________________
प्राचारांग सूत्र में समर्थ तथा तरुण भिक्षु को एक पात्र ही रखने की प्राज्ञा है,५४ अतएव प्राचीन काल का मात्रक, तथैव आज कल के तीन या चार पात्र अपवाद ही हैं।
निशीथ चूर्णिकार ने ग्लानादि कारण से ऋतुबद्ध एवं वर्षाकाल के उपरान्त एक स्थान पर अधिक ठहरे रहने को भी परिग्रह का कालकृत अपवाद ही माना है।"
यदि कोई भिक्षु विषग्रस्त हो जाए, तो विष निवारण के लिए, सुवर्ण घिसकर उसका पानी विष-रोगी को देने का भी वर्णन है । यह सुवर्ण-ग्रहण भी अपरिग्रह का अपवाद है ।५६
भिक्षु को यथाशास्त्र निर्दिष्ट पात्र ही रखने चाहिएं, यदि अधिक रखता है, तो वह परिग्रह है । परन्तु दूसरों के लिए सेवाभाव की दृष्टि से अतिरिक्त पात्र रख भी सकता है । ५. ।
पुस्तक, शास्त्र वेष्टन, लेखनी, कागज, मसि, आदि भी परिग्रह ही है, क्योंकि ये सब भिक्षु के धर्मोपकरण में परिगणित नहीं हैं । परन्तु चिरकाल से ज्ञान के साधन रूप में अपरिग्रह का अपवाद मानकर इनका ग्रहण होता रहा है। गृह-निषद्या का उत्सर्ग और अपवाद
__ भिक्षु, गृहस्थ के घर पर नहीं बैठ सकता, यह उत्सर्ग-मार्ग है । प्रत्येक भिक्षु को इस नियम का कठोरता के साथ पालन करना होता है।५८
परन्तु जो भिक्षु जराभिभूत वृद्ध है, रोगी है, अथवा तपस्वी है, वह गृहस्थ के घर बैठ सकता है। वह गृहनिषद्या के दोष का भागी नहीं होता।
५४-तहप्पगारं पायं जे निंग्गंथे तरुणे जाव थिरसंघयणे से एग पाय घरेज्जा, नो बिइयं
-प्राचा० २, १, ६, १, १ ५५-गिलाणो सो विहरिउमसमत्थो, उउबद्धं वासियंदा अइरित्तं वसेज्जा । गिलाणपडियरगा वा ग्लानप्रतिवद्धत्वात अतिरित्तं वसेज्जा।
-- निशीथ चूर्णि, भाष्यगाथा ४०४ ५६-विषग्रस्तस्य सुवर्ण कनकं तं वेत्तु घसिऊण विषणिग्घायणट्ठा तस्स पाणं दिज्जति, अतो गिलाणट्ठा पोरालिय ग्रहणं भवेज्ज ।
-निशीथ चूर्णि, भाष्य गाथा ३६४
५७- कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अइरेगपडि गहं अन्नमन्नस्स अट्ठाए धारेत्तए, परिम्गहित्तए वा......"
- व्यवहार सूत्र ८, १५
- तश. ३, ४ । दश० ६, ८
५८-गिहन्तरनिसेज्जा य......... ५६-तिण्हमन्नयरागस्स, निसिबा जस्म कप्पह
जराए अभिभूयस्स, वाहिमस्स तवस्सिणो ।
-देश
६, ६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org