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ऋषि ने कहा - "कोई हर्ज नहीं । जुठा है तो क्या है, आखिर पेट तो भरना ही है । आपत्ति काल में कैसी मर्यादा ? " आपत्ति काले मर्यादा नास्ति ।"
ऋषि ने जूठा अन्न ले लिया, एवं एक ओर वहीं बैठ कर खा भी लिया । जब चलने लगे, तो पीलवानों ने कहा- "महाराज, जल भी पी जाइए"। इस पर ऋषि ने कहा - " जल जूठा है, मैं नहीं पी सकता" ।
इतना सुनना था कि सब-के-सब पीलवान् ठहाका मारकर हंस पड़े। कहने लगे-"महाराज ! अन्न पेट में पहुंचते ही, मालूम होता हैं, बुद्धि लौट आई है। भला, आपने जो ग्रन्न खाया है, क्या वह जूठा नहीं था ? अत्र पाना पीने में जूठे—सुच्चे का विचार किस आधार पर कर रहे हो ?"
ऋषि ने शान्तभाव से कहा - "बन्धुप्रो, तुम्हारा सोचना ठीक है । परन्तु मेरी एक मर्यादा है । न प्रन्यत्र मिल नहीं रहा था, और इधर मैं भूख से इतना अधिक व्याकुल था कि प्राण कंठ में आ लगे थे, और अधिक सहन करने की क्षमता समाप्त हो चुकी थी । ग्रतः मैंने जूठा अन्न ही अपवाद की स्थिति में स्वीकार कर लिया । ग्रब रहा जल का प्रश्न ? वह तो मुझे मेरी मर्यादा के अनुसार अन्यत्र शुद्ध ( सुच्चा ) मिल सकता है। अतः मैं व्यर्थ ही जूठा जल क्यों पीऊ ?"
उत्सर्ग और प्रपवाद कब और किस सीमा तक ? इस प्रश्न का कुछ-कुछ समाधान ऊपर के कथानक से हो जाता है । संक्षेपमें जब तक चला जा सकता है, तब तक उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना चाहिए। और जबकि चलना सर्वथा दुस्तर हो जाय, दूसरा कोई भी इधरउधर बचाव का मार्ग न रहे, तब अपवाद मार्ग पर उतर आना चाहिए। और ज्योंही स्थिति सुधर जाए, पुनः तत्क्षण उत्सर्ग मार्गपर लौट प्राना चाहिए ।
उत्सर्ग और अपवाद के अधिकारी
उत्सर्गं मार्गं सामान्य मार्ग है, अतः उस पर हर किसी साधक को सतत चलते रहना है । " गीतार्थ को भी चलना है, और प्रगीतार्थं को भी। बालक को भी चलना है, और तरुण तथा वृद्ध को भी । स्त्री को भी चलना है, और पुरुष को भी। यहां कौन चले और कौन नहीं, इस प्रश्न के लिए कुछ भी स्थान नहीं है । जब तक शक्ति रहे, उत्साह रहे, आपत्ति काल में भी किसी प्रकार की ग्लानि का भाव न आए, धर्म एवं संघ पर किसी प्रकार का उपद्रव न हो, अथवा ज्ञान दर्शन चारित्र की क्षति का कोई विशेष प्रसंग उपस्थित न हो तब तक उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना है, अपवाद मार्ग पर नहीं ।
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परन्तु अपवाद मार्ग की स्थिति उत्सगं से भिन्न है। अपवाद मार्ग पर कभी कदाचित्
१८ - सखुड्डुग· वियत्ताणं, वाहियाणं च जे गुणा ।
अखंड sफुडिया कायव्वा, तं सुणेह जहा तहा ।।
- दश०. ६, ६
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