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________________ ' आधाकर्म आहार का उत्सर्ग और अपवाद २५ ) उत्सर्ग मार्ग में प्रधाकर्मिक आहार भिक्षु के लिए अभक्ष्य कहा गया है ।" वह भिक्षु की कल्पमर्यादा में नहीं है । परन्तु कारणवशात् अपवाद मार्ग में वह प्राधाकर्म आहार भी अभक्ष्य नहीं रहता । सूत्रकृतांग सूत्र का अभिप्राय है, कि पुष्टालंबन की स्थिति में प्रधार्मिक श्राहार ग्रहण करने वाले भिक्षु को एकान्त पापी कहना भूल है । उसे एकान्त पापी नहीं कहा जा सकता ।" आचार्य शीलांक, उक्त सूत्र पर विवरण करते हुए स्पष्ट लिखते हैं कि " अपवाद दशा में श्रुतोपदेशानुसार श्राधा कर्म आहार का सेवन करता हुआ भी साधक शुद्ध है, कर्म से लिप्त नहीं होता है । ग्रतः एकान्त रूप में यह कहना कि "आधाकर्म से कर्मबन्ध होता ही है, ठीक नहीं । ६३ निशीथ भाष्य में भी दुर्भिक्ष यादि विशेष अपवाद के प्रसंग पर प्रधाकर्म आहार ग्राह्य बताया गया है । ६ 3 संथारे में आहार ग्रहण का अपवाद किसी भिक्षु ने भक्त प्रत्याख्यान ( संथारा) कर लिया है अर्थात् प्रहार ग्रहण का जीवन भर के लिए त्याग कर दिया है। शिष्य प्रश्न करता है - "भंते ! कदाचित् उस भिक्षु को क्षुधा सहन न कर सकने के कारण उत्कट समाधिभाव हो जाए, और वह भक्त पान मांगने लगे तो उसे देना चाहिए, कि नहीं ?" व्यवहार भाष्य वृत्ति में इस का सुन्दर समाधान दिया गया है । प्राचार्य मलयगिरि कहते हैं- “भिक्षु को असमाधि भाव हो ग्राने पर यदि वह स्थिरचित्त न रहे और भक्त - ६० - जे भिक्खू प्राहाकम्मं भुजइ, भुजंतं वा सातिज्जइ । - निशीध सूत्र १०, ६ ६१ - ग्रहाकम्माणि भुंजंति, अण्णमण्णे सकम्मुणा । उवलिते ति जाणिज्जा, भण्वलित्ते ति वा पुणो ||८|| एएहि दोहि ठाणेहि वत्रहारो न विज्जइ । एएहि दोहि ठाणेहि, श्रणायारं तु जाणए ||६|| Jain Education International सूत्र० २,५ ६२ -- माघाकर्माऽपि श्रुतोपदेशेन शुद्धमिति कृत्वा भुञ्जान: कर्मणा नोपलिप्यते । तदाधाकर्मोपभोगेनावश्यकर्मबन्धो भवति इत्येवं नो वदेत् । -टीका ६३ - सिवे प्रोमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे । श्रद्वाण रोहए वा धिति पडुच्चा व माहारे ॥ - निशीथ माध्य, गाथा २६६४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001830
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages644
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_nishith
File Size10 MB
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