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________________ । २६ ) पान मांगने लगे तो उसे भक्त पान अवश्य दे देना चाहिए। क्योंकि उसके प्राणों का रक्षा के लिए पाहार कवच है।"१४ शिष्य पूछता है, कि- "त्याम कर देने पर भी भक्त-पान क्यों देना चाहिए ?" ५५ प्राचार्य कहते हैं “भिक्ष की साधना का लक्ष्या है, कि वह परीषह की सेना को मनःशक्ति से, वचःशक्ति से और काय-शक्ति से जीते। परीषह. सेना के साथ युद्ध वह तभी कर सकता है. जब कि समाधि-भाव रहे। और भक्त पान के विना समाधि भाव नहीं रह सकता है। अतः उसे कवचभूत प्राहार देना चाहिए !"" शिष्य प्रश्न करता है-"भंते ! संथारा करने वाले भिक्षु के द्वारा भक्त-पान ग्रहण कर लेने पर यदि कोई आग्रही निन्दा करे, तो क्या होता है ? ___प्राचार्य कहते हैं- “जो उसकी निन्दा करता है,जो उसकी भत्सना करता है, उसको चार मास का गुरु प्रायश्चित्त प्राता है।" पशुभों के बन्धन-मोचन का उत्सर्ग और अपवाद भिक्षु प्रात्म-साधना में एक धारा से सतत निरत रहने वाला साधक है। वह गृहस्थ के संसारी कार्यों में किसी प्रकार का भी न" भाग लेता है, और न उसे ठीक ही समझता है। वह गृहस्थ के घर पर रहकर भी जल में कमल के समान सर्वथा निलिप्त रहता है । अत एव भिक्षु को गृहस्य के यहाँ बछड़े प्रादि पशुओं को न बांधना चाहिए और न खोलना चाहिए। यह उत्समें मार्ग है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि भिक्ष की साधना एक चेतना-शून्य जड़ साधना है। अतः कैसी भी दुर्घटना हो, वह अनुकम्पाहीन पत्यर की मूरत बन कर बैठा रहेगा । कल्पना ६४-प्रशने पानके च याचिते, तस्य भक्तपानात्मकः कवचभूत माहारो वातव्यः । व्यवहार भाष्य वृत्ति उ० १० गा० ५३३ ६५-पथ कि कारणं, प्रत्यारयाय पुनराहारो दीयते ? ६६-हंदि परीमहाचमू, जोहेयया मणेण काएण । तो मरण- देसकाले कवयभूमो उ माहारो॥ -व्यवहार भाष्य, २०, १० मा० ५३४ परीषह सेना मनसा कायेन (वाचा ब) योन बेतव्या। तस्याः पराजयनिमितं मरणदेशकामे (मरण समये) गोषस्य कवचस्त प्राहारो दीयते। -- व्यवहार भाष्य वृत्ति __६७-यस्तु तं मतपरिज्ञाव्यावातवन्तं खिसति । ( भक्तप्रत्यास्यान प्रतिभग्न एष इति ) तस्व प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा अनुयाता गुरुका: । व्यवहार भाष्य वृत्ति १० उद्देश, गा• ५५१, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001830
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages644
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_nishith
File Size10 MB
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