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ही चला जाता है । अपवाद की धारा तलवार की धारा से भी कहीं अधिक तीक्ष्ण है । इस पर हर कोई साधक, और वह भी हर किसी समय नहीं चल सकता । जो साधक गीतार्थ है, आचारांग आदि आचार संहिता का पूर्ण अध्ययन कर चुका है, निशीथ सूत्र आदि छेद सूत्रों के सूक्ष्मतम मर्म का भी ज्ञाता है, उत्सर्ग और अपवाद पदों का अध्ययन ही नहीं, अपितु स्पष्ट अनुभव रखता है, वही अपवाद के स्वीकार या परिहार के सम्बन्ध में ठोक-ठीक निर्णय दे सकता है।
जिस व्यक्ति को देश का ज्ञान नहीं है कि यह देश कैसा है, यहां की क्या दशा है, यहां क्या उचित हो सकता है और क्या अनुचित, वह गीतार्थ नहीं हो सकता।
काल का ज्ञान भी आवश्यक है । एक काल में एक बात संगत हो सकती है, तो दूसरे काल में वही असंगत भी हो सकती है । क्या ग्रीष्म और वर्षा काल में पहनने योग्य हलके-फुलके वन शीतकाल में भी पहने जा सकते हैं ? क्या शीतकाल के योग्य मोटे ऊनी कंबल जेठ की तपती दुपहरी में भी परिधान किए जा सकते हैं ? यह एक लौकिक उदाहरण है। साधक के लिए भी अपनी व्रत-साधना के लिए काल की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता का परिज्ञान अत्यावश्यक है।
व्यक्ति की स्थिति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । दुर्बल और सबल व्यक्ति की तनुस्थिति और मनः स्थिति में अन्तर होता है। सबल व्यक्ति बहुत अधिक समय तक प्रतिकूल परिस्थिति से संघर्ष कर सकता है, जब कि दुर्बल व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता। वह शीघ्र ही प्रतिकूलता के सम्मुख प्रतिरोध का साहस खो बैठता है। अतः साधना के क्षेत्र में व्यक्ति की स्थिति का ध्यान रखना भी आवश्यक है । देश और काल आदि की एकरूपता होने पर भी, विभिन्न व्यक्तियों के लिए रुग्णता या स्वस्थता आदि के कारण स्थिति अनुकूल या प्रतिकूल हो सकती है। यही बात व्यक्ति के लिए उपयुक्त द्रव्य की भी है। क्या मोटा ऊनी कंबल साधारणतया जेष्ठ मास में अनुपयुक्त होने पर भी, उसी समय में, ज्वर (पित्ती उछलने पर) की स्थिति में उपयुक्त नहीं हो जाता है ? किबहना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता के कारण विभिन्न स्थितियों में विभिन्न परिवर्तन होते रहते हैं । उन सब स्थितियों का ज्ञान गीतार्थ के लिए आवश्यक है। जिस प्रकार चतुर व्यापारी प्राय और व्यय की भली भाँति समीक्षा कर के व्यापार करता है, और अल्प व्यय से अधिक लाभ उठाता है, उसी प्रकार गीतार्थ भी अल्प दोष सेवन से यदि ज्ञानादि गुणों का अधिक लाभ होता हो, तो वह कार्य कर लेता है, मौर दूसरों को भी इसके लिए देशकालानुसार उचित निर्देशन कर सकता है।
१६ - सुकादी-परिसुदे, सइ लाभे कुणइ वाणिप्रो चिट्ठ। एमेव य गोयत्यो, प्राय दद्दु समायरइ ।।६५२।।
-वृहत्कल्पमाष्य
१ एवमेव च गीतार्थोऽपि ज्ञानादिक 'माय' लाभं दृष्ट्या प्रलम्बाधकल्प्यप्रतिसेवा समाचरति, नान्यथा ।
वृहत्कल्प भाष्य वृत्ति, गा० ९५२
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