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थी, वह सदा के लिए अगम्य ही रह जाएगा। अस्तु, यात्री का विश्राम भी चलने के लिए ही होता है, बैठे रहने के लिए नहीं। वह विश्रान्ति लेकर, तरोताजा होकर पुनः दुगुने बेग से चलता है, बैठ जाने के फलस्वरूप होने वाले विलम्ब के समय को शीघ्र ही पूरा कर लेता है और लक्ष्य पर पहुँच जाता है। २३अतः व्यवहार की भाषा में भले ही विश्रान्तिकालीन स्थिति अगति हो, किन्तु निश्चय की भाषा में तो वह स्थिति भी गति ही है।
साधक सहज भाव से शास्त्रनिर्दिष्ट उत्सर्ग मार्ग पर चलता है, और यावद् बुद्धि बलोदयं उत्सर्ग मार्ग पर चलना भी चाहिए । परन्तु कारणवशात् यदि कभी उसे उत्सर्ग मार्ग से अपवाद मार्ग पर पाना पड़े, तो यह उसका तात्कालिक विश्राम होगा। यह विश्राम इसलिए लिया जाता है कि साधक अपने स्वीकृत पथ पर द्विगुणित वेग के साथ सोल्लास आगे बढ़ सके और अभीष्ट लक्ष्य पर ठीक समय पर पहुंच सके।
फालतार्थ यह है कि अपवाद उत्सर्ग की रक्षा के लिए ही होता है, न कि ध्वंस के लिए। अपवाद काल में, यदि बाह्य दृष्टि से स्वीकृत व्रतों को यत्किचित् क्षति पहुँचती भी है, तो वह मूलतः व्रतों की रक्षा के लिए ही होती है । जहरीले फोड़े से शरीर की रक्षा के लिए, आखिर शरीर के उस भाग का छेदन किया जाता ही है न? किन्तु वह शरीर-छेदन शरीर की रक्षा के लिए ही है, नाश के लिए नहीं।
जीवन और मरण में सब मिलाकर अन्ततः जीवन ही महत्त्वपूर्ण है। 'जीवन्नरो भद्रशतानि पश्येत्' का स्वर्ण सूत्र आखिर एक सीमा में कुछ अर्थ रखता है। कल्पना कीजिएसाधक के समक्ष ऐसी समस्या उपस्थति है कि वह अपने व्रत पर अड़ा रहता है, तो जीवन जाता है और यदि जीवन की रक्षा करना चाहता है, तो गत्यन्तराभाव से स्वीकृत व्रतों का भंग होता है। ऐसी स्थिति में साधक क्या करे और क्या न करे ? क्या वह मर जाए? शास्त्रकार इस सम्बन्ध में कहते हैं कि यदि अपने धर्म की रक्षा के लिए कोई महत्त्वपूर्ण स्थिति हो, साधक में उत्साह हो. तरंग हो, तो वह प्रसन्न भाव से मृत्यु का आलिंगन कर सकता है ? परन्तु यदि ऐसी कोई महत्त्वपूर्ण स्थिति न हो, मृत्यु की ओर जाने में समाधिभाव का भंग होता हो, जीवन के बचाव में कहीं अधिक धर्माराधन संभवित हो, तो साधक के लिए जीते रहना ही श्रेयस्कर है, भले ही जीवन के लिए स्वीकृत व्रतों में थोड़ा-बहुत फेर-फार भी क्यों न करना पड़े। यह केवल मेरी अपनी मति-कल्पना नहीं है । जैन जगत् के महान् श्रुतधर आचार्य भद्रबाहु प्रोपनियुक्ति में कहते हैं कि “साधक को सर्वत्र सब प्रकार से अपने संयम की रक्षा करनी चाहिए। यदि कभी संयम का पालन करते हुए मरण होता, हो तो संयम-रक्षा को छोड़ कर अपने जीवन की रक्षा करनी चाहिए। प्राणान्त काल में अपवाद-सेवन द्वारा जीवन की रक्षा
२३ -धावंतो उव्वानो, मग्गन्नू किं न गच्छइ कमेणं । किं वा मउई किरिया, न कीरए असहुमो तिक्सं ॥३२॥
-हकल्पभाष्य पीठिका
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