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________________ ( १२ ) गीतार्थ के लिए एक और महत्त्वपूर्ण बात है-यतना की। उत्सर्ग में तो यतना अपेक्षित है ही, किन्तु अपवाद में भी यतना की बहुत अधिक अपेक्षा है । अपवाद में जब कभी चालू परम्परा से भिन्न यदि किसी प्रकल्प्य विशेष के सेवन का प्रसंग पाजाए, तो वह यों ही विवेकमूढ होकर अंधे हाथी के समान नहीं होना चाहिए। अपवाद में विवेक की आँखें खुली रहनी आवश्यक हैं। उत्सर्ग की अपेक्षा भी अपवादकाल में अधिक सजगता चाहिए। यदि यतना का भाव रहता है, तो अपवाद में स्खलना की आशङ्का नहीं रहती है। यतना के होते हुए उल्लुण्ठ वृत्ति कथमपि नहीं हो सकती। २०यतना अपने आप में वह अमृत है, जो दोष में भी गुण का प्राधान कर देता है। प्रकल्प्य सेवन में भी यदि यतना है. यतना का भाव है, तो इसका अर्थ है कि अकल्प्य-सेवन में भी संयम है। आखिर यतना और है क्या, संयम का ही तो दूसरा व्यवहारसिद्धरूप यतना है । अत: सच्चा गीतार्थ वह है, जो उत्सर्ग और अपवाद में सर्वत्र पतना का ध्यान रखता है। उसका दोष-वर्जन भी यतना के साथ होता है, और दोष-सेवन भी यतना के साथ । जीवन में सब पोर यतना का प्रकाश साधक को पथभ्रष्ट होने से बचाए रखता है। __प्राचार्य भद्रबाहु और संघदास नणी ने गीतार्थ के गुणों का निरूपण करते हुए कहा है :-"जो आय-व्यय, कारण-अकारण, आगाढ ( ग्लान)-अनागाढ, वस्तु-अवस्तु, युक्तप्रयुक्त, समर्थ-असमर्थ, यतना-अयतना का सम्यग् ज्ञान रखता है, और साथ ही कर्तव्य कर्म का फल परिणाम भी जानता है, वह विधिवान्-गीतार्थ कहलाता है ।"२) ___ अपवाद के सम्बन्ध में निर्णय देने का, स्वयं अपवाद सेवन करने और दूसरों से यथापरिस्थिति अपवाद सेवन कराने का समस्त उत्तरदायित्व गीतार्थ पर रहता है। अगीतार्थ को स्वयं अपवाद के निर्णय का सहज अधिकार नहीं है। वह गीतार्थ के निरीक्षण तथा निर्देशन में ही यथावसर अपवाद मार्ग का अवलम्बन कर सकता है। प्रस्तुत चर्चा में गीतार्थ को इतना अधिक महत्त्व क्यों दिया जाता है ? इसका एक'मात्र समाधान यह है कि कर्तव्य की चारुता और अचारुता, अथवा सिद्धि और असिद्धि, अन्ततः कर्ता पर ही आधार रखती है। यदि कर्ता अज्ञ है, कार्य-विधि से अनभिज्ञ है, तो देश, काल और साधन की हीनता के कारण अन्ततः कार्य की हानि ही होगी, सिद्धि नहीं। और यदि कर्ता विज्ञ है, कार्य-विधि का मर्मज्ञ है, तो वह देश, काल और साधनों के प्रोवित्य का भलो भाँति ध्यान रखेगा, फलतः अपने अभिलषित कार्य में सफल ही होगा, असफल नहीं । २२ २०-जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालिणी चेव । तबुडिकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा ॥७६६॥ जयणाए वट्टमाणो, जीवो सम्मत्त-णाण चरणाण । सद्धा-ब्रोहाऽऽसेवणभावणाऽराहो भणिप्रो ॥१७०॥ -उपदेशपद २१-आयं कारण गाढं, वत्थु जुत्तं ससति जयणं च । सव्वं च सपडिवक्खं, फलं च विधिवं वियाणाह ॥५१॥ -बृहत्कल्प निर्यक्ति, भाष्य, २२.--संपत्ती य विपत्ती, य हो कज्जेसु कारग पप्प । अणुवायतो विवत्ती, संपत्ती कालुवाएहिं ।।६४EL -बृहत्कल्प भाष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001830
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages644
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_nishith
File Size10 MB
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