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प्रौषधि का सेवन करता है, अथवा रोग की समाप्ति हो जाने पर भी रोगी होने का नाटक खेलता रहता है, वह मक्कार है, कर्तव्य-भ्रष्ट है । इस प्रकार के अकर्मण्य व्यक्ति अपने आप भी विनष्ट होते हैं और समाज को भी कलंकित करते हैं। यही दशा उन साधकों की है, जो बात-बात पर उत्सर्ग मार्ग का परित्याग करते हैं, अकारण ही अपवाद का सेवन करते हैं और एक बार कारणवश अपवाद में आने के पश्चात् कारण की समाप्ति हो जाने पर भी वहीं डटे रहते हैं । इस प्रकार के साधक स्वयं तो पथभ्रष्ट होते ही हैं, किन्तु समाज में भी एक गलत प्रादर्श उपस्थित करते हैं । उक्त साधकों का कोई मार्ग नहीं होता, न उत्सर्ग और न अपवाद । अपनी जघन्य वासना या दुर्बलता की पूर्ति के फेर में वे शुद्ध अपवाद मार्ग को बदनाम करते हैं।
अपवाद मार्ग भी एक विशेष मार्ग है । वह भी साधक को मोक्ष की ओर ही ले जाता है, संसार की ओर नहीं। जिस प्रकार उत्सर्ग संयम मार्ग है, उसी प्रकार अपवाद भी संयम मार्ग है । किन्तु वह अपवाद वस्तुतः अपवाद होना चाहिए । अपवाद के पवित्र वेष में कहीं भोगाकांक्षा चकमा न दे जाय, इसके लिए साधक को सतत सजग एवं सचेष्ट रहने की आवश्यकता है । साधक के सम्मुख वस्तुतः कोई विकट परिस्थिति हो, दूसरा कोई सरल मार्ग सूझ ही न पड़ता हो, फलस्वरूप अपवाद अपरिहार्य स्थिति में उपस्थित हो गया हो, तभी अपवाद का सेवन धर्म होता है । और कोही समागत तूफानी वातावरण साफ हो जाय, स्थिति को विकटता न रहे, त्योंही अपवाद से उत्सर्ग मार्ग पर पुनः प्रारूढ हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में क्षणभर का विलम्ब नीनातक हो सकता है।
__ और एक बात यह भी है कि जितना आवश्यक हो, उतना ही अपवाद का सेवन . करना चाहिए । ऐसा न हो कि चलो, जब यह कर लिया, तो अब इसमें भी क्या है ? यह भी कर लें। जीवन को निरन्तर एक अपवाद से दूसरे अपवाद पर शिथिल भाव से लुढकाते जाना, अपवाद नहीं है। जिन लोगों को मर्यादा का भान नहीं है, अपवाद की मात्रा एवं सीमा का परिज्ञान नहीं है, उनका अपवाद के द्वारा उत्थान नहीं, अपितु शतमुख पतन होता है । "विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ।''
उत्सर्ग और अपवार पर एक बहुत ही सुन्दर पौराणिक गाथा है। उस पर से सहज ही समझा जा सकता है, कि उत्सर्ग और अपवाद को अपनी क्या सीमाएं हैं ? और उनका सूक्ष्म विश्लेषण किस प्रकार ईमानदारी से करना चाहिए ?
एक वार द्वादश वर्षीय भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। लोग भूखों मरने लगे, सर्वत्र हाहाकार मच गया। एक विद्वान् ऋषि भी भूख से संत्रस्त इधर-उधर अन्न के लिए भटक रहे थे। उन्होंने देखा कि राजा के कुछ हस्तियक ( पीलवान ) बैठे हैं, बीच में अन्न का ढेर है, सब उसी में से एक साथ ले लेकर खा रहे हैं। पास ही जल-पात्र रखा है, प्यास लगने पर बीच-बीच में सब उसी में मुंह लगा कर जल पी लेते हैं ।
ऋषि ने पीलवानों से अन्न की याचना की। पीलवानों ने कहा-"महाराज, क्या दें? अन्न तो जूठा है !"
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