगकुलं गतो तदा सण्णायगा वि किंचि अन्भुच्चयं करेज्ज । साहुणा पुच्छिया कस्सेयं तुम्हे कयं, ते उजुत्तणेण कहयंति तुज्झमेयं ति । सो साहू भणति - मम उदिटुं भत्तं ण कप्पति, ताहे सो गिही कीयकडादि य करेति, अण्णस्स वा साहुस्स प्राहाकम्मादि करेज ।।२६७८।। - सव्वेसि संजयाणं, उग्गमदोसा निवारिया सव्वे । इति कहिते पुरिमाणं, सव्वेसिं ते उ ण करेंति ॥२६७६।। एवं गिहीण जाहे कहियं सब्वे उग्गमदोसा सव्वेसि साहूणं ण कप्पति ताहे ते गिहिणो सव्वे उग्गमदोसे सव्वेसि साहूणं ण करेंति । इति उपप्रदर्शनार्थे । पुरिमा एव तिष्ठन्तीत्यर्थः ॥२६७६॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६७६-२६८४] दशम उद्देशक: "'उज्जु-जडत्तणाण" इमं वक्खाणं - उज्जुत्तणं से आलोयणाए जड्डत्तणं से जं भजे । तजातिए ण जाणति, गिही वि अण्णस्स अण्णे वा ॥२६८०॥ जं से भालोएति तं से उज्जुत्तणं । जंतजातीए सव्वे दोसे ण वज्जेति एयं से मतीए जडत्तणं । गिहिणो वि जं अण्णस्स णिवारियस्समण्णं करेंति, अण्णो व उग्गमदोसे करेति, एयं सि मतीए जड़त्तणं, जं पुण पुच्छित्ता फुडं साहंति एवं सिं उज्जुत्तणं ।।२६८०॥ "२मज्झिम-उज्जुपन्नाणं' इमं वक्खाणं - उज्जुत्तणं से आलोयणाएं पण्णा तु सेसवजणया । सण्णायगा वि दोसेण करेंतण्णेण सव्वेसि ॥२६८१॥ जं रहे पडिसेविउँ पालोएति, एयं से उज्जुत्तणं । जं तज्जातीए सव्वे दोसे वज्जति, एयं से पण्णतणं । गिहिणो वि जहा एस एयस्स दोसो प्रकप्पो तहा तज्जातीया सब्वे प्रकप्पा, जहा एयस्स तहा सव्वसाहूणं । । अण्णे उग्गमदोसे अण्णेसिं साधूणं ण कप्पंतीत्यर्थः ॥२६८१॥ . “3पच्छिमा वंकजड्ड" त्ति अस्य व्याख्या - वंका उ ण साहंती, पुट्ठा य भणंति उण्ह-कंटादी । पाहुणग-सद्ध-ऊसव, गिहिणो वि य वाउलं तेवं ॥२६८२॥ कत्तणतो दोसे पडिसेविण साहंति, नालोचयंति, जड्डत्तणं से जं जाणतो अजाणंतो वा प्रात्माऽ तिचारे प्रवर्तते । पुच्छियो - तुमे णडो दिट्टो? भणति - ण मे दिवो। तो कि तत्थ चिद्वितो? भणति - तत्थ उण्हेणाभिहतो चिद्वितो, कंटगो वा लग्गो, सो तत्थ चिट्ठतेणावणीतो। गिहिणो वि पुच्छिता भणंति - पाहुणा पागता तेण मए प्रभुच्चो को, अप्पणो कमो वा एरिसे भत्ते सद्धा, उस्सवो वा अज अम्हाणं, एवं गिहिणो वाउलेंति-व्यामोहमुत्पादयंति, न सम्भावमाख्यायंतीत्यर्थः । एतेण कारणेण चाउजाम-पंचजामाण प्राहाकम्मरगहणे विसेसो कतो। एवं संजतीण वि संजयसरिसगमो दट्टब्बो ॥२६३२॥ एतेसामण्णतरं, आहाकम्मं तु गेण्हती जो उ । सो आणा. अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥२६८३।। बितियपदेण इमेहिं कारणेहि भुजेज्जा - असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । श्रद्धाण रोहए वा, धितिं पडुच्चा व आहारे ॥२६८४॥ १ गा० २६७५ । २ गा० २६७५ । ३ गा० २६७५ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ७-८ . असिवगहिरो ति, तो पच्छा भोयणट्ठा असिवगहितो वा, प्रलंभंतो बाहिं वा प्रसिवं तेण अणितो, ओमे वि अकव्वंतो राअदुढे अप्पसारियं अच्छतो, बोहिगभए भिक्खाए अणिग्गच्छतो, गेलण्णे प्रोसधं पत्थभोयणं वा, प्रद्धाणे भद्धाणकप्पो प्रसंथरंतो वा प्राहाकम्मलंभे गहणं करेज । रोहए वि अप्फव्वंतो दुब्बल धिती वा प्राणसंधारणट्ठा माहारे, अण्णतरं वा कारणं पड्डच्च प्राहारेज ॥२६८४।। गिलाण अद्धाणेसु इमा वक्खा - आयरिए अभिसेए, भिक्खुम्मि गिलाणगम्मि भयणाओ । तिक्खुत्तो अडविपएसे, चतुपरियट्टे ततो गहणं ॥२६८५॥ गुरुगो जावजीवं, सुद्धमसुद्धण होइ कायव्वं । वसभे बारसवासा, अट्ठारस भिक्खुणो मासा ॥२६८६॥ पायरियो गिलाणो सुद्धस्स अलाभे आहाकम्मं भयति सेवतीत्यर्थः । एवं अभिसेमो भिक्खू य । प्रद्धाणे पडिसेवणा पवेसउत्तिण्णा मज्झ वा तिक्खुत्तो हिडिउं च परियट्टे पणगहाणीए प्रसंथरंतो जाहे चउगुरु पत्तो ताहे गेण्हति । एवं न तस्स दोषेत्यर्थः ॥२६८६॥ जे भिक्खू पडुप्पण्णं निमित्तं वागरेति, वागरेंतं वा सातिजति ॥२०॥७॥ जे भिक्खू अणागयं निमित्तं वागरेति, वागरेंतं वा सातिञ्जति ॥०॥८॥ पडुप्पण्णं णाम वट्टमाणं लाभालाभाति वट्टमाणे वागरेति । प्रणागतं एष्यं णिमित्तं वागरेति-प्रागामस्स काले लामाति वागरेति । छन्विहं णिमित्तं इमं - लाभालाभ-सुह-दुक्ख-जीवित-मरण तीतवज्जाई । गिहि-अण्णतित्थियाण व, जे भिक्खू वागरिज्जाणा ॥२६८७॥ लाभालाभं सुहं दुक्खं जीवितं मरणं-एताणि छ प्रतीतकालवज्जाणि वागरेति वर्तमान एष्ये इत्यर्थः । गिहीणं प्रणतित्थियाणं वा जो वागरेज्ज भिक्खू सो प्राणादिदोसे पावेज्ज ॥२६८।। छविह-वट्टमाणगप्रदर्शनार्थ - पट्टवित्रो मे अमुओ, लभति ण लब्भति व तस्सिमा वेला । वीमंसा दुक्खीहं, सुहीति अमुरं च ते दुक्खं ॥२६८८॥ प्रमुगो मया अमुगसमीवं पेसितो लाभणिमित्तं सो तत्थ तं लभेज्ज ण लभेज ? अहवा - इमा तस्स प्रागममवेला, सो लद्धलाभो अलखलाभो वा पागच्छति ण वा ? वीमंसट्टा वा कोइ पुच्छेज्ज - किमहं सुही दुक्खी वा ? अहवा - वट्टमाणकाले चेव वागरेति इमं ते सारीरं दुक्खं माणसं वा वदृति ॥२६८८॥ जीवति मत्रो त्ति वा, संकितम्मि एगतरगस्स णिदेसं । एवं होहिति तुझं, तस्स व लाभादो एस्मे ॥२६८६॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उद्देशक: १६ भाष्यगाथा २५८५-२६६३ ] को ति विदेसत्थो ण णज्जति जीवति मतो बा, एरिसे संकिते पुच्छितो एगतरणिद्देस करेज्ज, एवं वट्टमाणे। एस्से वि जस्स पुच्छिज्जति – सो पच्चक्खो परोक्खो वा । पच्चक्खो भण्णति - तुझं एस्से काले एवं होहिति । लाभो अलाभो वा, सुहं दुक्खं वा, जीवियं मरण वा । परोक्खे तस्स-एस्से काले इमो लाभो अलाभो वा, सुहं दुक्खं, जीवित मरण वा भविस्सति ॥२६८६।। जीविय त्ति भणिते - आणंदं अपडिहयं, संखडिकरणं च उभयधा होइ । खेत्तादि मरण कोट्टण, अधिकरणमणागयं जं च ॥२६६०॥ प्राणदं अपडिहयं करेति वर्धमानकमित्यर्थः । मतो त्ति भणितो संखडिकरणं करेज्ज । एवं उभयहा अवि अधिकरणदोसो भवति । अहवा - मतो त्ति भणिते खित्तचित्तो भवे मरात वा, उर-सिर-कुट्टणादि वा करेज्ज, मत्तिकिञ्चकरणेसु वा अधिकरणं भवे । अहवा - प्रणागते णिमित्ते वागरिते एते खित्तचित्तादिया दोसा भवंति ।।२६६०॥ जं च णिमित्त-वलेण कज्जसंधणं करेज्ज ॥२६६०॥ उच्छाहो विसीदंते, अगंतुकामस्स होति गमणं तु । अहिकरण थिरीकणं, कय विक्कय सन्नियत्ती य ॥२६६१।। प्रणागतणिमित्तवागरणेण कज्जे विसीदंतस्स उच्छाहो कतो भवति । लाभत्थिणो परदेसं अगंतुकामस्स अवस्स ते लाभो भविस्सति ति गमणं करेति । किसिमादि अधिकरणेषु विसीदंतस्स अवस्स वुड्डी भविस्सति त्ति वागरिए अधिकरणे स्थर्य भवति । अहवा - परदेस गंतुकामस्स इहेव लाभो भविस्सति त्ति थिरीकते अधिकरणं भवति । इमं किणाहि इमं विक्किणाहि । इतो कम्मारंभातो सण्णियत्ताहि इमम्मि कम्मारंभे पयट्टसु, एवं ते लाभो भविस्सति । एवं अधिकरण दोसा ॥२६६१।। इमे य दोसा - आएस विसंवादे, पोस-णिच्छुभणमादि-वोच्छेनो। अहिकरणं अण्णेण व, उड्डाहऽण्णाण-वातो य ।।२६६२।। पाएसे य विसंवतिए पदोसं गच्छेज्ज । वसहीमो वा णिच्छुभेज्ज । आहारादिवसहीण वा वोच्छेद करेज्ज । अण्णेण वा णिमित्तिएण सदि अधिकरणं भवे, अण्णेण वा णिमित्तिएण संवादिते साधूण अण्णाण-वादो भवति, उड्डाहो य भवेज्ज ॥२६६२॥ नियमा तिकालविसए, निमित्ते छबिहे हवति दोसो । सज्ज उ वट्टमाणे, आतुभए तत्थिमं णायं ॥२६६३॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - E णियमा अवस्सं दोसो भवति, तिकालविसए अतीते वट्टमाणे एस्से य, छव्विहे लाभादिए सयमेव वर्तमानकाले प्रादेसे दोसो भवति, उभयमिति प्रप्पणी परस्स वा, तत्थिमं णातं दृष्टांत इत्यर्थः ।। २६६३ ।। २७ कंपिता णिमित्ण, भोइणी होतिए चिरगतम्मि । पुव्वभणितं कधंते, आगतरुडो य वलवाते ॥२६६४|| दाराभोगण गागि, आगमो परियणस्स पच्चोणीं । पुच्छा य खमणकहणं, सादीयंकार सुविणादी || २६६५|| कोहो बलवा - गन्धं च पुच्छितो भणति पंचपुंडासो । फाल दिट्ठे जति णेवं तुह अवितहं कति वा || २६६६ ॥ एगो णिमित्ति तेण भोतिणी गामसामिणी श्राकंपिता अविसंवातिनिमित्तेण प्राउट्टिता । अण्णता सा भोतिणी भोतियं चिरगतं पुच्छति कया सो भोतितो प्रागच्छति ? तेण कहियं - अमुगदिणे प्रमुगवेलाए आगच्छति । ताहे तस्स मित्तियपुत्रभणितं इत्थिमादिनरियाणे सव्वं कहेति । सती असती त्ति मे दारं, तस्स प्राभोगणट्टा एगागी श्रागतो पेच्छति - सव्वपरियणो पच्चोणीए णिग्गतो अ, मग्गति ता पच्चोणी । F भविस्सति ? तेण पुच्छियं - कहं ते णायं ? तेहि कहियं - एरिसो तारिसी खमगो नेमित्तियो, तेण कहियं । सो आगतो तं बाहिरित्ता णिमित्तं पुच्छति । तेण वि से सुविणादिसादीयंकारं णिमित्तं प्रवितहं कहियं । सोभोति तंमि कहिते ईसालुयभावेण रुट्ठो वडवाएसं पुच्छति - एस वलवा गब्भिणी, एतीए कि - तेण भणियं - पंचपुडो ग्रासो भविस्सति । तेण तक्खणा चेव फालविया दिट्ठा । I ताहे भोतितो भणति "जइ एवं ण होतं तो तुह एवं पोट्टं फालियं होतं " एवं अवितहणेमित्तिया केत्तिया भविस्संति, जम्हा एते दोसा तम्हा ण वागरे ॥ २६६६॥ भवे कारणं - असिवे ओमोरिए, रायदुट्ठ भए व गेलण्णे । श्रद्धाण रोहए वा, जयणाए वागरे भिक्खू ||२६६७॥ एतेह संथरंतो, पणगादी कम्मऽइच्छितो संतो । एस्सेव पडुप्पण्णं, व भणति भद्देसु उवउत्तो || २६६८|| एतेहि कारणेहिं असंथरंतो पणगपरिहाणीए जाहे ग्रहाकम्मं प्रइक्कतो ताहे पुव्वं श्रागमिस्स णिमित्तं वागरेति भद्दगेसु अतीव उवउत्तो, पच्छा श्रागमिस्स पडुप्पण्णं ||२२६६८ ।। जे भिक्खु सेहं अवहरइ, अवहरेतं वा सातिज्जति ॥ सू०॥६॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६६४-२७०३ ] दशम उद्देशकः सेहणिज्जो सेहो, जो तं प्रणोभव्वं अवहरति तस्स चउगुरु । तं च सेहं ण लभति । सेहऽवहारो दुविहो, पव्वावियए यऽपव्ययंते य । एक्केक्को वि य दुविहो, पुरिसित्थिगतो य नायव्वो ॥२६६६।। सेहावहारो दुविहो -- पव्वतिते अपव्वतिते वा। पुणो दुविहो - एक्केक्को पुरिसित्थिभेदेण णायव्वो ॥२६१६॥ किह पुण तस्सावहारो हवेज्ज ? - पव्वावणिज्ज बाहिं, ठवेत्तु भिक्खुस्स अतिगते संते । सेहस्स आसिश्रावण, अभिधारेते य पाक्यणी ॥२७००॥ कोति पव्वादगिज्ज ससिहं सेह घेत्तुं पट्टितो । तं भिक्खाकाले एगत्थ गामे बाहिं ठवेउं भिक्खट्ठा पविट्ठो, सो य अण्णेण साहुणा सेहो दिट्ठो। ततो स तेणं विप्पयारेउं पासियावितो। साघुविरहितो वा एगागी अभिधारेतो वयंतो अंतरा अण्णेण विप्पयारेउं पव्वावितो। एते दो वि जया पावयणी जाता तदा अप्पणा चेव अप्पणो दिसा-परिच्छेदं करिस्संति ॥२७००। जेण सो बहि-द्वितो दिट्ठो सो इमो - सन्नातिगतो अद्धाणिो व वंदणग पुच्छ सेहो मि । सो कत्थ मज्झ कज्जे, छायपिवासुस्स वा अडती ॥२७०१॥ सण्णाभूमिणिग्गतेण दिट्ठो, ग्रादिसद्दातो भत्तादिपरिट्ठावणा-णिग्गतेण दिट्ठो । अहवा - केणइ अद्धाणणिग्गतेण ट्ठिो। सेहेण वंदितो साधू पुच्छति - को सि तुमं ? कतो वा प्रागतो ? कहिं वा पट्टितो ? सेहेण भगियं - अमुगेण साहुणा सद्धि पट्टितो पव्वज्जाभिप्पाएण । सो कत्य साधू ? सेहो भणति - मज्झ कज्जे छायस्स पिघासियस वा भत्तपाणट्ठा अडइ ॥२७०१।। सो साधू भणाति - मज्झमिणमण्णपाणं, भुंजसु(उवजीव)ऽणुकंपयाए सुद्धो उ । पुट्ठमपुढे कहणे, एमेव य इयरहा दोसा ॥२७०२।। जति सो साहू साहम्मिन त्ति अणुकंपाते भत्तपाणं ददाति तो सुद्धो। सेहेण पुच्छितो अपुच्छितो जइ धम्म प्रणुकंपाए कहेति तो एमेव सुद्धो। अह अवहरणट्टा भत्तं पाणं वा देति, धम्म वा अक्खति, तो से चउगुरु पच्छित्तं, सेहं च ण लभति ।।२७०२।।। इमे य अवहरणपयोगा - भत्ते पण्णवग निगृहणा य वावार झपणा चेव । पट्ठवण सयं हरणे, सेहेऽव्वत्ते य वत्ते य ॥२७०३।। अवहरणट्ठाए – “मम संबंघ एस्सइ" त्ति भत्तं से देति, धम्म वा से पण्णवेइ। सो सेहो तस्स Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१० प्राउट्टो भणति - तुझ समोवे निक्खमामि, किं तु कहिं वि मे गुविलपदेसे निगृहह, तस्स हं पुरतो न ठायामि। । ताहे सो तं वावारेति -प्रमुगत्थ णिलुक्काहिति । तत्थ णिलुक्कं साधू पलालादिणा झोति - स्थगयतीत्यर्थः । अहवा - अण्णेहिं सद्धि अण्णगामं पट्ठवेति । एगागि वा पट्टवेइ - "अमुगत्थ वच्चह अहमवि अमुगदिणे तत्थ पहामि" । अहवा - सयमेव घेत्तु अवहरति । एतेसु छसु पदेसु सेहे अव्वत्ते वत्ते य ॥२७०३।। इमं पच्छित्तं - गुरुप्रो चउलहु चउगुरु, छल्लहु छग्गुरुगमेव छेदो य । भिक्खूगणाइरियाणं, मूलं अणवट्ठ पारंची ॥२७०४।। भिक्खू जति अव्वत्तसाहुस्स अवहरणट्ठा भत्तं देति मासगुरु । धम्मस्स पण्णवणाते चउलहुं । गिगृहणवयणे चउगुरु। वावारणे छल्लहुँ । झंपणे छग्गुरु । पट्ठवणे सयं हरणे छेदो। एवं अव्वत्ते । वत्ते पुण चउलहुगाप्रो पाढतं मूले ठायति । गणिग्गहणातो उवज्झातो तस्स चउलहुगा पाढत्तं प्रणवढे ठायति । प्रायरियस्स चउगुरुगाढत्तं पारंचिए ठायति ।।२७०४॥ एवं ससहाए अवहरणं भणियं । जो पुण असहायो अभिधारतो वयति तत्थिमं - अभिहारेत वयंतो, पुट्ठो वच्चामहं अमुगमूलं । पण्णवण भत्तदाणं, तहेव सेसा पया णत्थि ॥२७०५॥ कोइ सेहो असहायो एगागी कंचि पायरियं अभिधारतो वच्चति । तेण अंतरा गामे पंथे वा साधू दिट्ठो, णीयावत्तं से वंदणं कतं । तेण साहुणा पुच्छितो – कहिं वच्चसि ? कतो वा आगो ? तेण कहियं - अमुगायरियस्स सगासे पन्वयणट्ठा वच्चामि । जति भिक्खू वुग्गाहणट्ठा अव्वत्तस्स भत्तदाणं धारेति तो मासगुरु, धम्म-पण्णवणाते चउलहुं । वत्ते चउलहुं चउगुरुगा। उवज्झायपायरियाणंछल्लह छग्गुरुगा। हेढे एककेक्कपदं हुसति । सेसा णिग्रहणादिया पदा णस्थि । प्रवराहपदाभावातो पच्छितं पि ण विजति ॥२१:०३।। एस अपव्वाविए विधी भणितो।। इमो पव्वाविते - पुरिसम्मि इत्थिगम्मि य, पवावितगम्मि एस चेव गमो। णायव्यो गिरवसेसो, अव्वत्ते तहेब वत्ते य ॥२७०६॥ जो अपव्वाविए विही पव्वाविए वि एस चेव विधी । अव्वत्ते वत्ते य गिरवसेसो ददृब्वो ॥२७०६।। एवं तु सो अवहितो, जाहे जातो सयं तु पावयणी। णिक्कारणे य गहितो, वच्चति ताहे पुरिल्लाणं ॥२७०७।। एवं जो अवहितो सो जाहे सयमेव पावयणी जातो अधीतानुयोगीत्यर्थः । एसो अण्णो वा जो णिक्कारणे केणति गहितो सो अप्पणो सयमेव दिसापरिच्छेदं काउं पुणो बोहिलाभट्ठताए पुरिल्लाग चेव वच्चति ।।२७०७॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २७०-२४७ १२ ] दशम उद्देशकः भत्तदाणादि अवहडस्स इमो अववादो भण्णति - अण्णस्स व असतीए, गुरुम्मि अब्भुजतेगतरजुत्ते । धारेति तमेव गणं, जो य हडो कारणज्जाए ॥२७०८। जेण अवहडो तस्स गच्छे अण्णो आयरिमो णत्थि । अहवा - अत्थि सो अब्भुज्जयमरणेणं अन्भुजयविहारेण वा जुत्तो प्रतिपन्नेत्यर्थः । ताहे सो अवहडो तं चेव गणं धरेई ण पुरिल्लाणं गच्छति । जइ केणइ प्रायरिएणं कारणजाएण अवहडो सो तं चेव गणं धरेइ, ण पुरिल्लाणं गच्छति ॥२७०८।।। एवं चेव विसेसियतरं भण्णति - कारणजाए अवहडो, गणं धरेमाणा सो हरंतस्स । जावेगो निम्मातो, पच्छा से अप्पणो इच्छा ॥२७०६।। जो कारणेण अवहडो 'अण्णाभावे सो गणं घरेतो हरंतस्स भाभदेवो भवति । सो जेण कारणेण अवहहो जति तं कारणं ण पूरेति तो पुरिल्लाण चेव आभव्यो हवति, ण हरंतस्स । जो कारणेण प्रवहडो सो तम्मि गणे ताव प्रच्छति जाव एगो गीयत्यो जिम्मातो, पच्छा से अप्पणो इच्छा, तत्थ वा अच्छति, पुरिल्लाण वा गच्छति । इतरो पुण णिक्कारणावहडो एगम्मि णिम्माए णियमा पुरिल्लाण गच्छति, न तस्येच्छा इत्यर्थः ।।२७०६॥ . एतेसामण्णतरं, अवहारं जो करेज्ज सेहस्स । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥२७१०॥ किं पुण तं कारणं जेण अवहारं करेति ? नाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुजोगे य । सुत्तत्थजाणगस्सा, कप्पति सेहावहारो उ ॥२७११॥ कस्स ति पायारयस्स पुब्वगते वत्थु पाहुडं वा कालियसुत्ते वि सुतक्खंघो अज्झयणं उद्देसो वा प्रत्थि, तमण्णस्स णत्यि । जति तं अण्णस्स ण संकामिजति तो वोच्छिति । एवं नाऊण भत्तपाणपण्णवणादिएहिं प्रव्वत्तं वत्तं वा सुत्तजाणप्रो पुरिसो सेहावहारं करेज्ज । एवमादिकारणेसु कल्पते इत्यर्थः ॥२७११॥ एमेव य इत्थीए, अभिधारतीए तह वयंतीए । वत्तऽव्वत्ताए गमो, जहेव पुरिसस्स णायव्वो ॥२७१२॥ एवं इत्थी वि अभिधारती जा गच्छति ससहाई वा जा वयति । वत्ताए प्रवत्ताए वा जहेत्र गमो पुरिसाण तहेव इत्थीए वि णायव्यो बोधव्वमित्यर्थः ॥२७१२।। जे भिक्खू सेहं विप्परिणामेति, विप्परिणामेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१०॥ १ अन्य (गच्छाधिपति) अभावे । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - १० कोति सेहो श्रहमेतस्स प्रायरियस्स समीवे पव्वयामित्ति परिणतो, तं विविधैः प्रकारैरात्मानं तेन परिणामयति त्ति विपरिणामेति । २४ अहवा - विविधप्रकारैरात्मानं परिणामयति । विगतपरिणामेति विगतपरिणामं वा करोतीति विष्परिणामेति । विप्परिणामणसेहे, पव्वावियए यऽपव्वयंते य । एक्केक्का सा दुविहा, पुरिसित्थिगया य णायव्वा ॥ २७१३॥ पूर्ववत् तह चेवभिहारंते, वंदिय पुच्छा य भत्तपण्णवणा । तह विसंबते, विप्परिणामो इमेहिं तु ॥ २७१४॥ तत्येति जहाजहारे सहायो प्रभिघारंतो वा कस्सइ श्रायरियस्स पासं वच्चइ, अंतरा य प्रण साहुणा दिट्ठी । सेहेण य विजयपुव्विं तस्स वंदणयं कथं । साहुणा पुच्छितो - कहि वच्चसि ? तेण भणियं - प्रमुगायरियस्स सगासं पव्वतिउं वच्चामि । ताहे सो तं विपरिणामेति भत्तदाणधम्मपण्णवणाए य ।। २७१४।। तह वि पडिवज्जमाणं इमेहिं विप्परिणामेति ६ ७ aise aad, atfar जाति लाभ सुत्थे । १२ पूय महणे णेता, संगहकुसलो कहक वादी || २७१५|| " "श्रहिंडए" त्ति अस्य व्याख्या हिंडति सो णिच्चं वयं तु णाहिंडगा ण वत्थव्वा । , हवा वि स वत्थन्त्रो, अम्हे पुण अणियता वासा ||२७१६॥ सो तम्मि विपरिणामंतो भणइ - " मम पासे क्खिमाहि । सो प्राहिडिम्रो इम्रो इम्रो पडिहिडाइ, डालं डालियो, तुमं पि तेण समं हिंडतो सुत्तत्थाणं श्रणाभागी भविस्ससि । श्रम्हे पुण ण श्रहिंडगा, ण वत्थब्वा, जतो मासकपविहारेण विहरामो, तो म्हेहि समाणं सुहं प्रच्छिहिसि प्रणिग्गच्छंतो सुत्तरयाणं य प्रभागी न भविस्ससि ।" अहवा तस्स भावं णाऊण भणेज्जा "सो वत्थवो एगगामणिवासी कूत्रमंडुक्को इव ण गामगरादी पेच्छति । ग्रम्हे पुण प्रणियतवासी, तुमं पि श्रम्हेहिं समाणं हिंडतो णाणाविध-गाम-गगरागर- सन्निवेसयहाणि जाणवदे यच्छंतो प्रभिषाणकुसलो भविस्ससि, तहा सर त्रावि वपिणि विकून डाग काणगुज्जाण कंदर-दरि-कुहर-पव्वते य णाणाविह रुक्वसोभिए पेच्छतो चक्खुसुहं पाविहिसि, तित्थकराण य तिलोगपूइयाण जम्मण-णिक्खमण विहार- केवलुप्पाद निव्वाणभूमीश्रो य पेच्छतं। दंसणसुद्धि का हिसि, तहा भष्णोष्णसाहु समागमेण य सामायारिकुसलो भविस्ससि, सव्वापुव्वे य चेइए वंदतो बोहिलाभ निज्जितेहिसि. प्रण्णोष्ण-सुय- दाणाभिगमसड्ढेसु संजमा विरुद्ध विविध वंजणोववेयमण्णं घय-गुल- दधि-क्षीरमादियं च विगतिपरिभोगं पाविहिसि ।।२७१६ ।। १ शेस विवित्तादिपदानां व्याख्या गा० २७१७ । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २७१३-२७१७ ] दशम उद्देशक: २५ एमेव सेसएसु वि, पडिपक्खगएण जिंदती तं तु । जति वि य सो होति तहा, तह वि य विस्सासणा सा उ ॥२७१७॥ सेसा विवित्तमादिया पदा। जे तस्स सेहस्स अणुकूला ते अप्पणा दंसेति, पडिपक्खपदेहिं तं णिदति । जस्स पासं पट्टितो जहा सो निंदति जइ वि तहा भवति तहावि विस्सासणा विपरिणामणा इत्यर्थः । अम्हे विवित्ता णिरतियारा गुणाधेया। सो प्रविवित्तो मूलगुणातियारेहिं संपण्णो सारंभो सपरिग्रह इत्यर्थः । अम्हं पायरियो अम्हे य मद्दवजुत्ता। सो अप्पणो परिवारो य से कोहणो, अप्पे वि प्रवराहे कते भणति, णिच्छुब्मति वा । इमे अम्हाणं पायरिया जातिकुलेण य संपण्णा, सव्वजणस्स पूणिज्जा, गुरुगा य । सो पुण जाइहीणो। कि च-इमे अम्हाणं प्रायरिया लद्धिसंपण्णा, आहारोवकरणवसहीमो य जहा अभिलसिया उपजंति पकामं च णिच्चिंतेहिं अच्छियध्वं ।। ___ सो पुण अलद्धिो , तस्स जे सीसा ते णिच्चं पाहारोवकरणमादियाण अडता सुत्तत्थाणं अभागिणो अगीयत्था य, तुम पि तारिसो भविस्ससि । इमे य अम्हाणं पायरिया बहुस्सुया अहो य रातो य वायणं पयच्छंति । तस्स पुण णमोक्कार, चेइअवंदण-पडिक्कमणेसु वि संदेहो । इमे य अम्हाणं पायरिया अत्थधारिणो प्रत्थपोरिसिं पयच्छति सीसपडिच्छएहि आकुला। सो पुण अगीयत्थो, एगाणिएहिं तस्स समीवे अच्छियव्वं । इमो य अम्हाणं आयरिओ रातीसर-तलवरमादिएहिं महाजणेण य पूजियो । तं पुण ण को ति जागति पूएति वा, मय-मायवच्छो विवाहेंडलो, प्रणाढितो सव्वलोयस्स । इमो य अम्हाणं आयरिश्रो महाजणणेतारो। सो य एगागी, णत्थि से को ति । इमे अम्हाणं पायरिया बाल वुड्ढ-सेह-दुब्बल-गिलाणादियाण संगहोवग्गहकुसला । सो पुण ण किं चि अणुप्रत्तेति, असंगहितो अप्पापोसप्रो । इमो य अम्हाणं पायरियो अक्खेवणिमादियाहिं कहाहि सरायपरिसाए धम्मं कहेउं समत्थो। सो पुण वायकुंठो। इमो परवादिमहणो ण कोइ उत्तरं दाउं समत्थो । सो पुण एक्कं पि प्रक्खरं णिरवेक्खं वोत्तुं असत्तो। एवं ताव अपुच्छितो विप्परिणामेति ॥२७१७।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१० ग्रह सो सेहो पुच्छेज्जा - दिट्ठमदिट्टे विदेसत्थ गिलाणे मंदधम्म अप्पसुए। णिप्फत्तिणत्थि तस्सा, तिविहं गरहं च सो कुणति ॥२७१८॥ कोति सेहो कंचि आयरियं अभिधारेतो वच्चति, तेण अंतरा को ति साहू पुच्छितोप्रमुगा मे पायरिया कहिं चि दिट्ठा, सुता वा ? सो साहू भणति किं तेहिं ? सेहो भणाति - पव्वतितुकामो हं ताण समीवे . ताहे सो दिढे वि भणाति - ण मे दिट्ठा। सुते वि भणाति - ण मे सुता। अधवा - सदेसत्थे वि भणाति विदेसं गता। अहवा - अगिलाणे वि भणाति गिलाणा । सो वच्चसे बितिजतो किं चि काहिसि ? अधवा भणाति - जो तस्स पासे पव्वयति सो अवस्सं गिलाणो भवति । अहवा - जो तस्स पासे पन्वयति सो निच्च गिलाणवेयावच्चवावडो भवति । अहवा भणति - सो मंदधम्मो, किं तुज्झ मंदघम्मता रुच्चति ? किं च ते मंदधम्मेहि सह संसग्गीए? अहवा भणति - सो अप्पसुतो, तुमं च गहणधारणा समत्यो। तस्स पासगतो समाणो कि काहिसि ? अहवा - तुमं चेव तं पढाविहिसि । अहवा भणाति - तस्स णिप्फत्ती णत्थि । जं सो पव्वावेति सो मरति, उणिक्खमति वा। , अहव -से तिविधं-मणोवाक्कायगरहणं करेति । अहवा- णाणे दंसणे चरणे । एवं विप्परिणामेति, ण तम्हा एवं वदेज्ज । दिट्टादिएसु सम्भावं चेव कहेन्ज ।।२७१८|| इमा विही जइ पुच्छिते - जति पुण तेण ण दिट्ठा, णेव सुया पुच्छितो भणति अण्णे । जदि वा गया विदेसं, सो साहति जत्थ ते विसए ॥२७१६॥ जो सेहेण पुच्छितो जति तेण पायरिया ण दिदा, णेव सुता कत्य गामे णगरे विसए वा, तो पुच्छितो भणति - अहं ण याणामि, अण्णे साहू पुच्छसु । अह जाणति जहा ते विदेसं गतो ताहे कहयति - जत्य ते विसए एवं गामणगरं पि कहयति।।२७१६॥ सेसेसु तु सब्भावं, णाऽतिक्खति मंदधम्मवज्जेसु । गृहंते सम्भावं, विप्परिणति हीणकहणे य ॥२७२०॥ सेसेसु त्ति गिलाणादिएसु पदेसु जइ वि एसो गिलाणादिभावे वट्टति तहावि गिलाणादिभावे माइक्खति मंद-धम्म वज्जे, मंद-धम्म पुण आतिक्खति । णाण-दसण-चरित्तसंपण्णो वादी धम्मकही मद्दवो Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २७१८-२७२४ ] दशम उद्देशकः विणीत संगहो गहकरी - एरिसे भावे गृहेंतम् विप्परिणामणा भवति, प्रधिकं पि श्रण्णायरिएहि तो जइ होणं कति ।।२७२०।। ग्रहवा इमा गरहा सीसोकंपिय गरहा, हत्थविलंबिय हो य हक्कारे । अच्छी कणा य दिसा, वेला णामं ण घेत्तव्वं ॥२७२१॥ पुच्छितो सीसं कंपेति, हत्थे वा धुप्मति, विलंबिए वा कुणति, भहो कटुं ति वा भणति, अहोण गज्जति वा, हा हा अहोऽकज्जं ति वा भणति, अच्छीणि वा मिल्लावेइ, प्रणिमिसणयणेण वा खणमेकं अच्छति, तामह वा हत्थेहि कण्णे ठएविति' जाए दिसाए सो, ताए दिसाए वि ण ठायव्वं । णिरण्णेहिं इमाए वेलाए तस्स अहवा भणाति नामंदि ण घेत्तव्वं ॥ २७२१ ।। ग्रहवा तुमं पव्वयसि ? - - पव्वसी मं कस्स त्ति सगासे अमुगस्स णिहिडे । पराहिकसंसी, उवहणइ परं इमेहिं तु ।। २७२२|| कोइ सेहो कंचि अभिधारेंतो वश्चति, अंतरा अण्णो प्रायरिम्रो साहू वा दिट्ठो, वंदिन पुच्छि - सेहो भणाति " आमं" ति प्रणुमयत्थे । साहुणा भणियं "कस्स सगासे ?" सेहो भणाति - " श्रमुगायरियस्स” त्ति निद्दिट्ठे । ताहे सो साधू पाणं परसमीवातो अधिकं पसंसति ।२७२२|| - J परं च इमं उवाएहिं - बहुस्सुता यऽसद्धा, अहछंदी तेहि वा वि ससग्गी । सण संसग्गी, वि तेहि एक्केक्कए दो दा ||२७२३ || अहं बहुस्सुप्रो, सो पुण बहुस्सु । २७ श्रहं सुद्धपाठी । सो प्रसुद्धसुत्तो । सो वा ग्रहाच्छंदी, ग्रहाच्छंदेहि वा संसग्गी, प्रसण्णो वा श्रसहि वा से संसग्गी । एवं पासत्यादिएसु वि दो दो दोसा वत्तव्वा ।।२७२३ ।। " तिविहगरहा संदरिसणत्थं इमं भण्णति - सीसोकंपण हत्थे, कण्णा अच्छि दिसि काइगा गरहा । वेला अहो अहंति य, नामं ति य वायिगी होति ॥ २७२४ || सीसो कंपण हत्थविलंत्रणा कण्णदूगाणं, अच्छीण णिमिल्लणं, श्रष्णदिसा मुहेहि ठायन्वं इति एसा सव्वा काइगी गरहा । इमाए वेलाए णामं ण घेतव्वं, ग्रहोकारकरणं, हाहाकारकरणं च तस्स णामं पिण तव्वमिति । एसा वातिगी गरहा भवति ॥ २७२४|| , १ गा० २७१८ ! Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..२८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-११ इमा माणसी गरहा - अह माणसिगी गरहा, मूतिजति नेत्त-वत्त-रागेहिं । धीरत्तणेण य पुणो, अभिणंदति णेव तं वयणं ॥२७२॥ असढस्स नत्थि सोही, सेहो पुण पुव्व परिणतो होइ । विप्परिणामे गुरुगा, आणाती धणंतसंसारी ॥२७२६॥ माणसी गरहा णेत्तविकारेण वक्त्रविकारेण य सूइजति - ज्ञायते इत्यर्थः । अहवा - पव्वयामि त्ति भणिते साहु त्ति वा सुठुत्ति वा किच्चमेयं भवियाणं ति एवं णो अभिणंदति, पीरत्तणेण वा तुण्हिक्को मच्छति ॥२७२६॥ अहवा तिविहा गरहा गाणे दंसण चरणे, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव । अह होति तिविह गरहा, काए वाए मणे चेव ॥२७२७।। णाणं से गरहिति - गडपढिएण वा किं तस्स नाणेण । मिच्छट्टिी वा सो वप्पव्ववो (चव्वाप्रो) सातियारदसणो । अधरित्ती सादियारचरित्ती वा । अहवा तिविहा गरहा - सुत्थे प्रत्ये उभए । सुत्ते खलियादि, अत्थं पुण परियच्छात । सुत्तं से अखलियादिगुणजुत्तं, प्रत्ये संकियादि, उभयं पि से असुद्ध, ण जाणति वा । अहवा-काइयादि इमा तिविहा गरहा - कायं से गरहति, हुंडादिसंठियं वा गरहति, 'पोच्चडगमादी मणसे गरहति, अणहत्तणादी वा वहलपण्णो वा । एवं अण्णतरे गरहप्पगारे कते तस्स संका भवति । को जाणति कि पि सो करेति, भवस्समकञकारी जेण से अववादं गेहति । अहवा- से उप्पजति जस्स णाम ण घेत्तव्वं ता एयस्स दिसाए ण ठायव्वं, एते य साहुणो मलियं ण भणंति, अवस्सं सो दुराचारो, माऽहं पि तत्थ गतो विणसिस्सं, एत्थ अण्णत्थ वा पव्वयामि त्ति २६२७॥ एयाणि य अण्णाणि य, विप्परिणामणपयाणि सेहस्स । उवहि-णियडिप्पहाणा, कुव्वंति अणुज्जुगा केई ॥२७२८॥ एताणि त्ति जाणि भणियाणि, अण्णाणि दव-खेत्त-काल-भावे य, सेहविप्परिणामणपदानि भवति । तत्थ दव्वे - मणुण माहारादियं देति । खेत्ततो - तप-वातिणि ट्ठाते मणुण्णकूले पदेसे ठवेति । कालमो - वेलाए चेव ददाति। भावतो - अणुकूलं चेव करेति, हियमहुरं वा उवदेसति, संबज्झणट्ठा एवं विप्पणाति । १ असारः मलिनं वा देशिभाषायाम् । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २७२५-२७३२] दशम उद्देशकः २९ किति उवही ? तिविहा - कम्मोवधी भावोवधी सरीरोवधी। इह तु कम्मोवधीपहाणा तीब-कर्मोदए वतमाना इत्यर्थः । परस्य व्यंजकत्वेन अधिका काक्रिया णियडी भण्णति । ऋजुमावविरहिता अणुजता ते एवं विप्परिणामणं कुर्वन्ति ॥२७२८।। एएसामण्णतरं, विस्ससणं जे करेंति सेहस्स। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥२७२६॥ एतेसि पगाराणं जो अण्णतरेण विस्सासेइ - विप्परिणामेति सेहं सो आणादि दोसे पावति, चउगुरुयं च से पच्छित्तं, तं च सेहं ण लभति, पुरिल्लाणं चेव सो पाहन्यो, साहम्मियतेणियं च दुल्लभबोधियं च कम्म बंधति । असंखडे य आयसंजविराहणा भवे । सेहविपरिणामे य मिच्छत्तं । जम्हा एते दोपा तम्हा णो विप्परिणामे ॥२७२६॥ एवं पन्वइउकामे, पवइए वि एवं चेव, इत्थीए वि एवं चेव । । बितियपदं चेवं - णाऊण य वोच्छेयं, पुवकए कालियाणुओगे य । सुत्तत्थजाणगस्सा, कप्पति विस्सासणा ताहे ॥२७३०॥ जे भिक्खू दिसं अवहरति, अवहरंतं वा सातिजति ॥सू०॥११॥ दिशेति व्यपदेशः प्रव्रजनकाले उपस्थापनाकाले वा । यो प्राचार्य उपाध्यायो वा व्यपदिश्यते सा तस्य दिशा इत्यर्थः । तस्यापहारी - तं परित्यज्य अन्यमाचार्य उयाध्यायं वा प्रतिपद्यते इत्यर्थः । संजतीए पवत्तिणी अवि या । रागेण व दोसेण व, दिसावहारं करेज जे भिक्खू । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥२७३१॥ रागेण किं चि णीयल्लगं पासित्ता रागो जातो ताहे तं दिसं गेण्हति, पुरिल्ले प्रायरिप्रोवज्झाए उड्डेति। दोसेण कोति कम्हि ति कारणे उ दुमद्धो, समगो प्रणं पायरियं संदिति । तस्स चउगुरु पच्छित्तं प्राणादिणो दोसा भवंति ॥२७३१॥ अहवा - इमेण रागेण उद्दिसति - जाति कुल रुव भासा, धण बल परिवार जस तवे लाभे । सत्त वय बुद्धि धारण, उग्गहसीले समायारी ॥२७३२।। मातिपक्सविसुद्धा इन्भजाइ, पियपक्वविसुद्धं इक्खाग्रमादियं कुलं, सुविमत्तंगोवंग अहीणपंचेंदियत्तगं रूवं, मियमधुरफुडाभिहाणा भासा, घणिम पधतिनो पवतियस्स वा तत्य धनमत्थि, उवचिय-मंस-सोणियो बलवं, विरियतरायखयोवसमेण वा बलवं, ससमय-परसमय-विसारयत्तणेण लोगे लोगुतरे य जसो, चउत्थादिणा बाहिरभंतरेण वा तवेण वा जुत्तो, आहागेवकरणलाभसंपण्णो, विद्धि-पावतीसु अ अणुम्सुप्रो प्रविक्कमा य सत्तमंतो, दुदारझवसाणो वा सत्तमंतो, तीसति-वरिसो तिदसो इव वयवं, उप्पाइयादिचउध्विहबुद्धिउववेदो बुद्धिमं, बहुं धरेति, बहुविध धरेति, अणिस्सियं घरेइ, असंदिद्धं धरेइ, धुवं धरेइ, दुद्धरं घरेइ, एवं उग्गहणे वि, खमादिसील उववेतो सीलवं, चकवालसमायारीए जुत्तो कुसलो य ॥२७३२।। १ वृद्धि। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० एवं सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे एहिं तु उववेयं, रागेण परं तु उद्दिसति कोई । जच्चाविहूणं वा, उज्झति कोई परिभवेणं || २७३३॥ एते हि उववेयं कोई रागेण ग्रण्णं प्रायरियं उद्दिसति । एतेहि चेव जच्चा दिएहि विहूणं कोति परिभवेण परिचयति दोषेण इत्यर्थः ॥ २७३३ ॥ श्रवण मेत्तीपुव्वं, पूया लद्धि परिवारतो रागे । अहिगरणमसम्माणे, सभावनि च दोसेणं || २७३४ ॥ श्रवणशब्दो विकल्प प्रदर्शने, मित्तभावो मैत्री, तत्पूर्वं तन्निमित्तं महायणपूइयं तेण वा सो पूतितो, श्राहारादिलद्धिसणां परिवार संपण्णं वा । एतेहि गुणेहिं उववेयं रागेण प्रायरियं पडिवज्जति । श्रायरिएण पुण सद्धिं श्रधिकरणे उप्पणे, आयरिएण वा असम्माणिश्रो, सभावेण वा श्रणिट्ठ श्रायरियं परिच्चयति, एस दोसेण ॥। २०३४ ।। पुरिसांतरियं परिच्चाए प्रष्णमुद्दिसणे य इमे दोसा आणा दिया य दोसा, विराहणा होति संजमायाए । दुल्लभवोहीयतं, वितियवयविराहणा चेव || २७३५ ।। तित्यराणं प्राणाभंगो, आदिसदातो प्रणवत्था, जहा एयस्स एयमसच्च तहा भ्रणणं पि । एवं मिच्छतं जणयति | बितियपयविराहणे संजमविराहणा । प्रयेण भणितो "क्रिमायरियं परिच्चयसि" त्ति, उत्तरोत्तरेण श्रधिकरणं । एत्य श्रायसंजमविराहणा । दुल्लभबोधीयत्तं च णिव्वतेति । तम्हा दिसावहारं जो करे || २७३५॥ त्रितियपदेण ग्रण्णमायरियं उद्दिसेज्जा वि - चितियपदं यरिए, ओसण्णोहाइए य कालगते । सण छवि खलु, वत्तमवत्तस्स मग्गणया ||२७३६ || जइ आयरिओ ओसणो जातो, प्रोधावितो वा कालगतो वा, एए तिष्णि दारा । एत्य श्रीमन्नो छविहो - पासत्यो, प्रसन्नो, कुसीलो, संसत्तो, ग्रहाछंदो, णितिम्रो य । तम्मि गच्छे प्रायरिम्रो जो संकप्पियो वत्तो तत्तो वा । सो वत्तावत्तो कहं गणं घरेति त्ति चउभंगेण मग्गणा कज्जति । सोलसवरिसरेण वयसा प्रवत्तो, परेण वत्तो । प्रवत्तो, मुत्तं गायत्यो वत्तो । ratorसीहो प्रगीयत्यो सुत्ते सुत्ते वि वत्तो, वएण वि वत्तो, पढमभंगो । वितिम्रो सुप्र-वत्तो, ण वएण । ततिप्रो सुए प्रवत्तो, वएण वत्तो । चउत्यो - दोहि विभवतो ।।२३३६|| वत्ते खलु गीयत्थे, अव्वत्ते वरण अहवऽगीयत्थे । वत्तित्थ सार पेसण, ग्रहाऽऽसणे सयं गमणं ॥ २७३७|| - [ सूत्र - ११ - Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २७३३-२७४१ ] दशम उद्देशक: 9 7. वएण वत्तो गीयत्थे एस पढमभंगो, खलु पादपूरणे । अव्वत्त वएण एस बितियभंगो 'पढमभंगो अहवा - अगीयत्थे एस ततियभंगो पढमभंगिल्लो। उभयवत्तो तस्स इच्छा अण्णमायरियं उद्दिसति वाण वा। सो वत्तो तमोसण्यायरियं सारेति - चोदयतीत्यर्थः । कहं ? अण्णं गीतं पेसेति । अहवा - मासणे उ सयं गंतुं चोदेति, तं पेसेति, सयं वा गच्छति ॥२७३७।। एगाह पणगपक्खे, चाउम्मासे वरिसे जत्थ वा मिलति । चोदेति चोदवेति व, अणिच्छे वट्टावते सयं तु ॥२७३८॥ . एगाहो त्ति, प्रासणे दिणे दिणे गंतुं सारेति, एगाहो वा एगतरं, पंचण्हं दिणाण वा सारेति । एवं गवखे चाउम्मासे वरिसंते य जत्य वा समोसरणादिस्. मिलति तत्थ वा सारेति । सबहा अणिच्छते तं गणं सयमेव वट्टावेति ॥२७३८॥ अण्णं च उद्दिसावे, पयावणट्ठा ण संगहढाए । जति णाम गारवेणं, मुएज्जऽणिढे सयं ठाति ॥२७३६।। सो उभयवत्तो अण्णं वा पायरियं उद्दिसति । स्यात् किमर्थ ? पतावणट्ठा, ण गच्छस्स संगहोवग्गहढता, स्वयमेव शक्तमत्वात् । मम जीवंते चेव अण्णमायरियं उद्दिसति, जति णाम एरिसेण गारवेण पोसण्णत्तणं मुएज्जति तहावि साधु, सव्वहा अणिच्छे सयमेव आयरियपदे ठायति ॥२७३६।। गतो पढममंगो। इदाणि बितियभंगो सुयवत्तो वयावत्तो, भणति गणं तेऽहं धारिउमसत्तो। सारेहि सगणमेयं, अण्णं च वयामु आयरियं ॥२७४०॥ सो सुत्तेण वत्तो वएण अव्वत्तो । सो तं पायरियं भणति – एयं ते गणं अहं अपडुप्पण्णवयत णामो य धारे उं असत्तो, एहि तुमं एयं सगणं सारेहि । अहवा - ण सारेहि तो अम्हे अण्णं पायरियं वयामो इत्यर्थः ।।२७४०।। आयरिय उवज्झायं, इच्छंते अप्पणो य असमत्थो। तिगसंवच्छरमद्धं, कुल-गण-संघे दिसाबंधो॥२७४१॥ अपडुप्पण्णवयत्तणातो गणं वट्टावे उमसमत्यो अग्णे प्रायरिमोवज्झाए उद्दिसिउमिच्छंतो पुवायरियं भणाति - अम्हे अण्णस्स पायरियस्स णो उवसंपज्जामो, सो णे उवसंपण्णाण अम्हं सचित्तादी हरति, तुम जति सगणं ण सारेसि तो अम्हे २णिसड्ड चेव अण्णं पायरियं पडिवज्जामो। कुलिच्चं कुलसमवायं दाउं कुले उवट्ठायंति, ताहे कुलेण जो दत्तो स तेसि तिण्णि वरिसाणि सचित्तादि णो हरति ॥२७४२॥ १ प्रथमद्वारे । २ निदशंकं । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2U सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-११ तिण्हं वरिसाणं परतो इमा विधी - सच्चित्ताति हरंति ण, कुलं पि णेच्छामो जं कुलं तुझं । वच्चामो अण्णगणं, संघ वा जति तुम ण हासि ॥२७४२॥ पुवायरियस्स अग्गतो भणितं - जं तुह कुलं तं कुलिच्चो अम्हं तिण्ह वरिसाणं उवरि सचित्तादि हरति, जइ तुम अम्हायरिणो ण ठासि तो अम्हे अतो वि परतो गणं संघ वा दूरतरं वयामो । ताहे गणायरियं उद्दिसावेति, गणसमवाए वा उवट्ठायति । सो वि संवच्छरं सचित्तादी ण हरति, एवं संघे उवट्ठायंति, सो वि छम्मासं सचित्तादी ण हर ति, एवं चितियपदेण दिसावहारं करेति ॥२७४२।। एवं पि अठायेंतो, तावतं अद्धपंचमे वरिसे । सयमेव धरेति गणं, अणुलोमेणं च णं सारे ।।२७४३।। एवं प्रद्धपंचमे वरिसे पुवायरियं चोदणाहि "तावे" अवतावेउं जाहे सो ण ठाइ ताहे अद्धपंचमेहि वरिसेहिं वयवत्तीभूतो सयमेव गणं धरेति, जत्थ य पासति तत्थ य पुवायरियं अणुलामेहि वयहि सारेति - चोदयतीत्यर्थः ॥२७४३।। अहव जति अस्थि थेरा, सत्ता परियट्टिऊण तं गच्छं। दुहतो वत्त सरिसो, तस्स उ गमो मुणेयव्वो ॥२७४४॥ अहवित्ययं विकल्पवाची, अप्पणः गोयत्थो, अण्णे य से थेरा गच्छपरियट्टगा अत्थि, तो अण्णं प्रायरियं ण उद्दिसति । कम्हा ण उद्दिसंति ? भण्णति - जतो से पढमभंगसरिसो चेव एस गमो भवति ॥२७४४।। गतो बितियभंगो। इदाणि ततियभंगो - वत्तवतो उ अगीओ. जति थेरा तत्थ केइ गीयत्था। तेसंतिए पढंतो, चोदिति सिं असति अण्णत्थ ।।२७४५॥ ___ जो पुण वयसा प्रान्प्रौढवयो वत्तो अगोयत्यो पुण जइ य सगच्छे थेरा गीयत्था तो सो तेहि थेराणं अंतिए समीवे पढंतो गच्छस्स चोदणातिसारणं करेति, ओसण्णायरियं च चोदेति, तेसि गीयत्थथेराणं असति गणं घेत्तुं अधेत्तुं वा अण्णायरियसमीवे उवसंपज्जति सुत्तट्ठाणं अट्ठा ।।२७४५॥ गतो ततियभंगो। इदाणि च उत्थो - जो पुण उभयावत्तो, पवट्टावग असति सो उ उद्दिसति । सव्वे वि उद्दिसंता, मोत्तूण इमे तु उदिसति ।।२७४६॥ जो सुत्तेण वएण अब्वत्तो सो गणवट्टावगस्स असति अण्णं पायरियं उद्दिसति - उवसंपज्जते इत्यर्थः एते चउभंगिल्ला सव्वे वि इमे मोत्तुं उद्दिसति ।।२७४६।। संविग्गमगीयत्थं, असंविग्गं खलु तहेव गीयत्थं । असंविग्गमगीयत्थं, उद्दिसमाणस्स चउगुरुगा ॥२७४७॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २७४२-२७५१ ] दशम उद्देशकः संविग्गं अगीयत्थं, असंविग्गं गीयत्थं, असंविग्गं प्रगोयत्यं एते पायरि-उवज्झायत्तेण उद्दिस्संतस्स चउगुरुगं भवति । तस्स य चउगुरुगादि ॥२७४७।। तस्स कालपरिमाणं इमं - सत्तरत्तं तवो होइ, तो छेदो पहावती । छेदेण छिण्णपरियाए, ततो मूलं ततो दुगं ॥२७४८॥ एते प्रजोग्गे उद्दिसिउं अण्णाउटुंतस्स सत्तदिणे चउगुरु भवति । अणे सत्तदिणे छल्लहुँ, अण्णे सत्तदिणे छग्गुरु । ततो परं अण्णे सत्तदिणे चउगुरुछेदो। एवं छल्लहु छग्गुरुगा वि छेदा सत्तदिणे नेया। ततो एक्के दिणं मूलं अणवट्टा पारंचीया भवंति । अहवा - छग्गुरुगतवोवरि छग्गुरुगो चेव छेदो सत्तदिणे, ततो मूलप्रणवट्ठपारंचिया एक्केक्कं दिणं । अहवा - छग्गुरुगतवोवरि पणगादिप्रो छेदो सत्त सत्त दिणेसु णेयो, ततो परं मूलं प्रणवट्ठपारंचिया। एवं पच्छित्तं वियाणमाणेण संविग्गो गीयत्थो उदिसियव्यो ॥२७४८।। छट्ठाणविरहियं वा, संविग्गं वा वि वयति गीयत्थं । चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥२७४६॥ छट्ठाणविरहियं संविग्गं गीयत्थं सदोस जति उद्दिसति तो चउगुरुगा पायच्छित्तं प्राणादिया य दोसा भवंति ॥२७४६।। "छट्ठाणविरहियं" अस्य व्याख्या - छट्ठाणा जा णितिओ, तविरहितकाहियादिया चउरो। ते वि य उदिसमाणा, छट्ठाणगयाण जे दोसा ॥२७५०॥ पासत्थो उस्सण्णो कुसीलो संसत्तो ग्रहाच्छंदो णितितो य-एतेहि छहि ठाणेहिं विरहितो सदोसो को भवति ? भण्णति - काहियादिया चउरो । काहीए मामाए संपसारए पासणिए । ग्रहवा - काहिए पासणिए मामाए अकयकिरिए । एते उद्दिसमाणस्स ते चेव दोसा जे छट्ठाणगते भणिया ॥२७५०॥ प्रोसण्णे त्ति गयं । इदाणि "'योहातिय-कालगते" ति दो दारा - ओहातिय-कालगते, जाहिच्छा ताहे उदिसावेति । अव्वत्ते तिविहे वी, णियमा पुण संगहटाए ॥२७५१।। जति वि पायरियो श्रोहातितो। मोहावणं च दुविध - सारूवियत्तणेण वा गीहत्थत्तणेण वा । कालगए वा प्रायरिए जो पढमिल्लेसु तिसु भंगेमु अव्वत्ता तिणि भणिया तेसिं जाहे इच्छा पायरिय उद्देसे ताहे उद्दिसावेति अण्णमायरियं पडिवज्जति ति। (जे उभयतो प्रवत्ता) ते पुण अवतत्तगाए णियमा गच्छसंगहढताए अण्ण मायरियं पडिवज्जति ॥२७५१।। एस भिक्खू भणितो । १ गा० २७३६ । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ प्रायरिय उवज्झाए इमो विधी - सभाष्य चूर्णिके निशीथसूत्रे ती विदीवितकज्जा, विसज्जिया जति य तस्स तं णत्थि । णिक्खिविय वयंति दुवे, भिक्खू किं दाणि णिक्खिवितुं ॥२७५२॥ दोहाए दोह वि, णिक्खिवणा होति उज्जमंतेसु । सीयंतेसु तु सगणो वच्चति मा ते विणासेज || २७५३ || वत्तम्मि जो गमो खलु, गणवच्छे सो गमो उ आयरिए । णिक्खमणे तम्मि वत्ता, जमुदिसे तम्मि ते पच्छा ॥। २७५४ ।। इह गणावच्छेतितो उवज्झायो । जया उवज्झायो प्रायरियो वा अण्णं प्रायरियं उद्दिसति ताहे जो उभयवत्तम्मि भिक्खुम्मि विधी, सच्चेव गणात्रच्छेए ग्रायरिए य विधी दुवो। णवरं-गणणिक्खेवं काउं वयंति । सगणे जे प्रणयरिय उवज्झाया संविग्गा गीयत्या ते तेसि गणणिक्खेवं करेंति । श्रसंविग्गा प्रगीता सु जति निक्खिवंति तो तेण णिक्खिप्पमाणा चत्ता भवति । तम्हा ग्रसंविग्गाऽगीतेसु ण णिक्खिवे । अण्णाभावे सो चेव वच्चति । जमुद्दिसति प्रायरियं तम्मि ते "तम्मि" ति तस्य ते सर्वे शिष्या भवंति - पच्छित्तण उवसंपणकाला पच्छाउव संपज्जण कालादारभ्येत्यर्थः || २७५४ ।। हात सणे, भणति प्रणाहा वयं विणा तुज्झे । कम-सीसमसागरिते, दुष्पडियरगं जतो तिण्हं ।। २७५५ ।। प्रोहाइयं प्रसणं वा आयरियं जत्थ पासति तत्थिमं भणति - तुझेहि विणा अणाहा वयं, वयमित्यात्मनिर्देशे, असागारियपदेसे तस्स श्रोष्णोह। तितायरियस्स कमेसु पादेमु सीसेण शिवडति, भगइ "एहि ! पसादेण प्रभुट्टेह, सणाहोकरेह ग्रम्हे, मा मुयमाउ य डिभयं पिव इम्रो तम्रो दुलुदुलेमो । सीसो पुच्छति तस्स गिही भूयस्स प्रचारित्तिणो किं पादेमु विडिजति ? किं चान्यत् - [ सूत्र - १२ - प्रायरियो भणति - दुष्पडियरगं जो तिह मातु पितु धम्मायरियस्स य एते परमोवकारिणो । एतेसिं दुक्खेण पच्चुवकारो काउं सक्कति ॥। २७५५ ।। जो जेण जम्मि ठाणम्मि ठावितो दंसणे व चरणे वा । सो तं ततो चुयं तम्मि चैव काउं भवे णिरिणो ।। २७५६|| जो जेण धम्मोवदेसप्पदागादिगा दसणे चरणे वा ठावितो सो तं गुरु दंसण चरणेहिंतो चुयं तेसु चेव दमण-चरणे ठाविडं णिग्गयरिणो मिरिणी भवति - कृतप्रत्युपकारेत्यर्थः ।। २७५६ ।। जया प्रायरिय उवज्झाया गणपरिवुडा प्रण्णायरियं उवसंपज्जति तदा इमो विधी - णिक्खिवणा अप्पा, परे य संतेसु तस्स ते देति । संघाडते असंते, सो वि न वावारणा पुच्छा ||२७५७|| — Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २७५२-२७६२] दशम उद्देशक: जदा तेहिं पायरिय-उवज्झाएहिं प्रालीयणप्पदाणेण अप्पा उवणिक्खित्तो भवति, तदा भगंति - इमे य मे साहू, एस परिणिक्खेवो। तेण वि पायरिएण अपणो संतेसु साहुसु ण घेत्तव्वा, तस्स चेव ते देति । मह वत्थव्वायरियस्स असती साहूग ताहे सव्वे ते घेत्तुं पडिच्छायरियस्स एग संघाडगं कप्पागं देति । सो कि अपाडिच्छायरिप्रो वत्थव्वायरियस्स प्रणापुच्छाए ते सिस्से ण वावारेति पेसणादिसु ॥२७५७॥ जे भिक्खू दिसं विप्परिणामेइ, विप्परिणामेंतं वा सातिजति ॥२०॥१२॥ इमा सुत्तस्स सुत्तेण सह संबंधगाहा - सयमेव य अवहारो, होति दिसाए ण मे गुरू सो तु। - ग्रह भणिता विप्परिणामणा उ अण्णेसिमा होति ॥२७५८॥ समिति स्वयं अतिक्रान्तसूत्रे विप्परिणामणा प्रात्मगता अभिहिता, इमा पुण वक्खमाणसुत्ते अण्णे . अण्णस्स दिसाविपरिणामणं करेति ।।२७५८।। ।। रागेण व दोसेण व, विप्परिणामं करेति जे भिक्खू । दुविहं तिविह दिसाए, सो पावति प्राणमादीणि ॥२७५६॥ दिसं विप्परिणामेति स रागेण वा दोसेण वा। रागेण तम्मि सेहे अज्झोववातो गाढं ताहे तेण रागेण विपरिणामेउं मप्पणो अंतेण कडेति । दोसेण पदुट्ठो मा तस्स सीसो भवउ त्ति विप्परिणामेति । प्रायरियोवज्झाया दुविहा दिसा साहगं । गायरियोवउझाया पवत्तिणी य तिविहा संजतीण दिसा, एया दिसा विप्परिणामेंतस्स प्राणादिया दोसा ।।२७५६।। सो पुण इमेहि विप्परिणामेति -- डहरो अकुलीणो ति य, दुम्मेहो दमग मंदबुद्धि त्ति । अवि यऽप्पलाभलद्धी, सीसो परिभवति आयरियं ॥२७६०॥ "इहरो' त्ति प्रस्य व्यास्या -- डहरो एस तव गुरू, तुमं च थेरो न जुजते जोगो। अविपक्कवुद्धि एसो, वए करेज्जा व जं किं चि ॥२७६२॥ कोनि सेही परिणयवनो तरुणायरियस्स समीवे पव्वतितुकामो चणेण भण्णति - "हहरो एस तव गुरु तुम च परिणयग्रो, स प्रायरिय-सीससंजोगो जुबति, कहं पुत्त-णतुप्र-समाणस्स सीसो भविस्ससि ? कहं वा विणयं कागि ? कि च ते सयणादिजणो भणीहिति'' ति । ग्राहना नाति -- मो डहरो अविपक्कबुद्धि, प्रविपक्कबुद्धित्तणेण य अकज्ज पि कज्ज वदति अविपक्कबुद्धित्तणानो जं कि चि दोसं करेज । एवं विप्परिणामेति । ग्रहवा - सो विप्परिणामती सन्भूतं वा किंचि दोसं वदे, असन्भूत वा किंचि दोसं वएज ॥२७६१॥ एमेव सेसेएसु वि, तं निंदतो सयं परं वा वि । संतेण असंतेण व, पसंसए तं कुलादीहिं ॥२७६२॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१३ सेसा कुलादिया पदा, तेहिं कुलादिएहिं पदेहि त गिदति । जस्स उद्वितो सो पुण सप्रो परमो वा संतेहिं वा असंतेहिं कुलादिएहि जस्स पदुट्ठो सयं परं व तं जिंदति । तस्स सेहस्स जमुद्दिसति तम्मि संतेहिं वा असंतेहिं वा सयं परायगं वा संसति । इमो कुलीणो, सो अकुलीणो। इमो मेहावी, सो दुम्मेहो। इमो ईसर-णिक्खंतो, सो दमगो। अहवा - इमो वत्थपत्तादिएहि ईसरो, सो दमगो। ईमो बुद्धिसंपण्णो, सो अबुद्धिमं । अपि चासो अल्पलाभलद्धी, इमो सलद्धिमं । इमेहि कारणेहि सिस्सो, परो वा परिभवति पायरिय। अहवा - पसंसते कुलादीहिं सेहं- तं कुलमंतो सो अकुलजो। एवं सेसपदेसु वि ॥२७६२॥ कारणे विप्परिणामणं पि करेज - णाऊण य वोच्छेयं, पुव्वकए कालियाणुजोगे य । सुत्तत्थ जाणगस्सा, कप्पति विस्सासणा ताहे ॥२७६३।। पूर्ववत् जे भिक्खू बहियावासियं आदेसं परं ति-रायायो अविफालेत्ता संवसावेति, संवसावेंतं वा सातिजति ||सू०॥१३॥ प्रागतो प्रादेसं करोतीति पाएसो, प्राघूर्णकमित्यर्थः । सो य अगच्छनासी बहियावासी भाति । तमागतं परतो तिरायातो, परतो तिण्हं दिणाणं ति, अविफालिय 'विप्फालणा" णाम वियडणा – कि निमित्त आगता? अणज्जंतो वा भदंत ? कतो आगता ? कहि वा वच्चह ? एवं अविफालेतस्स चउत्यदिणे चउगुरु भवति, प्राणादिणो य दोसा। बहियऽण्णगच्छवासी, आदेसं आगयं तु जो संतं । तिण्ह दिवसाण परतो, ण पुच्छति संवसाणादी ।।२७६४।। गतार्थाः ग्रारतो अविप्फालेतस्स दोसा - . पहमदिण बितिय-ततिए, लहु गुरु लहुगा य सुत्त तेण परं । संविग्गमणण्णितरे, व होतऽपुढे इमे दोसा ॥२७६५।। पढमदिणे अविफालेंतस्स मासलहु , बितियदिणे मासगुरु, ततियदिणे चउलहुं, "तेण पर" ति - चउत्य दिणे सुत्तणिवातो चउगुरुमित्यर्थः । संविग्गो उज्ज मंतो, मणुण्णो संभोतितो, इयरो असंभोतितो पासत्थादिगो वा । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उद्देशक: एए जति पुच्छितो संवासेइ तो इमे दोसा भवंति || २७६५ ॥ 'उवचरग हिमरे वा, छेत्रतितो तेण मेहुणड्डी वा । यादवकारी वा उत्त भावतेो वा || २७६६॥ २ भाष्यगाथा २७६३ - २७७०] कताई सो तेण वेसग्गहणेणं 'उवचरो मंडितो गच्छति, हिमरो बंदिश्रो गच्छति, छेत्रतितो संविग्गहितो भण्णति, सपक्खपरपक्खातो तेणित्तुमागतो, तेणगो वा गच्छति, मेहुणं सेवित्तुमागतो, मेहुणट्ठी वा गच्छति रण्णो वा अवकारं काउमागतो, रणो वा अवकारकारणाए गच्छति, वा विकप्पो, आयरियस्स वा उदायिमारकवत् भावतेणो सिद्धतावहरणट्ठताए केणति पउत्तो श्रागतो, या गोविंदवाचकवत्, एवमादि दोसा भवंति ॥। २७६६ ॥ पुट्ठे पुच्छितो वा इमं भणे - - उवसंपावराहे, कज्जे कारणिय जाते वा । बहिया उ गच्छवा सिस्स दीवणा एवमादीहिं ॥ २७६७॥ तुज्भं चेव उवसंपज्जणट्ठा आगतो, अवराहालोयणं वा दाहामिति श्रागतो, कुल-गण-संघकज्जेण वा, असिवादीहि वा कारणेहिं ग्रागतो, अजायणिमित्तेण वा श्रागतोऽहं । सो बहिया गच्छवासी विष्फालितो एवमादी कारणे दविजा, आयरिओ वि विष्फालणा एवमाइकारणे सुहं जाणति । कारणे तिण्ह दिणाणं परतो न विष्फाले, लोणं वा न पडिच्छे । २७६७॥ कज्जे भत्तपरिण्णा, गिलाण राया य धम्मकही वादी । छम्मासादुक्कोसा, तेसिं तु वइक्कमे गुरुगा || २७६८|| कुल-गण-संघ कज्जेण आयरिश्रो वावडो न विष्फालेति । भत्तपरिण्णी, अणसणोवविट्ठो, तत्थ वा वाउलो, गिलाणकज्जेण वावडो, दिगं वा सव्वं धम्ममाइक्खत्ति, परवादिणा वा सद्धि वादं करेति, एवमादिकारणंहि तिह दिणाणं परतो अविफालेंतो वि सुद्धो । उक्कोसेण जाव छम्मासा, छम्मा सातिक्कम पढमदिणे अविफा तस्स चउगुरुगा ॥२७६८|| अणेण पडिच्छावे, तस्सऽसति स तं पडिच्छते रति । उत्तर- वीमंसासुं, खिष्णो व णिसिं पि ण पडिच्छे ||२७६६॥ ३७ तिराति-वक्कमे श्रणेण वि आलोयणं पडिच्छावेति । अण्णस्स वा आलोयणारिहम्सासति सयमेव राम्रो परिच्छति । श्रह राम्रो वि परवादुत्तरवोमसाए वावडो, दिवा वादकारणेण खिष्णो विमसंतो रातो वि ण परिच्छति । एवं छम्मासा पत्ता | छम्मासते वि ष्णेहिं पडिच्छावेति, एसेव भाव इत्यर्थ: ।।२७६६ ।। दोहि तिहि वा दिहिं, जति छिज्जति तो न होइ पच्छित्तं । तेण परमणुण्णवणा, कुलाइ रण्णो व दीवेंति || २७७०॥ छह मासाणं परतो जति दोहिं तिहि वा दिहि कज्जं छिजति परिसमाप्यते इत्यर्थः, तो पच्छित्तं ण भवति । अध छम्मामा परतो दोहिं तिहिं वा दिहिं कज्जं ण समप्यति तो कुल-गण- संघस्स रण्णो वा णिवेदेति तहिं जो हं वावडो भविस्सामि तेण णागमिस्सं || २७७०।। १ सेवादिव्याजादुपद्रवकारकः । २ घनादिलोभाद् वधकः । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ कारणेण विप्फालेज्जा - सभाष्य-चूर्णिके निशीथ सूत्रे वो "ण विष्फाले" त्ति, विप्फालिज्जति वा, श्रवज्भो वा गिलाणो ण पुच्छति गिलाण वावडो वा सो वा आदेसो गिलाणो ग पुच्छिज्जति, गिलाणवावडो वा आएसो ण. पुच्छिज्जति । हवा - तेण प्रपुच्छिए चैव कहियं - जहा तुज्झ सगा से अच्छिउकामो श्रागतो । बितियपदमण, अण्णगणादागयं ण विष्फाले । अप्पज्यं च गिलाणं, अच्छितुकामं च वच्चतं ॥२७७१ ॥ ग्रहवा - पुच्छिण चेव कहियं - इहाहं वसितं इमिणा कारणेण गच्छामि चेव । एवं श्रविकार्लेतो सुद्धो ॥ २७७१ ॥ जे भिक्खू साहिकरणं अविसनिय पाहुडं अकड - पायच्छित्तं परं ति-रायाओ विष्फा लिय अविष्फा लिय संभुंजति, संभुजंतं वा सातिञ्जति ॥ सू०|| १४ || जेति णि । भिक्खु पुत्रवणतो । सह अधिकरणेण साधिकरणों, कष, यभावाशुभ भावाधिकरणसहिते इत्यर्थः । विविधं विविधेहि पगारेहिं वा प्रसवियं उदसामियं किं तं पाहुडं - कलहमित्यर्थः । वि सवि अविप्रसवियं पाहुडं तम्मि पाहुडकरणे जं पच्छित्तं तं कडं जेण सो कडपच्छित्तो, मानो ना प्रतिषेधे, न तत् कृतं प्रायश्चितं प्रकृत नायश्चित्तं, जो तं संभुजण संभोएण संभुजति - एगमंडलीए संभुजति त्ति वृत्तं भवति । हवा - दाणग्गहण संभोएण भुंजति, तस्स चउगुरुगा प्राणादिणो य दोसा । इमे अधिकरणनिरुत्ता एगट्टिया य किरणमहोकरणं, हरगतीगाहणं होतरणं । अद्धितिकरणं च तहा, अहीरकरणं च अहीकरणं ॥ २७७२ ।। - भावाधिकरणं कर्मबन्धकारणमित्यर्थः । अहवा - अधिकं अतिरितं उत्सूत्रं करणं अधिकरणं, अधो अधस्तात् श्रात्मनः करणं, अधरा श्रधमा जघन्या गतिः, तामात्मानं ग्राहयतीति, प्रधो- प्रधस्तादवतारभूमिगृहनिश्रेण्यानि वा न वृतिः श्रधृतिरित्यत्यर्थः श्रस्याः करणं, प्रधीरस्य असतमंतस्य करणं अधिकरणं । हवा - प्रधीः प्रबुद्धिमान् पुरुषः, स तं करोतीत्यधिकरणं ॥ २७७२। साहिकरणो यदुविहो, सपक्ख- परपक्खतो य नायव्वो एक्क्को वि दुविहो, गच्छगतो णिग्गतो चेव || २७७३॥ १ [ सूत्र - १४ साधिकरणो साधू दुविधेन श्रधिकरणेन भवति । तं चिमं दुविधं सपक्खाधिकरणं परपक्खाधिकरणं च । सपक्खाधिकरणकारी गच्छगतो गच्छणिग्गतो वा । एवं परपक्खाधिकरणं दुविधं ॥ २७७३ ।। तं पुण अधिकरणं इमेहिं कारणेहि उप्पज्जति - - F सच्चित्तचित्त मीसो, वयोग - परिहारिओ य देसकहा । सम्ममणाउट्टंते, अहिकरणमतो समुप्पज्जे || २७७४ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २७७१-२७७६] दशम उद्देशक: "सचित्ते' त्ति अस्य व्याख्या किमणाऽऽभव्वं गिण्हसि, गहियं व न देसि मज्झ आमव्वं । सच्चित्तेतरमीसे, वितहा पडिवज्जो कलहो ॥२७७।। सेहो सेही वा एगस्स उप्पण्णो। तमण्णो गिण्हमाणो भणियो-किमणाभव्वं गिण्हसि ? पुव्वगहियं वा मगितो मज्झ आभव्वं किण देसि ? एवं सचित्ते । एवं इयरे अचित्ते मीसे य वितहं विवरीयं पडिवजतो अधिकरणं भवति ॥२७७५॥ तिण्णि दारा गता। इदाणि "२वयोगते" त्ति - विच्चामेलण सुत्ते, देसी भासापवंचणे चेव । अण्णम्मि य वत्तव्ये, हीणाहियमक्खरे चेव ॥२७७६॥ सुत्ते विच्चामेलणा - अण्णोणज्झयण सुयक्खधेसु घडमाणे पालावए विवितु जोएते - विच्चामेलणा भवति । देसी भासा-मरहट्ठविसए चोदिति, कुणियं वा भणंतो हसिज्जसि - वेयणचेट्टाहिं एव कुणं कुट्टि वा करोतीत्यर्थः । प्रणम्मि य वत्तव्वे - कुंदं चंद, होणक्खरे - भ स्कर इति वक्तव्वे भाकर इति, अधिप्रक्खरे सुवन्न सुसुवन्नं ॥२७७६॥ "3परिहारिय' त्ति अस्य व्याख्या - परिहारिगमठवेंते, ठविए अणहाए णिव्विसंते य । कुच्छियकुले य पविसति, चोदितऽणाउट्टणे कलहो ॥२७७७।। गुरु-गिलाण-बाल-वुड्ड-प्रादेसमादियाण जत्य पाउग्गं लभति ते परिहारियकुले, ते ण ठवेति, प्रगट्ठा वा णिविसति - प्रविशतीत्यर्थः । अहवा - परिहरणिज्जा परिहारिया, ते य कुला, ते विसंतो चोदितो अणाउदृते उटुंते वा कलहो भवे ॥२७७७॥ "४देसकहे" त्ति अस्य व्याख्या - देसकहा परिकहणे, एक्के एक्के य देसरागम्मि । मा कर देसकहं वा, अठायमाणंमि अहिगरणं ॥२७७८॥ देस-इत्थि-भत्त-रायकहा करतो चोदितो-“मा करे देसकह, ण वट्टति" त्ति। "कोऽसि तुमं? जेण मं वारेसि", अट्टायते - अधिकरणं भवे । अहवा -- एक्को सुर8 वणेति, लाटो विसपो वितियो, भगाति - "कि तुम जाणसि कूवमंडुक्को, दक्खिणावहो पहाणो" । एवं एक्केकक देस रागेण उत्तरा उत्तरेण प्रधिकरणं भवति । एवमादिसु कज्जेसु चोदिज्जते सम्मणाउद्भृते अधिकरणं समुप्पज्जे ।।२७७८ः एवं उप्पण्णे अधिकरणे - जो जस्स उ उवसमती, विज्झवणं तेण तस्स कायव्वं । जो उ उवेहं कुज्जा, आवज्जति सो इमे ठाणे ॥२७७६।। १ गा० २७७४ । २ गा० २७७४ । ३ गा० २७७४ । '४ गा० २७७४ । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१४ जो साधू जस्स साहुस्स उवसमति सो तेण साहुणा उवसामेयन्बो विज्झवेयव्यो। जो पुण उवेहं करेति सो इमेहि ठाणेहिं पच्छित्तं प्रावजति । उवेहं करेति, प्रोहसणं करेति, उत्तुप्रति सहायकिच्चं वा करेति॥२७७६।। लहुओ उ उवेहाए, गुरुनो सो चेव उवहसंस्स । उत्तुयमाणे लहुया, सहायगत्ते सरिसदोसो ॥२७८०॥ उवेहं करेंतस्स मासलहुं । उवहसंतस्स सो चेव मासो गुरुप्रो। उत्-प्राबल्येन तुदति उत्तुदति प्रचोदयतीत्यर्थः । तस्स चउलहुगा । सहायगत्तं पुण करतो अधिकरणकारिणा सरिसदोसो सरिसपायच्छित्ती य भवति ॥२७८०॥ उवेहाए त्ति इमं वक्खाणं - परवत्तियाण किरिया, मोत्तु परटुं च जयसु आयडे । अवि य उवेहा वुत्ता, गुणा य दोसा य एवं तु ।।२७८१॥ अधिकरणं करेंतो दटुं तुहिकको मज्झत्थेण वा भावेण अच्छति । अण्णे वि भणंति - "परप्रत्यया परभवा क्रिया कर्मसंबंधः सो अस्माकं न भवति, उवसामंतेण परट्ठो को भवति, तम्हा तं परटुं मोतुं - "जयसु" त्ति परं जत्तं करेह झाणादि-नाणादिए प्राय? आत्मार्थे । अवि य मोहणिज्जुत्तीए वुत्तं - ‘उवेहेत्ता संजमो वुत्तो", एवं उवक्खेवेण सज्झ यादि गुणा भवंति, परट्ठवक्खेवेण सुत्तत्थपलिमयादिया दोसा भवंति ॥२७८२॥ अहवा - पायरियो अण्णो वा साधू अण्णेण साहुणा भणियो - एतेहि प्रधिकरणं करेहि कि ण उवपमेह ? ताहे भणाति - जति परो पडिसेविजा, पावियं पडिसेवणं । मझ मोणं चरेतस्स, के अट्ठ परिहायति ॥२७८२॥ एवं भणतो मासलहुं । सेसं कंठ ॥२७८२।। "'प्रोहसण-उत्तुप्रणा" एकगाहाए वक्खाणेति - एसो वि ताव दमयउ, हसति व तस्सोम्मता य ओहसणा। उत्तरदाणं मा उसराहि अह होति उत्तुयणा ॥२७८३।। दोण्हं प्रधिकरणं करेंताणं एवम्मि सौदंते पायरियो अण्णो वा भणति-एसो वि ताव एवं दमयतु । उत्तरेण वा एगं अपोहतो तं अट्टहासेहि हसति । एस प्रोहसणा। इमा उत्तुप्रणा - उत्तरदाण सिक्खावणं । अहवा भणाति - मा एयस्स प्रोसराहि मा वा एतेण जीप्पीहिसि । एवमादि उत्तुप्रणा ॥२७८३।। १ गा० २७८०। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २७८०-२७८७ ] दशम उद्देशकः इमं “२सहायत्तस्स" वक्खाणं - वायाए हत्थेहि, पाएहिं दंत-लउडमादीहिं । जो कुणति सहायत्तं, समाणदोसं तयं बिंति ।।२७८४॥ दोण्ह कलहं करेंताणं तत्थेगस्स एगो साहू सहायत्तणं करेति, वायाए कलहेति, हत्थेण वा हणति, पाएण वा पण्हि देति, दंतेहिं ता खायति, लउडेण वा हणेति । एवमादिएहिं जो सहायत्तं करेति सो तेण प्रधिकरणसाधुणा समाणदोसो ॥२७२४॥ आयरियाण उवेहाए इमे दोसा। सामण्णेण (समाणे) वा अधिकरणे अणुवसामिजतो इमं दोसदरिसणत्थं उदाहरणं - अरण्णमज्झे अगाहजलं सरं जलयोवसोहियं वणसंडमंडियं । तत्थ य बहूणि जलचरखहचर-थलचराणि य सत्ताणि अासिताणि । तत्थ य एगं महल्लं हत्थिजूहं परिवसति । अण्णता गिम्हकाले तं हत्थिजूहं पाणियं पाउं हाउत्तिण्णं मज्झण्हदेसकाले सीयलरुक्खछायासु सुहं सुहेण पासुत्तं चिट्ठति । तत्थ य अदूरे दो सरडा भंडिउमारद्धा । वणदेवयाए य ते द? सव्वेसि सभाए आघोसियं - णागा जलवासीया, सुणेह तस-थावरा । सरडा जत्थ भंडंति, अभावो परियतई ॥२७८५।। कंठा वणसंडसरे जल थल खहचर वीसमण देवयाकहणं । वारेह सरडुवेक्षण, धाडण गयणास चूरणता ॥२७८६॥ देवयाए भणियं मा एते सरडे भंडते उवेक्खह, वारेह । तेहिं जलचर-थलचरेहिं चिंतियंकिमम्हं एते सरडा भंडंता काहिंति ? तत्थ य एगो सरडो भंडतो भग्गो पेल्लितो सो धाडिज्जतोसुहसुत्तस्स हत्थिस्स बिलं ति काउं णासावुडं पविट्ठो। बितिग्रो वि पविट्ठो। ते सिरकवाले जुद्ध लग्गा। हत्थी विउलीभूतो महतीए असमाहीए वेयणट्टो य "चूरणं" ति-तं वणसंडं चूरियं, बहवे तत्थ वासिणो सत्ता घातिता। जलं च ग्राडोहतेण जलचरा घातिता। तलागपाली भेदिता । तलागं विणटुं । जलचरा सव्वे विणट्ठा । एवं साहुस्स वि उवेहं करेमाणस्स महंतो दोसो उप्पज्जति। तेण उवेक्खिता पिट्टापिट्टी करेज। पक्खापक्खिएण य रायकुलं बंग णिच्छुभण-कडगमद्दगं करेज्ज ।।२७८६॥ कि चान्यत् - ... तावो भेदो अयसो, हाणी सण-चरित्त-णाणाणं । - साहुपदोसो संसारबद्धणो साहिकरणस्स ॥२७८७॥ चतुर्थोदेशके पूर्ववत् ॥२७८७॥ १ गा० २७८० । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१४ अयं विशेष - अतिभणिय अभणिते वा, तावो भेदो य जीवचरणाणं । रूवसरिसं ण सीलं, जिम्हं मण्णे भवे अयसो ॥२७८८॥ पसत्थापसत्थो तावो भवति, सो साधू मया बहुविधेहिं असब्भदोसेहिं अब्भक्खातो पाकुट्ठो वा वा परितप्पइ । एस पसत्यो। इमो अप्पसत्थो - "किं वा मए तस्स जातिसारणं ण कतं, हा चुक्कोमि" त्ति परितप्पति । रूवाणुरूवं से सीलं णत्थि ति अयशः। ___ अहवा - लोगाववातो भवति । जिम्हमनेन कृतं - लज्जनीयमित्यर्थः, "मणे" त्ति-एवं मन्यामहे, एवमादि अयशो भवति ॥२७८८॥ अक्कुट्ठतालिते वा, पक्खापक्खिकलहेण गणभेदो। एगतर-सूयएहि य, रायादी सिट्टे गहणादी ॥२७८६।। जारजातो त्ति वयणेण अक्कुट्ठो, हस्तदंडादिना प्रहारदानं ताडनं, अण्णोण्णपक्खपरिग्गहकरणेण गणभेदो भवति । एगपक्खेण रायकुले कहिते। अहवा सूचएहिं घाडएहि कहिए - तत्थ गेण्हणादिया दोसा भवंति ॥२७८६।। "हाणी दंसण-चरित्त-णाणाण'' ति अस्य व्याख्या - चत्तकलहो वि ण पढति, अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी । जह कोहाइ विवडी, तह हाणी होति चरण वि ॥२७६०॥ कलहुत्तरकालं पि कसायदोससंतावियमणो ण पढति, साहुपदोसकरणत्तणेण प्रवच्छल्लत्तं भवति, अवच्छल्लते य दसणहाणी भवति । जहा जहा कोहादियाण वड्डी तहा तहा चरित्तहाणी भवति ।।२७६०।। जम्हा एते दोसा तम्हा उवेहा ण कायव्वा । तो कि कायव्वं ? भण्णइ - आगाढे अहिगरणे, उवसम अोकडणा उ गुरुवयणं । उवसमह कुणह झार्य, छड्डणता सागपत्तेहिं ॥२७६१॥ अधिकरणे आगाढे - कक्खडे उप्पण्णे कोहाभिभूता उवसामेयव्वा, कलहेंता य पासद्विएहिं अवकड्ढयव्वा। गुरूहि उवसमणट्ठा इमं वयणं भणियव्वं - अज्जो ! उवसमेह । अणुवसमंताण को संजमो ? को वा सज्झायो ? तम्हा उवसमेह, उवसमित्ता य सज्झायं करेह । मा दमगपुरिसा इव कणगरससंठाणियं संजमं कसाय-साग-रुक्ख-पत्तेसु णिस्सारयाए संजम छड्डेह ।।२७६१॥ ग्रहवा गुरू भणंति - जं अज्जियं समीख-ल्लएहिं तव-नियम-बंभमइएहिं । तं दाणि पेच्छ णाहिह, छड्डता साग-पत्तेहिं ॥२७६२॥ कंठा १ गा० २७८७1 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २१r:-२७६४ ] दशम उद्देशकः "पछडणया सागपत्तेहि" ति, अत्र दृष्टान्तो जहा - एगो परिवयगो दमगपुरिसं चितासोगसागरपविढे करतल-पल्हत्थमुहं अत्थोवज्जणमुपायचितणपरं पासति । पुच्छति य - किमेवं चिंतापरो ? तेण से सब्भावो कहियो - "दारिद्दाभिभूयो मि" त्ति। तेण भणियं - "इस्सरं ते करेमि, जतो भणामि ततो गच्छाहि, जं च भणामि तं सव्वं कायव्वं ।" ताहे ते संबलं घेत्तु पन्वयणिगुजं पविट्ठा । परिव्वायगेण य भणितो - एस कणगरसो सीतवातातवपरिसमं अगणंतेहिं तिसाखुहावेदणं सहतेहिं बंभचारीहिं अचित्त-कंद-मूल-पत्त-पुप्फ-फलाहारीहि समीपत्तपुडेहिं भावप्रो अरुस्समणेहि घेत्तव्यो । एस से उवचारो। तेण दमगेण सो कणगरसो उवचारेण गहितो कडुयदोद्धियं भरियं । ततो णिग्गतो तेण परिव्वायगेण भणियं-सुरुद्वेण वि तुमे एस सागपत्तेण ण छड्डियव्यो । तो सो परिवायगो गच्छंतो तं दमगपुरिसं पुणो पुणो भणति - ममं पभावेणं इस्सरो भविस्ससि । सो य पुणो पुणो भणमाणो रुट्ठो भणति - जं तुझ पभावेण इस्सरत्तणं तेण मे णकज्ज, तं कणगरसं सागपत्तेण छड्डेति । ताहे परिव्वायगेण भणियं - हाहा दुरात्मन् ! जं अज्जियं समीख-ल्लएहिं तव-नियम-बंभमइएहिं । त दाणि पेच्छ णाहिह, छड्डे ता सागपत्तेहि ।। अहवा - गुरू ते अधिकरण करे साहू भणति - जं अज्जियं चरित्तं, देसूणाए वि पुन्चकोडीए । तं पि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेणं ॥२७६३॥ "समीखल्लएहि" ति दिलुतो दव्वखल्लगा य गहिया, "तवनियमबंभमतिएहि" ति दिटुंतोवसंहारो भावखल्लगा गहिता। तेण परिव्वायगेण सो दमगपुरिसो भण्णति - तुम इदाणि परिव्वायकालातोपच्छा परितप्पमाणो जाणेहिसि - “हा दुट्ठु मे कयं जं कणगरसो सागपत्तेहिं छड्डितो" । प्रायरितो वि ते अधिकरणकरे भगाति - तुम्भे वि मा कलहेह । मा पच्छा परितप्पिहिह, जहाबहुकालोवज्जितो सजम-कणगरसो साग-रुक्ख-पत्तसंठाणिएसु कसाए सु छड्डितो गिरत्ययं अप्पा ऐत्तियं कालं पव्वज्जाए किलिट्ठो त्ति । एवं पायरियो सामण्णतो भणाति ॥२७६३॥ अह अविधीए वारेति - आयरिओ एगं ण भणे अह एग णिवारे मासियं लहुयं । 'राग-द्दोस-विमुक्को, सीयघरसमो य आयरिश्रो ॥२७६४॥ १ गा० २७६१। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१४ पायरियो जति एगं अविकरणिसाहुं अणुसासति, बितियं णाणुसासति ततो, पायरियस्स मासलहुँ। तम्हा पायरिएण रागदोसविमुक्केण भवियध्वं । दिद्रुतो - "सीयघर' - बड्डकीरयण-णिम्मियं चक्किणो सीयघरं भवति, वासासु णिवाय-पवातं, सीयकाले सोम्ह, गिम्हे सीयलं । जहा तं चक्किणो सीयघरं सव्वरिउक्खमं भवति तहा पाययपूरिसस्स वि ते सव्वरिउक्खमा भवंति । जहा तं विसेसं ण करेति तहा आयरिश्रो वि विसेसं ण करेति ॥२७६४।। विसेसं पुण करेंतस्स इमो दोसो भवति - वारेइ एस एयं, ममं ण वारेइ पक्खराएणं । बाहिरभावं गाढतरगं च मं पेक्खसी एक्कं ॥२७६शा एस प्रायरिप्रो एयं साहुं अत्तबुद्धीए वारेति । मम पुण परभावबुद्धीए ण वारेति । एवं पक्खगरागे कजमाणे सो एगो साहू बाहिरभावं गच्छति, गाढतरं वा अधिकरणं करेति । अहवा- पायरियं भणेज्ज - "तुमं मं एक्कं बाहिरं पेच्छसि" त्ति अप्पाणं उब्बद्धिउं मारेति ( तो ) आयरियस्स पारंचिय, उण्णिक्खमति वा तो मूलं ॥२७६५।। अह अधिकरणं काउं अणुवसंतो चेव अच्छति गच्छे तो इमा विधी - गच्छा अणिग्गयस्सा, अणुवसमंतस्सिमो विही होति । सज्झाय भिक्ख भत्तट्ठऽवासते चतुरहेक्केक्के ॥२७६६।। पुत्र्वद्धं कंठं । सूरोदए सज्झायकाले चोइजइ, बिइयं भिक्खोत्तरणकाले, तइयं धनटकाले, चउत्थं पदोसे प्रावस्सयवेलाए । एवं चउरो वारा एक्केकक अहे चोदिजति ॥२७६६।। गोसे पडिक्कंताणं सज्झाए अपट्ठविए अंतरे एसमादि कारणे अधिकरणं उप्पज्जे । दुप्पडिलेहियमादीसु, चोदितो सम्मं अपडिवज्जते । ण वि पट्ठवेति उक्सम, कालो ण सुद्धो छि(जि)यं वासी ॥२७६७॥ दोसदुद्धं पडिलेहणं करेंतो, आदिसद्दातो अपडिले हंतो चोदितो तम्मि अणान्टुंते अधिकरणं भवे, जति अपट्टविति सयं चेव उवसंतो लटुं । मह एक्को, दो वि वा ण उवसमंति, ताहे पायरिया पट्ठवणवेलाए इमं भणंति - इमे साहू ण पट्ठति । उवसमह प्रज्जो ! सो पच्चत्तरं देति - "अवस्सं कालो ण सुद्धो, छि(जि)यं वा साहूहि सुतं, गजियं वा साहूहि सुतं, ततो ण पट्ठवेंति", एवं धुत्ते सब्बे पट्टति, सम्झायं करेंति। अणुवसमंतस्स मामगुरु पच्छित्तं ॥२७६७।। भिवखोत्तरण-वेलाए पुणो पायरिया भणंति - णो तरती अभत्तट्ठी, ण च वेलाभुंजणे ण तिण्णं सि । ण पडिक्कमति उवसम, णिरतीचारा णु पच्चाह ॥२७६८॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य गाथा २७६५-२८०२] दशम उद्देशकः प्रजो ! साहवो भिक्खाए णो तरंति, उबसमाहि । सो पच्चुतरं देति "पूणे" ण भत्तट्ठी, ण वा भिक्खावेला, तेण णो तरंति" । एवं वुते सव्वे भिक्खाए अवतरं त । तस्स अणुवसंतस्स वितियं मासगुरु। सन्नियट्टेसु गुरू भणाति - अजो ! ण भंजति साहू, उवसमह । सो पच्चत्तरं देति "नूणं न जीरतण्हे'। एवं वुत्ते सव्वे एगततो भुजंति । तस्स ततियं मासुगुरु ।। पूणो ' गुरू पदोसे पडिक्कमणकाले भण:ति - "प्रजो ! साह न पडिक्कमंति, उवसमाहि । पच्चुत्तरमाह "नूणं निरतियारा" । इत्थ चउत्थे ठाणे अणुवसमंतस्स चउगुरु। एवं गोसकाले अधिकरणे उप्पण्णे विधी भणियो ॥२७६८।। अण्णम्मि व कालम्मि, पर्यंत हिंडंत मंडलाऽऽवासे । तिष्णि व दोण्णि व मासा, होति पडिक्कत गुरुगा उ॥२७६६॥ अण्णम्मि काले सज्झाए पढविते जति अधिकरणं उप्पण्णं पढंताण, तो तिणि चोदणाकाला, दोणि मासगुरू । भिक्खं हिंडताणं अधिकरणे - दोणि चोदणाकालो, एगं मासगुरु । भुत्ताण अधिकरणे उप्पण्णे - एगो चोदणाकालो, एत्य णत्थि मासगुरु। अणुवसंतस्स पडिक्कमते च उगुरुमेव भवति ॥२७६६।। एवं दिवसे दिवसे, चाउक्कालं तु सारणा तस्स । जति पारे ण सारेती, गुरूण गुरुगो उ ततिवारे ॥२८००॥ पुव्वद्धं कंठ। जति बारा आयरियो तं सारणट्ठाणेसु ण सारेति तति गुरुणो मासगुरुगा । भवन्ति ॥२८००॥ एवं तु अगीयत्थे, गीयत्थे सारिते गुरू सुद्धो । जति तं गुरू ण सारे. आवत्ती होइ दोण्हं पि ॥२८०१॥ एवं दिणे दिगे सारणाविधी अगोयत्थस्स । गीयत्थं पुण एगदिणं च उसु ठाणेसु सारेतो, परतो असारेतो वि सुद्धो । जति पुण तं गीयं अगीयं वा गुरू ण सारेति तस्स य अणुवसमंतस्स, एवं दोण्ह वि पावती - पच्छित्तं भवति । अण्णे भणंति -- अगीयस्स अणुवसमंतस्स वि णत्थि पच्छित्तं, अगीयं प्रचोदेंतस्स गुरुस्स पच्छित्तं । गीतं पुण जति गुरू ण नोदेति तो पावत्ती दोण्ह वि भवति ॥२८०१॥ गच्छो य दोणि मासे, पक्खे पक्खे इमं परिहवेती। भत्तटुं सज्झायं, वंदणऽलावं ततो परेणं ॥२८०२॥ एवं अणुवसमतं गच्छो दोणि मासे सारेति । इमं पुण गच्छे पक्खे पक्खे परिहवेति । अणुवसमंतस्स पक्खे गते गच्छो तेण समं भत्तटुंण करेति । बितियपक्खे गते सज्झायं तेण समाणं ण करेति । ततियपक्खे तस्स वंदणं ण करेति। चउत्थपक्खे गते ग्राला पितेण समाणं वज्जेति ॥२८०२॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [सूत्र-१४ आयरिश्रो चउमासे, संभुंजइ चउरो देति सज्झायं । वंदणऽलावं चतुरो, तेण परं मूल णिच्छुभणा ॥२८०३॥ आयरियो पुण अणुवसमंतस्स वि चउरो मासे भत्त-पाण-दाण-ग्गहण-संभोगेण संभंजति, च उण्हं उवरि भत्तं वजेति । चउरो सज्झायं देति, तो सज्झ यं वज्जेति । वंदणालावपदे दो वि चउरो मासे करेइ, ततो वरिसे पुणे संवच्छरिए पडिक्कते मूलं पच्छित्तं, गणायो य णिच्छुभति ॥२८०३।। एवं बारसमासे, दोसु तपो सेसए भवे छेदो । परिहायमाण तदिवसे, तवो मूलं पडिक्कतो ॥२८०४॥ गवं बारसमासे अणुवसमंने अच्छंते दोसु तवो आदिमेसु जाव गच्छेण वजितो सेसेसु दससु मासेसु छेदा पंचराइदियो जाब संवत्सरं पत्तो। पज्जोसवणारातिपडिक्कताणं अधिकरणे उप्पण्णे एसा विधी । दिवसमासे परिहावेत्ता ' तद्दिवस" इति पजोसवणादिवसे अधिकरणे उप्पण्णे तवो मूलं च भवति, ण छेदो । पडिक्कमणकाले वा उप्पणे मूलमेव केवलं पडिक्कमंते भवति ॥२८०४।। एसेवऽत्थो भण्णति - एवं एक्केक्कदिणं भवेत्तु ठवणा दिणे वि एमेव । चेइयवंदणसारिते, तम्मि य काले तिमासगुरू ॥२८०५।। भद्दवयसुद्धपंचमीए अणुदिए प्राइच्चे अधिकरणे उप्पण्णे संवच्छरो भवति, छट्ठीए एगदिगुणो संवच्छरो भवति, एव एक्केक्कदिणं परिहवंतेण आणेयव्वं जाव ठवणादिणो त्ति पर्युपासमादिवस इत्यर्थः । तम्मि ठवणादिणे अणुदिए प्राइच्चे अधिकरणे उप्पण्णे एवमेव चोदणा सज्झायपट्ठवण काले चोदिजति, पुणो चेइयवंदणकाले चोइजति, अणुवसमतो पुणो पडिक्क मणवेलाए, एवं तम्मि पज्जोसवणकालदिवसे तिमासगुरू भवति ।।२८०५॥ मूलं तु पडिक्कते, पडिक्कमंते व होज अहिगरणं । संवच्छरमुस्सग्गे, कयम्मि मूलं ण सेसाई ॥२८०६॥ पडिक्कते मूलं भवति । एसा ठवणदिवसविधी । अह अद्धपडिक्कताण चेव अधिकरणं भवे संवत्सरीए काउस्सगे कते मूलमेव केवलं, ण सेसा पच्छित्ता भवति ।।२८०६॥ संवच्छरं च रुटुं, आयरिओ रक्खती पयत्तेणं । जति णाम उक्समेजा, पव्वतराजी सरिसरोसो ॥२८०७॥ एवं पायरियो तं रुष्टुं संवत्सरं पयत्तेण रक्खति । किमर्थ ? उच्यते – जति नाम उवसमेज्ज । प्रह नो उवसमति संवच्छरेण वि तो सो पव्वतराईसरिसरोसो भवति ।।२८०७॥ अण्णे दो आयरिया, एक्केक्कं वरिसमुवसमेंतस्स । तेण परं गिहि एसो, बितियपदं रायपव्वतिए ॥२८०८।। मूलायरियसमीवावो णिग्गयं अण्णे दो पायरिया कमेण एक्केक्कवरिसं पयत्तेण चेव विधिणा संरक्षन्ति । जेण उवसामितो तस्सेव सीसो। तेणं ति तस्मात् तृतीयवर्षात् परतः "सो" त्ति स गृही क्रियते । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २८०३-२८१३ ] दशम उद्देशक: संघस्तस्य लिंगमवहरतीत्यर्थः । बितियपदेण वा दंडियपव्वइयस्स लिगं ण हिज्जति ॥२८०८॥ एसा विही भिक्षुस्स भणिया । उवज्झायरियाण वि एसेव विही। णवरि - इमो विसेसो - एमेव गणायरिए, गच्छम्मि तवो तु तिण्णि पक्खाइ । दो पक्खा आयरिए, पुच्छा य कुमारदिलुतो ।।२८०६। इह गणाचार्यग्रहणादुपाध्यायः परिगृह्यते, तस्स अणुवसमंतस्स गच्छे वसंतस्स तिण्णि पक्वा तवं भवति, परतो छेदो। पायरियस्स अणुवसमंतस्स दो पक्खतवो भवति, परतो छेदो। सीसो पुच्छति - "कि सरिसावराहे विसमं पच्छित्तं देह ? तम्हा रागदोसी भवंतो" । एत्थ पायरियो कुमार-दिटुंत देति ॥२८०६।। जे ते उवज्झायस्स तिण्णि पक्खा ते दिवसीकता । यणयालदिणे गणिणो, चउहा काउं सपाय एक्कारा । भत्तट्टणसज्झाए, वंदणऽलावे य हाति ॥२८१०॥ चउभागेण कता सपाता एक्कारसदिवसा भवंति । तत्थ गच्छो उवज्झाएणं समं वसधीए एक्कारसदिणं भत्तटुं करेति एवं सज्झायवंदणालावे वि, परतो पणयालदिणाण दसगो छेदो ॥२८१०॥ आयरियस्स दो पक्खा दिवसीकता। तीसदिणे आयरिए, अट्ठदिणा उ हावणा तत्थ । परतो गच्छेण चउपदेहिं तु, णिज्जूढे लग्गती छेदो ॥२८११॥ ते चउभाएण विभत्ता अट्ठमादिणा भवंति, तत्य गच्छो आयरिएण सह अट्ठमे दिणे भत्तं करेति, एवं सज्झाए वंदणालावे य, गच्छेण णिसेहो चउहिं भत्तट्ठाणादिएहिं पदेहिं । पण्णरसराइंदिए छेदे लग्गति ॥२८११॥ भिवखू उवज्झायायरियाणं अण्णगणसंकंताणं सामण्णं भण्णति - संकमतो अण्णगणं, सगणेण य वजितो चउपदेहिं । आयरिश्रो पुण वरिसं, वंदणऽऽलावेहिं सारेति ॥२८१२॥ सगच्छेणं जदा भत्तढाणादिएहि पदेहि वज्जितो तदा अण्णगणं संकेतो । तं अण्णगणायरियो वंदणाऽऽलावपदेहि भुंजतो सारंतो य वरिसं रक्खंति ॥२८१२।। सज्झायमातिएहिं, दिणे दिणे सारणा परगणे वी । नवरं पुण णाणत्तं, तवो गुरुस्सेतरो छेदो ॥२८१३।। परगणे वि संकेतस्स सज्झायमादिएहि चउहि ठाणेहि सारणा कज्जति । णवरं - परगणसंकमणे इमो विसेसो - गुरुस्स असारंतस्स तवो इयरो त्ति साधू, तस्स अण्णगणे अणुवसमंतस्स पढमदिणे चेव छेदो भवति ॥२८१३॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य - चूर्णिके निशीथ सूत्रे ""पुच्छा य कुमारदिट्ठतो" त्ति प्रस्य व्याख्या सरिसाव राहदंडो, जुगरण्णो भोगहरण बंधादी । मज्झिमे बंधवहादी, अव्वत्ते कण्णादि खिसा य ॥ २८१४॥ यति भणाति - सरिसे वि वराहे विसरिसं दंड दलयंता जहा य णो रागदोसिल्ला भवामो तहा कुमारेहिं दिट्ठतो कजति - - - एगस्स रण्णो तिणि पुत्ता - जेट्ठो मज्झिलो कणिट्ठो । तेहिं य तिहिं विश्रामंतियं - "पियरं मारिता र तिहा विभयामो" । तं च रण्णा णायं । तत्थ जेट्ठो जुवराया, एस पहाणवत्थु त्ति काउं किमेरिस प्रभवसति त्ति तस्स भोगहरणबंध-ताडण - खिंसणा य सव्वे पगारा कता । मज्झिम वहडो एयऽप्पहाणी त्ति काउं न तस्स भोगहरणं कतं, बंध-वह- खिसणादिया कता । श्रव्वत्तो कणिट्ठी एतेहिं वियारियो त्तिकाउं कण्णचवेडयं दंडो खिसादंडो कतो, ण भोगहरण - बंधणदंडा कता । जहा लोगो तहा लोगुत्तरे वि वत्थुसरिसो दंडो कज्जति ॥ २८१४|| पाणपुरिसे प्रकिरियासु वट्टते इमे प्रपञ्चयमादी वहुतरगा दोसा भवंति अप्पच्चय वीसत्थत्तणं च लोगगरहा य दुरभिगमो । आणाय परिभवो णेव भयं तो तिहा दंडो ॥ २८१५|| [ सूत्र - १४ - ? एते चैव प्राथरिया भवंति, श्रकसायं चारितं भवति, एवं सच्चुवदेसेसु प्रपच्चयो भवति । स साहवो वि कसायकरणादिसु वीसत्था भवंति । लोगा गरहंति - एमेव कलीमूलो ति । रोसणो य गुरू सीसपाडिच्छपाणं दुरहिगमो भवति, रोसणहस य प्रागं परिहावेति सिस्सा क्षेत्र से सीसा बीहति । तो वत्युविसेसकारणतो तिहा दंडो कतो ।। २८१५।। गच्छम्मिय पट्ठविते, जेण पदे णिग्गता ततो बितियं । भिक्खु गणायरियाणं, मूलं प्रणव पारंची ॥२८१६|| जति तवे पट्ठविते णिग्गच्छति तो मूलं पावति एवं भिक्खुस्स । गणावच्छेतियस्स य प्रणवट्टे ठायति । प्रायरियस्स चरिमे । P - ग्रहवा पट्ठवियं प्रारब्धं, जेण पदेण प्रारब्धेण गच्छातो णिग्गता ततो जं पदं बितियं तं गणे गयस्स पारब्भति । णिदरिसणं-जति गच्छातो भत्तदुपदेण णिग्गतो तो प्रणगणं गयस्स गणो तेण समाणं ण मुंजति, सज्झायं पुण करेति । एवं जति सज्झायपदेण णिग्गतो वंदणं करेति । वंदणे णिग्गयस्स झालाव करेति । भालावपण णिग्गयस्स परगच्छो चउहि वि पदेहिं वज्जेति । एवं भिक्खुस्स गणी उवज्झाम्रो, प्रायरियस, एतेसिं चेव मूल-प्रणव- पारंचिया प्रतो पच्छिता सगणातो अणिगताण णिग्गयाण य ।। २८१६ ।। एवं सामण्णेण भणियं । १ गा० २८०६ 1 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ६६३-७०८] प्रथम उद्देशकः ___ प्रतज्जाद डडग बिडंडए था, लट्ठि विलट्ठी य तिविध तिविधा तु । वेलुमय-वेत्त-दारुग, बहु-अप्प-अहाकडा चेव ॥६६॥ एगेण तिविहसद्देण वेलुमयादी; बितियेण तिविहसदृण बहुपरिकम्मादि ॥६६॥ तिण्णि उ हत्थे डंडो, दोण्णि उ हत्थे विदंडओ होति । लट्ठी आतपमाणा, विलहि चतुरंगुलेणूणा ॥७००॥ कंठा ।।७००। अद्धगुला परेणं, छिज्जंता होंति सपरिकम्मा उ । अद्धगुलमेगं तू , छिज्जंता अप्पपरिकम्मा ॥७०१॥ पूर्ववत् ।।७०१॥ जे पुत्ववडिढता वा, जमिता संठवित तच्छिता वा वि । होति तु पमाणजुत्ता, ते णायव्वा अहाकडगा ॥७०२॥ पर्ववत् ॥७०२॥ किं पुण लट्ठीए पनोअणं ? इमं - दुपद-चतुप्पद-बहुपद, णिवारणट्ठाय रक्खणाहे । श्रद्धाण-मरणभय-वुड्ढवासवटुंभणा कप्पे ॥७०३।। "दुपया" मणुस्सादि,"चउप्पदा' गाविमादि, बहुपया गंडयगोम्हिमादि। अद्धाणे पलंबमादि वुज्झति, भतो वा वुज्झति, बोहिगादिभये वा पहरणं भवति. वुड्ढस्स वा अवटुंभणहे लट्ठी कप्पति घेत्तु ।।७०३।। पढमबितियाण करणं, सुहुममवी जो तु कारए भिक्खू । गिहि अण्णतिथिएण व, सो पावति प्राणमादीणि ॥७०४॥ घट्टितसंठविते वा, पुट्विं जमिताए होति गहणं तू। असती पुव्वकयाए. कंप्पति ताहे सयं करणं ॥७०५ परिषट्टणं तु णिहणं मूलग्गा-पव्वमादिसंठवणं । उज्जूकरणं जमणं, दंडगमादीण सव्वेसिं.॥७०६॥ वितियपदमणिउणे वा, णिउणे वा केणती भवे असहू । वाघातो व सहुस्सा, परकरणं कप्पती ताहे ॥७०७॥ पच्छाकड साभिग्गह, णिरभिग्गह भद्दए य असण्णी । गिहि अण्णतित्थिएण व गिहि पुव्वं एतरे पच्छा ॥७०८॥ १ गा० ६८८ भावसाम्यम् । २ गा० ६६४ भावसाम्यम Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे उडुबद्ध रहरणं, वासावासासु पादलेहणिया । वडउ बरे पिलक्खू, तेसि अलंभम्मि बिलिया || ७०६ || उदुबद्धे रयहरणेण पादप्पमज्जणं कज्जति, वासासु पायलेहणियाए कदमो श्रवणिज्जति ; सा भवति वडमती उंबरमती · पिप्पलो "पिलक्खु" "तं मई । एतेसि प्रलंभे श्रंबिलियमती ॥७०६ ॥ बारसगुलदीहा, अंगुलमेगं तु होति विच्छिण्णा । घणमसिणणिव्वणा वि य, पुरिसे पुरिसे य पत्तेयं ॥ ७१०|| “घणा" अज्भुसिरा, "मसिणा " लव्हा, " णिव्वणा” खयवज्जिया, पुरिसे पुरिसे य एक्केक्क । भवति ॥७१०॥ एक्क्का सा तिविधा, बहुपरिकम्मा य अप्पपरिकम्मा | रिकम्मा य तथा जलभावित एतरा चेव ॥७११॥ 1 ताओ चैव गाहाम्रो सुत्तत्थं । जलमज्भ उसिते कट्ठे जा कज्जति सा जलभाविता । इतरा प्रभाविता ।।७११॥ श्रद्धगुला परेणं, छिज्जंती होति सपरिकम्मा तु । श्रद्धगुलमेगं तू, छिज्ज़ती अप्पपरिकम्मा || ७१२ || जा पुत्रवद्दिता वा, जमिता संठवित तच्छिता वा वि । लब्भति पमाणजुत्ता, सा णातव्या अधाकडया || ७१३ || पढमवितियाण करणं, सुहुममवी जो तु कारए भिक्खू । गिहि अण्णतित्थिएण व, सो पावति प्राणमादीणि ७१४ || घट्टितसंठविताए, पुब्विं जमिताए होति गहणं तु । असती पुव्वकडाए, कप्पति ताहे सयं करणं ॥ ७१५ ॥ त्रितियपदमणिउणे वा, णिउणेवा केणती भवे असहू | वाघातो व सहुस्सा, परकरणं कप्पती ताहे ॥ ७१६ ॥ पच्छाकड साभिग्गह, णिरभिग्गह भद्दय य असण्णी । गिहि तित्थिण व, गिहि पुव्वं एतरे पच्छा || ७१७ ॥ होति । " वेलुमयी लोहमयी दुविधा सूर्या समास चउरंगुलप्पमाणा सा सिव्वणसंघणट्ठाए ॥ ७१८|| [ सूत्र ४०-४१ १ तन्मयी । २ उच्छिते । ३ पूर्ववत् गा० ७०४ से ७०८ । त्त परिभोगे Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ७०६-७२७] प्रथम उद्देशकः लोहमती सूती साहुणा ण घेत्तव्वा परं पायरियस्स एक्का भवति, सेसाण वेलुमती सिंगमती वा गणणप्पमाणेण एक्केक्का भवति । पमाणप्पमाणेण चतुरंगुला भवति । किं कारणं घेप्पति ? इमं - तुण्णणं उक्कइयकरणं वा सिव्वणं, दुगातिखंडाण संधणं ॥ २०॥ कंठा । एक्केक्का सा तिविधा, बहुपरिकम्मा य अप्पपरिकम्मा । अपरिकम्मा य तधा, णातव्या आणुपुब्बीए ॥७१६॥ अद्धंगुला परेणं, छिज्जती होति सपरिकम्मा तु । अद्धंगुलमेगं तू, छिज्जती अप्पपरिकम्मा ॥७२०॥ जा पुन्ववढिता वा, पुन्वं संठवित तच्छिता वा वि । लब्भति पमाणजुत्ता, सा णायच्या अधाकडगा ॥७२१॥ पढमबितियाणकरणं, सुहुममवी जो तु कारए भिक्खू । गिहि अण्णतिथिएण व, सो पावति प्राणमादीणि ||७२२॥ पट्टित संठविताए, पुवं जमिताइ होति गहणं तु ! असती पुवकडाए, कप्पति ताहे सयं करणं ॥७२॥ बितियपदमणिउणे वा, णिउणे वा केणती भवे असहू । । वाघातो व सहुस्सा, परकरणं कप्पती ताहे ||७२४॥ पच्छाकडसाभिग्गह, णिरभिग्गह भद्दए य असण्णी । गिहि अण्णतिस्थिएण व, गिहि पुव्वं एतरे पच्छा ॥७२॥ सव्वानो पूर्ववत् । ज भिक्खू पायस्स एक्कं तुंडियं तडई, तड्डेंतं वा सातिज्जति ॥०॥४१॥ "तुंडियं" थिग्गलं, देसी भासाए सामयिगी वा एस पडिभासा, तड्डुति लाए त्ति वुत्तं भवति । लाउयदारुयपादे, मट्टियपादे य तड्डणं दुविधं । तज्जातमतज्जाते, तज्जा एगे दुवे इतरे ।।७२६॥ लाउ प्रादि एक्केक्कं दुविधं तडणं-- तज्जातमतज्जातं । लाउस्स लाउयं तज्जातं, ससा-दारुमट्टिया दो प्रतज्जाता । एवं सेसाण वि समाणं एक्केक्कं तज्जायं, असमाणा दो प्रतज्जाया ॥७२६॥ एतेसामण्णयरं, एगतराएण जो उ तड्डेज्जा। तिण्हं एगतराए, विजंताणाटिरो दोसा ॥७२७॥ १ तापो चेव पाहामो ७०४ से ७०८ । २ लग्गइ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ४१-४३ एतेसि पादाणं एगत रेविविज्जमाणे जो प्रष्णतरं पादं भ्रष्णतरेणं तड्डति तस्स प्राणादिणो दोसा, मासगुरु च से पच्छितं ॥ ७२७॥ कारण ५२ तड्ड ज्जावि । किं पुण कारणं ? इमं - संतासंतऽसंती, अथिर - अपज्जत्तऽलब्भमाणे वा । " पडिसेहऽणेस णिज्जे, सिवादी संततो असती ||७२८|| "संतं" विज्जमाणं, 'असंतं" श्रविज्जमाणं, "असती" प्रभावो । इमा "संततो प्रसती"'अथिरं" दुब्बलं, जइ भिक्खाग्रहणं कज्जति तो भज्जति, पाडिहारियं वा श्रथिरं तं प्रथक्के उद्दालिज्जति, श्रत्थि पादं कि तु म्रप्पज्जतियं । एसा श्रप्पणिज्जे संतासती । इमा गारत्थि एसु प्रत्थि अगारत्थिएसु लाउना, तेण लब्भंति, डंडिएण वा पडिसिद्धं श्रणेसणिज्जाणि व लद्धाणि, जत्थ वा विसए प्रत्थि दोद्धिया तत्यंतरा वा प्रसिवा दिएहिं ण गम्मति ॥ ७२८|| एसा संतासती भणिया । असिवादि वक्खाणं इमं - WAA सिवे ओमोरिए, रायट्ठे भएण आगाढे । सेहे चरित्त सावत भए व असिवादियं एतं ॥ ७२६|| जत्य भूमीए पादाणि श्रत्थि तत्यंतरा वा इमे दोसा-प्रसिवं प्रोमोयरिया वा रायदुट्टं वा बोधियभयं वा । प्रगाढसद्दो पत्तेयं संबज्झति । सेहाण व तत्थ उवस्सग्गो भवति, तत्थ व सेहा पडुप्पणा ततो न गंतव्वं, चरितं पडुच्च तत्थ इत्थि दोसा, एसणादोसा वा । सावयभयं वा । प्रष्णो य परिरयेण पंथो नत्थि ।। ७२६ || एसा सव्वा संतासती भणिता । इमा नासती. भिण्णे व ज्यामिते वा, पडिणीए तेण सावयादीसु । एतेहिं कारणेहिं णायव्वाऽसंत तो असती ॥ ७३० ॥ "झामियं" दड्ढं पडिणीएण वा, हरितं तेणेण वा, आदि सद्दतो भिक्खयरेण वा हरिए । पुव्वपादं एतेहि कारणेहिं ण हू, अण्णं च से णत्थि, पाढभूमीए वि पादा णत्थि भणिफण्णउ ॥ ७३०१ संता संत सतीए, कप्पति तज्जात तड्डणं काउं । तजातम्मि असंते, इतरेण वि तड्डणं कुज्जा ॥७३१॥ प्रस्तावे । तं एसा संतासंतसतीए दुविहाए सतीए तड्डेज्जा वि पुण तडुणं तज्जा- एतर । पुवं दजाएण प्रसतीते अतज्जाएण वि ॥ ७३१ ।। जे भिक्खू पायस्स परं तिन्हं तुंडियाणं तड्डोत, तड्डतं वा सातिज्जति ||०||४२|| पर चतुर्थेन न तड्डए । श्रववाउस्सग्गियं सुतं । तिन्हं तु तड्डियाणं, परेण जे भिक्खु तड्डए पादं । सो आणा अणवत्थं, मिन्द्रत्तविराधणं पावे ॥७३२ || Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ७२८-७४० । प्रथम उद्देशक: संता संततीए, थिर- अपज्जत ऽलब्भमाणे वा पडिसेधऽणेस णिज्जे, असिवादी संततो असती ॥७३३॥ मोरिए, यदुट्टे भएण आगाढे । असि . सेहे चरित्त सावय, भए व असिवादियं एतं ॥ ७३४|| भिण्णे व कामिते वा, पडिणीए तेण सावयादीसु । एतेहिं कारणेहिं णायव्वा संततो असती ॥७३५॥ संता संत सतीए, परेण तिन्हं न तड्डए पायं । एवंविहे असंते, पण तिन्हं पि तड्डेज्जा ।।७३६. भिक्खु पायं विहीए बंधइ, बंधेतं वा सातिज्जइ ||०||४३|| तिविधम्मि विपादम्मी, दुविधो बंधो तु होति णातव्वो । विधी विधी य बंघो, अविधीबंधो इमो तत्थ ||७३७|! णवरं - "एवंविधे असते त्ति अच्छि लाउआदि तिविहं विहिबघेण बंधिज्जइ । तत्थ इमो विधि - सोत्थियबंधी दुविधो, अविकलितो तेण-बंधो चउरंसो ।' मोतु विधिबंधो, विहिबंधो मुद्दि - इ-णावा य ।।७३८ || दुविहो सोत्थियबंधो वतिकलितो, इतरो श्रविकलितो समचउरंसो कोणेसु भिण्णो । वातकलितो एगतो दुहतो वा । एगतो इमो दुहतो इमो 8 प्रतीतस्तेनबन्धः, स चायम् । एते सव्वे प्रविधिबंधा । विधिबंधो इमो प्रतीतः मुद्दिय संठितो ४, णावाबंघसंठितो ६ ।।७३८ । तो एगतरेणं, जो पादं अविधिणा तु बंधेज्जा । तिन्हं एगतराणं, सो पावति श्राणमादीणि ॥ ७३६ ॥ कंठा ॥१७३६६ सुत्ते प्रत्थावत्तितो प्रणुन्नायं । प्रायरियो अत्थतो पडिसेधयति विहिबंधी विण कप्पति, दोसा ते चैव श्राणमादीया । तं कप्पती ण कप्पति, णिरत्ययं कारणं किं तं ॥ ७४०|| विधिबंधी विण कप्पति, जतो तत्थ वि श्रायसंजमविराहणा दोस संभवो । णु सुत्ते प्रत्यावत्तिऽभिहियं तं कप्पति ? चोयग आह प्रायरियो ग्राह चोयग श्राह - गणु सुतं णिरत्ययं ? | ण कप्पति । ५३ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ४४-४६ पायरियाह - सकारणं सुत्तं । चोयग आह - किं तं ? ।।७४०।। पायरियाह - संतासंतसतीए, अथिर अपजत्तऽलब्भमाण वा । पडिसेहऽणेसणिज्जे, असिवादी संततो असती ॥७४१॥ संतासंतसतीए, कप्पति विहिणा तु बंधितुं पादं । दुब्बलदुल्लभपादे, अविधीए वि गंधणं कुज्जा ।।७४२॥ जे भिक्खू पायं एगेण बंधेण बंधइ, बंधतं वा सातिज्जइ ॥०॥४४॥ उस्सग्गेण ताव प्रबंधणं पात्रं घेत्तव्वं । एगबंधणमपि करेंतस्स ते चेव प्राणादिणो दोसा। शेष सभाष्यं पूर्ववत्। एगेणं बंधेणं, पादं खलु बंधए जे मिक्खू । विधिणा व अविधिणा वा, सो पावति प्राणमाढीणि ॥७४३।। संतासंतसतीए, परेण तिण्हं न बंधए पायं । एवं विहे असंते, परेण तिण्हं वि बंधेज्जा ॥७४४॥ अहवा - दुब्बल दुल्लभपादे, बंघेणेगेण बंधे वा ॥७४४।। शेषं पूर्ववत् । जे भिक्खू पायं परं तिहबंधाणं बंधइ, बंधतं वा सातिज्जति ॥सू०४५।' अववाउस्सग्गिय सुत्तं, दोसा ते चेव, मासगुरुं च से पच्छितं । 'तिण्हं तू बंधाणं, परेण जे भिक्ख बंधती पादं । विहिणा वा अविधिणा वा. सो पावती आणमादीणि ||७४॥ संतासंतसतीए, अथिर-अपज्जत्तऽलब्भमाणे वा । पडिसेधणेसणिज्जे, असिवादी संततो असती ॥७४६।। असिवे प्रोमोयरिए, रायढे भएण भागाढे । सेसे चरित्त सावय, भए व असिवादियं एतं ॥७४७॥ भिण्णे व ज्झामिते वा, पडिणीए तेण सावयादीसु । एतेहिं कारणेहिं, णायव्या संततो असती ॥७४८॥ संतासंतसंतीए, परेण तिण्हं न बंघियव्वं तु । एवंविधे असंते, परेण तिहं पिबंधिज्जा ॥७४६॥ १ अस्या गाथायाः परं गाथाचतुष्टयं नास्ति चूर्णी, किन्तु "सब्बगाहामो पूर्ववत्' इति लिखितमस्ति । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ७४१-७५४ ] प्रथम उद्देशक: एवं ताव दिटुं मतिरेगबंधणं, तं पुण कवतिय कालं 'मवलक्खण घरेयव्वं ? मतो सुतमाग जे मिक्खू अतिरेगं बंधणं पायं दिवड्ढाओ मामाओ परेण परेइ, धरतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४६॥ दिवढमासातो परं परतस्स प्राणादिणो दोसो, मासगुरु च से पच्छितं । ण केवलमतिरेगबंधणमलक्खणं दिवड्ढातो पर ण धरेयव्वं । एगबन्धेण वि अलक्षणं दिवढातो परं न घरेयव्वं - कंठा। अवलक्खणेगबंध, दुग-तिग-अतिरेग-बंधणं वा वि । जो पायं परियट्टइ, परं दिवड्ढाओ मासाओ ॥७५०॥ कंठा ॥७५०॥ जो एगबंधणादि धरेति तस्स इमे दोसा - सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तहा दुविहं । पावति जम्हा तेणं, अण्णं पादं वि मगेज्जा ॥७५१॥ तित्थय राणं माणाभंगो, प्रणवत्या - एगेण धारितं प्रष्णो वि घरेति, मिच्छत्तं - ण जहावातिणो, तहाकारिणो, प्रायसंजमविराहणा वक्खमाणगाहाहि ॥७५१॥ अतिरेगबंधणमलक्खणे प्रणे वि सूतिता अलक्खणा । हुंडं सबलं वाताइद्ध, दुप्पुत्तं खीलसंठितं चेव ! पउमुप्पलं च सवणं, अलक्खणं दड्ढ दुचण्णं ॥७५२॥ समचउरंसं जं न भवति तं हुंडं, कृष्णादिचित्तलागि जस्स तं सबलं, प्रणिप्फणं वाताइदं त्रोप्पडयंत्ति वुच्चति । जं ठविज्जतं उद्धं ठायति चालियं पुण पलोट्टति तं दुप्पुत्तं । जं ठविज्जतं ण ठाति तं खीलसंठितं । जस्स महो णाभी पउमागिती उप्पलागिती वा तं पउमुप्पलं। कंटकादिखयं सव्वणं । एताणि अलक्खणाणि । दड्ढदुवण्णाणि य दड्ढं अग्गिणा, पंचवण्णोववेवं दुखणं एकस्मिन्नपि न पततीत्यर्थः । अहवा - प्रवालांकुरसन्निभं सुवणं सेसा सम्ने दुव्वण्णा मणिष्टा इत्यर्थः । अहवा - भलक्खणं एगबंधणादी जं वा एयवज्ज मागमे अणिटुं ।।७५२।। इमा चरित्त-विराहणा हुंडे चरित्तभेदो, सबले चित्तविन्भमो । दुप्पुत्ते खीलसंठाणे, गणे व चरणे व णो ठाणं ॥७५३।। पउमुप्पले अकुसलं, सव्वाण वणमादिसे । अंतो बहिं च दड्ढे, मरणं तस्थ वि णिदिसे ॥७५४॥ उवकरण-विणासो णाण दंसण-चरित्त-विराहणा, सरीरस्स जं पीडा भवणं तं सव्वमकुसलं भवति । सेसं कंठं ॥७५४॥ २ प्रपलक्षणं पात्रम् । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे दुव्वणम्मिय पादम्मि, णत्थि णाणस्स श्रागमो । तम्हा एते ण धारेज्जा, मग्गणे य विधी इमो ॥७५५ ॥ लक्खणे बंधे, सुत्तत्थकरेंत मग्गणं कुज्जा | दुग-तिग-बंधे सुत्तं, तिण्हुवरि दो विवज्जेज्जा ॥७५६॥ हुंडा दिलक्खगबंधपातेण गहिएण सुत्तत्थपोरिसीग्रो करेंतो जहा भत्तपाणं गवेसेति तहा सलक्खण मभिष्णं च पातं उप्पाएति । दुग-तिग-बंधणे सुत्त पोरिसि काउं प्रत्थ- पोरिसिवेलाए मग्गति भिक्खं च हिंडतो तिरहं जं परेणं बद्धं अंतोर्वाह वा दइढं णाभिभिष्णं वा जं एतेसु सुत्तत्थपोरिसीओ वज्जेति, सूरुग्णमाम्रो बाव भिक्खं पि हिंडतो मग्गति ।।७५५-७५६।। केरिसं पादं ? केण वा कमेण ? त्तियं वा कालं मग्गियव्वं ? - चत्तारि धाकड, दो मासा होंति अप्पपरिकम्मे । तेण परं मग्गेज्जा, दिवड्डमासं सपरिकम्मं ॥ ७५७॥ चत्तारि मासा ग्रहाकडयं पायं मग्गियव्वं, जाहे तं चउहि वि ण लद्धं तदुवरि दो मासा अप्पपरि कम्मं मग्गियव्वं जाहे तं पि ण लब्भति ताहे बहुपरिकम्मं दिवढमासं मग्गेजा ।।७५७ || किं कारणं ? जात्र तं श्रद्धमासेण परिकम्मिज्जति ताव वासांकालो लग्गति । कम्हा ? तम्मि परिकम्मणा णत्थि । एवं वि मग्गमाणे, जति पातं तारिसं ण वि लभेज्जा । तं चैवणुकदेज्जा, जावऽष्णं लब्भती पादं || ७५८ ॥ जारिसं श्रागमे भणियं सलक्खणं, जति तारिसं ण लभेज्जा तं चेव प्रणुकट्ठेज्जा ।।७५८ || भणिया परिकम्मणा उस्सग्गेण प्रववातेण य । इदाणि तस्सेव पायस्स बंधणं जाणियवं । किं च तं वत्थं ? तेणिम सुत्तं जे भिक्खू वन्थस्स एगं पडिताणियं देई, देतं वा सातिज्जइ || सू० || ४७ ॥ वासयतीति वत्थं च्छाएति ति वृत्तं भवति । पडियाणिया थिग्गलयं छंदतो य एगट्ठ, तं जो तज्जातं प्रतज्जातं वा देति सो प्राणाति-विराहणं पावति, मासगुरु वसे पच्छितं । विहं वत्थं ? णिज्जुत्ती वित्थारेति - जंगिग -भंगिय-सणयं, पोतं च तहा तिरीडपत्तं च । वत्थं पंच- विकप्पं, ति - विकप्पं तं पुणेक्केक्कं ॥७५६॥ जंगिय-भंगिय दो वि वक्खाणेति - उष्णोट्टे मिलोमे, कुपवे किट्टे य कीडए चेव । जंगविधी तसी पुण, भंगविधी होति णायव्वा ॥७६०|| १ इमा गाथा - नास्ति चूर्णो । [ सूत्र- ४७ - Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ७५५-७६६ 11 प्रथम उद्देशक: ऊरणीरोमेसु तुणियं, उट्टरोमेसु उट्टियं, मियाण लोमेसु मियलोमियं, कुतकिट्टा वि रोमविसेसा चेव देसंतरे, इह अप्पसिद्धा। अण्णे भणंति - कुतवो वरक्को तो किट्टिसं एतेसिं चेव अवघाडो। कीडयं वडय पट्टोति । एते सव्वे वि जंगमसत्ताण अवयवेहितो णिप्फण्णा जंगविही । अतसमादि भंगियविही ॥७६०॥ सणमाई वागविही, पोत्तविही पोंडयं समक्खातं । पट्टो य तिरीडस्सा, तया विधी सा समक्खाया ॥७६१॥ सणमादी वागो, पोत्तं पोंडयं वमणिनिप्पन्नमिति वुत्तं भवति, पट्टो तिरीड - रुक्खस्स तया सा तया विही समक्खाया ॥ ६१।। एतेसिं जो अवकिट्टो तं किट्टिसं । पंचपरूवेऊणं, पत्तेयं गिण्हमाणसंतंम्मि । कप्पासिया य दोण्णि तु, उण्णिय एक्को तु परिभोए ॥७६२।। एसा “भद्दबाहु' सामिकता गाहा । पुव्वगाहादुगेण पंचण्ह वि सरूवं परूवितं । तं 'संतम्मि" त्ति लब्भमाणेसु "पत्तेयं" पंचसु वि "गेण्हमाणे" ति दो कप्पासिया एगो उण्णिो गेण्हियव्यो। एतेसिं परिभोगे विवच्चासो न कज्जति । वासत्ताणं मोत्तूण एगस्स उणियस्स जत्थि परिभोगो ॥७६२॥ कप्पासियस्स असती, वागयपट्टो य कोसिकारे य । असती य उण्णियस्सा, वागय-कोसेज्जपट्टे य ||७६३॥ जो कप्पासियं ण लभेज्जा ताहे कप्पासियट्ठाणे वागमयं गेण्हेज्जा । तस्सासइ पट्टमयं गिण्हइ । तस्सासति कोसियारमयं गिण्हति । एवं कप्पासित असतीते भणितं । जाहे उणियं न लब्भति ताहे उण्णियट्ठाणे वागमयं घेप्पति, तस्सासति कोसियारमयं, तस्सासति पट्टमयं ॥७६३॥ इदाणि परिभोगो - अभंतरं च बाहि, बाहिं अभिंतरे करेमाणो । परिभोगविवञ्चासे, आवज्जति मासियं लहुयं ॥७६४॥ दो पाउणमाणस्स कप्पामियमभंतरे परिभु जति, उण्णियं बाहिं परिभुजति एस विहीपरिभोगो। प्रविहीपरिभोगो पुण कप्पासियं बाहिं उणियं अंतो। एस परिभोग-विवच्चासो असामायारिणिप्फन्न च से मासलहुं ॥७६४।। एक्कं पाउरमाणे, तु खोमियं उण्णिए लहू मासो । दोण्णियपाउरमाणो, अंते खोम्मी बहिं उण्णी ॥७६॥ एवक खोमियं पाउणति । उण्णियमेगं न पाउणिज्जति । अह पाउणति मासलहुं च से पच्छित्तं । पच्छदं कंठं ।।७६५॥ __ खोमियस्स अंतो उण्णियस्स य बहिं परिभोगे इमो गुणो - छप्पइयपणगरक्खा, भूसा उजायणा य परिहरिता। सीतत्ताणं च कतं, तेण तु खोमं न बाहिरतो ॥७६६।। १ कपास। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीयसूत्रे [ सूत्र ४७-४८ कप्पासिए छप्पतिया ण भवंति इतरहा बहू भवंति । पणप्रो डॉल्लयंतो, उण्णिए पाउणिजमाणे मलीमसं, तत्थ मलीमसे उल्ली भवति, सा विहिपरिभोगेण रक्खिता भवति । बाहिं खोमिएण पाउ एण वि "भूसा" भवति, विधिपरिभोगेण सा वि परिहरिया। वत्यं मलक्खमं न कंबली, मलीमसा य कंबली दुग्गंधा, विहिपरिभोगेण सा वि "उज्झातिया" पडिहरिया । पडिगब्मा कंबली ति "सीयत्ताणं" कयं भवति । एतेहि कारणेहिं खोमं ण बाहिं पाउणिज्जति ति विकप्पं ।।७६६॥ तं पुणो वि एक्केक्क त्ति एयस्स इमं वक्खाणं - जं बहुधा छिज्जतं, पमाणवं होति संधिजंतं वा । सिव्वेतव्वं जं वा, तं वत्थं सपरिकम्मं तु ॥७६७॥ जं बहुहा छिज्जतं संधिज्जतं वा पमाणपत्तं भवति, बहुहा वा जं सिव्वियव्वं, तं वत्थं बहुपरिकम्मं ॥७६७॥ जं छेदेणेगेणं, पमाणवं होति छिज्जमाणं तु । संधण-सिव्वण-रहितं, तं वत्यं अप्पपरिकम्मं ।।७६८।। जं एगच्छेदेण पमाणवं भवति दसानो वा परिचिदियव्वा तं प्रप्पपरिकम्म, "संधणं' दोह खंडाणं सिव्वणं, उक्कुइयं तुण्णणाति ॥७६८॥ जण्णेव छिंदियच्वं, संधेयव्वं व सिव्वियव्वं च । तं होति अथाकडयं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ॥७६६॥ जं पुण छिंदण-सिव्वण - संधण-रहितं तं अहाकडं । बहुपरिकम्मादि एक्केवक जहण्णमज्झिमुक्कोसय भवति ॥७६६॥ पढमे पंचविधम्मि वि, दुविधा पडिताणिता मुणेयव्वा । तज्जातमतज्जाता, चतुरो तज्जात इतरे वा ॥७७०॥ इह पण्णवणं प्रति बहुपरिकम्मं "पढम" । तं च जंग-भंगादी पंचविघं । तत्थ कारणमासज्ज गहिते दुविधं पडियाणियं देज्जा तज्जातमतज्जायं। जंगियस्स भंगियादि चउरो प्रतज्जाता, जगिय असमाणजातितणयो, एगा तज्जाया । एवं सेसाणमवि चउरोऽतजाया इतरा एगा तज्जाता। अहवा - एक्केक्कं वत्यं वण्ण प्रो पंचविघं, तत्थ समाणवण्णा तज्जाया, चउरो प्रतज्जाता ॥७७०।। एतेसामण्णतरे, वत्थे पडियाणियं तु जो देज्जा । तज्जातमतज्जातं, सो पावति प्राणमादीणि ॥७७१॥ एतेसि गियादिवत्थाणं किण्हादिवत्थाण वा प्रणतरे, तज्जातमतज्जायं जो पडियाणियं देइ सो प्राणाति पावति ॥७७१॥ १ उज्झायणा। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ७६७-७७६] प्रथम उद्देशक: १६ तम्हा प्राणादिदोसपरिहरणत्थं प्रहाकडं घेत्तव्वं । महाकडस्स - संतासंतसतीए, अथिर-अपज्जतऽलब्भमाणे वा । पडिसेधणेसणिज्जे, असिवादी संततो असती ॥७७२॥ असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भएण आगाढे । सेहे चरित्तसावय भए व असिवादियं एतं ॥७७३।। भिन्नेव ज्झामिते वा, पडिणीए तेण सावयातीसु । एतेहिं कारणेहिं, णायव्या संततो असती ॥७७४॥ संतासंतसतीए, कप्पति पडियाणिता तु तज्जाता । असती तज्जाताए, पडिताणियमेतरं देज्जा ॥७७५॥ संतासंतसतिमातिकारणेहिं कप्पति तज्जाया पडियाणिया दाउं । असति तज्जाताए "इतरा" प्रतज्जाता वि दायव्वा ॥ १७२-७७५॥ जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं परिताणियाणि देति, दंतं वा सातिज्जति सू०॥४८॥ वत्थेणं परं तिण्हं देति, देतस्स मासगुरु पच्छित्तं । दिद्वा एगा पडियाणिया कारणे, पसंगा बहुइनो दाहिति, तेणिमं सुत्तं भण्णति ! पडियाणियाणि तिण्हं, परेण वत्थम्मि देति जे भिक्खू । पंचण्हं अण्णतरे, सो पावति प्राणमादीणि ॥७७६। कारणे जाव तिणि ताव देया. तिण्डं परतो चउत्थो ण देयो। नंगियाति पंच किण्हवण्णाति वा पंच दंतस्स प्राणादयो दोसा ॥७७६।। कारणतो पुण तिण्हं परतो वि दिजा । किं तं कारणं ? उच्यते - 'संतासंतसतीए, दुब्बल हीणे अलब्भमाणे वा । पडिसेधणेसणिज्जे, असिवादी संततो असती ॥७७७॥ असिवे प्रोमोयरिए, रायगुडे भएण आगाढे । सेहे चरित्तसावय, भए व असिवादियं एतं ॥७७८॥ भिण्णे व ज्झामिते वा, पडिणीए तेण सावयादीसु । एतेहि कारणेहि, णायव्या संततो असती ॥७७६॥ १ एतन्मध्यगतपाठो नास्ति चूो । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र ४६-५६ संतासंतसतीए, परेण तिण्हं ण ताणियन्वं तु । एवंविधे असंते, परेण तिण्हं पि ताणिज्जा ॥७८०॥ 'सव्वाप्रो गाहामो कंठा ॥७८०।। जे भिक्खू अविहीए वत्थं सिव्वइ, सिव्वंतं वा सातिजति ॥२०॥४६॥ दिट्ठा पडियाणिया, सा प्रसिब्विया ण भवति, एवं सिव्वणं दिटुं । तं पुण काए विहीए ? एतेणाभिसंबंधेणिमं सुत्तं "जे भिक्खू अविहीए सिव्वति" तस्स मासगुरु पच्छित्तं । पंचविधम्मि वि वत्थे, दुविधा खलु सिव्वणा तु णातव्या । अविधिविधीसिव्वणया, अविधी पुण तत्थिमा होति ॥७८१।। दुविहा सिव्वणा - प्रविधिसिव्वणा विधिसिव्वणा य । तत्थ अविहिसिब्वणा इमा। गग्गरंग दंडिवलित्तग-जालेगसरा-देखील-एक्का य । गोमुत्तिगा य अविधी, विहि झसंकटा विसरिगा ॥७८२।। गग्गर सिव्वणा जहा संजतीणं, डंडिसिव्वणी जहा गारत्थाणं । जालगसिव्वणी-जहा वरक्खाइसु एगसरा, जहा संजतीण पयालणीकसासिव्वणी णिन्भगे वा दिज्जति । दुक्खीला संधिज्जते उभयो खोला देति । एगखीला एगतो देति । गोमुत्तासंधिज्जते इप्रो इग्रो एक्कसि वत्थं विधइ । एसा प्रविधीविधि झसंकंटा सा पंषणे भवति, एककतो व उक्कुइते संभवति, विसरिया सरडो भण्णति ।।७८२।। एत्तो एगतरीए, अविधिविधीए तु जो उ सिव्वेज्जा । पंचण्हं एगतरं, सो पावति आणमाईणि ॥७८३॥ __ सुत्तत्थपलिमंथो, जं च पडिलेहा ण सुज्झति संजमविराहणा। कारणे पुण विधीए, पच्छा प्रविधीए व सिव्वेज जा ॥७३॥ २चउरो गाहारो - जे भिक्खू वत्थस्सेगं वा फालियगंठितं करेति, करेंतं वा सातिज्जति।सू०॥५०॥ जे भिक्खू वत्थे एगमपि फालिगंठिं देति, देंतस्स मासगुरु पच्छित्तं । 3चउरो गाहायो अत्थ वि पुव्व कमेण भणियाप्रो । पंचण्हं अण्णतरे, वत्थे जो फालिगंठियं देज्जा । सिवणगंठे कमतो, सो पावति आणमाईणि ||७८४॥ ___ तं किमत्थं देति सिव्वणं ? गंठि ति काउंमा सुठुतरं फिट्टिस्सति । जति करेति प्राणातिणो य दोसा ॥७८४॥ गहणं तु अधाकडए, तस्सऽसतीए उ अप्पपरिकम्मे । तस्सऽसइ सपरिकम्मे, गहणं तु अफालिए होति ॥७८५॥ १बहा रहचक्कादिसु, एगसरा इत्यपि । २, २३२-३३-३४-३५ । ३. २३२-३३-३४-३५ । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ७८०-७६१ ] तस्सऽसति फालितम्मि, गहणं जं एगगंठिणा बज्झे । तस्सऽसति दुगतिगं पी, तस्सऽसती तिण्हवि परेण || ७८६ | | कंठा जे भिक्खू वत्थस् परं तिन्हं फालिगठियाण करेति : करेंतं वा सातिज्जति ॥ ५१ ॥ प्रथम उद्देशकः १, २३४-३५ । जे भिक्खु वत्थस्स एवं फालियं गण्ठेड़, गण्ठतं वा सातिज्जति |०||५२|| जे भिक्खु वत्स परं तिन्हं फालियाणं गण्ठेइ, गण्ठतं वा सातिज्जति | | ० || ५३ || जे भिक्खु वत्थं विए गंठेति; गण्ठतं वा सातिज्जति ||०||५४|| जे भिक्खु तज्जारणं गवेसेड, गवेसंतं वा सातिज्जति | | ० || ५५|| भिक्खू वत्थे तिह परं देतस्स मासगुरु, श्राणादिणो दोसा । तिण्डुपरि फालियाणं, वत्थं जो फालियं पि संसिन्वे । पंचहं एगतरे, सो पावति श्रणमादीनि ||७८७|| संता संततीए, थिर अपज्जतऽलब्भमाणे वा । पडिसेऽसणिज्जे, श्रसिवादी संततो असती ॥ ७८८ ॥ सिवे प्रोमोयरिए, “ताम्रो चेव गाहाग्रो कंठाग्रो ॥ ७८८ ॥ तं पुण गहणं दुविधं तज्जातं चेत्र तह तज्जातं । एक्क्के एक्वे.क्कं, तज्जाति चतुरो अतज्जाए ॥ ७८६ ॥ जंगमादि एक्क्के समानजातीयं एक्केक्कं तज्जायं । श्रसमाणा चउरो मतज्जाता, वण्णतो १० तज्जातमतज्जातं ॥ ७८६ ।। जं जारिसयं वत्थं, वण्णेणं जारिसं व जं होति । तारिसतज्जातेणं, गहणेणं तं गतव्वं ॥ ७६० ॥ कंठा चितियपदमणप्पज्झे, गहेज्ज अधिकोवितेव अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, अमती सरिसस्स दोरस्स ॥ ७६१ ॥ खितादिचित्तो प्रणष्पवसो, सेहो वा भविकोविप्रो, जाणघो वा गोयत्थो । प्रसति सरिसदोरस्स तज्जाए। गंथेज्जा ।।७६१।। जे भिक्खू अइरेगगहियं वत्थं परं दिवड्ढाओ मासाचा घरेति; धरेतं वा सातिज्जति ||०||५६ || ६१ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र ५७-५८ व भिक्खू अतिरेगगहितं वत्थं परं दिवढमासातो घरेज्जा तस्स प्राणाई, मासगुरु' च से पच्छित्तं । अवलक्खणेगगहितं, दुग-तिग-अतिरेग-गंठिगहियं वा । जो वत्थं परियट्टइ, परं दिवडढाओ मासाओ ॥७६२॥ कंठा ॥७६२॥ जो धरेइ - सो आणा अणवत्थं. मिच्छत्तविराधणं तधा दविधं । पावति जम्हा तेणं. अण्णं वत्थं वि मग्गेज्जा ॥७६३॥ अवलक्खणस्स इमे दोसा - कंठा ।।७६३।। अवलक्खणो उ उवधी, उवहणती गाणदंसणचरित्ते । तम्हा ण धरेयव्यो, कारण विधिमगणा य इमा ॥७६४॥ कारणे पुण धरेयन्वो । इमाए विधीए सलक्खणो उवधी मग्गियव्वो ॥७६४॥ अवलक्खणेगगहिते, सुत्तत्थ करेंति मग्गणं कुज्जा। दुगतिगवंधे सुत्तं, तिण्हुवरि दो वि वज्जेज्जा ||७६५॥ दुतिगगहिते सुत्तं करेति प्रत्थं वज्जेति । चउरादिसु गहितेसु सुत्तत्ये दो वि वज्जेत्ता मगति ७६५॥ इदाणि अहाकडप्पबहुपरिकम्माणं कालो भण्णात - चत्तारि अहाकडए, दो मासा होंति अप्पपरिकम्मे । तेण पर वि मग्गेज्जा, दिवड्ढमासं सपरिकम्मं १७६६।। एवं वि मग्गमाणे, जदि वत्थं तारिसं ण वि लभेजा। नं चेवऽणुकड्डेजा, जावऽण्णं लब्भती वत्थं ॥७६७॥ पूर्ववत् ॥७६७॥ जे भिक्खू गिहधूमं अण्णउत्थिएण वा गारित्थएण वा परिसाडावेइ, परिसाडावेंतं वा सातिजति ।।सू०॥५७।। ग्राणादि, मासगुरु च से पच्छित्तं । म्हा घर-धूमं सो घेप्पति ? घरधूमोसहकजे, ददु किडिभेदकच्छुअगतादी । घरधूमम्मि णिबंधो, तज्जाति सूयणट्ठाए ॥७६८!! "दव" पसिद्ध "किडिभं' जंघासु कालाभं रसियं वहनि "कच्छू' पामा, प्रगतादिए सु वा छुम्भति । घर-धूमे सुत्तणिबंधो, तज्जाइयसूयणट्ठा कतो। तजादियमहणातो प्रष्ण वि रोगा मूतिता, तेसु जे प्रोसहा ताणि Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायगाथा ७९२-८०४ ] प्रथम उद्देशकः अण्णउत्थिएण गेण्हावेंतस्स एतदेव पच्छित्तं, प्रचित्त तज्जाइयसूयणं वा अण्णेसु वि रोगेसु किरिया कायव्वा ॥७६८॥ तं अण्णतित्थिएणं, अहवा गारथिएण साडावे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥७६६।। 1७६॥ गारत्थिअण्णउत्थिएसु इमे दोसा - हत्थेण अपावेतो, पीढादि चले जिए सकायं वा । भंडविराधण कणुए, अहि-उदुर पच्छकम्मे वा ।।८००॥ भूमीठितो हत्थेहि अपावेतो पीठाति चलं ठवेत्तु तत्थारोढुं गेण्हति, तम्मि चले पवडतो पिपीलियादिजिए विराहेज्जा, सकाए वा हत्यादि विराहेज्जा, भंडगाणि वा विराहेज्जा, अच्छीसु कणुयं पडेजा, महि उंदुरेण वा सज्जेजा, गारस्थऽण्ण उत्थिया य पच्छाकम्मं करेज । तम्हा ण तेहिं गेण्हावे ।।८००। प्रापमा चेव - पुत्रपरिसाडितस्स, गवसणा पढमताए कायव्वा । पुवपरिसाडितासति, तो पच्छा अप्पणा साडे ॥८०१॥ पुब्बपरिसा डियं ण लब्भति तो पच्छा अप्पणा साडेति जयणाए, जहा पुव्वभणिया दोसा ज भवति ।[८०१॥ कारणे पुण तेहि वि साडावेति - वितियपद होज्ज असहू, अहवा वि महू पवेस ण लभेज्जा। अधवा वि लब्भमाणे, होज्जा दोसुब्भवो कोयी ॥८०२॥ अपणा असहू, घरे वा पवेसं " लब्भति, प्रगारी वा तत्थ पविट्ठ उवसग्गेति, अण्णो वा को ति हियणट्टा दिएहिं दोसुब्भवो होजा। एवमादिकारणा प्रवेविखउं कप्पति ।।८०२॥ कप्पति ताहे गारस्थिएण अधवा वि अण्णतित्थीणं । पडिसाडण काउजे, धूमे जतणा य साहुस्स ।।८०३।। गारथिअण्ण उत्थिएण घरधूमं साडावेउं कप्पति ।।८०३॥ जे भिक्खू पूइकम्मं भुंजति, भुंजंतं वा सातिज्जति, तं सेवमाणे आवजनि मासियं पडिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं ।।सू०॥५८|| विष्णं विणटुं कुहितं पूति भणति । इह गुण समए विसुद्धं अाहाराति अविसोधिकोटीदोसजुएणं सम्मिरस पूतितं भण्णति । पूतीकम्मं दुविधं, दव्वे भावे य होति णायव्वं । दव्वम्मि छगण धम्मिच, मावश्मि य बादरं सुहुमं ।।८०४॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-चूणिके निशीथसत्रे [सूत्र-५८ पुती" कुहितं, "कम्म" मिति प्राहाकम्म, समए तस्यानिष्टत्वात्, तत् पूति, यदपि तेन संसृष्टं तदपि पूति, इह तु संसृष्टं परिगृह्यते । तं पि दुविषं - दवे भावे य। दवे धम्मियदिटुंतो, देवायणे गोट्टि णिउत्तो घम्मितो, तेण उस्सव तिहिणिमित्तं उवलेवणछगणमोहारतेण समिति वल्ल -चण - यव तिमीस पाणगपुरीसं गहितं, तव्वतिमिस्सेण छगणेण देवायणमुवलितं, गोटियागमो, घाणप्रग्घायणं, वल्लचणयदसणं, तं भव्वभवणेत्तु पुण्णमणेण लिंपणं । तत्थ छगणं अपूई सणाति पूतितं । पूतिणा संसटुं तदपि पूतिरित्यर्थः । भावप्रतियं दुविधं - बादरं सुहुमं च ॥८०४।। तत्थिमं सुहुमं - इंधणधूमे गंधे, अवयवमादी य सुहुमपूईयं । जेसिं तु एत वज्जं, सोधी पुण विज्जते तेसि ||८०५|| ' इंधणं" दारुयं, तस्स घूमो इंधणघूमो, सो प्राहाकम्मे रन्धमाणे लोगं फुसति, तेण छिक्कं सव्वं पूतीयं भवति । गंधपोग्गलेहि वा छिक्कं सव्वं पूतीतं । घूमगंधवज्जेहिं वा सुहुमावयवेहि छिक्क पूतीतं भवति । एयं सव्वं सुहुमं ।।८०५॥ सीसो पुच्छति - तं कि वज्ज, अवज्ज ? पायरियाह - जेसि तु पच्छद्धं । गतं सुहुमं । बादरपूतीयं पुण, आहारे उवधि वसधिमादीसु । आहारपूइयं पुण, चउन्विहं होति असणादी ।।८०६।। अहवाऽऽहारे पूती, दुविधंतु समासतो मुणेयध्वं । उवकरण पूति पढम, बीयं पुण होंति आहारे ।।८०७॥ बादरं तिविधं - आहार, उहि, सेजा । आहारपूतितं चउम्विहं - मसणादितं समासतो दुविचगहारे उवकरणे य । तत्थ जं तं रद्धतरस वा दिज्जतस्स उवकारं करेति तं उवकरणपूतितं ।।८०६-८०७ ।। तं च इम चुल्लुक्खलियं डोए, दब्बी छूढे य मीसियं पूति । डाए लोणे हिंगू, संकामण फोड संधूमे ।।८०८॥ पुव्वद्धे उवकरणपूतितं, पच्छद्ध पाहा र पूतितं गहितं । तं कहं पुण चुल्लुखलियाण संभवो ? संघभन्नेसु संघणिमित्तं चुल्ली कज्जति, सा ऽहाकम्मिया, तेण ग्राहाकम्मित-कद्दमेण अप्पणो पुवकताए चुल्लीए फुडगं संठवेति, एसा पूतिया चुल्ली। प्राहाकम्म-पूतियासु दोसु वि चुल्लीसु अप्पमोवक्खडेति, तत्थ | कप्पति, उवकरणपूतितं काउं, उत्तिणं कप्पति । उक्खलिया थाली, जा साधुणिमित्तं घडिया सा प्राहाकम्मिया, जा पुव्वं प्रायढे कडा पाहाकम्मियकद्दमेण फुडतिता सा पूती एमासु दोसु प्रायढे रद्धं, तत्थत्थं ण कपति, उवकरणपूतितं ति काउं छब्वगादिसु अण्णत्थ उक्किरिउ कप्पति । साहुणिमित्तं छेत्तु डोप्रदब्धी घडिया माहाकम्मिया, आयट्ठा घडिया णवा, भग्गो गंडो, साहुणिमित्तं कते गंडे पूतिता, एतेसु विसुद्धभत्तमझे छूढेसु दुवोव णव ति मिस्सतातो उवकरणपूतियं । तेसु तत्थ ठिएसु प्रोणवि देति न कप्पति । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २८७४ - २८८१] दशम उददेशकः ★ दिपुरगेण हीरमाणो भणति तडं अवलंबाहि, एस तारगो दतिगादि घेत्तुमवतरिउमुत्तारेहिसि मा विसादं गेण्हसु । रायगहियो वि भणति - एस राया जति वि दुट्टो तहा वि विष्णविज्जतो पुरिसादिएस यारं पसति, इ डंडं न करेति, एवं प्रासासिज्जतो प्रससति, दढचित्तो य भवति ॥ २८७७॥ कागो य किं कारणं कीरइ ? उच्यते - . णिरुवस्सग्गणिमित्तं, भयजणणट्टा य सेसगाणं तु । तस्सप्पणी य गुरुणो, य साहए होइ पडिवत्ती ॥ २८७८|| साहुस्स णिरुवसग्गणिमित्तं सेससाहूण य भयजणणट्टा काउस्सग्गो कीरइ । सो य दव्वप्रो वडमादिखीररुक्खे, खेतो जिणधरादिसु कालो पुव्वसूरे पसत्यादिदिणेसु य, भावतो चंदताराबलेसु, तस्सप्पणो गुरुणो य साह सुडवत्ती भवति सो य जहष्णेण मासो, उक्कोसेण छम्मासा ॥२८७८|| ६५ तमि परिहारवं पडिवज्जंते प्रायरिग्रो भणति - एयस्स साहुस्स णिरुवसम्गणिमित्तं ठामि कासगंजाव वोसिरामि । "लोगस्सुज्जोयगरं" प्रणवेहेता " णमो अरिहंताणं" ति पारेता "लोगस्सुज्जोय - गरं" कविता आयरिश्रो भणति - कप्पट्टिओ अहं ते, अणुपरिहारी य एस ते गीओ । पुव्विं कयपरिहारो, तस्सऽसयण्णो वि दढदेहो || २८७६ ॥ प्रायश्रि, प्रायरियणिउत्तो वा पियमा गीतत्थो तस्स आयरियाण पदाणुपालगो, कप्पट्ठितो भण्णति । सो भणाति श्रहं ते कप्पद्वाती । परिहारियं गच्छतं सव्वत्थ प्रणुगच्छति जो सो अणु परिहारितो. सो विणियमा गीयत्थो, सो से दिज्जति, एस ते अणुपरिहारी । सो पुण पुव्वकयपरिहारी, पुन्त्रकयपरिहारियस्स for fasaपरिहारो घितिसंघयणजुत्तो दढदेहो गीयत्थो श्रणुपरिहारितो ठविज्जति ॥ २८७६ ॥ एवं दो ठविएस इमं भण्णति - एस तवं पडिवञ्जति, ण किं चि आलवदि मा ण आलवह । song चिंतगस्सा, वाघातो भे न कायव्वो || २८८० || एस श्रायविद्धिकारम्रो परिहारतवं पडिवज्जति । एस तुब्भेण किं चि आलवति, तुब्भे वि एयं मा श्रावह । एस तु सुत्थे सरीरवट्टमाणी वा ण पुच्छति, तुब्भे वि एयं मा पुच्छह । एवं परियहणादिपदा सब्वे भाणियश्वा । एवं प्रलवणादिपदे आत्मार्थचिन्तकस्य ध्यान परिहारक्रियाव्याघातो न कर्तव्यः ॥ २८०॥ इमे ते लवणादिपदा आलावण-पडिपुच्छण-परियट्ठट्ठाण वंदणग मत्तो । पडिलेहण-संघाडग-भत्तदाण-संभुंजणे चैव ॥ २८८१ ॥ श्रालावो देवदत्तादि, पुच्छा सुत्तत्यादिएसु, पुव्वाधीतसुत्तस्स परियदृणं, कालभिक्खादियाण उट्ठाणं, राम्रो सुत्तट्ठितेहि खमणमादियं वा वंदणं, खेलका इयसण्णा संसत्तमत्तगो ण सोहेति तस्संतिओ वा ण घेप्पति. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-३० उवकरणं परोप्परं ण पडिलेहंति, संघाडगा परोप्परं ण भवंति, प्रभत्तदाणं परोप्परं ण करेंति, एगमंडलीए ण भुंजंति, यच्चान्यत् किंचित् करणीयं तं तेण साधं ण कुर्वन्तीत्यर्थः ॥२८८१॥ इमं गच्छवासीण पच्छित्तं - संघाडगाओ जाव उ, लहुगो मासो दसण्ह तु पदाणे । ___ लहुगा य भत्तदाणे, संभुंजणे होंतिऽणुग्याता ॥२८८२।। जात गछिल्लगा परिहारियं पालवसि तो ताण मासलहु, एवं जाव संघाडगपदं प्रद्रुमं सव्वेसु मासलहूं, जति गच्छिल्लया हंद भत्तं गेण्हसु तो चउलहुं, एगटुं मंजताण चउगुरु ॥२८८२।। परिहारियस्स इमं पच्छित्तं संघाडगा उ जो वा, गुरुगो मासो दसण्ह तु पदाणं । भत्तपयाणे संभुंजणे य परिहारिए गुरुगा ॥२८८३॥ परिहारियस्स अट्ठसु पएसु मासगुरु भत्तदाणसंभुंजणे घउगुरु ।।२८८६।। कप्पट्ठियस्स प्रणुपरिहारियस्स दोव्ह वि एग संभोगो, एते दो वि गच्छिल्लएहि समाणं मालावं . करेंति वदामो ति य भणंति, सेसं ण करेंति । कप्पट्टिय-परिहारियाण इमं परोप्पर-करणं कितिकम्मं च पडिच्छति, परिण पडिपुच्छगं पि से देति । सो वि य गुरुमुवचिट्ठति, उदंतमवि पुच्छितो कहति ॥२८८४॥ कप्पद्वितो परिहारियवंदणं पडिच्छति । “परिण" ति पच्चक्खाणं देति । सुतत्येसु पडिपुच्छं देति । "सो" ति परिहारिमो कप्पट्टियं उचिट्ठति, भन्भुट्ठाणादिकिरयं सुस्सूतं चे करेति, सण्णादि गच्छंतो अच्छेइ, पुच्छितो कप्पट्टितेण "उदंत" इति सरीरवट्टमाणी कहेति ॥२८८४॥ उद्वेज्ज णिसीएज्जा, भिक्खं गेण्हेज्ज भंडगं हे । कुविय-पिय-बंधवस्स व, करोति इतरो च तुसिणीओ ॥२८८।। परिहारितो तवकिलामितो जइ. दुबलयाए उठेउं ण सकेइ ताहे प्रणुपरिहारियस्स प्रगतो भणेति - उडेजामि, णिसीएज्जामि, भिक्खं हिंडेज्जामि । उढविमो जति भिक्खं हिडिऊण सक्कति ता हिंडति। मह ण सक्केति तो प्रणुपरिहारिप्रो परिहारियमायणेहिं हिडित्तु देति । जइ ण सक्केइ भंडगं पडिलेहेउ ताहे मणुपरिहारिमो से पडिलेहणियं करेइ । जई ण सक्केति सणाकाइयभूमि गंतुं । तत्य परिहारिनो भणाति - काइयसण्णाभूमि गच्छज्जामि, ताहे से अणुर रिहारिनो मत्तए पणामेति । एवं जहा पियबंधुणो कुविमो बंधू जं करणीयं तं तुसिणीयमावेण सव्वं करेति । एवं "इयरो" ति मणुपरिहारितो करेति ॥२८८५॥ सुत्तणिवाओ इत्थं, परिहारतवम्मि होइ दुविधम्मि । तं सोचा णच्चा वा, संभुंजंतस्स आषादी ॥२८८६॥ एत्य सुत्तनिवाओ - जो परिहारतवं दुविधं उग्धाय भणुग्घायं वहइ तं सोचा गया था जो संभुजति तस्स माणादिया दोसा भवंति ॥२८८६॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २८८२-२८८७.) दशम उद्देशक: बितियपदसाहुवंदण, उभो गेलण्ण थेर असती य । आलवणादी उ पदे, जयणाए समायरे भिक्खू ॥२८८७॥ साधुवंदणं ति अण्णगच्छं साधू संपद्विता । अण्णो साधू ते द? भणाति-प्रमुगसाहुस्स बंदणं करेज्जह, सो परिहारतवं पडिवण्णो जस्स परिभाइतं (तियं) हत्थे, सो प्रयाणतो वंदिउं वंदणयं कधेति, तस्स ण दोसो। "उभयो गेलण्णं" त्ति कप्पट्टियं अणुपरिहारिय परिहारिप्रो अएते जति तिणि वि गिलाणा ताहे गच्छेल्लया सव्वं जयणाए करेंति । का जयणा ? भण्णति - गच्छेल्लया परिहारिय-भायणेहिं हिंडित्ता कप्पट्टियस्स पणाति, सो प्रणपरिहारियस्स पणामेति, सो वि परिहारियस्स । प्रत्य कप्पट्टियप्रणुपरिहारिया पणामे पि ण वएंति तो सयमेव गच्छिल्लया करेंति । जति गच्छिल्लया सब्वे वि गिलाणा तो ते कप्पट्ठियादिया तिणि जयणाए सव्वं पि करेजा। परिहारिनो गच्छिल्लयभायणेसु प्राणिउं प्रणुपरिहारियस्स पणामेति, सो कप्पट्टियस्स, सो वि गच्छिल्लयाणं । "थेर असतिए" त्ति थेरा पायरिया, तेसि वेयावञ्चकरस्स असती, वेयावच्चकरवाघाए वा अण्णो य सलद्धीमो णत्यि, ताहे परिहारिभो वि करेज जयणाए, सो गुरुभायणेसु हिंडिउं अणुपरिहारियस्स पणामेति । कप्पट्टियस्स वा सो वि पायरियाणं देति । एवमादिसु कज्जेसु मालवणादीपदे जयणाए भिक्खू समाचरेदित्यर्थः ।।२८८७॥ मुत्ताणि' । इदाणिं एतेसिं चेव छण्हं सुत्ताणं दुगादिसंजोगसुत्ता वत्तव्वा । तत्थ 'दुगसंजोगे पण्णरस सुत्ता भवंति । तत्य पढमं दसमं पनरसमं च । एते तिण्णि दुगसंजोगसुत्ता सुत्तेणेव गहिया, सेसा बारस अत्यतो वत्तव्वा । उतिगसंजोगेण वीसं सुत्ता भवंति । तत्थ छट्ठ पणरसमं च दो वि सुत्ता सुत्तेणेव गहिता, सेसा ।। भद्वारस प्रत्येणेव वसव्वा । चउसंजोगेणं पण्णरस, ते प्रत्येणेव वत्तव्या। "पंचसंजोगेण छ, तेवि प्रत्येण वत्तव्वा । छक्कगसंजोगे एक्कं तं सुतेणेव भणितं । एवं एते सत्तावन्नं संजोगमुत्ता भवंति । एतेसि प्रत्यो पुषसुत्तसमो। 'दुगसंजोगेण उग्घातियं प्रणुग्घातियं वा कहं संभवति ? भण्णति - प्रावती से उग्धातिया कारणे उ दाणं अणुग्धातियं । एवं उग्घायाणुग्घायसंभवो। अहवा - तवेण अणुग्घातं कालतो उग्धातियं, एवं उवउजिऊण भावेतव्वं ॥२८८७॥ १-षड् इत्यर्थः । २-के इति विचार्यम्-१२, १३, १४,१५,१६। २३, २४, २५, २६ ॥ ३४, ३५,३६॥ ४५,४६ ५६=१५॥ ३-१२३, १२४, १२५, १२६ । १३४, १३५, १३६ । १४५, १४६ । १५६ । २३४, २३५, २३६ । '२४५, २४६ । २५६ । ३४५, ३४६ । ३५६, ४६६ - २० । ४-१२३४, १२३५, १२३६ । १२४५, १२४६ । १२५६ । १३४५, १३४६ । १४५६ । २३४५, २३४६ । २४५६ । ३४५६ । १३५६ । २३५६ = १५ । -१२३४५-१२३४६-१३४५६-२३४५६-१२३५६-१२४५६ । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-३१ जे भिक्खू उग्गयवित्तीए अणथमिय-मणसंकप्पे संथडिए निवितिगिच्छा समावनेणं अप्पाणेणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता संभुंजति, संभुंजतं वा सातिजति । अह पुण एवं जाणेजा - "अणुग्गए सूरिए, अत्थमिए वा" से जं च मुहे, जं च पाणिसि, जं च पडिग्गहे, तं विगिंचिय विसोहिय तं परिहवेमाणे नाइक्कमइ । जो तं भंजइ, भुजंतं वा सातिजति ॥सू०॥३१॥ __ "जे" ति णिसे, "भिक्खू" पुन्ववणि प्रो। उग्गतो उदितो। को सो? आदिच्चो । वत्तणं वित्तीजीवनोपायमित्यर्थः । उग्गते प्रादिच्चे वित्ती जस्स सो उग्गतवित्ती। पाठांतरेण वा उग्गतमुत्ती, उग्गताए मादिच्चमुत्तोए जस्स वित्ती सो उग्गतमुत्ती । अहवा - "मूर्तिः" शरीरं, तं जस्स प्रतिश्रयावग्रहात् उदिते आइच्चे वृत्ति-निमित्तं प्रचारं करोति सो वा उग्गयमुत्ती भण्णति । अणथमिए प्रादिच्चे जस्स मणमकप्पो भवति स भण्णांत - प्रणत्यमियमणसंकप्पो। उग्गय वित्तीगहणातो सोलसभंगीए पच्छिल्ला घट्ट भंगा गहिता। अणत्यमियसंकप्पगहणातो बितियसोलसभंगीए पच्छिल्ला चेव अट्ठ भंगा गहिता। एतेहिं सबभंगसूयणा कता । संथडिनो णाम हट्टसमत्थो, तद्दिवसं पजतभोगी वाप्रध्वानप्रतिपन्नो क्षपक ग्लानो वा न भवतीत्यर्थः । वितिगिच्छा विमर्षः मतिविप्लुता संदेह इत्यर्थः, सा णिगता वितिगिच्छा जस्स जो णिवितिगिच्छो भवति । उदिय प्रणथमिय संथडिय णिव्विति गिच्छे य असणादि मुंजतो सुद्धो। मह पुण अद्ध-भुत्तो एवं जाणति णिव्वितिगिच्छेण चित्तेण जहा - "अणुदितो अत्यमितो वा प्रादिच्चो" से जं च मुहे पक्खित्तं, जं च पाणिणा गहियं, जं च पडिग्गहे ठवियं, तं च "विगिचमाणे" त्तिपरिठविते, "विसोहेमाणे" ति णिरवयवं करेंतो, णो प्रतिषेधे, प्रतिक्कमणं लंघणं, धम्मो त्ति सुतचरणधम्मो, जिणाणं च, णो प्रतिक्कमति । जो पुण अणुदियऽयमिते ति णिन्वितिगिछेग चितेण भुजति तस्स चउगुरु पच्छित्तं । एवं संथडीए वितिगिच्छे वि सुत्तं । असंथडीए गिवितिगिच्छे वितिगिच्छे य दो सुत्ता । एवं एते चउरो सुत्ता । इदाणि णिज्जुत्तीए सुत्तसंगहगाहा - संथडममंथडे वा, णिव्वितिगिंछे तहेव वितिगिंछे। काले दव्वे भावे, पच्छित्ते मग्गणा होति ॥२८८८॥ पूर्वार्घ गतार्थम् । पम सुत्तं सथडीए णिबितिगिच्छे। तत्य-तिविधा पच्छित्तमग्गणा। कालदव्व-भावेहिं । कालपच्छित्तपरूवणत्थं भंगपरूवणा कजति । मणुदियमणसंकप्पे अणुदियगवेसी भणुदियगाही मणुदियभोती । "मणुदियमणसंकप्प"गणेण भावो चेव केवलो घेप्पति, सव्वत्थाणुपाती। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा २८८८-२८६३] दशम उदेशक: ६६ "अणुदियगवेसि" त्ति-उप्रोगादिकालतो जाव भिक्खं | गेहति । "अणुदियगाहि" त्ति प्रादिभिक्खग्गहणकालतो जाव ण मुंजति । "अणुदियभोति" त्ति प्रादिलंबणाम्रो जाव पच्छिमो लंबणो। . एतेसु चउसु पदेसु सपडिपक्खेसु भंगरयणलक्खगेण सोलस भंगा रएयवा। रइएसु जत्थ मज्झिल्लपदेसु दोसु परोपरविरोहो दीसति । मज्झिल्लेसु वा एककम्मि दोसु वा उदितो दिट्ठो अंतिल्ले य अणुदितो ते भंगा विरुज्झमाणा वजा, सेसा गज्झा। प्रणथमियमणसंकप्पे अणथमियगवेसी अणथमियगाही प्रणथमियभोती- एतेसु चउसु पदेसु सपडिपक्खा सोलस भंगा कायव्वा । एत्थ मज्झिल्लपदेसु जत्थ परोप्पर विरोहो दीसति । मझिल्लेसु वा एक्काम्म दासु वा अत्यामग्रो दिट्ठो, अंते य अणत्थमित्रो ते भंगा विरुज्झमाणा वज्जा, सेसा गज्झा ॥२८८८।। अणुदिय-उइय-प्रत्यमिय-प्रणत्यमिएसु चउसु वि. ठाणेसु अविरुज्झमाणभंगपरिणामपददरिगणत्थं । । भण्णति - अणुदियमणसंकप्पे, गवेस-गहणे य भुंजणे चेव। . . उग्गतऽणत्थमिते वा, अत्थं पत्ते य चत्तारि ॥२८८६॥ पढमो बितितो चउत्यो अट्ठमो य - एते चउरो घडंति । सेसा चउरो न घडंति । उदितमणसंकप्पे वि पढमो बितियो चउत्थो अट्ठमो य - एते चउरो घडंति । सेसा चउरो न घडंति । . अणथमियमणसंकप्पे पढमो बितिम्रो चउत्यो अट्ठमो य - एते चउरो गज्झा, सेसा चउरो वज्जा । प्रत्यंपत्ते वि - एते चउरो गज्झा । चतुरगहणं सर्वथानुपाती ॥२८८६॥ "अणुदियमणसंकप्पो” त्ति अस्य व्याख्या - .. सूरे अणुग्गयम्मि उ, अणुदित उदितो य होति संकप्पो । एमेवऽत्थमितम्मि वि, एगयरो होति संकप्पो ॥२८६०॥ प्रणु दिए सूरिए अणुदियमणसंकप्पो उदियमणसंकप्पो वा भवति । उदिते वि अणुदितो उदितो वा मणसंकप्पो भवति। एवं अत्यमिए वि अत्थमियमणसंकप्पो अणत्यमियमणसंकप्पो वा । अणथमिए वि अत्थमियमणसंकप्पो वा अणत्यमियमणसंकप्पो वा । एवं एगतरो संकप्पो भवति ।।२८१०॥ अणुदित-मणसंकप्पे, गवेस-गहणे य भुंजणे गुरुगा। अह संकियम्मि भुंजति, दोहि लहू उग्गए सुद्धो ॥२८६१॥ अत्थंगय-संकप्पे, गवेसणे गहण-भुंजणे गुरुगा। अह संकियम्मि भुंजति, दोहि लहू अणथमिए सुद्धो॥२८६२॥ "उग्गयवित्ती' अस्य सूत्रपदस्य व्याख्या - उग्गयवित्ती मुत्ती, मणसंकप्पे य होंति आएसा । एमेव यऽणत्थमिते, धाते पुण संखडी पुरतो ॥२८६३॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशोथसूत्रे [ सूत्र-३१ उग्गय इति वा, उदो ति वा एगटुं । वर्तनं वृत्तिः । उग्गए सूरिए जस्स वित्ती सो उग्गयवित्ती। प्रादेसंतरेण वा उग्गयमुत्ती भण्ण इ । उग्गताए प्राइच्चमुत्तीए जस्स वित्ती सो उग्गयमुत्ती भण्णति । अहवा - मूर्तिः शरीरं, तं उग्गए प्राइच्चे वित्तिणिमित्तं जस्स चेट्ठति सो उग्गयमुत्ती भण्णति । मणसंकप्पो त्ति वा, अज्झवसाणं ति वा, चित्तं त्ति वा, एगटुं । तम्मि मणसंकप्पे आदेशा इमे कायवा-अणुदिते वि आदिच्चे मणसंकप्पेण उदिते वृत्तिरेव भवति, न प्रायश्चित्तमित्यर्थः । च शब्द: समुच्चए, जहा अणुदिए उदियमणसंकप्पेण णिद्दोसो तहा उदिए वि अणुदियमणसंकप्पेण सदोषेत्यर्थः । अत्थमिए वि तहेव ति। अत्थमिए वि आतिच्चे अणथमियमणसंकप्पेण वृत्तिरेव भवति न प्रायश्चित्तं । इहापि आदेशांतरं कर्तव्यं - जहा अत्थमिए वि अणत्यमियमणसंकप्पेण णिद्दोसो तहा अणथमिए वि अत्थमियमणसंकप्पेण सदोषेत्यर्थः । अहवा - उग्गयवित्ती उग्गयमुत्ती एतदेवादेशांतरं द्रष्टव्यम् । अहवा - "मणसंकप्पेण होंति आदेसा" इति उपरिष्टावक्ष्यमाणं अणुदिते अत्थमिते वा कत्थ गहणसंभवो भवति ? अतो भणति - "घाते पुण संखडी पुरतो" त्ति । "धायं" ति वा "सुभिक्खं" ति वा एगटुं । तम्मि सुभिक्खे संखडीए संभवो भवति । सा य संखडी दुविधा - पुरे संखडी, पच्छा संखडी च । पुवादिच्चे पुरेसंखडी । मज्झण्हपच्छातो पच्छासंखडी। इह पुण जा अणुदिते सा पुरेसंखडी। पुणसद्दग्गहणाग्रो प्रत्थमिए वा पच्छसंखडीसंभवो भवे । अहवा- धातग्गहणं अववादप्रदर्शनार्थम् । सुभिक्खे संथरते वा गिकारणे जति अणुदिते अत्थमिते । वा गहणं करेति तो पच्छित्तं, इहरहा पुण ण भवति ॥२८६३॥ . सूत्रपदद्वयस्य-गाथाद्वयेन व्याख्या क्रियते। पूर्व प्रकृतभंगा उच्यन्ते । अणुदिय-उदिय-सोलसभंगीए इमे अट्ठ घडेमाणा जहासंखेण ठवियधा-पढमो, बितिग्रो, चउत्थो, अट्ठमो,णवमो, दसमो, बारसमो, सोलसमोय। सेसा अट्ठ वज्जिता। ततो प्रणत्यमिय अत्यमियसोलसभंगीए एते चेव अट्ठ भंगा उद्धरिता। पढम-बितिज्जा भंगा पंचम-छ?भंगट्ठाणेसु कायव्वा । पंचम-छट्ठा पढम-बितिज्जठाणेसु कायव्वा । ततिय-चउत्थभंगा सत्तम-अट्ठमभंगट्ठाणेसु कायव्वा । सत्तमष्टमा ततिय-चउत्थठाणेसु कायव्वा । अहवा - पढमे - बितिय-ततिय च उत्थभंगा पंचम-छट्ठ-सत्तमट्ठभंगाण हेट्ठा कमेण ठावेयव्वा . एवं ठविएसु ततो इमं गंथमाह - अणुदियमणसंकप्पे, गवेसगह भोयणम्मि पढमलता। बितियाए तिसु असुद्धा, उग्गयभोई उ अंतिमओ ॥२८६४॥ प्राणुदियमणसंकप्पे अणुदियगवेसी अणुदियगाही 'अणुदियभोती। एसा पढमलता। बितिया - लता - मादिल्लेसु तिसु पदेसु संकप्प-गवेसण-गहणपदेसु असुद्धा, अंतिल्लं भोगिपदं तम्मि सुद्धा ॥२८६४॥ ततियाए दो असुद्धा, गहणं भोती य दोण्हि वी सुद्धा । संकप्पम्मि असुद्धा, तिसु सुद्धा अंतिमलता तु ॥२८६।। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २८६४-२६०१] दशम उद्देशकः ततियलताए - दो संकप्प-गवेसणपदं च असुद्धा, गहण-भोगीपदं च एतेसु दोसु वि सुद्धा। चउत्थलताए - संकप्पपदं एक असुद्धं, गवेसणं गहणं भोगीपदं च तिणि वि सुद्धा । अणुदियस्स अंतिल्ला लतेत्यर्थः ॥२८६॥ इदाणि - सुद्ध णं भावेणं चत्तारि लतातो भण्णंति - सो आदिच्चो उदितो अणुग्गतो वा णियमा उग्गयंति भण्णति - उग्गयमणसंकप्पे, अणुदितएसी य गाह भोई य । एमेव य बितियलया, सुद्धा प्राइम्मि अंते य ॥२८६६॥ उदियमणसंकप्पे अणुदियगवेसी अणुदियगाही अणुदियभोती। एसा उदिते पढमलता। बितियलताए - वि एवं चेव । णवरं - प्राति-पंतपदेसु सुद्धा । मज्झिल्लेसु दोसु पदेसु असुद्धा ॥२८६६॥ ततियलताए गवेसी, होति असुद्धो उ सेसगा सुद्धा । चत्तारि वि होंति पया, चउत्थलतियाए उदयचित्ते ॥२८६७॥ ततियाए एगं गवेसणापदं असुद्ध, सेसा संकप्पणदणभोगिपदं च तिणि वि सुद्धा । सक्नेसु पदेसु चउत्थलतिया विशुद्धा उदयचित्तत्वात् ।। एवं अत्थमिताऽणत्यमिते वि अट्ठ लता, चउरो असुद्धा, चउरो सुद्धा, तासि विभागदरिसणत्यं भण्णति - अत्यमियं अणत्थमियं वा सूरियं नियमा अत्थमियं भण्णति ।।२८६८।। अत्थंगयसंकप्पे, पढमवरं एसि गहण भोई य । दो संतेसु असुद्धो, बीया मज्झे हवई सुद्धो ॥२८१८॥ अत्थंगयसंकप्पे अणत्यमियगवेसी अणत्यमियगाही प्रणथमियभोजी एसा पढमलता। बितिया आदिअंतेसु दोसु वि असुद्धा । मज्झे गवेसगहणेसु दोसु वि सुद्धा । तइया गवसणाए, होइ विसुद्धा उ तीसु अविसुद्धा । चत्तारि वि होंति पया, चउत्थलगाए अत्थमिए ।।२८६६॥ ततियलता - एगम्मि गवेसणपदे सुद्धा, सेसेसु तिसु असुद्धा। चउत्थलताए चत्तारि वि पदा असुद्धा, अत्थमियमणसंकप्पे त्ति का ॥२८६६।। अविसुद्धलता गता। इदाणि विसुद्धलतानो भण्णति - अत्थ मियं अणत्यमियं वा णियमा अणथमियं भण्णति - अणत्थगयसंकप्पे, पढमा एसी य गहण भोई य । मण एसि गहणमुद्धो, बितिया अंतम्मि अविसुद्धा ॥२६००॥ प्रणत्थंगयसंकप्पे अणथमियगवेसी अणथमियगाही प्रशानिय भोजी । एस पढमलता। वितियलताए - आदिल्ला तिण्णि पदा विसुद्धा, अंतिल्लभोगिपदेण अावसुद्धा ॥२६००॥ मण एसणाए शुद्धा, ततिया गहभोयणे य अविसुद्धा। संकप्पे नवरि सुद्धा, तिसु वि असुद्धा उ अंतिमगा ॥२६०२। ततियलता - संकप्पे य गवेसणे य सुद्धा, गहणभोगिपदेहि दोहिं असुद्धा । चउत्थलता - संकप्पेण । णवार-सुद्धा, सेसेसु तिसु पदेसु गवसण-गहण-भोगीहिं असुद्धा, अंतिमा इति चतुर्थलता ॥२६०१॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-३१ एत्य - अट्ठसु अविसुद्धे सु इमं पच्छित्तं - पढमाए वितियाए, ततिय चउत्थी य णवम दसमीए । एक्कारसि बारसियए, लताए चउरो अणुग्षाया ॥२६०२॥ ___एतासु अट्ठसु वि लतासु चउरो प्रणुग्घाया-चउगरु इत्यर्थः । ते अणुदियलतासु चउसु तवकालविसेसिया कायव्वा ॥२६० ।। इमा पुण सुद्धलतायो पंचम-छ-सत्तमियाए, अट्ठमिया तेर चोदसमियाए य । पण्णरस सोलसी वि य, लतातो एया विसुद्धातो ॥२६०३॥ एतेसु पच्चित्तं णत्थि विशुद्धभावत्वात् ॥२६०३॥ जं भणियं "उपरिष्टाद्वक्ष्यमाणमि" ति तद्वक्ष्यति - दोण्ह वि कयरो गुरुओ, अणुग्गयत्थमियमुंजमाणाणं : आदेस दोणि काउं, अणुग्गते लहु गुरू इतरो ॥२६०४॥ सीसो पुच्छति - अणुदियमणसंकप्पस्स प्रत्यमियमणसंकप्पस्स य कयमो गुरुतरभो ? आयरिश्रो भणति - एत्थ पाएसदुर्ग कायव्वं ।। एत्थ एगे भणंति - "प्रणुग्गतातो अत्यमियमोजी गुरुप्रतरो । कम्हा ? जम्हा सो संकिलट्ठपरिणामो दिवसातो भोत्तुं पकिसतो चेव पहे रातीए भुजति, प्रविसुज्झमाणकालो य । अणुदिय भोजी पुण सवराति महियासे उं किलंतो मुंजति विसुज्झमाणकालो तेण लहुप्रतरामो।" अण्णे भणंति - "प्रत्यमियभोजीग्रो प्रणुदियभोत्री गुरुप्रतरतो। कम्हा ? जम्हा सो सव्वात सहिर थोवं कालं ण सहति तेण सो संकिलिट्ठपरिणामो । इयरो पुण चितेइ - बहु मे कालो सोढव्यो तेण मुंजइ मतो बहुततरो।" इमो थियपक्सो - मणुदिए पतिसमयं विसुज्झमाणकालो त्ति गुरुतरो। एयं सव्वं कालणिप्फण्णं पच्छित्तं भणियं ॥२६०४।। इदाणि दव्व-भावनिप्फणं पच्छित्तं भण्णति : त पुण इमेहि ठाणेहिं णायं होज - गविसण गहिए बालोय णमोक्कारे मुंजणे य संलेहे । सुद्धो विगिंचमाणो, अविगिंचणे होतिमा सोही ॥२६०५।। अणुदितो प्रत्यमितो वा इमेहि ठाणेहिं णातो. कए उवोगे पदभेदकए णायं जहा अणादेतो अत्यमितो वा ततो बिय स णियत्ततो सुद्धो। मह गबेसणं करेंतेण णायं ततो चेव स णियत्ततो सुद्धो। मह गहिते णायं जं गहितं तं विगिचंतो सुद्धो।। मह मालोएंतेण णायं तह वि विगिचंतो सुद्धो। मह मुंजिउकामो मोक्कारं करेंतेण णायं तो विगिचंतो सुद्धो। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + माध्यगाथा २१०२ - २६०६ ] ग्रह भुंजतेण णायं सेसं विचिंतो सुद्धो । ग्रह सव्वमि भुत्ते संलेहसेसं तं विगिचंतो सुद्धो "अविचिणे" त्तिणाते जति भुंजति तो दव्वभावणिकष्णं पच्छितं भवति ।। २६०५ ॥ इमं दव्वणिप्फण्णं - दशम उद्देशक: संलेह पंच भागे, अवड़ दो भाए पंचमो उ भिक्खुस्स । मास चतु छच्च लहु गुरू, श्रभिक्खगहणे तिसू मूलं ॥ २६०६ || संलेहा तिण्णि लंबणा, प्रणुग्गते अत्यमिते वा सलेहसेसं णाउं भजति । पंचलंबणसेसं वा जति भुंजति । " भागो" त्ति-तिभागो, दसलंबणा जति ते भुंजति । श्रवङ्कं श्रद्धं, पण्णरसलंबणा ते सब्वं जति भुजति । " दो भागं" त्ति दोण्णि भागा वीसं लंबणा । तौसाए पंच मोतुं सेसा पणत्रीसं ते जति भुंजति । एतेसु संलेहणा दिए इमं पच्छिलं - मासलहु मासगुरु षउलहु छल्लहु छग्गुरुं । श्रभिक्खसेवं पडुच्च बितियवाराए मासगुरु आदि छेदे ठायति । ततियवाराए चलहुगादि मूले ठायति ॥ २९०६ ॥ एवं भिक्खुस्स । एमेव गणायरिए, अणवटुप्पो य होति पारंची । तम्मि वि सो चेव गमो, भावे पडिलोम वोच्छामि ||२६०७ || गण उवज्झामो तस्स वि एमेव चारणागमो । णवरं तस्स मासगुरुगादि भाढतं ततियवाराए वायति । यरयस्स वि एमेव गमो । णवरं - चउलहुगादि श्रारद्धं तिहि वाहि पारंचिए ठायति । एवं दव्वणिप्फष्णं जहा जहा दव्ववुड्डी तहा तहा पच्छितवुड्डी भवति । गतं दव्वणिप्फण्णं । इदाणि भावे पडिलोमं भणामि जहा जहा दव्यपरिहाणी तहा तहा पच्छित्तवुड्डी स्वल्पस्वल्पतरभावेन गृद्धत्वात् ॥ २६०७ ॥ - पणहीण तिभागद्धे, तिभागसेसे य पंचमो तु संलेहे ' तम्मि वि सो चेव गमो, नायं पुण पंचहिं गतेहिं ॥ २६०८ || एमेव भिक्खगहणे, भावे ततियम्मि भिक्खुणो मूलं । एमेव गणायरिए, सपया सपदा पदं हसति ॥ २६०६|| ७३ तम्मि भावपच्छिते जो दव्वे चारणपगारो सो चेव दट्ठव्यो । णवरं - णाणतं, "पंचह गतेहि " ति पंचभिर्मुक्तः सेसा पणवीसं तीसा । पणगेण होणा सेसा वीसं भुजंतो मासगुरुं । श्रद्धं सेसा पनरस लंबणा भुंजतो चलहुं । तिभागो दस लंबणा ते भुंजतो चउगुरुगा । तीसाए पंच लंबणा मोत्तुं सेसा पणवीसं ते प्रणाभोगतो परिभुता, जाते पुण सेसा पंच परिभुंजतस्व छल्लङ्कग्रा | संलेहसेसं भुजति छग्मुरुगा | बितियवारा मासगुरुगा आढत्तं खेदे ठायति । ततियवाराए चउलहुया श्राढतं मूले ठायति भिक्खुस्स । उवज्झायस्स भासगुरुगादि श्राढतं ततियवाराए भणवट्टे ठायति । प्रयरियस्स चउलहुश्रो प्राढत्तं ततियवारा पारंचिए ठायति । जे दव्वभावेसु सवारिहा च्छित्ता ते तवकालेहि दोहिं वि गुरुगा भवंति ॥ २६० ॥ उग्गयवित्ती प्रणयमियसंकप्पा य दो पदा व्याख्याता । १० Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-३१ दाणि "संथडिए' त्ति - सूत्रपदस्य व्याख्या - संथडिओ संथरंतो, संततभोई व होति नायव्यो। पज्जत्तं अलभंतो, असंथडी छिण्णभत्तो वा ॥२६१०॥ भत्तपाणं पज्जत्तं लभतो, संथडो भण्णति । अहवा- संथडति-दिणे दिणे पज्जत्तं अपज्जतं वा भुजंतो संथडीयो भण्णति । जो पुण पज्जतं भत्तपाणं ण लभति चउत्थादिणा छिण्णभत्तो वा सो असंथडीतो भण्णति ॥२६१०॥ “२निव्वितिगिंछ" त्ति अस्य सूत्रपदस्य व्याख्या - नीसंकमणुदितो अनिछित्ता व सूरो ति गेण्हती जो उ । उदित चरेंते वि हु सो, लग्गति अविसुद्धपरिणामो ॥२६११॥ उदिए अणथमिए वा जस्स "स्संकितं - णिस्संदिद्धं चित्ते ठियं जहा आदिच्चो अणुदितो प्रतिच्छिरो व ति-प्रस्तमितः सो अविसुद्धपरिणामातो पच्छित्ते लग्गति ॥२६११।। एमेव य उदितो त्ति य, चरति ति व सोढमुवगयं जस्स । स विवज्जए वि सुद्धो, विसुद्धपरिणामसंजुत्तो ॥२६१२॥ सोढामात णिस्संदिद्ध चित्ते उवगतं. जहा आदिच्चो उदितो चरति वा, सो जति विवज्जते भवति तहा वि विशुद्धपरिणामयुक्तत्वात् शुद्धयते ।।२६१२।। चक्खुअविसयत्थो अादिच्चो इमेहि णज्जति उदितो अत्यमितो वा - समि-चिंचिणियादीणं, पत्ता पुप्फा य नलिणिमादीणं । उदयत्थमणं रविणो, कहेंति विगसंत मउलेत्ता ॥२६१३॥ समिपत्ता चिचिणिपत्ता य णलिणमादीण य पुप्फा-एते वियसंता रविणो उदयं कहेंति । एने चेव " मउलेंता अस्थमणं कधंति ॥२६१३॥ कहं पुण आदिच्चो उदितो अत्थमितो वा ण दीसति? उच्यते -इमेहिं अंतरितो - अब्भ-हिम-वास-महिगा, महागिरी राहु रेणु रयछण्णो । मूढ-दिसस्स व बुद्धी, चंदे गेहे व तेमिरिए ॥२६१४॥ अब्भसंथडे, हिमणिकरे वा पडमाणे, वासेण वा उत्थइते, महियाए वा पडमाणीए पच्छातितो, महागिरिणा वा अंतरितो, राहुणा वा सव्वग्गहणे गहितो, उदितो अत्यमितो रेणू पंस ताए छातितो, रएण व छातितो, दिसामूढो वा अवरदिसं पुव्वं मण्णमाणो सो गीयं प्राइच्चं दटुं "उदयमत्तो त्ति आदिच्चो" घेतुं भत्तपाणं च वसहिं पविट्ठो जाव भुजति ताव अत्थमियं अंधकारं च जायं ततो णातं जहा “अत्यंते भृत्तो मि" ति। १ सूत्र० ३१ । २ सूत्र० ३१ । ३ घ (पा०) । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६१०-२६१७ ] दशम उददेशक: ७५ गिहभंतरे कारण जाते दिवा सुत्तो, पदोसे चंदे उदिते वि पबुद्धो, विवरेण जोण्हपविटुं पासित्ता चितेति - "एस प्रादिचा जावो पविट्ठी" सो य तिमिराभिभूतो मंदं मंदं पासति, गिहीहि णिमंतितो भुत्तो य । एवमादिएहिं कज्जेहिं अशुदियं उदियं भणेज्ज, उदियं वा अणुदियं भणिज्जा, अणथमिए वा प्रत्यमियं संकप्पं करेज्जा. अत्यमिए वा अणत्थमियसंकप्पं करेज्ज ॥२६१४|| निवितिगिछेण य सुत्तुवदेसगहितं । जतो भण्णति - सुत्तं पडुच्च गहिते, नातं इहरा तु सो ण भुंजतो । जो पुण भुंजति नाउं, पडुच्च तं सुत्तमेतं तु ॥२६१॥ "सुत्तं पडुच्च" त्ति सूत्रप्रमाणाद् गृहीतं, जतो सुत्तेण भणितं – “उग्गयवित्ती अणत्यमियमणसंकप्पे संथडीए निव्विति गिछे असणं वा ङ्क पडिगाहेत्ता पाहारं आह रज्जा" न दोषेत्यर्थः । गृहीते भुत्ते वा पश्चाद् ज्ञातं अणुदितो प्रत्थमितो वा, “से जं च मुहेत्यादि" सुत्तं । "इहरह'' ति जो सो अणुदितं अत्थमियं वा पुवामेव जाणतो ण गेण्हंतो भुजतो वा । जो पुण अणुदियं अत्यमियं वा गाउं भुजति तं पडुच्च इमं सुत्तं भण्णति । तं भुजमाणे अण्णेसि वा दलयमाणे राती-भोयणपडिसेवणापत्ते प्रावज्जति चाउम्मासियं परिहारठाणं अणुग्घातिमं ॥२६१शा "विगिचण-विसोहणपदाण" इमं वक्खाणं - सव्वस्स छड्डण विगिंचणा उ मुह-हत्थ-पाय ढस्स। फुसण धुवणा विसोहण, स किंच बहुसो य णाणत्तं ॥२६१६॥ अणुदितो अत्यमितो त्ति गाउं जं मुहे पक्खित्तं तं खेल्लमल्लए णिच्छूभइ, जं पाण्णिा गहितं तं पडिग्गहे णिक्खिवति, जं पडिग्गहे तं थडिले विगिचति । एवं सवविगिचणा भण्णति । फुसण ति णिच्छोडणा, धुवण ति कप्पकरणं, एसा विसोधणा भण्णति । ___ अहवा - छड्डुणा फुसणा धुवणाण एक्कसिं करणं विगिचणा, बहुसो एतेसिं चेव कारणे विसोहणा । एयं विगिचण-विसोहणणाणत्तं भणितं ॥२६१६।। एवं करेंतो णातिक्कमते धम्म - “२धम्म" मिति अस्य व्याख्या - नातिक्कमते आणं, धम्म मेरं व रातिभत्तं वा। अत्तद्वेगागी वा, सय भुंजे देज्ज वा इयरे ॥२६१७॥ तित्थकराणाऽतिक्कमणं ण करेति, सुयधम्म णातिक्कमति, चारितमेरं ण लंघेति, रातिभत्तं णातिक्कमति, अणुदितं अत्थमितं वा गाउं तं भुजमाणा । __अण्णेसि दलमाणे" त्ति अस्य व्याख्या - अत्तलाभभिग्रही सयं भुजति, कारणेण वा जो एगागी सो वि सयं भुजति, इयरो पुण अणत्तलाभी अणेगागी वा अण्णेसि दलिज ॥२६१७॥ संथडियो निव्वितिगिंछो सम्मत्तं सुत्तं - इदाणि संथडिओ वितिगिच्छो भण्णति - जे भिक्खू उग्गयवित्तीए अणत्थमियसंकप्पे संथडिए वितिगिच्छाए समावनेणं अप्पाणणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइम वा पडिग्गाहेत्ता संभुंजइ, सं जंतं वा साइज़्जइ । - १ सूत्रं ३१ । २ गा० २६१५ अंकमिताया गाथायाः चूणौं पश्यन्तु । ३ गा० २६१५ अंकमिताया गाथायाः चूर्णी पश्यन्तु । ४ गा० २६१५ अंकमिताया गाथायाः चूर्णी पश्यन्तु । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र २२-३४ अह पुण एवं जाणेजा - "अणुग्गए सरिए अत्थमिए" वा से जं च मुहे, जं च पाणिसि, जं च पडिग्गहे, तं विगिंचिय विसोहिय तं परिहवेमाणे नाइक्कमइ.। जो तं भुंजइ, भुंजतं वा सातिज्जइ ॥सू०॥३२॥ एवं वितिगिच्छे वी, दोहि लहू नवरि ते उ तवकाले । तस्स पुण हवंति लया, अट्ठ असुद्धा न इतराओ ॥२६१८॥ संथडियो वितिगिच्छो, सो वि एवं चैव वत्तव्वो। णवरं - तस्स जे तवारिहा पच्छित्ता ते तवकालेहिं दोहिं वि लहुगा । "तस्से" ति विगिछस्स । “पुण" सद्दो पुवकयभंगकमातो विसेसणे । असुद्धा एव केवला अट्ठ- लता भवंति, "इतरातो" सुद्धातो न भवंति, वितिगिछस्स प्रतिपक्षाभावात् ॥२६१८।। अणुदितउदियो किह णु, संकप्पो उभयो अदिढे उ। धरति ण व ति च सूरो, सो पुण नियमा चउण्हेक्को ॥२६१६।। "उभय" ति उदयकाले वा प्रत्थमणकाले वा । अब्भादिएहि कारणेहिं अदिढे प्राइच्चे संका भवति - कि उदितो अणुदितो ति । प्रत्थमणकाले वि किं सूरो धरति न प ति संका भवति । सो पुण णियमा अणुदित्तो उदितो वा, अणत्यमितो प्रत्थमितो वा। एतेसिं चउण्ह विकप्पाणं अण्णतरे वट्टति, उदयं पडुच्च वितिगिंछ-मणसंकप्पो वितिगिछगवेसी वितिगिछगाही वितिगिछभोती । एवं अट्ठभंगा कायव्वा । प्रत्थमणं पडुन्ध एवं चेव अट्ठमंगा कायव्वा । दोसु वि अट्ठभंगीसु चउरो चउरो अलक्खणा उद्धरियव्वा । इमे य घेत्तम्या --पढमो बितिम्रो चउत्यो अट्ठमो य । अत्रामणलतासु य एते चउरो घेतल्वा । पट्टसु वि य लतासु चउगुरुग्रं पच्छित्तं, उभयल हु, दब्वभावणिप्फणं पि पच्छित्तं पूर्ववत, णवरं - उभयलहुं पच्छितं दट्टव्वं ।। २६१६॥ संथडिग्रो वितिगिच्छो गतो। इदाणिं असंथडियो णिव्विइगिंछो भण्णति - जे भिक्खू उग्गयवित्तीए अणथमियसंकप्पे असंथडिए निव्वितिगिंकासमा वन्नेणं अप्पाणेणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता संभुंजइ, संर्भुजंतं वा सातिज्जति । अह पुण एवं जाणेज्जा - "अणुग्गए सरिए अत्थमिए" वा, से जं च मुहे, जं च पाणिसि, जं च पडिग्गहे, तं विगिचिय विसोहिय तं परिट्ठवेमाणे नाइक्कमइ । जो तं भुंजइ, भुंजंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३३॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६१८-२६२३ ] दशम उद्देशकः जे भिक्खू उग्गयवित्तीए अणत्थमियसंकपे असंथडिए वितिगिंछासमावनेणं पाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता संभुंजइ, संभुजतं वा सातिज्जति । पुण एवं जाणेज्जा " star after अत्थमिए" वा, से जं च मुहे, जं च पाणिसि, जं च पडिग्गहे, तं विगिंचिय विसोहिय तं परिट्ठवेमाणे नाइक्कमइ । जो तं भुंजइ, भूजंतं वा सातिज्जति ॥ सू०||३४|| सो संथडितो तिविधो इमो तवगेणऽद्धाणे, तिविधो तु असंथडो विहे तिविहो । तवऽसंथडिमीसस्स वि, मासादारोवणा इणमो ॥ २६२० ॥ - एग दुग तिण्णि मासा, चउमासा पंचमास छम्मासा । सव्वे वि होंति लहुगा, एगुत्तरवडिया जे णं || २६२१॥ आयरिश्रो ग्रह - - मादिणा तवेण किलंतो प्रसंथडो, गेलणेण वा दुब्बलसरीरो असंथडो, दोहद्धाणेण वा पज्जतं लभतो प्रसंथडी । एतेसु तिसु वि पुव्वकमेण सोलस लता कायव्वा । प्रलक्खणा उद्धरिता । सेसेसु पच्छितं कालणिकां पूर्ववत् । दव्वभावपच्छित्ते इमो विसेसो । तत्थ तवासंथडे तवेण विगिद्वेग किलामितो पारणए श्राउरो अणुदियं प्रत्थमियं वा णाउं सलेहसेसं भुजति मासलहुं, पंच सेसे भुंजति दोमासियं, दसलंबणे समुद्दिसति तिमासलहु पण्णरसलंबणे समुद्दिसति चउमास्लहु वीसलंबणे समुद्दिसति पंचमासल हु, पंच विसुद्धचित्तेण समुद्दिट्ठा सेसा पणुवीसं श्रणुदियं प्रत्थमियं वा गाउं भुजति छम्मासलहु । सव्वे एते लहुगा मासा जेण एगुत्तर वुड्डी दिट्ठा ||२६२१|| "वुड्डि" त्ति भणिते सीसो पुच्छति कतिविहा वुड्ढी ? भिक्खुस्स ततियगहणे, सट्ठाणं होति दव्वणिष्फण्णे | भावम्मि उ पडिलोमं, गणि आयरिए वि एमेव || २६२२ || दुविहा उ होइ बुट्टी, सट्टाणे चैव तह य परठाणे | साणम्मि उ गुरुगं, परठाणे लहू य भयणा वा || २६२३|| ७७ सट्टा वुड्ढी नियमा गुरू भवति । जदा मासलहू तो मासं चेत्र सद्वाणं संक्रमति, तदा विसेसत्थं णियमा मासगुरू संकमति । एवं दुमासलहुतो दुमासरु | परागवुड्ढी णाम विसरिसा संखा जहा - मासातो दुमासो, दुमासातो तिमासो एवं जाव पंचमासातो छम्मासो । परद्वाणवुड्ढीए लहुतो लहु वा भवति गुरु वा । बितियवारा दुमासाढत्तं छंदे ठायति, ततियवाराए तिमासलहतो श्राढत्तं मूले ठार्यात एवं भिक्खुस्स । उवज्झायस्स एवं चेव, णवरं दुम सलहुन प्राढतं तिहि वाराहि अणत्रट्टे ठायति । प्रायरियस्स तिमासलहुतो श्राढतं तिहि वाराहि चरमे ठायति । एवं दव्वणिफणे पच्छ्रितं । भावे पडिलोमं भाणियव्वं ॥ २६२३॥ त वासंथडियो गतो । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र । सूत्र-३४ इदाणिं गेलंन्नासंथडियो" -- एमेव य गेलण्णे, पट्ठवणा णवरि तत्थ भिण्णेणं । चउहिं गहणेहिं सपयं, कस्स अगीयत्थसुत्तं तु ।।२६२४।। गेलण्णासंथडी वि एवं चेव, णवरं -- लहुभिण्णमासातो अाढतं पंचमासलहुए ठायति । चउत्थवाराए भिपलुस्स मूलं । उवज्झायायरियाणं हेट्ठा पदं हुसति, चउहिं वाराहिं सपदं भवति । भावे पडिलोमं दट्टव्वं ॥२६२४।। गतो गेलण्णासंथडियो - इदाणि "२प्रदाणासंथडियो, विहे तिविधो" त्ति अस्य व्याख्या - अद्धाणासंथडिए, पवेस मज्झे तहेव उत्तिण्णे । मज्झम्मी दसगाती, पवेसे उत्तिण्णे पणगाती ।।२६२५॥ श्रद्धाणासंथडी तिविधो - विहपवेसे, विहमज्झे, विहोत्तारे । तत्थ पढम मज्झे भणाति - भिक्खुस्स संलेहादिएसु छसु ठाणेसु दस-रातिदियादी प्रारोवणाए दोमासियाए ठायति, एवं सत्तमवाराए मूलं फुसति । उवज्झायो पण्ण रसरातिदियादि सत्तमवाराए अणवते ठायति । आयरियो वीसरातिदियादि सत्तमवाराए चरम पावतीति । भावे एवं चेव पडिलोम । इदाणि पवेसे उत्तिणे य भण्णति - पवेसे उत्तारे य दोसु वि संलेहणादिसु छसु पदेसु पणगेणं .. पढवणा कम्जति मासलहुए ठायति, भिक्खुस्स अट्ठमधाराए मूलं भवति । उवज्झायस्स दसादि अट्ठमवाराए । अणवटुं प्रारयस्स पण्णरसादि अट्ठमवाराए वरिमं पावति । भावे एवं चेत्र पडिलोमं । सीसो पुच्छइ - "किं कारणं ? श्रद्धाणासंथडियो मज्झे खिप्पं सपदं पावितो? आदि अंतेसु चिरेण पावितो?" . आयरियो भणाति - प्रादी श्रद्धाणयस्स भयं उपज्जति - 'कहमद्धाणं णित्थरिस्सामि" ति, अंते वि अद्धाणस्स भुक्खा-तिसाकिलामितो ति, कारणेण चिरेण सपदं पावति । मज्झे पुण जितभयो णातिकिलंतो य अन्भत्थणातो य खिप्पं सपदं पावति । एत्थ कालणिप्फण्णं तवकालेहि विसिटुं । एत्थ एक्केक्कामो पादातो प्राणादिया दोसा, रातीभोयणदोसा य । "कस्स अगीयत्थसुत्तं तु' अस्य व्याख्या - सीसो पुच्छति - "एयं जं भणियं पच्छित्तं, एवं कस्स" ? __ आयरियो भणति - एवं सुत्तमगीयत्थस्स । भण्णइ - "किं कारणं ?" भण्णइ - सो कज्जाकज्जं जयणाजयणं वा अगीतो ण जाणति ॥२६२५॥ गीतो पुण जहत्थं जाणतो -- उग्गयमणुग्गए वा, गीयत्थो कारणे णऽतिक्कमति । दूताऽऽहिंडविहारी, ते वि य होंती सपडिवक्खा !।२६२६।। १ गा० २६२० । २ गा० २६२० । ३ अद्धाणे आति अंते, पणगादी पट्टहिं भवे चरिमं । मज्झे दसाइ सत्तहि, भावंमि विवजउ णवरं ।। पूनासक-भाष्यप्रत्यामियं गाथा अधिका समुपलभ्यते । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६२४--२६३० ] गीयत्थो पुण कारणे उपणे उग्गए वा अणुग्गए व गेव्हंतो जयणाए अरत्तदुट्ठो य भुजंतो प्राणं धम्मं रातीभोयणं वा णातिक्कमति । ते य श्रद्धाणपडिवण्णया तिविधा - दूइज्जता वा श्रहिंडगा वा विहरता वा । एक्केक्का सपविक्खा कायव्वा ।। २६२६ ।। इमेण भेदेण - दशम उद्दशक: दूइज्जता दुविहा, णिक्कारणिया तहेव कारणिया । सिवादी कारणिया, चक्के धूभाइया इयरे || २६२७|| इज्जता दुविहा कारणे वा, ग्रहवा - उवधिकारणा, लेवकारणा वा गच्छे वा बहुगुणतरं ति खेत्तं प्रायरियादीण वा भागाढकारणे, एतेहि कारणेहि दूइज्जता कारणिया । णिक्कारणिया असिवादिवज्जिता उत्तरावहे धम्मचक्कं, मधुरा देवणिम्मिय भो, कोसलाए व जियंतपडिमा तित्धकराण वा जम्मभूमीश्रो, एवमादिकारणेह गच्छतो णिक्कारणिगो ॥ २६२७ ॥ उवदेस अणुवदेसा, दुविहा आहिंडगा मुणेयच्वा । विहरता वियदुविहा, गच्छगया णिग्गया चेव || २६२८ || णिक्कारणिया य कारणियां य । ग्रसिवोमोदरिय-रायदुदु खुभिय- उत्तिमट्ठ - श्रहिंडगा दुविधा उवदेसा हिंडगा श्रणुवदेसाहिंडगाय । उवदेसो सुत्तत्थे घेत्तुं भविस्सायरियो देसदरिसणं करेति विसयायारभासोवलंभणिमित्तं, एसो उवसाडिगो | अणुवदेसाहिडगो को उगेण देसदंसणं करोति । विहरता दुविधा - गच्छगया गच्छणिग्गया य । गच्छवासिणो उदुबद्धे मासं मासेण विहरति । गच्छगिता दुविहा - विधिणिग्गया प्रविधिणिग्गया य । विधिणिगया जिणकविया, पडिमा पडिवण्णगा, ग्रहालंदिया, सुद्धपरिहारिया य । प्रविधिणिग्गया चोदणादीहि चोइज्जता चोयणं असहमाणा गच्छतो णिग्गच्छति ।। २६२८ । एसि भेदाणं इमे प्रणुदिय प्रत्थमितेसु लग्गंति णिक्कारणियाऽणुवदेसगा वि लग्गंति अणुदितत्थमिते । गच्छा विणिग्गया वि हु, लग्गे जति ते करेज्जेवं ॥ २६२६|| ७६ गेण्हंति भुंजंति वा णिक्कारणिया अणुवमा हिडगा प्रविधिणिगगया य प्रणुइय प्रत्थमिये जति तो पच्छते लग्गति । जे पुण कारणिगा उवएसा हिंडगा गच्छगय! य एए कारणे जयगाए गेव्हंता भुजंता न जे सुद्धा । गच्छणिग्गता वि जति श्रणुइयऽत्थमिए गेहति भुंजंति वा तो पच्छिते लग्गति । विधिणिग्गया तेदित्यमिणियमा ण गेव्हंति त्रिकालविषयज्ञानसम्पन्नत्वात् । २६२६ ।। पुण अहवा - अन्यो विकल्पः गच्छाद्विनिर्गतानां हवा तेसिं ततियं. अय्योऽणुतो भवे सूरो । पत्तो य पच्छिम पोरिसं तु अत्थंगतो तेसिं ॥ २६३० ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसुत्रे [ सूत्र- ३५ " अहवा" - शब्दो विकल्पवाची तेसि जिणकप्पियादीणं तातयं पोरिसिं सूरो "प्रपत्तो" अणुदितो भण्णति, पच्छिमं च पोरिंसि पत्तो मूरो अत्थंगतो भण्णति, तेसि च भत्तं पंथो य ततियाए णियमा । अन्यथा न कुर्वतीत्यर्थः । असंथडी णिव्वितिगिच्छो भणितो ॥२६३०|| इदाणि "मीसो" त्ति - मोसो वितिमिच्छा भगति । Ο हि पुण तस्स वितिगिच्छा भवति ? इमेहिं - वितिगिच्छ अन्भसंथड, सत्थो व पधावितो भवे तुरितं । अणुकंपा कोई, भनेण णिमंतणं कुणति || २६३१ || संथादिहिं वितिगिछो भवति । श्रद्धाणपवण्णा सत्थेण अतरा यं प्रण्णी श्रभिमुहो सत्थो आगतो । दो वि एगट्ठाणे श्रावासिता । श्रभिमुहा गंतुगसत्थि गेण य केणई श्रणुकंपा साहू णिमंतिता भत्तादिणा | साहु जम्म सत्थे सो चलितो प्रादिच्चोदयवेलार उदितो अणुदितो त्ति संकाए गहियं ।। २६३१ ॥ 1 दहं पितिविषे प्रसंथडीए वितिगच्छे ग्रह लता अमंथडिए निव्वितिगिच्छे तवारिहं पच्तिं उभयगुरु वितिगिछे पुण उभयलहु, सेसं तं चैव सव्वं मासादियं पच्छितं ततियभंगासंथ डिनिवि-तिगिच्छ सोही तु कालणिष्फण्णा । चल हुयं सव्वे वि हु, उभयगुरू एत्थ पच्छित्ता ॥ २६३२|| एमेव चरिमभंगो, पवरं एत्थ हवंति अटु लता । उभयल हुए स (य) जाणसु, कालादी एत्थ च्छित्तं ॥ २६३३ || जे भिक्खू राओ वा, वियाले वा सपाणं सभोगणं उग्गालं उग्गिलित्ता पच्चोगिलइ, पच्चोगिलंतं वा सातिज्जति | | ० ||३५|| 3 रति त्रियाला पुण्वकतं वक्खाणं सह पाणेण सपाणं, सह भोयणेण सभोयणं । उदगिरणं उग्गरो, रलयोरेकत्वात् स एव उग्गलो भण्णति, सित्थविरहियं पाणियं केवलं उड्डोएण सह गच्छतीत्यर्थः, भत्तं वा उड्डाण सह श्रागच्छति, उभयं वा । तं जो उग्गिलित्ता पच्चो गिलति भ्रष्णं वा सातिज्जति । कहं पुण सातिजति ? कस्स वि उग्गालो श्रागतो । तेण श्रणणस्स सिद्धं - उग्गालो मे श्रागतो पच्चुगिलिओ य । तेण भणियंसुंदरं कथं, एसा सातिज्यया । तस्स पायन्तं चउगुरु प्रापा दिया य दोसा । एस सुत्तत्थो । इदाणि णिज्जत्ती - उद्दद्दरे वमित्ता, आइयणे पणगत्रुडि जा तीसा । चत्तारि छच्न लह गुरु, छेदो मूलं च भिक्खुस्स || २६३४ || दुविधा दरा - धण्णदरा पोट्टदरा य, ते उद्दं जाव भरिया तं उद्दद्दरं भण्णति, पर्यायवचनेन सुभिक्ष मित्यर्थः । तस्मिन् सतियं प्रष्णादि घेत्तुं भोत्तु च वमेत्ता प्रविसिट्टभत्तलोभेण जो पुणो पञ्चादियति । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २३३१-२६३७ ] जर दिवसो एगलंबणावी जाव पंचगंगणा ताव उलहु । छहि प्रार- जाव दस एतेसु उगुरु । एक्कारसाति- जाव- पण्णरस ताव छल्लहु । सोलसादि - जाव-बीसं ताव छम्पुरु । एगवीसादि जाव - पणवीसं ताब देवो । दशम उद्देशकः छवी सादि - जाव- तीसा लंबणा उग्गिलिउं पच्चोगिलति ताव मूलं । एवं पंचवरवड्डी भिक्खुस्स भणियं ॥ २६३४ ॥ गणि श्ररिए सपयं, एगग्गहणे वि गुरूण आणादी । मिच्छत्तऽमच्चबहुए, विराहणा तस्स वऽण्णस्स || २६३५|| "गणि" ति - उवज्झायो, तस्स चउगुरुगादि प्रणवट्टे ठायति । प्रायरियस्स छलहुगादि भाढतं सपदमिति पारंचिए ठायति । एवं ताव दिवसो, रतिं सित्थे वि चतुगुरू होति । उद्दद्दरग्गहा पुण, अववाए कप्पते मे ॥ २६३६ ॥ ण भवति । रातो व दिवसतो वा, उम्गाले कत्थ संभवो होज्जा ? गिरिजण्णसंखडीए, अट्ठाहिय तोसलीए वा || २६३७॥ एवं ताव दिवस । राम्रो पुण एगसित्यग्गहणे वि चउगुरुगं । उद्दद्दरगहणेण श्रववातो दंसितो, जेण प्रमादिसु कप्पति । श्राणासि श्राणा २ तित्थकराणं कोविया भवति । प्रणवत्था कता । मिच्छतं च जणेति - जहावादी तहाकारी ण भवति । = १ ग्रहवा - वंतादाणं दठ्ठे सेहो सिढिलभावों पडिगमणं वा करेज्जा । राया वा विपरिणामेजा । वारणं वा भिक्खादियाण करेजा । असारं वा पवयणं भणेज । श्रसुतणेण वा हड्डुसरक्खादिजणेहि प्रतिसतिया भज्जा । तस्स वऽण्णस्स श्रायविराहणा भवेज्ज । एत्थ दिट्टंतो - मञ्चबटुएण । एगो रंकबटुप्रो अंचियकाले संखडीए मज्भियकरं जिमितो प्रतिप्पमाणं । णिग्गयस्स रायमग्गमोगाढस्स हिययमुच्छल्लं श्रमच्चपासायस्स हेट्ठा वमिउमारद्धो । आलोयपठितेण य मच्चेण दिट्ठो । सो य बडुगो वमेत्ता तमाहारमविणटुं पासित्ता लोमेण भुंजिउमारो | मञ्चस्स तं दट्टु श्रंगमुधुसियं, उड्डू च कथं, सो श्रमचो दिणे दिणे जेमणवेलाए जिमितो वा तं संभरिता उड्ड करेति । एवं तस्स वग्गली वाही जातो, विणट्ठो य । सो वि वडुप्रो एवं चैव विट्ठो । एवं प्रायविराहणा होज्ज । जम्हा एते दोसा तम्हा पमाणमित्तं भोत्तव्वं, जेण उग्गाल संभवो कत्थ पुण उगालसंभवो भवेख ? उच्यते गिरिमादिजष्णसंखडीसु महाहियमहिमासु वा तोसनिविस वा ॥ २६३७॥ १ गा० २६३६ । २ गा० २६३५ । ३ गा० २६३७ । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક૨ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-३५ अद्धाणे वत्थव्वा, पत्तमपत्ता दुहा य अद्धाणे । पत्ता य संखडिं जे, जइणमजयणाए ते दुविहा ॥२६३८॥ ते संखडिभोइणो संजया ते दुविहा - श्रद्धाणपडिवण्णा, वत्थव्वा य। वत्थव्वा ते तत्थेव मासकप्पेण ठिता, ते दुविधा - संखडिपेही संखडिमपेही य । प्रद्धाणपडिवण्णा दुविधा - तत्थेव गंतुकामा, अण्णत्थ वा गंतुकामा। जत्य सा संखडी तत्येव गंतुकामा ते दुविधा - जयणपत्ता मजयणपत्ता य । जे अणुस्सुया पदभेदं प्रकरता सुत्तत्थपोरिसीमो य करेंता प्रागच्छति ते जयणपत्ता । जे पुण संखडि सोच्चा उस्सुप्रभूपा तुरियं सुत्तत्ये प्रकरेंता ते अजयणपत्ता । जे पुण अद्धाणिया अण्णत्थगंतुमणा ते दुविधा - पत्तभूमिगा अपतभूमिगा य ॥२६३८॥ वत्थव्वजयणपत्ता, एगगमा दोवि हाति णायव्वा । अजयणवत्थव्वा वि य, संखडिपेही उ एगगमा ।।२६३६॥ तत्य संखडि-अपलोइणो, जे य तत्थेव गंतुकामा जयणपत्ता, एते दो वि चारणियाए एगगमा भवंति । जे तत्येव गंतुकामा अजयणपत्ता, जे य वत्थव्वा संखडिपेहिणो एते दो वि चारणियाए एगगमा भवंति २९३९ "'पत्ता य संखडि जे" अस्य व्याख्या - तत्थेव गंतुकामा, वोलेउमणा व तं उवरिएणं ।' पयभेय अजयणाए, पडिच्छ-उव्वत्तसु य भंगे ॥२६४०॥ जत्व गामे संखडी तत्येव गंतुकामा, जे वा तस्स गामस्स - “उवरिएणं" ति मज्झेग गंतुकामा, देसीमासाए न्वे (च) वत्येणं ति वुत्तं भवति । ते जति सभावमतीए पदभेदं करेंता एगमादिदिणं वा पडिक्खंति, प्रवेलाए "उवतं" ति सुत्तत्थपोरिसीप्रगेमण वा पत्ता जयणपत्ता भवति । एतेसि जे इतरे ते जयणापत्ता ॥२६४०॥ "पत्तमपत्ता दुहा य अद्धाणे" अस्य व्याख्या - संखडिमभिधारेता, दुगाउया पत्तभूमिया होति । जोयणमाति अप्पत्तभूमिता बारस उ जाव ॥२६४१॥ संखडिगामस्स जे पासेण गंतुकामाए संखडिमभिधारेतु प्रद्धजोयणाप्रो मच्छंति ते पत्तभूमिया भवंति, बे पुण जोयणमादीसु ठाणेसु जाव बारसजोयणा ते सव्वे प्रपत्तभूमिया भवंति ॥२६४१॥ खेनंतो खेत्तबहिया, अप्पत्ता वाहि जोयणदुए य । चत्तारि अट्ठ बारस, जग्गसु व विगिंचणातियणा ॥२६४२| खेत्ततो-जाव-प्रद्धजोयणो संखडिमभिषारता प्रागच्छंति एते पत्तभूमिगा, जे पुण खेतबाहिरतो जोमणातो दुजोमणातो जाव बारसण्हं वा जोयणेणं संखडिमभिधारेत्ता आगच्छति एते भपत्तभूमिगा। संखहीए १ मा. २६३८ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६३८-२६४५] दशम उद्देशकः जाव दळु भोच्चा पदोसे ण जग्गंति, वेरत्तियं कालं ण गेण्हंति, "विगिचण" त्ति उग्गालं उग्गालेत्ता विगिचंति, उग्गिलित्ता वा प्रादियंति ॥२६४२।। एतेसु चउसु पदेसु इमा वारणा कज्जति - वत्थव्वजयणपत्ता, सुद्धा पणगं च भिण्णमासो य । तव कालेसु विसिट्ठा, अजयणमादीसु वि विसिट्ठा ॥२६४३॥ वत्थव्वा संखडिअपेहिणो जयणापत्ता य जेण ते संखडीए जाव दळु भोच्चा पच्छा पाउसीयं पोरिसिए ण करेति, मा ण जीरिहिति, तो प्रायरिए प्रापुच्छिता णिवण्णा सुद्धा। ते चेव जति वेरतियं ण करेंति तो पंचराइंदिया तवलहुगा कालगुरू । अह उग्गालो प्रागतो विगिचति य तो भिण्णमासो तवगुरुयो काललहू । प्रह तं उग्गालं अादियति तो मासलहुं उभयगुरु। वत्थव्वसंखडिपेहिणो अजयणपत्ता य एतेसि दोण्ह वि संखडीए भोच्चा पादोसियं ण करेंति मासलहुं । वेरत्तियं ण करेंति एत्थ वि मासलहुँ। उग्गालेति विगिचति एत्थ वि मासलहुं । अादियंति एत्थ मासगुरु । एत्य वि तवकालेहिं विसेसियव्वा ॥२६४३॥ तिसु लहओ गुरु एगो, तीसु य गुरुप्रो य चउलहू अंते । तिसु चउलहुया चउगुरु, तिसु चउग्गुरु छल्लहु. अंते ॥२६४४॥ तिसु छल्लहुया छग्गुरु, तिसु छग्गुरुया य अंतिमे छेदो । छेदादी पारंची, बारसमादीसु तु चउक्कं ॥२६४५॥ "तिसु लहुप्रो गुरु एगो" ति गतार्थ । जे अण्णत्थ गंतुकामा पत्तभूमिगा पद्धं जोयणातो संखडिणिमित्त मागता तेसिं पादोसियासु तिसु ठाणेसु मासगुरु, अंते चउलहुगा। जे प्रपत्तभूमगा संखडिणिमित्तं जोयणतो पागता तेति पादोसियादिसु तिसु पदेसु च ठलहु, अंते चउगुरु। जे पुण दुजोयणातो आगता तेसिं आदिपदेसु चउगुरु, अंते छल्लहगा । जे पुण चउण्हं जोयणाणमागता तेसिं छल्लहुगा, ( अंते छग्गुरुया ।) जे अट्ठ जोयणाणमागता तेसिं छग्गगुरुगा, अंते छेदो। जे बारसण्हं जोयणाणमागता ते 'णिस भोच्चा पादोमियं ण करेंति 1 छेदो वेरतियं ण करेंति । आदिसहातो मूलं विगिचंति प्रणवट्ठो प्रादियंति पारंचियं । “छेदादी पारंची" - प्रादिसहातो मूलणवटा एते चउरो पायच्छित्ता। बारसमादीसु तु चउक्कं जे तस्स प्रादियो प्रारम्भ कमेण ठावेयव्वा । अहवा - पडिलोमेण बारसादिसु पदेसु सम्वेसु चउक्कं दट्ठव्वं ॥२६४५।। सव्वेसु य चउक्कादेसु जे तवारिह तवकालेहि विसेसियव्वा दोहिं लहु, तवगुरु, कालगुरु, अत! दोहिं वि गुरुगं भणितो वि एस अत्यो पत्थारमंतरेण ण सुठु प्रवबोधो त्ति। . १ प्रत्यन्त । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ पत्थर - णिदरिस णत्थं भण्णति - सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे श्रद्धाणे वत्थव्वा, पत्तमपत्ता य जोयणदुवे य । चत्तारि बारस, न जग्गसु विगिंचणातियणे || २६४६ ॥ अह सुद्धेण उड्डण अट्ठधरस्या तिरियं चउरो एवं बत्तीस घरा कायव्या । पढमघरट्टयपंतीए अधो इमे पुरिसविभागा लिहियव्वा । श्रद्धाणिया वत्थव्वया जयणाकारी, एगो पुरिसविभागो । अद्धाणिया वत्यव्वया अजयणकारी, बितिम्रो विभागो । पत्तभूमया ततितो । श्रप्पत्तभूमगा जोयणागंता चउत्थो । दु-जोयणागंता पंचमी | चउ-जोयणागंता छट्टो । अट्ठ-जोयणागंता सत्तमो । बारस जोयणागंता मट्ठमो । उवरिमतिरिया य चउक्कपतीए उवरि कमेण इमे चउरो विभागा लिहियव्वा । न जग्गसु वा विचिणा य, श्रादियणा, सव्वं गतत्थं ॥। २६४६ ॥ आदिम चकती बितियघरातो कमेण इमे पच्छित्ता ठवेयब्वा - जे पुण संखडिपेही, अजयणपत्ता य तेसि इमा | पात्र सिय वेरत्तिय, उग्गालविगिंचणातियणे || २६४७॥ पण च भिण्णमासो, मासो लहुगो य पढमओ सुद्धो मासो तवकालगुरू, दोहि वि लहुगो य गुरुगो य || २६४८ || बितियrरए पणगं । ततियधरए भिण्णमासो । चउत्थे मासलहू । उक्कमेण भणियं । पढमघरे सुद्धोति । तिल्ले जो य मासो सो तवकालेहि दोहि वि गुरुगो | पणगतवो तवेण लहुगो । भिण्णमासो तवेण गुरुगोत्ति । अहवा - मासो तवकालगुरु, आदिपदे दोहिं वि लहू भवति । मझिल्लेसु दोसु वि पदेसु जहासं खं कान्तवेण गुरुगा भवंति ॥२६४८ ॥ बितियादि- चउकघरपती सव्वा इमेण तवसा पूरेयव्वा लहु गुरु मासो, चउरो लहुया य होंति गुरुगा य । छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च || २६४६|| कंठा इमा रयण-भंग लक्खणगाहा जह भणिय चउत्थस्सा, तह इयरस्स पढमे मुणेयध्वं । पत्ताण होइ जयणा, जा जयणा जं तु वस्थव्वे || २६५०|| [ सूत्र - ३५ - - पच्छद्धं ताव भणामि जे श्रद्धागिया जयणापत्ता वत्यन्त्राय जयणइत्ता जं तु तेसि पच्छित्तं चउत्थे ठाणे भयति "जहा भणियं चउत्थस्स चउत्थं" आदियणं पदं, जयणइत्ताण जहा चउथे ठाणे भणियं तहा "इयरे" ति जयणइत्ता तेसि पढमेसु तिसु ठाणेसु मुणेयव्वं मासलहुमित्यर्थः । श्रंतिल्ले मासगुरु । बितिय पंतीए जह भणियं चउत्थस्स तहा "इयरे" पत्तभूमया तेसु तिसु श्राइत्लेस ठाणेसु मुणेयव्वं अंतिल्लेसु चहु । एवं बत्तीसा वि घरा पूरेयब्वा । १ पाउसीयं न करेंति । २ वेरतीयं न गेहति । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ भाष्यगाथा २६४६-२६५५ दशम उद्देशकः वरं - अंतिल्लं पंतीए छेद-मूल-प्रणवद्व-पारंचिया । तगारिहा तवकालेहिं निसेसिपना, पूर्ववत् । स्थापना ॥२६५०।। एएण सुत्त ण कयं, सुत्तणिवाते इमे उ आएसा । लोही य ओमपुण्णा, केति पमाणं इमं बेति ॥२६५१।। एवं पसंगेण विकोवणट्ठा भणियं, ण एत्य सुत्तं णिवडति । सुत्तणिवाते इमे मावेसा भवंति । आयरिमो भणाति- गुणकारित्तणातो प्रोमं भोत्तव्वं जहा उग्गालो ण भवति । दिठंतो लोही। “लोहि" त्ति कवल्ली "प्रोमे" त्ति ऊणा, जति पादाणस्स अद्दहिजति तो तप्पमाणी ण छड्डेति, अंतो अंतो उव्वत्तति । अह पुण-"पुण्णं" ति-आकंठा आदाणस्स भरिया,तोतप्पमाणी भरिया मभूमाणा छडिजाति, अग्गि पि बिज्झावेति, एवं प्रतिप्पमाणं भत्तं पाणं वा पाडणा पेरियं उग्गिलिज्जति, ण प्रोमं, तम्हा प्रोमं भोत्तव्वं । विकोवणट्ठा तत्थ आयरियदेसगा इमं ओमप्पमाणं वदति ॥२६५१।। तत्तऽस्थमिते गंधे, गलगपडिगए तहेवण्णाभोगे। एए ण होति दोण्ह वि, सुहणिग्गत णातमोहलणा ॥२६५२॥ "लोही य प्रोमपुण्ण' ति प्रस्य व्याख्या - अतिमुत्ते उग्गालो, तेणोमं कुणसुजं न उग्गलति । छडिअति अतिपुण्णा, तत्ता लोही ण पुण अोमा ॥२६५३॥ गतार्था "२तत्ते" ति-अस्य व्याख्या भण्णप्ति। प्राह जति ऊणमेवं, तत्तकपल्ले व बिंदुमेगस्स। बितित्रो न संथरेवं, तंभुंजे ससूरे जं जीजे ॥२६५४॥ ___णेगम-पक्खासितो एगो भणइ – जति प्रोमं भोत्तव्वं तो इमेरिसं भोत्तव्वं, जहा - तत्तो कवल्लो, तत्ते उदगबिंदु पक्खिनो तक्खणा णासति । एवं एरिसे प्राहारेयव्वं जं मुत्तमेव जीरइ । अत्थमिए" सि अस्य व्याख्या - पश्चार्य गतार्थ । बितिमो गम-पक्खासितो भणाति - एवं एरिसे भुत्ते ण संपरति तम्हा एरिसं भुजउ सूरत्यमणवेमाए जिग्मति ॥२६५४।। "गंधे" त्ति अस्य व्याख्या - णिग्गंधो उग्गालो, सतिए गंधो उ एति ण तु सित्थं । अविजाणतो चउत्थे, पविसति गलगं तु जा पप्प ॥२६५५॥ गंधे दो प्रादेसा । एगो भणति - सूरत्थमणे जिण्ण रातो असंथरं भवति तम्हा एरिसं भुजग्री जेण प्रत्थमिए वि अण्णगंधविरहितो उग्गारो भवति, ण गंघो उग्गारस्येत्यर्थः ।। अण्णो भणइ - होउ गंधो उग्गारस्स, बहा सिस्थं णागच्छति तहा भुजउ । एते दो वि ततिम्रो प्रादेसो। १ गा० २६५१ । २ गा० २६५२ । ३ जिरे (पा०)। ४ गा० २६१२ । ५ गा० २६ ५२ । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-३५ उत्थो भण्णति - "अविजाणतो" पच्छद्ध। चउत्थ-पक्खासितो भणति - ससित्थो उग्गारो अत्थमिए गलगं जाव पप्पति, प्रागच्छिता अजाणतस्सेव पडिपविसति, एरिसं भुजो ॥२६५५।। एवं णेगम-पक्खासितेहिं भणिए पायरियो आह - "१एते ण होंति दोण्णि वि" अस्य व्याख्या - पढमबितिए दिवा वी, उग्गालो णस्थि किमुत रयणीए । गंधे य पडिगए या, एए पुण दो यऽणादसा ।।२६५६॥ पढम-बितिया प्रादेसा अणादेसा चेव जेण दिवा वि उग्गालस्स अभावो । ततिय-चउत्या एते दोणि वि अणादेशा सूत्रविरहितत्वात् ।।२६५६॥ "२सुहणिग्गत णातमोइलण" ति अस्य व्याख्या -- पडुपण्णऽणागते वा, काले आवस्सगाण परिहाणी। जेण ण जायति मुणिणो, पमाणमेतं तु आहारे ॥२६५७॥ एवमपि तस्स णिययं, जुत्तपमाणं पि भुंजमाणस्स । वातस्स व सिंभस्स व, उदए एज्जा उ उग्गालो ॥२६५८।। जो पुण तं अत्थं वा, दवं च णाऊण णिग्गयं गिलति । तहियं सुत्तणिवातो, तत्थादेसा इमे होंति ॥२६५६।। साहुणा पमाणजुत्तं पाहारेयव्वं, जेण पडुप्पणऽणागते काले प्रावस्सयजोगाण परिहाणी ण भवति तावतियं प्राहारेयव्वं । एवं पमाणजुत्ते प्राहारेयव्वे जो ससित्थो असित्थो उग्गालो दवं वा केवलं तं जो मुहणिग्गतं जाणित्ता पच्चोगिलइ तम्मि सुत्तणिवातो ।।२६५६।। तत्थ य इमे प्रादेसा भवंति - अच्छे ससित्थ चन्धिय, मुहणिग्गय-कवल-हत्थभरिते य । अंजलिपडिते दिडे, मासाती जाव चरिमं तु ॥२६६०॥ प्रच्छं प्रागतं जइ परेण अदिटुं प्रा दियति तो मासलहुँ । अह दिटुं तो मासगुरु। ससित्थमागतं जति परेण अदिट्ठ प्रातियति तो मासगुरु । दिढे चउलहुँ । प्रह तं सित्थं अदिटुं चव्वेति तो चउलहुं । दिद्वे चउगुरु । मुहाता णिग्गतं कवलं एगहत्थे पडिच्छिउं मदिढे प्रादियति चउगुरु, दिदै छल्लहुं ।। अह एक्कं हत्थपुहं भरियं प्रदिटुं धादियति तो छल्लहुँ, दिढे छग्गुरु । प्रह अंजलिभरियं प्रदिटुं आदिति तो छग्गुरु, दिढे छेदो। अंजलि भरित्ता अण्णं भूमीए पडियं तं पि अदिटुं मादियति तो छेदो, दि8 मुलं ।। १गा० २९५२ । २ २९५२। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६५६-२६६४ ] दशम उद्देशक: ८७ एवं भिवखुस्स । उवज्झायस्स मासगुरु आढत्तं अदिदिहिं गवमे ठायति । पायरियस्स चउलहु प्राढत्तं प्रदिदृदिट्टेहि दसमे ठायति ॥२६६०॥ दियराओ लहु गुरुगा, वितियं रयणसहिएण दिळतो । अद्धाण सीसए वा, सत्थो व पहावितो तुरियं ॥२६६१।। अहवा - ससित्थं प्रसित्थं वा अदिटुं दिटुं वा दिवसतो आदियंतस्स चउलहुं । राम्रो चउगुरु । विराहणा पुन्वणिता । बितियपदे कारणेण प्रादिएजा, ण य पच्छित्तं भवे ॥२६६१।। तत्थ प्रायरिया रयणसहियवणिए दिटुंतं करेंति । जल थल पहे य रयणा, णुवज्जणं तेण अडवि पज्जते । णिक्खणण-फुट्ट-पत्थर, मा मे रयणे हर पलावो ॥२६६२॥ __ जहा एगो वणियो कहिं चि थलपहेण महता किलेसेण सय-सहस्समोल्लाण रयणाणं पंचसताति उवज्जणित्ता पर विदेसं पत्थियो, पच्छा सदेसं पत्थितो। तत्थ य अंतरा पच्चंतविसए एगा अडवी सबरपुलिंद-चोराकिष्णा। सो चितेति - कहमविग्घेणं णित्थरेज्जामि त्ति । ते रयणे एक्कम्मि विजणे पदेसे णिवखणति । अण्णे फुटपत्थरे घेत्तु -- उम्मत्तग-वेसं करेति चोराकुलं च अडवि पवजति । तक्करे एज्जमाणे पासित्ता भणाति - अहं सागरदत्तो रयणवाणितो मा ममं डक्कह, मा मे रयणे हरीहह। सो पलवंतो चोरेहिं गहिरो पुच्छितो - कयरे ते रयणे ? फुटपत्थरे दंसेति ।' चोरेहि णायं - कतो वि से रयणे हडे तेण उम्मत्तगो जातो मुक्को य । एवं तेण पत्तपुप्फ-फल कंद-मूलाहारेण सा अडवी पंथो य आगमगमणं करेंतेण जणा भाविता ।।२६६२।। ताहे घेतूण णिसि पलायण, अडवी मडदेहभावितं तिसितो । पिविउं रयणाभागी, जातो सयणं समागम्म ॥२६६३।। ते रयणे णिसीए घेत्तु अडवि पवण्णो। जाहे अडवीए बहुमज्झदेसभागं गतो ताहे तण्हाए परब्भमाणो एगम्मि सिलायलकडे गवगादि-मडगदेहभावितं विवण्णगंधरसं उदगं दलृ चितेति - जइ एयं णातियामि तो मे रयणोवजणं णिरत्थयं सव्वं, कामभोगाण य प्रणाभागी भवामि, ताहे तं पिविता अडवि णित्थिण्णो । सयणधण कामभोगाण य सव्वेसि आभोगी भवति ॥२६५३।। इदाणि दिटुंतोवसंहारो - वणिउव्व साहु रयणा, महव्व अडवि (य) ओममादीणि । उदगसरिसं च वंतं, तमादियं रक्खए ताणि ॥२६६४॥ वणिय-सरिच्छो साहू, रयण-सरिच्छा महत्वता, उवसग्गपरीसह - सरिच्छा तक्करा, प्रोमादि सरिच्छा मडवी, वर्त मडगतोयसमं, फुट्टपत्थरसमाणे सादियारा महव्वया। कारणे वतमादियंतो महन्वए - रक्सति । प्रद्धाणसीसए मणुष्णं पाहारियं वंतं च ॥२६५४॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-३६ ताहे - दिवसतो अण्णं गेहति, असति तुरंते य सत्थे तं चेव । णिसि लिंगेणऽण्णं वा, तं चेव सुगंधि दव्यं वा ।।२६६।। दिवसतो अण्णं गेण्हति, मण्णमि वा अलमंते रातो प्रणं गेण्हति, तस्स वि प्रभाव सत्ये वा तुरियं पधावमाणे ताहे तं चेव वंतं घेत्तुचाउज्जातगादिणा सुगंधदव्वेण वासित्ता भुजति, न दोषेत्यर्थः ॥२६६५।। जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा, ण गवेसति ण गवसंतं वा सातिज्जति ॥२०॥३६।। जे त्ति णिद्दिसे । भिक्खू पुत्रवणियो । ग्लै हर्षक्षये। इमस्स रोगात केण वा सरीरं खीणं, सरीरक्खयो भवति तं गिलाणं, अण्णसमीवानो सोच्चा सयं वा णाऊणं जो ण गवति तस्स चउगुरु, जसो गिलाणो अगविट्ठो पाविहिति परितावादि तणिप्फण्णं पच्छित्तं पावेति, तम्हा गषेसियव्यो । सग्गामे सउवस्सए, सग्गामे परउवस्सए चेव । खेत्तंतो अण्णगामे, खेत्तबहि सगच्छ-परगच्छे ॥२६६६॥ सोचाणं परसमीव, सयं च णाऊण जो गिलाणं तु । ण गवसयती भिक्खू, सो पावति आणमादीणि ॥२६६७।। ___ सग्गामे सवउस्सए गिलाणो गवेसियध्वो । सग्गामे परउवस्सए तत्थ वि गवेसियव्यो। खेत्तंतो अण्णगामे एत्थ गिलाणो गवेसियव्यो । अह अण्णगामे खेत्तबहि एत्य वि गिलाणो गवेसियवो। एतेसु ठाणेसु सगच्छिल्लो परगच्छिल्लो वा भवतु गवेसियल्यो । ग्रहवा - बहुगिलाण - संभवे इमा विधी - अहवा - सग्गामउवस्सए सगच्छिल्लो परगच्छिल्लो य दो वि गिलाणा। पुव्वं सगच्छिल्लो गदेसियव्वो, पच्छा परगच्छिल्लो। एवं सम्वट्ठाणेसु पुव्वं प्रासण्णतरो गवेसियवो ॥२६६७॥ बितियपदेण ग्रसिंवादिक असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । अद्धाण रोहए वा, ण गवेसेज्जा य बितियपदं ॥२६६८॥ जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा उम्मग्गं वा पडिपहं वा गच्छति, गच्छंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३७॥ सोऊण जो गिलाणं, उम्मग्गं गच्छे पडिपहं वा वि । मग्गाओ वा मग्गं, संकमती आणमादीणि ।।२६६६।। उम्मग्गा णाम मडविपहेण गच्छति । अहवा- प्रपंथेण चेव, “पडिहेणं' ति जेणागतो तेणेव नियत्तति, ततो वा पंथातो मणं पपं संकमति । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६६५-२६७४ ] दशम उद्देशकः ८९ सो पुण किं एवं करेति ? उच्यते - सो चितेति जइ तेहिं दिट्ठो गिलाणवेयावच्च ॥ काह मि तो णिद्धम्मेसु गणिजीहामि । मह करेमि तो मे सकजवाघातो भवति । एवं करेंतस्स माणमादिया दोसा, जं च सो गिलाणो अपडिजग्गितो पाविहिति तणिप्फण्णं च पच्छित्तं पावति ॥२६६६॥ तम्हा दोसपरिहरणत्थं - सोऊण वा गिलाणं, पंथे गामे य भिक्खवेलाए । जति तुरियं णागच्छति, लग्गति गुरुए सवित्थारं ॥२६७०॥ गिलाणं सुणेत्ता पंथे वा गच्छंतो, गामं वा पविट्ठो, भिक्खं वा हिंडतो, जति तक्खणा चेव तुरियं गिलाणते णागच्छति तो से चउगुरु पच्छितं सवित्थारं ॥२६७०॥ तम्हा - जह भमर-महुयर-गणा, णिवतंति कुसुमितम्मि वणसंडे । तह होति णिवतियव्वं, गेलण्णे कतितवजढेणं ॥२६७१।। जह भमरा कुसुमिते वणसंडे णिवतंति एवं धम्मतरुरक्खंतेण वेयावच्चट्ठयाए णिवतियध्वं । साहम्मियवच्छल्लं कयं । प्रप्पा य णिज्जरादारे णितोतिनो भवति ।।२६७१। तस्स इमे दो दारा - सुद्ध सडी इच्छकार असत्त सुहिय ओमाण लुद्धे य । अणुयत्तणा गिलाणे, चालण संकामणा दुहतो ॥२६७२॥ "सुद्ध" ति अस्य व्याख्या - सोऊण वा गिलाणं, जो उवयारेण आगओ सुद्धो। जो उ उवेहं कुज्जा, लग्गति गुरुए सवित्थारे ॥२६७३॥ उववारो विधी । उवचारमेत्तेण वा जो प्रागतो सो सुद्धो, न तस्य प्रायश्चित्तं । उवेहं पुण करतो पउगुरुए सवित्थारे लग्गति ।।२६७॥ "२उवचार" स्य व्याख्या - उवचरति को गिलाणं, अहवा उवचारमेत्तगं एति । उवचरति व कजत्थी, पच्छित्तं वा विसोहति ॥२६७४॥ जत्थ गिलाणो तत्थ गंतूणं पुच्छितो को तुम्भ गिलाणं "उवचरति" पडिजागरतीत्यर्थः । अहवा - उवचरति पुच्छति - तुभ यो ति णो गिलाण इत्यर्थः । अहवा - लोगोपचारमात्रेणाऽऽगच्छति - 'उवचारो" भण्णति । अहवा - साधूणं मज्जाता चेव जं - "गिलाणम्स वट्टियव्वं" एस उवचारो भण्णति । १ गा० २६७३ । २ गा० २६७३ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे अहवा - कज्जत्थी उवचरति इति उवचारों, किं चि ज्ञानादिकं तत्समीपादी हतीत्यर्थः । हवा - पच्छितं मा मे भविस्सति त्ति निर्जरार्थः एस उपचारः ॥ २६७४॥१ इदाणि ""सड्डि" त्ति दारं - धम्मसङ्काए गिलाणं पडियरंतो गजरालाभं लभिस्सामि सोऊण वा गिलाणं, तूरंतो गतो दवदवस्स । संदिसह किं कमी, कम्मि व अट्ठे निउंजामि ॥ २६७५॥ " तुरंतो" ति - श्रवणानन्तरमेव त्वरितं तत्क्षणात् दवदवस्स प्रतिपन्नो शीघ्रगत्या इत्यर्थः । जत्थ गिलाणा तत्थ गंतूण गिलाणं गिलाणपडियरगं प्रायरियं वा भणाति - संदिसह, किं करेमि ? किंवा वेयात्रच्चट्ठे अप्पाणं णिउंजामि - योजयामीत्यर्थः ।। २६७५।। पडियरिहामि गिलाणं, गेलण्णे वावडाण वा काहं । तित्थाणुसजणा खलु, भत्ती य कया भवति एवं ॥ २६७६॥ संजोगदिट्ठपाठी, उवलद्धा वा वि दव्वसंजोगा । सत्थं व तेणऽहीयं, वेज्जो वा सो पुरा सी || २६७७॥ हमनेनाभिप्रायेणायातः गिलाणं पडियरिस्सामि, गिलाणवेयावच्चेण वा वावडे जे साहू तेसि भत्तपाण-विसामणादिएहि वेयावच्चं काहामि । एवं करेंतेहि तित्थाणुसज्जणा तित्थकरभत्ती कता भवति ।। २६७७॥ एवं तेण भणिते जति ते पहुप्पंति तो भांति - श्रज्जो ! वच्च तुमं, श्रग्हे पहुप्पामो । सो तेहि णिव्वेसबुद्धीए णिव्विसियव्वो । ग्रह ते ण पहुप्पंति, कुसलो वा सी आगंतुगो, संजोगदिट्ठपाढी, वेज्जसत्यं वा तेणाधीतं, पुन्त्रासमेण वा सो वेज्जो, तो ण विसज्जेति थिय से जोगवाही, गेलण्ण- तिगिच्छणाए सो कुसलो । सीसे वावारेता, तेइच्छं तेण कायव्वं || २६७८ ॥ ग्रह तस्स श्रागतुणी जोगवाही प्रत्थि, जति य गेलण्णतिगिच्छणाए सो कुसलो तो ससिस्से वावारेता इति - वावारणं कुल-गण-संघप्पप्रयण वादकज्जपेसणे वत्थपादुप्पावणे गिलाणकिच्चे सुतत्यपोरिसिया वा जो जत्थ जोगो तं तत्य सण्णिज्जोएता पणा सव्वपयत्तेण तेइच्छं कायव्वं ॥ २७८॥ सुत्तत्थपोरिसीवावारणे इमा विधी - दाऊणं वा गच्छति, सीसेण व तेहिं वा वि वायावे । तत्थऽण्णत्थ व काले, सोही य समुद्दिसति ह ॥ २६७६ ॥ पणा सुत्तत्थपोरिसीप्रो दाउं कालवेलाए गंतु तेइच्छं करेइ । अह दूरं तो सुत्तपोरिसि दाउ प्रत्थपोरिसीए सीसे वावारेता तेइच्छ करेति । अह दूरतरं आसुकारी वा पश्रयणं ताहे सीसेण दो दावेति, श्रप्पणा तेगिच्छं करेति । [ सूत्र - ३७ हप्पणी सीसो वायणाए असत्तो ताहे जेसि सो गिलाणो तेहिं वायावेइ । उभयतो वि वायंतस्स असती य प्रणागाढजोगस्स जोगो णिक्खिप्पड | १ गा० २६७२ । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६७५-२६८१] दशम उद्देशक: आगाढजोगिण पुण इमा विधी . "तत्थऽणत्थ व" त्ति - जत्थ सो गिलाणो खेते तत्थ वा खेत्ते ठिता। अहवा - "तत्थ" ति -- सगच्छे ठिता अण्णगच्छे वा ठिया प्रायरिएण भणिया - जहाकालं सोधिजह, ताहे जत्तियाणि दिवसाणि कालो सोधितो तत्तियागि दिवसाणि उदिसणकालो एक्कादवसेणं उद्दिसति । "हट्टे" त्ति गिलाणे पगुणीभूते जत्तियाणि दिवसाणि पमादो कालग्गहणे कतो, ण वा सुद्धो ते उद्देसणकाला ण उद्दिसिज्जति । अण्णत्थ ठिता सेसं विधि कप्पार नीवे सव्वं करेंति ॥२६७६॥ अण्णत्थ खेत्ते ठायंताण इमो विधी णिग्गमणे चउभंगो, अद्धा सव्वे व णेंति दोहं पि । भिक्खवसधी य असती, तस्सणुमए ठवेज्जा उ ॥२६८०॥ इमो चउभंगो - वत्थव्वा संथरंति, णो प्रागंतुगा । णो वत्थव्वा, आगंतुगा संथरंति । णो वत्थव्वा, णो प्रागंतुगा संथरंति । वत्थव्वा वि, आगंतुगा वि संथरंति । एत्थ पढमभंगे आगंतुगाणऽद्धा जावतिया वा ण संथरंति ते णिति । बितियभंगे वत्थब्वाण श्रद्धा जावतिया वा ण संथरंति ते णिति । ततियभंगे दोण्ह वि अद्धा जावतिया वा ण संथरंति ते णिति । एवं भिक्खवसहीण असति निग्गच्छंति । "तस्से" ति-गिलाणस्स जे अणुमता ते गिलाणपडियरगा उविज्जति, सेसा निर्गच्छन्तीत्यर्थः ।।२६८०॥ “सड्डि' त्ति गतं। इदाणि "'इच्छाकार" ति दारं - अभणितो कोइ ण इच्छति, पत्ते थेरेहिं को उवालंभो । दिद्रुतो महिंड्डीए, सवित्थरारोवणं कुजा ॥२६८१॥ कोइ साहू वेयावच्चे कुसलो, सो य परेण जति भण्णति - मनो! एहि इच्छाकारेण गिलाणवेयावच्चं करेहि, तो करेति । माणित्तणेणं अभणितो ण इच्छति काउं । सो य सोच्चा गिलाणं णागतो । कुलगणसंघरा य जे कारणभूता कत्थ सामायारीप्रो उस्सप्पंति, कत्थ वा सीदति, पडिजागरहेउं हिंडंति ते तत्थ पत्ता। तेहिं सो पुच्छित्तो - प्रजो ! उस्सपंति ते णाणदसणचरित्ताणि, मस्थि वा ममासे केति साधुणो, तेसि वा णिराबाह, गिलाणो वा ते कोति कत्थ ति सुतो ? सो भणति - अत्थि इप्रो प्रभासे। १ गा० २६७२ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-३७ साहू - जाणसि तेसिं वट्टमाणी ? जाणामि, अस्थि तेसि गिलाणो । थेरेहिं उवालो - "तुमं तत्थ किं ण गतो? ॥२९८१॥ बहुसो पुच्छिज्जतो, इच्छाकारं ण ते मम करेंति । पडिमुंडणा वि दुक्खं, दुक्खं च सलाहितुं अप्पा ॥२६८२॥ बहु वारा पुच्छिज्जतो भणाति - ते मम इच्छाकारं ण करेंति । अण्णं च अहं प्रणब्भत्थितो गतो तेहिं "पडिमुंडिमो" त्ति तेहिं णिसिट्ठो पडिमुडियस्स माणसं दुक्खं भवति । दुक्खं वा पडिमुंडणा सहिजति, अप्पावि दुक्खं सलाहिबति। जारिसं अहं गिलाणवेयावच्चं करेमि एरिसं अण्णो ण करेति तो किमहं प्रणभत्थितो गच्छामि। ___एत्थ थेरा महिड्डिय-दिटुंतं करेंति । "'महिड्रिो" ति राया। एगो राया कत्तियपुण्णिमाए मरुगाण दाणं देति । एगो य मरुगो चोद्दसविज्जाहाणपारगो। भोतियाए भणितो- तुमं सव्वमरुगाहिवो, वच्च रायसमीवं, उत्तमं ते दाणं दाहिति । सो मरुगो भणाति - एगं रायकिविसं गेण्हामि, बीयं प्रणामंतितो गच्छामि, जति से पितिपितामहस्स अणुग्गहेण पनोयणं तो मे आगंतुणेहीति, इह ठियस्स वा मे दाहिति । भोतिताए भणितो- तस्स अत्थि बहू मरुगा तुज्झ सरिच्छा अणुग्गहकारिणो । जति अप्पणो ते दविणेण कज्ज तो गच्छ । जहा सो मरुतो अब्भत्थणं मग्गता इहलोइयाण कामभोगाण अणाभागी जानो। एवं तुमं पि मन्मत्थणं मग्गंतो णिजरालाभस्स चुक्किहिसि । सवित्थरं च परितावणादियं चउगुरु प्रारोवणं पाविहिसि । एवं चमढेउ माउट्टस्स चउगुरु पच्छित्तं देति ॥२६८२।। इच्छाकार त्ति गतं। इदाणि "२असते" त्ति दारं । कुल-गण-संघ-थेरेहिं प्रागतेहिं पुच्छित्तो भणति - किं काहामि वराश्रो, अहं खु ओमाणकारो होहं । एवं तत्थ भणंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥२६८३॥ लोगो जो सम्वहा प्रसत्तो पंगुवत् सव्वस्साणुकंपणिजो सो “वरात्रो" भण्णति । सो हं वरामो तत्थ गतो कि काहामि ? णवरमहं तत्थ गतो प्रोमाणकारमो होहं । एवं भणंतस्स चउगुरुगा सवित्थारा भवंति ॥२६८३॥ सो य एवं भणंतो इमं भण्णति - उव्वत्त खेल संथार जग्गणे पीस भाण धरणे य । तस्स पडिजग्गताण व, पडिलेहेतुं पि सि असत्तो ॥२६८४।। कि तुम गिलाणस्स उव्वत्तणं पि काउं प्रसत्तो ? खेलमल्लगस्स भाणपरिट्ठवणे, संथारग-भुपण-बंषणपरितावणे, रामो जग्गणे, पोसहिपीसणे, सपाण-भोयण-भायणाण संघट्टणे, "तस्से" ति गिलाणस्स गिलाणपडिजागराण वा उवहिं पि पडिलेहि तुम असमत्थो ? ॥२६८४॥ “असमत्थ" इति दारं गतं । १ गा० २६८१ । २ गा० २६७२ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६८२-२६८८ ] इदाणि "सुहिए" त्ति दारं सुहियामो त्तिय भणती, अच्छह वीसत्थया सुहं सव्वे । एवं तत्थ भणते, पायच्छित्तं भवे तिविहं ॥ २६८५|| माकपविहारट्टिएहि सुत्रं जहा - प्रमुगोत्थ गिलाणी । तत्थ केती साहू भति वरगावचामो । - इदाणि २ प्रमाणे " त्ति दारं तत्येगे भांति - "सुहियामो" ति श्रम्हे सुहिए, मा दुक्खिए करेह । तुब्भे वि सव्वे वीसत्या वासु सुण अच्छह । कि अप्पाणं दुक्खे णिश्रोएह, मा श्रयाणुय चोट्सरिच्छा होह । एवं भगंताण तिविषं पच्छित । इमं जइ एवं प्रायरिश्रो भणति तो चन्गुरु ं । उवज्झायो भणति - तो चउलहुं । भिक्खुस्स मासगुरु ॥६५॥ " सुहिते" त्ति गयं । - - दशम उद्देशकः भत्ताति-संकिलेसो, अवस्स अम्हे वि तत्थ ण तरामो ! काहिंति कत्तियाणं, तेण चिय ते य श्रद्दण्णा || २६८६|| तत्र मासकपट्टिया गिलाणं सोच्चा एगे भणंति - टचचामो गिलाणपडियरगा । - 1 अण्णे तत्थ भणति अष्णे वि तत्थ गिलाणं सोच्चा पडियरगा आगया, तत्थ भत्तातिसंकिलेसो महंतो । ग्रम्हे वि तत्थ गता, "श्रवस्सं" निस्संदिद्धं "ण तरामो" - ण संचराम - इत्यर्थः । गिलाणपडियरणट्ठा भागताण वा केत्तियाण पायघोयण- प्रब्भंगण-विस्सामण- पाहुण्णगं वा काहिति । तेणं चिय गिलाणेण ते प्रद्दण्णा विषादीकृता इत्यर्थः ॥ २६८६ ॥ म्हेहि तहिं गएहि, श्रमाणं उग्गमातिणो दोसा । एवं तत्थ भणते, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ २६८७॥ इदाणि "लुद्धे " त्ति दारं - - all ९३ गिलाणपडि गिलाणgया बहुसमागमे णियमा श्रोमं उग्गमदोसा य तत्येव भवंति । एवं भणते चउगुरुगा सवित्यारा ॥२८७॥ म्हे मो रिट्ठी, अच्छह तुब्भे वयं से काहामो । थिय भाविता, ते वि य गाहिंति काऊ ॥२६८८ || मासपद्विहि सुयं जहा प्रमुगम्मि गमे प्रमुगायरियस्स गिलाणो श्रत्थि । जत्थ य सो गिलाणो तं तं वसहि भत्त- पाण- थंडिल्लमा दिएसु सव्वगुणेसु उववेयं रमणिज्जं सुहविहार जेहि सुयं ते चितेति प्रष्णहा तं ण सक्केति पेल्लिउ गिलाणलवखं मोत्तु । ताहे गिलाणलक्खेण गंतु भगंति - "अम्हे वि गिलाणवेयावच्चट्टयाए णिजरट्ठी प्रागता तं तुब्भे प्रच्छह, संम्हे गिलाणवेयावच्चं करेमी । श्रवि य अहं प्रभाविता सेहा, श्रम्हे वि ता यावच्च करेंते दट्टु ते वेयावच्चं काउं जाणिर्हिति ॥२८८॥ १ गा० २६७२ । २ गा० २६७२ । ३ गा० २६७२ । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार-चूणिके निगीशमूत्रे [मूत्र-३७ एवं गिलाणलक्ग्वण, संटिता पाहुण त्ति उक्कोस। पग्गंता चमति, तेसिं चारोवणा चउहा ॥२६८६॥ एवं गिलाणलवावेगणं नि गिलामा पिया कवडे टिना लोगे ''पाहुणग" ति काउ देंति, अदेंतेमु वि उक्कोमदव्वं मग्गति । एवं तं खेत्तं चमडेनि ! महिए य खने गिलाणा उग्गं लव्भति, ताहे तेमि चमढगाणं चउबिहा प्रारोवणा कजति - दव्व-खेत्त-बाल भावगप्फणा ॥२६८६।। तत्थिमा दव्वणिप्फण्णा - फासुगमफामुगे वा. अचित्त-चिते परित्तऽणंतेन असिणेह-सिणेहगते, अणहाराहार लहुगुरुगा य ॥२६ ॥ खेत्ते चमढणदोमेण अलभता गिलाणस्स इमं गेहंति प्रोभासणाए' "इह फासुगं एसणिज्जति" ति। मेसा कहा। फाग-प्रचित्त-परित्त-प्रसिणे ठ-ग्रगाहारिमे य चउलहुगा । एतेसि पडिप रखे गुरुगा ॥२६६०॥ एयं दव्व- णिफण्णं । इमं खेत्त-णिप्फण्णं। लुद्धस्सऽन्मंतरओ, चाउम्मासा हवंति उग्धाया । बहिता य अणुग्घाता, दव्यालंभे पसजणता ॥२६६१॥ उक्कोसदव्वलोभेण खेतं चमढेत्ता गिलाणपानोग्गं खेत्तभंतरे अलभताण चउलहुगा, अंतो अलब्भमाणे बहि मग्गंता ण लब्भंति चउगुरुगा। दव्वालभे पसजण त्ति अस्य व्याख्या - अंतो गिलाणपाउग्गे दव्वे अलभते बहि खेते पसजणा पच्छित्तं ॥२६॥ खेत्ता जोयणबुड्डी, अद्धा दुगुणेण जाव बत्तीसा । गुरुगा य छच्च लहुगुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥२६६२॥ खेतबहि प्रद्धजोयणातो प्राणेति चउगुरु । बहिं जोयणातो प्राणेति छल्लहुं । दुजोयणा २फ्रें। (फ्री) चउजोयणाप्रो छेदो। अट्ठजोयणाग्रो मूलं । सोलसजोयणाग्रो अणवट्ठा । बत्तीसजोयणाप्रो पारंचियं ॥२६६२॥ अहवा -दन्वालाभे पसजणा । पच्छित्तं इमं - अंतो बहिं ण लब्भति, ठवणा फासुग-महत-मुच्छ-किच्छ-कालगए। चत्तारि छच्च लहुगुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥२६६३॥ __ अतो बाहि वा गिलाण उग्गे अलभंते ताहे फासुयं परियासंति ङ्क। अफासुयं परियासंति था। ताहे सो गिलाणो तेण पारियासियतंग प्रणागाढं परिताविज्जति ङ्क। गाढं परिताविति डा। महंतगहणेण दुक्खादुवखे पुँ । मुच्छामुच्छे आ । किच्छपाणे छेदो। किच्छुस्सासे मूलं । समोहते अण वट्ठो। कालगते चरिम ॥२६६३॥ गतं खेत-पच्छित्तं । १ यावनया। २ छग्गुरु । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २९८९-२६६६] दशम उद्देशकः इदाणि कालणिप्फण्णं - पढमं राई ठवेंते, गुरुगा वितियाति-सत्तहिं चरिमं। परितावणाति भावे, अप्पत्तिय कूवणादीया ।।२६६४॥ पढमरातीए परियासेंतस्स ड्रा। बितियरातीए फ्रम। तइयरातीए फ्री । चउत्थरातीए छेदो। पंचमीए मूलं । छट्ठीए णवमं । सत्तमीए चरिमं ॥२६६४।। गतं कालपच्छित्तं । इदाणि भावपच्छित्तं - "परितावणाति' गाहापच्छद्धं अस्य व्याख्या - अंतो बर्हि ण लब्भति, परितावण-महत-मुच्छ-किच्छ-कालगते । चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥२६६शा ब्याख्या पूर्ववत् । अपत्तियं करेति डू। 'कूवति - प्रादिग्गहणेणं प्रणाहो हं ति भणेज्जा, ण देति वा मे, उड्डाहं वा करेजह, का ।।२६६५॥ एवं आहारे भणियं । इदाणि उवधीए अतिचमढिए खेत्ते संथारगे अलब्भंते । अंतो बहिं ण लब्भति, संथारग-महत-मुच्छ-किच्छ-कालगते। चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥२६६६॥ पूर्ववत् ।।२९६६॥ लुद्ध त्ति गत। इदाणि "'अणुयत्तणे' त्ति दारं - अणुअत्तणा गिलाणे, दव्वट्ठा खलु तहव वेज्जट्ठा। असतीते अण्णत्तो, आणेउं दोहि वी करणं ॥२६६७। 'दव्वटु' त्ति द्रव्यार्थेन गिलाणो अणुयत्तिज्जति पत्थदव्वं उप्पायं तेहिं दव्वाणुअत्तणा । "वेज्जट्ठि" त्ति वेज्जस्स अट्ठमुप्पाएंतेहिं वेज्जमणुयत्तंतेहिं य गिलाणो अणुयत्तितो भवति । सग्गामे असति दबवेज्जाण दो वि अण्णत्तो गिलाणस्स किरिया कायव्वा ॥२६९७॥ अहवा - दव्वाणुयत्तणा इमा - जायंते तु अपत्थं, भणंति जागामो तं ण लब्भति णे। विणियट्टणा अकाले, जा वेल ण वेति तु ण देमी ।।२६६८॥ जइ गिलाणो अपत्थदव्वं मग्गति तो भण्णति - अम्हे जायामो तं ण लब्भति । एवं भयंतेहिं अणुवत्तितो भवति । तस्सग्गतो वा उग्गाहे गच्छंति अतरा नियटुंति । तस्सग्गतो उल्लावं करेंति - "ण लद्धं । णे "प्रकाले वा जाइयं" ति जेण ण लब्भति, प्रकाले वा जायते गिलाणे भणति - जाव वेला भवति ताव उदिक्खाहि, ताहे प्राणेत्तु दाहामो, ण भणंति - ण देमो त्ति ।।२६६८|| खेत्तपो तत्थेव अण्णगामे, वुत्थंतरऽसंथरंत जयणाए । असंथरणेसणमादी, छण्णं कडजोगि गीयत्थे ॥२६६६।। १ गा० २९७२। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-भूणिके निशीथसूत्रे [ सूग-३७ "तत्येव" ति तस्मिन्नेव प्रामे यत्र स्थिता ते ॥२६६६॥ अस्य व्याख्या - पडिलेहपोरिसीओ, वि अकाउ मग्गणा तु सग्गामे । खेत्तंतो तदिवसं, असति विणासे व तत्थ वसे ॥३०००॥ जह सुलभ दव्वं तो पडिलेहणियं, सुतं प्रत्यं पोरिसिं च काउं मग्गंति, एवं प्रसइ प्रत्थं हाविति, एवं पि असइ सुत्तं हाविति, एवं प्रसह दुल्लभे य दव्वे पडिलेहग सुत्तत्यपोरिसीमो वि अकाउं सम्गामे प्रणोभट्ट मगति - उत्पादयंतीत्यर्थः। ""पण्णग्गामि" ति अस्प व्याख्या। पच्छ । सकोसजोयणखेत्तस्संतो अण्णगाम पडिदिणं अणोभटुं उप्पा-ति । एत्य वि सुत्तत्थ-मोरिसी परिहावणा ददुब्वा । असति प्रणोभट्ठस्स सग्गामपरग्गामेसु खेत्तंतो मोमट्ठ उप्पाएंति । तद्दिवसं सग्गामे परग्गामे सखेते असति - खेत्तबहिता व आणे, विसोहिकोडिं वऽतिच्छितो काढे । पतिदिणमलन्भमाणे, कम्मं समतिच्छितो ठवए ॥३००१॥ खेसरहिया वि सविसं मणोमटुं प्रति प्रोभट्ठ बिसुदं माणेयव्वं । "२वत्यंतरं"ति अस्य पदस्य व्याख्या-"विणासे च तत्थ व" । सखेतबहिता जतो प्राणिज्जति, जति तं दूरतरं, खीरादि वा तं विणासि दव्वं, पच्चूसगतेहिं उच्चउण्हे ण ल नति, विणस्सति वा, ताहे मवरण्हे गता तत्व वुत्था सूरोदयवेलाए घेत्तुं बितियदिणे अविणटुं प्राणेति। ___ अहवा- दूरतरे प्रविणासि दव्यं, "वृत्यंतरं" ति अंतरवुत्या प्रानयन्तीत्यर्थः । एसा सव्वा विही एसणिज्जेण भणिया । “प्रसंचरते जयणाए" ति जति एवं गिलाणं पडुग्च एसणिज्जेण न संथरंति तो गिलाणस्स सखेते सग्गामे पणगहाणीए तद्दिणं उप्पाएंति, सखेते परग्गामे य पणगपरिहाणीए तद्दिणं उप्पाएंति । तत्थ वि असतीए खेत्तबहिया वि पणगररिहाणीए तद्दिवसं उप्पाएति । एवं जाहे पच्छित्ताणुलोमेण कीतादिविसोधिकोडी प्रतिच्छितो ताहे जति गिहत्येहिं संजयटाए परिवासियं दहिमादि, जति य तं गिलाणस्स पत्थं तो सम्गामातो माणेति । असति सग्गामे परग्गामातो खेतबहियातो य भाति तदिवसं । एवं बाहे पच्छिताणुलोमेण पविसोहि पत्ता ताहे चउमुरुएसु वि अप्पबहुतं गाउं ताहे भण्णेण शावेति, सयं वा कड्डति । एसा गिलाणं पहुच्च जयणा भणिया । " असंथरतेसणमादि" ति जइगिलाणटाए वावगणं परस्सेतं वा वयंताणं प्रप्पणो हिंडताणं गिलाणपडियरगाण मसंथरं भवति तो ते वि एसणमादि पषगपरिहाणिजयणाए भप्पणो गेण्हंति । एवं जाहे गिलाणं पडुच्च प्राधाकम्म पि "समइच्छितो" प्रतिदिनं न लभतीत्यर्थः । ताहे ""छण्णं कडजोगी गीयत्थ"त्ति अस्य व्याख्या- "ठवए"त्ति । सुद्धमविसुद्ध वा गिलाणपाउम्मं दव्वं पडिदिणं मलमंत उप्पाएत घयादियं ठवयंति पर्युवासयंतीत्यर्थः, तं च छण्णपदेसे कडजोगी गीयत्यो वा ठवेति । श्रुतार्थप्रत्यूच्चारणासमर्थः कृतयोगी। यस्तु श्रुतार्थप्रत्युच्चारणसमर्थः स गीतार्थः । जं तं परियासिज्जति तं पुन रिसे ठाणे ठबिज्जति ।। १ गा० २९६६ । २ गा० २६६९ ३ गा० २६१८ । ४ गा० २६६६ । ५ गा० २९६६ | Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २६६०-३००६ ] दशम उद्देशकः . उव्वरगस्स तु असती, चिलिमिलि उभयं च तं जह ण पासे। तस्सऽसति पुराणातिसु, ठवेंति तदिवसपडिलेहा ॥३००२॥ तं पुण अण्णम्मि गेहोबरए ठविज्जति, असति उव्वरयस्स तत्थेव वसहीए अपरिभोगे कोणे कडगचिलिमिलीहिं आवरेत्ता ठविज्जति जहा “उभयं ण पस्सति" ति गिलाणो अगीयत्यो य । गिलाणो प्रभवहरेज्ज, अगीयाणं अप्पच्चयो भवति, तम्हा अप्पसागारिए ठवेज्ज । 'तस्स" ति अपरिभोगट्ठाणस्स असति पुराणघरे ठवति, प्रादिसद्दातो भावियसड्डघरे वा, तद्दिवसं च उभयकालं पडिलेहा कज्जति ॥३००२।। फासुगमफासुगेण य, सचित्त इतरे परित्तऽणंते य । आहार तद्दिणेतर, सिणेह इतरेण वा करणं ॥३००३॥ अहवा -- "दोहिं वि" ति सग्गामपरग्गामातो पाणेउं कायव्वं । अहवा - फासुगेण वा प्रफासुगेण वा सचित्तेण वा प्रचित्तेण वा परित्तादिएसु ॥३००३॥ गिलाणाणुअत्तणा गता। इदाणि वेजाणुअत्तणा । सो गिलाणो भणेज - वेज्जं ण चेव पुच्छह, जाणता तस्स वेंति उवदेसा । डक्कपिलग्गातिएसु य, अजाणगा पुच्छए वेज्जं ॥३००४।। तत्थ जति संजया चेव तिगिच्छं करेंति ताहे भणंति - अम्हेहिं पुच्छितो वेज्जो, “तस्स"तिवेज्जस्स उवदेसेण करेमो। सप्पडक्के पिडगं गंडं आदिसद्दातो सीतलिगा दुद्रुवातो-तेसु एसेव विधी । सव्वेसु अजाणगा वेज्जं पुच्छंति ॥३००४॥ सीसो पुच्छति - किह उप्पण्णो गिलाणो, अट्ठमउण्होदगातिया वुड्डी । किंचि बहुभागमद्ध, ओमे जुत्तं परिहरंतो ॥३००५॥ बहुविहा रोप्रासंका जेहि गिलाणो उप्पज्जति । अहवा - कयपयत्ते वि दीहगेलण्णं उप्पज्ज, जतो भणति - अट्ठमउण्होदगादिगा वुड्डी ॥३००५॥ अस्य व्याख्या जाव ण मुक्को तावऽणसणं तु असहुस्स अट्ठ छटुं वा । मुक्के वि अभत्तहो, णाऊण रुयं तु जं जोग्गं ॥३००६।। विसेसेणासज्झे रोगे अजिण्णजरगादिगे जाव ण मुच्चति ताव अब्भत्त, करेति, मुक्को व उरि प्रभत्तटुं करेति एवं सहुस्स । जो पुण असहू जहणेण अट्ठमं छटुं वा करेति, रोग वा गाउ - विसेसेण रोगस्स जं पत्थं तं कीरेति, जहा वायुस्स घतादिपाणं, अवभेयगे वा घयपूरभक्खणं । "'उण्होदगादिया वुड्ड त्ति" असहु रोगेण अमुक्को जता पारेति तदा इमो कमो - उसिणोदए कूरसित्था णिच्छुब्भिउ ईसिं मलेउं पारेति । एवं सत्तदिणे "कि चि" ति उसिणोदगे महुरोल्लणं थोवं छुभति तेण उदगेण पारेति । १ गा० ३००५। २ गा० ३००५ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-३७ एएण वि सत्तदिणे "बहु"त्ति ततियसत्तगे किं चि मत्तातो बहुयरं महुरोल्लणं उसिणोदगे छुभति । एतेण वि सत्तगं। "भागे" त्ति तिभागो मधुरोल्लणस्स दो भागा उसिणोदगे, एतेण वि सत्तगं । "अद्धं" ति अद्धं महुरोल्लणस्स अद्धं उसिणोदगस्स । एतेण वि सत्तगं । ततो परं तिभागो उसिणोदगस्स महुरोल्लणस्स दो भागा। एवं पि सप्तगं । ततो ऊणो तिभागो उसिणोदगस्स समहिगा दो भागा महुरोल्लणस्स । एवं पि सत्तगं । ततो किंचि-मेत्तं उसिणोदगं सेसं महुरोल्लणं । एवं पि सत्तगं । ततो एतेण कमेण महरोल्लणं अंबकुसणेण भिंदति । एवं कीरमाणे जइ पगुणो तो लटुं ॥३००६॥ एवं पि कीरमाणे, वेज्ज पुच्छंत्तऽठायमाणे वा । वेज्जाणं अट्ठयं ते, अणिड्डि इड्डि अणिडितरे ॥३००७॥ एवं पि कीरमाणा "अठायमाणे" त्ति रोगे अणुवसते रोगे वेज्जं पुच्छति । ते य अट्ठ वेज्जा भवंति तेसि च दो णियमा अणिड्डी, इयरे सेसा छ, ते य इड्डी अणिड्डी वा भवंति ॥३००७।। इमे ते अट्ट वेजा - संविग्गासंविग्गे, लिंगी तह सावए अहाभद्दे । अणभिग्गहमिच्छेयर, अट्ठमए अण्णतित्थी य ॥३००८॥ संविग्गमसंविग्गे, दिद्वत्थे लिंगि सावते सण्णी । अस्सण्णि इडि गतिरागती य कुसलेण तेइच्छं ॥३००६॥ संविग्गो, असंविग्गो, लिंगत्यो, गहीयाणुयश्रो सावगो, अविरयसम्मट्ठिी सण्णी । प्रसणिग्गहणातो तो घेत्तबा-प्रणभिग्गहियमिच्छो, अभिग्गहियमिच्छो, अण्णतित्थी य । दिद्वत्थग्गहणातो गीयत्यो गहितो। एत्य सविग्गगीयत्थेहिं च उभंगो कायवो - पुव्वं पढमभंगिल्लेण कारत्रेयव्वं । असति बितिएण, तस्म असति ततियभगेण, तस्सासति चरिमेण । तस्सऽसति लिंगमादिसु छसु कमेण इड्डीसु अणिड्डीसु वा सव्वेसु कुसलेमु । एस विधी इड्ढी-अभिड्ढीसु दोसु वि कुसलेसु अणिड्ढिणा कारवेयव्वं, ण इड्ढिीमतेण । दुः प्रवेशादिदोपत्वात् । एगदुबहुअतर कुसलेण तेइच्छं कारवेज्जा, पच्छा अकुसलेण । एसा चेव गतिरागती जहाभिहियविहागातो॥३००६॥ वोच्चत्थे चउलहुया, अगीयत्थे चउरो मासऽणुम्घाया। चउरी य अणुग्धाया, अकुसलकुसलेण करणं तु ||३०१०॥ संविग्गं गीयत्थं मोत्तुं असंविग्गेण गीयत्येण कारवेति एवमादि वोच्चत्थे चउलहुगा । गीयत्थं कुसलं मोनु अगीयत्थेण अकुसलेण कारवेति चउगुरुगा। कुमलं मोत्तुं अकुसलेण कारवेति एत्य वि चउगुरुगा चेव ॥३०१०॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३००७-३०१५ । दशम उद्देशक: EE वेजसमीवं गच्छतो इमा विधी - चोयगपुच्छा गमणे पमाण उवकरण सउण वावारे । संगारो य गिहीणं, उवएसो चेव तुलणा य ॥३०११॥ पाहुडिय ति य एगे, णेयव्वो गिलाण तो उ वेज्जघरं । एवं तत्थ भणंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥३०१२॥ चोदगो पुच्छति-"कि गिलाणो वेज्जसगासं निज्जउ, ग्रह वेज्जो चेव गिलाणसमीवं प्राणिज्जउ ?" एवं पुच्छियो पायरियदेसिगो भणति - "समीवं वेज्जे प्राणिज्जते पाहुडियदोसो भवति, तम्हा - गिलाणो चेव वेज्जघरं गिज्जउ"। आयरिप्रो भणति - एवं भणंतस्स चेव चउगुरुगा भवंति ।। ३०१२।। लिंगत्थमादियाणं, छण्हं वेजाण णिज्जतो मूलं'। संविग्गमसंविग्गे, उवस्सग्गं चेव आणज्जा ॥३०१३॥ लिंगत्थो सावगो सण्णि प्रणभिग्गहियमिच्छो य अभिग्गहियमिच्छो य अण्णतित्थियो य एतेसि छण्हं पि गिहं गच्छउ गिलाणं घेत्तुं, णो उवस्मयं एते प्राणिज्जति । अधिकरणदोषभयात् । संविग्गो असंविग्गो य एते दो वि उवस्सयं चेव प्राणिज्जंति ॥३०१३॥ चोदगो भणति – “२पाहुडिय" ति अस्य व्याख्या -- रह-हत्थि-जाण-तुरगे, अणरंगादीहि एंते काययहो। आयमण-मट्टि-उदए, कुरुकुय सघरे तु परजोगे॥३०१४॥ हत्थितुरगादिगमेव जाणं । अहवा - रहादिगं सव्वं जाणं भण्णति । अहवा - सिविगादिगं जाणं भष्णति, अणुरंगा गड्डी, एवं आगच्छंते पुढवादिकायवधो भवति । वेज्जेण य परामुसिए, गंडादिफालणे वा कते प्रायमंतस्स मट्टिय-उदगस्स य कुरुकुयकरणे वधो भवति । सघरे पूण वेज्जस्स परजोग्गातो णाधिकरणं भवतीत्यर्थः ।।३०१४॥ प्राचार्याह - वातातवपरितावण, मय मुच्छा सुण्ण किं सुसाणकुडी । सव्वे व य पाहुडिया, उवस्सए फासुगा सा तु ॥३०१५॥ गिलाणो वेज्जघरं णिज्जतो वातेण प्रायवेण य परिताविज्जति, लोगो य पुच्छति – “किं.एस मतो णिज्जति"। "सुण्ण" त्ति अंतरा णिज्जतो मतो, वेज्जेण य उग्णाणिते मुहे मतो दिट्ठो भणति – “कि मझ घरं सुसाणकुडी, जेण मतं प्राणेह" । ततो वेज्जो सचेलो पहाएज्ज, सव्वम्मि य फलिहए छगणपाणियं देज्ज । १ ( ते घेत्तुं ? ) । २ गा० ३०१२ । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र- ३७ हे चोदग । गिलाणे णिज्जंते समतिरेगा सव्वेव पाहुडिया । उवस्सए पुण फासुएण करेज्ज ।।३०१५।। “चोदगपुच्छ" त्ति दारं गतं । इदाणि ""गमणे" त्ति दारं १०० उग्गहधारणकुसले, दक्खे परिणामिए य पियधम्मे । कालण्णू देसण्णू तस्साणुभए य पेसेज्जा ॥ ३०९६ ॥ वेज्जो देस उग्गहणसमत्थो, अविस्सरणेण धारणासमत्यो, लिहणदव्वभा गट्ठावणे य कुशलो. शीघ्रकरणत्वात् दक्षो, प्रत्रवादसद्दहणातो परिणामगो, निर्मिथ्यकरणत्वात् धर्मप्रियो, वेसे कालण्णू, देशग्रहणात् रिक्तक्षणः, क्षेत्रे - प्रसन्नं वा परिगृह्यते तं देस जानातीति देसण्णू । एरिसा गिलाणस्स य अणुमता ते वेज्जसमीवं पेसेज्जा । अहवा - "तस्से" ति वेज्जस्स जे अणुमता ते वेज्जसमीचे पेसेज्ज । वंद्यस्य यैः सार्धं न विग्रहः लोकयात्रा इत्यर्थः ॥ ३०१६॥ एयगुणविपमुक्के, पेसंतस्स चउरो अणुग्धाया । गीतत्थेहि यगमणं, गुरुगा य इमेहिं ठाणेहिं ॥३०१७|| एयगुणविवमुक्के प्रायरियो जति पेसति तो चउगुरु पच्छित्तं, ते य गीयत्थे पेसेज्ज ||३० * ७ ॥ इदाणि "माणे" त्ति दारं एक्कं डुगं चउक्कं, इंडो दूा तहेव णीहारी । कि नीले मलिणे, चोल-रय - णिसेज्ज-मुहपोती ॥ ३०१८ || एगो दंडो, दो जमदूग्रो, चउरो णीहारी । एयपमाणे पेसवेंतस्स चउगुरु । इदाणि "उवकरणे" त्ति दारं कि होवकरणा जति गच्छति णीलेण वा मलिणेण वा । किं च तं उवकरणं - चोलपट्टे रयहरणं णिसेज्जा मुहपोत्तिया य, एत्थ निर्योगोपकरणमलिने चतुगुरुमित्यर्थः तस्मात् शुद्धं शुक्लं गृहीतव्यं ॥२०१८ || इदाणि "४सउणे" त्ति दारं - महलकुचेले अब्भंगिएल्लए साणु खुज वडभे य । कासायवत्थकुच्चं-धरा य कज्जं न सार्हेति ॥ ३०१६ ॥ इमे साहंति - - "साणे" त्ति मंदपादी शुक्लपादो वा । कुज्जं वा सरीरं श्रस्य उद्घुलिता ससरक्खा वेसे दिट्टा कज्जं ण सार्हति ।।३०१६ नंदीतूरं पुण्णस्स इंसणं संख - पडह सद्दो य । भिंगार वत्थ चामर एवमादी पसत्थाई || ३०२०|| १ गा० ३०११ । २ गा० ३०११ । ३ गा० २०११ । ४ गा० ३०११ । एते णिग्गम Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३०१६-५०२४] दशम उद्देशकः णंदीमुखस्स मउंदादीतूरस्स, बहु प्राउज्जसमुद्दातो वा तूरं भण्णति, संखस्स पडहस्स य सहसवणं पसत्थं, पुण्णकलसस्स भिंगारस्स छत्तस्स य चामराण य, आदिसहातो सीहासणस्स दधिमादियाण य दरिसणं पसत्थं ॥३०२०॥ आवडणमादिएसु, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया । एवं ता वच्चंते, पत्ते य इमे भवे दोमा ॥३०२१॥ उंबरमादी सिरेण घट्टेति त्ति प्रावडणं भण्णति । पाादसद्दातो पडति वा पक्खलति वा अण्णेण वा रक्खमादिए वेत्तुं 'अक्कंचितो कहिं वा वच्चसि त्ति पुच्छिनो छोयं वा अमगुण्णसहसवणं एवमादिएसु जइ गच्छति तो चउगुरु पच्छित्तं । एस ताव अंतरा वच्चंतस्स विही भणितो। वेज्ज घरं पतेण इमे दोसा परिहरितव्या ॥३०२१॥ इदाणि “२वावारे" ति दारम् - साडऽभंगण उव्वलण, लोयछारुक्करडे य छिंद भिंदंते । सुह आसण रोगविही, उवदेसो वा वि आगमणं ॥३०२२॥ एगसाडो वेज्जो अप्पसत्थो ण पुच्छिज्जति, तेल्लादिणा अभंगितो, कक्कादिणा उबवलितो, लोयकरणे वा अद्धकम्मिज्जितो, छारंगारकेयारादीण वा उवरि ठितो, दारुमादि वा किंचि छिदति, खुरप्प. गादिणा वा कस्स ति दूसियभंगं छिदति, घडकमलाउं वा कस्स ति भिदति सिरोवेहं वा । एरिसेसु अप्पसत्थजोगेसु ण पुच्छिज्जति । गिलाणस्स वा जति किं चि छिदियव्वं भिदियव्वं वा तो पुच्छिज्जति । इमेरिसो पुच्छियवो - सुहासणत्यो रोगविधी-वेज्जसत्थं वा पढंतो पुच्छिज्जति । सो य वेज्जो पुच्छितो संतो गिलाणोवत्थं सोउं उवदेसं वा देति पागच्छति वा गिलाणसमीवं ॥३०२२॥ इदाणि "3सिंगारे" ति दारं - पच्छाकडे य सण्णी, दसणऽधाभदाणसड्ड य । मिच्छादिट्ठी संबंधिए य परितिथिए चेव ॥३०२३।। पुराणो पच्छाकडो, गिहीयाणवतो सावगो सण्णी, दंसणगंपण्णो अविरतो सम्मट्ठिी, दसणविरहितो अरहतेसु तस्सासणे साधू उभयभद्दसीलो अहाभद्दो भण्णति, दानं प्रति सड्ढी गृहस्थः, साक्यादिसासनं प्रतिपन्नो मिथ्याष्टिः, स्वजन: संबंधी, सरक्खादिलिंगट्ठिता परतित्थिणो। च सद्दो समुच्चए । एवसद्दो पुरिसाभावे इत्थि-णपुंसेसु दट्टव्वो। एसि सिंगारो कज्जति - जाहे वेज्जो आणिज्जति गिलाणट्ठा तुब्भे तत्थ सणिहिता होह, जं सो भणति तं तुम्भे सव्वं पडिवज्जह ॥३०२३।। वेजसमी पदविता जे ते वेजस्स इमं कहिंति -- वाहि-णिदाण-विकारे, देसं कालं वयं च धाउं च । आहार अग्गि धिति बल, समुई वा तस्स साहति ॥३०२४॥ जरादिगो वाही, णिदाणं रोगुत्थाणकारणं, प्रवर्धमानरोगविशेषो विगारः। स गिलाणो अमुगम्मि जातो, वसंताइ केइ काले जातो, रोगुत्थाणकालं वा से कहेंति, इमो से यौवनादिको वयः, वातादियाण य १ प्रसंचित्तो, अखंचित्तो पा० । २ गा० ३०११ । ३ गा० ३०११ । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-३७ धातण इमो से उक्कडो, आहारे अप्पभोगी चि कहेंति, सामर्थ्य अस्ति नास्तीति, धृतिबलं समुच्चयभावः । एयं सव्वं वेज्जस्स कहेति ।।३०२४॥ इयाणि "'उवदेसे" त्ति दारंसव्वं सोउं वेज्जो सगिहत्थो चेव दव्यादिव उवदेसं देज्ज - कलमोयणो य खीरं, ससक्करं तूलियादिया दव्वे । भूमिघरट्टग खेत्ते, काले अमुगीइ वेलाए ॥३०२५॥ दव्वरो कलमसालिग्रोदणो, खीरं च खंडसक्कराचितं, सस्सदेहप्रत्थरणं तूली । प्रादिसदातो पल्लको, पाउरणं रल्लगादि । खेतम्रो भूमिघरे वा । कालतो पढमपहरा दिएसु देह ॥३०२५॥ इच्छाणुलोमभावे, ण य तस्सऽहियाऽहवा जहिं विसया । अहवा खित्तादीस, पडिलोमा जा जहिं किरिया ॥३०२६।। भावो जं से इच्छरो अणुलोमं तं से देह । अधवा - ण य तस्सऽहिया जहिं विसया प्रतिलोममित्यर्थः । अहवा - दित्तचित्तस्स अवमाणो कज्जति, खित्तचित्तस्स अवमाणो कज्जति, जक्खाइट्रस्स वि प्रणुलोमं पडिलोमं वा कज्जति, जाव जम्मि रोगे प्रसाधिता किरिया सा तत्य कज्जति ॥३०२६॥ अहवा - तस्स गिलाणस्स सण्णायगो कोइ भणेज्ज - णियएहि ओसहेहि य, कोइ भणेजा करेमहं किरियं । तस्सप्पणो य थाम, नाउंभावं च अणुमण्णे ॥३०२७।। अप्पणिज्जेहि प्रोसहगणेहिं करेमि किरियं कारवेमि वा, विसज्जह मे व गिहं । एवं भणिए कि कायव्वं ? "तस्से" ति गिहत्यस्स भावं गाउं जइ उण्णिक्खमणाभिप्पारण करेति तो ण विसज्जेंति, धम्महेउं करेंतस्स अणुण्णवति, गिलाणस्स वा अप्पणो जइ दृढो भावो तो अणुण्णवेति, इहरहा णो ॥३०२७।। अहवा - वेजो भणेज्ज - जारिसयं गेलण्णं, जा य अवस्था तु वट्टए तस्स । अद्दठूण ण सक्का, बोत्तुं तो गच्छिमो तत्थ ॥३०२८।। जारिसं तुन्भेहि गेलण्णमक्खायं, जारिसा य तस्स वट्टमाणो अवस्था कहिता, एरिसाए गिलाणं प्रदळूण ण सक्केति किरितोवेदेसो दाउं, किरियं व काउं, तो हं तत्येव वच्चामि ॥३०२८।। इयाणि "तुलणे" त्ति ? दारं । सगिहट्ठियस्स गिलाणसमीवागयस्स वा उवदेस देतस्स वेज्जस्स - अपडिहणंता सोउ, कयजोगाऽलंभे तस्स किं देमो ? जह विभवा तेइच्छा, जा लाभो ताव जूहं ति ॥३०२६।। १गा० ३०११ । २ गा० ३०११ । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३०२५ - ३०३५ ] दशम उद्देशक : दव्त्रादियं वेज्जुत्रदेसं समग्गमप्पडिहणंता सोउं अप्पाणं तुलेति किमेयं लभिस्सामो ण वेति ? जति धुवो लाभो प्रत्थि तो ण भांति किं चि । अहवा संकिते भति जति एयं कते जोगे ण लभामो तो कि देमो ? वेज्जसत्थे य जह विभावा तेइच्छा भणिना सापवादेत्यर्थः, एवं ताव उसारेति जाव जम्मि पव्वे धुवो लाभो भविस्सति । जह जाव कोदवोदणो, जूहं च कांजिकमित्यर्थः । तंडुलोदग मुद्गरसो वा जूहं भष्यति ।। ३०२६ ॥ वेज्जगणे वेज्जस्स गिलाणस्स य कितिकम्मकरण इमा विधी एगो संघाडोवा, पुव्वं गंतूणुवस्सयम्मि करे । लिंपण - सम्मज्जणयं, गिलाणजोग्गं च आणेति ॥ ३०३०|| विज्जरस य पुष्फादी, विरइत्ता आसणे य दोणि तहिं । वाइत्ता य गिलाणं, पगासे वह अच्छति ॥ ३०३१|| भुंडाणे सण, दावण - भत्ते भतीय आहारे । गिलाणस्स आहारे, यव्वो णुपुच्ची ||३०३२ || दा० गा० भुट्टा गुरुगा, तत्थ वि आणादिया भवे दोसा । मिच्छत्तं रायमादी, विराहणा कुल - गणे संघे || ३०३३॥ श्रारि जति वेजस्स श्रागच्छतो प्रभुद्वाणं देति तो चउगुरुगा आणादिया ढोसा । राया रायश्रमच्चो. वा चोप्पगसमीवातो सोउं सयं वा दठ्ठे “प्रायरिओ वेज्जस्स प्रब्भुट्टितो" त्ति, "अम्हं गव्वेण प्राणं ण देति, अम्हं भिच्चस्स णीयतरस्स य प्रभुट्ठाणं देति, ग्रहो ।" "दुट्ठधम्मं" मिच्छत्तं गच्छे, पदुट्ठो वा कुल- गण - संघस्स पत्थारं करेज्ज ||३०३३॥ भुट्टा गुरुगा, तत्थ वि आणादिणो भवे दोसा । मिच्छत्तं सो विन्नो, गिलाणमादी विराहणया ॥ ३०३४ || १०३ rs रिप्रो वेजस्स श्रब्भुट्ठाणं ण देति तो चउगुरुगा, प्राणादिणो य दोसा । सयं वेज्जो प्रणो ar "अहो त सिणो वि गव्वमुव्वहंति" त्ति मिच्छतं गच्छे । ग्रहवा - पट्टो गिलाणस्स णो किरियं कुज्जा, गिलाणस्स वा अप्पयोगं करेज्ज, एवं गिलाण - विराहणा, आदिसद्दतो रायवल्लभो गिलाणं पि वेध-वधा दिएहिं त्रिराहेज्ज ||३०३४ || हा एते दोसा तम्हा गीत्थे आणणं, पुवं उकिंतु होति अभिलावो । गिलाणस्स दायणं, सोहणं च चुण्णाइगंधे य || ३०३५|| गियथेहि वेज्जो पुग्वत्तविहाणेण श्रायत्रो जया य श्रागच्छति तदा तिन्हं एगो पंचण्हं दो जणा प्रागंतु गतो गुरुणो कहेंति - "वेज्जो श्रागच्छइ" त्ति । . Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - ३७ ता गुरवो दो श्रासणे ठावेंति, प्रायरिश्रो चंक्रमणलवखेग पुग्छुट्टितो अच्छति । गीयत्थेहि य कहेयव्वं - एस वेज्जो श्रागतो ति । गुरुणा य पुव्वुट्ठिएण सो पुध्वं प्रणालवंतो वि श्रालवेयन्दो । पुव्वण्णत्थे आसणे उवणिमंतेयग्वो, ततो प्रायरिम्रो वेज्जो य श्रासणेसु उवविसंति । "अब्भुट्ठाण असणे त्ति गतं । इदाणि ""वायणे" त्ति दारं tox गिलाणस्स जति किंचि सरीरे उवकरणं वा असुई तं पुव्वमेव धोवेयव्वं खेल मल्लगो काइयसण्णासाधीय श्रवणेयव्वो, भूमी उवलिपियवा । तहा वि दुगंधे पडवासमादि चुष्णागं घुत्रणेयव्वा । एवं गिलाणी तीतो सुविकलवासपाउनो दरिसिज्जति । जति कि गुंडोति फाडेयव्वं, तम्हि फालिए उसिगोदगादिफासु हत्यवोवणं दिजति णिच्छे व पच्छाकडादिया मट्टिया उदगं यच्छति, गंधपुष्फ त्रुष्णं तंबोलादियं च से पयच्छंति ।।३०३५॥ इदाणि भत्ते भती य प्राहारे" त्ति पच्छद्धस्स इमं वक्खाणं । वेज्जो भणति " -- चउपादा तेइच्छा, को भेसजाइ दाहिती तुब्भं ? तहियं तु पुव्व पत्ता, भांति पच्छाकडा म्हे ॥ ३०३६ ॥ उपादा इच्छां भवति । गिलाणो, पडियरगा, वेज्जो, भेसज्जागि य । तुब्भ को भेसज्ज पयच्छहिति ति ? । तत्थ पच्छः- कडादि पुत्र्वं संगारदिण्णं पत्ता भांति - मम्हे सव्वं दाहामो ॥ ३०३६ ।। कोयी मज्जणग विही, सयणं आहार उवहि केवडिए । गीयत्थेहि य जयणा, अजयण गुरुगा य श्राणादी ||३०३७|| कोइ वेज्जो भणेज्ज - "मज्जणं" - पहाणं, विधी विभवेण स्नातुमिच्छति इत्यर्थः । सयणं पल्लं कादियं, श्राहारमुक्कसं, उहि तुलित्तमादी, "केवडियं" ति उकेत्रगा । एवं गिलःणस्स मज्भं वा को दाहिति ? एवं सव्वं पच्छाकडादिएहि प्रभुनगं व्वं । पच्छाकडाण य प्रभावे गीयत्येहि य जयणाए अब्भुवगंतव्वं । जति प्रजयजाए अब्वगच्छंत पडिसेहिति वा तो चउगुरुगा, प्राणादिया य दोसा भवंति । एतेसु मज्जणादिसु दिज्जंतेसु प्रज्जिते वा मद्दो किरियं करेति चेव, जो पुण प्रभहो सो संबुद्धे प्रब्भुवगते णिक्काइयतरं करेति ॥ ३०३७।। एयस्स णाम दाहिह, को मज्जणगाइ दाहिती मज्झं ? ते चेव णं भणति, जं इच्छसि तं वयं सर्व्वं ॥ ३०३८|| एयरसेति गिलाणस्स मज्जणादि सत्र्यं तुम्मे दाहिह, मज्भं पुण को दाहिति ? एवं भणितो चैव पच्छाकडादि भणति - जं जं इच्छसि तं तं सव्वं ब्रम्हे दाहामो ॥ ३०३८ ॥ - जं एत्थ सव्व श्रम्हे, पडिसेहे गुरुग दोस आणादी । पच्छाकडा य असती, पडिसेहे गुरुग आणादी || ३०३६ || - जे ते पुव्वपच्छाकडा दिया पण्णविता तेहि एवं भणितो "जं एत्वं गिलाणस्स तुज्झ दायव्वं तं सव्वं म्हे दाहामो, " एवं मणिते जो ते प्रधिकरणमया पडिसेर्धेति तस्स चउगुरुगा, श्राणादिणो य दोसा । १ गा० ३०३२ । २ गा० ३०३२ । ३ कियत् । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३०३६-३०४४ ] दशम उददेशक: पच्छाकडादियाण वा असतीए जो वेज्ज पडिसेहेति तस्स वि एते एव चउगुरुगा आणादिया य दोसा भवंति ॥३०३६।। जुत्तं सयं ण दाउं, अण्णे देंते व णं णिवारेति । ण करेज गिलाणस्सा, अवप्पयोगं च से देजा ॥३०४०॥ वेज्जो ते पडिसेहिज्जंते सोउ भणति - अपरिग्रहत्वात् साधूनां युक्त युज्यते अदाणं । जं पुण अण्णे वि देते णिवारेति, तेण पदुवो य गिलाणकिरियं ण करेज्ज, अवप्पयोगं करेग्ज, तस्मादन्यान्न निवारियेदित्यर्थः ।०४०॥ "गीयत्थेहि" य जयणाए त्ति अस्य व्याख्या - दाहामो त्ति व गुरुगा, तत्थ वि आणादिणो भवे दोसा । संका व सूयए हिं, हियणढे : तेणए वा वि ॥३०४१॥ पच्छाकडादियाण असति जति साहू भणाति-अवस्सं ते भत्तं दाहामो तो चउगुरुगा प्राणादिया दोसा। अहवा - इमे दोसा। एते अहिरण्णा कतो दाहिति, अण्णेण विहिते सो संकिज्जति, गढे वा दविणजाते एतेण गहियं ति संकिज्जति, तेणगो वा एस ति संकिज्जति, सूयगेहि वा राउले सूइज्जति-प्रत्थि से दविणजायं ति जेण वेज्जस्स देति त्ति ॥३०४१।। पडिसेहेऽजयणाए, दोसा जयणा इमेहि ठाणेहिं । भिक्खण इड्डी बितियं, रहिते जं भणिहिसी जुत्तं ॥३०४२॥ पच्छाकडादियाण असति जइ वेज्जं अजयणाए पडिसेहेति-"णेति भत्ति भत्तं वा" दोसा तो चउगुरुगा, माणादिया दोसा, तम्हा जयणा कायव्वा । इमेहिं ठाणेहि भिक्खाणियं काउं दाहामो - इड्डिणे वि णिक्खमंते जं णिक्खितं तं घेत्तुं दाहामो, बितियपदेण वा कारणजाते गहियोद्धरियं दाहामो, “रहिए" ति पच्छाकडादिएहिं रहिए एवं भणंति - जं तुम भणीहिसि तं जहासत्तीए सव्वं दाहामो, जम्हं जुत्तं तं काहामो, एवं साहारणं ठति ॥१०४२॥ कयाति सो वेज्जो एवं भणेज - अहिरण्ण गच्छ भगवं, सक्खी ठावेह देंति जे पउणं । धंतं पि दुद्धकंखी, ण लहइ दुद्धं अ-घेणू ते ॥३०४३॥ इह साक्षी प्रतिभू वा गृह्यते (घ) वंतं पि णिरायं पि भणियं पि होति, प्रधेणू विसुक्खली वंज्झा च, न तस्मात् क्षीरं प्राप्स्यतीत्यर्थः ।।३०४३।। एवं भणते - पच्छाकडादि जयणा, दावण कज्जेण जे भणिय पुन्धि । सड्ढा विभवविहणा, ते च्चिय इच्छंतया सक्खी ॥३०४४॥ १ गा० ३०३७ । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-३७ इह जयणग्गहणातो कम्मे घेप्पति, दवावणकज्जेण जे प्राणता ते "चेव" सङ्क-विरहिता, विभवविच्छिण्णा य दाणस्स भावे इच्छंता ते चेव सक्खी यतिजति, जहा - "अम्हेहि भिवखुणिय काउं जहालद्धं एयस्स दाहामो अम्ह य ज जुत्तं तं करेहामो-धर्माविरुद्धमित्यर्थः । तुम्हे एत्थ सक्खी प्रतिभू वाचा'' ||३०४४॥ अहवा - १"इडि" ति अस्य व्याख्या - कोइ इडिमंतो पव्वइतो ताहे सो भणति - पंचसतदाणगहणे, पलालखेलाण छड्डणं च जहा । सहसं च सयसहस्सं, कोडी रज्जं च अमुगं वा ॥३०४॥ वेज्जस्स पुरप्रो इड्विमं भणति - जहा पलालखेला अकिपित्करा णिप्पिवासचित्तेहिं छड्डिज्जंति एवं तडियकप्पडिएसु अहं पंचसया देता इतो “गहणे" त्ति पंचसयाणं लाभे वि रूपकस्याष्टादशीमिव कलां मन्यमाना ग्रहणं कृतवन्त, एवं सहस्से कोडि रज्जं वा अमृगं च अनिर्दिष्ट संख्यास्थानं ग्रहीतव्यं ॥३०४५।। एवं ता गिहवासे, सी य इदाणिं तु किं भणीहामि । जं तुझऽम्ह य जुत्तं, ओगाहे तं करीहामो ॥३०४६।। एवं अम्ह गिहवासे प्रासी इदा णि पुण अकिंचणा समणा पवइया कि भणामो, तहावे गिलाणे "योगाढे' ति अट्ठीभूते जाहं जुत्तं अणुरूपं तं तुज्झ काहामो ॥३०४६।। परसक्खियं णिबंधति, धम्मावणे तत्थ कइयदिटुंतो। पासाए कूवादी, वत्थुक्कुरुडे ठितो दाई ॥३०४७॥ भणिए इड्ढिणा एवं आगंतुगो वेज्जो जति परसक्खियं गिबंधति तो गिबधतो चेव एवं भण्णति - धम्मावणो, एस अत्थं जं संभवति घेत्तन्वं,कइय-दिटुंतसामत्थेण, जहा-कोति णगरं गतो जत्थावण सुवण्णं रययं वा तत्थ गेण्हति, एवं गंधियावणे चंदणादियं, णेसत्थिएसु मुसलिमादियं, पोतिएसु (सालिमादियं) खज्जगविसेसो। एवं धम्मावणे तुमे धम्मो घेत्तव्वो। एवं पण्णवितो वि जति णेच्छति ता मोहिमादि पुच्छिउँ पासाद-कूव-वत्थु-कुरुडादिए सु ठियं दव्वं घेत्तुं दायव्वं, ण य पडिसेहियन्यो ।।३०४७।। अंतो पर-सक्खीयं, धम्मादाणं पुणो वि णेच्छंते । सच्चेव होति जयणा. अरहितरहितम्मि जा भणिता ॥३०४८॥ प्रणागंतुगे वि वेज्जे एस चेव विधी । धम्म एव आदाणं धम्मादाणं "पुणो' त्ति पुणो पुणो भण्णमाणो, जया तं णेच्छति तदा सच्वेव जयणा जा पच्छाकडादिएम अरहिते रहिते वा पुव्वं प्रादीए भणिता । इह प्रादीए चेव सगच्छावणे सा चेव विधी ॥३०४८।। जइ सग्गामे वेज्जो ण होज्ज तो अण्णगामातो वि प्राणे पव्वो तत्थ । को विसेसो ? उच्यते - णहिज्जे णाणत्त, बाहिं तु भणीए एस चेव गमो । पच्छाकडादिएसु, अरहितरहिते य जो भणितो ॥३०४६।। __ पाहेज्ज णाम कटामदावणियं, तं वत्थव्वस्स ण भवति, एयं 'णाणत्तं" विसेसो, “बाहि तु" त्ति अन्य ग्रामगतस्येत्यर्थः । शेषं पूर्ववत् ॥३०४६।। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३०४५-३०५३ ] दशम उद्देशक: इमा जयणा म. गादीच्छंते, बाहिं अभिंतरे व अणुसट्ठी । धम्मकह-विज्ज-मंते, निमित्त तस्सट्ठमण्णो वा ॥३०५०।, मज्जणं स्नानं, प्रादिसरातो अभंगुव्वट्टणादि ग्राहार-सयणादि वा, “बाहि" ति पंथे आगच्छंतो त्ति गिलाणसगासे पच्छाकडादिया कारविज्जति, तेसऽसति अप्पाणेण कज्जति । अहवा - पच्छाकडादियाण असती भणंति - बाहिं कूवतडागादिरसु व्हायह, बाहिं अणिच्छते मभितरे हाणमिच्छते अणुसट्ठीमादि कज्जति, विज्जामंतणिमित्तं वा तस्साउंटणणिमित्तं पयुंजति, अण्णो वा तहिं प्राउट्टेउं तस्स करेज्जति । ग्रहवा - बाहिरवेज्जस्स अभंतरवेज्जस्स वा अणुसदिमादीणि कहिज्जति ॥३०५०।। "धम्मकहि" त्ति अस्य व्याख्या - तह से कहेंति जह, होति संजओ सन्नि दाणसडढो वा । बहिया तु अण्हायंतो, करेंति खुड्डा सिमं अंतो ॥३०५१॥ अक्खेवणादियाहि कहाहिं तहा से धम्मं कहेंति जहा सो पव्वयति, गिहियाणुव्वतो वा सावगो भवति । अविरयसम्मट्टिी वा दाण पड्ढो वा मुहा वा जेण किरियं करेति । धम्मकहालद्धिअभावे विज्जामंतेहि वसीकज्जिति, विज्जामतेहि वा से पहाणादि पाणिज्जति, णिमित्तेण वा पाउट्टिज्जति । असति सम्वेसि प्रणिच्छे व प्रामलग से दिज्जति भणंति य बाहिं कूवतडागादिएमु हायह । तेसु वि अणिच्छते चेव इमं से खुड्डगा अंतो उवस्सगस्त करेंति ।।३०५१॥ उसिणे संसट्टे वा, भूमी-फलगाइ-भिक्ख-चड्डादि । अणुसट्ठी धम्मकहा, विजणिमित्ते य अंतो बहिं ॥३०५२। तेल्लुव्वट्टण व्हावण, खुड्डासति वसभ-अण्णलिंगेणं । पट्टदुगादी भूमी, अणिच्छ जा तूलि पल्लंको ॥३०५३।। खुडगा तं वेज्ज तेल्लेण अब्भंगेउं कक्केण उबट्टेउ उसिणोदगेण संसट्टियं अण्णेण वा फासुएण व्हाणेति, असती फासुगस्स जयणाए ताति हाणोदगं । खुड्डगासतीए य वसभा करेंति, गच्छस्स सुभासुमकारणेसु भारुव्वहणसमत्था वसभा भणंति, ते सलिंगपरिचाएण गिहिमाति प्रणलिंगट्टिता सव्वं पहाणादियं वेज्जस्स करेंति । एस ण्हाणं पति जयणा भणिता। इयाणि '२भूमीफलगाति" त्ति अस्य व्याख्या - "पट्टदुगादी" पच्छद्धं । भूमीए संथारपट्टे उत्तरपट्टे य सुवति, अणिच्छे भूमीए तप्पे सोविजति । तत्थ वि अणिच्छे फलगसंथारुत्तरपट्ट अत्थरिय सोविज्जति । तत्थ वि प्रणिच्छे उत्तरोत्तरंणेयं जाव तली पल्लंकेपि से दिज्जति ।।३०५३॥ १ गा०३०५० । २ गा० ३०५२ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-३७ - इदाणि "भिक्खे' त्ति अस्य व्याख्या - समुदाणि ओयणो, मत्तो य णेच्छंत वीसु तवणा वा । . एवं पणिच्छमाणे, होति अलंभे इमा जयणा ॥३०५४॥ समुदाणि प्रोदणं भिक्खकूरो से दिज्जति, से तम्मि प्रणिच्छंते मत्तगो से वट्टाविज्जति, तम्मि अणिच्छते पि हि प्रोदणं वंजणं विविहं घेप्पति ताविज जति तं पि अणिच्छंते अलंभे वा इमा जयणा ।।३०५४।। तिगसंवच्छरतिगद्ग, एगमणेगे य जोणिघाए य । संसट्टमसंसट्टे, फासुगमफासुगे जयणा ॥३०५॥ "तिगसंवच्छरे" ति - जेसि सालिविहिमातियाण तिसु वरिसेसु पुण्णेसु अबीयसंभवो भणितो, ताणं जे तंदुला ते तिच्छडा घेत्तव्वा । असति दुच्छडा घेत्तव्वा । असति एगच्छडा घेत्तव्वा । असति तिसंवच्छराण दुवरिसाते वि ति-दु-एगच्छडा कमेण घेतव्वा । असति दुसंवत्सरियाण एगवरिसाते वि ति-दु-एगच्छडा कमेण घेत्तव्वा । असति प्रणेगे" य त्ति तिवरिसातो बहुतरकालं जेसि ठिती भणिता ते वि ति-दु-एगच्छडा कमेण घेत्तव्वा । वरिसहाणि दटुव्वा। वक्कंतजोणियाण असती, जोणिघाए ति जोणिघातेग जे तिदुगेगच्छडा कता ते कमेण घेत्तवा॥३०५५।। अस्यैवार्थस्य व्याख्या - वक्कंतजोणि तिच्छड, दुएक्कछडणे वि एस चेव गमो। एमेव जोणिघाते, तिगाति इतरेण रहिते वा ॥३०५६॥ वक्कंतजोणि तिच्छडा गतार्थं । दुग एग अस्य व्याख्या - दुगएगच्छडाण वि एस चेव गमो । वक्कंतजोणिरिति अनुवर्तते । "3जोणिधाए यं" ति ग्रस्य व्याख्या - “एमेव जोणिघाते तिगाति" छडिता । एते सव्वे अहाकडा तंदुला घेत्तव्वा। अहाकडाण असति तिवरिसिंगाति कंडावेयव्या । . असति कंडंतस्स "इयरेण"त्ति परलिंगेण "रहित्ति" त्ति प्रसागारिए ठाणे स्वयमेव कंडयतीत्यर्थः । स्वलिंगेण वा असागारिए ठाणे । कूरदहणे पाणियं इमेरिसं "संसटु' पच्छ । दहिमट्टिगादिमायणधोवणं संसट्ठाघोवणं, असंसट्ठ-फासुयं उण्होयगं तंदुलधोवणाति वा फासुयं, असति फासुगस्स अफासुगं पि जयणाए जं तसरहियं तं घेत्तव्वं ॥३०५६॥ १गा० ३०५२ । २ शेषा व्याख्या अग्रिम गाथायाम् । ३ गा०३०५५ । ४ गा० ३०५५ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३०५४-३०६१] दशम उद्देशकः १०६ पुव्वाउत्ता उवचुल्लचुल्लि सुक्खघणमझसिरमविद्ध । पुवकय असति दाणे, 'ठवणा लिंगे य कल्लाणा ॥३०५७॥ "पुरवं - पढमं गिहिहिं दारुयपक्खेवण समाउत्ता 'पुवाउत्ता" भण्णति । का सा अवचुल्ली चुल्ली वा ? चुल्लीए समीवे प्रवचल्ली। ताए पुत्वं तत्ताए रंधवेति । प्रवचुल्लासतीए चुल्लीए । पुवतत्तासतीए दारुयपखेवे इमेरिसा पक्खिवति - "सुक्खा" नार्दा, "धना'' न पोल्ला वंशवत् । “अझुसिरा" न स्फुटिता, त्वचा युक्ता वा, घुणेहि ण विद्धा ॥३०५७॥ एतेसि दारुपाणं इमं पमाणं हत्थद्धमेत्तदारुय, निच्छल्लियमघुणिता अहाकडगा। असती य सयं करणं, अघट्टणोवक्खडमहा॥३०५८।। हत्थद्धं बारसंगुलदीहा, प्रवग्यच्छल्ली, पुणेहिं अविद्धा । एरिसा प्रहाकडा घेत्तवा, असती प्रहाकडाणं हत्थऽद्धमत्ता सयं करेति णिच्छल्लेति य । उवक्खडेंतो ण घट्टेति । उम्मुए परोप्परामो उवक्खडिये ण विज्झवेति । अहाउयं पालेत्ता स्वयमेव विज्झायति ॥३०५८।। इमं से य पियणे पाणियं ण्हाणे पाणियं । कंजिय चाउलउदए, उसिणे संसट्टमेतरे चेव । ण्हाणपियणाइं पाणग, पायासति चीर दद्दरए ॥३०५६॥ कंजियं अवश्रावणं, चाउलधोयणमुयगं, उसिणोयगंवा, संसट्ठिपाणगं वा,"मेतरं"फासुगं, मद्दणातिएसु प्रणिच्छस्स अफासुगं पि जाव कप्पूरवासियं । एयं ण्हाणपियणादिकज्जेसु दिज्जति । एवं पाणगं पाए ठविज्जति, असति प्रणिच्छे वा वारगे ठविज्जति, 'घणेण चीरेण दद्दरति य ।।३०५९।। "भिक्खे' त्ति गयं । इदाणि "२चड्डगे" त्ति - चडग सराव कंसिय, तं वरयत्ते सुवण्ण मणि सेले । भोत्तुं स एव धोवति, अणिच्छ किडि खुड्ड वसभा वा ॥३०६०॥ चड्डगं अठगेण कज्जति । तत्थ भुजति । तत्थ वि अणिच्छे सरावे भुजति । तत्थ वि अणिच्छंते कंसभायणे, तंबभायणे वा। प्रणिच्छे रयथाले मुवण्णथाले वा मणिसेले वा भायणे भुजति । भुत्ते सो चेव सरावेति, अणिच्छे कि ड्ढि-साविया धोवति, तस्साऽसति खुड्डिया, खुड्डियासति वसभा ॥३०६०। सीसो पुच्छति - कहं असंजयस्स संसट्ठभायणं संजनो सारवेति ? माचार्याह - "पुयातीणि विमद्दइ, जह वेज्जो आउरस्स भोगत्थी । तह वेज्जपडिक्कम्मं, करेंति वसभा वि मोक्खट्ठा ॥३०६१॥ कंठा १ ठवणादित्रिणि द्वाराणि अग्रे व्याख्यातानि गा० ३०६६ । २ गा० ३०५२ । ३ पुगा (पा०) । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [सूत्र-३७ किं चान्यत् - तेगिच्छिगस्स इच्छा, ऽणुलोमणं जो न कुज्ज सति लाभे । अस्संजमस्स भीतो, अलस पमादी च गुरुगा से ॥३०६२।। आलसेण अण्णतरपमातेण वा जो ण करेति तस्स चउगुरुगा ॥३०६२।। गिलाणवेयावच्चे इमे कारणा - लोगविरुद्ध दुपरिच्चयो य कयपडिकियी जिणाणा य । अतरंतकारणे ते, तदद्वते चेव विज्जम्मि ॥३०६३॥ गिलाणस्स जति वेयावच्चं ण कज्जति तो लोगेण गरहियं, लोगुत्तरसंबंधेण य संबंधो दुप्परिच्चयो, कतपडिकतिया य कया भवति । जिणाण य प्राणा कया भवति । एते अतरते वेयावच्चकारणा । तदर्थमिति ग्लानार्थ, वैद्यस्य वैयावृत्यकरणे त एव कारणा भवंति ॥३०६३।। एसेव गमो णियमा, होइ गिलाणे वि मज्जणादीओ। सविसेसो कायव्वो, लिंगविवेगेण परिहीणो ॥३०६४॥ गिलाणस्स वि मज्जणाइप्रो एसेव विधी सविसेसो कायव्वो। नवरं-परलिंगमकर्तव्यमित्यर्थः ।।३०६४॥ इदाणि संखेवमाह - को वोच्छिति गेलण्णे, दुविहं अणुयत्तणं निरवसेसं । जह जायति सो णिरुत्री, तह कुज्जा एस संखेवो ॥३०६शा दुविधा अण्यत्तणा - वेज्जे गिलाणे य । शेषं पूर्ववत् । इदाणि वेज्जस्स दाणं दायव्वं । तत्थिमो विधी - पच्छद्ध "अणुसट्ठी – धम्मकहा बिज्ज णिमित्ते य अंतो बहिं ।" "अंत" इति स वास्तव्यो वेज्जो, “बहि" रिति प्रागंतुग ॥३०६५।। आगंतु पउण जायण, धम्मावण तत्थ कति य दिह्रतो । पासादे कूवादी, वत्थुकुरुडे तहा ओही ॥३०६६॥ ___ गिलाणे पउणीभूए आगंतुगो जया भत्ति मग्गति तदा अणुसट्ठी से कज्जति, जहा - ण वट्टति जतीण हत्थातो वेयणगं घेत्तुं, मुहा कयाए बहुधम्मो भवति ।। कहालद्धिसंप्पण्णो वा से धम्म कहेति । विज्जामतेण वा वसे कातु मोयाविज्जति, निमित्तण वा प्राउटेउ मिल्लाविज्जति । इमोय से दिदैतो कहिज्जति जहा -- केण ति कतिएण गंधियावणे रूवगा दिन्ना, भणितं च (मम) मए एतेसिं किंचि भंडजातं दिज्जसि । सो अण्णया तम्मि प्रावणे मज्जं मग्गति, वणिएण भणितो - मम एवं पण्णं, तं गेण्हसु, णत्थि मे मज्ज। एवं अम्ह वि धम्मावणातो धम्मं गेण्हसु णत्थि घे दविणजायं। । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३०६२-३०७० ] दशम उददेशक: १११ तम्मि अणिच्छे "'ठवण" ति दारं । सेहेण पव्वयंतेण जं णिगुजे कहि च ठवियं तं प्राणेदिज्जति । तस्सासति प्रोहिणाणी चोद्दस-दसपुब्वियं वा पुच्छिउं उच्छिन्नसामियं जं कहिं चि पासादे निहणयं, कूवे वा, प्रादिसद्दातो निद्धमणादिसु, वत्थु कुरुडे जं पडितं, जं वत्थवा निहाणयं । अहवा -- "वत्थुकुरुडं' उव्वस्सं उस्सन्नवत्थु तं नगरं, तत्थ जं निहाणयं तं घेत्तुं दायध्वं, जोणीपाहुडगपयोगेण वा कातु दायव्वं ॥३०६६॥ वत्थव्व पउण जायण, धम्मादाणे पुणो अणिच्छंते । सच्चेव होति जयणा, रहिते पासायमादीया ॥३०६७।। "रहिए" त्ति पच्छाकडादिएहिं, सेसं तं चेव कंठं ।।३०६७॥ सव्वहा दविणजायस्स अभावे जो उवहिं मग्गति - उवहिम्मि पडग साडग, संवरणं वा वि अत्थरणगं वा । दुगभेदादाहिंडण, अणुसट्ठादी परलिंग हंसादी ॥३०६८॥ पडगग्गहणाश्रो पाउरणं मग्गति । साडगग्गहणातो परिहाणं, जुवलं वा । संवरणग्रहणात् प्रच्छादन पडं णवतगच्छइ वा ? प्रत्थरणग्गहणातो पत्थरणगं तूलि वा । दुगभेतो संघाडगेण हिंडिउ मग्गिता दिज्जति से, संघाडगेण अलब्भंते वंदेण वि हिंड ति, सव्वहा अली अणसट्ठादी पयुजति । से अणुसट्टिमतिक्कतेण सलिंगेण य अलब्भंते परिलिंगेण उप्पाएउं दिज्जति । हंसादी पूर्ववत् ॥३०६८।। उवकरणं बितियपदेण ण देज्ज - बितियपदे कालगते, देसुट्ठाणे व बोहिगादासु । असिवादी असतीए य, ववहारपमाण अदसाई ॥३०६६॥ सो वेज्जो कालगतो गिलाणो वा. देसो वा उव्वसो जातो. बोधिगा मेच्छा, तब्भएण वा दिसोदिसं फुड्डा, आदिसहातो परचक्कातिणा असिवं वा जायं, अादिसद्देण दुभिक्खं, रायदुटुं वा, 'असई" त्ति सव्वहा अलद्धे ववहारं करेंति । ववहारेण वा णिज्जियस्स ण देंति, ववहारेण वा दाविज्जता पमाणहीणाणि अद्ध (द) साणि य दलयंति । अम्ह एते चेव सहिणा, णत्थि अण्णाणि ॥३०५६॥ . एवं वा ण देज्ज प्रागंतुगवत्थव्वाण दविणजायं तं मग्गंताण इमो विधी - ___ कवडगमादी तंबे, रुप्पे पीए तहेव केवडिए । हिंडण अणुसटठादी, पूइयलिंगे तिविहभेदो ॥३०७०॥ कवडगा से दिजंति, ताम्रमयं वा जं णाणगं ववहरति तं दिज्जति । जहा दक्षिणावहे कागणीरुप्पमयं, जहा भिल्लमाले चम्मलातो, "पीय" त्ति सुवनं, जहा पुब्वदेसे दोणारों। केवडियो यथा तत्रव केतराता। संघाडगादिणा हिंडणं, प्रलद्धे अणुसट्ठाती पयुज्जति । १ गा० ३०५७ । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे सत्र-३७ इदाणि "'लिंग" ति दारं - "पूतियलिंगे तिविधे भेदो" ति । तम्मि विसए जं तिण्हं लिंगाणं पूतितं तेण हिडंति पण्णवयंति च । तं च इमं सलिंगं गिहिलिंगं कुलिंगं च ।।३०७०।। बितियपए कालगए, देसुट्ठाणेसु बोहिगादीसु : असिवादी असती य, ववहारऽहिरण्णगा समणा ॥३०७१।। इदाणि "२कल्लाणे" त्ति दारं - पउणम्मि य पच्छित्तं, दिज्जति कल्लाणगं दुवेण्हं पि । बूढे पायच्छित्ते, विसंति ते मंडलिं दोवि ॥३०७२॥ अणुयत्तणा तु एसा, दव्वे वेज्जे य वणिया दुविहा । एत्तो चालणदारं, वोच्छं संकामणं वुमए ॥३०७३॥ जगहे गिलाणो पउणो जातो ताहे से पंच कल्लाणयं दिजति । पडियरगाण एक्ककल्लाणयं । पाहासंतरेण वा दुण्ह वि पंच कल्लाणगं। वढे पच्छिते ताहे दो वि मंडले पविसंति ॥३०७३।। "अणुयत्तण"त्ति मूलदारं गतं। इयाणि "3चालणे' त्ति दारं - 'वेज्जस्स व दव्वस्स व, अट्ठा इच्छंति होति उक्खेवो । पंथो व पुन्वदिट्ठो, आरक्खियपुव्वभणितो य ॥३०७४॥ पुव्वद्धस्स इमं वक्खाणं - चतुपाया तेइच्छा, इह वेज्जा णत्थि ण वि 4 दव्याई । अमुगत्थ अत्थि दोण्णि वि, जति इच्छसि तत्थ वच्चामो ॥३०७५॥ तिगिच्छा चउप्पया भवति । तुम गिलाणो, अम्हे य पडियरगा अस्थि । इह वेज्जो प्रोस हदव्वाई च णत्थि । अमुयस्थ गामे णगरे वा दो वि अस्थि । गिलाणो भण्णति - जइ तुम इच्छसि तो तत्थ वच्चामो ॥३०७५।। गिलाणो भणति - किं काहिति मे वेज्जो, भत्ताइअकारयं इहं मझं । तुम्भे वि किलसेमी, अमुगत्थ ममं हरह खिप्पं ॥३०७६॥ इहं वा अण्णत्थ वा जत्थ तुब्भेहि अभिप्पेयंति तत्थ मे किं वेज्जो काहिति भत्तादिएसु प्रकार गेसु, तम्हा मा तुन्भे वि किलेसेमि, तो मे अमुगं गाम णगरं वा ह । तत्थ मे भत्ताइकारग भविस्यति । एवं भणतो सो चालितो ॥२०७६|| १गा० ३०५७ । २ गा० ३०.७।३ गा० २६७२। ४ गा०३०७६ चूर्णी व्याख्या। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा ३०७१-३०८१] दशम उद्देशकः इमेहिं वा कारणेहिं - साणुप्पगभिक्खट्ठा, खीणा दुद्धाइगाण वा अट्ठा । अभिंतरेरा पुण, गोरस सिंभुदय तित्तट्ठा ॥३०७७।। ____णागरगिलाणं साणुप्पगभिवखडा गामणयति, णगरे वा खीणा दुद्धादिया दव्वा ण लब्भंतीत्यर्थः । 'अभिंतर" त्ति णागरा एतेहिं कारणेहिं गामं गिलाणं णयंति । इयरहा पुण गामेव्वयगिलाणस्स गोरसातिएहिं दव्वेहि सिंभुदतो जातो ताहे उसूरे भिक्खट्ठा तित्त-कटु-कसायदव्वट्टा य णगरं णयंति ॥३०७७॥ अहवा णागरगिलाणं इमेण कारणेण गामं णयंति - परिहीणं तं दव्वं, चमढिज्जंतं तु अण्णमण्णेहिं । कालातिक्कतेण य, वाही परिवढितो तस्स ॥३८७८॥ णगरे अण्णोण्णगिलाणसंघाडएहिं ठवणकुला चमढिता, ताहे जं गिलाणपायोग्गं दव्वं परिहीणं तं ण लभ्यतेत्यर्थः। ___ अहवा - वेज्जेण तस्स साणुप्पए भत्तमाइटुं, तं च ण लब्भति, अतो तस्स णगरे कालातिक्कमेण वाही सुठुतरं परिवड्ढितो ॥३०७८॥ एवमाति कारणे जाणित्ता अण्णोण्णं भणंति - उक्खिप्पत्तगिलाणो, अण्णं गामं वयं तु हामो । णेऊण अण्णगाम, सव्वपयत्तेण कायव्वं ॥३०७६।। णगरातो अण्णं णगरं, णगरातो अण्णं गाम, गामानो वा णगरं, गामाप्रो वा अण्णं गाम । इह चतुर्थविकल्पो गृहीतः । पच्छद्धं कंठं। जइ रातीए गंतुकामा ताहे “पंथे पुत्वदिह्रो" कीरइ जहा रातो गच्छंता ण मुझंति । "प्रारक्खि" डंडवासियो भण्णति - अम्हे पए गिलाणं हामो, तुमे चोरचारियं ति वा णाऊणं ण घेत्तव्वा । सो भण्णति तं कायव्वं ॥३०७६।। इयाणि “संकमण" त्ति दारं सो णिज्जति गिलाणो, अंतरसम्मेलणाए संथोभो । नेऊण अण्णगाम, सव्वपमत्तेण कायव्वं ॥३०८०॥ जं दिसं जं च गाम सो गिलाणो णिज्जति ततो य दिसातो ततो य गामातो अण्णो गिलाणो णगरं प्राणिज्जति । अंतरे ते दो वि मिलिता परोप्परं वंदणं काउं गिराबाहं पुच्छति । गिलाण संथोभं करेंति । एवं संकामणे "दुहप्रो" ति वुत्तं भवति, णागरा गामगिलाणं गेहंति, गामेयगा वि णागरगिलाणं ॥३०८०॥ इमं वोत्तु - जारिस दव्वे इच्छह, अम्हे मोत्तूण ते ण लब्भिहह । इयरे वि भणंतेवं, णियत्तिमो णेह अतरंते ॥३०८१॥ १ गा० ३०७४ । २ गा० २६७२ । ३ गा० २६७२ । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र- ३७ णारेहि गामेयया भणिया जारिसे दव्वे तित्त-कटु-कसाया दिए इच्छह तारिसे दवे श्रम्हे मोत्तुं तुन्भेण लभित्था | इयरे वि गामेयगा नागरे भगंति । तुम्भे म्हेहि विणा दधि घय खीराई ण लभिच्छा । ताहे ते परोप्परं बेति जइ एवं तो तुब्भे इमं णेह, अम्हे वि तुब्भच्चयं णेमो । एवं गिलाणाणुमतेण संछोहो ||३०८१ ॥ एवं तेहि जेतुं 'परिगिलाणं सव्वपयत्तेण कायव्वं, णो द्धिम्मयाए एवं चितेयत्वं वा ११४. - देवा हु णे पसण्णा, जं मुक्का तस्स णे कयंतस्स | सो हु तितिक्खरोसो, हियं वा वारणासीलो || ३०८२॥ 'हु' शब्दो अवधारणार्थ: । "णे" आत्मनिर्देशः । निष्पन्नस्य वस्तुनः कृतस्यान्तकारित्वात् कृतान्तः कृतघ्नत्वात्तत्तुल्येत्यर्थः, । “प्रतितिक्ख रोषः " दृढरोषः पुनः पुनः शेषकारी च, श्रधिकं च व्यापारे णिपुंजति - कृताकृतानि पुनः पुनः कारयतीत्यर्थः ॥ ३०६२ ॥ अहवा - शिद्धम्मयाए इमं भाणिऊण ण करेति से वेयावच्चं । तेणेव साइया मो, एयस्स वि जीवियम्मि संदेहो । पण विण एस म्हं, ते वि करेज्जा ण व करेज्जा ॥ ३०८३ ॥ गिलाणवेयावच्चे तेणं विय प्रतीय सातिता, इयाणि ण सक्केमो करेतुं । ग्रहवा करेमो । तेवि म्हंतणगिलाणस्स करेज्ज वाण वा । अतो म्हे वि ण करेनो ।। ३०६३ || एवमादिहिं द्धिम्मकारणेहि - १ वेयावच्चं । एसजीवियसंदेहो कि णिरत्थयं किलिस्सामो । पउणो वि एस अहं ण भवति । कि जो उ उवेहं कुज्जा, आयरित्र केणती पमाएणं । 1 रोवणा तु तस्सा, कायव्वा पुव्वणिद्दिट्ठा चउगुरुगा इत्यर्थः । - पुव्वणिदिट्ठा || ३०८४|| अहवा - लुद्धदारे दव्वादिया प्रारोवणा पुण्त्रणिद्दिट्ठा इहं पि उवेहाए सच्चेव ।। ३०८४|| यद्यपि कृतो निर्देश: तथापि विशेषज्ञापनार्थं पुनरुच्यते उdesपत्तियपरितावण महय मुच्छ किच्छ कालगते । चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ३०८५ || - गिलाणे उवेहं जो करेति तस्स चतुगुरुगा । उवेहाए बताए गिलाणस्स श्रप्पत्तियं जातं चउगुरुगा । उवेहकरणे जति गिलाणो प्रणागाढं परिताविजति तो चउलहूगा, गाढपरितावणे चउगुरुगा इत्यर्थः । महत इति महता दुबखं भवति तो छल्लहुगा । एयं चैव दुक्खा दुक्खं भण्णति । “मुच्छ" ति मूर्च्छा उत्पद्यते तो छग्गुरुगा । यदि कृच्छ्राणो भवति तो छे । जति कृच्छ्रसासो मूलं । मारणंतियममुग्धातेण समोहते प्रणवट्टो भवति । कालगए पारंचिश्रो भवति । एयं सव्वं उवेहं करेंतस्स पच्छित्तं वृत्तं ॥ ३०८५ || उवेहो भासण परितावण महत मच्छ किच्छ कालगते । चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुर्गं च ॥३०८६|| Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३०८२-३०६३। दशम उद्देशकः ११५ उवेहाए मोमासेंतस्स य दोसु वि चउलहुगा । उवेहाए कताए सो गिलाणो सयमेव गतुं गिही गोमासइ । तस्स य सीयवायातवेहिं परिसमेण य परितावणाती ठाणा, तं चेव पच्छित्तं ॥३०८६॥ उवेहोभासण ठवणा, परितावण महत मुच्छ किच्छ कालगते । चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥३०८७॥ ठवणाए चउगुरुगा सो गिलाणो उवेहाए कताए प्रोमासिलं पोसहं भत्तपाणं वा ठवेति, "ण सक्केमहं दिणे दिणे हिडिउ", तस्स तेण सीतलेण परिसावणाती ठाणे तं चेव पच्चित्तं ॥३०८७॥ उवेहोमासण वारण, परितावण महत मुच्छ किच्छ कालगए । चत्वारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥३०८८॥ वारणे चतगुरुगा व गिलाणं वारेति मा प्रोमासमु, मा वा ठावेसु । गिही वा वारेति - मा देह मोमासेतस्स, एवं वारेति तस्स परितावणाई ठाणा, तं व पच्छितं ॥३०८८॥ उवेहोभासणकरणे, परितावण महत मुच्छ किच्छ कालगए चत्वारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥३०८६॥ ___ सयं करणे चउगुरुगा । मिहत्येहि वा कारवेति एत्य वि चतुगुरुगा। सयंकरेंतस्स प्रयाणगेहिं वा करतेहिं परितावणाती ठाणा उप्पज्वंति, चेव पच्छित्तं भवति ॥३०८६॥ वेहाणस ओहाणे, सलिंगपडिसेवणे णिवारेंते । गुरुगा य णिवारेते, चरिमं मूलं च जं जत्थ ॥३०६०॥ मप्पडिजम्मितो गिलाणो जति णिव्बेएण वेहाणसं करेति तो अपडिजम्गंतयाण चरिमं । मह मोहावति तो मूलं । सलिंगट्टितो जति प्रकप्पियं पडिसेवति तो चतुगुरुगा। सलिंगट्टितं प्रकप्पियं पडिसेवंतं जति वारेति तो चतुगुरुगा । जं "जत्य" ति परितावणादियं पच्छित्तं तं दृढव्वं ॥३०१०॥ संविग्गा गीयत्था, असंविग्गा खलु तहेव गीयत्था । संविग्गमसंविग्गा, गवरं पुण ते अगीयत्था ॥३०६१॥ संविग्गसंजतीओ, गीयत्था खलु तहेवगीयत्था । गीयत्थमगीयत्था, णवरं पुण ता असंविग्गा ॥३०१२॥ संजता वि - संविम्गा गोयत्या । प्रविग्गा गोयत्या। मंविग्गा अगीयत्था, असंदिग्गा अगीयस्था । संजतीमो वि - संविग्गा गीयत्थीमो, भसंविणा गीयत्थीयो संविम्गा अगीयत्यीश्रो, प्रसंविग्गा अगीयत्थीमो य ॥३०६२॥ एतेसु जति तं गिलाणं छुडे ति तो जहा संखेण इमं पच्छित्तं - चउरो लहुगा गुरुगा, लम्मासा होति लहुय गुरूगा य । छेदो मूलं च तहा, अणवट्ठप्पो य पारंची ॥३०६३॥ कंठा Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ग्रहवा - इमेसु छड्डति सभाष्य-चूर्णिके निशीयसूत्रे संविग्गणितियवासी, कुसील ओसण्ण तह य पासत्या । संसत्ता वॅटा वा ग्रह छंदा चेव श्रट्टमगा ॥ ३०६४॥ संविग्गा १ णितिया २ कुसीला ३ प्रोसण्णा ४ पासत्या ५ संसत्ता ६ वटा ७ प्रहादा ८ ॥३०६४। एतेसु सु जहासंखं इमं पच्छित्तं - चउरो लहुगा गुरुगा, 'छम्मासा होंतिं लहुग गुरुगा य । छेदो मूलं च तहा, अणवटुप्पो य पारंची ॥ ३०६५॥ श्रहवा - इमेसु छड्ड े ति संविग्गो सेज्जायर, सावग तह दंसणे श्रहाभद्दे । दाणे सड्डी परतित्थगा य परतित्थिगी चेव ॥ ३०६६॥! संविग्गा संजता, सेवातरेसु वा गिहियाणुव्वयसा वगेसु का, अविरयसम्मदिट्टीसु वा महा भद्दएस वा परतित्थियपुरिसेसुवा, परतित्थियइत्थीसु वा ॥ ३०९६ ॥ एतेसु जहासंखं छड़ें तस्स इमं पच्छित्तं - चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होंति लहुग गुगा य । छेदो मूलं च तहा, अणवटुप्पो य पारंची ॥ ३०६७॥ खेत्तो छ तस्स इमं पच्छित्तं भण्णइ - - उवस्सग णिवेसण, साही गाममज्ये य गामदारे य । उज्जाणे सीमाए, सीममतिक्कामहत्ताणं ||३०६८|| उदुवासासु खेत्तसंकमणकाले उवस्सगे चैव खड्ड े उं गच्छति । णिप्फेडिय उवस्सगाश्र णिबेसणे सहुति । णिवेसणातो णिप्फेडिया साहीए छड्डति । गममज्भं जा णे खड्ड ेति । गामदारे जा णेउं छहुति । उज्जाणं जाउं छड्डु ति । गामसीमंते छड्डेति । सम्गामसीमं प्रतिक्कमेउं परम्गामसीमाए छह ति ॥ ३०६८॥ • एतेसु जहासंखं इमं पच्छितं - चत्तारि छच्च लघु गुरु, उवस्सगा जाव सीमतिक्कते । छेदो मूलं च तझ, अणवट्टप्पो य पारंची ॥ ३०६६॥ [ सूत्र-३७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३०१४- ३१०४ ] दशम उद्देशकः जहा एयं पच्छतं श्राणादिया य दोसा भवंति तम्हा ण छड्ड यव्वो ।। ३०६६|| - इमं कालप्यमाणं अवस्सं रक्खियव्वो छम्मासे प्रायरियो, गिलाण परियद्वृती पयत्तेणं । जाहेण संथरेजा, कुलस्स उ णिवेयणं कुजा ||३१०० || - जेण पव्वत्रितो, जस्स वा उवसंपण्णो सो श्रायश्रिो सुत्तत्थपोरिसोश्रो वि मोत्तुं छम्मासं सव्वपत्ते गिलाणं परियट्टति । अण्णाहिं गर्णानताहि संथरंतो कुलसमवायं दाउं तस्स गिवेएति - समर्पयतीत्यर्थः ' ॥३१००॥ संवारा तिनि उ, कुलं परियद्धती पयत्तेणं । जाण संथरेजा, गणस्स उ निवेयणं कुजा ||३१०१ ॥ कुलं वारग्गहणविन्यासेन एवमाचार्यमभ्यर्थ्य वारगेण वा योग्यभक्तपानकेन औषत्रगणेन च त्रिवर्ष सर्वप्रयत्नेन संरक्षतीत्यर्थः । परतो असंथरंतो गणस्यापयतीत्यर्थः ॥ ३१०१ ॥ संवच्छरं गणो वा, गिलाणं सारक्खती पयत्तेणं । जाहेण संथरेजा, संघस्स णिवेयणं कुजा || ३१०२॥ कंठा । परतो गणो संघस्स णिवेदयति, सो संघो जावज्जीवं करेति ।।३१०२ ॥ उक्तार्थस्पर्शनगाथा - छम्मासा आयरियो, कुलं पि संवच्छराणि तिष्णि भवे । संवच्छरं गणो वी, जावजीवाइ संघो वि || ३१०३ || कंठा ११७ प्रगाढे कारणजाते उप्पण्णे गिलाणस्स वेयावच्चं णो करेज्जा । छड्डे ज्ज वा गिलारणं - मोरिए, यदुडे भए व गेलणे | सिवे एएहिं कारणेहिं, हवा वि कुल गणे संघे ॥ ३१०४ ॥ श्रसिवे उप्पणे, श्रोमोयरियाए वा, रायदुट्टे य जाते, सरीर तेणगभए वा जाते, सब्वो वा गच्छो गिलाणो जाओ. एएहि कारणेंहि करेंतो सुद्धो, कुल-गण-संघ- समपणे वा कते करेंतो सुद्धो । असिवाति कारणेसु इमा जयरणा प्रसिवेण गच्छंतो गिलाणं वहिउं प्रसमत्थो उवकरणं उज्झति, तहावि श्रसमत्यो प्रोसि पडिबंघट्टिताण अप्पेंति, सेज्जातरातीयाण वा, थलीसु वा सष्णिक्खिवति, भावे असमत्थाय उज्भंति गिलाणं । एवं श्रोमोदरियादिसु वि । रायदुट्टे जइ एक्कस्स पट्टो तो प्रसि अप्पेंति । श्रह सव्वेसि पट्टो तो सावगादिसु णिक्खिविउ वयंति ॥। ३ १०४ ॥ - जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुट्टियस्स सएण लाभेण असंथरमाणस्स जो तस्स न पडितप्पर, ण पडितप्पंतं वा सातिज्जति ||सू०||३८|| भिक्खू गिलाणो य पुव्ववष्णिया । जो साहू गिलाणस्स वेयावच्चकरणे अब्भुट्ठितो सो जाव गिलाणस्स भोसढं पाउग्गं वा भत्तपाणं वा उप्पाएति सरीरगप्पतिकम्मं वा करेति ताव वेलातिक्कमो, बेलातिक्कमे अडतो Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-३ णो फन्वति । एवं तस्स असंथरे अण्णो जो ण पडियप्पति भत्तपाणादिणा तस्स चउगुरुगा। परितावणाती-निप्फण्णं च । गिलाणो य सो य परिचतो भवति । तम्हा तस्स पडितप्पियध्वं । सीसो पुच्छति - गिलाणवेयावच्चे केरिसो साहू णियुज्जति ? प्राचार्याह - खंतिखमं मदवियं, असहमलोलं च लद्धिसंपण्णं । दक्खं सुभरममुविरं, हिययग्गाहिं अपरितंतं ॥३१०॥ कोहणिग्गहो खंति, अक्कोसमाणस्स वि जस्स खमाकरणे सामत्यमत्थि सो खंतीए खमा भण्णति । अहवा-खंतीक्षमः (आ)धारेत्यर्थः । माणणिग्गहकारी मद्दवियो । मायाणिग्गहकारी मसढो। इंदियविसयणिग्गहकारी अलोलो, उक्कोसं वा दटुं जो एसणं ण पेल्लेति सो वा अलोलो अलुवेत्यर्थः । लद्धिसंपण्णो जहा घयवत्थ (झ) समित्ता। गिलाणातियं सिग्घ करेति दक्खे । अप्पेण अंपितेहिं वा जावेति ति वा सुभरोकुव्वाससह इत्यर्थः । असुविरो प्रणिद्दालू । गिलाणस्स जो चित्तमणुयत्तति प्रपत्थं च ण करेति सो हियग्गाहि, गिलाणस्स वा अणुतप्पितो जो सुचिरं पि गिलाणस्स करेंतो जो ण भज्जति सो अपरितंतो ॥३१०५॥ सुत्तत्थ अपडिबद्धं, णिज्जरपहिं जिइंदियं दंतं । कोउहलविप्पमुक्कं, अणाणुकित्तिं सउच्छाहं ॥३१०६॥ जो य सुत्तत्थेसु अपडिबद्धो- गृहीतसूत्रार्थ इत्यर्थः । णिज्जरापेही णो कयपडिकित्तीए करेति, जितिदितो जो इटुणिटेहिं विसएहिं रागदोसे ण जाति, सुकर-दुक्करेसु महप्पकारणेसु य जो अविकारेण भरं उब्वहति सो दंतो, इंदियणोइंदिएसु वा दंतो, णडादि-को उएसु य विप्पमुक्को, काउं जो थिरत्तणे ण णो विकत्थति - "को अण्णो एवं काउं समत्थो" ति, 'तुझ वा एरिसं तारिमं मए कय" ति, जो एवं ण कथयति सो प्रणाणु कित्ती, प्रणालस्सो सउत्साहो । अहवा - अलब्भमाणे वि जो अविसण्णो मगति सो स-उच्छाहो ॥३१०६।। आगाढमणागाढे, सद्दहगणिसेवगं च संठाणे । आउरवेयावच्चे, एरिसयं तु णिउंएज्जा ॥३१०७॥ प्रागाढे रोगायके अणागाढे वा, भागाढे खिप्पं करणं प्रणागाढे कमकरणं जो करेति । अहवा - प्रागाढजोगिणो प्रणागाढजोगिणो वा जहा किरिया कायव्वा, जा वा जयणा एवं सव्वं जो जाणति, सो य उस्सग्गाववाए सद्दहति, ते य जो सट्टाणे जिसेवति, उस्सग्गे उस्सम्ग, प्रववाए अववायं । अहवा - सट्ठाणं पायरियाती, तेसिं जं जोग्गं तं तस्स उप्पाएति देति य। एरिसो गिलाणवेयावच्चे णिउंजति ॥३१०७॥ एयगुणविप्पहणं, वेयावचम्मि जो उ ठावेज्जा । आयरिश्रो गिलाणस्सा, सो पावति आणमादीणि ॥३१०८॥ वणितगुणविवरीतं जो गिलाणवेयावच्चे ठवेति सो आयरिप्रो माणाती दोसे पावति ॥३१०८॥ १ मंडकः पक्वान्नं वा। . Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३१०५-३११२] दशम उद्देशकः एतेसि परूवणता, तप्पडिपक्खे य पेसवेंतस्स । पच्छित्तविभासणता, विराहणा चेव जा जत्थ ॥३१०६॥ एतेसि खंतिमातियाणं पयाणं यथार्थ प्ररूपणा कायव्वा । तप्पडिपक्खा खंतियखमस्स कोहिणो, मद्दवियस्स माणिणो, असढस्स माई, एवमादियाण पच्छित्तविभासा कायवा - व्याझया इत्यर्थः । प्रजोग्गेहि य वेयावच्चे णिउज्जंतेहिं जा गिलाणस्स विराहणा सा य वत्तत्र पडिपक्खदोसला ॥३१०६॥ इमं पच्छित्तं - गव्विय कोहे विसएम, दोसु लहगा उ माइणो गुरुगो। लोभिंदियाण रागे, चउगुरु सेसेसु लहु भयणा ॥३११०॥ माणिस्स कोहिणो, अजिइंदियस्स विसएसु, दोसु कारिणो चउलहगा। मायाविणो मासगुरु । लोभिस्स अजिइंदियस्स य राग-कारिणो चउगुरुगा। "सेसेसु" ति अलद्धिसंपण्णो अदक्खो दुब्भरो सुविरो हियपडिकूलो परितंतो सुत्तत्थपडिबद्धो अणिज्जरपेही अदंतो कोतूहली अप्पप्पसंसी अणुच्छाही प्रागाढाणागाढेसु विवरीयकारी असद्दहणगो परढाणा जिसेवी एतेसु लहुमासो। "भयण" त्ति एते सव्वे पदा मासलहुपच्छित्तण भइयन्वा - योजयितव्या इत्यर्थः । अहवा - "भयण" त्ति मातेसंतरेण वा च उलहुगा । अहवा - "भयण" त्ति अंतराइयकम्मोदएण प्रलद्धी भवति सो य सुद्धो, जो य पृण सलद्धी अप्पाणं "अलद्धिम" ति दंमेति तो असामायारिणिप्फणं मासलहुं । एव सेसेसु वि उवउज्ज वत्तव्यं ।।३११०॥ एवं ता पच्छित्तं, तेसिं जो पुण ठवेज्ज ते उ गणे। आयरियगिलाणट्ठा, गुरुगा सेसाण तिविहं तु ॥३१११॥ एवं पच्छित्तं पडिपवखे जे कसाइयदोसा ता तेसि भणियं । जो पुणो पायरियो एते गणे गिलाणाति-वेयावच्चकरणे ठेवेति तस्स चउगुरुगा। सेसा जइ ठवेति तेसिं इमं तिविधं पच्छित्तं - उवज्झातो जह ठवेति तो चउलहुं, वसभम्स मासगुरु, भिक्खुस्स मासलहुं । अहवा- उवज्झायस्स चउलहुँ, गीयत्थस्स भिक्खुस्स मासगुरु', प्रमीयत्थस्स मासलहुं । एवं वा तिविधं - प्रखंतिखमातिएसु कलहातिकरेंतेसु गिलाणस्स गाढाति परितावणादिया दोसा ॥३१११॥ इमे य भवंति - इहलोइयाण परलोइयाण लद्धीण फेडितो होति । जह आउगपरिहीणा, देवा लवसत्तमा चेव ॥३११२॥ इह लोइया प्रामोसहिखेलोसहिमादी, परलोइया सग्गमोक्खा, तेसि फेडितो भवति । जहा पाउगे अपहुचते व लवसत्तमा देवा जाता । एवं गिलाणो वि असमाहीए अट्टज्झाणी अणाराहगो भवति । तिरियाइकुगतीसु य गच्छति, ण वा इहलोए प्रामोसहिमातीमो लद्धीओ उपाएति । जम्हा एते दोसा तम्हा यावच्चकरो ण ठवेयवो ॥३११२॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सभाष्य- चूर्णिके निशीथसू एयगुणसमग्गस्स तु, असतीए ठवेज्ज अप्पदोसतरं । वेयाला उ इत्थं गुणदोसाणं बहुविगप्पा ॥ ३११३॥ a for गुणसमग्गाभावे प्रप्पदोसतरं ठवेति, प्रदोसं पच्छित्ताणुलोमयो जाणेज्जा । दोसवियालणेण य बहु विकप्पा उप्पज्जति । जहा - कोहे माणो प्रत्थि वा ण वा । माणे पुण कोहो णियमा प्रत्थि । तम्हा कोहीभो माणी बहुदोसतरी । तम्हा कोहि ठवेजा णो माणि । एवं सव्यपदेसु वियालणा कायव्वा ॥३११३ ॥ याणि तथ - जे भिक्खु गिलाणस्सा, वेयवच्चेण वावडं भिक्खु । लाभेणऽप्पणणं, असंथरं तं ण पडितप्पे || ३११४ ॥ "वावडो" व्यापृतः, परितावणातिणिप्फण्णं च ।। ३११४।। [ सूत्र - ३६-४१ प्रक्षणिकः, तस्य भिक्खुगो भण्णो भिक्खु जो ण पडितप्पति तस्स चउगुरु इमं च पावति - सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त विराहणं तहा दुविहं । पावति जम्हा तेणं, तं पडितप्पे पयत्तेणं ॥ ३११५॥ तम्हा तस्स पडितप्पियव्वं सव्व पयत्तेण ॥। ३११५ ।। कारणे ण पडितप्पिज्जा वि - बितियपदं अणवट्टो, परिहारतवं तहेव य वहंतो । तट्ठियलाभी वा, सव्वा वा अलभते ॥ ३११६॥ अणवतवं जो वहति साहू सो ण पडितप्पेज्जा । भणवत्थो वा कारणे गिलाणवेयावश्यकरो कतो तस्स इयरे णो पडितप्पति, एवं परिहारियो वि वत्तव्यो, प्रत्ताहिट्टियजोगी प्रत्तलाभिश्रो भण्णस्स संतियलाभं शो भुंजति ति मतो प्रपडितप्पेज्जा, तहावि प्रलब्भंते प्रपडितप्पमाणो वि सुद्धो ॥ ३११६ ॥ जे भिक्खु गिलाणवेयावच्चे अब्भुट्टिए गिलाणपाउग्गे दव्वजाए अलब्भमाणे जो तं ण पडिग्राहक्खर, ण पडियाइक्खतं वा सातिज्जति ॥ सू०||३६|| भिक्खु गिलाणो य पूर्ववत्, प्रब्मुट्ठितो वेयावच्चकरणोद्यतः, पाउग्गं श्रोसहं भत्तं पाणं वा, तम्मि अलभते जति सो वेयावच्चकरो प्रणोसि साहूणं ण कहेति प्रायरियस्स वा, तो चउगुरुगं परितावणदिणिप्फष्णं च । आउरपाउग्गम्मी, दब्वे भंते वावडे तत्स | जो भिक्खु णातिक्खति, सो पावति आणमादीणि ॥ ३११७॥ वावडो व्यापृतः नियुक्तः, जति भण्णेसि ण कहेति तो प्राणादिणो दोसा ।। ३११७।। " दव्वजाए " त्ति प्रस्य सूत्रपदस्य - व्याख्या - जायग्गहणे फासू, रोगे वा जस्स जं च पाउग्गं । तं पत्थ-भोयणं वा, सह- संथार- वत्थादी ॥ ३११८ ॥ कंठा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३११३-३१२२1 १२१ दशम उद्देशकः अलब्भमाणे अण्णेसिं साधूणं अकहिज्जते इमे दोसा - पारवावमहादुक्खे, मुच्छामुच्छे य किच्छपाणे य । किच्छुस्सासे य तहा, समोहए चेव कालगते ॥३११६।। परिसावणा दुविधा - पणागाढागाढा, पासे छप्पयाए गाहाए चेव गहिता ॥३११६॥ एसु अट्ठसु पदेसु जहासंखं इमं पच्छित्तं - चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुग गुरुगा य । छेदो मूलं च तहा, अणवट्ठप्पो य पारंची ॥३१२०॥ जम्हा एते दोसा - तम्हा आलोएज्जा, संभोइय असति अण्णसंभोए । जइऊण च ओसण्णे, सच्चेव उ लद्धिहाणिधरा ॥३१२१॥ पालोयणं णाम प्रणेसिं पाख्यान, तं च प्राख्यानं सगच्छे, तेसिमसति अण्णगच्छे संमोतियाणं, तेसिमसति भण्णसंभोतियाणं, तेसिमसति पणगपरिहाणीए जसितु जाहे मासलहुं पत्तो ताहे प्रोसण्णाणं कहेंति, जइ एवं ण करेति तो सच्धेव इहलोइय-परलोइयलदिहाणीदोसो भवति । "इहर" ति मणाख्यायंतस्येवेत्यर्थः ॥३१२१॥ भवे कारणं जेण अणेसि ण कहेज्जा वि -- वितियपदं दोच्चे वा, अण्णग्गामे व संभमेगतरे । तस्स व अपत्थदव्वे, जायंते वा अकालम्मि ॥३१२२।। ते दो वि चेव जणा - एगो गिलाणो एगो पडियरगो। सो पडिपरगो प्रणामावे कस्स कहेउ । अण्णगामे वा अण्णे साहुणो कस्स कहेउ । परिचरगो उदगागणि-हत्यि-सोह-वोहिगादी एतेसि संममाणं एगतरे वट्टमाणे अप्पं पराभूतेसु दिसोदिसं फुडितेसु कस्स साहउ । जं वा दव्वं लम्भति तं गिलाणस्स प्रपत्थं तेण प्रणेसि म कहेति, गिलाणो वा अपत्यं दन्वं मगति तेण वा ण कहेति, प्रणेनि प्रकाले वा जायते ण साधयति । अहवा-गरहियविगतीतो मग्गति ते य मण्णे अपरिणया ताहे ण सापति, मा विप्परिणामिस्संति। एवमादिएहि कारणेहि असाहेंतो सुद्धो ॥३१२२॥ जे भिक्ख पढमपाउसम्मि गामाणुग्गामं दुइअति, दुइज्जतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४०॥ जे भिक्खू वासावासं पज्जोसवियंसि दूइज्जति, दूइज्जतं वा सातिज्जति॥॥४१॥ "जे" ति णिदे से, भिक्खू पुव्वणितो। पाउसो प्रासादो सावणो य दो मासा । तस्थ प्रासाढो पढमपाउसो भण्णति । अहवा - छण्हं उतूणं जेण पढमपाउसो वणिजति तेण पढमपाउसो भण्णति । तत्थ जो गामागुग्गामं दूइजति, अनु पश्चाभावे, दोसु सिसिर-गिम्हेसु रीतिजति दूइज्जति, दोसु वा पाएसु रीइज्जति दूइज्जति तस्स चउगुरु । माणातिणो य दोसा भवंति । एस सुत्तत्थो। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे . [ सूत्र ४०-४१. इयाणि णिज्जुत्ति विहिसुत्ते जो उ गमो, पढमुद्देसम्मि आदिओ सुत्ते। सो चेव गिरवसेसो, दसमुद्देसम्मि वासासु ॥३१२३॥ विधिसुत्ते सव्वो चेव पायारो, इह तु विसेसेण प्राचारांगस्य बितियसुयक्खंधे ततियझयणं इरिया भण्णति, तस्स वि पढमुद्देसे तस्स वि आदिसुत्तेसु जो विधी भणितो सो चेव णिरवसेसो णिसीहदैसमुद्देसे पढमपाउससुत्ते विधी वत्तव्वो। सो य इमो - अन्भुवगते खलु वासावासे अभिप्पवुढे इमे पाणा अभिसंभूता बहवे बीया ग्रहणाभिण्णा अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबोया जाव ससंताणगा अणभिक्कंता पंथा नो विनाया मग्गा सेवं णच्चा गो गामाणुगामं दूतिज्जेजा तो संजयामेव वासावासं उल्लिइज्जा । (प्राचा० श्रु० २, अ० ३, सू० १११) ॥३१२३॥ तम्मि य पढमपाउसम्मि विहरंतस्स इमं पच्छित्तं - वासावासविहारे, चउरो मासा हवंतऽणुग्धाया । आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमाताए ॥३१२४॥ वास इति वर्षाकालः, द्वितीयवासग्रहणात् वर्षमाने जो विहरति तस्स चउरो मासा अणुग्धाया भवंति । प्राणादिणो य दोसा, संजमायविराहणा य भवति । अधवा - वासा इति वर्षाकालः, द्वितीयवासग्रहणात निवसनं, तमिनु यो विहरति । शेषं गतार्थ - ॥३१२४॥ इमा संजमविराहणा छक्कायाण विराहण, आवडणं विसम-खाणु-कंटेसु । वुज्झण अभिहण-रुक्खो-ल्लसावते तेण उवचरते ॥३१२५॥ "छक्कायाण विराहण" त्ति अस्य व्याख्या - अक्षुण्णेसु पहेस, पुढवी उदगं च होति दुविधं तु । उल्लपयावण अगणी, इहरा पणो हरित कुंथू ॥३१२६॥ अक्षुण्णा अदिता: पंयान: तेसु विहरतो पुढत्रीकायं विराहेति, उदगं च दुविधं - वासुदगं भोमुदगं च विराहेति, उल्लुवहिं जइ अगणोए पयावेति तो अगणिविराहणा, यत्राग्निस्तत्र वायोः सम्भवः, अपयावेतस्स प्रायविराहणा । इहरा अपयावेतस्स वा उल्ली ममुच्छति तं विराहेति, हरियं च, एवं वणस्सतिविराहणासभवो, कुंथुमादिया य बहू तसा पाणा विराहेति । एसा संजमविराहणा भणिता। इमा प्रायविराहणा- वरिसे उल्लणभया रुक्खस्स अहो ठायति, सीरेण पावडइ वडसालमाइएसु, विसमे वा पडइ, पाए। वा खाणुए अप्फडइ, कंटगेसु वा विज्झति, उदगवाहेण वा वुज्झइ, तडिभित्त-रुक्ख-विज्जुमाइएसु अभिहणइ, उलतो वा रुक्खमुवल्लिअंतो सावतेण खज्जति. उल्लुवहिणा वा अजीरंते प्रायविराहणा। प्रबहतेसु वा पंथेसु तेणगा दुविहा भवंति, प्रकाले वा विहरंतो उवचरगो ति काउं घिप्पइ ॥३१२६॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! . भाष्यगाथा ३१२३ - ३१३० 1 इमेहिं कार ेहि पाउसवासासु रीएज्जा दशम उद्देशकः सिवे ओमोरिए, रायदुट्ठे भए व गेलण्णे । बाहादीस तु, पंचसु ठाणेसु रीएजा || ३१२७|| सिवे उप्पण्णे गच्छेज्ज, परपक्खोमोदरियाए असंथरंतो गच्छति, रायदुट्ठे बोहि ते भए हरणभया गच्छति, अण्णत्य गिलाणो तप्पडियरणट्राए गच्छति । शब्द अवधारणार्थे, एते चैव श्रसिवाती पंचद्वाणा इत्यर्थः । - पुणं एवं पढिज्जति - " श्राबाहातिएसु व" तत्थ ग्राबाहादिता इमे पंचद्वाणा - १ प्राबाहं, २ दुभिक्खं, ३ भयं, ४ दोघं ५ परिभवति वा कोति । सरीरवज्जा पीडा प्रबाहं, दुब्भिक्खभया पुव्वुत्ता. प्रोघेण वसही गामो वा तत्थ वृढो, दंडमाती पडिणीतो, कोति परिभवणं तालणं वा करेज्ज || ३१२७।। एवं तु पाउसम्मी, भणिया वासासु णवरि चउलहुगो । ते चैव तत्थ दोसा, बितियपदं तं चिमं चन्नं ||३१२८|| - विराहणभया गच्छति, " ग्रावाहातिएसु तु" तु वासासु वि एवं चेव, णवरि चउलहु पच्छित्तं । वासासु विहरणे बितियपयं तं चैव ॥ ३१२८ ॥ सिवे मोरिए, रायदुट्टे भए व गेलणे । नाणाइतिगस्सट्टा, वीसुंभण-पेसणेणं वा ॥ ३१२६|| १२३ पुव्वद्धं पूर्ववत् । इम च श्रणं गाणाइ पच्छद्धं, णाणातितिगस्सद्वा गच्छति । तत्थ णाणणिमित्तं सुक्खंधं प्रणस्स श्रायरियस्म श्रत्थि । सो य भत्तं पच्चक्खाउकामो भजति । ण घेप्पति तो वोच्छिज्जति, अतो तदट्ठा गच्छेज्ज । एवं दंसणपभावगाण विट्ठा गच्छे चरितट्ठा-तत्थ खेत्ते चरितं ण सुज्झइ इत्थोदोसेहि, एसणा दोसेहिं वा, अतो वासासु अणं खेत्तं गच्छे। "वो भण' त्ति जीवो सरीरातो सरीरं वा जीवातो वीसु पृथग्भूतं, आचार्यो मृत इत्यर्थः, तम्मि पते गच्छे अण्णो मायरियो णत्थि प्रतो गच्छति । ग्रह उतिमट्ठे कोइ पडिवज्जिउक्कामो तस्स विसोहिकरणट्टताए गच्छिज्जा । एतदेव पेसणं । अहवा - प्रायरिएण प्रण्णतरे उप्पइयकारणे पेसितो, जहा प्रज्जरक्खियसाम्णिा गोट्ठा माहिलो | ३१२६| उक्तविशेषज्ञापनार्थं पुनरुच्यते - ऊ तेऊ वाऊ, दुब्बलसंकामिते व श्रमाणे । पाणाड़ सप्प कुंथू, उट्ठण तह थंडिलस्सऽसती ||३१३० ॥ आउक्काएण वा वसही प्लाविता, थंडिलाणि वा गामो वाहडो, अगणिक्काएण वा वसही दड्ढा गामो वा, वातेण वा वसधी भग्गा, "दुब्बल" त्ति वासेण तिम्ममाणा दुब्बला वसही जाता, सा पडिउकामा "संकामित" त्ति सो गामो प्रष्णस्स पडिणीयस्स दिण्णो, हवा - ते वत्थव्वा अण्णत्थ संकामिया तम्मि य गामे आणणे आवसिता । "प्रमाणे" त्ति इंदमहादिसु तत्थ पंडरंगादतो आागता, तेहि श्रमाणं जातं, उब्भिज-बीय-सावएहि य वसधी संसत्ता, श्रादिसद्दातो Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ सूत्र ४२-४३ मक्कोडग-उधेइमादी दट्ठठवा, सप्पो वा वसहीए ठितो, अणुरिकुयूहि वा वसही संसत्ता, गामो वा उहितो, वियारभूमि-णिसिहियस्स वा असइ ॥३१३०॥ एवमादि होज्ज वाघाउ त्ति ताहे इमं विहिपुव्वं चेव करेंति - मूलग्गामे तिणि उ, पडिवसभेसु वि य तिण्णि वसधीओ। ठायंते पडिलेहा, वियारवाषायमायट्ठा ॥३१३१॥ मूलग्गामो जत्थ साधवो ठिता तम्मि गामे तिष्णि वसहीयो गिण्हंति, भिक्खायरियगामादि पहिवसमा भण्णंति, तेसु वि पत्तेयं तिष्णि तिणि वसहीनो पडिलेहेंति । स्यात्-किमर्थ ? जति मूलग्गामे वियारभूमिए वसहीए वा वाघातो भवति तो तेसु पडिवसभेसु ठायतीत्यर्थः ।।३१ १॥ आउक्कायादि वाघाते उप्पण्णे इमा जयणविधी उदगागणिवातादिसु, अण्णस्सऽसती य थंभणुद्दवणा। संकामितम्मि भयणा, उट्ठण थंडिल्ल अण्णत्थ ।।३१३२॥ उदगेण अगणीए वातेण अहिणा वा वसहीए वाघाते उप्पण्णे अण्णवसहीए ठायति । असति अण्णवसहीए विज्जाए उदगादिया यंभिज्जति । उद्दवणं णाम विज्जाए सप्पो भन्यत्र नीयते इत्यर्थः, संकामणे भयणा-जति भद्दगो गामसामी लोगो वा तो अच्छति, पंतेसु गच्छंति, उट्टिते गामे, थंडिलस्स असतीए प्रणं गामं गच्छंति ॥३१३२॥ प्रोमाणे इमा जयणा - इंदमहादीसु समागएसु परतित्थिएसु य जतंति । पडिवसभेसु सखेत्ते, दुब्बलसेज्जायए थूणं ॥३१३३।। इंदमहादिएसु समागतेसु बहुसु परतित्यिएसु, सखेत्ते पडिवसभेसु जतंति अंतरपल्लीसु य, तेसु वि भसंघरंता गच्छति । दुब्बलसेज्जाए पुणं थूणं दलयंति, जं वा दुब्बलं तं करेंति ॥३१३३॥ वसहिपमज्जणे इमो विधी - दोणि उपमज्जणाओ, उम्मि वासासु ततियमझण्णे । वसहि बहुसो पमज्जति, अतिसंघट्ट तहिं गच्छे ॥३१३४॥ प्रससत्ता वि उडुबद्धे दो वारा वसही पमज्जिज्जति - पुवण्हे अवरोहे य । वासासु तिण्णि वारा, सा य मज्झण्हे तइय वारा भवति। उड्डुबद्ध वासासु वा कुंथुमादिएहि पाहिं संसत्ते जहाभिहियप्पमाणातो मारित्तपमज्जणाए बहुसो वि पमज्जिजति । प्रतिसंघट्टणेण वा पाणिणं अण्णं गामं गच्छे ।।३१३४।। एएहिं कारणेहिं, एग-दुगंतर-तिगंतरं वा वि । __संकममाणो खेतं, पुट्ठो वि जतो णऽतिक्कमति ॥३१३॥ एवमादिकारणेहिं एगगामंतरं तिग्गामंतरं बहुगामंतरं वा संक्रमतो भणं खेतं पुट्ठो वि दोसेहि "जतो" ति यलेन पाना मेरं च नातिक्रामतीत्यर्थः । ग्रहवा - "जतो" ति यतो नातिकमति ततः गच्छतीत्यर्थः ।।३१३५।। . Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३१३१-३१३६] दशम उद्देशकः पंथं पडुच्च इमा जयणा - उत्तण-ससावयाणि य, गंभीराणि य जलाणि वज्जेत्ता। तलियारहिता दिवसं, अब्भासतरे च जे खेत्ते ॥३१३६॥ उद्धत्तणा उत्तणा दीर्घा तिणा जम्मि पंथे तेण ण गच्छे, सीहवग्यादिएहि ससावयाणि य तणाणि य जम्मि पंथे। अहवा-- मगरादिएहि ससावगा जला जम्मि पंथे, गंभीरा प्रस्थाधा जला जम्मि पंथे, एते पंथे वज्जेतो गच्छति । तलियारहिया अणुवाहणा, तं पि दिवसतो गच्छति न रात्री, जं च अभासतरं खेत्तं तं गच्छति ।।३१३६॥ जे भिक्खू अपज्जोसवणाए पज्जोसवेति, पज्जोसवेंतं वा सातिज्जति।।सू०॥४२।। जे भिक्खू पज्जोसवणाए ण पज्जोसवेइ, ण पज्जोसवेंतं वा सातिज्जति।।सू०॥४३॥ दो सुत्ता जुगवं वच्चंति । इमो सुत्तत्थो - पज्जोसवणाकाले, पत्ते जे भिक्खू णोसवेज्जाहि । अप्पत्तमतीते का, सो पावति आणमादीणि ॥३१३७॥ जे भिक्खू पज्जोसवणाकाले पत्ते ण पज्जोसवति । "अपज्जोसवणए' त्ति अपत्ते समतोते वा जो पज्जोसवति तस्स प्राणादिया दोमा चउगुरु पच्छित्तं ॥३१३७ । एस सुत्तत्थो। ॥इमा णिज्जुत्ती - पज्जोसवणाए अक्खराइ होंति उ इमाइं गोण्णाई । परियायवत्थवणा, पज्जोसवणा य पागइता ॥३१३८॥ परिवसणा पज्जुसणा, पज्जोसवणा य वासवासो य । पढमसमोसरणं ति य, ठवणा जेट्ठोग्गहेगट्ठा ॥३१३६॥ "पज्जोसवण" ति एतेसिं प्रक्खराणि इमाणि एगट्ठिता णि गोण्णणामाणि अट्ठ भवंति । तं जहा - परियायवत्थवणा, पज्जोसवणा य, परिवसणा, पज्जुमणा, वासावासो, पढमसमोसरणं, ठवणा, जेट्ठोग्गहो त्ति, एते एगट्टिता। १ एतेसिं इमो अत्यो - जम्हा पज्जोसवणादिवसे पव्वज्जापरियागो व्यपदिश्य - व्यवस्थाप्यते संखा- "एत्तिया वरिसा मम उवट्ठावियस्स" ति तम्हा परियायवत्थवणा भण्णति । २ जम्हा उदुढिया दव्व-खेत्त-काल मावा पज्जाया, एत्थ परि समंता प्रोविजंति -- परित्यजन्तीत्यर्थः, अण्णे य दख्वादिया वरिसकाल-पायोग्गा घेत्तुं प्रायरिज्जति तम्हा पज्जोसवणा भण्णति । “पागय" सि सव्वलोगपसिद्धेण पागतभिधाणेण पज्जोसवणा भण्णति । ३ जम्हा एगखेत्ते चत्तारि मासा परिवसंतीति तम्हा पग्विसणा भण्णति । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ सूत्र ४२-४३ ४ उदुबद्धिया वाससमीवातो जम्हा पगरिसेण प्रोसंति सबदिसामु परिमाणपरिच्छिन्नं तम्हा पज्जुस्सणा भण्णति । पज्जोसवणा इति गतार्थ । ५ वर्ष इति वर्षाकालः, तस्मिन् वासः वासावासः । ६ प्रथम प्राधं बहूण समवातो समोसरणं । ते य दो समोसरणा - एगं वासासु, बितियं उदुबद्ध । जतो पज्जोसवणातो वरिस प्राढप्पति अतो पढम समोसरणं भण्णति । ७ वासकप्पातो जम्हा अण्णा वासकप्पमेरा ठविज्जति तम्हा ठवणा भण्णति । - जम्हा उबद्ध पकं मासं खेनोगगनो भवति. वासावासाम चत्तारि मासा, सम्हा उदुबद्धियानो वासे उग्गहो जेट्ठो भवति । एषा व्यंजनतो नानात्वं, नत्वर्थतः ॥३१३६॥ एतेसिं एगट्ठियाणं एगं ठवणापदं परिगृह्यते तम्मि णिक्खित्ते सव्वे णिक्खित्ता भवंति - ठवणाए णिक्खेवो, छक्को दव्वं च दव्वणिक्खेवे । खेत्तं तु जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं जो उ ॥३१४०॥ ठवणाए छविहो णिक्खेवो तं जहा - णामठवणा ठवणठवणा दव्वठवणा खेत्तठवणा कालठवणा भावठवणा। णाम-टुवण-ठवणातो गयाो । दबढवणा दुविधा - प्रागमतो णो आगमतो य । प्रागमतो जाणए अणुवउत्ते। णो प्रागमतो तिविधा - तं जहा जाणगसरीरटुवणा भवियसरीरटुवणा जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्ता ॥३१४०॥ वतिरित्ता दव्वट्ठवणा इमा - श्रोदइयादीयाणं, भावाणं जो जहिं भवे ठवणा। भावेण जेण य पुणो, ठवेज्ज ते भावठवणा तु ॥३१४१॥ "दव्वं च दन्वणिक्खेवो" दवपरिमाणेन स्थाप्यमाना दब्वट्ठवणा भण्णति, च सद्दोऽणुकरिसणे, कि अणकरिसयति ? भण्यते - इमं दव्वं वा णिक्खिप्पमाणं, दव्यस्स वा जो निक्खेवो सा ठवणा भण्णति ।।३१४१। . . अस्येमा व्याख्या - सामित्ते करणम्मि य, अहिकरणे चेव होंति छन्भेया । एगत्त-पुहुत्तेहिं, दव्वे खेत्ते य भावे य ॥३१४२।। सामित्ते पडिवसभगामस्स अंतरपल्लियाए य, करणे खेतेण एगत्त-बहुमिते दव्वस्स ठवणा दवाण वा ठवणा दव्वठवणा । तत्थ दव्वस्स ठवणा जहा कोइ साहू एगसंथाराभिग्गहणं ठवेति - गृहातीत्यर्थः । दव्वाण ठवणा जहा- संथारगतिगपडोमारग्गहणाभिग्गहणं प्रात्मनि ठवेति । करणे जहा दब्वेण ठवणा, दव्वेहिं वा ठवणा । तत्थ दव्वेण प्रायंबिलदव्वेण चाउम्मासं जावेति। दव्वेहिं कूरकुसणेहि वा चाउम्मासं जावेति । अहवा - चउसु मासेसु एक्कं प्रायंबिल पारेत्ता सेसकालं अभत्तटुं करेति, एवमात्मानं स्थापयतीत्यर्थः । दव्वेहिं दोहिं आयंबिलेहिं चाउम्मासं जावेति । अधिकरणे दवे ठवणा, दव्वेसु वा ठवणा । तत्थ दव्वे जहा एगंगिए फलहिए मए सुवियब्वं, दव्वेसु अणे गंगिए संथारए मए सुवियव्वंति एवं छब्भेया । एगत्त-पुहर्तहिं दव्वे भणिता । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३१४०-३१४३ ] दशम उद्देशकः १२७ इदाणि खेत्तठवणा खेत्तं तु जम्मि खेत्ते" त्ति । क्षेत्रं यत् परिभोगेन परित्यागेन वा स्थाप्यते, जम्मि वा खेत्ते ठवणा ठविज्जति सा खेतठवमा । सा य सामित्तकरण-अधिकरणेहिं एगत्त-पुहुत्तेहिं छन्भेया भाणियव्व।। इयाणि कालठवणा - .२काले कालो जहिं जो उ" ति । काले कालो एतेसु जहासंख इमे पदा - जाह जो उ", काले जहिं ठवणा ठविज्जति, कालो वा जो उ ठविज्जति सा कालठवणा । अद्ध इति कालो तत्थ वि सामित्तकरण-अधिकरणेहिं एगत्त-पुहुत्तेहिं छन्भेया भवति । भावे छन्भेया । सामित्ते-खेत्तस्स एगगामस्स परिभोगो, खेत्ताणं सीमातीणं मूलगामस्स पडिवसभगामस्स अंतरपल्लि याए या करणे खेत्तेण एगत्ते पुहुत्तेण, एत्थ ण किं चि संभवति । अधिकरणे - एगत्तं परं अद्धजोयणमेराए गंतु पाडयतए, पुहत्ते कारणे दुगादी अद्धजोयणे गंतुं पडियत्तए। कालस्स ठवणा उदुबद्धे जा मेरा सा वज्जिज्जति -- स्थाप्यतेत्यर्थः । कालाणं चउण्हं मासाणं ठवणा ठविज्जति, प्राचरणत्वेनेत्यर्थः । कालेणं पासाढपुण्णिमाकालेणं ठायति । कालेहि बहूहिं पंचाहेहिं गतेहि ठायंति । कालम्मि पाउसे ठायति । कालेसु कारणे प्रासाढपुणिमातो सवीसइमासदिवसेसु गतेसु ठायति । भावस्सोदतियस्स ठवणा, भावाणं कोह-माण-माया-लोभातीणं । अहवा - णाणमादीणं गहणं । अहवा - खाइयं भावं संकामंतस्स सेसाणं भावाणं परिवज्जणं भवति । .. भावेण णिज्जरटुताए एगखेत्ते ठायंति णो अडंति । भावेहि संगह-उवग्गह-णिज्जरणिमित्तं वा णो अडंति । भावम्मि खयोवसमिए खत्तिए वा ठवणा भवति । भावेसु गत्थि ठवणा । अहवा - खग्रोवसमिए भावे सुद्धातो भावातो सुद्धतरं भाव कमंतस्स भावेसु ठवणा भवति । एवं दवाति-ठवणा समासेण णिता ।।३१४२।। इयाणि एते चेव वित्थारेण भणीहामि । तत्थ पढमं कालठवणं भणामि । किं कारणं ? जेण एवं सुत्तं कालठवणाए गतं । एत्थ भणति - कालो समयादीयो, पगयं कालम्मि तं परूवेस्सं । णिक्खमणे य पर्वसे, पाउस-सरए य वोच्छामि ॥३१४३॥ १ गा० ३१४० । २ गा० ३१४० । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ सभाष्य-चूाणके निशीथसूत्रे [ सूत्र ४२-४३ कलनं कालः, कालज्जतीति वा कालः, कालसमूहो वा कालः, सो य समयादी, समयो पट्टसाडियाफाडणादिटुंतेणं सुत्ताएसेणं परवेयनयो। पातिगहणातो पावलिया मृहुत्तो पक्खो मासो उदू अयणं संवच्छरो जुगं एवमाइ एत्थ जं "पगयं" ति - अधिकार समयेन सिद्धतेन तमहं परूवेस्स । उदुबद्धियमासकप्पखेत्तातो पाउसे णिक्खमणं, वासाखेत्ते य पाउसे चेव पवेसं वोच्छ । वासाखेत्तातो सरए णिक्खमणं, उदुबदियखेते पवेसं सरए चेव वोच्छामि । अहवा - सरए णिग्गमणं पाउसे पवेस बोच्छ मीत्यर्थः ॥३१४३॥ ऊणातिरित्तमासे, अट्ठविहरिऊण गिम्ह-हेमंते । एगाहं पंचाहं, मासं च जहा समाहीए ॥३१४४॥ चत्तारि हेमंतिया मासा, चत्तारि गिम्हिया मासा, एते अट्ठ ऊणातिरित्ता वा विहरिता। कह विहरित्ता ? भण्णति -पडिमापडिवण्ण.णं एगाहो । महालदियाणं पंचाहो। जिणकप्पियाण सुद्धपरिहारियाण राण य मासो । जस्स जहां णाण-दसण-चरितसमाही भवति सो तहा विहरित्ता वासाखेत्तं उवेति ॥३१४४।। कहं पुण ऊणातिरित्ता वा उदुबद्धिया मासा भवंति ? तत्थ ऊणा काऊण मासकप्पं, तत्थेव उवागयाण ऊणा उ । चिक्खल्लवासरोहेण वा बितीए ठिता णं ॥३१४॥ जत्थ लेते प्रासाढमासकप्पो कतो तत्येव खेत्ते वासावासत्तेण उवगया, एवं ऊणा अट्ट मासा । प्रासाठमासे अनिर्गच्छता सप्त विहरणकाला भवंतीत्यर्थः । अधवा- इमेहिं पगारेहिं ऊणा अट्ठ मासा हवेज- सचिखल्ला पंथा, वासं वा अज्ज वि णोवरमते, णयरं वा रोहितं, बाहिं वा असिवादि कारणा, तेग मग्गसिरे सव्वे ठिया, अतो पोसादिया मासाढंता सत्त विरहणकाला भवंति ॥३१४॥ इयाणि जहा अतिरित्ता अट्ठ मासा विहारो तहा भण्णति - वासाखेत्तालभे, अद्धाणादीसु पत्तमहिगा तु । साधग-वाघातेण व, अप्पडिकमितुं जति वयंति ॥३१४६॥ प्रासाढे सुद्धवामावासमा खेतं मग्गतेहिं ण लद्धं तात्र जाव प्रासाउचाउम्मासातो परतो सवीसतिराते मासे प्रतिक्कते ललं, ताहे भद्दवया जोण्हस्सपंचमीए पज्जोसवंति, एवं णवमासा सवीसतिराता विहरणकालो दिट्ठो, एवं अतिरित्ता अट्ठ मासा । अहवा- साहू प्रदाणपडिवण्णा सत्यवसेणं प्रासाढचाउम्मासातो परेण पंचाहेण वा दसाहेण वा पक्खंण वा जाव वीसतिराते का मासे वासाखेतं पत्ताणं अतिरित्ता मट्ठ- मासा विहारो भवति । अहवा - वासवाघाए प्रणावुट्टीए प्रासोए कत्तिए णिग्गयाण अट्ठ अतिरित्ता भवंति । वसहिवाघाते वा कत्तियचाउम्मासिय मारतो चेध णिग्गया । अहवा- मायरियाणं कत्तियपोणिमाए परतो वा साहगं पक्वत्तं ण भवति, प्रणं वा रोहगादिक वि, एस वाघाय जाणिऊण कतियचाउम्मासिय अपडिमिय जया वयंति तता अतिरित्ता अड-मासा भवति ।।३१४६॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३१४४-३१५१ ] दशम उद्देशक: १२६ "'एगाहं पंचाहं मासं च जहा समाहीए" अस्य व्याख्या - पडिमापडिवण्णाणं, एगाहो पंच होतऽहालंदे । जिण-सुद्धाणं मासो, णिक्कारणतो य थेराणं ॥३१४७॥ "जिण" त्ति जिणकप्पिया। सुद्धाणं" ति सुद्धपरिहारियाणं, एतेसि मासकप्पविहारो। गिव्वाघायंकारणाभावे ॥३१४७॥ वाघाते पुण थेरकप्पिया ऊणं अतिरित्तं वा मासं अच्छंति - ऊणातिरित्तमासा, एवं थेराण अट्ठ णायव्वा । इयरेसु अट्ठ रियितुं, णियमा चत्तारि अच्छंति ॥३१४८॥ एवं ऊणातिरित्ता थेराणं अट्ठ मासा णायव्वा । इतरे णाम पडिमापडिवण्णा पाहालंदिया विसुद्धपरिहारिया जिणकप्पिया य जहाविहारेण अट्ठ रीइतुं वासारत्तिया चउरोमासा सव्वे णियमा अच्छति॥३१४८॥ वासावासे कम्मि खेत्ते कम्मि काले पविसियव्वं अतो भण्णति - आसाढपुण्णिमाए, वासावासासु होइ ठायव्वं । मग्गसिरबहुलदसमी तो जाव एक्कम्मि खेत्तम्मि ॥३१४६॥ "ठायव्वं"त्ति उस्सग्गेण पज्जोसवेयन्वं, अहवा - प्रवेष्टव्यं, तम्मि पविट्ठा उस्सग्गेण कत्तियपुण्णिमं जाव अच्छंति । अववादेण मग्गसिरबहुलदसमी जाव ताव तम्मि एगलेते अच्छति । दसरायगहणातो अववातो दसितो - अणे वि दो दसराता अच्छेजा । अववातेण मागंसिरमासं तत्रैवास्ते इत्यर्थः ॥३१४६।। कहं पुण वासापाउग्गं खेतं पविसंति ? इमेण विहिणा - बाहिट्ठिया वसभेहिं, खेत्तं गाहेत्तु वासपाउग्गं । कप्पं कहेत्तु ठवणा, सावणबहुलस्स पंचाहे ॥३१५०॥ बाहिद्विय त्ति जत्थ प्रासाढमासकप्पो कतो, अण्णत्थ वा पासणे ठिता वाससामायारीखेत्तं वसहिं गाहेंति - भावयंतीत्यर्थः । प्रासाढपुण्णिमाए पविट्ठा, पडिवयाओ प्रारब्भ पंचदिणाई संथारग तण-डगल-च्छार-मल्लादीयं गेहंति । तम्मि चेव पणग रातीए पज्जोसवणाकप्पं कहेंति, ताहे सावणबहुलपंचमीए वासकालसामायारि ठवेंति ॥३१५०।। एत्थ उ अणभिग्गहियं, वीसति राई सवीसतिं मासं । तेण परमभिग्गहियं, गिहिणातं कत्तिो जाव ॥३१५१॥ "एत्यं" ति एत्थ प्रासाढपुणिमाए सावण ब्रहलपंचमीए वासपज्जोसविए वि अप्पणो अणभिग्गहियं । यहवा - जति गिहत्था पुच्छंति – 'अजो तुन्भे एत्थ वरिसाकालं ठिया अह ण ठिया ?", एवं पुच्छिएहिं "प्रणभिगहियं' त्ति संदिग्धं वक्तव्यं, इह अन्यत्र वाद्यापि निश्चयो न भवतीत्यर्थः । १ गा० ३१४४ । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूझ-४३ एवं संदिग्धं कियत्कालं वक्तव्यं ? उच्यते . वीसतिरायं, सवीसतिरायं मासं। जति अभिवडियवरिसं तो वीसतिरात जावं अणभिमाहियं । अह चंदवारसं तो सवीसत्तिरायं मासं जावः अणभिग्गहियं भवति । "तेणं" त्ति तत्कालात परतः अप्पणो, अभिरामुख्येन गृहीतं अभिगृहीतं, इह व्यवस्थितिः इति, गिहीण य पुच्छंनाण कहेंति - "इह ठितामो वरिसाकालं" ति ॥३१५१॥ किं पुण कारणं वीसतिराते सवीसतिराते वा मासे वागते अप्पणो अभिग्गहियं गिहिणातं वा कति, प्रारतो ण कहेंति ? उच्यते - असिवाइकारणेहिं, अहव न वासं न सुट्ठ पारद्ध । अहिवड़ियम्मि वीसा, इयरेसु सवीसतीमासो ॥३१५२॥ कयाइ असिवं भवे, प्रादिग्गहणातो रायदुट्टाइ, वासावासं ण सुठ्ठ पारद्धं वासितुं, एवमादीहिं कारणेहिं जइ अच्छंति तो प्राणातिता दोसा । अह गच्छति तो गिहत्था भणंति - एते सव्वण्णुपुत्तगा ण किं चि जाणंति, मुसावायं च भासंति। "ठितामो" ति भणित्ता जेण णिग्गता लोगो वा मणेज्ज - साहू एत्यं वरिसारतं ठिता अवस्सं वासं भविस्सति, ततो धणं विक्किणंति, लोगो घरातीणि छादेति, हलादिकम्माणि वा संठवेति । अभिग्गहिते गिहिणाते य पारतो कए जम्हा एवमादिया अधिकरणदोसा तम्हा अभिवढियधरिसे वीसतिराते गते गिहिणातं करेंति, तिसु चंदवरिसे सबीसतिराते मासे गते गिहिणातं करेंति । . जत्थ अधिकमासो पडति वरिसे तं अभिवड्ढयवरिसं भण्णति । जत्थःण पडति तं चंदवरिसं । सो य अधिमासगो जुगस्स अते मज्झे वा भवति । जति अंते तो णियमा दोप्रासाढा भवंति । अह मज्झे तो दो पोसा। सीसो पुच्छति - 'कम्हा अभिवड्डियवरिसे वी.तिरातं, चंदवरिसे सवीसतिमासो ?" | उच्यते - जम्हा अभिवडियवरि से गिम्हे चेव सो मासो अतिक्कतो तम्हा वीसदिणा अभिग्गहियं तं कीरति, इयरेसु तीसु चंदवरिसेसु सवीसतिमासा इत्यर्थः ।।३१५२।। एत्थ उ पणगं पणगं, कारणियं जाव सवीसतीमासो। . सुद्धदसमीठियाण व, आसाढी पुण्णिमोसवणा ॥३१५३।। एत्थ उ प्रासाढे पुणिमाए ठिया डगलादीयं गेण्हंति, पज्जोसवणकप्पं च कहेंति पंचदिणा, ततो सावणबहुलपंचमीए पज्जोसति । खेत्ताभावे कारणे पणगे संवुड्ढे दसमीए पज्जोसर्वोत एवं पण्णरसीए । एवं पणगवुड्ढी ताव कजति-जाव-सवीसतिमासो पुण्णो सो य सधीसतिमासो च भद्दवयसुद्धपंचमीए युज्जति । अह प्रासाढसुद्धदसमीए - वासाखेत्तं पविट्ठा. अहवा - जत्थ प्रासाठमासकप्पो को तं वासपाउग्गं खेत्तं, अण्णं च णत्थि वासपाउग्गं ताहे तत्येव पज्जोसवेंति । वासं च गाढं अणुवरयं प्राढत्तं, ताहे तत्थेव पजोवसेंति । एवकारसीनो पाढवेउं डगलादीतं गेण्हंति, पज्जोसवणाकप्पं कहेंति, ताहे प्रासाढपुण्णिमाए पज्जोसवेति । एस उस्सग्गो। सेसकालं पज्जोसवेंताणं अववातो । अववाते वि सवीसतिरातमासाती परेण अतिक्कमेउं Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३१५२-३१५४ । दशम उद्देशकः ११ ण वट्टति । सवीसतिराते मासे पुण्णे मांत बासखेत ण लन्मति तो रुक्खहेल्दा वि पज्जोसवेयव्वं । तं च पुण्णिमाए पंचमीए दसमीए एवमादिपव्वेसु पज्जोसवेयव्यं णो अपव्वेतु । सीसो पुच्छति "इयाणिं कहं चउत्थीए - पपव्वे पज्जोसविज्जति " पायरियो भणति - "कारणिया चउत्थी प्रज्जकालगायरिएण पवत्तिया। कहं ? भण्णने कारणं - कालगायरियो विहरतो 'उज्जेणि' गतो। तत्य वासावासं ठिमो । तत्य णगरीए 'बलमितो राया । तस्स कणिट्ठो भाया 'माणुमित्तो' जुवराया। तेसि भगिणी 'माणुसिरी' णाम । तिसे पुत्तो 'बलमाण' णाम । सो पगितिमद्दविणीययाए साहू पज्जुवासति । प्रायरिएहिं से धम्मो कहितो - पडिबद्धो 'पव्याविनो य । तेहि य बलमित्त-माणमित्तेहि ट्रेहिं कालगज्जो पज्जोसविते णिव्विसतो कतो। केति आयरिया भणंति-जहा बलमित-भाणुमित्ता कालगायरियाणं भागिणेज्मा भवंति। "माउलो" ति का महंतं प्रायरं करेंति, अम्भुट्ठाणादियं । तं च पुरोहियस्स अप्पत्तिय, मणाति व एस सुट्टपासंडो, वेतादिबाहिरो, रणो अग्गतो पुणो पुणो उल्लालो पायरिएण णिपिट्ठप्पसिणवागरणो कतो। ताहे सो पुरोहितो मारिपस्स पदुटो रायाणं प्रणुलोमेहिं विप्परिणामेति । एते रिसितो महाशुभावा, एते बेण पहेणं पच्छति तेण पहेणं जति रणो जणो गच्छति पताणिं वा प्रक्कमह तो असिवं भवति, तम्हा विसज्जेहि, ताहे विसज्जिता। अण्णे भणंति - रणा उवाएण विसज्जिता। कहं ? सबम्मि गरे फिल रण्णा प्रणेसणा कराविता, ताहे से णिग्गता । एवमादियाण कारणाण अण्णतमेण जिग्मता विहरता "पतिढाणं" मगर तेण पट्टिता । पतिद्वाणसमणसंघस्स य प्रज्जकालगेहिं संदिटुं- जावाहं मागच्छामि ताव तुब्भेहिं णो पज्जोसक्यिव्वं । तत्थ य 'सायवाहणो' राया सावतो. सो य कालगज्जं एंत सोउणिग्गतो अभिमुहो समणसंघो य, महाविभूईए पविट्ठो कालगज्जो। पवितुहिं य भणियं - "भद्दवयसुद्ध पंचमीए पज्जोसविज्जति", समणसंघेण पडिवणं । ताहे रण्णा भणियं - तद्दिवसं मम लोमाणुवत्तीए इंदो प्रणुजाएयत्रो होहोति, साहूचेतिते ण पज्जुवासेस्सं, तो छट्ठीए पज्जोसवणा कज्जउ । प्रायरिएहिं भणियं - ण वट्टइ मतिकामेउं । ताहे रण्णा भणियं - प्रणागयं चउत्थीए पज्जोसचिज्जति । प्रायरिएण भणियं - एवं भवउ । ताहे चउत्थीए पज्जोसवियं । एवं जुगप्पहाणेहिं चउत्थी कारणे पवत्तिता। सच्चेवाणुमता सन्वसाधूर्ण। रणा प्रतेपुरियायो भणिता - तुन्भे प्रमावासाए उववासं काउं पडिवयाए सव्वखज्जभोजविहीहि साधू उत्तरपारणए पडिलाभेत्ता पारेह, पज्जोवसणाए प्रट्ठमं ति काउं पडिवयाए उत्तरपारणयं भवति, तं च सबलोगेण वि कय, ततो पभिति 'मरहट्ठविसए' “समणपूय" त्ति छणो पत्तो ॥३१६ इयाणि पंचगपरिहाणिमधिकृत्य कालावग्रहोच्यते - इय सत्तरी जहण्णा, असति नउती दसुत्तरसयं च । जति वासति मग्गसिरे, दसरायं तिनि उक्कोसा ॥३१५४॥ १ राजपुत्रत्वात्। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-४३ पण्णासा पाडिज्जति, चउण्ह मासाण मझो. ततो उ सत्तरी होइ, जहण्णो वासुवग्गहो ॥३१५॥ इय इति उपप्रदर्शने, जे प्रासाढचाउम्मासियातो सवीसतिमासे गते पज्जोसवेंति तेसि सत्तरि दिवसा जहण्णो वासकालोग्गहो भवति । कहं सत्तरी ? उच्यते - चउण्हं मासाणं वीसुत्तरं दिवससयं भवति - सवीसतिमासो पण्णासं दिवसा, ते वीसुत्तरसयमज्झायो सोहिया, सेसा सत्तरी । जे भद्दवयबहुलदसमीए पज्जोसति तेसि असीतिदिवसा मज्झिमो वासकालोग्गहो भवति । जे सावणपुण्णिमाए पजोसविति तेसि णउति चेव दिवसा मज्झिमो चेव वासकालोग्गहो भवति । जे सावण बहुलदसमीए पजोसवेति तेसि दसुतरं दिवससयं मज्झिमो चेव वासकालोग्गहो भवति । जे मासाढपुण्णिमाए पजोसविति तेसि चीसुत्तरं दिवससयं जेट्ठो वासुग्गहो भवति । सेसंतरेसु दिवसपमाणं वत्तम्वं । एवमादिपगारेहिं वरिसारत्तं एगखेत्ते अच्छिता कत्तियचाउम्मासियपडिवयाए अवस्सं णिग्गंतव्वं । मह मग्गसिरमासे वासति चिक्खल्लजलाउला पंथा तो अबवातेण एक्कं उक्कोसेणं तिणि वा - दस राया जाव तम्मि खेत्ते अच्छंति, मार्गसिरपौर्णमासीयावदित्यर्थः । मम्गसिरपुण्णिमाए जं परत्तो जति वि सचिखल्ला पंथा वासं वा गाढं अणुवरयं वासति जत विप्लवतेहि तहावि अवस्सं णिगंतव्वं । ग्रहण णिग्गच्छंति तो चउगुरुगा। एवं पंचमासितो जेट्ठोग्गहो जातो ॥३१५५॥ काउण मासकप्पं, तत्थेव ठियाण तीतमग्गसिरे । सालंबणाण छम्मासिओ उ जेट्ठोग्गहो भणितो ॥३१५६॥ जम्मि खेते कतो आसाढमासकप्पो, तं च वामावासपाउग्गं खेत्तं, अण्णम्मि प्रलद्धे वासपाउग्गे खेते जत्थ प्रासाढमासकप्पो कतो तत्थेव वासावास ठिता. तीसे वासावासे चिखल्लाइएहि कारणेहि तत्येव मग्गसिरं ठिता, एवं सालंबणाण कारणे अववातेण छम्मासितो जेट्ठोग्गहो भवतीत्यर्थः ॥३१५६।। जइ अत्थिं पयविहारो, चउपडिवयर्याम्म होइ णिग्गमणं । अहवा वि अणितस्स, आरोवणा पुन्वनिद्दिट्टा ॥३१५७॥ वासाखेत्ते णिविग्घेण चउरो मासा अच्छिउँ कत्तियचाउम्मासं पडिक्कमिडं मग्ग:सरबहुलपाडवयाए णिग्गंतव्वं एस चेव चउपाडिवो । चउपाडिवए अणिताणं चउलहुगा पच्छित्तं । अहवा - प्रणिताण । अविसद्दातो एसेव चउलहु सवित्थारो जहा पुत्वं वणिो णितीयसुत्ते संभोगसुत्ते वा तहा दायव्वो ॥३४५७॥ चउपाडिवए अप्पत्ते प्रतिक्कते वा णिते कारणे निहोसा। तत्थ प्रपत्ते इमे कारणा राया कुंथू सप्पे, अगणिगिलाणे य थंडिलस्सऽसती । एएहिं कारणेहिं, अप्पत्ते होइ णिग्गमणं ॥३१५८॥ राया दुट्ठो, सप्पो वा वसहि पविट्ठो, कुंथूहि वा वसही संसत्ता, अगणिणा वा वसही दड्डा, गिला. णस्स पडिचरणट्टा, गिलाणस्स वा मोसहहेडं, पंडिलस्स वा असतीते, एतेहि कारणेहि अप्पत्ते चउपाडिवए जिग्गमणं भवति ॥३१५८।। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३१५५-३१६३ ] अहवा - इमे कारणा - कायभूमी संथारए य संसत्तं दुल्लभे भिक्खे | एएहिं कारणेहिं, अप्पत्ते होति णिग्गमणं ॥ ३१५६ ॥ दशम उद्देशकः काइयभूमी संसत्ता, संथारगा वा संसत्ता, दुल्लभं वा भिक्खं जातं, श्रायपरसमुत्थेहि वा दोसेहि महोदो जाओ, सिवं वा उपपण्णं एतेहि कारणेहिं अप्पत्ते णिग्गमणं भवति ।। ३१५६ ।। इक्ते निग्गमो इमेहिं कारणेहिं - उप्पाडिव वासं न उबरमती, पंथा वा दुग्गमा सचिक्खिला । एएहिं कारणेहिं, इक्कते होइ णिग्गमणं ॥ ३१६०॥ इक्कते वासाकाले वासं नोवरमइ, पंथो वा दुग्गमो, प्रइजलेण सचिक्खल्लो य एवमाइएहिं कारणेहिं चउपाडिवर इक्कते णिग्गमणं ण भवति ।। ३१६०॥ ग्रहवा इमे कारणा - सिवे ओमोरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे | " एतेहिं कारणेहिं, अक्कते होय निग्गमणं ॥ ३१६१ ॥ इयाणि खेत्तठवणा - बाहि प्रसिवं ओमं वा, बाहि वा रायदुट्ठ, बोहिगादिभयं वा श्रगाढं श्रागाढकारणेण वा ण णिग्गच्छति । एतेहि कारणेहि चउपाडिवए अतिक्कते प्रणिग्गमणं भवति ।। ३१६१ ।। एसा कालठवणा । 1 उभयो विद्धजोगण, अद्धकोसं च तं हवति खेत्तं होति सकोसं जोयण, मोत्तूर्ण कारणज्जाए ॥ ३१६२ ॥ "उभयो” त्ति पुत्रावरेण, दक्खिणुत्तरेण वा । ग्रहवा उभप्रति सव्व समंता । अद्धजोधणं सह प्रद्धकोसेण एगदिसाए खेत्तपमाणं भवति । उभयतो विमेलितं गतागतेण वा सकोसजोयणं भवति । प्रववायकारणं मोत्तूण एरिस उम्सग्गेण खेत्तं भवइ । तं वासासु एरिस खेत्तठवणं ठवेइ - क्षेत्रावग्रहं गृण्हातीत्यर्थः ।। ३१६२ ।। सो य खेत्तावग्गहो संववहारं पहुच छद्दिसि भवति । जत्रो भण्णति १३३ उड्डम तिरियम्मिय, सक्कोसं हवति सव्वतो खेत्तं । इंदपदमादिए, छद्दिसि सेसेसु च पंच || ३१६३॥ उड्डु, ग्रहो, पुण्वादीयाम्रो य तिरियदिसाओ चउरो, एतासु छसु दिसासु गिरिमज्झट्ठिताण सव्वतो समंता सकोसं जोयणं खेत्तं भवति । तं च इंदपयपव्त्रते छद्दिसि संभवति । इंदपयपव्वतो गयग्गपव्वतो भति । तस्स उवरि गामो, अधेवि गामो, मज्झिमसेढीए वि गामो । मज्झिमसेढी ठिताण य चउद्दिसं पि १ गा० ३१४० । - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-बूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४३ गामो, एवं छदिसि पि गामाण संभवो भवति । प्रातिग्गहणातो अण्णो वि जो एरिसो पव्वतो भवति तस्स वि छदिसामो संभवति । सेसेसु पलातेसु उदिसं पंचदिसं घ भवति । सम्भूपीए वा णिव्वापारण चउद्दिसि संभवति ॥३१६३॥ वावायं पुण पडुच्च - तिण्णि दुवे एक्का वा, वाषाएणं दिसा हवति खेत्ते । उज्जाणाउ परेणं, छिण्णमडंबं तु अखत्तं ॥३१६४॥ एगदिसाए वाघाते तिसु दिसासु खेत्तं भवति, दोसु दिसासु वाघाते दो दिसासु खेत्तं भवति, तिसु दिसास वाघाते एगदिसं खेत्तं भवइ । को पुण वाघातो? महाडवी पव्वतादिविसमं वा समुद्दादि जलं वा, तेहिं कारणेहि तापो चउदिसाम्रो रुदाओ, जेण ततो गामगोकुलादी गत्थि । जं दिसं वाघातो तं दिसं प्रमुगुज्वाणं जाव खेतं भवइ । परमो मखेत्तं जं छिण्णमंडवं तं मखेत्तं । छिण्णमंडवं णाम जस्स गामस्स णगरस्स वा उग्गहे सव्वासु दिसासु अण्णो गामो गत्थि गोकुलं वा तं छिण्णमंडवं. तं च अखत्तं भवति ।।३१६४॥ णतिमातिजलेसु इमा विही - दगंघतिष्पि सत्त व, उडुवासासु ण हगंति ते खेतं । चउरहाति हणंती, जंघद्धक्को वि तु परेण ॥३१६॥ दगघट्टो णाम जत्थ प्रद्धजंघा जाव उदगं । उदुर तिष्णि दमसंघट्टा खेत्तोवघातं ण करेंति, ते भिक्खायरियाए गयागएण छ भवंति, ण हणंति य खेत्तं । वासासु सत्त दगसंघट्टा ण हणन्त खेतं, ते गतागतेण चोहस । उडुब चउरो दगसंघट्टा उवहणंति खेत्तं, ते गयागतेण अट्ठ । वासासु अट्ट दगसंघट्टा उवहणंति खेतं, ते गतागतेण सोलस । जत्य जंघद्धातो परतो उदगं तेण एगेण वि उडुबद्ध वासासु उवहम्मति खेतं, सो य लेवो भणति ॥३१६।। गता खित्तट्ठवणा। इयाणि ""दव्वट्ठवणा" दवट्ठवणाहारे, विगती चार मत्तए लोए। सञ्चित्ते अच्चित्ते, वोसरणं गहणधरणादी ॥३१६६॥ पाहारे, विगतीसु, संथारगो, मत्तगो, लोयकरणं, सचित्तो सेहो, डगलादियाण य प्रचित्ताणं उडुबद्ध गहियाणं वोसिरणं, वासावासपाउग्णाण संथारादियाण गहणं, उडुबद्ध वि गहियाण वत्थपायाकीण धरणं डगनगादियाण य कारणेण ॥३१६६॥ तत्थ - "प्राहारे" त्ति पढमदारं अस्य व्याख्या - पुवाहारोसवर्ण, जोगविवड्ढी य सत्तिो गहणं । संचइयमसंचइए, दव्वविवड्ढी पसत्याओ ॥३१६७॥ गा० ३१४०।२ पा० ३१६६। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३१६४ - ३१६६ ] दशम उद्देशक: जो उडुबद्धितो आहारो सो प्रोसवेयव्त्रो प्रोसारेयन्त्रो - परित्यागेत्यर्थः । जइ से भावस्सगपरिहाणी ण भवति तो चउरो मासा उववासी प्रच्छउ । श्रहण तरति तो चत्तारि मासा एगदिवसूणा, एवं तिष्णि मासा प्रच्छित्ता पारेउ. एवं जइ जोगपरिहाणी तो दो मासा अच्छउ, मासं वा, भ्रतो परं दिवसहाणी, जाव दिदिणे आहारेउ जोगवुड्ढीए । इमा जोगवुड्ढी जो नमोक्कारइतो सो पोरसीए पारेउ, जो पोरिसितो सो पुरिमड्ढे पारेउ, जो पुरिमद्दत्तो सो एक्कासणयं करेतु । एवं जहाससीए जोगवड्ढी कायव्वा । किं कारणं ? वासासु चिक्खल्लचिलिविले दुक्खं भिक्खागहणं कज्जति, सण्णाभूमि च दुक्खं गम्मति, थंडिला हरियमातिएहिं दुव्विसोझा भवंति । " आहारट्ठवण" त्ति गयं । इदाणि ""विगतिट्ठवण" त्ति दारं - " संचइय" त्ति पच्छद्ध । विगती दुविहा - संचतिया श्रसंचितिया य । तत्थ असंचइया खीरं दधी मंसं णवणीय, केति भोगाहिमगा य सेसा उ घय-गुल-मधुमज्ज-खज्जगविहाणा व संचतिगाम्रो । तत्थ मधु-मंस मज्जविहाणा य अप्पसत्याश्रो, सेसा खीरातिया पसत्थाम्रो । पसत्यासु वा कारणे पमाणपत्तासु घेष्यमाणासु दव्वविवड्डी कता भवति ।। ३१६७ ॥ णिक्कारणे अण्णतरविगतीगहणे दोष उच्यते कुदेवत्तं च । - १३५ विगतिं विगतभीतो, वियतिगयं जो उ भुंजए भिक्खू । विगत विगतिसहावा, विगती विगतिं बला नेइ ||३१६८ ॥ विगति खीरातियं । विभत्सा विकृता वा गती विगती, साय तिरियगती गरगगती कुमाणुसतं अहवा विविधा गती संसार इत्यर्थः । अहवा - संजमो गती, असंजमो विगती, तस्स भीतो । "विगतिगमं" त्ति विगतिप्रतिकारमित्यर्थः । विगती या जग्मिवा दव्वे गता तं विगतिगतं भण्णति तं पुण भत्तं पाणं वा । जो तं विगति विगतिगतं वा भुंजति तस्स इमो दोसो - "विगती विगतिसभाव" त्ति, खीरातिया भुत्ता जम्हा संजमसभावातो विगतिसभावं करेति, कारणे कज्जं उवचरिता पढिज्जति, विगती विगतिसभावा । अहवा - विगयसभावा, विकृतस्वभावं विगतसभाव वा जो भुजति तं सा बला णरगातियं विगत ति पयतीत्यर्थः । जम्हा एते दोसा तम्हा विगतीतो णाहारेयव्वातो उडुबद्धे, वासासु विसेसेण । जम्हा साधारणे काले प्रतीत्रमोहुम्भवो भवति, विज्जुगज्जियाइएहि य तम्मि काले मोहो दिप्पति । कारणे - बितियपदेण - गेव्हेज्जा श्राहारेज्ज वा गेलाणो वा ग्राहा रेज्ज । एवं प्रायरिय बाल- वुड्ढ दुब्वलस्स वा गोवरगट्ठा घेप्पेज्जा ||३१६८|| अधवा - सड्ढा णिब्बंघेण णिमंतेज्जा पसत्याहिं विगतीहि तत्थिमा विधी. पसत्थविगतिंग्गहणं, तत्थ वि य असंचय उ जा उता । संचतिय ण गेण्हंती, गिलाणमादीण कज्जट्ठा ||३१६६॥ सत्य विगतीतो खीरं दहि णवणीयं घयं गुलो तेल्ल ओगाहिंगं च प्रप्पसत्थाम्रो महु-मज्ज-मंसा । प्रायरिय बाल-वुड्ढाइयाणं कज्जेसु पसत्था असंचइयाओ खीराइया घेप्पति, संचतियाप्रो घयाइया ण घेप्पति, तासु खीणासु जया कज्जं तया ण लब्भति, तेण तातो ण घेणंति । १ गा० ३१६६ । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४३ अह सड्ढा णिब्बंधेण भणेज्ज ताहे ते वत्तव्वा - "जया गिलाणाति कज्जं भविस्सति तया घेच्छामो, बाल-वुड्ढ-सेहाण य बहूणि कज्जाणि उप्पज्जति, महंतो य कालो अच्छियव्वो, तम्मि उप्पणे कज्जे घेच्छामो" ति । ___ ताहे सड्ढा भणंति - अम्ह घरे अत्यि वित्तं विगतिदव्वं च पभूतमत्थि, जाविच्छा ताव गेहह, गिलाणकज्जे वि दाहामो", एवं भणिता संचइयं पि गेहति । गिण्हंताण य अवोच्छिण्णे भावे भणंति - अलाहि पजतं । सा य गहिता बाल-वुड्ड-दुब्बलाणं दिज्जति, बलिय-तरुणाणं ण दिजति । एवं पसत्थविगतिग्गइणं ।।३१६६।। विगतीए गहणम्मि वि, गरहितविगतिग्गहो व कज्जम्मि । गरहा लाभपमाणे पञ्चयपावप्पडीघातो ॥२१७०॥ मह-मज-मंसा गरहियविगतीणं गहणं आगाढे गिलाणकज "गरहालाभपमाणे" ति गरहंतो गेण्हति, अहो ! अकज्जमिणं किं कुणिमो, अण्णहा गिलाणो ण पण्णप्पइ, गरहियविगतिलाभे य पमाणपत्तं गेहंति, जो अपरिमितमित्यर्थः, जातिता गिलाणस्स उवउजति तंमत्ताए घेप्पमाणीए दातारस्स पच्चयो भवति, पावं अप्पणो अभिलासो तस्स य पडिघाप्रो कमो भवति, पावदिट्ठीणं वा पडिघाप्रो कमो भवति, सुवत्तं एते गिलागट्ठा गेहंति ण जीहलोलयाए त्ति ॥३१७०।। एवं विगतिट्ठवणा गता। इयाणि "संथारग" त्ति दारं - कारणे उडुगहिते उज्झिऊण गेण्हंति अण्णपरिसाडि । दाउं गुरुस्स तिण्णि उ, सेसा गेण्हंति एक्केक्कं ॥३१७१॥ उडुबद्धकाले जे संथारगा कारणे गहिता ते वोसिरित्ता अण्णे संयारगा अपरिसाडी वासाजोग्गे गेण्हंति, गुरुस्स तिणि दाउं णिवाते पवाते शिवायपवाए । सेसा साधू महाराइणिया एक्केवक गेहंति ।।३१७१॥ इयाणि "२मत्तए" त्ति दारं - उच्चारपासवणखेलमत्तए तिण्णि तिण्णि गेहंति । संजमाएसट्ठा, भिज्जेज्ज व सेस उज्झति ।।३१७२।। वरिसाकाले उच्चारमत्तया तिष्णि, पासवणमत्तया तिण्णि, तिण्णि खेलमत्तया । एवं णव घेत्तव्वा। इम कारणं - जं संजमणिमित्तं वरिसंते एगम्मि वाहडिते बितिएसु कज्जं करेति, असिवादिकारजिएसु प्रजायकारणिसु वा पाएसिए आगतेसु दलएज्जा, सेसेहि अप्पणो कज्ज करेंति। एगमादिभिणण वा मेसेहि कज्ज करेंति । (एस सा) जे उडुबद्धगहिया ते उज्झति । उभयो काल पडिलेहणा कजति । दिया रातो वा प्रवासंते जति परिभुजंति तो मासलहुं, जाहे वासं पडति ताहे परि जति, जेण अभिग्गहो गहितो सो परिट्ठवेति, उल्लो ण णिक्विवियव्यो, प्रारिणयसेहाणं ण वाइजति ॥३१७२।। “मत्तए" ति गयं । इयाणि "3लोए" त्ति - धुवलोओ य जिणाणं, णिच्चं थेराण वासवासासु । असहू गिलाणस्स व, तं रयणिं तू णतिक्कामे ॥३१७३।। १ गा० ३१६६ । २ गा० ३१६६ । ३ गा० ३१६६ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३१७०-३१७५ 1 दशम उद्देशकः उडुबद्धे वासावासासु वा जिणकप्पियाणं धुवलोप्रो दिने दिने कुर्वतीत्यर्थः । थेराण वि वासासु धुवलोमो चेव । असहुगिलाणा पजोसवणराति णातिक्कमति । आउक्काइयविराहणाभया संसज्जणभया य वासासु धुवलोप्रो कज्जति ॥३१७३॥ "लोए" ति गतं । इदाणि "'सचित्ते" त्ति - मोत्तुं पुराण-भावितसङ्के सच्चित्तसेसपडिसेहो। मा होहिति णिद्धम्मो, भोयणमोए य उड्डाहो । ३१७४॥ . जो पुराणो भावियसड्डो वा एते मोत्तुं सचित्ते - सेसा सचित्ता ण पवाविअति । ग्रह पवाविति सेहं सेहिं ता तो च उगुरुं प्राणातिया य दोसा । वासासु पवावितो मा होहिति. णिद्धम्मो तेण ण पवाविति । कहं "णिद्धम्मो" भवति ? उच्यते - 'वासते मा णीहि, प्राउकायातियविराधणा भवति"। ताहे सो भणाति - जई एते जीवा तो णिसग्गमाणे किं भिक्खं गेण्ड ? वियारभूमि वा गच्छह ? कह वा तुन्भे अहिंसगा साहवो य वासासु चलणे ण धोवंति पायलेहणियाए णिल्लिहंति ? ताहे सो भणाति - असुद्धं चिक्खल्लं महिऊण पाए ण धोवंति, असुइणो एते, समलस्स य को धम्मो । एवं विप्परिणतो उण्णिक्खमति । अहवा - सागारियं काउं साहवो पाए धोवंति ततो असामायारी पाउसदोसो य, असमंजसं ति काउंण सहति णिद्धम्मो न भवति । “भोयणमोए य उड्डाहो" ति वासे पडते प्रभाविते सेहे २बहीतो प्राणितं जइ मंडलीए भुंजति तो उड्डाहं करेति, पाणा इव एए परोप्परं संकटुं भंजंति । अहंपि णेहिं विट्टालितो। ताहे विप्परिणमति । मह मंडलीए ण भुजति ताहे असामायारी समया य ण कता भवति । जति वा ते साहवो हिस्सग्गमाणे मत्तएसु उच्चार-पासवणाति प्रायरंति, सो य तं दऔं विप्परिणामेजा, उणिक्खमते, उड्डाहं च करेति । अह साहवो सागारियं ति काउं धरेंति तो प्रायविराहणा। अह णिसग्गंते चेव णिसिरंति तो संजमविराधणा । जम्हा एवमादिदोसा तम्हा वासामु पजोसविते ण पव्वावेतव्यो । पुराणसड्ढेसुं पुण एते दोसा ण भवंति. तेण ते पवाविज्जति । कारणे पजोसविते वि पवाविज्जति । अतिसति जाणिऊण जत्थ पुवुत्ता दोसा णत्थि तं पव्वावेति । अणतिसति वि अव्वोच्छित्तिमाइकारणेहिं पवावेति ।। इमं च जयणं करेंति - विचित्तं महति वसहिं गेण्हंति, प्राउक्कायजीवचोदणे पण्णविजति, प्रसरीरो धम्मो गत्थि त्ति काउं, मंडलीमोएम जतं करेंति, अण्णाए बसहीए ठवेंति, जत्तेण य उवचरंति ॥३१७४।। "सचित्ते" त्ति गयं । इदाणि “अचित्ते" त्ति दारं - डगलच्छारे लेवे, छड्डण गहणे तहेव धरणे य । पुंछण-गिलाण-मत्तग, भायणभंगाति हेतू से ॥३१७॥ छार-उगल-मल्लमातीणं गहणं, वासा उडुबद्धगहियाण वोसिरणं, वत्थातियाण धरणं, छाराइयाण वा धरणं, जति ण गेण्हंति तो मासलहुं, जा य तेहिं विणा गिलाणातियाण विराहणा, भायणे वि विराधिते १ गा० ३१६६ । २ वसहीनो अणिते । इत्यपि प्रत्यन्तरे । ३ गा० ३१६६ । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४३ लेवेण विणा। तम्हा घेत्तवाणि । छारो गहितो एककोणे घणो कजति । जति ग कज्जं तलियाहि तो विगिचिज्जंति । अह कज्जं ताहि तो छारपंजस्स मज्झ ठविजति । पणयमादि-संसजणभया उभयं कालं तलियाडगलादियं च सव्वं पडिलेहंति । लेवं संजोएत्ता अप्पडिभुजमाणभायणहेढा पुप्फगे कीरति, छारेण य उग्गुंठिज्जति, सह भायणेण पडिलेहिजति, अह अपडिभुज्जमाणं भायणं णत्थि ताहे भल्लगं लिपिऊण पडिहत्थं भरिज्जति । एवं काणइ गहणं काणइ वोसिरणं काणइ गहणधरणं ॥३१ : ५।। “दव्वट्ठवणा' गता। इयाणिं "'भावट्ठवणा" इरिएसण भासाणं मणवयसा कायए य दुच्चरिते। अहिकरणकसायाणं, संवच्छरिए वि श्रोसवणं ॥३१७६॥ इरियासमिती एसणासमिती भासासमिती एतेसि गहणे - प्रायाण-णिखेवणासमिती परिठ्ठावणियासमितीय गहियातो । एतासु पंचगु वि समितीसु वासासु समिएण भवियव्वं । ____ एवं उक्ते चोदगाह - "उबद्धे कि असमितेण भवितव्वं ? जेण वासासु पंचसु वि समितीसु उवउत्तेण भवियव्वमिति भणम् ?" आचार्याह - कामं तु सव्वकालं, पंचसु समितीसु होति जतियव्वं । वासासु अहीकारो, बहुपाणा मेदिणी जेणं ।।३१७७|| "कामं तु" । काममवघृतार्थे, यद्यपि सर्वकाल समितो भवति तहावि वासासु विसेसेण अहिकारो कीरइ जेणं तदा बहुपाणा मेदिणी अागासं च । मेदिणि त्ति पुढयी एवं ताव सब्बासि सामणं भणिय।।३१७७।। इदाणि एवकेक्काए समितीए दोसा भणंति - भासणे संपातिवहो, दुण्णेश्रो णेहछेदु ततियाए । इरितचरिमासु दोसु य, अपेह अपमज्जणे पाणा ॥३१७८॥ "भासणे" त्ति भासासमितीते असमियस्स असमंजसं भासमाणस्स मक्खिगातिसंपातिमाण मुहे पविसंताण वधो भवति, प्रादिग्गहणातो पाउवकायफुसिता सचित्तपुढविरतो सचित्तवायो य मुहे पविसति । ___ "ततिया" एसणासमिती पडिक्कमणऽज्झयणे सुत्ताभिहिताणुक्कमेण वासासु उवउत्तस्स वि विराहणा, किं पुण अणुवउत्तस्स । उदउल्लपुरेकम्माणं च हत्थमत्ताणं णेहच्छेदं दुवखं जाणंति स्निग्धकालत्वात् दुर्जेयो दुविज्ञेय आउक्काइयच्छेदो परिणती - अचित्तो भवतीत्यर्थः । "इरिए" त्ति - इरियासमितताए अगुवउत्तो छज्जीवणिक्काए विराहेति । ___ "चरिमासु दोसु" ति - प्रायःणणिक्वेवणासमिती पारिट्ठावणियासमिती य, एतामो दो चरिमायो। एयातु अणुवउत्तो जइ पडिलेहणपमज्जणं ण करेति दुप्पडिलेहिय-दुप्पमज्जियं वा करेति ण पमति वा, एयासु वि एवं छज्जिवणिकायविराहणा भवति । पंच समितीग्रो उदाहरणाप्रो जहा प्रावस्सए ॥३१७८।। १गा० ३१४०। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाध्यगाथा ३१७६-३१ दशम उद्देशकः १३४ मण-वयण-कायगुत्तो, दुच्चरियाति व णिच्चमालोए । अहिकरणे तु दुरूवग, पज्जोए चेव दुमए य ॥३१७६।। मणेणं वायाए कारण य गुत्तो भवति । गुत्तीणं उदाहरणा जहा 'प्रावस्सए' । जंकि चि मूलगुणे उत्तर गुणेसु समितीसु गुत्तीसु वा उदुबद्ध वासासु य दुच्चरियं तं वासासु खिप्पं पालोएयव्वं । ___ इयाणि - "अधिकरण" त्ति - अधिकरणं कलहो भण्णति, तं च जहा 'चउत्थोडेसे' वणियं तहा इहावि सवित्यरं ददुव्वं । तं च ण कायव्वं, पुव्वुप्पणं च ण उदीरिय वं । पुवुप्पण्णं जइ कसायुक्कडताए न खामितं तो - पज्जोसवणासु अवस्सं विप्रोसवेयव्वं । अधिकरणे इमे दिटुंता दुरूवगामोवलक्खियं, पज्जोतो, दमो य ।।३१७६॥ तत्थ “दुरूवग"त्ति उदाहरणं - पायरियजणवयस्स अंतग्गामे एक्को कुभारो। सो कुडगाणं भंडि भरिऊण पच्चंतगा दुरूतगं णामयं गतो । तेहिं य दुरूतगव्वेहिं गोहेहिं एगं बइल्लं हरि उकामेहि भण्णति - एगवतिल्लं भंडि, पासह तुम्भे वि डमंतखलहाणे । हरणे ज्झामण भाणग, घोसणता मल्लजुद्धसु ॥३१८०॥ “भो भो पेच्छह इमं अच्छेरं, एगेण बइल्लेण भंडी गच्छति"। तेण वि कुभकारेण भणिय"पेच्छह भो इमस्स गामस्स खलहाणाणि डझति"। अतिगया भंडी गाममज्झे ठिता । तस्स तेहिं दुरूवगव्वेहि छिदं लभिऊण एगो बइल्लो हडो। विक्कयं गया कुलाला, ते य गामिल्लया जातिता - देह बइल्लं । ते भणंति - तुमं एक्केण चेव बइल्लेण आगयो । ते पुणो जातिता। जाहेण देति ताहे. सरयकाले सव्वधण्णाणि खलधाणेसु कतानि, ताहे अग्गी दिण्णो । एवं तेण सत्त वरिसाणि झामिता खलघाणा। ताहे अट्ठमे वरिसे दुरूवगगामेल्लएहि मल्लजुद्धमहे वट्टमाणो भाणगो भणितो - धोसिहि भो जस्स अम्हेहि अवरद्ध तं खामेमो, जं च गहियं तं देमो, मा अम्ह सस्से दहउ । ततो भाणएण उग्घोसियं ॥३१८०॥ ततो कुभकारेण भाणगो भणितो भो इमं घोसेहि अप्पिणह तं बइल्लं, दुरूवगा तस्स कंभकारस्स । मा भे डइहिति धण्णं, अण्णाणि वि सत्त वरिसाणि ॥३१८१॥ भाणगेण उग्धोसियं तं । तेहि दुरूवगव्वेहि सो कुभकारो खामितो। दिण्णो य, से बइल्लो । इमो य से उवसंहारो जति ता तेहि असंजतेहि अण्णाणीहिं होतेहिं खामियं तेण वि खमियं, किमंग पुण संजएहिं नाणीहिं य। कयं तं सव्वं पजोसवणाए खामेयव्वं च, एवं करंतेहिं संजमाराहणा कता भवति ॥३१८१॥ अहवा - इमो दिटुंतो पजोरो ति - चंपा अणंगसेणो, पंचऽच्छर थेर नयण दुम वलए । विह पास णयण सावग, इंगिणि उववाय णंदिवरे ॥३१८२॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सभाष्य-चूणिके निशीघसूत्र [सूत्र-४३ बोहण पडिमोदायण, पभाव उप्पाय देवदत्तद्दे । मरणुववाते तावस, नयणं तह भीसणा समणा ॥३१८३॥ गंधारगिरी देवय, पडिमागुलियागिलाणपडियरणं । पज्जोयहरण पुक्खर, रणगहणे णामो सवणा ॥३१८४॥ इहेव जंबुद्दीवे अड्डभरहे 'चंपा' णाम णगरी, 'अणंगसेणो' णाम सुवण्णगारो। सो य अतीव थीलोलो। सो य जं रूववई कण्णं पासति तं बहं दविणजायं दाउं परिणेइ। एवं किल तेण पंच इत्थिसया परिणीया । सो ताहिं सद्धि माणुस्सए भोगे भुजमाणो विहरइ। इतो य ‘पंचसेल' णाम दीवं । तत्थ 'विज्जुमाली' णाम जक्खो परिवसइ । सो य चूतो। तस्स दो अग्गमहिसीतो - 'हासा पहासा' य । तारो भोगत्थिणीतो चितेति -किंचि उवप्पलोभेमो । ताहि य दिट्टो 'अणंगसेणो'। सुदरे रूवे विउव्विऊण तस्स 'असोगवणियाए' णिलीणा। तापो दिहातो अणंगसेणेण । ततो य तस्स मणक्खेवकरे विब्भमे दरिसेंति । अक्खितो सो ताहि, हत्थं पसारे उमारखो। ताहे भणितो - “जति ते अम्हेहिं कज्ज तो पंचसेलदीवं एज्जह" त्ति भणित्ता - तारो असणं गता। इयरो विविहप्पलावीभूयो असत्थो रण्णो पण्णगारं दाऊण उग्घोसणपडहं णीणावेति इमं उग्घोसिज्जति - "जो अणंगसेणय पंचसेलं दीवं पावेति तस्स सो दविणस्स कोडिं पयच्छति" एवं घुस्समाणे णावियथेरेण भणियं - "अहं पावेमि" त्ति, छिक्को पडहो। तस्स दिण्णा कोडी। त दुवे गहियसंबला दूरूढा णावं । जाहे दूरं गया ताहे णाविएण पुच्छितो - किं चि अग्गतो जलोवरि पासंसि ? तेण भणियं "ण व" ति। जाहे पुणो दूरं गतो ताहे पुणो पुच्छति, णेतेण भणियं - किंचि माणुससिरप्पमाणं घणंजण-वण्णं दीसति। णाविएण भणियं – एस पंचसेलदीवणगस्स धाराए ठितो वडरुक्खो। एसा णावा एतस्स ग्रहेण जाहित्ति, एयस्स परभागे जलावत्तो। तुमं किंचि संबलं घेत्तु दक्खो होउं वडसाल विलग्गेजसि । अहं पुण सह णावाए जलावत्ते गच्छीहामि। तुमं पुण जाहे जल वेलाए उग्रत्तं भवति ताहे णगधाराए णगं आरुभित्ता परतो पच्चोरुभित्ता पंचसेलयं दीवं जत्थ ते अभिप्पेयं तत्थ गच्छेजसु । अण्णे भणंति - ( तुम एत्थ वडरुक्खे प्रारूढो ताव अच्छसु, जाव उ संज्झावेलाए महंता पक्खिणो आगमिष्यंति पंचसेलदीवातो। ते राती वसित्ता पभाए पंचसेलगदीवं गमिस्संति। तेसिं चलणविलग्गो गच्छेज्जसु। ) जाव य सो थेरो एवं कहेति ताव संपत्ता वडरुक्खं णावा । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३१८३-३१८४ ] दशम उदेशक: 'अणंगसेणो' वडरुक्खमारूढो। णावियथेरो सह णावाए जलावत्ते गतो। एतेसि दोण्ह पगाराणं अन्नतरेण तातो दिट्टातो । ताहि संभट्ठो, भणियो य ण एरिसेण असुइणा देहेण अम्हे परिभुजामो। किंचि बाल - तवचरणं काउं णियाणेण य इहे उववज्जसु, ताहे सह अम्हेहि भोगे भुजहसि । ताहि य से सुस्सादुमंते पत्तपुप्फफले य दत्ते उदगं च । सीयलच्छायाए पासुत्तो। ताहि य देवताहि पासुत्तो चेव करयलपुडे छुभित्ता चपाए सभवणे क्खित्तो, विबुद्धो य पासति - सभवण सयणपरिजणं च । पाढत्तो पलविउ "हासे पहासे' । लोगेण पुच्छिज्जतो भणाति - दिट्ट सुयमणुभूयं जं वत्तं पंचसेलए दीवे। तस्स य वयसे णाइलो णाम सावग्रो, सो से जिणपण्णत्तं धम्मं कहेति - "एयं करेहि । ततो सोधम्माइसु कप्पेसु दीहकालठितीयो सह वेमाणिणीहि उत्तमे भोगे भुजिहिसि, किमेतेहिं वधूतेहि वाणमंतरीएहि अप्पकालद्वितीएहि । सो त असद्दहतो सयणपरियणं च अगणतो णियाणं काउ इंगिणिमरणं पडिवजति । कालगो उववण्णो पंचसेलए दीवे 'विज्जुमाली णाम जक्खो', हासपहासाहिं सह भोगे भुजमाणो विहरति । सो वि णाइलो सावगो सामण्णं काउं पालोइंग्र-पडिक्कतो कालं काउं अच्चुत्ते कप्पे सामाणितो जातो। सो वि तत्थे विहरति। अण्णया णंदीसरवरदीवे अट्टाहिमहिमणिमित्तं सयं इंदाणित्तेहि अप्पणऽप्पणो णितोगेहि णि उत्ता देवसघा मिलंति । _ 'विज्जुमालि' जक्खस्स य पाउज्जणियोगो। पडहमणिच्छंतो बला आणीतो देवसंघस्स य दूरत्थो प्रायोज्ज वायंतो, णाइलदेवेण दिदो। पुव्वाणुरागेण तप्पडिबोहणत्थं च णाइल देवो तस्स समीवं गतो। तस्स य तेयं असहमाणो. पडहमंतरे देति । णाइलदेवेण पुच्छित्तो - मं जाणसि त्ति । विज्जुमालिणा भणियं - को तुब्भे सक्काइए इंदे ण याणइ ? देवेण भणियं - परभवं पुच्छामि, णो देवत्तं । विज्जुमालिणा भणियं - "ण जाणामि"। ततो देवेण भणियं - "अहं ते परभवे चंपाए णगरीए वयंसयो पासी णाइलो णाम । तुमे तया मम वयणं ण कयं तेण अप्पिड्डिएसु उववणो, तं एवं गए वि जिणप्पणीयं धम्म पडिवजसु । धम्सो से कहितो, पडिवण्णो य । ताहे सो विज्जुमाली भणाति - इदाणि कि मया कायव्वं ? ___ अच्चुयदेवेण भणियं - बोहिणिमित्तं जिण-पडिमा अवतारणं करेहि । ततो विज्जुमाली अट्ठाहियमहिवन्ते गंतु चुल्लिहिमवंतं गोसीसदारुमयं पडिमं देवयाणुभावेण णिव्वत्तेति, रयण Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४३ विचित्ताभरणेहिं सव्वालंकारविभूसियं करेति, अण्णस्स य गोसीसचंदणदारुस्स मज्भे पक्खिवति, चितेति य " कत्थिमं णिवेसेमि" । १४२ इतोय समुद्दे वणियस्स पवहणं दुच्चा पुणो गहियं डोल्लति, तस्स य डोलायमाणस्स छम्मासा वट्टति । सो य वणिश्रो भीतोव्विग्गो ध्रुवकडच्छुयहत्थो इट्ठदेवया - णमोक्कारपरो अच्छति । विज्जुमालिणा भणियं - “भो भो मणुया ! अज्जं पभाए इमं ते जाणपत्तं वीतीभए नगरे कूलं पाविहिति । इमं च गोसीसचंदणदारु, पुरजणवयं उदायणं च रायाणं मेलेउं भणेज्जासि - एत्थ देवाहिदेवस्स पडिमं करेज्जह" एसा देवाणवत्ती । तो देवाणुभावेण नावा पत्ता वीईभयं । तो वणिग्धं घेत्तु गम्रो रायसमीवं भणियं च तेण " इत्थ गोसीसचंदणे देवाधिदेवस्स पडिमा कायव्वा" । सव्व जहावत्तं वणिएण रण्णो कहियं गो वणिश्रो । रण्णा विपुरचतुवेज्जे (वण्णे) मेलेउं प्रक्खियं प्रक्खाणयं । सद्दिश्रावणकुट्टगा - " इत्थ पडिमं करेहि" त्ति । कते अधिवास बंभणेहिं भणियं - देवाहिदेवो बंभणो तस्स पडिमा कीरउ, वाहितो कुठारो ण वहति । अण्णेहिं भणियं - विण्डु देवाधिदेवो । तहावि तं ण वहति । एवं खंद रुद्दाइया देवयगणा भाषेत्ता सत्याणि वाहिताणि ण वहति । एवं संकिलिस्संति । इतोय पभावतीए आहारो रण्णो उवसाहितो । जाहे राया तत्वक्खित्तो ण गच्छती ताहे पभावतीए दासचेडी विसजिता - गच्छ रायाणं भणाहि - वेलाइक्कमो वट्टे ति, सव्वमुवसाहियं किण्ण भुंजह त्ति ? गया दासचेडी, सव्वं कहियं । ततो रातिणा भणियं - सुहियासि, म्हं इमेरिसो कालो वट्टति । पडिगया दासचेडी । ताए दासचेडीए सव्वं पभावतीए कहियं । ताहे पभावती भणति - " अहो मिच्छद्दंसणमोहिता देवाधिदेवं पण मुणंति" । ता पभावती हाया कयकोउयमंगला सुक्किल्ल-वास-परिहाण - परिहया बलि- पुप्फ-धूवकडच्छ्रय- हत्था गता । ततो पभावतीए सव्वं बलिमादिकाउं भणियं - "देहाधिदेवो महावीरवद्धमाणसामी, तस्स पडिमा कीरउ" त्ति पहराहि । वाहितो कुहाडो, एगधाए चेव दुहा जातं, पेच्छति य पुव्वणिव्वत्तियं सव्वालंकारभूसियं भगवप्रो पडिमं, सा णेउ रण्णा घरसमीवे देवाययणं काउं तत्थ विट्ठया | तत्थ किण्हगुलिया णाम दासचेडी देवयसुस्सूसकारिणी णिउत्ता । प्रट्ठमि चा उद्दसीसु पभावती देवी भत्तिरागेणं सयमेव णट्टोवहारं करेति । या वितयाणुवत्तीए मुरए पवाएति । प्रणया पभावती णट्टोवहारं करेंतीए रण्णा सिरच्छाया ण दिट्ठा। "उप्पाउ" त्ति काउं मंगल-चित्तस्स रण्णो णट्टसममुरवक्खोड़ा (ण) पडंति त्ति रुट्ठा महादेवी "प्रवज्ज" त्ति काउं । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३१८४] दशम उद्देशकः १४३ ततो रण्णा लवियं - "णो मे अवजा, मा रूससु, इमेरिसो उप्पासो दिट्ठो, ततो चित्ता. कुलताए मुरवक्खोडयाणचुक्को" त्ति । ततो पभावतीए लवियं-जिणसासणं पवण्णेहिं मरणस्स ण भेयव्वं ।। अण्णया पुणो वि पभावतीए पहायकयकोउयाते दासचेडी वाहित्ता "देवगिहपवेसा सुद्धवासा प्राणेहि' त्ति भणिया। ते य सुद्धवासा प्राणिज्जमाणा कुसुभरागरत्ता इव अंतरे संजाता उप्पायदोसेण । पभावतीए अदाए मुहं णिरक्खंतीए ते वत्या पणामिता। ततो रुट्ठा पभावती "देवयायणं पविसंतीए कि मे अमंगलं करेसि त्ति, किमहं वासघरपवेसिणि" ति, अदाएणं दासचेडी संखावत्ते पाया। मता दासचेडी खणेण । वत्था वि साभाविता जाता । पभावती चितेति - "अहो मे गिरवराहा वि दासचेडी वावातिया, चिराणुपालियं च में थूलगपाणाइवायवयं भग्गं, एसो वि मे उप्पाउ" ति । ___ ततो रायाणं विण्णवेति - "तुब्भेहि अणुण्णाया पव्वज्ज अब्भुवेमि । मा अपरिचत्तकामभोगा मरामि" त्ति। रण्णा भणियं - "जति मे सद्धम्मे बोहेहिसि" त्ति। तीए अब्भुवगया णिक्खंता, छम्मासं संजममणुपालेत्ता आलोइयपडिक्कंता मता उववन्ना वेमाणिएसु। ततो पासित्ता पुव्वं भवं पुवाणुरागेण संगारविमोक्खणत्थं च बहूहिं वेसंतरेहिं रण्णो जइणं धम्मं कहेति । राया वि तावसभत्तो तं णो पडिवज्जेति। ताहे पभावतीदेवेणं तावसवेसो कतो, पुप्फफलोदयहत्थो रणो समीवगं गतो। अतीव एगं रमणीयं फलं रण्णो समप्पियं। रण्णा अग्घायं सुरभिगंधं ति, पालोइयं चक्खुणा सुरूवं ति, प्रासातियं अम(य)रसोवमं ति। रपणा य पुच्छित्तो तावसो - कत्थ एरिसा फला संभवंति ? इतो णाइदूरासण्णे तावसासमे एरिसा फला भवंति । रण्णा लवियं - दंसेहि मे तं तावासमं, ते य रुक्खा । तावसेण भणियं - एहि, दुयग्गा वि त वयामो । दो वि पयाता । राया य म उडातिएण सवालंकारविभूसितो गतो पेच्छति य मेहणिगुरु बभूतं वणसंडं । तत्थ पविट्ठो दिट्ठो तावसासमो, तावसाऽऽसमे य पेच्छति स दारे पत्ते गंधं दिव्वं । __ दिट्ठिते य मंतेमाणे णिसुणेइ एस राया एगागी अागतो सव्वालंकारो मारेउं गेण्हामो से पाभरणं । राया भीतो पच्छयोसवितुमारद्धो । तावसेण य कवियं - धाह धाह एस पलातो गेण्ह । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सभाष्य-चूणिके निशीथसत्रे [ सूत्र-४३ . . ताहे सव्वे तावसा भिसियगणे तियंतियकमंडलुहत्था धाविता, हण हण गेण्ह गेण्ह मारह त भणंता - रण्णो अणुमग्गतो लग्गा। राया भीतो पलायंतो पेच्छइ - एगं महंतं वणसंडं। सुणेति तत्थ माणुसालावं । एत्थ रणं ति मण्णमाणो तं वणसंडं पविसति । पेच्छइ य तत्य चंदमिव सोम, कामदेवमिव रूववं, गिकुमारमिव सुणेवत्थं, बहस्सति व सव्वसत्थविसारयं, बहूणं समणाणं सावगाणं साविगाण य प्सरेण सरेणं धम्ममक्खायमाणं समणं । तत्थ राया गतो सरणं सरणं भणंतो। समणेण य लविय - "ते ण भेतव्वं' त्ति। "छुट्रोसि' त्ति भणिता तावसा पडिगता। राया वि तेसि विप्परिणतो इसि धासत्थो। धम्मो य से कहितो, पडिवण्णो य धम्म । पभावतिदेवेण वि सव्वं पडिसरियं । राया अप्पाणं पेच्छति सिंघासणत्थो चेव चिट्ठामि, ण कहि वि गतो पागतो वा, चितेति य किमेयं ति ? ५भावतिदेवेण य ग्रागासत्येण भपियं - सव्वमेयं मया तुज्झ पडिबोहणत्थं कयं, धम्मे ते अविघं भवतु, अण्णत्थ वि में प्रावतकप्पे सभरेज्जासि त्ति लवित्ता गतो पभावती देवो। सव्वपुरजणवएसु पारंपरिणणिग्योसो णिग्गतो-वीतीभए णगरे देवावतारिता पडिमा त्ति। इतो य 'गंवारा' जणवयातो सागो पव्वइतुकामो सव्वतित्थकराणं जम्मण-णिक्खमणकेवलुप्पाय-णिव्वाणभूमीग्रो दट्ठ पडिणियत्तो पव्वयामि त्ति । __ताहे सुतं 'वेयड्डगिरिगुहाए' रिसमातियाण तित्थकराण सव्वरयणविचित्तियातो कणगपडिमानो। साहू सकासे सुणेत्ता तानो दच्छामि त्ति तत्थ गतो। तत्थ देवताराधणं करेत्ता विहाडियायो पडिमानो। तत्थ सो सावतो थयथुतीहि थुणंती अहोरत्तं णिवसितो। तस्स णिम्मलरयणेसु ण मणागमवि लोभो जातो। देवता चितेति - "अहो माणुसमजुद्ध" ति । ' तुट्ठा देवया, “बूहि वरं" भणंती उवहिता . ततो सावगेण लवियं - "णियत्तो हं मा कामभोगेसु कि मे वरेण कज्ज ति ? "अमोहं देवतादंसणं' ति भणित्ता देवता अट्टस गुलियाणं जहाचितितमणोरहाणं पणामेति । ताप्रो गहिताप्रो सावतेण, ततो णिग्गतो । सुयं चणण जहा बीतीभए णगरे सव्यालंकारविभूसिता देवावतारिता पडिमा। तं दञ्छामि नि, तत्थ गतो, वंदिता पडिम।। कति वि दिणे पज्जुवासामि त्ति तत्थेव देवताययणे ठितो, तो य सो तत्थ गिलाणो जातो । 'देसितो सावगो' काउं कण्हगुलियाए पडियरितो । तुट्ठो सावगो । किं मम पव्वतितुकामस्स गुलियाहिं ' एस भोगस्थिणी तेण तीसे जहाचिंतयमणोरहाणं अट्ठसयं गुलियाणं दिण्णं, गतो सावगो। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा ३१८४ ] दशम उदेशकः ततो वि किण्हगुलियाए विण्णा(स)णत्थं किमेयानो सव्वं जहाचितियमणोरहायो उ णेति ? जइ सच्चं तो "ह उत्तत्तकणगवण्णा सुरूवा सुभगा य भवामी' ति एगा गुलिया भक्खिया। ताहे देवता इव कामरूविणी परावत्तियवेसा उत्तत्तकणगवण्णा सुरूवा सुभगा य जाया : ततो पभिति जणो भासि उमाढत्तो एस किण्हगुलिया देवताणुभावेण उत्तत्तकणगवण्णा जाया, इयाणि होउं से णामं "सुवण्णगुलिय" ति, तं च घुसितं सव्वजणवएसु । ततो सा सुवण्णगुलिगा गुलिग-लद्धपच्चया भोगस्थिणी एग गुलियं मुहे पक्खिविउचितेति"पजोयणो मे राया भतारो भविज" ति । बीतीभयाग्रो उज्जेणी किल असीतिमित्तेसु जोयणेसु । तत्थ व अकम्हा रायसभाए पज्जोयस्स अग्गतो पुरिसा कहं कहंति-"बीतीभते णगरे देवावतारियपडिमाए सुस्सूसकारिगा कण्हगुलिगा देवताणुभावेण सुवण्णगुलिगा जाता, अतीव सोहग्गलावन्नजुत्ता बहुजणस्स पत्थणिज्जा जाता।" तं सुणेत्ता पज्जोयो तस्स गुलुम्मातितो दूतं विसज्जेति उदायणस्स – “एयं सुवण्णगुलियं समं विसज्जेसु" त्ति। गनो दूतो, विण्णत्तो उदायणो। उदायणेण टेण विसज्जितो, अस्सकारियाऽसम्माणितो य दूतो। जहावत्तं दूतेण पज्जोयस्स कहियं । पुणो पज्जोएण रहस्सितो दूतो विसजिलो सुवण्णगुलियाए जइ मं इच्छसि वा तोऽहं रहस्सियमागच्छामि । तीए भणियं - जति पडिमा गच्छति तो गच्छामि, इयरहा णो गच्छे । गंतु दूतेण कहियं पज्जोयस्स । ततो पज्जोतोऽणलगिरिणा हत्थिरयणेरण १सण्णद्धरिणमियगुडेण अप्पपरिच्छडेरणागतो, अहोरत्तेण पत्तो, परोसवेलाए पविट्ठा चरा, कहियं सुवण्णगुलियाते।। तत्थ य बालवसंतकाले लेपगमहे वट्टमाणे पुन्वकारिता पजोएण लेपगपडिमा मंडियपसाघिता गीतायोजणिग्धोसेण रायभवणं पवेसिता देवतावनारियपडिमाययणं च । भवियव्वताए छलेण य तम्मि प्राययणे सा ठविता । इयरा देवावतारियपडिमा कुसुमोमालियगीयवा इत्तणिग्धोसेण सव्वजणसमक्खे लेप्पगछलेण णिता सुवण्णगुलिगा य। . पडिमं सुवण्णगुलिगं च पजोतो हरिउगतो। जं च रयणिऽणलगिरी वीतीभए णगरे पवेसितो त रयणि अंतो जे गया तेऽणलगिरिणो गंधहत्थिणो गंधेण आलाणखंभं भंतु सव्वे वि लुलिया सव्वजणस्स य जायंति । महामंतिजणेण य उण्णीयं -- Yणं एत्थऽणल गिरी हत्थी खंभविप्पणट्ठो अागतो, अण्णो वा कोइ वणहत्थी। पभाए रण्णा गवेसावियं । दिट्ठोऽणलगिरिस्स प्राणिमलो। पवत्तिनाहतेणकहियं-रण्णा १ सन्नद्ध स्थापितकवचेन । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सभाष्य- चूणिके निशीथ सूत्रे [ सून- ४३ लागतो पज्जोतो पडिग य । गवेसाविता सुवण्णगुलिगा यत्ति, णायं तदट्ठा ग्रागतो ग्रासि त्ति । रण्णा भणियं - पडिमं गवेसहि त्ति । गविट्ठा। कुसुमोमालिया चिट्ठइ न वत्ति, देवतावतारियप डिमाए य गोसीसचंदणसीताणुभावेण य कुसुमा णो मिलायंति । व्हायपयतोतराया मज्ह देक देवाययणं प्रतिगो, पेच्छती य पुव्वकुसुमे परिमिलाणे । रण्णा चितियं - किमेस उप्पातो, उत अण्णा चेव पडिम त्ति ? ताहे अवणे कुसुमे णिरिक्खिता, णायं हडा पडिमा । रुट्ठी उदायो दूतं विसज्जेति, जइ ते हडा दासचेडी तो हडा णाम, विसज्जेह मे पडिमं । गतपचागतेण दूतेण कहियं उदायणस्स ण विसज्जेति पज्जोश्रो पडिमं । -- ततो उदायणो दसहि मउडबद्धरातीसह सव्वसाहण -बलेण पयातो । कालो य गोवति । मरुणवयमुत्तरंतो य जलाभावे सव्वखंधवारी ततियदिले तिसाभिभूतो विसण्णो । उदायणस्स रण्णो कहियं । रणा विग्रहं चितिउं णत्थि ग्रण्णो उवातो सरणं वा, णत्थि परं पभावतिदेवो सरणं ति प्रभावतिदेवो सरणंसि को । पभावतिदेवस्स कयसिंगारस्सासणकंपो जाम्रो, तेण प्रोही पत्ता, दिट्ठा उदायणस्स रण्णो ग्रावत्ती । ततो सो ग्रागतो तुरंतो पिद्धखं परं जलधरेहिं पुव्वं ग्रप्पातितो जणवप्रो पविरलतुमारसीयलेण वायुणा । ततो पच्छा वालपरिक्खितं व जलं जलधरेहिं मुक्कं सरस्स तं च जलं देवता-कय-पुक्खरणीतिए संठियं, देवयकयपुक्खरणि त्ति ग्रबुहजणेणं "ति पुक्खरं " ति तित्थं पवत्तियं । ततो उदायणो राया गनो उज्जेणि । रोहिता उज्जेणी । बहुजणक्खए वट्टमाणे उदायणेण पज्जोनो भणियो - तुज्भं मज्झ य विरोहो । अम्हे चैव दुग्रग्गा जुज्भामो, किं समजणवएणं माराविएणं ति । ग्रब्भुवगयं पज्जोएण । दुग्रग्गाण वि दूतए संचारेण संलावो - कहं जुज्झामो ? किं रहेहिं गएहिं ग्रस्सेहिं ? ति । उदायणेण लवियं जारिसो तुज्भः णलगिरी हत्थी एरिसो मज्भ णत्थि, नहा तुज्भ जेण ग्रभिप्पेयं तेरा जुज्भामो । - पज्जोए भणियं गएहिं ग्रममाणं तुज्भं ति, कल्लं रहेहि जुज्झामो ति । दूवग्गणे विग्रवट्टियं । विदिदिणे उदायणी रहेण उवद्वितो, पज्जोग्रोणलगिरिणा हत्थि - रयणेण । सेसखंबा - वारी सेण्णच्च परिवारो पेच्छगो य उदामीणो चिट्ठति । उदायणेण भणियं एस भट्टपण्णी तो मया, संपलग्गं जुद्ध, आगतो हत्थी ! उदायणेण चक्कभमेच्छूढो, उसु वि पायतले विद्धो सरेहि, पडियो हत्थी । एवं उदायणेण रणे जिता गहियो पज्जोग्री । भग्गं परवलं । गहिया उज्जेणी । गट्ठा सुवण्णगुलिया | पडिमा पुण देवताहिट्टिता संचालेउ ण सविकता । पज्जोतो य ललाटे सुगहपाएण अंकितो । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापणापा ३१८५-३१८६] दशम उद्देशकः . इमं च से णामयं ललाटे चेव अंकितं - दासो दासीवतिभो, छेत्तट्ठी जो परे य वतन्यो। आणं कोवेमाणे, हंतव्वो बंधियन्यो य ॥३१८॥ कंठा। उदायणो ससाहणेण पडिणियत्तो, पज्जोमो वि बद्धो खंधावारे णिज्जति । उदायणो प्रागप्रो, जाव दसपुरोद्दे से' तत्थ वरिसाकालो जातो । दस वि मउडबद्धरायाणो णिवेसेण ठितो। उदायणस्स उवजेमणाए भुजति पज्जोतो।। __ अण्णया पजोसवणकाले पत्ते उदायणो उववासी, तेण सूतो विसज्जितो। पज्जोप्रो अज्ज गच्छसु, कि ते उवसाहिज्जउ ति। गतो सूतो, पुच्छियो पज्जोयो । प्रासंकियं पज्जोतस्स । "ण कयाति अहं पुच्छिो , अज्ज पुच्छा कता। णूणं अहं विससम्मिसेण भत्तण अज्ज मारिज्जिउकामो। अहवा - किं मे संदेहेण, एयं चेव पुच्छामि।" पज्जोएण पुच्छिो सूतो - अज्ज मे किं पुच्छिन्नति । किं वा हं अन्न मारिजिउकामो? सूतेण लवियं-ण तुमं मारिज्जसि । राया समणोवासोऽज्ज पज्जोसवणाए उववासी। तो ते जं इ8 अज्ज उवसाहयामि ति पुच्छियो। तो पज्जोतेण लवियं-"अहो सपावकम्मेण वसणपत्तेण पज्जोसवणा वि ण णाता, गच्छ कहेहि राइगो उदायणस्स जहा अहं पि समणोवासगो अज्ज उववासियो भत्तेण ण मे कज्ज।" सूतेण गंतु उदायणस्स कहियं - सो वि समणोवासगो अज्ज ण भुजति त्ति । ताहे उदायणो भणति - समणोवासगेण मे बद्ध ण अज्ज सामातियं ण सुज्झति, ण य सम्म पज्जोसवियं भवति, तं गच्छामि समणोवासगं बंधणातो मोएमि खामेमि य सम्म, तेण सो मोइरो खमियो य ललाटमंकच्छायणट्ठया य सोवण्णो से पट्टो बद्धो । ततो पभिति पट्टबद्धरायाणो जाता। एवं ताव जति गिहिणो वि कयवेरा अधिकरणाई प्रोसवंति, समणेहिं पुण सधपावविरतेहिं सुठुतरं मोसवेयव्वं ति । सेसं सवित्थरं जीवंतसामिउपत्तीए वत्तव्व ॥३१८६॥ अहवा - इमं उदाहरणं - खद्धादाणि य गेहे, पायस दमचेडरूवगा दटुं। पितरोभासण खीरे, जाइय रद्धे य तेणा तो ॥३१८६॥ खद्धि प्रादाणि जेसु गिहेसु ते खद्धादाणीयगिहा - ईश्वरगृहा इत्यर्थः । तेसु खद्धादाणीयगिहेसु, खणकाले पायसो णवगपयसाहितो।तं दट्ट दमगचेडा दमगो-दरिद्दो तस्स पुत्तभंडा इत्यर्थः पितरं प्रोभासंति – “अम्ह वि पायस देहि' त्ति भरिणतो। तेण गामे दुद्धतंदुले ग्रोहारिऊण समप्पियं भारियाए - "पायसमुवसाहेहि" त्ति । सो य पच्चंतगामो, तत्थ चोरसेरणा पडिता, ते य गाम विलुलि उमाढत्ता। . १ उद्देशः स्थान प्रादेशो वा । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-३ पायसहरणं छेत्ता, पच्छागय असियएण सीसं तु । भाउयसेणाहिवखिं, सणाहिं सरणागतो जत्थ ॥३१८७॥ तस्स दमगस्स सो य पायसो सह थालीए हडो। तं वेलं सो दमगोछेत्तं गतो। सो य छेतातो तणं लुणिऊणं आगतो, तं चितेति - "अज्ज चेडरूवेहि समं भोक्खेमि" ति घरंगणपत्तस्स चेडरूवेहिं कहितं ततो “बप्प" ति भणतेहि सो य पायसो हडो। सो तणपूलियं छड्डेऊण गतो कोहाभिभूतो, पेच्छति सेणाहिवस्स पुरतो पायसालियं ठवियं । ते चोरा पुणो गामं पविट्ठा, एगागी सेणाहिवो चिट्टइ। तेण य दमगेण असिएण सीसं छिण्णं सेणावतिस्स णट्ठो दमगो। ते य चोरा हण्णायगा णट्ठा । तेहिं य गतेहिं मयकिच्चं काउं तस्स डहरतरतो भाया सो सेणाहिवो अभिसित्तो। तस्स मायभगिणीभाउज्जाइजो अखिसंति-"तुम भाग्रोवरतिए जीवंते अच्छति सेणाहिवत्तं काउं, घिरत्थू ते जीवियस्स । सो अमिरसण गतो गहितो - दमगो जीवगेज्झो, आणितो निगडियवेढिगो सयणमझगतो पासणट्टितो वणगं गहाय भणति-अरे अरे भातिवेरिया, कत्थ ते पाहणामि त्ति । दमगेण भणियं "जत्थ सरणागता पहरिज्जति तत्थ पहराहि" त्ति । एवं भणिते सयं चितेति - "सरणागया णो पहरिज्जति ।" ताहे सो माउभगिणीसयणाणं च मुहं णिरिक्खति। तेहिं ति भणितो - "णो सरणागयस्स पहरिज्जति", ताहे सो तेण पूएऊण मुक्को। जति ता तेण सो धम्म अजाणमागेण मुक्को, किम ण पुण साहुणा परलोगभीतेण मन्भुनगयवच्छल्लेण अब्भुवगयस्स सम्म ण सहियव्वं ? खामियव्व ति । इयाणि "'कसाय" ति दारं । तेसि चउक्कणिक्खेवो जहावाणे कोहो चउम्विधो उदगराइसमाणो वालुपाराइसमाणो पुढवीराइसमाणो पव्वयगराइसमाणो, दारं । वाओदएहि राई, नासति कालेण सिगयपुढवीणं । णासति उदगस्स सति, पव्यतराई तु जा सेलो ॥३१८८॥ वाएण उदएण य राती गासइ जहा सक्खं सिगयपुढवीणं । “कालेण" ति कालविशेषप्रदर्शनार्थ, उदगराती सकृत् नश्यनि, तत्क्षणादित्यर्थः । जा पुण पव्वत राती सा जाव पन्वतो ताव चिट्ठति अंतरा नापगच्छतीत्यर्थः ।।३१८८॥ इयाणि रातोहिं कोव - अवसंधारणत्थं भण्णति . उदगमरिच्छा पक्खेणऽवेति चतुमासिएण सिगयसमा। वरिसेण पुढविराती, आमरण गती य पडिलोमा ॥३१८६।। उदगराइसमाणो जो रुसितो तदिवस चेव पडिक्कमणवेलाए उवसमति जाव पक्खे वि उवसमतो उदगरातिसमाणो भण्णति । जो पुण दिवसपक्खिएसु अणुवसंतो जाव चउमासिए उवसमति सो सिगतरातिसमाणो कोहो भवति । १ गा० ३१७६॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३१८७-३१६३ ] दशम उद्देशकः १४६ जो दिवसपक्खचाउम्मासिएसु अणुवसंतो संवच्छरिए उसमति सो पुढविराइसमाणो। जहा पुढवाए सरदे फुडियातो दालियो पाउसे पवुढे मिलति एवं तस्स वि वरिसेण क्रोधो प्रवेति । जो पुण पज्जोसवणाए वि णो उवसमति सो पव्वयरातीसमाणो कोहो । जहा पन्वयस्स राती ण मिलति एवं तस्स वि आमरणतो कोहो गोवसमति । एतेसि गतीतो पडिलोमं वत्तव्वायो। पव्वयरातीसमाणस्स णरगगती, पुढवीसमाणस्स तिरियगती, सिगयसमाणस्स मणुयगती, उदगसमाणस्स देव गती, अकसायस्स मोक्खगती ।।३१८६।। एमेव थंभकेयण, वत्थेसु परूवणा गतीनो य । मरुय अचंकारि य पंडरज्जमंगू य ाहरणा ॥३१६०॥ एवं सेसा कसाया च उभेया बत्तव्वा । थंभे त्ति थंभसमाणो माणो । सो चउव्विहो अत्थि। सेल-ऽट्ठि-थंभदारुयलया य वंसे य मेंढ गोमुत्ती । अवलेहणि किमि कद्दम कुसंभरागे हलिदा य॥३१६१॥ चउसु कसातेसु गती, नरय तिरिय माणुसे य देवगती । उवसमह णिचकालं, सोग्गइमग्गं वियाणंता ॥३१६२॥ . __ सेलयं भसमाणो माणो अस्थि, अद्वियंभसमाणो माणो आत्थि, कथंभसमाणो माणो अत्थि, तिणिसलयासमायो माणो अत्थि । गतीतो पडिलोमं वत्तव्वातो। "केयणं" ते छज्जियालेवणगंडो केयणं ति भण्णाति, सो च वंको तस्समा माया । अहवा - यत् कृतकं तं पाययसेलीए केयणं भण्णइ, कृतकं च माया । माया चउविहा - अवलेहणियाकेयणे, गोमुत्तियाकेयणे, घणवशमूलसमकेयरो, मेढसिंगकेयणे वि । गतीतो पडिलोमं वत्तब्वायो। "वत्थे" त्ति वत्थरागसमाणो लोभो । सो चउवि हो । हरिदारागसमाणो लोभो, कुमुभरागसमाणो लोभो, कद्दम रागसमा णो लोभी, किमि रागसमाणो लोभो। गतीनो पडिलोमातो वत्तव्वाप्रो । इमे उदाहरणा - कोहे मरुयो, माणे अच्चंकारियभट्टा, मायाए पंडरज्जा, लोभे अज्जमंगू ॥३१६॥ कोहे इमं - अवहंत गोण मरुते, चउण्हे वप्पाण उक्करो उवरि । छूढो मनो उवट्ठा, अतिकोवे ण देमो पच्छित्तं ॥३१६३॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-४३ एत्थ एसेव दमगो। अधवा - एगो मरुगो, तस्स इक्को बइल्लो। सो य तं गहाय केयारे हलेण वाहेमि त्ति गतो। सो य परिस्संतो पडितो, ण तरति उठे उं । ताहे तेण धिज्जातिएण हणंतेण तस्स उरि तुत्तगो भग्गो, तहावि ण उट्ठीत । अण्णकट्ठाभावे लेठ्ठएहिं हणिउमारद्धो, एगकेयारलेठुएहिं, तहावि णोट्टितो, एवं चउण्ह केयाराण उक्करेण पाहतो, णो उट्ठितो। तो तेण लेठ्ठपुझो कतो, मग्रो सो गोणो। ताहे सो बंभणो गोवज्झविसोहणत्थं धिज्जातियाणमुवट्ठितो। तेण जहावत्तं कहियं, भणियं च तेण - अन्ज वि तस्सोवरिं मे कोहो ण फिट्टति । ताहे सो धिज्जातिएहि भणियो - तुम अतिकोही, पत्थि ते सुद्धी, ण ते पच्छित्तं देमो, सव्वलोगेण वजितो सोऽसिलोगपडितो जातो। एवं साहुणा एरिसो कोवो ण कायदो। मह करेज तो उदगरातीसमाणेण भवियव्वं । जो पुण पक्खिय-चाउम्मासिय-संवच्छरिएसु ण उवसमति तस्स विवेगो कायव्वो, जहा धिज्जातियस्स । माणे इमं धणधूयमच्चकारिय-भट्टा अट्ठसु य मग्गतो जाया । चरणपडिसेव सचिवे, अणुयत्ती हि पदाणं च ॥३१६४॥ णिवचित विकालपडिच्छणा य दाणं ण देमि णिवकहणं । खिंसा णिसि णिग्गमणं, चोरा सेणावती गहणं ॥३१६॥ नेच्छति जलूग वेज्जे, गहणं तं पि य अणिच्छमाणी तु । . गेहावे जलूगवणा, भाउयदूए कहण मोए ॥३१६६।। "खितिपतिट्रिय' णगरं । 'जियसत्त' राया। 'धारिणी' देवी। 'सुबुद्धी' सचिवो। तत्थ गागरे 'धणो' णाम सेट्ठी। तस्स 'भद्दा' णाम भारिया। तस्स य धूया भट्टा। सा य माउपियभाउयाण य उवातियमयलद्धा।मायपितीहि य सव्वपरियणो भण्णति – “एसा जं करेउ ण केण ति किंचिच्चंकारेयव्वं" ति । ताहे लोगेण से कयं णाम अच्चकारियभट्टा। सा य अतीवरूववती, बहुसु वणियकुलेसु वरिजति । धणो य सेट्ठी भणति - जो एयं ण चंकारेहिति तस्सेसा दिजिहिति. त्ति। एवं वरगे पडिसेहेति । अण्णया सचिवेण वरिता । धणेण भणियं - जइ ण किंचि विप्रवराहे चंकारेहिसि तो ते पयच्छामो । तेण य पडिसुयं । तस्स दिण्णा । भारिया जाता । सो य ण चंकारेति ।। सो य ग्रमचो रातीते जामे गते रायकजाणि समाणे उं प्रागच्छति । सा तं दिणे दिणे खिसति सवेलाए णागच्छसिति । ततो सवेनाए एतुमाढत्तो।। अण्णया रण्णो चिता जाता - किमेस मती सवेलाए गच्छति ति । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा : १६४-३१६८ ] दशम उद्देशकः रण्णो अण्णेहिं कहियं - एस भारियाए आणाभंग न करेति त्ति । अण्णया रण्णा भणियं - इमं एरिसं तारिसं च कज्जं च सवेलाए तुमे ण गंतव्वं । सो अोसुअभूतो वि रायाणुअत्तीए ठितो। सा य रुट्टा वारं बंधेउं ठिता । अमच्चो आगतो उस्सूरे, "दार-मुग्घाडेहि" ति बहं भणिता वि जाहे ण उग्घाडेति ताहे तेण चिरं अच्छिऊण भणिता - "तुमं चेव सामिणी होज्जासि त्ति ग्रहो मे पालो अंगीकतो' । ताहे सा "ग्रहमालो" त्ति भणिया दारमुग्घाडेउं पियघरं गता। सव्वालंकारविभूसिता अंतरा चोरेहिं गहिता। तासे सवालकारं घेतु चोरेहिं सेणावतिस्स उवणीता । तेण सा भणिता - मम महिला होहि त्ति । सो तं बला ण भुजति, सा वि तं णेच्छति । ताहे तेण वि सा जल्लगवेजस्स हत्थे विक्कीता। तेण वि सा भणिता - मम भज्जा भवाहि त्ति । तं पि अणिच्छंतीए तेण वि रुसिएण भणिता-“वण" - पाणीयं, तातो जलूगा गेण्हाहि" त्ति । सा अप्पाणं णवणीएण मक्खेउं जलमवगाहति, एवं जलूगातो गेहति । सा तं अगणुरूवं कम्म करेति ण य सोलभंगं इच्छति । सा तेण रुहिरसावेण विरूवलावण्णा जाया। इतो य तस्स भाया दूयकिच्चेण तत्थागतो, तेण सा अणुसरिस त्ति काउं पुच्छिता, तीए कहियं, तेण दव्वेण मोयाविया प्राणिया य। वमणविरेयणेहि पुण णवसरीरा जाता। अमच्चेण य पच्चाणेउ घरमाणिया सव्वसामिणी ठविया। ताए सो कोहपुरस्सरस्स माणस्स दोसं दठ्ठ अभिग्गहो गहितो- “ण मे कोहो माणो वा कायव्वो ॥३१६४॥३१६५॥३१६६।। सयगुणसहस्सपागं, वणमेसज्ज जतिस्स जायणया । तिक्खुत्त दासिभिंदण, ण य कोहो सयं च दाणं च ॥३१६७।। तस्स घरे सयसहस्सपागं तेल्लमत्थि, तं च साहुणा वणसरोहणत्थं प्रोसढं मग्गियं । ताए य दासचेडी आणत्ता, - "प्राणेहि" ति । ताए आणतीए सहतेल्लेण एगं भायणं भिण्णं । एवं तिण्णि भायणाणि भिण्णाणि । ण य सा रुट्ठा। तिसु य सयसहस्सेसु विणटुंसु चउत्थवाराए अप्पणा उठेऊणं दिण्णं । जइ ताए कोहपुरस्सरो मेरुसरिसो माणो णिजितो तो साहुणा सुठुतरं गिहंतब्बो इति ।।३१६७॥ मायाए इमं - पासत्थि पंडरजा, परिण-गुरुमूल-णातअभिनागा । पुच्छा तिपडिक्कमणे, पुवब्भासा चउत्थं पि ॥३१६८॥ णाणातितियस्स पासे ठिता पासत्थी, सरीरोवकरणब(पा)उसा णिच्चं सुक्किलवासपरि___ हरिता विचिटुइ त्ति । लोगेण से णामं 'कयं पंडरज्ज' ति। सा य विजा-मंत-वसीकरणुच्चाटणकोउएमु य कुसला जणेसु पउज्जति । जणो य से पणयसिरो कयंजलितो चिट्ठति । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४३ अद्धवयातिक्कंता वेरग्गमुवगता गुरुविण्णवेति - "पालोयणं पयच्छामि" ति। आलोइए पुणो विष्णवेति - "ण दीहं कालं पवज्जं काउं समत्था" । ताहे गुरुहि अप्पं कालं परिकम्मवेत्ता विज्जामंतादियं सव्वं छडावेत्ता “परिण" त्तिअणसणगं पञ्चक्खायं । आयरिएहिं उभयवग्गो वि वारितो ण लोगस्स कहेयव्वं । ताहे सा भत्ते पच्चक्खाते जहा पुव्वं बहुजणपरिवुडा अच्छित्ता इयाणि न तहा अच्छति, अप्पसाहुसाहुणिपरिवारा चिट्ठइ । ताहे से अरती कजति । ततो ताए लोगवसीकरणविजा मणसाआवाहिता। ताहे जणो पुप्फधूवगंधहत्थो प्रलंकितविभूसितो वंदवदेहि । उभयवग्गो पुच्छितो - किं ते जणस्स अक्खायं? ते भणंति - "ण व" ति।। सा पुच्छित्ता भणति - मम विजाए अभिगोइयं एति। गुरुहिं भाणता - "ण वट्टति" त्ति । ताहे पडिक्कता। सयं ठितो लोगो आगंतु एवं तनो वारा सम्म पडिक्कंता, च उत्थवाराते पुच्छिता ण सम्ममाउट्टा भणति य - पुञ्चन्भासाऽहुणा आगच्छति ॥३१६८।। अपडिक्कमसोहम्मे, अभिउग्गा देवसक्कोसरणे । हत्थिणि वाउस्सग्गे, गोयम-पुच्छा तु वागरणा ।।३१६६।। प्रणालोएउ कालगता सोहम्मे एरावणस्स अग्गमहिसी जाता। ताहे सा भगवतो वद्धमाणस्स समोसरणे पागता, धम्मकहावमाणे हथिणिरूवं काउं भगवतो पुरतो ठिचा महतासद्दे ण . वातं कम्मं करेति। ताहे भगवं गोयमो जाणगपुच्छ पुच्छति । भगवया पुठवभवो से वागरितो। मा अण्णो वि को ति साहु साहुणी वा मायं काहिति, तेणेयाए वायकम्म कतं, भगवता वागरियं । तम्हा एरिसी माया दुरंता | कायदा।। लोभे इमं उदाहरणं - “लुद्धणंदी" अहवा “अजमगू” - मधुरा मंगू आगम बहुसुय वेरग्ग सडपूया य । सातादि-लोभ-णितिए, मरणे जीहाइ णिद्धमणे ॥३२००॥ ग्रजमंगू पायरिया बहुस्सुया अज्झागमा बहुमिस्सपरिवारा उज्जयविहारिणो ते विहरंता महुरं णगरी गता । ते “वेरग्गिय" ति काउं सङ्केहि वत्थातिपहिं पूइता, खीर-दधि-घय-गुलातिएहि दिणे दिणे पजतिएण पडिलाभयंति । ___ सो प्रायरिग्रो लोभेण सातासोक्वपडिबद्धो ण विहरति । णितिग्रो जातो। सेमा साधु विहरिता ।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३१६६-३२ दशम उद्देशकः सो वि प्रणालोइयपडिक्कतो विराहियसामण्णो वंतरो णिद्धम्मणा जक्खो जातो : तेण य पदेसेण जदा साहू णिग्गमण-पवेसं करेंति, ताहे सो जक्खो पडिमं अणुपविसित्ता महापमाणं जीहं पिल्लालेति । ___साहूहिं पुच्छितो भणति - अहं सायासोक्खपडिबद्धो जीहादोसेण अप्पिड्डियो इह णिद्धम्मणायो भोमेज्जे णगरे वंतरो जातो, तुज्झ पडिबोहणथमिहागतो तं मा तुन्भे एवं काहिह । ___ अण्णे कहेंति - जदा साहू भुजंति तदा सो महप्पमाणं हत्थं सव्वालंकारं विउविऊण गवक्खदारेण साधूण पुरतो पसारेति । साहहिं पुच्छितो भणाति-सो हं प्रज्जमंगू इड्डिरसपमादगरुषो मरिऊण णिद्धम्मणे जवखो जातो, त मा कोइ तुन्भे एवं लोभदोसं करेज्ज ॥३२००।। एवं कसायदोसे गाउं पज्जोसवणासु अप्पणो परस्स वा सव्वकसायाण उवसमणं कायव्वं । इमं च वासासु कायव्वं -. अब्भुवगयगयवेरा, णातुं गिहिणो वि मा हु अहिगरणं । कुज्जाहि कसाए वा, अविगडियफलं व सिं सोउं ॥३२०१॥ पच्छित्तं बहुपाणा, कालो बलियो चिरं च ठायव्वं । सज्झाय-संजम-तवे, धणियं अप्पा णियोतव्यो ॥३२०२॥ अट्ठसु उदुबद्धिएसु मासेसु जं पच्छित्तं संचियं ण बूढं तं वासासु वोढव्वं ।। किं कारणं तं वासासु वुज्झते ? भण्णते - जैग वासासु बहुपाणा भवंति, ते हिंडतेहिं वहिज्जति, सीयाणुभावेण य कालो बलितो, सुहं तत्थ पच्छित्तं वोढुं सक्कति। एगखेत्ते चिरं अच्छियन्वं तेण वासासु पच्छित्तं वुज्झति । अवि य सीयलगुणेग बलियाइं इंदियाइं भवंति । तदप्पणिरोहत्थं तवो कज्जति । पंचप्पगारसज्झाए उज्जमियव्वं, सत्तरसविहे य संजमे, बारसविहे य तवे अप्पा धणियं सुठ्ठ णिग्रोएयवो, णिउंजितव्यमित्यर्थः ॥३२०२॥ पुरिमचरिमाण कप्पो, तु मंगलं वद्धमाणतित्थम्मि । तो परिकहिया जिणगण-हरा य थेरावलिचरित्तं ॥३२०३॥ पुरिमा उसभसामिणो सिस्मा, चरिमा वद्धमाणसामिणो । एतेसि एस कप्पो चेव जं वासासु पज्जोसविज्जति, वासं पडउ मा वा । मज्झिमयाणं पुण भणितं-पज्जोसवेंति वा ण वा, जति दोसो अत्थि तो पज्जोसति, इहरहा णो। मंगलं च वद्ध माणसामितित्थे भवति । जेण य मंगलं तेण सवजिणाणं चरिताति कहिज्जति, समोसरणाणि य, सुधम्मातियाण थेराणं प्रावलिया कहिज्जति ।।३२०३।। एत्थ सुत्तणिबधे य इमो कप्पो कहिज्जति - सुत्ते जहा णिबंधो, वग्धारियभत्तपाणमग्गहणं । णाणट्टि तबस्सी यऽणहियासि वग्धारिए गहणं ॥३२०४॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ४३-४४ "णो कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा वग्घारिय-बुटिकायंसि गाहावति-कुलं भत्ताए वा पाणाए वा णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा । ___ कप्पइसे अप्पवुट्टिकायंसि संतरुत्तरंसि गाहावइ-कलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा विसित्तए वा । (कल्प सूत्र)। वग्यारियं णाम जं तिण्णवासं पडति, जत्थ वा व्वं वासकप्पो वा गलति, जत्थ वासकप्पं भेत्तूण अंतो कामो य उल्लेति, एयं वग्घारियं वासं । एरिसे ण कप्पति भत्तपाणं घेत्तुं । मुत्ते जहा णिबंधो तहान कल्पते इत्यर्थः। अवघारिए पुण कप्पंति भत्तपाणग्गहणं काउं। कप्पति से अप्पवुट्टिकायंसि संतरुत्तरंसि, संतरमिति अंतरकप्पो, उत्तरमिति वासकप्पकंबली । इमेहि कारणेहि बितियपदे वग्धारियवुद्रिकाये वि भत्तपाणग्गहणं कज्जति "णाणट्ठी" पच्छद्धं । "णाणट्ठि" त्ति जदा को ति साहू अज्झयणं सुत्तक्खंधमग वा अहिज्जति, वग्धारियवासं पडति, ताहे सो वग्धारिए वि हिंडति । 'तवस्सी' त्ति अहवा - छुहालू प्रणधियासो वग्धारिए हिंडति । एते तिणिहि वग्घारिते संतरुत्तरा हिंडंति । संतरुत्तरस्य व्याख्या पूर्ववत् । अहवा - इह संतरं जहासत्तीए चउत्थमादी करेंति । उत्तरमिति "बालेसुत्तादिए" ण प्रडंति ॥३२०४॥ संजमखेत्तचुयाणं, णाणहि-तवस्सि-अणहियासाणं । आसज्ज भिक्खकालं, उत्तरकरणेण जइयव्वं ॥३२०५॥ संजमखेत्त-चुया जे णाट्ठि तवस्सी अणधियासी य जो, एते सव्वे भिक्खाकाले उत्तरकरणेण भिक्खग्गहणं करेंति ॥३२०५॥ केरिसं पुण संजमखेत्तं - उण्णियवासाकप्पा, लाउयपातं च लब्भती जत्थ । सज्जा एसणसोही, परिसइकाले य तं खेत्तं ॥३२०६॥ जत्थ खेत्ते उण्णियवासाकप्पा लभंति, जत्थ अलावु पादा चाउकालो य सुज्झति सज्झायो, जत्थ य भत्तादीयं सव्वं एसणासुद्धं लब्भति, विविधं च धम्मसाहणोवकरणं जत्थ लब्भति । कालवरिसी णाम - रातो वासइ, ण दिवा । अहवा -- भिक्खावेलं सण्णाभूमिगमणवेल च मोत्तुं वासति । अहवा - वासासु वासति णो उदुबद्धे एस कालवरिसा । एवं संजमखेत्तं ॥३२०६॥ ततो असिवादिकारणेहिं चुता । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३२०५-३२ दशम उद्देशकः १५५ "'णाणट्ठि तवस्सि अणधियासे" त्ति तिणि वि एगगाहाते वक्खाणेति - पुव्बाहीयं णासति, णवं च छातो ण पच्चलो घेत्तुं । खमगस्स य पारणए, वरसति असहू य बालादी ॥३२०७॥ छुभाभिभूयस्स परिवाडि प्रकुव्वतो पुव्वाधीतं णासति, अभिणवं वा सुत्तत्थं च्छातो ग्रहीतुमसमर्थो भवति, खमगपारणए वा तवसि, बालादी असहू वा, वासंते असमत्या उपवासं काउं ॥३२०७।। ताहे इमेण उत्तरकरणेण जतंति - बाले सुत्ते सूती, कुडसीसगछत्तए य पच्छिमए । णाणट्टि तवस्सी अण-हियासि अह उत्तरविसेसा ॥३२०८।। करिसते उववासो कायव्यो । असहु कारणे वा “बाले" ति उण्णियवासाकप्पेण पाउतो अडति । उष्णियस्स असति उट्टिएण अडति। उट्टियासति कुतंवेणं । जाहे एवं तिविधं पि वालयं णत्थि ताहे जं सोत्तियं थिरं घणं मसिणं तेण हिंडति । सोतियस्स असति ताल-सूई उरि काउं हिंडति । कुडसीसयं पलासं पत्तेहिं वा गंडेणविणा छत्तयं कीरइ, तं सिरं काउं हिंडति । तस्सऽसति विदलमादीछत्तएणं हिंडति । एसो संजमखेतचुतादियाण वासासु वासंते उत्तरकरणविसे सो भणितो ॥३२०८।। सव्वो य एस पज्जोसवणाविधी भणितो - बितियपदेण पज्जोसवणाए ण पज्जोसवेंति अपज्जोमतणाए वा पज्जोसवेज्जा इमेहि कारणेहि - असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । ... अद्धाण रोहए वा, दोसु वि सुत्तेसु अप्पबहुं ।।३२०६।। पज्जोसवणाकाले पत्ते असिवं होहिति ति णातूण ण पज्जोसवेंति, प्रोमोयरिएसु वि एवं अतिक्कते वा पज्जोसविज्जा । महल्लठाणातो वा चिरेण णिग्गया ते ण पज्जोसवणाए पज्जोसवेज्जा, बोहियभए वा णिग्गता प्रतिक्कता पज्जोसवेति । एवं दोसु वि सुत्तेसु अप्पाबहुं गाउं ण पज्जोसविति । अपज्जोसवणाए वा पज्जोसवेंति ॥३२०६।जे भिक्खू पज्जोसवणाए गोलोमाई पि वालाई उवाइणावेइ - उवाइणावेंतं वा सातिज्जति ।मु०॥४४॥ गोलोममात्रा पि न कर्तव्या किमुत दीर्घा । अहवा - हस्तप्राप्या प्रपिशब्देन विशेष्यति । उवातिणावेति ति पज्जोसवणारयणि अतिक्कामतीत्यर्थः । तस्स चउगुरुगं पच्छित्तं । प्राणादिया य दोसा । १ गा. ३२०५ । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ गोलोमविशेषणार्थमाह - सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे पज्जोसवणा कैसे, गावीलोमप्पमाणमेत्ते वी । जे भिक्खूवातिणावती, सो पावति यणमादीणि ॥ ३२१० || जम्हा एते दोसा तम्हा वि सिंगपुंछवाला, अस्थि पुंछे ण बत्थिया वाला । सुजवसणीरोगाए, सेसं गुरु हाणि हाणीए ॥ ३२११ ॥ कंठा वासासु लोमए प्रकज्जते इमे दोसा णिसुते आउवधो, उल्लेसु य छप्पदीउ मुच्छंति । ता कंड्रय विराहे, कुज्जा व खयं तु आयाते || ३२१२॥ श्राक्काए णिसुढते आउविराहणा, उल्लेसु य वालेसु छप्पयाओ सम्मुच्छंति, कंडुग्रंतो वा छप्पदादि विराहेति कंडुतो वा खयं करेज्जा । तत्थ आयविराहणा ।। ३२१२ ।। धुलो उ जिणाणं, वरिसासु य होइ गच्छवासीणं । उड्डु तरुणे चउमासो, खुर- कत्तरि छल्लहू गुरुगा || ३२१३॥ [ सूत्र ४५-४६ उद्धे वासासु वा जिणकप्पियाणं घुवलोश्रो, थ्रेरकपियाण वासासु घुषलोग्रो. धुवलायासमत्थो वा तं रर्याणि णातिक्रमे । थेरकप्पितो तरुणी उडुबद्धे उक्कोसेणं चउण्हं मासाणं लोय करावेति थेरस्स वि एवं णवरं उक्कोसेणं छम्मासा | जति उडुबद्धे वासासु वा खुरेण कारवेति तो - मासलहं, कत्तीए मासगुरु, प्राणादिया व दोसा, छप्पतिगाण विराहणा पच्छकम्मदोसा य । श्रादेसंतरेण कारवेति तो छल्लहु कत्तीए चउगुरुगा । लोयं करावेंतेण एते दोसा परिहारिया भवंति ॥३२१३॥ पक्खिय - मासिय- छम्मासिए य थेराण तू भवे कप्पो । कतरि र लोए वा, बितियं असह गिलाणे य || ३२१४॥ वितियं ति बितियपदेणं लोयं ण कारवेज्जा । श्रसहू लोयं न तरति अधियासेउं सिरोरोगेण वा मंदचवखुणा वा लोयं प्रसहंतो धम्मं छड्डेज्जा । गिलाणस्स वा लोप्रो न कज्जति, लोए वा करेंते ते गिलाणो वेज्ज । एवमादिएहि कारणेहिं जइ कत्तिए करेति तो पवखे पक्खे । ग्रह छुरेण तो मासे मासे । पढमं छुरेश, पच्छा कत्तिए । लोयकरस्स महुरोदयं हत्यघोषणं दिज्जति पच्छाकम्म परिहरणत्थं । अत्रवादेण लोप्रो छमासेण कारवेयव्वो । थेराण एस कप्पो संवच्छरिए भणितो || ३२१४ || जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तिरियं पि आहारं श्राहारेति, हारेतं वा सातिज्जति ||०||४५ || इत्तरियं पि आहार, पज्जोसवणाए जो उ आहारे । तयभूइ-बिंदुमादी, सो पावति प्राणमादीणि ॥ ३२१५॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३२१०-३२१६] दशम उद्देशक: इत्तरिय णाम थोवं एगसित्थमवि अद्धलंबणादि वा । अधवा - प्राहारे तयामेत्तं, सातिमिमिरियं चुण्णगादि भूतिमेतं, पाणगे बिंदुमत्ते। “तये" त्ति तिलतुसतिभागमेतं । “भूति" रिति यत् प्रमाणमंगुष्ट-प्रदेशनीसदसकेन भस्म गृह्यते, पानके बिंदुमात्रमपि, आदिग्गह णातो खातिमं पि थोवं जो आहारेति पज्जोसवणाए सो प्राणादिया दोसा पावति चउगुरुंच पच्छित्तं॥३२१५।। पव्वेसु तवं करेंतस्स इमो गुणो भवति - उत्तरकरणं एगग्गया य आलोयचेइवंदणया। मंगलधम्मकहा वि ग, पव्वेसुं तवगुणा होंति ॥३२१६॥ अट्ठम छट्ठ चउत्थं, संवच्छर-चाउमास-पक्खे य । पोसहियतवे भणिए, बितियं असह गिलाणे य ॥३२१७।। उत्तरगुणकरणं कतं भवति, एगग्गया य कता भवति, पज्जोसवणासु वरिसिया पालोयणा दायव्वा वरिसाकालस्स य आदीए मंगलं कतं भवति, सड्डाण य धम्मकहा कायव्वा । पज्जोसवणाए - जइ अट्ठमं ण करेइ तो चउगुरु, चाउम्मासिए छटुं ण करेति तो चउ लहुं, पक्खिए चउत्थं ण करेति तो मासगुरु । जम्हा एते दोसा तम्हा जहाभणितो तबो कायव्वो। बितियं प्रववादेण ण करेज्जा पि । उववासस्म असहू ण करेज्ज, गिलाणो वा ण करेजा, गिलाणपडियरगो वा, सो उववासं वेयावच्चं च दोवि काउं असमन्यो, एवमादिएहि कारणेहिं पज्जोसवणाए पाहारेंतो सुद्धो ॥३२१७॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिय वा गारत्थियं वा पज्जोसवेति, पज्जोसवेंतं वा सातज्जिति सू०॥४६॥ पज्जोसवणा कप्पं, पज्जोसवणाए जो तु कडवेज्जा । गिहि अण्णतिथि ओसण्ण, संजतीणं च प्राणादी ॥३२१८॥ पज्जोसवणा पूव्ववण्णिता। गिहत्थाणं अण्णति त्थियाण - गिहत्थीणं अण्णतित्थीणीणं, प्रोसण्णाण य संजतीण य -- जो एते पजोसवेति, एतेषामग्रतो पर्युषणाकल्पं पठतीत्यर्थः । तस्स चउगुरु। प्राणादिया य दोसा ॥३२१८॥ गिहि अण्णतिथि श्रोसण्ण दुगं ते गुणेहणुववेया । सम्मीसवास-संकादिणो य दोसा समणिवग्गे ॥३२१६।। गिहत्था गिहत्थीणीनो एयं दुगं । अहवा - अण्णतित्यिगा, अण्णतिथिणीतो।। अहवा - प्रोसणा प्रोसणीग्रो एते दुगा, संजमगुणेहि अणुववेया, तेण तेसि पुरतो ग कड्डिजति । अहवा - एतेसि सम्मीसवासे दोसा भवंति । इत्थीसु य संक्रमादिया दोसा भवंति । सजतीग्रो जइ वि संजमगुणेहिं उववेयानो तथापि सम्मीसवासदोसो संकादोसो य ॥३२१६।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्र, दिवसतो ण चैव कप्पति, खेत्तं च पडुच्च सुणेज्जमण्णेसिं । असतीय व इतरेसिं, दंडिगमादत्थितो कट्ठे || ३२२० ॥ पज्जोसवणाकप्पो दिवसतो कड्दिउं ण चैव कष्पति । जत्थ विखेत्तं पडुच्च कड़ियजति जहा दिवसतो आणंदपुरे मूले चेतियघरे सव्वजण समक्खं कड्ढिजति तत्थ वि साहू ण कड्ढेति, पासत्थो कड्ढति, तं साहू मुणेज्जा, ण दोसो | पासत्याण वा कड्ढकस्स अमति डंडिगेण वा प्रभट्ठियो सहि वा ता दिवसतो कड्ढति । " पज्जोसवणाक पकडूणे इमा सामायारी - अप्पणी उवस्सए पादोसिए श्रावस्सए कते कालं घेत्तुं काले सुद्धे वा पवेत्ता कड्डिजति, एवं चउसु वि रातीसु । पज्जोसवणारातीए पुग कड्डीए सव्वे साधू समप्पावणीयं काउसग्गं करेंति, "पज्जोसवणकप्पस्स समप्पावणीयं करेमि काउस्सग्गं जं खंडियं जं विराहियं जंण पूरियं सव्वो दंडग्रो कढियव्वो जाव वोसिरामि त्ति ।" लोगस्सुज्जोयकरं चित्तेण उस्सारेत्ता पुणो लोयस्सुज्जोग कङ्क्षित्ता सव्वे साहवो जिसीयंति । जेण कड्डितो सो ताहे कालस्स पडिक्कमति, ताहे रिसा कालवणे ठविज्जति ॥ ३२२० ।। एस विधी भणिता । कारणे गिहत्थ - प्रणतित्थिय-पासत्ये य पज्जोसवेति । कहं ? भण्णति - चितियं गिहि ओसण्णा, कढियं तम्मि रत्ति जाहि । असती य संजतीणं, जयणाए दिवसतो कड्डू || ३२२१॥ जति कज्जति गहत्था अण्णतित्थिया ग्रोसण्णा वा आगच्छेज्जा तो वि ण ठवेज्जा । एवं सेज्जिय मादिइत्थीसुवि। संजतीतो वि अप्पणो पस्सिए चेव रातो कट्ठेति । जइ पुण संजतीए संभोतियाण कड्ढतिया ण होज्ज तो श्राहा पहाणाणं कुलाणं ग्रासणे सपडिदुवारे संलोए साहु साहुणोण य अंतरे चिलिमिल दाउ दिवसतो कढिज्जति पूर्ववत् ।।३२२९ ॥ जे भिक्खू पडमसमोसरणदेसे पत्ताई चीवराई पडिग्गाहेति, डिग्गार्हतं वा सातिजति तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासिगं परिहारट्ठाणं अणुग्धातियं |||०||४७ || [ सूत्र- ४७ बितियं समोसरणं उडुबद्धं । तं पडुच्च वामावासोग्गहो पढम-समोसरणं भणति । सेसा सुत्तपदा कंठा । तं वत्थपादादिग्गहणं सेवमाणे यावज्जति प्राप्नोति चउमासेहिं णिकरणं चाउम्मासियं, अघातियं गुरुगं पावति । इमो सुत्तत्थ - पदमम्मि समोसरणे, वत्थं पायं च जो पडिग्गाहे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त - विराधणं पावे || ३२२२|| जो गेण्हइ सो ग्राणा इक्कमं करेति, अगवस्था य तेण कता भवति । मिच्छतं च जगेति "न यथावादिनस्तथाकारिणः इति । आयविराहणं च पावति ।।३२२२|| Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३२२० - ३२२५ ] दशम उद्देशक : पढमोसरणे उवही, ण कप्पति पुव्वगहिय अतिरित्ते । पत्ताण उ गहणं, उवहिस्सा सातिरेगस्स || ३२२३|| जइ पढमसमोसरणे ण कप्पति उवही घेत्तुं तो कि कायव्वं ? उच्यते - पुण्वगहितो अतिरित्तो उवधी परिभोक्तव्यः । कथं पुण सो प्रतिरेगो उवधी घेत्तव्वो ? उच्यते - 'श्रव्यतेहि" ति खेत्त काले अप्पत्तपत्तेहि चउभंगो कायव्वो । सो इमो चउभंगो - खेत्तश्रो णामेगे पत्ता णो कालयो । कालतो णामेगे पत्ता ण खेत्ततो । एगे खेत्तो वि कालो वि पत्ता । एगे णो खेत्तश्रो गो कालो पत्ता । पढमभंगो - उदुद्धितो चरिममासकप्पो जत्थ कती, अण्णखेत्ता सतीए कारणतो वा तत्थेव वासं काउमाणा खेत्ततो पत्ता ण कालतो । इमो बितियभंगो - श्रद्धाण पडिवण्णवाण वाघाती प्रणंतरा चेव प्रासादपुणिमा जाता, एते कालतो पत्ता ण खेत्ततो । ।। ३२२३।। इमो ततियभंगो - जे वरिसखेत्तं प्रासादपुष्णिमाएं पविट्ठा ते उभए विपत्ता | प्रासादपुष्णिमं प्रपत्ताण अंतरे अद्धा अ वट्टमाणाण एवं उभएण वि अपत्ताण चरिमभंगो भवति वति पुर्ण प्रतिरित्तो उवहिं घेत्तव्वो ? ग्रतो भण्णति - - दोहं जइ एक्कस्सा, णिष्फज्जति वासजोग्गमेत्तुवही । वासाजोगं दुगुणं, गेण्हतो गुरुग आणादी || ३२२४॥ एक्केको साहु अड्ढाइज्जे पडोग्रारे गेण्हति । जड़ कारणा श्रद्धागणिग्गता विवित्ता प्रागच्छेज्ज ताहे दो माहू एम्स संपुष्णं पडोयारं देति, तेसि च अप्पणी पडोयारो चिट्ठति । एवं अण्णे वि दो एगस्स एवं सव्वेसि दायव्वं । एवं जति अप्पण्णो दुगुगंण गण्हेज्ज तो चउगुरु पच्छितं । प्राणादिणो य दोमा भवंति ।। ३२२४ ।। तिरित्तोवकरणगहणे किं कारणं ? एत्थ भण्णति इमो दिट्टुतो - १५६ दव्योवक्खरणेहादियाण तह खार- कडुय-भंडाणं । वासावासे कुटुंबी, अतिरेगं संचयं कुणति || ३२२५|| दक्खरो - उपस्कर द्रव्यमित्यर्थः । ग्रहवा द्रव्यमिति हिरण्यं, उवक्ख सूर्वादिकः, स्नेहो घृतं तैल वा आदिसदातो वासा, तेल्लं एरंडादि, वणतेल्लादि वा खारो वत्थुल्लादिगो लोगं वा, कटुकादि सुंठमादीणि वटुयं वा, घरपिट्टरादिया भंडा । ग्रहवा - कडुयं भंडं कुच्छिभर कुटुंविणो वि वासामु एतेसु श्रतिरिक्तं संचयं करेंति ।।३२२५ ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० स्यात् - किं कारणं ? तो भण्णति सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे वणिया ण संचरंती, हट्टा ण वहति कम्मपरिहाणी | गेलपणासेसु व, किं काहिति अगहिते पुव्वं ॥ ३२२६॥ - कक्खपुडियवणिया गामेसु ण संचरति, पट्टणेसु वि वासवद्दले हट्टा ण वर्हति । ग्रह सो कुटुंबितो श्रतिरिक्तं ण ण्हति उप्पण्णे य पप्रोयणे कथविक्कयस्स हट्टं गच्छति, ताहे से हलकरिणकम्मसंजोगा परिहाति । गेलणे वा उप्पण्णे, श्रादेसे वा ग्रागते, प्रतिरिक्त्ताऽभावे किं पच्छा भोयणपाहुणादी करेउ || ३२२६ ॥ तित्थियादी, जो जारिस तस्स संचयं कुणति । तह st go out विराण, पदमम्मि य जे भणियदोसा || ३२२७|| ।।३२२६।। प्रणतित्थिया वि जो जारिसो सो प्रप्पण्णो लिंगाणुरुवस्स संग्रहं करेति । जहा सरक्खस्स दगसो आरामट्टियाए, पाडिया छगण-लोणाण य, तव्वयि वत्थ रागणिमित्तं प्रज्जुणं कंदलयमा दियाणं छल्लिविधीणं । "इहे" ति इह जिणसासणे जति अतिरित्तोवकरणं ण गेव्हंति तो छण्हं जीवणिकायाणं विराणा भवति, ग्रह वासा उवधि गेहति तो जे पढमसमोसरणे गेण्हतो उग्गमादिदोसा भणिता ते पावति ।। ३२२ ॥ कहं दुगुण निजग्राभावे छहं विराहणा भवति । तो भणति - रयहरणेणोल्लेणं, पमज्जणे फरुसगेह पुढविवहो । गामंतरे पगलणे, पुढवी उद्गं च दविधं तु || ३२२८|| फरस इति कुंभकार सालाए पट्ठिता । तत्थ य सचित्तवृढवी संभवो भवति । तत्थ बितिरयोहरणाभावे उल्लेण चेत्र रयहरणेण पमज्जति तो पुढवीविराहणा । श्रणं वा गामं भिक्खायरियादि गच्छतो श्रागच्छतो अंतरा अतिप्पट्टे मलिणरयोहरणोदगे पगलमाणे पुढवित्रिराहणा, अंतरिक्खोदगं भोमोदगं च एवं विराहेति ॥३२२८ ॥ हवा बीभूते, उदगं पण पतावणा अगणी | उल्लंडगबंध तसा, ठाणादी केण व पमज्जे || ३२२६॥ [ सूत्र -४७ बितियरोहरणाभावे उल्लरयोहरणं जति सुक्खवेति ता उग्गहाउ फिट्टइ, श्रणुब्वविज्जं तं बी भवति । तम्मि अंबे उदग - विराहणा, पणम्रो य सम्मुच्छति । श्रह् एतद्दोसपरिहरणत्थं प्रगणीए तावेति तो प्रगणिविराहणा । अह उल्लेण पमज्जणं करेड तो दसियंतेसु उल्लंडगा परिवज्भति मृदगोलकमित्यर्थः । एतेसु पडिबद्धे जति पज्जणं करेइ तो तस विराहणा । अह उल्लंडग ति काउं न पमज्जति तो संजमविराहणा । ठाणादाण-शिक्खेवं वा करेंतो केण पमज्जउ एमेव सेसमम्मि वि. संजमदोसा तु भिक्खणिज्जोए । चोलेणिसेज्जा उल्ले, अजीरगेलण्णमाताए ॥ ३२३०॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ भाष्यगाथा ३२२३-३२३४ ] दशम उद्देशकः भिक्खाणिज्जोगो पडलापत्तगबंधो य तेसु दुगुणेसु अधेप्पतेसु संजमविराधणा, यथा रयोहरणेनेत्यर्थः । चोलपट्टे रयोहरणणिसेज्जाए य दुगुगे प्रथेप्पते उल्लेसु णिच्चभोगेण प्रजीरंतो गेलणं भवति, एत्य प्रायविराहणा पूर्ववत् ॥३२३०॥ अप्पणो दुगुणपडोबारातो अतिरित्तं अगेण्हंतो इमे दोसा - अद्धाणणिग्गतादी, परिता वा अहव णट्ठगहणम्मि । जं च समोसरणम्मी, अगिण्हणे जं च परिभोगे ॥३२३१॥. छियाछिण्णद्धाणणिग्गया, प्रादिग्गहणातो असिवाति कारणविणिग्गता वा जति परिझोवकरणः हियणट्रोवकरणा वा जति पढमसमोसरणे उव हिग्गणं करेति तो "जं च" ति - जे दोसा अभिहिता तान् प्राप्नुवंति अतिरिक्त अगृण्हतो इत्यर्थः। पढमसमोसरणं वा काउं उवकरणमगेण्हतो "ज च" ति-जे दोसा तणादिपरिभोगे तांश्च प्राप्नुवंति ॥३२३१॥ एप एवार्थ व्याख्यान थेनोच्यते -- अद्धाणणिग्गतादीणमदेंते होति उवहिणिप्फणं । जं ते 'तणेसणग्गिं, सेवे देतऽप्पणा जं च ॥३२३२॥ अतिरित्ताभावे अदेंताण उबहिणिप्फण्णं प्रायश्चित्तं भवति । जहणे पणगं । मज्झिमे मासलहुं । उक्कोसे चउलया। जं ते अद्धाणादि-विणिग्गया झुसिराझुसिरतां प्रणेसणीयं वा किंचि सेवंति ते तं अदेता पावेंति । अह अप्पणीवकरणं तास दल यंता अप्पणो परिहाणी, जं ते अप्पणा तणमणेसणादी सेवंति ॥३२३२॥ "गहणे'' त्ति अस्य व्गाख्या - अत्तट्ट परट्ठा वा, ओसरणे गेण्हणे य पण्णरस । दाउ परिंभोग छप्पति, डउरे उल्लेच गेलणं ॥३२३३।। अपणो परस्स वा अट्ठा पढमसमोसरणे उहिं गेण्हमाणस्स अहाकम्मादिया पण्णरस उग्गमदोसा भवति । "परिभोग" त्ति अस्य व्याख्या - अंतो बहि अद्धाणादियाण दाउं एगपडोपारस्स णिच्च परिभोगेण छप्पदापो भवति । छप्पदादिस यऽन्नादिपडियखद्धासु दगोदरं भवति - जलोदरमित्यर्थः । एगपडोयारस वा उल्लस्स णिच्चपरिभोगेण अजीरंतो गेलणं भवति ।।३२३॥ तम्हा उ गिव्हियव्वं, वीतीयपदं तहा ण गेण्हेज्जा । अद्धाणे गेलण्णे, अहवा वि हवेज्ज असतीए ॥३२३४॥ तस्मात् कारणादात्मदुगुणपडोपारतो अतिरितं गेव्हिय । बितियपदेण इमेहि कारणेहि गेण्हेज्जा । मद्धाणपडिवण्णो गिलाणो वा असतीते व ण गेण्हेज्जा अतिरित्तं ॥३२३४।। १प्रणेसगि ? २ गा० ३२३२ । ३ गा० ३२३२ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सभाष्य चूर्णिके निशीथसूत्र एते तिणि वि एगगाहाते वक्खाणेति - 'कालेगेवतिएणं, पाविस्सामंतरे उ वाघाते । गेलण्णातपरे वा, दुविहा पुण होइ असती उ || ३२३५|| गिम्हस्स चरिममासे श्रद्धाणपडिवण्णा चितेति च जाव ण प्रसाढपुण्णिमाकालो एति ताव अम्हे खेत्तं पाविसामो अंतरा य णतिमातिवाघातेण रुद्धा, श्रासाढपुणिमा काले प्रतिक्कते पत्ता, अतो दुगुणो अतिरित्तो वा ण गहितो । श्रपणा गिलाणेण गिलाणवावडेण वा श्रतिरिक्तां ण गहितो । दुविधाए वा संतासंततीए ण गहितं । संतासती प्रणेस णिज्जं लब्भति । अहवा - बहु साहू कप्पिया एगो कप्पियो, सन्वेसि प्रतिरिक्तो उवधि घेत्तुं ण पारेति । बहु वा बालवुड्ढा प्रसंतासती अप्पत्ता विभति । एतेहि कारणेहि पुव्वं प्रतिरित्तोवही ण गहितो होज्जा ।। ३२३५॥ इमो पढममंगो - गहिए व गहिए वा अप्पत्ताणं तु होइ अतिगमणं । उबही - संथारग - पादपुंछणादीण गहणट्ठा || ३२३६|| अतिरित्तोवहिधारणे गहिते प्रगहिते वा कालो अप्पत्ताणं - वासखेत्ते प्रतिगमणं कर्तव्यं इत्यर्थं । प्रपत्ते काले किमर्थं वासखेत्तं पविसंति । उवही पच्छद्धं कंठा ॥ ३२३६॥ पढम-रिमभंगप्रदर्शनार्थमेवोच्यते - [ सूत्र-४७ काले अपत्ताणं, पत्ता पत्ताण खेत्तो गहणं । वासाजोग्गोवहिणो, खेत्तम्मि उ डगलमादीणि ॥३२३७॥ कालेन प्रपत्ताणं खेत्ततो पत्ताणं पढमभंगो । कालेण खेत्तेण य प्रपत्तो चरिमभंगो । पडलपत्त बंधमादि- वासाजोग्गोवषिणो दुविध भंगे वि गहणं भवति । कालतो पत्ताण णियमा । खेत्ततो पत्तापत्ताण डगलादियाण गहणं करेंति | बितियभंगा गहिया ॥३२३७।। डगलादिया इमे - डगलग-ससरक्ख-कुडमुह मत्तग-तिग-लेव-पायलेहणिया । संथार-फलग-पीढग - णिज्जोगो चेव दुगुणो तु ॥ ३२३८|| उपलदुगचीरादि- डगला खेल - मल्लग - सण्णा-समाधिकाइया ध्रुवट्ठा य सरक्खो घेप्पति । गिलाणोसहकातिया समाहिदुवणट्ठा कुडमुहे घेप्पति । कातियसण्णा खेलमत्तगो एयं तिगं भायणाविणट्टा लेवो । वासासु न मागल्लिहणद्वा पायलेहणिया । पडिसाडि अपरिसाडि संथारगो दुविधो वि सयणट्टा । सीयलजवादिरक्खणट्टा य छगणादी । पिढगं उववेसणट्टा । चंपगपट्टा दियं फलयं । सब्वे वि एते खेत्ते घेप्पंति । दुगुणोवधी जइ बाहिं ण गहितो कारणेण तो सो वि खेत्ते चेव घेप्पति ॥ ३२३८ ॥ चत्तारि समोसरणे, मासा किं कप्पती ण कप्पति वा । कारणिय पंचरत्ता, सव्वेसिं मल्लगादीणं ॥ ३२३६॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३२३५-३२४४ ] दशम उद्देशक: १६३ डगलादिसु गहिएसु पासाढपुण्णिमाए पज्जोसवेति चत्तारि मासा, किं घेत्तुं कप्पति ण कप्पइत्ति पुच्छा। आयरियाह - उस्सग्गेणं ण कप्पति, कारणे अववादेण कप्पति, खेत्तस्स अलंभे अद्धाणणिग्गवा वा आसाढपुण्णिमाए पत्ता ताहे पंचदिरणे डगलगादियं गेहंति, पंचमीए पज्जोसवेंति । अह पंचमीए पत्ता तो उवरिं जाव दसमी ताव डगलगादियं गेण्हति । एवं कारणे पंचराइदिय - वुड्डी कज्जति । मल्लगादीणं अट्ठा-जाव-भद्दवदसुद्धपंचमीए गहिते अगहिते वा डगलगादिए णियमा पज्जोसवेयव्वं ।।३२३६।। तेसिं तत्थ ठियाणं, पडिलेहोच्छुद्ध चारणादीसु । लेवादीण अगहणे, लहुगा पुचि अगहिते वा ॥३२४०॥ तेसि साहणं, तत्थेति वासाखेत्ते ति, ताण इमा सामाचारी-जं सभा-पवा-राम-देवकुल-सुण्णगिहमादिएहिं वत्थं उच्छुद्धं पंथिगादिएहिं तं पडिलेहति, जदा अप्पणो परस्स वाघातो उप्पण्णो तदा तं घेप्पति । तस्सासति चारणादिएसु । वासासु जति लेवं गेण्हंति, आदिग्गहणातो वत्थं पादं वा तो चउलहुगा । पुव्वं वा लेवादिएसु प्रगहिएसु चउलहुगा घेव ॥३२४०।। वासाण एस कप्पो, ठायंता चेव जाव तु सकोस । परिभुत्त विप्पतिण्णे, वाघायट्ठा णिरिक्खंति ॥३२४१ सकोसजोयणभंतरे जं कप्पडिएसु पडिभुत्तं अकिंचित् करंति परिढुवंति तं णिरिक्खियत्वं । एसा सामाचारी - अद्भाणणिग्गयट्ठा, झामिय सेहे व तेण पडिणीए । आगंतु बाहि पुव्वं, दिटुं असण्णि-सण्णीहिं ॥३२४२॥ प्रद्धाण णिग्गया जे तेसिं अट्ठाए अप्पणो वा उवही झामितो होज्जा, सेहो वा उवट्टितो, तेणगपडिणीएहिं वा उवही हडा जदा, तदा एएसु मग्गति ।।३२४२।। 'प्रागंतु बाहि" पच्छद्ध वक्खाणं - तालायरे य धारे, वाणिय खंधार सेण संवट्टे । लाउलिग-वइग-सेवग, जामातु य पंथिगादीसु ॥३२४३॥ भंडा चेडाणडादिया तालायरा, धारइ त्ति देवच्छत्तधरा, वाणिय त्ति वालंजुप्रो, रायबिंबसहियं सचक्कं परचक्कं वा खंधावारो, रायबिंबरहिया सेणा, चोरोडिभएण बहू गामा एगट्ठिता णागयाहिट्टिता य संवद्रो भण्णति, लाउलिगा डुंगरपेच्छणयं, वइ त्ति गोउलं, सेवगा चार भडा, जामाउगा पसिद्धा, पंथिगा बहुवत्थदेसं जे पेच्छिया ते वा मम्गितव्वा ॥३२४३।। अद्धाणादिकारणेसु उप्पण्णेसु तालायरादिसु मग्गंति इमेण विधिणा । "प्रागंतु बाहि पुव्वं" ति अस्य व्याख्या - आगंतुएसु पुव्वं, गवसती चारणादिसू बाहिं। पच्छा जे सग्गामे, तालायरमातिणो होति ॥३२४४॥ १ गा० ३२४२ । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४७ मूलवसभगाम मोत्तुं जे अण्णे पडिवसभगामा सकोसजोयणभंतरे सह अंतरपल्लीए एतेसु बाहिरगामेसु जे प्रागंतुगा तालायरादिणो तेसु पुव्वं मगति। असति बाहिरगामेसु चारणादियाण, ततो पच्छा जे मूलवसभगामे प्रागंतुगा चारणादिणो एंति ॥३२४४ ।। खंधावार-सेण-संवढ़े गोउलमज्झेसु चारणादिसु वत्थसंभवो भण्णति - लद्धृण णवे इतरे, समणाणं दिज्ज से व जामादी । चारण-धार-वणीणं, पडंति सव्वे वि सड्रियरा ॥३२४॥ स च राजामादिया नवे वत्थे लळूण इतरे पुराणे साहूण देज्जा, चारणाणं देवच्छत्तधराणं डुंगराण वच्चंताणं वत्थे पडंति, ते वा पुराणा वा साहणं देति, बालंजुयवणियाणं बलजंताणं वत्था पडंति । एते पुण सव्वे वि सावगा इतरे वा असावगा ॥३२४५।। बहिग्गाम-सग्गामादिएसु आगंतुगचारणादियाण असती इमा विधी। . “'दिट्ठमसण्णिसण्णीसु" त्ति अस्य व्याख्या - बहि अंतऽसन्निसन्निसु, जं दिढे तेसु चेव जमदिटुं । केइ दुहओ वऽसन्निसु, गिहिसु सण्णीसु दिहितरे ॥३२४६।। • "बहि'' त्ति-खेत्तऽभतरे पडिवसभगामेसु जे असण्णी तेसु ज पुवदिटुं वत्थं तं मग्गंति ॥१।। तस्सासति बाहिरगामेसु चेव सणीसु जं पुव्वदिटुं वत्थं तं मग्गंति ॥२॥ तस्सासति बाहिरगामादिएसु चेव असण्णीसु जमदिटुं तं मग्गंति ॥३॥ तस्सासति बाहिरगामेसु चेव सणीसु जमदिटुं वत्थं तं मग्गंति ॥ङ्क(४)॥ तस्सासति 'अंत' त्ति अंतो मूलवसभग्गामे असणीसु जं पुवदिटुं तं वत्थं मग्गंति ॥१॥ तस्सासति अंतो चेव सण्णिसु जं पुवदिg वत्थं तं मग्गंति ॥२॥ तस्सासति अंतो चेव असण्णिसु जमदिटुं वत्थं तं मग्गंति ।।३।। तस्सासति अंतो चेव सण्णिसु जमदिटुं वत्थं तं मगंति ॥डू(४)।। केति पुण पायरिया एवं भणंति - बाहिं असण्णिसु दिद्वं ।।१।। असति चेव जमदिटुं ॥२॥ असति अंतो असण्णि दिद्वं ॥३॥ असति तेसु चेव जमदिटुं ॥ङ्क(४)। एवं सण्णिसु वि चउरो विकल्पाः ॥ङ्क(४)। इतरं - अदृष्टमित्यर्थः । दिढे अाहाकम्म-उक्खेव-णिवखेवणादिया आसंकादोसा परिहारिया भवंति । तेण पुव्वं दिट्ठस्स गहणं, पच्छा इयरस्स ॥३२४६।। कोई तत्थ भणेज्जा, बाहिं खेत्तस्स कप्पती गहणं । गंतुं ता पडिसिद्ध, कारणगमणे बहुगुणं तु ॥३२४७॥ कोति चोदगपक्खासितो - तत्थेति पुववक्खाणे, इमं भणेज्ज-"जइ मूलगामातो पडिवसभगामेसु दूरत्वात्कल्प्यं भवति । एवं तर्हि दूरत्वात् क्षेत्र वहिर्ग्रहीतव्यमित्यर्थः ।" १ गा० ३२४२ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३२४५--३२५३ । दशम उद्देशकः १६५ पाचार्याह - खेत्तबहिवासासु ताव गंतुं पडिसिद्ध किं पुण वत्थादिग्गहणं 1 अह कारणे वासासु खेत्तबहिया गच्छति तत्थ गो जइ वासकप्पाइणा णिमंतिज्जति तं संजमे बहुगुणकारियं ति काउं तं पि गेण्हति ॥३२४७॥ एवं णामं कप्पती, जं दूरे तेण बाहि गेण्हंतु । एवं भणते गुरुगा, गमणे गुरुगा व लहुगा वा ॥३२४८|| पूवाधं गतार्थम् । प्राचार्याह-“गंतु खेत्तस्स बहिया घेप्पउ" त्ति, एवं तुज्झ भणतो चउगुरुगा। अह गच्छति तो जति णवपाउसो तो च उगुरुगा, सेसवासकाले चउल हुगा ॥३२४८।। "१कारणगमणे बहुगुणं तु" अस्य व्याख्या - संबंधभाविएसुं, कप्पइ जा पंचजोयणे कज्जे । जुण्णं व वासकप्पं, गेण्हति जं बहुगुणं चऽण्णं ॥३२४६।। आयारयादी कारणे साहम्मियसंबंधेसु अपरोप्परं गमागमभावितेसु वासासु कप्पति गंतु-जाव-पंच जोयणाणि, तस्स चिरायणे जुण्णो वासाकप्पो, णवेण य वासाकप्पेण णिमंतितो, ताहे तं वासासु बहुगुणं ति काउं गेहति । एवं कारणतो कारणावेवखं अण्णं पि ज पडलादिकं बहगुणं तं पि गेहति ॥३२४६।। णिक्कारणगमणे गेण्हतो य इमे दोसा - आहाकम्मुद्देसिय, पूतीकम्मे य मीसजाए य । ठवणा पाहुडियाए, पात्रोतर कीय पामिच्चे ॥३२५०॥ परियट्टिए अभिहडे, उब्भिण्णे मालोहडे ति य । अच्छेज्जे अणिसढे, धोते रत्ते य घडे य ॥३२५१।। साहुप्रट्ठा मलिणं धोवंति, भट्ठिमा दियासु वा रत्तं वालिभद्दगंडियाए उ पोम्हणट्ठा घटुं, एते तिणि वि एकको दोसो ॥३२५१।। एए सव्वे दोसा, पढमोसरणेण वज्जिया होति । जिणदिढे अगहिते, जो गेण्हति तेहि सो पुट्ठो ॥३२५२॥ एते सत्वे वि प्राहाकम्मादिया दोसा पढमसमोसरणे वत्था दि गेण्हतेण वज्जिया भवंति । पुव्वं वा दप्पेण अगहिते उबकरणे पढमसमोसरणे जो गेहति तम्स जिणेहि दिट्ठा कम्मबंधणदोसा, तेहिं सो पुट्ठो भवति । अहवा - जिणेहिं जे दिट्ठा संजमगुणा, कारणेग पुव्वं अगहिते उवकरणे, पच्छा पढमसमोसरणे जो गेण्हति, तेहिं गुणेहिं सोऽपुट्ठो भवति ।।३२५२।। पढमम्मि समोसरणे, जावतियं पत्त-चीवरं गहितं । सव्वं वोसिरितव्वं, पायच्छित्तं च वोढव्वं । ३२५३॥ जंणिक्कारणे दप्पेण गहियं तं सव्वं वोसिरियन्वं, तस्स य दोसणिरिहरणत्थं पच्छित्तं वोढव्वं ॥३२५३॥ १गा०३२४७॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४७ अद्धाण णिग्गया वा, झामिय सेहे य तेण पडिणीए । आगंतु बाहि पुव्वं, दिटुं असण्णि-सण्णीसु ॥३२५४॥ तालायरे य धारे, वाणिय खंधार सेण संवट्टे । लाउलिय वतिय सेवग, जामाउग-पंथिमादीसु ॥३२५५।। द्वावप्येतो गमो केषुचित पुस्तकेषु पुनः संति तेष्विमोऽभिप्रायः - सज्झायट्ठा दप्पेण, वा वि जाणंतकेवि पच्छित्तं । कारणगहियं तु विऊ, धरंतऽगीएसु उभंति ॥३२५६॥ प्रद्धाणणिग्गतादिकारणा जो तं णिरवेक्खो तालायरादिसु कमुक्कमेण वा बाहिं अंतो, 'दिवादिट्ठविकप्पेण वा जो संजमणिरवेक्खो गेहति, सज्झायट्ठा दप्पेण वा, तत्थ जाणंतगे वि पच्छित्तं, जाणंतगो गीयत्थो, किमुत अगीतस्येत्यर्थः । जं पुण कारणे विधीए गहियं तं जति सब्वे गोयत्था तो धरेंति, ण परिट्ठति । अह गीयत्यमीसा अपरिणामगा य तो अण्णम्मि उवकरणे लद्धे तं उभंति । एस वासासु गहणे विधी भणितो ॥३२५६॥ अह अत्थिपदवियारो, चतुपाडिवगम्मि होति णिग्गमणं । अहवा वि अणेतस्सा, आरोवण पुव्वणिदिवा ॥३२५७॥ पुण्णम्मि णिग्गयाणं, साहम्मि य खेत्तवज्जिए गहणं । संविग्गाण सकोसं, इतरे गहियंमि गेण्हति ॥३२५८॥ पुण्णेसु चउसु मासेसु पदवियारे विज्जते अवस्सं चउपाडिवए णिग्गंतव्वं, अणिग्गच्छंताणं चउलहुआ। णिग्गया साहम्मियखेत्तं वज्जेउं अण्णेसु गामणगरापिएसु उवकरणस्स गहणग्गाहणं करेंति । जे संविग्गा संभोगा ताणं जं खेत्तं सकोसजोयणपरिमाणं तं परिहरंति, इयरे पासत्थादिया तेहिं जत्य खेत्ते पज्जोसवियं तत्थ तेहिं गहिए उवकरणे पच्छा संविग्गा गेण्हंति न दोष इत्यर्थः ॥३२५८॥ इतरेसिं जं खेत्तं तं दो मासे ण पज्जिज्जति । इमेण कारणेण - वासासु वि गेण्हंती, णेव य णियमेण इतरे विहरंति । तेहि तु सुद्धमसुद्धे, गहिते जं सेसगं कप्पे ॥३२५६॥ पासत्थादी वासासु वि उवकरणं गेण्हंति, ण य च उपाडिवए पुणे णियमा विहरंति, तेण कारणेणा तेहिं सुद्धे असुद्धे वा उवकरणे गहिते जं सेसगं सड्ढगा पयच्छंति तं सव्वं संविग्गाण कम्पति घेतं ॥३२५६॥ स-परक्खेत्तेसु इमो परिहारकालो - सक्खेत्ते परखेत्ते, दो मासे परिहरितु गेहंति । जं कारणं ण णिग्गय, तं पि वहिं झोसियं जाणे ॥३२६०॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३२५४--३२६५ ] दशम उद्देशकः १६७. दो मासे परिहरित्तु ततियमासे गेहंति । अहवा - चउपाडिवए कारणे ण णिग्गया उवकरणावेक्खं जावतियं कालं अणुवास वसंति तं पि खेत्ता बाहिरज्झोसियं - क्षपिमित्यर्थः ॥३२६०॥ चउपाडिवए इमेहि कारणेहि ण णिग्गया - चिक्खल्ल वास असिवातिएसु 'जति कारणेसु गेहंति । देंते पडिसेहेत्ता, गेहंति तु दोसु पुण्णेसु ॥३२६१॥ सचिखल्ला पंथा, वासं वा णोवरमते, बाहिं वा असिव-प्रोमदुब्भिक्खादिया। एवमादिकारणेहि ण णिग्गया, तत्थ दोसु मासेसु अपुणे जति कोति वत्थाणि देज ते पडिसेहेयव्वा । जाहे दो मासा पुण्णा, भवंति ताहे गेहंति ॥३२६१॥ कम्हा दोसु मासेसु पुण्णेसु वत्थग्गहणं कज्जति ? अतोच्यते - भावो तु णिग्गए सिं, वोच्छिज्जति देंति वा वि अण्णस्स । अत्तटुंति व ताई, एमेव य कारणमणिते ॥३२६२।। जे इह खेत्ते वासावासं ठिता तेसि वत्थे दाहामो त्ति सड्ढयाण जो भावो सो णिग्गएसु साहुसु वोच्छिज्जति । साहूण वा जे वत्था संकपिता ते अण्णसाधूणं अण्णपासऽत्थाण वा देति । अप्पणा वा - "अत्त?" ति परि जति वा। चउप्पाडिवए कारणतो अणितेसु वसंतेसु अगेण्हतेसु य एमेव भाववोच्छेदो । भवति ॥३२६२॥ अपुण्णेसु वि दो मासेसु कारणे गहणं कज्जति । के य ते कारणा ? इमे - बालऽसहु-वुड-अतरंत-खमग-सेहाउलम्मि गच्छम्मि । सीयं अविसहमाणे, गेहंति इमाए जयणाए ॥३२६३॥ असहू अशक्तिष्टः. अतरंतो गिलाणो, २लल्लक्कं वा सीतं पडतं ण सहंति, एवमादिएहिं कारणेहिं । दोहिं मासेहिं अपुणेहिं इमाए जयणाए गेण्हंति ॥३२६३।। पंचूणे दोमासे, दसदिवसूणे दिवट्टमासं वा । दसपंचहियं मासं, पणवीसदिणे व वीसं वा ॥३२६४॥ पण्णरस दस व पंच व, दिणाणि परिहरिय गेण्ह एक्कं वा । अहवा एक्केक्कदिणं, अउणट्ठि दिणाणि प्रारम्भ ॥३२६॥ दो मासा पोसपुण्णिमाए पूरंति । जत्थ वासं ठिता तत्थ उस्सग्गेण माहबहुलपडिवयाए तत्थ ग्गहणं कायव्वं । कारणं प्रणागाढं गाढतरं अवेक्खि कण प्रोमंथगपणगपरिहाणीए गहणं कायन्वं । एगं वा चउपाडिन्वए एगदिणं परिहरेत्ता गेण्हंति । १ नहि कारणेसु उण णिति (पा०) । २ भयंकर । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र- ४७ अहवा - जत्थ वासं ठिता तत्थ चउपाडिवयदिणादारम्भ सर्द्विदिणा वत्थग्गणं कायव्वं । कारणे पुण श्रोमंथगपरिहाणीए श्रउणसद्विदिणा रब्भ एक्केक्कपरिहाणीए जाव कतियपोणिमपा डिवयं एक्कं परिहरिय गेहति । वासावासं जत्थ ठिता तत्थ सा विधी भणिता ।।३२६५।। १६८ उडुद्धिमासक पंठिता तत्यिमा विधी बितिए वि समोसरणे, मासा उक्कोसगा दुवे होंति । मंथगपरिहाणी, य पंच पंचेग य जहण्णे || ३२६६ ॥ उडुबद्धियमासको सम्वो बितियसमोसरणं भण्णति, तत्थ वि उक्कोसेण्णां दो मासा परिहरियन्त्रा । कारणे श्रोमंथ-एग-पणगेगदिणपरिहाणी पूर्ववत्, पणगपरिहाणीए पणगं जहणं, एगदिणपरिहाणीए - एगदिणो जहण्णो, तं परिहरिय गेहति ॥३२६६ ।। एसेवऽत्योवक्खाणगाहा अपरिहरंतस्सेते, दोसा ते चेत्र कारणे गहणं । बाल- बुड्ढाउले गच्छे, असति दस पंच एक्को य || ३२६७॥ उडुद्धियखेत्ते एते दोमासे अपरिहरतस्स जे वासाखेत्ते दोसा भगिता ते चैव भवंति । उडुबद्धियखेत्ते बालादिकारणेहि, असति वा उवकरणस्स, ग्रोमंथगपरिहाणीए जहण्णपवखे दस पंच वा एगंवा दि परिहरिय गेहति ॥३२६७।। परवखेत्ते संविग्गसंतिए दोहिं मासेहि पुगेहि उवरि जहयोग पंचहि य दिणेहिं खेत्तिएहि उवकरणे हिए सि ण कप्पति किं चि घेत्तुं । जो गेहति तस्सिमो दोसो कारणाणुपालगाणं, भगवतो आणं पडिच्छमाणाणं । जो अंतरा उ हति, तट्ठाणारोवणमदत्तं ॥ ३२६८ || कारणं क्रिया, पिंडविसोहियादिया । "पिंडस्स जा विसोही " गाहा पुरिसीहि पालियं जे पच्छा पालयंति ते कारणाणुपालया । भगवतो वद्धमाणस्स प्राणं पडिच्छति यथा भगवता उक्तं - अभिलाप्यादिपदार्थप्ररूपणा तथा प्रतिपत्या श्राज्ञाप्रतिपन्ना भवति । एरिसगुणजुत्ताणं साहूणं अंतरागृहीते उबकरणे जो गेहति साहू तम्स पच्छित्तं तट्टाणारोवणा - चाउम्मासुक्कोसे, मासियं म .य, पंच जहण्णे, भगवया अणणुणायं ति प्रदत्तादानं भवति ॥ ३२६८ ।। उवरिं पंच पुणे, गहणमदत्तं गत त्ति गेण्हति । अणपुच्छ दुपुच्छा, तं पुण्णे गत ति गेण्हति ॥ ३२६६ ॥ परखेत्ते दोण्ह मासाणं उवरि पंचसु दिणेसु प्रपुष्णेसु जति गेण्डति तत्थ वि तट्ठाणारावणमदत्तं भवति । श्रह जाति णिस्संदिद्धं खेत्तसामिणो परं विदेसं गता तो दो मासोवरि पंचदिणेसु गेव्हंति, खेत्तिएहिं वत्थग्गणं कयं ण कयं ति श्रणापुच्छा ॥ ३२६६ ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३२६६-३२७३ ] | दशम उद्देशक: १६६ दुपुच्छा इमा - गोवालवच्छवाला, 'कासगाएस बालवुड़ा य । अविधी विही उ सावग, महतरधुवकम्मि लिंगत्था ॥३२७०॥ जे गोसे णिग्गया ते पदोसे पविसंति, ते पुच्छति गोवालमादिए कि समणेहिं वत्थग्रहणं कतं ण कतं ति । एसा अविधिपुच्छा। सावगादिया, धुवकम्मी लोहका रो रहकारो कुंभकारो तंतुकारो य। एवंविधपुच्छाए णाउ वत्यादिग्गहणं करेंनि वा ण वा । पुच्छिए वा सयं वा परदेसगए ( णाउ ) दोमासासु अपुष्णेसु गेण्हंति ।।३२७०॥ परेखेत्तग्गहणे इमा विधा - उप्पण्णकारणे गंतु, पुच्छिउं तेहि दिण्ण गण्हति । तेसागतेसु सुद्धेसु जत्तियं सेस अग्गहणं ॥३२७१॥ केइ आयरिया - बहुबालवुड्डसेहादिया ताण वत्थग्गहणकारणे उप्पण्णे य सखेत्ते य वत्थासती ते परखेत्ते वत्थग्गहणं काउकामा गंतु खेत्तसामिए पुच्छंति, तेहिं अब्भाण्णायं जत्तियं जप्पमाणं वा तत्तियं तप्पमाणं गेण्हंति, अतिरित्तं ण गेण्हंति । ___ विहिपुच्छाए पुच्छिते सुद्धभावेण सुद्धे गहिते उवकरणे जात पुवखेत्तिया सुद्धा प्रागच्छेज्ज तो जं गहियं तं समप्पेंति. सेसस्स य अग्गहणं ।।३२७१।। कहं पुण खेत्तियाण सुद्धासुद्धागमो भवति ? अतो भण्णति - पडिजग्गंति गिलाणं, अोसहहेतूहि अहव कज्जेहिं । एएहिं होंति सुद्धा, अह संखडिमादि तह चेव ॥३२७२॥ खेत्तिया पुण्णेसु वि दोसु मासेसु णो पागता, इमेहि कारणेहि - गिलाणं पडिजग्गमाणा, गिलाणस्स वा प्रोसहगहणं संपिछित्ता, अहवा - कुलगणसंघकज्जेग वा वावडा, एवमादिएहि कारणहि प्रणिता सुद्धा। अह संखडिणिमित्तं ठिता, वइयाइसु वा पडिवज्जतमागता, तो जं खेत्तिएहिं गयिं गहियमेव, ण पुव्वखेत्तियाण देंति, सेसं पि गिण्हंति ।।३२७२।। इम विसुद्धकारणा - तेणभय-सावयभया, वासे णईए य वा वि रुद्धाणं । दायव्वमदंताणं, चउगुरु तिविहं व णवमं वा ॥३२७३॥ पुटबद्धं कंठं । जं गहियं तं दायव्वं । अह ग देति तो चउगुरु । उत्रकरणणिप्फ वा तिविधं 'नवमं' अणवटुंतं वा भवति ॥३२७३।।। १ कृषिवल। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४७ "२तं पुण्णे गय त्ति गिण्हति' अस्य व्याख्या - परदेसगए णातं, सगं व सेज्जायरे व पुछित्तं । गेण्हंति असढभावा, पुण्णेसुं दोसु मासेसु ॥३२७४॥ कंठा अववादतो गेण्हेज्जा, ण देज्ज वा - बितियपयमणाभोगे, सुद्धा देंता अदेंत गुरुगा उ । आउट्टिया गिलाणादि जत्तियं सेस अग्गहणं ॥३२७५॥ "किं एत्य साधू मासिणो' त्ति प्रणाभोगा परखेत्ते गेण्हेज्ज, पच्छा णाए तं दायव्वं । ग्रह ण देति तो चउगुरु उवकरणणिप्फण्णं वा । आउट्टिए वा गिलाणस्स जतिषण कज्जं तं गेण्हति सेसमतिरित्तं (ण) गेण्हतीत्यर्थः ॥३२७५॥ ॥ इति विसेस-णिसीहचुण्णीए दसमग्रो उद्देसो समत्तो॥ १ गा० ३२६६ । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश उद्देशकः उक्तो दशमोद्देशकः । इदानीमेकादशः प्रारभ्यते । ग्रस्याभिसंबंधो इमो -- वृत्तं वत्थग्गहणं, दसमे एगारसे उ पादस्स । कालस्स व पडिसेहो, वुत्तो इणमो उ भावस्स ॥३२७६॥ दशमे अंतसूत्रेषु वस्त्रग्रहणमुक्तं, एकादशे प्राद्यसूत्र पात्रग्रहणमुच्यते । एष संबंधः । ग्रहवा - दशमसूत्रे कालप्रतिषेध उक्तः । इह एकादशाद्यसूत्रे भावप्रतिषेध उच्यते ॥३२७६॥ जे भिक्ख अय-पायाणि वा तंव-पायाणि वा तउय-पायाणि वा कंस-पायाणि वा रुप्प-पायाणि वा सुवण्ण-पायाणि वा जायरूव-पायाणि वा मणिपायाणि वा कणग-पायाणि वा दंत-पायाणि वा सिंग-पायाणि वा चम्म-पायाणि वा चेल-पायाणि वा संख-पायाणि वा वइर पायाणि वा करेइ, करतं वा सातिज्जति ॥८॥१॥ जे भिक्खू अय-पायाणि वा तंव-पायाणि वा तउय-पायाणि वा कंस-पायाणि वा रुप्प-पायाणि वा सुवण्ण-पायाणि वा जायरूव-पायाणि वा मणिपायाणि वा कणग-पायाणि वा दंत-पायाणि वा सिंग-पायाणि वा चम्म-पायाणि वा चेल-पायाणि वा संख-पायाणि वा वइर पायाणि वा धरेइ, धरतं वा सातिजति ।।सू०॥॥२॥ जे भिक्व अय-पायाणि वा तंव-पायाणि वा तउय-पायाणि वा कंस-पायाणि वा रुप्प-पायाणि या सुवण्ण-पायाणि वा जायरूव-पायाणि वा मणिपायाणि वा कणग-पायाणि वा दंत-पायाणि वा सिंग-पायाणि वा चम्म-पाचाणि वा चेल-पायाणि वा संख-पायाणि वा वइरपायाणि वा परि जइ, परिभुजंतं वा सातिजति ।।सू०॥३॥ ' Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ सूत्र १-६ जे भिक्खू अय-बंधणाणि वा तंब-बंधणाणि वा तउय-बंधणाणि वा कंस बंधणाणि वा रुप्प-बंधणाणि वा सुवण्ण-बंधणाणि वा जायरूयबंधणाणि वा मणि-बंधणाणि वा कणग-बंधणाणि वा दंतबंधणाणि वा सिंग-बंधणाणि वा चम्म-बंधणाणि वा चेल-बंधणाणि वा संख-बंधणाणि वा वइर-बंधणाणि वा करेइ, करेंतं वा सातिजति।।स्॥४॥ जे भिक्खू अय-बंधणाणि वा तंब-बंधणाणि वा तउय-बंधणाणि वा कंस बंधणाणि वा रुप्पबंधणाणि वा सुवण्ण-बंधणाणि वा जायरूवबंधणाणि वा मणि-बंधणाणि वा कणग-बंधणाणि वा दंतबंधणाणि वा सिंग-बंधणाणि वा चम्म-बंधणाणि वा चेल-बंधणाणि वा संख-बंधणाणि वा वइर-बंधणाणि वा धरेइ, धरतं वा सातिजति।।।।५॥ जे भिक्खू अय-बंधणाणि वा तंब-बंधणाणि वा तउय-बंधणाणि वा कंस बंधणाणि वा रुप्प-बंधणाणि वा सुवण्ण-बंधणाणि वा जायरूवबंधणाणि वा मणि-बंधणाणि वा कणग-बंधणाणि वा दंत-बंधणाणि वा सिंग-बंधणाणि वा चम्म-बंधणाणि वा चेल-बंधणाणि वा संख-बंध णाणिवा वइर-बंधणाणि वा परिभंजइ, परिभंजंतं वा सातिज्जति।।म्॥६॥ अयमादिया कंठा । हारपुडं णाम, (?) अयमाद्याः पात्रविशेषाः मौक्तिकलताभिरुपशोभिता । मणिमादिया कंठा, मुक्ता शैलमयं चेलमयं प (वा) सेप्पतो खलियं वा पुडियाकारं कजइ। प्रथमसूत्रे स्वयमेव करणं कजइ । द्वितीयसूत्रे अन्यकृतस्य धरणं ।। तृतीयसूत्रे अयमादिभिः स्वयमेव बंधं करोति । चतुर्थसूत्रे अन्येन अयमादिभिर्बद्धं धारयति । . अयमाई पाया खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । तब्बंधणबद्धा वा, ताण धरतम्मि आणादी ॥३२७७॥ करणे धरणे प्राणाणवत्थमिच्छतविराहणा य भवइ । चतुगुरुगं च से पच्छित्तं ।। २७६।। इमो 4 भावपडिसेहो भण्णति - तिण्हट्ठारसवीसा, सतमझाइजा य पंच य सयाणि । सहसं च दससहस्सा, पण्णास तहा य सयसहस्सा ॥३२७८|| मासो लहुओ गुरुओ, चउरो मासा हवंति लहुगुरुगा । छम्मासा लहुगुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥३२७६।। १ तृतीय - षष्ठ सूत्रे चूर्णो न गृहीते। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३२७७-३२८३ ] एकादश उद्देशकः एगा दिया - जाव- तिनि कहावणा जस्स मुल्लं, एयं घरेंतस्स मासलहुं । चउरादिया- जाव अट्ठारस कहावणा जस्स मोल्लं, एयं धरेंतस्स मासगुरु । वीसाए चउलहुं । इक्कीवीसाइ - जाव-सयं पूरं एत्थ चउगुरुगा । एगुत्तरादियसयानो - जाव- प्रड्डाइजा सया एत्थ छल्लहुगं । तदुवरि एगुत्तरवुड्ढी ए- जाव- पंचसया एत्थ छग्गुरुगा । एवं सहस्से छेदो । दस सहस्सेसु मूलं । पन्नासाए सहस्सेसु प्रणवट्ठो । सयस हस्से पारंचियं । एक्केके ठाणे श्राणाइया दोसा || ३२७६ ॥ इमे प्रायसंजमविराहणादोसा - भारोभयपरितावण, मारणे अहिकरण अहियकसिणम्मि । पडिलेहाणालोवो, मणसंतावो तुवादाणं ॥ ३२८० ॥ पमाणातिरिते भारो भवति । अधवा भारेण वा परिताविजति । तेगेहि वा तदट्ठा गहिश्रो परिताविज्जति । " मा एस चेव यं काहेति" त्ति तेणगा वा म!रेंज । तेहिं य गहिए पाए अहिकरणं । 1 भारभयाण विहरति । भएण वा ण विहरइ - " मा मे एयं उक्कोसं पत्तं हीरेजा" । अधवा अरितं अनुपयोगित्वात् श्रधिकरणं । एते गणणाधिके पमाणाधिके मुल्लाधिके य दसदोसा भणिया । मुल्लपमाणकसिणं च जइ पडिलेहंति तो तेगगा पडुप्पाय त्ति हरंति य ते, प्रतो अपडिले हिए उवहिणिफण्णं संजमविराहणा य । १७३ गणणाइरितं जइ पडिलेहेइ तो सुत्तत्यपलिमंथो, अपडिलेहिए उवहिणिष्कण्णं संजमविराहणा य । अतिरित्तग्गणाए अप्प डिलेहणाए य श्राणालोवो कम्रो नवति । कसिणाव राहे मणसंतावो भवइ । एरिसं तारिस मज्झ पायं प्रति त्ति, खितादि वा भवे, कसिणं च सेहस्स उष्णिक्खिविउकामस्स उवादाणं भवइ । जम्हा एते दोसा तम्हा 'महद्वणमोल्लाई पायाई ण घरेयव्वाई || ३२८०॥ त्रितियपदं गेलणे, सतीए प्रभाविते य गच्छमि । सिवादी परलिंगे, परिक्खणट्ठा विवेगो वा ।। ३२८१ ॥ दोसह संजोगो, तं चिय रजतादि श्रहव वेज्जेट्ठा । मल्लगमभावितम्मी, पइदिणदुलभे व रथतादी ॥३२८२ ॥ श्रयमाइपात्र वेज्जुवदेसेण गिलाणस्स श्रोसहं ठविज्जति, संजोइए वा वेज्जट्ठा वा घेप्पइ । राया रायमच्चो वा पव्वाविश्रो सिया, तस्स य कणगमाइपादोवचियस्स कंसभायणे मा छड्डी गेलन्नं वा भवेज्ज ते कणगादि घेप्पेज्ज । " असइ " त्ति लाउयमादियाभावे प्रयमादियं गेण्हेज्ज । तत्थ वि अप्पमुल्लं । गच्छे वा प्रभाविया श्रत्थि तेसि अट्ठाए मुल्लगं गिण्हेज्ज । पतिदिणं श्रलभंते दुल्लभे वा रयतादि घेप्पेज्ज ।। ३२८२ ॥ गच्छे व करोडादी, पतावणट्ठा गिलाणमादीणं । प्रसवे सपक्खपंते, रायदुट्ठे व परलिंगे || ३२८३ ॥ १ " महद्धणे श्रप्पधणे व वत्थे" इति बृह० उद्दे० ३ गाथा ३६६७ । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-७ उवगहट्ठा वा 'करोडगाई गच्छे धरिज्जति । गिलाणस्स वा किंचि प्रोसढं छोढुं उण्हे पयाविज्जति, आदिग्गहणाग्रो प्रोमरायट्ठादिसु, कारणे वा परलिंगं करेंतो गेण्हेज्ज ॥३२८३॥ भंजइ ण व ति सेहो, परिक्खणट्ठा व गेण्ह कंसादी। विसरिसवसनिमित्तं, होज्ज व पंडादिपव्वइनो ॥३२८४॥ सेहस्स वा परिक्खणणिमित्तं पाडिहारियं घेप्पेज्जा । ग्रहवा - कोइ अपव्वावणिज्जो कारणेण पवाविप्रो, तस्स य विसरिसो वेसो कायवो, कारणे समत्ते तस्स विवेगो कायव्वो ॥३२८४।। जे भिक्खू परं श्रद्धजोयणमेराओ पायवडियाए गच्छइ, गच्छंतं वा सातिज्जति ॥०॥७॥ मूलवसभगामाप्रो-जाव-अद्धजोयणं ति मेरा भवइ । अद्धजोयणाप्रो परमो जइ जाइ पायग्गहणं करेति तो प्राणादिया दोसा भवंति । परमद्धजोयणाओ, संथरमाणेसु णवसु खेत्तेसु । जे भिक्खू पायं खलु, गवसती आणमादीणि ॥३२८५॥ उस्सग्गेणं जाव उन्भामगखेतं तम्मि पायं गवेसियव्वं, परतो प्राणादिया दोसा, तम्हा णो परतो उप्पाएज्जा ॥३२८५।। भिक्खुवसहीसु जह चेव णवसु तह चेव पायवत्थादी । जोयणमद्धे चउगुरु, अधुढेहिं भवे चरिमं ॥३२८६॥ उडुबद्धे अट्ठसु मासखेत्तेसु वासाखेत्ते य एतेसु णवसु खेत्तेसु जह चेव भत्तपाणमुप्पाएइ तहा ... पायवत्यादिए वि ॥३२८॥ जइ पुण संथरंतो परतो अद्धजोयणाम्रो प्राणेति तो इमं पच्छित्तं - अंतरपल्ली लहुगा, परतो खलु अद्धजोयणे गुरुगा। तंतियाए गवेसेज्जा, इतराहिं अट्ठहिं सपदं ॥३२८७।। जंइ अंतरपल्लीग्रानो प्राणेइ तो चउलहुगा । अंतरपल्लीग्रामो परमो प्रद्धजोयणमेत्ताप्रो, मूलवस भगामाप्रो तं च जोयणं, एत्य चउगुरुगा । खेत्त बहि जोयणे छल्लहुं । दिवड्ढे छग्गुरु । दोहि छेदो । अड्डाइजेहिं मूलं । तिहिं प्रणवट्ठो । अद्ध?हिं पारंचियं । प्राणाइणो य दोसा । दुरिहा य विराहणा । तत्य प्रायविराहणा कंटऽट्ठिखाणुमाइया, संजमे छक्कायादिया । तम्हा खेतबहिं ण गवेसियव्वं । खेत्ततो प्रद्धजोयणऽभंतरे गवसंतो, कालतो सुत्तत्थपोरिसी काउं तइयपोरिसीए गवेसइ । जइ इतराहि गवसइ तो मभिक्खासेवाए चतुलहुगा, अट्ठमवाराए पारंचियं पावइ ।।३२८७।। १ कटोरा। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३२८४ - ३२९२ ] एकादश उद्देशक: खेत्तब्भंतरे अलब्भमाणे विहरंते चेव भायणभूमि गंतव्वं - बितियपदं गेलणे, वसही भिक्खमंतरे । मज्झायगुरूजोगे, सुणणा वत्तणा गणे || ३२८८|| लन्नाइयाण इमा व्याख्या दुह गेलणम्मी, वसही भिक्खं च दुल्लभं उभए । अंतरविगिट्टि सज्झाओ णत्थि गुरूणं व पाउग्गं || ३२८६ ॥ - दुहतो गेलनं प्रप्पणो परस्स । अहवा - प्रणागाढं गाढं ति । "दुहतो" त्ति खेत्तकाले अतिक्कमं करेति । गिलाणकारणेण - सयं गिलाणो गिलाणवावडो वा ण तरति गंतुं जत्थ भायणा उप्पज्जंति, ताहे दूरातो वि भायणा अंतरपल्लीयासु श्राणिज्जंति, अन्नतरपोरिसीए वा गे‍हेजा । - अहवा अहवा उभए गिलाणस्स गच्छस्स य भिक्खवसही य दुल्लभा । अहवा - " उभए " त्ति पायोग्गं नत्थि सुत्तत्थपोरिसीतो वि प्रकाउं पादग्गहणं करेंति । अहवा - बालवुड्डा उभयंतेहि प्राउलो गच्छो संकामेउं ण सक्कति, गामंतराणि वा विगिट्ठाणि । अहवा - तम्मि भायणदेसे सज्झातो न सुज्झति । गुरूण व भत्तपाणादीयं पायोग्गं णत्थि, प्रागाढ जोग्गं वा वहति ॥ ३२८६।। - भायणदेसे भिक्खं दुल्लभं वसही वा दुल्लभा, उभयं वा दुल्लभं । पट्टावा, अप्पा वा ते खेत्ता, हिणवगाहियं च ते उ वत्र्त्तेत्ति । गच्छस्स व णत्थि पात्रोग्गं ॥ ३२० ॥ "अणुप्रोगो पट्ठविउ "त्ति प्रत्थं सुणेति त्ति वृत्तं भवति, अभिणवधारितं वा सुत्तत्थं वा वत्तेति । भायणभूमी वा मासकप्पपाउग्गा खेत्ता प्रप्पा - गच्छस्य आधारभूता न भवतीत्यर्थः । सबालवुड्ढस्स वा गच्छस्स वत्थपातोग्गं णत्थि ॥ ३२६० ॥ - एएहिं कारणेहिं, गच्छं श्रसज्ज तिनि चतुरो वा । गच्छति निव्भयं भाणभूमि वसहादिसु सुहं ॥ ३२६१॥ १७५ एवमादिएहि कारणेहि भाणभूमि गच्छो ण गच्छइ । 'गच्छमासज्ज" ति त्रिचतुरो वा साहू णिन्भयं भाणभूमिं गच्छति । ते य गीयत्था वसभा वच्वंति । तेसिं प्रप्पाणं सुलभं भत्तपाणवसहीमादी भवति ।।३२६१ ।। गणणाप्रमाणातिरिक्तमपि ग्रहीतव्यं, कुतः ? - लंबणे विसुद्ध दुगुणो तिगुणो चउग्गुणो वा वि । • खेताकालादी, समणुण्णा व कप्पम्मि || ३२६२॥ विसुद्ध प्रालंबणे दुगुणो तिगुणो वा चउग्गुणो वा पादपडोयारो घेत्तव्वो, प्रविसद्दातो वत्थादियो वि । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ समाष्य चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ८-९ खेत्तातीमो अद्ध-जोयणातो परतो। ___ कालातीतो वासासु गहणं करेति, दुमासं वा अपूरेत्ता गहणं करेंति, राम्रो वा । एतं सब्वं कारणे विसुद्धे अणुण्णायं । पकप्पे पकप्पो गच्छवासो । अहवा - णिसीहझयणं ॥३२६२॥ जे भिक्खू परमद्धजोयणमेरातो सपञ्चवायंसि पायं अभिहडं आहट्ट दिज्जमाणं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ।।सू०।८।। अद्धजोयणातो परतो सपच्चवातेण पहेण अभिहडं अभिराभिमुख्ये 'हब हरणे" अभिमुखं हृतं प्रानीतमित्यर्थः । जो भिक्खू प्रागावेइ तं पडिग्गाहेति वा सो प्राणादी पावति चउगुरु च से पच्छित्तं । एसो चेव - अत्थो इमो - परमद्धजोयणाओ, सपच्चवायम्मि अभिहडाणीयं । तं जे भिक्खू पायं, पडिच्छते आणमादीणि ॥३२६३।। कंठा इमेहिं वा सावायो पथो - सावततेणा दुविधा, सव्वालजला महानदी पुण्णा । वणहत्थि दुट्ठसप्पा, पडिणीया चेव तु अवाया ॥३२६४॥ सीहादिया सावया, तेणा दुविहा - सरीरोवकरणे । जले -- गाहमगराईएहिं सव्वाला महाणदी वा अगाधा पुणा । वणहत्थी वा दुवो पहे, कुंभाकारादिसप्पा वा पहे विजंति, गिहीण वा वेरियादिपडिणीया संति । ॥३२६४॥ एवमातिप्रववातेहिं इमे दोसा - तेणादिसु जं पावे, तं वा पावंति अंतरा काया । बद्धहितमारित वा, उड्डाहपदोसवोच्छेदो ॥३२६५|| ___ सो निहत्थो आणित्तो तेणगसमीवातो जं घातादि पावति । प्रादिसद्दातो सिंहवग्घादियाण वा समीवातो जं पावति, सो वा गिहत्थो आसुरुत्तो जं कंडादिए' तेणादिपहारे पावति, अंतरा वा पुढवादिकाए विराहेज्ज, बंदिग्गहतेणेहिं वा बद्धो, हिरो वा, जुज्झतो वा मारितो, ताहे सयणादिजणो भासति – संजयाण पादे णेतो सावगो मारिउ त्ति, एवं उड्डाहो, तस्स वा सयणिज्जा पदोस गच्छेज्जा, तद्दवण्णदव्वस्स वा वोच्छेद करेज्ज, सो वा पदोसं गच्छे, वोच्छेदं वा करेज्ज । जम्हा एवमादि दोसा तम्हा पाहडं णो गेण्हेज्जा, अप्पणा गवेसेज्ज ॥३२६५।। बितियपदेण गिहत्थाणीतं पि गेण्हेज्जा - असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे। सेहे चरित्तसावय, भए य जयणा इमा तत्थ ॥३२६६॥ १ यष्टि। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३२६४-३३०१३ एकादश उद्देशकः सक्खेते पादासतीए दुल्समेसु वा मसिवेहितो वा गंतुमसमत्यो, महवा पादभूमीए अंतरा वा मसिवं मोमं वा रायदुटुबोहिगमयं वा सयं गिलाणवावडो वा, सेहस्स वा तत्थ सागारियं, मा सो सीदेखा, चरित्तदोसा वा, तत्थ प्रणेसणादिया दोसा. सावयभयं वा तत्थ ॥३२६६॥ एवमादिकारणेहिं इमं जयणं करेंति - अप्पाहेंति पुराणातिगाण सत्थे आणयह पातं । तेहि य सयमाणीए, गहणं गीतेतरे जयणा ॥३२६७।। अप्पाहणं सदेसो, पुराणम्स संदिसंति । मादिग्गहणेणं गिहीताणुव्वयसावगस्स वा सम्मदिद्विणो संदिसंति - पादं सत्थेण प्राणयह । तेहि वा प्राणिता जदि सव्वे गीयत्था तो गेण्हंति । इतरे अगीयत्या तेसु जयणं करेंति, पुब्वं पडिसेहित्ता छिन्ने भावे तेहि य जयंता जता अत्तट्ठिया तदा गेण्हंति ॥३२६७॥ एसेव गमो णियमा, आहारे सेसते य उवकरणे। पुव्वे अवरे य पदे, सपच्चवाएतरे लहुगा ॥३२६८॥ जो पादे विही भणितो एसेव विधी पाहारे, सेसोवगरणे य दृट्ठव्वो । सपञ्चवाते, इतरे पुण णिपच्चवाते सव्वत्थ चउलहुगा ॥३२६८॥ जे भिक्खू धम्मस्स अवणं वदात पदत वा सातिज्जति ॥२०॥६॥ "धृञ् धारणे", धारयतीति धर्मः, ण वणो प्रवणो णाम अयसो अकीतिरित्यर्थः। “वट व्यक्तायां वाचि"। दाहो य होइ धम्मो, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य । सुयधम्मो सज्माओ, चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥३२६६।। सुयधम्मो खलु दुविहो, सुत्ते अत्थे य होइ णायव्यो । दुविहो य चरणधम्मो, य अगारमणगारियं चेव ॥३३००॥ पंचविधो सज्झातो सुयधम्मो । सो पुण दुविहो - सुत्ते प्रत्ये य । चरित्तधम्मो दुविहो- अगारधम्मो प्रणगारधम्मो य। एक्केक्को दुविहो - मूलुत्तरगुणेसु ॥३३००॥ दुविहो तस्स अवण्णो, देसे सव्वे य होति णायव्यो। सुत्तणिवातो देसे, तं सेवंतम्मि आणादी.॥३३०१।। देसे सव्वे वा सुयम्स अवष्णं वदति । एवं चरित्ते वि दुविहो अवण्णो। सुत्तस्स देसे चउलहुगा, पत्थस्स देसे चउगुरुगा। सव्वसुयस्स अवणे भिक्खुणो मूलं । अभिसेयस्स प्रणवट्ठो । गुरुणो चरिमं । एवं दाण पच्छित्तं । प्रावज्जणाए तिण्ह वि सव्वे सुत्ते प्रत्थे वा पारंचियं । गिहीणं मूलगुणेसु जति देशे भवणं वदति तो चउगुरुग, सबहिं मूलं । गिहीणं उत्तरगुणेसु जति देसे अवष्णं वदति तो च उलहुगा। गिहीणं सबुत्तरगुणेसु चउगुरुगा । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसत्रे । सूत्र -१ साहूणं मूलगुणेसु उत्तरगुणेमु य जति देसे अवष्णं वदति तो चउगुरुगा, दोसु वि सम्वेसुं मूसं। एत्य प्रत्यस्स देसे गिहीण य, मूलगुणदेसे साहूण य, उत्तरगुणदेसे सुत्तणिवादो भवति । एवं प्रवणवयणं सेवंतस्स प्राणादिया दोसा भवंति ॥३३०१॥ मूलगुण-उत्तरगुणे, देसे सव्वे य चरणधम्मो उ । सामादियमादी उ, सुयधम्मो जाव पुव्वगतं ॥३३०२॥ सामाइयमाईए, एक्कारसमाउ जाव अंगातो। अह देसो एत्थ लहुगा, सुत्ते अत्थम्मि गुरुगादी ॥३३०३॥ पूव्वद्धं गतार्थत्वात कंठं । सुयस्स सामादियादि-जाव-एक्कारसअंगा-ताव-देसो, एयं चैव सह पुब्वगएण सव्वसुय सव्वम्मि तु सुयणाणे, भूया वाते य भिक्खुणो मूलं । गणि आयरिए सपदं, दाणं आवज्जणा चरिमं ॥३३०४॥ गिहिणं मूलगुणेस, देसे गुरुगा तु सम्वहिं मूलं । उत्तरगुणेसु देसे, लहुगा गुरुगा तु सव्वेसिं ॥३३०५॥ मूलगुणे उत्तरगुणे, गुरुगा देसम्मि होंति साहूणं । सव्वम्मि होति मूलं, अवण्णवायं वयंतस्स ॥३३०६।। कहं पुण वदंतो प्रासादेति ? जीवरहिते व पेहा, जीवाउलमुग्गदंडता मोयं । को दोसो य परकडे, चरणे एमातिया देसे ॥३३०७॥ जीवेहिं विरहिते जाव पडिलेहणा कज्जति सा निरत्थिया । जीवाउले वा लोगे बंकमणादिकिरियं करेंतो कहं णिद्दोसो ? परित्तेगिदियाण य संघट्टणे मासलहुदाणे, एवं अप्पावराहे उग्गदंडया मजुत्ता। जं व बितियपदे णु मोयायमणं भणियं तं पि प्रजुत्तं, - प्राहाकम्मादिएसु परकडेसु को दोसो ? एवमादि चरणस्स देसे अवष्णो । सर्व यम-णियमात्मकं चारित्रं कुशलपरिकल्पितं एष सर्वावर्णवादः ॥३३०७॥ इमेरिसं सुत्ते अवणं वदति - काया वया य तच्चिय, ते चेव पमाय अप्पमादा य । जोतिस-जोणि-णिमित्तेहिं किं च वेरग्गपरयाणं ॥३३०८॥ प्रयुत्तं पुणो पुणो कायवयाण वण्णणं पमादप्पमायाण य। किं वा वेरग्गपवण्णाणं, जोतिसेण बोषीपाहुडेण वा णिमित्तेप वा । सव्वं वा पागतभासाणिबद्धं, एवमादि सुय-मासायणा। एवं प्रवन्न वदंतो Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाव्यगाथा ३३०२-३३११] एकादश उद्देशक: पाणाइया य दोसा, सुयदेवता वा खित्तादिचित्त करेज्ज, भन्नेण वा साहुणा सह असंखडं वा भवे-“कीस प्रवन्नं भाससि" ति । जम्हा एते दोसा तम्हा णो अवष्णं वदे ॥३३०८।। कारणे वदेज्जा वि - वितियपदमणप्पज्झे, वएज्ज अविकोविते व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, भयसा तव्वादिसू चेव ॥३३०६।। मणपज्झो खेत्तादियो वएज, अप्पज्झो वा अविकोवितो सो वा वएज्जा। 'तव्वादि' त्ति जो प्रवन्नवादपक्खाहणं करेति सो य रायादि बलवतो तब्भया वदेज्जा, णो दोसो ॥३४०६॥ जे भिक्खू अधम्मस्स वण्णं वयति, वयं वा सातिज्जति सू०॥१०॥ इह प्रहम्मो भारह-रामायणादि पावसुत्तं, चरगादियाण य जे पंचम्गितवादिया 'वयविसेसा। अहवा - पाणातिवायादिया मिच्छादसणपज्जवसाणा अट्ठारस पावट्ठाणा, एतेसि वणं वदतीत्यर्थः । एसेव गमो नियमा, वोच्चत्थे होति तु अहम्मे वि । देसे सव्वे य तहा, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि ।।३३१०॥ वोच्चत् विपक्खे, वनवायं वदतीत्यर्थः । सेस कंठं । इहरह वि ताव लोए, मिच्छत्तं दिप्पए सभावेणं । किं पुण जति उववूहति, साह अजयाण मज्झम्मि ॥३३११॥ "इहरहवि" त्ति सहावेण प्रदीपते प्रज्वलते, किमिति निर्देशे, पुन: विशेषणे, कि विशेषयति ? सुतरां दीप्यत इत्यर्थः । यदीत्यम्पुपगमे, अजयाणं अग्गतो उववहति ताहे थिरतरं तेसिं मिच्छत्तं भवतीत्यर्थः । शेष पूर्ववत् ।।३३११॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारोत्थयस्स वा पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा _ आमज्जंतं वा पमज्जतं वा सातिज्जति ॥सू०॥११॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पाए संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संबाहेतं वा पलिमहेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१२॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पाए तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेतं वा भिलिंगेंतं वा सातिज्जति ॥०॥१३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पाए लोद्धेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उवट्टेज्ज वा उल्लोलतं वा उवद्रुतं वा सातिज्जति।।१ १तव । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र१५-३२ जेभिखू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पाए सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोल्लेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१॥ जे भिखू अण्णउत्थियस्स वा गारत्यियस्स वा पाए फुमेज वा रएज्ज वा फुतं वा रएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१६॥ जे भिखू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥सू०।।१७॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कार्य संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहेंतं वा पलिमदेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१८॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायं तेल्लेण वा घएण वा बसाए वा गवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१६॥ जे मिक्खू अण्णउत्थियस्स गारत्थियस्स वा कायं लोद्रेण वा कक्केण वा उल्लोलेज वा उवद्देज्ज वा उल्लोलेंतं वा, उव्वदे॒तं वा सातिज्जति । सू०॥२०॥ जे मिकखू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायं सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥२१॥ से भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायं फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुतं वा रएतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२२॥ * भिक्खू अपणउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायंसि वणं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥०॥२३।। ॐ मकवू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कार्यसि वणं संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, संबाहेंतं वा पलिमदेंतं वा सातिज्जति । सू०॥२४॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कार्यसि वणं तेल्लेण वा पएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३११] एकादश उद्देशकः १८१ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायंसि वणं लोद्रेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उबद्देज्ज वा, उल्लोलेतं वा उवटेंतं वा सातिज्जति ।।मू०॥२६॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायंसि वणं सीओदग वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥२७|| जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायंसि वणं फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुतं वा रएंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥२८॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियम्स वा गारत्यियम्स वा कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खणं सत्थजाएणं अच्छिदेज्ज वा विच्छिंदेज्ज वा। अच्छिंदेंतं वा विच्छिंदतं वा सातिज्जति ।।सू०॥२६॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्त वा गारत्थियस्स वा कायंसि गंडं वा पिलगं या अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता विच्छिंदित्ता पूर्व वा सोणियं वा नीहरेज वा विसोहेज्ज वा नीहरतं वा विसोहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३०॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता विच्छिदित्ता पूर्व वा सोणियं वा नीहरेत्ता विसोहेत्ता सीअोदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३१॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियम्स वा कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता विच्छिदित्ता पूयं वा सोणियं वा नीहरेत्ता विसोहेत्ता सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता अण्णयरेणं आलेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा, आलिपंतं वा विलिपंतं वा सातिज्जति ॥मू०॥३२॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सून ३३-५१ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता विच्छिदित्ता पूर्व वा सोणियं वा नीहरेत्ता विसोहेत्ता सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता अण्णयरेणं बालवणजाएणं आलिपित्ता विलिपित्ता तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अभंगतं वा मक्खेंतं वा सातिज्जति ॥०॥३३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायंसि गंडवा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता विच्छिदित्ता पूयं वा सोणियं वा नीहरेत्ता विसोहत्ता सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता अण्णयरेणं बालेवणजाएणं आलिंपित्ता विलिपित्ता तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेत्ता मक्खेत्त' अण्णयरेण धूवणजाएणं धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा धूतं वा पवेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३४।। जे भिक्खू अपगउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पालु-किमियं वा कुच्छि-किमियं वा अंगुलीए निवेसिय निवेसिय नीहरइ, नीहरंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३५॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा दीहाओ नह-सीहाश्रो कप्पेज्ज वा संठवेज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति।।सू०॥३६॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा दीहाई जंघ-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३७|| जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा दीहाइं कक्ख-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३८॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्म वा गारत्थियस्स वा दीहाई मंसु-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३६॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा दीहाई वत्थि-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ।।मु०॥४०॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३११ ] जे भिक्खू एकादश उद्देशकः उत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा दीहाई चक्खु - रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥४१॥ * १८३ 83 जे भिक्खुण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा दंते आसेज्ज वा पघंसेज्ज वा संतं वा पसंतं वा सातिज्जति ॥ सू०||४२|| जे भिक्खू उत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा दंते उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा सातिज्जति ||सू०||४३ ॥ जे भिक्खू उत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा दंते फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुमेतं वा रतं वा सातिज्जति | | ० ||४४ || * * 8 जे भिक्खू पणउत्थियरस वा गारत्थियस्स वा उट्ठे आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा मज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥ सू० ||४५|| जे भिक्खू उत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा उट्ठे संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संबात वा पलिमदेतं वा सातिज्जति | | ० ||४६|| जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा उड्डे तेल्लेण वा घएण वा वसा वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्तं वा भिलिंगेंतं वा सातिज्जति ||०||४७|| जे भिक्खू उत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा उट्ठे लोगोण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वट्टेज्ज वा, उल्लोलेंतं वा उव्वद्वेतं वा सातिज्जति ॥ सू०||४८|| जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा उट्ठे सीओदग वियडेण वा उसिणोदग - वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥ | सू० ॥४६ || जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा उट्ठे फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुतं वा रतं वा सातिज्जति ||०||५०|| 8 * 8 जे भिक्खू उत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा दीहाई उत्तरोट्ठाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेंतं वा सातिज्जति | ० ||५१ || Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसत्रे [ सूत्र ५२-६५ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा दीहाइं अच्छिपत्ताई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५२॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्म वा अच्छीणि आमज्जेज्ज वा पमज्जेज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥०॥५३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा अच्छीणि संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, संबाहेंतं वा पलिमदेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५४|| जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा अच्छीणि तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्खेंतं वा भिलिंगतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा अच्छीणि लोद्धण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वदृज्ज वा, उल्लोलेंतं वा उव्वदे॒तं वा सातिज्जति ॥सू०॥५६॥ जे भिक्ख अण्णउत्यियस्स वा गारत्थियस्स वा अच्छीणि सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५७।। जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा अच्छीणि-फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुतं वा रएंतं वा सातिज्जति ॥५०॥५८॥ जे भिक्खु अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा दीहाइं भुमग-रोमाइं कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५६।। जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा दीहाई पास-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६०॥ जे भिक्ख अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा नहमलं वा नीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, नीहरतं वा विसोहेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥६॥ जे भिक्ख अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वा नीहरेज्ज वा विसोहज्ज वा नीहरतं वा विसोहेंतं वा सातिज्जति ||मू०॥६२।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३१२-३३१५ ] एकादश उद्देशक: १८५ जे भिक्ख गामाणुगाम दूइज्जमाणे अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा सीस दुवारियं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६३।। पायप्पमज्जणादी, सीसदुवारादि जे करेजाहिं । गिहि-अण्णतित्थियाण व, जो पावति अाणमादीणि ||३३१२।। च उगुरु से पच्छित्तं, प्राणादिया य दोसा भवंति । मिन्छन थिरीकरणं । सेहादियाण य तत्थ गमणं । पवयगस्स य अोभावणा । जम्हा एते दोसा तम्हा एतेसि बेयावच्चं णो कायब्वं ।।३३१२।। कारणे पुण कायव्वं - बितियपदमणप्पज्झे, करेज्ज अविकोविते व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, परलिंगे सेहमादीसु ॥३३१३।। कारणे परलिंगपवण्णो करेज्जा, सेहो वा अणलो विगिचियवो तस्स करेंतो सुद्धो, तस्सग्गतो वा पनवणं करेंतो सुद्धो। ___ अहवा - सेहो प्रागतो परिस्संतो दवलिंगेण, तस्स विस्सामणादि कायव्वं । अप्पसागारिए जयण करेंतो सुद्धो॥३३१३॥ जे भिक्ख अप्पाणं बीभावेति, बीभावेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥६४॥ जे भिक्खू परं बीभावेति, वीभावेतं वा सातिज्जति !सू०॥६॥ उभयं वा। अनन्यभावे प्रात्मवात्मा, पृथग्भावे प्रात्मव्यतिरिक्तः परः, प्रात्मपरव्यपदेशेनोभयं भवति । ऐहिकपारत्रिकं भयोत्पादन बी भावनं, च उगुरु पच्छित्तं प्राणादिया य दोसा भवन्ति । दिव्य-मणुय-तेरिच्छं, भयं च आकम्हिकं तु णायव्वं । एक्केक्कं पि य दुविहं, संतमसंतं च णायव्वं ॥३३१४॥ भयं चउब्विहं उप्पज्जति -- पिसायादिएहितो दिव्वं तेणादिएहि तो माणुस्स, पाउ-ते उ-वाउ-वणस्सइयाइएहिं तो य तेरिच्छं, निर्हेतुक चउत्थं अकस्माभयं भवति । एक्केक्कं पुगो दुविहं - संतासंतभेएण । पिसाय तेण-सिंघाइएमु दिद्वेसु जं भयं उप्पज्जति तं संतं, अदितुमु असंतं । अकस्माद्भयं संतं, आत्मसमुत्थं मोहनीयभयप्रकृत्युदयादुद्भवति असंतं, अकस्माद् भयं भय कारणसकल्पिताभिप्रायोत्पन्नं ।।३३१४॥ चोदकाह - ननु इहलोकभयं परलोकभयं प्रादाणभयं प्राजीवणाभयं अकस्माद्भयं मरण भयं प्रसिलोगभयं एयं सत्तविहं भयमुत्तं, कहं चउन्विहं भणह ? आचार्याह - कामं सत्तविकप्पं, भयं समासेण तं पुणो चउहा । तत्थादाणं समणे, ण होज्ज अहवा वि देहुवही ॥३३१|| काभं शिष्याभिप्रायानुमतार्थे, तदेव सत्तविहं भयं संखिप्पमाणं चउब्विधं भवति । कहं पुण संखिप्पति ? उच्यते - इहलोग भयं मणुयभए समोतरति, परलोगभयं दिव्व-तिरियभएसु समोतरति । भादाणे प्राजीवण-मरण-प्रसिलोगभयं च-एते चउरो वि तिसु दिवादिएमु समोतरंति । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे कथम् ? उच्यते - जतो प्रादाषेण हत्थद्वितेण दिव्व मणुय तेरिच्छयाण बिभेति । श्राजीवणं वित्ती, सा च दिव्व मणुय-तेरिच्छान्यतमाधीना । मरणं प्राणपरित्यागः, अमावपि दिव्य- मनुष्य-तियं गन्यतमभावावस्थस्येति । णारका किल मरणभयमिच्छन्त्येव । अकस्मात् कारणात् त्रिविधमेव मरणभय । असिलोगो वि दिव्व मणुएस संभवति । सन्नी य पंचेंदियतिरिएसु प्रक्रस्माद्भयं साणे गमोतरति । एवं सत्तभया चउसु भएसु समोतारिता । एत्थ समणस्स श्रादाणभयं ण होज्ज । हवा - समणो वि देहोवही चेव, प्रादाणभयं भवति ।। ३३१५।। चोदगाह - कह देवही प्रादाणभयं ? उच्यते --- एगेसिं जं भणियं, महब्भगं एतदेव विहिसुत्ते । तेणादाणं देहो, मुच्छासहियं च उवकरणं ॥ ३३१५॥ बंभचेरा विधिमुत्तं, तत्थ भणियं -- एतदेवेगेसि महद्भयं भवति एतदेव सरीरं, एगेसि श्रविरयजीवाणं महंतं भयं तेण कारणेण देहो आदाणं भवति, उवगरणं च मुच्छासहियं आदाणं भवति, न सेसं ||३३१६ ॥ रक्खस- पिसाय - तेणाइएस उदयग्गि- जड्डमाईसु । तव्चिवरीयमकम्हा, जो तेण परं च अप्पाणं ||३३१७|| रक्खस- पिसायादियं दिव्वं, तेणादियं माणूस, उदय-ग्गि-जडुमादियं तेरिच्छ, कस्माद्भयं च । एते चउतिहेण जो अप्पाणं परं उभयं वा ॥ ३३१७॥ बीहावेती भिक्खू, संते लहुगा य गुरुमसंतम्मि . णादी मिच्छतं, विराहणा होति सा दुविहा ||३३१८|| संते लहुगा, असंतेसु चउगुरुगा इत्यर्थः । दुविहा प्राय -संजमविराणा ॥ ३४१८।। नोवेक्खतिप्पाणं, ण इव परं खेत्तमादिणो दोसा । भूहि व घेप्पेज्जा, मेसेज्ज परं च जं चऽण्णं ॥ ३३१६॥ [ सूत्र - ६५ अप्पाणं परं बीहावेतो श्रप्पाणं परं च णावेक्खति, बीहंतो सयं परो वा खित्तचित्तो भवेज, तत्थ मूलं, गिलाशारोवणा य । भीओ वा संतो तं चैव बीभावेतो हणेज्ज, भीतो वा भूतेश घेप्पेज्जा, गहग्गहितो वा परं भीसेज्ज, तत्थ पि बहु पंतावणादिया दोसा । "जं चऽण्णो" त्ति खेत्तादिग्रणपज्झो छक्कायवि राहणं करेज्ज, एत्थ से कार्याणिफण्णं ||३३१६ ।। जम्हा भए कज्जमागे एते दोसा तम्हा भयं ण कायव्वं । इमं कारणं जह मोहप्पगडीणं कोहातीणं विवजणा सेया । तह चउकारणमुदयं, भयं पि न हु सेवितं सेयं ॥३३२०॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३१६-३३२२ । एकादश उद्देशकः १८७ जह मोहणिज्जस्स कोहादियाण उत्तरपगडीणं वजगा सेया भवति तहा भयं च उविहं मोहस्स उत्तरपगडी विज्जेउं श्रे, भवतीत्यर्थः ।।३३२०।। भयउत्तरपगडीए, सेसा मोहस्स सूतिया पगडी । मोहपगडीए सेसा, तु सूतिता मूलपयडीतो ॥३३२१॥ ___ एवं भयं मोहणिजस्स उत्तरपयडी, एयाए गहियाए सेसाप्रो मोहणिज्जस्स उत्तरपगडीतो सूचितातो भवति । एवं सवा चेव मोहपगडिगहिया । मोहमूलपगडीए सेसा सत्त णाणावरणाझ्या मूलपगडीतो सूचिया भवति ।।३३२॥ ता जेहि पगारहिं, बज्झती णाणण्हवादीहि । णिक्कारणम्मि तेस् , बट्टते होति पच्छित्तं ॥३३२२।। ता इति अमूलपगडीयो, पंचाणउइ वा उत्तरपगडीतो, सम्यक्त्वमिथयोर्वन्धो नास्तीत्येवं पंचनवति । एयातो दोहि बंधहेउप्पगारेहि बझंति तेसु वटुंतस्न पच्छित्तं भवति । ते य इमे। । णाणं जस्स समोवे मिक्खियं तं निण्हवति । २ नाणिपुरिसस्स पडिगीयो। ३ अधिज्जतो वा अंतरायं करेति । ४ जीवस्स वा जाणोवघायं करेति । ५ गाणिपुरिसे वा पदोसं करेति । एवमादिहि पंचविहं गाणावरणं बज्झइ । एतेमु चेव सविसेमेस नवविध दमणावरणं बज्झति । भूनाणुकंपयाते वयागुपालगाते खंतिसंगणयाए दारूईए गुरुभत्तीने एतेहि सातावेदणिज्जं वति । विवीयहेऊहिं असतं । मोहणिज्ज दुविधं - दमणमोहं चरिनमोहं च । नन्य दसण मोहे अरहंतपडिणीययाए एवं सिद्ध चेतिय तवस्मि-मय-धम्म संघस्म य पडिणीयत्तं करेंतो दसामहं बंधति। तिब्बकसायताए बहुमोहयाते रागदोसमपन्नयाते चरित्तमोहं बंधति । ग्राउयं च उव्विहं - तत्थ गिरयाउयस्म दमो ऊ --मिच्छतेण महारंभयाते महापरिगहाते कृणिमाहारेणं णिस्सीलयाते मज्भाणेण य णिरयाणिवंधति । निरियाउयम्म इमो हेतू - उम्मग्ग देमणाते संतमग्गविप्पणासणं माइल्लयाते सदसीलनाते ससल्लमरणे गं : एवमादिएहि तिरिया उप निबंधति । इमे मण्याच्यहे उणो - विग्यविणो जो जीवो ताक सातो, दापरतो. पगतिभद्दयाए मगुयाउयं बंधति । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-६५ देवाउयहेतू इमे - देसविरतो सबविरतो बाल-तवेण अकामणिज्जराए सम्मद्दिट्टियाए य देवाउयं बंधति । णामं दुविहं - सुभासुभं । तत्थ सामण्णतो प्रसुभे य इमे हेतू - मण - वय - कायजोगेहि वंको मायावी तिहिं गारवेहि पडिबद्ध । एतेहिं असुभं णामं बज्झति । एतेहिं चेव विवरीएहि सुभं णामं बज्झड । सुभगोत्तस्स इमे हेतू - अरहतेस य साहूसु य भत्तो, अरहंतपणीएण सुपण जीवादिपदत्थे य रोयतो, अप्पमाययाए संजमादिगुणप्पेही य उच्चागोयं बधति । विवरीएहि णोयागोयं । सामण्णतो पंचविहंतराए इमो हेतू - पाणवहे मुसावाते अदिनादाणे मेहुणे परिग्गहे य एतेसु रइबंधगरे, जिणपूयाए विग्धकरो, मोक्ख मग्गं पवजंतस्स जो विग्धं करेति । एतेसु अंतराइयं बंधति । विसेसहेउ उवउज्ज वत्तव्वा । एतेसु हेऊसु णिक्कारणे वट्टतस्स पच्छित्तं भवति ।।३३२२॥ चोदगाह - जाव बायरसंपरातो ताव सवजीवा पाउयवज्जातो सत्त कम्मपयडीतो णिच्चकालं सपभेदा बंधति, कहं अप्पायच्छित्ती भवति ! सपायच्छित्तस्स य सोही णत्थि, सोही अभावे य मोक्खाभावो । आचार्याह - काम आउयवज्जा, णिच्चं वज्झति सव्वपगडीतो । जो बादरो सरागो, तिव्वासु तासु पच्छित्तं ॥३३२३॥ तीव्रषु हेतुषु वर्तमानस्य प्रायश्चितं भवति, न मंदेषु । शेषं कंठं ॥३३२३।। उत्तरप्रकृतीरधिकृत्योच्यते - अहिकिच्च उ असुभातो, उत्तरपगडीतो होति पाच्छत्त । अनियाणेण सुभासु, न होति सहाणपच्छित्तं ॥३३२४॥ अट्ठप्हं पगडीणं जा असुभातो ताणं हेतुसु वटुंतस्स पच्छितं, जहा णाणपदोसादिए सु । जा पुण मुभातो तासु ण भवति पच्छितं, जहा अण्णाणे पदोसं करेति तित्यगरादिपडिणीएमु वा । अनिदाणेण वा सुभं बंधंतम्स पायच्छित्तं ण भवति, जहा तित्यगरनामगोतहेतुसु 'ग्ररहंतसिद्ध" कारग-गाहा - जम्मि भेदे जं पच्छितं भणियं तं तस्स सटाणपच्छित्तं ।। ३३२४।। तं च इमं भण्णति - देसपदोसादीस, साते लोभे अ असरिसे फासे । लहुओ लहुआ पुण हास अरतिनिदाचउक्कम्मि ॥३३२॥ १ आवश्यक-निर्युक्तो। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३२३-३३३०1 एकादश उद्देशकः १८६ णाणस्स जति देसे पदोसं करेंति, आदिग्गहणातो गाणस्स चेव जदि देसे पडिणीयत्तं अंतरायं मच्छरं णिण्हवणं करेति, सायावेयणिज्जस्स निदाणादिएहिं अपसत्थज्झवसातो जदि हेतुए वट्टति, लोनकसायस्स य जइ बंधहेऊए वट्टति तो मासलहुं । असरिसफासे पुरिसस्स इत्थि-णपुंसकफासा असरिसा, इत्थीए पुरिस-गपुंसगफासा असरिसा, सगस्स थी-पुरिसफासा असरिसा, एत्थ असरिसा फासा बंधस्स जति हेऊए वदृति एतेसु सव्वेसु चउलहुगा पच्छित्तं । हासं अरती निद्दा निद्दानिद्दा पयला पयलापयला एयाणं छण्हं पगडीणं जति हेऊसु वट्टति तो मासलहुं पच्छितं ॥३३-५॥ सव्वे णाणपदोसादिएसु थीणे य होति चरिमं तु । निरयाउ कुणिमवज्जे, मिच्छे वेदे य मूलं तु ॥३३२६॥ णाणस्स जति सवस्स पदोसं करेति पडिणीयादिहेतुसु वा वट्टति, थीणगिद्धिगिहाए य जति हेऊए वट्टति तो पारंचियं पच्छित्तं । णिरयाउयस्स कुणिमहेउं एक्कं वज्जेउं सेसेसु महारंभादिएमु जति वट्टति, मिच्छत्तस्स, तिविहवेदहेऊए य वहृतस्स मूलं पच्छित्तं । कुणिमाहारे रागे गुरुगा, दोसे लहुगा ॥३३२६।। तिरियाउ असुभनामस्स चेव हेतूसु मासियं गुरुयं । सेसासु अप्पसत्थासु, होति सव्वासु चउल हुगा ॥३३२७।। तिरियाउ यस्स हेऊहिं सव्वेहि, णामस्म जा अमुभा पगडीतो ताण य हेऊए वति तो सगुरु पच्छित्तं । सेसासु त्ति चउरो दंसणभेया, लोभवज्जा पन्नरस कसाया, हासादिछवके य हास परति वज्जा चउरो भेदा, नीयागोयं, पंचविहं च अंतगयं । एयाण अप्पसत्थाण बंधहे उसु वटुंतस्स च उलहुगा पच्छित्तं ।।३३२७।। चोदकाह - सक्का अपसत्थाणं, तु हेतवो परिहारित्तु पयडीणं । . सादादिपसत्थाणं, कहं णु हेतू परिहरेज्जा ॥३३२८।। प्रप्रशस्तप्रकृतिहेतवो जितुं शक्यन्ते, अशुभाध्यवशायवर्जनात् । कथं नित्यकाल भाष्यत्रगिल साधुः शुभप्रकृतिहेतुन वर्जयति, तेषां शुभाध्यवसायबन्धात् ।। ३३२८।। चोदक एवाह . जति वा बज्झति सातं, अणुकंपादीमु तो कहं साहू । परमणुकंपाजुत्तो, बञ्चति मोक्खं सुहणुबंधी ।।३३२६।। जति सात बज्झति भूया णुकंपाते, प्रादिपद्दातो वयसंपन्नताते संजमजोगुज्जमेण खतिसपनाताते दाणाईए गृभत्तिर।गेण य तो माह एतेहि अणुकंपाइप हि जुनो पुनबंधी कहं गोक्खं गच्छति ? जतो पुत्र मोक्ख. गमगविग्घाय हवति ||: 2009 कि चान्यत् - मुहमवि आवेदंतो, अवस्सममुभं पुणो ममादियति । एवं तु णन्थि मोक्खो, कहं च जयणा भवति एन्थं ॥३३३०।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ६५-६७ सुहं प्रावेदंतो अवस्सं पावं वंधति, पुनपावोदया य अवस्सं संसारो भवति, अतो एवं साहुस्स मोक्खो णत्थि । कहं वा एत्थ साहुणा जतियव्व - घटितव्यमित्यर्थः ॥३३३०॥ अहवा ण चेव बज्झति, पुण्णं नावि असुभोदयं पावं । सव्व अणिट्ठियकम्मो, उववज्जति केण देवेसु ॥३३३१॥ अहवा - अणुकंपादिएहि पुण्णं ण बज्झति, ण वा पापं, सब्वहा अपरिक्खीणकम्मे य पुण्णाभावे देवेसु केण हेतुणा उववज्जति ? ॥३३३१॥ एवं चोदकेणोक्ते प्राचार्याह - पुवतव-संजमा होति, रागिणो पच्छिमा अरागस्स । रागो संगो वुत्तो, संगा कम्मं भवे तेणं ॥३३३२॥ भण्णति जहा तु कोती, महल्लपल्ले तु सोधयति पत्थं । पक्खिवति कुभं तस्स उ, णत्थि खतो होति एवं तु ॥३३३४॥ अन्नो पुण पल्लातो, कुंभ सोहयति पक्खिवेति पत्थं । तस्स खो भवतेवं, इय जे तु संजया जीवा ॥३३३४॥ तेसि अप्पा णिज्जर, बहु बज्झइ पाव तेण णत्थि खो। अप्पो बंधो जयाणं, बहुणिज्जर तेण मोक्खो तु ॥३३३५॥ पूर्वा इति प्रथमा । के ते ? तपः संयमश्च । यत्र तपः तत्र नियमात्संयमः, यत्र संयमः तत्रापि नियमात् तपः । उभयोरव्यभिचारप्रदर्शनार्थ तपः संयमग्रहणं । यथा यत्रात्मा तत्रोपयोगः, यत्रोपयोगस्तत्रात्मा इति । सामाइयं छेदोवट्ठावणियं परिहारविसुद्धियं सुहुमसंपरागं च एते पुवतवसंजमा । एते गियमा रागिणो भवंति । पश्चिमा तव-संजमा प्ररागिणो भवंति । तं च प्रहाख्यातचारित्रं इत्यर्थः । अहवा - अणसणादीया जाव सुक्कज्झाणस्स आदिमा दो भेया, पृहुत्तवितक्कसंवियारं एगतवियक्क प्रवियारं च, एते पुन्वतवा । सामाइय-छेद-परिहारसुहुमं च एते पुवतवसंजमा णयमा रागिणो भवात । मुहमकिरियानियट्टी वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइं च एते पच्छिमा तवा, अहक्खायचारितं पच्छिमसंजमो, एते पच्छिमतवसंजमा नियमा अरागिणो भवंति । एतेहिं पुब्बतवसंजमेहिं देवेहि उववज्जति सरागित्वात् । रागो त्ति वा संगो ति वा एकार्थ । यतो भणितं - "रागो संगो वुत्तो"। अहवा - कम्मजणितो जीवभावो रागो, कम्मुणा सह संजोययंतो स एव संगो वुत्तो। संगातो पगतिभदेण णिवत्तमाणं कम्मं भवति. तेग कम्मुणा उदिज्जमाणेण भवो भवति -- संसार इत्यर्थः । ते य सरागसंजता पल्लघण्णपक्खेवदिटुंतेणं बहुसोधगा अप्पबंधी कमेण पच्छिमे तवसंजमे पप्प मोक्खं गच्छति । एवं सुभपगडिबंधेसु साहवो जतंति । जम्हा पगडिहेतवेसु पवतंतस्स एते दोसा तम्हा ण बीभे, ण वा परं बीहा विज्जा ॥३३३॥ १ गा० ३३३२। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ भाष्यगाथा ३३३१-३३४०] एकादश उद्देशकः बितियपदमणप्पज्झे, बीभे अप्पज्झ हीणसत्ते वा। खेत्तं दित्तं च परं, पेवाति-पडिणीय-तेणं वा ॥३३३६।। अणप्पज्झो खित्त दित्तो सयं वा बीभेति, परं वा बीभावेइ, हीणसत्तो वा अप्पज्झो बीभेज्ज, खित्तादियं वा परप्पवादि वा पडिणीयं वा अणुवसमंतं सरीरोवगरणतेणं दुविहं बीभावेतो निद्दोस इत्यर्थः जे भिक्खू अप्पाणं विम्हावेति, विम्हावेतं वा सातिज्जति ॥०॥६६॥ जे भिक्खू परं विम्हावेति, विम्हावेतं वा सातिज्जति ॥१०॥६७|| विस्मयकरणं विम्हावणा, आश्चर्य - कुहकपराक्षेपकरणमित्यर्थः । विम्हावणा तु दुविधा, अभूयपुव्वा य भूयपुव्वा य । विज्जा तव इंदजालिय-णिमित्तवयणादिसुं चेव ॥३३३६॥ विज्जाए मतेण वा तवोलद्धीए वा इंदजालेण वा तीताणागतपडुप्पण्णण वा णिमित्तवयमण प्रादिसद्दातो अंतद्धाण-पादलेवजोगेण वा ।। अहवा - वयणं मरहट्ठय-दमिल-कुड्डक्क-गोल्लय-कीरडुग-संधवातीयाण य कुट्टिकरणं ॥३३३७।। इमं अभूतभूतपुव्वाण वक्खाणं -- जो जेण अकयपुयो, अस्सुयपुब्बो अदिट्ठपुब्यो वा । सो होतऽभूयपुव्वो, तबिवरीयो भवे भूतो ॥३३३८॥ जण पुरिमेण जो विज्ज-मंतजोग-इंदजालादिग्रो पयोगो अप्पणा अकयपुवो अन्नेण वा कज्जमाणो न दिट्ठो प्रसुतो वा सो तस्स अभूयपुब्यो भन्नति । तविवरीयो पुण जो सयं कतो दिवो सुतो वा सो भूतपुब्वो भण्णति । एत्य सन्भूते चउलहुँ, असब्भूए चउगुरु, नमित्ते प्रतीते चउलहुँ, पडुप्पण्णणागतेणु चउगुरु ॥३३३८॥ एत्थ निमित्तवयणं असम्भूते इमं उदाहरणं - दिव्वं अच्छेरं विम्हओ य अतिसाहसं अतिसो य । कत्तो से जाउं जे, किं णाहिति किं सुहं णातुं ॥३३३६॥ दो जणामिलिउ कित्तियादियाण सत्तण्हं णखताणं इमं णामसंगारं करेंति-दिव्वं, अच्छेर, विम्हतो, प्रतिसाहस, अतिसतो, “कत्तो से णातुं जे, किं पाहित्ति, किं मुह गाउँ" एवं । एवं मधादि अणुराहादि घणिट्ठादि । एवं संगारं करित्ता बहुजणमझे एवं भासति- जो जं अहमीसाए नक्खत्ताणं अन्नतरं छिवति तमहं जाणामि, तं परोक्खं कातुं छिक्क, इतरो संगारसाहू भणाति - जदि बदारियं तो पुवामहो ठिच्चा, अहो दिव्वं नाणं ताहे जाणति कित्तियः । एवं अनम्मि वि संगारणामे उक्कित्तित्ते जाणति । एवं सवणक्खत्ते जाणति ॥३३३६।। एत्तो एगतरेणं, विम्हतकरणेण संतसंतेणं । अप्पपरं विम्हावे. सो पावति आणमादीणि ॥३३४०॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे विज्जामंतादियाण एगतरेण विम्हावेंतस्स प्राणादिया ||३३४०|| इमे य दोसा - उम्मायं पावेज्जा, तदट्ठजायण प्रदाण पडिणीए । खेतं व परं कुञ्जा, तवणिव्वहणं च माया य ॥३३४१॥ एरिसं मया कतं त्ति सयमेव दितचित्तो भवेज्जा तं वा विम्हावणकरणट्टा जएज्जा । दिने अहिगरणं । प्रदिज्जते पडिणीतो परो वा विम्हावितो खित्तचित्तो भवति । विज्जाजीवणप्पयोगेण य तवो णिव्वहती - विकलीभवतीत्यर्थः । श्रसन्भूते या मायाकरणं मुसावादी य जम्हा एते दोसा तम्हाणो विम्हावज्जा ||३३४१ ॥ इमेहिं कारणेहिं विम्हा वेज्जा - सोमोरिए, यदु भए व गेलण्णे । श्रद्धाण रोहए वा, जयणाए विम्हयावज्जा ||३३४२॥ अविश्रवणयणेण विम्हा वेज्जा । ग्रहवा - प्रसिवे श्रमे य अफव्वतो विहावेजा, रायदुट्टे भये य आउंटगणिमित्तं विम्हावेजा । गेलणे वि विज्ज ग्राउंटगट्ठा श्रोसहट्टा वा । रोधगाणे वि श्रप्पन्वणादिगाणि बहूणि कारणाणि प्रक्खि ऊ विम्हा वेज्जा । तं च जयणाते । सा इमा पुवं संते, पच्छा असते पणगादिजयगाए वा जाहे चउलहु पत्तो ताहे विम्हा वेज्जा ॥३३४२॥ जे भिक्खू पाणं विप्परिया सेइ, विप्परियासत वा सातिज्जति | | ० ||६८ | जे भिक्खू परं विष्परिया सेइ, विष्परियासंतं वा सातिज्जति | | ० || ६६॥ विपर्ययकरणं विप्रयासणा, तं कुव्वतो चउगुरुगा । साय विपरियासणा चउब्विहा दव्वादिया इमा - [ सूत्र ६८-६६ दव्वे खेत्ते काले, भावे य चउव्विहो. विवच्चासो । एएसिं णाणत्तं वोच्छामि हाणुव्वी ||३३४३ || दव्यम्म दाडिमंबाडिए खेत्ते दुणाममादी | , काले लण्णोवही, भावम्मिय णिव्यादी ||३३४४|| जाणवस्स पुच्च्छतस्स दालिमं अंबाडिय, अंबाडियं दालिमं कर्हति । । खेने विवज्जासं - दुगामे कए जहा श्राणंदपुरं ग्रक्कत्थली, ग्रक्कत्थली प्रानंदपुरं । कालवित्र ज्जासो गाढे गेलले अगाडगेलहणं । श्रगाडगेलणे अगागाडगेलक उवा काले हति काले ण गेहति । भावम्मि य अपागं अनिवृत्तं शिव्यं दमेति निव्वयं परं अनित्यं पगासेति । आदिसद्दातो खमादिया भावा वतव्वा ||३३४४ ॥ १ गाठतालक | 1 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३४१-३३४९ ] एकादश उद्देशक: जो जेण पगारेणं, भावो जियो तमण्णहा जो तु । मण्णति करेति वदति व, विप्परियासो भवे एसो ||३३४५|| भाव इति द्रव्यादिको भावः, नियत्तो त्तिठितो, तं प्रष्णहा जो साहू मणसा भण्णति किरियाए वा करति मन्नस्स वा भग्गतो पण्णवेंतो वदति । एसो विपर्यासः ॥३३४५॥ तत्थ दव्व-भावविप्परियासो इमो - प्रागतो सि ? चेयणमचेयणं वा, वएज्ज कुज्जा व चेयणमचित्तं । derगहणादिसु वि, थी - पुरिसं अण्णा दव्वे ||३३४६॥ सचित्त पुढवाइयं दव्वं प्रचित्तं वदति, प्रचित्तं वा भस्मादियं सचित्तं वदति, करेति वा इंदजालादिणा, इत्थिं वा पुरिसनेवत्थं करेति वदति, पुरिसं च इत्थिनेवत्थं करेति वदति वा भन्याकारमित्यर्थः ||३३४६ || खेत्तभावे ""दुणाममादिसु” त्ति अस्य व्याख्या - साएता णाज्मा, अहवा प्रोज्झातोऽहं ण साएता । वत्थव्वमवत्थव्वो, ण मालवो मागधो वाऽहं | | ३३४७|| कोति साहू प्रोज्झनगरातो पाहुणगो गतो, सो वत्थव्वगसाधूणा पुच्छितो - अश्रोज्झातो ताहे सो भति णो प्रतोज्झाम्रो, साएयातो प्रागतोमि । सो वत्थव्वगसाहू तं बितियणामं ण गणति । एवं साएते पुच्छित्ते उज्झा भासति । - ग्रहवा - "वत्थव्वगो सि" त्ति पुच्छिते श्रवत्थव्वं प्राप्पाणं कहेइ । अवत्थव्वग्रो वा अप्पाणं वत्थव्वं कहे | मालवfवसप्पन्नो वा पुच्छितो मगहविसयुप्पणोऽहं कहेति । एवं मागधः पृष्टः मालवमन्यं वा विषयं कथयति ||३३४७॥ काल भावविवच्चासो इमो - वरिसा णिसासु रीयति, इतरेसु ण रीयते वदति मण्णे । वयपरिमाणं व वए, परियायं वा विवच्चासं ॥३३४८|| aftarकाले यति णो उडुबद्धे । १९३ ग्रहवा - णिसासु रोयति तो दिवसतो पन्नवेति, वासासु रातो वा विहरियव्वं, इयरेसु य उडुबद्धे दिवसे यणो विहरियव्वं । मनुते मन्यते वा वासामु रातो य विहरणं श्रेयमिति । वयपरिणामं वा विवरीय करेति वदति वा, जहा - नडो थंरो तरुणवेसं करेति तरुणो वा थेरं करेति । जम्मं पव्वज्जपरियागं वा विवरीयं वदति जहा वीसतिवास परियागो पंचवीस तिवास परियागं अप्पाणं कहेति । पंचवीस तिवास-परियागो वीसतिवास परियागं कहेति ।। ३३४८ || भावविवञ्चासो इमो - तवसिणं तवस्सिं, देहगिलाणो मि सो वि हु ण तिष्णो । सारिखे सोविअहं, न वित्ति सर- वण्णभेदं वा ||३३४६|| १ गा० ३३४४ । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-७० कोति साहू सभावकिसो सरीरेण, पुच्छितो-सो तुमं तवस्सी? सो अप्पाणं पतविस्सं तवस्सिं कहेति। अहवा - सभावकिसो अगिलाणो वि सड्ढे जायति विगतिमादियं, "देहि मे गिलाणो" त्ति । स हिं वा पुच्छितो – “सो तुमं गिलाणो' ? प्रामं ति वदति । अहवा - सड्ढहिं पुच्छित्तो - 'कयरो सो गिलाणो ? देमि से पातोग।" ताहे अप्पाणं वदति, मन्नं वा किसं साधु दरोति अगिलाणं । लुद्धो वा हटे वि गिलाणे गंतुं स जायति – 'सो गिलाणो अज्ज वि ण तरति, देह से दधिखीरादियं पापोग्गं" । कोइ चिरप्पवामी सयणो तस्स सरिसयं साधु दह्र भणेज्ज - एस साहू तस्स सारिक्खो"। ताहे सो साहू भणेज्ज - "सो मि अहं ।" सम्भूतं वा पच्चभिण्णातो अवलावं करेति - "ण वि" ति । सर-वन्नभेदकरणीहिं गुलियाहि वा अप्पाणं अन्नहा करेज्ज ॥३३४६।। एतेसिं कारणाणं, एयतराएण जो विवच्चासे । अप्पाणं च परं वा, सो पावति प्राणमादीणि ॥३३५०॥ दव्वादिविवच्चासं, अहवा वी भिक्खुणो वदेंतस्स । अहिगरणाइ परेहि, मायामोसं अदत्तं च ॥३३५१॥ प्राणादिया य दोसा, संजमवि राहणा य मायाकरणं च, बादरमुसावायभासणं च, "कीस वा अवलवसि ?" ति असंखडं भवे ॥३३५१॥ बितियपदं गेलण्णे, खेत्तसतीए व अपरिणामेसु । अण्णस्सट्टा दुलभे, पत्तेयं चउसु वि पदेसु ॥३३५२।! "गेलन्न" ति दवाववादो। "खेत्तसतीए' त्ति खेत्ताववादो। "अपरिणामेसु'' त्ति कालाववादो "अण्णस्सट्टे दुल्लभे" ति भावाववादो। चउसु वि दवादिएसु पदेसु पत्तेयं एते प्रववादपदा इमेण विधिणा - तत्थ गेलन्ने प्रचित्तस्स अलभ फलाइयं मिस्सं सचित्तं वा प्राणियं, तं च गिलाणो णेच्छति, ताहे सो भण्णति - "एयं प्रचित्तं ।" अहवा प्रचित्तं चेव प्रोसढं पलंबा दियं प्राणियं च गिलाणस्स अप्पत्थं तम्हा ते भन्नति - “एयं मिस्सं सचित्तं संसत्तं वा।" जदि गिलाणो भणेज्जा - "कोस भेऽदो एयं गहियं ?" भन्नति – “मणाभोगा, इयाणि एयं परिटठवेयव्वं ।" "खेत्तासतीए ति" - अतोन्झाए मासकप्पो कतो वासावासो वा, पुग्ने मासकप्पे वासाकाले वा प्रन्नखेत्तासतीर तत्थेव ठिता, ताहे ततो खेत्तातो अन्नो कोति गीतत्थो अन्न खेत्तं प्रपरिणामगाण सकासं पाहुणगो गतो. तेहिं य अपरिणामगेहिं पुच्छित्तो कतो प्रागतो सि ? ताहे सो गीयत्थो वितेति - "मा एते अपरिणामगा नाणिसंति, एते णितियवासं वसति" ति । ताहे सो गीयत्थो भणति - पागतोऽहं साएयातो। ___ इदाणिं कालतो - "अपरिणामगेस" ति कारणे अशुदियत्यमिते घेत्तव्यो, चंदं पाएच्चं भणेज्जा, अणुदियं वा उदियं भगेज्जा, उदिते कारणे वा उदितं अणुदितं भणेज्ज, प्रत्यंगतं वा भणेज्ज घरति ति । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३५०-३३५६ ] एकादश उद्देशक: भावतो "अन्नस्सट्टा दुल्लमें" त्ति दुल्लभे गिलाणादिपातोग्गे अप्पणो अन्नस्स वा अट्ठा परववएसं करेति । अतवस्सी वि सो तवस्सि त्ति अप्पाणं भणेज्जा, तस्स वा तवस्सिस्स अट्टाते णेमि, अगिलाणं वा गिलाणं अप्पाणं भणेज्ज, जेणं वा परववदेसेण लभति तं वदे, वेसग्गहणं वा करे। जे भिक्खु मुहवणं करेइ, करतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७॥ "मुह" ति पवेसो, तस्स चउविहो गामाती णिक्खेवो । णाम-ठवणातो गतातो । दव्वमुहं गिहादिवत्थुपवेसो। तिन्निसया-तिसट्ठा पावा दुरासया भावमुहं । तस्स भावमुहस्स वन्नं प्रणतीति वन्न पादत्ते - गृहातीत्यर्थः । कथं पुण सो मुहवन्न करेति - कुतित्थ-कुसत्थेसू , कुधम्म-कुव्वय-कुदाणमादीसु । जे मुहवण्णं कुज्जा, उम्मग्गे आणमादीणि ॥३३५३॥ बितियगाहाए जहासंखं उदाहरणं - गंगाती सक्कमया, गणधम्मादी य गोव्वयादीया । भोमादी दाणा खलु, तिणि तिसट्टा उ उम्मग्गा ॥३३५४॥ गंगा प्रादिग्गहणातो पहास-प्रयाग-प्रवक्खंड-'सिरिमाय (ल) केयारादिया एते सव्वे कुतित्था । शाक्यमतं कपिलमतं ईसरमतादिया सव्वे कुसत्था । मल्लगणधम्मो सारस्सयगणधम्मो कूपसभादिया सव्वे कुधम्मा । गोव्वयादिया दिसापोक्खया पंचम्गितावया पंचगव्वामणिया एवमादिया सवे कुब्वया। भूमिदाणं गोदाणं पास-हत्थि-सुवण्णादिया य सव्वे कुदाणा । कुत्सितार्थाभिधारणे खलु शब्दः । तिन्निसया तिसट्टा पावा दुरासया जत्तीण वज्जा सेसा सव्वे उम्मग्गा । जो जत्थ भत्तो तदणुकूल भासंतस्स प्राणादिया दोसा, चउगुरुगं पच्छित्तं, मिच्छते य २पवत्तीकरणं, पवयणे य प्रोभावणया - "एते अदिनादाणा साणा इव, एते चाडुकारिणो ।” एतद्दोसपरिहरणत्थं । तम्हा णो कुतित्थियाण मुहवष्णं करेज्ज ॥३३५४॥ असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । एएहिं कारणेहि, जयणाए कप्पती काउं ॥३३५५॥ सपक्खपंतासिवे परलिंगपडिवश्नो पसंसति । अहवा - असिवोमेसु असंथरंतो तब्भावियखेत्तेसु थलीसु वा पसंसेज्ज । परलिंगी वा जो सपदुद्धं पसमेज्जा तदाणुवत्तीए पसंसेज्जा । रायभया बोहिगभएण वा सरणावगतो पसंसेज्ज । मन्नतो गिलाणपाउग्गे मलम्भंतेसु चेव लब्भति पसंसेज्जा ॥३३५५।। पण्णवणे च उवेहं, पुट्ठो बंभाति वा धरेंतेते । आगाढे व अपुट्ठो, भज्ज लट्ठो तहा धम्मो॥३३५६।। १ सिरमान । २ थिरी। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - ७१ कारणे चरगादिभावितेसु खंत्तंसु ठियस्स जति ते चरगादिया बहुजणमज्झे ससिद्धतं पनवेति तत्थ उवेहं कुज्जा, मा पडिवहकरणे खेतातो णीणिजेज्ज । उवासगादिपुट्ठो - "प्रत्थि णं एतेसि भिक्खुषाणं वए वा जियमे वा ? " ताहे तेसि दाणसड्ढाणं श्रणुयत्तीए भणिज्ज - " एते वि बंभव्वयं धरेति श्रादिसद्दातो जीवेसु दयालुया ।" अन्नतरे वा आगाढे गिलाणादिकारणे भणेज्ज ।। ३३५६ ॥ १६३ इमा पसंसणे जयणा जे जे सरिसा धम्मा, सव्वा हिंसादितेहिं उ पसे । एएसि पि हु आता, अत्थि हु णिच्चो कुणति वत्ति ।। ३३५७ || सरिसधम्मेहिं पसंसति तुम्ह वि सच्चवयं ग्रह वि । 2 तुम्ह वि श्रहिंसा, अम्ह वि । तुम्ह वि दिन्नादाणं वज्जं श्रम्ह वि । तुम्ह वि अथिया श्रम्ह वि । दव्वत्तेण वा जहा तुम्हं निच्चो, तहा ग्रम्हं पि निच्चो । जहा श्रम्ह वि आता सुहासुहं कम्मं करेइ, तहा तुम्ह वि ।। ३३५७। अंबखीराणं । ww एवं ता सव्वादिसु, भणेज्ज वइतूलिकेसिमं ब्रूया । म्हणि संति भावा, इतरेतरभावतो सच्चे ||३३५८|| सत् शोभनो वादी सद्वादी, श्रात्मास्तित्ववादीत्यर्थः । जे पुण वे ुलिया तीसु इमं बूता - विगयतुल्लभावे वेतुलिया - नास्तित्ववादिन इत्यर्थः । सव्वभावा इतरेतर भावतो णत्थि त्ति, नित्यत्वं अनित्यत्वे नास्ति, अनित्यत्वं नित्यत्वे नास्ति । एवं आत्मा अनात्मा, कर्तृत्वमकर्तृत्वं सर्वगत्व सर्वगत्वं, मूर्तत्वं अमूर्तत्वं घटत्वं पटत्वं परमाणुत्वं द्विप्रदेशिकत्वं कृष्णत्वं नीलत्वं गोत्वं श्रश्वत्वं एवमादि ॥३३५८।। जे भिक्खू बेरज्ज-विरुद्धरज्जंसि सज्जं गमणं, सज्जं आगमणं, सज्जं गमणा'गमणं करेड करेंतं वा सातिज्जति ॥ | सू० ॥ ७१ ॥ जेसि राई परोप्परं वेरज्ज, जेसिं राईणं परोप्परं गमणागमणं विरुद्धं तं वेरज्जं विरुद्धरज्जं । सज्जग्गणा वट्टमाणकालग्गणं । ग्रहवा - अभिक्खग्गहणं करेति । पन्नवर्ग पडुच्च गमणं, श्रागमणं, गतु पडियागयस्स गमणागमणं । एवं जो करेइ तस्स प्राणादिया दोसा, चउगुरु च से पच्छित्तं । एसो सुत्तत्थो । एसा सुत्तफासिय णिज्जत्ती । वेरसस इमो छविहो णिक्खेवो 1 नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य भाववेरे य । तं महिस वसभ बग्घा, सीहा णरएसु सिज्झणया ||३३५६ || णाम-ठवणातो तातो । दव्वहेतुं जं वेरं तं दव्ववेरं । विरोधिदव्वाण वा जोगो दव्ववेरं, जहा . Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३५७-३३६२] एकादश उद्देशक: १९७ जम्मि खेत्ते वेरं वट्टति, खेत्तणिमित्तं वा, जम्मि वा खेत्ते वन्निज्जति तं खेतवेरं । जम्मि वा काले वेरं वग्निज्जति तं कालवेरं । भावेवेरे इमं उदाहरणं - एगत्थ गामे गावीतो चोरेहि गहियातो। कुद्ध ण महत्तरो णिग्गतो । अमिया गावीतो, सुन्झ संपलग्गं । चोराहिवो सेणावती महत्तरेण सह संपलग्गो । ते रुद्दज्झाणोवगता एक्कमेक्कं पहेतु मया, पढमपुढवीए णारगा उववन्ना । ततो उव्वट्टा ते दो वि अन्नोनमहिसजूहेसु महिसवसभा उववन्ना, जूहाविया इत्यर्थः । तत्थ वि अन्नमनपासित्ता प्रासुरुत्ता जुद्ध संपलग्गा, अन्नोन्नं वहित्ता मता, दोच्चपुढवीए गारगा उववन्ना। ___ ततो उव्वट्टिता दो वि वग्घा जाता। तत्थ वि अन्नोन्न वहेत्ता मया, तच्चपुढविं गता। ततो उव्वट्टिता दो वि सीहा उववन्ना । तत्य वि एक्कमेक्कं वहेत्ता मया, चउत्थपुढवीते णारगा उववन्ना। ततो उव्वट्टिता दो वि मणुएसु उववन्ना, तत्थ जिणसासणं पवन्ना, सिद्धा य ।।३३५६।। इमो वेरजसहस्स निग्गमो - वेरं जत्थ उ रज्जे, वरं जातं व रज्जति व वेरं । जं च विरज्जति रज्ज, रज्जेणं विगयरायं वा !!३३६०॥ जत्थ रज्जे पुव्वपुरिसपरंपरागत वेरमस्थि भण्णति वेरज्ज । अहवा - ण पुव्वपुरिसपरंपरागतं, जस्स संपदं राइगो वेरं जातं तं वेरज्ज । अहवा - स्वरसत्ताए अन्नराईण गाम-नगरदाहादिए करेति सो एवं करेंतो वेरुप्पायणे रजेति एवं वा वेरजं । अहवा - जस्स राइणो रज्जे सव्वेसरा विरजति - भृत्या इत्यर्थः, तं रज्जं रज्जेणं विरतं भणति, एतं वे रज्ज। . अहवा -- विगतो राया मतो पवसितो वा एयं वेरज्जं ॥३३६०।। जं सुत्ते सज्जग्गहणं कहियं तस्सिमं वक्खाणं - सज्जग्गहणातीतं, अणागतं चेव वारितं वरं । पण्णवणपडुच्चगयं, होज्जा गमणं च उभयं वा ।।३३६१।। जहा वट्टमाणवेरं परिहरिज्जति, एवं जत्थ अतीत वेरं, भविम्सति वा जत्थ खेते वेरं, एतेसु वि जमणादिया ण कायव्वा । सेसं कंठं ॥३३६१।। वेरजग्गहणातो अन्ने वि अत्था सूइया, ते य इमे - अणराया जुगराया, तत्तो वेरज्जए य दोरज्जे । एत्तो एक्कक्कम्मि य, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥३३६२॥ १साम्प्रतम् । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे एक्क्के चउगुरुगा पच्छितं भवति । " अणराया" दियाण चउण्ह वि एवं वक्खाणं रायं निवमरणे, जुवराया दोच्च जावऽणभिसित्तो । वेरज्जं तु परबलं, दाइयकलहो तु वेरज्जं ||३३६३॥ - मते रायाणे जाव मूलराया जुराया य एते दो वि प्रणभिसित्ता ताव अणरायं भवति । पुव्वराइणो जो जुत्रराया अभिसितो तेण प्रधिट्ठियं रज्जं जाव सो दोच्चं जुनरायाणं णाभिसिंचति ताव तं जवरज्जं भष्णति । परचक्रेणागंतुं जं रज्जं विल्लोलितं तं वेरज्जं । एगरज्जाभिलासिगो दो दाइया जत्थ कडगसंठिया कलहिति तं दो रज्जं भण्णति । ३३६३॥ - विरज्जे वि इमेरिसे कप्पति गमणादीयं कातु - सो पुर्ण इमेहि सद्धि ण गच्छेन्ना - विरुद्धा वाणियगा, गमणागमणं च होति श्रविरुद्ध । निस्संचारनिरुद्ध, न कप्पती बंधणादीया ||३३६४॥ जत्थ वाणिया परोप्परं गमनागमणं करता अविरुद्धा, सेस जणवयस्स य जत्थ गमागमो श्रविरुद्धो, तत्थ साहूणं कइतुं । इमं विरुद्ध रज्जं जत्थ वणियाणं सेसजणवयस्स य निस्संचारं निरुद्धं (न कप्पइ गंतुं ) । तत्थ गोमिया हि गहियाण य श्रायसंजमपवयणोवघा यादिया य दासा वक्खमाणा ||३३६४|| ताण चोरमेया, वग्गुरसोणहि पलाइणो पहिया । पडिचरगा य अमिरादिय पंथे दिट्ठदिट्ठादी ||३३६५|| एते भंगोवदंसणत्थं इमं भण्णति - star x रिइज्जा कारणा वेक्खगामिणो प्रत्ताणा, कवडिया वा । गवादिहारिणो चोरा । चावग्गहिलग्गत्यादिया रातो य जीवधायणपरा मेता । पासियवज्झायोगेण मवघातया वग्गुरा - लोद्धया । सुगहबितिज्ञ्जता सोहिया । जे भडादिया रष्णो प्रणापुच्छने सपुतदारंघणादिया प्रन्नरज्जं गंतुकामा ते पलादिणो । णाणाविधगाम - नगर - देसाहिंडगा पहपडिवण्णगा पहिया । गाम-नगर- सेणादियाण भंडिया पडिचरगा । केसि च वरसोहिया एक्कं तत्थ अधिमरगा श्रट्टमगा, अहिवत् अनुपकृतेष्वपकारे मारका अभिमरा ।। ३३६५।। 1 [ सूत्र- ७१ ताणमादिएस, दियपहृदिट्ठे यट्टिया भयणा | एतो एगतरेणं, गमणागमणम्मि आणादी ||३३६६॥ प्राणादिसहासु सु एक्केक्के श्रट्टभंगा संभवंति । ते य इमे - प्राणसहाया दिसतो गच्छति पहेण गोमियादिरायपुरिसेहि दिट्ठा। एस पढमभंगो । दिवसतो पण श्रदिट्ठा बितियभंगो । दिवसतो उप्पण दिट्ठा ततिम्रो भंगो । दिवसतो उप्पहेण श्रदिट्ठा चउत्थो । एवं रातो वि चउरो भंगा । एवं सव्वे भट्ट । एत्तो मट्टभंगीतो एगतरेणावि जो गमणादियं करेति तस्स प्राणादिया दोसा ।। ३३६६ ।। . Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३६३ - ३३७१] इमं च से पच्छित्तं - एकादश उद्देशक्र: ताणमा दिएसुं, दियपहृदिट्ठे य चउलहू होंति । राते य पहमदिट्ठे, चउगुरुगाऽतिक्कमे मूलं ||३३६७॥ श्रादिल्लेसु चउसु भंगेसु चउलहुगा तवकालविसेसिया । पच्छिमेसु चउसु रातिभंगेसु चउगुरुगा तवकालविसेसिया । जतो रज्जातो पहावितो तम्मि प्रतिक्कते मूलं ।। ३३६७ ।। सव्वभंगपरिमाणजाणणट्ठा भण्णति - अत्तणमादिया, हहिपदेहि भइयाणं । उसी य पयाणं, विराहणा होतिमा दुविहा ||३३६८॥ प्रत्ताणादिसु सु एक्केक्के श्रट्ठ भंगा, सव्वे चउसट्ठि भंगा। चउसट्ठि भंगपदाण अण्णतरेण गच्छंस इमा संजमायविराहणा दुविहा ||३३६८|! छक्काय-गहण-कडूण, ग्रंथं भेत्तूण चैव प्रतिगमणं । सुत्तम्मिय प्रतिगमणे, विराहणा दोण्ह वग्गाणं ||३३६६ ॥ हे सत्यवहयपुढवीए पुढवीकार्यावराहणा । प्रोस गदिमादि संतरणे प्राउक्कायविराहूणा । दवे सत्थिय-पज्जालिय-विज्भावणे वा प्रगणिक्कायविरहणा । जत्थ जत्थ प्रगणी तत्थ तत्थ नियमा वायु हवति । हरियमादिपलंबासेवणे वा वणस्सइविराहणा । पढवि आउ-वणस्सतिसमस्सियाण बेइंदियमादियाण 'विराहणे तसकायवि राहणा ||३३६६ ॥ इमं कायपच्छित्तं - छक्कायचउसु लहुगा, परित्तलहुगा य गुरुग साहारे । संघट्टण परिताण, लहु गुरु अतिवाय मूलं ॥ ३३७०॥ जहा पेढे तहा वत्तव्त्रा ||३३७० ॥ इयाणि "" गहण - कड्डणे" त्ति । ठाणइल्ला रायपुरिसा गहण कढणं करेज्ज । ते चउव्विहा, इमे - संजय - गिहि-तदुभयभहगा य तह तदुभयस्स वि य पंता । चउभंगो गोम्मितेस, संजयभद्दा विसर्ज्जति ।। ३३७१ ॥ १६६ संजयभद्दा, णो गिभिद्दा | णो संजयभद्दा, गिहिभद्दा | संजयभद्दा वि, गिभिद्दा वि । श्रपणे जो संजयभद्दा णो गिहिभद्दा वि । गोमिया ठाणइल्ला । संजयभद्दा पढम-ततियभंगेसु ते साहू गच्छते ण धरेंति - विसर्जयन्तीत्यर्थः ।।३३७१।। १ सुत्तम्मि ( पा० ) । २ गा० ११७ पीठिकायाम् । ३ गा० ३३६६ ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० सभाष्य-सूणिके निशीथ सूत्रे संजयभदगमुक्के, दितिया घेत्तुं गिही व गेहंति । जे पुण संजयपंता, गिण्हंती जति गिही मोतुं ॥ ३३७२॥ पढमभंगे संजयभद्दा, तेहि भद्दत्तणेण संजता मुक्का, न निरुद्धा । वितियभगिल्ला संजय पंता, ( बितिय भंगिल्ला ) ते संजते घेतुं पढमठाणपालगे गिही वि गिव्हंति, कीस भो एते संजते मुक्कत्ति ? जे बितियभंगे ते संजयपंता, ते पंतत्तणेण साहूसहेज्जे गिहत्थे मोतुं साहू गिव्हंति, मा गच्छह त्ति बंधणादियं वा करेन्ज ।। ३३७२ ॥ पढम-ततिय मुक्काणं, रज्जे दिट्ठाण दोण्ह वि विणासो । पररज्जपवेसेवं, जतो न ती तहिं पेवं ॥ ३३७३ ॥ पढमन्तइएस भंगेसु ठाणपालया संजयभद्दा, तेहि भद्दत्तणेणं मुक्का साहू "गच्छह त्ति न वारेमों" । ताहे ते साहू पररज्जे पविट्ठा, दिट्ठा य रायपुरिसेहि पुच्छिया - "कम्रो श्रागता" कहूं केण वा पहेण उपहेण वा ? जति साहू भांति - उप्पहेण श्रागता तो उम्मग्गगामिणो ति सदोसा । t अह साहू भांति - पहेण ठाणपालपुरिसेहिं विसज्जिया प्रागता - ताहे दोण्ह वि विणासो, साहूण ठाणइलाण य । एवं पररज्जपवेसे गेण्हणड्डगा दिया दोसा दिट्ठा। जो विरज्जातो णिति तत्थ वि एते रोहण - कडढण-पंतावणादिया दोसा दटुव्वा ॥ ३३७३।। अहवा- संजयाण सहायाण य गेण्हण- कढणादिया दोसा ।। ३३७४ ॥ पच्छित्तं - रक्खज्जति वा पंथो, जति तं भेत्तूण जणवयमर्तिति । गाढतरं वराहो, सुत्ते सुण्णे व दोन्हं पिं ॥ ३३७४॥ श्रह वार्ड चोरभंडियअभिमरमादिभया पंथा रविखज्जंति ण वा कस्स ति गमागमं देति, ताहे साहू ताणादिहिं समाणं जा रन्ना मेरा कता, न गमागमो केण य कायव्वोत्ति, तं जति भेतृणं पररण्णो वयं प्रति प्रविशति, जणमेरं वा भेतॄण जति प्रतिति, तो गाढतरेण प्रवराहेण साहू जुज्जति । एत्थ साहू चेव दोसो, ण थाइलाणं । ग्रह सुत्तेसु थापालेसु सुण्णे वा पाणपालगे गच्छति तो "दोण्ह वि" त्ति संजयागं थाणपालयाण य । सूत्र - ७१ गुरुगा छम्मासा कडुगे छेद होति ववहारे । पच्छाकडम्मि मूलं, उड्डाह - विरुंगणे णवमं ॥ ३३७५॥ उदावणणिव्विसए, एगमणेगे पोस पारंची । वट्टप्पो दोसु य, दोसु य पारंचि होति ||३३७६|| थायणिह निउत्तेहि वा रायपुरिसेहि गहियाण साहूग चउगुरुगा । हत्थे गहिउं कड्ढिएसु छलहुगा । कड्ढविक्रढकरणे - छग्गुरुगा । "ववहारे" ति करणसालाए रोहिल्स ववहारेज्जमाणे सु छेदो | "पच्छाकडे" त्तिणिज्जित्तेसु वबहारे मूलं । "उड्डाहे" ति पेच्छह भो परलोगठिता जणरायसीमा प्रतिक्कमं करेति, चोरादिएहि वा सद्धि श्रोधावेति, कण्णच्छिनास-कर- पादविरु गिते वा, एतेसु दोसु पदेसु नवमं प्रणव । उद्दवणे गिव्विसते वा एतेसु वि दोसु वि पदेसु पउद्वेगं रत्ना कए पारंचियं भवति ।। ३३७६ || - Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३७२-३३८१ एकादश उद्देशक: अहवा - "पग्रोसे" त्ति एरिसे पगरिसदोसदुद्धे पारंचियं भवतीत्यर्थः । अत्ताणसहायाणं एते सव्वे दोसा भणिया ॥३३७६।।। एमेव सेसएसु वि, चोरादीहि समगं तु वच्चंते । सविसेसतरा दोसा, पत्थारो जाव भंसणता ॥३३७७।। चोरादिएसु समयं वच्चंतस्स ते च्चिय गेण्हण-कड्डण-ववहारादिया, इमे य अन्ले सविसेसा दोसा । पत्थरणं पत्थारो सविस्तरमित्यर्थः । तस्स वा एगस्स वा ससहायस्स वा तग्गच्छियाणं अन्नगच्छियाणं वा कुलगण-संघस्स वा गेण्हणादिता करेज्ज । एस पत्थारो । जीवित-चन्णे य भंसणपत्थारं करेज्ज । जाव सद्दग्गहणातो सरीरविरंगणाभेदा दट्ठन्वा । तेसु वि पत्थारो भाणियन्वो ॥३३७७।। सविसेसदोसदरिसणत्थं भण्णति तेणहम्मि पसजण, णिस्संकित मूलमहिमरे चरिमं । जति ताव होंति भद्दग, दोसा ते तं चिमं अण्णं ॥३३७८॥ तेणगादिएहिं समाणं गच्छंतो तेणगादिप्रटेसु कयकारिताणुमतेण तेणट्ठादिसु पसज्जति - स्तन्यं करोतीत्यर्थः। जति ते 8 सकिज्जति तो चउगुरुगा, णिस्संकित मूलं । अभिमर? णिस्संकित पारंचियं । जदि वा ते भद्दया थाणपालया, तेहिं विसज्जियाण पररटुं पविट्ठाणं ते च्चिय गेण्हणादिया दोसा। तं चेव चउगुरुमादियं पच्छित्तं । इमं चऽण्णं दोसुब्भवकारणं ॥३३७८।। आयरिय उवज्झाए, कुल गण संघे य चेइयाइं य । सव्वे वि परिच्चत्ता, वेरज्जं संकमंतेणं ॥३३७६॥ इमं च से वक्खाणं - किं आगतऽत्थ ते विति, संति णे एत्थ आयरियमादी । उग्धाएमो रुक्खे, मा एतु फलस्थिणो सउणा ॥३३८०॥ ते साहू रायपुरिसेहिं पुच्छिज्जति - तुब्भे किमत्थमागता साहू ? बेंति - "संति' विज्जते "णे" - अस्माकं, इह प्राचार्यादयः सन्ति तेनागता वयं । ताहे रायपुरिसा दिटुंतं वयंति - जम्हा फलत्थिणो सउणा रुक्खमागच्छंति तम्हा ते चैव रुक्खे "उग्घाएमो" छिदामो ति वुत्तं भवति, जेण ते फलत्थिणो सउणा णागच्छंति, एतेण दिटुंतसामत्थेण पायरियादी उग्घाएमो जेण कोति तट्ठा णागच्छति ॥३३८०।। जम्हा एते दोसा तम्हा - एयारिसे विहारे, न कप्पता समणसुविहियाणं तु । दा सीमे ऽतिक्कमति, जणसीमं रायसीमं च ॥३३८१।। सीमा मेरा मज्जाता, तं जणमेरं रायमेरं च दुविहं पि अतिक्कमति - लंघयतीत्यर्थः ।।३३८१॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ रायसीमाइकमे इमे दोसा सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे बंधं वहं च घोरं, आवजति एरिसे विहरमाणो | तम्हा तु विवज्जेज्जा, वेरज्ज - विरुद्ध - संकमणं ||३३८२|| ||३३८४ ॥ fursादितो बंधो, कसघातादितो वहो । “घोर" मिति भयानको प्रतीव वधबंधी इत्यर्थः । वेरज्जे जम्हा एरिसे दोसे पावति तम्हा वेरज्जे विहारं वज्जेज्जा ।। ३३८२ ।। इमेण बितियपदेण विहरेना - 3 २ . दंसणणाणे माता, भत्तविसोही गिलाणमारिए । अहिकरण बाद रायकुल-संगते कप्पए गंतुं ॥३३८३॥ "दंसण - णाणे" त्ति अस्य व्याख्या Ε - सुत्तत्थतदुभयविसारयम्मि पडिवण्णउत्तमट्टम्मि | यारिसम्म कप्पति, वेरज्ज - विरुद्ध संक्रमणं ||३३८४ ॥ दंसणप्पभावगाण सत्याण सम्मदियादि सुतणाणे य जो "विसारदो" णिस्संकियसुत्तत्यो त्ति वृत्तं भवति । जो य उत्तिमट्ठपडिवष्णो सो य खेत्ते ठिम्रो तत्थंतरा वा वेरज्जं मा तं सुत्तत्थं वोच्छिज्जतु त्ति तो तग्गहणट्टयाए कप्पति वेरज्जविरुद्धं संकमणं काउं । माता पितं वा कस्सा ति निक्खिमिउकामं । आयरिएण वा केण ति भत्तं पञ्चवखायं । भत्तं वा पच्चक्खाउकामो एयारिसे वा कज्जे संकमेज्ज । हवा - कोइ साहू भत्तं पच्चक्खाउकामो । "विसोधि" त्ति सो प्रालोयणं दातुकामो ताहे सो गीयत्यसमीव गच्छे, अजंगमस्स वा गीयत्यो पासं गच्छति । गिलाणस्स वा पडियरणट्ठा गम्मति । गिलाणपायोग्गोसढहेउं वा । मायरियादिसमीवं वा प्रायरियादिपेसणेण वा गच्छति । इमेण विधिणा अहवा - कस्स ति साहुणो गिहिणा सद्धि अधिकरणे उप्पण्णे सोय गिही णोत्रसमति, ताहे सलतो तस्सामा गच्छति । सूत्र - ७१ ग्रहवा सो श्रणरज्जे परपवादी उबट्ठितो वस्स निग्गहट्टा गच्छति । यदु वा रन्नो उवसमणट्टा सलद्धितो गच्छे । ग्रहवा - रायकुलसंगतं केण ति श्रधिकरणं कतं तदुवसामणट्ठा गच्छे । ग्रहवा - "कुलसंगत" त्ति कुल-संघ कज्जेण । एवमादिसु कज्जेसु कप्पते वेरजविरुद्धसंक्रमणं काउं रक्खिय सेट्ठी सेणावती श्रमच्चरायाणं । पुच्छि अभिगमणे निग्गमणे, एस विही होइ गायत्री ||३३=५|| Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३८२-३३८६ ] तो लट्ठ | अस्य व्याख्या एकादश उद्देशक. तो विसज्जेति, अहव भणिज्जा तु पुच्छह तु सेट्ठि । जाव णिवे ता पेयं, मुद्दा पुरिसे व दूतेणं ||३३८६ ॥ वेरजविरुद्धरज्जं गच्छंता साहू दंडपासियं पुच्छंति, जति तेण विसजिया लट्ठ । ग्रह सो भगेज - श्रहं ण याणामि, सेट्ठि पुच्छन् । ताहे सेट्ठि पुच्छंति । जदि तेण विसज्जिया तो लठ्ठे । अह सो भगेज्ज - श्रहं ण याणामि, सेणावई पुच्छ । ताहे सेणावति पुच्छति । जदि तेण विसज्जिया ग्रह सो भणज्ज - अहं ण याणामि श्रमच्चं पुच्छह । एवं परंपरेण णेयं जाव णिवो राया इत्यर्थः । वेरज्जातो णिभ्गच्छंतस्स वेरज्जं वा पत्रिसंतस्स एस संक्रमणे विही भणितो । रायमातिणो य एते मुद्दापट्टय दूतपुरिसं वा मग्गिज्जति, रायदूतेण वा सद्धि गम्मति, जतो रज्जातो णिग्गच्छति तत्थेसा विही ।। ३३८६ ॥ जत्थ वि य गंतुकामा, तत्थ वि कारेंति तेसि गायं तु । आरक्खिगाव ते विय, तेणेव कमेण पुच्छंति ||३३८७|| २०३ जं रज्जं गंतुकामा तत्थ जे साहू तेसि लेहसंदेसगेण पुत्र्वामेव णायं करेंति- अम्हे इतो प्रागंतुकामा, तुम्भे इत्थ प्रारक्खियादि पुच्छह । जाहे तेहि पुच्छिया श्रणुष्णायं च ताहे इयरे प्रागच्छंतीत्यर्थः ||३३८७ ।। एसो प्रतिगमे प्रवेशे निर्गमे च विधिरुक्तः । इदाणि ""आयरिए" त्ति दारस्य व्याख्या राईण दोण्ह भंडण, आयरिए सियावणं होति । कतकरणे करणं वा, णिवेय जयणाए संकमणं ||३३८८॥ अब्भरहियस्स हरणे, उज्जाणादिट्ठियस्स गुरुणो य । उव्वट्टणासमत्थे, दूरगए वा वि सवि बोलं ||३३८६॥ भंडणं कलहो । दोहं रातीणं कलहे वट्टमाणे तत्थेगस्स रण्णो प्रायरितो प्रसन्नसेवगो - प्रिय इत्यर्थः । इतरो य राया तं जाणिऊण अप्पणी सभाए भासति - "को सो तं श्रब्भरिहियमायरियं श्राणेज्ज मा सादत्तणं से कयं होति" । ताको ति सूरवीरविक्कतो भणेज्ज - "ग्रहणेमि त्ति । सो गंतु प्रायरियस्स प्रासियावणं करेनि - हरतीत्यर्थः ||३३८८ ॥ प्रब्भरहितो आसतो, निग्गयस्स गुरुणो सभापवारामुज्जाणादि नुवट्ठियस्स प्रायरियस्स हरणं । तत्थिमं करणिज्जं - "२ कतकरणे करणं, घणुवेदादिएसु सत्थेसु जेण सिक्खाकरणं कयं गिहिभाते सो साहू कयकरणो भणति स तत्र करणं करेति समत्थो जुद्धं कातुं उवद्वेति । मोहणि-यंभणिविज्जादिप्रयोगेण वा उट्ठेति । तस्व प्रभावे श्रसमत्यो वा खणमेत्तं तुहिक्का प्रच्छति साहू । जाहे प्रायरितो दूर होताहे सेस साहू बोलं करेंति "आयरितो णे हडो, घाह धाह" ति । प्रासन्नट्ठिते बोलं ण करेंति, मा जुज्भं भविस्सति । जुद्धे य बहुजणक्खयो भवति ।। ३३८६ ॥ १ गा० ३३८३ । २ गा० ३३८८ । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूर्णिके निशीथ सूत्रे [ सूत्र७२-७७ साहिं तो राया भणितो, प्रभणितो वा हारेंतेहि रातिणो दूतं विसज्जेति, "पेसेहिणे प्रायरियं ।” तेण जति पट्ठवितो तो लट्ठ - २०४ पेसवितमिदेंते, रण्णा जति ते विसज्जिया सीसा । गुरुणा णिवेदितम्मी, हारितगरातिणो पुव्वं ॥ ३३६०|| जति दूते पेसविते आयरियं ण विसज्जेति ताहे साहू दो तिन्नि वा दिणे रायाणं पासेत्ता विष्णवेंति "म्हे विसज्जेह, गच्छामि गुरुसमीवं, केरिसा अम्हे गुरुविरहिया प्रच्छमाणा ? ण सरति सज्झायादि श्रहं ।" जदि ते रन्ना विसज्जिया तो साधू ताहे आयरियस्स संदिसंति “अम्हे श्रागच्छामो ।” ताहे आयरिया हारेंतगराइणो निवेदेति । एवं निवेदिते पुव्वं पच्छा साहू पुव्वुत्तविहाणेण जयणाए संकमति ।। ३३६०॥ जे भिक्खू दियाभोयणस्स वण्णं वदति, वदतं वा सातिज्जति | | ० ||७२॥ जे भिक्खू रातिभोगणस्स वण्णं वदति, वदतं वा सातिज्जति ||सू०॥७३॥ दिया भोयणस्स प्रवणं दोसं भासति, रातीभोयणस्स वण्णं गुणं भासति । दियरातो भोणमा, श्रवण्णवण्णं च जो वदे भिक्खू | सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त - विराहणं पावे ||३३६१ ॥ प्राणादिया ग दोसा चउगुरु च से पच्छितं ।। ३३६१२ कहं पुण दियाभोयणस्स प्रवण्णं भासति ? बकरं चक्खुहतं, अपुट्ठिकरं च होति दियभत्तं । विवरीयं रातीते, दो वि वदंतस्स चउगुरुगा ||३३६२|| दियभत्तस्स श्रवणं, जे तु वदे रातिभोयणे वण्णं । चउगुरु आणादीया, कहं ति श्रवण्णं व वण्णं वा ॥ ३३६३ || वायायवेहि सुसति, यो हीरति य दिट्ठिदिट्ठस्स । मच्छियमातिणिवातो, बलहाणी चेव चंक्रमणे ||३३६४|| दियाभोयणं वातेण प्रातवेण य सुसियं प्रबलकरं भवति । प्रोयो तेयो भण्णति । दिट्टिणा दिट्ठ दिट्टिदिट्ठ । परजण-दृष्टि दृष्टस्यान्नस्य श्रजापहारो भवतीत्यर्थः । दिवसतो मच्छिमादी णिवडंति, उड्ढे वगुलियादी दोसा | दिवसतो य भुंजित्ता कम्मचेद्वासु अवस्सं चंकम्मियव्वं, तत्थ पस्सेदो भवति, प्राय सोसासो बहुं च दत्रमा दियति, एवं तं श्रबलकरं भवति ।। ३३६४ || इमं राती भोयणस्स वण्णं वदति - आउं बलं च वडूति, पीणेति य इंदियाइ णिसिभत्तं । व य जिज्जति देहो, गुणहोस विवज्जओ चेव ॥ ३३६५|| Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३६०-३३६८ ] एकादश उद्देशक: रातो भुत्ते कम्मस्स सत्यिंदियस्स चिट्ठतो सुभपोग्गलोवचयो भवति । सुभपोग्गलोवचयाश्रो प्रायुबल दियाण वुड्डी भवति, रसायनोपयोगवत् । किंच सुभपोग्गलोववयातो शीघ्रं देहो न जीयंते । एते गुणा रातीभोयणे । एयस्स विवज्जतो दिवसे । तो तम्मि चेत्र गुणा विवरीया दोसा भवंति ।। ३३६५|| इमाम्म कारणजाते वएज्जा वितियपद् मणप्पज्झ, वएज्ज अविकोविते व अप्प | जाणते वा वि पुणो, कारणजाते वएज्जा तु ||३३६६॥ — प्रणो णपवसो खित्तादितो सों दियाभोयणस्स अवन्नं वदेजा, राईभोयणस्स वा वण्णं वएज । अविकोवितोवा प्रगीयत्थो श्रज्भो वि वएज, बहुसु वा अशिवोम - गिलाण - रायदुट्ठादिएसु कारणेसु गुणवुड्डिहेडं गीयत्यो वि अवन्नं वन्न वा वएज्ज ||३३६६ ।। जे भिक्खू दिया असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता दिया भुजइ, भुंजंतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||७४ || जे भिक्खू दिया असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेता रति भुंजइ, भुंजंतं वा सातिज्जति ||०||७५|| भिक्खू रतिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता दिया भुंजति, भुंजंतं वा सातिज्जति ||सू०||७६ || जे भिक्खू रतिं असणं वा पाणं वा रति भुंजति, भुंजंतं का सातिज्जति ||मू० ७७ || चउसु वि भंगेसु प्राणादियाय दोसा, चउगुरु च पच्छितं तत्रकालविसे सियं दिजति । तम्मि य - चउभंगो रातिभोगणे, तु परमम्मि चोलपट्टमतिरेगे । परियावण्ण-विगिंचण, दर-गुलिया - रुक्ख - घरसुण्णे ||३३६७॥ साठवणा इमेहिं पगारेहिं - "चोल्लपट्टे " त्ति अस्य व्याख्या - दुक्त सूत्रे एतदेव चतुर्विधं । पढमभंगसंभवो इमो दिया धेनुं णिसि संवासेतुं तं वितियदिणे भुंजमाणस्स पढमभंगो भवति ||३३६७॥ एगेण साहुणा खमणं कत अज्जीरंते कृतं । खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता - खमणं मोहतिमिच्छा, पच्छित्तमजीरमाण खमत्रो वा । गच्छ सचोलपट्टो, पच्छा ठेवणं परमभंगो ||३३६८ || २०१ 1 तं पुण मोहतिगिच्छिं करेति पच्छित्तविमुद्धं वा करेति भत्ते व 7 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-७७ अहवा - सो एगंतरादिखमगो, जद्दिवसं च तण उववासो कतो तद्दिवसं च तस्स सण्णायगाण जंघापरिजिण्णसड्ढीणं वा विरूवरूवा संखडी, तेहिं साहू आमंतिया, भिक्खग्गहणकाले य सो खमगसाहू तेसि साहूगं दवावेमि त्ति कातुं प्रणुग्गाहितेण चोलपट्टबितिज्जो गच्छति । ते मे वरं जाणिस्सति-जह से जेटुज्जो उपवासितो, मे संविभागं ठविस्संति । तेहिं अणुगाहितेण दिट्ठो, पुच्छितो य कि उववासी जेट्ठज्जो ? भणियं च तेण - "प्राम" ति, ताहे तम्स उग्गाहिमगादि सव्वं संविभागं प्रवुत्ता वि ठवेंति, कल्ले दाहामो। एवं भावतो गहियं । बितियदिणे गहणभोगं करेंतस्स पढमभंगो भवति ।।३४६८।। "'अतिरेगे परियावन्न-विगिचण-दर-गुलिया-रुक्ख-सुन्नघरे" त्ति अस्य व्याख्या - कारणगहिउव्वरियं, आवलिय विही य पुच्छिऊण गतो। भोक्खं सुए दरादिसु, ठवेति साभिग्गहऽण्णो वा ॥३३६६॥ प्रतिप्पमाणं भत्तं गहियं । सहसा लाभे, संखडी वा उच्छूरलंभे, प्रणुचित्तखते वा गुरुगिलाणादियाण सबसंघाडगेहि मत्तगाऽवट्ठाविता एवमादिकारणेहिं अतिरित्तं गहियं, तं च उवरिय, उववालिगमादी प्रावलिया ते संभोतिगादिप्रावलियाए य पुच्छिऊग पगिट्ठवणाए गतो, एतदेव परियावन्नं भवति, उक्कोस-प्रविणासिदव्वलोभेण कल्ले भोक्खामि ति चितेऊण दरे ठवेति, “गुलिग" त्ति लोलगे काउं रुक्खकोटरे वा ठवेति, सुन्नघरे वा ठवेति, एवं करेति, एवं अभिग्गहितो अणभिग्गहितो वा थेरिमगुकंपाए सुए वा भोक्खामि त्ति थेरिघरे ठवेति ॥३३६६॥ . थेरिय दुण्णिखित्ते, पाहुणए साण-गोणखइए वा। पारोवण कायव्वा, बंधस्स परूवणा चेव ॥३४००॥ थेरिघरे ठवितं जति पाहुणएण खइयं, साणेग वा खतितं, गोणस्स वा गोभते दिणं, एत्थ पच्छित्तं वत्तव्वं, अणुसमयं कम्मबंधपरूवणा य कायव्वा ॥३४००॥ इमं पच्छित्तं - बिले मूलं गुरुगा वा, अणंतगुरु सेस लहुय जं चऽण्णं । कुल-णाम-ट्ठियमाउं, मंसाजिणं ण जाऽऽउट्टे ॥३४०१॥ वसिमे बिले जति ठवेति तो मूलं पच्छित्तं । उब्बसे व चउगुरुगा। अणंतवणस्सतिकायकोट्टरे चउगुरुगा । "सेस" ति गुलिप, परित्तवणस्सति सुत्रघरे थेरीए वा सन्निखित्ते एतेसु चउलहुग।। "ज चऽण्णं" ति प्रायविराहणा संजमविराधगा महुविंदोवक्खाणं च । सन्वेसु पच्छित्तं वत्तव्वं । इमा कम्मबंधपरूवणा - थेरिघरे ठवियं जति पाहुणएण खतियं जाव तस्स पाहुणगपुारसस्स पासत्तमो कुलवंसो ताव तस्स साहुस्स अणुसंततो कम्मबंधो । अण्णो भणति - जाव तस्स णामसंताणो। अण्णो भणति - जाव तस्स अट्ठीणि घरंति । अण्णो भणति - जाव तस्सायुं घरेति । अण्णो भणति - जाव तस्स तप्पच्चतो मंसोवचयो धरेति । १ गा० ३३६७ । २ मूलं बिले इति भाष्यप्रती। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा ३३६६-३४०५] एकादश उद्देशकः २०७ अण्णो भणति -- जाव तं भत्तं ण जीरति ताव तस्स साहुस्स कम्मबंधो । आयरिओ भणति -- "एते सव्वे प्रणाएसा, इमो सिद्धतस्स भावो-"जाव नाउट्टति ताव से कम्मबंधो" । सब्भावाउट्टस्स पालोइएऽगालोइए वा कम्मबंधो वोच्छिज्जतीत्यर्थः ।।३४०१॥ पढमभंगो गतो। 'सेसा तिण्णि भंगा इमे - संखडिगमणे बितितो, वीयारगयस्स ततियो होइ । सण्णातगमे चरिमो, तस्स इमे वण्णिया भेदा ॥३४०२॥ अवरण्हसंखडीए दिया गहियं रायो भुत्तं बितियभंगो। प्रणुदिते सूरिये बाहिं वियारभूमि गयस्स देव-उवहार-बलिणिमंतणे रातो गहिते दिया भुत्ते ततियभंगो। सण्णायगकुलगताणं सण्णायगवयणेण अप्पणो बलव्वताते २ रातो घेत्तु रातो भुंजताण चरिमभंगो, भेदा जुहादिया वक्खमाणा इत्यर्थः ॥३४०२।। गिरिजण्णगमादीसु य, संखडिउक्कोसलंभे बितिओ उ । अग्गिट्टि-मंगलट्ठी-पंथिग-वतिगातिसु ततिओ ॥३४०३॥ __ बितियभगे अवरोहसंखड़ी गिरिजण्णय, प्रादिसद्दातो कूव-तलाग-नाग-गण-जक्खादि जण्णसंखडीते उक्कोसं लद्धं, प्रस्तमिते सूरिए भुंजताणं वितियभंगो। दक्खिणापहे अट्ठकुडामेत्तसमिताते एगो महपमाणो मंडगो कजति । सो गुलधएणमग्गो अरुणोदयवेलाए धूलिजघस्स दिज्जति, एस अग्गट्ठियबंभणो भणति, एयं मेहतस्स ततियभंगो भवति । सड्डो वा पए गंतुकामो अणुग्गते सूरिते पडिलाभेज्ज मंगलट्ठा। वीयारणिग्गयस्स वा साहुस्स अणुग्गते सूरिते कोति श्रद्धाणपडिवण्णो प्राणकप्पं देज्ज । एवमादि ततियभंगो ॥३४०३।। _इमो य चरिमभंगो - छंदिय सई गयाण व, सण्णायसंखडी य वीसरणं । दिण्णग कए संभरणं, भोयणकल्लं ण एण्हिंति ॥३४०४॥ णिमंतिण, महाभावेण वा सयं, सण्णायगसंखडि केइ साहू गता तो तत्थ णिमंतिया - अज्ज मे भिक्खा विस्सामो - तो तेसि सण्णायगाणं भोयणकाले विसरिया, दिण्णे जणवयस्स "कए" ति परिवेसणाए समत्ताए तेहि सण्णायगेहिं रातो साहू संभरिया। ते य भणंति - भगवं परिवेसणवग्गेहि ण संभरता तुम्हे, खमह अम्हं प्रवराधं, गेहह इयाणि भत्तपाणं । साहू भणंति - कल्ले घेच्छामो, एण्हि राती ति ॥३४०४।। ताहे तेहिं गिहत्था जोण्हादीए ते उवणिस्संति - ___ जोण्हा-मणी-पतीवे, उद्वित्त जहण्णगाइ आणाई । चउगुरुगा छग्गुरुगा, छेदो मूलं जहण्णम्मि ।।३४०५॥ __ एतेसु चउसु वि ठाणेसु जह संखं पच्छद्रेण जहन्नम्मि पदे जहन्नं पच्छित्तं भणियं ॥३४०५।। र सूत्र ७५, ७६, ७७ । २ लावन्नयाए इत्यपि पाठः । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-७७ सण्णायगेसु रातो णिमंतितेसु साहू भणंति - संसत्ताति न सुज्झति, गणु जोण्हा अवि य दो वि उसिणाई । कालेब्भंतरए वा, मणिदीवुद्दीविए विति ॥३४०६॥ रातो भत्तादिग्गहणं ण सुज्झति, जतो संसतासंसत्तं ण सुज्झति. दायगस्स य गमागमो न दीसइ, मतगस्स उक्खेवनिक्खेवादी। गिहिणो भणंति - णणु दिवससमा जोण्हा, सव्वं दीसइ। अह कालपक्खो, जोण्हा वा अब्भादिएहिं छादितो चंदो, ताहे रयणं मणि वा दिप्पंतं ठवेंति, जोति वा पज्जालेंति, एतेसु पगासितेसु सव्वं दीसति । अपि य भत्तं पाणग च दो वि उसिणाई, णत्थि संसत्तदोसो। एवं भणतेसु केइ साह रातो घेत्तु भुजिज्जा । तत्थिमं णावासंठियं पच्छित्तं । 'जोण्हासुजोवियं ति काउं भुजतस्स च उगुरुगा। तस्साहो मणी उज्जोतियं काउ भुजंतस्स छग्गुरुगं । तस्साहो दीवमुजोतियं काउं भुजंतस्स छेदो । तस्साहो उद्दितुजोवियं काउं भुजंतस्स मूलं। एते मूलपच्छित्ता ।।३४०६।। अतो परं बहिपच्छित्तं तं चिमं । भोत्तूण य आगमणं, गुरुहि वसभेहि कुलगणे संघे । आरोवण कायव्या, वितिया वि अभिक्खगहणेणं ॥३४०७|| सत्रातगमंखडीते असंखडीए वा अगत्थ वा रातो जोहादिएमु भोत्तूणागता, प्रागतेहि घेव पालोयणपरिणयेहि अण्णालोयगाए वा गुरूण कहिय । गुरूहि भणियं - 'दुठ्ठ भे कयं' ति । जति सम्म प्राउट्टा तो छग्गुरुगं चेव, अशाउटुंताग गुरु. वयणातिकमे छग्गुरुगा । ततो वसभेहि भगिता - अज्जो कीस गुरुवपणं प्रतिक्कमह ? जति वसभेहि भणिता सम्म प्राउट्टा तो छग्गुरुगं चेव । वसभवयणातिक्कमे छेदो । एवं कुलेण कुलथेरेहि वा चोदितो सम्म प्राउतस्त छेदो चेव, कुलातिककमे मूल । गणेण गणथेरेहिं वा चोदिते प्राउट्ठेतस्स मूलं चेव, अणाउट्टतस्म अणवटुं चेव, अगाउट्टतस्स पारंचिय। एसा गुरुमातिवयणातिक्कमे दाहिणे ण वुड्ढी बितीया वामेण एतेसु चेव पच्छित्तठाणेसु अभिक्खसेवाए वुड्ढी कायन्वा । एवं मगिम्मि वि वुड्ढी । गुरु-वसभ-कुल-गणातिक्कमे च हि पदेहिं छेदादी जाव चरिमं णायव्वं, वामेण बितिया पि अभिक्खसेवाए काया। एव दीवे गुरु-वसभ-कुलातिककमे तिहि पदेहि मूलादि जाव चरिमं । बितिया वि अभिक्खसेवाते । एवं उद्दिते ति गुरु-वसभातिक्कमे दोहि पदेहि प्रणव गरंची, बितिया वामेण अभिक्खमेवाते कायचा । एसा पढमा णावा ।।३४०७।। कुलादिथेरेहि कुलादीहिं वा जं कयं कज्जं तं को अति कमेति नातिक्कमति वा ? एतेणाभिसंबंधेण इमं भण्णति - तिहि थेरेहि कयं जं, सहाणे तत्तियं ण वोलेति । हिडिल्ला वि उवरिमे, उवरिथेरा तु भइयव्वा ॥३४०८|| १ जोण्हाइयं पा० । २ अन्नं पा० । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ३४०६-३४११ ] एकादश उद्देशकः तिहि - कुलगणसंघथेरेहि जं श्राभवतादि कज्जं कथं, ठवणा वा काति ठविता, तं कज्जं सट्टा नातिक्कमति । द्वाणं कुलश्रेराणं कुलगणथेराणं गणसंघथेराणं, संघो एयं तिगं श्रष्णहा ण करोतीत्यर्थः । हवा - तत्तियं वा तन्मात्रमेव कार्यं व्यवहरन्ति न उपरिष्टाद् व्यवहारं संवर्धयन्ति, अत्तं वा ठवणं ठवेंति । हेट्ठिमा कुलथेरा ते वि जं उवरिमेहि गणसंघथेरेहि कतं तं नातिक्कमति । गणयेरा वि संघयेहि कयं नातिक्कमति । उवरिमथेरा उ भतियव्वा । का भम्रणा ? इमा - कुलथेरेहिं जं कयं प्ररत्तट्ठेहि यतं उवरिमा गणसंघथेरा अन्नहा ण करेंति, ग्रह प्रणागमेण कतं रत्तट्ठेहि वा तं ना करेंति । एसा भयणा । एवं कुलगणसंघकज्जेसु वि दट्ठव्वं ||३४०८ || गुरुमादिएहिं चोइज्जतो इमं भणति चंदुए को दोसो, पप्पाणे य फासुए दव्वे | भिक्खू वसभाऽऽयरिए, गच्छम्मिय अट्ठ संघाडा ||३४०६|| पुव्वद्धं कंठं । पच्छद्रेण बितिय ततियनावागहितातो । तेसु चेव जोहादिसु पढमणावागमेण भिक्खुवसभ प्रायरिय-कुल- गण संघ एतेसु छसु पदेसु प्रतिक्कममाणे छल्लहुगा- जाव-चरिमं दव्वं । एसा दाहिणतो पच्छित्तवुड्ढी बितिया वामतो अभिक्खसेवाते । मणिमादिसु पच्छित्त-बुड्ढी, अभिक्ख सेवाए य पूर्ववत् । श्रसंघाग्गहणातो एत्थेव पुरिसप्रविभागेण ततियनावा दंसिज्जति, तस्स विसेसो वक्खमाणो, जोन्हामणी पच्छत्तवुड्ढी एक्को संघाडगो । पदी वुद्दित्तेसु बितितो संघाडगो, वामतो अभिक्खसेवाए वि दो संघाडा, एवं बितिय गावाते चतुरो संघाडा, ततिय णावाए वि चउरो, दो चतुक्का श्रट्ट संघाडा भवन्तीत्यर्थः । ग्रहवा - जोण्हातो पच्छित्त वुड्ढीते वामतो श्रभिक्खसेवाए य एक्को संघाडो । एवं माणदीवविवि । एवं वा बितियणावाते चउरो संघाडा । ततियणावाए वि चउरो, एवं श्रट्ठ संघाडा | पुण पढम- बितियण वासु एवं चेव श्रट्ठ संघाडा भवंति । चउत्थणावाते ते भिक्खू वसभ आयरिय गच्छो कुलं गणो • संघो य एतेसु सत्तसु वि पदेसु प्रतिक्क्रमणे पढमणावागमेण चउगुरुगादि जाव चरिमं दाहिणतो वुड्ढी, बितिया वामतो | मणिमादिसु पूर्ववत् ।। ३४०६ ।। ग्रहवा - पुरिसजोहादिसु प्रविसेसतो इमं पच्छित्तं सण्णायग आगमणे, संखडि रातो य भोगणे मूलं । विति वपो, ततियम्मि य होति पारंची ॥ ३४१०|| २०६ सन्नात कुलमागता अन्नत्थं वा संखडिते साहू जति रातो भुंजति तो मूलवयविराहणत्ति का मूलपच्छितं, बितियवारा भुंजति तो प्रणवट्टो, ततियवारे पारंची ॥३४१० ॥ "फासुयदव्वे" त्ति सीसस्स इमे दोसा दंसिज्जंति - जति वि य फागदव्वं, कुंधूपणगादि तह वि दुष्पस्सा | पच्चक्खणाणिणो वि हू, रातीभत्तं परिहरति ॥ ३४११॥ १ नं पा० । २ पुव्वणावागहितातो पा० । ३ गा० ३४०६ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० . सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-७० __यद्यपि स्वत प्रोदनादि प्राशुकं द्रव्यं तथाऽप्यागन्तुका कुन्थ्वादयः पनकादयश्च तदुत्था अविसुद्धकाले दुश्या भवंति । किं च येऽपि प्रत्यक्षज्ञानिनो ते विशुद्धं भक्तान्नपानं पश्यंति तथाऽपि रात्रौ न भुजत, मूलगुणभंगत्वात् ।।३४११॥ जोहामणीदीवुद्वित्तालंबणप्रतिषेधार्थमिदमाह - जति वि य पिवीलगादी, दीसंति पतीव-जोतिउजोए। तह वि खलु अणाइण्णं, मूलवयविराहणा जेणं ॥३४१२॥ तीर्थकरगणधराचायरनाचीर्णत्वात्, जम्हा छट्ठो मूलगुणो विराहिज्जति तम्हा ण रातो भोत्तव्वं अहवा - रातीभोयणे पाणातिवायादियाणं मूलगुणाणं जेण विराहणा भवति प्रतो रातीए ण भोत्तव्वं ॥३४१२।। "गच्छं" ति य अस्य पदस्य व्याख्या - गच्छग्गहणे गच्छो, भणाति अहवा कुलादिओ गच्छो । गच्छग्गहणे व कए, गहणं पुण गच्छवासीणं ॥३४१३।। गच्छो चोदयति जहा चउत्थं पदं चउत्थणावाए कुलगणसंघा वा पत्तेयगच्छो ते चोदयंति जहा सवणावासु गच्छग्गहणातो वा इमं पच्छित्तं गच्छवासीण भणितं - न जिनकल्पानामित्यर्थः ॥३४१३।। बितियणावाए इमं वक्खाणं वितियादेसे भिक्खू, भणंति दुटु मे कयं ति बोलेंति । छल्लहु वसभे छग्गुरु, छेदो मूलादि जा चरिमं ॥३४१४॥ गतार्था बितिय-ततियनावाए विसेसो बितियाए सयं कहेंति, तईयाए इमं - ततियादेसे भोत्तण, आगता णेव कस्सइ कहेइ ।। ते अण्णो व सोचा, खिसंतह भिक्खुणो तेसु ॥३४१५।। तईयादेसो तृतीयनावा, जे ते भोत्तूग आगया तेसिं चेव परोप्परं संलवंताणं भिक्खूहि सुयं - ते चोदयंति । “अण्णो " ति जे ते भोत्तण प्रागया तेहिं जहा वसभेण अन्नस्स कहित, तस्संतिए भिक्खुणो सोच्चा, अन्नो वा गिहत्थो तस्संतिते भिक्खुणो सोच्चा खिसवयणेण चोदेति ॥३४१ ।। तत्थ अतिकमंते इमा पच्छित्त-वुड्डी भवति - भिक्खुणो अतिक्कमंते, छल्लहु वसभेसु होति छग्गुरुगा । गुरु-कुल-गण-संघादीक्कमे य छेदाइ जा चरिमं ॥३४१६॥ आयरिया भिक्खूण य, वसभाण गणस्स कुल गणे संघे । गुरुगादतिक्कमंते, जा सपदं चउत्थ आदेसे ||३४१७।। गतार्था १ गा० ३४०६ । . Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३४१२ - ३४२३ ] "" खिसंतह भिक्खुणो" त्ति प्रस्य व्याख्या गेहेज्जा | एकादश उद्देशक: पेच्छह तु ऋणाचारं, रत्ति भोत्तुं ण कस्सर कहेति । एवं एक्केक्क-नित्रेयणेण वुड्डी उपच्छिते ||३४१८|| भिक्खुहिं चोदो जाहे नाउट्टति ताहे भिक्खुणी वसभाण कहेंति । वसभा गुरू कहेंति । गुरूवि कुलस्स | कुलं पिगणस्स । गणो वि संघस्स । एवं एक्केक्कणिवेदणेण पच्छित्तवुड्ढी भवति ।। ३४१८ ॥ हवा - अन्येन प्रकारेण प्रायश्चित्तवृद्धिदर्शनार्थमाह - - को दोसो को दोसो, ति भणंत लग्गती वितियठाणं । अहवाऽभिक्खग्गहणे उ अहवा वत्थुस्स अइयारो ||३४१६|| 'उत्तरोत्तरप्रदानेन अभीक्ष्णासेवनेन वा भिक्षादिवस्तुव्यतिक्रमेण वा प्रायश्चित्तवृद्धिः || ३४१६ | जम्हा निसिभोयणे बहू दोसो पच्छित्तं च तम्हा न भोक्तव्वं । कारण पुण भोतव्वं । तं च इमं कारणं - 1 बितियपदं गेलणे, पढमबिति य णहियासम्मि | फिट्टति चंदगवेज्झ, समाहिमरणं च श्रद्धाणे || ३४२० ॥ गिलाणी अगिलाणो वा पढमबितियपरीसहेहिं अद्दितो असहू वा, सिरिइंगियमादि उत्तिमट्ट पडिन्न वा चग्गहणातोश्रो वा श्रद्धाणे वा, चउभंगजयणाए भुंजेज्जा ।। ३४२०॥ तत्थिमं ""गिलाणे". - २११ पतिदिवसमलब्भंते, विसोहि बोलीणे पढमभंगो उ । श्रद्धाणादिसु जुयलोदयम्मि सूलादिया विति ||३४२१ ॥ जया गिलाणस्स पतिदिणं विसुद्ध ण लब्भति तया पणग- परिहाणीए विसोहिकोडीए पडदिवसं जातं पिवोलीणो ताहे पढमभंगो दियाग हियं दिया भोतं । श्रद्धाणादिपवत्तस्स बालवुड्ढजुयलस्स पढमबितियपरीसहोदर बितियभंगो । ग्रागाढे वा सुलादिगेलने चतुर्थभंगो रातो गहियं रातो भुतं ||३४२१|| एमेव ततियभंगो, यति तमो अंतर पगासो उ । तो पि अपगासो, श्रद्धाणसुग्रासु चउत्थो ||३४२२|| पदमबितियातुरस्य असहुस्स हवेज अब जुयलस्स | कालम्मि दुरहियासे, भंगचउक्केण गहणं तु ॥ ३४२३॥ "एमेव" त्ति भागाडे ग्रडिक्कादिनु ततियभंगो रातो गहियं दिया भोत्तं । श्रद्धा रडिवणगाण गाठे वा गेलन्ने चनुर्थभंगो रातो गहियं रातो भुतं ति । "गिलाणो "त्ति गतं । १ गा० ३४१५ । २ ० ३४९०१ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ - सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-७७ इदाणि चंदगवेझ" - एमेव उत्तिमट्टे, चंदगवेझसरिसे भवे मंगा। उभयपगासे पढमे, आदीयंते य सव्वतमो ॥३४२४॥ चक्राष्टकमुपरिपुत्तलिकाक्षिचन्द्रिकावेधवत् दुराराध्यमनशनं, तस्मात्तदाराधने समाधिनिमित्तं चत्वारो भंगकाः । पश्चार्धसिद्धाः ॥३४२४।। इयाणि "२अद्धाण" त्ति - अद्धाणम्मि व हुज्जतु, भंगा चउरो तु तं न कप्पति उ। दुविहा य होंति उदरा, पोट्टे तह धण्णभाणा य ॥३४२५॥ तं प्रधाणं उद्दद्दरे गंतु न कप्पति, उद्धं दरा उद्धदरं, ते दरा ऊर्द्व पूर्णा -धान्यस्य भरिता इत्यर्थः। धणमायणा कडपल्लादि ।।३४२५।। उद्दद्दरे सुभिक्खे, अद्धाण व वज्जणं तु दप्पेणं । लहुगा पुण सुद्दे, जं वा आवज्जती तत्थ ॥३४२६॥ सुलभं भिक्खं सुभिक्खं, उदद सुभिक्खेसु चउरो भंगा कायव्वा । पढम-ततियभंगसु जो दप्पेण प्रद्धाणं पडिवज्जति तस्स जति वि किं चि अवराहं णावज्जति तहा वि से चउलहुगं, जं वा संजमविराहणं पावज्जति तं वा पच्छितं ॥३४२६ पढम-ततिएसु वि भंगेसु इमेण कारणेण गम्मति णाण? दंसणट्टा, चरित्तट्ठा एवमाइ गंतव्वं । उवगरणपुन्बपडिलेहितेण सत्थेण जयणाए ॥३४२७ आयारादी णाणं, गोविंदणिज्जुत्तिमादि दंसणं, जत्य विसए चरितं । मुज्झात तताऽवमण चरित्तट्टा। उवकरणपडिले हणं आलोच्य योग्यस्य ग्रहणं, भंडिमादिएण विसुद्धसत्येण समं गंतव्वं ॥३४२७॥ णाणदंसणट्ठा गम्ममाणे इमेण विहिणा गम्मति - सगुरु कुल सदेसे वा, णाणे गहिते सती य सामत्थे । वञ्चति उ अण्णदेसं, दंसणजुत्तादि अत्थे वा ॥३४२८।। स्वगुरुसभीवे जमत्थि गाणं तम्मि गहिते ततो सदेशे स्वकुले घेत्तव्वं, जाहे सदेसे णात्य ताहे अन्नदेसं गच्छंति, तत्थ वि अासन्नत रेसु एगदायणेसु गिण्हति । गिहते णाणे अप्पणो बुद्धिसामत्थे विजमाणे दंसणविसुद्धकारगसत्थटुं गम्ममाणे एसेव गमो ।।३४२८॥ । इयाणि चरित्तट्ठा - पडिकुट्ट देस कारण गता उ तदुपरमे णिति चरणट्ठा । असिवाई व भविस्सति, भृते व वयंति परदेस ॥३४२६॥ १ गा० ३४२० । २ गा० ३४२० । ३ सति पा० । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३४२४-३४३५ ] एकादश उद्देशक: श्रसंजमविप्रो जो देसो सो भगवया पडिसिद्धो, तत्थ ण विहरियव्वं । तं देतं प्रसिवादिकारणेसु जदि गता तम्मि कारणे उवसंते ततो श्रसंजमविसयातो णिगच्छति । तं संजमविसयं चरणट्ठा गच्छति । तत्थ वा वसंताण णिमिण जातं जहा असिवं एत्थ भविस्सति, उप्पन्नं वा प्रसिवं, ततो परदेसं वयंति || ३४२६ || पढम-ततियभंगेहि एवमादिकारणेहिं वयंता गच्छुवग्गहकरं इमं उवगरणं घेतु' वयंति * चम्मादि लोहगहणं, नंदीभाणे य धम्मकरए य । परतित्थिय उबगरणे, गुलियातो खोलमादीणि ॥३४३०॥ चम्मादिलोहग्गहणं एतेसि दोन्हं दाराणं जहक्कमेण इमा पुत्र पच्छद्धवक्खा तलिय पुडग बद्धेया, कोसग कत्ती य सिक्कए काए । पिप्पलग सूइ रिय- नक्खचणिसत्थकोसो य ॥३४३१॥ "तलियysबद्वाण" इमा व्याख्या - तलिया तु रत्तिगमणे, कंटुप्पह तेणसावते असहू | पुडविच सीते, बद्धो पुण विष्णसंधट्ठा || ३४३२ ॥ - श्रचक्खुविसए रातो गम्ममाणे सत्थवसा उपहेण गम्ममाणे सावयतेणभए वा तुरियं गम्ममाणे सुकुमालपादो वा असहू कंटगसंरक्खणत्थं कमणीप्रो पादेसु बंधति सीतेण वि पब्बीसु वियाउप्रासु फुट्टंतीसु खल्लादि पुगे बंधति, तलिगादि तुट्टसंघणट्ठा बहनो (दो) घेप्पति ||३४३२॥ " कोसग हरक्खडा, हिमादिकंटा दिसू तु खपुसादी । कत्ती विकरणड्डा, विवित्त पुरवादिरक्खट्टा ||३४३३॥ अंगुलिकोसगो महभंगादिरक्खट्ठा, हिमग्रहिकंटादिरक्खट्टा खपुसवगुरिश्रद्धधातिया चेप्पति । कती चम्मं तत्य पलंबादि विकरण कज्जति मा धूलीए लोलिहिति । विवित्ता वा वासकप्पाभावे प्रत्थंडिले चित्तविमादिरक्खट्टा तत्थ उद्घट्टाणादि करेंति ||३४३३ || " चम्मे" त्ति गयं । दिसा सिक्कायादिग्गहणं तेसिं इमा वक्खा - तहि सिक्कएहिं हिंडंति, जत्थ विवित्ता व पल्लिगमणं वा । परलिंगग्गहणम्मि व, णिक्खवणड्डा व अन्नत्थ ||३४३४|| २१३ जत्य मुसिता तत्थ पत्तबंधाभावे चोरपल्ली वा भिक्खायरियाए गम्ममा लाउए सिक्कगेस काउं गम्नइ चक्कधरादि वा परलिंगं सिक्करण कज्जति, श्रद्धाणकप्पादि वा तत्थ काउं निविखप्यति, पलंबादि वा सिक्काउं अन्नत्य थेरमादिमु सष्णिक्खिवति श्रगीयत्यासंकाए ।। ३४३४।। जे चेत्र कारणा सिक्कगस्स ते चेव होंति का वि । कप्पुवही बालाइ व, वर्हति तेहिं पलंबे वा || ३४३५॥ "काए" ति कवोडी । ग्रहवा - कवोडिसिक्कगाणं इमो उपयोगो श्रद्धाकप्पे बालवुड्ढप्रसहुआयरियाण उबहिं, बालवुड्ढे वा सूनविद्धं वा पलंबाईणि वा वहति ।। ३४३४|| "सिक्कग" त्ति गतं । - Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे । गुत्र-- इयाणि “लोहग्गहणं" पिप्पलग विकरणट्ठा, विवित्तजुण्णे य संधणं सूई । आरिग तलि-संधणहा, णक्खचणणक्ख-कंटादी ॥३४३६॥ पलंबविकरणट्ठा पिप्पलगो, मुसितसेसवत्थस्स भावजुण्यस्स वा सिव्वणवा सूई, तुट्टोवाणहसिव्वगट्ठा पारा, सल्लकंटुद्ध रणट्ठा णहरणी घेप्पति ।।३४३६॥ इमो सत्थकोसो - पत्थणसत्थयं अंगुलिसत्थयं सिरावेहसत्थयं कप्पणसत्थयं लोहकाटया संडासमी अणुवेहसलागा वीहिमुहं सूइमुहं । एवमादिसत्थकोसस्स इमो उवयोगो - कोसाऽहि-सल्ल-कंटग, अगतोसढमाइयं तुवग्गहणं । अहवा खेत्ते काले, गच्छे पुरिसे य ज जोग्गं ॥३४३७॥ अहिडक्कं पच्छिम्जइ, सल्लुद्ध रणं वा सत्थरोग कज्जति । अगदमेव प्रोसहं । अहवा प्रणेगदम्वेहिं अगदो, एगंगितं प्रोसढं । खेते जे जहिं स्थि, गिम्हकाले वा स तुगादिशीतलं महल्लगच्छे केलगादिसाधारणं ज च जस्स पुरिसस्स (ख) समति तं चित्तब्वं ।।३४३७॥ इयाणि "रणंदिभायणं धम्मकरसो य" जुगवं भन्नइ - एक्कं भरेमि भाणं, अणुकंपा गंदिभाण दरिसंति । गति व तं वइगादिसु, गालेति दवं तु करएणं ॥३४३८॥ प्रद्धाण कोति भणेऽज – ग्रहं मे दिणे दिये एग भायणं भरेमि", तत्थ गंदीभायणं उवट्ठति । अहवा - तं गंदिभावणं भिक्खायरियाए गोउलं गेनि. फासुगाफासुगं वा दवं धम्मकरएणं गालेनि ॥३४३८॥ इयाणि ' परतित्थोवकरणं' - परतित्थियउवगरणं, खेते काले य ज तु अविरुद्ध । तं रयणि पलंबट्ठा, पडिणीए दिया व कोट्टाती ॥३४३६॥ परलिगे ठिया भत्तपाणं गेण्डति, पलंबे वा जत्थ पडिगीया तत्थ परवेसछन्ना गच्छति, भत्तादि वा उप्पाएंति, मिच्छ कोट्टे दिवसतो गता परवेपच्छला पोग्गलादि अपं गेहति । फलाणि व जत्य पच्चंति तं कोटें, तत्थ परलिगढ़िया फलादि गेण्हंति ।।३४३६।। इयाणि "गुलिग" ति तुवररुक्खचुण्णगुलिगायो कज्जति । गोरसभाविता पोत्ता खोलो भण्णनि गोरसभावियपोत्ते, पुबकते दवस्स संभमे धोवे । असती य तु गुलित मिगे, सुण्णे णवरंगदतियाओ ॥३४४०॥ जत्थ फामुयद तम्स असंभवो तन्य गोरस भाविते पोने धृवंति, प्रगीयस्थपच्चयाय भण्णति-गोउलामो १ गा० ३४३० । २ गा०३४३० । ३ गा० ३४३०। ४ गा० ३४३० । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३४३६-३४४६] एकादश उद्देशकः २१५ उसित्तियपाणगमाणीतं, असति गुलियाणं अगीतचित्तरक्खणट्ठा सुन्नं य गामे पडिसत्थियमादियाण। णवरंग - दतियातो गहितं ति भण्णति ॥३४४०॥ . एमादि अणागयदोसरक्खणहा अगेण्हणे गुरुगा । अणुकूले णिग्गमओ, पत्ता सत्थस्स सउणेणं ॥३४४१।। उवगरणस्स अगेण्हणे ङ्का । अणुकूले चंदे तारावले णिग्गमगो गच्छति, जाव सत्यं ण पावंति ताव सउणं गिण्हति, जदा सत्थं पत्ता तदा सत्थसंतिएण सउणेण गच्छति, णो पत्तेयं सउणं गेण्हति ॥३४४१।। अप्पत्ताण णिमित्तं, पत्ते सत्थम्मि तिण्णि परिसातो । सुद्ध त्ति पत्थियाणं, अद्धाणे भिक्खपडिसेहो ॥३४४२॥ कडजोगि सीहपरिसा, गीयत्थ थिरा उ वसभपरिसायो । सुत्तकडमगीयत्था, मिगपरिसा होति नायव्वा ॥३४४३॥ जदा सत्थं पत्ता तदा तिन्नि परिसायो करेंति-सीह-वसभमिगपरिसा य । गीयत्या सीहारिसा । गीया बलवंतो वसभपरिसा 1 अधीतसुत्ता अगीतत्था मिगपरिसा । सत्यो सुद्धो त्ति काउं पट्टिया । जया अडविं पवना तदा कोति पडिणीसो भिक्खपडिसेहं करेज्ज ।।३४४२-४३॥ अणुण्णवणकाले सत्थवाहो एवं वोत्तव्यो - सिद्धत्थगपुप्फे वा, एवं वोत्तुं पि णिच्छुभति पंतो। भत्तं वा पडिसिद्ध, तिण्हऽणुसत्यादि तत्थ इमा ॥३४४४॥ "जहा सिद्धत्था चंपयपुप्फ वा सिरट्ठियं किंचि पोडं न करेति एवं तुम्हे वि अम्हं न किं चि पीड करेह, बच्चह भंते !" पच्छा पंतो अडविमझे भिक्खं पडिसेहेति, सत्थाप्रो वा णिच्छुभइ, तत्थ जयगाए 'तिह" - सत्थस्स सत्थवाहस्स प्रातिपत्तियाण ॥६४४४।। अणुसट्ठी धम्मकहा, विज्जणिमित्ते पभुस्स करणं वा । परतित्थिया व वसभा, सयं व थेरी य चउभंगो।।३४४५॥ ' इहलोगप्रववायदरिसणत्यं अणुसट्टी. इहपरलोगेसु कम्मविवागदरिसणं धम्मकहा, विज्जमतेहिं वा वसीकञति । सहस्सजोहो - बलवं सत्याहं बंधित सयमेव सत्थं अधिद्वेइ - प्रभुत्वं करोतीत्यर्थः । एसा णिच्छुभणे विही। भिक्खापडिसेधे इमो विही -- सवहा प्रसंथरणे वसभा परतिस्थिगा होतु पनवेति, भत्ताइ वा उप्पाऐंति, राग्री मेहंति ॥३४४५॥ ""सयं व" त्ति अस्य व्याख्या -- पडिसेहे अलंभे वा, गीयत्थेसु सयमेव चउभंगो । थेरिसगासं तु मिगे, पेसे तत्तो य आणीतं ॥३४४६॥ १ गा० ३४४५ । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य - चूर्णिके निशोथसूत्रे [ सूत्र-७७ सत्या हेग पडिसिद्धा तेगेहि वा सत्ये विलुलिते अलब्भमाणे जइ ते सव्वे गीयत्था तो चउमंगेण ' जति । ग्रह गोयमिस्सा तो सलिंगेग चेत्र । जति भद्दिता तत्थ सत्थे थेरी प्रत्थि तो तस्समीचे ठावेंति, २ गीतेहि वा थेरिसमीत्रातो प्राणवेंति, पेरिसमीवातो प्राणियं ति भणति ॥ ३४४६ ॥ ११६ तो ति पल्लिगादी, सड्ढा थेरि पडिसत्थगातो वा । णायम्मिय पण्णत्रणा, ण हु असरीरो हवति धम्मो ॥ ३४४७॥ मिगेसु पुच्छंतेसु इमं उत्तरं - "पल्लीश्रो वा पडिसत्थातो सड्ढेहि वा दिन्नं" । एवं चउभंगेण जयंता जति मिगेहिं णाता तो ते मिगा पन्नविज्जति "प्रसरोरो धम्मो न भवति, तम्हा सव्वायत्तेण सरीरं रक्खपव्वं, पच्छा इमं च श्रन्नं च पच्छित्तेण विसोहिस्सामो" ||३४४७॥ परिसागमणे इमो विधी 1 पुरतो य वच्चति मिगा, मज्झे वसभा उ मग्गतो सीहा । पिट्ठतो वसभऽण्णेसिं, पडिताऽसहुरक्खणा दोन्हं ॥ ३४४८ || पुत्रद्धं कंठं । अण्णे भांति - पितो वसभा गच्छति इमं कारणं मिगसीहाणं एएसि जे अस हापिवासापरिस्सहेहि पीडिता तेसि रक्खणट्ठा || १४४८ || वसभोवतोगो इमो - पुरतोय पासतो पिट्ठतो य वसभा वहति श्रद्धाणे | गणपतिपासे वसभा, मिगाण मज्झम्मि वसभेगो || ३४४६ ॥ वसभा सीहेसु मिगेसु, चेत्र थामावहारविजढा तु । जो जत्थ हो सहू, तस्स तह उग्गहं कुज्जा ॥ ३४५० ॥ थामो बलवं, जत्थे त्ति जेग पिवासादशा ग्रसहू तेण उवग्गहं कुब्वंति ।। ३४५० ।। तं च इमं - भत्ते पाणे विस्सामणे य उचगरण - देहवहणे य । थामा विहारविजढा, तिष्णि वि उवगेण्हते वसभा ॥ ३४५१ ।। खुहितस्य भत्तं देति पिवासियस्स पाणं, परिस्संतस्स विस्सामणं, उवकरणसरीरे वोढुं असमत्यस्स तेसि वहणं करेंति "तिष्णि वि" मिगसीहवसमे वसभा उवगिण्हति ।। ३४५१ ।।. जो सो उवगरणगणो, पविसंताणं ऋणागयं भणितो । सट्टा सट्टाणे, तस्सुवओोगो इहं कमसो || ३४५२ ।। चम्मादिपुच्वत्तमेव सद्वाणं, जेग जया कज्जं तं तदा पयोत्तव्वं । एसेव कमो ॥। ४५२।। असतीते गम्ममाणे, पडिसत्थे तेण - सुण्णग मे वा । रुक्खाईण पलोयण, असती गंदी दुविहदव्वे || ३४५३ ॥ १ दियागहियमादि । २ प्राहारादि, इत्यर्थः । . Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३४४७ - ३४५७ ] सत्थेण गम्ममाणे सत्थे प्रसती भत्तपाणस्स इमेसु मग्गंति - पडिसत्थे, "तेण" पल्लोसु, सुष्णगा वा, रुक्खमूलेसु वा पलंबे पलोएंति- गृहंतीत्यर्थः । संथरणासति "णंदी" हरिसो, दुविधं दव्वं परितागंतादि, असंथरे उत्क्रमेणापि तद्द्रव्यं गृहन्ति, येन नन्दी भवतीत्यर्थः ।। ३४५३ ।। ""पडिसत्थो" अस्य व्याख्या एकादश उद्देशकः - प्रत्तेण व पाणेण व, णिमंतऽणुग्गए व अत्थमिते । इच्चो उदितो त्तिय, गहणं गीयत्थसंविग्गे || ३४५४ || सत्थेणं गम्ममाणे असंथरे जति पडिसत्यो मिले रातो तत्थ ग्रहाभद्दा दाणरुइणो सड्ढा वा जति भत्ते पाणेण वा निमंतिया श्रणुग्गए सूरिए प्रत्थमिते वा ताहे जति सव्वे गीता तो गिहंति चेव । गीतमिस्सा ताहे गीता भगत - "वच्चह तुम्भे, अम्हे उदिते सूरिए इमं भत्तपाणं घेत्तु पच्छा एहामो ।" पट्ठिएसु मिगेसु ते गीया तक्खणमेव रातो घेत्तुं श्रणुमग्गतो गच्छति थिए सत्थे मिगपुरतो श्रालोति " इच्चे उदिए गहणं कातुं प्रागता " । एयं सव्वं जयणं गीयत्थो संविग्गो करेति ।। ३४५४ ।। गीयत्थरगहणणं, राते गेण्हतो भवे गीतो । संविग्गग्गहणेणं, तं गेहंतो वि संविग्गो || ३४५५ ।। "तेणपल्लीसु पिसितं" संभवति । तत्थ इमा जयणा पोग्गल बेंदियमादी, संथरणे चउलहू तु सविसेसा । ते चेव असंथरणे, विवरीय सभाव साहारे || ३४५६ ।। - जइ संथरणे पोग्गलं बेंदियसरी निष्पन्नं गेव्हंति तो चउलहुगं दोहि वि तवकालेहिं लहुयं । तेइंदिएसु कालगुरु । चउरिदिएसु तवगुरु । पंचिदिएसु दोसु गुरुगं । १ गा० ३४५३ । २१७ अस्यैवापवादो - असंथरणे बेइंदियादिकमेण घेत्तव्वं । ग्रह असंयरणे विवरीतं उक्कमेण गेव्हंति तो ते चेव चउगुरुगा । अववादे श्रपवादः - उक्कमेणापि जं सभावेण साधारणं तं गेण्हंति ।। ३४५६॥ पिसितग्गह इमा जयणा जत्थ विसेसं जाणंति, तत्थ लिंगेण चतुलहू पिसिए । अण्णा उग्गहणं, सत्यम्मि वि होति एमेव ||३४५७|| जत्थ सत्थे गामे वा जणो विसेसं जाणति जहा साहू पिसितं न भुजंति, तत्थ जति सालंगेण विसितग्गहणं करेंति तो चउलहुं । "अन्नाए" ति जत्थ विसेसं न जाणंति तत्थ सलिंगेणेव गहणं । ग्रह परलिंगं करे तो मूलं । पडिसत्थमादिसु वि एमेव । रात्रौ भिक्षागणे भोजने च इदमेव द्रष्टव्यं ।।३४५७।। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सभाष्य-चणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-७७ इयाणि "'सुण्णगामे" त्ति - कप्पडियादीहि समं, तेणगपल्लि तु सिक्कए घेत्तुं । गहणं सति लाभम्मि य, उवक्खडे अण्णलिंगेण ॥३४५८॥ अद्धाणासंथरणे, सुण्णे दवम्मि कप्पती गहणं । लहुओ लहुया गुरुगा, जहण्णए मज्झिमुक्कोसे ॥३४५६।। प्रद्धाणपडिवन्नाणं असंथरणे जाते सुणे गामे जहन्नमज्झिमुक्कोसस्स दव्वस्स प्रदिन्नस्स कप्पति गहणं कातुं । अह संथरणे गेण्हति तो इमं "प्रोहेण" पुरिसअविभागेण पच्छित्तं, जहन्ने मासलहुं, मज्जिमे चउलहुँ, उक्कोसे चउगुरु ॥३४५६।। जहन्नमज्झिमुक्कोसदरिसणत्थं इमं - उक्कोसं विगतीओ, मज्झिमगं होति कूरमादीणि । दोसीणाति जहण्णं, गेण्हती आयरियमादी ॥३४६०।। पायरिय-वसभ-भिक्खूणं गेण्हताणं प्राणादिया दोसा ॥३४६०॥ इमं च पुरिसविभागेण पच्छित्तं - अद्धाणे संथरणे, सुण्णे गामम्मि जो उ गिण्हेज्जा । छेदादी आरोवण, णेयव्वा जाव मासो उ ॥३४६१॥ प्रद्धाणपडिवन्नो संथरणे जो सुन्नगामे विगतिमादियं गेण्हति तस्स अंतो मासस्स बहिं वा दिहादिद्वं पायरियमादियाण छेदादि पारोवणा ताव णेयव्वा जाव मासियं अंते ॥३४६१॥ सा य छेदादिप्रारोवणा इमा - छेदो छग्गुरु छल्लहु, चउगुरु चउलहु गुरु लहूमासो। भिक्खू वसभायरिए, उक्कोसे मज्झिम जहण्णे ॥३४६२॥ इमो चारणापगारो - पायरियस्स विगइमाइ उनकोसं सुत्रगामे अंतो दिटुं गिण्हंतस्स छेदो, प्रतो चेव प्रदिवे छग्गुरु । बाहिं दिढे छग्गुरुगा चेव । वाहिं अदिढे छल्लहुगा । पायरियस्सेव प्रोदणादि मज्झिमे अंतो दिढे छग्गुरुगा, अदिढे छल्लहु । बाहिं दिटे छल्लहुगा चेव, मदिटे चउगुरुगा। मायरियस्सेव अंतो जहण्णे दोसीणादिम्मि दिटे छल्लहुगा, अदिट्टे च उगुरुगा, बाहिं दिढे चउगुरुगा चेव अदिढे चउलहुगा। वसभस्स एवं चेव - चारणाप्पगारेण छग्गुरुगादि मासगुरुए ठायति । भिक्खुस्स वि एवं चेव छल्लहुगादि मासलहुगे ठायति ।। "भिक्खुवसमायरिए" ति जं पुरिसविवञ्चासगहणं कतं तं विपरीतचारणाप्रदर्शनार्थम् । १गा० ३४१३। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३४५८-३४६६ । एकादश उद्देशकः २१६ भिक्खुस्स गामबाहिं जहन्न अदिदं गेहतस्स मासलहुं, दिढे मासगुरु, अंतो अदिढे मासगुरु चेव, दिट्टे चउलहुं । एवं मझे मासगुरुगादि चउगुरुगे ठायति । उक्कोसे चउलहुगादि छल्लहुगे ठायति ।। वसभस्स एवं चेव मासगुरुगादि छन्गुरुगे ठायति । पायरियस्स चउलहुगादि छेदे ठायति । तम्हा पच्छित्तं परियाणमाणो संथरणे ण गेण्हेजा ॥३४६२।। असंथरणे इमेण विधिणा सुन्नगामे सुन्नं दव्वं गेण्हेज्जा - उद्द ढसेस बाहिं, अंतो वा पंत गेण्हति अदिटुं । बहि अंतो ततो दिटुं, एवं मझे तहुक्कोसं ॥३४६३॥ उड्डुसेस नाम जं लुटागेहि अप्पणट्ठा बाहिं णीतं, तं भोत्तुं सेसं छड्डियं, तत्थ जं जहणं तं अदिटुं गेहंति। तस्स असति अंतो गामस्स पंतं चेव अदिटुं गेहंति । तस्स असति बाहिं पंतं दिटुं गेण्हति । तस्म असति अतो पंतं दिटुं गेण्हति । तस्स असति मज्झिमं । एवं चेव चारेयव्वं । तस्स असति उक्कोसं एवं चेव ।।३४६३॥ जघन्यमध्यमोत्कृष्टविकल्पप्रतिषेधार्थमिदमाह - तुल्लम्मि अदत्तम्मि, तं गेण्हसु जेण आवतिं तरसि । तुल्लो तत्थ अवाओ, तुच्छफलं वज्जते तेणं ॥३४६४॥ जहन्नमज्झिमुक्कोसेसु दव्वेसु अविसुद्धभावतो तुल्लं अदत्तादानं, संजमायविराहणा वा, तो गेण्हणकडणादि अवायो तत्थ तुल्लो चेव भवति, तम्हा तुच्छफलं दव्वं वज्जेउं जेग दब्बेण भुत्तेण तं प्रावति तरसि तं गेण्हसु ॥३४६४।। असुन्नदव्वे इमा विही - विलउलए य जायइ, अहवा कडवालए अणुण्णवए । इयरेण व सत्थभया, अण्णभया बुट्ठिए कोट्टे ॥३४६॥ लंटागा, विलउलगा तो जायति । अहवा - जे तत्थ सुग्णगामे पुड्ढादि अजंगमा गिहपालगा * ठिता, ण णट्ठा ते मगंति, अणुण्णवेत्ता वा सयं गिण्हंति । कह पुण सो गामो सुन्नो जाप्रो ? तथिमे सुन्नऊ - "इतर" त्ति, चोरभयं महल्लसत्थभएण व अन्नभयं णाम परचक्कभयं, एतेहि उट्टिनो गामो। कोट्ट वा जं अटविमझे भिल्ल-पुलिंद-चाउव्वत्र-जणवमिस्सं दुग्गं वसति, वणिया य जत्थ ववति तं कोर्ट भन्नति, तम्मि सुन्ने दव्वग्गहणं वुत्तं ॥३४६५॥ "नंदि" त्ति अस्य व्याख्या -- गंदंति जेण तवसंजमेसु णेव य दरत्ति रिजंति । जायंति न दीणा वा, नंदी खलु समयसण्णा वा ॥३४६६॥ . १ गा० ३४५३ । २ दुयति दिप्पंति पा० । ३ खिज्जति इति वृ० क० उ० १, गा० २६२० । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - ७६ येनाभ्यवहृतेन तवें संजमे वा नंदति स एव नंदी, येनाभ्यवहृतेन न द्रुतं पप्पति स नंदी । अधवानाभ्यवहृतेन न दीना भवंति स गंदी । समयसण्णाए वा संथरणं णंदी भण्णति । यया येन वा संवरणं भवति तथा कर्तव्यमित्यर्थः ॥ ३४६६ ॥ २२० ""रुक्खादीण पलोयण" त्ति अस्य व्याख्या - - फासुगजोणिपरित्ते, एगडि अबद्धभिण्णऽभिण्णे य । बद्धट्ठिए वि एवं, एमेव य होंति बहुबीए || ३४६७॥ एमेव होंति उवरिं, बद्धट्ठिय तह होंति बहुबीए । साहारणस्स भावा, आदीए बहुगुणं जं च ॥ ३४६८ ॥ एयाओ दो विगाहाओ जहा पेढे वणस्सतिकायस्स कप्पियपडिसेवाए ॥ ३४६७-६८ ।। इयाणि राम्रो पाणगजयणा, जहा भत्तं तहा पाणं पि वत्तव्वं । ग्रहणं प्रति इमो विसेसो परिणिट्ठियजीवजढं, जलयं थलयं सचित्तमियरं वा । एयं तु दुहिदव्वं, पाणयजयणा इमा होइ || ३४६६॥ तुवरे फले य पत्ते, रुक्ख - सिला-तुप्प - मद्दणादीसु । पासंदणे पवाते, आयवतत्ते वहे अवहे || ३४७०॥ जड्डे खग्गे महिसे, गोणे गवए य सूयर मिगे य । दुष्परिवाडीगहणे, चाउम्मासा भवे लहुया || ३४७१॥ याओ दो विगाहा जहा पेढे आउक्कायस्स कप्पियडिसेवणाए || ३४७०-७१ ।। जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परिवासेइ, परिवासेंतं वा सातिज्जति ||२०|| ७८ || "अश् भोजने", "खाद्य भक्षणे", "पा पाने", "स्वद श्रास्वादने 1 एते चउरो, तिणि, दो प्रणयरं वा जो रातो प्रणागाढे - ण श्रगाढं अणागाढं, तम्मि जो परिवासेति तस्स चउगुरुं प्राणाति विराणा य भवति । - इमा णिज्जुत्ती J जे भिक्खू असणादी, रातो अणागाढे णिक्खवेज्जाहि । सोणा अणवत्थं, मिच्छत्त - विराधणं पावे ॥ ३४७२॥ १ गा० ३४५३ । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३४६७-३४७६ ] - एकादठा उद्देशकः . २२१ किंपुण आगाढं आणागाढं वा ? . तत्थिमं आगाढं समासतो चउन्विह - श्रद्धाणे ओमे वा, गेलण्ण परिण दुल्लभे दव्वे । आगाढं णायव्वं, सुत्तं पुण होतऽणागाहे ॥३४७३॥ इमं खेत्तागाढं - प्रद्धाण-पडिवण्णगाणं सब्बहा जं असंथरणं तं प्रागाढं । इमं कालागाढं- प्रोमकाले जं असंथरंणं तं मागाढं । इमे - गिलाण-परिणी दो वि भावागाढं । गिलाणस्स तद्दिवसं पायोम्गं जति न लब्भति गिलाणागाढं। परिणस्स असमाधाणे उप्पण्णे दिया रातो वा परिण्णागाढं । इह राती अहिकारो। इमं दव्वागाढं - "दुल्लभदवे' त्ति – सतपाग-सहस्सपागं, घयं, तेलं, तेण साहुणो कज्ज, तम्मि बालते दुल्लभदव्वागाढं । एवंविधं पागाढं णायव्वं । पडिपक्खे अगाणाढं । इस मुत्तं -- प्रणागाढे परिवासेति, तस्स य सोही, संजमायविराहणादोसा य ॥३४७३।। तत्य संजमे इमा विराहणा -- सम्मुच्छंति तहिं वा, अण्णे आगंतुगा व लग्गति । . तक्केंति परंपरतो, परिगलमाणे वि एमेव ॥३४७४।। असणादिए परिवेसाविते किमिरसगादी पाणा सम्मुच्छंति, अण्णे वा मच्छिय-मसग-मक्कोड-पिवीलिगादी पति, तक्कैति, परंपरतो वा भवंति । तं परिवासिदव्वं मच्छिग-मुइंग-मूसगादी तक्कैति, मच्छियानो गितकोइ. लिंगा तक्केति, गिहकोइलगं मज्जारो तक्के ति, मज्जारं साणो तक्कै ति, एस तक्कैति परपरयो । अह तं भायणं परिगलति, तत्थ वि परिगलिए एवं चेव तक्कैति परंपरयो । अत्र मधुबिन्दो रुपाख्यानं द्रष्टव्यम् । एसा संजमविराहणा ।।३४७४।। इमा प्रायविराहणा - जाला तया विसे वा, उंदरपिंडी व पडण सुकं वा । घरकोइलाइमुत्तण, पिवीलिगा मरण णाणाता ॥३४७॥ भत्ते पाणे वा परिवासिठविते सप्पादिणा जिंघमाणेण लाला विससम्मिस्सा मुक्का हवेजा, तया विसेण वा फुसितं हवेजा। उंदराणि वा संवासगतागि तत्थ पडेजा। तेहि वा संवासगतेहि बीयं निसटुं, तं पडेजा। घरकोइलो वा मुत्तेज्जा। गिहकोकिल-अवयवसम्मिस्सेण भुत्तेण पोट्टे किल गिहकोइला सम्मुच्छंति। मुइंगादी वा पडेज। एत्थ मुइगासु मेहा परिहायति । मेहापरिहाणोए णाणविराहणा। सेसेसु प्रायविराहणा । परियावणादि जाव चरिमं पावति ।।३४:५।। वितियपदे ग्रागाढकारणे निक्खवंतो ग्रदोसो। त च इमं - बितियपदं गेलण्णे, श्रद्धाणोमे य उत्तिमढे य । एतेहिं कारणेहि, जयणाए णिक्खवे भिक्खू ॥३४७६।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ७६-८० गिलाणस्स पतिदिणं अलभते, प्रद्धाण पवण्णाणं असंथरणे, दुभिक्खे य असंथरंतो, उत्तिमट्ठ. पडिवण्णस्स असमाहाणे तक्खणमलंभे एमादिकारणेहिं जयणाते परिवासेजा ॥३४७६।। इमा जयणा - सवेंटऽप्पमुहे वा, दद्दर मयणादि अपरिभुजते । उंदरभए सरावं, कंटियउवरिं अहे भूती ॥३४७७॥ लाउए सर्वेटे छुभति, अप्पमुहे वा कुडमुहादिसु, तत्थ छोढं चम्मेग घणेण वा चीरेण दद्दरेति, दद्दरासति सरावादिपिधाणं दातुं संधि मयणेण लिपति, छगणेण, मट्टियाए वा, ततो अव्वाबाहे एगंते ठवेति, जत्थ उदरभयं तत्थ सिक्कए काउं बेहासे ठवेति, जइ रज्जूए उंदरा अवतरंति तत्थंतरा सरावं ठवेंति, कंटकामो वा कद्दमे उद्धमुहा करेंति, भायणस्स वा मुहे कंटिका करेंति, एसा उवरि रक्खा । भूमिठियस्स वा अहो भूती करेत, परिगलणभया वेहासठियस्स अहो भूति करिज्जति ।।३४७७।। जत्थ पिवीलिगभयं, मूसगा य णत्यि, रज्जूए वा मूसगेहि छिंदणभयं, तत्थिमा प्रालयण-विधी ईसिं भूमिमपत्तं, आसण्णं वा वि छिण्णरक्खट्ठा । पडिलेह उभयकालं, अगीय अतरंत अण्णत्थ ॥३४७८॥ भूमीए ईसि अपत्तं रज्जूए प्रोसारेंति, प्रासणं वा हेट्ठा प्रणप्फिडतं ठवेंति । किमेवं ठविज्जति ? जदि मूसगेण रज्जू छिज्जति तो सपाणभोयणं भायणं पडितं पिण भिज्जत्ति, रक्खियं भवति, पुम्दावरासु य संझासु पडिलेहणपमज्जणा करेंति । अगीतगिलाणा जत्थ वसतीए संति न तत्थ ठवेंति । ते वा अगीयगिलाणा अण्णत्थ ठवेंति ॥३४७८॥ जे भिक्खू परिवासियस्स असणस्स वा पाणस्स वा खाइमस्स वा साइमस्स वा तयप्पमाणं वा भूइप्पमाणं वा बिंदुप्पमाणं वा आहारं आहारेइ, आहारेंतं वा सातिजति ॥सू०॥७९॥ जे भिक्खू मंसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहेणं वा पहेणं वा सम्मेलं वा हिंगोलं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं विरूवरूवं हीरमाणं पहाए ताए आसाए ताए पिवासाए तं रयणि अण्णत्थ उवातिणावेति, उवातिणावेतं वा सातिजति ॥सू०॥८॥ 'जम्मि पगरणे मंसं आदीए दिज्जति पच्छा प्रोदणादि, तं मंसादि भण्णति । मंसाण वा गच्छंता प्रादादेव पारणे करेंति तं वा मंसादि । प्राणिएसु वा मसेसु पादावेव जणवयस्स मंसपगरणं करेंति पच्छा सयं परिभुजंति तं वा मंसादी भणति । एवं मच्छादियं पि वत्तव्वं । मंसखल जत्थ मंसाणि सोसिज्जति, एवं मच्छखलं पि । जमन्नगिहातो प्राणिज्जति तं प्राहेणं, जमन्नगिहं णिज्जति तं पहेणगं । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३४७७-३४८३ । एकादश उद्देशकः २२३ अहवा - जं बहूगिहातो वरगिहं णिज्जति तं आहेणं, जं वरगिहातो वहूघरं णिज्जति तं पहेणगं । अहवा - वरवहण जं पाभव्वं परोपरं णिज्जति तं सव्वं प्राहेणक, जमनतो णिज्जति तं पहेनगं । सव्वाण मंसादियाणं जं हिज्जति-णिज्जति त्ति तं हिंगोलं, हुज्जति वा तं हिगोलं । अहवा - जं मतभत्तं 'करडुगादियं तं हिंगोलं । वीवाहभत्तं सम्मेलो । अहवा - सम्मेलो गोढी तिए भत्तं सम्मेलं भण्णति । अहवा - कम्मारंभेसु हामिता जे ते सम्मेलो। तेसि जं भत्तं तं सम्मेलं । गिहातो उजाणादिसु हीरतं - नीयमानमित्यर्थः, प्रेहा पेक्ष्य, तं लप्स्यामीत्याशा । अहवा - प्रोदनादि अशितुमिच्छा तदामा, द्राक्षापानकादि पातुमिच्छा पिपासा। अहवा - ताए प्रदेशाए - प्रतिश्रयादित्यर्थः, जो ति साहू जम्मि दिणे पगरणं भविस्सति तस्स मारतो जा रयणी तं जो अण्णत्य प्रतिश्रये उवातिणावेति - नयतीत्यर्थः । अन्नं वा नयंत सादिज्जति, तस्स चउगुरु प्राणादिणो य दोसा, प्रायसंजमविगहणा । उक्तः सूत्रार्थः । इदाणि णिज्जुत्ती । सा प्रायशो गतार्थव । मंसाइ पगरणा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । सेज्जायरेतराण व, जे तत्थासागते भिक्खू ॥३४७६।। तं पगरणं सेज्जातरस्स. इतरम्स वा असेज्जातरस्स, जे भिक्खू तत्थ भत्ते प्रासा तत्थासा, तत्था साते अणं वसहिं पागते प्राणादयो शेसा भवंति ॥३४७६।। तं रयणिं अण्णत्था, उवातिणा एतरेसु वा तत्थ । सो आणा अणवत्थं मिच्छत्त-विराहणं पावे ॥३४८०॥ सेज्जायरभत्तो सेज्जायरपिंडो प्रकपिउ त्ति काउं अन्नवसहिं गच्छति, इयरेसु तत्य गर्नु वसति परि (च) जयट्ठा ॥३४८०॥ मंसाण व मच्छाण व, गच्छंता पारियम्मि वयगादी। आणेति संखडिं पुण, खलगा जहियं तु सोसंति ॥३४८१॥ गच्छमाणा सडि करेंति, कत्तियमासादि प्रमंसभक्खणवते गहिते तम्मि पुण्णे मंसादिपगरणं काउं धिज्जातियाण दाउं पच्छा सयं पारेति । ग्रहवा - मंसादिभक्खणविरतिव्वयं धेनुं तस्स रक्खगट्ठा प्रादिए संखडि करेंति, आणिए वा मी संखडि करेंति । खलग जत्थ मंसं सोसंति ॥३४८१।। आहेणं दारगइत्तगाण वधुइत्तगाण व पहेणं । वरइत्तादि वहेणं, पहेणगं ऐति अपणत्थ ॥३४८२॥ सम्मेलो घडा भोज्ज, जं वा अत्थारगाण पकरेंति । हिंगोलं जं हिजति, सिहोडसिवाइ करडं वा ॥३४८३।। १ श्राद्धविशेषः । २ गा० ३४८३ । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे हीरंतं णिज्जंतं, कीरंतं वा वि दिस्स तु तयासा । अण्णत्थ वसति गंतुं, उवस्सतो होति तुवएसो || ३४८४ ॥ सेज्जायरस्स पिंडो, मा होहिति तेण अण्णाहिं वसति । इतरेसु परिजया अणागयं वसति गंतूणं ॥ ३४८५॥ गतार्थाः तत्थ गच्छमाणस्स अंतरा छक्कायविराहणा कटट्ठिविसमा दिएहि वा आयविराहणा । इमे य दोसा तत्थ - दुष्णीय दोणि विडा, मत्तुम्मत्ताय तत्थ इत्थी । दट्ठे भुताभुत्ते, कोउयसरणेहि गमणादी || ३४८६|| उपाउयं दुन्नियत्थं वा दुन्नीतं प्रवाउडा, दुन्निविद्वा विन्भला, गिब्भरा मत्ता, मदक्खए ईसि सवेणा सविकारट्ठकारी उम्मत्ता, भुतभोगिगो तातो दठ्ठे सतिकरणं, इयराण कीउयं ततो डिगमनादि करेज्ज | जम्हा एते दोसा तम्हा तत्थ ण गंतव्वं ॥ ३४८६ ।। बितियपदेण वा गच्छेज्जा - असि मोरिए, रायदुडे भए व गेलण्णे | अद्वाण रोहए वा अप्परिणामेसु जयणाए || ३४८७|| , T सिवादी सत्त कारणेसु जति गीयत्था ततो पणगपरिहाणोए वसहिठिता चेव गिति ||३४८७ || जतो भण्णति - परिणामते अच्छति आउलछम्मेण जाइ इतरेसु । जे दोसा पुव्वत्ता, सा इतरे कारणे जयणा ||३४८८|| श्रगीया त्रि जति परिणामगा तो प्रच्छति । ग्रह अगीता अपरिणामिया तो सेज्जायरसंखडीते आयरिश्रो भगति - एत्थ कल्लं जणाउलं भविस्सति इनो निगच्छामो प्रनवसहीए ठामो, असेज्जायरसंखडीए पुण संवासभद्दा भविस्संति ति काउं अन्नवसहीए वि वसेज्जा ||३४८८ || सूत्र ८१-८: जे भिक्खू निवेयणपिंडं भुंजइ, भुंजंतं वा सातिज्जति ॥ मू०॥८१॥ उवाइयं गोत्राइयं वा जं पुण्णभद्द माणिभद्द सव्वाणजक्ख 'महुडिमादियाण निवेदिज्जति सो निवेयणापिंडो । सो य दुविहो - साहुणिरुपाकडो प्रणिसाकडो य । मिस्साकडं गेण्हंतस्स चउगुरु, अनिस्साकडे मासलहं श्राणादिया य दोसा सव्वाणमाइयाणं, दुविहो पिंडो निवेयणाए उ । णिस्साएऽणिस्सा णिस्साए ग्राणमादीनि ||३४८६|| सव्वाणादिया जे ग्रतपविखया देवता ताण जो पिंडो निवेदिज्जति सो दुविधो शिस्समणिस्साडोय | साकडं पिंडं गेव्हंतस्स ग्राणादिया ।। ३४८६|| १ पाहुरियादियाण पा० । - Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाववाचा ३४८४-३४६३] एकादश उद्देशकः २२५ इमेण विहिणा णिस्साकडं करेंति - चरुगं करेमि इहरा, समणा णेच्छंतुवक्खडं भोत्तुं । सद्धाकतं ठवेंति व, णिस्सापिंडम्मि सुत्तं तु ॥३४६०॥ दाणरुई सड्डो वा णिवेयणचरुववदेसं कातुं साधूण देति, प्राधाकम्मं ठवितं -। अहवा - "जाव साहू मच्छति ताव उवातियं देमो, सुहं साहू गिण्हंति", एत्य मोसक्कण-मीसजायठवियदोसा । जया वा साहू प्रागमिस्संति तदा दाहेमो, एत्थ प्रोसकण-मीसजात-ठवियदोसा । सद्धाकडं साहुणिस्साए वा ठवेंति, एत्य ठवियगदोसो । केवलो एस णिस्साकडो। एत्थ सुत्तणिवातो । इमो प्रणिस्साकहो साहू होउ वा मा वा देवताते पुस्वपवत्तं ठवेंति । सो य ठवितो साहू य पत्ता, एसो कप्पति ।।३४६०॥ णिस्साकडो वि कप्पति - इमेहि कारणेहिं असिवे प्रोमोयरिए, रायपुढे भए व गेलण्णे । श्रद्धाण रोहए वा, जयणागहणं तु गीयत्थे ॥३४६१॥ पणगपरिहाणिजयणाते गेण्हंति, जहा वा प्रगीतप्रपरिणामगा ण याणंति तहागीयत्था गेहंति।।३४६१॥ जे भिक्खू अहाछंदं पसंसति, पसंसंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥८२॥ जे भिक्खू अहाछंदं वंदति, वंदंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥८३॥ "महाछंदे" त्ति - जकारव्यंजनलोपे कृते स्वरे व्यवस्थिते भवति अहाछंदः, छंदोऽभिप्रायः, यथा स्वाभिप्रेतं तथा प्रज्ञापयन् प्रहाछंदो भवति. तं जो पसंसति वदति वा तस्स च उगुरुगं प्राणादिया य दोसा । केरिसा पुण अहाछदपडिवत्तीतो -- उस्सुत्तमणुवइ8, सच्छंदविगप्पियं अणणुवादी । परतत्ति-पवत्ते तितिणे य इणमो अहाछंदो ॥३४६२॥ उस्सुत्तं णाम सुत्तादवेतं, अणुवदिटुं णाम ज णो पायरियपरंपरागतं, मुक्तव्याकरणवत् । सीसो पुच्छति - किमणं सो परूवेति ? आचार्याह - "सच्छंदविगप्पियं", स्वेन छदेन विकल्पितं स्वच्छन्दविकल्पितं, तं च "अणणुपाती". न क्वचित् सूत्र अर्थे उभए वा अनुपाती भवति, ईदृशं प्ररूपयन्ति । किं च परो गृहस्थस्तस्य कृताकृतव्यापारवाहकः, परापवादभाषी वा, स्त्रीकथादिप्रवृत्तो वा, परतप्तिवृत्तिः । तितिणो - दवे भावे य । दब्वे तंबुरुगादि कटुं अगणिपक्खितं तिणितिणेति । भावे तितिणो आहारोवहिसेज्जाबो इट्ठातो अलभमाणो सोयति - जूरति तिप्पति । एवं दिवस पि तिणितिणितो अच्छति अद्धित्ति । इमा ग्रहाच्छंदे प्रतिपत्तयः ।।३४६२।। सो य अहाछंदो तिहा उस्सुत्तं दंसेति – परूवण-चरण-गतीसु। तत्थ परूवणे इमं - पडिलेहण-मुहपोत्ती, रयहरण-णिसिज्ज-पात-मत्तए पट्टे । पडलाइ चोल उण्णादसिया पडिलेहणा पोत्ते ॥३४६३॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सभाष्य-चूणिके निशीयसूत्रे [ सूत्र-८३ पादपडिलेहणिमुहपोत्तियाणं एगंतरं भवतु, जतो स्वकायपमज्जणा भायणपमज्जणा य एयाए चैव कज्जति, न विरोडो अप्पोवगरणया य भवति, तम्हा सव्वे व पडिलेहगिगा सब्वे व मुहपोतिया कज्जतु रयहरणपट्टगो चेव बाहिरगिसेज्जाकजं करेति । किं निसेज्जागहणं कज्जति ? एक्क चेव पादं पडिग्गहं भवतु । कि मत्तयगहणं कज्जति ? पडिग्गहेणं चिय मत्तयकज्ज कज्जति, भणियं च - तरुणो एगं पादं गेण्हेज्जा। “२पट्टे" ति उत्तरपट्टो, सो रातो ग्रन्थुरणं कज्जति, भिक्वाग्गहकाले तं चेव पडलं कजति अहवा - रातो उत्तरपट्टे, दिवा सो चेव चोलपट्टो कजति । कि कक्खडफामाहिं उन्नदसियाहि ? खोमिया चेव मिउफासा भवतु । जति जीवदयत्थं पडिलेहणा कज्जति तो एगवत्यस्स उवरि सम्बपडिलेहणा कज्जउ । तं वत्थं . बाहि शीतले पदेमे पडिलेहिजतु ! एवं जीवदया भवति ॥३४६३।। दंतमिछण्णमलित्तं, हरियट्टि पमज्जणा य णितम्म । अणवादि अणणवादी, परूवणा चरण-गतीसं च ॥३४६४॥ दंतेहि णहा छेतवा, नहहरणं ग घेतव्वं, अधिकरणमभवात् । पादं अलिनं घरेयव्वं, लेवग्गहणे बह प्रायजमवि राहगा भवति । हरितोरिटितं डगलादिधेतवं, ते जीवा भाविकांता प्रासासिया भवंति, प्रणहा प्रदयालुतं भवति । जहा गितो जीवदयत्थं पम जति जाव छन्न तहा परतो पि पमज्जनु, जीवदयत्थमेव ण दोसो । एत्थ वि चि अशुवादि जहा पडिलेहणिमुहपोती। अहवा - पडिलेहणा पोत्ते । किं च अणणुवादी, जहा - "पट्टे पडलादि चोले" त्ति, छप्पतियउदरसंभवात् । अहवा - सब्वे पदा प्रगीतस्सऽगुवादी य प्रतिभासन्ति, गीतार्थस्य अननुपाति, अनभिहितत्वात - सदोषत्वाच्च । एषा परूवणा भणिता। इयाणि चरण-गतीमुभण्णति ॥३४६४।। तत्थ चरणे - सागारियादिपलियंकणिसेज्जासेवणा य गिहिमत्ते । णिग्गंथिचिट्ठणादी, पडिसेहो मासकप्पस्स ॥३४६५॥ सेज्जातर-रातपिंडे, उग्गमसुद्धाइ को भवे दोसो। पडिवत्ति दुविहधम्मे, सेज्जं नवए य पलियंके ॥३४६६। अणुड्डाहो गिहिमत्ते, निग्गंथीचिट्ठणे च सव्वत्थ । दोसविमुक्को अच्छे, मासहियं ऊण चरणेवं ॥३४६७॥ १ प्राचा० श्रुत० २ अध्य० ६ उद्दे० १ ० १५२ । २ गा० ३४६३ । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३४६४-३४६६] एकादश उद्देशकः २२७ सेज्जातरपिंडो उग्गमादिसुद्धो भोत्तम्वो, प्रादिग्गहणातो रायपिंडो, न तत्र दोषः । णवे पलियंके मंकुणाइजीवविरहिते सोयव्वं, न दोसा । गिहिनिसिज्जाए को दोसो ? पवि य साहू तत्थ निसण्णो धम्म कहेज्जा, ते य दुविहं धम्म - गिहिधम्म साघुधम्मं च, एवं बहुतमो गुणो गिहिगिसेज्जाते। गिहिमत्तसेवणे को दोसो ? पवि य उड्डाहपच्छादणं कतं भवति ।। णिग्गंधीणं उवस्सए दोसविमुक्को कुसलचित्तो चिट्ठणादिपदे किं न करेति ! मह तत्थ ठियस्स अकुसलचित्तसंभवो भवे, अन्नत्थ वि प्रकुसलचित्तस्स दोसो भवत्येव । जत्थ न दोसो तत्थ मासाहियं पि वसतु, जत्य दोसो तत्थ ऊणे वि मासे गच्छउ, एवं मासकप्पेण न किं चि पयोयणं । एवं चरणे परूवणं करेति ॥३४६७।। कि चान्यत - चारे वेरज्जे वा, पढमसमोसरण तह य णितिए य । सुण्णे अकप्पिए वा, अणाउंछे य संभोए ॥३४६८॥ चरणं चारः । विगतरायं वेरज्ज, जं भणियं “णो कप्पइ णिग्गंथाणं वेरेज्जविरुद्धरज्जसि सज्ज गमणं सज्जं आगमणं" तदयुक्तं । कम्हा ? जम्हा परीसहोवसग्गा सोढव्वा । भवि य पव्वयं तेण चेव प्रप्पा परिचत्तो। पढमसमोसरणम्मि उग्गमादिसुद्ध वत्थपत्तं किण घेप्पति ? को दोसो णिम्ममस्स ? णितियावासे को दोसो ? अवि विहरंताणं सीउण्हपरीसहाइया य दोसा । निपच्चवाते सुण्णा वसही किं न कज्जति ? को दोसो ? मकप्पिएण उग्गमादिसुद्ध प्राणियं पिंडवत्यादि, किं न भुजति ? मनायउंछ प्रडतस्स पिवास-खुन परिस्समा बहुतरा दोसा, तम्हा ससड्डादिसु कुलेसु चेव उग्गमादिसुद्धं गेत्तव्यं । अन्नसंभोइनो पंचमहन्वय-अड्ढारससीलंगसहस्सधारी तिगुत्तो पंचसमितो य, तेण सद्धि किं न भुंजति ? न य अन्नकिरिया अन्नस्स संकामति । एवं चरणे उस्सुतं परूवेइ करेति य ॥३४६८॥ इयाणि गतिदिटुंतमाह - . खेत्तं गतो य अडवि, एक्को संचिक्खए तहिं चेव । तित्थकरो ति य पियरो, खेत्तं तू भावो सिद्धी ॥३४६६।। इमं अहाछंदो दिटुंतो परिकप्पेति । तं जहा - एगो कुटुंबी तस्स चउरो पुत्ता । तेण सव्वे संदिवा - "गच्छह खेत्ते, किसिवावारं करेह' । तत्थेगो जहुत्तं खेत्तं कम्मं करेइ । बीमो गामा णिग्गंतु अडवीए उज्जाणादिसु सीयलच्छायाट्ठितो अच्छति । ततिप्रो गिहा णिग्गंतु गामे चेव देवकुलादिसु जूयादिपमत्तो चिट्ठति । चउत्थो गिहे चेव किंचि वावारं करेंतो चिट्ठति ।। अण्णया तेसि पिया मतो। ताण जं पिइसतियं किंचि दव्वं छेत्ते वा उप्पण्णं तं सव्वं समभागेण भवति। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-८४ इयाणि दिटुंतोवसंहारो। पच्छद्धं - कुडुबिसमा तित्थगरा, भावतो खेतं सिद्धी। पढमपुत्तसमा मासकप्पविहारी उज्जमंता, बितियपुत्तसमा णितियवासी । ततियपुत्तसमा पासत्था, चउत्थपुत्तसमा सावगधम्मठिता गिहिणो। तित्थकरपितिसंतियं दव्वं । णाणदंसणचरित्ता । जं च तुब्भे खेत्तं पडुच्च दुक्करं किरियकलावं करेह तं सव्वं प्रम्ह णितियादिभावट्ठियाणं सुहेण चेव सामण्णं ॥३४६६॥ कहं पुण अहाछंदं पसंसति ? उच्यते - वेरग्गितो विवित्तो य, भासए य सहेउयं । सासणे भत्तिमं वादी, एवमाई पसंसणा ॥३५००॥ विरागो अग्गं जस्स स वेरग्गितो, विगतरागो वा वेरग्गितो। उज्जमंतो मूलुत्तरगुणेसु विसुद्धो विवित्तो । “उस्सुत्तं पनवेंतो वि एस जुज्जमाणं सहेउगं भासति, जिणसासणे जिणाणं जिणसासणपवन्नाण य सब्वेसि एस भत्तिमंतो वन्नवादी य" ॥३५००।. एवं तु अहाछंदे, जे भिक्खू पसंसए अहव वंदे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥३५०१॥ कंठा । जं सो समायरति तं सव्वं अणुण्णायं भवति । अहाछंदसेहाण य ग्रहाछंदभावे थिरीकरणं कयं अवति, सेहो वा तत्थ गच्छति ॥३५०१॥ कारणे पुण पसंसति वंदति वा - बितियपदमणप्पज्झे, पसंस अविकोविते व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, भयसा तव्वादि गच्छट्ठा ॥३५०२।। अहाछंदो कोइ राइस्सिो , तब्भया तं पसंसति वंदति वा । “तव्वादि" ति कश्चिदेवं वादी प्रमाणं कुर्यात् – “अहाछंदो न वंद्यो, नापि प्रशस्य" इति प्रतिज्ञा । कस्माद्धेतोः ? उच्यते – कर्मबन्धकारणत्वात् । को दृष्टान्तः ? अविरतमिथ्यात्ववंदनप्रशंसनवत् । ईदृशप्रमाणस्य दूषणे न दोषमावहति प्रशंसवंदनपरूवणं कुर्वन् । “गच्छ8"त्ति कोइ अहाछंदो प्रोमाइसु गच्छरक्खणं करेति, तं वंदति पसंसति वा ण दोसो।।३५०२। जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा अणलं वा पवावेइ, पव्वावेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४॥ णायगो स्वजनः, अनायगो अस्वजनः ।। अहवा - नातगो प्रज्ञायमानः, अनायगो अप्रज्ञायमानः । न अलं प्रनलं अपर्याप्तः- अयोग्य इत्यर्थः, पव्वावेंतस्स चउगुरू प्राणादिया य दोसा । इमा णिज्जुत्ती ण सुत्तक्कमेण प्रणाणुपुवीए वक्खाणेति - साधु उवासमाणो, उवासतो सो वती व अवती वा । सो पुण णायग इतरो, एवऽणुवासे वि दो भंगा ॥३५०३॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३५००-३५०६] एकादश उद्देशक: २२६ उवासगो दुविहो - वती अवती वा ? जो अवती सो परदसण-संपण्णो । एक्केको पुणो दुविहो - नायगो प्रनायगो वा । अणुवासगो पि नायगमनायगो य । एते चेव दो विकप्पा ॥३५०३॥ अनलमित्यपर्याप्तः । चोदकाह - "ननु अलंशब्दः त्रिष्वर्थेषु दृष्टः, तद्यथा - पर्याप्ते भूषणे वारणे च । प्राचार्याह - काम खलु अलसद्दो, तिविहो पज्जए तहिं पगतं । अणलो अपच्चलो त्ति य, होति अजोगो य एगट्ठा ॥३५०४॥ यद्यपि त्रिष्वर्थेषु दृष्टः तथापि अर्थवशादत्र पर्याप्ते दृष्टव्यः । न अलो अनलः, अयोग्यश्च एकार्थाः ॥३५०४॥ ते य पव्वज्जाए अजोग्गा - अट्ठारसपुरिसेसुं, वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु । पव्यावणा अणरिहा, इति अणला इत्तिया भणिया ॥३५०५॥ सव्वे अडयालीसं। जे ते अट्ठारसपुरिसेसु ते इमे - बाले वुड्डू णपुंसे य, जड़े कीवे व वाहिए। तेणे रायाक्कारी य, उम्मत्ते य अदंसणे ॥३५०६॥ दासे दुढे य मूढे य, अणते मुंगिए इ य । उबद्धए य भयए, सेहणिप्फेडियाइ य ॥३५०७॥ जो पुरिसनपुंसगो सो पडिसेवति पडिसेवावेति । जा ता वीसं इत्थीसु ता इमा - बाला वुड्डी जाव सेहणिप्फेडिया, एते अट्ठारस । इमानो य दो गुव्विणि बालवच्छा य, पव्वावेउं ण कप्पती । एए सिं तु परूत्रणा, कायव्या दुपयसंजुत्ता ॥३५०८॥ णपुंसगदारे विसेसो - इत्थीणपुंसिया इत्थिवेदो विसे नपुंसकवेदमपि वेदेति । “एए सिं" गाहापच्छदं । "दुपदसंजुत्त" त्ति अस्य व्याख्या - कारणमकारणे वा, कारण जयणेतरा पुणो दुविहा । एस परूवण दुविहा, पगयं दप्पेणिमं सुत्तं ॥३५०६॥ १ सू० ८४ । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र -८४ कारणे णिक्कारणे वा पव्वावेति । कारणे जयणाते श्रजयणाए वा । जो दप्पेण पव्वावेति तस्स चगुरुगं प्राणादिया य दोसा ।। ३५०६ ।। ""बाले" त्ति दारस्स इमा वक्खा तिविहो य होति बालो, उक्कोसो मज्झिमो जहण्णो य । एतेसिं पत्तेयं, तिन्हं पि परूवणं वोच्छं ॥ ३५१० ॥ तिविहबालस्स पत्तेयं इमं वक्खाणं सत्तट्ठगमुक्कोसो, छप्पणमज्को तु जात्र तु जहण्णो । एवं वयणिफण्णं, भावो वि वयाणुवत्ती वा ।। ३५११ ।। २३० Bodd जम्मणतो सतवरियो जो सो उनकोसो बालो, छ- पंचवरिसो मज्झिमो, एगादि जाव चउवरिसो एम जहणो । एवं बालतं वतनिष्फण्णं, प्रायसो भावो वयाणुवत्ती भवति वा सहो वयाणुवत्ति त्ति । - कहं ? जहा बालो स-बालभावो - कारग गाहा हवा - वा सद्दी णवभेदो - जहण्णजहष्णो, जहष्णमज्झो, जहष्णुक्कोसो। एव मज्झिमुक्कामेसु तिनि तिनि भेदा वत्तव्वा ।।३५११ ॥ जं इमं तिविहबालकरणं लक्खणं च - - उक्कोसो दठूर्ण, मज्झिमय ठाति वारितो संतो । जो पुण जहण्णबालो, हत्थे गहितो वि ण वि ठाति || ३५१२ || ते वारिता करेंति तं केरिस ? पुण छिंदतमछिंदता, तिण्णि वि हरिताति वारिता संता । उक्कोस जति छिंदति, ताणि पुणो ठाति तो दिट्ठो || ३५१३ ।। प्रादिसदातोपुत्रादिमु प्रालिंपण- सिवण-तावण-बीयग संघट्टणादि दट्टव्या । उक्कोस जति तेसु छेदणादिमु पयट्टति तो गुरुणा प्रणेण वा दिट्ठमेत्तो चैव प्रवारियो ठायति । मज्झिमा पुन यदा वारितां तदा ठायति ।. जहणबालो जदा हत्ये घेत्तुं धरितो तदा ठायति, तहावि वामहत्येण छिंदति पादेण वा ।। ३५१३।। इदाणि ते केरिस बाला मेरं धरेंति ? निविहं बाललक्खणं च भणति मंडलगम्मि वि धरितो, एवं वा दिट्ठ चिट्ठति तत्र । मज्झिमश्र मा छिंदसु, ठाइति ठाणं नहिं चेट्ठे || ३५१४॥ मंडलमा लिहति " मेरं भलंघित्ता एत्थ विद्वह" त्ति भणिता ठिया जिसण्णा गिवण्णा वा हरितादि या मच्छिंदता उनकोसो जहेव भणितो तहेव ठितो । मज्झिमो वि हरितादि छिंदतो जदा वारितो तदा चिट्ठति, भंडले विनिरुद्धो मेरं लंघेतुं पासे चिट्ठति ॥३५१४ ।। । १ गा० ३५०६ । - Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ भाष्यगाथा ३५१०-३५२१] एकादश उद्देशकः इमो जहण्णो - . दाहिणकरम्मि गहितो, वामकरणं स छिदति तणाणि । न य ठाति तहिं ठाणे, अह रुज्झति विस्सरं रुवति ॥३५१५॥ हरितादिसु पुव्वद्धं गतार्थम् । जहण्णबालो मंडलेणं निरुद्धो ण तम्मि मंडलट्ठाणे चिट्ठति, पाएण वा मंडलं भंजेति । महं बालो रुझर्भात मंडले तो चडप्फडंतो विस्सरं रुवति ॥३५१५।। एसेवत्थो इमाए गाहाए भण्णति - जह भणितो तह 'चिट्ठइ, पहमो बितिएण फेडियं ठाणं । ततितो ण ठाति ठाणे, एस विही होति तिण्हं वि ॥३५१६॥ कंठा । एस तिण्हं पि बालाणं लक्खणे सरूवे वि परूवणाविही वक्खामो ॥३५१६॥ एयं तिविहं बालं जो पव्वावेति तस्स सिक्खावेतस्स असिक्खावितस्स वा इमं पच्छित्तं -- एगूणतीस वीसा, एगुणवीसा य तिविहबालम्मि । पढमे तको बितिए मीसो, ततिए छेदो व मूलं वा ॥३५१७॥ उकोसे बाले प्रउणत्तीसा, मज्झिमे वीसा, जहण्णे एगुणत्रीमा । "पढमे'' त्ति उक्कोसे जदा सव्वे तवट्ठाणगता तया तेसु चेव ठाणेसु छेदो पयति । "बितिए" ति मझिमे तवछेदो जुगवं गच्छंत, एवं मोसं भण्णति । 'ततिए" ति जहणेण तवो छेदो चेव केवलो भवति, पम्वावेंतस्स वा मूलं चेव ॥३५१३॥ उक्कोसबालस्स अउणत्तीस" त्ति जं वुत्तं तस्सिमा चारणविही - एगूणतीस दिवसे, सिक्खावेंतस्स मासियं लहुयं । उक्कोसगम्मि बाले, ते चेत्र असिक्खणे गुरुगा ॥३५१८।। अण्णे वि अउणतीसं, गुरुगा सिक्खमसिक्खे य चउलहुगा । पुणरवि अउणत्तीसं, लहुगा सिक्खेतरे गुरुगो ॥३५१६॥ अण्णे वि अउणतीसं, गुरुगा सिक्खे असिक्ख छल्लहुगा । छल्लहुगा सिक्खम्मी, असिक्खगुरुगा अउणतीसं ॥३५२०॥ एमेव य छेदादी, लहुगा गुरुगा य होति मासादी। सिक्खावेतमसिक्खे, मूलेक्कदुगं तहेक्केक्कं ॥३५२१॥ । एतेसि च उण्ह गाहाणं इमा सवित्थरा वक्खाणभावणा - उक्कोसगबालं पव्वावेत्ता सिक्खावेंतस्म एगणतीस दिवसा मासलह, असिक्खावेंतस्स मासगुरू । प्रणे एगणतीसं दिवसे सिक्खावेतस्स मासगुरुं प्रसिक्खावेंतस्स चउलहु । १ तुट्टिए इत्यपि पाठः । २ सूत्र ८४ । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्र य एगुणती दिवसे सिक्खावेंतस्स चउलहु प्रसिक्खावेंनस्स चउगुरु । णे एगूणतीस दिवसे सिक्खावेंतस्स चउगुरु सिक्खावेंतस्स छल्लहु । एगूणतीस दिवसे सिक्खावेंतस्स छल्लहु प्रसिक्खावेंतस्स छग्गुरु । एगूणतीस दिवसे सिक्खावेंतस्स छग्गुरु प्रसिक्खावेंतस्स मासलहुछेदो । गुणतीस दिवसे सिखावेंतस्स मासलहुछेदो असिकवावेंतस्स मासगुरुछेदो । गुणती दिवसे सिक्खावंतस्स मासगुरुछेदो असिक्खावेंतस्स चउलहुछेदो । गुणतीस दिवसे सिक्खावेंतस्स चउलहुछे दो असिक्खावेंतस्स चउगुरुछेदो । गुणती दिवसे सिक्खावेंतस्स चउगुरुछेदो प्रसिक्खावेंतस्स छल्लहुछेदो । एगूणतीस दिवसे सिक्खावेंतस्स चउलहुछेदो प्रसिक्खा बेंतस्स छग्गुरुछेदो । एगूतीस दिवसे सिक्खावेंतस्स छग्गुरुछेदो असिक्खावेंतस्स एगदिण मूलं । ततो सिक्खावेंतस्स एंग दिणमूलं प्रसिक्खावेंतस्स एगदिणं प्रणत्रटुं । ततो सिक्खावेंतस्स एगदिणं श्रणव प्रसिक्खावेंतस्स पारंची । ततो सिक्खावेंत्तस्स पारंची ||३५१८ ||३५४६ ।। ३५२० ।। ३५२१॥ हवा से गमो दिणेहि सिक्खेतरवजितो होति । मासादि तवच्छेदा, मूलादिए दिक्क्कं ॥ ३५२२ ॥ हवा सेव तवो, छेदो पणगादितो लहू गुरुगो । जा छम्मासे णेओ, तत्तो मूलं दुगे चेव || ३५२३ | ग्रहवा छम्मा से सिखाविखेमु । मूलादिया एक्केक्कदिगं तहा । उक्कोण बालस्स तो मःसादी चेव । छेदो पुग लहगुरुगो पणगादि ताव यव्त्रो- जाव अथवा उक्कोमं बाल पवावेतस्स श्रउणत्ती दिवसे मासलहुं तवो । प्रणे उतीमं दिव मासगुस्तव । एवं प्रउणत्तीसं प्रछतेहि चउलहूगा चउगुरू छल्लहु छगुरू तवा छेदा य नेयच्या, मूलादि . एक्क्कं दिणं एत्थ सिक्खा सिक्खा न कायव्वा ।। ३५२२ ।। ३५२३ ॥ [ सूत्र -८४ मज्झिमवीसं लहुगो, सिक्खमसिक्खस्स मासियो छेदो । to वीस सिक्खे, लहु छेदितरे मासगुरु || ३५२४|| वी सिक्खे, मासगुरू तवो असिक्ख सो छेदो । पुणरवि सिक्खे छेदो, गुरुओ असिक्खम्मि चउलहुगा || ३५२५ || एवं अड्डोक्कंती, नेयव्वं जाव छग्गुरु छेदो । तेण परं मूलेक्कं, दुगं च एक्केक्कयं जाण ।। ३५२६ ।। एतेसि दो (ति) हं गाहाणं इमा भावणा - मझिम पावेंतस वीमं दिवसे सिक्खावेंतस्स मासलहु तवो, प्रसिक्खावेतस्स मासलहु छेदो । वीस दिवसे सिखावेंतस्म मासलहु छेदो, श्रमिकखावेंतस्स मासगुरू तवो । वीमं दिवसे सिक्खावेंतस्स मासगुरू छेदो ग्रसिक्खावेतस्स मासगु छेदो । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३५२२-३५३०] एकादश उद्देशकः अण्णे वीसं दिवसे सिक्खावेतस्स मासगुरु छेदरे, असिक्खावेतस्स चउलहु तवो। अण्णे वीस दिवसे सिक्खावेंतस्स चउलहु तवो, असिक्खावेतस्स चउलहु छेदो। अण्णे वीसं दिवसे सिक्खावेतस्स पठलहु छेदो, असिक्खावेंतस्स उगुरु तवो। एवं अड्ढोबकंतीए तवछेदो गेयवो जाव छग्गुरुछे दो । ततो सिक्खासिखेसु मूलऽणवट्ठपारंचिया एक्केक्कदिणं णेयव्वा ॥३५२४॥३५२५॥३५२६।। अहवा सिक्खासिक्खे, तवछेदा मासियादि जा लहुगा। एवं जा छम्मासा, मूलेक्कदुगं तहेक्केक्कं ॥३५२७॥ दो लहुया दो गुरुया, तवछेदा जाव हुंति छग्गुरुगा। तेण परं मूलेक्क, दुगं च एक्कक्कयं जाणे ॥३५२८॥ अहवा- मज्झिमे प्रणे वीस दिवसे सिक्खावेतस्स मासलहु तवो, असिक्खावेंतस्स मासलहु छेदो॥१॥ अण्णे वीस दिवसे सिक्खावेतस्स मासलहुछेदो असिक्खावेंतस्स मासगुरु तवो ॥२॥ अण्णे वीस दिवसे सिक्खावेंतस्स मासगुरु तवो, प्रसिक्खावेंतस्स मासगुरु छेदो ॥३॥ अण्णे वीस दिवसे सिक्खावेंतस्स मासगुरुछेदो, पसिक्खावेतस्स चउ लहुतवो ॥४॥ अण्णे वीस दिवसे सिक्खावेंतस्स चउलहु तवो, असिक्खावेतस्स चउलहु खेदो ॥५॥ अण्णे वीस दिवसे सिक्खावेंतस्स चउलहु छेदो, असिक्खावेतस्स छल्लहु तवो ॥६॥ अण्णे वीस दिवसे सिक्खावेतस्स छल्लहु तवो, असिक्वातस्स छल्लहु छेदो ॥७॥ अण्णे वीस दिवसे सिक्खावेंतस्स छल्लहु छेदो, प्रसिक्खावेतस्स छग्गुरुतवो ॥८॥ [प्रणे वीस दिवसे सिक्खावेतस्स छग्गुरुतवो, असिक्खावेतस्स छग्गुरुछेदो। अण्णे वीस दिवसे सिक्खावेतस्स छग्गुरु छेदो, मसिक्खावेंतस्स एगदिणं मूलं ।' तो सिक्खावेंतस्स एगदिणं मूलं, असिक्खावेंतस्स एगदिणं प्रणवट्रो। ततो सिक्खावेंतो एग दिणं प्रणवट्टो, प्रसिक्खावेतो पारंची। ततो सिक्खावेंतो एगदिणं पारंची। इदाणि जहण्णो - एगुणवीसजहण्णे, सिक्खावेंतस्स मासिओ छेदो। सो चिय असिक्ख गुरुयो, एवऽडोक्कंति जा चरिमं ॥३५२६॥ अहवा पढमे छेदो, तदिवसं चेव हवति मूलं वा । एमेव होति बितिए, ततिए पुण होइ मूलं तु ॥३५३०॥ जहणं पब्वावेतो एगूणवीसं दिवसे सिक्खावेंतस्स मासलहुछेदो, असिक्खावेंतस्स मासगुरुछेदो। १ इदं पाठद्वयं पुण्यपत्तनस्थभाण्डारकर इस्टिट्यूटप्रतो नास्ति । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२३४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र । मूत्र-८४ अण्णे एगूणवीसं दिवसे सिक्खावेंतस्स मासगुरुछेदो, प्रसिक्खावेतस्स चउलहुछेदो। एवं छेदो प्रड्ढोक्कंतीए णेयब्वो, मूलऽणवट्ठपारंचिया एक्केक्कदिणं णेयव्वा । अहवा - उक्कोसबालं पवावेंतस्स छेदो भवति मूलं वा । एवं बितिए त्ति-मझिमे। जहाणे पुण मूलमेव । चोदकाह - कहं छेदो मूलं वा ? प्राचार्याह - यदि चरणसंभवो ततः छेदो, चरणाभावे मूलं । जघन्ये पुनः चरणाभावः एव, न मूलं ३५२६॥३५३०।। तिविधं बालं पव्वावेंतस्स प्राणादिया, इमे दोसा उड्डाहादी - बंभस्स वतस्स फलं, अयगोले चेव होंति छक्काया । राईभत्ते चारग, अयसंतराए य पडिबंधो ॥३५३१॥ तं बालं दद्रु प्रतिसयवयणेण भगति गिहिणो - "अहो । इमेसि समणाणं इह भवे चेव बंभवयस्स फलं दीति"। ___अहवा- एतेसिं चेव जणिउ ति सकाए च उगुरु, निस्संकिते मूलं । प्रयगोलो विव अगणिपक्खितो सुधमंतो अगणिपरिणतो जतो जत्तो छिप्पइ तत्तो तत्तो डहति । एवं सो बालो अयगोलसमाणो मुक्को जतो हिंडति ततो छक्कायवहाय भवति । सो य राम्रो भत्तं पाणं प्रोभासति । जति राम्रो देति तो राति मोयणं विराधितं । अह ण देति तो परियावणागिप्फणं । भणति य लोगो - इमस्स बालत्तणे चेव वंधणागारो उववण्णो। इमे य समणा चारगपालत्तणं करेंति, जेग एवं बाल णिरु भति । अयसो य अहो ! गिरणुकंपा समणा बला य बाले णिभंते"। अंतरायं भवति. बालपडिवधेश य ते ण विहरंति, जे णितियवासे दोसा ते वा भवंति ॥३५३१।। कि चान्यत् - ऊणढे णत्थि चरणं, पवावेतो वि भस्सते चरणा । मलावरोहिणी खलु, णारभति वाणितो चेहूँ ॥३५३२॥ ऊणटुबरिसे बाले चरितं ण विज्जति, जो वि य पवावेति सो गियमा चरित्ताउ भस्सति । अत्र प्रतिषेधद्वारेण दृष्टान्तः - जहा लाभत्थी वणियो मूलं जेण तुदृति तारिसं पण्णं णो किणाति, जत्थ लाभं पेच्छति तं किणाति । एवं जेण चरित्तातो भस्सति तं न पवावेइ, जेण ॥ भस्मति तं पव्वावेति ॥३५३२।। बालं पव्वावेतस्स य जम्हा इमं तवोकम्मं भवति तम्हा न पवावेति । उग्धायमणुग्घायं, णाऊणं छव्विहं तवोकम्मं । तवगुणलक्खणमेयं, जिणचउदसपुब्बिए दिक्खा ।।३५३३॥ लहु उग्घायं, गुरु मणुग्घायं, एतेहिं दोहि भेदेहिं छबिह ॥३५३३॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३५३१-२५३८] एकादश उद्देशकः २३५ कहं पुण छव्विहं तवोकम्मं भवति ? उच्यते - उग्धायमणुग्घातो, मासो चउ छच्च छविह तवो उ । एमेव छविहो वी, छेपो सेसाण एक्केक्कं ॥३५३४॥ मासो उग्घातो अणुग्घातो। एवं चउमासछम्मासादि उग्घाताणुग्धाता । एवं छव्विहं तवोकम्मं । छेदो वि एसो चेत्र छविहो । सेसा मूलादिया एक्केका भवति । तप प्रात्मको गुणः, तप एव वा गुणः तपोगुण, तपोगुणस्य लक्षणं तपोलक्षणं । लक्षतेऽनेनेति लक्षणं । मासेनोपलक्षित: मासिकलक्षणः ताः । एव चतुर्मासषण्मासेष्वपि । एतदेव षड्विधं तपोगुणलक्षणं बालप्रब्राजने भवति - न पंचकादिरित्यर्थः ।।३५३४।। बितियपदेण बालो पव्वाविज्जति । "जिणचोद्दसपुविए दिक्ख” त्ति अस्य व्याख्या - पव्यावेंति जिणा खलु, चोदसपुव्वी य जो य अइसेसी। एए अव्यवहारी, गच्छगए इच्छिमो गाउं ॥३५३।। जिण चोद्दसपुब्बी अतिसेसी वा पब्बावेति । शिष्याह - अम्हं एते अव्ववहारी, जहा गच्छगतो पब्बावेति तहा मे अक्खह । के वा जिणादीहिं पव्वाविता ? ॥३५३५।। अतो भण्णति - सत्थाए अइमुत्तो, मणो सेज्जंभवेण पुयविदा । पव्वाविप्रो य वइरो, छम्मासो सीहगिरिणा वि ॥३५३६।। "शास्ता" तीर्थकरः, तेण अतिमुत्तकुमारो पव्वावितो। चोद्दसपुवविदेण सिज्जभवेण अनणो प्रत्तो मणगो पवावितो । पवितहणिमित्त प्रतिसयट्टिनेण सीहगिरिणा वइरो पव्वावितो ।।३५३६।। वालपवावणे इमं गच्छवासिकारणं - उबसते वि महाकुले, णातीवग्गे वि सण्णि सेज्जतरे । अजा कारणजाते, अणुणाता वालपव्वज्जा ।।३५३७।। ''उवसंते वि महाकुले, नातीवग्गे” एतेसिं दोण्ह वि दाराणं इमं वक्खाणं - विपुलकुले अत्थि बालो, णातीवग्गे व सेवगादिमते । जणवातरक्खतो मारवेंति आसपणवालाई ॥३५३८॥ कि पि विउल विच्छिण्ण कुलं "3उवसंत" पवजापरिणतं, णवरं - तत्थ बालपडिबंधो, “जइ प्रम्ह एतं बाल पवावेह तो मब्बे पच्वयामो' । ते वनवा - "गिययममीवे बालं ठवेह, तुब्भे पुण पव्वयह"। जति ण ठवेंति, णीया वा ण इच्छति तो सह बालेण सब्चे पवाविज्जति, बहुगुणतरं ति काउं. मा नपडिबंधेग मञ्चाणि अच्छतु ।। १ गा. ३५३३ । २ जुत्तेण । ३ गा० ३५३७ । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [87-5** अहवा कस्सति साधुस्स णातिवग्गो सव्वो असिवादिणा मश्री, नवरेक्कं बालं जीवति । न य तस्स कोति वावारवाहम्रो प्रत्थि । ताहे सो साधू अयसवायरक्खा हेउं तं बालं प्रसन्नं पुत्तं भातियं पव्वावेता संरक्खति ।। ३५३८ । २३६ एवं सणि तराण वि, अज्जा य व डिडिबंध पडिणीए । कज्जं करेमि सचिवो, जति मे पव्वावयह बालं ||३५३६ || सम्मदिट्टिसंतियं बालं श्रणाहं तं पि एवं चैव सारवेंति । "उतरों" त्ति सेज्जातरो, तस्स वि संतियं बालं श्रणाहं पव्वावेंति । "मज्जा पडिणीण कामातुरेग वा केण ति बला परिभुत्ता । तस्स य समावृत्तीते डिडिबंधो जातो गर्भसंभव इत्यर्थः । सा य संजमत्थी न परिचइयन्त्रा, विहिणा संरक्खियव्वा, जया पसूया तया बालं पव्वावेयब्वं, सत्यकिवत् । कारणजाते" त्ति कुल-गण-संघकज्जे अन्न म्मि वा गच्छादिते कज्जे "सचिवों" मंती, सो भणेज्जा"अहं वो तुझं इमं कज्जं करोमि, जइ मे इमं बालं अलक्खणं मूलणक्खत्तियं वा पव्वावेह", ताहे पव्वावेजा । जाइसग्गहणात प्रसिवकंतारादिसु वि को ति भणेजा - भर्ह भे परितप्यामि जह मे इमं बालं पत्रावेह, एवमादिकारणेहि भगुष्णाता बालपव्वज्जा गच्छवासीगं ।।३५३६।। पव्वावियाण य तेसि इमा वड्डावणविही - भत्ते पाणे धोवण, सारण तह वारणा णिउंजणता । चरण-करण-सज्झायं, गाहेयव्वो पयत्तेणं || ३५४० ॥ द्धिं मधुरं रिउक्खमं च से भत्तं देति, पाणं पि से मधुरादि इटुं दिजति रातो विभत्तपाणं उनि, "धोवण" त्ति अभंगगुणण्हाणं च से फामुएण की रति, कप्पकरणेण य तेयस्सी भवति, लेवाडाति वा सव्वं मे धोवति, पडिलेहादिकहिते प्रत्येसु पुगो पुगो सारणा कज्जति, असमायारिकरणं करें हरियाई वा छिंदतो खेल्लतो वा वारिज्जति चरणकरणेमु य णिउज्जति, सञ्झायं च पयत्तेणं गाहिज्जति ।। ३५४० ।। गिद्ध - मधुर भत्तगुणा इमे णिमधुरेहि उं, पुस्aति देहिंदिपाडवं मेहा | अच्छंति जत्थ णज्जति, सङ्घातिसु पीहगादीया || ३५४१ ॥ चोदकाह - कथमायुषः पुष्टिः ? आचार्याह - यथा देवकुरोत्तरासु क्षेत्रस्य स्निग्धगुणत्वादायुषो दीर्घत्वं सुसमसुसमायां च कालस्य स्निग्धत्वाद्दीर्घत्वमायुषः, तथेहापि स्निग्धमधुराहारत्वात् पुष्टिरायुषो भवति सा च न पुद्गलवृद्ध, किन्तु युक्तग्रासग्रहणात् क्रमेण भोग इत्यर्थः । देहस्य च पुष्टिरिन्द्रियाणां च पटुत्वं भवति । मेघा च खीरादिणा भवति । जत्थ य सो बालो गज्जति अमुगस्स पुतो त्ति तत्थ गामे गगरे देसे रज्जे वा प्रच्छंति जाव महल्लो जातो । सडाइकुलेसु य अंतरपाणगपोहगादी सव्वं से ग्रहाकडं भवति । इत्यो वि बाली एवं चैव ॥३५४५॥ " बाले” त्ति दारं गयं । १ गा० ३५३७ । २ गा० ३५३७ । ३ गा० ३५३७ । ४ गा० ३५३७ । ५ गा० ३५३७ । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३५३६-३५४७ ] एकादश उद्देशकः २३७ इदाणि “वुड्डे" त्ति तस्सिमे भेदा तिविहो य होइ वुडो, उक्कोसो मज्झिमो जहण्णो य । एएसिं पत्तेयं, परूवणा होति तिण्हं पि ॥३५४२।। कंठा किं परिमाणसेसे आउए वुड्डो भवति ? अतो भण्णति - दस आउविवागदसा, अट्टमवरिसाइ दिक्खपढमाए । सेसासु छसु वि दिक्खा, पब्भाराईसु सा ण भवे ॥३५४३॥ जं जम्मि काले पाउयं उक्कोसं दसधा विभत्तं दस प्राउविवागदसा भवति । प्रतिसमय भोगत्वेन प्रायातीत्यायुः, विपचनं विपाकः, आयुषो परिहाणीत्यर्थः । अनुभागेन युक्तो विभागो दशा उच्यते, ततो य दस दसामो दसवरिसपमाणातो वरिससयाउसो भवंति - बाला किड्डा मंदा बला य पन्ना हायणी पवंचा पब्भारा मुम्मुही सायणी य । एयातो जहाणामाणुभावा य परूवेयवा । पढमदसाए अटवरिसोवरि नवमदस मेसु दिक्खा, प्रादेसेण वा गब्भट्ठमस्स दिक्खा जम्मणो अट्टमवरिसे । कीडादि एवं च पवचासु छसु वि दिक्खा अणुण्णाता, पन्भारादियासु तिसु वुड्डो ति काउं नाणुण्णाता दिक्खा ॥३५४३।। जहण्णमज्झिमुक्कोसे वुड्डपरूवणत्थं इमं - अट्ठमि दस उक्कोसो, मझो णवमीइ जहण्ण दसमीए । जं तुवरिं तं हेट्टा, भयणा व बलं समासज्ज ॥३५४४॥ अट्ठमिदसाए जहण्णो वुड्डभावो अल्प इत्यर्थः, नवमीए मज्झो, दसमीए उक्कोसो वुड्डभावो, पुनर्बालभवनादित्यर्थः । ___ अहवा - जं उरिं तं हेट्ठा कायव्वं । अदुमदसाए उक्कोसो, चेष्टाबुद्धयादि बहुगुणत्वात् । नवमीए मझो मध्यमगुणत्वात् । दसमीए जहण्णो अल्पगुणत्वात् । अहवा - बलं समासज्ज भयणा कायव्वा । सा इमा – अट्ठमदसातो जो जहन्नबलो भिक्खनियारपडिलेहगादिसु असत्तो सो जहणो, मझवलो मज्झिमो, उक्कोसबलो उक्कोसो । एवं नवम-दसमीसु वि दसासु वत्तव्वं ॥३५८४।। बाला मंदा किड्डा, पबला पण्णा य हायणी । पवंचा पब्भारा या, मुम्मुही सायणी तहा ॥३५४॥ केसि चि एवं वाती, वुडो उक्कोसगो उ जा सयरी । अहमदसा वि मझो, नवमीदसमीसु तु जहन्नो ॥३५४६॥ एवं ब्रु वते, तेषामयमभिप्राय: - षष्टिवर्षादूर्ध्व प्रबलेंद्रियहानीरित्यर्थः ।।३५४६।। असमायारीकरणे पुट्विं मिसिद्धो, पुणो असमायारि करेंतो गुरुणा अन्नेण वा दिट्ठो ताहे इमं करेति - उक्कोसो दणं, मज्झिमत्रो ठाति वारितो संतो। जो पुण जहण्णवुडो, हत्थे गहितो नवरि ठाति ॥३५४७।। १ गा० ३५०५ । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र- ८४ जह भणितो तह उडतो, पढमो बितिएण फेडितं ठाणं । ततितो न ठाति ठाणे, एस विही होति तिन्हं पि ॥ ३५४८ पूर्ववत् व्याख्येया ||३५४८।। वुड्डु पव्वावेंतस्स इमं पच्छित्तविहाणं - एगूणतीस वीसा, एगुणत्रीसा यतिविहवुडुम्मि | पढमे तवो बितिए मीसो छेदो मूलं च ततियम्मि || ३५४६ || दसमदसाठियं पञ्चावेंतस्स एगूणतीसा, नवमदसट्ठिते वीसा, प्रट्ठमदसट्ठिते एगूणवीसा । एयं जहा बाले तहा सव्वं श्रविसेसेण णेयव्वं ॥ ३५४९ ॥ पव्वावणे इमे दोसा - - आवासग छक्काया, कुसत्थ सोए य भिक्खपलिमंथो । थंडिल्लपडिलेहा, अपमज्जण पाठकरणजढो ||३५५० ॥ वुत्तणेण श्रवस्सग करणं न सक्केति गाहेतु, लोगकुस्मुडभावितो पुढवादिकाए ण सद्दहति ण तरति वा ते परिहरितुं, कुसत्यभावितो वा तं भावणं ण मुंचति, इमम्मि य जिणप्पणीए भावं ण गेण्हति, प्रतिसोयवाढविहति, बहुगा य दत्रेण श्रयमति, च उत्थरसादिणा वा दवेणायमितुं णेच्छति, भिक्खं ण हिंडति, हिंडतो वा एसणं न सोहेति, हिंडणे वि प्रदक्खो, बितियस्सावि पलिमंत्री. थंडिलसामायारी ण सद्दहति थंडिलं वा ण पडिलेहेति ण पमज्जति, पाढे दुम्मेहो मंदबुद्धित्तणम्रो य गहणजड्डो, करण किरियासु य करणजड्डो ||३५५०।। थंडिल्लं न वि पासति, दुब्बलगहणी य गंतुं ण चएति ! णस्स वि वक्खेवो, चोदणे इहरा विराहणता ||३५५१ ।। चक्खुविगलत्तगयो "इमं थंडिलं न व" ति न पासति, दुब्बलग्गहणी वा थंडिलं गंतुं न चएति, अंतरा चेव प्रथंडिले वोसिरति, पडिलेहणादिसु किरियासु पाढे य अभिक्खणं विणासेंतस्स चोदणा, अण्णस्स वि वक्खे | "इहर" ति श्रचोदगे संजमविराहणता भवति ।। ३५५१ ।। । किं चान्यत् उत नित्रेसंते, चंकम्मेंते वाउडियोसा | पडिलेह - भिक्खगहणे, पातवहो उवहिवीसरणं ॥ ३५५२ ॥ वुड्ढतणो चोलपट्टण घरेति सम्मं, तो उट्ठेतनिवेसंतो चंकमंतो य श्राउडो, ततो हसति लोओो उड्डाय । उवगरणा पडिलेहं न करेड़ न सद्दहति वा, दोसेहिं वा करेति, जडत्तो भिक्खरगहणे पादं भंजति । जत्थ वीसमति तत्थ उर्वाहि वीसारेति छड ेति वा पंथे वच्चतो || ३५५२ । किं चान्यत् - वुड्डो चरणकरणं सज्झायं गाहिज्जतो य चेतिज्जतो भर्णात - लोrasणुग्गहकरा, चिरयोराण ति वन्निमो म्हे । चरण-करण-सज्झाए, दुक्खं बुड्ढो टवेउ जे || ३५५३ ।। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३५४८ - ३५५६ ] एकादश उद्देशकः लोगपवादो - "वरिससयाउणा दिद्वेग पावं खरति" ति एवं वयं लोगाणुग्गहकारी, ग्रम्हे य चिरजीवित्ता जे परस्स पावं खवेमो तो अप्पणो गं खवेस्मामो ? दोहा उत्तणम्रो, चिरावुस्सेव विसेसणं, पुराणकालसमा त्ति, पोराणगा इह गच्छे, ब्रम्हे पुराणतरा अज्जा इत्यर्थः । ग्रधवा पोराण त्ति जस्स पपोत्तादिभावो प्रत्थि स पोराणो, सो य वुड्ढो भवति, तुन्भे सब्बे पपोत्तमाणा, कि सिक्खावेह ? कि वा जागह ? एवं बुड्ढों चरण-करण-सज्झाए दुक्ख ठवेज्जति - - ग्रहवा स वुड्ढो प्रोमरातिणिम्रो भोयणमंडलीए अंते णिवेसिज्जतो भगति - "भ्रम्हे लोगस्स गहरा रिपोराणा य, तं श्रम्हेहि प्रणिविद्वेहिं को पन्नो प्रादीते - निवेसिउमिच्छति" त्ति ।। ३५५३ ।। उग्घायमणुग्घायं, नाऊणं छव्विहं तवोकम्मं । तवगुणलक्खणमेयं, जिणचोदसपुव्विए दिक्खा || ३५५४ || पूर्ववत् पव्वावेति जिणा खलु, चउदसपुव्वी य जे य अइसेसी । re अव्यवहारी, गच्छगए इच्छिमो नाउं ॥ ३५५५ ।। पूर्ववत् सत्थाए पुब्वपिता, चोहसपुव्वीण जंबुनाम पिता । तं मणं जण, दिक्खिश्रो रक्खियऽज्जेहिं ॥ ३५५६ || शास्ता तीर्थंकरः पुत्रपिता माहंणकुण्डग्गामे सोमिलो (?) बंभणो । जंबु णामेण पिता पञ्चावितो उसभदत्तो । तं मझेगं त्ति नवपुत्रिणा रक्खिय ऽज्जेण पिता पव्त्रावितो सोमदेवो णाम ।। ३५५६ ।। चोदको भणति - एते श्रवबहारी, जहा गच्छवासी पव्वावेति तहा भगह । प्राचार्याह - वसंतेवि महाकुले, णातीवग्गे य सणिसेज्जासु । अज्जा कारणजाते, अणुणाया बुडूपव्वज्जा ॥ ३५५७।। जहा बाले तत्र व्याख्या नवरं इमो त्रिसेसो- खेताओं खेत्तं प्रज्जागं गत्थि, वुड्ढो हतको "संकामिस्सति" ति प्रतो पव्त्रावेति ।। ३५५७ ।। एवमादिकारणेहिं पव्वावियस्स जयणाते इमं कायव्वं भत्ते पाणे सयणासणे य उवही तहेव वंदणए । २३६ चरण- करण-सज्झायं, अणुयट्टमाण य गाहणया ||३५५८ || भक्तगण से समाहिकारगं दिज्जति, सयणीयं मे समभूमीए मउयसंथारगे, वासोत्रि से उचो कति, आसणं, से पादपणं दिजति, पोढगं वा तं पि मे उच्च उवहि जत्तियं तरति वोढुं जतिएण वा सीतं न भवति तत्तियं दिज्जति, उक्कोसो वाहिज्जति, श्रद्धाणे वा से उवहिं वुज्झति, वइमुट्ठणं का उमसमत्यो त्ति वंदणं ण दवाविज्जति, सागारिएण वा (न) दवाविज्जति, चरण-करण-सज्झायं पयत्तेण गाहिज्जति, "माहि" कुसत्य सोयमा दिएसु प्रवग्गहेसु संणियं प्रणुयट्टमाणेहि समयं गाहिज्जति ।। ३५५८।। ववादेण बालवुडुपव्वावणविही, कारणं च भणइ उवजुंजिउं णिमित्ते, दुहं पि तु कारणे दुवग्गाणं । होहिंति जुगप्पवरा, दोह विट्ठा दुबग्गाणं || ३५५६ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૦ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे हिमणा उवउज्जिय, परोक्खणाणी गिमित्त घेत्तणं । जति पारगा तो दिक्खा, जुगप्पहाणा व होर्हिति ॥ ३५६० ।। मोहिमा इच्चखणाणी णाणे उवउज्जति. परोक्खणाणी निमित्तविसएण उवउज्जति । किमत्थं उवउज्जति ? प्रतो भन्नति - बालवुड्डाण दोन्ह पिय कारणा, "कि नित्थारगा ण व ? त्ति । जति पारगा जुगप्पाणा वा तो दिखा। य बालवुड्ढा "दुवग्गाणं" भवंति - इत्यीपुरिसंवग्गाणं ति, तदर्थमुपयुज्जं तीत्यर्थः । इमं कारण - ते बालवुड्ढा जुगप्पवरा होंति त्ति, तेज तेसि दिक्खा कज्जति । ग्रहवा - दुण्हट्ठा सुत्तत्थाणं, कालियस्स पुव्वगयस्स वा । ग्रहवा – समणसमणीवगाणं दोन्ह वि श्राधारा भविस्संतीति । जेण तेसि दिक्खा दिजति ।। ३५६० ।। ततं । 66 इदाणि “२णषु सगे" त्ति दारं । तस्सिमे सोलस भेदा: - २ 3 * A पंडए बातिए की, कुंभी इस्सालुए ति । संउणी तक्म्मसेवी य, पक्खियापक्खिते ति य ॥ ३५६१।। १० ११ १२ सोगंधिए य आसित्ते, वद्धिए चिपितेति य । १३ १४ १५ १६ मंतोसही उत्रहते, इसिसत्ते देवसत्ते य ||३५६२|| चिट्ठउता, एतेसि सरूवं कहिज्जति । केणं पठवावेयव्वा ण वा ? अश्रो भन्नति पव्त्रावण गीयत्थे, गीयत्थे अपुच्छिऊण चउगुरुगा । तम्हा गीयत्थस्सा, कप्पति पव्वावणा पुच्छा || ३५६३|| गीत पव्वावेति णो गीतो । जति श्रगीतो पण्वावेति तो चउगुरुयं । गीतो वि जति प्रपुच्छिउं पव्वावेति तस्स वि चउगुरुगं । तम्हा गीयत्यस्स पुच्छा, सुद्धे कप्पति पव्वावणा । इमा पढमपुच्छा कोसि तुमं ? को वा ते णिव्वेदो जेण पव्वयसि ? || ३५६३|| एवं पुच्छिते - सयमेव कोइ साहति, मेतेहि व पुच्छितो उवाएणं । हवा विलक्खणेहिं इमेहि गाउ परिहरेज्जा || ३५६४।। [ सूत्र- ८४ सरिसे मस्सते मम एरिसो वेदोदयो त्ति सयमेव साधति । अहवा - मेतेहि से कहियं णिव्वेदकारणं - एस ततिम्रो ति । पव्त्रावगेण वा उवायपुवं पुच्छितो कहेति - तिम्रो त्ति | हवा - पंडगलक्खणेहिं गातुं ण पव्त्रावेति ॥ ३५६४।। १ गा० ३५६० । २ गा० ३५०५ । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा ३५६०-३५६६ ] . एकादश उद्देशक: २४१ सा य पुच्छा इमेरिसे कज्जति - णज्जतमणज्जंते, णिव्वेयमसडपढमता पुच्छे । अण्णातो पुण भण्णति, पंडाइ ण कप्पए अम्हं ॥३५६५॥ अस्सावगे, णज्जत भणज्जते वा पढमं णिज्वेदो पुच्छिज्जति । जो पुण अन्नातो स सामण्णेण भण्णति - "पंडाई ग कप्पति अम्हं पवावेउ" ॥३५६५॥ सो य जदि पंडगो तो एवं चितेति - नातो मि त्ति पणासति, णिवेयं पुच्छिता व से मित्ता । साहेति एस पंडो, सयं च पंडो त्ति निव्वेयं ॥३५६६॥ प्रहमेतेहि णातो ति पणासति, सेसं गतार्थम् ॥३५६६।। पुव्वमुल्लिंगिता पंडगलक्खणा ते य इमे - महिलासहावो सरवन्नभेस्रो, मेंढं महंतं मउया उ वाणी ! संसदगं मुत्तमफेणगं च, एताणि छप्पंडगलक्खणाणि ॥३५६७।। पंडगो महिलासभावो भवति । पुंसस्वराद भिन्नो भवति स्त्रीस्वरः । ग्रहवा - न पुंसस्वर: नापि स्त्रीस्वरः, मध्य इत्यर्थः । वर्णग्रहणात गंधरसस्पर्शा गृह्यन्ते, यादृशा स्त्रीपुंसयोस्तयोविमध्याः तस्य भवति । मेंढं अंगादाणं, तच्च तस्य महतं भवति । वाणी य मउया भवइ । ससदगं मुत्तं मुत्तेति स्त्रीवत्, अफेनगं च मूत्रयतः फेन न भवतीत्यर्थः । एयाणि छ पंडगलक्षणाणि ।।१५६७।। "'महिलासहावो" ति अस्य व्याख्या - गती भवे पच्चवलोइयं च, मिदुत्तया सीयलगत्तया य । धुवं भवे दोक्खरनामधेशो, संकारपच्चंतरिओ ढकारो ॥३५६८॥ ___ गती से मंदा पदाकुला सशका य, पासपिट्ठतो पच्चवलोइय करेंतो गच्छति, तस्स शरीरत्वचा मृदुर्भवति, गातं च शीतफरिसं भवति । जो एरिसो सो धुवं दुमक्खरणामो भवति । ते य अक्खरा संकारो, संकारप्रत्यन्तरे प्रनतर इत्यर्थः, ढकारो भवति ॥३५६८॥ गति-भास-अंग-कडि-पहि-वाहु-ममुहा य केसऽलंकारे । पच्छण्ण-मज्जणं पि य, पच्छण्णतरं च नीहारो ॥३५६६॥ कि चान्यत् - भापते हत्यपल्लवेहि दाहिणकोप्परं वामकरतले काउं दाहिणकरतले वदणं णसितुं भासति स्त्रीवत् । अंग र से समउक्क, अभिक्ख च करियं भयं करेति, महावेइ य अभिक्खणं पिंड, इत्थी व जहा अभिलसितपरिसं दर्छ पट्टि परामुमति, बाहविक्लेवतो बोल्लेत्ति, वत्थाभावे बाहाहि उरं पाउणति, भासंतो य सविन्भम १ मा ३५६७। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सभाष्य-पूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-८४. भमुहाजुयलं उक्खिवति, चसद्दातो परिहरणं पाउरणं वा जहा इत्थी तहा परिहेति, इत्थी जहा केसे तहा पामोडेति, जुबतिअलंकारं व से पियं अलंकरेति, व्हायति य पच्छण्णे, पच्छणतरे उच्चारंपासवणं करेति ॥३५६९।। किं चान्यत् - पुरिसेसु भीरु महिलासु संकरो पमयकम्मकरणो य । तिविहम्मि वि वेयम्मी, तिगभंगो होइ णायव्वो ॥३५७०॥ संकितो सभयो य पुरिसमझे विचिट्ठति, इत्थीण मज्झे निस्संको निम्मनो चिट्ठति स्त्रीपर्षत्समागमेइत्यर्थः । पमदाकम्मं करेति, पियं च से तं च कंडण-दलणुप्फण-पयण-परिवेसण-वत्थायंचण-सोय (?) दगाहरणपमज्जणादी। एमादिवाहिरलक्खणं । अंतो से नपुंसगवेदो लक्षणं । सो पुण णपुंसवेदो जिविहे भेदे भवति । कहं ? जसो भन्नति - "तिविहम्मि वि" पच्छदं । कहं पुण तिविहे वि वेदे एक्केक्के तिगभंगो भवति ? उच्यते - पुरिसो पुरिसवेदं वेदेति, पुरिसो इत्यिवेदं वेदेति, पुरिसो णपुंसगवेदं वेदेति । एवं इत्थीणपुंसगा वि भागिरव्वा ।।३५७०॥ इमं वेयाणं सलक्खणं - उस्सग्गलक्खणं खलु, फुफुगमादि सरिसं तु वेदाणं । अश्वाततो तु भइओ, एक्केक्को दोसु ठाणेसु ॥३५७१।। अभिप्रेतवस्तुम्वरूपं निर्वाच्यं, कारणनिरपेक्षमुत्सर्गः, तिमु वि वेदेसु । इमं उत्सर्गलक्षणं । वाहिं अणुवलक्खो तो अणुसमयडाहो अणुवसंतो वि घट्टिज्जमाणदिपंतो फफुग्गिसमाणो इत्थिवेदो। पवण-विकोवित-पत्तिधणंतरजलिय-तिब्वपलाल-दवग्गिसमाणो वत्तलक्खणा पुरिसवेदो। तण-कट्ट-महासंचय-विविधिधण-घोर-जलियमणुवसंतोऽतत्तलक्खणो महाणगरडाहसमाणो णगंसगवेदो। प्रववादं पुण पप्प एक्केक्को वेदो दोमु दोमु ठाणेमु भइयन्बो पूर्ववत् ॥३५७१॥ एस लक्षणपंडगो गत्याद्यवलोयणेण भवति । अधवा इमं पंडगलक्खणं - दुविहो य पंडतो खलु, दसिय-उवधाय-पंडओ चेव । उवधाए वि य दुविहो, वेदे य तहेव उवगरणे॥३५७२।।। णमगो दुविधो - दूसिनो उवधायपंडगो य । सिमो दुविधो - ऊसित्तो मासित्तो य । उवपायपंडगो वि दुविहो - वेदे उवकरणोवघाते य ॥३५७२।। "दूसि" ति अस्य व्याख्या - दूसियवेदो दूसी, दोसु वि वेदेसु सज्जए दूसी । दो सेवति वा वेदे, श्रीपुंसु व दुसते दूसी ॥३५७३।। १ गा० ३५७२। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३५७०-३५७६ ] एकादश उद्देशकः दूमितो वेदो जस्स स दूसी भण्णति, दोसु वा थी-पुरिसवेदेसु रज्जति जो सो वा दूसी, दो वा थी-पुरिसवेदे सेवति जो सो दूसी, जो थी पुरिसवेदो दो वि दूसति सो वा दूसी ॥३५७३॥ श्रासित्तो ऊसित्तो, दुविहो दूसी य होइ णायव्यो । ऊसित्तो अणवच्चो, सांवच्चो होति आसित्तो ॥३५७४॥ . पुश्वद्धं गतार्थ । णो जस्स अवच्चं उप्पज्जति निब्जीमो सो उस्सित्तो, जस्स पुण अवच्चं उप्पज्जति सबीनो सो प्रासित्तो ॥३५७४।। "वेदोवघातपंडो" इमो जह हेमो तु कुमारो, इंदमहे णगरबालिग णिमित्तं ।। मुच्छिय गहिरो उ मओ, वेदो वि य उवहतो तस्स ॥३५७॥ हेमपुरिसे णगरे हेमकूडो राया। हेमसंभवा भारिया । तस्स पुत्तो वरतवियहेमसन्निभो हेमो णाम कुमारो। सो य पत्तजोव्वणो अण्णया इंदमहे इंदट्ठाणं गतो। पेच्छइ य तत्थ णगरकुल-बालियाणं रूववतीणं पंचसते। बलिपुप्फधूवकडच्छयहत्था इंदाभिमुहीमो दद्रु सेवगपुरिसे पुच्छति - "किमेयानो आगयातो, किं वा अभिलसंति ?" तेहि लवियं - "इंदं मग्गंति वरं, सोभग्गं च अभिलसंति ।" भणिया य तेण सेवगपुरिसा - "अहमेतेसिं इंदेण वरो दत्तो, देह एयायो अंतेउरम्मि"। तेहिं नामो घेत्तु सव्वातो अंतेउरे टूढा । ताहे णागर-जणो रायाणं उवट्टितो - "मोएह" ति।। तग्रो रण्णा भणियं - "किं मज्ज पुत्तो ण रोयति तुमं जामाउनो?" ततो गागरा तुहिक्का ठिता । एयं रण्णो सम्मतं ति अविपण्णं गता णागरा। कुमारेण य ता सव्वा परिणीता। सो य तासु अतीव पसत्तो । पसत्तयस्स तस्स सर्ववीर्यनीगालो जातो, ततो तस्स वेदोवघातो जातो, मनोय। अन्ने भणंति - ताहि चेव अप्पडिसेवगो ति रूसियाहि मारितो ।।३५७५।। वेदोवघाय त्ति गतं । इयाणि "२ उवकरणोवहतो" भण्णति - उवहत-उवकरणम्मि, सेज्जायर भूणिया निमित्तेणं । तो कविलगस्स वेदो, ततिओ जातो दुरहियासो ॥३५७६।। सुट्टिया पायरिया । तेसि सीसो कविलो णाम खुड्डगो । सो सेज्जातरभूणियाते सह खेड्डु करेति । तस्स तत्थेव अज्झोववादो जातो । अण्णया सा सेज्जातरभूणिया एगागिणी णातिदूरं गावीण दोहणवाडगं गता । सा ततो दुद्ध-दधि-घेतण गच्छति । कविलो य तं चेव भिक्खायरियं गच्छति । तेणंतरा असागारिए अणिच्छमाणी बला भारिया उप्पाइता । तीए कप्पट्टियाते अदूरे पिता छित्ते किसिं करेइ । तीए तस्स कहियं । तेण सा दिट्ठा जोणिन्भेए रुहिरोक्खितो महियलोलिया य । सो य कुहाडहत्थगतो रुट्टो । कविलो य तेण कालेण भिक्खं अडित पडिनियत्तो। तेण १ गा० ३५७२ । २ मा० ३५७२ । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-८४ य दिट्ठो, मूलतो से सागारिय सह जलघरेहि छिन्न निकत्तिय । सो य पायरियसमीवं ण गतो, उनिक्खंतो। तस्स य उवकरणोवघाएण ततिमो वेदो उदिण्णो। सो य जुण्णाकोट्टणीयाए संगहियो। तत्थ से इत्थीवेदो उदिण्णो। एस उवकरणोवघातपंडगो भणितो ।।३५७६।। एस वेदोवकरणघातो बहुकम्मोदएणं जायति । जतो भण्णति - पुव्वं दुच्चरियाणं, कम्माणं असुभफलविवागेणं । तो उवहम्मति वेदो, जीवाणं मंदपुण्णाणं ॥३५७७।। कंठा । सो य गपुंसगवेदोदया पोसासएसु पडिसेवगो भवति, न वेदोदयं तरति णिरुभिः ॥३५७७।। एत्थ दिटुंतो गोणो जह पढमपाउसम्मी, गोणो वातो उ हरितगतणस्स । अणुमज्जति 'कोटिंबं, वावण्णं दुब्भिगंधीयं ॥३५७८|| कक्षा इमो उवसंहारो - एवं तु केइ पुरिसा, भोत्तणं भोयणं पतिविसिहूँ । ताव ण भवंति तुट्ठा, जाव ण पडिसेविया पोसे ॥३५७६।। लक्खणसिं उवधायपंडगं तिविहमेव जो दिक्खे । पच्छित्तं तिसु वि मूलं, इमे य अण्णे भवे दोसा ॥३५८०॥ वेदुक्कडया एते जाव ण पडिसेवति पुरिससागारियं प्रायभावं वा ताव धिति ण लभति । लक्खगवेदसि उवघातपंडगं च जो एवं तिविघं पवावेति तस्म मूलं पच्छित्तं, प्राणाइया य दोसा ॥३५८०।। इमा संजमविराहणा गहणं च संजयस्स, आयरियाणं च खिप्पमालोए । बहिया व णिग्गयस्सा, चरित्तसंभेदणिं च कहा ॥३५८१|| प्रध पव्वावितो एवं नाउं "गहणं च" गाधा । पडिसेवणाभिप्पातेग संजतो तेग गहिनो, तेग य संजतेण पायरियाणं खिप्पमालोएयव्वं । जति नालोएति तो चउगुरु। प्रहवा - प्रती विरहं अलभाणो बाहिं वियारादियगयाणं चरित्तसंभेदणि कहं कहेजा ॥३५८१।। ___ छंदिय-गहिय-गुरूणं, जो ण कहेति कहियम्मि च उवहं । परपक्ख सपक्खे वा, जं काहिति सो तमावज्जे ॥३५८२॥ तेण णपुंसगेण जो संजयो 'छदिउ" ति - णिमंतितो “म पडिसेवाहि ति, प्रहं वा पडिसेवामि'' त्ति । जो य गहितो एते अति गुरुणं ण कहेंति कहिते वा यदि गुरवो उवेहं करेंति तो सव्वेसिं चउगुरुगा। १नाव। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३५७७ - ३५८६ १ एकादश उद्देशक: जं वा सो नपुंसगों परपक्खे सपक्खे वा उडडाहं करेज्जा पडिसेवणं करेतो, तं सो कहेंतो उवेहंतो व पायच्छित्तं पावति ।। ३५८२ ।। "" चरित्तसंभेदणि" त्ति अस्य व्याख्या इत्थकहा कहेति, तासि वण्णं पुणो पगासेति । समला सावि दुगंधा, खेदो य ण एतरे ताणि ॥ ३५८३ || इत्किहातो कहेति - तामु वा जं मुहं, जहा य परिभुज्जंति, पुणो । तासि श्रवणं भासति - त - तामि जोगी समला सावी दुग्गंधा य, तासु य परिभुजमाणीमु पुरिसस्स खेदो जायति । प्रम्हं पुण ग्रासए मलादिदोसा खेदो य ग भवति, तो वरं श्रहिं सह प्रणायारो कतो ।। ३५८३ ।। पंडस इमे भावा, सो इमेहिं वा भावेहिं पंडगो लक्खियव्वो सामारियं णिरक्खति तं च मलेऊण जिंघते हत्थं । पुच्छति से विमसेवी, अति सुहं अहं विदुहावि || ३५८४|| ग्रहवा अंगादाणं सागारियं तं पण परस्स व गिरिक्खति तं च सागारियं अप्पणी परस्स वा हत्थेहि भणितं हृत्थं जिघति, भुत्तभोगं साधु रहे पुच्छति नपुंसगो कि पडिसेवियपुव्वो ण वा ? तमि पडिसेविते श्रतीव सुहं भवति । ततो साधुभावं गाउं भगाति - श्रहं वि य से दुहि वि ग्रामए पोसए थे । तत्थ केइ पडिसेविज्जा ? ते पडिगमगादी करेज्ज । तत्थायरियो एग दुग-तिमु मूलगवदुपारंचिया पावति ।।३५८४ ।। -- सो समणसुविहितेहिं पवियारं कत्थ ती अलभमाणो । 1 तो सेवितुमाहत्तो, गिहणो य परप्पवादी य || ३५८५ || - २४५ सो पंडगो समगेम् सज्झायाणणिरतेमु मेहुणववियारं अलभतो ताहे गिहिणो परतित्थिए य प्रादिरुद्दह्यतो भड-गड-चट्ट-मेंठ-प्रारामिय-सोल्ल-घोड- गोवाल- चक्किय-जंति खरगे सेवेज वेदोदएण ।। ३५८५ ।। तत्थिमे दोसा - सो किया, तम्मूलागं तहिं पवयणस्स । तेसि पि होति संका, सव्वे एयारिसा मण्णे || ३५८६|| वाघ यसो । प्रवण्णवाय भासणं अकित्ती । जिणपवयणस्स तम्मूला तन्निमित्ता तद्धेतुका प्रयस प्रकितीतो हवेज्जा, जे य तं पडिसेवंति तेसि संका भवति - सब्बे इमे समा एरिसा - संकया मन्यते इत्यर्थः । ग्रधवा तेसि पंडगाणं संका भवति जहा अम्हे ततिया तहा इमे समया . मणेण मन्नते ||३५८६ ।। १ गा० ३५८१ । - सव्वे एरिसा Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૬ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे सूत्र-८४ 'अयमप्रकित्तीणं" इमं वक्खाणं एरिससेवी एयारिसा व एतारिसो चरति सद्दो । सो एसो ण वि अण्णो, असंखडं घोडमादीहिं ॥३५८७॥ बहुजणसमुदए लोगो एवंवादी भवति - एते समणा एरिससेवी, सयं वा एरिसा - "णपुंसग" त्ति युत्तं भवति । एरिसो अयसकित्तीसद्दो लोगो "चरति" प्रकाशतीत्यर्थः । साधवो वा भिक्खावियारादिणिग्गते दलृ तरुण' जुवाणगा भणंति - भरे अरे भद्दे गोमिय ! सो एसो सिरिमंदिरकारो। अन्ना भणइ -- ण वि एसो, अन्नो सो। अहवा- ते तरुणा जुवाणा भणज्ज - एह समणा. तुब्भे वि तारिसं करेह । एवं भगतो को वि असहणो असंखडं घोडमादीहिं सह करेज्जा । तम्मि य णिच्छुडे को ति संजतो संसत्तो चिताए दमिच्छति उन्निक्खमति मरति वा । एत्थ पायरियस्स पवावेतस्स पच्छितं वत्तव्यं । एवमादिदोसपरिहरणत्थं पंडगो ण दिवखेयन्वो ॥३.८७॥ "पंडग" त्ति गतं । इदाणि "२कीवो" - कीवस्स गोण्णणाम, कम्मदएणं तु जायए ततिओ। तम्मि वि सो चेव गमो, पच्छित्तुस्सग्गअववाते ॥३५८८॥ क्लिद्यते इति क्लीवः । गुणणिप्फणं गोणं । मेहुणाभिप्पाए अंगादाणं विगारं भयति, वीयं थिबुएहि य गलति, स महामोहकम्मोदएण भवति । एवं गलमाणे जति णिरोधेति तो णिरुद्धवत्थी कालंतरेण ततियो भवति । जे पंडगे दोसा पच्छित्तं च एत्थ वि उस्सग्गेण ते चेव । अववाए पन्नावेयव्वा ॥३५८८॥ "3इयाणि वातियो" - उदएण वातिगस्स, सविकारं नाव जा असंपत्ती । तच्चनियऽसंवुडिए, दिद्रुतो होतऽलभते ॥३५८६॥ वाइतो णाम जाहे सो मोहकम्मोदएणं सागारियं कसाइयं भवति ताहे सो ण सक्केति धरेत, णय समावत्थं ताव भवति जाव न कयं जं न कायव्वं । एत्थ तच्चन्निएण दिटुंतो एगत्थ जलतरणणावारूढो तच्चन्नितो। तत्थ तस्सऽग्गतो अासन्ना अहाभावेण अगारी प्रसंवुडा निविट्ठा । तस्स य तच्चन्नियस्स तं दद्रुथद्ध सागारियं, तेण वेउक्कडयाए असहमाणेण जणपुरतो पडिग्गहिता अगारी । तं च पुरिसा हंतुमारद्धा । तहावि तेण ण मुक्का । जाहे से वीयणिसग्गो जातो ताहे मुक्का ।।३५८६।। १ गा० ३५८६ । २ गा० ३५६१ । ३ गा० ३५६१ । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३५८७-३५६४] एकादश उद्देशक: २४७ सागारियणिस्साए, अलंभतो वातिश्रो अणायारं । कालंतरेण सो वि हु, णपंसगत्ताए परिणमति ॥३५६०॥ ___ सागारिय ति अंगादाणं, तं मोहुक्कडयाए पुणो पुणो थब्भति, वाउदोसेण य तं यद्धं अच्छति, तस्स णिस्साए तन्निमित्तं सो वातिम्रो प्रणायार सेवेइ, कालंतरे णपुंसगभावं परिणमति । तत्थ दोसो जहा पंडगो ॥३५६०॥ इयाणि "कुभी" - दुविहो य होइ कुंभी, जातीकुंभी य वेदकुंभी य । जाईकुंभी भइतो, पडिसिद्धो वेदकुंभीश्रो ॥३५६१॥ जस्स वसणा सुझंति सो कुंभी । सो दुविहो - वायदोसेण जस्स सागारियं वसणं वा सुज्झति सो आइकुंभी रोगीत्यर्थः । जस्स पुण मोहुक्कडयाए सागारियं वसणा वा प्रासेवतो सुज्झति स वेदकुंभी। जाइकुंभी पव्वावणे भतितो । का भयणा ? जति से अति महल्ला वसणा तो ण पवाविज्जति । मह ईसिमूगा तो पव्वाविज्जति । एस भयणा । वेदकुंभी अच्चंतं पडिसिद्धो पव्वावगे ॥३५६१।। किं कारणं ? अतो भण्णति - वत्थिणिरोहे अभिवडूमाणे सागारिए भवे कुंभी । सो वि य णिरुद्धवत्थी, णपुंसगत्ताए परिणमति ॥३५६२॥ अपडिसेवगतणं वस्थिणिरोहो, तेण से वसणा वड्डति, ते वद्धिता अतिप्पमाणा सागारिया से भवंति, अन्नं च से णिरुद्धो कालंतरेण नपुंसगभावं परिणमति । एत्थ दोसो पायच्छित्तं च पूर्ववत् ॥३५६२।। इदाणि "२ईसालुगो' त्ति - इस्सालुए वि वेदुक्कडयाए बंभव्ययं धरेमाणो । सो वि य णिरुद्धवत्थी, णपुंसगत्ताए परिणमति ॥३५६३॥ यस्या उत्पद्यते प्रभिलापेत्यर्थः, सो ईसालू भण्णइ । पडिसेविज्जतं दठ्ठ ईसा उप्पण्णा, स वेदुक्कडो इत्थिं अलभंतो बंभवयं च धरेमाणो सो वि कालंतरेण णिरुद्धो नपुंसगो भवति । दोसा पच्छित्तं पूर्ववत् ॥३५६३।। इदाणि “सउणी" - सउणी उक्कडवेदो, अभिक्खपडिसेवणाणुपगईयो । सो वि य णिरुद्धवत्थी, णपुंसगत्ताए परिणमति ॥३५६४॥ उक्कडवेदत्तणतो अभिक्खपडिसेवणाए पसत्तो घरचिडग्रो इव सउणी भवति । दोसा पच्छितं व पूर्ववत् ॥३५६४।। १ गा० ३५६१ । २ गा० ३५६१ । ३ गा० ३५६१ । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे इदाणि " 'तक्कम्मसेवी". तक्कम्मसेवि जो ऊ, सेविययं चेव लिहइ साणु व्व । सोविय अपरिचरंतो, णपुंसगत्ताए परिणमति ॥३५६५|| पडिचरती आचरती, डज्झतो उक्कडेण वेदेण । सोविय परिचरंतो, णपुंसगत्ताए परिणमति || ३५६६॥ पडिचरति त्ति मेहुणमासेवति, जया बीयगिसग्गो जातो तदा साणो इव तं चैव जीहाए लिहूतिश्राचरतीत्यर्थः । स एरिसं विलीणभावं वे उक्कडता उज्झतो कोति करेति सुहमिति मनतो । सो वि पडिचरणो अणासेवगो कालेग पुंसनो भवति । दोसो पच्छितं च पूर्ववत ||३५६६॥ (इदाणि "पक्खियापक्खिश्रो" . पक्खे पक्खे भावो, होइ अपक्खम्मि जस्स अप्पो उ । सो पक्खपक्खितो ऊ, सो वि णिरुद्धो भवे अमं || ३५६७ || [ सूत्र- ८४ सुक्कक्खे सुक्क पक्खे जस्स भईव मोहुब्भवो भवति, अपक्खे ति कालपक्खो तत्थ श्रप्पो भवति । मोन्भवपक्खे सो रुिभंतो णपुंसंगो परिणमति । -- ग्रहवा – सुक्कपक्खे किण्हपक्खे वा पक्खमेतं प्रतीत्र उदयो भवति । "प्रपक्खो" त्ति तत्ति यमेव काल अप्पोदयो भवति । दोसादि सेसं पूर्ववत् ।। ३५१७।। इदाणि “४ सोगंधिय" त्ति - सागारियस्स गंध, जिंवति सागारियस्स गंधाए । कालंतरेण सो वि हु, णपुंसगत्ताए परिणमति ॥ ३५६८|| 1 सुभं सागारियन्स गंध मण्ातीति सोगंधी । सो सागारियं जिघति, मलेऊण वा हत्थं जिधति, स महामोहो तेण सगारियागंधभासेण पच्छा लिहति जीहाए वि, स पच्छा वि परिभोगमलभंतो कालंतरेण: ततितो भवति । दोसा पच्छितं पूर्ववत् ॥ ३५६८ इदाणि """ सित्तो" । इत्थसरीरास तो ग्रासित्तो, जो वत्थि सरीरं वा पप्पासंसति जो वा अन्न प्रासतो विग्गहमणुष्पवेसिय, अच्छति सागारियंसि आसितो । सो वि य णिरुद्भवत्थी, होती वेदुक्कडो वसणी || ३५६६ || विहं अंगादाणं, पवेसिता प्रच्छति इत्थिसागारियंसि योनौ इत्यर्थः । एस ग्रासितो । सोय मोहुक्काए श्रईव वसणी णिरुद्धवत्थो । श्रइव्त्रसणी अलभंतो कालंतरेण णपंसंगो भवति । दोगा पच्छित्तं च पूर्ववत् ॥ ३५६६।। १ गा० ३५६१ । २ गा० ३५६१ । ३ सोविय निरुद्धवत्थी, नपुंसगत्ताते परिणमति ॥ ४ गा० ३५६२ । ५ गा० ३५६२ । - Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३५६५-३६०३] एकादश उद्देशकः २४६ इदाणि "'बद्धिता" दि भण्णांत - बद्धिय चिप्पिय अविते, मंतोसहिउवहते वि य तहेव । इसिसत देवसत्ता, अव्वसणि णपुंसगा भजा ॥३६००॥ बद्धियो णाम जस्स बालस्सेव खेळ दातुं वसणा गालिया। चिप्पितो गाम जस्स जायमेतस्सेब अंगुट्ठपदेसिणीमग्मियाहिं घटिजति जावक्रताः । एते दो णियमा प्रबीया। अण्णस्स मंतेण वेदो उबहतो। अन्नस्स 'प्रोसहेण । एतेसिं जाव पडिभेमो ण भवति ताव तह चेव सबीया ण भवति । __ परिसिणा 'देवेण वा रुद्रुण वा सावो दिण्णो - "मम तवाणुभावा वयणामो ण ते पुरिसभावो भविस्सति" ति । एते छावि अव्वसणी वसणी वा। तत्थ जे अव्वसणी णपुंसगा ते भज्जा, "भज् सेवायां," ते पव्वावेयम्वा इति । . अहवा - छ एते णपुंसगा अवसणी वसणी वा एवं भयणिज्जा - जे अव्वसणी ते पव्वावणिज्जा णो इतरे ॥३६००॥ इयाणि एतेसु पच्छित्तं भण्णति - दससु वि मूलायरिए, षयमाणस्स वि हवंति चउगुरुगा। सेसाणं छण्हं पी, आयरिते वदेंते चतुगुरुगा ।३६०१॥ . दस प्रादिल्ले जो पव्वावेति पायरितो तस्स दससु वि पत्तेयं मूलं । ते च्चिय जो दस वदति - "पवावेह" ति, तस्स चउगुरुगं । वलितादी सेसा छ, ते पवावेंतस्स पायरियस्स चउगुरुगा, ते वि य छ जो "पवावेह" त्ति भणति तस्स वि चउगुरुग ॥३६०१॥ सीसो इमाए उवउत्तीए भणति “पव्वावेह" त्ति - थीपुरिसा जह उदयं, धरति झाणोववासणियमेणं । एवमपुमं पि उदयं, घरेज्जलि को तहिं दोसो ॥३६०२॥ जहा थीपुरिसा झाणणियमोववासेसु उव उत्ता वेदोदयं धरेंति एवमपुमं पि जदि वेदादयं धरेज्जा ते पव्वाविते को दोसो हवेम्जा ॥३६०२।। अहवा ततिते दोसो, जायति इतरेसु सो ण संभवति । एवं ख गस्थि दिक्खा, सवेयगाणं न वा तित्थं ॥३६०३।। अधवा - तुज्झमभिप्पानो तस्स वेदोदएण चारित्तभंगदोसो जायति - इतरेसु थीपुरिसेसु वेदोदएण किं न भवति चरितदोषो? तेष्वपि भवत्येव । खीणमोहादिया मोत्तुं सेसा सव्वे संसारत्या जीवा सवेदगा, सवेदगा य दोसदरिसणा न दिक्खियव्वा, तेसिं च दिक्खाभावे ण भव तित्थं, णावि तित्थसंतती ॥३६०३।। १ गा० ३५६१ । २ गा० ३५६१ । ३ गा० ३५६१ । ४ गा० ३५६१ । ५, गा० ३५६१.६ गा० ३५६१ । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-८४ प्राचार्याह - थीपुरिसा पत्तेयं, वसंति दोसरहितेसु ठाणेसु । संवासफासदिडे, इयरे वच्छं व दिलुतो ॥३६०४॥ इत्थी पब्वाविता इत्थीणं मज्झे निवसति, पुरिसो वि पुरिसाणं, एवं ते पत्तेगा दोसरहितेसु ठाणेसु वसंता णिहोसा। इतरो यदि इत्थीणं मज्झे वसति तो संवासतो फासतो दिट्टियो य दोसा भवति । एवं तस्स पुरिसेसु वि दोसो। तस्सेवं उभग्रो संवासे दिटुंतो - “'अपत्थं अंबगं भोच्चा राया रज्जं तु हारए"। अधवा - वच्छंबगदिटुंता दो वत्तव्वा । वच्छस्स मातरं दद्रु थणाभिलासो भवति, मातावि पुत्तं पण्हाति । अंबं वा दठ्ठ खजमाणं वा अंबयं दर्छ जहा अण्णस्स मुहं पाहाति । एवं तस्म संवासादिएहिं वेदोदएण अभिलासो भवति । भुत्ताभुत्तसाहवो वा तमभिलसंति । तम्हा णपुसगो ण दिक्खियव्वो ॥३६०४।। बितियपदेण इमेहि कारणेहिं सव्वे दिखेज्जा - असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व आगाढे । गेलण्ण उत्तमट्टे, नाणे तह दंसणे चरित्ते ॥३६०५॥ सो असिवं उवसामेहि त्ति, असिवग्गहियाण वा तप्पिस्सति, सलद्धिप्रो वा सो ओमे भत्तपाणेण गणस्स उवग्गहं करेस्सति ॥३६०५।। रायदुट्ठभएसू, ताणट्ट णिवस्स चेव गमणट्ठा। विज्जो व सयं तस्सव, तप्पिस्सति वा गिलाणस्स ॥३६०६।। राय? ताणं करेस्सति, रायवल्लभो वा सो रायाणं गमेस्सति, बलव कयकरणो स बोहिगादि भए आगाढे ताणं करेस्सति, सत्तविहागाढे वा पवाविज्जति । वेज्जो वा सो सयं गिलाणस्स किरियं करेस्सति । अहवा - विज्जस्स गिलाणस्स वा तप्पिस्सति । उत्तिमट्टपडिवण्णगस्स असहायस्स कुसहायस्स वा मे सहायो भविस्सति, तप्पिस्सति वा सो वा उत्तिमट्ठ पडिवज्जति ।।३६०६॥ गुरुणो व अप्पणो वा, णाणादी गेण्हमाण तप्पिहिति । अचरणदेसा णेते, तप्पे अोमासिवेहिं वा ॥३६०७॥ ___ गुरुणो अपणो वा णाणं गेण्हंतस्स असणादिवत्थादिएहि तपिहिति । एवं दसणे वि । चरित्तं जत्थ देसे ण सुज्झइ चरणट्ठा ततो णितस्स एस मे सहायो भविस्सति तप्पिस्सति वा ॥३६०७।। एएहिं कारणेहिं, आगाढहिं तु जो उ पवावे । पंडाती सोलसगं, कए तु कज्जे विगिचणता ॥३६०८॥ जेण कारणेण सो पव्वावितो तम्मि समाणिते पच्छा सो विगिचियव्वो ॥३६०८॥ १ उत्त० अ०७ गा० ११ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष्यगाथा ३६०४-३६१३ ] एकादश उद्देशक: २५१ कारणजाते य पव्वाविजंतस्स इमा विही - दुदिले जाणमजाणी, अजाणगं पण्णवेंति तु इमेहिं । जणपच्चयट्ठया वा, नज्जंतमणज्जमाणे वि ॥३६०६।। जाणि ति जाणति, जहा "साहूण न कप्पति ततियं दिक्खेउ", तमुवट्ठियं पनवेंति “णो तुज्झ देवखा, प्रवत्तवेसधारी सावगधम्म पडिवज्जसु, अन्नहा ते णाणादिपिराधणा भवति ।" अजाणगं पुण जणपच्चयट्ठा रुडिपट्टमादिएहि पण्णवेंति । सो पुण अजाणगो तत्थ जणे णज्जति ण वा ।।३६०६।। एवं दुविधे वि इमा जयणा - कडिपट्टए य छिहली, कत्तरिया भंड लोय पाढो य। धम्मकहसन्निराउल-ववहारविगिचणं कुज्जा ॥३६१०॥ पुव्वद्धस्स इमा वक्खा - कडिपट्टओ अभिणवे, कीरति छिहली य अम्ह चेवासि । कत्तरिया भंड्र वा, अणिच्छे एक्केक्कपरिहाणी ॥३६११॥ चोलाट्टो से वज्झति, णो अग्गतो चरयं करेति, सिरे से "छिहलि" ति सिहं से मुच्चति । जइ सो भणइ - किं मे अग्गतो चरयं न करेह, सव्वं मुंडं वा ? ताहे सो भण्णति - गवधम्मो चेव एवं कीरति । वसभा य भणंति - अम्ह वि णवधम्माण एवं चेव पासि । तं पुण मुंडं कत्तरिमणिच्छता, "भंड" त्ति खुरो, तेण सो मुंडिज्जति । खुरं पि अणिच्छतो एवं एक्कगहाणीते पच्छा से लोगो कजति । सम्वेसु छिहली मंचति ॥३६११॥ छिहली तु अणिच्छतो, भिक्खूमादीमयं पि णेच्छंति : परतित्थिय वत्तव्यं, उक्कमदाणं ससमए वि ॥३६१२॥ छहलि पि अणिच्छते सव्वं वा से मुंड कज्जति, ततो सिक्खविज्जति । सा सिक्खा दुविहा - मासेवणसिक्खा गहणसिक्खा य । प्रासेवणसिक्वाए से किरियाकलावो ण दंसिज्जति । इमा गहणसिक्खा - “पाढे" त्ति अस्य व्याख्या - भिक्खुमादिपरतित्थियाणं ससमयवत्तव्वयं पाढिज्जति, तम्मि अणिच्छते सिंगारकव्वं पाढिजति, तम्मि अणिच्छते धम्मकहागंडियानो पाढिज्जति, तम्मि अणिच्छ ने समए जे परतित्थियवत्तव्वयसुता ते पाढंति, तम्मि अणिच्छे ससमयं उक्कमेण विलुलियं पादति ॥३६१२॥ इमा से कारणे विही - वीयार-गोयरे थेरसंजुओ रत्तिदूरे तरुणाणं । गाहेह ममं पि तत्रो, थेरा गाहेंतज्जत्तेणं ॥३६१३।। १ गा०३६११ । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४ वियारभूमि गच्छंतो गोयरं वा हिंडतो थेरसंजुतो हिंडति । रातो दूरे तरुणाण से विज्जति चिद्वति वा, तं च न पाढेति साहवो । जति भणेज्ज - ममं पि पाढेह ति ताहे थेरा वंचणाणि करेंति, यत्ते गाहिति ॥३६१३॥ २५२ तं पि इमेरिसं गाहिंति - वेरग्गकहा विसयाण दिया उट्ठनिसीयणे गुत्ता । चुक्कखलिते य बहुसो, सरोसमित्र चोदते तरुणा || ३६१४ ।। जे सुता वेरग्गकहाए ठिता त्रिसर्यानिदाए य ते सुत्ते गाहिज्जति । अहवा तस्स पुरतो वेरग्गकहा विसयणिदकहा कहिज्जा । उतनिवेसंता य साहवो संघुडा भवंति जहा अंगादाणं ण पस्सति । तस्स जइ सामांयारीए कि चि चुक्कयं कथं खलितं वा विट्ठे कयं ताहे सरोसं चोदंति, बहुवारा बहुसं, एवं कएसु तरुणेसु भ्रणुबंधं ण गच्छति ।। ३६१४।। धम्मका पाछेंति य, कयकज्जा वा से धम्ममक्खेति । तरुणा भिक्खू ते निठु मा हण गरं पिलोयं, अणुव्वया तुज्ज नो दिक्खा || ३६१५।। - तत्थो पढमो पदो । इदाणि पच्छद्धस्स वक्खाणं - जेण कज्जेण सो दिक्खिम्रो तम्मि समते कज्जे धम्मो से कहिज्जति, बोहिउवघायकारणा य कहिज्जति, तुमं च रयोहरणादिलिंगट्ठितो य परभवबोही उवधायकारणाय वट्टसि तं मा हण परं पि लोगं, मुंच रयोहरणादि लिंगं, तुञ्झ सावगावता ते हसु, न साघुदिक्खा भवति ।। ३६१५।। एवं पन्नविते जति साधुलिंगं मुचति तो लट्ठ | ग्रहण मुंचति ताहे ""सन्निराउलं" ति ग्रस्य व्याख्या सनि खरकम्मिश्र वा, भेसेति क इहेस कंचिच्चो | निवसिट्ठे वा दिक्खितो, एएहि अणाये पडिसेहो || ३६१६ || सणी जो खरकम्मितो सो पुव्वं पण्णविज्जति - "अम्हेहि कारणे ततिम्रो पन्त्रावितो, सो इयाणि लिंगं च्छए मोतुं तं तुमं भेसेहि" । पच्छा सो आगंतु गुरवो वंदितुं णिविट्ठो, सव्वे णिरिक्खति संजते । जे विकिचियव्वो । - ताहे तं पुत्रक हिर्याचधोवलक्खितं करमलण-भूमफालण-सिर कंपण फरुसवयण-खर दिट्ठावलोयणेण रूसितो भणाति - "कतो एस तुज्झ मज्भे कंचिच्चो ? अवसराहि त्ति, मा तेण वाएस्सं । एवं च जदि ण मुंचति, खरकम्मियस्स वा असति, तेण व रण्णो कहितं एत्थ वि सो ववहारेण इमो ववहारी - जदि सो भणेज्ज एतेहि दिक्खितोमि त्ति, एत्थ जति जगेण न जातं एहि दिविखतो त्ति तो प्रणाते पडिसिज्झति अवलप्पत इत्यर्थः ॥ ३६१६ ।। ग्रह सो भणेज्ज - झाविम एतेहि चेव पडिसेहो किं वऽधीयते । छलिगकहाती कडूति, कत्थ जती कत्थ छलिया || ३६१७॥ १ गा० ३६११ । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३६१४-३६२३] एकादश उद्देशक: २५३ अहमेतेहिं चेव प्रज्झावितो, जणेण अण्णाते एत्थ वि पडिसेहो। अहवा भन्नति - "किं तुमे अधीतं" ति, ताहे सो परसमए छलियकवकहादि कड्डति । ताहे साहवो भणंति - "कत्थ जती, कत्थ छलिगादि कव्वकहा ? साहवो वेरग्गमग्गट्ठिता सिंगारकहा __ण पढंति - न युज्जतेत्यर्थः" ॥३६१७।। इमेरिसं साहवो सव्वण्णुभासियं सुत्तं पढंति - पुव्वावरसंजुत्तं, वेरग्गकरं सतंत-अविरुद्धं । पोराणमद्धमागहभासा णिययं हवति सुत्तं ॥३६१८॥ पुव्वसुत्तणिबद्धो पच्छासुत्तेण प्रवरुज्झमाणो पुत्रावरसंजुतं भन्नति, विसएसु विरागकरं, स्वतंतं स्वसिद्धान्त: तम्मि प्रविरुद्ध - सबहा सव्वत्थ सव्वकाल णत्थि पाया तो सततविरुद्धं भन्नति, तित्ययरभार्सितो जस्मथो गंधो य गगधरणिबद्धो तं पोराणं । अहवा - पाययबद्ध पोराणं, मगहद्धविसयभासणिबद्ध पद्धम गहं । अधवा - प्रहारसदेसीभासाणियतं अद्धमागधं भवति सुत्तं, “णियतं" ति निबद्धं ॥३६१८।। किं चान्यत् - जे सुत्तगुणा वुत्ता, तबिवरीयाणि गाहते पुव्वं । णिच्छिण्णकारणाणं, सा चे विगिचणे जयणा ॥३६१६।। सुत्तस्स गुणा इमे - णिद्दोसं सारवंतं च, हेऊकारणचोइयं । उवणीयं सोवयारं च, मितं महुरमेव च ॥३६२०॥ अप्पग्गंथ महत्थं च, बत्तीसादोसवजियं । अच्छोभणमवज्जं च, सुत्तं सव्वण्णुभासियं ॥३६२१॥ एते मुत्तगुणा, एतेहिं विवरीतं पाद वेव सुत्तं पढःविज्जति । एवं पाढिए को गुणो ? भन्नति - निच्छिन्नकारणाणं सम्यो विगिचणविही भति, एस ववहारविगिचणविही भणिता ।।३६२१॥ जो ववहारेण विगिचितुन सकृति तस्सिमा विही - कावालिए सरक्खे, तच्चण्णियवसभलिंगरूवेणं । रड्डवगपव्वइए, कायव्वं विहीए वोसिरणं ॥३६२२।। गीया पविकारिणो वस मा कावाल सरक्ख-तच्चनिय-वेसग्गहणेणं तं परिट्ठति । बहुसयणो वडंवर्ग'. तम्मि एसा परिझावणविही ॥३६२२॥ इमेसु य - णिववल्लभवहुपक्खम्मि वा वि तरुणवसमा मिथो नि । भिण्णकहातो भट्ठो, न घडति इह वच्च परतिन्थि ।।३६२३।। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र--४ जो विस्स वल्लभो, जो य बहुमित्तरायणपक्खितो, तेसु वि एस चेव परिट्ठावणविही । जया सो नपुंसगो मिथो रहस्से तरुणभिक्खु श्रोभासति भिन्नकहाम्रो वा करेति, तदा तरुणभिक्खू भति - "इह जतीण मज्झे ण घडति एरिसं तुमं तुमं यदि एरिसं काउकामो सि तो उन्निक्खमाहि परतित्थिएस वा वच्च" ।। ३६२३ । । जति सो एवं गतो तो लट्ठ । २५४ ग्रह सो भणेज्जा - - तुम समगं आमं, ति निग्गतो भिक्खमातिलक्खेणं । नासति भिक्खुगमादी, छोढूण ततो विविपलाति ॥ ३६२४॥ स पुंसगोतं तरुणवसभं भणेज्ज - "तुमं समगं वच्चामि ममं तत्थ छोढुं श्रागच्छेज्जासि । " ताहे साधु भणेज्ज - "ग्रामं ति, एहि वयामो ।” ताभिक्खुमा दिलिंग लवखेण गंतुं भिक्खुमादिएसु छोढुं तं साधू णासति । जो पुण नीतो भिक्खुमादिसु तं साधु न मुंचति तं रातो सुत्तं नाउं विपलाति । तम्मि वा भिक्खादिणिग्गए विपलाति, साहू वा भिवखादिग्गितो ततो च्चिय विपलाति ॥३६२४|| "नपुं सगो" त्ति गतं । ""जड्डे" त्ति तिविहो य होइ जड्डो, सरीर-भासाए करणजड्डो उ । भासाजड्डो तिविहो, जल मम्मण एलमूत्र य || ३६२५।। तिविहो जड्डो - सरीरजड्डो, करणजड्डो, भासाजड्डो य । एत्थ भासाजड्डो पुणो तिविहो - जलमूगो मम्मणमूगो एलमूगी य, चसद्दा दुम्मेहजड्डो य । जहा जले निब्बुड्डो उल्लावेति बुडबुडेति वा जलं एवं जलमूगो प्रवत्तं भासति । एलमूगो भाइ एलगो जहां बुडबुडति एवं एलमूगो भासति । अंतरंतरे खलति वातो जस्स प्रविष्पट्टभासी बोन्डो यस मम्मणो । घोसंतस्स वि जस्स गंधो न ठायति स दुम्मेहो माषतुषवत् ।।३६२५।। एते पव्वावेंतस्स इमं पच्छित्तं - - जलम्ए एलए, सरीरजड्ड य करणजड्डु य | एएस चउगुरुगा, सेसकजड्डुम्मि मासलहुं || ३६२६॥ जल एवं प्रतिसरीरे करणजड्डं च एते पव्वावेंतस्स चउगुरुगा, "सेस" ति नातिसरीरजड्डो, मम्मणो दुम्मेही य एतेसु तिमु मासलहं ।। ३६२६॥ जल - एल-मूएस इमे दोसा दंसण - णाण-चरिते, तवे य समितीसु करणजोगे य । उवदिडुं पिण गेहति, जलमूत्र एलमूत्र य || ३६२७|| १ गा० ३५०६ । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३६२४-३६३२] एकादश उद्देशकः २५५ दसणसरूवं, दसणपभावगाणि वा सत्याणि, दंसणं वा पडुच्च जो उवदेसो दिज्जति । एवं गाणे चरणे तवे समितीसु करणेसु जोएसु य तिन्नि तिन्नि भेया कायव्वा । तेसुवइटे ण गेहति जलमूगो एलमूगो य । प्रतो ते ण दिक्खियव्वा ॥३६२७॥ किं च - णाणादट्ठा दिक्खा, भासाजड्डो अपच्चलो तस्स । सो बहिरो वि णियमा, गाहणउड्डाह अहिकरणं ॥३६२८॥ दिक्खा णाणादट्ठा इच्छिज्जति। सो य भासाजड्डो दुविहो वि तस्स ग्गहणे अपच्चलो असमर्थेत्यर्थः । सो य दुविहो वि नियमा बहिरो भवति । तम्मि महता सद्देण गाहिज्जते उड्डाहो भवति । तम्मि अगिण्हते कोवो भवति, ततो अधिकरणं ॥३६२८।। इयाणि सरीरजड्डे दोसा - तिविहो सरीरजड्डो, पंथे भिक्खे य होति वंदणए । एतेहि कारणेहिं, जड्डस्स ण दिजती दिक्खा ॥३६२६।। सरीरजड्डो न सरीर भेदेण तिविहो, क्रियाभेदेण तिविहो इमो - पंथे, भिक्खाडणे, वंदणपयाणकाले य ॥३६२६॥ एयस्स तिविहस्स वि इमा वक्खा - अद्धाणे पलिमंथो, भिक्खायरियाए अपडिहत्थो य । दोसो सरीरजड्डे, गच्छे पुण सो अणुण्णाओ ॥३६३०। पथे छडिज्जति, ऊरुघंसो य से भवति, सावयतेणभयं च से भवति, अह साधवो पडिक्खंति ताहे तेसि पि पलिमयो भिक्खायरियाए, वंदणे अपरिहत्थो, एत्थ वि अनमि पलिमंथो। एवमादि सरीरजड्डे दोसा । तेण से दिक्खा पडिसिद्धा। "गच्छे पुण सो अणुण्णातो" ति पुटिव पवावणकाले किसो मासी पच्छा सरीरजड्डो जातो, तस्स गच्छे परियट्टणा प्रणुण्णाया न परित्याज्येत्यर्थः । अन्ने भणंति - नातिसरीरजड्डस्स महल्लगच्छे पव्वज्जा अणुण्णाता इत्यर्थः ॥३६३०॥ किं चान्यत् - उस्सासो अपरिक्कमो य गिलाणऽलाघव अग्गि अहि उदए। जड्डस्म य आगाढे, गेलण्णऽसमाहिमरणं वा ॥३६३१॥ सरीरजड्डस्स प्रदाणादिसु उड्ढ सासो भवति । खलादिलंघणेसु य अप्पपरक्कमो भवति । जहा से गिलाणस्स तहा सव्वं कायव्वं । गिलाणो वा सो अभिवखं भवति । तस्म सरीरलाघवं न भवति । ग्रहवा - अहि-अग्गि-उदगादिसु प्रावतंतेसु नासितव्वे मलाधवं भवति । सरीरजड्डस्स प्रागाढे गेलण्णे उवचितरीरस्स डाहजरादिणा असमाहिमरणं भवति ।।३६३१॥ किं चान्यत् - सेएण कक्खमातो-कुच्छणधुवणुप्पिलावणे पाणो। णत्थि गलभोन चोरो, णिदियमुंडा य वातो य ॥३६३२।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-८४ उचितसरीरस्स गिम्हादिसु कक्खोरुउदरंत राशि सेदेण कुच्छेज्जा, ते य अधोवंतस्स व्रणी वेज्ज । मह धोवति उप्पिलावणे पाणिणो बहो भवति । जणो इमं भासति - गलपरिभुत्तं जतोवस्सं कजंतरे पगड भवति, तेण णस्थि सो चोरो जेणिमे समणा एवं उवचितदेहा, तेग गज्जति जहा एते परिणतरसभोयिणो णव य इंदियमंडा - न जितेन्द्रिया इत्यर्थः ।।३६३२॥ इयाणि करणजड्डो - इरियासमिती भासेसणा य आदाणसमितिगुत्तीसु । न वि ठाति चरणकरणे, कम्मुदएणं करणजड्डो ॥३६३३।। पंचसु समितीषु तीसु य गुत्तीसु एयासु अट्ठसु पवयणमादीसु तहा सवित्यरे चरणे - 'वयसमणघम्ममंजमकरणग" गाहा। तहा करणे सवित्यरे "पिंडविसोहीसमिति" गाहा, एवं उदिष्टुं जोण गेहति चारितावरणकम्मोदएण एनेमु ण चिट्ठति एम करणजड्डो। जो वेतं गाहेति तस्स वि सुत्तेमु पलिमयो । एमादिदोमपरिहरणत्थं जड्डो ण दिक्खियको ।।३६३३।। अथ कारणे अजाणया वा दिक्खितो तस्स परिपालणे इमा विही - मोतुं गिलाणकिच्चं, दुम्मेहं पाहे जाव छम्मासा । एक्केक्के छम्मासा, जस्स य दुटुं विगिचणया ॥३६३४॥ जति दुम्महो गिलागट्टा पवावितो तो जाव गिलाणकिच्चं ताव परियति पाढेंति य । जो पुण मोत्तुं गिलाणकिच्चं प्रजाणया पव्वावितो तं छम्मासे पाति । मह दुम्मेहो पव्वा वितो एक्कं गिलाणकिच्चं मोत्तुं सेसं सटवं पमादित्ता दियारामो य पढाविज्जति जाव छ-मासा । जति छम्मासेण णमोक्कारं सामातिमुत्तं वा गेण्हति तो ण छड्डिज्जति । प्रहण गेण्हति तो भन्ने दो मायरिता संकमात, जं मायरियं दद्रु दुम्मेहत्तमं छडडेति तस्स प्रायरियस्स । सो प्रह ण गाहितो तेहि प्रतोपरि विगिवणया परित्यागेत्यर्थः ।। ३६३४।। छम्मासकरणजहुं, परियट्टति दो वि जावजीवाए। अने दो आयरिता, तेसिं दटुं विवेगो य ॥३६३।। करणजड्ड अप्पणो पायरितो छम्मामे परियदृति पच्छा भन्ने दो प्रायरिता संकमति, दुम्मेहवत् । मम्मणं णातिसरी रजहां च एते दो जावज्जीवं परियति ॥३६३५॥ इदमेवार्थ किंचिद्विशेषयुक्तमाह - जो पुण करणे जड्डो, उक्कोस तस्स होति छम्मासा । कुलगणसंघणिवेयण, एयं तु विहिं तहिं कुज्जा ॥३६३६।। करणजडं अपणो प्रायरियो कोमेग छम्मामे परियति । मह प्रश्नो नत्थि प्रायरियो, णेच्छनि वा, ताहे कुलगणसंघसनवातं काउं "जस्स भे रुच्चति सो गेण्हउ" एवं विगिचति । ग्रन्ने भणति - अन्नायरियाभावे प्रप्पगो चेव पदारसमामे परियति ततो पच्छा विगिचति ।।३६३६॥ "जड्डे" ति गतं। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ काव्यगाथा ३६३३-३६४२ ] एकादश उद्देशकः इवाणि 'कीवो' - तिविहो य होति कीवो, अभिभूतो णिमंतणा अणभिभूतो। चउगुरुगा छग्गुरुगा, ततिए मूलं तु बोधव्वं ॥३६३७॥ अहवा दुविहो य होइ कीवो, अभिभूतो चेव अणभिभूतो य । अभिभूतो वि य दुविहो, णिमंतणाऽऽलिद्धकीवो य ॥३६३८॥ अभिभूतो प्रणभिभूतो य । अभिभूतो पुणो दुविहो - णिभंतणाकीवो प्रालिद्धकीवो य । प्रणभिभूतो वि दुविधो - सद्दकीवो दिट्ठिकीवो य । एस चउविहो कीवो । इमा परूवणा - इत्थीते णिमंतितो भोगेहिं ण तरति अहियासेउ, एस णिमंतणाकीवो । जतुघडो जहा अग्गिसन्निकरिसेण २विलयति एवं जो हत्योरुकक्खपयोधरेहि प्रालिद्धो पडिसेवति, एस प्रालिद्धकीवो ॥३६३८।। इमो दिट्ठिकीवो - दुक्हिो य अणभिभूतो, सद्दे रुवे य होइ णायव्वी । अभिभूतो गच्छगतो, सेसा कीवा उ पडिकुट्ठा ॥३६३६।। संफासमणुप्पत्तो, पडती जो सो उ होति अभिभूतो। णिवतति य इत्थिणिमंतणेण एसो वि अभिभूतो ॥३६४०॥ दछृण दुण्णिविलु, णिगिणमणायारसेविणं वा वि । सदं व सोतु ततिप्रो. सज्ज मरणं व अोहाणं ॥३६४१॥ "दळूण" उवरिसरीरमप्पाउयं दुब्वियडं "दुग्निविट्ठ" असंवुडं "णिगिणं" ति, णगं मेहुणमणायारसेविणं वा जो खुब्भति सो दिट्ठिकीवो। इमो सद्दकीवो - "सदं सो' ति, भासा-भूसण-गीत-परियारण-सई च सोतुं जो खुब्भति सो सद्दकीवो । “ततियो" त्ति एस ततिप्रो कीवो। अहवा - एते निरुज्झमाणा "ततिप्रो" त्ति णपुंसगा भवंति, सज्जं वा मरंति, पोहाविति वा ॥३६४१।। इमं दिट्ठिकीवे भण्णति - साहम्मि अण्णहम्मि य, गारत्थियइत्थियाश्रो दट्टेणं । तो उप्पज्जति वेदो, कीवस्स ण कप्पती दिक्खा ॥३६४२॥ एया तिविधित्थीमो दट्टे उक्कडवेदत्तणो पुरिसवेदो उदिज्जति । उदिणे य बला इत्थिगहणं करेज । उड्डाहादी दोसा तम्हा न दिक्खेयव्यो । १ गा० ३५०६ । २ विगलति । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-८४ दिक्खंतस्स इमं पच्छित्तं - प्रालिद्धकीवे चउगुरु, णिमंतणकीवे छग्गुरु, दिट्ठीकोवे छेदो, सद्दकोवे मूलं, अहवा – सामन्नेण कीवे मूलं ॥३६४२।। एते जति पव्वाविता अजाणताए तो इमा जयणा परियट्टणे - संघाडगाणुबद्धा, जावज्जीवाए णियमियचरित्ते । दो कीवे परियट्टति, ततियं पुण उत्तिमट्टम्मि ||३६४३।। सदा संघाडगाणुबद्धा सबितिज्जा एवं प्रतीव नियमिया कज्जति । अभिभूतो दुविधो वि एवं परियट्टिजति । ततिम्रो प्रणभिभूतो सो परं (पुण) उत्तिमढे पव्वाविज्जति ॥३६४३।। एसेवऽत्थो अन्नहा भण्णइ - अभिभूतो पुण भतितो, गच्छे सबितिज्जो उ सव्वत्थ । इयरे पुण पडिसिद्धा, सद्दे रूवे य जे कीवा ॥३६४४॥ पुणसद्देण अभिभूतो दुविधो वि, भयणसद्दो सेवाए। अधवा - जति गच्छे बितिज्जगा अस्थि तो ते पवाविजंति, सबितिज्जा सव्वत्थ गच्छ गच्छंति, इयरे पुण जे सद्द-दिट्ठिकीवास्ते दो वि पडिसिद्धा, तेसि परं उत्तिमट्टे दिक्खा ॥३६४४॥ "कीवे" त्ति गयं । इयाणि “२वाहिते" त्ति - रोगेण व वाहीण व, अभिभूतो जो तु अभिलसे दिक्खं । सोलसविहो उ रोगो, वाही पुण होइ अट्ठविहो ।।३६४५।। कंटा इमो सोलसविहो रोगो - वेवग्गि पंगु वडभं, णिम्मणिमलसं च सक्करपमेहं । बहिरंधकुंटवडभं, गंडी कोटीक्खते सूई ॥३६४६॥ इमो अट्ठविहो वाही - जर-सास-कास डाहे, अतिसार भगंदरे य मूले य । तत्तो अजीरघातग, आसु विरेचा हि रोगविही ॥३६४७॥ प्राशुपातित्वाद् व्याधिः, चिरघातित्वाद्रोगः, तं रोगत्थ वाहिग पवावेंतस्स दोसा प्राणादी इमे य ' छक्कायसमारंभो, नाणचरित्ताण होति परिहाणी। घंसण पीसण पयणं, दोसा एवंविहा होंति ॥३६४८॥ जति तस्स तिगिच्छं प्राउट्टति तो छक्कायविराधणा । एस चरित्तपरिहाणी। गिलाणवावडवेयावच्चस्स सुत्तत्थपोरिसीमो अकरेंतस्स णाणपरिहाणी। चंदणादियाण घसणं, वडछल्लिमादियाण पीसणं, घयमादीयाण पयण, एवमादि पलिमंथदोसेहि अप्पणो सवकिरियापरिहाणो । अध न करोत से किरियं तो च उगुरु । जसे वा पावति पावेहि वा तं च पावति दिक्खिते ।।३६४८।। १नियंतिया । २ गा०३५०६ । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश उद्देशकः २५६ भाष्यगाथा ३६४३-३६५३ ] किं चान्यत् - जाता अणाहसाला, समणा वि य दक्खिया पडियरता । ते चि य पउणा संता, होज व समणा ण वा होज्जा ॥३६४६॥ "प्रणाहसाल" त्ति प्रारोगसाला गच्छवासो प्रणाहसालावत् । तत्थ साहवो अन्नस्स वमणं, प्रष्णस्स विरेयणं, अन्नस्स (स)मसणं, अन्नस्स पाणयं, अण्णस्स घयाईणं, एवमादि उग्गमेत्ता दुखिया जाता। पच्छद्धं कंठं ॥३६४६।। "रोगि" त्ति गतं।। इदाणि "'तेणा" - अक्कंतितो य तेणो, पागतितो गाम-देस-अद्भाणे । तक्करखाणगतेणो, परूवणा होति कायव्वा ॥३६५०॥ अडाडाए बला हरतो अक्कंतिम्रो, राते प्रवहरंतो पागतितो। अधवा - राउलवग्गस अक्कंतितो, पागयजणस्स हरंतिम्रो पागतियो, गामतो हरंतो गामतेणो, सदेस परदेसे व हरंतो देसतेणो, गामदेसतरेसु हरंतो प्रतरतेणो, पंथे मुसंतो अद्धाणतेणो। तदेविक्कं करोतीति तक्करो, नो अन्नं किं चि किसिमादी करोती ति । खेत्तं खणंतो खाणगतेणो ॥३६५०।। सो समासेण चउव्विहो तेणो - दव्वे खेत्ते काले, भावे य तेणगम्मि णिक्खेवो। एएसिं तु चउपह, पत्तेयपरूवणं वोच्छं॥३६५१॥ कंठा इमो दव्वतेणो - सच्चित्ते अच्चित्ते, य मीसए होति दव्वतेणो उ । साहम्मि अण्णधम्मिय, गारत्थीहिं च नायव्यो ॥३६५२।। सचित्तं दुपदचतुप्पदापदं । प्रचित्तं हिरन्नादि । मीसं सभंडमत्तोवगरणं अस्सादि, फलादि वा देसोवचितावचितं । तं पुण सचित्तादि दव्वं साहम्मियाण अण्णधम्मियाण गारत्थियाण वा प्रवहरंतो दब्बतेणो । सो तिविहो - उक्कोस-मझिम-जहण्णो । हय-गय-रायित्थी-माणिक्के हरंतो उक्कोसो, गो-महिस-खत्तखण-खरियादि वा हरतो मज्झिमो, पहियजणमोसगो गंठभेदगो असणादि वा हरंतो जहन्नो। एत्थ एक्केक्के चउप्पगारा इमे - तेणो तेणतेणो पडिच्छगो पडिच्छगपडिच्छगो॥३६५२।। इयाणि खेत्त-काल-भावतेणा तिन्नि वि जुगवं भन्नति - सगदेस परदेस विदेसे, अंतरतेणो य होति खेत्तम्मी । राइंदिया व काले, भावम्मि य नाणतेणो तु ॥३६५३।। • सदेसतो, परदेसतो, एतेसिमतरे वा हरंतो खेत्ततेणगो। रातो वा दिया वा हरंतो कालतेणी । भावतेणो णाणदंसणचरिते हरंतो ॥३६५३।। . १ गा० ३५०६ । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-६४ हयगयलंचिक्काई, तेणेंतो तेणो उ उक्कोसो। . खेत्तखण कण्हवण्णिय, गोणातेणो य मज्झिमतो ॥३६५४।। गंठीछेदगपहियजणदव्वहारी जहण्ण तेणो उ । एक्केक्को वि य दुविहो, पडिच्छगपडिच्छगो चेव ॥३६५५ इमे उदाहरणा तिसु वि - गोविंदऽज्जो णाणे, दंसणसत्थट्ठहेतुगट्ठा वा। पावादिय उव्वरगा, उदायिवहगातिया चरणे ॥३६५६।। गोविंदो णाम भिक्खू । सो एगेणायरिएण वादे जितो अट्ठारस वारा। ततो तेण चिंतियं सिद्धतसरूवं जाव एतेसिं ण लब्भति ताहे ते जेतुन सकेंतो, ताहे सो णाणावरणहरणट्ठा तस्सेवायरियस्स अंते णिक्खतो। तस्स य सामाइयादि पढेंतस्स सुद्ध सम्मत्तं । ततो गुरु वंदित्ता भणति - देहि मे वते। णणु दत्ताणि ते वताणि । तेण सभावो कहितो। ताहे गुरुणा दत्ताणि से वयाणि । पच्छा तेण एगिदियजीवसाहणं गोविंदणिज्जुत्ती कया। एस णाणतेणो। एवं दंसणपभावगसत्थट्टा कक्कडगमादिहेतुगट्ठा वा जो णिक्खमति सो दंसणतेणो । जो एवं च करणट्ठा चरणहा चरणं गेण्हति, भंडिअोवा गंतुकामो, जहा वा रण्णो वहणट्ठा उदायिमारगेण चरणं गहियं । प्रादिसद्दातो "मधुरकोण्डइला" एते सव्वे चरित्ततेणा ॥३६५६।। एते दव्वादितेगा समण-समणी ण कप्पति पव्वावेतु सच्चित्तं अच्चित्तं, च मीसगं तेणियं कुणति जो उ । समणाण व समणीण व, न कप्पती तारिसे दिक्खा ॥३६५७।। पव्वाविते इमे दोसा वहबंधण उद्दवणं, च खिसणं आसियावणं चेव । णिव्विसयं च गरिंदो, करेज्ज संघ च सो रुट्ठो ॥३६५८॥ तस्स वा पवायगायरियस्स व सव्वस्स व गच्छस्स लतकसादिएहिं वहं करेज्ज, वंधणं जियलादिएहिं, उद्दवणं मारणं, खिसा "घिरत्थु ते पचज्जाते" ति, आसियावणं पधज्जातो, गामणगरातो वा धाडेज्ज । अहवा - णरेंदो रुट्ठो णिविसयं करेज्ज, कुलगणसंघाण वा वहादिए वि पगारे करेज्जा ॥३६५।। कि चान्यत् - अयसो य अकित्ती या, तं मूलागं भवे पक्यणस्स ! तेसि पि होइ एवं, सव्वे एयारिसा मण्णे ॥३६५६।। पूर्ववत् णवरि - तेणत्थे वत्तबा ॥३६५६॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वायगाथा ३६५४-३६६४ ] एकादश उद्देशक: जो पव्वावेति तस्स प्राणादिया दोसा, इमं च से पच्छित्तं सग्गामपरग्गामे, सदेस परदेस तो बाहिं च । दिट्ठादिट्ठे सोही, मासलहु अंतमूलाई || ३६६०॥ شکر समामे परग्गा सदेसे परदेसे एतेसि अघो उक्कोस मज्झिम- जहण्णा ठत्रिज्जति, एतेसि तो बाहि विजति एतेस हों दिट्ठादिट्ठादि । एतस्सऽधो मूलं ।। ३६६० ।। मूलं छेदो छग्गुरु, छल्लहु चत्तारि गुरुगलहुगा य । गुरुगलहुओ य मासो, सग्गामुक्कोंसगातीणं ॥ ३६६१॥ मूलादि जाव मासलहुं ताव विज्जति । इमा चारणा समामे उक्कोसं तो दिट्ठ जो अवहरति तं जो पध्वावेति तस्स मूलं । श्रदिट्टे छेदो। बाहि दिट्टे दो दिट्टे छगुरु | मज्झिमे छेदातो छल्लहुए ठायति । जहणणे छग्गुरुगातो चउरुगे ठायति । एवं परग्गामे अड्डोक्कति चारणाए छेदाढत्तं चउलहुए ठायति । समे छग्गुरुप्राढत्तं मासगुरुए ठायति । परदे से छलहु श्राढत्तं मासलहुए ठायति । प्रन्नधा वि चारिज्जते एतदेव भवति । जम्हा एते दोसा तम्हा ण पव्त्रावयवो तेणो ।। ३६६१ ।। - कारणतो पव्वावे - मुक्को व मोइत्रो वा हवा वीसज्जितो णरिंदेणं । ? द्वाणपरविसे, दिक्खा से उत्तिमट्ठाते || ३६६२॥ धणागारसोक्को, सयणेणमण वा दंडेग मोइग्रो, रण्णा वा विसज्जितो - जहा पभवो । ग्रहवा - मेयज्जऋपिघानवत् । श्रद्धा परदेमे वा उत्तिम वा पडिवज्जंतो दिक्खिज्जति ॥ ३६६॥ तेणेत्ति गतं । दाणि ""रायाकारे" त्ति । इमो रायावकारी रण रोहातिसु, संबंध तह य दव्वजायम्मि | अब्भुडितो विणासाय होति रायावकारी तु || ३६६३॥ २६१ १. गा० ३५०६ । उरे अवरद्धो, सयणो वा, कि चि दव्वजातं वा प्रवहितं रण्णो, रयणदव्वस्स वा विनासाय भुट्टो रायाकारी ।। ३६६३॥ सच्चित्ते अच्चित्ते, व मीसए कूडले हवहकरणे | समणाण व समणीण व, ण कप्पती तारिसे दिक्खा || ३६६४ || Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ मभाष्य-चूणिके निशीथस्त्रे [ सूत्र-८४ जे रणो सच्चित्तं दव्वं पुत्तादि, अचित्तं हारादि, मीसं वा, दूनत्तणेण वा विरोहो कतो, कूडलेहेण वा रायविरुद्धं कयं, दंडियविरोहे वा पुत्तादि से वहितो, एरिसो ण कप्पति पवावेउं ॥३६६४॥ आसा हत्थी 'खरिगाति वाहिता कतकतं च कणयादी । दोच्चविरुद्धं च कयं, लेहो वहितो य से कोई ॥३६६५॥ कंठा तं तु अणुट्ठियदंडं, जो पवावेति होति मूलं से । एगमणेगपदोसे, पत्थारपोसो वा वि ॥३६६६॥ बहबंधण उद्दवणं, च खिसणं आसियावणं चेव । णिबिसयं च णरिंदो, करेज्ज संघ च सो रुट्ठो ॥३६६७॥ अयसो य अकित्ती या, तं मूलागं भवे पवयणस्स । तेसिं पि होइ एवं, सव्वे एयारिसा मण्णे ॥३६६८।। एवमादिदोसा । जो पव्वावेति मूलं ॥३६६८।। कारणे वा पवावेज्जा - . मुक्को व मोइतो वा, अहवा वीसज्जितो नरिंदेणं । अद्धाणपरविदेसे, दिक्खा से उत्तिमढे वा ॥३६६६॥ पूर्ववत् इदाणि “२उम्मत्तो' - उम्मादो खलु दुविधो, जक्खाएसो य मोहणिज्जो य । अगणी आलीवणता, आतवयविराहणुड्डाहो ॥३६७०॥ जक्खेण आविट्ठो, मोहणिज्जकम्मोदएण वा उम्मादो जातो। एते दो वि ण पवावेयब्वा । इमे दोसा - अगणीए पयावणादि करेज्ज, पलीवणं करेज, अप्पाणं वयाणि वा विराहेज्ज, वरियादिग्गहणेण वा उड्डाह करेज्ज ॥३६७०।। छक्काए ण सद्दहति, सज्झाय-ज्माण-जोग-करणं वा । उवदिळं पि ण गेण्हति, उम्मत्ते ण कप्पती दिक्खा ॥३६७१।। काए ण सद्दहति, साझायज्झाणं न करेति, अप्पसत्थे मणादिजोगे करेति, पडिलेहणसंजमादिकरणजोगे ण करेति । अन्नं पि विविधं चक्कवालसामायारीए उवदिटुं ण करेति । एवमादिदोसेहि उम्मत्ते न कप्पति दिवखा ॥३६७१॥ झ्याणि "ग्रहसणी दुविहो अदसणो खलु, जानीउवघायो य णायब्यो । उवघातो पुण तिविधो, वाही उप्पाड अंजणता ॥३६७२।। १ दामी । २ गा० ३५.०६ । ३ दासी । ४ गा० ३५०६ । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३६६५-३६७७ ] एकादश उद्देशक: २६३ जातियो जम्मांधी, तिमिरा दिवाहिणा अंधो, अवराहियस्स वा उप्पाडियाण, तत्तसलागाए वा अंजियाणि, अन्ने एएगेव पसंगेण 'श्रीणद्धी" भन्नति । जाति-वाहि-अंजितंऽधो य तिसु वि चउगुरुगा। उद्वितणयणे छग्गुरु, चरिमं थीणद्धीए ॥३६७२।। 'उवहत उट्ठिय णयणे, अदसणे अहव थीणगिद्धीए । - चउगुरुयं छग्गुरुयं, तइए पारंचितो होति ॥३६७३॥ इमे दोसा छक्कायविराहणता, आवडण खाणुकंटमादीसु । थंडिल्ले अपडिलेहा, अंधस्स ण कप्पती दिक्खा ॥३६७४॥ अप्पेच्छंतो छक्काए विराहेति, विसमे खाणुकंटेसु आवडइ, अप्पेच्छंतो थंडिलसामायारि ण करेति, पंधत्वादेव ।।३६७४॥ इमा थीणद्धिदोसो - आवहति महादोसं, दंसणकम्मोदएण ततिश्रो उ । एगमणेगपदोसे, पत्थारपोसो वा वि ॥३६७।। महंत दोस पावहति - पावति । कम्हा भन्नति ? सणकम्मोदएण को दोसो संपावइ थीणद्धी ? भण्णति - इमे य दोसा, सो थिणद्धीए दुट्ठो गिहिसाहूणं एगमणेगाण वा वध-बंधण-मारणं करेज्ज, जं चऽन्नं कि चि काहि त्ति पालीवणादियं । सव्वं पवावेतो पावति पच्छितं ।।३६७५।। "अंधि" ति गतं । इयाणि 'दासे' । तस्सिमे भेदा - गम्भे कीते अणए, दुभिक्खे सावराहरुद्ध वा । समणाण व समणीण व, ण कप्पती तारिसे दिक्खा ॥३६७६।।, "गन्भे'' त्ति - उगालिदासो, किणित्ता दासो कतो, रिणं अदेतो दासत्तणेण पविट्ठो, दुभिक्खे छातो दासत्तणेण पविट्ठो, किमिति कारणे अवराधी दंडं अदितो रणा दासो कतो, बंदिग्गहे णिरुद्धो, दविणं प्रदेतो दासो कतो, एते दिवखेतु ण कप्पंति ॥३६७६।। इमे दोसा - उवसंतो रायमच्चो, समणाणं बंदणं तु कुणमाणो । दट्टैण दुवक्खरगं, सब्बे एयारिसा मन्ने ॥३६७७॥ एगो रायप्रतिमो, राया वा, उवसंतो अहिणवसड्डो, तम्स संतितो दासो एगेणायरिएण अन्नापो पव्वावितो । ते य विहरता तं गरमागता जत्थ सो राया । वंदणं करेंतेण सो दिट्ठो दासो। विप्परिणतं णिस्मारं पवयणं ति । चितेति य सब्वे एरिसा एते ॥३६७७।। १ गा० २२६ । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्र [मूत्र-०४ ग्रहवा-इमं करेज्ज वहबंधण उद्दवणं, च खिसणं आसियावणं चेव । णिविसयं च णरिंदो, करेज्ज संघ पि परिकुवितो ॥३६७८॥ तं मन्नं वा उनिसावित्ता दासत्तणं करेज । सेसं कंठं ॥३६७८।। अयसो य अकित्ती य, तं मूलागं तहिं पवयणस्स । तेसि पि होइ संका, सब्बे एयारिसा मण्णे ॥३६७६।। मुक्को व मोतिमो वा, अहवा वीसज्जिो नरिंदेण । अद्धाणपरविदेसे, दिक्खा से उत्तिमढे वा ॥३६८०।। पूर्ववत् इदाणिं "'दुद्दो" दुविहों य होइ दुट्ठो, कसायदुट्ठो य विसयदुट्ठो य । दुविहो कसायदुट्ठो, सपक्खपरपक्खचउभंगो ॥३६८१॥ कोहं करेंता कसायट्ठो, विसयासेवी विसयट्ठो । कसायट्ठो पुणो दुविहो - सपक्खे परपवखे य । एत्थ चउभंगो कायब्वो ॥३६८०।। इमो पढमभंगो - सासवणाले मुहणंतए य उलुगच्छि सिहिरिणि सपक्खे । -- परपक्सम्मि य रनो उद्दवो होइ नायव्वो ॥३६८२।। पुबहेण चउरो उदाहरणा पढमभंगो, पच्छद्धण वितिय भंगो ।।३६८२।। "२सासवणाले" इमं उदाहरणं - सासवणाले छंदणं, गुरु सव्वं मुंजे एतरे कोवो । खामण य अणुवसंते, गणि दुवेंतऽण्णहि परिनो ॥३६-३॥ एगेण साहुणा सासवणालुस्सेल्लयं सुसंभृतं लद्ध, तत्थ से अतीव गेही, तेण य तं गुरुणो उवणीयं, तं च गुरुणा सब्वं भुतं, इयरस्स कोवो जातो झटियं च । गुरुणा सो खामितो, तदावि णोवसंतो। भणति य - भंजामि ते दंता। गुरुणा विचिंतियं - मा एस मे असमाधिमरणेण मारिम्मइ ति, गणे अन्नं ग्राग्यिं ठवेत्ता अन्नं गणं गंतु प्रणासगं पडिवण्णं ॥३६८३।। पुच्छति य ते साहू "कत्य मे गुरवो?' पुच्छतमणक्खाए, सोवऽण्णो गंतु कन्य से सरीरं । गुरुणा पुव्वं कहिते, दायिते पडिचरणदंतवहो ॥३६८४।। १गा. ३५०७।२ गा० ३६८२ । . Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३६७८-३६८७ ] एकादश उद्देशकः पुच्छति कहिं गतो गुरू ? न कहेंति साहवो । सो अन्नो सोच्चा गतो जत्थ गुरवो । तह कहियं - प्रज्ज चेव कालगतो परिट्ठवितो । ताहे ते पुच्छति - कत्थ से सरीरयं ? गुरुणा पुव्वकहितो चिंधेहि उवलक्खितो सो एसो पावो त्ति । तेण किं करेसि ? पेच्छामि से सरीरं ति । ताहे दंसितो, सह ते साहुणा गुविलट्ठाणठिताण परिचरितो "किमेस काहिति " त्ति पेच्छति । उवट्ठितो तु गोलोवलं कड्डिऊण दंते व धंतो भणाति - " सासवणालं खासि" त्ति, एयं करेंतो दिट्ठो । इयाणि ""मुहणंतगे" त्ति - मुहणंतगस्स गहणे, एमेव य गंतु निसि गलग्गहणं । सम्मूढेणितरेण वि, गलते गहितो मया दो वि || ३६८५|| एगेण साहुणा प्रतीव लट्ठ मुहणंतगं प्राणियं तं गुरुणा गहियं । एत्थ वि सव्वं पुव्ववक्खाणगसरिसं । णवरं - तं मुहणंतगं च पच्चष्पिणंतस्स ण गहियं । जीवंते य गतो रायो साधुविरहं 'लभित्ता "मुहणंतगं गेहसि" त्ति भणतो गाढं गले गिण्हति, संमूढेण गुरुणा विसो गहितो, दो वि मता ।। ३६८५॥ २ इयाणि " उलुगच्छि" त्ति - २६५ अत्थंग विसिव्यसि, उलुगच्छी अच्छि उक्खिणामि तुहं । पदमगमो नवरि इहं, उलुयच्छीउ त्ति ढोक्केति || ३६८६ ॥ एगो साहू प्रत्थंग सूरिए सिव्वंनो गुरुणा भणितो "पेच्छसि त्ति उलुगच्छी ?" सो रुट्टो भणानि “ एवं भणतस्स ते दो वि अच्छीणि उद्धरामि " । एत्थ वि सव्वं पढमसरिसं । णवरं रयोहरणातो प्रयोमयं कीलियं कड्डिऊण दो वि ग्रीणि उद्धरितु ढोकेति ।। ३६८६ ।। इयाणि "सिहिरिणि" त्ति - सिहिरिणि लंभाऽऽलोयण, छिंदिते सव्वातियंते उग्गिरणा । भत्तपरिण्णा अण्णं, ण गच्छती सो इहं णवरं ।। ३६८७|| 9 एगेण साहुणा उक्कोमा भज्जिना लडा, गुरुणो ग्रालोइया, णिमनेति गुरुणा सव्वा प्रादिना । मोमा पत्थर उक्खिवित्ता ग्रागतो, अन्नेहि वि वारितो, तहावि ग्रणुवसमंते गुरुणा चेव भत्तं पचवायं नो ग्रन्न गण गनो। एते चउरो वि लिंगपारची ॥। ३६८७।। गतोपदमभंगो । " दाणि विनियभंगो - सखे परखे दुट्टो, जहा उदायि मारगो । एसो वि कुल-गण- संघलिंगं हानुंगिन्छुभति । एते पञ्चाविता नाया। पव्त्रज्ञकर पहुच्च गरिहा । खडा १ गा० ३६८३ । २ ० ३६८६ । ३ ० ३६८३ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे मूत्र-८४ परपक्खे उ सपक्खो, उदायिणिवमारतो जह य दुट्ठो। सो पवयण-रक्खट्टा, णिच्छुभति लिंग हातूणं ॥३६८८॥ इदाणि ततियभंगो - . परपक्खो उ सपक्खे, भइतो जइ होइ जउणराया उ। . तं पुण अतिसयणाणी, दिक्खंतधिकारणं नाउं ॥३६८६॥ परपक्खो सपक्खे दुवो जहा मधुराए जउणराया। अक्खाणगं जहा ज़ोगसंगहेसु । एवं अतिसयणाणी जति उवसंतो तो दिक्खंति । अणुवसंतो एसेव भयणा । अणतिसती ण दिक्खंति, दिक्खंति व' अविगारिणं णात ॥३६८६।। चउत्थभंगो परपक्खो परपक्खे, दंडिकमादी पदुट्ठो परदेसे । उवसते वा तत्थ उ, दमगादि पदुट्टो भतितो उ ॥३६६०॥ दंडियादी जे परोप्परं पउडा ते तत्थेव न दिक्खेयव्वा, मा एगतरो एगस्स घातं काहिति । ने पउट्ठा जत्थ परोप्परं न पस्संति तेण परदेसे दिक्खा दोसु वि परोप्परे उवसंतेसु । ईसरो वा उवसंते दम. गमणुवसंतं तत्थेव दिवखेत्ति, भयणा वा, अतिरुद्दो पोरसवीरियं दमगं पि तत्थेव ण दिक्खेति । एस भयणा ।।३६६०॥ इयाणि विसयदुट्ठो भण्णति - तिविहो उ विसयदुट्ठो, सलिंगि गिहिलिंगि अण्णलिंगी य । एत्तो एक्केक्को वि य, णेगविहो होति णायव्यो ।।३६६१॥ सलिंगट्टितो विसयदुद्दो, एवं गिहिलिंगप्रणालिंगट्टितो विसयदुट्ठो। एक्कक्के अणेगभेदा इमे - सलिंगी सलिंगे, सलिगी गिहिलिगे, सलिंगी अण्ण लिंगे। एव गिहिलिगे अण्णलिगे य तिणि तिणि भेदा कायव्वा ।। ६६१॥ अह सपक्खपरपक्वेहि चउभंगो कायव्वो। पढमभंगो इमो - सपरिपक्खो विसयदुट्ठो, सपक्खे पारंचिो उ कायव्यो । आउदृस्स उ एवं, हरेज्ज लिंगं अठायते ॥३६६२॥ जो पउट्टो सो प्राउट्टो पारंचिो काययो, अट्ठायते पुण लिंगं हरति । बितियभंगो वि एवं चेव वत्तब्वो ॥३६६२॥ इमो ततियभंगो वि - परपक्वं तु सपक्खे, विसयपदुटुं न तं तु दिक्खंति । सेज्झियमादिपदुटुं, न य परपमवं तु तत्थेव ॥३६६३॥ । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३६८८-३६६७] एकादश उद्देशकः २६७ परपक्खं सारखे दुटुंण पव्वाति, मा तेणेव पसंगेण पुणो पुणो पडिसेविस्सति, उवसंतं वा परदेसे । पच्छद्धेण चरिमभंगो भणति - परपक्वं परपक्खे। सेज्मियादिसु पउ8 तत्थेव ण दिक्खंति, अन्नत्थ दिक्खंति । पागतित्थीसु अविरत पवावेंति चउगुरु, कोडुंबे मूलं, दंडिए पारंची, तम्हा विरतो पव्वावेयव्वो ॥३६६३॥ इयाणि "'मूढो" - दव्वदिसखेत्तकाले, गणणा सारक्खि अभिभवे वेद । बुग्गाहणमण्णाणे, कसायमत्ते व मूढपदं ॥३६६४॥ इमो दव्वमूढो - धूमादी बाहिरितो, अंतो धत्तरगादिणा दव्वे । जो दव्वं व ण याणति, घडियावोदोवदिट्ट पि ॥३६६५॥ बाहिरितो घूमेणाकुलितो मुज्झति, अंतो धत्तूरगेण मदणकोद्दवोदणेण वा भुत्तेण मुज्झति । जो वा पुवदिटुं दव्वं कालंतरेण दिट्ठम्मि ण याणति सो दव्वमूढो घडिगावोद्रवत् । अज्झावगभज्जा कवडविणीता दुस्सीला वा अणाहगमडगं गिहे छोढूण दहितु धुत्तेण सह पलाया।सो भत्ता तीसे गुणा संभरंतो अट्ठी घडियाते छोढ घेत्तु गंगं पयातो, तीए अंतरा दिट्ठो। अणुकंपाए कहितं - "अहं सा।" "सब्बं सारिक्खा तीए, पुण इमाणि से अट्ठीणि, ण पतिजति" । ताए सव्वं कहियं तेति “जहा पुव्व-भुत्तं जंपियं च" । ताहे भणाति - "सव्वं सच्चं, इमाणि से अट्ठीणि, ण पतिजति"। एस दव्वमूढो ॥३६९५॥ दिसिमूढो पुव्यावर, भण्णति खेत्ते उ खेत्तवच्चासं । दियरातिविवच्चासो, काले पिंडारदिलुतो ॥३६६६॥ उदिसिमूढो विवरीतदिसा गेण्हति, जहा पुव्वं प्रवरं मण्णति । खेत्तमूढो जं खेत्तं ण याणति जम्मि वा खेत्ते मुज्झति रातो वा परसंथारं अप्पणो मण्णति । "कालमूढो दिवसं वा रति मणति । एत्थ पिंडारदिद्रुतो - एगो पिंडारो उब्भामिगासत्तो अब्भवद्दले माहिसं दधि दुद्ध निसटुं पातु सुत्तुट्टितो निद्दाकमढितो जोण्हं मण्णमाणो दिवा चेव महिसीतो घरं संचारिते छोढु वतिज्झाडंतरेण अोणतो उन्भामियघर पद्वितो । “किमेयं" ति जणेण कलकलो कतो, विलक्खो जातो। एस कालमूढो ॥३६६६।। ऊणाहियमण्णंतो, उट्टारूढो य गणणतो मूढो । सारिक्खे थाणुपुरिसो, महतरसंगामदिÉतो ॥३६६७।। जो गणेतो ऊणं अहियं वा भण्णति सो गणणमूढो, जहा - एगो उट्टपालो, उट्टे ते एगवीसं १ गा० ३५०७ । २ तरुण । ३ गा० ३६९४ । ५ गा० ३६९४ । ६ गा० ३६६४ । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-८४ रक्खनि, एगत्थारूढो तं ण गणेति, सेसे वीसं गणेति, पुणो वि गणिते वीसा, णऽत्थि मे एगो उट्रो त्ति अण्णे पुच्छति, तेहि भणितो जत्थारूढो एस ते इगवीसइमो। 'सारिक्खामूढो जहा - खाणुं पुरिसं मणति । एत्थ महतरसेणावति संगामदिटुंतो- एगम्मि गामे चोरा पडिया, महत्तरो कुडेण लग्गो। चोरकुट्टियाण य जुद्ध । महत्तरो सेणाहिवेण सह लग्गो, तेण सेणाहियो मारितो, सो वि पडितो। सेणाहिवो सारिक्खेण मतो, कुट्टिएण गाम णेतु दड्ढो. चोरेहि वि सारिक्खेण महतरो नीतो। तत्थ सो भणति - "णाहं सेणाहिवो', चोरा भणति - “एस रणपिसायो" त्ति पलवनि, अण्णदा मो नासिउं सग्गामं गतो। ते भणंति-को सि तुम पेतो पिसातो? तेण पडिरूवेण अागतो। साभिण्णाणे कहिते पच्छा संगहितो। उभयो वि सयणा सारिक्खमूढा ॥३६६७॥ अभिभूतो सम्मुज्झति, मत्थग्गीवादिमावतादीहिं । अच्चुदयअणंगरती, वेदम्मि उ रायदिटुंतो ॥३६६८॥ खग्गादिणा सत्थेण, मालीवणादिमु अग्गिणा, वादकाले वादिणा, प्ररणणे सावयतेणगेमु, 'अभिभूयो भया सम्मुज्झति । वेदमुढो अतीवउदयो, प्रभुदएग अागे रती करेति, जहा पुरिसो करनीव जुगछिट्ठादिसु, इत्थी वि करंगुलिफलादिनु। अहवा - सरिसवेदे - पुरिमो पुरिमं प्रामपोसादिमु पडिसेवति, असरिसवेदे पुरिमो - इस्थि प्रासखरादिमु पडिगेवति ।।३६६॥ भद्दवाकया गाहा दववेदवुग्गाहणमुढ भण्णति - वणियं महिलामूद, माईमुहं च जाण रायाणं । दी य पंचमेले, अंधलगमुरण्णकारे य ॥३६६६।। "वणियं महिला मूढ'' ति, एत्य सावगमजा वतव्वा । एम दबमूढो । वेयमुढो रायपुत्तो उदाहरणं - पाणंदपुरं णगरं. जितारी राया, वामत्था भारिया, नम्म पुनो ग्रणंगो णाम । बालत्ते अन्छिरोगेण गहितो निच्चं रुयते अच्छति । अगया जणणीते रायणीप णिगिट्टियाए ग्रहानावेण जाण ऊरुग्रंतरे छोटु उवग्गृहितो, दो वि तेसिं गुज्झा परोप्परं ममुफिदिता. नहेव तृहिकको ठितो। लद्धोवाय स्वंतं पुणो तहेव करेति, ठायति स्यतो, पवट्टमाणो तन्धेव गिड़ो। माउपि य अणुप्पियं, पिता से मतो, मो रज्जे ठिनो, नहावि नं मायरं परिभु जनि. निवादीहि वृच्नमाणो वि णो ठितो । एम वेदमुढो।। दीव, पंचमेले, अंथलग, मूत्रनगारे य एते चउरो वि वुग्गाहणे मूढा ।।३६९६।। .. दीवो' त्ति - पुव्वं बुग्गाहिता केती, नरा पंडितमाणिणो । णच्छंति कारणं सोउं. दीवजाए जहा णरे ॥३७००॥ कंटा । १ गा० ३६९४ । गा० ३६६४ । ३ गा० ३६६६ । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भाष्यगाथा ३६६८-३७०१] एकादश उद्देशक: .२६६ इमं तु उदाहरणं - एगो वणिगो, तस्स महिला अतीव इट्ठा, सो वाणिज्जेण गंतुकामो तं पापुच्छति । तीए भणियं-अहं पि गच्छामि, तेण सा नीता, सा गुम्विणी, समुद्दमझे विणटुं जाणवत्तं, सा फलगं विलग्गा । अंतरा दीवे उक्कूलिता, तत्थेव पसूता दारगं । स दारगो संवुढो, सा तत्थेव संपलग्गा । वहुणा कालेणऽवतरिते तत्य जाणवत्ते दुरुहिता सणगरमागता । सो तीए बुग्गाहितो - "ण ते लोगवुत्तेण अह जणणि त्ति काउं परिच्चइयव्वा।" स लोगेण भण्णति - "अगम्मगमणं मा करेहि, परिच्चयाहि", तहावि णो परिच्चयति । __"पंचसेले" ति जहा - अणंगसेणो पंचसेलं गतो हासप्पहासःच्छरादिवग्गाहितो बालमरणण मराहित्ति, पडियागतो मितसयणेहिं भण्णमाणो वि इंगिणीपडिवण्णो सवित्थरं सव्वं कहेयन्वमिति । "'अंधलग" त्ति -- अंधपुरं नगर, तत्थ अणंधो णाम राया। सो य अंधभत्तो, तेण अंधा खाणपाणादिएहिं परिग्गहिया । सव्वेसु य तेसिं दाणं देति। दिट्ठा य ते धुत्तेण । “मुसामि" त्ति चितेउं स ते मिच्छोवयारेण अतीव उवचरति । भणति य "ग्रहं ग्रंधलगदासो, जत्थऽम्हे निवसामो तत्थ राया अतीव अंधभत्तो । तत्य जे अंधा ते दिवलोगं विलंबेंति । तुभेत्य दुक्खिया, जदि भे अस्थि इच्छा तो भे तत्थ णेमि । तेहिच्छित।" तेण रातो नीणित्ता नातिदुरे भणिता - इह त्थि चोरा। जति भे किं चि अंतद्धणं अत्थि तो अप्पह । तेहि वीसंभेण अप्पियं, भणिया य पत्थरे गेण्हह, जो भे अल्लिय त्ति तं पहणज्जाह, जति भे को ति भणिज्जा "मुसिया केण वि अंधा डोंगरं भामिता"। जाणह ते चोरे। पहणेज्जाह, सो वि महतं सील छिण्णटकं डोगर समं भमित्ता पुरिल्लं मग्गिल्लस्स लाइत्ता सणियं पलातो। ते य दिट्टा गोवालमादीहि, भणति य - "मुद्धा वरागा डोंगरं भामिता", एते चोरा, पत्थरे खिवंति, न देंति य ढोयं । "सुवण्णगारे" त्ति- एगो पसुपालबोदो। तेण उज्जियं सुवण्णं । तं तेण अप्पियं सुवा - गारस्स, घडेहि मे एत्थ मोरंगाई । तण घडिता, तस्स दंसिता। कलादेण य सो भणितो - “तुज्झते मा हीरिज्जिहि त्ति, जहि ते रोयति छाएमि"। तेण पडिवण्णं । कलाएण हडं सुवण्णं, तंविता तस्स घडेउं अप्पिया, भणियो य जणो ते भणिहि त्ति "कलापण मुट्ठो वरायो, न ते पत्तिज्जियवं" । इमं च भणिज्जासि - “जो एत्थ परमत्थो तमहं जाणे" । कलायणामो य सयमेव भण्णति । एते वुग्गाहणमूढा । 3अन्नाणमूढो - जा सकादिमता अन्नाणा णायबुद्धीते गेहति, णो जातणं हेतुसतेहि दंसियं पि घडमाणमत्थं गिण्हंति । ५कसायमूढो - कसायोदया हिताहितं, इहपरलोगेसु कज्जमकज्ज वा ण याणति । 'मदमूढो दुविहो - दब्वे भावे य । दवे मज्जादिएहि मूढी कज्जाकज्ज वच्चावच्चं गम्मागम्म ण याणति । भावे अढविहमयमूढो परलोगहियं ण पस्सति ॥३७००। अन्नाण कुतित्थिमते, कोहे माणातिमत्तेण वि चेतो। वियडेण व जो मत्तो, ण वेयती एस बारसमो ॥३७०१।। १ गा० ३६६६ । २ गा० ३६६६ । ३ गा० ३६६६ । ४ सत्थं । ५ गा० ३६६६ । ६ गा० ३६६६ । . Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे मूढपदे पव्वज्जारिहा भन्नंति - मोण वेदमूढं दिल्लाणं तु नत्थि पडिसेहो । बुग्गाहणमण्णाणे, कसायमूढा तु पडिकुट्ठा ||३७०२ ॥ - वेदमूढो रिहो । वेदपदस्स जे दिल्ला पदा ते सव्वे प्ररिहा पन्त्रज्जाए वुग्गाहण प्रश्नाणकसा मूढा भावणपडिकुट्ठा। मत्तो वि मदत्यो पडिकुट्टो । वेदबुग्गा हण-अन्नाण-कसाय मत्तगमूढं च पव्वावेंतस्स उगुरुगं प्राणादियाय दोसा अयस प्रकित्ती य, बितियपदं प्रतिवादी ।।३७०२ ।। " मूढे” त्ति गयं । इदाणि "णते" सच्चित्तं च्चित्तं, व मीसगं जो अणं तु धारेति । समणाण व समणीण व, ण कप्पती तारिसे दिक्खा ||३७०३ || कंठा इमे दोसा - सोय कित्ती या, तम्मूलागं तहिं पवयणस्स । अण पोच्चड झंझडिया, सव्वे एयारिसा मण्णे ||३७०४॥ प्रणं रिणं, पोच्चडं मइलं, दव्वमइलं चक्कियादिपरिहणं, भावे अण्णाणपोच्चडो । "झंझडिए" त्ति झंझडिया रिणे दिज्जते वणिएहि श्रणे गप्पगारेहि दुव्वयणेहिं झडिया झंझडिया, लताकसादिएहि वा झडिता । सव्वे एयारिसा एते गेण्हणकढणादिया दोसा ||३७०४ ।। इमं बितियपदं - दाणेण तोसितो वा, हवा वीसज्जितो पहूणं तु । श्रद्धाणपरविदेसे, दिक्खा से उत्तमट्ठे वा || ३७०५ ॥ [ सूत्र -८४ श्रद्धपदत्ते दाणेण तोसिएण घणिएण विसज्जितो, “पभु" त्ति घणितो, सव्वम्मि दिने ते विसजितो पव्वाविज्जति || ३७०५|| सेसं कंठं । अणे त्ति गतं । याणि गतो जाती कम्मे सिप्पे, सारीरे जुंगियं वियाणाहि । समणाण व समणीण व, ण कप्पती तारिसे दिक्खा || ३७०६ || जातिजुंगितो णियमा कुलेण जुंगितो त्ति तम्हा दो वि एकं पदं ||३७०६ ॥ सो जु गितो चउव्विहो इमो चउरो य जुंगिया खलु, जाती कम्मे य सिप्प सारीरे । णेक्कारपाणडोंबा, वरुडा वि य जुंगिता जाती || ३७०७|| जातिजुंगितो पच्छद्वेण भर्ष्णाति । जुगुच्छितो कोलिगजातिभेदो णेक्कारो । अण्णे भांति - लोहकारा हरिएसा मेया पाणा आगासवासिणो डोंबा सुप्पादिया रुडं करेता वरुडा तंतिवरता उवलित्ता । एते सव्वे जातिजुंगिता ||३३०७ || १ गा० ३५०७ । २ गा० ३५०७ । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 माध्यगाथा ३७०२ - ३:१२ ] कम्म गिता - पोसग - संपर-ड- लंख - वाह- सोगरिंग- मच्छिया कम्मे । पदकारा य परीसह, रयगा कोसेज्जगा सिप्पे || ३७०८ || इत्थी मयूर कुक्कुडपोसगा, संपरा व्हाविगा, सोधगा, गडा गाडगाणि णाडेन्ता, लंखा वंसवरत्तारोगा, वाहो एग दुग- तिगादिणो धणुवग्गहत्था, मिगलुढगा मिए वागुराहि वहेत्ता, वागुरिया सुणकारगा, सोगरगा खट्टिका, मच्छरगाहगा मच्छिक्का, एते कम्मजु गिता । पदकारा चम्मकारा, परीषहा पहाविता, वत्यसोहगा रयगा, वेडयकारिणो कोसेज्जा । एते सिप्पजु गिता || ३७०८ ।। सरीरजु गिता इमे - एकादश उद्देशक : हत्थे पाए कण्णे, नासा उट्ठे विवज्जिया चेव । वामणग- वडभ-खुजा, पंगुल- कुंटा य काणा य || ३७०६॥ सर्वगात्रहीनं वामनं पृष्ठतोऽग्रतो वा विनिर्गतसरीरं वडभं, सर्वगात्रमेगपार्श्व हीनं कुब्जं गंतुमसमर्थः, पादजंघा हीनः पंगु होनहस्तः कुंट:, एकाक्षः काण: ।।३७०६ ।। पच्छा वि होंति विगला, आयरियतं न कप्पती तेसिं । सीसो ठावेयव्वो, काणगमहिसो य णिण्णन्मि ||३७१०।। जदि पच्छा सामण्णभावद्वितो सरीरजुंगितो हवेज्जा सो परिवज्जो, जति सो प्रायरियगुणेहि उad तहावि श्रायरियो न कायव्वो । बितियपदे दिक्खेज्जा - अह पच्छा प्रायरितो विगलो हवेज तेण सीसो ठावेयन्त्रो । अप्पणा श्रप्पगासभावो चिट्ठति । जो चार स काण महिसो । जहा सो घणे गड्डाए वा प्रप्तगासे चिट्ठति, तहा गुरू वि । प्राणादी प्रयस प्रकित्तिमादी य दोसा भवंति तम्हा णो दिक्खियब्वो ||३७१०।। जाह य माहणेहिं परिभुत्ता कम्मसिप्पपडिविरता | श्रद्धाणपरविदेसे, दिक्खा से उत्तिम वा ।। ३७११ ॥ २७१ इदाणि "" उब्बद्धो". " जाहे जातिजुगितो महायणमाहणेहि परिभुत्तो ताहे दिविखज्जति कम्म- सिप्पजुंगिता कम्मसिविरता माहादिभुत्ता तथा दिविखज्जति । सरीरजुंगितो प्रदिक्खियव्वो । उत्तिमट्टे वा ॥ ३७११ ॥ "जुंगिए" गतं । कम्मे सिप्पे विज्जा, मंते जोगे य होति उवचरओ | उब्बद्धओ उ एसो, न कप्पए तारिसे दिक्खा ||३७१२॥ एस पंचविधो उवचरगभावेण बद्धो उपचारकः, प्रतिजागरक इत्यर्थः ।। ३७१२ ॥ १ गा० ३५०७ । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे कम्मे सिप्पे विज्जा, मंते य परूवणा चउन्हं पि गोवालउडमादी, कम्मम्मि उ होंति उब्बद्धा ||३७१३॥ सिप्पा दोहं विज्जामंताण य दोण्हं भेयपरूवणा कज्जति । तेणं चउगहणं । अणुवएसव्वगं गोपालातिकम्मं श्रारितोव एसपुव्वगं रहगारतुन्नगारादी मिप्पं । लेहादिया सउणरूयपज्जवसाणा बावतरि कला विज्जा, देवयसमयनिबद्धो मंतो । ग्रहवा - इत्थिपुरिसाभिहाणा विज्जामंता । अवा - संसाहणा विज्जा, पढणसिद्धो मंतो । दुगमादि दव्वनियरा विद्देसण-वसीकरण उच्छादण रोगावणायणकरा व जोगा । इत्थ गोपालादीकम्मे छिन्नगा कालतो, मुल्ले गहिते श्रग्गहिते वा, काले प्रसंपन्ने ण कप्पति दिक्खिउं, नेकपति, श्रच्छिनकालतो कए कम्मे गहिते वा ग्रग्गहिते वा मुल्ले कप्पति ॥ ३५१३।। सिप्पाई सिक्खतो, सिक्खावेंतस्स देति जो सिक्खे | हिम वि सिक्खम्मी, जचिरकालं तु बद्धो ||३७१४ || श्रादिग्रहणातो विज्जामंत जोगा सिक्खतो सिक्खवेंतस्स केवगादि दव्वं देति, सो य जति तेण एवं उन्बद्धो जाव सिक्खा तांत्र तुम ममायत्तो । तम्मि सिक्खिते न कप्पति, सिक्खिए कप्पति । अध एव उब्बद्धो सिक्खिए वि उवरि एत्तियं कालं ममायण भवियव्वं, तम्मि काले अपुन्ने ण कप्पति पुत्रे कप्पति, ।। ३७३४ ॥ एमेव य विज्जाए, मंते जोगे य जाव बद्धो । तावति काले ण कप्पति, सेसयकालं श्रणुष्णातो ||३७१५|| अंतरा पव्वावेंतस्स इमे दोसा - बितियपदं - मुक्को व मोइतो वा, हवा वीसज्जितो गरिंदेणं । श्रद्धाणपरविदेसं, दिक्खा से उत्तिम वा || ३७१७|| कंठा । गतो उब्बद्धो । [ सूत्र-८४ बंध- वहो रोहो वा, हवेज्ज परिताब - संकिलेसो वा । बद्धगम्मि दोसा, अवण्णसुत्ते य परिहाणी ||३७१६ || कठा उम्बद्ध भयगाणं इमो विसेसो- "कुणतु व संपदं उबद्धो भयो पुण भत्तीए वे पंते । उब्बद्धग-भयगाणं, एस विसेसो मुणेयव्वो ॥ इयाणि ""भयगो” दिवसभयए य जत्ता, कव्वाले चेव होंति उच्चत्ता । भगतो चउत्रिहो खलु, न कप्पती तारिसे दिक्खा ||३७१८ || भयगो चउव्विहो - दिवसभयगो जत्ताभयगो कव्वालभयगो उच्चत्तयभयगो य । एस ताव संखेवतो हि विन कप्पति दिवखेउं ॥ ३७१८ || १ गा० ३५०७ । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३७१३-३७२३] एकादश उद्देशक: २७३ एतेसि चउण्ह वि सरूवमिणं - दिवसभयो उ विप्पति, छिण्णेण धणेण दिवसदेवसियं । जत्ता उ होति गमणं, उभयं वा एत्तियधणेणं ॥३७१६॥ काले छिण्णो सव्वदिणं धणं पच्छिण्णं रूबगेहिं तुमे मम कम्म कायव्वं । एवं दिणे रिण भयगो घेप्पति । सो दिणे अपुणे णो कप्पति पव्वावेतुं । इमो जत्ताभयगो - दसजोयणाणि मम सहारण एगागिणा वा गंतव्वं एत्तिएण धणेण, तितो परं ते इच्छा 1 अन्ने उभयं भणंति - "गंतव्वं कम्मं च से कायव्वं" ति ।।३७१६।। इमो कव्वालभयगो - कव्वाल उड्डमादी, हत्थमितं कम्ममेत्तियधणेणं ।। एच्चिरकालोच्चत्ते, कायव्वं कम्म जं बेंति ॥३७२०॥ कव्वालो, खितिखाणतो उड्डमादी, तस्स कम्ममप्पिणिजति, दो तिणि वा हत्था छिन्न अछिन्न वा एत्तियं ते धणं दाहामि त्ति ।। इमो उच्चत्तभयगो - तुमे ममं एच्चिरं कालं कम्मं कायव्वं जं जं अहं भणामि, एत्तियं ते धणं दाहामि त्ति ।।३७२०॥ इमा जत्ताभयगे पव्वावणविही - कतजत्तगहियमोल्लं, गहिते अकयम्मि नत्थि पवजा । पव्वाते गुरुगा, गहिते उड्डाहमादीणि ॥३७२१॥ कयाए जत्ताए गहिए मोल्ले प्रगहिए वा कप्पइ पवावेउं, गहिए मुल्ले अकयाए जत्ताए णो कप्पति । सेसं कंठं। कव्वालो वि एवं चेव ।। उच्चत्तभयगो वि काले अपुन्ने न दिक्खिजति ॥३७२१॥ इयाणि कम्मोबद्धभयगाण य जे कप्पंति न कप्पति वा ते भंगविगप्पेण विसेसिता. भणंति - छिण्णमछिण्णे व धणे, वावारे काल इस्सरे चेव । सुत्तत्थजाणएणं, अप्पाबहुयं तु णायव्वं ॥३७२२।। पुव्वद्धस्स इमा विभासा - वावारे काल धणे, छिण्णमछिण्णे व अट्ठ भंगा तु । सावित गहिते अकए, मोत्तुं सेसेसु दिक्खंति ॥३७२३॥ छिण्णो वावारो, छिण्णो कालो, छिण्णं घणं, छिण्णं नाम अमुगं कम्म कायब्वं, एत्तिगं कालं एत्तिएण धणेणं ति । एस पढमभंगो। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसू [ सूत्र - ८४ बितियभंगे धणं अछिण्णं एवं श्रभंगा कायव्वा । एतेसि श्रदृण्हं भंगाणं वावारे छिष्णे छिणे वा काले विछिण्णाच्छिणे सक्तीण पुरतो साविते धणे छिण्णे गहिते प्रकए य कम्मे न दिवखति, सेसेसु दिक्खेंति । तेय सेसा वि चउत्थ छटुभंगा । २७४ G अधवा - "सेस" त्ति असु वि भंगेसु सक्खिपुरतो असा विए घणे छिष्णे छिणे वा श्रगहिते कए कए वा कम्मे दिखेंति ।।३७२३|| इदाणि पुणो एयं चैव विसेसेति गहिते व हिते वा, छिण्णधणे साविए ण दिक्खति । farad कप्पति, गहिते वा अगहिते वा वि ॥ ३७२४|| पढम-तिय- पंचम सत्तमे ये वावारकालेसु छिण्णा छिष्णेसु सक्खिपुरतो सावितेसु गहिते अगहिते वा छिण्णे धणे ण दिक्खति । किं कारणमुच्यते - सो भणेज - "मए सक्खिपुरतो सावितं" ति अन्नं च "मए मनो विन गहितो तुज्भ अभाए" त्ति । श्रखिष्णे पुण धणे कप्पति, किं कारणं ? जम्हा मोल्लस्स परिमाणं न कयं. अकते य परिमाणे ववहारो लब्भति ॥ ३७२४॥ "" इस्सरे" त्ति श्रस्य व्याख्या - जत्थ पुण होति छिन्नं, थोवो कालो व होति कम्मस्स । तत्थ अणिस्सरे दिक्खा, ईमरो बंधं पि कारेजा ||३७२५|| धणं च छष्णं, बहुं च कम्मं कयं, थोवं च सेसं, कालो वि थोवो अच्छति, एरिसे कम्मे कम्पलि जति प्रणोसरो तो दिक्खिजति । ईसरो पुण थोवं कम्मसेसं बला बंधितुं पि कारावेज || ३७२५ ।। किं कारणं - इस्सरे ण कप्पति । अणीसरे कप्पइ ? ततो भन्नति घेत्तं समयसमत्थो, रायकुले अत्थहाणि कड़ते । फेल्लस्स तेण कप्पति, रोद्दोरसवीरिते वा वि || ३७२६|| तं पव्वावितं सेहं सो दरिदो सयं अप्पणी घेत्तुमसमत्थो । अव सो दरिदो रायकुलं गच्छति दूतगेण कडुति, तत्थ धणक्खतो भवति, द्रव्याभावात्तं ण करोति फेल्लो दरिद्दो, तम्स तेण कप्पति । इस्सरो पुण कढइ, श्रभिणिवेसा उक्कोडं (चं) पि दातुं । जो पुण दरिद्दो रौद्रः उरस्सेण वा बलेण जुत्तो मा वघबंधोद्दवणं करेस्सति तेण फेल्लस्स वि ण कप्पति ॥ ३७२६ || "भयगे" त्ति गतं । इयाणि "सेहणिफेडिता " - ततियव्वयाइयारे, णिण्फडग तेणियं वियाणाहि । अतिसेसियम्मि भयणा, अमूढलक्खे य पुरिसम्मि ||३७२७॥ सेहणिफेडियं जो करेति सी ततियं वयं प्रदिण्णादाण वेरमणं प्रतिचरति । तं केरिसं ? कहूं वा फितो ततियश्वतं प्रतिचरति ? १ गा० ३७२२ । २ गा० ३५०७ । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३७२१-३७२५] एकादश उद्देशकः २७५ अपडुप्पण्णो बालो, बिअट्ठवरिसूणो अहव अणिविट्ठो। अम्मापितु-अविदिण्णो, ण कप्पति तत्थ वऽण्णत्थ ॥३७२८।। अपडुप्पणो अदुवरिसो किं वाधिको वा बिअट्ठवरिसूणं वा सोलसवरिसूणं अवंजणजातं । ग्रहवा - अणिविटुं अविवाहितं एतप्पगारं अम्मापितिप्रविदिणं । तत्थ वा गामे अण्णत्थ त ! कप्पति पवावेतु । अह णिप्फेडे तो तं गिप्फेडगतेणं वियाणाहि ।।३७२८।। इमे एत्थ तेणगविगप्पा - तेणे य तेणतेणे, पडिच्छगपडिच्छगे य णायव्वे । एते तु सेहणिप्फेडियाए चत्तारि उ विगप्पा ||३७२६।। इमं वाखाणं - जो तं तु सयं णेती, सो तेणो होति लोगउत्तरिते । भिक्खातिए गतम्मि उ, हरमाणो तेणतेणो उ ॥३७३०॥ अपप्पन्न बालं हरतो तेणो। स तेणो तं सेहं वाहि गामादियाण ठवेत्ता अप्पणा भिक्खस्स पविट्रो. एत्यंतरे जो तं सेहं प्रणो उप्पोसेत्ता हरति सो तेणतेणो ।।३७३०।। तं पुण पडिच्छमाणो, पडिच्छतो तस्म जो पुणो मूला । गेण्हति एगंतरितो, पडिच्छगपडिच्छगो सो उ॥३७३१॥ तेणस्स तेणतेणस्स वा जो पडिच्छति स पडिच्छगो, पडिच्छगस्स जो पुगो अन्नो पडिच्छाति स पडिच्छगपडिच्छगो भण्णति । इह संतरमेव एगंतरं भण्णति । अन्ने भणति - "गेहति एगंतरिउ" ति, तेणस्स पडिच्छमाणो तेणपडिच्छम्रो एक्के कोण अंतरिता पडिच्छगा भवतीत्यर्थः ।।३७३१।। सेहणिप्फेडियं करेंतस्स चउगुरु । ग्राणादी दोसा इमे य - अम्मा पियरो कस्स ति, विपुलं घेत्तूण अत्थसारं तु । रायादीणं कहए, कहियम्मि य गिण्हणादीया ॥३७३२।। कंठा विप्परिणमेव सण्णी, कोई संबंधिणो भवे तस्स । विप्परिणता य धम्मं, मुएज्ज कुज्जा व गहणादी ॥३७३३॥ मेहमवहडं नातुं सन्नी विपरिणमेज्जा, सेहस्स वा संबंधी ते य विपरिणता धम्म मुएज्ज, रायमादिहि वा गहणादि कारवेज्जा ॥३७३३।। णि फेडणे सेहस्स तु, सुयधम्मो खलु विराहितो होति । सुयधम्मस्स य लोवा, चरित्तलोवं वियाणाहि ॥३७३४॥ आयरिय उवज्झाया, कुलगणसंघो तहेव धम्मो य । सव्वे वि परिचत्ता, सेहं णिप्फेडयंतेणं ॥३७३॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ॥ ३७३५० सभाष्य - चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र- ८४ रायादि रुट्ठो स तेसि कडगमद्दं करेज्ज । तम्हा मातापित्रेण प्रदत्ता सेहणिफेडिया ण कायन्त्रा बितियपदेण य करेजा । ""प्रति सेसमम्मि भयणे" त्ति अस्य व्याख्या - होहिति जुगप्पहाणो, दोसा य न केयि तत्थ होहिंति । desतिसी दिखे, मोहहत्थो उ तत्थेव || ३७३६॥ जो श्रोहिमा दिप्रतिसयणाणी जाणति एस नित्थारगो जुगप्पहाणी होहिति दोसा य ण केति भविस्संति, ते अतिसयी दिक्खति । श्रह जानाति होहिति दोसा तो ण पव्वावेति । एस भयणा । श्रमूढलक्खो वा प्रायरिश्रो प्रमोहहत्यो जं सो पव्वावेति सो अवस्सं णित्थरति न य केति दोसा उप्पज्जेति तं च नान्यत्र नयन्तीत्यर्थः || ३७३६ || सेहणिप्फेडिता अट्ठारस पुरिसेसु त्ति गतं । इयाणि पुंसया दस ते पुरिसेसु चेव वृत्ता नपुंसगदारे । 1 जे जति पुरिसेसुं वुत्ता ते चेव इहं पि । किं कतो भेदो भन्नति तहि पुरिसाकिती, इह गहणं सेसयाण भवे । इयाणि "४वीसं इत्थीग्रो, तस्स बालादी अट्रारस इत्थीतो जहा पूरिता याणि गुव्विणी बालवच्छाय - जे के अणलदोसा, पुव्वं भणिता मए समासेणं । ते चैव परिसेसा, गुव्विणि तह बालवच्छाए || ३७३७॥ . जे एते हेट्ठा प्रणलाणं बालादी दोसा वन्निया ते गुब्विणी बालवच्छाए भाणियव्वा । कहं ? उच्यते - गुब्विणीए बालदोसो भविस्सो, बालवच्छाए पुण वट्टमाणो चेव बालदोसो, नपुंसगा वि ते होज्जा ॥ ३७३७॥ सा वि भइयव्वा इमे मोत्तु मोण णवरि वुड्डू, सरीरजडं च चोरमवगारिं । दासमणत्तं च तहा, श्रबद्धाती य जे पंच ॥ ३७३८॥ । उब्बद्धाइ पंच इमे - उब्बद्धगो भयगो सेहणिप्फेडिया गुब्विणी बालवच्छा य । एतेसु सव्वेसु न भवंति ||३७३८ || वसा पुण अणला, भइयव्वा तह य गुव्विणा य भवे । कायभवत्थो बिंब, विकित वेयणम्मि व मरेज्जा ॥ ३७३६|| विसेस सिय प्रत्थि सिय नत्थि । इमे गुब्विणीते चेव दोसा, स्त्रीकाये भवति आस्था कायभवस्थो उक्कोसेण द्वादशवर्षाणि गर्भत्वेन तिष्ठतीत्यर्थः । हस्त-पाद-कर्णं नासाक्षिविवर्जितं बिंबं मृगावती पुत्रवत्, वैकृतं सर्पादिवत् भवेत्, पसवकाले वेदणाए वा मरेज्ज || ३७३६ ।। १ गा० ३७२७ । २ गा० २२७ । ३ गा० २२७ । ४ गा० ३५०७ । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३५३६-३७४६ ] एकादश उद्देशकः २७७ एतेसामण्णतरं, अणलं जो णायगाइ पवावे । सो आया अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पाबे ॥३७४०॥ कंठा अणलं पव्वावेंतस्स इमं पच्छित्तं - तेणे कीवे रायाऽवगारिदुवै य जंगिते दासे । सेहे गुव्विणि मूलं, सेसे चतुरो सवित्थारा ||३७४१॥ "मेहे" त्ति सेहणिप्फेडिया एएसु जहुद्दिट्टेसु मूलं. सेसेसु सव्वेसु चउगुरुगा सवित्थारा ॥३७४१। अहवा - अन्नपरिवाडीते इमं भन्नइ - अहवा - कीवे दुढे तेणे, गुम्विणि रायावगारि सेहे य । मूलं चउ पारंची, मूलं वा होति चउगुरुगा ॥३७४२॥ कीवे मूलं दुट्ठादिएसु चउसु पारंचियं ।। ग्रहवा - दुट्ठादिएसु चेव चउसु मूलं,तेणे व चउगुरुगा ॥३७४२॥ सुत्तणिवातो एत्थं, चउगुरुयं जेसु होति ठाणेसु । उच्चारितत्थसरिसा, सेसा तु विकोवणवाए ॥३७४३॥ बाले वुड्डे किवे, जड्डु मत्ते य जुंगियसरीरे । गच्छे पव्वइयाणं, संवासो एगतो भइतो ॥३७४४।। बालवूड्ढा कारणे पव्वाविया, कीवो अभिभूतो, सरी रजड्डो, उम्मत्तो, सरीरजंगितो, अदसणो, एते मन्वे पव्वाविया मंता एपिसा जाता । एतेसि संवासो एक्कतो चेव, न पुढो । जदि ते अण्णवसहीए ठविज्जति तो ते विसादं गच्छंति, तम्हा गच्छगता चेव विधीए परियट्टिज्जति । गुविणी कहंचि अणाता पवाविता जहा - करकंडुमाता पउमावत।। पडिणीएण वा जहा पेढालेण जेट्ठा । सा विहीए भावितसड्ढकुलेसु संगुप्पति, सड्ढा णिसेसवदृमाणि च वहंति, अंतरंतरे साहबो य ॥३७४४।।। जिणघयणपडिक्कुटे, जो पचावेति लोभदोसेणं । चरितट्ठी य तवस्सी, लोवेति तमेव तु चरितं ॥३७४।। अडयालीमं पडिकुट्टा मिस्सलोभेण अप्पणो चरित्तबुडिणिमित्तं परो पब्वावितो अप्पणो वि चरित्त घायं करेति ।।३७४५।। इमं बितियपदं - पदाविश्रो सियत्ति य, सेसं पणगं अणायरणजोग्गं । अहवा समायरंतो पुरिमपदनिवारिते दोसे ॥३७४६॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-८५ जति प्रणलो पव्वावितो "सिम" त्ति प्रजाणया जाणया वा कारणेण सेसं पणगं णायराविज्जति । तं च इमं मुंडावण सिक्खावण उट्ठावण संभुंजण संवासे त्ति । सो एयस्स पणगस्स णायरणजोगो । अध मायरावेति तो पन्वावणपदे 'पुव्ववन्निए दोसे पावति -- जत्थ जत्थ चउगुरु तत्थ तत्थ सुत्तणिवातो । सेसा पच्छिता सीसविकोवणट्ठा कहिया ।।३७४६।। जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा अणलं उवट्ठावेइ उवट्ठावेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥८॥ नायगमनायग वा, सावगमस्सावगं तु जे भिक्खू । अणलमुवट्ठावेई, सो पावति प्राणमादीणि ॥३७४७॥ सूत्रार्थः पूर्ववत् । प्रणलं उव्वट्ठावेतस्स प्राणादी दोसा चउगुरुगं च । चिट्ठउ ताव उवट्ठावणाविही । पन्नााणाविही ताव णाउमिच्छामि ॥३७४७॥ - पुच्छा सुद्धे अट्टा, वा सामाइयं च तिक्खुत्तो। सयमेव उ कायव्वं, सिक्खा य तहिं पयत्तेणं ॥३७४८॥ जाव उवद्वाति पव्वज्जाए सो पुच्छिज्जति - "कोमि तुमं, कि पव्वयसि, किं च ते वेरग्गं ? एवं पुच्छितो जति प्रणलो ण भवति तो सुद्धो पव्वज्जाए कप्पणिज्जो। ताहे से इमा साहुचरिया कहिज्जति ॥३७४८।। गोयरमचित्तभोयणसज्झायऽण्हाणभमिसेज्जादी। अब्भुवगय थिरहत्थो, गुरू जहण्णेण तिण्णट्टा ॥३७४६॥ गोयरे ति दिणे दिणे भिक्खं हिंडियव्वं । जत्य जं लभइ तं प्रचित्तं घेत्तव्वं, तं पि एसणादिमुद्ध, प्राणियं पि बालबुड्ढसेहादिएहि सह संविभागेण भोत्तव्वं । निच्च सज्झायज्झाणपरेण होयव्व । सदा प्रहाणगं, उदुबद्धे सया भूमिसयणं, वासामु फलगादिएमु सोतव्वं । अट्टा रससीलंगसहस्सा घरेयव्वा, लोयादिया य किलेसा प्रणेगे कायव्वा । एयं सव्वं जति अब्भुवगच्छति तो पवावेयन्वो ॥३७४६॥ एसा पव्वाव. णिज्जपरिक्खा पव्वावणा भण्णति। ___ इयाणि "मुडावणा" - सोहणे दिवसे चेतियाण पूरमो पदबावणिज्जं । अप्पणो वामगपासे ठवित्ता चेइए वंदित्ता परिहियचोलपट्टस्स रयहरणं दंति । ताहे "अट्ट" ति ग्रस्य व्याख्या - जो थिर हत्थो मायरितो तिग्नि अट्टातो गेहति, समत्यो वा सव्वं लोयं करेति, प्रसति पायरियस्त थिर त्यस्म, अन्नो पवावेति ॥३७४६।। थिरहत्थो तस्स लोयकरणं मामाइयं च इमेरिसे ठाणे कज्जति - दव्यादी अपसत्थे, मोतु पसत्थेसु फासुगाहारं । लग्गाति व तूरंते, गुरुअणुकूले वऽहाजायं ॥३७५०॥ १ गा० ३७४६ । २ गा० ६७४८ । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३७४७-३७५३ ] एकादश उद्देशक: २७६ अट्ठिमादि अप्पसत्थदव्वा, ऊसरमादि अप्पसत्थखेत्तं, रित्तातिहिमादी अप्पसत्थकालो, विट्टिमादी अप्पसत्थो भावो। एते अप्पमत्थे मोत्तुं पसत्थेसु दव्वादिएसु पवा विजति । तस्स गुरुणो य अणुकूलेसु ताराबलचंद्रबलेसु । जाव य दव्वादिया पसत्था ण लभंति ताव फासुगाहारं धरेंति । सन्नातगभया वा तुरंतो पसत्थलग्गबलेण पवावविज्जति । उभयसाहगे अलब्भमाणे गुरू आणुकूले पव्वाविज्जति । "अहजातेण" ति सणिसेज्ज रयोहरणं मुहपोत्तिया चोलपट्टो य एयं अहा जातं दातुं वा । (सूरी सेहं विज्जाए अभिमंतइ सत्तवारा) वामपासट्ठियस्स प्रायरितो भणाति - इमस्त साधुरस सामाइस्स पारुहावणं करेमि काउस्सग्गं । अण्णे भणंति - उच्चारावणं करेमि; उभयधा वि अविरुद्धं, अन्नत्थूससिएणं जाव वोसिरामि ति, लोगस्सुजोयगरं चिंतित्ता णमोऽरहताणं ति पारित्ता, लोगस्सुजोयगरं कड्डित्ता पच्छा पत्रावणिज्जेण सह सामाग्यसुनं तिक्खुत्तो कड्डति, पच्छा सेहो इच्छामि खमासमणो ति वंदति । वंदिय पुबुट्टितो भगाति - "संदिसह किं भणामो" ? गुरुवयणं "वंदित्ता पवेदोह", ताहे वंदिय पच्चुट्टितो भणाति - "तुम्हेहि मे सामाइयं प्रारुहियं, इच्छामि अणुमटिं।" गुरुवयणं - 'नित्थारगपा रगो गुरुगुणेहिं वदाहि" त्ति ॥३७५१।। तिगुणपयाहिणपादे, नित्थारो गुरुगुणेहि वट्टाहि । अणहिंडते सिक्खं, सम्मयणीतेहि गाहेति ॥३७५१।। ताहे वंदति, वदित्ता णमोक्कारमुच्चारतो पयाहिणं करेति, पादेमु णिवडति । एवं बितियं ततियं च वारस । ताहे साधूग णिवेदाविजति । एक्केकस्म तरतो वा समुदिताण वदिउं सो भगाति - "गुरुहि प्रारयिं मे सामाइयं, इच्छामि प्रणमट्टि"। ते भणति -- "नित्था रगपारगो होहि, पायरिय गुगे सु वसु" एसा मुडावणा । इयाणि 'सिक्खा "२सिक्खा य तहिं पयत्तेणे' ति, सा दुविहा - प्रारोवण-गहणसिक्खा य। दुविहं पि सिक्ख अहिडतो गाहिज्जति । को तं गाहेति ? जे तस्स सम्मता गीता य ते गाहिति, तेनि असति प्रणीतो वि सम्मतो, तेसि पि असति प्रणो वि गाहेति । एते एक्केक्के वितहं करेमाणो चउलहु । सिक्खा य गाहा ॥३७५१।। इयाणि ""उवदावणा" - अप्पत्ते अकहित्ता, अणभिगतऽपरिच्छतिक्कमे पासे । संथरणे हिंडावण, एक्केके हुंनि चउगुरुगा ॥३७५२।। "अप्पत्ते" ति अस्य व्याख्या - अप्पत्तं उ सुतेणं, परियाए उट्टवेते चउगुरुगा । आणादी कायवहो, ण य पढति अकप्पियो जं च ॥३७५३।। १ गा० ३७४६ चू० । २ गा० ३७४८ । ३ गुरु । ४ गा० ३७४६ चू० । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र- ८५ विं जाहे सत्यपरिण्णा सुत्ततो अधीता ताहे उवद्वावणापतो भन्नति । दसवेयालियमुप्पत्तिकालतो पुण जाहे छज्जीवणिया अधीता तं जो सुतेग अप्पत्ते पव्वज्जापरियाते उवटुवेति तस्स उवटुवेंतस्स गुरु तवकालेहिं दोहिं गुरुगं । उच्चे द्वावणा उत् प्राबल्येन वा ठावणा उट्ठावणा । " प्राणादी" विराधणा, तो वा छज्जीवनिकाए वति, "उट्ठावितोमि" त्ति सेसं ण पढति, श्रपढतोय पिंडादियाण कप्पितो, तेनाणियस्स य परिभोगे पच्छितं जं तं च पावति, उवटुवेंतो न वेयावच्चं करिज्जति "चकप्पिड' ति ।।३७५३॥ २८० ""अकहेत्ता" अस्य व्याख्या - सुत्तत्थ कहेता, जीवाजीवे य पुण्ण पावं च । उट्ठाणे चउगुरुगा, विराहणा बहुगजाणते || ३७५४॥ सुत्तस्स त्यो सुत्तत्थो, इमे पुढवादिया जीवा, इमे धम्मा दिया श्रजीवा, आसवो, बंधो, पुण्णं, पावं, संवरो, णिज्जरा, मोक्खो, नवपयत्था सभेदा कम्मबंधभेदहेतवां कहेति । जो एवं सुत्तत्थं प्रकत्ता उवट्ठावेंतस्स च गुरु ं तवगुरु, प्रत्थं च असुतो बहुविहं विराहणं करेति, साय प्रव्पत्तसुत भणिया ।। ३७५४॥ "प्रणंभिगते" त्ति प्रस्य व्याख्या अभिगयपुण्णपावं, उबटुवेतस्स चउगुरू होंति । श्राणादिणो विराहण, मालाए होति दिट्ठतो || ३७५५ ।। पुणपाव गहणतो नवपयत्या गहिता, प्रणभिग्गाहिता जस्स णो सद्दहति त्ति णेयगहणत्तणेण वा कहिज्जमाणे णो लद्धा तं च उवट्टावेति तस्स चउगुरु कालगुरु | प्राणादी दोसा । श्रसद्दहंतो वा छज्जीवनिकाय विराहणं करेज्ज । सो य महव्त्रयाण जोग्गो । - कहं दितो होति मालाए ? - जहा पंचवण्णसुगंधपुष्पमाला पउमुप्पलोवसोभिया उद्धसुक्कखाणु माइताण सोभति तहा पंचमहव्वयमाला सभावेणोवसोभिता तस्स न सोभति ।। ३७५६ ।। • अपरिच्छि" त्ति अस्य व्याख्या जतो भण्णति - - - उल्लमि य पारिच्छा अभिगए भाऊण तो वए देति । एक्क्कं तिक्खुत्तो, जो ण कुर्णाति तस्स चउगुरुगा ||३७५६ ॥ उल्लम्मिय परिच्छति एस आउक्काते परिच्छा गहिता, तद्ग्रहणातो सेसकाए वि परिच्छा कायव्वा ।। ३७५६ ।। उच्चारात अथंडिल, वोसिरठाणादि वा वि पुढवीए । नदिमादि दगसमीवे, सागणि उद्दित्त तेउम्मि || ३७५७|| जदा उच्चारपासवणं करेति तदा से प्रथंडिलं सचित्ता य पुढवि दंसिज्जति । " एत्थ वोसिराहि" ति । एवं उद्धद्वाण- णिसीय तुयट्टणं करेंतस्स जति गच्छति तो सद्दति । १ गा० ३:५२ । २ गा० ३:५२ । ३ गा० ३७५२ । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३७५४ - ३७६० ] एकादश उद्देशकः अहं तं प्रसत्थोवहतं दट्ठूण विमंसति तो णज्जति प्रणभिंगतो प्राउक्काएण ति । तलागादीनं उदगसमीवे उल्लपुढवीए एवं चेत्र परिच्छा । तेउक्काए सागणीए वसहीए ठायंति तत्थ भण्णति - पदीवं उसके हि, वास- सीते उदिते पयावेहि त्ति भण्णति ।।३७५७ ॥ वियणऽभिधारण वाते, हरिते जह पुढत्रिए तसेसुं च । एमेव गोयरगते, होति परिच्छा उ कासु || ३७५८ || 44 वाते धम्मत भणति वियणं तालवेंटादिणा विएहि, इतो वातं एहि अभिधारणं करेहि । हरियतसेसुं जहा पुढवीए परिच्छा । एवं भिक्खागतो पि काएसु परिच्छिज्जति । ससरक्खुद उल्लेहि हत्थेहि प्रगणि संघट्टणं हरिततसगतहत्यातो य भिक्खं गिण्हाविज्जति । यत्राग्निः तत्र वायुः । उष्णं वा शीतीकृत्य दाप्यते । एवं अपरिच्छित्ता जे उट्ठवेति तस्स चउगुरु दोहि वि लहुं । पत्ते कहितत्थे श्रभिगतत्थे परिच्छितत्थे णातुं पत्ते देते । वासे" त्ति उवद्वाविज्जमाणे आयरिश्रो प्रप्पणो वामपासे ठवेति, अन्नहा चउगुरु । जति श्रत्थि ताहे चेतिए वंदित्ता महन्वयकहणा य काउस्सग्गं करेति तत्थ चउवीसत्ययं चितेति णवक्कारेण पारेता चवीसत्ययं फुडवियडं वायाते कड्डित्ता ताहे महत्त्रयउच्चारणं करेंति । सव्वत्थ पि तहेव चउगुरु । " इक्कमे " त्ति प्रस्य व्याख्या - "एक्केक्कं तिक्खुत्तो" पच्छद्धं कंठं । एक्केक्कं महव्वयं ततो वारा प्रतिक्कमति । o भणति - ततो द्वारा अपुरेता प्रतिक्कमंतस्स चउगुरुं । जति संथरणे हिंडावेति तो चगुरु ||३७५८।। सा उवद्वावणा इमेरिसे कायव्या -- दव्वातिसाहए ता, तहत्र ण तु गंतु उवरिमे हेट्ठा । दुविहा तिविहा य दिसा, आयंबिल जस्स वा जं तु ॥ ३७५६॥ २८१ दव-खेत्त-काल- भावपसत्येसु तारा चंद-वलेसु य साहगेसु सेसं वंदण-निवेयण-नित्थारग-पयाहिणकरणसाधुणिवेदणं च जहा सामातिए तहेव कायव्वं, णो पंच महत्वए सई कढित्ता पुणो हेट्ठा दो ततियं वारा कड्ढति, किंतु एक्केक्कं वतं तिनि वारा कढिज्जति । जाहे सम्मत्ता उवद्वावणा ताहे उपट्टावियस्स साधुस्स श्रारिउवज्झाया दुविहा दिसा दिज्जति । इथियाए तइया पवत्तिणी दिसा दिज्जति । जद्दिवसं उवट्ठावितो तद्दिवस केसि चि प्रभत्तट्टो भवति, केसिचि निव्वितिय, केसि चि आयंबिल केसि चि न किचि । जस्स वा जं प्रायरियपरंपरागत छट्टु मातियं कारविज्जति । एसा उवद्वावणा । इणि संभुजणा जतो मंडलिसंभोगट्ठा सत्त श्रायंबिले का रविज्जति णिन्वितिए वा. जस्स वा जं आयरियस्स परंपरागयं ।। २७५॥ वितियपदेण प्रपत्तं प्रवित्ता वि उवद्याविज्जति चितियपदं संबंधी, कक्खड बहिभाव श्रोम संवासे । पत्तं व अपत्तं वा, अणलमुवट्ठावते भिक्खू || ३७६०|| वितियपदेण सुत्तेण प्रपत्तं पि उवट्ठवेज्ज । १ गा० ३७५२ । २ गा० ३७५२ । ३ मा ३७५२ । ४ गा० ३७४६ । · Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे पुत्तादी, जदि सो एवं चित्तिज्जा - भुंजिंसु मए सद्धिं, इयाणि च्छति सा हु बहिभावं । अहियं खंति व श्रमे, पच्छण्णं जेण भुंजंति ॥ ३७६१॥ सो संबंधी सर्याणि पुवं गिवासे मए सद्धि एगभायणे भुजिंसु इयाणि एगभायणे भोत्तुं गच्छति, जति ए.एण कारणेग मुटु बहिभाव कक्खडं गच्छति तो प्रपत्तंपि सुएण वट्टवेंति । "ग्रोम" त्ति श्रस्य व्याख्या तं श्रणुवट्ठवियं मंडलीए [ श्रणोयवियं ] पुब्वं भुंजावित्ता बाहि तो तत्थ श्री नितेति ममं गीशित्ता पणा कि पि अहियं खायति जेण पच्छ भुजति । जति एते कारण कक्खड बहिभावं गच्छति ।। ३७६९ ।। - " ग्रोमि" त्ति किं चि सुंदरं पडुप्पणं प्रणेस णिज्जं "सेहस्स दिज्जिहिति" त्ति तं गहियं, तं न तस्स दिनां सो भणेज्ज - एवं प्रायरियपायोग्गं कि मम दिज्जति ? ग्रहवा तत्थ कोनि भणेञ्जा - तब कप्पति ण तुम्हं, अणुवितस्सऽणेमियं सिडे । जति गच्छति बहिभावं, अणुलोमा उडबडवणा ||३७६२|| तस्मि एवं कम्पति, ग उ श्रम्हं, ताहे सो चिनेति "अस्समणी हं किमेत्य अच्छामि", जति सो कक्खड बहिभाव गच्छेज्जा तो अगुलोमेहिं पनवेत्ता पच्चाउट्टतं चेव उवेति ॥ ३७६२ ।। ग्रहवा वासादिसु वा ठाओस णत्थि वहि तो भुज्जमाणसु । संवासो तु न कप्पति, एगस्मऽणलं पितु ठवेंति ॥ ३७६३ || मूत्र ८५ विनोति मंडलीए भुजनि, सागारिउत्ति वा कातुं पुत्रभुत्तो वाहि विजति बहि पि वासामु वासते मंडवियादि द्वाणं णत्थि, भुजनाथ वा सागरिउ ति प्रपत्तं चेत्र उववेति । "" संवासे" त्ति ग्रस्य व्याख्या पच्छ । अगुवदुवितेग नह एग संवामोश कंपनि, तरस पुढो वसंतस्म वामासु उबद्धे वा वसही सहाओ वा गत्थि, पुढो य एगग्स वसितुंण कल्पति इत्यिमादि दो भवति तम्हा एवमादिकारणेहि पत्तावत्तस्म वा प्रगलस्स अभय गुनगादी का उबट्टावे संभुजेज्ज संनामेज वा || ३७६३ ।। - याणि पत्तं जति प्रतिकामेति-जत्तिनाणि दिवसाणि प्रतिकामेति तत्नियाणि दिवसाणि उगुरुगादि पच्छित्तं । सत्तरतं नवो गहा। विनियपदेण ग्रतिकामेजा ण दोमो : पिय- पुत्त खुड्ड-रे, खुड्डगथेरे अपात्रमाणम्मि | सिक्खावण पoraणा दितो दंडिगादीहिं ॥ ३७६४|| दोपिता पुत्ता पतिया, जति ने दो त्रि जुगवं पत्ता तो जुगवं उट्टाविज्जति । ग्रह "खुडे" त्ति खुड्डे मुनादीहि पते थेरे" ति धेरे नुनादीहि पने थेरस्न उट्टावणा । "खुड्ड" नि जदि पुण • १ गा० ३:६० । २ गा० ३७६० । ३ गा० ३:६०, . Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३७६१-३७६७ ] एकादश उद्देशकः २८३ खुड्डगो सुतादीहिं पतो थेरे पुग अपारमाणम्मि तो जाव सुज्झतो उबढावणादिणो एति ताव थेरो पयत्तण सिक्खाविज्जति, अदि पत्तो तो जुगवं उवट्ठाविति ।।३७६४।। अह तहावि ण पत्तो थेरो, ताहे इमा विही - थेरेण अणुण्णाए, उवट्ठऽणिच्छे ठवेंति पंचाहं । ति पण परमणिच्छे वी, वत्थुसमावे य जाहीयं ॥३७६५।। थेरेण अणुणाए खुड्ड उवद्वाति । अह णेच्छति ताहे थेरो पण्णविजति “दंडियदिव॑तेण", अादिसद्दातो अमच्चादी । जहाएगो राया रज्जपरिब्मट्टो सपुत्तो अण्णं रायाणं उलग्गिउमाढत्तो । सो रायपुत्तस्स तुट्ठो । तं से पुत्तं रज्जे ठवेतु इच्छति, किं सो पिता णाणुजाणाति ? एवं तव जदि पुत्तो महन्वयरज्जं पावति, किं न मनसि ? एवं पि पनवितो जदि नेच्छति ताहे ठंति पंचाहं, पुणो वि पन्नविज्जति, अणिच्छे पंचाहं ठंति, एवं तिपण कालेण जदि पत्तो तो जुगवं उवटठावणा । अग्रो परं थेरो अणिच्छेति खुड्डो उवठ्ठाविज्जति । __अहवा - 'वत्थुसभावे वि जाऽधीतं" ति वत्थुम्स सहावो वत्थुस्सभावो माणी “अहं पुतस्स प्रोमतरो होजामि" त्ति उन्निक्खमेजा, गुरुस्स खुडुस्स वा पदोसं गच्छेज्जा, ताहे तिण्ड पंचाहाण परतो वि संचिक्खाविज्जति जाव अधीयं ति ॥३७६५॥ ग्रह दो पिता पुत्ता जुवलगाणि तो इमा विही - दो थेर खुड्ड थेर, खुड्गधेरे अपावमा गम्मि । रण्णो अमच्चमादी, संजतिमज्झे महादेवी ॥३७६६॥ दो थेरा सपुत्ता समग पत्राविता, "एत्य दो थेरे" त्ति दो वि थेरा पत्ता ण ताव खुड्डगा, थेरा उवट्ठावेयव्वा । "खुड्डग" त्ति दो खुड्डा पत्ता ण थेरा, एत्थ वि पत्रवणविधी नहेव । "थेरखुड्डगो" तिदो थेरा खुड्डगो य एगो एत्थ उवट्ठावणा, प्रह दो खुड्डा थेरो य एगो पत्तो, एगे थरे अपावमाणम्मि।।३७६६ इत्य इमं गाहासुत्तं दो पत्त पिया पुत्ता, एगस्स उ पुत्तो पत्त ण उ थेरो। गहितो स पंच वियरति, राइणिो होउ एस वि ता ॥३७६७॥ पुबद्ध कंठं। प्रायरिएहि वसहि वा पन्नवणं गाहितो वितरति, सयं वा वितरति, ताहे खुड्डगो . उवद्वाविज्जति, अणिच्छे रायदिटुंतं पत्रवणा तहेव, इमो विसेसो। सो प्रपत्तथेरो भाति - एस ते पुतो परममेधावी एतो उवढाविज्जउ, जइ तुमं न विसज्जेसि तो एते दो वि पिता पुतः रातिगिता भविस्संति, तं एवं विसज्जेहि. एस वि ता होउं एतेसि राइणिउ ति । प्रतो परं मणिच्छे तहेव विभासा । इयाणि पच्छदं - रणो अमच्चो य समग पवाविता जहा पिता पुना तहा असेसं भाणियव्वं । १ गा० ३७६४ । २ गा०३३६६। .. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ सभाष्य-चूणिके निशीथसत्रे [सून ८६-६० मादिग्गहणेणं सेट्टिसत्यवाहाणं रन्ना सह भाणियन्वं । संजतिमझे वि दोण्हं माताधितीणं, दोव्ह य माताधिती जुवलयाणं, महादेवी प्रमन्त्रीण य, एवं वेब सव्वं भाणियव्वं ॥३७६७।। । सया रायाणो वा, दोणि वि समपत्त दोसु ठाणेसु । ईसर सेटि अमच्चे, निगम घडा कुल दुवे चैव ।।३७६८|| रायारायाणो त्ति एगो राया, बितिप्रो रायराया सम पव्वाइया । एत्य वि जहा पितापोत्तःणं तहा दट्टव्वं, एतेसिं जो अहियरो रायादि इतरम्मि अमच्चादिए ओमे पत्ते उबट्ठाविजमाणे अपत्तियं करेजा, पडि भज्जेज वा, दारुणसभावो वा उदुरुसेजा, ताहे सो अप्पत्तो वि इतरेहिं समं उवट्ठाविजति ॥३७६८।। एएहि कारणेहि, अज्झयणुद्देसमाइए काउं। अणधीए वि कहेत्ता, उवट्ठावेऊण संभंजे ॥३७६६।। अहवा - राइत्ति जत्य एगो राया सो अमच्चादियाण सव्वेसिं राहगितो कजति । रायाणो त्ति दुप्पभिति रायाणो समं पन्त्रइया समं च पता ते उवट्ठाविज्जता समरातिणिया कायब ति दोमु पासेसु ठाविज्जति ॥३७६६।। एसेवत्थो भण्णति - .... समगं तु अणेगेस् , पत्ते अणभियोगमावलिया। एगतो दुहतो व ठिता, समराइणिया जहासण्णा ॥३७७०॥ पुत्तादिसंबंधिणो असंबंधेमु बहुसु ममगं उबट्टाविज्जमाणेसु गुरुणा अन्नेण वा अभियोगो न काययो "इग्रो इग्रो दाह" ति । एवं एगतो दुहतो वा ठितेसु जो जहा गुरुम्स पासण्णो सो तहा जट्ठो उभयपासटियसमा समराइणिया । एवं दो ईमरा, दो मेट्टी, दो प्रमच्चा, "निगम" ति दो वणिया, "घड" ति - गोट्ठी दो गुट्ठीप्रो गोट्टिया वा पवनिया, दो महाकुलेहितो पव्वइया, सव्वे समा समरा तिणिया कायधा, एतेसि चेव पुष्वपत्तो, पुटवं चेव उवट्ठावेयव्वा ।।३७७०।। ईसिं अधोणता वा, वामे पासम्मि होति आवलिया । अहिसरणम्मि उ वड्डी, भोसरणे सो व अन्नो वा ॥३७७१।। ते उबट्टाविजमाणा गुरुणो वामपासे ठितो एगो अणेगा वा ईसि प्रधो प्रोणता - गजदंतवत् अबनता इत्यर्थः । “पहिसरणे" ति ते जदि गुरु तेण अग्गतो वा सरंति तो गच्छवुड्डी-प्रन्योऽपि प्रवजतीत्यर्थः । अह पच्छतो बाहिरेण वा प्रोसरंति तो सो वा अन्नो वा उनिक्खमति, पोटायि वा एयं निमितं ।।३७७१।। जे भिवाव नायगेण वा अनायगेण वा उवासएण वा अणुवासएण वा अणलेण यावच्चं कारावइ, कारावेतं वा सातिञ्जति ॥५०॥८६॥ कारवेंतस्स च उगुरु पच्छितं प्राणादिया य दोसा ॥ पुब्वं चिय पडिसिद्धा, दिक्खा अणलस्स कहमियाणिं तु । वेयावच्चं कारे, पिंडस्स अकप्पिए सुत्तं ॥३७७२॥ : www.jainelibrary:org Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ मायगाथा ३७६८-३७७८] एकादश उद्देशक: वेयावच्चे अणलो, चउव्विहो होइ आणुपुवीए । सुत्तत्थ अभिगमेण य, परिहरणा एव नायव्वा ॥३७७३॥ . वेयावच्चं प्रति प्रणलो चउब्विहो - सुत्ते, प्रत्थे, अभिगमे, परिहरणे । सुत्ततो जेण पिंडेसणा ण पढिता । प्रत्थतो जेण तस्सेव अत्थो ण सुत्तो। अभिगमणं-जो वेयावच्च ण सद्दहति । परिहरणे - जो अकप्पियं ण परिहरति । चोदकाह - "नणु जो पव्वज्जातो अगलो स वेयावच्चस्स वि अणलो, किं पुढो सुत्तकरणं ?" उच्यते - जो पव्वज्जाए प्रणलो स वेयावच्चस्स गियमा अणलो, जो पुण पव्वज्जाए अलो स वेयावच्चस्स अलो वा अनलो वा । अतो पिहसुत्तकरणं ॥३७७३।। एएसामण्णतरं, अणलं जो णाइगाति कारज्जा। वेगावच्चं भिक्खू, सो पावति आणमादीणि ॥३७७४।। कंठा बितियपए एगागी, गेलण्णऽसहू यऽलद्धिमंते य । ओमे य अणहियासे, गिहीसु वा मंदधम्मेसु ॥३७७॥ गच्छे एक्को चेव पिडादि कपितो सव्वेसि कातुं ण तरति, जे कप्पिया ते गिलाणा असहू वा, अलद्धिमंता वा ओमे वा असंथरतो अणलेण कारविज्ज । “अगहियास" त्ति अन्ने जाव भिक्खादिगया ण एंति ताव कोति भिक्खू लुहालू प्रणलेण कारविज्जा । गिहिणो वा मंदधम्मा पाउग्गं न देंति, सो य अणलो लद्धिसंपण्णो ॥३७७६॥ ताहे - एएहि कारणेहिं, पिंडस्सुस्सारकप्पियं काउं। वेयावच्चमलंभे, कारेज्जऽसहो तु अणलेणं ॥३७७६॥ एवं असढो कारतो सुद्धो ।।३७७६।। जे भिक्खू सचेले सचेलगाणं मझे संवसइ, संवसंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥७॥ जे भिक्खू सचेले अचेलगाणं मज्झ संवसइ, संवसंतं वा सातिज्जति।।सू०॥८॥ जे भिक्खू अचेले सचेलगाणं मज्झ संवसइ, संवसंतं वा सातिज्जति।।सू०॥८६॥ जे भिक्खू अचेले अचेलगाणं मज्झे संवसइ, संवसंतं वा सातिज्जति।।सू०॥३०॥ सचेला संजता, सचेलामो संजतीपो, चउभंगसूत्र व्याख्येयं । चउसु वि भंगेसु चउगुरु तवकालविसिटुं । जे भिक्खू सचेलो तू, ठाण-निसीयण-तुयट्टणं वा वि । चेतिज्ज सचेलाणं, सो पावति प्राणमादीणि ॥३७७७।। कंठा वीसत्थादी दोसा, चउत्थुद्देसम्मि वन्निया जे तु । ते चेव निरवसेसा, सचेलमज्झे सचेलस्स ।।३७७८॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथमूत्रे [गूत्र ६०-६१ कारणे वसेज्जा - बितियपदमणप्पज्झे, गेलण्णुवसग्गरोहगद्धाणे । समणाणं असतीए, समणीपव्याविते चेव ॥३७७६।। अणप्पज्झो वसेज्जा, गिलाणं वा पडियरतो वसेज्जा, उवसग्गे वा जहा सो रायकुमारो संगुनो रोहए वा एक्का वसही लद्धा, अद्धाणपडिवष्णो वा संजयाण असती संजतिवसहीए वसेज्जा, अहवा - दो वि वगा श्रद्धाणपडिवन्ना वसेज्जा । अधवा - समणाण असतीते समगीहिं भाया पिया वा पवाविप्रो सो वसेज्जा ॥३७७६।। एमेव बितियभंगे, कंतारादीसु उवहिवाघाते । समणीणं ततियम्मि तु, वाघातो होति समणाणं ||३७८०|| बितियभंगे समणीण उवधीउवघातो । ततियभंगे समणाण उबहिउवघाप्रो ॥३७८०।। चतुसु वि भंगेसिमे दोसा - संचरिते वि हु दोसा, किं पुण एगतरणिगिण्णि उभो वा।। दिट्ठमदट्ठव्वं मे, दिद्विपयारे भरे खोभो ॥३७८१।। पढमभंगे उभये वि संचरिते वीसत्यादि पालावातिया य दोसा, किं पुण बितिय-ततिय-उभयणि गिण्णे य, सविसेसा दोसा । संजतो संजती वा चिंतेति - दिटुं प्रदढव्वं मे अंगादाणादि । सागारिए य दिद्विपयारेणं चित्तक्खोभो भवति । खुभिप्रो अणायारपडिसेवणं करेज्ज ॥३७८१।। आयपर उभयदोसा, बितिए भंगे न कप्पती वितियं । विहिमुट्ठवत्थदाणं, ठाणाति चएति एगत्थ ॥३७८२॥ एमेव ततियभंगे, अद्धाणे उवसयस्स तु अलंभे । खुड्डातिमझे समणी सावयभयचिट्ठणादिसु ॥३७८३।। एमेव चरिभभंगे, दोसा जयणा तु दब्भमादीहिं । सभयम्मि मज्झे समणी, जिरवाए मग्गतो एति ।।३७८४॥ पुचद्धं कंठं। दुहतो वाघातो पुण, चतुत्थभंगम्मि होति नायव्यो। एमेव य परपक्खे, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मी ।।३७८॥ पुव्वद्धं कंठं । परपक्खो गिहत्थिअन्नतिथिणीयो । तेमु एवं चेव चउभंगो दोसा य । एगतरे उभयपक्खे वा विवित्त वत्थाभावे खंडपत्त-दब्भ-वीवर-हत्यपिहणादि जयणा कायव्वा । सावयभयादीम य संजइयो मज्झे छोढुं ठाणाती चेतेज्जा ॥३७८५।। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३७७६-३७८६] एकादश उद्देशक: -२८७ दुहतो वि अचेलाणं पंथे इमा गमणविही - दुहतो वाघायम्मी, पुरतो समणा तु मग्गतो समणी । खुडहि भणावेंति, कज्जे देयं ति दावेंति ॥३७८६॥ अग्गतो साह गच्छंति, पिट्ठतो समणीयो । जति संजतीयो कि चि वत्तब्वानो खुडेहि भणावेंति । जं किं चि देयं तं खुड्डहिं चेव दवावेंति । सभए पुण पिट्ठ प्रो अग्गतो पासतो वा संजया गच्छंति, न दोसो। विइयच उत्थेसु भंगेसु सवपयत्तेण संजतीग वत्था दायवा ।।३७८६।। समणाणं जो उ गमो, अट्ठहि सुत्तेहि वनियो एसो।। सो चेव गिरवसेसो, वोच्चत्यो होति समणीणं ।।३७८७॥ चउरो संजतिसुत्ता, चउरो गिहत्थऽनतिथिणीएम् । एते अट्ट संजतीण वि, संजतेसु चउरो सुत्ता गिहत्थऽन्नतिथिएसु चउरो । एसेव विवच्चासो, दोसा य वत्तव्वा ॥३७८७॥ जे भिक्खू पारियासियं पिप्पलिं वा पिप्पलिचुण्णं वा सिंगबरं वा सिंगबेरचुण्णं वा बिलं वा लोणं, उब्भियं वा लोणं आहारेइ. आहारतं का सातिज्जति ।।सू०॥११॥ पारियासियं णाम रातो पज्जुसियं । अभिण्णा पिप्पली, सा एयसुहुमा भेदकता चुण्णा । एवं मिरीय-सिंगबेराणं पि । सिंगबेरं संठी । जत्य विसए लोणं णत्थि तत्य ऊसो पचति, तं बिललोणं भण्णति । उन्भेतिमं पुण सयंरुहं जहा सामुदं सिंधवं वा । एवमादिपरिवासितं प्राद्वारेंतम्स प्राणादी दोसा, चउगुरु च । इमा णिज्जुत्ती - परियासियमाहारस्स मग्गणाऽऽहारो को भवे अणाहारो। आहारो एगंगिओ, चउव्विहो जं चऽतीति तहिं ॥३७८८॥ एत्थ सीसस्स मती उप्पन्ना - परियासियाहारस्म मग्गणा । अम्हे ण याणामो को आहारो को वा प्रणाहारो? तं इच्छामो पाहाराणाहारं णातुं । आयरितो भणति – आहारो एगंगितो असणादी चउबिहो, ज वा अन्न तत्थ प्रतीति सा - आहारो चउविहो ।।३७८८॥ एगंगितो आहारो कूरो णासेइ खुधं, एगंगी तक्कउदगमज्जाती । खातिमे फलमसादी, सातिमे महुफाणितादीणि ॥३७८६।। कुरादी एक्कं चैव खुधं णासेति । पाणे तक्क खीर-उदग मज्जादी एगगि तिसं णासेंति आहारकिच्चं च करेंति । खाइमे एगंगिया फलमसादी प्रहार किच्चं च करेंति । साइमे वि मधु-फाणिय-तंबोलादिया एगंगिया खुहं गासेंति ॥३७८६।। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ""जं च प्रतीति तहिं" ति अस्य व्याख्या सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे जं पुण खुहापसमणे, समत्थेगंग सो उ लवणाती । तंपि य होताहारो, आहारजुतं व विजुतं वा ॥ ३७६०|| 1 जं एगंगियं खुहासमणे असमत्यं श्राहारे य प्रतीति तं ग्राहारेण संजुत्तं प्रसंजुतं वा प्राधारो चेव नायव्वो, जहा असणे लोणं हिंगु जीरयं कडुगं मंडं च ॥ ३७६०॥ उद कप्पूरादी, फले सुत्तादीणि सिंगबेरगुलो । णय ताणि खवेंति खुहं, उवकारिता तो आहारो ॥ ३७६१ || उदए कप्पूरं गच्छति, अंबादिसु फलेसु सुत्तं सुंठीए गुलो, एमादि खुहापसमणे असमत्थं पि उवकारिणो आहारो चेव वत्तव्त्रो । सेसं प्रणाहारिमं ||३७६१ || धवा ग्राहारिमऽणाहारिमभेदो इमो - हवा जं भुक्खत्तो, कदवउमाए पक्खिवति को | मव्वो सो आहारो, सहमादी पण भतिओ || ३७६२|| बुभुक्षया प्रातः बुभुक्षार्तः, जं किं चि भुंजति सो सव्त्रो प्रहारो, कमोत्रमो । “अपि कर्द्दमपिडानां कुर्यात् कुक्षि निरंतरं । " प्रोसढमादी भयणा - जं घतपूरादी प्रसढत्तं श्राहार एत्र, जं पूर्ण तिफलादियं दव्वं सव्वं प्रणाहारिमं यस्मात् तदुपरिष्टात् पुनराहारं करिष्यतीत्यर्थः || ३७६२॥ अहवा जं वा भुक्खत्तस्स उ, संकसमाणस्स देति श्रसादं । सव्वो सो श्राहारो, कमणिङ्कं चणाहारो || ३७६३॥ तं पुण इमं प्रणाहारिमं - - [ सूत्र - ६१ संकसमाणस्स संग्रसतः कवलप्रक्षेपं कुर्वतः प्रथवा संकसमाणस्स आस्वादयतः प्रास्वादं प्रयच्छति एस श्राहारो । जं पुण प्रकामं अभ्यवहारामीत्येवं न कामयति, प्रनिष्टं शोभनमपि न रोचते, एरिसं प्रणाहारो भवति ||३७६३॥ अणहार मोय छल्ली, मूलं पत्त फल जं चऽणाहारो । सेसं तयभूति तोये, बिंदुमेत्ते वि चउगुरुगा || ३७६४॥ काइयं मोयं, णिबादीणं छल्ली, णिबोलियमादी फला, तस्सेव मूला, जंचणं घोसाडगादी, देवदालितिरिगिच्छमादीयाणं पत्तपुप्फफलबीया, एवमादि सव्वं प्रणाहारिमं । सेसं" ति प्रहारो । तस्स जति तिल तुस तयामेत्तं पि परिवासियं ग्राहारेति सत्तुगादिसुक्कचुष्णाणि एगमंगुलीए जत्तिया भूती लग्गति । "तोयमि" ति पाणगं, तस्स य विदुमित्ते वि चउगुरुगा ।।३७६४।। १ गा० ३७८८ । २ द्रव्यविशेषः । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यमाचा ३७६०-३७६८] एकादश उद्देशकः २८९ अण्णे य इमे दोसा- . मिच्छत्ता संचतिए, विराहणा सुक्खे पाणजाती य । सम्मुच्छणा य तक्कण, दन्वे य दोसा इमे होंति ॥३७६५॥ असणादिपरिवासिज्जमाणं. दटुं सेधो वा अण्णो वा मिच्छत्तं गच्छेज्जा, न जधावादी तघाकारि ति । उहाहं वा करेजा - "णिस्सण्णिधिसंचया समण त्ति, इमे पुण सव्वं करेंति"। परिवासिए य मायसंजमविराहणा। सत्तुगादिए सुक्के परिए अरणिगादी सम्मुच्छंति, उंदरो वा तत्थ तक्केतो पासतो परिपालेंतो बिडालादिणा खज्जति, एवमादी संजमे। प्रायविराहणा सप्पो कोइला विसो लालं मंचति । तयाबिसो वि उस्सिंघमाणो णिस्सासेण विसीकरेज्जा, उंदरो वा लालं मुत्तं मुक्कं वा मुंज्जा, एवमादी दोसे सम्मुद्दिढे शायविराहणा भवति ॥३७६।। "मिच्छत्ता संचइय" त्ति अस्य व्याख्या - सेह-गिहिणा व दिद्वे, मिच्छत्तं कहमसंचया समणा । संचयमिणं करेंती, अण्णत्थ वि गुण एमेव ॥३७६६॥ गतार्था । "सव्वायो राती भोयणायो वेरमणं' ति जधा एवं पडिमं पडिवजेत्ता पादं च वंदित्ता जदा एवं अण्णधा करेंति तदा अण्णत्य वि पाणवघादिसु "गुणं" वितक्के, एवमेवेत्यवधारणे, सव्वं समायरंति ॥३७६६॥ "२दव्वे य दोसा इमे होंति" अस्य पदस्य व्याख्या - णिद्धे दवे पणीए, अपमज्जणपाणतक्कणा झरणा । आहारे दिट्ट दोसा, कप्पति तम्हा अणाहारो ॥३७६७॥ घयातिए गिद्धे, “दवे" ति पाणगे । अहवा-णिद्धमेव दव्वं, जघा खोरं घतं तेल्लं दधि तक्कं मधु ति । "पणीते" ति असणादि गेधावगाढं । एरिसं रातो ठवितं जं भायणे तं पमज्जितुं ण तरति, अह पडिलेहेति तो रयहरणं विणासेज्जति, मपडिलेहणाए य दसहिं दिवसेहिं भायणं उवहयं भवति, तत्थ वा पाणजाती सम्मुच्छंति पति वा, तक्कणा सच्चेव, झरते य हेट्ठा पाणजादी पडंति, मधुबिंदोवक्खाणेण वा तक्कैत-परंपरदोसा भवंति । एत्थ चोदगाह - "प्राहारे दिट्ठदोसा तम्हा प्रणाहारो कप्पतु ठवेतुं ।।३७६७।। प्राचार्याह - अणहारो वि ण कप्पति, लहुगा दोसा य जे भणितपुव्विं । तदिवसं जयणाए, बितियं कडजोगिसंविग्गो ॥३७६८॥ जति प्रणाहारिमं ठवेति तो चउलहु पच्छित्तं, प्राणादिया विराहणा य । प्रणाहारिमं च सुक्खं दवं च, सुक्कं छल्लिमादि, दवं जिंबकरेंजिततेल्लादी। एत्थ प्रणाहारिमे ठविज्जमाणे दोसा जे पाहारिमे पुत्ववण्णिता त एव भवंति । तम्हा प्रणाहारिमं पि णो ठवेजा। जाधे पयोयणं ताधे तद्दिवसं चेव मग्गिजति। विभेलय-हरितकीमादीण य छल्ली अह ण लब्भति, दुल्लभलंभे वा, दिणे दिणे मग्गंता वा गरहिता, ताधे १ गा० ३७६५। २ गा० ३७६५ । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१२ जयणाए ठवेंति । जघा अगीय-सङ्कमादी ण याणंति तथा बितियपदेण कडजोगी संविग्गो ठवेति । मयणेणालिपति, घणचीरेण चम्मेण वा दद्दरे त्ति, जधा पाणादी ण णिलेंति, पासो छारेण प्रोगुंडिज्जति, निव्वाघाए पदेसे ठविज्जति, उभयतो कालं पमज्जिज्जति । एवं गिद्दोसो भवति ॥३७९८॥ जह कारणे अणाहारो, तु कप्पति तह ठवेज्ज इतरो वि । वोच्छिण्णम्मि मडंबे, वितियं श्रद्धाणमादीसु ॥३७६६॥ जधा कारणे प्रणाहारो दिट्ठो ठवेतुं तहा ठविज्ज "इयरों" त्ति पाहारो। सो वि कारणे कप्पति ठवेतुं । तं पुण इमेरिसे कारणे वोछिण्णे मडंबे ठिता, तत्य दुल्लभं पिप्पलीमादीति सव्वं संबसाविज्जा, तं पि गच्छकारणा प्रोसधभेसज्जादीनिमित्तं, तं पि जति मासकणं वासावासं वा ठिता तत्थ ण मग्गति. अण्णखेते मगंति, जाहे अण्णहि ण लभंति ताहे तत्थेव मग्गंति. जहा एयाणि कारणे दिवाणि तहा असणाइ वि कारणे ठवेज्जा, बिइयपदेण श्रद्धाणकप्पं ठवेज्जा । प्रादिसद्दामो पडिवण्ा उत्तिमट्ठस्स वा गिलाणस्स वा पाणगाइ ॥३७६६।। वोच्छिण्णम्मि मडंबे, सहसरुयुप्पाय-उवसमणिमित्तं । दिद्वत्था ते तं चिय, गेण्हंती तिविहभेसज्जं ॥३८००॥ "सहमरुप" मूलविमूयाति, तस्स उवसमणणिमित्तं, दिद्वत्था गीयत्था, ते तं चिय दव्वं गेण्हति मेव ममो भवइ, तिविह भेसज्ज वायपित्तसिंभो य ।।३८००॥ जे भिक्खू गिरि-पडणाणि वा मरु-पडणाणि वा भिगु-पडणाणि वा तरु पडणाणि वा १ गिरि-पक्वंदणाणि वा मरु-पक्खंदणाणि वा (भिगुपक्खंदणाणि वा) तरु-पक्खंदणाणि वा २ जल-पवेसाणि या जलणपवेसाणि वा ३ जल-पक्खंदणाणि वा जलण-पक्खंदणाणि वा ४ विस-भक्खणाणि वा ५ सत्थो-पाडणाणि वा ६ वलय-मरणाणि वा ७ वसट्टाणि वा ८ तब्भवाणि का ६, अंतो सल्लाणि वा १० वेहाणसाणि वा ११ गिद्ध-पट्टाणि वा १२ जाव अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि वा वालमरणाणि पसंमति, पसंसंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१२॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं । एषां व्याख्या ग्रंथेनैव - गिरिपडणादी मरणा, जेत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । तेर्सि अण्णतरागं, पसंसते आणमादीणि ॥३८०९॥ तेसि सुत्ताभिह्मिाणं दुवालमाहं वालमरणागं अण्ण तरागं पसंसइ, प्राणारिया दोसा, च उगुरु व पन्छितं ।।३८०१॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ भाष्यगाथा ३७६६-३८०६] एकादश उद्देशकः गिरि-मरु-तरु-भिगूणं च उण्ह वि इमं वक्खाणं - जत्थ पवातो दीसति, सो तु गिरी मरु अदिस्समाणो तु । नदितडमादी उ भिगू , तरु य अस्सोत्थवडमादी ॥३८०२॥ गिरिमरूणं विसेसो- जत्थ पठनए प्रारूढेहि अहो पवायठाणं दीसइ सो गिरी भण्णइ, पदिस्समाणे मरू । भिगू णदितडी प्रादिसद्दातो विजुक्खायं, अगडो वा भनइ। पिप्पलवडमादी तरू । एतेहितो जो प्रप्पाणं मुंचइ मरणं ववसिउं तं पवडणं भन्नइ । एते चउरो वि पडणसामन्नाप्रो एक्को मरणभेदो ।।३८०२॥ एतेसु चेव चउसु पक्खंदणं । पवडण-पक्खंदणाण इमो भेदो पडणं तु उप्पतित्ता, पक्खंदण धाविऊण जं पडति । तं पुण गिरिम्मि जुजइ, णदितडभिगृहिं वा पडणं ॥३८०३॥ थाणत्थो उड्डे उप्पइता जो पडइ वस्त्रडेवने डिभकवत्, एयं पवडणं । जं पुण प्रदूरमो प्राधावित्ता पडइ तं पक्खंदणं । ग्रहवा - ठिय-णिसन्न-णिवनस्स अणुप्पइत्ता पवडमाणस्स पवडणं, उप्पाइत्ता जो पडइ पक्खंदणं । तं पुण पडणं पक्खंदणं वा गिरिम्मि जुज्जइ घडतीत्यर्थः । गदितडिभिगृहि वा पडणं पक्खंदणं च जुज्जह॥३८०३॥ तरुसु कहं पक्खंदणं जुज्जइ अग्रो भण्णति - ओलंबिऊण समपाइतं च तरुओ उ पवडणं होति । पक्खंदणप्पतित्ता, अंदोलेऊण वा पडणं ॥३८०४॥ हत्येहि सालाए लग्गिउं महो लंबिउं पडतस्स पवडणं, रुक्खग्गयो वा समपादठियस्स प्रणुप्पइचा पवडमाणस्स पवडणं । रुक्खट्टियस्स जं उप्पइत्ता पडणं तं पक्खंदणं, हत्येहिं वा लंबिउं जं अंदोलइत्ता पड तं वा पक्खंदणं । चउरो वि पक्खंदणा पक्खंदण सामन्ननो बिइमो मरणभेदो ॥३८०४॥ जल-जलणपवेसो पवेससामण्णो तइप्रो मरणभेदो । जल-जलणपक्खंदणे चउत्थो मरणभेदो। सेसा विसभक्षणाइया वा अट्ठ पत्तयभेदा । विसलक्खणं "सिद्धं, सत्येण अप्पाणं विवाएइ । "'वलय-वसट्टाणं" इमं वक्खाणं वलयं वलयायमाणो, जो मरणं मरति हीणसत्ततया । सोतिदियादिवसतो, जो मरइ वसट्टमरणं तु ॥३८०॥ संजमजोगेसु वलंतो हीणसत्तयाए जो प्रकामगो मरइ एयं वलयमरणं, गलं वा अप्पणो वले । इंदियविसएसु रागदोसवसट्टो मरंतो वसट्टमरणं मरइ ।।३८०५॥ "तम्भव-अंतोसल्लाणं" इमं वक्खाणं - तम्मि चेव भवम्मी, मयाण जेसिं पुणो वि उप्पत्ती । तं तब्भवियं मरणं, अविगडभावं समल्लं तु ॥३८०६॥ १ सू०६२। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र ६२ जम्मि भवे वट्टइ तस्सेव भवस्स हेउसु वट्टमाणो पाउयं बंधित्ता पुणो तत्थोवज्जिउकामस्स जं मरणं तं तब्भवमरणं, एयं मणुयतिरियाण चेव संभवइ । अंतोसल्लमरणं दुविहं - दव्वे भावे य । दव्वे णारायादिणा सल्लियस्स मरणं, भावे मूलुत्तराइयारे पडिसेवित्ता गुरुणो प्रणालोइत्ता पलिउंचमाणस्स वा भावसल्लेण सल्लियस्स एरिसस्स अविगडभावस्स अंतो सल्लमरणं । वेहाणसं रज्जुए अप्पाणं उल्लंबेइ। गिद्धिहिं पुटुं गिद्धपुढे गृद्धभक्षितव्यमित्यर्थः, तं गोमाइकलेवरे अत्ताणं पक्खिवित्ता गिद्धेहि अप्पाणं भक्खावेइ । अहवा - पट्ठोदरादिसु अलत्तपुडगे दाउं अप्पाणं गिद्धेहिं भक्खावेइ ॥३८० ।। एते दुवालस बालमरणा पसंसमाणस्स इमे दोसा मिच्छत्तथिरीकरणं, सेहपरीसहपराइतेक्कतरं। णिक्किवया सत्तेसु य, हवंति जे जत्थ य पडती ।।३८०७॥ अहो इमे साधू एगंतसुट्ठियप्पा इमे गिरिपवडणादी मरणे पसंसंति, धुवं एते करणिज्जा, नत्थेत्थ दोसो, एवं मिच्छताइठियाणं मिच्छत्ते थिरीको भावो भवति । पसंसियबालमरणे सेहो परीसहपराजियो बारसहं एगतरं पडिवज्जेज्जा । जे य बालमरणे पसंसिए अप्पाणं अइवाएज्जा तेसु सत्तेसु णिग्धिगया कया भवति । तबिराहणाणिप्फणं च पच्छित्तं पावेइ। तम्हा णो पससेज्जा ॥३८०७॥ कारणे वा पसंसेज्जा। इमं य ते कारणा - बितियपदमणप्पज्झे, पसंसे अविकोविते व अप्पज्झे । जाणंते वा वि पुणो, कज्जेसु बहुप्पगारेसु ॥३८०८।। कंठा ते य बहुप्पगारा कज्जा इमे - . कयम्मि मोहभेसज्जे, अट्ठायंते तहावि तु ।। जुंगियं श्रामए वा वि, असझं पण्णवेंति उ ॥३८०६।। साहुस्स उदित्तमोहस्म णिविइयादिमोहभेसज्जे कए तह वि मोहणिजे अढायमाणे. कण्णऽच्छि नासहत्थपादादि जुंगियं वा, कुट्टवाहिणा वा असभेण गहियं, गोणसमाइक्खयं वा असज्झ, पंडियमरणे असतं, एते इमेण विधिणा बालमरणेण पनवेति ॥३८०६।। तत्थ दसण्ह अवाते, आदिल्लाण मरणाण दंसेत्ता । दोण्णि पसंसंति विदू, वेहाणस गद्धपटुं च ॥३८१०॥ पवडणादीया अंतोसल्लपज्जवसाणा एते दस । एतेसि जीवववरोवणादि प्रवाए दंसेत्ता ते पडिसेहित्ता दोण्हं विहाणसगद्धपट्ठमरणाणं गुणे प्रागमविदू पसंसंति, पंडियमरणमसत्तेण ते प्रतिपत्तव्या इत्यर्थः ॥३८१०॥ भणियं दुवालसविहं बालमरणं । इदाणि पंडियमरणं । तस्सिमो संबंधो - बालमरणेण य पुणो, पंडितमरणे कया हवति सूया । भत्तपरिण्णा इंगिणि, पादोपगमे य णायव्वे ॥३८११।। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ३८०७-३८१६ 7 एकादश उद्देशकः तं तिविहं - भत्तपरिण्णा इंगिणि पाउवगमणं च । एते कमेण जहण्णमज्झिमुक्कोसा । तत्थ एक्केकं दुहा पडिवज्जइ महाणुपुब्बीए प्रणाणुपुन्त्रीए य । पव्वज्जा सिक्खापयादिकमेण मरणकालं पत्तस्स प्राणुपुत्री, अत्यग्गहणाईए पदे प्रप्फासेत्ता श्रणः पुरुवी । पुणो एक्केवकं दुविहं - सपरिक्कम अपरिक्कम च । सपरिक्कमो - जो भिक्खू वियारं श्रण्णगामं वागंतुं समत्थो, इतरो अपरिक्कमो । पुणो एक्क्क दुविहं - णिव्वाघाइमं वाघाइमं च । शिरुप्रस्स श्रक्खयदेहस्त णिव्वाघाइमं, इतरस्स वाघाइमं । वाघाग्रो दुविहो - चिरघाइ प्रायुधाइ य ||३८११|| एत्थ भत्तपरिन्न ताव भणामि । जं तं प्राणुपुवीए सपरिकम्मं णिव्वाघाइमं तं इमं - पेव्वजादी काउं, नेयव्वं ताव जाव वोच्छिती । पंच तुलेऊण य सो, भत्तपरिण्णं परिणतो य || ३८१२|| पुव्वद्धस्स इमा वक्खाणगाहा पव्वज्जा सिक्खावय, अत्थरगहणं च अणियतो वासो । फित्ती य बिहारी, सामायारी ठिती चेव || ३८१३॥ पव्वज्जं अब्भुवगो सिक्खापदं ति सुतं गहियं प्रत्यो सुप्रो बारसमाश्रो देसदंसणं कथं, सीसा frफातिया, एसा अवोच्छिती । ताहे जइ दोहाऊ संघयधितिसंपण्णीय ताहे ग्रयाणं तवेण, सत्तेश, सुत्ते", एगत्ते, बलेशय पंचहा तुलेऊण जिगकप्पं अहालदं सुद्धारिहारं पडिमं वा पडिवज्जइ । श्रह अप्पाऊ विहारस्स वा प्रजोग्गो, ताहे अब्भुज्जयमरणं तिविहं वियालेऊण अप्पो घितिसंघलगागुरूवं भतपरिनं परिणो ||३८१३॥ तस्सिमाग्री तिन्नि दारगाह - करें | दारं । - ५ 3 गणि विसरणे परगणे, सितिसले अव । १२ एक्काऽऽभोरण अन्ने, 'अणपुच्छ - परिच्छ आलोए || ३८१४॥ 43 १४ ठाण - वसही -पसत्थे, णिज्जवग्गा दव्वैदायणा चरिम | १८ २१ १७ २० २२ हाणऽपरितंत णिज्जर. संथारुव्वत्तणादीणि ॥ ३८१५॥ ૨૪. सारेऊण य कवयं, णिव्वाघाएण चिधकरणं च । २६ तो २६३ २७ वाघातो, भत्तपरिण्णाए कायव्वो ||३८१६॥ जा परिक्रम्मं करे३ ताव इत्तरं गणिक्खेवं करेइ परिवणां परिवज्जउ आवक गणणिवखेवं "परगये त्ति" परगणे गंतुं प्रणम भगाहाणि वा उबकरगिमिते वा मह पडिवजद, कि कारणं ? भन्नई - सिरसा कलुगभावं करेज्जा, गगभेदो ह्वेज्ज, बालाईग वा उचिए ग्ररुज्जमा हामि वा Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ सभाष्य-णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १२ दर्छ, एमाइएहिं कारणेहिं सगणे झाणवाघानो हवेज्ज । परगणे एते दोसा ण हवंति, गुरुकुलवासो य को भवति । दारं। “सीति" दुविहा – दब्वे भावे य । दने जहा गिस्सेणी जहा तीए उवरुवरि पदारोहं करेइ तहा भावसंजमसीतीए उवरुवरि संजमठाणा प्रारुभियन्वा, ते प्रारभतो अंतकिरियं वा करेइ। कप्पविमाणोववत्ति वा । एसा भावसोती जेहिं उवलद्धा ण ते उड्डगमणकज्जे हिटिल्लपदगमणं पसंसति । दारं । "संलेहे" ति लेहो, तिविहो - उक्कोसो मन्झिमो जहन्नो। उक्कोसो बारसवासा, मज्झिमो वरिसादि, जहन्नो छम्मासा । तत्थ उक्कोससलेहणाविहि भणामि - चत्तारि संवच्छ राणि विचित्तं तवं करेइ, पारणए उग्गमाइसुद्धं कप्पणिज्ज सव्वं पारे । अन्ने चत्तारि वरिसे विचित्तं चेव तवो काउं निद्धपणीतवज्ज णिब्वितियं पारेइ । अन्ने दो वरिसे चउत्थं काउं प्रायंबिलेण पारे । एक्कारममे वरिसे पढम छम्भास अविकिट्ठ तवं कातुं कजिएण पारेइ । बिइए छम्मासे विगिटुं तवं काउं पायंबिलेण पारे । दुवालसमं वरिस गिरंतरं हायमाणं उसिणोदएण प्रायंबिलं करेइ, तं कोडीसहियं भवइ, जेणायंबिलस्स कोडी कोडोए मीनइ। जहा पईवस्स वत्ती तेल्लं च समं णिट्ठाइ तहा बारसमे वरिसे प्राहारं परिहरेइ, जहा प्राहारसलेहणा पाउयं च समं गिट्ठाइ। एत्थ बारसमवासस्स पच्छिमा जे चत्तारि मासा तेसु तेल्लगंडूसं णिसटुं घरेतुं खेलमल्लगे णिच्छुकभई, मा प्रइरुक्खत्तणो मुहर्जतविसंवादो भविम्मति, तस्स य विसंवादे णो सम्मं णमोक्कारमाराहेइ । मज्झिमजहणपरिकम्मणासु एसेव विही मासपखेहि यन्यो। एत्तो एगयरेणं सलेहेत्ता भत्तारिणिगिणिपाउनगमणं वा पडिवज्जइ । दारं । "अगीए" त्ति - प्रगीयस्स पासे जइ भत्तं पच्चक्खाइ तो चउगुरु । कम्हा ? जम्हा अगीयत्यो चउरंग णासेइ, तं च णटुं पुणो दुल्लहं भवइ । तं च किं चउरंग? भन्नइ - माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं । कहं अगीनो णासेइ, भण्णइ सोऽपरिण्णिय ।। __ पढमबिइयपरीसहपराजितो दिया रामो वा प्रोभासेज्ज, ते तं प्रगीयत्था "णिद्धम्मो" ति काउं गामस्संतो बहिं दिया राम्रो वा परिढवेज्जा, सो वि प्रदुहट्टो पडिगमणं वा करेज्जा, मरिऊण वा तिरियवाणमंत रेसु उप्पज्जेज्ज, तत्थ पुत्वभववरं संभरित्ता उवसम्गं करेज्जा । __ ग्रहवा - अगोप्रो "राइ" ति काउं पाणगस्स गहणं न करेइ, तिसियस्स मायं देजा, सो य दंडियमाई दुरुट्ठो मिच्छतं गच्छे, कुल गण-संघपत्यारं वा करेज्जा । जो सो अगीएहि परिविमो सो गीएहि दिट्ठो, प्रासासिनो, अणुसट्ठो, विहिणा पडियरियो, अविराहियसामण्यो मनो। एते प्रश्ने य बहू प्रगीयत्ये दोसा । तम्हा णो प्रगोयत्यसमीवे परिनं पडिवज्जे । गोयसमीवे पडिवज्जियव्वं । सगच्छे परगच्छे वा जइ वि दूर तहावि गंतव्वं, जाव पंच वा छ सत्त जोयणसए समहिए वा गीतंत्थसमीवं अपरिस्संतेण गंतव्वं । एसा खितं पट्टच्च पत्रविया । कालमो अपरिस्संतो एगाहेण वा जाव उक्कोसा उ बारसवासेण गीयत्थसमीवं Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३८१६] एकादश उद्देशक: २६५ गंतव्वं । एसा खेत्तकालं पडुच्च पन्नविया । जेण गीतत्थदुल्लभो कालो भविस्सति गीयत्थेण य सबहा उत्तमट्ठपडिवनस्स समाधी कायन्या । दारं । "असंविग्गो" ति - असंविग्गस्स पासे उत्तिमर्दु पडिवज्जइ तो चउगुरु, असंविग्गो जम्हा चउरग नासेइ । इमे य दोसा - अहाकम्मियं पाणगवसहिसंयारगाई देड, पुप्फमाईहि अच्चणं करेइ कारवेइ, उवलेवणसमजणाई य बहुजणणाय वा करेज, तूरं वा प्राणज्ज, एमाई असंविग्गे बहू दोसा, तम्हा गीयत्थस्स संविग्गस्स पासे परिणं पडि वज्जे । तस्सासइ प्रसंविग्गस्स गीयत्थस्स, शेषं पूर्ववत् । दारं । "एग ति" - दारं, एगेग णिज्जावगेग कज्जहाणी इमा - परिणी सेहा पवयणं च चत्तं, उड्डाहो वा भवे । कहं पुण एते दोसा ? सो णिज्जवगो तस्म पासतो कारणेण णिग्गतो, परिणी य पढमबिइयपरीस. होदए प्रोभासेज्ज, सेसा अगीया ण दिज्ज, एवं सो चत्तो। अहवा - सो परिणी ते प्रगीते भणेज्जा - "एत्थं तं मज्झवि तेल्लयं एतं तो मे देह ।" ताहे ते अगीयपरिणामगा चितेज "माई कवडायारा, णत्थेत्थ धम्मो' त्ति, उणिक्खमेज्ज, अइपरिणामगा वा तं दट्ठ "णिद्धम्मा" भवेज्जा, अइपसंगं करेज्ज । अदत्तेसु वा सो कूवेज्जा, “बला मे मारिति" त्ति उड्डाहं करेज्ज । एवं पवयणं चत्तं, तम्हा जत्थ प्रणगे णिज्जवगा तत्य पडिवज्जियवं । दारं । "प्राभोगण" त्ति दारं - पच्चक्खाण काले प्राभोएब्वं, प्रणाभोऐतस्स चउगुरु । जं च तप्पडिबंधे ठिया ता प्रसिवाईहिं पाविहिति, तम्हा मोहिमाइणा प्राभोएट्वं, अन्नं वा अइसेसियं पुच्छति । जइ जाव परिणी जीवइ ताव णिरुवसम्ग सो वा णिव्वहइ तो पडिवज्जइ, अन्नहा पडिसेहो। देवता वा कहेज्ज - जहा कंचणपुरि खीरं खमगस्स तच्चन्नियं जायं । जइ एवं विहिं ण पकरेंति तो इमा विराहणा - प्रणाभोइए असिवोमाइ उत्पन्ने जइ परिनी उवकरणं च वहंति तो प्रायविराहणा । अह उवकरणं छड्डेति तो उवकरणेण विणा जा विराहणा। अह परिनी छड्डेति तो उड्डाहो मिच्छत्ताइया या दोसा। दारं। इयाणि “अनि" त्ति दारं - एगेण पच्चक्खाए अन्नो जइ प्रागतो सो संलेहं कारविज्जइ, तइयो पडिसेहिज्जइ अपहप्पंतेहिं । ग्रह पहुप्पंति गिज्जावगवेयावच्चकरो तो बहू णिज्जविज्जति । अह सो परिन्नी पडिभज्जइ ताहे तत्थ प्रश्नो पुचि संलेहियो ठविज्जति, चिलिमिलिअंतरितो य जणो वंदाविज्जति । दारं । "अणापुच्छ" ति - गुरुजणस्स प्रणापुच्छाए जइ परिणं पडिवज्जइ पच्चक्खाति वा तो चउगुरु । इमा विराहणा - प्रायरिएण प्रणापुच्छाए पडिवन्ने कोइ किचि वेयावच्चाइ काउं णेच्छइ, अकज्जमाणे . तस्स असमाही, ग्रह करेंति तो ते परिताविज्जति, अण्णत्थ वा गच्छंति, कक्खडखेत्ते वा तत्थ भत्तपाणं णत्थि, असइ भत्तपाणस्स जइ तं छड्डितुं गच्छति तो उड्डाहो, महतो य पवयणोवधानो, भत्तपच्चक्खायस्स वा भत्ताइपा उग्गंण लठभइ, जा तेण विणा विराहणा तं णिफणं पावति तम्हा गच्छो पुच्छियम्वो- "प्रज्जो ! इमो साहू परिणं पडिवज्जइ महंत गिज्जरदारं", एवं पुच्छिए जो जं तरइ सो तं अभिग्गह गेण्हइ सुलभं वा दुल्लभं वा भत्तपाणाइ गुरूणं कहेति, एवं दोमा परिहरिया भवंति । दारं ।। “परिच्छ” त्ति दारं - प्रायरिएण परिणी परिच्छियवो, तेग वि गुरू च्छो य परिच्छियव्यो । अपरिच्छिणे चउगुरु, विराहणा दुविहा, अपरिच्छा एकको य जं विराहणं पाविहिति तगिफण्णं भवइ परिच्छियव्वं दव्वभावेहि । परित्री गच्छं परिच्छ: - "प्रज्जो ! प्राणेह मे कलमसालीकूरं, खीरं च मे कढियं खंडमच्छंडियसक्कराजुयं कल्लाणयं ता भोयणं" । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ सभाध्य-चूणिके निशीथसूत्रे | मूत्र-१२ जह हसंति, मगंति वा - "कमो अम्हं एरिसं" ? ताहे तत्थ ण पञ्चवलाइ । मह भणंति - 'जोगं करेमो" प्राणियं वा । उक्कोसं पि प्राणियं, सो दुर्गच्छइ, जइ तं पडिवज्जति भणंति वा "मन्नं पाणेमो" ति तो तेसिं अंतिए पडिबज्जइ। भावपरिच्छाए जइ ते कसाइज्जति ताहे तस्संतिए ण पच्चक्खाइ। ___ इयाणि गुरू गन्छो य तं परिच्छइ - दव्वे कलमोषणाए दव्वं सभावाणुमयं वा उवणीयं, जइ दुगंछह तो सुद्धो। भावेण पुग्छिन - "प्रज्जो! किं संलेहो, कमो ण कउ ?" ति । ताहे सो रूसियो अंगुलि भंजिऊण दायेइ - "पेच्छह किं कमो, ण कमो ति।" एवं कए गुरू भणइ - "करो तुमे दबसलेहो, भावसंलेहं करेहि, एत्थ पहाणो भावसंलेहो सपयत्तण कायव्वो।" एत्य गुरू अमच्चकोंकणगदिद्रुतं कहेति - रना अमच्चो कोंकणयो य दो वि. गिव्विसया प्राणत्ता । पंचाहस्स परयो जं पस्से तस्स सारीरो णिग्गहो । कंकणो दोद्धिए कंजियं छोढुं तक्खणा चेव णिरवेक्खो गयो । अमच्चो पुण भावपडिबद्धो जाव भंडी बहिलगे कए य भरेइ ताव पंचाहो पुनो। रन्ना उवलद्ध णिग्गहो करो। एवं तुम पि भावपडिबद्धो प्रसंलिहिमप्पा ममच्चो इव विणिस्स हिसि । एवं परिच्छिते जो सुद्धो सो पडि. च्छियव्वो, णो इतरो ! रं ! "पालोए" ति दारं - मालोयणा दायव्वा । पठवजदिणा प्रारम्भ पालोएइ जाव प्रणासग. पडिवत्ति वि विणो, गाणदसण चरित्ताइयारं एककेक्कं दवाइ चउक्कमोहीए, दवप्रो सचित्ताचित्तं, खेत्ततो प्रदाणाइएसु, कालमो सुभिक्खदुभिक्खेसु. भावमो हिट्ठगिलाणेण, एवं उत्तिमद्वकाले सव्यं प्रालोयव्वं । जहा कुसला प विजो अप्पणो बाहिं मन्नस्स कहे तहा साहू पच्छित्तवियाणगो वि अन्नस्सऽइयारं कहेइ, छत्तीसगुणसमन्नागएण वि पालोयणा दायव्वा । इमे छत्तीसगुणा - प्रदविहा गणिसंग्या, एककेक्का चउबिहा । विणयपडिबत्ती चउन्विहा । एते सव्वे मिलिया छत्तीसं । पंचविहववहारकुसलेण वि परसक्खिया विसोही कायना । जहा वा बालो उज्जुयं कजमकजं वा भणइ तहा सनत्थं' मालोयव्वं । विसारिएसु पडिसेवणातियारेसु इमं वत्तव्वं - जे मे जाणंति जिणा, प्रवराहे णाणदंसणचरित्ते। ते हैं आलोएत्तु, उवढिओ सव्वभावेणं ॥ पालोयणाए इमे गुणा - पंचविहो पायारो पभाविमो भवइ, चरितविणो य को भवइ, पप्पा गुरुभावे ठविमो, घेरकप्पो चरितकप्पो मालोयणकप्पो वा दिविमो भवइ, अत्तसोही कया, उज्जुसंजमो कमो भवइ, मज्जवं ममायत्तं तं कयं भवइ, महवयाए प्रमाणत्तं दाइयं, लाघवेण मलोमत्तं कयं, अप्पण तुट्ठी पप्पणो पल्हादजणणं कयं, बहुवित्थरं एत्य मालोयणापगयं वत्तव्यं । दारं । १ समस्तम् । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . माध्यगाथा ३८१६1 एकादश उद्देशकः २१७ "ठाणं" ति दारं - वसही ठाणं, केरिसं तस्स जोग्गं? भन्नइ - जत्थ झाणवाघामो ण भवइ । ते य इमे भाणवाघायठाणा - गंधवणट्टसाला, सब्दासज्जमाला. चक्किजंतादिसालानो, तुरग-गवसालापो, रायपहो य। अहवा - जत्तिया समयविरुद्धा उवस्सया सम्वे वज्जेयवा । छक्कायपडिवजणाय जत्थ इंदियपडिसंवारो णत्थि मणसंखोभकरणं च जत्थ णत्थि. तारिसे ठाणे वसही घेत्तव्वा । दारं । - "वसहि" ति दारं - केरिसा पुण सा वसही घेत्तव्वा ? सवसाहूण एक्का वसही न कपइ । जइ एक्को ठायति तो चउगुरु । तेसु समुद्दिसतेसु अन्नापाणगंधेणं झाणवाघापो हवेज्जा, तम्हा दो वसहीरो घेत्तव्वानो । एगा उत्तिमट्टपडिवनस्स, बिइया सेससाहूणं । दारं । "पसत्थ" ति दारं - सन्निवेसस्स कम्मि दिसामागे वसही पसत्था ? सन्निवेसवसभस्स मुहसिरककुहपोट्टा पसत्था, सेसेसु अप्पसत्था । दारं । "णिज्जवग' त्ति दारं - णिज्जवगा पडियारगा । ते केरिसा केत्तिया वा ? पासत्थातिठाणविरहिया पियधम्मा प्रवज्ज भीरू दढसंघयणा गुणसंपन्ना यावच्चकरणे अपरितंता गीयत्था भरहवासे दुसमाणकालाणुरुवा उक्कोसेण अडयालीसं णिज्जवगा उव्वतणादिकायपडियरगा चउरो, अभंतरदारमूले चउरो, संथारगवावारे चउरो, तस्सप्पणो धम्मकही चउरो, वादी चउरो, बलसंपन्ना प्रग्गद्दारे चउरो, इच्छियभत्तणितगा चउरो, पाणगे कू, वियारे चउरो, पासवणे चउरो, बाहिं जणवयस्स धम्मकही चउरो, घउदिसि सहसजोहा चउरो। एताप्रो एक्कगपरिहाणी य णेयव्वा जाव जहण्णण दो जणा एक्को भिक्खाए वञ्चह, बीमो परिणिस्स पासे अच्छइ । दारं । "दव्वदायणा चरिमि" त्ति दारं - माहारदव्वं दाइज्जइ चरिमाहारकाले । सव्वस्स किर चरिमे काले अईव प्राहारतण्हा जायइ, तस्स वोच्छेदणट्ठा कालसभावाणुमो पुवमुसियो वा इमो से दसियइ - णव रसविगइयो, दसमी सवित्यारा, सत्तविहो प्रोदणो, मट्ठारस वंजणो, पाणगं पि से उक्कोसं दिज्जा । एवं तण्हावोच्छेदे कए ण पुण तस्स तम्मि मई पवत्तइ, ताहे वोच्छेदे य कए समाही भविस्सति । तं च उग्गमुप्पादणाए सणासुद्धं मग्गिजइ, पच्छा पणगपरिहाणीए बितियचउउवहरियं दळु कोई संवेगमापन्नो तीरपत्तस्स मे किमेतेणं? ण चेव मुंजइ, कोइ देसं भुंजई, कोइ सव्वं भुजइ। "महो! इमो साहू चरिमं भुजई"सेससाहूण वि सदा कया भवई, देसं सव्वं वा भोच्चा वि हा "किमेएणं" ति संवेगं गच्छति । संवेगगनो य तिविहं वोसिरह - प्राहारं, उवहि, देहं अहवा आहारोवहिवसही । दारं । मन्नो पुण देसं सव्यं वा भोच्चा तं चेवऽणुवंधिजा पुणो प्राणेह त्ति भोज्जा। एत्थ "हाणि" त्ति दारं - तस्स मणुन्नाहारपडिबद्धस्स गुणवड्डिणिमित्तं दब्वहाणीए तहा वोच्छेदं करेंति । जा तिन्नि दिणे हु समाणं प्राणे ततो परं भन्नइ - "न लब्भ"। भणति य -"माहारे ताव गेहि छिदसु, पच्छा उत्तिमटुं काहिसि । जं वा पुव्वं ण मुत्तं तमिदाणि तीरपत्तो इच्छसि। तणकट्टेण व अग्गी जहा ण तिप्पइ, उदही वा जलेण, तहा इमो जीवो प्राहारेण ण तिप्पति, तं उत्तमसाहसं करेहि' त्ति । दारं । "अपरितंते" त्ति दारं - ते पडिचरगा दिवा रामो य पारितंता कम्म णिज्जरेमाणा यावच्चं करेंति । जो य उत्य कुसलो समत्यो सो तत्थ उज्जमइ तहा अहा तास. भावं सुठुतरं दीवेइ । दारं । "णिज्जर" ति दारं - कम्मणिज्जरा देहवियोगो खिप चिरेण वा होज्ज, पच्चक्खायस्स पहिचारगाण वि दोण्ह वि महती णिज्जरा । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-६२ सुन-६२ कहं ? जसो भन्नइ - कम्ममसंखेज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोगे, सज्झायम्मि विसेसेणं ॥ एवं गाहा वत्तव्वा काउस्सगो वेयावच्चे उत्तिमढे य । दारं । "संथारगि" त्ति दारं - उत्तिमट्ठपडिवण्णस्स केरिसो संथारो ? उस्सग्गेण ताव भूमीए ठिो शिवनो वा, जया संथरेइ तया संथारुत्तरपट्टे, प्रसंथरे वहुचीरा, तहावि असंथरे अझुसिरे कुसुमाई तणे, ततो कोतव-पावारग-णव-तगतुलिय, तहावि प्रसंथरे संथारगो जाव पल्लंको, अहवा जहा तस्स समाही तहा कायव्वं । दारं। "उव्वत्तणाईणि" ति दारं-उस्सग्गेण य तेण सयमेव उठवत्तण-परियत्तण-उलू-णिसीयण-गिरगमणपवेस-उवकरणपडिलेहण-पाणगाणयणं च कायव्वं, चाउकालं सज्झायं च करेइ । जं. जहा तरइ तं तहा सयमेव करइ । अह ण तरइ ताहे से सव्वं अन्ने करेंति, अन्तोहितो बाहिं णोणेति, बाहिरतो वा अंतो पवसेंति, जहा जहा समाही धीई य तहा करेंति । एवं पि कीरमाणे जइ ण तरेज्ज ताहे से इमं कहिज्जइ, 'धीरपुरिसपन्नते मरणविभत्तिगाहाम्रो घोसेयवानो, जाव “एयं पाउवगमणं, णिप्पडिकम्मं जिणेहि पन्नत्तं । जं सोऊण परिन्नी, ववसायपरक्कम कुणइ । दारं। "सारेऊणं" ति दारं - कोड पढमविइयपरीसहऽद्दिो दिया राम्रो वा भासेज्ज ? ताहे से संभारिज्जइ - "कोसि तुमं ?" "सयणो हं।" "किं पडिवनो" ? "उत्तिमढें ।" "का वेला" ? कहेइ “दिवसं राति वा ।" तो "किं प्रोभाससि वलियं, मे सज्झाणवाधामो वट्टइ", एवं से सरिऊग असमाहिपडिघायत्यं समाहिहेतुं च भत्तं पाणं वा दिवा राम्रो वा दिज्जइ । दारं । चोदगाह - ‘ण जुत्तं"। आयरियो "कवए” त्ति दिटुंतं कहेइ - जाहे किल कालं करेइ जीवो ताहे पाहारे गाढं अभिलासो भवइ। एत्थ दिद्रुतो जहा - कोइ सहस्मजोही संगामे वम्मित-कवइयो हत्थिखंधगयो संगाम जोहेइ, अन्ने य से जहा कंडमाईणि ण कि चि आवाहं काउं समत्था । दुमारूढेण य एक्केण से पुरिसेण मत्थए कणएण पाहतो, सो कणग्रो पञ्चप्फिडियो कवयस्स गुणेण, तेण अवलोइयं, दिट्ठो दुमारूढो, अद्धचंदेण य से सिरं प्रवणीयं । जहा सहम्सजोही तहा उत्तिमपडिवण्यो । जहा य सरवरिसं तहा परिसहोवसग्गा । जहा कणगो तहा साधारणवेदणा । जहा कवयं तहा पाहारो। वेदणापडिघाए कए सब्वे परीसहोवसग्गे जिणइ। हत्थिपदाउंष्टिए वा जहा पुरिसो पायं दाऊण खंधं विलग्गइ एवं आउट्टियपदथाणीयं प्राहारं प्राहारेत्ता अंतकिरियं वा देवलोगोववनि वा प्रारूहइ। एह वेदणऽट्टो पाहारं ण करेइ तो अट्टज्झागोवगो तिरिएसु उववजइ, भवणवग एमु ग, तम्हा सब्ववेदणोववायं काउं समाहिणा णमोक्कारेण कालगप्रो । दारं । ताहे स "चिंधकरणं" ति दारं- ग्रह से चिंधकरणं ण करेंति तो चउलटुं। चिंधकरणं दुविहं - सरोरे उवकरणे य । लोयं पुव्वं चेव काऊणं संवरेंति । अह पुत्वं ण को पुणो वढिना वा ताहे लोगो से कजति, एवं सरीरे । उवकरणे कालगयस्स चोलपट्टो, मुहपोतिया मुहे बज्झइ, हत्यपादा य से बझति. १गा० ३६११ से ३६२२ तक । . Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३८१६-३८१८1 एकादश उद्देशकः . ૨૯૨ अंगुटुंतरे लंछिनइ ति । जदि दिवड्डखेते नक्खत्ते कालगो तो दुन्नि पुत्तलगा, समणखित्ते एगो, प्रवड्डे पत्थि । अचिंधकरणे दोसा- देवेसु उववण्णो मिच्छत्तं गच्छइ, जहा सो सावगो उज्जेणीए, दंडिमो वा चिंधेण विणा दळूणं गामे गिहेज । दारं । "अंतो बहि" त्ति एवं भत्तपरिनं गामस्स अंतो बहिं वा पडिवजइ ण दोसो। दारं । "वाघाए" त्ति दारं - जइ से कम्मोदएण वाघातो हवेजा तो ण चेव पगासेतब्यो ति । इमो विही वाघाते उत्पन्ने प्रश्नो जो संलिहियो सो ठविज्जइ । एस गीयत्थाणं उवायो। जो वा अन्नो वा उच्छहइ सो ठविज्जइ । इयरस्स पुण गिलाणपडिकम्मं कीरइ । अहवा - तत्थ वसभो ठविज्जइ। तं पि राम्रो संज्झाछेदे वा परिवेति । एसा दंडियमाईहिं अण्णाए जयणा। तं पुण पडिभग्गं पेसंति सयं वा गच्छति । जो तं खिसइ तस्स चउगुरु । जो सपरक्कमे गमो सो चेव भपरक्कमे, णवरं - सो सगच्छे पडिवज्जइ । सपरक्कमा इतरा य एते दो वि भणिया । इदाणि वाघाइमं अणाणुपुवी- रोगातंकेहिं बाहियो बालमरणं मरेज्जा, प्रत्यभल्लाईहि वा विरुंगियो बहूहिं प्रासुधाइकारणेहिं परकममकाऊणं भत्तं पञ्चक्खावेइ, सो जइ पंडियमरणेण असत्तो ततो ऊस्सासं णिरु भइ, वेहाणसं गिद्धपटुं वा पडिवज्जइ, तस्स उत्तमा पाराहणा। विहरतो पुण पायारलोवं करेइ ॥३८१६-१७-१८॥ एसो पञ्चक्खाणे विही भणितो। इयाणि इंगिणी भन्नइ - आयपरपडिक्कम्मं, भत्तपारण्णाए दो अणुण्णाता । परवजिया य इंगिणि, चउन्विहाहारविरती य ॥३८१७॥ बाव अन्वोच्छित्ती ताव णेयव्वं । पंचधा तुलेऊण इंगिणिमरणं परिणग्रो । इंगिणीए प्रायवेयावच्चं परो न करेइ, णियमा चउबिहाहारविरई । जइ बहिं पडिवज्जइ तो अणीहारिम, अह गच्छे तो गोहारिमं । पढमबिइयसंघयणी पडिवज्जइ, जेग अहियं णवमपुवस्स तइयं पायारवत्थु एक्कारसंगी वा पडिवज्जइ, धितीए वज्जकुडुसमाणो सव्वाणि उवसग्गाणि अहियासेइ ॥३८१७॥ गया "इंगिणी"। इदाणि "पादवगमणं" - णिचलणिप्पडिकम्मो, णिक्खिवति जं जहि जहा अंगं । एवं पादोवगम, णीहारिं वा अणीहारिं ॥३८१८॥ एत्य पवायाई णेयव्वं जाव प्रबोच्छित्ती। पंच तुलेऊणं पादवगमणं परिणप्रो । घिईए वज्जकुड्डुसमाणो णिच्चलो जहे व मिक्खिताणि अंगाणि तहेव अच्छइ । मप्पणा कि चि ण करेइ, परो ण तस्स किं चि वेयावच्चं करेइ । तस्स पडिलेहण-पप्फोडणा गरिथ । जहा - पादवो समविसमे पडिप्रो चिट्ठइ तहा सो वि परप्पयोगा परं चालिज्जइ । विच्छिन्ने थंडिले तस्स (स) पाण-बीय-हरियरहिए पडिवज्जइ, जत्थ कड्ढविकड्ढि किजंते तस-थावराण पीडा न भवइ, एरिसे गिरावराहे पडिवज्जइ, चउब्विहे उवसग्गे अहियासेइ । एपं पि णीहारिमं भणीहारिमं वा ॥३८१८॥ । ॥ इति णिसीहविसेसचुण्णीए एक्कारसमो उद्देसओ समत्तो । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘܘܕ ( १ ) गणि णिसिरणे 'गणि णिसिरम्मि उवही, जो कप्पे वभिओ य सत्तविहो । सो चेव णिरवसेसो, भतपरिण्णाए दसमम्मि ||३८१६॥ ( २ ) परगणे - किं कारण चंक्रमणं, थेराणं तह तवो किलंताणं : अप्पयम्मि मरणे, कालुणिया झाणवाघाते || ३८२०॥ सिणेहो पलवी होइ, णिग्गते उभयस्स वि । हवा वि वाघातो, हे सेहादि विउब्भामो || ३८२१|| ( ३ ) सिती . दव्वसिती भावसिती, अणुयोगधराण जेसि उवलद्धा । ण उड्ढगमणकज्जे, हिडिल्लपदं पसंसंति ॥३=२२॥ संजमठाणाणं कंडगाण लेस्सा ठितीविसेसाणं । उवरिल्लपरिक्कमणं, भावसिती केवलं जाव ॥३८२३॥ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे - ( ४ ) संलेहे - चत्तारि विचित्ताई, विगती णिज्जूहियाति चत्तारि । एगंतरमायामे, णातिविगि विगिट्ठे वा || ३ = २४|| एगंतरियं णिव्विबिल्लं तिगं च एगंतरे भवे विगती । णिस्सट्ठगल्लधरणं, छारादीछड्डणं चेव || ३८२५॥ ( ५ ) प्रगीय - णासेड़ गीयत्थो, चउरंगं सव्वलोगसारंगं । डम्मि य चउरंगे, ण हु सुलभं होइ चउरंगं ||३= २६ ॥ पबितिहि छड, अंतो वाहिं व णं विचिंति । मिच्छदिट्ठे सासणा य मरणं जयं तेण ॥ ३=२७|| पडिगमणादिपदोसे, तेरिच्छे वाणमंतरंते य । मोए दंडिगमाड़ी, असमाहिगती य दिडी य || ३८२=|| १ इ २२३ अंकमिते पृ ३=१४, १५, १६ अंकतमानां द्वारगाथानां या चूणिः, तस्यां यानि द्वाराणि तेषु द्वारेषु इमा सर्वा अपि गाथा यथास्थानं युज्यन्तां सुज्ञः । - सूत्र -६ . Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३८१६-३८४०] एकादश उद्देशकः ६०१ एते अण्णे य तहिं, बहवे दोसा य पच्चवाया य । एतेहिं कारणेहिं, अगीयत्थे ण कप्पइ परिण्णा ॥३८२६॥ पंच व छ सत्त सते, अधवा एत्तो वि सातिरेगतरे । गीयस्थपादमूलं, परिमग्गेजा अपरितंतो ॥३८३०॥ एगं च दो व तिण्णि व, उक्कोसं बारसे व वरिसातिं । गीयत्थपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो ॥३८३१।। गीयत्थदुल्लभं खलु, कालं तु पडुच्च मग्गणा एसा । . ते खलु गवेसमाणा, खेने काले य परिमाणं ॥३८३२।। तम्हा गीयत्थेणं, पक्यणगहियत्थसव्वसारेणं । णिज्जवतेण समाही, कायव्वा उत्तिमहम्मि ।।३८३३।। ( ६ ) असविग्गे णासेइ असंविग्गो, चउरंगं सव्वलोगसारंगं । णहम्मि य चउरंगे, ण हु सुलहं होइ चउरंग ॥३८३४॥ आहाकम्मियपाणग, पुष्पा सिंगा य बहुजणे णातं । सेज्जासंथारो वि य, उवही वि य होति अविसुद्धो॥३८३५॥ एते अण्णे य तहिं, बहयो दोसा य पञ्चवाया य । एतेहिं य अपणेहिं य, संविग्गे कप्पति परिण्णा ॥३८३६॥ पंच व छ सत्त सते, अहवा एतो वि सातिरेगतरे । संविग्गपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो॥३८३७।। अहवा - एगं च दो व तिनि व, उक्कोसं वारिसे व वरिसाई। , संविग्गपादमूलं परिमगेज्जा अपरितंतो ॥३८३८॥ संविग्गदुल्लभं खलु, कालं तु पडुच्च मग्गणा एसा । ते खलु गवेसमाणा, खेत्ते काले य परिमाणं ॥३८३६॥ तम्हा संविग्गेणं, पवयणगहियत्थसव्वसारणं । णिज्जवएण समाही, कायव्वा उत्तिमहम्मि ॥३८४०॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-६२ (७) एक्क - एगे उ कज्जहाणी, सो वा सेहा य पश्यणं चत्तं । तव्वऽण्णिए णिमित्ते, चत्तो चत्तो य उड्डाहो ॥३८४१॥ तस्सट्टगतोभासण, सेहादि अदाण सो परिच्चत्तो। दालं वा ऽदाउं वा, भवंति सेहा वि णिद्धम्मा ॥३८४२॥ कूयति अदिज्जमाणे, मारिति बल त्ति पवयणं चत्तं । सेहा य ज पडिगता, जणो अवण्णं पदाणे वि ॥३८४३॥ (८) आभोयण . परतो सयं व णचा, पारगमिच्छत्त 'णिरगमिच्छत्ते । असती खेमसुभिक्खे, णिव्वापातेण पडिबत्ती ॥३८४४॥ सयं चेव चिरं वासो, वासावासे तवस्सिणं तेण । तस्स विसेसेण या, वासासु पडिवज्जणाणि ॥३८४५॥ कंचणपुर इह सण्णा, दिवे य गुरुणा य पुच्छ कहणा य । पारणग खीररुहिरं, आमंतण संघणासणता ॥३८४६।। असिवादिकारणेहिं, वहमाणा संजता परिच्चत्ता । उवहिविणासो जे छत्ताण चत्तो सो पवयणं चेवा ॥३८४७।। (6) अन्ने - एगो संथारगतो, संलेहगते य ( ततिय ) ततियपडिसेहो। अण्णाअपुच्छअसमाही; तस्स वा तेसिं च असती य ॥३८४८॥ भवेज्ज जइ वाघातो, बितियं तत्थ धा (ठा) वते । चिलिमिणा अंतरे चेव, बहि वंदावते जणं ॥३८४६॥ पाणगादीणि जोग्गाई, जाति तत्थ समाहिते । अलंभे तस्स जा 'ठाणा, परिक्खे सो य जायणे ॥३८५०॥ असंथरं अजोग्गा वा, जोगवाही व ते भवे । एसणादि परिक्केसो, जाया तस्सा विराहणा ॥३८५१॥ १ पारतो गुरुगा, इत्यपिपाठः । २ हाणी इत्यपि पाठः । .. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३८४१-३८६३ ] . एकादश उद्देशक: ३०३ (१०) अणपुच्छ - खीरोदणे य दव्वे, तच्च दुगुच्छण्णय तहिं वितरे । परिच्छिया सुसंलेहदागमणेऽमच्चकोंकणते ॥३८५२।। कलमोदणा वि भणिते, हसति जइ ते तहिं ण पडिवज्जे । आणीय कुच्छते जति, करेमी जोग्गं ति तो वितरे ॥३८५३।। कलमोदणो य पयसा, अण्णं च सहावअणुमयं जस्स । उवणीयं जो कुच्छति, तं तु अलुद्ध पडिच्छति ॥३८५४॥ (११) परिच्द ण हु ते दव्यसंलेहं, पुच्छे पासामि ते किसं । कीस ते अंगुली भन्गा, भावं संलिहमातुरं ।।३८५॥ रण्णा कोंकणगामच्चा, दो वि णिव्विसया कया। दोद्धिए कंजियं छोढुं, कोंकणो तक्खणा गतो ॥३८५६।। हिंडितो वहिले काये, अमच्चो जा भरेति तु । ताव पुण्णं तु पंचाहणे पुण्णे णिहणं गतो ॥३८५७॥ इंदियाणि कसाये य, गारवे य किसे कुरु । णो वयं ते पसंसामो, किसं साहुसरीरगं ॥३७५८।। ( १२ ) पालोए - आयरियपादमूलं, गंतूण संति परक्कमे संते । सव्वेण अत्तसोही, कायव्वा एस उवदेसो ॥३८५६।। जह सुकुसलो वि वेज्जो, अण्णस्स कहति अप्पणो वाहिं । वेज्जस्स य सो सोउं, तो पडिकम्मं समारभते ॥३८६०॥ जाणतेण वि एवं, पायच्छित्तविहिमप्पणो णिउणं । तह वि य पागडतरगं, आलोएयव्वयं होति ॥३८६१॥ छत्तीसगुणसमपणागएण तेण वि अवस्स कायव्वा । परसक्खिया विसोही, सुठु वि ववहारकुसलेणं ॥३८६२।। जह बालो जंपतो, कज्जमकज्जं च उज्जुश्र भणति । तं तह आलोएज्जा, मायामदविप्पमुक्को उ ॥३८६३॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे उप्पण्णाणुप्पण्णा, माया अणुमग्गतो हिंतव्वा । आलोयण निंदण गरहणा ते ण पुणो वि बिइयंति ||३८६४|| श्रायारविणयगुरुकप्पमादीवणा अत्तसोही उज्जुभावो । श्रज्जव मद्दव लाघव, तुट्टी पल्हायजणणं च || ३८६५|| पव्वज्जादी आलोयणा उ तिन्हं चउक्कगविसोही । प्पणी तह परे, कार्यव्वा उत्तिम ति ।। ३८६६ || णाणिमित्तं सेवियं तु वितहं परूवियं वा वि । चेयणमचेयणं वा, दव्वं सेसेसु इमगं तु || ३८६७ ।। गाणणिमित्तं श्रद्धाणमेति श्रमे वि अच्छा तदट्ठा । णाणं च आगमेस्संति कुणइ परिकम्मणा देहे ॥ ३८६८|| पडि सेवती विगतीतो, मज्झे दव् य एसती पिवति वा । एतस्स वि किरिया, कता उ पणगादिहाणीए || ३८६६|| एमेव दंसणम्मि वि, सद्दहणा णवरि सत्य णाणत्तं । एसण इड्डी दोसे, वयंति चरणे सिया सो वा ||३८७० || हवा तिगसालंबेण दव्वमादी चउक्कमाहव्व । सेवितं निरालं, बतो य आलोय एयं तु ॥ ३८७१ ॥ पडिसेवणातियारा, जइ वीसरिया कहं वि होज्जा दि । तेसु कह वट्टियव्वं, सल्लुद्धरणम्मि समणेणं || ३८७२ || जेमे जाणंति जिणा अवराहे जेसु जेसु ठाणेसु । तेह अलोएतुं, उषट्टितो सव्वभावेणं ||३८७३|| एवं आलोएंति विसुद्धभावपरिणामसंजुतो । राहतो तह व सागारवपलिउंचणाहिरतो || ३८७४ || (१३) ठाण - itaणट्टा उज्जस चक्कजंतग्गिकम्मफरुसे य । तिक्करयगदेवता डोंबा पोंडहिगराय पहे || ३८७५|| बारग-कोद्दव-कल्लाण- करय- पुप्फ-फल- दगसमीवम्मि । आराम विगडे, नागघरे पुव्वभणिते य || ३८७६॥ [ सूत्र- हर Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य गाथा ३८६४-३८८७ ] एकादश उद्देशकः ( १४ ) वसही - पढमबितिएसु कप्पे, उद्देसेसू उवस्सगा जे तु । विहिसुत्ते य णिसिद्धा, तविवरीया भवे सेज्जा ॥३८७७।। ( १५ ) पसत्थ - इंदियपडिसंचारो, मणसंखोभकरं जहि नत्थि दारं । चाउस्सालाई दुवे, अणुण्णवेउं य ठायंति ॥३८७८।। उज्जाणरुक्खमूले, सुण्णघरणिसद्दहरियमग्गे य । एवंविधे ण ठायति, होज्ज समाहीइ वाघातो ॥३८७६।। पाणगजोगाहारे, ठवेंति से तत्थ जत्थ न उति । अपरिणता वा सो वा, अणच्चयगिद्धिरक्खट्ठा ॥३८८०॥ भुत्तभोगी पुरा जो वि, गीयत्थो वि य भावितो । संते साहारधम्मेसु, सो वि खिप्पं तु खुम्भति ॥३८८१॥ पडिलोमाणुलोमा वा, विसया जत्थ दूरतो। ठावेत्ता तत्थ से णिच्चं, कहणा जाणगस्स ते ॥३८८२।। ( १६ ) णिज्जावग - पासत्थोसण्णकुसीलठाणपरिविज्जिया उ णिज्जवगा। पियधम्मऽवज्जभीरू, गुणसंपण्णा अपरितंता ॥३८८३॥ "उव्वत्तणाइ संथारकहगवादी य अग्गदारम्मि । भत्तं पाणवियारे, कहग दिसा जे समत्था य ॥३८८४॥ जो जारिसओ कालो, भरहेरवते य होति वासेसु । ते तारिसगा ततिया, अडयालीसं तु णिज्जवगा ॥३८८।। एवं खलु उक्कोसा, परिहार्यता हवंति तिण्णे व । दो गीयत्था ततितो, असुण्णकरणं जहण्णेणं ॥३८८६।। ( १७ ) दव्वदायणा चरिमे - णवसत्तए दसमवित्थरे य वितियं च पाणगं दव्यं । अणुपुव्वविहारीणं, समाहिकामाण उवहणिउं ।।३८८७॥ १ उच्चतदारसंथा (पा०)। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ सभाष्य-चूणिके निशीथसत्र [ सूत्र - ६२ कालसभावाणुमतो, पुव्वज्झसितो सुतो व दिट्ठो वा । झोसिज्जति सो सेहा, जयणाए चउविहाहारो ||३८८|| तण्हाछेदम्मि कते, ण तस्स तहियं पवत्तते भावो । चरमं च एक भुंजति, सद्धाजणणं दुपक्खे वी ॥३८८६।। कि पत्तो णो भुत्तं मे, परिणामासुयंमुयं ।। दिट्ठसारो सयं जाओ, चोदणे से सीतता ॥३८६०॥ तिविधं वोसिरिअो सो, ताहे उक्कोसगाणि दव्याणि । मग्गंता जयणाते, चरिमाहारं पदेसेंति ॥३८६१॥ पोसिता ताई कोती, तीरपत्तरस किं ममतेहिं । वेरग्गमणुप्पत्तो, संवेगपरायणो होति ॥३८६२॥ देसं भोच्चा कोई, धिक्कारं करइ इमेहिं कम्मेहिं । वेरग्गमणुप्पत्तो, संवेगपरायणो होति ॥३८६३।। सव्वं भोच्चा कोतो, विक्कारं करइ इमेहि कम्मेहिं । वेरग्गपणुप्पत्तो, संवेगपरायणो होति ॥३८६४॥ सव्वं भोच्चा कोई, मणुण्णरसविपरिणतो भवेज्जाहि । ते चेवऽणुबंधंतो, देसं सव्वं च रोचीया ॥३८६५॥ ( १८ ) हाणि - विगतीकयाणुबंधो, आहारणुवंधणाते वोच्छेतो । परिहायमाणदव्ये, गुणवुड्डिसमाहि अणुकम्मा ।।३८६६॥ दवियपरिणामतो या, हाति दिणे तु जा तिण्णि । वेति ण लब्भति दुलभे, सुलभम्मि व होइमा जयणा ॥३८६७|| आहारे ताव छिंदाहि, गेहिंतो ण य इस्सति । जं वा भुत्तं न पुव्वं तं, तीरं पत्तो न मुच्छसि ।।३८६८॥ . ( १६ ) अपरितंते - वटृति अपरितंती, दिया य रातो य सबपरिकम्म । पडिचरगाणुगुणचरगा, कम्मरयं निज्जरेमाणा ।।३८६६।। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाज्यगाथा ३८८८-३६११] एकादश उद्देशकः जो जत्थ होइ कुसलो, सो उण हावेति तं सति बलम्मि । उज्जुत्ता सणिोगे, तस्स व दीवेंति तं सड्ढं ॥३६००॥ ( २० ) णिज्जर - देह विउगा खिप्पं, च होज्ज अहवा विकालहरणणं । दोहं पि णिज्जरा वट्टमाणे गच्छो उ एगट्ठा ॥३६०१।। कम्ममसंखेज्जभवं, खवेइ अणसमयमेव आउत्तो। अण्णतरगम्मि जोगे, सज्झायम्मि विसेसेणं ॥३६०२।। कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अण्णतरगम्मि जोगे, काउसग्गे विसेसेणं ।।३६०३।। कम्ममसंखेज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। अण्णतरगम्मि जोगे, वेयावच्चे विसेसेणं ।।३६०४।' कम्ममसंखेज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो । अण्णतरगम्मि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्ठम्मि ॥३६०५१, (२१ ) संथार - भूमि सिलाए फलए, तणाए संथार उत्तिमट्ठम्मि । दोमादि संथरंति, वितियपद अणधियासे य ।।३६०६।। तणकंबलपावारे, कोयवत्तली य भूमिसंथारे । एमेव अणहियासे, संथारगमादि पल्लंके ॥३६०७।। ( २२ ) उत्वत्तणादि - पडिलेहणसंथारे, पाणगउव्वत्तणाादाणग्गमणं । सयमेव करेति सहू, उस्सग्गाणेतरे करते ॥३६०८॥ उबत्तणणीहरणं, मत्रो उ अधियासणाए कायव्यो । संथारऽसमाहीए, समाहिहेउं उदाहरणं ॥३६०६।। काअोवचिो बलवं, णिक्खमणपवेसणं व से कुणति । तह वि य अविसहमाणं, संथारगयं तु संथारे ॥३६१०।। धीरपुरिसपण्णत्ते, सप्पुरिसणिसेविते परमरम्मे । धण्णा सिलातलगता, णिरावयक्खा णिवज्जंति ॥३६११॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-६२ जई ताव सावताकुलगिरिमंदरविसमकडगदुग्गेसु । साधिंति उत्तिमटुं, धितिधणियसहायगा धीरा ॥३६१२।। किं पुण अणगारसहायएण अण्णोण्णसंगहबलेण । परलोइयं ण सक्कइ, साहेउं उत्तिमो अट्ठो ॥३६१३॥ जिणवयणमप्पमेयं, महुरं कण्णाहूति सुणेतेणं । सक्का हु साहुमज्झे, संसारमहोयहिं तरिउं ॥३६१४॥ सव्वे सव्वद्धाते, सव्वणू सव्वकम्मभूमीसु। सव्वगुरू सव्वहिता, सव्वे मेरुम्मि अभिसित्ता ॥३६१॥ सव्वाहि व लद्धीहिं, सव्वे वि परीसहे पराइत्ता। सव्वे वि य तित्थगरा, पाओवगया तु सिद्धिगता ॥३६१६।। अवसेसा अणगारा, तीतपदुप्पण्णणागता सव्वे । केई पाओवगया, पच्चक्खाणिगिणिं केइ ॥३६१७।। सव्वाअो अज्जातो, सव्वे वि य पढमसंघयणवजा । सव्वे य देसविरता, पच्चक्खाणेण उ मरंति ।।३६१८॥ सव्वसुहप्पभावातो, जीवियसारातो सव्वजणितातो । आहारातो ण तरणं, ण विज्जती उत्तिमं लोए ॥३६१६॥ विग्गहगते य सिद्धे, मोत्तुं लोगम्मि जत्तिया जीवा । सव्वे सव्वावत्थं, आहारे हुंति उवउत्ता ॥३६२०॥ तंसारिसगं रयणं, सारं जं सव्वलोगरयणाणं । सव्वं परिचयित्ता, पाओवगता परिहरंति ॥३६२१।। एवं पाओवगम, णिप्पडिकम्मं जिणेहि पण्णत्तं । जं सोऊणं खमतो, ववसायपरक्कम कुणइ ।।३६२२।। ( २३ ) सारण - केई परीसहहिं, बाउलिउवेतणुड्डतो वा वि! अोभासेज्ज कयाती, पढम बितियं च आसज्ज ॥३६२३॥ गीयत्थमगीयत्थं, सारेत्तुं मतिविसोहणं काउं । तो पडिबोहिय (छ) अट्ठा, पढमे पगयं सिया बितियं ॥३६२४|| Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३६१२-३ एकादश उद्देशक: ३०६. ( २४ ) कवय - परीसहचमू, जोहेयव्या मणेण कारणं । तो समरदेसकाले, कवयतुल्लो उ आहारो ॥३६२५॥ संगामदुगपरूवणवेडगएगसरउग्गहो चेव । असुरसुरिंदावरणं, संवुभमं रहियकणगस्स ॥३६२६।। लोवए पवए जोहे, संगामे पंथिए ति य । अाउरे सिक्वते चेव, दिद्रुतो कहते ति य ॥३६२७॥ संगामे साहसितो, कणतेण तत्थ आहतो संतो। . सत्तुं पुन्य विलग्गं, पाहणइ उ मंडलग्गेणं ॥३६२८॥ रुक्खविलग्गो रुधितो, पहणइ कणएण कूणियं सीसे । अणहो य कूणिो से, हरति सिरमंडलग्गेणं ॥३६२६॥ सरीरमुज्झयं जेण, को संगो तस्म भोयणे । समाहिसंवरणा' हउं, दिज्जती सो उ अंततो ॥३६३०।। सुद्ध एसित्तु ठावेंति, हाणी उ वा दिणे दिणे । पुबुत्ताए उ जयणाए, तं तु गोविति अण्णहि ॥३६३१।। ( २५ ) चिंधकरणं - आयरितो कुंडिपदं, जे मूलं सिद्धिवासबसहीए। चिंधकरण कायव्वं, अचिंधकरणे भवे गुरुगा ||३६३२॥ मरीरे उपकरणम्मि य अचिंधकरणम्मि सो उ रातिणिो । मग्गेण गवसणाते, गामाणं घायणं कुणति ॥३६३३॥ (२६ ) अंतोवहि - न पगामेज्ज लहुत्तं, परिमहउदतेण होज्ज वाघातो । उप्पण्णे वाघाते, जो गीतत्थाण उवाघातो ॥३६३४॥ (७) वाघाते - दुविधा णायमणाया दुविधा णाया य दंडमादीहिं । मयगमणपेमणं वा, खिसणे चउगे अणुग्धाता ।।३६३५॥ १ संधगा ( पा० )। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० सभाष्य - चूर्णिके निशीथमूत्रे सपरक्कमे जो उगमो, णियमा अपरक्कमम्मि सो चैत्र । पुत्र्वी रोगायंकेहिणवर अभिभूतो वालमरणं परिणतोय || ३६३६ || ( इगिणी ) - पर पडिकम्मं, भत्तपरिण्णा य दो अणुष्णाया । परिवज्जियाय इंगिणि चउव्विहाहारविरती य || ३६३७ || ठाण- णिसीयण- तुयट्टणमित्तिरयाई जहा समाधीते । सयमेव यसो कुणती, उवसग्गपरीसहऽधियासी ॥ ३६३८ || संघयणधित जुत्तो, णत्रणवपुव्वासु तेण संगावा । इंगिणि पावगमं, पडिवज्जति एरिसो साहू || ३६३६|| पायोवगम - पव्वज्जादी काउं, यब्वं जाव होति वोच्छित्ती । पंच तुलऊण य सो, पात्रोवगमं परिणतोय || ३६४०|| णिच्चलणिप्पडिकम्मे, णिक्खिवते जं जहिं जहा अंगं । एयं पातोवगमं णीहारं अणीयहारिं वा ॥ ३६४१ ॥ पादोवगमं भणियं समविसमे पादवो य जह पडितो । णवरं परप्पोगा, कंपेज्ज जहा चलतरुस्स || ३६४२॥ तस पाण- बीयरहिते, वोच्छिष्ण-वियार थंडिलविमुद्धे । णिसाणिसे, भवंति भुज्जयं मरणं || ३६४३॥ पुव्यभवणं देवी साहरति कोति पाताले । मा सो चरमसरीरो, ण वेदणं किं चि पाविहिसि || ३६४४ || उप्पण्णे उवसग्गे, दिव्वे माणुम्यते तिरिक्खे य | सव्वे पराजणित्ता, पादोवगता परिहरति || ३६४५|| जह णाम असीकोसी अमी वि (कोसी विदो वि) खलु । इसमें अणी देही. अण्णो जीवो त्ति मण्णंति ॥ ३६४६ || पुव्वावरदाहिणउत्तरे हिं वानेहि आवहिं । जह ण वि कंपड़ मेरु, तह ते भाणाओ ण चलति || ३६४७॥ परमम्मिय संघरण. ता मेलमामाणा । तेसिपि यवच्छेदो, चोहमपुत्रीण वोच्छं || ३६४ = || [ मूत्र -६२ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३६३६-३६६१] एकादश उद्देशकः दिव्यमणुया उ दुगतिगस्स पक्खेवगंसि श्राकुज्जा । वोसडचत्त देहो, ग्रहाउ कोति पालेजा || ३६४६॥ लोमो पडिलोमो, दुगं तु उभयसेहिया तिगं होंति । हवा सचित्तमचित्तं दुगं तिग मीसगसमे य || ३६५०|| पुढवि-द-गणि- मारु - वणस्सति तसेसु कोति साहरति । बोचत्तदेहो, हाउयं को उ पालेज्जा || ३६५१ ।। एतणिज्जरा से, दुविहा आराहणा धुवा तस्स अंतकरया व साहू, करेज्ज देवा पवत्तिं वा || ३६५२|| मज्जणगगंधपुष्फोवरपरियारणं सया कुज्जा | बोसचत्त देहो, हाउयं कोति पालेज्जा || ३६५३ || पुव्वभवियपेम्मेणं, देवो देवकुरुउत्तरकुरासु । कोई तु साहरेज्जा, सव्वसुहो जत्थ अणुभावो || ३६५४|| पुत्र्वभविम्मेणं, देवो साहरति णागभवणम्मि | जहियं इड्डा कंता, सच्चसुहा होंति अणुभावा ||३५|| पुण्यभवियरेणं, देवो साहरति कोति पायाले | मासो चरिमसरीरो, ण वेणं किं चि पाविहिति || ३६५६ || बत्तीस खणधरो, पादोवगतोय पागउसरीरो । पुरिमद्दे सिणिकपणा रोयविदिष्णा ण गेहेज्जा || ३६५७॥ मज्जणग-गंध- पुष्फोवयारपरियारणं सया कुज्जा | बोम - चत्तदेहो, अहाउयं कोति पालेज्जा || ३६५८ || वंगसो पडिवोsयाए, अङ्कारसविरतिसेकुमलाए । बावतरीकलापंडियाए चोमडिमहिलागुणेहिं च || ३६५६|| सोती व सांता, अहारसे होंति देसभामात्र । इगतीस रविसेमा, कोपल्लं एक्कवीमतिहा || ३६६० || कण्णम्मि रहस्मे, रातेणं रायदिष्णपसराते । तिमिगहिं व उदहीण खोभितो जा मणो मुणिणो || ३६६१ || ३११ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-६२ जाहे पराइया सा, ण समत्था सीलखंडणं काउं। णेऊण सेलसिहरं, तो से सिलं मुंचते उवरिं ॥३६६२॥ एगंतणिज्जरा से, दुविधा आराहणा धुवा तस्स । अंतकिरियं व साधू, करज्ज देवोववायं वा ॥३६६३॥ मुणिसुव्वयंतवासी, खंदगदाहे य कुंभकारकडे । देवी पुरंदरजसा, दंडति पालक्कमरुते य ॥३६६४॥ पंचसया जातेणं, रुद्रुण पुरोहितेण मिलियाति । रागहोसतुलग्गं, समकरणं चिंतियं तेहिं ।।३६६५॥ जंतेण कतेण व सत्थेण व सावतेहि विविधेहि । देहे विद्ध सेते, ण य ते ठाणाहि उ चलंति ।।३६६६।। पडिणीयता य केई, अग्गिं सो सव्वतो पदेज्जाहिं । पादोगमणसंतो जइ चाणक्कस्स व करीसे ॥३६६७।। पडिणीयया य के ई, वम्मंसे खेलतेहि विणिहित्ता । महु-घय-मक्खियदेहं, पिपीलियाणं तु देजाहि ॥३६६८॥ अह सो विवायपुत्तो, वोस? णिमिट्ट चनदेहाउं । मोणियगंधेहि पिपीलिया चालंकिनो धीरो ॥३६६६।। जह सो कालासगवेसिउ विमोग्गल्लसेलसिहरम्मि । खतितो विउव्विऊणं, देवेण मियालरूयेणं ॥३६७०॥ जह मो वंसिपदेमे, बोमिट्ठ णिमिट्ठ चत्तदेहो उ । वंमीपातेहिं विणिग्गतेहिं आगाममुक्खित्तो ॥३६७१।। जहऽवंतीसुकुमालो, वोमट्ठ निसट्ट चत्तदेहो उ । धीरो मलिलयाए, मिवाते खतिओति रत्तेणं ।।३६७२।। जह ते गोठ्ठट्ठाणे, बोस? णिमिट्ट चत्तदेहागा । उदगेण वुज्झमाणा, वियरम्मि उ संकमे लग्गा ॥३६७३॥ वावीममाणुपुब्बिं, तिरिक्खमणुया व असणया (ने)। विमयाणुकम्मरक्खा, ण करेज्ज देवा व मणुया वा ॥३६७४॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३६६१-३६७ एकादश उद्देशक: ३१६ जह सा बत्तीसघडा, वोसडणिसट्टचत्तदेहागा । धीरा गतेण उदीविते णदिगलम्मि उ ललिया ॥३६७४॥ एवं पादोवगमं णिप्पडिकम्मं तु व णीणयं सुत्ते । तित्थगर-गणधरेहि य, साहूहि य सेवियमुदारं ॥३६७५॥ ।। इति निशीथभाष्ये एकादशमोद्देशकः परिसमाप्तः ।। "श्रीराजनगरस्थविद्याशालाभाण्डागारसत्कानिशीथभाष्यत्रतावेवेमाः प्रक्षिप्ता गाथा:, अस्मत्पावं. वतिनीषु सर्वामु अन्यामु भाष्यप्रतिषु नेमाः, प्रतः सम्भावयामश्च भारतवर्षेपि सर्वमाण्डागारवर्तिनिशीथभाष्यप्रतिषु कस्यामेवे मा गाथा, न तु सर्वासु ।" इति सूचितं टाइप अंकितप्रती श्री विजयप्रेम-सूरिभिः । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश उद्देशक : भणि एक्कारसमो | इयाणि वारसमो भन्नइ । तस्सिमो संबंधी - जति संसिउं ण कष्पति, अतिवातो किमु परस्स सो कातुं । बद्धस्स होज्ज मरणं, भणिता य गुरू लहू वोच्छं || ३६७६ || कि " संस" त्ति पसंसा । गिरिपडणाई बालमरणा पाणाइवाउ ति काउं जइ संसिउं ण कप्पड़, पुतो ग्रीवा परस्स काउं कप्पिस्सइ ? सुतरां न कल्पतेत्यर्थः । बंधो य इवायहेऊ । बद्धस्स य मरणं वेज्ज | प्रो सुत्तं भन्नइ । ग्रहवा संबंधो नथिमं पढमं सुत्तं - जे भिक्खु कोलुपडियाए अण्णयरिं तमपाणजाई - • चउगुरु भगिया, इयाणि चउलहं वोच्छं || ३६७६ ।। तण-पासएण वा मुंज- पासएण वा कटु पासएण वा चम्म- पासएण वा बेत- पासएण वा सुत्त - पासएण वा रज्जु- पासएण वा बंधति, तं वा मातिज्जति ||०||१|| जे भिक्खु को लुणपडिया अण्णयरिं तसपाणजाई - तण- पासएण वा मुंज- पासएण या कटु पासएण वाचम्म- पासएण वा वेत- पासएण वा सुत्त पासएण वा रज्जु-पासएण वा बद्ध ल्लयं वा मुंचति, चंतं वा सातिज्जति ||०||२|| भवस्तू पुत्र "कोलणं" कारुण्यं श्रणुकना, "पडियाए" नि प्रतिज्ञा, अनुकंपाप्रतिज्ञया इत्यर्थः । वसतीति श्रम! ते च 'तेजो वायु हीन्द्रियादयश्च प्राणिनो त्रमा । एत्थ नेऊवाऊहि पात्रिका | जागोजाइगाहिं ग्रहिगारो | नगा दव्भाइया, पासो निबंध । दभा रज्जू इत्यर्थः । गये नया गहिया कामगहाणो नियलिखोडादिया गहिया । एवमाहिं तम् उई चेव । नस्स ४ मत्वा प्र० २०१४ | Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र २-३ इमा सुत्तफासिया - तसपाण तण्णगादी, कलुणपरिणाए जो उ बंधेज्जा । तणपासगमादीहिं, मुंचति वा आणमादीणि ॥३६७७॥ गतार्था इह सेज्जगसेज्जायराई खलगखेत्ताई वच्चंता भणेज्ज - अोहाणं ता अज्जो, इहई देज्जा व तण्णगादीणं । अम्हे तुझं इहयं, भायणभूता परिवसामो ।।३६७८॥ "प्रोहाणं' ति उवयोगो, “प्रज्जो" ति प्रामंत्रणे, "इह" ति घरे। "तन्नगाईणं" प्राइसहायो (वाइसु विविहोवक्खरेसु च, एवं भणतेस साहुणा वत्तवं - पच्छद्धं । “भूत" शब्द: भायणतुल्यवाची। जहा 'अलिंदाइभायणं गिहतो बाहिरे वा ठियं न किं चि धरवावारं करेति तहेव अम्हे इह परिवसामो ॥३६७८॥ वसहिग्गहणकाले अन्नत्थ वा वसंते जइ गिही कि चि विज्ज पुच्छिज्जा तत्थिमं भासेज्जा न वि जोइसं न गणितं, ण अक्सरे णेव किं चि र (व) क्खामो। अप्पस्सगा असुणगा, भायण-खंभोवमा वसिमो ॥३६७६।। धरे किं चि सुणगाइणा अवरभंते अपम्सगा अम्हे, गिहिणी संदिसंतस्स अमुणगा अम्हे, झाणोवगया या अण्णं ण पस्सामो सुणेमो वा । सेसं कंठं ॥३६७९॥ "२तनगगहणं' किमर्थ चेत् ? थणजीवि तन्नगं खलु, तण्णगगहणं तु तं बहु अवातं । सेसा वि सूइया खलु, तण्णगगहणेण गोणादी ।।३६८०॥ बालवच्छं तण्णगं । तं थणजीवी बहु अवायं च, अतः तन्नगगहणं कयं । मुत्ते तन्नगग्गहणायो य सेसा वि गोणाई सम्वे सूइया, न बंधियव्वा इत्यर्थः ।।३६८०॥ । अह बंधइ तो प्राणाइया दोसा । इमे य अन्न य - अचावेढण मरणंतराय फडत आतपरहिंसा । सिंगखुरणोल्लणं वा, उड्डाहो भद-पंता वा ॥३६८१॥ प्रईब ग्रावेढियं परिताविजइ मरइ वा, प्रतराइयं च भवइ । बद्धं च तडफहितं अप्पाणं परं वा हिंसइ । एसा संजमविराहणा । तं वा बझतं मिगेण खुरेण वा काएण वा साहुं गोलेज्जा । एवं साहुस्स प्रायविराहगा । तं च दटुं जगो उड्डाहं करेज्ज - "अहो ! दुट्ठिधम्मा परतत्तिवाहिणो"। एवं पवयगोवघाप्रो । भद्दपंतदोसा वा भवे - भदो भगाइ - "अहो! इमे साहवो अम्हं परोक्खाण घरे वात्रारं करेंति ।" पंतो पुणो भगेज्जा - "दुविधम्मा चाडुकारिणो कीम वा अम्हं वच्छे बंधति मुयंति वा ।" दिया वा गो वा णिच्छुभेज्जा, वोच्छेयं वा करेज्ज ॥३६८१।। एए बंधणे दोसा। इमे मुयणे - छक्काय अगड विसमे, हिय णट्ठ पलाय खईय पीते वा । जोगक्खेम वहति मणे बंधणदोमा य जे वुत्ता ॥३६८२।। १ जलपात्रं, गृहांगणं वा । २ गा० ३६७८ । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३६७७-३६८६ ] द्वादश उद्देशक: darsarai छक्कायविराहणं करेज्ज, अगडे विसमे वा पडेज्ज, तेणेहिं वा हीरेज्ज, नट्ठ अडवीए रुलंतं श्रच्छेज्ज, मुक्कं वा पलायितं पुणो बंधिउ न सक्कइ, वृगादिसणप्फडे (ए) हि वा खज्जइ, मुक्कं वा माऊए थणात् खीरं निएज्जा । जइ वि एमाइदोसा न होज्ज तहावि गिहिणो वीसत्था अच्छेज्ज, म्हं घरे साहवो सुत्थदुत्यजोगक्षेमवावारं वहति, "मण" त्ति एवं मणेण चितिता श्रणुत्तसत्ता प्रप्पणी कम्मं करेंति । श्रह तद्दोसभया मुक्कं पुणो बंधति । तत्थ बंधणे दोसा जे वृत्ता ते भवंति । जम्हा एते दोसा तम्हा ण बंधति मुयंति वा ॥ ३६८२|| कारणे पुण बंधणणं करेज्ज - बिइयपदमणप्पज्के, बंधे विसमगड गणि आऊ, सण फगादीसु जाणमवि ॥ ३६८३ || विकोविते व अप्प | storysो बंधइ, श्रविकोवितो वा सेहो । अहवा विकोविप्रो भो इमेहि कारणेहि बंधति विसमा अगड प्रगणि श्राऊसु मरिज्जिहिति त्ति, वृगादिसणप्फएण वा मा खज्जिहिति एवं जागो वि बंधइ ॥ ३६८३ ॥ - "मुचइ" तस्स इमं बितियपदं - बंध-मुय इमा जयणा - बितियपयमणप्पज्झे, मुंचे आवकोविते वि अप्पज्झे | जाणते वा वि पुणो, बलिपास गणिमादीसु || ३६८४|| गोत्ति बंधणी । तेण श्रईव गाढं बद्धो मूढो वा तडफडेइ मरइ वा जया, तथा मुंचइ । गणित्ति पलीवणगे बद्धं मुंचेइ, मा डज्झिहिति ।।३६८४ ।। तेसुं असहीणेसुं, हवा साहीणऽपेच्छणे जयणा । केणं बद्धविमुक्का, पुच्छति न जाणिमो केणं ॥ ३६८५|| ३१७ " तेसु" त्तिजया घरे गिहत्था असाहीणा तथा एयं करेइ, साहीणेसु वा श्रपेच्छमाणे मिगेसु । ग्रह गिही पुच्छेजा - केण तन्नगं बद्धं मुक्कं वा तत्थ साहूहि वत्तव्वं न जाणामो ग्रहे । । ३६८५ ।। जे भिक्खू अभिक्खणं अभिक्खणं पच्चक्खाणं भंजइ, भंजंतं वा सातिञ्जति ॥ ० ॥३॥ अभिवखं णाम पुणो पुणो, नमोक्काराई पञ्चक्खाणं भजतस्स चउलहं आणादियाय दोसा | इमो सुत्तफासो - पच्चक्खाणं भिक्खू, अभिक्खणाऽऽउट्टियाए जो भंजे । उत्तरगुणणिष्फण्णं, सो पावति आणमादीणि ॥ ३६८६|| - उट्टिया णाम भोगो • जानान इत्यर्थ:, नमोक्काराई उत्तरगुणपच्चक्खाणं, पंचमहवया मूलगुणपच्चक्खाणं । इह उत्तरगुणपच्चक्खाणेणाहिगारो || ३६८६|| Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ इमा भिक्खसेवा - सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रं सकि भंजणम्पिलहुआ, मासो वितियम्मि सो गुरू होति । सुत्तणिवातो पतिए, चरिमं पुण पावती दसहिं ॥ ३६८७॥ "सकि" ति एक्कसि भंजमाणस्स मासलहुँ, बिइयत्राराए मासगुरु, तइयवाराए चउलहुं, एत्थ सुवितो । चत्यवारे चउगुरु । पंचमत्रारे । छंटुंवारे र्फा । सत्तमवारे छेप्रो । प्रटुमबारे मूलं । नवमे प्रणव । दसमवारे चरिमं - पारंचीत्यर्थः ॥ ३६८७ ।। प्राणाइया य दोसा । इमे य - अप्पच वण्णो, पसंगदोसो य प्रदता धम्मे । माया य मुसावातो, होति पइण्णाड़ लोवो य || ३६८८ ॥ जहा एस नमुक्काराइ भंजइ तहा मूलगुणपच्चक्खाणं पि भंजइ, एवं प्रगीयगिहत्थाण य प्रपच्चयं जइ । वयं ते येन स वः तत्प्रतिपक्षः अवर्णः सो अपणो साहूणं च । पच्चक्खाणभंगो पसंगेण मूलगुण 自 भंजइ । पच्चक्खाणधम्मे समणधम्मे वा प्रददत्तं कथं भवइ । अन्नं पन्नं पडिवज्जड अन्नं वा करेइति माया । अन्नं भासइ अन्न करेइ त्ति मुसावायो । एते दो कि जुगलम्रो लब्भंति । पोरिसिमाइ -पइष्णाए य लोवो को भवइ, एसा संजमविराणा । पच्चक्खाणं भंजइति देवया पट्ठा खित्ताइ करेज्ज ।। ३९८८ ।। कारणे पुण अपुन्न े वि काले भुजइ - बियपदमणप्पज्झे, भंजे अविकविते व अप्प | कंतारोमगिलाणे. गुरूणियोगा य जाणमवि || ३६८६|| [ सूत्र ३-४ अपको सेहो वा अजाणतो भुजइ नत्थि दोसो । "कंनारं" ति श्रद्धाणपडिवन्नस्य पच्चक्खाए पच्छा भतं पडुप्पन्नं दूरं च गंतव्वं अंतरे य प्रत्रभत्तसंभवो नत्थि एवं भुजतो मुद्धो । "ओम" विकल्लं ण भविस्सइ त्ति साहारणट्टा भुंजइ । "गिलाणो " वि विगइमाइ पच्चक्खायं वेज्जुवएसा भुजइ । श्रयिग वाहिमि वा राम्रो भुजइ । श्ररिश्रवसेण वा तुरियं कहिं चि गंतव्व, तत्थ पोरिसिमाइ पुणे भोत्तुं गच्छइ । खमत्रो वा मासाइखमणे कते श्रईव किलंतो अपुष्णे चेव भुंजाविज्जइ । उप्परविगइलंभे निव्वितिए संदिसाविजइ, दुब्बलसरीरस्स वा विगइपञ्चकखाणे विगई दिज्जइ । उस्सूरे सेहो दुक्खं गमिस्सइ ति काउं नमोक्कारे चेव वितरंति । खीराइया वा विणा सिदव्वं चिरकालमट्ठाहिं प्रपुष्णं पोरिसिमाइपच्चक्खाणे णमोक्कारे चेत्र वितरति ॥ ३६८६ ॥ खमणेण खामियं वा. णिव्वीतिय दुब्बलं व णाऊणं । उस्सूरे वा सेहो, दुक्खमठाई च वितरंति || ३६९० ॥ . Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३६८७-३६६५] द्वादश उदेशक: ३१६ जे भिक्खू परित्तकायसंजुत्तं आहारेइ अाहारेंतं वा सातिज्जति ।।मु०॥४।। परित्तवणस्सइकाएणं संजुत्तं जो असणाई भुजइ तस्स च उलहुं ग्राणाइयो य दोमा भवंति । जे भिक्खू असणादी, भुंजेज्ज परित्तकायसंजुत्तं । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराहणं पावे ॥३६६१॥ कंठा इमा संजमविराहणा - तं कायपरिचयती, तेण य चत्तेण संजमं चयते । अतिखद्ध अणुचितेण य, विसूइगादीणि आताए ॥३६१२॥ तमिति परित्तकायं परिच्चयइ न रक्षति, व्ययतीत्यर्थः । तेण य परिचतेण संजमो वहियो - विराहियो त्ति वुत्तं भवति । एस संजमविराहणा । तेण य तिगदुगसंजुत्तेण प्रइप्पमाणेण भुत्तेण अणुवचिएण य अजिन्नविसूइयाए प्रायविराहणा ||३६६२।। असणाइसु इमे उदाहरणा - भूतणगादी असणे, पाणे सहकारपाडलादीणि । खातिमे फलसुत्तादी, साइमे तंबोलपंचजुयं ॥३६६३॥ . भूततणं (भूतृणं) अज्जगो भन्नइ. तेण संजुत्तं असणं भंजइ, प्राइसद्दानो करमद्दियादिफला मूलगपत्तं प्रासूरिपत्तं च, अन्ने य बहु पत्तपुप्फफला देसंतरपसिद्धा । पाणगं – सहगार-पाडलानीलुप्पलादीहिं संजुनं पिवइ । खाइमे सुत्ते - अंबफला पेसिमादिएहि सह खायइ, कवि वचाइ वा लोणसहियं । साइमे - जाइफलं कक्कोलं कप्पूरं लवंग पूगफलं -ए ते पंच दन्वा तंबोलपत्तमाहिया खायइ । एत्थ तिनि सचित्ता, तिनि अचित्ता । अहवा - पूगफलं खदिरवत् तं न गणिज्जइ । बीयपूरगतया पंचमा छुमइ, स। दुविहा - सचित्त। अचित्त। संभव। अहवा - संखचुन्ना पूगफलं खइरो कप्पूरं जाइपत्तिया एते पंच प्रचित्ता, एतेहि सहियं तंबोलपनं खाएइ ।।३६६३॥ कारणे परित्तसहियं भुजेज्जा - बितियपदं गेलण्णे, अद्धाणे चेव तह य श्रोमम्मि । एएहि कारणेहि, जयण इमा तत्थ कायया ॥३६६४॥ गेलने वेज्जुबएसा, प्रद्धाणे अन्नम्मि अलब्भंते, अोमे प्रसंथरता एमाइकारणेहि इमा जयणा कायव्वा ॥३९६४॥ ओमे तिभागमद्ध, तिभागमायंबिले चउत्थाई । णिम्मिस्से मिस्से वा, परित्तकायम्मि जा जयणा ॥३६६५॥ म स्सं सुद्धं, मिस्सं परित्तकायसंजुत्तं, सेसं जहा पेढे तहा वत्तव्वं ।।३६६५|| Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-५ जे भिक्खू सलोमाइं चम्माई अहिडेइ, अहिडेतं वा सातिजति ।मु०॥५॥ सह लोमेहि सलोमं, अहिटेइ नाम "ममेयं" ति जो गिण्हइ तस्स चउलहुं । चम्मम्मि सलोमम्मी, ठाण-णिसीयण-तुयट्टणादीणि । जे भिक्खू चेतिज्जा, सो पावति आणमादीणि ॥३६६६॥ सलोमे चम्मे जो ठाणं चेतेइ करेति णिसीयइ तुयट्टइ वा सो प्राणाइदोसे पावति ॥३६६६।। इमं च से पच्छित्तं - गिण्हते चिट्ठते, निसियंते चेव तह तुयद॒ते । लहुगा चतु जमलपदा, चरिमपदे दोहि वि गुरुगा ॥३६६७।। गेण्हणादिएसु चउसु ठाणेसु चउलहुगा चउरो भवंति । जमलपयं ति कालतवा, तेहिं विसिट्टा दिति । चरिमपयं त्ति तुयट्टणं, तम्मि चरिमपदे दोहिं वि कालतवेहिं गुरुगा इत्यर्थः ॥३६६७॥ अन्ने य इमे दोसा - अविदिण्णोवहि पाणा, पडिलेहा वि य ज सुज्झइ सलोमे । वासासु य संसज्जति, पतावणऽपतावणे दोसा ॥३६६८॥ तित्थकरेहिं अविदिण्णोवही, रोमंतरेसु य पाणा सम्मुच्छंति, सरोमे पडिलेहणा ण सुज्झइ, कुंथुपणगाई तेहिं वासासु संसज्जति । जइ संसज्जणभया पतावेइ तो अगणिविराहणा। अह न पयावेइ तो संसज्जति । उभयथा वि दोसा ।।३६६८॥ सलोमदोषदर्शनार्थं झुसिरप्रतिपादनाथं च इदमाह - अजिण सलोमं जतिणं, ण कप्पती झुसिर तं तु पंचविधं । पोत्थगतणपणए या दूसदुविध चम्मपणगं च ॥३६६६।। अजिनं चर्म । जतयो ति साहवो । तं तेहिं न कप्पइ, झुसिरदोषत्वात् । शिष्याह - किं मुसिरं ? कइविहं वा ? के वा तत्थ दोसा ? प्राचार्याह - मुसरं पोल्लं जीवाश्रयस्थानमित्यर्थः । तं इमं पंचविहं - पोत्थगपणगं, तणपणगं, पणगपणगं, पणगशब्दः प्रत्येकं योज्यः, दूसं वत्थं, तत्थ दो भेदा - अपडिलेहपण गं दुप्पडिलेहपणगं च, चम्मणपणगं च पंचमं ॥३888 टमं पोत्थगपणगं - गंडी कच्छवि मुट्ठी, संपुड फलए तहा छिवाडी य । साली वीही कोदव, रालगऽरण्णे तणाई च ।।४०००॥ दीहो बाहल्लपुहत्तेण तुल्लो चउरंसो गंडीपोत्यगो। अंते तणुप्रो, माझे पिहुलो, अप्पबाहल्लो कच्छवी। चउरंगुलदीहो वृत्ताकृती मुट्ठीपोत्थगो । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३९६६-४००५ ] द्वादश उद्देशकः ३२१ अहवा - चउरंगुलदीहो चउरस्सो मुट्ठिपोत्थगो। दुमाइफलगसंपुरं दीहो हस्सो वा पिहलो अप्पवाहल्लो छेवाडी। अहवा - तणुपतहिं उस्सीग्रो छेवाडी। रालो त्ति कंगुपलालं, सामगाइ पारनतणा ।।४००२॥ अप्पडिलेहियदूसे, तूली उवहाणगं च नायव्वं । गंडुवहाणाऽऽलिंगिणि, मसूरए चेव पोत्तमए ॥४००१।। 'एगवहुकमेरगा तूली, भक्कडोडगाइतूलभरिया वा तूली, रूयादिपुग्नं सिरोवहाणमुवहाणगं, तस्सोवरि गंडपदेसे जा दिज्जद्द सा गंदुवधाणिगा, जाणुकोपरादिसु सा प्रालिंगिणी, चम्मवत्थकतं वा बट्टख्यादिपुन्नं विवसणं मसूरगो १४००१॥ इमं दुप्पडिलेहियपणगं - पल्हनि कोयवि पावारणवतए तह य दाढिगाली उ । दुप्पडिलेहियदूसे, एवं वितियं भवे पणगं ॥४००२॥ पल्हवी गयात्थरणी जे य वड्डुत्थरगादिसू इणमा भेश । मट्ठरोमा प्रभुत्तरोमा या ते सधे एत्य निवयंति । कोयवगो वरक्को, प्रतो में अग्ने वा वि भेदा विउलरोमा कंबलादि ते सवे एत्य निवतंति । पावारंगो फुल्लवडपात्रिगादि । अत्थुरणं पाउरणं वा प्रकत्तियउन्नाए नवयं कज्जति । घोयपोत्ति दाढीयाली विरलिमादिभूरिभेदा सव्वे एत्य निवतंति ॥४००२।। अय-एलि-गावि-महिसी, मिगाणमजिणं च पंचमं होति । तलिगाखल्लगवज्झ, कोसगकत्ती य बितिएणं ॥४००३।। अधवा - बितियाऽऽएसेण पच्छद्धगहियं चम्मपणगं ।।४००३॥ इयाणि झुसिरदोसा भणंति । तत्थ पढमं पोत्थगे इमा दारगाहा - पोत्थगजिणदिद्रुतो, वग्गुरलेवे य जालचक्के य । लोहित लहुगा आणादि मुयण संघट्टणा बंधे ॥४००४।। "झुसिरो" त्ति पोत्यगो ण घेत्तव्यो, जिणेहिं तत्थ बहुजीयोवघातो दिट्ठो । इमो दिÉतो " वग्गुर" अस्य व्याख्या - चउरंगवग्गुरा पारेवुढो पि फेटेज्ज अवि मिश्रोऽरण्णे । सीर खउर लेवे वा, पडिओ सउणो पलाएज्जा ॥४००५॥ चउरंगिणी सेणा- हत्थी अस्सा रहा पाइक्का, स एव वागुरा,तया परिवृतो आहेडगारूढेहि समंताद्वेष्टित इत्यर्थः । अवि तत्थ मिगो छुट्टेज । न य पोत्थगपत्तंतरपविट्ठा जीवा छुट्टेज्जा । "3लेवे" त्ति १ खंडा। २ प्रदीप्तरोमा इत्यर्थः। उप्लुतरोमा - इत्यपि पाठः। ३ गा० ४००४ । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ सभाष्य-चूणिके निशीषसूत्र [ सूत्र-५ सउणो पक्खी, सो मच्छिगादि, सो खीरे पडिपो, चिक्कणे वा अनंतरं खउरे, अन्नत्य वा अवश्रावणादिचिक्कणलेवे पडितो पलायेन्नश्येदित्यर्थः । न च पुस्तकपत्रान्तरे ॥४००५।। "'जाले" ति अस्य व्याख्या - सिद्धत्थगजालेण व, गहितो मच्छो वि निष्फिडिज्जाहि । तिल कीडगा वि चक्का, तिला व ण य ते ततो जीवा ॥४००६।। सिद्धत्थगादि जेण जालेण घेप्पंति तं सिद्धत्थगजालं, अवि तत्य मत्सो न घेप्पेज्ज । ण य पोत्थगे जीया ण घिपिज्जा । “२चक्के" ति - अवि तिलपीलगचक्के तिला कोडगा वा छुट्टेज्जा, न य पोत्थगे जीवा ॥४००६॥ "3लोहिय" त्ति अस्य व्याख्या - जति तेसिं जीवाणं, तत्थ गयाणं तु लोहितं होज्जा। पीलिज्जते धणियं, गलिज्ज तं अक्खरे फ़सितुं ॥४००७॥ "तत्थ गयाणं ति कंथुमादिजोणिगाणं जहा तिलेसु पीलिज्जतेसु तेसु वेल्लं णीति तहा यदि वेसि जीवाणं गहिरं होज्जा, तो पोत्थगबंधणकाले तेसि जीवाणं सुदुपीलिज्जताणं अक्सरे फुसिउं रुहिरं गलेज्ज॥४००७॥ "लहुग" त्ति अस्य व्याख्या जत्तियमेत्ता वारा, मंचति बंधति य जलिया वारा। जति अक्खराणि लिहति व, तति लहुगा जं च आवज्जे ॥४००८॥ बंधणमुयणे संघट्टणादि पावज्जति तं च पच्छित्तं । सेसं कंठं ॥४००८।। इयाणि तणपणगादिसु दोसा - तणपणगम्मि वि दोसा, विराहणा होति संजमाऽऽताए। सेसेसु वि पणएसं, विराहणा संजमे होति ॥४००६॥ तणेसु झुसिर त्ति कातुं चउलहू ॥४००६॥ दुविहा विराहणा य इमा - अहि-विच्छुग-विसकंटगमादिहि खतियं च होति आदाए । कुंथादि संजमम्मि, जइ उव्वत्ता तती लहुगा ॥४०१०॥ पुव्वद्धण प्रायविराहणा। कुथुमादिसु विराहिज्जतेसु संजमविराहणा। जत्तिया वारा उवत्तति परिवत्तति वा पाउंचति पसारेति वा तत्तिया चउलहू । ___ अह गहियं “झुसिर" त्ति परिच्चयति तो अहिगरणं, न य झुसिरतणेसु पडिलेहणा सुज्झति । सेसा पणगा अप्पडिलेहिय चम्मपणगं च एतेसु गहणेसु चउलहू, धुवा य संजमविराहणा, प्रायविराहणा जहासंभवा । जम्हा एते दोसा तम्हा पोत्यादि मुसिरा ण कप्पंति घेत्तुं ।।४०१०॥ १ गा० ४००४ । २ गा० ४००४ । ३ गा० ४००४। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४००६-४०१५ । द्वादश उद्देशकः ३२३ चोदकाह - दिट्ट सलोमे दोसा, णिन्लोमं णाम कप्पए घेत्तुं । गेण्हणे गुरुगा पडिलेह पणग तसपाण सतिकरणं ॥४०११॥ चोदको भणति - मम्हमुवगतं-सलोमे चम्मे दिट्ठा दोसा, तं मा कप्पतु, अच्छतु भावणं, जिल्लोमं कणतु । पायरितो भणति - णिल्लोमं गेहंतस्स चउगुरुगा । चिट्ठतस्स णिसीयंतस्स तुयटुंतस्स एतेसु वि चउगुरुगा कालतवविसेसिता। तत्य पडिलेहा ण सुज्झति, जिल्लोमे कुंथुमादिया य तसा सम्मुच्छंति, तं च सुकुमारं इत्थिफासतुल्लं, तत्व मुत्तमोगीण सतिकरणं भवति, प्रभुत्तभोगीण इत्थिफासकोउयं जणेति।।४०११॥ इदमेवार्थमाह - भुत्तस्स सतीकरणं, सरिसं इत्थीण एत फासेणं । ____ जति ता अचेयणेऽयं, फासो किमु सचेयणे इतरे ॥४०१२।। __ जति ताव अचेयाण चम्मे अयं फरिसो सुहफासो, इतरत्ति सचेयाण इत्थीसरीरे सागारिए वा किमित्यतिशयो भवेत् द्रष्टव्यः । यस्मात् एते दोषाः, तम्हा निल्लोमं पि न घेत्तव्वं ॥४०१२॥ जइ अववादतो चम्मं गेण्हइ तदा पुग्वं सलोमं, तत्थिमं - बितियपदं तु गिलाणे, वुड्ढे तद्दिवस भुत्त जयणाए । जिल्लोम मक्खणहे घढे भिण्णे व अरिसाउ (सु) ॥४०१३।। "गिलाणे" "बुड्ढे" त्ति अस्य व्याख्या - संथारगगिलाणे, अमिला-अजिणं सलोम गिण्हंति । वुड्ढाऽसहु-बालाण व, अत्युरणाए वि एमेव ॥४०१४॥ गिलाणस्स प्राथुरणट्ठा घेप्पति, तं च प्रमिलाइप्रजिणं। कुछ-असहु-बालाण वि कारणे प्रत्युरणद्वा एमेव घेप्पति ॥४०१४॥ "'तद्दिवसभुत्त जयणाए" ति अस्य व्याख्या - कुंभार-लोहकारेहि दिवसमलियं तु तं तसविहूणं । उवरि लोमे कातुं, सोत्तुं पादो पणाति ॥४०१॥ कुंभारादिया तत्य दिवसतोववेढा कम्मं करेंति, तम्मि तद्दिवसं परिभुज्जमाणे तसादिया पाणा ण भवंति, तद्दिनसते उद्वितेसु पडिहारियं गिव्हंति, रातो मत्थुरित्ता "पातो" पमा { पच्च पिणंति ॥४०१५॥ एस गहणपरिभोगजयणा। इदाणि अलोमस्सववादो - "२णिल्लोम" पच्छद्ध । जिल्लोमं सलोमाभावे गिलाणादि प्रत्युरणट्ठा घेप्पति । तेल्लेण वा मक्खणट्ठा, कुल्लगादिपासेसु वा घटुंसु प्रत्युरणट्ठा, भिन्नकुट्टि-परिहाण प्रत्युरणट्ठा वा, परिसेसु वा सवंतेसु उववेसणट्ठा गिण्हंति । १ गा० ४०१३ । २ गा० ४०१३ । ३ अवताणगवाएण, पा० । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [मूत्र.६ अस्यैव व्याख्या - जह कारणे सलोमं, तु कप्पते तह हवेज्ज इतरं पि । आगाहे असलोम, आदि कातुं जा पोत्थए गहणं ॥४०१६।। "इयरं" ति अलोम, प्रागाढे कारणे तं प्र (स) लोमं आदि कातुं अप्पप्पणो झुसिरपरिभोगट्टाणेनु पच्छाणुपुब्बीते ताव गाहेयव्वं जाव पोत्थगो ति ।।४०१६॥ अलोमगहणकारणाणं वक्खाणं इमं - अवताणगादि णिल्लोम तेल्ल मक्खट्ट घेप्पती अजिणं । घट्टा व जस्स पासा, गलंतकोहारिसासं वा ।।४०१७|| गतार्था भिन्नकुट्टारिसेसु अलोमचम्मगहणं इमेण कारणेण धेप्पति - सोणितपूयालित्ते, दुक्खं धुवणा दिणे दिणे चीरे । कच्छुल्ले किडिभिल्ले, छप्पतिगिल्ले य णिल्लोमं ॥४०१८॥ कच्छू पामा, किडिभं कुट्ठभेदो सरीरेगदेसे भवति, छपदातो वा जस्स अतीव सम्मुच्छंति, स निल्लोमपरिहाणं गेहति । एमादिकारणेहि गिल्लोमं घेप्पति ।।४०१८।। तणदूसझसिरग्गहणे इमा जयणा - भत्तपरिण गिलाणे, कुसमाति खराऽसती य झुसिरा वि । अप्पडिलेहियदूसासती य पच्छा तणा होंति ॥४०१६।। भत्तपच्चक्खायस्स गिलाणस्स अववादेण जयणाए घेप्पति तदा प्रमुसिरा कुसादि घेत्तवा, अह ते खरा असतो वा तेसिं ताहे मुसिरा वि घिप्पंति । अहवा - भत्तपच्चक्खायस्स गिलागस्म वा अववातेण अपडिले हियं दूसग्गहणं पत्तं तं तूलिमादि घेत्तव्वं, तस्स असती अझुसिर झुसिरा तणा घेत्तव्या ॥४८१६॥ . दुप्पडिलेहियदूसं, अद्धाणादी विवित्त गेहंति । घेप्पति पोत्थगपणगं, कालिक-णिज्जुत्तिकोसट्टा ।।४०२०॥ अद्धाणादिसु विवित्ता जहुत्तोवहिं अलभंता दुप्पडिलेहियपणगं गेण्हसि । मेहाउ गहणधारणादिपरिहाणि जाणिऊण कालिसुयट्ठा कालियसुपणिज्जुत्ति णिमित्तं वा पोत्थगपण गं घेति । कोसो त्ति समुदायो ।.४०२०।। जे भिक्खू तण-पीढगं वा पलाल-पीढगं वा छगण-पीढगं वा कट्ट-पीढगं वा परवत्थेणोच्छन्नं अहिदुइ, अहिटुंतं वा सातिज्जति ।।मू०॥६॥ पलालमयं पललपीढगं, तगमयं तणीढग, वेत्तासणगं 'वेनपीढगं, भिसिमादि कट्ठमयं, छग गपी गं पसिद्धं, परो गित्थो, तस्संतिएण वत्थेग उच्लइयं, तं जो साहू अहितुति निवसता यर्थः । तस्म च उलहू प्राणाइणो य दोसा । १ समुपलब्धासु निशीथमूत्रप्रतिषु मूल मूत्र 'वेत्त पीढग मितिनैवोपलभ्यते । : Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ४०१६ -४०२५ ] द्वादश उद्देशक: पाढगमादी आसण, जत्तियमेत्ता उ श्राहिया सुत्ते । परवत्थेणोच्छण्णे, ताणि हिट्ठेति श्रणादी ॥ ४०२१ ॥ कंठा इमे प्रायविराहणा दोसा दुट्ठिय भग्ग पमादे, पडेज्ज तब्भावणा व से होज्जा । पवडेंते उड्डाहो, पर्वचणट्टा कते अहियं ॥ ४०२२॥ " - परेण तमासणं अजाणता परिणीयया वा पर्वचणट्टा वा दुट्ठियं ठवियं भग्गं वा ठवियं, एग-दु-तिसम्पादविरहियं वा ठवियं, तत्थ वीसत्यो निविट्ठो पडेज्ज वा । निद्दोसे तब्भावणा वा से होज्जा । पडमाणो वा प्रवाउडो भवति । तत्थ उड्डाहो "समणो पडिउ" त्ति । पवचणट्ठा दुट्टितादि कयं असणं तो श्रहियतरा उड्डाहपवचणा दोसा भवंति ॥ ४०२२ ।। इमे संजमदोसा - गंभीरे तसपाणा, पुव्वं ठविते ठविज्जमाणे वा । पच्छाकम्मे य तहा, उष्फोसण धोवणादीणि ||४०२३|| गंभीरं गुविलं प्रकाशं तत्थ दुन्निरिक्खा कुंथुमादितसा पाणा ते विराहिज्जति । एवं पुण्वट्टविते समणट्टा ठविज्जमाणे वा इमो दितो एगस्स रनो पुरतो साहुस्स तच्चन्नियस्स वादो । साहू भणति - अरहंतपणीश्रो मग्गो सुदिट्ठो । इतरो - बुद्धपणीग्रो त्ति । एवं तेसि बहुदिवसा गता । प्रणया रण्णो जाव ते जागच्छति ताव दो ग्रासणा ठवित्ता अंडयाणि वत्थपच्छादियाणि काणि । तच्चन्नितो पुव्विं प्रागतो प्रपेहित्ता निविट्ठो । साहू प्रागतो वत्थं प्रवणीतं । दिट्ठा अंडता । अण्णासणे पमज्जित्ता णिविट्ठो । तुट्टो राया - एस सम्मग्गो त्ति । ओहावितो तञ्चन्निश्रोत्ति । " एते" ण णिल्लेवेंति, चउत्थरसेण वा जिल्लेवेंति" । एवं उप्फोसणादि पच्छाकम्मं करेज्ज || ४०२३।। इमम्मि कारणे अधिज्ज ३२५ वितियपदमण पज्, अहि अविकोविते व अप्पज्झे । रातिहिमंत धम्म कहिवादि पराभियोगे य ॥ ४०२४ || राया अण्णो वा मच्चादि इड्डिमंतो धम्मकही वादी वा रायाभियोगादिगा वा अधिट्टज्ज || ४०२४ ।। इमा जयणा पीढफलएसु पुव्वं, तेसऽसतीए उ झुसिर परिभुत्ते । पागइतेसु पमज्जिय, भावे पुण इस्सरे णातुं || ४०२५। पीढादि प्रभुसिरे पुवं अधिट्टेति, प्रज्भुसिराण श्रसती झुसिरे प्रधिट्ठेति, भुसिरा व जे गिही हि तखण पुत्रपरिभुत्ता तत्थ निवसतो पागडिएसु पमजिय निवसति, तत्य गिहिवत्थं प्रवणे अप्पणो विसिज दात् Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे .. [ सूत्र ७. अधि?ति, रायादिइस्सराण घरे जति पमजिते तुस्सति तो पमजति, अष "कुक्कुडं" ति मति, तोच पमजति । एवं भावाभावं गाउं पमबति, ण वा ॥४०२५॥ जे भिक्खू निग्गंथीए संघाडि अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सिव्वावेइ, सिव्वावेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७॥ अन्नतिथिएण गिहत्येण सिव्वावेति तस्स चउलहुं, प्राणादिणो य दोसा - संघाडियो चउरो, तिपमाणा ता पुणो भवे दुविहा । एगमणेगक्खंडी, अहिगारो अणेगखंडीए ॥४०२६॥ प्रायेण संघातिज्जति ति संघाडी, गुणसंघाकारणी वा सघाडी, देसीभासातो वा पाउरणे संघाडी । ततो संखापमाणेण चउरो। पमाणपमाणेन तिपमाणा। . एगा दुहत्थदीहा दुहत्थवित्थारा सा उवस्सए अच्छमाणोए भवति । दो तिहत्थदीहा तिहत्यवित्थारा । तत्थेगा भिक्खायरियाए, बितियं वीयारं गच्छती पाउणति । चउत्था चउहत्थदीहा चउहत्यवित्यारा । एया सव्वा वि पासगलद्धा । पुणो एककेका दुविहा । पच्छदं कंठं ॥४०२६॥ तं जे उ संजतीणं, गिहिणा अहवा वि अण्णतित्थीणं । सिव्वावेति भिक्खू, सो पावति आणमादीणि ॥४०२७।। तं संजतिसंतियं संघाडि जो प्रायरितो गिहत्येण अन्नतिथिएण वा सिवावेति तस्स माणादियो दोसा ॥४०२७॥ सिव्वावेंतस्स इमे दोसा - कुज्जा वा अभियोगं, परेण पुढे व सिटे उड्डाहो । हीणऽहियं वा कुज्जा, छप्पतिणा संहरिज्जा वा ॥४०२८॥ सो गिही अण्णतित्थी वा तत्थ वसीकरणप्पयोगं करेज । अन्नेश वा पुट्ठो कस्स संतियं वत्थं ? सो कहिज्ज - संजतिसंतियं । ताहे तस्स संका भवति, उड्डाहं वा करेज्ज - नूणं को वि संबंधो पत्थि तेण एसो सिन्वेति । पमाणेण हीणमहियं वा करेज्ज । छप्पदातो छड्डज मारेज्ज वा । तं संघाहिं हरेज्जा । सिव्वंतो वा विदो, तत्थ परितावणादिणिप्फण्णं । उप्फोसणादि वा पच्छा कम्मं कुज्जा ॥४०२८॥ जम्हा एते दोसा तम्हा इमो विही. छिण्णं परिकम्मितं खलु, अगुज्झउवहिं तु गणहरो देति । गुज्झोवहिं तु गणिणी, सिव्वेति जहारिहं मिलितुं ॥४०२६॥ जं प्रतिष्पमाणं तं छिदति, उक्कुतिमादिणा परिकम्मियं, मगुज्झामहि तिनि कप्पा, चउरो संघाडीतो, पातं पायणिज्जोगो य, एवं गणहरो परि कम्मियं देति । सेसो गुज्झोवही, तं गणिणो सरीरंपमाणं मिलि सिब्वेति ॥४०२६।। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४०२६ -४० ३४ ] कारणे गिही अन्नतित्थीण वा सिव्वावेति द्वादश उद्देशकः बितियपदमणिउणे वा, णिउणे वा होज्ज केणती असहू । गणि गणधर गच्छे वा परकरणं कप्पती ताहे ॥ ४०३० ॥ गणी उवज्झातो, गणहरो प्रायरितो, धन्मो वा गच्छे वुड्डो तरुणो वा वुडसीलो ते सिवेज्जा । ग्रह ते सहू होज्जा गच्छे वा नत्थि कुसलो ताहे गिणितित्यिणा वा सिव्वावेति ||४०३० ॥ तत्थ इमो कप्पो . पच्छाकडसाभिग्गह, णिरभिग्गह मद्दए य असण्णी ! गिहि अण्णतित्थिषण व गिरिपुव्वं एतरे पच्छा ||५०३१ ॥ पूर्ववत सव्वावरणे इमो विही भावमागतेणं, सती सहाणे गंतु सिव्वावे । पासट्ठिय अव्वखित्तो, तो दोसेवं ण जायंति ||४०३२|| सो गित्यो श्रृष्णतित्थिश्रो वा साहुसमीवं ग्रहपवित्तीए श्रागतो सिव्वा विज्जति 1 जदि भागतो ण लब्भति तो तस्स जं ठाणं तत्थ गंतुं सिव्वाविज्जति । जयणाए छप्पदातो पुव्वं प्रन्नत्थ कामिज्जति । तस्स समोवे ठितो त्रिष्णो वा ताव चिट्ठति जाव सिव्वियं । एवं पुव्वुत्ता दोसा प भवंति ॥ ४०३२। ३२७ जे भिक्खू पुढविकायस्स वा उक्कायस्स वा श्रगणिकायस्स वा वाउकायस्स वा वणप्फतिकायस्स वा कलमायमवि समारभइ, समारभतं वा सातिज्जति ॥ सू०||८|| कंठ || ४०३४ || " कलमाय" त्ति स्तोकप्रमाणं । ग्रहवा "कलो" त्ति चणप्रो, तप्यमाणमेत्तं पि जो विराहेति तस्स चहुं प्राणादियाय दोसा । एवं कठिणाउक्काए तेऊबाऊपत्तेयवणस्पतिसु । दवे पुरा आउक्काए बिमित्तं । वाउक्काते कलमेत्तं कहं ? भण्णति - बत्थिपूरणे लब्भति । जे भिक्खु पुढविकार्य, कला यवण्णप्पमाणमेत्तमवि । श्राऊ तेऊ वाऊ, पत्तेयं वा विराहेज्जा ॥ ४०३३ ॥ "कलायघन्न" त्ति चणगधन्नं । सेसं कंठं ॥ ४०३३ ॥ जो एते काए विराधेति - सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त - विराहणं तहा दुविहं । पावति जम्हा तेणं, एते उ पदे विवज्जेज्जा ॥ ४०३४ ॥ पुढवादि विराहेंतस्स संजमविराहणा । "प्राहारे" ति पंडुरोगादिसंभवे श्रायविराहा, सेसं Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१ सीसो पुच्छति - "कलमेतहीणतरे विराधेति, किं चतुलहू न भवति प्राणादिया य दोसा ?" गुरू भणति - कलमेत णवरि जेम्मं, एक्कम्मि वि धातियम्मि चउलहुगा। कलमत्तं पुण जायइ, वणवज्जाणं असंखेहि ॥४०३५॥ निभमेत्तं नेमं प्रदर्शनमित्यर्थः । वणस्सइकाय मेत्तं वज्जित्ता सेसेगेंदियक पाणं असंखेज्जाणं जीवसरीराणं समुदयसमितिसमागमेणं कलमत्तं लब्भति ॥४०३५॥ इमं वणस्सतिकाए सरीरप्पमाणं - एगस्स अणेगाण व, कलाउ हीणाहिगं पि तु तरूणं। जा आमलगा लहुगा, दुगुणा दुगुणा ततो वुड्डी ॥४०३६।। एगस्स पत्तेयवणस्सतिकायस्स असंखेज्जाण वा कलधन्नप्पमाणमेतं सरीरं भवति । कलमेत्तानो हीणं अहियं वा विराहेंतस्स जाव अद्दामलगमेत्तं ताव चउलहुँ, प्रमो परं दुगुणवुड्डीए जाव अट्ठवीसाहिते सते चरिमं । प्रणते च उगुरुगादि नेयव्वं ।।४०३६।। कारणे विराहेज्ज - बितियं पढमे बितिए, पंचमे अद्धाणकज्जमादीसु । गेलपणाती तइए, चउत्थकाए य सेहादी ॥४०३७।। वितियं प्रववादपदं । पढमे त्ति पुढविक्काए, वितिए वि पाउकाए, पंचमित्ति वणसतिकाए, एएसु तिसुकाए सु, अद्धाणकज्जमादिया जे पेढ वनिया कारणा ते इह दट्ठव्वा । तइए त्ति ते उक्काइए जे दीहगिलाणादी कारणा भणिया । चउत्थे ति वाउकाइए जे सेहादिया कारणा भणिया ते इह दट्ठा ॥४०३७।। जे भिक्खू सच्चित्तरुक्खं दुरुहइ, दुरुहंतं वा सातिज्जति ॥१०॥ मारुहंतस्स चउलहुं । प्राणादिणो य दोसा । कंठा । जे भिक्खू सच्चित्तं, रुक्खं आउट्टियाए दुरुहेज्जा । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराहणं पावे ॥४०३८|| कंठा ते य सच्चित्तरुक्खा निविहा इमे - संखेज्जजीविता खलु, असंखजीवा अणंतजीवा य । तिविहा हवंति रुक्खा, सुत्तं पुण दोसु आणादी ॥४०३६।। संखेज्जजीवा तालादी, असंखेज्जजीवा अंबादी, अणंतजीवा थोहरादी। संखेज्जासंखेज्जेसु दोसु सुत्तणिवातो, अणतेसु चउगुरुगा ॥४०३६॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यवाचा ४०३५-४०४४ ] श्रीरहंतस्स - द्वादश उददेशक: खेवे खेवे लहुगा, मिच्छतं पवडणे हिक्काए । परितावणादि आया, सविसेसतरा परिग्गहिते ॥ ४०४०॥ "खेवे" त्ति, श्रारुहंतस्स उवरुवार हत्या लंबणे खेवा जरिया खेत्रा तत्तिया चउलहु, भ्रणंते चउगुरु । तं दट्ठे कोई मिच्छतं गच्छे । तव्विराषणे संजमविराषणा । प्रायाए पडेज्ज वा । पडितस्स हत्यादिवि राहणा, एत्थ गिलाणारोवणा, पडतो वा अधिकाए विराहेज्ज । देवमगुयपरिग्गहिते एते चैव सविसेसतरा दोसा, खेत्तादिधनादिया इत्यर्थः ॥ ४०४० ॥ कारणे दुरुहेज्ज - बितियपद मणप्पज्झे, गेलण्णद्वाण ओम उदए य । उवही सरीर तेणग, सणप्फए जडमादीसु ||४०४१॥ खेत्तादिया प्रणष्पभ दुरूहेज्ज, गेलणे श्रोसघट्टा, श्रद्धाणोमे यसंथरता पलंबट्ठा, उदगपूरे शायरखट्ठा, उवधिमरणगेमु रायबोधिगादिभएसु वा दुरूहिता णिलुक्कंति, सीहादिसणप्फए जड्डमि वा वधाय श्रावर्तते श्रायरक्खणट्टा दुरूहंति । तत्थ पुव्वं प्रचित्ते, ततो परित्तमीसे, ततो द्मणतमोसे, ततो परित सचित्ते, ततो प्रणतसचित्ते, एवं कारणा जयणाए ण दोसा ॥। ४०४१ ।। जे भिक्खू गिहिमत्ते भुंजड़, भुंजंतं वा सातिज्जति ॥० ||१०|| गहिमतो घटिकरगादि । तत्थ जो असणादी भुजति तस्स चउलहुँ । जे भिक्खू गिहिमत्ते, तसथावरजीवदेहणिप्फण्णे । भुंजेज्जा असणादी, सो पावति श्राणमादीणि ॥ ४०४२|| ३२९ सो गिमितो दुविहो - थावरजीव देहनिप्फण्णो वा, तसजीव देहणिफण्णो वा । सेसं कंठं ||४०४२ ॥ ते य इमे - सव्वे वि लोहपादा, दंते सिंगे य पक्कभोमे य | एते तसणिष्फण्णा, दारुगतुंबाइया इतरे ||४०४३ ॥ सुन्न रयत-तंत्र कंसा दिया सब्वे लोहपादा, हत्थिदंतमया, महिसादिसिंगे वा कयं, कवालियादि वा पक्कं भोमं एतं सव्वं तसणिफणं । “इतर” ति थावरणिफणणं तं दारुयं तुंबघडियं भन्नई, मणिमयं वा ।। ४०४३ ॥ एतेहिं जो भुंजइ तस्स चउलहुं प्रणादिया इमे दोसा पुवि पच्छाकम्मे, सक्कहिसक्कणे य छक्काया । णणणयण पवाहण, दरभुत्ते सहरिय वोच्छेदो ||४०४४॥ जे भट्या गिही ते पुव्वं चेव संजयट्ठा धोवेतुं ठवेज्जा, पंतो पच्छाकम्यं करेति, जाव संजयाणं पण भोगवेला ताव भुजामो ति श्रोमक्कणा, भुत्तेसु संजएसु भुजिहामो ति प्रहिसक्कणा । संजता एत्थ भुत्ते निपुणो निम्मज्जणा णिमज्जगोवदृणाय मणेसु छक्कायविराहणा । श्राणिज्जतं णिज्जंतं वा मज्जेज्ज | प्रवहंतं ग्रन्नं पवावेज्ज । साघूग वा दरभुत्ते मग्गति तत्थ प्रदेतस्स अंतरायदोसा देतस्स सकज्जहाणी, साघूहि वा Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-पूणिके निशीथसूत्र [ सूत्र ११-१३ माणिते हीरेज्ज । एत्थ जा तगफलएसु प्रवहडेसु विराधणा वुत्ता सा इह गिहिमते माणियम्या । सकज्जहाणीए रुट्ठो भणेग्ज - मा पुणो संजयाणं देह त्ति वोच्छेदो ॥४०४॥ जम्हा एए दोसा गिहिमत्ते ण पजियव्वं । कारणे मुंजति वितियपदं गेलन्ने, असती य प्रभावित व खेत्तम्मि । असिवादी परलिंगे, परिक्खणट्ठा व जतणाए ॥४०४॥ बेज्जटा गिलाणट्ठा वा गिहिमत्ता घेप्पंति, भायणस्स वा असती, राया दिक्सित्तो प्रभावियस्सट्ठा बा, सगच्छ वा उबग्गहडा, प्रसिवे वा सपक्लपंताए परलिंगकरणे घेप्पति, सेहो सद्दहति ण व त्ति तप्परिक्सभट्ठा घेप्पति । "जयणाए" ति जहा पुश्वभणिया पच्छाकम्मादिया दोसा ण भवंति तहा घेप्पंति ॥४०४५।। जे भिक्खू गिहिवत्थं परिहेइ, परिहेंतं वा सातिज्जति ॥२०॥११॥ गिहिवत्थं पाडिहारियं भुजतस्स चउलहुं, माणादिया य दोसा।। गिहिमत्ते जो उ गमो, नियमा सो चेव होति गिहिवत्थे । नायव्वो तु मतिमया, पुव्वे भवरम्मि य पदम्मि ॥४०४६॥ कंठा इमे विसेसदोसा कोट्टिय छिण्णे उद्दिट्टमइलिते अंकिते व अचियत्तं । दुग्गंध-जूय-तावण, उप्फोसण-धाव-धूवणता ॥४०४७॥ मूसगेण कुहितं पमाणातिरित्तं छिन्ने दोसा, पच्छिन्ने सकज्जहाणी, घयतेल्लादिणा वा प्रकियं । एमाइएहि कारणेहिं प्रचियतं भवति । साधूगं अण्हाणपरिमलेग वा दुग्गंषं जुगुंखति । "जूय" त्ति छप्पया भवंति, छड्डेति वा । ताव ति अगणि उण्हे वा तावेति । संबतेहि परिभुत्तं उप्फोसति घोवति वा, दुग्गंधं वा ध्वेति ॥४०४७॥ जे भिक्खू गिहिनिसेज्जं वाहेइ, वाहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१२॥ गिहिणिसेज्जा पलियंकादी, तत्थ णिसीदंतस्स चउलहुं, प्राणादिया य दोसा । गोयरमगोयरे वा, जे भिक्खू णिसेवए गिहिणिसेज्ज । पायारकहा दोसा, अववायस्साववातो य ।।४०४८॥ भिक्खायरियागतो प्रागतो वा धम्मत्यकामा प्रायारकहा तत्य जे दोसा भणिया ते गिहिणिज्ज वाहतस्स इह वत्तम्वा । प्रस्थाने 'मपवादापवादश्च कृतो भवति ॥४०॥ किं नान्यत् - बंभस्स होतऽगुत्ती, पाणाणं पि य वहो भवे अवहे । चरगादीपडिघातो. गिहीण अचियत्तसंकादी ।।४०४६॥ खरए खरिया मुण्हा, "हे वट्टाखुरे य संकेज्जा । खणणे अगणिक्काए, दार वती संकणा हरिते ॥४०५०।। - - १मा०४०५३ चू० । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगापा ४० ४५-४०५५ ] द्वादश उद्देशक ३३१ गिहिणिसेज्जं वाहेंतस्स बंभचेरमगुत्ती भवति, अवहे पाणिणं वषो, उदाहरणं - धम्मत्थकामाए . चरगादिभिक्खागयाणं माधुसमीवसन्निविट्ठा कहमुद्रुमि त्ति पडिसेहं करेति, किमेस संपतो णिविट्ठो चिट्ठति ति प्रचियत्तं, मेहुणासंका भवति. दुवक्खरगादीसु य ण?सु स संजतो संकिजति । खेते वा सा (मणणे), प्रगणिणा वा दही, दारेण वा हरिते, वतीं वा छेत्तुं हरिते, साधू संकिम्जति। जम्हा एते दोसा सम्हा को गिहिणिसेज्ज वाहेइ ।।४०५०॥ इमेसि पुण अणुण्णा - उच्छुद्धसरीरे वा, दुब्बलतवसोसिओ व जो होज्जा । थेरे जुण्णमहल्ले, वीसंभण वेस हतसंके ॥४०५१॥ बाउस भकरेंतो मलपंकियसरीरो "उच्युद्धसरीरो" भन्नति, रोगपीडियो दुम्बलसरीरो तवसोसिय. सरीरो वा, जो थेर ति मद्विवरिसे विसेसेणं जुण्णसरीरे । "महल्ले" त्ति सव्वेसिं वुड्ढतरो संविग्गवेसधारी विसंभणवेसो चेव हतसंको । अहवा - तत्थ णिसन्नो ण संकिज्जति जो केणइ दोसेण सो हतसंको ॥४०५१॥ अहवा भोसहहेउ, संखडि संघाडए व वासासु।। वापायम्मि उ रत्था, जयणाए कप्पती ठातुं ॥४०५२।। "अहव" ति - अववादकारणभेदप्रदर्शने । भोसघहेतुं दातारं घरे प्रसहीणं पडिच्छति, संखडीए वा वेलं पडिक्संति, भरियं भायणं जाव मुंचितुं एति ताव संघाडपो पडिच्छति. वासे वा पडते अच्छति, वधुवरादिउब्वहणेण वा रच्छाए वाघातो, जहा पुवुत्ता दोसा ण भवंति तहा जयणाए अच्छिउं कति॥४०५२॥ एएहि कारणेहिं, अणुण्णवेऊण विरहिते देसे । अच्छतऽववातेणं, अववादवाततो चेव ॥४०५३।। बीएसु पंडगाइविरहिते देसे गिहिवति सामि अणुणवेउं अच्छंबऽत्रवाएण उभा ठिया। प्रतवादे पुण प्रणो प्रववानो प्रववायाववादो भन्नति, तेण प्रववादाववादेण णिसीदंतीत्यर्थः ॥४०५३।। जे भिक्ख गिहितेइच्छं करेइ, करतं वा सातिज्जति ॥५०॥१३॥ इमो सुत्तफासो - जे भिक्खू तेगिच्छं, कुज्जा गिहि अहव अण्णतित्थीणं । मुहमतिगिच्छा मासो, सेसतिगिच्छाए लहु आणा ॥४०५४॥ तिगिच्छा णाम रोगप्रतिकारः, वमन-विरेचन-अभ्यंगपानादिभि : तं जो गिहीण अधवा - अण्णतित्थियाणं करेति तस्स मुहमतिगिच्छाए मासलहुं. बायराए च उलहूं, प्राणादिया य दोसा । सुहुमतिगिच्छा नाम गाहं वेज्जो अट्ठापदं देति । अहवा - भणाति मम एरिसो रोगो प्रमुगेण पण्णत्तो ॥४०५४॥ बादरतिगिच्छा चतुप्पया - विरए य अविरए वा, विरताविरते य तिविहतेगिच्छं ।' जं जं जुजति जोग्गं, तहाणपसंधणं कुणती ॥४०५॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य - चूर्णिके निशीयसूत्रे [ सूत्र- १४ पासत्यादिया विरया, प्रविरम्रो सड्ढो, मिच्छा दिट्ठी वा श्रविरतो, गहीयाणुण्यतो विरताविरतो, |तिविहतिगिच्छा श्रद्वापदं देति, अप्पणी वा किरितं कहेंति चतुष्पादं वा तेगिच्छं करे । गिलाणो प्राणिज्जतो. णिज्जंतो जं विराधेति तणित्कण्णं पावति । किरियाकरणकाले वा जं कंदमूला दिवहेति, पच्छा भोयणकरणे वा । ग्रहवास रोगविभुक्को किसिकरणादि कज्जं जं जोगं करोति स तेण तिगिच्छिणा तम्मि जगणे संधितो भवति । ३३२ अहवा स रोगी जं जोगकरी पुव्वं प्रासी से रोगकाले प्रव्वावारो तम्मि प्रच्छति रोगविभुक्को पुण तद्वाणसंघणं करेति, व्याघ्रायस्पिंडवंत, सामर्थ्याद् बहुसत्वोपरोधी भवति इत्यतो चिकित्सा न करणीया ॥४०५५।। बितियपदे करेज्जा वा सिवे मोरिए, रायदुट्ठे भए व गेलने । " श्रद्धाणरोह वा, जयणाए कप्पती कातुं || ४०५६ ।। गच्छे प्रसिवादिकारणसमुप्पन्नपनोयणा जयगाए करिता सुद्धा ||४०५६ ।। इमा जयणा पासत्थमादियाणं, पुव्वं देसे ततो अविरते य । सुहुमाति विज्जमंते, पुरिसित्थि अचित्त सच्चित्ते ॥ ४०५७॥ जा पणपरिहाणीए चउलहुं पत्तो ताहे पासत्थेसु पुव्वं विज्जमंते सुहुमाए करेति पच्छा प्रचित्तदव्वेहि, पच्छा सचितेहि, तं पि पुव्वं पुरिसेसु, पच्छा इत्थियासु, तम्रो नपुंसेसु । " देस" त्ति पच्छा देसविरतेसु एवं चेव ततो अविरते, अप्पबहुचिताए वा त्यो उवउज्ज वत्तत्रो ॥४०५७।। , जे भिक्खू पुरकम्मकडे हत्थेण वा मत्तेण वा दव्विरण वा भागणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गार्हतं वा सातिज्जति ||०||१४|| इमो सुत्तत्थो - हत्थेण व मत्तेण व, पुरकम्मकरण गेण्हती जो उ । आहारउवधिमादी, सो पावति आणमादीणि ॥ ४०५८|| पुरस्तात् कर्म पुरेकर्म, पुरे कम्मक एवं हत्थेण मते य चउभंगी । हस्तेन मात्रकेण । हस्तेन, न मात्रकेण । न हस्तेन मात्रकेण । न हस्तेन न मात्रकेण । पढमभंगे दो चतुलहुया विनियततिए रु एक्केक्के चतुलहुं, चरिमो मुद्धो । उदउल्ले तिमुवि भंगेमु मासया, ससणिद्धेमु तिसु भगेसु पंचरातिदिया || ४०५८ || Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाध्यगाथा ४०५६-४१६४] द्वादश उद्देशक: ३३३ इमो सुत्तफासो - पुरकम्मम्मि य पुच्छा, किं कस्सारोवणा य परिहरणा । एएसि चउण्हं पी, पत्तेयपरूवणं वोच्छं ॥४०५६॥ किमिति परिप्रभ । किं पुरेकम्म ? कस्स वा भवति ? का वा पुरेकम्मे प्रारोवणा? कहं वा पुरेकम्मं परिहरिज्जति ? ॥४०५६॥ चोदकाह - जति जं पुरतो कीरति, एवं उत्थाण-गमणमादीणि । होति पुरेकम्मं ते, एमेव य पुव्वकम्मे वि ॥४०६०॥ साधुस्स भिक्खत्थिणो घरगणमागतस्स जति जं पुरतो कीरति तं पुरेकम्मं । एवं दातारस्स जाप्रो उट्ठाण-गमण कंडणादियानो किरियामो सव्वाप्रो पुरेकम्म पावति । ग्रह पुवं कम्मं एवं समासो कज्जति, इहाप्येवमित्यर्थः ।।४०६०॥ किं चान्यत् ? चोदक एवाह - एवं फासुमफामुं, ण जुज्जते ण वि य कायसोही ते । हंदि हु बहूणि पुरतो, कीरंति कताणि पुव्वं च ॥४०६१॥ दुधा वि पचक्खपरोक्खसमासकरणे एसणमगेसणीयं ण णज्जति, कर्मण अनेकार्थसंभवात, अणजमाणे य सोही ण भवति । हंदीत्येवं, हु गुमिंत्रणे, एवं हे गुरू । बहुणि पुरतो कीरति बहूणि य पुव दायगेग कयामि सव्वाणि तेदाणि पुरेकम्म पावंति ।।४०६१।। प्राचार्याह - कामं खलु पुरसद्दो, पच्चक्सपरक्खतो भवे दुविहो । तह वि य ण पुरेकम्मं, पुरकम्मं चोयग ! इमं तु ॥४०६२।। चोदक ! अभिप्रेतार्थानुमते कामशब्दः, पादपूरणे खलु एवगन्दे वा । पचक्खपरोक्खकया दायगेण गमणादिया पुरेकम्मं ण भवति ।।४०६२।। इमं भवति - हत्थं वा मत्तं वा. पुव्वं सीप्रोदएण जो धोवे । समणट्टयाए दाता, तं पुरकम्मं वियाणाहि ।।४०६३॥ मीतोदगं सचिनं, ने जो दायगो हन्थमने धोवति समणट्टा एयं पुरेकम्मं ।।४०६३।। "किं" नि गयं। इयाणि "कस्म" त्ति दारं .. कम्म ति पुरेकम्म, जतिणो नं पुण पह मयं कुज्जा । अहवा पहुमंदिट्ठो, मो पुण मुहि पेम बंध वा ॥४०६४॥ १ गा० ४०५६ । . Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीयसूत्रे [सूत्र-१३ कस्स ति पुरेकम्म ? पुच्छा, उत्तरं तप्परिहारिणो साधोरित्यर्थः । तं पुरेकम्म पमू वा पमुसंविट्ठो वा करेज्ज । गिहसामी पभू तस्संदिट्ठो तिविहो - सुही मित्तो, पेस्सो दासमादी, बंधु माया-भगिणिमातिमो। 'कहं पुरेकम्मस्स संभवो? भन्नति - संखडीए पंतिपरिवेसणे णिउत्तो कोइ हत्यं मतं वा विउं देखा, अन्नत्य व असुइहत्यो घुवित्रं देज्जा ।।४०६४।। अहवा अच्चुसिण चिक्कणे वा, करे धुविउं पुणो पुणो देति । आयमिऊण य पुव्वं, देज्ज जतीणं पहमताते ॥४०६॥ परिवेसंतस्स जति अच्चुसिणो कुरो चिक्कणो हत्ये लग्गति त्ति ताहे अन्नो पासद्वितो कुंडगादिसु पाणियं धरेति, तत्य से दाया पुणो पुणो हत्ये उदउल्लेतुं दलयति । अधवा - यदि उवउल्लेतु पढम साधूणं दलयति तो पुरेकम्मं भवति ॥४०६५॥ भद्दबाहुकया गाहा। अट्ठविधभंगेसु विसुद्धभंगग्गहणं इमं - दमए पमाणपुरिसे, जाए पंतीए ताए मोत्तणं । सो पुरिसो तं वऽण्णं, तं दव्वं अण्ण-अण्णं वा ॥४०६६॥ "दमए" त्ति कम्मकरगहणं । "पमाणपुरिसो" ति देवदव्व-सामिगहणं । दाता दमगो सामी वा . जाए पंतीए णिउत्तो तं पंति मोतुं जदि तो पुरेकम्मकतेण हत्येण तं वा दव्वं अन्नं वा दव्वं दलयति । जति परिणयहत्थो य तो कप्पति बियचउत्थभंगेसु ति । अह अन्नो पुरिसो तं वा दव अन्नं वा दव्वं दलाति, कप्पति अन्यपंक्तीत्यनुवर्तते षष्ठाटमभंगग्रहणं ' वा विकल्प: षष्ठाष्टममध्यगतश्च सप्तमभंगो कल्पत एव ।।४०६६।। प्रथम-तृतीय-पंचमभंगेषु अभंगे वा भद्रबाहुकृतगाथया ग्रहणं निर्दिश्यते - दाऊण अण्णदव्वं, कोई देज्जा पुणो वि तं चेव । अत्तट्ठिय-संकामित, गहणं गीयत्थसंविग्गे ॥४०६७॥ प्रणेसणाकयं दव्वं मोत्तूण दव्वस्स अण्णं दाउं तं चेव अणेसणाकतं दव्वं पुणो देजा, एवं छिन्नवावारे कप्पति । ___अधवा - त प्रोसणाकतं दाता सयं प्रहिटेइ । अहवा-- तं प्रणेसणाक यं दाता अन्नस्स देज्जा, सो जति देज्जा एवं संकमियं कप्पति । तं प्रणेसणाकतं दव्वं एतेण विक्रप्पेण गीयत्यस्स कप्पति, णो ग्रगीयत्थस्स । जम्हा तं गीयत्ये गिण्हतो वि संविग्गो भवति ।।४०६७।। एसेवऽत्थो सिद्धसेणखमासमणेण फुडतरो भन्नति - सो तं ताए अण्णाए, वितिए उ अण्णती य दो वऽण्णे । एमेव य अण्णेण वि, भंगा खलु होति चत्तारि ॥४०६८॥ सो पुरिसो तं दम्वं ताए पतीए पढमो भंगो। अन्नपंतीए ति बितिमो भंगो । एवं अट्टभंगी कायचा ॥४०६८॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माप्यमापा ४०६५-४०७४] द्वादश उद्देशक: इमो गहणविकप्पो - कप्पति समेसु तह सत्तमम्मि ततियम्मि छिमवावारे । - अत्तट्टियम्मि दोस्, सव्यस्थ य भएसु करमत्ते ॥४०६६॥ करमत्तेसु भयणा, जति सरणिद्धादी ण भवति ततः ग्रहणं ॥४०६६।। "गीतत्थसंविग्गो" ति अस्य व्याख्या - गीयत्थग्गहणेणं, अत्तद्वितमादि गिण्हती गीयो । संविग्गग्गहणणं, तं गिण्हंतो वि संविग्गो ॥४०७०॥ प्रत्तट्टियं प्रागमप्रमाणतो गेहति, ण तस्स विप्परिणामो भवति - संविग्ग एवेत्यर्थः ॥४०७०॥ इमेण पुण विकप्पेण पुरतो वि कयं तं पुरेकम्मं ण भवति - पुरतो वि हुजं धोयं, अत्तट्ठाए ण तं पुरेकम्मं । तं पुण उल्लं ससिणिद्धगं च सुक्खे तहिं गहणं ॥४०७१॥ अप्पणट्ठा जदि हत्ये पक्यालेति तो उदउल्लं वा ससणिद्धं वा भन्नति, तत्थ परिणते पणत्तट्ठिए वि गहणं भवति ॥४०७१॥ पुरेकम्मउदउल्लेसु इमो विसेसो - तुल्ले वि समारंभे, गहणं सुक्खक्क एक्कपडिसेहो। अन्नत्थ बूढ ताविय, अत्तट्टे होति खिप्पं पि ॥४०७२।। प्राउक्कायसमारंभे तुल्ले सिमोदउल्ले सुक्के प्रणत्तट्ठिए वि गहणे, पुरेकम्मे पुण सुक्के विनो गहणं चिरेण वि । इमेणं पुण विहाणेणं खिप्पं पि गहणं, तकादिछुढे लंबणे अगणिताविते वा अत्तट्ठिए वा ग्रहणमित्यर्थः ।।४०७२।। “कस्स" त्ति दारं गयं । "इयाणि" आरोवण" त्ति दारं - चाउम्मासुक्कोसे, मासिएमज्झे य पंच य जहण्णे । पुरकम्मे उदउल्ले, ससिणिद्धारोवणा भणिया ॥४०७३।। उदगसमारंभे पुरेकम्म उककोस । उदउल्लं मज्झिमं । ससणिद्ध जहन्न । एतेसु कमसो पारोवणा घउलहुं मासलहुँ पणगं च ।।४०७६।। "पारोवण" ति गतं । इयाणि “परिहरण" ति - परिहरणा वि य दुविहा, अविधि-विधीते य होइ णायव्वा । पढमिल्लुगस्स सव्वं, बितियस्स य तम्मि गच्छम्मि ॥४०७४॥ १ गा. ४०६७ ॥ २ मा० ४०५६ । ३ गा..४०५६ । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ मूत्र-१४ तातयस्स जावजीवं, चउत्थस्स य त ण कप्पती दव्वं । तदिवस एगगहणे, नियट्टगहणे य सत्तमए ॥४०७॥ पढमगाधाए पुठवर्ट कंठं । सेसे दिवड्डगाधाए सत्त चोदगा पायरियदेसगा। तेसि इमं वक्खाणं पढमो जावज्जीवं, सव्वेमि संजयाण सव्वाई । दन्वाणि णिवारेती, बितिओ पुण तम्मि गच्छम्मि "४०७६।। पढमचोदगाह - जरथ घरे कम्मं कतं तत्थ जाव सो पुरेकम्मकारी जस्स य तं कयं पुरे कम्म ते जावज्जीवं ति ताव सगच्छारगच्छयाणं सव्वसाधूर्ण सव्वदधा ण कपति घेतु । बितियचोदगो पढम भणति - जं परगच्छपाणं णि रेसि तं प्रजुतं, सगच्छयाणं चेव सब्वेसि तत्थ घरे सव्वदव्या जावज्जीव ण कप्पति ।।४०७६ ।। ततिओ जावज्जीवं, तस्सेवेगस्स सव्वदव्वाई : वारेइ चउत्थो पुण, तस्सेवेगस्म तं दव्यं ॥४०७७॥ तृतीयचोदको बितियं भणाति - ज सगच्छे सम्वेसि निवारेसि त प्रजुत्तं, जस्स पुरेकम्म कतं तम्स वेगस्म जावज्जीव सव्वदव्वा न कप्पति । च उत्थचोदगो तइयचोदगं भणति - जें तत्य मञ्चदम्बे वारेमि तं अजुनं, तं चेवेगदव्वं तस्मेवेगास जावज्जीव मा कप्पतु ।।५०७७।। सव्वाणि पंचमो तहिणं तु तस्सेव छहो तं दवं । मत्तमतो णियत्तंतो, तं गेण्हइ परिणतकरम्मि ॥४०७॥ पंचमो च उत्थं भणाति - तम्मेवेगस्स जावज्जीव दव्वणिवारणमजुन, तम्मेवे गदिशं तस्सेवेगस्म तत्थ परे सव्वदवा मा घेपतु । छद्रचोदगो पंचमं भणाति - तस्स दिशम जुनं मदगिवार, तमे वेग दच तम्स तदि तत्थ घरे मा कप्पनु । मतम चोदगाह - मर्वमिदमयुक्नं । जदा हो परिप्रो प्राकमानो तदा मणिय इतो तरप घरे सो चेव साधू गव्वदवे गेहउ, ण दोसो ॥४.३८।। प्राचार्य प्राह - एगम्म पुग्कम्म. पनं सव्यं वि तन्थ बानि । दव्यास य दुल्लभना, परिचत्ता गिलाणो नेहिं ॥४०७६।। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ भाष्यगाथा ४०७५-४०८४] द्वादश उद्देशक: जेसिं एसुवदेसो, आयरिया तेहि तू परिचत्ता। खमगा पाहुणगा तू , सुव्वत्तमयाणगा ते उ ॥४०८०॥ एगस्स साधुस्स कते पुरेकम्मे जे सव्वसाधूणं तम्मि गिहे सव्वदव्वे णिवारेंति तेहिं गिलाण-प्रायरिय-खमगा पाहुणगा बाला वुड्डा य परिच्चत्ता, चतुगुरुं च से पच्छित्तं । कम्हा ? जम्हा तम्मि कुले गिलाणादिपायोग्गं लभति, नान्यत्र । किं च अन्यप्ररूपणा चैषा - चोदगाह - "कहं वा सव्वेहिं गायं जहा एत्थ पुरेकम्मं कतं ?" आचार्याह - अद्धाणणिग्गयादी, उभामग खमग अक्खरे रिक्खा । मग्गण कहण परंपर, सुव्वत्तमयाणगा ते वि ॥४०८१।। उब्भामगऽणुब्भागम, सगच्छपरगच्छजाणणट्ठाए। अच्छति तहियं खमतो, तस्सऽसती स एव संघाडो ॥४०८२॥ जे अद्धाणणिग्गया उब्भामगा य अप्फचिया भिक्खं अडंति । सगच्छपरगच्छयाण य कहणट्ठा खमगो तत्थ णिसन्नो अच्छति “एत्थ पुरेकम्मं कतं" ति । खमगासति पारणगदिणे वा जस्स पुरेकम्मं कतं स एव साधुसंघाडो एगो वा तत्थ अच्छति ।।४०८२।। जदि एगस्स उ दोसा, अक्खर ण तु ताणि सव्वतो रिक्खा । जति फुसण संकदोसा, हिंडंता चेव साहेति ॥४०८३॥ जदि एगस्स प्रच्छनो इथिमादिया दोसा भवंति तो कुड्डादिसु 'प्रक्खराणि लिहंति "एत्थ पुरेकम्म कतं" ति । अह अक्खराणि सव्वे ण याणंति तो साघुजणसमयकया "रिक्ख" ति रेखा कज्जति । मह पन्नो वि रिक्खं करेति तो फुसणासंकभंगदोसा बहवे होज्ज, तो जस्स पुरेकम्म कतं सो संघाडगो हिंडतो चेव अन्नस्स साधूणं कधेति - "एत्थ घरे पुरेकम्म" । ते वि अन्नेसि । एवं परंपरेणं सन्व साधूणं कहिति । प्राचार्य आह - "सुव्वत्तमजाणगा जेसि एसा परिहरणविधी" ॥४०८३॥ एसा अविही भणिता, सत्तविहा खलु इमा विही होति । तत्थादी चरिमदुगे, अत्तट्ठियमादि गीतस्स ॥४०८४॥ एस सत्तविधा प्रविधिपरिहरणा भणिया। सत्तविधा चेव इमा विधिपरिहरणा उप्फोसणापदविरहिया ॥४०८४॥ एतेसि अट्टण्ह पयाणं पाइल्लेसु दोसु, चरिमेसु य दोसु, एतेसु चउसु अत्तट्ठिएसु गहणं जइ सब्वे गीयत्था भवंति । १ गा० ४०८१ । १ गा० ४०८१ । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१४ एगस्स बितियगहणे, पसञ्जणा तत्थ होति कप्पट्टी। वारण ललितासणिश्रो, गंतूण य कम्म हत्थ उप्फोसे ॥४०८५॥ एगेण समारद्ध, अनो पुण जो तहिं सयं देह। जति होति अगीता तो, परिहरियव्वं पयत्तेणं ॥४०८६॥ भिक्खट्ठा साहुम्स 'घरंगणे ठियस्स' दातारेण प्राउक्कायसमारंभो को, साहुणा पडिसिनो । तत्य अण्णो जइ सयं चेव दाउं अन्भुज्जमो अन्नभणियो वा तत्थ जइ सव्वे साहवो गीयत्था तो गिव्हंति, प्रगीतेसु मीसेसु य परिहरंति ॥४०८६॥ अस्यैवार्थस्य व्याख्या - समणेहि य अभणंतो, गिहिभणितो अप्पणो व छंदेणं । . मोत्तुमजाणगमीसे, गिण्हती जाणगा साहू ॥४०८७॥ कंठा "'बितियग्गहणे" त्ति अस्य व्याख्या - पढमदातारेण जा पुरेकम्मकतेण हत्थेण भिक्खा गहिया तं जदा अन्नो बितिम्रो देइ सा किं गेज्झा अगेज्झा ? तत्थ अगीताभिप्पानो भण्णति - अम्हट्ठसमारद्ध , तद्दव्वण्णेण किह णु णिहोस । सविसण्णाहरणेणं, मुज्झति एवं अजाणतो ॥४०॥ एत्य प्रगीतो मुज्झति इमेण दिटुंतेण - "वइरिणो अट्ठाय विसेण संजुत्तं भत्तं कयं एगेण, अन्नो जदि तं देइ तो किं ण मरति ? एवं प्रम्हट्ठा जेण उदगसमारंभो कतो तेण जा गहिया भिक्खा तं अदि अन्नो देइ किं दोसो न भवइ ? भवत्येव" । तम्हा अगीतेसु मीसेसु वा परिहरियव्वं ॥४०८८॥ गीतेसु इमो विधी - एगेण समारद्ध, अण्णो पुण जो तहिं सयं देति । । जति जाणगा उ साहू, परिभुत्तं जे सुहं होति ॥४०८६॥ गीता गिण्हंति परि जंति य ॥४०८६।। अधवा गीयत्थेसु वि भयणा, अन्नो अनं व तेण मत्तेणं । . विप्परिणतम्मि कप्पति, ससणिचुदउल्लपडिसिद्धा ॥४०६०॥ अण्णो पुरिसो अण्णं दव्वं तेण उदउल्लेण मत्तेण जदा देति तदा ण कप्पति, प्राउकाए परिणते अत्तट्ठिए कप्पति । ससणिद्धावत्थं उदउल्लावत्थं च पडिसिद्धं - न कल्पतीत्यर्थः ॥४०६०॥ - अह बितिएण वि पुरेकम्मं कयं, सो वि साधुणा पडिसिद्धो, ततिमो अण्णभणितो सयं वा जवि देति तत्थ वि गहणं पूर्ववत् । १ गा० ४०८५ । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४०८५ - ४०६५ ] द्वादश उददेशक: ""सज्जणा तत्थ होति कप्पट्टी" ग्रस्य व्याख्या ग्रह तति वि पुरेकम्मं करेज्ज, तत्थ गीएण वि ण घेत्तव्वं, जम्हा एत्थ पसज्जणादोसो दंतति । को पसज्जणा दोसो ? भन्नति - "तरुणकप्पट्ठीग्रो कंदप्पा साधु चेलवंती पुरकम्मं करेज्ज" । अस्यैवार्थस्य व्याख्या पढमतिसु पुरेकम्मे कते जदि मन्नो भगति तरुणी पिंडिया, कंदप्पा जति करे पुरेकम्मं । पढमचितियाण मोत्तुं, आवज्जति चउलहू सेसे || ४०६१ | "पडिच्छाहि अहं ते दलयामि तेसु उदिक्खति । ततीयादिसु जदि उदिक्खति तो चउलहुं ॥। ४०६१।। "वारण ललियासणी" त्ति ग्रस्य व्याख्या पुरेकम्मम्मि कयम्मी, जति भणति मा तुमं इमा देऊ । संकापदं व होज्जा, ललियासणिओ व सुव्वत्तं ॥ ४०६२|| पुरेकम्मे कते साधू भणति "मा तुमं देहि, इमा देउ ।" ताहे सा चितेति - "ग्रहं विरूवा बुड्ढा वा ण वा से रुच्चामि इमा तरुणी सुरूवा रुच्चति वा, से एवं संका भवेज्जा अह कि मण्णे एस एतीए सह घडो हवेज्ज ? हवा भणेज्ज - तुमं फुडं ललियासगिनो इत्र जहाभिलसियं परिवेसियं इच्छसि ||४०६२|| "" 'गंतूण" यत्ति अस्य व्याख्या - - 1 - गंतूण पडिनियत्ते, सो वा अण्णो व से तहिं देति । अण्णस्स विदिज्जिहिती, परिहरियव्वं पयत्तेणं ॥ ४०६३ || ३३ε पुरेकम्मे कते दागेण भिक्खा नीणिता, साधुणा पडिसिद्धा, गतो साधू । भिक्वाहत्यगतो दागो चितेइ - जदा एस साहू घरपंतीम्रो इमाम्रो पडिनियत्तो एहिति तदा से दाहामि तं भिवखं । सो दाता अन्नो वा देति । ण कप्पति । अह तं गीणितं भिक्खं श्रन्नस्स साघुस्स वप्पेति ? तस्स विण कप्पं ॥ ४०६३ ।। "ग्रणस्स व दाहामो" त्ति ग्रस्य व्याख्या - अण्णस्स व दाहामो, अण्णस्स वि संजयस्स ण वि कप्पे | चिरगादी वा वि दाहंति तो कप्पे ॥ ४०६४ | पुवद्धं कंठं । ग्रह अपणो प्रत्तट्टेति चरगादीगं वा संकप्पेति जदि य परिणतो आउक्काओ तो घेप्पति ॥४०६४॥ पुरेकम्मम्मि कयम्मी, पडिमिद्धा जति भणेज्ज अण्णस्स | दाहंति पडिनियत्तं, तस्स व अण्णस्स व ण कप्पे ||४०६५|| कंठा १ गा० ४०८५ | २०४०६५ । ३ गा० ४०८% | ४ गा० ४०६४ | Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० सभाष्य-चूणिके, निशीथसूत्रे [ सूत्र-१४ भिक्खचरस्सऽनस्स वि, पुव्वं दाऊण जइ दए तस्स । सो दाता तं वेलं, परिहरियन्वो पयत्तेणं ॥४०६६।। कंठा साधुप्रट्ठा पुरेकम्मे कते पुव्वं भिक्खायरस्म भिक्ख दाउ पच्छा अच्छिन्नवावारो "तस्स" ति साधुस्स देज्जा, सो दाता तं वेलं प्रच्छिन्नवावारो परिहरियब्बो, ण पकप्पति ।।४०६६।। इयाणि "कम्मे" त्ति दारं - पुरेकम्मम्मि कयम्मी, जइ गेण्हति जइ य तस्स तं होइ। . एवं खु कम्मबंधो, चिट्ठति लोए व बंभवहो ॥४०६७।। चोदग प्राह - पुरेकम्मकडदोसो जदि दायगस्स ण भवति. माधुस्स गिण्हतो भवति, तो जदा साधू ण गेहति, तदा पुरेकम्मकतकम्मबंधो दायगगाहगेसु प्रणवहितो वेगलो चेति । एत्थ लोइय-उदाहरणं इंदेण उडंकरिसिपत्ती रूववती दिट्ठा। तीए समं अधिगमं गतो। सो तसो णिग्गच्छंतो उडंकेण दिट्ठो । रुद्रेण रिसिणा तस्स सावो दिनो, जम्हा ते अगमणिज्जा रिसिपत्ती अभिगया तम्हा एवं ते बंभवज्झा भवतु । तस्स बंभवज्झा उवट्ठिया, सो तस्स भीतो - कुरुखेत्तं पविट्ठो । सा बंभवज्झा कुरुखेत्तस्स पासपो भमति, सो वि तो तब्भया ण णीति । इंदेण विणा सुण्णं इंदट्ठाणं । ततो सव्वे देवा इंदं मग्गमाणा जाणिऊण कुरुखेत्ते उवट्ठिता भणंति - एहि गच्छ देवालयं । । सो भणाति - इप्रो णिग्गच्छंतस्स मे बंभवज्झा लग्गति । ताहे सा देवेहिं बंभवज्झा चतुधा विभत्ता, इक्को विभागो इत्थीणं ऋतुकाले ठियो, बितिग्रो उदगे काइयं णिसिरंतस्स, ततिम्रो बंभणस्स सुरापाणे, च उत्थो गुरुपत्तीए अभिगमे । सा बंभवज्झा एतेसु ठिया । इंदो वि देवलोगं गयो । एवं कर्मबन्धः ब्रह्महत्यावत् वेगलः ॥४०६७।। आचार्याह - दव्वेण य भावेण य, चउक्कभयणा भवे पुरेकम्मे । सागारियभावपरिणति, ततितो भावे य कम्मे य ॥४०६८॥ दव्वतो पुरेकम्म, ण भावतो । ण दव्वग्रो पुरेकम्म, भावप्रो पुरेकम्म । भावतो वि दव्वतो वि पुरेकम्मं । ण दव्वतो ण भावतो पुरेकम्मं । इयाणि - भंगभावणाकते पुरेकम्मे “सागारियं" ति सुइकाण प्रढाए ण पडिसिद्ध, गहितं, विगिचीहामो त्ति दव्व प्रो पढमभंगो । भिक्खमवतरतो चितेति पुरेकम्म पि घेच्छं, ण य लद्धं, भावपरिणयस्स बितिम्रो भंगो । भावपरिणएण पुरेकम्मं लद्ध ततिप्रो । उभयघा वि सुद्धो चउत्यो पुरेकम्मं पडुच्च ।। ४०६८॥ सुण्णो चउत्थमंगो, मझिल्ला दोणि तू पडिक्कुट्ठा। संपत्तीइ वि असती, गहणपरिणए पुरेकम्मं ॥४०६६।। मज्झिम दो भंगा पडिसिद्धा विसुद्धभावत्वात् । पढमो सुद्धसरिसो प्रयोजनापेक्षत्वात् विशुद्धभावत्वाच्च। १ गा० ४०८५. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य गाथा ४०६६-४१०४ ] द्वादश उद्देशकः दव्वतो संपत्ते वि पुरेकम्मे भावपुरेकम्मस्स असती प्रसंप्राप्तिः - प्रथमभंगेत्यर्थः । भावतो गहणपरिणते दबतो प्रसंपने वि भावतो पुरेकम्मं भवति - द्वितीयभंगेत्यर्थः । ग्रहवा - सव्वं पच्छद्धं बितियभंगदरिसणत्थं भणियं ।।४०६६।। चोदग आह - संपत्तीइ वि असती, कम्मं संपत्तिो वि य अकम्मं । . एवं खु पुरेकम्म, ठवणामेत्तं तु चोदेति ॥४१००॥ 'पुरेकम्मे असंपत्ते वि पुरेकम्मं भवति बितियभंगे, पुरेकम्मे संपत्ते वि पुरेकम्मे पुरेकम्मदोसो ण भवति पढमभगे, जतो एवं ततो मे चित्तस्स पतिट्ठियं पुरेकम्मं ठवणमेत्तमेव गिप्पयोयणं परूविज्जति"।।४१००।। प्राचार्य ग्राह - हे चोदग ! जो तुमे वभवझादिट्ठनो दिन्नो कम्मबंध पडुच्च मम पि सो व दिटुंतो इमो - इंदेण बंभवज्झा, कया उ भीओ उ तीए नासंतो। सो कुरुखेत्तपविट्ठो, सा वि वहि पडिच्छए तं तु ॥४१०१।। कंठा णिग्गत पुणरवि गेण्हति, कुरुखेत्तं एव संजमो अम्हं । जाहे ततो तु नीते, घेप्पति ता कम्मबंधेणं ॥४१०२।। जदा कुरुखेतानो णिगच्छइ इंदो तदा पुणो वि बंभवज्झा गेहति । प्रायरियो दिद्रुतमुत्रसंहारं करेति - कुरुखेत्तसरिसो अम्हं संजमो, बंधवझसरिसो कम्म्बंधो, जाते. मंजमातो भावो णिग्गच्छति ताहे कम्मबंधेण वज्झति, अणिग्यतो न बज्झति ।।४६०३।। कि चान्यत् - जे जे दोसायतणा, ते सुत्ते जिणवरहि पडिट्ठा । ते खलु अणावरंतो, सुद्धो इनरो उ भइयव्यो ।॥४१०३।। 'इयरो" ति समायरंतो, सो भयणिजो -- वज्झती ण वः । का भय गा? कारणा जयगाए अकप्पिय सेवंतो मुद्धो, इहरह नि गिक्कारणे कारणे य अजयगाए दातो पमा देण य मेवतो ण मुग्झति ।।४१०३।। इयाणि पुरेकम्मादिग्रणेसणवज्जणगुणो विधी य संदिमिज्जति - समणुण्णा परिसंकी, अवि य पमंगं गिहीण वारेता। गिण्हंति असढभावा, मुविमुद्धं एरिमं समणा ॥४१०४।। 'ममणम'' ति प्रणमती । तं च परिसंकति - "मा अगुमनी भविस्मर" ति, प्रमो वजेइ परेकम्मं । जति य पुरेकम्मकोण हत्थेग भिक्खं गिण्हति तो गिही मु पसंगो कतो भवनि, अग्गहणे पृण पसंगो वारितो भवति - पुगो वि गिही ण करोतीत्यर्थः । एवं मधं प्रणेमगं वजेना असदभावा माधू विमुद्धं गेहति भनादि ।। ४१०४॥ १ भवति इत्यति पाठः । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१५ इदाणि “'हत्थे" त्ति अस्य व्याख्या - किं उवधातो हत्थे, मत्ते दब्वे उदाहु उदगम्मि । तिन्नि वि ठाणा सुद्धा, उदगम्मि अणेसणा भणिया ॥४१०५॥ चोदगो पुच्छति - पुरेकम्मकते हत्थादिचउण्हं कम्मि उवधानो दिट्ठो ? पायरियो भणति - हत्थमत्तदव्वा एते तिन्नि वि ठाणा सुद्धा, उदगे असणा ठिता ॥४१०५।। ॥४१०५॥ अत्राचार्य उपपत्तिमाह - जम्हा तु हत्थमत्तेहि कप्पती तेहि चेव तं दव्वं । अत्तट्ठिय परिभुत्तं, परिणते तम्हा दगमणेसि ॥४१०६।। जम्हा परिणते दगे तेहिं चेव हत्थमत्तेहि तं व दव्वं प्रत्तट्टियं परिभुत्तं सेसं वा कपइ तम्हा दगे अणेसणा ठिया। विधिपरिहरणा असणादिसु सत्तविधा भणिया ॥४१०६॥ इदाणि "२फोसण" त्ति दारं एवं वत्थे पसंगेणाभिहितं - किं उवधातो धोए, रत्ते चोरखे सुइम्मि वि कयम्मि । अत्तट्ठिय-संकामिय, गहणं गीयत्थसंविग्गे ॥४१०७॥ ___ साधूर्ण दाहामि त्ति मलिणं धोवति, विधि प्रजाणं तो घातुमादिसु रत्तं काउं दलाति, रयगसज्जियं गिप्पंककयं च चोक्खं, असुतिमुवलितं धोतं सुतं ति एपावत् कयं णातुं साधुणा पडिसिद्धं, अप्पणा अत्तट्ठियं । अन्नस्स दिन्नं, संकामियं कप्पणिज्जं भवति ॥४१०७॥ "3गीयत्थसंविग्गस्स" व्याख्या - गीयत्थग्गहणेणं, अत्तट्ठियमाति गिण्हती गीो। । संविग्गग्गहणेणं, तं गेहंतो वि संविग्गो ॥४१०८।। पूर्ववत् एमेव य परिभुत्ते, नवे य तंतुग्गते अधोतम्मि । उफ्फोसिऊण देंते, अत्तढिगसेविते गहणं ॥४१०६॥ गिहिणा अंगं परिमलियं परिभुत्तं, तंतुम्य उद्गतमात्रं, एने वि जया उप्फोसितु ददाति तदा प्रकप्पं । अत्तट्टियं दायगेण अप्पणा वा परिभुत्तं तदा कप्पं ॥४.०६॥ उग्गममादिसु दोसेसु, सेसेसारोवणं विणा । गमो एसेव विष्णेयो, सोही णवरि अण्णहा ॥४११०॥ सेसेमु उग्गमदोमेसु य एमणदोयेसु विसोधिको डिसमुत्थेनु एमेव विधी, णवरि पच्छित्तं भवति । प्रविसोधिकोडीए पुण अत्तट्टियं पि ण कप्पति ।।४११०।। १ गा० ४०८५ । २ गा० ४०८५ । ३ गा० ४१०७ । ४ सेसेसु + पारोवणं इति छेदः । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४१०५-४११५ ] द्वादश उदेशक: इयाणि पुरेकम्मस्स अववादो असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलन्ने । श्रद्धाण रोहए वा, जयणाए कप्पती कातुं ॥४१११॥ असिवादिसु अफव्वंता गिण्हंति, जयणाए पणगपरिहाणीए ।।४१११॥ जे भिक्खू गिहत्थाण वा अण्णतित्थियाण वा सीओदगपरिभोगेण हत्थेण वा मत्तेण वा दविएण वा भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१॥ इमो सुत्तत्थो - गिहिअण्णतित्थियाण व, सुतिमादी आहितं तु मत्तेणं । जे भिक्खू असणादी, पडिच्छते आणमादीणि ॥४११२॥ गिहत्था सोत्तियबंभणादी, अण्णतित्थिया परिवायगादी, उदगपरिभोगी मतो सुई, अहवा कोई सुइवादी तेण दलेजा, सो य सीमोदगपरिभोगी मत्तमो उल्लंककनादी, तेण गेण्हतस्स आणादिया दोसा चउलहुं च से पच्छित्तं ॥४११२।। इमे सीतोदगपरिभोइणो मत्ता - दगवारबद्धणिया, उल्लंकायमणिवल्ललाऊ य । कट्ठमयवारचड्डग, मत्ता सीतोयपरिभोगी ॥४११३॥ मत्तो दगवारगो गडुप्रो प्रायमणी लोट्टिया कट्ठमप्रो, उल्लंकरो कट्ठमप्रो, वारओ चड्डयं कव्वयं तं पि नट्ठमयं ।।४११३॥ एतेसु गेण्हतस्स इमे दोसा - . नियमा पच्छाकम्म, धोतो वि पुणो दगस्स सो सत्यं । तं पि य सत्थं अण्णोदगस्स संसज्जते नियमा ॥४११४॥ भिक्खप्पयाणोवलितं पच्छा धुवंतस्स पच्छाकम्मं । स मत्तगो असणादिरसभाविप्रो ति उदगस्स सत्थं भवति । तं पि उदगं अन्नोदगस्स सत्यं भवति, तमुदगर्मबीभूतं संसज्जते य ॥४११४।। सीओदगभोईणं, पडिसिद्धं मा हु पच्छकम्मं ति । किह होति पच्छकम्म, किहव ण होति त्ति तं सुणसु ॥४११५॥ जैग मत्तएण सच्चित्तोदगं परिभुज्जति तेण भिक्खग्गहणं पडिसिद्ध। सीसो पुच्छति - "कहं पच्छाकम्मं भवति ण भवति वा ? Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१६ प्राचार्य आह - सुणतु - संसट्ठमसंसट्टे, सावसेसे य निरवसेसे य । हत्थे मत्ते दव्वे, सुद्धमसुद्धे तिगट्ठाणा ।।४११६॥ संसटे हत्थे, संसट्टे मत्ते, सावसेसे दब्बे एएसु तिसु पदेसु अट्ठ भंगा कायवा । विसमा मुद्धा समा प्रसुद्धा ॥४११६॥ भंगेसु इमा गहणविधी - पढमे भंगे गहणं, सेसेसु वि जत्थ सावसेसं तु । अण्णेसु तु अग्गहणं, अलेवसुक्खेसु वा गहणं ॥४११७।। "भन्नेसु" ति - समेसु भगेसु । जदि देयं दव्वं सुक्खं अलेवकडं, सुक्खं मंडग कुम्मासादी, तो गिज्झ, पच्छाकम्मरस प्रभावात् ।।४११७।। बितियपदं - असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । अद्धाण रोहए वा, जयणागहणं तु गीयत्थे ॥४११८।। पूर्ववत् अनुसरणीया ॥४११८॥ 'जे भिक्खू वप्पाणि वा फलिहाणि वा उप्पलाणि वा पल्ललाणि वा उज्झराणि वा निज्झराणि वा वावीणि वा पोक्खराणि वा दीहियाणि वा सराणि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि वा चक्खुदसणपडियाए अभिसंधारेइ, अभिसंवारतं वा सातिजति।।मू०॥१६॥ वप्पाई ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता य आहिया सुत्ते । चक्खुपडियाइ ताणी, अभिधारेंतस्स आणादी ॥४११०।। वप्पो केदारो, परिहा खातिया, गरादिसु पागारो, रनोदुवारा दिसु तोरणा, गगरदुवारादिमु प्रग्गला, २तस्सेव पासगो रहसंठितो पासातो, पम्वयसंठितं उवरुवरिभूमियाहि वट्टमाणं कूडागारं, कूडेवागारं कूडागारं पर्वते कुट्टितमित्यर्थः । णूम गिहं भूभिघरं, रुक्खो च्चिय गिहागारो रुख गिहं, रुख वा घरं कडं, पर्वतः प्रसिद्धः, मंडबो वियडः, धूमः प्रसिद्धः, पडिमा गिह चेतियं, लोहारकुट्टी आवेसणं, लोगसमवायठाणं पायतणं, देवकुलं पसिद्ध, दयः स्यानं सभा, गिम्हादिमु उदगप्पदाणठाणं पवा, जत्थ भंड प्रच्छति तं पणियगिह, जत्य विककाइ सा साला । अहवा - सकुडुगिह. प्रकुडा साला, एवं जाणसालाप्रो वि, जागा सिविगादि जत्य गिक्खित्ता, गुहा प्रसिद्धा, एवं दम्भो पब्वगो विदब्भसारिच्छो, इंगाला जत्थ डग्झति, कट्टा जत्य फटुंति, घडिजति वा, सवसयणं सुसाणं, गिरिगुना कंदरं प्रसिवनम गट्टागं संनि, सेलो पचतो, गोमादि ठागं उबढाणं, १-चूयंवलोकनेन प्रतिभाति यत् चूणिकारसमदोऽन्यदेव सूत्रमासीत् । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४११६-४१२५ ] द्वादश उद्देशक: ३४५ भवणागारं वणरायमंडियं भवणं, तं चेव वणविवजियं गिह, चक्खुरिन्द्रियप्रीत्यर्थं दर्शनप्रतिज्ञया गच्छंति, तत्थ गच्छंतस्स संजमविराधणा, दिढे य रागदोसादयो । इमे दोसा - कम्मपसत्थपसत्थे, रागं दोसं च कारए कुज्जा। सुकयं सुअज्जियं ति य, सुठु वि विणिोइयं दव्वं ॥४१२०॥ कारगो सिप्पी । तेण सुप्पसत्थे कते रागं करेति, अप्पसत्थे दोसं । अहवा भणति – देवकुलाति सुकयं एत्थ प्रणुमती । ग्रहवा जेण कारवितं तं भणाति - सुठु अजियं तेण दव्वं, सुटाणे वा णिउत्तं, एवं अणुमती मिच्छसुववहा ॥४१२०।। वक्केहि य सत्थेहि य, परलोयगता वि ते सुणज्जति । निउणाऽनिउणा व कयी, कम्माण व कारका सिप्पी ।।४१२१॥ णिउणाऽणिउणतं कवीण वक्केहि णज्जति, सिप्पियाणं कम्मेहि णजति ॥४१२१॥ विणवत्थु दर्छ भणति - दुस्सिक्खियस्स कम्म, धणियं अपरिक्खियो य सो अासी । जेण सुहा वि णिउत्तं, सुबीयमिव ऊसरे मोल्लं ।।४१२२॥ कारावगो वा धम्माधम्मे सिप्पिसुए वा अपरिक्खगो पासि । कहं सो अपरिक्खगो पासि ? पच्छद्ध भणाति ॥४१२२॥ अंतरा गयस्स वा इमे दोसा - दुविहा तिविहा य तसा, भीता वाड सरणाणि कंखेज्जा। णोल्लेज्ज तगं वऽण्णं, अंतराए य जं चऽण्णं ॥४१२३।। दुविधा - जलचरा थलचरा य । तिविहा - जलथलखहचारिणो य, ते भीता, "वाड" त्तिखडयं देजा, जलयरस जलं सरणं, बिलं डोंगरं वा थलचरस्स, खहवरस्स पागासं, कखेजा अभिलाषसरणं वा गच्छतेत्यर्थः । तं वा साधु अन्नं वा गोल्लेज। तेसि वा चरंताणं अंतराइयं करेति । "ज चणं" तिते णस्संता जं काहिति ॥४१२३।। इयाणि अववादः - बितियपदमणप्पज्झ, अहिधारे अकोविते व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, कज्जेसु बहुप्पगारेसु ॥४१२४।। कंठा "कज्जेसु बहुप्पगारेसु" अस्य व्याख्या - तत्थ गतो होज्ज पहू, ण विणा तेण वि य सिझते कज्जं । संभमपडिणीयभए, ओसण्णाइण्णगेलण्णे ॥४१२५॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ [ सूत्र १७.२१ परायादि, कुल-गण- संघकज्जं श्रग्गिमादिसंभमे पडिणीयभया वा गच्छति । श्रोसनं ति साधूणं तत्य गमणं भविरुद्धं । प्राइष्णं ति साघवो तत्थेव श्रावासेंति । गिलाणस्स वा पत्थभोयगादिणिमित्तं गच्छति ।।४१२५ ।। तत्थिमा जयणा सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे - तेसुं दिट्ठिमबंधंतो, गयं वा पडिसाहरे | परस्साणुवरोहेणं, देहंतो दो वि वज्जए || ४१२६ | पधाणपधासु दिट्ठि ण बंधति, सहसा वा गर्यादिट्ठि पडिसाहरति, रायादि अगुवतिप्रो जोएंनो दो वि रागदोसे व जेई ||४१२६॥ जे भिक्खू कच्छाणि वा गहणाणि वा नूमाणि वा वणाणि वा वणविदुग्गाणि वा पव्त्रयाणि वा पव्वयविदुग्गाणि वा चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारेड अभिसंधारेतं वा सातिज्जति ॥ सू०||१७|| कच्छादी ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ चहिया सुत्ते । चक्खुपडियाए तेसू, दोसा ते तं च वितियपदं ॥४१२७|| चक्खुणपडिया गच्छंतो चउलहुं । इक्खुमादि कच्छा, गहणाणि काननानि, ( दवियं बीयं, ) णूमं भिनं, वर्णाागि उजागाणि वा एगजातीय गजाईयरुवखाउल गहणं वगविदुग्गं, एगो पव्त्रतो, बहूएह पन्ह पन्चयविदुग्गं । 'कूवो प्रगडो, तडाग दह- नदी पसिद्धा, समता वापी, चातुरस्सा पुक्खरणी, एताश्रो चेव दीहियाओ, दीहिया सारणी वावि पुक्खरणीप्रो वा मंडलिसंठियाश्रो, अन्नोन्नकवाडसंजुत्ता गुंजालिया भन्नंति । अन्ने भांति - णिक्का श्रगभेदगता गुजालिया । सरपंती वा एगं महाप्रमाणं सर, तागि चेव बहूणि पंतीठियाणि पत्तेयवाहुजुत्ताणि सरपंती, ताणि चेव बहूगि प्रन्नोनकवाड संजुन्नाणि सरसरपंती | तेमु गच्छतस्स ते चैव दोसा, तं चैव य होति वितियपदं ॥४१२७ जे भिक्खू गामाणि वा नगराणि वा खेडाणि वा कव्वाणि वा मडंबाणि वा दोणमुहाणि वा पट्टणाणि वा आगाराणि वा संत्राहाणि वा सन्निवेसाणि वा चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारे अभिसंधारतं वा सातिज्जति || मू०|| १८ || गामादी ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । चक्खुपडियाए तेनू, दोसा ते तं च चितियपदं ||४१२८|| गच्छतस्स दप्पभी चतुलहुं । करादियाण गम्मो गामो, ण करा जत्थ तं नगर, खेडं णाम धूलीपागारपरिक्खितं, कुणगरो कबडं, जोयगन्तरे जस्म गामादी गत्थि तं मडंत्र, मुत्रणादि श्रगारी, पट्ट दुविहं - जलपट्टगं थलपट्टणं च जलेग जस्स भडनागच्छति तं जलपट्टगं इतरं थल, दोणि मुहा जस्स तं दोष्णिमुहं जलेग वि घलेण वि भंडमागच्छति, प्रासमं गाम तावसमादीगं, सत्यवासगत्यागं सवेिस, गामो १ इतोऽप्रेतना चूमिः प्रस्तुतसूत्रसम्बद्धा नास्तीति विचारणीयम् । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४२२६-४१३१] द्वादश उद्देशक: पंडित सन्निविट्ठो, जत्तागता लोगों सन्निविट्ठो सणिवेसं भण्णति, अण्णत्थ किसि करेता अन्नत्थ वोढुं वसंत तं संबाहं भण्णति घोसं गोउलं. वणियवग्गो जत्थ वसति तं पेगमं अंसिया गामततिय भागादी, भंडगा घणा जत्थ भिज्जति पुडाभेयणं, जत्य राया वसति सा रायणि ॥ ४१२८ ।। जे भिक्खू गाम - महाणि वा नगर - महाणि वा खेड महाणि वा कब्बड महाणि वा मडंब - महाणि वा दोणमुह महाणि वा पट्टण-महाणि वा गार- महाणि वा संवाह - महाणि वा सन्निवेस - महाणि वा चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारे, अभिसंवारेंतं वा सातिज्जति ॥सू०||१६|| हिया सुत्ते । गाममहादी ठाणा, जत्तियमेत्ताउ चक्खुपडियाए तेनू, दोसा ते तं च वितियपदं ॥ ४१२६ ॥ गामे महो गाममहो - यात्रा इत्यर्थः ॥ ४१२६ ।। जे भिक्खू गाम-वहाणि वा नगर-वहाणि वा खेड-वहाणि वा कब्बड - वहाणि वा मडंब-वहाणि वा दोणमुह-वहाणि वा पट्टण-वहाणि वा - वाणि वा संवाह-वहाणि वा सन्निवेस -वहाणि वा चक्खु सण-पडियाए अभिसंधारे भिसंधातं वा सातिज्जति ||०||२०|| गामवहादी ठाणा, जत्तियमेत्ता उहिया सुत्ते । चक्खुपडियाए तेसू, दोसा ते तं च बितियपदं ॥ ४१३०॥ ग्रामस्स वो ग्रामवधो - ग्रामघातेत्यर्थः ॥ ४१३० ॥ ३४७ जे भिक्खू गाम- पधाणि वा नगर-पधाणि वा खेड- पधाणि वा कब्बड - पधाणि वा - पधाणि वा दोमुह-पधाणि वा पट्टण-पधाणि वा आगर- पधाणि वा संवाह - पधाणि वा सन्निवेस - पधाणि वा चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारे, अभिसंधारेंतं वा सातिज्जति | | ० || २१॥ गामपहादी ठाणा, जत्तियमेत्ता उहिया सुत्ते । चक्खुपडियाए तेस्र, दोसा ते तं च बितियपदं ॥ ४१३१ ॥ गामस्स हो ग्राममार्गेत्यर्थः ।।४१३१ ।। जे भिक्खूस-करणाणि वा हत्थि करणाणि वा उट्ट करणाणि वा गोण-रणाणि वा महिस-करणाणि वा सूयर-करणाणि वा Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे चक्खदंसणपडियाए अभिसंधारे, अभिसंधारेतं वा सातिज्जति ||०||२२|| सकरणादि ठाणा, जत्तियमेत्ता उ श्रहिया सुत्ते । चक्खुपडियाए तेस्र, दोसा ते तं च वितियपदं ॥ ४१३२ ॥ श्राससिक्खावणं श्रासकरणं एवं सेसाणिवि ॥ जे भिक्खू आस- जुद्धाणि वा हत्थि - जुद्धाणि वा उट्ट - जुद्धाणि वा गोण-जुद्धाणि वा महिस- जुद्धाणि वा सूयर-जुद्धाणि वा चक्खुदंसणपडियाए afriधits भसंधारेतं वा सातिज्जति ॥ सू०||२३|| हयजुद्धादी ठाणा, जत्तियमेत्ता उ त्राहिया सुत्ते । चक्खुपडियाए तेसू, दोसा ते तं च चितियपदं ॥ ४१३३॥ [ सूत्र २२ - २७ यो अश्वः तेषां परस्परतो युद्धं, एवमन्येषामपि । गजादयः प्रसिद्धा । शरीरेण त्रिमध्यमः करटः, रक्तपाद: चटकः शिखिधूमबर्णः लावकः, ग्रहिमादी पसिद्धा, अडियपव्व डियादिकारणेहि जुद्धं । सव्वसंधिविक्खोहणं णिजुद्धं । पुत्वं जुद्धेण जुज्जिउं पक्छा संधीग्रो विक्खोभिज्जति जत्थ तं जुद्धं णिजुद्धं ॥ ४१३३॥ जे भिक्खू उज्जूहिय - ठाणाणि वा हयजूहिय-ठाणाणि वा गयजूहिय-ठाणाणि वा चक्खदंसणपडियाए अभिसंधारे, अभिसंधारेतं वा सातिज्जति | | ० ||२४|| णिज्जूहितादि ठाणा, जत्तियमेत्ता उ श्रहिया सुत्ते । चक्खुपडियाए तेस्र, दोसा ते तं च बितियपदं ॥ ४१३४॥ गावीओ उज्जूहिता अडवित्तीम्रो उज्जुहिज्जति । हवा - गोसंखडी उज्जूहिगा भन्नति, गावीणं णिव्वेदमा परिमाणादि णिज्जूहिगा, वधुवरपरिश्राणं ति मिहुज्जूहिया. वम्मियगुडिएहि हतेहि बलदरिसणा हयाणीयं गयेहि वलदरिसणा गयाणीयं, रहे हिं बलदरिसणा रहाणीयं, पाइककबलदरिसणा पाइककरणीयं चउसमवायो य प्रणिवदरिसणं । चोरादि वा वज्भं णीणिज्जमाणं पेहाए ॥ ४१३४ ॥ जे भिक्खू 'आघाय - ठाणाणि वा अक्वाइय-ठाणाणि वा माणुम्माणि ठाणाणि वा महया हय-नट्ट-गीय-वाइय-तंती - तल-ताल-तुडिय - पडुप्पाइयडाणाणि वा चक्खहंसणपडियाए अभिसंधारे, अभिसंधारेतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||२५|| आघातादी ठाणा, जत्तियमेत्ता उहिया सुत्ते । चक्खुपडियाए तेसू, दोसा ते तं च वितियपदं ॥ ४१३५॥ १ पं० जिनविजय संपादितमूलपुस्तके 'श्राधायठाणाणि वा' स्थाने 'अभिसेयठाणाणि' इति पाठः । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४१३२-४१३७ ] द्वादश उद्देशकः ३४३ अक्खाणगादि प्राघः दियं, एगस्स वलमाणं अनेण अणुमीयत इति माणुम्माणियं जहा धन्ने कंवलसंबला अधवा - माणपोतानो माणुम्माणिय । विज्जादिहिं रुक्खादी णमिज्जतीति जेम्म । अधवा - णम्म पढें सिक्खाविजंतस्स अंगाणि णमिति । गहियं कव्वा । अधवा - वत्थपुप्फचम्मादिया भज्ज रुक्खादिभगो दध्वविभागो वा । कलहो वातिगो जहा सिंघवीण रायादीणं वुग्गहो । पासा प्रादी जूया, सभादिसु अणेगविहा जणवाया ॥४१३५।। जे भिक्खू कट्ठ-कम्माणि वा चित्त-कम्माणि वा लेव-कम्माणि वा पोत्थ-कम्माणि वा दंत-कम्माणि वा मणि-कम्माणि वा सेल-कम्माणि वा गंठिमाणि वा वेहिमाणि वा पूरिमाणि वा संघातिमाणि वा पत्तच्छेज्जाणि वा वाहीणि वा वेहिमाणि या चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारेइ, अभिसंधारेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥२६॥ कट्ठकम्मादि ठाणा, जतियमेत्ताउ आहिया सुत्ते । चक्खुपडियाए तेसु, दोसा ते तं च बितियपदं ॥४१३६।। ___ कट कम्म कोट्टिमादि, पुस्तके पु च वस्त्रेषु वा पोत्थं, चित्तलेपा प्रसिद्धा, पूयादिया पुप्फमालादिषु गंठिम जहा पाणंदपुरे, पुप्फपूरगादिवेढिम प्रतिमा, पूरिम स च 'कक्षुकादिमुकुटसंबंधिसु वा संघाडिम महदाख्यानक वा महताहतं ।। अहवा - महता शब्देन वादित्रमाहतं वाइता तंती, अन्यद्वा किंचित, हत्यतलाणं तालो कडंबादि, वादित्रसमुदयो त्रुटि:, जस्स मुतिगस्स घणसहसारिच्छो सदो सो घणमुइंगो टुणा सद्देण वाइतो सर्व एवेन्द्रियार्थः चक्षुः ।।४१३६॥ जे भिक्खू डिवाणि वा डमराणि वा खाराणि वा वेराणि वा महाजुद्धाणि वा महासंगामाणि वा कलहाणि वा बोलाणि वा चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारेइ, अभिसंधारतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२७॥ जे भिक्खू इत्थीणि वा" इत्यादि - इत्थीमादी ठाणा, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । चक्खुपडियाए तेसू, दोसा ते तं च बितियपदं ॥४१३७।। प्रासयंते सत्थावत्थाणि अच्छति । अहवा - प्रश्न वंति भुंजतीत्यर्थः । चोदमाणा गेंदुगादिसु रमते मज्जपानअंदोलगादिमु ललंते जलमध्ये १ कंचुकादिसु कट्ठसंधिसू वा. इत्यपि पाठः । २ नास्त्यस्य सूत्रस्य भाष्ये चूर्णी च किंचिदपि विवरणम् । ३ सम्प्रति समुपलब्धसूत्रपुस्तकादर्शपु नेदं सूत्रं, किन्तु अष्टाविंशतितममूत्रान्तर्गतमाभाति । चूर्ण्यभिप्रायेण अष्टाविंशतितमं सूत्रमेवं विभज्यते - जे भिक्खू इत्थीणि वा पुरिसाणि वा थेराणि वा मज्झिमाणि वा डहराणि वा अलंकियाणि वा सुअल. कियाणि वा ( जाव ) सातिज्जति । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र २८-३० क्रीडा, नष्टमृतादिषु कंदणा, मोहनोब्भवकारिकाक्रिया मोहणा मेहुणासेवणंता, सेसपदा "गंयपसिद्धा ||४१३७॥ समवायादिठाणा, जत्तियमेत्ता उ त्राहिया सुत्ते । चक्खुपडियाए तेसु, दोसा ते तं च बितियपदं ॥ ४१३८|| ३५० जे भिक्खू विरूवरूत्रेसु महुस्सवेसु इत्थीणि वा पुरिसाणि वा थेराणि वा मज्झिमाणि वा डहराणि वा अणलंकियाणि वा सुत्रलंकियाणि वा गायंताणि वा वार्यताणि वा नच्चंताणि वा हसंताणि वा रमंताणि वा मोहंताणि वा विउलं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परिभायंताणि वा परिभंजंताणि वा चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारेड, अभिसंधारेंतं वा सातिज्जति ||०||२८|| विरूवरूवादि ठाणा, जत्तियमेत्ता उ श्रहिया सुत्ते । चक्खुपडियाए तेसू, दोसा ते तं च वितियपदं ॥ ४१३६|| अणे गरूत्रा विरूवरुवा, महंता महा महामहा, जत्थ महे बहु रयो जहा भंसुरुलाए । - अहवा - जत्थ महे बहू बहुरया मिलति जहा सरक्खा सो बहुरयो भण्णति । तालायर बहुला बहुडा गलागलपुत्तपुज्जे वेगडंभगा य बहुसढा प्रव्वत्तभासिणो बहुगा जत्थ महे मिलति सो बहुमिलक्खू महो, ते य मिलक्खू दब्भमीलादि ॥ ४१३८|| जे भिक्खू इहलोइएस वा रूवेसु, परलोइए सु वा रूवेसु दिट्ठेसु वा रूवेसु, अदिट्ठेसु वा रूवेसु सुसु वा रूवेसु, असुरसु वा रूवेसु विनासु वा रूवेसु, अविनासु वा रूवेसु सज्जइ रज्जई गिज्झइ भोववज्ज सज्जंतं रज्जंतं गिज्यंतं इहलोगादी ठाणा, जत्तियमेत्ता य श्राहियासुत्ते । ? भोववज्जंतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||२६|| चक्खुपडियाए तेस्र, ते दोसा तं च बितियपदं ॥ ४१४०॥ जे इहलोइया मणुस्सा, परलोइया हयगयादि, पुव्वं पच्चक्खं दिट्ठा । श्रदिट्ठा देवादी । मगुणा इट्टा । भ्रमणण्णा जे प्रणिट्ठा | सज्जणावी पदा एगट्टिया । अहवा - श्रासेवणभावे सज्जणता, मणसा पीतिगमणं रज्जणता, सदोसुवलद्धे वि श्रविरमो गेधी, श्रमगमनासेवणे व प्रज्जुववातो ||४१३६ ॥ १ एषा भाष्यगाथा श्री विजयप्रेमसूरिभिः स्वसम्पादित टाइप अंकितप्रतो नादृता । गाथा संसूचितं सूत्रमपि, साम्प्रतसमुपलब्धसूत्र प्रस्तकादशषु नोपलभ्यते । २ चूर्णि दृष्टया सूत्रमिदं जे भिक्खू विरूवरूवाणि वा इत्यादिरूपं प्रतीयते । ३ गलागत्तपुजावक डिभगा, इत्यपि पाठः । . Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४१३८-४१४४ ] द्वादश उद्देशकः जे भिक्खू पढमाए पोरिसीए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेइ , उवाइणावेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३०॥ पुवाए भत्तपाणं, घेत्तणं जे उवादिणे चरिमं । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥४१४१॥ दिवसस्स पढमपोरिसीए भत्तपाणं घेत्तं चरिमं ति चउत्थपोरिसी तं जो संपावेति तस्स चउलहुं प्राणादिया य दोसा । पाहच्च कदाचित् कालप्पमाणं अभिहितं जं तस्स अतिक्कमणं तं उवातिणावितं भन्नति । सिया अवधारणे, मुंजतस्स वि चतुलहुँ, जिणकप्पियस्स अतिक्कमणे भुंजणे य चउगुरु, चिट्ठतु ताव चउत्थपोरिसी, पढमातो बीया चरिमा, बितियानो ततिया चरिमा, ततियानो चउत्थी चरिमा ।।४१४१॥ एवं पुव्वा वि भाणियव्वा, जतो भन्नति - बितियातो पढम पुव्वा, उवादिणे चउगुरुच आणादी। दोसा संचय संसत्त दीहसाणे य गोणे य॥४१४२॥ बितियपोरिसि पडुच्च पढमा पुवा भन्नति ततियं पडुच्च बितिया पुवा, चउत्थस्स ततिया पुवा । एवं जत्थ गहणं तत्येव भंजियध्वं, जो अतिक्कामेति तस्स चउगुरु चउलहुं प्राणादिया य दोसा। इमे य संचयाइया ।।४१४२॥ 'अगणि गिलाणुच्चारे, अब्भुट्ठाणे पाणे पाहुणे निरोहे य । सज्झायविणयकाइय, पयलंतपलोट्टणे पाणा ॥४१४३।। "२संचयसंसत्तस्स" व्याख्या - णिस्संचया उ समणा, संचयो गिही तु होंति धारेता। . संसत्तअणुवभोगा, दुक्खं च विगिंचितुं होति ॥४१४४॥ गृहीत्वा धरणप्रसंगे संचयस्तत्र गृहीवद् भवति, चिरं च अच्छतं संसज्जति, संसत्तं च दुक्खं विगिचिजति, परिठावेतस्स य विराधणादिणिप्फण्णं, भारवि (दि) यावडो दीहसाणेहिं डसिज्जति, गोणेण वा पाहम्मति, एत्थ प्रायविराहणाणिप्फण्णां च उगुरुं । प्रह तब्भया णिविखवति तो चउलहुं । परितावणादी जाव चरिमं मेयच्वं । पाउल भावे भाणभेदं करेज्ज । तप्पडिबंधे अगणिणा वा डज्झति उवकरणं वा, जं च उवधिणा विणा पावति 1 गिलाणवेयावच्चं कातुं ण तरति, उम्बत्तणादीयं अकीरते य परितावणादियं। ग्रह णिक्खिवंति तो णिक्खवणदोसा । उच्चारपासवणमत्तगं कहं परिवेत्तु धरेतु वा, गुरु पाहुणगस्स वा अन्भुट्ठाणं ण करेति । प्रह करेति तो वियावडो भाणभेदं करेज्ज, भरियभायणधरणे गातणिरोधो असमाधी सज्झायं ण. पटुवेति, पायरियादीण विणयं ण करेति, काइयणिरोधो, अह गहितेण वोसिरति तो उड्डाहो, उघंतस्स वा पलोटेज्ज, तत्थ पाणविराहणा हवेज ।।४१४४।। १ नेयं चूर्णी गाथा। २ गा० ४१४२ । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सभाष्य चूणिके निशीथ सूत्रे [ सूत्र-३० एमेव सेसएसु वि, एगतरविराहणा उभयतो वा। असमाहि विणयहाणी, तप्पच्चयणिज्जराए य ॥४१४॥ "दीहसाणादीएमु दारेसु जहा संचयसंसत्ता तहा सपायच्छित्ता भणियबा । साघुस्स भायणस्स वा उभयतो वा। अहवा - "एगतरस्स" ति पायसंजमउभयविराधणा वा भारक्कमणे असमाधी गुरुमादीण य विणयहाणि करेज्ज, अकरेंतो स णिज्जरालाभं ण लभेज्ज ।।४१४५।। पच्छित्तपरूषणया, एतेसि ठवेंतए य जे दोसा । गहियकरणे य दोसा, दोसा य परिदुवेंतस्स ॥४१४६।। सव्वेसु संचयादीसु दारेसु पच्छित्तपरूवणा कायव्वा । ठवेंतस्स ठवणा दोसा । गहितेणं किच्चाई करेंतस्स भायणभेदादि दोसा। पयलंतपरिहवेंतस्स अंतरादिया दोसा ।।४१४६॥ अतो जम्हा धरिते एत्तिया दोसा - तम्हा उ जहिं गहियं, तहि भुंजणे वज्जिया भवे दोसा । एवं सोहि ण विज्जति, गहणे वि य पावते बितियं ॥४१४७|| जहिं चेव पोरिसीए गहियं तहिं चेव भोत्तव्वं ।। एवं भणिते चोदगाह - "तुझं सोधी गत्थि, जतो गहणे चेव बितिया पोरिसी पावइ" ॥४१४७॥ एवं नोदगे भणिते गुरू भणति - एवं ता जिणकप्पे, गच्छम्मि चउत्थियाए जे दोसा। इतरासु किं न होंति, दव्वे सेसम्मि जयणाए ॥४१४८॥ एयं जिणकप्पियाणं भणियं, गच्छवासीण पढमाए गहियं यदि चरिमं संपावति तो संचयादीया सव्वे दोसा संभवंति। पुणो चोदगो भणति - "बितियततियासु धरिज्जते असणादी दव्वे तच्चैव संसत्तादी दोसा कि ण भवंति" ? आयरियो भणति - दन्वे जिमियसेसम्मि उद्धरिए अणुद्धरिए वा कारणे धरिज्जते जयणाए धरिज्जति, जयणाए धरेंतस्स जदि दोसा भवंति तहावि सुज्झति, पागमप्रामाण्यात् ।।४१४८।। अतिरित्तग्गहणं इमं कारणे - पडिलेहणा बहुविहा, पहमाए कता विणासिमविणासी । तत्थ विणासिं मुंजेऽजिण्णपरिण्णे य इतरं पि ॥४१४६।। अभिगमसड्डेण दाणसढण वा अन्नतरे पगते बहुणा बहुविधेण भक्खभोज्जेण पडिलाभणा क्या पढमाए पोरिसीए, तं च दव्वं दुविधं - विणासि खीरादियं, अविणासि प्रोदणं, गेहखज्जगादी य । णमोकार १ गा० ४१४२ । २ तेसु ठवेंतस्स ठवणि जे दोसा इत्यपिपाठः । ३ उसिणोदगं । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४१४५-४१५५ ] द्वादश उद्देशकः ३५३. पो रेसित्ता विणासि दव्वं सव्वं भुजति । सेससाधूणं जति अजिन्नं परिणि वा प्रभत्तट्ठी वा अथवा - तीए विगतीए पच्चक्खाणं कयं तो इयरं पि अविणासि दव्वं सव्वं भुंजति ॥४१५६।। अस्यैवार्थस्य व्याख्या - ... जति पोरिसिइना तं, गति तो सेसगाण ण विसज्जे । अगमित्ताऽजिण्णे वा, धरेंति तं मत्तगादीसुं ॥४१५०॥ मेसा पुरिमड्ढिया, तं तेसि ण दिजति, जदि णमोकारइत्ता सव्वं ण गमेति, सौस अजिन्न वा ताहे तं मत्तगादिमु छोढुं धरेंति ण दोसो ॥४१४६।। ग्रहवा इमेण कारणेणं धरिज्जेज - तं काउं कोति ण तरति, गिलाणमादीण घेत्तु पुन्चण्हे । नाउं व बहुं वितरति, जहा समाहि चरिमवज्जं ॥४१५१।। तं असणादियं पेसलं परिभुत्तं गिलाणवेयावच्चं उब्वत्तणादि काउं ण तरति, बहुं परिट्ठावणियं लद्धं, मवेलं च भोत्तुकामा ताहे चरिमं पोरिसिं वज्जेता बितियततियाए य गुरू “वितरंति” धरणमनुजानंतीत्यर्थः ।।४१५१॥ तम्मि धरिज्जते संसजणभया इमा विही - संसज्जिमेसु छुब्भति, गुलादि लेबाइ इतर लोणादी। जं च गमिस्संति पुणो, एमेव य भुत्तसेमे वि ॥४१५२।। लेवाडे गुलो छ्भति अलेवा डे लोग. "ज च गमिम्मति पुगो' बितियततियबाराए भुजता गिट्टवेहिति नम्मि एमा विही, वियत इयवागनु भुनमेनुगिा ममज्जगभया एसेव लोगगुला दिया विधी ।।४१५२। एवमुक्ते पुनन्प्याह वोदकः - चीदति धरिज्जत. जे दोमा गिण्हमाण किं न मिया । उम्मग्गवीममने. उभामादी उदिकावते ।।४१५३।। जरा धो दोमा नहा गेहा वि मागोमादीया प्रोगविधा दोमा, कास्मग करा काले वि दोमा, वामनन्म वि न नेत्र दोमा. सभामगो भिननिगलो उदिग्विवंचम्म ने चत्र दोमः ।। ८१५३।। एवं अवायदंसी, शुले वि क ण पामह अवाए ! हंदि इणिरंतग यं. भग्निा लागा वायाणं । ४१५४।। :: नोदनी - नई प्रजा कब निकादि - प्रमोद -735 7 - 1 "मापनोनयन: ।५। भिक्ग्यानिवियाग्गने. दोमा पडिणीयमाणमादीया । उप्पन - टा. नलमा पंदिर एवं ! . Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ३०-३१ चोदक एवाह - अहवा आहारादी, न चेव सययं हवांत घेत्तव्या । नेवाहारेयव्वं, तो दोसा वज्जिता होंति ॥४१५६।। सततं णाहारेयव्वं, चउत्थछट्ठादि काउं सबहा असत्तो पाहारेज । अहवा - सम्वहा प्रणाहारेंतेण प्रवाया वज्जिया भवंति ॥४१५६।। पायरियो भणति - पण्णति सज्झमसज्झ, कज्जं सझं तु साहए मइमं । ... अविसझं सातो, किलिस्सति न तं च साहेइ ।।४१५७॥ कज्ज दुविहं - साध्यमसाध्यं च । सज्झं पयोगसा साधेतो ण किलिस्मति साहेति य कज्ज । प्रसझं साधेतो किलिस्सति, ग य तं च कज्ज साधेति, मृत्पिण्डपटादि साधनवत् ॥४१५७।। जदि एतविप्पहूणा, तवनियमगुणा भवे निरवसेसा ।। आहारमादियाणं, को नाम परिग्गहं कुज्जा ॥४१५८|| कंठा मोक्खपसाहणहेउ', णाणादी तप्पसाहणे देहो । देहट्ठा आहारो, तेण तु कालो अणुण्णातो ॥४१५६॥ मोकवहे पाणदमणचरणा, तेसि गाणः दियाण पमाहणे देहो इच्छिज्जइ । देहधारणट्टा याहारो इच्छिति । तम्म य पाहारस्स गहणे धारणे य कालो अणुणातो ।।४१५६।। काले उ अणुण्णाते, जड़ वि हु लग्गेज्ज तेहि दोसेहिं । मुद्रो उवातिणितो, लग्गति उ विवज्जए परेणं ॥४१६०॥ कालो अगायो, प्रादिला निन्नि पग बीयाई वा तिन्नि पहग। तम्मि अन्नाए काले जति त्रि दोमेटि फुमिरज : नावि अपच्छिनी । अामात सालातो परेण अतिक्कामेतो असंतेहि वि दोसेहि पसिनी भवति ।।८.६०॥ पदमाए गिहिऊणं, पच्छिमारिमि उवातिणे जो उ । ने चंब नन्थ दामा. वितियाए जे भणितपुचिं ॥४१६१॥ पढमनोनिमिगड़ियं विनियं पोलिमि वागावेतम्म जे पृव्वं दोमा भणिया ने चेव दोमा पढमगहियं वस्थपोरिसि वाइम तम्य । तं उवाइ गावियं परिदृविना असंथरंतो अन्न घेनुं भुजति काले पहप्पते । वध कानो पा पहारनि, नो नं चेत्र जयण:ए. भजेति । जगगा पगपरिहाणीए । अन्न अलभते पहप्पं वि कले जम्नेव परिभागः ।।८१:१।। इम निक्कमेकानणा 'ग्राहच्चुबानिणाविन विनिगिंत्रणपरिन्नऽमंथरंतम्मि । अण्णम्म गण्हणं भुंजणं च जतणाए तम्मेव ।।४१६२॥ १ चर्मावियं गाथा नागी कृता । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायगाथा ४१५६-४१६ द्वादश उद्देशक: मझा-लेवण-सिव्वण,-भाषण-परिकम्मसद्वरातीहि । सहस प्रणाभोगेणं, उवातितं भोज्ज जा चरिमं ॥४१६३॥ सम्झाए प्रतिउवयोगा विस्सरियं, एवं ले परिकम्मणं करेंतस्स, उवधिसिन्वणं, मालजालं प्रणे गविहाई सदेसकहं तेसि दूरं, एतेनेव व्यग्रस्य सहसात्कारो प्रत्यंतविस्मृतिरनाभोगो। बितियपदे इमेहि कारणेहि उवातिणाविज्जउ, उवातिणांवितं वा भुंजेज ४१६३।।। भयगेलण्णद्धाणे, दुब्भिक्खतवस्सिकारणज्जाए। कप्पति अतिकामेडं, कालमणुण्णात आहारो ॥४१६४॥ बोहिगादिभएण णस्संतो लुक्को वा णिम्भयं जाव भवति ताव धरेति, गिलाणवेयावच्च करतो, प्रद्धा वा सत्यवसगो, दुभिक्खे वा बहु पडतो ॥४१६४॥ "'तवस्से' ति अस्य व्याख्या - संखुण्णतो तवस्सी, एगट्ठाणम्मि न तरती भोत्तुं । तं च पढमाए लम्भति, सेसासु य दुल्लम होति ॥४१६५॥ विकिट्टे तवे कते तवस्सिणा संखुत्ता प्रतो पढमपोरिसिगहियं सव्वं ण तरति भोत्तुं, प्रसमाही या भवति, उस्सूरे य अन्नं ण लन्भेति, ताहे तं चेव घरेइ जाव परिमं, अँजति य । "२कारण जाते" त्ति अस्य व्याख्या - कुलादिकज्जेहिं वावडो धरेति भुंजति वा ॥४१६५।। श्राहारो व दवं वा, पढमागहितं तु सेसिगा दुलहं । अतरंततवस्सीणं, बालादीणं च पाओग्गं ॥४१६६॥ प्रतरतादियाण पट्टा घरेति जाव चरिमा । एवमादिएहि कारणेहिं कप्पति प्रतिक्कमेउं कालं अणुण्णातातो परेणं प्राहारेतुं च कप्पतीत्यर्थः ॥४१६६॥ जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराश्रो असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवातिणावेइ, उवातिणावेंतं वा सातिज्जति ॥०॥३१॥ परमद्धजोयणातो, असणादी जे उवातिणे भिक्खू । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥४१६७॥ दुगाउयं अद्ध जोयणं, जो तमो खेत्तप्पमाणाम्रो परेण प्रसणाइ संकामेह तस्स चउलहुं प्राणादिया यदोमा ॥४१६७।। प्राचार्यः - निश्चयोत्सर्गमाह - परमद्धजोयणातो, उज्जाणपरेण चउगुरू होति । आणादिणो य दोसा, विराधणा संजमाताए ॥४१६८|| १ गा० ४१६४॥ २ गा० ४१६४। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीवभूत्रे । मूत्र-३१ प्रच्छतु ता परमद्धजोयणं, प्रगुज्जाणा परेणं जो उवाइणावेति तस्स चउगुरुगा प्राणादिया य दोसा, पायसंजमविराधणा य दुविधा भवति ॥४१६८।। सा इमा - भारेण वेयणाए, न पेहए खाणुमाइ अहिघातो । इरिया-पगलिय-तेणग-भायणभेदण छक्काया ॥४१६६।। भारक्कतो वेयणाभिभूतो खाणूमादी ण पेखति, प्रस्सादीहिं वा अभिहनइ । अधवा- भारतकतो प्रणुवउत्तो वडसालादिणा सिरंसि घट्टिज्ज इ, इरिय वाण विसोधेति. दूरवहणेग पगलिते पुढवादि विराधणा, तेहि वा समुमो हरिज्जति, खुहापिवासत्तस्स भायणपि भिज्जेज्ज, तत्य छक्कायविराधणासंभवो, भायगभेदे अप्पणो परस्स य हागो, जे य दोसा तमावज्जति स वं ॥४१६६।। चोदगाह - उज्जाणा आरेणं, तहियं किं ते ण जायते दोसा । परिहरिता ते दोसा, जति वि तहिं खेत्तमावज्जे ॥४१७०॥ पुबद्ध कंठ । प्राचार्याह - पच्छद्ध - अणुनाए खेने जदि वि दोमे प्रावज्जति तदावि जिद्दोसो ।।४१७०॥ चोदकाह - एवं सुत्तं अफलं, सुत्तणिवातो इमो उ जिणकप्पे । गच्छम्मि अद्धजोयण, केसि ची कारणे तं तु ॥४१७१।। उज्जाणादिक्कमे जदि भारादिए दोसे भगह, तो "परमद्ध जोयगातो" ति ज मुनं एवं गिरन्ययं कहं (न) भवतु ? प्रायरिग्रो भणति - "ज अग्युजाणं गातिक्कमति" इमो मुनत्यो जिगकप्पो । “जो पुण प्रद्धजोयणमेर" ति सुत्तत्यो एवं गच्छवासियाणं । पणंति - जहा गच्छवामीगं वि उमगेगमगुःजा निक्कमति कारण प्रद्धजोयणं । एवं अववादियं सुतं । अववादेण प्रववादाववादेग वा अतरपब्लिातो वा परतो वा दरलो विप्राणति ।।४१७१।। जतो भण्णति - सक्खेत्ते जइ ण लम्भनि, नत्तो दूरे वि कारणे जततो । गिहिणो वि चिंतणमणा, गतम्मि गच्छे किमंग पुण ।।४१७२।। अह अंतरपल्लियाग्रो जदा खेने ण लभनि तद) कारणे दूरानो वि अति. उस्मग्गेश गरवासी प्रद्धजोयण तो प्राणेति । समाामे ण हिति । कि कारणं? भन्नति - जइ ताव गिहिणो कवियसपउत्ता अगागय मत्थं बिते उ घन-गुल-कभड लवण Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४१६६-४१७६ ] द्वादश उद्देशक: ३५७ तंदुला भिरयिपाहुणाऽऽगमणट्टा | गच्छे किमंग पुरा जेसि कयविक्कयो संचयो य णत्थि तेहि सखेत्तं रविव्वं ||४१७२ ।। इमो विधी - संघाडेगोठवणा, कुलेसु सेसेसु बालबुद्धादी । तरुणा वाहिरगामे, पुच्छा नातं श्रगारीए ॥ ४१७३॥ सग्गामे जे सङ्कादी ठेवणकुला तेसु गुरुसंघाडो एक्को हिंडति, जाणि सग्गामे मेसाणि कुलाणि तेसु बालवुडुमेहग्रसहुमादी हिंडति । पुच्छति - " किं श्रयरेण खेत्तं पडिलेहितुं रक्खह बाहिरगामे हिडह ? " ४१७३ ।। एत्थ आयरिया ग्रगारिदित करेंति परिमितभत्तगदाणे, णेहादवहरति थोथोवं तु । पाहुणवियात्रागम, विसण्णासासणं दाणं ||४१७४ ॥ एगो किवणवणि गारीए ग्रविस्संतो तंदुल घय-गुल- लवण- कडु-भंडादियं दिवसपरिव्वयपरिमितं देति, श्रावणातो घरे ण किंचि तंदुलादि धरेति । प्रगारीए चिंता, - "जदि एयस्स ग्रन्भरहियो मित्तो अन्नो वा पदोसादी वेलाए ग्रागमिस्सति तो किं दाहं ?" ततो सा ग्रप्पणी बुद्धिपूव्वगेण वणियस्स प्रजाणतो हतंदुलादियाण थोवं थोवं फेडेति, कालेण बहु सुसंपण्णं । प्रणया तस्स मित्तो पदोसकाले ग्रागतो । आवणं प्रारक्खियभया गंतु ण सक्केति । वणियस्स चिंता जाया, विसण्णो - कहमेतस्स भत्तं दाहामिति । गारी वणियस्स मणोगतं भावं जाणित्ता भणति मा विसादं करेहि सव्वं से करेमि ! ती प्रभंगा दिणा हा वेडं विसिमाहारेण भुजावियो, तुट्ठो मित्तो, पभाए पुणो जेमेउं गतो । वणि वि तुट्टो, भारियं भणति - ग्रहं ते परिमियं देमि, कतो एतं ति ? तीए सव्वं कहियं । तुद्वेण वणिएण "एसा घरचितिय" त्ति सव्वो घरसारो समप्पियो ||४१७४ ॥ · एवं पीतिविवड़ी, विवरीतं णेग होड़ दितो । लोउत्तरे विसेसो, असंचया जेण समणा उ || ४१७५ || एवं कीरते मित्ताण परोपरं पीतिवुड्डी भवति । वितियदिट्टंतो एयस्सेव विवरीतो कायचो, तत्थ हच्छेदो भवति । इहं पि लोगुत्तरे जेण असंचया समणा तेण विसेसेण खेत्तं वड्ड वेव्वं ॥ ४१७५ ।। खेत्ते य वड्डाविते य इमो गुणो - जलावो परम्गामे, हिंडंताणं तु वसहि इह गामे । देज्जह बालादीणं, कारणजाते य सुलभं तु ॥ ४१७६॥ जो अपणो अप्पणी घरेसु गामम वा मिलिय चालावं करेति इमे तत्रस्सिणो अन्नगामे भिक्खं हिंडित इह भुंजति वसंति वा परगिहेसु । इत्थिया भणति - इह गामे जे बालादी हिंडंति तेसि श्रादरेण प्रविसेसं देज्जह, पाहुणगादिकारणजाते जति देसकाले प्रदेसकाले वा हिडंति तो सुनभं भवइ ॥ ४१७६॥ - Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सुत्र-३१ पाहुणविसेसदाणे, णिज्जरंकित्ती य इहर विवरीयं । प्रव्विं चमढण सिग्गा, ण दति संतं पि कज्जेसु ॥४१७७॥ पाहणगस्स य विसेसपायरेण भतपणे दिज्जमाणे परलोए गिज्जरा, इहलोर कित्ती, पोतिषड्ढी, परोपकारिया य कता भवति । इहरह ति - पाहुणगस्स प्रकीरते एयं चेत्र विवरी भवइ । ठत्रणकुला य पुव्वं अट्ठाविया, सग्गामे वा दिणे दिणे हिंडतेहिं चमढिया दाणं देंता संता "सिग्णा" श्रान्ता संतं पिदव्वं परे उप्पन्ने पाहुणगादिकज्जे ण देंति, तम्हा गुण दोसदरिसणातो सखेतं ठत्रणकुला वा ठावेयव्वा ।।४१७७।। इमो य गुणो - बोरीए दिद्रुतं, गच्छे वायामिहं च पइरिक्कं । केइ पुण तत्थ भुंजण, 'प्राणग्गहे जे भणियदोसा ॥४१७८।। "२बोरीदिद्रुतस्स" इमं वाखाणं - गामब्भासे बदरी, निस्संदं कडुफला य खुज्जा य ।। पक्कामालसडिंभा, खायंतियरे गता दूरं ॥४१७६।। गाममासे बदरी । सा गामणीसंदपाणिएणं संवढियकडुगफला । अन्नं च खुज्जतणमो सुहारोहा । तत्थ फला, केइ पक्का केइ मामा। अहवा - "पक्कामंति" मंदपक्का । तत्थ जे पालसिया चेडया ते मपज्जत्तिए खाति, इयरे पुण जे पालसिया भवंति ते दूरं गंतुं महाबदरीवणेसु परिपागपक्के पज्जत्तिए खायंति ॥४१७६॥ किं च - सिग्षयरं आगमणं, तेसिऽण्णेसिं च देंति सयमेव । खाइंति एवमिहयं, आयपर-'सुहावहा तरुणो ।।४१८०॥ जाव ते पालसिया ताव कडुगफलाए बदरीए किलिस्समाणा अच्छति ताव ते दूरगामी सयं पज्जत्तीए साइत्ता भरियमाराए प्रागंतुं तेसि पालसियाणं प्रणेसि च घरे ठियाणं पज्जत्तीए देंति, पुणो य अप्पणा खायंति । एवं इहं पि गच्छवासे तरुणभिक्खू वीरियसंपन्ना उच्छाहमंता बाहिरग्गामे हिंडंता मायपरसुहावहा भवति ॥४१८०॥ कहं उच्यते - खीरदहीमादीण य लाभो सिग्यतरपढमपतिरिक्के । उग्गमदोसा वि जढा, भवंति अणुकंपिता वितरे ॥४१८१।। दिटुंताणुरूवो गाहत्यो उवसंधारेयब्बो, सिग्यतरं पागमणं, "पढम' ति पढमालियं करेंति, पढमतरं वा मागच्छति, अन्नसाधुविरहियं परिषक, बहू साधुप्रभावो, उम्गमदोसा जढा, "इतरे 'त्ति - बालबुड्ढादि प्रच्छता ॥४१८॥ १ गा. ४१६१ । २ गा. ४१७८ । ३ एवमेवतु इत्यपि पाठः । ४ हियावहा इत्यपि पाठः । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४१७ :-४१८७ ] द्वादश उद्देशकः ३५९ चोदगाह - उज्जाणातो परेणं, उवातिणं तम्मि पुव्व जे भणिया । भारादिया दोसा, ते चेव इहं तु सविसेसा ॥४१८२॥ चोदको भणति - उजाणातिक्कमे भारादिया दोसा भणिया, ते चेव प्रद्धजोयणमेरातिक्कमे खेत्तबहुत्तणो सविसेसतरा दोसा भवंति, तम्हा दोसदरिसणातो पाहारगिमित्तं मा चेव प्रस्तु ।।४१८२॥ ____ प्राचार्याह - तम्हा उ ण गंतव्वं, न हि भोत्तव्यं ण वा वि भोत्तव्यं । इहरा भेदे दोसा, इति उदिते चोदगं भणति ॥४१८३॥ 'जति एयविप्पहूणा, तवनियमगुणा भवे निरवसेसा । आहारमादियाणं, को नाम परिग्गहं कुज्जा ॥४१८४॥ जति विणा पाहारेण तवादि गुणा णिरवसेसा हवेज्ज, तो माहारादिय ण धम्मोवगहकरणदवाण को गहणं कुजा ? ॥४१८४:. "गच्छे वायामिहं च पहारक्कं" ति अस्य व्याख्या - एवं उग्गमदोसा, वि जहा पइरिक्कता अणोमाणं । मोहतिगिच्छा य कया, विरियायारो य अणुचिण्णो॥४१८॥ पुबद्धं कंठं । गच्छे एसा चेव समाचारी गणधरभगिता । तरुणभिक्खूहि य मोहतिगिच्छणिमित्तं वायामो कतो भवति । तस्स प्रडतस्स य पइरिक्क चसद्दामो इह पि पइरिक्क, वीरियं च ण ग्रयिं भवति नम्हा गंतव्वं ।।४१८५।। चोदकाह - “गम्मतु, तत्थेव समुद्दिसंतु, जे प्राणयणे दोसा भारवेदण तिया ते परिहरित्ता भवंति तम्हा तहिं चेव भुंजते । आयरियो ग्राह - जति ताव लोतियगुरुस्स लहुओ सागारिए पुढविमादी । आणयणे परिहरिता, पढमा आपुच्छ जयणाए ॥४१८६॥ जदि ताव लोइयादि, जो कुडुबं धरेति गुरू, तम्मि प्रभुत्ते ण भुजंति, किमंग पुण लोगुत्तरे जस्स पभावेण संसारो णित्यरिज्जति, तम्हा तत्थ ण भोत्तव्यं । अह भुंजति तो मासलहुं, वसधिप्रभावे तत्थ भजताणं सागारियं, अथंडिल्ले य पुढवादिविराधणा । भत्तं प्राणयंतेहिं एते सव्वे दोसा परिहरिया भवति । बितियपदेण पढमालियं करेंता गुरु प्रापुच्छिता संदिसावित्ता गच्छंति जयणाए करेंति जहा संसर्ट भवति ॥४१८६॥ चोदगवयणं अप्पाणुकंपितो ते य भे परिच्चत्ता। आयरिए अणुकंपा, परलोए इह पसंसणता ॥४१८७।। १ गा० ४१३८ । २ गा० ४१७८ । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ३१ - ३५ चोदगो भणति - जाव सो ततो एहिति ताव तण्हात्रुधाकिलंतो अतीव परिताविजति, एवं ते पट्टवेतेहिं परिचत्ता, अप्पा अणुकंपिनो भवति ।" पायरियो भणइ - ते चेव अणुकंपिया जतो वेयावच्चणिउत्ता, एमा पारलोइया अणुकंपा । इहलोगे वि ते मणुकंपिया, जतो बहूहिं साधुमाधुणीहिं पसंमिजंति ॥४१८७॥ एवं पि परिच्चत्ता, काले खमए य असहुपुरिसे य । कालो गिम्हो तु भवे, खमत्तो वा पढमबितिएहिं ।।४१८८॥ जो ते तिसियभुक्खिया भारकता वा तव अभिहया पंथं वाहेति, तुब्भे पुण छायासु अच्छह, एवं ते परिचत्ता। __ आयरियाह - तेसि कालं पडुच्च, खमगं पडुच्च, प्रसहपुरिसं पडुच्च, पढमालियाकरणं अणुण्णायं । गिम्हो तिसाकालो तत्थ पढमालियं कातु पाणियं पियंति । खमगो वा पढमबितियारिसहेहिं बाधितो तत्थेव कायसाहरट्ठा पढमालियं करेति । एवं असहुपुरिसो वि उ भुक्खालू ।।४१८८।। जति एवं संसहूँ, अप्पत्ते दोसिणादिणं गहणं । लंबणभिक्खा दुविहा, जहण्णउक्कोसतिगपणए ।।४१८६।। ___ जदि कालखमगपुरिसे पडुच्च पढमालिया अणुण्णाता एवं संसटुं भवति, संसटे गुरुमादियाण दिज्जते अभत्तिरागो। प्राचार्याह - अप्पत्ते देसकाले दोसीणं घेप्पति, जेसु वा पदेसेसु वेला तेसु घेतुं करेंति । कप्पं च भायणस्स करेंति । पढमालियापमाणं दुविधं - लंबणेहि भिक्खाहि वा । तत्थ जहण्णेण तिणि लंबणा, तिन्नि भक्खायो । उक्कोसणं पंच लंबणा, पंच वा भिक्खा । सेसो मज्झिमं ॥४१८६६। इमो संसट्ठ परिहाणप्पयोगो - एगत्थ होति भत्तं, बितियम्मि पडिग्गहे दवं होति । गुरुमादी पायोग्गं, मत्तए बितिए य संसत्तं ॥४१६०॥ एगम्मि पडिग्गहे भत्तं बितियसाधुपडिग्गहे पाणगं । एगम्मि मत्तए गुरुमादियाण पायोगं घिप्पति । बितियसाधुमत्तए संसत्तं घेप्पति । दवं वा पडिलेहिज्जति, जदि सुद्धं तो पडिग्गहे परिखिप्पति ॥४१६०॥ जति रिक्को तो दवमत्तगम्मि पढमालियाए 'गहणं तु । संसत्तग्गहण दवदुल्लभे य तत्थेव जं अंतं ॥४१६१: जदि रिक्को सो दवमत्तगो, तो तत्थ अंतपंतं पढमालिया णिमितं घेप्पति, तत्व पढमालियं करेति । एवं संसटुं ण भवति । अह तम्मि मत्तगे संसत्तगं गहियं दुल्लभदवे वा खेत्ते दवं गहियं तो तत्थेव भत्तपरिग्गहे जं अंतपंतं भत्तं तं जहा असंसटुं भवति तहा करेंति, दवमत्तगे वा उकड्डियं करेति ॥४१६१॥ बितियपदं तत्थेव य, सेसं अहवा वि होज्ज सव्वं पि । तम्हा आगंतव्वं, आणणं च पुट्ठो जति विसुद्धो ॥४१६२।। अक्वातो भिवखायरियगता तत्थेव भुजंति अप्पणो संविभाग, सेसं सव्व आणेति । १ करणं तु इत्यपि पाठः । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४१८८-४१६७ ] द्वादश उद्देशकः अधवा- तत्थेव सव्वं अप्पपरसंविभागं भुजति । जम्हा एस एव विधी तम्हा विधिणा गंतव्वं, विहिणा माणेयव्वं, विहिणा तत्थेव भोत्तव्यं । सव्वत्थ एवं विधिं करेंतो जदि वि दोसेहिं पुट्ठो तहा वि सुद्धो ॥४१६२।। भिक्खायरियगया सव्वमसव्वं वा भोत्तव्वं इमेण विहिणा - अंतरपल्लीगहितं, पढमागहितं च सव्व भुंजेज्जा । धुवलंभो संखडी य व, जं गहितं दोसिणं वा वि ।।४१६३॥ जं अंतरपल्लियाए गहियं पढमगोरिसिगहियं वा सव्वं भुजति । जत्थ वा जाणंति संखडीए धुवो लंभो भविस्सति त्ति तत्थ जं गहितं तं सव्वं भुंजति, दोसीणं वा जं गहियं तं सव्वं भुंजति ॥४.१३॥ दरहिंडिते व भाणं, भरितं भोत्तुं पुणो वि हिंडेज्जा । कालो वातिक्कमती, भंजेज्जा अंतरा सव्वं ॥४१६४॥ अधवा - अद्धहिंडिए भरिया भायणा, ताहे अप्पसागारिए पजत्तियं भोत्तुं पुणो वि हिंडेज्जा। अधवा - जाव पत्ति ताव कालातिक्कतं भवति प्रत्थमेति वा, ताहे तत्थेव अंतरा सव्वं भजति ।।४१९४॥ परमद्धजोयणातो, उज्जाणपरेण जे भणितदोसा । आहच्चुवातिणाविय, तं चेवुस्सग्ग अववाते ॥४१६५॥ उज्जाणपरेण उवाइणावेंतस्स जे दोसा भणिया, जो य प्रववादो अद्धजोयणातो परेण जो प्राधच्च उवातिणावेति तस्स ते चेव दोसा, तं चेव इहावि अववादपदं वत्तव्वं ।।४१६५॥ जे भिक्ख दिया गोमयं पडिग्गाहेत्ता दिया कायंसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा आलिंपतं वा विलिपंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३२॥ जे भिक्खू दिया गोमयं पडिग्गाहेत्ता रत्तिं कायंसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा आलिपंतं वा विलिपंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३३॥ जे भिक्खू रत्तिं गोमयं पडिग्गाहेत्ता दिया कार्यसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा आलिपंतं वा विलिपंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३४॥ जे भिक्खू रत्तिं गोमयं पडिग्गाहेत्ता रत्तिं कायंसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा आलिंपतं वा विलिपंतं वा सातिज्जति ॥५०॥३शा चउक्कभंगसुत्तं उच्चारेयव्वं । कायः शरीरं, व्रणो क्षतं । तं तेण गोमयेण प्रालिपइ सकृत्, विलिपइ अनेकशो। अपरिवासिते मासलहुं, परिवासिते चउभंगे चउलहुं तवकालविसिट्ठा, प्राणादिया य दोसा । दियराओ गोमतेणं, चउक्कभयणा तु जा वणे वुत्ता । एत्तो एगतरेणं, मक्खेंताणादिणो दोसा ॥४१६६।। चउक्कभयणा चउभंगो ततिप्रोद्देसए जा व्रणे वुत्ता, इहं पि सच्चेव ॥४१६६।। णच्चुप्पतितं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाए तिव्वाए । अद्दीणो अव्वहितो, तं दुक्खऽहियासते सम्म ॥४१६७॥ पूर्ववत् Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे अव्वोच्छित्तिणिमित्तं, जीयट्ठीए समाहिउं वा । एएहिं कारणेहिं, जयणा लिंपणं कुज्जा || ४१६८ || पूर्ववत् गोमयगह इमा विधी - भणववोमिट्ठासति, इतरे उवओग काउ गहणं तु । माहिस असती गव्वं, अणातवत्थं च विसघाती ||४१६६ || [ सूत्र ३६-४१ वोसिरियमेत्तं घेत्तव्वं, तं बहुगुणं । तस्सासति इयरं चिरकाल वोसिरियं तं पि उपयोगं करेत्तुं ग्रहणं । जदिण संसत्तं तं निमाहिसं घेतव्वं । माहिसासति गव्वं । तं त्रि अणायवे ठियं, छायायः मित्यर्थः, तं सुसितं विसघाति भवति श्रायवत्थं पुण सुसियरसं ण गुणकारी ||४१६६॥ जे भिक्खू दिया लेवणजायं पडिग्गाहेत्ता दिया कार्यंसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिपेज्ज वा पितं वा विलिपंतं वा सातिज्जति | | ० || ३६ || जे भिक्खू दिया श्रावणजायं पडिग्गाहेत्ता रतिं कार्यंसि वर्ण आलिपेज्ज वा विलिपेज्ज वा लिपतं वा विलिपंतं वा सातिज्जति || मू०||३७|| जे भिक्खू रतिं लेवणजायं पडिग्गाहेत्ता दिया कार्यसि वर्ण लिपेज्ज वा विलिपेज्ज वा लिपतं वा विलिपंत वा सातिज्जति ||सू०||३८|| जे भिक्खु रत्ति आलेवणजायं पडिग्गाहेत्ता रतिं कार्यंसि वणं श्रलिपेज्ज वा विलिपेज्ज वा लिपतं वा विलियंतं वा सातिज्जति ॥ | सू०|| ३६ || आलवणजातं आलेवणप्पगारा । दियरातो लेवणं, चउक्कभयणा तु जा वणे वृत्ता । सो तो एगतरेणं, मक्खताणादिणो दोसा ||४२०० || सर्वं पूर्ववत् पुण लेवो चउहा, समणो पायी विरेग संरोही । छल्लितुवरमादी, णाहारेण इह पगतं || ४२०१ ।। वेदणं जो उवसमेति, १ पायि पागं करेति, २ । विरेयणो पुत्रं रुधिरं दोसे वा णिग्वाति, ३ । संरोही रोहवेति, ४ | जावइया वडछल्लिनादी तुवरा वेयगोत्रसमकारगा । इह अगाहारिमं परिसावेंत ।।४२०१ ।। चुप्पतितं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाए तिब्वाए । दीण हितो, तं दुक्ख हियासए सम्मं || ४२०२ || पूर्ववत् अव्वोच्छित्तिणिमित्तं, जीयट्ठीए समाहितं वा । एहि कारणेहिं, जयणा आलिंपणं कुज्जा ॥ ४२०२ || पूर्ववत् १ कप्पति जयणाए मवखेतुं इत्यपि पाठः । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४१९७-४२०७१ द्वादश उद्देशक: जे भिक्खू अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा उवहिं वहावेइ, वहावेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४०॥ जे भिक्खू तन्नीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ, देतं वा सातिज्जति ॥०॥४१॥ जे भिक्खू उवगरणं, वहावे गिहि अहव अण्णतित्थेहिं । आहारं वा देज्जा, पडुच्च तं आणमादीणि ॥४२०४॥ "ममेस उवकरणं वहइ" ति पडुच्च प्राहारं देज्जा तस्स चउलहुं प्राणादिया य दोसा । इमे य दोसा - पाडेज्ज व भिंदेज्ज व, मलगंधावण्ण छप्पतियनासो । अत्थंडिले ठवेज्जा, हरेज्ज वा सो व अण्णो वा ॥४२०५॥ स गिहत्थो अण्णतित्थिो वा उवकरणं पाडेज्ज, भायणं वा भिदेज, मलिणे दुग्गंधे वा उवकरणे प्रवणं वदेज्ज, छप्पतियानो वा छड्डज्ज वा मारेज्ज वा। अधवा – सो अयगोलो अथंडिले पुढविहरियादिमु ठवेज्ज । अधवा - तस्स भारेण प्रायविराहणा हवेज्ज । तत्थ परितावणादी जं च पच्छा प्रोसहभेसज्जाणि वा करेंतो विराति तण्णिप्फण्णं च से पच्छित्तं । तं उवकरणं सो वा हरेज, अणुव उत्तस्स वा अन्नो हरेज्ज । दुब्बलियत्तं साहू, बालाणं तस्स भोयणं मूलं । दगधातो अपि पियणे, दुगंछ वमणे कयुड्डाहो ॥४२०६॥ 'भगवता गोयमेण महावीरवद्धमाणसामी पुच्छितो -"एतेसि णं भंते ! बालाणं किं बलियत्तं सेयं ? दुब्बलियत्तं सेयं" ? भगवया वागरियं - "दुब्बलियत्तं सेयं, बलियत्तं अस्सेयं" । तस्स य बलियत्तणस्स मूलं आहारो । सो य साहुसमीवे आहार आहारेता बहूणि अधिकरणागि करेज्ज, उदगं वा पिएज्ज, प्रायमेज्ज वा, भुत्तो वा दुगंछाए वमेज्ज, रुयुप्पातो वा से हवेज । संजएहि एरिसं किंपि मे दिन्नं जेण रोगो जानो एवं उड्डाहो मरेज वा । सव्वत्थ पच्छाकम्मे फासुएण देसे मासलहुँ, अफासुएण देसे सवे वा चतुलहुँ, तम्हा गिहत्यो अन्न उत्थिो वा ण वाहेयन्दो, ण वा असणादी दायव्वं, ॥४२०६॥ भवे कारणं जेण वहावेज्ज वा असणादि वा देज्जा - असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । देसुट्ठाणे अपरक्कमे य वाहेज्ज देज्जा वा ।।४२०७॥ प्रसिवकारणे अोमे वा रायदुढे वा बोहिगादिभए वा वच्चंतो अप्पणा असमत्यो वहावेज्ज बा, तन्निमित्तं वा असणादि देज्ज । गिलाणो वहावेज्ज वा, गिलाणट्ठा वा गम्मते । देसुटाणे वा आरक्कमो गिहिणा वहावेज्ज देज्ज वा पाहारं ॥४२०७॥ १५० बेचरदाससम्पादितभगवतीसूत्रे (शत० १२ उद्दे० २) प्रश्रोऽयं जयन्ती श्राविकयाष्ट, नतु गौतमस्वामिना। तत्रपाठस्त्वयं - बलियत्तं भंते ! साहू, दुब्बलियत्तं साहू ? जयंती ! अत्थेगइयाणं जीवाणं बलियत्तं साहु, अत्थेगइयाणं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू... Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-४२ जे भिक्खू इमानो पंच महण्णवाओ महानईओ उद्दिवाओ गणियाओ वंजियाओ अंतोमासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरइ वा संतरइ वा, उत्तरंतं वा संतरंतं वा सातिज्जति । तं जहा-गंगा जउणा सरऊ एरावई मही ।।सू०॥४२।। तं सेवमाणे बावज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं । जे इत्यविशिष्टो निर्देश:, भिक्षोः । इमा . इति वक्ष्यमाणा प्रत्यक्षीभावे गणितामो पंच महणवानो इति बहूदकाः बह्वर्गवत्वादेव महानद्यः । ग्रहवा - महत् शब्दः प्राधान्यविस्तीर्णत्वे इत्यर्थः । __उद्दिट्ठायो नईओ, गणिया पंच इति, वंजिया णामे । बहुसलिला व महण्णव, महाणईओ य पाधण्णे ॥४२०८॥ पुव्वद्ध कंठं । पश्चाधं गतार्थम् । अंतो अभंतरे कालमासस्य मासकल्पविहारेण सकृत् कल्पत एव उत्तरितुं । तस्मिन्नेव मासे द्वि-तृतीयवारा प्रतिषेधः ।।४२०८॥ बाहाहि व पाएहि व, उत्तरणं संतरं तु संतरणं । तं पुण कुंभे दइए, नावा उडुपाइएहिं वा ॥४२०६।। णिरंतरं उत्तरणं, कभदतियादिएहिं संतरं संतग्णं । कुंभो एगो घडणावा वा, दतियो वातपूरिप्रो, णावा पसिद्धा, उडुवो कोटिंवो, प्रादिसद्दामो लाउपण्णीहिं । सादिज्जणा अमोयगा वाक्योपन्यासे, तं जहा गंगाद्याः प्रसिद्धाः, चउलहुं पावति ॥४२०६।। एस सुत्तत्यो। अधुना नियुक्तिविस्तरः - पंच परूवेऊणं, नावासंतारिमं तु जं जत्थ । संतरणम्मि वि लहुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥४२१०॥ "जं जत्थ" ति जदि उत्तरणं संतरणं वा जत्थ ति णदीए एएसि पंचण्हं णदीणं कम्हि वि उत्तरणं कम्हिइ संतरणं । अधवा - एक्काए चेव अप्पोदगत्थामे उत्तरणं बहूदगथामे संतरणं । संतरणे च उलहुं, प्रवि सद्दामो उत्तरणे वि चउलहुँ, दोसु वि प्राणादिया दोसा सवित्थरा भाणियवा ॥४२१०॥ पंचण्हं गहणेणं, सेसातो सूयिया महासलिला। तत्थ पुरा विहरिंसू, ण य तारो कयाइ सुक्खंति ॥४२११॥ पंचण्हगहणातो अन्ना वि जामो बहूदगानो, अविच्छेयवाहिणीग्रो तानो वि गहितायो। स्याद् बुद्धिः किमर्थ गंगादीनां ग्रहणं ? अत्रोच्यते - पच्छद्धं कंठं ॥४२११।। तत्थ संतरणे ताव दोसा भणामि - अणुकंपा पडिणीया, व होज्ज बहवे य पच्चवाया तु । एएसिं णाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुबीए ॥४२१२॥ . Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाध्यगाथा ४२०८-४२१७] द्वादश उद्देशकः तत्थ अणुकंपाए ताव भन्नति - छुभणं जले थलातो, अण्णे वोत्तारिता छुभहि साहू । ठवणं च पट्टि (त्थि) ताते, दटुं नावं च आणेति ।।४२१३।। साधु संतरणटुं जाणित्ता थलामो नावं जले छुभेज्जा । एत्य जहासंभवतो आउक्कायविराधणाए सट्टाणपच्छितं । पुब्वारूढे वा उत्तारेत्ता उदए वा छुहित्ता साधुगा विलग्गावेज्जा। साधुणो वा दळु संपट्ठियं गावं घरेज, साधुगो वा दट्टे परकूलातो गावं प्राणज्ज, एन्थ वि जहासंभवतो कायणिष्फणं ।।४२१३।। एत्थ जे अवतारिता उदगे वा ठूढा साधुणिमित्तं इमं कुज्जा - नाविय-साहुपदोसे, णियट्टणऽच्छंतका य हरितादी । जं तेण-सावतेहि व, पवाहणऽण्णाए किणणं वा ॥४२१४|| णावियस्स साधुः स वा पदोस ।.च्छेज्जा, जं वा ते पावेज्ज तणिकगं, जं वा ते नियटूंना तडे या अच्छता हरियादिछक्कायविराधणं करेज, जं च ते सावाहि पाविहिति, जं च अयं णावं कीतादी काउं पवाहेज्ज, एत्थ तगिफणं सव्वं साधुणो पावैति ।। ४२१४॥ परकूलातो णावाणयगगे इमो दिटुंतो - ___ मज्जणगतो मुरुडो, णावं माहण अप्पणाऽऽणेति । कहिया जति अक्खेवा, तति लहुगा मग्गणा पच्छा ।।४२१५।। पहायतो मुझे डराया साधुणो मंतरितकामा दट्टणं सयमेव णाविए प्राणेना साधुणो विलग्गावेना भणति - कहेह कि चि ताव जाव णं उत्तरमो । अक्वेवणादिकहालद्धि जुनी साधु कहेतुमाग्दो। तेण कहतेण अविश्वत्तो पाविय "मन्ने' ति मणियं कबृह, जेण एस माधु चिरं कति । कारणा मणियं गच्छंताणं जनिया पावल्लग्वेवा ननिया च उलहुगा । उनिण्णेण रन्ना ग्रंतेपुरे प्रक्वायं - अतिमन्दर कयगा माधुणो । अंतेपुरे को उहल्लू-मुग गयाणं विन्नवेति - जइ ते माथुणो इहं याणिज्जेज तो अम्हे वि मुगणेजामो धम्मकथं । न्ना गमिना, ग्राणिया, व मादी दोमा। जइ अंतेपुरे पायपरममुत्था दोमा ।।४-१५॥ कि च - मुत्त-ऽन्थे पलिमंथो, णेगा दोमा य णिवघरपसे । मतिकरण कोउएण व, भुना-ऽभुत्ताण गमणादी ।।४२१६।। कटा । एते अणुकंपदोमा गता। हमे 'पडिणीय'' दोसा - छुन्भण सिंचण बोलण, कंवल-मवला य घाडियाणिमित्तं । अणुमहा कालगना, नागकुमाग्मु उबवण्णा ॥४२१७।। १ गा० ४२१२ । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्र [ सूत्र-४२ तत्थ छुन्भणादिसु णावाए सामण्णेण दिट्ठता कज्जति । जहा मधुराए भंडीरजत्ताए 'घाडिएण अणापुच्छाए वइला गीता । तणिमित्तं वेरग्गिया सावगेण प्रणुसट्टा भत्तं पञ्चखायं । कालगया नागकुमारेसु उववन्ना ॥४२१७ ॥ तेहि ३६६ वीरवरस्स भगवतो, नावारूढस्स कासि उवसग्गं । मिच्छादिट्ठि परद्धो, कंबल - सबलेहि तित्थं च ||४२१८|| भगवं णावारूढो, नागकुमारेण सुदाढेण उवसग्गितो, कंबलसबलेहिं मोइन, महिमा य कया, तम्मि य पदेसे तित्थं पव्वत्तं ॥ ४२१८" "भण" त्ति पडिणीग्रो णावाए श्रारुभंते साधुणो भणति 1 ||४२१६ ॥ सीसगता विण दुक्खं, करेह मज्झं ति एवमवि वोत्तु जा तु समुद्दे, मुंचति नावं विलग्गे सिद्धत्यग समिपत्त पुप्फागि वा सिरट्टियाणि जहा पीडं ण होय, एवं वतुं पि जाहे णावं श्रारूढा साधवो ताहे मुंचति णावं तत्थ किलस्संतु, मरंतु वा ॥४२१६ ॥ "छुब्भण" त्ति गयं । "४ सिंचण बोलण" दो वि दारे जुगवं वक्खाणेति करेंति एवं मम तुब्भे पीडं ण करेह, दिमुहेसु "जो" तु समुद्दे पडतु त्ति, सिंचति ते उवहिं वा, ते चेत्र जले छुभेज्ज उवहिं वा । मरणोवहिणिफण्णं, अणेसिय तणादि तरपण्णं ||४२२० ॥ णाविगो श्रण्णो वा पडिणीश्रो साधु सिचति, उर्वाहि वा । """बोलणत्ति - ते चैव साधू जले छुहेजा उवहि वा । आयविराहणाए परिताव मरण गिप्फगं, जं च उवधिणासे प्रणेसणिज्जं गेहिहिति जं च सिरामिरे त सेवेहिति, सव्वं तणिष्णं पावति । तरपणे च मग्गेज्जा, अदिज्जमागे वा भेज्जा, दिज्जमाणे प्रधिकरणं ॥ ४२१६।। "सिंत्रण बोलण" त्ति दो दारा गता । इयाणि ""बहवो य पच्चवाया उ" त्ति ग्रस्य व्याख्या संघट्टणाय घट्टण, उवगरणपलोडसिंचणे दोसा । सावयतेणे तिण्हेगतरा, विराहणा संजमाऽऽयाए ॥ ४२२१ ॥ पुव्वद्धस्स इमं वक्खाणं तस - उद्ग-वणे घट्टण, मिंत्रण लोगो य नाविसिंचणया । - लाट्टण उवही उभए, बुडण एमेव अन्याहे ॥४२२२|| जलसंभवा तमा, दग मेवालादि बगकायो-एने संघट्टग-परिता उणादि । साधु उवगरणं वा लोगो विगा वा सिज्ज वा पादेहि वा मज्जा, साधु उवकरणं वावगावात लोट्टेज्ज । प्रतिसंबाधे वा सलोन । एवं वान्या वा उहि श्राता तदुभयं वा बुडुडेज्ज ||४२२२|| १ मित्र । २ गा० ४२९० । ३ जो इत्यपि पाठ: । ४ गा० ४२९७ । ५ गा० ४२१७ । ६ ० २०१२ । 'मत्र इति पाठान्तरम् । - Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४२१८-४२२७] ""सावयतेणे" त्ति प्रस्य व्याख्या भमंति ||४२२३ ॥ हारमगरादीया, घोरा तत्थ उ सावया । सरोवहिमादीया, नावातेणा य कत्थइ ||४२२३॥ प्रोहारो मच्छो । सेसं कंठ । सरीरतेण उवकरणतेणा उभयतेणा वा कत्थइ समुद्दमज्भे गावाहि "" '' तिण्हेगतर" त्ति प्रस्य व्याख्या सावयतेणे उभयं, अणुकंपादी विराहणा तिष्णि । संजम आउभयं वा, उत्तर-णावुत्तरंते य ||४२२४ ॥ सावया, तेणा, सावया वि तेणा वि । ग्रहवा - प्रणुकंपाए पडिणीयटुयाए प्रणुकंपपडिजीयट्टयाए वा ग्रहवा संजमविराहणा प्राथविराहणा उभयविरहण। । संतरणं गतं । द्वादश उद्देशक: - ग्रहवा नावं प्रारभते, णात्रा श्रारूढे जावातो उत्तरंते य एवं बहवां पश्चात्राया भवंति ॥४२२४॥ इयाणि ४ उत्तरणं तत्थ उत्तरणम्मि परूविते, उत्तरमाणस्स चउलहू होति । प्राणो य दोसा, विराहणा संजमाया ॥ ४२२५ || कंठा तास्त पगारा जंघद्धा संघट्टो, संघट्टुवरिं तु लेव जा णाभी । तेण परं ब्रुवरिं, बादी णाववज्जेसु ||४२२६ || जत्थ तले पादतलातो प्रारुभेऊणं जात्र मुक्कजंघाए प्रद्धं बुहुति एस संघट्टो भन्नति । मुक्कजंषद्धाम्रो श्रारभेऊ उबर जाव णाभी बुहुति एम लेवो भग्नति । णाभीतो श्रारभेऊण उवरि सव्यं लेवोवरि भन्नति । तदुत्रिह - थाहं प्रथाहं च । जत्थ णासियं ण बुडति तं याहं । जत्थ पुण णासिया बुडुति तं प्रत्याहं । बादि वा गावावज्जेसु जत्थ तरंतो जलं संघट्टेति तं सव्वं उत्तरणं भन्नति ॥। ४३२६ ।। तत्थ उत्तरणे इमे दोसा - संघट्टणाय सिंचण, उवकरणे पडण संजमे दोसा । चिक्खल्ल खाणु कंटग, सावय-भय- वुज्झणे श्राता ॥४२२७|| लोगेण मास संघट्टणा, साघू वा जलं संघट्टेति । ३६७ - ग्रथवा संभवतो काय संघट्टणे पच्छितं वत्तम्वं । संघट्टणगहणामो परितावणोद्दवशे विगहिते, तणं च । परिणम्रो साधुं उपकरणं च वा से सिचति, प्रणुकंवाए वा सां सिचति, साधू वा प्रप्पणाअप्पा सिचेजा, पडणं वा साधुस्स उवकरणस्स वा उदए। एते संजन दोसा । इमे गच्छद्धगहिता ग्रामवि राहणा १ गा० ४२२१ । २ उवहा इत्यपि पाठः । ३ गा० ४२२१ । ४ सूत्र ४२ । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [सूत्र-४२ दोसा - सचिखले जले चुप्पति, जलमग्मे प्रवक्तुविमए खाणुकंटएण वा विझेग्म, मगरादी सावयभयं भवति, णदीवाहेण वा युज्झइ ।।४२२६।। 'इमं च कप्पस्स चउत्युद्देसगाभिहितसुत्तस्स खंडं भन्नति, एरवति कोणालासु जत्य चक्किया इत्यादि । इमो सुत्तत्यो एरवति जम्मि चक्किय, जलथलकरणे इमं तु णाणतं । एगो जलम्मि एगो, थलम्मि इहई थलाऽऽगास।।४२२८॥ एरवती नदी कुणाला जणवते, कुणालाए गगरीए समीवे प्रद्धजोयणं वहति । सा य उव्वेधेणं प्रदजंघप्पमाणं, अन्नाए य जम्मि प्रद्धं जघपमाणं "चक्कियं" ति सकिज्जति उत्तरिउ तत्थ जलथलकरणे उत्तरियव्वं, जलथलाप णाणतं पच्छद्धगहितं, ण वि रोलेनेग गतवमित्यर्थः ।।४२२८।। एरवतिकुणालाए, वित्थिण्णा अद्धजोयणं वहती। कप्पति तत्थ अपुण्णे, गंतुं जा वेरिसी अण्णा ॥४२२६।। पुष्वद्धं गतायं । उडुबद्धकाले अपुग्ने मासकप्पे जाव तिन्निवारा भिक्खलेवादिक जेम् जगण कप्पति । मन्त्रा वि जा णदी एरिसी ताते वि कप्पति गंतु । उत्तरगमंतरणानि स्वविवानेन पूर्ववत् । अधवा - दगसंघट्टे सकृद उत्तरणं, द्वितृतीयवारा सतरणं ।।४२२ ।। भणियो मुत्तत्थो। इयाणि णिज्जुत्ती। उतरणे पंथप्पगारा भण्णंति - संकम थले य णोथले, पासाणजले य वालुगजले य । सुद्धदग-पंकमीसे, परित्तऽणंते तसा चेव ।।४२३०।। तिविहो पंयो संकमेग थलेणं गोयलेणं । ज त गोथलेणं तं च उदिवह – पामागप्रल, वालुया जलं' सचित्तपुढवीए सुद्धदगं. पंक मीम जलं, तम्मि खुपतेहिं गम्मति । एकके के परितगंतकाया नसाणा य विराहगा संघट्टणादिया संजविराघणा भवति ।।४२३०।। जलेण गम्ममाणे विकल्पप्रदर्शनार्थमाह - उदए चिक्खल्लपरित्तऽणंतकानिग नम य मीमे य । . अक्कंतमणक्कते, मंजोगा हुंति अप्परहुं ।।४२३१।। 'अह पुण एवं जाणज्जा - एरवइ कुणालाए जन्थ चकिया एगं पायं जल किना एगं पायं थले किचा. एवं से कप्पइ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्युना वा उत्तरिए वा संतरिए वा । जत्थ नो एवं चकिया, एवं से नो कप्पड़ अंता मासस्म दस्युत्ता वा तिकवुना वा उत्तरिए वा संतरिए वा (वृ० क० उ० ४, मू० २७) Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायगाथा ४२२५-४२३५) दादरी उददेशक: ३६९ उदगग्गहणे उदए तेऊवाऊविहूणा एग-दु-तियादी चिक्सल्लादिपुढवीसु वणस्सतीसु य परित्ताणतेसु तसेसु य इंदियासु, एएसु पुव्वं मीसेसु, पच्छा सचित्तेसु, घिरमधिरेनु, मक्कतमणक्कतेमु, संजोगा भाणियव्वा । प्रप्पाबहुअं" ति एएसु संजोगेसु बेसु पप्पतरा संजविराधणा दोसा तेसु गंतव्वं ॥४२३१।। "संकम" ति जत्थ संकमो तत्थिमे संकमभंगविगप्पा - एगंगिय चल थिर पाडिसाडि णिरालंब एगतो समए । पडिपक्खेसु य गमणं, तज्जातियरे च संडे वा ॥४२३२॥ संघातिमासंघातिमो एगंगिमो भवति, तेण गंतव्वं, ण चलेण । पारिसाडिणा ण गंतव्वं । पपारिसाडिणा गंतव्वं । ण णिरालंबेण एगतो वा सालबेण गंतव्वं । दुहनो ( वा ) सालवेण गंतव्वं । सभए ण गंतव्वं, पडिपक्खे जिम्मएण गंतव्वं । प्रणेगंगिय-चल-परिसाडि-णिरालंब-सभए एतेसि पचण्हं पदाणं पडिपक्सेसु गमणं । एत्य बत्तीसभंगा कायव्वा । एमो पढममंगो सुदो । सेसा असुद्धा । तेसु वि बहुगुणतरेसु गमणजपणा कायया । "संडे" वा संक्रमविकपो त्ति, प्रमो मण्णति - ते दुविहा - तज्जाया प्रतज्जाया वा, तत्थेव जाया सिलादी तज्जाया, अण्णमो दारगादी पाणेता ठविया प्रतज्जाया । तेसु वि चलाचल-प्रक्कताऽगक्कंत-समयणिन्मयादी भेदा कायवा ॥४२३२॥ "संकमे" ति गतं । इदाणि "२थले" ति णदिकोप्पर चरणं वा, थलमुदयं नोथलं तु तं चउहा । उवलजल वालुगजल, सुद्धमही पंकमुदयं च ॥४२३३॥ णदीए माउंटिय कोप्परागारं चलणं तेण गम्मति, जलोवरिकवाडाणि मोत्तुं पालिबंधो कज्जति तेण चरणेणं गम्मइ, एत्थ वि प्रक्कंत-प्रणकंत-समय-णिम्भयादी भेदा वत्तम्वा । “उदग" ति थलेण उदयस्स परिहारो। थलं ति गतं । . इयाणि "णोथलं" ति तं चउव्विहं पच्छद्ध। अहो पासाणा उवरिं जलं, अहो वालुगा उवरि जलं, अहो सुद्धमही उवरि जलं, अहो पंको उरि जलं ।।४२३३।। पंकुदगे इमे विधाणा लत्तगपहे य खलुते, तहद्धजंघे य जाणु उवरिं च । लेवे य लेवउवरिं, अक्कंतादी य संजोगा ॥४२३४॥ जम्मेत्तं प्रलसगेण पादो रज्जति तम्मेतो कदमो जम्मि पथे सो लतगपहो, खलुगमेत्तो कद्दमो. अजंघमेत्तो जाणुमितो, “जाशुवरि लेवे" ति णाभिमेतो लेबो, लेबोरिं च कद्दमो। एते सव्वे कद्दमप्पगारा चविहे गोयले कद्दमे य सभेया पक्कताशक्कंत-समय-गिब्भयादी सव्वे जहासंभवं संजोगा कायव्वा ।।४२३४॥ इमेण जुत्तो पंथो परिहरियव्वो जो वि य होतऽक्कतो, हरियादितसेहि चेव परिहीणो । तेण वि उण गंतव्वं, जत्थ अवाता इमे होति ॥४२३॥ कंठा। .. १ गा० ४२२० । २ गा० ४२३० । ३ गा० ४२३० । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [सूत्र-४२ इमैहिं सावातो पथो भवति - गिरिणदि पुण्णा वालादिकंटगा दूरपारमावत्ता । - चिक्खल्ल कल्लुगाणि य, गारा सेवाल उबले य॥४२३६॥ जत्थ पहे गिरिणदी पूरपुण्णा तिब्बवेगा मगरादि वाला अंतो जले जत्थ पासाण-कंटका वणप्फति कंटका वा पूराणीया, दूरपारं वा जलं, पावत्तबहुलं वा जलं, चलणिचिक्खल्लो वा जत्य, कोंकणविसए णदीसु अतो जलस्स कल्लुगा पासाणा भवति ते पादं अचेयणं करेंति छिदति "गारा" गारिसरिसाणि पिण्णाणि, लोकप्रसिद्धानो अद्दगा, सेवालो प्रसिद्धो, उबला छिन्नपासाणा ।।४२३६।। चउविहे णोथले पुव्वं इमेण गंतव्वं - उवलजलेण तु पुव्वं, अक्कंत णिरच्चएण गंतव्वं । तस्सऽसति अणक्कते, णिरव्वएणं तु गंतव्वं ।।४२३७॥ उवलजले कद्दमाभावे स्थिरसंघननाच्च अतः पूर्व तेन गम्यते । सेसं कंठं । तस्त प्रभावे सिगतजलसुद्धपुढवीए य कमेणं ॥४२३७॥ अतो भन्नति - एमेव सेसएहि वि, सिगतजलादीहि होंति संजोगा। पंक मधुसित्थ लत्तग, खलुऽद्धजंघा य जंघा य ॥४२३८॥ उवलातो वालुया अप्पसंघयणतरा तेण वालुयाजलेण पच्छा गम्मति, वालुगातो सुद्धपुढवी अप्पसंघयणत गा तेण वालुयाजलातो पच्छा तीए गम्मति, . तेसु प्रतादि संजोगा पूर्ववत् । पंकजलं बहुप्रवायं, अन्नपहाभावे तेण पच्छा गम्मति । सो य पंको जो महुसित्यागिती लत्तगमेत्तो तेण पहेण गम्मति, पच्छा खलुगमेत्तेण, पच्छा प्रद्धजंघप्पमाणेण, तो पच्छा जंघप्पमाणेण - जानुमात्रणेत्यर्थः ।।४२३८।। जो पुण जाणुप्पमाणातो परेण पंको तेण ण गंतव्वं - जो भन्नति - अडोरुगमेत्तातो, जो खलु उवरिं तु कद्दमो होति । कंटादि जहो वि हु सो, अत्थाहजलं व सावातो ॥४२३६॥ जाणुप्पमाणातो उवरि कद्दमो जो सो कंटादि अवायवजितो वि गतिमभावातो सावातो चेव भवति, प्रत्थाहजलवत् ।।४१३६॥ एसो विधी सब्बो उवलादिसचित्तपुढवीए भणियो। अह अचित्तादीपुढवी तो इमा विधी - जत्थ अचित्ता पुढवी, तहियं आउ-तरुजीवसंजोगा। जोणिपरित्त-थिरहिं, अक्कंत-णिरचएहिं च ॥४२४०॥ पुढवी सम्वत्थ प्रश्चित्ता, कि प्राउकाएण गच्छउ, कि वणस्मतिमा गच्छनु ? माउकाए गियमा वस्सती अस्थि तम्हा तेश मा गच्छतु, वशम्सतिणा गच्छतु । तत्थ वि परितजोणिएण घिरसंघयोग, Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४२३६-४२४४ ] द्वादश उददेशक: त्थवि प्रक्कतेण तत्थ वि गिप्पच्चवातेण सपच्चवातेण बितिम्रो । प्रणक्कते वि एते चैव दो विकल्पा । एवं थिरे विचउरो विकल्पा । प्रथिरे च चउरो एवं परिते श्रविकल्पा । एवं प्रणते विग्रटु । एवं परि अविकप्पा | एवं प्रणते वि अट्ठ । एवं सव्वग्गेग वणस्सतिकाए सोलस विकप्पा ॥४२४-।। दाणि उस्स तसाण य संयोगो भन्नति - - एमेव तु संजोगा, उदगस्स चतुव्विहेहि तु तसेहिं । अक्कंत-थिरसरीरे, णिरच्च एहिं तु गंतव्वं ॥ ४२४१ ॥ उब्विा तसा - बेंदिया तेइंदिया चतुपंचिदिया । एत्थ पुव्वं बेंदिएसु थिरेसु प्रक्कतेसु पिच्चवाएण एस पढमभंगो, सपच्चवातेण वितिश्रो । प्रणककंते वि एते चेव दो विकप्पा । एवं प्रथिरेसु चउरो विगप्पा | एवं तेइंदिय च उरिंदिय पंचिदिए वि श्रदृष्ट्ठ विगप्पा । एवं तसेसु वि सव्वग्गेणं बत्तीसं विगप्पा | श्रह संतर गिरंतरविगप्पो कज्जति तो तसेसु सव्वग्गेणं चउसट्ठि विगप्पा भवति ॥ ४२४१|| ते वासु गमणस्सासंभवो त्ति अम्रो भन्नति - तेऊ - वाउ विहूणा, एवं सेसा वि सव्वसंजोगा । उद्गस्स तु कायव्वा, जेणऽहिकारो इहं उदए ||४२४२|| वि दुगसंजोगो भाणियव्वो । पुव्वं तसेमु थेरादिस गंतव्वं, जतो वणे वि णियमा वण सतत तसा प्रत्थि त्ति । .३७१ पुढी -प्राउ वणस्सति तिगसंजोगो, तिसु विसंभवे कयमेण गच्छउ ? पुव्वं पुढविणा, ततो वणस्सतिणा तम्रो आउणा | पुढवि-प्राउ वणस्सति-तसेसु ति एस चउक्कसंजोगो । वउक्कसंभवे कतरेण गंतव्वं ? पुव्वं प्रच्चित्तपुढवीए, तो विरलतसेसु तम्रो सच्चित्तपुढवीए, तम्रो वणस्सतिणा, तम्रो श्राउणा, एते सेससंजोगा भणिया । बहुभंगवित्रे बीयमेत्तमभिहितं । एत्थं पुण भंगवित्यरे जे उदगं प्रमुचंते भंगा भवंति ते कायव्वा, , जेण इह उदगाधिगारो । सेसभंगा पुण इह विकोणट्ठा भणिया ।। ४२४२ ।। "तो मारास दुक्त्तो तिक्खुत्तो उत्तर" त्ति ग्रस्य सूत्रपदस्यार्थः एरवति जत्थ चक्किय, तारिसए ण उवहम्मती खेत्तं । पडिसिद्ध उत्तरणं, पुण्णे असति खेत्तणुष्णातं ॥ ४२४३॥ एरवती नदी कुणाला जगपदे सा श्रद्धजोयणवित्थिष्णा श्रद्धजंघऽत्थाहं उदगं वहति । ताए केइ पसा सुक्खा त्यि । उदगं तं जो उत्तरित्ता भिक्खायरियं करेति तत्य उडुवद्धे जत्थ तिष्णि दगसंघट्टा ते गतागते छ, वामासु सत्त ते गयागएणं चोट्स । एतो एक्केण वि अहिएहि उवहम्मति खेत । जत्थ एत्तिया दगसंघट्टा तत्थ वि एवं चेव अन्नत्य वि "पडिसिद्ध उत्तरणं" पच्छद्ध, अस्य व्याख्या - पुने मासकप्पे वासावासे वा जति अगुत्तिणाणं प्रत्थि अणं खेत्तं मासकपपायोग्गं तो ण उत्तरियव्वं, जाणि प्रतिष्णाणि खेत्ताणि तेसु विहरियव्वं, ग्रह प्रणुत्तिष्णाणं श्रन्नं नत्यि खेतं तो उत्तरियव्वं ॥ ४२४३ ॥ | सत्त तु वासासु भवे, दगवट्टा तिनि होंति उडुबद्ध े । जे उ ण हणंति खेत्तं, भिक्खायरियं च ण हरंति ||४२४४|| र्था Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाध्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४२ जह कारणम्मि पुण्णे, अंतो तह कारणम्मि असिवादी । उवहिस्स गहण लिंपण, णावोदगं तं पि जयणाए ॥४२४५॥ जहा कारणे पुणे मासकप्पे वासावासे वा प्रनखेतासती य दिटुं उत्तरणं तहा अंतो वि मासस्स असिवादीहिं कारणेहिं उवही वा अन्नतो दुल्लभा लेक्स्स वा अट्ठाए उत्तरेज्जा। "णावोदगं तं पि जयणाए" ति असिवादिएहिं चे कारणेहिं जं उदगं णावाए उत्तरिता उजाणं गम्मति ।।४२४५।। जत्थ गंतव्वं तत्थिमा विधी णाव-थल-लेवहेट्ठा, लेवे वा उवरिए व लेवस्स । दोण्णी दिवड्डमेक्कं, अद्धं नावाए परिहाति ॥४२४६॥ णावुत्तरणथामातो जइ दो जोयणाणि पज्जोहारेण वक्कथलेण गम्मति तेण गंतव्वं, मा य णावाए । दो 'जोयणाइ गंतु, जहियं गम्मति थलेण तेणेव ।। मा य दुरूहे णावं, तत्थावाया बहू वुत्ता ॥४२४७।। गतार्था एवं गाया उत्तरणथामामो 'लेवेहे?' ति दगसंघट्टणेण दिवड्डजोयणेण गच्छउ मा य णावाए । एवं णावुत्तरणथामातो जोयणपज्जोहारेण लेवेण गच्छउ मा य णावाए । एवं णावुत्तरणथामातो अद्धजोयणपज्जोहारेणं लेवुवरिए गच्छतु मा य नावाए । एस नावुत्तरणथामाो परिहाणी वुत्ता। एवं चेव लेवोवरि उत्तरणथामापो दिवड्डजोयणपज्जोहारेण थलेण गंतव्वं मा य लेवोवरिणा लेवुत्तरणथामामो एगजोयणपज्जोहारेण संघट्टेण गच्छउ मा य लेवोवरिणा । लेवुत्तरणथामामो भद्धजोयणपरिहारेण प्रद्धजोयणेण संघट्टेण गच्छतु मा य लेवेण गच्छउ, मा य लेवोवरिणा । एसा लेवुवरिथामातो परिहाणी। लेवुत्तरणथामातो एगजोयणपज्जोहारेण थलेण गच्छ उ मा य लेवेण । लेवुत्त रणथामातो अद्धजोयणेण संघट्टेण गच्छतु मा य लेवेण, एस लेवातो परिहाणी। संघटुत्त रणथामातो पद्धजोयणपज्जोहारेण थलेण गच्छतु मा य संघट्टेण, एतेसि परिहासणं असतीए णावालेवोरि लेवसंघट्टेहि वि गंतब्बं जयणाए ॥४२४७ । तत्थऽद्धजंधाए वि इमा जयणा - थलसंकमणे जयणा, पलोयणा पुच्छिऊण उत्तरणं । परिपुच्छिऊण गमणं, जति पंथो तेण जयणाए ॥४२४८।। "थलसंकमेणे" त्ति एगं पादं थले विभासा, पलोयणा णाम लोयं उत्तरत पलोएति, जेणं जेणं प्रवजंघामेत्तं उदगं तेणं तेणं गच्छति । मह उत्तरते ण पासेज्जा तो पाडिपहियमण्णं वा पुच्छति, "जतो गीयतरागं उदगं ति तं चिहिति'' ति वुत भवति । परिपुच्छिऊणं ति जदि तस्स उदगस्स परिहारपंथो मस्थि तं पुच्छिऊण तेण जयणाए गंतव्वं ।।४२४८।। अह तेण थलपहेण इमे दोसा हवेज्ज - समुदाणं पंथो वा, वसही वा थलपहेण जति णत्थि । सावयतेणभयं वा, संघट्टेणं ततो गच्छे ॥४२४६।। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४२४५-४२५४ ] द्वादश उद्देशक: ३७३ समुदाणं भिक्खा णत्थि, अथवा थलपहो चेव णत्थि, वसधी वा पत्थि, सिंहादिसावतभयं वा, परीरोवहितेणभयं वा, तो थलपहं मोत्तुं उदगसंघट्टेणं गंतव्वं ॥४२४६॥ तदभावे लेवेण वा तत्यिमा उत्तरणजयणा - एते चेव य दोसा, जति संघट्टेण गच्छमाणस्स । तो लेवेणं गच्छे, णिरवाएणं तिमा जयणा ॥४२५०।। णिभए गारथीणं, तु मग्गतो चोलपट्टमुस्सारे । सभए अत्थग्घे वा, अओइण्णेसु घणं पढें ॥४२५१।। जइ गिहिसत्थसहायो ताहे उदगसमीवं गंतु, उड्डगकायं मुहणंतगेण पमज्जित्ता, महोकायं रयहरणेणं उपकरणं पडिलेहित्ता, एगो य तं उवकरणं करेत्ता, जदि चोरभयं णत्थि तो गिहत्याण सव्वपच्छप्रो उदगमवतरति । जह जह मोग ढतरं जलमोगाहइ तह तह पच्छम्रो ठितो उवरुवरि चोलपट्टमुस्सारेइ जहा ण भिज्जइ । __ अह सत्यपच्छो भयं अथाहं वा जलं तो जाहे प्रगतो गिहत्या केत्तिया वि उत्तिण्णा ताहे साहू मज्झे अवतरति, चोलपट्ट च घणं कडीए - दढं बंधतीत्यर्थः ।।४२५१॥ ___एतेण विहाणेण उत्तरंतस्स जइ चोलपट्टो भिन्नो, अन्नं वा किं चि उवकरणजायं, तो इमो विही दगतीरे ता चिट्टे, णिप्पगलो जाव चोलपट्टो उ । सभए पलंबमाणं, गच्छति कारण अफुसंतो ।।४२५२।। पगलमाणं दगसंरक्खणट्ठा दगे दगसमीवे वा निद्धपुढवीते ताव चिट्ठति जाव चोलपट्टो अन्नं वा उपकरणं णिप्पगलं । अह तत्य अच्छंनस्स भयं तो पगलमाणमेव सरीरे प्रफुसंतो गच्छति, बाहाए पलंबमाणं मेइ । ४२५२॥ जत्थ सत्थविरहियो एगागी दगमुत्तरइ तत्थिमो विही - असति गिहि णालियाए, पाणक्खेत्तुं पुणो वि पडियरणं । एगाभोगं च करे, उवकरणं लेव उवरिं च ॥४२५३।। गिहिसहायासइ सव्वोवकरणं प्रोयरणतीरे मोत्तुं, नालिगा प्रापप्पमाणातो चउरंगुलाइरित्ता, तं घेत्तुं जलमोयरित्ता, तीए प्राणवखेउ-उवग्घइत्ता इत्यर्थः, परतीरामो पुणो वि जलपडियरणं करेति-प्रत्यागच्छतीत्यर्थः । प्रागंतूणं तं सुक्कोवकरणं एगाभोगं करेति, तं घेत्तुं तेण प्राणक्खितजलपहेण उत्तरति । एस लेवे लेवुवरित था विही भणितो।।४२५३॥ थलसंघट्टलेवलेवोवरिपहेसु विज्जमाणेसु वि अववादण णावं दुरुहेज्जा। इमेहि कारणेहिं - बितियपय तेण सावय, दुब्भिक्खे कारणे व आगाढे । कज्जुबहि मगर वुज्झण, नावोदग तं पि जयणाए ॥४२५४॥ तेसु थलाइपहेसु सरीरोवहितेगा दुविहा होज, सीहादिसावयभयं वा होज्ज, भिक्खा वा न लगभइ, अागाढं वा अहिडक कविसविसूइयादि गिलाणकज्जं वा होज्ज, एवमादिकारणेहि विप्पं प्रोसहेहिं कज्जं Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४२ हवेज्ज, अतितुरियं वा कुलाइकज्ज हवेज्ज, उवकरणुप्पादणार्थ वा गच्छे, लेवलेवोवरिएहिं वा मगरभयं, अहवा लेवलेवोवरिएहिं बुज्झण भयं, एवमादिएहि कारणेहिं णावातारिमं उदगं गच्छेज्जा, तं पि जयणाए गच्छइ । अहवा- "कज्जुबहि" ति एगाभोगो उवही करेज्जा । किं कारणं ? कयाइ पडिणीएहिं उदगे छुन्भेज्ज, तत्थ मगरभया एगाभोगकएसु पादेसु पारुभइ, एगाभोगकएसु वा बुझइ - तरतीत्यर्थः । णावाए वा विणट्टाए एगाभोगकए दगं तरंतीत्यर्थः । अधवा :- णावोदगं "तं पि जगणा।'' त्ति जइ बलाभियोगेणं णावाइउदगं उस्सिंचावेजेज्जा, तं जयणाए उस्सिंचियव्वं ॥४२५४॥ तं पुण एगाभोगं उवकरणं कहं करेंति ? अत उच्यते - पुरतो दुरूहणमेगंते, पडिलेहा पुव्य पच्छ समगं वा । सीसे मग्गतो मज्झे, बितियं उवकरण जयणाए ॥४२५५॥ ण गिहत्थाणं पुरतो उवकरणं पडिलेहेति, एगाभियोग वा करेति, दुरूहणित्ता णावं दुरुहित्तुकामो एगंतमुवक्कमित्ता उवकरणं पडिलेहेति, अहोकायं रयहरणेण, उवरिकायं मुहणंतगेण, भायणे य एगाभोगे बंषित्ता तेसि उरि उवहिं सुनियमित करेइ, भायणमुवहिं च एगट्ठा करोतीत्यथः । । अन्ने भणंति - सव्वोवही (एगट्ठा कजति भायणं उमथिए) एगट्ठाणे पुढो कजति । "पुवपच्छसमगं व" त्ति गिहत्थाणं किं पुव्वं दुरुहियव्वं अह पच्छा अध समगं ? एत्थ भण्णति - जदि य थिरा णावा ण डोलायति तो पुव्वं दुरुहियव्वं, समगं वा, ण पच्छा । अध पंता तो ण पुव्वं, मा अमंगलमिति काउं रूसेज्ज । तेसि पंताण भावं णातुं समगं पच्छा वा । प्रारुभेज्ज । "सीसे" त्ति णावाए सीसे ण दुरूहियव्वं, तं देवताणं ठाणं । “मग्गतो" त्ति पच्छतो वि ण दुरुहियव्वं, तं णिज्जामगट्ठाणं । मझे वि ण दुरुहियव्वं तं कूत्रगट्टाणं, तत्य वा चरता भायणादि विराहेज्ज । सेसमज्झे दुरूहियव्वं । जदि मझे ठातो णत्थि तो सेसंते निराबाहे ठाति, जत्थ वा ते ठवेंति तत्थ ठायति । सागारं भत्तं पच्चक्खाति त्ति, णमोक्कारपरो ठायति । उत्तरंतो ण पुनमुत्तरति, मझे उत्तरति, ण पच्छा । सारुवहि पुत्वमेव अप्पसागारिया कज्जति । उस्सग्गेण तरपन्नं ण दायव्वं । अह तरपन्न नाविप्रो मग्गेज्ज, ताहे अणुसट्ठिधम्मकहादीहिं मेल्लाविज्जति । अमुंचते बितियपदेण दायव्वं, तत्य वि मात्मोपकरणं जं तं पंतं दिज्जति, जदि तं णेच्छति रुभति वा तत्थ अणुकंपाए जदि अन्नो देज्ज सो न वारेयव्वो, अप्पणा वा अण्णतो मग्गित्ता दायव्वं ॥४२५५॥ ॥ इति विसेस-निसीहचुण्णीए बारसमो उद्देसो सम्मत्तो ।। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश उद्देशकः उक्तो द्वादशमोद्देशः । इदानीं त्रयोदशमः । तत्थ संबंधगाहा इमा - णावाए उत्तिण्णो, इरियापहिताए कुणति उस्सग्गं । तमणंतरादि पुढविसु, णिवारणट्रेस संबंधो ॥४२५६।। संघट्टादि जाव णावाए उत्तिण्णो उदगं 'इरियावहियं पडिक्कमइ' तं उस्सग्गं प्रणं वा चेद्रा उस्सग्गं कत्थ करेति त्ति कत्थ वा न करेइ त्ति एस संबंधो ॥४२५६।। संबंधाणंतरं इमं सुत्तं - जे भिक्खू अनंतरहियाए पुढबीए ठाणं वा सेज वा णिसेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, एंतं वा सातिजति ॥०॥१॥ जे भिक्खू ससणिद्धाए पुढवीए ठाणं वा सेज्जं वा णिसेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, चेएतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२॥ जे भिक्खू मट्टियाकडाए पुढवीए ठाणं वा सेज्ज वा णिसेज्ज वा निसीहियं वा चेएइ, चेएतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३॥ जे भिक्खू ससरक्खाए पुढवीए ठाणं वा सेज वा णिसेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, चेएतं वा सातिज्जति ॥मू०॥४॥ जे भिक्खू चित्तमंताए पुढवीए ठाणं वा सेज्नं वा णिसेज्जं वा निमीहियं का चेएइ, चेएतं वा सातिज्जति ।।सू०॥॥ जे भिक्खू चित्तमंताए मिलाए ठाणं वा सेज्जं वा णिसेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, चेएतं वा सातिज्जति ॥०॥६॥ जे भिक्खू चित्तमंताए लेलूए ठाणं वा सेज्जं वा णिसेज वा निसीहियं वा चेएइ, चेएतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७॥ चए, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सून १-२ जे भिक्खू कोलावासंसि वा दारुए जीवपइट्ठिए सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सप्रोस्से सउदए सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टियमक्कडासंताणगंसि ठाणं वा सेज्जंवा णिज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, चेएतं वा सातिज्जति।।।।८।। ससणिद्ध ससरक्ख सिला लेलू कोलावास सअंडे सपाणे सबीए सहरिए उतिग-पणग-सउस्संदग. मट्टिन मक्कडग-संकमणं । एते सुत्तपदा । इमं वक्खाणं - पुढवीमादी ठाणा, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । तेसुट्ठाणादीणी, चेएंताणादिणो दोसा ॥४२५७।। ठाणं काउस्सगं, प्रादिसद्दातो णिसीयण-तुयट्टणा चेयणकरण, 'मणंतरहिया णाम सचित्ता, तम्मि सटाणे पच्छित्तं चउ लहुं ॥४२५७।। अहवा अंतररहिताणंतर, ईसिं उल्ला उ होति ससणिद्धा । रबरएण विभिन्ना, फासुगपुढवी तु ससरक्खा ॥४२५८|| अन्तरणं ववधाणं, तेण रहिता निरंतरमित्यर्थः । अधवा - पुढवी प्रणंतभावेण रहिता असंखा य जीविका पज्जत्तं संख्या वि । अधवा - जीए पुढवीए अंता जीएहिं रहिया सा पुढवी अंतरहिया , अंतरहिता सर्वा सचेतना न मिश्रा इत्यर्थः । ईसि उल्ला ससणिद्धा, सेयं पुढवी प्रचित्ता सचित्तेण पारण्णरएण वितिभिन्ना ससरक्खा ॥४२५८॥ चित्तं जीवो भणितो, तेण सह गया तु होति सञ्चित्ता। पासाणसिला रुंदा, लेलू पुण मट्टिया लेछु ।।४२५६।। सचेयणा रुदा महासिला, सचित्तो वा लेल्लू लेप्रो ॥४२५६॥ कोला उ घुणा तेसि, आवासो तप्पतिट्ठियं दारूं । अंडा तु मुदिंगादी, पाणग्गहणे तसा चउरो ॥२६०॥ बीयं तु अप्परूढं, तदेव रूढं तु होति हरितादी। कीडगनगरुतिंगो, सअंकुरनिरंकुरो पणो ॥४२६१॥ कोला घुणा, तेसि प्रावासो दारुए वा, "जीवपतिट्टिए" "सपाणे" वा दारुए पुढवीए वा, एवं "सीए" दारुए पुढवीए वा अणंकुरिवं, तं व अंकुरभिण्णं हरितं, कीडयणगरगो उत्तिगो, फरुगद्दभो वा, पणगो पंचवण्णो संकुरो प्रणंकुरो वा, उसो नेहो, अंडगा मुइंगादिगा, दगमट्टिया चिक्खल्लो सचित्तो मीसो वा ॥४२६१॥ १ गा०४२५५। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश उद्देशक: मक्कडसंताना पुण, लूता फुडतोय अफुडितो जाव । संकमणं तस्सेव उ, पिवीलिगादीणि सिं ॥ ४२६२॥ Arts प्रफुडियसंताणगं, तस्सेव फुडियस्स गमणकाले संक्रमणं भण्णति । हवा – संताणगसंक्रमणं पिपीलिकमक्कोडगादीणं भण्णति । ठाणं उद्धट्ठाणं, सेज्जा सयणिज्जं, णिसेज्जा प्रासणं. जिसीहिका सज्झायकरणं । एएसि चेयणकरणं श्रावणे सट्टाणपच्छितं, आणादिया य दोसा, श्रायसंजय दोसा जहासंभवं भाणियन्वा ॥ ४२६२ ॥ भाष्यगाया ४२५७-४२६६ ] पुढवादिएगिदियाण संघट्टणादिकरणे वेयणोवमा इमा थेरुवमा अक्कते, मत्ते सुत्ते व जारिसं दुक्खं । एमेव यव्वत्ता, विणा एगिंदियाणं तु ॥ ४२६३॥ किं च एगिदियाण उवयोगपसाहगा इमे दिट्ठता - जहा रस्स जराए जिणस्स वरिससतायुस्स तरुणेण बलवता जमलपाणिणा सव्वत्थामेण प्रक्कतस्स जारिसा वेयणा तारिसा पुढविकाइयाण अधिकतरा ठाणादिठियवकतेहि वेयणा भवति, ण य अन्वत्तणो लक्खिज्जति । वेयणा य जीवस्स भवति, णाजीवस्स । ते य जीवलिंगा एगिदिएसु प्रव्वत्ता । जहा मत्ते सुते वा अव्वत्तं सुहदुक्खलिंगं, एवं एगिदिएसु वि श्रव्वत्ता चेयणा दद्रव्वा लिगं च ॥४२६३॥ - भोयणे वा रुक्खेते वा, जहा हो तणुत्थितो । पाबल्लं नेहकज्जेसु, कारेंतुं जे अपचलो ||४२६४ ॥ अस्स दिट्ठतस्स उवसंघारो - - जहा रुक्खे ति भोयणे सुहुमो णेहगुणो प्रत्थि, जतो तेण ग्रहारिएण सरीरोवचयो भवति णय प्रव्वत्ततण लक्खिज्जति, तहा वा पुढवीए प्रत्थि नेहो सुहुमो, सो वि सुहुमत्तणेणं ग दिस्सति, जत्रो पुढवीए तणुट्ठितो अल्पः ततो तेण प्राबल्ये नेहकज्जे हत्थादि सरीर मक्खणं कतुमशक्यं ॥४२६४॥ कोहाई परिणामा, तहा एगिंदियाण जंतूणं । पावल्लं तेसु कज्जेसु, कारेउं जे पच्चला ||४२६५|| 199 एगिदियाण कोहादिया परिणामा, सागारिया य उपयोगा, तहा साता दिया तु वेयणातो, एते सव्वे भावा सुमत्तणो प्रतिसयस्स अणुवलक्खा । जहा सण्णी पज्जत्ता कोहुदया उ अक्कोसंति तिवलि भिगुडि वा करेंति तेसु ते ग्रप्पीतिकज्जेसु तहा प्राबल्येन एगिंदिया अप्पञ्चला श्रसमर्था इत्यर्थः । जम्हा पुढवीकाया • एवंविधवेदणमणुभवंति तम्हा तेसु ठाणादियं ण कायव्वं ।। ४२६५ ।। अववादतो वा करेज्ज वोसट्टकाय सिवे, गेलपणऽद्भाण संभमेगतरे । वसहीवाघाण य, असती जयणा उ जा जत्थ ||४२६६ ॥ ४८ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसत्रे [ सूत्र ६-१२ वोसढकायो पायोवगतो सो परप्पयोगा अणुकंपणेण पडिणीयत्तणेण वा अणंतरहिया ठाणेसु ठविज्जेजा, अविगहिया वसहिमलभंता रुक्खादिहेढेसु ठायंति, वेजट्टा प्रोसहट्ठा वा गिलाणो जया णिज्जति तदा वसघिप्रभावे अथंडिले ठाएज्ज, अद्धाणपडिवण्णा वा ठायंति, अगणिमादिसंभमे वा वसहिणिग्गया उप्पहे ठाति, वसहिवाघाए वा ठायंति, सव हा वा वसहिप्रभावे ठायति, तेहि अणंतरहिताविप्रथंडिलाण जा जत्थ जयणा संतरणमाइया संभवति पडिलेहण-पमज्जणादिया वा सा सव्वा वि कायब्वा ॥४२६६॥ जे भिक्खू थूणसि वा गिहेलुयंसि वा उसुकालंसि वा कामजलंसि या दुब्बद्धे दुण्णिखित्ते अनिकंपे चलाचले ठाणं वा सेज्जं वा (णिसेज्जं वा) निसीहियं वा चेएइ, चेएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६॥ थूणादी ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । । तेस ठाणादीणिं, चेतेंताणादिणो दोसा ॥४२६७॥ थूणा वेली, गिहेलुको उंबरो, उसुकालं उक्खलं, कामजलं हाणपीढं ॥४२६॥ थूणाश्रो होति वियली, गिहेलुओ उंबरो उ णायव्वो । 'उदुखलं उसुकालं, सिणाणपीढं तु कामजलं ॥४२६८।। गतार्था । णवरं - सिणाण मज्जणा दो वि एगट्ठा ॥४२६८॥ "२दुबद्धे" त्ति बंधो दुविध! - रज्जुबंधो कट्टादिसु वेहबंधो वा, तं ण . सुबद्धं दुबद्धं । "दुण्णिखित्तं" ति णिहितं स्थापितमित्यर्थः तं ण सुणिक्खित्तं दुणिविखत्तं । केसि चि दुणिरिक्खियं ति अालावगो। तं अपडिले हियं दुप्पडिलेहियं वा । न निः प्रकंपं अनिः प्रकंपं, अनिःप्रकम्पित्वादेव चलाचलं चलाचलनस्वभावं । तादृशे स्थानादि न कर्तव्यम् । रज्जू वेहो बंधो, णिहयाणिहतं हु होति णिक्खमणं । अनिरिक्ख अपडिलेहा, चलाचलमणिप्पकंपं तु ॥४२६६॥ गतार्था । णिहताणिहय त्ति णिक्वयमणिक्खय वा ॥४२६६।। तारिसे सदोसे ठाणाई करेंतस्स इमे दोसा - पवडते कायवहो, आउवधातो य भाणभेदादी। तस्सेव पुणक्करणे, अहिगरणं अण्णकरणं वा ॥४२७०॥ ततो पडतो छण्ह कायाणं विराहणं करेज। अप्पणो वा से हत्थपादादीविराहणा हवेज। भाणादी वा उवकरण जातं विराधेज । तस्स थूणादियस्स पाडियस्स रज्जू बद्धस्स वा तोडितस्स वेहबद्धस्स ब। विसंघातियस्स पुणो करणे, अण्णस्स वा अहिणवस्स करणे अधिकरणं भवति । पडिसिद्ध करणे प्राणादिया दोसा, च उलहुं च से पच्छित्तं ॥४२७०॥ बितियपदं - वोसट्ठकायअसिवे, गेलण्णद्धाण संभमेगतरे । वसहीवापातेण य, असती जयणा य जा जत्थ ॥४२७१।। पूववत् १ उसुयाल सुक्कलं वा, इत्यपि पाठः । २ सूत्र है । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४२६७-४२७७१ प्रयोदश उद्देशक: जे भिक्खू कुलियंसि वा भित्तिसि वा सिलसि वा लेलुसि वा अंतरिक्खजायंसि वा दुक दुण्णिखित्ते अनिकंपे चलाचले ठाणं वा सेज्जं वा (णिसेज्जंवा ) णिसीहियं वा चेएड, चएतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१०॥ कुलियं कुडं तं जतो णिच्चमवतरति, इयरा सहकरभएण भित्ती, नईणं वा तडी भित्ती, सिला-लेटू पुवुत्ता। पढमसुत्ते णियमा सचित्ता, इह भयणिज्जा । शेषं पूर्ववत् । कुलियादि ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुतं । तेसू ठाणादीणी, चेतेंते आणमादीणि ॥४२७२॥ कुलियं तु होइ कुडं, भित्ती तस्सेव गिरिनदीणं तु । सिल-लेलू पुव्वुत्ता, तत्थ सचित्ता इहं भयिता ॥४२७३।। वोसट्टकायअसिवे, गेलण्णऽद्धाण संभमेगतरे । वसहीवाघातेण य, असती जयणा य जा जत्थ ॥४२७४॥ पूर्ववत् जे भिक्खु खंबंसि वा फलहंसि वा मंचंसि वा भंडवंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मतलंसि वा दुब्बद्ध दुण्णिखित्ते अनिकंपे चलाचले ठाणं वा सेज्जं वा (णिसेज्जं वा) निसीहियं वा चेएइ, चएतं वा सातिज्जति ॥सू०॥११॥ खंध पागारो पेढं वा, फलिहो अग्गला, अकुड्डो-मचो, सो य मंडवो, गिहोवरि मालो दुभूमिगादी, णिज्जूहगवक्खोवसोभितो पासादो, सव्वोवरि तलं हम्मतलं भूमितलं तरं वा हम्मतलं । एस सुत्तत्थो। इमा णिज्जुत्ती - खधादी ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । तेसु ठाणादीणिं, चेतेंते आणमादीणि ॥४२७॥ खंधो खलु पायारो, पेटं वा फलिहो तु अग्गला होइ । अहवा खंधो उ घरो, मंचो अकुड्डो गिहे मालो ॥४२७६।। अहवा - खंधो घरो मृदिष्टकदारुसंघातो स्कन्ध इत्यर्थ - वोसहकायअसिवे, गेलण्णद्धाणसंभमेगतरे । वसहीवाघातेण य, असती जयणा य जा जत्थ ॥४२७७॥ पूर्ववत् जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा सिप्पं वा सिलोगं वा अदावयं वा कक्कडगं वा बुग्गहंसि वा सलाहत्थयंसि वा सिक्खावेइ. सिक्खावेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१२॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र १३-१६ सिप्पं तुण्णगादि, सिलोगो वण्णणा, अट्ठावदं जूतं, कक्कडगं हेऊ, वुग्गहो कलहो, सलाहा कव्वकर. णप्पलोगो। एस सुत्तत्थो। इमा णिज्जुत्ती सिप्पसिलोगादीहिं, सेसकलानो वि सूइया होंति । गिहि अण्णतित्थियं वा, सिक्खाते तमाणादी ॥४२७८।। सेसा उ गणियलक्खणसउणरूयादि सूचिता, ण गिही अण्णतित्थी दा मिक्वायत्रो, जो सिक्खावेति तस्स प्राणादिया दोसा, च उलहुं च से पच्छितं ।।४२७६।। सिप्पसिलोगे अट्ठावए य कक्कडग-बुग्गह-सलागा। तुण्णागे वण्णजुते, हेतू कलहुत्तरा कव्वे ॥४२७६।। पुव्वद्धेण सुत्तपदसंगहो । पच्छद्धेण जहासंखं तत्थ उदाहरणं सिप्पं, जं प्रायरिय उवदेसेण सिक्खिज्जति, जहा तुग्णागतूणादि, सिलोगो गुणवयणेहिं वण्णणा, अट्ठापदं चउरगेहिं जूतं । ग्रहवा - इमं अट्ठापदं अम्मे ण वि जाणामो, पुट्ठो अट्ठापयं इमं बेंति । सुणगा वि सालिकूरं, णेच्छंति परं पभातम्मि ॥४२८०।। पुच्छितो अपुच्छितो वा भणाति - अम्हे णिमित्तं ण सुठु जाणामो। एत्तियं पण जाणामो पर पभायकाले दधिकूरं सुणगा वि खातिउं णेच्छिहिति । अर्थपदेन ज्ञायते सुभिक्खं । 'कक्कडग हेऊ जत्थ भणिते उभयहा पि दोसो भवति - जहा जीवस्स णिच्चत्तपरिग्गहे णारगादिभावो ण भवति, अणिच्चे वा भणिते विणाशी घटवत् कृतविप्रणाशादयश्च दोषा भवंति । अहवा - कर्कटहेतुसर्वभावैक्य प्रतिपत्तिः, अत्रोभयथा दोषो, मूर्तिमदमूर्तसुखदुःखभेदतो ज्ञानकालभेदाच्च कारकभूतविशेषाच्च विरुद्ध सर्वभाववयं, अथ नवं ततः प्रतिज्ञाहानिः । “२वुग्गहो" - रायादीणं अमुककाले कलहो भविस्सति, रणो वा जुद्धं सगडमादेसेण कलहे जयमादिसति, दोण्हं वा कलहंताणं एककस्स उत्तरं कहेति । "3सलाह" ति कव्वसभावं कहेति, कव्वेहिं वा विकोवितो कव्वं करेति । सलाहकहत्येणं ति सव्वकलातो सूतितातो भवंति । नाणि अण्णतित्थिगादीणि सिक्खावेंति चउलहुं, प्राणादी संजमे य दोसा, अधिकरणं, उम्मग्गोवदेसो य ॥ ४२८०॥ इमं बितियपदं - असिवे प्रोमोयरिए, रायढुढे भए व गेलण्णे । - अद्धाण रोहए वा, सिक्खावणया उ जयणाए ॥४२८१।। रायादिमण्णं वा ईसरं सिक्खावेतो असिवाहितो तप्प भावाप्रो ठाणगादि लभति, अोमे वा फवति, सोच्चा रायदुढे ताणं करेति, बोहिगादिभये ताणं करेति, गिलाणस्स वा प्रासहा तह उवग्गहं करिस्सति, प्रद्धाणरोहगेसु वा उवग्गहकारी भविस्सति, एवमादिकारणे अविक्खिऊण इमाए जमणार सिक्खावेति ॥४२८१।। १ गा० ४२७६ । २ गा० ४२७६ । ३ गा० ४२७६ । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४२७८-४२८५ ] त्रयोदश उद्देशकः संविग्गमसंविग्गो,-धावियं तु गाहेज्ज पढमता गीयं । विवरीयमगीए पुण, साहिग्गहमाइ तेण परं ॥४२८२।। पणगपरिहाणीए जाहे चउलहुं पत्तो तेसु जतिउ तेसु वि प्रसंथरतो ताहे संविग्गोधावितं गीयत्थं सिक्खवेति, पच्छा प्रसविग्गोधावितं गीयत्थं अगीएसु विवरीयं कज्जति, ततो असंविग्गोधावितं अगीतं, ततो संविग्गप्रगीय,। पत्र विपरीतकरणे हेतुर्मा तद्भावनां करिष्यति । सविग्न अगीतार्थ पच्छा गहियाणुव्वयं, ततो पच्छा सणसावगं, ततो पच्छा अहाभयं, ततो मिच्छ प्रणभिग्गहाभिग्गहियं ॥४२८२।। जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढं वयइ, वयं वा सातिज्जति ॥सू०।१३।। जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा फरुसं वयइ, वयंतं वा सातिज्जति ॥५०॥१४॥ जे भिक्ख अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढं फरुसं वयइ, वयंतं वा सातिज्जति ॥२०॥१५॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ, अच्चासाएंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१६।। आगाढ फरुस मीसग, दसमुदेसम्मि वणितं पुव्वं । गिहिअण्णतित्थिएहि व, तं चेव य होति तेरसमे ॥४२८३।। जहा दसमुद्देसे - भदंतं प्रति प्रागाढ-फरस-मीसगसुत्ता भणिता तहा इहं गिहत्यप्रणउत्थियं प्रति. वक्तव्याः ॥४२८३॥ इमेहिं जातिमादिएहिं गिहत्थं अण्णतित्थियं वा ऊणतरं परिभवंतो आगाढं फरुसं वा भणति। . जाति कुल रूव भासा, धण बल पाहण्ण दाण परिभोगे । सत्त वय वुद्धि नागर, तक्कर भयके य कम्मकरे ॥४२८४॥ जाति कुल रूव भासा - धणेण, बलेग, पाहण्यत्तणेण य । एतेहिं दाणं प्रति प्रदाता सति वि धणे । किमण्णत्तरोण ? अपरिभोगी, हीनसत्वः, वयसा अपडुप्पत्रो मंदबुद्धिः, स्वतः नागरो तं ग्राम्यं परिभवति, तथा गिहत्थं प्रणति त्थियं वा तक्कर-भृतक-कर्मकरभावेहि टियं परिभवति ।।४२८४॥ जति ताव मम्मपरिघट्टियस्स मुणिणो वि जायते मंतं मण्णं । किं पुण गिहीण मंतुं (मण्णु), ण भविस्मति मम्मविद्धाणं ॥४२८॥ जति ताव कोहणिग्गहपरा वि जतिगा जातिमादिमम्मेग घट्टिया कुप्पंति किं पुण गिहिणो ? सुतरां कोपं करिष्यन्तीत्यर्थः ।।४२८५।। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ सभाष्य- चूर्णिके निशीयसूत्रे सोय उप्पण्णमंतू इमं कुज्जा - खिप्पं मरेज्ज मारेज्ज, वा वि कुज्जा व गेण्हणादीणि । देसच्चागं व करे, संतासंतेण पडिभिण्णे ||४२८६॥ अपणा वा मष्णुप्पण्णी मरेज्ज, कुवितो वा साहुं मारेज्ज, रुट्ठो वा स हु रायकुलादिणा गेव्हा वेज्जा, साघुणा वा सेहिश्रो देसच्चागं करेज्ज, संतेण असंतेण वा प्रत्याभिण्णो एवं कर्यात् ||४२८६ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा कोउगकम्मं करेति, करें तं वा सातज्जति ||०||१७|| जे भिक्खू उत्थियाण वा गारत्थियाण वा भूइकम्मं करेति, करेंतं वा सातिज्जति ||सू०||१८|| जे भिक्खू उत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणं करेइ, करें तं वा सातिज्जति ॥ मू०||१६|| जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणापसिणं करेड़, करें व सांतिज्जति ॥ सू०||२०|| जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा तीयं निमित्तं करेइ, करें वा सातिज्जति ॥ सू०||२१|| जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा लक्खणं करेइ, करें तं वा सातिज्जति ॥सू०||२२|| जे भिक्खू उत्थियाण वा गारत्थियाण वा वंजणं करेइ, करें वा सातिज्जति ||०||२३|| जे भिक्खू उत्थियाण वा गारत्थियाण वा सुमिणं करेइ. करेंतं वा सातिज्जति ॥ सू०||२४|| जे भिक्खुण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा विज्जं पर जड़, पजंतं वा सातिज्जति ॥ सू०||२५|| [ सूत्र १७-२६ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा मंतं पउंजड़, परंजंतं वा साइज्जति ||०||२६|| जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारस्थियाण वा जोगं पउंजड, पजंतं वा साइज्जति ॥ | ० ||२७|| . Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४२८६-४२६३ | त्रयोदश उद्देशक: ३८३ इमा सुत्तपदसंगहणी - कोउग-भूतीकम्म, पसिणापसिणं निमित्ततीतं वा । .. लक्खण वंजण सुमिणं, विज्जा मंतं च जोगं च ॥४२८७॥ गिहिअण्णतित्थियाण व, जे कुज्जा वागरेज्ज वा भिक्खू । विज्जाइं च पउंजे, सो पावति प्राणमादीणि ॥४२८८॥ कोउपभूतीण करणं, पसिणस्स पसिणापसिणस्स निमित्तस्स लक्षणवंजणसुविणाण य वागरणं, साणं विज्जादियाण पउंजणता ।।४२८८।। को उपादियाण इमं विसेसरूवं - व्हाणादिकोउकम्म, भूतीकम्मं सविज्जगा भूती। विज्जारहिते लहुगो, चउवीसा तिणि पसिणसया ॥४२८६।। गिदुभादियाण मसाणचच्चरादिसु ण्हवणं कज्जति, रक्खाणिमित्तं भूती, विज्जाभिमंतीए भूतीए चउलहुं । इयराए मासलहुं । पसिणा एते पण्हवाकरणेसु पुव्वं प्रासी ।।४२८६।। पसिणापसिणं सुविणे, विज्जासिद्ध तु साहति परस्स । अहवा आइंखिणिया, घंटियसिहॅ परिकहेति ॥४२६०॥ मुविणयविज्जाकहियं कधिंतस्स पसिणापसिणं भवति । ग्रहवा - विज्जाभिमंतिया घंटिया कण्णमूले चालिज्जति, तत्थ देवता कधिति, कहेंतस्स पसिणापसिणं भवति, स एव इंखिणी भण्णति ॥४२६॥ लाभालाभसुहदुहं, अणुभूय इमं तुमे सुहिहिं वा । जीवित्ता एवइयं, कालं सुहिणो मया तुझं ॥४२६१॥ पुच्छगं भगति - अतीतकाले वट्टमाणे वा इमो ते लाभो लद्धो, अणागते वा इमं भविस्सति । एव अलाभं पि निद्दिस्सति, एवं सुहदुक्खे वि संवादेति । अहवा भन्नति - सुहीहि ते इमं लद्धमणुभूतं वा । अहवा भणाति - मातापितादिते सुहिणो एवतियं कालं जीविया, अमुगे काले एव मता ॥४२६०।। दुविहा य लक्खणा खलु, अभिंतरबाहिरा उ देहीणं । बहिया सरवण्णाई, अंतो सम्भावसत्ताई ॥४२६२।। बत्तीसा अट्ठसयं, अट्ठसहस्सं च बहुतराई च। देहेमू देहीण लक्खणाणि सुहकम्मजणियाणि ॥४२६३॥ पागयमणुयाणं बत्तीस, प्रसयं बलदेववासुदेवाणं, अट्ठसहस्सं चक्कवट्टितित्यकराणं । जे पुट्ठा हत्थपादादिमु लक्खिजंति तेसि पमाणं भणियं, जे पुण अंतो स्वभावसत्तादी तेहिं सह बहुतरा भवंति, ते य अणणजम्मकयमुभणामसरीरअंगोवंगकम्मोदयाप्रो भवंति ॥४२६३।। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ लक्खणवंजणाण इमो विसेसो - - वंजणं ॥ ४२६४ ॥ माणुम्माणपमाणादिलक्खणं वंजणं तु मसगादी । सहजं च लक्खणं, वंजणं तु पच्छा समुप्पण्णं ॥ ४२६४ || माणादियं लक्खणं, मसादिक वंजणं । ग्रहवा - जं सरीरेण सह उप्पण्णं तं लक्खणं, पच्छा समुप सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे माणुम्माणपमाणस्स य इमं वक्खाण जलदोणमद्धभारं, समुहाइ समुस्सितो व जा णव तु । माणुम्माणपमाणं, तिविहं खलु लक्खणं एयं ॥ ४२६५॥ इदाणि देवाणं भणति - - - जलभरियाए दोणीए जलस्स दोणं छड़े तो माणजुत्तो पुरिसो, तुलारोवितो श्रद्धभारं तुलेमाणो उम्माण तो पुरियो भवति, बारसंगुलपमाणाई समुहाई गव समुस्सितो पमाणवं पुरिमो, एवमादि तिविधलक्खण प्रादिस्मति - तुम रायादि भविस्ससि ||४२६५॥ भवपच्चइया लीणा, तु लक्खणा होंति देवदेहेसु । भवधारिणिएसु भवे, विउव्वितेसुं तु त वत्ता ||४२६६॥ इदाणि सुविण भणाति - देवाणं भवधारिणिज्जसरीरेसु लक्खणा लीणा अनुग्लक्ष्या उत्तरवै क्रियसरीरे व्यक्ता लक्षणः ॥४२६ः ॥ दाणिं णारक- तिरियाणं भन्नति ओसण्णमलक्खणसं जुया बोंदीओ होंति निरएसु । नामोदयपच्चइया, तिरिएसु य होंति तिविहा उ || ४२६७ || भोसणमेकांतेन व नेरइयाणं प्रलक्षणयुक्ता बोंदि सरीरमित्यर्थः । तिरिरसु लक्खग प्रलवखग- मिस्सा यतिविह। सरीरा भवंति, लक्खणमलक्खणं वा सव्वं णामकम्मुदयायो ।। ४२६७।। नोइंदियस्स विसयो, सुमिणं जं सुत्तजागरो पासे । सुहदुक्ख पुव्वरूवं, रिट्ठमित्र सो णरगणाणं || ४२६८ ॥ [ सूत्र - १६ गोइंदियमो मणो । तव्विसतं सुत्रिणो नोइंद्रियविषयमित्यर्थः, मतिज्ञानविषयश्च । तं च सुविगं पायो सुजागरावत्याए पेक्खति प्रागमिस्स सुहदुक्खस्स सो णिमित्तं भवति । जहा मणुयाणं मरणकाले पुव्वामेव मरिट्ठगमुप्पज्जति तं च सुहदुक्खणिमित्तं तिविधं भवति । कातियं वातियं मानसियं भवति ॥ ४२१८।। जतो भण्णति - surat बाहू फुरणााद काइओ वाइओ तु सहसुत्तं । सुमिणदंसणं पुण, माणसियो होइ दुप्पा ||४२६६॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४२९४-४३०४ ] त्रयोदश उद्देशकः ३८५ कातितो बाहुपुरणादि प्रणेगविहो, वातितो वि सहसा भणितादि प्रणेगविधो माणसिद्यो वि (सुमिण दंसणादि प्रणेगविधो) ।।४२६६ ॥ सुविणुप्पातो इमो पंचविहो - ૨ 3 आहातच्च पदाणे, चिंता विवरीय तह य श्रव्वत्तो । पंचविहो खलु सुमिणो, परूवणा तस्सिमा होइ ॥ ४३००|| و हातच्चं इमे पसंति, इमं च से सरूवं पाएण 'हातच्चं, सुमिणं पासंति संबुडा समणा । इयरे गिही त भतिता, जं दिट्ठ तं तहा तच्चं ॥ ४३०१ ॥ सञ्चपावविरता संवुडा । इतरे पासत्या गिहत्या य महातन्वं प्रति भयणिज्जा । जहेव दिट्ठो तहेव जो भवति सो महातच्चो भवति ॥ ४३०१ ॥ पदाणादियाण तिण्हं इमं सरूवं इमो ""प्रव्वत्तो" पयतो पुण संकलिता, चिंता तण्हाइ तस्स दगपाणं । मेज्झस्स दंसणं खलु, अमेज्झमेज्यं च विवरीतं ॥४३०२|| ततः स्वप्नसंतान: श्रृंखलावत् । जागरतेण जं चितियं तं सुविणे पासति, एस “चिता" सुविणी । सुइ सुगंधे मेज्झ, इतरं प्रमेज्भं । मेज्भे दिट्ठे सुविणे फलं प्रमेज्भं भवति । श्रमे दिट्टे फलं से मेज्भं भवति । एस विवरीतो समिणो ॥ ४३०२ ! ן - - जंण सरति पडिबुद्धो, जं ण वि भावेति पस्समाणो वि । एसो खलु व्वत्तो, पंचसु विससु णायव्वो || ४३०३|| इदाणि विज्जा मंता विबुद्धो वि जं फुडंण संभरति, संभरंतो वा जस्सत्यं ण वि बुज्झति सो प्रव्वत्तो । सो य पंचेंदिवस संभवति । सव्वे वा सुविणं पायो इंदियविसए भवंति ॥४३०३ ॥ Que विज्जा मंत परूवण, जोगो पुण होति पायलेवादी । सो उ सविज्ञ विज्जो, सविज्ज संजोयपच्छित्तं ॥ ४३०४ || इत्थिग्रभिहाणा विजा, पुरिसाभिहाणो मंतो । ग्रहवा- सोवचारसाधणा विज्जा, पढियसिद्धो मंतो । वसीकरण विद्दे पणुच्छादणापादलेवंतद्भाणा दिया जोगा बहुविधता, ते पुण सव्वे वि सविजा भविजा वा । सविज्जेसुं चउलहूं, इयरेसु मासलहुं, मीसेसु संजोगपच्छितं । गिहीणं प्रष्णतित्थियाण वा एतेसु कोउगादिएसु जोगवज्जव सासु कहिज्जमाणेसु श्रधिकरणं, जं वा ते कहेंति उच्छादनादि तष्णिष्कण्णं पावति ॥ ४३०४ || १ से ५ तक भा० ४३०० । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रं वितियपदे कोउगादि करेज्ज कहेज्ज वा मंतादी सिवे मोरिए, रायदुडे भए व गेलण्णे | श्रद्धाणरोहकज्जेऽजाय वादी पभावणता ||४३०५ || - सिवादिसु जं जत्थ संभवति तं तत्थ कायव्वं, कुलादिकज्जेसु वा भट्टजायणनिमित्तं वा वादी वा करेज्ज, पवयणपभावणट्टा वा करेज्ज ॥४३०५।। इमा सुत्थो - जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा नट्ठाणं मूढाणं विष्परियासियाणं मग्गं वा पवेएइ, संधिवा पवेएड़, मग्गाओ (मग्गेण) वा संधि पवेएइ, संधी वा मग्गं पत्रेएइ, पवेएतं वा सातिज्जति | | ० ||२८|| १. डा पंथफिडिता, महा उ दिसाविभागममुणंता । a तं चिय दिसं हं वा वच्चेति विवज्जियावण्णा || ४३०६ || प्रणष्टानां पंथं कथयति, प्रडवीए वा मूढाणं दिसीभागममुगंताणं दिसिविभागेग पहं कहेति, जतो चैव भागता तं चैव दिसं गच्छंताणं विवज्जतावण्णाणं सम्भावं कहेति ॥ ४३०६ || मग्गो खलु सगडपहो, पंथो व तव्विवज्जिता संधी | सो खलु दिसाविभागो पवेयणा तस्स कहणा उ || ४३०७ || [ सूत्र २८-३० संधी खेडगो, जतो गमिस्सति सो दिमाभागो, तं तेसि मूढाणं पवेदेति कथयतीत्यर्थः । सगडमग्गाश्र उज्जुमंधिसंखेडयं पवेदेति, उज्जुमंधिसंखेडयाम्रो वा सगडमग्गं पवेदेति कयति त्ति वृत्तं भवति । ग्रहवा सव्वा चैव पहो मग्गो भण्णनि, संधी पंथवोधेयं । अहवा - पंथुग्गमो चेव संधी, पंथस्स वा सघा तरे कहेति, सवीप्रो वा जो वामदविखणो पहो तं कर्हति ।।४३०७ ।। गिहि- अण्णतित्थियाण व, मग्गं संधि व जो पवेदेति । मग्गातो वा संधि, संधीतो वा पुणो मग्गं ॥ ४३०८|| गताथो सिं गिहिण तित्थियाणं मग्गादि कहेंतो इमं पावति सो णाणवत्थं, मिच्छत्त - विराहणं तहा दुविहं । पावति जम्हा तेणं, एते उ पए विवज्जेजा || ४३०६|| दुविहा प्रायसंजमवि राहणा तेसि साघुचिधितेण पहेण गच्छंताणं इमे प्रष्णे दोसा - • छक्कायाण विराहण, सावय- तेणेहि वा वि दुविहेहिं । जं पार्वति जतो बा, पदोस नसिं तह सिं ॥ ४३१०॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश उद्देशक: जं ते गच्छंता छक्काए विराहेंति, स चिर्धतो तणिफणं पावति । तेण वा पहेण गच्छंता ते सावतोवद्दवं सरीरोवाहिनेणोवद्दवं पार्श्वेति त्ति, जं वा ते गच्छंता प्रष्णेसि उवद्दवं करेंति, जतो वा ते णिद्दिट्ठा तो स्वयं पावति, ततो तस्स पंयचिषगस्स साघुस्स अन्नरस वा साधुस्स पदोसमावज्जेति अम्हे पडिणीयत्तणेण एरिसपंथे छूढा, इमेण पंतावणादी करेज्ज ।।४३१०।। अववादातो चिधिज्ज - भाष्यगाथा ४३०५-४३१४ बियपमणप्पज्के, पवंद अविकोविते व अप्प | अद्धा असिव अभियोग आतुरादीसु जाणमवि || ४३११ || खितादिगो प्रणष्पको सेहो वा प्रविकोवितो चिंधेज्ज प्रप्पज्झो वि श्रद्धा वा सत्यस्स पहं जागंतस्स चिघेज्ज, प्रसिवे गिलाणकज्जे वा वेज्जस्स कपायरियस्स वा प्राणिज्जंतस्स पंथमुवदिसति, "अभिप्रोगो" त्ति बला रातिणा देसितो गहितो, एवमादिकारणेहिं जागंतो विकहितो सुद्धो ॥ ४३११।। जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा धाउं पवेएइ, पवेतं वा सातिञ्जति । मू०||२६|| जे भिक्खू उत्थियाण वा गारत्थियाण वा निहिं पत्रएइ, पतं वा सातिज्जति ||०||३०|| यस्मिन् धम्यमाने सुवर्णादि पतते स धातुः । ari धातुं निर्हि व आइक्खते तु जे भिक्खू | गिहिणतित्थियाण व, सो पावति प्राणमादीणि ||४३१२|| प्रणयरगहणतो बहुभेदा धातू । शिवाग गिधी, गिहितं स्थापितं द्रविणजातमित्यर्थः । तं जो महाकालमतादिना गाउं प्रक्खाति तस्स प्राणादिया दोसा ||४३१२ ।। इमे धातुभेदा - तिविहो य होइ धातू, पासाणरसे य मट्टिया चैव । सो पुण सुवण-उ-तंत्र- रयत- कालायसादीणं ॥ ४३१३॥ ३८७ जत्य पासाणे जुतिमा जुते वा धम्ममाते सुवण्यादी पडति सो पासाणधातू, जेन धातुपाणिण तंत्रगादि प्रासितं सुवण्णादि भवति सो रसो भग्गति, जा मट्टिया जोगजुत्ता प्रजुत्ता वा धम्ममाणा सुवण्णा दि भवति सा धातुमट्टिया, कालायसं लोहं प्रदिग्गहाम्रो मणि रयण-मोत्तिय पवालागरादि ॥। ४३१३|| 'हाणे इमो विगप्पो परिग्गतरो विय, होड़ तिहा जलगो थलग वा । निहितेतरो धलगतो, कयाकतो होति सच्ची वि ॥ ४३१४ || सोही मणुदेव परिग्गहिनो वा होज्ज प्रागिति वा । सो जले वा होज थले वा । जा सोचले सो दुविहो - भिक्खतो वा अणिक्खप्रो वा । सब्बो चेत्र गिही समय दुविधो- कयख्वी प्रक्यस्वो Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र ३१-४१ वा। रूवगाऽभरणादि कयरूवो, चक्कलपिडद्वितो प्रकयरूवो । सपरिगहे अधिकतरा दोसा कहेंतस्स णिहाणगसामिसमीवातो ॥४३१४॥ धातुणिहिदंसणे इमे दोसा - अधिकरणं कायवहो, धातुम्मि मयूरअंकदिट्ठतो । अहिगरणं जा करणं, निहिम्मि मक्कोड गहणादी ॥४३१५।। कायवधमंतरे वि असंजयपरिभोगे अधिकरणं भवति, धम्ममाणे पुढवातिकायविराघणा । अहवा - तं चेव साधु धातुवायं कारवेति । एसो धातुदंसणे दोसो ॥४३१५१ः इमो णिहाणे मयूरंकदिटुंतो - मोर णिवं कियदीणार पिहियणिहिजाणएण ते कहिया : दिट्ठा ववहरमाणा, को एए परंपरा गहणं ।।४३१६॥ मयूरको णाम राया। तेण मयूरकेण अंकिता. दीणारा आहणाविया । तेहि दीणारेहि णिहाणं ठवियं । तम्मि ठविते बहू कालो गतो। तं केणइ णेमित्तिणा णिहिलक्खणेण णायं, तं तेहि उक्खयं, ते दीणारा ववहरंता रायपुरिसेहि दिट्ठा । सो वणितो तेहिं रायपुरिसेहिं रायसमीवं णीतो । रण्णा पुच्छियं – कतो एते तुज्झ दीणारा ? तेण कहियं - अनुगसमीवातो । एवं परंपरेण ताव णीयं जाव जेहि उक्खित्तं, ते गहिता दंडिया य । असंजयणिग्गहणे अधिकरणं । णिहि उक्खणेण य निसि जागरणं कायव्वं । अहवा - णिहिदंगणे ग्रधिकरणं जागरणं णाम यजनकरणं, उवलेवनधूवपुप्फबलिमादिकरणे अधिकरणमित्यर्थः । णिहिक्वणणे य विभीसिगा मकोडगादी विसतुडा भवति. तत्थ आय: विराहणादी, रायपुरिसेहिं य गहणं, तत्थ गेण्हण कट्टणादिया दोसा ।।४३१६।। तत्य इमं बितियपदं - असिवे प्रोमोयरिए, रायढे भए व गेलण्णे। अद्धाणरोहकजऽट्ठजातवादी पभावणादीस ॥४३१७॥ असिवे वेज्जो प्राणितो तस्स दसिज्जति धातू णिहाणगं वा, प्रोमे अमयरंतः गिहिअण्णतित्थिए महाप घेनुं धातुं करेति, णिहि वा गेहति, गयटे रो उवसमा सयमेव जो वा तं उसमेति तस्स धाउं गिधाणं वा दमेति, बोधिगादिभयातो जो त्रपति स्म दमेति । गिलाणकज्जे सयं गिहति, विज्जस्स वा दमेति, प्रद्धाण जो गित्थारेति, रोहगे प्रमयरता महाय महिना गेहनि । ग्रहवा - जो रोहगे आधारभूतो तम्स दमेति । लाइकज्जे बा, संजतिमादिणिमित्तं वा अट्टजाते, वादी वा, उदायोगगहणा पत्र पभावशा पूादिक र गिमिनं महायसहितो गिहिप्रणातिथिएहि धातुं जिहाण ताज ।।४२११!! Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ माध्यगाथा ४३१५-४३१८ ] त्रयोदश उद्देशकः जे भिक्खू मत्तए अत्ताणं 'देहइ, देहंतं वा साविज्जति ॥२०॥३१॥ जे भिक्ख् अदाए अप्पाणं देहइ, देहतं वा सातिज्जति ॥१०॥३२।। जे भिक्खू असीए अप्पाणं देहइ, देहंतं वा सातिज्जति ।।२०॥३३॥ जे भिक्खू मणिए अप्पाणं देहइ, देहंतं वा सातिजति ॥२०॥३४॥ जे भिक्खू कुड्डापाणे अप्पाणं देहइ, देहंतं वा सातिज्जति ॥२०॥३॥ जे भिक्खू तेल्ले अप्पाणं देहइ, देहंतं वा सातिज्जति ॥०॥३६॥ जे भिक्खू महुए अप्पाणं देहइ, देहतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३७।। जे भिक्खू सप्पिए अप्पाणं देहइ, देहंतं वा सातिज्जति ॥०॥३८॥ जे भिक्खू फाणिए अप्पाणं देहइ, देहंतं वा सातिज्जति ॥२०॥३६॥ जे भिक्खू मज्जए अप्पाणं देहइ, देहंतं वा सातिज्जति ॥२०॥४०॥ जे भिक्खू वसाए अप्पाणं देहइ, देहंतं वा सातिजति ॥२०॥४१॥ मत्तगो पाणगस्स भरितो, तत्थ प्रप्पणो मुहं पलोएति । जोएंतस्स माणादिया दोसा, चउलहुं च से च्छित्तं । एवं पडिग्गहादिसु वि। सेसपदाणं इमा संगहणी - दप्पण मणि आभरणे, सत्थ दए भायणऽनतरए य । तेल्ल-महु-सप्पि-फाणित, मज्ज-वसा-सुत्तमादीसु ॥४३१८॥ दर्पण: प्रादर्शः, स्फटिकादि मणिः, स्थासकााद प्राभरणं, खड्गादि शस्त्रं, दगं पानीयं, तच्च अण्णतरे कुंडादिभाजने स्थितं, तिलादिग तेलं, मधु प्रसिद्ध, सप्पि धृतं, फाणितं गुडो, छिहुगुरु मज्ज, मच्छादीवसामुत्तं मज्जे कज्जति, इवखुरसे वा गंडियासुतं । सव्वेसु तेसु जहासंभवं प्रपणो प्रचक्खुविसयत्या षयणादिया देहावयवा पलोएइ, तत्थ स्वं रूपं पश्यति । चोदक प्राह -- "किं तत् पश्यति ?" प्राचार्याह - प्रात्मच्छायां पश्यति । पुनरप्याह चोदक:-"कथं प्रादित्यभास्वरद्रव्य जनितच्छायादिग्भागं मुक्त्वा अन्यतोऽपि दृश्यते ?"। प्राचार्याह - प्रमोच्यते, यथा पद्मरागेन्द्रनीलप्रदीपशिखादीनां प्रात्मस्वरूपानुरूपप्रभाछाया स्वत एव सर्वतो भवति, तथा सर्वपुद्गलद्रव्याणां प्रात्मप्रभानुरूपा छाया सर्वतो भवत्यनुपलक्षा वा इत्यतोऽन्यतोऽपि दृश्यते। पुनरपि चोदकाह - "जदि अपणो छायं देहति तो कह अप्पणो सरीरसरिसं वणरूपं न पेच्छति ?" १ पलोएइ पलोयंत वा इत्याग पाठः 'प्रत्ताणं' स्थाने अप्पाणमित्यपि पाठः । २ कुंडपाणिए । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० सभाष्य-चूणिके निशीथमूत्रे [ सूत्र-४० अत्रोच्यते - सामा तु दिवा छाया, अभासुरगता णिसिं तु कालाभा । सच्चेव भासुरगता, सदेहवण्णा मुणेयव्वा ॥४३१६॥ प्रादित्येनावभासिते दिवा प्रभास्वरे प्रदीप्तिमति भूम्यादिके द्र ये वृक्षादीनां निपतिता छाया शायंव दृश्यते अनिखितावयवा वर्णतः श्यामाभा, तस्मिन्नेव प्रभास्वरे द्रव्ये भम्यादिके रात्री निपतिता छाया वर्णतः कृष्णाभा भवति । जया पुण सच्चेव च्छाया दिप्तिमति दर्पणादिके द्रव्ये निपतिता दिवा रात्री वा तदा वर्णतः (शरीरवर्णतः) शरीरवर्णव्यंजितावयवा च दृश्यते, सा च छाया. सदृशा न भवति ॥४३१६॥ चोदक अाह - यदि छाया सहशा न मदति, सा कथं न भवति ? किं वा तत पश्यंति ? यत्रोच्यते - उज्जोयफुडम्मि त दप्पणम्मि संजज्जते जया देहो। होति तया पडिबिंब, छाया व पभाससंजोगा ॥४३२०॥ उग्जोयफुडो दप्पणो, निर्मल श्यामादिविरहितः, तम्मि यदा सरीरं अण्णं वा किं चि धडादि संजुज्जते तदा स्पष्टं प्रतिबिंब प्रतिनिभं भवति घटादीनां । जदा पुण स दपणो सामाए प्रावरितो गगणं वा मन्मगादीहिं प्रावरितं, तदा तम्मि चेव पायरिसे पगासटुिते देहादिसंजुते छायामानं दिस्सति ॥४३२०॥ . इदाणि सीसो पुच्छति - "तं पडिविबं च्छायं वा को पामति । तत्थ भण्णति - ससमय-परसमयवत्तन्वयाए - आदरिसपडिहता उवलंभति रस्सी सरूवमण्णेसिं । तं तु ण जुज्जइ जम्हा, पस्सति आया ण रस्सीओ ॥४३२१॥ प्रात्मनः शरीरस्य या रश्मयः षड्दिर्श विनिर्गता:, तासां या प्रादर्श अधःकृताः प्रतिहता रश्मयः, ता रश्मयो बिबादिस्वरूपं उपलभंति । एषोऽभिप्राय अन्येषां परतंत्राणां । जैनतंत्रव्यवस्थिता आहुः - न युज्जते एतत् । यस्मात सर्वप्रमाणानि पात्माधीनानि, तस्मादात्मा पश्यति न रश्मयः ।।४३२१॥ इदानीं पराभिप्राये तिरस्कृते स्वपक्षः स्थाप्यते "उज्जोयफुडम्मि तु" गाहा (४३२०) एषोऽर्थस्तस्यार्थस्य स्थिरीकरणार्थं पुनरप्याह - जुज्जति हु पगासफुडे, पडिविबं दप्पणम्मि पसंतो। तस्सेव जयावरणं, सा छाया होति बिचं वा ॥४३२२॥ जुज्जते घटते फुडप्पगासे दप्पणे अप्पाण पलोएंनो पडिबिबं प्रतिरूपं णिजितावयव पस्सति, तं च पस्संतस्स जता अन्मादीहि अप्पगासीभूतं भवति तदा तमेव विवं छाया दीसति, "बिब" ति छायं वा पेक्खंतस्स अब्भादो प्रावरणावगमे तमेव छायं बिबं पस्तति, णिव्वजितावयवं - प्रतिरूपमित्यर्थः ॥४३२२।। सीसो पुच्छति - 'कम्हा सध्ये देहावयवा प्रादरिसे ण पेच्छति ?" Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४३३६-४३२७ ] ग्रतो भणति - त्रयोदश उद्देशकः जे दरिसंतत्तो, देहावयवा हवंति णयणादी | तेसिं तत्थुवलद्धी, पगासजोगा ण इतरेसिं || ४३२३।। छद्दिसि सरोरतेय रस्सिसु पधावितासु जं दिसि ग्रादरिसो ठितो तत्तो ये णयणहत्यादी सरीरावयवा जे श्रादरिसे णिवडिया तेसि तम्मि प्रदरिसे उवलद्धी भवति । जति य प्रदरिसो अब्भावगो सप्पासेण संजुत्तो न, अंधकारव्यवस्थित इत्यर्थः । " इतरे" त्ति जे प्रदरिसेण सह न संजुत्ता, ते न तत्रोपलभ्यन्ते ।।४३२३ ॥ एमेव य पडिविच, जं आदरिसेण होइ संजुत्तं । तत्थ वि हो उवली, पगासजोगा यदिट्ठे वि ॥४३२४ ॥ एवमित्यवधारणे । किं अवधारयितव्यं ? यदेतदुपलब्धिकारणमुक्तं । श्रनेनोपलब्धिकारणेण यदप्यन्यत् घटादिस्वरूपप्रतिबिंबं आदर्श संयुज्यते तत्राप्युपलब्धिर्भवत्यात्मना अपश्यतोऽपि घटादिकं । एवं मणिमादीसु विभावेयव्वं, णवरं - तेल्लजलादिसु जारिसं विबं प्रागासमंतरे त्ति तारिसमेव दीसते ||४३२४ ॥ ३६१ एए सामण्णतरे, अप्पाणं जे उ देहते भिक्खु । सोत्थं, मिच्छत्त - विराधणं पावे ॥४३२५॥ पणमणिमादियाण प्रणयरे जो अप्पा जोएति तस्स प्राणादिया दोसा, चउलहं च से पच्छितं प्रायसं जमवि राणा य भवति ॥४३२५ ।। इमे य प्रणे दोसा - गमणादी रूवमरूवं तु कुज्जा निदाणमादीणि । बातुस - गारवकरणं, खित्तादि णिरत्थगुड्डाहो || ४३२६॥ आदरसादी अप्पाणं रूववंतं दठ्ठे विसए भुजामि त्ति पडिगमणं करेति श्रण्णतित्थिए वा पविसति, सिद्धपुत्तो वा भवति, सिद्धपूति वा सेवति, सलिगेण वा संजति पडिसेवति, विरूवं वा अप्पा द टुंगियाणं करेज्जा, श्रादिसद्दातो देवताराह्णादी वसीकरणजोगादी वा अधिज्जेज्ज, सरोरबा उसत्तं वा करेज्ज, ग्रादरिसे वा प्रप्पणी रूवं दट्टु सोभामित्ति गारवं करेज्ज, रूवेण हरिसिप्रो विरूवो वा विसादेण वित्तादिचित्तो भवेज्ज । तं कम्मखवणवज्जियं निरत्थकं सागारिय विट्टे उड्डा हो । "ण एस तवस्सी, कामी, एस प्रजिइंदियो" त्ति उड्डु हं करेज्ज ||४३२६ ॥ | वितियपद मणप्पज्भे, सेहे अविकोविते व अप्प विसत्राको मज्जण, मोहतिगिच्छाए जाणमवि ॥४३२७|| अपको पराधीनत्तणतो सेहो अविकोवितो प्रजाणत्तणतो, जो पुण अष्पज्झो जाणगो सो इमेहि कारणेहि अप्पाणं श्रादरिसे देहति - सप्पादिविसेण प्रभिभूते जालागद्दभलूता के वा उवद्विते प्रादरिसविज्जाए मज्जियव्वं, तत्थ प्रदरिसे प्रप्पणी पडिबिंबं गिलाणस्स वा उमज्जति, ततो पण्णप्पति, मोहतिमिच्छाए वा देहति ॥४३२७ ।। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ हवा इमे करणा - सभाष्य- चूर्णिके निशीयसूत्रे पुप्फग गलगंडं वा, मंडल दंतरूय जीह श्रड्डे य । चक्रस अविस वुडिहाणि जाणता पेहे || ४३२८|| विम्मि फुल्लगं, गले वा गंड, पसु ति मंडलं वा, दंते वा कोति घुणदंतगादिरोगो | अहवा जन्माए प्रोट्ठे वा किचि उट्ठियं पिलगादि । एवमादि प्रचक्खुविसयट्ठियं प्रपेक्खतो तिगिच्छा निमित्तं, रोगाइवुडहाणिजाणणणिमित्तं वा श्रद्दाए देहति अप्पसागारिए, ण दोसो || ४३२८॥ जे भिक्खू वमणं करेइ, करतं वा सातिज्जति ||सू०||४२|| जे भिक्खू विरेयणं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ||सू०||४३|| जे भिक्खू वमण-विरेयणं करेइ, करेंतें वा सातिज्जति | | ० ||४४ || उडुविरेयो वमणं, अहो सावणं विरेयो । aaणं विरेrणं वा, जे भिक्खू आइए अट्ठाए । सोणा णवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ||४३२६ ॥ णिप्पयोयणं प्रणट्टा | चउलहुं च पच्छितं पावति । समतिरित्तत्थपदग्रहणं इमाए गाहाए - वमणं विरेrणं वा, अभंगोच्छोलणं सिणाणं वा । नेहादितप्पण रसायणं व नत्थि च वत्थि वा ॥ ४३३० ॥ इमे य दोसा - गात मंगो तेल्लादिणा, फासुगनफासुगेण देसे उच्छोलणं, सव्वगातस्स सिणाणं वण्णबलादिणिमित्तं धयादिणे हवाणं तप्पणं, प्रदिग्गहणातो प्रब्भंगो तप्पणं च वयत्यंभणं एगमणेगदव्वेहि रसायणं, णासारसादिरोगणसणत्थं णासकरणं जत्थं, कडिवायमरिसविणासणत्यं च प्रपाणद्दारेण वत्थिणा तेल्लादिप्पदाणं वत्थिकम्मं । किं चान्यत् - विविधाणं दव्वाणं एगाणेगपयुत्ताणं वीरियविवागफलं णेगविहं जाणेऊण दव्वाणं अन्भवहारं करेति ||४३३०|| जतो भन्नति [ सूत्र ४२-४५ वण्ण-सर-रूव-मेहा, - वंगवलीपलित - णासणडा वा । दीहाउ तट्ठता वा, धूल- किसट्टा व तं कुज्जा ॥४३३१॥ सरीरे सुवण्णया भवति, महरसरो परिपुष्णेदियो रूववं मेहाधारणाजुत्तो भवति, वंगा गंडे भवंति, संकुचियगत्तवली पलियामयणासणट्ठा उवउज्जेति दने । प्रहवा दीहाऊ भवामि त्ति तदट्टा वोवयुज्जंति । थूलो वा किसो वा भवामि, किसो वा थूलो वा भवामि, एतदट्ठा तव्त्रि पदव्वोवयोगं करेंति । एवमादि करेंतस्स श्राणादिया दोसा ॥४३३१॥ उभयधरणम्मि दोसा, अहकरणकाया य जं च उड्डाहो । पच्छण्णमग्गणं पि य, अगिला गिलाणकरणं वा ||४३३२|| Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४३२८-४३३७ ] त्रयोदश उदेशकः "उमए" ति - वमणं विरेयणं । अतीव वमणे मरेज्ज, प्रतिविरेयणे वा मरेन्ज । मह उभयं धरेति तो उड्डनिरोहे कोढो, वच्चनिरोहे मरणं । अथ पतिवेगेण प्रशिलादिसु छडणणिसिरणं वा, एत्य हक्कायविराहणा। जं च अप्पाणं प्रगिलाणं गिलाणं करेति तष्णिप्फणं, "चत्तसरीरा वि सरीरकम्मं करेंति"त्ति उडाहो, तम्मि कते पत्थं प्रणं मग्गियव्यं, पत्थमोजनमित्यर्थः । अहवा- पच्छण्णं तं करेंतेहि अप्पसागारितो पहिस्सतो मग्गियव्यो ।।४३३२।। इमं बितियपदं - णच्चुप्पतियं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाए तिव्वाए । अद्दीणो अव्वहितो, तं दुक्खऽहियासए सम्मं ॥४३३३।। अव्वोच्छित्तिणिमित्तं, जीवट्ठाए समाहिहउँ वा । वमणविरेयणमादी, जयणाए आदिते भिक्खू ।।४३३४॥ दो विगाहातो ततियउद्देसकगमेण पूर्ववत् ॥४३३४॥ जे भिक्खू अरोगियपडिकम्मं करेति, करेंतं वा सातिज्जति ॥०॥४॥ भरोगो णिरुवहयसरीरो । मा मे रोगो भविस्सति ति प्रणागयं चेव रोगपरिकम्म करेति तस्स चठलहुँ, प्राणादिया य दोसा। जे भिक्खू अरोगत्ते, कुज्जा हि अणागयं तु तेगिच्छं । सो प्राणा प्रणवत्थं, मिच्छत्त-विराहणं पावे ॥४३३२॥ गतार्था इमेहि कारणेहि अववादेण कुज्जा - विहरण वायण आवासगाण मा मे व ताण वा पीला। होज्जा हि अकीरंते, कप्पति हु अणागयं काउं॥४३३६।। विहरणं जाव मासकप्पो ण पूरति ताव करेमि, मा मासकप्पे पुण्णे विहरणस्स वाघातो भविस्सति । रोगे वा उप्पण्णे मा वायणाए वाघामो भविस्सइ । विविधाण वा मावासगजोगाणं रोगमुप्पण्णे क्रम प्रसहमाहि हरितादिच्छेदणं प्रणं वा किंचि गिलाणट्ठा वताइयारं करेज्ज, प्रणागयं पुण कीरमाणे कम्मे फासुएण कीरमाणे व्रतभंगो ण भवति, तम्हा प्रणागयं कप्पति काउं । एमादिकारणे प्रवेक्खिऊण प्रणागयं रोगपरिकम्म कति ॥४३३॥ जतो भण्णति - अमुगो अमुगं कालं, कप्पति वाही ममं ति तं गातुं । तप्पसमणी उ किरिया, कप्पति इहरा बहू हाणी ॥४३३७।। ममं अप्पसरीरस्स प्रमुगो वाही प्रमुगे काले प्रवस्समुप्पजति तस्स रोगस्स गणागयं चेव किरिया कज्जति । "इहर" ति उप्पणे रोगे किरियाए कज्जमाणीए बहू दोसा, दोसबहुत्तामो य संजमहाणी भवति ।।४३३७॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ समाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे । सूत्र ४६-४६ अणागयं कज्जमाणे इमे गुणा अप्पपरप्रणायासो, न य कायवहो न या वि परिहाणी । ण य चणा गिहीणं, णहछेज्जरिणेहि दिट्ठतो ॥४३३८।। अणागतं रोगपरिकम्मे कज्जमाणे अप्पणो परस्स य प्रणायासो भवति, कमेण फासुएण कज्जमाणे कायवधो ण भवति, ण य सुत्तत्थे प्रावस्सगा परिहाणी भवति, प्रणागतं जहालाभेण सणियं कज्जमाणे गिहीणं चमढणा ण भवति । किं च उवेक्खितो वाही दुच्छेज्जो भवति, जहा रुक्खो अंकुरावत्थाए णहच्छेज्जो भवति, विवड्डितो पुण जायमुलो महाखंधो कुहाडेण वि दुच्छेज्जो, रिणं पि अवड्डिअं अप्पत्तणो सुच्छेज्जं, विवड्डियं दुगुणच उगुणं दुच्छेज्जं, एवं वाही वि अगागतं सुच्छेज्जो, पच्छा दुच्छेज्जो । __ जो सुत्तत्येसु गहियत्यो गहणसमत्यो य जो य गच्छोवग्गहकारी कुलगणसंघकज्जेमु य पमाणं तस्स एसा विधी ॥४३३८॥ जो पुण ण इमेरिसो तस्स इमा विधी - जो पुण अपुव्वगहणे, उवग्गहे वा अपच्चलो परेसिं । असहू उत्तरकरणे, तस्स जहिच्छा ण उ णिोगो ॥४३३६।। अभिणवाणं सुत्तत्याणं गहणे असमत्थो, साधुवग्गस्स व वत्यपायभत्तपाणपोसढभेसज्जादी एतेहि उवग्गहं काउं असमत्यो, उत्तरकरणं तवोपायच्छित्तं वा तत्थ वि असहू, एरिसस्स परिसस्स इच्छा ण णियोगो "अवस्समणागयं कायवं" ति ॥४३३६।। जे भिक्खू पासत्थं वंदइ, वंदंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४६॥ जे भिक्खू पासत्थं पसंसइ, पसंसंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४७॥ सुलद्धं ते माणुस्सं जम्मं जं साहूणं वट्टसि-एवमादिपसंसा, विधीए वंदणं उच्छोभणं वंदणं वा । एस सुत्तत्थो। इमा णिज्जुत्ती - दुविधो खलु पासत्थो, देसे सव्वे य होइ नायव्यो । सव्वे तिण्णि विगप्पा, देसे सेज्जातरकुलादी ॥४३४०॥ दुविधो पासत्यो - देसे सब्वे य । सव्वहा जो पासत्थो सो तिविधो। देसेण जो पासत्थो सो सेज्जातरपिंडभोतिमादी प्रणेगविधो ॥४३३६॥ पासत्यनिरुत्तं इमं सव्वदेसअभेदेण भण्णति - दसणणाणचरित्ते, तवे य अत्ताहितो पवयणे य । तेसिं पासविहारी, पासत्थं तं वियाणाहि ॥४३४१।। दसणादिया पसिद्धा। पवयणं चाउवण्णो समणसंघो । प्रत्ता भात्मा संधिपयोगेण माभियोगेण प्राहितो भारोपितः स्थापितः जेहिं साधूहिं - ते उज्जुत्तविहारिण इत्यर्थः । तेसिं साघूणं पासविहारी जो सो एवंविधो Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४३३८-४३४५ ] पासत्थो । पवयणं पडुच्च जम्हा साहु साहुणि सावग साविगासु एगपक्खे वि ण निवडति, तम्हा पवयणं पइ तेसि पासविहारी । त्रयोदश उद्देशकः अधवा - दंसणादिसु प्रत्ता श्रहि जस्स सो अत्ताहितो | एत्थ अकारो संधीए प्रत्थवसा हुस्सो दो दर्शनादीनां विराधकमित्यर्थः । जम्हा सो विराधको तम्हा तेसि दंसणादीनं पासविहारी ||४३४१॥ इयाणि सव्वपासत्थो तिविधभेदो भण्णति - दंसणणाणचरित्ते, सत्थो अच्छति तहिं ण उज्जमति । एतेण उपासत्थो, एसो अण्णो विपज्जाओ || ४३४२॥ सत्यो श्रच्छति । सुत्तपोरिसि वा प्रत्यपोरिसि वाण करेइ नोद्यमते, दसणाइयारेसु वट्टति, चारिते ण वट्टति, अतिचारे वा ण वज्जेति एवं सत्यो अच्छति, तेण पासत्यो । ग्रन्यः पर्यायः अन्यो व्याख्याप्रकारः || ४३४२॥ अधवा - पासोत्ति बंधणं ति य, एगठ्ठे बंधहेतवो पासा । पासत्थियपासत्या, एसो अण्णो विपज्जातो ||४३४३ ।। इमो देसपासत्थो - पासोति वा बंधणो त्ति वा एगट्टं एते पदा दो वि एगट्ठा। बंधस्स हेऊ "अविरयमादी" तें पासा भण्णति, तेसु पासेसु ठितो पासत्थो । ४३४३|| सव्वपात्थो गतो । ३६५ सेज्जायरकुल निस्सित, ठवण कुलपलोयणा अभिहडे य । पुव्वि पच्छा संधुत, णितियग्गपिंडभोति पासत्थो ॥४३४४॥ सेज्जातरपिंड भुंजति, सड्ढाईकुलनिस्साए विहरति ठवणाकुलागि वा णिक्कारणे पविसति, संखडि पलोएति, प्रादसादिसु वा देहं पलोएति, श्रमिहड गेहति भुजति य, सयणं पडुच्च माता-पितादियं पुव्वसंथवं करेति, पच्छासंभवं वा सासुससुरादियं । दाणं वा पडुश्च प्रदिष्णे पुव्वसंथवो, दिण्णे पच्छासंथवो, णितियं णिच्चणिमंतणे णिकाएति, जति दिने दिने दाहिसि अगविंडो अग्गक्रूरो तं गेण्हति भुंजइ य, एवमादिसुं प्रववादपदे वट्टंतो देसपासत्यो भवति ॥४३४४॥ जे भिक्खू कुसीलं वंदति वदतं वा सातिज्जति ||०||४८ || जे भिक्खू कुसीलं पसंसइ, पसंसंतं वा सातिज्जति ||०||४६ || कुत्सितः शीलः, कुत्सितेषु शीलं करोतीत्यतः कुसील इमा णिज्जुत्ति कोउयभूतीकम्मे, पसिणापसिणं णिमित्तमाजीवी । कक्क - कुरुय सुमिण - लक्खण-मूल-मंत विज्जोवजीवी कुसिलो उ || ४३४५॥ णिदुमा दियाणं तिगचश्चरादिसु ण्हवणं करेति ति कोतुझं रक्खणिमित्तं अभिमंतियं भूति देति, Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ५०-५३ अंगुबाहूपासणादी करेति, सुविणए विजाए अक्खियं प्रक्खमागस्स पसिणापसिणं, तीतपडुप्पण्णमणागयणिमित्तोवजीवी । अधवा - श्राजीवी जाति-कुल- गण-कम्म- सिप्पे पंचविधं करेति । लोद्दादिकेण कक्केण जंघाइ घसति, सरीरे सुस्सूसाकरणं कुरुकुया, बकुसभावं करेतिति वृत्तं भवति, सुभासुभसुविणफलं प्रक्खति, इत्विपुरिसाण मसतिलगादिलक्खणे सुभासुभे कहेति, विविधरोगपसमणे कंदमूले कहेति । ग्रहवागग्भादाण डिसाडणे मूलकम्मं मंतविज्जाहिंवा जीवाणं करेंतो कुशीलो भवति ।। ४३४५ ।। ३६६ जे भिक्खू सणं वंदति, वंदतं वा सातिज्जति ||०||२०|| जे भिक्खू सण्णं पसंसति, पसंसंतं वा सातिज्जति ||०||२१|| सूत्रे । श्रोणदोसो । श्रोसण्णो बहुतरगुणावराही इत्यर्थः । મ वासग सज्झाए, पडिलेह ज्झाण भिक्ख भत्तट्टे । १० काउस्सग पंडिकमणे, कितिकम्मं णेव पडिलेहा ॥४३४६॥ ""आवासग" त्ति अस्य व्याख्या - वासगं णितं करेति हीणातिरित्तविवरीयं । गुरुवयणणियोग' क्लायमाणे इणमो उ ओसण्णो ||४३४७॥ अणिययं - कदाति करेइ, कयाइ ण करेति श्रधिकं वा करेति दोसेहि वा सह करेइ, चक्कवालसामायारीए सीदमाणी श्रावस्सगे श्रालोयणवेलाए " णिश्रोइउ" त्ति चोदितो सम्मं प्रपडिवज्जतो तहा वा करेंतो वलायमाणो गुरुवयणो भवति, अन्नत्थ वा चोदितो गुरुवयणाभो वलायति । "सज्झाय" ति सज्झायं होणं करेति, प्रतिरिक्तं वा करेति । अहवा ण करेति । विवरीयं वा कालियं उक्काले करेति, उक्कालियं वा कालवेलाए करेति, असज्झाए वा करेति । - पडिलेहणार वि एवं चैव दट्ठव्वं । पुव्वावरत्तकाले ४ज्झाणं णो झापति । असुमं भायति । श्रालसितो "विखं ण हिंडति, प्रणुवउत्तो वा भिक्खाविसोहि ण करेति, प्रसुद्धं वा गेण्हति । " ६मत्तट्टं" त्ति-मंडलीए कदाति भुंजइ, कदाइ न भुंजति, मंडलिसामायारि वा ण करेति दोसेहि वा भुंजति, पविसंतो णिसोहि ण करेति णितो प्रावस्सियं ण करेति, णिताणितो ण पमज्जति वा । 9 दिसंतरणादिसु श्रण्णत्थं वा गमणागमणे काउस्सग्गं ण करेति । दोसेहि वा करेति । " पडिक्कमणं" ति मिच्छादुक्कडं, तं पमायखलियादिसु ण करेति । संवरणादिसु कितिकम्मठाणेसु "" कितिकम्मं " वंदणं ण करेति । गृरुमादीण वा विस्सामणादि कितिकम्मं ण करेति । जिसीप्रणतुयट्टणादिट्ठाणं ण १० पडिलेहे, संडासयं वा णिसीयतो प्रादाणणिक्खत्रणसुवा ण पाडलेहेति ण मज्जति ॥४३४७ ।। एस देसोसण्णो गतो । १ से १० तक गा० ४३४५ । २ पलायमाणे इत्यपि पाठः । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ४३४६--४३५१] त्रयोदश उद्देशकः इमो सव्वोसण्णो - उउबद्धपीठफलगं, ओसणं संजयं वियाणाहि । ठवियग रइयग भोती एमेता पडिवत्तीओ ॥४३४८॥ जो य पवखस्स पिट्ठफलगादियाण बंधे मोत्तुं पडिलेहणं ण करेति सो संजो उउबद्धपीढफलगो। अधवा - णिच्चविय संथारगो, णिच्चुत्थरियसंथारगो य उउबद्धपीढफलगो भण्णति । ठवियपाहुडियं भुजति, णिक्खित्तमोती वा, ठवियभोती। घंटी करणपटलगादिसु जो अवद्रियं प्राणे भुंजति सो रतियभोती ।।४३४७॥ अहवा - इमो संखेवग्रो प्रोसण्णो भण्णति - सामायारिं वितह, प्रोसण्णो जं च पावती तत्य । पूर्वार्षः सव्वं सामायारिवितहं करेंतो प्रोसण्णो, जं वा मूलुत्तरगुणातियारं जत्थ किरियाविसेसे पयट्टो पावति तं प्रणिदंतो प्रणालोयतो पच्छित्तं प्रकरेंतो प्रोसण्णो भवति ॥४३४८।। पूर्वाधः । जे भिक्खू संसत्तं वंदति, वंदंतं वा सातिज्जति ॥५०॥५२॥ जे भिक्खू संसत्तं पसंसति, पसंसंतं वा सातिज्जति ॥०॥५३॥ दोसेहिं जुतो संसतो प्राकिन्नदोसो वा संसतो। संसत्तो व अलंदो, नडरूवी एलतो चेव ॥४३४६।। उत्तराधं इमा पच्छद्धातो णिज्जुत्ती - संसत्तो कहं ? अलंदमिव । जहा गोभत्तक-लंदयं प्रणेगदम्वगियरं किमिमादीहि वा संसत्तं तहा सो वि । अहवा – संसत्तो प्रणेगरूबी नटवत् एलकवत, जहा णडो गट्टतसा अणेगाणि रूवाणि करेति, ऊरणगो वा जहा हलिद्दरागेण रत्तो घोविउं पुणो गुलिगगेरुगादिरागेण रज्जते, एवं पुणो वि घोविउ अण्णोण्ण रज्जति, एवं एलगादिबहुरूवी।।४३४६।। एवं संसत्तो इमेण विहिणा बहुरूवी - पासत्थ अहाछंदे, कुसील अोसण्णमेव संसने । पियधम्मो पियधम्मेसु चेव इणमो तु संमत्तो ॥४३५०॥ पासल्याण मज्झे ठितो पासत्यो, अच्छं देसु अहाछंदो, प्रोमणे मु प्रोसगाणुवतिग्रो प्रोसण्णो, संसत्ताण माझे संमत्तागुचरितो, पियघम्मेमु मिलितो अप्पाणं पियधम्म दंसेति, णिद्धम्मेसु शिद्धम्मो भवति । "डणमो" ति वक्खमाणसरूवो संसत्तो ।।४३५०।। पंचास्वप्पवत्तो, जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो : इन्थिगिहिसंकिलिहो, संगतो सो य णायच्यो । २३५१।। पंच ग्रासवदारा - पाणवह-मुसाबाय-प्रदत्त मेहुण परिग्गद, एतेमु प्रवृतः । सयु अवधारमार्थो : fofol गारवा - इटि-रस-सायं वा, एतेसु भावतो पडिबद्धो। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र ५४-६१ इत्थीसु मोहमोहितो संकिलिट्ठो तप्पडिसेवी । गिहीसु वि समक्सपरोक्खेसु सुत्यदुत्थेसु दुपदचउप्पदेसु वा वावारतहणपडिबद्धो संकि लट्ठो। संखेवो इमो-जो जारिसेसु मिलति सो तारिसो चेव भवति, एरिसो संसत्तो णायव्वो ॥४३५१।। जे भिक्खू णितियं वंदति, वंदंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५४॥ जे भिक्खू णितियं पसंसति, पसंसंतं वा सातिज्जति ।।२०।।५।। णिश्चमवत्याणातो णितितो। जं पुव्वं णितियं खलु, चउव्विहं वणियं तु बितियम्मि । तं आलंबणरहितो, सेवंतो होति णितियो उ ॥४३५२।। दव-खेत-काल-भावा एतं चउब्विहं, इहेव प्रज्झयणे बितियुद्देसे वणियं, तं णिक्कारणे सेवंतो णितितो भवति ।।४३५१॥ जे भिक्खू काहियं वंदति, वंदंतं वा सातिज्जति । सू०॥५६॥ . जे भिक्ख काहियं पसंसति, पसंसंतं वा सातिज्जति ।मु०॥५७।। सूत्रे । सज्झायादिकरणिज्जे जोगे मोत्तु जो देसकहादिकहातो कधेति सो काहितो । . इमा णिज्जुत्ती - आहारादीणऽट्ठा, जसहेउ अहव पूयणनिमित्तं । तक्कम्मो जो धम्म, कहति सो काहिलो होति ॥४३५३॥ धम्मकहं पि जो करेति अाहारादिणि मित्तं, वत्धपातादिणिमित्त, जसत्थो वा, वंदणादिपूयानिमित्त वा, सुत्तत्यपोरिसिमुक्कवावारो महो य रातो य धम्मकहादिपढणक हणवज्झो, तदेवास्य केवल कर्म तक्कम्म एवंविधो काहितो भवति ।।४३५३॥ चोदग आह - "णणु सम्झायो पंचविधो वायणादिगो । तस्स पंचमो भेदो धम्मकहा । तेण 'मनसत्ता पडिबुझंति, तित्थे य प्रवोच्छित्ती पभावणा य भवति, प्रतो ताप्रो णिज्जरा चेव भवति, कह काहियतं पडिसिज्झति ?" । प्राचार्याह - काम खलु धम्मकहा, सज्झायस्सव पंचम अंगं । अबोच्छित्तीइ ततो, तित्थस्स पभावणा चेव ।।४३५४॥ पूर्वाभिहिते नोदकार्थानुमते कामशब्दः । खलुशब्दो अवधारणेऽर्थे। किमवधारयति ? इमं - 'सज्झायम्स पंचम एवांगं धम्मकहा" । जइ य एवं - तह वि य ण सबकालं, धम्मकहा जीइ सव्वपरिहाणी । " नाउं व खेत्तकालं, पुरिमं च पवेदते धम्मं ॥४३५५। १ महसत्ता इत्यपि पाठः । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा ४३५२-४३५८ ] त्रयोदश उद्देशकः सव्वकालं घम्मो ण कहेयव्वो, जतो पडिलेहणादि संजमज़ोगाण सुत्तत्यपोरिसीण य प्रायरियगिलाणमादीकिच्चाण य परिहाणी भवति श्रतो न काहियत्तं कायव्यं । जदा पुण घम्मं कहेति तदा गाउं साधुसाधुणीय य बहुगच्छुवग्गहं । खेत्तं" ति श्रोमकाले बहूगं साधुसाधुणीणं उवग्गहकरा इमे दाणसड्डादि भविस्सांत (त्ति) धम्मं कहए। रायादिपुरिसं वा गाउं कहेज्जा, महाकले वा इमेश एक्केण उवसंतेगं पुरिसेणं बहू उवसमंतीति कहेज्जा ।। ४३५५ ।। जे भिक्खू पासणियं वंदइ, वंदतं वा सातिज्जति ||०||५८ || जे भिक्खू पासणियं पसंसड़, पसंसंतं वा सातिज्जति || मू०||५६ || जाणवयववहारेसु डण्डादिमु वा जो पेक्खगं करेति सो पासो । लोsयववहारेम्, लोए सन्थादिएस कज्जेसु । पासणियत्तं कुणती, पासणियो सो य णायव्वो ।।४३५६ ॥ लोइयवहारेसु" त्ति ग्रस्य व्याख्या - २ साधारणे विरेगं, साहति पुते पडए य आहरणं । दोह य एगो पुत्तो, दोष्णि महिलाओ एगस्स ||४३५७|| दोडं सामणं साधारणं, तस्स विरेगं विभयणं, तत्यण्णे पासणिया च्छेनुमसमत्या, सो भावत्यं जाउं दिति । हें ? एत्थ उदाहरणं भणति एगरस बणियस्स दो महिला, तत्थेगीए पुत्तो । एयं उदाहरणं जहा णमोक्कारणिज्जुत्तीए । पङग्राहरणं पि जहा तत्येव । एवं प्रणेमु वि बहूमु लोगववहारे पासणियत्तं करेइ छिदति वा ११४३५७|| - "लोए सत्यादिएसु" त्ति प्रस्य व्याख्या - दणिरुत्तं सद्द, अत्थं वा लोइयाण सत्थाणं । भावत्थ य साहति, छलियादी उत्तरे सउणे || ४३५८ || ३६६ छंदा दियाणं लोगसत्यागं सुनं कहेनि अत्थं वा, ग्रहवा "अत्यं व" त्ति प्रत्यसत्थं, सेतुमादियाण वा बहू कव्वाणं, कोहल्लयाण य, वेसियमादियाण य भावत्थं पसाहति । छलिय सिंगारकहा त्योवष्णगादी । "उत्तरे" ति - छंदुत्तरादी । ग्रहवा - ववहारे उत्तर सिक्खावेइ । ग्रहवा ' उनरे" ति लोउतरे वि स उण रेस्यादाणि कहयति ||४३५८ ॥ जे भिक्खु मामगं बंद, वंदतं वा सातिज्जति ||०||६० || जे भिक्खु मामगं पसंसड़, पसंसंतं वा सातिज्जति | | ० || ६१ || १ गा० ४३५६ । २ भयादीणि इत्यपि पाठ: । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [सूत्र-६२ ममीकारं करेंते मामानो - आहार उवहि देहे, वीयार विहार वसहि कुल गामे । पडिसेहं च ममत्तं, जो कुणति मामतो सो उ ॥४३५६।। उवकरणादिसु जहासंभवं पडिसेहं करेंति, मा मम उवकरणं कोइ गेहउ । एवं अण्णेसु वि वियारभूमिमादिएसु पडिसेहं सगच्छररगच्छयाणं वा करोति । आहारादिएसु चेव सव्वेस ममत्तं करेति । नावपडिबंधं एवं करेंतो मामो भवति ।।४३५६।।। विविधदेसगुणेहि पडिबद्धो मामग्रो इमो - अह जारिसरो देसो, जे य गुणा एत्थ सस्सगोणादी । सुंदरअभिजातजणो, ममाइ निक्कारणोवयति ॥४३६०॥ "प्रह" ति अयं जारिसो देसो रुक्ख-वावि-सर-तडागोवसोभितो एरिसो अण्णो णत्थि। सुहविहारो। सुलभवसहिभत्तोवकरणादिया य बहू गुणा । सालिक्खुमादिया य बहू सस्सा णिप्फज्जंति य । गो-महिस-पडरत्ततो, य पउरगोरसं । सरीरेण वत्थादिएहि सुंदरो जगो, अभिजायत्तणतो य कुलीणो, ण साहुसुवद्दवकारी, एवमादिएहिं गुणेहिं भावपडिबद्धो णिककारणिो वा वयति - प्रशंसतीत्यर्थः ।४३६०।। जे भिक्खू संपसारियं वंदति, वंदंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥६॥ जे भिक्खू संपसारियं पसंसति, पसंसंतं वा सातिज्जति ॥०॥६३॥ गिहीणं कज्जाणं गुरुलाघवेणं संपसारेतो मपसारिप्रो । अस्संजयाण भिक्ख , कज्जे अस्संजमप्पवत्तेसु । जो देती सामत्थं, संपसारो सो य णायव्यो ।।४३६१॥ जे भिक्खू प्रसंजयाणं असंजमकज्जपवत्ताणं पुच्छताणं प्रपुच्छता का सामत्थयं देति-"मा एवं इम वा करहि, एत्थ बहू दोसा, जहा हं भणामि तता करेहि" ति, एवं करेंतो संपसारितो भवति ।।४३६१।। ते य इमे असंजयकज्जा गिहिणिक्खमणपवेसे, आवाह विवाह विक्कय कए वा । गुरुलाघवं कहेंते, गिहिणो खलु संपसारीअो ॥४३६२॥ गिहीणं असंजयाणं गिहाम्रो दिसि जत्तए वा णिग्गमयं देति । गिहि(स्स)जत्तानो वा प्राग यस्स पावेसं देति । आवाहो विड्ढियाल भणयं सुहं दिवसं कहेति, मा वा ए यस्स देहि, इमस्स वा देहि । विवाहपडलादिएहि जोतिसगथेहि विवाढेलं देति । अग्घकडमादिएहि गथेहि इम दव्वं विक्किणाहि, इमं वा किणाहि । एवमादिएमु कज्जेसु गिहीणं गुरुलाघवं कहें तो संपसारत्तगं पावति ।।४३६२॥ . पामत्थादियाण मवेमि इमं सामण्णं - एएसामण्णतरं, जे भिक्खू पसंसए अहव वंदे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ॥४३६३॥ मिच्छतं जणेति, संजविराहणं च पावति ।।४३६३।। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ भाष्यगाथा ४३५६-४३६८] त्रयोदश उद्देशक: इमाणि पसंसणकारणाणि भवंति - मेहावि णीयवत्ती, दाणरुई चेइयाण अतिभत्तो। लोगपगतो सुवक्को, पियवाई पुव्वभासी य ॥४३६४॥ अणुज्जमंतस्स एते सव्वे प्रगुणा दट्ठव्वा, तम्हा मेहाविमादिरहिं पसंसवयणेहि ण पसंसियवा।।४३६४।। अण्णेसु वि सुत्तेसु पासत्थादियाण वंदणं पडिसिद्ध। . जतो भण्णति - ठियकप्पे पडिसेहो, सुहसीलज्जाण चेव कितिकम्मं : णवगस्स या पसंसा, पडिसिद्धपकप्पमझयणे ॥४३६।। इमो ठियकप्पो - "प्राचेलकुदृसिय-सेज्जातर-रायपिंड-कितिकम्मे । वयजेट्ठ-पडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पे ।" एत्य पडिसिद्धं वंदणयं पसंसा य सुहसीलाणं । पासत्थादी प्रज्जाण य कितिकम्म पडिसिद्ध । कितिकम्मं वंदणयं । "णवगस्स" ति पासत्थादी पंच काहिकादी चउरो, एते सब्वे णव । पगप्पो इमं चेव . णिसीहज्झयणं । एत्थ णवगम्स पसंसा पडिसिद्धा ।।४३६५।। इदाणि सामण्णेण सीयंतेसु वंदणपडिसेहो कजति -- मूलगुण-उत्तरगुणे, संथरमाणा वि जे पमाएंति । ते होतऽवंदणिज्जा, तहाणारोवणा चउरो ॥४३६६॥ ___ जो संथरंतो मूलुत्तरगुणेसु सीदति सो अवंदणिज्जो । जं च पासत्यादि ठाणं सेवति तेहिं वा सह संसग्गिं करेति, प्रतो तट्टाणासेवणेण प्रारोवणा, से चउलहुं अहाछदवज्जेसु, अहाछंदे पुण चउगुरु ॥४३६६।। बितियपदं - बितियपदमणप्पज्यो, पससत अविकोविए व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, भयसा तव्वादि गच्छट्ठा ॥४३६७॥ अणवज्झो खित्तादिचित्तो पराधीणतणतो पसंसे, अविकोवितो सेहो सो वा दोस अजाणतो पसंसे सत्थचित्तो वि। अधवा – जाणता वि दास भया पसंसे रायासियं । "तव्वादि" ति कोइ परवादा इमारसं पक्ख करेज्ज - पासत्थादयो ण पसंसिज्जा इति प्रतिज्ञा, अस्य प्रतिघातत्थं पसंसियव्वं ण दोसो. गच्छस्स वा उग्गहकारी सो पासत्थादी पुरिसो अतो गच्छट्ठा पसंसेति ।।४३६७।। इमो वंदणस्स अववातो बितियपदमणप्पझे, वंदे अविकोविए व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, भयसा तव्यादि गच्छट्ठा ।।४३६८॥ पूर्ववत् । अववाए उस्सग्गो भण्णति - अबवादेण जदा पासस्थादियाण सरीरणिराबाहत्तालेसणं । करेति तया वंदणविरहियं करेति ।।४३६८।। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ जता भण्णति - सभाष्य चूर्णिके निशीथसूत्रे गच्छपरिरक्खणट्ठा, अणागयं श्रउवातकुसलेणं । एवं गणाधिपतिणो, सुहसीलगवेसणं कुज्जा || ४३६६|| प्रोमरायदुट्ठादिसु गच्छस्स वा उवग्गहं करेस्सति, तिमिच्छा वा "श्रणागय" ति, तम्मि श्रोम दिगे करणे प्रणुप्पो वि "आउ" त्ति प्रस्स पासत्थादिपुरिसस्स पासातो असणवत्यादी संजमवड्डी वा गवाया वा आयो । उवायकुसलत्तं पुण गणाधिपतिणो तहा सुहसीलाणं गनेसणं करेति जहा ण गवसति य ण य तेसि प्रप्पत्तियं भवति ॥ ४३६६ ॥ साय तेसिंगवेसणा इमेहि ठाणेहिं कायव्वा हवा जय । इमा होति पुरिसविसेस वंदने । सोय पुरिसविसेसो इमो - बाहिं आगमणपहे, उज्जाणे देउले समोसरणे । रच्छउवस्सगबहिया, अंतो जयणा इमा होति || ४३७०|| जत्य ते गामणगरादिसु श्रच्छंति तेसि बाहि ठितो जता ते पस्सति सेज्जातरादि वा तदा णिराबाहादि गवेसति । जया वा ते प्रागच्छंति भिक्खायरियादि तम्मि वा पहे दिट्ठाणं गवेसणं करेति । एवं उज्जाणादिट्ठाणं चेतियं वंदणनिमित्तमागतो वा देवउले गवेसति, समोसरणे वा दिट्ठा, रच्छाए वा भिक्वादि प्रडता भिट्टा गवेसति । कदाचि ते पासत्यादयो बाहि दिट्ठा भणेज्ज - श्रम्ह पडिस्सयं ण कदाइ एह, ता तदाणुवत्तीए तेसि उवस्सय पि गम्मति । तत्थ उवस्सयस्स बहिया ठितो सव्वं णिराबाहादि गवेसति । प्रतिणिब्बंधे वा तेसि तो उवस्सयस्स पविसित्ता गदेसति । इमा जयणा गवेसियव्वे भवति । भाभि - मुक्कधुरा संपागडकिच्चे चरणकरणपरिहीणे | लिंगावसेसमेत्ते, जं कीरति तारिसं वोच्छं || ४३७१ ॥ संजमधुरा मुक्का जेण सो मुक्कघुरो, समत्यजणस्स पागडाणि श्रकिच्च णि करेति जो सो संपागडकिच्चो | तारिसे दव्वलिंगमेत्ते जारिसं वंदणं कीरति तारिसं सुणसु [ सूत्र- ६४ हवा - प्रसंजम किच्चाणि संपागडादि करेति जो सा संपागडकियो, संपागडतेवी वा मूलगुणे उत्तरगुणे सेवतीत्यर्थः । सो प्रक्रिच्चपडिसेवणातो चेव करणपरिभट्ठो चरणकरण डिहीणत्तणश्रो चेव दव्य लिंगावसेसो, दव्वलिंग से ण परिचत्तं ( लिंग ) मेसं सव्वं परिचत्तं । मात्रशब्दः लक्षणवाची । प्रव्रज्यालक्षणं द्रव्यलिंगमात्रमित्यर्थः ।।४३७० ।। वायाए णमोक्कारो, हत्थुस्सेहो य सीसनमणं च । गच्छणिवंदति, ते -- संपुच्छणऽच्छृणं छोभवंदणं वंदणं वा वि || ४३७२। आगमणादिमु ठाणेमु दिट्टस्म पासत्यादियस्य तायाए वंदणं कायव्वं - "वंदामो" ति भाति। विमितरे उग्गमभावे वा वायाए मृत्युम्मेहं व प्रजलि करेति । अतो विविमिट्टतरउआगयतरसभावस्स वादो विएने करेति, तनियं च मिरपणामं करेति । ततो विसिद्धतरे तिणि काउं पुरुट्टितो भत्ति पिव दरिमतो सरीरे वट्टमाणि पुच्छति । तो विमितरस्त्र पुच्छिता खगमेत्तं पज्जुवामतो अच्छति । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४३६९-४३७६ ] त्रयोदश उद्देशकः अघवा - पुरिसविसेसं जाणिऊण उच्छोभवंदणं देति - "इच्छामि खमासमणो वंदिउं नावणिजाए णिसीहियाए तिविहेणं" एवं उच्छोभवंदणयं । अहवा -पुरिसविसेसं गाउं संपुणं बारसावत्तं वदणं देति ।।४३७२॥ ते य वंदणविसेसकारणा इमे - परियाय परिस पुरिसं, खेतं कालं च आगम गाउं । कारगजाते जाते, जहारिहं जस्स जं जोग्गं ॥४३७३॥ बंभचेरमभग्गं विसेसितो दोहपरियातो सेसुत्तरगुणेहिं सीदेति । सयं सीयति, "परिस" परिवारो से संजमविणीतो मूलुत्तरगुणेसु उज्जुत्तो। "पुरिसो" रायादिदिक्खितो बहुसंमतो वा पवयणु-भावगो । “खेतं" पासत्यादीभावियं तदणुगएहि तत्थ वसियव्वं । प्रोमकाले जो पासत्यो सगच्छवढावणं करेति तस्स जहारितो सक्कारो कायब्बो। "पागमे" से सुतं अस्थि, प्रत्थं वा से पण्णवेति - चारित्रगुणान् प्रज्ञापयतीत्यर्थः । कारणा कुलादिगा । जातशब्दो प्रकारवाची। बितिमो जातसद्दो उप्पण्णवाची । जस्स परिसस्स जं वंदणं परिहं तं कायव्वं । चोदगाह - जोगग्गहणं णिरत्ययं पुणरुत्तं वा । आचार्य प्राह - णो गिरत्थयं । कहं ? भण्णति - अण्णं पिज करणिज्ज अभुट्ठाणासण-विस्सामण-भत्तवत्थादिपदाणं तं पि सव्वं कायन्वं, एयं जोगग्गहणा गहितं ।।४३७३।। एयाइ अकुव्वंतो, जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे । न भवइ पवयणभत्ती, अभत्तिमंतादिया दोसा ।।४३७४।। एयाई ति वायाए णमोक्कारमातियाई ति परियागमादियाणं पुरिसाणं परिहंतदेसिए मग्गे ठियाग जहारिह वंदणादि उवयारं अकरेंताणं णो पवयणे भत्ती कया भवति । वंदणादि वयारं प्रकरेंतस्स प्रभत्ती भवति । प्राइसद्दातो निज्जर सुगइला भस्स वा प्रणाभागी भवति ॥४३७४।। जे भिक्खू धाईपिडं भुंजइ, भुंजंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६४॥ बालस्स घाइत्तणं करेंतस्स प्राणादिया दोसा, चउलहुं च से पच्छित्तं ॥४३७४।। जे भिक्ख धातिपिंडं, गिण्हेज सयं तु अहव सातिज्जे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥४३७॥ सातिज्जणा अण्णं करेंत अगुमोदति । सेसं कंठं ।।४३७५।। धाइणिरुत्तं इमं - धारयति धीयते वा, धयंति वा तमिति तेण धातीतो । जहविभवा आसि तया, खीराई पंचधातीओ ॥४३७६।। 7 बाल धारयतीति धाती । तेग बालेण धीयते पीयत इत्यर्थः । सो वा बालो तं धावतीति धाती, त पिबतीत्यर्थः । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-६४ णिज्जुत्तिकार प्राह - जता भगवता तित्यं पणीतं तदा विमवाणुरुवा पंचधातीतो मासी। तं बहा - खीरघाती मजण-मंडण-कोलावण अंकघाती य ।।४३७६।। एपा सव्वामो वि समासेण दुविधा-सयंकरणे कारावणे य। अहवा - धाति घाइत्तणे ठवेति । कहं पुण धाइत्तणं करेति ? भण्णइ - एगस्स साधुस्स एगा परिचियसड्डी। सो साधू तत्थ भिक्खाए गतो। तस्स संतियं दारगं रुदंतं दलृ साहू इमं भणाति - खीराहारो रोवति, मज्झ किताऽऽसादि देहिणं पज्जे । पच्छा व मज्झ दाहिसि, अलं व भुज्जो व एहामि ॥४३७७॥ साहू भणति - एस दारगो खीराहारो छुहत्तो रोवति, ता तुम अण्णं वावारं मोतुं इमं ताव दारगं थणतो खीरं पज्जेहि । एवं कते मझ प्रासापूरणं कयं होति, मज्झ वि भिक्खं पच्छा दाहिसि एयंमि तिते । अहवा भणति - भिक्खाए वि मे अलं, परं एवं पज्जेहि । अहवा भणाति - पुणो भिक्खाणिमितं एहामि, इदाणि एवं पाएहि ॥४३७७।। इमं च अण्णं भणाति - मतिमं अरोगि दीहाउओ य होति अविमाणितो पालो। दुल्लभयं खु सुतमहं, पज्जेहि अहं व से देमि ॥४३७८॥ बालो बालभावे वि अविमाणितो मतिमं भवति, अरोगो भवति, दीहाउगो य भवति । विमाणितो पुण मंदबुद्धी सरोगो अप्पाउतो । तं मा विमाणेहि, अण्णां च दुल्लभो पुत्तजम्मो, तं एवं पजेहि थणं । अहवा - गवादिखीरं करोडगे छोढुं देहि, अहमेतं पजामि ।।४३७८॥ साधुस्स धाइत्तणं करेंतस्स इमे दोसा - अहिकरण भद्दपंता, कम्मुदय गिलाणए य उड्डाहो । चङ्गारी य अवन्नो, नीया अण्णो व णं संके॥४३७६॥ असंजतो पासितो अधिकरणं कम्मबंधपरूवणा य कुलमड्डियादिण भदपंतदोसा य । भद्ददोसा - एस तवस्सी अपणो गिहं चइत्ता अम्होवरि णेहं करेति विसेरे ण, से भत्तपा गादी देजह । अगारी वा सबंधं गच्छति।। पंतदोसा - अप्पणो असुभकम्मोदएण गिलाणो जातो सो बालो, ताहे भणति -- कि पि एरिसं समणेण दिणं जेश गिलाणो जातो, एवं जणवाए उड्डाहो - "एते कम्मणकारगा।" अहवा भणेज्जा - एते अदिण्णदाणा भिक्खाणिमित्तं चाडु करेंति, एवमादि लोए अवां वदेज्ज । अहवा - तस्स अगारीए सयणा अण्णो वा सयणो संकेज्जा-तणं एस संजतो एतीए अगारीए सह प्रणायारं सेवति जेण से पुत्तभंडादि भुंजावे ति ॥४३७६।। १तृप्ते इत्यपि पाठः । . Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४३७७-४३८३ अहवा - इमो धातिकरण विगप्पो ||४३८० || मप उ विगप्पो, भिक्खायरि सडि अद्धिती पुच्छा । दुक्ख सहायविभासा, हितं मे धातित्तणं अज्जो -घातिकरणे पुब्विल्लविकप्पातो इमो श्रवरो अण्णो विगप्पो भति उवसमति, अष्णया सो तीए घरं भिक्खाएं गतो, दिट्ठा य तेण साधुना सा अद्धितिमंती | त्रयोदश उद्देशकः - ताहे सो साहू पुच्छति - किं णिमित्तं विमण) सा भणति - कि तुझ मम संतियेश दुक्खेण । भणियं च - जो य ण दुक्खं पत्तो, जो य न दुक्खस्स निग्गहसमत्थो । जो य ण दुहिए दुहियो, न हु तस्स कहिज्जउ दुक्खं ॥१॥ साहू भणइ ग्रह दुक्खं पत्तो, ग्रहयं दुक्खस्स निग्गहसमत्थो । ग्रह दुहिए दुहियो, ता मज्भ कहिज्जउ दुक्खं ||२|| ताहे साधू तं पुच्छति इमेहिं तं - सा " दुक्खसहायविभास" त्ति । ताहे सा सड्डी भगइ जति तुमं दुक्खणिग्गहसमत्यो तो कहेमि, प्रमुगधरे मे घातित्तणं प्रासी, तत्थ तेग घाइतणेण सुहं जीवंती प्रासी, प्रज्ज मे तं फेडियं, अण्णा तत्थ ठविया तेणऽम्हि प्रज्ज संचिता ||४३३० ll - - - वय - गंड ड-धुल्ल-तणुय- त्तणेहि तं पुच्छियं प्रयाणंतो । तत्थ गतो तस्समक्खं, भणाति तं पासिउं बालं ॥ ४३८१ ॥ एगस्स साधुस्स एगा अगारी सड्ढी विमणी उस्सुयमणी जा साठवता तरस के रिसो वयो- तरुणी मज्झा वुड्ढा ? गंडयणी उष्णयथणी महत्यणी प्रथ कोपरयणी पतितथणी ? सरीरेण थूला तगुयी वा १ तं ठवियधाति श्रयाणंतो एमाइएहि पुच्छिउं तम्मि घरगतो तीए । वियधातीए समक्खं गिरतिसमक्खं च तं बलं पासिउं इमं भगइ ||४३८१० हुडियं च णवेक्खितं च इमगं कुलं तु मन्नामि । पुण्णेहि जहिच्छाए, चलति बालेण सूमो || ४३८२|| गिसामा य भगति - प्रज्जो वहं जागसि ? साधू भइ - इमेग बालेश जागामि ||४३८२॥ अहो ! इमं कुलं गणु पितिपरंपरागयसिरियं गुट्टियसिरियं एयं । अथवा प्रणक्खियं ति ण एवं घरचितगा बुड्डा पडिजग्गंति, णत्थि वा एत्थ घरचितगा वुड्डा, अप्पणो जहिच्छाए पुण्णेहि चलति । ४०५ जारिसी साठवियधाती तारिसीए दोसे उभाउकामो भणति थेरी दुब्बलखीरा, चिमिठो पेल्लियमुह अतिथणीए । तई मंदक्खीरा, कोप्परथणियं ति मुहमुहो ||४३=३॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ मूक-६४ इमो बालो लक्खणजुत्तो। एयाणि से लक्खणा णि अम्मवातीए उवहम्मंति, जतो एयस्स धाती थेरी, थैरी दुबलखीरा भवति. एस वहतो रुक्खगत्तो भविस्सति । मह महल्लथणी तो धणेहिं पेल्लिया णासिका चिमिटा भविस्सति, सुहं च से पेल्लियं गल्लरं भविस्सति, कृशा मंदवीरा भवति, अप्पाहारतणमो वर्सेतो किसो चेव भविस्सति । कोपरथणीए कोपरागारे थणे सूसंतो उदंतुरो सूइम्रहो य भविस्सति ॥४३८३॥ बहुवित्थारदूसणे इमं सावणं भवति - जा जेण होति वण्णेण उक्कडा गरहते स तेणेव । गरहति समणा तिव्वं, पसत्थभेदं च दुव्वणं ॥४३८४॥ जा सा ठवियघाती सा जेण वणेण जुत्ता पसत्येण वा अपसत्येण वा उक्कड़ेग वा जहणेण वा स साधू तेणेव वणोणं तं गरहति । अध जा य ठविया जा य फेडिया ततो दो वि समवण्णा तो समवायातो वा तत्थ वि त ठवियं तिब्बतरेण वा दुवण्णय रेग वा वणभेदेण जुतं तेणेत गरहति । जा पुण सा ठवेयम्बा तं दुवणेण वि जुत्तं पसंसति किमुत पसत्येण ।।४३८॥ एवं करेंतस्स इमे दोसा - ओवट्टिया पदोस, छोभग उभागमो य से जं तु । होज्जा मज्ज वि विग्धो, विसाति इयरी वि एमेव ॥४३८॥ जा मा धातिठाणातो साघुवयणेण उवट्ठिता पदोसमावण्णा छोभगं 'सुभेज । छोभगो अन्मक्खाणं । Tस | ते ] तीए सह प्रणायारं सेवति, तस्स वा उन्भामगो त्ति, संघाडगो मण्णो वा मेहुणसंसट्ठो पट्टो जं पंतावणादि काहिति तणिकयं च । इयरी वि जा संजएण पसंसिता धातित्तणे ठविता, सा वि चितेज्ज-एस मजतो पुणो तीए उलग्गिप्रो मज्झ दोसे काउं तीए गुणे वण्णेयं मम विग्धं धातिनगे करेज्ज, तं जाव ण करेति ताव विम गरं वा देमि, एवं सा वि करेज्ज ॥४३८५॥ गता खीरधाती। इयाणि मज्जणादियायो - एमेव सेसियासु वि, सुयमादिसु करणकारणे सगिहे । इडीसु य धाईसु य, तहेव उबट्टियाण गमो ॥४३८६॥ मेगियानो मज्जण-मंडण-कीलावण-अंकघातीप्रो य । "मुत" ति पुत्तो। तस्स मज्जणादिकं मातरि वा कारवेति, "करण' ति अप्पणा वा मगिह चेव करेति. जहा इड्ढिघरेमु खीरधाती ठविज्जा तहा इढिघरेसु चव मज्जगादिधातीतो ठविति । मजणादिधातीण वि उवट्टिताणं जो गमो खोरघातीए सो चेव गमो अमेसो दट्टरो ॥४३८६॥ इमं मजणधातित्तं - लोलति मही य धृली, य गुंडितो ण्हाण अहव णं मज्झे । जलभीरु अबलणयणो, अतिउप्पिलणेण रत्तच्छो ॥४३८७i बाल धूलोए धवलियंग दल, महीए वा लोलतं दट्ठ, साधू तं पुत्तमाय भगाति - एयं बालं ण्हवेहि । उदगं वा कुडगादिमु छोद देहि, ताहे ग्रहं हामि । हाणघातीए इम पच्छदं दूमणं - प्राइ(स)ज्झल्लमलहाणेण १देज इत्यपि पाठः । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४३८४-४३६२ ] वसंतो हविज्जतो जलभीरू भवति, णयणा य प्रतिजलभरणेण दुब्बला हवंति, अण्णं च जलेणं उप्पिलाविया णपणा जमदग्रस णिमा रता भवंति ॥४३८७॥ मज्जणवाती । भंगिय संवाहिय, उव्वट्टिय मज्जियं च तं बालं । उवणेt ण्हाणघाती, मंडणधातीए सुइदेहं || ४३८८|| सा पहाणघात तं बालं अब्भंगा दिएहिं चोक्ख देहं करेत्ता मंडणघातीए समप्पेति ॥४३८८॥ गता इमा मंडणधाती. -- उसका दिएहि मंडेहि ताव णं श्रव णं विभूसेमि । हत्थेव्वगा व पादे, कयमेलेच्चा व से पादे || ४३८६|| इमा कीलावणधाती - M त्रयोदश उद्देशकः उसू तिलगा । तेहि तिलगकडगा दिएहि इमं विभूसियं ससिरियं करेहि । हवा - विभूसणे प्राणेहि, जेणाह विभूगेमि । इमो मंडणघातीए दोसो - हत्येव्वगा श्राभरणगा कडगादी पादे करेति, गल्लिवगा व से मालादी पाए कया एवं सा श्रलक्खणं मंडेति त्ति । गता मंडणधाती ||४३८९ ॥ ढड्डुसर पुण्णमुहो, मउ गिरासू य मम्मणुल्लावो | उल्लावणकादीहि व, करंति कारेति वा किड्ड ||४३६०|| कीलावणधातीए दोसं ताव भणाति - जया ढड्ढरसरा कीलावणघाती भवति तो तस्स सरेण पुष्णमुहो भवति । ग्रह मउयगिरा तो मम्मणपलावो भवति, मउलपलावो वा भवति, मूग्रं वा भवति । एयं रुदंतं बालं मधुरमधुरंहि कीला नणवयणेहि साधू कीलावणं करेति । मातरं वा भणाति - एयं रुदंतं बाल कीलावेहि ||४३६० ॥ इमा अंकाती - खुल्लाए विगडपादो, भग्गकडी सुक्कडी य दुक्खं वा । नीमंसकक्खडकरेहि भीरुतो होइ घेप्ते ||४३६१ ॥ थुनाए अघातीए कडिमारोवियस्स जेण विसाला उरू भवंति तेण वियडपादो भवति, सुक्खकडीए श्रहो उरुविलंबित्तणम्रो भग्गकडिसमाणो भवति णिम्मंसकडीए ग्रट्ठीसु दुक्खविजति, कि च निम्मंसले हि करेहि फासे हि णिज्वं घेप्पते भीरू भवति । तं बालं साहू अकेश घरेति, मायरं वा से भणाति "बरेहित्ति वालं" ॥४३६१।। घातीपिंडे इमं उदाहरणं - कोल्लतिरे वत्थच्यो, दत्तो श्रहिंडितो भवे सीसो । उवहरति धातिपिंडं, अंगुलिजलणे य सादिव्वं ॥ ४३६२ ॥ एसा भवाहुकया गिज्जुत्तिगाहा ४०७ 8 - Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ सभाष्य चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-६५ इमं से तक्खाणं - ओमे संगमथेरा, गच्छ विसज्जंति जंघवलहीणा । नवभागखेत्तवसही, दत्तस्स य आगमो ताहे ।।४३६३।। अत्थि संगमथेरा णामायरिया, ते विहरंता कोल्लइर णगरं गता, तत्थ दुभिक्खं, सो य प्रायरियो जंघाबलपरिक्खीणो, अप्पणो सीसस्स सीहणामस्स गपां समप्पेति, विसज्जेति य गच्छं, सुभिक्खे विहरह, गता ते, सो वि पायरियो कोल्लइरे ठितो वत्थब्वो, जातो - खेतणितितो त्ति । तत्थ सो प्रायरियो तं कोल्लइरं णवभागे काउं तत्थेव मासकप्पेण विहरति । एवं विहरंतस्स बारसमो वरिसो । ततो सीहेण सेन्झतितो दत्तो णाम आयरियाणं सीसो गवेसगो पेसितो, सो आगतो। आयरियो णितितो त्ति काउ परिहवेणं उवस्सयस्स बाहिं ठितो, गुरूहि सद्धि गोयरं पविट्ठो, अण्णाउंछेणं अलभंतो संकिलिस्सति, ठवणाकुलेण दाएइ त्ति । तं गुरू जाणिऊण एगम्मि सिट्टिकुले पूयणागहियं चेडं दठ्ठ भणति - मा रुय चेट्ट त्ति । सा पूयणा अट्टहास गुरुप्पभावेण णट्ठा, सेट्ठिणी तुट्ठा, तीए लडुगादी णीणियं पज्जत्तिय । गुरुणा भणियो - "गेण्हमु” त्ति। दत्तण गहियं, सण्णियट्टो य, चितितं - “एयस्स एयाणिणिस्साकुलादीणि।" पायरियो वि अण्णाउंछं हिंडिउं पागतो। वियाले प्रावस्सगकरणे गुरुणा भणियं - "सम्म ग्रालोएहि ति ।" उव उत्तो - "ण संभरामि" ति। गुरुणा भणियो - "धातिपिंडो तुमे भुत्तो" ति ण सम्म पडिवण्णो। भणियं च - "अतिसुहुमाणि पिक्खसि गुरुणो सुचरियतवजोगजुत्तस्स" , खेत्तदेवया उवसंता, सा तस्स रुट्ठा, महदुद्दिणं विउव्वति । सो बाहिं ससीकरेण वाउणा अभिभूयो गुरुणा भणितो - "अतीहि" त्ति । सो भणाति - "दुवारं न पेक्खामि" ति। गुरुणा खेलेण अंगुली ससट्टा कया, उहागारा पदीवमिव जलि उमाढत्ता, एहि य इतो त्ति वुत्तं, सो तं "सादेव" अतिसयं दछु तुट्टो, प्राउट्टो "मिच्छामि'' त्ति भासति ॥४३६३।। उवसग्गबहिट्ठाणं, अण्णाउंछेण संकिलेसो य । पूयण चेडे मा रुद, पडिलाभण विगडणा सम्मं ।।४३६४।। गतार्था एवमादि धातिपिंडो ण कप्पए घेत्तुं ॥४३६४।। प्रववादे कारणतो गेण्हतो प्रदोसो - असिवे प्रोमोयरिए, रायगुडे भए व गेलण्णे । अद्धाणरोहए वा, जयणा गहणं तु गीयन्थे ।।४३६५१। भसिवादिकारणेहि गोयत्यो पणगपरिहाणीजयणःए गेहतो मुद्धो । ४३६५।। जे भिक्खू दूतिपिंडं भुंजति, भुंजंतं वा सानिज्जनि ||मू०।।६५।। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ४३६३-४४००] त्रयोदश उद्देशक: ४०६ गिहिसंदेसगं णेति प्राणेति वा जं तणिमित्तं पिंडं लभति सो दूतिपिंडो। जे भिक्खू दूतिपिंडं, गेण्हेज्ज सयं तु अहव सातिज्जे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥४३६६।। प्रप्पणा गेण्डति, अण्णं वा गेहंत अणुजाणति, तस्स प्राणादिया दोसा, चउलहुं च पच्छित्तं सग्गाम परग्गामे, दुविहा दुती उ होइ णायव्वा । सा वा सो वा भणती, भणती तं छन्नवयणेणं ॥४३६७।। तं दूइत्तणं दुविहं - सग्गामे वा करेइ परग्गामे वा । जा सा सग्गामे पागडत्था अपागडत्या वा। परगामे वि एसा चेव दुविधा । पुगो एक्केका दुविधा - इत्यी वा संदिसति, पुरिसो वा ।।४३६७।। दुविहा य होइ दूती, पागड छण्णा य छण्ण दुविहा य । लोउत्तरे तत्थेगा, वितिया पुण उभयपक्खे वि ॥४३६८॥ पुटबद्धं गतार्थम् । जा सा छण्णा सा दुविधा - एगा लो उत्तरे, बितिया लोगे य ॥४३६८ः। लोगुत्तरे य इमा पागडत्था - भिक्खादी वच्चंते, अप्पाह निणेति खंतिगादीहिं । सा ते अमुगं माता, सो च पिया पागडं कहति ।।४३६६॥ सग्गामे अशापाडयं भिक्खाए बच्चंत साहुं सड्डी से ज्जातरी वा धूयाए अप्पाहेति - "पागडं इम भणेज्जाह" साधू वि प्रसंक्तिं चेव पडि वज्जति - "ग्राम कहिम्स' नि नत्थ गमो तं से ज्जायरिधूयं भगाति - “सा तुझ माता पिता वा ते इमं भगति' । सपक्खपरपवावा असकता कहेति नि ॥४३६६॥ इमा लो उत्तरछण्णा - तित्तं खु गरहितं, अप्पाहितो वितियपच्चयं भणति । अविकोविता सुता ते, जा अाह ममं भणति खंती ॥४४००॥ सगामे चेव साहं मिक्वटा अण्ण पाडयं गच्छन मेजातरी मान मंदिसति - "मम माउ इमं इम ति कहेजासि" । सो तं सव्व संदेसग सोउ वितियसाधुाञ्चयदा त सेजातरि भगाति - "प्रम्ह दूइत्तं गरहिय ।" तमेवं पडिहणिता सो अपाहियसाधू तं मातिघर गतो। बितियसाधुपच्चया गरिहण गववदेसप्पदाणेण सदिg कहेइ, “मुणेहि सड्ढी ! मा तुझ धूया साधुधम्मे अकोविता।" मा भणति कि ते कत नाए?' साधू भगति - जा पाह" नि । भणति – 'अमृगं इम इमं ति मम मातु कहेज्जह ।' सा यि त सो3 भणाति - "वारिजिहि त्ति, ण पुणो एवं काहिति ।" जा 'उभयपक्खे वि चष्णा सा विइतीए वेव गाहाए दटुब्वा । तत्य विसेसो - जस्स संदिमति जो यसपाडइडोअण्णो वाकोद पासद्रितोतं न जाणाति । १ गा० ४६६८ । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० भाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-६६ कहं ? भण्णति - जंघापरिजियसड्ढीजामाऊ तित्यजत्तं गतो । तम्मि गते ताहिं माताधुताहिं मोवातियं - "जति सो खेमसिवेण एहिति तो बोक्कडेण बलि कोट्टज्जाए दाहामो" । सो य प्रागतो अप्पणो धरं । तो ताए घूताए तम्मि गामे मातिघरं । तं गाम साहू भिक्खायरियं जंता दिडा, भणिया य "मं मातूते कहिजासि तं तहत्ति ।" तेहि कहयंतीए परियच्छियं - "प्रागी जामाउ" त्ति, दिण्णं उवातियं । एमादिया दोसा ॥४४००॥ इमे य अण्णगामे दूइत्तणे दोसा - गामाण दोण्ह वेरं. सेज्जायरिधूय तत्थ खंतस्स । वहपरिणत्त खंतव्भत्थणं च णाते कए जुद्धं ॥४४०१॥ दोण्ह गामाणं पासण्णट्ठियाणं परोप्परं वइरसंबंधो । तत्थेगगामे साधू ठिता । तत्थ साधूण जा सेज्जातरीए धूया तम्मि पडिवेरगामे वसति । तत्थ एगो खंतो दिणे दिणे भिक्खायरियं गच्छति । जत्य ठिता ते साधू तेण गामेण संपसारिउ सणहिउँ पडिवेरगामे पडामो। तं गाउं ताए सेज्जातरीए सो भिक्खायरियं गच्छतो अब्भत्थिनो मम धूयाए कहेज्जाहि - एस गामो तुम्होवरि पडिउकामो, भत्तुणो सुत्तं करेज्जासि । ततो खतेण तोसे कहियं, ताए वि भत्तुणो कहियं । गामो एवं णा सणघिउ एगपासट्टितो, इतरेसु प्रागतेसु जुद्धं कतं ॥४४०१॥ जामातिपुत्तपतिमारणं तु केण कहितं ति जणवातो। जामातिपुत्तपतिमारएण खंतेण मे सिडें ॥४४०२॥ तत्थ जुद्धे सेज्जातरीए जामाउरो पुत्तो पती य मारिता। तत्थ लोगजत्तागतो जणो मासति - "केण प्रणागतं कहियं, जेण सण्णदेहि महतं जुद्ध कतं. जामातिपुत्तपतिमारणं च मे वत्तं ?" ताहे सेज्जातरी यंती जगस्स कहेति - "एयं जामातिपुत्तपतिमारणं वत्तं, एयं च खतेण कतं, जतो तेण सिटुं।" जम्हा एवमातिदोसा भवंति तम्हा दृतित्तणं ण कायव्वं ॥४४०२॥ बितियपदे इमेहिं कारणेहिं करेज्ज - असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । अद्धाणरोहए वा, जयणा कहणं तु गीयत्थे ॥४४०३॥ पुर्ववत जे भिक्खू णिमित्तपिंडं भुंजइ, भुजंतं वा सातिज्जति ॥२०॥६६॥ तीतमणागतवट्टमाणत्याणोपलद्धिकारणं णिमित्तं भणति, जो तं पर्युजिता असणादिमुप्पादेति सो गिमित्तपिंडो भण्णति । प्राणादिया दोसा, चउलहुं च से पच्छित्तं । जे भिक्खू णिमित्तपिंडं, कहेज्ज स तं तु अहव सातिज्जे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥४४०४॥ कंठा। तिविधो कालो- तीतो वट्टमाणो प्रागमिस्सो, एककेक्कं छविहं णिमित्तं पयुजति । तत्य Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४४०१-४४०८ ] त्रयोदश उद्देशकः इमे छभेदा - लाभं प्रलाभं सुहं दुक्खं जीवियं मरणं । यम्मि पत्ते उज्जते नियमा संजमायपरोभया दोसा भवति । एतं सतरं ततो ग्रागमिस्सं बहुदोसतरं ततो पडुप्पण्णं बहुदोसतरं ||४४०४॥ तत्य पडुप्पण्णे इमं उदाहरणं नियमातिकालविसए, नेमित्ते छव्विहे भवे दोसा । सज्जं तु वट्टमाणे, उभए तत्थिमं नायं || ४४०५ ॥ इमा बाहुकया गाहा । एतीए इमा दो वक्खाणगाहातो. कंपिया निमित्तेण भोइणी भोइए चिरगयम्मि । पुव्वभणितं कहते, आगतों रुट्ठो व वलवाए ||४४०६ ॥ दाराभोयण गागि आगमो परियणस्स पच्चोणी । पुच्छा य खमणकहणं, साइयंकारे सुविणादि ||४४०७ || ― गम्म गामेोसण्णो णेमित्ती श्रच्छति । तत्य जो गामभोतितो सो पवसितो । तस्स यजा भोइणी सा तं णेमित्तियं णिमित्तं पुच्छति । ताहे तेण सा अवितहणिमितेण श्राकंपिया । अण्णा सा तं पुच्छति - कया भोइग्रो एति ? ४११ तेण कहियं - कल्लं अमुगवेलाए एति । सो वि भोइस्रो सव्वं तंत्र छडे उं एगागी जामि "दाराभोयण" ति - गवेसामि किं वभिचारं वभिचरति ण वा । तस्सागमणवेलाए सव्त्रो परियण पञ्चोवणीए णिग्गतो 'प्रमोग्गतिया एंति । सो य दिट्ठो । सागते कए, पुच्छर - कहं भै गातं ? तेण भणियं - खमणो मित्ती, तेण कहियं । प्रागतो घरं । किलिसितो मणसा एस " वभिचारि" त्ति । भुत्तुत्तरे णेमित्ती सद्दावितो, कहेति णिमित्तं । तेण जं किं चि पुव्वभणियं भुक्तं वा अणुभूतं वा सुविणादिगतं सव्वं सत्यङ्कारेहि कहितं, एवं कहते वि कोवं ण मुंचति ॥४४०७१ कोहा वलवागब्भं च पुच्छितो पंचपुंडगा संतु । फाडणा दिट्ठे जति व तो तुहं अवितहं कति वा ॥ ४४०८ || ततो रुट्ठो (दो) पुच्छति - एतीए बलवाए कि गब्भे त्ति ? मित्तिणा उवउत्तेण होइऊण भणियं-किसोरो पंचपुडो । ततो रुट्ठो कालं ण पडिक्खति त्ति, फाडेह उदरं से फाडियं, दिट्ठो जहादिट्ठो । ततो भणाति - जति एयं णिमित्तं एवं ण भवंतं तो तुझं पोट्टं फाडियं होतं । रिसा प्रतिमिती केत्तिया मविम्संति, जतो वभिचरंति निमित्ता, छाउमत्थुवनोवगा य वितहा भवति । प्रधिकरगादयो य दोसा प्रायपरोभयसमुत्या, संकादिया य इत्थीसु दोसा । प्रतो ण णिमित्तं वागरेयव्वं ॥ ४४० = ॥ 1 १ अम्मगुग्गतिया, इत्यपि पाठः । २ पंचपुंडमाहंसु इत्यपि पाठः । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-६ प्रववादेण वागरेयव्वं - असिवे ओमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे । अद्धाणरोहए वा, जयणाए वागरे भिक्खू ॥४४०६॥ असिवादिकारणेहिं सुठुवठतो तीताइणिमितं वागरेति, जाहे पणापरिहाणीए चउलहुं पतो जे भिक्खू आजीवियपिंडं भुंजति, भुंजतं वा सातिज्जति ॥०॥६७।। जातिमाति भाषं उबजीवति ति माजीवपिंडो । जे भिक्खाऽऽजीवपिंडं, गिण्हेज सयं तु अहव सातिज्जे । __सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥४४१०॥ स्वयं गेहति, अण्णं वा. गेण्हावति, प्रणुजाणति वा तस्स प्रागादिया य दोसा, चउलहुं न पमितं ॥४४१०॥ तम्मिमं च आजीवण - जाती-कुल-गण-कम्मे, सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा । सूयाए असूयाए व, अप्पाण कहेज्ज (ति) एक्केको॥४४११॥ एयस्स इमं वक्खाणं - जाती कुले विभासा, गणो उ मल्लादि कम्म किसिमादी । तुण्णाति सिप्पणा वज्जगं च कम्मेतरा वज्जे ॥४४१२।। मातीसमुत्था जाती, पितिपक्खो कुलं । विभासति वक्खाणं कायलं । अहवा - कम्मसिप्पाणं इमो विसेसो - विणा पायरिपोवदेसेण जं कज्जति तणहारगादि त कम्म, इतरं पुण जे मायरिमोवदेसेण कज्जति तं सिप्पं । एतेसिं चेव इमं वक्खाणं ॥४॥१२॥ दोण्ह वि 'जातीकुलाणं इमं - होमातिवितहकरणे, णज्जति जह सोत्तियस्स पुत्तो त्ति । ओसियो वेस गुरुकुले, आयरियगुणे व मूएति ॥४४१३।। जातिकुलविसुद्धो वि होमे वितहकरणे नजति - "एस सोत्तियपुतो - श्रुतिस्मृतिक्रियावजितो श्रोत्रिकः" पवितह पुण किरियं करेंतो गजति जहा -"विमिट्टे गुरुकुले वसिमो मिक्खियो वा।' वितरकरणेग प्रापरितो वा वि से णज्जति प्रपहाण पहाणोति । "मूतेति"-प्रात्मनो क्रियाचरितेन गुरो कियाचरितं ज्ञापयतीत्यर्थ. । अहवा- "सूय" ति - अप्पाणं मूयाए जाणावेति ॥४४१३॥ जतो गण्णति सम्ममसम्मा किरिया, अणेण ऊणाहिया व विवरीया । समिधा मंताहुति द्वाण जाव काले य घोसादी ॥४४१४॥ १गा० ४४१२। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४४०६-४१७॥ त्रयोदश उद्देशकः समिहातिका किरिया गणेण सम्म पयुत्ता । कहं जाणसि सम्म पठत्ता प्रसम्म वा ? साधू भणति - "प्रणेगहा मे एस किरिया अणुभूतपुब्वा ।" ताहे भणति - "कि तुम बंभणो ?" "प्राम" ति भणति । ताहे गृहे संदिसति - "इमस्सागतस्स अवस्सं भिक्खं देबह।" जा प्रसमा किरिया सा तिविधा - हीणा सहित विवरीता । तं च असम्मकरणं समिहं पक्खिवंतो करेति, अण्णं वा मंतं उचारति, घृतादि वा माहुति करेति, उक्कुडुगादिठाणं वा मंतुधारणं जाव उदात्तादी घोसो। एते समिहादसो अप्पणो ठाणेसु कज्जंता कालजुता भवंति, अण्णहा प्रजुत्ता । अहवा - संज्झातिगो कालो, तम्मि होणाधियविवरीतता जोएयव्वा, जहा बंभणजातिकुलेसु अप्पाणं जाणावेति ॥४४१४॥ उग्गातिकुलेसु वि एमेव गणे मंडलप्पवेसादी। " देउलदरिसणभासा, उवणयणे दंडमादी वा (या) ॥४४१॥ खत्तिएसु उग्गकुला, आदिसहातो वइस-सुद्देसु वि । कुल ति गतं । मंडलमालिहियं दद्दु मल्लादिगणेसु हिणाहियं विवरीयं वा तत्थ वि अप्पाणं जाणावेति । गण त्ति गयं । 'सिप्पे पहिणवघडणं चिक्खयं वा सिप्पियं दळु भणाति-"अहो ! देवकुलस्स उवणतो उवसंघारा पहागो अहवा अप्पहाणो' त्ति । अहो मायामवित्थारे दह्र भणति - "एवतिए दंडे एयस्स उ" ति । इह दंडो हस्त: । प्रादिशब्दग्रहणादन्वादि ॥४४१५॥ किं चान्यत् - कत्तरि पयोयणापेक्ख, वत्थु बहुवित्थरेसु एमेव । कम्मेसु य सिप्पेसु य, सम्ममसम्मेसु सूइतरा ।।४४१६॥ कर्तरीत्येष कर्तारः, स च शिल्पी कारापको वा, पनोयणं कारणं, तं च दविणं, अवेक्खापेक्ष्य दृष्ट्वा इत्यर्थः । वत्थु (क्खा] उस्सियादि, बहुवित्थरं अणेगभेदं । एस अवयवत्यो । इमो उवसंघारत्यो-जो कत्ता सिप्पी सो जति पभू तं दविणजातं लभति तो वत्यू सुकयं बहुवित्थरं करेति । कारावगो वि जति अस्थि पभू तं दविणजायं तो वत्थू सुकतं बहुवित्थरं कारावेति, ताणि वत्थूणि बहुवित्थराणि "सम्म" कयाणि दलृ भणाति - 'सुसिप्पिणा कतं, कारावगो वा विसेसण्णू पहाणो मासि, सुविढत्तं च दविणजातं ।" अह "असम्म' वत्थु कयं दह्र भणाति -"दुस्सिक्खियस्स कम्म कारावगो वा अविसेसण्णू जे दव्वं मुहा णिजुत्तं, सुबीयमिव ऊसरे ।" एवं अप्पाणं कम्मेसु वा सिप्पेसु वा जाणावेति, समावेत्ति अप्पाणं कम्मेसु वा, प्रकहंतो जाणावेइ, असूयाए पुण फुडमेव अप्पाणं कहेइ - "अहं पि सिप्पी पुवासमेण पासी" ||४४१६॥ इमं बितियपदं - असिवे प्रोमोयरिए, रायढे भए व गेलण्णे । अद्धाणरोहए वा, जयणाए वागरे भिक्खू ॥४४१७॥ पूर्ववत १ गा० ४४१२ । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ सभाष्य चूर्णि के निशीथसूत्रे जे भिक्खू वणीमगपिंडं भुजइ, भुजंतं वा सातिज्जति ||०||६८ || जे भिक्खू वणियपिंडं, भुंजे अहवा वि जो उ सातिज्जे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ||४४१८ ॥ कंठा । समादिया साणप जवसाणा जे तेमु भत्ता तेसु दातारेसु प्रप्पाणं वण्णेति । कहं ? भण्णति - मयमा तिबच्छगं पिव, वर्णेति आहारमातिलोभेणं । किविणाऽतिहिसाणमत्तेसु ॥४४१६॥ समणेसु माहणेय, जहा मयमातिवच्छो श्रष्णा गावीए वण्णेज्जति, गावी वा तम्मि वणिज्जति, सो ये प्राहारादिसु gat अप्पाणं वण्णेति, लुद्धत्तमेव दोष इत्यर्थः । 'समणसद्दो इमेसु ठितो. णिग्गंथ सक्क तावस, गेरुय आजीव पंचहा समणा । तेसिं परिवेसणार, लोभेण वणेज्ज को अप्पं ||४४२०|| णिग्गंथा साघू खमणा वा, सक्का रक्तपडा, तावसा वणवासिणो, गेरुमा परिवायया, प्राजीवगा गोसाल सस्सा पंडरभिक्खुप्रा वि भण्णंति । एते परिवेसज्जमाणे दठ्ठे भत्तलोभेण ते धुणंतो दातारं च पसंसंतो अप्पाणं तत्थ वण्णेति ॥ ४४२० ॥ समसु इमेण विहिणा - जति चित्तकम्मट्ठिता व कारुणियदाणरुणो वा । कामगमेसु वि, ण णासए किं पुण जतीसु ॥ ४४२१ ।। जहा चित्तकर्मणिविकारं एवं ठिता भुजंति अण्णं च सनेस् कारुणिया दयं कुव्वंति । श्रपणा दाणं देति, प्रणों वि से दाणं देतो रुच्चति । श्रवि पदत्यसंभावणाए । इमं सभावेति - जे वि ताव कामपव्वत्ता तेसु वि दाणं दिष्णं ण विणस्सति फलं ददातीत्यर्थः । किमंग पुण जे इमे जइणो शीलमंता वतधारिणो य । अहो ! तेसु वित्तं सुदिष्णं च तेण दाणं बीयमिव सुखेत्ते महफलं ते भविस्सति ||४४२१|| एवं भणतस्स इमे दोसा [ सूत्र -६८ - मिच्छत्तथिरीकणं, उग्गमदोसा य तेसु वा गच्छे । . चडुगारदिण्णदाणा, पच्चत्थिय मा पुणो एंतु ॥ ४४२२ ॥ कुसासणत्ये पसंसंतो दातारस्स मिच्छत्तं थिरकत, दातारो वा तस्स तुट्टो उगमाउं मतादि देख | हवा ते पसंसंतो भोयणादिबुद्धो वा तेसु चेत्र पत्रिसति । - पंती वा भणाति - इमेहिं परभवेण दिष्णं वाणं, तेण गुणना इव चाडु करता मत्तादिभति । १ गा० ४४१६ । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४४१८-४४२६ ] त्रयोदश उद्देशकः ग्रहवा - इमे पच्चत्थिया प्रत्यनीका बुद्धकंटका मा पुणो एज्जति, कडुगफरुसवयणेहि णिन्मयिंति. दाणं च ण देति । ग्रहवा – इमे पच्चा त्यया “मा पुणो एतु" ति विसादि देज ॥४४२२॥ समणे त्ति गतं । ''माहग्गि" ति ग्रस्य व्याख्या - लोकाणुग्गहकारीसु भूमिदेवेसु बहुफलं दाणं । अवि णाम बंभबंधुसु, किं पुण छक्कम्मणिरएसु ॥४४२३।। प्रायश्चित्तदान-सूतकविशुद्धि हस्तग्रहणकरण, तथान्येषु बहुषु समुत्पद्यमानेषु लोकानुग्रहकारिणं, किं च एते दिवि देवा पासी, प्रजापतिना भूमौ सृष्टा देवा, एतेषु जातिमात्रसंपन्नब्रह्मबंधुष्वपि दत्तं महत फलं । किमित्यतिशयार्थे । अतिशयेन फलं भवति षटकर्मनिरतेषु । तानि च यजनं याजनं मध्ययन अध्यापन दानं प्रतिग्रहं चेति ॥४॥२३॥ "माहणे" त्ति गतं । इदाणि २किवणे - किवणेसु दुबलेसु य, अबंधवायंकजुंगियत्तेसु । पूया हेज्जे लोए, दाणपडागं हरति देंतो ॥४४२४॥ अपरित्यागशीलः कृपणः, अहवा - दाग्दिोवहतो जायगो कृपणः, स्वभावतो रोगाद्वा दुर्बलः, प्रबंधुः सर्वस्वजनजितः, ज्वराद्यातकेनातंकितः, जुगितः हस्तपादादिवजित., शिरोऽक्षिदंतादिवेदनातः, पूजया लोको हियते, जो एते किवणादि पूएति सो दाणपडागं हरति - सर्गेत्तरं दानं ददातीत्यर्थः ॥४४२४॥ "किवण" त्ति गतं । ददाणि . अतिहि" त्ति - पाएण देति लोगो, उवयारी परािजतेसु बुामते वा । जो पुण अद्धाखिण्णं, अतिहिं पूएति तं दाणं ।।४४२५॥ पातोग्गहं जतो बाहुल्ये उवकारकारी, परिचितो मित्तादी वुसितो समोसिनो एगगामनिवासी वा । पायसो परिमेमु दाणं लोगो देति, तं च दाणं ण भवति । जो ति दाता, पुण। त्ति विसेसणे । किं विसेसेति ? "अद्धाणं', तम्मि प्रद्धाणे जो खिन्नः श्रान्त इत्यर्थः सो अतिही भवति, नान्यः, तं जो पूएति सो दाता, तच दाणं जं तारिसम्म प्रतिहिस्स दिज्जति । प्रतिथावपस्थितः प्रतिथी ।। ४४२।। अतिहि ति गतं । इदाणि “४साणे" ति - अवि णाम होति सुलभो, गोणादीणं तणादि आहारो। लिक्किक्कारहयाणं, ण य मुलभो होति सुणगाणं ।।४४२६।। अवि सं विणे । कि संभावेति ? गोणादीणं साणस्स य पाहार दुल्ल भत्तं । णाम इति पादपूर।। ग्रहवा - णाम इन्युपसर्गः, अयं चार्थविशेपे, कि विमेमयति ? इमं गोणातीण दुर्लभोऽप्याहारः तृणादिकं सुलभ एव मन्तव्यः. अटव्यां स्वयं भूतः प्रकीर्णत्वात्, न च श्वानादीनां । कुतः ? पराधीनत्गत् जाप्तितत्वाच्च, छिक्किकारकरणा दंडादिभिश्च हन्यमानानां न सुलभ इत्यर्थः ।।४४२६॥ १ गा० ४४१६ । २ गा० ४४१६ । ३ गा० ४४।। ४ मा ४४१६ । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-६६ किं च केलासभवणे एते, आगया गुज्झगा महिं । चरंति जक्खरूवेणं, पूयापूयहिताहिता ॥४४२७।। कैलासपर्वतो मेरुः, तत्थ जाणि देवभवणाणि तण्णिवासिणो जे देवा एते इमं मच्चलोगं प्रागच्छति, जक्खरूवेण श्वानरूपेणेत्यर्थः । मह बुद्धी - किमत्यं प्रागच्छति ? भण्णति - पूयापूयहियाहिया । जो पूएति तस्स एते हितं ति हितं करेंति, जो पुण अपूयगो तस्स एते पहियं करेंति । . अहवा - पूयापूयहितागता। पूय त्ति पूयणिज्जा, एतेसि एत्थ पूयं हितं। लोगो करेति ति, तदत्थं एहे भागता ।।४४२७॥ साणित्ति गतं । एवमादिपसंसाए अप्पाणं वण्णेति इमे दोसा - गतेण मज्झ भावो, विद्धो लोगे यणातहज्जम्मि । एक्केक्के पुबुत्ता, भद्दग-पंताइणो दोसा ॥४४२८॥ "यणातहजंमि" त्ति - इम्मम्मि लोगे जो मणोगतं भावं जाणाति तस्स लोगो पाउदृति त्ति प्रतं भवति, सो य दाता चितेति - एतेण मझ मणोगतो भावो विद्धो ति णातो, ताहे सो दाता तस्स प्राउट्टो भद्दो सो उग्गमादि करेज्ज, पंतो वा अदिण्णदाणादिपदोसे करेज्ज । एते य एत्थेव पुव्वुत्ता ॥४४२८।। इमं अत्थसेसं भण्णति - एमेव कागमादिसु, साणग्गहणेण सूइया होति । जो वा जम्मि पसत्तो, वण्णेति तहिं पुट्ठऽपुट्ठो उ ॥४४२६।। साणगहणण कागादिभत्ता वि गहिता । जो वा जम्मि अणिद्दिद्वे पूयाभिरतो तं तहा पसंसंतो अप्पाणं वर्णोति - पुच्छितो वा अपुच्छियो वा दागफलं तस्स प्रणुकूलं कह्यतीत्यर्थः ।।४४२६ ।। इमे अपत्तं अणुमतिदोसा - दाणं ण होति अफलं, पत्तमपत्तेसु सन्निजुज्जतं । ईय वि भणिते दोसो, पसंसतो किं पुण अपत्तं ॥४४३०॥ सामण्णे वि पसंसिते दोसो, किं पुण जो विसेसियं अपत्तं पसंसंति ॥४४३०॥ अपवाद: - असिवे आमोयरिए, रायढे भए व गेलण्णे । अद्धाणरोहए वा, जयणाए पसंसते भिक्खू ॥४४३१।। पूर्ववत् जे भिक्खू तिगिच्छापिंडं भुंजड़, भुंजंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥६६॥ रोगावणयणं तिगिच्छा, तं जो करेति गिहस्स तस्स प्राणादिणो दोसा, चउलहुं च से पच्छितं । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोदश उद्देशकः भाष्यगाथा ४४२७-४३७ ] जे भिक्खु तिगिच्छपिंड, मुंजेज्ज सयं तु अहव सातिज्जे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥४४३२ गतार्था भणइ य णाहं वेज्जो, अहवा वि कति अप्पणो किरियं । अहवा वि वेज्जियाए, तिविह तिगिच्छा मुजेयव्वा ॥४४३३॥ 'भणति य णाहं वेज्जो" अस्य व्याख्या - भिक्खातिगतो रोगी, किं वेज्जो हं ति पुच्छितो भणति । अत्थावत्तीए कया, अचुहाणं वोहणा एवं ॥४४३४|| भिक्खातिगतं साधु रोगी पुच्छति - इमो रोगो इमं च मे समुत्याणं, कहेहि मे जेग पण्णप्यामि । साधू भणति - किमहं वेज्जो, जेण पुच्छसि? एरिसवयणेण तेसि अबुहाण बोहणं कतं अत्थावत्तीए, तो वेज्ज पुच्छामो ति ।।४४३४।। "२अहवा अप्पणो किरियं कहेति" त्ति अस्य व्याख्या - एरिसयं वा दुक्खं, भेसज्जेण अमुएण पडणं मे । सहमुप्पतियं च सयं, वारेमो अट्ठमादीहिं ॥४४३॥ साधू रोगिणा पुच्छितो भणाति - एरिसो रोगो अमुगेण मे दवेण पणत्ता, प्रमुगेण वा वेज्जेण पण्णववितो। अहवा - साधू भगःति - एरिसं रोगमुप्पणं जरादिगं सहसा चउत्यच्छद्रुष्टुमादीहि फेडेमो ॥४४३५॥ "ग्रहवा वि" पच्छद्धस्स इमं वक्खाणं - संसोहण संसमणं, निदाण परिवज्जणं च जं जत्थ । आगंतु धातुखोमे, व आमए कुणति किरियं तु ॥४४३६।। "वेज्जिया" वेज्जसत्थं, "तिविध" त्ति वातितो रोगो, पित्तियो व. सिभिप्रो वा । एतेसु रोगेस ससोहणं वमणं विरेयणं च । “संममणं" - जेण दोसा समिज्जति तं च परिपायणादिकं, जं च जत्य रोगे "णियाणं" ति जेण रोगो संभूतो जेण वा वड्ढति तस्स वज्जणं कारवेति । रोगो पुण विधो - प्रागंनुगो घाउखोभेण य। धाउखोमो तिविहो । प्रागंतुगो (कंटगादिगो । एत्य दुविधे वि किरियं करेइ ।।४४३६।। तिगिच्छकरणे इमे दोसा - अस्संजमजोगाणं, पसंधणं कायघात अयगोले । दुब्बलवग्धाहरणं, अच्चुदए गेण्हणुड्डाहो ॥४४३७॥ रोगादभिभूतो प्रापुच्छमाणो पण्णवतेग अस जमजोगसु कृमिमादिएमु संधितो भवति, कारापितेत्यर्थः। कंदमूलादियाण य धातो कता भवति । अस्संजतो य वर्सेतो प्रयगोलसमाणो कातोवधाले वि पट्टितो भवति । १ गा० ४४३३ । २ गा०४४३३ । ३ गा०४४३३।४ मा०४४३३ । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ७०-७१ एत्थ उदाहरणं - तिगिच्छिणा दुब्बलवग्घो पण्णवियो अणुकंपाए । पच्छा सो वग्यो अरोगसरीरो बहुसत्ते हंतु पवत्तो । एवं गिहत्थो वि । अथ रोगकिरियाए कज्जमाणीए वि अति उदितो जातो, तत्थ गण्हणादिया दोसा, कि पि संजएण दिण्णं ति जेण रोगवुड्ढी जाता मतो वा । संजएण मारितो ति उड्डाहो ॥४४३४॥ इमं बितियपदं - असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । अद्धाण रोहए वा, जयणाए कारए भिक्खू ।।४४३८॥ पूर्ववत् जे भिक्खू कोवपिंडं भुंजति, भुजंतं वा सातिज्जति ॥५०॥७०॥ कोहप्रसादात्पिडं लभते स कोपपिंडः, चउलहुं । जे भिक्खु कोवपिंडं, भुंजेज्ज सयं तु अहव सातिज्जे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥४४३६॥ पूर्ववत् विज्जा-तवप्पभावं, रायकुले वा वि वल्लहत्तं से । गाउं ओरस्स बलं, जं लब्भति कोवपिंडो सो ॥४४४०॥ विज्जासिद्धो विज्जापभावेण सावाणुग्गहसमत्थो भवति, तवप्पभावेण वा तेयाद्धमादिसंपण्णो, रण्णो वा एस वल्लभो, अच्चकारिप्रो उवघात करेस्सति, सहस्सजोही वा एस पोरसबलजुत्तो, एते कुद्धा प्रवकारकारिणो त्ति, दाता भया देति, गेण्हतो वि ममेस कोवभया देति, जमेवं लब्भति तं गेहतस्स कोपिडो भवति ||४४४०॥ अहवा अण्णेसि दिज्जमाणे, जायंतो वा अलद्धिो कुज्जे । कोवफलम्मि वि दिट्टे, जं लब्भति कोहपिंडो उ॥४४४१:। पगते अण्णेसि घिज्जादियमादियाणं दटुं प्रलभंतो कुज्झति, विणा वि पगएण वत्थमसणादियं जातं तो वा अलद्धे कुज्झति, तमणुण्णवेत्ता जं संजयस्स दिज्जति सो कोपिंडो। अहवा - कुद्धेण सावे दिण्णे सावफले दिट्टे जं लब्भति, सो कोवपिंडो ॥४४४१॥ एत्थ उदाहरणं इमं - करडुयभत्तमलद्धं, अण्णहि दाहित्थ भणति वच्चंतो। थेराभोगण ततिए, आइक्खण खामणा दाणं ॥४४४२।। हत्थकप्पे धम्मरुई मासखमगो मासपारणे वणियकुले मर्याकच्च करेडुयभत्तं, तत्थ भिक्खं पविट्ठो । धिज्जातियपरिवेसणाए वग्गचित्तेहि सो ण सण्णातो । पासाए चिरं कालं ठितो। वच्चंतो भणाति - "अण्णेहिं दाहिह"। तं च थेरेण सुयं । ___सो वि अण्णतो पज्जत्तियं घेतु पारेत्ता पुणो मासोववासं करेत्ता पारणट्ठा पविट्ठो तम्मि Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव्यगापा ४४३८-m] त्रयोदश उद्देशकः य वणियकुले । तद्दिणं चेव अण्णं मतं । पुणी तस्स मासपूरणे तत्थ पविट्ठो, तहेव प्रलद्धे भणाति, तं पि थेरेण सुमं । एवं तिणि वारा। तइयवाराए थेरेण कहियं - एयं रिसिं उवसमेह, मा सम्वे विणस्सिहिह । सो उवसामितो पजत्तियं घयपुग्णादि दिण्णं । एस कोपिंडो ॥४४४२॥ इमं बितियपदं असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । अद्धाण रोइए वा, जयणाए एसए भिक्खू ॥४४४३॥ जे भिक्खू माणपिंड भुंजति, भुजंतं वा सातिज्जति ॥२०॥७१॥ प्रभिमाणतो पिंडग्गहणं करेति ति माणपिंडो, प्राणादिया य, पच्छित्तं व चउलहुं । जे भिक्खू माणपिंडं, मुंजेज्ज सयं तु अहव सातिज्जे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराहणं पावे ॥४४४४॥ कंठा इमं माणपिंडे लक्खण - उच्छाहितो परेण व, लद्धिपसंसाहि वा समुत्तुइभो । अवमाणिो परेण व, जो एसति माणपिंडो सो ॥४४४५॥ तव्यतिरित्तो परो । तेण महाकुलपमूतातिएहिं वयहिं उच्छाहितो, ततो माणद्वितो जं एसति सो भाणपिंडो। तहा परेण चेव तुमं लडीए अणण्णसरिसा एवं पसंसितो समुतुइमो त्ति माणाभिभूतो। ___ अहवा- विविधपायं पक्कं दर्छ भणाति - देहि मे इतो भत्तं । भत्तसामिणा वुत्तं - "ण देमि" त्तिापडिभणति साहू - प्रवस्सं दायव्वं ति। प्रतिमाणतो तल्लंभे उज्जमं करेंतस्स माणपिंडो भवति॥४४॥ एत्थ इमं उदाहरणं - 'इट्टगछणम्मि परिपिंडताण उल्लावो को णु हु पएति । भाणेज्ज इट्टगाओ, खुडो पच्चाह हं आणे ॥४४४६॥ अत्थि गिरफुल्लिगा गगरी, तत्य य आयरिया बहुसिस्सपरिवारा परिवसंति । अण्णदा तत्थ "इट्टगच्छणे" त्ति, इट्टगा सत्तागला (सुत्ताअला) छणो ऊसवो। तम्मि वटुंते साहू परोपरि पिडिता उल्लावं करेंति - को अम्हं अज्ज इट्टगाच्छणे कट्टमाणे इट्टगाप्रो पत्तियाग्रो प्राणेजति ? खुडगो भणति - अहं प्राणामि ति ॥४४४६॥ साधू भणंति - जइ वि य ता पज्जत्ता, अगुलपताहि ण ताहि णे कज्जं ।. जारिसयातो इच्छह, ता आणेमि त्ति णिक्खंतो ॥४४४७।। १ 'सेवइयाऊसवो' (पिंडवि शुद्धि)। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [सूत्र ७१-७५ जइ वि तुमं ता पजत्तानो प्राणेहिसि तहावि अम्हं ता हिं गुलघयवज्जियाहि ण कज्जं । एवं णिकाईए खुड्डो भणाति -- जारिसाओ तुब्भे भणह तारिसानो आणमि त्ति वोत्तु भायणे घेत्तु उवयोगं काउंणिग्गतो ॥४४४७॥ । परियडतेण दिट्ठा एगम्मि परे पभूता उवसाहिया। तत्य अगारी - अोभासिय पडिसिद्धो, भणति अगारि अवस्सिमा मझ। जति लभसि ता तो मे णासाए कुणसु मोयं तु ॥४४४८।। तीए पडिसिद्धो। ताहे खुड्डो भणति - इमा इट्टगातो अवस्सं मज्झं भविस्संति पाहत्तिय, अगारी पडिभणाति-जति एया लभसि, तो तुमे मज्झ णासाए मोयं कतं- मूत्रितमित्यर्थः । ततो सो खुड्डो ततो घरानो णिग्गतो ॥४४४८।। सो प्राह - कस्स घरं पुच्छिऊणं, परिसाए कतरो अमुगो पुच्छंतो। कि तेण अम्ह जायसु, सो किविणो ण ढाहिती तुझ ॥४४४६।। इमं कस्स घरं? पुच्छिए कहियं-- इंददत्तस्स । कत्य सो? इमो ? परिसाए अच्छति । ताहे परिसं गंतु पुच्छति-- "कयरो तुब्भं इंददत्तो ?" त्ति । तत्थऽण्णे भणंति - "किं तेण ? सो किवणो इत्थिवसो य ण तुज्झ दाहिति जातितो। अम्हे जायसु दाहामो जहिच्छियं ॥४४४६।। ताहे इंददत्तेण - दाहं ति तेण भणितं, जति ण भवति छण्हमेसि पुरिसाणं । अण्णतरो तो ते हैं, परिसामज्झम्मि जायामि ॥४४५०।। ताहे खुड्डो भणइ - "जइ इमेसिं छण्हं पुरिसाणं अण्णतरो ण भवसि. तो ते हं इमाए परिसाए मज्झे किंचि पणएमि" ।।४४५०॥ ततो तेणं अण्णेहिं य भणियं - के एते छ पुरिसा ? इमे सुणसु । सेडंगुलि वग्गुडावे किंकर तित्थण्हायए चेव । गद्धावरंखि हद्द-ण्णए य पुरिसाऽधमा छा तु ॥४४५१।। जदा इत्थी भणिता रंधेहि, तदा भणति - अहं उठूमि, ताव तुमं अधिकरणीतो छारं अवरोह त्ति । तस्स छारे अवणीते सेडंगुलीतो भणति । इत्थिवयणातो दगमारणेति, सो य लोगसंकितो अप्पभाए चेव सुहमुत्ते पगे रोडेतो पारणेति त्ति वग्गुडावो। किंकरो उट्टितो इत्थिं भणाति - किं करेमि त्ति ? ज भणामि तं करेसि त्ति । तित्थण्हायतो- जया सिणाणं मग्गति, तदा इत्थी भणात - गच्छ तडागं, तत्थ पहातो कलसं भरेतुमागच्छाहि त्ति। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४४४८-४४५४ ] भाणं उड्डति । गद्धावरंखी - भोयणकाले परिवेसणारा "इतो बाहि" त्ति भणितो, ताहे गद्धी इव रिखंतो त्रयोदश उद्देशकः इत्थ भणितो - "कम्मं करेहि" त्ति । ताहे पडिभणति - "हंद प्रण्णयं हंद" त्ति । " गेह ग्रन्नयं पुत्तभंड", एयं गेण्ह, जा कम्मं करोमीत्यर्थः । एते छ पुरिसा प्रधमा । एतेसि हत्थातो न गेण्हामि । ताहे जरणेण कलकलो कतो छवि गुणेहिं जुत्तोत्ति ।। ४४५१ ॥ इंद्रदत्तो भणति जासु ण एरिसो हं, इट्टगा देहि पुव्वमतिगंतुं । माला उत्तारे गुलं भोएमो दिए तह दुरूढः || ४४५२॥ इयरेणावि - सिति वणण पडिलाभण दिस्सितरी बोल अंगुली नासं । दोहेrकतरपदोसे, यातविवत्तीय उभए य ॥ ४४५३ ॥ ताहे खुड्डुगेण भणियं - इट्टगा देहि । तेण श्रब्भुवगयं देमि । जाहे घरसमीवं गतो, ताहे खुड्डगं घरासणे अप्पसागारियं ठवेउ, अप्पणो पुब्बं घरं पविट्ठो प्रगारि भणति - मालाओ गुलं उत्तारेहि त्ति, जेण बंभणे भुंजावेमो । ता सा गारी माल प्रारूढा, तीए गुलो समप्पितो, भणिया - "उवरि गलभायण' संजीहराहि" त्ति, सा गुलभायणं संजीहरी गता ॥ ४४५२ ।। ४२.१ अहवा रुट्टा साहुस्स भत्तुगो वा उभयस्स वा विसं गर वा दाउ विहाडेज्जा ।। ४४५३ ।। इमं वितियपदं - णिसेणी फेडता. खुड्डो हक्कारितो, पडिलाभिउं पत्तो । बहुपाडलाभिए प्रगारिए दिट्ठ, रोलं करेति - " मा देहि" त्ति भणाति । ताहे खुड्डो अप्पणी सागारियं सण्णेउं अंगुलि णासियाए पक्खिवति, " णासिगाए ते मोयं कयं " ति । पडिलाभितो गतो खुड्डो । एस माणपिंडो इमे दोसा - सा अगारी दोन्हं एगतरस्स पदोसं गच्छति साहुस्स भतुणो वा । श्रगारी अभिमागतो अप्पाणं विहाडेज्ज | सिवे मोरिए, रागदुट्टे भए व गेलणे । श्रद्धाण रोहए वा, जयगाए एसए भिक्खू || ४४५४ || पूर्ववत् जे भिक्खू मायापिंड भुंजति, भुंजंतं वा सातिज्जति ||०||७२ || जे भिक्खू लोभपिंडं भुंजति भुंजंतं वा सातिज्जति ||सू०||७३|| जे भिक्खू विज्जापिंडं मुंजति, भुंजंतं वा सातिज्जति ||०||७४|| जे भिक्खू मंतपिंडं भुंजति, भुंजंतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥७५॥ - एम Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ सभाष्य-णिके निशीथसूत्रे [ मूत्र ७५-७७ विजामतेहिं पिंडं जो उपाएति तस्स प्राणादिया दोसा चउलहुं च । विज्जाए मंतेण व, जो उप्पाइऊण गिण्हए भिक्खू । सो आणा अणवत्थं मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥४४५५।। कंठा विज्जामंतपरूवण, विज्जाए भि (च्छु) क्खुवासिओ होइ । मंतम्मि सीसवेयण, तत्थ मुरुडेण दिटुंतो ॥४४५६॥ इत्थिमभिधाणा ससाधणा वा विज्जा, पुरिसाभिहाणो पढियसिद्धो य मंतो। विज्जाए भिक्खू उवासगो उदाहरणं । इमं - परिपिंडितमुल्लावो, अतिपंतो भिक्खुवासतो दाणे । जति इच्छह जाण अहं, वत्यादीणं दवावेमि ॥४४५७|| बहू साधू इतरकहाए अच्छंता पिडिता उल्लावं करेंति - "एस भिक्वु उवासगो प्रतिपंतो, अभिग्गहियमिच्छदिट्ठी, साहुवग्गस्स दाणं ण देति।" एवं साहू उल्लावेति। एगेण साहुणा भणितंजइ विजापिडं इच्छह तो अहं वत्थगुलघयादीणि दवावेमि । साहूहिं अब्भुवगतं । सो साहू भिक्खूउवामगघरंगतो ॥४४५७॥ गंतुं विज्जामंतण, किं देमी घयगुल य वत्थादी । दिण्णे पडिसाहरणं, केण हितं केण मुट्ठो मि ।।४४५८।। विजा पामतेउ उवासगो वसीकतो भणति - ग्रजो कि देमि ते ? साहू - "घयगुलवत्ये विविधे य खजगे।" ताहे तेण भिक्वुउवासगेण हटुटेण माहू पडिलाहिता गता। तेण साहुणा दिण्णे विजाए उवसंधारो कतो। उवासगो चेतणलद्धो सत्थीभूतो भगाति - “केण मे हडं, केण वा मुटो" ति। ताहे तस्स परिजणो प्रातिक्खति - "तुमे सहत्येण सेयभिक्खूणं दिण्णं ति ।।४४५८।। ताहे सो - पडिविज्जथंभणादी, सो वा अण्णो व से करेज्जा हि । पावाजीवी मादी, कम्मणकारी भवे बितिए ॥४४५६।। जस्स सा पयुत्ता विजा सो वा अन्नो वा कोति रत्तपडादी साधू वा थंभेजा, पडिविजाए वच्छाइ वा थभेजा जहा णोवभुजेजा। प्रहवा - यस्य प्रयुक्ता विद्या सो अवसीकतो चेव पडिविजाए साहं विज्ज वा थंभेज, अण्णो वा कोइ से उवकारकारी पडिविजातो विज्ज माधुवा थं भेज, एवं उड्डाहो । - अण्णं च सो वा अण्णो वा लोगो भणेजा - "एते पावजीविणो मायाविणो कम्मणाणि य करेंति, ण साहुवित्तिणो एते।" भवे बितियपदेण विजापयोगा, असिवादिकारणेहि ण दोसो।।४४५६।। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४४५५-४४६४ ] "मंतम्मि सीस" पच्छद्ध, अस्य व्याख्या ते य त्रयोदश उद्देशकः जह जह पए सिणि जाणुयम्मि पालित्ततो भमाडेति । तह तह सीसे वियण, पणासति मुरु डरायस्स ||४४६०॥ मुरुडो राया, सीसवेयणत्तो जया वेज्जेहिं ण सक्कियो पण्णवेउ ताहे पालितायरियं हक्कारेति, सो आगतो, ग्रासणत्थो मुरुडेण भणियो - वेदणं मे प्रवणेहि, ताहे अप्पसागारियं अप्पणी जाणु सि मंतं झायंतो पदेसिणि अंगुलिं भमाडेति जहा जहा तहा तहा मुरु डरायस्स सीसे वेयणा पणस्सति, अवगयवेयणो दिट्ठसंपच्चयो गुरुस्स पाएसु पडितो ॥४४६०|| एवमादी मंतपोगे इमे दोसा - - पडिमंतथंभणादी, सो वा अण्णो व से करेज्जाहि । पावाजीवी मायी, कम्मणकारी भवे बीतिए || ४४६१ || पूर्ववत् जे भिक्खु चुपगयपिंडं भुंजति, भुंजंतं वा सातिज्जति ||०||७६ || वसीकरणाइया चुणा, तेहिं जो पिंडं उप्पादेति तस्स प्राणादिया, चउलहुं च से पच्छितं । जे भिक्ख चुपणपिंडं, भुंजेज्ज सयं तु अहब सातिज्जे । a सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त - विराधणं पावे ||४४६२ || कंठा । विज्जाम तेहि जे दोसा ते चेव वसीकरणमा दिएहि चुण्णंहि दोसा, एगारोग पदोसपत्थारदोसा य। प्रतिवादिकारणेहि वा वसीकरणमादिणंहि पिंडं उप्पादेज्जा ॥१४४६२ ॥ तत्थ य - जे भिक्खु अंतद्भाणपिंडं भुंजति, भुंजंतं वा सातिज्जति ||०||७७|| अप्पाणं अंतरहितं करेंतो जो पिंडं गेण्हति सो प्रतद्धाविडो भण्गति । तत्थ उदाहरणं - पाडलिपुत्ते नगरे चंदगुत्तो राया, चाणक्को मंत्री, सुट्टिया प्रायरिया । जंघाही मे, कुमपुरे सिस्स जोगरहकरणं । खुडदुगंऽजणसुणणं, गमणं देत ओसरणं || ४४६३॥ १ गा० ४४५६ | अप्पणा गंतु असमत्था प्रोमकाले सीसस्स साहुगणं दाउ तं सुभिक्खं पट्टवेंति । तस्स य सीमस्स अंतद्धाणजोगं रहे एकांते कहेति । सो य अंजणजोगो दोहिं खुड्डुगेहिं सुनो। ततो सो गच्छो पट्टो जतो सुभिक्खं । ततो खुड्डुगा दो विग्रायरियणेहेण पडिबद्धा देसतायो गच्छस्स प्रोसरिता आयरिसमी मागया || ४४६३ ।। ४२३ भिक्खे परिहार्यते, थेराणं ओमे तेसि देताणं । सहभोज्ज चंद्रगुत्तं, श्रोमोयरियाए दोव्बल्लं ||४४६४॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-७८ ततो ते थेरा जं लब्भंति तं तेसिं खुड्डुगाणं समतिरेगं देंति, अप्पणा अोमं करेंति । ततो तेहिं दोहिं वि खुडगेहि सो अंतद्धाणजोगो मेलिग्रो, एगेणं अक्खी अंजिता बितितो ण पस्सति । एवं लद्धपच्चया भोयणकाले सह रण्णा चंदगुत्तेण भुजंति, जं रण्णो सारीरयं भत्तं तं ते अंतद्धिया भुजंति, ततो रण्णो प्रोमोयरियाए दोब्बलं जायं ।।४४६४।। ततो चाणक्केण - चाणक्कपुच्छ इट्टालचुण्ण दारं पिहेउ धूमो य । दिस्सा कुच्छ पसंसा, थेरसमीवे उवालंभो ॥४४६५॥ पुच्छित्तो कीस परिहाणी? भणाति - “मज्झ भत्तं को ति अद्धितो पक्खिवति त्ति, ण जाणामि"। ततो चाणक्केण समंता कुड्डे दाउं एगदुवारा भुजगभूमी कता । दारमूले य सुहमो इट्टालचुण्णो विक्वित्तो । राया अंतो एगागी णिविट्ठो । ताहे खुड्गा पागता, पविट्ठा अंतो । दिट्ठा पयपद्धती चुण्णे। चाणक्केण णायं-पादचारिणो एते, अंजणसिद्धा।" ताहे दारं ठवेउं धूमो कतो, अंसुणा गलंतेण गलितं अंजणं, दिटुं खुड्डगदुगं । चदगुत्तो पिच्छति - "अहमेतेहिं विट्टालितो।" । _ ततो चाणक्केण भणियं - "एते रिसप्रो कसारसमणा, पवित्तं ते एतेहिं सह भोयणं, तमे सव्वसो अपवित्तेण एते विट्टालिता।" - ततो अप्पसागारियं चाणक्केण णीणिता । थेराण समीवं चाणको गतो – “कीस खुड्डे ण सारवेह ।" ततो थेरेहि चाणको उबालद्धो - "तूमं परमो सावगो, एरिसे प्रोमकाले साधूवावारं ण वहसि" ति। तेण भणियं - "संता पडिचोदणा, मिच्छा मे दुकडे" ति । गतो, खुड्डाण य वावारतो पवूढो ।।४४६५।। जे विज्जमतदोसा, ते च्चिय वसिकरणमाइचुण्णेहिं । एगमणेगपदोसे, कुज्जा पत्थारतो वा वि ॥४४६६॥ असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । अद्धाणरोहए वा, जयणाए भुंजई भिक्खू ।।४४६७। कंठा जे भिक्खू जोगपिंडं भुंजति, भुजंतं वा सातिज्जति ।।सू०७८॥ पादलेवादिजं.गेहि प्राउट्टेउं जो पिंडं उप्पादेति तस्स प्राणादी छ। जे भिक्खू जोगपिंडं, भुंजेज्ज सयं तु अहव सातिज्जे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ।।४४६८॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४४६५--४४७२ ] | त्रयोदश उदेशक: ४२५ ते य जोगा इमेरिसा सूभगभग्गकरा, जे जोगाऽऽहारिमे य इतरे य । आघस वास धूवा, पादपलेवाइणो इतरे ॥४४६६॥ दूभगो सुभगो कज्जति, सुभगो वा दुब्भगो कज्जति जोगेणं । ते य जोगा पाहारिमा होज्जा, इतरे प्रणाहारिभा वा । प्रणाहारिमा इमे- सरीरं प्राघस्संति जहा चदणेणं, वत्थं वासवासियं दिज्जति, प्रगरुमादिणा वा जहा धूविज्जति, पादतलं वा लेविज्जति तेण दूरं जलोवरि वा गम्मति ।।४४५६।। तथिमं उदाहरणं - णदिकण्हवण्णदीवे, पंचसया तावसाण णिवसंति । पव्वदिवसेसु कुलवती, पादलेवुत्तारसक्कारो ॥४४७०॥ . ग्राभीरविसए कण्हवेण्ण णाम नदी । तम्म कूले बंभद्दीवो। तत्थ पंचसता तावसाण परिवसंति । तेसिं जो कुलवती सो पादलेव जोग माणात । ते अट्ठमिच उद्दसादिसु पव्वदिवसेसु पादलेवजोगप्पभावेण वेण्णणदीपरकूलतो जलमुवरिएण पादपयारेण जह भूमीए तहा वेण्णातडणगरं एंति । ततो तेसिं सव्वजणो प्राउट्टो, भत्तादिणा सक्कारं करेति । जे या वि अणभिगता सड्ढा ते वि तेसिं आउट्टा, अहो ! पञ्चक्खो तवप्पभावो ति ॥४४७०।। ___ जण सावगाण खिसण, समियक्खण मातिठाण लेवेणं । सावगपयत्तकरणं, अविणयलोए चलणधोए ॥४४७१।। जणेण सावगा खिसिज्जति - "तुझं पवयणे एरिसो अतिसयो णत्थि, एते पच्चक्खदेवता, पणमह एतेसि ।" अगदा दइरमामीमा उलो समियायरियो विहरतो तत्यागतो, तस्स कहियं. ते तुण्हिक्का ठिता। सड्डे हि दो तिण्णि वारा भणिता - अोहामिन्जति पवयणं, करेह पसायं । तेण भणितं- “एते मातिहाणिणो पादलेवेण उत्तरंति, तुब्भे णिमंतित्ता सव्वे गिहे उं उसिणोदएण पादे पक्खालेह।" ताहे सावगा उवट्ठिता पादसोएण, ते णेच्छंति । "लोगो ण याणति तुझं विणयं काउं, अम्हे विणयं करेमो, विणएण य बहुफलं दाणं भवति" - ततो सावगेहिं पयत्तेणं चलणधोवणं कतं ।।४४७१।। पडिलाभित वच्चंता, णिबुड्ड णदिकूल मिलण समिताए । विम्हय पंचसया तावसाण पव्वज्ज साहा य ॥४४७२।। सावगेहि भत्तादिहि पडिलाहित्ता बहुजणपरिवारिता गया वेण्णं णति । तत्थ जो जहा उइण्णो सो तहा णिब्बुडो।। सावगेहिं जणस्स अक्खित्तं - "एते मातिट्ठाणं करेंति, ण एतेसिं अतिसयो को वि।" तम्मि जणसमूहे आगता णदीए तीरे ठिता भणंति प्रायरिया - वेण्णे ! कम देहि त्ति । ताहे दो वि तडीयो पासण्णं ठिताग्रो कममेत्तवाहिणी जाता । पायरिया एगकमेण परतीरं गता, पिट्टनो णदी महंती जाता, पुणो तहेव पञ्चागता । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-७८ ताहे जणो तावसा य सव्वे परं विम्हयं गता । बहू जणो आउट्टो । ते य पंचतावससया समियायरियस्स समीवे पव्वतिता। ततो य बंभद्दीवा साहा संवुत्ता । असिवादिकारणेसु वा जोगपिंडं उप्पादेज्जा, ण दोसो इति ॥४४७२॥ संकरजडमउडविभूसणस्स तण्णामसरिसणामस्स । तस्स सुतेणेस कता, विसेसचुण्णी णिसीहस्स ॥ ॥ इति विसेस-णिसीहचुण्णीए तेरसमो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश उद्देशकः उक्तस्त्रयोदशमः । इदानीं चतुर्दशमः, तस्स इमो संबंधो - धातादिपिंड-अविसुद्धवज्जणे पिंडो पातमवि होति । अहवण सोही पगता, स चिय पादे वि विनेया ॥४४७३।। घादि प्रादि जाव जोगपिंडो एते सव्वे अविसुद्ध त्ति काउं पडिसिद्धा । पादं पि पिंडो चेव, तं पि अविमुद्धं वज्जेयव्वं । अहवा - च उलह पच्छित्तं अधिकयं. इमं पि तं चेत्र । अहवा - पिंडे सृद्धी, पादे वि मा चेव मुद्धी कायव्वा । ग्रहवा - धातादिपिंडो विमुद्धो कत्थ घेत्तव्यो ? पादे तस्स मग्गणा । अतो भण्णति - जे भिक्ख पडिग्गहं किणति, किणावनि, कीयमाहट्ट दिज्जमाणं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ।।मू०।।१।। क्रयेण कडं कत्ति गेग वा कड कीयगडं, तं निविहेण वि करणेण करेंतस्म चउलहुं । कीय किणाविय अणुमोदितं च पातं जमाहितं सुत्ते । एक्केक्कं नं दुविहं, दव्वे भाव य णायव्यं ।।४४७४।। अप्पणा वि ज किगानि त दवे भावे य, किगावित वि एते चेव दो भेदा, जं पि अणुमोदितं तंपि एनेहि नेत्र कीय ।।१४।४।। कीयकडं पि य दुविहं, दव्चे भावे य दुविहमेक्कक्कं । आयकियं च परकियं, परदच्वं तिविह चित्तादी ।।४४७५।। जं परदश्वकीयं तं पि तिविधं - मचिलेग वा अविना वा मीमेण वा । दुपदादिगा सचिनेण पादं किगति. अचिने ग हिरणेग, सभंड मनोवकर गमीसँग कि गति । इम पि परदवकीते च उलहुं ।।४४७५।। इमं अप्पणा दव्वकीत - निम्मल्लगंधगुलिया. वण्णगपत्तिादिया य कनदव्यं । गेलण्णे उड्डाही, पउणे चडुगार अहिगरणं ।।४४७६।। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र १-२ हिम्मला फुल्ला, सुगंधगंधे भक्खिभरणगुलिया पंचवणिया घोतिता पोत्ता, एते भिक्खणिमित्तं दति । तहा तिविधे गिलाणोसढे, अगिलाणे गिलाणभूते गिलाणे वा। अगिलाणीभूते उड्डाहो भवति । प्रह पठणो तो भणति - भिक्खिणिमित्तं चाडं करेति । प्रसंजयस्स दिण्णे पणत्ते वा अधिकरणं, एस्थ प्रायदन्कए चउलहुं ॥४४७६।। इमं परभावकीय - वतियादि मंखमादी, परभावकतो तु संजयट्ठाए । उप्यायणा णिमंनण, कीयकडे अभिहडे ठविते ॥४४७७' वतिया गोउलं । मखो सेजातरो। सो संजयहा भावकीयं भावेण उपादणा । णिमंतितो भणाति - तुभ चिय पासे अच्छउ ताव । एत्थ तिणि दोसा - कीयकडं अभिहडं ठवियं च ॥४४७७।। एतीए गाहाए इमं वक्खाणं - सागारियमंखछंदण, पडिसेहो पुच्छ बहुगए वरिसे । कयरिं दिसिं गमिस्सह, अमुई तह संथवं कुणति ॥४४७८॥ एगत्थ गामे साहू वासं ठिता। तत्थ य मंखो सेज्जातरो। सो भिक्खं गिण्हह त्ति णिमंतेति । सेज्जातरपिंडो पडिसिद्धो ताहे सो मंखो बहुबोलीणे वासे पायरियं पुच्छति । ताहे पायरिएहि कहियंअम्हे पभायदिवसे अमुगं दिसि विहरिस्सामो। ताहे सो मंखो तं दिसि गंतु वइयाए मंखत्तणेण मंखफलकहत्थो गयो। सुहं दुक्खं धम्मं कहेंतो संथवं करेति । ताहे जे जणा तुट्ठा धय-णवणीय-दहि-खीरादि देंति ॥४४७८।। ताहे सो दिज्जते पडिसेहो, कज्जे घेच्छं णिमंतण जईणं । पुव्वगओ आगएसुं, संछुभइ एगगेहम्मि ।।४४७६॥ पडिसेधेति, भणति य उप्पण्णे कज्जे घेच्छामि त्ति । तस्सेवं साधू उदक्खंतस्स आगया। ताहे ते साधू गामवाहि भणाति-इमा वइया सगोरसा वेलं करेहि त्ति णिमंतेति । साहूहिं अच्छियं । सो पुन्वगतो वइयाए अागतेसु साधूसु खीर-दहिमादियं पुन्वुप्पादियं एगम्मि घरे संझुब्भति । सव्वे ते य भणिया – देज्जह साधूणं । साधू य भणाति- अमुगं गिहं सगोरसं तत्थ वच्चह । गतो साधू । जं मंखेण उप्पातियं तं दिण्णं । एयं परभावकीयं । इत्थ मासलहुं ।।४४७६ ।। साधुभावकीयं इमं - धम्मकहि वादि खमए, एत्तो आतावए सुए ठाणे । जाती कुलगणकम्मे, सिप्पम्मि व भावकीयं तु ॥४४८०॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४४७७-४४८५ चदुर्दश उद्देशक: ४२६ "'धम्मकहि" त्ति अस्य व्याख्या - - धम्मकहातोऽहिज्जति, धम्मकहाऽऽउट्टियाण वा गिण्हे । कहयंति साहवो च्चिय, तुमं व कहि अच्छते तुसिणी ॥४४८१॥ लाभत्थी धम्मकहा २अहिज्जति, तत्थ प्रलद्धे वि भावकतो भवति। धम्मेण वा कहितेण प्राउट्टा दिति ते सहत्था तो गेहति । अहवा - पुच्छितो "तुम सो धम्म कही ?" नाहे भणति - "साहवो च्चिय कहयंति ।" अहवा - भणाति "मामं ।" अहवा - तुसिणीतो अच्छति ॥४४८१।। अहवा - भणेज्जा - किं वा कहेज छारा, दगसोयरिया व कि व गारत्था । किं छगलयगलवलया, मुंडकुडुंबीय किं कहिते ॥४४८२॥ किमिति क्षेपे । छारत्ति भोया, परिव्वायगा दगसोयरी, गारत्था गिहवासवादिनः, जंणे च्छगलाणं गलं वलेंति धिज्जातिया । मुंडा कुडुंबवासे ण वासंति रत्तपडा एते धम्म सयं ण याणंति, कहमन्नस्स कहिस्संति ।।४४८२॥ एमेव होति नियमा, खमए आतावतम्मि य विभासा । सुतठाणं गणिमादी, अहवा ठाणायरियमादी ॥४४८३।। कंठा अवादिमादिएहिं भावेहि पगासिएहिं लभिस्सामि त्ति भावकतो भवति । एत्थ वि पायभावकीते चउलहुं। एएसामण्णतरं, कीयं तू जे गिण्हती भिक्खू । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ||४४८४॥ कंठा बितियपदं - असिवे ओमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे । सेहे चरित्त सावत, भए य जयणाए कप्पती गहणं ॥४४८५। कंठा जे भिक्खू पडिग्गहं पामिच्चेति, पामिच्चावेति पामेज्जमाहट्ट दिज्जमाणं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२॥ उच्छिष्णं गेहति, गेण्हावेति, अणुमोदेति तस्स चउलहुं । १ गा० ८ । २ गा० ८ । ३ कहिज्जति इत्यपि पाठः । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० सजणा । सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे पामिचित पामिच्चावितं च अणुमोइयं च जं पातं । एक्क्कं तं दुविहं, लोइय लोउत्तरं चैव ॥ ४४८६|| लोइयपामिच्वं गिही साहुग्रट्ठा पामिच्चेति । एत्थ इमं उदाहरणं - भिगम णायविही, बहि पुच्छा एगजीवति ससा ते । पविसण पागणिवारण, उच्छिंदण तेल्ल जतिदाणं || ४४८७|| एगो कोसलो दिक्खितो, तेण गुरुकुलवासट्ठितेण सुयं प्रधीतं । गीयत्थो जातो । ताहे गुरु ग्रापुच्छति - सण्णायगावलोयणेण गच्छामि ति । णायविहिं गतो, तं गामं जत्थ गामबाहिरतो पुच्छति - ग्रमुगस्स को जीवइ त्ति । जो पुच्छिम्रो तेण पञ्चभिण्णातो, भर्णातय एगा ते ससा जीवति - बहिणित्ति वृत्तं भवति । तापविट्टो बहिणिहिं, तेण वारिया अम्हट्टाए पागो ण कायव्वा । तीए फासुगंति उच्छिष्णं तेल्लमाणियं । साधू पडिगतो ॥ ४८७|| तीए वि तं तेल्लं ग्रदलंतीए - - सून २-३ अपरिमितणेहबुद्धी, दासत्तं सो य श्रागतो पुच्छा । द सत्तकहण मा रु अचिरा मोएमि अप्पाहे ||४४८८ || पारेमियवड्डीए व तं बहु जायं । ग्रसत्ता दाउ तत्थ घरे दासत्तेण पविट्ठा। तीयसंगारकते काले साहू आगो, पुच्छिया, अण्णेण से कहियं - तेल्लसंबंधेण दासत्तं पत्ता । रुती पुच्छति । साहुणा संदिट्ठ - प्रचिरा मोएमि मा रोवंए ||४४८८ ।। तं च दिट्टं भणाति इमं - भिक्खु दगसमारंभे, पुच्छाउट्टां कहिं भे वसति । सम्मा आहरणं, विसज्ज कहणा य कति वा तु ॥ ४४८६ जयाहं भिक्खट्ठा एमि तदा तुमं गिपतिसमक्खं उदगसभारंभ करेज्जासि । प्रण्णदा तीए कतो | तेण कहियं मा मे भिक्खं दलाहि त्ति । हिसामिणा पुच्छितो कि ति ? साधुणा भिक्खविसोहिपसंगेण जतिधम्मो कहितो । सो हिसामी पुच्छति - कहिं भे वसहि ? त्ति । कहिया वसही । तत्थ गतो । पुणो वि से धम्म कहितो । सम्मत्तं पडिवण्णो । अणुव्वता गहिता । वारवइवणिय थावच्चसूताहरणं कहियं । तेण विप्रभिग्गहो गहियो, “पुत्तादि सयणो वि पव्वयंतो ण धारयवो" त्ति । सा साहबहिणी उवहिता "पव्वयामि त्ति विसज्जिता । केत्तिया साधू एरिसा भविस्संति मादिदोसेहितो विमोएहिंति जहा तेल्लपामिच्चे दोसो भणितो ||४४८६॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश उद्देशकः एमेव तिविहपातं. पामिच्चं जो उ गेह आणादी । ते चैव तत्थ दोसा, तं चैव य होति त्रितियपदं ॥ ४४६०॥ लाउय दारुय-मट्टियामयं तिविधं पाट । जे तेल्लादिपिंडदोसा जं च तत्थ वितियपदं, तं चैव पादे वि सव्वं दट्टव्वं ||४४६०।। लोइए लोउत्तरे वा वत्थे पामिच्चे इमे दोसा भाष्यगाथा ४४८६–४४१४ J मतिलितफालित फोसित, हितणड्डे वा वि अण्णमग्गते । अवि सुंदरे विदिण्णे, दुक्कररोयी कलहमादी || ४४६१ ।। मइलादिदोसेहिं तं पामिच्चियं ण गेहति, अण्णं मग्गति, अण्णम्मि य सुंदरे वि दिये हुक्कररोइत्तगे ण रोएति, तत्थ " गेह" ण गेहामि त्ति कलहमादिया दोसा भवति । पादे विभि लेनोवा त्रिणा सिउ त्ति ण गेण्हेज्जा । गयं लोउत्तरं पामिच्चं ॥ ४४६१।। जम्हा पामिच्चे एते दोसा तम्हा ण घेत्तव्वं । इमं कायव्वं उच्चत्ताए दाणं, दुल्लभखग्गूडलम पामिच्चं । तं पिय गुरुस्स पासे, ठवेंति सो देति मा कलहो || ४४६२ || - - वत्यपादादिए पहुप्पतेसु साहुणा साहुस्स उच्चताए णिज्जं दायव्वं । अहवा इमं बितियपदं - दुल्लभयाए देसे पामिच्च पि कज्जति सगच्छे परगच्छे वा, तहा खग्गूड अलसाणं पामिच्चं दिज्जति, तं पि गुरूगं समीवे प्राणेउं ठविज्जति, ताहे सो चेव गुरू देति मा लंभकाले देतो ऊणं देज्ज, गेण्हते वा "ऊणं देज्जासि" त्ति कलहं करेज्जा, तम्हा गुरू तत्य पमाणं ।।४४६२।। जे भिक्खू पडिग्ग परिट्टे, परियट्टावे, परियट्टियमाहट्ड दिज्जमाणं पडिग्गाहेति, पडिग्गार्हतं वा सातिज्जति ||०|| ३ || प्रप्पणिज्जं देति परसंतियं गेण्हति ति परियट्टियं एत्थ चउलहुँ । परियट्टियं पि दुविहं, लोइय - लोउत्तरं समासेणं । एक्क्कं पि यदुविहं, तदव्वे अण्णदव्वे य ||४४६३॥ तव्वे पत्तं पत्ते, अण्णदव्वे पत्तं वत्थेण दंडगादिना वा संजयस्स गिही जं दाउकामो तं प्रोग गहिणा सह परियट्टे देति त्ति । एयं लोइयं परियट्टियं ॥ ४४६३ ।। एत्थ इमं उदाहरणं रोप्परसज्झिलियासंजुत्ता दो वि एक्कमक्केणं । पोग्गलियसंजयडा, परियट्टण संखडे बोही || ४४६४ || ४३१ एसा भद्दबाहुकया गाहा । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ - सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४ इमं से वक्खाणं अणुकंप भगिणिगेहे, दरिद्द परियट्टणा य कूरस्स । पुच्छा कोद्दवकूर, मच्छर णाइक्ख पंतावे ॥४४६५॥ इतरोवि य पंतावे, णिसि उसविताण तेसि दिक्खा य। तम्हा णो घेत्तव्वं, केइप वा जे ओसमेहिति ॥४४६५।। एकः अपरः, अन्यः परः, ताभ्यां भगिन्यो, अपरस्य भागनी परेण संजुत्ता-परिणीतेत्यर्थः । परस्य भगिणी अपरेण संयुक्ता । अन्यो अपरस्य भ्राता प्रवजितः, सो सुत्तं अहिजित्ता णायविधी आगतो । सो - भगिणी मण्णु करेस्सति" त्ति अणुकंपाए भगिणिगेहे आवासितो । सा य दरिद्दा कोद्दवकूरो रज्जइ। सो य कोदवकूरो भाउघरि णीतो, भाउघरानो सालिकूरो आणितो। एवं संजयट्टा कूरो परियट्टितो, तस्स भाउणो भोयणकाले सो कोद्दवकूरो दिण्णो।। तेण सा आगारी पुच्छिता - किमेयं? कीस ते कोदवकूरो दिण्णो? सा अगारी प्रोणयणवयगा तप्पत्तिया मच्छरेण णाइक्खति त्ति - अणक्खती तेण पंताक्यिा। ___ इयरो वि चितेइ - मज्ज भगिणी पंतावित ति अहं. पि से भगिणि पंतावेमि त्ति । सव्वमधिकरणसंबधं । सो माहू जाणिऊण राम्रो वाहिरित्ता सम्मं धम्मोवदेसेण कोवफलदंसणं कहेंतेण उवसामिता, सव्वे य दिक्खिता। जम्हा एते दोसा तम्हा परियट्टणं ण कायव्वं । केतिया वा एरिसा साधू धम्मकहालद्धिया भविस्संति जे उवसामिस्संति । लोडयं परियट्टणं गतं ॥४४६६।। इमं लोउत्तरं - ऊणहियदुब्बलं वा, खरगुरुछिण्णमइलं असीतसहं । - दुव्वण्णं वा णा, विप्परिणमे अण्णभणितो वा ।।४४६७॥ एते ऊणाहियादि दोसा वत्थे सगं णाउ, अण्णेण वा विप्परिणामितो विप्परिणमति वत्थे ताहे परियट्टेति । जहा वत्थे तहा पादे वि हुंडादिया दोसा दट्ठन्वा ।।४४६७॥ लोउत्तरं परियट्टणं गतं । इमं बितियपदं - एगस्स माणजुत्तं, ण तु बितिए एवमादिकज्जसु। .. गुरुपामूले ठवणं, सो देई इयरहा कलहो ॥४४६८॥ साहुसंघाडएण हिंडतेण वत्थं पादं वा सामण्णं लद्धं । एगस्स साहुस्स भाणत भवति ॥ तु बितियस्स। ताहे जस्स तं पमाणहुत्तं सो गिण्हति, सो य इयरस्स तद्दन्व मण्णदव्व वा किं चि देति । सेसं कंठं ॥४४६८।। एतेसामण्णतरं, पातं परियट्टियं तु जो गिण्हे । ते चैव तत्थ दोसा, तं चेव य होति वितियपदं ॥४४६६।। दप्पेण जो परियट्टियं गेहति तस्स पुव्वुत्ता दासा पच्छित्तं च, बितियपदं दुल्लभादिकं ॥४४६६।। जे भिक्खू पडिग्गहं अच्छेज्ज अनिसिट्ठ अभिहडमाहट्टदेज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥०॥४॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४४६५-४५०३ ] चतुर्दश उद्देशकः ४३३ अण्णस्स संतयं साहुप्रट्ठाए बला अच्छिंदिउ देज्जा, जं णिद्देज दिण्णं तं णिसटुं, पडिपक्खे अणिसटुं, तं जो साधूण पादं देव तस्स प्राणादिया च उलहुं पच्छित्तं । इमा णिज्जुत्ती - अच्छिज्जं पि य तिविहं, पभू य सामी य तेणए चेव ।। अच्छेज्जं पडिकुटुं, साधूण ण कप्पए घेत्तुं ॥४५००॥ कंठा 'पभूअच्छेज्जं इमं - गोवालए य भतए, खरपुने धूय सुण्ह विहवा य । अचियत्त संखडादी, केइ पदोसं जधा गोवे ॥४५०१॥ गोवालो गोखीरादिभागेण गावो रक्खति । तस्स संतियं विभागं पभू अच्छिंदिउं साधूण देज्जा तं ण कप्पति ति । दिवसादिभयगस्स वि जस्स भती खीरादियं दिज्जति तं प्रच्छिंदिउं देज्ज, एवं खरगपुत्तघूयसुण्हाए. य विह गए संतियं विभागं प्रच्छिंदिउ देंतस्स अचियत्तदोसा भवंति, असंख डिअं च उप्पज्जति, पमोसं वा को ति गच्छेज्ज । एत्थ दिटुंतो गोवो ।।४५० ॥ गोवय उच्छेत्तुं भति, दिवसे दिण्णो य साधुणो पभुणा। पयभागृणं दटुं, खिसति गोई रुवे चेडा ॥४५०२।। एगो गोवो पयोविभागेण गावो रक्खति । सो य खीरियाणं गावीणं च उत्थं खीरस्स गेहति । चउत्थदिणे वा सव्वदोहं गेण्हति । अण्णदा गोवस्स पयोगहणदिणवारे साधू अागतो । तेण पभुणा गोवपयं घेत्तु साहुस्स दिण्णं । गोवस्स अचियत्तं तहावि तुण्हिक्को ठितो । तं खीरभायणे ऊणं घेत्तु गोवो गिहं गतो । गोवीए पयभायणा ऊणा दिट्ठा। ... पुच्छितो - "ग्रज्जं किं एते ऊणा ?" तेण कहियं - “साहुस्स दिण्णं ।" ताहे सा तं गोवं खिसति - निंदतीत्यर्थः । चेडरूवाणि य खीरं मग्गंति, सा य रुट्टा थोवं खीरं ति ण देति, चेडरूवाणं ते अदिज्जमाणे रूयति । ताहे सो गोवो तारिसं णडवेलंबं घरे दर्छ साहुस्स रुढो चितेति - "मारेमि तं समणगं" ति । पहरणं घेत्तु निग्गतो ॥४५०२।। पडिचरणपदोसेणं, भावं गाउं जतिस्स आलावो । तण्णिब्बंधा गहितं, हंदसु मुक्कोसि मा बितियं ॥४५०३॥ जतो हुत्तो साहू गतो ततो पडिचरति । साधू वि तं पयं घेत्तु इतो ततो अप्पसारियं थंडिल्लं गवसंतो दिट्ठो गोवेण । साहुणा वि गोवो दिट्ठो, णातो जहा अतीवपदुखे चित्तेण। तं भावं गाउं साधुणा पुन्वमेव आलतो। १ गा०४५००। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४ भगति य साधू - मए तस्स गोसामियस्स णिब्बंधातो गहियं, तमहं पयं इदाणि तुज्भ घरं पयट्टो, तुमं च दिट्ठो, तं हंद इमं गेहसु त्ति | ૪૨૪ ताहे गोवो उवसंतचित्तो अप्पणी भावं कहयति तं - " गच्छ इदाणि मुक्कोसि, मा पुणो एवं बितियं वारं करेज्जसि " ||४५०३ || भगतिय - नाणिविट्ठलभति, दासी वि ण भुज्जएरई भत्ता । दोणेगतरपदोसे, जं काहिति अंतरागं वा ॥ ४५०४ ॥ गोवो साहु उवालंभो भणति - ण प्रणिविट्टं आणव्वत्तियं श्रणुप्पातं प्रणिज्जंतं लब्भति । जावि दासी मोल्लकीता सा वि रतिविणा भत्ता दिणा ण परिभुज्जति कम्मं ण कारविज्जति त्ति वृत्तं भवति, तं किमेस गोसामी अणिविट्ठ देति ? जया गोरक्खादिकं मेण णिज्जितं भवति तदा खीराती देइ । तं एस ग्रम्ह संतियं कीस तुम्ह देति ? कीस वा तुम्हे गेण्हइ ? एवं तस्स हंतस्स वा पदोसं गच्छेज्ज, पदुट्ठो वा जं पंताबणादि करेज्ज, अंतरायं कम्मं बज्झति । पप्रच्छेज्जं गतं ॥। ४५०४ ।। इयाणि 'सामि अच्छेज्जं - सामी चार भडावा, संजते दट्ठूण तेसिं अट्ठाए । कलुणाणं अच्छेज्जं, साधूण ण कप्पती घेत्तुं || ४५०५ ।। जं जस्स राइणा प्रणुष्णायं गामो नगरं कुलं वा स तस्स सामी भवति, सो श्रमणा सामी तस्स वासंतिया धारपुरिसा भद्दत्तणेण संजते प्रणाकालादिसु दठ्ठे खुहते तेसि जतीगं प्रणुकंपट्ठाए श्रच्छिज्ज माणे कलुणं रुदियवकंतियादि करिति । जे ते कलणा तेसि साधुग्रट्टाए प्रच्छेज्ज काउं जइ साहुणो देज्ज तो न कप्पति घेतुं ||४५०५ ॥ तं च इमं अच्छेज्जं करेज्ज साधू - आहारोवहिमादी, जति अट्ठाए उ को ति अच्छिंद । संखडाखडीए, व तहिं गेण्हंते इमे दोसा ||४५०६ ॥ संखडीए असंखडीए वा असणादियं श्राहारं वत्थादियं वा उवधि साहुग्रट्ठाए वा कोति प्रच्छिंदेज्जश्रच्छिंदत्ता देज्ज, तम्मि घेप्पमाणे इमे बहू दोसा ||४५०६ || अचियत्तमंतरायं, तेणाहडएकणेकवोच्छेदं । णिच्छुभगादी दोसा, वियाल लंभे य जं पावे ||४५०७|| तं दिज्जमाण दट्टु श्रचियत्तभावं करेज्ज, अंतरायदोसेण वा साधू लिप्पेज्ज, प्रच्छिज्जे श्रदिष्णं त्ति काउं तेणाहडदोसा वि संभवंति, जेसि तं प्रच्छिष्णं ते तं साधूणं दिन्जमाण दठ्ठे पट्टर एगस्स वा साधुस्स अणगाण वा साघूण श्राहारोवधिवसहिमादियाण त्रोच्छेदं करेज्ज, बसहीओ वा णिच्छुभेज, जदि १ गा० ४५००। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४५०४-४५११] चतुर्दश उद्देशकः ४३५ दिवसतो तो इ । ग्रहगो फ । वेयाले य णिच्छूढा जति अण्णं वसधिं ण लभंति तो बाहि वसंता ज साव. ताहिमु वद्दवं मरी रोवधितणोवद्दवं वा पावेज्ज तं गिप्फ सव्वं पार्वति ॥४५०७॥ ____ 'तेणगच्छेज्ज चिट्ठउ ताव, अणिमटुं सामिप्रच्छेज्जे अणुपडति ति अतो अणिसटुं भण्णति - अणिसढे पडिकुटुं, तं पि य तिविहं तु होइ नायव्वं । चोल्लगजड्डऽणिसटुं, साहारणमेव बोधव्वं ॥४५०८।। अणिसटुं पि सदोसं ति काउं पडिसिद्धं, ण घेतव्वं । तं तिविधं इमं - वोल्लगो, जड्डो हत्थी, तस्स वा जे भणियाए गोट्ठिसाधारणं वा रद्धं ।।४५०८।। चोल्लगस्स इमा विही - छण्णमछिण्णे दुविहे, होइ अछिण्णे णिसट्ठमणिसट्टे । छिण्णम्मि चोल्लगम्मी, कप्पति घेत्तुं निसट्टे य ॥४५०६।। तदुल-घयादी जत्थ परिमाणपरिछिण्णा दिज्जंति सो छिण्णो भण्णति । तप्पडिपक्खे मणिष्णो । छिण्णो गियमा णिसट्ठो, णिसट्ठो णाम णिद्धारिउ दिण्णो। जो पुण प्रच्छिण्णो सो णिसट्ठो भवइ अणिसट्ठो वा । एत्थ गहणविही इमो-जो वा छिण्णो जो य पछिण्णो निसिट्ठो, एए दो वि जस्स नीया सो वि जति देति तो कप्पति । पुव्वसामिणा दिट्ठा अदिट्ठा वा-प्रणुनामो प्रणणुनामो इत्यर्थः ।।४५०६॥ पुनरप्याह - 'छिण्णो दिट्टमदिट्ठो, जो य णिसट्ठो पि होइ अच्छिण्णो । सो कप्पति इतरो पुण, अदिदिह्रो वऽणुण्णातो ॥४५१०॥ गतार्था "इतरो" ति अछिण्णो अगिसट्टो जेहिं प्राणियो तेसिं प्रदिक्खताणं जस्स माणिमो सो जइ देइ तो कप्पइ। अधवा - जेहिं आणितो तेहिं जइ प्रणुण्णायं तो तेहि दिट्ठो वि कप्पति घेत्तुं ॥४५१०।। अणिसटुं पुण कप्पति, अदिटुं जेहि तं तु आणीतं । दिट्ट पि पहू कप्पति, जति अणुजाणंति ताई तु ॥४५११॥ चोल्लगेत्ति गयं । अविशेषेण गतार्था । "छिण्णो य" त्ति - जो य छिण्णो प्रणिसट्ठकप्पणाकप्पितो जति वि दिट्ठो प्रदिटो वा कप्पति, एत्य प्रणिसिट्ठकप्पणामित्तं, परमत्थतो य च्छिण्णत्तणतो चेव सो णिसिट्ठो शेषं गतार्थम् । चोल्लगे त्ति गतं । १ गा० ४५०० । २ पाठांतरं - छिण्णो दिट्ठमदिट्ठो, जो य णिसट्टो अछिण्णछिण्णो य । सो कप्पति इयरो पुण, अदिदिट्टे वऽणुण्णातें ॥१॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [सूत्र-४ इदाणि 'जड्डऽणिसिटुं णिवपिंडो गयभत्तं, गहणादी अंतराइयमदिण्णं । डोंबस्स संतिए वि तु, अभिक्ख वसहीए फेडणया ॥४५१२॥ पभु त्ति गयं । जति मेंठो भद्दगो हस्थजेमणिगातो उच्छिंदिउं देति, रायपिंडदोसा, वा रावगेण दिढे गेण्हणकड्ढणादी दोसा, जड्डस्स अंतरातियं, मदिण्णादाणदोसा य । मह मेंठभागं रावगो देज्ज, डोंबो त्ति मेंठो, सो रुट्ठो, अभिक्खणं पुणो पुणो, वसहीए फेडणं भंग करेति, साधू वा पेल्लावेति ॥४५१२॥ जड्डेत्ति गतं । एत्थ य सामि त्ति गतं । इदाणि रेतेणगच्छेज्जा - तेणा व संजयट्ठा, कगुणाणं अप्पणो व अट्ठाए । वोच्छेयं च पदोसं, ण कप्पति कप्पणुनातुं ।।४५१३॥ तेणा सजयाणं दाहामो त्ति कलुणाण प्रच्छिदति, अप्पणो वा अट्ठाए तेणा हडेत्ता संजयाणं देजा। जेसि तेणाहडितं ते तं दट्ठ भत्तोवकरणवसहिमादियाण वोच्छेदं करेज्ज, पदोसातो पदुद्दा वा धम्म परिच्चएज। प्रतो तेणाहडं ण कप्पए घेत्तुं, तेहिं वा अणुनाए कप्पति घेत्तुं ॥४५१३।। संजयभद्दा तेणा, अचियत्ती वा असंथरे जतीणं । .. जति देति न घेत्तव्वं, णिच्छुभवोच्छेद मा होज्ज ॥४५२४॥ सत्ये मुसज्जते संजयभद्दा तेणा संजयट्ठयाए संजयकप्पणिज्जं मुसित्ता अनियत्ती वा अहभद्दा संजयाण अस्थरताणं सत्थानो अच्छिदिउं देज, तं सव्वं न कप्पते घेत्तुं । सत्थेल्ला य पदोसं गच्छेज, पदुट्ठा सत्थानो णिच्छुभेज, भत्तादिवोच्छेदं वा करेज ॥४५१४॥ अह ते सत्थेल्ला - घतसत्तदिटुंतो, समणुण्णाता व घेत्तुणं पच्छा । तं सत्थिगाण देती, समणुण्णाता व भुंजंति ॥४५१॥ जति सत्थेल्लगा भगति - सत्तुगेसु घतं दायव्वमेव, जति अहावत्तीए घयभायणं सत्तुगेसु पलोट्टतो एवं अम्हेहिं तुम्हें दायव्वमेव । जइ एते तेणगा अम्ह समीवातो घेत्तु तुम्ह देंति तो किं ण गेण्हह अज्जो! एवं हितं चेव अम्हं तुम्हें पि ताव होउ।" एवं पि घेत्तु सथिल्लगाण चेव दायव्वं । अह ते सथिल्लगा दिज्जमाणं पि ण गेण्हेज्ज, भणेज्ज "तुम्हं चेव एयं ।" एवं अणण्णाता परिभुजंति, ण दोसो ॥४५१५।तेणगछेज्जं गतं । इदाणि "साधारण" - ... अणिसटुं पडिकुटुं, अणुण्णातं कप्पती सुविहियाणं । लड्डुग जंते संखडि खीरे वा आवणादीसुं ॥४५१६॥ १ गा० ४५०८ । २ गा० ४५०० । ३ गा० ४५०८ । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४५१२-४५२१] चतुर्दश उद्देशकः अणिसटुं ण कप्पति घेत्तुं, अणुण्णायं पुण कप्पति । साहारणसं भवो इमो - गोढगेहि लड्डुगा सामण्या कता, जंते वा रसो गुलो वा, अोहारगसखडीए वा भत्तं, गोकुले वा खीरं, पावणे वा सामण्णं घयादिग ॥४५१६।। बत्तीसा सामन्ने, ते वि य हातुं गय त्ति इति वुत्तो । परसंतिएण पुण्णं, ण तरसि कातुं ति पच्चाह ॥४५१७॥ बत्तीसं गोट्ठिगा, तेहिं लड्डुगभत्तं कयं । तत्थेगं ठविउ सेसा व्हाइउं गता। तत्थ य एगो साहू भिक्खाए प्रागो । तेण सो रक्खपालो मग्गितो। सो भणाति - "णाहं जाणामि, बहसामणं एयं'। ते कहिं गया? तेण कहियं - "हाइउं गता" । एवं वुत्तो साधू पडिमणइ - "परसंतिएण दब्वेण पुण्णं ण तरसि काउ' ति । गुनरप्याह - "पच्चाह" ।।४५१७॥ अवि य हु बत्तीसाए, दिण्णाए ताव मोयगो न भवे । अप्प वय बहु आयं, जति जाणसि देहि तो मझ ॥४५१८॥ तं रक्वपालं साधु भणति – “जइ तुमं मम बत्तीसमोदगे दाहिसि तो तुज्झ विभागे एगो मोदगो न भविम्सति, तं जइ एवं अत्थं जाणप्ति अप्पो ते वयो बहुप्रो ते प्राय ति ता मज्झ देहि त्ति, मा मुज्झाहि।" तेण रक्खपालेण साधू पूजितो ।।४५१८॥ लाभित निंतो पुट्ठो, किं लद्धं नत्थि भाणे पेच्छामो । इतरो वि अाह णाहं, देमि त्ति सहोद चोरत्तं ॥४५१६।। साधू पडिलाभितो निष्फिडतो गोष्ट्रिगेहि प्रागच्छमाणेहिं दिट्ठो, पृट्ठो य - "कि लद्ध" ? साधू भणइ - "ण मे लद्ध' ति । - गोटिया भगंति - “प्रप्पणो पेच्छ नो भायणं' ति। साधू - ण दाए ति । बलामोडीए दिटुं, मोदगाणं भरियं भायणं । “केण ते दिणं ?" ति । साधू भणति - “रक्खयालेण मे दिगं" । गोट्टी साधु घेत्तुं तत्थ गता। रक्खपालो भीतो भगति – "ण हं देमि" ति । एवं साहुम्स सहोद चोरत्तं भवति ।।४५१६।। सहोढचोरत्ते य - गेण्हण कडणववहारो पच्छकडुड्डाह तह य णिव्विसए । अपभुम्मि भवे दोसा, पहुम्मि दिण्णे ततो गहणं ॥४५२०॥ अप्पभुदिणे एते कढणादिया दोमा भवंति । पभुदिष्ण गेण्हतो दोसा ण भवंति ।।४५२०॥ एमेव य जंतम्मि वि, संखडिखीरे य श्रावणादीमुं । सामण्णं पडिकुटुं, कप्पति घेत्तुं अणुण्णातं ॥४५२१॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-५ एवं जंतादिएसु एते चेव दोसा भवंति, तम्हा सामण्णं सामातिएहिं प्रणणुण्णायं न घेत्तव्व । सामाइयं चेव अणुण्णायं कप्पति घेत्तुं ॥४५२१॥ चोदगाह - “पादाधिकारे पत्थुए कीयगडादिभत्तादिएहि किं भाणएहिं ? पादं चेव वत्तव्वं"। प्राचार्याह - कामं पातधिकारो, कीयाहडमग्गणा तह वि एत्थं । पातम्मि वि एस गमो, जो य विसेसो स विण्णेश्रो ॥४५२२॥ सव्वं पादधिकारो पत्थुप्रो तहावि पिंडो भण्णति पुवपसिद्धीप्रो। अहवा - जो चेव भत्ते कीयगडादिसु गमो सो चेव पादे वि गमो णायव्वो, जो पुण विसैसो सो णायव्वो सबुद्धीए भाणियन्वो य ॥४५२२' अच्छेज्जऽणिसट्ठाणं, गहणमणुण्णाए होति णायव्वं । . एगतरं गेण्हते, दोसा ते तं च बितियपदं ॥४५२३।। अच्छिज्जं प्रणिसटुं च पुनसामिणा अणुण्ण तं घेत्तव्यं, ण दोसा । अह एगतरं पि प्रणुण्णातं गेण्हति - तो दोसा पुवुत्ता । बितियपदे प्रण गुण्णाता वि गेण्हेज्ज असिवादिएमु कज्जेसु, ण दोसा ॥४५२३॥! जे भिक्खू अतिरेगपडिग्गहं गणिं उद्दिसिय गणिं समुद्दिसिय तं गणिं अणापुच्छिय अणामंतिय अण्णमण्णस्स वियरइ, वियरंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५॥ अतिरेगज्ञापनार्थमिदमुच्यते - दो पायाऽणुण्णाता, अतिरेगं तइयगं च माणातो। छिण्णेसु व परिभणिता, सयं च गेहंति जं जोग्गं ॥४५२४॥ दो पादाणि तित्थकरेहि अणुणाताणि - पडिग्गहो मतगो य । जति ततियं पादं गेण्हति तो प्रतिरेयं भवति । अहवा - जं पमाणप्पमाणं भणियं ततो जति वड्डुतरं गेण्हति, एवं अतिरेगं भवति । अहवा - इमेण प्रकारेण अतिरेगं हवेज - ते साधू पादाति मग्गामो त्ति संपट्ठिता । आयरिएण भणिता - छिण्णाणि संदिट्ठीणि, जहा वीसु प्राणेज्जह । ते वच्चंता अंतरा संभोइयसाधुणो पासंति । तेहिं संपुच्छिता - "कतो संपट्टित्ता ?" तेहिं कहियं – पायरिएण पयट्ठियामो "वीसु पादे प्राणे'' त्ति । ताहे ते मणंति - "जावतिया तुन्भे संदिट्ठा तावतिएहिं गहिएहि जति अण्णाणि लभेजह तो गेण्हेजह, अम्हं दिजह, प्रम्ह पायरियं अणुण्णवेस्सामो।" एवं होउ ति, ते गया, लद्धा य, प्रतिरगविलद्वा गहिया य । एवं अतिरेगपरिग्गहो हुज्जा । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४५२२-४५६ चतुर्दश उद्देशकः अहवा - “छिण्णेसु चेव "पाउग्गाणि लब्भति" त्ति काउं बहूणि गहियाणि पप्पच्छदेणं प्रणिहिटे वि अतिरेगपडिग्गहो होज्जा ॥४५२४॥ ""उद्दिसिय समुद्दिसिय" त्ति अस्य व्याख्या - साहम्मि य उद्देसो, समुद्देसो होति इत्थिपुरिसाणं । गणिवातगउद्देसो, अमुगगणी वाइए इतरो ॥४५२|| प्रविसेसिनो उद्देसो जहा साहम्मियाण दाहामि । विसेसिनो समुद्देसो जहा सति साहम्मियत्ते इत्थि. साहम्मिणीणं दाहामि. साहम्मियपुरिसाण वा दाहामि । अहवा - उद्देसो गणिस्स दाहामि वायगस्स वा । इयरो णाम समुद्देसो जहा प्रमुगगणिस्स दाहामो पायगस्स वा ॥४५२५॥ इदाणि "णिमंतणा आपुच्छणा" य वक्खाणेति - दिद्वे णिमंतणा खलु, अदितु पुच्छा कहिं ण खलु सो त्ति । अविसेसमणिद्दिढे, देति सर्य वा वि सातिज्जे ॥४५२६॥ जं उद्दिसिय गहियं तं दटुं णिमंतेति, इमं तं पादं इच्छाकारेण गेण्हह । प्रह तं ण पासति जं समुद्दिसिय प्राणियं ताहे पुच्छति- "कहिं सो प्रमुगो साहू गणी वायगो वा?" जइ पुण जं समुद्दिसिय प्राणियं तं प्रणामंतिय प्रणापुच्छिय अण्णस्स देति तो चउलहुँ । अह ताण समुद्दिसित्ता कि चि अतिरेगं गहियं तो तं जस्म इच्छति तम्स देतो सुद्धो, सयं वा सादिज्जति-परिभुजतीत्यर्थः ।।४५२६।। एस सुत्तत्थो । इमो णिज्जुत्तिवित्थरो पामाणातिरेगधरणे, चउरो मासा हवंति उग्धाया। आणादीणं घट्टण, परिकम्मण पेहपलिमंथो॥४५२७।। गणपमाणातिरित्तं पमाणप्पमाणातिरित्तं वा धरेंतस्स च उलहुं प्राणादिया य दोसा, तज्जायमतज्जाया वा पाणा संघट्टिज्जति, अतिरेगं परिकम्मणे पडिलेहणे य सुतत्थपलिमंथो भवनि ॥४:२७॥ चोदको पुच्छति - तो कई चित्तव्वा उ, भण्णइ अपडिग्गहा अ मत्तो । जं तइअं अइरेगं, तमोहे जे भणियदोसा य ॥४५२८।। पायरियो भणति - पडिग्गहो मत्तगो य, दाहं परेगं जं घेपति तं अतिरितं, तम्मि प्रदरिते घेप्पति जे दोमा संजमविराणादी ते पावज्जति ॥४५२८।। चोदगाह - अतिरेगदिट्ठदोसा, ओम धरते भणंति णं केयी । एग बहूण कप्पति, हिंडंतु य चक्कवालेणं ।४५२६॥ १ सूत्रपदानि । २ सूत्रपदानि । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाव-पूर्णिके मिशीयसूत्रे [ सत्रचोदगो भणति-"पाइरेगं गेहतस्स विट्ठा दोसा, तम्हा पोर्म घरेयव्वं ।" तस्य सच्छदपक्खासित केति भामं भणति - "एगं पादं न्हूण माध्ण कपतु, भिक्खं च चक्कवालेण हिंडंतु ॥४५२६।। कह ? भण्णति - छहं एक्कं पातं, बारसमेणेक्कमेक्क पारेति । संपट्टणादि एवं, ण होति दुविहं च सिं ओमे ॥४५३०॥ छहं साधूणं एक्क पादं भवति । एक्केको साधू बारसं काउं छटु दणे पारेति । एवं करतेहि संघट्टणपलिमंधादिया दोसा बढा भवंति । दुविधा प्रोमोयरिया - दम्वामायरिया भावोमोयरिया य एवं तेसि भवंति। अहवा- माहारोमं उवकरणोमं च, बत्तीसलंबणाणं ऊगगो होइ माहारोम, उवकरणे एगवत्यएगपादपारितं । 'सुत्ते स भनियं - "एगं पाद पारेखा जो वितियं" ति । एयं च कतं भवति । इमं च - पहारुगाण मण्णे, जह से जन्लेण मतिलितं अंगं, मलिता व घोलपट्टा, एगं पातं च सव्वेसि ॥४५३१॥ बेहारु अलक्खणं भवति । वेहारु भागाढा । वेहारुए अणो मण्णति । कथं ! यथास्य जल्लेण मइलियं अंग दीसह चोमपट्टो व वहा सम्वेसि एगं पादं विस्सइ, तेण कारणेणं ते धुव वेहारुमा इत्यर्थः ।।४५३१॥ एवं चोदगेण भणिते प्राचार्याह - जेसि एसुबदेसो, तित्थकराणं तु कोविता आणा। णेगा य होंति दोसा, चउरो मासा अणुग्षाया ॥४५३२॥ "चण्हं एगं पाद" ति जेसि एस उवदेसो तेहिं तित्थकराण प्राणा कोविता खोडिया, चउगुरुग्रं च से पन्धित्तं ॥४५३२॥ इमे य अण्णे बहू दासा प्रद्धाणे गेलण्णे, अप्प-पर-वता य भिण्णमायरिए । भाएस वाल-वुड़ा, सेहा खमगा परिचता ॥४५३३॥ प्रवाणादिया बे पुरिसा गाहाए गहिता तेसि जाएगेम पारेण मत्तं देति तो प्रप्पा परिचत्तो, अह ग देति तेति तो परो परिचत्तो, संसत्तगहणवता परिचत्ता, एगपादभंगे वा पच्छा किं करेतु ? ॥४५३३॥ दितेण तेसि अप्पा, जढो तु अद्धाणे जे जढा जं वा। कुज्जा कुलालगहणं, वता जढा पाणगहणं च ॥४५३४॥ मह प्रवाणपडिवण्णताण तं एगं पादं देति तो प्रप्पा जढो भवति । मह ण देति तेसि भाषणं तो ते परिच्चता। १मावा. त०२ मध्य० ६ सू० .५२ । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४५२६-४५३६] त्रयोदश उदेशकः मह ते प्रद्धाणपडिवण्णगा भायणाभावे कुलालं गेण्हेज्जा, तो प्रदेंतस्स चउलहुं । तेसि वा पादं दाउं प्रप्पणा कुलालग्गहणे च उलहुं । पाणगातिसंसत्तगहणे वयभंगो ।।४५३४॥ चोदगाह - जति एते एव दोसा पत्तेयं ते धरेतु एक्कक्कं । सुत्ताभिहितं च कतं, मत्तगउवदेसणा वेहि ॥४५३॥ __ चोदगो भणति - जइ एते एत्तिया दोसा बहूणं पादग्गहणे तो पत्तेयं पत्तेयं साधू एक्केक्कं पादं गेण्हतु मा मत्तगं गेण्हंतु, एवं कते सुत्त भिहितं कयं । जतो सुत्ते भणियं - "'जे णिग्गंथे तरुणे बलवं से एग पायं धरेजा णो बितियं।" . अण्णं च मत्तगोवदेसो एण्हि वित्तो - प्रक्किालिक इत्यर्थः ॥४४३५॥ दूरे चिक्खिल्लो वुट्टिकाए सज्झायज्झाणं वाघातो । तो अज्जरक्खिएहिं, दिण्णो किर मत्तमओ मिच्छा ॥४५३६॥ चोदगो भणति - "दसपुरे णगरे वासासु अजरक्खितो उच्छुघरे ठितो। ततो गिलाणपाणगादिकज्जेसु पुणो पुणो दूर पट्टणं गच्छताण चिक्खिल्ला, वुट्टिकाए य प्राउक्कायविराहणा, सज्झायादिवाघातो . य, पुणो पुणो दूरं गच्छताण । एते कारणे गाऊण मज्जरक्खिएण मत्तगो साहूण दिण्णो, परेण ण मतगो मासि । प्रायरिमो गणति - एयं मिन्छागरूवणं करेमि ।।४५३६।। जतो भण्णति - पाणदयखमणकरणे, संघाडऽसती वि कप्पपरिहारी । खमणासहु एगागी, गेण्हति तु मत्तए भत्तं ॥४५३७॥ "पाणदय" ति बहूणं हिंडताणं मा प्राउक्कायादिपाणविराहणा भविस्सति ताहे मत्तगे वि भत्तं गेण्हसि अण्णमाहुपट्ठाए । - अहवा - एगेण संघाडगसाहुणा खमणं कतं, बितिम्रो खमणस्स असहू, संघाडासतीते पडिग्गहे भत्तं मत्तगेग वा पाणगं गेहति, अण्णेण य संघाडगेण सह णो हिंडति, तिण्हं वि कप्पो भवति त्ति खमगो पारणदिणे सघाडासतीते पढमालियं प्राणतो पडिग्गहे पाणगं मत्तए भत्तं गेहति। एवं असहुपुरिसो वि, एगागी वा । "कारणे एवं चेव" एवमादि ॥४५३७॥ गुणनिप्फत्ती बहुगी य, दगमासे होहिति ति वियरंति । लोभे पसज्जमाणे, वारेति ततो पुणो मत्तं ॥४५३८॥ एवं बहू संजमादिगुणणिप्फत्ती, "दगमासे' ति वासासु होहिति ति तेन प्रज्जरक्खियसामी वितरति भोगं मत्तगस्स मात्मायें । वरिसाकालस्स परतो उडुबढे अतिलोभपसंगतो चेव प्रज्जरक्खियसामिणो पुणो मत्तगपरिभोगं प्रात्मार्थे वारेंति, तम्हा मजरक्खिएहिं मत्तगपरिभोगो अणु ण्णातो ॥४५३८॥ मत्तगो पुण - थेराणेस वि दिनो, ओहोवहि मत्तो जिणवरेहिं । आयरियादीणट्ठा, तस्सुत्रभोगो ण इहरा तु ॥४५३६।। १ प्राचा० श्रुत० मध्य० ६ सू. १५२ । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथमूत्रे [ सूत्र- थेरपियाण जिव रेहिं चेव एस मत्तग्रो प्रोहोवहिस्स चोद्दसविहस्स मज्भे भणितो, अस्स य परिभोगो गुणातो प्रायरियादीणऽट्टाए, "न इहरा तु" णो अपणो अट्ठाए ति वुत्तं भवति ।। ४५३६ ।। एवं सिद्ध गहणं, आयरियादीण कारणे भोगो । पाणिदयवभोगो, बितिय पुण रक्खितऽज्जकतो ||४५४० || ४४२ मगन सिद्धं गहणं थेरकप्पियागं, तस्स परिभोगो प्रायरियादिकारणेहिं जिणेहिं चेव प्रणुष्णातो ब्रितियपरिभोगो पाणदयादिकारणेरि आत्मार्थ रक्खियऽज्जेहि कतो । सो वि इदाणि प्रविरुद्धो चैत्र ||४५४०|| 1 उबद्ध विकार जत्तियमेत्ता वारा, दिणेण आणेति तत्तिया लहुगा । हि दिहि सपदं, उडुबद्ध मत्तपरिभोगो ॥ ४५४१ ॥ मत्तगेण जत्तिए वारे उडुबद्धे पुण आणेति भत्तपाणं तत्तिए वारे मामलहू भवति, अभिकलसेवाए पुण अट्टमे दिणे सपदं पारंचियं भवति ॥ ४५४१ ॥ जेसिं एसुवदेसो, तित्थगराणं तु कोविता आणा | चउरो अणुराया, ह धरणे जे वण्णिया पुव्वं ॥ ४५४२ || “तित्थगरेहि मत्तगो णाणुष्णातो" त्ति जेर्सि एरिसो उवएसो ते तित्थगराणं आणाकोव करेंति, आणाकोवे य चरगुरु पच्छित्तं । जे य भांति - "रक्खियऽज्जेहि दिष्णो" तेसि पि चउगुरु । जे य ण घरेति मत्तगं तेसि पि चउगुरु । अधरेंताण य जे दोसा श्रद्धा गिलाणादिया भणिया ते य श्रावज्जति ॥ ४५४२ ।। इमे य ग्रण्णे य दोसा - लोए हवइ दुगुंछा, बीगारे परिग्गहेण उड्डाहो । आयरियादी घत्ता. वारतथली य दितो ||४५४३ || मत्तग अधरणे डिग्गहेश भिक्खं हिंडंति, पडिग्ग ं चेव घेत्तुं दीयारभूमि गच्छति, तत्थ तं पडिग्गहं उभयारिभोग दट्टु लागो दुगुछ करेति, बोट्टियो लोगो एतेहि ति । एत्थ दितो "वारतयलीए " ति पूर्ववत् । मत्तग अगाहणे प्रायरियादी च भवति ।। ४५४ ।। जतो मत्तग ग्रग्गहणे एत्तिया दोसा - तम्हा पमाणधरणे, परिहरिया पुव्ववणिया दोसा । एवं तु सुत्तमफलं, सुत्तणिवा उकारणिय || ४५४४ || पापड चयणमादी दोना वज्जिता भवति । पाहो मनो य दो दा घरे एवं घरंग पुत्रवणिता मायरिय • नोदगो भणति एवं मुत्तं प्रफलं, प्रतिरेगअभावाओ ।" मायरियो भगति - सुत्तनिवातो कारणातिरेगगहि ||४५४४ || Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ भाष्यगाथा ४५४०-४५४६ ] चतुर्दश उद्देशकः "'सुत्तं अफलं" ति अस्य व्याख्या - जति दोण्ह चेव गहणं, अतिरेग परिग्गहो ण जुत्तेवं । अह देति तत्थ एगं, हाणी उड्डाहमादीया ॥४५४५।। चोदको भणति - जति दोह चेव पायाणं गहणं तो प्रतिरेगपडिग्गहो न संभवति अहवा - दोण्ह पायाणं एगं अद्धाणपडिवण्णगाण देति तो गिलाणाइयाण अप्पणो वा हाणी, पडिग्गहेण वा वियारादिसु उड्डाहो भवति ॥४५४५।। एयं चोदगेण भणितो पायरियो भणति सुणेहि अतिरेगसंभवं - अतिरेग दुविह कारण, अभिनवगहणं पुराणगहणे य । अभिनवगहणे दुविहे, वावारते अप्पछंदे य ॥४५४६॥ अतिरेगपायसंभवो दुहा भवति - अहिणवपायगहणेण वा पुराणपायग्गहणेण वा। तत्थ ज अहिणवपायग्गहणं तं दुविहं - "वावारिय" त्ति उवकरणुप्पादेण लद्धिजुत्ता आयरिएण णिउत्ता, अप्पच्छंदा गहियसुत्तत्था उच्छहत्ता अभिग्रहं गेहात - "अम्हेहिं अमुगभुवकरणं उप्पाएव्वं" त्ति 1॥४५४६॥ अभिणवपायग्गहणे इमे कारणा. भिण्णे व झामिते वा, पडिणीए तेण-साणमादिहिते। .. सेहोवसंपयासु य, अभिणवगहणं तु पायस्स ॥४५४७|| पुवगहिता पाया भिण्णा । झामिय" ति दड्डा वा । पडिणीएण वा हिता । तेण साणेण वा हिता। एग-दुग-तिगादि सेहा वा उवट्टिता, तेसिं पाया णत्थि । सुत्तत्थादीणि वा पडिच्छगा उवसंपण्णा, तेसिं च पाया दायत्वा । एवमादिकारणेहिं अहिणवपायस्स गहगं पायभमीए गंत कायव्वं ॥४५४७।। तं पायग्गहणं इमे करेंति - देसे सव्वुवहिम्मि य, अभिगहिता तत्थ होंति सच्छंदा । तेसऽसति नितोएज्जा, जे जोग्गा दुविधउबहिस्स ॥४५४८॥ "सच्छंद" ति अभिग्गही अभिग्गहं उवकरणस्स देसे वा गेहंति सव्वे वा, देसे वत्थं वा पायं वा दंडगादि वा, सव्वे सव्वं उवकरणं जं गच्छे उवउज्जति जं वा जो साधू मग्गति तं सव्वं अम्हेहि उप्पाएयव्वं ।' तेसि अभिग्गहीण असति पायरियो णिोएति जे लद्धिसंपण्णा दुविहस्स - प्रोहिय उवग्गहियस्स ॥४५४८।। दुविधा छिण्णमच्छिण्णा, लहुओ पडिस्सुणते य । गुरुवयणदूरे तत्थ उ, गहिते गहणे य जं भणियं ॥४५४६॥ अभिग्गही वावारिया वा भणिया – गच्छह परिमाणपरिच्छिण्णाणि वीसं पाताणि प्राणेह, प्रच्छिणाणि वा संदिट्ठा जत्तिए लभह त्ति तत्तिए प्राणेह" ति । , गा० ४५४४। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ सभाष्य-चूणिके निशीथमूत्र [ सूत्र-५ एवं गच्छते कोति भणेज्ज - "ममं पि पादं प्राणेह" ति । एवं भणं तस्स मासलहुं । प्राणहामि त्ति जो पडिसुणेति तस्स वि मासलहुं : एत्य इमा विही - जस्म पाएण बज्ज सो गुर विष्णवेति, जो य भणते तेग वि गुरू पुच्छियो। मह दूरं गताणं को वि भणेज्ज - मे पातं प्राणेह तत्य उ साधारणं । गुरुवयणं ठवेंति - "गिहिस्सामो अम्हे पायं तस्स उ गुरू जाणगा भविस्संतीत्यर्थः ।" गतेसु भायणभूमि गहिएसु भायणेसु गहणकाले वा भायणाणं जंविधाणं भणियं पडिलेहणादिकं तं सत्वं कायव्वं ।।४५४६।। एतीए चेव गाहाए इमं वक्खाणं, "छिण्णं" ति अस्य व्याख्या - गेण्हह वीसं पाते, तिणि पगारा य तत्थ अतिरेगे । तत्थेव भणति एक्को, वितिओ पंथम्मि दणं ॥४५५०॥ वीसाए अतिरित्तस्स इमे तिष्णि पगारा - जे ते भायणाणं गंतुकामा ते तत्येव वसहीते ठिता मणिग्गए। एगो भणति - "ममं पि पाय पाह"। वितिमो वसहीए गिग्गए पंथट्ठिते पासणे दूरे वा भणाति - "ममं पि पादं प्राणेह" ति ।।४५५०।। ततिमो लक्खणजुत्तं, अहियं वीसाए ते सयं गेण्हे । एए तिणि विगप्पा, हवंति अतिरेगपातस्स ।।५५१॥ वीसाए गाहए सुलक्षणं पादं लवं, तं सयमेव गेहति ततिमो, तिणि पगारा मतिरेगपादस्स ॥४५५१॥ "'तत्येव भणति एक्को" त्ति अस्य व्याख्या - आयरिए भणाहि तुमं, लज्जालुस्स व भणंति आयरिए । णाऊण व सदभावं, णेच्छति धरा भवे लहुतो ॥४५५२।। __ते पायपट्टितं एगो साधु भणति - "मम वि पायं प्राणेह", सो वत्तव्यो मायरिए तुम भणाहि । · जति सो लज्जाए गुरुण सक्केइ भणिउं, ताहे त पायपट्टिता गुरु विण्णवेंति - एस साधू भणति - "मम पि पायं प्राणेह" ति, किं करेमो ति । जं गुरू भणति त करेंति । पह सो पायट्ठी सढभावो ति गुरु ण विण्णवेति ताहे से पादपद्विता तट्टाए गुरु णो विष्णवेति । "इहर" ति - जद प्रसढभावस्स गुरु ण विष्णवेति तो मासलहुं ॥४५५२॥ जइ पुण पायरिएहि, सयमेव पडिस्सुयं हवति तस्म । लक्खणमलक्खणजुत्तं, अतिरेगं जं तु तं तस्स ॥४५५३।। "मम वि पाद प्राणेह" ति एवं भण्णमाणं पायरिएम सयमेव सोउं भणितो - "प्रज्जो ! प्राणेजह से पातं"।ताहे जं वीसाए उरि लम्भति तं लक्खणजुत्तं वा मलक्खणवत्तं वा त तम्स भाभवति, णो तं पायं अण्णेण पादेश विप्परावतेयव्वं ।।४५५।। • गा.४५५०। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४५ भाष्यगाथा ४५५०-४५५८] चतुर्दश उद्देशक: "बितिम्रो पंथम्मि ठूण" ति अस्य व्याख्या - आसण्णे परभणितो, तदट्ठ आगंतु विण्णवेति गुरु । तं चेव पेसवेंति व, दूरगताणं इमा मेरा ॥४५५४॥ प्रह वसहीतो णिग्गता तो पासणे ठिता परेण भगिता - "ममं पि पातं प्राणह" ति । ताहे तदट्ठा णियत्तिउं गुरु विष्णवेति । अहवा - "प्रमगलं" ति काउं णो णियट्ट ति ताहे तं चेव पेसवेति - "गच्छ, गुरू पुच्छाहि" ति। तत्थ जं गुरू भणंति तं पमाणं । मह दूरं गता पडिपंथिएण य साधुणा दिट्ठा भणिया -. "कतो गच्छह" ? तेहिं भणियं - भायणाणं ति । ताहे गुरू अप्पप्पो ठितो ति इमं भण्णति ॥४५५४।। गिण्हामो अतिरेगं, तत्थ पुणो जाणगा गुरू अम्हं । देहंति तगं चण्णं, साहारणमेव ठावेंति ॥४५५५।। कंठा सच्छंद परिण्णत्ता, गहिते गहणे य जारिसं भणितं । अल-थिर-धुवधारणियं, सो वा अण्णो व तं धरते ॥४५५६॥ सच्छदा अभिग्गहिया परिणता गुरूहि जे भणिया "भायणे प्राणेह" त्ति । एते दो वि जहा भणिया तहा गिण्हति । गहिए पडिलेहणादि तं विधि करेंति गहणकाले य जारिसं भणितं । करादिसु पप्फोडमादिकं तं सव्वं करेंति । एते चेव सच्छंदपरिण्णत्ता सलक्खणं इमेरिसं अलं थिरं धुवं धारणियं तं अतिरित्तं पि गेण्हंति । तं च प्रायरियसमीवं णीयं, जेण तं गहियं सो वा धरइ, अण्णो वा तं धारयति - जस्स प्राचार्यों ददातीत्यर्थः । अलं पज्जत्त थिरं दढं धुवं अप्पाडिहारियं धारणिज्ज सलक्षणं ।।४.५६।। "गहिए" ति अस्य व्याख्या - गहिते उ पगासमुहे, करेंति पडिलेहणा उ दा काले । ओमंथ पाणमादी, गहणे य विहिं पउंजंति ॥४५५७॥ जहा उवकरणं दोसु संझाकालेसु पडिले हिज्जति तहा ते वि गहिते पाए हत्थमेत्तडंडगस्स प्रते चीरं बंधिऊण तेण ते पडिलेहंति । "3गहणे य जारि भणिय" त्ति अस्य व्याख्या - “प्रोमंथ" पच्छद्धं। जं पगासमुहं तं चक्खुणा पडिलेहियं सुदं, ततो घेप्पति । जं पुण सणालं संकुडमुहं वा तं दाहिणकरेण घेत्तुं प्रोमथिउ काउं वामकरमणिबंधे तिण्णि वारा अक्खोडेंति, अण्णे तिण्णि करतले, अण्णे तिणि वारा भूमीए, एवं णवहिं पप्फोडणाहिं जति सुद्धं तो घेप्पति ।।४४५७॥ एसा गहण विधी। इदाणिं साधूणं गहणविधी भण्णति - गहितेहिं दोहि गुरुणा, गेण्हति गयग्गहि जधा वुड्डू। ओमाति काउ मत्ते, सेसा दुविहा कमेणेवं ।।४५५८॥ १ गा० ४५५० । २ गा० ४५५६ । गा० ४५५६ । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [मूत्र-५ , पुव्व गुरू पडिग्गहं मत्तगं पच्छा च दो पादे गेहति । पच्छा जे गया पायाणं ते प्रहारातिणियाए पडिग्गहे गेण्हति । ते चेव "प्रोमादी" पच्छाणु पुवीए मत्तगे गेण्हति । पच्छा जे सेसगा साह ते वि एवं चेव पुवाणुक्कमेण य पच्छाणुककमेण य पडिग्गहमत्तगे गेण्हति, ।। ४५५८।। एसा छिण्णेसु विधी। इमा 'अछिण्णेसु - एमेव अछिण्णेसु वि, गहिते गहणे य मोत्तु अइरेगं । एत्तो पुराणगहणं, वोच्छामि इमेहि उ पदेहिं ॥४५५६।। एवं अच्छिण्णेसु वि गहिएमु, गहाणकाले य एसेव अविसिट्ठो विधी, गवरि अच्छिणणे गु अतिरिन णत्थि ॥४५५६॥ अहिणवगहणं भणियं : २इदाणि पुराणग्गहणं भण्णात आगम गम कालगते, दुलहे तिहि कारणेहि एतेहिं । दुविहा एगमणेगा, अणेगणिदिट्टऽणिदिवा ।।४५६०।। एतीए गाहाए इमा विभासा, "आगम-गमे" त्ति अस्य व्याख्या - भायणदेसा एंतो, पादे घेत्तण एति दाहंति । दाऊणऽवरो गच्छति, भायणदेसं तहिं घेत्तुं ॥४५६१।। जत्य देसे पभूता भायणा अस्थि तानो देसायो पागच्छतो पुवं परिकम्मितरंगिते भायणे धेनुं प्रागच्छंति, जत्थ दुल्लभा पाता तत्थ साधूणं दाहंति । अवरो अप्पणिज्जे भायणे साधूणं दाउं गच्छति, जत्थ सुलभा पादा तत्थ अप्पणो अण्णे पादे धेच्छामि त्ति ॥४५६१।। अहवा - इमो अइरेगविधी - 'कालगतम्मि सहाये, भग्गे वऽण्णस्स हाात अतिरेग । एत्तोलंबतिरेगो, दुल्लभपादे वि एमेव ।।४५६२।। ,संघाडगसहाए कालगते, "भग्गे व” ति उणिवखते, जे तस्स संतिया पाया मत्तगो पडिग्गहो वा ते इयरस्स संघाडइल्लगस्स अतिरेगा भवंति, अोलंबगं पातं वा लक्खणजुतं दुल्लभपाते देसे अतिरित्तं घरेज्ज ।।४५२२॥ ग्रहवा - दुल्लभपाए देसे इमे वा पंच उवग्गाहत धरेज्ज -- नंदिपडिग्गह विपडिग्गहे य तह कमहग विमत्तो य । पासवणमत्तगो वि य, तक्कज्जपरूवणा चेवं ॥४५६३।। तक्कज्जपरूवणा इमा-नंदिपडिग्गहो रोधगट्टाणगादिसु उव उज्जति, विपडिगाहो पडिग्गहप्पमाणा हीणतरो सो वि असिवादिकारणे एगागियस्स उव उज्जति, कमढकं उड्डाहपच्छायणं भोयणकाले वि मत्तगो मत्तगपमाणाप्रो हीणो सो वि एगाणियस्स उव उज्जति उवगहितो, सागारिगे संसत्तकातियभूमादिसु वा पासवणमत्तगेण जयंति, एतेहिं कारणेहि एतेसिं गहणं ।।४५६३॥ १ गा० ४५४६ । २ गा० ४५४६ । ३ गा० ४५६० । ४ गा० ४५६० । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४५५६-४५ हनुर्दश उद्देशक: "'दुविधा एगमणेग" ति पच्छद्धस्स इमा व्याख्या - एगो णिदिसतेगं, एगो णेगा अणेग एगं च । गाणेगे ते पुण, गणिवसभे भिक्खु थेगदी ॥४५६४॥ भायणदेसा एंतो भायणे इमेण च उभंगेण णिद्दिसि प्राति त्ति - एगो एगं, एगो प्रणेगे । प्रणेगे एगं, प्रणेगे प्रणेगा-णिदिसंति । जं णिद्दिसति सो इमेसि एगतरो-गणि, वसगो, भिक्खू, थेरो, खुड्डगो । ॥४५६४।। एमेव इत्थिवग्गे, पंचगमो अहव णिदिसहि मीसे । एमेव य एंता वी. समाण असमाण णिदेसा ॥४५६५॥ . इथिवग्गे वि गणिणिमादिया एतें चेव पंच भेदा गिहिसंतस्स । अहवा - पुरिसे इत्थिय मोसे णिदिसति, जो पुण भायणभूमि गच्छति सो य सयमेव दाउं गच्छति । अहवा - पेसवेति इमं भायणं प्रमुमस्स साधुस्स पावेजह । एस णितस्स विसेसो भवति ।।४५६५।। सच्छंदमणिहिटे, पावण णिदिट्ट अंतरा देति । चउलहुगाऽदाणम्मि, ते चेव इमेसि अदाणे ॥४५६६॥ जं पुण भायणं प्रणिद्दिसि प्राणिउं तत्थ "सच्छंदो" ति यस्य रोचते तस्य ददाति, जं पुण जस्स 'गद्दि सउं प्राणियं तं पायं तस्स प्रवस्सं पावेगवं । ग्रह तं अण्णस्स देति अंतराले तो चउलहुं, सुत्तादेसतो वा प्रणवट्ठो, जइ पुण इमेसि अंतराले मम्गताण ण देज्जा तो ते वेव चउलहप्रा ।।४५६६।। अद्धाण-बाल-बुड्ड, गेलण्णे जंगिते सरीराणं । पाय-ऽच्छि-णास-कर-कण्ण संजतीणं पि एमेव ॥४५६७।। "अद्धाण-बाल-वुड्ढे" तिण्णि वि जुगवं वक्खाणेति - अद्धाणे ओमऽसिवे, उद्द ढाण व ण देंति जं पावे । बालस्सऽज्झोववातो, थेरस्सऽसतीव जं कुज्जा ॥४५६८॥ जं एते प्रद्धाणादिया भायणेण विणा परितावणादिविराहणं पावंति, कुलादि गहणं वा • करेंति, तं सव्वं प्रदेंतो पावति चउलहुं च से पच्छित्तं । बालस्स वा अतीव अझोववातो, जदि ण देति ङ्क । थेरो वा जं भायणप्रसती वा पावति करेति वा तं प्रदेंतो पावति ।।४५६८॥ अतरंतस्स अदेते, तप्पडियरगस्स वा वि जा हाणी । जंगित पुच णिसिज्जा, जाति विदेसेतरो पच्छा ॥४५६६॥ १ गा० ४५६०। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-५ अतरंतस्स वा जदि ण देति, प्रतरंतपहिचरमाण वा जदि ण देति, जाय तेसि भायणेण विणा हाणी। गिलाणस्स भदाणे चउगुरु । चोदगो भणति -गणु मुंगितो प्रणलसुत्ते पुव चव य णिसिद्धो ण पव्वावेयव्यो । पायरियो भणति - जातिजुंगियो जत्थ ण णज्जति तत्थ विदेसे पव्वाविज्जति । "इतरो" वि सरीरजुगितो सो सामण्णे वि ठितो पच्छा भवति ण दोसो। जंगियस्स जद ण देति तो डू॥४५६६।। जांती य जंगितो पुण, जत्थ ण णज्जति तहिं तु सो अच्छे । अमुगणिमित्तं विगलो, इतरो जहि जति तहिं तु ॥४५७०॥ इयरो त्ति सरीरमुंगितो जत्थ णज्जति जहा एयस्स हत्थो पादो वा जालगद्दहमादिणा सडितो तत्येव प्रच्छति, ण अण्णतो विहरति ॥४५७०।।। ते जातिजु गिता सरीरजु गिता वा - जं हिंडता काए, वहेंति जंपि य करेंति उड्डाहं । किं णु हु गिहिसामण्णे, वियंगिता लोगसंका तु ॥४५७१॥ भायणणिमित्तं जं हिंडता काये वहंति, जं वा उड्डाहं करेंति, लोगस्स य संकं जणयंति - 'कि पवतिया वि चोरियादिपालप्पायं करेति जेण वियंगिता एते ॥४५७१॥ पाय-ऽच्छि-णास-कर-कण्णजंगिते जाइजुंगिते चेव । वोच्चत्थे चउलहुगा, सरिसे पुव्वं तु समणीणं ॥४५७२।। जति पत्थि पादा तो पाद-प्रच्छि-णासा-कर-कण्ण-जातिजुंगिताण य सव्वेसि दायव्वा । मह णत्यि एत्तिया तो जातिचुंगिते वज्जेउं रोसाणं पंचण्हं दायव्वं । अह एत्तिया वि णस्थि कण्ण-जातिज गिते वज्जेउ ससगाण चउण्हं दायम्वं । एवं एक्शेक्कपरिहाणीए जाव पादमुंगियस्स दायव्वं । अध ममत्ताइभावेण पादातिकम मोत्तुं वोच्चत्यं देति तो चउलहुगा । थीसु वि एसेव कमो। अह पुरिसवग्गे इत्यीवग्गे य दोसु वि पादादिमुंगिता प्रत्थि तो सति पादादिसंभवे सब्वेसि दायध्वं । प्रह ण संभवं तो पुव्वं समणीणं दायव्वं ।।४५७२॥ __ जइ अंतराले ण किं चि कारणं जायं तो अतिरेगपडिग्गहे धत्तु पत्तो जं थाणं पावियव्वं पत्तम्मि सो व अन्नो, सयं व घेत्तण इच्छकारेण । तिट्ठाणसमोसरणे, णिदिट्ठो इच्छा विवेगो वा ।४५७३॥ पत्ते णिद्दिवमूलं । ताहे जेण प्राणियं सो वा सयं घेत्तूण अण्णो वा घेत्तूण णिद्दिट्टपासे ठवेऊग - "इच्छाकार करेइ गेण्हह भंते इम' ति ।। ___ अह ण दिट्ठो जो णिद्दिट्ठो जत्य सुव्वति तत्थ णेति पेसवेति वा अप्पाहेति वा । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४५७०-४५८० ] चतुर्दश उद्देशक : ग्रह तस्स सुतीविण सुव्वति तो तिसु समोसरणेसु गवेसति उग्घोसावेइ वा । महंते पुण एक्कंसि चेव उग्घोसेति, जत्य सुगेति तत्थ नेति पेसति वा प्रप्पाहेति वा । अह समोसरणे वि ण कतोइ पव्वत्ती सुता दिट्ठो वा ताहे इच्छा परिवेति वा ॥४३७२ ॥ प्रणेगा भणिता जेहि प्रतिरेगपडिग्गहो प्राणितो कप्पति । इदाणि - एगणितो कारण णिक्कारणे भण्णति । सि केहि प्राणितो कप्पति केहि वा न कप्पति ? णिद्दिट्ठस्स समीवं, गंतुं काऊन इच्छकार से । तं देति दिट्ठे पुण तहियं पेसेंति वप्पाहे || ४५७४॥ गतार्था खुड्डागसमोसरणेसु तीसु पुछि सो तहिं नेति । घोसावेति महंते, ओसरणे तत्थ अमुगो ति || ४५७५॥ गतार्था । - एगे तु पुत्रभणिते, कारणणिक्कारणे दुविहमेदो । हिंगोणे, दुविहा लिंगे विहारे य || ४५७६ ॥ ज. व रुच्चेइ तस्स देति एगणितो दुविहो - कारणे णिक्कारणे वा । सो दुविधो वि पुव्वं भणितो प्रहणिज्जुत्तिए । प्राहिडगो दुविहो - उवदेसे वा प्रणुवदेसे वा मोहाणे वि दुविधो - लिंगाग्रो वा धावति, विहरतो वा श्रोहावेति ||४५७६ ।। सिवादीकारणितो, णिक्कारणितो व चक्कथुब्भाती । उवदेस अणुवसे, दुविहा आहिंडगा होंति || ४५७७ || कंठा चोहावंता दुविहा, लिंगविहारे य होंति नायव्वा । छप्पेते एगागी, विहरे तहि दोसु समणुण्णा ||४५७८॥ कंठा । दो समगुणत्ति प्रसिवादिकारणिया उवदेसाडिगा य एतेहि दोहि प्राणिया घेप्पति - अनुज्ञा इत्यर्थ ण सेनेसु चउसु प्रणुष्णत्ति ॥ ४५७८ ॥ futarfreeyar सिए य आपुच्छिऊण बच्चंतो । सायं तेऽसंभोगायारभंडं वा ||४५७६ || ४४e णिक्कारणिया जे अगुवदेस ! हिंडगा एने दो वि जता प्रायरियं ग्रापुच्छिऊण वच्चान तदा एतेसि श्रणसट्टी दिज्जति । प्रणुमट्टीए दिण्णाए वि जया ण ठायति तया जं प्रायारभंडं विनुद्धोवही तं से घेप्पति, जं गच्छे प्रसिद्धं उनकरणं तं से दिज्जति ।।४५७६ ।। नट्ठित्ति इमा एमेव चेयाणं, भत्तिगतो जो तवम्मि उज्जमान । इति णिने अणुमड्डी, देति उ वसभा अणुवसे ||४५८०|| Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० समाष्य-चूणिके निशीयसूत्रे [ सूत्र-५ णिक्कारगिगस्स एगाणिगो अणुवदेसाहिंङगस्स एगागिणो एयं प्रणुसटैि देति ॥४५८०॥ गच्छे कहं उवहतोवहिणो संभवो ? अतो भण्णति - खग्गूडेण उवहते, अमणुण्णेणागयस्स वा जं तु । असंभोइयउवगरणं, इहरा गच्छे तगं णत्थि ॥४५८१॥ . स्वम्यूडो पुवभणितो अोहणिज्जुतीए तेण जो उवही उवहतो, जो वा प्रमणुष्णे ति प्रमणुका पासत्थादी तेसि मज्झातो जो प्रागतो विहाराभिमुहो तस्स जो पुवोवहि सो प्रविसुद्धो । एवं गच्छे प्रणायारभंडगसंभवो, इयरहा गच्छे प्रणायारभंडगं गत्यि, जेण गच्छे दिया वा रातो वा विहीए प्रसुण्णं वसहि करैति ॥४५८१॥ गच्छतो णिग्गयस्स तद्दिणमण्णदिणे वा अंतरे अण्णेहिं अणुसिट्ठस्स अणणुसिढुस्स वा - तिट्ठाणे संवेगो, सापेक्खो णियट्टो य तदिवससुद्धो। मासो वुत्थ विगिचण, तं चेवऽणुसहिमादीणि ॥४५८२॥ तिट्ठाणं गाणदंसणचरितं, एतेहिं ठाणेहि संवेगो जातो, जति संजमसावेक्खचित्तो तद्दिवसं चेव णियत्तो तो सुद्धो, ण से उवही उवहनो, ण वा से किं चि पच्छित्तं । ___ अह असंविग्गाणं मज्झे वुत्थो तो मासलहुं पच्छित्त, उवकरणं च से जइ सुदं मासि तो उवहतं विगिचियव्वं, गच्छे य पडियागयस्स तं चेव सुद्ध उवकरणं पच्चप्पिणिज्जति, अणुसट्ठी कज्जति - “साधु कतं ते जं आगतो सि" ॥४५८२।। णाणे दंसरणेसु इमेरिसो संवेगो - अज्जेव पाडिपुच्छं, को दाहिति संकियस्स वा उभयं । दसणे उववृहो, के थिरिकारे कस्स वच्छल्लं ॥४५८३।। पुष्वद्धं णाणे, पच्छद्धं दसणे ॥४५८३॥ इमो चरित्त पडुच्च संवेगो - सारहिति सीयंतं, चरणे सोहिं च काहिती को मे । एवणियत्तऽणुलोम, नाउं उवहिं व तं देति ॥४५८४॥ अणु लोमेहि वयहि उव वूहति, सेसं कठं ।।४५८४॥ इदाणि ओहाणुप्पेही भण्णति - दुविहोहाविं वसभा, सारेति गयाणि वा से साहिति । अट्ठारस ठाणा, हयरस्सिगयंकुमणिभाई ॥४५८५॥ दुविधो - लिंगतो विहारतो वा प्रोहावति । विहारो प्रोहावंतस्स जाई रइवक्काए अट्ठारस ठाणाई यरस्सिगतंकुसपोतपडागारभूताणि भणितागि ताणि जइ तस्स गयाणि तो से वसमा सारेंति-संभरे तेसि अच्छंति, मह ण ताणि गयाणि तस्स तो मृतत्याणि से कहिति ।।४।८।। . Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ४१८१-४५६० ] चतुर्दश उददेशकः एवं ताव विहारे, लिंगोहावी वि होइ एमेव । सो पुण संकमसंकी, संकिविहारे य एगगमो ||४५८६ ॥ लिंगोघावी एवं चेव प्रणुभासिज्जति। सो पुण लिंगातो मोहावेंतो दुविधो भवति - ससका णिस्संको वा । एतेस पुण जो विहारातो मोहावति, जो य लिंगाम्रो ससंको प्रोहावति । एते दो वि चारितं पडुच्च उवकरणोवधाय पहुन्च एगणमा समा इत्यर्थः ।।४५८६ ।। दुविहो वि श्रोहावी इमेहि अरणुसिट्ठो - संविग्गमसंविग्गे, सारुवि य सिद्धपुत्तमणुस । आगमणं आणयणं, ते वा घेत्तुं ण इच्छंति || ४५८७|| संविग्गा उज्जमंता, प्रसंविग्गा पासत्यादि मुंडसिरा, [ दो किल] वत्थ-दंडधारी कच्छं जो बंघति, भारिया से णत्थि भिक्वं हिडइ वा ण वा एरिसो सारूत्री । सिद्धपुत्तो वी एरिसो चेव । णवरं - सिरं मुंडं सिंहं च घरेति, भारिया मे भवति वा ण वा । एतेहि श्रणुसिटुस्स पडिद्मागमणं, एते वा संविग्गादिणो तं प्राणयति । जत्थ पासत्यादिएहि प्राणितो तत्थ जे प्रगीयत्या ते चितेंति एस पासत्यादिएहि सह वसितो भागतोय, एयस्स उवही उवहतो - तं घेतुं प्रगीता ण इच्छंतीत्यर्थः ॥ ४५८७॥ ""संविग्गमसंविग्ग'' त्ति अस्य व्याख्या - - संविग्गाण सगासे, बुत्यो तेहिमणुसासिय णियत्तो । लहुगो णो उवहम्मद, इयरे लहुगा उवह य ||४५८८|| - प्रष्णसंभोतिएहि सह वसितस्स मासलहुं, ण य से तत्यांवही हम्मति । इतरेसु ति पासत्यादिएसु वसंतस्स चउलहु', प्रहाच्छंदेसु च उगुरु, पासत्यादिए वसंतस्स उवधी य उवहम्मति ॥४५८८।। " संविग्गमसंविग्गे" त्ति गतं । इदाणि "प्रागमणे" त्ति दारं -- ४५१ संविग्गादणुसो, तद्दिवसणियत्तो जइ वि ण मिलेज्जा । णय सज्जइ वइगाइसु सुचिरेणऽवि तो न उवहम्मे ||४५८६|| गोणियत्तो जइ तद्दिवसं चैव गच्छे मिलितो तो सुद्धो चैत्र । ग्रह तद्दिवसं ण मिलेज्जा, ण य वतियसंखडिमादिसु पडिबज्मति, तो चिरेण वि मिलियस्स उवधी णो उवहम्मति ।। २५८६ ।। गाणिस्स सुवर्ण, मासो उवहम्भए य से उवही । तेण परं चउलहुगा, आवज्जइ जं च तं सव्वं ॥ ४५६०|| मह पात्यादी परिहरता वि एगणियो रातो जिस सुत्रति तो से मासलहुं उवही य उवहम्मति । "ते परं" ति - बितियदिवसादिसु एगाणियस्स वसंतस्थ चउलहुं । जं च सुत्तत्थपोरिसि प्रकरेंतस्स जं च सुत्तत्ये नासेति, जंच दंसणचरणविराहणं पावति, जं च पासत्यादिसु वसति - एतेसु तणिफण्णं सव्वं पावति ।। ४५६०॥ "आगमणि" त्ति गतं । १ गा० ४५८७ । २ गा० ४५८७ । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-५ पाणयण' त्ति अस्य व्याख्या - संविग्गेहऽणुसट्ठो, भणेज्ज जइ हं इहं तु अच्छानि । भण्णइ ते आपुच्छसु, अणिच्छि तेसिं निवेदेति ॥४५६१॥ सावग्गेहि अणुसट्ठो पििणयत्त भावो भगज्ज संविग्गे - "महं तुझं चेव मज्भे, प्रच्छामि" । एवं . भणंतो सो भण्णति - "गच्छ ते पप्पणो मायरिए पापुच्छिना एहि"' यह सो मंदक्खेणं तत्य गर्नु ण इच्छति ताहे साधुसंधाडगो पट्टिजति, तेसि णिवेदिते जं ते भणीत तं कज्जति ॥४५६१॥ सो पुण पडिच्छगो वा, सीसो वा तस्स निग्गतो जनो। सीसं समणुण्णायं, गेण्हति इतरम्मि भयणा उ ॥४५६२॥ . कंठा । णवरं - "इतरो" पडिच्छगो। तस्स भयणा इमा उद्दिट्ठमणुद्दिढे, उद्दिट्ठसमाणियम्मि पेसति । वाएंनि वणुण्णाता, कडे पडिच्छंति उ पडिच्छं ॥४५६३॥ जन्स पायरियस्स सगासातो पडिच्छगो णिग्गतो, ततो उद्दिष्टे वा सुत्ते अणुढेि वा सुत्ते णिग्गतो। जति उद्दिढे मुत्ते असमत्ते य णिग्गतो जहिं य प्रणुसट्टो तत्व जति परिणतो मच्छामि त्ति तो तेहिं ण घरेयव्यो पेसवेयब्यो। मह णेच्छात गतु ताहे संघाडगेण पडिपुच्छे कायव्वं. जति ते उहेसायरिया अणुजाणंति ताहे बायंति ण दोसो। मह प्रद्दिढे सुते णिगतो उद्दिद्वे वा कडे पिण ठितो सो जेहिं प्रसिट्ठो तत्येव मच्छामि पि परिणतो तं पाहिन्छगं परिच्छंति ण दोसो ॥४५६३॥ "विहारोधावी" गतो। इदाणि "लिंगोधावी' सो वि एवं चेव । इमो विसेसो संविग्गमसंविग्गे, संकमसंकाए परिणय विवेगो । पडिलेहण निक्खिवणं, अप्पणो अट्ठाए अन्नेसिं ॥४५६४॥ संकिमो उष्णिक्खमिस्सं ण वा, प्रसंकाए ति प्रवरसं उणिक्खिस्सामि त्ति । एवं प्रोहावंतो संविग्गेहि वा भसंविग्गैहि वा मणसट्टो । जति संविग्गेसु चेव परिणतो कुन्यो वा तो भणसंभोतिएमु मासलहुं । मह पहिनियत्तो मसंविभगेसु परिणतो वुन्थो वा तो उरकरणं उबहतं विवेगो कायव्वो । ह उष्णिक्खंतो मायारभंडग पक्ख पक्व पाडलेहेति वेहासे य णिक्सिवात ति ठवेति एवं करेंतस्स गो उवहम्मति । तं पुण एवं करेति - "पुणो मे शिक्ख मतस्स होहि ति प्रणास्स वा साघुस्स दाहामि" ति 113५६४॥ १ गा०४५८८।२गा०४५८७ । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४५६१-४५६८ ] चदुर्दश उद्देशक: ४५३ घेत्तणऽगारलिंग, वती व अवती व जो तु श्रोधावी । तस्स कडिपट्टदाणं वत्थं वाऽऽसज्ज जं जोग्गं ॥४५६५॥ जो लिंगोधावी पायरियसमीवातो चेव अगारलिंगं घेतुं गच्छति, “वइ" त्ति अणुव्वयाणि घेत्तुं गच्छति, "प्रवइ" ति सणसावतो वा होउं, तस्स प्रायरिया कडपट्टगं सगलसाडगं देति । "वत्थं वाऽऽसज्ज" त्ति पवयणुब्भावगो रायादि दिक्खितो वा जं जोगं ति जुवलं दो तिणि वा जाव हिरण्यगादी वि दिज्जति ॥४५६५।। प्रागारलिंगोहावी गतो। इमो संकिजइ - जति जीविहिंति जति वा, वि तं धणं धरति जति व वोच्छति । लिंगं मोच्छिहिति संका, पविट्ठवुत्थे व उवहम्मे ॥४५६६।। लिंगोहावी गहियलिंगो इमं चिंतेति - "जइ में सयणा भारिया वा जीवति, जति वा धणं दाइया• दीहिं अविलुतं धरेति, जति वा मातापितादिया सयणा भणोहिंति -- जहा "उणिक्खमाहि", तो रयोहरणादियं दवलिंगं मुंचीहामि । एवं ससंको गच्छंतो, जति पासत्यादिएसु पविसति वसति वा तो उवकरणं तं उवहम्मति ॥४५६६।। "ससंकलिंगोधावी" गतो। इदाणि ""णिस्संकलिंगोधावी" अवस्सलिंग मुचीहामि त्ति। तहावि गहियलिंगो गच्छति इमेहि कारणेहिं - समुदाणं पारियाण व, भीतो गिहिपंततक्कराणं वा । णेत्तुवधिं सो तेणो, पविट्ठा वुत्थे वि हु ण हम्मे ॥४५६७॥ समुदाणं ति भिक्खा, "अंतरे हिडिहामि'' ति, णगरनारे वा गिट्टत्थस्स पवेमो ण लब्भति, थाणइल्ला वा मा कयत्यहिति, गिहत्थपंता वा जे तकरा तेसि वा भीतो लिंगं ण म चति, सो भावतो असंजतो उवकरणतेणो सो दट्टव्वो । एवं णिस्संको गच्छंतो जइ पासत्यादिएसु पविसति वसति वा तहावि उवकरणं ण उवहम्मति, चरणाभावतो ।।४५६७।। णिस्संकोधावी गतो। इदाणि २“परिणय" विवेगो" त्ति अस्य व्याख्या - णीसंको वऽणुसहो, भणेज्ज तेहुवहिमहं तु ओहामि । संविग्गणितगहणं, इतरेहि वि जाणगा गेण्हे ॥४५६८|| णिस्संको प्रोहावंतो संविग्गादीहि अणुसट्ठो जइ ण द्वितो भणितो य - "उवकरणं पिता मुंच" । अप्पणो वा भणेज्ज - "अहं अवस्सं पोहावीहामि, इमं पादादिगं उवगरणं पायरियाणं पावेज्जह", तं जति संविग्गेहि प्राणियं तो घेप्पति । जइ पुण "इयरेहि" ति-पासत्यादिएहिं प्राणियं तो जति सब्वे गीयत्था अगीयत्येहि वा परिणामगेहि मिस्सा तो घेप्पति अन्नहा नो घेप्पति ।।४५६८।। १ गा० ४५६४ । २ गा० ४५६४ । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र कि चान्यत् -- नीसंकियो वि गंतूण दोहि वग्गेहि चोदितो एति । तक्खण णितं ण हम्मे, तहि परिणत वुत्थ उवहम्मे ।।४५६६।। गिस्संकलिंगोधावी संविग्गेहि य असंविग्गेहि वा चोदितो संतो पुणरावत्तिभावमागता जात पासत्था दियाण मज्झानो तक्खणमेव णिग्गच्छति तो उवही गोवहम्मति । अह पासत्यादिसु चेव भावो परिणमति - "एतेसि मज्झे अच्छामि" ति अपरिणमतो वि खगमेतं अच्छतस्स एगरायं वा वसंतास उवही उवहम्मति ॥४५६६॥ “परिणय विवेगो" त्ति गतं। "पडिलेहण णिक्खिवणं' ति पच्छद्धवक्खाणं - अत्तट्ठाए परस्स व, पडिलेहति रक्खिो वि हु ण हम्मे । पव्वंतस्स तु णवरि, पवेसवइगादि सा भयणा ।।४६००|| णिस्संको उपकरणं घेत्तुं गतो, गिहत्थो जातो, जं उवकरणं प्राणियं तं प्रप्पणो अट्ठा "पुणो मे णिक्खमंतस्स भविस्सति" त्ति संरक्खति, “अण्णस्स वा साधुस्स दाहामि" त्ति पडिलेहणं करेंतो, अविसद्दातो जइ विण पडिलेहेति तहावि णोवहम्मति, हुशब्दो अवधारणार्थे, पुणो कालंतरेण साधुलिंगं घेत्तुं प्रागच्छंतस्स तं वा पुव्वोवकरणं अणं वा सुद्धमुवकरणं जति पासत्यादिसु पविसति वसति वा वइयादिसु वा पडिबज्झति तो उवहम्मति उवही, इहरा णो, एस भयणा । ४६००॥ किं चान्यत् - घेत्तण य आगमणं, पच्छाकड सिद्धपुत्त सारूवा । संजमखेत्ते दिट्ठी, य परिजिते वेंटलहते य ॥४६०१॥ "२घेत्तूण आगमणं" ति अस्य व्याख्या - सारूवि सिद्धपुत्तेण वा वि उवजीवित्रो व तं उवही । केचि भणंतुवहम्मति, चरणाभावा तु तं ण भवे ॥४६०२।। जो सो पुव्वुवधी तं घेत्तूण प्रागच्छति, सो य उवधी तेण सारूवियवेसट्टितेण सिद्धपुत्त वेमट्टितेण वा उवजीवितो मासी, सो कि उवहतो अणु वहतो त्ति ? तत्थ केति प्रायरिया भणंति, जहा - "अविधिपरिभोगेग उवहतो," तं च केसि मतं अजहत्थ । कहं ? भण्णति - जतो तस्स चरणाभावो। जत्य चरणं णत्यि तत्थ उवकरणोवघातो ण चितिजति. गृहितुल्यत्वात् ।।४६०२॥ १ गा० ४६०१ । २ गा० ४६०१ । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४५६६-४६०५ ] चतुर्दश उद्देशक: "पच्छाकड - सिद्धपुत्त सारूवि" त्ति अस्य व्याख्या होऊण सन्नि सिद्धो, सारूवी वा वि वेटलाजीवी । संजयखेत्तं जहियं, संजयत्तणे विहरितो पुव्विं ॥४६०३|| "" संजयखेत्ते " त्ति प्रस्य व्याख्या श्रासि तत्व वा उर्वाहि उप्पाएंतोति । - सो उष्णिक्तो गिहियाणुव्वम्रो सण्णी ग्रासी दंसणसावगो वा सिद्धपुत्त सारूवी वेटलाजीवी होऊण जेमु खेत्ते ठितो प्रासी तेसु चेव खेत्तेसु जे मण्णे सष्णिमादिया पुन्वपरिजिया वा तेसु जति से पुग्वोवही उवहतो गत्थि वा तो वि सुद्धोवह उप्पाएंतो प्रागच्छति जति य गीतो । “संजयखेत्तं ।” जत्थ खेत्ते पुव्वं उज्जयविहारेण विहरितो 81 अहवा - "पुञ्च" ति - एत्थ पुव्वं उवही उप्पारयन्वो पच्छा सष्णियादिएसु ति ॥ ४६०३ ॥ "" दिट्ठी य परिजिते" त्ति अस्य व्याख्या जाति एसणं वा, सावग दिट्ठी उ पुव्वझुसियो वा ! 'वेंटलभावे णेण्हि, किं धम्मो ण होति गिव्हेज्जा ||४६०४ ॥ जो एसाविधि जाणति सो दिट्टिपरिचितो भण्णति । ग्रहवा - सावगो गहियाणुत्रम्रो श्रवती वा सम्मद्दिट्टी दिट्ठिपरिचितो भणति । ग्रहवा - 'परिचितो" त्ति दिट्ठा भट्टो, पूव्वज्भुसितो पुव्वए गगामणिवासी ग्रासी, एतेसु वा उवकरण उप्पा तो प्रागच्छति ' ४५१ "वेंटलहए यत्ति" अस्य व्याख्या पच्छद्ध । वंटलभाविता - वेंटलपयोगेण परिजिता इत्यर्थः तेसि वॅटलं पुच्छंताणं भाणियव्वं - "भ्रम्हे इदाणि वेंटलं ण जोएमो ।” ग्रहवा - ते वॅटलभाविता जया प्रजातिता नेव यत्थादिदाणं देव तदा साघूहि वत्तव्यं - "इदाणि णो वेंटलं जोएमो ।" ताहे ते भणे - "कि इयरहा दिज्जमाणे धम्मो न भवति ?” एवं भणंताण गेण्हेजा, एवं वेंटल - भाविएस विसुद्धो उवकरणं उप्पाएंतो प्रागच्छति ||४६०४ || को उवधि उप्पाएंतो श्रागच्छति त्ति भण्णति - उवहयमणुवहते वा, पुव्वही तत्थ मग्गणा इणमो । गीयत्थमगीयत्थे, गीए गहणेतरे तिष्णि ||४६०५|| yog ही जइ प्रणुवहतो संपुण्णपडोयारो य प्रत्थि णो उप्पायंतो भागच्छति । श्रह पुव्वुवही उवहतो प्रसंपुष्णपडोयारो वा तो उप्पाएंतो भागच्छति, सो पुण गीयत्थो होज अगीतो वा । जति गीयत्थो तो उवकरणगहणं करेंतो प्रागच्छति, जेण सो सव्वं विहि जाणति । इयरोत्ति - प्रगीयत्यो सो ण उवकरणं उप्पाएंतो श्रागच्छति, जैणं तिष्णि उग्गमुप्पादनएसणदोरे ण याणति, अजाणते य उवधी उप्पाएंतो वि श्रविसुद्धो चैव ।।४६०५ ।। १ गा० ४६०१ । २ गा० ४६०१ । ३ गा० ४६०१ परिचिते ( चू० ) । ४ वशीकरणमित्यर्थः ५. गा० ४६०१ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-५ अविसुद्धोवहिविगिचणविधी इमो - असती विगिंचमाणो, जहलाभ घेत्तु आगतो सुद्धो । चोदगवयणं संफासणादि जेसिं ण सिं सोहि ॥४६०६॥ असति पुत्वोवकरणस्स विसुद्धस्स प्रागच्छमाणो ज अण्णं विसुद्ध पडिग्गहादिक लभति तं पुव्वोवकरणातो अविसुद्धं पडिाहादिक विगिचति, एदं नहालाभं सुद्धं गेण्हतो अविसुद्धं परिच्चयंतो सम्बोवकरणं विसुद्धं घेतुं प्रागो। एत्थ चोदकाह - णणु सुद्धोवकरणस्त असुद्धोधकरणसंफरिसेगं प्रसुद्धो भवति, आदिसद्दामो अविसुद्ध भत्तादिपक्खेवेण वा । आयरियो भण्णति - जेसि एस उवदेसो, पण्णवेति वा जे एवं, ण तेसि सोही भवति ॥४६०६॥ "असति विगिचमाणो' त्ति अस्य व्याख्या - उवहयउग्गहलंभे, उग्गहण विगिंच मत्तए भत्तं । अपजत्ते तत्थ दवं, उग्गहभत्तं गिहि दवेणं ॥४६०७।। दो वि पादा जत्थ अविसुद्धा तत्थ “उवहत उग्गहलंभे," उवहतो ति अविसुद्धो, उग्गहो ति पडिग्गहो, लभे ति विसुद्ध डिग्गहो लद्धो, ताहे अविसुद्धं युवोवग्गहं विगिचति, तम्मि विगिचिते पडिग्गहो विसुद्धो, मत्तगो अविसुद्धो एरिसं जायं । एरिसे इमो परिभोगविही - मत्तए भत्तं गेहति विसुद्धपडिग्गहे दवं गेहति, तेण पडिग्गहदवेण मत्तगं कप्पेति। अह मत्तगे गहितेण भत्तेण अप्पज्जत्तिय भवति ताहे तत्थ अविसुद्धे मत्ते दवं गेण्हंति, उग्गहे भत्तं गेहति । तस्स उग्गहस्स तेण अविसुद्धमत्तगगहितेण दवेण कप्पं ण देति, मा पडिग्गहस्स उवघातो भविस्सति, ताहे गिहिभायणेण दव आणेउं तेण पडिग्गहस्स कप्पं करेति । अविसुद्धमत्तगगहियदवेणं पुण लेवाडगसण्णाभूमीकज्जाति करेति ।।४६०७॥ अपहुच्चंते काले, दुल्लभदवऽभाविते व खेत्तम्मि । मत्तगदवेण धोवति, मत्तगलंभे वि एमेव ॥४६०८॥ अह जाव गिहिभायणे दवं प्राणेति ताव कालो ण पहुच्चति, प्रादिच्चो अत्थमणं गच्छति दवं वा दुल्लभं प्रभाविधं वा तं खेत्तं साधूहि, अभावियत्तणेण य णो अपणो भायणे दवं देति, एवमादिकारणेहि अववादतो अविसुद्धमत्तगगहितेण दवेण विसुद्धपडिग्गहस्स कप्पं करेंति, ण दोसो। विसुद्धमत्तगस्स वि लंभे प्रविसुद्ध मत्तगं विगिचंति, परिभोगे वि एवं चेव पुब्वविधी दट्टव्वो ॥४६०८॥ "२चोदगवयणं" ति पच्छद्धस्स इमं वक्खाणं - लेवाडहत्थछिक्केण सहसा अणाभोगतो व पक्खित्ते । अविसुद्धग्गहणम्मि य, असोहि सुज्झेज्ज वा इतरं ॥४६०६।। १गा०४६०६ । २ गा० ४६०६ । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४६०६-४६१३] चतुर्दश उद्देशकः जेसि संफासेणं प्रविसोधी भवति तसि इमो दोसो - उग्गमादिप्रविसुद्वेण भत्तादिणा लेवाडहत्थेण विसुद्ध पडिग्गहो छिक्को, सहसा वा श्रविसुद्ध भत्तं विसुद्धपडिगहे पक्तिं, श्रविसुद्धं वा भत्तं गहियं, जति एवं प्रविशुद्धसंफासातो विसुद्धस्स वि भविसोधी भवति तो इतरं प्रसुद्धं तं पि विसुद्धेण संबद्धं विसुज्झउ ? ग्रह तं पण विसुज्झति, तो ते 'इच्छामात्रं भवति ||४६०६ ॥ चल हूं 1 जे भिक्खू इरेगं पडिग्गहं खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा थेरगस्स वा थेरियाए वा हत्थच्छिण्णस्स पापच्छिण्णस्स अनासाच्छिण्णस्स कण्णच्छिण्णस्स च्छिणस्स सत्तस्स देह, देतं वा सातिज्जति ॥ सू०||६|| हत्या प्रच्छिण्णा जेसि ते अहत्य छिण्णा भाणियव्वा । एवं सव्वे पदा । सत्तो समर्थः । एतेसिं दंतस्स अब्बालडूदाणे, इत्थीपुरिसाण जुंगिताणं च । सुत्तत्थवीरिएण व, पज्जत सकोतिताणं च ॥४६१०॥ अबाला बालभावं प्रतिक्कंता, प्रवुड्डा वुड्डुभावं श्रप्राप्ता, सरीरेण जातीए वा नजुंगिता, सुत्तं च धीयं जेहि, प्रत्थो वि सुतो - गीतार्था इत्यर्थः, वीयं वा उपादणशक्तिः, गीयत्यत्तणातो चेव "पज्जत्तो" पादकप्पितो त्ति वृत्तं भवति, "सकोतिगा” गर्मगागमणसचेट्ठा, ते य सवीरित्तणातो चेव सकोतिगा, एतेसि जो इत्थीण वा पुरिसाण वा अतिरेगपडिग्गहं ।। ४६१०। अभिवपुराणगहितं पातमच्छिष्णं तहेव छिण्णं च । " निमिनिद्दि, पातं देताण आणादी || ४६११ ॥ अभिणवं पुराणं वा, जंतं अभिणवच्छिण्णं प्रच्छिष्णं वा, गणिमादियाण निद्दिहं प्रणिदिट्टं वा, जो दे प्राणादिया दोसा, चउलहुं च से पच्छित्तं जो सुत्तपडिसिद्धाणं देति ॥ ४६११॥ इमाण यदेतस्स दोसा श्रद्धाणिग्गयादी देते दोसा तु वनिया पुव्विं । रोगवो मेसज्जं, णिरुस्स किमोसहेहिं तु || ४६१२॥ दिट्टंत उवसंघारो - जो हत्थगदादिविगलो तस्स जुत्तं दाणं, समत्यस्स कि दिज्जति ? गंतुं सयमेव श्राणेउ ति । सेसं कंठं ॥ ४६१२।। इमेहिं पुण कारणेहिं समत्यस्स दिज्जति ४५७ सिंवे मोरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे । सेहे चरित्तसावय, भए व श्रद्धाण जयणाए ||४६१३॥ श्रद्धाणादीसु जयणाए एते सिवादिकारण भायणभूमीए होज्ज अंतरदेसे वा । श्रद्धाणबालवुड्डादियाणं दाणं प्रति जयणा १ - ४६०६ - गाथाया श्वर्णो स्पष्टीकरणमवलोकनीयम् । - Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + = सभाष्य चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ७-८ काव्वा । जस्स बहुतरा णिज्जरा जत्थ वा श्रबहुतरा हाणी दीसह पुव्वं तस्स दायध्वं । जो वा "पादच्छिण्णादिप्रो कमो भणितो तेण दायव्वं ॥ ४६१३ ॥ एएहिं कारणेहिं, सक्काण वि देज्जऽसंसती जेसिं । होज्ज व ण होज्ज इतरे, तेसिं पुण सज्ज परिहाणि ॥ ४६१४ || च्छिणहत्था वयोसक्का तेसि देज्ज, जेण तेसि संतती । श्रसंतती णाम भायणवोच्छेदो प्रभाव इत्यर्थः । इतरे हत्थपादछिण्णा दिया तेसि परिहाणी होज्ज वा ण वा, तेसि पुण सक्काणं भायणाभावे सज्जं ति वहते चैव परिहाणी, तम्हा तेसि दायव्वं ॥ ४६१४।। जे चेव सक्कदाणे, सक्क असतीए दोसे पार्वति । असती सक्काण वि, ते चेव अति पावेंति ||४६१५|| सक्क्स्स देते जे दोसा भणिता, प्रसक्कस्स य प्रदेते जे दोसा भणिया, ते चैव दोसा सक्काण वि संतती देतो पावति, तम्हा असिवादिकारणे प्रवेक्खिउं सक्कस्स वि दायव्वं ॥४३१५ ।। ग्रहण देति तो इमे दोसा - जं ते असंथरता, असणं जं च भाणभूमीए । पावंति सेह - सावय - तेणातिविराहणं जं च ॥४६१६ || तेच्छिष्णहत्थादिया असंधरंता जं प्रणेसणं पेल्लिस्संति, जं च भायणभूमीए अंतरा वा श्रतिवादिदोसे वा पाविस्संति, भायणभूमिगयाण वा सयणेहि सेहो उष्णिक्खमाविज्जति, भायणाण वा गच्छंता सावतेण स्वज्जति तेणेहि वा उदुज्जति, जं चणं किं चि सरीरसंजमविराहणं पावेंति, तं सव्वं पायच्छितं प्रदेते पावति ॥ ४६१६॥ अहवा - इमाए जयणाए भायणा दायव्वा पुव्वं तु असंभोगी, दुगतिगबद्धं तहेव हुंडादी | तो पच्छा इतराणि वि, तेसिं देंतो भवे सुद्धो ॥४६१७|| तेसि सक्काणं असिवादिकारणेहिं दिज्जंते - पुब्वं जं प्रसंभोइयं पादं तं दिज्नति, दोमु वा तिसु वा ठाणे जं बद्धं तं दिज्जति, हुंड वाताइद्धाणि वा अलक्खणजुत्ता णि दिज्जति । जति ते णत्थि, तो पच्छा इराणि वि संभोइयाणि अभिष्णाणि समचउरंसाणि लवणजुत्ताणि य देतो सुद्धो भवति ॥ ४६१७॥ जे भिक्खू इरेगं पडिग्गहं, खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा थेरगस्स वा थेरियाए वा हत्थच्छिष्णस्स पायच्छिण्णस्स नासच्छिण्णस्स कण्णच्छिण्णस्स ओइच्छिण्णस्स असक्कस्स न देइ, न देतं वा सातिज्जति ||०||७|| पुव्विलसुत्तातो इमं सुतं परिपक्वभूतं । किं च पूर्व एते श्रद्वाणादिया प्रत्थतो भणिता । इह पुण सुत्ततो चेव भणति । श्रद्धाणबालबुड्ढाऽऽतुराण दुविहाण जुंगिताणं च । सुत्तत्थवीरिएणं, अपज्जत्तकोविताणं च ॥४६१८ ॥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यमाथा ४६१४-४६२५ ] चतुर्दश उद्देशकः दुविधा जुगिता - जातीए सगैरेण वा, सेसं पूर्ववत् ॥४६१८॥ अभिणवपुराणगहितं, पायमछिण्णं तहेव छिण्णं च । णिहिदमणिदिटुं, तेसि अदेंताण आणादी ॥४६१६।। पूर्ववत अद्धाण ओम असिवे, उढासति अदेंते पावे । बालस्सज्झोवाते, थेरस्सऽसतीए जं कुज्जा ॥४६२०॥ पूर्ववत दुविहरुयातुराणं, तप्पडिचरगाण वा वि जा हाणी । जुंगितो पुन्वनिसिद्धो, जाति विदेसेतरो पच्छा ॥४६२१॥ प्रासुकारी दीहरोगेण वा, अहवा-प्रागुंतुय-तदुत्येण वा भायणाणि विणा वा परिहाणी तं प्रदेंतो पावति । णणु दुविहो वि मुंगितो प्रगलसुत्ते पुव्वं णिसिद्धो ण पव्वाविज्जति ? भण्णति - जातिजुंगितो विदेसे पधाविज्जति । "इतरो" ति सरीरजंगितो पबज्जाए ठितो पच्छा जातो ॥४६२१॥ तेसिं इमा विधी अच्छियव्वे - जाती य जंगितो खलु, जत्थ ण णज्जति तहिं तु सो अस्थि । अमुगणिमित्तं विगलो, इतरो जहि णज्जति तहिं तु ॥४६२२॥ पूर्ववत जं वच्चंता काए, वहेंति जंपि य करेंति उडाह। किं णु गिहिसामण्णे, वियंगिता लोगसंका तु ॥४६२३॥ पूर्ववत् सरीरविकले दाण पडुच्च इमो कमो - पाद-ऽच्छि-नास-कर-कन्नजंगिते जातिजंगिते चव । वोच्चत्थे चउलहुगा, सरिसे पुव्वं तु समणीणं ॥४६२४॥ पादादिविकलभणियकमातो जो वोच्चत्यं देति तस्स चउलहुं । साधुसाघुणीणं सरिसविकलमावे दोण्ह वि दायव्यं, असति दोण्ह वि समणीसु पुव्वं दायव्वं ।।४६२४।। अदाणे इमो अववाटो - बितियपदमणप्पज्झे, ण देज्ज अविकोविते व अप्पज्झे। जाणते असती वा, मंदधम्मेसु व ण देज्जा ॥४६२॥ . प्रणप्पज्झो खित्तचित्तादिगो ण देज, सेहो वा प्रकोवितो गुणदोसेसु वा ग देज, अप्पज्झो वा जाणतो वि प्रसतीते भायणस्स ण देज्ज विज्जमाएं पासस्थादिसु वा मंदपम्मेसु ण देज्जा, एवमादिकारणेमु प्रदेंतो वि सुद्धो ॥४६२५।। जे भिक्खू पडिग्गह अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं धरेइ, .. धरतं वा सातिज्जति ॥सू०॥॥ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १-११ जे भिक्खू पडिग्गहं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं न धरेइ, न धरतं वा सातिज्जति । सू०॥६॥ इमो सुत्तत्यो - अगलमपज्जर्स खलु, अथिरं अनुढं तु होति णायव्वं । अधुवं च पाडिहारिय, अलक्षणमधारणिज्ज तु ॥४६२६॥ कंठा प्रणलं अथिरं अधुर्व अधारणिज्ज - एतसिं तु पदाणं, भयणा पण्णरसिया तु कायव्वा । एत्तो एगतरेणं, गेण्हताणादिणो दोसा ॥४६२७॥ एतेसिं चउण्ह पदाणं भंगा सोलस कायव्वा । अंतिमो सुद्धो । सेसा पण्णरस, तेसिं पण्णरसण्हं प्रणतरेण वि गेहतस्स प्राणादिया दोसा ॥४६२०॥ तेस् परुणरससु असुद्धे सु इमं पच्छितं - पढमे भंगे चउरो, लहुगा सेसेसु होति भयणा तु । । जा पण्णरसो भंगो, तेसु तु सुसंऽतिमो सुद्धो ॥४६२८।। पढमे मंगे चत्तारि चउलहुगा, जेण चत्तारि वि पदा प्रसुद्धा । सेसपदेसु भयण त्ति जत्थ भंगपदे जत्तिया पदा प्रसुद्धा तत्य तत्तिया चउलहू दायचा । पढमभंगातो प्रारम्भ जाव पण्णरसमो भंगो, एतेसु सुत्तणिवातो । मंतिमो पुण सुद्धत्तणतो अपच्छिती ।।४६२८॥ अणलादियाणं इमे दोसा -- श्रद्धाणादी अणले, अदेंत-देंतस्स उभयो हाणी । अथिरधुवे मग्गंते, हाणेसण बंधणे चरणं ॥४६२६॥ प्रवाणपडिवण्णादियःण प्रणलपादे प्रपज्जत्तियं भत्तमिति काउंण देज्ज, ग्रह देति तो प्रप्पण। हाणी, एवं अणले उभयथा वि दोसा । भयिरं भदढं, तम्मि भग्गे अण्णं मग्गेतस्स सुनत्थाणं हाणी। अलभंते वा एसणाघातं करेज्ज । अधुवं पाडिहारियं, तम्मि गहिते अण्णं मग्गंतस्स सुत्तत्थहाणी। अलभंतो वा एसणाघातं करेज्ज । प्रह भग्गं बंधति, एग-दुग-तिगबधणे चरणभेदो भवति ।।४६२६।। पुणरवि अधुवे दोसी भण्णति - अधुवम्मि भिक्खकाले, गहितागहितम्मि मग्गणे जं तु । दुविहा विराहणा पुण, अवारणिज्जम्मि पुव्वुत्ता ॥४६३०॥ __ अधुवं पाडिहारियं, तं घेत्तुं भिक्खाकाले भिक्खंतो तत्थ भिक्खाए गहियाए अहिताए वा पृथ्वसामिणा मम्गितं जति तस्स तं देति तो मप्पणो परिहाणी। मह ण देति तो सो पुव्वसामी रूसति, रुट्ठो य जंतु काहिति वसहीतो दिवा रातो वा प्रासियावेज्जा, तस्स वा दव्वस्स 'अण्णस्स वौच्छेदं करेज्ज, असम्भवयहिं वा पाउसेज्ज । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाभ्यगाथा ४६२६-४६३५ ] चतुर्दश उद्देशक: ४६ १ प्रचारणिज्जं लक्खणजुत्तं तम्मि घरिज्जते दुविधा विराहणा भवति - प्रायसंजमेसु सा य पुम्बुत्ता मोहणिज्जुत्तीए । हुडे चरितभेदोत्ति - "दुप्पत्तं खीलसंठाणे, नत्थि ठाणं ति णिद्दिसे ।" जम्हा एवमा देदोसा तम्हा भलं थिरं धुवं धारणिज्जं धारेयव्वं ॥। ४६३०॥ प्रववादतो प्रणलादिया वि धारेयव्वा असि प्रोमोरिए, रायदुट्ठे भए व गंलण्णे । सेहे चरित्तसावय, भए य जयणाए गेहेज्जा ॥ ४६३१॥ सिवादी मायभूमीए होज्ज अंतरा वा जयणाए गेव्हिज्जति । का जयणा ? इमा - चत्तारि मासे प्रहाकडं गनेसेज्जा, दोमासे भ्रप्पपरिकम्मं, बहुपरिकम्मं दिवङ्कं ति । जे भिक्खू वण्णतं पडिग्गहं विवण्णं करेह, करेंतं वा सातिज्जति | | ० || १० | जे भिक्खू विवण्णं पडिग्गहं वण्णमंतं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति | | ० || ११ ॥ इमो सुत्तत्यो - पंचहं वण्णाणं, अण्णयरजुतं तु पाददुव्वण्णं । दुषण्णं च सुवण्णं, जो कुज्जा श्राणमादीणि ||४६३२|| सुभवण्णं च दुष्णं करेति । दुवष्णं पातं सुत्रणणं करेति । जो एवं करेति तस्स प्राणादिया दोसा भवति । duraavari पुण, णो णवपादे पधोवणादीणि । दुग्गंधं च सुगंधं, जो कुज्जा आणमादीणि ||४६३३॥ पढमपादेण 'वष्णविवच्चाससुत्त गहियं । बितियपादेग णो णवं पादं लद्धमिति धोवणादी करेज, एव सुतं गहियं । ततियपाएण उणो सुब्भिगंषं पायं लद्धमिति सीतोदगादीहि घोत्रति एयं सुत्तं गहियं । एस बाहुसामिकया गाहा । एतीए तिणि दि मुत्ता फरिमिया । कहं पुण वण्णविवच्चासो ? भण्णइ - उन्होद - छगण - मट्टिय, छारादीएहि होइ उ विवण्णं ।' मक्खणकक्कादीहि उ, धूमेण य जायते वण्णो ||४६३४ ।। उन्होदगेण पुणो पुणो घोत्रमाणं छगणादीहि य प्रलिप्यमाणं विवष्णं भवति । तेल्लादिया मक्खिज्जत खदिरबीय कक्कादीहि य पुणो पुगो घोन्यमाणं मनखेऊग य धूमट्टागे कज्जति, एवमादिएहि farmer वष्णो भवति ||४६३४ ॥ कीस पुण वण्डु विवष्णं करेति ? भण्णइ - मा णं परो हरिस्सति, तेनाहडगं ति सामि मा जाणे । वणं कुणति विवणं, विवष्णे हरणं नवरि णत्थि || ४६३५ || Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૨ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १२-२१ . वणुज्जलं मा मे परो हरिहि ति नेण विवणं करेति । अहवा-तं पातं तेणाहर्ट मा मे एयं पुव्वसामी जाणिस्सति तेण वा विवणं करेति, अहवा - तं पायं विवष्ण पि तेणाहर ति काउंमा पुव्वसामो जाणिस्सइ तेग वणगड्ढ करेति, रागेण चतुगुरु, विवणकरणे हरणसंभवो गत्थि ॥४६३५।। णिरत्थे परिकम्मणे इमे दोसा - घसणे हत्थुवघातो, तदभवागंतु सजमे पाणा । धुवणे संपातिवहो, उप्पिलणं चेत्र भूमिगते ॥४६३६।। घोवणे ककादिणा य प्राघसणे धातोवघातो, हत्थे कंडग भाति, परिस्समो वा । किं च तदुभवा वा पाणा प्रागंतुगा वा पाणा विराहिज्जति । संपातिमा य विवज्जति । अति उच्छोलणधोवणेण जे भूमिगता गणा ते उप्पीलाविज्जति । एस संजमविराहणा ।।४६३६॥ जम्हा एवमादिया दोसा - तम्हा उ अपरिकम्म, पातमहालद्ध परिहरे भिक्खू । परिभोगमपाओग्गं, सप्परिकम्मे य बितियपदं ॥४६३७॥ उस्सग्गेण अपरिकम्मं पायं घेत्तव्यं, जहा लढस्स य पादस्स परिहारो ति परिभोगो भिक्खुणा काययो । इमं मितियपद - "परिभोगमपायोग्गं" ति विसेण वा गरेण वा मज्वेण भावियं तस्स घोवणादी करेज, छगणमट्टियादीहि वा णिक्खारेज्ज । अहवा - अप्पनहुपरिफम्म लद्धं, तस्स णियमा घोवण-घसणादी कायब्वं ॥४६३७॥ वण्णमविवण्णकरणे, विवण्णमंतस्स वण्णकरणे य । जे तुस्सग्गे दोसा, कारणे ते चेव जयणाए ॥४६३८॥ वणविवच्चासकरणे जे उस्सग्गे दोसा भगिता. [ कारणे ते चेव ] कारणगहियं वणड्ढ मा हरिहिति नि विवणं करेंतो जयगाए सुद्धो ॥४६३।। अधवा - कारणे हिंसित मा सिंगणा तु मुच्छा व उज्जले जत्थ । तत्थ विवज्जयकरणं, अज्झोवाए य बालस्स ॥४६३६॥ तं वशड्ड पाय सलक्षणं गाणगच्छडिणिमित्त हिसितं ति - हडमित्यर्थः । मा तस्स पुत्र्वसामी सिंगणं करिस्सति ति प्रतो तस्स वणविवज्जियं करेति । अहवा - तं वण्णड्ड दट्ठ पुणो पुणो मुच्छा उप्पज्जति जत्थपादे तत्थ वा विवण्णं कज्जति । प्रणवज्झो सेहो वा अजाणतो करेज्जा । बालस्स वा अधिकं अज्झोवताको वण्णड्ढं कीरति ति एवं वा कोरेज्ज ।।४६३६।। जे भिक्खू “ना नवए मे पडिग्गहे लद्धे" ति कट्ठ तेल्लेण वा घएंण वा णवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा गवंतं वा भिलिंगेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१०॥ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४६३६-४६३६ ] चतुर्दश उद्देशकः ४६३ जे भिक्खू "नो नव५ मे पडिग्गहे लद्धे" त्ति कट्ठ लोद्धण वा कक्केण वा चुण्णण वा वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा 'उव्वलेज्ज वा उन्लोलेंतं वा उव्वलेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१३॥ जे भिक्खू "नो नवए मे पडिग्गहे लद्ध" ति कट्ठ सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोल्लेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोल्लेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१४॥ जे भिम्खू "नो नवए मे पडिग्गहे लद्ध" त्ति कटु बहुदेवसिएण तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा साद्विज्जति ॥३०॥१५॥ जे भिक्खू “नो नवए मे पडिग्गहे लद्ध" ति कट्ठ बहुदेवसिएण लोण वा कक्केण वा चुण्णण वा वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वलेज्ज वा उल्लोलेंतं वा उन्चलेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१६॥ जे भिक्खू "नो नवए मे पडिग्गहे लद्ध" ति कट्ठ बहुदेवसिएण सोओदगविय डेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१७॥ जे भिक्खू "दुभिगंधे मे पडिग्गहे लद्ध" ति कट्ठ तेल्लेण वा धरण वा नवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगज्ज, वा मक्खेंतं वा भिलिंगतं वा सातिज्जति सू०॥१८॥ जे भिक्खू "दुब्भिगंधे मे पडिग्गहे लद्ध" त्ति कट्ठ लोद्धण वा कक्केण वा चुणेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उन्वलेज्ज वा उल्लोलतं वा उव्वलेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१४॥ जे भिक्खू "दुन्भिगंधे मे पडिग्गहे लद्ध" त्ति कट्ठ सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्न वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥२०॥ जे भिक्खू "दुभिगंधे मे पडिग्गहे लद्ध" ति कट्ठ बहुदेवसिएण तेल्लेण वा पएण वा नवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा सातिजति ॥सू०।२१।। १ पोवेज्ज इत्यपि पाठः । २ पधोवेज्जतं इत्यपि पाठः । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-मणिके निशीथसूत्रे [सूत्रजे मिक्ल "दुम्मिगंधे मे पडिग्गहे लद्ध" त्ति कट्ठ बहुदेवसिएण लोभेण वा कक्केण वा चुण्णण या वष्णण वा उल्लोलेज वा उव्वलेज्ज वा उन्लोलतं वा उचलेंतं वा सातिजति ॥५०॥२२॥ जे मिक्स "दुन्मिगंधे मे पडिग्गहे लद्ध" सि क बहुदेवसिएण सीओदग वियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा धिोएज्ज वा उच्छोलेंतं या पधोएंतं वा सातिज्जति ॥२०॥२३॥ इमो सुत्तत्यो एमेव य अणवे वी, वियडे बहुदेसि कक्कबहुदेसी । - सुना चउरो एए, एमेव य चतुरो दुग्गंधे ॥४६४०॥ 'जै भिक्खू "नो नक्ए मे सुम्मिगंधे पडिग्गहे लद्ध" ति कह तेन्लेण वा पएण या नवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा मिलिंगेंतं वा सातिज्जति । जे भिक्खू "नो नपए मे सुम्मिगंधे पडिग्गहे लद्ध" सि कह लोण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उन्लोलेज्ज वा उव्वलेज वा उल्लोलेंतं वा उव्वलेंतं वा सांतिजति । जे मिक्स "नो नवए मे सुब्मिगंधे पडिग्गहे लद्ध" ति कट्ठ सीमोदगवियडेणवा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलज्ज वा पधोएज्ज व उच्छोलतं वा पधोएतं वा सासिज्जति ।। जे मिक्खू "मो नवए मे सुभिगधे पडिग्गहे लद्धे" सि क इहुदवासएण तेल्लेण वा पएण या नवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज' मक्खेत वा सिलिंगेतं वा सातिज्जति । जे मिक्खू "नो नवए मे सुन्निगये पडिग्गहे लद्ध" ति कटु बहुदेवसिएण लोद्धण वा कक्केण वा चुण्णेण या वण्णण वा उल्लोलेज वा उव्वलेज वा उल्लोलेंतं वा उव्वलेतं वा सातिज्जति । जे मिक्खू "नी नवए मे मुभिगंधे पडिग्गहे लद्धे" ति कटु बहुदेवसिएण सीअोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छालज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलत वा पधोएंत वा सातिज्जति । १ इमानि पट मागि लिखित प्रती मषिकान. याचनम:, . नमूरिभि । . Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४६४०-४६४६ ] चतुर्दश उदेशकः णो णवं प्रणवं जुण्णं, सीयमुदगं सीतोदगं प्रतावियं, वियडं ति व्यपगतजीवं उसिणं ति तावितं, तं चैव ववगयजीवं, एक्कसि धोवणं उच्छोलणं, पुणो पुणो वोवणं पधोवणं । वितिषसत्ते एसेवऽत्यो । णवरं - बहुदेवसितेहिं सीप्रोदउसिणोदेहिं वत्तव्वं । ततियमुत्ते कक्को, सो दव्वसंजोगेण वा असंजोगेण वा भवति । लोहो रुबखो, तस्स छल्ली लोई भण्णति । वण्णो पुणहिंगुलादि । तेल्लमोइतो चुण्णो पुणर्गमुण्णिगादिफला चूष्णीकता, एतेहिं एक्कंसि आघसणं, पुणी पुणो पघंसणं । चउत्यसुत्ते कककादिएहिं चेव बहुदेवसिएहि, सेसं तं चेव । एयस्स पुण अणवस्स पादस्स एतो धवणादिया पगारा करेति, वरं मे णवागारं भविस्सति त्ति । जहा प्रणवपादे चउरो सुत्ता भणिता तहा दुग्गंधे वि चउरो सुत्ता भाणियब्बा, णवरं - तत्य दुग्गंधे मे पातं सुगंधं भविस्सति त्ति, घोवणादिपयारे करेति ति ॥४६४०॥ उच्छोल दोसु आघंस दोसु आणादि होंति दोसा तु । किं पुन बहुदेसीयं, भण्णति इणमो णिसामेहि ॥४६४१॥ प्रणवपाए जे चउरो सुसा तेसु जे प्रादिल्ला दो सुत्ता तेमु उच्छोलणपधोवणा भण्णति, पच्छिमा पुण जे दो सुत्ता तेसु प्राधसण-पघंसणादि भण्ण ति । सेसं कंठं ॥४६४१५॥ दगकक्कादीह नवे, तेहिं बहुदेसितेहि जे पाद । एमेव य दुग्गंध, धुवायटेत आमादी ।।४६४२॥ देसो नाम पसती, 'विप्पतिपरेण वा वि बहुदेसो । कक्कादि अमाहारेण वा वि बहुदिक्सवुल्येणं ॥४६४३॥ सुते बहुदेसेण वा पादो बहुदेवसितेण वा । एक्का पसली दो वा लिण्णि वा पसतीतो देसो भण्णति, तिहं परेण बहुदेसो भणति । प्रणाहारादिकक्केण वा संवासितेण, एत्थ एगरातिसवासित तं पि बहुदेवसियं • भवति, अमाहारिमग्गहगं प्रणाहारिमे चउलहुं प्राहारिमे पृण च उगुरु भणंति ।।४६४३॥ इमे दोसा - - घसणे हत्थुवघातो, तदुभवागंतु संजमे पाणा । धुवणे संपातिबहो, उप्पिलणे चेव भूमिगते ॥४६४४॥ पूर्ववत् जम्हा एते दोसा - तम्हा उ अपरिकम्म, पादमहालद्ध धारए भिक्खू । परिमोगमपाओग्गे, सपरिक्रम्मे य बितियपदं ॥४६४॥ 'पूर्ववत् इमो बहुदेवसियस्स अववातो - अभिप्रोग्गविसकए वा, बहुरयमजातिदुब्भिगंधे वा। कक्कादीहि दवेण व, कुज्जा बहुदेसिएणं पि ॥४६४६॥ १ गा० ४६३७ । २ तिप्पभिति० इत्यपि पाठः । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र २४-३४ 'अभियोगे" नि पादं वमीकरण जोगेण भावित, विमेण वा भावितं, बहुगरण वा घटुं-प्रच्चत्थमलिनमित्यर्थः । मजा दुग्गंधदव्वेग वा भावितं दुग्गंध, तं एवमादिएहि कारणोह बहुदेव सिएण दवेग वा कक्केग वा धोवेति वा प्राधमिज्जति वा - मा मज्जादिगंधेग उड्डाहो भविस्सतीत्यर्थः ।।४६४६॥ जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढवीए दुब्बद्ध दुन्निखित्ते अनिकंपे चलाचल पडिग्गहं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, आयातं वा पयावेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२४॥ जे भिक्खू समणिद्वाए पुढवीए दुबंधे दुन्निखित्ते अनिकंपे चलाचले पडिग्गहं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, आयावेतं वा पयावेतं या सातिज्जति ।।मू०॥२५॥ जे भिक्खू ससरक्खाए पुढवीए दुबंधे दुन्निखित्ते अनिकंपे चलाचले पडिग्गहं आयावेज्ज वा पयावज्ज वा, आयावतं वा पयावेतं वा मातिज्जति ।।मू०॥२६॥ जे भिक्खू मट्टियाकडाए पुढबीए दुव्बंधे दुन्निखित्ते अनिकंप चलाचले पडिग्गहं आयावेज्ज वा पयारंज्ज वा, आयावेतं वा पयावंतं वा मातिज्जति ।।मू०॥२७॥ जे भिक्खू चित्तमंताए पुढबीए दुबंधे दुन्निखित्ते अनिकंप चलाचले पडिग्गहं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, आयावेतं वा पयावेतं वा मातिज्जति ।। ||२८|| जे भिक्ग्वृ चित्तमंताए मिलाए दबंधे दुन्निबित्ने अनिकंप चलाचले पांडग्गहं पायावज्ज वा पयावज्ज वा. आयावतं वा पयावेतं वा मानिन्जति ।। ०।२६।। ज भिकाबू चित्तमंताए ललूए दुबंध दुन्निग्वित्त अनिकंपे चलाचले पडिग्गहं आगाज वा पयावज्ज वा, आयावेनं या पयावेतं वा मातिजति ।। ।।३०।। जे भिक्य कोलाबाममि वा दामए जीवपइट्टिए मअंडे मपाण मबीए महगिए साम्स सउदए मउनिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणगंमि दुव्बंध दनिग्वित्ते अनिकंप चलाचले पडिन्गहं आयावंग्ज वा पयावज्ज वा आयावेतं वा पयावेतं वा मानिजति ।। - ||३१|| पडिया - Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४६४७-४६५०1 चतुर्दश उद्देशकः ४६७ जे भिक्खू थूणसि वा गिहेलुयंसि वा उसुयालंसि वा झामवलंसि वा दुबंधे दुन्निखित्ते अनिकंपे चलोचले पडिग्गहं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा आयातं वा पयावेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३२॥ जे भिक्खू कुलियंसि वा भित्तिसि वा सिलसि वा लेलुंसि वा अंतलिक्खजायंसि वा दुबद्ध दुनिखित्ते अनिकंपे चलाचले आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा आयातं वा पयावेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३३॥ जे भिक्खू खधंसि वा फलहंसि वा मंचंसि वा मंडवंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा दुबंधे दुन्निखित्ते अनिकंपे चलाचले आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा पायावेतं वा पयावेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३४॥ एते सुत्तपदा जहा तेरसमे उद्दे सगे तहा वक्खाणेयव्वा, णवरं - तत्थ ठाणादी भणिया इहं पुण पादस्स अाताव गादी वत्तव्वा । इमा सुत्तफासिता - पुढवीमादी थूणादिएसु कुलियादिखंधमादीसु । जो पातं आतावे, सो पावति प्राणमादीणि ॥४६४७।। कंठा पुढवीमादीएम, विराहणा णवरि संजमे होति । संजम-आतविराहण, पादम्मि य सेसगपदेखें ॥४६४८।। 'अणंतरहियादिएमु जाव संताणए त्ति एतेमु पातं प्रातातस्स पानो संजमविराहणा भवति । मेसा जे २ थूणादिया पदा तेसु पाया पायावेतस्स प्रायविराहणा संजमविराहणा पायविराहणा य भवति । मंजमविराहगाए पुढवादिमु कायणिफणं, जत्य प्रायविराहणा तत्थ च उगुरु, पातविराहणाए चउलहुं ॥४६४८।। थूणादिएसु इमे दोसा - विलियंति आरुभंते, दुबद्धचलेसु भेदुवहडं वा । ते तु ण भवंति दोसा, भूमीए कुडमुहादीसुं ॥४६४६।। थू गादिसु दुट्टिएमु रज्जुत्रेहमादिसु वा दुब्बद्ध सु वा चलट्ठिनेसु प्रारोहतस्स उत्तारेंतस्स य भेदो पायस्म भवति । "उवह{" ति पारुहणोत्त रणे जे मालोहडे दोसा भगिता ते इह पयावणे भवंति, भूमीए कुडमुहादिनु वा ठविज्जते ने दोसा ण भवंतीत्यर्थः ।।४६४६।। मवेमु मुत्तपदेसु इमं वितियपदं --- वितियपढ़मणप्पज्झे, आतावऽविकोविते व अप्पज्झे ।। पञ्चावाने ओवास उ, असति आगाहे जाणमवि ।।४६५०॥ पुन्बद्ध कंठं । भूमीए जइ ठविज्जति तो गोगसा(गा)दिएहितो पच्चावातो भवति, समभूमीए वा अवगासो गत्यि, ग्रागाढे वा राय दुट्टादिगो अपागडो अच्छतो जाणतो वि थूगादिसु विल (जा ।।४६५०॥ . १ ० २४-३१ । २ मू० ३२-३३-३४ । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र ३५-४१ गोणे व साणमादी, कप्पट्ठगहरण खेलणहाए । ससणिद्ध-हरित-पाणादिएसु पालंब जयणाए ॥४६५१॥ समभूमीए ठवितं गोणेणं मज्जति, साणो वा हरति, कपट्ठगा वा हरिज्जेज्जा, सा वा समभूमी कप्पटुगाणं खेलणट्ठाणं, सा वा समभूमी भाउकायमसणिद्धा, हरिया वा, उद्विता कुंथुमादिहिं वा पाहिं संसत्ता, एमादिएहि कारणेहिं जहा प्रायस जमगादविराहणा" भवति तहा जयगाए प्रोगाहियदोरेण विहासे लंबेति ॥४६५१॥ 'जे भिक्खू पडिग्गहातो तसपाणजाई नीहरइ, नीहरावइ, नीहरियं आहट्ट पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥५०॥३॥ अहिणवपावणहणे तसपाणजाई जो गीहरित्ता गेण्हइ तस्स चउलहुं । तसाणा बें दयादिगो चउविधा भवति । अहवा - तसा दुभेदा - आगंतुग-तज्जाता, दुविहा पाणा हवंति पादम्मि । आगंतुगप्पवेसो, परप्पोगा सयं वा पि ।।४६५२।। __ मागंतुगा पिपीलिगादी । तत्व जाता तज्जाया, ते य पुग घुणकुथुगादी । प्रागंतुगाणं पवेसो सयं वा भवति, परेण वा पवेसिता ॥४६५२॥ एएसामण्णतरं तसपाणं तिविहजोगकरणेणं । जे भिक्खू णीहट्टु, पडिच्छए आणमादीणि ॥४६५३।। १ समुपलब्धलिखितप्रतिषु तु सूत्राणामयं क्रमः - जे भिक्खू पडिग्गहातो पुढ विकायं नीहरइ, नीहरावेइ, नीहरियं आहट्ट देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति मू०॥३५।। जे भिक्खू पडिग्गहारो आउक्कायं नीहरइ, नीहराबेइ, नोहरियं आहट्ट देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ||मू०॥३६|| जे भिक्खू पडिग्गहातो तेउकार्य नीहरइ. नीहरावेइ, नीहरियं आहट्ट देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा मातिज्जति ।।मू०॥३७।। जे भिक्खू पडिग्गहातो कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि वा पुष्पाणि वा फलाणि वा नीहरइ, नीहरावेइ, नीहरियं आहट्ट देज्जमाणं पडिग्गाहह. पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ।।मू०॥३८.। जे भिक्खू पडिग्गहातो ओसहि-बीयाणि नीहरइ, नीहरावेइ, नीहरियं आहटटु देजमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥५०॥३६॥ जे भिक्खू पडिग्गहातो तसपाणजाई नीहग्इ, नीहरावेइ, नीहरियं आटु पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥२०॥४०॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा -५५०-४६५६ चतुर्दश उद्देशकः तिविधजोगकरणं । जोगो तिविधो - मणमादि । सयं करणादि करणं, तं पि तिविधं । एत्थ चारणविधीए "वभेदा । तेमु णीहरिजमाणेमु संघट्टणादिए प्रावणे सट्टाणपच्छित्तं, विच्छुगादिगा वा प्रायविराहणा, परेण वा णीइटु दिज्ज मागं जो पहिच्छति तस्स प्राणादी दोसा ।।४६५३।। इमं विनियपदं असिवे ओमोयरिए, रायडे भए व गेलण्णे । सेहे चरित्त सावय पुब्बग्गहिये य जयणाए ॥४६५४॥ एते अमिवादिया भायणदेसे वा अतरे वा, तत्थ प्रागच्छतो इहेव जाणि य तसपाणजाई णीह? लभंति, तागि गिहनो मुद्रो, गिहिता वा पच्छा दिट्टो तं नीहरंतो मुद्धो ।।४६५४॥ जे भिक्खू पडिग्गहानो ओमहि-बीयाई नीहरइ, नीहरावेइ, नीहरियं आहटु देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जनि ।।सू०॥३६॥ आगंनुग-तज्जाया, दुरिहा वीया उ होंति पायम्मि । आगंतुगा उ दुविहा, सुदुमा थूला य नायव्वा ।।४६५५॥ प्रागंतुगा सरिमवादी, तदुत्या कुणगा तम्मेव लग्गा । पुगो प्रागंतुगा दुविधा – सहा थूला य, महा सरिसवा राई-जीरिमादी, थूला बदर-णिप्पावादी ॥४६५५।। मोसो पुच्छति - काग्रो प्रोमहीनो ? को वा बीमो ? त्ति । नतो भण्णति - सणसत्तरसा घण्णा, अोमहिगणेण होति गहिता उ । बीयग्गहणम्मि कते, ते चेव वि रोधणसमन्था ॥४६५६॥ जब गोधूम-सानि-विहि-कोइव-र लग तिल-मुग्ग-माम-प्रयसि-चणग-णिप्पाव मसूर-चवलग-तुबरिकुलत्थ सणो मतन्ममो । सेमं कंठ ।।४६५६।। एएमामण्णतरं, जो वीयं तिविहजोगकरणेणं । णीहरिऊण पडिच्छति, मो पावति प्राणमादीणि ॥४६५७॥ पूर्ववत् इमं वितियपदं - असिवे प्रोमोयरिए, रायगुडे भए व गेलने । सेहे चरित्त सावय, पुव्यग्गहिए य जयणाए ॥४६५८|| काया ।१६५८।। णवरं - "पृब्वगहिए' ति गहणकाले सुद्धा जइ पच्छा परिकम्मणकाले वितिया दीसति तो इमा जयणा - जति पुण पुव्वं मुद्र', कारिज्जनम्मि वितिय-ततिए वा । तिप्पंचमत्तवीया, दीसंति तहावि तं सुद्ध ॥४६५६।। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र--३७ वितियं अप्पपरिकम्म, ततियं बहुपरिकम्म, तेसु जति वि परिकम्मकाले तिणि वा बीया पंच वा सत्त वा बीयकणा दीसंति तहावि तं सुद्धं चेव विहिगहणातो ।।४६५६।। चोदगाह - "गहणकालातो पच्छा बीएसु दिद्वेसु कहं सुद्धं भवति" ? प्राचार्याह - जह चेव य आहच्चा, पाणादिजुतम्मि भायणे गहिते । आलोग भोयण विगिंचणं च तह चेव पादे वि ॥४६६०॥ जहा भत्तं पाणं वा सुयविधितविहाणे ण उवउत्तेण गहियं - "पाहच्च" ति सहसा तुरियगहणं एवं पाणादिजुत्ते गहिए भत्तपाणे "पालोग" ति भायणे पडियमेत्ते व पालोगितो निरीक्षित इत्यर्थः। तत्थ गहणकालातो पच्छा तसबीया दिट्ठा ते य जइ विसोहेउं सक्केंति तो विसोहित्ता तं भत्तपाणं ,जति ण दोसो, अह ते पाणिणो विसोधेढ ण सक्केंति ताहे तं भत्तपाणं विगिचंति । जहा भत्ते तहा पाते वि ददुव, ण दोष इत्यर्थः। ।४६६०॥ एस तदुत्थेसु विधी भणितो। इमो प्रागंतुगेसु - जत्थ पुण अहाकडए, पुव्वं छूढाइ होति बीयाई । सुद्धव अप्पकम्म, तहियं पुण मग्गणा इणमो ॥४६६१॥ जं प्रहाकडं पायं, तत्थ जइ गिहीहिं प्रागंतुगा बीया प्रहाभावेण छूढा होज्ज, तं तारिसं बीयसहियं लन्भति, अण्णं च पप्पपरिकम्म सव्वदोसविरहियं सुद्धं लब्भति । कतमं गेण्हतु ? उस्मग्गयो सुद्ध अप्पपरिकम्मं गेण्हति । अह णिक्कारणे आगंतुगबीयसहितं गेण्हति तत्थ पच्छितमग्गणाकमो इमो ॥४६६१॥ छब्भागकरं काउं, सुहुमेसु तु पढमपव्य पंचदिणा । दस बितिए रातिदिणा, अंगुलिमूले तु पण्णरसा ॥४६६२॥ अंगुलीणं अग्गपन्या पढमो भागो, बितिम्रो मझपोरे भागो, ततितो अंगुलिमूले भागो, पाउरेहाए चउत्था भागो । अंगुहगस्स अन्मतरकोडीए पंचमो भागो, सेसो छट्ठो भागो। एवं छब्मागेसु कप्पितेमु जति णिक्कारणे पढमपोरपमाणमेत्तेसु बीएसु पादे दीसमाणेसु गेण्हति तो पंचराइंदियाणि पच्छित्तं । बितियपव्वमेत्तेसु दस राइदिया । ततियपव्वमेत्तेसु पण्णरस राइंदिया ॥४६६२॥ वीसं तु आउलेहा, अंगुटुंतो होंति पणुवीसा । पसतम्मि होति मासो, चाउम्मासो भवे चउसु ॥४६६३ । चउत्थे भाउलेहप्पमाणमेत्तेसु वीसं राईदिया । पंचमे अंगुट्ठमूलप्पमाणमेत्तेसु भिण्णमासो। छद्रेणं भंगेणं - पसती चेव पूरति पसतिमेत्ते मासलहं। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४६६०-४६६६ ] चतुर्दश उद्देशक: बितियपसतीए बितिम्रो मासो, ततियपसतीए ततिम्रो मासो, चउत्थपसतीए चउत्थो-मासो । एवं .. चउलहुगं जातं । प्रतो परं दुगुणा दुगुणेण पारचियं पावेयध्वं ।। ४६६३॥ सुहुमेसु पच्छित्त भणिय। इदाणि थूलादिसु - एसेव गमो णियमा, थूलेसु वि वितियपचमारद्धो । अंजलिचउक्कलहुगा, ते च्चिय गुरुगा अणंतेसु ॥४६६४॥ थूलाणं बीयाणं बितियपव्वमेत्तेसु पणगं, अंगुलिमूले दस, पाउरेहाए पण्णरस, अंगुटुंतो वीसं, पसतीए भिणमासो, बीतियपसतीते मासो - अंजली इत्यर्थः, बितियंजलीए बितिम्रो मासो, ततियाए ततितो, चउत्थ जलीए चउत्थो मासो । एवं चउलहुं जातं । प्रतो परं दुगुणवड्डीए पारंचितं पावेयध्वं । ___ अण्णे भण्णंति - दो दो छन्भाए वि वति, बारससु मासलहुँ कायम्वं, स एवांजलिरविरुद्ध इत्यर्थः । चउसु अंजली चउल हुं, एवं परित्तेस पच्छित्तं । अणतेसु वि एएण चेव करसभागक्कमेण एते ३८ पणगादिया पच्छित्ता । णवरं - गुरुगा कायवा ।।४६६४।। णिक्कारणम्मि एए, पच्छित्ता वणिया तु बीएसु । नायव्व आणुपुव्वी, एसेव तु कारणे जयणा ॥४६६॥ पुव्वद्ध कंठं । कारणे पुण पत्ते जया प्रागंतुगबीयसहितं गेण्हति तदा एतेण चेव पणगादिपच्छित्ताणुलोमेण गेण्हंतो सुद्धो, जयणा एसेव पणगादिगा इत्यर्थः । अह कारणे वि पणगादिभेदातो वोच्चत्थं गेण्हति तो चउलहुं भवति ।।४६६५॥ जहा कारणे करछब्भागादिएसु बीएसु दिढेसु वि कप्पति तहा इमं - वोसटुं पि हु कप्पति, बीयादीणं अहाकडं पायं । ण अप्पसपरिकम्मा, तहेव अप्पं सपरिकम्मा ॥४६६६।। वोसटुं - भरितं । जति ग्रहाकडं पादं भरियं बीयाणं वोसटुं लन्भति तहावि तं चेव महाकडं घेतव्वं, ण य सुद्ध अपपरिकम्मं सपरिकम्मं वा । अप्परिकम्मं ति महाकडस्स असति तहेव अप्पपरिकम्मा। जह अप्पपरिकम्म बीयाण वोसटुं लब्भति तहा वि तं चेव कपति, ण य बहुपरिकम्मं सुद्ध अप्पपरिकम्मस्स . असतीते बहुपरिकम्ममेव वोसलृ पि बीए प्रवणेत्ता गेण्हतीत्यर्थः । चोदगो भणति - "पुटवं सोही सविकप्पं भणिऊण इदाणि भणह वोटु पि कप्पइ ति पुश्वावरविरुद्ध"। प्राचार्याह - इमे कारणे अवलंबंतो ण दोसो, झामिएसु संतासंतऽसतीते वा बालवुड्डेस सीदतेसु जाव ते अप्पबहुपरिकम्मा परिकम्मिहिज्जति ताव बहू परिहाणी, महाकडं पुण तक्खणादेव परिमुवति । प्रवि य बीएसु संघट्टणं चेव केवलं, दोसो वि जो य बहुगुणो स पित्तलो. ग्रणो वि जो बहदोसो स परित्याज्य इत्यर्थः ॥४६६६॥ जे भिक्खू पडिग्गहाओ कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि वा पुष्पाणि वा फलाणि वा नीहरइ, नीहरावेह, नीहरियं आहटु देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥२०॥३७॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूगिके निशीथसू [सूत्र ३८-४२ जं भूमीए प्रवगाढं तस्स जाव मूलं फुट्टति ताव कंदो भण्णति, भूमीए उवरि जाव डाली ण फुट्टति ताव खंधो भण्णति. भूमीए उवरि जा। साला सा डाली भण्णति, डालातो जं फुति तं पालं भाति । सेसा पदा कंठा। जे भिक्खू पडिग्गहातो पुढविकायं नीहरइ, नीहरावेइ, नीहरियं आहट्ठ देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥०॥३८॥ जे भिक्खू पडिग्गहातो आउक्कायं नीहरइ, नीहरावेइ, नीहरियं आहट देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३६॥ जे भिक्खू पडिग्गातो तेउक्कायं नीहरइ, नीहरावेइ, नीहरियं आह? देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४०॥ एतेसि सुत्ताणं इमो अत्थो - चीएसु जो उ गमो, णि पमा कंदादिएसु सो चेव । पुढवीमादीएम, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि ॥४६६७॥ णवरं - अणतेसु कंदादिएसु गुरुगं पच्छित्तं भाणियव्वं । सेसं सव्वं उस्सग्गऽववातेणं जहा बीएसु तहा भाणियध्वं ॥४६६३॥ जे भिक्खू पडिग्गहगं कोरेइ, कोरावेइ, कोरियं आह? देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४१॥ मुहस्स प्रवणयणं णिक्कोरणं, त झुसिरं ति काउणं चउलहुँ । कयमुह अकयमुहे वा, दुविहा णिक्कोरणा तु पायम्मि । मुहकोरणे णिक्कोरणे य, चउरो भंगा मुणेयव्वा ॥४६६८॥ पुठ्वद्ध कंठं । भायगस्स मुहकोरणे णिक्कोरणे चउभंगो कायव्वो । मुहकोरण समणट्ठा, वितिए मुहं ततिए कोरणं समणे । दो गुरु ततिए सुन्नं, दोहि गुरु तवेण कालेणं ॥४६६६॥ पढमे भंगे - भायणस्स मुहं समणद्वा कयं, समगट्ठाए णिक्कोरियं । बितियभंगे-समगढाए मुहं कयं. प्रायद्वाए णिक्कोरितं । ततियभंगे - प्रायट्ठए मुहं कयं समगट्ठाए णिक्कोरितं । चरिमे-उभयं, तं पि प्रायढाए । एत्थ प्रादिमेसु दोसु भगेसु चउगुरुगा, ततियभंगे सुत्तणिवातो च उलहुमित्यर्थः । पढमभंगे दोहि वि तवकालेहिं विसिट्ठो। बितियभंगे तब गुरू । ततियभंगे कालगुरू । च उत्थभंगे बीयरहिए वि भुरि ति काउणं च उलहुं भवति ।।४६६६॥ एतेसामण्णतरं, पायं जो तिदिहजोगकरणेणं । णिक्कोरेती भिक्खू, सो पाबति आणमादीणि ॥४६७० Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४६६७ चतुर्दश उद्देशकः ४७३ प्राणादी दोसा, कुंथुमादिविराहणे संजमविराहणा, सत्यमादिणा लंछिते प्रायविराहणा। तत्थ परितावणादिणिप्फणं । जम्हा एवमाई दोसा तम्हा जहाकडं मग्गियव्वं, तस्स प्रसति अप्पपरिकम्म, पच्छा सपरिकम्मं ॥४६७०॥ एत्थ इमा अववातो असिवे प्रोमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे । सेहे चरित्त सावय, भए य जयणाए णिक्कोरे ॥४६७१।। जत्थ महाकडं लन्भति तत्थ प्रसिवादिकारणेहि अगच्छंतो तत्थेव अच्छंतो अप्पपरिकम्म जयणाए णिक्कोरे।। जति णाम पुरसुद्ध, कोरिज्जंतंम्मि बितिय-ततिए वा। तिप्पंचसत्तबीया. होज्जा सुद्धतहा बितियं ॥४६७२।। पुव्वं गहणकाले सुद्ध पच्छा कोरिज्जते वितिए ति अप्पपरिकम्मे । ततिए ति बहुपरिकग्मे जति तिणि पंच वा सत्त वा बितिया होज्ज तहावि सुद्ध ।।४६७२।। जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुशासगं वा गामंतरंसि वा गामपहंतरंसि वा पडिग्गहं अोभासिय अोभासिय जायइ, जायंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४२॥ इमो सुत्तत्थो - जे भिक्खु णायगाई, पडिगामे अंतरा पडिपहे वा । प्रोभासेज्जा पायं, सो पावति प्राणमादीणि १४६७३।। नायगो पुरसंथुतो पच्छासंथुतो वा । पुव्वसंथुतो मातपियादिगो, पच्छासंथुतो सासुससुरादिगो। असंथुप्रो इयवइरित्तो सण्णायगो प्रणायगो वा ॥४६७३॥ एसो 'उवासगो अणुवासगो त्ति अस्य व्याख्या - - साहुं उवासमाणो, उवासो सो वती य अवती वा । सो सण्णातग इतरो, एवऽणुवासे वि दो भंगा ॥४६७४॥ साधू चेइए वा पोसहं उवासेंतो उवासगो भवइ । सो उवासगो पुणो दुविहो- वती वा अवती वा । अणुव्वया जेण गहिया सो वती, जो दंसणसावगो मो अब्बती । सो सगायग इयर त्ति गतार्थ । जो वि प्रणुवासगो सो वि सण्णायगो प्रसण्णायगो वा । एते दो भंगा ॥४६७४।। "पडिगामअंतरपडिवसहस्स य" इमं वक्खाणं - पडिगामो पडिवसभो, गामंतर दोण्ह मज्झ खेत्तादी । गामपहो पण मग्गो, जत्थ व अण्णत्थ गिहवज्जं ॥४६७।। १ मून ४२ । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७V सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे । सूत्र-४३ पडिवस नस्स गामो अंतरपल्लिगा वा अण्णो वा पडिगामो भणति । दोण्हं गामाणं अंतरे मज्झे खेत्ते खलए वा पहं पडिपहो भण्णति । उन्मामातिगस्स अभिमुहो पहे मिलिज्जा एस पडिपहो। वा सद्दातो गिहं वज्जेत्ता अण्णत्थ वा जत्थ एरिसा रच्छादिसु मग्गइ । एवमादिएसु ठाणेसु जति तं सण्णायगादिपायं प्रोभासेज्जा तो प्राणादिया दोसा चउलहुं च पच्छित्तं ॥४६७५॥ इमे य भद्द-पंतदोसा भवंति - असती य भद्दओ पुण, उग्गमदोसे करेज्ज सव्वे वि । पंतो पेलवगहणं, अद्धाणोभासितो कुज्जा ॥४६७६।। भद्दो चितेति - एयस्स साघुस्स अतीव आदरो दीसति जेण में अट्ठाणगतं प्रोभासति, भारियं से किं चि कज्जं । सो भद्दगो अप्पणो असति पादस्स सोलसह उग्ग मदोसाणं अण्णयरेणं दोसेण करेत्ता देज्ज । सव्वेहि वा उग्गमदोसेहिं बहुपादे करेत्ता देज्ज । एगपादे पुण सव्वुग्गमदोसा ण संभवंतीत्यर्थः । पतो पूण अडाणे अोभट्ठो कतो मम एत्थ पायं ति पेल वग्गहणं करेज्ज, "प्रणालोइयपुवावरकारिणो पेल्लवा एए" ति ण देज्ज, अहवा - अद्धाणे भद्दो रुट्ठो संतं पि ण देज ॥४६७६।। अतिप्रातरो से दीसति, अद्धाणगयं पि जेण मग्गंति । भदगदोसा एए, इतरो संतम्मि उ ण देज्जा ॥४६७७॥ ''इयरो" त्ति पंतो, सेसं गतार्थम् ॥४६७७।। जम्हा एवमादिदोसा भवंति - तम्हा सट्ठाणगयं, नाऊणं पुच्छिऊण ओभासे । वितियपदे असिवादी, पडिवहमादीसु जयणाए ॥४६७८|| सट्टाणं घरे ठितं, नातूणं ति अत्थि एयस्स पातं, दिटुं वा पातं, पुच्छित्तं कस्सेयं ति, ? अण्णेण कहियं-अमुगस्स । ताहे अोभासियव्वं । प्रणाए अपुच्छिए वा पुवुत्ता दोसा भवंति । बितियपदेणं प्रदाणगयं पि प्रोभासेज्ज । जत्थ जइ जहुत्तेण विहिणा पाया लभंति तत्थ जति असिवादिकारणा ताहे तत्थेव पडिवसभातिसु प्रद्धाणगयं पि जयणाए प्रोभासेज्ज ॥४६७८॥ का जयणा ? इमा 'तिप्पमितिघरा दिडे, गाढं वा विक्खणं णहिं दटटुं । बेंति घरे ण दिवो सि, किं कारण ताहिं दीवति ॥४६७६।। जाहे णायं हिस्संकियं एयस्स अस्थि पायं दिटू वा ताहे अविरतिगा प्रोभासेज्जा । जति ताहे दिगं तो लटुं। अह सा भणेज्ज - "घरवती जाणति ।" ताहे सो घरट्टितो प्रोभासिज्जति । ' प्रह ण दिवो ताहे घरे भण्णति - "अक्खेज्जह तस्स. जहा तुझ समीवं पव्वडता प्रागय" ति । पुणो बितियदिणे । एवं ततिए वि । एवं ततो वारा घरे अदितु । प्रदवा- घरे दिट्ठो तस्स पुण गाढो "विक्खणो" ति -किच घरकत्तव्वताए अवखणितो णिग्गतो ण मग्गितो ति। । १तिप्पभिति, इत्यपि पाठः। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४६७६-४६८३ ] चतुर्दश उद्देशकः ४७५ अहवा - गा "विक्खणं" ति साहुस्स संबज्झति । गाढं अतीव विक्खणं विस्तरणं, जाहे अतीव साहू विस्तरतीत्यर्थः, ताहे अण्णत्थ वि अट्ठाणठितं दट्ठ भणंति - अम्हे तुझ सगासं पागता घरे य तयो वारा, गविट्ठो भासि ।" ताहे सो भणेज्ज - किं कज्जं? ताहे साहुणो तस्स कारणं दीवेति - "तुज्झ पायं अत्थि, तं देह" त्ति ।।४६७६।। ताहे च्चिय जति गंत, ददाति दिटे व भणति एज्जाह । - तो कप्पती चिरेण वि, अदिढे कुज्जुग्गमेकतरं ॥४६८०॥ जति तेहिं साहूहिं तं पादं ण दिलै मासि तो जति सो दाता तेहिं साहूहिं सह घरं गंतुं देति तो कप्पति अह भणति - पुणो एज्जह, तो उग्गमदोसकरणासंकाए ण कप्पति पच्छा । अह तं साहूहि दिटुं पादं भासि जति भणेज्ज - पुणो एज्जह, तो तं चेव पादं सुचिरेण वि देंतस्स कप्पति, अण्णं ण कप्पति ॥४६८०।। जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगवा परिसामझाओ उहवेत्ता पडिग्गहं अोभासिय अोभासिय जायइ जायंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४३॥ जे भिक्खु णातगाई, परिसामझाओ उट्ठवेंताणं । ओभासेज्जा पादं, सो पावति आणमादीणि ॥४६८१॥ कंठा चउलहू पच्छित्तं, प्राणादिया य दोसा । इमे अण्णे य दोसा दुपदचउप्पदणासे, हरणोद्दवणे य डहण खुण्णे य । तस्स अरी मित्ताण व, संकेगतरे उभयतो वा ॥४६८२।। जो सो परिसामझातो उद्वितो तस्स जे प्ररी परीण वा जे मित्ता तेसि तदिवसं चेव ग्रहासमा वत्तीए दुपदं दासो दासी वा चउपदं प्रश्वादि णटुं हरियं वा अडाडा, एतेसि वा कोति सयणो उद्दवितो, घर खलं थाणं वा दड्डं, खेत्तं वा खयं, (तो) संकेज्ज - "कल्लं पव्वइएणं अमुगो परिसामझातो मोसारिओ' त्ति। तेसि एगतरं संकेज्ज - साहुं अधवा तं प्रोसारितं । अहवा - उभयं पि संकेज्ज, तत्थ संकाए चउगुरु णिस्संकिए मूलं, जे वा ते रुट्टा डहण-हरणपंतावणादि करेज्ज तण्णिफणं पावेज्ज, जम्हा एवमादी दोसा तम्ह परिसामझामो गायगादी णो कप्पति उस्सारेउं ॥४६८२।। कारणे पुण कप्पति, तं च इमं कारणं - असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । सेहे चरित्त सावय, भए य जयणाए ओभासे ॥४६८३॥ कंठा - Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ सभाष्य-चूणिके निशीथमूत्र [सूत्र ४४-४५ णवरं - "जयणाए प्रोभास" त्ति अस्य व्याख्या - परिसाए मज्झम्मि पि, अद्धाणोभासणे दुविह दोसा । तिप्पमितिगिहादिडे, दीवण ता उच्चसद्देणं ॥४६८४॥ जे अढाणोभासणे दुविहा भद्दपंतदोसा भणिता, ते चेव परिसामझातो वि उट्ठविज्जते दोसा भवंति । अह पागाई विक्खणं ताहे भण्णति - तिप्पमितिगिहादितु इदाणि तुझ सगासे मागता । f: कज्ज ? ताहे साधू भणंति- इहेव भणामो, कि ता एगते भणेमो ? तेण अन्भगुण्णातो तत्थेव भणंति । प्रहवा भणेज - एगते गच्छिमो, ताहे एगते ऊसारिज्जति । तत्य वि उच्चेण सद्दे ण जहा अण्णो वि सुणेति तहा जायंतीत्यर्थः । __ अधवा इमो विधी जत्थ उ ण होज्ज संका, संकेज्ज जणाउले व पणयता । सो पडिचरतुद्रुतं, अण्णेण व उट्ठवावेइ ॥४६८॥ जत्थ साधुणा पोसारिजमाणे जणस्स संका ण भवति तत्थ वा ओसारिजति । जत्थ साधू बहुजणमझे मगंतो संकति तत्थ सो साधू तं पडिग्गहमामि सयमेव उद्वितं पडियरइ ति पडिक्ख ति ति वुतं भवति । अध तुरं ति तो अण्णेग परिसामज्झातो उट्ठवावेति । एम जयणा ॥४६८५।।। जे भिक्खू पडिग्गहनीसाए उडुबद्धं वसइ, वसंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४४॥ जे भिक्खू पडिग्गहनीसाए वासावासं वसइ, वसंतं वा सातिज्जति तं सेवमाणे बावज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्धाइयो।सू०॥४५॥ अण्णे मासकप्पवासाजोग्गा वा खेत्ता मोत्तुं एत्थ पादे लभिस्सामो त्ति जे वसंति, एत्थ पादे णिस्सा भवति । एयाए पादणिस्साए । उदुबद्ध मासं वा, वासावासे तहेब चउमासं । पादासाए भिक्खू , जं वसति आणमाईणि ॥४६८६।। जइ वि उडुबद्ध मासं वसइ, वरिमाकाले य च उमासं, तहा वि पादासाए, कालातिक्कम अकरेंतस्स वि प्राणादिया दोसा, चउलहुं च से पच्छित्तं ॥४६८६।। अथवा - तं उडुबद्ध वासावासं वा पादणिस्माए वमतो गिहीणं पुरतो इमं भणानि - पातणिमित्तं वसिमो, इहं च मो आगता तदट्ठाए । इति कहयंते सुत्तं, अध नीत तो णितियदोसे ॥४६८७॥ जागह हे साय ! अम्हे पादगिमिनं वसामो. इह वः आगता वरं पादे लभिस्सामो। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य गापा ४६८४-४६८१] चतुर्दश उद्देशकः एवं कहेंतस्स चउलहू सुत्तणिवातो ति । प्रथ मासकपातीतं वसति, वासातीतं वा वसति, तो मासलहु चउला य, जे हेट्ठा गीयदोसा वण्णिता, ते सव्वे प्रावज्जति । तम्हा ण वसेज्जा ॥४६८७॥ भवे कारणं जेण पादणिस्साए वि वसेज्जा - असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । सेहे चरित सावय भए व जयणाए संवसते ॥४६८८॥ कंठा णवरं - वसियव्वे इमा जयणा - गेलण्णसुत्तजोए, इति लक्खेहिं गिही परिचिणंति । जा उज्झिण्णा पादा, ण य तं पडिबंधमक्खेंति ॥४६८६।। उडुबद्धवासाकालं वा अतिरित्तं वसंता गिलाणलक्खेण वसंति, सुत्तग्गाहीण वा इह सुत्तपाढो सरति, गाढाणा गाढ जोगीण वा इह जोगो सुज्झति । "इति" उपदंसणे एवमादीहिं “लक्खेहि" ति - प्रशस्तभावमायाकरणमित्यर्थः। गिही परिचिणंति - जेसि पाता अत्यि गिहीणं तेसि समाणं परिचयं करेंति जाव ते पादा उज्झिज्जंति --णिप्पण्णाणं अप्पणो वि य णिमित्तं उम्भेदं कुर्वतीत्यर्थः । ण य तेसि गिहत्थाणं कहिति । जहा इह पम्हे पादगिमित्तं ठिता, न तत्प्रतिबंध कथयति ॥४६८६।। ।। इति विसेस-णिसीहचुण्णीए चोइसमो उद्देसओ सम्मत्तो ।। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदश उद्देशकः उक्तश्चतुर्दशमः । इदानि पंचदशमः । तस्सिमो संबंधो - ण णिरत्थयमोवसिया, रूढा वल्लीफला उ संबद्धा इति हरिसगमण चोदण, आगाढं चोदितो भणति ॥४६६०।। कारगणे वामावाले भायगाणं कतेणं वसित्ता पामति तुंबी य जायपुनभंडायो ताहे सो हरिसितो भगति - "ग गिरन्थय मोबमिता ।" मंडवादिसु अतीव वल्लीयो पसरिता, ण केवलं पसरितातो पभूता फला वि संबद्धा, न केवल पंवद्धा प्रायमो निष्पन्ना, अपि अभिलस्सामो पादे. तं एवं भणंतं को ति साधू पडिनोएज्जा - "मा प्रज्जो एवं भणाहि, ण वदृति", तातो सो पडिचोदणाए स्ट्टो फरमं वदेज, न येधार्थमिदं मूत्रमारभ्यते - जे भिक्खू भिकावणं आगाहं वयइ, वयं वा मातिज्जति ।।मू०॥१।। जं भिक्खू भिक्खूणं फरुमं वयइ. वयंतं वा मातिन्जति ।।मू०॥२॥ ज भिका भिववृणं आगाई फरुमं वयइ, वयं वा मातिज्जति ||मू०||३|| जे भिक्ग्य भिकवणं अण्णयरीए अच्चामायणाए अचासएइ, अचामएंनं या मातिजति ।।मू०।।४।। आगाढफरुममीमग, दममुद्देमम्मि वणियं पुवं । तं चव य पण्णरम, भिमबुम्मा होति भिकम्युम्मि ||४६६१।। कंटा ज भिक्ग्य मचित्तं अंथ भंजइ, भुंजनं वा मातिजति : म०||५|| ज भिक्ग्य मचित्तं अंचं विडमा, विडमंतं वा मानिन्जनि ।।०।।६।। ज भिक्ष्य मचित्तपइट्टियं अंध भंजइ, भुजंतं वा मानिज्जति ।।१०।।७।। जे भिकाय मचिनपइट्ठियं अं विडमइ. विडसनं वा मानिन्जति ।। ०।।८।। . पते को सना । न इनो ग्रन्थों - सचिन : म मनीयं । चनुवंग्माम्वाद गुरिफा? प्रत्र । मन नचव: भो ददना । ग्रीवादन-मिटन. व विनियमन पि ! Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे सूत्र ७-१२ णवरं-विउस भि (भ) खणं विविहेहिं पगारोह उसति विडसइ । एवं पइट्ठिए वि । णवरं - चउभंगो - सचित्तं सचित्ते, सचित्तं प्रचित्ते, अचित्तं सचित्ते, प्रचित्तं प्राचत्तें । प्रादिल्लेसु दोसु भंगेसु चउलहुं, चरिमेसु दोसु मासलहुं । इमो सुत्तफासो - सच्चित्तं वा अंबं, सचित्तपतिट्ठियं च दुविहं तु । जो मुंजे विडसेज्ज व, सो पावति आणमादीणि ||४६६२।। सचित्तं सचित्ते पइट्टियं वा, एयं चेव दुविह । सेसं कंठं । अमिला अभिणवछिण्णं, अप्पक्क सचित्त होतऽछिण्णं वा । तं चिय सयं मिलातं, रुक्खगय सचेदणपतिहूं ॥४६६३। जं अभिणवच्छिण्णं प्रमिलाणं तं सचित्तं भवति, जंच रुक्खे चेऽत्र द्वितं प्रच्छिण्णं बद्धट्टियं अबद्धट्रियं वा अपक्कं च तं पि सचित्तं । "तं चिय" - तदेव अंबादियं पलंबं रुक्खे चेव ठियं दुब्वायमादिणा अप्पणा वा अप्पज्जत्ति भावं मिलाणं तं सचेयणपत्तिट्ठियं भण्णति ॥४६६३॥ अहवा जं बद्धडिं, बहिपक्कं तं सचेयणपतिहुँ । विविहदसणा विदसणा, जं वा अक्खंदति णहाती ॥४६६४॥ जंवा पलंबं बाहिरकडाइपक्कं अंनो सचेयणं बीयं तं वा सचित्तपतिट्ठियं भण्णति । अपनीतत्वचं गुडेन वा सह कपूरेण वा सह तथाऽन्येन वा लवणचातुर्जातकवासनादिना सह एसा विविहदसणा । "प्रक्खदई" ति चक्खिउ मुंचति, अन्योन्य-णहेहि वा अदति, नखपदानि ददातीत्यर्यः, एसा वा विडमणा भण्णति । एवं परित्ते भणियं । प्रणते वि एवं चेव । णवरं चउगुरु पच्छितं ॥४६६४।। मचित्ते सचित्तपतिट्ठिए य दोसु वि सुत्तेसु इमो अववातो - वितियपदमणप्पज्झे, मुंजे अविकोविए व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, गिलाण अद्धाण ओमे वा ॥४६६॥ खित्तादिगो प्रणप्पज्झो वा भुजति, सेहो अविकोवियत्त गयो प्रजाणतो, रोगोवयमणिमित्तं वेज्जुवदेसितो गिलाणो वा भुजे, प्रद्धाणोमेसु वा असंथरंता भुजता विसुद्धा ॥४६६५।। इमो दोसु विडसणसुत्तेसु अववातो - बितियपदमणप्पज्झे, विडसे अविकोविते व अप्पज्झे। जाणते वा वि पुणो, गिलाण श्रद्धाण ओमे वा ॥४६६६॥ कंठा णवरं चोदगाह - विडसणा लीला, तं प्रववाते मा करेउ । प्राचार्याह - जरदृबाहिरकडाहं त प्रवणेउ खायंतस्स प्रववादे ण दोसा, जइ वा पलंबस्स जं उवकारकारी लवणादिक तेण सह त भुजंतस्स ग दोसो, कोमलं जरठ वा इमं ति परिणाहेत णहमादीहि अखंदेज्ज ॥४६६६॥ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाया ४६६२-४६६८ ] पंचदश उदेशकः ४८१ जे भिक्खू सचित्तं अंचं वा अंबपेसि वा अंबभित्तं वा भंसालगं वा अंबडालगं वा अंबचोयगं वा मुंजइ, मुंजतं वा सातिज्जति ॥२०॥६॥ जे भिक्खू सचित्तं अंबं वा अंबपेसि वा अंबमित्तं वा अंबसालगं वा अंबडालगं वा अंबचोयगं वा विडसइ, विडसंतं वा सातिज्जति ॥०॥१०॥ जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अंबं वा अंबपेसि वा अंबमित्तं वा अंबसालगं वा अंबडालगं वा अंबचोयर्ग ना भुंजति, भुजंतं वा सातिज्जति ॥२०॥११॥ जे भिक्ख सचित्तपइट्ठियं अंबं वा अंबपेसि वा अंबमित्तं वा अंबसालगं वा अंबडालगं वा अंबचोयगं वा विडसइ, विडसंतं वा सातिज्जति ॥२०॥१२॥ एते छ सुत्तपदा, विहसणाए वि छ पेव । एतेसिं इमो प्रत्यो । अंबं सकल ण केणइ ऊण । चोदगाह - मादिल्लेमु च उसु सुत्तेसु गणु सकस पेव भणियं । प्राचार्याह - सच्चं, किंतु तं पलंवत्तणेण पज्जतं बद्धद्वियं गहियं, इमं तु पलंबत्तणेण अपज्जतं प्रबद्धट्टियं विपकरसत्वादपकलमेवेत्यर्थः। पेसी दीहागारा, प्रद्धं भितं, बाहिरा छल्ली सालं भाइ, प्रदोहं विसम चक्कलियागारेगं जं खं तं उगलं भणति, हारुणिभागा जे केसरा तं पोयं भण्णति । इमो सुत्तफासो एसेव गमो णियमा, डगले साले य भित्तए चोए । चउसु वि सुत्तेसु भवे, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि ॥४६६७॥ अंबगपेसिवज्जा उसु सुत्तेसु ति । सेसं कंछ । अहवा - प्रादिल्लेसु चउसु सुत्तेमु जो गमो भणितो सो चेव गमो मंबगारिएसु वसु पसु सविरसणेसु भाणियन्वो ।।४६६७॥ चोदगाह - णणु पढमसुत्तेसु भणितो नेव प्रत्यो किं पुणो अंबगादियाणं गहणं ? प्राचार्याह - एवं ताव अभिण्णे, अम्बे पुणो इमा भेदा । डगलं तु होइ खंडं, सालं पुण बाहिरा छल्ली ॥४६६८।। एवं ताव प्रादिल्लेमु चउसु पुत्तेसु अभिण्णाणं अवाणं गहणं, इह भिण्णाणं गहणं । अहवाप्रादिसुतेसु प्रविसिटुं गहणं, इह विसिष्टुं गहणं कयं । ___ अहवा - मा कोइ चितिहिति-"अभिष्णं अभक्खणिज्ज, भिष्णं पुण मक्खं",तेण भवगं पेसिमादिगा य णिसिझति । डगलं तु पच्छदं कठं ।।४६६८।। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१२ भित्तं तु होइ अद्धं, चोयं जे जस्स केसरा होति । मुहपण्हकरं हारिं, तेण तु अंवे कयं सुत्तं ॥४६६६॥ पुव्वर्ट कंठ। चोदगाह - किं अणे माउलिंगादिया फला भक्खा. जेग अंबं चेव णिसिज्झति ? प्राचार्याह - एगग्गहणा गणं तज्जातियाणं ति सव्वे संगहिया । अंबं पुण मुहपण्हं - पच्छद्धं । अंबेण मुहं पल्हाति -प्रस्यंदतीत्यर्थः । किं च "हारितं" - जिव्हेन्द्रियप्रीतिकारकमित्यर्थः । प्रनेन कारणेन अंबे सूत्रप्रतिबंधः कृतः ।।४६६६॥ अन्याचार्याभिप्रायेण कृता गाथा - "अंबं केण ति (थेवेण) ऊणं डगलद्धं भित्तगं चतुब्भागो। चोयं तयाओ भणिता, सालं पुण अक्खुयं जाण ॥४७००|| थोवेण ऊणं अंबं भण्णति, डगलं अद्ध भण्णति, मित्तं चउमागाद्री, तया चोयं भवति, नखादिभि भक्खुष्णं सालं भण्णति, भक्खु - अंबसालमित्यर्थः । पेसी पूर्ववत् ॥४७००॥ सच्चित्तं व फलेहि, अग्गपलंवा तु मतिता सव्वे । अग्गपलंबेहिं पुणो, मूलपलंबे कया सूया ॥४७०१॥ कंत्र तत्थ इमे अग्गपलंबा - तल णालिएरि लउए, कविट्ठ अंबाड अंबए चेव । एवं अग्गपलंब, णेयव्वं आणुपुबीए ॥४७०२।। जणपसिद्धा एते । "माणुपुलि' त्ति एसेव तलादिगा ॥४७०२॥ तत्थ मूलपलंबं इमं - झिझिरि सुरहिपलंबे, तालपलंबे य सल्लपल्लंबे । एयं मूलपलंचं, नेयव्वं आणुपुवीए ॥४७०३॥ झिज्झरी वल्ली, पलासगो सुरभी सिम्गुगो सेसा जणपसिद्धा । एप वि प्राणपुल्वीझिझिरिमादी ।।४७०३।। चोदगाह - जति मूलग्गपलंबा, पडिसिद्धा णणु इदाणि कंदादी। कप्पंति न वा जीवा, को व विसेसो तदग्गहणे ॥४७०४॥ यदीत्यभ्युपगमे। मूलपलंबा अग्गपलंबा य पडिसिद्धा, ण पुण कंद-मूल-खंघ-तया-साल-पवाल-पत्त-पुष्फ च पडिसिद्धा। जम्हा एतेसि पडिसेहं करेह तेण मे मती-अवस्सं एते कप्पंति पडिग्गाहित्तए, जीवा वि होतया । १ शतद्रुवृक्षः । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाष्यगाथा ४६६६-४७०८] पंचदश उद्देशकः ४८३ अहवा - ण वि एते जीवा, जेण एतास पडिसेहो ण कतो । मध जीवा, ण य कप्पंति, तेण मुत्तं दुबद्धं । प्रध मतं ते - "जीवा, ण कप्पंति, सुत्तं च सुबद्ध" तो विसेस हेऊ वत्तव्यो ॥४७०४।। आयरियो आह - चोदग कण्णसुहेसू, सद्देसु अमुच्छमाणो सह फासे । मज्झम्मि अट्ठ विसया गहिता एव वऽट्र कंदाती ॥४७०१॥ हे चोदग ! जहा दसवेयालिते भायारपणिहीए भणियं - कण्णसोक्खेहि सद्दे हिं, पेम्म णाभिणिवेसते । दारुणं ककसं फासं, कारणं अधियासते ॥ एत्थ सिलोगे ग्रादिमंतग्गहणं कयं, इहरहा उ एवं वत्तव्वं कण्णसोक्खेहि सद्दे हिं, पेम्म णाभिणिवेसए। दारुणं ककसं सद्द, सोएणं अहियासए ॥१।। चक्खुकतेहि रूवेहि, पेम्म णाभिणिवेसए । दारुणं ककसं रूवं, चक्खुणा अहियासए ।।२।। घाणकतेहिं गंधेहि, पेम्म णाभिणिवेसते । दारुणं कक्कसं गंध, घाणेणं अहियासए ॥३॥ जीहकंतेहिं रसेहि, पेम्म णाभिणिवेसते । दारुणं कक्कसं रसं, जीहाए अहियासए ॥४॥ सुहफासेहि कंतेहिं, पेम्म णाभिणिवेसए। दारुणं कसं फासं, काएणं अहियासए ॥५।। एवं रागदोसा, पंचहिं इंदियविसएहिं गहिता । प्रादिअंतग्गहणेणं मज्झिल्ला अट्ट विसया गहिता भवंति । एवं इह वि महंतं मुतं मा भवउ त्ति प्रादिग्रंतग्गहिता, तेहिं गहिहिं मज्झिल्ला वि अट्टकंदादिणो गहिया चेव भवति ।।४७०५।। __ अहवा एगग्गहणे, गहणं तज्जाइयाण सव्वेसि । तेणग्गपलंबेणं, तु सूतिता सेसगपलंबा ॥४७०६॥ उचारियसिद्धा. तस्स पलंबस्सिमे भेदा सव्वं पि य तं दुविहं, अामं पक्कं च होति नायव्वं । आम भिण्णाभिण्णं, एमेव य होति पक्कं पि ॥४७०७॥ दो भेदा-मं पक्कं च, जं तं प्रामं तं भिण्णं अभिष्णं वा, पक्कं पि एवं भिण्णाभिण्णभेदेण भाणियव्वं ।।४७०७।। तत्थ प्रामस्स इमो निक्खेवो नाम उवणा आमं, दव्वामं चेव होति भावामं । उस्सेतिम संसेतिम, उवक्खडं चेव पलियामं ॥४७०८।। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूप-१२ णामठवणामो गयामो, दवाम चव्विहं, तं जहां - उस्सेतिमाम संसेतिमाम उवक्खडामं पलियामं चेति ॥४७०८।। एतेसि चउण्ह वि इमा विभासा - उस्सेतिम पिट्ठादी, तिलाति संसेतिमं ति नायव्वं । कंकडुगादि उयक्खड, अविपक्करसं तु पलियामं ॥४७०६।। उस्सेतिमं णाम जहा - "पिटुं" - पुढविकायभायणं, प्रामककायस्स भरेत्ता 'मीराए पद्दहिज्जति, मुहं से वत्थेण मोहाडिज्जति, ताहे पिटुपयणयं रोट्टस्स भरेता [ ताहे । तीसे थालीए जलभरियाए प्रहोछिद्देण तं पि प्रोसिज्जति, हेट्ठाहुत्तं वा ठविज्जति, तत्थ ज प्रामं तं उस्सेतिमाम भणति । प्रादिग्गहणे, उरि ठविज्जति, ताहे २उंडेरगादी। __ संसेतिमं णाम पिट्ठरे पाणियं तावेत्ता पिंडियट्ठिया तिला तेण अोलहिज्जंति, तत्थ जे आमा तिला ते संसेतिमाम भण्णति । प्रादिग्गहणेणं जे पि अण्णं किं चि एतेणं कमेणं संसिझति तं पि संसेतिमाम भणति । उवक्खडामं णाम जहा चणयादीण उवक्खडियाण जे ण सिझंति ते ककड्डया. तं उवक्खडियाम भणति । पलियामं जंपरियाए कतं परिणापं वा पत्तं तहावि प्रामं तं परिणाम, तं च प्रविपक्करसं ॥४७०६॥ इमं चउन्विधं - इंधण धूमे गंधे, वच्छप्पलियामए य आमविही । एसो खलु श्रामविही, नेयव्यो आणुपुवीए ॥४७१०॥ इंधणपलियामं धूमपलियामं गंधपलियामं वच्छपलियामं, चउठिवहा पलियामविधी । "प्राणुपुब्बि" त्ति एसा चैव इंधणादिया । अधवा - इंधणादिकरणादिया वा प्राणुपुत्री ॥४७१०॥ तत्थ इंधणाम-धूमामस्स य इमं वक्खाणं - कोद्दवपलालमादी, इंधणेण पलंबमाइ पच्चंति । मझख (ऽग) डाऽगणि पेरंत तेंदुगा छिदधूमेणं ॥४७११॥ जहा कोद्दवपलालेण अंगादिफलाणि वेठेता पाविज्जति, प्रादिग्गहणं सालिपलालेण वि, रत्थ जे ण पक्का फला ते इंधणपलियाम भण्णति । धूमपलियामं णाम जहा सड्ड खणित्ता तत्थ करीसो हुन्भात, तीसे खड्डाए परिपेरंताह अण्णामो खड्डामो खणित्ता. तासु तेंदुप्रादीणि फलाणि छुभित्ता जा सा करीसगखड्डगा तत्थ अग्गी छुब्भति, तासिं च तेंदुगखड्डाणं सोपा तं करीसखड्डु मिलिया, ताहे धूमो तेहिं सोतेहिं पविसित्ता ताणि फलाणि पावेति, तेणं ते पच्चंति, तत्थ जे अपक्का ते घूमाम भण्णति ।।४७११।। इदाणि गंधाम-वच्छामाणं इमं वक्खाणं - अंबगमादी पक्कं, छुढं आमेसु जं ण पावयती। तं गंधामं वच्छे, कालप्पसं न जं पच्चे ॥४७१२॥ १ दीर्घनुल्यां । २ भरोलगादि (वृ.) । Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ४७०६ . ४७१७ ] पंचदश उद्देशकः ४८५ गंघाम अंबयं आदिसद्दातो मातुलिंगं वा पक्कं प्रणेसि पामयाण मज्झे छुब्भति, तस्स गंधेग तेण अण्णे प्रामया पच्चंति, जं तत्थ ण पच्चति त गंधामं भणति । वच्छपलियामं णाम वच्छा रुक्खो भणइ, तम्मि रुक्खे जं फलं पत्ते वि काले अण्णेसु वि पक्केसु म पञ्चति प्रामं सरडीभूतं तं वच्छपलियामं भण्णति ।।४७१२।। सव्वदव्वामोवसहारिणी इमा गाहा - उस्सेतिममादीणं, सव्वेसि तेसि जंतु मज्झगतं । पच्चंतं पि ण पच्चति, तं होति दव्वश्रामं तु ।।४७१३॥ सवेसि स्मेतिमादीणं माझे जं 'पञ्चतं पि" तिप्पाविज्जमाणं पि वुत्तं भवति, ण पच्चति तं दधाम भगति ।।४७१३।। इदाणि “१भावाम" - भावामं पि य दविहं. वयणामं चेव णो य वयणामं । वयणाममणुमतत्थे, आम ति य जो वदे वक्कं ॥४७१४॥ पुबद्ध कठं । वयण मं अशुमयत्थे । जहा कोइ साधू गुरुपेसणेग गच्छतो प्रणेण पुच्छितो - कि भो! . गुम्पेमणण गम्मति ?" सो पडिभण्इ - ‘प्राम" ति, शब्दमात्रोच्चारण करेति ।।४:१४।। “२णो वयणाम" इमं - णोवयणामं दुविहं, आगमतो चेव णो य आगमतो। अागमो उबउत्तो, नो आगमतो इमं होई ॥४७१॥ पवद्ध कंठं । अागमतो जो 'ग्रामवयण" तस्मत्थं जाणति, तम्मि उव उत्तस्स य स ग्रामभावोवयोगो भावाम भाति ।।४७१५।। जं णो ग्रागमनो भावामं तं इमं - उग्गमदोसादीया, भावतो अम्मंजमो य आमविही । अन्नो वि य आएसो, जो बामसतं न पूरेति ॥४७१६॥ प्राहाकम्मादि उग्गमदोसा, या दिसायो एमणदोमा उपायणा य दोसा. भणियं च . 3 "सव्वामगंध परिणाय णिगमगंधो परिवाए । जनो तेहि उगम दिदो मेहि घेरमाणेहि चारित्तं प्रविपक्कं अपजतं ग्राम भगांनि । अमंजमो वि प्रामविधी चेव भवति. जतो चरमम्मोवघायकारी। किं च - जो वरिमनतायुपरिमो व रममतं अतोना अंतरे मरेतो ग्रामो भणणाति ।।४:४६।। एमो उ अामविही. एन्यऽहिकागे उ दव्यामेणं । तन्य वि पलियामणं. नन्थ वि य बच्छपलियामं ॥४७१७।। भ तो गमवी, यवमा अधिक की नन्य वि पन्निय में वन्य वि वा नियमे यर्थ मेमान यिनित । । ४. | : ग. पात्र प्रयन : अश्या २ उद। ५ । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१२ ____ इदाणि भंगविकल्पनार्थं सूत्रविभागः क्रियते - “सच्चित्तं अंबं भुजति । सच्चित्तं विडसति"। "पतिट्ठिए" वि दो सुत्ता, एते चउरो दव्यग्रो सगलसुत्ता। भित्तं सालं डगलं चोयं एते चउरो सह विडसणाए दव्वतो भिण्णा । जं पुण "अंबं वा" सुत्त एतदसगलत्वात् पूर्वसूत्रेषु प्रविष्टं, जं पुण अंबपेसि वा सुत्तं एवं पेसिभेदित्वात् भित्ते प्रविष्टं । एवं अष्टसूत्राणि भवंति । - अतो पठ्यते - दव्वतो चउरो सुत्ता, अभिण्ण चउरो य पच्छिमा भिण्णा । भावणं पुण भइया, अट्ठ वि भेया इमे चउहा ॥४७१८॥ पढमा चउरो सुत्ता दवतो अभिण्णा, पच्छिमा चउरो सुत्ता दव्वतो भिण्णा । एते अट्ठ वि सुत्ता भावतो भिण्णा वा अभिण्णा वा ॥४७१८॥ एत्थ भिण्णे इमो चउव्विहो णिक्खेवो - नाम ठवणा भिण्णं, दव्वे भावे य होइ णायव्वं । दव्बम्मि घडपडादी. जीवजढं भावतो भिण्णं ॥४७१६।। णाम ठवणासो गतायो । दवभिण्णे घडो पडो वा, भावभिणं पुण जीवविप्पजढं जं सरीरयं, इह तु पलंबं भाणियव्वं ।।४७१६॥ एतेसु चेव दव्वभावभिण्णाभिण्णेसु च उभंगो कायव्वो - भावेण य दव्वेण य, भिण्णाभिण्णे चउक्कमयणा उ । पढमं दोहि अभिण्णं, बितियं पुण दव्वतो भिन्नं ॥४७२०॥ भावतो अभिण्णं दव्वतो अभिण्णं । एस पढमो। भावतो अभिण्णं दव्वतो भिण्णं । एस बीतो ॥४७२०।। ततियं भावतो भिण्णं, दोहि वि भिण्णं चउत्थगं होति । एतेसि पच्छित्तं, वोच्छामि अहाणुपुबीए ॥४७२१॥ भावतो भिण्णं दबतो अभिणं । ततितो भगो। भावतो भिन्न दव्वतो भिन्नं । एस चउत्थो। एतेसु इमं पच्छित्तं - लहुगा य दोसु दोसु य,.लहुश्रो पढमम्मि दोहि वी गुरुगा। तवगुरुग कालगुरुगा, चउत्थए दोहि वी लहुश्रो ॥४७२२।। पढम बितिएमु दोमु वि भगेसु च उलहुगा सचेतनत्वात । ततियच उत्थेसु वि भंगेसु मासलहुं अचेतनत्वात् । पढमभगे च उलहुं तं दोहि वि तवकालेहिं गुरुगं कायव्वं । बितियभंगे ज च उलहुं तं तवेण गुरुगं कालतो लहुगं कायव्वं । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४७१८-४७२६] पंचदश उद्देशक: ततियभंगे जं मासलहुं तं तवलहुं कालगुरु कायव्वं । चउत्थभंगे जं मासलहुं तं दोहिं वि तवकालेहिं लहुगं कायव्वं ॥४७२२॥ उग्घातिया परित्ते, होंति अणुग्घातिता अणंतम्मि। . आणऽणवत्था मिच्छा, विराहणा कस्सऽगीयत्थे ॥४७२३॥ एतेहिं पच्छित्ता "उग्घातिय" त्ति - लहुगा भणिता । अणंते पुण ते एते चेव पच्छित्ता "अणुग्घाइय" ति - गुरुगा इत्यर्थः । प्राणा प्रणवत्था मिच्छा विराहणा य । "कस्स" ? अगीयत्थे। एयं उरिसवित्थर भणिहित्ति । तहावि असुणत्थ प्रक्खरत्यो भण्णति - पलंब गेण्हतेण तित्थकरराणं प्राणाभंगो कतो, प्रणवत्था कता, मिच्छत्तं जणेति, प्रायसंजमविराहणा य भवति । सीसो पुच्छति - “कस्सेयं - पच्छित्तं ?" आयरियो भणति - अगीयत्थस्स भवति । सीसो पुच्छति - "एयं पच्छित्तं किं गहिए पलबे भवति अगहिए" ? पायरियो भणति - गहिते, णो प्रगहिते। कि कारणं ? जति अगहिते, णो गहिते, तो ण कोति वि अपायच्छित्ती॥४७२३॥ एतेण अवसरेण इमा अण्णत्थ तत्थ गहणे, पडिए अच्चित्तमेव सच्चित्ते । छुभणाऽऽरुहणा पडणा, उवही तत्तो य उड्डाहो ॥४७२४॥ तं गहणं दुविधं - अण्णत्थरगहणं, तत्थ गहणं च । जंतं "'अण्णत्थ गहणं" तं इमं - अण्णग्गहणं तु दुविहं, वसमाणऽडवि वसंते अंतो बहिं । अंताऽऽवण तव्वज्जं, रच्छा गिहे अंतो पासे वा ॥४७२५॥ जं तं "अण्णत्थ गहणं" त दुविधं - वसमाणे य, अडवीए य । । तत्थ जं तं वसंते - तं पुणो दुविधं - गामस्स अंतो, बाहिं वा । जं तं अंते - तं पुणो दुविधं - श्रावणे वा तवज्जे वा । तबज्ज प्रावणवज्ज। तं तवज्ज इमेसु ठाणेसु होज्जा - रत्याए वा होज्जा, गिहे वा होज्जा, गिहस्स वा अंतो अलिंदगासु, गिहस्स वा पासे अंगण-पुरोहडादिसु ॥४७२५।। एवं सव्वं पि अपरिग्गहं होज्ज, सपरिग्गहं वा । एत्थ प्रावणे वा तव्वज्जंवा अपरिग्गहं गेण्हमाणस्स इमं पच्छित्तं । दव्वतो ताव भण्णति कप्पट्ट दिट्ठ लहुओ, अटुप्पत्ती य लहुग ते चेव । परिवडमाण दोसे, दिट्ठादी अण्णगहणम्मि ॥४७२६॥ १गा०४७२४ । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [पूत्र-१२ पलंबं गेण्हंतो कप्पट्ठगेण दिट्ठो, एस्थ से मासलहुँ। "प्रठ्ठप्पत्ती य लहुग" त्ति - अह तस्स संजयस्स गहिए पलंबे भट्ठोप्पज्जति - भक्षयामीति एत्थ से चउलहुं । अधवा - "अठ्ठप्पत्ती" - संजएण पलंब गेहलेण कप्पटुगस्स पलंबे अट्ठो उपादितो- "अहमति गेहामी" त्यर्थः । एत्थ वि चउलहु ते चेव त्ति। मह ण कप्पटुगेण महल्लपुरिमेण दिट्ठो गेण्हतो, एत्थ से चउलहु पच्छित्तं । प्रध महल्लस्स अट्ठो उप्पज्जति – "प्रहमवि गेण्हामि" त्ति, एत्य वि च उलहु चेव । महल्लेण य निटे इमे अधिकतरा दिट्ठादी परिवड्डमाणा दोसा बहू - 'उवरि गाहा ।।४।१६।। एवं अण्णत्थगहणे भण्णमाणा सुणह - दिढे संका भोतिय, घाडिय 'णातीणं गामवहिता वा । चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥४७२७॥ महल्लेण गेण्हंतो दिट्ठो छ। मह संका कि सुवण्णादि गहियं मष पलंबं, एत्य संकाए । गिस्संकिते सुवष्णं ति । "भोइय' त्ति भज्जा, तीए कहियं - "मए संजतो दिट्ठो फलाणि गेण्हतो"। जति तीए पडिहयो - "मा एवं भणाहि, एयं संजए न संभवइ", तो च उगुरूए चेव ठितं । मह तीए न पडिहतं तो ::: । किंकारण ? भोइयाए पढमं कहेति ? प्रासण्णतरो सो संगतो त्ति । ततो "घ डियस्स" कहेति, तेण पडिहने छल्जहुंचेव, :: : । पपडिहते ..। ततो "णातीणं" कहेति, तेहिं पडिहते छगुरु चेव, अपडिहते छेदो। ततो भारविसपुरिसेहिं तस्स वा समीबानो सुमो प्रश्नमो वा सुते तेहिं पडिहए छेदो चेव, अपरिहते मूलं । इन्भसेट्ठीसु. सुते पडिहते मूलं चेव, पपडिहते पणत्रहो। प्रमच्चराइणेहिं सुते पडिहते अणवढे चेव प्राडिहए पारंचियं । पच्छदं गतार्थ । णवरं- "दुर्ग"-प्रणवटुं पारंचियं । अहवा - संका भोतियमातापित्री पितृयकमहत्तरी प्रारक्खिया सिट्ठि मत्थवाहा प्रमच्चराय णो एतेसु सप्तसु पदेसु अड्डोक्कतीए पूर्ववत् । __ "गामबहियाइ" ति-सांन्यासिकं वक्ष्यमाणं ।।४७२७॥ एवं तावऽदुगुंछे, दुगुंछित लसुणमाति ते चेव । गवरं पुण चउलहुगा, परिग्गहे गेष्हणादीया ॥४७२८॥ १ न भाष्ये । २ घाहि-निश्राऽरक्खि-मेद्वि-राईणं, इति वृहत्वल्पे गा० ८६६।३ गा० ४७ः । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ४७२७-४७३० ] पंचदश उद्देशकः ४८९ एतं सव्वं प्रदुगुंछिते अंबादिके पलंबे भागतं । दुगुंछिते इमं णाणत्तं - दुविधं दुगुंछितं- जातिदुगुंछितं ठाणदुर्गुछितं च । जातिदुगुंछितं जहा लसुणमादी, प्रादिग्गहणेणं पलंडुण्हेसुरुडगफलं तालफलं च । ठाणदुगुंछितं असुइठाणे पडियं । दुविहं दुगुंछियं कप्पट्ठादि दिढे गेण्हंतस्स चेव च उलहु, सेसं सव्वं एयं चेव दट्ठव्वं । एवं अपरिग्गहं गतं । "परिग्गहे गेण्हणादीय" त्ति - सपरिगहे वि अंतो अदुगंछिते दुगुंछिते वा कपदिवादिगा सब्बा एसेव विधी प्रागेवणा य। णवरं - स्परिग्गहे गेण्हणकड्डणववहारादिया दोसा भवंतीत्यर्थः ॥४७२८।। एवं दव्वतो पच्छित्तं गतं । इदाणि खेत्ततो - एत्थ जं "गामबहिया" य त्ति संणासिगं पदं ठवितं । एतेण खित्तपायच्छित्तं सूइय - खेत्तंतो णिवेसणादी, जा सीमा लहुगमाति जा चरिमं । केसिंची विवरीयं, काले दिण अट्ठमे सपदं ॥४७२६॥ खेतो पायच्छित्तं भण्णइ - तत्थ इमे अट्ठ पदा, णिवेसण वाडग साहि गाममझे गामदारे गामबहिया उज्जाणे सीमाए । एतेसु ठाणे मु गेहंतस्स जहासंखं च उलहुगादि पारंचियावसाणा पच्छित्ता।। यहवा - निवेसण वाडग साही गाममज्झे दारे उज्जाणे सीमाए अण्णगामे एतेसु इमं जहासंखं डू, ड्रा, , . छे०, मूलं, प्र०, पाए । "केसिंचि - विवरीयं" ति प्रणगामे था। सीमाए गेहइ वा । उजाणे । गाममज्झे छ । साहीए मू० । वाडए प० । णिवेसणे पारंची । खेत्तमो गतं । इदाणि कालतो - "काले दिण अट्ठमे सपयं' ति पढमदिवसे गेहति ङ्क। बितीए ड्का । ततिए मैं । चतुर्थे फ्रैं। पंचमे छे० । छट्टे मूलं । सनमे प्रणवट्ठो। अट्ठमे सपदं ति पारंचियं ।।४७२६।। गतं कालतो। इदाणि भावतो - भावऽवार सपदं, मासादी मीस दसहि सपदं तु ।' एमेव य बहिता वी, सत्थ जत्तादिठाणेसु ॥४७३०॥ भावतो एककवारं गेण्हति ङ्क । वियवार था। ततियं । चतुर्थे म । पंचमे छे० । छठे मूलं । मनमे अगवट्ठो । अट्ठमवारं गेण्हनस्म पारंचियं । भावपारंचियं सचित्तविषयं गतं । इदाणि मीसे भण्णइ - "म सादी मीम दम है मपदं तु" । कृप्पट्टे दिट्टे लहुगो, अठ्ठप्पत्तीए मीमे लहगो चेव । . हल्लेग दिट्ट- मकाए मामलहूं, जिस्म के मामगुम् । भोनियाए च उलहुं, घाडिए ङ्का, णादिमु फ्रें। प्ररिक्खिए फ्रम । सत्यवाहे छेदो। मिट्टिम्मि मूलं । अमच्चेग प्रग बट्टो । रायागो पारचियं । गा४०२७। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१२ खेत्तयो इमं - णिवेसण वाडग साहा गाममज्झे गामदारे गामबहिं उज्जाणे उजाणसीमंतरे सीमाए . | सीममतिक्कते, एतेसु जहासंखं मासलहुगादि पारंचियावसाणं देयं । कालो मासलहुगादि दसहिं दिणेहिं पारंचियं । भावतो दसमवारं गेण्हंतस्स मासलहुगादि पारंचियं भवति । गामस्संतो गयं । एमेव य गामबहिया वि पायच्छितं भाणियव्व । दिढे संकादियं सव्वं । तं पुण सत्थाण वासट्टाणे वा जं वा ठाणं लोगो जत्ताए गच्छति ।।४७३०॥ बहिया गेण्हणे पच्छित्तस्स प्रतिद्दे सं करेति - अंतो श्रावणमादी, गहणे जा वणिया सवित्थारा । बहिया उ अण्णगहणे, पडितम्मी होंति सच्चेव ॥४७३१॥ अंतो णगरादीणं प्रावणा वा प्रावणवज्जे वा अदुगुंछियं दुगछियं वा अपरिगहियं परिगहपडितं गेण्हमाणस्म जं पच्छित्तं भणियं, बहिया वि गामादीणं अण्णग्गहणे पडियं गेहंतस्स सोधी, सच्चेव अपरिसेसा दट्टब्वा ।।४७३१॥ वसमाणे गतं।। इदाणि अण्णग्गहणं "अडवीए" जं तं भण्णति - कोट्टगमादिसु रन्ने, एमेव जणो उ जत्थ पुंजेति । तहियं पुण वच्चंते, चतुपदभयणा तु छदिसगा ॥४७३२।। कोदृगं णाम जहा पुलिंदकोट्टे चोरपल्लिकोट्ट वा । इह पुण अहिगारो जत्थ लोगो अडवीए पउरफलाए गंतु फलाई सोसेति तं कोट्टगं भण्णति, पच्छा भंडीए बहिलएहि य प्राणेति, प्रादिसद्दातो पुलिंदकोट्ठादिसु जन्थ जणो पुजेति । एतेसु वि गहणपच्छित्तं एमेव दृट्ठव्वं जहा वसमाणे, णवरं इमो विससो - तत्थ गच्छंतस्स चउहिं पदेहि द्दिसिया छसय छद्दिसिया भंगे रयणा कायव्वा ॥४७३२॥ वच्चंतस्स य 'भेदा, दिया य राओ य पंथ उप्पंथे । उपउत्त अणुवउत्ते, सालंब तहा णिरालंबे ॥४७३३॥ वच्चंतस्स भंगरयणभेदा इमे - दिया गच्छति पंथेण उव उत्तो सालंबो। एतेहिं चाहिं पदेहि अट्ठ भंगा भवंति । दिया पंथेण उवउत्तो णिरालंबो १ । दिया पंथेण उवउत्तो सालंबो २ । दिया पंथेण प्रणव उत्तो सालंबो ३ । दिया पथेण अणुव उत्तो गिरालंबो डू। एवं उप्पहेण वि चउरो । एवं दिवसतो अट्ठ भंगा। एवं चेव रातीए वि अट्ट भंगा। एवं सपडिपक्खवयणेस सोलस भंगा ।।४७३३।। १ गा० ४७२५ । २ दोमा इति वृहत्कल्पे गा० ८७३ । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४७३१-४७३५ ] पंचदश उद्देशकः ४६१ अहवा - इमा भंगरयणविही - अट्ठग चउक्क दुग, एक्कगं च लहुगा य होंति गुरुगा य । सुद्धा एगंतरिता, पढमरहियसेसगा तिण्णि ॥४७३४॥ अट्ठवारा दिवसं गहणं करेंतेण महो लहुग-प्रक्खणिक्खेवं कारतेहिं लता ठावेयव्वा । तस्स अहो अण्णे अट्ठ रातीग्गहणं करतेहिं गुरुग-अक्खणिक्खेवा कायव्वा । एते सोलस बितियपंतीए। कह ? भन्नइ - चउरो चउरो लहुगुरुगा अक्खणिक्खेवा कायव्वा जाव सोलस। ततियपंतीए दो दो लहुगुरु प्रक्खणिक्खेवा कायव्वा जाव सोलस । चउत्थपंतीए एककेक्कं लहु गुरु अक्खणिक्खेवं करेजा जाव सोलस . अस्यैव प्रदर्शनार्थ "सुद्धा एगंतरिता" पच्छद्धं । पढमाए पंतीए सोलसोवरि सुद्धरहियत्तणतो एगतरंण लन्भति । "सेसग"त्ति बितिय-ततियघउत्था पंती, एयानो तिष्णि, एतासु सुद्धा एगंतरिया लभंति । कहं ? भणति - बितियपंतीए एक्केण चउक्केण अंतरिता पुणो सुद्धा चत्तारि लब्भात । एवं ततियपंतीए एककेक्केण प्रसुद्धदुगेण अंतरिता सुद्धा लभति । चउत्थपंतीए एगेण चेव सुद्धण अंतरिता सुद्धा लभंति । अहवा- "सुद्धा एगंतरिता" एवं पच्छद्धं सुद्धभंगप्पदरिसणत्थं भण्णति । पढमभंगरहिया जेण सो सम्वहा सुद्धो लब्भति । सेसा जे तिष्णि एगंतरसुद्धा ततिय-पंचम-सत्तमा ते अण्णपदेसु केसु वि असुद्धा । गाढकार्यावलंबनत्वात् । एवं बितियट्ठगे वि एगंतरा सुद्धा, सेसा असुद्धा । प्रालंबनाभावात् । बिय-तिय-पंचम-णवमे य एक्कं सट्ठाणं पच्छित्तं भवति । सेसेसु एक्कारससु भगेसु संजोग पच्चित्तं ॥४७३४॥ तं च इमं पच्छित्तं लहुगा य णिरालंबे, दिवसतो रत्तिं हवंति चतुगुरुगा। लहुगो य उप्पहेणं, रीयादी चेवऽणुवउत्तो ।।४७३॥ दिवसतो जत्थ जत्थ णिरालंबो तत्थ तत्थ डू। रातो जत्थ जत्थ णिरालंबो तत्थ तत्थ था। दिवसतो जत्थ जत्थ उपहेणं तत्थ तत्थ मासलहुं । दिवसतो चेत्र मणुयउत्तो जत्थ जत्थ तत्य वि मासलहुं । प्रणव उत्तो य इरियासमितीए जं भावज्जति तं च पावति । अणुवउत्तस्स उप्पहेसु रातो मासगुरु। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ex अहवा ।।४७३६।। सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे दिय- रातो लहु-गुरुगा, आणा चउ गुरुग लहुग लहुगा य । संजम - आयविराहण, संजमे आरोवणा इणमो || ४७३६ || प्रसुद्धे भंगे दिवसतो डा। रातो ङ्का । तित्थकराणं प्राणाभंगे ङ्क । प्रणवत्थाए चउलहु । मिच्छत्तं जणितस्स डू । विराहणा दुविधा - संयमविराणा आर्याविराहणा च । तत्थ संजमविराहणे आरोवगपच्छितं : सूत्र - १ः तं च इमं - छक्काय चउसु लहुगा, परित लहुगा य गुरुग साहारे । संघट्टण परितारण, लहु गुरुगऽतिवायणे मूलं ||४७३७।। पूर्ववत् एवं चैव कायपच्छित्तं दिवस राईहिं विसेसिज्जति - जहि लहुगा तहि गुरुगा, जहि गुरुगा कालओ तर्हि गुरुगा । छेदो य लहुग गुरुगो, कापसाऽऽरोवणा रत्तिं ||४७३८|| जत्थ दिसतो कायच्छितं मामलहु च उलहु उल्लहु च, राम्रो ते चैव गुरुगा दायव्वा । जत्य पुण एते मासादिगा गुरुगा तत्य ते चैव मासगुरुगादिगा कालगुरू दायव्वा, छेदो जत्थ लहुगो तत्थ सो च्चेव गुरुगो कीरति एयं राम्रो कायपच्छितं भणिय ।।४७३८।। प्रायविराहणा इमा कंट-ड खाणु विज्जल, विसम दरी निष्ण मुच्छ मूल-विसे । वाल - ऽच्छभल्ल - कोले, सिंह-वग्घ- वराह-मेच्छित्थी ||४७३६ ॥ तणे देव- मणुस्से, पडिणीए एवमादि श्राताए । मास चउ छच्च लहू गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ||४७४०|| कंटगेण विज्झति ग्रडी हड्डं तेग दुक्खविज्जति खःगु त्ति खाणुरोग दुक्खविज्जति, विज्जलं उदगचिल्लिय तत्थ पडेज्जा, विसमं णिष्णामुण्गतं तत्य वि पंडिज्जा, दरी-कुमारानी तत्थं पादो विमोज्जिति गिणां खड्डा तत्थ पडति, मुच्छा वा भवति सूल वा अणुधावति विसेग वा सप्पादिणा वा वाले वा स्वजनि रिच्छो मच्छरल्लो तेग वा विरंगिज्जति कोलमुगगेग वा खज्जति, सीहेग वा "वयो" नि विरूत्रो "वराहो" सूकरो, मेच्छपुरिसो वा ग्राहणेज्जति, इत्यो वा उवमग्गेज्जा । अहवा - मेच्छा इत्थी उवसग्गेज्जा, तणिमित्तं मेच्छपुरियो पंतावेज, तेगेहि वा धादि पावेज, देवता वा छज्ज, प्रण्गो वा कोइ पडिणीयादी पंतावेज्ज । एतेहि ठागेहि आयविरागा होज्ज । एते सव्वेस परितावणादिकेसु इमं पच्छितं - "मासचउ" गाहद्धं । "लहु" गुरुतिचत्तारि मासा लहुगा गुरुगा, छच्च मासा लहुया गुरुगा । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाल्यगाथा ४७३६-४७.४] पंचदश उद्देशक: ४६३ इमं प्रणागाढादिसु पच्छित्तं । जति प्राणागाढं परिताविज्जत तो छु। महागाढं तो ड्रा। अह दुक्खादुक्खं भवति । प्रह मुच्छा भवति फ्री । किच्छपाणे छ । किच्युस्सासे मू। समुग्धःते अणवट्ठो। अह कालगते पारंचियं ॥४७४०॥ इमं प्रायविराहणाए दिवसरातिणिप्फण्णं कंट-ऽडिमातिएहिं, दिवसतो सव्वत्थ चउगुरू होति । रत्तिं पुण कालगुरू, जत्थ य अण्णत्थ आतवधो ॥४७४१।। उच्चारितसिद्धा ॥४७४१॥ पोरिसिणासण परिताव ठारण तेणे य देह उवहिगतं । पंतादेवतछलणे, मणुस्सपडिणीयवहणं वा ॥४७४२१. तणिमित्तं सुत्तपोरिसिं ण करेति मासलहु, प्रह प्रत्थ पोरिसिं ण करेति तो मासगुरु, सुतं णासेति छ । प्रत्वं णासेइ ङ्का । परितावण त्ति गतार्थ।। _ "ठवण" ति-प्रणाहारं ठवेति ङ्क, प्राहारं ठवेति ङ्का, परितं ठवेति डू. प्रणेते ड्रा, प्रस्नेह न ठवेति इ. सस्नेहं था । जह मिच्छो मारेति तो पारचियं । अह एकको अोहावति मूलं, दोसु प्रवद्रु, तिसु पारंचियं । "तेण" ति - उवहीतेणा सरीरतेणा वा, उवहीए उवहिणिप्फण्णं भाणियव्वं, सरीरतेणएहिं जति एक्को साधू हीरति तो मूलं, दोहि अणवट्ठो. तिहिं पारंचितो। पंता देवता छलेति चउगुरु । पडिणीतो इत्यि पुरिसो णपु सगो वा हणति । एसा प्रायविराधणा ॥४७४२॥ एवं ता असहाए, सहायगमणे इमे भवे दोसा । पुव्वद्ध कंठं । ते इमे सहाया - जय अजय इत्थि पंडो, असंजती संजतीहिं च ।।४७४३।। तत्थ जे ते "'जया" ते इमे- संविग्गमसंविग्गा, गीता ते चेव होंति उ अगीता । लहगा दोहि विसिट्ठा, तेहि समं रत्ति गुरुगा उ ॥४७४४॥ संविणा गीयत्था, प्रसंविग्गा गीयत्था । संविग्गा अगीयत्था, असंविग्मा अगीयत्था । एतेसि पच्छितं पच्छद्धणसंविहिं गीयत्यहि जति जाति दिवसतो तो चउलह, उभयलह । असंविग्गेहिं गीयत्येहि समं जति जाति तो चउलहु तवलहुं कालगुरु । एवं संविग्गेहिं अगीयत्यहिं चउलहुं काललहुं तवगुरुग । असंदिग्गेहिं प्रगीयत्यहिं पउलहुगं उभयगुरुगं । एवं दिवसतो भणितं । रति तेहिं चेव समं गच्छंतस्स चउगुरुगा, एवं चेव तवकालेहिं विसेसियव्वा ।।४७४४।। १गा० ४७४३ । २ गा० ४७४३ । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪:૪ "जय" त्ति, ते इमे - सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे अस्संजय - लिंगीहिं तु, पुरुसा गिइ पंडएहिं य दिवा उ । अस्सोय सोय छल्लहु, ते चेत्र य रत्ति गुरुगा तु ॥४७४५ ।। संजता गिहिलिंगी वा लिंगमेषां विद्यत इति लिंगिन: - अन्यपाषंडिन इत्यर्थः । ते गिहत्था सोयवादी असोयवादी, लिंगिणो वि श्रसोयवादी सोयवादी । जहिहिं सोयवादीहि समं वच्चति र्फ उभयलहुं, तेहि चेव सोयवादीह समं वच्चति कालगुरु तवलहु । लिंगीएहि असोयवादीहिं समं वच्चनि छल्लहुना तवगुरुगा काललहुप्रा, तेहि चैव सोयवादी हि छलहु दोहिं गुरुगं । इणिपुंगा ते दुविधा - पुरिसणेत्रत्थिया य इत्थवत्थिय ! य । जेते पुरिसवत्या ते गिहत्था लिंगी वा पुणो प्रसोय सोयभेदेणं भिदियव्त्रा, एतेहि सह दिवसतो गच्छतस्स च्छित्तं जहा प्रसंजयलिंगपुरिसाणं भणियं तहा भागियव्वं । एवं दिवसतो भणियं । रति छग्गुरुप्रा तवकाल विसेसिया, एवं चेत्र भाणियन्त्रा ।।४७४५ ।। इदाणि "" इत्थीसु" भण्णड् पासंडिणित्थि पंडे, इत्थीवेसे दिवसतो छेदो । -R तेहिं चि णिसि मूलं, दिय- रतिं दुगं तु समणीहिं ॥ ४७४६॥ परिवाइयादिसु पासंडिणित्यीसु गिहत्थीसु य पंडे य इत्थिवेसधारगे एतेहिं दिवसतो गच्छंतस्स छेदो भवति एतेहि चैव सह गच्छंतो णिसि मूलं भवति । समगोहि समं जति दिवसतो जाति तो प्रणवट्टो, श्रह रातो समणीहि समं गच्छति तो पारंचितो ||४७४६ || अहवा हवा समणाऽसंजय, अस्संजति - संजतीहि दियरातो ! चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ४७४७॥ - [ सूत्र- १२ श्रवश्कल्पः समणेहिं सद्धि दिवा वच्चति ङ्क । रातो वा । सामणेण प्रस्संजएण सह दिवसतो. गच्छति । रातो र्फा । सामण्णेण श्रसंजतीहि सह दिवसतो गच्छति छेप्रो । रत्ति मूलं । संज तीहि समं दिवसतो गच्छति प्रणवट्टो । रति पारंचितो ||४७४७ ॥ अडवीए त्ति गतं । अण्णगहणं गतं । इदाणि "तत्थ गहणं" ति दारं । तत्थ गहणं णाम जे ते रुक्खा जेसु तं पलंबं उप्पज्जति तत्थेव तं पडियं गेहति । तस्सिमो प्रतिदेसो ज चैत्र णगहणेऽरन्ने गमणादि वष्णियं एयं । तत्थ गहणे वि एवं, पडियं जं होति अच्चित्ते ||४७४८ ॥ गहणे कोट्टा दिसु भंगविगप्पेण जा सोधी दोसा य जे वणिया, सत्य गहणे वि हेट्ठा पडितं प्रचित्तं श्रादि काउं सच्वेव सोधी दोसा य अपरिसेसा वण्णेयव्वा जाव समणीहिं सह गम्णं ति ॥४७४६१. १ गा० ४७४३ । २ गा० ४७२४ । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४७४५-४७५२ ] पंचदश उद्देशकः ४६५ एवमतिदेसं काउंति अपरितुष्टः प्राचार्यः विशेषज्ञापनार्थ वा इदमाह तत्थ गहणं पि दुविहं, परिग्गहमपरिग्गहं दुविधभेयं । दिट्ठादपरिग्गहिते, परिग्गहिते अणुग्गहं कोति ॥४७४६॥ - तत्थ गहणं दुविधं- सपरिगह अपरिग्गहं । "दुविधभेद" ति - पुणो एक्केको भेदो सचित्ताचित्तभेदेण भिदियन्वो । “दिट्ठादिअपरिग्गहिए" ति - जंतं अपरिग्गहियं तं अचित्तं तं गेण्हतस्स जा हेट्टा प्रारोवणा भणिता "दितु संकाभोतिगादि' सा सव्वा भाणियव्वा । जंपि प्रारिग्गहं सचित्तं तत्थ वि "दिट्टे" संकामोतिगादि तं चेव । णवरं - कायपच्छित्तं परित्ते लहुगा, अणते गुरुगा। एतेसु चेव सपरिग्गहेसु “कोति" त्ति-भद्दो प्रणुग्गहं करेज्ज -- अणुग्गहं मन्यत इत्यर्थः, पंतो पुणो पंतावणादि करेज्ज ॥४७४६।। सपरिग्गहो इमेसि - तिविह परिग्गह दिव्वे, चउलहु चउगुरुग छल्लहुक्कासा । अहवा छल्लहुग च्चिय, अंतगुरू तिविहदव्वम्मि ॥४७५०।। जं तं सपरिग्गहं तं तिहिं परिग्गहियं होज्जा - देवेहि मागुतेहि तिरिएहिं । जंतं देवेहिं तं तिविहं होज्जा - जहणं मज्झिम उक्कोसं । जहणं वाणमंतरेहि, मज्झिमं भवणवासिजोतिएहि, उक्कोसं वेमाणिएहिं । दिव्वं जहणं वाणमंतरपरिग्गहियं गेहति डू। मज्झिमं परिग्गहं (हियं) गेण्हति था। उक्कोसं परिग्गहियं गेहति छल्लहुग्रं । अधवा - तिसु छल्लहुअं तवकालविसेसिय, उक्कोसएहि दोहिं वि गुरुग्रं कायव्वं ।।४७५०॥ दिव्वं गतं । इदाणि माणुस्सं - सम्मेयर सम्म दुहा, सम्मे लिंगि लहुगुरुगो गिहिएसु । मिच्छा लिंगि गिही वा, पागय-लिंगीसु चउ लहुगा ॥४७५१।। जंतं माणुस्सं पग्ग्गिहियं तं दुविहं - सम्मद्दिट्ठिपरिग्गहियं, "इयरे" ति मिच्छद्दिष्टिपरिग्गहियं वा । "सम्म दुह" ति जं तं सम्मद्दिट्ठिपरिग्गहियं तं दुविधं - 'सम्मलिगि" ति, सावएहि लिंगत्यएहिं य । लिंगत्थपरिग्गहिए मासलहु, सावगपरिग्गहिए मासगुरु । जं तं मिच्छादिट्ठिपरिग्गहियं तं चउब्विहं, तं जहा - अण्णपासंडिपरिग्गहियं, गिहत्थेहि य पायावच्चपरिग्गहियं, कोडुबियपरिग्गहें, डंडियपरिग्गहं । एत्य गिहीहिं पागतेहि अण्णपासंडियलिंगीहिं य च उलहुया पच्छित्त ।।४७५१।। गुरुगा पुण कोडंबे, छल्लहुगा होति डंडिगारामे । तिरिया उ दुट्ठ-ऽदुट्ठा, दुढे गुरुगेतरे लहुगा ॥४७५२॥ कोडुंबियपरिग्गहे था । इंडियपरिगहे फँ । माणुसपरिग्गहं गत । ३ गा०४७२७ । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य- चूर्णिके निशोथ सूत्रे [ सूत्र -१२ इदाणि तिरियपरिग्गहं दुविहं - दुट्ठेहि य अदुद्वेहिं य । श्रहिपुणया प्रणिहुयहत्थिमः दि दुट्टेमु गुरुगा. इयरति अट्ठा, तेसु लहुगा ||४७५२ ।। तिरियपरिग्गहियं गतं । ""परिग्गहेणुग्गहं कोई" त्ति अस्य व्याख्या ૪૨: भद्देतरसुर- मणुया, भद्दो धिप्पंति दट्टुणं भणति । वि साहू गेहसु, पंतो छण्हेगतर कुज्जा ॥ ४७५३ ॥ जेसि सो परिग्गहो ते भद्दता वा होज्ज, इयरा वा पंता वा । जत्थ जे सुरा वा म्णुया वा जेहि तं परिगहियं भद्दगेहिं ते तं घेप्पतं दट्ठ भणेज्ज - लठ्ठे कयं ते पलंगा गहिया, भ्रम्हे मो तारिता, भो हे साहू ! अणे वि पज्जत्तिए गेण्हेस्, पुणो वा गेल्हे जह" । जो पुण पंतो सो इमेसि छण्ं भेदाणं एगतरं कुज्जा ॥४७५३ ॥ १ २ पडिसेहणा खरंटण, उवालंभो पंतात्रणा य उवहिम्मि | गेव्हण-कडूण-ववहार-पच्छकडुड्डाह निव्विस || ४७५४ | पुत्रद्वेण पंचपदा गहिता । गण्हणादी सव्वं पच्छद्धं छट्टो भेदो ||४७५४ || उत्थ "डिसेहो " इमो - जं गहितं तं गतिं, बितियं मा गण्ह हरति वा गहितं । जायस व ममं कज्जे, मा गेव्ह सयं तु पडिसेहो || ४७५५। उच्चारियमिद्धा ||४७५५।। "खरंटणा" इमा - धी मुंडि दुरप्पा, धिरत्थु ते एरिसस्स धम्मस्स । णस्स वा विलब्भसि, मुक्को सि खरंटणा एसा ||४७५६ || ए मुक्कों, अष्णो ते कोइ सिक्सवणं काहिति एवमादिणिप्पिवासा खरंटणा ||४७५६ ।। इमो सप्पिवासो “४ उवालंभो" - आमफलाइन कप्पंति, तुज्झ मा सेसए वि दूसेहिं । माय सकज्जे मुज्झसु, एमादी हो उवालंभो ||४७५७|| पंतावणा " उवधिहरणं च पसिद्धा, पच्छित्ते वा सह भगिहिति । एते पंचसु विपदेसु पच्छित्तं भणाति लहुगा अणुग्गहम्मी, अप्पत्तिव गुरुग तीस ठाणेस । पंतावण चउगुरुगा, अपच हुम्मी हिते मूलं || ४७५ ८ || १ गा० ४७४६ । २ गा० ४७५४ । ३ गा० ५७५४ । ४ गा० ४७५४ । ५ गा० ४५५४ । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४७५३-४७६१ ] पंचदश उद्देशक: ४६७ जस्स सो प्रारामो पडिग्गहे सो जति चितेति-प्रणुग्गहो जं मे साधवो पलंबे गेण्हंति । एत्य अणुग्गहे पउलहुगा । अह अप्पत्तियं करेति तुहिकको य अच्छति ताव चउगुरु।। अप्पत्तिएण वा तयो पगारा करेज्ज - पडिसेह, खरंटा, उवालभे । एतेसु तिसु ठाणेसु पत्तेयं चउगुरुगा । सामणेणं पंतावणे चउगुरुगा, अप्पे वा बहुम्मि वा उवहिम्मि हरिते मूलं भवति । अहवा - उवहिणिप्फण्णं ॥४७५८॥ परितावणा य पोरिसि, ठवणा 'महत मुच्छ किच्छ कालगते । मास चउ छच लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥४७५६।। पंतावियस्स प्रणागाढपरितावणा गाढपरितावणा।। अहवा - पंतावितो परितावणाभिभूप्रो सुत्तपोरिसिं ण करेति मासलहुं । अत्थपोरिसिं न करेति मासगुरु । सुत्तपोरिसिं प्रकरेमाणा सुतं णामिति । अत्यं णासिति इा। प्रणाहार ठवेति । माहारिमे ड्ड । परिते छ । प्रणेते ड्रा । फासुए ङ्क । अफासुए छा। प्रसिणेहे ङ्क । सिणिहे का । महादुक्खे झै । मुच्छाए म । किच्छपाणे छेदो । किच्छुस्सासे मूलं । संमोहते प्रणवटुप्पो । कालगए पारंचियं ॥४७५६॥ सा परितावणा इमेहिं तालियस्स भवति - कर पाद डंडमादिहि, पंतावणे गाढमादि जा चरिमं । अप्पो उ अहाजातो, सव्वो दुविहो वि जं च विणा ॥४७६०॥ हत्थेण वा पादेण वा दंडेण प्रादिग्गहणेण लतादिसु पंतावेजा । पंतावियस्स प्रणागाढादिविकप्पा भवति । तेसु य चउलहुगादि जाव चरिमं पच्छितं भवति । तं च प्रगतरमेव भणियं । "अप्पबहुम्मि हिते" त्ति अस्य व्याख्या - अप्पो उ पच्छदं ।। अप्पोवधी को ? एसा - पुच्छा । उत्तरं-अहाजातो। कतिरूवो? अत्रोच्यते - रयहरणं, दो णिसिजापो, मुहपोत्तिया, चोलपट्टो य । बहु केरिसो ? सन्वो त्ति चोद्दसविहो। अहवा दुविधो वि - प्रोहितो उवम्गहितो य। चोदगाह - “कहं उवधिणिप्फणं, कह वा मूलं' ? अत्रोच्यते - पमादतो उवधिणिप्फण्णं, अह दप्पतो पलंबे गेण्हतस्स सब्वोपकरणावहारो तो मूलं भवति । अहवा - सब्बोवकरणे हिते णियमा परलिंगं भवति, तेण मूलं भवतीत्यर्थः । जं च एतेण उवधिणा विणा काहिंति पाविहिंति वा ॥४७६०॥ किं च तं ? उच्यते - तणगहणे मुसिरेतर, अग्गी सट्ठाण अभिणवे जं च । . एसणपेल्लण 'गमणे, काए सुय मरण तोहाणे ॥४७६१॥ १ ठवणाशब्दस्याग्रे 'फासुगसिणेह' इत्यधिकं दृश्यते केषुचिद् भाष्यपुस्तकेषु । २ कर-पाद-डंड माइसु, इति । बृहत्व ल्पे गा० ६०० । ३ गहणे इति बृहत्कल्पे गा० ६०३ । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ सभाष्य-पूर्णिके निशीषसूत्रे [सूत्र-१२ सीताभिभूता तणं सेवंति मुसिरे स। इतरे सि - प्रज्मुसिरे सेवते मासलहुं । अग्गी सेवंति तीए सहाण चउलहुं । अह अहिणवं पग्गिं जणेति तो मूलं। जंच मग्गिसमारंभे भण्णेसि जीवाणं विराहणं करेंति तण्णिप्फणं च । “एसणं पेल्लई"त्ति उवकरणाभावे उग्गमुप्पायणादोसेण जैण दृढं गेहति तण्णिप्फणं च । "गमणे" ति उवहिणा विणा जति सीतादीहिं परिताविजमाणा अण्णतिथि एसु एक्के मूलं, दोहिं प्रणवट्ठो, तिहि चरिमं । "काए" ति मग्गिसेवणा जं पुढवादिकाए विराहेति तण्णिप्फणं । अहवा - "काए" ति भणेसणादिसु जं काए व हंति तण्णिप्फणं । "सुते" त्ति सुत्तं ण करेति, प्रत्यं न करेति, सुत्तं णासेति, प्रत्यं णासेति पच्छित्तं पूर्ववत् । उवहिणा विणा जति एक्को मरति तहावि चरिमं । उवकरणाभावे जति एक्को मोहावति मूलं, दोहिं प्रणवट्ठो, तिहिं पारंचिो ॥४७६२॥ उवहि त्ति गतं। इदाणि "'गेण्हण कड्डण" पच्छद्धस्स इमा विभासा - गेण्हणे गुरुगा छम्मास कट्टणे छेदो होति ववहारे। पच्छाकडम्मि मूलं, उड्डहण विरुंगणे णवमं ॥४७६२॥ पलंबे गेण्हंतो गहितो तस्स चउगुरुगा, उवकरणं हत्ये वा घेत्तुं कड्ढितो ताहे छग्गुरुं, करणे पारोविते ववहारे य पयट्टे छेदो । “पच्छाकडो" त्ति जितो तम्मि मूलं, तिग-चउक्क-चच्चरेसु "एस-पलंबहारि" ति उड्डाहो, हत्ये वा पादे वा विरु गिते, एतेसु उड्डाहण-विरु गितेसु दोसु वि प्रणवट्ठो ।।४७६२।। उद्दावण-णिव्विसए, एगमणेगे पदोस पारंची। अणवठ्ठप्पो दोसु य, दोसु य पारंचितो होति ॥४७६३॥ जति उद्दविप्रो णिव्विसो वा प्राणत्तो एतेसु दोसु वि पारंचियं । "प्रणवटुप्पो" ति पच्छदं गतार्थ । अधवा - एगस्स प्रणेगाण वा जति पदोसं जाति तो पारंचितो ।।४७६३॥ इमं परिग्गहविसेसेण पच्छित्तविसेसं दरिसेति आराम मोल्लकीते, परउत्थिय भोइएण गामेण । वणि-घड-कुडंब-रन्ना, परिग्गहे चेव भहितरा ॥४७६४॥ पारामो मोल्लेण कीपो, सो पुण केणं कीतो होज्जा ? इमेहि- कुटुंबिणा परउत्थिएण वा भोइएण वा गामेण वा वणिएण वा 'घड' ति गोट्ठीए मारक्खिएण वा रण्णा वा ॥४७६४।। एतेसु उ गेण्हते, पच्छित्त इमं तु होति णायव्वं । चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥४७६॥ इत्य जति गिण्हति तो इमं पच्छित्तं - जहासंखं- २:::::::::::। मूलं मणवट्ठो पारंचितो ति । एत्थ वि ते चेव भहेतरदोसा पडिसेहणादिया य ॥४७६५।। रुक्खाहो जं पडितं सचित्तं च तं भणियं । १ गा.४७५४ । २-४ ल०४ गु० ६ ल० ६ गु० । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदश उद्देशकः इदाणि भूमिट्टियो जं हत्येण पावति तं गेण्हंतस्स भण्णति माष्यगाथा ४७६२-४७७० ] सजियपतिटिए लहुओ, सजिए लहुगा य जत्तिया गासा । गुरुगा होति चणंते, हत्थप्पत्तं तु गेण्हंते ॥ ४७६६ ॥ सचित्तपट्टतं चित्तं फलं जइ गेण्हति तो मासलहूं, प्रचित्ते जत्तिया "गासा" करेति तत्तिया चेव मासलहु । जति पुण सचित्ते प्रचिते वा पतिट्ठितं सचित्तं गेहति तो चउलहुगा, तत्थ वि जत्तिया गासा करेति तत्तिया चउलहू । एवं परिते । श्रणंते एते चेव गुरुगा पच्छित्ता । भूमिट्टितो रुक्खट्टियं गेव्हंतो एवं भणित, एत्थ विदिट्ठे संकाभोतिगादी सब्वे दोसा । तिविहपरिग्गहे दोसा य वच्वंतस्स य जे दोसा जाब प्राराममोल्लकीए त्ति सव्वं भाणियव्वं ॥ ४७६६॥ एमेव य 'सच्चिते, छुमणा आरुमणा य पडणा य । जं एत्थं णाणतं, तमहं वोच्छं समासेणं || ४७६७॥ प्रथमपातो गतार्थः । छुभणा, प्रारुभणा, पडणा य तिष्णि वि मूलदारा उवण्णत्था । पच्छद्धं कंठं । तं सच्चित्तं दुविहं, पडियापडियं पुणो परिचितरं । पडियासति यऽपावेंते, छुब्भति कट्ठातिए उवरिं ॥ ४७६८ ॥ द्धं गतार्थं । एत्थ "सचित्त" मिति मूलदारं गतं । इदाणि "छुभण" त्ति "पडियासति " पच्छद्ध | भूमिपडिया पलंबस्स श्रसति भूमिट्टितो रुक्खट्टितं पलंबादि जाहे ण पावति ताहे पलंबपाडणट्ठा कट्ठादी उवरि छुभति । तं कट्टुमादी ठावंतस्स :: । छुभमाणस्स वि क ||४७६८ ।। छुहमाणे पंचकिरिया, पुढवीमादी तसेसु तिसु चरिमं । तं काय परिच्चयती, आवडणे अप्पगं चेव ||४७६६॥ तं कमादिखिवमाणो पंचकिरिया हि पुट्ठो, तं जहा कातियाए अधिकरणियाए पादोसियाए परितावणिया पाणातिवात किरियाए य । संपत्तीश्रो वा मा वा होउ तहावि पंचकिरियो । पुढविकायादिसु तसावसासु य जीवेसु संघट्टाए परितावणाए उद्दवणाए । एतेभु तिसु ठाणेसु मासादी प्राढत्तं मूलं पावति, तिसु पंचिदिएसु चरिमं भवति, कट्टादि खिवंतो तं वणस्सतिकायं परिच्चयति, सोय लगुडादी "आवडणे" त्ति - पच्छफिडियणियत्तो अप्पणी चेव श्रापडति एत्थ श्रायविराहणा ||४७६६।। कहं पुण तत्थ छक्कायविराहणा ? उच्यते Y&E - - पावंते पत्तम्मिय, पुणो पडते य भूमिपत्ते य ! रय-वास - विज्जुमादी, वात- फले मच्छिगादि तसे ||४७७० ॥ पावंति त्ति हत्थमुत्तं जाव रुवखं ण पावति एत्थं अंतरा तं पावंतं - गच्छंतमित्यर्थः । खण्डं काय विराह । “पत्तम्मि" य रुक्खं जता पत्तं एत्थ वि छक्काया, पुणो पडतं छक्काए विराधेति, भूमिपडिए वि छक्काया । १. गा० ४७२४ । २ गा० ४७२४ । ३ गा० ४७२४ । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - १२ कहं ? उच्यते - एतेसु चउसु वि ठाणेसु इमे छक्काया संभवंति, "रो" त्ति - पुढवि, वासे पडते उदगं विज्जुम्मि श्रगणिकाए विराहेति वाउकायं विराहेति रुक्खे "पलंबा" माहणंतस्स वणस्सती, तसा मच्छिगादिगा संभवति ||४७७० ॥ ५०० एय चेव पुणो फुडतरं दरसिज्जति - 7 "रय - खोल्लमादिसु मही, वासोसा उदग अग्गिदवंदड्ढे । तत्थेवऽणिल वणस्सति तसा उ किमि - कीड - सउणादी ||४७७१ ॥ , खोल्लं कोत्थरं तत्थ पुढविसंभवो, पण्णे तयाए वा वासं पडति श्रोगे वा महियाए वा पडतीए उदगविराहणा, विज्जूए वणदवादिणा बा दरदद्धे अगणी, तत्येवाशिलो त्ति वातं विराहेज्जा, सो चैत्र वणस्सती पत्तपुप्फफलादि वा, तसा मच्छिया किमिया वा कीडा वा सउणादि वा एवं ताव अप्राप्ते कट्टे विराहणा छण्हं कायणं भणिता । पत्ते वि एवं चैव पुणो पडते एवं चेत्र, भूमिपते वि एवं चेत्र ॥ ४७७१ ॥ जो भण्णति - पत्ते जो उगमो, सो चेव गमो पुणो पडंतम्मि | सो चैत्र य पडितम्मि वि, निक्कंपे चेव भूमीए || ४७७२ || उच्चरियसिद्धा । "शिवकंपे चैव भूमीए" त्ति - जहि ठिनी ठाणे कटुं खिवंतो थाम बंघति, तत्थ विपाताणं णिप्पगपत्ते य पुढवादीणं छण्हं कायाणं विराहणा भवति, अधवा तं कटुं पडितं पिपाए भूमी पुढवादीयाणं छण्हं कायाणं गाढतरं विराहणं करेति ॥ ४७७२ ॥ - एवं दव्वतो छहं, विराहतो भावतो उ इहरा वि । चिज्जति हु घणं कम्मं, किरियागहणं भयणिमित्तं || ४७७३ || एतेन जहासंभत्र पगारेणं दव्त्रतो छण्हं पि कायाणं विराहगो भवति । भावम्रो पुण "इहर" ति - जति विग विराहेति तहावि छण्हं कायाणं विराहतो चेत्र भवति । कहं ? भावपाणातिवाततो निरपेक्षत्वात् । भावपाणातिवाएण य जहा घणं कम्मं विज्जति ण तहा दव्वपाणातिवारण, जो "उच्चालयम्मि पादे" ॥४७७३॥ चोदगाह - "जं भणियं पंचहि किरियाहि पुट्ठो" ति । तं कहं ? जति ण विराहेति तो परितः वणिया पाणातिवायकिरिया य कुतो संभवंति ? ग्रह विराधेति तो एयाओ होज्जा, पादोसिया कहं होज्जा ? आचार्य ग्रह - किरियागहणं भयजणणत्यं कीरति । अहवा - जत्थ एगा किरिया तत्थ दिद्विवायनयसुतुमत्तगयो पंचकिरियामो भवति, प्रतो पंच किरियग्गहणे ण दोसा । एवं ताव संजमविराणा भणिता । ग्रायविराहणा कहूं भवति ? उच्यते - कुक्ष्णय पत्थर लेट्ठ ू, पुच्छूढे फले य पवडते | पच्चु फिडणे आता, अच्चायामे य हत्थादी ||४७७४॥ १ " खोल्लतयादिसु रम्रो, महिवासोस्साई मग्गिदरदड्ड" इति बृहत्कल्पे गा० ६१२ । . Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४७७१-४७७८ ] पंचदश उद्देशकः प्रणेण केण ति पुव्वं पलंबत्थिणा "कुवण" ति लउडगो, सो खित्तो विलग्गो अच्छमाणो वाउपप्रोगेण साधुणा वा जं खितं तेण संचालितो पडतो साधु विराहेज्जा, एवं पत्थरो लेडू फलं वा पडतो। अहवा-जं साधुणा घत्तियं तं खोडादिसु पच्चुप्फिडियं पाहणेज्जा, बाहू वा अच्चायामेण दुक्खे ज्जा । एवं प्रायविराहणा भवति ॥४७७४॥ "छुभणे' त्ति दारं गतं । इयाणि आरुभणत्ति दारं खिवणे वि अपावतो, दूहति तहि कंट-विच्छु-अहिमाती । पक्खि-तरच्छादि वहो, देवतखित्तादिकरणं च ॥४७७॥ खित्ते वि कद्वादिगे जहा पलंबा ण पडंति अपावेतो अहे ठितो प्रलभंतो ताहे पलंबढ़ा तं रुक्खं 'दुरुहति, तत्थ दुरुहंती जत्तिपाते बाहुक्खेवेहि चडति तत्तिया ::। प्रणते ते चेव चउग्ररुगा । एवमादि काय विराहणा । इमा प्रायविराहणा- तेहिं चडतो कंटगेहि विज्झति, विछिएणं सप्पेण वा खज्जति, सेणमादि पक्खीण वा प्राहम्मति, तरच्छभादिणा वा खज्जति, देवता वा जम्स परिग्गहे सो रुक्खो सा रुट्ठा खित्त. चित्तादिकं करेज्जा ।।४७७५॥ अहवा तत्थेव य णिट्ठवणं, अंगेहि समोहतहि छकाता । आरोवण सव्वे वा, गिल णपरितावणादीया ॥४७७६॥ सा देवता रुट्ठा तत्य "णिट्टवेति" त्ति मारेज्जा, अहवा सा देवता रुट्ठा पाडेज्जा, तत्थ से अणंतरं अंगं सव्वाणि वा समोहणंति - भज्जतीत्यर्थः । जत्थ य पडति तत्थ छण्हं जीवणिकायाणं विराहणं करेग्जा, एत्थ कायारोवणा पूर्ववत् । परितावणादी य गिलाणारोवमा पूर्ववत् ॥४७७२।। पोरोहणं त्ति दारं गतं । इदाणि "२पडण" त्ति दारं-- गेलण्णमरणमाती, जे दोसा होति दुरुहमाणस्स । ते चेव य सारूषणा, सविसेसा होंति परडते ॥४७७७॥ कताति सो तत्य चडतो पडेजा सयमेव, एत्य य दोसा भाणियव्वा जे प्रारुहंतस्स पडणमादी मणिता । जा य प्रायसंजमविराधणा, जंच पच्छित्तं, तं सव्वं पडते भाणियव्वं सविसेसं । सविसेसग्गहणं पारुभंतस्स दोसाणं संभवो भणितो, पडते पुण णियमा गिलाणगा समुग्घायादिया दोसा ।।४७७७।। पडण त्ति दारं गतं । इदाणि "3उवहि" ति दारं तंमूलमुवहिगहणं, पंतो साधूण चेव सव्वेसि । . 'तणगहण अग्गिपडिसेवणा य गेलण्णपडिगमणं ॥४७७८॥ जस्स सो परिग्गहे सो भणति - कीस मे अणापुच्छाए गेण्डति, तणिमित्तं जो पंतो सो तस्स वा साघुस्स अण्णस्स वा साधुस्स सम्वेसि वा साधूण वा उवधिं गेण्हति, एत्य से मूलं पच्छित्तं उवधिनिष्फणं वा । १ गा० ४७२४ चू । २ गा० ४७२४ । ३ गा० ४ : २४ । ४ तण अगि गहण परितावणा इति बृहत्कल्पे गा. ६१६। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र--१२ अहवा-महाजाते मूलं, सेसेसु उक्कोसए (प्रायं बिलं) क. मज्झिमए मासलहू, जहणे पणगं । एवं उवहिणा हडेगं तणाणि झुसिराणि य अज्झुसिराणि वा गेण्हेज्जा, सीतेण वा अभिभूतो अग्गिं सेवेजा, सीतेण वा प्रणागाढा वि परिताविज्जेज, सीतेण वा अजीरंते गेलणं वा हवेज, सीताभिभूता वा साधू पासत्थेसु अण्णतित्थिएसु वा गिहत्येसु वा गमणं करेज ॥४७७८।। एतेसु इमं पच्छित्तं तणगहण अग्गिसेवणं, लहुगा गेलण्णे होंति ते चेव । मूलं अणवठ्ठप्पो, दुग-तिग-यारंचियं ठाणं ॥४७७६॥ अझुसिरतणेसु :: । झुसिरे : : 1 परकडं अग्गिं सेवति :: । अधिणवं जणेति मूलं. प्रतितावेण वा तप्पंतो ण तप्पामि व त्ति काउं जतिर वारे हत्थं पादं वा संचालेति तत्तिया :: । कोई पुण धम्मसद्धाए अग्गिं ण सेवति त्ति परिताविति, गिलाणो वा भवति तत्थ तं चेव पुव्वणितं भाणियवं, सीतेण वा परिताविज्जतो पासत्यादिसु जति जाति ङ्क, अहाछंदेसु ङ्क, जति मोहावति एक्को मूलं, दोहिं प्रणवट्ठो, तिसु पारंचित्तं । अण्णतित्थिए सु एवं ग्रेव ॥४७८६॥ उवहित्ति गतं । इदाणिं "'उड्डाहे" त्ति दारं - जे पडणादिया दारा पडिलोमेणं एते अपरिग्गहे सपरिग्गहे वा भवंति । जे पुण उवहिउड्डाहदारा एते दो वि णियमा सपरिग्गहे भवंति । अस्यार्थस्य ज्ञापनार्थमिदमाह अपरिग्गहित पलंबे, अलभंतो समणजोगमुक्कधुरो । रसगेही पडिबद्धो, इतरे गिण्हंतो उ गहितो ।।४७८०॥ "इयर" त्ति सपरिग्गहे पलंबे गेण्हतो पलंबसामिणा गहिरो ॥४७८०॥ महजणजाणणता पुण, सिंघाडग-तिग-चउक्क-गामेसु । उड्डहिऊण विसज्जिते, महजणणाते ततो मूलं ।।४७८१॥ गहितो समणो, महाजणस्स जाणावियो। कहं ? उच्यते सिंघाडगठाणं णोतो, तिग णीतो, चउक्कं वा, पारामाप्रो वा गाम णीतो, एतेसु महाजणट्ठाणेसु णीतो महाजणेण णातो, जेण गहितो तेण महाजणपुरतो उड्डाहिऊण विसज्जितो त्ति मुक्को, एत्य से मूलं भवति ॥४७८१॥ ___इमो य दोसो - एस तु पलंबहारी, सहोट गहितो पलंबठाणेसु । सेसाण वि 'बाघातो, सविहोढ विलंबित्रो एवं ॥४७८२॥ जेण सो पलंबे गेण्हंतो गहितो सो तं सिंघाडगादिठाणेसु णेउं भणति - "एस मए आरामे त्ति चोरो गहिरो पलंबे हरंतो, सहोढ त्ति सरिच्छो, एवं सो “सविहोढ' त्ति - लज्जावणिज्ज बेलंबिय इव विलबितो। अहवा - त्रिकादिषु इतश्चेतश्च नीयमानो महाजनेन दृश्यमानः "किमिदं किमिदं ?" इति पृच्छकजनस्याख्यायमानो स लज्जमानमधोदृष्टिविवर्णविषण्णमुखो दृश्यमानो घिग् जनेनोच्यमानो स्वकृतेन १ गा० ४७२४ । २ छाघातो, इति पूनासत्कमूलभाष्यप्रती बृहत्कल्पे च गा० ६२३ । . Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४७७९-४७८६ ] कर्मणा विलंबित इव विलंबि, इति वाघातो भवति ॥४७८२ ॥ पंचदश उद्देशकः एवं विलंबिते सेंसाण वि साधूण जहुत्तकिरियट्ठियाणं सव्वे एते अकिरियट्टिया उड्डाहे त्ति दारं गतं । इदाणि जं तं ट्ठा भणियं - प्राणाणवत्थमिच्छत्तविराहणा कस्सऽगीयत्ये” त्ति, २ एयं उवरि भणिहिति" त्ति तं इदाणि पत्तं । तत्थ पढमं "प्राणे" त्ति दारं भगवता पडिसिद्धं "ण कष्पति" त्ति, पलंब गेव्हंतेण प्राणाभंगो कतो । तम्मि य प्राणाभंगे चउगुरु पच्छितं । चोदगाह - अवराहे लहुगतरो, आणाभंगम्मि गुरुतरो किह णु । आणा च्चिय चरणं, तब्भंगे किं ण भग्गं तु ॥ ४७८३॥ - इमस्स चेव अत्थस्स साहण्णट्ठा इमो दिट्टंतो "प्रवराहो" त्ति चरित्ताइयारो । तत्थ पच्छितं दंडो लहुतरो स्यात् । कहं ? उच्यते - भावदव्वपलंबे मासलहुं, भावतो अभिण्णे परिते चउलहुं । इह य प्राणाभंगे उगुरु तो कहं णु एयं एवं भवति - " प्रवराहे लहुयतरो सति जीवोवधाए वि, भाणाए पुण णत्थि जीवोवघातो" त्ति । आचार्याह - प्राणाए च्चिय चरणं ठियं श्रतो तब्भंगे किं ण भग्गं ? किमिति परिप्रश्ने । आचार्यः शिष्यं पृच्छति - किं तत् वस्तु अस्ति यद् प्राज्ञाभंगे न भज्यते ? नास्त्येवेत्यर्थः । प्रत आज्ञायां गुरुतरी दंडो युक्तः, अवराधे लहुतरो इति ॥ ४७८३॥ सोऊण य घोसणयं, अपरिहरंता विणास जह पत्ता । एवं अपरिहरंता, हितसव्वस्सा तु संसारे || ४७८४ ॥ ५०३ रण्णा घोसावियं सोतून तं अपरिहरंता जहा धगविणासं सरीरविणासं च पत्ता, तहा तित्थकरणसिद्धं परिहरतो हियसंजमधणसव्वसारो संसारे दुक्खं पावेंति ॥ ४७८४॥ : स भद्द बाहुकया गाहा एतीए चेव भासकारो वक्खाणं करेति पुरिसा मज्झ पुरे, जो प्रसादेज्ज ते प्रयाणंतो । तं डंडेमि कंडे, सुणंतु पउरा ! जणवया ! य ॥४७८५|| जहा कोति णरवती, सो छहिं पुरिसेहिं प्रण्णतरे कज्जे तोसितो इमेणऽत्थेण घोसणं करेति - मज्भं छ मणुसा सविसयपुरे अप्पणो इच्छाए विहरमाणा अणुवलद्धरूवा वि जो ते छिवति वापीति वा मारेति वा तस्स उग्गं डंडं करेमि, सुणंतु एयं पुण जणवया ॥ ४७ : ५ ।। आगमि परिहरंता, णिद्दोसा सेगा श्रणिदोसा | जिणाणागमचारी, अदोस इतरे भवे दंडो ||४७८६॥ ततो ते जणवया डंडभीता ते पुरिसे पयत्तेण प्रागमियपीडापरिहारकयबुद्धी जे तेसि पीडं परिहरति ते णिद्दोसा, जे पुण प्रणायारमंता ण परिहरति ते रण्णा इंडिया । १ गा० ४७२३ । २ गा० ४७२३ च्० । ३ भाव भिन्ने उभयभिन्ते च पलंबे इत्यपि पाठः । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे सूत्र-१२ एवं रायाणो इव तित्यकरा, पुरमिव लोगो, पुरिसा इत्र छक्काया, घोसणा य छक्कायवज्जणं, पीडा इव संघट्टणादी, एवं जहुत्तं छक्कायवज्जणं जिणाणागमचारी कम्मवधणदंडयोसेण अडंडा, इतरे भवे पुणो पुणो सारीरमाणसदुक्खदंडेण डंडिता ।।४७८६॥ 'ग्राणे त्ति दारं गतं । इदाणि "प्रणवत्य" त्ति दारं - एगेण कयमकज्जं, करेति तप्पच्चया पुणो अण्णो । सायाबहुल परंपर, वोच्छेदो संजम-तवाणं ॥४७८७॥ - एगेण कतो, "तपच्चय" त्ति एस प्रायरिमो सुप्रधरो वा एवं करेति गूणं णत्येत्थ दोसा, प्रहं पि तप्पच्चयातो करेमि त्ति. ततो वि प्रण्णो करेति, एवं सोक्खपडिबद्धाणं जं संजमतवपद पुवायरिएण वज्जितं तं पच्छिमेहिं अदिटुंति काउं वोच्छिण्णं चेव ।।४७८७।। इदाणि '२ मिच्छ" त्ति दारं मिच्छत्ते संकादी, जहेव मोसं तहेव सेसं पि । मिच्छत्तथिरीकरणं, अब्भुवगम वारणमसारं ॥४७८८॥ प्रणभिग्गहियसम्ममिच्छाणं मिच्छत्तं जणेति, जहा एयं मोसं तहा सेसं पि सव्वं, एतेसि मोसं संकंवा जणेति, प्रादिसद्दातो कंखादी भेदा दट्ठल्वा, मिच्छत्तवलियभावस्स सम्मत्ताभिमुहस्स पलंबगहणदरिसणातो मिच्छत्ते थिरं भावं जणेइ, "अन्भुवगमो” त्ति पचतिउकामस्स वा अणुव्वयाणि वा घेतुकामस्स सम्मदसणं वा पडिवज्जितुकामस्स भावपरावत्तणं करेति, पवयणे सिढिलभावं जणेति, तं दटुं सेहादि वा पडिगमणादि करेग्ज। अहवा-प्रभुवगमं संजमे करेंतस्स संजमासंजमे वा सम्मईसणे वा वारणं करेज्ज-"मा एयंपंडिवज्जह, "प्रसार ति - एयं पवयणं णिस्सारं, मए एत्थ इमं च इमं दिटुं" ति ॥४७८८॥ मिच्छत्ते त्ति गतं । इदाणि “3विराहणे" त्ति दारं- सा दुविधा प्रायाए संजमे य । दो वि पुव्वभणिता, तहावि । इमो विसेसो भण्णति - रसगेही पडिवी, जिन्भादंडा अतिप्पमाणाणि । भोत्तणऽजीरमाणे, विराहणा होति आताए ॥४७८६।। पलंबरसगिद्धो "जिन्भादंडि" ति प्रतीव गिद्धे प्रतिप्पमाणे बहू भुत्ते य प्रजीरमाणा सज्जविसूतितादी करेज, एवमादी मायविराहणा गता ॥४७८॥ इदाणि संजमविराहणा - तं काय परिचयती, गाणं तह दंसणं चरित्तं च । बीयादी पडिसेवग, लोगो जह तेहि सो पुट्ठो ॥४७६०॥ १ गा० ४७२३ दा०२।२ गा० ४७२३ द्वा० । ३ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदश उद्देशकः "तं कायं परिच्चय" इति पुग्वद्धस्स इमा दो वि भासगाहाम्रो भाष्यगाथा ४७८७-४७६४ ] कार्यं परिच्चयंतो, सेसे काए वए य सो चयति । णाणी णाणुपदेसे, अट्टमाणो उ अन्नाणी ||४७६१ ॥ दंसणचरणा मूढस्स णत्थि समता वा णत्थि सम्मं तु । विरतीलक्खणचरणं, तदभावे णत्थि वा तं तु ॥ ४७६२|| -- लंबे गेव्हंतेण वणस्सतिकाश्रो परिच्चत्तो, वणस्सतिकायपरिच्चागेण सेसा वि काया परिच्चत्ता, एवं छक्कापरिचागे पढमवयं परिच्चत्तं, तस्स य परिच्चागे सेसवया वि परिच्चत्ता । एवं श्रव्वती भवति । दारं । जहा अण्णाणी णाणाभावतो णाणुवदेसे ण वट्टति एवं णाणी वि णाणुवदेसे श्रवट्टंतो णिच्छयतो पाणफलाभावाश्रो प्रण्णाणी चेव । दारं । णाणाभावे मूढो भवति, मूढस्स य दंसणचरणा ण भवंति । अधवा • जेण जीवेसु समता णत्थि पलंबगहणातो तेण सम्मत्तं णत्थि । दारं । विरतिलक्खणं चारितं भणियं तं च पलंबे गेण्हंतस्स लक्खणं ण भवति, "तदभावे" त्ति लक्खणाभावे चारितं णत्थि वा ग्रहणात् अपवादे गृण्हतोऽपि चारित्रं भवत्येव । दारं । ""बीयाइ” त्ति फला बीजं भवतीति कृत्वा बीजग्रहणं, प्रादिसद्दातो फलं पत्तं प्रवालं शाखा तया खंधं कंदो मूलमिति ॥ ४७ चोदगाह - " कीस बीयाती कता ? कीस मूलादी न कता ? सन्चो वणस्सति मूलादी भवति त्ति । प्राचार्याह - पाएण बीयभोई, चोदगपुच्छाऽणुपुव्वि वा एसा । जोणीघाते वहता, तदादि वा होति चणकाओ ||४७६३ || पाएण जणवयो बीयभोती, तेण कारणेणं बीयाई कतं । अधवा समए तिविहा प्राणुपुव्वी पुत्राणुपुत्री पच्छाणुपुन्वी श्रणाणुपुग्वी । तिविधा वि श्रत्थतो परूविज्जति, ण दोसो । एस पच्छाणुपुन्वी महिता । - बीयं जोणी, तम्मि घातिए सवे चेव मूलादी घातिता होंति । अधवा ग्रहवा – सव्वेसि वणस्सतिका तियाणं "तदादि" त्ति बीयं श्रादि । - कहं ? जेण ततो पसूती, तेण कारणेण श्रादीए पडिसेहियाए सम्बं पडिसेहियं भवति त्ति काउं बीयादिगहणं कतं ।।४७६३।। "पडिसेवगलोगो जह तेहिं सो पुट्ठो" अस्य व्याख्या ५०५ विरतिसहावं चरणं, बीयासेवी हु सेसघाती वि । अस्संजमेण लोगो, पुट्ठो जह सो वि हु तहेव || ४७६४|| १ गा० ४७६० । २ गा० ४७६० । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - १२ जतो य एवं ततो जो बीए पडिसेवति सो नियमा मूलादि सेसघाई भवति, जो य ते घाएति तस्स विरतिभावं चरणं तं ण भवति, जो य बीए पडिसेवति सो जहा लोगो संजतो असं तत्तणतोय असंजमेण पुट्ठो एवं सो विहि पलबेहि असेवितेहि प्रस्संजमेण पुडो, तो पलंबप डिसेवगत्तणस्स पडिसेहो कज्जति ||४७६४ ॥ विराहणे त्ति मूलदारं गतं । इदाणि ""कस्स गीयत्थे" त्ति दारं, एयस्स विभासा - ५०६ कस्सेयं पच्छित्तं, गणिणो गच्छं असावेंतस्स । हवा व गीयत्थस्स भिक्खुणो विसयलोलस्स || ४७६५|| सीसो पुच्छति - एस जो पच्छित्तगणो भणितो, एस कस्स भवति ? आयरिश्रो आह - "गणिणो गच्छं प्रसारवेंतस्स, प्रसारवणा णाम अगवेसणा - "को तत्थ गतो. को वा पुच्छिउं गतो अणापुच्छा वा, पलंबगहणा श्रालोइए वा सोहि ण देति ण कारवेति वा, ण वा चोदेति वा" । एवं प्रसारवें तस्स गुरुणो सव्वं पच्छितं भवति । ग्रहवा - अगीयत्थो अण्णं च विसयलोलो होउं पलंबे गेण्हति तस्स भिक्खुणो पच्छितं भवति । अधवा - अगीयत्थस्स गीयत्थस्स वि विसयलोलस्स एवं पच्छित्तं भवति । पुणो चोदगाह - किं कारणं प्रायरियस्स अविराहेंतस्स जीवकाए पच्छित्तं भवति ? प्राचार्याह - जेण सो गच्छवि राणा वट्टति । कहं ? जेण गच्छं ण सारवेति । तत्थ य इमे प्रायरिभंगा - प्रगीयत्थो प्रायरियो, गच्छं ण सारखेति, विसयलोलो य, एतेसु तिसु पदे पडिपक्खेसु अट्ठ भंगा कायव्वा । एत्थ अंतिम सुद्धो । आदिमा सत्त वज्जणिज्जा ।।४७६५।। कहं ? २ देसो व सोवसग्गो, वसणी व जहा अजाणगनरिंदो । रज्जं विलुत्तसारं, जह तह गच्छो वि निस्सारो ||४७६६ || " देसो व सोवसग्गो" त्ति ग्रस्य व्याख्या 3 मोरिया य जहिं, असिवं च ण तत्थ होइ गंतव्वं । उप्पण्णे ण वसितव्वं, एमेव गणी असारणितो || ४७६७|| जहा देसो प्रसिवा उवद्दवजुत्तो वज्जणिज्जो तहा गणी प्रसारणिश्रो विसयलोलो वज्जणिजो ॥। ४७६७।। "श्वसणी व जहा" ग्रस्य व्याख्या - सत्तण्हं वसणाणं, अण्णतरजु ण रक्खती रज्जं । अंतेपुरे व च्छति, कज्जाणि सयं न सीलेति ||४७६८|| जहा राया रज्जणीति जाणगो प्रजागो वा वसणाभिभूयत्तणम्रो रज्जमणुपालेउं ण याणति । १ गा० ३४ । २ गा० ४७६६ । ३ जाणई, इति बृहत्कल्पे गा० ६३६ । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४७९५-४८०१ ] पंचदश उद्देशकः ५०७ अधवा - सेसवसणेहिं अवस॒तो वि विसयलोलत्तणतो णिच्चमंतेउरे अच्छति तस्स वि रज्जं विणस्सति, एवं गणियस्स प्रसारणियस्स सारणियस्स वा विसयलोलस्स गच्छो विणस्सति । "अजाणगरिंदो" ति अस्य व्याख्या - रज्जणीतिअजाणतणतो ववहारादि कजाणि अप्पणा “ण सीलेति" ण पेक्खति ति वुत्तं भवति, अपेक्खंतस्स य रज्जं विणस्सति, अण्णो वा राया ठविज्जति, एवं गणिस्स वि अगीयस्स गियत्थस्स वा प्रसारणियस्स गच्छो विणस्सइ, तेण तेसु ण वसियव्वं ॥४७६८।। "२सत्तण्हं वसणादीणं" ति अस्य व्याख्या - इत्थी जूयं मज्जं, मिगव्व वयणे तहा फरुसता य । डंडफरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त वसणाणि ॥४७६६।। इत्थीसु गिच्चं प्रासत्तो अच्छति, तहा जूते मज्जे य निच्चमासत्तो अच्छति, "मिगव्वं" ति आहेडगो, एतेसु णिच्चासत्तणतो रज्जं ण सीलेति । “वयणफरुसो" एत्थ वयणदोसेण रज्जं विणस्सति । अति उग्गदंडो "दंडफरुसो", एत्थ जणो भया णस्सति। अत्थुप्पत्तिहेतवो जे ते दूसेंतस्स प्रत्थुप्पत्ती ण भवति, प्रत्थाभावे कोसविहूणो राया विणस्सति ।।४७६६।। अहवा - अन्यः विकल्पः - अहवा वि अगीयत्थो, गच्छं न सारेति एत्थ चउभंगो। बीए अगीयदोसो, ततिश्रो ण सारेतरो सुद्धो ॥४८००॥ अगीयत्थो गच्छ ण सारवेति १ । अगीयत्थो गच्छं सारवेति २। गीयत्थो गच्छं न सारवेति ३ । गीयत्थो गच्छं सारवेति (इ) ४ । एत्थ पढमस्स दो दोसा, अगीयदोसो प्रसारणदोसो य। बितियस्स एकको अगीयत्थ दोसो । ततियस्स एक्को प्रसारणदोसो । इतरो चउत्थो सुद्धो ॥४८००। एतेसिं भंगाण इमो उवसंघारो - देसो व सोवसग्गो, पढमो बीअो व होइ वसणी वा । ततिओ अजाणतुल्लो, सारो दुविहो दुहेक्केक्को ॥४८०१॥ पढमभंगिल्लो सोवसग्गो देसो इव परिच्चयणिज्जो । बितियभंगिल्लो तस्स चोदणा वसणमिव ' दट्टव्वं, तेण वसणिणरिंदतुल्लो इव सो परिच्चपणिज्जो । ततियभंगिल्लो असारणियत्तणो अजाणगतुल्ल एव । अहवा चउभंगो - अगीयत्थो गच्छं ण सारवेति । अगीयत्थो गच्छं सारवेति । ___ गीयत्यो गच्छं ण सारवेति। गीयत्यो गच्छं सारवेति। चउत्यो सुद्धो। सेसेसु भंगेसु देसोवसग्गो पढमसमो स्फुटतरं गाथा अवतरति । "3रज्जं विलुत्तसारं" एयस्स पच्छद्धस्स वक्खाणं कज्जति - १ गा० ४७६६ । २ गा० ४७६८ । ३ बृहत्कल्पे तु अस्या गाथायाः द्वितीयतृतीयपदयोरेवं विधिः पाठः - ""पढमो तइयो तु होइ, वसणी वा, बिइयो अजाणतुल्लो" गा० ९४२ । ४ गा० ४७६६ । Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूग-१२ "णिस्सारो" त्ति अस्य व्याख्या - "सारो दुविधो दुहेक्किको", णिग्गतो सारो णिस्सारो। को पुण सो सारो? भण्णति – सो सारो दुविधो - लोइनो लोउत्तरिओ य । पुणो एक्केकको दुविधो- बाहिगे अन्भितरो य ।।४८०१॥ तत्थ जो लोइयो दुविधो सो इमो - गोमंडलधन्नादी, वज्झो कणगादि अंतो लोगम्मि । लोउत्तरितो सारो, अंतो बहि णाणवत्थादी ॥४८०२॥ "गो" त्ति गावीओ, मंडलमिति विसयखंडं, बलद्दय खलमंडलं कोहगमंडलं छन्नउई सुरट्ठा। अहवा - मंडलमिति गोवग्गो एवं महिष्यादी। सालिमादीए धण्णा, प्रादिसद्दातो णाणाविहो कुवियमुवक्खरो। एवमादि लोइयो बाहिरो सारो । अन्भितरो सुवणं रूपं रयणाणि य, एवमादिभितरो लोइयो। जो पुण लोउत्तरो सारो सो दुविधो - तो बाहिरी य । तत्थ अंतो णाणं दसणं चारित्तं च । बाहिरो-माहारो उवधी सेज्जा य । अगीयत्थस्स अगीयत्तणमो गीयस्स य असारणियत्तणमो गणा दुविहेणावि सारेण णिस्सारो भवतीत्यर्थः ।।४८०२॥ तम्हा गणिणो गच्छं असारवेंतस्स एवं सव्वं पच्छित्तं भवति ।। अधवा - वि अगीयत्यभिक्खुणो विसयलोलस्स । जो भगीयत्थो भिक्खू पायरियाणं अणुवदेसेण जिभिंदियविसयलोलताए पलंबे गेहति, तस्स एवं सव्वं पच्छित्तं भवति । चोदगाह - "णायं अत्थावत्तीतो जो प्रगीतो पायरिसोबदेसेण गेण्हति तस्स पत्थि पच्छित्त" । गीयत्थुवदेसमंतरेण य प्रगीयत्थस्स सो कज्जेसु पवत्तमाणस्स इमो दोसो - सुहसाहगं पि कज्ज, करणविहूणमणुवायसंजुत्तं । अण्णातदेसकाले, विवत्तिमुवयादि सेहस्स ॥४८०३॥ जंपि य सुहसाहगं कज्ज "करणविहूणं" ति प्रणारंभो, घडस्स वा जहा चक्कादीकरणं तेहि वा विणा अणुवाओ, जहा मिउप्पिडातो पडमुप्पाएउमिच्छति । अण्णायं णाम जहा प्रचित्तको चित्तं काउं ण याणति अज्ञत्वात् अल्पविज्ञानत्वादित्यर्थः । प्रदेसकालो जहा अभावकाशे वृष्टी निपतमानायां घटं कर्तुं न शक्यते । विवत्ति प्रसिद्धी कज्जविणासो वा विवत्ति । सेहो त्ति प्रजाणगो। उक्त च सम्प्रातिश्च विपत्तिश्च, कार्याणां द्विविधा स्मृता । सम्प्राप्तिः सिद्धिरर्थेषु, विपत्तिश्च विपर्यये ॥ एत्थ "अणारंभे अणुवाए" य इमं णिदरिसणं - णखेणावि हु छिज्जति, पासादे अभिणवो तु आसत्थो । अच्छेज्जो वट्टतो, सो वि य वत्थुस्स भेो य ॥४८०४॥ . वडपिप्पलादी पासादुहितो प्रच्छिण्णो अप्रयत्नछिन्नो य वत्थुभेदं करेति, प्रदेसकाले पुण छिज्जमाणे महंतो किलेसो भवति, वत्थुभेदं वा करेज्ज । एस अजाणगस्स विधी। जो पुण जाणगो सो देसकाले आहेण . १ गा० ४७९६ । २ बलवद्दयकुलमंडलं, इत्यपि पाठः । ३ कोउयमडलं, इत्यपि पाठः । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४८०२-४८१०] पंचदश उद्देशकः ५०६ चैव छिदति, छिदियव्वे य प्रारंभ करेति, प्रयत्नछिन्नं च करे त, मूले वि से उद्धरति, उद्धरिता य गोकरिसग्गिणा डहति । एस जाण.. ग विधी ॥४८०४।। जो वि य ऽणुवायछिण्णो, तस्स वि मूलाणि वत्थुभेया य । अभिनव उवायछिन्नो, वत्थुस्स न होइ भेदो य ॥४८०५॥ पुव्वद्धेण अणुवापो, पच्छद्धेण अहिणवे उवायछेदो । एस दिटुंतो ।।४८०५।। इमो से उवणतो पडिसिद्ध तेगिच्छं, जो उ ण कारेति अभिणवे रोगे। किरियं सो हु ण मुञ्चति, पच्छा जत्तेण वि करेंतो ॥४८०६॥ जस्स रोगो उप्पण्णो साहुस्स सो जइ इमं सुत्तं प्रणुसरिता “'तेगिच्छंणाभिणंदेन" ति "पडिसिद्ध" ति काउंण कारवेति किरियं, सो तम्मि वाहिम्मि वद्धिते समाणे जत्तेण वि किरियं करेंतो ण सक्केति तिगिच्छिउं । जति पुण अहुणुट्टिते चेव रोगे कारतो किरियं तो तिगिच्छितो होतो ॥४८०६॥ जो वा अणुवारण करेति जहा - सहसुप्पइयम्मि जरे, अट्ठमभत्तेण जो वि पारेति । सीयलअंबदवाणि व, ण हु पउणति सो वि अणुवाया ॥४८०७॥ महसा जरे जाते अण्णम्मि वा प्रामसमुत्थे रोगे अट्ठमं करेत्ता सीयलकूरं सीयलदव्वं वा पारेति, "मा पेज्जा कायव्वा भविस्सति" ति काउं, ततो तस्स तेण सीयलकूरादिणा सो रोगो पुणो पकुप्पति । जति पुण तेण पेजादिणा उवाएणं पारियं होतं तो पउणंतो जं च तं प्रपत्थं भोयणावराहकतं पावं पि पच्छा सत्यो समाणो प्राढत्ते देसकाले तंपि उवाएण पयत्तेण य पायच्छितेणं विसोहतो। एवं उवायतो पउणति, अणुवायप्रो णो पउणति ॥४८०७॥ संपत्ती व विवत्ती, व होज कज्जेसु कारगं पप्पे । अणुपायो विवत्ती, संपत्ती कालुवाएहिं ॥४८०८॥ कारगो कत्ता । जति सो प्रजाणगो ततो तेण प्रदेसकाले अणुवाएण प्राढत्तं कज्ज विवत्ति विणासं गच्छत्ति, प्रह सो जाणगो ततो तेण प्राढत्ते देसकाले तं उवाएण पयत्तेण य तस्स कजं सिझति ॥४८०८॥ इति दोसा उ अगीते, गीयम्मि य कालहीणकारिम्मि। गीयत्थस्स गुणा पुण, होति इमे कालकारिस्स ॥४८०६॥ इतिसहो एवार्थे । एवं अगीते दोसा । जो गीतो देमकाले करेति, हीणे वा काले करेति, अतिरित्ते वा काले करेति, तस्स वि एते चेद दोसा भवंति । जो पुण गीयत्थो महीणमतिरित्तकाले करेति, उवाएण या प्रयत्नेन च तस्स इमे गुणा भवंति ॥४८०६॥ आयं कारणमागाई, वत्थु जुत्तं ससत्ति जयणं च। सव्वं च सपडिवक्खं, फलं च विविहं वियाणाति ॥४८१०॥ १ उत्त० अध्य० २ गा० ३३ । २ छिदिउं इत्यपि पाठः । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीयसूत्रे [ सूत्र- १२ "सव्वं च सपरिपक्खं" ति - प्रायस्स प्रणातो, कारणस्स अवकारणं, गाढस्स प्रणागाढं, वत्थुस्स भवत्युं, जुत्तस्स भजुत्तं, ससत्तस्स प्रसत्ती, जयणाए भजयणाए य । एवं सव्वं गीयत्यो जाणति, विविधं च णिजरा फलं च जाणित्ता समायरति ॥४८१०॥ ११० दाणि तेसिं प्रयादियाण इमं वक्खाणं सुकातीपरिसुद्धे, सति लाभे कुणति वाणितो चेहूं । एमेव य गीयत्थो, आयं दट्टु समायरति ॥ ४८११ जहा वणितो संतरं भंड उकामो जइ सुकसुद्धो प्रादिसद्धातो भांडगकम्मकर वित्तीए परिसुद्धा जति लाभस्स सती भवति, तो वणितो वाणेज्ज चेट्टं प्रारभति । अहलाभो न भवति, तो आरभति । ततो एवं गीयत्थो णाणादित्रायं दट्टु पलंबादिप्रकप्पपडिसेवणं समायरति ।।४८११।। "आय" त्ति दारस्स व्याख्या - सिवादी सु कत्थाणिएसु किं चि खलियस्स तो पच्छा । वायणवेयावच्चे, लाभो तत्रसंजमज्झयणे || ४ = १२॥ असिवोमोदरियदुब्भिक्खादिएसु सुंकत्थागिएसु केसु वि संजमठाणेसु प्रकम्पपडि सेवाए खलियस्स पच्छा तेसु असिवादिसु फिट्टेसु तं प्रतियारं पच्छित्तेसु विसोहिस्सामि । वायणं तस्स, प्रायरियादीणं वैयावच्च करेंतस्स, तवसंजमज्झवणेसु य उज्जमं करेंतस्स प्रणो अन्भहितो लाभो भविस्सइ, वयो अप्पतरी, तो गयो समायरति । प्रगीतो पुण एयं श्रायत्र्वतं ण याणति ।। ४८१२ ।। आयत्ति दारं गतं । इदाणि "" कारणमागाढ़े" दो वि दारे एगगाहाए वक्खाणेति णाणादितिगस्सा, कारणणिक्कारणं तु तव्वज्जं । हिक्क-विस- त्रिसूइय, सज्झक्खय-सूलमागाढ़ || ४८ १३ || जो गीयत्थो सो कारणे पडिसेवति, शिक्कारणे ण पडिसेवति । श्राह उच्यते - " णाणादि" पुव्वद्धं कंठं । इदाणि “प्रगाढे" त्ति प्रगाढे खिप्पं पडिमेवति, आणागाढे तिपरिरएण पणगादिपरिहाणीए । जारि वा प्रगाढे पडिसेवियव्वं तं श्रगाढे चेव पडिसेबति, जारिसं भणा गाढे पडिसेवियव्वं तारिस प्रणागाढे पडिसेवति । केरिसस्स कारणस्स श्रट्टाए पडिसेवति ? केरिस वा णिक्कारणं ? आह - केरिसं प्रगाढं ? केरिस वा प्रणागाढं ? उच्यते - ग्रहिडक्क पच्छद्ध उच्चारिथसिद्ध ॥४८१३॥ इदाणि " " वत्थुजुत्तं". च दो वि दारे वक्खाणेति १ ग।०४८१० | २ ० ४८१० १ ३ गा० ४६१० । - आयरियादी वत्युं तेसि चिय जुत्त होति जं जोग्गं । गीयपरिणामगावा, वत्युं इयरे पुण अवत्युं || ४८१४|| - Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा ४८११-४८१८ ] पंचदश उद्देशकः ५११ पहाणपुरिसो पायरियादी वत्थं, परिणामगा वा, "पयारिहं वत्युमिति" मह जाणित्ता पडिसेवति पडिसेवाविज्जति वा, "अहमेतस्स पडिसेवियव्वस्स णिक्कयं करिस्सामी" ति । "इयरे" पड़िपक्व भूता भवत्यु। एतेसि चेव मायरियाणं जं जोग्ग तं "'जुत्तं" -- भण्णति ॥४८४१।। इदाणि "समत्थ त्ति जयणं च" दो वि दारे एक्कगाहाए वक्खाणेति - धिति सारीरा सत्ती, आयपरगया य तं ण होवेंति । जयणा खलु तिपरिरता, अलंभे पच्छा पणगहाणी ॥४८१५॥ घितिबलं प्रप्पणो जाणित्ता सारीरं च संघयणबलं जाणित्ता परस्स य, एते जाणित्ता प्रायरियो अण्णो वा जो अप्पणा समत्थो परो वि समत्थो दो वि ण होवेंति । प्रह अप्पणा समत्थो परो असमत्थो एत्थ परस्स वितरति । ततियभंगे अप्पणा पडिसेवनि णो परस्स वितरति । चउत्थे दो वि पडिसेवंतिः । 3जयणा तिण्णि वारा सुद्धस्स पडियरति, जति तीहि वारेहि सुद्धंण लभति तो चउत्थवारादिसु पणगपरिहाणीए असुद्ध गेण्हति । सव्वं प्रायादियं सपडिपक्खं जाणित्ता गीतो आयरति वा ण वा । अगीतो पुण एयं एवं ण याणति, तेण अगीयस्स पच्छित्तं ।।४८१५॥ इदाणिं "४फलं" ति दारं इह परलोए य फलं, इह आहारादि एक्कमेक्कस्सा। सिद्धी सग्ग सुकुलता, फलं तु परलोइयं बहुहा ॥४८१६॥ एवं मम चेटुंतस्स फलं भविस्सति अण्णस वा, तं च फलं - दुविधं-इहलोइयं प्राहार-वत्थ-पत्तादी, 'एक्कमेक्कस्स" त्ति एक्कमेक्कस्स फलं भवति । अहवा - अप्पणो परस्स वा। अहवा-परोप्परोपकारेण फलं भवति । परलोइयं फलं सिद्धिगमणं सग्गगमणं वा सुकुले व उप्पत्ती । गीयस्स उस्सग्गे उस्सग्गं, अववाए अववादं करेंतरस एवं विविधं फलं भवति । किं चान्यत्-जं गीयत्थो अरत्तो अदुट्ठो य पडिसेवति तत्थ अपायच्छित्ती भवति ।।४८१६॥ ग्राह-केण कारणेण अपायच्छित्ती भवति ? उच्यते खेत्तोऽयं कालोऽयं, करणमिणं साहओ उवाओऽयं । कत्त ति य जोग त्ति य, इति कडजोगिं वियाणाहि ॥४८१७|| "खेतो यं कालो यं” अस्य व्याख्या -- ओयभूतो खेत्ते, काले भावे य जं समायरति । कत्ताअो सो अकप्पो, जोगीव जहा महावेज्जो ॥४८१८|| रागदोसविरहितो दोण्ह वि मज्झे वट्टमाणो तुलासमो प्रोयो भण्णति, तेण रागदोसविरहियत्तणेण भूतो ओयभूतो, सो य ओयो अद्धाणादीखेत्तपडिसेवणं पडुच्च दुभिक्खादिकालपडिसेवणं वा पडुच्च गिलाणादि भावपडिसेवणं वा पडुच्च जं समायरइ ति पडिसेवति रागद्दोसविरहितो सो अदोसो। कहं ? जेण सम्मं ""करणमिणं' ति अवेक्खति, करणं किरिया, इह एवं कज्जमाणं णिज्जरालाभं १ गा० ४८१० । २ गा० ४८१० । ३ गा० ४८१०। ४ गा० ४८१० । ५ गा० ४८१७ । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१२ करेति, “'साहो उवाउ" ति णाणचरणाणि साहणिज्जाणि, तेसि साहणे इमो उवाप्रो- "जयणाए अकप्पपडिसेवण" ति । ____ अहवा- इह एरिसे खेत्ते काले वा प्रकप्पपडिसेवणमंतरेण णत्थि सरीरस्स धारणं, तदधीणाणि य णाणदंसणचरणाणि ति पडिसेवति । एस चेव उवाप्रो दोण्ह कि गाहाए पच्छद्धा जुगवं वक्खाणिज्जति "२कत्त ति य कत्तामो" ति । जो एवं पालोइयपुत्वावरो कत्ता सो "प्रकप्पो' भवति । मकोपणिजो प्रकप्पो प्रदूसणिज्जो त्ति वृत्तं भवति । कहं ? उच्यते-"जोग"त्ति अस्य व्याख्या - “जोगीव जहा महावेज्जो"। जोगीधण्णंतरी, तेण विभंगणाण दट्ठ रोगसंभवं वेज्जसत्थयं कयं, तं अघीयं जेण जहुत्तं सो महावेज्जो, सो प्रोगमाणुसारेण जहुत्तं किरियं करेंतो जोगीव भवति- प्रदोसो, जहुत्तकिरियकारिस्स य कम्मं सिझति । एवं इह पि जोगिणो इव तित्थगरा, तदुवएसेण य उस्सग्गेणऽववादेण वा करेंतो "कडजोगि" ति- गीयत्थो प्रदोसवं वियाणाहि । इतिसद्दो दिटुंतुवणयावधारणे दट्ठव्यो ।।४८१८॥ अधवा "कत्त" त्ति य "जोगि" त्ति य एतेसि इमं वक्खाणं - अहव ण कत्ता सत्था, ण तेण कोविज्जति कयं किंचि । कत्ता इव सो कत्ता, एवं जोगी वि नायव्वो ॥४८१६।। को कत्ता ? "सत्या" तित्थकरो। तेण तित्थकरेण कयं "ण कोविज्जई" ण खोभिज्जइ ति वुत्तं भवति । एवं सो गीयत्थो कत्ता विधीए करेंतो प्रकप्पो भवति । कत्ता इव तीर्थ कर इवेत्यर्थः । एवं जोगी वि णायव्वो। "जोगी" विभंगणाणी धणंतरी, जहा तेण कयं प्रकोप्पं भवति एवं गीतेण वि कतं प्रकोप्पं । एवं गीतो जोगीवत् जम्हा तम्हा गीतो जोगीविव गायत्रो । जतो य एवं ततो गीतो प्रदोसवं भवति ॥४८१६॥ एवमुवदिटे सूरिणा। आह चोदग - किं गीयत्थो केवलि, चउम्विहे जाणणे य गहणे य । तुल्ले रागद्दोसे, अर्णतकायस्स वज्जणता ॥४८२०॥ सीसो पुच्छति - "किं गीयस्था केवली, जेण तस्स वयणं करणं च प्रकोप्पं भवति" ? प्रोमित्युच्यते, अकेवली वि केवलीव भवति । - अहवा केवली तिविधो - सुयकेवली अवधिकेवली केवलिकेवली । एत्थ सुयकेवलिपण्णवणं पडुच्च केवलिवद् भवति । कथमुच्यते - "चउब्धिहे जाणणे य गहणे व तुल्ले रागदोसे प्रणंतकायस्स वज्जणया," एयाणि द्वाराणि, अण्णे य पयत्थे जहा केवली पण्णवेइ तहा सुप्रघरो वि ॥४॥२०॥ १ गा०४८१७ । २ गा० ४८१७ । ३ गा०४८१७ । ४ गा० ४८१७ । । Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१३ भाष्यगाथा ४८१९-४८२४] पचदश उद्देशकः "चउविहजाणणे" त्ति अस्य व्याख्या - सव्वं नेयं चउहा, तं वेइ त्ति जहा जिणो तहा गीओ। चित्तमचित्तं मिस्सं, परित्त-ऽणंतं च लक्खणो ॥४८२१॥ सव्वमिति अपरिसेसं चउविधं - दध्वतो खेत्ततो कालो भावनो य । तं पण्णवणं पडुच्च जहा केवली ब्रवते तहा गीयत्थो वि । अहवा-तं वेत्ति, जहा जिणो जाणइ तहा गीयत्थो वि जाणइ इमेण सचित्तादिलक्खणभेदेण । इहं पुण पलंबाधिकारातो जहा केवली सचित्तं जाणति, अचित्तं मीसं वा परित्तणतं वा सचित्तादिलक्खणाणि वा परूवेति, तहा सुअधरो वि सुताणुसारेणं सचित्तलक्खणेण सचित्तं जाणति पण्णवेइ य, एवं अचित्तमीसरिताणता वि लक्खणतो जाणति परूवेति य ॥४८२१।। चोदगाह - "णणु केवली भिण्णतमो सब्वण्णू सुप्रकेवली, छउमत्थो असवण्णू । जो य असवण्णू स कहं केवलीतुल्लो भण्णति" ? आचार्य प्राह - काम खलु सव्वण्ण , णाणेणऽहिगो दुवालसंगीतो। पण्णत्तीए तुल्लो, केवलनाणं जतो मूअं ॥४८२२॥ चतुर्दशपूर्वधारिज्ञानात् केवलज्ञानिन अधिकतरज्ञानसंभवाच्चोदकाभिप्रायसमर्थनाभिप्रायेण, कामशब्दप्रयोगः। अहवा- प्राचार्येण चोदकाभिप्रायोऽवघृत इत्यतो "काम" शब्दप्रयोगः । खलु पूरणे 'तुल्यत्वे वा, प्रन्यूनत्वविशेषप्रदर्शने । “पणतीए तुल्ल" त्ति केवली सुअकेवली य पण्णवणं पडुच्च तुल्ला, जेण केवली चि सुयणाणेण पण्णवेति, केवलनाणं जतो मूग्रं ति ।।४८२२।। "केवली दुवालसंगीतो केत्तिएण अधिगो, कहं वा पण्णवणाए तुल्लो" त्ति । अतो भण्णति - __पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागे उ अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुयनिबद्धो ॥४८२३॥ भावा दुविधा-पण्णवणिज्जा अपण्णवाणिज्जा ! पण्णबणिज्जा अभिलप्पा, इतरे अणभिलप्पा । दो वि रासी अणंता, तहावि विसेसो अत्यि - अणभिलप्पाणं भावाणं अणंतगभागे पण्णवणिज्जा भावा । पण्णवणिज्जा णाम जे पण्णवेउं सक्कंति, छउमत्यो वा बुद्धीए घेत्तुं सक्केति, एयविवरीया प्राण्णवणिज्जा । तेसि पि पण्णवणिज्जाणं जो अणंत इमो भागो सो दुवालसंगसुतगिबंधेण गिबद्धो ॥४८२३।। चोदगाह – “कहं एयं जाणियब्वं जहा पणवाणिज्जाणं प्रणतमागो सुअणिबंधो' ? उच्यते जं चोदसपुव्वधरा, छट्ठाणगता परोप्परं होंति ! तेण उ अणंतभागो, पण्णवणिज्जाण जं सुत्तं ॥४८२४॥ जमिति जम्हा चोद्दसपुवी छट्टाणपडिया लभंनि । १ तुल्यत्वात् न्यूनत्व इत्यपि पाटः । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MY सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे मित्र-१२ कहं ? उच्यते- चोद्दसपुब्वी चोद्दसपुब्बिस्स किं तुल्ले, कि होणे, किं प्रभहिते ? जइ तुल्ले तो तुल्लत्तणो गस्थि विसेसो । अध हीणो तो जस्स हीणो तस्स तं नाणं ततो अणंत-भागहीणे वा असंखेज्ज-भागहीणे वा संखेज्जभागहीणे वा संखेज-गुणहीणे वा असंखेज्ज-गुणहीणे वा अणंत-गुणहीणे वा । अह अब्भहितो अणंत-भागभहिए वा असंखेज्ज-भागब्भहिए वा संखेज्ज-भागमहिए वा संखिज. गुणब्भहिए वा असंखेज-गुणब्भहिए वा अणंत-गुणब्भहिए वा, तेण कारणेण णजते । तुसद्दो कारणावधारणे । पण्णवणिज्जाण भावाणं अणंत नागो जं सुत्तं वदृति ति जं वुत्तं तं चोद्दमपुवीण छट्ठाणपडियत्तगतो फुडं जातं ॥४८२४॥ चोदगाह- "णगु चोद्दसपुब्बीणं अभिण्णचोद्दसपुवित्तणतो छट्ठाणं विरुज्झति' ? प्राचार्याह अक्खरलंभेण समा, ऊणऽहिया होंति मतिविसेसेहिं । ते वि य मतीविसेसा, सुतणाणऽभंतरे जाण ॥४८२॥ सुयनाणावरणिज्जस्स देसघाती फडुगाणं खतोवसमेण अक्खरलंभो भवति, ते च अभिण्णचोद्दसपुवीण अक्सरलाभफड्डा य प्रायो समा खोवसमं गता तेण ते अभिण्ण चोद्दसपुब्बी अक्खरलाभेण समा भवंति । सव्वक्खरसुयलभे वि उवरि सुयनाणसंभवतो उवरुवरि देसघातिफड्डा अ सुयनाणावरणिज्जस्स षयोवसमं गच्छंति, ते य सुत्तनिबद्धपयत्थेसु जस्स थोवतरा वयोवसमं गता सो सव्वक्खरलंभोवरि सुयालं. भणमतिविसेसेण ऊणतरो भवति, बहुतरा पुण जस्स खग्रोवसमं गता सो मतिविसेसेण प्रघियतरो भवति, ते य मतिविसेसा सुप्रणाणप्रभंतरे भवति । कथं ? उच्यते-जतो सुयनाणाधारसमुट्ठिया ते, भणियं च- ण मती सुयं तप्पुब्वियं" ति, तण ते मतिनाणं ताव ण भवंति, प्रोहि-मणपज्जव-केवलभेदा वि ण भवंति, परोक्खणाणत्तगयो, जम्हा ते सुयनाणसमुट्टिया सुयनाणतणग्रो य तम्हा सुयनाणन्भनरा ते । ___ एवं जे अपण्णवणिज्जाणं अणंतगुणा ते य सुयकेवलिस अविसयत्था, केवलिस्स विसयत्था । प्रतो भण्णति - केवली सुयकेवलिहितो अशंतगुणं जाणति ॥४८२५॥ जं वुत्तं "पण्णवणाए तुल्ला" तं कहं ? उच्यते केवलविण्णे अत्थे, वतिजोगेणं जिणो पगासेति । सुयनाणकेवली वि हु, तेणेवऽत्थे पगासेति ॥४८२६।। जिणो केवली, सो केवलणाणेण विष्णति, विष्णाए प्रत्ये सुयणाणाभिलावेण वा जोगप्पयुत्तेण अधवादव्वसुतेण अत्थे पगासेति । चोद्दसपुव्वी सुयनाणकेवली, हुशब्दो यस्मादर्थे, तेणेव सुयनामेण वा जोगपयुत्तेण प्रत्ये पगासेति । एवं पण्णवणाए तुल्ला । एतेण कारणेणं जहा केवली दवादिजुत्तं परित्ताणतं जाणति तहा गीयो वि जाणति ।।४८२६॥ १ न.मई सुयपुब्विया, इति नंदीसुते मू० २४ । २ गा० ४८२२ । ३ सुयनाणेणं जिणो पगासेइ, इति बृहत्कल्पे गा०.६६६ । Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४८२५-४८३२ ] पंचदश उद्देशकः तत्थ 'दब्वतो ताव लक्खणेणं कहं जाणति प्रणतं परित्तं वा ? अतो भण्णति - गूढसिरागं पत्तं, सच्छीरं जं च होइ णिच्छीरं । जंपि य पणट्ठसंधि, अणंतजीवं वियाणाहि ॥४८२७|| गूढा गुप्ता प्रणुवलक्खा, छिरा णाम हारुणिता पण्णस्स तं सच्छीरं भवति जहा थूभगस्स, अच्छीरं वा भवति जहा पण्णस्स, जति य तं पण्णं पणट्ठसंघि, संधि णाम जो पण्णस्स मज्झे पासलतो पुट्टीवंसो ति वुत्तं भवति । एवमादिलक्खणेहिं जुत्तं पण्णं प्रणतजीवं णायव्वं । इमं मूलखंधपण्णादियाण सब्वेसि प्रणतलक्खणं।।४८२७।। चक्कागं भज्जमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे । पुढविसरिसभेदेण, अणंतजीवं वियाणाहि ॥४८२८॥ जस्स चक्कागारो भंगो “समो" ति वुत्तं भवति, भज्जमाणं वा सदं करेति, "चक्कि" त्ति-- जस्स य प्रल्लगादिगंठीए भेयो चुणघणसमायो भवति, चुणो णाम तंदुलादिषुण्णो, घणीकृतो - लोलीकृत इत्यर्थः । सो भिज्जमाणो सतषा भिज्जति ण य तस्स हीरो भवनि, कि च -- जस्स य पुढविसरिसभेदो। एवमादिलक्खणेहि मतजीवो वणस्मती गायबो, सेसो परित्तो शाययो ।।४८२८।। इमं मूलस्म परित्ताणतलक्षणं - जस्स मूलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसती । अणंतजीवे हु से मूले, जे याऽवऽण्णे तहाविहे ।।४८२६॥ समो भगो - हीरविरहित इत्यर्थः, जो वि अण्णो कदखंधादिपो तुल्ललक्खणो सो वि प्रगत जीवो. णायचो ।।४।२६।। जस्स मूलस्स भग्गस्स, हीरो मज्झे पदिस्सती । परित्तजीवे हु से मूले, जे यावष्णे नहाविहे ॥४८३०॥ हीरो णाम अंसी, जहा वंसस्स दीसति ।।४८३०।। इमं छल्लोए अणतलक्षण - जस्स मूलस्स 'सारातो, छल्ली बहलतरी भवे । अणंतजीवा उ सा छल्ली, जा यावण्णा तहाविहा ।।४८३१।। मारो कटुं, तस्स समीवातो छल्ली बहलतरिनि जहतरी जहा सत्तावरीए सा प्रणंतजीवा छल्ली। कर्टी परित्तजीव ॥४८३१।। जस्स मूलस्स सारातो, छल्ली तणुतरी भवे । परित्तजीवा उ सा छल्ली, जा यावण्णा तहाविहा ।।४८३२॥ कंठा । एवं दवतो सुतधरो केवली य दो वि पाणदेति ॥४८३२।। . १ गा० ४८२१ । २ कट्ठातो, इति बृहत्कल्पे गा० ६७१। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ इमं 'खेत्ततो - जोयस तु गंता, Sणाहारेणं तु भंडसंकंती | वाता - ऽगणि-धूमेहिं, विद्वत्थं होति लोणादी ||४८३३ ॥ श्रादिसद्दतो इमो केयी पद्धति - 'गाउयसय" गाहा, जाव जोयणसयं गच्छति ताव प्रतिदिनं विध्वंसमाणं सव्वहा विद्धमति, जोयणसतातो परेण प्रचित्तं सव्वहा भवति । भावहं चित्तं भवति” ? चोदगाह - प्राचार्याह - "प्रणाहारे" ति जस्स जं प्रधारणं तं ततो वांच्छिण्णं, आहारविच्छेदा विसमागच्छति, जहा पुढवीग्रो वोच्छिष्णं लोगादी, तं च लोणादी जोयजसयमगयं पि सद्वाणे अंतरे वा विद्धसति, भंडसंकंतीए पुव्वभायणातो प्रण्णम्मि भायगे संकामिज्जति, भंडसालातो वा ग्रण्णभंडसाल कामिति, वातेण श्रातवेण वा भत्तघरे वा अगणिगिरोहेण वा धूमेण ॥। ४८३३॥ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे हरियाल मणोसिलं, पिप्पली य खज्जूरमुद्दिया अभया । इणमणाइण्णा, ते वि हु एमेव णायव्वा ||४८३४॥ - हरितालमोमिला जहा लोगं । ' प्रभय" त्ति हरीतकी। एते पिप्पलिमादिणो जोणसतातो प्रागया विजे हरीत किमादिशो प्रतिष्णा ते घेप्पति, खज्जूरादओ प्राइम त्ति न घेप्पति ||४८३४ ॥ इमं सव्वेसि सामण्ण परिणामकारणं - रुहरुहणे, णिसियण गोणादिणं च गातुम्हा भुम्माहारच्छेदो, उवक्कमेणेव रिणामो || ४८३५ ।। पुणो चोदगाह १ गा० ४८१७ । सगडे गोणगादिपट्टीय प्रारुभेज्जमाना उरुभिज्जमाणा य, तहा भरगादिसु मणुया गिसीयंति तेमि गातुम्हाए, तहा गोणादियाण गनुहाए जो जम्स आहारो भोमादितो तेण य वोच्छिष्णं । "उवक्कमो" गाम-किं चि सकायसत्यं किचि परकायसत्यं तदुभयं कि चि. जहा लवणोदग मधुरोदगस्स सकायसत्यं, परकायो अग्गी, उदगस्स उभयं मट्टितोदगं सुद्धोदगस्स, एवमादिसचिनाग परिणामकारणानि ।।४ ३२ ।। चोदेती वणकाए, पगते लोणाइयाण किं ग्रहणं । आहारे अहिगारो, तदुवकारी ओ गहणं ||४८३६|| चोदगो भणति - " पलंबादिवणस्सतीए पत्थुए लोणादिपुढविकायस्स कि ग्रहणं कज्जति" ? आयरियो भणति - मए अहत्य पलंबा पगता, तस्स य आहारस्स लोग उनकारि भवति तेगं तहां कज्जति ॥ ८६६ ।। सूत्र - १२ 1 छहि णिप्पज्जति सो उ, तम्हा खलु श्रणुपुव्वि किं ण कता । पाहाणं बहुयत्तं, णिष्फजति सुहं न तो ण कसो ||४८३७|| Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४८३३-४८४१] पंचदश उद्देशक: ५१७ सो प्राहारो छहि वि काएहिं णिप्फःजति त्ति तम्हा छह वि पुढविकायादियाण माणुपुवीए गहणं कि ण कयं ?। आयरियो भणति- तम्मि प्राहारे वणम्यतीर पाधण्णं, पाहारे वणस्सती बहुतरो गच्छति, वणस्सतिकाएण य सुहं आहारो णिप्फजति. अण्णेहिं काएहिं तहां ण सक्कति, एतेण कारणेण कमो ण कतो ॥४८३७। खेत्ततो गतं । इदाणि 'कालतो उप्पल-पउमाई पुण, उण्हे छूढाणि जाम ण धरेंति । मोग्गरग-जूधिता उ, उण्हे छूढा चिरं होति ॥४८३८॥ छूट त्ति उण्हे ठिया, जामो ति पहरमेतं कालं, "ण धरेंति" न जीवतीत्यर्थः । "मोग्गर" त्ति - मगदतिपुष्पा जूहिगपुष्पा य उण्हजोणिगत्तणो उण्हे ठिया वि चिरं जाव धरेंति ।। अधवा- 'मोग्गर" त्ति पुष्पा जूहिगा एते ण य त्ति वुत्तं भवति ॥४८३८॥ मगदंतियपुप्फाई, उदए छूढाणि जाम ण धरेंति । उप्पल-पउमाई पुण, उदए छूढा चिरं होति ॥४८३६॥ कंठ्या ___ कालतो गतं । . इदाणि भावतो पत्ताणं पुष्फाणं, सरदुफलाणं तहेव हरिताणं । बेटम्मि मिलातम्मी, णायव्वं जीवविप्पजढं ॥४८४०॥ पत्तस्स पुप्फस्स सरदुफलस्स य बेंटे मिलाणे जीवविप्पजढं ति णायव्यं । ज तरुणं प्रबद्धट्ठियं बद्धट्टियं वा जाव कोमलं ताव सग्दुप्फलं भणति, वत्थुलादि हरियं भण्णति । __ अहवा - सव्वो चेव वणस्सती कोमलो हरितावत्थो भण्णति । सो वि मूलणाले मिलाणे णायचो, "जीवविप्पजढो" ति - भावमिणमित्यर्थः ॥४८४०॥ भावतो गतं । चउव्विहे जाणणेत्ति दारं गतं । इदाणि "गहण" त्ति दारं चउभंगो गहण पक्खेवए य एगम्मि मासियं लहुगं । गहणे पक्खेवम्मि य, होंति अणेगा अणेगेसु ॥४८४१॥ एक्को गहो एक्को पक्खेवो । । एक्को गहो प्रणेगे पक्खेवा । प्रणेगे गहा एकको पक्खेवो ३ । प्रणेगे गहा अणेगे पक्खेवा ४ (क) । लंबणेण ।। गाहा ॥ वयणे पक्खेवो भवति । अचित्तवणस्सतिकाए पढमभंगे गहणपक्खेवेसु पत्तेयं मासियं भवति । बितियभंगे एगगहणे मासियं, पक्खेवट्ठाणे जत्तिया पक्खेवा तत्तिया मासलहू । ततियभंगे जत्तिया गहणा तत्तिया मासिया, पक्खेवे एक्को मासो । १ गा. ४८१७ । २ गा० ४८१७ । ३ भावभिन्नं तु इति पूनासत्कमूल भाष्यप्रती। ४ गा० ४८२० । Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एय पिजहा कव सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१२ चउत्थभंगे अणेगगहण-प्रणेगपक्खेवेसु पत्तेयं प्रणेगा मासिया भवति । । गहण-पक्खेव-णिप्फण्णां पच्छित्तं जाणति दोसे य तहा गीग्रो वि जाणति। ॥४८४१॥ "गहणे" त्ति दारं गतं, इदाणि ""तुल्ले त्ति दारं पडिसिद्धा खलु लीला, वितिए ततिए य तुल्लदव्वेसु । णिद्दयता वि हु एवं, बहुधाए एगपच्छित्तं ॥४८४२॥ चोदगो भणति - "बितिप्रभंगे एगफलस्स गहियस्स बहूण वा जुगवं गहियाण बहुवारा पक्खित्तं काउं बहूणि मासियाणि देह, जं च ततियभंगे बहूणि २वणप्फलादीणि घेत्तुं छेत्तुं वा अणेगगहणे अणेगमासियाण दाणं तं सुंदरं, जं एत्थ चेव एक्को पक्खेवो त्ति काउं एगं मासियं देह एयं मे अणिटुं भवति, तुल्लदब्वेसु विसमा सोधी । मण्णं च मे इमं पडिभाति तुब्भे लीला - “पडिसेहणिमित्तं पच्छित्तं देह, ण उ जीवघाउ ति काउं । अण्णं च एवं तुझं गिद्दयया भवति, जं.बहूणि छित्तुं तेसिं एगपक्खेवे एगं मासियं देह ॥४८४२॥ ___ पायरियो भणति चोयग! णिद्दयतं चिय, णेच्छंता विडसणं पि णेच्छामो। निव छगल मेच्छ सुरकुड मताऽमताऽऽलिंप भक्खणया ।।४८४३॥ हे चोयग ! "णिद्दययं चेव णेच्छेना" विविधं डसणा विडसणा तं णेच्छामो । कह ? भण्णति - एत्थ दोहि मिच्छेहि दिटुंतं करेंति प्रायरिया एगस्स रण्णो दो मेच्छा प्रोलग्गा, तेण रण्णा मिच्छाणं तेसि तुद्वाणं दो सुराकुडा दो य छगला दिण्णा, ते तेहिं गहिया। तत्थ एगेणं छगलो एगप्पहारेणं मारेतूणं खइओ, दोहिं तीहिं वा दिणेहिं । बितियो एक्के अंगं छेत्तु खायति, तं पि से छेदंगथामं लोणेणं अासुरादीहि वा छगणेण वा लिपइ मुत्तेण वा, एसो तं मंस खायति, सुरं च पिबंतो, एवं तस्स छगलस्स जीवंतस्सेव गायाणि छेत्तु छेतु खइयाणि, मतो य । पढमस्स एगप्पहारेण एक्को वधो, बितियस्स जत्तिएहि छेदेहि मरति तत्तिया वधा । लोगे य पावो गणिज्जति, णिद्दयया वि तस्स चेव ।। व एवं जेण पलंबादिगे एक्केको पखेवो को तस्स एक्कं मासियं, जो विडसतो खायति तस्स तत्तिया पच्छित्ता, घगचिक्कणाए य पारितावणियाए किरियाए वट्टति । विहसणा णाम प्रासादेतो थोवं थोवं खायति ॥४८४३।। किंच अञ्चित्ते वि विडसणा, पडिसिद्धा किं मु सचेतणे दव्वे । कारणपक्खेवम्मि य, पढमो ततिओ य जयणाए ॥४८४४|| जं पि अचितदव्वं तत्थ वि विडसणा पडिसिद्धा रागोति काउ, किमंग पुण सचितदब्वे ? जत्थ पुण कारणसचित्तं भक्खेंति तत्थ पढमभरोण ततियभंगेण एगो पक्खेवो कायवो ति, तिपरिरया जयणा ॥४८४४॥ तुल्ले त्ति गयं । १ गा० ४०२०।२ तण, इत्यपि पाठः । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 भाष्यगाथा ४८४२-४८४८] पंचदश उद्देशक: "रागद्दोसे अणंतकायस्स वजण" त्ति दारं - पायच्छित्ते पुच्छा, 'करण महिड्डि दारुभरथली य दिद्वंतो चउत्थपयं च विकडु, पलिमंथो चेव णाइणं ॥४८४५॥ "पायच्छित्ते पुच्छा'' अस्य व्याख्या - चोदेति अजीवत्ते, तुल्ले कीस गुरुगो अणंतम्मि । कीस य अचेयणम्मि य, पच्छित्तं दिज्जती दव्वे ॥४८४६।। "पुच्छ' त्ति वा “चोदण" ति वा एगर्दै । चोदगो वदेति - ततियच उत्थेसु भंगेसु परित्ते य अणंते य तुल्ले अजीवत्ते, किं कारणं परित्ते मासलहुं अणं ते मासगुरु ? किं वा परित्ते अणंते वा अचेयणे दव्वे पच्छितं दिज्जति ? अण्णं च रागदोसी भवंतो । जं अचेयणे परिते मासलहुं देह, एत्थ भे रागो । जं च अचेयणे प्रणेते मासगुरु देह, एत्थ भे दोसो ॥४८४६॥ __ जं चोदियं “कीस" परित्ते लहगो अणते गुरुगो, “जं च रागदोसी" एत्थ उत्तरं इमं सादु जिणपडिकुट्ठो, अणंतजीवाण गायणिफण्णो । गेही पसंगदोसा, अणंतकाए अओ गुरुगो॥४८४७॥ अणंतवणस्सति-जीवाणं जं गायं तं अणंतजीवेहि णिप्फण्ण, तं च परित्तवणस्सतिसमीवातो "सादु" , ति सुस्वादतरं, तहा जिणेहिं पडिसिद्ध । कहं ? उच्चते - जेण कारणे विमुद्धं परित्तं घेत्तव्वं । किं च अणंतवणस्सतीसु सुस्वादुतर इति अधिगरागे धी भवति, गेहिपसगे य अधिकतर। रागदोसा भवंति । इत्यतो अणते अधिकतरं पच्छित्तं । दव्वाणुरूवग्रो य देंतस्स रागद्दोसा वि ण भवंति।।४८४७॥"पुच्छ' त्ति दारं गतं । जं च चोदितं “कीस अचित्ते पच्छित्तं देह", एत्थ उत्तर-प्रणवत्थपसंगवारणाणिमित्तं सजीवपरिरक्खणाणिमित्तं च । पायरिया उच्छुकरणेणं महिड्डिएणं दारुभर थलिए य दिटुंतं करेंति। एत्थ पढमं "उच्छुकरणदिद्रुतो - ण वि खातियं ण वि वयी, ण गोण-पहियातिए णिवारेति । इति करणभईछिन्ने, विवरीय पसत्थुवणतो तु ॥४८४८॥ एगेण कुडुबिणा उच्छुकरणं रोवितं, तस्स परं तेण ण वि खातिया खता, णा वि वतीए पलियं, णावि गोणादी वारेति, णावि पहिया खायंते वारेति, ताहे अवारिज्जमाणेहिं गोणादीहिं तं सव्वं उच्छादियं, इतिसद्दो एवऽत्थे, एवं करेंतो उच्छुकरणंभतीते छिण्णो। "भती" णाम भयगाणं कम्मकराणं ति वुत्त भवति । जं च पराययं छत्तं वारेंतेण वुत्तं एत्तियं ते दाहंति तं पि दायव्वं, एवं सो उच्छुकरणे विणढे मूले छिण्णे जं जस्स देयं तं अतो बद्धो विणट्टो य । १ गा० १३१ । २ उच्छुकरण, इति बृहत्कल्पे गा० ६८५। ३ दारुथली, इति बृहत्वल्पे गा० ६८५ । ४ गा० ४८४५ । ५ गा० ४८४५ । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चाणके निशीथसूत्रे [ सूत्र - १२ प्रणेण वि उच्छुकरणं कथं, सो विवरीतो भणियव्वो । खादियादि सव्वं कतं । जे. य गोणादी पडंति ते तहा उत्रासेति जहा अण्णे विण ढुक्कंति । एस पसत्थो || ४८४८|| एयदिट्ठतस्स इमो उवणयो - ५२० को दोसो दोहिं भिण्णे, पसंगदोसेण णरुई भत्ते । भिण्णाभिण्गग्गहणे, ण तरति सजिए वि परिहरितुं ॥ ४८४६ || जो गिद्धमा तित्थकरवयणं करेंतो पलंबे घेत्तुकामो भणेत्ता " को दोसो" त्ति दोहि दव्वभावभिण्णगहणं करेति पुणां पुणो तेण पलंबभोगरसपसंगेण पच्छा तेहि अलब्भमाणेहि भत्ते गरुती ता "भिण्णा भिण्णे" ति जे भावतो भिण्णा दव्वतो प्रभिष्णा ते गेण्हति, जाहे तं पिण लब्भति ताहे पलंबर महि गिद्धो न तरति सजीए वि परिहारिउं, विणस्सति य संजमजीवियाम्रो, जहा सो उच्छुकरणका सगो । सोय कासगो एगभवियं मरणं पत्तो एवं इमो वि अगाई जातियव्वमरियव्वाई पावति । एस ग्रप्पसत्यो उवण ॥४८४६. इमो पसत्थो उवणप्रो जहा तेणं कासगेणं ते गोणादी त्रासिता रक्खितोय छेत्तो इहलोइयाणं कामभोगाणं अभागी जाओ । एवं केणइ सिस्सेणं दोहि वि भिष्णं पलंबं प्राणितं प्रायरियागं चालोइयं ति, तेहि आयरिएहि णिसट्टं चमदित्ता - छड्डावित-कदंडे, ण क्कमति मती पुणो वि तं घेत्तुं । णय वट्टति गेही से, एमेव अणंतकाएं वि ॥४८५०१ छड्डावितो ते लंबे, पच्छित्तडंडो य से दिण्णो, ताहे तस्स छड्डावियकयडंडस्स मती ण कमति पुणोवितं घेत्तुं ण वि से गेधी वट्टति पलंबेसु, जातितन्त्रमरियव्वाणि य ण पावति । एवं परिते भणियं । " एमेव अनंतकाए वि" त्ति एतेण चेत्र कारणं प्रणते गुरुगं पच्छितं दिज्जति ॥ ४८५० । “उच्छुकरणे" गतं । दाणि "महिड्डियदितो" - कण्णतेपुरमोलोणेण णिवारितं जह विणङ्कं । दारुभरो य विलुत्तो, णगरद्दारे अवारेंतो ||४८५१ ॥ महिड्डितो णाम राया । तस्स कण्णतेपुरं । तं वायायणेहिं प्रोलोएंतं ण को विवारेति । ता ते संगेणं णिग्गंतुमाढत्ताप्रो, तह विण को तिवारेति । पच्छा विडपुरिसेहिं समं चालावं काउमाढत्ता, एवं वारिज्जती श्री विट्ठायो । " दारुभरदिट्टंतो" एगस्स सेट्ठिस्स दारुमरिया भंडा पविसंती, णगरदारे एगं दारु "स पडियं" ति तं चेडरूवेण भंडीओ चेव गहिय, तं प्रवारिज्जमाणं पामिता सव्त्रो दारुभरो विलुत्तो णं ||४८५१ ॥ एते अपसत्था । इमे पसत्था - बिति एणोलोएंती, सव्वा पिंडेतु तालिता पुरतो । भयजणणं सेसाण वि, एमेव दारुहारी वि ॥ ४८५२॥ १ गा० ४८४५। २ गा० ४८४५ । Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४८४६-४८५४ ] पंचदश उद्देशकः ५२१ बितिएणं अंतपुरपालगेण एगा उलोयंती दिट्ठा, ताहे तेण सव्वातो पिडित्ता तामि पुरतो सा तालिता, ताहे सेसियानो वि भीयानो ण पलोएंति । एवं अंतेपुरं रक्खियं । एवं पढमदारहारी वि पिट्टियो, एवं दारुभरो वि रक्खितो ।।४८५२।। _ इदाणि "थलि दिटुंतो" - थलि गोणि सयं मतभक्खणेण लप्पसरो पुणो वि थलि। घाएत्तु बितिए पुण कोट्टगचंदिग्गह णियत्ती ॥४८५३।। थली णाम देवद्रोणी, ततो गावीणं गोजूइं गताणं एका जरगवी मता, सा पुलिदेहि “सयं मय" त्ति खइया, कहियं गोवालएहिं डंगराणं । "डगरा" पादमूलिया। ते भणंति - “जइ खतिया खतिया णाम" । ते पसगेणं अवारिज्जंता अप्पणा चेव मारिता। पच्छा तेहि लद्धवसरेहि थली चेव घातिता । एस अपसत्थो। . इमो पसत्थो- “बितिग्रो पुण कोट्टगबंदिग्गह नियत्ति" त्ति तहेव गोजूति गयाणं गावीणं एक्का मया, सा पुलिंदेहि खतिता, गोवालेहि सिटुं डंगराणं, ते डंगरा घातीसुवितियदिवसे कोट्टगं चेव, कोट्टं णाम पुलिंदपल्ली, "मा पसंग काहिति" त्ति काउं तत्थ बंदिग्गहो करो। एवं पुलिंदाणं णियत्ती कया तेहिं डंगरेहिं । उवण प्रो सो चेव जो उच्छुकरणदिद्रुते ॥४८५३।। इदाणि "चउत्थपदं विकडुभं" अस्य व्याख्या - विकडुभमग्गणे दीहं, च गोयरं एसणं व पेल्लेज्जा । णिप्पिस्सऽसोंडणायं, मुग्गछिवाडी य पलिमंथो ॥४८५४॥ जं भावतो वि भिण्णं दव्वतो वि भिणां एयं च उत्थपदं भण्णति । एत्थ तिणि दारा विकडुभं पलिमंथो प्रणाइण्णं चेव । “विकडुभं" णाम वीडको सालणं वा । अण्णे भणंति - उवातियं । अगम्मि भतपाणे लद्धे वि तं विकडुभं मग्गमागो दोहं गोयरं करेति, एसणं वा पेल्लेज्जा, फामुएसणिज्जं अलभमागे "प्रफासुयएसणिज्ज' ति गेण्हेज्जा । कह ? भण्णइ - एत्थ "निप्पिस्सऽसोंडणातं" । ण यं णाम प्राहरणं । जहा एगो "निप्पिस्सो" त्तिप्रमंसभक्खी भण्णाति. असोंडो प्रमज्जपाणो भण्णति । तस्स य मज्जपाएहि सह संसग्गी। अण्णया तेहि भणितोमज्जे णिज्जीवे को दोसो ? तेहिं य सो भणतेहि करगि गाहितो लज्जमाणो एगंते परेण प्राणियं पियति । पच्छा लद्धरसो बहुजमझे वीहीए वि चत्तलजो पाउमाढत्तो । पुणो तेहिं भणियं - "केरिसं मज्जपाणं विणा विलंकेण, परमारिए य मंसे को दोसो ? खायसु इम" । तत्य वि मो करणिं गाहितो "परमारिए णत्थि दोस" ति खायति । पच्छा लद्धरसो कढिणचित्तीभूतो अपणो वि मारेउ खायति । जहा सो सोंडग्रो विडंकेण विणा ण सकेइ अच्छे उ, एवं तस्स वि पलंबे खायंतस्स पच्छा गिद्धस्स पलबेण विणा- कूरो ण पडिभाति । तस्स एरिसी गेही तेसु जायति जेग तेहिं विणा एक्कदिणं मिण सक्केति प्रच्छिउ विकइभे त्ति गतं । इदाणि "पलिमंथे" ति दारं - "मुग्गछिवाडी पलिमंथो" त्ति पलंबे खायंतस्स ग्रायविराहणा। १ गा० ४८४५ । २ अफासुयाणेसणिज्जति इत्यपि पाठः । ३ शपथ । ४ गा० ४८४५ । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१२ कहं ? उच्यते - जहा एक्का अविरइया मुग्गछेत्ते कल्लेदाणि उलुण्हिया खायंती अच्छति जाव पहरो गयो । तं च एक्को राया पासति । तस्स कोउग्रं जायं - केत्तियं खत्तियं होज्जति, पोट्ट फालियं, दिट्ठो अप्पो फेणरसो । एवं विराहणा होज्जा, पलिमंथो वि भवति, जाव सो ताणि खायति ताव सुत्तत्येसु हाणी भवति ॥४८५४॥ पलिमंथे त्ति दारं । इदाणि "प्रणाइण्णं" ति दारं - अवि य हु सव्वपलंबा, जिणगणहरमाइएहिऽणाइण्णा । लोउत्तरिया धम्मा, अणुगुरुणो तेण तव्वज्जा ॥४८५५॥ "प्रणाइण्णा" णाम - अणासेवितं त्ति वुत्तं भवति । ते य सव्वेहि तित्थकरेहिं गोयमादिहिं य गणधरेहिं आदिसहातो जंबूणाममादिएहिं आयरिएहिं जाव संपदमवि प्रणाइण्णा, तेणं कारणेणं ते वजणिजा। आह "तो कि जं जिणेहि अणाइण्णा तो एयाए चेव प्राणाए वज्जणिज्जा ?' श्रोमित्युच्यते, लोउत्तरे जे धम्मा ते अणुधम्मा । . किमुक्तं भवति ? जं तेहिं गुरूहि चिणं चरियं आचेट्ठियं तं पच्छिमेहिं वि अणुचरियव्वं, जम्हा य एवं तम्हा तेहिं पलंबा ण सेविया, पच्छिमेहिं वि ण सेवियव्वा । अतो ते वजणिजा। वं अणुधम्मया भवति ॥४८५५॥ चोदगाह - "जइ जं जं गुरूहिं चिण्णं तं तं पच्छिमेहि अणुचरियव्वं तो तित्थकरेहिं पाहुडिया सातिज्जिता पागारततियं देवच्छंदगो पेढं च अतिसया य एहि तेहिं उवजी विउ, अम्हे वि एवं कि ण उवजीवामो ?" प्राचार्याह - कामं खलु अणुगुरुणो, धम्मा तह वि उ ण सव्वसाधम्म । गुरुणो जं तु अतिसए, पाहुडियाती समुपजीवे ॥४८५६।। सिस्साभिप्पायअणुमयत्थे "काम" सव्वं पाडियादि समुवजीवति त्ति वुत्तं भवति । खलुसद्दो विसेसणे । किं विसेसति ? ण सबहा अणुधम्मो। कहं ? उच्यते - गुरु तीर्थकरः । अतिशयास्तस्यैव भवंति नान्यस्य । अत्रानुधर्मता न चिन्त्यते । पाहुडियादि उवजीवति सो "तित्थकरजीयकप्पे" त्ति काउ अत्राप्यनुधर्मता न चिन्त्यते, तीर्थकरकल्पत्वादेव, जत्थ तित्थकरेतराणं सामण्णधम्मता तत्थ अणुधम्मो चितिजति ॥४८५६।।। तं च प्रणाइण्णे दंसिज्जति इमं - सकड दह समभोम्मे, अवि य विसेसेण विरहिततरागं । तह वि खलु अणाइण्णं, एसऽणुधम्मा पवयणम्मि ॥४८५७|| "सगड-दह-समभूमे" ति तिण्णि दारा, प्रवसेसा तिण्णि पदा, तिहिं वि दिटुंतेहिं उपसंघारेयवा । ४८५७ १ गा० ४८४५॥ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४८५५-४८६० ] पचदश उद्देशकः तत्य पढम "सगडं" ति दारं जया समणे भगवं महावीरे मगधविसयाओ वीतिभयं गर पत्थितो उद्दायणस्स पव्त्रावगो तइया अंतरा साहुणो भूक्खत्ता । जत्थ भगवं प्रवासियल्लो तत्थ तिलभरियसगड प्रवासितो । वक्कतजोणि थंडिल, अतसा दिण्णा ठिती अवि छुहाए । तह विण गेण्हंसु जिणो, मा हु पसंगो सत्थहते ||४८५८ || ते तिला वक्कतजोणिया, थंडिले य ठिएल्लया । अवि य ते तिला 'विसेसेण विरहिततरा तसेहि, विसेसग्गहणं तदुत्था आगंतुगा वा तसा गत्थि, गिहत्थेहिं य दिण्णा - "भगवं ! जति कप्पंति तो घेप्पंतु इमे तिला", तह विण गेहंसु जिणो “प्रसत्थोवहय" त्ति काउं, मा पसंगं करेस्संति “तित्थकरेणं गहिय" त्ति इमं प्रलंबणं काउं । एयं प्रणाइण्णं । एस पवयणे अणुधम्मो ||४८५८|| इदाणि दह त्ति दारं - एमेव य णिज्जीवे, दहम्मि तसवज्जिते दए दिन्ने । समभो वि द्विती, जिमितासन्ना ण वाऽणुण्णा ॥ ४८५६ || तदा तत्थेव दहो णिज्जीवो ग्राउक्कायो, अवि य विसेसेण विरहिततरागो (तसेहि), थंडिल्लं च तं सव्वं, सा सव्वा पुढवी वुक्कंतजोणिग त्ति वृत्तं भवति, दहसामिणा य दिण्णं तं दगं, वि तत्थ केइ साधू तिसाभिभूता ठितिखयं करेज्जा, ण य सामी "असत्थोवहयं" त्ति काउं जाणेज्जा । "तित्थगरेण गहियं" ति मा पसंगो भविस्सति । एयं प्रणाइण्णं । एस प्रणुधम्मो पवयणे । इदाणि "भोमे" त्ति दारं - "समभो मे" त्ति पच्छद्धं । समभोम्मरुक्खवि रहिय उद (व) गश्रोदेहिकागदाल सिरविरहियं पुढवी वक्कतजोणी, अवि य विसेसेण विरहियतरागं तसेहि, प्रणावातमसंलोयं च साधू य जिमियमेत्ता, अण्णं च सत्यहतं थंडिलं णत्थि, ण पावति वा, "आसणे" त्ति भावसण्णाट्टा (सणागा) । तं चैव सत्यहयं थंडिलं असणं अवि साधू जिवितक्खयं करेज, ण य सामी श्रणुजाणेजा, मा "इमं तित्थकरेहिं प्रणुण्गायं" ति श्रसत्यहते पसंग करेज्जा । एवं प्रणाइण्णं, एस अणुधम्मो पत्रयणे ||४८५६ ॥ एस सव्वो विधी साधूण भणितो । अधवा - णिग्गंथीण वि एस चेव विधी । जतो भण्णति ५२३ - एसेव गमो नियमा, णिग्गंथीणं पि होइ णायव्वो । सविसेसतरा दोसा, तासं पुण गेण्हमाणीणं ||४८६०|| कंठा णर्वारिं - तासि सविसेसा पलंबेण हत्थकम्मादिणो दोसा, इमं कप्पसुत्ताभिप्पायतो भण्णति । तं च इमं कप्पस्स बितियसुत्तं - कति णिग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे भिण्णे पडिग्गाहित्तए । • गा० ४८५७ । २ गा० ४८५७ । ३ गा० ४८५७ । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे सूत्र-१२ एयस्स सो चेव पुव्वभणितो सुत्तत्थो। सत्तेणं अण्णायं जहा कप्पति प्रामं, "भिषण" तिततिय-चउत्थेहि भंगेहि जं भावभिण्णं ! एयं सुत्तेणं अणुण्यातं, अत्थतो पडिमेहति "ण कप्पति त्ति ।" प्राह चोदकः - "तो कि सुत्ते णिबद्धं जहा कप्पति त्ति भिषण ? उच्यते - जति वि णिबंधो सुत्ते, तह वि जतीणं ण कप्पति आमं । जति गेण्हति लग्गति सो, पुरिमपदणिवारिते दोसे ।।४८६१।। के पुरिमपदणिवारिता दोसा ? जे पढमसुत्ते दोसा भणिता, तेसु लग्गति । सुत्तं तु कारणियं, गेलन्न-ऽद्धाण अोममाईसु । जह णाम चउत्थपदे, इयरे गहणं कह होज्जा ॥४८६२।। गेल्लण्णद्धाणोमोदरिए वा कारणियं निरत्थयं होइ सुत्तं । इति दप्पतो अणाइण्णं, गेलण्णऽद्धाण अोम आइण्णं । तत्थ वि य चउत्थपदे, इतरे गहणं कहं होज्जा ।४८६३।। इति एयं दप्पतो गेण्हतस्स पलंब अणा इण् । ग्रहवा - "भिण्णं कप्पई" त्ति एवं पि प्रत्थे णिसिदं दव्वतो चेव, जं पुण अणुणायं सुत्तेणं एवं कारणतो। ते य कारणे इमे - गेलणकारणं एवं प्रद्धाणोमे य । एतेसु कारणेसु प्राइणं । तत्थ च उत्यभंगो, ततो तत्तियभंगो। "इतर" ति पढभबितियभगा भावतो । अभिण्णा, तेसु गहणं कहं होज्जा ? तेसु वि कारणा गहणं होज्ज ति ।। ४८६३॥ एवं भणिए चोदगाह - पुवमभिण्णा भिण्णा, य वारिता कहमियाणि कप्पंति । सुण आहरणं चोदग ! ण कमती सव्वत्थ दिलैतो ॥४८६४॥ चोदगो भणति - "पुनसुत्ते तुब्भेहिं भणियं भिण्या अभण्णा य चउसु वि भंगेसु ण कप्पंति । इदाणि भणह - भावभिण्णा कप्पति कारणतो वा चउसु वि भगेसु कप्पति त्ति, ण जुत्तं भगह" । आयरियो भणति-जहा कप्पंति तहा सुणसु ग्राहरणं चोदग!। गुरुवयणं असुणेत्ता दप्पं असहमाणो चोदगो भणति-"ण कमति सव्वत्थ दिटुंतो"।।४८६४॥ णोदग एवाह - जति दिद्रुता सिद्धी, एवमसिद्धी उ आणगेज्माणं । अह ते तेसि पसाबण, किं णु हु दिटुंततो सिद्धी ॥४६६५॥ चोदगो पायरियं उवालभति - जति अत्थाणं दिद्रुतेणं सिद्धी कज्जति तो प्राणागेज्झाणं अत्थाणं प्रसिद्धी, अह तेसि प्राणाम्रो चेव पसिद्धी किंणु हु दिटुंततो सिद्धी । “किण्णु" ति किमिति, हु एवार्थे, किमित्येवं दृष्टान्तेन अर्थसिद्धिः क्रियते। कि चान्यत्, दिद्रुतेण जं जं अप्पणो इटुं तं तं सव्वं पसाहिज्जति॥४८६६।। कहं ? उच्यते - कप्पम्मि अकप्पम्मि अ, दिटुंता जेण होंति अविरुद्धा। तम्हा ण तेसि सिद्धी, विहि-अविहि-विसोवभोग इव ॥४८६६।। गा० ४७२१ । , Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४८६१-४८७० ] पंचदश उद्देशक: जहा “कप्पति हिंसा काउं विधीए" ति पइण्णा । के हेऊ? णिरपायत्तणतो । जम्मि कज्जमाणे इह परलोगे वा आवातो ण भवति तं कप्पति । को दिटुंतो? विधि-प्रविधि-विसोपभोग इव । जहा विसं विधीए मंतपरिग्गहितं खज्जमाणं अदोसाय भवति, प्रविधीए पुण खजमाणं मारगं भवति, तहा हिंसा विधीए मंतेहिं जण्ण-जयमादीहि कजमाणा ण दुग्गतिगमणाय भवति, तम्हा णिरवायत्ता पस्सामो, हिंसा विधीए कप्पति काउं। एवं दिट्टतेण कप्पमकप्पं कज्जति, अकप्पं कप्पं कज्जति । तम्हा दिद्रुतेणं जा सिद्धी मा असिद्धिरेव ।।४८६६।। यात्माभिप्राये चोदकेनोक्ते प्राचार्याह - असिद्धी जति णाएणं, णायं किमिह उच्यते । अह ते णायतो सिद्धी, णायं किं पडिसिज्झइ ॥४८६७॥ यदि दृष्टान्तेन अर्थानामसिद्धिस्ततस्त्वया इह विषदृष्टान्तः किमुच्यते ? अह विधि-प्रविधिदृष्टान्तेन हिसार्थः त्वया साध्यते - मयोच्यमानो दृष्टान्तः किं प्रतिषिद्धयते ? ॥४८६७॥ किं च - अंधकारो पदीवेण, वज्जए ण तु अन्नहा । तहा दिटुंतिओ अत्थो, तेणेव उ विसुज्झति ॥४८६८॥ ग्राणागेज्झे अत्थे दिद्रुतो ण कमति, ण वा अस्थि दिटुंतो तेण ते प्राणा गेज्मा, जो पुण दिलृतितो प्रत्थो स तेण परिस्फुटो विसुज्झति ति अतो दिटतेण पसाहिज्जति ति ण दोसो ॥४८६८॥ किं च सुप्रीता वयं - भवता स्ववाक्येनैव दृष्टान्तेनार्थप्रसाधनमभ्युपगतमिति । किं च - एसेव य दिद्रुतो, विहि-अविहीए जहा विसमदोसं । होइ सदोसं च तहा, कज्जितर जता-ऽजत फलादी ।।४८६६॥ जो एस भवता दिटुंतो कतो मम पि एसेव दिद॒तो अभिप्पेयसुत्तत्थं साधयिस्सति । ___ कहं ? उच्यते -- जहा विसं विधीए भुज्जमाणं ग्रदोसकारयं भवति, अविधीए दोसकारयं भवति, "तह" ति एवं कज्जे जयणाए पलंबा सेविज्जमाणा हियाय भवंति, "इतरे" ति प्रकज्जे जयणाए अजयगाए वा सेवमाणा अहियाय भवति ॥४६६६॥ अण्णं च ते अणालोइऊण विसदिटुंतो कयो आयुहे दुण्णिसहम्मि, परेण वलसाहितो । वेताल इव दुज्जुत्तो, होहि पच्चगिराकरो ॥४८७०॥ जहा केणति सारीरबलदप्पुद्धतेण आयुधं गहियं, परबधाए णिसटुं । तं च दुणिसट्रू कयं जेण परो ण माधितो । तं चेव परेण गहियं, तेणेव आयुधेण सो वहितो.। ग्रहवा - अणिमहें चेव परेणं "बलसाहितं'' बलाकारेणं ति वुत्तं भवति । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ सूत्र-१२ अधवा- मंत्रवादिना होमजावादीहि वेतालं साहयिस्सामि त्ति पाहूनो प्रागतो, किं चि दुप्पउत्तं दळूणं स वेयालो तस्स साहगस्स इ8मत्थं ण साधेत, प्रत्युत अपकाराय भवति । एवं हे चोदग? तुमे विधिप्रविधिविसदिटुंतो ममःभिप्पेतमस्थस्स घाताय पयुत्तो मम पि एतेणेव . इद्वमत्थे सिद्धी जाता, सवयणं च ते घातिय " कमति सवत्थ दिद्रुत" इति ॥४८७०॥ अधवा णिरुअस्स गदपोगो, णिरत्थो कारणे य अविहीए । इय दप्पेण फलादी, अहिता कज्जे य अविहीए ॥४८७१॥ जहा णिरुयस्स प्रोसहपाणं णिरत्थयं, रोगकारणे समुप्पण्णे पुण प्रोसहपाणं कज्जमाणं अविधीए सरीरपीडाकरं विणासकरण वा भवति, “इय" त्ति एवं दप्पेण पलबा अहिया संसारवद्धणा भवंति । अोमादिकज्जे य 'प्रविधीए" त्ति अजयणाए गहिया इह परत्थ य अहिया भवंति ।।४८७१।। किं च दिटुंतसाहणत्थं भण्णते इमं जति कुसलकप्पियातो, ण होज उवमाओ जीवलोगम्मि । छिण्णऽब्भं पिर गयणे, भमेज लोओ निरुषमाओ॥४८७२॥ . "कुसल" ति पंडिता, तेहिं कपिया जा जस्स अत्थस्स साधिका उवमा सा तम्मि चेव अत्थे णिउत्ता, जति ताम्रो उवमानो ण होज्ज इमम्मि मणुयजीवलोगो छिण्णऽभमिव, 'छिण्णऽब्भ' ति एग अब्भय तं जहा वारण इतो य इतो य भामिबति निराश्रयत्वात् तहा इमो वि लोगो भामिज्जति णिरुवमानो, णिग्गया उवमा जत्थ अत्थे सो अत्थो दृष्टांताभाव इत्यर्थः । तो दिट्ठतितो अत्थो दिट्टतेण विणा ण इच्छिमो भवति, ण सम्ममुवलब्भति त्ति वुत्तं भवति । उक्तं च सिलोगो तावदेव चलत्यर्थो, मन्तुविषयमागतः । यावन्नोत्तम्भनेनेव, दृष्टान्तेन प्रसाध्यते ।। एवं बहुधा उक्ते गुरुणा, चोदगाह - "यद्येवं ततः क्रियतां दृष्टान्तः ।" उच्यते । श्रूयतां तत्थ मरुए हि य दिलुतो, चउहिं णेयव्यो आणुपुब्बीए । एवमिहं श्रद्धाणे, गेलण्णे तह य ओमे य ॥४८७३॥ एतीए पुन्वद्धस्स इमं वक्खाणं चउरो मरुग विदेसं, साहपारए सुणग रण्ण सत्थवहो । ततियदिणे पूइमुदगं, पारउ सुणगं हणिय खामो ॥४८७४।। चत्तारि मरुपा सत्येण विदेसं गच्छति । तेसि पंचमो साहपारगो। तेण भणिता - "मुणगं सह णेर" तेहिं सह णीतो। ते सुणहच्छट्टा अणेगाहगमणिज्ज विहंपवण्णा। तेसि तत्थऽरणे Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४८७१-४८७८ ] पंचदश उद्देशकः ५२७ वच्चंताणं सो सत्थो वहितो मुट्ठो त्ति भणियं होति । सो य सत्थो दिसोदिसिं पलातो। इतरे वि मरुयपंचजणा सुणगच्छट्ठा एकतो पदिता । अईवतिसिगभुक्खिया तइयदिणे पेच्छंति पूइमुदगं, मयगकलेवराउलं । तत्थ ते साहपारगेण भणिता-एयं सुणगं मारेउं खामो, एयं च सरुहिरं पाणियं पिवामो, अण्णहा विवजामो, एयं च वेदरहस्सं आवतोए भणियं ण दोसो ॥४८७४॥ एवं तेण ते भणिता - परिणामो उ तहिं, एगो दो अपरिणता उ अंतिमो अतीव । परिणामो सद्दहती, कण्णऽपरिणो मतो एक्को ॥४८७॥ तेसि मरुयाणं एको परिणामतो, दो अपरिणामगा, चउत्थतो अतीवपरिणामगो । तत्थ जो सो परिणामसो तेणं जं साहपारगेणं भणियं, तं सद्दहिय अब्भुवगयं ति वुत्तं भवति । जे ते दो अपरिणामया, तेसि एक्केण साहपारगवयणं सोउं कण्णा ठइया - "अहो । अकज्ज, कण्णा वि मे ण सुणंति" । सो अपरिणामगो तं कुहियमुदगं सुणगमसं च अखायमाणो तिसियभुक्खितो मतो ॥४८७५।। बितिएण एतऽकिच्चं, दुक्खं मरिउं ति तं समारद्धो । कि एच्चिरस्स सिटुं, अतिपरिणामोऽहियं कुणति ॥४८७६॥ जो सो बितिम्रो अपरिणामगो सो भणाति--“एयं एयवत्थाए वि अकिच्चं, किं पुण दुक्खं मरिजति" त्ति काउ “समारद्धो" णाम खइयं तेण । .. जो सो अतिपरिणामो सो भणाइ - "केवचिरस्स सिटुं, वंचियामो त्ति प्रतीते काले ज ण खातितं ।" सो अण्णाणि वि गाविगद्दभमंसाणि खादिउमाढत्तो, मज्जं च पाउं ।।४८७६।। पच्छित्तं खु वहेज्जह, पढमो अहलहुस धाडितो बितिओ । ततिओ य अतिपसंगा, जामो सोवागचंडालो ॥४८७७॥ तत्थ जेहिं खइयं ते साहपारगेण भणिता- "इतो णिच्छिण्णा समाणा पच्छित्त बहेजह ।" तत्य जो सो परिणामगो तेण अप्पसागारियं एगस्स अज्झावगस्स आलोइयं। तेण भणियं-वेदरहस्से वुत्तं-- “परमण्णं गुलघृतमधुजुत्तं प्राशयेत् ।" एसेव पढमो। एयस्स य एवं ग्रहालहुसं पच्छित्तं दिण्णं, सुद्धो। तत्थ जो सो अपरिणामो, जेण "ण दुक्खं समारद्ध", सो णिच्छिण्णो समाणो सुणगकत्ति सिरे काउं चाउवेज्जस्स पादेहि पडित्ता साहेति, सो चाउवेज्जेण धिद्धिकतो णिच्ढूढो । जो सो ततियो अतिपरिणामगो “णत्थि कि चि अभक्खं अपेयं वा" अतिपरिणामपसंगण सो मायंगचंडालो जातो ॥४८७७।। एस दिवंतो। . अयमत्थोवणयो- श्रद्धाणे वा गेलण्णे वा प्रोमोदरियाए वा जह पारो तह गणी, जह मरुगा एव गच्छवासी उ । सुणगसरिसा पलंबा, मडतोयसमं दगमफासु ॥४८७८॥ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [मूत्र १२ उचारियसिद्धा । मरुएहि य दिटुंतो ति दारं गतं । इदाणि "प्रद्धाणे" त्ति दारं । एवं अद्धाणादिसु, पलंबगहणं कयावि होज्जाहि । गंतव्वमगंतव्वं, तो अदाणं इमं सुणसु ॥४८७६।। आह चोदग - अद्धाणं कि गंतव्वं न गंतव्वं ? उच्यते - उद्दद्दरे सुभिक्खे, अद्धाणे पवज्जणाउ दप्पणं । लहुगा पुण सुद्धपए, जं वा श्रावज्जती जत्तो ।।४-८०॥ उद्ददरा - उद्दद्दरं, उद्धं पूरिज्जति ति वुत्तं भवति । ते य दरा दुविधा - धनदरा पोट्टदरा । धनदरा षण्णवासणा कडपल्लादि, पोट्टाणि चेव पोट्टदरा ।। एत्य चत्तारि भंगा – उद्दद्दर सुभिक्खं १ । उद्दद्दरं नो सुभिक्खं २ । नो उद्दद्दरं सुभिक्खं ? । णो उद्दद्दरं णो सुभिक्खं (क) ४ ॥ एत्थ पढमभंगे जति गच्छति श्रद्धाणं दप्पेगं, एत्थ जतिवि सुद्धं सुद्धेग गच्छति ण कि चि मावति - मजुत्तरविराहणं तहावि चउलहुं पच्छित्तं । कीस ? दप्पेणं अद्धाणं पडिवज्जति त्ति अतो चउलहुं दिन्नं । जं वा अण्णं आवज्जति त्ति "जतो" ति - मूलुतरगुणविराहणातो तष्णिप्फणं सञ्च पच्छितं । अहवा - जं वा मूलुत्तरगुणविराहणाग्रो प्रावति तं 'पुण विराहणं करेति, जतो त्ति - दव्वतो खेत्तता कालतो भावतो वा, तष्णिप्फण्णं सव्वं पावति । एवं ततियभंगे वि प्रत्थतो पत्तं । सेसेहि बितिय - चउत्थभंगौह प्रद्धाणगमणं हवेजा, पढम-ततिएमु वा अण्ण तरकारणे ।।४८८०॥ किं तं कारणं? उच्यते - असिवे ओमोयरिए, रायडे भए व आगाढे । गेलण्ण उत्तिमढे, णाणे तह दंसणचरित्ते ॥४८८१॥ मागाढसहो सव्वाणुवादी मन्झट्टियो, ग्रहवा - जं दवादि प्रागाढ सत्तविहं वुत्तं तं एत्थ दुव्वं ॥४८२१॥ एएहि कारणेहिं, आगाडेहिं तु गम्ममाणेहिं । उवगरणपुवपडिलेहितेण सत्थेण गंतव्वं ॥४८८२|| भद्धाणे जं उवकरणं गुलिगादि उवउजति तेग "पुवपडिलेहिएण" त्ति -- गहितेणेत्यर्थः । अद्धाण पविसमाणो, जाणगणीसाए गाहए गच्छं । अह तत्थ ण गाहेज्जा, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥४८८३॥ जाहे पद्धाणं पविसियव्वं णिच्छियं भवति ताहे प्रायरिया 'जाणगणिस्माए'' ति - जाणतो गीयत्यो तणिस्साए गच्छो प्रदाणकप्पट्ठिति गाहेजति । पच्छद्ध कंठं ॥४८ ३।। -- १गा० ४८७३। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदश उद्देशक: स्यान्मतिः - " को श्रद्धाणकप्पट्ठिति गाहेति ? कहं वा गाहिज्जति" ? उच्यते - गीत्थे सयं वा, वि गाहते छड तो पच्चयणिमित्तं । सारेंति ते सुतत्वा, पसंग अपच्ची इहरा ||४८८४ ॥ भाग्यगाथा ४८७६-४८८८ ] पण के कारणेण वावडो तो श्रणेण उवज्झायादिणा गीयत्थेण गाहेति श्रप्पणा वा गाहेति श्रण्णगीयत्थसमवखं, ताहे सो गाहितो अंतरंतरे प्रत्थपदं छड्डेंतो कहेति, ताहे जे ते गीयत्था ताणि प्रत्थपदाणि संभारिति - "इमं ते विस्सरियं" ति । किं णिमितं एवं कज्जति ? प्रगीयत्थाणं पच्चयणिमित्तं - " सव्वे एते जाणंति" ति सव्वमेवं । अध एवं ण कज्जति तो तेसि एवं उप्पज्जइ "एत्ता हे एयं सट्ठिति सेच्छाए करेंति" । "इहर" त्ति - एवं प्रकज्जते श्रद्धाणमुर्तिष्णा वि तत्थेव पसंग करेंति, अपच्चतो वा भवति ॥४८८४ ॥ सीसो भणति - "भणह सव्वं श्रद्धाणविधि" । आचार्याह - श्रद्धा जयणाए, परूवणा वणिया उवरि सुत्ते । उवरिं वक्खति, रोगाऽऽतंकेसिमा जयणा ||४८८५|| जहा श्रद्धाणे गम्मति, जा य श्रद्धाणे विधी जा य अद्धाणे जयणा, सा सव्वा उवरि श्रद्धाणसुत्ते सोलसकमुद्दे सके पविता, तं तत्थेव भगीहामि । श्रोमे वि जा विधि पलंबगहणं पति तं पि उर्वार इहेवउद्दे सके वक्खति । इह "" गेलण्णे" त्ति जं दारं भणामि, तं च गेलणं रोगो वा भवति, आतंको वा ॥४८८५॥ी स्यान्मतिः - "केरिसो रोगो, केरिसो वा श्रातंको ? तत उच्यते 'गंडी - कोट-खयादी, रोगो कासादितो उ आतंको । दीहरुया वा रोगा, आतंको आघाती य ॥४८८६॥ ५२६ . डमस्यास्तीति गंडी गंडमालादी, श्रादिसद्दातो सिलिप्पादी, सूणियं, गिलासिणीमादी रोगो । कासो, प्रादिसद्दातो सासो, सूलं, सज्जक्खयमादी आतंको । अहवा - सव्वो जो दोहकालितो सो रोगो, जो पुण श्रासुधाती सिग्धं मारेति सो प्रातं । ।।४८८६ ॥ समासतो गेलण्णस्स इमे भेदा गेलणं पि यदुविहं, आगाढं चेत्र तह अणागाढं । गाडे कमकरणे, गुरुगा लहुगा अणागाढे ॥ ४८८७॥ एतीए इमा विभासा - आगाढमणागाढं, पुव्वत्तं खिष्पगहणमागाडे । फासुगमफासुगं वा, चतुपरियङ्कं तणागाडे ||४८८८|| for fair से केण ति दिण्णं, सज्जविसूतिगा वा विद्धाति, सूलं वा श्रासुघाती, १ गा० १८७३ । . Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र- १२ एवमादि प्रगाढं पुत्तं । " इतरं" पुणे जं कालं सहते तं श्रणागाढं । तुम्मि प्रागादे फामुयं वा एसणमणेसणं वा डत्ति हियव्वं । ५३० 1 अह प्रगाढे कमकरणं करेति - तिपरियट्टं पणगादिजयणं वा तो चउगुरुमापच्छित । मणागाढे. पुणतिपरिट्टे कए उत्थपरिणति, तत्थ वि पणगपरिहाणीए । ग्रह प्रण गाढे प्रगाढकर णिज्जं करेति श्रजयगाए वा गण्डति तो चउलहुगा पच्छितं ॥ ४६८८।। एत्थ गेलपणे इमा जयणा वेज्जे पुच्छण जयणा, पुरिमे लिंगे य दव्वगहणे य । fuses लोणार पण्णत्रण जयणाए ||४८८६|| - एस भद्दवाहुकया अत्य संगहगाहा । इमा से विभासा - वेज्जेग एगदुगादिपुच्छणे जा चउक्कउवदेसी । इह पुण दब्वे पलंबा, तिष्णिय "पुरिसाऽऽयरियमादी ||४८६० || णिमित्तं गहिस्सति, तम्हा जयगाए गंतव्वं देज्ज - • दव्वप्रो खेत्तो कालो भाव वेज्जा संविग्गादी पुब्बुत्ता गिलाणमुत्ते । " तुच्छ्रेण जयग" त्ति वेज्जस्स एगो पुच्छगो ण गच्छति जमदंडोति कातुं दो ग गच्छति जमदूत्रं ति कार्य, चत्तारि ण गच्छति णीहारे त्ति काउ मा वेज्जो एवं । तिणिवा पंचवा सत्त वा । सोय पुच्छितो चउक्क उवदेसं एते वि गिलाणमुत्तं वक्खाणिया । इहं दव्वतो पलंबादि भाणियव्वा । वेज्जो पच्छिम्रो भणेज्जा जारिस रोगं कहेह एरिसम्स इमं वणस्सतिभेदं देह ||४८६०|| सो चउत्रिहो होज्जा रोगभेदाश्रो - - पउमुप्पलमा उलिंगे, एरंडे चैव निंवपत्ते य । पित्तुदय सन्निवाते, वातपकोवे य सिंभे य ।। ४८६१॥ एते जहासंखं पित्तादिसु हवेज्जा | जो सो गिलागी सो इमेसि एक्कतरो हवेज *गणी वा वसभो वाि ari fray गीतागतो परिणामोडारिणामो वा । एतेसिं तिह वि पुरिसाणं फासुएसणिज्जेश श्रावणादि जाने कायव्वं, जता फामुयं ण लब्भति तदा अफागुण विकज्जति ॥ ४८६१|| हिज्जति य जं जहा गहियं इमेसिं - गणि-वसभ-गीय परिणामगा य जाणंति जं जहादव्वं । इतरेमिं वा तुलणा, गातम्मि य मंडिपोतुवमा ||४८६२|| गण व गीतोय भिक्खू जं जहा गहियं दव्वं तं जाणंति चेव आगमतो, चित्तमचित्तं वा, सुद्धमसुद्धं वा, जं वा जम्मि य थक्के दव्वं घेप्पति । जो य अगी परिणामो तस्स वि कहिज्जति, सो विजं जहा कहिज्जति तं तहेव परिणमयति त्ति । " इतरे" ग्राम जे अगीता अपरिणामगा तेसि ण कहिजति जहा "अफासूयं गणेसिज्ज" ति, तेसि वा तुलणा कजति, जहा " अमुगगिहातो प्रयट्टा कयं एवं प्राणियं ?” १ गा० ४८८६ | २ गा० ४८८६ । ३ गा० ४८८६ ४ गा० ४ ६० | ५ अवसरे । - Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४८८१-४८६६ ] पंचदश उद्देशकः अह कहं वि एतेहिं णायं जहा -"एयं अफासुय अणेसणिज्ज वा प्राणिय" ति । ततो ते भंडिपोतदिद्रुतेहि पण्णविज्जति ।।४८६२।।। जा एगदेसे ण दढा उ भंडी, सीलप्पई सा य करेइ कज्ज । जा दुब्बला सीलविया वि संती, न तं तु सीलंति विसन्नदार ॥४८६३।। जा भंडी पोतो वा एगदेसभग्गा, सेसं सव्वं दढं, सा तम्मि एगदेसे संठविता संती कज्ज करेति । जा पुण भग्गविभग्गा सुटठु वि संठविया कज्जं ण करेइ, ण तं संठवेंति, णिरत्णो वा उक्कोसो य तत्थ वि । एवं तुम पि जइ जाणसि - "पउणोहं पउणो य समाणो एवं पच्छित्तं वही हामि, अण्णं च अप्पणो प्रायं सज्झायज्झाणवेयावच्चादीहिं उज्जिणीहामि, तो पडिसेव प्रकप्पणिज्ज । अव एतेसि असमत्थो, तो मा पडिसेव त्ति ।।४८६३।। इदाणि "'दव्वग्गहणे य पिट्ठमपिढे" त्ति अस्य व्याख्या - सो पुण आलेवो वा, हवेज्ज अाहारिमं च मिस्सितरं । पुव्वं तु पिट्ठगहणं, विकरण जं पुव्वछिण्णं वा ॥४८६४।। व्रणे प्रवण वा प्रणाहारिमं पालेवो वा होज्ज अाहारिमं वा होज्ज, अचित्ताभावे मिस्सं इयरं वा सचित्तं, अहवा - प्रणाहारिमं प्राहारिम वा मिस्सं जं पालेवो पाहारेयवं च । “इतर" त्ति ज णो याहारेयत्वं णावि पालेवो । तं किं होज्ज ? फासेण फरिसियव्वं, णासाए वा पुप्फादि अग्घातियवं, पाडलाइ वा. पाणगं वा सो धूवणादि वा किं चि, एयं प्रचित्तादि सव्वं जं पुवदिटुं लब्भति तं घेत्तव्वं । असति पुन्वदिदुस्स जं पुवछिणयं तं विकरणं करित्ता, विकरणकरणं णाम अणेगखंडं करेत्ता जहा णिज्जीवावत्थं भवति तं तारिसं प्राणेत्ता पीसंति । असति पुछिण्णम्स अप्पणा वि छिदति ॥४८६४॥ . जं पुण पुव्वच्छिण्णं तं इमेसु गेण्हंति - भावितकुलेसु गहणं, तेसज्जति सलिंगगेण्हणाऽवण्णो । विकरणकरणालोयण, अमुगगिहे पञ्चतो अगीए ॥४८६५॥ जाणि सङ्घकुलाणि अम्मापितिसमाणाणि वा परिणामगाणि अणड्डाहकराणि । तेसि भावियकुलाणं असति प्रभावियकुलेसु य लिंगग्गहणेण प्रवणो भवति, तम्हा अण्णलिंगेण गेण्हियव्वं । अहवा - “२पण्णवणे" त्ति अविज्जमाणेसु भावियकुलेसु जाणि कुलाणि सुवण्णवणिज्जाणि ताणि पण्णवेत्ता मग्गति गेण्हंति य । ताणि पुण जत्य गहियाणि पढमबितियभंगिल्लाणि पलंबाणि ताणि तत्थ चेव विकरणाणि करेता पाणे उं गुरुसमीवे मालोएंति, अगीयपच्चणिमितं अमुगरस गिहे सयट्ठाए एताणि मए लद्धाणि ।।४८६५॥ एसा चेव "४जयणा", इदाणि णिग्गंथीणं भणति एसेव गमो णियमा, णिग्गंथीणं पि "होइ णायव्यो । श्रामे भिण्णाभिण्णे, जाव तु पउमुप्पलादीणि ॥४८६६।। १ गा० ४८८६ । २ गा० ४८८६ । ३ गा० ४८८६ । ४ गा०४८८६ । ५ नवरि छम्भंगा, इति बृहत्कल्पे गा० १०३३ । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ सभाध्य-चूणिके निशीथसूत्रे । सूत्र-१२ "एवं आम ण कप्पति, पक्कं पुण कप्पति न वा वि।। भण्णति सुणसू पक्कं, जह कप्पति वा.ण वा वा वि ॥४८६७|| जहा गिरगंथाणं तहा णिग्गंथीणं पि भाणियध्वं जाव पउमुरालादीणि, जाव य "अमुगगिहे पचप्रो गीते" त्ति । णवरि - तासि भिण्णे छब्भंगा कायब्वा, ते अणंतरसुत्ते भणिहिति । पलंबाधिकारतो इमे वि कप्पस्स ततिय-चउत्थ-पंचमसुत्ता भएणति - कप्पति णिग्गंथाणं पक्के तालपलंबे अभिण्णे वा पडिग्गाहित्तए । णो कप्पइ णिग्गंथीणं पक्के तालपलबे अभिण्णे पडिग्गाहित्तए। कप्पति णिग्गंथीणं पक्के तालपलंबे भिण्णे पडिग्गाहित्तए - से वि य विधिभिण्णे, णो चेव णं अविधिभिण्णे। एते सुत्ते एगट्टे चेव भण्णति । सुत्तत्थो पुव्ववनितो ॥४८६७॥ इमो णिज्जुत्ति अत्यो - नाम ठवणा पक्कं, दव्वे भावे य होति णायव्वं । उस्सेतिमादि तं चिय, पक्कंधणजोगतो पक्कं ॥४८६८॥ णामठवणापो गतामो, दवपक्कं तं चैव उस्सेतिमादि जंग्रामे भणियं तं चेव जया इंधणसंजोगे पक्कं भवति तदा दवपक्कं भणति । दश्वेग पक्कं दवपक्कं ॥४८९८|| इमं भावपक्कं - संजम-चरित्तजोगा, उग्गमसोही य भावपक्कं तु । अण्णो वि य आएसो, णिरुवक्कमजीवमरणं तु ॥४८६६॥ संजमजोगा चरितं च सुविसुद्धं भावपक्कं । अधवा - उग्गमादिदोसविसुद्धं भावपक्कं । अधवा - जेण जं आउगं णिव्वतियं तं संपालेता मरमाणस्स भावपक्कं भवति ॥४८६६॥ पक्क त्ति गतं । इदाणिं "भिण्णाभिण्णे' त्ति सुत्तपदस्य व्याख्या - पक्के भिण्णा-ऽभिण्णे, समणाण वि दोसो किं तु समणीणं : समणे लहुगो मासो, विकडुभपलिमंथणाऽऽचिण्णं ॥४६००॥ पक्कं जं गिज्जीवं, पुण दवतो भिण अभियं वा, एत्य समणाण वि दोसो भवति भिमंग पुण समणीणं ? समणा जति गिव्हंति तो मासलहुं दोहिं वि तबकालेहि लहुप्रं, अण्णे य विकडुभपलिमथादो दोसा पुववणिया ।।४६००। एमेव संजईण वि, विकडुभपलिमंथमादिया दोसा। . कम्मादिया य दोसा, अविहीभिण्णे अभिण्णे य ॥४६०१॥ १ एषा गाथा चूणौ न विवृता । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ भाष्यगाथा ४८६७-४६०६ ] पंचदश उद्देशक: पुव्वद्धं कंठं । तासि अहितो दवतो प्रविधिभिण्णे य हत्थकम्मदोसो । जम्हा एते दोसा तम्हा णिग्गंथीणं ण कप्पति पक्कं अभिषण पडिग्गहेत्ता । जं पि.पक्क भिणं तं पि विधीए भिण्णं प्रववादे कप्पति, णो प्रविधिभिण्णं कप्पति, एतेहिं चेव विकडुभकम्मादिएहि दोसेहिं ॥४६०१॥ समणीणं छब्भंगा कहं भवंति ?-- विहि-अविहीभिण्णम्मी, छब्भंगा होति णवरि समणीणं । पढमं दोहि अभिणां, अविहिविही दव्वे बितिततिए ॥४६०२॥ एमेव भावतो वि य, भिणं तत्थेक्कदव्वतो अभिण्णं । पंचमछट्ठा दोहि वि, णवरिं पुण पंचमे अविही ॥४६०३॥ जं च सुत्तपदं "सेवि य विधिभिषणे णो चेव णं प्रविधिभिणो" एयम्मिणिग्गंथीणं सुतपदे छ भंगा भवति । तं जहा - भावतो अभिण्णं दव्वनो अभिण्णं १ । भावग्रो अभिणं दवप्रो अविहिभिण्णं २। भावप्रो अभिण्णं दबतो विधिभिण्णं ३ । भावतो भिण्णं दव्वतो भिण्णं । (इ) ४। भावतो भिणं दव्वतो प्रविधिभियं ५। (नो) भावतो भिक दव्वतो विधिभिणं । . ६ । एतेमु छसु भगेसु दिवड्डा गाहा समोतारेयव्वा ।।४६०३॥ . प्राणादि रसपसंगा, दोसा ते चेव जे पढमसुत्ते । इह पुण 'सुत्तनिवातो, ततियचउत्थेसु भंगेसु ॥४६०४॥ इमा गाहा णिग्गंथसुत्ते च उभंगक्कमे समोतारेयव्वा, ततिय-चउत्था भंगा भावतो भिण्णं ति तेण तम नुत्तग्विातो एमेव गाथा । णिग्गंथीणं छन्भंगकडे च उत्थ-पंचम-छट्ठ भगेसु सुत्तणिवातो कायव्यो, तेषां भावभिण्णत्वात् । अहवा - छ? भंगे सुत्तणिवातो ॥४६०४।। समणीणं छसु भंगेसु जहक्कम इमे पच्छित्ता - लहुगा तीसु परित्ते, लहुगो मासो य तीसु भंगेसु । गुरुगा होंति अणंते, पच्छित्ता संजतीणं तु ॥४६०५! कंठा अह हत्थकम्मभावतो छमु भगेसु इमं पच्छित्तं - अहवा गुरुगा गुरुगा, लहुगा गुरुगा य पंचमे गुरुगा। छट्टम्मि होलि लहुगो, लहुगट्ठाणे गुरूऽणंते ॥४६०६ - कंठा १ (वृ० उ० १ सू० ५) । २ वृहत्कल्प प्रथमसूत्रे। ३ सूत्रनिपातम्तृतीय चतुर्थयोभंगयोभवति भावतो भिन्नमिति कृत्वा । तृतीय-चतुर्थभंगद्वयमधिकृत्य सूत्र प्रवृत्तमिति भावः । Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे आयरितो पवत्तिणीए, पवत्तिणी भिक्खुणीण ण कधेति । गुरुगा लहुगा लहुगो, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥ ४६०७॥ एयं पलंबसुतं प्रायरियो पवत्ति गोए ण कधेति : :, जइ सा भिक्खुणीणं ण कहेति : पवत्तिणं - तो जति ता भिक्खुणीश्र ण सुणंति, तो तासि मासलहुं च्छित्तं । ग्रायरियस्स कहेंतस्स आग दिया दोसा पवत्तिणी विप्राणाइणो दोसा, भिक्खुणीए वि प्रसुतीए प्रांणादिया दोसा ||४६०७१। अभिण्णे महच्चपुच्छा, मिच्छत्त विराहणा य देवीए । किं पुणता दुविधातो, भुक्तभोगी प्रभुत्ता य ॥ ४६०८|| चोदगाह - णिग्गंथाणं पक्कं भिण्णं वा प्रभिष्णं वा कप्पति, णिग्गंथीणं प्रभिष्णं प्रविधिभिणं न कप्पति, विधिभिष्णं कप्पति ।।४६०८ ।। जहा एस सुत्तत्थे भेदो, किमेवं महत्वएसु वि तेसि भेदो ? जहा तच्चणियाणं भिक्खुयाणं किल अड्डाइजा सिक्खा पदसिता, भिक्खुशीणं पंचसिक्खा पदसिता । एवं णिगंथीणं किं छ- महश्वया, साहुपंचमहन्वहितो दुगुणा वा ? उच्यते वि छ - महव्वता णेव, दुगणिता जह उ भिक्खुणीवग्गे । बंभवयरक्खणड्डा, न कप्पति तं तु समणीणं ॥ ४६०६॥ उच्चारियसिद्धा । श्रंगादाणमरिसं पलनं घेप्पतं दठ्ठे कोति मिच्छत्तं गच्छे, तेणेत्र वा करकम् करेला । तत्थ य संजमायविराहणा भवति । एत्थ दोविदिता कज्जति ताम्रो य समग्रीमो दुविधा - भुत्तभोगाओ अद्भुत भोगाग्रो वा । अंगादाणसरीसे पलंबे दट्ठे भुक्तभोगीण सतिकरणं भवति, इयराण कोउयं भवति त्ति ॥४६०६॥ किं च ण केवलं पलंबे विसेसो [ सूत्र- : - source वि जत्थ भवे, एगतरे मेहुणुब्भवो तं तु । तस्सेव तु पडिकुडं, बितियस्सऽण्णेण दोसेणं ॥ ४६१०॥ जहा कि उच्यते " एगतरे" त्ति - साधुपक्खे साधुणियपक्खे वा, जेण भुत्तेण फरिसिएण वा मेहुणुब्भवो भवति तस्सेव पक्स तं मेहुणुब्भव दोसपरिहरणत्थं पडिकुटुं प्रतिषिद्धमित्यर्थः । वितियस्स पक्खम्स श्रणेण दोसेण पडिसिज्झति असंजम दोसेणं ति वृत्तं भवति ॥४६१०॥ पिल्लोम - सलोमऽ जिणे, दारुगदंडे सवेंटपाए य । भवरक्खणड्डा, वीसुं वसुं कता सुता ॥ ४६११ ॥ गिल्लोमं प्रजिणं णिग्गंथाणं सतिकरणकोउदोगं दोमाणं वारणाणिमित्तं पडिसिज्झति, णिग्गंथीगं पुणपाणिदयाणिमित्तं प्रतिगोवधिभारणिमित्तं च पडिकुटुं । सलोमं गिग्गंथीणं सतिकरणको प्रादी दोसाणं Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४६०७-४६१४१ पंचदश उद्देशकः ५३५ वारणाणिमित्तं पडिसिद्धं, णिग्गंथाणं पूण पाणिदयाणिमित्तं अतिरेगोवहिभारणिमित्तं च पडिकुटुं। दारुदंडयं पायपछणं सवेंटपादं च णिग्गंथीणं बंभवय राखणा णिमित्तं पडिसिद्ध, णिग्गंथाणं अतिरेगोवहिभारणिमिनं च णाणण्णायं । एतेण कारणेण णिग्गंथाणं णिग्गथीणं कहिं चि पुढो सुत्तकरणं ॥४६११॥ चोदगाह-पुण कम्मोदयनो मेहुणुब्भवो भवति, ण णिदाणपरिहारो कज्जति । ग्राचार्याह - णत्थि अणिदाणं तो, होतुब्भवो तेण परिहर णिदाणे । ते पुण तुल्ला-ऽतुल्ला, मोहणियाणा दुपक्खे वि ॥४६१२॥ णदण णाम जं पडुच्च मोहणिज्ज उदिज्जति, हं जहा इट्ठसद्दादि । नाच - दव्वं खेत्तं कालं, भावं च भवं तहा समासज्ज । तस्स समासुद्दिट्ठो, उदो कम्मस्स पंचविहो ।। दुपक्खे वि त्ति इत्थीणं पुरिसाण य तुल्ला अतुल्ला य ॥४६१२॥ रसगंधा तहि तुल्ला, सद्दाती सेस भय दुपक्खे वि । सरिसे वि होंति दोसा, किमु व संते विसमवत्थुम्मि ॥४६१३॥ इट्टरसगंध पडुच्च इत्थिपुरिसाणं तुल्लो मोहृदयो, जहा णिद्धादिरसेण पुरिसस्स इंदिया बलिज्जति तहा इत्थियाए वि, तहा चंदणादिगण वि, सेसेसु सद्दरूवफासेसु । ___ "दुपक्खे वि' त्ति - इत्थिपक्खे पुरिसक्खे भयणा कायबा। जहा पुरिसस्स पुरिसफासेणं मोहोदयो होज्जा वा ण वा, जइ होज्जा तो मंदो पाएण ण जारिसो इत्थिफासेणं उक्किट्ठो भवति । इत्थिफासेणं पुण पुरिसस्स णियमा भवति मोहोदयो उक्कडो य । एवं इत्थीए इस्थिफासे भयणा, इत्थीए पुरिसफासेण उदयो नियमा । एवं इ8 पि सद्द सोउं पुरिसस्स पुरिससह मोउ भयणा, इत्थिसद्दे मोहुदप्रो। एवं इत्थीए भाणियव्वं । ___ एवं रूवं पि इटुं जीवसहगतं चित्तकम्मादिपडिमानो वा दटुं, एतेण कारणेणं सलोमणिल्लोमादिणो तुल्लातुल्लगिदाणा परिहरिज्जति । एतेणेव कारणेणं णिग्गंथीणं अभिण्णं प्रविधिभिण्णं वा ण कप्पति ॥४६१३।। ___ इमे य अण्णे अधिणे प्रविधिभिणे य दोसा । तत्थ ताव अभिणे दोसा भण्णति, "'मिच्छत्त विराहणाय देवीय य" त्ति अस्य व्याख्या - मिच्छत्तं कोई जाएज्जा, एस दोसो णस्थि दिट्ठो त्ति काउं । वराहणा वंभवयस्स हवेज्जा ॥१६१३॥ इमो देविदिद्रुतो - चीयत्त कक्कडी कोउ कंटक विसप्प समित सत्थेणं । पुणरवि निवेसफाडण, किमु समणि गिरोह भुत्तितरा ॥४६१४॥ १ गा०४६०। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - १२ एगस्स रण्णो महादेवी । तस्स लोमसियाओ चियत्तायो । तीसे देवीए एगो णिउत्तपुरिसो दिवसे दिवसे ता आणेति । ५.३६ या तेण पुरिसेण ग्रहापवित्तीए अंगादाणसंठिया लोमसिया आणिता । ती देवीए तं लोमसिय पासेत्ता कोतुयं जायं, "पेच्छामि ताव केयारिस फासेति एयाए पडिसेविए" । ता ता सा लोमसिया पादे बंधिउं सागरियद्वाणं पडिसेविउमाढत्ता । तीसे लोमसियाए कंटो ग्रासी, सो तम्मि सागारिए लग्गों, विसप्पियं च तं ! वेज्जसस | ताहे वेज्जेण समिया महिया तत्थ णिवेसिया उट्ठेत्ता सुसियप्पदेसं चिधियं । तम्मि देसे तीए अपेच्छमाणीए सत्यो खोहियो । पुणो तेणेव प्रागारेण णिवेसिया फोडियं, पउणा जाया । जति ताव तीसे देवीए दंडिएण पडिसेविज्जमाणीए कोउ जायं, किमंग पुण समणीणं णिच्चनिरुद्धाणं भुत्तभोगीणं प्रभुत्तभोगीण य ॥ ४६१४।। कसिणाऽविहिभिण्णम्मि य, गुरुगा भुत्ताणं होति सतिकरणं । इतरासि कोउगादी, घेप्पते होति उड्डाहो ||४६१५॥ कसि णाम सकलं तम्मि प्रविधिभिण्णे य सतिकरणं भुत्तभोगीणं, प्रभुत्तभोगीणं कोउयं भवति । एत्थ पच्छितं गुरुगा । तं च श्रंगादाणसं ठियं घेप्पंतं बठ्ठे उड्डाहो, "णूणं एसा एतेण पादक्कम काहिति " एवं लोगो संभावेति ॥ ४६१५।। तेण य पलंबेण मोहुदयात्रो कम्मं करेत्ता इमं चिंतेइ - जइ ताव पलंबाणं, सहत्थगुण्णाण एरिसो फासो | किं पुण गाढा लिंगण, इतरम्मि य निहतो सुद्धे ॥४६१६॥ "सहत्थगुणाणं" ति गुद प्रेरणे, स्वहस्तप्रेरितानाम् इत्यर्थः । " इयरम्मित्ति" अंगादाणं जदा पुरिसेद्दियभावेण सुद्ध बुद्धमित्यर्थः । ग्रहवा- सुद्धेत्ति पुरिसफरिसे सुद्धे सुठुनरं सोक्खं भवतीत्यर्थः ।। ४६१६ ।। ताहे हत्थकम्मकरणातो जोणिघट्टणलद्धसुहासादा उदिष्णमोहा ग्रसहमाणी इमं कुज्जा - पडिगमणअण्णतित्थिय, सिद्धे संजत सलिंग हत्थे य । वेहाणस धाणे, एमेव प्रभुत्तभोगी वि ॥ ४६१७॥ संघाडगादिसमीवातो जत्थागता तत्थेव गमणं करेज्जा, अण्णतित्थिए वा गच्छति । ग्रहवा - अण्णतित्थिएण वा पडिमेव वेज्जा, सिद्धपुत्तेण वा । संजतं वा उवसग्गेज्जा । "सलिगि” त्ति एयाणि प्रणउत्थियादीकम्माणि सलिंगे ठिएल्लया करेज्जा, हत्थकम्म वा पुणां पुणो करेज्जा, वयाणि वा भग्गानि त्ति काउं उड्डाह वा, "कह काहामि त्ति कहं वा सीलं भसेहामि" त्ति वेहाणसं करेज्जा, उब्भामगं वा घेत्तुं प्रोधागं करेज्जा । एते पदे सब्वे भुक्तभोगी करेज्जा । श्रभुक्तभोगी वि अचिट्ठे एते चेव पदे करेज्जा, । णवरं - डिगमगं मातापितिसमीवं ॥४६१७॥ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव्यगाथा ४६१५-४ पंचदश उद्देशकः प्राह चोदकः - " जाणामो केरिसं प्रविधिभिण्णं, केरिस वा विधिभिण" ? अतो भण्णति - भिण्णस्स परूवणता, उज्जुग तह चक्कली विसमकोट्टे । ते चेव अविहिभिण्णे, अभिण्णे जे वणिया दोसा ॥४६१८॥ असंजमदोसणियत्तणहे गुणोवलंभहे उंच प्रविधिभिण्णस्स य परूवणा कज्जति - उज्जुयभप्फालियकरणं तिरियं वा चक्कलीकरणं एते दो वि प्रविधिभेदा, विधिभिण्णं पुण विसमकोट्टकरणं जं पुणो तदाका काउण सक्कति तं सव्वं विधिभिण्णं । जे ते अभिण्णे देविदिट्ठतेण दोसा भणिया ते नेव दोसा सविसेस भात अविधिभिणे ।।४६१८।।। स्यात् कथमित्युच्यते कडेण व सुत्तेण व, संदाणिते अविहिभिन्ने ते चेव । सविसेसतरा वि भवे, वेउव्वियभुत्तइत्थीणं ॥४६१६॥ प्रविधिभिण्णं कद्वेण सिलागादिणा 'संदाणेति" त्ति संघातितं पुव्वागारे ठपि सुत्तेण वा संदाणियं, जे चेव अभिण्णे दोसा ते चेव सविसेसा भवंति । कह ? उच्यते - "वेउन्वियभुत्तइत्थीण" ति जामो ईत्योभो अंगादाणे बेंटियं त्रोटियं वा आबंधित्ता भुत्तपुवामो तासि तेण संदाणियपलंबेण रती भवति त्ति अधिकतरा दोसा एवं ।।४६१६।। अत्यतो कारणियं सुत्तं दरिसंतो गुरू भणति - विहिभिण्णम्मि ण कप्पति, लहुओ मासो य दोस आणादी। तं कप्पती ण कप्पति, णिरत्थयं कारणं किं तं ॥४॥२०॥ जं पि छ? भंगे विधिभिण्णं तं पि ण कापति, ते गेण्हतीण मासलहुं प्राणादिया य दोसा भवंति । आह चोदकः - "णणु सुत्ते भणियं “तं" ति विधिभिण्णं कप्पति ?" प्राचार्याह - जति सुत्ते भणियं तहावि प्रत्येण पडिसिज्झति, “ण कप्पति ।" चोदगाह - “एयं सुतं णिरत्ययं ।" । आयरिओ भणति - हे चोदग ! सुत्तं कारणियं । चोदगाह - “किं तं कारणं ? यन्नोपदिश्यते" ? उच्यते - ब्रूमः - गेलण्णऽद्धाणोमे, तिविहं पुण कारणं समासेणं ।। गेलण्णे पुवुत्ते, अद्धाणुवरिं इमं ओमे ॥४६२१॥ प्रद्धाणे उरि सोलसमे उद्देसगे भणिहिइ । इमं प्रोमं पडुच्च भण्णइ ।।४६२१।। णिग्गंथीणं भिण्णं, णिग्गंथाणं तु भिण्णऽभिण्णं तु । जह कप्पति दोहं पी, तमहं वोच्छं समासेणं ॥४६२२।। णिग्गंथीणं णियमा विधिभिन्न छट्ठभंगे, णिग्गंथाणं च उत्यततिएसु भंगेसु, दोण्ह वि साहुसाहुणोणं जहा कप्पति तहा संखेवो भणामि ॥४६२२॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१२ प्रोमम्मि तोसलीए, दोण्ह वि वग्गाण दोसु खेत्तेसु । जयणट्टियाण गहणं, भिण्णाभिण्णं च जयणाए ॥४६२३॥ प्रोमकाले तोसलिविसयगया साधुसाधुणीग्रो य एते चेव दो वग्गा दोसु खित्तेसु ठिता, एक्कम्मि खेत्ते संजता ठिता, अण्णम्मि बितिए खेते संजतीग्रो ठितायो। "जयणट्ठियत्ति" एसा चेव विधी जं असु ठिता, उस्सग्गेण एगलेते ण ठायति । अधवा - "जयणट्टिय" ति साधुभाघुणीपायोग्गं विहि गाहेत्ता खेते जे ठिता, गहणं करेंति । चरिमभंगे दव्वतो भिण्णं, ततियभंगे वा दव्वतो अभिणं, णिग्गंथीणं छट्टपंचमेसु भंगेसु दवप्रो भिण्णं, च उत्थभंगे वा दव्वतो अभिणं। "जयण" त्ति जतीण चरिमभंगासति ततियभंगे, णिग्गंथीणं छट्ठभंगासति पंचमे, पंचमासति नउत्थे ॥४६२३॥ चोदक प्राह – “को णियमो तोसलिग्गहणं" ? प्राचार्याह - आणुगदेसे वासेण विणा वि तेण तोसलीग्गहणं । पायं च तत्थ वासती, पउरपलंशे वि अण्णो वि ॥४६२४॥ प्राणुगदेसो णतिसलीलादीहिं जलबहुलो, सो अजंगलो भवति । अण्णं च तम्मि वरिसेण विणा वि सस्सं णिप्फज्जति सारणिपाणिएहिं । अण्णं च किल तोसलीए वरिसति, अणावुट्ठी न भवति । अण्णं च किल तोसलीए पउरपलंबा । तेण तोसलिग्गहणं कयं । इयरहा अण्णो वि जो एरिसो विसो पउरपलंबो य तत्थ वि एसेव विधी ॥४६२४।। पुच्छ सहु-भीयपरिसे, चउभंगो पढमगो अणुण्णातो । सेस तिए णाणुण्णा, गुरुगा परियट्टणे जं च ॥४६२५॥ एत्थ सीसो पुच्छति - जं सुत्तं दोण्ह वि वणाण, ''दोसु खेत्तेसु" ति, एत्थ पुढो ठियाणं संजतीणं वा दुक्खं वावारो बुज्झति, दोसदसी य पुढो खेते ठवेह, जतो य दोसा समुप्पज्जति तं ण घेत्तव्वं, प्रागमे य पवावणिज्जा, प्रतो संसतो कि परियट्टियव्वाप्रो न परियट्टियन्वायो ? पायरिओ भणइ - णत्थि कोइ णियमो जहा अवस्सं परियट्टियव्वाग्रोण. वत्ति । जड पुण पञ्चावेत्ता णायग्रो परियहइ तो महतीए णिज्जराए वति । प्रध अण्णायप्रो पालेइ तो अतिमहामं तव दाह संसारं णिवत्ते।। "तो केरिसेण परियट्टियबाप्रो ? को वा परियट्टणे विधी" ? अतो भण्णति - “सहू भीयपरिसि" ति, एतेहिं दोहि पदेहिं च उभंगो कायवो - सह भीयपरिसो १ । सहू अभीयपरिसो २ । असहू भीतपरिसो ३ । असहू अभीतपरिसो । (क) ४ । धितिबलसंपण्णो इंदियणिग्गहसमत्थो थिरचितो य पाहावधिखेत्तागि य तासि पाउ गाणि उपाए उं समत्यो. एरिसो साधू जस्स सव्वो साहुसाहुणिवग्गो भया ण किं चि अकिरियं करेति, भपा कंपति, एरिसो भीयपरिसो। १ गा० ४६२३ । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शयगाथा ४६२३-४६२७ ] पंचदश उदेशक: एत्थ पढमभंगिलस्म परियट्टण अणण्णायं, सेसेसु तिमु भंगेसु णाणण्णायं । अह परियट्टति तो गुरु। "पारयणं जं च" ति-वितिभंगिल्लो अप्पणो सहू अभीतपरि सत्तणतो जं तापा सच्छदपयाराग्रो काहिति तं पावति । ततियभंगिल्लो पुण असहुत्तानो तानि " 'अंगपचंगसंठाणं चारुल्लावेयपेहिय" दटुं जं समायरइ त पावति । भरिमे य लनियभंगदोमा ददुव्या ।।४६२५॥ जति पुण पव्यावनि, जावर्जनाए ताउ पालति । अण्णागति कप्पे वि हु, गुरुगा जे निजरा विउला ॥४६२६।। पदम-भंगिल्लो ' नि अवगमे । विभवगच्छति ? ताम्रो पब्बाबेउ । जति ता पवावेति तो विधीर जावज्जीवं परियट्रेनि, "gr!" नि बिसेमगे, कि विसेमइ ? इमं - सो पदमभगिल्ला जइ जि का पडिनजि कामो अमां च अज्जा यो परियट्टियवानो, कि करेउ ? जइ अन्थि गच्छे अगो पग्यि गो, तो चिरदिक्खियायो अहिावापो दिवदेर तन्स समप्पेउं जिण काप पडिवजउ । अह नस्थि अन्नो परियट्टगो, दो गा जिणवा, पडिदन उ तापो च्चिय परियव्यापी व विसेसेति । किं एवं भणति ? उच्चने – वट्टायगरमासति जति जिणकप्पं पडि वज्जति नो च उगुरुगा । गणं च जिणकप्पट्टियरस जा गिजरा नतो गिजरायो विधीए संजनीग्रो अगुपालतम्स विउलतरा गिजरा गानि ॥४६२६॥ इदणि "२जयदिताण गहण भिण्णाभिषणं च जयणाए' त्ति एवं पच्छद्ध, एयस्स पुव्वं अक्खरत्थो भणितो। इदाणि को विसेमऽत्थो ? भण्णति - "जयणट्टिय' त्ति इमाए जयणाए ठिता. उभयगणी पेहेत, जहि सुद्धं तत्थ संजती णेति । असती च जहिं भिण्णं, अभिण्णे अविही इमा जयणा ॥४६२७।। जो उभयगणोववे प्रो गणो यो ग्रोमकाले तोसलिमादो अणुगविमए पलं बप उरे गत दो खेता गीयत्येण पडिलेहावेति, अप्पणो वा गीयत्थेयरमहितो वा पडिलेहेति, जेमु सुद्ध प्रोदणं लभति तेमु ठायति । जइ दो एरिसे णत्यि खेत्ते तो जत्य सुद्धं प्रोदणं लन्भति तत्य संजतीग्रो ठवेंति । जत्थ पुण पलंबमोसं प्रोदणं लब्भति तत्थ अप्पणा ठायंति, पत्थि णिम्मिसोदणग्वेनं ताहे जत्थ मीसं लब्भति तत्थ संजतीप्रो ठावेति, अप्पणा णिम्मिमपलबेमु ठ यति । 'असति" नि सन्वेमु चेव खेत्तेसु णिम्मिस्सा पलंबा लभंति, ताहे जत्थ विधि-भिण्णा लभंति मंजतीनो ठाति, अभिषणे अविभिण्णेसु वा प्रपणा ठायंति, १ दश० अ०८ गा० ५८ । २ गा० ४३२३ । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१२ अध राब्वेमु अभिण्णा प्रविधिभिण्णा वा लब्भंति ताहे इमं पण्णवणं जयणाए करेंति ॥४६२७॥ भिण्णाणि देह मेनूण वा वि असती पुरो व भिदंति । ठावेंति ताहे समणी, ना एव जयंती तेसऽसती ॥४६२८॥ जत्थ संजतीतो ठविउकामा तं खेत्तं पुवामेव अप्पगो भाति ।। कहं ? उच्यते - जाहे णीणिया पलंबा ताहे संजता भणंति - "भिण्णाणि जाणि ताणि अम्हं देह"। अह ते गिही भणंति-'णस्थि मिग्णा", धोवेहिं वा णो संथरति भिणेहिं । ताहे भणंति गिही - "प्रम्ह भेतणं देज्जह, ण कप्पंति प्रम्ह एरिसे घेत्तुं ।" "प्रसति" ति-जाहे भेत्तुं ण देति भण्णति वा - "प्रम्हे एत्तियं हिविप्पडं ण याणामो", अभिष्णे चेव पणामेति, ताहे ते चेव संजता गिहिभायणे चेव ठिया तेसि गिहत्थाणं पुरतो भिदंति, ताहे गेण्हंति । एवं कीरमाणे तेसि गिहत्या गाढं भावणा उप्पज्जइ-"ण कप्पा एतेसि पमिणाणि घेत्तुं" ति । एवं ते भेत्तुं देंति । एवं जाहे भावियं भवति खेत्तं ताहे समणीतो तत्य ठति । "ता एवं जयंति तेसऽसई" ति तेसिं संजताणं असतीए वावडेसु वा केण ति कारणेण संजतेसु ताहे ता एव संजतीमो जामो तत्थ येरियानो ताम्रो एतेणेव पुवुत्तेण जयणाए विहाणेण खेतं भावता ठायति ।।४६२८॥ . भिण्णासति वेलातिक्कमे य गेहंति थेरियाऽभिण्णे । दारे भित्तुमतिती, ठागासति भिंदती गणिणी ॥४६२६॥ इदाणि "गहणं भिण्णाभिण्णाण जयणाए" ति अस्य व्याख्या - - जति खेतं विषिभिण्णभावणाए ण सक्केति भावेउं ताहे भिण्णाणं असांत जाव मिहत्येहि भिदावेति, अप्पणा वा जाव गिहत्थाणं पुरमो भिदंतीमो पन्छति ताव वेलातिककमो भवति, ताहे जाव - येरियाप्रो तामो पलिणे प्रविधिमिणे य गिण्हंति, तरुणीमो विहिभिण्णाणि मोदणभत्तं च गिर्हति । ___ एतेण विषिणा हिडिता सण्णियट्ठातो वसहिदारे ठिचा जे ते अभिण्णा भविधिभिण्णा य ते विधिभिणो करेसा वसहि प्रतिति । "ठागासति" ति जति दारे णत्थि, ताहे पविसित्तिा ताणि मभिष्णाणि प्रविधिभिण्णाणि य पवित्तिणीए पणामति । सा गणिणो ते विधिभिणे करेति ॥४२॥ प्राह - कि कारणं तरुणीणं पडिग्गहणाए सामुद्दिसणाए वा प्रभिणं प्रविधिभिष्णं वा ण दिज्जति ? उच्यते कक्खंतरुक्खवेगच्छिताइK मा हु णुम्मए तरुणी । तो भिण्णं छुब्मति पडिग्गहेसु ण य दिज्जते सकलं ॥४६३०॥ कक्षायांतरितं कक्षांतरं, यथा स्तंभेनांतरितं स्तंभांतरं । अहवा - उक्खो कक्खा, अंतरमिति - स्तनांतरे। उक्सो णाम परिघाणवत्थस्स मम्भितरचूलाए उवरि कण्णे णाभिहिटा उक्खो भणति । संगच्छिकाकारा १ गा० ४६२३ । २ विहिप्परं । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४६२८-४१३३ ] वामपासत्थिया वेगच्छिया भण्णति । श्रादिसद्दातो प्रणतरे वत्यंतरे । एवमादिठाणेसु मा तरुणी गूमेस्सति - स्थापयिष्यतीत्यर्थः । पंचदश उद्देशकः एतेण कारणं भिक्खग्गहणकाले अभिष्णं प्रविधिभिष्णं वा ण च्छुर्हति पडिग्गहे तासि, ण वा भोकाले तासि तं दिज्जति । "तो भिण्णं छुहंति पडिगाहेसु' त्ति पाढंतर तो इति तेणं कारणं तरुणं डिग्गहे व विधिभिष्णं छुभंति - भिक्खरहणकाले गेव्हंतीत्यर्थः ॥ ४६३०|| । एवं एसा जयणा, अपरिग्गहितेसु तेसु खेत्ते तिविहे परिग्गहिए, इमा उ जयणा पुणो होति ॥ ४६३१ ॥ पुत्रद्धं कंठं । तिविहे ति संजता संजइओ उभयं च ॥ ४६३१ । । तीसे गाहाए पच्छद्धस्स इमा विभासा - पुव्वोहिते खेत्ते, तिविहेण गणेण जति गणो तिविहो । एज्जाहि तयं खेत्तं, ओमे जयणा तहिं का णू ॥ ४६३२॥ ५४ १ जं खेत्तं पुचं उग्गहियं तिविहेण गणेश तिविधगणस्स वा प्रणतरेण राणे, संजतेहि संजती हि भए ति एस तिविधो गणो, तं चैव खेत्तं । तिविधो गणो एस संजता संजतीश्रो अयं वा । एते ओमका यसंथरता आगता । तेसि श्रागयाणं, तेहि ठायमाणेणं का ठायव्वे जयणा ? तेसि वा वत्थव्वाणं दायव्वे का जया ? || ४६३२ ॥ | प्रतो भण्णति - आयरिय-वसुभ-अभिसेग - भिक्खुणो पेल्लऽलंभे ण वि देते । गुरुगा दोहि विसिडा, चतुगुरुगा दीव जा मासो ||४६३३ || वत्व्त्राणं प्रागंतुगाण वा जो संजयपरिगहो सो इमाणं चण्हणणतरम्स होज्जा - प्रायश्विस्त वसभस्स अभिगम्स भिक्खुणो वा आगंनुगाण वि एते चेव चउरो भेदा, संजतीण वि त्यन्वाऽऽगंतुगीण एते नउरो भेदा कायव्वः । इमा उच्चारणा - पवभिणी व सभी प्रभिसेया भिक्खुणी । प्राचार्यः प्रसिद्धः । इह उपाध्यायो वृषभानुग इति कृत्वा वृषभ इत्युक्तः । इह पुनः इत्वराभिषेकेन प्राचायपदे प्रभिषिक्तो यः सोऽभिषेकः, ग्रहवा - गणावच्छेदक अभिषेकः । शेषा भिक्षवः प्रसिद्धा: । एतेसि इमा चारणिका - श्रायरियपरिग्गहिते खेत्ते जति प्रष्णो प्रायरिश्रो श्रागम, जति सो वत्यव्वो खेत्ते पहुष्पंते परभत्तपाणे प्रणतो प्रलब्भंते ण देति ठाणं श्रागंतुगाणं ङ्का । जं सो आगंतुगो हिडंतो पाविहिति तं सो वत्थव्वगो सव्वं पावति । श्रहेण पहुष्पंते खेत्तं सो य आगंतुगो वला पेल्लियो ठाति भणइ य - " कोऽसि तुमं”, तस्स वि चउगुरु, जंचते वत्थं वा पाविर्हिति तणिकष्णं सव्वं प्रागंतुगो एगो पावति । एत्थ एवं पच्छित्तं उमयगुरु भवति । सो व त्यो प्रायरियो वसभस्स प्रागंतुगस्स ण देति वा । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य. चूर्णिके निशीथसूत्रं [ सूत्र - १२ वसभो वा आगंतुगो वत्थव्वं प्रायरियं वला पेल्लियो ठाति । एते पन्छित्ते तवगुरुगा काललहू भवंति । सो चैव वत्थव्वारिप्रो अभिसेगस्स ण देति । सो वा आगंतुगो अभिसेगो वत्यव्वं प्रायरियं पेल्लिउं ठाति । एते पच्छिता तवलहुगा कालगुरू । सो चैव वत्थव्वगो आयरिश्रो प्रागंनुगभिक्खुस्स ण देति । सो वा श्रागंतुगो भिक्खु वत्यव्त्रगं प्रायरियं पेल्लिउं ठाति । एते पच्छिता उभयलहु । इदाणि वसहसपुचट्ठियस्स आयरिश्र श्रागश्रो जति वसभो ण देति ठागं तो । आयरिश्रो वा पेल्लिउं ठति तो डू । एत्थ वि एते उभयगुरु पच्छिता । ५४२ पुवट्टितो वस मी श्रागंतुगो वसभो जति ण देति तो ड्ङ्क । पेल्लेति वा तो ड्ड । एते पच्छित्ता तवगुरुगा । वसभो वत्थवो प्रागंतुगो प्रभिसेगो ण देति तो । पेल्लेति वा तो । एते पच्छित्ता कालगुरु । सभी arrest भिक्खू श्रागंतुगो ण देति ङ्क । पेल्लेति वा । एते पच्छित्ता उभयलहुं । एवं प्रभिसे गेण विपुब्वट्ठिएणं प्रायरियादिएसु एते चेव चत्तारि गमा कायव्वा । एते चैव पच्छिता । एवं भिक्खुणा विपुवट्ठिएणं प्रायरियादिसु प्रागंतुगेसु चउसु एते चेत्र चत्तारि गमा । एतं चैव पच्छित्तं । एवं एते सोलस गमा । ग्रहवा - एतेसु चेव सोलससु गमेसु पच्छिता देसो इमो भण्णति - " चतुग्ररुगादी व जा मासो" त्ति । आयरिश्र श्रायरियस्स ण देति क, सो वा पेल्लेइ क 1 आयरिश्र वसभस्स ण देति कः सो वा पेल्लेति ङ्क । आयरिश्रो अभिसेयस्स ण देति ०. सो वा पेल्लेति ० । आयरिश्र भिक्खुस्स ण देति ०, सो वा पेल्लेति ० । एवं एत्थ वि ते चैव सोलसगमा । एवं चैव पच्छितं । णवरं सव्वत्थ प्रायरियस्स उभयगुरु । वसभस्स तवगुरु । अभिसेगस्स कालगुरु । भिक्खुस्स उभयलहुँ ||४६३४|| संजयाण संजतपक्खे एते सोलस विकप्पा भणिता । सेसविकप्पदरिसणत्थं इमं भण्णति - www एमेव य भयणादी, सॉलसिया एक्कमेक्क पक्खम्मि | उभयम्मि विणायव्वा, पेल्लमलंभे य जं पावे ||४६३४ || "एक्क मेक्क पक्खम्मि" त्ति एक्को संजतिपवखो, प्रण्णो वि संजतिपक्खो चेव । वत्यन्वासु पवति णिमादियासु चउसु श्रागंतीसु पव्वतिणिमादियासु चंउसु एमेव सोलसिया ठावेयव्वा । -इमा भयणा कायव्वा " उभयम्म विणातन्त्र' त्ति, उभयं संजतासंजतीश्रो य, वत्थव्वगाणं चणं एत्थ वि सोलभंगा । अधवा - चउव्विधसंजतिपरिगाहिएस उभयगणाधिवो चउन्विधो प्रागंतुगा वि चउव्विहाहि संजतीहि एत्थ वि सोलसगमा । चउव्विहाणं संजतीणं श्रच्छंताणं चउव्विहेहि श्रागच्छमाणेहि एत्थ वि सोलस विकप्पा भवति । एते सब्वे चउसट्ठिपगारा । सव्वेमु वि पच्छितं पूर्ववत् । Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४३३४-४५३५ ] पंचदश उद्देशक: अधवा अयमपरो विकल्पः - एक्मेक्कपक्खम्मिति, एक्कमेक्कपक्खो णाम जो उभयगणो ण भवति तेसु सोलसिया भयणा कायव्वा । - तं जहा - संजयाणं संजएहि एत्थ सोलस भंगा कायव्वा । संजतीणं संजतीहि एत्थ वि. सोलस भगा । संजयाणं संजईहिं एत्थवि सोलस । संजतीणं संजएहिं एत्थ वि सोलस । " उभयम्मिविणायव्व" ति उभयं णाम उभयगणाधिवो, सो य चउव्विहो चेव प्रायरियादि तप्परिहित खेत्ते चव्विहेहि श्रागंतुगसजएहि [ संजयाणं ] सोलस भंगा । अहवा - उभयपरिग्गहिएमु खेत्तेसु चउव्विहाहि प्रागंतुगसंजतीहि सोलस भंगा। अहवा - उभयपरिग्गहिएसु खेत्ते उभयगणाहिवो प्रागच्छेज्ज, एत्थ वि सोलस भंगा । अधवा - चउव्विहसंजयपरिग्गहिएसु उभयगणो चउन्विधो, एत्थ वि सोलस । अधवा - चउव्विधसंजतिपरिग्गहिए उभयगणो नउब्विधो, एत्थ वि सोलस । सव्वे णव सोलस भंगा, चोयालं भंगसयं । एतेसु पच्छितं पूर्ववत् । इमं पदं सव्वत्थावादी । " पेल्लमलंभे य जं पावे" त्ति पहुप्पंते खेत्ते आगंतुगा जति बला पेल्लिउं ठंति तो जं वत्थन्त्रा गच्छमाणा प्रोमोदरियादिणिग्गता वा जं विराहणं पावंति, तन्निष्कण्णं सव्वं प्रागंतुगा पावेंति । अध वत्थव्वा पहुप्पमाणे खेते ण देति तो जं आगंतुगा अडता विराहणं पावेंति, तणिफण्णं सव्वं वत्यव्वाण च्छित्त ॥४६३४॥ आह चोदक: - " जति एयं पच्छित्तं भवति तो सपक्खस्स दूरंदूरेण होयव्वं ।” प्राचार्याह- प्रणस्स खेत्तस्स प्रलंभे - चवग्गो विहु अच्छउ, असंथराऽऽगंगा उं बच्च॑तु । वत्थव्वा उ असंथरे, मोत्तूण गिलाणसंघार्ड || ४६३५|| चउजग्गा नाम - वत्यब्वा संजत्ता संजतीतो वि, आगंतुगा संजता संजतीम्रो य । एते चउरो वि एगखेत्ते अस, जति संघरति ण मच्छरो कायव्वो, हुशब्दो यस्मादर्थे, यस्मात्तत्र वर्तनमस्ति, तुशब्दो प्रर्थ प्रदर्शने । इम दर्शयति - चउवग्गो जइ ण संथरति तहि तिवग्गो वि हु प्रच्छउ, तिवग्गो णाम वत्थन्त्रगसंजयसंजईश्रो प्रागंतुगसंजया य | तिवग्गासंधरे प्रागंतुगा गच्छति । प्र तेसि गिताणो होज्ज तो गिलाणो ससंघाडो अच्छति, सेसा गच्छति । अधवा त्रिग्गो वस्थव्वगसंजयसंजती प्रागंतुगसंजतीओ य । - ५४३ एत्थ भयणा भण्णति 'वत्यव्त्रसंजतीप्रो मच्छति । श्रह तासि गिलाणी होज्ज तो मोतुं गिलाणिसंघाई सेसा गच्छति । ग्रह दूरे खेत्तं संजतीण य सपञ्चवायं, ताहे वत्थव्वगसंजतीतो श्रागंतुगसंजतीतो य प्रच्छंति । एत्थ भणति - वत्थव्वाश्र असंथरे मोत्तूण गिलाणसंघाडं, सेसा सन्वे गच्छति । १ मागंगा इत्यपि पाठः । जइ अण्णं खेत्तं ग्रासण्णं संजतीण णिप्पच्चवायं ताहे वा गच्छंतीणं - Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-चूणि के निशीथसूत्रे [ सूत्र-१२ इदाणि 'दुवग्गो वि हु अच्छउ" - दुवम्गो णाम वत्यब्वगसंजता मागंतुगसंजता य । मह दुवग्गस्स प्रसंथरं, ताहे प्रागंतुगा गच्छंति, जति गिलाणो तो मोत्तूण गिलाणसंघाडगं गच्छति । अह तं प्रागंतुगभद्दगं खेत्तं मागंतुगा वा प्रदेसिया प्रखेतण्णा वा, ताहे वत्यव्वा असंथरे गच्छति । मोत्तूण गिलाणसंघाडं ति । अधवा - दोण्ह वि संजयवग्गाणं बालवुड्डअसहुमादी अच्छति, सेसा दुण्ह वि वग्गाणं गच्छति । अधवा - दुवग्गो वत्यव्वगसंजती प्रागंतुगसंजतीमो य, एयासि अप्पणो सट्टाणे णिग्गमणविधी जहा संजयाणं संजते पडुब णिग्गमणे भणियं तहा भणियव्वं ॥४६३५॥ इमो संजतीणं णिग्मणे विसेसो - एमेव संजतीणं, वुड्डी तरुणोण जुंगितगमादी । पादादिविगलतरुणी, य अच्छते बुड़ितो पेसे ।।४६३६।। एत्थ दुगभेदो कायन्यो - वुड्डीणं तरुणीण य । तरुणीतो णिप्पच्चवाते गच्छंति, वुड्डीयो अच्छंति । मुंगियाणं वाजंगिताणं वा अजुगियानो गच्छति । मुंगिता दुविधा - जाति सरीरेण य । जातिजंगिता गच्छंति । सरीरपादादजंपिया तरुणीग्रो य सपच्चवाए अच्छति । सेसा वुड्ढिमाइ गच्छति ॥४६३६॥ एवं तेसि ठिताणं, पत्तेगं वा वि अहव मीसाणं । ओमम्मि असंथरणे, इमा उ जतणा तहिं पगते ॥४६३७।। एवमित्यवधारणे । येन प्रकारेणोपदिष्टं पत्तेगं णिस्सामण्णं खेत्तं प्रणतरदग्गस्स "मीसं" दो तिष्णि नत्तारि वग्गा एगखेत्ते ठिता साधारणमित्यर्थः । प्रोमकाले प्रसंथरंताणं पलंबाधिकारे पाते इमा जयणा तेहि पलंबग्गहणे भण्णति ॥४६३७॥ ओदण मी मे जिम्मासुवक्खडे पक्क-ग्राम-पत्नगे।। साहारण सग्गामे, परगामे भावतो वि भए ॥४६३८॥ प्रोदणादिपदेसु सब्वेसु सग्गामपरगामपता चारेयव्वा ॥४६३८।। "अोदण" इति एयस्स इमा विभासा - बत्तीसाई जा एक्कघासो खमणं व ण वि य से हाणी। आवासएण अच्छतु, जा छम्मासे ण उ पलंबे ॥४६३६।। प्रोदणस्स बत्तीसं घासा पुरिसस्स ग्राहारो, ते एक्केण घासेण णूणता लब्भति, एक्कतीसं ति वुत्तं भवति । तेहिं अच्छउ, जति से प्रावस्सयसंयमादिया जोगा | परिहायंति, मा पलंबे गेण्हउ । "जा एकको घासो" त्ति, एत्थ हाणी दसिज्जति - दोहि लंबहिं ऊणा बत्तीस लंबणा लभंति, तीसं ति वुत्तं भवति । तेहिं अच्छउ, जति से मावस्सयसंयमादिगा जोगा ण परिहायंति, मा य पलंबे गेण्हतु । एवं एक्कक्कलंबणपरिहाणीए ताव णेयव्वं जाव एकको लंबणो लन्भति, तेणेवेकेणं अच्छउ जति से प्रावस्सयमादिया जोगा ण परिहायंति, मा य पलंबे गेण्हउ । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४६३६-४६४२] पंचदश उद्देशकः ५४५ एक्कघासो वि ण लम्भति एक्कं दिवसं ताहे खमणं करेत्ता मच्छउ, जति से मावस्सयमादिया जोगा न परिहायंति मा य पलंबे गेण्हतु । बितियदिणे पारेइ बत्तीसं लंबणे एत्थ वि पारणदिवसे एक्क्क लपणपरिहाणीए एता प्रच्छउ, जाव एकको घासो, जह से प्रावस्सयमादिया जोगा न परिहायति । पारणदिवसे एक्को वि घासो ण लखो ताहे छटुं करेउ, छट्ठपारणे बत्तीसादि जाव घासो वि ण लद्धो ताहे अट्ठमं करेउ, जति से णस्थि परिहाणी । "जा" इत्यनेन खमणे वुड्डी दंसिता, खमणवडिया पारणे मलमंतो खमणं करेइ जाव छम्मासं संपत्तो, जति से मावस्सयपरिहाणी णत्थि, मा य पलंबे गेण्हतु ॥१९३९। सग्गामे प्रोदणे ति गतं । इदाणि परग्गामे जावतियं वा लब्भति, सग्गामे सुद्ध सेस परगामे । मीसं च उवक्खडियं, सुद्धज्झवपूरयं गेण्हे ॥४६४०॥ ___ जावतियं सुद्धोदणं सग्गामे लन्भति, जति तेण ण संथरति जो जत्तिएण वा संथरति] तं परगामाप्रो मोदणं सुद्धं पाणेयवं । प्रोदणे त्ति गतं। इदाणिं “२मीसे" त्ति पच्छद्ध - मोदणं जया सग्गामपरग्गामेसु पज्जत्तियं ण लब्भति ताहे सग्गामे जं प्रोदणं मीसुवक्खडं दव्वभावतो भिण्णं तं सुद्धज्झवपूरयं सग्गामे गेष्हति H४६४०॥ तत्थ वि घेप्पति जं मीसुवक्खडं दव्य-भावतो भिषणं । दव्वाभिण्णविमिस्सं, तस्सऽसति उवक्खडं ताहे ॥४६४१॥ "तत्य" गाहा पुन्वद्धं-जति तस्स सम्गामे प्रमती ताहे तम्मीसोवक्खडं दब्वभावतो भिणं परग्गामतो सुद्धस्स अज्झवपूरयं प्राणेति । "दव्वाभिण्णविमिस्सं तस्सऽसति उवक्खडं ताहे" पच्छद्धं - जइ तं पिण लब्भइ ताहे सग्गामे चेव जं प्रोदणं मीसोवक्खडं ततियभंगे दव्वतो अमिण तं सुद्धऽज्झवपूरयं गेहति जति सग्गामे ण लन्भति ताहे तं चेव परम्गामातो प्राणेति ॥४६४५॥ इदाणि "3णिमीस्सं" तं ठप्पं ताव - कमपत्तं पणगपरिहाणि ताव भणामि - जाहे सुद्धोदणं मीसोवक्खडं च पजत्तियं ण लन्भति ताहे चेव सुद्धमीसोवक्खडा सग्गामपरग्गामेसु पणगपरिहाणीए उग्गमादिसुद्धस्स सुद्धोदणस्स मीसोवक्खडस्स य अज्झवपूग्यं गेहति । एत्थ लक्खणं जं जं अवराहपदं अतिक्कमति तं तं प्राधारे ठवेयव्वं । तम्मि वि प्रलब्भमाणे दसराइंदियदोसजुत्तं सग्गामपरग्गामेसु अज्झवपूरयं गेहति । एत्य दसराइंदिया प्राहारे ठिया । तम्मि विमलब्भमाणे पण्णरसराइंदिएहिं सग्गामपरग्गामे अज्झवपूरयं गेहंति । एत्थ पण्णरसराइदिया प्राहारे ठिया । एवं जाव पणुवीसा राईदिया। तेहिं वि अलब्भाणे इमं भण्णति पणगाति मासपत्तो, ताहे णिम्मीसुवक्खडं भिण्णं । निम्मीस उवक्खडियं, गेण्हति ताहे ततियभंगे॥४६४२॥ "णिम्मीसं ठप्पं" ति जं पुव्वं तमिदाणि भण्णति - जाहे भिण्णमासमतिक्कतो मासलहुं पत्तो ताहे मगामे णिम्मीसुवक्खडं दन्वभावतो भिण्णं प्रज्झवपूरयं गेण्हति । सग्गामे प्रलम्भमाणे तं चेव परग्गामातो १ गा० ४६३८ । २ गा० ४६३८ । ३ गा० ४६३८ । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१२ अज्झवपूरयं प्राणेइ। जाहे तं चरिमभंगे ण लभति ताहे सग्गामे ततियभंगे दव्वतो अभिण्णं णिम्मीसोवक्खडं अज्झवपूरयं गेहति । असति सग्गामे तं चेव परग्गामातो अज्झवपूरयं प्राणेति ॥४६४२।। एवं "उवक्खडं" ति गतं । इदाणि "'पक्कं आमं" च भण्णति - एमेव पउलिताऽपलिते य चरिम-ततिया भवे भंगा । अोसहि-फलमादीसू , जं चाऽऽइण्णं तयं नेयं ।।४६४३॥ "एवं" अवधारणे । किं अवधारेति ? उच्यते -ज प्रतिक्कतं तं अवधारेति. "पक" ति पक्कं णाम जं अग्गिणा पउलियं, जहा वाइंगणं इंगुपरकुणगोविल्लंवि वा घंटेरगमादि, एयं पि अोदणमोसणिम्भीसोबक्खडस्स वा सग्गामे चरिमभंगेण अज पुरय गेहति । असति परगामतो चरिमभगेण चेव प्राणेति । चरिमभंगासति एयं चेव ततियभंगेण सग्गामतो परगामतो वा अज्झवपूरयं आणेति । पक्कासतीए “प्राम", प्रामं णाम जं अपउलियं, अग्गिणा ण पक्कं ति । अणेण वा केणइ पगारेण न पक्कं, णिज्जीवं च, जहाकयलगं चि ब्भडं जर-तपसादि वा, एयं पि चरिमभंगे सम्गामे परग्गामेसु अझवपूरय गेहति । चरिमभंगासति ततियभगेण सग्गामेमु अझवपूरयं गेहति । "योसहि' पच्छद्ध, प्रोसधी धणा, तिकला प्रवातिया, एतेसि मज्झे जं पाइणं, पाइयं णाम जं साहूहिं पायरियं विणा वि प्रोमादिकारणेहि गिति तं । प्रोसहीसु जहा पालिसंदय चणया । फलेस जहा त्रिफला । प्रादिसद्दातो मूलकंदादि जं प्राइ त णेयं । 'नेयमि" ति नयणीयं, नीयते वा नीयं, अहवा ज्ञातव्यं । कहं ? उच्यते - एत्थ प्राइण्णा अत्थमो विभागेण दट्टव्वा । ते कहं जाणियव्वा भवंति ? भण्णति - पणगपरिहाणीग्रो पुवं जे पदा ते प्राइण्णा, जं पुण पदं पणगपरिहाणीकमेण पत्तं पडिसेवितं तं नियमा अगाइणां । एत्थ जं भणियं मीसोवक्खडं तं नियमा ग्राइण्ण। गिम्मीसुवक्खडं पुण पाइणं पि प्रणाइयं पि, ॥४६४३॥ जतो भण्णति - सगला-ऽसगलाइन्ने, मिस्सोवक्खडिते णत्थि हाणीयो । जतितुममिस्सग्गहणे, चरिमदुगे जं चऽणाइण्णं ॥४६४४।। इमाए गाहाए प्राइण प्रणाइणाविभागो दंसिज्जति पुबद्ध ग पाइणं, पच्द्रद्धेग प्रणा इणं । सगल जं ततियभंगे दचतो अभिण्णं त दुविहं प्रोदणं - मीसोवक्खडं, निम्मीसोवक्खडं च । असगलं जं चरिमभगे दवभावेहि य भिष्ण तं पि दुविधं प्रोदणं- मीसोवक्खड निम्मिम्मोवावडं च । एयस्म जंज अप्पदोसतरं पदं तं पुञ्वं सग्गामपरग्गा मेहि चारेयव्वं जाव मिम्मि सोवक्खडं । प्रणा ण पावइ । एयम्नि पाइणाभेदे पदातो पदं संकमंतस्स पण गपरिहाणी णत्यि। कुतः ? उच्यते - प्राइमत्तगतो अपायच्छित्तित्तण प्रो य । "जइडे' पच्छद्ध - जइउं पुग पणगपरिहाणाए जाहे मासं पत्तो ताहे गिम्मिस्सोवक्खडस्स प्रणाइण्णस्स गहणं करेति । । १ गा० ४६८। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i भाष्यगाथा ४६४३-४६४७ ] "चरिमदुगि" त्ति चउत्थततियभंगेसु त्ति वृत्तं भवति, जं च त्ति जम्हा एयं पणगपरिहाणिपत्तो मेहति तम्हा एमादि प्रणाइण्णं णायव्वं । पंचदश उद्देशकः अहवा - "जं चणा इष्णं" ति जं च प्रष्णं पि एवं पणगपरिहाणीए घेप्पति तं सव्वं प्रणाइण्णं णायव्वं । चोदगाह - "ग्राइण्णाऽगाइष्णेसु दोसु वि णिम्मीसोवक्खडं दिट्ठ, कहं एगमा इष्णं एगं श्रणाइष्णं" ? अत्रोच्यते - सति निम्मी सोवक्खडाभावे जं प्रायरियपरंपरएणं बालु कला प्रादिण्णं णिम्मि सोव खडं प्रासेवितं तं श्राइणं, जं पुण तेहि चैव वज्जसूरणकंदादि णासेवियं तं प्रणाइणं । प्रणाइण्णा, हवा - जं श्रागमे - ""अप्पे (सिया) भोयणजाए बहुउज्झियधम्मिए" एवमादिए पडिसिद्धं तं प्रणाइगं, जं पुण प्रणुष्णायं तं प्राणं । चोदकाह - " णिज्जीवं कहमणा इण्णं" ? उच्यते - श्रागमप्रामाण्यात् ॥४६४४|| जति ताव पिहुगमादी, सत्थोवहता व होंतऽणाइण्णा । किं पुण वहता, पेसी पव्वा य सरडू वा ॥४६४५॥ विही पक्का भजिता भट्ठे फुडिया तुसा अवणिया पिउगा भण्णंति । अगणित्योवहया जति ते वि किति कहि, पुण विसेस | किं विसेसेति ? - प्रसत्थोवहयत्तणं पलंबस्स उद्धफालपेसी, पव्वा तं मिलाणं, सरडु प्रबद्धट्ठियं, एते प्रसत्यो वहता - कह प्राइष्णा भविष्यन्तीत्यर्थः ॥ ४६४५॥ एवं सव्वं परित्ते भणियं । परितेत्ति गयं । इदाणि "साहारणे" त्ति भण्णति साहारणे वि एवं, मिस्सा-मिस्से य होइ भगणा उं । पणगाइ गुरुपत्तो, सव्वविसोही य जय ताहे ॥ ४६४६ ॥ ૧૪૦ साधारण नाम प्रणतं तत्थ वि चरिमततियभंगेसु मिस्से णिम्मिस्से य जहा पत्तेगे भणियं तहा भाणियव्वं । णवर - परिते जहा ततियभंगे ण लब्भति तदा मासलहुगाश्रो उवरि उग्गमादिसु जत्थ पंचरा इंदिया प्रभहिया तं सग्गामपरग्गामे गेण्हति एवं जाहे गुरुगं मासं पत्तो ताहे साधारणस्स चउत्थभंगेण 'सम्गामपरगामेसु हति, तस्सऽसति ततियभंगे, प्रगंतततियभंगासति "सव्वविसोहीय जया ताहे" त्ति इमा अविमोधी ग्राहकम्मियं चरिमेसु तिसु उद्देसिकेसु पूतीकम्मे य मीसजाते य बादरपाहुडियाए अज्भोयरए य चरिमदुगे । एते वज्जेउं सेसा उग्गमदोसा विसोहिकोडी, तत्थ वि जं अप्पदोसतरं त पडिमेवति, तं पि पण परिहाणि पत्तो, जाहे उग्घातियावि न लब्भति तदुपरि पणगपरिहाणीए जाहे चउगुरु पत्तो तहा कि. महाकम्मं गेण्हतु ? ४६४६॥ ग्रह पढमबितियभंगा गेण्हतु, एत्थ - कम्मे आदेसदुगं, मूलुत्तरे ताहे बि कलि पत्तेगे | बादर (दावर) की णते, ताहे जयणाए जुत्तस्स ||४६४७|| १ दशवेकालिक ५,१,७४ । २ गा० ४९३८८ । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ समाष्य-बूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १३-२४ एत्य दो प्रादेसा, माहाकम्मे चउगुरुगा, परित्ते पढमबितिएसु मंगेसु च उलहुगा, पायच्छित्ताणुलोमेणं माहाकम्मं गुरुगं, व्रताणुलोमेणं पढमबितिया भंगा गुरुमा, जम्हा व्रतलोवो । अधवा-महाकम्मं उत्तरगुणो ति काउं लहुत्तरं, पढमबितियाभंगा मूलगुणो ति काउं गुममा, एवं कते प्रादेसदुगे तहावि कम्ममेव घेत्तव्वं, जो पढमबितिया भंगा।। किमिति ? उच्यते - माहाकम्मे जीवा प्रणेण वि जम्हा मारिया, पढमबितिएसु भगेसु पुण बीबा सम्वे अप्पणा मारेयवा । एतेण कारणेणं प्राहाकम्म घेत्तवं, णो पढमबितिया भंगा । 'कम्मे प्रादेसदुगं मूलुत्तरे" ति गतं । इदाणि "विकलिपत्तेग" ति-जदा प्राहाकम्मं ण लमति तदा परिते बितियमंगो घेत्तबो, जदा बितियमंगो ण लम्मति तदा “कलि" त्ति पढमभगो घेत्तव्यो। “विकलि" त्ति "पत्तेग" ति गतं । ___इदाणिं "बादरकलि अणते" त्ति - जया पत्तेयसरीराणं पढमभंगो ण लब्भति तदा पणगादिणा जाव उम्गमादिसु जयउ, चउलहुग्रं अतिक्कतो चउगुरुं च पत्तो भवति तदा अणते बितिम्रो भंगो घेत्तव्यो, बादरो (दावरो) णाम बितियभंगो, तम्मि अलब्भमाणे कली घेत्तव्यो । कली णाम पढमभंगो । "बादर (दावर) कली अणते" ति गतं । इदाणि "ताहे जयणाए जुत्तस्से" ति-जदा मणंतपढमभंगे वि ण लन्भति ताहे जयणाए जुत्तस्स, जयणा जत्थ जत्थ अप्पतरो कम्मबंधो, तं गेण्हमाणस्स संजमो भवतीति वाक्यशेषः ॥४४॥ 'एवं ताव मंजयाणं जयणा भणिता। अह संजतीणं का जयणा ? उच्यते एमेव संजतीण वि, विहि अविही णवरि तत्थ णाणत्तं । सव्वत्थ वि सग्गामे, परगामे भावतो वि भए ॥४६४८॥ जहा संजया भिण्णाभिणे सग्गामपरग्गामेसु जयणा भणता तहा संजतीण वि भाणियव्वा, णवरि तासि विधिप्रविधिभिण्णाणि भणिऊण सव्वत्थ विहिभिण्णाणि घेप्पंति सग्गामपरग्गामेसु य । पढम छट्ठभंगो, ततो पंचमभंगो, ततो चउत्थभंगो उवउज्ज सव्वं भाणियन्वं ॥४६४८॥ पलंबपगतं सम्मत्तं । जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो पादे आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा आमज्जातं वा पमज्जातं वा सातिज्जति ॥सू०॥१३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो पादे संबाहावेज्ज वा पलिमद्दावेज्ज वा संबाहावेंतं वा पलिमद्दावेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१४॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिए ण वा अप्पणो पादे तेल्लेण वा पएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खावेज्ज वा भिलिंगावेज्ज वा, मक्खावेंतं वा भिलिंगावेंतं वा सातिज्जति।सू०।१५।। Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ४६४८] पंचदश उद्देशक: ५४६ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो पादे . लोद्धेण वा कक्केण वा उल्लोलावेज्ज वा उव्वट्टावेज्ज वा उल्लोलावेतं वा उचट्टावेतं वा सातिज्जति ॥२०॥१६॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो पादे सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज्ज वा पधोयावेज्ज वा, उच्छोलावेतं वा पधोयावेतं वा सातिज्जतिसु०॥१७॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो पादे फूमावेज्ज वा रयावेज्ज वा फूमातं वा रयावतं वा सातिज्जति ॥२०॥१८॥ जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो काय आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा आमज्जातं वा पमज्जातं वा सातिज्जति ॥०॥१६॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कार्य संबाहावेज्ज वा पलिमदावेज्ज वा संबाहावेतं वा पलिमहावेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२०॥. जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कार्य तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खावेज्ज वा भिलिंगावेज्ज बा, मक्खावेंतं वा भिलिंगावेतं वा सातिज्जति।सू०।२१।। जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कार्य लोद्धण वा कक्केण वा उल्लोलावेज्ज वा उव्वट्टावेज्ज वा . उल्लोलावेंतं वा उव्वट्टावेतं वा सातिज्जति ॥०॥२२॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कार्य सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज्ज वा पधोयावेज्ज वा, उच्छोलावेतं वा पधोयावेतं वा सातिज्जति।।सू०।२३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कायं फूमावेज्ज वा रयावेज्ज वा, फूमावेंतं वा रयावेतं वा सातिज्जति ॥२०॥२४॥ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र २५-३७ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो कायंसि वणं आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा आमज्जातं वा पमज्जावेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२५॥ जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कायंसि वणं संबाहावेज्ज वा पलिमद्दावेज्ज वा संबाहावेंतं वा पलिमदावेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२६॥ जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो कार्यसि वणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खावेज्ज वा भिलिंगावेज्जन मक्खावेंतं वा भिलिंगावेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२७॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कार्यसि वणं लोद्धण वा कक्केण वा उल्लोलावेज्ज वा उव्वट्टावेज्ज वा उल्लोलावेंतं वा उबट्टावेंतं वा सातिज्जति ।मु०॥२८॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कार्यसि वणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज्ज वा पधोयावेज्ज वा, उच्छोलावेतं वा पधोयावेतं वा सातिज्जति।।सू०॥२६॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कार्यसि वणं फूमावेज्ज वा रयावज्ज वा, फूमातं वा रयातं वा सातिज्जति ॥०॥३०॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खणं सत्थजाएणं अच्छिंदावेज्ज वा विच्छिंदावेज्ज वा अच्छिदावेंतं वा विच्छिदावेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३१॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा, अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदात्तिा वा विच्छिदायित्ता वा पूर्व वा सोणियं वा नीहरावेज्ज वा विसोहावेज्ज वा नीहारावेतं वा विसोहावेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३२॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कायंसि गंडं वा पिलगंवा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा, अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदश उद्देशक: अच्छिदावेत्ता विच्छिदावेत्ता पूर्यं वा सोणियं वा नीहरावेत्ता विसोहावेत्ता सदगवियडेण वा उसिणोद्गवियडेण वा उच्छोलावेज्ज वा पधोयावेज्ज वा उच्छोलावतं वा पोयावेंतं वा सातिज्जति ॥सू०||३३|| जे भिक्खू उत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणी कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वासयं वा भगंदलं वा, अन्नयरणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदावेत्ता विच्छिदावेत्ता पूर्यं वा सोणियं वा नीहरावेत्ता विसोहा वेत्ता सदगवियडेण वा उसिणोद गवियडेण वा उच्छोलावेत्ता पधोयावेत्ता अन्नयर लेवणजाएणं आलिंपावेज्ज वा विलिपावेज्ज वा पातं वा विलिंपावेंतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||३४|| जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा अप्पणी कार्यसि गंड वा पिलगं वा अयं वा सिवा भगंदलं वा, अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदावेत्ता विच्छिदावेत्ता पूर्व वा सोणियं वा नीहरावेत्ता विसोहावेत्ता सदगवियडेण वा उसिणोद्गवियडेण वा उच्छोलावेत्ता पयोयावेत्ता अन्न लेवणजाएणं आलिंपावेत्ता विलिंपावेत्ता तेल्लेण वा घरण वा वसाए वा णवणीएण वा अब्भंगा वेज्ज वा मक्खावेज्ज वा अभंगातं वा मखावेंतं वा सातिज्जति | | ० ||३५|| माष्यगाथा ४६४८ ] जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणी कार्यसि गंड वा पिलगं वा इयं वासयं वा भगंदलं वा, अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदाता विच्छिदावेत्ता पूर्व वा सोणियं वा नीहरावेत्ता विसोहावेत्ता सदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेत्ता पधोयावेत्ता अन्नयरेणं आलेवणजाएणं आलिंपावेत्ता विलिंपावेत्ता तेल्लेण वा घण वा बसाए वा णवणीएण वा अभंगावेत्ता मक्खावेत्ता अन्यरेण धरणजाएणं धूवणावेज्ज वा पधूवावेज्ज वा धूवावेतं वा पधुवावेतं वा सातिज्जति ||४०|| ३६ || 83 8 88 जे भिक्खू उत्थिण वा गारत्थिएण वा पालुकिमियं वा कुच्छिकिमियं वा अंगुली निसाविय निवेसाविय नीहराइ नीरातं वा सातिज्जति ||०||३७|| ५५१ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ __ सभाष्य-चूणिके निशीपसूत्र [ सूत्र ३८-११ जे. भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा दीहाओ नहसिहायो कप्पावेज्ज वा ___ संठवावेज्ज वा कप्पावेतं वा संठवावेत. वा सातिजति ।।सा॥३८॥ जे मिक्ख अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा दीहाई जंघरोमाई कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा कप्पावेतं वा संठवावेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३६॥ ‘मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा दीहाई कक्खरोमाई कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा कप्पावेतं वा संठवावेंतं वा सातिज्जति ॥२०॥४०॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा दीहाइं मंसुरोमाई कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा कप्पावेतं वा संठवावेतं वा सातिज्जति ॥२०॥४१॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा दीहाई वत्थिरोमाई कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा कप्पावेतं वा संठवावेंतं वा सातिजति ॥२०॥४२॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा दीहाई चक्खुरोमाई कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा कप्पावेतं वा संठवावेंतं वा सातिज्जति ॥०॥४३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दंते आघसावेज्ज वा पधंसावेज्ज वा, आघसावेतं वा पधंसावेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४४ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दंते उच्छोलावेज्ज वा पधोयावेज्ज वा, उच्छोलावेंतं वा पधोयावेतं वा सातिज्जति। सू०॥४५ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दंते फूमावेज्ज वा रयावेज्ज वा, फूमावेतं वा रया-तं वा सातिज्जति ॥सू०॥४६॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो उडे आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा आमज्जावेतं वा पमज्जातं वा सातिजति ॥०॥४७॥ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाया ४९४८ पंचदश उद्देशकः जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो उट्ठ संबाहावेज्ज वा पलिमदावेज्ज वा संबाहावेंतं वा पलिमदावेतं वा सातिज्जति ॥२०॥४८॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो उढे तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खावेज्ज वा भिलिंगावेज्ज वा मक्खातं वा मिलिंगावेंतं वा सातिज्जति । सू०॥४६|| जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो उठे लोण वा कक्केण वा उल्लोलावेज्ज वा उबट्टावेज्ज वा उल्लोलावेतं का उव्वट्टावेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५०॥ जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो उट्टे सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज्ज वा पधोयावेज्ज वा उच्छोलावेंतं वा पथोयावेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५१॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो उढे फूमावेज्ज वा । रयावेज्ज वा, फूमावेतं वा रयावेतं वा सातिजति ।।सू०॥५२॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दीहाइँ उचरोटाई कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा कप्पावेतं वा संठवावेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दीहाई अच्छिपत्ताई .. कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा कप्पावेंतं वा संठवावेंतं वा सातिज्जति सू०॥५४॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो अच्छीणि आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा. आमज्जातं वा पमज्जातं वा सातिज्जति ॥०॥५॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो अच्छीणि संबाहावेज्ज वा पलिमदावेज्ज वा संबाहावेंतं वा पलिमद्दावेत वा सातिज्जति ॥२०॥५६॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे . [सूत्र :७-६७ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो अच्छीणि तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खावेज्ज वा मिलिंगावेज्ज वा, मक्खावेतं वा भिलिंगावेतं वा सातिज्जति।।।।५७) ६ जे निक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो अच्छीणि लोद्धेण वा कक्केण वा उल्लोलावेज्ज वा उव्वट्टावेज्ज वा उल्लोलावेंतं वा उन्बट्टावेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५८।। जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो अच्छीणि सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज्ज वा पधोयावेज्ज वा, उच्छोलावेतं वा पधोयावेत वा सातिज्जति।।सू०॥५६। जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो अच्छीणि फूमावेज्ज वा रयावेज्ज वा फूमावेतं वा रयातं वा सातिज्जति ॥सू०॥६०॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दीहाई भुमगरोमाई कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा कप्पावेतं वा संठवावेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६१॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दीहाई पासरोमाई कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा कप्पावेंतं वा संठवावेतं वा सातिज्जति ॥०॥६२।। जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं या नहमलं वा नीहरावेज्ज वा विसोहावेज्ज वा नीहरातं वा विसोहावेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वा नीहरावेज्ज वा विसोहावेज्ज वा नीहरावेतं वा विसोहावेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६४॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे अप्पणो सीसवारियं कारवेइ, कारवेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६॥ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यमाथा ४६४८-४६५२] पंचदश उद्देशकः ५५५ सुत्तत्थो जहा ततिउद्देसगे तहा भाणियेव्वं, णवरं - अण्णउत्थिएण कारवेइ ति वत्तव्यं । पादप्पमज्जणादी, सीसदुवारादि जो करेज्जाहि । गिहि-अण्णतिथिए हि व, सो पावति आणमादीणि ॥४६४६।। तेहि भण्णउत्थिएहि गारथिएण वा कारवेंतस्स । किं कज्जं ?, उच्यते - कुज्जा व पच्छकम्म, सेयमलादीहि होज्ज वा अवण्णो । ___ संपातिमे वहेज्ज व, उच्छोलप्पावणे व करे ॥४६५०॥ ते साहुस्स पादे पमज्जित्ता पच्छाकम्मं करेज, साहुस्स प्रस्वेदं मल वा दर्छ घाणं वा तेसि प्राघाइऊण प्रसुइ त्ति अवणं भासेज्जा, अजयणाए वा पमजंता संपातिमे वहेज, बहूणा वा दवेण अजपणाए धोवंता उच्छोलणदोसं करेज, भूमिट्ठिए वा पाणी प्लावेज्जा ।।४६५०॥ इमो अववादो बितियपदमणप्पज्झे, करेज्ज अविकोविते व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, परलिंगे सेहमादीसु ॥४६५१।। प्रणप्पज्झो कारवेज्ज, सेहो वा अजाणतो कारवेज्जा, कारणेण वा परलिंगमञ्झट्ठिमो कारवेज्जा, - सेहो वा उवद्वितो जाव न दिक्खिज्जति तेण कारवेज्जा ।।४६५१॥ कि चान्यत् - पच्छाकडादिएहिं, विस्सामावेउ वादि उव्वातो। पण्णवणभाविताणं, सति व दवे हत्थकप्पं तु ॥४६५२॥ . साघूण प्रभावे पच्छाकडेण, प्रादिसद्दातो गहियाणव्वएण, दंसणसावगेण वा, एतेहिं विस्सामए । ' को विस्सामविज्जा?, वादी वा, प्रद्धाणगतो वा, उब्वातो श्रान्तः, जे भाविता ते पणविज्जति साधूनां पादरजः श्रेष्ठः मांगल्यः शिरसि पृष्टयते न दोषः, जे पुण प्रभाविता तेसि सति मधुरदवे विद्यमाने हत्यकप्पो तेसि दिज्जति, मा पच्छा कम्मं करिस्संति ।।४६५२॥ ज मिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु का परियावसहेसु वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिट्ठवेंतं वा सातिज्जति ॥०॥६६॥ जे भिक्खू उज्जाणंसि वा उज्जाणगिहंसि वा उज्जाणसालंसि वा निज्जाणंसि वा निज्जाणगिहंसि वा निजाणसालंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ, परिहवेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६७|| Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र ६८-७५ जे भिक्खू अटुंसि वा अट्टालयंसि वा चरियसि वा पागारंसि वा दारंसि वा गोपुरंसि वा उच्चारपासवणं परिवेइ, परिट्ठवेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६॥ जे भिक्खू दगंसि वा दगमग्गंसि वा दगपहंसि वा दगतीरंसि वा दगहाणंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ, परिवेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥६६।। जे भिक्खू सुन्नगिहंसि सुन्नसालंसि वा भिन्नगिहंसि वा भिन्नसालंसि वा कूडागारंसि या कोडागारंसि वा उच्चारपासवणं परिवेइ, परिवेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७० जे भिक्खू तणगिहंसि वा तणसालंसि तुसगिहंसि वा तुससालंसि वा छुसगिहंसि वा छुससालंसि वा उच्चारपासवणं परिडवेइ, परिहवेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥७१॥ जे भिक्खू जाणसालंसि वा जाणगिहंसि वा जुग्गगिहंसि वा जुग्गसालंसि वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ, परिहवेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥७२।। जे भिक्खू पणियसालंसि वा पणियगिहंसि वा परियासालंसि वा परियागिहंसि वा कुवियसालंसि वा कुवियगिहंसि वा उच्चारपासवणं परिवेइ, परिर्वतं वा सातिज्जति ।।सू०॥७३॥ जे भिक्खू गोणसालंसि वा गोणगिहंसि वा महाकुलंसि वा महागिहंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ, परिवेंतं वा सातिज्जति ||सू०||७४॥ जे भिवस्खू प्रागंतागारेसु वा इत्यादि सुत्ता उच्चारेयवा, जाव महाकुलेसु वा महागिरेसु वा • उच्चारपासवणं परिलुबेति । सुत्तत्यो जहा अट्ठमउद्दे सगे । इह णवरं - उच्चारपारावणं त्ति वत्तव्वं । एतेमु ठाणेसु उच्चारमादीणि बोसिरंतस्स ::। आगंतागारादी, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते ! तेमूच्चारादीणि, आयरमाणम्मि आणादी ।।४६५३।। कंठा एतेसु ठाणेसु प्रायरंतस्स इमे दोसा - अयसो पवयणहाणी. विप्परिणामो तहेव य दुगुंछा । • आगंतागारादिसुं, उच्चारादीणि आयरतो ॥४६५४|| "प्रमुइसमायारा जोगाया रबाहिरा अलसगा वसुलगा भोगोवभोग्गट्ठाणाणि प्रमुईणि भजमाणा विहरति" एवमादि अयसो, लोगाववादेण ५ अयसोवहएमु ण कोति पन्चति. ति पवयणहाणी, डंडिगाटि . Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४६५३-४६५६] पंचदश उददेशक: ५५७ वा णिवारेज्ज, तारिसगं वा समायारं दद्रु अहिणवधम्मसढगादि विप्परिणमेज्ज, सेहो वा विप्परिणमेज्ज, मिच्छत्तं वा थिरीकरेज्ज, ''असुइणो एते" ति महाजणमझे दुगुंछेज्ज, दुगुंछाए वा तं काएसु परिझवेज्ज, तम्हा ण कप्पति पायरिउ ।।४६५४॥ इमो अववातो बितियपदमणप्पज्झ, प्रोसन्नाइन्नरोहगदाणे । दुब्बलगहणि गिलाणे, वोसरणं होति जयणाए ।।४६५|| एतीए गाहाए इमा वक्खा-णिसिद्धट्ठाणेसु अणप्पज्झो आय रेज्जा ॥४६५५।। अोसण्णाऽपरिभोगा, आइण्णा जत्थ अण्णमण्णेहिं । अद्धाणे छड्डिज्जति, महाणिवेसे व सत्थम्मि ॥४६५६॥ लोगापरिभोगं पोसण्णं भण्णइ, जहि अण्णमण्णो जणो बहिं वोसिरइ तं प्राइण्णं, तं वा टाणं रोधगे अणुण तं, अद्धाणपवण्णा वा वोसिरंति छड्डेति वा । अधवा - महल्लसत्येण श्रद्धाणं पवण्णा तं सत्थणिवेसं जाव वोलिउ जति एंति य ताव महंतो कालो गच्छति, अतो सत्थे वा वोसिरति ॥४६५६॥ दुबलगहणि गिलाणाऽतिसारमादी व थंडिलं गंतुं। न चएति दवं पुण से, दिज्जति अच्छं समतिरेगं ॥४६५७॥ दुब्धलगहणी ण सक्केति थंडिलं गंत, गिलाणो वा बोसि रेज्जा. अतिसारेण वा गहिरो कित्तिए वार । गमिस्सति ?, एवमादिकारणेहि थंडिल गंत असमत्यो वोसिरति जयणाए, एगो सागरियं णिरक्खेति एगो वोसिरति । अधवा-सागारियं हवेज्जा तो से अच्छं बहुं दवं दिज्जति, अचित्तपुढवीए कुरुकुयं करेति ॥४६५७॥ उज्जाणट्ठाणादिसु, उदगपह-सुण्णपहमादिएसुं च । जाणासालादीसू , महाकुलेमुं च एस गमो ॥४६५८॥ एतदेव व्याख्यानं यत् पूर्वसूत्रे ।। जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा अक्षणं वा पाणं वा साइमं वा साइमं वा देइ, देतं वा सातिज्जति ||सू०॥७॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छति, पडिच्छंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७६।। जे भिक्खू असणादी, देज्जा गिहि अहव अण्णतित्थीणं । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ।।४६५६।। तेसि प्रगति थिगिहत्थाणं दितो माणादी पावति चउलहुं च ।। ४६५६॥ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे सव्वे वि खलु गिहत्था, परप्पवादी य देसविरता य । पडिसिद्धदाणकरणे, समणे परलोकंखिम्मि || ४६६०॥ एतेषु दानं शरीरशुश्रूषा करणं वा, प्रघवा - दान एव करणं यः परलोककांक्षी श्रमणः तस्यैतत्प्रतिषिद्धं । हवा - एतेषु दाणं करणं किं पडिसिद्धं ?, जेग समणो परलोककंखी ||४६६०॥ चोदगाह - जुत्तमदाणमसीले, कडसामाइयो उ होइ समण इव । तस्समजुत्तमदाणं, चोदग सुण कारणं तत्थ ||४६६१ ॥ "जुत्तं प्रणतित्थियगिहत्थेनु श्रविरतेसु त्ति काउं दाणं ण दिज्जति, जो पुण देसविरतो सामाइयकडो तस्स जं दाणं पडिसिज्झति एयमजुत्तं, जेण सो सनणभूतो लब्भति" ।।४६६१।। आचार्य ग्राह- हे चोदक ! एत्थ कारणं सुणसु - रंधण किसि वाणिज्जं पवत्तती तस्स पुव्वविणिउत्तं । सामाइयकडजोगिस्सुवस्सए अच्छमाणस्स || ४६६२॥ जति वि सो कयसामाइग्रो उत्रस्सए प्रच्छति तहात्रि तस्स पुत्रणिजुत्ता प्रधिकरणे जोगा पवत्तंति - रंधणायणजोगो कृषिकरणजोगो वाणिज्जजोगो य, एतंण कारणेण तस्स दाणमजुत्तं । चोदक आह - "णणु भणियं समणो इव सावप्रो" । उच्यते -" इव उवम्मे" ण तु समण एव, जेण सव्वविरती ण लब्भति ।।४६६२ ।। जप्रो भण्णति - [ सूत्र ७६-८१ सामाइय पारेतूण णिग्गतो जाव साहुवसतीतो । तं करणं सातिज्जति, उदाहु तं बोसिरति सव्वं ॥ ४६६३|| आयरिसीस पुच्छति -- " मामाइयं करेमि " त्ति साघुवसहीए ठितो एततो प्रारम्भ जाव सामाइयं पारेउण निग्गश्रो साधुवसहीप्रो पोसहसालाश्रो वा एयम्मि सामाइयकाले जे तस्स अधिकरणजोगा पुत्र्वपवत्ता कज्जति ते सो कि सातिज्जति "उताहु" वा वोसिरति सब्बे ? उच्यते - ण वोसिरति, साइज्जति । जति साइज्जति एवं तस्स सव्वविरती ण लब्भति ।।४६६३॥ दुविह- तिविण भति, अणुमन्नातेण सा ण पडिसिद्धा । तेण उण सव्त्रविरतो, कडसामातिओ वि सो किं च ||४६६४|| पाणातिवाया दिया पंचन्ह श्रणुत्रयाणं सो विरति करेति, "दुविधं तिविधेणं" ति दुविधं ण करेति ण कारवेति, तिविधं मणे वायाए कारणं ति, एत्थ तेण श्रणुमती ण रुिद्धा, जतो अणुमती ण रुिद्धा तेण कारणेणं कडसामातितो वि सो सव्वविरतो ण लब्भति ।।४६६४।। किं चान्यत् - कामी सघरं गणतो, धूलपइण्णा से होइ दट्ठव्वा । छंगण भेयण करणे, उद्दिट्ठ कडं च सो भुंजे || ४६६५॥ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ४४६-४६६८1 पंचदश उद्देशकः ५५६ पंचविसया कामेति त्ति कामी, सह गृहेन सगृहः, अंगना स्त्री सह अंगनया सांगन, धूलपइण्णा देसविरति ति वुत्तं भवति, साधूणं सबविरती, वृक्षादिच्छेदेन पृथिव्यादिभेदेन च प्रवृत्तः सामायिकमावादन्यत्र जं च उद्दिढ कडं तं कडसामाइग्रो वि भुंजति । एवं सो सव्वविरमो ण भवति । एतेण कारणेणं तस्स प कापति दाउं ॥४६६५॥ इमो अववातो - बितियपदं परलिंगे, सेहट्ठाणे य वेज्ज साहारे । एएहि कारणेहि, जयणाए कप्पती दाउं ॥४६६६॥ एयस्स इमा विभासा: कारणलिंगे उडोरगत्तणा देज्ज वा वि णिबंधे। दव्वगिही सेहस्स व, तेणच्छेज्जे व अद्धाणे ॥४६६७॥ परलिंगं कारणणं होज्जा, अतो परतित्थियाण मज्झे अच्छतो देज्ज । सेहो वा उड्डोरगत्तणा दिज । गिही अणतित्थी वा गिब्बंधेणं मग्गेज तदा से दिजति । सेहो वा गिहिवेसद्वितो भावतो पब्वइयो तस्स देज्जा। सत्येण वा पवण्णा प्रद्धाण साधू, तत्थ गिहिपंततक्करहिं गिहीणं अच्छिण्णं, तं साधू गिहीण पच्चप्पिरगेज्जा । अथवा - प्राण प्रति (भि) यत्तियमादियाण देज्जा ।।४६६७॥ वेज्जस्स पुव्वभणियं, साहारण णिसिरते व दुलभम्मि । पंतेसु अणिच्छेसु व, बहुसमयं तेसि परिभाते ॥४६६८॥ वेजस्स वा गिलाणट्ठा प्राणियस्स देउजा, तं च जहा दिजति तहा पुवमणियं । जत्थ गिहीण प्रणनित्थियाण य साधूण य अंचियकाले दुल्लभे भतपारणे दंडियमादिणा साहारणं दिण तत्थ ते गिही प्रतित्यिया वा विभज्जावेयवा । अह ते अणिच्छा स.ध भरणेज्जा। . अहवा - ते पंता, ताहे साधू विभयति, साधुणा विभयं तेण सध्वेसि बहुसमागमे व विभइयव्वं । एसुवदेसो। जे भिक्ख पासत्थस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ, देंतं वा सातिज्जति ।।मु०॥७७।। जे भिक्खू पासत्थस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा सातिज्जति ॥०॥७८ ! जे भिक्खू ओसण्णस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ, देंतं वा सातिज्जति ।।मू०।।७६।। जे भिक्खू प्रोसण्णस्स असणं वा पाणं वा खाइमं का साइमं वा पडिच्छइ, ____ पडिच्छंतं वा सातिज्जति ।।मू०॥८०|| जे भिक्खू कुसीलस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ, . देतं वा सातिज्जति ।।मू०॥८॥ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० सभाष्य-चूर्णिके निशयसूत्रे सूत्र ८२-८६ जे भिक्खू कुसीलस्स असणं वा पाणं वा खाहमं वा साइमं वा पडिच्छर, पडिच्छतं वा सातिज्जति ||सू०|| ८२|| जे भिक्खू संसत्तस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देह, देतं वा सातिज्जति | | ० ||८३|| जे भिक्खू संसत्तस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छर, पडिच्छंतं वा सातिज्जति ||०||२४|| जे भिक्खू णितिय असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ, देतं वा सातिजति ॥ | सू०॥८५॥ जे भिक्खू णितियस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छर, पच्छितं वा सातिज्जति ||०||६|| एतेसि जो देति, तेस वा हत्याओ पडिच्छति प्राणादी ङ्क । पासत्थोसण्णाणं, कुसील-संसत्त - णितियवासीणं । जे भिक्खू सणादी, देज्ज पडिच्छेज्ज वाऽऽणादी ||४६६६ ॥ किं कारणं तेहिं समाणं दाणग्गहणं पडिसिज्झइ ?, भण्णति पासत्यादी ठाणा, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । जयमाणा - सुविहिया, ण होति करणेण समणुण्णा ||४६७०|| जम्हा जयमाणा साधूणं ते पासत्यादी "करणेणं" ति क्रियाए समगुण्गा सदृशा न भवति तम्हा दाणग्गणं पडिसिज्झइ । -' अहवा जम्हा करणे तुला पण भवंति तम्हा तेहि सह मणुष्णया ण भवति संभोगो न भवतीत्यर्थः ॥ ४६७० किं चान्यत् - पासत्थ-हाळंदे, कुसील - ओसण्णमेव संसत्ते । उग्गम-उपायण-एसणाए बायालमवराहा ||४६७१ || ते पासत्यादी उग्गमदोसेसु सोलससु, उप्पायनदोमेसु य सोलससु, दससु य एसणादोसेसु एतेसु बातालमवराहेसु णिच्चं वट्टेति । प्रतो देते तेसि ते सातिज्जिता - अनुमोदिता इत्यर्थः । तेसि हत्याओ गेव्हंतेण उग्गमदोसा पडिसेविया भवति ॥ ४६७१ । । उग्गम-उप्पायण - एसणाए तिन्हं पि तिकरणविसोही । पासत्थ- हाछंदे, कुसील - णितिए वि एमेव ॥४६७२|| . Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ४६६६-४६७६] पंचदर उद्देशक उम्गमादियाणं तिन्हं पि "तिकरणविसोहि ति सयं करोति, अच्वं पिब कारति, पण करतं ण समणुजाणंति । एक्केक्कं मणवयणकाएहिं ति, "एवं तिकरणे विसोहि कति" बक्सेसं कते एवं करेंति पासत्यादी चउरो, महाच्छंद पंवमा। प्रितियवासी पुष किरियकलावं जति वि असेसं करेति तहावि णितियवासित्तणमो एवं चेव नटुव्वा ।।४६७२॥ एयाणि सोहयतो, चरणं सोहेति संसमो पत्थि । ____एएहि असुद्ध हिं, चरिचमेयं वियाणाहि ॥४६७३।। एते पासत्यादी ठाणा सोधितो, संसम्मं न करेति ति वृत्तं भवति, सो णियमा चरितं विसोहेइ । एतेसु पुण असुद्धसु नियमा चरितमेदो-असुद्धिरित्यर्थः । चरितणं असुदेणं मोक्खाभावो। तेण पडिकुटुं दाणग्गहणं एतेसु । जो पुण एतेसु तिकरणविसोषिं करेति सो विवमा परित्तविसोहिं करेति । सो णियमा चरितं. विसोहेति ॥४६७३॥ उग्गमदोसादीया, पासत्यादी जतो व वजेति। तम्हा उ तब्बिसुद्धि, इच्छंतो ते वि वज्जेज्जा ॥४६७४॥ जम्हा उग्गमादिदोसे पासत्यादी व वति तम्हा "विसुद्धि" ति चरित्तविसुदी तं इच्छतो ते वि पासत्यादी वज्जेज्ज । एस णियमो ॥४६७४।। कि च सूतिज्जति अणुरागों, दाणेणं पीतितो य गहणं तु संसग्गता य दोसा, गुणा य इति ते परिहरेज्जा ॥४६७॥ जो पासत्यादियाण देति तस्स पासत्यादिसु रागो लक्खिन्बइ, जो पुण तेसिं हत्या गेण्हति तस्स तेसु मज्मेणं पीती लक्खिज्जति, तम्हा तेसु जा दागग्गहणरागपीतिसंसग्गी सा वज्यब्वा । कम्हा? जम्हा दुट्ठसंसग्गीतो बहू दोसा, अट्ठसंसग्गीतो य गुणा भवंति । "इति" ति तम्हा-तेदुटुसंसग्गिकते दोसे परिहरेज्जा ॥४९७५॥ न वि रागो न वि दोसो, सुहसीलजणम्मि तह वि तू वज्जा । वणसुगलद्धोवम्मा, णेच्छंति बुहा वइकरं पि ॥४६७६।। सुहसीलजणो पासत्यादी, तेसु ण वि रागो ण वि दोसो। चोदकः - "एवं प्रत्थावत्तीयो गज्जति तेसु संसग्गिं पडुच्च णाणुण्णा, गा वि पडिसेहो। जति महापवत्तीए संसग्गी भवति । भवतु णाम ण दोसो ?" उच्यते - जति वि तेहिं ण रागो ण दोसो वा, तहावि तेहिं जा संसग्गी सा वज्जणिज्जा । कहं ? उच्यते वणे सुको वणसुको, वणचरेण वा सुगो गहितो वणसुको, तेण कयं उवमं उदाहरणं, तं दठूण जाणिऊण बुधा पंडिता, “वतिकरो" - संसग्गी, तं णेच्छति । माताप्येका पिताप्येको, मम तस्य च पक्षिणः । अहं मुनिभिरानीतः, स च नीतो गवाशनैः ।।१।। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-चूणिके निशोषसूत्रे [सूत्र ८७-८८ गवाशनानां स गिरः शृणोति, वयं च राजन् ! मुनिपुंगवानाम् । प्रत्यक्षमेतद् भवतापि दृष्टं, संसर्गजा दोषगुणा भवंति ॥२॥ मणं च पडिसिद्धं तित्यकरहिं जहा "भकुसीलेण सदा भवियव्यं" ॥९७६।। पुणो पडिसिज्झति - पडिसेहे पडिसेहो, असंविग्गे दाणमादि तिक्खुत्तो। अविसुद्ध चउगुरुगा, दूरे साहारणं कातुं ॥४६७७॥ जो कुसीलो तेण संसग्गी ण कायव्वा । एस पडिसेहे पहिसेहो । संविग्गस्स पाहुणस्स तिणि वारे देति मातिट्ठाणविमुक्को । तस्स पाउटुंतस्स एक्कसि मासलहु, दो तिष्णि य वाराए वि मासलहु, ततियवारापो परं णियमा माइस्स मासगुरु विसंभोगो य, जो तं प्रविसुदं संभुजति तस्स चउगुरुगा। _ "दूरे साधारणं काउ" ति केइ अण्णदेसं संभोतिता गता सत्य अण्णे गंतुमणा पुच्छेजा- "ते अम्हं किं संभोतिता ? प्रसंभोतिता ?" तत्थ पायरियो जति एगंतेण भणति- "संमोतिया," तो मासलहुँ। प्रह भणति-"असंमोतिया", तो वि मासलहुं । असंखडादी दोपा, तम्हा मायरिएणं साधारणं कायव्यं - "भो ! सुण, संभोति होइया, इदाणि ण णज्जति, तुन्मे गाउं मुंजेजह।" जम्हा एवमादि दोसगणो भवति तम्हा तेसि ण वायव्यं, ण वि तेसिं हत्थानो पडिच्छियव्वं II४६७७॥ इमो अववातो असिवे प्रोमोयरिए, रायपुढे भए व गेलण्णे । श्रद्धाण रोहए वा, देज्जा अहवा पडिच्छेज्जा ॥४६७८।। कंठा जतितूण मासिएहिं, उवदेसो पुव्वगमणसंघाडे । एसा विही तु गहणे, देज्ज व एसिं असंथरणे ॥४६७६॥ "जतिऊण मासिएहि" ति जे पोहुद्देसियमादी ठाणा तेसु पुव्वं गेहति त्ति वुत्तं भवति, जता तेसु म लन्मति तदा पासत्यादिउवदिद्वेसु गिण्हति । तहावि प्रसती ताहे पुन्वगतो पासत्यो परिचियघरेसु दावावेति । तहावि प्रसती पासत्यसंघाडेण हिंडति। एसा तेसि समीवातो गहणे जयणा । तेसि वा असंघरे देजा ण दोसा ॥४६७६in जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपंछणं वा देइ, देंतं वा सातिज्जति ॥०॥८७॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंपलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥८८|| अण्णउत्थियमादीण उवहिवत्थमादीणि देज्ज देति, पाडिहारियं वा देति । अघवा- तेसि समीवातो पाडिहारियं गेहति, तस्स प्राणादिया दोसा ।। . Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६३ माणगापा ४६७७-४६८८] पंचदश उद्देशकः जे भिक्खू क्त्थाई, देज्जा गिहि अहव अण्णतिस्थीणं । पडिहारियं च तेसिं, पडिच्छए आणमादीणि ॥४६८०॥ कंठा मइलं च मइलियं वा, धोविज्जा छप्पदा व उज्झज्जा। मलगंधा वाऽवण्णं, वदेजा तं वा हरेज्जा हि ॥४६८१॥ इमे य मइलं साधूहि दिण्णं तं धोवेति । अहवा-तेहिं चेव मइलियं जति वारे पोवति तत्तिया । जं साहूहि दिणं ततो छप्पयातो छड्डे ज्जा । अधवा-तम्मि वत्थे वाहिजते छप्पदातो सम्मुच्छंति, ताव छड्डज्ज, तेसि घट्टणे इ, परितावणे म । उद्दवणे फ। अधवा-तम्मि वत्ये मलिणे मलगंधे वा अवणं भासेज्या "प्रसुतिमलिणसमायार" ति। अधवा - तं पाडिहारियं दिणं तेहिं हरेजा ॥४६८१॥ सव्वे वि खलु गिहत्था, परप्पवादी य देसविरया य । पडिसिद्ध दाण-गहणे, समणे परलोगकंखिम्मि ॥४६८२॥ कंठा जुत्तमदाणमसीले, कडसामइओ उ होइ समण इव । तस्समजुत्तमदाणं, चोदग ! सुण कारणं तत्थ ॥४६८३॥ कंठा रंधण किसि वाणिज्जं, पवत्तती तस्स पुव्वविणियुत्तं । सामाइयकडजोगि स्सुवस्सए अच्छमाणस्स ॥४९८४॥ सामाइय पारेतूण जिग्गतो जाव साहुवसहीओ। तं करणं सातिज्जति, उदाहु तं वोसिरति सव्वं ॥४६८५॥ दुविह तिविहेण रुभति, अमणुण्णा तेण सा ण पडिसिद्धा । तेण उ ण सव्वविरतो, कडसामाइओ वि सो किं च ॥४९८६॥ किच कामी सघरंऽगणो, थूलपइण्णा से होइ ददुव्वा । छेयण-भेयण-करणे, उद्दिट्टकडं च सो भुंजे ॥४६८७|| एतानो गाहाप्रो पूर्ववत् । तेसिं हत्थानो पाडिहारियं गेहंति इमे दोसा - गडे हित-विस्सरिते, छिपणे वा मइलिए य वोच्छेयं । पच्छाकम्मं पवहणं, धुयावणं वा तदहस्स ।।४६८८|| गिहि अण्णतित्थियाण हत्याप्रो पाडिहारियं वत्थं गहितं, तेणेण वा हारियं, विस्समणद्वाणे वा विस्सरियं, मूसगादिणा वा छिष्णं, परिभुज्जमाणं वा मइलं कतं। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- वूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ८-१८ एवमादिएहि कारणेहि तम्मि पाडिहारिए प्रणप्पणिज्जंते वोच्छेदं करेज्ज । तस्स वा प्रणस्स वा साहुस्स पाडिहारियं दाउं गट्टे वा भ्रप्पणी भ्रष्णं कारवेति । एयं पच्छाकम्मं । *૬૪ ग्रहवा - अप्पणी पुब्वकयं मच्छतं पवार्हेति णट्ठाति कारणेसु वा घुयावणंति - तदट्ठे धुवावेतीत्यर्थः । जम्हा एवमादि दोसा तम्हा पाडिहारियं तेसि हत्थाश्र ण घेत्तव्वं ॥४६८८|| भवे कारणं जेण गेण्हइ - बितियपदं परलिंगे, सेहट्ठाणे य वेज्जसाहारे । श्रद्धा देस गेलपण, असति पडिहारिते गहणं ॥ ४६८६ ॥ कारण परलिंगट्टितो देज्ज वा गेण्हेज्ज वा, गिहि अष्णतित्थियो वा सेहो त्ति पत्र इउकामो तस्स दिज्जति, अद्धा वा जहा भत्तं देज्ज, "साहारे" त्ति एते पुव्व मणिया । इमेहिं कारणेहि पाडिहारियं परिच्छेजा । श्रद्धाणे अपणो सति मुसिश्रो वा पाडिहारियं गेण्हेज्जा । " देसि " त्ति प्रतिसीयदेसे अप्पणो पाडिहारियं गेण्हेज्जा, गिलाणस्स वा प्रत्युरणादि गेव्हेज्जा । "असति" त्ति ण देज्ज, अलब्भमाणे, पाडिहारियमवि गेण्हेज्जा ॥४६८६ ॥ जे भिक्खू पासत्थस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देह देतं वा सातिज्जति ||०||८| जे भिक्खू पासत्थस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छर, पडिच्छतं वा सातिज्जति ||०||६०॥ जे भिक्खू प्रसन्नस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देइ देतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ ६१ ॥ जे भिक्खू प्रसन्नस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायदुखणं वा पच्छिह, पडिच्छंतं वा सातिज्जति ||०||१२|| जे भिक्खू कुसीलस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देह देतं वा सातिज्जति ||०||३|| जे भिक्खू कुसीलस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छर, पडिच्छंतं वा सातिज्जति ||०||४|| जे भिक्खू नितियस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देह, देतं वा सातिज्जति ॥सू०||१५|| जे भिक्खू नितियस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छह, पडिच्छंतं वा सातिज्जति ||०||१६|| Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायगाथा ४६८E-YERS ] पंचदश उद्देशकः २६५ जे भिक्खू संसत्तस्स वत्थं वा पडिन्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देइ, देंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१७॥ जे भिक्खू संसत्तस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा सातिज्जति ॥०॥८॥ जे भिक्खू वत्थादी, पासत्थोसण्णनितियवासीणं । देज्जा अब पडिच्छे, सो पावति प्राणमादीणि ॥४६६०॥ पासत्थादी पुरिसा, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । जयमाणसुविहियाणं, ण होति करणेण समणुण्णा ॥४६६१॥ पासत्थमहाछंदे, कुसील श्रोसण्णमेव संसत्ते।। उग्गम उप्पायण एसणा य बातालमवराहा ||४६६२|| उग्गम उप्पायण एसणा य तिविहेण तिकरणविसोही । पासत्थ अहाछंदे, कुसील नितिए वि एमेव ।।४६६३|| एयाणि सोहयंतो, चरणं सोहेति संसो णस्थि । एएहि असुद्धेहिं, चरित्तभेयं वियाणाहि ।।४६६४॥ उग्गमदोसादीया, पासत्थादी जतो न वज्जेति । तम्हा उ तन्विसुद्धि, इच्छंतो ते विवज्जेज्जा ॥४६६५।। सूतिज्जति अणुरागो, दाणेण पीतितो य गहणं तु । संसग्गता य दोसा, गुणा य इति ते परिहरेज्जा ॥४६६६।। न वि रागो न वि दोसो, सुहसीलजणम्मि तह वि तू वज्जा । वणसुगलद्धोवम्मा, णेच्छंति बुहा वइकरं पि ४६६७॥ पडिसेहे पडिसेही, असंविग्गे दाणमादि तिक्खुत्तो । अविसुद्धे चउगुरुगा, दूरे साहारणं कातुं ॥४६६८|| असिवे ओमोयरिए, रायढे भए व गेलण्णे । 'सेहे चरित्न सावय, भए व देजा अधर गेहे ॥४६६६॥ जत्थ सुलभं वत्थं तम्मि विसए अंतरे वा प्रतिवादि कारणे हुज्जा, एवमादिकारणेहि तं विसयमागच्छतो इह मलमंतो पामत्यादि वत्थं गेण्हेजा, देज वा तेसि ||४६EET १ प्रदाणं रोहे वा, देजा प्रहवा पडिच्छेब्रा, इतिपाठान्तरम् गा० ४६EE | Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाय-पिक नितीथमूत्र [ मूक- प्रषा - . श्रद्धाणम्मि विवित्ता, हिमदेसे सिंधुए व भोमम्मि । गेलण्ण कोट्ट कपल, महिमाइ 'पडेण भोमज्जे ॥५०००॥ प्रमाणे वा विवित्ता, मुसिया, प्रणतो प्रममता पासरवादि वत्वं गेण्हेवा । हिमवेसे वा सीताभिभूता पाम्हिारियं गेहेना । एमेव सिंधुमादिविसए। पोमम्मि उपजलवत्यो मिक् लमति, पप्पणो तम्मि उम्नमवत्थे असते पासत्थादियाण गेव्हेन्या । गेमणे का किमिकुटादिए कंबलरयर्ण पासस्थादियाण देत गेल्हेज वा, महिमादिपक वा सगलवणं उमजणं कायव्वं, अपणो प्रसते पासत्यवत्वं गेण्हेज्जा देव वा तेसि।।५०००।। जे भिक्खू जायणावन्थं वा णिमंतणावत्थं वा अजाणिय अपुच्छिय भगवेसिय पडिग्गाहइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति । से य वन्थे चउण्डं अण्णतरे सिया, तं जहा - निच-नियंसणिए मज्झहिए छणसविए राय-दुवारिए ।मु०॥६६॥ जायणवत्यं जं मग्गिज्जइ कस्मेय" ति मच्छिय, "कस्मट्ठा कह" ति प्रगवेसिय । णियंसणं जं दया गती य पम्हिज्जे: । "जि" ति हातो ज परिहेनि देवघरपवेमं वा करतो तं मजणीय । जस्थ पक्केण विगमा फज्जनि मो रगणो, जत्य मामण्ण भत्तविगमो कज्जह सो ऊसवो । ग्रहवा - एणो चेव ऊसयो मामयो, न ज परिटिजति तं छगूपियं । गयकुल पविमतो जं परिहेति तं रायदारियं । यं वत्यं जो मिय गिहान नग्म च उलटू, प्राणादिया य दोगा। एस सुत्तत्यो। गाणिज्जुत्तिवित्थगे - तं पि य दुविहं वन्यं, जायणवन्थं णिमंतणं चेव । णिमंतणमुवरि वोच्छिहिति, जायणवत्थं इमं होइ ।।५००१।। यम प्राच्छादणे, ग न पाच्छानि जम्हा तेण वत्थं । तम्मिमो निम्वेवो - नार्म ठवणा वन्यं, दन्वाक्थं च भाववत्थं च । एमो खलु वत्यस्मा, णिकावेवो चउन्चिही होइ ॥५००२।। 'सवणाप्रो गताग्रो, दव-भाववत्थे इम भण्णनि एगिदि-विगल-पंचिदिएहि णिफण्णगं दवियवत्थं । सीलंगाई भावे, दविए पगतं तदहाए ।।५००३।। एगिदियणि फाण कणासमादि, विगलिदियणिष्फणां कोगे जमादि, पंचदिणि foयमादि, प्रय दव्यं वन्यं । माववन्य प्रारममीनंगमहम्माइं। दविए पगय । 'तट्टाप" ति तथ दलवायाण अधिकारी, ५हकेण, इत्यपि पाठः । . Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ५०००-५००७] पंचदश उद्देशकः "तद्वाए" ति भाववस्त्रार्थ, जम्हा तेष वत्येण करणभूतेण भाववत्थं साहिज्जति सरीरस्योपग्रहकारित्वात, शरीरे निराबाधे सति ज्ञानादय इति ॥१००३॥ पुणरवि दव्वे तिविहं, जहण्णयं मज्झिमं च उक्कोसं । एक्केक्कं तत्य तिहा, अहाकड़ऽप्पं सपरिकम्मं ॥५००४॥ जंतं एगिदियादि दव्ववत्वं भगियं तं तिविधं भवति - जहणं मज्झिमं उक्कोसं च । जहणं मुहपोतियादि, मज्झिमं चोलपट्टादि, उक्कोसं वासकप्पादि । पुणरवि एक्केक्कं तिविध - प्रहाकड अप्पपरिकरम बहुपरिकम्मं । एवं मझिमयं ३, उक्कोसयं च ३, तिविषं माणियव्वं ।५००४॥ इमो उक्कोसादिसु पच्छित्तविभागो चाउम्मासुक्कोसे, मासिय मज्झ य पंच य जहण्णे । वोचत्थगहण-करणं, तत्थ वि सट्ठाणपच्छित्तं ॥५००५|| उक्कोसे का, मज्झिमे मासलह, जहणे पणगं ! "वोच्चत्यग्गहणं" ति पुब्वं महाकडं गिहियम् । तस्सऽसति अप्पपरिकम्म, तस्स प्रसति बहुपरिकम्म, एवं कम मोत्तुं चोच्चत्था गेहतरत पच्छित्तं । "करण" मिति परिभोगो. जो विवरीयभोगं करेति प्रविधिमोगं वा तत्थ वि सट्ठाणपच्चित्तं । कप्पं छिदिउं चोलपट्टे फरेति. मुहपोत्तियं वा, तत्प जं करेति तत्व सट्टाणपच्छित्तं चिंतिज्यति ।।५००५॥ एसेव पायच्छित्तऽत्यो फुडतरो भण्ण त जोगमकाउमहाकडे, जो गेण्हति दोणि तेसु वा चरिमं । लहुगा तु तिणि मज्झम्मि मासियं अंतिमे पंच ॥५००६॥ . उक्कोसवत्थस्स महाकडरस णिग्गतो तस्स जोगं अकाउं प्रप्पपरिकम्मं गेहति :: (४ मायंबिला)। अह तस्सेव अहाकडस्स णिम्गतो बहुकम्मं गेहति :: । मह महाकडस्सासति प्रणपरिकम्मरस णिग्गतो तस्स जोगं अकाउं बहुपरिकम्मं गेहति :: । एवं उक्कोसे तिणि चउलहुया । मज्मिास्स प्रहाकडस्स णिग्गतो तस्स जोगं प्रकाउं अप्पपरिकम्म गेण्हति तस्स मासलहुं । अह बहुसपरिकम्मं मेहति ० (मासलघु)। पप्पपरिकम्मस्स णिग्गतो तस्स प्रजोगं काउं जह बहुपरिकम्मं गेहति • ।। एवं मज्झिमे तिष्णि मासलहुगा। __ जहण्णस्स महाकडस्स णिग्गो जति मध्यपरिकम्मं गेण्हति पणगं । मह बहुपरिकम्मं ना (पणगं)। मष पप्पपरिकम्मस्स जहण्णस्स णिग्गतो तस्स जोगमकाउं बहुपरिकम्मं जहणं गेण्हति, ना (पणगं)। एवं जहष्णे तिणि पणगा, अत्थतो पत्तं। ___अहाकडस्स णिग्गतो-जोगे कते अलन्भमाणे अप्पपरिकम्म गेण्हमाणो सुद्धो, अप्पपरिकम्मस्स वाणिग्गतो जोगे कए अलन्ममाणे सपरिकम्मं गेल्हमाणो सुदो ॥५००६।। एगतरणिग्गतो वा, अण्णं गेण्हेज्ज तत्व सट्ठाणं। छत्तण सिव्विउं वा, जं कुणति तगं ण जं छिदे ॥५००७॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६५ समाब- पूणिक विडीवसूत्रे [सम्उसकोसबस्स बिनतो मरिकमयं मेहति “सट्ठा" ति मासमहुँ । अब नहष्णयं गेहति तत्व सट्टावं पणवं भवति । मग्भिमयस्स गिम्गतो उनकोसं गेष्हति तत्व सट्टा चउसहमं भवति । बहलयं गेहति ना (पनयं) । जहण्यवस्स जिग्गता उक्कोसयं गेहति । मज्झिम गेण्हति ।। जाणादिया दोसा । तं च करवं न तेण परिपूरेति अतिरेगहीणदोसा य भवंति। "'वोच्चत्यग्गहणे" ति एवं मयं। "करणे तत्थ वि सट्ठाण पच्छिवं" अस्य व्याख्या "वेत्तण" पच्छदं । उक्कोसयं खिदेत्ता मरिझमयं करेति मासलहुँ, जहण्णयं करेति ना, (पणगं)। मग्झिमयं छिदेता जहण्णय करैति, ना (पणगं)। जहण्णए संघाएता उक्कोसयं करेति::। जहण्यं संघाएत्ता मग्मिमं करेति । मज्झिमे संघाएत्ता उनकोसं करेति क । छिदति तणिप्फणं ण भवति । प्राणादिया य दोसा. संजमे छप्पतियविराहणा, पाताए हत्योवधातो, पलिमयो य सुत्तत्थाणं । जम्हा पायच्चित्तं परियाणामि तम्हा ण बोन्पत्यम्गहणकरणं काय,बहारिहं कायव्वं । सब्वे माणादिया दोसा परिहरिया भवति ।।५००७॥ तं वत्य इमाहिं चउहि पडिमाहिं गवेसियव्वं - उद्दिसिय पेह अंतर, उज्मियधम्मे चउत्थए होइ । चउपडिमा गच्छ जिणे, दोण्हेग्गहऽमिम्गहऽण्णतरा ॥५००८॥ गच्छवासी चहि वि पहिमाहि गिण्हति । त्रिणकप्पिणदमो दोण्हं उग्गहं करेति, अंतर उज्झियमया य, एसेसि दोण्हं प्रणतरीए गहणं करेति ॥५००८॥ एतेसिं चउण्हं पडिमाणं इमं सरूववक्खाणं - भमुगं च परिसं वा, तइया उणियंसणऽत्पुरणगं वा। जं वुज्मे कप्पडिया, सदेस बहुवत्थदेसे वा ॥५००६।। उद्दिष्टुं णाम उद्दिदुसरूवेश मोमासति, "अमुग च" ति जहणमज्झिक्कास । अघवा - एगिदिय-विलिदिय-पंचेंदियनिप्फणं गेहति । वितियपडिमा - पेह इमं से सस्वं - परिमं वा किंचि दत्थं दटठं मणाति-हे सावग ! जारिस इम वत्यं, एरिसंवा देहि, त वा देहि। "प्रतरं" तु "ततिया "णियंसणत्युरणगं वा । ततिय ति पडिमा । तु स्वरूपावधारणे। "णियंसणं" सो व मागो, साडगगहणातो पाउरणं पि दृटुव्यं । 'प्रत्युरणं" ति प्रस्तरणं प्रच्छदादि, अण्णं पोतं परिहिउकामो पुव्वणियत्यवत्यते भवणे उकामो एम्मि अंतरे मम्गति । "ग्मियधम्मा च उत्थिय" ति सदेस गंतुकामा कप्पडिया जं उज्झति त मग्गति, बहुवत्यदेसं वा गतुकामा उज्झति, बहुवत्वदेसे वा जं उझियं लभति । एसा अण्णायरियकथगाहा ॥५००६।। इमा भद्दबाहुकता उद्दिट्ट तिगेगतरं, पेहा पुण दिस्स एरिसं भणति । अण्ण णियत्थन्थुरियं, ततिएणितरं तु भवणेते ॥५०१०॥ गा० ५००५ । २ गा० १००५ । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाचा २००८-२०१४] पंचदश उद्देशकः ५६६ उद्धिं प्रोनासति - "देहि मे तिण्हं वत्थाणं प्रणतरं" जहण्णादी। अधवा-एगिदियादितिगं । पेहा बाम दणं पूर्ववत्। ततिया अंतरिज्जं उत्तरिजं वा । अंतरिज्जं णामा णियंसणं, उत्तरि पाउरणं । अधवा-अंतरिग्ज णाम सिज्जाए हेदिल्लपोत्त, उत्तरिलं उरिल्लं पच्छदादि, अण्णं णियसेति पा प्रत्युरति । "इवर" मिति पुवणियत्यं प्रत्युरणं वा भवति, जम्मि काले तम्मि अंतरे मग्गति । अहवा-"इयरमि" नि उज्झियधम्मियं, तं "प्रवणे" त्ति छड्डे ति, तं मग्गति ॥५०१०॥ तत्थ जा उज्झियधम्मिया पडिमा सा चउन्विहा-दव्यग्रो खेत्तंगो कालो भावो। तत्थ दबुज्झितं इमं - दव्वाइ उज्झियं दव्वो उ थूलं मए ण घेत्तव्वं । दोहि वि भावणिसिलु, तमुझिओमट्ठऽणोभटुं ॥५०११।। जस्स प्रणगारस्स एवं पइण्णा भवति धूल मए ण घेत्तव्वं, ण परिभोत्तव्वं, तं च से केणती उवणीय, तं च पडिसेवियं, "पलं मम तेण" ति भावतो चत्तं । जेण वि माणियं सो वि भणाति- "जति एस " गेम्हति तो मम पि ण एतेण कव" ति, तेण वि भावतो चत्तं एयम्मि देसकाले जंजति लन्मति प्रोभट्टे ..वा तं गेण्हंतस्स दबुझियं भवति ।।३.११॥ इदाणि खेत्तुझियं - अमुगिच्चयं ण मुंजे, उवणीयं तं ण केणई तस्स । जं वज्झे कप्पडिया, सदेस बहुवत्थदेसे वा ॥५०१२॥ जहा लाडविसयच्चयं मए वत्थं ण घेत्तव्वं ण वा परिभोत्तव्वं, तं च केणति तस्स उवणीयं, तेण पडिसिदं । जेण प्राणियं सो भणाति-जति ण गेण्हति तो वि चत्तं, एयम्मि अंतरे साहुस्सोवट्टियस्स पोभट्ठमणोभटुं वा देजा। बहुवत्थदेसे जहा महिस्सरे अण्णं चोक्खतरयं परिहेति, अण्णं छडुति ।।५०१२॥ इमं कालुज्झियं - कासातिमाति जं पुव्वकाले जोग्गं तदण्णहिं उज्झे । होहिति च एस काले, अजोगयमणागतं उज्झे ॥५०१३।। कासारण रत्तं कासायं भण्णति । गिम्हे कयं जं हेमंते अजोग्गं परिभोगस्सेति काउं छहुज्ज कोति महतो, प्रादिग्गहणेण प्रकसायं पि । अधवा - अणागए चेव तस्स कालस्स छड्डेति भण्णं चोक्खतरयं कसाइमं लभृणं ति ।।५०१३ः। इमं भावुझियं - लद्रूण अण्णवत्थे, पोराणे ते तु देति अण्णस्स । सो वि य णेच्छति ताई, भावुझियमेवमादीणि ॥५०१४॥ उच्चारियसिद्धा । एयाहि चउहि पडिमाहिं गच्छवासिणो गेहंति, जिणकप्पिया उवरिल्लाहि दोहि Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-२५ गिण्हंति । ""भभिग्गहो" त्ति किमुक्तं भवति ? भमिग्गहो दोण्ह वि प्रणतरं मभिगिज्म, तासि चेव दोण्हं एगाए गेहंति । जा पुर्ण प्रादिल्लातो दो प्रणभिम्गहियामो तानो ण गेण्हति ॥५०१४॥ तं पुण गच्छवासी कहं मग्गइ ? काए वा विधीए ? त्ति, उच्यते - जं जस्स पत्थि वत्थं, सो तु णिवेदेति तं पवत्तिस्स । सो य गुरूणं साहति, णिवेदे वावारए वा वि ॥५०१५॥ जं जस्स साधुणो वासकप्पतरकप्पगादी णत्थि सो तं पश्यत्तिणो साहति, जहा “मम प्रमुगं च वत्थं पत्थि" । सो वि पवत्ती गुरूण साहति, गुरू गाम मायरियो, तं भणति - अमुगस्स साहुस्स प्रमुगं च वत्थं पत्थि । गच्छे य सामाचारी इमा अभिग्गही भवंति "मए वत्थाणि पाता वा प्राणेयवाणि", अण्णेण वा जेण केति पोयणं साहूणं ताहे सो प्रायरियो तेसि मभिग्गहियाणं निवेदेति, जहा - "प्रज्जो ! प्रमुगरस साधुस्स ममुगं वत्थं णत्यि" । अध णत्थि अभिग्गहिता तो सो चेव साधू भण्णति- "तुमं अप्पणो वत्थ उप्पादेहि।" मह सो असत्तो उप्पाएउं तो अण्णो जो साधू सत्तो प्रायरिया तं वावारेंति, जहा-"अमृगं वत्थं मग्गह" ति।।५०१५॥ जो सो अभिग्गहितो, जो वा सो वावारितो, ते काए विधीए उप्पादेति ? उच्यते - भिक्खं चिय हिंडंता, उप्याए असति बितिय-पढमासु । एवं पि अलब्भंते, संघाडेक्केक वावारे ॥५०१६॥ . सुत्तपोरिसिं मत्थपोरिसिं च करेत्ता भिक्खं चेव हिंडित्ता उप्पादेति । "असति" ति जति भिक्खं हिंडंता ण लभंति, ता"बितिय" त्ति प्रत्थपोरिसी वज्जेता बितियाए वि पोरिसीए मग्गंति । तह वि असतीते "पढमाए" ति सुत्तपोरिसीए सुत्तं वज्जेत्ता मग्गति । जति एवं पि ण लन्भति ताहे एक्केक्कं संघाडयं पायरिया वावारिति-"प्रज्जो! तुमं व भिक्खं चेव हिहंता वत्थाणं जोग्गं करेजह", ताहे ते वि मग्गंति ॥५०१६॥ एवं तु अलभते, मोत्तण गणिं तु सेसगा हिंडे। गुरुगमणम्मि गुरुगा, उभावण-ऽभिजोग सेहहिला य॥५०१७॥ तहवि प्रलम्भंते बहूणि वा वत्याणि उप्पाएयव्वाणि वृद-साध्यानि च कार्याणीति कृत्वा, ताहे पिंडएणं सव्वे उडेति, “गणे" ति पायरियो, तं मोत्तूणं । . पायरिया जति पुण अप्पणो हिंडति तो चउगुरुगा, प्रोभावणदोसा - "मायरियो होतो अप्पणा हिंडंति, पूणं एयरस पायरियत्तं पि एरिसं चेव जो चोराणं पि ण धाति ।" कमणिज्जरूवं वा द? काइ इत्यो अभिप्रोगेज्जा, प्रोभासिए वा अणिच्छमाणे विसं देज्ज गरं वा । अधवा - सेहा होलेज पायरियाणं हिंडते प्रलद्धे सेहा भगेज्ज - "पायरियाणं दिटुं माहप्पं लदी वा।" जम्हा एते दोसा तम्हा मायरियो ग हिंडावेयवो। तं मोत्तणं जे अणे सेसा तेहिं हिंडियव्यं ॥५०१७॥ १ गा० ५०००। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागापा ५०१५-५०२० ] बदश उद्देशक: ते पुण इमेरिसा होब्बा सव्वे वा गीयत्था, मीसा व जहण्णे एगो .. एक्कस्स वि असतीए. करेंति ते कप्पियं एक्कं ॥५०१८॥ ते पुण सव्वे गीयत्या। अहवा- प्रद्धा प्रगीता, प्रद्धा गीता। अधवा - एक्को गीयत्थो, सेसा सवे अगीयत्था। अहवा - मायरियं मोत्तुं सेसा सव्वे प्रगीयत्था, ताहे एक्कं कपियं करेंति जो तेसि भगीया माझे वाग्मी धृष्टतरः लब्धिसंपन्नः, एयस्स पायरिया वत्येसणं उस्सग्गाववादेश कहिति ॥२०१८॥ तेसिं उवयोगकरणे इमा विधी - आवास-सोहि अखलंत समग उस्सग्ग डंडग ण भूमी । पुच्छा देवत लंभे, ण किं पमाणं धुवं वा वि (दाहि) ॥५०१६॥ तेहि साहूहि प्रणागयं चेव काइयसण्णाम्रो अणक्खेयन्वा मा चीरुप्पादणगताणं होज ति, एसा मावासगसोधी । उटुंतेहिं उट्टेति य, जोगं करेंतेहिं ण खलियध्वं णावि पक्खलियव्वं । अहवा- अपक्खलियं अविकूडं तेहिं उट्टेयव्वं, सव्वेहि य समं उठ्ठियव्वं, ण अण्णे उद्विता अच्छंति । अहवा - समयं चेव उस्सग्गं करेति । "उस्सग्गो' उवमोगकाउस्सगो, सो य अवस्सं कायव्वो, तं करेंतेहि भूमीए डंडगो ण पइट्ठवेयव्वो, भूमी य ण छिवियव्वा डंडएणं जाव पढमलाभो लद्धो, ततो परेणं इच्छा, अण्णे जाव पडियागय त्ति । एत्थ जं किं चि वितह करेंति तं करेंतस्स सम्वत्थ असमायारिणिफणं मासलहुं । एत्थ सीसो पुच्छति - "काउस्सग्गं कि णिमित्तं करेंति ? कि देवताराहाणमित्तं जेण प्राराहिता समाणि वत्याणि उप्पादेति, उप अण्णं कि पि कारणं ?" प्राचार्य प्राह - ण देवताराहणणिमित्तं काउस्सग्गं करेति तत्थ काउस्सग्गे ठिता उवउज्जति - किं पमाणं वत्थं घेत्तव्वं ?, जहणायं मज्झिमयं उक्कोसं । अधवा - किं ग्रहाकडं अप्पपरिकम्मं ?, अहवा - कत्थ धुवो लामो भविस्सति ?, एवं उस्सग्गद्वितो चितेति । को वा पढम प्रोभासितो अवस्सं दाहिति ?, जो नजति एसो अवस्सं दाहिति सो पढमं प्रोभासियन्वो, एयं सव्वं उस्सग्गट्ठिया चितेति ॥५०१६।। काउस्सगे कए केण पढमं उस्सारियव्वं ?, उच्यते - रातिणिो उस्सारे, तस्सऽसतोमो वि गीओ लद्धीओ। अविगीओ वि सलद्धी, मग्गति इतरे परिच्छंति ॥५०२०॥ तत्थ जो राइगियो गीयत्थो लद्धिजुत्तो तेणं उस्सारियन्वं, अघ राइगियस्स गीयत्थस्स असति राइणिो वा मलदिमो ताहे प्रोमराइणिग्रो घि गीयत्थो सलविप्रो जो सो उस्सारेति । Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्रमष सो वि प्रलदी ताहे जो अगीयत्थो वि सलद्धी सो उस्सारेति, सो चेव प्रोभासति, सो चेव य पायद्वितणं करेति । "इयरे" (जे) गीयत्था प्रलद्धिया ते पडिच्छंति, एसणादि सव्वं सोषि ति, ते जाव वत्यस्स विधी भणिता कप्पति ण व ति ॥५०२०॥ इदाणि पच्छित्तं भण्णति - उस्सग्गाती वितहे, खलंत अण्णण्णो य लहुओ य । उग्गम विप्परिणामो, अोभावण सावगा ण ततो ॥५०२१॥ काउस्सम्गपदं मादी करेत्ता सध्वेसु पदेसु पच्छित्तं मण्णति - उस्समां ण करेति, मावासयं ण सोधेति, सलंति वा समं वा, उस्सम्यं ण करेंति, इंडएण वा भूमी छिवति, उस्सारेंति वा वितह, सव्वत्य मासलहुं । "मणण्णतो " ति ण वि पिडएणं काउस्सग्गं करेता संदिसह त्ति , भगंति मासलहुं । मायरिया लामोत्ति ण मणंति मासलहुं । प्रावस्सियं ण करेंति ना (पणगं), "जस्स य जोगं" भणति मासलहुं । किह गेव्हिस्सामो ति ण भणेति मासलहुं, पायरिया जहा संदितुल्लयंति ण भणंति मासलहुँ।। एवं करेत्ता गता जति सावयं प्रोभासति तो उग्गमदोसा, घरे असंते कीतादी करेजा। गवाणि वा काउं मण्णम्मि वा दिणे देज्जा । विप्परिणामो वा से। सो य णवधम्मो चितेज्जा-जो एतेसि सड्डो भवति तं एते चड्डेति । प्रोभावणा वा से होजा, तस्स सावगस्स घरे णत्यि वत्या, ताहे साधू मलद्धवत्या तस्स धरातो णिग्गता, ताहे अण्णतित्थियादि भणेज्जा - "एते एयस्स दिक्खिणेता, एस एतेसि पि ष देति, अति. खरंटो एस सावगो" ति, एवमादी जम्हा दोसा तम्हा णतं जाएज्जा ०२१॥ अहवा - दातुं वा उदु रुस्से, फासुद्धरियं तु सो सयं देति । भावितकुलतोभासण, णीणित कस्सेत किं वासी ॥५०२२॥ सावगो वा दातुं पन्छा उदु रुसेज्जा, "किं एतेहिं एत्तिलयं पि ण णायं जहा सावगस्स संजमीणं तं प्रणोभासिएल्लयं चेव देति ।" मणं च सावयाणं एसा सामायारी चेव जं फासुयं उद्धरियं तं साधुणं दायम्वं, तो सो अप्पणो. चेव दाहिति, तम्हा कि तेग अोभासिएणं ? जे अण्णे भाविएल्लया कुला तेसु प्रोभासियव्वं । गंतूण माणियन्वो जो पभू सो - "धम्मलाभो सावग! साधुणो तव सगासं पागता, एरिसेहिं चीरेहिं कज्ज" ति मग्गितो सो भणेज्जा - "मणुग्गहो।" ताहे णीणिए भामियव्यं - "कस्सेयं ? कि मासी ? किं वा भविस्सति ? कत्थ वा प्रासी ?" एवमादी पुच्छियन्वं ॥५०२२॥ जे चत्तारि परियट्टगा णव-पुराणा तेसि सामण्णेण इमं भणइ - जायण-णिमंतणाए, जे वत्थमपुच्छिऊण गिण्हेज्जा। . दुविह-तिविहपुच्छाए, सो पावति अापमादीणि ॥५०२३॥ जायणवत्थं निमंतणावत्थं च एतेसु दोसु वत्येसु जो ग पुच्छइ, तं च प्रपुच्छियं गेहति तस्3 प्राणादिवा दोसा। जायणवत्ये दुविधा पुच्छा - कस्सेयं ? कि मासी ? १ संदिसावेंति जुतं, जुतं संदिसावेंति वा इत्यपि पाठः । Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५०२१-५०२७ ] पंचदश उददेशक: ५७३ णिमंतणावत्थे तिविधा पुच्छ. - कस्सेयं ?, कि वासी ?, केण कज्जेण दससि मज्म ?, जति "कस्सेय ?" ति ण भणति तो :: । "कि एयं ?" ति ण मणति ५.२३॥ को दोषः ? उच्यते कस्स त्ति पुच्छियम्मी, उग्गम-पक्खेवगादिणो दोसा। किं आसि पुच्छियम्मी, पच्छाकम्मं पवहणं वा ॥५०२४॥ जति कस्सेयं ति ण पुच्छति तो उग्णमदोसदुटुं वा गेण्हेज्जा, पखेवगदोसदुटुं वा गेण्हेजा। अह fक वा सी" ति ण पुच्छति तो पच्छाकम्मदोसो पवहणदोसो वा भवे ॥५०२४॥ उग्गमदोससंभवं ताव दंसेति । "कस्सेयं ?" ति पुच्छियो समाणो भणेज्जा - कीस ण णाहिह ! तुम्भे, तुन्भट्ठकयं च कीय-धोतादी। अमुएण व तुब्मट्ठा, ठवितं गेहे ण गेण्हह से ॥५०२॥ "भगवं ! तुम्हे कि ण याणह ? जाणह चे तुम्भे, तहवि अम्हे पुच्छह, पुच्छताण तुम्मं कहेमोतुम्मट्ठाए एयं कयं, तुन्भट्ठाए वा कीयं, तुब्मट्ठाए वा घोतं, सज्झियं, समावियं ।" अघवा भणेज्जा - "प्रमुगणामधेज्जेण एवं प्राणे इह तुम्भट्ठा ठवियं, वेण परे से ग गेण्हह" ॥१०२५।। ते य मूलगुणा उत्तरगुणा वा संजयट्ठा करेजा। के मूलगुणा ? के वा उत्तरगुणा ? अतो भण्णति - तण विणण संजयट्ठा, मूलगुणा उत्तरा उ पज्जणता । गुरुगा गुरुगा लहा, विसेसिता चरिमओ सुद्धो॥५०२६॥ वत्थणिप्फायणाणिमित्तं जं कीरति जहा तणणं परिकम्मणं पाणकरणं विणणं एते मूलगुणा संजयट्ठा करेनि, उत्तरगुणा जे णिम्मातस्स कीरंति, जहा "पज्जणं" ति सज्जण कलमोदणं उप्फो(प्फुसणं धावणादिकिरयापो य, एते वा संजयट्ठा करेज्जा । एत्य मूलुत्तरेहिं चउभंगो कायव्वोमूलगुणा संजयट्ठा, उत्तरगुणा वि संजयट्ठा । मूलगुणा (संजयटा), ण उत्तरगुणा (संजयट्ठा)। ण मूलगुणा (मंजयट्ठा), उत्तरगुणा (संजयट्ठा) । णावि मूलगुणा णावि उत्तरगुणा (संजयट्ठा) । एतेसु पच्छित्तं जहासंखं - एका, एका. एक । एते तककालेसु विसेसियव्वा । चरिमभंगो सुद्धो। पुढे एवमादी दोसे ण जाणइ, इमं च जाणति जेण ठवियं ॥५०२६।। तं पुण केण ठवियं होज्जा - समणेण समणि साग, साविग संबंधि इडि मामाए । राया तेणे पक्खेवए य णिक्खेवणं जाणे ॥५०२७॥ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ सभाष्य-भूणिके निशीपसूत्रे [सूप-11 ठावितं समणेण वा समणीए वा, सावगेण वा सावियाए वा, मातादिसंबंधीण वा, इढिमतेण वा, मामगेण वा, रातिणा वा, तेणेण वा, “पक्खेवए" ति एतेहिं तं पक्खित्तं होग्या, एसेव पक्खेवगो भणति । "णिक्खे.णं जाणे" ति णिवखेवगो विएतेसु चेव ठाणेसु भवति ।। ५०२७॥ एतेसिं पदाणं इमा विभासा जेण कारणेण अण्णत्थ पक्खिवंति । समणादीछद्दारे एकागाहाए वक्खाणेति - लिंगत्थेसु अकप्पं, सावग-णीतेसु उग्गमासंका । इडि अपवेस साविग, इडिस्स व उग्गमासंका ॥५०२८॥ तत्य जे ते समणा समणीतो वा ते लिंगत्या य होजा, तेसि हत्यातो ॥ कापति घेतणं, ते उग्गमादीहि असुद्धाणि वत्थाणि गेहंति, सयं च सम्मुच्छाति, ते लिंगतो वि पक्ष्यण नो वि माहम्मिय ति काउण वदृति तेति हत्थातो घेतं, ताहे ते मम्ह ण गेण्हंति ति का अण्णत्थ पविम्वति नि, इमं च भणंति – “एते जाहे साधुणो तुन्भे चीराणि मग्गेज्जा ताहे तुम्भे एयाणि देजह ।" सावगो साविगा वा गीतो वा कोति साधुस्म एतेमि तिण्ह गि उम्गमादिसकाए साधुणो ण गेण्हंति, ताहे ते "प्रम्हं न गेण्हंति" ति काउं पण्णत्व पक्सिति । इहिमतस्स साविया भज्जा, तत्थ ण पवेसो ण लब्भति, ताहे सा वि अण्णत्थ पक्खिवति । अहवा - इड्डिमतस्स, जहा - दक्षिणापहयाणं सावयाण, नेमु घरेसु बहवे साहमिया पविसति, ताहे उगमदोसा भविस्संति त्ति काउण घेणंति तेसि, ताहे ते पणत्य विखवति, इढिम णाम इस्सरो ति ।।५०२८॥ एमेव मामगस्स वि, भज्जा सछी उ अण्णहिं ठवते । णिवति-पिंडविवज्जी, तेणे मा हू तदाहडगं ॥५०२६॥ मामको णाम करसद घरे पवेसणं ण देति, पंतयाए वा ईमालुयाए वा, तरस भज्जा साविया, सा प्रणत्य पक्लिवेज्जा । अधवा - घरे प्रणयर उम्नमदोसा संकाए ति काउ ॥ गेगहति । णिवो नाम राया, तस्स पित ण कापति, सो वि अण्णत्थ पक्खिवेज्जा, मम गेण्हनि ति जहा तघा लाभ लमामि, तेणगस्स वि ण पट्टति घेत्त, मा तेणाहडयं होज्जति, सो वि मम ण गेण्हंति पणत्य पक्खिवति । एवं तार पयावेवो ॥५०२६॥ एते उ अधेप्पंते, अण्णहि संपक्विवंति समणट्ठा । णिक्खेवो वि एवं, छिण्णमछिण्णो व कालेणं ॥५०३०॥ पुव्वदं सव्वाणुवादी गतत्यं । गिनखातो पि एवं चेव, णवरं -- सो रिणो प्रच्छिण्णो वा। कालतो भवति ।।५०३०॥ गिहणिक्षेवगतं च भणामि - अमुगं कालमणागते, देज्ज व समणाण कप्पती छिण्णे। पुण्ण समकाल कपति, ठवितगदोसा प्रतीतम्यि ॥५०३१॥ . Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५०२८-५०३६ ] पंचदश उद्दशक: णिक्खेवगो णाम ते गिहत्या णिक्खिवंता जइ मणंति-"प्रमुगं कालं जति अर, एज्जामो ताहे तुम्मे एवं समणाणं देज्जह" । एवं जइ चिदति तो कपति पुण समकालमेव । प्रतीते ण कप्पति, ठवियकदोसो ति का, प्रच्छिण्णे पुण जाहे दलंति ताहे कप्पति ॥५०३१॥ इदाणि साधुणिक्खेवगो असिवातिकारणेणं, पुण्णातीते मणुण्णणिक्खेवे । परिमुंजति धरैति व, छड्डेति व ते गते गाउं ॥५०३२॥ जे साधू संभोइया तेहि जं असिवादिकारणेहिं गच्छमाणेहि णिक्खित्तं होज्जा तं पुण्णे वा प्रतीते वा काले गेण्हंति, गिहिता जइ तेसि चीवरासती ताहे परिभंजंति । ग्रह तेहिं ण कज्ज ताहे ठवेंति, "तेसि दाहामो" ति काउ। अह जाणंति ते अण्णविमयं गता प्रप्पणो य तेहिं ण कज्जं ताहे छड्डेति ॥५०३२।। अहवा - सो "कस्सेयं" ति पुच्छितो रुट्ठो भणेज्जा - दमए दूभगे भट्टे, समणच्छन्ने य तेणए । ण य णाम ण वत्तव्वं, पुढे रुट्ठो जहा वयणं ।।५०३३।। 'दमए त्ति अस्य व्याख्या कि दमत्रो हं भंते !, दमगस्स व किं च चीवरा णत्थि । दमएण वि कायव्यो, धम्मो मा एरिसं पावे ॥५०३४॥ दमो दरिद्रः । "भगवं ! किं पुच्छसि "कम्सेयं" ति किमहं दमतो।" अहवा - "सच्चमहं दमग्रो, तहा कि ममं दमगस्स चीवरा णत्थि ?" अहवा - "दमएण वि दारिदिट्ठदोसेण धम्मो कायव्वो, मा पुणो परलोए एरिसं चेव भविसति" ॥५०३४॥ इदाणि 'दुभगे त्ति - जति रण्णो भज्जाए, दूभो दूभगा व जति पतिणो । किं दुभगो मि तुब्भ वि, वत्था वि य दूभगा कि मे ॥५०३॥ प्रणवकारी वि दूभगणामकम्मोदयातो परस्स अरुइकरो दूभगो, सो य रण्णो भजाए वा, इत्ती वा पइणो । “जइ एतेसिं अहं दूभगो किमहं भंते ! तुम वि दूभगो", अधवा भणेज-"किं वत्या वि मे बिना" ।।५०३५॥ इदाणि भट्टे त्ति - जति रज्जातो भट्ठो, किं चीरेहिं पि पेच्छद्देताण । अस्थि महं साभरगा, मा हीरेज्ज ति पव्वइओ ॥५०३६॥ . १गा०५०३३ । २ गा० ५०३३ । ३ गा० ५०३३ । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-णिके निशीथसूत्र [-सूत्र ऐश्वर्यस्थानात च्युतो भ्रष्ट: । "जइ हं रजामो मण्णतरामो वा इम्सरठाणातो भट्टो तो कि जामह चौराणि वि जो होजा, पेच्छह मे इमे पभूए चीरे।" इदाणि “'समणच्छपणे" त्ति पच्छद्ध। “समणच्छण्णो" ति प्रसमणवेसधारी भन्छति, मारणा णाम स्वगा, ते मे बहू अत्थि, मा मम ते राइलकुलादिएहि पहरेज, भतो हैं पवइयरवेण पच्छण्णो अच्छामि, तं तुम्भे मा एवं जाणह जहा हं पव्व इमो, गेहह मम हत्थाम्रो वत्थे ति ॥५०३६॥ इदाणि २तेणे" त्ति - अन्थि मि घरे वि वत्था, नाहं वत्थाणि साह ! चोरोमि । सुटठ मुणितं च तुब्भे, कि पुच्छहं कि वऽहं तेणो ॥५०३७॥ अस्थि घरे चेव मे वत्था, णाहं अप्पणो साहुणो वा अट्टाए वत्थे चोरेमि, तं मा तुन्भे तेणाहड प्ति काउंज गेण्हह । ग्रहवा - भणिजह - मुटु णायं तुभेहि, जहा हं तेणो । को अण्णो णाहिति साधुणो मोत्तं ? तमहं सच्चं तेणो, ण पुण साधुप्रट्ठाए हगमि। अहवा भणेज्ज - "किमहं तेणो जेण तुब्भे पुच्छत् “कस्सेयं ति" ॥१०३७॥ " 3ण य णाम" पच्छद्धं । पुच्छिाए साधुणा भणेऊन, तम्मि एवं भणते वि " य णाम" -- " वत्तव्वं । वत्तव्यमेव जहारुहं वयणं । दमो भण्णति - 'ण वि अम्हे भणामो जहा तुम दमपो ति । प्रम्हे भणामो मा एवं तक णीयरस प्रहवा परिणीयस्स होज्जा, तेसिं च अगं न होज्ज, ताहे ते अण्णं उवकरेजा।" एवं सव्वे पि पदा माणियवा। श्री अभिहित प्रतिपदमुपतिष्ठती ति कृत्वा “समणे समणी" गाहा (५०२७) एसा भावियन्वा । नत्थ जहा संभवंति पृढे जहारिहं वयणं । अहवा - इमं तं वयणं जहारिह जं वत्तव्वं -- इत्थी पुरिस नपुंसग, धाती सुहा य होति बोधवा । वाले य वुजुयले, तालायर सेवए तेणे ॥५०३८॥ ४ इत्थि ग्रस्य व्याख्या - तिविहित्थि तत्थ थेरी, भण्णति मा होज्ज तुज्झ जायाणं। मज्झिम मा पति देवर. कन्ना मा थेरमातीणं ।।५०३६।। दायगा इत्थी तिविधा - थेरी मज्झिमा तरुणी। थेरी भण्णति “एयं कत्थं मा होज्ज तुज्झ जायाण, "जायाणं' ति पुत्तभडाणं, तुम एत्थ अप्पभू'। मज्झिमा इत्थी भणति - "मा तुज्क पइणो देव रस्स वा एवं वत्थ होज्ज" । तरुणित्थी - कण्णा, सा भण्णति - "थेरि त्ति मातापित्तिसंतियं, मातीणं वा संतियं होज्जा" ।।५०३६॥ १ गा० ५०३३ । २ मा० ५०३३ । ३ गा० ५०३३ । ४ गा० ५०३८ । । Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५०३७-५०४४ पंचदश उद्देशकः एमेव य पुरिसाण वि, पंडऽप्पडिसेवि मा ते णीयाणं । धाती सामिकुलस्सा, सुण्हा जह मज्झिमा इत्थी ॥५०४०॥ जहा इत्थी एवं 'पुरिसा वि भागियव्वा, णवरं - पतिठाणे भज्जा भाणियब्वा, देवरठाणे सुण्हा भाणियब्वा । रेणपुंसगो ति जो अप्पडिसेवी, तस्स हत्थाम्रो घेत्तव्यं । सो य वत्तब्वो- मा ते एयं वत्थं णीयसतिय होज्जा। ___ जहा इत्यो पुरिसा भणिया तहा गपुंसगो अप्पहिसेवी भाणियन्यो । जो पुण पडिसेवी तस्स हत्थानो 'घेतवं । जो गेहति ::, प्राणादिया य दोसा । जा पाती सा भणति “मा ते सामीकुलस्स होज्जा"। जा सुहा सा देती भाणियव्वा - जहा मज्झिमा इत्थी ।।५०४०।। इदाणिं ' बाल-बुझ-जुवणे त्ति - दोहं पि जुवलयाणं, जहारिहं पुच्छिऊण जति पभुणो । गेहंति ततो तेसिं, पुच्छासुद्धं अणुण्णातं ॥५०४१॥ दो जुलया - बालजुवलयं थेरजुवलयं च, बालो बाली वुड्ढो वुड्ढी वा । जे प्रतीवअप्पत्तवया बाला ते इह भांति, जे प्रतीववयवुड्ढा ते य इह भण्यति । जति ते पभू तो घेप्पति, अप्पभूसु वि जइ परियणो अगयाणति तहावि घेप्पंति । "पुच्छासुद्ध" ति पदं मासिकं प्रच्छ उ ।।५०४१॥ इदाणि" तालायर" त्ति - तूरपति देंति मा ते, कुसील एतेसु तूरिए मा ते । एमेव भोइ सेवग, तेणो तु चउबिहो इणमो ||५०४२॥ तालाद्यादिभिः विद्याविशेषः चरंति तालाचरा, तेसि तूरपती देज्जा तो सो भण्णति – “एयं वत्थं मा कुमीलाण होज्जा, तेहिं वा सामगं होज ।” अध ते कुसीलिया देज्ज, ताहे भणति – “एयं वत्थं मा तुरपतीण होज्ज तेण वा सामणं ।" "सेवगो वि एवं चेव भाणियवो। भोतितो भण्णति - “मा सेवगस्स होज्जा"। सेवगो भणति - "मा भोइयस्स होज्जा'। 'तेणगे पुण इमो चउन्विहो विभागो ५०४२॥ सग्गाम परग्गामे, सदेस परदेस होति उड्डाहो । मूलं छेदो छम्मासमेव चत्तारि गुरुगा य ||५०४३॥ तेगगस्त हत्याप्रो घेप्पमाणे गेण्हण-कड्ढण-उड्डाहमादिया दोसा सग्गामादिएस, मूलादियं पच्छित्तं जहासंखं दायव्वं, एत्य छम्मासा वि गुरुगा चेव दट्टब्बा ।।५०४३।। जं वुत्तं ""पुच्छासुद्ध अणुण्णायं" - एवं पुच्छासुद्ध, किं आसि इमं तु जं तु परिभुत्तं । किं होहिति ति अह तं, कत्थाऽऽसि अपुच्छणे लहुगा ॥५०४४॥ १से ६ तक गा०५०३८।७ गा० ५०४१ । Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्रसमणादिएहिं पक्लेवयट्ठाणेहि सुद्ध, जं जं च दमगादिरुद्ववयहिं पुन्वतरप्रो सुद्ध, जं च इत्यिमादिगेसु य दायगेसु परिसुद्ध, अण्णेसु य उग्गमादिदोसेहिं सुद्धं तस्स गहणं अणुण्णायं । “कस्स" ति गतं । जइ वि पढमपुच्याठाणे सुद्धगहणं पत्तं तहावि ण घेत्तव्वं जाव वितियपुच्छाए न सुद्ध। प्रतो बितियपुच्छा "किं वासि त्ति, तं णोणियं वत्यं परिभुत्तं प्रपरिभुत्तं वा ?" जति परिभुत्तं तो पुच्छिनइ.- "किं एवं णिच्चणियंसणमादियाणं प्रासि ?" अध अपरिभुत्तं तो पुच्छिबइ "किं एवं णिच्चणियंसगमादियाणं होहिति ?" अण्णं च पुच्छिजद - "एयं वत्थं कत्थ भायणे ठाणे वा प्रासि ?" एयानो पुच्छामो जइ ण पुच्छइ तो पत्तेगं चउलहुगा ।।५०४४।। जं तं परिभुत्तं वत्थं णीणितं दायगेण तं पुच्छियं - "किं एवं आसि ?" ताहे ते गिहत्था भणज्जा णिच्चणियंसण मज्जण, छणसएं रायदारिए चेव । सुत्तत्थजाणगेणं, चउपरियट्टे ततो गहणं ॥५०४५।। णिच्चणियंसणियं एयं प्रासि, अहवा भणेज्ज - मजणयं, अहवा - छणूसवियं, अहवा - रायद्दारियं । एत्य सुत्तजाणगेणं चउण्हं परियट्टाणं जो अण्णत रो णीणितो तस्स जति अण्णो तत्प्रतिमो अत्थि तो गहणं भवति, एवं दोसु परियट्टेसु णीणितेसु जति दो तत्प्रतिमा अत्थि, तिसुकीणितेस जति तिणि तत्प्रतिमा अत्थि, च उसु परियट्टेसु णोणितेसु तत्प्रतिमेसु "चउसु परियट्टेसु ततो गहणं' ति ॥५०४५।। जं च तं परिभुज्जमाणयं णीणियं तत्थ वि इमे दोसा परिहरियव्वा - णिच्चणियंसणियं ति य, अण्णासति पच्छकम्म-वहणादी । अस्थि वहंते घेप्पति, इयरुप्फुस-धोव-पगतादी ।।५०४६।। जति तेण पुच्छिएण भणिय - "णिच्वणियसणियं ।" जति तस्स अण्णं णिच्चणियंसणियं णत्थि तो. ण घेत्तव्वं। को दोसो ? उच्यते - पच्छाकम्भ करेजा, अण्णं सम्मुच्छावेजा, किणेजा वा । अधवा - अत्थि से अणं ण ताव तं परिवाहेइ, तत्थ विण घेप्पति, मा सो तं पवाहेज्ज । अह अण्णं पच्चूढयं तो घेपति । "इयरे" ति - अवहंते पढमपवाहेंतो प्रा उक्काएग वा उप्फोसेज्ना, घोवेज्ज वा, धी (वी)याराण वा पगयं करेज, प्रादिग्गहणातो धूवेज्ज वा, अप्पणो वा हाएज्जा ।।५०४६।। अधवा - णीणियं तं वत्थं अहतं, तं च तेण गिहिणा पुच्छिएण कहियं - होहिति वि णियंसणियं, अण्णासति गहण पच्छकम्मादी। अस्थि णवे वि तु गेण्हति, तहि तुल्लपवाहणा दोसा ॥५०४७॥ जति तस्स अण्णं णिच्चपियंसणियं त्यि तो ण कप्पति । प्रध गेण्हति एत्थ वि ते चेव पच्छा. कम्मादी-दोसा। - Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५०४५-५०५१] पचदश उद्देशक: अध प्रत्यि मण्णं से तो कप्पं, तं मण्णं जति मवहतं तहावि तं गेहति। किं णिमित्तं ?, तुल्ला तत्थ पवहणा दोसा । तुल्ला णाम जति वि गिण्हति, जति वि ण गिण्हति, सहावि सो प्रप्पपयोगेण चेव अणं पवाहे उकामो काहिति पवाहणादयो दोसा ॥५०४७।। एमेव मजणादिसु, पुच्छासुद्धं च सव्वतो पेहे । मणिमाती दाएंति व, अदिटुं मा सेहुवादाणं ॥५०४८॥ जहा णिचणियसणियं कप्पति न कप्पति वा तहा मजणछणासवरायद्दारिया वि भाणिवव्वा, जाहे पुच्छासुद्धं कप्पणिज्ज ति गिज्जातं ताहे अंतेसु दोसु घेत्तूण सन्चतो सम्म जोतेयव्वं, मा तत्थ गिहत्याणं मणी वा हिरणे वा सुवणे वा तबे वा रुप्पे वा अण्णे वा केइ उवगिबद्धे होजा । सो गिहत्थो भण्णति -"जोएह सव्वतो एयं वत्थं ।" जति तेहि दिटुं हिरण्णादी तो लटुं, अघण दिट्ठ ताहे साहुणो दाएंति, “इमं कि फेडिहि" त्ति भगति । प्राह "णणु तं प्रधिकरणं भण्णति ?" उच्यते - थोवतरो सो दोसो, अधिकतरा सेहुवादाणे दोसा । सो सेहो तं घेत्तुं उत्पन्नएजा, गिहत्था वा उड्डाहं करेजा - "पोत्तेण समं मम हडं हिरण्णादी।" जम्हा एवमादी दोसा तम्हा साहेजा ॥५०४८।। एवं तु गविट्ठसं, आयरिया देंति जस्स जं णत्थि । समभाएसु कएसु व, जह रातिणिया भवे वितियो ||५०४६।। एतेण विधिना गवेषितासु उपणेसु प्रागता गुरूग अप्पिणंति, ताहे ते गुरू जं जस्स पत्थि वत्थं तं तम्स साधुस्स देति । एस एकको पगारो । अधवा - जावतिताण ते दिज्जिउकामा वत्या तावतियभाए समे कज्जति, ताहे जहारातिणियाए गेहति । एस बितिम्रो पगारो ॥५०४६।। एवं जायणवत्थं, भणियं एत्तो णिमंतणं वोच्छं। पुच्छादुगपरिसुद्ध, पुणरवि 'पुच्छिजिमो तु विही ॥५०५०॥ २णिमंतणावत्य पि “कस्सेत' "fक वासि" ति एताहि दोहि पुच्छाहिं जाहे परिसुदं ताहे पुणरवि ततियपुच्छाए पुच्छियव्वं, तस्स णिमंतणावत्यम्स एम विही वक्खमाण। ॥५०५०।। विउसग्ग जोग संघाडए य भोतियकुले तिविहपुच्छा । कस्स इमं ? किं च इमं ?, कम्स व कज्जे ? लहुग आणा ॥५०५१॥ काउस्सग्गं काउं संदिसावेति, तहत्ति भणितो जस्म य जोगे कते संघाडएण णिग्गतो, कि च प्रदप्पहेणं, “भोतितो" ति गामसामी, दंडियकुलं वा पविट्ठो, तत्थ एककाए इस्मरीए महता संभमेण भत्तपाणेणं परिलाभेता वत्थेगं पिमंतिम्रो, तत्य इमं तिविध पुन्छ पर्यजति-कम्स इम ? (कि च इमं ?) कस्स व कज्जे दनयसि ? एत्थ दो पुच्छायो पुटवभगियानो, एतासु दोसु पुच्छासु जया परिमृद्धं भवति तदा इमा अन्भहिता पुच्छा - "केण कज्जेग दलयसि ?" त्ति । जइ एवं तं " पुच्छति तो च उल हुगा, प्राणादिया य दोसा ।।५०५१॥ १ मा मेरा, इति बृहकल्पे गा० २७६५ । २ गा० ५००२ । Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-१९ इमे य अन्ने दोसा मिच्छत्त सोच्च संका, विराहणा भोतिते तहि गते वा । चउत्थं व वेंटलं वा, वेंटलदाणं च ववहारो ॥५०५२॥ प्रत्थसंगह गाहा । एसा "मिच्छत्त" अस्य व्याख्या - मिच्छत्तं गच्छेज्जा, दिज्जंतं दट्ठ भोयओ तीसे । वोच्छेद पदोसं वा, एगमणेगाण सो कुज्जा ।।५०५३।। तं वत्थं दिज्जतं दटुं "भोप्रगो" त्ति-तीसे भत्तारो सो मिच्छतं गच्छेज्जा, तस्सेगस्स प्रणेगाण वा साहूण वोच्छेदं करेज्जा, पदोंसं वा गच्छेज्जा, पाउसेज वा ताडे (ले)ज्ज वा उड्डाहं वा करेज्जा ॥५०५३॥ "सो वा संका" अस्य व्याख्या - वत्थम्मि णीणितम्मी, किं देसि अपुच्छिऊण जति गेण्हे। अण्णेसि भोयकस्स व, संका पडिता णु किं पुब्विं ॥५०५४॥ भोइणीए वत्यं णोणियं, "किं देसि" ति वेण व कज्जेग मज्झेयं दलयसि" ति एवं प्रपुच्छियं जति गेहंति, तस्स भोतगो त्ति भत्ता, तस्स संका जाता, अण्णेसु वा सासुससुरदेवरादियाण य संका जाता - "णूणं एते पुव्वघडिया जेण तुहिक्का दाणगहणं करेति, एसा मेहुणद्विता होउ दलाति, एसा एतेण सह संपलग्गा"। अहवा - संकेज्ज - "कि 'वेंटलद्विता होउ दलाति" ।।५०५४।। एवं ताव सामाणिए भोयए, अब से असमाणो भोइग्रो होज्जा तो इमे दोसा - एमेव पउत्थे भोइयम्मि तुसिणीय दाणगहणे तु । महयरगादीकहिते, एगतरपदोस वोच्छेदो ॥५०५५॥ पुबद्ध कंठं । जे तम्स महत्तरगा कता प्रासी तेहिं प्रागयस्स भोतियस्स कहिय, प्रादिसहातो महतरिगाए वा अण्णयरीए वा दुवक्खरियाए कम्मकारेण व कहियं ।। "3विराहणं" ति अस्य व्याख्या - तेहिं कहिए एगतरस्सादोसं गच्छेजा, भगारीए साधुस्स उभयस्स वा पट्टो प्रगारि साधु वा पंतावेज्जा णिच्छभेज्ज वा बंधेज वा रुभेज्ज वा णिमाणेज्जा वा वोच्छेदं वा एगमणे गाण वा कुज्जा ।।५०५५।। एत्थ संकाए णिस्संकिए वा इमं पच्छित्तं - मेहुणसंकमसंके, गुरुगा मूलं च वेंटले लहुगा । संकमसंके गुरुगा, सविसेसतरा पउत्थम्मि ॥५०५६।। मेहुणसंकाए हुा । णिस्संकित मूलं । वेंटलसंकाए ड्डू, तिस्संकिए ता । मोतिगे सपउत्थे तहि वा भोतिगे देसंतरगते वा पच्छागए एवमादी विराहणा भगिता ॥५०४६॥ एवं ता गेण्हते, गहित दोसा इमे पुणो होति । घरगय उवस्सए वा, अोभासति पुच्छती किं च ।।५०५७|| २. ५०५२ । २ वशीकरणविद्या । ६ गा ५०५२ । Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५०५२-५०६० पंचदश उद्देशकः ५८१ पुव्वर्ट कंठं । "'तहिं गते वा चउत्थं वा वेंटलं वा वेंटलदाणं च ववहारो" - एतसि पदाणं इमं वस्साणं । "तहि गते व ति अस्य व्याख्या- घरगयपच्छदं । तहिं घरे अण्णदिवसे जता साधू गतो भवति तदा पुच्छति । __अहवा - तहिं ति साघुम्मि वसहिं गते सा अविरतिया पच्छा साधुवसहिं गंतुं “चउत्यं" ति मेहुर्ण मोमासति "तुमं मे अभिरुचितो उन्भामगो भवसु" ति वेंटलं पुच्छति ।।५.०५७॥ किं च - . पुच्छाहोणं गहियं, आगमणं पुच्छणा णिमित्तस्स । छिण्णं पि हुदायव्वं, ववहारो लब्मति तत्थ ॥५०५८। गहणकाले ण पुच्छितं "केण मे कज्जेण दलयसि ?" त्ति, एयं पुच्छाहीणं । पुच्छाहीणे गहिए सा भागता णिमित्तं पृच्छति, जेण वा से भोयगो वसो भवति तं वा माइक्खसु, एवं वुत्ते साधू भणति - मेहुणं ण कप्पति, वेंटलं णिमित्तं वा ण जाणामि, साघुणा एवं वुत्ते जति वत्थं पडिमग्गेज्जा तो तं वत्थं पडिदायव्वं । अध तं छेत्तुं पत्तगबंधादि कयं होज्जा तहावि छिष्णं पि हु तमेव दायव्वं, जेण ववहारो लन्मइ । कहं ववहारो लब्भइ ? एगेण रुक्खसामिएण रुक्खो विक्कीतो। कइएण मोल्लं दाउं छिदित्ता वियंगित्ता घरं णीतो। तो वेक्कइयो पच्छा तप्पितो भणति - पडिगेण्हेसु मोल्लं। रुक्खं मे पच्चप्पिणाहि । दो विवदंता राउल उवट्ठिता। किं सो कइतो रुक्खं दवाविनति ?णो । प्रह दवाविज्जति तो वि कट्ठाणि दवाविज्जति । ण रुक्खं पुव्वावत्थं ति। "दत्त्वा दानमनीश्वरः" इति ॥५०५८।। जति - पाहुण तेणऽण्णेण व, णीयं व हितं व होज्ज दडूंवा । - तहियं अणुसट्टाती, अण्णं वा मोत्तु हित-दड्डू ॥५०५६।। अह वत्थं पाहुणएण संभोइएण वा णीय होज्ज, तेणेण वा हरियं, पालीवणेण वा दड़, एत्य से सम्भावो कहिज्जति । जइ तहावि मग्गति ताहे से अणुसद्धिति धम्मकहा कज्जति, विज्जमतेण वा वसीकजति । असती तेसिं अण्णं वा से वत्थं दिज्जइ, हिते दड्ढे वा ण किं चि दिज्जति ॥५०५६।। __ अह दाणकाले साधुणा पुच्छितं - "किं णिमित्तं देसि' ? ति। तत्थ तुहिक्का ठिता, भावो ण दंसितो। कोइ पच्छा गंतु वेंटलं पुच्छति, चउत्थं वा प्रोभासति, तत्थ भण्णइ - ण वि जाणामो णिमित्तं, ण य णे कप्पति पउंजिउं गिहिणो । परदारदोसकहणं, तं मम माता व भगिणी वा ॥५०६०॥ णिमित्तं ण जाणामो, अहवा भणेज्जा - जइ वि जाणामो तहा वि गिहत्याणं ण कप्पति पजि । चउत्थं प्रोभासंती भण्णति - परदारे बहु दोसा, गरगगमणं डंडणं मुंडणं तज्जणं ताडणं लिंगच्छे १ गा० ५०५२ । Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ सभाष्यःचूणिके निशीथसूत्रे [सूत्रदादि च पावनि, परभवे य णपुंसत्ताए पच्चायाति, प्रयस प्रकित्ती य भवति, अणं च तुम मम माता जारिसी भगिणी वा ॥५०६०॥ 'तमेव वत्थमुप्पण्णं जाव गुरुसमीवं ण गम्मति ताव कस्स आभवइ - संघाडए पविटे, रातिणिए तह य ओमरातिणिए । जं लब्भति पाउग्गं, रातिणिए उग्गहो होति ॥५०६१॥ भिक्खादि चेट्टो प्रोमो य संघाडएण पविट्ठा उवप्रोगं काउं जप्पमिति जत्थ सं पाउग्गं संघाडगेण सद्धं बेटेण वा मोमेण वा लद्धं जाव पायरियपादमूलं ण गच्छंत ताव तं जिट्ठरजस्म । उग्गहो स्वामी इत्यर्थः ।।५०६१॥ अधवा इमेण पगारेण देजा एक्कस्स व एक्कस्स व, कज्जे दिज्जते गेण्हती जो तु। ते चेव तत्थ दोसा, बालम्मि य भावपडिबंधो ॥५०६२॥ एयस्स इमा विभासा - अहव ण पुट्ठा पुव्वेण पच्छबंधेण वा सरिसमाह । संकातिया हु तत्थ वि, कडगा य बहू महिलियाणं ॥५०६३॥ सा दातागे पुच्छिता समाणी भणेज्जा - "' एक्कस्स व एक्कस्स" ति, पुवपच्छासंथवे मानो वा सरिसमो सि ति तेण ते देमि । अहवा - पच्छसंथवेण ससुरस्स देवरस्स य भत्तुणो सरिसगो सि तेण ते देमि, एतेसि संबंधाणं प्रणयरं संबंधकज्जेण दिज्जतं जो गेण्हति तत्थ ते चेव पुब्बभणिया दोसा । संथवे इमो अतिरित्तो बालसंबंध. दोसो भवति, जति भाय ति गहितो तस्स य बालो अत्थि सो य साधू चितेति - एयं मे भाणेज्ज । ___ अह भत्तमहितो तत्य वि चितेति - एयं मे पुत्तभंडं । एवमादी भावसंबंधेण पडिगमणादी करेज्जा । किं च पति-भातिगहणे वि कते अप्पणो वि संका उप्पज्जति । एवं सव्वं मिलियं ति । अधवा-जणेणं संकिज्जति जेश बहू महिलियाणं कृतकभावा भवंति, पुत्त-पति-पित्तिकडगभावेण य जारे गेमहति, सम्हा पुवपच्छा संथवेसु वि दिज्जमाणं ण गेण्हेज्जा ॥५०६३।। एतद्दोसविमुक्कं, वत्थग्गहणं तु होति कायव्वं । खमओ त्ति दुब्बलो त्ति व, धम्मो त्ति व होति णिहोसं ॥५०६४॥ पुन्बद्ध कंठं। सा दातारी पुच्छिया समाणी भणति -खमयो सि तुम तेण ते देमि । अहवा - दुबलो सि दीससि खमगत्तणेग सभावेण वा तेण ते देमि । अहवा भणेज - तुझं तवस्सिणो देज्जमाणे धम्मो होहिइ ति प्रतो देमि । एवमादि णिहोस लन्भमाणं घेप्पति ॥५०६४॥ किं च - आरंभनियत्ताणं, अकिर्णताणं अकारवंताणं । धम्मट्ठा दायव्वं, गिहीहि धम्मे कयमणाणं ॥५०६॥ . १ मा० ५०५२। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ५०६१-५०६६ ] पंचदश उद्देशकः पुष्वद्धं कंठं । तुब्भे धम्मे कयमणा, गिहीहि सव्वारंभपवतेहि तुग्भं घम्मट्ठा दायव्वं ।। ५०६५ ॥ भणियं जायणा णिमंतणा वत्थं । इमं कप्पभणियं पसंगतो भण्णति कप्पति से सागारकडं गहाय ग्रायरियपायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि उग्गहं प्रणुन्नवेत्ता परिहारं परिहरित्तए । ( वृ० क० उ० १ सू० ३६ उत्तरार्धम् ॥ ) दोच्चं पि उग्गहो ति य, केई गिहिएस बितियमिच्छति । सावग ! गुरुणो नयामो, अणिच्छि पच्चाऽऽहरिस्सामो ॥ ५०६६ || दोच्चं पि उग्गहो अणुष्णवेयव्वोत्ति जं सुत्तभणियं एयं केति सच्छंद आयरियदेसिका भति एस दोहो गिहीसु भवति । कहं ? उच्यते - जो देति सावगो, सो वत्तव्त्रो - हे सावग ! एवं वत्थं श्रम्हे घेत्तुं प्रायरियाणं मो, जइ प्राय रिएहि इच्छियं ततो भ्रम्हे पुणो आगंतुं तुब्भे दोच्चं पि उग्गहूं अणुण्णवेस्सामो। एस दोच्चोगहो । ग्रह च्छिहिति प्रायरिया घेत्तुं तो तुब्भं चेव प्राणेउं पच्चप्पिणिस्सामो ||५०६६।। इहरा परिवणिया, तस्स व पच्चष्पिणंते अहिकरणं । गिहिगहणे अहिकरणं, सो वा दट्ठूण वोच्छेदं ।।५०६७॥ जइ एवं ण कप्पति तो "इहर" ति - प्रायरिए प्रगेण्हंते परिद्ववणे दोसा भवंति । ग्रहण परिवेंति तो अप्पडिहारियगहिए तस्सेव पञ्चपिणंते परिभोगघुवणादिसु श्रधिकरणं भवति, परि वियमाणेण वा गित्येण गहिते प्रधिकरणं चेव । अथवा सो दाता परिट्ठवियं, गिहिगहियं वा दठ्ठे, तस्स वा दव्वस्स तस्स वा साहुस्स, भ्रष्णसिं वा वोच्छेदं करेज्जा ॥५०६७॥ आचार्य आह चोयग ! गुरुपडिसिद्ध े, तहिं पउत्थे धरेंत दिण्णं तु । धरणुज्झणे हिकरणं, गेण्हेज्ज सयं च पडिणीयं ॥ ५०६८ || ५८३ चोदक ! एवं कज्जमांणे ते चेव दोसा जे तुमे भणिया, तं वत्थं श्रायरियाणं श्राणियं, तेण प्रायरियाण ण कज्जं - पडिसिद्धमित्यर्थः, तं वत्थं जाव पडिणिज्जति ताव सो गिहत्थो गामंतरं पवेसिश्रो होज्जा, जइ तं परिभुंजति तो प्रदिण्णादाणं पसिज्जति । तस्स संतियं होतं घरेइ तहावि अधिकरणं । श्रध प्रत्तट्ठियं घरेइ तहावि प्रतिरिक्तस्स प्रपरिभोगत्वात् प्रधिकरणं । प्रध उज्झति तहावि गिहिगहियं प्रधिकरणं परिठवणदोसा य । हवा - परिणीयं अप्पणो चेव गेव्हेज्जा - "ण देमि" ति, तम्हा ण एसो दोच्चोग्गहो । इमो दोयोग्गहो - तं वत्थं गिहिहत्याओ वेत्तुं श्रागग्रो प्रायरियस्स पच्चप्पिणति, प्रायरिया जर तस्सेव दलयंति प्रायरियसमीवातो दोच्चोग्गहो भवति ॥५०६८॥ बहिता व णिग्गताणं, जायणवत्थं तहेव जतणाए । निमंतणवत्थ तह चेत्र, सुद्धमसुद्ध ं च खमगादी ||५०६६ || Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र बहिसज्झायभूमी वा निग्गया वत्थं जाएज्जा । तह चेव जयपाए जाएज्जा, णिमंतणवत्यं पि तह चेव दट्टट्वं, चउत्यवेंटलपुव्वपच्छासंथवेण वा देंतस्स असुद्धं, खमगो ति धम्मो त्ति वा काउं देनस्स सुद्ध भवति, ॥५०६६॥ णिगंथाणं वत्थग्गहणं भणियं । इदाणि णिग्गंथीणं भण्णति - णिग्गंथिवत्थगहणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्धाता | मिच्छत्ते संकादी, पसज्जणा जाव चरिमपदं ॥५०७०॥ जइ णिग्गंधीमो गिहत्याणं सगासायो वत्थाणि गेण्हंति तो च उगुरुगा । दणं कोइ गवसदो मिच्छत्तं गच्छेज्जा, "णिग्गंथीयो वि भाडि गिण्हती' ति एवं संकेज्ज । अधवा - एस एतेण सह प्रणायार सेवइ ति संकाए च उगुरु, णिम्संकिते मूलं ॥५०७०।। "'पसज्जणा जाव चरिमपदं" ति अस्य व्याख्या - पुरिसेहिं तो वत्य, गेहंती दिस्स संकमादीया । श्रोभासणा चउत्थे, पडिसिद्ध करेज्ज उडाहं ॥५०७१।। मेहुगढे संकिते का, भोतियाते कहिते , घाडियस्स , गाईणं कधिते छेदो, प्रारक्खिपण सुए . मूलं । सेट्टि सत्यवाह-पुरोहितेहि सुते अगवट्ठप्पो । अमन्चरायादीहि सुते पार चयं । सो वा गिहत्यो वत्थाणि द्वार चउत्थं प्रोभासेग्ज । पडिसिद्ध उड्डाहं करेन, एमा मे वत्थे घेत्तु वुत्तं ण करेति ॥१०७१।। किं चान्यत् - लोभे य आभियोगे, विराहणा पट्टएण दिटुंतो । दायव्व गणधरेणं, तं पि परिक्खिनु जयणाए ॥५०७२॥ "लोभे य" अस्य व्याख्या - पगती पेलवसत्ता, लोभिज्जति जेण तेण वा इत्थी । अवि य हु मोहो दिप्पति, तासिं सहरं सरीरेसुं ॥५०७३॥ . "पंगड'' त्ति सभावो । स्वभावेन च इत्थी प्रल्पसत्वा भवति, सा य अप्पमत्तत्तणमो जेण वा तेण वा वत्थमाविणा अप्पेणावि लोभिजति, दाणलोमिया य अकज्ज पि करेति । अवि य तामो बहुमोहारो। तेसि च पुरिसेहिं सह संलावं करेंतीणं दाणं च गेण्हंतीणं पुरिससंपक्कातो मोहो दिपह, सहरं सरीरेसु । मभिप्रोगो इति कोइ उरालसरीरं संजति दिस्स अभिगोएज्जा, अभिमोइत्ता चरित्तविराहणं करेजा ॥५०७३॥ एत्य पट्टएण दि₹तो कज्जति - वीयरग समीवारांम सरक्खे पुष्फदाण पट्ट गया । णिसि वेल दारपिट्टण, पुच्छा गामेण णिच्छुभणं ॥५०७४॥ एगत्थ गामे "वियरगो' ति कूविया, सा य आरामसमीवे । ततो य इत्थिजणो पाणियं वहइ। तम्मि आरामे एक्को सरक्खो। सो कूवियातडे उरालं अविरइयं दद्रुतीए विजाभिमंतिताणि १गा० ५०७०। : Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५०७०-५०७६ ] पंचदश उद्देशकः ५८५ पुप्फाणि देति । तीए य घरं गंतुणिस्सापट्टए ताणि कुसुमाणि ठवियाणि । ततो ते पुप्फा पट्टयं प्राविसिउ णिसिं प्रद्धरत्तवेलाए घरदारं पितॄति । ततो अगारी णिग्गयो, पेच्छति पट्टगं सपुष्फं। तेण अगारी पुच्छिता किमेयं ति । तीए सब्भावो कहिप्रो, तेण वि गामस्स कहिय, गामेण सो सरक्खो णिच्छूढो ॥५०७४।। जम्हा एते दोसा तम्हा णिगंथीहिं ण घेत्तव्वा वत्या अप्पणा गिहत्येहितो। तासिं गणधरेण दायव्वं परिक्खित्ता, इमेण विहिणा - सत्त दिवसे ठवेत्ता, थेरपरिच्छाऽपरिच्छणे गुरुगा। देति गणी गणिणीए, गुरुग सयं दाण अट्ठाणे ॥५०७॥ संजतिपाउन्र्ग उवहिं उप्पाएत्ता सत्त दिवसे परिवसावेइ । ताहे कप्पं कातूर्ण थेरो थेरी वा धम्मसड्डी वा पाउणाविज्जति । जह णस्थि विगारो सुंदरं, एवं अपरिक्वित्ता जति देइ तो चतुगुरुगं । एवं परिक्खिए "गणि" ति प्रायग्पिो, सो गणिणोए देइ, सा गणिणी तासि देति, पुवुत्तेण विधिणा । अथ प्रप्पणा देति तो चउगुरुगं। काई मंदधम्मा भणेज्जा - "एतीए चोक्खतरं दिष्णं, एसा से इट्ठा जोव्वणट्ठा य।" एवं अट्ठाणे ठविति, तम्हा ण अप्पणा दायन्वं, पवित्तिणीए अप्पेयव्वं ॥५०७५॥ चोदकाह – “यद्येवं सूत्रस्य नैरर्थक्यं प्रसज्यते" । पायरियो आह - असति समणाण चोदग ! जातित-णिमंतवत्थ तध चेव । जायंति थेरि असती, विमिस्सिंगा मात्तिमे ठाणे ॥५०७६॥ हे चोदक ! समणाणं असती थेरियानो वत्ये जायंति, णिमंतणवत्थं वा गेहति, जहा साधू तहा तामो वि। रीणं प्रसती तरुणि वतिमिस्साम्रो जायंति, इमे ठाणे मोत्तुं ॥५०७६।। कावालिए य भिक्खू, सुतिवादी कुवि (च्चि)ए य वेसित्थी । वाणियग तरुण संसट्ठ मेहुले (णे) भोतए चेव ।।५०७७।। माता पिता य भगिणी, भाउग संबंधिए य तह सण्णी। भावितकुलेसु गहणं, असति पडिलोमजयणाए ॥५०७८॥ चउरो दारे एक्कगाहाए वक्खाणेति - अट्ठी विज्जा कुच्छिय, भिक्खू णिरुद्धा तु लज्जतेऽणत्थ । एवं दगसोरि कुच्चिय, सुइ ति य बंभचारित्ता ॥५०७६।। "मट्टि" ति-हड्डसरक्खा ते विज्जाते मंतेण वा अभिप्रोगेज्जा, अण्णं च ते जुगुंछिता। भिक्खुमो गिरुता, दुवक्खरिमादिसु गच्छमाणा लज्जति, अण्णं च ते विपरिणामति । सुती दगसूगरिया। कुच्चंहरा कुच्ची (कुब्वंहरा 'कुन्दी) । एते वि एवं भाणियध्वा जहाभिक्खू । ते .वि दगसोगरिया कुच्चीय (कुम्वीय) भण्णंति - जम्हा एयामो बंभचारिणीमो प्रप्रसवा य तम्हा सुदियायो य ।।५०७६॥ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मूत्र सभाष्य-बूर्णिके निशीथसूत्रे . वेसित्थि मेहुले (णे) एते दो दारे एक्कगाहाए वक्खाणेति - अण्णट्ठवणह जुण्णा, अभियोगे जा व रूविणिं गणिया । मोइय चोरिय दिण्णं, दळु समणीसु उडाहो ॥५०८०॥ जुण्णा वेसित्थी, पप्पणा असत्ता वि ठवेत्तुं स्ववई समणि दटुं भभियोगेज्जा, गणियाठाणे पट्टवेज्जा। मेहुलो (णो) माउलपुत्तो, तेण य पप्पणो मारियाए चोरिएण वत्यं दिणं, तं समणीए पाउमं द8, मा से मोतिया उड्डाहं करेजा, "एसा मे घरभंग करेति" ॥५०८०॥ वणिय तरुण संसट्ठि भोतिगो य चउरो दारे एगगाहाए वक्खाणेति - देसिय वाणिय लोभा, सई दिण्णेणं चिरं च होहित्ति । तरुणुब्भामग भोयग, संका आतोभयसमुत्था ॥५०८१॥ देसिमो वणिनो चितेति - एक्कवार दिण्णेण दाणेण चिरं मे होहिइत्ति अणुबंधिज्जा । उकारमोहत्तणतो तरुणो । संसट्ठो पुन्वमुन्मामगो । मोयगो भत्तारो। एतेसि हत्थाम्रो घेप्पंति संहादिगा य दोसा पसज्जति । मप्पणो तस्स वा उभयस्स वा पुणरवि खोभा अणुबंधो भवेज्जा ॥५०८१॥ सेसदारा एक्कगाहाए वक्खाणेति - दाहामो णं कस्स यि, णियमा सो होहिती सहाओ । सण्णी वि संजयाणं, दाहिति इति विप्परीणामो ॥५०८२॥ मायादिया य सयणा चिर्तेति - एयं उष्णिक्खमावेत्ता कस्स ति दाहामो, सो प्रम्ह इहलोगसहातो. मविस्सति । सप्णी वि विप्परिणामित्ता उण्णिक्खमावेति । एस मे धम्मसहाती होहिति, अण्णं च मे . घरसवंत्ती संबयाणं भत्तादि दाहिति, ममं वा देंतस्स विग्धं ण काहिति, ॥५०८२॥ एते ठाणे वज्जेत्ता जाणि संजतीसु वत्यादिग्गहणे भाविताणि कुलाणि तेसु गिण्हंति । भावितकुलाणं मसति पडिसिद्धठाणेसु सण्णिमादी काउं परिलोमं गेण्हेज्जा, इमाए जयणाए - मग्गंति थेरियाओ, लद्धपि य थेरिया उ गेण्हंति । आगार दर्छ तरुणीण व देते तं न गेण्हंति ॥५०८३॥ जा घेरी धम्मसड्डी गीयत्था अविकारी सा वत्थे प्रोभासति, जाहे य णीणियं दायारेणं ताहे पेरियानो चैव गेण्हंति। अह सो दाता काणच्छिमादी पागारं करेति । अह येरीए हत्थे पसारिए भणति - "ण तुज्झ दलयामि इमाए तरुणीए दलयामि' त्ति तं । गेव्हंति ।।५०८३।। एवमादि दोसविमुक्कं उप्पाएत्ता वसहिमाणीए इमा परिच्छाविधी - सत्त दिवसे ठवेत्ता, कप्पकते थेरिया परिच्छंति । सुद्धस्स होइ धरणं, असुद्ध छेत्तुं परिडवणा ॥५०८४॥ . Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव्यगाथा ५०८०-५०६.] पंचदश उदेशकः ५८७ कंठा चीरुप्पादणविणिग्गताणं पढमवत्ये इमं णिमित्तं गेण्हेज्जा - जं पुण पढम वत्थं, चतुकोणा तस्स होंति लाभाए । वितिरिच्छंऽता मज्झ, य गरहिता चतुगुरू आणा ॥५०८॥ पुब्बदं कंठं । तिरिच्छ जे दो मतिल्ला विभागा मझो य जो विभागो एए, तिणि वि अप्पसत्या। एतेसु प्रायविराहण त्ति काउं चउगुरुगं भवति । बे य दो पासत-दसंत-मज्झविभागा एते वि पसत्या चेव ॥५०५॥ णव भागकए वत्थे, चतुसु वि कोणेसु वत्थस्स । लाभो विणासमण्णे, अंते मज्मेसु जाणाहि ॥५०८६॥ पविभागेण गव भागे कते वत्ये कोणविभागेसु चउसु, तम्मज्झेसु य दोसु, एतेसु छसु अंतविमागेसु लाभो भवति । "विणासमणे" ति प्रणे मझिल्ला तिणि विभागा तेसु विणासं जाणाहि ॥५०६६।। एतेसु विभागेसु इमं दर्छ णिमित्तमादिसेजा - __अंजण-खंजण-कद्दमलित्ते, मूसगभक्खिय अग्गिविदड्ड । तुण्णित कुट्टिय पज्जवलीदे, होति विवागो सुभो असुभो ॥५०८७॥ कुट्टियं पत्थरादिणा, उद्दीढं पज्जवलीढं परिभुज्जमाणं वा खुसियं सुभेसु विभागेसु सुभो विपाको भवति, प्रसुभेसु प्रसुभो ॥५०८७॥ तेसु णवविभागेसु इमे सामी चतुरो य दिग्विया भागा, दोण्णि भागा य माणुसा । आसुरा य दुवे भागा, मझे वत्थस्स रक्खसो ॥५०८८|| कोणभागा चउरो दिग्विता, तेसिं चेव दसंत-पासंत-मज्झग दो भागा माणुसा, सत्रमझे जो सो रक्खसो, सेसा दो मासुरा ॥५०८८॥ एतेसु विभागेसु इमं फलं - दिव्वेसु उत्तमो लाभो, माणुसेसु य मज्झिमो। आसुरेसु य गेलण्णं, मज्झे मरणमाइसे ॥५०८६॥ कंठा जं किं चि भवे वत्थं, पमाणवं सम रुचि थिरं नि । परदोसे निरुवहतं, तारिसयं खु भवे धणं ॥५०६०॥ पमाणतो ण हीणं णातिरित्तं सुत्र्तण समं प्रकोणगं वा कोणेहि समं । अहवा - प्रमाणतो समं प्रमाणयुक्तमित्यर्थः । रुहकारगं रुई, चिरंति दढं, णिदं सतेयं ज रुक्लंग। भवइ, परदोसा संजणादिया । Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १००-११९ अघवा - परदोसा दायगदोसा, तेहिं विवज्जितं, "वणं" ति सलख उणं लक्खणजुत्तं गाणादीणि प्रावहति । विवरीते विवज्जतो। तेण लक्खणजुतं वत्यं इच्छिज्जइ ॥५०६०॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पादे आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जतं वा पमजंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१०॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पादे संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संबाहेंतं वा पलिमद्दतं वा सातिज्जति ॥०॥१०१॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पादे तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्खेंतं वा भिलिंगतं वा सातिज्जति।।सू०॥१०२॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पादे लोद्धेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वदृज्ज वा, उल्लोलतं वा उन्बट्टेतं वा सातिज्जति ॥०॥१०३॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पादे सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१०४॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पादे फूमेज्ज वा रएज्ज वा - फूतं वा यंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१०॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१०६॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्य संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संबाहेंतं वा पलिमदे॒तं वा सातिज्जति ।।सू०॥१०७॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्य तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्खेतं वा भिलिंगेतं वा सातिज्जति ॥सू०।१०८॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायं लोद्धण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वदृज्ज वा, उन्लोलेंतं वा उव्वदे॒तं वा सातिज्जति ॥०॥१०६॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्य सीओदगवियडेण वा Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ५०६.] पंचदश उद्देशक: ५८६ उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥सू०।११०॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्य मेज्ज वा रएज्ज वा, फूमंतं वा रयंतं वा सातिज्जति ॥२०॥१११॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि वणं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा ।। __ आमजंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥११२॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायंसि वणं संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संबाहेंतं वा पलिमहेंतं वा सातिज्जति ॥१०॥११३।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि वणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज वा मिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा मिलिंगेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥११४॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि वणं लोण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उबद्वेज्ज वा उन्लोलेंतं वा उव्वटेंतं वा सातिज्जति ॥०॥११॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि वणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥११६॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायंसि वणं फूमेज्ज वा रएज्ज वा, फूमंतं वा रयंतं वा सातिज्जति ॥०॥११७॥ जे भिक्खू विभुसावडियाए अप्पणो कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं का असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिंदेज्ज वा विच्छिंदेज्ज वा अच्छिदंतं वा विच्छिदंतं वा सातिज्जति ॥०॥११८|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा, अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता वा विञ्छिदित्ता वा पूर्व वा सोणियं वा नीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, नीहरतं वा विम्गेहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०||११६।। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १२०-१५ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगंवा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा, अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदेत्ता विच्छिदेत्ता पूर्व वा सोणियं वा नीहरेत्ता विसोहेत्ता सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥०॥१२०॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा, अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता विच्छिदित्ता पूर्व वा सोणियं वा नीहरेत्ता विसोहेत्ता सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेता पधोयेत्ता अन्नयरणं आलेवणजाएणं आलिंपेज वा विलिंपेज्ज वा आलिंपतं वा विलिपंतं वा सातिज्जति ॥२०॥१२१॥ जे भिक्चू विभूमावडियाए अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा . अमियं वा भगंदलं वा, अन्नपूरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता . विच्छिदित्ता पूर्व वा सोणियं वा. गेहरेत्ता विसोहेत्ता सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छ' ता पधोएत्ता अन्नयरेणं आलेवणजाएणं आलिपेत्ता विलिपेत्ता तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अभंगेतं वा मक्वंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१२२॥ जे भिवम्बू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा, अन्नयरेणं तिक्खणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता विच्छिदित्ता पूर्ण वा सोणियं वा नीहरेत्ता विसोहेत्ता सीअोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेत्ता पधोएता अन्नयरेणं आलेवणजाएणं आलिंपित्ता विलिंपित्त. तेल्लेण का पएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेली मवेत्ता अन्नयरेणं धवणजाएणं धूवेज्ज वा पधवेज्ज वा ध्वंतं वा पध्वंतं वा सातिज्जति ॥१०॥१२॥ . Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाध्यगाथा ५ भाध्यगाथा ५०६०] पंचदश उद्देशक: ५६१ जे मिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पालुकिमियं वा कुच्छिकिमियं वा अंगुलीए निवेसिय निवेसिय नीहरेइ, नीहरतं वा सातिज्जति सू०॥१२४॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहात्रो नहसिहाओ कप्पेज्ज वा संठवेज वा कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥८॥१२॥ जे भिक्ख् विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई जंघरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥०॥१२६।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई कक्खरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्त वा संठवेतं वा सातिज्जति ॥२०॥१२७।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाइं मंसुरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१२८॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई वत्थिरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥२०॥१२६॥ जे मिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई चक्खुरोमाइं कप्पेज्ज वा संठवेज वा । कप्तं वा संठवेत वा सातिज्जति ॥सू०॥१३०॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दंते आघसेज्ज वा पसेज्ज वा, आघसंतं वा पसंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१३१।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दंते उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥२०॥१३२॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दंते मेज्ज वा रएज्ज वा, फूमंतं वा रयंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१३३।। . जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो उढे आमज्जेज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जतं वा सातिजति ॥२०॥१३४॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो उढे संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संबाहेंतं वा पलिमदेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१३॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो उढे तेल्लेण वा पएण वा वसाए वा Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ सभाष्य-चूगिके निशीथसूत्र [ मूत्र १३६ - १५२ - णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा सातिज्जति । सू०॥१३६।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो उट्टे लोण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा . उव्वडेज्ज वा उल्लोलतं वा उबट्टतं वा सातिज्जति।।२०।।१३७॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो उढे सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१३८।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो उढे मेज वा रएज्ज वा, फूमंतं वा रयंतं वा सातिज्जति ॥०॥१३६॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई उत्तरोट्ठाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा . कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१४०॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई अच्छिपत्ताई कप्पेज्ज वा संठवेज वा कप्तं वा संठवेतं वा सातिज्जति ॥५०॥१४१।। जे भिक्खू विभुसावडियाए अप्पणो अच्छीणि आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज क __ आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१४२।। ज भिक्खू विभूमावडियाए अप्पणो अच्छीणि संबाहेज्ज वा पलिमदेज्ज वा संबाहेंतं वा पलिमद्दत वा सातिज्जति ॥मू०॥१४३!! जे भिक्खू विभुसावडियाए अप्पणो अच्छीणि तेल्लेण वा घएण का वमाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्खेंतं वा भिलिंगेतं वा सातिज्जति ।।मू०॥१४४॥ जे भिक्खू विभुसावडियाए अप्पणो अच्छीणि लोद्रेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वदे॒ज्ज वा उल्लोलेंतं वा उबट्टेतं वा सातिज्जति ॥मू०।।१४।। जे भिक्खू विभसावडियाए अप्पणो अच्छीणि सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥२० १४६॥ . Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायगाथा ५०९०-५ पंचदश उद्देशक: ५६३ जे भिक्खू विमसावडियाए अप्पणो अच्छीणि मेज्ज वा रयेज्ज वा फूमतं वा रयंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१४७॥ जे भिक्खू विभसावडियाए अप्पणो दीहाई भुमगरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा ___ कप्पंतं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१४८॥ जे भिक्खू विभसावडियाए अप्पणो दीहाई पासरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्पंतं वा संठवेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१४६।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा नहमलं वा नीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा नीहरतं वा विसोहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१५०।। जे मिक्खू विभसावडियाए अप्पणो कागो सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वा नीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा. नीहरेंतं वा विसोहेंतं वा सातिज्जति ॥०॥१५१।। जे. मिक्खू विभसावडियाए गामाणुगामं दूइज्जमाणे श्रप्पणो सीसवारियं ' करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१५२॥ जे भिक्ख विभूसावडियाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अभयरं उवगरणजायं धरेइ, धरेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१५३।। जे भिक्खू विभूसावडियाए बत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपंछणं वा अनयरं वा उवगरणजायं धोवेइ, धोवंतं वा सातिजति।।सू०॥१५४॥ तं सेवमाणे पावज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं । अभिवायू विभूमापडिवत्यं इत्यादि, तं विभूमाए प्रामे वतस्स चउलहं पच्छित्तं । पादप्पमज्जणादी, सीसवारा उ जाव उवहिति । जे कुज्ज विभूमट्ठा, वत्थादि धरेज्ज वाऽणादी ।।५०६१॥ प्राणादी जे जहि संभवंति ते तहि भाणियध्वा दोसा इयरह वि ता ण कप्पति, पादादिपमज्जणं किमु विभूसा । देहपलोगपसंगो, माता उच्छोलगमणादी ।।५०६२॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र सूत्र-१५४ इयरह त्ति - विणा विभूसाए, जो विभूसाए पादेसु पमज्जणादी करेति सो तेणेव पसंगेण देहपलोयणं करेज्जा, तहेव सायपडिबद्धयाए उच्छोलणादिसु देसे सव्वे वा पयट्टति, तप्पसंगे य पडिगमणादीणि करेजा ॥२०६२॥ एमेव य उवगरणे, अभिक्खधुवणे विराहणा दुविधा । संका य अगारीणं, तेणग मुहणंतदिटुंतो ॥५०६३।। मभिक्खा पुणो पुणो। दुविधा प्रायसंजमविराहणा संका य। जहा एस सरीरोवकरणबाउसो दीसति तहा से पाणं कोइ पसंगो वि अस्थि, एवं अविरता सकंति । उज्जलोवहिते य तेणगमुहणंतगदिदंतोएगे पायरिया बहुसिस्सबहागमा एगेण रण्णा कंबलरयणेण पडिलाभिता भणिता य - "पाउतेण य णिग्गच्छह ।" ते पाउणं णिग्गच्छंता तेणगेहिं दिट्ठा । वसहिं गंतु मुहणंतगा कया। तेणगा वि रामो आगता, देह त कंबलरयणं, दंसिया य तेहि एतेसु मुहणंतगा कया, तेणगेहिं रुट्टेहि सिव्वावेतु मुक्का । जम्हा एते दोसा तम्हा ण विभूसाए धरियव्वं ।। ५७६३॥ सन्वेसिं सुत्ताण इमं बितियपदं जहासभवं भाणियव्वं - बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झ वा वि दुविध तेइच्छे। अभिोग असिव दुभिक्खमादिसू जा जहिं जयणा ॥५०६४॥ प्रणवज्झो खित्तादिगो सेहो वा प्रजाणतो, असेहो वि दुविहमोहतिगिच्छाए प्रणिमित्त सणिमित्त वा मोहोदए, रायादि अभियोगेण वा, मसिवे वा, असिवोवसमणिमित्तं, दुभिवखे वा कुचेलस्स ण लब्भति ति सिंधुमालवगादिसु तत्थुज्जलोवधिधरणं करेज्ज, एवमादिपयोयणेसु उज्जलोवधिधरणं करेंतस्स जा जहिं जयणा संभव त सा कायव्वा ।।५०६४|| रविकरमाभधाणक्खरसत्तमवग्गंतअक्खरजुएणं । णामं जस्सित्थीए, सुतेण तस्से कया चुण्णी ॥१॥ ॥ इति विसेस-निसीहचुण्णीए पण्णरममो उद्देसो सम्पत्तो । Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पस्तक परिचय निशीथ-भाष्य एक महत्त्वपूर्ण विशालकाय आगम है। उसमें आचार के सभी अंगों का जीवन एवं देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार सांगोपांग वर्णन किया गया है। आचार के साथ दर्शन, तत्त्व-ज्ञान एवं उस समय की सारंकृतिक, राजनैतिक, सामाजिक स्थिति का, रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि सभ्यता का भी विस्तृत वर्णन मिलता है। वस्तुत: निशीथ, एक ज्ञान-कोष है। जो अब तक अलभ्य था। उपाध्याय श्री अमरमुनि जी एवं सहयोगी पं0 मुनि श्री कन्हैयालाल जी महाराज जी द्वारा इसका संपादन तथा सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा द्वारा प्रकाशन हुआ था। उक्त संपादित निशीथ पर कुछ रिसर्च स्कॉलर पी0 एच0 डी0 भी कर चुके हैं। भारत के मूर्धन्य विद्वानों एवं विशेष कर जर्मनी के कई पुरकालयों एवं विद्वानों की ओर से निरन्तर निशीथ की मॉग आ रही है, उसकी संपूर्ति के लिए 'निशीथ-सुत्रम्' का द्वितीय संस्करण मुद्रित किया गया था। प्रस्तुत आगम पर स्थविर पुंगव श्री विसाहगणी महत्तर का भाष्य और आचार्य प्रवर श्री जिनदास महत्तर की विशेष चूर्णि भी प्रकाशित हो रही है। सुप्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् पं0 दलसुख मालवणिया, अहमदाबाद 'निशीथ: एक अध्ययन' तथा सुप्रसिद्ध शोधकर्ता बी० बी० रायनाडे (उज्जैन) द्वारा इंग्लिश में लिखित समालोचनात्मक विस्तृत प्रस्तावना भी साथ में संलग्न है। पुस्तक की विद्वानों द्वारा मांग पर हमने इसका तृतीय संस्करण की कुछ प्रतियां छापी है ताकि गुरुदेव जी का नाम अमर रहे। प्रस्तुत ग्रन्थ चार भागों में डेमी साइज 8 पेजी लगभग 2000 पृष्ठ। तृतीय संस्करण मूल्य: 1000 रू Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ardha Magadhi Ditionary : (Illustrated): Literary Philosophic and Scientific by Shatabdhani Rattan Chand ji maharaj, (Complete in Five Vols. ) with Introduction by A. C. Woolner (in original size), 1988 7500/श्रीमद्वादिदेवसूरिविरचित : - स्याद्वादरत्नाकरः / 800/जैन दर्शन - (सम्यक ज्ञान दर्शन चरित्र के परिप्रेक्ष्य में) डॉ० साध्वीसुभाषा 500/जैन साहित्य में युवाचार्य मधुकर मुनि का योगदान - आर्या चन्द्रप्रभा आभा श्री 250/Jain Philosophy - (Religion and Ethics)-Prof. B.B. Rayanade, Demy 8 Vo. 2001 395/प्राकृतसूक्ति-कोश - मुनिचन्द्रप्रभसागर-2002 शौरसेनी प्राकृतभाषा और व्याकरण - प्रो० प्रेमसुमन जैन / 125/कुन्दकुन्दाचार्य की प्रमुख कृतियों में दार्शनिक दृष्टि - डॉ० सुषमागांग 60/प्राकृतचन्द्रिका (Prakrtacandrika) : प्रभाकर झा 25/भारतीय दर्शन परम्परायां जैनदर्शनाभ्मित-दे व तत्त्वम् (Bharatiyadarsana Paramparayam Jainadarsanabhimata Devatattvam): डॉ० दामोदर शास्त्री, 1985 250/ 150/ अमर पब्लिकेशन्स सी० के० 13/23 सती चौतरा, वाराणसी। फोन 2392378